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सं० २०७१ बयासीवाँ पुनमु ण १०,०००


कुल मु ण ६,८०,५००

काशक—
गीता ेस, गोरखपुर—२७३००५
(गो ब दभवन-कायालय, कोलकाता का सं थान)
फोन : (०५५१) २३३४७२१, २३३१२५०; फै स : (०५५१) २३३६९९७
e-mail : booksales@gitapress.org website : www.gitapress.org

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अ याय वषय

नवम क ध
१-वैव वत मनुके पु राजा सु ु नक कथा
२-पृष आ द मनुके पाँच पु का वंश
३-मह ष यवन और सुक याका च र , राजा शया तका वंश
४-नाभाग और अ बरीषक कथा
५- वासाजीक ःख नवृ
६-इ वाकुके वंशका वणन, मा धाता और सौभ र ऋ षक कथा
७-राजा शंकु और ह र क कथा
८-सगर-च र
९-भगीरथ-च र और गंगावतरण
१०-भगवान् ीरामक लीला का वणन
११-भगवान् ीरामक शेष लीला का वणन
१२-इ वाकुवंशके शेष राजा का वणन
१३-राजा न मके वंशका वणन
१४-च वंशका वणन
१५-ऋचीक, जमद न और परशुरामजीका च र
१६-परशुरामजीके ारा य-संहार और व ा म जीके वंशक कथा
१७- वृ , र ज आ द राजा के वंशका वणन
१८-यया त-च र
१९-यया तका गृह याग
२०-पू के वंश, राजा य त और भरतके च र का वणन
२१-भरतवंशका वणन, राजा र तदे वक कथा
२२-पांचाल, कौरव और मगधदे शीय राजा के वंशका वणन
२३-अनु, , तुवसु और य के वंशका वणन
२४- वदभके वंशका वणन

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दशम क ध (पूवाध)
१-भगवान्के ारा पृ वीको आ ासन, वसुदेव-दे वक का ववाह और कंसके ारा दे वक के
छः पु क ह या
२-भगवान्का गभ- वेश और दे वता ारा गभ तु त
३-भगवान् ीकृ णका ाक
४-कंसके हाथसे छू टकर योगमायाका आकाशम जाकर भ व यवाणी करना
५-गोकुलम भगवान्का ज ममहो सव
६-पूतना-उ ार
७-शकट-भंजन और तृणावत-उ ार
८-नामकरण-सं कार और बाललीला
९- ीकृ णका ऊखलसे बाँधा जाना
१०-यमलाजुनका उ ार
११-गोकुलसे वृ दावन जाना तथा व सासुर और बकासुरका उ ार
१२-अघासुरका उ ार
१३- ाजीका मोह और उसका नाश
१४- ाजीके ारा भगवान्क तु त
१५-धेनुकासुरका उ ार और वालबाल को का लयनागके वषसे बचाना
१६-का लयपर कृपा
१७-का लयके का लयदहम आनेक कथा तथा भगवान्का जवा सय को दावानलसे बचाना
१८- ल बासुर-उ ार
१९-गौ और गोप को दावानलसे बचाना
२०-वषा और शरद्ऋतुका वणन
२१-वेणुगीत
२२-चीरहरण
२३-य प नय पर कृपा
२४-इ य - नवारण
२५-गोवधनधारण
२६-न दबाबासे गोप क ीकृ णके भावके वषयम बातचीत
२७- ीकृ णका अ भषेक
२८-व णलोकसे न दजीको छु ड़ाकर लाना
२९-रासलीलाका आर भ
३०- ीकृ णके वरहम गो पय क दशा
३१-गो पकागीत
३२-भगवान्का कट होकर गो पय को सा वना दे ना
३३-महारास
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३४-सुदशन और शंखचूडका उ ार
३५-युगलगीत
३६-अ र ासुरका उ ार और कंसका ीअ ू रजीको जम भेजना
३७-केशी और ोमासुरका उ ार तथा नारदजीके ारा भगवान्क तु त
३८-अ ू रजीक जया ा
३९- ीकृ ण-बलरामका मथुरागमन
४०-अ ू रजीके ारा भगवान् ीकृ णक तु त
४१- ीकृ णका मथुराजीम वेश
४२-कु जापर कृपा, धनुषभंग और कंसक घबड़ाहट
४३-कुवलयापीड़का उ ार और अखाड़ेम वेश
४४-चाणूर, मु क आ द पहलवान का तथा कंसका उ ार
४५- ीकृ ण-बलरामका य ोपवीत और गु कुल वेश
४६-उ वजीक जया ा
४७-उ व तथा गो पय क बातचीत और मरगीत
४८-भगवान्का कु जा और अ ू रजीके घर जाना
४९-अ ू रजीका ह तनापुर जाना

दशम क ध (उ राध)
५०-जरास धसे यु और ारकापुरीका नमाण
५१-कालयवनका भ म होना, मुचुकु दक कथा
५२- ारकागमन, ीबलरामजीका ववाह तथा ीकृ णके पास मणीजीका स दे शा
लेकर ा णका आना
५३- मणीहरण
५४- शशुपालके साथी राजा क और मीक हार तथा ीकृ ण- मणी- ववाह
५५- ु नका ज म और श बरासुरका वध
५६- यम तकम णक कथा, जा बवती और स यभामाके साथ ीकृ णका ववाह
५७- यम तक-हरण, शतध वाका उ ार और अ ू रजीको फरसे ारका बुलाना
५८-भगवान् ीकृ णके अ या य ववाह क कथा
५९-भौमासुरका उ ार और सोलह हजार एक सौ राजक या के साथ भगवान्का ववाह
६०- ीकृ ण- मणी-संवाद
६१-भगवान्क स त तका वणन तथा अ न के ववाहम मीका मारा जाना
६२-ऊषा-अ न - मलन
६३-भगवान् ीकृ णके साथ बाणासुरका यु
६४-नृग राजाक कथा
६५- ीबलरामजीका जगमन
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६६-पौ क और का शराजका उ ार
६७- वदका उ ार
६८-कौरव पर बलरामजीका कोप और सा बका ववाह
६९-दे व ष नारदजीका भगवान्क गृहचया दे खना
७०-भगवान् ीकृ णक न यचया और उनके पास जरास धके कैद राजा के तका आना
७१- ीकृ णभगवान्का इ थ पधारना
७२-पा डव के राजसूयय का आयोजन और जरास धका उ ार
७३-जरास धके जेलसे छू टे ए राजा क वदाई और भगवान्का इ थ लौट आना
७४-भगवान्क अ पूजा और शशुपालका उ ार
७५-राजसूयय क पू त और य धनका अपमान
७६-शा वके साथ यादव का यु
७७-शा व-उ ार
७८-द तव और व रथका उ ार तथा तीथया ाम बलरामजीके हाथसे सूतजीका वध
७९-ब वलका उ ार और बलरामजीक तीथया ा
८०- ीकृ णके ारा सुदामाजीका वागत
८१-सुदामाजीको ऐ यक ा त
८२-भगवान् ीकृ ण-बलरामसे गोप-गो पय क भट
८३-भगवान्क पटरा नय के साथ ौपद क बातचीत
८४-वसुदेवजीका य ो सव
८५- ीभगवान्के ारा वसुदेवजीको ानका उपदे श तथा दे वक जीके छः पु को लौटा
लाना
८६-सुभ ाहरण और भगवान्का म थलापुरीम राजा जनक और ुतदे व ा णके घर एक
ही साथ जाना
८७-वेद तु त
८८- शवजीका संकटमोचन
८९-भृगुजीके ारा दे व क परी ा तथा भगवान्का मरे ए ा ण-बालक को वापस
लाना
९०-भगवान् ीकृ णके लीला- वहारका वणन

एकादश क ध
१-य वंशको ऋ षय का शाप
२-वसुदेवजीके पास ीनारदजीका आना और उ ह राजा जनक तथा नौ योगी र का
संवाद सुनाना
३-माया, मायासे पार होनेके उपाय तथा और कमयोगका न पण
४-भगवान्के अवतार का वणन
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५-भ हीन पु ष क ग त और भगवान्क पूजा व धका वणन
६-दे वता क भगवान्से वधाम सधारनेके लये ाथना तथा यादव को भास े
जानेक तैयारी करते दे खकर उ वका भगवान्के पास आना
७-अवधूतोपा यान—पृ वीसे लेकर कबूतरतक आठ गु क कथा
८-अवधूतोपा यान—अजगरसे लेकर पगलातक नौ गु क कथा
९-अवधूतोपा यान—कुररसे लेकर भृंगीतक सात गु क कथा
१०-लौ कक तथा पारलौ कक भोग क असारताका न पण
११-ब , मु और भ जन के ल ण
१२-स संगक म हमा और कम तथा कम यागक व ध
१३-हंस पसे सनका दको दये ए उपदे शका वणन
१४-भ योगक म हमा तथा यान व धका वणन
१५- भ - भ स य के नाम और ल ण
१६-भगवान्क वभू तय का वणन
१७-वणा म-धम- न पण
१८-वान थ और सं यासीके धम
१९-भ , ान और यम- नयमा द साधन का वणन
२०- ानयोग, कमयोग और भ योग
२१-गुण-दोष व थाका व प और रह य
२२-त व क सं या और पु ष- कृ त- ववेक
२३-एक त त ु ा णका इ तहास
२४-सां ययोग
२५-तीन गुण क वृ य का न पण
२६-पु रवाक वैरा यो
२७- यायोगका वणन
२८-परमाथ न पण
२९-भागवतधम का न पण और उ वजीका बद रका मगमन
३०-य कुलका संहार
३१- ीभगवान्का वधामगमन

ादश क ध
१-क लयुगके राजवंश का वणन
२-क लयुगके धम
३-रा य, युगधम और क लयुगके दोष से बचनेका उपाय—नामसंक तन
४-चार कारके लय
५- ीशुकदे वजीका अ तम उपदे श
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६-परी त्क परमग त, जनमेजयका सपस और वेद के शाखाभेद
७-अथववेदक शाखाएँ और पुराण के ल ण
८-माक डेयजीक तप या और वर- ा त
९-माक डेयजीका माया-दशन
१०-माक डेयजीको भगवान् शंकरका वरदान
११-भगवान्के अंग, उपांग और आयुध का रह य तथा व भ सूयगण का वणन
१२- ीम ागवतक सं त वषय-सूची
१३- व भ पुराण क ोक-सं या और ीम ागवतक म हमा

ीम ागवतमाहा य
१-परी त् और व नाभका समागम, शा ड य-मु नके मुखसे भगवान्क लीलाके रह य
और जभू मके मह वका वणन
२-यमुना और ीकृ णप नय का संवाद, क तनो सवम उ वजीका कट होना
३- ीम ागवतक पर परा और उसका माहा य, भागवत वणसे ोता को
भगव ामक ा त
४- ीम ागवतका व प, माण, ोता-व ाके ल ण, वण व ध और माहा य

१- ीम ागवत-पाठके व भ योग
२- ीगो व ददामोदर तो म्
३- ीम ागवतक आरती

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।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।।
ीम ागवतमहापुराणम्
नवमः क धः
अथ थमोऽ यायः
वैव वत मनुके पु राजा सु ु नक कथा
राजोवाच
म व तरा ण सवा ण वयो ा न ुता न मे ।
वीया यन तवीय य हरे त कृता न च ।।१
योऽसौ स य तो नाम राज ष वडे रः ।
ानं योऽतीतक पा ते लेभे पु षसेवया ।।२
स वै वव वतः पु ो मनुरासी द त ुतम् ।
व त य सुता ो ा इ वाकु मुखा नृपाः ।।३
तेषां वंशं पृथग् न् वं यानुच रता न१ च ।
क तय व महाभाग न यं शु ूषतां ह नः ।।४
ये भूता ये भ व या भव य तना ये ।
तेषां नः पु यक त नां सवषां वद२ व मान् ।।५
सूत उवाच
एवं परी ता रा ा सद स वा दनाम् ।
पृ ः ोवाच भगवा छु कः परमधम वत् ।।६
ीशुक उवाच
ूयतां मानवो वंशः ाचुयण परंतप ।
न श यते व तरतो व ुं वषशतैर प ।।७
परावरेषां भूतानामा मा३ यः पु षः परः ।
स एवासी ददं व ं क पा तेऽ य क चन ।।८
राजा परी त्ने पूछा—भगवन्! आपने सब म व तर और उनम अन त श शाली
भगवान्के ारा कये ए ऐ यपूण च र का वणन कया और मने उनका वण भी
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कया ।।१।। आपने कहा क पछले क पके अ तम वड़ दे शके वामी राज ष स य तने
भगवान्क सेवासे ान ा त कया और वही इस क पम वैव वत मनु ए। आपने उनके
इ वाकु आ द नरप त पु का भी वणन कया ।।२-३।। न्! अब आप कृपा करके उनके
वंश और वंशम होनेवाल का अलग-अलग च र वणन क जये। महाभाग! हमारे दयम
सवदा ही कथा सुननेक उ सुकता बनी रहती है ।।४।। वैव वत मनुके वंशम जो हो चुके ह ,
इस समय व मान ह और आगे होनेवाले ह —उन सब प व क त पु ष के परा मका
वणन क जये ।।५।।
सूतजी कहते ह—शौनका द ऋ षयो! वाद ऋ षय क सभाम राजा परी त्ने जब
यह कया, तब धमके परम मम भगवान् ीशुकदे वजीने कहा ।।६।।
ीशुकदे वजीने कहा—परी त्! तुम मनुवंशका वणन सं ेपसे सुनो। व तारसे तो
सैकड़ वषम भी उसका वणन नह कया जा सकता ।।७।। जो परम पु ष परमा मा छोटे -
बड़े सभी ा णय के आ मा ह, लयके समय केवल वही थे; यह व तथा और कुछ भी
नह था ।।८।। महाराज! उनक ना भसे एक सुवणमय कमलकोष कट आ। उसीम
चतुमुख ाजीका आ वभाव आ ।।९।। ाजीके मनसे मरी च और मरी चके पु
क यप ए। उनक धमप नी द न दनी अ द तसे वव वान् (सूय)-का ज म आ ।।१०।।
वव वान्क सं ा नामक प नीसे ा दे व मनुका ज म आ। परी त्! परम मन वी राजा
ा दे वने अपनी प नी ाके गभसे दस पु उ प कये। उनके नाम थे—इ वाकु, नृग,
शया त, द , धृ , क ष, न र य त, पृष , नभग और क व ।।११-१२।।
त य नाभेः समभवत् प कोशो हर मयः ।
त मंज े महाराज वयंभू तुराननः ।।९

मरी चमनस त य ज े त या प क यपः ।


दा ाय यां ततोऽ द यां वव वानभवत् सुतः ।।१०

ततो मनुः ा दे वः सं ायामास भारत ।


ायां जनयामास दश पु ान् स आ मवान् ।।११

इ वाकुनृगशया त द धृ क षकान् ।
न र य तं पृष ं१ च नभगं च क व वभुः ।।१२

अ ज य मनोः पूव व स ो भगवान् कल ।


म ाव णयो र जाथमकरोत् भुः ।।१३

त ा मनोः प नी होतारं समयाचत ।


ह थमुपाग य णप य पयो ता ।।१४
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े षतोऽ वयुणा होता यायं तत् सुसमा हतः ।
ह व ष२ चरत् तेन वषट् कारं गृण जः ।।१५

होतु तद् भचारेण क येला नाम साभवत् ।


तां वलो य मनुः ाह ना त मना गु म् ।।१६

भगवन् क मदं जातं कम वो वा दनाम् ।


वपययमहो क ं मैवं याद् व या ।।१७

यूयं म वदो यु ा तपसा द ध क बषाः ।


कुतः संक पवैष यमनृतं वबुधे वव ।।१८
वैव वत मनु पहले स तानहीन थे। उस समय सवसमथ भगवान् व स ने उ ह
स तान ा त करानेके लये म ाव णका य कराया था ।।१३।। य के आर भम केवल ध
पीकर रहनेवाली वैव वत मनुक धमप नी ाने अपने होताके पास जाकर णामपूवक
याचना क क मुझे क या ही ा त हो ।।१४।। तब अ वयुक ेरणासे होता बने ए ा णने
ाके कथनका मरण करके एका च से वषट् कारका उ चारण करते ए य कु डम
आ त द ।।१५।। जब होताने इस कार वपरीत कम कया, तब य के फल व प पु के
थानपर इला नामक क या ई। उसे दे खकर ा दे व मनुका मन कुछ वशेष स नह
आ। उ ह ने अपने गु व स जीसे कहा— ।।१६।। ‘भगवन्! आपलोग तो वाद ह,
आपका कम इस कार वपरीत फल दे नेवाला कैसे हो गया? अरे, यह तो बड़े ःखक बात
है। वै दक कमका ऐसा वपरीत फल तो कभी नह होना चा हये ।।१७।। आप लोग का
म ान तो पूण है ही; इसके अ त र आपलोग जते य भी ह तथा तप याके कारण
न पाप हो चुके ह। दे वता म अस यक ा तके समान आपके संक पका यह उलटा फल
कैसे आ?’ ।।१८।।

त श य वच त य भगवान् पतामहः ।
होतु त मं ा वा बभाषे र वन दनम् ।।१९
एतत् संक पवैष यं होतु ते भचारतः ।
तथा प साध य ये ते सु जा वं वतेजसा ।।२०
एवं व सतो राजन् भगवान् स महायशाः ।
अ तौषीदा दपु ष मलायाः पुं वका यया ।।२१
त मै कामवरं१ तु ो भगवान् ह ररी रः ।
ददा वलाभवत् तेन सु ु नः पु षषभः ।।२२
स एकदा महाराज वचरन् मृगयां वने ।
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वृतः क तपयामा यैर मा २ सै धवम् ।।२३
गृ चरं चापं शरां परमाद्भुतान् ।
दं शतोऽनुमृगं वीरो जगाम दशमु राम् ।।२४
स कुमारो वनं मेरोरध तात् ववेश ह ।
य ा ते भगवा छव रममाणः सहोमया ।।२५
त मन् व एवासौ सु ु नः परवीरहा ।
अप यत् यमा मानम ं च वडवां नृप ।।२६
तथा तदनुगाः सव आ म लग वपययम् ।
् वा वमनसोऽभूवन् वी माणाः पर परम् ।।२७
राजोवाच
कथमेवंगुणो दे शः केन वा भगवन् कृतः ।
मेनं समाच व परं कौतूहलं ह नः ।।२८
ीशुक उवाच
एकदा ग रशं ु मृषय त सु ताः ।
दशो व त मराभासाः कुव तः समुपागमन् ।।२९
परी त्! हमारे वृ पतामह भगवान् व स ने उनक यह बात सुनकर जान लया क
होताने वपरीत संक प कया है। इस लये उ ह ने वैव वत मनुसे कहा— ।।१९।। ‘राजन्!
तु हारे होताके वपरीत संक पसे ही हमारा संक प ठ क-ठ क पूरा नह आ। फर भी
अपने तपके भावसे म तु ह े पु ँ गा’ ।।२०।।
परी त्! परम यश वी भगवान् व स ने ऐसा न य करके उस इला नामक क याको
ही पु ष बना दे नेके लये पु षो म भगवान् नारायणक तु त क ।।२१।। सवश मान्
भगवान् ीह रने स तु होकर उ ह मुँहमाँगा वर दया, जसके भावसे वह क या ही सु ु न
नामक े पु बन गयी ।।२२।।
महाराज! एक बार राजा सु ु न शकार खेलनेके लये स धुदेशके घोड़ेपर सवार होकर
कुछ म य के साथ वनम गये ।।२३।। वीर सु ु न कवच पहनकर और हाथम सु दर धनुष
एवं अ य त अद्भुत बाण लेकर ह रन का पीछा करते ए उ र दशाम ब त आगे बढ़
गये ।।२४।। अ तम सु ु न मे पवतक तलहट के एक वनम चले गये। उस वनम भगवान्
शंकर पावतीके साथ वहार करते रहते ह ।।२५।। उसम वेश करते ही वीरवर सु ु नने दे खा
क म ी हो गया ँ और घोड़ा घोड़ी हो गया है ।।२६।। परी त्! साथ ही उनके सब
अनुचर ने भी अपनेको ी पम दे खा। वे सब एक- सरेका मुँह दे खने लगे, उनका च
ब त उदास हो गया ।।२७।।
राजा परी त्ने पूछा—भगवन्! उस भूख डम ऐसा व च गुण कैसे आ गया?
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कसने उसे ऐसा बना दया था? आप कृपा कर हमारे इस का उ र द जये; य क हम
बड़ा कौतूहल हो रहा है ।।२८।।
ीशुकदे वजीने कहा—परी त्! एक दन भगवान् शंकरका दशन करनेके लये बड़े-
बड़े तधारी ऋ ष अपने तेजसे दशा का अ धकार मटाते ए उस वनम गये ।।२९।।
तान् वलो या बका दे वी ववासा ी डता भृशम् ।
भतुरंकात् समु थाय नीवीमा थ पयधात् ।।३०

ऋषयोऽ प तयोव य संगं रममाणयोः ।


नवृ ाः ययु त मा रनारायणा मम् ।।३१

त ददं भगवानाह यायाः यका यया ।


थानं यः वशेदेतत् स वै यो षद् भवे द त ।।३२

तत ऊ व वनं तद् वै पु षा वजय त ह ।


सा चानुचरसंयु ा वचचार वनाद् वनम् ।।३३

अथ तामा मा याशे चर त मदो माम् ।


ी भः प रवृतां वी य चकमे भगवान् बुधः ।।३४

सा प तं चकमे सु ूः सोमराजसुतं प तम् ।


स त यां जनयामास पु रवसमा मजम् ।।३५

एवं ी वमनु ा तः सु ु नो मानवो नृपः ।


स मार वकुलाचाय व स म त शु ुम ।।३६

स त य तां दशां ् वा कृपया भृशपी डतः ।


सु ु न याशयन् पुं वमुपाधावत शंकरम् ।।३७

तु त मै स भगवानृषये यमावहन् ।
वां च वाचमृतां कुव दमाह वशा पते ।।३८

मासं पुमान् स भ वता मासं ी तव गो जः ।


इ थं व थया कामं सु ु नोऽवतु मे दनीम् ।।३९
उस समय अ बका दे वी व हीन थ । ऋ षय को सहसा आया दे ख वे अ य त ल जत
हो गय । झटपट उ ह ने भगवान् शंकरक गोदसे उठकर व धारण कर लया ।।३०।।
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ऋ षय ने भी दे खा क भगवान् गौरी-शंकर इस समय वहार कर रहे ह, इस लये वहाँसे
लौटकर वे भगवान् नर-नारायणके आ मपर चले गये ।।३१।। उसी समय भगवान् शंकरने
अपनी या भगवती अ बकाको स करनेके लये कहा क ‘मेरे सवा जो भी पु ष इस
थानम वेश करेगा, वही ी हो जायेगा’ ।।३२।। परी त्! तभीसे पु ष उस थानम वेश
नह करते। अब सु ु न ी हो गये थे। इस लये वे अपने ी बने ए अनुचर के साथ एक
वनसे सरे वनम वचरने लगे ।।३३।।
उसी समय श शाली बुधने दे खा क मेरे आ मके पास ही ब त-सी य से घरी ई
एक सु दरी ी वचर रही है। उ ह ने इ छा क क यह मुझे ा त हो जाय ।।३४।। उस
सु दरी ीने भी च कुमार बुधको प त बनाना चाहा। इसपर बुधने उसके गभसे पु रवा
नामका पु उ प कया ।।३५।। इस कार मनुपु राजा सु ु न ी हो गये। ऐसा सुनते ह
क उ ह ने उस अव थाम अपने कुलपुरो हत व स जीका मरण कया ।।३६।।
सु ु नक यह दशा दे खकर व स जीके दयम कृपावश अ य त पीड़ा ई। उ ह ने
सु ु नको पुनः पु ष बना दे नेके लये भगवान् शंकरक आराधना क ।।३७।। भगवान् शंकर
व स जीपर स ए। परी त्! उ ह ने उनक अ भलाषा पूण करनेके लये अपनी
वाणीको स य रखते ए ही यह बात कही— ।।३८।।
‘व स ! तु हारा यह यजमान एक महीनेतक पु ष रहेगा और एक महीनेतक ी। इस
व थासे सु ु न इ छानुसार पृ वीका पालन करे’ ।।३९।।
आचायानु हात् कामं ल वा पुं वं व थया ।
पालयामास जगत ना यन दन् म तं जाः ।।४०
त यो कलो गयो राजन् वमल सुता यः ।
द णापथराजानो बभूवुधमव सलाः ।।४१
ततः प रणते काले त ानप तः भुः ।
पु रवस उ सृ य गां पु ाय गतो वनम् ।।४२
इस कार व स जीके अनु हसे व था-पूवक अभी पु ष व लाभ करके सु ु न
पृ वीका पालन करने लगे। परंतु जा उनका अ भन दन नह करती थी ।।४०।। उनके तीन
पु ए—उ कल, गय और वमल। परी त्! वे सब द णापथके राजा ए ।।४१।।
ब त दन के बाद वृ ाव था आनेपर त ान नगरीके अ धप त सु ु नने अपने पु
पु रवाको रा य दे दया और वयं तप या करनेके लये वनक या ा क ।।४२।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां नवम क धे इलोपा याने
थमोऽ यायः ।।१।।

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१. वं या दच र०। २. वमनु मात्। ३. मा मैष पु०।
१. पृथुं व वं नाभागं। २. गृहीते ह व ष वाचं वष०।
१. का य०। २. रथ०।

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अथ तीयोऽ यायः
पृष आ द मनुके पाँच पु का वंश
ीशुक उवाच
एवं गतेऽथ सुघु ने मनुवव वतः सुते ।
पु काम तप तेपे यमुनायां शतं समाः ।।१

ततोऽयज मनुदवमप याथ ह र भुम् ।


इ वाकुपूवजान् पु ाँ लेभे वस शान् दश ।।२

पृष तु मनोः पु ो गोपालो गु णा कृतः ।


पालयामास गा य ो रा यां वीरासन तः ।।३

एकदा ा वशद् गो ं शा लो न श वष त ।
शयाना गाव उ थाय भीता ता ब मु जे ।।४

एकां ज ाह बलवान् सा चु ोश भयातुरा ।


त या तत् दतं ु वा पृष ोऽ भससार ह ।।५

खड् गमादाय तरसा लीनोडु गणे न श ।


अजान हनद् ब ोः शरः शा लशंकया ।।६
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! इस कार जब सु ु न तप या करनेके लये वनम
चले गये, तब वैव वत मनुने पु क कामनासे यमुनाके तटपर सौ वषतक तप या क ।।१।।
इसके बाद उ ह ने स तानके लये सवश मान् भगवान् ीह रक आराधना क और अपने
ही समान दस पु ा त कये, जनम सबसे बड़े इ वाकु थे ।।२।।
उन मनुपु मसे एकका नाम था पृष । गु व स जीने उसे गाय क र ाम नयु कर
रखा था, अतः वह रा के समय बड़ी सावधानीसे वीरासनसे बैठा रहता और गाय क र ा
करता ।।३।। एक दन रातम वषा हो रही थी। उस समय गाय के झुंडम एक बाघ घुस आया।
उससे डरकर सोयी ई गौएँ उठ खड़ी । वे गोशालाम ही इधर-उधर भागने लग ।।४।।
बलवान् बाघने एक गायको पकड़ लया। वह अ य त भयभीत होकर च लाने लगी। उसका
वह दन सुनकर पृष गायके पास दौड़ आया ।।५।। एक तो रातका समय और सरे
घनघोर घटा से आ छा दत होनेके कारण तारे भी नह द खते थे। उसने हाथम तलवार
उठाकर अनजानम ही बड़े वेगसे गायका सर काट दया। वह समझ रहा था क यही बाघ
है ।।६।।
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ा ोऽ प वृ ण वणो न ंशा ाहत ततः ।
न ाम भृशं भीतो र ं प थ समु सृजन् ।।७

म यमानो हतं ा ं पृष ः परवीरहा ।


अ ा ीत् वहतां ब ुं ु ायां न श ः खतः ।।८

तं शशाप कुलाचायः कृतागसमकामतः ।


न ब धुः शू वं कमणा भ वतामुना ।।९

एवं श त तु गु णा यगृ ात् कृतांज लः ।


अधारयद् तं वीर ऊ वरेता मु न यम् ।।१०

वासुदेवे भगव त सवा म न परेऽमले ।


एका त वं गतो भ या सवभूतसु त् समः ।।११

वमु संगः शा ता मा संयता ोऽप र हः ।


य छयोपप ेन क पयन् वृ मा मनः ।।१२

आ म या मानमाधाय ानतृ तः१ समा हतः ।


वचचार महीमेतां जडा धब धराकृ तः ।।१३

एवंवृ ो वनं ग वा ् वा दावा नमु थतम् ।


तेनोपयु करणो ाप परं मु नः ।।१४

क वः कनीयान् वषयेषु नः पृहो


वसृ य रा यं सह ब धु भवनम् ।
नवे य च े पु षं वरो चषं
ववेश कैशोरवयाः परं गतः ।।१५
तलवारक नोकसे बाघका भी कान कट गया, वह अ य त भयभीत होकर रा तेम खून
गराता आ वहाँसे नकल भागा ।।७।। श ुदमन पृष ने यह समझा क बाघ मर गया। परंतु
रात बीतनेपर उसने दे खा क मने तो गायको ही मार डाला है, इससे उसे बड़ा ःख
आ ।।८।।
य प पृष ने जान-बूझकर अपराध नह कया था, फर भी कुलपुरो हत व स जीने
उसे शाप दया क ‘तुम इस कमसे य नह रहोगे; जाओ, शू हो जाओ’ ।।९।। पृष ने
अपने गु दे वका यह शाप अंज ल बाँधकर वीकार कया और इसके बाद सदाके लये
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मु नय को य लगनेवाले नै क चय- तको धारण कया ।।१०।।
वह सम त ा णय का अहैतुक हतैषी एवं सबके त समान भावसे यु होकर भ के
ारा परम वशु सवा मा भगवान् वासुदेवका अन य ेमी हो गया ।।११।। उसक सारी
आस याँ मट गय । वृ याँ शा त हो गय । इ याँ वशम हो गय । वह कभी कसी
कारका सं ह-प र ह नह रखता था। जो कुछ दै ववश ा त हो जाता, उसीसे अपना
जीवन- नवाह कर लेता ।।१२।।
वह आ म ानसे स तु एवं अपने च को परमा माम थत करके ायः समा ध थ
रहता। कभी-कभी जड, अंधे और बहरेके समान पृ वीपर वचरण करता ।।१३।।
इस कारका जीवन तीत करता आ वह एक दन वनम गया। वहाँ उसने दे खा क
दावानल धधक रहा है। मननशील पृष अपनी इ य को उसी अ नम भ म करके पर
परमा माको ा त हो गया ।।१४।।
मनुका सबसे छोटा पु था क व। वषय से वह अ य त नः पृह था। वह रा य छोड़कर
अपने ब धु के साथ वनम चला गया और अपने दयम वयं काश परमा माको
वराजमान कर कशोर अव थाम ही परम पदको ा त हो गया ।।१५।।
क षा मानवादासन् का षाः जातयः ।
उ रापथगो तारो या धमव सलाः ।।१६
धृ ाद् धा मभूत् ं भूयं गतं तौ ।
नृग य वंशः सुम तभूत यो त ततो वसुः ।।१७
वसोः तीक त पु ओघवानोघव पता ।
क या चौघवती नाम सुदशन उवाह ताम् ।।१८
च सेनो न र य ता त य सुतोऽभवत् ।
त य मीढ् वां ततः कूच इ सेन तु त सुतः ।।१९
वी तहो व सेनात् त य स य वा अभूत् ।
उ वाः सुत त य दे वद ततोऽभवत् ।।२०
ततोऽ नवे यो भगवान नः वयमभूत् सुतः ।
कानीन इ त व यातो जातूक य महानृ षः ।।२१
ततो कुलं जातमा नवे यायनं नृप ।
न र य ता वयः ो ो द वंशमतः शृणु ।।२२
नाभागो द पु ोऽ यः कमणा वै यतां गतः ।
भल दनः सुत त य व स ी तभल दनात् ।।२३
व स ीतेः सुतः ांशु त सुतं म त व ः ।
ख न ः मते त मा चा ुषोऽथ व वश तः ।।२४
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व वश तसुतो र भः ख नने ोऽ य धा मकः ।
कर धमो महाराज त यासीदा मजो नृप ।।२५
त यावी त् सुतो य य म व यभूत् ।
संवत ऽयाजयद् यं वै महायो यं गरःसुतः ।।२६
म य यथा य ो न तथा य य क न ।
सव हर मयं वासीद् यत् क च चा य१ शोभनम् ।।२७
मनुपु क षसे का ष नामक य उ प ए। वे बड़े ही ा णभ , धम ेमी एवं
उ रापथके र क थे ।।१६।।
धृ के धा नामक य ए। अ तम वे इस शरीरसे ही ा ण बन गये। नृगका पु
आ सुम त, उसका पु भूत यो त और भूत यो तका पु वसु था ।।१७।। वसुका पु
तीक और तीकका पु ओघवान्। ओघवान्के पु का नाम भी ओघवान् ही था। उनके एक
ओघवती नामक क या भी थी, जसका ववाह सुदशनसे आ ।।१८।। मनुपु न र य तसे
च सेन, उससे ऋ , ऋ से मीढ् वान्, मीढ् वान्से कूच और उससे इ सेनक उ प
ई ।।१९।। इ सेनसे वी तहो , उससे स य वा, स य वासे उ वा और उससे दे वद क
उप ई ।।२०।।
दे वद के अ नवे य नामक पु ए, जो वयं अ नदे व ही थे। आगे चलकर वे ही
कानीन एवं मह ष जातूक यके नामसे व यात ए ।।२१।। परी त्! ा ण का
‘आ नवे यायन’ गो उ ह से चला है। इस कार न र य तके वंशका मने वणन कया, अब
द का वंश सुनो ।।२२।। द के पु का नाम था नाभाग। यह उस नाभागसे अलग है,
जसका म आगे वणन क ँ गा। वह अपने कमके कारण वै य हो गया। उसका पु आ
भल दन और उसका व स ी त ।।२३।। व स ी तका ांशु और ांशुका पु आ म त।
म तके ख न , ख न के चा ुष और उनके व वश त ए ।।२४।। व वश तके पु र भ
और र भके पु ख नने —दोन ही परम धा मक ए। उनके पु कर धम और कर धमके
अवी त्। महाराज परी त्! अवी त्के पु म च वत राजा ए। उनसे अं गराके पु
महायोगी संव ऋ षने य कराया था ।।२५-२६।। म का य जैसा आ वैसा और
कसीका नह आ। उस य के सम त छोटे -बड़े पा अ य त सु दर एवं सोनेके बने ए
थे ।।२७।।
अमा द ः सोमेन द णा भ जातयः ।
म तः प रवे ारो व ेदेवाः सभासदः ।।२८
म य दमः पु त यासीद् रा यवधनः ।
सुधृ त त सुतो ज े सौधृतेयो नरः सुतः ।।२९
त सुतः केवल त माद् ब धुमान् वेगवां ततः ।
ब धु त याभवद् य य तृण ब महीप तः ।।३०
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तं भेजेऽल बुषा दे वी भजनीयगुणालयम् ।
वरा सरा यतः पु ाः क या चेड वडाभवत् ।।३१
त यामु पादयामास व वा धनदं सुतम् ।
ादाय व ां परमामृ षय गे रात् पतुः ।।३२
वशालः शू यब धु धू केतु त सुताः ।
वशालो वंशकृद् राजा वैशाल नममे पुरीम् ।।३३
हेमच ः सुत त य धू ा त य चा मजः ।
त पु ात् संयमादासीत् कृशा ः सहदे वजः ।।३४
कृशा ात् सोमद ोऽभूद ् योऽ मेधै रड प तम् ।
इ ् वा पु षमापा यां ग त योगे रा तः ।।३५
सौमद तु सुम त त सुतो जनमेजयः ।
एते वैशालभूपाला तृण ब दोयशोधराः ।।३६
उस य म इ सोमपान करके मतवाले हो गये थे और द णा से ा ण तृ त हो गये
थे। उसम परसनेवाले थे म द्गण और व ेदेव सभासद् थे ।।२८।। म के पु का नाम था
दम। दमसे रा यवधन, उससे सुधृ त और सुधृ तसे नर नामक पु क उ प ई ।।२९।।
नरसे केवल, केवलसे ब धुमान्, ब धुमान्से वेगवान्, वेगवान्से ब धु और ब धुसे राजा
तृण ब का ज म आ ।।३०।।
तृण ब आदश गुण के भ डार थे। अ सरा म े अल बुषा दे वीने उनको वरण
कया, जससे उनके कई पु और इड वडा नामक एक क या उ प ई ।।३१।। मु नवर
व वाने अपने योगे र पता पुल यजीसे उ म व ा ा त करके इड वडाके गभसे
लोकपाल कुबेरको पु पम उ प कया ।।३२।। महाराज तृण ब के अपनी धमप नीसे
तीन पु ए— वशाल, शू यब धु और धू केतु। उनमसे राजा वशाल वंशधर ए और
उ ह ने वैशाली नामक नगरी बसायी ।।३३।। वशालसे हेमच , हेमच से धू ा , धू ा से
संयम और संयमसे दो पु ए—कृशा और दे वज ।।३४।। कृशा के पु का नाम था
सोमद । उसने अ मेध य के ारा य प त भगवान्क आराधना क और योगे र संत का
आ य लेकर उ म ग त ा त क ।।३५।। सोमद का पु आ सुम त और सुम तसे
जनमेजय। ये सब तृण ब क क तको बढ़ानेवाले वशालवंशी राजा ए ।।३६।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां नवम क धे तीयोऽ यायः ।।२।।

१. ान ः।
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१. चा ।

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अथ तृतीयोऽ यायः
मह ष यवन और सुक याका च र , राजा शया तका वंश
ीशुक उवाच
शया तमानवो राजा ः स बभूव ह ।
यो वा अं गरसां स े तीयमह ऊ चवान् ।।१
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! मनुपु राजा शया त वेद का न ावान् व ान् था।
उसने अं गरागो के ऋ षय के य म सरे दनका कम बतलाया था ।।१।।
सुक या नाम त यासीत् क या कमललोचना ।
तया साध वनगतो गम यवना मम् ।।२

सा सखी भः प रवृता व च व यङ् पान् वने ।


व मीकर े द शे ख ोते इव यो तषी ।।३

ते दै वचो दता बाला यो तषी क टकेन वै ।


अ व य मु धभावेन सु ावासृक् ततो ब ।।४

शकृ मू नरोधोऽभूत् सै नकानां च त णात् ।


राज ष तमुपाल य पु षान् व मतोऽ वीत् ।।५

अ यभ ं न यु मा भभागव य वचे तम् ।


ं केना प न त य कृतमा म षणम् ।।६

सुक या ाह पतरं भीता क चत् कृतं मया ।


े यो तषी अजान या न भ े क टकेन वै ।।७

हतु तद् वचः ु वा शया तजातसा वसः ।


मु न सादयामास व मीका त हतं शनैः ।।८
तद भ ायमा ाय ादाद् हतरं मुनेः ।
कृ ा मु तमाम य पुरं ायात् समा हतः ।।९

सुक या यवनं ा य प त परमकोपनम् ।


ीणयामास च ा अ म ानुवृ भः ।।१०

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क य चत् वथ काल य नास यावा मागतौ ।
तौ पूज य वा ोवाच वयो मे द मी रौ ।।११

हं ही ये सोम य य े वाम यसोमपोः ।


यतां मे वयो पं मदानां यद सतम् ।।१२
उसक एक कमललोचना क या थी। उसका नाम था सुक या। एक दन राजा शया त
अपनी क याके साथ वनम घूमते-घूमते यवन ऋ षके आ मपर जा प ँचे ।।२।। सुक या
अपनी स खय के साथ वनम घूम-घूमकर वृ का सौ दय दे ख रही थी। उसने एक थानपर
दे खा क बाँबी (द मक क एक त क ई म )-के छे दमसे जुगनूक तरह दो यो तयाँ
द ख रही ह ।।३।। दै वक कुछ ऐसी ही ेरणा थी, सुक याने बालसुलभ चपलतासे एक
काँटेके ारा उन यो तय को बेध दया। इससे उनमसे ब त-सा खून बह चला ।।४।। उसी
समय राजा शया तके सै नक का मल-मू क गया। राज ष शया तको यह दे खकर बड़ा
आ य आ, उ ह ने अपने सै नक से कहा ।।५।। ‘अरे, तुम-लोग ने कह मह ष यवनजीके
त कोई अनु चत वहार तो नह कर दया? मुझे तो यह प जान पड़ता है क
हमलोग मसे कसी-न- कसीने उनके आ मम कोई अनथ कया है’ ।।६।। तब सुक याने
अपने पतासे डरते-डरते कहा क ‘ पताजी! मने कुछ अपराध अव य कया है। मने
अनजानम दो यो तय को काँटेसे छे द दया है’ ।।७।। अपनी क याक यह बात सुनकर
शया त घबरा गये। उ ह ने धीरे-धीरे तु त करके बाँबीम छपे ए यवन मु नको स
कया ।।८।। तदन तर यवन मु नका अ भ ाय जानकर उ ह ने अपनी क या उ ह सम पत
कर द और इस संकटसे छू टकर बड़ी सावधानीसे उनक अनुम त लेकर वे अपनी
राजधानीम चले आये ।।९।। इधर सुक या परम ोधी यवन मु नको अपने प तके पम
ा त करके बड़ी सावधानीसे उनक सेवा करती ई उ ह स करने लगी। वह उनक
मनोवृ को जानकर उसके अनुसार ही बताव करती थी ।।१०।। कुछ समय बीत जानेपर
उनके आ मपर दोन अ नीकुमार आये। यवन मु नने उनका यथो चत स कार कया और
कहा क ‘आप दोन समथ ह, इस लये मुझे युवा-अव था दान क जये। मेरा प एवं
अव था ऐसी कर द जये, जसे युवती याँ चाहती ह। म जानता ँ क आपलोग
सोमपानके अ धकारी नह ह, फर भी म आपको य म सोमरसका भाग ँ गा’ ।।११-१२।।
बाढ म यूचतु व म भन भष मौ ।
नम जतां भवान मन् दे स व न मते ।।१३

इ यु वा जरया तदे हो धम नस ततः ।


दं वे शतोऽ यां वलीप लत व यः ।।१४

पु षा य उ थुरपी या१ व नता याः ।


प जः कु ड लन तु य पाः सुवाससः ।।१५
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तान् नरी य वरारोहा स पान्२ सूयवचसः ।
अजानती प त सा वी अ नौ शरणं ययौ ।।१६

दश य वा प त त यै पा त येन तो षतौ ।
ऋ षमाम य ययतु वमानेन व पम् ।।१७

य यमाणोऽथ शया त यवन या मं गतः ।


ददश हतुः पा पु षं सूयवचसम् ।।१८

राजा हतरं ाह कृतपादा भव दनाम् ।


आ शष ा युंजानो३ ना त ीतमना इव ।।१९

चक षतं ते क मदं प त वया


ल भतो लोकनम कृतो मु नः ।
यत् वं जरा तमस यस मतं
वहाय जारं भजसेऽमुम वगम् ।।२०

कथं म त तेऽवगता यथा सतां


कुल सूते कुल षणं वदम् ।
बभ ष जारं यदप पा कुलं
पतु भतु नय यध तमः ।।२१
वै शरोम ण अ नीकुमार ने मह ष यवनका अ भन दन करके कहा, ‘ठ क है।’ और
इसके बाद उनसे कहा क ‘यह स के ारा बनाया आ कु ड है, आप इसम नान
क जये’ ।।१३।। यवन मु नके शरीरको बुढ़ापेने घेर रखा था। सब ओर नस द ख रही थ ,
झु रयाँ पड़ जाने एवं बाल पक जानेके कारण वे दे खनेम ब त भ े लगते थे। अ नीकुमार ने
उ ह अपने साथ लेकर कु डम वेश कया ।।१४।। उसी समय कु डसे तीन पु ष बाहर
नकले। वे तीन ही कमल क माला, कु डल और सु दर व पहने एक-से मालूम होते थे।
वे बड़े ही सु दर एवं य को य लगनेवाले थे ।।१५।। परम सा वी सु दरी सुक याने जब
दे खा क ये तीन ही एक आकृ तके तथा सूयके समान तेज वी ह, तब अपने प तको न
पहचानकर उसने अ नीकुमार क शरण ली ।।१६।। उसके पा त यसे अ नीकुमार ब त
स तु ए। उ ह ने उसके प तको बतला दया और फर यवन मु नसे आ ा लेकर वमानके
ारा वे वगको चले गये ।।१७।।
कुछ समयके बाद य करनेक इ छासे राजा शया त यवन मु नके आ मपर आये।
वहाँ उ ह ने दे खा क उनक क या सुक याके पास एक सूयके समान तेज वी पु ष बैठा
आ है ।।१८।। सुक याने उनके चरण क व दना क । शया तने उसे आशीवाद नह दया
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और कुछ अ स -से होकर बोले ।।१९।। ‘ !े यह तूने या कया? या तूने सबके
व दनीय यवन मु नको धोखा दे दया? अव य ही तूने उनको बूढ़ा और अपने कामका न
समझकर छोड़ दया और अब तू इस राह चलते जार पु षक सेवा कर रही है ।।२०।। तेरा
ज म तो बड़े ऊँचे कुलम आ था। यह उलट बु तुझे कैसे ा त ई? तेरा यह वहार तो
कुलम कलंक लगानेवाला है। अरे राम-राम! तू नल ज होकर जार पु षक सेवा कर रही है
और इस कार अपने पता और प त दोन के वंशको घोर नरकम ले जा रही है’ ।।२१।।

एवं ुवाणं पतरं मयमाना शु च मता ।


उवाच तात जामाता तवैष भृगुन दनः ।।२२

शशंस प े तत् सव वयो पा भल भनम् ।


व मतः परम ीत तनयां प रष वजे ।।२३

सोमेन याजयन् वीरं हं सोम य चा हीत् ।


असोमपोर य नो यवनः वेन तेजसा ।।२४

ह तुं तमाददे व ं स ोम युरम षतः ।


सव ं त भयामास भुज म य भागवः ।।२५

अ वजानं ततः सव हं सोम य चा नोः ।


भषजा व त यत् पूव सोमा या ब ह कृतौ ।।२६

उ ानब हरानत भू रषेण इ त यः ।


शयातेरभवन् पु ा आनताद् रेवतोऽभवत् ।।२७

सोऽ तःसमु े नगर व नमाय कुश थलीम् ।


आ थतोऽभुङ् वषयानानताद न र दम ।।२८

त य पु शतं ज े ककु ये मु मम् ।


ककु ी रेवत क यां वामादाय वभुं गतः ।।२९

क यावरं प र ु ं लोकमपावृतम् ।
आवतमाने गा धव थतोऽल ध णः णम् ।।३०

तद त आ मान य वा भ ायं यवेदयत् ।

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त छ वा भगवान् ा ह य तमुवाच ह ।।३१
राजा शया तके इस कार कहनेपर प व मुसकानवाली सुक याने मुसकराकर कहा
—‘ पताजी! ये आपके जामाता वयं भृगुन दन मह ष यवन ही ह’ ।।२२।। इसके बाद
उसने अपने पतासे मह ष यवनके यौवन और सौ दयक ा तका सारा वृ ा त कह
सुनाया। वह सब सुनकर राजा शया त अ य त व मत ए। उ ह ने बड़े ेमसे अपनी
पु ीको गलेसे लगा लया ।।२३।।
मह ष यवनने वीर शया तसे सोमय का अनु ान करवाया और सोमपानके अ धकारी
न होनेपर भी अपने भावसे अ नीकुमार को सोमपान कराया ।।२४।। इ ब त ज द
ोध कर बैठते ह। इस लये उनसे यह सहा न गया। उ ह ने चढ़-कर शया तको मारनेके लये
व उठाया। मह ष यवनने व के साथ उनके हाथको वह त भत कर दया ।।२५।।
तब सब दे वता ने अ नीकुमार को सोमका भाग दे ना वीकार कर लया। उन लोग ने
वै होनेके कारण पहले अ नीकुमार का सोमपानसे ब ह कार कर रखा था ।।२६।।
परी त्! शया तके तीन पु थे—उ ानब ह, आनत और भू रषेण। आनतसे रेवत
ए ।।२७।। महाराज! रेवतने समु के भीतर कुश थली नामक एक नगरी बसायी थी।
उसीम रहकर वे आनत आ द दे श का रा य करते थे ।।२८।।
उनके सौ े पु थे, जनम सबसे बड़े थे ककु ी। ककु ी अपनी क या रेवतीको
लेकर उसके लये वर पूछनेके उ े यसे ाजीके पास गये। उस समय लोकका रा ता
ऐसे लोग के लये बेरोक-टोक था। लोकम गाने-बजानेक धूम मची ई थी। बातचीतके
लये अवसर न मलनेके कारण वे कुछ ण वह ठहर गये ।।२९-३०।।
उ सवके अ तम ाजीको नम कार करके उ ह ने अपना अ भ ाय नवेदन कया।
उनक बात सुनकर भगवान् ाजीने हँसकर उनसे कहा— ।।३१।।
अहो राजन् न ा ते कालेन द ये कृताः ।
त पु पौ न तॄणां गो ा ण च न शृ महे ।।३२

कालोऽ भयात णवचतुयुग वक पतः ।


तद् ग छ दे वदे वांशो बलदे वो महाबलः ।।३३

क यार न मदं राजन् नरर नाय दे ह भोः ।


भुवो भारावताराय भगवान् भूतभावनः ।।३४

अवतीण नजांशेन पु य वणक तनः ।


इ या द ोऽ भव ाजं नृपः वपुरमागतः ।
य ं पु यजन ासाद् ातृ भ द वव थतैः ।।३५

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सुतां द वानव ांग बलाय बलशा लने ।
बदया यं गतो राजा त तुं नारायणा मम् ।।३६
‘महाराज! तुमने अपने मनम जन लोग के वषयम सोच रखा था, वे सब तो कालके
गालम चले गये। अब उनके पु , पौ अथवा ना तय क तो बात ही या है, गो के नाम भी
नह सुनायी पड़ते ।।३२।।
इस बीचम स ाईस चतुयुगीका समय बीत चुका है। इस लये तुम जाओ। इस समय
भगवान् नारायणके अंशावतार महाबली बलदे वजी पृ वीपर व मान ह ।।३३।। राजन्!
उ ह नरर नको यह क यार न तुम सम पत कर दो। जनके नाम, लीला आ दका वण-
क तन बड़ा ही प व है—वे ही ा णय के जीवनसव व भगवान् पृ वीका भार उतारनेके
लये अपने अंशसे अवतीण ए ह।’ राजा ककु ीने ाजीका यह आदे श ा त करके
उनके चरण क व दना क और अपने नगरम चले आये। उनके वंशज ने य के भयसे वह
नगरी छोड़ द थी और जहाँ-तहाँ य ही नवास कर रहे थे ।।३४-३५।। राजा ककु ीने
अपनी सवागसु दरी पु ी परम बलशाली बलरामजीको स प द और वयं तप या करनेके
लये भगवान् नर-नारायणके आ म बदरीवनक ओर चल दये ।।३६।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां नवम क धे तृतीयोऽ यायः ।।३।।

१. रापी या। २. पु षान् सू०। ३. आ शषो न यु०।

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अथ चतुथ ऽ यायः
नाभाग और अ बरीषक कथा
ीशुक उवाच
नाभागो नभगाप यं यं ततं ातरः क वम् ।
य व ं भजन् दायं चा रणमागतम् ।।१

ातरोऽभाङ् क म ं भजाम पतरं तव ।


वां ममाया तताभाङ् ुमा पु क तदा थाः ।।२
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! मनुपु नभगका पु था नाभाग। जब वह
द घकालतक चयका पालन करके लौटा, तब बड़े भाइय ने अपनेसे छोटे क तु व ान्
भाईको ह सेम केवल पताको ही दया (स प तो उ ह ने पहले ही आपसम बाँट ली
थी) ।।१।। उसने अपने भाइय से पूछा—‘भाइयो! आपलोग ने मुझे ह सेम या दया है?’
तब उ ह ने उ र दया क ‘हम तु हारे ह सेम पताजीको ही तु ह दे ते ह।’ उसने अपने
पतासे जाकर कहा—‘ पताजी! मेरे बड़े भाइय ने ह सेम मेरे लये आपको ही दया है।’
पताने कहा—‘बेटा! तुम उनक बात न मानो ।।२।।
इमे अं गरसः स मासतेऽ सुमेधसः ।
ष ं ष मुपे याहः कवे मु त कम ण ।।३

तां वं शंसय सू े े वै दे वे महा मनः ।


ते वय तो धनं स प रशे षतमा मनः ।।४

दा य त तेऽथ तान् ग छ तथा स कृतवान् यथा ।


त मै द वा ययुः वग ते स प रशे षतम्१ ।।५

तं क त् वीक र य तं पु षः कृ णदशनः ।
उवाचो रतोऽ ये य ममेदं वा तुकं वसु ।।६

ममेदमृ ष भद म त त ह म मानवः ।
या ौ ते पत र ः पृ वान् पतरं तथा ।।७

य वा तुगतं सवमु छ मृषयः व चत् ।


च ु वभागं ाय स दे वः सवमह त ।।८

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नाभाग तं ण याह तवेश कल वा तुकम् ।
इ याह मे पता छरसा वां सादये ।।९

यत् ते पतावदद् धम वं च स यं भाषसे ।


ददा म ते म शे ानं सनातनम् ।।१०
दे खो, ये बड़े बु मान् आं गरसगो के ा ण इस समय एक ब त बड़ा य कर रहे ह।
पर तु मेरे व ान् पु ! वे येक छठे दन अपने कमम भूल कर बैठते ह ।।३।।
तुम उन महा मा के पास जाकर उ ह वै -दे वस ब धी दो सू बतला दो; जब वे वग
जाने लगगे, तब य से बचा आ अपना सारा धन तु ह दे दगे। इस लये अब तुम उ ह के पास
चले जाओ।’ उसने अपने पताके आ ानुसार वैसा ही कया। उन आं गरसगो ी ा ण ने
भी य का बचा आ धन उसे दे दया और वे वगम चले गये ।।४-५।।
जब नाभाग उस धनको लेने लगा, तब उ र दशासे एक काले रंगका पु ष आया। उसने
कहा—‘इस य भू मम जो कुछ बचा आ है, वह सब धन मेरा है’ ।।६।।
नाभागने कहा—‘ऋ षय ने यह धन मुझे दया है, इस लये मेरा है।’ इसपर उस पु षने
कहा—‘हमारे ववादके वषयम तु हारे पतासे ही कया जाय।’ तब नाभागने जाकर
पतासे पूछा ।।७।। पताने कहा—‘एक बार द जाप तके य म ऋ षलोग यह न य कर
चुके ह क य भू मम जो कुछ बच रहता है, वह सब दे वका ह सा है। इस लये वह धन
तो महादे वजीको ही मलना चा हये’ ।।८।।
नाभागने जाकर उन काले रंगके पु ष -भगवान्को णाम कया और कहा क ‘ भो!
य -भू मक सभी व तुएँ आपक ह, मेरे पताने ऐसा ही कहा है। भगवन्! मुझसे अपराध
आ, म सर झुकाकर आपसे मा माँगता ँ’ ।।९।। तब भगवान् ने कहा—‘तु हारे
पताने धमके अनुकूल नणय दया है और तुमने भी मुझसे स य ही कहा है। तुम वेद का
अथ तो पहलेसे ही जानते हो। अब म तु ह सनातन त वका ान दे ता ँ ।।१०।।
गृहाण वणं द ं म स े प रशे षतम् ।
इ यु वा त हनो ो भगवान् स यव सलः ।।११

य एतत् सं मरेत् ातः सायं च सुसमा हतः ।


क वभव त म ो ग त चैव तथाऽऽ मनः ।।१२

नाभागाद बरीषोऽभू महाभागवतः कृती ।


ना पृशद् शापोऽ प यं न तहतः व चत् ।।१३
राजोवाच
भगव ोतु म छा म राजष त य धीमतः ।

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न ाभूद ् य नमु ो द डो र ययः ।।१४
ीशुक उवाच
अ बरीषो महाभागः स त पवत महीम् ।
अ यां च यं ल वा वभवं चातुलं भु व ।।१५

मेनेऽ त लभं पुंसां सव तत् व सं तुतम् ।


व ान् वभव नवाणं तमो वश त यत् पुमान् ।।१६

वासुदेवे भगव त त े षु च साधुषु ।


ा तो भावं परं व ं येनेदं लो वत् मृतम् ।।१७

स वै मनः कृ णपदार व दयो-


वचां स वैकु ठगुणानुवणने ।
करौ हरेम दरमाजना दषु
ु त चकारा युतस कथोदये ।।१८

मुकु द लगालयदशने शौ
तद्भृ यगा पशऽङ् गसंगमम् ।
ाणं च त पादसरोजसौरभे
ीम ुल या रसनां तद पते ।।१९
यहाँ य म बचा आ मेरा जो अंश है, यह धन भी म तु ह ही दे रहा ँ; तुम इसे वीकार
करो।’ इतना कहकर स य ेमी भगवान् अ तधान हो गये ।।११।। जो मनु य ातः और
सायंकाल एका च से इस आ यानका मरण करता है वह तभाशाली एवं वेद तो होता
ही है, साथ ही अपने व पको भी जान लेता है ।।१२।। नाभागके पु ए अ बरीष। वे
भगवान्के बड़े ेमी एवं उदार धमा मा थे। जो शाप कभी कह रोका नह जा सका, वह
भी अ बरीषका पश न कर सका ।।१३।।
राजा परी त्ने पूछा—भगवन्! म परम ानी राज ष अ बरीषका च र सुनना चाहता
ँ। ा णने ो धत होकर उ ह ऐसा द ड दया जो कसी कार टाला नह जा सकता;
पर तु वह भी उनका कुछ न बगाड़ सका ।।१४।।
ीशुकदे वजीने कहा—परी त्! अ बरीष बड़े भा यवान् थे। पृ वीके सात प,
अचल स प और अतुलनीय ऐ य उनको ा त था। य प ये सब साधारण मनु य के लये
अ य त लभ व तुएँ ह, फर भी वे इ ह व तु य समझते थे। य क वे जानते थे क जस
धन-वैभवके लोभम पड़कर मनु य घोर नरकम जाता है, वह केवल चार दनक चाँदनी है।
उसका द पक तो बुझा-बुझाया है ।।१५-१६।। भगवान् ीकृ णम और उनके ेमी साधु म
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उनका परम ेम था। उस ेमके ा त हो जानेपर तो यह सारा व और इसक सम त
स प याँ म के ढे लेके समान जान पड़ती ह ।।१७।। उ ह ने अपने मनको ीकृ णच के
चरणार व दयुगलम, वाणीको भगवद्गुणानुवणनम, हाथ को ीह र-म दरके माजन-सेचनम
और अपने कान को भगवान् अ युतक मंगलमयी कथाके वणम लगा रखा था ।।१८।।
उ ह ने अपने ने मुकु दमू त एवं म दर के दशन म, अंग-संग भगवद्भ के शरीर पशम,
ना सका उनके चरणकमल पर चढ़ ीमती तुलसीके द ग धम और रसना ( ज ा)-को
भगवान्के त अ पत नैवे - सादम संल न कर दया था ।।१९।।
पादौ हरेः े पदानुसपणे
शरो षीकेशपदा भव दने ।
कामं च दा ये न तु कामका यया
यथो म ोकजना या र तः ।।२०

एवं सदा कमकलापमा मनः


परेऽ धय े भगव यधो जे ।
सवा मभावं वदध मही ममां
त व ा भ हतः शशास ह ।।२१

ईजेऽ मेधैर धय मी रं
महा वभू योप चतांगद णैः ।
ततैव स ा सतगौतमा द भ-१
ध व य भ ोतमसौ सर वतीम् ।।२२

य य तुषु गीवाणैः सद या ऋ वजो जनाः ।


तु य पा ा न मषा य त सुवाससः ।।२३

वग न ा थतो य य मनुजैरमर यः ।
शृ व पगाय म ोकचे तम् ।।२४

सम य त तान् कामाः वारा यप रभा वताः२ ।


लभा ना प स ानां मुकु दं द प यतः३ ।।२५

स इ थं भ योगेन तपोयु े न पा थवः ।


वधमण ह र ीणन् संगान् सवा छनैजहौ ।।२६
अ बरीषके पैर भगवान्के े आ दक पैदल या ा करनेम ही लगे रहते और वे सरसे

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भगवान् ीकृ णके चरणकमल क व दना कया करते। राजा अ बरीषने माला, च दन आ द
भोग-साम ीको भगवान्क सेवाम सम पत कर दया था। भोगनेक इ छासे नह , ब क
इस लये क इससे वह भगव ेम ा त हो, जो प व क त भगवान्के नज-जन म ही नवास
करता है ।।२०।। इस कार उ ह ने अपने सारे कम य पु ष, इ यातीत भगवान्के त
उ ह सवा मा एवं सव व प समझकर सम पत कर दये थे और भगवद्भ ा णक
आ ाके अनुसार वे इस पृ वीका शासन करते थे ।।२१।। उ ह ने ‘ध व’ नामके नजल दे शम
सर वती नद के वाहके सामने व स , अ सत, गौतम आ द भ - भ आचाय ारा महान्
ऐ यके कारण सवागप रपूण तथा बड़ी-बड़ी द णावाले अनेक अ मेध य करके
य ा धप त भगवान्क आराधना क थी ।।२२।। उनके य म दे वता के साथ जब सद य
और ऋ वज् बैठ जाते थे, तब उनक पलक नह पड़ती थ और वे अपने सु दर व और
वैसे ही पके कारण दे वता के समान दखायी पड़ते थे ।।२३।। उनक जा महा मा के
ारा गाये ए भगवान्के उ म च र का कसी समय बड़े ेमसे वण करती और कसी
समय उनका गान करती। इस कार उनके रा यके मनु य दे वता के अ य त यारे वगक
भी इ छा नह करते ।।२४।। वे अपने दयम अन त ेमका दान करनेवाले ीह रका न य-
नर तर दशन करते रहते थे। इस लये उन लोग को वह भोग-साम ी भी ह षत नह कर पाती
थी, जो बड़े-बड़े स को भी लभ है। वे व तुएँ उनके आ मान दके सामने अ य त तु छ
और तर कृत थ ।।२५।। राजा अ बरीष इस कार तप यासे यु भ योग और
जापालन प वधमके ारा भगवान्को स करने लगे और धीरे-धीरे उ ह ने सब
कारक आस य का प र याग कर दया ।।२६।।
गृहेषु दारेषु सुतेषु ब धुषु
पो म य दनवा जप षु१ ।
अ यर नाभरणायुधा द-
वन तकोशे वकरोदस म तम् ।।२७

त मा अदा र ं यनीकभयावहम् ।
एका तभ भावेन ीतो भृ या भर णम्२ ।।२८

आ रराध यषुः३ कृ णं म ह या तु यशीलया ।


यु ः सांव सरं वीरो दधार ादशी तम् ।।२९

ता ते का तके मा स रा ं समुपो षतः ।


नातः कदा चत् का ल ां ह र मधुवनेऽचयत् ।।३०

महा भषेक व धना सव प करस पदा ।

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अ भ ष या बराक पैग धमा याहणा द भः४ ।।३१

तद्गता तरभावेन पूजयामास केशवम् ।


ा णां महाभागान् स ाथान प भ तः ।।३२

गवां म वषाणीनां याङ् ीणां सुवाससाम् ।


पयःशीलवयो पव सोप करस पदाम् ।।३३

ा हणोत् साधु व े यो गृहेषु यबुदा न षट् ।


भोज य वा जान े वा ं गुणव मम्५ ।।३४
घर, ी, पु , भाई-ब धु, बड़े-बड़े हाथी, रथ, घोड़े एवं पैदल क चतुरं गणी सेना, अ य
र न, आभूषण और आयुध आ द सम त व तु तथा कभी समा त न होनेवाले कोश के
स ब धम उनका ऐसा ढ़ न य था क वे सब-के-सब अस य ह ।।२७।। उनक अन य
ेममयी भ से स होकर भगवान्ने उनक र ाके लये सुदशन च को नयु कर दया
था, जो वरो धय को भयभीत करनेवाला एवं भगव क र ा करनेवाला है ।।२८।।
राजा अ बरीषक प नी भी उ ह के समान धमशील, संसारसे वर एवं भ परायण
थ । एक बार उ ह ने अपनी प नीके साथ भगवान् ीकृ णक आराधना करनेके लये एक
वषतक ादशी धान एकादशी- त करनेका नयम हण कया ।।२९।। तक समा त
होनेपर का तक महीनेम उ ह ने तीन रातका उपवास कया और एक दन यमुनाजीम नान
करके मधुवनम भगवान् ीकृ णक पूजा क ।।३०।। उ ह ने महा भषेकक व धसे सब
कारक साम ी और स प ारा भगवान्का अ भषेक कया और दयसे त मय होकर
व , आभूषण, च दन, माला एवं अ य आ दके ारा उनक पूजा क । य प महा-
भा यवान् ा ण को इस पूजाक कोई आव यकता नह थी, वयं ही उनक सारी कामनाएँ
पूण हो चुक थ —वे स थे—तथा प राजा अ बरीषने भ -भावसे उनका पूजन कया।
त प ात् पहले ा ण को वा द और अ य त गुणकारी भोजन कराकर उन लोग के घर
साठ करोड़ गौएँ सुस जत करके भेज द । उन गौ के स ग सुवणसे और खुर चाँद से मढ़े
ए थे। सु दर-सु दर व उ ह ओढ़ा दये गये थे। वे गौएँ बड़ी सुशील, छोट अव थाक ,
दे खनेम सु दर, बछड़ेवाली और खूब ध दे नेवाली थ । उनके साथ हनेक उपयु साम ी
भी उ ह ने भेजवा द थी ।।३१-३४।।
ल धकामैरनु ातः पारणायोपच मे ।
त य त त थः सा ाद् वासा भगवानभूत् ।।३५

तमानचा त थ भूपः यु थानासनाहणैः ।


ययाचेऽ यवहाराय पादमूलमुपागतः ।।३६

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तन स त ा ञां१ कतुमाव यकं गतः ।
नमम ज२ बृहद् यायन् का ल द स लले शुभ३े ।।३७

मु ताधाव श ायां ाद यां पारणं त ।


च तयामास धम ो जै त मसंकटे ।।३८

ा णा त मे दोषो ाद यां यदपारणे ।


यत् कृ वा साधु मे भूयादधम वा न मां पृशेत् ।।३९

अ भसा केवलेनाथ क र ये तपारणम् ।


ा र भ णं व ा शतं ना शतं च तत् ।।४०

इ यपः ा य राज ष तयन् मनसा युतम् ।


यच कु े जागमनमेव सः ।।४१

वासा यमुनाकूलात् कृताव यक आगतः ।


रा ा भन दत त य बुबुधे चे तं धया ।।४२
जब ा ण को सब कुछ मल चुका, तब राजाने उन लोग से आ ा लेकर तका पारण
करनेक तैयारी क । उसी समय शाप और वरदान दे नेम समथ वयं वासाजी भी उनके यहाँ
अ त थके पम पधारे ।।३५।।
राजा अ बरीष उ ह दे खते ही उठकर खड़े हो गये, आसन दे कर बैठाया और व वध
साम य से अ त थके पम आये ए वासाजीक पूजा क । उनके चरण म णाम करके
अ बरीषने भोजनके लये ाथना क ।।३६।।
वासाजीने अ बरीषक ाथना वीकार कर ली और इसके बाद आव यक कम से
नवृ होनेके लये वे नद तटपर चले गये। वे का यान करते ए यमुनाके प व जलम
नान करने लगे ।।३७।। इधर ादशी केवल घड़ीभर शेष रह गयी थी। धम अ बरीषने धम-
संकटम पड़कर ा ण के साथ परामश कया ।।३८।। उ ह ने कहा—‘ ा ण-दे वताओ!
ा णको बना भोजन कराये वयं खा लेना और ादशी रहते पारण न करना—दोन ही
दोष ह। इस लये इस समय जैसा करनेसे मेरी भलाई हो और मुझे पाप न लगे, ऐसा काम
करना चा हये ।।३९।।
तब ा ण के साथ वचार करके उ ह ने कहा—‘ ा णो! ु तय म ऐसा कहा गया है
क जल पी लेना भोजन करना भी है, नह भी करना है। इस लये इस समय केवल जलसे
पारण कये लेता ँ ।।४०।।
ऐसा न य करके मन-ही-मन भगवान्का च तन करते ए राज ष अ बरीषने जल पी
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लया और परी त्! वे केवल वासाजीके आनेक बाट दे खने लगे ।।४१।। वासाजी
आव यक कम से नवृ होकर यमुनातटसे लौट आये। जब राजाने आगे बढ़कर उनका
अ भन दन कया तब उ ह ने अनुमानसे ही समझ लया क राजाने पारण कर लया
है ।।४२।।
म युना चलद्गा ो ुकुट कु टलाननः ।
बुभु त सुतरां कृतांज लमभाषत ।।४३

अहो अ य नृशंस य यो म य१ प यत ।
धम त मं व णोरभ येशमा ननः२ ।।४४

यो माम त थमायातमा त येन नम य च ।


अद वा भु वां त य स ते दशये फलम् ।।४५

एवं ुवाण उ कृ य जटां रोष वद पतः ।


तया३ स नममे त मै कृ यां कालानलोपमाम् ।।४६

तामापत त वलतीम सह तां४ पदा भुवम् ।


वेपय त समु य न चचाल पदा ृपः ।।४७

ा द ं भृ यर ायां पु षेण महा मना ।


ददाह कृ यां तां च ं ु ा ह मव पावकः ।।४८

तद भ व य५ व यासं च न फलम् ।
वासा वे भीतो द ु ाणपरी सया ।।४९
उस समय वासाजी ब त भूखे थे। इस लये यह जानकर क राजाने पारण कर लया है,
वे ोधसे थर-थर काँपने लगे। भ ह के चढ़ जानेसे उनका मुँह वकट हो गया। उ ह ने हाथ
जोड़कर खड़े अ बरीषसे डाँटकर कहा ।।४३।।
‘अहो! दे खो तो सही, यह कतना ू र है! यह धनके मदम मतवाला हो रहा है।
भगवान्क भ तो इसे छू तक नह गयी और यह अपनेको बड़ा समथ मानता है। आज
इसने धमका उ लंघन करके बड़ा अ याय कया है ।।४४।।
दे खो, म इसका अ त थ होकर आया ँ। इसने अ त थ-स कार करनेके लये मुझे
नम ण भी दया है, क तु फर भी मुझे खलाये बना ही खा लया है। अ छा दे ख, ‘तुझे
अभी इसका फल चखाता ँ’ ।।४५।।

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य कहते-कहते वे ोधसे जल उठे । उ ह ने अपनी एक जटा उखाड़ी और उससे
अ बरीषको मार डालनेके लये एक कृ या उ प क । वह लयकालक आगके समान
दहक रही थी ।।४६।।
वह आगके समान जलती ई, हाथम तलवार लेकर राजा अ बरीषपर टू ट पड़ी। उस
समस उसके पैर क धमकसे पृ वी काँप रही थी। पर तु राजा अ बरीष उसे दे खकर उससे
त नक भी वच लत नह ए। वे एक पग भी नह हटे , य -के- य खड़े रहे ।।४७।।
परमपु ष परमा माने अपने सेवकक र ाके लये पहलेसे ही सुदशन च को नयु
कर रखा था। जैसे आग ोधसे गुराते ए साँपको भ म कर दे ती है, वैसे ही च ने
वासाजीक कृ याको जलाकर राखका ढे र कर दया ।।४८।।
जब वासाजीने दे खा क मेरी बनायी ई कृ या तो जल रही है और च मेरी ओर आ
रहा है, तब वे भयभीत हो अपने ाण बचानेके लये जी छोड़कर एकाएक भाग
नकले ।।४९।।
तम वधावद् भगव थांगं
दावा न द्धूत शखो यथा हम् ।
तथानुष ं १ मु नरी माणो
गुहां व व ुः ससार मेरोः ।।५०
दशो नभः मां ववरान् समु ा-
ल कान् सपालां दवं गतः सः ।
यतो यतो धाव त त त
सुदशनं सहं ददश ।।५१
अल धनाथः स यदा कुत त्
सं त च ोऽरणमेषमाणः ।
दे वं व रचं समगाद् वधात-
ा ा मयोनेऽ जततेजसो माम् ।।५२
ोवाच
थानं मद यं सह व मेतत्
डावसाने पराधसं े ।
ूभंगमा ेण ह सं दध ोः
काला मनो य य तरोभ व य त ।।५३
अहं भवो द भृगु धानाः
जेशभूतेशसुरेशमु याः ।
सव वयं य यमं प ा
मू य पतं लोक हतं वहामः ।।५४
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या यातो व रचेन व णुच ोपता पतः ।
वासाः शरणं यातः शव कैलासवा सनम् ।।५५
ी उवाच
वयं न तात भवाम भू न
य मन् परेऽ येऽ यजजीवकोशाः ।
भव त काले न भव त ही शाः
सह शो य वयं मामः ।।५६
जैसे ऊँची-ऊँची लपट वाला दावानल साँपके पीछे दौड़ता है, वैसे ही भगवान्का च
उनके पीछे -पीछे दौड़ने लगा। जब वासाजीने दे खा क च तो मेरे पीछे लग गया है? तब
सुमे पवतक गुफाम वेश करनेके लये वे उसी ओर दौड़ पड़े ।।५०।।
वासाजी दशा, आकाश, पृ वी, अतल- वतल आ द नीचेके लोक, समु , लोकपाल
और उनके ारा सुर त लोक एवं वगतकम गये; पर तु जहाँ-जहाँ वे गये, वह -वह उ ह ने
अस तेज-वाले सुदशन च को अपने पीछे लगा दे खा ।।५१।। जब उ ह कह भी कोई
र क न मला तब तो वे और भी डर गये। अपने लये ाण ढूँ ढ़ते ए वे दे व शरोम ण
ाजीके पास गये और बोले—‘ ाजी! आप वय भू ह। भगवान्के इस तेजोमय च से
मेरी र ा क जये’ ।।५२।।
ाजीने कहा—‘जब मेरी दो पराधक आयु समा त होगी और काल व प भगवान्
अपनी यह सृ लीला समेटने लगगे और इस जगत्को जलाना चाहगे, उस समय उनके
ूभंगमा से यह सारा संसार और मेरा यह लोक भी लीन हो जायगा ।।५३।। म, शंकरजी,
द -भृगु आ द जा-प त, भूते र, दे वे र आ द सब जनके बनाये नयम म बँधे ह तथा
जनक आ ा शरोधाय करके हमलोग संसारका हत करते ह, (उनके भ के ोहीको
बचानेके लये हम समथ नह ह)’ ।।५४।।
जब ाजीने इस कार वासाको नराश कर दया, तब भगवान्के च से संत त
होकर वे कैलासवासी भगवान् शंकरक शरणम गये ।।५५।।
ीमहादे वजीने कहा—‘ वासाजी! जन अन त परमे रम ा-जैसे जीव और उनके
उपा धभूत कोश, इस ा डके समान ही अनेक ा ड समयपर पैदा होते ह और समय
आनेपर फर उनका पता भी नह चलता, जनम हमारे-जैसे हजार च कर काटते रहते ह—
उन भुके स ब धम हम कुछ भी करनेक साम य नह रखते ।।५६।।
अहं सन कुमार नारदो भगवानजः ।
क पलोऽपा तरतमो दे वलो धम आसु रः ।।५७
मरी च मुखा ा ये स े शाः पारदशनाः ।
वदाम न वयं सव य मायां माययाऽऽवृताः ।।५८
त य व े र येदं श ं वषहं ह नः ।
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तमेव शरणं या ह ह र ते शं वधा य त ।।५९
ततो नराशो वासाः पदं भगवतो ययौ ।
वैकु ठा यं यद या ते ी नवासः या सह ।।६०
संद मानोऽ जतश व ना
त पादमूले प ततः सवेपथुः ।
आहा युतान त सद सत भो
कृतागसं माव१ ह व भावन ।।६१
अजानता ते परमानुभावं
कृतं मयाघं भवतः याणाम् ।
वधे ह त याप च त वधात-
मु येत य ा यु दते नारकोऽ प ।।६२
ीभगवानुवाच
अहं भ पराधीनो वत इव ज ।
साधु भ त दयो भ ै भ जन यः ।।६३
नाहमा मानमाशासे म ै ः साधु भ वना ।
यं चा य तक न् येषां ग तरहं परा ।।६४
ये दारागारपु ा तान् ाणान् व ममं परम् ।
ह वा मां शरणं याताः कथं तां य ु मु सहे ।।६५
म, सन कुमार, नारद, भगवान् ा, क पलदे व, अपा तरतम, दे वल, धम, आसु र तथा
मरी च आ द सरे सव स े र—ये हम सभी भगवान्क मायाको नह जान सकते।
य क हम उसी मायाके घेरेम ह ।।५७-५८।।
यह च उन व े रका श है। यह हमलोग के लये अस है। तुम उ ह क शरणम
जाओ। वे भगवान् ही तु हारा मंगल करगे’ ।।५९।।
वहाँसे भी नराश होकर वासा भगवान्के परमधाम वैकु ठम गये। ल मीप त भगवान्
ल मीके साथ वह नवास करते ह ।।६०।।
वासाजी भगवान्के च क आगसे जल रहे थे। वे काँपते ए भगवान्के चरण म गर
पड़े। उ ह ने कहा—‘हे अ युत! हे अन त! आप संत के एकमा वा छनीय ह। भो! व के
जीवनदाता! म अपराधी ँ। आप मेरी र ा क जये ।।६१।।
आपका परम भाव न जाननेके कारण ही मने आपके यारे भ का अपराध कया है।
भो! आप मुझे उससे बचाइये। आपके तो नामका ही उ चारण करनेसे नारक जीव भी
मु हो जाता है’ ।।६२।।
ीभगवान्ने कहा— वासाजी! म सवथा भ के अधीन ँ। मुझम त नक भी
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वत ता नह है। मेरे सीधे-सादे सरल भ ने मेरे दयको अपने हाथम कर रखा है।
भ जन मुझसे यार करते ह और म उनसे ।।६३।।
न्! अपने भ का एकमा आ य म ही ँ। इस लये अपने साधु वभाव भ को
छोड़कर म न तो अपने-आपको चाहता ँ और न अपनी अ ा गनी वनाशर हत
ल मीको ।।६४।।
जो भ ी, पु , गृह, गु जन, ाण, धन, इहलोक और परलोक—सबको छोड़कर
केवल मेरी शरणम आ गये ह, उ ह छोड़नेका संक प भी म कैसे कर सकता ँ? ।।६५।।
म य नब दयाः साधवः समदशनाः१ ।
वशीकुव त मां भ या स यः स प त यथा ।।६६

म सेवया तीतं च सालो या दचतु यम् ।


ने छ त सेवया पूणाः कुतोऽ यत् काल व तम् ।।६७

साधवो दयं म ं साधूनां दयं वहम्२ ।


मद यत् ते न जान त नाहं ते यो मनाग प ।।६८

उपायं कथ य या म तव व शृणु व तत् ।


अयं ा मा भचार ते यत तं यातु वै भवान् ।
साधुषु हतं तेजः हतुः कु तेऽ शवम् ।।६९

तपो व ा च व ाणां नः ेयसकरे उभे ।


ते एव वनीत य क पेते कतुर यथा ।।७०

ं तद् ग छ भ ं ते नाभागतनयं नृपम् ।


मापय महाभागं ततः शा तभ व य त ।।७१
जैसे सती ी अपने पा त यसे सदाचारी प तको वशम कर लेती है, वैसे ही मेरे साथ
अपने दयको ेम-ब धनसे बाँध रखनेवाले समदश साधु भ के ारा मुझे अपने वशम
कर लेते ह ।।६६।।
मेरे अन य ेमी भ सेवासे ही अपनेको प रपूण—कृतकृ य मानते ह। मेरी सेवाके
फल व प जब उ ह सालो य, सा य आ द मु याँ ा त होती ह तब वे उ ह भी वीकार
करना नह चाहते; फर समयके फेरसे न हो जानेवाली व तु क तो बात ही या
है ।।६७।।
वासाजी! म आपसे और या क ँ, मेरे ेमी भ तो मेरे दय ह और उन ेमी
भ का दय वयं म ँ। वे मेरे अ त र और कुछ नह जानते तथा म उनके अ त र
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और कुछ भी नह जानता ।।६८।।
वासाजी! सु नये, म आपको एक उपाय बताता ँ। जसका अ न करनेसे आपको इस
वप म पड़ना पड़ा है, आप उसीके पास जाइये। नरपराध साधु के अ न क चे ासे
अ न करनेवालेका ही अमंगल होता है ।।६९।।
इसम स दे ह नह क ा ण के लये तप या और व ा परम क याणके साधन ह।
पर तु य द ा ण उ ड और अ यायी हो जाय तो वे ही दोन उलटा फल दे ने लगते
ह ।।७०।।
वासाजी! आपका क याण हो। आप नाभाग-न दन परम भा यशाली राजा अ बरीषके
पास जाइये और उनसे मा माँ गये। तब आपको शा त मलेगी ।।७१।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां नवम क धेऽ बरीषच रते
चतुथ ऽ यायः ।।४।।

१. शेषणम्।
१. भः वधु य भ ोतवत सर०। २. वे ताः। ३. प यताम्।
१. जव तुषु। २. भूता भ०। ३. षु व णुं। ४. ल ध०। ५. गुणव मधु।
१. त ा यं। २. नम०। ३. शुचौ।
१. या म य। २. ये मा ननः। ३. तपसा न०। ४. ल तीम स०। ५. वमु ०।
१. थावस ं ।
१. मामव व ।
१. द शनः। २. हम्।

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अथ प चमोऽ यायः
वासाजीक ःख नवृ
ीशुक उवाच
एवं भगवताऽऽ द ो वासा ता पतः ।
अ बरीषमुपावृ य त पादौ ः खतोऽ हीत् ।।१

त य सो मनं१ वी य पाद पश वल जतः२ ।


अ तावीत् त रेर ं कृपया पी डतो भृशम् ।।२
अ बरीष उवाच
वम नभगवान् सूय वं सोमो यो तषां प तः ।
वमाप वं त म वायुमा े या ण च ।।३

सुदशन नम तु यं सह ारा युत य ।


सवा घा तन् व ाय व त भूया इड पते ।।४

वं धम वमृतं स यं वं य ोऽ खलय भुक् ।


वं लोकपालः सवा मा वं तेजः पौ षं परम् ।।५

नमः सुनाभा खलधमसेतवे


धमशीलासुरधूमकेतवे ।
ैलो यगोपाय वशु वचसे ।
मनोजवायाद्भुतकमणे गृणे ।।६
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जब भगवान्ने इस कार आ ा द तब सुदशन
च क वालासे जलते ए वासा लौटकर राजा अ बरीषके पास आये और उ ह ने अ य त
ःखी होकर राजाके पैर पकड़ लये ।।१।।
वासाजीक यह चे ा दे खकर और उनके चरण पकड़नेसे ल जत होकर राजा
अ बरीष भगवान्के च क तु त करने लगे। उस समय उनका दय दयावश अ य त
पी ड़त हो रहा था ।।२।।
अ बरीषने कहा— भो सुदशन! आप अ न व प ह। आप ही परम समथ सूय ह।
सम त न म डलके अ धप त च मा भी आपके व प ह। जल, पृ वी, आकाश, वायु,
पंचत मा ा और स पूण इ य के पम भी आप ही ह ।।३।।

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भगवान्के यारे, हजार दाँतवाले च दे व! म आपको नम कार करता ँ। सम त अ -
श को न कर दे नेवाले एवं पृ वीके र क! आप इन ा णक र ा क जये ।।४।।
आप ही धम ह, मधुर एवं स य वाणी ह; आप ही सम त य के अ धप त और वयं य
भी ह। आप सम त लोक के र क एवं सवलोक व प भी ह। आप परमपु ष परमा माके
े तेज ह ।।५।।
सुनाभ! आप सम त धम क मयादाके र क ह। अधमका आचरण करनेवाले असुर को
भ म करनेके लये आप सा ात् अ न ह। आप ही तीन लोक के र क एवं वशु तेजोमय
ह। आपक ग त मनके वेगके समान है और आपके कम अद्भुत ह। म आपको नम कार
करता ँ, आपक तु त करता ँ ।।६।।
व ेजसा धममयेन सं तं
तमः काश धृतो महा मनाम् ।
र यय ते म हमा गरां पते
व पू मेतत् सदसत् परावरम् ।।७

यदा वसृ वमनंजनेन वै


बलं व ोऽ जत दै यदानवम् ।
बा दरोवङ् शरोधरा ण
वृ ण ज ं धने वराजसे ।।८

स वं जग ाण खल हाणये
न पतः सवसहो गदाभृता ।
व य चा म कुलदै वहेतवे
वधे ह भ ं तदनु हो ह नः ।।९

य त द म ं वा वधम वा वनु तः ।
कुलं नो व दै वं चेद ् जो भवतु व वरः ।।१०

य द नो भगवान् ीत एकः सवगुणा यः ।


सवभूता मभावेन जो भवतु व वरः ।।११
ीशुक उवाच
इ त सं तुवतो रा ो व णुच ं सुदशनम् ।
अशा यत् सवतो व ं दहद् राजया ञया ।।१२

स मु ोऽ ा नतापेन वासाः व तमां ततः ।


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शशंस तमुव शं यु ानः परमा शषः ।।१३
वासा उवाच
अहो अन तदासानां मह वं म मे ।
कृतागसोऽ प यद् राजन् मंगला न समीहसे ।।१४
वेदवाणीके अधी र! आपके धममय तेजसे अ धकारका नाश होता है और सूय आ द
महापु ष के काशक र ा होती है। आपक म हमाका पार पाना अ य त क ठन है। ऊँचे-
नीचे और छोटे -बड़ेके भेदभावसे यु यह सम त काय-कारणा मक संसार आपका ही
व प है ।।७।। सुदशन च ! आपपर कोई वजय नह ा त कर सकता। जस समय
नरंजनभगवान् आपको चलाते ह और आप दै य एवं दानव क सेनाम वेश करते ह, उस
समय यु भू मम उनक भुजा, उदर, जंघा, चरण और गरदन आ द नर तर काटते ए आप
अ य त शोभायमान होते ह ।।८।। व के र क! आप रणभू मम सबका हार सह लेते ह,
आपका कोई कुछ नह बगाड़ सकता। गदाधारी भगवान्ने के नाशके लये ही आपको
नयु कया है। आप कृपा करके हमारे कुलके भा योदयके लये वासाजीका क याण
क जये। हमारे ऊपर यह आपका महान् अनु ह होगा ।।९।। य द मने कुछ भी दान कया
हो, य कया हो अथवा अपने धमका पालन कया हो, य द हमारे वंशके लोग ा ण को ही
अपना आरा यदे व समझते रहे ह , तो वासाजीक जलन मट जाय ।।१०।। भगवान् सम त
गुण के एक-मा आ य ह। य द मने सम त ा णय के आ माके पम उ ह दे खा हो और वे
मुझपर स ह तो वासाजीके दयक सारी जलन मट जाय ।।११।।
ीशुकदे वजी कहते ह—जब राजा अ बरीषने वासाजीको सब ओरसे जलानेवाले
भगवान्के सुदशन च क इस कार तु त क , तब उनक ाथनासे च शा त हो
गया ।।१२।। जब वासा च क आगसे मु हो गये और उनका च व थ हो गया, तब वे
राजा अ बरीषको अनेकानेक उ म आशीवाद दे ते ए उनक शंसा करने लगे ।।१३।।
वासाजीने कहा—ध य है! आज मने भगवान्के ेमी भ का मह व दे खा। राजन्!
मने आपका अपराध कया, फर भी आप मेरे लये मंगल-कामना ही कर रहे ह ।।१४।।
करः को नु साधूनां यजो वा महा मनाम् ।
यैः संगृहीतो भगवान् सा वतामृषभो ह रः ।।१५

य ाम ु तमा ण
े पुमान् भव त नमलः ।
त य तीथपदः क वा दासानामव श यते ।।१६

राज नुगृहीतोऽहं१ वया तक णा मना ।


मदघं पृ तः कृ वा ाणा य मेऽ भर ताः ।।१७

राजा तमकृताहारः यागमनकाङ् या ।


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चरणावुपसंगृ सा समभोजयत् ।।१८

सोऽ श वाऽऽ तमानीतमा त यं सावका मकम् ।


तृ ता मा नृप त ाह भु यता म त सादरम् ।।१९

ीतोऽ यनुगृहीतोऽ म तव भागवत य वै ।


दशन पशनालापैरा त येना ममेधसा ।।२०

कमावदातमेतत् ते गाय त वः यो मु ः ।
क त२ परमपु यां च क त य य त भू रयम् ।।२१
ीशुक उवाच
एवं संक य राजानं वासाः प रतो षतः ।
ययौ वहायसाऽऽम य लोकमहैतुकम् ।।२२
ज ह ने भ व सल भगवान् ीह रके चरण-कमल को ढ़ ेमभावसे पकड़ लया है—
उन साधुपु ष के लये कौन-सा काय क ठन है? जनका दय उदार है, वे महा मा भला,
कस व तुका प र याग नह कर सकते? ।।१५।। जनके मंगलमय नाम के वणमा से जीव
नमल हो जाता है—उ ह तीथपाद भगवान्के चरणकमल के जो दास ह, उनके लये कौन-
सा कत शेष रह जाता है? ।।१६।।
महाराज अ बरीष! आपका दय क णाभावसे प रपूण है। आपने मेरे ऊपर महान्
अनु ह कया। अहो, आपने मेरे अपराधको भुलाकर मेरे ाण क र ा क है! ।।१७।।
परी त्! जबसे वासाजी भागे थे, तबसे अबतक राजा अ बरीषने भोजन नह कया
था। वे उनके लौटनेक बाट दे ख रहे थे। अब उ ह ने वासाजीके चरण पकड़ लये और उ ह
स करके व धपूवक भोजन कराया ।।१८।।
राजा अ बरीष बड़े आदरसे अ त थके यो य सब कारक भोजन-साम ी ले आये।
वासाजी भोजन करके तृ त हो गये। अब उ ह ने आदरसे कहा—‘राजन्! अब आप भी
भोजन क जये ।।१९।। अ बरीष! आप भगवान्के परम ेमी भ ह। आपके दशन, पश,
बातचीत और मनको भगवान्क ओर वृ करनेवाले आ त यसे म अ य त स और
अनुगृहीत आ ँ ।।२०।। वगक दे वांगनाएँ बार-बार आपके इस उ वल च र का गान
करगी। यह पृ वी भी आपक परम पु यमयी क तका संक तन करती रहेगी’ ।।२१।।
ीशुकदे वजी कहते ह— वासाजीने ब त ही स तु होकर राजा अ बरीषके गुण क
शंसा क और उसके बाद उनसे अनुम त लेकर आकाशमागसे उस लोकक या ा क
जो केवल न काम कमसे ही ा त होता है ।।२२।।
संव सरोऽ यगात् तावद् यावता नागतो गतः ।

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मु न त शनाकां ो राजाऽ भ ो बभूव ह ।।२३
गते१ च वास स सोऽ बरीषो
जोपयोगा तप व माहरत्२ ।
ऋषे वमो ं सनं च बुद ् वा
मेने ववीय च परानुभावम्३ ।।२४
एवं वधानेकगुणः स राजा
परा म न ण वासुदेवे ।
याकलापैः समुवाह भ
ययाऽऽ व र यान् नरयां कार ।।२५
अथा बरीष तनयेषु रा यं
समानशीलेषु वसृ य धीरः४ ।
वनं ववेशा म न वासुदेवे
मनो दधद् व तगुण वाहः ।।२६
इ येतत् पु यमा यानम बरीष य भूपतेः ।
संक तय नु यायन् भ ो भगवतो भवेत् ।।२७
परी त्! जब सुदशन च से भयभीत होकर वासाजी भगे थे, तबसे लेकर उनके
लौटनेतक एक वषका समय बीत गया। इतने दन तक राजा अ बरीष उनके दशनक
आकां ासे केवल जल पीकर ही रहे ।।२३।।
जब वासाजी चले गये, तब उनके भोजनसे बचे ए अ य त प व अ का उ ह ने
भोजन कया। अपने कारण वासाजीका ःखम पड़ना और फर अपनी ही ाथनासे उनका
छू टना—इन दोन बात को उ ह ने अपने ारा होनेपर भी भगवान्क ही म हमा
समझा ।।२४।। राजा अ बरीषम ऐसे-ऐसे अनेक गुण थे। अपने सम त कम के ारा वे
पर परमा मा ीभगवान्म भ भावक अ भवृ करते रहते थे। उस भ के भावसे
उ ह ने लोकतकके सम त भोग को नरकके समान समझा ।।२५।।
तदन तर राजा अ बरीषने अपने ही समान भ पु पर रा यका भार छोड़ दया और
वयं वे वनम चले गये। वहाँ वे बड़ी धीरताके साथ आ म व प भगवान्म अपना मन
लगाकर गुण के वाह प संसारसे मु हो गये ।।२६।। परी त्! महाराज अ बरीषका यह
परम प व आ यान है। जो इसका संक तन और मरण करता है, वह भगवान्का भ हो
जाता है ।।२७।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां नवम क धेऽ बरीषच रतं५ नाम
प चमोऽ यायः ।।५।।

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१. तद् सनं। २. पशन ल ज०।
१. तोऽ म। २. क त तां परमां पु यां क त०।
१. गतेऽथ। २. गा भप व०। ३. महानुभावम्। ४. वीरः। ५. च रते।

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अथ ष ोऽ यायः
इ वाकुके वंशका वणन, मा धाता और सौभ र ऋ षक कथा
ीशुक उवाच
व पः केतुमा छ भुर बरीषसुता यः ।
व पात् पृषद ोऽभूत् त पु तु रथीतरः ।।१
रथीतर या ज य भायायां त तवेऽ थतः ।
अं गरा जनयामास वच वनः सुतान् ।।२
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! अ बरीषके तीन पु थे— व प, केतुमान् और
श भु। व पसे पृषद और उसका पु रथीतर आ ।।१।।
रथीतर स तानहीन था। वंश पर पराक र ाके लये उसने अं गरा ऋ षसे ाथना क ,
उ ह ने उसक प नीसे तेजसे स प कई पु उ प कये ।।२।।
एते े १े सूता वै पुन वां गरसाः मृताः ।
रथीतराणां वराः ोपेता जातयः ।।३

