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हमारे रीर और आत्मा के बीच अन्तःकरण विराजमान है। अन्तःकरण के चार अंग है। मन,
बुद्धि, चित्त एवं अहंकार।इन्द्रियाँ जो शरीर का भाग है वो इनपुट का काम करती है और वो
इनपुट मन में भावनाएँ / इच्छाएँ उत्पन्न करता है और बुद्धि में जमा कर के रख देता है।
बुद्धि मुख्यतः दो काम करती है। पुराने अनुभवों को जमा करके रखना व निर्णय देना कि किसी
भी परिस्थिति में क्या करना उचित या अनुचित रहेगा। चित्त या चेतना अपनी तरंगों द्वारा शरीर
के हर भाग को चेतन अवस्था में रखता है। आत्मा शरीर को चेतना प्रदान करती है। आत्मा
में अनन्त ज्ञान है इसीलिए शायद चित्त बुद्धि से ज़्यादा सही निर्णय देता है। अहंकार वो
करता है जो उसे अच्छा लगता है वो बुद्धि, मन व चित्त को अनसुना भी कर देता है। उदाहरण
के लिए आपको मधुमेह है और आपकी इन्द्रियों ने रसगुल्ला देखा। मन में इच्छा हुई कि
खाले, बुद्धि ने आगाह किया कि मधुमेह में रसगुल्ला खाना अच्छा नहीं। चित्त में भी बुद्धि
का साथ दिया लेकिन अहंकार ने सबको अनसुना कर रसगुल्ला खाने का निर्णय ले लिया। जब मन
बुद्धि चित्त व अहंकार का समन्वय हो वही योग है
इन चारों का संयोजन व्यक्ति की चेतना, विवेक, और मानवीय संबंधों को समझने में मदद
करता है और उसे सामंजस्यपूर्ण जीवन जीने में सहायक होता है।
मन, बुद्धि, चित्त, और अहंकार" यह सांस्कृतिक और योगिक शब्द हैं जो मानव चेतना के विभिन्न
ने के लिए प्रयुक्त होते हैं। ये पाँच कोषों का हिस्सा हैं जो योग और
पहलुओं को दर् नेर्शा
न में वर्णित हैं। यहां इनकी संक्षेप में विवरण दिया गया है:
वेदांत दर्नर्श
1. मन (Manas): मन व्यक्ति की इच्छाशक्ति और भावनाओं का केंद्र है। यह विचारों और
भावनाओं को नियंत्रित करता है और व्यक्ति को उसकी स्वार्थपरता, सुख, और दुःख की
अनुभूति में मदद करता है।
2. बुद्धि (Buddhi): बुद्धि व्यक्ति की बुद्धिमत्ता और निर्णय शक्ति को प्रतिनिधित्व करती है।
यह विवेचन, निर्णय, और विवेक का केंद्र है और व्यक्ति को सही और गलत के बीच
अंतर बताने में मदद करती है।
3. चित्त (Chitta): चित्त व्यक्ति की स्मृति और अनुभवों की भंडारण-स्थली है। यह सभी
अनुभवों, विचारों, और भावनाओं को समर्थित करता है और व्यक्ति के आत्मा की दि शमें
मदद करता है।
4. अहंकार (Ahankara): अहंकार व्यक्ति की अपनी व्यक्तिगत पहचान और अस्मिता का अभास
है। यह व्यक्ति को उसकी अलग-अलगता और स्वतंत्रता का अहसास कराता है।
ब्द विवरण
मन (Manas) इच्छाशक्ति और भावनाओं का केंद्र।
न
यहां चारों कोषों की संक्षेप में विवरण दिया गया है। ये चारों कोष योग और वेदांत दर्नर्श
ने में मदद करते हैं।
में बताए जाते हैं और मानव चेतना के विभिन्न पहलुओं को दर् नेर्शा
मन (Manas):
विवरण: इसमें व्यक्ति की इच्छाशक्ति और भावनाओं का केंद्र है।
कार्य: विचारों और भावनाओं को नियंत्रित करना और व्यक्ति को उसकी स्वार्थपरता, सुख,
और दुःख की अनुभूति में मदद करना।
बुद्धि (Buddhi):
चित्त (Chitta):
अहंकार (Ahankara):
बुद्धि (Buddhi): बुद्धि ज्ञान और निर्णय की शक्ति को प्रतिनिधित्व करती है। यह विवेचन,
निर्णय, और विवेक का केंद्र होता है और व्यक्ति को सही और गलत के बीच अंतर
बताने में मदद करता है।
चित्त (Chitta): चित्त समस्त अनुभवों, स्मृतियों, और भावनाओं की भंडारण-स्थली है।
इसमें यादें, अनुभव, और संवेदनाएं संग्रहित होती हैं।
अहंकार (Ahankara): अहंकार व्यक्ति की व्यक्तिगत पहचान और अस्मिता को प्रतिनिधित्व
करता है। यह व्यक्ति को उसकी अलग-अलगता और स्वतंत्रता का अहसास कराता है।
यदि देखा जाये तो मानव शरीर जड़ और चेतन का सम्मिलित रूप है । मानव शरीर के इन दोनों
भागों को स्थूल और सूक्ष्म शरीर में बांटा जा सकता है । स्थूल शरीर के अंतर्गत हाड़ – मांस
और रस – रक्त से बनी यह मानव आकृति आती है । लेकिन स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर के बिना कुछ
भी नहीं है या यूँ कह लीजिये कि चेतना के कारण ही स्थूल शरीर का अस्तित्व है ।
यह चेतना या आत्मा ही शरीर में विभिन्न भूमिकाएँ निभाती है, जिन्हें सम्मिलित रूप से
अंतःकरण चतुष्टय या मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार कहा जाता है । कहने को बस नाम अलग
अलग है लेकिन इनके पीछे मूल रूप से कार्य करने वाली चेतना “आत्मा” ही है ।
गीता में कहा गया है – “मन एवं मनुष्याणाँ कारणं बन्ध मोक्षयो” अर्थात मन ही मनुष्य के
बंधन और मुक्ति का कारण है ।
यदि अंधे होकर मन की इच्छाओं का अनुगमन किया जाये तो मन से बड़ा शत्रु कोई नहीं और
कताओंश्यके अनुसार मन की इच्छाओं का अनुगमन किया जाये तो
यदि सचेत होकर अपनी आवयकताओं
उससे बड़ा कोई मित्र भी नहीं है। अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप अपने मन पर
कितना ध्यान देते है ।
बुद्धि – बुद्धि को यदि विवेक का नाम दिया जाये तो समझने में ज्यादा सुविधा होगी । बुद्धि
कहते है – निर्णय करने की क्षमता या इसे मानव मस्तिष्क में बैठा न्यायधीश भी कहा जा
सकता है ।
कता
बुद्धि की सबसे बड़ी ताकत तर्क है । यह बुद्धि ही है जो आपके मन की इच्छा और आवयकता श्य
में अंतर करने की क्षमता रखती है । किसी भी बात का निर्णय करने में बुद्धि ज्ञान, अनुभव,
कारण, प्रमाण, तत्थ्य, तर्क, पात्र, क्षमता और परिस्थिति आदि मापदंडो का उपयोग करती है ।
सामान्य मनुष्यों की बुद्धि के दो पक्ष होते है – श्रेय और प्रेय । श्रेय – अर्थात आत्मा के
अनुकूल या परमार्थ बुद्धि और प्रेय – अर्थात मन के अनुकूल या सांसारिक स्वार्थ बुद्धि ।
लेकिन उच्चकोटि के योगी और समाधि लभ्य मनुष्यों की बुद्धि ऋतम्भरा प्रज्ञा स्तर की होती है
। यह सब मनः क्षेत्र में लोक अदालत की तरह चलता है । जहाँ विभिन्न इच्छाओं के विभिन्न
मुकदमे चलते है । जो बुद्धि रूपी न्यायधीश के सामने उन इच्छाओं की विषयों रूपी वकीलों
द्वारा पेश किये जाये है ।
चित्त – स्वभाव, आदतों और संस्कारो के समुच्चय को चित्त कहते है । हर इच्छा बुद्धि रूपी
न्यायाधीश से गुजरने के बाद कार्य रूप में परिणत होती है । लम्बे समय तक एक ही प्रकार
की इच्छाओं के कार्यरत होने से मनुष्य को उनकी आदत हो जाती है । जो विचार, आदत या
संस्कार चित्त में पड़ जाता है, उससे पीछा छुड़ाना बहुत कठिन होता है । कमजोर मनोबल वालों
के लिए तो लगभग असंभव होता है ।
मनुष्य के इसी चित्त को चित्रगुप्त देवता कहा जाता है । जो उसके पाप और पूण्य का लेखा –
जोखा रखता है । क्योंकि जो कुछ भी अच्छा या बुरा, इच्छा के रूप में प्रकट होकर बुद्धि की
लक्ष्मण रेखा को पार करके चित्त में डेरा डाल लेता है । वही हमारे प्रारब्ध या कर्माशय
का निर्माण करता है । मस्तिष्क में सकारात्मक या नकारात्मक विचारो के आने से कोई फर्क
नहीं पड़ता, जब तक कि आप उसे बुद्धि की लक्ष्मण रेखा को पार करके अपने चित्त रूपी
चित्रगुप्त में स्थान नहीं दे देते है । जब कोई इच्छा या विचार चित्त में आ जाता है तो
वह आदत या संस्कार के रूप में अपनी जड़े जमा लेता है, जो उसी प्रकार के आदत और
संस्कारों को बढ़ावा देता है जब तक कि उसे जड़ मूल से उखाड़कर न फेंक दिया जाये । चोरी,
खोरी
व्यभिचार, चटोरापन, हिंसा, दुराचार, न खोरी , क्रोध, लोभ आदि के संस्कार से ही है जो
शा
दीर्घकाल से चित्त में पड़े रहते है और समय आने पर स्वतः प्रकट हो उठते है ।
हमारे इसी चित्त में जन्म – जन्मान्तर के कुसंस्कार पड़े रहते है, जिनका परि धन
धनशोऔर
परिमार्जन करना ही मनोमय कोष की शुद्धि कहलाता है । जब तक आध्यात्मिक साधनाओं के माध्यम
से मनोमय कोष की शुद्धि नहीं की जाती, तब तक कोई भी साधना प्रत्यक्ष रूप से लाभदायक प्रतीत
नहीं होती क्योंकि उसकी सारी शक्ति हमारे मनोमय कोष को शुद्ध करने में लग जाती है । हमारे
पापों का उन्मूलन करने में लग जाती है ।
अहंकार – अहंकार का मतलब होता है, अपने स्वयं के सम्बन्ध में मान्यता । जैसे खुद से
के प्रन श्नकीजिये कि “ मैं कौन हूँ ?” अब आपके सबके अलग – अलग जवाब होंगे । जैसे
किसान, शिक्षक, डॉक्टर, इंजिनियर, मुखिया, सरपंच, मुख्यमंत्री, नेताजी, पिता आदि । यही
अंतःकरण चतुष्टयं का चौथा भाग – अहंकार है । अगर आप गौर से देखे तो आपको पता चलेगा
कि आपकी हर इच्छा का सम्बन्ध आपके अहंकार से है । जैसे एक करोड़पति अमीर व्यक्ति की
इच्छाएं उसी के स्तर की होगी और एक गरीब मजदुर की इच्छाएं उसी के स्तर की होगी । मतलब
हमारी इच्छाओं का हमारे अहंकार से गहरा नाता है । अब यदि ये कहा जाये कि एक
आत्मज्ञानी व्यक्ति की इच्छाएं भी उसी के स्तर की होगी तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी
। इसलिए कहा जाता है कि जगत को दृष्टा भाव से देखे और स्वयं को आत्मा अनुभव करे ताकि
आपकी इच्छाएं भी उसी स्तर की हो ।
आप स्वयं को पुरुष समझते है, इसीलिए आपका आकर्षण स्त्रियों के प्रति है । यदि आप स्वयं
को आत्मा माने और हर स्त्री को आत्मिक दृष्टि से देखे तो आपकी कामुकता का निवारण पल भर
में हो सकता है । बस अपना दृष्टिकोण बदलना है । मानाकि यह इतना सरल नहीं, लेकिन ये
असंभव भी तो नहीं ।
मान लीजिये ! एक दिन आपको न शकरने का विचार आया । अब यह विचार कहीं से भी आ सकता
है । जैसे कुछ लोगों को देखकर या आपके किसी दोस्त ने आग्रह किया हो । जैसे ही ये
विचार आता है, इसके साथ एक इच्छा भी जन्म लेती है । उस इच्छा के साथ ही बुद्धि की
लड़ाई शुरू हो जाती है । तरह – तरह की दलीले पेश की जाती है । यदि बुद्धि कमजोर रही तो
वह उस इच्छा के पक्ष में अपना फैसला सुना देती है । बुद्धि की लक्ष्मण रेखा पार होते ही
इच्छा कार्य रूप में परिणत हो जाती है । ये कार्य कुछ अच्छे और बुरे अनुभवो के रूप में
आपके चित्त में संचित हो जाता है । अब जब कभी वही विचार और इच्छा दुबारा आती है तो
उस पर उतनी बहस नहीं होती । अर्थात चित्त में उसका संस्कार थोड़ा दृढ़ हो जाता है । कुछ
समय तक यही क्रम चलता रहता है ।
फिर कुछ समय बाद बुद्धि फैसला सुनाना ही बंद कर देती है या यूँ समझ लीजिये कि उस इच्छा
या विचार के लिए बुद्धि मर जाती है और आपको उस न शकी लत लग जाती है । इसे कहते है
संस्कारों का चित्त में जड़े जमाना ।
अब यदि आप अपने इस संस्कार के खिलाफ आवाज उठाना चाहते है तो आपको अपनी बुद्धि को
फिर से जिन्दा करना पड़ेगा और तर्क, तथ्य और प्रमाण के साथ उसे मजबूत करना पड़ेगा ।
उदाहरणतः आज ‘पुरूष’ शब्द का अर्थ ‘नर’ के अर्थ में प्रचलित है। प्राचीन काल (गीता काल) में
‘पुरूष’ का अर्थ ‘चेतन तत्व’ था, ‘परमात्मा’ था। ‘पुरूषोत्तम’, ‘पुरूषार्थ’ आदि शब्द, इसी ‘पुरूष’ शब्द के
विस्तार में रचे गये। आज ‘काम’ शब्द ‘सेक्स’ तक सीमित रह गया है, उस युग में ‘काम’ सभी
प्रकार की कामनाओं का प्रतिनिधित्व करता था। सकाम, निष्काम आदि शब्द इसी शब्द-परिवार के
अंतर्गत आते थे। इसी प्रकार प्रकृति गुण, निर्गुण, नित्य, अनित्य, विकार, अविकार, सत्य,
असत्य, माया, ब्रह्म, योग, तप, यज्ञ, धर्म, भूत आदि शब्द के उदाहरण दिये जा सकते हैं।
आजकल इनका अर्थ बदल गया है। इसी का मूल कारण है कि ‘गीता’ किसी की समझ में नहीं
आती। गीता को जानने-समझने के लिये गीता का शब्दकोश (डिक्नरी
नरी) अलग से जाननी पड़ेगी।
क्श
गीता में योग का प्रयोग बहुत अधिक बार हुआ है। साधारणतः योग का अर्थ ‘पतंजलि के योग-
न’ सूत्र से लिया जाता है, अर्थात् ‘चित्त की वृत्तियों को रोकना योग कहा गया है; गीता के
दर्नर्श
अनुसार ‘योग’ का अर्थ हुआ- ‘मुख्य-विषय’ या ‘प्रसंग’, -अर्थात् उस ‘अध्याय का मुख्य विषय’।
पंडित - गीता में जिसने शास्त्रों का तात्पर्य समझ लिया हो, जिसका विवेक जागृत हो और जो
उचित-अनुचित का निर्णय करने में समर्थ हो, वह पंडित है।
नित्य-अनित्य - जो स्थिर हो, स्थायी हो, नाश न हो, सदा बना रहे वह नित्य है, अनित्य का अर्थ
विपरीत है।
अमरता-मोक्ष - परम आत्मा नित्य है, स्थायी है, अमर है, इसलिए अमर आत्मा का अमर
परमात्मा में समा जाना मोक्ष है, इसके बाद पुनर्जन्म नहीं होता।
सत-असत - सत् का अस्तित्व किसी अन्य पर निर्भर नहीं है, जबकि असत का है। सत् किसी काल,
सीमा में बंधा हुआ नहीं है। सदा से है, सदा रहेगा। आत्मा और परमात्मा सत् हैं- असत्
नाशवान है जैसे-शरीर।
देह-देही - जो देह में निवास करे, वह देही है- देह नाशवान है और देही अविना । ।शी
