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द्वितीय सर्ग
द्वितीय सर्ग
जहाँ भमि
ू समतल, सन्
ु दर है , नहीं दीखते है पाहन,
धम
ू -धम
ू चर्चित लगते हैं तरु के श्याम छदन कैसे?
सख
ू रहे चीवर, रसाल की नन्हीं झक
ु ी टहनियों पर,
चमक रहा तण
ृ -कुटी-द्वार पर एक परशु आभाशाली,
यद्ध
ु -शिविर या तपोभमि
ू यह, समझ नहीं कुछ पड़ता है ।
तप से मनज
ु दिव्य बनता है , षड् विकार से लड़ता है ,
मख
ु में वेद, पीठ पर तरकस, कर में कठिन कुठार विमल,
भग
ृ ु के परम पुनीत वंशधर, व्रती, वीर, प्रणपाली का।
पड़ती मनि
ु की थकी दे ह पर और थकान मिटाती है ।
'वद्ध
ृ दे ह, तप से कृश काया , उस पर आयुध-सञ्चालन,
किन्त,ु वद्ध
ृ होने पर भी अंगों में है क्षमता कितनी,
और रात-दिन मझ
ु पर दिखलाने रहते ममता कितनी।
इसकी पर्ति
ू कहाँ से होगी, बना अगर तू संन्यासी,
'सन
ु ता कौन यहाँ ब्राह्मण की, करते सब अपने मन की,
जो भी खिलता फूल, भज
ु ा के ऊपर चढ़ता जाता है ।
इन विभति
ू यों को जब तक संसार नहीं पहचानेगा,
चाहे जो भी करे , दख
ु ों से छूट नहीं वह पायेगी।
'रोक-टोक से नहीं सन
ु ेगा, नप
ृ समाज अविचारी है ,
सन
ु कर आशीर्वाद दे व का, धन्य-धन्य हो जाता हूँ।
एक बार तम
ु भी धरती को निःक्षत्रिय कर जाओगे।
निश्चय, तम
ु ब्राह्मणकुमार हो, कवच और कुण्डल-धारी,
'नहीं पछ
ू ता है कोई तम
ु व्रती , वीर या दानी हो?
सभी पछ
ू ते मात्र यही, तम
ु किस कुल के अभिमानी हो?
जाति बड़ी, तो बड़े बनें, वे, रहें लाख चाहे खोटे ।'
छोटा-सा यह जीव मझ
ु े कितनी पीड़ा पहुँचायेगा?
'तेज-पञ्
ु ज ब्राह्मण तिल-तिल कर जले, नहीं यह हो सकता,
इस प्रकार की चभ
ु न, वेदना क्षत्रिय ही सह सकता है ।
महाराज मझ
ु सत
ू -पत्र
ु को कुछ भी नहीं सिखायेंगे।
'करें भस्म ही मझ
ु े दे व! सम्मख
ु है मस्तक नत मेरा,
दर्यो
ु धन की हार दे वता! कैसे सहन करूँगा मैं?
क्या था पता, लट
ू ने आया है कोई मझ
ु को छल से?
सत
ु -सा रखा जिसे, उसको कैसे कठोर हो मारूँ मैं?
तझ
ु े पता क्या सता रहा है मझ
ु को असमञ्जस कैसे?
इस महे न्द्र-गिरि पर तम
ु ने कुछ थोड़ा नहीं कमाया है ,
नयी कला, नत
ू न रचनाएँ, नयी सूझ नूतन साधन,
अनायास गण
ु -शील तम्
ु हारे , मन में उगते आते हैं,
भीतर किसी अश्रु-गंगा में मुझे बोर नहलाते हैं।
परशध
ु र के चरण की धलि
ू लेकर,
किसी गिरि-श्रंग
ृ ा से छूटा हुआ-सा,