ुवत तु मनोज े इ वाकु ाणतः सुतः ।


त य पु शत ये ा वकु न मद डकाः ।।४

तेषां पुर तादभव ायावत नृपा नृप ।


पंच वश तः प ा च यो म ये परेऽ यतः ।।५

स एकदा का ा े इ वाकुः सुतमा दशत् ।


मांसमानीयतां मे यं वकु े ग छ मा चरम् ।।६

तथे त स वनं ग वा मृगान् ह वा याहणान्२ ।


ा तो बुभु तो वीरः शशं चाददप मृ तः ।।७

शेषं नवेदयामास प े तेन च तद्गु ः ।


चो दतः ो णायाह मेतदकमकम् ।।८

ा वा पु य तत् कम गु णा भ हतं नृपः ।


दे शा ःसारयामास सुतं य व ध षा ।।९

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स तु व ेण संवादं जापकेन समाचरन् ।
य वा कलेवरं योगी स तेनावाप यत् परम् ।।१०

पतयुपरतेऽ ये य वकु ः पृ थवी ममाम् ।


शासद जे ह र य ैः शशाद इ त व ुतः ।।११
य प ये सब रथीतरक भायासे उ प ए थे, इस लये इनका गो वही होना चा हये था
जो रथीतरका था, फर भी वे आं गरस ही कहलाये। ये ही रथीतर-वं शय के वर (कुलम
सव े पु ष) कहलाये। य क ये ोपेत ा ण थे— य और ा ण दोन गो से
इनका स ब ध था ।।३।।
परी त्! एक बार मनुजीके छ कनेपर उनक ना सकासे इ वाकु नामका पु उ प
आ। इ वाकुके सौ पु थे। उनम सबसे बड़े तीन थे— वकु , न म और द डक ।।४।।
परी त्! उनसे छोटे पचीस पु आयावतके पूवभागके और पचीस प मभागके तथा
उपयु तीन म यभागके अ धप त ए। शेष सतालीस द ण आ द अ य ा त के अ धप त
ए ।।५।। एक बार राजा इ वाकुने अ का- ा के समय अपने बड़े पु को आ ा द
—‘ वकु !े शी ही जाकर ा के यो य प व पशु का मांस लाओ’ ।।६।। वीर
वकु ने ‘ब त अ छा’ कहकर वनक या ा क । वहाँ उसने ा के यो य ब त-से
पशु का शकार कया। वह थक तो गया ही था, भूख भी लग आयी थी; इस लये यह बात
भूल गया क ा के लये मारे ए पशुको वयं न खाना चा हये। उसने एक खरगोश खा
लया ।।७।। वकु ने बचा आ मांस लाकर अपने पताको दया। इ वाकुने अब अपने
गु से उसे ो ण करनेके लये कहा, तब गु जीने बताया क यह मांस तो षत एवं ा के
अयो य है ।।८।। परी त्! गु जीके कहनेपर राजा इ वाकुको अपने पु क करतूतका पता
चल गया। उ ह ने शा ीय व धका उ लंघन करनेवाले पु को ोधवश अपने दे शसे नकाल
दया ।।९।। तदन तर राजा इ वाकुने अपने गु दे व व स से ान वषयक चचा क । फर
योगके ारा शरीरका प र याग करके उ ह ने परमपद ा त कया ।।१०।। पताका दे हा त हो
जानेपर वकु अपनी राजधानीम लौट आया और इस पृ वीका शासन करने लगा। उसने
बड़े-बड़े य से भगवान्क आराधना क और संसारम शशादके नामसे स आ ।।११।।
वकु के पु का नाम था पुरंजय। उसीको कोई ‘इ वाह’ और कोई ‘ककु थ’ कहते ह।
जन कम के कारण उसके ये नाम पड़े थे, उ ह सुनो ।।१२।।

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पुरंजय त य सुत इ वाह इती रतः ।
ककु थ इ त चा यु ः१ शृणु नामा न कम भः ।।१२

कृता त आसीत् समरो दे वानां सह दानवैः ।


पा ण ाहो वृतो वीरो दे वैद यपरा जतैः ।।१३

वचनाद् दे वदे व य व णो व ा मनः भोः ।


वाहन वे वृत त य बभूवे ो महावृषः ।।१४

स संन ो धनु द मादाय व शखा छतान् ।


तूयमानः समा २ युयु सुः ककु द थतः ।।१५

तेजसाऽऽ या यतो व णोः पु ष य परा मनः ।


ती यां द श दै यानां य णत् दशैः पुरम् ।।१६

तै त य चाभूत् धनं तुमुलं लोमहषणम् ।


यमाय भ लैरनयद् दै यान् येऽ भययुमृधे ।।१७

त येषुपाता भमुखं युगा ता न मवो बणम् ।


वसृ य वुद या ह यमानाः वमालयम् ।।१८

ज वा पुरं धनं सव स ीकं व पाणये ।


यय छत् स राज ष र त नाम भरा तः ।।१९

पुरंजय य पु ोऽभूदनेना त सुतः पृथुः ।


व र ध तत ो युवना त सुतः ।।२०

शाब त त सुतो येन शाब ती नममे पुरी ।


बृहद तु शाब त ततः कुवलया कः ।।२१
स ययुगके अ तम दे वता का दानव के साथ घोर सं ाम आ था। उसम सब-के-सब
दे वता दै य से हार गये। तब उ ह ने वीर पुरंजयको सहायताके लये अपना म
बनाया ।।१३।। पुरंजयने कहा क ‘य द दे वराज इ मेरे वाहन बन तो म यु कर सकता
।ँ ’ पहले तो इ ने अ वीकार कर दया, पर तु दे वता के आरा यदे व सवश मान्
व ा मा भगवान्क बात मानकर पीछे वे एक बड़े भारी बैल बन गये ।।१४।। सवा तयामी
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भगवान् व णुने अपनी श से पुरंजयको भर दया। उ ह ने कवच पहनकर द धनुष और
तीखे बाण हण कये। इसके बाद बैलपर चढ़कर वे उसके ककुद् (डील)-के पास बैठ गये।
जब इस कार वे यु के लये त पर ए तब दे वता उनक तु त करने लगे। दे वता को
साथ लेकर उ ह ने प मक ओरसे दै य का नगर घेर लया ।।१५-१६।। वीर पुरंजयका
दै य के साथ अ य त रोमांचकारी घोर सं ाम आ। यु म जो-जो दै य उनके सामने आये
पुरंजयने बाण के ारा उ ह यमराजके हवाले कर दया ।।१७।। उनके बाण क वषा या थी,
लयकालक धधकती ई आग थी। जो भी उसके सामने आता, छ - भ हो जाता।
दै य का साहस जाता रहा। वे रणभू म छोड़कर अपने-अपने घर म घुस गये ।।१८।। पुरंजयने
उनका नगर, धन और ऐ य—सब कुछ जीतकर इ को दे दया। इसीसे उन राज षको पुर
जीतनेके कारण ‘पुरंजय’, इ को वाहन बनानेके कारण ‘इ वाह’ और बैलके ककुद्पर
बैठनेके कारण ‘ककु थ’ कहा जाता है ।।१९।।
पुरंजयका पु था अनेना। उसका पु पृथु आ। पृथुके व र ध, उसके च और
च के युवना ।।२०।। युवना के पु ए शाब त, ज ह ने शाब तीपुरी बसायी। शाब तके
बृहद और उसके कुवलया ए ।।२१।। ये बड़े बली थे। इ ह ने उतंक ऋ षको स
करनेके लये अपने इ क स हजार पु को साथ लेकर धु धु नामक दै यका वध
कया ।।२२।। इसीसे उनका नाम आ ‘धु धुमार’। धु धु दै यके मुखक आगसे उनके सब
पु जल गये। केवल तीन ही बच रहे थे ।।२३।। परी त्! बचे ए पु के नाम थे— ढा ,
क पला और भ ा । ढा से हय और उससे नकु भका ज म आ ।।२४।।
यः याथमुतंक य धु धुनामासुरं बली ।
सुतानामेक वश या सह ैरहनद् वृतः ।।२२

धु धुमार इ त यात त सुता ते च ज वलुः ।


धु धोमुखा नना सव य एवावशे षताः ।।२३

ढा ः क पला भ ा इ त भारत ।
ढा पु ो हय ो नकु भ त सुतः मृतः ।।२४

बहणा ो१ नकु भ य कृशा ोऽथा य२ सेन जत् ।


युवना ोऽभवत् त य सोऽनप यो वनं गतः ।।२५

भायाशतेन न व ण ऋषयोऽ य कृपालवः ।


इ म वतयांच ु रै ते सुसमा हताः ।।२६

राजा तद् य सदनं व ो न श त षतः ।


् वा शयानान् व ां तान् पपौ म जलं वयम् ।।२७
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उ थता ते नशा याथ ुदकं कलशं भो ।
प छु ः क य कमदं पीतं पुंसवनं जलम् ।।२८

रा ा पीतं व द वाथ ई र हतेन ते ।


ई राय नम ु रहो दै वबलं बलम् ।।२९

ततः काल उपावृ े कु न भ द णम् ।


युवना य तनय वत जजान३ ह ।।३०

कं धा य त कुमारोऽयं त यं रो यते भृशम् ।


मां धाता व स मा रोद रती ो दे शनीमदात् ।।३१
नकु भके बहणा , उसके कृशा , कृशा के सेन जत् और सेन जत्के युवना नामक
पु आ। युवना स तानहीन था, इस लये वह ब त ःखी होकर अपनी सौ य के साथ
वनम चला गया। वहाँ ऋ षय ने बड़ी कृपा करके युवना से पु - ा तके लये बड़ी
एका ताके साथ इ दे वताका य कराया ।।२५-२६।। एक दन राजा युवना को रा के
समय बड़ी यास लगी। वह य शालाम गया, क तु वहाँ दे खा क ऋ षलोग तो सो रहे ह।
तब जल मलनेका और कोई उपाय न दे ख उसने वह म से अ भम त जल ही पी
लया ।।२७।। परी त्! जब ातःकाल ऋ षलोग सोकर उठे और उ ह ने दे खा क कलशम
तो जल ही नह है, तब उन लोग ने पूछा क ‘यह कसका काम है? पु उ प करनेवाला
जल कसने पी लया?’ ।।२८।। अ तम जब उ ह यह मालूम आ क भगवान्क ेरणासे
राजा युवना ने ही उस जलको पी लया है तो उन लोग ने भगवान्के चरण म नम कार कया
और कहा—‘ध य है! भगवान्का बल ही वा तवम बल है’ ।।२९।। इसके बाद सवका
समय आनेपर युवना क दा हनी कोख फाड़कर उसके एक च वत पु उ प
आ ।।३०।। उसे रोते दे ख ऋ षय ने कहा—‘यह बालक धके लये ब त रो रहा है; अतः
कसका ध पयेगा?’ तब इ ने कहा, ‘मेरा पयेगा’ ‘(मां धाता)’ ‘बेटा! तू रो मत।’ यह
कहकर इ ने अपनी तजनी अँगुली उसके मुँहम डाल द ।।३१।। ा ण और दे वता के
सादसे उस बालकके पता युवना क भी मृ यु नह ई। वह वह तप या करके मु हो
गया ।।३२।। परी त्! इ ने उस बालकका नाम रखा स यु, य क रावण आ द द यु
(लुटेरे) उससे उ न एवं भयभीत रहते थे ।।३३।। युवना के पु मा धाता ( स यु)
च वत राजा ए। भगवान्के तेजसे तेज वी होकर उ ह ने अकेले ही सात पवाली
पृ वीका शासन कया ।।३४।। वे य प आ म ानी थे, उ ह कम-का डक कोई वशेष
आव यकता नह थी— फर भी उ ह ने बड़ी-बड़ी द णावाले य से उन य व प भुक
आराधना क जो वयं काश, सवदे व व प, सवा मा एवं इ यातीत ह ।।३५।। भगवान्के
अ त र और है ही या? य क साम ी, म , व ध- वधान, य , यजमान, ऋ वज्, धम,
दे श और काल—यह सब-का-सब भगवान्का ही व प तो है ।।३६।। परी त्! जहाँसे
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सूयका उदय होता है और जहाँ वे अ त होते ह, वह सारा-का-सारा भूभाग युवना के पु
मा धाताके ही अ धकारम था ।।३७।।
न ममार पता त य व दे व सादतः ।
युवना ोऽथ त ैव तपसा स म वगात् ।।३२

स यु रती ोऽ वदधे नाम त य१ वै ।


य मात् स त ना द यवो रावणादयः ।।३३

यौवना ोऽथ मा धाता च व यवन भुः ।


स त पवतीमेकः शशासा युततेजसा ।।३४

ईजे च य ं तु भरा म वद् भू रद णैः ।


सवदे वमयं दे वं सवा मकमती यम् ।।३५

ं म ो व धय ो यजमान तथ वजः ।
धम दे श काल सवमेतद् यदा मकम् ।।३६

यावत् सूय उदे त म याव च त त त ।


सव तद् यौवना य मा धातुः े मु यते ।।३७

शश ब दो हत र ब म यामधा ृपः२ ।
पु कु सम बरीषं मुचुकु दं च यो गनम् ।
तेषां वसारः पंचाशत् सौभ र व रे प तम् ।।३८

यमुना तजले म न त यमानः परंतपः ।


नवृ त मीनराज य वी य मैथुनध मणः ।।३९

जात पृहो नृपं व ः क यामेकामयाचत ।


सोऽ याह गृ तां न् कामं क या वयंवरे ।।४०
राजा मा धाताक प नी शश ब क पु ी ब मती थी। उसके गभसे उनके तीन पु ए
—पु कु स, अ बरीष (ये सरे अ बरीष ह) और योगी मुचुकु द। इनक पचास बहन थ ।
उन पचास ने अकेले सौभ र ऋ षको प तके पम वरण कया ।।३८।। परम तप वी
सौभ रजी एक बार यमुनाजलम डु बक लगाकर तप या कर रहे थे। वहाँ उ ह ने दे खा क
एक म यराज अपनी प नय के साथ ब त सुखी हो रहा है ।।३९।। उसके इस सुखको

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दे खकर ा ण सौभ रके मनम भी ववाह करनेक इ छा जग उठ और उ ह ने राजा
मा धाताके पास आकर उनक पचास क या मसे एक क या माँगी। राजाने कहा—‘ न्!
क या वयंवरम आपको चुन ले तो आप उसे ले ली जये’ ।।४०।। सौभ र ऋ ष राजा
मा धाताका अ भ ाय समझ गये। उ ह ने सोचा क ‘राजाने इस लये मुझे ऐसा सूखा जवाब
दया है क अब म बूढ़ा हो गया ँ, शरीरम झु रयाँ पड़ गयी ह, बाल पक गये ह और सर
काँपने लगा है! अब कोई ी मुझसे ेम नह कर सकती ।।४१।। अ छ बात है! म
अपनेको ऐसा सु दर बनाऊँगा क राजक याएँ तो या, दे वांगनाएँ भी मेरे लये लाला यत हो
जायँगी।’ ऐसा सोचकर समथ सौभ रजीने वैसा ही कया ।।४२।।
स व च या यं ीणां जरठोऽयमस मतः ।
वलीप लत एज क इ यहं युदा तः ।।४१

साध य ये तथाऽऽ मानं सुर ीणामपी सतम् ।


क पुनमनुजे ाणा म त व सतः भुः ।।४२

मु नः वे शतः ा क या तः पुरमृ मत् ।


वृत राजक या भरेकः पंचाशता वरः ।।४३

तासां क लरभूद ् भूयां तदथऽपो सौ दम् ।


ममानु पो नायं व इ त तद्गतचेतसाम् ।।४४

स ब च ता भरपारणीय-
तपः यान यप र छदे षु ।
गृहेषु नानोपवनामला भः-
सर सु सौग धककाननेषु ।।४५

महाहश यासनव भूषण-


नानानुलेपा यवहारमा यकैः ।
वलंकृत ीपु षेषु न यदा
रेमेऽनुगायद् जभृंगव दषु ।।४६

यद्गाह यं तु संवी य स त पवतीप तः ।


व मतः त भमजहात् सावभौम या वतम् ।।४७

एवं गृहे व भरतो वषयान् व वधैः सुखैः ।


सेवमानो न चातु यदा य तोकै रवानलः ।।४८
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फर या था, अ तःपुरके र कने सौभ र मु नको क या के सजे-सजाये महलम प ँचा
दया। फर तो उन पचास राजक या ने एक सौभ रको ही अपना प त चुन लया ।।४३।।
उन क या का मन सौभ रजीम इस कार आस हो गया क वे उनके लये आपसके
ेमभावको तलांज ल दे कर पर पर कलह करने लग और एक- सरीसे कहने लगी क ‘ये
तु हारे यो य नह , मेरे यो य ह ।।४४।। ऋ वेद सौभ रने उन सभीका पा ण हण कर लया।
वे अपनी अपार तप याके भावसे ब मू य साम य से सुस जत, अनेक उपवन और
नमल जलसे प रपूण सरोवर से यु एवं सौग धक पु प के बगीच से घरे महल म ब मू य
श या, आसन, व , आभूषण, नान, अनुलेपन, सु वा भोजन और पु पमाला के ारा
अपनी प नय के साथ वहार करने लगे। सु दर-सु दर व ाभूषण धारण कये ी-पु ष
सवदा उनक सेवाम लगे रहते। कह प ी चहकते रहते तो कह भ रे गुंजार करते रहते और
कह -कह व द जन उनक वरदावलीका बखान करते रहते ।।४५-४६।। स त पवती
पृ वीके वामी मा धाता सौभ रजीक इस गृह थीका सुख दे खकर आ यच कत हो गये।
उनका यह गव क म सावभौम स प का वामी ँ, जाता रहा ।।४७।। इस कार सौभ रजी
गृह थीके सुखम रम गये और अपनी नीरोग इ य से अनेक वषय का सेवन करते रहे।
फर भी जैसे घीक बूँद से आग तृ त नह होती, वैसे ही उ ह स तोष नह आ ।।४८।।
स कदा च पासीन आ माप वमा मनः ।
ददश ब चाचाय मीनसंगसमु थतम् ।।४९

अहो इमं प यत मे१ वनाशं


तप वनः स च रत त य ।
अ तजले वा रचर संगात्
या वतं चरं धृतं यत् ।।५०

संगं यजेत मथुन तनां मुमु ुः


सवा मना न वसृजेद ् ब ह र या ण ।
एक रन् रह स च मन त ईशे
युंजीत तद् तषु साधुषु चेत् संगः ।।५१

एक तप हमथा भ स म यसंगात्
पंचाशदासमुत पंचसह सगः ।
ना तं जा युभयकृ यमनोरथानां
मायागुणै तम त वषयेऽथभावः ।।५२

एवं वसन् गृहे कालं२ वर ो यासमा थतः ।


वनं जगामानुययु त प यः प तदे वताः ।।५३
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त त वा तप ती३ णमा मकशनमा मवान्४ ।
सहैवा न भरा मानं युयोज परमा म न ।।५४
ऋ वेदाचाय सौभ रजी एक दन व थ च से बैठे ए थे। उस समय उ ह ने दे खा क
म यराजके णभरके संगसे म कस कार अपनी तप या तथा अपना आपातक खो
बैठा ।।४९।। वे सोचने लगे—‘अरे, म तो बड़ा तप वी था। मने भलीभाँ त अपने त का
अनु ान भी कया था। मेरा यह अधःपतन तो दे खो! मने द घकालसे अपने तेजको
अ ु ण रखा था, पर तु जलके भीतर वहार करती ई एक मछलीके संसगसे मेरा वह
तेज न हो गया ।।५०।। अतः जसे मो क इ छा है, उस पु षको चा हये क वह भोगी
ा णय का संग सवथा छोड़ दे और एक णके लये भी अपनी इ य को ब हमुख न होने
दे । अकेला ही रहे और एका तम अपने च को सवश मान् भगवान्म ही लगा दे । य द संग
करनेक आव यकता ही हो तो भगवान्के अन य ेमी न ावान् महा मा का ही संग
करे ।।५१।। म पहले एका तम अकेला ही तप याम संल न था। फर जलम मछलीका संग
होनेसे ववाह करके पचास हो गया और फर स तान के पम पाँच हजार। वषय म
स यबु होनेसे मायाके गुण ने मेरी बु हर ली। अब तो लोक और परलोकके स ब धम
मेरा मन इतनी लालसा से भर गया है क म कसी तरह उनका पार ही नह पाता ।।५२।।
इस कार वचार करते ए वे कुछ दन तक तो घरम ही रहे। फर वर होकर उ ह ने
सं यास ले लया और वे वनम चले गये। अपने प तको ही सव व माननेवाली उनक
प नय ने भी उनके साथ ही वनक या ा क ।।५३।। वहाँ जाकर परम संयमी सौभ रजीने
बड़ी घोर तप या क , शरीरको सुखा दया तथा आहवनीय आ द अ नय के साथ ही अपने-
आपको परमा माम लीन कर दया ।।५४।। परी त्! उनक प नय ने जब अपने प त
सौभ र मु नक आ या मक ग त दे खी, तब जैसे वालाएँ शा त अ नम लीन हो जाती ह—
वैसे ही वे उनके भावसे सती होकर उ ह म लीन हो गय , उ ह क ग तको ा त ।।५५।।
ताः वप युमहाराज नरी या या मक ग तम् ।

अ वीयु त भावेण अ नं शा त मवा चषः ।।५५


इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां नवम क धे सौभया याने
ष ोऽ यायः ।।६।।

१. े सू०। २. पाहरन्।
१. च ो ः। २. स ग धवः।
१. बाह ासो। २. शा ा य। ३. जायत।

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१. य य। २. मजीजनत्।
१. संगदोषं। २. कामं। ३. ती ०। ४. वत्।

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अथ स तमोऽ यायः
राजा शङ् कु और ह र क कथा
ीशुक उवाच
मा धातुः पु वरो योऽ बरीषः क ततः ।
पतामहेन वृतो यौवना १ त सुतः । २
हारीत त य२ पु ोऽभू मा धातृ वरा इमे ।।१

नमदा ातृ भद ा पु कु साय योरगैः ।


तया रसातलं नीतो भुजगे यु या ।।२

ग धवानवधीत् त व यान् वै व णुश धृक्३ ।


नागा ल धवरः सपादभयं मरता मदम् ।।३

स युः पौ कु सो योऽनर य य दे हकृत् ।


हय त सुत त माद णोऽथ ब धनः ।।४

त य स य तः पु शंकु र त व ुतः ।
ा त ा डालतां शापाद् गुरोः कौ शकतेजसा ।।५

सशरीरो गतः वगम ा प द व यते ।


पा ततोऽवा शरा दे वै तेनैव त भतो बलात् ।।६
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! म वणन कर चुका ँ क मा धाताके पु म सबसे
े अ बरीष थे। उनके दादा युवना ने उ ह पु पम वीकार कर लया। उनका पु आ
यौवना और यौवना का हारीत। मा धाताके वंशम ये तीन अवा तर गो के वतक
ए ।।१।। नाग ने अपनी ब हन नमदाका ववाह पु कु ससे कर दया था। नागराज
वासु कक आ ासे नमदा अपने प तको रसातलम ले गयी ।।२।। वहाँ भगवान्क श से
स प होकर पु कु सने वध करनेयो य ग धव को मार डाला। इसपर नागराजने स होकर
पु कु सको वर दया क जो इस संगका मरण करेगा, वह सप से नभय हो जायगा ।।३।।
राजा पु कु सका पु स यु था। उसके पु ए अनर य। अनर यके हय , उसके अ ण
और अ णके ब धन ए ।।४।। ब धनके पु स य त ए। यही स य त शंकुके
नामसे व यात ए। य प शंकु अपने पता और गु के शापसे चा डाल हो गये थे, पर तु
व ा म जीके भावसे वे सशरीर वगम चले गये। दे वता ने उ ह वहाँसे ढकेल दया और
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वे नीचेको सर कये ए गर पड़े; पर तु व ा म जीने अपने तपोबलसे उ ह आकाशम ही
थर कर दया। वे अब भी आकाशम लटके ए द खते ह ।।५-६।।
ैशंकवो ह र ो व ा म व स योः ।
य म मभूद ् यु ं प णोब वा षकम् ।।७

सोऽनप यो वष णा मा नारद योपदे शतः ।


व णं शरणं यातः पु ो मे जायतां भो ।।८

य द वीरो महाराज तेनैव वां यजे इ त ।


तथे त व णेना य पु ो जात तु रो हतः ।।९

जातः सुतो नेनांग मां यज वे त सोऽ वीत् ।


यदा पशु नदशः यादथ मे यो भवे द त ।।१०

नदशे च स आग य यज वे याह सोऽ वीत् ।


द ताः पशोय जायेर थ मे यो भवे द त ।।११

जाता द ता यज वे त स याहाथ सोऽ वीत् ।


यदा पत य य द ता अथ मे यो भवे द त ।।१२

पशो नप तता द ता यज वे याह सोऽ वीत् ।


यदा पशोः पुनद ता जाय तेऽथ पशुः शु चः ।।१३

पुनजाता यज वे त स याहाथ सोऽ वीत् ।


सा ा हको यदा राजन् राज योऽथ पशुः शु चः ।।१४

इ त पु ानुरागेण नेहय तचेतसा ।


कालं वंचयता तं तमु ो दे व तमै त ।।१५

रो हत तद भ ाय पतुः कम चक षतम् ।
ाण े सुधनु पा णरर यं यप त ।।१६
शंकुके पु थे ह र । उनके लये व ा म और व स एक- सरेको शाप दे कर
प ी हो गये और ब त वष तक लड़ते रहे ।।७।। ह र के कोई स तान न थी। इससे वे
ब त उदास रहा करते थे। नारदके उपदे शसे वे व णदे वताक शरणम गये और उनसे ाथना
क क ‘ भो! मुझे पु ा त हो ।।८।। महाराज! य द मेरे वीर पु होगा तो म उसीसे
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आपका यजन क ँ गा।’ व णने कहा—‘ठ क है।’ तब व णक कृपासे ह र के रो हत
नामका पु आ ।।९।। पु होते ही व णने आकर कहा—‘ह र ! तु ह पु ा त हो
गया। अब इसके ारा मेरा य करो।’ ह र ने कहा—‘जब आपका यह य पशु (रो हत)
दस दनसे अ धकका हो जायगा, तब य के यो य होगा’ ।।१०।। दस दन बीतनेपर व णने
आकर फर कहा—‘अब मेरा य करो।’ ह र ने कहा—‘जब आपके य पशुके मुँहम
दाँत नकल आयगे, तब वह य के यो य होगा’ ।।११।। दाँत उग आनेपर व णने कहा
—‘अब इसके दाँत नकल आये, मेरा य करो।’ ह र ने कहा—‘जब इसके धके दाँत
गर जायँग,े तब यह य के यो य होगा’ ।।१२।। धके दाँत गर जानेपर व णने कहा—‘अब
इस य पशुके दाँत गर गये, मेरा य करो।’ ह र ने कहा—‘जब इसके बारा दाँत आ
जायँग,े तब यह पशु य के यो य हो जायगा’ ।।१३।। दाँत के फर उग आनेपर व णने कहा
—‘अब मेरा य करो।’ ह र ने कहा—‘व णजी महाराज! यपशु तब य के यो य
होता है जब वह कवच धारण करने लगे’ ।।१४।। परी त्! इस कार राजा ह र पु के
ेमसे हीला-हवाला करके समय टालते रहे। इसका कारण यह था क पु - नेहक फाँसीने
उनके दयको जकड़ लया था। वे जो-जो समय बताते व णदे वता उसीक बाट
दे खते ।।१५।। जब रो हतको इस बातका पता चला क पताजी तो मेरा ब लदान करना
चाहते ह, तब वह अपने ाण क र ाके लये हाथम धनुष लेकर वनम चला गया ।।१६।।
कुछ दनके बाद उसे मालूम आ क व णदे वताने होकर मेरे पताजीपर आ मण
कया है— जसके कारण वे महोदर रोगसे पी ड़त हो रहे ह, तब रो हत अपने नगरक ओर
चल पड़ा। पर तु इ ने आकर उसे रोक दया ।।१७।। उ ह ने कहा—‘बेटा रो हत! य पशु
बनकर मरनेक अपे ा तो प व तीथ और े का सेवन करते ए पृ वीम वचरना ही
अ छा है।’ इ क बात मानकर वह एक वषतक और वनम ही रहा ।।१८।।
पतरं व ण तं ु वा जातमहोदरम् ।
रो हतो ाममेयाय त म ः यषेधत ।।१७

भूमेः पयटनं पु यं तीथ े नषेवणैः ।


रो हताया दश छ ः सोऽ यर येऽवसत् समाम् ।।१८

एवं तीये तृतीये चतुथ पंचमे तथा ।


अ ये या ये य थ वरो व ो भू वाऽऽह वृ हा ।।१९

ष ं संव सरं त च र वा रो हतः पुरीम् ।


उप ज जीगताद णा म यमं सुतम् ।।२०

शुनःशेपं पशुं प े दाय समव दत ।


ततः पु षमेधेन ह र ो महायशाः ।।२१
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मु ोदरोऽयजद् दे वान् व णाद न् मह कथः ।
व ा म ोऽभवत् त मन् होता चा वयुरा मवान् ।।२२

जमद नरभूद ् ा व स ोऽया यसामगः ।


त मै तु ो ददा व ः शातकौ भमयं रथम् ।।२३

शुनःशेप य माहा यमुप र ात् च यते ।


स यसारां धृ त ् वा सभाय य च भूपतेः ।।२४

व ा म ो भृशं ीतो ददाव वहतां ग तम् ।


मनः पृ थ ां ताम तेजसापोऽ नलेन तत् ।।२५

खे वायुं धारयं त च भूतादौ तं महा म न ।


त मन् ानकलां या वा तया ानं व नदहन् ।।२६
इसी कार सरे, तीसरे, चौथे और पाँचव वष भी रो हतने अपने पताके पास जानेका
वचार कया; पर तु बूढ़े ा णका वेश धारण कर हर बार इ आते और उसे रोक
दे ते ।।१९।। इस कार छः वषतक रो हत वनम ही रहा। सातव वष जब वह अपने नगरको
लौटने लगा, तब उसने अजीगतसे उनके मझले पु शुनःशेपको मोल ले लया और उसे
य पशु बनानेके लये अपने पताको स पकर उनके चरण म नम कार कया। तब परम
यश वी एवं े च र वाले राजा ह र ने महोदर रोगसे छू टकर पु षमेध य ारा व ण
आ द दे वता का यजन कया। उस य म व ा म जी होता ए। परम संयमी जमद नने
अ वयुका काम कया। व स जी ा बने और अया य मु न सामगान करनेवाले उद्गाता
बने। उस समय इ ने स होकर ह र को एक सोनेका रथ दया था ।।२०-२३।।
परी त्! आगे चलकर म शुनःशेपका माहा य वणन क ँ गा। ह र को अपनी
प नीके साथ स यम ढ़तापूवक थत दे खकर व ा म जी ब त स ए। उ ह ने उ ह
उस ानका उपदे श कया जसका कभी नाश नह होता। उसके अनुसार राजा ह र ने
अपने मनको पृ वीम, पृ वीको जलम, जलको तेजम, तेजको वायुम और वायुको आकाशम
थर करके, आकाशको अहंकारम लीन कर दया। फर अहंकारको मह वम लीन करके
उसम ान-कलाका यान कया और उससे अ ानको भ म कर दया ।।२४-२६।। इसके
बाद नवाण-सुखक अनुभू तसे उस ान-कलाका भी प र याग कर दया और सम त
ब धन से मु होकर वे अपने उस व पम थत हो गये, जो न तो कसी कार बतलाया
जा सकता है और न उसके स ब धम कसी कारका अनुमान ही कया जा सकता
है ।।२७।।
ह वा तां वेन भावेन नवाणसुखसं वदा ।
अ नद या त यण त थौ व व तब धनः ।।२७
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इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां नवम क धे ह र ोपा यानं नाम
स तमोऽ यायः ।।७।।

१. युव०। २. हरीत०। ३. भृत्।

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अथा मोऽ यायः
सगर-च र
ीशुक१ उवाच
ह रतो रो हतसुत प त माद् व न मता ।
च पापुरी सुदेवोऽतो वजयो य य चा मजः ।।१

भ क त सुत त माद्२ वृक त या प बा कः ।


सोऽ र भ तभू राजा सभाय वनमा वशत् ।।२

वृ ं तं पंचतां ा तं म ह यनु म र यती ।


औवण जानताऽऽ मानं जाव तं नवा रता ।।३

आ ाया यै सप नी भगरो द ोऽ धसा सह ।


सह३ तेनैव संजातः सगरा यो महायशाः ।।४

सगर व यासीत् सागरो य सुतैः कृतः ।


य तालजंघान् यवना छकान् हैहयबबरान् ।।५

नावधीद् गु वा येन च े वकृतवे षणः ।


मु डा छ् म ुधरान् कां मु केशाधमु डतान् ।।६
ीशुकदे वजी कहते ह—रो हतका पु था ह रत। ह रतसे च प आ। उसीने च पापुरी
बसायी थी। च पसे सुदेव और उसका पु वजय आ ।।१।। वजयका भ क, भ कका
वृक और वृकका पु आ बा क। श ु ने बा कसे रा य छ न लया, तब वह अपनी
प नीके साथ वनम चला गया ।।२।। वनम जानेपर बुढ़ापेके कारण जब बा कक मृ यु हो
गयी, तब उसक प नी भी उसके साथ सती होनेको उ त ई। पर तु मह ष औवको यह
मालूम था क इसे गभ है। इस लये उ ह ने उसे सती होनेसे रोक दया ।।३।। जब उसक
सौत को यह बात मालूम ई तो उ ह ने उसे भोजनके साथ गर ( वष) दे दया। पर तु गभपर
उस वषका कोई भाव नह पड़ा; ब क उस वषको लये ए ही एक बालकका ज म आ
जो गरके साथ पैदा होनेके कारण ‘सगर’ कहलाया। सगर बड़े यश वी राजा ए ।।४।।
सगर च वत स ाट् थे। उ ह के पु ने पृ वी खोदकर समु बना दया था। सगरने
अपने गु दे व औवक आ ा मानकर तालजंघ, यवन, शक, हैहय और बबर जा तके लोग का
वध नह कया, ब क उ ह व प बना दया। उनमसे कुछके सर मुड़वा दये, कुछके मूँछ-

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दाढ़ रखवा द , कुछको खुले बाल वाला बना दया तो कुछको आधा मुँडवा दया ।।५-६।।
कुछ लोग को सगरने केवल व ओढ़नेक ही आ ा द , पहननेक नह । और कुछको केवल
लँगोट पहननेको ही कहा, ओढ़नेको नह । इसके बाद राजा सगरने औव ऋ षके
उपदे शानुसार अ मेध य के ारा स पूण वेद एवं दे वतामय, आ म व प, सवश मान्
भगवान्क आराधना क । उसके य म जो घोड़ा छोड़ा गया था, उसे इ ने चुरा
लया ।।७-८।। उस समय महारानी सुम तके गभसे उ प सगरके पु ने अपने पताके
आ ानुसार घोड़ेके लये सारी पृ वी छान डाली। जब उ ह कह घोड़ा न मला, तब उ ह ने
बड़े घम डसे सब ओरसे पृ वीको खोद डाला ।।९।। खोदते-खोदते उ ह पूव और उ रके
कोनेपर क पलमु नके पास अपना घोड़ा दखायी दया। घोड़ेको दे खकर वे साठ हजार
राजकुमार श उठाकर यह कहते ए उनक ओर दौड़ पड़े क ‘यही हमारे घोड़ेको
चुरानेवाला चोर है। दे खो तो सही, इसने इस समय कैसे आँख मूँद रखी ह! यह पापी है।
इसको मार डालो, मार डालो!’ उसी समय क पलमु नने अपनी पलक खोल ।।१०-११।।
इ ने राजकुमार क बु हर ली थी, इसीसे उ ह ने क पलमु न-जैसे महापु षका तर कार
कया। इस तर कारके फल व प उनके शरीरम ही आग जल उठ जससे णभरम ही वे
सब-के-सब जलकर खाक हो गये ।।१२।। परी त्! सगरके लड़के क पलमु नके ोधसे
जल गये, ऐसा कहना उ चत नह है। वे तो शु स वगुणके परम आ य ह। उनका शरीर तो
जगत्को प व करता रहता है। उनम भला ोध प तमोगुणक स भावना कैसे क जा
सकती है। भला, कह पृ वीक धूलका भी आकाशसे स ब ध होता है? ।।१३।। यह संसार-
सागर एक मृ युमय पथ है। इसके पार जाना अ य त क ठन है। पर तु क पलमु नने इस
जगत्म सां यशा क एक ऐसी ढ़ नाव बना द है जससे मु क इ छा रखनेवाला कोई
भी उस समु के पार जा सकता है। वे केवल परम ानी ही नह , वयं परमा मा ह।
उनम भला, यह श ु है और यह म —इस कारक भेदबु कैसे हो सकती है? ।।१४।।
अन तवाससः कां दब हवाससोऽपरान् ।
सोऽ मेधैरयजत सववेदसुरा मकम् ।।७

औव प द योगेन ह रमा मानमी रम् ।


त यो सृ ं पशुं य े जहारा ं पुर दरः ।।८

सुम या तनया ताः पतुरादे शका रणः ।


हयम वेषमाणा ते सम ता यखनन् महीम् ।।९

ागुद यां द श हयं द शुः क पला तके ।


एष वा जहर ौर आ ते मी लतलोचनः ।।१०

ह यतां ह यतां पाप इ त ष सह णः ।

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उदायुधा अ भययु ममेष तदा मु नः ।।११

वशरीरा नना ताव महे तचेतसः ।


महद् त महता भ मसादभवन् णात् ।।१२

न साधुवादो मु नकोपभ जता


नृपे पु ा इ त स वधाम न ।
कथं तमो रोषमयं वभा ते
जग प व ा म न खे रजो भुवः ।।१३

य ये रता सां यमयी ढे ह नौ-


यया मुमु ु तरते र ययम् ।
भवाणवं मृ युपथं वप तः
परा मभूत य कथं पृथङ् म तः ।।१४
योऽसमंजस इ यु ः स के श या नृपा मजः ।
त य पु ऽशुमान् नाम पतामह हते रतः ।।१५

असमंजस आ मानं दशय समंजसम् ।


जा त मरः पुरा संगाद् योगी योगाद् वचा लतः ।।१६

आचरन् ग हतं लोके ातीनां कम व यम् ।


सर वां डतो बालान् ा य े जय नम् ।।१७

एवंवृ ः प र य ः प ा नेहमपो वै ।
योगै यण बालां तान् दश य वा ततो ययौ ।।१८

अयो यावा सनः सव बालकान् पुनरागतान् ।


् वा व स मरे राजन् राजा चा य वत यत१ ।।१९

अंशुमां ो दतो रा ा तुरंगा वेषणे ययौ ।


पतृ खातानुपथं भ मा त द शे हयम् ।।२०

त ासीनं मु न वी य क पला यमधो जम् ।


अ तौत् समा हतमनाः ांज लः णतो महान् ।।२१

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अंशुमानुवाच
न प य त वां परमा मनोऽजनो
न बु यतेऽ ा प समा धयु भः ।
कुतोऽपरे त य मनःशरीरधी-
वसगसृ ा२ वयम काशाः ।।२२
सगरक सरी प नीका नाम था के शनी। उसके गभसे उ ह असमंजस नामका पु आ
था। असमंजसके पु का नाम था अंशुमान्। वह अपने दादा सगरक आ ा के पालन तथा
उ ह क सेवाम लगा रहता ।।१५।। असमंजस पहले ज मम योगी थे। संगके कारण वे योगसे
वच लत हो गये थे, पर तु अब भी उ ह अपने पूवज मका मरण बना आ था। इस लये वे
ऐसे काम कया करते थे, जनसे भाई-ब धु उ ह य न समझ। वे कभी-कभी तो अ य त
न दत कम कर बैठते और अपनेको पागल-सा दखलाते—यहाँतक क खेलते ए ब च को
सरयूम डाल दे त!े इस कार उ ह ने लोग को उ न कर दया था ।।१६-१७।। अ तम उनक
ऐसी करतूत दे खकर पताने पु - नेहको तलांज ल दे द और उ ह याग दया। तदन तर
असमंजसने अपने योगबलसे उन सब बालक को जी वत कर दया और अपने पताको
दखाकर वे वनम चले गये ।।१८।। अयो याके नाग रक ने जब दे खा क हमारे बालक तो
फर लौट आये तब उ ह असीम आ य आ और राजा सगरको भी बड़ा प ा ाप
आ ।।१९।। इसके बाद राजा सगरक आ ासे अंशुमान् घोड़ेको ढूँ ढ़नेके लये नकले।
उ ह ने अपने चाचा के ारा खोदे ए समु के कनारे- कनारे चलकर उनके शरीरके
भ मके पास ही घोड़ेको दे खा ।।२०।। वह भगवान्के अवतार क पलमु न बैठे ए थे। उनको
दे खकर उदार दय अंशुमान्ने उनके चरण म णाम कया और हाथ जोड़कर एका मनसे
उनक तु त क ।।२१।।
अंशुमान्ने कहा—भगवन्! आप अज मा ाजीसे भी परे ह। इसी लये वे आपको
य नह दे ख पाते। दे खनेक बात तो अलग रही—वे समा ध करते-करते एवं यु
लड़ाते-लड़ाते हार गये, क तु आजतक आपको समझ भी नह पाये। हमलोग तो उनके मन,
शरीर और बु से होनेवाली सृ के ारा बने ए अ ानी जीव ह। तब भला, हम आपको
कैसे समझ सकते ह ।।२२।। संसारके शरीरधारी स वगुण, रजोगुण या तमोगुण- धान ह। वे
जा त् और व अव था म केवल गुणमय पदाथ , वषय को और सुषु त-अव थाम
केवल अ ान-ही-अ ान दे खते ह। इसका कारण यह है क वे आपक मायासे मो हत हो रहे
ह। वे ब हमुख होनेके कारण बाहरक व तु को तो दे खते ह, पर अपने ही दयम थत
आपको नह दे ख पाते ।।२३।। आप एकरस, ानघन ह। सन दन आ द मु न, जो
आ म व पके अनुभवसे मायाके गुण के ारा होनेवाले भेदभावको और उसके कारण
अ ानको न कर चुके ह, आपका नर तर च तन करते रहते ह। मायाके गुण म ही भूला
आ म मूढ़ कस कार आपका च तन क ँ ? ।।२४।। माया, उसके गुण और गुण के
कारण होनेवाले कम एवं कम के सं कारसे बना आ लगशरीर आपम है ही नह । न तो
आपका नाम है और न तो प। आपम न काय है और न तो कारण। आप सनातन आ मा
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ह। ानका उपदे श करनेके लये ही आपने यह शरीर धारण कर रखा है। हम आपको
नम कार करते ह ।।२५।। भो! यह संसार आपक मायाक करामात है। इसको स य
समझकर काम, लोभ, ई या और मोहसे लोग का च शरीर तथा घर आ दम भटकने लगता
है। लोग इसीके च करम फँस जाते ह ।।२६।। सम त ा णय के आ मा भो! आज आपके
दशनसे मेरे मोहक वह ढ़ फाँसी कट गयी जो कामना, कम और इ य को जीवनदान दे ती
है ।।२७।।
ये दे हभाज गुण धाना
गुणान् वप य युत१ वा तम ।
य मायया मो हतचेतस ते
व ः वसं थं न ब हः काशाः ।।२३

तं वामहं ानघनं वभाव-


व तमायागुणभेदमोहैः२ ।
सन दना ैमु न भ वभा ं
कथं ह मूढः प रभावया म ।।२४

शा तमायागुणकम लग-
मनाम पं सदस मु म्३ ।
ानोपदे शाय गृहीतदे ह४ं
नमामहे वां पु षं पुराणम् ।।२५

व मायार चते५ लोके व तुबुद ् या गृहा दषु ।


म त कामलोभे यामोह व ा तचेतसः ।।२६

अ नः सवभूता मन् कामकम याशयः ।


मोहपाशो ढ छ ो भगवं तव दशनात् ।।२७
ीशुक उवाच
इ थं गीतानुभाव तं भगवान् क पलो मु नः ।
अंशुम तमुवाचेदमनुगृ धया नृप ।।२८
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जब अंशुमान्ने भगवान् क पलमु नके भावका
इस कार गान कया, तब उ ह ने मन-ही-मन अंशुमान्पर बड़ा अनु ह कया और
कहा ।।२८।।
ीभगवानुवाच
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अ ोऽयं नीयतां व स पतामहपशु तव ।
इमे च पतरो द धा गंगा भोऽह त नेतरत् ।।२९
तं प र य शरसा सा हयमानयत् ।
सगर तेन पशुना तुशेषं समापयत् ।।३०
रा यमंशुम त य य नः पृहो मु ब धनः ।
औव प द मागण लेभे ग तमनु माम् ।।३१
ीभगवान्ने कहा—‘बेटा! यह घोड़ा तु हारे पतामहका य पशु है। इसे तुम ले जाओ।
तु हारे जले ए चाचा का उ ार केवल गंगाजलसे होगा, और कोई उपाय नह है’ ।।२९।।
अंशुमान्ने बड़ी न तासे उ ह स करके उनक प र मा क और वे घोड़ेको ले आये।
सगरने उस य पशुके ारा य क शेष या समा त क ।।३०।।
तब राजा सगरने अंशुमान्को रा यका भार स प दया और वे वयं वषय से नः पृह एवं
ब धनमु हो गये। उ ह ने मह ष औवके बतलाये ए मागसे परमपदक ा त क ।।३१।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां नवम क धे
सगरोपा यानेऽ मोऽ यायः ।।८।।

१. बादराय ण वाच। २. क क०। ३. न हत तेन।


१. चाथा व०। २. सृ ावयव काशकाः।
१. प य०। २. मयमोहभेदैः। ३. यु म्। ४. त लगं। ५. य वया र च०।

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अथ नवमोऽ यायः
भगीरथ-च र और गंगावतरण
ीशुक उवाच
अंशुमां तप तेपे गंगानयनका यया ।
कालं महा तं नाश नोत् ततः कालेन सं थतः ।।१

दलीप त सुत त दश ः कालमे यवान् ।


भगीरथ त य पु तेपे स सुमहत् तपः ।।२

दशयामास तं दे वी स ा वरदा म ते ।
इ यु ः वम भ ायं शशंसावनतो नृपः ।।३

कोऽ प धार यता वेगं पत या मे महीतले ।


अ यथा भूतलं भ वा नृप या ये रसातलम् ।।४

क चाहं न भुवं या ये नरा म यामृज यघम् ।


मृजा म तदघं कु राजं त व च यताम् ।।५
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! अंशुमान्ने गंगाजीको लानेक कामनासे ब त
वष तक घोर तप या क ; पर तु उ ह सफलता नह मली, समय आनेपर उनक मृ यु हो
गयी ।।१।। अंशुमान्के पु दलीपने भी वैसी ही तप या क ; पर तु वे भी असफल ही रहे,
समयपर उनक भी मृ यु हो गयी। दलीपके पु थे भगीरथ। उ ह ने ब त बड़ी तप या
क ।।२।। उनक तप यासे स होकर भगवती गंगाने उ ह दशन दया और कहा क—‘म
तु ह वर दे नेके लये आयी ।ँ ’ उनके ऐसा कहनेपर राजा भगीरथने बड़ी न तासे अपना
अ भ ाय कट कया क ‘आप म यलोकम च लये’ ।।३।।
[गंगाजीने कहा—] ‘ जस समय म वगसे पृ वीतलपर ग ँ उस समय मेरे वेगको कोई
धारण करनेवाला होना चा हये। भगीरथ! ऐसा न होनेपर म पृ वीको फोड़कर रसातलम चली
जाऊँगी ।।४।। इसके अ त र इस कारणसे भी म पृ वीपर नह जाऊँगी क लोग मुझम
अपने पाप धोयगे। फर म उस पापको कहाँ धोऊँगी। भगीरथ! इस वषयम तुम वयं वचार
कर लो’ ।।५।।
भगीरथ उवाच
साधवो या सनः शा ता ा लोकपावनाः ।
हर यघं तेऽ संगात् ते वा ते घ भ रः ।।६
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धार य य त ते वेगं वा मा शरी रणाम् ।
य म ोत मदं ोतं व ं शाट व त तुषु ।।७

इ यु वा स नृपो दे वं तपसातोषय छवम् ।


कालेना पीयसा राजं त येशः१ समतु यत ।।८

तथे त रा ा भ हतं सवलोक हतः शवः ।


दधाराव हतो गंगां पादपूतजलां हरेः ।।९

भगीरथः२ स राज ष न ये भुवनपावनीम् ।


य व पतृणां दे हा भ मीभूताः म शेरते ।।१०

रथेन वायुवेगेन या तमनुधावती ।


दे शान् पुन ती नद धाना सचत् सगरा मजान् ।।११

य जल पशमा ेण द डहता अ प ।
सगरा मजा दवं ज मुः केवलं दे हभ म भः ।।१२

भ मीभूतांगसंगेन वयाताः सगरा मजाः ।


क पुनः या दे व ये सेव ते धृत ताः ।।१३
भगीरथने कहा—‘माता! ज ह ने लोक-परलोक, धन-स प और ी-पु क
कामनाका सं यास कर दया है, जो संसारसे उपरत होकर अपने-आपम शा त ह, जो
न और लोक को प व करनेवाले परोपकारी स जन ह—वे अपने अंग पशसे तु हारे
पाप को न कर दगे। य क उनके दयम अघ प अघासुरको मारनेवाले भगवान् सवदा
नवास करते ह ।।६।। सम त ा णय के आ मा दे व तु हारा वेग धारण कर लगे। य क
जैसे साड़ी सूत म ओत- ोत है, वैसे ही यह सारा व भगवान् म ही ओत- ोत है’ ।।७।।
परी त्! गंगाजीसे इस कार कहकर राजा भगीरथने तप याके ारा भगवान् शंकरको
स कया। थोड़े ही दन म महादे वजी उनपर स हो गये ।।८।। भगवान् शंकर तो
स पूण व के हतैषी ह, राजाक बात उ ह ने ‘तथा तु’ कहकर वीकार कर ली। फर
शवजीने सावधान होकर गंगाजीको अपने सरपर धारण कया। य न हो, भगवान्के
चरण का स पक होनेके कारण गंगाजीका जल परम प व जो है ।।९।। इसके बाद राज ष
भगीरथ भुवनपावनी गंगाजीको वहाँ ले गये जहाँ उनके पतर के शरीर राखके ढे र बने पड़े
थे ।।१०।। वे वायुके समान वेगसे चलनेवाले रथपर सवार होकर आगे-आगे चल रहे थे और
उनके पीछे -पीछे मागम पड़नेवाले दे श को प व करती ई गंगाजी दौड़ रही थ । इस कार
गंगासागर-संगमपर प ँचकर उ ह ने सगरके जले ए पु को अपने जलम डु बा
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दया ।।११।। य प सगरके पु ा णके तर कारके कारण भ म हो गये थे, इस लये
उनके उ ारका कोई उपाय न था— फर भी केवल शरीरक राखके साथ गंगाजलका पश
हो जानेसे ही वे वगम चले गये ।।१२।। परी त्! जब गंगाजलसे शरीरक राखका पश हो
जानेसे सगरके पु को वगक ा त हो गयी तब जो लोग ाके साथ नयम लेकर
ीगंगाजीका सेवन करते ह, उनके स ब धम तो कहना ही या है ।।१३।।
न ेतत् परमा य वधु या य दहो दतम् ।
अन तचरणा भोज सूताया भव छदः ।।१४

सं नवे य मनो य म या मुनयोऽमलाः ।


ैगु यं यजं ह वा स ो याता तदा मताम् ।।१५

ु ो भगीरथा ज े त य नाभोऽपरोऽभवत् ।

स धु प तत त मादयुतायु ततोऽभवत् ।।१६

ऋतुपण नलसखो योऽ व ामया लात् ।


द वा दयं चा मै सवकाम तु त सुतः ।।१७

ततः सुदास त पु ो मदय तीप तनृप ।


आ म सहं यं वै क माषाङ् मुत व चत् ।
व स शापाद् र ोऽभूदनप यः वकमणा ।।१८
राजोवाच
क न म ो गुरोः शापः सौदास य महा मनः ।
एतद् वे दतु म छामः क यतां न रहो य द ।।१९
ीशुक उवाच
सौदासो मृगयां क च चरन् र ो जघान ह ।
मुमोच ातरं सोऽथ गतः त चक षया ।।२०

स च तय घं रा ः सूद पधरो गृहे ।


गुरवे भो ु कामाय प वा न ये नरा मषम् ।।२१
मने गंगाजीक म हमाके स ब धम जो कुछ कहा है, उसम आ यक कोई बात नह है।
य क गंगाजी भगवान्के उन चरणकमल से नकली ह, जनका ाके साथ च तन करके
बड़े-बड़े मु न नमल हो जाते ह और तीन गुण के क ठन ब धनको काटकर तुर त
भगव व प बन जाते ह। फर गंगाजी संसारका ब धन काट द, इसम कौन बड़ी बात
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है ।।१४-१५।।
भगीरथका पु था ुत, ुतका नाभ। यह नाभ पूव नाभसे भ है। नाभका पु था
स धु प और स धु पका अयुतायु। अयुतायुके पु का नाम था ऋतुपण। वह नलका म
था। उसने नलको पासा फकनेक व ाका रह य बतलाया था और बदलेम उससे अ - व ा
सीखी थी। ऋतुपणका पु सवकाम आ ।।१६-१७।। परी त्! सवकामके पु का नाम था
सुदास। सुदासके पु का नाम था सौदास और सौदासक प नीका नाम था मदय ती।
सौदासको ही कोई-कोई म सह कहते ह और कह -कह उसे क माषपाद भी कहा गया है।
वह व स के शापसे रा स हो गया था और फर अपने कम के कारण स तानहीन
आ ।।१८।।
राजा परी त्ने पूछा—भगवन्! हम यह जानना चाहते ह क महा मा सौदासको गु
व स जीने शाप य दया। य द कोई गोपनीय बात न हो तो कृपया बतलाइये ।।१९।।
ीशुकदे वजीने कहा—परी त्! एक बार राजा सौदास शकार खेलने गये ए थे।
वहाँ उ ह ने कसी रा सको मार डाला और उसके भाईको छोड़ दया। उसने राजाके इस
कामको अ याय समझा और उनसे भाईक मृ युका बदला लेनेके लये वह रसोइयेका प
धारण करके उनके घर गया। जब एक दन भोजन करनेके लये गु व स जी राजाके यहाँ
आये, तब उसने मनु यका मांस राँधकर उ ह परस दया ।।२०-२१।।
प रवे यमाणं भगवान् वलो याभ यमंजसा ।
राजानमशपत् ु ो र ो ेवं भ व य स ।।२२

र ःकृतं तद् व द वा च े ादशवा षकम् ।


सोऽ यपोऽ लनाऽऽदाय गु ं श तुं समु तः ।।२३

वा रतो मदय यापो शतीः पादयोजहौ ।


दशः खमवन सव प यंजीवमयं नृपः ।।२४

रा सं भावमाप ः पादे क माषतां गतः ।


वायकाले द शे वनौकोद पती जौ ।।२५

ुधात जगृहे व ं त प याहाकृताथवत् ।


न भवान् रा सः सा ा द वाकूणां महारथः ।।२६

मदय याः प तव र नाधम कतुमह स१ ।


दे ह मेऽप यकामाया अकृताथ प त जम् ।।२७

दे होऽयं मानुषो राजन् पु ष या खलाथदः ।


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त माद य वधो वीर सवाथवध उ यते ।।२८

एष ह ा णो व ां तपःशीलगुणा वतः ।
आ रराध यषु महापु षसं तम् ।
सवभूता मभावेन भूते व त हतं गुणैः ।।२९
जब सवसमथ व स जीने दे खा क परोसी जानेवाली व तु तो नता त अभ य है, तब
उ ह ने ो धत होकर राजाको शाप दया क ‘जा, इस कामसे तू रा स हो जायगा’ ।।२२।।
जब उ ह यह बात मालूम ई क यह काम तो रा सका है—राजाका नह , तब उ ह ने उस
शापको केवल बारह वषके लये कर दया। उस समय राजा सौदास भी अपनी अंज लम जल
लेकर गु व स को शाप दे नेके लये उ त ए ।।२३।। पर तु उनक प नी मदय तीने उ ह
ऐसा करनेसे रोक दया। इसपर सौदासने वचार कया क ‘ दशाएँ, आकाश और पृ वी—
सब-के-सब तो जीवमय ही ह। तब यह ती ण जल कहाँ छोडँ?’ अ तम उ ह ने उस जलको
अपने पैर पर डाल लया। [इसीसे उनका नाम ‘ म सह’ आ] ।।२४।। उस जलसे उनके पैर
काले पड़ गये थे, इस लये उनका नाम ‘क माषपाद’ भी आ। अब वे रा स हो चुके थे।
एक दन रा स बने ए राजा क माषपादने एक वनवासी ा ण-द प तको सहवासके
समय दे ख लया ।।२५।। क माषपादको भूख तो लगी ही थी, उसने ा णको पकड़ लया।
ा ण-प नीक कामना अभी पूण नह ई थी। उसने कहा—‘राजन्! आप रा स नह ह।
आप महारानी मदय तीके प त और इ वाकुवंशके वीर महारथी ह। आपको ऐसा अधम नह
करना चा हये। मुझे स तानक कामना है और इस ा णक भी कामनाएँ अभी पूण नह ई
ह इस लये आप मुझे मेरा यह ा ण प त दे द जये ।।२६-२७।। राजन्! यह मनु य-शरीर
जीवको धम, अथ, काम और मो —चार पु षाथ क ा त करानेवाला है। इस लये वीर!
इस शरीरको न कर दे ना सभी पु षाथ क ह या कही जाती है ।।२८।। फर यह ा ण तो
व ान् है। तप या, शील और बड़े-बड़े गुण से स प है। यह उन पु षो म पर क
सम त ा णय के आ माके पम आराधना करना चाहता है, जो सम त पदाथ म व मान
रहते ए भी उनके पृथक्-पृथक् गुण से छपे ए ह ।।२९।। राजन्! आप श शाली ह।
आप धमका मम भलीभाँ त जानते ह। जैसे पताके हाथ पु क मृ यु उ चत नह , वैसे ही
आप-जैसे े राज षके हाथ मेरे े ष प तका वध कसी कार उ चत नह
है ।।३०।। आपका साधु-समाजम बड़ा स मान है। भला आप मेरे परोपकारी, नरपराध,
ो य एवं वाद प तका वध कैसे ठ क समझ रहे ह? ये तो गौके समान नरीह
ह ।।३१।। फर भी य द आप इ ह खा ही डालना चाहते ह, तो पहले मुझे खा डा लये।
य क अपने प तके बना म मुदके समान हो जाऊँगी और एक ण भी जी वत न रह
सकूँगी’ ।।३२।। ा णप नी बड़ी ही क णापूण वाणीम इस कार कहकर अनाथक भाँ त
रोने लगी। पर तु सौदासने शापसे मो हत होनेके कारण उसक ाथनापर कुछ भी यान न
दया और वह उस ा णको वैसे ही खा गया, जैसे बाघ कसी पशुको खा जाय ।।३३।।
जब ा णीने दे खा क रा सने मेरे गभाधानके लये उ त प तको खा लया, तब उसे बड़ा
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शोक आ। सती ा णीने ोध करके राजाको शाप दे दया ।।३४।। ‘रे पापी! म अभी
कामसे पी ड़त हो रही थी। ऐसी अव थाम तूने मेरे प तको खा डाला है। इस लये मूख! जब
तू ीसे सहवास करना चाहेगा, तभी तेरी मृ यु हो जायगी, यह बात म तुझे सुझाये दे ती
ँ’ ।।३५।। इस कार म सहको शाप दे कर ा णी अपने प तक अ थय को धधकती इ
चताम डालकर वयं भी सती हो गयी और उसने वही ग त ा त क , जो उसके प तदे वको
मली थी। य न हो, वह अपने प तको छोड़कर और कसी लोकम जाना भी तो नह
चाहती थी ।।३६।।
सोऽयं षवय ते राज ष वराद् वभो ।
कथमह त धम वधं पतु रवा मजः ।।३०

त य साधोरपाप य ूण य वा दनः ।
कथं वधं यथा ब ोम यते१ स मतो भवान् ।।३१

य यं यते भ त ह मां खाद पूवतः ।


न जी व ये वना येन णं च मृतकं यथा ।।३२

एवं क णभा ष या वलप या अनाथवत् ।


ा ः पशु मवाखादत् सौदासः शापमो हतः ।।३३

ा णी वी य द धषुं पु षादे न भ तम् ।


शोच या मानमुव शमशपत् कु पता सती ।।३४

य मा मे भ तः पाप कामातायाः प त वया ।


तवा प मृ युराधानादकृत द शतः ।।३५

एवं म सहं श वा प तलोकपरायणा ।


तद थी न स म े ऽ नौ ा य भतुग त२ गता ।।३६

वशापो ादशा दा ते मैथुनाय समु तः ।


व ाय३ ा णीशापं म ह या स नवा रतः ।।३७
बारह वष बीतनेपर राजा सौदास शापसे मु हो गये। जब वे सहवासके लये अपनी
प नीके पास गये, तब उसने इ ह रोक दया। य क उसे उस ा णीके शापका पता
था ।।३७।। इसके बाद उ ह ने ी-सुखका बलकुल प र याग ही कर दया। इस कार
अपने कमके फल व प वे स तानहीन हो गये। तब व स जीने उनके कहनेसे मदय तीको

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गभाधान कराया ।।३८।। मदय ती सात वषतक गभ धारण कये रही, पर तु ब चा पैदा नह
आ। तब व स जीने प थरसे उसके पेटपर आघात कया। इससे जो बालक आ, वह अ म
(प थर) क चोटसे पैदा होनेके कारण ‘अ मक’ कहलाया ।।३९।। अ मकसे मूलकका ज म
आ। जब परशुरामजी पृ वीको यहीन कर रहे थे, तब य ने उसे छपाकर रख लया
था। इसीसे उसका एक नाम ‘नारीकवच’ भी आ। उसे मूलक इस लये कहते ह क वह
पृ वीके यहीन हो जानेपर उस वंशका मूल ( वतक) बना ।।४०।। मूलकके पु ए
दशरथ, दशरथके ऐड वड और ऐड वडके राजा व सह। व सहके पु ही च वत स ाट्
खट् वांग ए ।।४१।। यु म उ ह कोई जीत नह सकता था। उ ह ने दे वता क ाथनासे
दै य का वध कया था। जब उ ह दे वता से यह मालूम आ क अब मेरी आयु केवल दो ही
घड़ी बाक है, तब वे अपनी राजधानी लौट आये और अपने मनको उ ह ने भगवान्म लगा
दया ।।४२।। वे मन-ही-मन सोचने लगे क ‘मेरे कुलके इ दे वता ह ा ण! उनसे बढ़कर
मेरा ेम अपने ाण पर भी नह है। प नी, पु , ल मी, रा य और पृ वी भी मुझे उतने यारे
नह लगते ।।४३।। मेरा मन बचपनम भी कभी अधमक ओर नह गया। मने प व क त
भगवान्के अ त र और कोई भी व तु कह नह दे खी ।।४४।। तीन लोक के वामी
दे वता ने मुझे मुँहमाँगा वर दे नेको कहा। पर तु मने उन भोग क लालसा बलकुल नह क ।
य क सम त ा णय के जीवनदाता ीह रक भावनाम ही म म न हो रहा था ।।४५।। जन
दे वता क इ याँ और मन वषय म भटक रहे ह, वे स वगुण धान होनेपर भी अपने
दयम वराजमान, सदा-सवदा यतमके पम रहनेवाले अपने आ म व प भगवान्को
नह जानते। फर भला जो रजोगुणी और तमोगुणी ह, वे तो जान ही कैसे सकते ह ।।४६।।
इस लये अब इन वषय म म नह रमता। ये तो मायाके खेल ह। आकाशम झूठ-मूठ तीत
होनेवाले ग धवनगर से बढ़कर इनक स ा नह है। ये तो अ ानवश च पर चढ़ गये थे।
संसारके स चे रच यता भगवान्क भावनाम लीन होकर म वषय को छोड़ रहा ँ और केवल
उ ह क शरण ले रहा ँ ।।४७।। परी त्! भगवान्ने राजा खट् वांगक बु को पहलेसे ही
अपनी ओर आक षत कर रखा था। इसीसे वे अ त समयम ऐसा न य कर सके। अब
उ ह ने शरीर आ द अना म पदाथ म जो अ ानमूलक आ मभाव था, उसका प र याग कर
दया और अपने वा त वक आ म व पम थत हो गये ।।४८।। वह व प सा ात् पर
है। वह सू मसे भी सू म, शू यके समान ही है। पर तु वह शू य नह , परम स य है। भ जन
उसी व तुको ‘भगवान् वासुदेव’ इस नामसे वणन करते ह ।।४९।।
तत ऊ व स त याज ीसुखं कमणा जाः१ ।
व स तदनु ातो मदय यां जामधात् ।।३८

सा वै स त समा गभम ब जायत ।


ज नेऽ मनोदरं त याः सोऽ मक तेन क यते ।।३९

अ मका मूलको ज े यः ी भः प रर तः ।
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नारीकवच इ यु ो नः े मूलकोऽभवत् ।।४०

ततो दशरथ त मात् पु ऐड वड ततः२ ।


राजा व सहो य य खट् वांग व यभूत् ।।४१

यो दे वैर थतो दै यानवधीद् यु ध जयः ।


मु तमायु ा वै य वपुरं संदधे मनः ।।४२

न मे कुलात् ाणाः कुलदै वा चा मजाः ।


न यो न मही रा यं न दारा ा तव लभाः ।।४३

न बा येऽ प म तम मधम रमते व चत् ।


नाप यमु म ोकाद यत् कचन व वहम् ।।४४

दे वैः कामवरो द ो म ं भुवने रैः ।


न वृणे तमहं कामं भूतभावनभावनः ।।४५

ये व ते य धयो दे वा ते व द थतम् ।
न व द त यं श दा मानं कमुतापरे ।।४६
अथेशमायार चतेषु संगं
गुणेषु ग धवपुरोपमेषु ।
ढं कृ याऽऽ म न व कतु-
भावेन ह वा तमहं प े ।।४७

इ त व सतो बु या नारायणगृहीतया ।
ह वा यभावम ानं ततः वं भावमा तः ।।४८

यत् तद् परं सू ममशू यं शू यक पतम् ।


भगवान् वासुदेवे त यं गृण त ह सा वताः ।।४९
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां नवम क धे सूयवंशानुवणने
नवमोऽ यायः ।।९।।

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१. श ानुतु०। २. रथोऽथ रा०।
१. त।
१. ब ोधम ो म यते भवान्। २. भतृग त। ३. व ा य।
१. जः। २. ऐ ल वलः।

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अथ दशमोऽ यायः
भगवान् ीरामक लीला का वणन
ीशुक उवाच
खट् वांगाद् द घबा रघु त मात् पृथु वाः ।
अज ततो महाराज त माद् दशरथोऽभवत् ।।१
त या प भगवानेष सा ाद् मयो ह रः ।
अंशांशेन चतुधागात् पु वं ा थतः सुरैः ।
रामल मणभरतश ु ना इ त सं या ।।२
त यानुच रतं राज ृ ष भ त वद श भः ।
ुतं ह व णतं भू र वया सीतापतेमु ः ।।३
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! खट् वांगके पु द घबा और द घबा के परम
यश वी पु रघु ए। रघुके अज और अजके पु महाराज दशरथ ए ।।१।। दे वता क
ाथनासे सा ात् परम परमा मा भगवान् ीह र ही अपने अंशांशसे चार प धारण
करके राजा दशरथके पु ए। उनके नाम थे—राम, ल मण, भरत और श ु न ।।२।।
परी त्! सीताप त भगवान् ीरामका च र तो त वदश ऋ षय ने ब त कुछ वणन
कया है और तुमने अनेक बार उसे सुना भी है ।।३।।
गुवथ य रा यो चरदनुवनं
प पद् यां यायाः
पा ण पशा मा यां मृ जतपथ जो
यो हरी ानुजा याम् ।
वै या छू पण याः य वरह षा-
ऽऽरो पत ू वजृ भ-
ता धब सेतुः खलदवदहनः
कोसले ोऽवता ः ।।४

व ा म ा वरे येन मारीचा ा नशाचराः ।


प यतो ल मण यैव हता नैऋतपुंगवाः ।।५

यो लोकवीरस मतौ धनुरैशमु ं


सीता वयंवरगृहे शतोपनीतम् ।
आदाय बालगजलील इवे ुय

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स जीकृतं नृप वकृ य बभ म ये ।।६

ज वानु पगुणशीलवयोऽ पां


सीता भधां यमुर य भल धमानाम् ।
माग जन् भृगुपते नयत् ढं
दप महीमकृत य रराजबीजाम् ।।७
भगवान् ीरामने अपने पता राजा दशरथके स यक र ाके लये राजपाट छोड़ दया
और वे वन-वनम फरते रहे। उनके चरणकमल इतने सुकुमार थे क परम सुकुमारी
ीजानक जीके करकमल का पश भी उनसे सहन नह होता था। वे ही चरण जब वनम
चलते-चलते थक जाते, तब हनूमान् और ल मण उ ह दबा-दबाकर उनक थकावट मटाते।
शूपणखाको नाक-कान काटकर व प कर दे नेके कारण उ ह अपनी यतमा
ीजानक जीका वयोग भी सहना पड़ा। इस वयोगके कारण ोधवश उनक भ ह तन
गय , ज ह दे खकर समु तक भयभीत हो गया। इसके बाद उ ह ने समु पर पुल बाँधा और
लंकाम जाकर रा स के जंगलको दावा नके समान द ध कर दया। वे कोसलनरेश
हमारी र ा कर ।।४।।
भगवान् ीरामने व ा म के य म ल मणके सामने ही मारीच आ द रा स को मार
डाला। वे सब बड़े-बड़े रा स क गनतीम थे ।।५।। परी त्! जनकपुरम सीताजीका
वयंवर हो रहा था। संसारके चुने ए वीर क सभाम भगवान् शंकरका वह भयंकर धनुष
रखा आ था। वह इतना भारी था क तीन सौ वीर बड़ी क ठनाईसे उसे वयंवरसभाम ला
सके थे। भगवान् ीरामने उस धनुषको बात-क -बातम उठाकर उसपर डोरी चढ़ा द और
ख चकर बीचोबीचसे उसके दो टु कड़े कर दये—ठ क वैसे ही, जैसे हाथीका ब चा खेलते-
खेलते ईख तोड़ डाले ।।६।। भगवान्ने ज ह अपने व ः थलपर थान दे कर स मा नत
कया है, वे ील मीजी ही सीताके नामसे जनकपुरम अवतीण ई थ । वे गुण, शील,
अव था, शरीरक गठन और सौ दयम सवथा भगवान् ीरामके अनु प थ । भगवान्ने धनुष
तोड़कर उ ह ा त कर लया। अयो याको लौटते समय मागम उन परशुरामजीसे भट ई
ज ह ने इ क स बार पृ वीको राजवंशके बीजसे भी र हत कर दया था। भगवान्ने उनके
बढ़े ए गवको न कर दया ।।७।।
यः स यपाशप रवीत पतु नदे शं
ैण य चा प शरसा जगृहे सभायः ।
रा यं यं ण यनः सु दो नवासं
य वा ययौ वनमसू नव मु संगः ।।८

र ः वसु कृत पमशु बु े -


त याःखर शर षणमु यब धून् ।
ज ने चतुदशसह मपारणीय-
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कोद डपा णरटमान उवास कृ म् ।।९

सीताकथा वणद पत छयेन


सृ ं वलो य नृपते दशक धरेण ।
ज नेऽ तैणवपुषाऽऽ मतोऽपकृ ो
मारीचमाशु व शखेन यथा कमु ः ।।१०

र ोऽधमेन वृकवद् व पनेऽसम ं


वैदेहराज हतयपया पतायाम् ।
ा ा वने कृपणवत् यया वयु ः
ीसं गनां ग त म त थयं चार ।।११

द वाऽऽ मकृ यहतकृ यमहन् कब धं


स यं वधाय क प भद यताग त तैः ।
इसके बाद पताके वचनको स य करनेके लये उ ह ने वनवास वीकार कया। य प
महाराज दशरथने अपनी प नीके अधीन होकर ही उसे वैसा वचन दया था, फर भी वे
स यके ब धनम बँध गये थे। इस लये भगवान्ने अपने पताक आ ा शरोधाय क । उ ह ने
ाण के समान यारे रा य, ल मी, ेमी, हतैषी, म और महल को वैसे ही छोड़कर अपनी
प नीके साथ या ा क , जैसे मु संग योगी ाण को छोड़ दे ता है ।।८।। वनम प ँचकर
भगवान्ने रा सराज रावणक ब हन शूपणखाको व प कर दया। य क उसक बु
ब त ही कलु षत, कामवासनाके कारण अशु थी। उसके प पाती खर, षण, शरा
आ द धान- धान भाइय को—जो सं याम चौदह हजार थे—हाथम महान् धनुष लेकर
भगावन् ीरामने न कर डाला; और अनेक कारक क ठनाइय से प रपूण वनम वे इधर-
उधर वचरते ए नवास करते रहे ।।९।। परी त्! जब रावणने सीताजीके प, गुण,
सौ दय आ दक बात सुनी तो उसका दय कामवासनासे आतुर हो गया। उसने अद्भुत
ह रनके वेषम मारीचको उनक पणकुट के पास भेजा। वह धीरे-धीरे भगवान्को वहाँसे र ले
गया। अ तम भगवान्ने अपने बाणसे उसे बात-क -बातम वैसे ही मार डाला, जैसे
द जाप तको वीरभ ने मारा था ।।१०।। जब भगवान् ीराम जंगलम र नकल गये, तब
(ल मणक अनुप थ तम) नीच रा स रावणने भे ड़येके समान वदे हन दनी सुकुमारी
ीसीताजीको हर लया। तदन तर वे अपनी ाण या सीताजीसे बछु ड़कर अपने भाई
ल मणके साथ वन-वनम द नक भाँ त घूमने लगे। और इस कार उ ह ने यह श ा द क
‘जो य म आस रखते ह, उनक यही ग त होती है’ ।।११।। इसके बाद भगवान्ने उस
जटायुका दाह-सं कार कया, जसके सारे कमब धन भगव सेवा प कमसे पहले ही भ म
हो चुके थे। फर भगवान्ने कब धका संहार कया और इसके अन तर सु ीव आ द वानर से
म ता करके वा लका वध कया, तदन तर वानर के ारा अपनी ाण याका पता

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लगवाया। ा और शंकर जनके चरण क व दना करते ह वे भगवान् ीराम मनु यक -सी
लीला करते ए बंदर क सेनाके साथ समु तटपर प ँचे ।।१२।। (वहाँ उपवास और
ाथनासे जब समु पर कोई भाव न पड़ा, तब) भगवान्ने ोधक लीला करते ए अपनी
उ एवं टे ढ़ नजर समु पर डाली। उसी समय समु के बड़े-बड़े मगर और म छ खलबला
उठे । डर जानेके कारण समु क सारी गजना शा त हो गयी। तब समु शरीरधारी बनकर
और अपने सरपर ब त-सी भट लेकर भगवान्के चरणकमल क शरणम आया और इस
कार कहने लगा ।।१३।। ‘अन त! हम मूख ह; इस लये आपके वा त वक व पको नह
जानते। जान भी कैसे? आप सम त जगत्के एकमा वामी, आ दकारण एवं जगत्के
सम त प रवतन म एकरस रहनेवाले ह। आप सम त गुण के वामी ह। इस लये जब आप
स वगुणको वीकार कर लेते ह तब दे वता क , रजोगुणको वीकार कर लेते ह तब
जाप तय क और तमोगुणको वीकार कर लेते ह तब आपके ोधसे गणक उ प
होती है ।।१४।। वीर शरोमणे! आप अपनी इ छाके अनुसार मुझे पार कर जाइये और
लोक को लानेवाले व वाके कुपूत रावणको मारकर अपनी प नीको फरसे ा त
क जये। पर तु आपसे मेरी एक ाथना है। आप यहाँ मुझपर एक पुल बाँध द जये। इससे
आपके यशका व तार होगा और आगे चलकर जब बड़े-बड़े नरप त द वजय करते ए
यहाँ आयगे, तब वे आपके यशका गान करगे’ ।।१५।।
बुद ् वाथ वा ल न हते लवगे सै यै-
वलामगात् स मनुजोऽजभवा चताङ् ः ।।१२

य ोष व म ववृ कटा पात१-


सं ा तन मकरो भयगीणघोषः ।
स धुः शर यहणं प रगृ पी
पादार व दमुपग य बभाष एतत् ।।१३

न वां वयं जड धयो नु वदाम भूमन्२


कूट थमा दपु षं जगतामधीशम् ।
य स वतः सुरगणा रजसः जेशा
म यो भूतपतयः स भवान् गुणेशः ।।१४

कामं या ह ज ह व वसोऽवमेहं
ैलो यरावणमवा ु ह वीर प नीम् ।
ब नी ह सेतु मह ते यशसो वत यै
गाय त द वज यनो यमुपे य भूपाः ।।१५

बद् वोदधौ रघुप त व वधा कूटै ः


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सेतुं कपी करक पतभू हा ै ः ।
सु ीवनीलहनुम मुखैरनीकै-३
लकां वभीषण शाऽऽ वशद द धाम् ।।१६
भगवान् ीरामजीने अनेकानेक पवत के शखर से समु पर पुल बाँधा। जब बड़े-बड़े
ब दर अपने हाथ से पवत उठा-उठाकर लाते थे, तब उनके वृ और बड़ी-बड़ी च ान थर-थर
काँपने लगती थ । इसके बाद वभीषणक सलाहसे भगवान्ने सु ीव, नील, हनूमान् आ द
मुख वीर और वानरीसेनाके साथ लंकाम वेश कया। वह तो ीहनूमान्जीके ारा पहले
ही जलायी जा चुक थी ।।१६।।
सा वानरे बल वहारको -१
ी ारगोपुरसदोवलभी वटं का ।
नभ यमान धषण वजहेमकु भ-
शृंगाटका गजकुलै दनीव घूणा ।।१७

र ःप त तदवलो य नकु भकु भ-


धू ा मुखसुरा तनरा तकाद न् ।
पु ं ह तम तकाय वक पनाद न्
सवानुगान् सम हनोदथ कु भकणम् ।।१८

तां यातुधानपृतनाम सशूलचाप-


ास श शरतोमरखड् ग गाम् ।
सु ीवल मणम सुतग धमाद-
नीलांगद पनसा द भर वतोऽगात् ।।१९

तेऽनीकपा रघुपतेर भप य सव
ं व थ मभप रथा योधैः ।
ज नु मै ग रगदे षु भरंगदा ाः
सीता भमशहतमंगलरावणेशान् ।।२०

र ःप तः वबलन मवे य
आ यानकमथा भससार२ रामम् ।
वः य दने मु त३ मात लनोपनीते
व ाजमानमहन शतैः ुर ैः ।।२१
उस समय वानरराजक सेनाने लंकाके सैर करने और खेलनेके थान, अ के गोदाम,
खजाने, दरवाजे, फाटक, सभाभवन, छ जे और प य के रहनेके थानतकको घेर लया।
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उ ह ने वहाँक वेद , वजाएँ, सोनेके कलश और चौराहे तोड़-फोड़ डाले। उस समय लंका
ऐसी मालूम पड़ रही थी, जैसे झुंड-के-झुंड हा थय ने कसी नद को मथ डाला हो ।।१७।।
यह दे खकर रा सराज रावणने नकु भ, कु भ, धू ा , मुख, सुरा तक, नरा तक, ह त,
अ तकाय, वक पन आ द अपने सब अनुचर , पु मेघनाद और अ तम भाई कु भकणको
भी यु करनेके लये भेजा ।।१८।।
रा स क वह वशाल सेना तलवार, शूल, धनुष, ास, ऋ , श , बाण, भाले,
खड् ग आ द श -अ से सुर त और अ य त गम थी। भगवान् ीरामने सु ीव,
ल मण, हनूमान्, ग ध-मादन, नील, अंगद, जा बवान् और पनस आ द वीर को अपने साथ
लेकर रा स क सेनाका सामना कया ।।१९।। रघुवंश शरोम ण भगवान् ीरामके अंगद
आ द सब सेनाप त रा स क चतुरं गणी सेना—हाथी, रथ, घुड़सवार और पैदल के साथ
यु क री तसे भड़ गये और रा स को वृ , पवत शखर, गदा और बाण से मारने लगे।
उनका मारा जाना तो वाभा वक ही था। य क वे उसी रावणके अनुचर थे, जसका मंगल
ीसीताजीको पश करनेके कारण पहले ही न हो चुका था ।।२०।।
जब रा सराज रावणने दे खा क मेरी सेनाका तो नाश आ जा रहा है, तब वह ोधम
भरकर पु पक वमानपर आ ढ़ हो भगवान् ीरामके सामने आया। उस समय इ का
सार थ मात ल बड़ा ही तेज वी द रथ लेकर आया और उसपर भगवान् ीरामजी
वराजमान ए। रावण अपने तीखे बाण से उनपर हार करने लगा ।।२१।।
राम तमाह पु षादपुरीष य ः
का तासम मसताप ता वत्१ ते ।
य प य फलम जुगु सत य
य छा म काल इव कतुरलं यवीयः ।।२२

एवं पन् धनु ष सं धतमु ससज


बाणं स व मव तद्धृदयं बभेद ।
सोऽसृग् वमन् दशमुखै यपतद् वमाना-
ाहे त ज प त जने सुकृतीव र ः ।।२३

ततो न य लंकाया यातुधा यः सह शः ।


म दोदया समं त मन् द य२ उपा वन् ।।२४

वान् वान् ब धून् प र व य ल मणेषु भर दतान् ।


ः सु वरं द ना न य आ मानमा मना ।।२५

हा हताः म वयं नाथ लोकरावण रावण ।

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कं याया छरणं लंका व हीना परा दता ।।२६

नैवं वेद महाभाग भवान् कामवशं गतः ।


तेजोऽनुभावं सीताया येन नीतो दशा ममाम् ।।२७
भगवान् ीरामजीने रावणसे कहा—‘नीच रा स! तुम कु ेक तरह हमारी
अनुप थ तम हमारी ाण या प नीको हर लाये! तुमने ताक हद कर द ! तु हारे-जैसा
नल ज तथा न दनीय और कौन होगा। जैसे कालको कोई टाल नह सकता—कतापनके
अ भमानीको वह फल दये बना रह नह सकता, वैसे ही आज म तु ह तु हारी करनीका
फल चखाता ँ’ ।।२२।।
इस कार रावणको फटकारते ए भगवान् ीरामने अपने धनुषपर चढ़ाया आ बाण
उसपर छोड़ा। उस बाणने व के समान उसके दयको वद ण कर दया। वह अपने दस
मुख से खून उगलता आ वमानसे गर पड़ा—ठ क वैसे ही, जैसे पु या मालोग भोग
समा त होनेपर वगसे गर पड़ते ह। उस समय उसके पुरजन-प रजन ‘हाय-हाय’ करके
च लाने लगे ।।२३।।
तदन तर हजार रा सयाँ म दोदरीके साथ रोती ई लंकासे नकल पड़ और रणभू मम
आय ।।२४।। उ ह ने दे खा क उनके वजन-स ब धी ल मणजीके बाण से छ - भ
होकर पड़े ए ह। वे अपने हाथ अपनी छाती पीट-पीटकर और अपने सगे-स ब धय को
दयसे लगा-लगाकर ऊँचे वरसे वलाप करने लग ।।२५।। हाय-हाय! वामी! आज हम
सब बेमौत मारी गय । एक दन वह था, जब आपके भयसे सम त लोक म ा ह- ा ह मच
जाती थी। आज वह दन आ प ँचा क आपके न रहनेसे हमारे श ु लंकाक दशा कर रहे ह
और यह उठ रहा है क अब लंका कसके अधीन रहेगी ।।२६।।
आप सब कारसे स प थे, कसी भी बातक कमी न थी। पर तु आप कामके वश हो
गये और यह नह सोचा क सीताजी कतनी तेज वनी ह और उनका कतना भाव है।
आपक यही भूल आपक इस दशाका कारण बन गयी ।।२७।।
कृतैषा वधवा लंका वयं च कुलन दन ।
दे हः कृतोऽ ं गृ ाणामा मा नरकहेतवे ।।२८
ीशुक उवाच
वानां वभीषण े कोसले ानुमो दतः ।
पतृमेध वधानेन य ं सा परा यकम् ।।२९

ततो ददश भगवानशोकव नका मे१ ।


ामां व वरह ा ध शशपामूलमा थताम् ।।३०

रामः यतमां भाया द नां वी या वक पत ।


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आ मसंदशना ाद वकस मुखपंकजाम् ।।३१

आरो या हे यानं ातृ यां हनुम ुतः ।


वभीषणाय भगवान् द वा र ोगणेशताम् ।।३२

लंकामायु क पा तं ययौ चीण तः पुरीम् ।


अवक यमाणः कुसुमैल कपाला पतैः प थ ।।३३

उपगीयमानच रतः शतधृ या द भमुदा ।


गोमू यावकं ु वा ातरं व कला बरम् ।।३४

महाका णकोऽत य ज टलं थ डलेशयम् ।


भरतः ा तमाक य पौरामा यपुरो हतैः ।।३५

पा के शर स य य रामं यु तोऽ जम्२ ।


न द ामात् व श बराद् गीतवा द नः वनैः ।।३६

घोषेण च मु ः पठ वा द भः३ ।
वणक पताका भहमै वजै रथैः ।।३७
कभी आपके काम से हम सब और सम त रा सवंश आन दत होता था और आज हम
सब तथा यह सारी लंका नगरी वधवा हो गयी। आपका वह शरीर, जसके लये आपने सब
कुछ कर डाला, आज गीध का आहार बन रहा है और अपने आ माको आपने नरकका
अ धकारी बना डाला। यह सब आपक ही नासमझी और कामुकताका फल है ।।२८।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! कोसलाधीश भगवान् ीरामच जीक आ ासे
वभीषणने अपने वजन-स ब धय का पतृय क व धसे शा के अनुसार अ ये कम
कया ।।२९।। इसके बाद भगवान् ीरामने अशोक-वा टकाके आ मम अशोक वृ के नीचे
बैठ ई ीसीताजीको दे खा। वे उ ह के वरहक ा धसे पी ड़त एवं अ य त बल हो रही
थ ।।३०।। अपनी ाण या अधा गनी ीसीताजीको अ य त द न अव थाम दे खकर
ीरामका दय ेम और कृपासे भर आया। इधर भगवान्का दशन पाकर सीताजीका दय
ेम और आन दसे प रपूण हो गया, उनका मुखकमल खल उठा ।।३१।। भगवान्ने
वभीषणको रा स का वा म व, लंकापुरीका रा य और एक क पक आयु द और इसके
बाद पहले सीताजीको वमानपर बैठाकर अपने दोन भाई ल मण तथा सु ीव एवं सेवक
हनुमान्जीके साथ वयं भी वमानपर सवार ए। इस कार चौदह वषका त पूरा हो
जानेपर उ ह ने अपने नगरक या ा क । उस समय मागम ा आ द लोकपालगण उनपर
बड़े ेमसे पु प क वषा कर रहे थे ।।३२-३३।।
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इधर तो ा आ द बड़े आन दसे भगवान्क लीला का गान कर रहे थे और उधर जब
भगवान्को यह मालूम आ क भरतजी केवल गोमू म पकाया आ जौका द लया खाते ह,
व कल पहनते ह और पृ वीपर डाभ बछाकर सोते ह एवं उ ह ने जटाएँ बढ़ा रखी ह, तब वे
ब त ःखी ए। उनक दशाका मरण कर परम क णाशील भगवान्का दय भर आया।
जब भरतको मालूम आ क मेरे बड़े भाई भगवान् ीरामजी आ रहे ह, तब वे पुरवासी,
म ी और पुरो हत को साथ लेकर एवं भगवान्क पा काएँ सरपर रखकर उनक
अगवानीके लये चले। जब भरतजी अपने रहनेके थान न द ामसे चले, तब लोग उनके
साथ-साथ मंगलगान करते, बाजे बजाते चलने लगे। वेदवाद ा ण बार-बार वेदम का
उ चारण करने लगे और उसक व न चार ओर गूँजने लगी। सुनहरी कामदार पताकाएँ
फहराने लग । सोनेसे मढ़े ए तथा रंग- बरंगी वजा से सजे ए रथ, सुनहले साजसे
सजाये ए सु दर घोड़े तथा सोनेके कवच पहने ए सै नक उनके साथ-साथ चलने लगे।
सेठ-सा कार, े वारांगनाएँ, पैदल चलनेवाले सेवक और महाराजा के यो य छोट -बड़ी
सभी व तुएँ उनके साथ चल रही थ । भगवान्को दे खते ही ेमके उ े कसे भरतजीका दय
गद्गद हो गया, ने म आँसू छलक आये, वे भगवान्के चरण पर गर पड़े ।।३४-३९।।
उ ह ने भुके सामने उनक पा काएँ रख द और हाथ जोड़कर खड़े हो गये। ने से आँसूक
धारा बहती जा रही थी। भगवान्ने अपने दोन हाथ से पकड़कर ब त दे रतक भरतजीको
दयसे लगाये रखा। भगवान्के ने जलसे भरतजीका नान हो गया ।।४०।। इसके बाद
सीताजी और ल मणजीके साथ भगवान् ीरामजीने ा ण और पूजनीय गु जन को
नम कार कया तथा सारी जाने बड़े ेमसे सर झुकाकर भगवान्के चरण म णाम
कया ।।४१।। उस समय उ रकोसल दे शक रहनेवाली सम त जा अपने वामी
भगवान्को ब त दन के बाद आये दे ख अपने प े हला- हलाकर पु प क वषा करती ई
आन दसे नाचने लगी ।।४२।। भरतजीने भगवान्क पा काएँ ल , वभीषणने े चँवर,
सु ीवने पंखा और ीहनुमान्जीने ेत छ हण कया ।।४३।। परी त्! श ु नजीने धनुष
और तरकस, सीताजीने तीथके जलसे भरा कम डलु, अंगदने सोनेका खड् ग और
जा बवान्ने ढाल ले ली ।।४४।।
सद ै मस ाहैभटै ः पुरटवम भः ।
ेणी भवारमु या भभृ यै ैव पदानुगैः ।।३८

पारमे ा युपादाय प या यु चावचा न च ।


पादयो यपतत्१ े णा ल दये णः ।।३९

पा के य य पुरतः ांज लबा पलोचनः ।


तमा य चरं दो या नापयन् ने जैजलैः ।।४०

रामो ल मणसीता यां व े यो येऽहस माः ।


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ते यः वयं नम े जा भ नम कृतः ।।४१

धु व त उ रासंगान् प त वी य चरागतम् ।
उ राः कोसला मा यैः कर तो ननृतुमुदा ।।४२

पा के भरतोऽगृ ा चामर जनो मे ।


वभीषणः ससु ीवः ेत छ ं म सुतः ।।४३

धनु नषंगा छ ु नः२ सीता तीथकम डलुम् ।


अ ब दं गदः खड् गं हैमं चम राण् नृप ।।४४
पु पक थोऽ वतः१ ी भः तूयमान व द भः ।
वरेजे भगवान् राजन् है इवो दतः ।।४५

ातृ भन दतः सोऽ प सो सवां ा वशत् पुरीम् ।


व य राजभवनं गु प नीः२ वमातरम् ।।४६

गु न् वय यावरजान् पू जतः यपूजयत् ।


वैदेही ल मण ैव यथावत् समुपेयतुः ।।४७

पु ान् वमातर ता तु ाणां त व इवो थताः ।


आरो याङ् केऽ भ षच यो बा पौघै वज ः शुचः ।।४८

जटा नमु य व धवत् कुलवृ ै ः समं गु ः ।


अ य षचद् यथैवे ं चतुः स धुजला द भः३ ।।४९

एवं कृत शरः नानः सुवासाः लंकृतः ।


वलंकृतैः सुवासो भ ातृ भभायया बभौ ।।५०

अ हीदासनं ा ा णप य सा दतः ।
जाः वधम नरता वणा मगुणा वताः ।
जुगोप पतृवद् रामो मे नरे पतरं च तम् ।।५१
इन लोग के साथ भगवान् पु पक वमानपर वराजमान हो गये, चार तरफ यथा थान
याँ बैठ गय , व द जन तु त करने लगे। उस समय पु पक वमानपर भगवान् ीरामक
ऐसी शोभा ई, मानो ह के साथ च मा उदय हो रहे ह ।।४५।।
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इस कार भगवान्ने भाइय का अ भन दन वीकार करके उनके साथ अयो यापुरीम
वेश कया। उस समय वह पुरी आन दो सवसे प रपूण हो रही थी। राजमहलम वेश करके
उ ह ने अपनी माता कौस या, अ य माता , गु जन , बराबरके म और छोट का
यथायो य स मान कया तथा उनके ारा कया आ स मान वीकार कया। ीसीताजी
और ल मणजीने भी भगवान्के साथ-साथ सबके त यथायो य वहार कया ।।४६-४७।।
उस समय जैसे मृतक शरीरम ाण का संचार हो जाय, वैसे ही माताएँ अपने पु के
आगमनसे ह षत हो उठ । उ ह ने उनको अपनी गोदम बैठा लया और अपने आँसु से
उनका अ भषेक कया। उस समय उनका सारा शोक मट गया ।।४८।। इसके बाद
व स जीने सरे गु जन के साथ व ध-पूवक भगवान्क जटा उतरवायी और बृह प तने
जैसे इ का अ भषेक कया था, वैसे ही चार समु के जल आ दसे उनका अ भषेक
कया ।।४९।। इस कार सरसे नान करके भगवान् ीरामने सु दर व , पु पमालाएँ और
अलंकार धारण कये। सभी भाइय और ीजानक जीने भी सु दर-सु दर व और अलंकार
धारण कये। उनके साथ भगवान् ीरामजी अ य त शोभायमान ए ।।५०।। भरतजीने
उनके चरण म गरकर उ ह स कया और उनके आ ह करनेपर भगवान् ीरामने
राज सहासन वीकार कया। इसके बाद वे अपने-अपने धमम त पर तथा वणा मके
आचारको नभानेवाली जाका पताके समान पालन करने लगे। उनक जा भी उ ह
अपना पता ही मानती थी ।।५१।।
ेतायां वतमानायां कालः कृतसमोऽभवत् ।
रामे राज न धम े सवभूतसुखावहे ।।५२

