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OceanofPDF - Com Rashmirathi - Dinkar Hindi
OceanofPDF - Com Rashmirathi - Dinkar Hindi
यह किताब विभात्सु द्वारा पुस्तक प्रेमियों को बनाया और उपहार में दिया गया है।
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क्रम
प्रथम सर्ग
द्वितीय सर्ग
तृतीय सर्ग
चतुर्थ सर्ग
पन्चम सर्ग
षष्ठ सर्ग
सप्तम सर्ग
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प्रथम सर्ग
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द्वितीय सर्ग
[1]
सत्पथ की ओर लगाकर ही ,
जाते हैं हमें जगाकर ही।
वाटिका और वन एक नहीं ,
आराम और रण एक नहीं।
वर्षा , अंधड़, आतप अखंड,
पौरुष के हैं साधन प्रचण्ड।
बढ़कर विपत्तियों पर छा जा ,
मेरे किशोर ! मेरे ताजा !
जीवन का रस छन जाने दे,
तन को पत्थर बन जाने दे।
[2]
दुर्योधन वह भी दे ना सका ,
आशिष समाज की ले न सका ,
उलटे, हरि को बाँधने चला ,
जो था असाध्य , साधने चला।
के वल दो नर ना अघाते थे ,
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
[3]
चाहिए उसे बस रण के वल ,
सारी धरती कि मरण के वल
“चाँदनी पुष्प-छाया मे पल ,
नर भले बने सुमधुर कोमल ,
पर अमृत क्लेश का पिए बिना ,
आताप अंधड़ में जिए बिना ,
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पन्चम सर्ग
“पाकर न एक को , और एक को खोकर ,
मैं चली चार पुत्रों की माता होकर।’’
कह उठा कर्ण , ‘‘छह और चार को भूलो ,
माता , यह निश्चय मान मोद में फू लो।
[1]
पर , शान्ति-सुन्दरी के सुहाग
पर आग नहीं धरने दूँगा ,
जब तक जीवित हूँ, तुम्हें
बान्धवों से न युद्ध करने दूँगा।
वज्रीकृ त हाथों से ;
सत्य ही , समुन्नति के पथ पर
चल रहा चतुर मानव प्रबुद्ध ,
कहता है क्रान्ति उसे , जिसको
पहले कहता था धर्मयुद्ध।
प्रेमातिरेक में के शव ने
प्रण भूल चक्र सन्धान किया ,
भीष्म ने शत्रु को बड़े प्रेम से
अपना जीवन दान दिया।
[2]
गिरि का उदग्र गौरवाधार
गिर जाय श्रृंग ज्यों महाकार ,
अथवा सूना कर आसमान
ज्यों गिरे टूट रवि भासमान ,
कौरव-दल का कर तेज हरण
त्यों गिरे भीष्म आलोकवरण।
वह शर-शय्या की ओर चला ,
पग-पग हो विनय-विभोर चला।
छू भीष्मदेव के चरण युगल ,
बोला वाणी राधेय सरल ,
‘‘हे तात ! आपका प्रोत्साहन ,
पा सका नहीं जो लान्छित जन ,
‘‘बड़वानल , यम या कालपवन ,
करते जब कभी कोप भीषण
सारा सर्वस्व न लेते हैं,
उच्छिष्ट छोड़ कु छ देते हैं।
के वल अलात का घूर्णि-चक्र,
के वल वज्रायुध का प्रहार ,
के वल विनाशकारी नत्र्तन ,
के वल गर्जन , के वल पुकार।
है कथा , द्रोण की छाया में
यों पाँच दिनों तक युद्ध चला ,
क्या कहें, धर्म पर कौन रहा ,
या उसके कौन विरूद्ध चला ?
वासना-वह्नि से जो निकला ,
कै से हो वह संयुग कोमल ?
देखने हमें देगा वह क्यों ,
करूणा का पन्थ सुगम शीतल ?
जब लोभ सिद्धि का आँखों पर ,
माँड़ी बन कर छा जाता है
तब वह मनुष्य से बड़े-बड़े
दुश्चिन्त्य कृ त्य करवाता है।
संग्राम-बुभुक्षा से पीडि़त ,
सारे जीवन से छला हुआ ,
राधेय पाण्डवों के ऊपर
दारूण अमर्ष से जला हुआ ;
इस तरह शत्रुदल पर टूटा ,
जैसे हो दावानल अजेय ,
या टूट पड़े हों स्वयं स्वर्ग से
उतर मनुज पर कात्र्तिके य।
पर , चतुर पार्थ-सारथी आज ,
रथ अलग नचाये फिरते थे ,
कर्ण के साथ द्वैरथ-रण से ,
शिष्य को बचाये फिरते थे।
चिन्ता थी , एकघ्नी कराल ,
यदि द्विरथ-युद्ध में छूटेगी ,
पार्थ का निधन होगा , किस्मत ,
पाण्डव-समाज की फू टेगी।
लेकिन , अजस्त्र-शर-वृष्टि-निरत ,
अनवरत-युद्ध-रत , धीर कर्ण ,
मन-ही-मन था हो रहा स्वयं ,
इस रण से कु छ विस्मित , विवर्ण।
बाणों से तिल-भर भी अबिद्ध ,
था कहीं नहीं दानव का तन ;
पर , हुआ जा रहा था वह पशु ,
पल-पल कु छ और अधिक भीषण।
वह काल-सर्पिणी की जिह्वा ,
वह अटल मृत्यु की सगी स्वसा ,
घातकता की वाहिनी , शक्ति
यम की प्रचण्ड, वह अनल-रसा ,
लपलपा आग-सी एकघ्नी
तूणीर छोड़ बाहर आयी ,
चाँदनी मन्द पड़ गयी , समर में
दाहक उज्जवलता छायी।
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सप्तम सर्ग
[1]
[2]
‘रचा मैनें जिसे निज पुण्य-बल से, दया से, दान से, निष्ठा अचल से;
हमारे प्राण-सा ही पूत है जो, हुआ सद्धर्म से उद्भूत है जो;
न तत्त्वों की तनिक परवाह जिसको, सुगम सर्वत्र ही है राह जिसको;
गगन में जो अभय हो घूमता है, विभा की ऊर्मियों पर झूमता है ।’
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