जीर्ण शरीर - वृद्ध शरीर नहीं बल्कि जो अपने इस जन्म के कर्मों का फल भोग चुका है, वह
जीर्ण है।
अव्यक्त - सांख्य सिद्धांत में आत्मा अव्यक्त है अर्थात् उसे इन्द्रियों से नहीं जाना जा
सकता है।
धर्म - धर्म का अर्थ मजहब (रिलीजन) नहीं है, गीता में धर्म को कत्र्तव्य, नियम तथा स्वभाव
के रूप में लिया गया है।
पाप - किसी भी फल की प्राप्ति के उद्देय श्यसे किया कत्र्तव्य/कर्म या कार्य पाप कहलाता है।
स्थिर बुद्धि - गीता में स्थिर बुद्धि की उपमा गहरे समुद्र से दी है। आत्मतत्व में लीन
व्यक्ति गहरे समुद्र की भांति होता है, इसमें कामनाएं उठती, समाती रहती हैं किंतु वे उसे
तशांनहीं करतीं।
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मोक्ष - ब्रह्मलीन अवस्था का आशय मोक्ष है। कामनाओं का त्याग करने के बाद पुनः जन्म
लेने का आधार खत्म हो जाता है, यही मोक्ष है। सत्व, रज और तम गुण: ‘सत्व’ ज्ञान की
अवस्था है, ‘रज’ गति लता
लताशीहै, ‘तम’ विराम की अवस्था है। इन तीनों अवस्थाओं का जीवन में
समान संतुलन बना रहना ही जीवन के लिए अति आवयककश्यहै।
अनासक्ति - बिना लगाव की अवस्था, इस भाव वाला व्यक्ति कर्म योगी होता है, अर्थात्
कर्मेन्द्रियां कर्म करें किंतु मन का उसमें लगाव न हो।
यज्ञ - हवनकुंड की सीमा से निकलकर अनासक्त भाव से किया जाने वाला कर्म ‘यज्ञ’ कहलाता
है।
पांच महायज्ञ -
3. पितृ यज्ञ-मृत पूर्वजों की स्मृति में दान करना तथा जीवितों की सेवा-सत्कार करना
अहंकार का नाश: मैं कुछ नहीं करता, मेरे सभी कार्य प्रकृति की क्रियाओं की प्रतिक्रिया
मात्र हैं। यह बोध हो जाने पर अहंकार और आसक्ति का नाश हो जाता है।
दुखों से छुटकारा: कर्म में से कत्र्ताभाव निकाल देना, जन्म-मरण के दुखों से छुटकारा।
कर्म-अकर्म-विकर्म: कत्र्तव्य भाव से किये जाने वाले कार्य कर्म हैं। पाप-पुण्य के भय से
कर्म छोड़ना अकर्म है तथा न करने योग्य निषिद्ध कर्म, विकर्म है।
योगी: अपने इष्ट के प्रति एकाग्र होने वाला व्यक्ति, ब्रह्म रूपी अग्नि में स्वयं को समर्पित
करने वाला योगी है।
तत्वज्ञान - आत्मा-परमात्मा का ज्ञान तत्व ज्ञान है, जो विनय और सेवा भाव से प्राप्त होता
है।
ब्रह्मचर्य: अविवाहित होना नहीं है, बल्कि संयमपूर्वक एवं भय रहित जीवन।
परा-अपरा प्रकृति: परा का अर्थ श्रेष्ठ है, अपरा का अर्थ निम्न कोटि का। अपरा प्रकृति जड़ है, वह
चेतना पर निर्भर है।
द्वैत एवं अद्वैतवाद - चेतन तत्व द्वैतवाद है। प्रकृति और पुरूष दो अलग नहीं हैं, बल्कि
जड़ प्रकृति चेतन पुरूष का ही एक भाग है। इसी सिद्धांत पर वेदांत का अद्धैत सिद्धांत टिका
है।
अध्यात्म - सभी जीव ब्रह्म का अंश हैं, ब्रह्म की पहचान ही अध्यात्म विद्या है।
अधिभूत: नाशवान शरीर में वास करने के कारण ब्रह्म को अधिभूत भी कहते हैं।
अधियज्ञ - भगवान कहते हैं कि मैं ब्रह्म हूं, जो इस शरीर में अधियज्ञ रूप में स्थित है।
क्या श्रेष्ठ है - अभ्यास निरंतर यत्न है, अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठतर तथा
कर्मफल का त्याग श्रेष्ठतम है क्योंकि यह शीघ्र शांति देता है।
आत्मा-परमात्मा की व्याख्या- देह में स्थित आत्मा रूपी यह तत्व परमात्मा है। अनासक्त होने
के कारण वह साक्षी तथा ठीक से सम्मति देने के कारण वह अनुमंता कहलाता है। पोषण करने
के कारण वह भर्ता तथा पाप-पुण्यों का फल भोगने के कारण वह भोक्ता कहलाता है। अपने
आपको देह या प्रकृति से अलग-अलग समझ लेने से वह सर्वोपरि महेवर रश्वऔर परमात्मा
कहलाता है।
(22-13 अध्याय) अगला जन्म: सतोगुण के कारण देह त्यागने पर उत्तम लोक, यानि उत्तम योनि
में, रजोगुण की प्रबलता के समय शरीर त्यागने पर आत्मा कर्म ललशीलोगों के घरों में और
तमोगुण की अधिकता के समय देह त्यागने वाले मूढ़/निम्न योनियों में जन्म-लेते हैं।
तीनों गुणों से मुक्त: प्रकृति के तीनों गुण देह के स्तर तक अपना कार्य करते हैं, जो व्यक्ति
ऐसा मानकर तटस्थ बना रहता है, अपने मन को विचलित नहीं करता, वह मुक्त है।
सद्गति का उपाय - काम, क्रोध और लाभ आसुरी अर्थात नरक के द्वार हैं, इनका त्याग ही सद्गति
है।
(21/16 अध्याय) तीन तप - सद्व्यक्तियों का पूजन, सम्मान, पवित्रता, ब्रह्मचर्य एवं अहिंसा का
पालन ही शरीर तप है। सद् विचारों का कथन, ये वाणी तप है। मन की शांति, संयम, पवित्रता
मानसिक तप है।
शुभ कर्म - यज्ञ, दान, तप आदि शुभ कर्म करके, इनके फल की आसक्ति का त्याग करना सर्वोत्तम
है।
(6 अध्याय-18) कर्म सिद्धि: कर्म का एक कारण-देह है जो आधार है। दूसरा कारण-आत्मा, जिसे
कत्र्ता कहते हैं तीसरा कारण इन्द्रियां हैं, जिन्हें करण कहते हैं। चैथा कारण इन्द्रियों
की क्रियाएं हैं, जिन्हें चेष्टा कहते हैं। पांचवां कारण भाग्य है, जिसे दैव कहते हैं।
मन की स्थितियां
चित्त - मन बुद्धि और अहंकार के समन्वय को कहते है . कहीं कही अन्तःच्तुष्टय शब्द का भी
उपयोग किया जाता है जो मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार को कहते है . इसी को अंतःकरण भी
कहते है . मन के द्वारा संकल्प-विकल्प किया जाता है। सकारात्मक विचार संकल्प और विपरीत
विचार विकल्प कहलाता है . बुद्धि द्वारा निचययश्चकिया जाता है, चित्त द्वारा अवधारणा अर्थात
एक जगह ठहरना होता है . अहंकार द्वारा मै हूँ या मै करता हूँ का अभिमान प्रकट होता है।
बुद्धि जब विकार युक्त होती है तो अहंकार का ग्रहण करती है . मन का स्थान गले का ऊपरी
भाग, बुद्धि का स्थान मुख, चित्त का स्थान नाभि और अहंकार का स्थान हृदय है।कर्मो के आधार
पर चित्त की निम्नलिखित स्थितियां होती है - १. क्षिप्त , २. मूढ़ ३. विक्षिप्त ४. एकाग्र ५.
निरुद्ध
१. क्षिप्त - मन विविध विषयों में ही उलझा रहता है. इवर रश्वविषयक ज्ञान के लिए कोई
बौध्दिक शक्ति और इच्छा दोनों ही नहीं होती है . रजो गुण कि प्रधानता होने के कारण सदैव
एक वस्तु से दूसरी वस्तु में भटकता रहता है .
२. मूढ़ - क्रोध, निद्रा , तन्द्रा , आलस्य , मूर्छा आदि अवस्थाओं में जीवात्मा को जब वि षशे
ष
ष ज्ञान नहीं कर पाता है. इस अवस्था में तमोगुण प्रधान होता है .
ज्ञान नहीं होता अथवा वि षशे
इन्द्रियों के विषयों पर मोहित होने के कारण तत्व चिंतन की ओर ध्यान ही नहीं जाता . क्रोध
इत्यादि के वश में कार्य करता है. धर्म अधर्म का विवेक नहीं रहता है .
४. एकाग्र - जिस अवस्था में योगाभ्यासी विवेक, वैराग्य, और अभ्यास से अपने चित्त को योग
के लिए अपेक्षित किसी एक विषय अथवा वृत्ति में अधिकारपूर्वक बहुत काल तक स्थिर कर
लेता है , उसको एकाग्र कहते हैं ! स्वप्न में भी स्थिरता बनी रहती है . इसमें सत्व गुण का
आधिक्य रहता है.
५. निरुद्ध - मन एकाग्र होकर स्वयं को भूल जाता है , उस अवस्था में चित्त कि समस्त वृतियों
का सत्व गुण के आधिक्य से निरोध हो जाता है ! इसको निरुद्ध अवस्था कहते हैं !
चित्त की अनुभूति उसके क्रिया कलापों अर्थात कार्य करने के तरीके से होती है जिसे वृत्ति
कहते है . वृत्ति के कारण ही सुख या दुःख का अनुभव होता है किन्तु यह सदेव सत्य को आवृत्त
करती है . जब तक वृत्तियाँ रहती है , चित्त क्रिया ललशीहै , ऐसा समझना चाहिए . चित्त
की वृत्तियाँ प्रमुखतया पाँच हैं- प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति।
(1) प्रमाण : जानने का उपाय प्रमाण कहलाता हैं . प्रमाण के तीन प्रकार है- प्रत्यक्ष,
अनुमान और शब्द। ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा सीधे जो अनुभव होता है वह प्रत्यक्ष प्रमाण है .
जब किसी वस्तु की सत्ता का ज्ञान अन्य वस्तु के ज्ञान द्वारा प्राप्त हो वह अनुमान प्रमाण
कहलाता है. पूर्वज्ञान के पचात तश्चाहोने वाला ज्ञान अनुमान है अर्थात जो प्रत्यक्ष पर
आधारित हो . जब किसी तथ्य की सूचना शब्द अथवा लिखित माध्यम से प्राप्त होती है तो उसे शब्द
प्रमाण कहते है .
(2) विपर्यय : गलत आभास को मिथ्याज्ञान अर्थात विपर्यय कहते हैं। इसके अंतर्गत संशय या
भ्रम को ले सकते हैं। जैसे रस्सी को देखकर हम उसे सांप समझने की भूल करते रहें।
विपर्यय अविद्या, अस्मिता,राग, द्वेष और अभिनिवेश इन पांच क्ले श%से युक्त है.
(3) विकल्प : जिसके विषय में असमंजस हो और उसकी मन से कल्पना की जाए उसको विकल्प
कहते है । शब्दज्ञान अर्थात् सुनी-सुनाई बातों पर पदार्थ की कल्पना अर्थात अयथार्थ चिंता करना
ही विकल्प वृत्ति है. इसमें व्यक्ति वर्तमान से अलग होकर अपने एक संसार का निर्माण कर
दुखों को निर्मित कर लेता है।
(4) निद्रा : विषयागत बोध का अभाव निद्रा है। नींद में भी चित्त की समस्त वृत्तियां सक्रिय
रहती है तभी अच्छे और बुरे स्वप्न आते हैं।
(5) स्मृति : संस्कारजन्य ज्ञान है, जिन अनुभूतियों को हम भूल नहीं पाते हैं या अनुभव में
आए विषयों का बार बार स्फुरित होना स्मृति है । अच्छी या बुरी घटनाओं की स्मृति रहने से
क्लेश उत्पन्न होते हैं।
साधक जब साधना के मार्ग में प्रवेश करता है और मन को एकाग्र करने का प्रयास करता है
तो उत्साह से आरम्भ करता है और शांति का अनुभव अधिकांशतः साधकों को होता है . प्रथम
अवस्था सहज और प्रेरणादायक प्रतीत होती है किन्तु मन की स्थिति हमे शएक सी नहीं
रहती. जब शरीर और मन को स्थिर करने का प्रयास करते है तो निम्नलिखित बाधाएं समक्ष आती
है -
व्याधि - यह शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की हो सकती है. यदि दोनों रूप से
स्वस्थ्य नहीं होंगे अधिक दूर नहीं चल पायेंगे . प्राण ऊर्जा जहा भी विकार होता है
वहां एकत्र होकर अवरूद्ध हो जाती है .
स्त्यान - चित्त की अकर्मण्यता - इसमें व्यक्ति सब प्रकार की बाते अवय श्यकरता है
किन्तु क्रियान्वय के लिए प्रयत्न ललशीनहीं हो पाता है।
संशय / संदेह - इसके कारण दृढ़ता में कमी होती है।
प्रमाद - जान बूझकर व्यर्थ के कामो में पड़ना और असावधानी के साथ कार्य करना
आलस - शरीर व मन में एक प्रकार का भारीपन आ जाने से योग साधना नहीं कर पाना.
अविरती - अच्छी अथवा बुरी बातों का चिंतन
शन - वास्तविकता से परे अपने मन के अनुसार अर्थ निकालना
भ्रांतिदर्न
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अलब्धभूमिकत्व - फल की प्राप्ति नहीं दिखने पर सही कार्य को छोड़ देना अर्थात सतत
प्रयास नहीं करना
अनवस्थितत्व - अगली अवस्था तक पहुंचने अर्थात उन्नति होने पर भी मन स्थिर न
रहना, किसी एक स्थान या कार्य में ज्यादा देर मन नहीं लगना ही अनवस्थितत्व है। यह
भी मन की चंचलता के कारण उत्पन्न विकृति है।
रोग, अकर्मण्यता, संदेह, प्रमाद, आलस्य, विषयासक्ति, भ्रान्ति, उपलब्धि न होने से उपजी दुर्बलता
और अस्थिरता वे बाधाएँ हैं, जो मन में विक्षेप लाती हैं। ये सभी विक्षेप मंत्र जप से
समाप्त हो जाते हैं।
मन को एकाग्र करना अत्यंत दुष्कर कार्य है . यह बार बार विचलित होता रहता है और विभिन्न
विषयों की ओर भटकता रहता है . मन प्रकृति से उत्पन्न हुआ है , इसलिए वह प्रकृति अर्थात
माया से अधिक प्रभावित होता है । मन एक है और वह एक समय में, एक ही विषय को ग्रहण
तथा अनुभव करता है यही कारण है कि संकल्प के द्वारा उसको एक लक्ष्य पर टिकाने का
बारम्बार अभ्यास मन की चंचलता को समाप्त करने के लिए एक महत्वपूर्ण कुंजी है. एकाग्रता
प्राप्त करने के लिए बार बार प्रयत्न करना अभ्यास है . अभ्यास तभी सफल होता है जब
लम्बे समय तक दृढ संकल्प और समर्पण के साथ करते है . बहुत अधिक चंचल और वि ललशा
क्षि
वृत्तियाँ होने के कारण इसको धीरे धीरे प्र क्षिततशिकिया जाता है. प्र क्षण
क्षणशिके विभिन्न
चरणों में मन की स्थिति अलग अलग इस प्रकार विकसित होती है -
सबसे पहले समस्त घटनाओं, समस्याओं, विचारों और भावनाओं से स्वयं को दूर करने का
प्रयास किया जाता है और मन को एक विषय पर टिकाया जाता है .इससे ऊर्जा का व्यर्थ का
वाह्य क्षय रुक जाता है यह एकाग्रता की प्राप्ति के लिए प्रथम चरण है .इस चरण में ध्यान
बहुत बार भंग होता है और मन में विक्षेप अधिक होता है .
द्वितीय चरण में मन को बार बार विषयों से खीचकर वापस शुद्ध विषय / गुरु/ इवर रश्व
/मन्त्र पर
टिकाने का अभ्यास किया जाता है . इस स्थिति में मन की स्थिर होने की प्रवृत्ति थोड़ी सी
ठीक होती है . आलस्य इत्यादि में कमी आती है और दि शनिर्दे श%का पालन करने के लिए
मन प्रवृत्त होता है . अपनी भावनाओं और इच्छाओं को देखने की क्षमता आती है .
