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1.

विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी, मरो, परंतु यों मरो कि याद जो करें सभी। हुई न यों
सुमृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिए, मरा नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए। वही पशु-प्रवृत्ति है कि
आप आप ही चरे, वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
सरलार्थ: यह तय जानो कि तुम्हें मरना ही है इसलिए मौत से डरना छोड़ दो। हाँ, मरने से पहले कु छ
ऐसे नेक काम कर जाओ कि मरने के बाद भी तुम्हें याद किया जाए। यदि ऐसी मृत्यु नहीं पाई तो
समझझे जीना बेकार गया। यहाँ के वल वही नहीं मरता जो औरों के लिए भी जीता है। अपने लिए
जीना तो पशुओं का काम है, वह जो भी पाता है, अके ला ही चर जाता है, डकार जाता है। मनुष्य तो
वही है जो अन्य मनुष्यों के लिए जीवन अर्पित कर दे, मौत को भी गले लगा ले।

2. उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती, उसी उदार से धरा कृ तार्थं भाव मानती। उसी उदार की सदा
सजीव कीर्ति कू जती; तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती। अखंड आत्म भाव जो असीम विश्व में
भरे, वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।

सरलार्थ : जो दूसरों में भी आत्मसम्मान की भावना जगाता है, परोपकार करना सिखाता है, उसी नेक
बंदे की जीवनी किताबों में लिखी जाती है। मातृभूमि को उसी पर गर्व होता है। वह उसकी एहसानमंद
होती है। उसका यश सदियों तक रहता है, सब उसी की पूजा करते हैं। जो संपूर्ण विश्व में कभी खंडित
न होनेवाला आत्मीयता का भाव भरता है वही सही मायनों में मनुष्य होता है जो मानवमात्र के लिए
जीता और मरता है।

3.क्षुधा रंतिदेव ने दिया करस्थ थाल भी,


तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी।
उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,
सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर-धर्म भी दिया।
अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे ?
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।
सरलार्थ: भूख से व्याकु ल राजा रंतिदेव ने अपने हाथ में पकड़ा भोजन का थाल भी दान कर दिया था।
दधीचि ने दूसरों के हित के लिए अपनी हड्डियाँ दान कर दी थीं। उशीनर के राजा शिवि ने एक
कबूतर की रक्षा के लिए अपना मांस भी दान कर दिया था। कर्ण ने खुशी-खुशी अपने कवच-कुं डल
चीरकर दे दिए थे। जो देह एक दिन मिटनी हो है उसे मिटाने में क्या डरना? सच्चा मनुष्य तो वही है
जो दूसरे मनुष्यों के सुख के लिए अपना जीवन दाँव पर लगा दे।

राजा रंतिदेव राजा भरत के वंश में उत्पन्न हुए थे तथा अपनी दानशीलता के लिए बहुत प्रसिद्ध हुए
हैं। एक बार उन्हें 48 दिनों तक भोजन नहीं मिला था 49 वें दिन जब उन्हें भोजन मिला तो वे भोजन
का चाल हाथ में लिए भोजन करने ही वाले थे कि एक ब्राह्मण अतिथि ने आकर भोजन की मांग
की। राजा रंतिदेव ने अपने हाथ में पकड़ा भोजन का थाल उसे दान दे दिया।

एक बार देवता वृत्रासुर नामक राक्षस से बहुत परेशान थे क्योंकि उन्हें किसी भी अस्त्र-शस्त्र से नहीं
मारा जा सकता था। ब्रह्मा जी ने बताया
कि दधीचि महर्षि की अस्थियों से बने वज्र से वृत्रासुर को समाप्त किया जा सकता है। महर्षि ने
परमार्थ के लिए सहर्ष ही अपनी हड्डियाँ दान कर दी और उन हड्डियों से बने वज्र से वृत्रासुर का
संहार हुआ। राजा शिवि उशीनर के राजा थे। उन्होंने एक कबूतर की बाज से रक्षा के लिए अपना मांस
काटकर दान में दे दिया था। गरीब ब्राह्मण का रूप धारण करके दान के रूप में कवच कुं डल माँगने
पहुँचे इंद्र को कुं ती पुत्र कर्ण ने खुशी-खुशी अपने शरीर से अभिन्न रूप से जुड़े कवच-कुं डल अपने ही
हाथों काटकर दान दे दिए थे। शरीर को तो एक न एक दिन नष्ट होना ही है, फिर इस देह को बचाने
के लिए अपने कर्तव्य से पीछे क्यों हटा जाए। जब तक यह देह है, तब तक औरों के काम आया
जाए. यह देह भी यदि किसी अन्य की प्राण-रक्षा, मानव-रक्षा अथवा वचन की रक्षा के काम आ सके
तो इसे भी समर्पित करने में संकोच नहीं करना चाहिए। जो यह जानता और मानता है, समय आने
पर कर्तव्य को प्राथमिकता देता है, वही मनुष्य सही मायनों में मनुष्य है।