वना न न ो गरयो वषा ण प स धवः ।


सव काम घा आसन् जानां भरतषभ ।।५३

ना ध ा धजरा ला न ःखशोकभय लमाः१ ।


मृ यु ा न छतां नासीद् रामे राज यधो जे ।।५४

एकप नी तधरो राज षच रतः शु चः ।


वधम गृहमेधीयं श यन् वयमाचरत् ।।५५

े णानुवृ या शीलेन यावनता सती ।


धया या च भाव ा भतुः सीताहर मनः ।।५६
परी त्! जब सम त ा णय को सुख दे नेवाले परम धम भगवान् ीराम राजा ए तब
था तो ेतायुग, पर तु मालूम होता था मानो स ययुग ही है ।।५२।। परी त्! उस समय वन,
नद , पवत, वष, प और समु —सब-के-सब जाके लये कामधेनुके समान सम त
कामना को पूण करनेवाले बन रहे थे ।।५३।। इ यातीत भगवान् ीरामके रा य करते
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समय कसीको मान सक च ता या शारी रक रोग नह होते थे। बुढ़ापा, बलता, ःख,
शोक, भय और थकावट नाममा के लये भी नह थे। यहाँतक क जो मरना नह चाहते थे,
उनक मृ यु भी नह होती थी ।।५४।। भगवान् ीरामने एकप नीका त धारण कर रखा था,
उनके च र अ य त प व एवं राज षय के-से थे। वे गृह थो चत वधमक श ा दे नेके लये
वयं उस धमका आचरण करते थे ।।५५।। सती- शरोम ण सीताजी अपने प तके दयका
भाव जानती रहत । वे ेमसे, सेवासे, शीलसे, अ य त वनयसे तथा अपनी बु और ल जा
आ द गुण से अपने प त भगवान् ीरामजीका च चुराती रहती थ ।।५६।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां नवम क धे रामच रते२
दशमोऽ यायः ।।१०।।

१. मकटा वटं कपात०। २. नून।ं ३. रनेकै०।


१. कोष०। २. पालक०। ३. मह त।
१. वय ते। २. द य ता०।
१. कावने। २. युदगतो।
् ३. शंस ०।
१. त मू ना। २. ं श ु०।
१. थो वृतः। २. प न । ३. चतु भः सागरा बु भः।

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अथैकादशोऽ यायः
भगवान् ीरामक शेष लीला का वणन
ीशुक उवाच
भगवाना मनाऽऽ मानं राम उ मक पकैः३ ।
सवदे वमयं४ दे वमीज आचायवान् मखैः ।।१
हो ेऽददाद्५ दशं ाच णे द णां भुः ।
अ वयवे तीच च उद च सामगाय सः ।।२
आचायाय ददौ शेषां यावती भू तद तरा ।
म यमान इदं कृ नं ा णोऽह त नः पृहः ।।३
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान् ीरामने गु व स जीको अपना आचाय
बनाकर उ म साम य से यु य के ारा अपने-आप ही अपने सवदे व व प वयं काश
आ माका यजन कया ।।१।। उ ह ने होताको पूव दशा, ाको द ण, अ वयुको प म
और उद्गाताको उ र दशा दे द ।।२।। उनके बीचम जतनी भू म बच रही थी, वह उ ह ने
आचायको दे द । उनका यह न य था क स पूण भूम डलका एकमा अ धकारी नः पृह
ा ण ही है ।।३।। इस कार सारे भूम डलका दान करके उ ह ने अपने शरीरके व और
अलंकार ही अपने पास रखे। इसी कार महारानी सीताजीके पास भी केवल मांग लक व
और आभूषण ही बच रहे ।।४।।
इ ययं तदलंकारवासो यामवशे षतः ।
तथा रा य प वैदेही सौमंग यावशे षता ।।४

ते तु यदे व य वा स यं वी य सं तुतम् ।
ीताः ल धय त मै य यदं बभा षरे ।।५

अ ं न वया क नु भगवन् भुवने र ।


य ोऽ त दयं व य तमो हं स वरो चषा ।।६

नमो यदे वाय रामायाकु ठमेधसे ।


उ म ोकधुयाय य तद डा पताङ् ये ।।७

कदा च लोक ज ासुगूढो रा यामल तः ।


चरन् वाचोऽशृणोद् रामो भायामु य क य चत् ।।८

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नाहं बभ म वां ामसत परवे मगाम् ।
ीलोभी बभृयात् सीतां रामो नाहं भजे पुनः ।।९

इ त लोकाद् ब मुखाद् रारा यादसं वदः ।


प या भीतेन सा य ा ा ता ाचेतसा मम् ।।१०

अ तव यागते काले यमौ सा सुषुवे सुतौ ।


कुशो लव इ त यातौ तयो े या मु नः ।।११
जब आचाय आ द ा ण ने दे खा क भगवान् ीराम तो ा ण को ही अपना इ दे व
मानते ह, उनके दयम ा ण के त अन त नेह है, तब उनका दय ेमसे वत हो
गया। उ ह ने स होकर सारी पृ वी भगवान्को लौटा द और कहा ।।५।। ‘ भो! आप सब
लोक के एकमा वामी ह। आप तो हमारे दयके भीतर रहकर अपनी यो तसे
अ ाना धकारका नाश कर रहे ह। ऐसी थ तम भला, आपने हम या नह दे रखा है ।।६।।
आपका ान अन त है। प व क तवाले पु ष म आप सव े ह। उन महा मा को, जो
कसीको कसी कारक पीड़ा नह प ँचाते, आपने अपने चरणकमल दे रखे ह। ऐसा
होनेपर भी आप ा ण को अपना इ दे व मानते ह। भगवन्! आपके इस राम पको हम
नम कार करते ह’ ।।७।।
परी त्! एक बार अपनी जाक थ त जाननेके लये भगवान् ीरामजी रातके समय
छपकर बना कसीको बतलाये घूम रहे थे। उस समय उ ह ने कसीक यह बात सुनी। वह
अपनी प नीसे कह रहा था ।।८।। ‘अरी! तू और कुलटा है। तू पराये घरम रह आयी है।
ी-लोभी राम भले ही सीताको रख ल, पर तु म तुझे फर नह रख सकता’ ।।९।। सचमुच
सब लोग को स रखना टे ढ़ खीर है। य क मूख क तो कमी नह है। जब भगवान्
ीरामने ब त के मुँहसे ऐसी बात सुनी, तो वे लोकापवादसे कुछ भयभीत-से हो गये। उ ह ने
ीसीताजीका प र याग कर दया और वे वा मी क मु नके आ मम रहने लग ।।१०।।
सीताजी उस समय गभवती थ । समय आनेपर उ ह ने एक साथ ही दो पु उ प कये।
उनके नाम ए—कुश और लव। वा मी क मु नने उनके जात-कमा द सं कार कये ।।११।।
अंगद केतु १ ल मण या मजौ मृतौ ।
त ः पु कल इ या तां भरत य महीपते ।।१२

सुबा ः ुतसेन श ु न य बभूवतुः ।


ग धवान् को टशो ज ने भरतो वजये दशाम् ।।१३

तद यं धनमानीय सव रा े यवेदयत् ।
श ु न मधोः पु ं लवणं नाम रा सम् ।

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ह वा मधुवने च े मथुरां नाम वै पुरीम् ।।१४

मुनौ न य तनयौ सीता भ ा ववा सता ।


याय ती रामचरणौ ववरं ववेश ह ।।१५

त छ वा भगवान् रामो ध प धया शुचः ।


मरं त या गुणां तां ता ाश नोद् रोद्धुमी रः ।।१६

ीपुं संग एता सव २ ासमावहः ।


अपी राणां कमुत ा य य गृहचेतसः ।।१७

तत ऊ व चय धारय जुहोत् भुः ।


योदशा दसाह म नहो मख डतम् ।।१८

मरतां द व य य व ं द डकक टकैः ।


वपादप लवं राम आ म यो तरगात् ततः ।।१९

नेदं यशो रघुपतेः सुरया ञयाऽऽ -


लीलातनोर धकसा य वमु धा नः ।
र ोवधो जल धब धनम पूगैः३
क त य श ुहनने कपयः सहायाः ।।२०
ल मणजीके दो पु ए—अंगद और च केतु। परी त्! इसी कार भरतजीके भी दो
ही पु थे—त और पु कल ।।१२।। तथा श ु नके भी दो पु ए—सुबा और ुतसेन।
भरतजीने द वजयम करोड़ ग धव का संहार कया ।।१३।। उ ह ने उनका सब धन लाकर
अपने बड़े भाई भगवान् ीरामक सेवाम नवेदन कया। श ु नजीने मधुवनम मधुके पु
लवण नामक रा सको मारकर वहाँ मथुरा नामक पुरी बसायी ।।१४।। भगवान् ीरामके
ारा नवा सत सीताजीने अपने पु को वा मी कजीके हाथ म स प दया और भगवान्
ीरामके चरणकमल का यान करती ई वे पृ वीदे वीके लोकम चली गय ।।१५।। यह
समाचार सुनकर भगवान् ीरामने अपने शोका-वेशको बु के ारा रोकना चाहा, पर तु
परम समथ होनेपर भी वे उसे रोक न सके। य क उ ह जानक जीके प व गुण बार-बार
मरण हो आया करते थे ।।१६।। परी त्! यह ी और पु षका स ब ध सब कह इसी
कार ःखका कारण है। यह बात बड़े-बड़े समथ लोग के वषयम भी ऐसी ही है, फर
गृहास वषयी पु षके स ब धम तो कहना ही या है ।।१७।।
इसके बाद भगवान् ीरामने चय धारण करके तेरह हजार वषतक अख ड पसे
अ नहो कया ।।१८।। तदन तर अपना मरण करनेवाले भ के दयम अपने उन
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चरणकमल को था पत करके, जो द डकवनके काँट से बध गये थे, अपने वयं काश
परम यो तमय धामम चले गये ।।१९।।
परी त्! भगवान्के समान तापशाली और कोई नह है, फर उनसे बढ़कर तो हो ही
कैसे सकता है। उ ह ने दे वता क ाथनासे ही यह लीला- व ह धारण कया था। ऐसी
थ तम रघुवंश- शरोम ण भगवान् ीरामके लये यह कोई बड़े गौरवक बात नह है क
उ ह ने अ -श से रा स को मार डाला या समु पर पुल बाँध दया। भला, उ ह श ु को
मारनेके लये बंदर क सहायताक भी आव यकता थी या? यह सब उनक लीला ही
है ।।२०।।
य यामलं नृपसद सु यशोऽधुना प
गाय यघ नमृषयो द गभे प म् ।
तं नाकपालवसुपाल करीटजु -
पादा बुजं रघुप त शरणं प े ।।२१

स यैः पृ ोऽ भ ो वा सं व ोऽनुगतोऽ प वा ।
कोसला ते ययुः थानं य ग छ त यो गनः ।।२२

पु षो रामच रतं वणै पधारयन् ।


आनृशं यपरो राजन् कमब धै वमु यते ।।२३
राजोवाच
कथं स भगवान् रामो ातॄन् वा वयमा मनः ।
त मन् वा तेऽ ववत त जाः पौरा ई रे ।।२४
ीशुक उवाच
अथा दशद् द वजये ातॄं भुवने रः ।
आ मानं दशयन् वानां पुरीमै त सानुगः ।।२५

आ स मागा ग धोदै ः क रणां मदशीकरैः ।


वा मनं ा तमालो य म ां वा सुतरा मव ।।२६

ासादगोपुरसभाचै यदे वगृहा दषु ।


व य तहेमकलशैः पताका भ म डताम् ।।२७
भगवान् ीरामका नमल यश सम त पाप को न कर दे नेवाला है। वह इतना फैल गया
है क द गज का यामल शरीर भी उसक उ वलतासे चमक उठता है। आज भी बड़े-बड़े
ऋ ष-मह ष राजा क सभाम उसका गान करते रहते ह। वगके दे वता और पृ वीके
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नरप त अपने कमनीय करीट से उनके चरणकमल क सेवा करते रहते ह। म उ ह
रघुवंश शरोम ण भगवान् ीरामच क शरण हण करता ँ ।।२१।।
ज ह ने भगवान् ीरामका दशन और पश कया, उनका सहवास अथवा अनुगमन
कया—वे सब-के-सब तथा कोसलदे शके नवासी भी उसी लोकम गये, जहाँ बड़े-बड़े योगी
योग-साधनाके ारा जाते ह ।।२२।।
जो पु ष अपने कान से भगवान् ीरामका च र सुनता है—उसे सरलता, कोमलता
आ द गुण क ा त होती है। परी त्! केवल इतना ही नह , वह सम त कम-ब धन से मु
हो जाता है ।।२३।।
राजा परी त्ने पूछा—भगवान् ीराम वयं अपने भाइय के साथ कस कारका
वहार करते थे? तथा भरत आ द भाई, जाजन और अयो यावासी भगवान् ीरामके त
कैसा बताव करते थे? ।।२४।।
ीशुकदे वजी कहते ह— भुवनप त महाराज ीरामने राज सहासन वीकार करनेके
बाद अपने भाइय को द वजयक आ ा द और वयं अपने नजजन को दशन दे ते ए
अपने अनुचर के साथ वे पुरीक दे ख-रेख करने लगे ।।२५।।
उस समय अयो यापुरीके माग सुग धत जल और हा थय के मदकण से सचे रहते।
ऐसा जान पड़ता, मानो यह नगरी अपने वामी भगवान् ीरामको दे खकर अ य त मतवाली
हो रही है ।।२६।।
उसके महल, फाटक, सभाभवन, वहार और दे वालय आ दम सुवणके कलश रखे ऐ थे
और थान- थानपर पताकाएँ फहरा रही थ ।।२७।।
पूगैः सवृ तै र भा भः प का भः सुवाससाम् ।
आदशरंशुकैः भः कृतकौतुकतोरणाम् ।।२८

तमुपेयु त १ त पौरा अहणपाणयः ।


आ शषो युयुजुदव पाहीमां ाक् वयोद्धृताम्२ ।।२९

ततः जा वी य प त चरागतं
द यो सृ गृहाः यो नराः ।
आ ह या यर व दलोचन-
मतृ तने ाः कुसुमैरवा करन् ।।३०

अथ व ः वगृहं जु ं वैः पूवराज भः ।


अन ता खलकोशा मन य प र छदम् ।।३१

व मो बर ारैव य त भपङ् भः ।
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थलैमारकतैः व छै भात फ टक भ भः ।।३२

च भः प का भवासोम णगणांशुकैः ।
मु ाफलै लासैः का तकामोपप भः ।।३३

धूपद पैः सुर भ भम डतं पु पम डनैः३ ।


ीपु भः सुरसंकाशैजु ं भूषणभूषणैः ।।३४

त मन् स भगवान् रामः न धया यये या ।


रेमे वारामधीराणामृषभः सीतया कल ।।३५
वह डंठलसमेत सुपारी, केलेके खंभे और सु दर व के प से सजायी ई थी। दपण,
व और पु पमाला से तथा मांग लक च का रय और बंदनवार से सारी नगरी जगमगा
रही थी ।।२८।। नगरवासी अपने हाथ म तरह-तरहक भट लेकर भगवान्के पास आते और
उनसे ाथना करते क ‘दे व! पहले आपने ही वराह पसे पृ वीका उ ार कया था; अब
आप ही इसका पालन क जये ।।२९।। परी त्! उस समय जब जाको मालूम होता क
ब त दन के बाद भगवान् ीरामजी इधर पधारे ह, तब सभी ी-पु ष उनके दशनक
लालसासे घर- ार छोड़कर दौड़ पड़ते। वे ऊँची-ऊँची अटा रय पर चढ़ जाते और अतृ त
ने से कमलनयन भगवान्को दे खते ए उनपर पु प क वषा करते ।।३०।।
इस कार जाका नरी ण करके भगवान् फर अपने महल म आ जाते। उनके वे
महल पूववत राजा के ारा से वत थे। उनम इतने बड़े-बड़े सब कारके खजाने थे, जो
कभी समा त नह होते थे। वे बड़ी-बड़ी ब मू य ब त-सी साम य से सुस जत थे ।।३१।।
महल के ार तथा दे ह लयाँ मूँगेक बनी ई थ । उनम जो खंभे थे, वे वै यम णके थे।
मरकतम णके बड़े सु दर-सु दर फश थे, तथा फ टकम णक द वार चमकती रहती
थ ।।३२।। रंग- बरंगी माला , पताका , म णय क चमक, शु चेतनके समान उ वल
मोती, सु दर-सु दर भोग-साम ी, सुग धत धूप-द प तथा फूल के गहन से वे महल खूब
सजाये ए थे। आभूषण को भी भू षत करनेवाले दे वता के समान ी-पु ष उसक सेवाम
लगे रहते थे ।।३३-३४।।
परी त्! भगवान् ीरामजी आ माराम जते य पु ष के शरोम ण थे। उसी महलम वे
अपनी ाण या ेममयी प नी ीसीताजीके साथ वहार करते थे ।।३५।।
बुभुजे च यथाकालं कामान् धममपीडयन् ।

वषपूगान् ब न् नॄणाम भ याताङ् प लवः ।।३६


सभी ी-पु ष जनके चरणकमल का यान करते रहते ह, वे ही भगवान् ीराम ब त
वष तक धमक मयादाका पालन करते ए समयानुसार भोग का उपभोग करते रहे ।।३६।।

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इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां नवम क धे ीरामोपा याने
एकादशोऽ यायः ।।११।।

१. ना ध ा धजरा ला न ःख०। २. रामानुच रतं नाम। ३. क पकः। ४. मयो। ५. हो े


तदा दश ाच ।
१. द के०। २. सव ो ापमावहत्। ३. पाणेः।
१. यु तत त । २. वयाऽऽवृताम्। ३. म डलैः।

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अथ ादशोऽ यायः
इ वाकुवंशके शेष राजा का वणन
ीशुक उवाच
कुश य चा त थ त मा षध त सुतो नभः ।
पु डरीकोऽथ त पु ः ेमध वाभव तः ।।१
दे वानीक ततोऽनीहः पा रया ोऽथ त सुतः ।
ततो बल थल त माद् व नाभोऽकसंभवः ।।२
खगण त सुत त माद् वधृ त ाभवत्१ सुतः ।
ततो हर यनाभोऽभूद ् योगाचाय तु जै मनेः ।।३
श यः कौस य आ या मं या व योऽ यगाद् यतः ।
योगं महोदयमृ ष दय थभेदकम्२ ।।४
पु यो हर यनाभ य ुवस ध ततोऽभवत् ।
सुदशनोऽथा नवणः शी त य म ः सुतः ।।५
योऽसावा ते योग स ः कलाप ाममा तः ।
कलेर ते सूयवंशं न ं भाव यता पुनः ।।६
त मात्३ सु ुत त य स ध त या यमषणः ।
मह वां त सुत त माद् व सा ोऽ वजायत ।।७
ततः४ सेन जत् त मात् त को भ वता पुनः ।
ततो बृह लो य तु प ा ते समरे हतः ।।८
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! कुशका पु आ अ त थ, उसका नषध, नषधका
नभ, नभका पु डरीक और पु डरीकका ेमध वा ।।१।। ेमध वाका दे वानीक, दे वानीकका
अनीह, अनीहका पा रया , पा रया का बल थल और बल थलका पु आ व नाभ। यह
सूयका अंश था ।।२।।
व नाभसे खगण, खगणसे वधृ त और वधृ तसे हर यनाभक उ प ई। वह
जै म नका श य और योगाचाय था ।।३।। कोसलदे शवासी या व य ऋ षने उसक
श यता वीकार करके उससे अ या मयोगक श ा हण क थी। वह योग दयक गाँठ
काट दे नेवाला तथा परम स दे नेवाला है ।।४।।
हर यनाभका पु य, पु यका ुवस ध, ुवस धका सुदशन, सुदशनका अ नवण,
अ नवणका शी और शी का पु आ म ।।५।। म ने योगसाधनासे स ा त कर ली

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और वह इस समय भी कलाप नामक ामम रहता है। क लयुगके अ तम सूयवंशके न हो
जानेपर वह उसे फरसे चलायेगा ।।६।।
म से सु ुत, उससे स ध और स धसे अमषणका ज म आ। अमषणका मह वान्
और मह वान्का व सा ।।७।। व सा का सेन जत्, सेन जत्का त क और
त कका पु बृह ल आ। परी त्! इसी बृह लको तु हारे पता अ भम युने यु म मार
डाला था ।।८।।
एते ही वाकुभूपाला अतीताः शृ वनागतान् ।
बृह ल य भ वता पु ो नाम बृह णः ।।९
उ य तत त य व सवृ ो भ व य त ।
त ोम ततो भानु दवाको वा हनीप तः ।।१०
सहदे व ततो वीरो बृहद ोऽथ भानुमान् ।
तीका ो भानुमतः सु तीकोऽथ त सुतः ।।११
भ वता म दे वोऽथ सुन ोऽथ पु करः ।
त या त र त पु ः सुतपा तद म जत् ।।१२
बृह ाज तु१ त या प ब ह त मात् कृतंजयः ।
रणंजय त य सुतः संजयो भ वता ततः ।।१३
त मा छा योऽथ२ शु ोदो लांगल त सुतः मृतः ।
ततः सेन जत् त मात् ु को भ वता ततः ।।१४
रणको भ वता त मात् सुरथ तनय ततः ।
सु म ो नाम न ा त एते बाह ला वयाः३ ।।१५
इ वाकूणामयं वंशः सु म ा तो भ व य त ।
यत तं ा य राजानं सं थां ा य त वै कलौ ।।१६
परी त्! इ वाकुवंशके इतने नरप त हो चुके ह। अब आनेवाल के वषयम सुनो।
बृह लका पु होगा बृह ण ।।९।। बृह णका उ य, उसका व सवृ , व सवृ का
त ोम, त ोमका भानु और भानुका पु होगा सेनाप त दवाक ।।१०।। दवाकका वीर
सहदे व, सहदे वका बृहद , बृहद का भानुमान्, भानुमान्का तीका और तीका का पु
होगा सु तीक ।।११।। सु तीकका म दे व, म दे वका सुन , सुन का पु कर, पु करका
अ त र , अ त र का सुतपा और उसका पु होगा अ म जत् ।।१२।। अ म जत्से
बृह ाज, बृह ाजसे ब ह, ब हसे कृतंजय, कृतंजयसे रणंजय और उससे संजय होगा ।।१३।।
संजयका शा य, उसका शु ोद और शु ोदका लांगल, लांगलका सेन जत् और
सेन जत्का पु ु क होगा ।।१४।। ु कसे रणक, रणकसे सुरथ और सुरथसे इस वंशके
अ तम राजा सु म का ज म होगा। ये सब बृह लके वंशधर ह गे ।।१५।। इ वाकुका यह
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वंश सु म तक ही रहेगा। य क सु म के राजा होनेपर क लयुगम यह वंश समा त हो
जायगा ।।१६।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां नवम क धे इ वाकुवंशवणनं४ नाम
ादशोऽ यायः ।।१२।।

१- वसृ ाभव तः। २. दनम्। ३. त मात् ुतपु तु स ध०। ४. ाचीन तम


‘ततः..पुनः’ यह पूवाध नह है, इसके थानपर वतमान तम आया आ
‘भ वता... म जत्’ यह बारहवाँ ोक दया है, इसम भी ‘म दे वो’ के थानम ‘मनुदेवो’
पाठ है।
१. बृह ज तु। २. त मा सा योऽथ। ३. लाः मृताः। ४. वंशानुकथने ीरामच रते।

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अथ योदशोऽ यायः
राजा न मके वंशका वणन
ीशुक उवाच
न म र वाकुतनयो व स मवृत वजम् ।
आर य स ं सोऽ याह श े ण ा वृतोऽ म भोः ।।१

तं नव याग म या म ताव मां तपालय ।


तू णीमासीद् गृहप तः सोऽपी याकरो मखम् ।।२
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! इ वाकुके पु थे न म। उ ह ने य आर भ करके
मह ष व स को ऋ वज्के पम वरण कया। व स जीने कहा क ‘राजन्! इ अपने
य के लये मुझे पहले ही वरण कर चुके ह ।।१।। उनका य पूरा करके म तु हारे पास
आऊँगा। तबतक तुम मेरी ती ा करना।’ यह बात सुनकर राजा न म चुप हो रहे और
व स जी इ का य कराने चले गये ।।२।।

न म ल मदं व ान् स मारभता मवान् ।


ऋ व भरपरै ताव ागमद् यावता गु ः ।।३

श य त मं वी य नव य गु रागतः ।
अशपत् पतताद् दे हो नमेः प डतमा ननः ।।४

न मः तददौ शापं गुरवेऽधमव तने ।


तवा प पतताद् दे हो लोभाद् धममजानतः ।।५

इ यु ससज वं दे हं न मर या मको वदः ।


म ाव णयोज े उव यां पतामहः ।।६

ग धव तुषु तद्दे ह१ं नधाय मु नस माः ।


समा ते स यागेऽथ दे वानूचुः समागतान् ।।७

रा ो जीवतु दे होऽयं स ाः भवो य द ।


तथे यु े न मः ाह मा भू मे दे हब धनम् ।।८

य य योगं न वा छ त वयोगभयकातराः ।
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भज त चरणा भोजं मुनयो ह रमेधसः ।।९

दे हं नाव सेऽहं ःखशोकभयावहम्२ ।


सव ा य यतो मृ युम यानामुदके यथा ।।१०
वचारवान् न मने यह सोचकर क जीवन तो णभंगुर है, वल ब करना उ चत न
समझा और य ार भ कर दया। जबतक गु व स जी न लौट, तबतकके लये उ ह ने
सरे ऋ वज को वरण कर लया ।।३।। गु व स जी जब इ का य स प करके लौटे
तो उ ह ने दे खा क उनके श य न मने तो उनक बात न मानकर य ार भ कर दया है।
उस समय उ ह ने शाप दया क ‘ न मको अपनी वचारशीलता और पा ड यका बड़ा घमंड
है, इस लये इसका शरीरपात हो जाय’ ।।४।। न मक म गु व स का यह शाप धमके
अनुकूल नह , तकूल था। इस लये उ ह ने भी शाप दया क ‘आपने लोभवश अपने
धमका आदर नह कया, इस लये आपका शरीर भी गर जाय’ ।।५।। यह कहकर
आ म व ाम नपुण न मने अपने शरीरका याग कर दया। परी त्! इधर हमारे वृ
पतामह व स जीने भी अपना शरीर यागकर म ाव णके ारा उवशीके गभसे ज म
हण कया ।।६।। राजा न मके य म आये ए े मु नय ने राजाके शरीरको सुग धत
व तु म रख दया। जब स यागक समा त ई और दे वतालोग आये, तब उन लोग ने
उनसे ाथना क ।।७।। ‘महानुभावो! आपलोग समथ ह। य द आप स ह तो राजा
न मका यह शरीर पुनः जी वत हो उठे ।’ दे वता ने कहा—‘ऐसा ही हो।’ उस समय न मने
कहा—‘मुझे दे हका ब धन नह चा हये ।।८।। वचारशील मु नजन अपनी बु को पूण पसे
ीभगवान्म ही लगा दे ते ह और उ ह के चरणकमल का भजन करते ह। एक-न-एक दन
यह शरीर अव य ही छू टे गा—इस भयसे भीत होनेके कारण वे इस शरीरका कभी संयोग ही
नह चाहते; वे तो मु ही होना चाहते ह ।।९।। अतः म अब ःख, शोक और भयके मूल
कारण इस शरीरको धारण करना नह चाहता। जैसे जलम मछलीके लये सव ही मृ युके
अवसर ह, वैसे ही इस शरीरके लये भी सब कह मृ यु-ही-मृ यु है’ ।।१०।।
दे वा ऊचुः
वदे ह उ यतां कामं लोचनेषु शरी रणाम् ।
उ मेषण नमेषा यां ल तोऽ या मसं थतः ।।११
अराजकभयं नॄपां म यमाना महषयः ।
दे हं मम थुः म नमेः कुमारः समजायत ।।१२
ज मना जनकः सोऽभूद ् वैदेह तु वदे हजः ।
म थलो मथना जातो म थला येन न मता ।।१३
त मा दावसु त य पु ोऽभू दवधनः ।
ततः सुकेतु त या प दे वरातो१ महीपते ।।१४
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त माद् बृह थ त य महावीयः सुधृ पता ।
सुधृतेधृ केतुव हय ोऽथ म ततः ।।१५
मरोः तीपक त मा जातः२ कृ तरथो यतः ।
दे वमीढ त य सुतो व ुतोऽथ३ महाधृ तः ।।१६
कृ तरात तत त मा महारोमाथ४ त सुतः ।
वणरोमा सुत त य वरोमा जायत ।।१७
ततः सीर वजो ज े य ाथ कषतो महीम् ।
सीता सीरा तो जाता त मात् सीर वजः मृतः ।।१८
कुश वज त य पु ततो धम वजो नृपः ।
धम वज य ौ पु ौ कृत वज मत वजौ ।।१९
कृत वजात् के श वजः खा ड य तु मत वजात् ।
कृत वजसुतो राज ा म व ा वशारदः ।।२०
खा ड यः कमत व ो भीतः के श वजाद् तः ।
भानुमां त य पु ोऽभू छत ु न तु त सुतः ।।२१
दे वता ने कहा—‘मु नयो! राजा न म बना शरीरके ही ा णय के ने म अपनी
इ छाके अनुसार नवास कर। वे वहाँ रहकर सू मशरीरसे भगवान्का च तन करते रह।
पलक उठने और गरनेसे उनके अ त वका पता चलता रहेगा ।।११।। इसके बाद मह षय ने
यह सोचकर क ‘राजाके न रहनेपर लोग म अराजकता फैल जायगी’ न मके शरीरका
म थन कया। उस म थनसे एक कुमार उ प आ ।।१२।। ज म लेनेके कारण उसका नाम
आ जनक। वदे हसे उ प होनेके कारण ‘वैदेह’ और म थनसे उ प होनेके कारण उसी
बालकका नाम ‘ म थल’ आ। उसीने म थलापुरी बसायी ।।१३।।
परी त्! जनकका उदावसु, उसका न दवधन, न दवधनका सुकेतु, उसका दे वरात,
दे वरातका बृह थ, बृह थका महावीय, महावीयका सुधृ त, सुधृ तका धृ केतु, धृ केतुका
हय और उसका म नामक पु आ ।।१४-१५।।
म से तीपक, तीपकसे कृ तरथ, कृ तरथसे दे वमीढ, दे वमीढसे व ुत और व ुतसे
महाधृ तका ज म आ ।।१६।। महाधृ तका कृ तरात, कृ तरातका महारोमा, महारोमाका
वणरोमा और वणरोमाका पु आ वरोमा ।।१७।। इसी वरोमाके पु महाराज
सीर वज थे। वे जब य के लये धरती जोत रहे थे, तब उनके सीर (हल) के अ भाग
(फाल)-से सीताजीक उ प ई। इसीसे उनका नाम ‘सीर वज’ पड़ा ।।१८।। सीर वजके
कुश वज, कुश वजके धम वज और धम वजके दो पु ए—कृत वज और
मत वज ।।१९।। कृत वजके के श वज और मत वजके खा ड य ए। परी त्!
के श वज आ म व ाम बड़ा वीण था ।।२०।।

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खा ड य था कमका डका मम । वह के श वजसे भयभीत होकर भाग गया।
के श वजका पु भानुमान् और भानुमान्का शत ु न था ।।२१।।

शु च त नय त मात् सन ाज ततोऽभवत् ।
ऊ वकेतुः सन ाजादजोऽथ पु ज सुतः ।।२२

अ र ने म त या प ुतायु त सुपा कः ।
तत रथो य य ेम ध म थला धपः ।।२३

त मात् समरथ त य सुतः स यरथ ततः ।


आसी पगु त मा पगु तोऽ नसंभवः ।।२४

व वन तोऽथ त पु ो युयुधो यत् सुभाषणः ।


ुत ततो जय त माद् वजयोऽ मा तः सुतः ।।२५

शुनक त सुतो ज े वीतह ो धृ त ततः ।


ब ला ो धृते त य कृ तर य महावशी ।।२६

एते वै मै थला राज ा म व ा वशारदाः ।


योगे र सादे न ै मु ा गृहे व प ।।२७
शत ु नसे शु च, शु चसे सन ाज, सन ाजसे ऊ वकेतु, ऊ वकेतुसे अज, अजसे
पु जत्, पु जत्से अ र ने म, अ र ने मसे ुतायु, ुतायुसे सुपा क, सुपा कसे च रथ
और च रथसे म थलाप त ेम धका ज म आ ।।२२-२३।। ेम धसे समरथ, समरथसे
स यरथ, स यरथसे उपगु और उपगु से उपगु त नामक पु आ। यह अ नका अंश
था ।।२४।। उपगु तका व वन त, व वन तका युयुध, युयुधका सुभाषण, सुभाषणका ुत,
ुतका जय, जयका वजय और वजयका ऋत नामक पु आ ।।२५।। ऋतका शुनक,
शुनकका वीतह , वीतह का धृ त, धृ तका ब ला , ब ला का कृ त और कृ तका पु
आ महावशी ।।२६।।
परी त्! ये म थलके वंशम उ प सभी नरप त ‘मै थल’ कहलाते ह। ये सब-के-सब
आ म ानसे स प एवं गृह था मम रहते ए भी सुख- ःख आ द से मु थे। य न
हो, या व य आ द बड़े-बड़े योगे र क इनपर महान् कृपा जो थी ।।२७।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां नवम क धे न मवंशानुवणनं नाम
योदशोऽ यायः ।।१३।।

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१. तं दे ह।ं २. या यात्।
१. रीषो। २. तरथ त०। ३. व नाथो म कृ तः। ४. व त त सुत त मा०।

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अथ चतुदशोऽ यायः
च वंशका वणन
ीशुक उवाच
अथातः ूयतां राजन् वंशः सोम य पावनः ।
य म ैलादयो भूपाः क य ते पु यक तयः ।।१
सह शरसः पुंसो ना भ दसरो हात् ।
जात यासीत् सुतो धातुर ः पतृसमो गुणैः ।।२
तय योऽभवत् पु ः सोमोऽमृतमयः कल ।
व ौष युडुगणानां णा क पतः प तः ।।३
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! अब म तु ह च माके पावन वंशका वणन सुनाता
ँ। इस वंशम पु रवा आ द बड़े-बड़े प व क त राजा का क तन कया जाता है ।।१।।
सह सरवाले वराट् पु ष नारायणके ना भ-सरोवरके कमलसे ाजीक उ प
ई। ाजीके पु ए अ । वे अपने गुण के कारण ाजीके समान ही थे ।।२।। उ ह
अ के ने से अमृतमय च माका ज म आ। ाजीने च माको ा ण, ओष ध और
न का अ धप त बना दया ।।३।।

सोऽयजद् राजसूयेन व ज य भुवन यम् ।


प न बृह पतेदपात् तारां नामाहरद् बलात् ।।४

यदा स दे वगु णा या चतोऽभी णशो मदात् ।


ना यजत् त कृते ज े सुरदानव व हः ।।५

शु ो बृह पते षाद हीत्१ सासुरोडु पम् ।


हरो गु सुतं नेहात् सवभूतगणावृतः ।।६

सवदे वगणोपेतो महे ो गु म वयात् ।


सुरासुर वनाशोऽभूत् समर तारकामयः ।।७

नवे दतोऽथां गरसा सोमं नभ य व कृत्२ ।


तारां वभ ाय छद तव नीमवैत् प तः ।।८

यज यजाशु ेम े ादा हतं परैः ।


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नाहं वां भ मसात् कुया यं सा ता नकः स त ।।९

त याज ी डता तारा कुमारं कनक भम् ।


पृहामां गरस े कुमारे सोम एव च ।।१०

ममायं न तवे यु चै त मन् ववदमानयोः ।


प छु ऋषयो दे वा नैवोचे ी डता तु सा ।।११
उ ह ने तीन लोक पर वजय ा त क और राजसूय य कया। इससे उनका घमंड बढ़
गया और उ ह ने बलपूवक बृह प तक प नी ताराको हर लया ।।४।। दे वगु बृह प तने
अपनी प नीको लौटा दे नेके लये उनसे बार-बार याचना क , पर तु वे इतने मतवाले हो गये
थे क उ ह ने कसी कार उनक प नीको नह लौटाया। ऐसी प र थ तम उसके लये दे वता
और दानवम घोर सं ाम छड़ गया ।।५।। शु ाचायजीने बृह प तजीके े षसे असुर के साथ
च माका प ले लया और महादे वजीने नेहवश सम त भूतगण के साथ अपने व ागु
अं गराजीके पु बृह प तका प लया ।।६।। दे वराज इ ने भी सम त दे वता के साथ
अपने गु बृह प तजीका ही प लया। इस कार ताराके न म से दे वता और असुर का
संहार करनेवाला घोर सं ाम आ ।।७।।
तदन तर अं गरा ऋ षने ाजीके पास जाकर यह यु बंद करानेक ाथना क ।
इसपर ाजीने च माको ब त डाँटा-फटकारा और ताराको उसके प त बृह प तजीके
हवाले कर दया। जब बृह प तजीको यह मालूम आ क तारा तो गभवती है, तब उ ह ने
कहा— ।।८।। ‘ !े मेरे े म यह तो कसी सरेका गभ है। इसे तू अभी याग दे , तुर त
याग दे । डर मत, म तुझे जलाऊँगा नह । य क एक तो तू ी है और सरे मुझे भी
स तानक कामना है। दे वी होनेके कारण तू नद ष भी है ही’ ।।९।। अपने प तक बात
सुनकर तारा अ य त ल जत ई। उसने सोनेके समान चमकता आ एक बालक अपने
गभसे अलग कर दया। उस बालकको दे खकर बृह प त और च मा दोन ही मो हत हो गये
और चाहने लगे क यह हम मल जाय ।।१०।। अब वे एक- सरेसे इस कार जोर-जोरसे
झगड़ा करने लगे क ‘यह तु हारा नह , मेरा है।’ ऋ षय और दे वता ने तारासे पूछा क
‘यह कसका लड़का है।’ पर तु ताराने ल जावश कोई उ र न दया ।।११।। बालकने
अपनी माताक झूठ ल जासे ो धत होकर कहा—‘ े! तू बतलाती य नह ? तू अपना
कुकम मुझे शी -से-शी बतला दे ’ ।।१२।। उसी समय ाजीने ताराको एका तम बुलाकर
ब त कुछ समझा-बुझाकर पूछा। तब ताराने धीरेसे कहा क ‘च माका।’ इस लये च माने
उस बालकको ले लया ।।१३।। परी त्! ाजीने उस बालकका नाम रखा ‘बुध’, य क
उसक बु बड़ी ग भीर थी। ऐसा पु ा त करके च माको ब त आन द आ ।।१४।।

कुमारो मातरं ाह कु पतोऽलीकल जया ।


क न वोच यसद्वृ े आ माव ं वदाशु मे ।।१२
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ा तां रह आ य सम ा ी च सा वयन् ।
सोम ये याह शनकैः सोम तं तावद हीत् ।।१३

त या मयो नरकृत बुध इ य भधां नृप ।


बु या ग भीरया येन पु ेणापोडु राण् मुदम् ।।१४

ततः पु रवा ज े इलायां य उदा तः ।


त य पगुणौदायशील वण व मान् ।।१५

ु वोवशी भवने गीयमानान् सुर षणा ।


तद तकमुपेयाय दे वी मरशरा दता ।।१६

म ाव णयोः शापादाप ा नरलोकताम् ।


नश य पु ष े ं क दप मव पणम् ।
धृ त व य ललना उपत थे तद तके ।।१७

स तां वलो य नृप तहषणो फु ललोचनः ।


उवाच णया वाचा दे व तनू हः ।।१८
राजोवाच
वागतं ते वरारोहे आ यतां करवाम कम् ।
संरम व मया साकं र तन शा तीः समाः ।।१९
उव युवाच
क या व य न स जेत मनो सु दर ।
यदं गा तरमासा यवते ह ररंसया ।।२०
परी त्! बुधके ारा इलाके गभसे पु रवाका ज म आ। इसका वणन म पहले ही कर
चुका ।ँ एक दन इ क सभाम दे व ष नारदजी पु रवाके प, गुण, उदारता, शील-
वभाव, धन-स प और परा मका गान कर रहे थे। उ ह सुनकर उवशीके दयम
कामभावका उदय हो आया और उससे पी ड़त होकर वह दे वांगना पु रवाके पास चली
आयी ।।१५-१६।।
य प उवशीको म ाव णके शापसे ही मृ युलोकम आना पड़ा था, फर भी
पु ष शरोम ण पु रवा मू तमान् कामदे वके समान सु दर ह—यह सुनकर सुर-सु दरी
उवशीने धैय धारण कया और वह उनके पास चली आयी ।।१७।।
दे वांगना उवशीको दे खकर राजा पु रवाके ने हषसे खल उठे । उनके शरीरम रोमांच हो
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आया। उ ह ने बड़ी मीठ वाणीसे कहा— ।।१८।।
राजा पु रवाने कहा—सु दरी! तु हारा वागत है। बैठो, म तु हारी या सेवा क ँ ?
तुम मेरे साथ वहार करो और हम दोन का यह वहार अन त कालतक चलता रहे ।।१९।।
उवशीने कहा—‘राजन्! आप सौ दयके मू तमान् व प ह। भला, ऐसी कौन का मनी
है जसक और मन आपम आस न हो जाय? य क आपके समीप आकर मेरा मन
रमणक इ छासे अपना धैय खो बैठा है ।।२०।।

एतावुरणकौ राजन् यासौ र व मानद ।


संरं ये भवता साकं ा यः ीणां वरः मृतः ।।२१

घृतं मे वीर भ यं या े े वा य मैथुनात् ।


ववाससं तत् तथे त तपेदे महामनाः ।।२२

अहो पमहो भावो नरलोक वमोहनम् ।


को न सेवेत मनुजो दे व वां वयमागताम् ।।२३

तया स पु ष े ो रमय या यथाहतः ।


रेमे सुर वहारेषु कामं चै रथा दषु ।।२४

रममाण तया दे ा प कज कग धया ।


त मुखामोदमु षतो मुमुदेऽहगणान् ब न् ।।२५

अप य ुवशी म ो ग धवान् समचोदयत् ।


उवशीर हतं म मा थानं ना तशोभते ।।२६

ते उपे य महारा े तम स युप थते ।


उव या उरणौ ज य तौ राज न जायया ।।२७

नश या दतं दे वी पु योन यमानयोः ।


हता यहं कुनाथेन नपुंसा वीरमा नना ।।२८

य भादहं न ा ताप या च द यु भः ।
यः शेते न श सं तो यथा नारी दवा पुमान् ।।२९
राजन्! जो पु ष प-गुण आ दके कारण शंसनीय होता है, वही य को अभी
होता है। अतः म आपके साथ अव य वहार क ँ गी। पर तु मेरे ेमी महाराज! मेरी एक शत
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है। म आपको धरोहरके पम भेड़के दो ब चे स पती ँ। आप इनक र ा करना ।।२१।।
वीर शरोमणे! म केवल घी खाऊँगी और मैथुनके अ त र और कसी भी समय आपको
व हीन न दे ख सकूँगी।’ परम मन वी पु रवाने ‘ठ क है’—ऐसा कहकर उसक शत
वीकार कर ली ।।२२।। और फर उवशीसे कहा—‘तु हारा यह सौ दय अद्भुत है। तु हारा
भाव अलौ कक है। यह तो सारी मनु यसृ को मो हत करनेवाला है। और दे व! कृपा करके
तुम वयं यहाँ आयी हो। फर कौन ऐसा मनु य है जो तु हारा सेवन न करेगा? ।।२३।।
परी त्! तब उवशी कामशा ो प तसे पु ष े पु रवाके साथ वहार करने
लगी। वे भी दे वता क वहार थली चै रथ, न दनवन आ द उपवन म उसके साथ व छ द
वहार करने लगे ।।२४।। दे वी उवशीके शरीरसे कमल-केसरक -सी सुग ध नकला करती
थी। उसके साथ राजा पु रवाने ब त वष तक आन द- वहार कया। वे उसके मुखक
सुर भसे अपनी सुध-बुध खो बैठते थे ।।२५।। इधर जब इ ने उवशीको नह दे खा, तब
उ ह ने ग धव को उसे लानेके लये भेजा और कहा—‘उवशीके बना मुझे यह वग फ का
जान पड़ता है’ ।।२६।। वे ग धव आधी रातके समय घोर अ धकारम वहाँ गये और उवशीके
दोन भेड़ को, ज ह उसने राजाके पास धरोहर रखा था, चुराकर चलते बने ।।२७।। उवशीने
जब ग धव के ारा ले जाये जाते ए अपने पु के समान यारे भेड़ क ‘ब-ब’ सुनी, तब वह
कह उठ क ‘अरे, इस कायरको अपना वामी बनाकर म तो मारी गयी। यह नपुंसक
अपनेको बड़ा वीर मानता है। यह मेरे भेड़ को भी न बचा सका ।।२८।। इसीपर व ास
करनेके कारण लुटेरे मेरे ब च को लूटकर लये जा रहे ह। म तो मर गयी। दे खो तो सही, यह
दनम तो मद बनता है और रातम य क तरह डरकर सोया रहता है’ ।।२९।।

इ त वा सायकै व ः तो ै रव कुंजरः ।
न श न ंशमादाय वव ोऽ य वद् षा ।।३०

ते वसृ योरणौ त ोत त म व ुतः१ ।


आदाय मेषावाया तं न नमै त सा प तम् ।।३१

ऐलोऽ प शयने जायामप यन् वमना इव ।


त च ो व लः२ शोचन् ब ामो म व महीम् ।।३२

स तां वी य कु े े सर व यां च त सखीः ।


पंच वदनाः ाह सू ं पु रवाः ।।३३

अहो जाये त त घोरे न य ु मह स ।


मां वम ा य नवृ य वचां स कृणवावहै ।।३४

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सुदेहोऽयं पत य दे व रं त वया ।
खाद येनं वृका गृ ा व साद य ना पदम् ।।३५
उव युवाच
मा मृथाः पु षोऽ स वं मा म वा ुवृका इमे ।
वा प स यं न वै ीणां वृकाणां दयं यथा ।।३६

यो क णाः ू रा मषाः३ यसाहसाः ।


न य पाथऽ प व धं प त ातरम युत ।।३७
परी त्! जैसे कोई हाथीको अंकुशसे बेध डाले, वैसे ही उवशीने अपने वचन-बाण से
राजाको ब ध दया। राजा पु रवाको बड़ा ोध आया और हाथम तलवार लेकर व हीन
अव थाम ही वे उस ओर दौड़ पड़े ।।३०।। ग धव ने उनके झपटते ही भेड़ को तो वह छोड़
दया और वयं बजलीक तरह चमकने लगे। जब राजा पु रवा भेड़ को लेकर लौटे , तब
उवशीने उस काशम उ ह व हीन अव थाम दे ख लया। (बस, वह उसी समय उ ह
छोड़कर चली गयी) ।।३१।।
परी त्! राजा पु रवाने जब अपने शयनागारम अपनी यतमा उवशीको नह दे खा तो
वे अनमने हो गये। उनका च उवशीम ही बसा आ था। वे उसके लये शोकसे व ल हो
गये और उ म क भाँ त पृ वीम इधर-उधर भटकने लगे ।।३२।। एक दन कु े म
सर वती नद के तटपर उ ह ने उवशी और उसक पाँच स मुखी स खय को दे खा और बड़ी
मीठ वाणीसे कहा— ।।३३।। ‘ ये! त नक ठहर जाओ। एक बार मेरी बात मान लो।
न ु रे! अब आज तो मुझे सुखी कये बना मत जाओ। णभर ठहरो; आओ हम दोन कुछ
बात तो कर ल ।।३४।। दे व! अब इस शरीरपर तु हारा कृपा- साद नह रहा, इसीसे तुमने
इसे र फक दया है। अतः मेरा यह सु दर शरीर अभी ढे र आ जाता है और तु हारे दे खते-
दे खते इसे भे ड़ये और गीध खा जायँगे’ ।।३५।।
उवशीने कहा—राजन्! तुम पु ष हो। इस कार मत मरो। दे खो, सचमुच ये भे ड़ये
तु ह खा न जायँ! य क कसीके साथ म ता नह आ करती। य का दय और
भे ड़य का दय बलकुल एक-जैसा होता है ।।३६।। याँ नदय होती ह। ू रता तो उनम
वाभा वक ही रहती है। त नक-सी बातम चढ़ जाती ह और अपने सुखके लये बड़े-बड़े
साहसके काम कर बैठती ह, थोड़े-से वाथके लये व ास दलाकर अपने प त और
भाइतकको मार डालती ह ।।३७।।

वधायालीक व भम ष े ु य सौ दाः ।
नवं नवमभी स यः पुं यः वैरवृ यः ।।३८

संव सरा ते ह भवानेकरा ं मये र ।


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व य यप या न च ते भ व य यपरा ण भोः ।।३९

अ तव नीमुपाल य दे व स ययौ पुरम् ।


पुन त गतोऽ दा ते उवश वीरमातरम् ।।४०

उपल य मुदा यु ः समुवास तया नशाम् ।


अथैनमुवशी ाह कृपणं वरहातुरम् ।।४१

ग धवानुपधावेमां तु यं दा य त मा म त ।
त य सं तुवत तु ा अ न थाल द नृप ।
उवश म यमान तां सोऽबु यत चरन् वने ।।४२

थाल य य वने ग वा गृहाना यायतो न श ।


ेतायां सं वृ ायां मन स यवतत ।।४३

थाली थानं गतोऽ थं शमीगभ वल य सः ।


तेन े अरणी कृ वा उवशीलोकका यया ।।४४

उवश म तो याय धरार णमु राम् ।


आ मानमुभयोम ये यत् तत् जननं भुः ।।४५

त य नम थना जातो जातवेदा वभावसुः ।


या स व या रा ा पु वे क पत वृत् ।।४६
इनके दयम सौहाद तो है ही नह । भोले-भाले लोग को झूठ-मूठका व ास दलाकर
फाँस लेती ह और नये-नये पु षक चाटसे कुलटा और व छ दचा रणी बन जाती ह ।।३८।।
तो फर तुम धीरज धरो। तुम राजराजे र हो। घबराओ मत। त एक वषके बाद एक रात
तुम मेरे साथ रहोगे। तब तु हारे और भी स तान ह गी ।।३९।।
राजा पु रवाने दे खा क उवशी गभवती है, इस लये वे अपनी राजधानीम लौट आये।
एक वषके बाद फर वहाँ गये। तबतक उवशी एक वीर पु क माता हो चुक थी ।।४०।।
उवशीके मलनेसे पु रवाको बड़ा सुख मला और वे एक रात उसीके साथ रहे। ातःकाल
जब वे वदा होने लगे तब वरहके ःखसे वे अ य त द न हो गये। उवशीने उनसे कहा
— ।।४१।। ‘तुम इन ग धव क तु त करो, ये चाह तो तु ह मुझे दे सकते ह। तब राजा
पु रवाने ग धव क तु त क । परी त्! राजा पु रवाक तु तसे स होकर ग धव ने
उ ह एक अ न थाली (अ न थापन करनेका पा ) द । राजाने समझा यही उवशी है,
इस लये उसको दयसे लगाकर वे एक वनसे सरे वनम घूमते रहे ।।४२।।
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जब उ ह होश आ, तब वे थालीको वनम छोड़कर अपने महलम लौट आये एवं रातके
समय उवशीका यान करते रहे। इस कार जब ेतायुगका ार भ आ, तब उनके दयम
तीन वेद कट ए ।।४३।। फर वे उस थानपर गये, जहाँ उ ह ने वह अ न थाली छोड़ी
थी। अब उस थानपर शमीवृ के गभम एक पीपलका वृ उग आया था, उसे दे खकर
उ ह ने उससे दो अर णयाँ (म थनका ) बनाय । फर उ ह ने उवशीलोकक कामनासे
नीचेक अर णको उवशी, ऊपरक अर णको पु रवा और बीचके का को पु पसे च तन
करते ए अ न व लत करनेवाले म से म थन कया ।।४४-४५।।
उनके म थनसे ‘जातवेदा’ नामका अ न कट आ। राजा पु रवाने अ नदे वताको
यी व ाके ारा आहवनीय, गाहप य और द णा न—इन तीन भाग म वभ करके
पु पसे वीकार कर लया ।।४६।। फर उवशीलोकक इ छासे पु रवाने उन तीन
अ नय ारा सवदे व व प इ यातीत य प त भगवान् ीह रका यजन कया ।।४७।।

े १ं भगव तमधो जम् ।


तेनायजत य श
उवशीलोकम व छन् सवदे वमयं ह रम् ।।४७

एक एव पुरा वेदः णवः सववाङ् मयः ।


दे वो नारायणो ना य एकोऽ नवण एव च ।।४८

पु रवस एवासीत् यी ेतामुखे नृप ।


अ नना जया राजा लोकं गा धवमे यवान् ।।४९
परी त्! ेताके पूव स ययुगम एकमा णव (ॐकार) ही वेद था। सारे वेद-शा
उसीके अ तभूत थे। दे वता थे एकमा नारायण; और कोइ न था। अ न भी तीन नह , केवल
एक था और वण भी केवल एक ‘हंस’ ही था ।।४८।। परी त्! ेताके ार भम पु रवासे
ही वेद यी और अ न यीका आ वभाव आ। राजा पु रवाने अ नको स तान पसे
वीकार करके ग धवलोकक ा त क ।।४९।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां नवम क धे ऐलोपा याने
चतुदशोऽ यायः ।।१४।।

१. हीदसुरोदयम्। २. व राट् ।
१. व ताः। २. व लवः। ३. मुखाः।
१. दे वेशं।

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अथ प चदशोऽ यायः
ऋचीक, जमद न और परशुरामजीका च र
ीशुक२ उवाच
ऐल य चोवशीगभात् षडास ा मजा नृप ।
आयुः ुतायुः स यायू रयोऽथ वजयो जयः ।।१
ुतायोवसुमान् पु ः स यायो ुतंजयः ।
रय य सुत एक जय य तनयोऽ मतः ।।२
भीम तु वजय याथ कांचनो हो क ततः ।
त य ज ः सुतो गंगां ग डू षीकृ य योऽ पबत् ।
ज ो तु पू त पु ो बलाक ा मजोऽजकः ।।३
ततः कुशः कुश या प कुशा बु तनयो३ वसुः ।
कुशनाभ च वारो गा धरासीत् कुशा बुजः ।।४
त य स यवत क यामृचीकोऽयाचत जः ।
वरं वस शं म वा गा धभागवम वीत् ।।५
एकतः यामकणानां हयानां च वचसाम् ।
सह ं द यतां शु कं क यायाः कु शका वयम् ।।६
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! उवशीके गभसे पु रवाके छः पु ए—आयु,
ुतायु, स यायु, रय, वजय और जय ।।१।।
ुतायुका पु था वसुमान्, स यायुका ुतंजय, रयका एक और जयका अ मत ।।२।।
वजयका भीम, भीमका कांचन, कांचनका हो और हो का पु था ज । ये ज वही थे,
जो गंगाजीको अपनी अंज लम लेकर पी गये थे। ज का पु था पू , पू का बलाक और
बलाकका अजक ।।३।। अजकका कुश था। कुशके चार पु थे—कुशा बु, तनय, वसु और
कुशनाभ। इनमसे कुशा बुके पु गा ध ए ।।४।।
परी त्! गा धक क याका नाम था स यवती। ऋचीक ऋ षने गा धसे उनक क या
माँगी। गा धने यह समझकर क ये क याके यो य वर नह है, ऋचीकसे कहा— ।।५।।
‘मु नवर! हमलोग कु शकवंशके ह। हमारी क या मलनी क ठन है। इस लये आप एक हजार
ऐसे घोड़े लाकर मुझे शु क पम द जये, जनका सारा शरीर तो ेत हो, पर तु एक-एक
कान याम वणका हो’ ।।६।।

इ यु त मतं ा वा गतः स व णा तकम् ।

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आनीय द वा तान ानुपयेमे वराननाम् ।।७

स ऋ षः ा थतः प या वा चाप यका यया ।


प य वोभयैम ै ं नातुं गतो मु नः ।।८

तावत् स यवती मा ा वच ं १ या चता सती ।


े ं म वा तयाय छ मा े२ मातुरदत् वयम् ।।९

तद् व ाय मु नः ाह प न क मकारषीः ।
घोरो द डधरः पु ो ाता ते व मः ।।१०

सा दतः स यव या मैवं भू द त भागवः ।


अथ त ह भवेत् पौ ो जमद न ततोऽभवत् ।।११

सा चाभूत् सुमहापु या कौ शक लोकपावनी ।


रेणोः सुतां रेणुकां वै जमद न वाह याम् ।।१२

त यां वै भागवऋषेः सुता वसुमदादयः ।


यवीयांज एतेषां राम इ य भ व ुतः ।।१३

यमा वासुदेवांशं हैहयानां कुला तकम् ।


ःस तकृ वो य इमां च े नः यां महीम् ।।१४

ं ं भुवो भारम यमनीनशत्३ ।


रज तमोवृतमहन् फ गु य प कृतऽह स ।।१५
जब गा धने यह बात कही, तब ऋचीक मु न उनका आशय समझ गये और व णके पास
जाकर वैसे ही घोड़े ले आये तथा उ ह दे कर सु दरी स यवतीसे ववाह कर लया ।।७।। एक
बार मह ष ऋचीकसे उनक प नी और सास दोन ने ही पु ा तके लये ाथना क । मह ष
ऋचीकने उनक ाथना वीकार करके दोन के लये अलग-अलग म से च पकाया और
नान करनेके लये चले गये ।।८।। स यवतीक माँने यह समझकर क ऋ षने अपनी
प नीके लये े च पकाया होगा, उससे वह च माँग लया। इसपर स यवतीने अपना च
तो माँको दे दया और माँका च वह वयं खा गयी ।।९।। जब ऋचीक मु नको इस बातका
पता चला, तब उ ह ने अपनी प नी स यवतीसे कहा क ‘तुमने बड़ा अनथ कर डाला। अब
तु हारा पु तो लोग को द ड दे नेवाला घोर कृ तका होगा और तु हारा भाई होगा एक े
वे ा’ ।।१०।। स यवतीने ऋचीक मु नको स कया और ाथना क क ‘ वामी! ऐसा
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नह होना चा हये।’ तब उ ह ने कहा—‘अ छ बात है। पु के बदले तु हारा पौ वैसा (घोर
कृ तका) होगा।’ समयपर स यवतीके गभसे जमद नका ज म आ ।।११।। स यवती
सम त लोक को प व करनेवाली परम पु यमयी ‘कौ शक ’ नद बन गयी। रेणु ऋ षक
क या थी रेणुका। जमद नने उसका पा ण हण कया ।।१२।। रेणुकाके गभसे जमद न
ऋ षके वसुमान् आ द कई पु ए। उनम सबसे छोटे परशुरामजी थे। उनका यश सारे
संसारम स है ।।१३।। कहते ह क हैहयवंशका अ त करनेके लये वयं भगवान्ने ही
परशुरामके पम अंशावतार हण कया था। उ ह ने इस पृ वीको इ क स बार यहीन
कर दया ।।१४।। य प य ने उनका थोड़ा-सा ही अपराध कया था— फर भी वे लोग
बड़े , ा ण के अभ , रजोगुणी और वशेष करके तमोगुणी हो रहे थे। यही कारण था
क वे पृ वीके भार हो गये थे और इसीके फल व प भगवान् परशुरामने उनका नाश करके
पृ वीका भार उतार दया ।।१५।।
राजोवाच
क तदं हो भगवतो राज यैर जता म भः ।
कृतं येन कुलं न ं याणामभी णशः ।।१६
ीशुक१ उवाच
हैहयानाम धप तरजुनः यषभः ।
द ं नारायण यांशमारा य प रकम भः ।।१७

बा न् दशशतं लेभे धष वमरा तषु ।


अ ाहते यौजः ीतेजोवीययशोबलम्२ ।।१८

योगे र वमै य गुणा य ा णमादयः ।


चचारा ाहतग तल केषु पवनो यथा ।।१९

ीर नैरावृतः डन् रेवा भ स मदो कटः ।


वैजय त जं ब द् रोध स रतं भुजैः ।।२०

व ला वतं व श बरं त ोतःस र जलैः ।


नामृ यत् त य तद् वीय वीरमानी दशाननः ।।२१

गृहीतो लीलया ीणां सम ं कृत क बषः ।


मा ह म यां सं न ो मु ो येन क पयथा ।।२२
राजा परी त्ने पूछा—भगवन्! अव य ही उस समयके य वषयलोलुप हो गये

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थे; पर तु उ ह ने परशुरामजीका ऐसा कौन-सा अपराध कर दया, जसके कारण उ ह ने
बार-बार य के वंशका संहार कया? ।।१६।।
ीशुकदे वजी कहने लगे—परी त्! उन दन हैहयवंशका अ धप त था अजुन। वह
एक े य था। उसने अनेक कारक सेवा-शु ूषा करके भगवान् नारायणके
अंशावतार द ा ेयजीको स कर लया और उनसे एक हजार भुजाएँ तथा कोई भी श ु
यु म परा जत न कर सके—यह वरदान ा त कर लया। साथ ही इ य का अबाध बल,
अतुल स प , तेज वता, वीरता, क त और शारी रक बल भी उसने उनक कृपासे ा त
कर लये थे ।।१७-१८।। वह योगे र हो गया था। उसम ऐसा ऐ य था क वह सू म-से-
सू म, थूल-से- थूल प धारण कर लेता। सभी स याँ उसे ा त थ । वह संसारम
वायुक तरह सब जगह बेरोक-टोक वचरा करता ।।१९।। एक बार गलेम वैजय ती माला
पहने सह बा अजुन ब त-सी सु दरी य के साथ नमदा नद म जल- वहार कर रहा था।
उस समय मदो म सह बा ने अपनी बाँह से नद का वाह रोक दया ।।२०।। दशमुख
रावणका श वर भी वह कह पासम ही था। नद क धारा उलट बहने लगी, जससे उसका
श वर डू बने लगा। रावण अपनेको ब त बड़ा वीर तो मानता ही था, इस लये सह ाजुनका
यह परा म उससे सहन नह आ ।।२१।। जब रावण सह बा अजुनके पास जाकर बुरा-
भला कहने लगा, तब उसने य के सामने ही खेल-खेलम रावणको पकड़ लया और
अपनी राजधानी मा ह मतीम ले जाकर बंदरके समान कैद कर लया। पीछे पुल यजीके
कहनेसे सह बा ने रावणको छोड़ दया ।।२२।।

स एकदा तु मृगयां वचरन् व पने१ वने ।


य छयाऽऽ मपदं जमद ने पा वशत् ।।२३

त मै स नरदे वाय मु नरहणमाहरत् ।


ससै यामा यवाहाय ह व म या तपोधनः ।।२४

स२ वीर त तद् ् वा आ मै या तशायनम् ।


त ा यता नहो यां सा भलाषः स हैहयः ।।२५

ह वधानीमृषेदपा रान् हतुमचोदयत् ।


ते च मा ह मत न युः सव सां दत बलात् ।।२६

अथ राज न नयाते राम आ म आगतः ।


ु वा तत्३ त य दौरा यं चु ोधा ह रवाहतः ।।२७

घोरमादाय४ परशुं सतूणं चम कामुकम् ।


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अ वधावत धष ५ मृगे इव यूथपम् ।।२८

तमापत तं भृगुवयमोजसा
धनुधरं बाणपर धायुधम् ।
ऐणेयचमा बरमकधाम भ-
युतं जटा भद शे पुर वशन् ।।२९

अचोदय तरथा प भ-
गदा सबाण शत नश भः ।
अ ौ हणीः स तदशा तभीषणा-
ता राम एको भगवानसूदयत् ।।३०
एक दन सह बा अजुन शकार खेलनेके लये बड़े घोर जंगलम नकल गया था।
दै ववश वह जमद न मु नके आ मपर जा प ँचा ।।२३।। परम तप वी जमद न मु नके
आ मम कामधेनु रहती थी। उसके तापसे उ ह ने सेना, म ी और वाहन के साथ
हैहया धप तका खूब वागत-स कार कया ।।२४।। वीर हैहया धप तने दे खा क जमद न
मु नका ऐ य तो मुझसे भी बढ़ा-चढ़ा है। इस लये उसने उनके वागत-स कारको कुछ भी
आदर न दे कर कामधेनुको ही ले लेना चाहा ।।२५।।
उसने अ भमानवश जमद न मु नसे माँगा भी नह , अपने सेवक को आ ा द क
कामधेनुको छ न ले चलो। उसक आ ासे उसके सेवक बछड़ेके साथ ‘बाँ-बाँ’ डकराती ई
कामधेनुको बलपूवक मा ह मतीपुरी ले गये ।।२६।। जब वे सब चले गये, तब परशुरामजी
आ मपर आये और उसक ताका वृ ा त सुनकर चोट खाये ए साँपक तरह ोधसे
तल मला उठे ।।२७।। वे अपना भयंकर फरसा, तरकस, ढाल एवं धनुष लेकर बड़े वेगसे
उसके पीछे दौड़े—जैसे कोई कसीसे न दबनेवाला सह हाथीपर टू ट पड़े ।।२८।।
सह बा अजुन अभी अपने नगरम वेश कर ही रहा था क उसने दे खा परशुरामजी
महाराज बड़े वेगसे उसीक ओर झपटे आ रहे ह। उनक बड़ी वल ण झाँक थी। वे हाथम
धनुष-बाण और फरसा लये ए थे, शरीरपर काला मृगचम धारण कये ए थे और उनक
जटाएँ सूयक करण के समान चमक रही थ ।।२९।।
उ ह दे खते ही उसने गदा, खड् ग, बाण, ऋ , शत नी और श आ द आयुध से
सुस जत एवं हाथी, घोड़े, रथ तथा पदा तय से यु अ य त भयंकर स ह अ ौ हणी सेना
भेजी। भगवान् परशुरामने बात-क -बातम अकेले ही उस सारी सेनाको न कर
दया ।।३०।।

यतो यतोऽसौ हर पर धो
मनोऽ नलौजाः परच सूदनः ।
तत तत छ भुजो क धरा
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नपेतु ा हतसूतवाहनाः ।।३१

् वा वसै यं धरौघकदमे
रणा जरे रामकुठारसायकैः ।
ववृ णचम वजचाप व हं
नपा ततं हैहय आपतद् षा ।।३२

अथाजुनः पंचशतेषु बा भ-
धनुःषु बाणान् युगपत् स स दधे ।
रामाय रामोऽ भृतां सम णी-
ता येकध वेषु भरा छनत् समम् ।।३३

पुनः वह तैरचलान् मृधेऽङ् पा-


नु य वेगाद भधावतो यु ध ।
भुजान् कुठारेण कठोरने मना
च छे द रामः सभं वहे रव ।।३४

कृ बाहोः शर त य गरेः शृंग मवाहरत् ।


हते पत र त पु ा अयुतं वुभयात् ।।३५

अ नहो ीमुपाव य सव सां परवीरहा ।


समुपे या मं प े प र ल ां समपयत् ।।३६

वकम त कृतं रामः प े ातृ य एव च ।


वणयामास त छ वा जमद नरभाषत ।।३७

राम राम महाबाहो भवान् पापमकारषीत् ।


अवधी रदे वं यत् सवदे वमयं वृथा ।।३८

वयं ह ा णा तात मयाहणतां गताः ।


यया लोकगु दवः पारमे मगात् पदम् ।।३९
भगवान् परशुरामजीक ग त मन और वायुके समान थी। बस, वे श ुक सेना काटते ही
जा रहे थे। जहाँ-जहाँ वे अपने फरसेका हार करते, वहाँ-वहाँ सार थ और वाहन के साथ
बड़े-बड़े वीर क बाँह, जाँघ और कंधे कट-कटकर पृ वीपर गरते जाते थे ।।३१।।
हैहया धप त अजुनने दे खा क मेरी सेनाके सै नक, उनके धनुष, वजाएँ और ढाल
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भगवान् परशुरामके फरसे और बाण से कट-कटकर खूनसे लथपथ रणभू मम गर गये ह,
तब उसे बड़ा ोध आया और वह वयं भड़नेके लये आ धमका ।।३२।। उसने एक साथ
ही अपनी हजार भुजा से पाँच सौ धनुष पर बाण चढ़ाये और परशुरामजीपर छोड़े। पर तु
परशुरामजी तो सम त श धा रय के शरोम ण ठहरे। उ ह ने अपने एक धनुषपर छोड़े ए
बाण से ही एक साथ सबको काट डाला ।।३३।। अब हैहया धप त अपने हाथ से पहाड़ और
पेड़ उखाड़कर बड़े वेगसे यु भू मम परशुरामजीक ओर झपटा। पर तु परशुरामजीने अपनी
तीखी धारवाले फरसेसे बड़ी फुत के साथ उसक साँप के समान भुजा को काट
डाला ।।३४।। जब उसक बाँह कट गय , तब उ ह ने पहाड़क चोट क तरह उसका ऊँचा
सर धड़से अलग कर दया। पताके मर जानेपर उसके दस हजार लड़के डरकर भग
गये ।।३५।।
परी त्! वप ी वीर के नाशक परशुरामजीने बछड़ेके साथ कामधेनु लौटा ली। वह
ब त ही ःखी हो रही थी। उ ह ने उसे अपने आ मपर लाकर पताजीको स प
दया ।।३६।। और मा ह मतीम सह बा ने तथा उ ह ने जो कुछ कया था, सब अपने
पताजी तथा भाइय को कह सुनाया। सब कुछ सुनकर जमद न मु नने कहा— ।।३७।।
‘हाय, हाय, परशुराम! तुमने बड़ा पाप कया। राम, राम! तुम बड़े वीर हो; पर तु सवदे वमय
नरदे वका तुमने थ ही वध कया ।।३८।। बेटा! हमलोग ा ण ह। माके भावसे ही हम
संसारम पूजनीय ए ह। और तो या, सबके दादा ाजी भी माके बलसे ही पदको
ा त ए ह ।।३९।।

मया रोचते ल मी ा ी सौरी यथा भा ।


मणामाशु भगवां तु यते ह ररी रः ।।४०

रा ो मूधा भ ष य वधो वधाद् गु ः ।


तीथसंसेवया चांहो ज ंगा युतचेतनः ।।४१
ा ण क शोभा माके ारा ही सूयक भाके समान चमक उठती है। सवश मान्
भगवान् ीह र भी मावान पर ही शी स होते ह ।।४०।।
बेटा! सावभौम राजाका वध ा णक ह यासे भी बढ़कर है। जाओ, भगवान्का मरण
करते ए तीथ का सेवन करके अपने पाप को धो डालो’ ।।४१।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां नवम क धे प चदशोऽ यायः ।।१५।।

२. बादराय ण वाच। ३. शा बुमूतरयो।

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१. सा च ं । २. तु सा य०। ३. मुपाहरत्।
१. बादराय ण वाच। २. शोऽतुलम्।
१. वजने। २. स चै य तु त०। ३. स त य। ४. परशुं घोरमादाय स णा मकामुकम्। ५.
मष ।

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अथ षोडशोऽ यायः
परशुरामजीके ारा यसंहार और व ा म जीके वंशक कथा
ीशुक उवाच
प ोप श तो राम तथे त कु न दन ।
संव सरं तीथया ां च र वाऽऽ ममा जत् ।।१

कदा चद् रेणुका याता गंगायां प मा लनम् ।


ग धवराजं ड तम सरो भरप यत ।।२

वलोकय ती ड तमुदकाथ नद गता ।


होमवेलां न स मार क च च रथ पृहा ।।३

काला ययं तं वलो य मुनेः शाप वशं कता ।


आग य कलशं त थौ पुरोधाय कृतांज लः ।।४

भचारं मु न ा वा प याः कु पतोऽ वीत् ।


नतैनां पु काः पापा म यु ा ते न च रे ।।५

रामः संचो दतः प ा ातॄन् मा ा सहावधीत् ।


भाव ो मुनेः स यक् समाधे तपस १ सः ।।६
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! अपने पताक यह श ा भगवान् परशुरामने ‘जो
आ ा’ कहकर वीकार क । इसके बाद वे एक वषतक तीथया ा करके अपने आ मपर
लौट आये ।।१।। एक दनक बात है, परशुरामजीक माता रेणुका गंगातटपर गयी ई थ ।
वहाँ उ ह ने दे खा क ग धवराज च रथ कमल क माला पहने अ सरा के साथ वहार कर
रहा है ।।२।। वे जल लानेके लये नद तटपर गयी थ , पर तु वहाँ जल डा करते ए
ग धवको दे खने लग और प तदे वके हवनका समय हो गया है—इस बातको भूल गय ।
उनका मन कुछ-कुछ च रथक ओर खच भी गया था ।।३।। हवनका समय बीत गया, यह
जानकर वे मह ष जमद नके शापसे भयभीत हो गय और तुरंत वहाँसे आ मपर चली
आय । वहाँ जलका कलश मह षके सामने रखकर हाथ जोड़ खड़ी हो गय ।।४।। जमद न
मु नने अपनी प नीका मान सक भचार जान लया और ोध करके कहा—‘मेरे पु ो!
इस पा पनीको मार डालो।’ पर तु उनके कसी भी पु ने उनक वह आ ा वीकार नह
क ।।५।। इसके बाद पताक आ ासे परशुरामजीने माताके साथ सब भाइय को भी मार
डाला। इसका कारण था। वे अपने पताजीके योग और तप याका भाव भलीभाँ त जानते
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थे ।।६।।

वरेण छ दयामास ीतः स यवतीसुतः ।


व े हतानां रामोऽ प जी वतं चा मृ त वधे ।।७

उ थु ते कुश लनो न ापाय इवांजसा ।


पतु व ां तपोवीय राम े सु धम् ।।८

येऽजुन य सुता राजन् मर तः व पतुवधम् ।


रामवीयपराभूता ले भरे शम न व चत् ।।९

एकदाऽऽ मतो रामे स ात र वनं गते ।


वैरं ससाध यषवो ल ध छ ा उपागमन् ।।१०

् वा यगार आसीनमावे शत धयं मु नम् ।


भगव यु म ोके ज नु ते पाप न याः ।।११

या यमानाः कृपणया राममा ा तदा णाः ।


स शर उ कृ य न यु ते ब धवः ।।१२

रेणुका ःखशोकाता न न या मानमा मना ।


राम रामे ह ताते त वचु ोशो चकैः सती ।।१३

त प ु य र थो हा रामे यातव वनम् ।


वरयाऽऽ ममासा द शे पतरं हतम् ।।१४

तद् ःखरोषामषा तशोकवेग वमो हतः ।


हा तात साधो ध म य वा मान् वगतो भवान् ।।१५
परशुरामजीके इस कामसे स यवतीन दन मह ष जमद न ब त स ए और उ ह ने
कहा—‘बेटा! तु हारी जो इ छा हो, वर माँग लो।’ परशुरामजीने कहा—‘ पताजी! मेरी माता
और सब भाई जी वत हो जायँ तथा उ ह इस बातक याद न रहे क मने उ ह मारा था’ ।।७।।
परशुरामजीके इस कार कहते ही जैसे कोई सोकर उठे , सब-के-सब अनायास ही सकुशल
उठ बैठे। परशुरामजीने अपने पताजीका तपोबल जानकर ही तो अपने सु द का वध कया
था ।।८।।
परी त्! सह बा अजुनके जो लड़के परशुरामजीसे हारकर भाग गये थे, उ ह अपने
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पताके वधक याद नर तर बनी रहती थी। कह एक णके लये भी उ ह चैन नह मलता
था ।।९।। एक दनक बात है, परशुरामजी अपने भाइय के साथ आ मसे बाहर वनक ओर
गये ए थे। यह अवसर पाकर वैर साधनेके लये सह बा के लड़के वहाँ आ प ँचे ।।१०।।
उस समय मह ष जमद न अ नशालाम बैठे ए थे और अपनी सम त वृ य से प व क त
भगवान्के ही च तनम म न हो रहे थे। उ ह बाहरक कोई सुध न थी। उसी समय उन
पा पय ने जमद न ऋ षको मार डाला। उ ह ने पहलेसे ही ऐसा पापपूण न य कर रखा
था ।।११।। परशुरामक माता रेणुका बड़ी द नतासे उनसे ाथना कर रही थ , पर तु उन
सब ने उनक एक न सुनी। वे बलपूवक मह ष जमद नका सर काटकर ले गये। परी त्!
वा तवम वे नीच य अ य त ू र थे ।।१२।। सती रेणुका ःख और शोकसे आतुर हो
गय । वे अपने हाथ अपनी छाती और सर पीट-पीटकर जोर-जोरसे रोने लग —‘परशुराम!
बेटा परशुराम! शी आओ’ ।।१३।। परशुरामजीने ब त रसे माताका ‘हा राम!’ यह
क ण- दन सुन लया। वे बड़ी शी तासे आ मपर आये और वहाँ आकर दे खा क
पताजी मार डाले गये ह ।।१४।। परी त्! उस समय परशुरामजीको बड़ा ःख आ। साथ
ही ोध, अस ह णुता, मान सक पीड़ा और शोकके वेगसे वे अ य त मो हत हो गये। ‘हाय
पताजी! आप तो बड़े महा मा थे। पताजी! आप तो धमके स चे पुजारी थे। आप
हमलोग को छोड़कर वग चले गये’ ।।१५।। इस कार वलापकर उ ह ने पताका शरीर तो
भाइय को स प दया और वयं हाथम फरसा उठाकर य का संहार कर डालनेका न य
कया ।।१६।।

वल यैवं पतुदहं नधाय ातृषु वयम् ।


गृ परशुं रामः ा ताय मनो दधे ।।१६

ग वा मा ह मत रामो न वहत यम् ।


तेषां स शीषभी राजन् म ये च े महा ग रम् ।।१७

त े न नद घोराम यभयावहाम् ।
हेतुं कृ वा पतृवधं ेऽमंगलका र ण ।।१८

ःस तकृ वः पृ थव कृ वा नः यां भुः ।


सम तपंचके च े शो णतोदान् दान् नृप ।।१९

पतुः कायेन स धाय शर आदाय ब ह ष ।


सवदे वमयं दे वमा मानमयज मखैः ।।२०

ददौ ाच दशं हो े णे द णां दशम् ।

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अ वयवे तीच वै उद्गा े उ रां दशम् ।।२१

अ ये योऽवा तर दशः क यपाय च म यतः ।


आयावतमुप े सद ये य ततः परम् ।।२२

तत ावभृथ नान वधूताशेष क बषः ।


सर व यां न ां रेजे इवांशुमान् ।।२३

वदे हं जमद न तु ल वा सं ानल णम् ।


ऋषीणां म डले सोऽभूत् स तमो रामपू जतः ।।२४

जामद योऽ प भगवान् रामः कमललोचनः ।


आगा म य तरे राजन् वत य य त वै बृहत् ।।२५

आ तेऽ ा प महे ा ौ य तद डः शा तधीः ।


उपगीयमानच रतः स ग धवचारणैः ।।२६
परी त्! परशुरामजीने मा ह मती नगरीम जाकर सह बा अजुनके पु के सर से
नगरके बीचो-बीच एक बड़ा भारी पवत खड़ा कर दया। उस नगरक शोभा तो उन घाती
नीच य के कारण ही न हो चुक थी ।।१७।। उनके र से एक बड़ी भयंकर नद बह
नकली, जसे दे खकर ा ण ो हय का दय भयसे काँप उठता था। भगवान्ने दे खा क
वतमान य अ याचारी हो गये ह। इस लये राजन्! उ ह ने अपने पताके वधको न म
बनाकर इ क स बार पृ वीको यहीन कर दया और कु े के सम तपंचकम ऐसे-ऐसे
पाँच तालाब बना दये, जो र के जलसे भरे ए थे ।।१८-१९।। परशुरामजीने अपने
पताजीका सर लाकर उनके धड़से जोड़ दया और य ारा सवदे वमय आ म व प
भगवान्का यजन कया ।।२०।। य म उ ह ने पूव दशा होताको, द ण दशा ाको,
प म दशा अ वयुको और उ र दशा सामगान करनेवाले उद्गाताको दे द ।।२१।। इसी
कार अ नकोण आ द व दशाएँ ऋ वज को द , क यपजीको म यभू म द , उप ाको
आयावत दया तथा सरे सद य को अ या य दशाएँ दान कर द ।।२२।। इसके बाद
य ा त- नान करके वे सम त पाप से मु हो गये और नद सर वतीके तटपर मेघर हत
सूयके समान शोभायमान ए ।।२३।। मह ष जमद नको मृ त प संक पमय शरीरक
ा त हो गयी। परशुरामजीसे स मा नत होकर वे स त षय के म डलम सातव ऋ ष हो
गये ।।२४।। परी त्! कमललोचन जमद नन दन भगवान् परशुराम आगामी म व तरम
स त षय के म डलम रहकर वेद का व तार करगे ।।२५।। वे आज भी कसीको कसी
कारका द ड न दे ते ए शा त च से महे पवतपर नवास करते ह। वहाँ स , ग धव
और चारण उनके च र का मधुर वरसे गान करते रहते ह ।।२६।। सवश मान् व ा मा

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भगवान् ीह रने इस कार भृगुवं शय म अवतार हण करके पृ वीके भारभूत राजा का
ब त बार वध कया ।।२७।।

एवं भृगुषु व ा मा भगवान् ह ररी रः ।


अवतीय परं भारं भुवोऽहन् ब शो नृपान् ।।२७

गाधेरभू महातेजाः स म इव पावकः ।


तपसा ा मु सृ य यो लेभे वचसम् ।।२८

व ा म य चैवासन् पु ा एकशतं नृप ।


म यम तु मधु छ दा मधु छ दस एव ते ।।२९

पु ं कृ वा शुनःशेपं दे वरातं च भागवम् ।


आजीगत सुतानाह ये एष क यताम् ।।३०

यो वै ह र मखे व तः पु षः पशुः ।
तु वा दे वान् जेशाद न् मुमुचे पाशब धनात् ।।३१

यो रातो दे वयजने दे वैगा धषु तापसः ।


दे वरात इ त यातः शुनःशेपः स भागवः ।।३२

ये मधु छ दसो ये ाः कुशलं मे नरे न तत् ।


अशपत् ता मु नः ु ो ले छा भवत जनाः ।।३३

स होवाच मधु छ दाः साध पंचाशताः ततः ।


य ो भवान् संजानीते त मं त ामहे वयम् ।।३४

ये ं म शं च ु वाम व चो वयं म ह ।
व ा म ः१ सुतानाह वीरव तो भ व यथ ।
ये मानं मेऽनुगृ तो वीरव तमकत२ माम् ।।३५
महाराज गा धके पु ए व लत अ नके समान परम तेज वी व ा म जी। इ ह ने
अपने तपोबलसे य वका याग करके तेज ा त कर लया ।।२८।। परी त्!
व ा म जीके सौ पु थे। उनम बचले पु का नाम था मधु छ दा। इस लये सभी पु
‘मधु छ दा’ के ही नामसे व यात ए ।।२९।। व ा म जीने भृगुवंशी अजीगतके पु अपने
भानजे शुनःशेपको, जसका एक नाम दे वरात भी था, पु पम वीकार कर लया और
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अपने पु से कहा क ‘तुमलोग इसे अपना बड़ा भाई मानो’ ।।३०।। यह वही स
भृगुवंशी शुनःशेप था, जो ह र के य म य पशुके पम मोल लेकर लाया गया था।
व ा म जीने जाप त व ण आ द दे वता क तु त करके उसे पाशब धनसे छु ड़ा लया
था। दे वता के य म यही शुनःशेप दे वता ारा व ा म जीको दया गया था; अत: ‘दे वैः
रातः’ इस ु प के अनुसार गा धवंशम यह तप वी दे वरातके नामसे व यात
आ ।।३१-३२।। व ा म जीके पु म जो बड़े थे, उ ह शुनःशेपको बड़ा भाई माननेक बात
अ छ न लगी। इसपर व ा म जीने ो धत होकर उ ह शाप दे दया क ‘ ो! तुम सब
ले छ हो जाओ’ ।।३३।। इस कार जब उनचास भाई ले छ हो गये तब व ा म जीके
बचले पु मधु छ दाने अपनेसे छोटे पचास भाइय के साथ कहा—‘ पताजी! आप
हमलोग को जो आ ा करते ह, हम उसका पालन करनेके लये तैयार ह’ ।।३४।। यह
कहकर मधु छ दाने म ा शुनःशेपको बड़ा भाई वीकार कर लया और कहा क ‘हम
सब तु हारे अनुयायी—छोटे भाई ह।’ तब व ा म जीने अपने इन आ ाकारी पु से कहा
—‘तुम लोग ने मेरी बात मानकर मेरे स मानक र ा क है, इस लये तुमलोग -जैसे सुपु
ा त करके म ध य आ। म तु ह आशीवाद दे ता ँ क तु ह भी सुपु ा त ह गे ।।३५।। मेरे
यारे पु ो! यह दे वरात शुनःशेप भी तु हारे ही गो का है। तुमलोग इसक आ ाम रहना।’
परी त्! व ा म जीके अ क, हारीत, जय और तुमान् आ द और भी पु थे ।।३६।।
इस कार व ा म जीक स तान से कौ शकगो म कई भेद हो गये और दे वरातको बड़ा
भाई माननेके कारण उसका वर ही सरा हो गया ।।३७।।

एष वः कु शका वीरो दे वरात तम वत ।


अ ये चा कहारीतजय तुमदादयः ।।३६

एवं कौ शकगो ं तु व ा म ैः पृथ वधम् ।


वरा तरमाप ं त चैवं क पतम् ।।३७
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां नवम क धे षोडशोऽ यायः ।।१६।।

१. सः सुतः।
१. तु ताना०। २. वीरभावकस माः।

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अथ स तदशोऽ यायः
वृ , र ज आ द राजा के वंशका वणन
ीशुक उवाच
यः पु रवसः पु आयु त याभवन् सुताः ।
न षः वृ रजी र भ वीयवान् ।।१
अनेना इ त राजे शृणु वृधोऽ वयम् ।
वृ सुत यासन् सुहो या मजा यः ।।२
का यः कुशो गृ समद इ त गृ समदादभूत् ।
शुनकः शौनको य य ब च वरो मु नः ।।३
का य य का श त पु ो रा ो द घतमः पता ।
ध व त रदघतम आयुवद वतकः ।।४
य भुग् वासुदेवांशः मृतमा ा तनाशनः ।
त पु ः केतुमान य ज े भीमरथ ततः ।।५
दवोदासो ुमां त मात् तदन इ त मृतः ।
स एव श ु जद् व स ऋत वज इती रतः ।
तथा कुवलया े त ो ोऽलकादय ततः ।।६
ष वषसह ा ण ष वषशता न च ।
नालकादपरो राजन्१ मे दन बुभुजे युवा ।।७
अलकात् स त त त मात् सुनीथोऽथ सुकेतनः२ ।
धमकेतुः सुत त मात् स यकेतुरजायत ।।८
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! राजे पु रवाका एक पु था आयु। उसके पाँच
लड़के ए—न ष, वृ , र ज, श शाली र भ और अनेना। अब वृ का वंश सुनो।
वृ के पु थे सुहो । सुहो के तीन पु ए—का य, कुश और गृ समद। गृ समदका पु
आ शुनक। इसी शुनकके पु ऋ वे दय म े मु नवर शौनकजी ए ।।१-३।।
का यका पु का श, का शका रा , रा का द घतमा और द घतमाके ध व त र। यही
आयुवदके वतक ह ।।४।। ये य भागके भो ा और भगवान् वासुदेवके अंश ह। इनके
मरणमा से ही सब कारके रोग र हो जाते ह। ध व त रका पु आ केतुमान् और
केतुमान्का भीमरथ ।।५।।
भीमरथका दवोदास और दवोदासका ुमान्— जसका एक नाम तदन भी है। यही
ुमान् श ु जत्, व स, ऋत वज और कुवलया के नामसे भी स है। ुमान्के ही पु
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अलक आ द ए ।।६।। परी त्! अलकके सवा और कसी राजाने छाछठ हजार
(६६,०००) वषतक युवा रहकर पृ वीका रा य नह भोगा ।।७।। अलकका पु आ स त त,
स त तका सुनीथ, सुनीथका सुकेतन, सुकेतनका धमकेतु और धमकेतुका स यकेतु ।।८।।
धृ केतुः सुत त मात् सुकुमारः ती रः ।
वी तहो य भग ऽतो भागभू मरभू ृपः ।।९
इतीमे काशयो भूपाः वृ ा वया यनः ।
र भ य१ रभसः पु ो ग भीर ा य ततः२ ।।१०
तय े े ज े शृणु वंशमनेनसः ।
शु ततः३ शु च त मात् ककुद् धमसार थः ।।११
ततः शा तरयो ज े कृतकृ यः स आ मवान् ।
रजेः पंचशता यासन् पु ाणाम मतौजसाम् ।।१२
दे वैर य थतो दै यान् ह वे ायाददाद् दवम् ।
इ त मै पुनद वा गृही वा चरणौ रजेः ।।१३
आ मानमपयामास ादा रशं कतः४ ।
पतयुपरते पु ा याचमानाय नो द ः ।।१४
व पं महे ाय य भागान् समाद ः ।
गु णा यमानेऽ नौ बल भत् तनयान् रजेः ।।१५
अवधीद् ं शतान् मागा क दवशे षतः ।
कुशात् तः ा वृ ात् संजय त सुतो जयः ।।१६
ततः कृतः कृत या प ज े हयवनो नृपः ।
सहदे व ततो हीनो जयसेन तु त सुतः ।।१७
संकृ त त य च५ जयः धमा महारथः ।
वृ ा वया भूपाः शृणु वंशं च ना षात् ।।१८
स यकेतुसे धृ केतु, धृ केतुसे राजा सुकुमार, सुकुमारसे वी तहो , वी तहो से भग और
भगसे राजा भागभू मका ज म आ ।।९।।
ये सब-के-सब वृ के वंशम का शसे उ प नरप त ए। र भके पु का नाम था
रभस, उससे ग भीर और ग भीरसे अ यका ज म आ ।।१०।। अ यक प नीसे
ा णवंश चला। अब अनेनाका वंश सुनो। अनेनाका पु था शु , शु का शु च, शु चका
ककुद् और ककुद्का धमसार थ ।।११।। धमसार थके पु थे शा तरय। शा तरय
आ म ानी होनेके कारण कृतकृ य थे, उ ह स तानक आव यकता न थी। परी त्! आयुके
पु र जके अ य त तेज वी पाँच सौ पु थे ।।१२।।
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दे वता क ाथनासे र जने दै य का वध करके इ को वगका रा य दया। पर तु वे
अपने ाद आ द श ु से भयभीत रहते थे, इस लये उ ह ने वह वग फर र जको लौटा
दया और उनके चरण पकड़कर उ ह को अपनी र ाका भार भी स प दया। जब र जक
मृ यु हो गयी, तब इ के माँगनेपर भी र जके पु ने वग नह लौटाया। वे वयं ही य का
भाग भी हण करने लगे। तब गु बृह प तजीने इ क ाथनासे अ भचार व धसे हवन
कया। इससे वे धमके मागसे हो गये। तब इ ने अनायास ही उन सब र जके पु को
मार डाला। उनमसे कोई भी न बचा। वृ के पौ कुशसे त, तसे संजय और संजयसे
जयका ज म आ ।।१३-१६।। जयसे कृत, कृतसे राजा हयवन, हयवनसे सहदे व, सहदे वसे
हीन और हीनसे जयसेन नामक पु आ ।।१७।। जयसेनका संकृ त, संकृ तका पु आ
महारथी वीर शरोम ण जय। वृ क वंश-पर पराम इतने ही नरप त ए। अब न षवंशका
वणन सुनो ।।१८।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां नवम क धे च वंशानुवणने
स तदशोऽ यायः ।।१७।।

१. राजा। २. सुतो मः।


१. नाभ य। २. क ततः। ३. शु ः शु च तत त मा०। ४. व०। ५. तनयः।

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अथा ादशोऽ यायः
यया त-च र
ीशुक उवाच
य तयया तः संया तराय त वय तः कृ तः ।
ष डमे न ष यास याणीव दे हनः ।।१

रा यं नै छद् य तः प ा द ं त प रणाम वत् ।


य व ः पु ष आ मानं नावबु यते ।।२

पत र ं शते थाना द ा या धषणाद् जैः ।


ा पतेऽजगर वं वै यया तरभव ृपः ।।३

चतसृ वा दशद् द ु ातॄन् ाता यवीयसः ।


कृतदारो जुगोपोव का य वृषपवणः ।।४
राजोवाच
षभगवान् का ः ब धु ना षः ।
राज य व यो: क माद् ववाहः तलोमकः ।।५
ीशुक उवाच
एकदा दानवे य श म ा नाम क यका ।
सखीसह संयु ा गु पु या च भा मनी ।।६

दे वया या पुरो ाने पु पत मसंकुले ।


चरत् कलगीता लन लनीपु लनेऽबला ।।७

ता जलाशयमासा क याः कमललोचनाः ।


तीरे य य कूला न वज ः सचती मथः ।।८
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जैसे शरीरधा रय के छः इ याँ होती ह, वैसे ही
न षके छः पु थे। उनके नाम थे—य त, यया त, संया त, आय त, वय त और कृ त ।।१।।
न ष अपने बड़े पु य तको रा य दे ना चाहते थे। पर तु उसने वीकार नह कया; य क
वह रा य पानेका प रणाम जानता था। रा य एक ऐसी व तु है क जो उसके दाव-पच और
ब ध आ दम भीतर वेश कर जाता है, वह अपने आ म व पको नह समझ

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सकता ।।२।। जब इ प नी शचीसे सहवास करनेक चे ा करनेके कारण न षको ा ण ने
इ पदसे गरा दया और अजगर बना दया, तब राजाके पदपर यया त बैठे ।।३।। यया तने
अपने चार छोटे भाइय को चार दशा म नयु कर दया और वयं शु ाचायक पु ी
दे वयानी और दै यराज वृषपवाक पु ी श म ाको प नीके पम वीकार करके पृ वीक
र ा करने लगा ।।४।।
राजा परी त्ने पूछा—भगवन्! भगवान् शु ाचायजी तो ा ण थे और यया त
य। फर ा ण-क या और य-वरका तलोम (उलटा) ववाह कैसे आ? ।।५।।
ीशुकदे वजीने कहा—राजन्! दानवराज वृषपवाक एक बड़ी मा ननी क या थी।
उसका नाम था श म ा। वह एक दन अपनी गु पु ी दे वयानी और हजार स खय के साथ
अपनी राजधानीके े उ ानम टहल रही थी। उस उ ानम सु दर-सु दर पु प से लदे ए
अनेक वृ थे। उसम एक बड़ा ही सु दर सरोवर था। सरोवरम कमल खले ए थे और
उनपर बड़े ही मधुर वरसे भ रे गुंजार कर रहे थे। उसक व नसे सरोवरका तट गूँज रहा
था ।।६-७।। जलाशयके पास प ँचनेपर उन सु दरी क या ने अपने-अपने व तो घाटपर
रख दये और उस तालाबम वेश करके वे एक- सरेपर जल उलीच-उलीचकर डा करने
लग ।।८।।

वी य ज तं ग रशं सह दे ा वृष थतम् ।


सहसो ीय वासां स पयधु डताः यः ।।९

श म ाजानती वासो गु पु याः सम यत् ।


वीयं म वा कु पता दे वयानीदम वीत् ।।१०

अहो नरी यताम या दा याः कम सा तम् ।


अ म ाय धृतवती शुनीव ह वर वरे ।।११

यै रदं तपसा सृ ं मुखं पुंसः पर य ये ।


धायते यै रह यो तः शवः प था द शतः ।।१२

यान् व द युप त ते लोकनाथाः सुरे राः ।


भगवान प व ा मा पावनः ी नकेतनः ।।१३

वयं त ा प भृगवः श योऽ या नः पतासुरः ।


अ म ाय धृतवती शू ो वेद मवासती ।।१४

एवं शप त श म ा गु पु ीमभाषत ।

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षा स युरंगीव ध षता द द छदा ।।१५