निरंतर अभ्यास के फलस्वरूप जब तृतीय चरण में पहुचते है तो आत्मविवास सश्वामें और वृद्धि
होती है . मन में विक्षेप तो होता है किन्तु उसके लिए दृष्टा का भाव जागृत होता है .
जिसके कारण मन को अपने विषय पर केन्द्रित करना पहले की तुलना में अधिक सहज होता है
. इसके पचात तश्चाचतुर्थ चरण में प्रवेश होता है . इस अवस्था में मन के भटकने की चिंता
नहीं रहती है. यद्यपि वह भटकता तो है किन्तु उससे अधिक सही चीजों के करने पर ध्यान
अधिक रहता है और मन के विचलन की चिंता नहीं रहती है .
पांचवे चरण में कभी कभी आनंद की अनुभूति होती है किन्तु कुछ अनुभव भ्रम भी उत्पन्न कर
सकते है . मन में स्थिरता की वृद्धि होती है किन्तु भ्रमों से मुक्त नहीं होता है . छठे
चरण में पहुच कर मन में थोड़ी स्पष्टता और बढती है . करने के लिए उत्साह में वृद्धि
होती है.
इसके अगले चरण में पहुचकर एकाग्रता में वृद्धि होती है और मन की व्याकुलता में बहुत
कमी आती है . आठवे चरण में पहुचकर मन की स्पष्टता और जागृति की स्थिति अधिक प्रत्यक्ष
होने लगती है . इस स्थिति में निरंतर अभ्यास के पचात तश्चाध्यान की अंतिम स्थिति में पहुच
जाते है. इस स्थिति में मन बिलकुल स्थिर, सशक्त और आनंदमयी हो जाता है .
साधना के समय दो शक्तिया प्रभावी होती है, पहला कर्म और दूसरा विकर्म। कर्म वह क्रियाये
होती है जो इवर रश्वकी ओर प्रवृत्त करती है और विकर्म संसार की ओर खींचता है . विकर्म शक्ति
शब्द स्पर्आदि में से कोई एक विषय को मन में जागृत करके आत्मा के प्रकाश को आवृत कर
देता है। फिर मन उस विषय को आधार लेकर , उससे सम्बंधित ही कर्म करके विकर्म अर्थात
संसार के बंधन में फस जाता है। जब हम ज्ञान और वैराग्य के साथ धैर्यपूर्वक नियमित
अभ्यास करते है, तो विकर्म के प्रभाव को क्षीण कर सकते है।
जो पूर्ण विवास सश्वाके साथ केवल गुरु की आज्ञा का पालन करते है, उन्हीको कर्म और विकर्म का
भेद पता चलता है।
निरंतर आज्ञा पालन के बाद जब आत्मा ज्ञान, वैराग्य और भक्ति उत्त्पन होती है, जिसमे
सभी पुराने कर्म भस्म हो जाते है और मुक्ति की प्राप्ति होती है ।
चित्त का अर्थ
चित्त चेतना के चार पहलुओं में से एक है। चित्त का पहलू व्यक्तिपरकता, व्यक्ति की
भावनात्मक प्रतिक्रिया, जो वह देखता है और उसकी अपनी प्रकृति से प्रभावित होता है, की
अनुमति देता है। उदाहरण के लिए, यदि कड़वा स्वाद किसी को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता
है, तो कड़वे स्वाद वाले फल के बारे में उसकी धारणा नकारात्मक होगी। (2) मन के अन्य
तीन पहलू हैं मनस (समझने वाला मन), बुद्धि (बुद्धि), और अहंकार (अहंकार)। (3)
योग सूत्र के विभिन्न अनुवादों में, चित्त को कभी-कभी "मन-वस्तु" (4) या "निचला मन" के रूप
में परिभाषित किया गया है। (5) हालाँकि, स्वामी क्रियानंद के अनुसार "भावना" एक अधिक
सटीक अनुवाद है क्योंकि भावना या तो बाहर की ओर अहंकार चेतना तक जा सकती है, जो मन
के निचले पहलुओं का निर्माण करती है, या आंतरिक और ऊपर की ओर आत्म-नियंत्रण, भक्ति
जैसे उच्च चेतना गुणों की ओर जा सकती है। और शांति.
पतंजलि का कहना है कि योग चित्त को नष्ट करने के बजाय उसे "निष्क्रिय" या शांत करता
है। योग के परिणामस्वरूप भावनाओं के भंवरों - इच्छा और लगाव के भँवरों - का अनुभव
भावनाओं के शांत सागर के रूप में होता है। इससे मन शांत होता है और व्यक्ति को ईश्वर का
आभास होता है। (6) शरीर में चित्त हृदय में केन्द्रित है। (7)
अवचेतन
अवचेतन मन- चेतना का ही एक भाग है अवचेतन
मन। हमारे मन में लगातार विचारों की धारा बहती
रहती है। मन की गति से तीव्र गति किसी की नहीं
है। वह पल भर में ही सारी दुनिया में घूम सकती
है। स्मृतियां, विचारों का संलेषण-विलेषण ,
सूचनाएं , आंकड़े अवचेतन मन में एकत्र होते
हैं। यहां तक की निंद्रा अवस्था में भी स्मृतियों और अनुभवों की छाया अवचेतन मन की ही सक्रियता दर्शाती है।
हमारे मन का 50 से 60% भाग अवचेतन मन होता है। दार्शनिक और अध्यात्मिक आधार पर अवचेतन मन हमारी
भौतिक इच्छाएं की पूर्ति के लिए ही प्रयत्न ल रहते हैं। अवचेतन मन सभी प्राणी मात्रा में होता है। मनुष्य भी
यदि चेतन अवस्था को प्राप्त नहीं करते तो पूरा जीवन अवचेतन की अवस्था में गुजार देते हैं , अर्थात भौतिक
कार्यों में ही गुजार देते हैं। वैज्ञानिक आधार से अवचेतन मन(subconscious mind) का अर्थ हमारे मस्तिक में
चलने वाली काल्पनिक गतिविधियों से है जो सपनो या निंदा की अवस्था में हमारे मन में चलती रहती है।
अचेतन
अचेतन मन – चेतन और अवचेतन मन का ही एक भाग है अचेतन मन। हमारे मस्तिष्क का 30% से 40% तक मन
अचेत अवस्था में ही रहता है। अचेतन मन सदैव सक्रिय रहता हैं। इसमें हमारे दमित इच्छाएं ,
महत्वकांक्षाएं और आकांक्षाएं होती हैं , जो बचपन से ही संग्रहित होना रू हो जाती हैं। अतःहमारे व्यवहार
को प्रभावित करती रहती हैं। अचेत मन नैतिक मूल्य और संस्कारों से प्रभावित होता है, इसलिए नैतिक मूल्यों
की क्षा बचपन से देना अनिवार्य है क्योंकिक्यों अचेत मन सदा सुख , भौतिकता और आकर्षण को महत्व देता है।
अचेत मन में र्दुविचार , नकारात्मक विचार होने के कारण यह व्यक्ति में निरा , हता , अवसाद , मनोरोग उत्पन्न
करने का प्रमुख कारण बनती है। वैज्ञानिक आधार पर अचेत(unconscious) अर्थात बेहो हो जाना या हो में ना
रहना। उदाहरण -सिर पर चोट लगने से स्कूटर सवार कुछ देर के लिए अचेत हो गया, यानी बेहो हो गया।
इंद्रिय निग्रह के दो भेद हैं- अंत:करण और बहि:करण। मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त-इनकी संज्ञा
अंत:करण है और दस इंद्रियों की संज्ञा बहि:करण है। अंत:करण की चारों इंद्रियों की कल्पना भर हम
कर सकते हैं, उन्हें देख नहीं सकते, लेकिन बहि:करण की इंद्रियों को हम देख सकते हैं।
अंत:करण की इंद्रियों में मन सोचता-विचारता है और बुद्धि उसका निर्णय करती है। कहते हैं, 'जैसा
मन में आता है, करता है।Ó मन संशयात्मक ही रहता है, पर बुद्धि उस संशय को दूर कर देती है। चित्त
अनुभव करता व समझता है। अहंकार को लोग साधारण रूप से अभिमान समझते हैं, पर शास्त्र उसको
स्वार्थपरक इंद्रिय कहता है। बहि:करण की इंद्रियों के दो भाग हैं- ज्ञानेंद्रिय व कर्म्ेद्रिय। नेत्र,
कान, जीभ, नाक और त्वचा ज्ञानेन्द्रिय हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि आंख से रंग और रूप, कानों से शब्द,
नाक से सुगंध-दुर्गंध, जीभ से स्वाद-रस और त्वचा से गर्म व ठंडे का ज्ञान होता है। वाणी, हाथ, पैर,
क्
षि
जननेंद्रिय और गुदा-यह पांच कर्मेन्द्रियां हैं। इनके गुण अ क्षित तशि
व्यक्ति भी समझता है, इसलिए
यहां पर इसकी चर्चा ठीक नहीं। जो इन इंद्रियों को अपने वश में रखता है, वही जितेंद्रिय कहलाता
है। जितेंद्रिय होना साधना व अभ्यास से संभव होता है। हमें इंद्रिय-निग्रही होना चाहिए। जो मनुष्य
इंद्रिय-निग्रह कर लेता है वह कभी पराजित नहीं हो सकता, क्योंकि वह मानव जीवन को दुर्बल करने
वाली इंद्रियों के फेर में नहीं पड़ सकता। मनुष्य के लिए इंद्रिय-निग्रह ही मुख्य धर्म है।
इंद्रियां बड़ी प्रबल होती हैं और वे मनुष्य को अंधा कर देती हैं। इसीलिए मनुस्मृति में कहा गया है
कि मनुष्य को युवा मां, बहिन, बेटी और लड़की से एकांत में बातचीत नहीं करनी चाहिए। मानव हृदय बड़ा
मित्
दुर्बल होता है। यह बृहस्पति, विवमित्र रश्वव पराशर जैसे ऋषि-मुनियों के आख्यानों से स्पष्ट है।
सदाचार की जड़ से मनुष्य सदाचारी रह सकता है। सच्चरित्रता और नैतिकता को ही मानव धर्म कहा गया
है। जो लोग मानते हैं कि परमात्मा सभी में व्याप्त है, सभी एक हैं, उन्हें अनुभव करना चाहिए कि
हम यदि अन्य लोगों का कोई उपकार करते तो प्रकारांतर से वह अपना ही उपकार है, क्योंकि जो वे हैं,
वही हम हैं। इस प्रकार जब सब परमात्मा के अंश व रूप हैं, तो हम यदि सबका हितचिंतन व सबकी सहायता
करते हैं, तो यह परमात्मा का ही पूजन और उसी की आराधना है।
2. बुद्धि प्रभाववादी है: बुद्धि हमे शदूसरों को प्रभावित करना चाहती है; दूसरों पर
अनुकूल या शक्तिशाली प्रभाव पैदा करना। उच्च बुद्धि का व्यक्ति अगर अपने आस-पास के
लोगों को प्रभावित करने या प्रभावित करने या अपनी पहचान बनाने में असमर्थ
होता है तो उसे गहरा पचाताप ता
पश्चा
महसूस होता है।
3. चित स्वभाव वादी है: हमारा विवेक हमारे व्यक्तिगत स्वभाव के सभी लक्षण रखता
है। यह हमारे साथ, जन्म-दर-जन्म, कई जन्मों तक हमारे व्यक्तिगत गुणों की गहन छाप
लेकर यात्रा करता है - चाहे हम आसानी से क्रोध, विरोध के लिए उकसाए गए हों या
अत्यधिक जागरूक और सीखे हुए हों
।
4. अहंकार: दुर्भाववादी - अहंकार हमें कभी दूसरों के साथ शांति से रहने नहीं देता। यह
हमे शदूसरों के प्रति दुर्भावना पैदा करता है क्योंकि हमारा अहंकार परिस्थितियों
को दूसरों के अनुकूल नहीं देख पाता। और दुर्भावना के कारण हम दूसरों के बारे में
बुरा बोलते हैं। यह एक बड़ी बीमारी है.