4.सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है यही; वशीकृ ता सदैव है बनी हुई स्वयं मही ।
विरुद्धवाद बुद्ध का दया-प्रवाह में बहा,
विनीत लोकवर्ग क्या न सामने झुका रहा ?
अहा! वही उदार है परोपकार जो करे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।
सरलार्थ: जिसके हृदय में दूसरों के लिए सहानुभूति है, करुणा है, आचरण में उदारता है, वही व्यक्ति
महान है। यह संसार हमेशा से ऐसे लोगों के वश में रहा है। बुद्ध का विरोध दया की उपज था,
इसीलिए संसार उनकी उदारता, करुणा, दया के सामने नतमस्तक हुआ, उनके बनाए मार्ग पर चला।
सही मायनों में वही उदार है जो परोपकार करता है। वही मनुष्य है जो दूसरों की फिक्र करता है,
दूसरों के लिए कष्ट उठाता है, दूसरों के लिए जीवन न्यौछावर कर देता है।

5.रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में,


सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में।
अनाथ कौन है यहाँ ? त्रिलोकनाथ साथ हैं.
दयालु दीनबंधु के बड़े विशाल हाथ हैं।
अतीव भाग्यहीन है अधीर भाव जो करे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मेरे ।।
सरलार्थ : तुमने जो धन कमाया है उसका गुमान मत करो। यह मत सोचो कि तुम्हारी चिंता
करनेवाले तुम्हारे साथ हैं क्योंकि यहाँ जो भी है वह तीन लोक के नाथ ईश्वर की छत्रछाया में है।
उनकी क्षमताएँ अपार हैं। वे सबकी इच्छाओं की पूर्ति करते हैं। यहाँ यदि कोई अभागा है तो वह है
जिसमें धैर्य नहीं है, धीरज नहीं है, जो अपने अभाव देख भयभीत हो जाता है, उन्हीं की पूर्ति में लगा
रहता है। सही मायनों में मनुष्य तो वह है जो दूसरों के अभाव को पूर्ति में तन-मन से जुटा रहता है।
जो दूसरों के लिए जीता-मरता है।

6.अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े,


समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े-बड़े।
परस्परावलंब से उठो तथा बढ़ो सभी,
अभी अमर्त्य अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
रहो न यों कि एक से न काम और का सरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।
सरलार्थ: तुम्हारे अच्छे कामों की प्रशंसा करने को तो स्वर्ग के देवता भी आतुर हैं। इसलिए एक-दूसरे
का सहारा बनो और आगे बढ़ो। निस्स्वार्थी बने रहकर देवताओं की प्रशंसा के पात्र बनी। तुम्हारे
असहयोग के चलते किसी का कोई काम सघने से न रहने पाए। चूँकि सही मायनों में आदमी वही है
जो दूसरों के काम भी अपने समझकर साथता है और दूसरों के लिए जीवन अर्पित करता है।
7.'मनुष्य मात्र बंधु है' यही बड़ा विवेक है,
पुराणपुरुष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद हैं,
परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
अनर्थ है कि बंधु ही न बंधु की व्यथा हरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।
सरलार्थ : सब मनुष्य भाई-भाई हैं यह समझ हमेशा बनी रहनी चाहिए। सबका पालनहार एक है जो
जगत प्रसिद्ध है। मनुष्य मनुष्य में जो अंतर है वह कर्मों के फल का है भीतर तो सब में एक-सी
आत्मा वास करती है। इससे बड़ा अनर्थ और क्या हो सकता है कि भाई ही भाई के काम न आए।
चौक सही मायनों में मनुष्य वही है जो दूसरों के लिए जीता-मरता है।
8.चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए,
विपत्ति, विघ्न जो पड़ें उन्हें ढके लते हुए।
घटे न हेलमेल हाँ, बड़े न भिन्नता कभी,
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।
सरलार्थ : जो भी तुम्हारा लक्ष्य है उसकी और बढ़ते समय रास्ते में जो बाधाएँ, विपत्तियाँ आएँ उन्हें
हटाते हुए खुशी-खुशी बढ़ो। ऐसा करते समय दूसरों के साथ भाईचारा खत्म न हो, दूरौ न बड़े, क्योंकि
सब एक ही मार्ग के यात्री हैं, रास्ते भले ही अलग-अलग हो। यह मार्ग तर्क रहित है। इसमें सभी को
साथ लेकर सावधानीपूर्वक आगे बढ़ना चाहिए। समर्थ भाव यही है कि हम अपने साथ दूसरों का उद्धार
करते हुए चलें। चूँकि मनुष्य वही है जो मनुष्य के लिए मरे।

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