आ मवृ म व ाय क थसे ब भ ु क ।
क न ती सेऽ माकं गृहान् ब लभुजो यथा ।।१६

एवं वधैः सुप षैः वाऽऽचायसुतां सतीम् ।


श म ा ा पत् कूपे वास आदाय म युना ।।१७
उसी समय उधरसे पावतीजीके साथ बैलपर चढ़े ए भगवान् शंकर आ नकले। उनको
दे खकर सब-क -सब क याएँ सकुचा गय और उ ह ने झटपट सरोवरसे नकलकर अपने-
अपने व पहन लये ।।९।। शी ताके कारण श म ाने अनजानम दे वयानीके व को
अपना समझकर पहन लया। इसपर दे वयानी ोधके मारे आग-बबूला हो गयी। उसने कहा
— ।।१०।। ‘अरे, दे खो तो सही, इस दासीने कतना अनु चत काम कर डाला! राम-राम,
जैसे कु तया य का ह व य उठा ले जाय, वैसे ही इसने मेरे व पहन लये ह ।।११।। जन
ा ण ने अपने तपोबलसे इस संसारक सृ क है, जो परम पु ष परमा माके मुख प ह,
जो अपने दयम नर तर यो तमय परमा माको धारण कये रहते ह और ज ह ने स पूण
ा णय के क याणके लये वै दक मागका नदश कया है, बड़े-बड़े लोकपाल तथा दे वराज
इ - ा आ द भी जनके चरण क व दना और सेवा करते ह—और तो या, ल मीजीके
एकमा आ य परम पावन व ा मा भगवान् भी जनक व दना और तु त करते ह—उ ह
ा ण म हम सबसे े भृगुवंशी ह। और इसका पता थम तो असुर है, फर हमारा श य
है। इसपर भी इस ाने जैसे शू वेद पढ़ ले, उसी तरह हमारे कपड़ को पहन लया
है’ ।।१२-१४।। जब दे वयानी इस कार गाली दे ने लगी, तब श म ा ोधसे तल मला उठ ।
वह चोट खायी ई ना गनके समान लंबी साँस लेने लगी। उसने अपने दाँत से होठ दबाकर
कहा— ।।१५।। ‘ भखा रन! तू इतना बहक रही है। तुझे कुछ अपनी बातका भी पता है?
जैसे कौए और कु े हमारे दरवाजेपर रोट के टु कड़ के लये ती ा करते ह, वैसे ही या तुम
भी हमारे घर क ओर नह ताकती रहत ’ ।।१६।। श म ाने इस कार बड़ी कड़ी-कड़ी बात
कहकर गु पु ी दे वयानीका तर कार कया और ोधवश उसके व छ नकर उसे कुएँम
ढकेल दया ।।१७।।

त यां गतायां वगृहं यया तमृगयां चरन् ।


ा तो य छया कूपे जलाथ तां ददश ह ।।१८

द वा वमु रं वास त यै राजा ववाससे ।


गृही वा पा णना पा णमु जहार दयापरः ।।१९

तं वीरमाहौशनसी ेम नभरया गरा ।

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राजं वया गृहीतो मे पा णः परपुरंजय ।।२०

ह त ाहोऽपरो मा भूद ् गृहीताया वया ह मे ।


एष ईशकृतो वीर स ब धो नौ न पौ षः ।
य ददं कूपल नाया भवतो दशनं मम ।।२१

न ा णो मे भ वता ह त ाहो महाभुज ।


कच य बाह प य य शापाद् यमशपं पुरा ।।२२

यया तरन भ ेतं दै वोप तमा मनः ।


मन तु तद्गतं बुद ् वा तज ाह त चः ।।२३

गते राज न सा वीरे त म दती पतुः ।


यवेदयत् ततः सवमु ं श म या कृतम् ।।२४

मना भगवान् का ः पौरो ह यं वगहयन् ।


तुवन् वृ च कापोत ह ा स ययौ पुरात् ।।२५
श म ाके चले जानेके बाद संयोगवश शकार खेलते ए राजा यया त उधर आ नकले।
उ ह जलक आव यकता थी, इस लये कूएँम पड़ी ई दे वयानीको उ ह ने दे ख लया ।।१८।।
उस समय वह व हीन थी। इस लये उ ह ने अपना प ा उसे दे दया और दया करके अपने
हाथसे उसका हाथ पकड़कर उसे बाहर नकाल लया ।।१९।। दे वयानीने ेमभरी वाणीसे
वीर यया तसे कहा—‘वीर शरोमणे राजन्! आज आपने मेरा हाथ पकड़ा है। अब जब आपने
मेरा हाथ पकड़ लया, तब कोई सरा इसे न पकड़े। वीर े ! कूएँम गर जानेपर मुझे जो
आपका अचानक दशन आ है, यह भगवान्का ही कया आ स ब ध समझना चा हये।
इसम हमलोग क या और कसी मनु यक कोई चे ा नह है ।।२०-२१।। वीर े ! पहले मने
बृह प तके पु कचको शाप दे दया था, इसपर उसने भी मुझे शाप दे दया। इसी कारण
ा ण मेरा पा ण हण नह कर सकता’* ।।२२।। यया तको शा तकूल होनेके कारण
यह स ब ध अभी तो न था; पर तु उ ह ने दे खा क ार धने वयं ही मुझे यह उपहार दया
है और मेरा मन भी इसक ओर खच रहा है। इस लये यया तने उसक बात मान ली ।।२३।।
वीर राजा यया त जब चले गये, तब दे वयानी रोती-पीटती अपने पता शु ाचायके पास
प ँची और श म ाने जो कुछ कया था, वह सब उ ह कह सुनाया ।।२४।। श म ाके
वहारसे भगवान् शु ाचायजीका भी मन उचट गया। वे पुरो हताईक न दा करने लगे।
उ ह ने सोचा क इसक अपे ा तो खेत या बाजारमसे कबूतरक तरह कुछ बीनकर खा लेना
अ छा है। अतः अपनी क या दे वयानीको साथ लेकर वे नगरसे नकल पड़े ।।२५।।

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वृषपवा तमा ाय यनीक वव तम् ।
गु ं सादयन् मू ना पादयोः प ततः प थ ।।२६

णाधम युभगवान् श यं ाच भागवः ।


कामोऽ याः यतां राजन् नैनां य ु महो सहे ।।२७

तथे यव थते ाह दे वयानी मनोगतम् ।


प ा द ा यतो या ये सानुगा यातु मामनु ।।२८

वानां तत् संकटं वी य तदथ य च गौरवम् ।


दे वयान पयचरत् ीसह ेण दासवत् ।।२९

ना षाय सुतां द वा सह श म योशना ।


तमाह राज छ म ामाधा त पे न क ह चत् ।।३०

वलो यौशनस राज छ म ा स जां व चत् ।


तमेव व े रह स स याः प तमृतौ सती ।।३१

राजपु या थतोऽप ये धम चावे य धम वत् ।


मर छु वचः काले द मेवा यप त ।।३२

य ं च तुवसुं चैव दे वयानी जायत ।


ं चानुं च पू ं च श म ा वाषपवणी ।।३३

गभस भवमासुया भतु व ाय मा ननी ।


दे वयानी पतुगहं ययौ ोध वमू छता ।।३४
जब वृषपवाको यह मालूम आ तो उनके मनम यह शंका ई क गु जी कह श ु क
जीत न करा द, अथवा मुझे शाप न दे द। अतएव वे उनको स करनेके लये पीछे -पीछे
गये और रा तेम उनके चरण पर सरके बल गर गये ।।२६।। भगवान् शु ाचायजीका ोध
तो आधे ही णका था। उ ह ने वृषपवासे कहा—‘राजन्! म अपनी पु ी दे वयानीको नह
छोड़ सकता। इस लये इसक जो इ छा हो, तुम पूरी कर दो। फर मुझे लौट चलनेम कोई
आप न होगी’ ।।२७।। जब वृषपवाने ‘ठ क है’ कहकर उनक आ ा वीकार कर ली, तब
दे वयानीने अपने मनक बात कही। उसने कहा—‘ पताजी मुझे जस कसीको दे द और म
जहाँ कह जाऊँ; श म ा अपनी सहे लय के साथ मेरी सेवाके लये वह चले’ ।।२८।।
श म ाने अपने प रवारवाल का संकट और उनके कायका गौरव दे खकर दे वयानीक
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बात वीकार कर ली। वह अपनी एक हजार सहे लय के साथ दासीके समान उसक सेवा
करने लगी ।।२९।। शु ाचायजीने दे वयानीका ववाह राजा यया तके साथ कर दया और
श म ाको दासीके पम दे कर उनसे कह दया—‘राजन्! इसको अपनी सेजपर कभी न
आने दे ना’ ।।३०।। परी त्! कुछ ही दन बाद दे वयानी पु वती हो गयी। उसको पु वती
दे खकर एक दन श म ाने भी अपने ऋतुकालम दे वयानीके प त यया तसे एका तम
सहवासक याचना क ।।३१।। श म ाक पु के लये ाथना धमसंगत है—यह दे खकर
धम राजा यया तने शु ाचायक बात याद रहनेपर भी यही न य कया क समयपर
ार धके अनुसार जो होना होगा, हो जायगा ।।३२।। दे वयानीके दो पु ए—य और
तुवसु। तथा वृषपवाक पु ी श म ाके तीन पु ए— , अनु और पू ।।३३।। जब
मा ननी दे वयानीको यह मालूम आ क श म ाको भी मेरे प तके ारा ही गभ रहा था, तब
वह ोधसे बेसुध होकर अपने पताके घर चली गयी ।।३४।। कामी यया तने मीठ -मीठ
बात, अनुनय- वनय और चरण दबाने आ दके ारा दे वयानीको मनानेक चे ा क , उसके
पीछे -पीछे वहाँतक गये भी; पर तु मना न सके ।।३५।। शु ाचायजीने भी ोधम भरकर
यया तसे कहा—‘तू अ य त ील पट, म दबु और झूठा है। जा, तेरे शरीरम वह बुढ़ापा
आ जाय, जो मनु य को कु प कर दे ता है’ ।।३६।।

यामनुगतः कामी वचो भ पम यन् ।


न साद यतुं शेके पादसंवाहना द भः ।।३५

शु तमाह कु पतः ीकामानृतपू ष ।


वां जरा वशतां म द व पकरणी नृणाम् ।।३६
यया त वाच
अतृ तोऽ य कामानां न् हत र म ते ।
य यतां यथाकामं वयसा योऽ भधा य त ।।३७

इ त ल ध व थानः पु ं ये मवोचत ।
यदो तात ती छे मां जरां दे ह नजं वयः ।।३८

मातामहकृतां व स न तृ तो वषये वहम् ।


वयसा भवद येन रं ये क तपयाः समाः ।।३९
य वाच
नो सहे जरसा थातुम तरा ा तया तव ।
अ व द वा सुखं ा यं वैतृ यं नै त पू षः ।।४०

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तुवसु ो दतः प ा ानु भारत ।
याच युरधम ा न ये न यबु यः ।।४१

अपृ छत् तनयं पू ं वयसोनं गुणा धकम् ।


न वम जवद् व स मां या यातुमह स ।।४२
पू वाच
को नु लोके मनु ये पतुरा मकृतः पुमान् ।
तकतु मो य य सादाद् व दते परम् ।।४३
यया तने कहा—‘ न्! आपक पु ीके साथ वषय-भोग करते-करते अभी मेरी तृ त
नह ई है। इस शापसे तो आपक पु ीका भी अ न ही है।’ इसपर शु ाचायजीने कहा
—‘अ छा जाओ; जो स तासे तु ह अपनी जवानी दे दे , उससे अपना बुढ़ापा बदल
लो’ ।।३७।। शु ाचायजीने जब ऐसी व था दे द , तब अपनी राजधानीम आकर यया तने
अपने बड़े पु य से कहा—‘बेटा! तुम अपनी जवानी मुझे दे दो और अपने नानाका दया
आ यह बुढ़ापा तुम वीकार कर लो। य क मेरे यारे पु ! म अभी वषय से तृ त नह
आ ँ। इस लये तु हारी आयु लेकर म कुछ वष तक और आन द भोगूँगा’ ।।३८-३९।।
य ने कहा—‘ पताजी! बना समयके ही ा त आ आपका बुढ़ापा लेकर तो म जीना
भी नह चाहता। य क कोई भी मनु य जबतक वषय-सुखका अनुभव नह कर लेता,
तबतक उसे उससे वैरा य नह होता’ ।।४०।। परी त्! इसी कार तुवसु, और अनुने
भी पताक आ ा अ वीकार कर द । सच पूछो तो उन पु को धमका त व मालूम नह था।
वे इस अ न य शरीरको ही न य माने बैठे थे ।।४१।। अब यया तने अव थाम सबसे छोटे
क तु गुण म बड़े अपने पु पू को बुलाकर पूछा और कहा—‘बेटा! अपने बड़े भाइय के
समान तु ह तो मेरी बात नह टालनी चा हये’ ।।४२।।
पू ने कहा—‘ पताजी! पताक कृपासे मनु यको परमपदक ा त हो सकती है।
वा तवम पु का शरीर पताका ही दया आ है। ऐसी अव थाम ऐसा कौन है, जो इस
संसारम पताके उपकार का बदला चुका सके? ।।४३।।

उ म ततं कुयात् ो कारी तु म यमः ।


अधमोऽ या कुयादकत च रतं पतुः ।।४४

इ त मु दतः पू ः यगृ ा जरां पतुः ।


सोऽ प त यसा कामान् यथाव जुजुषे नृप ।।४५

स त पप तः स यक् पतृवत् पालयन् जाः ।


यथोपजोषं वषयांजुजुषेऽ ाहते यः ।।४६
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दे वया य यनु दनं मनोवा दे हव तु भः ।
ेयसः परमां ी तमुवाह ेयसी रहः ।।४७

अयजद् य पु षं तु भभू रद णैः ।


सवदे वमयं दे वं सववेदमयं ह रम् ।।४८

य म दं वर चतं ो नीव जलदाव लः ।


नानेव भा त नाभा त व मायामनोरथः ।।४९

तमेव द व य य वासुदेवं गुहाशयम् ।


नारायणमणीयांसं नराशीरयजत् भुम् ।।५०

एवं वषसह ा ण मनःष ैमनःसुखम् ।


वदधानोऽ प नातृ यत् सावभौमः क द यैः ।।५१
उ म पु तो वह है जो पताके मनक बात बना कहे ही कर दे । कहनेपर ाके साथ
आ ापालन करनेवाले पु को म यम कहते ह। जो आ ा ा त होनेपर भी अ ासे उसका
पालन करे, वह अधम पु है। और जो कसी कार भी पताक आ ाका पालन नह करता,
उसको तो पु कहना ही भूल है। वह तो पताका मल-मू ही है ।।४४।। परी त्! इस कार
कहकर पू ने बड़े आन दसे अपने पताका बुढ़ापा वीकार कर लया। राजा यया त भी
उसक जवानी लेकर पूववत् वषय का सेवन करने लगे ।।४५।। वे सात प के एक छ
स ाट् थे। पताके समान भलीभाँ त जाका पालन करते थे। उनक इ य म पूरी श थी
और वे यथावसर यथा ा त वषय का यथे छ उपभोग करते थे ।।४६।। दे वयानी उनक
यतमा प नी थी। वह अपने यतम यया तको अपने मन, वाणी, शरीर और व तु के
ारा दन- दन और भी स करने लगी; और एका तम सुख दे ने लगी ।।४७।। राजा
यया तने सम त वेद के तपा सवदे व व प य पु ष भगवान् ीह रका ब त-से बड़ी-
बड़ी द णावाले य से यजन कया ।।४८।। जैसे आकाशम दल-के-दल बादल द खते ह
और कभी नह भी द खते, वैसे ही परमा माके व पम यह जगत् व , माया और
मनोरा यके समान क पत है। यह कभी अनेक नाम और प के पम तीत होता है और
कभी नह भी ।।४९।।
वे परमा मा सबके दयम वराजमान ह। उनका व प सू मसे भी सू म है। उ ह
सवश मान् सव ापी भगवान् ीनारायणको अपने दयम था पत करके राजा यया तने
न काम भावसे उनका यजन कया ।।५०।। इस कार एक हजार वषतक उ ह ने अपनी
उ छृ ं खल इ य के साथ मनको जोड़कर उसके य वषय को भोगा। पर तु इतनेपर भी
च वत स ाट् यया तक भोग से तृ त न हो सक ।।५१।।

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इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां नवम क धेऽ ादशोऽ यायः ।।१८।।

* बृह प तजीका पु कच शु ाचायजीसे मृतसंजीवनी व ा पढ़ता था। अ ययन समा त


करके जब वह अपने घर जाने लगा तो दे वयानीने उसे वरण करना चाहा। पर तु गु पु ी
होनेके कारण कचने उसका ताव वीकार नह कया। इसपर दे वयानीने उसे शाप दे दया
क ‘तु हारी पढ़ ई व ा न फल हो जाय।’ कचने भी उसे शाप दया क ‘कोई भी ा ण
तु ह प नी पम वीकार न करेगा।’

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अथैकोन वशोऽ यायः
यया तका गृह याग
ीशुक उवाच
स इ थमाचरन् कामान् ैणोऽप वमा मनः ।
बुद ् वा यायै न व णो गाथामेतामगायत ।।१

शृणु भाग मूं गाथां म धाच रतां भु व ।


धीरा य यानुशोच त वने ाम नवा सनः ।।२

ब त एको वने क द् व च वन् यमा मनः ।


ददश कूपे प ततां वकमवशगामजाम् ।।३

त या उ रणोपायं ब तः कामी व च तयन् ।


ध तीथमुदधृ
् य वषाणा ेण रोधसी ।।४

सो ीय कूपात् सु ोणी तमेव चकमे कल ।


तया वृतं समु य ब योऽजाः का तका मनीः ।।५

पीवानं म ुलं े ं मीढ् वांसं याभको वदम् ।


स एकोऽजवृष तासां ब नां र तवधनः ।
रेमे काम ह त आ मानं नावबु यत ।।६

तमेव े तमया रममाणमजा यया ।


वलो य कूपसं व ना नामृ यद् ब तकम तत् ।।७

तं दं सु पू ं का मनं णसौ दम् ।


इ याराममु सृ य वा मनं ः खता ययौ ।।८
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! राजा यया त इस कार ीके वशम होकर
वषय का उपभोग करते रहे। एक दन जब अपने अधःपतनपर गयी तब उ ह बड़ा
वैरा य आ और उ ह ने अपनी य प नी दे वयानीसे इस गाथाका गान कया ।।१।।
‘भृगुन दनी! तुम यह गाथा सुनो। पृ वीम मेरे ही समान वषयीका यह स य इ तहास है। ऐसे
ही ामवासी वषयी पु ष के स ब धम वनवासी जते य पु ष ःखके साथ वचार कया
करते ह क इनका क याण कैसे होगा? ।।२।। एक था बकरा। वह वनम अकेला ही अपनेको
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य लगनेवाली व तुएँ ढूँ ढ़ता आ घूम रहा था। उसने दे खा क अपने कमवश एक बकरी
कूएँम गर पड़ी है ।।३।। वह बकरा बड़ा कामी था। वह सोचने लगा क इस बकरीको कस
कार कूएँसे नकाला जाय। उसने अपने स गसे कूएँके पासक धरती खोद डाली और रा ता
तैयार कर लया ।।४।। जब वह सु दरी बकरी कूएँसे नकली तो उसने उस बकरेसे ही ेम
करना चाहा। वह दाढ़ -मूँछम डत बकरा -पु , जवान, बक रय को सुख दे नेवाला,
वहारकुशल और ब त यारा था। जब सरी बक रय ने दे खा क कूएँम गरी ई बकरीने
उसे अपना ेमपा चुन लया है, तब उ ह ने भी उसीको अपना प त बना लया। वे तो
पहलेसे ही प तक तलाशम थ । उस बकरेके सरपर काम प पशाच सवार था। वह
अकेला ही ब त-सी बक रय के साथ वहार करने लगा और अपनी सब सुध-बुध खो
बैठा ।।५-६।।
जब उसक कूएँमसे नकाली ई यतमा बकरीने दे खा क मेरा प त तो अपनी सरी
यतमा बकरीसे वहार कर रहा है तो उसे बकरेक यह करतूत सहन न ई ।।७।। उसने
दे खा क यह तो बड़ा कामी है, इसके ेमका कोई भरोसा नह है और यह म के पम
श ुका काम कर रहा है। अतः वह बकरी उस इ यलोलुप बकरेको छोड़कर बड़े ःखसे
अपने पालनेवालेके पास चली गयी ।।८।। वह द न कामी बकरा उसे मनानेके लये ‘म-म’
करता आ उसके पीछे -पीछे चला। पर तु उसे मागम मना न सका ।।९।। उस बकरीका
वामी एक ा ण था। उसने ोधम आकर बकरेके लटकते ए अ डकोषको काट दया।
पर तु फर उस बकरीका ही भला करनेके लये फरसे उसे जोड़ भी दया। उसे इस कारके
ब त-से उपाय मालूम थे ।।१०।। ये! इस कार अ डकोष जुड़ जानेपर वह बकरा फर
कूएँसे नकली ई बकरीके साथ ब त दन तक वषयभोग करता रहा, पर तु आजतक उसे
स तोष न आ ।।११।। सु दरी! मेरी भी यही दशा है। तु हारे ेमपाशम बँधकर म भी
अ य त द न हो गया। तु हारी मायासे मो हत होकर म अपने-आपको भी भूल गया
ँ ।।१२।।

सोऽ प चानुगतः ैणः कृपण तां सा दतुम् ।


कुव ड वडाकारं नाश नोत् प थ सं धतुम् ।।९

त या त जः क दजा वा य छनद् षा ।
ल ब तं वृषणं भूयः स दधेऽथाय योग वत् ।।१०

स ब वृषणः सोऽ प जया कूपल धया ।


कालं ब तथं भ े कामैना ा प तु य त ।।११

तथाहं कृपणः सु ु भव याः ेमय तः ।


आ मानं ना भजाना म मो हत तव मायया ।।१२

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यत् पृ थ ां ी हयवं हर यं पशवः यः ।
न त मनः ी त पुंसः कामहत य ते ।।१३

न जातु कामः कामानामुपभोगेन शा य त ।


ह वषा कृ णव मव भूय एवा भवधते ।।१४

यदा न कु ते भावं सवभूते वमंगलम् ।


सम े तदा पुंसः सवाः सुखमया दशः ।।१५

या यजा म त भज यतो या न जीयते ।


तां तृ णां ःख नवहां शमकामो तं यजेत् ।।१६

मा ा व ा ह ा वा ना व व ासनो भवेत् ।
बलवा न य ामो व ांसम प कष त ।।१७
‘ ये! पृ वीम जतने भी धा य (चावल, जौ आ द), सुवण, पशु और याँ ह—वे सब-
के-सब मलकर भी उस पु षके मनको स तु नह कर सकते जो कामना के हारसे
जजर हो रहा है ।।१३।। वषय के भोगनेसे भोगवासना कभी शा त नह हो सकती। ब क
जैसे घीक आ त डालनेपर आग और भड़क उठती है, वैसे ही भोगवासनाएँ भी भोग से
बल हो जाती ह ।।१४।। जब मनु य कसी भी ाणी और कसी भी व तुके साथ राग-
े षका भाव नह रखता तब वह समदश हो जाता है, तथा उसके लये सभी दशाएँ सुखमयी
बन जाती ह ।।१५।। वषय क तृ णा ही ःख का उद्गम थान है। म दबु लोग बड़ी
क ठनाईसे उसका याग कर सकते ह। शरीर बूढ़ा हो जाता है, पर तृ णा न य नवीन ही होती
जाती है। अतः जो अपना क याण चाहता है, उसे शी -से-शी इस तृ णा (भोग-वासना)
का याग कर दे ना चा हये ।।१६।। और तो या—अपनी मा, ब हन और क याके साथ भी
अकेले एक आसनपर सटकर नह बैठना चा हये। इ याँ इतनी बलवान् ह क वे बड़े-बड़े
व ान को भी वच लत कर दे ती ह ।।१७।।

पूण वषसह ं मे वषयान् सेवतोऽसकृत् ।


तथा प चानुसवनं१ तृ णा तेषूपजायते ।।१८

त मादे तामहं य वा याधाय मानसम् ।


न ो नरहंकार र या म मृगैः सह ।।१९

ं ुतमसद्२ बुद ् वा नानु याये सं वशेत् ।


संसृ त चा मनाशं च त व ान् स आ म क् ।।२०
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इ यु वा ना षो जायां तद यं पूरवे वयः ।
द वा वां जरसं त मादाददे वगत पृहः ।।२१

द श द णपूव यां ं द णतो य म् ।


ती यां तुवसुं च उद यामनुमी रम् ।।२२

भूम डल य सव य पू मह मं वशाम् ।
अ भ ष या जां त य वशे था य वनं ययौ ।।२३

आसे वतं वषपूगान् षड् वग वषयेषु सः ।


णेन मुमुचे नीडं जातप इव जः ।।२४

सत नमु सम तसंग
आ मानुभू या वधुत लगः ।
परेऽमले ण वासुदेवे
लेभे ग त भागवत तीतः ।।२५
वषय का बार-बार सेवन करते-करते मेरे एक हजार वष पूरे हो गये, फर भी ण- त-
ण उन भोग क लालसा बढ़ती ही जा रही है ।।१८।। इस लये म अब भोग क वासना—
तृ णाका प र याग करके अपना अ तःकरण परमा माके त सम पत कर ँ गा और शीत-
उ ण, सुख- ःख आ दके भाव से ऊपर उठकर अहंकारसे मु हो ह रन के साथ वनम
वच ँ गा ।।१९।। लोक-परलोक दोन के ही भोग असत् ह, ऐसा समझकर न तो उनका
च तन करना चा हये और न भोग ही। समझना चा हये क उनके च तनसे ही ज म-
मृ यु प संसारक ा त होती है और उनके भोगसे तो आ मनाश ही हो जाता है। वा तवम
इनके रह यको जानकर इनसे अलग रहनेवाला ही आ म ानी है’ ।।२०।।
परी त्! यया तने अपनी प नीसे इस कार कहकर पू क जवानी उसे लौटा द और
उससे अपना बुढ़ापा ले लया। यह इस लये क अब उनके च म वषय क वासना नह रह
गयी थी ।।२१।। इसके बाद उ ह ने द ण-पूव दशाम , द णम य , प मम तुवसु
और उ रम अनुको रा य दे दया ।।२२।। सारे भूम डलक सम त स प य के यो यतम
पा पू को अपने रा यपर अ भ ष करके तथा बड़े भाइय को उसके अधीन बनाकर वे
वनम चले गये ।।२३।। य प राजा यया तने ब त वष तक इ य से वषय का सुख भोगा
था—पर तु जैसे पाँख नकल आनेपर प ी अपना घ सला छोड़ दे ता है, वैसे ही उ ह ने एक
णम ही सब कुछ छोड़ दया ।।२४।। वनम जाकर राजा यया तने सम त आस य से छु
पा ली। आ म-सा ा कारके ारा उनका गुणमय लगशरीर न हो गया। उ ह ने माया-
मलसे र हत पर परमा मा वासुदेवम मलकर वह भागवती ग त ा त क , जो बड़े-बड़े
भगवान्के ेमी संत को ा त होती है ।।२५।।
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ु वा गाथां दे वयानी मेने तोभमा मनः ।
ीपुंसोः नेहवै ल ात् प रहास मवे रतम् ।।२६

सा सं नवासं सु दां पाया मव ग छताम् ।


व ाये रत ाणां माया वर चतं भोः ।।२७

सव संगमु सृ य व ौप येन भागवी ।


कृ णे मनः समावे य धुनो लंगमा मनः ।।२८

नम तु यं भगवते वासुदेवाय वेधसे ।


सवभूता धवासाय शा ताय बृहते नमः ।।२९
जब दे वयानीने वह गाथा सुनी, तो उसने समझा क ये मुझे नवृ मागके लये
ो सा हत कर रहे ह। य क ी-पु षम पर पर ेमके कारण वरह होनेपर वकलता होती
है, यह सोचकर ही इ ह ने यह बात हँसी-हँसीम कही है ।।२६।। वजन-स ब धय का—जो
ई रके अधीन है—एक थानपर इक ा हो जाना वैसा ही है, जैसा याऊपर प थक का। यह
सब भगवान्क मायाका खेल और व के सरीखा ही है। ऐसा समझकर दे वयानीने सब
पदाथ क आस याग द और अपने मनको भगवान् ीकृ णम त मय करके ब धनके हेतु
लगशरीरका प र याग कर दया—वह भगवान्को ा त हो गयी ।।२७-२८।। उसने
भगवान्को नम कार करके कहा—‘सम त जगत्के रच यता, सवा तयामी, सबके
आ य व प सवश मान् भगवान् वासुदेवको नम कार है। जो परमशा त और अन त
त व है, उसे म नम कार करती ’ँ ।।२९।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां नवम क धे एकोन वशोऽ यायः ।।१९।।

१. नु दवसं। २. स ान्।

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अथ वशोऽ यायः
पू के वंश, राजा य त और भरतके च र का वणन
ीशुक उवाच
पूरोवशं व या म य जातोऽ स भारत ।
य राजषयो वं या वं या ज रे ।।१
जनमेजयो भूत् पूरोः च वां त सुत ततः ।
वीरोऽथ नम युव त मा चा पदोऽभवत् ।।२
त य सु ुरभूत् पु त माद् ब गव ततः ।
संया त त याहंयाती रौ ा त सुतः मृतः ।।३
ऋतेयु त य कु ेयुः थ डलेयुः कृतेयुकः ।
जलेयुः स ततेयु धमस य तेयवः ।।४
दशैतेऽ सरसः पु ा वनेयु ावमः मृतः ।
घृता या म याणीव मु य य जगदा मनः ।।५
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! अब म राजा पू के वंशका वणन क ँ गा। इसी
वंशम तु हारा ज म आ है। इसी वंशके वंशधर ब त-से राज ष और ष भी ए ह ।।१।।
पू का पु आ जनमेजय। जनमेजयका च वान्, च वान्का वीर, वीरका नम यु
और नम युका पु आ चा पद ।।२।। चा पदसे सु ु, सु ुसे ब गव, ब गवसे संया त,
संया तसे अहंया त और अहंया तसे रौ ा आ ।।३।।
परी त्! जैसे व ा मा धान ाणसे दस इ याँ होती ह, वैसे ही घृताची अ सराके
गभसे रौ ा के दस पु ए—ऋतेयु, कु ेय,ु थ डलेयु, कृतेय,ु जलेयु, स ततेयु, धमयु,
स येय,ु तेयु और सबसे छोटा वनेयु ।।४-५।।

ऋतेयो र तभारोऽभूत् य त या मजा नृप ।


सुम त ुवोऽ तरथः क वोऽ तरथा मजः ।।६

त य मेधा त थ त मात् क वा ा जातयः ।


पु ोऽभूत् सुमते रै यो य त त सुतो मतः ।।७

य तो मृगयां यातः क वा मपदं गतः ।


त ासीनां व भया म डय त रमा मव ।।८

वलो य स ो मुमुहेदेवमाया मव यम् ।


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बभाषे तां वरारोहां भटै ः क तपयैवृतः ।।९

त शन मु दतः सं नवृ प र मः ।
प छ कामस त तः हस शल णया गरा ।।१०

का वं कमलप ा क या स दयंगमे ।
क वा चक षतं व भव या नजने वने ।।११

ं राज यतनयां वेद ् यहं वां सुम यमे ।


न ह चेतः पौरवाणामधम रमते व चत् ।।१२
शकु तलोवाच
व ा म ा मजैवाहं य ा मेनकया वने ।
वेदैतद् भगवान् क वो वीर क करवाम ते ।।१३

आ यतां र व दा गृ तामहणं च नः ।
भु यतां स त नीवारा उ यतां य द रोचते ।।१४
य त उवाच
उपप मदं सु ु जातायाः कु शका वये ।
वयं ह वृणते रा ां क यकाः स शं वरम् ।।१५
परी त्! उनमसे ऋतेयुका पु र तभार आ और र तभारके तीन पु ए—सुम त,
ुव, और अ तरथ। अ तरथके पु का नाम था क व ।।६।। क वका पु मेधा त थ आ।
इसी मेधा त थसे क व आ द ा ण उ प ए। सुम तका पु रै य आ, इसी रै यका
पु य त था ।।७।।
एक बार य त वनम अपने कुछ सै नक के साथ शकार खेलनेके लये गये ए थे।
उधर ही वे क व मु नके आ मपर जा प ँच।े उस आ मपर दे वमायाके समान मनोहर एक
ी बैठ ई थी। उसक ल मीके समान अंगका तसे वह आ म जगमगा रहा था। उस
सु दरीको दे खते ही य त मो हत हो गये और उससे बातचीत करने लगे ।।८-९।। उसको
दे खनेसे उनको बड़ा आन द मला। उनके मनम कामवासना जा त् हो गयी। थकावट र
करनेके बाद उ ह ने बड़ी मधुर वाणीसे मुसकराते ए उससे पूछा— ।।१०।। ‘कमलदलके
समान सु दर ने वाली दे व! तुम कौन हो और कसक पु ी हो? मेरे दयको अपनी ओर
आक षत करनेवाली सु दरी! तुम इस नजन वनम रहकर या करना चाहती हो? ।।११।।
सु दरी! म प समझ रहा ँ क तुम कसी यक क या हो। य क पु वं शय का च
कभी अधमक ओर नह झुकता’ ।।१२।।

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शकु तलाने कहा—‘आपका कहना स य है। म व ा म जीक पु ी ँ। मेनका
अ सराने मुझे वनम छोड़ दया था। इस बातके सा ी ह मेरा पालन-पोषण करनेवाले मह ष
क व। वीर शरोमणे! म आपक या सेवा क ँ ? ।।१३।। कमलनयन! आप यहाँ बै ठये और
हम जो कुछ आपका वागत-स कार कर, उसे वीकार क जये। आ मम कुछ नीवार
( त ीका भात) है। आपक इ छा हो तो भोजन क जये और जँचे तो यह ठह रये’ ।।१४।।
य तने कहा—‘सु दरी! तुम कु शकवंशम उ प ई हो, इस लये इस कारका
आ त यस कार तु हारे यो य ही है। य क राजक याएँ वयं ही अपने यो य प तको वरण
कर लया करती ह’ ।।१५।। शकु तलाक वीकृ त मल जानेपर दे श, काल और शा क
आ ाको जाननेवाले राजा य तने गा धव- व धसे धमानुसार उसके साथ ववाह कर
लया ।।१६।। राज ष य तका वीय अमोघ था। रा म वहाँ रहकर य तने शकु तलाका
सहवास कया और सरे दन सबेरे वे अपनी राजधानीम चले गये। समय आनेपर
शकु तलाको एक पु उ प आ ।।१७।।

ओ म यु े यथाधममुपयेमे शकु तलाम् ।


गा धव व धना राजा दे शकाल वधान वत् ।।१६

अमोघवीय राज षम ह यां वीयमादधे ।


ोभूते वपुरं यातः कालेनासूत सा सुतम् ।।१७

क वः कुमार य वने च े समु चताः याः ।


बद् वा मृगे ां तरसा ड त म स बालकः ।।१८

तं र यय व ा तमादाय मदो मा ।
हरेरंशांशस भूतं भतुर तकमागमत् ।।१९

यदा न जगृहे राजा भायापु ाव न दतौ ।


शृ वतां सवभूतानां खे वागाहाशरी रणी ।।२०

माता भ ा पतुः पु ो येन जातः स एव सः ।


भर व पु ं य त मावमं थाः शकु तलाम् ।।२१

रेतोधाः पु ो नय त नरदे व यम यात् ।


वं चा य धाता गभ य स यमाह शकु तला ।।२२

पतयुपरते सोऽ प च वत महायशाः ।

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म हमा गीयते त य हरेरंशभुवो भु व ।।२३

च ं द णह तेऽ य प कोशोऽ य पादयोः ।


ईजे महा भषेकेण सोऽ भ ष ोऽ धराड् वभुः ।।२४

पंचपंचाशता मे यैगगायामनु वा ज भः ।
मामतेयं पुरोधाय यमुनायामनु भुः ।।२५
मह ष क वने वनम ही राजकुमारके जातकम आ द सं कार व धपूवक स प कये।
वह बालक बचपनम ही इतना बलवान् था क बड़े-बड़े सह को बलपूवक बाँध लेता और
उनसे खेला करता ।।१८।।
वह बालक भगवान्का अंशांशावतार था। उसका बल- व म अप र मत था। उसे अपने
साथ लेकर रमणीर न शकु तला अपने प तके पास गयी ।।१९।। जब राजा य तने अपनी
नद ष प नी और पु को वीकार नह कया, तब जसका व ा नह द ख रहा था और जसे
सब लोग ने सुना, ऐसी आकाशवाणी ई ।।२०।। ‘पु उ प करनेम माता तो केवल
ध कनीके समान है। वा तवम पु पताका ही है। य क पता ही पु के पम उ प होता
है। इस लये य त! तुम शकु तलाका तर कार न करो, अपने पु का भरण-पोषण
करो ।।२१।। राजन्! वंशक वृ करनेवाला पु अपने पताको नरकसे उबार लेता है।
शकु तलाका कहना बलकुल ठ क है। इस गभको धारण करानेवाले तु ह हो’ ।।२२।।
परी त्! पता य तक मृ यु हो जानेके बाद वह परम यश वी बालक च वत स ाट्
आ। उसका ज म भगवान्के अंशसे आ था। आज भी पृ वीपर उसक म हमाका गान
कया जाता है ।।२३।। उसके दा हने हाथम च का च था और पैर म कमल-कोषका।
महा भषेकक व धसे राजा धराजके पद-पर उसका अ भषेक आ। भरत बड़ा श शाली
राजा था ।।२४।। भरतने ममताके पु द घतमा मु नको पुरो हत बनाकर गंगातटपर
गंगासागरसे लेकर गंगो ी-पय त पचपन प व अ मेध य कये। और इसी कार
यमुनातटपर भी यागसे लेकर यमुनो ीतक उ ह ने अठह र अ मेध य कये। इन सभी
य म उ ह ने अपार धनरा शका दान कया था। य तकुमार भरतका य ीय अ न थापन
बड़े ही उ म गुणवाले थानम कया गया था। उस थानम भरतने इतनी गौएँ दान द थ क
एक हजार ा ण म येक ा णको एक-एक ब (१३०८४) गौएँ मली थ ।।२५-२६।।
इस कार राजा भरतने उन य म एक सौ ततीस (५५+७८) घोड़े बाँधकर (१३३ य
करके) सम त नरप तय को असीम आ यम डाल दया। इन य के ारा इस लोकम तो
राजा भरतको परम यश मला ही, अ तम उ ह ने मायापर भी वजय ा त क और
दे वता के परमगु भगवान् ीह रको ा त कर लया ।।२७।। य म एक कम होता है
‘म णार’। उसम भरतने सुवणसे वभू षत, ेत दाँत वाले तथा काले रंगके चौदह लाख हाथी
दान कये ।।२८।। भरतने जो महान् कम कया, वह न तो पहले कोई राजा कर सका था
और न तो आगे ही कोई कर सकेगा। या कभी कोई हाथसे वगको छू सकता है? ।।२९।।
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भरतने द वजयके समय करात, ण, यवन, अ , कंक, खश, शक और ले छ आ द
सम त ा ण ोही राजा को मार डाला ।।३०।। पहले युगम बलवान् असुर ने दे वता पर
वजय ा त कर ली थी और वे रसातलम रहने लगे थे। उस समय वे ब त-सी दे वांगना को
रसातलम ले गये थे। राजा भरतने फरसे उ ह छु ड़ा दया ।।३१।। उनके रा यम पृ वी और
आकाश जाक सारी आव यकताएँ पूण कर दे ते थे। भरतने स ाईस हजार वषतक सम त
दशा का एकछ शासन कया ।।३२।। अ तम सावभौम स ाट् भरतने यही न य कया
क लोकपाल को भी च कत कर दे नेवाला ऐ य, सावभौम स प , अख ड शासन और यह
जीवन भी म या ही है। यह न य करके वे संसारसे उदासीन हो गये ।।३३।।

अ स त तमे या ान् बब ध ददद् वसु ।


भरत य ह दौ य तेर नः साचीगुणे चतः ।
सह ं ब शो य मन् ा णा गा वभे जरे ।।२६

य ंश छतं ान् बद् वा व मापयन् नृपान् ।


दौ य तर यगा मायां दे वानां गु माययौ ।।२७

मृगा छु लदतः कृ णान् हर येन परीवृतान् ।


अदात् कम ण म णारे नयुता न चतुदश ।।२८

भरत य महत् कम न पूव नापरे नृपाः ।


नैवापुनव ा य त बा यां दवं यथा ।।२९

करात णान् यवनान ान् कंकान् खशा छकान् ।


अ यान् नृपां ाहन् ले छान् द वजयेऽ खलान् ।।३०

ज वा पुरासुरा दे वान् ये रसौकां स भे जरे ।


दे व यो रसां नीताः ा ण भः पुनराहरत् ।।३१

सवकामान् हतुः जानां त य रोदसी ।


समा णवसाह ी द ु च मवतयत् ।।३२

स स ाड् लोकपाला यमै यम धराट् यम् ।


च ं चा ख लतं ाणान् मृषे युपरराम ह ।।३३

त यासन् नृप वैद यः प य त ः सुस मताः ।

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ज नु यागभयात् पु ान् नानु पा इती रते ।।३४

त यैवं वतथे वंशे तदथ यजतः सुतम् ।


म तोमेन म तो भर ाजमुपाद ः ।।३५

अ तव यां ातृप यां मैथुनाय बृह प तः ।


वृ ो वा रतो गभ श वा वीयमवासृजत् ।।३६

तं य ु कामां ममतां भतृ याग वशं कताम् ।


नाम नवचनं त य ोकमेनं सुरा जगुः ।।३७

मूढे भर ाज ममं भर ाजं बृह पते ।


यातौ य वा पतरौ भर ाज तत वयम् ।।३८

चो माना सुरैरेवं म वा वतथमा मजम् ।


सृजन् म तोऽ ब न् द ोऽयं वतथेऽ वये ।।३९
परी त्! वदभराजक तीन क याएँ स ाट् भरतक प नयाँ थ । वे उनका बड़ा आदर
भी करते थे। पर तु जब भरतने उनसे कह दया क तु हारे पु मेरे अनु प नह ह, तब वे
डर गय क कह स ाट् हम याग न द। इस लये उ ह ने अपने ब च को मार डाला ।।३४।।
इस कार स ाट् भरतका वंश वतथ अथात् व छ होने लगा। तब उ ह ने स तानके लये
‘म तोम’ नामका य कया। इससे म द्गण ने स होकर भरतको भर ाज नामका पु
दया ।।३५।। भर ाजक उ प का संग यह है क एक बार बृह प तजीने अपने भाई
उत यक गभवती प नीसे मैथुन करना चाहा। उस समय गभम जो बालक (द घतमा) था,
उसने मना कया। क तु बृह प तजीने उसक बातपर यान न दया और उसे ‘तू अंधा हो
जा’ यह शाप दे कर बलपूवक गभाधान कर दया ।।३६।। उत यक प नी ममता इस बातसे
डर गयी क कह मेरे प त मेरा याग न कर द। इस लये उसने बृह प तजीके ारा होनेवाले
लड़केको याग दे ना चाहा। उस समय दे वता ने गभ थ शशुके नामका नवचन करते ए
यह कहा ।।३७।। बृह प तजी कहते ह क ‘अरी मूढे! यह मेरा औरस और मेरे भाईका े ज
—इस कार दोन का पु ( ाज) है; इस लये तू डर मत, इसका भरण-पोषण कर (भर)।’
इसपर ममताने कहा—‘बृह पते! यह मेरे प तका नह , हम दोन का ही पु है; इस लये तु ह
इसका भरण-पोषण करो।’ इस कार आपसम ववाद करते ए माता- पता दोन ही इसको
छोड़कर चले गये। इस लये इस लड़केका नाम ‘भर ाज’ आ ।।३८।। दे वता के ारा
नामका ऐसा नवचन होनेपर भी ममताने यही समझा क मेरा यह पु वतथ अथात्
अ यायसे पैदा आ है। अतः उसने उस ब चेको छोड़ दया। अब म द्गण ने उसका पालन
कया और जब राजा भरतका वंश न होने लगा, तब उसे लाकर उनको दे दया। यही वतथ

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(भर ाज) भरतका द क पु आ ।।३९।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां नवम क धे वशोऽ यायः ।।२०।।

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अथैक वशोऽ यायः
भरतवंशका वणन, राजा र तदे वक कथा
ीशुक उवाच
वतथ य सुतो म युबृह ो जय ततः ।
महावीय नरो गगः संकृ त तु नरा मजः ।।१

गु र तदे व संकृतेः पा डु न दन ।
र तदे व य ह यश इहामु च गीयते ।।२

वय य ददतो ल धं ल धं बुभु तः ।
न कंचन य धीर य सकुटु ब य सीदतः ।।३

तीयुर च वा रशदहा य पबतः कल ।


घृतपायससंयावं तोयं ात प थतम् ।।४

कृ ा तकुटु ब य ु ृड् यां जातवेपथोः ।


अ त थ ा णः काले भो ु काम य चागमत् ।।५

त मै सं भजत् सोऽ मा य या वतः ।


ह र सव संप यन् स भु वा ययौ जः ।।६

अथा यो भो यमाण य वभ य महीपते ।


वभ ं भजत् त मै वृषलाय ह र मरन् ।।७

याते शू े तम योऽगाद त थः भरावृतः ।


राजन् मे द यताम ं सगणाय बुभु ते ।।८
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! वतथ अथवा भर ाजका पु था म यु। म युके
पाँच पु ए—बृह , जय, महावीय, नर और गग। नरका पु था संकृ त ।।१।। संकृ तके
दो पु ए—गु और र तदे व। परी त्! र तदे वका नमल यश इस लोक और परलोकम
सब जगह गाया जाता है ।।२।। र तदे व आकाशके समान बना उ ोगके ही दै ववश ा त
व तुका उपभोग करते और दन दन उनक पूँजी घटती जाती। जो कुछ मल जाता उसे भी
दे डालते और वयं भूखे रहते। वे सं ह-प र ह, ममतासे र हत तथा बड़े धैयशाली थे और
अपने कुटु बके साथ ःख भोग रहे थे ।।३।। एक बार तो लगातार अड़तालीस दन ऐसे बीत
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गये क उ ह पानीतक पीनेको न मला। उनचासव दन ातःकाल ही उ ह कुछ घी, खीर,
हलवा और जल मला ।।४।। उनका प रवार बड़े संकटम था। भूख और यासके मारे वे लोग
काँप रहे थे। पर तु य ही उन लोग ने भोजन करना चाहा, य ही एक ा ण अ त थके
पम आ गया ।।५।। र तदे व सबम ीभगवान्के ही दशन करते थे। अतएव उ ह ने बड़ी
ासे आदरपूवक उसी अ मसे ा णको भोजन कराया। ा णदे वता भोजन करके चले
गये ।।६।।
परी त्! अब बचे ए अ को र तदे वने आपसम बाँट लया और भोजन करना चाहा।
उसी समय एक सरा शू -अ त थ आ गया। र तदे वने भगवान्का मरण करते ए उस बचे
ए अ मसे भी कुछ भाग शू के पम आये अ त थको खला दया ।।७।।
जब शू खा-पीकर चला गया, तब कु को लये ए एक और अ त थ आया। उसने
कहा—‘राजन्! म और मेरे ये कु े ब त भूखे ह। हम कुछ खानेको द जये’ ।।८।। र तदे वने
अ य त आदरभावसे, जो कुछ बच रहा था, सब-का-सब उसे दे दया और भगव मय होकर
उ ह ने कु े और कु के वामीके पम आये ए भगवान्को नम कार कया ।।९।। अब
केवल जल ही बच रहा था और वह भी केवल एक मनु यके पीनेभरका था। वे उसे आपसम
बाँटकर पीना ही चाहते थे क एक चा डाल और आ प ँचा। उसने कहा—‘म अ य त नीच
ँ। मुझे जल पला द जये’ ।।१०।। चा डालक वह क णापूण वाणी जसके उ चारणम
भी वह अ य त क पा रहा था, सुनकर र तदे व दयासे अ य त स त त हो उठे और ये
अमृतमय वचन कहने लगे ।।११।। ‘म भगवान्से आठ स य से यु परम ग त नह
चाहता। और तो या, म मो क भी कामना नह करता। म चाहता ँ तो केवल यही क म
स पूण ा णय के दयम थत हो जाऊँ और उनका सारा ःख म ही सहन क ँ , जससे
और कसी भी ाणीको ःख न हो ।।१२।। यह द न ाणी जल पी करके जीना चाहता था।
जल दे दे नेसे इसके जीवनक र ा हो गयी। अब मेरी भूख- यासक पीड़ा, शरीरक
श थलता, द नता, ला न, शोक, वषाद और मोह—ये सब-के-सब जाते रहे। म सुखी हो
गया’ ।।१३।। इस कार कहकर र तदे वने वह बचा आ जल भी उस चा डालको दे दया।
य प जलके बना वे वयं मर रहे थे, फर भी वभावसे ही उनका दय इतना क णापूण
था क वे अपनेको रोक न सके। उनके धैयक भी कोई सीमा है? ।।१४।। परी त्! ये
अ त थ वा तवम भगवान्क रची ई मायाके ही व भ प थे। परी ा पूरी हो जानेपर
अपने भ क अ भलाषा पूण करनेवाले भुवन वामी ा, व णु और महेश—तीन
उनके सामने कट हो गये ।।१५।। र तदे वने उनके चरण म नम कार कया। उ ह कुछ लेना
तो था नह । भगवान्क कृपासे वे आस और पृहासे भी र हत हो गये तथा परम ेममय
भ भावसे अपने मनको भगवान् वासुदेवम त मय कर दया। कुछ भी माँगा नह ।।१६।।
परी त्! उ ह भगवान्के सवा और कसी भी व तुक इ छा तो थी नह , उ ह ने अपने
मनको पूण पसे भगवान्म लगा दया। इस लये गुणमयी माया जागनेपर व - यके
समान न हो गयी ।।१७।। र तदे वके अनुयायी भी उनके संगके भावसे योगी हो गये और
सब भगवान्के ही आ त परम भ बन गये ।।१८।।
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स आ याव श ं यद् ब मानपुर कृतम् ।
त च द वा नम े यः पतये वभुः ।।९

पानीयमा मु छे षं त चैकप रतपणम् ।


पा यतः पु कसोऽ यागादपो दे शुभ य मे ।।१०

त य तां क णां वाचं नश य वपुल माम् ।


कृपया भृशस त त इदमाहामृतं वचः ।।११

न कामयेऽहं ग तमी रात् परा-


म यु ामपुनभवं वा ।
आ त प ेऽ खलदे हभाजा-
म तः थतो येन भव य ःखाः ।।१२

ु ृट् मो गा प र म
दै यं लमः शोक वषादमोहाः ।
सव नवृ ाः कृपण य ज तो-
जजी वषोज वजलापणा मे ।।१३

इ त भा य पानीयं यमाणः पपासया ।


पु कसायाददा रो नसगक णो नृपः ।।१४

त य भुवनाधीशाः फलदाः फल म छताम् ।


आ मानं दशया च ु माया व णु व न मताः ।।१५

स वै ते यो नम कृ य नःसंगो वगत पृहः ।


वासुदेवे भगव त भ या च े मनः परम् ।।१६

ई राल बनं च ं कुवतोऽन यराधसः ।


माया गुणमयी राजन् व वत् यलीयत ।।१७

त संगानुभावेन र तदे वानुव तनः ।


अभवन् यो गनः सव नारायणपरायणाः ।।१८

गगा छ न ततो गा यः ाद् वतत ।

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रत यो महावीयात् त य या णः क वः ।।१९

पु करा ण र य ये ा णग त गताः ।
बृह य पु ोऽभू ती य तनापुरम् ।।२०

अजमीढो मीढ पु मीढ ह तनः ।


अजमीढ य वं याः युः यमेधादयो जाः ।।२१

अजमीढाद् बृह दषु त य पु ो बृह नुः ।


बृह काय तत त य पु आसी जय थः ।।२२

त सुतो वशद त य सेन जत् समजायत ।


चरा ो ढहनुः का यो व स त सुताः ।।२३

चरा सुतः पारः पृथुसेन तदा मजः ।


पार य तनयो नीप त य पु शतं वभूत् ।।२४

स कृ ां शुकक यायां द मजीजनत् ।


स योगी ग व भायायां व व सेनमधात् सुतम् ।।२५

जैगीष ोपदे शेन योगत ं चकार ह ।


उद वन तत त माद् भ लादो बाहद षवाः ।।२६
म युपु गगसे श न और श नसे गा यका ज म आ। य प गा य य था, फर भी
उससे ा णवंश चला। महावीयका पु था रत य। रत यके तीन पु ए— या ण,
क व और पु करा ण। ये तीन ा ण हो गये। बृह का पु आ ह ती, उसीने
ह तनापुर बसाया था ।।१९-२०।। ह तीके तीन पु थे—अजमीढ, मीढ और पु मीढ।
अजमीढके पु म यमेध आ द ा ण ए ।।२१।। इ ह अजमीढके एक पु का नाम था
बृह दषु। बृह दषुका पु आ बृह नु, बुह नुका बृह काय और बृह कायका जय थ
आ ।।२२।। जय थका पु आ वशद और वशदका सेन जत्। सेन जत्के चार पु ए—
चरा , ढहनु, का य और व स ।।२३।। चरा का पु पार था और पारका पृथुसेन।
पारके सरे पु का नाम नीप था। उसके सौ पु थे ।।२४।। इसी नीपने (छाया)* शुकक
क या कृ वीसे ववाह कया था। उससे द नामक पु उ प आ। द बड़ा योगी
था। उसने अपनी प नी सर वतीके गभसे व वक्सेन नामक पु उ प कया ।।२५।। इसी
व वक्सेनने जैगीष के उपदे शसे योगशा क रचना क । व वक्सेनका पु था उदक् वन
और उदक् वनका भ लाद। ये सब बृह दषुके वंशज ए ।।२६।।
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यवीनरो मीढ य कृ तमां त सुतः मृतः ।
ना ना स यधृ तय य ढने मः सुपा कृत् ।।२७

सुपा ात् सुम त त य पु ः स तमां ततः ।


कृ त हर यनाभाद् यो योगं ा य जगौ म षट् ।।२८

सं हताः ा यसा नां वै नीपो ायुध ततः ।


त य े यः सुवीरोऽथ सुवीर य रपुंजयः ।।२९

ततो ब रथो नाम पु मीढोऽ जोऽभवत् ।


न ल यामजमीढ य नीलः शा तः सुत ततः ।।३०

शा तेः सुशा त त पु ः पु जोऽक ततोऽभवत् ।


भ या तनय त य पंचास मुदगलादयः
् ।।३१

यवीनरो बृह दषुः का प यः संजयः सुताः ।


भ या ः ाह पु ा मे पंचानां र णाय ह ।।३२

वषयाणामल ममे इ त पंचालसं ताः ।


मुदगलाद्
् नवृ ं गो ं मौद्ग यसं तम् ।।३३

मथुनं मुदगलाद्
् भा याद् दवोदासः पुमानभूत् ।
अह या क यका य यां शतान द तु गौतमात् ।।३४

त य स यधृ तः पु ो धनुवद वशारदः ।


शर ां त सुतो य मा वशीदशनात् कल ।।३५

शर त बेऽपतद् रेतो मथुनं तदभू छु भम् ।


तद् ् वा कृपयागृ ा छ तनुमृगयां चरन् ।
कृपः कुमारः क या च ोणप यभवत् कृपी ।।३६
मीढका पु था यवीनर, यवीनरका कृ तमान्, कृ तमान्का स यधृ त, स यधृ तका
ढने म और ढने मका पु सुपा आ ।।२७।। सुपा से सुम त, सुम तसे स तमान् और
स तमान्से कृ तका ज म आ। उसने हर यनाभसे योग व ा ा त क थी और
‘ ा यसाम’ नामक ऋचा क छः सं हताएँ कही थ । कृ तका पु नीप था, नीपका उ ायुध,
उ ायुधका े य, े यका सुवीर और सुवीरका पु था रपुंजय ।।२८-२९।। रपुंजयका पु
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था ब रथ। मीढके भाई पु मीढको कोई स तान न ई। अजमीढक सरी प नीका नाम
था न लनी। उसके गभसे नीलका ज म आ। नीलका शा त, शा तका सुशा त, सुशा तका
पु ज, पु जका अक और अकका पु आ भ या । भ या के पाँच पु थे—मुदगल, ्
यवीनर, बृह दषु, का प य और संजय। भ या ने कहा—‘ये मेरे पु पाँच दे श का शासन
करनेम समथ (पंच अलम्) ह।’ इस लये ये ‘पंचाल’ नामसे स ए। इनम मुदगलसे

‘मौद्ग य’ नामक ा णगो क वृ ई ।।३०-३३।।
भ या के पु मुदगलसे
् यमज (जुड़वाँ) स तान ई। उनम पु का नाम था दवोदास
और क याका अह या। अह याका ववाह मह ष गौतमसे आ। गौतमके पु ए
शतान द ।।३४।। शतान दका पु स यधृ त था, वह धनु व ाम अ य त नपुण था।
स यधृ तके पु का नाम था शर ान्। एक दन उवशीको दे खनेसे शर ान्का वीय मूँजके
झाड़पर गर पड़ा, उससे एक शुभ ल णवाले पु और पु ीका ज म आ। महाराज
श तनुक उसपर पड़ गयी, य क वे उधर शकार खेलनेके लये गये ए थे। उ ह ने
दयावश दोन को उठा लया। उनम जो पु था, उसका नाम कृपाचाय आ और जो क या
थी, उसका नाम आ कृपी। यही कृपी ोणाचायक प नी ई ।।३५-३६।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां नवम क धे एक वशोऽ यायः ।।२१।।

* ीशुकदे वजी असंग थे पर वे वन जाते समय एक छाया शुक रचकर छोड़ गये थे। उस
छाया शुकने ही गृह थो चत वहार कये थे।

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अथ ा वशोऽ यायः
पांचाल, कौरव और मगधदे शीय राजा के वंशका वणन
ीशुक उवाच
म ेयु दवोदासा यवन त सुतो नृप ।
सुदासः सहदे वोऽथ सोमको ज तुज मकृत् ।।१
त य पु शतं तेषां यवीयान् पृषतः सुतः ।
पदो ौपद त य धृ ु नादयः सुताः ।।२
धृ ु नाद् धृ केतुभा याः पंचालका इमे ।
योऽजमीढसुतो य ऋ ः संवरण ततः ।।३
तप यां सूयक यायां कु े प तः कु ः ।
परी त् सुधनुज नषधा ः कुरोः सुताः ।।४
सुहो ोऽभूत् सुधनुष यवनोऽथ ततः कृती ।
वसु त योप रचरो बृह थमुखा ततः ।।५
कुशा बम य य चे दपा ा चे दपाः ।
बृह थात् कुशा ोऽभू षभ त य त सुतः ।।६
ज े स य हतोऽप यं पु पवां त सुतो ज ः ।
अ य यां चा प भायायां शकले े बृह थात् ।।७
ते मा ा ब ह सृ े जरया चा भस धते ।
जीव जीवे त ड या जरास धोऽभवत् सुतः ।।८
तत सहदे वोऽभूत् सोमा पय छत वाः ।
परी दनप योऽभूत् सुरथो नाम जा वः ।।९
ततो व रथ त मात् सावभौम ततोऽभवत् ।
जयसेन त नयो रा धकोऽतोऽयुतो भूत् ।।१०
तत ोधन त माद् दे वा त थरमु य च ।
ऋ य त य दलीपोऽभूत् तीप त य चा मजः ।।११
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! दवोदासका पु था म ेयु। म ेयुके चार पु
ए— यवन, सुदास, सहदे व और सोमक। सोमकके सौ पु थे, उनम सबसे बड़ा ज तु
और सबसे छोटा पृषत था। पृषतके पु पद थे, पदके ौपद नामक पु ी और
धृ ु न आ द पु ए ।।१-२।। धृ ु नका पु था धृ केतु। भ या के वंशम उ प
ए ये नरप त ‘पांचाल’ कहलाये। अजमीढका सरा पु था ऋ । उनके पु ए
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संवरण ।।३।। संवरणका ववाह सूयक क या तपतीसे आ। उ ह के गभसे कु े के
वामी कु का ज म आ। कु के चार पु ए—परी त्, सुध वा, ज और
नषधा ।।४।।
सुध वासे सुहो , सुहो से यवन, यवनसे कृती, कृतीसे उप रचरवसु और
उप रचरवसुसे बृह थ आ द कई पु उ प ए ।।५।। उनम बृह थ, कुशा ब, म य,
य और चे दप आ द चे ददे शके राजा ए। बृह थका पु था कुशा , कुशा का
ऋषभ, ऋषभका स य हत, स य हतका पु पवान् और पु पवान्के ज नामक पु
आ। बृह थक सरी प नीके गभसे एक शरीरके दो टु कड़े उ प ए ।।६-७।।
उ ह माताने बाहर फकवा दया। तब ‘जरा’ नामक रा सीने ‘ जयो, जयो’ इस
कार कहकर खेल-खेलम उन दोन टु कड़ को जोड़ दया। उसी जोड़े ए बालकका
नाम आ जरास ध ।।८।। जरास धका सहदे व, सहदे वका सोमा प और सोमा पका
पु आ ुत वा। कु के ये पु परी त्के कोई स तान न ई। ज का पु था
सुरथ ।।९।। सुरथका व रथ, व रथका सावभौम, सावभौमका जयसेन, जयसेनका
रा धक और रा धकका पु आ अयुत ।।१०।। अयुतका ोधन, ोधनका दे वा त थ,
दे वा त थका ऋ य, ऋ यका दलीप और दलीपका पु तीप आ ।।११।। तीपके
तीन पु थे—दे वा प, श तनु और बा क। दे वा प अपना पैतृक रा य छोड़कर वनम
चला गया ।।१२।। इस लये उसके छोटे भाई श तनु राजा ए। पूवज मम श तनुका
नाम महा भष था। इस ज मम भी वे अपने हाथ से जसे छू दे ते थे, वह बूढ़ेसे जवान हो
जाता था ।।१३।। उसे परम शा त मल जाती थी। इसी करामातके कारण उनका नाम
‘श तनु’ आ। एक बार श तनुके रा यम बारह वषतक इ ने वषा नह क । इसपर
ा ण ने श तनुसे कहा क ‘तुमने अपने बड़े भाई दे वा पसे पहले ही ववाह, अ नहो
और राजपदको वीकार कर लया, अतः तुम प रवे ा* हो; इसीसे तु हारे रा यम वषा
नह होती। अब य द तुम अपने नगर और रा क उ त चाहते हो, तो शी -से-शी
अपने बड़े भाईको रा य लौटा दो’ ।।१४-१५।। जब ा ण ने श तनुसे इस कार
कहा, तब उ ह ने वनम जाकर अपने बड़े भाई दे वा पसे रा य वीकार करनेका अनुरोध
कया। पर तु श तनुके म ी अ मरातने पहलेसे ही उनके पास कुछ ऐसे ा ण भेज
दये थे, जो वेदको षत करनेवाले वचन से दे वा पको वेदमागसे वच लत कर चुके थे।
इसका फल यह आ क दे वा प वेद के अनुसार गृह था म वीकार करनेक जगह
उनक न दा करने लगे। इस लये वे रा यके अ धकारसे वं चत हो गये और तब
श तनुके रा यम वषा ई। दे वा प इस समय भी योगसाधना कर रहे ह और यो गय के
स नवास थान कलाप ामम रहते ह ।।१६-१७।। जब क लयुगम च वंशका नाश
हो जायगा, तब स ययुगके ार भम वे फर उसक थापना करगे। श तनुके छोटे भाई
बा कका पु आ सोमद । सोमद के तीन पु ए—भू र, भू र वा और शल।
श तनुके ारा गंगाजीके गभसे नै क चारी भी मका ज म आ। वे सम त
धम के सरमौर, भगवान्के परम ेमी भ और परम ानी थे ।।१८-१९।। वे
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संसारके सम त वीर के अ ग य नेता थे। और क तो बात ही या, उ ह ने अपने गु
भगवान् परशुरामको भी यु म स तु कर दया था। श तनुके ारा दाशराजक क या*
के गभसे दो पु ए— च ांगद और व च वीय। च ांगदको च ांगद नामक ग धवने
मार डाला। इसी दाशराजक क या स यवतीसे पराशरजीके ारा मेरे पता, भगवान्के
कलावतार वयं भगवान् ीकृ ण ै पायन ासजी अवतीण ए थे। उ ह ने वेद क
र ा क । परी त्! मने उ ह से इस ीम ागवतपुराणका अ ययन कया था। यह
पुराण परम गोपनीय—अ य त रह यमय है। इसीसे मेरे पता भगवान् ासजीने अपने
पैल आ द श य को इसका अ ययन नह कराया, मुझे ही इसके यो य अ धकारी
समझा! एक तो म उनका पु था और सरे शा त आ द गुण भी मुझम वशेष पसे
थे। श तनुके सरे पु व च वीयने का शराजक क या अ बका और अ बा लकासे
ववाह कया। उन दोन को भी मजी वयंवरसे बलपूवक ले आये थे। व च वीय
अपनी दोन प नय म इतना आस हो गया क उसे राजय मा रोग हो गया और
उसक मृ यु हो गयी ।।२०-२४।। माता स यवतीके कहनेसे भगवान् ासजीने अपने
स तानहीन भाईक य से धृतरा और पा डु दो पु उ प कये। उनक दासीसे
तीसरे पु व रजी ए ।।२५।।

दे वा पः श तनु त य बा क इ त चा मजाः ।
पतृरा यं प र य य दे वा प तु वनं गतः ।।१२

अभव छ तनू राजा ाङ् महा भषसं तः ।


यं यं करा यां पृश त जीण यौवनमे त सः ।।१३

शा तमा ो त चैवा यां कमणा तेन श तनुः ।


समा ादश त ा ये न ववष यदा वभुः ।।१४

श तनु ा णै ः प रवे ायम भुक् ।


रा यं दे जायाशु पुररा ववृ ये ।।१५

एवमु ो जै य ं छ दयामास सोऽ वीत् ।


तम हतै व ैवदाद् व ं शतो गरा ।।१६

वेदवादा तवादान् वै तदा दे वो ववष ह ।


दे वा पय गमा थाय कलाप ाममा तः ।।१७

सोमवंशे कलौ न े कृतादौ थाप य य त ।

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बा कात् सोमद ोऽभूद ् भू रभू र वा ततः ।।१८

शल श तनोरासीद् गंगायां भी म आ मवान् ।


सवधम वदां े ो महाभागवतः क वः ।।१९

वीरयूथा णीयन रामोऽ प यु ध तो षतः ।


श तनोदाशक यायां ज े च ांगदः सुतः ।।२०

व च वीय ावरजो ना ना च ांगदो हतः ।


य यां पराशरात् सा ादवतीण हरेः कला ।।२१

वेदगु तो मु नः कृ णो यतोऽह मदम यगाम् ।


ह वा व श यान् पैलाद न् भगवान् बादरायणः ।।२२

म ं पु ाय शा ताय परं गु मदं जगौ ।


व च वीय ऽथोवाह का शराजसुते बलात् ।।२३

वयंवरा पानीते अ बका बा लके उभे ।


तयोरास दयो गृहीतो य मणा मृतः ।।२४

े ेऽ ज य वै ातुमा ो ो बादरायणः ।
धृतरा ं च पा डु ं च व रं चा यजीजनत् ।।२५

गा धाया धृतरा य ज े पु शतं नृप ।


त य धनो ये ो ःशला चा प क यका ।।२६

शापा मैथुन य पा डोः कु यां महारथाः ।


जाता धमा नले े यो यु ध रमुखा यः ।।२७
परी त्! धृतरा क प नी थी गा धारी। उसके गभसे सौ पु ए, उनम सबसे
बड़ा था य धन। क याका नाम था ःशला ।।२६।। पा डु क प नी थी कु ती। शापवश
पा डु ी-सहवास नह कर सकते थे। इस लये उनक प नी कु तीके गभसे धम, वायु
और इ के ारा मशः यु ध र, भीमसेन और अजुन नामके तीन पु उ प ए। ये
तीन -के-तीन महारथी थे ।।२७।।

नकुलः सहदे व मा यां नास यद योः ।

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ौप ां पंच पंच यः पु ा ते पतरोऽभवन् ।।२८
यु ध रात् त व यः ुतसेनो वृकोदरात् ।
अजुना छतक त तु शतानीक तु नाकु लः ।।२९
सहदे वसुतो राज छतकमा तथापरे ।
यु ध रात् तु पौर ां दे वकोऽथ घटो कचः ।।३०
भीमसेना ड बायां का यां सवगत ततः ।
सहदे वात् सुहो ं तु वजयासूत पावती ।।३१
करेणुम यां नकुलो नर म ं तथाजुनः ।
इराव तमुलू यां वै सुतायां ब ुवाहनम् ।
म णपूरपतेः सोऽ प त पु ः पु कासुतः ।।३२
तव तातः सुभ ायाम भम युरजायत ।
सवा तरथ जद् वीर उ रायां ततो भवान् ।।३३
प र ीणेषु कु षु ौणे ा तेजसा ।
वं च कृ णानुभावेन सजीवो मो चतोऽ तकात् ।।३४
तवेमे तनया तात जनमेजयपूवकाः ।
ुतसेनो भीमसेन उ सेन वीयवान् ।।३५
जनमेजय वां व द वा त का धनं गतम् ।
सपान् वै सपयागा नौ स हो य त षा वतः ।।३६
कावषेयं पुरोधाय तुरं तुरगमेधयाट् ।
सम तात् पृ थव सवा ज वा य य त चा वरैः ।।३७
त य पु ः शतानीको या व यात् य पठन् ।
अ ानं या ानं शौनकात् परमे य त ।।३८
पा डु क सरी प नीका नाम था मा । दोन अ नीकुमार के ारा उसके गभसे
नकुल और सहदे वका ज म आ। परी त! इन पाँच पा डव के ारा ौपद के गभसे
तु हारे पाँच चाचा उ प ए ।।२८।। इनमसे यु ध रके पु का नाम था त व य,
भीमसेनका पु था ुतसेन, अजुनका ुतक त, नकुलका शतानीक और सहदे वका
ुतकमा। इनके सवा यु ध रके पौरवी नामक प नीसे दे वक और भीमसेनके
ह ड बासे घटो कच और कालीसे सवगत नामके पु ए। सहदे वके पवतकुमारी
वजयासे सुहो और नकुलके करेणुमतीसे नर म आ। अजुन ारा नागक या
उलूपीके गभसे इरावान् और म णपूर नरेशक क यासे ब ुवाहनका ज म आ।
ब ुवाहन अपने नानाका ही पु माना गया। य क पहलेसे ही यह बात तय हो चुक
थी ।।२९-३२।। अजुनक सुभ ा नामक प नीसे तु हारे पता अ भम युका ज म आ।
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वीर अ भम युने सभी अ तर थय को जीत लया था। अ भम युके ारा उ राके गभसे
तु हारा ज म आ ।।३३।। परी त्! उस समय कु वंशका नाश हो चुका था।
अ थामाके ा से तुम भी जल ही चुके थे, पर तु भगवान् ीकृ णने अपने
भावसे तु ह उस मृ युसे जीता-जागता बचा लया ।।३४।।
परी त्! तु हारे पु तो सामने ही बैठे ए ह—इनके नाम ह—जनमेजय, ुतसेन,
भीमसेन और उ सेन। ये सब-के-सब बड़े परा मी ह ।।३५।।
जब त कके काटनेसे तु हारी मृ यु हो जायगी, तब इस बातको जानकर जनमेजय
ब त ो धत होगा और यह सप-य क आगम सप का हवन करेगा ।।३६।। यह
कावषेय तुरको पुरो हत बनाकर अ मेध य करेगा और सब ओरसे सारी पृ वीपर
वजय ा त करके य के ारा भगवान्क आराधना करेगा ।।३७।।
जनमेजयका पु होगा शतानीक। वह या व य ऋ षसे तीन वेद और
कमका डक तथा कृपाचायसे अ व ाक श ा ा त करेगा एवं शौनकजीसे
आ म ानका स पादन करके परमा माको ा त होगा ।।३८।। शतानीकका
सह ानीक, सह ानीकका अ मेधज, अ मेधजका असीमकृ ण और असीमकृ णका
पु होगा ने मच ।।३९।। जब ह तनापुर गंगाजीम बह जायगा, तब वह
कौशा बीपुरीम सुखपूवक नवास करेगा। ने मच का पु होगा च रथ, च रथका
क वरथ, क वरथका वृ मान्, वृ मान्का राजा सुषेण, सुषेणका सुनीथ, सुनीथका
नृच ,ु नृच ुका सुखीनल, सुखीनलका प र लव, प र लवका सुनय, सुनयका मेधावी,
मेधावीका नृपंजय, नृपंजयका व और वका पु त म होगा ।।४०-४२।। त मसे
बृह थ, बृह थसे सुदास, सुदाससे शतानीक, शतानीकसे दमन, दमनसे वहीनर,
वहीनरसे द डपा ण, द डपा णसे न म और न मसे राजा ेमकका ज म होगा। इस
कार मने तु ह ा ण और य दोन के उ प थान सोमवंशका वणन सुनाया।
बड़े-बड़े दे वता और ऋ ष इस वंशका स कार करते ह ।।४३-४४।। यह वंश क लयुगम
राजा ेमकके साथ ही समा त हो जायगा। अब म भ व यम होनेवाले मगध दे शके
राजा का वणन सुनाता ँ ।।४५।।

सह ानीक त पु तत ैवा मेधजः ।


असीमकृ ण त या प ने मच तु त सुतः ।।३९
गजा ये ते न ा कौशा यां साधु व य त ।
उ तत रथ त मात् क वरथः सुतः ।।४०
त मा च वृ मां त य सुषेणोऽथ महीप तः ।
सुनीथ त य भ वता नृच ुयत् सुखीनलः ।।४१
प र लवः सुत त मा मेधावी सुनया मजः ।
नृपंजय ततो व त म त मा ज न य त ।।४२
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तमेबृह थ त मा छतानीकः सुदासजः ।
शतानीकाद् दमन त याप यं बहीनरः ।।४३
द डपा ण न म त य ेमको भ वता नृपः ।
य वै ो ो वंशो दे व षस कृतः ।।४४
ेमकं ा य राजानं सं थां ा य त वै कलौ ।
अथ मागधराजानो भ वतारो वदा म ते ।।४५
भ वता सहदे व य माजा रय छत वाः ।
ततोऽयुतायु त या प नर म ोऽथ त सुतः ।।४६
सुन ः सुन ाद् बृह सेनोऽथ कम जत् ।
ततः सृतंजयाद् व ः शु च त य भ व य त ।।४७
ेमोऽथ सु त त माद् धमसू ः शम ततः ।
ुम सेनोऽथ सुम तः सुबलो ज नता ततः ।।४८
सुनीथः स य जदथ व जद् यद् रपुंजयः ।
बाह था भूपाला भा ाः साह व सरम् ।।४९
जरास धके पु सहदे वसे माजा र, माजा रसे ुत वा, ुत वासे अयुतायु और
अयुतायुसे नर म नामक पु होगा ।।४६।। नर म के सुन , सुन के बृह सेन,
बृह सेनके कम जत्, कम जत्के सृतंजय, सृतंजयके व और व के पु का नाम होगा
शु च ।।४७।। शु चसे ेम, ेमसे सु त, सु तसे धमसू , धमसू से शम, शमसे
ुम सेन, ुम सेनसे सुम त और सुम तसे सुबलका ज म होगा ।।४८।। सुबलका
सुनीथ, सुनीथका स य जत्, स य जत्का व जत् और व जत्का पु रपुंजय
होगा। ये सब बृह थवंशके राजा ह गे। इनका शासनकाल एक हजार वषके भीतर ही
होगा ।।४९।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां नवम क धे ा वशोऽ यायः ।।२२।।

* दारा नहो संयोगं कु ते योऽ जे थते । प रवे ा स व ेयः प र व तु


पूवजः ।।
अथात् जो पु ष अपने बड़े भाईके रहते ए उससे पहले ही ववाह और
अ नहो का संयोग करता है उसे प रवे ा जानना चा हये और उसका बड़ा भाई
प र व कहलाता है।

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* यह क या वा तवम उप रचरवसुके वीयसे मछलीके गभसे उ प ई थी क तु
दाश (केवट )-के ारा पा लत होनेसे वह केवट क क या कहलायी।

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अथ यो वशोऽ यायः
अनु, , तुवसु और य के वंशका वणन
ीशुक उवाच
अनोः सभानर ुः परो यः सुताः ।
सभानरात् कालनरः सृंजय त सुत ततः ।।१
जनमेजय त य पु ो महाशीलो महामनाः ।
उशीनर त त ु महामनस आ मजौ ।।२
श बवनः श मद वारोशीनरा मजाः ।
वृषादभः सुवीर म ः कैकेय आ मजाः ।।३
शबे वार एवासं त त ो श थः ।
ततो हेमोऽथ सुतपा ब लः सुतपसोऽभवत् ।।४
अंगवंगक लगा ाः सु पु ा सं ताः ।
ज रे द घतमसो बलेः े े मही तः ।।५
च ु ः वना ना वषयान् ष डमान् ा यकां ते ।
खनपानोऽ तो ज े त माद् द वरथ ततः ।।६
सुतो धमरथो य य ज े च रथोऽ जाः ।
रोमपाद इ त यात त मै दशरथः सखा ।।७
शा तां वक यां ाय छ यशृ उवाह ताम् ।
दे वेऽवष त यं रामा आ न युह रणीसुतम् ।।८
ना संगीतवा द ै व मा लगनाहणैः ।
स तु रा ोऽनप य य न ये म वतः ।।९
जामदाद् दशरथो येन लेभेऽ जाः जाः ।
चतुरंगो रोमपादात् पृथुला तु त सुतः ।।१०
बृह थो बृह कमा बृह ानु त सुताः ।
आ ाद् बृह मना त मा जय थ उदा तः ।।११
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! यया त-न दन अनुके तीन पु ए—सभानर, च ु
और परो । सभानरका कालनर, कालनरका सृंजय, सृंजयका जनमेजय, जनमेजयका
महाशील, महाशीलका पु आ महामना। महामनाके दो पु ए—उशीनर एवं
त त ु ।।१-२।। उशीनरके चार पु थे— श ब, वन, शमी और द । श बके चार पु ए—
बृषादभ, सुवीर, म और कैकेय। उशीनरके भाई त त ुके श थ, श थके हेम, हेमके
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सुतपा और सुतपाके ब ल नामक पु आ ।।३-४।।
राजा ब लक प नीके गभसे द घतमा मु नने छः पु उ प कये—अंग, वंग, क लग,
सु , पु और अ ।।५।। इन लोग ने अपने-अपने नामसे पूव दशाम छः दे श बसाये।
अंगका पु आ खनपान, खनपानका द वरथ, द वरथका धमरथ और धमरथका च रथ।
यह च रथ ही रोमपादके नामसे स था। इसके म थे अयो या धप त महाराज दशरथ।
रोमपादको कोई स तान न थी। इस लये दशरथने उ ह अपनी शा ता नामक क या गोद दे
द । शा ताका ववाह ऋ य ृंग मु नसे आ। ऋ य ृंग वभा डक ऋ षके ारा ह रणीके
गभसे उ प ए थे। एक बार राजा रोमपादके रा यम ब त दन तक वषा नह ई। तब
ग णकाएँ अपने नृ य, संगीत, वा , हाव-भाव, आ लगन और व वध उपहार से मो हत
करके ऋ य ृंगको वहाँ ले आय । उनके आते ही वषा हो गयी। उ ह ने ही इ दे वताका य
कराया, तब स तानहीन राजा रोमपादको भी पु आ और पु हीन दशरथने भी उ ह के
य नसे चार पु ा त कये। रोमपादका पु आ चतुरंग और चतुरंगका
पृथुला ।।६-१०।। पृथुला के बृह थ, बृह कमा और बृह ानु—तीन पु ए। बृह थका
पु आ बृह मना और बृह मनाका जय थ ।।११।।

वजय त य स भू यां ततो धृ तरजायत ।


ततो धृत त त य स कमा धरथ ततः ।।१२

योऽसौ गंगातटे डन् मंजूषा तगतं शशुम् ।


कु याप व ं कानीनमनप योऽकरोत् सुतम् ।।१३

वृषसेनः सुत त य कण य जगतीपतेः ।


ो तनयो ब ुः सेतु त या मज ततः ।।१४

आर ध त य गा धार त य धम ततो धृतः ।


धृत य मना त मात् चेताः ाचेतसं शतम् ।।१५

ले छा धपतयोऽभूव द
ु च दशमा ताः ।
तुवसो सुतो व व े भग ऽथ भानुमान् ।।१६

भानु त सुतोऽ या प कर धम उदारधीः ।


म त त सुतोऽपु ः पु ं पौरवम वभूत् ।।१७

य तः स पुनभजे वं वंशं रा यकामुकः ।


ययाते य पु य यदोवशं नरषभ ।।१८

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वणया म महापु यं सवपापहरं नृणाम् ।
यदोवशं नरः ु वा सवपापैः मु यते ।।१९

य ावतीण भगवान् परमा मा नराकृ तः ।


यदोः सह ज ो ा नलो रपु र त ुताः ।।२०

च वारः सूनव त शत जत् थमा मजः ।


महाहयो वेणुहयो हैहय े त त सुताः ।।२१

धम तु हैहयसुतो ने ः कु तेः पता ततः ।


सोहं जरभवत् कु तेम ह मान् भ सेनकः ।।२२

मदो भ सेन य धनकः कृतवीयसूः ।


कृता नः कृतवमा च कृतौजा धनका मजाः ।।२३
जय थक प नीका नाम था स भू त। उसके गभसे वजयका ज म आ। वजयका
धृ त, धृ तका धृत त, धृत तका स कमा और स कमाका पु था अ धरथ ।।१२।।
अ धरथको कोई स तान न थी। कसी दन वह गंगातटपर डा कर रहा था क दे खा एक
पटारीम न हा-सा शशु बहा चला जा रहा है। वह बालक कण था, जसे कु तीने
क याव थाम उ प होनेके कारण उस कार बहा दया था। अ धरथने उसीको अपना पु
बना लया ।।१३।। परी त्! राजा कणके पु का नाम था बृषसेन। यया तके पु से
ब ुका ज म आ। ब ुका सेत,ु सेतुका आर ध, आर धका गा धार, गा धारका धम, धमका
धृत, धृतका मना और मनाका पु चेता आ। चेताके सौ पु ए, ये उ र दशाम
ले छ के राजा ए। यया तके पु तुवसुका व , व का भग, भगका भानुमान्,
भानुमान्का भानु, भानुका उदारबु कर धम और कर धमका पु आ म त। म त
स तानहीन था। इस लये उसने पू वंशी य तको अपना पु बनाकर रखा था ।।१४-१७।।
पर तु य त रा यक कामनासे अपने ही वंशम लौट गये। परी त्! अब म राजा यया तके
बड़े पु य के वंशका वणन करता ँ ।।१८।।
परी त्! महाराज य का वंश परम प व और मनु य के सम त पाप को न करनेवाला
है। जो मनु य इसका वण करेगा, वह सम त पाप से मु हो जायगा ।।१९।। इस वंशम
वयं भगवान् पर ीकृ णने मनु यके-से पम अवतार लया था। य के चार पु थे—
सह जत्, ो ा, नल और रपु। सह जत्से शत जत्का ज म आ। शत जत्के तीन पु
थे—महाहय, वेणुहय और हैहय ।।२०-२१।। हैहयका धम, धमका ने , ने का कु त,
कु तका सोहं ज, सोहं जका म ह मान् और म ह मान्का पु भ सेन आ ।।२२।।
भ सेनके दो पु थे— मद और धनक। धनकके चार पु ए—कृतवीय, कृता न, कृतवमा
और कृतौजा ।।२३।। कृतवीयका पु अजुन था। वह सात पका एकछ स ाट् था। उसने
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भगवान्के अंशावतार ीद ा ेयजीसे योग व ा और अ णमा-ल घमा आ द बड़ी-बड़ी
स याँ ा त क थ ।।२४।। इसम स दे ह नह क संसारका कोई भी स ाट् य , दान,
तप या, योग, शा ान, परा म और वजय आ द गुण म कातवीय अजुनक बराबरी नह
कर सकेगा ।।२५।। सह बा अजुन पचासी हजार वषतक छह इ य से अ य वषय का
भोग करता रहा। इस बीचम न तो उसके शरीरका बल ही ीण आ और न तो कभी उसने
यही मरण कया क मेरे धनका नाश हो जायगा। उसके धनके नाशक तो बात ही या है,
उसका ऐसा भाव था क उसके मरणसे सर का खोया आ धन भी मल जाता
था ।।२६।। उसके हजार पु मसे केवल पाँच ही जी वत रहे। शेष सब परशुरामजीक
ोधा नम भ म हो गये। बचे ए पु के नाम थे—जय वज, शूरसेन, वृषभ, मधु और
ऊ जत ।।२७।।

अजुनः कृतवीय य स त पे रोऽभवत् ।


द ा ेया रेरंशात् ा तयोगमहागुणः ।।२४

न नूनं कातवीय य ग त या य त पा थवाः ।


य दानतपोयोग ुतवीयजया द भः ।।२५

पंचाशी तसह ा ण ाहतबलः समाः ।


अन व मरणो बुभुजेऽ यषड् वसु ।।२६

त य पु सह ेषु पंचैवोव रता मृधे ।


जय वजः शूरसेनो वृषभो मधु जतः ।।२७

जय वजात् तालजंघ त य पु शतं वभूत् ।


ं यत् तालजंघा यमौवतेजोपसं तम् ।।२८

तेषां ये ो वी तहो ो वृ णः पु ो मधोः मृतः ।


त य पु शतं वासीद् वृ ण ये ंयतः कुलम् ।।२९

माधवा वृ णयो राजन् यादवा े त सं ताः ।


य पु य च ो ोः पु ो वृ जनवां ततः ।।३०

ा ह ततो शेकुव त य च रथ ततः ।


शश ब महायोगी महाभोजो महानभूत् ।।३१

चतुदशमहार न व यपरा जतः ।


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त य प नीसह ाणां दशानां सुमहायशाः ।।३२
जय वजके पु का नाम था तालजंघ। तालजंघके सौ पु ए। वे ‘तालजंघ’ नामक
य कहलाये। मह ष औवक श से राजा सगरने उनका संहार कर डाला ।।२८।। उन
सौ पु म सबसे बड़ा था वी तहो । वी तहो का पु मधु आ। मधुके सौ पु थे। उनम
सबसे बड़ा था वृ ण ।।२९।। परी त्! इ ह मधु, वृ ण और य के कारण यह वंश माधव,
वा णय और यादवके नामसे स आ। य न दन ो ु के पु का नाम था
वृ जनवान् ।।३०।। वृ जनवान्का पु ा ह, ा हका शेकु, शेकुका च रथ और
च रथके पु का नाम था शश ब । वह परम योगी, महान् भोगै यस प और अ य त
परा मी था ।।३१।। वह चौदह र न * का वामी, च वत और यु म अजेय था। परम
यश वी शश ब के दस हजार प नयाँ थ । उनमसे एक-एकके लाख-लाख स तान ई थ ।
इस कार उसके सौ करोड़—एक अरब स तान उ प । उनम पृथु वा आ द छः पु
धान थे। पृथु वाके पु का नाम था धम। धमका पु उशना आ। उसने सौ अ मेध य
कये थे। उशनाका पु आ चक। चकके पाँच पु ए, उनके नाम सुनो ।।३२-३४।।
पु जत्, म, मेष,ु पृथु और यामघ। यामघक प नीका नाम था शै या। यामघके
ब त दन तक कोई स तान न ई। पर तु उसने अपनी प नीके भयसे सरा ववाह नह
कया। एक बार वह अपने श ुके घरसे भो या नामक क या हर लाया। जब शै याने प तके
रथपर उस क याको दे खा, तब वह चढ़कर अपने प तसे बोली—‘कपट ! मेरे बैठनेक
जगहपर आज कसे बैठाकर लये आ रहे हो?’ यामघने कहा—‘यह तो तु हारी पु वधू है।’
शै याने मुसकराकर अपने प तसे कहा— ।।३५-३७।।
दशल सह ा ण पु ाणां ता वजीजनत् ।
तेषां तु षट् धानानां पृथु वस आ मजः ।।३३

धम नामोशना त य हयमेधशत य याट् ।


त सुतो चक त य पंचास ा मजाः शृणु ।।३४

पु ज म मेषुपृथु यामघसं ताः ।


यामघ व जोऽ य यां भाया शै याप तभयात् ।।३५

ना व द छ ुभवनाद् भो यां क यामहारषीत् ।


रथ थां तां नरी याह शै या प तमम षता ।।३६

केयं कुहक म थानं रथमारो पते त वै ।


नुषा तवे य भ हते मय ती प तम वीत् ।।३७

अहं व यासप नी च नुषा मे यु यते कथम् ।


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जन य य स यं रा त येयमुपयु यते ।।३८

अ वमोद त त ेदेवाः पतर एव च ।


शै या गभमधात् काले कुमारं सुषुवे शुभम् ।
स वदभ इ त ो उपयेमे नुषां सतीम् ।।३९
‘म तो ज मसे ही बाँझ ँ और मेरी कोई सौत भी नह है। फर यह मेरी पु वधू कैसे हो
सकती है?’ यामघने कहा—‘रानी! तुमको जो पु होगा, उसक यह प नी बनेगी’ ।।३८।।
राजा यामघके इस वचनका व ेदेव और पतर ने अनुमोदन कया। फर या था, समयपर
शै याको गभ रहा और उसने बड़ा ही सु दर बालक उ प कया। उसका नाम आ वदभ।
उसीने शै याक सा वी पु वधू भो यासे ववाह कया ।।३९।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां नवम क धे य वंशानुवणने
यो वशोऽ यायः ।।२३।।

* चौदह र न ये ह—हाथी, घोड़ा, रथ, ी, बाण, खजाना, माला, व , वृ , श ,


पाश, म ण, छ और वमान।

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अथ चतु वशोऽ यायः
वदभके वंशका वणन
ीशुक उवाच
त यां वदभ ऽजनयत् पु ौ ना ना कुश थौ ।
तृतीयं रोमपादं च वदभकुलन दनम् ।।१

रोमपादसुतो ब ुब ोः कृ तरजायत ।
उ शक त सुत त मा चे द ै ादयो नृप ।।२
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! राजा वदभक भो या नामक प नीसे तीन पु ए
—कुश, थ और रोमपाद। रोमपाद वदभवंशम ब त ही े पु ष ए ।।१।।
रोमपादका पु ब ु, ब ुका कृ त, कृ तका उ शक और उ शकका चे द। राजन्! इस
चे दके वंशम ही दमघोष एवं शशुपाल आ द ए ।।२।। थका पु आ कु त, कु तका
धृ , धृ का नवृ त, नवृ तका दशाह और दशाहका ोम ।।३।।

थ य कु तः पु ोऽभूद ् धृ त याथ नवृ तः ।


ततो दशाह ना नाभूत् त य ोमः सुत ततः ।।३
जीमूतो वकृ त त य य य भीमरथः सुतः ।
ततो नवरथः पु ो जातो दशरथ ततः ।।४
कर भः शकुनेः पु ो दे वरात तदा मजः ।
दे व तत त य मधुः कु वशादनुः ।।५
पु हो वनोः पु त यायुः सा वत ततः ।
भजमानो भ ज द ो वृ णदवावृधोऽ धकः ।।६
सा वत य सुताः स त महाभोज मा रष ।
भजमान य न लो चः क कणो धृ रेव च ।।७
एक यामा मजाः प याम य यां च यः सुताः ।
शता ज च सह ा जदयुता ज द त भो ।।८
ब ुदवावृधसुत तयोः ोकौ पठ यमू ।
यथैव शृणुमो रात् स प याम तथा तकात् ।।९
ब ुः े ो मनु याणां दे वैदवावृधः समः ।
पु षाः पंचष षट् सह ा ण चा च ।।१०