बापू का मानना है कि गुरु के भौतिक प्रभाव का आनंद लेने से ज्यादा, अनुयायी के लिए
अपने आध्यात्मिक गुरु के विचारों के करीब रहना सबसे अच्छा है। व्यक्ति को अपने गुरु
षता एंएक शिष्य की मदद करती हैं,
की निरंतर याद में रहना चाहिए, उनके शब्द, विचार, वि षताएंशे
भौतिक दूरी के बावजूद।
१. अंतःकरण का एक भेद । अंतःकरण की एक वृत्ति । वि षशे ष—वेदांतसार के अनुसार अंतःकरण की चार वृत्तियाँ है—
मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार । संकल्प विकल्पात्मक वृत्ति को मन, निचयात्मकया त्मकश्चवृत्ति को बुद्धि और इन्हीं दोनों के
अंतर्गत अनुसंधानात्मक वृत्ति को चित्त औऱ अभिमानात्मक वृत्ति को अंहकार कहते हैं । पंचद शमें इंद्रियो के
नियंता मन ही को अंतःकरण माना है । आंतरिक व्यापार में मन स्वतंत्र है, पर बाह्य व्यापार में इंद्रियाँ परतंत्र
हैं । पंचभूतों की गुणसमष्टि से अंतःकरण उत्पन्न होता है जिसकी दो वृत्तियाँ हैं मन और बुद्धि । मन सं यात्मक यात्मकशा
या
और बुद्धि निचयात्मकत्मकश्चहै । वेदांत में प्राण को मन का प्राण कहा है । मृत्यु होने पर मन इसी प्राण में लय हो जाता
है । इसपर शंकराचार्य कहते हैं कि प्राण में मन की वृत्ति लय हो जाती है, उसका स्वरूप नहीं । क्षणिकवादी बौद्ध चित्त
ही को आत्मा मानते हैं । वे कहते हैं कि जिस प्रकार अग्नि अपने को प्रका ततशि करके दूसरी वस्तु को भी प्रका ततशि
करती है, उसी प्रकार चित्त भी करता है । बौद्ध लोग चित्त के चार भेद करते हैं—कामावचर रूपावचर, अरूपावचर औऱ
लोकोत्तर । चार्वाक के मत से मन ही आत्मा है । योग के आचार्य पंचजलिचित्त को स्वप्रकाश नहीं स्वीकार करते ।
वे चित्त को दृय श्य
और जड़ पदार्थ मानकर सका ए क अलग प्रकाशक मानते हैं जिसे आत्मा कहते हैं । उनके विचार
में प्रकाय श्यऔर प्रकाशक के संयोग से प्रकाश होता है, अत: कोई वस्तु अपने ही साथ संयोग नहीं कर सकती ।
योगसूत्र के अनुसार चित्तवृत्ति पाँच प्रकार की है—प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति । प्रत्यक्ष, अनुमान
और शब्दप्रमाण; एक में दूसरे का भ्रम—विपर्यय;स्वरूपज्ञान के बिना कल्पना— विकल्प; सब विषयों के अभाव का बोध—
निद्रा और कालांतर में पूर्व अनुभव का आरोप स्मृति कहलाता है । पच- द शतथा और दार्निकर्श नि क ग्रंथों में मन या चित्त
का स्थान हृदय या हृत्पझगोलक लिखा है । पर आधुनिक पाचात्यत् यश्चा
विज्ञान अंत:करण के सारे व्यापारों का स्थान
मस्तिष्क में मानता है जो सब ज्ञानतंतुओं का केंद्रस्थान है । खोपड़ी के अंदर जो टेढ़ी मेढ़ी गुरियों की सी
बनावट होती है, वही अंत:करण है । उसी के सूक्ष्म मज्जा-तंतु-जाल और को श% की क्रिया द्वारा सारे मानसिक व्यापारी
होते हैं । भूतवादी वैज्ञानिकों के मत से चित्त, मन या आत्मा कोई पृथक् वस्तु नहीं है, केवल व्यापार- वि षशे ष का नाम
है, जो छोटे जीवों में बहुत ही अल्प परिमाण में होता है और बड़े जीवों में क्रमश:बढ़ता जाता है । इस व्यापार
का प्राणरस (प्रोटोप्लाज्म) के कुछ विकारों के साथ नित्य संबंध है । प्राणरस के ये विकार अत्यंत निम्न श्रेणी के
जीवों में प्राय: शरीर भर में होते हैं; पर उच्च प्राणियों में क्रमश: इन विकारों के लिये वि षशे ष स्थान नियत होते
जाते हैं और उनसे इंद्रियों तथा मस्तिष्क को सृष्टि होती है ।
२. वह मानसिक शक्ति जिससे धारणा, भावना आदि की जाती हैं । अंत:करण । जी । मन । दिल । मुहा॰—चित्त उचटना = जी न
लगना । विरक्ति होना । चित्त करना = इच्छा करना । जी चाहना । जैसे, सा चित्त करता है कि यहाँ से चल दें । चित्त
चढ़ना = दे॰ 'चित्त पर चढ़ना' । उ॰—तब चिंत चढ़ेउ जो शंकर कहेऊ ।—मानस, १ । ६३ । चित्त विहुँटना = (१) चित्त में
पीड़ा होना । (२) चित्त के लिये आकर्षक होना । चित्त चुराना = मन मोहना । मोहित करना । चित्त आकर्षित करना । उ॰—
नैन सैन दै चितहिं चुरावति यहै मंत्र टोना सिर डारि ।—सूर (शब्द॰) । चित्त देना = ध्यान देना । मन लगाना । गौर
करना । उ॰—चित्त दै सुनो हमारी बात ।—सूर (शब्द॰) । चित्त धरना = (१) ध्यान देना । मन लगाना । उ॰—कहौं सो कथा सुनौ
चित धार । कहै सुनै सो लहै सुख सार ।—सूर (शब्द॰) । (२) मन में लाना । उ॰—हमारे प्रभु अवगुन चित न धरौ ।—सूर
(शब्द॰) । चित्त पर चढ़ना = (१) ध्यान पर चढ़ना । मन में बसना । बार बार ध्यान में आना । जैसे,—तुम्हारे तो वही
चित्त पर चढ़ा हुआ है । (२) ध्यान में आना । स्मरण होना । याद पड़ना । चित्त बँटना = चित्त एकाग्र न रहना । ध्यान दो
ओर हो जाना । एक विषय की ओर ध्यान स्थिर न रहना । ध्यान इधर उधर होना । चित्त बँटाना = ध्यान इधर उधर करना ।
ध्यान एक ओर न रहने देना । चित्त में धँसना या जमना = दे॰ 'चित्त में बैठना' । चित्त में बैठना = जी में जमना
। हृदय में दृढ़ होना । मन में धँसना । हृदयंगम होना । उ॰—अब हमरे चित बैठयो यह पद होनी होउ सो होउ ।—सूर
(शब्द॰) । चित्त में होना या चित्त होना =इच्छा होना । जी चाहना । उ॰—यह चित्त होत जाउँ मैं अबहीं यहाँ नहीं मन
लागत ।—सूर (शब्द॰) । चित्त लगना = मन लगना । जी न घबराना । जी न ऊबना । मन की प्रवृत्ति स्थिर रहना । जैसे,— (क)
काम में तुम्हारा चित्त नहीं लगता । (ख) अब यहाँ हमारा चित्त नहीं लगता । चित्त लेना = इच्छा होना । जी चाहना ।
जैसे—अपना चित्त ले चले जाओ । चित्त से उतरना = (१) ध्यान में न रहना । भूल जाना । उ॰— सूर श्याम चित तें
नहिं उतरत वह बन कुंज थली ।—सूर (शब्द॰) । (२) दृष्टि से गिरना । प्रिय या आदरणीय न रह जाना । विरक्तिभाजन होना ।
चित्त से न टलना = ध्यान में बराबर बना रहना । न भूलना । उ॰—सूर चित तें टरति नाहीं राधिका की प्रीति ।—सूर
(शब्द॰) ।
ष—दे॰
३. नृत्य में एक प्रकार की दृष्टि जिसका व्यवहार श्रृंगार में प्रसन्नता प्रकट करने के लिये होता है । वि षशे
'चित्त' ।
मानस – निचला मन, इंद्रियों द्वारा संचालित मन। मानस चेतन मन है।
बुद्धि – मन का वह भाग जिसमें स्वतंत्र इच्छा/भेदभाव करने की क्षमता हो। बिना भ्रम के
स्पष्ट ज्ञान बुद्धि की बुद्धि बन जाता है। बुद्धि आपको परम स्वतंत्रता यानी स्वयं के सच्चे
ज्ञान की ओर ले जाती है। तो बुद्धि अहंकार को धो देती है (स्वयं का मिथ्या ज्ञान)
चित्त – मन का वह भाग जो विचारों के छापों और कार्यों को संग्रहीत करता है। चित्त
अवचेतन मन है।
अहंकार – मन का वह भाग जो आत्म-अहंकार का भ्रम पैदा करता है। अहंकार स्वयं का
मिथ्या ज्ञान है अर्थात जब हम स्वयं को अपने सच्चे स्व के अलावा अन्य मानते हैं।
मानस, चित्त, बुद्धी, अहमकार – मनाचे भाग
ज्योतिष में मानव जीवन और उसके विभिन्न पहलुओं को ग्रहों के स्थिति और गतिविधियों से जोड़ा
जाता है। यहां ग्रहों का विचार मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, और विचार की अनुभूति के साथ कैसे जुड़ा हो
सकता है, उस पर एक सामान्य विचार प्रस्तुत किया जा रहा है:
1. सूर्य (Sun):
o विचार (Thoughts): सूर्य विचार और उद्दीपन का प्रतीक है। इसकी स्थिति व्यक्ति के
विचारों को प्रेरित करने में मदद कर सकती है।
o मन (Mind): सूर्य मन को प्र न्ति न्
तिशा
और स्वस्थ मनोबल की दि शमें प्रेरित कर सकता है।
2. चंद्र (Moon):
o चित्त (Consciousness): चंद्र चित्त की स्थिति को प्रभावित कर सकता है और व्यक्ति को
भावनात्मक संबंध बनाए रखने में मदद कर सकता है।
3. मंगल (Mars):
o बुद्धि (Intellect): मंगल व्यक्ति की बुद्धि को स्थिर रखने में मदद कर सकता है और उसे
सही निर्णय लेने में साहायक हो सकता है।
4. बृहस्पति (Jupiter):
o बुद्धि (Intellect): बृहस्पति विचार लता
लता शी
और विद्या में वृद्धि का प्रतीक है और व्यक्ति को
बुद्धिमत्ता में सहायक हो सकता है।
5. शनि (Saturn):
o अहंकार (Ego): शनि व्यक्ति के अहंकार और जिम्मेदारियों को समझने में मदद कर सकता
है और उसे अपने कार्यों की जिम्मेदारी का सामंजस्यपूर्ण सामर्थ्य प्रदान कर सकता
है।
6. बुध (Mercury):
o बुद्धि (Intellect): बुध व्यक्ति की बुद्धिमत्ता और व्यावासायिक योजनाओं में सहायक हो
सकता है।
7. राहु और केतु (Rahu and Ketu):
o विचार (Thoughts) और मन (Mind): राहु और केतु विचार और मन की अस्तित्व को प्रभावित
कर सकते हैं, जिन्हें समझकर व्यक्ति अपने उद्देयोंश्यों की प्राप्ति में सहायक हो सकता
है।
इन ग्रहों के साथ संबंधित ज्योतिषीय उपायों का अनुसरण करके व्यक्ति अपने मानवीय और
आध्यात्मिक उन्नति की दि शमें बढ़ सकता है। यहां यह ध्यान रखना म
ज्योतिष के अनुसार ग्रहों का विचार, मन, बुद्धि, चित्त, और अहंकार में विभिन्न प्रकार से महत्वपूर्ण
योगदान होता है। यहां ग्रहों के विभिन्न प्रकार के प्रभाव की एक सामान्य झलक दी गई है:
ये शास्त्रीय सिद्धांतों के अनुसार, ग्रहों के प्रभाव को समझकर व्यक्ति अपने मानसिक और आध्यात्मिक
विकास में सुधार कर सकता है।
ज्योतिष में माना जाता है कि ग्रहों का व्यक्ति के जीवन और व्यक्तित्व पर बड़ा प्रभाव होता है।
निम्नलिखित है ज्योतिष के अनुसार ग्रहों का विचार, मन, बुद्धि, चित्त, और अहंकार पर उनका सामान्य
रोल:
1. सूर्य (Sun): सूर्य व्यक्ति के आत्मा और अहंकार को प्रकट करने में मदद करता है। इसका
प्रभाव व्यक्ति के स्वाभिमान और उत्साह को बढ़ा सकता है।
2. चंद्र (Moon): चंद्र व्यक्ति की मनोबल की प्रवृत्ति और भावनात्मक स्वास्थ्य पर प्रभाव डालता
है। इसका संबंध भावनाओं और आत्मिक सुरक्षा से है।
3. मंगल (Mars): मंगल का प्रभाव व्यक्ति के उत्साह, साहस, और सामर्थ्य पर होता है। इसका संबंध
विचार और बुद्धि से होता है।
4. बृहस्पति (Jupiter): बृहस्पति व्यक्ति की बुद्धि, विचार लता
लता, और धर्म के प्रति आदर् र्शों
शी पर प्रभाव
डालता है।
5. शुक्र (Venus): शुक्र का संबंध सौंदर्य, कला, और सामाजिक संबंधों से होता है, जिससे व्यक्ति की
चित्त और अहंकार में सुधार हो सकता है।
6. शनि (Saturn): शनि का प्रभाव व्यक्ति के कर्तव्यों, उत्साह, और समर्पण पर होता है। यह व्यक्ति को
सामाजिक और नैतिक मूल्यों के प्रति सजग बना सकता है।
7. राहु और केतु (Rahu and Ketu): इन ग्रहों का प्रभाव विचार, मन, बुद्धि, चित्त, और अहंकार पर
रहता है और इन्हें कर्मिक प्रबंधन में शामिल किया जाता है।
ग्रहों के ये प्रभाव व्यक्ति के जीवन में विभिन्न पहलुओं पर होते हैं और ज्योतिष इसे शोधने और
समझने का प्रयास करता है। हालांकि, इसमें विवास सश्वा ष
रखते समय यह महत्वपूर्ण है कि यह एक वि षशे
परिप्रेक्ष्य में ही व्यक्ति की व्यक्तिगतता पर प्रभाव डाल सकता है।
मोटे तौर पर यदि देखा जाये तो मानव रीर जड़ और चेतन का सम्मिलित रूप है । मानव शरीर के इन दोनों
भागों को स्थूल और सूक्ष्म शरीर में बांटा जा सकता है । स्थूल शरीर के अंतर्गत हाड़ - मांस और रस – रक्त
से बनी यह मानव आकृति आती है । लेकिन स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर के बिना कुछ भी नहीं है या यूँ कह लीजिये
कि चेतना के कारण ही स्थूल शरीर का अस्तित्व है । इस चेतना को ही आत्मा कहा जाता है ।
यह चेतना या आत्मा ही शरीर में विभिन्न भूमिकाएँ निभाती है, जिन्हें सम्मिलित रूप से अंतःकरण चतुष्टय
या मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार कहा जाता है । कहने को बस नाम अलग अलग है लेकिन इनके पीछे मूल
रूप से कार्य करने वाली चेतना “आत्मा” ही है ।
तो आइये जानते है, आखिर ये चारों है क्या ? और कैसे इनकी भूमिकाएं निचित तश्चि
की जाती है ?
मन – मन को समझने के लिए एक बात दोहराइए – “मेरा मन कर रहा है ?” तो सोचो ! मन क्या – क्या कर सकता
है ? यही से हमें जवाब मिलना शुरू हो जाते है । मन इच्छा कर सकता है । कुछ खाने की, घुमने की, सुनने
की, देखने की, खेलने की इत्यादि कुछ भी । दूसरी बात मन कल्पना कर सकता है या अनुमान लगा सकता है ।
कल्पना करने में मन का कोई सानी नहीं । मन की गति से तेज शायद कुछ भी नहीं । आपके सोचते ही मन क्षण
भर में पूरी दुनिया के चक्कर लगा सकता है । मन आपकी सारी इन्द्रियों के विषयों को याद रख सकता है ।
जरूरत पड़ने पर उन विषयों का अनुभव आपको करा सकता है । मन ही आपको किसी विषय के प्रति प्रेरित करता
है । इसीलिए मन को ग्यारहवीं इन्द्रिय भी कहा जाता है । मन चंचल है, क्योंकि जागृत और स्वप्नावस्था में
वह कभी नहीं रुकता । मन एकांगी है, क्योंकि एक क्षण में मन केवल एक ही विषय को सोचता है । यह तो हो
गई मन के गुणों की बात अब जानते है । मन के द्वारा होने वाले उचित और अनुचित कर्मो के बारे में ।
गीता में कहा गया है – “मन एवं मनुष्याणाँ कारणं बन्ध मोक्षयो” अर्थात मन ही मनुष्य के बंधन और मुक्ति
का कारण है । पिछले एक लेख में हमने जाना था – इच्छा और आवयकता कताश्य
के बारे में । एक महत्वपूर्ण बात
जो आपको हमे शयाद रखनी चाहिए और वह यह है कि – “हर आवयकता कता श्य
एक इच्छा होती है, किन्तु हर इच्छा एक
आवयकताकताश्य
हो, यह जरुरी नहीं ।” यही बात है जो आपको मन को समझने में सहायता करेंगी । यदि अंधे होकर
मन की इच्छाओं का अनुगमन किया जाये तो मन से बड़ा शत्रु कोई नहीं और यदि सचेत होकर अपनी
कता
आवयकताओं ओंश्यके अनुसार मन की इच्छाओं का अनुगमन किया जाये तो उससे बड़ा कोई मित्र भी नहीं है। अब
यह आप पर निर्भर करता है कि आप अपने मन पर कितना ध्यान देते है ।
बुद्धि – बुद्धि को यदि विवेक का नाम दिया जाये तो समझने में ज्यादा सुविधा होगी । बुद्धि कहते है – निर्णय
करने की क्षमता या इसे मानव मस्तिष्क में बैठा न्यायधीश भी कहा जा सकता है । बुद्धि की सबसे बड़ी
ताकत तर्क है । यह बुद्धि ही है जो आपके मन की इच्छा और आवयकता कता श्य
में अंतर करने की क्षमता रखती है
। किसी भी बात का निर्णय करने में बुद्धि ज्ञान, अनुभव, कारण, प्रमाण, तत्थ्य, तर्क, पात्र, क्षमता और
परिस्थिति आदि मापदंडो का उपयोग करती है । सामान्य मनुष्यों की बुद्धि के दो पक्ष होते है – श्रेय और प्रेय
। श्रेय – अर्थात आत्मा के अनुकूल या परमार्थ बुद्धि और प्रेय – अर्थात मन के अनुकूल या सांसारिक स्वार्थ
बुद्धि । लेकिन उच्चकोटि के योगी और समाधि लभ्य मनुष्यों की बुद्धि ऋतम्भरा प्रज्ञा स्तर की होती है । यह
सब मनः क्षेत्र में लोक अदालत की तरह चलता है । जहाँ विभिन्न इच्छाओं के विभिन्न मुकदमे चलते है ।
जो बुद्धि रूपी न्यायधीश के सामने उन इच्छाओं की विषयों रूपी वकीलों द्वारा पेश किये जाये है ।
चित्त – स्वभाव, आदतों और संस्कारो के समुच्चय को चित्त कहते है । हर इच्छा बुद्धि रूपी न्यायाधीश से
गुजरने के बाद कार्य रूप में परिणत होती है । लम्बे समय तक एक ही प्रकार की इच्छाओं के कार्यरत होने
से मनुष्य को उनकी आदत हो जाती है । जो विचार, आदत या संस्कार चित्त में पड़ जाता है, उससे पीछा
छुड़ाना बहुत कठिन होता है । कमजोर मनोबल वालों के लिए तो लगभग असंभव होता है ।
मनुष्य के इसी चित्त को चित्रगुप्त देवता कहा जाता है । जो उसके पाप और पूण्य का लेखा – जोखा रखता है ।
क्योंकि जो कुछ भी अच्छा या बुरा, इच्छा के रूप में प्रकट होकर बुद्धि की लक्ष्मण रेखा को पार करके चित्त
में डेरा डाल लेता है । वही हमारे प्रारब्ध या कर्माशय का निर्माण करता है । मस्तिष्क में सकारात्मक या
नकारात्मक विचारो के आने से कोई फर्क नहीं पड़ता, जब तक कि आप उसे बुद्धि की लक्ष्मण रेखा को पार
करके अपने चित्त रूपी चित्रगुप्त में स्थान नहीं दे देते है । जब कोई इच्छा या विचार चित्त में आ जाता
है तो वह आदत या संस्कार के रूप में अपनी जड़े जमा लेता है, जो उसी प्रकार के आदत और संस्कारों को
बढ़ावा देता है जब तक कि उसे जड़ मूल से उखाड़कर न फेंक दिया जाये । चोरी, व्यभिचार, चटोरापन, हिंसा,
खोरी
दुराचार, न खोरी , क्रोध, लोभ आदि के संस्कार से ही है जो दीर्घकाल से चित्त में पड़े रहते है और
शा
समय आने पर स्वतः प्रकट हो उठते है ।
हमारे इसी चित्त में जन्म – जन्मान्तर के कुसंस्कार पड़े रहते है, जिनका परि धन धनशो
और परिमार्जन करना
ही मनोमय कोष की शुद्धि कहलाता है । जब तक आध्यात्मिक साधनाओं के माध्यम से मनोमय कोष की शुद्धि नहीं
की जाती, तब तक कोई भी साधना प्रत्यक्ष रूप से लाभदायक प्रतीत नहीं होती क्योंकि उसकी सारी शक्ति हमारे
मनोमय कोष को शुद्ध करने में लग जाती है । हमारे पापों का उन्मूलन करने में लग जाती है ।
अहंकार – अहंकार का मतलब होता है, अपने स्वयं के सम्बन्ध में मान्यता । जैसे खुद से के प्रन श्न
कीजिये कि “ मैं कौन हूँ ?” अब आपके सबके अलग – अलग जवाब होंगे । जैसे किसान, शिक्षक, डॉक्टर,
इंजिनियर, मुखिया, सरपंच, मुख्यमंत्री, नेताजी, पिता आदि । यही अंतःकरण चतुष्टयं का चौथा भाग – अहंकार
है । अगर आप गौर से देखे तो आपको पता चलेगा कि आपकी हर इच्छा का सम्बन्ध आपके अहंकार से है ।
जैसे एक करोड़पति अमीर व्यक्ति की इच्छाएं उसी के स्तर की होगी और एक गरीब मजदुर की इच्छाएं उसी के
स्तर की होगी । मतलब हमारी इच्छाओं का हमारे अहंकार से गहरा नाता है । अब यदि ये कहा जाये कि एक
आत्मज्ञानी व्यक्ति की इच्छाएं भी उसी के स्तर की होगी तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । इसलिए कहा
जाता है कि जगत को दृष्टा भाव से देखे और स्वयं को आत्मा अनुभव करे ताकि आपकी इच्छाएं भी उसी स्तर
की हो ।
आप स्वयं को पुरुष समझते है, इसीलिए आपका आकर्षण स्त्रियों के प्रति है । यदि आप स्वयं को आत्मा
माने और हर स्त्री को आत्मिक दृष्टि से देखे तो आपकी कामुकता का निवारण पल भर में हो सकता है । बस
अपना दृष्टिकोण बदलना है । मानाकि यह इतना सरल नहीं, लेकिन ये असंभव भी तो नहीं ।
अब तक की पूरी कहानी को अब हम एक उदहारण में समेटने की को क्तिशश करते है । मान लीजिये ! एक दिन
आपको न शकरने का विचार आया । अब यह विचार कहीं से भी आ सकता है । जैसे कुछ लोगों को देखकर या
आपके किसी दोस्त ने आग्रह किया हो । जैसे ही ये विचार आता है, इसके साथ एक इच्छा भी जन्म लेती है
। उस इच्छा के साथ ही बुद्धि की लड़ाई शुरू हो जाती है । तरह – तरह की दलीले पेश की जाती है । यदि बुद्धि
कमजोर रही तो वह उस इच्छा के पक्ष में अपना फैसला सुना देती है । बुद्धि की लक्ष्मण रेखा पार होते ही
इच्छा कार्य रूप में परिणत हो जाती है । ये कार्य कुछ अच्छे और बुरे अनुभवो के रूप में आपके चित्त
में संचित हो जाता है । अब जब कभी वही विचार और इच्छा दुबारा आती है तो उस पर उतनी बहस नहीं होती ।
अर्थात चित्त में उसका संस्कार थोड़ा दृढ़ हो जाता है । कुछ समय तक यही क्रम चलता रहता है । फिर कुछ
समय बाद बुद्धि फैसला सुनाना ही बंद कर देती है या यूँ समझ लीजिये कि उस इच्छा या विचार के लिए बुद्धि
मर जाती है और आपको उस न शकी लत लग जाती है । इसे कहते है संस्कारों का चित्त में जड़े जमाना ।
अब यदि आप अपने इस संस्कार के खिलाफ आवाज उठाना चाहते है तो आपको अपनी बुद्धि को फिर से जिन्दा
करना पड़ेगा और तर्क, तथ्य और प्रमाण के साथ उसे मजबूत करना पड़ेगा ।
जड़ और चेतन में क्या क्या आता है , कृपया क्रम से अलग अलग बताए?
