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आयुषी दीक्षित
सिद्धियाँ
4.1 जन्म-औषधि-मन्त्र-तप:-समाधिजा:-सिद्धयः ॥
जन्म से, औषधियों एवं रसायनों के सेवन से, गायत्री आदि शक्तिशाली मंत्रों
के जप से, तप करने से और धारणा, ध्यान एवं समाधि के अभ्यास से योगी
में अनेक सिद्धियाँ उत्पन्न होती हैं
निर्माण-चित्तानि
4.4 निर्माण-चित्तानि
अस्मिता/अहंकार चित्त
योगी जब अनेक शरीरों का निर्माण करता है तब वह अस्मिता का प्रयोग करके अनेक चित्त निर्मित कर लेता है ।
भ्रांत
4.5 “प्रवृत्तिभेदे प्रयोजकं चित्तमेकमनेके षाम् ”
Let me clear
आप हमें क्यों भ्रमित कर रहे हैं महर्षि जी?
नहीं !!! चित्त अनेक प्रकार का ना होकर के वल एक ही प्रकार का
होता है लेकिन चित्त में अनेक प्रकार के व्यापार अर्थात
प्रवृत्तियों का संचालन होता है जिसके आधार पर महर्षि ने
चित्त को बहुवचन में कह दिया है।
योगी द्वारा निर्मित अनेक चित्तों में अलग-अलग क्रियाओं अथवा वृत्तियों का संचालन
करने वाला वह चित्त एक ही होता है ।
जैसे किसी बीज को भूनने के बाद उसमें किसी भी प्रकार का अंकु रण संभव नहीं होता है उसी प्रकार ऐसे भूने हुए या
दग्धबीज़ चित्त में किसी भी प्रकार के संस्कार उदित नहीं होते हैं
जो चित्त ध्यान के अभ्यास से निर्मित होता है वह सब प्रकार की वासनाओं से रहित होता है। ऐसे ध्यान से निर्मित चित्त का आश्रय कर्म
संस्कार नहीं होते अपितु इसका आधार दग्धबीजता होती है।
कर्म
के प्रकार
4.7 कर्म के प्रकार !!!
अशुक्ल- पुण्य से रहित व
Mixed
वासना
4.8 - 4.11
वासना !!!
कर्म के बाद जो कर्म का संस्कार बनता है और मनुष्य को बलात खींचने की प्रवृत्ति है उसे वासना शब्द
से कहा जाता है।
योगी से भिन्न व्यक्ति के अन्य तीन प्रकार के कार्य होते हैं , उन फलोन्मुख कर्मों के भोगों के अनुरूप ही वासनाओं या संस्कारों की अभिव्यक्ति होती है ।
जाति-देश-काल-व्यहितानाम्-अपि-आनन्तर्यम् ,स्मृति-संस्कारयो:-एकरूपत्वात् ॥
स्मृति और संस्कार की एकरूपता होने के कारण जाति , स्थान, व काल से बाधित होने पर भी वासनाएं प्रकट हो जाती हैं ।
जाति
पशु जाति मनुष्य जाति
Pak स्थान Bharat
समय
1951 2024
प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि वह कभी न मरे। वह सदैव रहना चाहता है। उसकी यही चाहना बाकी सब चाहनाओं का मूल स्त्रोत है। क्योंकि
उसको पता है जब तक जीवन है तभी तक सब अनुभव हैं, सब भोग हैं। इसलिए सदा बने रहने की चाह ही सब चाहों की जननी है। सब
वासनाओं का आधार है।
व्युत्थान-
क्ले शकर्मनिवृत्ति
कै वल्य
तो फिर कै वल्य क्या है?
4.36
पुरुषार्थ-शून्यानां,गुणानाम्, प्रतिप्रसव:, कै वल्यं, स्वरुप-प्रतिष्ठा, वा, चिति-शक्ति:, इति ॥