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येऽमृत वमनु ा ता ब ोदवावृधाद प ।
महाभोजोऽ प धमा मा भोजा आसं तद वये ।।११
वृ णेः सु म ः पु ोऽभूद ् युधा ज च परंतप ।
श न त यान म न नोऽभूदन म तः ।।१२
स ा जतः सेन न न या यासतुः सुतौ ।
अन म सुतो योऽ यः श न त याथ स यकः ।।१३
युयुधानः सा य कव जय त य कु ण ततः ।
युग धरोऽन म य वृ णः पु ोऽपर ततः ।।१४
फ क रथ गा द यां च फ कतः ।
अ ू र मुखा आसन् पु ा ादश व ुताः ।।१५
आसंगः सारमेय मृ रो मृ वद् ग रः ।
धमवृ ः सुकमा च े ोपे ोऽ रमदनः ।।१६
ोमका जीमूत, जीमूतका वकृ त, वकृ तका भीमरथ, भीमरथका नवरथ और
नवरथका दशरथ आ ।।४।। दशरथसे शकु न, शकु नसे कर भ, कर भसे दे वरात,
दे वरातसे दे व , दे व से मधु, मधुसे कु वश और कु वशसे अनु ए ।।५।। अनुसे
पु हो , पु हो से आयु और आयुसे सा वतका ज म आ। परी त्! सा वतके सात पु
ए—भजमान, भ ज, द , वृ ण, दे वावृध, अ धक और महाभोज। भजमानक दो प नयाँ
थ एकसे तीन पु ए— न लो च, क कण और धृ । सरी प नीसे भी तीन पु ए—
शता जत्, सह ा जत् और अयुता जत् ।।६-८।।
दे वावृधके पु का नाम था ब ।ु दे वावृध और ब ुके स ब धम यह बात कही जाती है
—‘हमने रसे जैसा सुन रखा था, अब वैसा ही नकटसे दे खते भी ह ।।९।।
ब ु मनु य म े है और दे वावृध दे वता के समान है। इसका कारण यह है क ब ु
और दे वावृधसे उपदे श लेकर चौदह हजार पसठ मनु य परम पदको ा त कर चुके ह।’
सा वतके पु म महाभोज भी बड़ा धमा मा था। उसीके वंशम भोजवंशी यादव
ए ।।१०-११।।
परी त्! वृ णके दो पु ए—सु म और युधा जत्। युधा जत्के श न और अन म
—ये दो पु थे। अन म से न नका ज म आ ।।१२।। स ा जत् और सेन नामसे स
य वंशी न नके ही पु थे। अन म का एक और पु था, जसका नाम था श न। श नसे ही
स यकका ज म आ ।।१३।।
इसी स यकके पु युयुधान थे, जो सा य कके नामसे स ए। सा य कका जय,
जयका कु ण और कु णका पु युग धर आ। अन म के तीसरे पु का नाम वृ ण था।
वृ णके दो पु ए— फ क और च रथ। फ कक प नीका नाम था गा दनी। उनम
सबसे े अ ू रके
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अ त र बारह पु उ प ए—आसंग, सारमेय, मृ र, मृ वद्, ग र, धमवृ , सुकमा,
े ोपे , अ रमदन, श ु न, ग धमादन और तबा । इनके एक ब हन भी थी, जसका नाम
था सुचीरा। अ ू रके दो पु थे—दे ववान् और उपदे व। फ कके भाई च रथके पृथु,
व रथ आ द ब त-से पु ए—जो वृ ण-वं शय म े माने जाते ह ।।१४-१८।।
श ु नो ग धमाद तबा ादश ।
तेषां वसा सुचीरा या ाव ू रसुताव प ।।१७
दे ववानुपदे व तथा च रथा मजाः ।
पृथु व रथा ा बहवो वृ णन दनाः ।।१८
कुकुरो भजमान शु चः क बलब हषः ।
कुकुर य सुतो व वलोमा तनय ततः ।।१९
कपोतरोमा त यानुः सखा य य च तु बु ः ।
अ धको भ त माद र ोतः पुनवसुः ।।२०
त या क ा क च क या चैवा का मजौ ।
दे वक ो सेन च वारो दे वका मजाः ।।२१
दे ववानुपदे व सुदेवो दे ववधनः ।
तेषां वसारः स तासन् धृतदे वादयो नृप ।।२२
शा तदे वोपदे वा च ीदे वा दे वर ता ।
सहदे वा दे वक च वसुदेव उवाह ताः ।।२३
कंसः सुनामा य ोधः कंकः शंकुः सु तथा ।
रा पालोऽथ सृ तु मानौ सेनयः ।।२४
कंसा कंसवती कंका शूरभू रा पा लका ।
उ सेन हतरो वसुदेवानुज यः ।।२५
शूरो व रथादासीद् भजमानः सुत ततः ।
श न त मात् वय भोजो द क त सुतो मतः ।।२६
दे वबा ः शतधनुः कृतवम त त सुताः ।
दे वमीढ य शूर य मा रषा नाम प यभूत् ।।२७
त यां स जनयामास दश पु ानक मषान् ।
वसुदेवं दे वभागं दे व वसमानकम् ।।२८
सृंजयं यामकं कंकं शमीकं व सकं वृकम् ।
दे व भयो ने रानका य य ज म न ।।२९
वसुदेवं हरेः थानं वद यानक भम् ।
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पृथा च ुतदे वा च ुतक तः ुत वाः ।।३०
सा वतके पु अ धकके चार पु ए—कुकुर, भजमान, शु च और क बलब ह। उनम
कुकुरका पु व , व का वलोमा, वलोमाका कपोतरोमा और कपोतरोमाका अनु आ।
तु बु ग धवके साथ अनुक बड़ी म ता थी। अनुका पु अ धक, अ धकका भ,
भका अ र ोत, अ र ोतका पुनवसु और पुनवसुके आ क नामका एक पु तथा
आ क नामक एक क या ई। आ कके दो पु ए—दे वक और उ सेन। दे वकके चार पु
ए ।।१९-२१।।
दे ववान्, उपदे व, सुदेव और दे ववधन। इनक सात ब हन भी थ —धृत, दे वा, शा तदे वा,
उपदे वा, ीदे वा, दे वर ता, सहदे वा और दे वक । वसुदेवजीने इन सबके साथ ववाह कया
था ।।२२-२३।। उ सेनके नौ लड़के थे—कंस, सुनामा, य ोध, कंक, शंकु, सु , रा पाल,
सृ और तु मान् ।।२४।। उ सेनके पाँच क याएँ भी थ —कंसा, कंसवती, कंका, शूरभू
और रा पा लका। इनका ववाह दे वभाग आ द वसुदेवजीके छोटे भाइय से आ था ।।२५।।
च रथके पु व रथसे शूर, शूरसे भजमान, भजमानसे श न, श नसे वय भोज और
वय भोजसे द क ए ।।२६।। द कसे तीन पु ए—दे वबा , शतध वा और कृतवमा।
दे वमीढके पु शूरक प नीका नाम था मा रषा ।।२७।। उ ह ने उसके गभसे दस न पाप पु
उ प कये—वसुदेव, दे वभाग, दे व वा, आनक, सृंजय, यामक, कंक, शमीक, व सक
और वृक। ये सब-के-सब बड़े पु या मा थे। वसुदेवजीके ज मके समय दे वता के नगारे
और नौबत वयं ही बजने लगे थे। अतः वे ‘आनक भ’ भी कहलाये। वे ही भगवान्
ीकृ णके पता ए। वसुदेव आ दक पाँच बहन भी थ —पृथा (कु ती), ुतदे वा, ुतक त,
ुत वा और राजा धदे वी। वसुदेवके पता शूरसेनके एक म थे— कु तभोज।
कु तभोजके कोई स तान न थी। इस लये शूरसेनने उ ह पृथा नामक अपनी सबसे बड़ी
क या गोद दे द ।।२८-३१।।

राजा धदे वी चैतेषां भ ग यः पंच क यकाः ।


कु तेः स युः पता शूरो पु य पृथामदात् ।।३१

साऽऽप वाससो व ां दे व त तो षतात् ।


त या वीयपरी ाथमाजुहाव र व शु चम् ।।३२

तदै वोपागतं दे वं वी य व मतमानसा ।


ययाथ यु ा मे या ह दे व म व मे ।।३३

अमोघं दशनं दे व आ ध से व य चा मजम् ।


यो नयथा न येत कताहं ते सुम यमे ।।३४

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इ त त यां स आधाय गभ सूय दवं गतः ।
स ः कुमारः संज े तीय इव भा करः ।।३५

तं सा यज द तोये कृ ा लोक य ब यती ।


पतामह तामुवाह पा डु व स य व मः ।।३६

ुतदे वां तु का षो वृ शमा सम हीत् ।


य यामभूद ् द तव ऋ षश तो दतेः सुतः ।।३७

कैकेयो धृ केतु ुतक तम व दत ।


स तदनादय त य पंचासन् कैकयाः सुताः ।।३८

राजा धदे ामाव यौ जयसेनोऽज न ह ।


दमघोष े दराजः ुत वसम हीत् ।।३९
पृथाने वासा ऋ षको स करके उनसे दे वता को बुलानेक व ा सीख ली। एक
दन उस व ाके भावक परी ा लेनेके लये पृथाने परम प व भगवान् सूयका आवाहन
कया ।।३२।। उसी समय भगवान् सूय वहाँ आ प ँच।े उ ह दे खकर कु तीका दय व मयसे
भर गया। उसने कहा—‘भगवन्! मुझे मा क जये। मने तो परी ा करनेके लये ही इस
व ाका योग कया था। अब आप पधार सकते ह’ ।।३३।। सूयदे वने कहा—‘दे व! मेरा
दशन न फल नह हो सकता। इस लये हे सु दरी! अब म तुझसे एक पु उ प करना
चाहता ँ। हाँ, अव य ही तु हारी यो न षत न हो, इसका उपाय म कर ँ गा’ ।।३४।।
यह कहकर भगवान् सूयने गभ था पत कर दया और इसके बाद वे वग चले गये। उसी
समय उससे एक बड़ा सु दर एवं तेज वी शशु उ प आ। वह दे खनेम सरे सूयके समान
जान पड़ता था ।।३५।। पृथा लोक न दासे डर गयी। इस लये उसने बड़े ःखसे उस
बालकको नद के जलम छोड़ दया। परी त्! उसी पृथाका ववाह तु हारे परदादा पा डु से
आ था, जो वा तवम बड़े स चे वीर थे ।।३६।।
परी त्! पृथाक छोट ब हन ुतदे वाका ववाह क ष दे शके अ धप त वृ शमासे
आ था। उसके गभसे द तव का ज म आ। यह वही द तव है, जो पूवज मम
सनका द ऋ षय के शापसे हर या आ था ।।३७।। कैकय दे शके राजा धृ केतुने
ुतक तसे ववाह कया था। उससे स तदन आ द पाँच कैकय राजकुमार ए ।।३८।।
राजा धदे वीका ववाह जयसेनसे आ था। उसके दो पु ए— व द और अनु व द। वे दोन
ही अव तीके राजा ए। चे दराज दमघोषने ुत वाका पा ण हण कया ।।३९।। उसका पु
था शशुपाल, जसका वणन म पहले (स तम क धम) कर चुका ँ। वसुदेवजीके भाइय मसे
दे वभागक प नी कंसाके गभसे दो पु ए— च केतु और बृह ल ।।४०।। दे व वाक प नी
कंसवतीसे सुवीर और इषुमान् नामके दो पु ए। आनकक प नी कंकाके गभसे भी दो पु
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ए—स य जत् और पु जत् ।।४१।। सृंजयने अपनी प नी रा पा लकाके गभसे वृष और
मषण आ द कई पु उ प कये। इसी कार यामकने शूरभू म (शूरभू) नामक प नीसे
ह रकेश और हर या नामक दो पु उ प कये ।।४२।। म केशी अ सराके गभसे
व सकके भी वृक आ द कई पु ए। वृकने वा ीके गभसे त , पु कर और शाल आ द
कई पु उ प कये ।।४३।। शमीकक प नी सुदा मनीने भी सु म और अजुनपाल आ द
कई बालक उ प कये। कंकक प नी क णकाके गभसे दो पु ए—ऋतधाम और
जय ।।४४।।
शशुपालः सुत त याः क थत त य स भवः ।
दे वभाग य कंसायां च केतुबृह लौ ।।४०
कंसव यां दे व वसः सुवीर इषुमां तथा ।
कंकायामानका जातः स य जत् पु जत् तथा ।।४१
सृंजयो रा पा यां च वृष मषणा दकान् ।
ह रकेश हर या ौ शूरभू यां च यामकः ।।४२
म के याम सर स वृकाद न् व सक तथा ।
त पु करशालाद न् वा या वृक आदधे ।।४३
सु म ाजुनपालाद छमीका ु सुदा मनी ।
कंक क णकायां वै ऋतधामजयाव प ।।४४
पौरवी रो हणी भ ा म दरा रोचना इला ।
दे वक मुखा आसन् प य आनक भेः ।।४५
बलं गदं सारणं च मदं वपुलं ुवम् ।
वसुदेव तु रो ह यां कृताद नुदपादयत् ।।४६
सुभ ो भ वाह मदो भ एव च ।
पौर ा तनया ेते भूता ा ादशाभवन् ।।४७
न दोपन दकृतकशूरा ा म दरा मजाः ।
कौस या के शनं वेकमसूत कुलन दनम् ।।४८
रोचनायामतो जाता ह तहेमांगदादयः ।
इलायामु व काद न् य मु यानजीजनत् ।।४९
वपृ ो धृतदे वायामेक आनक भेः ।
शा तदे वा मजा राज म त ुतादयः ।।५०
राजानः क पवषा ा उपदे वासुता दश ।
वसुहंससुवंशा ाः ीदे वाया तु षट् सुताः ।।५१

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दे वर तया ल धा नव चा गदादयः ।
वसुदेवः सुतान ावादधे सहदे वया ।।५२
आनक भ वसुदेवजीक पौरवी, रो हणी, भ ा, म दरा, रोचना, इला और दे वक आ द
ब त-सी प नयाँ थ ।।४५।। रो हणीके गभसे वसुदेवजीके बलराम, गद, सारण, मद,
वपुल, ुव और कृत आ द पु ए थे ।।४६।।
पौरवीके गभसे उनके बारह पु ए—भूत, सुभ , भ वाह, मद और भ
आ द ।।४७।। न द, उपन द, कृतक, शूर आ द म दराके गभसे उ प ए थे। कौस याने एक
ही वंश-उजागर पु उ प कया था। उसका नाम था केशी ।।४८।। उसने रोचनासे ह त और
हेमांगद आ द तथा इलासे उ व क आ द धान य वंशी पु को ज म दया ।।४९।।
परी त्! वसुदेवजीके धृतदे वाके गभसे वपृ नामका एक ही पु आ और शा तदे वासे
म और त ुत आ द कई पु ए ।।५०।। उपदे वाके पु क पवष आ द दस राजा ए
और ीदे वाके वसु, हंस, सुवंश आ द छः पु ए ।।५१।। दे वर ताके गभसे गद आ द नौ
पु ए तथा जैसे वयं धमने आठ वसु को उ प कया था, वैसे ही वसुदेवजीने सहदे वाके
गभसे पु व ुत आ द आठ पु उ प कये। परम उदार वसुदेवजीने दे वक के गभसे भी
आठ पु उ प कये, जनम सातके नाम ह—क तमान्, सुषेण, भ सेन, ऋजु, संमदन, भ
और शेषावतार ीबलरामजी ।।५२-५४।। उन दोन के आठव पु वयं ीभगवान् ही थे।
परी त्! तु हारी परम सौभा यवती दाद सुभ ा भी दे वक जीक ही क या थ ।।५५।।
पु व ुतमु यां तु सा ाद् धम वसू नव ।
वसुदेव तु दे व याम पु ानजीजनत् ।।५३

क तम तं सुषेणं च भ सेनमुदारधीः ।
ऋजुं स मदनं भ ं संकषणमही रम् ।।५४

अ म तु तयोरासीत् वयमेव ह रः कल ।
सुभ ा च महाभागा तव राजन् पतामही ।।५५

यदा यदे ह धम य यो वृ पा मनः ।


तदा तु भगवानीश आ मानं सृजते ह रः ।।५६

न य ज मनो हेतुः कमणो वा महीपते ।


आ ममायां वनेश य पर य ु रा मनः ।।५७

य मायाचे तं पुंसः थ यु प य ययाय ह ।


अनु ह त वृ रे ा मलाभाय चे यते ।।५८

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अ ौ हणीनां प त भरसुरैनृपला छनैः ।
भुव आ यमाणाया अभाराय कृतो मः ।।५९

कमा यप रमेया ण मनसा प सुरै रैः ।


सहसंकषण े भगवान् मधुसूदनः ।।६०

कलौ ज न यमाणानां ःखशोकतमोनुदम् ।


अनु हाय भ ानां सुपु यं तनोद् यशः ।।६१

य मन् स कणपीयूषे यश तीथवरे सकृत् ।


ो ा ल प पृ य धुनुते कमवासनाम् ।।६२

भोजवृ य धकमधुशूरसेनदशाहकैः ।
ाघनीये हतः श त् कु सृंजयपा डु भः ।।६३
जब-जब संसारम धमका ास और पापक वृ होती है, तब-तब सवश मान् भगवान्
ीह र अवतार हण करते ह ।।५६।। परी त्! भगवान् सबके ा और वा तवम असंग
आ मा ही ह। इस लये उनक आ म व पणी योगमायाके अ त र उनके ज म अथवा
कमका और कोई भी कारण नह है ।।५७।। उनक मायाका वलास ही जीवके ज म, जीवन
और मृ युका कारण है। और उनका अनु ह ही मायाको अलग करके आ म व पको ा त
करनेवाला है ।।५८।। जब असुर ने राजा का वेष धारण कर लया और कई अ ौ हणी
सेना इक करके वे सारी पृ वीको र दने लगे, तब पृ वीका भार उतारनेके लये भगवान्
मधुसूदन बलरामजीके साथ अवतीण ए। उ ह ने ऐसी-ऐसी लीलाएँ क , जनके स ब धम
बड़े-बड़े दे वता मनसे अनुमान भी नह कर सकते—शरीरसे करनेक बात तो अलग
रही ।।५९-६०।।
पृ वीका भार तो उतरा ही, साथ ही क लयुगम पैदा होनेवाले भ पर अनु ह करनेके
लये भगवान्ने ऐसे परम प व यशका व तार कया, जसका गान और वण करनेसे ही
उनके ःख, शोक और अ ान सब-के-सब न हो जायँगे ।।६१।। उनका यश या है,
लोग को प व करनेवाला े तीथ है। संत के कान के लये तो वह सा ात् अमृत ही है।
एक बार भी य द कानक अंज लय से उसका आचमन कर लया जाता है, तो कमक
वासनाएँ नमूल हो जाती ह ।।६२।। परी त्! भोज, वृ ण, अ धक, मधु, शूरसेन, दशाह,
कु , सृंजय और पा डु वंशी वीर नर तर भगवान्क लीला क आदरपूवक सराहना करते
रहते थे ।।६३।।

न ध मते तोदारैवा यै व मलीलया ।


नृलोकं रमयामास मू या सवागर यया ।।६४
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य याननं मकरकु डलचा कण-
ाज कपोलसुभगं स वलासहासम् ।
न यो सवं न ततृपु श भः पब यो
नाय नरा मु दताः कु पता नमे ।।६५

जातो गतः पतृगृहाद् जमे धताथ


ह वा रपून् सुतशता न कृतो दारः ।
उ पा तेषु पु षः तु भः समीजे
आ मानमा म नगमं थय नेषु ।।६६

पृ ाः स वै गु भरं पयन् कु णा-


म तःसमु थक लना यु ध भूपच वः ।
ा वधूय वजये जयमु घो य
ो यो वाय च परं समगात् वधाम ।।६७
उनका यामल शरीर सवागसु दर था। उ ह ने उस मनोरम व हसे तथा अपनी ेमभरी
मुसकान, मधुर चतवन, सादपूण वचन और परा मपूण लीलाके ारा सारे मनु यलोकको
आन दम सराबोर कर दया था ।।६४।। भगवान्के मुखकमलक शोभा तो नराली ही थी।
मकराकृ त कु डल से उनके कान बड़े कमनीय मालूम पड़ते थे। उनक आभासे कपोल का
सौ दय और भी खल उठता था। जब वे वलासके साथ हँस दे त,े तो उनके मुखपर नर तर
रहनेवाले आन दम मानो बाढ़-सी आ जाती। सभी नर-नारी अपने ने के याल से उनके
मुखक माधुरीका नर तर पान करते रहते, पर तु तृ त नह होते। वे उसका रस ले-लेकर
आन दत तो होते ही, पर तु पलक गरनेसे उनके गरानेवाले न मपर खीझते भी ।।६५।।
लीलापु षो म भगवान् अवतीण ए मथुराम वसुदेवजीके घर, पर तु वहाँ रहे नह , वहाँसे
गोकुलम न दबाबाके घर चले गये। वहाँ अपना योजन—जो वाल, गोपी और गौ को
सुखी करना था—पूरा करके मथुरा लौट आये। जम, मथुराम तथा ारकाम रहकर अनेक
श ु का संहार कया। ब त-सी य से ववाह करके हजार पु उ प कये। साथ ही
लोग म अपने व पका सा ा कार करानेवाली अपनी वाणी व प ु तय क मयादा
था पत करनेके लये अनेक य के ारा वयं अपना ही यजन कया ।।६६।। कौरव और
पा डव के बीच उ प ए आपसके कलहसे उ ह ने पृ वीका ब त-सा भार हलका कर दया
तथा यु म अपनी से ही राजा क ब त-सी अ ौ ह णय को वंस करके संसारम
अजुनक जीतका डंका पटवा दया। फर उ वको आ मत वका उपदे श कया और इसके
बाद वे अपने परमधामको सधार गये ।।६७।।
इ त ीम ागवते महापुराणे वैया स याम ादशसाह यां पारमहं यां सं हतायां नवम क धे
ीसूयसोमवंशानुक तने य वंशानुक तनं नाम चतु वशोऽ यायः ।।२४।।

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इ त नवमः क धः समा तः
ह रः ॐ त सत्

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।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।।
ीम ागवतमहापुराणम्
दशमः क धः
(पूवाधः)
अथ थमोऽ यायः
भगवान्के ारा पृ वीको आ ासन, वसुदेव-दे वक का ववाह और कंसके ारा
दे वक के छः पु क ह या
राजोवाच
क थतो वंश व तारो भवता सोमसूययोः ।
रा ां चोभयवं यानां च रतं परमा तम् ।।१

यदो धमशील य नतरां मु नस म ।


त ांशेनावतीण य व णोव या ण शंस नः ।।२

अवतीय यदोवशे भगवान् भूतभावनः ।


कृतवान् या न व ा मा ता न नो वद व तरात् ।।३

नवृ तष पगीयमानाद्
भवौषधा ो मनोऽ भरामात् ।
क उ म ोकगुणानुवादात्
पुमान् वर येत वना पशु नात् ।।४

पतामहा मे समरेऽमरंजयै-
दव ता ा तरथै त म गलैः ।
राजा परी त्ने पूछा—भगवन्! आपने च वंश और सूयवंशके व तार तथा दोन
वंश के राजा का अ य त अद्भुत च र वणन कया। भगवान्के परम ेमी मु नवर! आपने
वभावसे ही धम ेमी य वंशका भी वशद वणन कया। अब कृपा करके उसी वंशम अपने
अंश ीबलरामजीके साथ अवतीण ए भगवान् ीकृ णके परम प व च र भी हम
सुनाइये ।।१-२।। भगवान् ीकृ ण सम त ा णय के जीवनदाता एवं सवा मा ह। उ ह ने
य वंशम अवतार लेकर जो-जो लीलाएँ क , उनका व तारसे हमलोग को वण
कराइये ।।३।। जनक तृ णाक यास सवदाके लये बुझ चुक है, वे जीव मु महापु ष
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जसका पूण ेमसे अतृ त रहकर गान कया करते ह, मुमु ुजन के लये जो भवरोगका
रामबाण औषध है तथा वषयी लोग के लये भी उनके कान और मनको परम आ ाद
दे नेवाला है, भगवान् ीकृ णच के ऐसे सु दर, सुखद, रसीले, गुणानुवादसे पशुघाती अथवा
आ मघाती मनु यके अ त र और ऐसा कौन है जो वमुख हो जाय, उससे ी त न
करे? ।।४।। ( ीकृ ण तो मेरे कुलदे व ही ह।) जब कु े म महाभारत-यु हो रहा था और
दे वता को भी जीत लेनेवाले भी म पतामह आ द अ तर थय से मेरे दादा पा डव का यु
हो रहा था, उस समय कौरव क सेना उनके लये अपार समु के समान थी— जसम भी म
आ द वीर बड़े-बड़े म छ को भी नगल जानेवाले त म गल म छ क भाँ त भय उ प कर
रहे थे। पर तु मेरे वनामध य पतामह भगवान् ीकृ णके चरणकमल क नौकाका आ य
लेकर उस समु को अनायास ही पार कर गये—ठ क वैसे ही जैसे कोई मागम चलता आ
वभावसे ही बछड़ेके खुरका ग ा पार कर जाय ।।५।। महाराज! मेरा यह शरीर—जो
आपके सामने है तथा जो कौरव और पा डव दोन ही वंश का एकमा सहारा था—
अ थामाके ा से जल चुका था। उस समय मेरी माता जब भगवान्क शरणम गय ,
तब उ ह ने हाथम च लेकर मेरी माताके गभम वेश कया और मेरी र ा क ।।६।।
(केवल मेरी ही बात नह ,) वे सम त शरीरधा रय के भीतर आ मा पसे रहकर अमृत वका
दान कर रहे ह और बाहर काल पसे रहकर मृ युका*। मनु यके पम तीत होना, यह तो
उनक एक लीला है। आप उ ह क ऐ य और माधुयसे प रपूण लीला का वणन
क जये ।।७।।

र ययं कौरवसै यसागरं


कृ वातरन् व सपदं म य लवाः ।।५

ौ य व लु मदं मदं गं
स तानबीजं कु पा डवानाम् ।
जुगोप कु गत आ च ो
मातु मे यः शरणं गतायाः ।।६

वीया ण त या खलदे हभाजा-


म तब हः पू षकाल पैः ।
य छतो मृ युमुतामृतं च
मायामनु य य वद व व न् ।।७

रो ह या तनयः ो ो रामः संकषण वया ।


दे व या गभस ब धः कुतो दे हा तरं वना ।।८

क मा मुकु दो भगवान् पतुगहाद् जं गतः ।


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व वासं ा त भः साध कृतवान् सा वतांप तः ।।९

जे वसन् कमकरो मधुपुया च केशवः ।


ातरं चावधीत् कंसं मातुर ातदहणम् ।।१०
भगवन्! आपने अभी बतलाया था क बलरामजी रो हणीके पु थे। इसके बाद दे वक के
पु म भी आपने उनक गणना क । सरा शरीर धारण कये बना दो माता का पु होना
कैसे स भव है? ।।८।। असुर को मु दे नेवाले और भ को ेम वतरण करनेवाले भगवान्
ीकृ ण अपने वा स य- नेहसे भरे ए पताका घर छोड़कर जम य चले गये?
य वंश शरोम ण भ व सल भुने न द आ द गोप-ब धु के साथ कहाँ-कहाँ नवास
कया? ।।९।। ा और शंकरका भी शासन करनेवाले भुने जम तथा मधुपुरीम रहकर
कौन-कौन-सी लीलाएँ क ? और महाराज! उ ह ने अपनी माँके भाई मामा कंसको अपने
हाथ य मार डाला? वह मामा होनेके कारण उनके ारा मारे जाने यो य तो नह
था ।।१०।। मनु याकार स चदान दमय व ह कट करके ारकापुरीम य वं शय के साथ
उ ह ने कतने वष तक नवास कया? और उन सवश मान् भुक प नयाँ कतनी
थ ? ।।११।। मुने! मने ीकृ णक जतनी लीलाएँ पूछ ह और जो नह पूछ ह, वे सब आप
मुझे व तारसे सुनाइये; य क आप सब कुछ जानते ह और म बड़ी ाके साथ उ ह
सुनना चाहता ँ ।।१२।। भगवन्! अ क तो बात ही या, मने जलका भी प र याग कर
दया है। फर भी वह अस भूख- यास ( जसके कारण मने मु नके गलेम मृत सप डालनेका
अ याय कया था) मुझे त नक भी नह सता रही है; य क म आपके मुखकमलसे झरती
ई भगवान्क सुधामयी लीला-कथाका पान कर रहा ँ ।।१३।।

दे हं मानुषमा य क त वषा ण वृ ण भः ।
य पुया सहावा सीत् प यः क यभवन् भोः ।।११

एतद य च सव मे मुने कृ ण वचे तम् ।


व ु मह स सव धानाय व तृतम् ।।१२

नैषा त ःसहा ु मां य ोदम प बाधते ।


पब तं व मुखा भोज युतं ह रकथामृतम् ।।१३
सूत उवाच
एवं नश य भृगुन दन साधुवादं
वैयास कः स भगवानथ व णुरातम् ।
य य कृ णच रतं क लक मष नं
ाहतुमारभत भागवत धानः ।।१४

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ीशुक उवाच
सय व सता बु तव राज षस म ।
वासुदेवकथायां ते य जाता नै क र तः१ ।।१५

वासुदेवकथा ः पु षां ीन् पुना त ह ।


व ारं पृ छकं ोतॄं त पादस ललं यथा ।।१६

भू म तनृप ाजदै यानीकशतायुतैः ।


आ ा ता भू रभारेण ाणं शरणं ययौ ।।१७
सूतजी कहते ह—शौनकजी! भगवान्के े मय म अ ग य एवं सव ीशुकदे वजी
महाराजने परी त्का ऐसा समीचीन सुनकर (जो संत क सभाम भगवान्क लीलाके
वणनका हेतु आ करता है) उनका अ भन दन कया और भगवान् ीकृ णक उन
लीला का वणन ार भ कया, जो सम त क लमल को सदाके लये धो डालती है ।।१४।।
ीशुकदे वजीने कहा—भगवान्के लीला-रसके र सक राजष! तुमने जो कुछ न य
कया है, वह ब त ही सु दर और आदरणीय है; य क सबके दयारा य ीकृ णक लीला-
कथा वण करनेम तु ह सहज एवं सु ढ़ ी त ा त हो गयी है ।।१५।। भगवान् ीकृ णक
कथाके स ब धम करनेसे ही व ा, कता और ोता तीन ही प व हो जाते ह—
जैसे गंगाजीका जल या भगवान् शाल ामका चरणामृत सभीको प व कर दे ता है ।।१६।।
परी त्! उस समय लाख दै य के दलने घमंडी राजा का प धारण कर अपने भारी
भारसे पृ वीको आ ा त कर रखा था। उससे ाण पानेके लये वह ाजीक शरणम
गयी ।।१७।।

गौभू वा ुमुखी ख ा द ती क णं वभोः ।


उप थता तके त मै सनं वमवोचत१ ।।१८

ा त पधायाथ सह दे वै तया सह ।
जगाम स नयन तीरं ीरपयो नधेः ।।१९

त ग वा जग ाथं दे वदे वं वृषाक पम् ।


पु षं पु षसू े न उपत थे समा हतः ।।२०

गरं समाधौ गगने समी रतां


नश य वेधा दशानुवाच ह ।
गां पौ ष मे शृणुतामराः पुन-

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वधीयतामाशु तथैव मा चरम् ।।२१

पुरैव पुंसावधृतो धरा वरो


भव रंशैय षूपज यताम् ।
स याव ा भरमी रे रः
वकालश या पयं रेद ् भु व ।।२२

वसुदेवगृहे सा ाद् भगवान् पु षः परः ।


ज न यते२ त याथ स भव तु३ सुर यः ।।२३

वासुदेवकलान तः सह वदनः वराट् ।


अ तो भ वता दे वो हरेः य चक षया ।।२४
पृ वीने उस समय गौका प धारण कर रखा था। उसके ने से आँसू बह-बहकर मुँहपर
आ रहे थे। उसका मन तो ख था ही, शरीर भी ब त कृश हो गया था। वह बड़े क ण
वरसे रँभा रही थी। ाजीके पास जाकर उसने उ ह अपनी पूरी क -कहानी
सुनायी ।।१८।। ाजीने बड़ी सहानुभू तके साथ उसक ःख-गाथा सुनी। उसके बाद वे
भगवान् शंकर, वगके अ या य मुख दे वता तथा गौके पम आयी ई पृ वीको अपने साथ
लेकर ीरसागरके तटपर गये ।।१९।। भगवान् दे वता के भी आरा यदे व ह। वे अपने
भ क सम त अ भलाषाएँ पूण करते और उनके सम त लेश को न कर दे ते ह। वे ही
जगत्के एकमा वामी ह। ीरसागरके तटपर प ँचकर ा आ द दे वता ने ‘पु षसू ’
के ारा उ ह परम पु ष सवा तयामी भुक तु त क । तु त करते-करते ाजी
समा ध थ हो गये ।।२०।। उ ह ने समा ध-अव थाम आकाशवाणी सुनी। इसके बाद जगत्के
नमाणकता ाजीने दे वता से कहा—‘दे वताओ! मने भगवान्क वाणी सुनी है। तुमलोग
भी उसे मेरे ारा अभी सुन लो और फर वैसा ही करो। उसके पालनम वल ब नह होना
चा हये ।।२१।। भगवान्को पृ वीके क का पहलेसे ही पता है। वे ई र के भी ई र ह। अतः
अपनी कालश के ारा पृ वीका भार हरण करते ए वे जबतक पृ वीपर लीला कर,
तबतक तुम लोग भी अपने-अपने अंश के साथ य कुलम ज म लेकर उनक लीलाम
सहयोग दो ।।२२।। वसुदेवजीके घर वयं पु षो म भगवान् कट ह गे। उनक और उनक
यतमा ( ीराधा) क सेवाके लये दे वांगनाएँ ज म हण कर ।।२३।।
वयं काश भगवान् शेष भी, जो भगवान्क कला होनेके कारण अन त ह (अन तका
अंश भी अन त ही होता है) और जनके सह मुख ह, भगवान्के य काय करनेके लये
उनसे पहले ही उनके बड़े भाईके पम अवतार हण करगे ।।२४।। भगवान्क वह
ऐ यशा लनी योगमाया भी, जसने सारे जगत्को मो हत कर रखा है, उनक आ ासे उनक
लीलाके काय स प करनेके लये अंश पसे अवतार हण करेगी’ ।।२५।।

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व णोमाया भगवती यया स मो हतं जगत् ।
आ द ा भुणांशेन कायाथ स भ व य त ।।२५
ीशुक उवाच
इ या द यामरगणान् जाप तप त वभुः ।
आ ा य च मह गी भः वधाम परमं ययौ ।।२६

शूरसेनो य प तमथुरामावसन् पुरीम् ।


माथुरा छू रसेनां वषयान् बुभुजे पुरा ।।२७

राजधानी ततः साभूत् सवयादवभूभुजाम् ।


मथुरा भगवान् य न यं सं न हतो ह रः ।।२८

त यां तु क ह च छौ रवसुदेवः कृतो हः ।


दे व या सूयया साध याणे रथमा हत् ।।२९

उ सेनसुतः कंसः वसुः य चक षया ।


र मीन् हयानां ज ाह रौ मै रथशतैवृतः ।।३०

चतुःशतं पा रबह गजानां हेममा लनाम् ।


अ ानामयुतं साध रथानां च षट् शतम् ।।३१

दासीनां सुकुमारीणां े शते समलंकृते ।


ह े दे वकः ादाद् याने हतृव सलः ।।३२

शंखतूयमृदंगा ने भयः समम् ।


याण मे तावद् वरव वोः सुमंगलम् ।।३३

पथ हणं कंसमाभा याहाशरीरवाक् ।


अ या वाम मो गभ ह ता यां वहसेऽबुध ।।३४

इ यु ः स खलः पापो भोजानां कुलपांसनः ।


भ गन ह तुमार धः खड् गपा णः कचेऽ हीत् ।।३५
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जाप तय के वामी भगवान् ाजीने
दे वता को इस कार आ ा द और पृ वीको समझा-बुझाकर ढाढ़स बँधाया। इसके बाद वे

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अपने परम धामको चले गये ।।२६।। ाचीन कालम य वंशी राजा थे शूरसेन। वे मथुरापुरीम
रहकर माथुरम डल और शूरसेनम डलका रा यशासन करते थे ।।२७।। उसी समयसे मथुरा
ही सम त य वंशी नरप तय क राजधानी हो गयी थी। भगवान् ीह र सवदा वहाँ
वराजमान रहते ह ।।२८।। एक बार मथुराम शूरके पु वसुदेवजी ववाह करके अपनी
नव ववा हता प नी दे वक के साथ घर जानेके लये रथपर सवार ए ।।२९।। उ सेनका
लड़का था कंस। उसने अपनी चचेरी ब हन दे वक को स करनेके लये उसके रथके
घोड़ क रास पकड़ ली। वह वयं ही रथ हाँकने लगा, य प उसके साथ सैकड़ सोनेके बने
ए रथ चल रहे थे ।।३०।। दे वक के पता थे दे वक। अपनी पु ीपर उनका बड़ा ेम था।
क याको वदा करते समय उ ह ने उसे सोनेके हार से अलंकृत चार सौ हाथी, पं ह हजार
घोड़े, अठारह सौ रथ तथा सु दर-सु दर व ा-भूषण से वभू षत दो सौ सुकुमारी दा सयाँ
दहेजम द ।।३१-३२।। वदाईके समय वर-वधूके मंगलके लये एक ही साथ शंख, तुरही,
मृदंग और भयाँ बजने लग ।।३३।। मागम जस समय घोड़ क रास पकड़कर कंस रथ
हाँक रहा था, उस समय आकाशवाणीने उसे स बोधन करके कहा—‘अरे मूख! जसको तू
रथम बैठाकर लये जा रहा है, उसक आठव गभक स तान तुझे मार डालेगी’ ।।३४।। कंस
बड़ा पापी था। उसक ताक सीमा नह थी। वह भोजवंशका कलंक ही था। आकाशवाणी
सुनते ही उसने तलवार ख च ली और अपनी ब हनक चोट पकड़कर उसे मारनेके लये
तैयार हो गया ।।३५।। वह अ य त ू र तो था ही, पाप-कम करते-करते नल ज भी हो गया
था। उसका यह काम दे खकर महा मा वसुदेवजी उसको शा त करते ए बोले— ।।३६।।

तं जुगु सतकमाणं नृशंसं नरप पम् ।


वसुदेवो महाभाग उवाच प रसा वयन् ।।३६
वसुदेव उवाच
ाघनीयगुणः शूरैभवान् भोजयश करः ।
स कथं भ गन ह यात् यमु ाहपव ण ।।३७

मृ युज मवतां वीर दे हेन सह जायते ।


अ वा दशता ते वा मृ युव ा णनां ुवः ।।३८

दे हे पंच वमाप े दे ही कमानुगोऽवशः ।


दे हा तरमनु ा य ा नं यजते वपुः ।।३९

जं त न् पदै केन यथैवैकेन ग छ त ।


यथा तृणजलूकैवं दे ही कमग त गतः ।।४०

व े यथा प य त दे हमी शं
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मनोरथेना भ न व चेतनः ।
ु ा यां मनसानु च तयन्

प ते तत् कम प प मृ तः ।।४१

यतो यतो धाव त दै वचो दतं


मनो वकारा मकमाप पंचसु ।
गुणेषु मायार चतेषु दे सौ
प मानः सह तेन जायते ।।४२
वसुदेवजीने कहा—राजकुमार! आप भोजवंशके होनहार वंशधर तथा अपने कुलक
क त बढ़ानेवाले ह। बड़े-बड़े शूरवीर आपके गुण क सराहना करते ह। इधर यह एक तो
ी, सरे आपक ब हन और तीसरे यह ववाहका शुभ अवसर! ऐसी थ तम आप इसे
कैसे मार सकते ह? ।।३७।। वीरवर! जो ज म लेते ह, उनके शरीरके साथ ही मृ यु भी उ प
होती है। आज हो या सौ वषके बाद—जो ाणी है, उसक मृ यु होगी ही ।।३८।। जब
शरीरका अ त हो जाता है, तब जीव अपने कमके अनुसार सरे शरीरको हण करके अपने
पहले शरीरको छोड़ दे ता है। उसे ववश होकर ऐसा करना पड़ता है ।।३९।। जैसे चलते
समय मनु य एक पैर जमाकर ही सरा पैर उठाता है और जैसे ज क कसी अगले तनकेको
पकड़ लेती है, तब पहलेके पकड़े ए तनकेको छोड़ती है—वैसे जीव भी अपने कमके
अनुसार कसी शरीरको ा त करनेके बाद ही इस शरीरको छोड़ता है ।।४०।। जैसे कोई
पु ष जा त्-अव थाम राजाके ऐ यको दे खकर और इ ा दके ऐ यको सुनकर उसक
अ भलाषा करने लगता है और उसका च तन करते-करते उ ह बात म घुल- मलकर एक हो
जाता है तथा व म अपनेको राजा या इ के पम अनुभव करने लगता है, साथ ही अपने
द र ाव थाके शरीरको भूल जाता है। कभी-कभी तो जा त् अव थाम ही मन-ही-मन उन
बात का च तन करते-करते त मय हो जाता है और उसे थूल शरीरक सु ध नह रहती। वैसे
ही जीव कमकृत कामना और कामनाकृत कमके वश होकर सरे शरीरको ा त हो जाता है
और अपने पहले शरीरको भूल जाता है ।।४१।। जीवका मन अनेक वकार का पुंज है।
दे हा तके समय वह अनेक ज म के सं चत और ार ध कम क वासना के अधीन होकर
मायाके ारा रचे ए अनेक पांचभौ तक शरीर मसे जस कसी शरीरके च तनम त लीन हो
जाता है और मान बैठता है क यह म ,ँ उसे वही शरीर हण करके ज म लेना पड़ता
है ।।४२।। जैसे सूय, च मा आ द चमक ली व तुएँ जलसे भरे ए घड़ म या तेल आ द
तरल पदाथ म त ब बत होती ह और हवाके झ केसे उनके जल आ दके हलने-डोलनेपर
उनम त ब बत व तुएँ भी चंचल जान पड़ती ह—वैसे ही जीव अपने व पके अ ान ारा
रचे ए शरीर म राग करके उ ह अपना आप मान बैठता है और मोहवश उनके आने-जानेको
अपना आना-जाना मानने लगता है ।।४३।। इस लये जो अपना क याण चाहता है, उसे
कसीसे ोह नह करना चा हये; य क जीव कमके अधीन हो गया है और जो कसीसे भी
ोह करेगा, उसको इस जीवनम श ुसे और जीवनके बाद परलोकसे भयभीत होना ही
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पड़ेगा ।।४४।। कंस! यह आपक छोट ब हन अभी ब ची और ब त द न है। यह तो आपक
क याके समान है। इसपर, अभी-अभी इसका ववाह आ है, ववाहके मंगल च भी इसके
शरीरपरसे नह उतरे ह। ऐसी दशाम आप-जैसे द नव सल पु षको इस बेचारीका वध करना
उ चत नह है ।।४५।।

यो तयथैवोदकपा थवे वदः


समीरवेगानुगतं वभा ते ।
एवं वमायार चते वसौ पुमान्
गुणेषु रागानुगतो वमु त ।।४३

त मा क य चद् ोहमाचरेत् स तथा वधः ।


आ मनः ेमम व छन् ो धुव परतो भयम् ।।४४

एषा तवानुजा बाला कृपणा पु कोपमा ।


ह तुं नाह स क याणी ममां वं द नव सलः ।।४५
ीशुक उवाच
एवं स साम भभदै ब यमानोऽ प दा णः ।
न यवतत कौर पु षादाननु तः ।।४६

नब धं त य तं ा वा व च यानक भः ।
ा तं कालं त ोढु मदं त ा वप त ।।४७

मृ युबु मतापो ो यावद्बु बलोदयम् ।


य सौ न नवतत नापराधोऽ त दे हनः ।।४८

दाय मृ यवे पु ान् मोचये कृपणा ममाम् ।


सुता मे य द जायेरन् मृ युवा न येत चेत् ।।४९

वपययो वा क न याद् ग तधातु र यया ।


उप थतो नवतत नवृ ः पुनरापतेत् ।।५०
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! इस कार वसुदेवजीने शंसा आ द सामनी त और
भय आ द भेदनी तसे कंसको ब त समझाया। पर तु वह ू र तो रा स का अनुयायी हो रहा
था; इस लये उसने अपने घोर संक पको नह छोड़ा ।।४६।। वसुदेवजीने कंसका वकट हठ
दे खकर यह वचार कया क कसी कार यह समय तो टाल ही दे ना चा हये। तब वे इस

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न यपर प ँचे ।।४७।। ‘बु मान् पु षको, जहाँतक उसक बु और बल साथ द, मृ युको
टालनेका य न करना चा हये। य न करनेपर भी वह न टल सके, तो फर य न
करनेवालेका कोइ दोष नह रहता ।।४८।। इस लये इस मृ यु प कंसको अपने पु दे दे नेक
त ा करके म इस द न दे वक को बचा लूँ। य द मेरे लड़के ह गे और तबतक यह कंस वयं
नह मर जायगा, तब या होगा? ।।४९।। स भव है, उलटा ही हो। मेरा लड़का ही इसे मार
डाले! य क वधाताके वधानका पार पाना ब त क ठन है। मृ यु सामने आकर भी टल
जाती है और टली ई भी लौट आती है ।।५०।। जस समय वनम आग लगती है, उस समय
कौन-सी लकड़ी जले और कौन-सी न जले, रक जल जाय और पासक बच रहे—इन सब
बात म अ के सवा और कोई कारण नह होता। वैसे ही कस ाणीका कौन-सा शरीर बना
रहेगा और कस हेतुसे कौन-सा शरीर न हो जायगा—इस बातका पता लगा लेना ब त ही
क ठन है’ ।।५१।। अपनी बु के अनुसार ऐसा न य करके वसुदेवजीने ब त स मानके
साथ पापी कंसक बड़ी शंसा क ।।५२।। परी त्! कंस बड़ा ू र और नल ज था; अतः
ऐसा करते समय वसुदेवजीके मनम बड़ी पीड़ा भी हो रही थी। फर भी उ ह ने ऊपरसे अपने
मुखकमलको फु लत करके हँसते ए कहा— ।।५३।।

अ नेयथा दा वयोगयोगयो-
र तोऽ य न म म त ।
एवं ह ज तोर प वभा ः
शरीरसंयोग वयोगहेतुः ।।५१

एवं वमृ य तं पापं यावदा म नदशनम् ।


पूजयामास वै शौ रब मानपुरःसरम् ।।५२

स वदना भोजो नृशंसं नरप पम् ।


मनसा यमानेन वहस दम वीत् ।।५३
वसुदेव उवाच
न या ते भयं सौ य यद् वागाहाशरी रणी ।
पु ान् समप य येऽ या यत ते भयमु थतम् ।।५४
ीशुक उवाच
वसुवधा ववृते कंस त ा यसार वत् ।
वसुदेवोऽ प तं ीतः श य ा वशद् गृहम् ।।५५

अथ काल उपावृ े दे वक सवदे वता ।


पु ान् सुषुवे चा ौ क यां चैवानुव सरम् ।।५६
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क तम तं थमजं कंसायानक भः ।
अपयामास कृ े ण सोऽनृताद त व लः ।।५७

क ःसहं नु साधूनां व षां कमपे तम् ।


कमकाय कदयाणां यजं क धृता मनाम् ।।५८
वसुदेवजीने कहा—सौ य! आपको दे वक से तो कोई भय है नह , जैसा क
आकाशवाणीने कहा है। भय है पु से, सो इसके पु म आपको लाकर स प ँ गा ।।५४।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! कंस जानता था क वसुदेवजीके वचन झूठे नह
होते
और इ ह ने जो कुछ कहा है, वह यु संगत भी है। इस लये उसने अपनी ब हन
दे वक को मारनेका वचार छोड़ दया। इससे वसुदेवजी ब त स ए और उसक शंसा
करके अपने घर चले आये ।।५५।। दे वक बड़ी सती-सा वी थी। सारे दे वता उसके शरीरम
नवास करते थे। समय आनेपर दे वक के गभसे तवष एक-एक करके आठ पु तथा एक
क या उ प ई ।।५६।। पहले पु का नाम था क तमान्। वसुदेवजीने उसे लाकर कंसको दे
दया। ऐसा करते समय उ ह क तो अव य आ, पर तु उससे भी बड़ा क उ ह इस
बातका था क कह मेरे वचन झूठे न हो जायँ ।।५७।। परी त्! स यस ध पु ष बड़े-से-
बड़ा क भी सह लेते ह, ा नय को कसी बातक अपे ा नह होती, नीच पु ष बुर-े से-बुरा
काम भी कर सकते ह और जो जते य ह— ज ह ने भगवान्को दयम धारण कर रखा है,
वे सब कुछ याग सकते ह ।।५८।।

् वा सम वं त छौरेः स ये चैव व थ तम् ।


कंस तु मना राजन् हस दम वीत् ।।५९

तयातु१ कुमारोऽयं न माद त मे भयम् ।


अ माद् युवयोगभा मृ युम२ व हतः कल ।।६०

तथे त सुतमादाय ययावानक भः ।


ना यन दत त ा यमसतोऽ व जता मनः ।।६१

न दा ा ये जे गोपा या ामीषां च यो षतः ।


वृ णयो वसुदेवा ा दे व या ा य यः ।।६२

सव वै दे वता ाया उभयोर प भारत ।


ातयो ब धुसु दो ये च कंसमनु ताः ।।६३

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एतत् कंसाय भगवा छशंसा ये य नारदः ।
भूमेभारायमाणानां दै यानां च वधो मम् ।।६४

ऋषे व नगमे कंसो य न् म वा सुरा न त ।


दे व या गभस भूतं व णुं च ववधं त ।।६५

दे वक वसुदेवं च नगृ नगडैगृहे ।


जातं जातमहन् पु ं तयोरजनशंकया ।।६६

मातरं पतरं ातॄन् सवा सु द तथा ।


न त सुतृपो लु धा राजानः ायशो भु व ।।६७
जब कंसने दे खा क वसुदेवजीका अपने पु के जीवन और मृ युम समान भाव है एवं वे
स यम पूण न ावान् भी ह, तब वह ब त स आ और उनसे हँसकर बोला ।।५९।।
वसुदेवजी! आप इस न हे-से सुकुमार बालकको ले जाइये। इससे मुझे कोई भय नह है।
य क आकाशवाणीने तो ऐसा कहा था क दे वक के आठव गभसे उ प स तानके ारा
मेरी मृ यु होगी ।।६०।। वसुदेवजीने कहा—‘ठ क है’ और उस बालकको लेकर वे लौट
आये। पर तु उ ह मालूम था क कंस बड़ा है और उसका मन उसके हाथम नह है। वह
कसी ण बदल सकता है। इस लये उ ह ने उसक बातपर व ास नह कया ।।६१।।
परी त्! इधर भगवान् नारद कंसके पास आये और उससे बोले क ‘कंस! जम
रहनेवाले
न द आ द गोप, उनक याँ, वसुदेव आ द वृ णवंशी यादव, दे वक आ द य वंशक
याँ और न द, वसुदेव दोन के सजातीय ब धु-बा धव और सगे-स ब धी—सब-के-सब
दे वता ह; जो इस समय तु हारी सेवा कर रहे ह, वे भी दे वता ही ह।’ उ ह ने यह भी बतलाया
क ‘दै य के कारण पृ वीका भार बढ़ गया है, इस लये दे वता क ओरसे अब उनके वधक
तैयारी क जा रही है’ ।।६२-६४।। जब दे व ष नारद इतना कहकर चले गये, तब कंसको यह
न य हो गया क य वंशी दे वता ह और दे वक के गभसे व णुभगवान् ही मुझे मारनेके लये
पैदा होनेवाले ह। इस लये उसने दे वक और वसुदेवको हथकड़ी-बेड़ीसे जकड़कर कैदम
डाल दया और उन दोन से जो-जो पु होते गये, उ ह वह मारता गया। उसे हर बार यह शंका
बनी रहती क कह व णु ही उस बालकके पम न आ गया हो ।।६५-६६।। परी त्!
पृ वीम यह बात ायः दे खी जाती है क अपने ाण का ही पोषण करनेवाले लोभी राजा
अपने वाथके लये माता- पता, भाई-ब धु और अपने अ य त हतैषी इ - म क भी ह या
कर डालते ह ।।६७।।

आ मान मह संजातं जानन् ाग् व णुना हतम् ।


महासुरं कालने म य भः स यत ।।६८
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उ सेनं च पतरं य भोजा धका धपम्१ ।
वयं नगृ बुभुजे शूरसेनान् महाबलः ।।६९
कंस जानता था क म पहले कालने म असुर था और व णुने मुझे मार डाला था। इससे
उसने य वं शय से घोर वरोध ठान लया ।।६८।। कंस बड़ा बलवान् था। उसने य , भोज
और अ धक वंशके अ धनायक अपने पता उ सेनको कैद कर लया और शूरसेन-दे शका
रा य वह वयं करने लगा ।।६९।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध ीकृ णावतारोप मे
थमोऽ यायः ।।१।।

* सम त दे हधा रय के अ तःकरणम अ तयामी पसे थत भगवान् उनके जीवनके


कारण ह तथा बाहर काल पसे थत ए वे ही उनका नाश करते ह। अतः जो
आ म ानीजन अ त ारा उन अ तयामीक उपासना करते ह, वे मो प अमरपद पाते
ह और जो वषयपरायण अ ानी पु ष बा से वषय च तनम ही लगे रहते ह, वे ज म-
मरण प मृ युके भागी होते ह।
१. म तः।
१. समवोचत। २. य त। ३. व वमर यः।
१. यवीयां तु। २. योः पु ा मृ०।
१. य नाम धका०।

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अथ तीयोऽ यायः
भगवान्का गभ- वेश और दे वता ारा गभ- तु त
ीशुक उवाच
ल बबकचाणूरतृणावतमहाशनैः२ ।
मु का र वदपूतनाके शधेनुकैः ।।१

अ यै ासुरभूपालैबाणभौमा द भयुतः ।
य नां कदनं च े बली मागधसं यः ।।२

ते पी डता न व वशुः कु पंचालकेकयान् ।


शा वान् वदभान् नषधान् वदे हान् कोसलान प ।।३

एके तमनु धाना ातय: पयुपासते ।


हतेषु षट् सु बालेषु दे व या औ से नना ।।४

स तमो वै णवं धाम यमन तं च ते ।


गभ बभूव दे व या हषशोक ववधनः ।।५
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! कंस एक तो वयं बड़ा बली था और सरे,
मगधनरेश जरास धक उसे ब त बड़ी सहायता ा त थी। तीसरे, उसके साथी थे—
ल बासुर, बकासुर, चाणूर, तृणावत, अघासुर, मु क, अ र ासुर, वद, पूतना, केशी
और धेनुक। तथा बाणासुर और भौमासुर आ द ब त-से दै य राजा उसके सहायक थे।
इनको साथ लेकर वह य वं शय को न करने लगा ।।१-२।।
वे लोग भयभीत होकर कु , पंचाल, केकय, शा व, वदभ, नषध, वदे ह और कोसल
आ द दे श म जा बसे ।।३।। कुछ लोग ऊपर-ऊपरसे उसके मनके अनुसार काम करते ए
उसक सेवाम लगे रहे। जब कंसने एक-एक करके दे वक के छः बालक मार डाले, तब
दे वक के सातव गभम भगवान्के अंश व प ीशेषजी* ज ह अन त भी कहते ह—पधारे।
आन द- व प शेषजीके गभम आनेके कारण दे वक को वाभा वक ही हष आ। पर तु
कंस शायद इसे भी मार डाले, इस भयसे उनका शोक भी बढ़ गया ।।४-५।।

भगवान प व ा मा व द वा कंसजं भयम् ।


य नां नजनाथानां योगमायां१ समा दशत् ।।६

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ग छ दे व जं भ े गोपगो भरलंकृतम् ।
रो हणी वसुदेव य भायाऽऽ ते न दगोकुले ।
अ या कंससं व ना ववरेषु वस त ह२ ।।७

दे व या जठरे गभ शेषा यं धाम मामकम् ।


तत् सं नकृ य रो ह या उदरे सं नवेशय ।।८

अथाहमंशभागेन दे व याः पु तां शुभे ।


ा या म वं यशोदायां न दप यां भ व य स ।।९

अ च य त मनु या वां सवकामवरे रीम्३ ।


धूपोपहारब ल भः४ सवकामवर दाम् ।।१०

नामधेया न कुव त थाना न च नरा भु व ।


ग त भ काली त वजया वै णवी त च ।।११

कुमुदा च डका कृ णा माधवी क यके त च ।


माया नारायणीशानी शारदे य बके त च ।।१२

गभसंकषणात् तं वै ा ः संकषणं भु व ।
रामे त लोकरमणाद् बलं बलव यात् ।।१३

स द व
ै ं भगवता तथे यो म त त चः ।
तगृ प र य गां गता तत् तथाकरोत् ।।१४

गभ णीते दे व या रो हण योग न या ।
अहो व ं सतो गभ इ त पौरा वचु ु शुः ।।१५
व ा मा भगवान्ने दे खा क मुझे ही अपना वामी और सव व माननेवाले य वंशी
कंसके ारा ब त ही सताये जा रहे ह। तब उ ह ने अपनी योगमायाको यह आदे श दया
— ।।६।। ‘दे व! क याणी! तुम जम जाओ! वह दे श वाल और गौ से सुशो भत है।
वहाँ न दबाबाके गोकुलम वसुदेवक प नी रो हणी नवास करती ह। उनक और भी प नयाँ
कंससे डरकर गु त थान म रह रही ह ।।७।। इस समय मेरा वह अंश जसे शेष कहते ह,
दे वक के उदरम गभ पसे थत है। उसे वहाँसे नकालकर तुम रो हणीके पेटम रख
दो ।।८।। क याणी! अब म अपने सम त ान, बल आ द अंश के साथ दे वक का पु बनूँगा

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और तुम न दबाबाक प नी यशोदाके गभसे ज म लेना ।।९।। तुम लोग को मुँहमाँगे वरदान
दे नेम समथ होओगी। मनु य तु ह अपनी सम त अ भलाषा को पूण करनेवाली जानकर
धूप-द प, नैवे एवं अ य कारक साम य से तु हारी पूजा करगे ।।१०।। पृ वीम लोग
तु हारे लये ब त-से थान बनायगे और गा, भ काली, वजया, वै णवी, कुमुदा, च डका,
कृ णा, माधवी, क या, माया, नारायणी, ईशानी, शारदा और अ बका आ द ब त-से नाम से
पुकारगे ।।११-१२।। दे वक के गभमसे ख चे जानेके कारण शेषजीको लोग संसारम
‘संकषण’ कहगे, लोकरंजन करनेके कारण ‘राम’ कहगे और बलवान म े होनेके कारण
‘बलभ ’ भी कहगे ।।१३।।
जब भगवान्ने इस कार आदे श दया, तब योगमायाने ‘जो आ ा’—ऐसा कहकर
उनक बात शरोधाय क और उनक प र मा करके वे पृ वी-लोकम चली आय तथा
भगवान्ने जैसा कहा था, वैसे ही कया ।।१४।। जब योगमायाने दे वक का गभ ले जाकर
रो हणीके उदरम रख दया, तब पुरवासी बड़े ःखके साथ आपसम कहने लगे—‘हाय!
बेचारी दे वक का यह गभ तो न ही हो गया’ ।।१५।।

भगवान प व ा मा भ ानामभयंकरः ।
आ ववेशांशभागेन मन आनक भेः ।।१६

स ब त् पौ षं धाम ाजमानो यथा र वः ।


रासदोऽ त धष भूतानां स बभूव ह ।।१७

ततो जग मंगलम युतांशं


समा हतं शूरसुतेन दे वी ।
दधार सवा मकमा मभूतं
का ा यथाऽऽन दकरं मन तः ।।१८

सा दे वक सवजग वास-
नवासभूता नतरां न रेजे ।
भोजे गेहेऽ न शखेव ा
सर वती ानखले यथा सती ।।१९

तां वी य कंसः भया जता तरां


वरोचय त भवनं शु च मताम् ।
आहैष मे ाणहरो ह रगुहां
ुवं तो य पुरेयमी शी ।।२०

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कम त मन् करणीयमाशु मे
यदथत ो न वह त व मम् ।
याः वसुगु म या वधोऽयं
यशः यं ह यनुकालमायुः ।।२१

स एष जीवन् खलु स परेतो


वतत योऽ य तनृशं सतेन ।
दे हे मृते तं मनुजाः शप त
ग ता तमोऽ धं तनुमा ननो ुवम् ।।२२
भगवान् भ को अभय करनेवाले ह। वे सव सब पम ह, उ ह कह आना-जाना नह
है। इस लये वे वसुदेवजीके मनम अपनी सम त कला के साथ कट हो गये ।।१६।। उसम
व मान रहनेपर भी अपनेको अ से कर दया। भगवान्क यो तको धारण
करनेके कारण वसुदेवजी सूयके समान तेज वी हो गये, उ ह दे खकर लोग क आँख च धया
जात । कोई भी अपने बल, वाणी या भावसे उ ह दबा नह सकता था ।।१७।। भगवान्के
उस यो तमय अंशको, जो जगत्का परम मंगल करनेवाला है, वसुदेवजीके ारा आधान
कये जानेपर दे वी दे वक ने हण कया। जैसे पूव दशा च दे वको धारण करती है, वैसे ही
शु स वसे स प दे वी दे वक ने वशु मनसे सवा मा एवं आ म व प भगवान्को धारण
कया ।।१८।। भगवान् सारे जगत्के नवास थान ह। दे वक उनका भी नवास थान बन
गयी। पर तु घड़े आ दके भीतर बंद कये ए द पकका और अपनी व ा सरेको न दे नेवाले
ानखलक े व ाका काश जैसे चार ओर नह फैलता, वैसे ही कंसके कारागारम बंद
दे वक क भी उतनी शोभा नह ई ।।१९।। दे वक के गभम भगवान् वराजमान हो गये थे।
उसके मुखपर प व मुसकान थी और उसके शरीरक का तसे बंद गृह जगमगाने लगा था।
जब कंसने उसे दे खा, तब वह मन-ही-मन कहने लगा—‘अबक बार मेरे ाण के ाहक
व णुने इसके गभम अव य ही वेश कया है; य क इसके पहले दे वक कभी ऐसी न
थी ।।२०।। अब इस वषयम शी -से-शी मुझे या करना चा हये? दे वक को मारना तो
ठ क न होगा; य क वीर पु ष वाथवश अपने परा मको कलं कत नह करते। एक तो
यह ी है, सरे ब हन और तीसरे गभवती है। इसको मारनेसे तो त काल ही मेरी क त,
ल मी और आयु न हो जायगी ।।२१।। वह मनु य तो जी वत रहनेपर भी मरा आ ही है,
जो अ य त ू रताका वहार करता है। उसक मृ युके बाद लोग उसे गाली दे ते ह। इतना ही
नह , वह दे हा भमा नय के यो य घोर नरकम भी अव य-अव य जाता है ।।२२।। य प कंस
दे वक को मार सकता था, क तु वयं ही वह इस अ य त ू रताके वचारसे नवृ हो गया।*
अब भगवान्के त ढ़ वैरका भाव मनम गाँठकर उनके ज मक ती ा करने लगा ।।२३।।
वह उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते और चलते- फरते—सवदा ही ीकृ णके च तनम
लगा रहता। जहाँ उसक आँख पड़ती, जहाँ कुछ खड़का होता, वहाँ उसे ीकृ ण द ख
जाते। इस कार उसे सारा जगत् ही ीकृ णमय द खने लगा ।।२४।।
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इ त घोरतमाद् भावात् स वृ ः वयं भुः ।
आ ते ती ं त ज म हरेवरानुब धकृत् ।।२३

आसीनः सं वशं त न् भुंजानः पयटन्१ महीम् ।


च तयानो षीकेशमप यत् त मयं जगत् ।।२४

ा भव त ै य मु न भनारदा द भः ।
दे वैः२ सानुचरैः साकं गी भवृषणमैडयन् ।।२५

स य तं स यपरं स यं
स य य यो न न हतं च स ये ।
स य य स यमृतस यने ं
स या मकं वां शरणं प ाः ।।२६

एकायनोऽसौ फल मूल-
तूरसः पंच वधः षडा मा ।
स त वग वटपो नवा ो
दश छद खगो ा दवृ ः ।।२७
स त वग वटपो नवा ो
दश छद खगो ा दवृ ः ।।२७
परी त्! भगवान् शंकर और ाजी कंसके कैदखानेम आये। उनके साथ अपने
अनुचर के स हत सम त दे वता और नारदा द ऋ ष भी थे। वे लोग सुमधुर वचन से सबक
अ भलाषा पूण करनेवाले ीह रक इस कार तु त करने लगे ।।२५।। ‘ भो! आप
स यसंक प ह। स य ही आपक ा तका े साधन है। सृ के पूव, लयके प ात् और
संसारक थ तके समय—इन अस य अव था म भी आप स य ह। पृ वी, जल, तेज, वायु
और आकाश इन पाँच यमान स य के आप ही कारण ह। और उनम अ तयामी पसे
वराजमान भी ह। आप इस यमान जगत्के परमाथ व प ह। आप ही मधुर वाणी और
समदशनके वतक ह। भगवन्! आप तो बस, स य व प ही ह। हम सब आपक शरणम
आये ह ।।२६।। यह संसार या है, एक सनातन वृ । इस वृ का आ य है—एक कृ त।
इसके दो फल ह—सुख और ःख; तीन जड़ ह—स व, रज और तम; चार रस ह—धम,
अथ, काम और मो । इसके जाननेके पाँच कार ह— ो , वचा, ने , रसना और
ना सका। इसके छः वभाव ह—पैदा होना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और न हो जाना।
इस वृ क छाल ह सात धातुए— ँ रस, धर, मांस, मेद, अ थ, म जा और शु । आठ
शाखाएँ ह—पाँच महाभूत, मन, बु और अहंकार। इसम मुख आ द नव ार खोड़र ह।
ाण, अपान, ान, उदान, समान, नाग, कूम, कृकल, दे वद और धनंजय—ये दस ाण ही
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इसके दस प े ह। इस संसार प वृ पर दो प ी ह—जीव और ई र ।।२७।। इस संसार प
वृ क उ प के आधार एकमा आप ही ह। आपम ही इसका लय होता है और आपके
ही अनु हसे इसक र ा भी होती है। जनका च आपक मायासे आवृत हो रहा है, इस
स यको समझनेक श खो बैठा है—वे ही उ प , थ त और लय करनेवाले ाद
दे वता को अनेक दे खते ह। त व ानी पु ष तो सबके पम केवल आपका ही दशन करते
ह ।।२८।। आप ान व प आ मा ह। चराचर जगत्के क याणके लये ही अनेक प
धारण करते ह। आपके वे प वशु अ ाकृत स वमय होते ह और संत पु ष को ब त
सुख दे ते ह। साथ ही को उनक ताका द ड भी दे ते ह। उनके लये अमंगलमय भी
होते ह ।।२९।। कमलके समान कोमल अनु हभरे ने वाले भो! कुछ बरले लोग ही
आपके सम त पदाथ और ा णय के आ य व प पम पूण एका तासे अपना च
लगा पाते ह और आपके चरणकमल पी जहाजका आ य लेकर इस संसारसागरको
बछड़ेके खुरके गढ़े के समान अनायास ही पार कर जाते ह। य न हो, अबतकके संत ने इसी
जहाजसे संसार-सागरको पार जो कया है ।।३०।। परम काश व प परमा मन्! आपके
भ जन सारे जगत्के न कपट ेमी, स चे हतैषी होते ह। वे वयं तो इस भयंकर और
क से पार करनेयो य संसारसागरको पार कर ही जाते ह, क तु और के क याणके लये भी
वे यहाँ आपके चरण-कमल क नौका था पत कर जाते ह। वा तवम स पु ष पर आपक
महान् कृपा है। उनके लये आप अनु ह व प ही ह ।।३१।। कमलनयन! जो लोग आपके
चरणकमल क शरण नह लेते तथा आपके त भ भावसे र हत होनेके कारण जनक
बु भी शु नह है, वे अपनेको झूठ-मूठ मु मानते ह। वा तवम तो वे ब ही ह। वे य द
बड़ी तप या और साधनाका क उठाकर कसी कार ऊँचे-से-ऊँचे पदपर भी प ँच जायँ,
तो भी वहाँसे नीचे गर जाते ह ।।३२।। पर तु भगवन्! जो आपके अपने नज जन ह,
ज ह ने आपके चरण म अपनी स ची ी त जोड़ रखी है, वे कभी उन ाना भमा नय क
भाँ त अपने साधन-मागसे गरते नह । भो! वे बड़े-बड़े व न डालनेवाल क सेनाके
सरदार के सरपर पैर रखकर नभय वचरते ह, कोई भी व न उनके मागम कावट नह
डाल सकते; य क उनके र क आप जो ह ।।३३।। आप संसारक थ तके लये सम त
दे हधा रय को परम क याण दान करनेवाला वशु स वमय, स चदान दमय परम द
मंगल- व ह कट करते ह। उस पके कट होनेसे ही आपके भ वेद, कमका ड,
अ ांगयोग, तप या और समा धके ारा आपक आराधना करते ह। बना कसी आ यके वे
कसक आराधना करगे? ।।३४।। भो! आप सबके वधाता ह। य द आपका यह वशु
स वमय नज व प न हो, तो अ ान और उसके ारा होनेवाले भेदभावको न करनेवाला
अपरो ान ही कसीको न हो। जगत्म द खनेवाले तीन गुण आपके ह और आपके ारा
ही का शत होते ह, यह स य है। पर तु इन गुण क काशक वृ य से आपके व पका
केवल अनुमान ही होता है, वा त वक व पका सा ा कार नह होता। (आपके व पका
सा ा कार तो आपके इस वशु स वमय व पक सेवा करनेपर आपक कृपासे ही होता
है) ।।३५।। भगवन्! मन और वेद-वाणीके ारा केवल आपके व पका अनुमानमा होता

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है। य क आप उनके ारा य नह ; उनके सा ी ह। इस लये आपके गुण, ज म और कम
आ दके ारा आपके नाम और पका न पण नह कया जा सकता। फर भी भो!
आपके भ जन उपासना आ द यायोग के ारा आपका सा ा कार तो करते ही
ह ।।३६।। जो पु ष आपके मंगलमय नाम और प का वण, क तन, मरण और यान
करता है और आपके चरणकमल क सेवाम ही अपना च लगाये रहता है—उसे फर
ज म-मृ यु प संसारके च म नह आना पड़ता ।।३७।। स पूण ःख के हरनेवाले भगवन्!
आप सव र ह। यह पृ वी तो आपका चरणकमल ही है। आपके अवतारसे इसका भार र
हो गया। ध य है! भो! हमारे लये यह बड़े सौभा यक बात है क हमलोग आपके सु दर-
सु दर च से यु चरणकमल के ारा वभू षत पृ वीको दे खगे और वगलोकको भी
आपक कृपासे कृताथ दे खगे ।।३८।। भो! आप अज मा ह। य द आपके ज मके कारणके
स ब धम हम कोई तक ना कर, तो यही कह सकते ह क यह आपका एक लीला- वनोद है।
ऐसा कहनेका कारण यह है क आप तो ै तके लेशसे र हत सवा ध ान व प ह और इस
जगत्क उ प , थ त तथा लय अ ानके ारा आपम आरो पत ह ।।३९।। भो! आपने
जैसे अनेक बार म य, हय ीव, क छप, नृ सह, वराह, हंस, राम, परशुराम और वामन
अवतार धारण करके हमलोग क और तीन लोक क र ा क है—वैसे ही आप इस बार भी
पृ वीका भार हरण क जये। य न दन! हम आपके चरण म व दना करते ह’ ।।४०।।
[दे वक जीको स बो धत करके] ‘माताजी! यह बड़े सौभा यक बात है क आपक कोखम
हम सबका क याण करनेके लये वयं भगवान् पु षो म अपने ान, बल आ द अंश के
साथ पधारे ह। अब आप कंससे त नक भी मत ड रये। अब तो वह कुछ ही दन का मेहमान
है। आपका पु य वंशक र ा करेगा’ ।।४१।।
वमेक एवा य सतः सू त-
वं स धानं वमनु ह ।
व मायया संवृतचेतस वां
प य त नाना न वप तो ये ।।२८

बभ ष पा यवबोध आ मा
ेमाय लोक य चराचर य ।
स वोपप ा न सुखावहा न
सतामभ ा ण मु ः खलानाम् ।।२९

व य बुजा ा खलस वधा न


समा धनाऽऽवे शतचेतसैके ।
व पादपोतेन मह कृतेन
कुव त गोव सपदं भवा धम् ।।३०

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वयं समु ीय सु तरं ुमन्
भवाणवं भीममद सौ दाः ।
भव पदा भो हनावम ते
नधाय याताः सदनु हो भवान् ।।३१

येऽ येऽर व दा वमु मा नन-


व य तभावाद वशु बु यः ।
आ कृ े ण परं पदं ततः
पत यधोऽना तयु मदङ् यः ।। ३२
तथा न ते माधव तावकाः व चद्
य त मागा व य ब सौ दाः ।
वया भगु ता वचर त नभया
वनायकानीकपमूधसु भो ।।३३

स वं वशु ं यते भवान् थतौ


शरी रणां ेय उपायनं वपुः ।
वेद यायोगतपःसमा ध भ-
तवाहणं येन जनः समीहते ।।३४

स वं न चे ात रदं नजं भवेद ्


व ानम ान भदापमाजनम् ।
गुण काशैरनुमीयते भवान्
काशते य य च येन वा गुणः ।।३५

न नाम पे गुणज मकम भ-१


न पत े तव त य सा णः ।
मनोवचो यामनुमेयव मनो
दे व यायां तय यथा प ह ।।३६

शृ वन् गृणन् सं मरयं च तयन्


नामा न पा ण च मंगला न ते ।
यासु य व चरणार व दयो-
रा व चेता न भवाय क पते ।।३७
द ा हरेऽ या भवतः पदो भुवो
भारोऽपनीत तव ज मने शतुः ।
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द ां कतां व पदकैः सुशोभनै-
याम गां ां च तवानुक पताम् ।।३८

न तेऽभव येश भव य कारणं


वना वनोदं बत तकयामहे ।
भवो नरोधः थ तर य व या
कृता यत व यभया या म न ।।३९

म या क छपनृ सहवराहहंस-
राज य व वबुधेषु कृतावतारः ।
वं पा स न भुवनं च यथाधुनेश
भारं भुवो हर य म व दनं ते ।।४०

द ा ब ते कु गतः परः पुमा-


नंशेन सा ाद् भगवान् भवाय नः ।
मा भूद ् भयं भोजपतेमुमूष -
ग ता य नां भ वता तवा मजः ।।४१
ीशुक उवाच
इ य भ ू य पु षं य प ू म नदं यथा ।
ेशानौ पुरोधाय दे वाः तययु दवम् ।।४२
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! ा द दे वता ने इस कार भगवान्क तु त
क । उनका प ‘यह है’ इस कार न त पसे तो कहा नह जा सकता, सब अपनी-
अपनी म तके अनुसार उसका न पण करते ह। इसके बाद ा और शंकरजीको आगे
करके दे वगण वगम चले गये ।।४२।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध
गभगत व णो ा दकृत तु तनाम तीयोऽ यायः ।।२।।

२. हासुरैः।
* शेष भगवान्ने वचार कया क ‘रामावतारम म छोटा भाई बना, इसीसे मुझे बड़े

भाईक आ ा माननी पड़ी और वन जानेसे म उ ह रोक नह सका। ीकृ णावतारम म बड़ा


भाई बनकर भगवान्क अ छ सेवा कर सकूँगा। इस लये वे ीकृ णसे पहले ही गभम आ
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गये।
१. न ां। २. याः। ३. कमवरे०। ४. नानोप०।
१. टन् पबन्। २. दे वाः सानुचराः।
* जो कंस ववाहके मंगल च को धारण क ई दे वक का गला काटनेके उ ोगसे न
हचका, वही आज इतना सद्- वचारवान् हो गया, इसका या कारण है? अव य ही आज
वह जस दे वक को दे ख रहा है, उसके अ तरंगम—गभम ीभगवान् ह। जसके भीतर
भगवान् ह, उसके दशनसे सद्बु का उदय होना कोई आ य नह है।
१. गुणकमज म भ न०।

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अथ तृतीयोऽ यायः
भगवान् ीकृ णका ाक
ीशुक उवाच
अथ सवगुणोपेतः कालः परमशोभनः ।
य वाजनज म शा त हतारकम् ।।१

दशः से गगनं नमलोडु गणोदयम् ।


मही मंगलभू य पुर ाम जाकरा ।।२
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! अब सम त शुभ गुण से यु ब त सुहावना समय
आया। रो हणी न था। आकाशके सभी न , ह और तारे शा त—सौ य हो रहे
थे* ।।१।।
दशाएँ व छ स थ । नमल आकाशम तारे जगमगा रहे थे। पृ वीके बड़े-बड़े नगर,
छोटे -छोटे गाँव, अहीर क ब तयाँ और हीरे आ दक खान मंगलमय हो रही थ ।।२।।
न दय का जल नमल हो गया था। रा के समय भी सरोवर म कमल खल रहे थे। वनम
वृ क पं याँ रंग- बरंगे पु प के गु छ से लद गयी थ । कह प ी चहक रहे थे, तो कह
भ रे गुनगुना रहे थे ।।३।। उस समय परम प व और शीतल-म द-सुग ध वायु अपने पशसे
लोग को सुखदान करती ई बह रही थी। ा ण के अ न-हो क कभी न बुझनेवाली
अ नयाँ जो कंसके अ याचारसे बुझ गयी थ , वे इस समय अपने-आप जल उठ ।।४।।
न ः स स लला दा जल ह यः ।
जा लकुलसंनाद तबका वनराजयः ।।३

ववौ वायुः सुख पशः पु यग धवहः शु चः ।


अ नय जातीनां शा ता त स म धत ।।४
मनां यासन् स ा न साधूनामसुर हाम् ।
जायमानेऽजने त मन् ने भयो द व ।।५
जगुः क रग धवा तु ु वुः स चारणाः ।
व ाधय ननृतुर सरो भः समं तदा ।।६
मुमुचुमुनयो दे वाः सुमनां स मुदा वताः ।
म दं म दं जलधरा जगजुरनुसागरम् ।।७
संत पु ष पहलेसे ही चाहते थे क असुर क बढ़ती न होने पाये। अब उनका मन सहसा
स तासे भर गया। जस समय भगवान्के आ वभावका अवसर आया, वगम दे वता क
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भयाँ अपने-आप बज उठ ।।५।। क र और ग धव मधुर वरम गाने लगे तथा स
और चारण भगवान्के मंगलमय गुण क तु त करने लगे। व ाध रयाँ अ सरा के साथ
नाचने लग ।।६।। बड़े-बड़े दे वता और ऋ ष-मु न आन दसे भरकर पु प क वषा करने
लगे*। जलसे भरे ए बादल समु के पास जाकर धीरे-धीरे गजना करने लगे† ।।७।। ज म-
मृ युके च से छु ड़ानेवाले जनादनके अवतारका समय था नशीथ। चार ओर अ धकारका
सा ा य था। उसी समय सबके दयम वराजमान भगवान् व णु दे व पणी दे वक के गभसे
कट ए, जैसे पूव दशाम सोलह कला से पूण च माका उदय हो गया हो ।।८।।
नशीथे तमउ ते जायमाने जनादने ।
दे व यां दे व प यां व णुः सवगुहाशयः१ ।
आ वरासीद् यथा ा यां दशी रव पु कलः ।।८

तम तं बालकम बुजे णं
चतुभुजं शंखगदायुदायुधम्२ ।
ीव सल मं गलशो भकौ तुभं
पीता बरं सा पयोदसौभगम् ।।९

महाहवै य करीटकु डल-


वषा प र व सह कु तलम् ।
उ ामका य दकंकणा द भ-
वरोचमानं वसुदेव ऐ त ।।१०

स व मयो फु ल वलोचनो ह र
सुतं वलो यानक भ तदा ।
कृ णावतारो सवस मोऽ पृशन्
मुदा जे योऽयुतमा लुतो गवाम् ।।११
वसुदेवजीने दे खा, उनके सामने एक अद्भुत बालक है। उसके ने कमलके समान
कोमल और वशाल ह। चार सु दर हाथ म शंख, गदा, च और कमल लये ए ह।
व ः थलपर ीव सका च —अ य त सु दर सुवणमयी रेखा है। गलेम कौ तुभम ण
झल मला रही है। वषाकालीन मेघके समान परम सु दर यामल शरीरपर मनोहर पीता बर
फहरा रहा है। ब मू य वै यम णके करीट और कु डलक का तसे सु दर-सु दर घुँघराले
बाल सूयक करण के समान चमक रहे ह। कमरम चमचमाती करधनीक ल ड़याँ लटक रही
ह। बाँह म बाजूबंद और कलाइय म कंकण शोभायमान हो रहे ह। इन सब आभूषण से
सुशो भत बालकके अंग-अंगसे अनोखी छटा छटक रही है ।।९-१०।। जब वसुदेवजीने दे खा
क मेरे पु के पम तो वयं भगवान् ही आये ह, तब पहले तो उ ह असीम आ य आ;

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फर आन दसे उनक आँख खल उठ । उनका रोम-रोम परमान दम म न हो गया।
ीकृ णका ज मो सव मनानेक उतावलीम उ ह ने उसी समय ा ण के लये दस हजार
गाय का संक प कर दया ।।११।। परी त्! भगवान् ीकृ ण अपनी अंगका तसे
सू तकागृहको जगमग कर रहे थे। जब वसुदेवजीको यह न य हो गया क ये तो परम पु ष
परमा मा ही ह, तब भगवान्का भाव जान लेनेसे उनका सारा भय जाता रहा। अपनी बु
थर करके उ ह ने भगवान्के चरण म अपना सर झुका दया और फर हाथ जोड़कर वे
उनक तु त करने लगे— ।।१२।।
अथैनम तौदवधाय पू षं
परं नता ः कृतधीः कृता लः ।
वरो चषा भारत सू तकागृहं
वरोचय तं गतभीः भाव वत् ।।१२
वसुदेव उवाच
व दतोऽ स भवान् सा ात् पु षः कृतेः परः ।
केवलानुभवान द व पः सवबु क् ।।१३

स एव व कृ येदं सृ ् वा े गुणा मकम् ।


तदनु वं व ः व इव भा से ।।१४

यथेमेऽ वकृता भावा तथा ते वकृतैः सह ।


नानावीयाः पृथ भूता वराजं जनय त ह ।।१५

स प य समु पा य तेऽनुगता इव ।
ागेव व मान वा तेषा मह स भवः ।।१६

एवं भवान् बु यनुमेयल णै-


ा ैगुणैः स प तद्गुणा हः ।
अनावृत वाद् ब हर तरं न ते
सव य सवा मन आ मव तुनः ।।१७
वसुदेवजीने कहा—म समझ गया क आप कृ तसे अतीत सा ात् पु षो म ह।
आपका व प है केवल अनुभव और केवल आन द। आप सम त बु य के एकमा सा ी
ह ।।१३।। आप ही सगके आ दम अपनी कृ तसे इस गुणमय जगत्क सृ करते ह।
फर उसम व न होनेपर भी आप व के समान जान पड़ते ह ।।१४।। जैसे जबतक
मह व आ द कारण-त व पृथक्-पृथक् रहते ह, तबतक उनक श भी पृथक्-पृथक्
होती है; जब वे इ या द सोलह वकार के साथ मलते ह, तभी इस ा डक रचना करते
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ह और इसे उ प करके इसीम अनु व -से जान पड़ते ह; परंतु स ची बात तो यह है क वे
कसी भी पदाथम वेश नह करते। ऐसा होनेका कारण यह है क उनसे बनी ई जो भी
व तु है, उसम वे पहलेसे ही व मान रहते ह ।।१५-१६।। ठ क वैसे ही बु के ारा केवल
गुण के ल ण का ही अनुमान कया जाता है और इ य के ारा केवल गुणमय वषय का
ही हण होता है। य प आप उनम रहते ह, फर भी उन गुण के हणसे आपका हण नह
होता। इसका कारण यह है क आप सब कुछ ह, सबके अ तयामी ह और परमाथ स य,
आ म व प ह। गुण का आवरण आपको ढक नह सकता। इस लये आपम न बाहर है न
भीतर। फर आप कसम वेश करगे? (इस लये वेश न करनेपर भी आप वेश कये एके
समान द खते ह) ।।१७।।
य आ मनो यगुणेषु स त
व यते व तरेकतोऽबुधः ।
वनानुवादं न च त मनी षतं
स यग् यत य मुपाददत् पुमान् ।।१८

व ोऽ य ज म थ तसंयमान् वभो
वद यनीहादगुणाद व यात् ।
वयी रे ण नो व यते
वदा य वा पचयते गुणैः ।।१९

स वं लोक थतये वमायया


बभ ष शु लं खलु वणमा मनः ।
सगाय र ं रजसोपबृं हतं
कृ णं च वण तमसा जना यये ।।२०

वम य लोक य वभो रर षु-


गृहेऽवतीण ऽ स ममा खले र ।
राज यसं ासुरको टयूथपै-
न ू माना नह न यसे चमूः ।।२१

अयं वस य तव ज म नौ गृहे
ु वा जां ते यवधीत् सुरे र ।
स तेऽवतारं पु षैः सम पतं
ु वाधुनैवा भसर युदायुधः ।।२२
ीशुक उवाच

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अथैनमा मजं वी य महापु षल णम् ।
दे वक तमुपाधावत् कंसाद् भीता शु च मता ।।२३
दे व युवाच
पं यत् तत् ा र मा ं
यो त नगुणं न वकारम् ।
स ामा ं न वशेषं नरीहं
स वं सा ाद् व णुर या मद पः ।।२४
जो अपने इन य गुण को अपनेसे पृथक् मानकर स य समझता है, वह अ ानी है।
य क वचार करनेपर ये दे ह-गेह आ द पदाथ वा वलासके सवा और कुछ नह स होते।
वचारके ारा जस व तुका अ त व स नह होता, ब क जो बा धत हो जाती है, उसको
स य माननेवाला पु ष बु मान् कैसे हो सकता है? ।।१८।। भो! कहते ह क आप वयं
सम त या , गुण और वकार से र हत ह। फर भी इस जगत्क सृ , थ त और
लय आपसे ही होते ह। यह बात परम ऐ यशाली पर परमा मा आपके लये असंगत
नह है। य क तीन गुण के आ य आप ही ह, इस लये उन गुण के काय आ दका आपम
ही आरोप कया जाता है ।।१९।। आप ही तीन लोक क र ा करनेके लये अपनी मायासे
स वमय शु लवण (पोषणकारी व णु प) धारण करते ह, उ प के लये रजः धान
र वण (सृजनकारी ा प) और लयके समय तमोगुण धान कृ णवण (संहारकारी
प) वीकार करते ह ।।२०।। भो! आप सवश मान् और सबके वामी ह। इस
संसारक र ाके लये ही आपने मेरे घर अवतार लया है। आजकल को ट-को ट असुर
सेनाप तय ने राजाका नाम धारण कर रखा है और अपने अधीन बड़ी-बड़ी सेनाएँ कर रखी
ह। आप उन सबका संहार करगे ।।२१।। दे वता के भी आरा यदे व भो! यह कंस बड़ा
है। इसे जब मालूम आ क आपका अवतार हमारे घर होनेवाला है, तब उसने आपके भयसे
आपके बड़े भाइय को मार डाला। अभी उसके त आपके अवतारका समाचार उसे सुनायगे
और वह अभी-अभी हाथम श लेकर दौड़ा आयेगा ।।२२।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! इधर दे वक ने दे खा क मेरे पु म तो पु षो म
भगवान्के सभी ल ण मौजूद ह। पहले तो उ ह कंससे कुछ भय मालूम आ, पर तु फर वे
बड़े प व भावसे मुसकराती ई तु त करने लग ।।२३।।
माता दे वक ने कहा— भो! वेद ने आपके जस पको अ और सबका कारण
बतलाया है, जो , यो तः व प, सम त गुण से र हत और वकारहीन है, जसे
वशेषणर हत—अ नवचनीय, न य एवं केवल वशु स ाके पम कहा गया है—वही
बु आ दके काशक व णु आप वयं ह ।।२४।। जस समय ाक पूरी आयु—दो
पराध समा त हो जाते ह, काल श के भावसे सारे लोक न हो जाते ह, पंच महाभूत
अहंकारम, अहंकार मह वम और मह व कृ तम लीन हो जाता है—उस समय एकमा
आप ही शेष रह जाते ह। इसीसे आपका एक नाम ‘शेष’ भी है ।।२५।। कृ तके एकमा
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सहायक भो! नमेषसे लेकर वषपय त अनेक वभाग म वभ जो काल है, जसक
चे ासे यह स पूण व सचे हो रहा है और जसक कोई सीमा नह है, वह आपक
लीलामा है। आप सवश मान् और परम क याणके आ य ह। म आपक शरण लेती
ँ ।।२६।। भो! यह जीव मृ यु त हो रहा है। यह मृ यु प कराल ालसे भयभीत होकर
स पूण लोक-लोका तर म भटकता रहा है; पर तु इसे कभी कह भी ऐसा थान न मल
सका, जहाँ यह नभय होकर रहे। आज बड़े भा यसे इसे आपके चरणार व द क शरण मल
गयी। अतः अब यह व थ होकर सुखक न द सो रहा है। और क तो बात ही या, वयं
मृ यु भी इससे भयभीत होकर भाग गयी है ।।२७।। भो! आप ह भ भयहारी। और
हमलोग इस कंससे ब त ही भयभीत ह। अतः आप हमारी र ा क जये। आपका यह
चतुभुज द प यानक व तु है। इसे केवल मांस-म जामय शरीरपर ही रखनेवाले
दे हा भमानी पु ष के सामने कट मत क जये ।।२८।। मधुसूदन! इस पापी कंसको यह बात
मालूम न हो क आपका ज म मेरे गभसे आ है। मेरा धैय टू ट रहा है। आपके लये म कंससे
ब त डर रही ँ ।।२९।। व ा मन्! आपका यह प अलौ कक है। आप शंख, च , गदा
और कमलक शोभासे यु अपना यह चतुभुज प छपा ली जये ।।३०।। लयके समय
आप इस स पूण व को अपने शरीरम वैसे ही वाभा वक पसे धारण करते ह, जैसे कोई
मनु य अपने शरीरम रहनेवाले छ प आकाशको। वही परम पु ष परमा मा आप मेरे
गभवासी ए, यह आपक अद्भुत मनु य-लीला नह तो और या है? ।।३१।।
न े लोके पराधावसाने
महाभूते वा दभूतं गतेषु ।
ेऽ ं कालवेगेन याते
भवानेकः श यते शेषसं ः ।।२५

योऽयं काल त य तेऽ ब धो


चे ामा े ते येन व म् ।
नमेषा दव सरा तो महीयां-
तं वेशानं ेमधाम प े ।।२६

म य मृ यु ालभीतः पलायन्
लोकान् सवा भयं ना यग छत् ।
व पादा जं ा य य छया
व थः शेते मृ युर मादपै त ।।२७

स वं घोरा सेना मजा -


ा ह तान् भृ य व ासहा स ।
पं चेदं पौ षं यान ध यं
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मा य ं मांस शां कृषी ाः ।।२८

ज म ते म यसौ पापो मा व ा मधुसूदन ।


समु जे भव े तोः कंसादहमधीरधीः ।।२९

उपसंहर व ा म दो पमलौ ककम् ।


शंखच गदाप या जु ं चतुभुजम् ।।३०

व ं यदे तत् वतनौ नशा ते


यथावकाशं पु षः परो भवान् ।
बभ त सोऽयं मम गभगोऽभू-
दहो नृलोक य वड बनं ह तत् ।। ३१
ीभगवानुवाच
वमेव पूवसगऽभूः पृ ः वाय भुवे स त ।
तदायं सुतपा नाम जाप तरक मषः ।।३२
युवां वै णाऽऽ द ौ जासग यदा ततः ।
स य ये य ामं तेपाथे परमं तपः ।।३३
वषवातातप हमघमकालगुणाननु ।
सहमानौ ासरोध व नधूतमनोमलौ ।।३४
शीणपणा नलाहारावुपशा तेन चेतसा ।
म ः कामानभी स तौ मदाराधनमीहतुः ।।३५
एवं वां त यतो ती ं तपः परम करम् ।
द वषसह ा ण ादशेयुमदा मनोः ।।३६
तदा वां प रतु ोऽहममुना वपुषानघे ।
तपसा या न यं भ या च द भा वतः ।।३७
ा रासं वरदराड् युवयोः काम द सया ।
यतां वर इ यु े मा शो वां वृतः सुतः ।।३८
अजु ा य वषयावनप यौ च द पती ।
न व ाथेऽपवग मे मो हतौ मम मायया ।।३९
गते म य युवां ल वा वरं म स शं सुतम् ।
ा यान् भोगानभु ाथां युवां ा तमनोरथौ ।।४०
अ ् वा यतमं लोके शीलौदायगुणैः समम् ।
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अहं सुतो वामभवं पृ नगभ इ त ुतः ।।४१
तयोवा पुनरेवाहम द यामास क यपात् ।
उपे इ त व यातो वामन वा च वामनः ।।४२
ीभगवान्ने कहा—दे व! वाय भुव म व तरम जब तु हारा पहला ज म आ था, उस
समय तु हारा नाम था पृ और ये वसुदेव सुतपा नामके जाप त थे। तुम दोन के दय बड़े
ही शु थे ।।३२।। जब ाजीने तुम दोन को स तान उ प करनेक आ ा द , तब
तुमलोग ने इ य का दमन करके उ कृ तप या क ।।३३।। तुम दोन ने वषा, वायु, घाम,
शीत, उ ण आ द कालके व भ गुण का सहन कया और ाणायामके ारा अपने मनके
मल धो डाले ।।३४।। तुम दोन कभी सूखे प े खा लेते और कभी हवा पीकर ही रह जाते।
तु हारा च बड़ा शा त था। इस कार तुमलोग ने मुझसे अभी व तु ा त करनेक
इ छासे मेरी आराधना क ।।३५।। मुझम च लगाकर ऐसा परम कर और घोर तप
करते-करते दे वता के बारह हजार वष बीत गये ।।३६।। पु यमयी दे व! उस समय म तुम
दोन पर स आ। य क तुम दोन ने तप या, ा और ेममयी भ से अपने दयम
न य- नर तर मेरी भावना क थी। उस समय तुम दोन क अ भलाषा पूण करनेके लये वर
दे नेवाल का राजा म इसी पसे तु हारे सामने कट आ। जब मने कहा क ‘तु हारी जो
इ छा हो, मुझसे माँग लो’, तब तुम दोन ने मेरे-जैसा पु माँगा ।।३७-३८।। उस समयतक
वषय-भोग से तुम लोग का कोई स ब ध नह आ था। तु हारे कोई स तान भी न थी।
इस लये मेरी मायासे मो हत होकर तुम दोन ने मुझसे मो नह माँगा ।।३९।। तु ह मेरे-जैसा
पु होनेका वर ा त हो गया और म वहाँसे चला गया। अब सफलमनोरथ होकर तुमलोग
वषय का भोग करने लगे ।।४०।। मने दे खा क संसारम शील- वभाव, उदारता तथा अ य
गुण म मेरे-जैसा सरा कोई नह है; इस लये म ही तुम दोन का पु आ और उस समय म
‘पृ गभ’ के नामसे व यात आ ।।४१।। फर सरे ज मम तुम अ द त और वसुदेव
ए क यप। उस समय भी म तु हारा पु आ। मेरा नाम था ‘उपे ’। शरीर छोटा होनेके
कारण लोग मुझे ‘वामन’ भी कहते थे ।।४२।। सती दे वक ! तु हारे इस तीसरे ज मम भी म
उसी पसे फर तु हारा पु आ ँ१। मेरी वाणी सवदा स य होती है ।।४३।।
तृतीयेऽ मन् भवेऽहं वै तेनैव वपुषाथ वाम् ।
जातो भूय तयोरेव स यं मे ा तं स त ।।४३
एतद् वां द शतं पं ा ज म मरणाय मे ।
ना यथा म वं ानं म य लगेन जायते ।।४४
युवां मां पु भावेन भावेन चासकृत् ।
च तय तौ कृत नेहौ या येथे मद्ग त पराम् ।।४५
ीशुक उवाच
इ यु वाऽऽसी र तू ण भगवाना ममायया ।
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प ोः स प यतोः स ो बभूव ाकृतः शशुः ।।४६
तत शौ रभगव चो दतः
सुतं समादाय स सू तकागृहात् ।
यदा ब हग तु मयेष त जा
या योगमायाज न न दजायया ।।४७
तया त ययसववृ षु
ाः थेषु पौरे व प शा यते वथ ।
ार तु सवाः प हता र यया
बृह कपाटायसक लशृंखलैः ।।४८
ताः कृ णवाहे वसुदेव आगते
वयं वय त यथा तमो रवेः ।
मने तु ह अपना यह प इस लये दखला दया है क तु ह मेरे पूव अवतार का मरण हो
जाय। य द म ऐसा नह करता, तो केवल मनु य-शरीरसे मेरे अवतारक पहचान नह हो
पाती ।।४४।। तुम दोन मेरे त पु भाव तथा नर तर भाव रखना। इस कार वा स य-
नेह और च तनके ारा तु ह मेरे परम पदक ा त होगी ।।४५।।
ीशुकदे वजी कहते ह—भगवान् इतना कहकर चुप हो गये। अब उ ह ने अपनी
योगमायासे पता-माताके दे खते-दे खते तुरंत एक साधारण शशुका प धारण कर
लया ।।४६।। तब वसुदेवजीने भगवान्क ेरणासे अपने पु को लेकर सू तकागृहसे बाहर
नकलनेक इ छा क । उसी समय न दप नी यशोदाके गभसे उस योगमायाका ज म आ,
जो भगवान्क श होनेके कारण उनके समान ही ज म-र हत है ।।४७।। उसी योगमायाने
ारपाल और पुरवा सय क सम त इ य वृ य क चेतना हर ली, वे सब-के-सब अचेत
होकर सो गये। बंद गृहके सभी दरवाजे बंद थे। उनम बड़े-बड़े कवाड़, लोहेक जंजीर और
ताले जड़े ए थे। उनके बाहर जाना बड़ा ही क ठन था; पर तु वसुदेवजी भगवान्
ीकृ णको गोदम लेकर य ही उनके नकट प ँच,े य ही वे सब दरवाजे आप-से-आप
खुल गये२। ठ क वैसे ही, जैसे सूय दय होते ही अ धकार र हो जाता है। उस समय बादल
धीरे-धीरे गरजकर जलक फुहार छोड़ रहे थे। इस लये शेषजी अपने फन से जलको रोकते
ए भगवान्के पीछे -पीछे चलने लगे* ।।४८-४९।। उन दन बार-बार वषा होती रहती थी,
इससे यमुनाजी ब त बढ़ गयी थ †। उनका वाह गहरा और तेज हो गया था। तरल तरंग के
कारण जलपर फेन-ही-फेन हो रहा था। सैकड़ भयानक भँवर पड़ रहे थे। जैसे सीताप त
भगवान् ीरामजीको समु ने माग दे दया था, वैसे ही यमुनाजीने भगवान्को माग दे
दया‡ ।।५०।। वसुदेवजीने न दबाबाके गोकुलम जाकर दे खा क सब-के-सब गोप न दसे
अचेत पड़े ए ह। उ ह ने अपने पु को यशोदाजीक श यापर सुला दया और उनक
नवजात क या लेकर वे बंद गृहम लौट आये ।।५१।। जेलम प ँचकर वसुदेवजीने उस
क याको दे वक क श यापर सुला दया और अपने पैर म बे ड़याँ डाल ल तथा पहलेक तरह
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वे बंद गृहम बंद हो गये ।।५२।। उधर न दप नी यशोदाजीको इतना तो मालूम आ क कोई
स तान ई है, पर तु वे यह न जान सक क पु है या पु ी। य क एक तो उ ह बड़ा
प र म आ था और सरे योगमायाने उ ह अचेत कर दया था* ।।५३।।
ववष पज य उपांशुग जतः
शेषोऽ वगाद् वा र नवारयन् फणैः ।।४९