और उनमें विद्यमान अनुभूति, ( सवाल- जवाब, वेदना-आनंद, भूख-प्यास, निरा श -उत्साह, इच्छा-अनिच्छा,
बचाव-आक्रमण, लेन-देन, राग- द्वेष आदि ) जोकि जड़ पदार्थ से युक्त भावनाओं की व्याख्या है, वह चेतन
है ।
चेतन की परिभाषा जड़ के परिप्रेक्ष्य में ही किया जा सकता है , निर्पेक्ष परिभाषा शब्दातीत है ।
चेतन में ही जड़ विद्यमान है, चेतन में ही जड़ का जड़ से - सृजन, वहन और लय हो रहा है ।
वह अखंड चेतना ( जो किसी जड़ की सीमा से परे है ) अनुभवगम्य है । मतलब जड़ से परिभाषित ही नहीं
हो सकता । चेतन और जड़ में कोई अंश का मेल ही नहीं है । तो उसे वर्णित किया ही नहीं जा सकता ।
क्योंकि ये शब्द, ये वर्णन जड़ ही हैं । अतः जड़ में चेतन को परिभाषित करने का कोई उपाय ही नहीं है ।
चेतन को चेतन ही परिभाषित कर सकता है , वर्णन कर सकता है । मतलब मात्र योगियों के पास ही वो विधा
है जिससे चेतन की परिभाषा, वर्णन प्राप्त होता है । जोकि अनुभव गम्य है, जड़ से मुक्त चेतन का तत्
स्वरूप !! 🙏
पांच तत्व
बुद्धि चित् अहंकार ये भी जड़ है
बस विचारों की पहली प्रक्रिया अर्थात मन , या उठने वाली इच्छा है और जिज्ञासा ही मन है और मन मायावी
है कोई जड़ नहीं, इसके अलावा बुद्धि और चित् जड़ है
चेतना , जैसे छोटा बच्चा दिन-रात तो नहीं जानता है क्योंकि उसे भाषा का ज्ञान नहीं है लेकिन प्रकाश
और अंधेरे को पहचानते हैं यह चेतना के कारण होता है क्योंकि चेतना ज्ञान मेह लेकिन आपको दिन
है रात है इस शब्द( चित/ जड़) का एहसास जड़ के कारण होता है आपकी चेतना को जबरदस्ती चित ( मेमोरी)
अर्थात जड़ के साथ बांध दिया है
आपकी चेतना के साथ जड़ की ग्रंथि पड़ गई है इस जड़ चेतन की ग्रंथि को बिना सत्य ज्ञान के अलग
करना संभव नहीं है
जड़ व चेतन में क्या असमानता है? जीव व निर्जीव क्या है? जीव इनसे सम्बन्ध क्यों रखता है?
वैसे तो जड़ और चेतन को अलग अलग अर्थो में देखा जा सकता है पर आपके प्रन श्नके अनुसार इसका
अर्थ — निम्न है
शरीर जड़ है , नशवर है और आत्मा चेतन ! अविना शहै शरीर के भीतर जो आत्मा है, उसी परम ऊर्जा का अंश
है /इस ऊर्जा के बिना इसा शरीर का कोई अस्तित्व ही नहीं है /
सजीव और निर्जीव - सजीव — सजीव वह है जो अपना भोजन करते है श्वाश लेते है चलते फिरते है
जैसे - पेड़ ,मनुष्य जिव जंतु /
निर्जीव - वो जो नहीं श्वाश लेते है नहीं चलते फिरते है नहीं खाना कहते है यह सब निर्जीव ही है
आत्मा सजीव और इसके जाने के बाद शरीर निर्जीव में बदल जाते है
जड़ व चेतन में क्या असमानता है? जीव व निर्जीव क्या है? जीव इनके साथ सम्बन्ध क्यों रखता है?
जड़ और चेतन दो प्रमुख भौतिक अवस्थाएं हैं जो प्राणियों और प्रकृति में पाई जाती हैं। इनमें
असमानता है:
1. जड़: जड़ वस्तुओं में जीवन की कोई चेतना या ज्ञान नहीं होता है। जड़ पदार्थ स्थायी
होते हैं और उनमें स्वतंत्र क्रियाएं नहीं होती हैं। उदाहरण के रूप में, पत्थर, मिट्टी,
पहाड़ आदि जड़ पदार्थ हैं।
2. चेतन: चेतन पदार्थों में जीवन की चेतना या ज्ञान होता है। चेतना जीवन की पहचान
और संचालन करने की क्षमता होती है। चेतन पदार्थ सक्रिय होते हैं और अपनी
क्रियाओं को स्वतंत्र रूप से नियंत्रित कर सकते हैं। जीव चेतन पदार्थ होते हैं।
जीव और निर्जीव दो प्रमुख शब्द हैं जो चेतन और जड़ को व्यक्त करने के लिए उपयोग होते हैं:
1. जीव: जीव चेतन पदार्थ होते हैं जिनमें जीवन होता है। ये जीव ज्ञान, चेतना,
लता
संवेदन लता , प्रजनन, विकास और स्वतंत्रता की क्षमता रखते हैं।
शी
जड़ व चेतन में क्या असमानता है? जीव व निर्जीव क्या है? जीव इनके साथ सम्बन्ध क्यों रखता है?
जड़ और चेतन दो प्रमुख भौतिक अवस्थाएं हैं जो प्राणियों और प्रकृति में पाई जाती हैं। इनमें
असमानता है:
1. जड़: जड़ वस्तुओं में जीवन की कोई चेतना या ज्ञान नहीं होता है। जड़ पदार्थ स्थायी
होते हैं और उनमें स्वतंत्र क्रियाएं नहीं होती हैं। उदाहरण के रूप में, पत्थर, मिट्टी,
पहाड़ आदि जड़ पदार्थ हैं।
2. चेतन: चेतन पदार्थों में जीवन की चेतना या ज्ञान होता है। चेतना जीवन की पहचान
और संचालन करने की क्षमता होती है। चेतन पदार्थ सक्रिय होते हैं और अपनी
क्रियाओं को स्वतंत्र रूप से नियंत्रित कर सकते हैं। जीव चेतन पदार्थ होते हैं।
जीव और निर्जीव दो प्रमुख शब्द हैं जो चेतन और जड़ को व्यक्त करने के लिए उपयोग होते हैं:
1. जीव: जीव चेतन पदार्थ होते हैं जिनमें जीवन होता है। ये जीव ज्ञान, चेतना,
लता
संवेदन लता , प्रजनन, विकास और स्वतंत्रता की क्षमता रखते हैं।
शी
चेतन मन- जब हम कोई कार्य सक्रिय अवस्था में रहकर करते है तब उसे हम चेतन मन कहते हैं। याने
हमारा माइंड उस समय पूरी तरह एक्टिव होता है। चेतन मन को हम एक्टिव माइंड भी कह सकते हैं। जब हम
कोई कार्य को पहली बार सीखते या करने की को क्तिशश करते है तो उस समय हमारा मन पूरी तरह चेतन अवस्था
में होता है या पूरी तरह एक्टिव होता है। हमारा पूरा ध्यान उस कार्य के प्रति हो जाता है। यही चेतन मन
हैं।
अचेतन मन- यह मन का लगभग 90% हिस्सा है जिसके कार्य के बारे में व्यक्ति को जानकारी नहीं रहती।
यह मन की स्वस्थ एवं अस्वस्थ क्रियाओं पर प्रभाव डालता है। इसका बोध व्यक्ति को आने वाले सपनो से
हो सकता हैं।
अवचेतन मन - जब हम कोई कार्य को बिना डर या झिझक के कर लेते हैं या करते हैं जिसमें किसी
प्रकार का कोई दबाव या झिझक नहीं होता है यही अवचेतन मन होता है। उदाहरण के तौर पर जब आप गाड़ी
चलाना सीख जाते है तो बिना डर, भय के कोई भी रास्ते में चला लेते हैं उस समय कोई झिझक नहीं होती
हैं यही अवचेतन मन हैं।
किंगलेखक ने 413 जवाब दिए हैं और उनके जवाबों को 6.2 लाख बार देखा गया है5 वर्ष
संबंधित
चेतन, अचेतन और अवचेतन मन में क्या अंतर है?
दुनिया में दिखाई देने वाली हर चीज़, हर वस्तु के तीन आयाम होते हैं। यह तीन आयाम हैं - लंबाई,
चौड़ाई और गहराई। हमारा मन भी त्रिआयामी है। हमारे मन के तीन आयाम चेतन, अचेतन और अवचेतन
हैं। मन की संरचना भी किसी भौतिक पदार्थ की भांति ही है बस फर्क इतना है कि मन सूक्ष्म होता है इसलिए
दिखाई नहीं देता है जबकि भौतिक पदार्थ स्थूल होते हैं इसलिए दिखाई पड़ते हैं।
हमारा सामान्य जीवन क्रम मन की चेतन अवस्था से संबंधित होता है। हमारी दिनचर्या से जुड़े सभी कार्य
चेतन मन से संचालित होते हैं। हमारी नींद व सपनों का संबंध अचेतन मन से है जब हम सो जाते हैं
तब हमारा अचेतन मन जाग्रत रहता है। मन का अवचेतन स्तर अत्यधिक सूक्ष्म है जिसका संबंध ध्यान,
आंनद और निस्वार्थ भावना से होता है।
लकायशा
मन की संरचना काफी हद तक समुद्र में डूबी हुई वि लकाय बर्फ की चट्टान के जैसी होती है जिसका कुछ
हिस्सा सतह के ऊपर होता है जिसे हम देख पाते हैं हालांकि यह संपूर्ण चट्टान का बहुत छोटा हिस्सा
होता है इसे हम चेतन मन कह सकते हैं।
बर्फीली चट्टान का शेष भाग पानी में डूबा रहता है। इसे हम तब तक नहीं देख पाते हैं जब तक हम स्वयं
गहराई में न जाएं। चट्टान के इस हिस्से की तुलना अचेतन मन से की जा सकती है। कठिन होता है
अचेतन तक पहुंच पाना।
इन दो हिस्सों के अतिरिक्त बर्फीली चट्टान का एक हिस्सा वाष्प बन जाता है और आकाश में छोटे-छोटे
बादल बनकर मंडराने लगता है। यही अवचेतन मन है। उस बादल तक पहुंच पाना करीब - करीब असंभव है
यही कारण है कि ध्यान कठिन है और समाधि दुसाध्य है।
जागरण व चिंतन की घटनाएं चेतन मन में सम्पन्न होती रहती हैं। जब हम गहरी नींद में होते हैं और
चेतन मन शांत होता है जाता है तब अचेतन मन क्रिया ललशी
होता है। जब अवचेतन मन भी शून्य हो जाता है
तब अतिचेतन में प्रवेश मिलता है हालांकि यह अवस्था बिरलों को ही प्राप्त हो पाती है
और उनके जवाबों को 6.9 लाख बार देखा गया है4 वर्ष
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अचेतन और अवचेतन मनन में क्या अंतर है?
चेतन मन हमारा सक्रिय दिमाग (Active Mind) होता है जिसे हम हमारी सक्रीय अवस्था कहते है जिससे हम
हमारे सोच विचार तर्क से कोई भी निर्णय लेते है कार्य करते है।
इस तरह हमारा अवचेतन मन एक Autopilotsystem की तरह काम करता है, ये एक program की तरह है, पर
इसकी Operating हमारे चेतन मन(conscious mind) द्वारा होती है।
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क्या है चेतन और अवचेतन मन, और यह कैसे काम करता है?
