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Hindi Manushayatha Meanings
Hindi Manushayatha Meanings
विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी, मरो, परंतु यों मरो कि याद जो करें सभी। हुई न यों
सुमृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिए, मरा नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए। वही पशु-प्रवृत्ति है कि
आप आप ही चरे, वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
सरलार्थ: यह तय जानो कि तुम्हें मरना ही है इसलिए मौत से डरना छोड़ दो। हाँ, मरने से पहले कु छ
ऐसे नेक काम कर जाओ कि मरने के बाद भी तुम्हें याद किया जाए। यदि ऐसी मृत्यु नहीं पाई तो
समझझे जीना बेकार गया। यहाँ के वल वही नहीं मरता जो औरों के लिए भी जीता है। अपने लिए
जीना तो पशुओं का काम है, वह जो भी पाता है, अके ला ही चर जाता है, डकार जाता है। मनुष्य तो
वही है जो अन्य मनुष्यों के लिए जीवन अर्पित कर दे, मौत को भी गले लगा ले।
2. उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती, उसी उदार से धरा कृ तार्थं भाव मानती। उसी उदार की सदा
सजीव कीर्ति कू जती; तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती। अखंड आत्म भाव जो असीम विश्व में
भरे, वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।
सरलार्थ : जो दूसरों में भी आत्मसम्मान की भावना जगाता है, परोपकार करना सिखाता है, उसी नेक
बंदे की जीवनी किताबों में लिखी जाती है। मातृभूमि को उसी पर गर्व होता है। वह उसकी एहसानमंद
होती है। उसका यश सदियों तक रहता है, सब उसी की पूजा करते हैं। जो संपूर्ण विश्व में कभी खंडित
न होनेवाला आत्मीयता का भाव भरता है वही सही मायनों में मनुष्य होता है जो मानवमात्र के लिए
जीता और मरता है।
राजा रंतिदेव राजा भरत के वंश में उत्पन्न हुए थे तथा अपनी दानशीलता के लिए बहुत प्रसिद्ध हुए
हैं। एक बार उन्हें 48 दिनों तक भोजन नहीं मिला था 49 वें दिन जब उन्हें भोजन मिला तो वे भोजन
का चाल हाथ में लिए भोजन करने ही वाले थे कि एक ब्राह्मण अतिथि ने आकर भोजन की मांग
की। राजा रंतिदेव ने अपने हाथ में पकड़ा भोजन का थाल उसे दान दे दिया।
एक बार देवता वृत्रासुर नामक राक्षस से बहुत परेशान थे क्योंकि उन्हें किसी भी अस्त्र-शस्त्र से नहीं
मारा जा सकता था। ब्रह्मा जी ने बताया
कि दधीचि महर्षि की अस्थियों से बने वज्र से वृत्रासुर को समाप्त किया जा सकता है। महर्षि ने
परमार्थ के लिए सहर्ष ही अपनी हड्डियाँ दान कर दी और उन हड्डियों से बने वज्र से वृत्रासुर का
संहार हुआ। राजा शिवि उशीनर के राजा थे। उन्होंने एक कबूतर की बाज से रक्षा के लिए अपना मांस
काटकर दान में दे दिया था। गरीब ब्राह्मण का रूप धारण करके दान के रूप में कवच कुं डल माँगने
पहुँचे इंद्र को कुं ती पुत्र कर्ण ने खुशी-खुशी अपने शरीर से अभिन्न रूप से जुड़े कवच-कुं डल अपने ही
हाथों काटकर दान दे दिए थे। शरीर को तो एक न एक दिन नष्ट होना ही है, फिर इस देह को बचाने
के लिए अपने कर्तव्य से पीछे क्यों हटा जाए। जब तक यह देह है, तब तक औरों के काम आया
जाए. यह देह भी यदि किसी अन्य की प्राण-रक्षा, मानव-रक्षा अथवा वचन की रक्षा के काम आ सके
तो इसे भी समर्पित करने में संकोच नहीं करना चाहिए। जो यह जानता और मानता है, समय आने
पर कर्तव्य को प्राथमिकता देता है, वही मनुष्य सही मायनों में मनुष्य है।
4.सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है यही; वशीकृ ता सदैव है बनी हुई स्वयं मही ।
विरुद्धवाद बुद्ध का दया-प्रवाह में बहा,
विनीत लोकवर्ग क्या न सामने झुका रहा ?
अहा! वही उदार है परोपकार जो करे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।
सरलार्थ: जिसके हृदय में दूसरों के लिए सहानुभूति है, करुणा है, आचरण में उदारता है, वही व्यक्ति
महान है। यह संसार हमेशा से ऐसे लोगों के वश में रहा है। बुद्ध का विरोध दया की उपज था,
इसीलिए संसार उनकी उदारता, करुणा, दया के सामने नतमस्तक हुआ, उनके बनाए मार्ग पर चला।
सही मायनों में वही उदार है जो परोपकार करता है। वही मनुष्य है जो दूसरों की फिक्र करता है,
दूसरों के लिए कष्ट उठाता है, दूसरों के लिए जीवन न्यौछावर कर देता है।