मघो न वष यसकृद् यमानुजा


ग भीरतोयौघजवो मफे नला ।
भयानकावतशताकुला नद
माग ददौ स धु रव यः पतेः ।।५०

न द जं शौ र पे य त तान्
गोपान् सु तानुपल य न या ।
सुतं यशोदाशयने नधाय त-
सुतामुपादाय पुनगृहानगात् ।।५१
दे व याः शयने य य वसुदेवोऽथ दा रकाम् ।
तमु य पदोल हमा ते पूववदावृतः ।।५२

यशोदा न दप नी च जातं परमबु यत ।


न त ल ं प र ा ता न यापगत मृ तः ।।५३
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध कृ णज म न
तृतीयोऽ यायः ।।३।।

* जैसे अ तःकरण शु होनेपर उसम भगवान्का आ वभाव होता है, ीकृ णावतारके
अवसरपर भी ठ क उसी कारका सम क शु का वणन कया गया है। इसम काल,
दशा, पृ वी, जल, अ न, वायु, आकाश, मन और आ मा—इस नौ का अलग-अलग
नामो लेख करके साधकके लये एक अ य त उपयोगी साधन-प तक ओर संकेत कया
गया है।
काल—
भगवान् कालसे परे ह। शा और स पु ष के ारा ऐसा न पण सुनकर काल मानो
ु हो गया था और प धारण करके सबको नगल रहा था। आज जब उसे मालूम
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आ क वयं प रपूणतम भगवान् ीकृ ण मेरे अंदर अवतीण हो रहे ह, तब वह आन दसे
भर गया और सम त सद्गुण को धारणकर तथा सुहावना बनकर कट हो गया।
दशा—
१. ाचीन शा म दशा को दे वी माना गया है। उनके एक-एक वामी भी होते ह—
जैसे ाचीके इ , तीचीके व ण आ द। कंसके रा य-कालम ये दे वता पराधीन—कैद हो
गये थे। अब भगवान् ीकृ णके अवतारसे दे वता क गणनाके अनुसार यारह-बारह
दन म ही उ ह छु टकारा मल जायगा, इस लये अपने प तय के संगम-सौभा यका अनुसंधान
करके दे वयाँ स हो गय । जो दे व एवं दशाके प र छे दसे र हत ह, वे ही भु भारत दे शके
ज- दे शम आ रहे ह, यह अपूव आन दो सव भी दशा क स ताका हेतु है।
२. सं कृत-सा ह यम दशा का एक नाम ‘आशा’ भी है। दशा क स ताका एक
अथ यह भी है क अब स पु ष क आशा-अ भलाषा पूण होगी।
३. वराट् पु षके अवयव-सं थानका वणन करते समय दशा को उनका कान बताया
गया है। ीकृ णके अवतारके अवसरपर दशाएँ मानो यह सोचकर स हो गय क भु
असुर-असाधु के उप वसे ःखी ा णय क ाथना सुननेके लये सतत सावधान ह।
पृ वी—
१. पुराण म भगवान्क दो प नय का उ लेख मलता है—एक ीदे वी और सरी
भूदेवी। ये दोन चल-स प और अचल-स प क वा मनी ह। इनके प त ह—भगवान्,
जीव नह । जस समय ीदे वीके नवास थान वैकु ठसे उतरकर भगवान् भूदेवीके
नवास थान पृ वीपर आने लगे, तब जैसे परदे शसे प तके आगमनका समाचार सुनकर प नी
सज-धजकर अगवानी करनेके लये नकलती है, वैसे ही पृ वीका मंगलमयी होना,
मंगल च को धारण करना वाभा वक ही है।
२. भगवान्के ीचरण मेरे व ः थलपर पड़गे, अपने सौभा यका ऐसा अनुस धान करके
पृ वी आन दत हो गयी।
३. वामन चारी थे। परशुरामजीने ा ण को दान दे दया। ीरामच ने मेरी पु ी
जानक से ववाह कर लया। इस लये उन अवतार म म भगवान्से जो सुख नह ा त कर
सक , वही ीकृ णसे ा त क ँ गी। यह सोचकर पृ वी मंगलमयी हो गयी।
४. अपने पु मंगलको गोदम लेकर प तदे वका वागत करने चली।
जल (न दयाँ)—
१. न दय ने वचार कया क रामावतारम सेतु-ब धके बहाने हमारे पता पवत को हमारी
ससुराल समु म प ँचाकर इ ह ने हम मायकेका सुख दया था। अब इनके शुभागमनके
अवसरपर हम भी स होकर इनका वागत करना चा हये।
२. न दयाँ सब गंगाजीसे कहती थ —‘तुमने हमारे पता पवत दे खे ह, अपने पता
भगवान् व णुके दशन कराओ।’ गंगाजीने सुनी-अनसुनी कर द । अब वे इस लये स हो
गय क हम वयं दे ख लगी।
३. य प भगवान् समु म न य नवास करते ह, फर भी ससुराल होनेके कारण वे उ ह

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वहाँ दे ख नह पात । अब उ ह पूण पसे दे ख सकगी, इस लये वे नमल हो गय ।
४. नमल दयको भगवान् मलते ह, इस लये वे नमल हो गय ।
५. न दय को जो सौभा य कसी भी अवतारम नह मला, वह कृ णावतारम मला।
ीकृ णक चतुथ पटरानी ह— ीका ल द जी। अवतार लेते ही यमुनाजीके तटपर जाना,
वालबाल एवं गो पय के साथ जल डा करना, उ ह अपनी पटरानी बनाना—इन सब
बात को सोचकर न दयाँ आन दसे भर गय ।
द—
का लय-दमन करके का लय-दहका शोधन, वालबाल और अ ू रको - दम ही
अपने व पके दशन आ द व-स ब धी लीला का अनुस धान करके द ने कमलके
बहाने अपने फु लत दयको ही ीकृ णके त अ पत कर दया। उ ह ने कहा क ‘ भो!
भले ही हम लोग जड समझा कर, आप हम कभी वीकार करगे, इस भावी सौभा यके
अनुस धानसे हम स दय हो रहे ह।’
अ न—
१. इस अवतारम ीकृ णने ोमासुर, तृणावत, का लयके दमनसे आकाश, वायु और
जलक शु क है। मृद-् भ णसे पृ वीक और अ नपानसे अ नक । भगवान् ीकृ णने
दो बार अ नको अपने मुँहम धारण कया। इस भावी सुखका अनुस धान करके ही अ नदे व
शा त होकर व लत होने लगे।
२. दे वता के लये य -भाग आ द ब द हो जानेके कारण अ नदे व भी भूखे ही थे। अब
ीकृ णावतारसे अपने भोजन मलनेक आशासे अ नदे व स होकर व लत हो उठे ।
वायु—
१. उदार शरोम ण भगवान् ीकृ णके ज मके अवसरपर वायुने सुख लुटाना ार भ
कया; य क समान शीलसे ही मै ी होती है। जैसे वामीके सामने सेवक, जा अपने गुण
कट करके उसे स करती है, वैसे ही वायु भगवान्के सामने अपने गुण कट करने लगे।
२. आन दक द ीकृ णच के मुखार व दपर जब मज नत वेद व आ जायँग,े तब
म ही शीतल-म द-सुग ध ग तसे उसे सुखाऊँगा—यह सोचकर पहलेसे ही वायु सेवाका
अ यास करने लगा।
३. य द मनु यको भु-चरणार व दके दशनक लालसा हो तो उसे व क सेवा ही करनी
चा हये, मानो यह उपदे श करता आ वायु सबक सेवा करने लगा।
४. रामावतारम मेरे पु हनुमान्ने भगवान्क सेवा क , इससे म कृताथ ही ँ; पर तु इस
अवतारम मुझे वयं ही सेवा कर लेनी चा हये। इस वचारसे वायु लोग को सुख प ँचाने
लगा।
५. स पूण व के ाण वायुने स पूण व क ओरसे भगवान्के वागत-समारोहम
त न ध व कया।
आकाश—
१. आकाशक एकता, आधारता, वशालता और समताक उपमा तो सदासे ही

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भगवान्के साथ द जाती रही, पर तु अब उसक झूठ नी लमा भी भगवान्के अंगसे उपमा
दे नेसे च रताथ हो जायगी, इस लये आकाशने मानो आन दो सव मनानेके लये नीले चँदोवेम
हीर के समान तार क झालर लटका ली ह।
२. वामीके शुभागमनके अवसरपर जैसे सेवक व छ वेष-भूषा धारण करते ह और
शा त हो जाते ह, इसी कार आकाशके सब न , ह, तारे शा त एवं नमल हो गये।
व ता, अ तचार और यु छोड़कर ीकृ णका वागत करने लगे।
न —
म दे वक के गभसे ज म ले रहा ँ तो रो हणीके संतोषके लये कम-से-कम रो हणी
न म ज म तो लेना ही चा हये। अथवा च वंशम ज म ले रहा ,ँ तो च माक सबसे
यारी प नी रो हणीम ही ज म लेना उ चत है। यह सोचकर भगवान्ने रो हणी न म ज म
लया।
मन—
१. योगी मनका नरोध करते ह, मुमु ु न वषय करते ह और ज ासु बाध करते ह।
त व ने तो मनका स यानाश ही कर दया। भगवान्के अवतारका समय जानकर उसने
सोचा क अब तो म अपनी प नी—इ याँ और वषय—बाल-ब चे सबके साथ ही
भगवान्के साथ खेलूँगा। नरोध और बाधसे प ड छू टा। इसीसे मन स हो गया।
२. नमलको ही भगवान् मलते ह, इस लये मन नमल हो गया।
३. वैसे श द, पश, प, रस, ग धका प र याग कर दे नेपर भगवान् मलते ह। अब तो
वयं भगवान् ही वह सब बनकर आ रहे ह। लौ कक आन द भी भुम मलेगा। यह सोचकर
मन स हो गया।
४. वसुदेवके मनम नवास करके ये ही भगवान् कट हो रहे ह। वह हमारी ही जा तका
है, यह सोचकर मन स हो गया।
५. सुमन (दे वता और शु मन) को सुख दे नेके लये ही भगवान्का अवतार हो रहा है।
यह जानकर सुमन स हो गये।
६. संत म, वगम और उपवनम सुमन (शु मन, दे वता और पु प) आन दत हो गये।
य न हो, माधव ( व णु और वस त) का आगमन जो हो रहा है।
भा मास—
भ अथात् क याण दे नेवाला है। कृ णप वयं कृ णसे स ब है। अ मी त थ प के
बीचोबीच स ध- थलपर पड़ती है। रा योगीजन को य है। नशीथ य तय का
स याकाल और रा के दो भाग क स ध है। उस समय ीकृ णके आ वभावका अथ है—
अ ानके घोर अ धकारम द काश। नशानाथ च के वंशम ज म लेना है, तो नशाके
म यभागम अवतीण होना उ चत भी है। अ मीके च ोदयका समय भी वही है। य द
वसुदेवजी मेरा जातकम नह कर सकते तो हमारे वंशके आ दपु ष च मा समु नान करके
अपने कर- करण से अमृतका वतरण कर।
१. गुणा यः। २. दा ुदायुधम्।

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* ऋ ष, मु न और दे वता जब अपने सुमनक वषा करनेके लये मथुराक ओर दौड़े, तब
उनका आन द भी पीछे छू ट गया और उनके पीछे -पीछे दौड़ने लगा। उ ह ने अपने नरोध
और बाधस ब धी सारे वचार यागकर मनको ीकृ णक ओर जानेके लये मु कर दया,
उनपर योछावर कर दया।
† १. मेघ समु के पास जाकर म द-म द गजना करते ए कहते—जल नधे! यह तु हारे
उपदे श (पास आने) का फल है क हमारे पास जल-ही-जल हो गया। अब ऐसा कुछ उपदे श
करो क जैसे तु हारे भीतर भगवान् रहते ह, वैसे हमारे भीतर भी रह।
२. बादल समु के पास जाते और कहते क समु ! तु हारे दयम भगवान् रहते ह, हम
भी उनका दशन- यार ा त करवा दो। समु उ ह थोड़ा-सा जल दे कर कह दे ता—अपनी
उ ाल तरंग से ढकेल दे ता—जाओ अभी व क सेवा करके अ तःकरण शु करो, तब
भगवान्के दशन ह गे। वयं भगवान् मेघ याम बनकर समु से बाहर जम आ रहे ह। हम
धूपम उनपर छाया करगे, अपनी फुइयाँ बरसाकर जीवन योछावर करगे और उनक
बाँसुरीके वरपर ताल दगे। अपने इस सौभा यका अनुस धान करके बादल समु के पास
प ँचे और म द-म द गजना करने लगे। म द-म द इस लये क यह व न यारे ीकृ णके
कान तक न प ँच जाय।
१-भगवान् ीकृ णने वचार कया क मने इनको वर तो यह दे दया क मेरे स श पु
होगा, पर तु इसको म पूरा नह कर सकता। य क वैसा कोई है ही नह । कसीको कोई
व तु दे नेक त ा करके पूरी न कर सके तो उसके समान तगुनी व तु दे नी चा हये। मेरे
स श पदाथके समान म ही ँ। अतएव म अपनेको तीन बार इनका पु बनाऊँगा।
२- जनके नाम- वणमा से असं य ज मा जत ार ध-ब धन व त हो जाते ह, वे ही
भु जसक गोदम आ गये, उसक हथकड़ी-बेड़ी खुल जाय, इसम या आ य है?
* बलरामजीने वचार कया क म बड़ा भाई बना तो या, सेवा ही मेरा मु य धम है।

इस लये वे अपने शेष पसे ीकृ णके छ बनकर जलका नवारण करते ए चले। उ ह ने
सोचा क य द मेरे रहते मेरे वामीको वषासे क प ँचा तो मुझे ध कार है। इस लये उ ह ने
अपना सर आगे कर दया। अथवा उ ह ने यह सोचा क ये व णुपद (आकाश) वासी मेघ
परोपकारके लये अधःप तत होना वीकार कर लेते ह, इस लये ब लके समान सरसे
व दनीय ह।
† १. ीकृ ण शशुको अपनी ओर आते दे खकर यमुनाजीने वचार कया—अहा!
जनके चरण क धू ल स पु ष के मानस- यानका वषय है, वे ही आज मेरे तटपर आ रहे
ह। वे आन द और ेमसे भर गय , आँख से इतने आँसू नकले क बाढ़ आ गयी।
२. मुझे यमराजक ब हन समझकर ीकृ ण अपनी आँख न फेर ल, इस लये वे अपने
वशाल जीवनका दशन करने लग ।
३. ये गोपालनके लये गोकुलम जा रहे ह, ये सह -सह लह रयाँ गौएँ ही तो ह। ये
उ ह के समान इनका भी पालन कर।
४. एक का लयनाग तो मुझम पहलेसे ही है, यह सरे शेषनाग आ रहे ह। अब मेरी या
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ग त होगी—यह सोचकर यमुनाजी अपने थपेड़ से उनका नवारण करनेके लये बढ़ गय ।
‡ १. एकाएक यमुनाजीके मनम वचार आया क मेरे अगाध जलको दे खकर कह
ीकृ ण यह न सोच ल क म इसम खेलूँगा कैसे, इस लये वे तुरंत कह क ठभर, कह
ना भभर और कह घुटन तक जलवाली हो गय ।
२. जैसे ःखी मनु य दयालु पु षके सामने अपना मन खोलकर रख दे ता है, वैसे ही
का लयनागसे त अपने दयका ःख नवेदन कर दे नेके लये यमुनाजीने भी अपना दल
खोलकर ीकृ णके सामने रख दया।
३. मेरी नीरसता दे खकर ीकृ ण कह जल डा करना और पटरानी बनाना अ वीकार
न कर द, इस लये वे उ छृ ं खलता छोड़कर बड़ी वनयसे अपने दयक संकोचपूण रसरी त
कट करने लग ।
४. जब इ ह ने सूयवंशम रामावतार हण कया, तब माग न दे नेपर च माके पता
समु को बाँध दया था। अब ये च वंशम कट ए ह और म सूयक पु ी ँ। य द म इ ह
माग न ँ गी तो ये मुझे भी बाँध दगे। इस डरसे मानो यमुनाजी दो भाग म बँट गय ।
५. स पु ष कहते ह क दयम भगवान्के आ जानेपर अलौ कक सुख होता है। मानो
उसीका उपभोग करनेके लये यमुनाजीने भगवान्को अपने भीतर ले लया।
६. मेरा नाम कृ णा, मेरा जल कृ ण, मेरे बाहर ीकृ ण ह। फर मेरे दयम ही उनक
फू त य न हो? ऐसा सोचकर माग दे नेके बहाने यमुनाजीने ीकृ णको अपने दयम ले
लया।

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अथ चतुथ ऽ यायः
कंसके हाथसे छू टकर योगमायाका आकाशम जाकर भ व यवाणी करना
ीशुक उवाच
ब हर तःपुर ारः सवाः पूववदावृताः ।
ततो बाल व न ु वा गृहपालाः समु थताः ।।१

ते तु तूणमुप य दे व या गभज म तत् ।


आच युभ जराजाय य नः ती ते ।।२

स त पात् तूणमु थाय कालोऽय म त व लः ।


सूतीगृहमगात् तूण खलन् मु मूधजः ।।३

तमाह ातरं दे वी कृपणा क णं सती ।


नुषेयं तव क याण यं मा ह तुमह स ।।४
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जब वसुदेवजी लौट आये, तब नगरके बाहरी और
भीतरी सब दरवाजे अपने-आप ही पहलेक तरह बंद हो गये। इसके बाद नवजात शशुके
रोनेक व न सुनकर ारपाल क न द टू ट ।।१।। वे तुर त भोजराज कंसके पास गये और
दे वक को स तान होनेक बात कही। कंस तो बड़ी आकुलता और घबराहटके साथ इसी
बातक ती ा कर रहा था ।।२।। ारपाल क बात सुनते ही वह झटपट पलँगसे उठ खड़ा
आ और बड़ी शी तासे सू तकागृहक ओर झपटा। इस बार तो मेरे कालका ही ज म आ
है, यह सोचकर वह व ल हो रहा था और यही कारण है क उसे इस बातका भी यान न
रहा क उसके बाल बखरे ए ह। रा तेम कई जगह वह लड़खड़ाकर गरते- गरते
बचा ।।३।। बंद गृहम प ँचनेपर सती दे वक ने बड़े ःख और क णाके साथ अपने भाई
कंससे कहा—‘मेरे हतैषी भाई! यह क या तो तु हारी पु वधूके समान है। ीजा तक है;
तु ह ीक ह या कदा प नह करनी चा हये ।।४।।
बहवो ह सता ातः शशवः पावकोपमाः ।
वया दै व नसृ ेन पु कैका द यताम् ।।५

न वहं ते वरजा द ना हतसुता भो ।


दातुमह स म दाया अंगेमां चरमां जाम् ।।६
ीशुक उवाच
उपगु ा मजामेवं द या द नद नवत् ।
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या चत तां व नभ य ह तादा च छदे खलः ।।७

तां गृही वा चरणयोजातमा ां वसुः सुताम् ।


अपोथय छलापृ े वाथ मू लतसौ दः ।।८

सा त तात् समु प य स ो दे बरं गता ।


अ यतानुजा व णोः सायुधा महाभुजा ।।९

द ग बरालेपर नाभरणभू षता ।


धनुःशूलेषुचमा सशंखच गदाधरा ।।१०

स चारणग धवर सरः क रोरगैः ।


उपा तो ब ल भः तूयमानेदम वीत् ।।११

क मया हतया म द जातः खलु तवा तकृत् ।


य व वा पूवश ुमा हसीः कृपणान् वृथा ।।१२

इ त भा य तं दे वी माया भगवती भु व ।
ब नाम नकेतेषु ब नामा बभूव ह ।।१३

तया भ हतमाक य कंसः परम व मतः ।


दे वक वसुदेवं च वमु य तोऽ वीत् ।।१४
भैया! तुमने दै ववश मेरे ब त-से अ नके समान तेज वी बालक मार डाले। अब केवल
यही एक क या बची है, इसे तो मुझे दे दो ।।५।। अव य ही म तु हारी छोट ब हन ँ। मेरे
ब त-से ब चे मर गये ह, इस लये म अ य त द न ँ। मेरे यारे और समथ भाई! तुम मुझ
म दभा गनीको यह अ तम स तान अव य दे दो’ ।।६।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! क याको अपनी गोदम छपाकर दे वक जीने
अ य त द नताके साथ रोते-रोते याचना क । पर तु कंस बड़ा था। उसने दे वक जीको
झड़ककर उनके हाथसे वह क या छ न ली ।।७।। अपनी उस न ह -सी नवजात भानजीके
पैर पकड़कर कंसने उसे बड़े जोरसे एक च ानपर दे मारा। वाथने उसके दयसे सौहादको
समूल उखाड़ फका था ।।८।। पर तु ीकृ णक वह छोट ब हन साधारण क या तो थी नह ,
दे वी थी; उसके हाथसे छू टकर तुर त आकाशम चली गयी और अपने बड़े-बड़े आठ हाथ म
आयुध लये ए द ख पड़ी ।।९।। वह द माला, व , च दन और म णमय आभूषण से
वभू षत थी। उसके हाथ म धनुष, शूल, बाण, ढाल, तलवार, शंख, च और गदा—ये
आठ आयुध थे ।।१०।। स , चारण, ग धव, अ सरा, क र और नागगण ब त-सी भटक
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साम ी सम पत करके उसक तु त कर रहे थे। उस समय दे वीने कंससे यह कहा— ।।११।।
‘रे मूख! मुझे मारनेसे तुझे या मलेगा? तेरे पूवज मका श ु तुझे मारनेके लये कसी
थानपर पैदा हो चुका है। अब तू थ नद ष बालक क ह या न कया कर’ ।।१२।। कंससे
इस कार कहकर भगवती योगमाया वहाँसे अ तधान हो गय और पृ वीके अनेक थान म
व भ नाम से स ।।१३।।
दे वीक यह बात सुनकर कंसको असीम आ य आ। उसने उसी समय दे वक और
वसुदेवको कैदसे छोड़ दया और बड़ी न तासे उनसे कहा— ।।१४।। ‘मेरी यारी ब हन और
बहनोईजी! हाय-हाय, म बड़ा पापी ।ँ रा स जैसे अपने ही ब च को मार डालता है, वैसे ही
मने तु हारे ब त-से लड़के मार डाले। इस बातका मुझे बड़ा खेद है* ।।१५।। म इतना ँ
क क णाका तो मुझम लेश भी नह है। मने अपने भाई-ब धु और हतै षय तकका याग
कर दया। पता नह , अब मुझे कस नरकम जाना पड़ेगा। वा तवम तो म घातीके समान
जी वत होनेपर भी मुदा ही ँ ।।१६।। केवल मनु य ही झूठ नह बोलते, वधाता भी झूठ
बोलते ह। उसीपर व ास करके मने अपनी ब हनके ब चे मार डाले। ओह! म कतना पापी
ँ ।।१७।। तुम दोन महा मा हो। अपने पु के लये शोक मत करो। उ ह तो अपने कमका
ही फल मला है। सभी ाणी ार धके अधीन ह। इसीसे वे सदा-सवदा एक साथ नह रह
सकते ।।१८।। जैसे म के बने ए पदाथ बनते और बगड़ते रहते ह, पर तु म म कोई
अदल-बदल नह होती—वैसे ही शरीरका तो बनना- बगड़ना होता ही रहता है; पर तु
आ मापर इसका कोई भाव नह पड़ता ।।१९।।
अहो भ ग यहो भाम मया वां बत पा मना ।
पु षाद इवाप यं बहवो ह सताः सुताः ।।१५

स वहं य का य य ा तसु त् खलः ।


काँ लोकान् वै ग म या म हेव मृतः सन् ।।१६

दै वम यनृतं व न म या एव केवलम् ।
य भादहं पापः वसु नहतवा छशून् ।।१७

मा शोचतं महाभागावा मजान् वकृत भुजः ।


ज तवो न सदै क दै वाधीना तदासते ।।१८

भु व भौमा न भूता न यथा या यपया त च ।


नायमा मा तथैतेषु वपय त यथैव भूः ।।१९

यथानेवं वदो भेदो यत आ म वपययः ।


दे हयोग वयोगौ च संसृ तन नवतते ।।२०
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त माद् भ े वतनयान् मया ापा दतान प ।
मानुशोच यतः सवः वकृतं व दतेऽवशः ।।२१

याव तोऽ म ह ता मी या मानं म यतेऽ व क्१ ।


ताव द भमा य ो बा यबाधकता मयात् ।।२२
जो लोग इस त वको नह जानते, वे इस अना मा शरीरको ही आ मा मान बैठते ह। यही
उलट बु अथवा अ ान है। इसीके कारण ज म और मृ यु होते ह। और जबतक यह
अ ान नह मटता, तबतक सुख- ःख प संसारसे छु टकारा नह मलता ।।२०।। मेरी यारी
ब हन! य प मने तु हारे पु को मार डाला है, फर भी तुम उनके लये शोक न करो।
य क सभी ा णय को ववश होकर अपने कम का फल भोगना पड़ता है ।।२१।। अपने
व पको न जाननेके कारण जीव जबतक यह मानता रहता है क ‘म मारनेवाला ँ या मारा
जाता ँ’, तबतक शरीरके ज म और मृ युका अ भमान करनेवाला वह अ ानी बा य और
बाधक-भावको ा त होता है। अथात् वह सर को ःख दे ता है और वयं ःख भोगता
है ।।२२।। मेरी यह ता तुम दोन मा करो; य क तुम बड़े ही साधु वभाव और द न के
र क हो।’ ऐसा कहकर कंसने अपनी ब हन दे वक और वसुदेवजीके चरण पकड़ लये।
उसक आँख से आँसू बह-बहकर मुँहतक आ रहे थे ।।२३।। इसके बाद उसने योगमायाके
वचन पर व ास करके दे वक और वसुदेवको कैदसे छोड़ दया और वह तरह-तरहसे उनके
त अपना ेम कट करने लगा ।।२४।। जब दे वक जीने दे खा क भाई कंसको प ा ाप
हो रहा है, तब उ ह ने उसे मा कर दया। वे उसके पहले अपराध को भूल गय और
वसुदेवजीने हँसकर कंससे कहा— ।।२५।। ‘मन वी कंस! आप जो कहते ह, वह ठ क वैसा
ही है। जीव अ ानके कारण ही शरीर आ दको ‘म’ मान बैठते ह। इसीसे अपने परायेका भेद
हो जाता है ।।२६।। और यह भेद हो जानेपर तो वे शोक, हष, भय, े ष, लोभ, मोह और
मदसे अ धे हो जाते ह। फर तो उ ह इस बातका पता ही नह रहता क सबके ेरक भगवान्
ही एक भावसे सरे भावका, एक व तुसे सरी व तुका नाश करा रहे ह’ ।।२७।।
म वं मम दौरा यं साधवो द नव सलाः१ ।
इ यु वा ुमुखः पादौ यालः व ोरथा हीत् ।।२३

मोचयामास२ नगडाद् व धः क यका गरा ।


दे वक वसुदेवं च दशय ा मसौ दम् ।।२४

ातुः समनुत त य ा वा रोषं च दे वक ।


सृजद् वसुदेव ह य तमुवाच ह ।।२५

एवमेत महाभाग३ यथा वद स दे हनाम् ।


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अ ान भवाहंधीः वपरे त भदा यतः ।।२६

शोकहषभय े षलोभमोहमदा वताः ।


मथो न तं न प य त भावैभावं पृथ शः ।।२७
ीशुक उवाच
कंस एवं स ा यां वशु ं तभा षतः ।
दे वक वसुदेवा यामनु ातोऽ वशद् गृहम् ।।२८

त यां रा यां तीतायां कंस आ य म णः ।


ते य आच तत् सव य ं योग न या ।।२९

आक य भतुग दतं तमूचुदवश वः ।


दे वान् त कृतामषा दै तेया ना तको वदाः ।।३०

एवं चे ह भोजे पुर ाम जा दषु ।


अ नदशान् नदशां ह न यामोऽ वै शशून् ।।३१
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जब वसुदेव और दे वक ने इस कार स होकर
न कपटभावसे कंसके साथ बातचीत क , तब उनसे अनुम त लेकर वह अपने महलम चला
गया ।।२८।। वह रा बीत जानेपर कंसने अपने म य को बुलाया और योगमायाने जो
कुछ कहा था, वह सब उ ह कह सुनाया ।।२९।। कंसके म ी पूणतया नी त नपुण नह थे।
दै य होनेके कारण वभावसे ही वे दे वता के त श ुताका भाव रखते थे। अपने वामी
कंसक बात सुनकर वे दे वता पर और भी चढ़ गये और कंससे कहने लगे— ।।३०।।
‘भोजराज! य द ऐसी बात है तो हम आज ही बड़े-बड़े नगर म, छोटे -छोटे गाँव म, अहीर क
ब तय म और सरे थान म जतने ब चे ए ह, वे चाहे दस दनसे अ धकके ह या कमके,
सबको आज ही मार डालगे ।।३१।। समरभी दे वगण यु ो ोग करके ही या करगे? वे तो
आपके धनुषक टं कार सुनकर ही सदा-सवदा घबराये रहते ह ।।३२।। जस समय
यु भू मम आप चोट-पर-चोट करने लगते ह, बाण-वषासे घायल होकर अपने ाण क
र ाके लये समरांगण छोड़कर दे वतालोग पलायन-परायण होकर इधर-उधर भाग जाते
ह ।।३३।। कुछ दे वता तो अपने अ -श जमीनपर डाल दे ते ह और हाथ जोड़कर आपके
सामने अपनी द नता कट करने लगते ह। कोई-कोई अपनी चोट के बाल तथा क छ
खोलकर आपक शरणम आकर कहते ह क—‘हम भयभीत ह, हमारी र ा
क जये’ ।।३४।। आप उन श ु को नह मारते जो अ -श भूल गये ह , जनका रथ टू ट
गया हो, जो डर गये ह , जो लोग यु छोड़कर अ यमन क हो गये ह , जनका धनुष टू ट
गया हो या ज ह ने यु से अपना मुख मोड़ लया हो—उ ह भी आप नह मारते ।।३५।।

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दे वता तो बस वह वीर बनते ह, जहाँ कोई लड़ाई-झगड़ा न हो। रणभू मके बाहर वे बड़ी-
बड़ी ड ग हाँकते ह। उनसे तथा एका तवासी व णु, वनवासी शंकर, अ पवीय इ और
तप वी ासे भी हम या भय हो सकता है ।।३६।। फर भी दे वता क उपे ा नह
करनी चा हये—ऐसी हमारी राय है। य क ह तो वे श ु ही। इस लये उनक जड़ उखाड़
फकनेके लये आप हम-जैसे व ासपा सेवक को नयु कर द जये ।।३७।। जब
मनु यके शरीरम रोग हो जाता है और उसक च क सा नह क जाती—उपे ा कर द जाती
है, तब रोग अपनी जड़ जमा लेता है और फर वह असा य हो जाता है। अथवा जैसे
इ य क उपे ा कर दे नेपर उनका दमन अस भव हो जाता है, वैसे ही य द पहले श ुक
उपे ा कर द जाय और वह अपना पाँव जमा ले, तो फर उसको हराना क ठन हो जाता
है ।।३८।। दे वता क जड़ है व णु और वह वहाँ रहता है, जहाँ सनातनधम है।
सनातनधमक जड़ ह—वेद, गौ, ा ण, तप या और वे य , जनम द णा द जाती
है ।।३९।। इस लये भोजराज! हमलोग वेदवाद ा ण, तप वी, या क और य के लये घी
आ द ह व य पदाथ दे नेवाली गाय का पूण पसे नाश कर डालगे ।।४०।। ा ण, गौ, वेद,
तप या, स य, इ यदमन, मनो न ह, ा, दया, त त ा और य व णुके शरीर
ह ।।४१।। वह व णु ही सारे दे वता का वामी तथा असुर का धान े षी है। पर तु वह
कसी गुफाम छपा रहता है। महादे व, ा और सारे दे वता क जड़ वही है। उसको मार
डालनेका उपाय यह है क ऋ षय को मार डाला जाय’ ।।४२।।
कमु मैः क र य त दे वाः समरभीरवः ।
न यमु नमनसो याघोषैधनुष तव ।।३२

अ यत ते शर ातैह यमानाः सम ततः ।


जजी वषव उ सृ य पलायनपरा ययुः ।।३३

के चत् ांजलयो द ना य तश ा दवौकसः ।


मु क छ शखाः के चद् भीताः म इ त वा दनः ।।३४

न वं व मृतश ा ान् वरथान् भयसंवृतान् ।


हं य यास वमुखान् भ नचापानयु यतः ।।३५

क ेमशूरै वबुधैरसंयुग वक थनैः ।


रहोजुषा क ह रणा श भुना वा वनौकसा ।
क म े णा पवीयण णा वा तप यता ।।३६

तथा प दे वाः साप या ोपे या इ त म महे ।


तत त मूलखनने नयुङ् वा माननु तान् ।।३७
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यथाऽऽमयोऽ े समुपे तो नृ भ-
न श यते ढपद क सतुम् ।
यथे य ाम उपे त तथा
रपुमहान् ब बलो न चा यते ।।३८

मूलं ह व णुदवानां य धमः सनातनः ।


त यच गो व ा तपो य ाः सद णाः ।। ३९

त मात् सवा मना राजन् ा णान् वा दनः ।


तप वनो य शीलान् गा ह मो ह व घाः ।।४०

व ा गाव वेदा १ तपः स यं दमः शमः ।


ा दया त त ा च तव हरे तनूः ।।४१

स ह सवसुरा य ो सुर ड् गुहाशयः ।


त मूला दे वताः सवाः से राः सचतुमुखाः ।
अयं वै त धोपायो य षीणां व हसनम् ।।४२
ीशुक उवाच
एवं म भः कंसः सह स म य म तः ।
हसां हतं२ मेने कालपाशावृतोऽसुरः ।।४३

स द य साधुलोक य कदने कदन यान् ।


काम पधरान् द ु दानवान् गृहमा वशत् ।।४४

ते वै रजः कृतय तमसा मूढचेतसः ।


सतां व े षमाचे रारादागतमृ यवः ।।४५

आयुः यं यशो धम लोकाना शष एव च ।


ह त ेयां स सवा ण पुंसो महद त मः ।।४६
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! एक तो कंसक बु वयं ही बगड़ी ई थी; फर
उसे म ी ऐसे मले थे, जो उससे भी बढ़कर थे। इस कार उनसे सलाह करके कालके
फंदे म फँसे ए असुर कंसने यही ठ क समझा क ा ण को ही मार डाला जाय ।।४३।।
उसने हसा ेमी रा स को संतपु ष क हसा करनेका आदे श दे दया। वे इ छानुसार प
धारण कर सकते थे। जब वे इधर-उधर चले गये, तब कंसने अपने महलम वेश
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कया ।।४४।। उन असुर क कृ त थी रजोगुणी। तमोगुणके कारण उनका च उ चत और
अनु चतके ववेकसे र हत हो गया था। उनके सरपर मौत नाच रही थी। यही कारण है क
उ ह ने स त से े ष कया ।।४५।। परी त्! जो लोग महान् स त पु ष का अनादर करते ह,
उनका वह कुकम उनक आयु, ल मी, क त, धम, लोक-परलोक, वषय-भोग और सब-के-
सब क याणके साधन को न कर दे ता है ।।४६।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध चतुथ ऽ यायः ।।४।।

* भगवान् ीकृ णने इस संगम यह कट कया क जो मुझे ेमपूवक अपने दयम


धारण करता है, उसके ब धन खुल जाते ह, जेलसे छु टकारा मल जाता है, बड़े-बड़े फाटक
टू ट जाते ह, पहरेदार का पता नह चलता, भव-नद का जल सूख जाता है, गोकुल (इ य-
समुदाय) क वृ याँ लु त हो जाती ह और माया हाथम आ जाती है।
१. सु क्।
* जनके गभम भगवान्ने नवास कया, ज ह भगवान्के दशन ए, उन दे वक -

वसुदेवके दशनका ही यह फल है क कंसके दयम वनय, वचार, उदारता आ द


सद्गुण का उदय हो गया। पर तु जबतक वह उनके सामने रहा तभीतक ये सद्गुण रहे।
म य के बीचम जाते ही वह फर य -का- य हो गया!
१. ब धुव०। २. या०। ३. राज।

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अथ प चमोऽ यायः
गोकुलम भगवान्का ज ममहो सव
ीशुक उवाच
न द वा मज उ प े जाता ादो महामनाः ।
आ य व ान् वेद ान् नातः शु चरलंकृतः ।।१
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! न दबाबा बड़े मन वी और उदार थे। पु का
ज म होनेपर तो उनका दय वल ण आन दसे भर गया। उ ह ने नान कया और
प व होकर सु दर-सु दर व ा-भूषण धारण कये। फर वेद ा ण को बुलवाकर
व तवाचन और अपने पु का जातकम-सं कार करवाया। साथ ही दे वता और
पतर क व धपूवक पूजा भी करवायी ।।१-२।। उ ह ने ा ण को व और
आभूषण से सुस जत दो लाख गौएँ दान क । र न और सुनहले व से ढके ए
तलके सात पहाड़ दान कये ।।३।। (सं कार से ही गभशु होती है—यह द शत
करनेके लये अनेक ा त का उ लेख करते ह—) समयसे (नूतनजल, अशु भू म
आ द), नानसे (शरीर आ द), ालनसे (व ा द), सं कार से (गभा द), तप यासे
(इ या द), य से ( ा णा द), दानसे (धन-धा या द) और संतोषसे (मन आ द)
शु होते ह। पर तु आ माक शु तो आ म ानसे ही होती है ।।४।। उस समय
ा ण, सूत,* मागध† और वंद जन‡ मंगलमय आशीवाद दे ने तथा तु त करने लगे।
गायक गाने लगे। भेरी और भयाँ बार-बार बजने लग ।।५।। जम डलके सभी
घर के ार, आँगन और भीतरी भाग झाड़-बुहार दये गये; उनम सुग धत जलका
छड़काव कया गया; उ ह च - व च , वजा-पताका, पु प क माला , रंग- बरंगे
व और प लव क ब दनवार से सजाया गया ।।६।। गाय, बैल और बछड़ के अंग म
ह द -तेलका लेप कर दया गया और उ ह गे आ द रंगीन धातुए,ँ मोरपंख, फूल के
हार, तरह-तरहके सु दर व और सोनेक जंजीर से सजा दया गया ।।७।। परी त्!
सभी वाल ब मू य व , गहने, अँगरखे और पग ड़य से सुस जत होकर और अपने
हाथ म भटक ब त-सी साम याँ ले-लेकर न दबाबाके घर आये ।।८।।
वाच य वा व ययनं जातकमा मज य वै ।
कारयामास व धवत्१ पतृदेवाचनं तथा ।।२

धेनूनां नयुते ादाद् व े यः समलंकृते ।


तला न् स त र नौघशातकौ भा बरावृतान् ।।३

कालेन नानशौचा यां सं कारै तपसे यया ।

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शु य त दानैः स तु ा ा या माऽऽ म व या ।।४

सौमंग य गरो व ाः सूतमागधव दनः ।


गायका जगुन भय भयो मु ः ।।५

जः स मृ सं स ारा जरगृहा तरः ।


च वजपताका क्चैलप लवतोरणैः ।।६

गावो वृषा२ व सतरा ह र ातैल षताः ।


व च धातुबह व कांचनमा लनः ।।७

महाहव ाभरणकंचुको णीषभू षताः ।


गोपाः समाययू राजन् नानोपायनपाणयः ।।८

गो य ाक य मु दता यशोदायाः सुतो वम् ।


आ मानं भूषयांच ु व ाक पांजना द भः ।।९
यशोदाजीके पु आ है, यह सुनकर गो पय को भी बड़ा आन द आ। उ ह ने
सु दर-सु दर व , आभूषण और अंजन आ दसे अपना शृंगार कया ।।९।। गो पय के
मुखकमल बड़े ही सु दर जान पड़ते थे। उनपर लगी ई कुंकुम ऐसी लगती मानो
कमलक केशर हो। उनके नत ब बड़े-बड़े थे। वे भटक साम ी ले-लेकर ज द -ज द
यशोदाजीके पास चल । उस समय उनके पयोधर हल रहे थे ।।१०।। गो पय के
कान म चमकती ई म णय के कु डल झल मला रहे थे। गलेम सोनेके हार (हैकल या
मेल) जगमगा रहे थे। वे बड़े सु दर-सु दर रंग- बरंगे व पहने ए थ । मागम उनक
चो टय म गुँथे ए फूल बरसते जा रहे थे। हाथ म जड़ाऊ कंगन अलग ही चमक रहे थे।
उनके कान के कु डल, पयोधर और हार हलते जाते थे। इस कार न दबाबाके घर
जाते समय उनक शोभा बड़ी अनूठ जान पड़ती थी ।।११।। न दबाबाके घर जाकर वे
नवजात शशुको आशीवाद दे त ‘यह चरजीवी हो, भगवन्! इसक र ा करो।’ और
लोग पर ह द -तेलसे मला आ पानी छड़क दे त तथा ऊँचे वरसे मंगलगान करती
थ ।।१२।।
नवकुंकुम कज कमुखपंकजभूतयः ।
ब ल भ व रतं ज मुः पृथु ो य ल कुचाः ।।१०

गो यः सुमृ म णकु डल न कक -
ा बराः प थ शखा युतमा यवषाः ।
न दालयं सवलया जती वरेज-ु
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ालोलकु डलपयोधरहारशोभाः ।।११

ता आ शषः युंजाना रं पाही त१ बालके ।


ह र ाचूणतैला ः सच योऽजनमु जगुः ।।१२

अवा त व च ा ण वा द ा ण महो सवे ।


कृ णे व े रेऽन ते न द य२ जमागते ।।१३

गोपाः पर परं ा द ध ीरघृता बु भः ।


आ स च तो व ल प तो नवनीतै च पुः ।।१४

न दो महामना ते यो वासोऽलंकारगोधनम्३ ।
सूतमागधव द यो येऽ ये व ोपजी वनः ।।१५

तै तैः कामैरद ना मा यथो चतमपूजयत् ।


व णोराराधनाथाय वपु योदयाय च ।।१६
भगवान् ीकृ ण सम त जगत्के एकमा वामी ह। उनके ऐ य, माधुय, वा स य
—सभी अन त ह। वे जब न दबाबाके जम कट ए, उस समय उनके ज मका
महान् उ सव मनाया गया। उसम बड़े-बड़े व च और मंगलमय बाजे बजाये जाने
लगे ।।१३।। आन दसे मतवाले होकर गोपगण एक- सरेपर दही, ध, घी और पानी
उड़ेलने लगे। एक- सरेके मुँहपर म खन मलने लगे और म खन फक-फककर
आन दो सव मनाने लगे ।।१४।। न दबाबा वभावसे ही परम उदार और मन वी थे।
उ ह ने गोप को ब त-से व , आभूषण और गौएँ द । सूत-मागध-वंद जन , नृ य, वा
आ द व ा से अपना जीवन- नवाह करनेवाल तथा सरे गुणीजन को भी
न दबाबाने स तापूवक उनक मुँहमाँगी व तुएँ दे कर उनका यथो चत स कार कया।
यह सब करनेम उनका उ े य यही था क इन कम से भगवान् व णु स ह और मेरे
इस नवजात शशुका मंगल हो ।।१५-१६।। न दबाबाके अ भन दन करनेपर परम
सौभा यवती रो हणीजी द व , माला और गलेके भाँ त-भाँ तके गहन से
सुस जत होकर गृह वा मनीक भाँ त आने-जानेवाली य का स कार करती ई
वचर रही थ ।।१७।। परी त्! उसी दनसे न दबाबाके जम सब कारक ऋ -
स याँ अठखे लयाँ करने लग और भगवान् ीकृ णके नवास तथा अपने
वाभा वक गुण के कारण वह ल मीजीका डा थल बन गया ।।१८।।
रो हणी च महाभागा न दगोपा भन दता ।
चरद् द वासः क ठाभरणभू षता ।।१७

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तत आर य न द य जः सवसमृ मान् ।
हरे नवासा मगुणै रमा डमभू ृप ।।१८

गोपान् गोकुलर ायां न य मथुरां गतः ।


न दः कंस य वा ष यं करं दातुं कु ह ।।१९

वसुदेव उप ु य ातरं न दमागतम् ।


ा वा द करं रा े ययौ तदवमोचनम् ।।२०

तं ् वा सहसो थाय दे हः ाण मवागतम् ।


ीतः यतमं दो या स वजे ेम व लः ।।२१

पू जतः सुखमासीनः पृ ् वानामयमा तः ।


स धीः वा मजयो रदमाह वशा पते ।।२२

द ा ातः वयस इदानीम ज य ते ।


जाशाया नवृ य जा यत् समप त ।।२३

द ा संसारच े ऽ मन् वतमानः पुनभवः ।


उपल धो भवान लभं यदशनम् ।।२४

नैक यसंवासः सु दां च कमणाम् ।


ओघेन ू मानानां लवानां ोतसो यथा ।।२५
परी त्! कुछ दन के बाद न दबाबाने गोकुलक र ाका भार तो सरे गोप को
स प दया और वे वयं कंसका वा षक कर चुकानेके लये मथुरा चले गये ।।१९।। जब
वसुदेवजीको यह मालूम आ क हमारे भाई न दजी मथुराम आये ह और राजा
कंसको उसका कर भी दे चुके ह, तब वे जहाँ न दबाबा ठहरे ए थे, वहाँ गये ।।२०।।
वसुदेवजीको दे खते ही न दजी सहसा उठकर खड़े हो गये मानो मृतक शरीरम ाण आ
गया हो। उ ह ने बड़े ेमसे अपने यतम वसुदेवजीको दोन हाथ से पकड़कर दयसे
लगा लया। न दबाबा उस समय ेमसे व ल हो रहे थे ।।२१।। परी त्! न दबाबाने
वसुदेवजीका बड़ा वागत-स कार कया। वे आदरपूवक आरामसे बैठ गये। उस समय
उनका च अपने पु म लग रहा था। वे न दबाबासे कुशलमंगल पूछकर कहने
लगे ।।२२।।
[वसुदेवजीने कहा—] ‘भाई! तु हारी अव था ढल चली थी और अबतक तु ह
कोई स तान नह ई थी। यहाँतक क अब तु ह स तानक कोई आशा भी न थी। यह
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बड़े सौभा यक बात है क अब तु ह स तान ा त हो गयी ।।२३।। यह भी बड़े
आन दका वषय है क आज हमलोग का मलना हो गया। अपने े मय का मलना भी
बड़ा लभ है। इस संसारका च ही ऐसा है। इसे तो एक कारका पुनज म ही
समझना चा हये ।।२४।। जैसे नद के बल वाहम बहते ए बेड़े और तनके सदा एक
साथ नह रह सकते, वैसे ही सगे-स ब धी और े मय का भी एक थानपर रहना
स भव नह है—य प वह सबको य लगता है। य क सबके ार धकम अलग-
अलग होते ह ।।२५।।
क चत् पश ं न जं भूय बुतृणवी धम् ।
बृह नं तदधुना य ा से वं सु द्वृतः ।।२६

ातमम सुतः क च मा ा सह भवद् जे ।


तातं भव तं म वानो भवद् यामुपला लतः ।।२७

पुंस वग व हतः सु दो नुभा वतः ।


न तेषु ल यमानेषु वग ऽथाय क पते ।।२८
न द उवाच
अहो ते दे वक पु ाः कंसेन बहवो हताः ।
एकाव श ावरजा क या सा प दवं गता ।।२९

नूनं न ोऽयम परमो जनः ।


अ मा मन त वं यो वेद न स मु त ।।३०
वसुदेव उवाच
करो वै वा षको द ो रा े ा वयं च वः ।
नेह थेयं ब तथं स यु पाता गोकुले ।।३१
ीशुक उवाच
इ त न दादयो गोपाः ो ा ते शौ रणा ययुः ।
अनो भरनडु ु ै तमनु ा य गोकुलम् ।।३२
आजकल तुम जस महावनम अपने भाई-ब धु और वजन के साथ रहते हो,
उसम जल, घास और लता-प ा द तो भरे-पूरे ह न? वह वन पशु के लये अनुकूल
और सब कारके रोग से तो बचा है? ।।२६।। भाई! मेरा लड़का अपनी मा (रो हणी)
के साथ तु हारे जम रहता है। उसका लालन-पालन तुम और यशोदा करते हो,
इस लये वह तो तु ह को अपने पता-माता मानता होगा। वह अ छ तरह है

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न? ।।२७।।
मनु यके लये वे ही धम, अथ और काम शा व हत ह, जनसे उसके वजन को
सुख मले। जनसे केवल अपनेको ही सुख मलता है; क तु अपने वजन को ःख
मलता है, वे धम, अथ और काम हतकारी नह ह’ ।।२८।।
न दबाबाने कहा—भाई वसुदेव! कंसने दे वक के गभसे उ प तु हारे कई पु
मार डाले। अ तम एक सबसे छोट क या बच रही थी, वह भी वग सधार
गयी ।।२९।।
इसम स दे ह नह क ा णय का सुख- ःख भा यपर ही अवल बत है। भा य ही
ाणीका एकमा आ य है। जो जान लेता है क जीवनके सुख- ःखका कारण भा य
ही है, वह उनके ा त होनेपर मो हत नह होता ।।३०।।
वसुदेवजीने कहा—भाई! तुमने राजा कंसको उसका सालाना कर चुका दया।
हम दोन मल भी चुके। अब तु ह यहाँ अ धक दन नह ठहरना चा हये; य क
आजकल गोकुलम बड़े-बड़े उ पात हो रहे ह ।।३१।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जब वसुदेवजीने इस कार कहा, तब न द
आ द गोप ने उनसे अनुम त ले, बैल से जुते ए छकड़ पर सवार होकर गोकुलक या ा
क ।।३२।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध न दवसुदेवसंगमो
नाम प चमोऽ यायः ।।५।।

१. दे वा । २. हतां।
१. धना पतृ०। २. षाः सव सा ह र०।
* पौरा णक। † वंशका वणन करनेवाले। ‡ समयानुसार उ य से तु त करनेवाले
भाट। जैसा क कहा है—‘सूताः पौरा णकाः ो ा मागधावंशशंसकाः ।
व दन वमल ाः तावस शो यः ।। ’
१. जीवे त। २. न द जमुपेयु ष। ३. धनैः।

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अथ ष ोऽ यायः
पूतना-उ ार
ीशुक उवाच
न दः प थ वचः शौरेन मृषे त व च तयन् ।
ह र जगाम शरणमु पातागमशं कतः ।।१

कंसेन हता घोरा पूतना बालघा तनी ।


शशूं चार न न ती पुर ाम जा दषु ।।२

नय वणाद न र ो ना न वकमसु ।
कुव त सा वतां भतुयातुधा य त ह ।।३

सा खेचयकदोपे य पूतना न दगोकुलम् ।


यो ष वा माययाऽऽ मानं ा वशत् कामचा रणी ।।४

तां केशब ध तष म लकां


बृह त ब तनकृ म यमाम् ।
सुवाससं क पतकणभूषण-
वषो लस कु तलम डताननाम् ।।५

व गु मतापांग वसगवी तै-


मनो हर त व नतां जौकसाम् ।
अमंसता भोजकरेण पण
गो यः यं ु मवागतां प तम् ।।६

बाल ह त व च वती शशून्


य छया न दगृहेऽसद तकम् ।
बालं त छ नजो तेजसं
ददश त पेऽ न मवा हतं भ स ।।७
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! न दबाबा जब मथुरासे चले, तब रा तेम
वचार करने लगे क वसुदेवजीका कथन झूठा नह हो सकता। इससे उनके मनम
उ पात होनेक आशंका हो गयी। तब उ ह ने मन-ही-मन ‘भगवान् ही शरण ह, वे ही
र ा करगे’ ऐसा न य कया ।।१।। पूतना नामक एक बड़ी ू र रा सी थी। उसका
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एक ही काम था—ब च को मारना। कंसक आ ासे वह नगर, ाम और अहीर क
ब तय म ब च को मारनेके लये घूमा करती थी ।।२।। जहाँके लोग अपने त दनके
काम म रा स के भयको र भगानेवाले भ व सल भगवान्के नाम, गुण और
लीला का वण, क तन और मरण नह करते—वह ऐसी रा सय का बल चलता
है ।।३।। वह पूतना आकाशमागसे चल सकती थी और अपनी इ छाके अनुसार प
भी बना लेती थी। एक दन न दबाबाके गोकुलके पास आकर उसने मायासे अपनेको
एक सु दरी युवती बना लया और गोकुलके भीतर घुस गयी ।।४।। उसने बड़ा सु दर
प बनाया था। उसक चो टय म बेलेके फूल गुँथे ए थे। सु दर व पहने ए थी।
जब उसके कणफूल हलते थे, तब उनक चमकसे मुखक ओर लटक ई अलक और
भी शोभायमान हो जाती थ । उसके नत ब और कुच-कलश ऊँचे-ऊँचे थे और कमर
पतली थी ।।५।। वह अपनी मधुर मुसकान और कटा पूण चतवनसे जवा सय का
च चुरा रही थी। उस पवती रमणीको हाथम कमल लेकर आते दे ख गो पयाँ ऐसी
उ े ा करने लग , मानो वयं ल मीजी अपने प तका दशन करनेके लये आ रही
ह ।।६।।
पूतना बालक के लये हके समान थी। वह इधर-उधर बालक को ढूँ ढ़ती ई
अनायास ही न द-बाबाके घरम घुस गयी। वहाँ उसने दे खा क बालक ीकृ ण
श यापर सोये ए ह। परी त्! भगवान् ीकृ ण के काल ह। पर तु जैसे आग
राखक ढे रीम अपनेको छपाये ए हो, वैसे ही उस समय उ ह ने अपने च ड तेजको
छपा रखा था ।।७।।
वबु य तां बालकमा रका हं
चराचरा माऽऽस नमी लते णः ।
अन तमारोपयदं कम तकं
यथोरगं सु तमबु र जुधीः ।।८
भगवान् ीकृ ण चर-अचर सभी ा णय के आ मा ह। इस लये उ ह ने उसी ण
जान लया क यह ब च को मार डालनेवाला पूतना- ह है और अपने ने बंद कर
लये।* जैसे कोई पु ष मवश सोये ए साँपको र सी समझकर उठा ले, वैसे ही
अपने काल प भगवान् ीकृ णको पूतनाने अपनी गोदम उठा लया ।।८।।
तां ती ण च ाम तवामचे तां
वी या तरा कोशप र छदा सवत् ।
वर यं त भया च ध षते
नरी माणे जननी त ताम् ।।९

त मन् तनं जरवीयमु बणं


घोरांकमादाय शशोददावथ ।

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गाढं करा यां भगवान् पी तत्
ाणैः समं रोषसम वतोऽ पबत् ।।१०
मखमली यानके भीतर छपी ई तीखी धारवाली तलवारके समान पूतनाका दय
तो बड़ा कु टल था; क तु ऊपरसे वह ब त मधुर और सु दर वहार कर रही थी।
दे खनेम वह एक भ म हलाके समान जान पड़ती थी। इस लये रो हणी और
यशोदाजीने उसे घरके भीतर आयी दे खकर भी उसक सौ दय भासे हत तभ-सी
होकर कोई रोक-टोक नह क , चुपचाप खड़ी-खड़ी दे खती रह ।।९।। इधर भयानक
रा सी पूतनाने बालक ीकृ णको अपनी गोदम लेकर उनके मुँहम अपना तन दे
दया, जसम बड़ा भयंकर और कसी कार भी पच न सकनेवाला वष लगा आ था।
भगवान्ने ोधको अपना साथी बनाया और दोन हाथ से उसके तन को जोरसे
दबाकर उसके ाण के साथ उसका ध पीने लगे (वे उसका ध पीने लगे और उनका
साथी ोध ाण पीने लगा!)* ।।१०।। अब तो पूतनाके ाण के आ यभूत सभी
मम थान फटने लगे। वह पुकारने लगी—‘अरे छोड़ दे , छोड़ दे , अब बस कर!’ वह
बार-बार अपने हाथ और पैर पटक-पटककर रोने लगी। उसके ने उलट गये। उसका
सारा शरीर पसीनेसे लथपथ हो गया ।।११।। उसक च लाहटका वेग बड़ा भयंकर
था। उसके भावसे पहाड़ के साथ पृ वी और ह के साथ अ त र डगमगा उठा।
सात पाताल और दशाएँ गूँज उठ । ब त-से लोग व पातक आशंकासे पृ वीपर गर
पड़े ।।१२।। परी त्! इस कार नशाचरी पूतनाके तन म इतनी पीड़ा ई क वह
अपनेको छपा न सक , रा सी पम कट हो गयी। उसके शरीरसे ाण नकल गये,
मुँह फट गया, बाल बखर गये और हाथ-पाँव फैल गये। जैसे इ के व से घायल
होकर वृ ासुर गर पड़ा था, वैसे ही वह बाहर गो म आकर गर पड़ी ।।१३।।
सा मु च मु चाल म त भा षणी
न पी माना खलजीवमम ण ।
ववृ य ने े चरणौ भुजौ मु ः
व गा ा पती रोद ह ।।११

त याः वनेना तगभीररंहसा


सा मही ौ चचाल स हा ।
रसा दश तने दरे जनाः
पेतुः तौ व नपातशंकया ।।१२

नशाचरी थं थत तना सु-


ादाय केशां रणौ भुजाव प ।
साय गो े नज पमा थता
व ाहतो वृ इवापत ृप ।।१३
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पतमानोऽ प त े ह ग ू य तर मान् ।
चूणयामास राजे महदासी द तम् ।।१४

ईषामा ो दं ा यं ग रक दरना सकम् ।


ग डशैल तनं रौ ं क णा णमूधजम् ।।१५

अ धकूपगभीरा ं पु लनारोहभीषणम् ।
ब सेतभ
ु ुजोवङ् शू यतोय दोदरम् ।।१६

स त सुः म तद् वी य गोपा गो यः कलेवरम् ।


पूव तु त ः व नत भ कणम तकाः ।।१७

बालं च त या उर स ड तमकुतोभयम् ।
गो य तूण सम ये य जगृ जातस माः ।।१८
राजे ! पूतनाके शरीरने गरते- गरते भी छः कोसके भीतरके वृ को कुचल
डाला। यह बड़ी ही अद्भुत घटना ई ।।१४।। पूतनाका शरीर बड़ा भयानक था,
उसका मुँह हलके समान तीखी और भयंकर दाढ़ से यु था। उसके नथुने पहाड़क
गुफाके समान गहरे थे और तन पहाड़से गरी ई च ान क तरह बड़े-बड़े थे। लाल-
लाल बाल चार ओर बखरे ए थे ।।१५।। आँख अंधे कूएँके समान गहरी नत ब
नद के करारक तरह भयंकर; भुजाएँ, जाँघ और पैर नद के पुलके समान तथा पेट
सूखे ए सरोवरक भाँ त जान पड़ता था ।।१६।। पूतनाके उस शरीरको दे खकर सब-
के-सब वाल और गोपी डर गये। उसक भयंकर च लाहट सुनकर उनके दय, कान
और सर तो पहले ही फट-से रहे थे ।।१७।। जब गो पय ने दे खा क बालक ीकृ ण
उसक छातीपर नभय होकर खेल रहे ह,* तब वे बड़ी घबराहट और उतावलीके साथ
झटपट वहाँ प ँच गय तथा ीकृ णको उठा लया ।।१८।।
यशोदारो हणी यां ताः समं बाल य सवतः ।
र ां वद धरे स य गोपु छ मणा द भः ।।१९

गोमू ेण नाप य वा पुनग रजसाभकम् ।


र ां च ु शकृता ादशांगेषु नाम भः ।।२०

गो यः सं पृ स लला अंगेषु करयोः पृथक् ।


य या म यथ बाल य बीज यासमकुवत ।।२१

अ ादजोऽङ् म णमां तव जा वथो


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य ोऽ युतः क टतटं जठरं हया यः ।
त् केशव व र ईश इन तु क ठं
व णुभजं
ु मुखमु म ई रः कम् ।।२२

च य तः सहगदो ह रर तु प ात्
व पा योधनुरसी मधुहाजन ।
कोणेषु शंख उ गाय उपयुपे -
ता यः तौ हलधरः पु षः सम तात् ।।२३

इ या ण षीकेशः ाणान् नारायणोऽवतु ।


ेत पप त ं मनो योगे रोऽवतु ।।२४

पृ गभ तु ते बु मा मानं भगवान् परः ।


ड तं पातु गो व दः शयानं पातु माधवः ।।२५

ज तम ाद् वैकु ठ आसीनं वां यः प तः ।


भुंजानं य भुक् पातु सव हभयंकरः ।।२६
इसके बाद यशोदा और रो हणीके साथ गो पय ने गायक पूँछ घुमाने आ द
उपाय से बालक ीकृ णके अंग क सब कारसे र ा क ।।१९।। उ ह ने पहले
बालक ीकृ णको गोमू से नान कराया, फर सब अंग म गो-रज लगायी और फर
बारह अंग म गोबर लगाकर भगवान्के केशव आ द नाम से र ा क ।।२०।। इसके
बाद गो पय ने आचमन करके ‘अज’ आ द यारह बीज-म से अपने शरीर म अलग-
अलग अंग यास एवं कर यास कया और फर बालकके अंग म बीज यास
कया ।।२१।।
वे कहने लग —‘अज मा भगवान् तेरे पैर क र ा कर, म णमान् घुटन क ,
य पु ष जाँघ क , अ युत कमरक , हय ीव पेटक , केशव दयक , ईश व ः थलक ,
सूय क ठक , व णु बाँह क , उ म मुखक और ई र सरक र ा कर ।।२२।।
च धर भगवान् र ाके लये तेरे आगे रह, गदाधारी ीह र पीछे , मशः धनुष और
खड् ग धारण करनेवाले भगवान् मधुसूदन और अजन दोन बगलम, शंखधारी उ गाय
चार कोन म, उपे ऊपर, हलधर पृ वीपर और भगवान् परमपु ष तेरे सब ओर
र ाके लये रह ।।२३।। षीकेशभगवान् इ य क और नारायण ाण क र ा कर।
ेत पके अ धप त च क और योगे र मनक र ा कर ।।२४।। पृ गभ तेरी
बु क और परमा मा भगवान् तेरे अहंकारक र ा कर। खेलते समय गो व द र ा
कर, सोते समय माधव र ा कर ।।२५।। चलते समय भगवान् वैकु ठ और बैठते समय
भगवान् ीप त तेरी र ा कर। भोजनके समय सम त ह को भयभीत करनेवाले
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य भो ा भगवान् तेरी र ा कर ।।२६।। डा कनी, रा सी और कू मा डा आ द
बाल ह; भूत, ेत, पशाच, य , रा स और वनायक, कोटरा, रेवती, ये ा, पूतना,
मातृका आ द; शरीर, ाण तथा इ य का नाश करनेवाले उ माद (पागलपन) एवं
अप मार (मृगी) आ द रोग; व म दे खे ए महान् उ पात, वृ ह और बाल ह आ द
—ये सभी अ न भगवान् व णुका नामो चारण करनेसे भयभीत होकर न हो
जायँ* ।।२७-२९।।
डा क यो यातुधा य कू मा डा येऽभक हाः ।
भूत ेत पशाचा य र ो वनायकाः ।।२७

कोटरा रेवती ये ा पूतना मातृकादयः ।


उ मादा ये प मारा दे ह ाणे य हः ।।२८

व ा महो पाता वृ बाल हा ये ।


सव न य तु ते व णोनाम हणभीरवः ।।२९
ीशुक उवाच
इ त णयब ा भग पी भः कृतर णम् ।
पाय य वा तनं माता सं यवेशयदा मजम् ।।३०

ताव दादयो गोपा मथुराया जं गताः ।


वलो य पूतनादे हं बभूवुर त व मताः ।।३१

नूनं बत षः संजातो योगेशो वा समास सः ।


स एव ो पातो यदाहानक भः ।।३२

कलेवरं परशु भ छ वा त े जौकसः ।


रे वावयवशो यदहन् का ध तम् ।।३३

द मान य दे ह य धूम ागु सौरभः ।


उ थतः कृ ण नभु सप ाहतपा मनः ।।३४

पूतना लोकबाल नी रा सी धराशना ।


जघांसया प हरये तनं द वाऽऽप सद्ग तम् ।।३५

क पुनः या भ या कृ णाय परमा मने ।

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य छन् यतमं क नु र ा त मातरो यथा ।।३६
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! इस कार गो पय ने ेमपाशम बँधकर
भगवान् ीकृ णक र ा क । माता यशोदाने अपने पु को तन पलाया और फर
पालनेपर सुला दया ।।३०।। इसी समय न दबाबा और उनके साथी गोप मथुरासे
गोकुलम प ँच।े जब उ ह ने पूतनाका भयंकर शरीर दे खा, तब वे आ यच कत हो
गये ।।३१।। वे कहने लगे—‘यह तो बड़े आ यक बात है, अव य ही वसुदेवके पम
कसी ऋ षने ज म हण कया है। अथवा स भव है वसुदेवजी पूवज मम कोई
योगे र रहे ह ; य क उ ह ने जैसा कहा था, वैसा ही उ पात यहाँ दे खनेम आ रहा
है ।।३२।। तबतक जवा सय ने कु हाड़ीसे पूतनाके शरीरको टु कड़े-टु कड़े कर डाला
और गोकुलसे र ले जाकर लक ड़य पर रखकर जला दया ।।३३।। जब उसका शरीर
जलने लगा, तब उसमसे ऐसा धूँआ नकला, जसमसे अगरक -सी सुग ध आ रही थी।
य न हो, भगवान्ने जो उसका ध पी लया था— जससे उसके सारे पाप त काल ही
न हो गये थे ।।३४।। पूतना एक रा सी थी। लोग के ब च को मार डालना और
उनका खून पी जाना—यही उसका काम था। भगवान्को भी उसने मार डालनेक
इ छासे ही तन पलाया था। फर भी उसे वह परमग त मली, जो स पु ष को मलती
है ।।३५।। ऐसी थ तम जो पर परमा मा भगवान् ीकृ णको ा और भ से
माताके समान अनुरागपूवक अपनी य-से- य व तु और उनको य लगनेवाली
व तु सम पत करते ह, उनके स ब धम तो कहना ही या है ।।३६।।
पद् यां भ द था यां व ा यां लोकव दतैः ।
अंगं य याः समा य भगवान पबत् तनम् ।।३७

यातुधा य प सा वगमवाप जननीग तम् ।


कृ णभु तन ीराः कमु गावो नु मातरः ।।३८

पयां स यासाम पबत् पु नेह नुता यलम् ।


भगवान् दे वक पु ः कैव या खल दः ।।३९

तासाम वरतं कृ णे कुवतीनां सुते णम् ।


न पुनः क पते राजन् संसारोऽ ानस भवः ।।४०

कटधूम य सौर यमव ाय जौकसः ।


क मदं कुत एवे त वद तो जमाययुः ।।४१

ते त व णतं गोपैः पूतनागमना दकम् ।


ु वा त धनं व त शशो ासन् सु व मताः ।।४२
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न दः वपु मादाय े यागतमुदारधीः ।
मू युपा ाय परमां मुदं लेभे कु ह ।।४३

य एतत् पूतनामो ं कृ ण याभकम तम् ।


शृणुया या म य गो व दे लभते र तम् ।।४४
भगवान्के चरणकमल सबके व दनीय ा, शंकर आ द दे वता के ारा भी
व दत ह। वे भ के दयक पूँजी ह। उ ह चरण से भगवान्ने पूतनाका शरीर
दबाकर उसका तनपान कया था ।।३७।। माना क वह रा सी थी, पर तु उसे उ म-
से-उ म ग त—जो माताको मलनी चा हये— ा त ई। फर जनके तनका ध
भगवान्ने बड़े ेमसे पया, उन गौ और माता क * तो बात ही या है ।।३८।।
परी त्! दे वक न दन भगवान् कैव य आ द सब कारक मु और सब कुछ
दे नेवाले ह। उ ह ने जक गो पय और गौ का वह ध, जो भगवान्के त पु -भाव
होनेसे वा स य- नेहक अ धकताके कारण वयं ही झरता रहता था, भरपेट पान
कया ।।३९।। राजन्! वे गौएँ और गो पयाँ, जो न य- नर तर भगवान् ीकृ णको
अपने पु के ही पम दे खती थ , फर ज म-मृ यु प संसारके च म कभी नह पड़
सकत ; य क यह संसार तो अ ानके कारण ही है ।।४०।।
न दबाबाके साथ आनेवाले जवा सय क नाकम जब चताके धूएक ँ सुग ध
प ँची, तब ‘यह या है? कहाँसे ऐसी सुग ध आ रही है?’ इस कार कहते ए वे
जम प ँचे ।।४१।। वहाँ गोप ने उ ह पूतनाके आनेसे लेकर मरनेतकका सारा वृ ा त
कह सुनाया। वे लोग पूतनाक मृ यु और ीकृ णके कुशलपूवक बच जानेक बात
सुनकर बड़े ही आ यच कत ए ।।४२।। परी त्! उदार शरोम ण न दबाबाने मृ युके
मुखसे बचे ए अपने लालाको गोदम उठा लया और बार-बार उसका सर सूँघकर
मन-ही-मन ब त आन दत ए ।।४३।। यह ‘पूतना-मो ’ भगवान् ीकृ णक
अद्भुत बाल-लीला है। जो मनु य ापूवक इसका वण करता है, उसे भगवान्
ीकृ णके त ेम ा त होता है ।।४४।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध
ष ोऽ यायः ।।६।।

* पूतनाको दे खकर भगवान् ीकृ णने अपने ने बंद कर लये, इसपर भ


क वय और ट काकार ने अनेक कारक उ े ाएँ क ह, जनम कुछ ये ह—
१. ीम लभाचायने सुबो धनीम कहा है—अ व ा ही पूतना है। भगवान्
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ीकृ णने सोचा क मेरी के सामने अ व ा टक नह सकती, फर लीला कैसे
होगी, इस लये ने ब द कर लये।
२. यह पूतना बाल-घा तनी है ‘पूतान प नय त’। यह प व बालक को भी ले जाती
है। ऐसा जघ य कृ य करनेवालीका मुँह नह दे खना चा हये, इस लये ने बंद कर लये।
३. इस ज मम तो इसने कुछ साधन कया नह है। संभव है मुझसे मलनेके लये
पूव ज मम कुछ कया हो। मानो पूतनाके पूव-पूव ज म के साधन दे खनेके लये ही
ीकृ णने ने बंद कर लये।
४. भगवान्ने अपने मनम वचार कया क मने पा पनीका ध कभी नह पया है।
अब जैसे लोग आँख बंद करके चरायतेका काढ़ा पी जाते ह, वैसे ही इसका ध भी पी
जाऊँ। इस लये ने बंद कर लये।
५. भगवान्के उदरम नवास करनेवाले असं य को ट ा ड के जीव यह
जानकर घबरा गये क यामसु दर पूतनाके तनम लगा हलाहल वष पीने जा रहे ह।
अतः उ ह समझानेके लये ही ीकृ णने ने बंद कर लये।
६. ीकृ ण शशुने वचार कया क म गोकुलम यह सोचकर आया था क माखन-
म ी खाऊँगा। सो छठ के दन ही वष पीनेका अवसर आ गया। इस लये आँख बंद
करके मानो शंकरजीका यान कया क आप आकर अपना अ य त वष-पान
क जये, म ध पीऊँगा।
७. ीकृ णके ने ने वचार कया क परम वत ई र इस ाको अ छ -बुरी
चाहे जो ग त दे द, पर तु हम दोन इसे च माग अथवा सूयमाग दोन मसे एक भी नह
दगे। इस लये उ ह ने अपने ार बंद कर लये।
८. ने ने सोचा पूतनाके ने ह तो हमारी जा तके; पर तु ये इस ू र रा सीक
शोभा बढ़ा रहे ह। इस लये अपने होनेपर भी ये दशनके यो य नह ह। इस लये उ ह ने
अपनेको पलक से ढक लया।
९. ीकृ णके ने म थत धमा मा न मने उस ाको दे खना उ चत न समझकर
ने बंद कर लये।
१०. ीकृ णके ने राज-हंस ह। उ ह बक पूतनाके दशन करनेक कोई उ क ठा
नह थी। इस लये ने बंद कर लये।
११. ीकृ णने वचार कया क बाहरसे तो इसने माताका-सा प धारण कर रखा
है, पर तु दयम अ य त ू रता भरे ए ह। ऐसी ीका मुँह न दे खना ही उ चत है।
इस लये ने बंद कर लये।
१२. उ ह ने सोचा क मुझे नडर दे खकर कह यह ऐसा न समझ जाय क इसके
ऊपर मेरा भाव नह चला और फर कह लौट न जाय। इस लये ने बंद कर लये।
१३. बाल-लीलाके ार भम पहले-पहल ीसे ही मुठभेड़ हो गयी, इस वचारसे
वर पूवक ने बंद कर लये।
१४. ीकृ णके मनम यह बात आयी क क णा- से दे खूँगा तो इसे मा ँ गा

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कैसे, और उ से दे खूँगा तो यह अभी भ म हो जायगी। लीलाक स के लये ने
बंद कर लेना ही उ म है। इस लये ने बंद कर लये।
१५. यह धा ीका वेष धारण करके आयी है, मारना उ चत नह है। पर तु यह और
वालबाल को मारेगी। इस लये इसका यह वेष दे खे बना ही मार डालना चा हये।
इस लये ने बंद कर लये।
१६. बड़े-से-बड़ा अ न योगसे नवृ हो जाता है। उ ह ने ने बंद करके मानो
योग स पा दत क ।
१७. पूतना यह न य करके आयी थी क म जके सारे शशु को मार डालूँगी,
पर तु भ र ापरायण भगवान्क कृपासे जका एक भी शशु उसे दखायी नह दया
और बालक को खोजती ई वह लीलाश क ेरणासे सीधी न दालयम आ प ँची,
तब भगवान्ने सोचा क मेरे भ का बुरा करनेक बात तो र रही, जो मेरे भ का बुरा
सोचता है, उस का म मुँह नह दे खता; ज-बालक सभी ीकृ णके सखा ह, परम
भ ह, पूतना उनको मारनेका संक प करके आयी है, इस लये उ ह ने ने बंद कर
लये।
१८. पूतना अपनी भीषण आकृ तको छपाकर रा सी मायासे द रमणी प
बनाकर आयी है। भगवान्क पड़नेपर माया रहेगी नह और इसका असली
भयानक प कट हो जायगा। उसे सामने दे खकर यशोदा मैया डर जायँ और पु क
अ न ाशंकासे कह उनके हठात् ाण नकल जायँ, इस आशंकासे उ ह ने ने बंद कर
लये।
१९. पूतना हसापूण दयसे आयी है, पर तु भगवान् उसक हसाके लये उपयु
द ड न दे कर उसका ाण-वधमा करके परम क याण करना चाहते ह। भगवान्
सम त सद्गुण के भ डार ह। उनम धृ ता आ द दोष का लेश भी नह है, इसी लये
पूतनाके क याणाथ भी उसका ाण-वध करनेम उ ह ल जा आती है। इस ल जासे
ही उ ह ने ने बंद कर लये।
२०. भगवान् जग पता ह—असुर-रा सा द भी उनक स तान ही ह। पर वे सवथा
उ छृ ं खल और उ ड हो गये ह, इस लये उ ह द ड दे ना आव यक है। नेहमय माता-
पता जब अपने उ छृ ं खल पु को द ड दे ते ह, तब उनके मनम ःख होता है। पर तु वे
उसे भय दखलानेके लये उसे बाहर कट नह करते। इसी कार भगवान् भी जब
असुर को मारते ह, तब पताके नाते उनको भी ःख होता है; पर सरे असुर को भय
दखलानेके लये वे उसे कट नह करते। भगवान् अब पूतनाको मारनेवाले ह, पर तु
उसक मृ युकालीन पीड़ाको अपनी आँख दे खना नह चाहते, इसीसे उ ह ने ने बंद
कर लये।
२१. छोटे बालक का वभाव है क वे अपनी माके सामने खूब खेलते ह, पर कसी
अप र चतको दे खकर डर जाते ह और ने मूँद लेते ह। अप र चत पूतनाको दे खकर
इसी लये बाल-लीला- वहारी भगवान्ने ने बंद कर लये। यह उनक बाललीलाका

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माधुय है।
* भगवान् रोषके साथ पूतनाके ाण के स हत तन-पान करने लगे, इसका यह
अथ तीत होता है क रोष (रोषा ध ातृ-दे वता ) ने ाण का पान कया और
ीकृ णने तनका।
* पूतनाके व ः थलपर डा करते ए मानो मन-ही-मन कह रहे थे—
तन धय य तन एव जी वका द वया स वयमानने मम ।
मया च पीतो यते य द वया क वा ममागः वयमेव क यताम् ।।
‘म धमुँहाँ शशु ँ, तनपान ही मेरी जी वका है। तुमने वयं अपना तन मेरे
मुँहम दे दया और मने पया। इससे य द तुम मर जाती हो तो वयं तु ह बताओ
इसम मेरा या अपराध है।’
राजा ब लक क या थी र नमाला। य शालाम वामन भगवान्को दे खकर
उसके दयम पु नेहका भाव उदय हो आया। वह मन-ही-मन अ भलाषा करने
लगी क य द मुझे ऐसा बालक हो और म उसे तन पलाऊँ तो मुझे बड़ी स ता
होगी। वामन भगवान्ने अपने भ ब लक पु ीके इस मनोरथका मन-ही-मन
अनुमोदन कया। वही ापरम पूतना ई और ीकृ णके पशसे उसक लालसा
पूण ई।
* इस संगको पढ़कर भावुक भ भगवान्से कहता है—‘भगवन्! जान पड़ता है,
आपक अपे ा भी आपके नामम श अ धक है; य क आप लोक क र ा
करते ह और नाम आपक र ा कर रहा है।’
* जब ाजी वालबाल और बछड़ को हर ले गये, तब भगवान् वयं ही बछड़े
और वालबाल बन गये, उस समय अपने व भ प से उ ह ने अपने साथी अनेक
गोप और व स क माता का तनपान कया। इसी लये यहाँ ब वचनका योग कया
गया है।

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अथ स तमोऽ यायः
शकट-भंजन और तृणावत-उ ार
राजोवाच
येन येनावतारेण भगवान् ह ररी रः ।
करो त कणर या ण मनो ा न च नः भो ।।१

य छृ वतोऽपै यर त वतृ णा
स वं च शु य य चरेण पुंसः ।
भ हरौ त पु षे च स यं
तदे व हारं वद म यसे चेत् ।।२

अथा यद प कृ ण य तोकाच रतम तम् ।


मानुषं लोकमासा त जा तमनु धतः ।।३
ीशुक उवाच
कदा चदौ था नककौतुका लवे
ज म योगे समवेतयो षताम् ।
वा द गीत जम वाचकै-
कार सूनोर भषेचनं सती ।।४

न द य प नी कृतम जना दकं


व ैः कृत व ययनं सुपू जतैः ।
अ ा वासः गभी धेनु भः
संजात न ा मशीशय छनैः ।।५
राजा परी त्ने पूछा— भो! सवश मान् भगवान् ीह र अनेक अवतार
धारण करके ब त-सी सु दर एवं सुननेम मधुर लीलाएँ करते ह। वे सभी मेरे दयको
ब त य लगती ह ।।१।। उनके वणमा से भगवत्-स ब धी कथासे अ च और
व वध वषय क तृ णा भाग जाती है। मनु यका अ तःकरण शी -से-शी शु हो
जाता है। भगवान्के चरण म भ और उनके भ जन से ेम भी ा त हो जाता है।
य द आप मुझे उनके वणका अ धकारी समझते ह , तो भगवान्क उ ह मनोहर
लीला का वणन क जये ।।२।। भगवान् ीकृ णने मनु य-लोकम कट होकर
मनु य-जा तके वभावका अनुसरण करते ए जो बाललीलाएँ क ह अव य ही वे
अ य त अद्भुत ह, इस लये आप अब उनक सरी बाल-लीला का भी वणन
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क जये ।।३।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! एक बार* भगवान् ीकृ णके करवट
बदलनेका अ भषेक-उ सव मनाया जा रहा था। उसी दन उनका ज मन भी था।
घरम ब त-सी य क भीड़ लगी ई थी। गाना-बजाना हो रहा था। उ ह य के
बीचम खड़ी ई सती सा वी यशोदाजीने अपने पु का अ भषेक कया। उस समय
ा णलोग म पढ़कर आशीवाद दे रहे थे ।।४।। न दरानी यशोदाजीने ा ण का
खूब पूजन-स मान कया। उ ह अ , व , माला, गाय आ द मुँहमाँगी व तुएँ द । जब
यशोदाने उन ा ण ारा व तवाचन कराकर वयं बालकके नहलाने आ दका काय
स प कर लया, तब यह दे खकर क मेरे ल लाके ने म न द आ रही है, अपने पु को
धीरेसे श यापर सुला दया ।।५।। थोड़ी दे रम यामसु दरक आँख खुल , तो वे तन-
पानके लये रोने लगे। उस समय मन वनी यशोदाजी उ सवम आये ए जवा सय के
वागत-स कारम ब त ही त मय हो रही थ । इस लये उ ह ीकृ णका रोना सुनायी
नह पड़ा। तब ीकृ ण रोते-रोते अपने पाँव उछालने लगे ।।६।। शशु ीकृ ण एक
छकड़ेके नीचे सोये ए थे। उनके पाँव अभी लाल-लाल क पल के समान बड़े ही
कोमल और न हे-न हे थे। पर तु वह न हा-सा पाँव लगते ही वशाल छकड़ा उलट
गया*। उस छकड़ेपर ध-दही आ द अनेक रस से भरी ई मट कयाँ और सरे बतन
रखे ए थे। वे सब-के-सब फूट-फाट गये और छकड़ेके प हये तथा धुरे अ त- त हो
गये, उसका जूआ फट गया ।।७।। करवट बदलनेके उ सवम जतनी भी याँ आयी
ई थ , वे सब और यशोदा, रो हणी, न दबाबा और गोपगण इस व च घटनाको
दे खकर ाकुल हो गये। वे आपसम कहने लगे—‘अरे, यह या हो गया? यह छकड़ा
अपने-आप कैसे उलट गया?’ ।।८।। वे इसका कोई कारण न त न कर सके। वहाँ
खेलते ए बालक ने गोप और गो पय से कहा क ‘इस कृ णने ही तो रोते-रोते अपने
पाँवक ठोकरसे इसे उलट दया है, इसम कोई स दे ह नह ’ ।।९।। पर तु गोप ने उसे
‘बालक क बात’ मानकर उसपर व ास नह कया। ठ क ही है, वे गोप उस बालकके
अन त बलको नह जानते थे ।।१०।।

औ था नकौ सु यमना मन वनी


समागतान् पूजयती जौकसः ।
नैवाशृणोद् वै दतं सुत य सा
दन् तनाथ चरणावुद पत् ।।६

अधः शयान य शशोरनोऽ पक-


वालमृ ङ् हतं वतत ।
व व तनानारसकु यभाजनं
य तच ा व भ कूबरम् ।।७
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् वा यशोदा मुखा ज य
औ था नके कम ण याः समागताः ।
न दादय ा तदशनाकुलाः
कथं वयं वै शकटं वपयगात् ।।८

ऊचुर व सतमतीन् गोपान् गोपी बालकाः ।


दतानेन पादे न तमेत संशयः ।।९

न ते धरे गोपा बालभा षत म युत ।


अ मेयं बलं त य बालक य न ते व ः ।।१०

द तं सुतमादाय यशोदा हशं कता ।


कृत व ययनं व ैः सू ै ः तनमपाययत् ।।११
यशोदाजीने समझा यह कसी ह आ दका उ पात है। उ ह ने अपने रोते ए
लाड़ले लालको गोदम लेकर ा ण से वेदम के ारा शा तपाठ कराया और फर वे
उसे तन पलाने लग ।।११।। बलवान् गोप ने छकड़ेको फर सीधा कर दया। उसपर
पहलेक तरह सारी साम ी रख द गयी। ा ण ने हवन कया और दही, अ त, कुश
तथा जलके ारा भगवान् और उस छकड़ेक पूजा क ।।१२।। जो कसीके गुण म
दोष नह नकालते, झूठ नह बोलते, द भ, ई या और हसा नह करते तथा
अ भमानसे र हत ह—उन स यशील ा ण का आशीवाद कभी वफल नह
होता ।।१३।। यह सोचकर न दबाबाने बालकको गोदम उठा लया और ा ण से
साम, ऋक् और यजुवदके म ारा सं कृत एवं प व ओष धय से यु जलसे
अ भषेक कराया ।।१४।। उ ह ने बड़ी एका तासे व ययनपाठ और हवन कराकर
ा ण को अ त उ म अ का भोजन कराया ।।१५।। इसके बाद न दबाबाने अपने
पु क उ त और अ भवृ क कामनासे ा ण को सवगुणस प ब त-सी गौएँ द ।
वे गौएँ व , पु पमाला और सोनेके हार से सजी ई थ । ा ण ने उ ह आशीवाद
दया ।।१६।। यह बात प है क जो वेदवे ा और सदाचारी ा ण होते ह, उनका
आशीवाद कभी न फल नह होता ।।१७।।

पूववत् था पतं गोपैब ल भः सप र छदम् ।


व ा वाचयांच ु द य तकुशा बु भः ।।१२

येऽसूयानृतद भे या हसामान वव जताः ।


न तेषां स यशीलानामा शषो वफलाः कृताः ।।१३

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इ त बालकमादाय साम यजु पाकृतैः ।
जलैः प व ौष ध भर भ ष य जो मैः ।।१४

वाच य वा व ययनं न दगोपः समा हतः ।


वा चा नं जा त यः ादाद ं महागुणम् ।।१५

गावः सवगुणोपेता वासः ु ममा लनीः ।


आ मजा युदयाथाय ादा े चा वयुंजत ।।१६

व ा म वदो यु ा तैयाः ो ा तथाऽऽ शषः ।


ता न फला भ व य त न कदा चद प फुटम् ।।१७

एकदाऽऽरोहमा ढं लालय ती सुतं सती ।


ग रमाणं शशोव ढुं न सेहे ग रकूटवत् ।।१८

भूमौ नधाय तं गोपी व मता भारपी डता ।


महापु षमाद यौ जगतामास कमसु ।।१९

दै यो ना ना तृणावतः कंसभृ यः णो दतः ।


च वात व पेण जहारासीनमभकम् ।।२०

गोकुलं सवमावृ वन् मु णं ूं ष रेणु भः ।


इरयन् सुमहाघोरश दे न दशो दशः ।।२१

मु तमभवद् गो ं रजसा तमसाऽऽवृतम् ।


सुतं यशोदा नाप य मन् य तवती यतः ।।२२
एक दनक बात है, सती यशोदाजी अपने यारे ल लाको गोदम लेकर लार रही
थ । सहमा ीकृ ण च ानके समान भारी बन गये। वे उनका भार न सह सक ।।१८।।
उ ह ने भारसे पी ड़त होकर ीकृ णको पृ वीपर बैठा दया। इस नयी घटनासे वे
अ य त च कत हो रही थ । इसके बाद उ ह ने भगवान् पु षो मका मरण कया और
घरके कामम लग गय ।।१९।।
तृणावत नामका एक दै य था। वह कंसका नजी सेवक था। कंसक ेरणासे ही
बवंडरके पम वह गोकुलम आया और बैठे ए बालक ीकृ णको उड़ाकर आकाशम
ले गया ।।२०।। उसने जरजसे सारे गोकुलको ढक दया और लोग क दे खनेक श
हर ली। उसके अ य त भयंकर श दसे दस दशाएँ काँप उठ ।।२१।। सारा ज दो
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घड़ीतक रज और तमसे ढका रहा। यशोदाजीने अपने पु को जहाँ बैठा दया था, वहाँ
जाकर दे खा तो ीकृ ण वहाँ नह थे ।।२२।।
नाप यत् क ना मानं परं चा प वमो हतः ।
तृणावत नसृ ा भः शकरा भ प तः ।।२३

इ त खरपवनच पांसुवष
सुतपदवीमबला वल य माता ।
अ तक णमनु मर यशोचद्
भु व प तता मृतव सका यथा गौः ।।२४

दतमनु नश य त गो यो
भृशमनुत त धयोऽ ुपूणमु यः ।
रनुपल य न दसूनुं
पवन उपारतपांसुवषवेगे ।।२५

तृणावतः शा तरयो वा या पधरो हरन् ।


कृ णं नभोगतो ग तुं नाश नोद् भू रभारभृत् ।।२६

तम मानं म यमान आ मनो गु म या ।


गले गृहीत उ ु ं नाश नोद ताभकम् ।।२७

गल हण न े ो दै यो नगतलोचनः ।
अ रावो यपतत् सहबालो सु जे ।।२८

तम त र ात् प ततं शलायां


वशीणसवावयवं करालम् ।
पुरं यथा शरेण व ं
यो द यो द शुः समेताः ।।२९
उस समय तृणावतने बवंडर पसे इतनी बालू उड़ा रखी थी क सभी लोग अ य त
उ न और बेसुध हो गये थे। उ ह अपना-पराया कुछ भी नह सूझ रहा था ।।२३।।
उस जोरक आँधी और धूलक वषाम अपने पु का पता न पाकर यशोदाको बड़ा शोक
आ। वे अपने पु क याद करके ब त ही द न हो गय और बछड़ेके मर जानेपर
गायक जो दशा हो जाती है, वही दशा उनक हो गयी। वे पृ वीपर गर पड़ ।।२४।।
बवंडरके शा त होनेपर जब धूलक वषाका वेग कम हो गया, तब यशोदाजीके रोनेका
श द सुनकर सरी गो पयाँ वहाँ दौड़ आय । न दन दन यामसु दर ीकृ णको न
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दे खकर उनके दयम भी बड़ा संताप आ, आँख से आँसूक धारा बहने लगी। वे फूट-
फूटकर रोने लग ।।२५।।
इधर तृणावत बवंडर पसे जब भगवान् ीकृ णको आकाशम उठा ले गया, तब
उनके भारी बोझको न सँभाल सकनेके कारण उसका वेग शा त हो गया। वह अ धक
चल न सका ।।२६।।
तृणावत अपनेसे भी भारी होनेके कारण ीकृ णको नील ग रक च ान समझने
लगा। उ ह ने उसका गला ऐसा पकड़ा क वह उस अद्भुत शशुको अपनेसे अलग
नह कर सका ।।२७।। भगवान्ने इतने जोरसे उसका गला पकड़ रखा था क वह
असुर न े हो गया। उसक आँख बाहर नकल आय । बोलती बंद हो गयी। ाण-
पखे उड़ गये और बालक ीकृ णके साथ वह जम गर पड़ा* ।।२८।। वहाँ जो
याँ इक होकर रो रही थ , उ ह ने दे खा क वह वकराल दै य आकाशसे एक
च ानपर गर पड़ा और उसका एक-एक अंग चकनाचूर हो गया—ठ क वैसे ही, जैसे
भगवान् शंकरके बाण से आहत हो पुरासुर गरकर चूर-चूर हो गया था ।।२९।।
भगवान् ीकृ ण उसके व ः थलपर लटक रहे थे। यह दे खकर गो पयाँ व मत हो
गय । उ ह ने झटपट वहाँ जाकर ीकृ णको गोदम ले लया और लाकर उ ह माताको
दे दया। बालक मृ युके मुखसे सकुशल लौट आया। य प उसे रा स आकाशम उठा
ले गया था, फर भी वह बच गया। इस कार बालक ीकृ णको फर पाकर यशोदा
आ द गो पय तथा न द आ द गोप को अ य त आन द आ ।।३०।। वे कहने लगे
—‘अहो! यह तो बड़े आ यक बात है। दे खो तो सही, यह कतनी अद्भुत घटना घट
गयी! यह बालक रा सके ारा मृ युके मुखम डाल दया गया था, पर तु फर जीता-
जागता आ गया और उस हसक को उसके पाप ही खा गये! सच है, साधुपु ष
अपनी समतासे ही स पूण भय से बच जाता है ।।३१।। हमने ऐसा कौन-सा तप,
भगवान्क पूजा, याऊ-पौसला, कूआँ-बावली, बाग-बगीचे आ द पूत, य , दान
अथवा जीव क भलाई क थी, जसके फलसे हमारा यह बालक मरकर भी अपने
वजन को सुखी करनेके लये फर लौट आया? अव य ही यह बड़े सौभा यक बात
है’ ।।३२।। जब न दबाबाने दे खा क महावनम ब त-सी अद्भुत घटनाएँ घ टत हो रही
ह, तब आ यच कत होकर उ ह ने वसुदेवजीक बातका बार-बार समथन
कया ।।३३।।