दोस्तों आज के इस जवाब में आपको चेतन और अवचेतन मन 🧠 के बारे में विस्तार से पढने को
मिलेगा| इस जवाब में आप क्या सीखेगे
Conscious mind =आप present समय में जो भी thought सोचते है ,वो सब आप अपने conscious mind से
सोचते है |जैसे:- आप इस जवाब को पढ़ रहे है ,तो आप के मन में इस समय जितने भी thought आ रहे
है ,वो सब Conscious thought होते है |
Subconscious mind = Subconscious mind हमारे दिमाग का वो हिस्सा होता है जिसमे हमारी लाइफ की
पुरानी मेमोरीज स्टोर रहती है |आपके के जिंदगी में जो भी चीजे आपके साथ हुई है चाहे वो अच्छी हो
या बुरी ,वो सब इस mind में स्टोर रहती है ,जिसे हम programming कहते है यानी कोई भी इंसान कैसा
होता है ,वो निर्भर करता है की उनकी कैसे प्रोग्राम किया गया है |
जो यदि आपको पहले से प्रोग्राम किया गया है की आप एक आलसी व्यक्ति है ,तो आप कभी भी किसी काम
को productive तरीके से नही पूरा कर सकते क्युकी आपका दिमाग इसको करने के लिए आपको allow नही
करेगा ,ये आपको अलग -अलग प्रकार की excuse को देगा ताकि आप उनको न करे |
और एक survey में पता चला है की हम अपने दिन में जितने भी काम करते है ,उसमे से 90 % + काम हम
अपने Subconscious mind से करते है यानी जो चीजे हमारे अन्दर पहले से प्रोग्राम है उसके
हम कोई काम करते है |
अनु ररशा
इसलिए आपने सुना होगा ,यदि आप अपने जिंदगी में सफल होना चाहते है ,तो आपको अपने mind को
control करना होगा ,आपको पॉजिटिव सोचना होगा .ऐसा इसलिए कहा जाता है ,ताकि हमारे subconscious mind
में अच्छी चीजे स्टोर हो |
तो अब हमे समझ आ गया की क्यों हमे अच्छा सोचना चाहिए ,लेकिन हमारे मन में जो पुरानी चीजे भरी है
उसको कैसे निकाल सकते है ?
तो यदि आप अपने दिमाग की पुरानी प्रोग्रामिंग को बदलना चाहते है ,तो इसके लिए ये जरुर है की आप
जाने की ये दोनों दिमाग कैसे काम करते है |
तो Subconscious mind के function को समझने के लिए ,आप इसको एक गार्डन की तरह समझ सकते है
जहा हर प्रकार के plant ग्रो करते है .आप इस गार्डन के मालिक है ,जो अपने Conscious mind से किसी
बीज को इस गार्डन में plant कर सकते है .ये जो बीज है ,वो कुछ और नही बल्कि आपके thought है जो
आप अपने conscious mind में पुरे दिन सोचते है .आप जिस thought पर ज्यादा फोकस करते है यानी
जिसको दिन में कई बार सोचते है ,वो thought इस गार्डन में ग्रो कर रहे है और फिर धीरे -धीरे आपके
Subconscious mind में plant हो जाते है |
तो यदि आप पुरे दिन सोचते है ,मैं एक आलसी व्यक्ति हूँ ,तो आप कहा से productive बन सकते है क्युकी
आप एक तरीके से अपने दिमाग को बता रहे है कि आप एक आलसी है .तो ये आपको आलसी कैसे बन
सकते है उस प्रकार की suggestion देगा |
और Subconscious mind के बारे में एक गजब का fact है की "इसको ये नही पता की कौन चीज गलत है
और कौन सी सही "बस आप जो चीजे इसको कई बार अपने Conscious mind से कहते है वो उसको सही बनाना
शुरू कर देता है |
तो यदि आप आलसी से productive या shy से confident बनाना चाहते है ,तो आपको उस प्रकार के बीज को
लगातार बोना होगा जिससे आप productive या confident बने |शुरू में इसको करना थोडा कठिन होता है
,लेकिन आप जैसे -जैसे किसी thought को एक दिन में कई बार रिपीट करते है ,तो आपकी पुरानी
प्रोग्रामिंग बदलना शुरू होने लगती है |
इसलिए हम subconscious mind की तुलना एक गार्डन से करते है क्युकी इसमें आप जिस प्रकार के बीज
को बोते है ,उसको ये ग्रो करता है चाहे वो सही का बीज हो या गलत का .अब ये आपके ऊपर निर्भर करता
है की आप किस प्रकार के बीज अपने दिमाग में बोते है |
मैं आ शकरता हूँ ,आपको ये जवाब अच्छा लगा होगा |इसको upvote 👍जरुर करिए और इसी तरीके के जवाब को
पढने के लिए ,आप मुझे follow कर सकते है |
चेतन और अचेतन मन क्या है?
चेतन और अचेतन मन :-
मन हमारे लिये आज भी एक अबुझ पहेली के रुप में हमें बारम्बार आचम्भित करता रहता हैं । मन जिसका
आस्तित्व कोई भी सिध्द नहिं कर पाया फिर भी उसके सम्पुर्ण अस्तित्व को आज हर तरफ स्विकारा गया हैं ।
शरीर में दिल तथा दिमाग के अलावा भी एक और अद्रय श्य हिस्से को मान्यता हैं जो दिल दिमाग पर भी कई बार
श्रेष्ठ हो जाता हैं जिसे मन कहते हैं । मन को तिन विभागों में बाँटा गया हैं,
● चेतन मन - मन का वह हिस्सा जो चेतन या जागृत रहता हैं । यह वह हिस्सा हैं जो हमारे दिमाग के सजग
अवस्था में कार्यरत रहता हैं ।हमारा पूरा ध्यान उस कार्य के प्रति हो जाता है । यही चेतन मन हैं । जब
हम कोई कार्य सक्रिय अवस्था में रहकर करते है तब उसे हम चेतन मन का कार्य कहते हैं । जैसे कोई
भी सकारात्मक या नकारात्मक निर्णय लेना । सही गलत में भेद कर पाना । कार्य के लिये प्रेरित होना ।
और सारी घटनाओं की आपको समझ कराता हैं । यह मन तब तक ही कार्य करता हैं जब तक हम जागृत अवस्था
में होते हैं जब हम सो जाते हैं यह मन कार्य करना रोक देता हैं ।
जैसे - आप किसी काम में व्यस्त होने के बावजूद आपको किसी को अपना नाम लेते सुनते है तब आप
अपना कार्य करते हुए भी जिसने आपका नाम लिया उसकी बातें सुनने की को क्तिशश
करते हैं । यहां आपका
चेतन मन कार्य कर रहा होता हैं ।
● अचेतन मन - हमारे मन का लगभग 90% हिस्सा अवचेतन मन द्वारा व्याप्त होता हैं । इसका स्वभाव
सुक्ष्मता से कार्य करना होता हैं इसलिये इसके कार्य के बारे में व्यक्ति को जानकारी नहीं रहती ।
अवचेतन मन सबसे ज्यादा ताकादवर माना जाता है । यह हमारे विचारों के सम्प्रेषण को अनुभव तथा
संस्कार के रुप में ग्रहण करता हैं । अवचेतन मन को आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी बेहद महत्व प्राप्त
हैं । अवचेतन मन का पूर्ण इस्तेमाल आजतक कोई नहीं कर पाया है । साधू सन्त तथा जो लोग किसी खास
बुलन्दियों को छू लेते हैं वे इसी के इस्तेमाल से ही कामियाब इन्सान बनते हैं ।
हर चिज के पिछे छुपे राज को जानने की शक्ती होती हैं अवचेतन मन में । यह हमें तब भी सहायता
प्रदान करता हैं जब हम निद्रा में होते हैं । मन का यह हिस्सा उस ब्रहमाण्डिय उर्जा से जुड़ा हुआ होता
हैं जिनमें चमत्कार जैसी चिजों का भी विज्ञान छिपा होता हैं । इस मन को जागृत कर लेने से इन्सान
ब्रह्मान्दिय ज्ञान उर्जा तकनिक का ज्ञाता बन जाता हैं । यह आपको आपके अनुभव जनित संस्कारों के
द्वारा हर स्थूल सूक्ष्म घटनाओं में सजगता प्रदान करता हैं ।
समुन्द्र में पानी पर तैरती बड़ी बर्फ की चट्टान को आइस-बर्ग कहते है। आइस-बर्ग को पानी पर तैरता
देख हमें ऐसा प्रतीत होता है जैसे बर्फ पानी पर तैर रहा है और उसका साइज भी लगभग उतना ही है
जितना हम देख पा रहे है। लेकिन सच्चाई ये है के जो आइस-बर्ग का हिस्सा हम देख पा रहे है वो मात्र
उस आइस-बर्ग का 10% ही है बाकी 90% तो पानी के भीतर है।
1. कॉन्सियस माइंड - अपनी दिनचर्या में हम जो भी सोचते है, महसूस करते है वो सभी कॉन्सियस माइंड
द्वारा होता है। ये हमारे कुल माइंड का मात्र १०% ही होता है ठीक आइस-बर्ग के ऊपरी हिस्से की तरह।
एक्टिव माइंड ही कॉन्सियस माइंड होता है। जो हजारों विचार दिनभर में हमारे माइंड आते है, चाहे वो
पॉजिटिव हो या नेगेटिव, लॉजिक, डिसीज़न लेना, सोचने के बाद कोई भी एक्ननक्श लेना आदि सभी कॉन्सियस
माइंड के द्वारा किये जाते है। कॉन्सियस माइंड तभी तक एक्टिव रहता है जब तक हम जागते है। हमारे
सोने के बाद कॉन्सियस माइंड भी शांत हो जाता है।
2. अन्न-कॉन्सियस माइंड - बेहो शके समय अन्न-कॉन्सियस माइंड की स्टेट होती है।
3. सब-कॉन्सियस माइंड - अवचेतन मन: अपनी लाइफ में हम जो भी करते है वो सब अवचेतन मन की वजह
से ही करते है। अपने अवचेतन मन का इस्तेमाल करके हम जो कुछ भी सीखते है वही हम ज़िन्दगी भर
करते रहते है।
जिंदगी में व्यक्ति जो भी बड़ा काम करता है वो सिर्फ और सिर्फ अपने अवचेतन मन के कारण करता है।
जिस भी इंसान ने अपने अवचेतन मन पर काबू कर लिया उसके लिए कोई भी बड़ा काम मुकिल लश्कि नहीं होता।
कोई भी बड़े काम की हम प्लानिंग तो कर लेते है लेकिन जब उसी काम की शुरुआत करते है तो बड़ी
मुकिलेंलें श्कि
आती है। लेकिन उस स्तिथि में अगर हमने को क्तिशश
करनी छोड़ दी तो हमने अपने अवचेतन मन
को प्राप्त ही नहीं किया। लेकिन उस मुकिल लश्कि
परिस्तिथि में अगर हम फुल फीलिंग्स के साथ लगे रहते है
तो हम अपने अवचेन मन को प्राप्त कर लेते है। धीरे धीरे वही चीज़ हमें आसान लगने लगती है और
एक दिन हम उसे पा ही लेते है।
या है2 वर्ष
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चेतन और अवचेतन मन का रहस्य क्या है?
चेतन मन का रहस्य
मन की सक्रिय अवस्था चेतन मन कहलाती है, जिसमें हमें पता होता है कि हम जो भी काम कर रहे हैं
उसका परिणाम क्या होगा? जो कुछ भी हमारे साथ हो रहा है या जो हम महसूस करते हैं, ये हमारे चेतन मन
के कारण है।
अवचेतन मन का रहस्य
अवचेतन मन के द्वारा ही चमत्कार होता है, अवचेतन मन के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति सफलता हासिल कर
सकता है, जो लोग सच्चे होते हैं अवचेतन मन उन्हें सफलता प्रदान करता है, यह बात इस उत्तर का मूल
स्रोत है, इसको प्रत्येक व्यक्ति को इस बात को प्रत्येक व्यक्ति को गांठ बांध लेना चाहिए,
अब आप सोच रहे होंगे कि मैं अपने प्रति कैसा झूठा हो सकता हूं अथवा कोई भी व्यक्ति स्वयं के प्रति
बेईमान कैसे हो सकता है इसकी चर्चा आगे के उत्तरों में करेंगे क्योंकि यही अवचेतन मन का रहस्य
है..
चेतन मन (Conscious mind) - चेतन मन हमारा Active Mind जिसे हम हमारी सक्रीय अवस्था कहते है जिससे
हम हमारे सोच विचार तर्क से कोई भी निर्णय लेते है कार्य करते है
जब कोई काम हम पहली बार सीखते या करते है तो हम बहोत सचेत हो कर करते है हम डरे हुए होते है
जैसे उदाहरण के लिए हम पहली बार ड्राइविंग सीखते है तो हमारे पूरा ध्यान हमारे कार पर ही होता है
और कही नहीं होता हमरा चेतन मन Adjust नहीं हो पता और इसलिए कोई भी काम पहली बार करते समय हम
confused और डरे हुए होते है इस तरह हमारा चेतन मन काम करता है,जो कुछ हमारे साथ हो रहा है,जो हम
अभी देख रहे है,महसूस कर रहे है ये सब चेतन मन के उदाहरण है
२)अवचेतन मन (Sub Conscious Mind)-जब हम दूसरी या तीसरी बार कार चलाते है तब कार चलाते-चलाते
Phone पर बाते करना,गाना सुनाना ये सब क्रियाए एकसाथ बिना झिजक के करते है,क्यों की ये सब क्रियाएं
हमारे अवचेतन मन से होती है।
आप का चेतन मन जिस किसी भी बात को जान लेता है जिस बात पे विवास सश्वा कर लेता है चाहे फिर वो बात
अच्छी हो या बुरी Positive ho ya Negative आप का अवचेतन मन उसे हकीकत में ढल लेता है,आप का
अवचेतन मन सोच विचार तर्क नहीं कर सकता। हमारी समझ हमारी मान्यता का सीधा असर अवचेतन मन पे
होता है, हमारी सफलता हमारे असफलता का सीधा connection अवचेतन मन से ही है
अवचेतन मन एक बच्चे के मन के जैसा होता जिस रूप में आप उसे ढल देंगे वो उसी रूप में बन जायेगा
बचपन में हमारे अवचेतन मन को बहोत सारे नकारत्मक सुझाव Negative Suggestion दिए जाते है जिस के
वजह से हम आज सफल नहीं हो पाते क्यों की हमारे अवचेतन मन ने बचपन कुछ नियम बना लीये होते है
उदाहरण के लिए जैसे बचपन में हमें कोई बोल देता है की तुझसे ये काम नहीं होगा तू कभी 1st Number
से पास नहीं होगा,ये Negative suggestion हमें दिए जाते है इसका सीधा असर हमारे अवचेतन मन पर हो
जाता है , जैसा कोई बच्चा बचपन में सबसे जादा विवास सश्वाअपने माता-पिता पर करता है वो जो बोलेंगे
उसे ही वो सच मानता है और आँख बंद कर के विवास सश्वा करता है अवचेतन मन (Sub Conscious Mind)Same ऐसा
ही है
तो अब आप समझ ही गए होगे की हमारा अवचेतन मन एक Autopilot system की तरह काम करता है, ये एक
program की तरह है पर इसे Operating हमारे चेतन मन (conscious mind) द्वारा होती है।
हमारी सफलता, लक्ष्य प्राप्ति या फिर सम्पूर्ण विकास के लिए हमारा अवचेतन मन (Sub Conscious Mind)
जिम्मेदार होता है
जब हम अपने लक्ष्य के प्रति समर्पण हो जाते है, तो लक्ष्य हमारे अवचेतन मन (Sub Conscious Mind)में
जाकर बैठ जाता है आपका अवचेतन मन हमे शसंतुलन में रहता है। हो सकता है की आप का चेतन
मन(Conscious Mind) संतुलन में न हो तब ये वही करता है जो आप का अवचेतन मन (Sub Conscious Mind)
सोच रहा हो, अवचेतन मन (Sub Conscious Mind) के सहयोग बिना कोई भी आदमी Confused होगा दुविधा में
होगा निर्णय की स्थिति में नहीं होगा यदि। यदि अवचेतन मन (Sub Conscious Mind) में लक्ष्य गहरा बैठ
गया हो तो आप सही तरीके से काम करते है और लक्ष्य की और बढ़ते है।
परिचय
मानव मस्तिष्क एक वि ललशाऔर जटिल परिदृय श्य
है, जिसमें चेतन और अवचेतन दोनों क्षेत्र शामिल
हैं। जबकि चेतन मन हमारे तार्किक तर्क और रोजमर्रा के निर्णय लेने के लिए जिम्मेदार है,
अवचेतन मन हमारे विवासों सों
, भावनाओं और व्यवहार के गहरे पैटर्न की कुंजी रखता है। ज्योतिष,
श्वा
आका ययशी गतिविधियों और मानव जीवन पर उनके प्रभाव का अध्ययन करने की प्राचीन प्रथा, अवचेतन
मन को समझने और नियंत्रित करने में मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान करती है। 2000 शब्दों के इस
ज्योतिष ब्लॉग में, हम ज्योतिष और अवचेतन मन के बीच संबंध का पता लगाएंगे, साथ ही व्यक्तिगत
विकास और परिवर्तन के लिए इस संबंध का उपयोग कैसे करें, इस पर व्यावहारिक सुझाव भी प्रदान
करेंगे।
इससे पहले कि हम ज्योतिष और अवचेतन मन के अंतर्संबंध में उतरें, आइए सबसे पहले
अवचेतन की गहरी समझ हासिल करें।
अवचेतन मन हमारे विचारों, भावनाओं और व्यवहारों का छिपा हुआ पावरहाउस है। यह हमारी जागरूकता
की सतह के नीचे काम करता है, हमारे सचेत नियंत्रण के बिना हमारे कार्यों और प्रतिक्रियाओं को
सों
प्रभावित करता है। दिमाग का यह हिस्सा यादों, विवासों श्वा
और भावनात्मक प्रतिक्रियाओं को संग्रहीत
करने के लिए जिम्मेदार है, जिनमें से कई बचपन और प्रारंभिक जीवन के अनुभवों के दौरान बनते
हैं। अवचेतन मन शांत समुद्र की सतह के नीचे वि ललशा महासागर की तरह है - इसमें अपार शक्ति और
क्षमता है, जो अन्वेषण और दोहन की प्रतीक्षा कर रही है।
ज्योतिष, एक प्रतीकात्मक भाषा जो आका ययशीपिंडों की स्थिति और गतिविधियों की व्याख्या करती है,
अवचेतन मन पर एक अद्वितीय दृष्टिकोण प्रदान करती है। जन्म कुंडली, जिसे नेटल चार्ट भी कहा जाता
है, किसी व्यक्ति के जन्म के समय ब्रह्मांड का एक स्नैप:टटशॉहै। यह चार्ट किसी के व्यक्तित्व, झुकाव
और संभावित जीवन पथ के ब्लूप्रिंट के रूप में कार्य करता है, और यह अवचेतन मन की कार्यप्रणाली
में गहन अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकता है।
ज्योतिष के मूल में जन्म कुंडली निहित है, जो किसी व्यक्ति के जन्म के सही समय और स्थान पर
आकाश का एक नक् क्शाहै। यह चार्ट बारह घरों में विभाजित है, जिनमें से प्रत्येक घर जीवन के
ष्
विभिन्न क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करता है, और दस ग्रह हैं, जिनमें से प्रत्येक वि ष्टटशि
गुणों और
ऊर्जा का प्रतीक है। घरों के भीतर इन खगोलीय पिंडों की स्थिति और एक-दूसरे से उनके पहलू
प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक अद्वितीय ज्योतिषीय फिंगरप्रिंट बनाते हैं।
जन्मजात चार्ट अवचेतन पैटर्न और प्रवृत्तियों को प्रकट कर सकता है जो हमारे विचारों, भावनाओं
और व्यवहारों को प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए, चार्ट में चंद्रमा का स्थान हमारी भावनात्मक
ताहै, जो सुरक्षा और भावनात्मक पूर्ति के लिए हमारी अवचेतन
प्रकृति और आंतरिक जरूरतों को दर् तार्शा
इच्छाओं पर प्रकाश डालता है। इसी तरह, चार्ट में नेपच्यून की स्थिति उन क्षेत्रों को इंगित कर
वा
सकती है जहां हम आत्म-धोखे या आदर्वादर्श द से ग्रस्त हैं, जो हमारे अवचेतन मन में संभावित अंधे
धब्बों की ओर इ रारा
शा
करता है।
ज्योतिष और अवचेतन मन के बीच संबंध को स्पष्ट करने के लिए, आइए एक काल्पनिक मामले का
अध्ययन करें। मान लीजिए कि किसी व्यक्ति का सूर्य आठवें घर में है, जो परिवर्तन, पुनर्जनन और
छिपी हुई प्रेरणाओं से जुड़ा है। यह प्लेसमेंट बताता है कि उनकी सचेतन पहचान (सूर्य) गहन
परिवर्तन और व्यक्तिगत विकास के लिए अवचेतन इच्छाओं से निकटता से जुड़ी हुई है। अपने जन्म
कुंडली के इस पहलू की खोज करके, वे अपने अवचेतन प्रेरणाओं में अंतर्दृष्टि प्राप्त कर सकते
हैं और व्यक्तिगत परिवर्तन के लिए उनका उपयोग कैसे करें।
ष्
सर्वरेष्ठ ठश्रेज्योतिषी - ज्योतिषी से ऑनलाइन चैट करें
ज्योतिष और आत्म-अन्वेषण
ज्योतिष आत्म-अन्वेषण और आत्म-जागरूकता के लिए एक मूल्यवान उपकरण प्रदान करता है। अपनी
यों
जन्म कुंडली का अध्ययन करके और ग्रहों, रा यों शि
और घरों के प्रतीकवाद को समझकर, आप अपने
अवचेतन मन की गहरी परतों में अंतर्दृष्टि प्राप्त कर सकते हैं। यह प्रक्रिया ज्ञानवर्धक और
सों
सशक्त दोनों हो सकती है, क्योंकि यह आपको छिपे हुए पैटर्न और विवासों श्वा
को उजागर करने की अनुमति
देती है जो आपको जीवन के विभिन्न पहलुओं में रोक सकती हैं।
ज्योतिष के माध्यम से आत्म-अन्वेषण की यात्रा शुरू करने के लिए, निम्नलिखित तकनीकों पर विचार
करें:
3.2.1 जर्नलिंग: जब आप अपनी जन्म कुंडली का अध्ययन करते हैं तो अपने विचारों, भावनाओं और
टिप्पणियों को रिकॉर्ड करने के लिए एक जर्नल रखें। उभरने वाले किसी भी पैटर्न या अंतर्दृष्टि पर
ध्यान दें।
3.2.2 ध्यान: चेतन मन को शांत करने और अपने अवचेतन की गहरी परतों तक पहुंचने के लिए ध्यान को
अपनी दैनिक दिनचर्या में शामिल करें। स्पष्टता प्राप्त करने के लिए ध्यान के दौरान अपने चार्ट के
ष्
वि ष्ट टशि
पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करें।
हमारे कई अवचेतन पैटर्न पिछले आघातों और घावों से आकार लेते हैं। इन घावों की पहचान
करने और उपचार प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाने के लिए ज्योतिष एक शक्तिशाली उपकरण हो सकता
है। "घायल मरहम लगाने वाले" क्षुद्रग्रह चिरोन की स्थिति और आपके जन्म चार्ट में अन्य
प्रासंगिक पहलुओं की जांच करके, आप उन क्षेत्रों में अंतर्दृष्टि प्राप्त कर सकते हैं जहां आप
अनसुलझे दर्द और आघात ले सकते हैं।
ज्योतिष अवचेतन मन को ठीक करने और बदलने के लिए कई उपचार और तकनीकें प्रदान करता है:
4.2.1 चंद्र ग्रहण: चंद्र ग्रहण अक्सर छिपी हुई भावनाओं और पैटर्न को सतह पर लाते हैं। उन ग्रहणों
पर ध्यान दें जो आपकी जन्म कुंडली में ग्रहों या घरों को सक्रिय करते हैं, क्योंकि वे उपचार और
रिहाई के अवसर प्रदान कर सकते हैं।
4.2.2 चिरोन हीलिंग: अपने चार्ट में इस क्षुद्रग्रह के स्थान से जुड़े गहरे घावों और पैटर्न को
संबोधित करने के लिए चिरोन हीलिंग में अनुभवी ज्योतिषी या चिकित्सक के साथ काम करें।
4.2.3 आंतरिक बाल कार्य: ज्योतिष आपको अपने आंतरिक बच्चे से जुड़ने और यह समझने में मदद
सों
कर सकता है कि शुरुआती अनुभवों ने आपके अवचेतन विवासों श्वा
और व्यवहारों को कैसे आकार दिया
है। अपने भीतर के बच्चे का पोषण और उपचार करके, आप गहरा परिवर्तन ला सकते हैं।
अभिव्यक्ति के लिए ज्योतिष की शक्ति का उपयोग करने के लिए, इन व्यावहारिक युक्तियों पर विचार
करें:
5.2.1 अमावस्या अनुष्ठान: अमावस्या इरादे स्थापित करने के लिए आदर्समय है। जीवन के उन
क्षेत्रों की पहचान करने के लिए अपने जन्म कुंडली का उपयोग करें जहां आप परिवर्तन प्रकट करना
चाहते हैं और अमावस्या चरण के दौरान अनुष्ठान या प्रतिज्ञान करना चाहते हैं।
5.2.2 पुष्टिकरण: वैयक्तिकृत प्रतिज्ञान बनाएं जो आपके जन्म कुंडली की ऊर्जा के अनुरूप हों। उदाहरण
के लिए, यदि आपका शुक्र दूसरे घर में है, तो आप पुष्टि कर सकते हैं, "मैं वित्तीय प्रचुरता और
भौतिक सुरक्षा को आकर्षित करता हूं।"
5.2.3 विज़ुअलाइज़ेशन: अपनी जन्म कुंडली पर ध्यान करते हुए अपने वांछित परिणामों की कल्पना
करें। उन सकारात्मक परिवर्तनों की कल्पना करें जिन्हें आप प्रकट करना चाहते हैं और अपने
लक्ष्यों से जुड़ी भावनाओं को महसूस करें।
निष्कर्ष
ज्योतिष अवचेतन मन को समझने और नियंत्रित करने का एक गहन उपकरण है। अपनी जन्म कुंडली की
खोज करके, अवचेतन पैटर्न की पहचान करके, और आत्म-अन्वेषण और उपचार के लिए ज्योतिषीय
अंतर्दृष्टि का उपयोग करके, आप अपने दिमाग की छिपी हुई शक्ति का लाभ उठा सकते हैं। चाहे आप
व्यक्तिगत विकास, उपचार, या अभिव्यक्ति चाहते हों, ज्योतिष अवचेतन मन का उपयोग करने और आपकी
पूरी क्षमता को अनलॉक करने के लिए एक अद्वितीय और समग्र दृष्टिकोण प्रदान करता है। सितारों के
दिव्य ज्ञान को अपनाएं, और आत्म-खोज और सशक्तिकरण की दि शमें एक परिवर्तनकारी यात्रा शुरू
करें।
जन्म कुंडली में चंद्रमा की स्थिति जुंगियन "व्यक्तिगत अचेतन" का प्रतीक है जहां पिछले जन्मों की
यादें संग्रहीत होती हैं। यह इस बात का संकेत है कि किसी व्यक्ति का जन्म किस प्रकार के परिवार में
हुआ है और परिणामस्वरूप उसके प्रारंभिक जीवन में क्या अनुभव हुए हैं। यह हमारे अस्तित्व को तब तक
सक्षम बनाता है जब तक हम माता-पिता के नियंत्रण से दूर आत्मनिर्भर नहीं बन जाते।
सूर्य दिखाता है कि इस जीवनकाल में कौन से नए आध्यात्मिक सबक सीखे जा रहे हैं - जो आमतौर पर 30
साल की उम्र के बाद शुरू होता है जब हम "अपना काम करने" के लिए अधिक स्वतंत्र होते हैं।
मुझे वर्तमान में अपनी जन्म कुंडली व्याख्याओं से 90% या अधिक सटीकता की रिपोर्ट मिल रही है
जिसमें यह सिद्धांत शामिल है।
कौन सा ग्रह या ग्रह युति या भाव बताता है कि आपके पास मानसिक दिमाग है?
राहु युति चंद्रमा एक मानसिक दिमाग का सबसे प्रमुख संकेत है, खासकर अगर इसका संबंध 8 वें या 12 वें
घर से हो।
सूर्य चंद्रमा बुध एक और युति है जो एक मानसिक दिमाग का कारण बन सकती है लेकिन यहां व्यक्ति बहुत
मजबूत दिमाग वाला हो जाता है और जीवन में मानसिक रूप से बहुत पीड़ित होता है।
चंद्रमा के साथ प्रतिगामी बुध सबसे खराब स्थिति है और एक मानसिक दिमाग को सामने लाता है।
चंद्रमा और वक्री मंगल के साथ वक्री शुक्र एक और युति है जो यौन क्रियाओं में अत्यधिक मानसिक शक्ति
लाती है। व्यक्ति बिना ज्यादा सोचे-समझे सेक्स में उतर जाता है और हमे शनए-नए सेक्स आसन
आजमाने में लगा रहता है। ऐसा कहा जाता है कि कामसूत्र के लेखक वात्स्यायन ने लगभग 84 यौन आसन
सूचीबद्ध किए हैं, लेकिन शुक्र चंद्रमा मंगल की युति वाले व्यक्ति के लिए यह भी पर्याप्त नहीं है - वे नए
यौन आसन तलाशते रहते हैं - बिस्तर का साथी ऐसे व्यक्ति को मानसिक कह सकता है, हालांकि यह कैसे
होता है वे हमे शसेक्स में रुचि रखते हैं और सेक्स के बारे में बहुत सोचते हैं। हालांकि रितोंश्तों
में ब्रेकअप और धोखा उनकी जिंदगी में हमे शहोता रहता है। लेकिन वे अपनी यौन खोज जारी रखते
हैं - उन्हें जितना संभव हो उतना सेक्स का आनंद लेने के लिए बनाया जाता है!