ादाय मा ेत य१ व मताः
कृ णं च त योर स ल बमानम् ।
तं व तम तं पु षादनीतं
वहायसा मृ युमुखात् मु म् ।
गो य गोपाः कल न दमु या

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ल वा पुनः२ ापुरतीव मोदम् ।।३०

अहो बता य तमेष र सा


बालो नवृ ग मतोऽ यगात् पुनः ।
ह ः वपापेन व ह सतः खलः
साधुः सम वेन भयाद् वमु यते ।।३१

क न तप ीणमधो जाचनं
पूत द मुत भूतसौ दम् ।
य संपरेतः पुनरेव बालको
द ा वब धून् णय ुप थतः ।।३२

् वा ता न ब शो न दगोपो बृह ने ।
वसुदेववचो भूयो मानयामास व मतः ।।३३

एकदाभकमादाय वांकमारो य भा मनी ।


नुतं पाययामास तनं नेहप र लुता ।।३४

पीत ाय य जननी सा त य चर मतम् ।


मुखं लालयती राज ृ भतो द शे इदम् ।।३५
एक दनक बात है, यशोदाजी अपने यारे शशुको अपनी गोदम लेकर बड़े ेमसे
तनपान करा रही थ । वे वा स य- नेहसे इस कार सराबोर हो रही थ क उनके
तन से अपने-आप ही ध झरता जा रहा था ।।३४।। जब वे ायः ध पी चुके और
माता यशोदा उनके चर मुसकानसे यु मुखको चूम रही थ उसी समय ीकृ णको
जँभाई आ गयी और माताने उनके मुखम यह दे खा* ।।३५।। उसम आकाश, अ त र ,
यो तम डल, दशाएँ, सूय, च मा, अ न, वायु, समु , प, पवत, न दयाँ, वन और
सम त चराचर ाणी थत ह ।।३६।। परी त्! अपने पु के मुँहम इस कार सहसा
सारा जगत् दे खकर मृगशावकनयनी यशोदाजीका शरीर काँप उठा। उ ह ने अपनी
बड़ी-बड़ी आँख ब द कर ल *। वे अ य त आ यच कत हो गय ।।३७।।
खं रोदसी यो तरनीकमाशाः
सूय व सना बुध ।
पान् नगां त हतॄवना न
भूता न या न थरजंगमा न ।।३६
सा वी य व ं सहसा राजन् संजातवेपथुः ।

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स मी य मृगशावा ी ने े आसीत् सु व मता ।।३७
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध तृणावतमो ो
नाम स तमोऽ यायः ।।७।।

* यहाँ कदा चत् (एक बार) से ता पय है तीसरे महीनेके ज मन यु


कालसे। उस समय ीकृ णक झाँक का ऐसा वणन मलता है—
न धाः प य त से मयी त भुजयोयु मं मु ालय य पं मधुरं च
कूज त प र वंगाय चाकां त ।
लाभालाभवशादमु य लस त द य प वा यसौ पीत त यतया
व प य प पुनजा मुदं य छ त ।।
‘ नेहसे तर गो पय को आँख उठाकर दे खते ह और मुसकराते ह। दोन भुजाएँ
बार-बार हलाते ह। बड़े मधुर वरसे थोड़ा-थोड़ा कूजते ह। गोदम आनेके लये
ललकते ह। कसी व तुको पाकर उससे खेलने लग जाते ह और न मलनेसे
दन करते ह। कभी-कभी ध पीकर सो जाते ह और फर जागकर आन दत
करते ह।’
* हर या का पु था उ कच। वह ब त बलवान् एवं मोटा-तगड़ा था। एक बार

या ा करते समय उसने लोमश ऋ षके आ मके वृ को कुचल डाला। लोमश ऋ षने
ोध करके शाप दे दया—‘अरे ! जा, तू दे हर हत हो जा।’ उसी समय साँपके
कचुलके समान उसका शरीर गरने लगा। वह धड़ामसे लोमश ऋ षके चरण पर गर
पड़ा और ाथना क —‘कृपा स धो! मुझपर कृपा क जये। मुझे आपके भावका
ान नह था। मेरा शरीर लौटा द जये।’ लोमशजी स हो गये। महा मा का शाप
भी वर हो जाता है। उ ह ने कहा—‘वैव वत म व तरम ीकृ णके चरण- पशसे तेरी
मु हो जायगी।’ वही असुर छकड़ेम आकर बैठ गया था और भगवान् ीकृ णके
चरण पशसे मु हो गया।
* पा डु देशम सह ा नामके एक राजा थे। वे नमदा-तटपर अपनी रा नय के साथ

वहार कर रहे थे। उधरसे वासा ऋ ष नकले, पर तु उ ह ने णाम नह कया। ऋ षने


शाप दया—‘तू रा स हो जा।’ जब वह उनके चरण पर गरकर गड़ गड़ाया, तब
वासाजीने कह दया—‘भगवान् ीकृ णके ी व हका पश होते ही तू मु हो
जायगा।’ वही राजा तृणावत होकर आया था और ीकृ णका सं पश ा त करके मु
हो गया।
१. गृ । २. सुतं।
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* नेहमयी जननी और नेहके सदा भूखे भगवान्! उ ह ध पीनेसे तृ त ही
नह होती थी। माँके मनम शंका ई—कह अ धक पीनेसे अपच न हो जाय। ेम
सवदा अ न क आशंका उ प करता है। ीकृ णने अपने मुखम व प
दखाकर कहा—‘अरी मैया! तेरा ध म अकेले ही नह पीता ।ँ मेरे मुखम
बैठकर स पूण व ही इसका पान कर रहा है। तू घबरावे मत’—

त यं कयत् पब स भूयलमभके त व त यमाणवचनां जनन


वभा ।
व ं वभा ग पयसोऽ य न केवलोऽहम मादद श ह रणा कमु
व मा ये ।।
* वा स यमयी यशोदा माता अपने लालाके मुखम व दे खकर डर गय , पर तु

वा स य- ेमरस-भा वत दय होनेसे उ ह व ास नह आ। उ ह ने यह वचार कया


क यह व का बखेड़ा लालाके मुँहम कहाँसे आया? हो-न-हो यह मेरी इन नगोड़ी
आँख क ही गड़बड़ी है। मानो इसीसे उ ह ने अपने ने बंद कर लये।

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अथा मोऽ यायः
नामकरण-सं कार और बाललीला
ीशुक उवाच
गगः पुरो हतो राजन् य नां सुमहातपाः ।
जं जगाम न द य वसुदेव चो दतः ।।१

तं ् वा परम ीतः यु थाय कृतांज लः ।


आनचाधो ज धया णपातपुरःसरम् ।।२

सूप व ं कृता त यं गरा सूनृतया मु नम् ।


न द य वा वीद् न् पूण य करवाम कम् ।।३

मह चलनं नॄणां गृ हणां द नचेतसाम् ।


नः ेयसाय भगवन् क पते ना यथा व चत् ।।४
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! य वं शय के कुलपुरो हत थे ीगगाचायजी।
वे बड़े तप वी थे। वसुदेवजीक ेरणासे वे एक दन न दबाबाके गोकुलम आये ।।१।।
उ ह दे खकर न दबाबाको बड़ी स ता ई। वे हाथ जोड़कर उठ खड़े ए। उनके
चरण म णाम कया। इसके बाद ‘ये वयं भगवान् ही ह’—इस भावसे उनक पूजा
क ।।२।। जब गगाचायजी आरामसे बैठ गये और व धपूवक उनका आ त य-स कार
हो गया, तब न दबाबाने बड़ी ही मधुर वाणीसे उनका अ भन दन कया और कहा
—‘भगवन्! आप तो वयं पूणकाम ह, फर म आपक या सेवा क ँ ? ।।३।। आप-
जैसे महा मा का हमारे-जैसे गृह थ के घर आ जाना ही हमारे परम क याणका
कारण है। हम तो घर म इतने उलझ रहे ह और इन पंच म हमारा च इतना द न हो
रहा है क हम आपके आ मतक जा भी नह सकते। हमारे क याणके सवा आपके
आगमनका और कोई हेतु नह है ।।४।। भो! जो बात साधारणतः इ य क प ँचके
बाहर है अथवा भूत और भ व यके गभम न हत है, वह भी यौ तष-शा के ारा
य जान ली जाती है। आपने उसी यौ तष-शा क रचना क है ।।५।। आप
वे ा म े ह। इस लये मेरे इन दोन बालक के नामकरणा द सं कार आप ही
कर द जये; य क ा ण ज मसे ही मनु यमा का गु है’ ।।६।।

यो तषामयनं सा ाद् य ानमती यम् ।


णीतं भवता येन पुमान् वेद परावरम् ।।५

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वं ह वदां े ः सं कारान् कतुमह स ।
बालयोरनयोनॄणां ज मना ा णो गु ः ।।६
गग उवाच
य नामहमाचायः यात भु व सवतः ।
सुतं मया सं कृतं ते म यते दे वक सुतम् ।।७

कंसः पापम तः स यं तव चानक भेः ।


दे व या अ मो गभ न ी भ वतुमह त ।।८

इ त सं च तय छ वा दे व या दा रकावचः ।
अ प ह ताऽऽगताशंक त ह त ोऽनयो भवेत् ।।९
न द उवाच
अल तोऽ मन् रह स मामकैर प गो जे ।
कु जा तसं कारं व तवाचनपूवकम् ।।१०
ीशुक उवाच
एवं स ा थतो व ः व चक षतमेव तत् ।
चकार नामकरणं गूढो रह स बालयोः ।।११
गग उवाच
अयं ह रो हणीपु ो रमयन् सु दो गुणैः ।
आ या यते राम इ त बला ध याद् बलं व ः ।
य नामपृथ भावात् संकषणमुश युत ।।१२
गगाचायजीने कहा—न दजी! म सब जगह य वं शय के आचायके पम स
ँ। य द म तु हारे पु के सं कार क ँ गा, तो लोग समझगे क यह तो दे वक का पु
है ।।७।। कंसक बु बुरी है, वह पाप ही सोचा करती है। वसुदेवजीके साथ तु हारी
बड़ी घ न म ता है। जबसे दे वक क क यासे उसने यह बात सुनी है क उसको
मारनेवाला और कह पैदा हो गया है, तबसे वह यही सोचा करता है क दे वक के
आठव गभसे क याका ज म नह होना चा हये। य द म तु हारे पु का सं कार कर ँ
और वह इस बालकको वसुदेवजीका लड़का समझकर मार डाले, तो हमसे बड़ा
अ याय हो जायगा ।।८-९।।
न दबाबाने कहा—आचायजी! आप चुपचाप इस एका त गोशालाम केवल
व तवाचन करके इस बालकका जा तसमु चत नामकरण-सं कारमा कर द जये।

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और क कौन कहे, मेरे सगे-स ब धी भी इस बातको न जानने पाव ।।१०।।
ीशुकदे वजी कहते ह—गगाचायजी तो सं कार करना चाहते ही थे। जब
न दबाबाने उनसे इस कार ाथना क , तब उ ह ने एका तम छपकर गु त पसे दोन
बालक का नामकरण-सं कार कर दया ।।११।।
गगाचायजीने कहा—‘यह रो हणीका पु है। इस लये इसका नाम होगा रौ हणेय।
यह अपने सगे-स ब धी और म को अपने गुण से अ य त आन दत करेगा। इस लये
इसका सरा नाम होगा ‘राम’। इसके बलक कोई सीमा नह है, अतः इसका एक नाम
‘बल’ भी है। यह यादव म और तुमलोग म कोई भेदभाव नह रखेगा और लोग म फूट
पड़नेपर मेल करावेगा, इस लये इसका एक नाम ‘संकषण’ भी है ।।१२।। और यह जो
साँवला-साँवला है, यह येक युगम शरीर हण करता है। पछले युग म इसने मशः
ेत, र और पीत—ये तीन व भ रंग वीकार कये थे। अबक यह कृ णवण आ
है। इस लये इसका नाम ‘कृ ण’ होगा ।।१३।। न दजी! यह तु हारा पु पहले कभी
वसुदेवजीके घर भी पैदा आ था, इस लये इस रह यको जाननेवाले लोग इसे ‘ ीमान्
वासुदेव’ भी कहते ह ।।१४।। तु हारे पु के और भी ब त-से नाम ह तथा प भी
अनेक ह। इसके जतने गुण ह और जतने कम, उन सबके अनुसार अलग-अलग नाम
पड़ जाते ह। म तो उन नाम को जानता ँ, पर तु संसारके साधारण लोग नह
जानते ।।१५।। यह तुमलोग का परम क याण करेगा। सम त गोप और गौ को यह
ब त ही आन दत करेगा। इसक सहायतासे तुमलोग बड़ी-बड़ी वप य को बड़ी
सुगमतासे पार कर लोगे ।।१६।। जराज! पहले युगक बात है। एक बार पृ वीम कोई
राजा नह रह गया था। डाकु ने चार ओर लूट-खसोट मचा रखी थी। तब तु हारे इसी
पु ने स जन पु ष क र ा क और इससे बल पाकर उन लोग ने लुटेर पर वजय
ा त क ।।१७।। जो मनु य तु हारे इस साँवले-सलोने शशुसे ेम करते ह। वे बड़े
भा यवान् ह। जैसे व णुभगवान्के करकमल क छ छायाम रहनेवाले दे वता को
असुर नह जीत सकते, वैसे ही इससे ेम करनेवाल को भीतर या बाहर कसी भी
कारके श ु नह जीत सकते ।।१८।। न दजी! चाहे जस से दे ख—गुणम, स प
और सौ दयम, क त और भावम तु हारा यह बालक सा ात् भगवान् नारायणके
समान है। तुम बड़ी सावधानी और त परतासे इसक र ा करो’ ।।१९।। इस कार
न दबाबाको भलीभाँ त समझाकर, आदे श दे कर गगाचायजी अपने आ मको लौट
गये। जनक बात सुनकर न दबाबाको बड़ा ही आन द आ। उ ह ने ऐसा समझा क
मेरी सब आशा-लालसाएँ पूरी हो गय , म अब कृतकृ य ँ ।।२०।।

आसन् वणा यो य गृ तोऽनुयुगं तनूः ।


शु लो र तथा पीत इदान कृ णतां गतः ।।१३

ागयं वसुदेव य व च जात तवा मजः ।

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वासुदेव इ त ीमान भ ाः स च ते ।।१४

ब न स त नामा न पा ण च सुत य ते ।
गुणकमानु पा ण ता यहं वेद नो जनाः ।।१५

एष वः ेय आधा यद् गोपगोकुलन दनः ।


अनेन सव गा ण यूयम त र यथ ।।१६

पुरानेन जपते साधवो द युपी डताः ।


अराजके र यमाणा ज युद यून् समे धताः ।।१७

य एत मन् महाभागाः ी त कुव त मानवाः ।


नारयोऽ भभव येतान् व णुप ा नवासुराः ।।१८

त मा दा मजोऽयं ते नारायणसमो गुणैः ।


या क यानुभावेन गोपाय व समा हतः ।।१९

इ या मानं समा द य गग च वगृहं गते ।


न दः मु दतो मेने आ मानं पूणमा शषाम् ।।२०

कालेन जता पेन गोकुले रामकेशवौ ।


जानु यां सह पा ण यां रगमाणौ वज तुः ।।२१

तावङ् यु ममनुकृ य सरीसृप तौ


घोष घोष चरं जकदमेषु ।
त ाद मनसावनुसृ य लोकं
मु ध भीतव पेयतुर त मा ोः ।।२२

त मातरौ नजसुतौ घृणया नुव यौ


पङ् का राग चरावुपगु दो याम् ।
द वा तनं पबतोः म मुखं नरी य
मु ध मता पदशनं ययतुः मोदम् ।।२३

य नादशनीयकुमारलीला-
व त जे तदबलाः गृहीतपु छै ः ।

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व सै रत तत उभावनुकृ यमाणौ
े य उ झतगृहा ज षुहस यः ।।२४

शृं य नदं य सजल जक टके यः


डापराव तचलौ वसुतौ नषे म् ।
गृ ा ण कतुम प य न त जन यौ
शेकात आपतुरलं मनसोऽनव थाम् ।।२५
परी त्! कुछ ही दन म राम और याम घुटन और हाथ के बल बकैयाँ चल-
चलकर गोकुलम खेलने लगे ।।२१।। दोन भाई अपने न हे-न हे पाँव को गोकुलक
क चड़म घसीटते ए चलते। उस समय उनके पाँव और कमरके घुँघ नझुन बजने
लगते। वह श द बड़ा भला मालूम पड़ता। वे दोन वयं वह व न सुनकर खल उठते।
कभी-कभी वे रा ते चलते कसी अ ात के पीछे हो लेत।े फर जब दे खते क यह
तो कोई सरा है, तब झक-से रह जाते और डरकर अपनी माता —रो हणीजी और
यशोदाजीके पास लौट आते ।।२२।। माताएँ यह सब दे ख-दे खकर नेहसे भर जात ।
उनके तन से धक धारा बहने लगती थी। जब उनके दोन न हे-न हे-से शशु अपने
शरीरम क चड़का अंगराग लगाकर लौटते, तब जनक सु दरता और भी बढ़ जाती थी।
माताएँ उ ह आते ही दोन हाथ से गोदम लेकर दयसे लगा लेत और तनपान कराने
लगत , जब वे ध पीने लगते और बीच-बीचम मुसकरा-मुसकराकर अपनी माता क
ओर दे खने लगते, तब वे उनक म द-म द मुसकान, छोट -छोट दँ तु लयाँ और भोला-
भाला मुँह दे खकर आन दके समु म डू बने-उतराने लगत ।।२३।। जब राम और याम
दोन कुछ और बड़े ए, तब जम घरके बाहर ऐसी-ऐसी बाललीलाएँ करने लगे, ज ह
गो पयाँ दे खती ही रह जात । जब वे कसी बैठे ए बछड़ेक पूँछ पकड़ लेते और
बछड़े डरकर इधर-उधर भागते, तब वे दोन और भी जोरसे पूँछ पकड़ लेते और बछड़े
उ ह घसीटते ए दौड़ने लगते। गो पयाँ अपने घरका काम-धंधा छोड़कर यही सब
दे खती रहत और हँसते-हँसते लोटपोट होकर परम आन दम म न हो जात ।।२४।।
क हैया और बलदाऊ दोन ही बड़े चंचल और बड़े खलाड़ी थे। वे कह ह रन, गाय
आ द स गवाले पशु के पास दौड़ जाते, तो कह धधकती ई आगसे खेलनेके लये
कूद पड़ते। कभी दाँतसे काटनेवाले कु के पास प ँच जाते, तो कभी आँख बचाकर
तलवार उठा लेत।े कभी कूएँ या ग ेके पास जलम गरते- गरते बचते, कभी मोर आ द
प य के नकट चले जाते और कभी काँट क ओर बढ़ जाते थे। माताएँ उ ह ब त
बरजत , पर तु उनक एक न चलती। ऐसी थ तम वे घरका काम-धंधा भी नह
सँभाल पात । उनका च ब च को भयक व तु से बचानेक च तासे अ य त चंचल
रहता था ।।२५।।

कालेना पेन राजष रामः कृ ण गोकुले ।

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अधृ जानु भः प वच मतुरंजसा ।।२६
राजष! कुछ ही दन म यशोदा और रो हणीके लाड़ले लाल घुटन का सहारा लये
बना अनायास ही खड़े होकर गोकुलम चलने- फरने लगे* ।।२६।। ये जवा सय के
क हैया वयं भगवान् ह, परम सु दर और परम मधुर! अब वे और बलराम अपनी ही
उ के वालबाल को अपने साथ लेकर खेलनेके लये जम नकल पड़ते और जक
भा यवती गो पय को नहाल करते ए तरह-तरहके खेल खेलते ।।२७।। उनके
बचपनक चंचलताएँ बड़ी ही अनोखी होती थ । गो पय को तो वे बड़ी ही सु दर और
मधुर लगत । एक दन सब-क -सब इक होकर न द-बाबाके घर आय और यशोदा
माताको सुना-सुनाकर क हैयाके करतूत कहने लग ।।२८।।
तत तु भगवान् कृ णो वय यै जबालकैः ।
सहरामो ज ीणां च डे जनयन् मुदम् ।।२७

कृ ण य गो यो चरं वी य कौमारचापलम् ।
शृ व याः कल त मातु र त होचुः समागताः ।।२८
व सान् मुंचन् व चदसमये
ोशसंजातहासः
तेयं वा यथ द ध पयः
क पतैः तेययोगैः ।
मकान् भो यन् वभज त स चे-
ा भा डं भन
ालाभे स गृहकु पतो
या युप ो य तोकान् ।।२९

ह ता ा े रचय त व ध
पीठकोलूखला ै-
छ ं त न हतवयुनः
श यभा डेषु तद् वत् ।
वा तागारे धृतम णगणं
वांगमथ द पं
काले गो यो य ह गृहकृ-
येषु सु च ाः ।।३०
‘अरी यशोदा! यह तेरा का हा बड़ा नटखट हो गया है। गाय हनेका समय न
होनेपर भी यह बछड़ को खोल दे ता है और हम डाँटती ह, तो ठठा-ठठाकर हँसने
लगता है। यह चोरीके बड़े-बड़े उपाय करके हमारे मीठे -मीठे दही- ध चुरा-चुराकर खा
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जाता है। केवल अपने ही खाता तो भी एक बात थी, यह तो सारा दही- ध वानर को
बाँट दे ता है और जब वे भी पेट भर जानेपर नह खा पाते, तब यह हमारे माट को ही
फोड़ डालता है। य द घरम कोई व तु इसे नह मलती तो यह घर और घरवाल पर
ब त खीझता है और हमारे ब च को लाकर भाग जाता है ।।२९।। जब हम दही-
धको छ क पर रख दे ती ह और इसके छोटे -छोटे हाथ वहाँतक नह प ँच पाते, तब
यह बड़े-बड़े उपाय रचता है। कह दो-चार पीढ़ को एकके ऊपर एक रख दे ता है। कह
ऊखलपर चढ़ जाता है तो कह ऊखलपर पीढ़ा रख दे ता है, (कभी-कभी तो अपने
कसी साथीके कंधेपर ही चढ़ जाता है।) जब इतनेपर भी काम नह चलता, तब यह
नीचेसे ही उन बतन म छे द कर दे ता है। इसे इस बातक प क पहचान रहती है क
कस छ केपर कस बतनम या रखा है। और ऐसे ढं गसे छे द करना जानता है क
कसीको पतातक न चले। जब हम अपनी व तु को ब त अँधेरेम छपा दे ती ह, तब
न दरानी! तुमने जो इसे ब त-से म णमय आभूषण पहना रखे ह, उनके काशसे
अपने-आप ही सब कुछ दे ख लेता है। इसके शरीरम भी ऐसी यो त है क जससे इसे
सब कुछ द ख जाता है। यह इतना चालाक है क कब कौन कहाँ रहता है, इसका पता
रखता है और जब हम सब घरके काम-धंध म उलझी रहती ह, तब यह अपना काम
बना लेता है ।।३०।। ऐसा करके भी ढठाईक बात करता है—उलटे हम ही चोर
बनाता और अपने घरका मा लक बन जाता है। इतना ही नह , यह हमारे लपे-पुते
व छ घर म मू आ द भी कर दे ता है। त नक दे खो तो इसक ओर, वहाँ तो चोरीके
अनेक उपाय करके काम बनाता है और यहाँ मालूम हो रहा है मानो प थरक मू त
खड़ी हो! वाह रे भोले-भाले साधु!’ इस कार गो पयाँ कहती जात और ीकृ णके
भीत-च कत ने से यु मुखकमलको दे खती जात । उनक यह दशा दे खकर न दरानी
यशोदाजी उनके मनका भाव ताड़ लेत और उनके दयम नेह और आन दक बाढ़
आ जाती। वे इस कार हँसने लगत क अपने लाड़ले क हैयाको इस बातका उलाहना
भी न दे पात , डाँटनेक बाततक नह सोच पात * ।।३१।।

एवं धा ा युश त कु ते
मेहनाद न वा तौ
तेयोपायै वर चतकृ तः
सु तीको यथाऽऽ ते ।
इ थं ी भः सभयनयन-
ीमुखालो कनी भ-
ा याताथा ह सतमुखी
न पाल धुमै छत् ।।३१

एकदा डमाना ते रामा ा गोपदारकाः ।


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कृ णो मृदं भ तवा न त मा े यवेदयन् ।।३२

सा गृही वा करे कृ णमुपाल य हतै षणी ।


यशोदा भयस ा त े णा मभाषत ।।३३

क मा मृदमदा ता मन् भवान् भ तवान् रहः ।


वद त तावका ेते कुमारा तेऽ जोऽ ययम् ।।३४
एक दन बलराम आ द वालबाल ीकृ णके साथ खेल रहे थे। उन लोग ने मा
यशोदाके पास आकर कहा—‘मा! क हैयाने म खायी है’* ।।३२।। हतै षणी
यशोदाने ीकृ णका हाथ पकड़ लया†। उस समय ीकृ णक आँख डरके मारे नाच
रही थ ‡। यशोदा मैयाने डाँटकर कहा— ।।३३।। ‘ य रे नटखट! तू ब त ढ ठ हो
गया है। तूने अकेलेम छपकर म य खायी? दे ख तो तेरे दलके तेरे सखा या कह
रहे ह! तेरे बड़े भैया बलदाऊ भी तो उ ह क ओरसे गवाही दे रहे ह’ ।।३४।।
ीकृ ण उवाच
नाहं भ तवान ब सव म या भशं सनः ।
य द स य गर त ह सम ं प य मे मुखम् ।।३५
य ेवं त ह ादे ही यु ः स भगवान् ह रः ।
ाद ा ाहतै यः डामनुजबालकः ।।३६
सा त द शे व ं जगत् था नु च खं दशः ।
सा पा धभूगोलं सवा व नी तारकम् ।।३७
यो त ं जलं तेजो नभ वान् वयदे व च ।
वैका रकाणी या ण मनो मा ा गुणा यः ।।३८
एतद् व च ं सह जीवकाल-
वभावकमाशय लगभेदम् ।
सूनो तनौ वी य वदा रता य
जं सहा मानमवाप शंकाम् ।।३९
क व एत त दे वमाया
क वा मद यो बत बु मोहः ।
अभो अमु यैव ममाभक य
यः क नौ प क आ मयोगः ।।४०
अथो यथाव वतकगोचरं
चेतोमनःकमवचो भरंजसा ।

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यदा यं येन यतः तीयते
सु वभा ं णता म त पदम् ।।४१
भगवान् ीकृ णने कहा—‘मा! मने म नह खायी। ये सब झूठ बक रहे ह।
य द तुम इ ह क बात सच मानती हो तो मेरा मुँह तु हारे सामने ही है, तुम अपनी
आँख से दे ख लो ।।३५।। यशोदाजीने कहा—‘अ छ बात। य द ऐसा है, तो मुँह
खोल।’ माताके ऐसा कहनेपर भगवान् ीकृ णने अपना मुँह खोल दया*। परी त्!
भगवान् ीकृ णका ऐ य अन त है। वे केवल लीलाके लये ही मनु यके बालक बने
ए ह ।।३६।।
यशोदाजीने दे खा क उनके मुँहम चर-अचर स पूण जगत् व मान है। आकाश
(वह शू य जसम कसीक ग त नह ), दशाएँ, पहाड़, प और समु के स हत सारी
पृ वी, बहनेवाली वायु, वै ुत, अ न, च मा और तार के साथ स पूण यो तम डल,
जल, तेज, पवन, वयत् ( ा णय के चलने- फरनेका आकाश), वैका रक अहंकारके
काय दे वता, मन-इ य, पंचत मा ाएँ और तीन गुण ीकृ णके मुखम द ख
पड़े ।।३७-३८।। परी त्! जीव, काल, वभाव, कम, उनक वासना और शरीर
आ दके ारा व भ प म द खनेवाला यह सारा व च संसार, स पूण ज और
अपने-आपको भी यशोदाजीने ीकृ णके न हेसे खुले ए मुखम दे खा। वे बड़ी शंकाम
पड़ गय ।।३९।। वे सोचने लग क ‘यह कोई व है या भगवान्क माया? कह मेरी
बु म ही तो कोई म नह हो गया है? स भव है, मेरे इस बालकम ही कोई ज मजात
योग स हो’ ।।४०।। ‘जो च , मन, कम और वाणीके ारा ठ क-ठ क तथा
सुगमतासे अनुमानके वषय नह होते, यह सारा व जनके आ त है, जो इसके
ेरक ह और जनक स ासे ही इसक ती त होती है, जनका व प सवथा
अ च य है—उन भुको म णाम करती ँ ।।४१।। यह म ँ और ये मेरे प त तथा यह
मेरा लड़का है, साथ ही म जराजक सम त स प य क वा मनी धमप नी ँ; ये
गो पयाँ, गोप और गोधन मेरे अधीन ह— जनक मायासे मुझे इस कारक कुम त घेरे
ए है, वे भगवान् ही मेरे एकमा आ य ह—म उ ह क शरणम ँ’ ।।४२।। जब इस
कार यशोदा माता ीकृ णका त व समझ गय , तब सवश मान् सव ापक भुने
अपनी पु नेहमयी वै णवी योगमायाका उनके दयम संचार कर दया ।।४३।।
यशोदाजीको तुरंत वह घटना भूल गयी। उ ह ने अपने लारे लालको गोदम उठा लया।
जैसे पहले उनके दयम ेमका समु उमड़ता रहता था, वैसे ही फर उमड़ने
लगा ।।४४।। सारे वेद, उप नषद्, सां य, योग और भ जन जनके माहा यका गीत
गाते-गाते अघाते नह —उ ह भगवान्को यशोदाजी अपना पु मानती थ ।।४५।।

अहं ममासौ प तरेष मे सुतो


जे र या खल व पा सती ।
गो य गोपाः सहगोधना मे
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य मायये थं कुम तः स मे ग तः ।।४२

इ थं व दतत वायां गो पकायां स ई रः ।


वै णव तनो मायां पु नेहमय वभुः ।।४३

स ोन मृ तग पी साऽऽरो यारोहमा मजम् ।


वृ नेहक लल दयाऽऽसीद् यथा पुरा ।।४४

या चोप नष सां ययोगै सा वतैः ।


उपगीयमानमाहा यं ह र साम यता मजम् ।।४५
राजोवाच
न दः कमकरोद् न् ेय एवं महोदयम् ।
यशोदा च महाभागा पपौ य याः तनं ह रः ।।४६

पतरौ ना व व दे तां कृ णोदाराभके हतम् ।


गाय य ा प कवयो य लोकशमलापहम् ।।४७
ीशुक उवाच
ोणो वसूनां वरो धरया सह भायया ।
क र यमाण आदे शान् ण तमुवाच ह ।।४८

जातयोन महादे वे भु व व े रे हरौ ।


भ ः यात् परमा लोके यया ो ग त तरेत् ।।४९
राजा परी त्ने पूछा—भगवन्! न दबाबाने ऐसा कौन-सा ब त बड़ा मंगलमय
साधन कया था? और परमभा यवती यशोदाजीने भी ऐसी कौन-सी तप या क थी,
जसके कारण वयं भगवान्ने अपने ीमुखसे उनका तनपान कया ।।४६।। भगवान्
ीकृ णक वे बाल-लीलाएँ, जो वे अपने ऐ य और मह ा आ दको छपाकर
वालबाल म करते ह, इतनी प व ह क उनका वण-क तन करनेवाले लोग के भी
सारे पाप-ताप शा त हो जाते ह। कालदश ानी पु ष आज भी उनका गान करते
रहते ह। वे ही लीलाएँ उनके ज मदाता माता- पता दे वक -वसुदेवजीको तो
दे खनेतकको न मल और न द-यशोदा उनका अपार सुख लूट रहे ह। इसका या
कारण है? ।।४७।।
ीशुकदे वजीने कहा—परी त्! न दबाबा पूवज मम एक े वसु थे। उनका
नाम था ोण और उनक प नीका नाम था धरा। उ ह ने ाजीके आदे श का पालन

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करनेक इ छासे उनसे कहा— ।।४८।। ‘भगवन्! जब हम पृ वीपर ज म ल, तब
जगद र भगवान् ीकृ णम हमारी अन य ेममयी भ हो— जस भ के ारा
संसारम लोग अनायास ही ग तय को पार कर जाते ह’ ।।४९।। ाजीने कहा
—‘ऐसा ही होगा।’ वे ही परमयश वी भगव मय ोण जम पैदा ए और उनका नाम
आ न द। और वे ही धरा इस ज मम यशोदाके नामसे उनक प नी ।।५०।।
परी त्! अब इस ज मम ज म-मृ युके च से छु ड़ानेवाले भगवान् उनके पु ए और
सम त गोप-गो पय क अपे ा इन प त-प नी न द और यशोदाजीका उनके त
अ य त ेम आ ।।५१।। ाजीक बात स य करनेके लये भगवान् ीकृ ण
बलरामजीके साथ जम रहकर सम त जवा सय को अपनी बाल-लीलासे आन दत
करने लगे ।।५२।।

अ व यु ः स भगवान् जे ोणो महायशाः ।


ज े न द इ त यातो यशोदा सा धराभवत् ।।५०

ततो भ भगव त पु ीभूते जनादने ।


द प यो नतरामासीद् गोपगोपीषु भारत ।।५१

कृ णो ण आदे शं स यं कतु जे वभुः ।


सहरामो वसं े तेषां ी त वलीलया ।।५२
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध
व पदशनेऽ मोऽ यायः ।।८।।

* जब यामसु दर घुटन का सहारा लये बना चलने लगे, तब वे अपने घरम


अनेक कारक कौतुकमयी लीला करने लगे—
शू ये चोरयतः वयं नजगृहे हैयंगवीनं म ण त भे
व त ब बमी तवत तेनैव सा भया।
ातमा वद मातरं मम समो भाग तवापी हतो भुङ् वे यालपतो हरेः
कलवचो मा ा रहः ूयते ।।
एक दन साँवरे-सलोने जराजकुमार ीक हैयालालजी अपने सूने घरम वयं ही
माखन चुरा रहे थे। उनक म णके ख भेम पड़े ए अपने त व बपर पड़ी। अब
तो वे डर गये। अपने त व बसे बोले—‘अरे भैया! मेरी मैयासे क हयो मत। तेरा भाग

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भी मेरे बराबर ही मुझे वीकार है; ले, खा। खा ले, भैया!’ यशोदा माता अपने लालाक
तोतली बोली सुन रही थ ।
उ ह बड़ा आ य आ, वे घरम भीतर घुस आय । माताको दे खते ही ीकृ णने
अपने त व बको दखाकर बात बदल द —
मातः क एष नवनीत मदं वद यं लोभेन चोर यतुम गृहं व ः ।
म ारणं न मनुते म य रोषभा ज रोषं तनो त न ह मे नवनीतलोभः ।।
‘मैया! मैया! यह कौन है? लोभवश तु हारा माखन चुरानेके लये आज घरम घुस
आया है। म मना करता ँ तो मानता नह है और म ोध करता ँ तो यह भी ोध
करता है। मैया! तुम कुछ और मत सोचना। मेरे मनम माखनका त नक भी लोभ नह
है।’
अपने ध-मुँहे शशुक तभा दे खकर मैया वा स य- नेहके आन दम म न हो
गय ।

एक दन यामसु दर माताके बाहर जानेपर घरम ही माखन-चोरी कर रहे थे।


इतनेम ही दै ववश यशोदाजी लौट आय और अपने लाड़ले लालको न दे खकर पुकारने
लग —
कृ ण! वा स करो ष क पत र त ु वैव मातुवचः साशंकं
नवनीतचौय वरतो व य ताम वीत् ।
मातः कंकणप रागमहसा पा णममात यते तेनायं नवनीतभा ड ववरे
व य य नवा पतः ।।
‘क हैया! क हैया! अरे ओ मेरे बाप! कहाँ है, या कर रहा है?’ माताक यह बात
सुनते ही माखनचोर ीकृ ण डर गये और माखन-चोरीसे अलग हो गये। फर थोड़ी दे र
चुप रहकर यशोदाजीसे बोले—‘मैया, री मैया! यह जो तुमने मेरे कंकणम प राग जड़ा
दया है, इसक लपटसे मेरा हाथ जल रहा था। इसीसे मने इसे माखनके मटकेम
डालकर बुझाया था।’
माता यह मधुर-मधुर क हैयाक तोतली बोली सुनकर मु ध हो गय और ‘आओ
बेटा!’ ऐसा कहकर लालाको गोदम उठा लया और यारसे चूमने लग ।

ु णा यां करकुड् मलेन वगल ा पा बु यां दन् ं ं मत


क ठकुहराद प वा व मः ।
मा ासौ नवनीतचौयकुतुके ा भ सतः वांचलेनामृ या य मुखं
तवैतद खलं व से त क ठे कृतः ।।

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एक दन माताने माखनचोरी करनेपर यामसु दरको धमकाया, डाँटा-फटकारा।
बस, दोन ने से आँसु क झड़ी लग गयी। कर-कमलसे आँख मलने लगे। ऊँ-ऊँ-ऊँ
करके रोने लगे। गला ँ ध गया। मुँहसे बोला नह जाता था। बस, माता यशोदाका धैय
टू ट गया। अपने आँचलसे अपने लाला क हैयाका मुँह प छा और बड़े यारसे गले
लगाकर बोल —‘लाला! यह सब तु हारा ही है, यह चोरी नह है।’
एक दनक बात है—पूणच क चाँदनीसे म णमय आँगन धुल गया था। यशोदा
मैयाके साथ गो पय क गो ी जुड़ रही थी। वह खेलते-खेलते कृ णच क
च मापर पड़ी। उ ह ने पीछे से आकर यशोदा मैयाका घूँघट उतार लया। और अपने
कोमल कर से उनक चोट खोलकर ख चने लगे और बार-बार पीठ थपथपाने लगे। ‘म
लूँगा, म लुँगा’—तोतली बोलीसे इतना ही कहते। जब मैयाक समझम बात नह आयी,
तब उसने नेहा से पास बैठ वा लन क ओर दे खा। अब वे वनयसे, यारसे
फुसलाकर ीकृ णको अपने पास ले आय और बोल —‘लालन! तुम या चाहते हो,
ध!’ ीकृ ण-‘ना’। ‘ या ब ढ़या दही?’ ‘ना’। ‘ या खुरचन?’ ‘ना’। ‘मलाई?’ ‘ना’।
‘ताजा माखन? ‘ना’ वा लन ने कहा—‘बेटा! ठो मत, रोओ मत। जो माँगोगे सो
दगी।’ ीकृ णने धीरेसे कहा—‘घरक व तु नह चा हये’ और अँगुली उठाकर
च माक ओर संकेत कर दया। गो पयाँ बोल —‘ओ मेरे बाप! यह कोई माखनका
ल दा थोड़े ही है? हाय! हाय! हम यह कैसे दगी? यह तो यारा- यारा हंस आकाशके
सरोवरम तैर रहा है।’ ीकृ णने कहा—‘म भी तो खेलनेके लये इस हंसको ही माँग
रहा ँ, शी ता करो। पार जानेके पूव ही मुझे ला दो।’
अब और भी मचल गये। धरतीपर पाँव पीट-पीटकर और हाथ से गला पकड़-
पकड़कर ‘दो-दो’ कहने लगे और पहलेसे भी अ धक रोने लगे। सरी गो पय ने कहा
—‘बेटा! राम-राम। इ ह ने तुमको बहला दया है। यह राजहंस नह है, यह तो
आकाशम ही रहनेवाला च मा है।’ ीकृ ण हठ कर बैठे—‘मुझे तो यही दो; मेरे मनम
इसके साथ खेलनेक बड़ी लालसा है। अभी दो, अभी दो। ‘जब ब त रोने लगे, तब
यशोदा माताने गोदम उठा लया और यार करके बोल —‘मेरे ाण! न यह राजहंस है
और न तो च मा। है यह माखन ही, पर तु तुमको दे ने यो य नह है। दे खो, इसम वह
काला-काला वष लगा आ है। इससे ब ढ़या होनेपर भी इसे कोई नह खाता है।’
ीकृ णने कहा—‘मैया! मैया! इसम वष कैसे लग गया।’ बात बदल गयी। मैयाने
गोदम लेकर मधुर-मधुर वरसे कथा सुनाना ार भ कया। मा-बेटेम ो र होने लगे।
यशोदा—‘लाला! एक ीरसागर है।’
ीकृ ण—‘मैया! वह कैसा है।’
यशोदा—‘बेटा! यह जो तुम ध दे ख रहे हो, इसीका एक समु है।’
ीकृ ण—‘मैया! कतनी गाय ने ध दया होगा जब समु बना होगा।
यशोदा—‘क हैया! वह गायका ध नह है।’
ीकृ ण—‘अरी मैया! तू मुझे बहला रही है, भला बना गायके ध कैसे?’

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यशोदा—‘व स! जसने गाय म ध बनाया है, वह गायके बना भी ध बना
सकता है।’
ीकृ ण—‘मैया! वह कौन है?’
यशोदा—‘वह भगवान् ह; पर तु अग (उनके पास कोई जा नह सकता। अथवा
‘ग’ कार र हत) ह।’
ीकृ ण—‘अ छा ठ क है, आगे कहो।’
यशोदा—‘एक बार दे वता और दै य म लड़ाई ई। असुर को मो हत करनेके लये
भगवान्ने ीरसागरको मथा। मंदराचलक रई बनी। वासु क नागक र सी। एक ओर
दे वता लगे, सरी ओर दानव।’
ीकृ ण—‘जैसे गो पयाँ दही मथती ह, य मैया?’
यशोदा—‘हाँ बेटा! उसीसे कालकूट नामका वष पैदा आ।’
ीकृ ण—‘मैया! वष तो साँप म होता है, धम कैसे नकला?’
यशोदा—‘बेटा! जब शंकर भगवान्ने वही वष पी लया, तब उसक जो फुइयाँ
धरतीपर गर पड़ , उ ह पीकर साँप वषधर हो गये। सो बेटा! भगवान्क ही ऐसी कोई
लीला है, जससे धमसे वष नकला।’
ीकृ ण—‘अ छा मैया! यह तो ठ क है।’
यशोदा—‘बेटा! (च माक ओर दखाकर) यह म खन भी उसीसे नकला है।
इस लये थोड़ा-सा वष इसम भी लग गया। दे खो, दे खो, इसीको लोग कलंक कहते ह।
सो मेरे ाण! तुम घरका ही म खन खाओ।’
कथा सुनते-सुनते यामसु दरक आँख म न द आ गयी और मैयाने उ ह पलंगपर
सुला दया।
* भगवान्क लीलापर वचार करते समय यह बात मरण रखनी चा हये क

भगवान्का लीलाधाम, भगवान्के लीलापा , भगवान्का लीलाशरीर और उनक लीला


ाकृत नह होती। भगवान्म दे ह-दे हीका भेद नह है। महाभारतम आया है—
न भूतसंघसं थानो दे व य परमा मनः । यो वे भौ तकं दे हं कृ ण य
परमा मनः ।।
स सव माद् ब ह कायः ौत मात वधानतः । मुखं त यावलो या प
सचैलः नानमाचरेत् ।।
‘परमा माका शरीर भूतसमुदायसे बना आ नह होता। जो मनु य ीकृ ण
परमा माके शरीरको भौ तक जानता-मानता है, उसका सम त ौत- मात कम से
ब ह कार कर दे ना चा हये अथात् उसका कसी भी शा ीय कमम अ धकार नह है।
यहाँतक क उसका मुँह दे खनेपर भी सचैल (व स हत) नान करना चा हये।’
ीम ागवतम ही ाजीने भगवान् ीकृ णक तु त करते ए कहा है—
अ या प दे व वपुषो मदनु ह य वे छामय य न तु भूतमय य कोऽ प ।
‘आपने मुझपर कृपा करनेके लये ही यह वे छामय स चदान द व प कट
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कया है, यह पांचभौ तक कदा प नह है।’
इससे यह प है क भगवान्का सभी कुछ अ ाकृत होता है। इसी कार यह
माखनचोरीक लीला भी अ ाकृत— द ही है।
य द भगवान्के न य परम धामम अ भ पसे न य नवास करनेवाली
न य स ा गो पय क से न दे खकर केवल साधन स ा गो पय क से दे खा
जाय तो भी उनक तप या इतनी कठोर थी, उनक लालसा इतनी अन य थी, उनका
ेम इतना ापक था और उनक लगन इतनी स ची थी क भ वा छाक पत
ेमरसमय भगवान् उनके इ छानुसार उ ह सुख प ँचानेके लये माखनचोरीक लीला
करके उनक इ छत पूजा हण कर, चीरहरण करके उनका रहा-सहा वधानका
परदा उठा द और रासलीला करके उनको द सुख प ँचाय तो कोई बड़ी बात नह
है।
भगवान्क न य स ा चदान दमयी गो पय के अ त र ब त-सी ऐसी गो पयाँ
और थ , जो अपनी महान् साधनाके फल व प भगवान्क मु जन-वां छत सेवा
करनेके लये गो पय के पम अवतीण ई थ । उनमसे कुछ पूवज मक दे वक याएँ
थ , कुछ ु तयाँ थ , कुछ तप वी ऋ ष थे और कुछ अ य भ जन। इनक कथाएँ
व भ पुराण म मलती ह। ु त पा गो पयाँ, जो ‘ने त-ने त’के ारा नर तर
परमा माका वणन करते रहनेपर भी उ ह सा ात्- पसे- ा त नह कर सकत ,
गो पय के साथ भगवान्के द रसमय वहारक बात जानकर गो पय क उपासना
करती ह और अ तम वयं गोपी पम प रणत होकर भगवान् ीकृ णको सा ात्
अपने यतम पसे ा त करती ह। इनम मु य ु तय के नाम ह—उद्गीता, सुगीता,
कलगीता, कलक ठका और वपंची आ द।
भगवान्के ीरामावतारम उ ह दे खकर मु ध होनेवाले—अपने-आपको उनके
व प-सौ दयपर योछावर कर दे नेवाले स ऋ षगण, जनक ाथनासे स
होकर भगवान्ने उ ह गोपी होकर ा त करनेका वर दया था, जम गोपी पसे
अवतीण ए थे। इसके अ त र म थलाक गोपी, कोसलक गोपी, अयो याक गोपी
—पु ल दगोपी, रमावैकु ठ, ेत प आ दक गो पयाँ और जाल धरी गोपी आ द
गो पय के अनेक यूथ थे, जनको बड़ी तप या करके भगवान्से वरदान पाकर
गोपी पम अवतीण होनेका सौभा य ा त आ था। प पुराणके पातालख डम
ब त-से ऐसे ऋ षय का वणन है, ज ह ने बड़ी क ठन तप या आ द करके अनेक
क प के बाद गोपी व पको ा त कया था। उनमसे कुछके नाम न न ल खत ह—
१. एक उ तपा नामके ऋ ष थे। वे अ नहो ी और बड़े ढ़ ती थे। उनक तप या
अद्भुत थी। उ ह ने पंचदशा र-म का जाप और रासो म नव कशोर यामसु दर
ीकृ णका यान कया था। सौ क प के बाद वे सुन द नामक गोपक क या ‘सुन दा’
ए।
२. एक स यतपा नामके मु न थे। वे सूखे प पर रहकर दशा रम का जाप और

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ीराधाजीके दोन हाथ पकड़कर नाचते ए ीकृ णका यान करते थे। दस क पके
बाद वे सुभ नामक गोपक क या ‘सुभ ा’ ए।
३. ह रधामा नामके एक ऋ ष थे। वे नराहार रहकर ‘ ल ’ कामबीजसे यु
वशा री म का जाप करते थे और माधवीम डपम कोमल-कोमल प क श यापर
लेटे ए युगल-सरकारका यान करते थे। तीन क पके प ात् वे सारंग नामक गोपके
घर ‘रंगवेणी’ नामसे अवतीण ए।
४. जाबा ल नामके एक ानी ऋ ष थे, उ ह ने एक बार वशाल वनम वचरते-
वचरते एक जगह ब त बड़ी बावली दे खी। उस बावलीके प म तटपर बड़के नीचे
एक तेज वनी युवती ी कठोर तप या कर रही थी। वह बड़ी सु दर थी। च माक
शु करण के समान उसक चाँदनी चार ओर छटक रही थी। उसका बायाँ हाथ
अपनी कमरपर था और दा हने हाथसे वह ानमु ा धारण कये ए थी। जाबा लके
बड़ी न ताके साथ पूछनेपर उस तापसीने बतलाया—
व ाहमतुला योगी ै या च मृ यते । साहं ह रपदा भोजका यया
सु चरं तपः ।।
ान दे न पूणाहं तेनान दे न तृ तधीः । चरा य मन् वने घोरे याय ती
पु षो मम् ।।
तथा प शू यमा मानं म ये कृ णर त वना ।।
‘म वह व ा ँ, जसे बड़े-बड़े योगी सदा ढूँ ढ़ा करते ह। म ीकृ णके
चरणकमल क ा तके लये इस घोर वनम उन पु षो मका यान करती ई
द घकालसे तप या कर रही ँ। म ान दसे प रपूण ँ और मेरी बु भी उसी
आन दसे प रतृ त है। पर तु ीकृ णका ेम मुझे अभी ा त नह आ, इस लये म
अपनेको शू य दे खती ँ।’ ानी जाबा लने उसके चरण पर गरकर द ा ली और
फर जवी थय म वहरनेवाले भगवान्का यान करते ए वे एक पैरसे खड़े होकर
बड़ी कठोर तप या करते रहे। नौ क प के बाद च ड नामक गोपके घर वे
‘ च ग धा’ के पम कट ए।
५. कुश वज नामक षके पु शु च वा और सुवण दे वत व थे। उ ह ने
शीषासन करके ‘ ’ हंस-म का जाप करते ए और सु दर क दप-तु य गोकुलवासी
दस वषक उ के भगवान् ीकृ णका यान करते ए घोर तप या क । क पके बाद वे
जम सुधीर नामक गोपके घर उ प ए।
इसी कार और भी ब त-सी गो पय के पूवज मक कथाएँ ा त होती ह,
व तारभयसे उन सबका उ लेख यहाँ नह कया गया। भगवान्के लये इतनी तप या
करके इतनी लगनके साथ क प तक साधना करके जन यागी भगव े मय ने
गो पय का तन-मन ा त कया था, उनक अ भलाषा पूण करनेके लये, उ ह आन द-
दान दे नेके लये य द भगवान् उनक मनचाही लीला करते ह तो इसम आ य और
अनाचारक कौन-सी बात है? रासलीलाके संगम वयं भगवान्ने ीगो पय से कहा है
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न पारयेऽहं नरव संयुजां वसाधुकृ यं वबुधायुषा प वः ।
या माभजन् जरगेहशृंखलाः संवृ य तद् वः तयातु साधुना ।। (१०।
३२।२२)
‘गो पयो! तुमने लोक और परलोकके सारे ब धन को काटकर मुझसे न कपट ेम
कया है; य द म तुममसे येकके लये अलग-अलग अन त कालतक जीवन धारण
करके तु हारे ेमका बदला चुकाना चा ँ तो भी नह चुका सकता। म तु हारा ऋणी ँ
और ऋणी ही र ँगा। तुम मुझे अपने साधु वभावसे ऋणर हत मानकर और भी ऋणी
बना दो। यही उ म है।’ सवलोकमहे र भगवान् ीकृ ण वयं जन महाभागा
गो पय के ऋणी रहना चाहते ह, उनक इ छा, इ छा होनेसे पूव ही भगवान् पूण कर द
—यह तो वाभा वक ही है।
भला वचा रये तो सही ीकृ णगत ाणा, ीकृ णरसभा वतम त गो पय के मनक
या थ त थी। गो पय का तन, मन, धन—सभी कुछ ाण यतम ीकृ णका था। वे
संसारम जीती थ ीकृ णके लये, घरम रहती थ ीकृ णके लये और घरके सारे
काम करती थ ीकृ णके लये। उनक नमल और योगी लभ प व बु म
ीकृ णके सवा अपना कुछ था ही नह । ीकृ णके लये ही, ीकृ णको सुख
प ँचानेके लये ही, ीकृ णक नज साम ीसे ही ीकृ णको पूजकर— ीकृ णको
सुखी दे खकर वे सुखी होती थ । ातःकाल न ा टू टनेके समयसे लेकर रातको
सोनेतक वे जो कुछ भी करती थ , सब ीकृ णक ी तके लये ही करती थ ।
यहाँतक क उनक न ा भी ीकृ णम ही होती थी। व और सुषु त दोन म ही वे
ीकृ णक मधुर और शा त लीला दे खत और अनुभव करती थ । रातको दही जमाते
समय यामसु दरक माधुरी छ बका यान करती ई ेममयी येक गोपी यह
अ भलाषा करती थी क मेरा दही सु दर जमे, ीकृ णके लये उसे बलोकर म ब ढ़या-
सा और ब त-सा माखन नकालूँ और उसे उतने ही ऊँचे छ केपर रखू,ँ जतनेपर
ीकृ णके हाथ आसानीसे प ँच सक। फर मेरे ाणधन ीकृ ण अपने सखा को
साथ लेकर हँसते और ड़ा करते ए घरम पदापण कर, माखन लूट और अपने
सखा और बंदर को लुटाय, आन दम म होकर मेरे आँगनम नाच और म कसी
कोनेम छपकर इस लीलाको अपनी आँख से दे खकर जीवनको सफल क ँ और फर
अचानक ही पकड़कर दयसे लगा लूँ। सूरदासजीने गाया है—
मैया री, मो ह माखन भावै । जो मेवा पकवान कह त तू, मो ह नह च
आवै ।।
ज-जुवती इक पाछ ठाढ़ , सुनत यामक बात । मन-मन कह त कब ँ
अपन घर, दे ख माखन खात ।।
बैठ जाइ मथ नयाँक ढग, म तब रह छपानी । सूरदास भु अंतरजामी,
वा ल न-मन क जानी ।।
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एक दन यामसु दर कह रहे थे, ‘मैया! मुझे माखन भाता है; तू मेवा-पकवानके
लये कहती है, पर तु मुझे तो वे चते ही नह ।’ वह पीछे एक गोपी खड़ी
यामसु दरक बात सुन रही थी। उसने मन-ही-मन कामना क —‘म कब इ ह अपने
घर माखन खाते दे खूँगी; ये मथानीके पास जाकर बैठगे, तब म छप र ँगी?’ भु तो
अ तयामी ह, गोपीके मनक जान गये और उसके घर प ँचे तथा उसके घरका माखन
खाकर उसे सुख दया—‘गये याम त ह वा ल न क घर । ’
उसे इतना आन द आ क वह फूली न समायी। सूरदासजी गाते ह—
फूली फर त वा ल मनम री । पूछ त सखी पर पर बात पायो पर्यौ
कछू क ँ त री? ।।
पुल कत रोम-रोम, गदगद मुख बानी कहत न आवै । ऐसौ कहा आ ह
सो स ख री, हम क य न सुनावै ।।
तन यारा, जय एक हमारौ, हम तुम एकै प । सूरदास कहै वा ल
स ख न स , दे यौ प अनूप ।।
वह खुशीसे छककर फूली-फूली फरने लगी। आन द उसके दयम समा नह रहा
था। सहे लय ने पूछा—‘अरी, तुझे कह कुछ पड़ा धन मल गया या?’ वह तो यह
सुनकर और भी ेम व ल हो गयी। उसका रोम-रोम खल उठा, वह गद्गद हो गयी,
मुँहसे बोली नह नकली। स खय ने कहा—‘स ख! ऐसी या बात है, हम सुनाती य
नह ? हमारे तो शरीर ही दो ह, हमारा जी तो एक ही है—हम-तुम दोन एक ही प ह।
भला, हमसे छपानेक कौन सी बात है?’ तब उसके मुँहसे इतना ही नकला—‘मने
आज अनूप प दे खा है।’ बस, फर वाणी क गयी और ेमके आँसू बहने लगे! सभी
गो पय क यही दशा थी।
ज घर-घर गट यह बात । द ध माखन चोरी क र लै ह र, वाल सखा
सँग खात ।।
ज-ब नता यह सु न मन हर षत, सदन हमार आव । माखन खात
अचानक पाव, भुज भ र उर ह छु पाव ।।
मनह मन अ भलाष कर त सब दय धर त यह यान । सूरदास भु क
घरम लै, दै ह माखन खान ।।
चली ज घर-घर न यह बात । नंद-सुत, सँग सखा ली ह, चो र माखन
खात ।।
कोउ कह त, मेरे भवन भीतर, अब ह पैठे धाइ । कोउ कह त मो ह दे ख
ार, उत ह गए पराइ ।।
कोउ कह त, क ह भाँ त ह रक , दे ख अपने धाम । हे र माखन दे उँ
आछौ, खाइ जतनौ याम ।।
कोउ कह त, म दे ख पाऊँ, भ र धर अँकवार । कोउ कह त, म बाँ ध
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राख , को सकै नरवार ।।
सूर भुके मलन कारन, कर त ब बध बचार । जो र कर ब ध क
मनाव त पु ष नंदकुमार ।।
रात गो पयाँ जाग-जागकर ातःकाल होनेक बाट दे खत । उनका मन ीकृ णम
लगा रहता। ातःकाल ज द -ज द दही मथकर, माखन नकालकर छ केपर रखत ;
कह ाणधन आकर लौट न जायँ, इस लये सब काम छोड़कर वे सबसे पहले यही
काम करत और यामसु दरक ती ाम ाकुल होती ई मन-ही-मन सोचत —‘हा!
आज ाण यतम य नह आये? इतनी दे र य हो गयी? या आज इस दासीका घर
प व न करगे? या आज मेरे समपण कये ए इस तु छ माखनका भोग लगाकर
वयं सुखी होकर मुझे सुख न दगे? कह यशोदा मैयाने तो उ ह नह रोक लया? उनके
घर तो नौ लाख गौएँ ह। माखनक या कमी है। मेरे घर तो वे कृपा करके ही आते ह!’
इ ह वचार म आँसू बहाती ई गोपी ण- णम दौड़कर दरवाजेपर जाती, लाज
छोड़कर रा तेक ओर दे खती, स खय से पूछती। एक-एक नमेष उसके लये युगके
समान हो जाता! ऐसी भा यवती गो पय क मनःकामना भगवान् उनके घर पधारकर
पूण करते।
सूरदासजीने गाया है—
थम करी ह र माखन-चोरी । वा ल न मन इ छा क र पूरन, आपु भजे
ज खोरी ।।
मनम यहै बचार करत ह र, ज घर-घर सब जाउँ । गोकुल जनम लयौ
सुख-कारन, सबक माखन खाउँ ।।
बाल प जसुम त मो ह जानै, गो प न म ल सुख भोग । सूरदास भु
कहत ेम स ये मेरे ज लोग ।।
अपने नजजन जवा सय को सुखी करनेके लये ही तो भगवान् गोकुलम पधारे
थे। माखन तो न दबाबाके घरपर कम न था। लाख-लाख गौएँ थ । वे चाहे जतना
खाते-लुटाते। पर तु वे तो केवल न दबाबाके ही नह ; सभी जवा सय के अपने थे,
सभीको सुख दे ना चाहते थे। गो पय क लालसा पूरी करनेके लये ही वे उनके घर जाते
और चुरा-चुराकर माखन खाते। यह वा तवम चोरी नह , यह तो गो पय क पूजा-
प तका भगवान्के ारा वीकार था। भ व सल भगवान् भ क पूजा वीकार
कैसे न कर?
भगवान्क इस द लीला—माखनचोरीका रह य न जाननेके कारण ही कुछ लोग
इसे आदशके वपरीत बतलाते ह। उ ह पहले समझना चा हये चोरी या व तु है, वह
कसक होती है और कौन करता है। चोरी उसे कहते ह जब कसी सरेक कोई चीज,
उसक इ छाके बना, उसके अनजानम और आगे भी वह जान न पाये—ऐसी इ छा
रखकर ले ली जाती है। भगवान् ीकृ ण गो पय के घरसे माखन लेते थे उनक
इ छासे, गो पय के अनजानम नह —उनक जानम, उनके दे खते-दे खते और आगे
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जनानेक कोई बात ही नह —उनके सामने ही दौड़ते ए नकल जाते थे। सरी बात
मह वक यह है क संसारम या संसारके बाहर ऐसी कौन-सी व तु है, जो
ीभगवान्क नह है और वे उसक चोरी करते ह। गो पय का तो सव व ीभगवान्का
था ही, सारा जगत् ही उनका है। वे भला, कसक चोरी कर सकते ह? हाँ, चोर तो
वा तवम वे लोग ह, जो भगवान्क व तुको अपनी मानकर ममता-आस म फँसे
रहते ह और द डके पा बनते ह। उपयु सभी य से यही स होता है क
माखनचोरी चोरी न थी, भगवान्क द लीला थी। असलम गो पय ने ेमक
अ धकतासे ही भगवान्का ेमका नाम ‘चोर’ रख दया था, य क वे उनके च चोर
तो थे ही।
जो लोग भगवान् ीकृ णको भगवान् नह मानते, य प उ ह ीम ागवतम
व णत भगवान्क लीलापर वचार करनेका कोई अ धकार नह है, पर तु उनक से
भी इस संगम कोई आप जनक बात नह है। य क ीकृ ण उस समय लगभग
दो-तीन वषके ब चे थे और गो पयाँ अ य धक नेहके कारण उनके ऐसे-ऐसे मधुर खेल
दे खना चाहती थ । आशा है, इससे शंका करनेवाल को कुछ स तोष होगा।
—हनुमान साद पो ार
* मृद-् भ णके हेत—

१—भगवान् ीकृ णने वचार कया क मुझम शु स वगुण ही रहता है और
आगे ब त-से रजोगुणी कम करने ह। उसके लये थोड़ा-सा ‘रज’ सं ह कर ल।
२—सं कृत-सा ह यम पृ वीका एक नाम ‘ मा’ भी है। ीकृ णने दे खा क
वालबाल खुलकर मेरे साथ खेलने ह; कभी-कभी अपमान भी कर बैठते ह। उनके
साथ मांश धारण करके ही डा करनी चा हये, जससे कोई व न न पड़े।
३—सं कृत-भाषाम पृ वीको ‘रसा’ भी कहते ह। ीकृ णने सोचा सब रस तो ले
ही चुका ँ, अब रसा-रसका आ वादन क ँ ।
४—इस अवतारम पृ वीका हत करना है। इस लये उसका कुछ अंश अपने मु य
(मुखम थत) ज (दाँत ) को पहले दान कर लेना चा हये।
५— ा ण शु सा वक कमम लग रहे ह, अब उ ह असुर का संहार करनेके
लये कुछ राजस कम भी करने चा हये। यही सू चत करनेके लये मानो उ ह ने अपने
मुखम थत ज को (दाँत को) रजसे यु कया।
६—पहले वष भ ण कया था, म खाकर उसक दवा क ।
७—पहले गो पय का म खन खाया था, उलाहना दे नेपर म खा ली, जससे मुँह
साफ हो जाय।
८—भगवान् ीकृ णके उदरम रहनेवाले को ट-को ट ा ड के जीव ज-रज—
गो पय के चरण क रज— ा त करनेके लये ाकुल हो रहे थे। उनक अ भलाषा
पूण करनेके लये भगवान्ने म खायी।
९—भगवान् वयं ही अपने भ क चरण-रज मुखके ारा अपने दयम धारण

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करते ह।
१०—छोटे बालक वभावसे ही म खा लया करते ह।
† यशोदाजी जानती थ क इस हाथने म खानेम सहायता क है। चोरका
सहायक भी चोर ही है। इस लये उ ह ने हाथ ही पकड़ा।
‡ भगवान्के ने म सूय और च माका नवास है। वे कमके सा ी ह। उ ह ने सोचा
क पता नह ीकृ ण म खाना वीकार करगे क मुकर जायँगे। अब हमारा कत
या है। इसी भावको सू चत करते ए दोन ने चकराने लगे।
* १—मा! म खानेके स ब धम ये मुझ अकेलेका ही नाम ले रहे ह। मने

खायी, तो सबने खायी, दे ख लो मेरे मुखम स पूण व !


२— ीकृ णने वचार कया क उस दन मेरे मुखम व दे खकर माताने
अपने ने बंद कर लये थे। आज भी जब म अपना मुँह खोलूँगा, तब यह अपने
ने बंद कर लेगी। इस वचारसे मुख खोल दया।

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अथ नवमोऽ यायः
ीकृ णका ऊखलसे बाँधा जाना
ीशुक उवाच
एकदा गृहदासीषु यशोदा न दगे हनी ।
कमा तर नयु ासु नमम थ वयं द ध ।।१

या न यानीह गीता न त ालच रता न च ।


द ध नम थने काले मर ती ता यगायत ।।२
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! एक समयक बात है, न दरानी यशोदाजीने घरक
दा सय को तो सरे काम म लगा दया और वयं (अपने लालाको म खन खलानेके लये)
दही मथने लग * ।।१।। मने तुमसे अबतक भगवान्क जन- जन बाल-लीला का वणन
कया है, द धम थनके समय वे उन सबका मरण करत और गाती भी जाती थ † ।।२।।

ौमं वासः पृथुक टतटे


ब ती सू न ं
पु नेह नुतकुचयुगं
जातक पं च सु ूः ।
र वाकष मभुजचलत्-
कंकणौ कु डले च
व ं व ं कबर वगल-
मालती नमम थ ।।३

तां त यकाम आसा म न त जनन ह रः ।

गृही वा द धम थानं यषेधत् ी तमावहन् ।।४


वे अपने थूल क टभागम सूतसे बाँधकर रेशमी लहँगा पहने ए थ । उनके तन मसे
पु - नेहक अ धकतासे ध चूता जा रहा था और वे काँप भी रहे थे। नेती ख चते रहनेसे
बाँह कुछ थक गयी थ । हाथ के कंगन और कान के कणफूल हल रहे थे। मुँहपर पसीनेक
बूँद झलक रही थ । चोट म गुँथे ए मालतीके सु दर पु प गरते जा रहे थे। सु दर भ ह वाली
यशोदा इस कार दही मथ रही थ * ।।३।।
उसी समय भगवान् ीकृ ण तन पीनेके लये दही मथती ई अपनी माताके पास आये।
उ ह ने अपनी माताके दयम ेम और आन दको और भी बढ़ाते ए दहीक मथानी पकड़

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ली तथा उ ह मथनेसे रोक दया† ।।४।।

तमंकमा ढमपाययत् तनं


नेह तुतं स मतमी ती मुखम् ।
अतृ तमु सृ य जवेन सा यया-
वु स यमाने पय स व ध ते ।।५

संजातकोपः फु रता णाधरं


संद य द द धम थभाजनम् ।
भ वा मृषा ु षद मना रहो
जघास हैयंगवम तरं गतः ।।६
ीकृ ण माता यशोदाक गोदम चढ़ गये। वा स य- नेहक अ धकतासे उनके तन से
ध तो वयं झर ही रहा था। वे उ ह पलाने लग और म द-म द मुसकानसे यु उनका मुख
दे खने लग । इतनेम ही सरी ओर अँगीठ पर रखे ए धम उफान आया। उसे दे खकर
यशोदाजी उ ह अतृ त ही छोड़कर ज द से ध उतारनेके लये चली गय * ।।५।।
इससे ीकृ णको कुछ ोध आ गया। जनके लाल-लाल होठ फड़कने लगे। उ ह दाँत से
दबाकर ीकृ णने पास ही पड़े ए लोढ़े से दहीका मटका फोड़फाड़ डाला, बनावट आँसू
आँख म भर लये और सरे घरम जाकर अकेलेम बासी माखन खाने लगे‡ ।।६।।

उ ाय गोपी सुशृतं पयः पुनः


व य सं य च द यम कम् ।
भ नं वलो य वसुत य कम त-
जहास तं चा प न त प यती ।।७

उलूखलाङ् े प र व थतं
मकाय कामं ददतं श च थतम् ।
हैयंगवं चौय वशं कते णं
नरी य प ात् सुतमागम छनैः ।।८

तामा य समी य स वर-


ततोऽव ापससार भीतवत् ।
गो य वधाव यमाप यो गनां
मं वे ु ं तपसे रतं मनः ।।९

अ व चमाना जननी बृह चल-


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ोणीभरा ा तग तः सुम यमा ।
यशोदाजी टे ए धको उतारकर* फर मथनेके घरम चली आय । वहाँ दे खती ह तो
दहीका मटका (कमोरा) टु कड़े-टु कड़े हो गया है। वे समझ गय क यह सब मेरे लालाक ही
करतूत है। साथ ही उ ह वहाँ न दे खकर यशोदा माता हँसने लग ।।७।। इधर-उधर ढूँ ढ़नेपर
पता चला क ीकृ ण एक उलटे ए ऊखलपर खड़े ह और छ केपरका माखन ले-लेकर
बंदर को खूब लुटा रहे ह। उ ह यह भी डर है क कह मेरी चोरी खुल न जाय, इस लये
चौक े होकर चार ओर ताकते जाते ह। यह दे खकर यशोदा-रानी पीछे से धीरे-धीरे उनके
पास जा प ँच † ।।८।। जब ीकृ णने दे खा क मेरी मा हाथम छड़ी लये मेरी ही ओर आ
रही है, तब झटसे ओखलीपरसे कूद पड़े और डरे एक भाँ त भागे। परी त्! बड़े-बड़े
योगी तप याके ारा अपने मनको अ य त सू म और शु बनाकर भी जनम वेश नह
करा पाते, पानेक बात तो र रही, उ ह भगवान्के पीछे -पीछे उ ह पकड़नेके लये
यशोदाजी दौड़ी‡ ।।९।।
जब इस कार माता यशोदा ीकृ णके पीछे दौड़ने लग , तब कुछ ही दे रम बड़े-बड़े एवं
मलते ए नत ब के कारण उनक चाल धीमी पड़ गयी। वेगसे दौड़नेके कारण चोट क गाँठ
ढ ली पड़ गयी। वे य - य आगे बढ़त , पीछे -पीछे चोट म गुँथे ए फूल गरते जाते। इस
कार सु दरी यशोदा य - य करके उ ह पकड़ सक * ।।१०।। ीकृ णका हाथ पकड़कर
वे उ ह डराने-धमकाने लग । उस समय ीकृ णक झाँक बड़ी वल ण हो रही थी।
अपराध तो कया ही था, इस लये लाई रोकनेपर भी न कती थी। हाथ से आँख मल रहे
थे, इस लये मुँहपर काजलक याही फैल गयी थी, पटनेके भयसे आँख ऊपरक ओर उठ
गयी थ , उनसे ाकुलता सू चत होती थी† ।।११।। जब यशोदाजीने दे खा क ल ला ब त
डर गया है, तब उनके दयम वा स य- नेह उमड़ आया। उ ह ने छड़ी फक द । इसके बाद
सोचा क इसको एक बार र सीसे बाँध दे ना चा हये (नह तो यह कह भाग जायगा)।
परी त्! सच पूछो तो यशोदा मैयाको अपने बालकके ऐ यका पता न था‡ ।।१२।।

जवेन व ं सतकेशब धन-


युत सूनानुग तः परामृशत् ।।१०

कृतागसं तं द तम णी
कष तमंज म षणी वपा णना ।
उ माणं भय व ले णं
ह ते गृही वा भषय यवागुरत् ।।११

य वा य सुतं भीतं व ायाभकव सला ।


इयेष कल तं बद्धुं दा नात यको वदा ।।१२

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न चा तन ब हय य न पूव ना प चापरम् ।
पूवापरं ब ह ा तजगतो यो जग च यः ।।१३

तं म वाऽऽ मजम ं म य लगमधी जम् ।


गो पकोलूखले दा ना बब ध ाकृतं यथा ।।१४

तद् दाम ब यमान य वाभक य कृतागसः ।


य लोनमभू ेन स दधेऽ य च गो पका ।।१५

यदाऽऽसी द प यूनं तेना यद प स दधे ।


तद प य लं यूनं यद् यदाद ब धनम् ।।१६
जसम न बाहर है न भीतर, न आ द है और न अ त; जो जगत्के पहले भी थे, बादम भी
रहगे; इस जगत्के भीतर तो ह ही, बाहरी प म भी ह; और तो या, जगत्के पम भी
वयं वही ह;* यही नह , जो सम त इ य से परे और अ ह—उ ह भगवान्को
मनु यका-सा प धारण करनेके कारण पु समझकर यशोदारानी र सीसे ऊखलम ठ क
वैसे ही बाँध दे ती ह, जैसे कोई साधारण-सा बालका† हो ।।१३-१४।। जब माता यशोदा
अपने ऊधमी और नटखट लड़केको र सीसे बाँधने लग , तब वह दो अंगुल छोट पड़ गयी!
तब उ ह ने सरी र सी लाकर उसम जोड़ी‡ ।।१५।।
जब वह भी छोट हो गयी, तब उसके साथ और जोड़ी , इस कार वे य - य र सी
लात और जोड़ती गय , य - य जुड़नेपर भी वे सब दो-दो अंगुल छोट पड़ती
गय * ।।१६।। यशोदारानीने घरक सारी र सयाँ जोड़ डाल , फर भी वे भगवान् ीकृ णको
न बाँध सक । उनक असफलतापर दे खनेवाली गो पयाँ मुसकराने लग और वे वयं भी
मुसकराती ई आ यच कत हो गय † ।।१७।। भगवान् ीकृ णने दे खा क मेरी माका शरीर
पसीनेसे लथपथ हो गया है, चोट म गुँथी ई मालाएँ गर गयी ह और वे ब त थक भी गयी
ह; तब कृपा करके वे वयं ही अपनी माके ब धनम बँध गये‡ ।। १८ परी त्! भगवान्
ीकृ ण परम वत ह। ा, इ आ दके साथ यह स पूण जगत् उनके वशम है। फर भी
इस कार बँधकर उ ह ने संसारको यह बात दखला द क म अपने ेमी भ के वशम
*
ँ ।।१९।। वा लनी यशोदाने मु दाता मुकु दसे जो कुछ अ नवचनीय कृपा साद ा त
कया वह साद ा पु होनेपर भी, शंकर आ मा होनेपर भी और व ः थलपर
वराजमान ल मी अधा गनी होनेपर भी न पा सके, न पा सके† ।।२०।। यह गो पकान दन
भगवान् अन य ेमी भ के लये जतने सुलभ ह, उतने दे हा भमानी कमका डी एवं
तप वय को तथा अपने व पभूत ा नय के लये भी नह ह‡ ।।२१।।

एवं वगेहदामा न यशोदा स दध य प ।

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गोपीनां सु मय तीनां मय ती व मताभवत् ।।१७

वमातुः व गा ाया व तकबर जः ।


् वा प र मं कृ णः कृपयाऽऽसीत् वब धने ।।१८

एवं संद शता गं ह रणा भृ यव यता ।


ववशेना प कृ णेन य येदं से रं वशे ।।१९

नेमं व रचो न भवो न ीर यंगसं या ।


सादं ले भरे गोपी य त् ाप वमु दात् ।।२०

नायं सुखापो भगवान् दे हनां गो पकासुतः ।


ा ननां चा मभूतानां यथा भ मता मह ।।२१

कृ ण तु गृहकृ येषु ायां मात र भुः ।


अ ा ीदजुनौ पूव गु कौ धनदा मजौ ।।२२
इसके बाद न दरानी यशोदाजी तो घरके काम-धंध म उलझ गय और ऊखलम बँधे ए
भगवान् यामसु दरने उन दोन अजुनवृ को मु दे नेक सोची, जो पहले य राज कुबेरके
पु थे ।।२२।। इनके नाम थे नलकूबर और म ण ीव। इनके पास धन, सौ दय और
ऐ यक पूणता थी। इनका घम ड दे खकर ही दे व ष नारदजीने इ ह शाप दे दया था और ये
वृ हो गये थे* ।।२३।।

पुरा नारदशापेन वृ तां ा पतौ मदात् ।

नलकूबरम ण ीवा व त यातौ या वतौ ।।२३


इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध गोपी सादो नाम
नवमोऽ यायः ।।९।।

* इस संगम ‘एक समय’ का ता पय है का तक मास। पुराण म इसे ‘दामोदरमास’


कहते ह। इ यागके अवसरपर दा सय का सरे काम म लग जाना वाभा वक है।
‘ नयु ासु’—इस पदसे व नत होता है क यशोदा माताने जान-बूझकर दा सय को सरे
कामम लगा दया। ‘यशोदा’—नाम उ लेख करनेका अ भ ाय यह है क अपने वशु
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वा स य ेमके वहारसे षडै यशाली भगवान्को भी ेमाधीनता, भ व यताके कारण
अपने भ के हाथ बँध जानेका ‘यश’ यही दे ती ह। गोपराज न दके वा स य ेमके
आकषणसे स चदान द-परमान द व प ीभगवान् न दन दन पसे जगत्म अवतीण
होकर जगत्के लोग को आन द दान करते ह। जगत्को इस अ ाकृत परमान दका
रसा वादन करानेम न दबाबा ही कारण ह। उन न दक गृ हणी होनेसे इ ह ‘न दगे हनी’ कहा
गया है। साथ ही ‘न दगे हनी’ और ‘ वयं’—ये दो पद इस बातके सूचक ह क
द धम थनकम उनके यो य नह है। फर भी पु - नेहक अ धकतासे यह सोचकर क मेरे
लालाको मेरे हाथका माखन ही भाता है, वे वयं ही द ध मथ रही ह।
† इस ोकम भ के व पका न पण है। शरीरसे द धम थन प सेवाकम हो रहा
है, दयम मरणक धारा सतत वा हत हो रही है, वाणीम बाल-च र का संगीत। भ के
तन, मन, वचन—सब अपने यारेक सेवाम संल न ह। नेह अमूत पदाथ है; वह सेवाके
पम ही होता है। नेहके ही वलास वशेष ह—नृ य और संगीत। यशोदा मैयाके
जीवनम इस समय राग और भोग दोन ही कट ह।
* कमरम रेशमी लहँगा डोरीसे कसकर बँधा आ है अथात् जीवनम आल य, माद,

असावधानी नह है। सेवाकमम पूरी त परता है। रेशमी लहँगा इसी लये पहने ह क कसी
कारक अप व ता रह गयी तो मेरे क हैयाको कुछ हो जायगा।
माताके दयका रस नेह— ध तनके मुँह आ लगा है, चुचुआ रहा है, बाहर झाँक रहा
है। यामसु दर आव, उनक पहले मुझपर पड़े और वे पहले माखन न खाकर मुझे ही
पीव—यही उसक लालसा है।
तनके काँपनेका अथ यह है क उसे डर भी है क कह मुझे नह पया तो!
कंकण और कु डल नाच-नाचकर मैयाको बधाई दे रहे ह। यशोदा मैयाके हाथ के कंकण
इस लये झंकार व न कर रहे ह क वे आज उन हाथ म रहकर ध य हो रहे ह क जो हाथ
भगवान्क सेवाम लगे ह। और कु डल यशोदा मैयाके मुखसे लीला-गान सुनकर परमान दसे
हलते ए कान क सफलताक सूचना दे रहे ह। हाथ वही ध य ह, जो भगवान्क सेवा कर
और कान वे ध य ह, जनम भगवान्के लीला-गुण-गानक सुधाधारा वेश करती रहे। मुँहपर
वेद और मालतीके पु प के नीचे गरनेका यान माताको नह है। वह शृंगार और शरीर भूल
चुक ह। अथवा मालतीके पु प वयं ही चो टय से छू टकर चरण म गर रहे ह क ऐसी
वा स यमयी माके चरण म ही रहना सौभा य है, हम सरपर रहनेके अ धकारी नह ।
† दयम लीलाक सुख मृ त, हाथ से द धम थन और मुखसे लीलागान—इस कार
मन, तन, वचन तीन का ीकृ णके साथ एकतान संयोग होते ही ीकृ ण जगकर ‘मा-मा’
पुकारने लगे। अबतक भगवान् ीकृ ण सोये ए-से थे। माक नेह-साधनाने उ ह जगा
दया। वे नगुणसे सगुण ए, अचलसे चल ए, न कामसे सकाम ए; नेहके भूखे- यासे
माके पास आये। या ही सु दर नाम है—‘ त यकाम’! म थन करते समय आये, बैठ -
ठालीके पास नह ।
सव भगवान् साधनक ेरणा दे ते ह, अपनी ओर आकृ करते ह; पर तु मथानी

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पकड़कर मैयाको रोक लया। ‘मा! अब तेरी साधना पूण हो गयी। प -पेषण करनेसे या
लाभ? अब म तेरी साधनाका इससे अ धक भार नह सह सकता।’ मा ेमसे दब गयी—
नहाल हो गयी—मेरा लाला मुझे इतना चाहता है।
* मैया मना करती रही—‘नेक-सा माखन तो नकाल लेने दे ।’ ‘ऊँ-ऊँ-ऊँ, म तो ध

पीऊँगा’—दोन हाथ से मैयाक कमर पकड़कर एक पाँव घुटनेपर रखा और गोदम चढ़ गये।
तनका ध बरस पड़ा। मैया ध पलाने लगी, लाला मुसकराने लगे, आँख मुसकानपर जम
गय । ‘ई ती’ पदका यह अ भ ाय है क जब लाला मुँह उठाकर दे खेगा और मेरी आँख
उसपर लगी मलगी, तब उसे बड़ा सुख होगा।
सामने प ग धा गायका ध गरम हो रहा था। उसने सोचा—‘ नेहमयी मा यशोदाका ध
कभी कम न होगा, यामसु दरक यास कभी बुझेगी नह ! उनम पर पर होड़ लगी है। म
बेचारा युग-युगका, ज म-ज मका यामसु दरके होठ का पश करनेके लये ाकुल तप-
तपकर मर रहा ँ। अब इस जीवनसे या लाभ जो ीकृ णके काम न आवे। इससे अ छा है
उनक आँख के सामने आगम कूद पड़ना।’ माके ने प ँच गये। दया माको ीकृ णका भी
यान न रहा; उ ह एक ओर डालकर दौड़ पड़ी। भ भगवान्को एक ओर रखकर भी
ः खय क र ा करते ह। भगवान् अतृ त ही रह गये। या भ के दय-रससे, नेहसे उ ह
कभी तृ त हो सकती है? उसी दनसे उनका एक नाम आ—‘अतृ त’।
‡ ीकृ णके होठ फड़के। ोध होठ का पश पाकर कृताथ हो गया। लाल-लाल होठ
ेत- ेत धक दँ तु लय से दबा दये गये, मानो स वगुण रजोगुणपर शासन कर रहा हो,
ा ण यको श ा दे रहा हो। वह ोध उतरा द धम थनके मटकेपर। उसम एक असुर
आ बैठा था। द भने कहा—काम, ोध और अतृ तके बाद मेरी बारी है। वह आँसू बनकर
आँख म छलक आया। ीकृ ण अपने भ जन के त अपनी ममताक धारा उड़ेलनेके
लये या- या भाव नह अपनाते? ये काम, ोध, लोभ और द भ भी आज -सं पश
ा त करके ध य हो गये! ीकृ ण घरम घुसकर बासी म खन गटकने लगे, मानो माको
दखा रहे ह क म कतना भूखा ँ।
ेमी भ के ‘पु षाथ’ भगवान् नह ह, भगवान्क सेवा है। ये भगवान्क सेवाके लये
भगवान्का भी याग कर सकते ह। मैयाके अपने हाथ हा आ यह प ग धा गाय का ध
ीकृ णके लये ही गरम हो रहा था। थोड़ी दे रके बाद ही उनको पलाना था। ध उफन
जायगा तो मेरे लाला भूखे रहगे—रोयगे, इसी लये माताने उ ह नीचे उतारकर धको
सँभाला।
* यशोदा माता धके पास प ँच । ेमका अद्भुत य! पु को गोदसे उतारकर उसके
पेयके त इतनी ी त य ? अपनी छातीका ध तो अपना है, वह कह जाता नह । पर तु
यह सह छट ई गाय के धसे पा लत प ग धा गायका ध फर कहाँ मलेगा?
वृ दावनका ध अ ाकृत, च मय, ेमजगत्का ध—माको आते दे खकर शमसे दब गया।
‘अहो! आगम कुदनेका संक प करके मने माके नेहान दम कतना बड़ा व न कर डाला?
और मा अपना आन द छोड़कर मेरी र ाके दौड़ी आ रही है। मुझे ध कार है।’ धका
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उफनना बंद हो गया और वह त काल अपने थानपर बैठ गया।
† ‘मा! तुम अपनी गोदम नह बैठाओगी तो म कसी खलक गोदम जा बैठँ ू गा’—यही
सोचकर मानो ीकृ ण उलटे ऊखलके ऊपर जा बैठे। उदार पु ष भले ही खल क संग तम
जा बैठ, पर तु उनका शील- वभाव बदलता नह है। ऊखलपर बैठकर भी वे ब दर को
माखन बाँटने लगे। स भव है रामावतारके त जो कृत ताका भाव आ था, उसके कारण
अथवा अभी-अभी ोध आ गया था, उसका ाय करनेके लये!
ीकृ णके ने ह ‘चौय वशं कत’ यान करनेयो य। वैसे तो उनके ल लत, क लत,
छ लत, ब लत, च कत आ द अनेक कारके येय ने ह, पर तु ये ेमीजन के दयम गहरी
चोट करते ह।
‡ भीत होकर भागते ए भगवान् ह। अपूव झाँक है! ऐ यको तो मानो मैयाके वा स य
ेमपर योछावर करके जके बाहर ही फक दया है! कोई असुर अ -श लेकर आता तो
सुदशन च का मरण करते। मैयाक छड़ीका नवारण करनेके लये कोई भी अ -श
नह ! भगवान्क यह भयभीत मू त कतनी मधुर है! ध य है इस भयको।
* माता यशोदाके शरीर और शृंगार दोन ही वरोधी हो गये—तुम यारे क हैयाको य

खदे ड़ रही हो। पर तु मैयाने पकड़कर ही छोड़ा।


† व के इ तहासम, भगवान्के स पूण जीवनम पहली बार वयं व े रभगवान् माके
सामने अपराधी बनकर खड़े ए ह। मानो अपराधी भी म ही — ँ इस स यका य करा
दया। बाय हाथसे दोन आँख रगड़-रगड़कर मानो उनसे कहलाना चाहते ह क ये कसी
कमके क ा नह ह। ऊपर इस लये दे ख रहे ह क जब माता ही पीटनेके लये तैयार है, तब
मेरी सहायता और कौन कर सकता है? ने भयसे व ल हो रहे ह, ये भले ही कह द क मने
नह कया, हम कैसे कह। फर तो लीला ही बंद हो जायगी।
माने डाँटा—अरे, अशा त कृते! वानरब धो! म थनी फोटक! अब तुझे म खन कहाँसे
मलेगा? आज म तुझे ऐसा बाँधूँगी, ऐसा बाँधूँगी क न तो तू वालबाल के साथ खेल ही
सकेगा और न माखन-चोरी आ द ऊधम ही मचा सकेगा।
‡ ‘अरी मैया! मो ह मत मार।’ माताने कहा—‘य द तुझे पटनेका इतना डर था तो
मटका य फोड़ा?’ ीकृ ण—‘अरी मैया! म अब ऐसा कभी नह क ँ गा। तू अपने हाथसे
छड़ी डाल दे ।’
ीकृ णका भोलापन दे खकर मैयाका दय भर आया, वा स य- नेहके समु म वार आ
गया। वे सोचने लग —लाला अ य त डर गया है। कह छोड़नेपर यह भागकर वनम चला
गया तो कहाँ-कहाँ भटकता फरेगा, भूखा- यासा रहेगा। इस लये थोड़ी दे रतक बाँधकर रख
लू।ँ ध-माखन तैयार होनेपर मना लूँगी। यही सोच- वचारकर माताने बाँधनेका न य कया।
बाँधनेम वा स य ही हेतु था।
भगवान्के ऐ यका अ ान दो कारका होता है, एक तो साधारण ाकृत जीव को और
सरा भगवान्के न य स ेमी प रकरको। यशोदा मैया आ द भगवान्क व पभूता
च मयी लीलाके अ ाकृत न य- स प रकर ह। भगवान्के त वा स यभाव, शशु- ेमक

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गाढ़ताके कारण ही उनका ऐ य- ान अ भभूत हो जाता है; अ यथा उनम अ ानक
संभावना ही नह है। इनक थ त तुरीयाव था अथवा समा धका भी अ त मण करके
सहज ेमम रहती है। वहाँ ाकृत अ ान, मोह, रजोगुण और तमोगुणक तो बात ही या,
ाकृत स वक भी ग त नह है। इस लये इनका अ ान भी भगवान्क लीलाक स के
लये उनक लीलाश का ही एक चम कार वशेष है।
तभीतक दयम जड़ता रहती है, जबतक चेतनका फुरण नह होता। ीकृ णके हाथम
आ जानेपर यशोदा माताने बाँसक छड़ी फक द —यह सवथा वाभा वक है।
मेरी तृ तका य न छोड़कर छोट -मोट व तुपर डालना केवल अथ-हा नका ही
हेतु नह है, मुझे भी आँख से ओझल कर दे ता है। पर तु सब कुछ छोड़कर मेरे पीछे दौड़ना
मेरी ा तका हेतु है। या मैयाके च रतसे इस बातक श ा नह मलती?
मुझे यो गय क भी बु नह पकड़ सकती, पर तु जो सब ओरसे मुँह मोड़कर मेरी ओर
दौड़ता है, म उसक मु म आ जाता ँ। यही सोचकर भगवान् यशोदाके हाथ पकड़े गये।
* इस ोकम ीकृ णक पता बतायी गयी है। ‘उप नषद म जैसे का वणन है
—अपूवम् अनपरम् अन तरम् अबा म्’ इ या द। वही बात यहाँ ीकृ णके स ब धम है।
वह सवा ध ान, सवसा ी, सवातीत, सवा तयामी, सव पादान एवं सव प ही यशोदा
माताके ेमके वश बँधने जा रहा है। ब धन प होनेके कारण उसम कसी कारक
अस त या अनौ च य भी नह है।
† यह फर कभी ऊखलपर जाकर न बैठे इसके लये ऊखलसे बाँधना ही उ चत है;
य क खलका अ धक संग होनेपर उससे मनम उ े ग हो जाता है।
यह ऊखल भी चोर ही है, य क इसने क हैयाके चोरी करनेम सहायता क है। दोन को
ब धनयो य दे खकर ही यशोदा माताने दोन को बाँधनेका उ ोग कया।
‡ यशोदा माता य - य अपने नेह, ममता आ द गुण (सद्गुण या र सय ) से
ीकृ णका पेट भरने लग , य - य अपनी न यमु ता, वत ता आ द सद्गुण से भगवान्
अपने व पको कट करने लगे।
१. सं कृत-सा ह यम ‘गुण’ श दके अनेक अथ ह—सद्गुण, स व आ द गुण और
र सी। स व, रज आ द गुण भी अ खल ा डनायक लोक नाथ भगवान्का पश नह
कर सकते। फर यह छोटा-सा गुण (दो ब ेक र सी) उ ह कैसे बाँध सकता है। यही कारण
है क यशोदा माताक र सी पूरी नह पड़ती थी।
२. संसारके वषय इ य को ही बाँधनेम समथ ह— व ष व त इ त वषयाः। ये दयम
थत अ तयामी और सा ीको नह बाँध सकते। तब गो-ब धक (इ य या गाय को
बाँधनेवाली) र सी गो-प त (इ य या गाय के वामी) को कैसे बाँध सकती है?
३. वेदा तके स ा तानुसार अ य तम ही ब धन होता है, अ ध ानम नह । भगवान्
ीकृ णका उदर अन तको ट ा ड का अ ध ान है। उसम भला ब धन कैसे हो सकता
है?
४. भगवान् जसको अपनी कृपा सादपूण से दे ख लेते ह, वही सवदाके लये

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ब धनसे मु हो जाता है। यशोदा माता अपने हाथम जो र सी उठात , उसीपर ीकृ णक
पड़ जाती। वह वयं मु हो जाती, फर उसम गाँठ कैसे लगती?
५. कोई साधक य द अपने गुण के ारा भगवान्को रझाना चाहे तो नह रझा सकता।
मानो यही सू चत करनेके लये कोई भी गुण (र सी) भगवान्के उदरको पूण करनेम समथ
नह आ।
* र सी दो अंगुल ही कम य ई? इसपर कहते ह—

१. भगवान्ने सोचा क जब म शु दय भ जन को दशन दे ता ँ, तब मेरे साथ


एकमा स वगुणसे ही स ब धक फू त होती है, रज और तमसे नह । इस लये उ ह ने
र सीको दो अंगुल कम करके अपना भाव कट कया।
२. उ ह ने वचार कया क जहाँ नाम और प होते ह, वह ब धन भी होता है। मुझ
परमा माम ब धनक क पना कैसे? जब क ये दोन ही नह । दो अंगुलक कमीका यही
रह य है।
३. दो वृ का उ ार करना है। यही या सू चत करनेके लये र सी दो अंगुल कम पड़
गयी।
४. भगव कृपासे ै तानुरागी भी मु हो जाता है और असंग भी ेमसे बँध जाता है। यही
दोन भाव सू चत करनेके लये र सी दो अंगुल कम हो गयी।
५. यशोदा माताने छोट -बड़ी अनेक र सयाँ अलग-अलग और एक साथ भी
भगवान्क कमरम लगाय , पर तु वे पूरी न पड़ ; य क भगवान्म छोटे -बड़ेका कोई भेद
नह है। र सय ने कहा—भगवान्के समान अन तता, अना दता और वभुता हमलोग म नह
है। इस लये इनको बाँधनेक बात बंद करो। अथवा जैसे न दयाँ समु म समा जाती ह ही वैसे
ही सारे गुण (सारी र सयाँ) अन तगुण भगवान्म लीन हो गये, अपना नाम- प खो बैठे। ये
ही दो भाव सू चत करनेके लये र सय म दो अंगुलक यूनता ई।
† वे मन-ही-मन सोचत —इसक कमर मु भरक है, फर भी सैकड़ हाथ ल बी

र सीसे यह नह बँधता है। कमर तलमा भी मोट नह होती, र सी एक अंगुल भी छोट


नह होती, फर भी वह बँधता नह । कैसा आ य है। हर बार दो अंगुलक ही कमी होती है,
न तीनक , न चारक , न एकक । यह कैसा अलौ कक चम कार है।
‡ १. भगवान् ीकृ णने सोचा क जब माके दयसे ै त-भावना र नह हो रही है, तब