चंद्रमा के साथ बुध का वक्री होना भी एक मानसिक व्यक्ति का अच्छा संकेत है।
मूलतः जब भी बुध वक्री होता है, जब भी चंद्रमा राहु के साथ होता है, जब भी चंद्रमा सूर्य के साथ होता है
(अमावस्या का जन्म), जब भी लग्न स्वामी वक्री होता है - याद रखें कि आप एक मानसिक व्यक्ति के साथ काम
कर रहे हैं।
जब अचेतन और अवचेतन मन की बात आती है, तो हम वास्तव में दो बहुत अलग चीजों के बारे में बात कर
रहे होते हैं। अचेतन मन की घटनाएँ उस प्रक्रिया को संदर्भित करती हैं जिसमें हमने सीधे जानकारी
डाउनलोड की है; यह स्वचालित और अनियंत्रित है. दूसरी ओर, अवचेतन मन पिछले अनुभवों के आधार पर
स्थितियों पर सबक और परिणाम लागू करता है। जब हम सक्रिय रूप से लगे रहते हैं तो हमारा चेतन मन
काम करता है।
अचेतन प्रक्रियाएं ज्ञान, अंतर्ज्ञान, भावनाओं, संवेदनाओं या यहां तक कि साई को संदर्भित करती हैं,
जिसे लोग अनुभव करते हैं। ये अक्सर अस्पष्ट होते हैं, मात्रा निर्धारित करना कठिन होता है, केवल
क्वांटम सिद्धांत के माध्यम से ही समझा जाता है।
कई संज्ञानात्मक मनोवैज्ञानिकों ने इसे हमारे चेतन मन का "छाया पक्ष" होने का दावा किया है और
करते भी हैं। शब्द "अचेतन" (शाब्दिक अर्थ चेतन के विपरीत) का पहला प्रयोग 1800 के दशक की शुरुआत में हुआ था।
इसमें सम्मोहित रूप से प्रेरित व्यवहार का संदर्भ दिया गया है जिसे सम्मोहित व्यक्ति समझा नहीं सकते।
चूँकि उनके व्यवहार की व्याख्या नहीं की जा सकी, इसलिए यह माना गया कि यह किसी तरह से आकस्मिक या
के था। अचेतन की तुलना "अनजाने" से करने से अचेतन शो धको एक आलंकारिक बक्से में
बिना उद्देय श्य
बंद कर दिया गया है। एक प्रन श्नशो धकर्ताओंको लगातार परे नकशा र रहा है:
जब हम उन सीमाओं, कल्पनाओं, विद्रोह, विस्तार पर विचार करते हैं जिनकी हमारी आत्माएं इस जीवनकाल
में मांग करती हैं और उनकी आवयकता होतीश्य है, तो हम अचेतन मार्गदर्न
केर्श लिए अपने पिछले जीवन
के अनुभवों का संकेत दे रहे हैं। अक्सर, हम यह जानने के लिए कि हमें "क्या करना चाहिए" पुरानी पीढ़ी
के अनुभवों की ओर भी देखते हैं। हमें अपने पूर्वजों से बहुत सारा ज्ञान और डेटा विरासत में मिला
है, जिसका अधिकांश हिस्सा हमारे डीएनए में रहता है। हम किसी तरह से अपनी विरासत में मिली
बुद्धिमत्ता का उपयोग करना चाहते हैं।
जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं और परिपक्व होने लगते हैं, हमारी मूल्य प्रणालियाँ नई अभिव्यक्तियाँ
लेती हैं। जबकि समाज अक्सर औपचारिकता और अनुरूपता के लिए दबाव डालता है, स्वस्थ दिमाग और
अहंकार अंततः अपने रास्ते पर चलना सीख जाते हैं।
जब हम सीखने की प्रक्रिया में होते हैं तो हमारा चेतन मन सक्रिय हो जाता है। एक बार जब हम कुछ नया
सीख लेते हैं, तो यह डेटा हमारे अवचेतन मन में "संग्रहीत" हो जाता है।
चूँकि हम विकल्प चुनने के लिए यादें और अनुभव जुटाते हैं, इसलिए हम अपने लिए बहुत सारे मानसिक
कार्य करने के लिए अपने अवचेतन मन पर निर्भर रहते हैं। और ऐसा ही होता है. अक्सर, हमारे निर्णय
अवचेतन स्थान में होते हैं - जो दिलचस्प बात यह है कि यह हमारे सपनों और सपनों के परिदृय श्य
पर भी शासन
करता है। यह बताता है कि हम सोते समय कठिन परिस्थितियों या भावनाओं पर बार-बार "काम" क्यों करते हैं।
यही कारण है कि वह "अंदर की आवाज़" हमारे लिए इतनी प्रभाव ली हैशा।
ज्योतिष में, हम अपने अवचेतन मन के प्रतिनिधित्व के लिए बुध और चंद्रमा को देखते हैं। चंद्रमा को
अक्सर "माँ" या हमारे जीवन का "पोषण" पक्ष के रूप में जाना जाता है। इसके अतिरिक्त, बुध (जो संचार और
विचारों को नियंत्रित करता है) हमारे विचार पैटर्न और हम खुद को कैसे व्यक्त करते हैं, को योग्य
बनाता है। चाहे वह मौखिक हो, लिखित हो, गाया गया हो, चिल्लाया गया हो। हमारे मन की अवचेतन
प्रक्रियाओं के प्रति जागरूकता लाना आत्मा को ठीक करने की दि शामें पहला कदम है। हानिकारक विचारों,
व्यवहारों और मुकाबला तंत्र को साफ़ करना निचित
रूप श्चि से आवयकहै।
श्य
जब हम इस बात पर विचार करते हैं कि युवावस्था में हमारा पालन-पोषण कैसे हुआ या नहीं हुआ, तो हम उस
आधार को समझना शुरू कर सकते हैं जिसके लिए हम सोचते हैं, और खुद से बात करते हैं। हमारी मानसिक
प्रक्रियाओं के इस पहलू को पुनः प्राप्त करने से महान उपचार हो सकता है, लेकिन साथ ही बहुत अधिक दबाव
और रहस्योद्घाटन भी हो सकता है। हमारे दिमाग की क्षमताओं का स्वामित्व शक्ति ली
हैशा।
सबसे पहली बात, अपने लिए एक जन्म कुंडली बनाएं या एक ऐप डाउनलोड करें जो इसे आपके लिए बनाएगा।
मेरे पास इस ब्लॉग पोस्ट में कुछ संसाधन उपलब्ध हैं । देखें कि आपका चंद्रमा और बुध किस रा शि
में
और किस घर में स्थित हैं। आप इस ब्लॉग में और इस ब्लॉग में भी जान सकते हैं कि घर का अर्थ क्या है
। इसके अतिरिक्त, देखें कि आपका नेपच्यून, शनि, यूरेनस और बृहस्पति किन घरों में आते हैं।
उदाहरण के लिए, यदि आप पाते हैं कि आपका चंद्रमा कुंभ रा शि में आता है (मेरी
में और बुध तुला रा शि
तरह!) तो आपको भावनाओं से अलगाव की भावना हो सकती है, लेकिन मौखिक संचार के माध्यम से जुड़ने
की जबरदस्त आवयकता है।श्य मेरा काम यह समझना रहा है कि मैं भावनाओं से अलग होकर अपने शब्दों से
दूसरों को खुश करने पर ध्यान क्यों केंद्रित करता हूं। इन अवचेतन प्रक्रियाओं के कौन से हिस्से मेरे
काम नहीं आते, यह जानना संतुष्टिदायक भी है और कठिन भी।
मनोवैज्ञानिक और मनोचिकित्सक मनुष्य के दोषों और व्यवहार को तभी समझ पाते हैं जब कुछ
अभिव्यक्तियों को देखा जाता है और उन्हें बताया जाता है। सक्षम और सर्वरेष्ठ ष्ठश्रेज्योतिषी
भविष्यवाणी कर सकते हैं कि किस प्रकार की अभिव्यक्तियाँ घटित हो सकती हैं। यह जन्म के समय
ग्रहों और जीवन के बाद की अवधि में उनके पारगमन के अध्ययन के माध्यम से किया जा रहा है
के लिए पचिमीमी
। इस उद्देय श्य श्चि
लोग उन्नत कुंडलियों की ओर रुख करते हैं, जबकि भारतीय ज्योतिषी
विभिन्न ग्रहों की द श-अंतर्द शतंत्र का सावधानीपूर्वक अध्ययन करते हैं। यह एकमात्र भारतीय
प्रणाली है जो जीवन की व्यापक रेखाओं और दीर्घायु में घटनाओं को इंगित करने में मदद कर सकती
है।
सक्षम ज्योतिषी किसी व्यक्ति को होने वाली विभिन्न प्रकार की बीमारियों का पूर्वानुमान भी लगा सकते
हैं। ये सुविधाएं वैज्ञानिकों, मनोवैज्ञानिकों, मनोचिकित्सकों और चिकित्सकों के पास उपलब्ध
नहीं हैं। इस धरती पर कोई भी चिकित्सक सटीक रूप से यह नहीं बता सकता कि निकट भविष्य में किसी
नवजात शिशु को किस प्रकार की बीमारियाँ होने की संभावना है। ज्योतिष वास्तव में इस मामले में
हमारी मदद कर सकता है और यदि हम कुछ निवारक उपाय करते हैं, तो हम कई खतरनाक बीमारियों से
बच सकते हैं (या कम से कम इसके प्रभाव को कम कर सकते हैं)। चिकित्सक, मनोवैज्ञानिक मानसिक
विकारों का कारण नहीं समझ पाते। ज्योतिषीय दृष्टिकोण से इन रोगों को मुख्य रूप से लग्न, चतुर्थ भाव
(सुख स्थान), पंचम भाव (बुद्धि), चंद्रमा ( मन ) और बुध (बुद्धि का प्रतीक) की पीड़ा से नहीं देखा जाता
है। यदि बुध या लग्न या चंद्रमा की शक्तिशाली पीड़ा पर राहु का संपर्क हो, तो कोई भी निचित तश्चि
हो सकता
है कि किसी भी चिकित्सा उपचार से कोई फायदा नहीं होगा। सच कहें तो, ज्योतिषीय ज्ञान का वर्तमान
स्तर हमें यह बताने में सक्षम नहीं कर सकता है कि किसी का पागलपन (उदासीनता, उन्माद,
हिस्टीरिया, मिर्गी, सिज़ोफ्रेनिया, भूलने की बीमारी, मूर्खता, विकृति, जुनून और पागलपन) मानसिक या
मस्तिष्क विकार के कारण है या नहीं। इस लेख में मैं अब बताऊंगा कि ज्योतिष हमें मन की
आंतरिक संरचना और मानव स्वभाव को समझने में कैसे मदद कर सकता है।
दिमाग
नरी
ऑक्सफोर्ड डिक्नरी क्श
के अनुसार मन का अर्थ इच्छा और भावना के माध्यम से चेतना का स्थान है। यह
स्थान मस्तिष्क में स्थित है। मस्तिष्क और दिमाग एक जैसे नहीं हैं लेकिन असंबद्ध भी नहीं
हैं। वास्तव में, वे आपस में घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं। मानव शरीर में मस्तिष्क नियंत्रक के रूप
में कार्य करता है जबकि अन्य अंग भावना, इच्छा आदि को नियंत्रित करते हैं। मन को चार प्रमुख
भागों में विभाजित किया गया है: सुपर-चेतन मन (9 वां घर); अचेतन मन (छठा घर); अवचेतन मन
(आठवां घर) और चेतन मन (पहला घर) या सतर्क दिमाग (तीसरा घर)। अतिचेतन मन का नकारात्मक भाग
निचला मन है।
मेरे शोध से पता चला है कि जब निचला दिमाग अच्छी तरह से विकसित होता है (यानी अपराधियों के
मामले में) तो सुपर इंटेलिजेंस संकाय समृद्ध नहीं होता है।
जब हम जागते हैं तब चेतन मन काम करता है। लेकिन अवचेतन मन जाग्रत और सुषुप्ति दोनों
अवस्थाओं में कार्य करता है। जागृत स्थिति में, अवचेतन की कार्यप्रणाली चेतन मन द्वारा
निर्दे ततशिऔर सही होती है। चेतन मन कार्रवाई कर सकता है; यह जब चाहे तब स्मृति जगा सकता
है; यह किसी निचित तश्चि
उद्देय श्य
के प्रति सक्रिय रूप से सोच सकता है।
यह अनुमान लगाया गया है कि अवचेतन मन में जितनी मात्रा संग्रहित की जा सकती है वह चेतन मन
की तुलना में कई गुना अधिक है। मन अपने अवचेतन में विचारों की परत दर परत जमा करता रहता
है। अधूरी ख्वाहि शTयहीं दफ़न हैं। वे दिवास्वप्न, रात्रिस्वप्न, दुःस्वप्न, भय, तीव्र भय या भय में
रहते हैं। वास्तव में, लोकप्रिय बोलचाल में, अवचेतन की तुलना में चेतन मन को अक्सर हिम लशै ल
से जोड़ा जाता है - हिमखंड का वह भाग जो समुद्र में नहीं है, चेतन मन का प्रतिनिधित्व करता है
और छिपा हुआ भाग अवचेतन मन का प्रतिनिधित्व करता है। अवचेतन मन संकेतों, ध्वनियों, भावनाओं
और छापों को भी संग्रहीत कर सकता है; लेकिन भले ही यह चेतन मन की तरह सक्रिय नहीं है,
अवचेतन मन किसी व्यक्ति की सोच और व्यवहार में एक बड़ी भूमिका निभा सकता है।
कई मनोचिकित्सकों का मानना है कि किसी व्यक्ति के शुरुआती वर्षों - जन्म से लेकर लगभग पांच साल
तक - के दौरान अवचेतन मन में बनी और संग्रहीत धारणा ही किसी व्यक्ति के जीवन भर के कार्यों को
निर्धारित करती है। इन शुरुआती दिनों में, दिमाग न केवल एक कंप्यूटर की तरह होता है, जो सभी दृय श्य
चीजों को संग्रहित करता है। ये प्रारंभिक संग्रहीत प्रभाव किसी व्यक्ति के अंतिम जीवन में उसके
कार्यों में एक बड़ी भूमिका निभाते हैं।
यही कारण है कि माता-पिता को अपने बच्चों के जीवन के अत्यंत महत्वपूर्ण प्रारंभिक वर्षों के
दौरान उनके पालन-पोषण पर सामाजिक ध्यान देना चाहिए।
मनोविले षषण
ण श्ले
का अधिकांश कार्य अवचेतन मन से संबंधित होता है, क्योंकि अवचेतन मन का अध्ययन
करके वे अपने रोगी के व्यवहार के कारणों का पता लगाने में सक्षम होते हैं। जबकि अवचेतन
मन का अध्ययन (स्वप्न विले षषण
ण श्ले
अवचेतन मन के महत्वपूर्ण सुराग प्रदान करता है) अनुसंधान के
अपेक्षाकृत नए क्षेत्र तक है, यह सुझाव देने के लिए मजबूत संकेत हैं कि भविष्य में, किसी
व्यक्ति के कार्यों और व्यवहार का पता लगाया जा सकता है और सुधार किया जा सकता है। अवचेतन का
बेहतर ज्ञान।
जब किसी व्यक्ति को सुबह जल्दी उठना होता है तो जागने का समय उसके अवचेतन मन में अंकित
रहता है और समय आने पर व्यक्ति बिल्कुल सही समय पर उठ जाता है। चेतन मन स्पष्ट रूप से सो रहा
है लेकिन अवचेतन मन काम पर है। चेतन और अवचेतन मन के बीच सटीक संबंध अभी भी स्पष्ट
नहीं है और इस अत्यंत महत्वपूर्ण और दिलचस्प विषय पर अभी भी बहुत काम किया जाना बाकी है।
चेतन स्तर पर मन में अहंकार की भावना होती है। मन भी उच्च स्तर पर कार्य करता है। सुपर चेतना
वह स्थिति है जब अहंकार की भावना पूरी तरह से अनुपस्थित होती है और वह समाधि की स्थिति में चली
जाती है। मन का अतिचेतन तल अपनी शुद्ध अवस्था में मन है। एक प्रकार से यह आत्मा के समान
है। श्री रामकृष्ण ने कहा है, 'जो शुद्ध मन है, वह शुद्ध बुद्धि भी है, जो फिर से शुद्ध आत्मा
है।' योग या ध्यान के माध्यम से अवचेतन, अचेतन और चेतन मन को नियंत्रित किया जा सकता है ।
ध्यान के माध्यम से मानसिक केंद्र या चक्र खुलते हैं। मूलाधार चक्र अचेतन का स्थान है, और
स्वाधिष्ठान चक्र अवचेतन का स्थान है। ध्यान में ये सभी पिछले कर्म और अनुभव सुलभ हो जाते
हैं। मंत्र का निरंतर अभ्यास कर्मों को शुद्ध और विघटित करता है। सुपर चेतना तक वे लोग पहुंच
सकते हैं जिन्होंने अन्य तीन स्तरों पर अपने दिमाग को नियंत्रित किया है
मन और व्यक्तिगत गुणों का ज्योतिषीय अध्ययन
फलशि
रा फल
सुचित्रा दास
स्त्
ज्योतिष स्त्ररशा
कुंडली के अध्ययन के माध्यम से किसी व्यक्ति के सभी छिपे हुए लक्षणों
को उजागर कर सकता है और भविष्यवाणी कर सकता है कि किसी व्यक्ति को खुद को कैसे
तैयार किया जा सकता है, आजीविका कमाने के तरीके और साधन, व्यवसाय, जीवनसाथी,
बच्चों, माता-पिता, भाई-बहन, दोस्तों के साथ संबंध, साझेदार वगैरह और सबसे महत्वपूर्ण
बात यह है कि किसी की समग्र पसंद-नापसंद। यह एक सर्वोत्कृष्ट विज्ञान है और जीवन के
सभी पहलुओं पर ध्यान केंद्रित कर सकता है। इस धरती पर हमारी प्रत्येक क्रिया को
नियंत्रित करने में मन ही सर्वशक्तिमान है। यह मन ही है, जो एक पवित्र व्यक्ति या एक
खूंखार अपराधी, धोखेबाज, बेवफा आदि को जन्म देता है। यहां नीचे कुछ झलकियां दी गई
हैं कि कैसे ज्योतिष मन को सुलझाने और कार्रवाई के संभावित पाठ्यक्रम में
सर्वशक्तिमान उपकरण के रूप में कार्य कर सकता है। किसी के अपने जीवन में अनुसरण
करने की संभावना है। मन की भूमिका मन चेतना का केंद्र है और मस्तिष्क का वह भाग है,
जो सोचने, जानने, महसूस करने, इच्छा, दृढ़ संकल्प आदि के कार्य करता है और इस प्रकार
जीवन में हमारे सभी कार्यों को नियंत्रित करता है और परिवर्तन लाने में भी सक्षम है।
जीवन में समय-समय पर बदलती और सम्मोहक परिस्थितियों के अनुसार हमारे सोचने का
तरीका। परिवर्तन और रूपान्तरण ग्रहों की परस्पर क्रिया के कारण भी होते हैं।
ए गए चार प्रमुख भागों में विभाजित
मन को हमारी कुंडली के निम्नलिखित भावों द्वारा दर् एर्शा
किया गया है।
पहला घंटा या लग्न सचेत और सतर्क मन
छठा घर _ बेसुध दिमाग
आठवां घर _ अवचेतन मन
9 वां घर अति चेतन मन
तीसरा घर _ निचला मन - 9 वें घर द्वारा दर् यार्शा
यागया अति चेतन
मन का नकारात्मक पहलू
12 वाँ घर अचेतन मन (छठा घर) और अवचेतन मन (आठवां
घर) का छिपा हुआ भाग जो किसी के जीवन में बुरे
विचारों और विध्वंसक अंतर्धारा को प्रकट करता
है।
Mind is pided into four major pisions represented by the following houses of our horoscope.
1st hour or Ascendant Conscious and alert mind
6th house Unconscious mind
8th house Sub conscious mind
9th house Super conscious mind
3rd house Lower mind – negative aspect of super conscious
mind represented by the 9th house
12th house Hidden part of unconscious mind (6th house) and sub
conscious mind (8th house) which reveals the evil
thoughts and subversive undercurrent in one’s life