म थ अपनी असंगता य कट क ँ । जो मुझे ब समझता है उसके लये ब होना ही


उ चत है। इस लये वे बँध गये।
२. म अपने भ के छोटे -से गुणको भी पूण कर दे ता ँ—यह सोचकर भगवान्ने यशोदा
माताके गुण (र सी) को अपने बाँधनेयो य बना लया।
३. य प मुझम अन त, अ च य क याण-गुण नवास करते ह, तथा प तबतक वे अधूरे
ही रहते ह, जबतक मेरे भ अपने गुण क मुहर उनपर नह लगा दे त।े यही सोचकर यशोदा
मैयाके गुण (वा स य, नेह आ द और र जु) से अपनेको पूण दर—दामोदर बना लया।
४. भगवान् ीकृ ण इतने कोमल दय ह क अपने भ के ेमको पु करनेवाला
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प र म भी सहन नह करते ह। वे अपने भ को प र मसे मु करनेके लये वयं ही
ब धन वीकार कर लेते ह।
५. भगवान्ने अपने म यभागम ब धन वीकार करके यह सू चत कया क मुझम
त व से ब धन है ही नह ; य क जो व तु आगे-पीछे , ऊपर-नीचे नह होती, केवल
बीचम भासती है, वह झूठ होती है। इसी कार यह ब धन भी झूठा है।
६. भगवान् कसीक श , साधन या साम ीसे नह बँधते। यशोदाजीके हाथ
यामसु दरको न बँधते दे खकर पास-पड़ोसक वा लन इक हो गय और कहने लग —
यशोदाजी! लालाक कमर तो मु भरक ही है और छोट -सी क कणी इसम न-झुन कर
रही है। अब यह इतनी र सय से नह बँधता तो जान पड़ता है क वधाताने इसके ललाटम
ब धन लखा ही नह है। इस लये अब तुम यह उ ोग छोड़ दो।
यशोदा मैयाने कहा—चाहे स या हो जाय और गाँवभरक र सी य न इक करनी
पड़े, पर म तो इसे बाँधकर ही छोडँगी। यशोदाजीका यह हठ दे खकर भगवान्ने अपना हठ
छोड़ दया; य क जहाँ भगवान् और भ के हठम वरोध होता है, वहाँ भ का ही हठ पूरा
होता है। भगवान् बँधते ह तब, जब भ क थकान दे खकर कृपापरवश हो जाते ह। भ के
म और भगवान्क कृपाक कमी ही दो अंगुलक कमी है। अथवा जब भ अहंकार करता
है क म भगवान्को बाँध लूँगा, तब वह उनसे एक अंगुल र पड़ जाता है और भ क
नकल करनेवाले भगवान् भी एक अंगुल र हो जाते ह। जब यशोदा माता थक गय , उनका
शरीर पसीनेसे लथपथ हो गया, तब भगवान्क सवश च व तनी परम भा वती भगवती
कृपा-श ने भगवान्के दयको माखनके समान वत कर दया और वयं कट होकर
उसने भगवान्क स य-संक पतता और वभुताको अ त हत कर दया। इसीसे भगवान् बँध
गये।
* य प भगवान् वयं परमे र ह, तथा प ेमपरवश होकर बँध जाना परम
चम कारकारी होनेके कारण भगवान्का भूषण ही है, षण नह ।
आ माराम होनेपर भी भूख लगना, पूणकाम होनेपर भी अतृ त रहना, शु स व व प
होनेपर भी ोध करना, वारा य-ल मीसे यु होनेपर भी चोरी करना, महाकाल यम
आ दको भय दे नेवाले होनेपर भी डरना और भागना, मनसे भी ती ग तवाले होनेपर भी
माताके हाथ पकड़ा जाना, आन दमय होनेपर भी ःखी होना, रोना, सव ापक होनेपर भी
बँध जाना—यह सब भगवान्क वाभा वक भ व यता है। जो लोग भगवान्को नह जानते
ह, उनके लये तो इसका कुछ उपयोग नह है, पर तु जो ीकृ णको भगवान्के पम
पहचानते ह, उनके लये यह अ य त चम कारी व तु है और यह दे खकर—जानकर उनका
दय वत हो जाता है, भ ेमसे सराबोर हो जाता है। अहो! व े र भु अपने भ के
हाथ ऊखलम बँधे ए ह।
† इस ोकम तीन नकार का अ वय ‘ले भरे’ याके साथ करना चा हये। न पा सके,
न पा सके, न पा सके।
‡ ानी पु ष भी भ कर तो उ ह इन सगुण भगवान्क ा त हो सकती है, पर तु
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बड़ी क ठनाईसे। ऊखल-वँधे भगवान् सगुण ह, वे नगुण ेमीको कैसे मलगे?
वयं बँधकर भी ब धनम पड़े ए य क मु क च ता करना, स पु षके सवथा
यो य है।
जब यशोदा माताक ीकृ णसे हटकर सरेपर पड़ती है, तब वे भी कसी सरेको
दे खने लगते ह और ऐसा ऊधम मचाते ह क सबक उनक ओर खच आये। दे खये,
पूतना, शकटासुर, तृणावत आ दका संग।

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अथ दशमोऽ यायः
यमलाजुनका उ ार
राजोवाच
क यतां भगव ेत योः शाप य कारणम् ।
य द् वग हतं कम येन वा दे वष तमः ।।१
ीशुक उवाच
यानुचरौ भू वा सु तौ धनदा मजौ ।
कैलासोपवने र ये म दा क यां मदो कटौ ।।२

वा ण म दरां पी वा मदाघू णतलोचनौ ।


ीजनैरनुगाय ेरतुः पु पते वने ।।३

अ तः व य गंगायाम भोजवनरा ज न ।
च डतुयुव त भगजा वव करेणु भः ।।४
राजा परी त्ने पूछा—भगवन्! आप कृपया यह बतलाइये क नलकूबर और
म ण ीवको शाप य मला। उ ह ने ऐसा कौन-सा न दत कम कया था, जसके कारण
परम शा त दे व ष नारदजीको भी ोध आ गया? ।।१।।
ीशुकदे वजीने कहा—परी त्! नलकूबर और म ण ीव—ये दोन एक तो धना य
कुबेरके लाड़ले लड़के थे और सरे इनक गनती हो गयी भगवान्के अनुचर म। इससे
उनका घम ड बढ़ गया। एक दन वे दोन म दा कनीके तटपर कैलासके रमणीय उपवनम
वा णी म दरा पीकर मदो म हो गये थे। नशेके कारण उनक आँख घूम रही थ । ब त-सी
याँ उनके साथ गा-बजा रही थ और वे पु प से लदे ए वनम उनके साथ वहार कर रहे
थे ।।२-३।।
उस समय गंगाजीम पाँत-के-पाँत कमल खले ए थे। वे य के साथ जलके भीतर
घुस गये और जैसे हा थय का जोड़ा ह थ नय के साथ जल डा कर रहा हो, वैसे ही वे उन
युव तय के साथ तरह-तरहक डा करने लगे ।।४।।

य छया च दे व षभगवां त कौरव ।


अप य ारदो दे वौ ीबाणौ समबु यत ।।५

तं ् वा ी डता दे ो वव ाः शापशं कताः ।


वासां स पयधुः शी ं वव ौ नैव गु कौ ।।६
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तौ ् वा म दराम ौ ीमदा धौ सुरा मजौ ।
तयोरनु हाथाय शापं दा य दं जगौ ।।७
नारद उवाच
न यो जुषतो जो यान् बु ंशो रजोगुणः ।
ीमदादा भजा या दय ी ूतमासवः ।।८

ह य ते पशवो य नदयैर जता म भः ।


म यमानै रमं दे हमजरामृ यु न रम् ।।९

दे वसं तम य ते कृ म वड् भ मसं तम् ।


भूत ुक् त कृते वाथ क वेद नरयो यतः ।।१०
परी त्! संयोगवश उधरसे परम समथ दे व ष नारदजी आ नकले। उ ह ने उन य -
युवक को दे खा और समझ लया क ये इस समय मतवाले हो रहे ह ।।५।।
दे व ष नारदको दे खकर व हीन अ सराएँ लजा गय । शापके डरसे उ ह ने तो अपने-
अपने कपड़े झटपट पहन लये, पर तु इन य ने कपड़े नह पहने ।।६।।
जब दे व ष नारदजीने दे खा क ये दे वता के पु होकर ीमदसे अ धे और म दरापान
करके उ म हो रहे ह, तब उ ह ने उनपर अनु ह करनेके लये शाप दे ते ए यह कहा
—* ।।७।।
नारदजीने कहा—जो लोग अपने य वषय का सेवन करते ह, उनक बु को सबसे
बढ़कर न करनेवाला है ीमद—धन-स प का नशा। हसा आ द रजोगुणी कम और
कुलीनता आ दका अ भमान भी उससे बढ़कर बु ंशक नह है; य क ीमदके साथ-
साथ तो ी, जूआ और म दरा भी रहती है ।।८।।
ऐ यमद और ीमदसे अंधे होकर अपनी इ य के वशम रहनेवाले ू र पु ष अपने
नाशवान् शरीरको तो अजर-अमर मान बैठते ह और अपने ही जैसे शरीरवाले पशु क
ह या करते ह ।।९।।
जस शरीरको ‘भूदेव’, ‘नरदे व’, ‘दे व’ आ द नाम से पुकारते ह—उसक अ तम या
ग त होगी? उसम क ड़े पड़ जायँगे, प ी खाकर उसे व ा बना दगे या वह जलकर राखका
ढे र बन जायगा। उसी शरीरके लये ा णय से ोह करनेम मनु य अपना कौन-सा वाथ
समझता है? ऐसा करनेसे तो उसे नरकक ही ा त होगी ।।१०।।

दे हः कम दातुः वं नषे ु मातुरेव च ।


मातुः पतुवा ब लनः े तुर नेः शुनोऽ प वा ।।११

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एवं साधारणं दे हम भवा ययम् ।
को व ाना मसात् कृ वा ह त ज तूनृतेऽसतः ।।१२

असतः ीमदा ध य दा र यं परम नम् ।


आ मौप येन भूता न द र ः परमी ते ।।१३

यथा क टक व ांगो ज तोन छ त तां थाम् ।


जीवसा यं गतो ल ै न तथा व क टकः ।।१४

द र ो नरहं त भो मु ः सवमदै रह ।
कृ ं य छयाऽऽ ो त त त य परं तपः ।।१५

न यं ु ामदे ह य द र या कां णः ।
इ या यनुशु य त हसा प व नवतते ।।१६
बतलाओ तो सही, यह शरीर कसक स प है? अ दे कर पालनेवालेक है या
गभाधान करानेवाले पताक ? यह शरीर उसे नौ महीने पेटम रखनेवाली माताका है अथवा
माताको भी पैदा करनेवाले नानाका? जो बलवान् पु ष बलपूवक इससे काम करा लेता है,
उसका है अथवा दाम दे कर खरीद लेनेवालेका? चताक जस धधकती आगम यह जल
जायगा, उसका है अथवा जो कु े- यार इसको चीथ-चीथकर खा जानेक आशा लगाये बैठे
ह, उनका? ।।११।।
यह शरीर एक साधारण-सी व तु है। कृ तसे पैदा होता है और उसीम समा जाता है।
ऐसी थ तम मूख पशु के सवा और ऐसा कौन बु मान् है जो इसको अपना आ मा
मानकर सर को क प ँचायेगा, उनके ाण लेगा ।।१२।।
जो ीमदसे अंधे हो रहे ह, उनक आँख म यो त डालनेके लये द र ता ही सबसे
बड़ा अंजन है; य क द र यह दे ख सकता है क सरे ाणी भी मेरे ही जैसे ह ।।१३।।
जसके शरीरम एक बार काँटा गड़ जाता है, वह नह चाहता क कसी भी ाणीको
काँटा गड़नेक पीड़ा सहनी पड़े; य क उस पीड़ा और उसके ारा होनेवाले वकार से वह
समझता है क सरेको भी वैसी ही पीड़ा होती है। पर तु जसे कभी काँटा गड़ा ही नह , वह
उसक पीड़ाका अनुमान नह कर सकता ।।१४।।
द र म घमंड और हेकड़ी नह होती; वह सब तरहके मद से बचा रहता है। ब क
दै ववश उसे जो क उठाना पड़ता है, वह उसके लये एक ब त बड़ी तप या भी है ।।१५।।
जसे त दन भोजनके लये अ जुटाना पड़ता है, भूखसे जसका शरीर बला-पतला
हो गया है, उस द र क इ याँ भी अ धक वषय नह भोगना चाहत , सूख जाती ह और
फर वह अपने भोग के लये सरे ा णय को सताता नह —उनक हसा नह

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करता ।।१६।।

द र यैव यु य ते साधवः समद शनः ।


स ः णो त तं तष तत आराद् वशु य त ।।१७

साधूनां सम च ानां मुकु दचरणै षणाम् ।


उपे यैः क धन त भैरस रसदा यैः ।।१८

तदहं म योमा ा वा या ीमदा धयोः ।


तमोमदं ह र या म ैणयोर जता मनोः ।।१९

य दमौ लोकपाल य पु ौ भू वा तमः लुतौ ।


न ववाससमा मानं वजानीतः सु मदौ ।।२०

अतोऽहतः थावरतां यातां नैवं यथा पुनः ।


मृ तः या म सादे न त ा प मदनु हात् ।।२१

वासुदेव य सा यं ल वा द शर छते ।
वृ े वल कतां भूयो ल धभ भ व यतः ।।२२
ीशुक उवाच
एवमु वा स दे व षगतो नारायणा मम् ।
नलकूबरम ण ीवावासतुयमलाजुनौ ।।२३
य प साधु पु ष समदश होते ह, फर भी उनका समागम द र के लये ही सुलभ है;
य क उसके भोग तो पहलेसे ही छू टे ए ह। अब संत के संगसे उसक लालसा-तृ णा भी
मट जाती है और शी ही उसका अ तःकरण शु हो जाता है* ।।१७।। जन महा मा के
च म सबके लये समता है, जो केवल भगवान्के चरणार व द का मकर द-रस पीनेके लये
सदा उ सुक रहते ह, उ ह गुण के खजाने अथवा राचा रय क जी वका चलानेवाले और
धनके मदसे मतवाले क या आव यकता है? वे तो उनक उपे ाके ही पा ह† ।।१८।।
ये दोन य वा णी म दराका पान करके मतवाले और ीमदसे अंधे हो रहे ह। अपनी
इ य के अधीन रहनेवाले इन ी-ल पट य का अ ानज नत मद म चूर-चूर कर
ँ गा ।।१९।। दे खो तो सही, कतना अनथ है क ये लोकपाल कुबेरके पु होनेपर भी
मदो म होकर अचेत हो रहे ह और इनको इस बातका भी पता नह है क हम बलकुल
नंग-धड़ंग ह ।।२०।। इस लये ये दोन अब वृ यो नम जानेके यो य ह। ऐसा होनेसे इ ह फर
इस कारका अ भमान न होगा। वृ यो नम जानेपर भी मेरी कृपासे इ ह भगवान्क मृ त

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बनी रहेगी और मेरे अनु हसे दे वता के सौ वष बीतनेपर इ ह भगवान् ीकृ णका सा य
ा त होगा; और फर भगवान्के चरण म परम ेम ा त करके ये अपने लोकम चले
आयगे ।।२१-२२।।
ीशुकदे वजी कहते ह—दे व ष नारद इस कार कहकर भगवान् नर-नारायणके
आ मपर चले गये‡। नलकूबर और म ण ीव—ये दोन एक ही साथ अजुन वृ होकर
यमलाजुन नामसे स ए ।।२३।। भगवान् ीकृ णने अपने परम ेमी भ दे व ष
नारदजीक बात स य करनेके लये धीरे-धीरे ऊखल घसीटते ए उस ओर थान कया,
जधर यमलाजुन वृ थे ।।२४।। भगवान्ने सोचा क ‘दे व ष नारद मेरे अ य त यारे ह और
ये दोन भी मेरे भ कुबेरके लड़के ह। इस लये महा मा नारदने जो कुछ कहा है, उसे म
ठ क उसी पम पूरा क ँ गा’* ।।२५।। यह वचार करके भगवान् ीकृ ण दोन वृ के
बीचम घुस गये†। वे तो सरी ओर नकल गये, पर तु ऊखल टे ढ़ा होकर अटक गया ।।२६।।
दामोदरभगवान् ीकृ णक कमरम र सी कसी ई थी। उ ह ने अपने पीछे लुढ़कते ए
ऊखलको य ही त नक जोरसे ख चा, य ही पेड़ क सारी जड़ उखड़ गयी‡। सम त बल-
व मके के भगवान्का त नक-सा जोर लगते ही पेड़ के तने, शाखाएँ, छोट -छोट
डा लयाँ और एक-एक प े काँप उठे और वे दोन बड़े जोरसे तड़तड़ाते ए पृ वीपर गर
पड़े ।।२७।। उन दोन वृ मसे अ नके समान तेज वी दो स पु ष नकले। उनके
चमचमाते ए सौ दयसे दशाएँ दमक उठ । उ ह ने स पूण लोक के वामी भगवान्
ीकृ णके पास आकर उनके चरण म सर रखकर णाम कया और हाथ जोड़कर शु
दयसे वे उनक इस कार तु त करने लगे— ।।२८।।

ऋषेभागवतमु य य स यं कतु वचो ह रः ।


जगाम शनकै त य ा तां यमलाजुनौ ।।२४

दे व षम यतमो य दमौ धनदा मजौ ।


त था साध य या म यद् गीतं त महा मना ।।२५

इ य तरेणाजुनयोः कृ ण तु यमयोययौ ।
आ म नवशमा ेण तय गतमुलूखलम् ।।२६

बालेन न कषयता वगुलूखलं तद्


दामोदरेण तरसो क लताङ् ब धौ ।
न पेततुः परम व मता तवेप-
क ध वाल वटपौ कृतच डश दौ ।।२७

त या परमया ककुभः फुर तौ

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स ावुपे य कुजयो रव जातवेदाः ।
कृ णं ण य शरसा खललोकनाथं
ब ांजली वरजसा वदमूचतुः म ।।२८

कृ ण कृ ण महायो ग वमा ः पु षः परः ।


ा मदं व ं पं ते ा णा व ः ।।२९
उ ह ने कहा—स चदान द व प! सबको अपनी ओर आक षत करनेवाले परम
योगे र ीकृ ण! आप कृ तसे अतीत वयं पु षो म ह। वेद ा ण यह बात जानते ह
क यह और अ स पूण जगत् आपका ही प है ।।२९।। आप ही सम त
ा णय के शरीर, ाण, अ तःकरण और इ य के वामी ह। तथा आप ही सवश मान्
काल, सव ापक एवं अ वनाशी ई र ह ।।३०।। आप ही मह व और वह कृ त ह, जो
अ य त सू म एवं स वगुण, रजोगुण और तमोगुण पा है। आप ही सम त थूल और सू म
शरीर के कम, भाव, धम और स ाको जाननेवाले सबके सा ी परमा मा ह ।।३१।।
वृ य से हण कये जानेवाले कृ तके गुण और वकार के ारा आप पकड़म नह आ
सकते। थूल और सू म शरीरके आवरणसे ढका आ ऐसा कौन-सा पु ष है, जो आपको
जान सके? य क आप तो उन शरीर के पहले भी एकरस व मान थे ।।३२।। सम त
पंचके वधाता भगवान् वासुदेवको हम नम कार करते ह। भो! आपके ारा का शत
होनेवाले गुण से ही आपने अपनी म हमा छपा रखी है। पर व प ीकृ ण! हम आपको
नम कार करते ह ।।३३।। आप ाकृत शरीरसे र हत ह। फर भी जब आप ऐसे परा म
कट करते ह, जो साधारण शरीरधा रय के लये श य नह है और जनसे बढ़कर तो या
जनके समान भी कोई नह कर सकता, तब उनके ारा उन शरीर म आपके अवतार का
पता चल जाता है ।।३४।। भो! आप ही सम त लोक के अ युदय और नः ेयसके लये
इस समय अपनी स पूण श य से अवतीण ए ह। आप सम त अ भलाषा को पूण
करनेवाले ह ।।३५।। परम क याण (सा य) व प! आपको नम कार है। परम मंगल
(साधन) व प! आपको नम कार है। परम शा त, सबके दयम वहार करनेवाले
य वंश शरोम ण ीकृ णको नम कार है ।।३६।। अन त! हम आपके दासानुदास ह। आप
यह वीकार क जये। दे व ष भगवान् नारदके परम अनु हसे ही हम अपरा धय को आपका
दशन ा त आ है ।।३७।। भो! हमारी वाणी आपके मंगलमय गुण का वणन करती रहे।
हमारे कान आपक रसमयी कथाम लगे रह। हमारे हाथ आपक सेवाम और मन आपके
चरण-कमल क मृ तम रम जायँ। यह स पूण जगत् आपका नवास- थान है। हमारा
म तक सबके सामने झुका रहे। संत आपके य शरीर ह। हमारी आँख उनके दशन करती
रह ।।३८।।

वमेकः सवभूतानां दे हा वा मे ये रः ।
वमेव कालो भगवान् व णुर य ई रः ।।३०
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वं महान् कृ तः सू मा रजःस वतमोमयी ।
वमेव पु षोऽ य ः सव े वकार वत् ।।३१

गृ माणै वम ा ो वकारैः ाकृतैगुणैः ।


को वहाह त व ातुं ा स ं गुणसंवृतः ।।३२

त मै तु यं भगवते वासुदेवाय वेधसे ।


आ म ोतगुणै छ म ह ने णे नमः ।।३३

य यावतारा ाय ते शरीरे वशरी रणः ।


तै तैरतु या तशयैव यद ह वसंगतैः ।।३४

स भवान् सवलोक य भवाय वभवाय च ।


अवतीण ऽशभागेन सा तं प तरा शषाम् ।।३५

नमः परमक याण नमः परममंगल ।


वासुदेवाय शा ताय य नां पतये नमः ।।३६

अनुजानी ह नौ भूमं तवानुचर ककरौ ।


दशनं नौ भगवत ऋषेरासीदनु हात् ।।३७

वाणी गुणानुकथने वणौ कथायां


ह तौ च कमसु मन तव पादयोनः ।
मृ यां शर तव नवासजग णामे
ः सतां दशनेऽ तु भव नूनाम् ।।३८
ीशुक उवाच
इ थं संक तत ता यां भगवान् गोकुले रः ।
दा ना चोलूखले ब ः हस ाह गु कौ ।।३९
ीभगवानुवाच
ातं मम पुरैवैत षणा क णा मना ।
य मदा धयोवा भ व ंशोऽनु हः कृतः ।।४०

साधूनां सम च ानां सुतरां म कृता मनाम् ।


दशना ो भवेद ् ब धः पुंसोऽ णोः स वतुयथा ।।४१
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तद् ग छतं म परमौ नलकूबर सादनम् ।
संजातो म य भावो वामी सतः परमोऽभवः ।।४२
ीशुक उवाच
इ यु ौ तौ प र य ण य च पुनः पुनः ।
ब ोलूखलमाम य ज मतु दशमु राम् ।।४३
ीशुकदे वजी कहते ह—सौ दय-माधुय न ध गोकुले र ीकृ णने नलकूबर और
म ण ीवके इस कार तु त करनेपर र सीसे ऊखलम बँधे-बँधे ही हँसते ए* उनसे कहा
— ।।३९।।
ीभगवान्ने कहा—तुमलोग ीमदसे अंधे हो रहे थे। म पहलेसे ही यह बात जानता
था क परम का णक दे व ष नारदने शाप दे कर तु हारा ऐ य न कर दया तथा इस कार
तु हारे ऊपर कृपा क ।।४०।।
जनक बु समद शनी है और दय पूण- पसे मेरे त सम पत है, उन साधु पु ष के
दशनसे ब धन होना ठ क वैसे ही स भव नह है, जैसे सूय दय होनेपर मनु यके ने के सामने
अ धकारका होना ।।४१।।
इस लये नलकूबर और म ण ीव! तुमलोग मेरे परायण होकर अपने-अपने घर जाओ।
तुमलोग को संसारच से छु ड़ानेवाले अन य भ भावक , जो तु ह अभी है, ा त हो गयी
है ।।४२।।
ीशुकदे वजी कहते ह—जब भगवान्ने इस कार कहा, तब उन दोन ने उनक
प र मा क और बार-बार णाम कया। इसके बाद ऊखलम बँधे ए सव रक आ ा
ा त करके उन लोग ने उ र दशाक या ा क † ।।४३।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध नारदशापो नाम
दशमोऽ यायः ।।१०।।

* ये अपने भ कुबेरके पु ह, इस लये इनका अजुन नाम है। ये दे व ष नारदके ारा


पूत कये जा चुके ह, इस लये भगवान्ने उनक ओर दे खा।
जसे पहले भ क ा त हो जाती है, उसपर कृपा करनेके लये वयं बँधकर भी
भगवान् जाते ह।
* दे व ष नारदके शाप दे नेम दो हेतु थे—एक तो अनु ह—उनके मदका नाश करना और

सरा अथ— ीकृ ण- ा त।

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ऐसा तीत होता है क कालदश दे व ष नारदने अपनी ान से यह जान लया क
इनपर भगवान्का अनु ह होनेवाला है। इसीसे उ ह भगवान्का भावी कृपापा समझकर ही
उनके साथ छे ड़-छाड़ क ।
* धनी पु षम तीन दोष होते ह—धन, धनका अ भमान और धनक तृ णा। द र

पु षम पहले दो नह होते, केवल तीसरा ही दोष रहता है। इस लये स पु ष के संगसे धनक
तृ णा मट जानेपर ध नय क अपे ा उसका शी क याण हो जाता है।
† धन वयं एक दोष है। सातव क धम कहा है क जतनेसे पेट भर जाय, उससे
अ धकको अपना माननेवाला चोर है और द डका पा है—‘स तेनो द डमह त।’
भगवान् भी कहते ह— जसपर म अनु ह करता ँ, उसका धन छ न लेता ँ। इसीसे स पु ष
ायः ध नय क उपे ा करते ह।
‡ १. शाप वरदानसे तप या ीण होती है। नलकूबर-म ण ीवको शाप दे नेके प ात् नर-
नारायण-आ मक या ा करनेका यह अ भ ाय है क फरसे तपःसंचय कर लया जाय।
२. मने य पर जो अनु ह कया है, वह बना तप याके पूण नह हो सकता है, इस लये।
३. अपने आरा यदे व एवं गु दे व नारायणके स मुख अपना कृ य नवेदन करनेके लये।
* भगवान् ीकृ ण अपनी कृपा से उ ह मु कर सकते थे। पर तु वृ के पास
जानेका कारण यह है क दे व ष नारदने कहा था क तु ह वासुदेवका सा य ा त होगा।
† वृ के बीचम जानेका आशय यह है क भगवान् जसके अ तदशम वेश करते ह,
उसके जीवनम लेशका लेश भी नह रहता। भीतर वेश कये बना दोन का एक साथ
उ ार भी कैसे होता।
‡ जो भगवान्के गुण (भ -व स य आ द स ण या र सी) से बँधा आ है, वह तयक्
ग त (पशु-प ी या टे ढ़ चालवाला) ही य न हो— सर का उ ार कर सकता है।
अपने अनुयायीके ारा कया आ काम जतना यश कर होता है, उतना अपने हाथसे
नह । मानो यही सोचकर अपने पीछे -पीछे चलनेवाले ऊखलके ारा उनका उ ार करवाया।
* सवदा म मु रहता ँ और ब जीव मेरी तु त करते ह। आज म ब ँ और मु
जीव मेरी तु त कर रहे ह। यह वपरीत दशा दे खकर भगवान्को हँसी आ गयी।
† य ने वचार कया क जबतक यह सगुण (र सी) म बँधे ए ह, तभीतक हम इनके
दशन हो रहे ह। नगुणको तो मनम सोचा भी नह जा सकता। इसीसे भगवान्के बँधे रहते ही
वे चले गये।
व य तु उलूखल सवदा ीकृ णगुणशाली एव भूयाः ।
‘ऊखल! तु हारा क याण हो, तुम सदा ीकृ णके गुण से बँधे ही रहो।’—ऐसा
ऊखलको आशीवाद दे कर य वहाँसे चले गये।

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अथैकादशोऽ यायः
गोकुलसे वृ दावन जाना तथा व सासुर और बकासुरका उ ार
ीशुक उवाच
गोपा न दादयः ु वा मयोः पततो रवम् ।
त ाज मुः कु े नघातभयशं कताः ।।१

भू यां नप ततौ त द शुयमलाजुनौ ।


ब मु तद व ाय ल यं पतनकारणम् ।।२

उलूखलं वकष तं दा ना ब ं च बालकम् ।


क येदं कुत आ यमु पात इ त कातराः ।।३

बाला ऊचुरनेने त तय गतमुलूखलम् ।


वकषता म यगेन पु षाव यच म ह ।।४

न ते त ं जगृ न घटे ते त त य तत् ।


बाल यो पाटनं तव ः के चत् स द धचेतसः ।।५

उलूखलं वकष तं दा ना ब ं वमा मजम् ।


वलो य न दः हस दनो वमुमोच ह ।।६

गोपी भः तो भतोऽनृ यद् भगवान् बालवत् व चत् ।


उद्गाय त व च मु ध त शो दा य वत् ।।७
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! वृ के गरनेसे जो भयंकर श द आ था,
उसे न दबाबा आ द गोप ने भी सुना। उनके मनम यह शंका ई क कह बजली तो
नह गरी! सब-के-सब भयभीत होकर वृ के पास आ गये ।।१।। वहाँ प ँचनेपर उन
लोग ने दे खा क दोन अजुनके वृ गरे ए ह। य प वृ गरनेका कारण प था—
वह उनके सामने ही र सीम बँधा आ बालक ऊखल ख च रहा था, पर तु वे समझ न
सके। ‘यह कसका काम है, ऐसी आ यजनक घटना कैसे घट गयी?’—यह सोचकर
वे कातर हो गये, उनक बु मत हो गयी ।।२-३।।
वहाँ कुछ बालक खेल रहे थे। उ ह ने कहा—‘अरे, इसी क हैयाका तो काम है। यह
दोन वृ के बीचमसे होकर नकल रहा था। ऊखल तरछा हो जानेपर सरी ओरसे
इसने उसे ख चा और वृ गर पड़े। हमने तो इनमसे नकलते ए दो पु ष भी दे खे
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ह ।।४।। पर तु गोप ने बालक क बात नह मानी। वे कहने लगे—‘एक न हा-सा ब चा
इतने बड़े वृ को उखाड़ डाले, यह कभी स भव नह है।’ कसी- कसीके च म
ीकृ णक पहलेक लीला का मरण करके स दे ह भी हो आया ।।५।। न दबाबाने
दे खा, उनका ाण से यारा ब चा र सीसे बँधा आ ऊखल घसीटता जा रहा है। वे
हँसने लगे और ज द से जाकर उ ह ने र सीक गाँठ खोल द * ।।६।।
सवश मान् भगवान् कभी-कभी गो पय के फुसलानेसे साधारण बालक के
समान नाचने लगते। कभी भोले-भाले अनजान बालकक तरह गाने लगते। वे उनके
हाथक कठपुतली—उनके सवथा अधीन हो गये ।।७।।

बभ त व चदा तः पीठको मानपा कम् ।


बा ेपं च कु ते वानां च ी तमावहन् ।।८

दशयं त दां लोक आ मनो भृ यव यताम् ।


ज योवाह वै हष भगवान् बालचे तैः ।।९

णी ह भोः फलानी त ु वा स वरम युतः ।


फलाथ धा यमादाय ययौ सवफल दः ।।१०

फल व यणी त य युतधा यं कर यम् ।


फलैरपूरयद् र नैः फलभा डमपू र च ।।११

स र ीरगतं कृ णं भ नाजुनमथा यत् ।


रामं च रो हणी दे वी ड तं बालकैभृशम् ।।१२

नोपेयातां यदाऽऽ तौ डासंगेन पु कौ ।


यशोदां ेषयामास रो हणी पु व सलाम् ।।१३

ड तं सा सुतं बालैर तवेलं सहा जम् ।


यशोदाजोहवीत् कृ णं पु नेह नुत तनी ।।१४

कृ ण कृ णार व दा तात ए ह तनं पब ।


अलं वहारैः ु ा तः डा ा तोऽ स पु क ।।१५

हे रामाग छ ताताशु सानुजः कुलन दन ।


ातरेव कृताहार तद् भवान् भो ु मह त ।।१६
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वे कभी उनक आ ासे पीढ़ा ले आते, तो कभी सेरी आ द तौलनेके बटखरे उठा
लाते। कभी खड़ाऊँ ले आते, तो कभी अपने ेमी भ को आन दत करनेके लये
पहलवान क भाँ त ताल ठ कने लगते ।।८।। इस कार सवश मान् भगवान् अपनी
बाल-लीला से जवा सय को आन दत करते और संसारम जो लोग उनके रह यको
जानने-वाले ह, उनको यह दखलाते क म अपने सेवक के वशम ँ ।।९।।
एक दन कोई फल बेचनेवाली आकर पुकार उठ —‘फल लो फल! यह सुनते ही
सम त कम और उपासना के फल दे नेवाले भगवान् अ युत फल खरीदनेके लये
अपनी छोट -सी अँजुलीम अनाज लेकर दौड़ पड़े ।।१०।। उनक अँजु लमसे अनाज
तो रा तेम ही बखर गया, पर फल बेचनेवालीने उनके दोन हाथ फलसे भर दये। इधर
भगवान्ने भी उसक फल रखनेवाली टोकरी र न से भर द ।।११।।
तदन तर एक दन यमलाजुन वृ को तोड़नेवाले ीकृ ण और बलराम बालक के
साथ खेलते-खेलते यमुनातटपर चले गये और खेलम ही रम गये, तब रो हणीदे वीने उ ह
पुकारा ‘ओ कृ ण! ओ बलराम! ज द आओ’ ।।१२।। पर तु रो हणीके पुकारनेपर भी
वे आये नह ; य क उनका मन खेलम लग गया था। जब बुलानेपर भी वे दोन बालक
नह आये, तब रो हणीजीने वा स य नेहमयी यशोदाजीको भेजा ।।१३।। ीकृ ण और
बलराम वालबालक के साथ ब त दे रसे खेल रहे थे, यशोदाजीने जाकर उ ह पुकारा।
उस समय पु के त वा स य नेहके कारण उनके तन मसे ध चुचुआ रहा
था ।।१४।। वे जोर-जोरसे पुकारने लग —‘मेरे यारे क हैया! ओ कृ ण! कमलनयन!
यामसु दर! बेटा! आओ, अपनी माका ध पी लो। खेलते-खेलते थक गये हो बेटा!
अब बस करो। दे खो तो सही, तुम भूखसे बले हो रहे हो ।।१५।। मेरे यारे बेटा राम!
तुम तो समूचे कुलको आन द दे नेवाले हो। अपने छोटे भाईको लेकर ज द से आ जाओ
तो! दे खो, भाई! आज तुमने ब त सबेरे कलेऊ कया था। अब तो तु ह कुछ खाना
चा हये ।।१६।। बेटा बलराम! जराज भोजन करनेके लये बैठ गये ह; पर तु अभीतक
तु हारी बाट दे ख रहे ह। आओ, अब हम आन दत करो। बालको! अब तुमलोग भी
अपने-अपने घर जाओ ।।१७।। बेटा! दे खो तो सही, तु हारा एक-एक अंग धूलसे
लथपथ हो रहा है। आओ, ज द से नान कर लो। आज तु हारा ज म न है। प व
होकर ा ण को गोदान करो ।।१८।। दे खो-दे खो! तु हारे सा थय को उनक माता ने
नहला-धुलाकर, म ज-प छकर कैसे सु दर-सु दर गहने पहना दये ह। अब तुम भी
नहा-धोकर, खा-पीकर, पहन-ओढ़कर तब खेलना’ ।।१९।। परी त्! माता यशोदाका
स पूण मन- ाण ेम-ब धनसे बँधा आ था। वे चराचर जगत्के शरोम ण भगवान्को
अपना पु समझत और इस कार कहकर एक हाथसे बलराम तथा सरे हाथसे
ीकृ णको पकड़कर अपने घर ले आय । इसके बाद उ ह ने पु के मंगलके लये जो
कुछ करना था, वह बड़े ेमसे कया ।।२०।।

ती ते वां दाशाह भो यमाणो जा धपः ।

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ए ावयोः यं धे ह वगृहान् यात बालकाः ।।१७

धू लधूस रतांग वं पु म जनमावह ।


ज म म भवतो व े यो दे ह गाः शु चः ।।१८

प य प य वय यां ते मातृमृ ान् वलंकृतान् ।


वं च नातः कृताहारो वहर व वलंकृतः ।।१९

इ थं यशोदा तमशेषशेखरं
म वा सुतं नेह नब धीनृप ।
ह ते गृही वा सहरामम युतं
नी वा ववाटं कृतव यथोदयम् ।।२०

गोपवृ ा महो पाताननुभूय बृह ने ।


न दादयः समाग य जकायमम यन् ।।२१

त ोपन दनामाऽऽह गोपो ानवयोऽ धकः ।


दे शकालाथत व ः यकृद् रामकृ णयोः ।।२२

उ थात मतोऽ मा भग कुल य हतै ष भः ।


आया य महो पाता बालानां नाशहेतवः ।।२३

मु ः कथं चद् रा या बाल या बालको सौ ।


हरेरनु हा ूनमन ोप र नापतत् ।।२४
जब न दबाबा आ द बड़े-बूढ़े गोप ने दे खा क महावनम तो बड़े-बड़े उ पात होने
लगे ह, तब वे लोग इक े होकर ‘अब जवा सय को या करना चा हये’—इस
वषयपर वचार करने लगे ।।२१।। उनमसे एक गोपका नाम था उपन द। वे अव थाम
तो बड़े थे ही, ानम भी बड़े थे। उ ह इस बातका पता था क कस समय कस
थानपर कस व तुसे कैसा वहार करना चा हये। साथ ही वे यह भी चाहते थे क
राम और याम सुखी रह, उनपर कोई वप न आवे। उ ह ने कहा— ।।२२।।
‘भाइयो! अब यहाँ ऐसे बड़े-बड़े उ पात होने लगे ह, जो ब च के लये तो ब त ही
अ न कारी ह। इस लये य द हमलोग गोकुल और गोकुलवा सय का भला चाहते ह, तो
हम यहाँसे अपना डेरा-डंडा उठाकर कूच कर दे ना चा हये ।। २३ ।। दे खो, यह सामने
बैठा आ न दरायका लाड़ला सबसे पहले तो ब च के लये काल व पणी ह यारी
पूतनाके चंगुलसे कसी कार छू टा। इसके बाद भगवान्क सरी कृपा यह ई क

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इसके ऊपर उतना बड़ा छकड़ा गरते गरते बचा ।।२४।। बवंडर पधारी दै यने तो इसे
आकाशम ले जाकर बड़ी भारी वप (मृ युके मुख) म ही डाल दया था, पर तु वहाँसे
जब वह च ानपर गरा, तब भी हमारे कुलके दे वे र ने ही इस बालकक र ा
क ।।२५।। यमलाजुन वृ के गरनेके समय उनके बीचम आकर भी यह या और कोई
बालक न मरा। इससे भी यही समझना चा हये क भगवान्ने हमारी र ा क ।।२६।।
इस लये जबतक कोई ब त बड़ा अ न कारी अ र हम और हमारे जको न न कर
दे , तबतक ही हमलोग अपने ब च को लेकर अनुचर के साथ यहाँसे अ य चले
चल ।।२७।। ‘वृ दावन’ नामका एक वन है। उसम छोटे -छोटे और भी ब त-से नये-नये
हरे-भरे वन ह। वहाँ बड़ा ही प व पवत, घास और हरी-भरी लता-वन प तयाँ ह।
हमारे पशु के लये तो वह ब त ही हतकारी है। गोप, गोपी और गाय के लये वह
केवल सु वधाका ही नह , सेवन करनेयो य थान है ।।२८।। सो य द तुम सब लोग को
यह बात जँचती हो तो आज ही हमलोग वहँके लये कूच कर द। दे र न कर, गाड़ी-
छकड़े जोत और पहले गाय को, जो हमारी एकमा स प ह, वहाँ भेज द’ ।।२९।।

च वातेन नीतोऽयं दै येन वपदं वयत् ।


शलायां प तत त प र ातः सुरे रैः ।।२५

य येत मयोर तरं ा य बालकः ।


असाव यतमो वा प तद य युतर णम् ।।२६

यावदौ पा तकोऽ र ो जं ना भभवे दतः ।


तावद् बालानुपादाय या यामोऽ य सानुगाः ।।२७

वनं वृ दावनं नाम पश ं नवकाननम् ।


गोपगोपीगवां से ं पु या तृणवी धम् ।।२८

त ा ैव या यामः शकटान् युङ् मा चरम् ।


गोधना य तो या तु भवतां य द रोचते ।।२९

त छ वैक धयो गोपाः साधु सा व त वा दनः ।


जान् वान् वान् समायु य ययू ढप र छदाः ।।३०

वृ ान् बालान् यो राजन् सव पकरणा न च ।


अन वारो य गोपाला य ा आ शरासनाः ।।३१

गोधना न पुर कृ य शृंगा यापूय सवतः ।


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तूयघोषेण महता ययुः सहपुरो हताः ।।३२

गो यो ढरथा नू नकुचकुंकुमका तयः ।


कृ णलीला जगुः ीता न कक ः सुवाससः ।।३३
उपन दक बात सुनकर सभी गोप ने एक वरसे कहा—‘ब त ठ क, ब त ठ क।’
इस वषयम कसीका भी मतभेद न था। सब लोग ने अपनी झुंड-क -झुंड गाय इक
क और छकड़ पर घरक सब साम ी लादकर वृ दावनक या ा क ।।३०।। परी त्!
वाल ने बूढ़ , ब च , य और सब साम य को छकड़ पर चढ़ा दया और वयं
उनके पीछे -पीछे धनुष-बाण लेकर बड़ी सावधानीसे चलने लगे ।।३१।। उ ह ने गौ और
बछड़ को तो सबसे आगे कर लया और उनके पीछे -पीछे सगी और तुरही जोर-जोरसे
बजाते ए चले। उनके साथ ही-साथ पुरो हतलोग भी चल रहे थे ।।३२।। गो पयाँ
अपने-अपने व ः थलपर नयी केसर लगाकर, सु दर-सु दर व पहनकर, गलेम
सोनेके हार धारण कये ए रथ पर सवार थ और बड़े आन दसे भगवान् ीकृ णक
लीला के गीत गाती जाती थ ।।३३।। यशोदारानी और रो हणीजी भी वैसे ही सज-
धजकर अपने-अपने यारे पु ीकृ ण तथा बलरामके साथ एक छकड़ेपर
शोभायमान हो रही थ । वे अपने दोन बालक क तोतली बोली सुन-सुनकर भी
अघाती न थ , और-और सुनना चाहती थ ।।३४।। वृ दावन बड़ा ही सु दर वन है। चाहे
कोई भी ऋतु हो, वहाँ सुख-ही-सुख है। उसम वेश करके वाल ने अपने छकड़ को
अ च ाकार म डल बाँधकर खड़ा कर दया और अपने गोधनके रहनेयो य थान
बना लया ।।३५।। परी त्! वृ दावनका हरा-भरा वन, अ य त मनोहर गोवधन पवत
और यमुना नद के सु दर-सु दर पु लन को दे खकर भगवान् ीकृ ण और बलरामजीके
दयम उ म ी तका उदय आ ।।३६।।

तथा यशोदारो ह यावेकं शकटमा थते ।


रेजतुः कृ णरामा यां त कथा वणो सुके ।।३४

वृ दावनं सं व य सवकालसुखावहम् ।
त च ु जावासं शकटै रधच वत् ।।३५

वृ दावनं गोवधनं यमुनापु लना न च ।


वी यासी मा ीती राममाधवयोनृप ।।३६

एवं जौकसां ी त य छ तौ बालचे तैः ।


कलवा यैः वकालेन व सपालौ बभूवतुः ।।३७

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अ व रे जभुवः सह गोपालदारकैः ।
चारयामासतुव सान् नाना डाप र छदौ ।।३८

व चद् वादयतो वेणुं ेपणौः पतः व चत् ।


व चत् पादै ः क कणी भः व चत् कृ मगोवृषैः ।।३९

वृषायमाणौ नद तौ युयुधाते पर परम् ।


अनुकृ य तैज तूं ेरतुः ाकृतौ यथा ।।४०

कदा चद् यमुनातीरे व सां ारयतोः वकैः ।


वय यैः कृ णबलयो जघांसुद य आगमत् ।।४१
राम और याम दोन ही अपनी तोतली बोली और अ य त मधुर बालो चत
लीला से गोकुलक ही तरह वृ दावनम भी जवा सय को आन द दे ते रहे। थोड़े ही
दन म समय आनेपर वे बछड़े चराने लगे ।।३७।। सरे वालबाल के साथ खेलनेके
लये ब त-सी साम ी लेकर वे घरसे नकल पड़ते और गो (गाय के रहनेके थान) के
पास ही अपने बछड़ को चराते ।।३८।। याम और राम कह बाँसुरी बजा रहे ह, तो
कह गुलेल या ढे लवाँससे ढे ले या गो लयाँ फक रहे ह। कसी समय अपने पैर के
घुँघ पर तान छे ड़ रहे ह तो कह बनावट गाय और बैल बनकर खेल रहे ह ।।३९।।
एक ओर दे खये तो साँड़ बन-बनकर हँकड़ते ए आपसम लड़ रहे ह तो सरी ओर
मोर, कोयल, बंदर आ द पशु-प य क बो लयाँ नकाल रहे ह। परी त्! इस कार
सवश मान् भगवान् साधारण बालक के समान खेलते रहते ।।४०।।
एक दनक बात है, याम और बलराम अपने ेमी सखा वालबाल के साथ
यमुनातटपर बछड़े चरा रहे थे। उसी समय उ ह मारनेक नीयतसे एक दै य
आया ।।४१।।

तं व स पणं वी य व सयूथगतं ह रः ।
दशयन् बलदे वाय शनैमु ध इवासदत् ।।४२

गृही वापरपादा यां सहलाङ् गूलम युतः ।


ाम य वा क प था े ा हणोद् गतजी वतम् ।
स क प थैमहाकायः पा यमानैः पपात ह ।।४३

तं वी य व मता बालाः शशंसुः साधु सा व त ।


दे वा प रस तु ा बभूवुः पु पव षणः ।।४४

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तौ व सपालकौ भू वा सवलोकैकपालकौ ।
स ातराशौ गोव सां ारय तौ वचेरतुः ।।४५

वं वं व सकुलं सव पाय य य त एकदा ।


ग वा जलाशया याशं पाय य वा पपुजलम् ।।४६

ते त द शुबाला महास वमव थतम् ।


त सुव न भ ं गरेः शृंग मव युतम् ।।४७

स वै बको नाम महानसुरो बक पधृक् ।


आग य सहसा कृ णं ती णतु डोऽ सद्बली ।।४८

कृ णं महाबक तं ् वा रामादयोऽभकाः ।
बभूबु र याणीव वना ाणं वचेतसः ।।४९

तं तालुमूलं दह तम नवद्
गोपालसूनुं पतरं जगद्गुरोः ।
च छद स ोऽ त षा तं बक-
तु डेन ह तुं पुनर यप त ।।५०
भगवान्ने दे खा क वह बनावट बछड़ेका प धारणकर बछड़ के झुंडम मल गया
है। वे आँख के इशारेसे बलरामजीको दखाते ए धीरे-धीरे उसके पास प ँच गये। उस
समय ऐसा जान पड़ता था, मानो वे दै यको तो पहचानते नह और उस ह े -क े सु दर
बछड़ेपर मु ध हो गये ह ।।४२।। भगवान् ीकृ णने पूँछके साथ उसके दोन पछले पैर
पकड़कर आकाशम घुमाया और मर जानेपर कैथके वृ पर पटक दया। उसका ल बा-
तगड़ा दै यशरीर ब त-से कैथके वृ को गराकर वयं भी गर पड़ा ।।४३।। यह
दे खकर वालबाल के आ यक सीमा न रही। वे ‘वाह-वाह’ करके यारे क हैयाक
शंसा करने लगे। दे वता भी बड़े आन दसे फूल क वषा करने लगे ।।४४।।
परी त्! जो सारे लोक के एकमा र क ह, वे ही याम और बलराम अब
व सपाल (बछड़ के चरवाहे) बने ए ह। वे तड़के ही उठकर कलेवेक साम ी ले लेते
और बछड़ को चराते ए एक वनसे सरे वनम घूमा करते ।।४५।। एक दनक बात है,
सब वालबाल अपने झुंड-के-झुंड बछड़ को पानी पलानेके लये जलाशयके तटपर ले
गये। उ ह ने पहले बछड़ को जल पलाया और फर वयं भी पया ।।४६।।
वालबाल ने दे खा क वहाँ एक ब त बड़ा जीव बैठा आ है। वह ऐसा मालूम पड़ता
था, मानो इ के व से कटकर कोई पहाड़का टु कड़ा गरा आ है ।।४७।। वालबाल
उसे दे खकर डर गये। वह ‘बक’ नामका एक बड़ा भारी असुर था, जो बगुलेका प
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धरके वहाँ आया था। उसक च च बड़ी तीखी थी और वह वयं बड़ा बलवान् था।
उसने झपटकर ीकृ णको नगल लया ।।४८।। जब बलराम आ द बालक ने दे खा क
वह बड़ा भारी बगुला ीकृ णको नगल गया, तब उनक वही ग त ई जो ाण नकल
जानेपर इ य क होती है। वे अचेत हो गये ।।४९।। परी त्! ीकृ ण लोक पतामह
ाके भी पता ह। वे लीलासे ही गोपाल-बालक बने ए ह। जब वे बगुलेके तालुके
नीचे प ँचे, तब वे आगके समान उसका तालु जलाने लगे। अतः उस दै यने ीकृ णके
शरीरपर बना कसी कारका घाव कये ही झटपट उ ह उगल दया और फर बड़े
ोधसे अपनी कठोर च चसे उनपर चोट करनेके लये टू ट पड़ा ।।५०।। कंसका सखा
बकासुर अभी भ व सल भगवान् ीकृ णपर झपट ही रहा था क उ ह ने अपने दोन
हाथ से उसके दोन ठोर पकड़ लये और वालबाल के दे खते-दे खते खेल-ही-खेलम
उसे वैसे ही चीर डाला, जैसे कोई वीरण (गाँड़र, जसक जड़का खस होता है) को चीर
डाले। इससे दे वता को बड़ा आन द आ ।।५१।। सभी दे वता भगवान् ीकृ णपर
न दनवनके बेला, चमेली आ दके फूल बरसाने लगे तथा नगारे, शंख आ द बजाकर एवं
तो के ारा उनको स करने लगे। यह सब दे खकर सब-के-सब वालबाल
आ यच कत हो गये ।।५२।। जब बलराम आ द बालक ने दे खा क ीकृ ण बगुलेके
मुँहसे नकलकर हमारे पास आ गये ह, तब उ ह ऐसा आन द आ, मानो ाण के
संचारसे इ याँ सचेत और आन दत हो गयी ह । सबने भगवान्को अलग-अलग गले
लगाया। इसके बाद अपने-अपने बछड़े हाँककर सब जम आये और वहाँ उ ह ने
घरके लोग से सारी घटना कह सुनायी ।।५३।।

तमापत तं स नगृ तु डयो-


द या बकं कंससखं सतां प तः ।
प य सु बालेषु ददार लीलया
मुदावहो वीरणवद् दवौकसाम् ।।५१

तदा बका र सुरलोकवा सनः


समा करन् न दनम लका द भः ।
समी डरे चानकशंखसं तवै-
तद् वी य गोपालसुता व स मरे ।।५२

मु ं बका या पल य बालका
रामादयः ाण मवै यो गणः ।
थानागतं तं प रर य नवृताः
णीय व सान् जमे य त जगुः ।।५३

ु वा तद् व मता गोपा गो य ा त या ताः ।


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े यागत मवौ सु यादै त तृ षते णाः ।।५४

अहो बता य बाल य बहवो मृ यवोऽभवन् ।


अ यासीद् व यं तेषां कृतं पूव यतो भयम् ।।५५

अथा य भभव येनं नैव ते घोरदशनाः ।


जघांसयैनमासा न य य नौ पतंगवत् ।।५६
परी त्! बकासुरके वधक घटना सुनकर सब-के-सब गोपी-गोप आ यच कत हो
गये। उ ह ऐसा जान पड़ा, जैसे क हैया सा ात् मृ युके मुखसे ही लौटे ह । वे बड़ी
उ सुकता, ेम और आदरसे ीकृ णको नहारने लगे। उनके ने क यास बढ़ती ही
जाती थी, कसी कार उ ह तृ त न होती थी ।।५४।। वे आपसम कहने लगे—‘हाय!
हाय!! यह कतने आ यक बात है। इस बालकको कई बार मृ युके मुँहम जाना पड़ा।
पर तु ज ह ने इसका अ न करना चाहा, उ ह का अ न आ। य क उ ह ने
पहलेसे सर का अ न कया था ।।५५।। यह सब होनेपर भी वे भयंकर असुर इसका
कुछ भी नह बगाड़ पाते। आते ह इसे मार डालनेक नीयतसे, क तु आगपर गरकर
प तग क तरह उलटे वयं वाहा हो जाते ह ।।५६।।

अहो वदां वाचो नास याः स त क ह चत् ।


गग यदाह भगवान वभा व तथैव तत् ।।५७

इ त न दादयो गोपाः कृ णरामकथां मुदा ।


कुव तो रममाणा ना व दन् भववेदनाम् ।।५८

एवं वहारैः कौमारैः कौमारं जहतु जे ।


नलायनैः सेतुब धैमकटो लवना द भः ।।५९
सच है, वे ा महा मा के वचन कभी झूठे नह होते। दे खो न, महा मा
गगाचायने जतनी बात कही थ , सब-क -सब सोलह आने ठ क उतर रही ह’ ।।५७।।
न दबाबा आ द गोपगण इसी कार बड़े आन दसे अपने याम और रामक बात कया
करते। वे उनम इतने त मय रहते क उ ह संसारके ःख-संकट का कुछ पता ही न
चलता ।।५८।। इसी कार याम और बलराम वालबाल के साथ कभी आँख मचौनी
खेलते, तो कभी पुल बाँधते। कभी बंदर क भाँ त उछलते-कूदते, तो कभी और कोई
व च खेल करते। इस कारके बालो चत खेल से उन दोन ने जम अपनी
बा याव था तीत क ।।५९।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध व सबकवधो
नामैकादशोऽ यायः ।।११।।
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* न दबाबा इस लये हँसे क क हैया कह यह सोचकर डर न जाय क जब
माने बाँध दया, तब पता कह आकर पीटने न लग।
माताने बाँधा और पताने छोड़ा। भगवान् ीकृ णक लीलासे यह बात स
ई क उनके व पम ब धन और मु क क पना करनेवाले सरे ही ह। वे वयं
न ब ह, न मु ह।

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अथ ादशोऽ यायः
अघासुरका उ ार
ीशुक उवाच
व चद् वनाशाय मनो दधद् जात्
ातः समु थाय वय यव सपान् ।
बोधय छृ ं गरवेण चा णा
व नगतो व सपुरःसरो ह रः ।।१

तेनैव साकं पृथुकाः सह शः


न धाः सु श वे वषाणवेणवः ।
वान् वान् सह ोप रसं यया वतान्
व सान् पुर कृ य व नययुमुदा ।।२

कृ णव सैरसं यातैयूथीकृ य वव सकान् ।


चारय तोऽभलीला भ वज त त ह ।।३

फल वाल तबकसुमनः प छधातु भः ।


काचगुंजाम ण वणभू षता अ यभूषयन् ।।४
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! एक दन न दन दन यामसु दर वनम ही कलेवा
करनेके वचारसे बड़े तड़के उठ गये और सगी बाजेक मधुर मनोहर व नसे अपने साथी
वालबाल को मनक बात जनाते ए उ ह जगाया और बछड़ को आगे करके वे ज-
म डलसे नकल पड़े ।।१।। ीकृ णके साथ ही उनके ेमी सह वालबाल सु दर छ के,
बत, सगी और बाँसुरी लेकर तथा अपने सह बछड़ को आगे करके बड़ी स तासे
अपने-अपने घर से चल पड़े ।।२।। उ ह ने ीकृ णके अग णत बछड़ म अपने-अपने बछड़े
मला दये और थान- थानपर बालो चत खेल खेलते ए वचरने लगे ।।३।। य प सब-के-
सब वालबाल काँच, घुँघची, म ण और सुवणके गहने पहने ए थे, फर भी उ ह ने
वृ दावनके लाल-पीले-हरे फल से, नयी-नयी क पल से, गु छ से, रंग- बरंगे फूल और
मोरपंख से तथा गे आ द रंगीन धातु से अपनेको सजा लया ।।४।। कोई कसीका छ का
चुरा लेता, तो कोई कसीक बत या बाँसुरी। जब उन व तु के वामीको पता चलता, तब
उ ह लेनेवाला कसी सरेके पास र फक दे ता, सरा तीसरेके और तीसरा और भी र
चौथेके पास। फर वे हँसते ए उ ह लौटा दे ते ।।५।। य द यामसु दर ीकृ ण वनक शोभा
दे खनेके लये कुछ आगे बढ़ जाते, तो ‘पहले म छु ऊँगा, पहले म छु ऊँगा’—इस कार
आपसम होड़ लगाकर सब-के-सब उनक ओर दौड़ पड़ते और उ ह छू -छू कर आन दम न हो
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जाते ।।६।। कोई बाँसुरी बजा रहा है, तो कोई सगी ही फूँक रहा है। कोई-कोई भ र के साथ
गुनगुना रहे ह, तो ब त-से कोयल के वरम वर मलाकर ‘कु -कु ’ कर रहे ह ।।७।। एक
ओर कुछ वालबाल आकाशम उड़ते ए प य क छायाके साथ दौड़ लगा रहे ह, तो सरी
ओर कुछ हंस क चालक नकल करते ए उनके साथ सु दर ग तसे चल रहे ह। कोई
बगुलेके पास उसीके समान आँख मूँदकर बैठ रहे ह, तो कोई मोर को नाचते दे ख उ ह क
तरह नाच रहे ह ।।८।। कोई-कोई बंदर क पूँछ पकड़कर ख च रहे ह, तो सरे उनके साथ
इस पेड़से उस पेड़पर चढ़ रहे ह। कोई-कोई उनके साथ मुँह बना रहे ह, तो सरे उनके साथ
एक डालसे सरी डालपर छलाँग मार रहे ह ।।९।। ब त-से वालबाल तो नद के कछारम
छपका खेल रहे ह और उसम फुदकते ए मेढक के साथ वयं भी फुदक रहे ह। कोई पानीम
अपनी परछा दे खकर उसक हँसी कर रहे ह, तो सरे अपने श दक त व नको ही बुरा-
भला कह रहे ह ।।१०।। भगवान् ीकृ ण ानी संत के लये वयं ान दके मू तमान्
अनुभव ह। दा यभावसे यु भ के लये वे उनके आरा यदे व, परम ऐ यशाली परमे र
ह। और माया-मो हत वषया ध के लये वे केवल एक मनु य-बालक ह। उ ह भगवान्के
साथ वे महान् पु या मा वालबाल तरह-तरहके खेल खेल रहे ह ।।११।। ब त ज म तक
म और क उठाकर ज ह ने अपनी इ य और अ तःकरणको वशम कर लया है, उन
यो गय के लये भी भगवान् ीकृ णके चरणकमल क रज अ ा य है। वही भगवान् वयं
जन जवासी वालबाल क आँख के सामने रहकर सदा खेल खेलते ह, उनके सौभा यक
म हमा इससे अ धक या कही जाय ।।१२।।

मु ण तोऽ यो य श याद न् ातानारा च च पुः ।


त या पुन रा स त पुनद ः ।।५

य द रं गतः कृ णो वनशोभे णाय तम् ।


अहं पूवमहं पूव म त सं पृ य रे मरे ।।६

के चद् वेणून् वादय तो मा तः शृंगा ण केचन ।


के चद् भृ ै ः गाय तः कूज तः को कलैः परे ।।७

व छाया भः धाव तो ग छ तः साधुहंसकैः ।


बकै प वश त नृ य त कला प भः ।।८

वकष तः क शबालानारोह त तै मान् ।


वकुव त तैः साकं लव त पला शषु ।।९

साकं भेकै वलंघ तः स र वस लुताः ।

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वहस तः त छायाः शप त त वनान् ।।१०

इ थं सतां सुखानुभू या
दा यं गतानां परदै वतेन ।
माया तानां नरदारकेण
साकं वज ः कृतपु यपुंजाः ।।११

य पादपांसुब ज मकृ तो
धृता म भय ग भर यल यः ।
स एव यद् वषयः वयं थतः
क व यते द मतो जौकसाम् ।।१२

अथाघनामा यपत महासुर-


तेषां सुख डनवी णा मः ।
न यं यद त नजजी वते सु भः
पीतामृतैर यमरैः ती यते ।।१३

् वाथकान् कृ णमुखानघासुरः
कंसानु श ः स बक बकानुजः ।
अयं तु मे सोदरनाशकृ यो-
योममैनं सबलं ह न ये ।।१४

एते यदा म सु दो तलापः


कृता तदा न समा जौकसः ।
ाणे गते व मसु का नु च ता
जासवः ाणभृतो ह ये ते ।।१५

इत व याजगरं बृहद् वपुः


स योजनायाममहा पीवरम् ।
धृ वा तं ा गुहाननं तदा
प थ शेत सनाशया खलः ।।१६

धराधरो ो जलदो रो ो
दयानना तो ग रशृंगदं ः ।
वा ता तरा यो वतता व ज ः

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प षा नल ासदवे णो णः ।।१७
परी त्! इसी समय अघासुर नामका महान् दै य आ धमका। उससे ीकृ ण और
वालबाल क सुखमयी डा दे खी न गयी। उसके दयम जलन होने लगी। वह इतना
भयंकर था क अमृतपान करके अमर ए दे वता भी उससे अपने जीवनक र ा करनेके
लये च तत रहा करते थे और इस बातक बाट दे खते रहते थे क कसी कारसे इसक
मृ युका अवसर आ जाय ।।१३।। अघासुर पूतना और बकासुरका छोटा भाई तथा कंसका
भेजा आ था। वह ीकृ ण, ीदामा आ द वालबाल को दे खकर मन-ही-मन सोचने लगा
क ‘यही मेरे सगे भाई और ब हनको मारनेवाला है। इस लये आज म इन वालबालाक साथ
इसे मार डालूँगा ।।१४।। जब ये सब मरकर मेरे उन दोन भाई-ब हन के मृततपणक
तलांज ल बन जायँग,े तब जवासी अपने-आप मरे-जैसे हो जायँगे। स तान ही ा णय के
ाण ह। जब ाण ही न रहगे, तब शरीर कैसे रहेगा? इसक मृ युसे जवासी अपने-आप मर
जायँग’े ।।१५।। ऐसा न य करके वह दै य अजगरका प धारण कर मागम लेट गया।
उसका वह अजगर-शरीर एक योजन लंबे बड़े पवतके समान वशाल एवं मोटा था। वह ब त
ही अद्भुत था। उसक नीयत सब बालक को नगल जानेक थी, इस लये उसने गुफाके
समान अपना ब त बड़ा मुँह फाड़ रखा था ।।१६।। उसका नीचेका होठ पृ वीसे और
ऊपरका होठ बादल से लग रहा था। उसके जबड़े क दरा के समान थे और दाढ़ पवतके
शखर-सी जान पड़ती थ । मुँहके भीतर घोर अ धकार था। जीभ एक चौड़ी लाल सड़क-सी
द खती थी। साँस आँधीके समान थी और आँख दावानलके समान दहक रही थ ।।१७।।

् वा तं ता शं सव म वा वृ दावन यम् ।
ा ाजगरतु डेन े ते म लीलया ।।१८

अहो म ा ण गदत स वकूटं पुरः थतम् ।


अ म सं सन ा ालतु डायते न वा ।।१९

स यमककरार मु राहनुवद् घनम् ।


अधराहनुवद् रोध त त छायया णम् ।।२०

त पधते सृ क यां स ास े नगोदरे ।


तुंगशृंगालयोऽ येता त ं ा भ प यत ।।२१

आ तृतायाममाग ऽयं रसनां तगज त ।


एषाम तगतं वा तमेतद य तराननम् ।।२२

दावो णखरवातोऽयं ासवद् भा त प यत ।

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त धस व ग धोऽ य तरा मषग धवत् ।।२३

अ मान् कम सता न व ा-
नयं तथा चेद ् बकवद् वनङ् य त ।
णादनेने त बकायुश मुखं
वी यो स तः करताडनैययुः ।।२४
अघासुरका ऐसा प दे खकर बालक ने समझा क यह भी वृ दावनक कोई शोभा है। वे
कौतुकवश खेल-ही-खेलम उ े ा करने लगे क यह मानो अजगरका खुला आ मुँह
है ।।१८।। कोई कहता—‘ म ो! भला बतलाओ तो, यह जो हमारे सामने कोई जीव-सा बैठा
है, यह हम नगलनेके लये खुले ए कसी अजगरके मुँह-जैसा नह है?’ ।।१९।। सरेने
कहा—‘सचमुच सूयक करण पड़नेसे ये जो बादल लाल-लाल हो गये ह, वे ऐसे मालूम होते
ह मानो ठ क-ठ क इसका ऊपरी होठ ही हो। और उ ह बादल क परछा से यह जो नीचेक
भू म कुछ लाल-लाल द ख रही है, वही इसका नीचेका होठ जान पड़ता है’ ।।२०।। तीसरे
वालबालने कहा—‘हाँ, सच तो है। दे खो तो सही, या ये दाय और बाय ओरक ग र-
क दराएँ अजगरके जबड़ क होड़ नह करत ? और ये ऊँची-ऊँची शखर-पं याँ तो साफ-
साफ इसक दाढ़ मालूम पड़ती ह’ ।।२१।। चौथेने कहा—‘अरे भाई! यह ल बी-चौड़ी सड़क
तो ठ क अजगरक जीभ-सरीखी मालूम पड़ती है और इन ग रशृंग के बीचका अ धकार तो
उसके मुँहके भीतरी भागको भी मात करता है’ ।।२२।। कसी सरे वालबालने कहा
—‘दे खो, दे खो! ऐसा जान पड़ता है क कह इधर जंगलम आग लगी है। इसीसे यह गरम
और तीखी हवा आ रही है। पर तु अजगरक साँसके साथ इसका या ही मेल बैठ गया है।
और उसी आगसे जले ए ा णय क ग ध ऐसी जान पड़ती है, मानो अजगरके पेटम मरे
ए जीव के मांसक ही ग ध हो’ ।।२३।। तब उ ह मसे एकने कहा—‘य द हमलोग इसके
मुँहम घुस जायँ, तो या यह हम नगल जायगा? अजी! यह या नगलेगा। कह ऐसा
करनेक ढठाइ क तो एक णम यह भी बकासुरके समान न हो जायगा। हमारा यह
क हैया इसको छोड़ेगा थोड़े ही।’ इस कार कहते ए वे वालबाल बकासुरको मारनेवाले
ीकृ णका सु दर मुख दे खते और ताली पीट-पीटकर हँसते ए अघासुरके मुँहम घुस
गये ।।२४।। उन अनजान ब च क आपसम क ई मपूण बात सुनकर भगवान् ीकृ णने
सोचा क ‘अरे, इ ह तो स चा सप भी झूठा तीत होता है!’ परी त्! भगवान् ीकृ ण
जान गये क यह रा स है। भला, उनसे या छपा रहता? वे तो सम त ा णय के दयम ही
नवास करते ह। अब उ ह ने यह न य कया क अपने सखा वालबाल को उसके मुँहम
जानेसे बचा ल ।।२५।। भगवान् इस कार सोच ही रहे थे क सब-के-सब वालबाल
बछड़ के साथ उस असुरके पेटम चले गये। पर तु अघासुरने अभी उ ह नगला नह , इसका
कारण यह था क अघासुर अपने भाई बकासुर और ब हन पूतनाके वधक याद करके इस
बातक बाट दे ख रहा था क उनको मारनेवाले ीकृ ण मुँहम आ जायँ, तब सबको एक साथ
ही नगल जाऊँ ।।२६।। भगवान् ीकृ ण सबको अभय दे नेवाले ह। जब उ ह ने दे खा क ये

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बेचारे वालबाल— जनका एकमा र क म ही ँ—मेरे हाथसे नकल गये और जैसे कोई
तनका उड़कर आगम गर पड़े, वैसे ही अपने-आप मृ यु प अघासुरक जठरा नके ास
बन गये, तब दै वक इस व च लीलापर भगवान्को बड़ा व मय आ और उनका दय
दयासे वत हो गया ।।२७।। वे सोचने लगे क ‘अब मुझे या करना चा हये? ऐसा कौन-सा
उपाय है, जससे इस क मृ यु भी हो जाय और इन संत- वभाव भोले-भाले बालक क
ह या भी न हो? ये दोन काम कैसे हो सकते ह?’ परी त्! भगवान् ीकृ ण भूत, भ व य,
वतमान—सबको य दे खते रहते ह। उनके लये यह उपाय जानना कोई क ठन न था। वे
अपना कत न य करके वयं उसके मुँहम घुस गये ।।२८।। उस समय बादल म छपे ए
दे वता भयवश ‘हाय-हाय’ पुकार उठे और अघासुरके हतैषी कंस आ द रा स हष कट
करने लगे ।।२९।।

इ थं मथोऽत यमत भा षतं


ु वा व च ये यमृषा मृषायते ।
र ो व द वा खलभूत थतः
वानां नरो ं भगवान् मनो दधे ।।२५

तावत् व ा वसुरोदरा तरं


परं न गीणाः शशवः सव साः ।
ती माणेन बका रवेशनं
हत वका त मरणेन र सा ।।२६

तान् वी य कृ णः सकलाभय दो
न यनाथान् वकरादव युतान् ।
द नां मृ योजठरा नघासान्
घृणा दतो द कृतेन व मतः ।।२७

कृ यं कम ा य खल य जीवनं
न वा अमीषां च सतां व हसनम् ।
यं कथं या द त सं व च य त-
ा वा वश ु डमशेष घ रः ।।२८

तदा घन छदा दे वा भया ाहे त चु ु शुः ।


ज षुय च कंसा ाः कौणपा वघबा धवाः ।।२९

त छ वा भगवान् कृ ण व यः साभव सकम् ।

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चूण चक ष रा मानं तरसा ववृधे गले ।।३०
अघासुर बछड़ और वालबाल के स हत भगवान् ीकृ णको अपनी डाढ़ से चबाकर
चूर-चूर कर डालना चाहता था। पर तु उसी समय अ वनाशी ीकृ णने दे वता क ‘हाय-
हाय’ सुनकर उसके गलेम अपने शरीरको बड़ी फुत से बढ़ा लया ।।३०।। इसके बाद
भगवान्ने अपने शरीरको इतना बड़ा कर लया क उसका गला ही ँ ध गया। आँख उलट
गय । वह ाकुल होकर ब त ही छटपटाने लगा। साँस ककर सारे शरीरम भर गयी और
अ तम उसके ाण र फोड़कर नकल गये ।।३१।। उसी मागसे ाण के साथ उसक
सारी इ याँ भी शरीरसे बाहर हो गय । उसी समय भगवान् मुकु दने अपनी अमृतमयी
से मरे ए बछड़ और वालबाल को जला दया और उन सबको साथ लेकर वे
अघासुरके मुँहसे बाहर नकल आये ।।३२।। उस अजगरके थूल शरीरसे एक अ य त
अद्भुत और महान् यो त नकली, उस समय उस यो तके काशसे दस दशाएँ व लत
हो उठ । वह थोड़ी दे रतक तो आकाशम थत होकर भगवान्के नकलनेक ती ा करती
रही। जब वे बाहर नकल आये, तब वह सब दे वता के दे खते-दे खते उ ह म समा
गयी ।।३३।। उस समय दे वता ने फूल बरसाकर, अ सरा ने नाचकर, ग धव ने गाकर,
व ाधर ने बाजे बजाकर, ा ण ने तु त-पाठकर और पाषद ने जय-जय-कारके नारे
लगाकर बड़े आन दसे भगवान् ीकृ णका अ भन दन कया। य क भगवान् ीकृ णने
अघासुरको मारकर उन सबका ब त बड़ा काम कया था ।।३४।। उन अद्भुत तु तय ,
सु दर बाज , मंगलमय गीत , जय-जयकार और आन दो सव क मंगल व न -लोकके
पास प ँच गयी। जब ाजीने वह व न सुनी, तब वे ब त ही शी अपने वाहनपर चढ़कर
वहाँ आये और भगवान् ीकृ णक यह म हमा दे खकर आ य च कत हो गये ।।३५।।
परी त्! जब वृ दावनम अजगरका वह चाम सूख गया, तब वह जवा सय के लये ब त
दन तक खेलनेक एक अद्भुत गुफा-सी बना रहा ।।३६।। यह जो भगवान्ने अपने
वालबाल को मृ युके मुखसे बचाया था और अघासुरको मो -दान कया था, वह लीला
भगवान्ने अपनी कुमार अव थाम अथात् पाँचव वषम ही क थी। वालबाल ने उसे उसी
समय दे खा भी था, पर तु पौग ड अव था अथात् छठे वषम अ य त आ यच कत होकर
जम उसका वणन कया ।।३७।।

ततोऽ तकाय य न मा गणो


द्गीण े मत वत ततः ।
पूण ऽ तरंगे पवनो न ो
मूधन् व न पा व नगतो ब हः ।।३१

तेनैव सवषु ब हगतेषु


ाणेषु व सान् सु दः परेतान् ।
ा वयो था य तद वतः पुन-

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व ा मुकु दो भगवान् व नययौ ।।३२

पीना हभोगो थतम तं मह-


यो तः वधा ना वलयद् दशो दश ।
ती य खेऽव थतमीश नगमं
ववेश त मन् मषतां दवौकसाम् ।।३३

ततोऽ त ाः वकृतोऽकृताहणं
पु पैः सुरा अ सरस नतनैः ।
गीतैः सुगा वा धरा वा कैः
तवै व ा जय नः वनैगणाः ।।३४

तद त तो सुवा गी तका-
जया दनैको सवमंगल वनान् ।
ु वा वधा नोऽ यज आगतोऽ चराद्
् वा महीश य जगाम व मयम् ।।३५

राज ाजगरं चम शु कं वृ दावनेऽ तम् ।


जौकसां ब तथं बभूवा डग रम् ।।३६

एतत् कौमारजं कम हरेरा मा हमो णम् ।


मृ योः पौग डके बाला ् वोचु व मता जे ।।३७

नैतद् व च ं मनुजाभमा यनः


परावराणां परम य वेधसः ।
अघोऽ प य पशनधौतपातकः
ापा मसा यं वसतां सु लभम् ।।३८

सकृद् यदं ग तमा तरा हता


मनोमयी भागवत ददौ ग तम् ।
स एव न या मसुखानुभू य भ-
ुद तमायोऽ तगतो ह क पुनः ।।३९
सूत उवाच
इ थं जा यादवदे वद ः
ु वा वरातु रतं व च म् ।
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प छ भूयोऽ प तदे व पु यं
वैयास क य गृहीतचेताः ।।४०
राजोवाच
न् काला तरकृतं त कालीनं कथं भवेत् ।
यत् कौमारे ह रकृतं जगुः पौग डकेऽभकाः ।।४१

तद् ू ह मे महायो गन् परं कौतूहलं गुरो ।


नूनमेत रेरेव माया भव त ना यथा ।।४२
अघासुर मू तमान् अघ (पाप) ही था। भगवान्के पशमा से उसके सारे पाप धुल गये
और उसे उस सा य-मु क ा त ई, जो पा पय को कभी मल नह सकती। पर तु यह
कोई आ यक बात नह है। य क मनु य-बालकक -सी लीला रचनेवाले ये वे ही परमपु ष
परमा मा ह, जो -अ और काय-कारण प सम त जगत्के एकमा वधाता
ह ।।३८।। भगवान् ीकृ णके कसी एक अंगक भाव न मत तमा य द यानके ारा एक
बार भी दयम बैठा ली जाय तो वह सालो य, सामी य आ द ग तका दान करती है, जो
भगवान्के बड़े-बड़े भ को मलती है। भगवान् आ मान दके न य सा ा कार व प ह।
माया उनके पासतक नह फटक पाती। वे ही वयं अघासुरके शरीरम वेश कर गये। या
अब भी उसक सद्ग तके वषयम कोई स दे ह है? ।।३९।।
सूतजी कहते ह—शौनका द ऋ षयो! य वंश- शरोम ण भगवान् ीकृ णने ही राजा
परी त्को जीवन दान दया था। उ ह ने जब अपने र क एवं जीवनसव वका यह व च
च र सुना, तब उ ह ने फर ीशुकदे वजी महाराजसे उ ह क प व लीलाके स ब धम
कया। इसका कारण यह था क भगवान्क अमृतमयी लीलाने परी त्के च को अपने
वशम कर रखा था ।।४०।।
राजा परी त्ने पूछा—भगवन्! आपने कहा था क वालबाल ने भगवान्क क ई
पाँचव वषक लीला जम छठे वषम जाकर कही। अब इस वषयम आप कृपा करके यह
बतलाइये क एक समयक लीला सरे समयम वतमानकालीन कैसे हो सकती है? ।।४१।।
महायोगी गु दे व! मुझे इस आ यपूण रह यको जाननेके लये बड़ा कौतूहल हो रहा है। आप
कृपा करके बतलाइये। अव य ही इसम भगवान् ीकृ णक व च घटना को घ टत
करनेवाली मायाका कुछ-न-कुछ काम होगा। य क और कसी कार ऐसा नह हो
सकता ।।४२।। गु दे व! य प यो चत धम ा णसेवासे वमुख होनेके कारण म
अपराधी नाममा का य ँ, तथा प हमारा अहोभा य है क हम आपके मुखार व दसे
नर तर झरते ए परम प व मधुमय ीकृ णलीलामृतका बार-बार पान कर रहे ह ।।४३।।

वयं ध यतमा लोके गुरोऽ प ब धवः ।


यत् पबामो मु व ः पु यं कृ णकथामृतम् ।।४३
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सूत उवाच
इ थं म पृ ः स तु बादराय ण-
त मा रतान त ता खले यः ।
कृ ात् पुनल धब ह शः शनैः
याह तं भागवतो मो म ।।४४
सूतजी कहते ह—भगवान्के परम ेमी भ म े शौनकजी! जब राजा परी त्ने
इस कार कया, तब ीशुकदे वजीको भगवान्क वह लीला मरण हो आयी और
उनक सम त इ याँ तथा अ तःकरण ववश होकर भगवान्क न यलीलाम खच गये।
कुछ समयके बाद धीरे-धीरे म और क से उ ह बा ान आ। तब वे परी त्से
भगवान्क लीलाका वणन करने लगे ।।४४।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध ादशोऽ यायः ।।१२।।

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अथ योदशोऽ यायः
ाजीका मोह और उसका नाश
ीशुक उवाच
साधु पृ ं महाभाग वया भागवतो म ।
य ूतनयसीश य शृ व प कथां मु ः ।।१

सतामयं सारभृतां नसग


यदथवाणी ु तचेतसाम प ।
त णं न वद युत य यत्
या वटाना मव साधुवाता ।।२

शृणु वाव हतो राज प गु ं वदा म ते ।


ूयुः न ध य श य य गुरवो गु म युत ।।३
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! तुम बड़े भा यवान् हो। भगवान्के ेमी भ म
तु हारा थान े है। तभी तो तुमने इतना सु दर कया है। य तो तु ह बार-बार
भगवान्क लीला-कथाएँ सुननेको मलती ह, फर भी तुम उनके स ब धम करके उ ह
और भी सरस—और भी नूतन बना दे ते हो ।।१।। र सक संत क वाणी, कान और दय
भगवान्क लीलाके गान, वण और च तनके लये ही होते ह—उनका यह वभाव ही होता
है क वे ण- त ण भगवान्क लीला को अपूव रस-मयी और न य-नूतन अनुभव
करते रह—ठ क वैसे ही, जैसे ल पट पु ष को य क चचाम नया-नया रस जान पड़ता
है ।।२।। परी त्! तुम एका च से वण करो। य प भगवान्क यह लीला अ य त
रह यमयी है, फर भी म तु ह सुनाता ।ँ य क दयालु आचायगण अपने ेमी श यको
गु त रह य भी बतला दया करते ह ।।३।।

तथाघवदना मृ यो र वा व सपालकान् ।
स र पु लनमानीय भगवा नदम वीत् ।।४

अहोऽ तर यं पु लनं वय याः


वके लस प मृ ला छवालुकम् ।
फुट सरोग ध ता लप क-
व न त वानलसद् माकुलम् ।।५

अ भो म मा भ दवा ढं ुधा दताः ।


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व साः समीपेऽपः पी वा चर तु शनकै तृणम् ।।६

तथे त पाय य वाभा व साना य शा ले ।


मु वा श या न बुभुजुः समं भगवता मुदा ।।७

कृ ण य व वक् पु रा जम डलै-
र याननाः फु ल शो जाभकाः ।
सहोप व ा व पने वरेज-ु
छदा यथा भो हक णकायाः ।।८

के चत् पु पैदलैः के चत् प लवैरंकुरैः फलैः ।


श भ व भ ष बुभुजुः कृतभाजनाः ।।९

सव मथो दशय तः व वभो य च पृथक् ।


हस तो हासय त ा यवज ः सहे राः ।।१०
यह तो म तुमसे कह ही चुका ँ क भगवान् ीकृ णने अपने साथी वालबाल को
मृ यु प अघासुरके मुँहसे बचा लया। इसके बाद वे उ ह यमुनाके पु लनपर ले आये और
उनसे कहने लगे— ।।४।। ‘मेरे यारे म ो! यमुनाजीका यह पु लन अ य त रमणीय है। दे खो
तो सही, यहाँक बालू कतनी कोमल और व छ है। हमलोग के लये खेलनेक तो यहाँ
सभी साम ी व मान है। दे खो, एक ओर रंग- बरंगे कमल खले ए ह और उनक सुग धसे
खचकर भ रे गुंजार कर रहे ह; तो सरी ओर सु दर-सु दर प ी बड़ा ही मधुर कलरव कर
रहे ह, जसक त व नसे सुशो भत वृ इस थानक शोभा बढ़ा रहे ह ।।५।। अब
हमलोग को यहाँ भोजन कर लेना चा हये; य क दन ब त चढ़ आया है और हमलोग
भूखसे पी ड़त हो रहे ह। बछड़े पानी पीकर समीप ही धीरे-धीरे हरी-हरी घास चरते
रह’ ।।६।।
वालबाल ने एक वरसे कहा—‘ठ क है, ठ क है!’ उ ह ने बछड़ को पानी पलाकर
हरी-हरी घासम छोड़ दया और अपने-अपने छ के खोल-खोलकर भगवान्के साथ बड़े
आन दसे भोजन करने लगे ।।७।। सबके बीचम भगवान् ीकृ ण बैठ गये। उनके चार ओर
वालबाल ने ब त-सी म डलाकार पं याँ बना ल और एक-से-एक सटकर बैठ गये।
सबके मुँह ीकृ णक ओर थे और सबक आँख आन दसे खल रही थ । वन-भोजनके
समय ीकृ णके साथ बैठे ए वालबाल ऐसे शोभायमान हो रहे थे, मानो कमलक
क णकाके चार ओर उसक छोट -बड़ी पँखु ड़याँ सुशो भत हो रही ह ।।८।। कोई पु प तो
कोई प े और कोई-कोई प लव, अंकुर, फल, छ के, छाल एवं प थर के पा बनाकर भोजन
करने लगे ।।९।। भगवान् ीकृ ण और वालबाल सभी पर पर अपनी-अपनी भ - भ
चका दशन करते। कोई कसीको हँसा दे ता, तो कोई वयं ही हँसते-हँसते लोट-पोट हो
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जाता। इस कार वे सब भोजन करने लगे ।।१०।। (उस समय ीकृ णक छटा सबसे
नराली थी।) उ ह ने मुरलीको तो कमरक फटम आगेक ओर ख स लया था। स गी और
बत बगलम दबा लये थे। बाय हाथम बड़ा ही मधुर घृत म त दही-भातका ास था और
अँगु लय म अदरक, नीबू आ दके अचार-मुर बे दबा रखे थे। वालबाल उनको चार ओरसे
घेरकर बैठे ए थे और वे वयं सबके बीचम बैठकर अपनी वनोदभरी बात से अपने साथी
वालबाल को हँसाते जा रहे थे। जो सम त य के एकमा भो ा ह, वे ही भगवान्
वालबाल के साथ बैठकर इस कार बाल-लीला करते ए भोजन कर रहे थे और वगके
दे वता आ यच कत होकर यह अद्भुत लीला दे ख रहे थे ।।११।।

ब द् वेणुं जठरपटयोः
शृंगवे े च क े
वामे पाणौ मसृणकवलं
त फला य लीषु ।
त न् म ये वप रसु दो
हासयन् नम भः वैः
वग लोके मष त बुभुजे
य भुग् बालके लः ।।११

भारतैवं व सपेषु भुंजाने व युता मसु ।


व सा व तवने रं व वशु तृणलो भताः ।।१२

तान् ् वा भयसं तानूचे कृ णोऽ य भीभयम् ।


म ा याशा मा वरमतेहाने ये व सकानहम् ।।१३

इ यु वा दरीकु ग रे वा मव सकान् ।
व च वन् भगवान् कृ णः सपा णकवलो ययौ ।।१४

अ भोज मज न तद तरगतो
मायाभक ये शतु-
ु ं मंजु म ह वम यद प
त सा नतो व सपान् ।
नी वा य कु हा तरदधात्
खेऽव थतो यः पुरा
् वाघासुरमो णं भवतः
ा तः परं व मयम् ।।१५
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भरतवंश शरोमणे! इस कार भोजन करते-करते वालबाल भगवान्क इस रसमयी
लीलाम त मय हो गये। उसी समय उनके बछड़े हरी-हरी घासके लालचसे घोर जंगलम बड़ी
र नकल गये ।।१२।। जब वालबाल का यान उस ओर गया, तब तो वे भयभीत हो गये।
उस समय अपने भ के भयको भगा दे नेवाले भगवान् ीकृ णने कहा—‘मेरे यारे म ो!
तुमलोग भोजन करना बंद मत करो। म अभी बछड़ को लये आता ँ’ ।।१३।। वालबाल से
इस कार कहकर भगवान् ीकृ ण हाथम दही-भातका कौर लये ही पहाड़ , गुफा , कुंज
एवं अ या य भयंकर थान म अपने तथा सा थय के बछड़ को ढूँ ढ़ने चल दये ।।१४।।
परी त्! ाजी पहलेसे ही आकाशम उप थत थे। भुके भावसे अघासुरका मो
दे खकर उ ह बड़ा आ य आ। उ ह ने सोचा क लीलासे मनु य-बालक बने ए भगवान्
ीकृ णक कोई और मनोहर म हमामयी लीला दे खनी चा हये। ऐसा सोचकर उ ह ने पहले
तो बछड़ को और भगवान् ीकृ णके चले जानेपर वाल-बाल को भी, अ य ले जाकर रख
दया और वयं अ तधान हो गये। अ ततः वे जड़ कमलक ही तो स तान ह ।।१५।।

ततो व सान ् वै य पु लनेऽ प च व सपान् ।


उभाव प वने कृ णो व चकाय सम ततः ।।१६

वा य ् वा त व पने व सान् पालां व वत् ।


सव व धकृतं कृ णः सहसावजगाम हा ।।१७

ततः कृ णो मुदं कतु त मातॄणां च क य च ।


उभया यतमा मानं च े व कृद रः ।।१८

यावद् व सपव सका पकवपु-


यावत् कराङ् या
् दकं
यावद् य वषाणवेणुदल शग्
यावद् वभूषा बरम् ।
याव छ लगुणा भधाकृ तवयो
यावद् वहारा दकं
सव व णुमयं गरोऽ वदजः
सव व पो बभौ ।।१९

वयमा माऽऽ मगोव सान् तवाया मव सपैः ।


ड ा म वहारै सवा मा ा वशद् जम् ।।२०

त सान् पृथङ् नी वा त द्गो े नवे य सः ।

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त दा माभवद् राजं त स व वान् ।।२१

त मातरो वेणुरव वरो थता


उ था य दो भः प रर य नभरम् ।
भगवान् ीकृ ण बछड़े न मलनेपर यमुनाजीके पु लनपर लौट आये, पर तु यहाँ या
दे खते ह क वालबाल भी नह ह। तब उ ह ने वनम घूम-घूमकर चार ओर उ ह ढूँ ढ़ा ।।१६।।
पर तु जब वालबाल और बछड़े उ ह कह न मले, तब वे तुरंत जान गये क यह सब
ाक करतूत है। वे तो सारे व के एकमा ाता ह ।।१७।। अब भगवान् ीकृ णने
बछड़ और वालबाल क माता को तथा ाजीको भी आन दत करनेके लये अपने-
आपको ही बछड़ और वालबाल —दोन के पम बना लया*। य क वे ही तो स पूण
व के कता सवश मान् ई र ह ।।१८।। परी त्! वे बालक और बछड़े सं याम जतने
थे, जतने छोटे -छोटे उनके शरीर थे, उनके हाथ-पैर जैसे-जैसे थे, उनके पास जतनी और
जैसी छ ड़याँ, सगी, बाँसुरी, प े और छ के थे, जैसे और जतने व ाभूषण थे, उनके शील,
वभाव, गुण, नाम, प और अव थाएँ जैसी थ , जस कार वे खाते-पीते और चलते थे,
ठ क वैसे ही और उतने ही प म सव व प भगवान् ीकृ ण कट हो गये। उस समय ‘यह
स पूण जगत् व णु प है’—यह वेदवाणी मानो मू तमती होकर कट हो गयी ।।१९।।
सवा मा भगवान् वयं ही बछड़े बन गये और वयं ही वालबाल। अपने आ म व प
बछड़ को अपने आ म व प वालबाल के ारा घेरकर अपने ही साथ अनेक कारके खेल
खेलते ए उ ह ने जम वेश कया ।।२०।। परी त्! जस वालबालके जो बछड़े थे, उ ह
उसी वालबालके पसे अलग-अलग ले जाकर उसक बाखलम घुसा दया और व भ
बालक के पम उनके भ - भ घर म चले गये ।।२१।।
वालबाल क माताएँ बाँसुरीक तान सुनते ही ज द से दौड़ आय । वालबाल बने ए
पर ीकृ णको अपने ब चे समझकर हाथ से उठाकर उ ह ने जोरसे दयसे लगा लया।
वे अपने तन से वा स य- नेहक अ धकताके कारण सुधासे भी मधुर और आसवसे भी
मादक चुचुआता आ ध उ ह पलाने लग ।।२२।। परी त्! इसी कार त दन
स यासमय भगवान् ीकृ ण उन वालबाल के पम वनसे लौट आते और अपनी
बालसुलभ लीला से माता को आन दत करते। वे माताएँ उ ह उबटन लगात , नहलात ,
च दनका लेप करत और अ छे -अ छे व तथा गहन से सजात । दोन भ ह के बीचम
डीठसे बचानेके लये काजलका डठौना लगा दे त तथा भोजन करात और तरह-तरहसे बड़े
लाड़- यारसे उनका लालन-पालन करत ।।२३।। वा लन के समान गौएँ भी जब जंगल मसे
चरकर ज द -ज द लौटत और उनक ंकार सुनकर उनके यारे बछड़े दौड़कर उनके पास
आ जाते, तब वे बार-बार उ ह अपनी जीभसे चाटत और अपना ध पलात । अस समय
नेहक अ धकताके कारण उनके थन से वयं ही धक धारा बहने लगती ।।२४।। इन गाय
और वा लन का मातृभाव पहले-जैसा ही ऐ य ानर हत और वशु था। हाँ, अपने असली
पु क अपे ा इस समय उनका नेह अव य अ धक था। इसी कार भगवान् भी उनके
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पहले पु के समान ही पु भाव दखला रहे थे, पर तु भगवान्म उन बालक के जैसा मोहका
भाव नह था क म इनका पु ँ ।।२५।। अपने-अपने बालक के त ज-वा सय क नेह-
लता दन- त दन एक वषतक धीरे-धीरे बढ़ती ही गयी। यहाँतक क पहले ीकृ णम
उनका जैसा असीम और अपूव ेम था, वैसा ही अपने इन बालक के त भी हो
गया ।।२६।। इस कार सवा मा ीकृ ण बछड़े और वालबाल के बहाने गोपाल बनकर
अपने बालक पसे व स पका पालन करते ए एक वषतक वन और गो म डा करते
रहे ।।२७।।

नेह नुत त यपयःसुधासवं


म वा परं सुतानपाययन् ।।२२

ततो नृपो मदनम जलेपना-


लंकारर ा तलकाशना द भः ।
संला लतः वाच रतैः हषयन्
सायं गतो यामयमेन माधवः ।।२३

गाव ततो गो मुपे य स वरं


ंकारघोषैः प र तसंगतान् ।
वकान् वकान् व सतरानपाययन्
मु लह यः वदौधसं पयः ।।२४

गोगोपीनां मातृता मन् सवा नेह कां वना ।


पुरोवदा व प हरे तोकता मायया वना ।।२५

जौकसां वतोकेषु नेहव लया दम वहम् ।


शनै नःसीम ववृधे यथा कृ णे वपूववत् ।।२६

इ थमा माऽऽ मनाऽऽ मानं व सपाल मषेण सः ।


पालयन् व सपो वष च डे वनगो योः ।।२७

एकदा चारयन् व सान् सरामो वनमा वशत् ।


पंचषासु यामासु हायनापूरणी वजः ।।२८

ततो व रा चरतो गावो व सानुप जम् ।


गोवधना शर स चर यो द शु तृणम् ।।२९

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जब एक वष पूरा होनेम पाँच-छः रात शेष थ , तब एक दन भगवान् ीकृ ण
बलरामजीके साथ बछड़ को चराते ए वनम गये ।।२८।। उस समय गौएँ गोवधनक चोट पर
घास चर रही थ । वहाँसे उ ह ने जके पास ही घास चरते ए ब त र अपने बछड़ को
दे खा ।।२९।।

् वाथ त नेहवशोऽ मृता मा


स गो जोऽ या मप गमागः ।
पात् ककुद् ीव उदा यपु छो-
ऽगाद्धुंकृतैरा ुपया जवेन ।।३०

समे य गावोऽधो व सान् व सव योऽ यपाययन् ।


गल य इव चांगा न लह यः वौधसं पयः ।।३१

गोपा त ोधनायासमौ यल जो म युना ।


गा वकृ तोऽ ये य गोव सैद शुः सुतान् ।।३२

तद णो मे रसा लुताशया
जातानुरागा गतम यवोऽभकान् ।
उ दो भः प रर य मूध न
ाणैरवापुः परमां मुदं ते ।।३३

ततः वयसो गोपा तोका ष े सु नवृताः ।


कृ ा छनैरपगता तदनु मृ युद वः ।।३४

ज य रामः ेमधव यौ क मनु णम् ।


मु तने वप ये व यहेतु वद च तयत् ।।३५
बछड़ को दे खते ही गौ का वा स य- नेह उमड़ आया। वे अपने-आपक सुध-बुध खो
बैठ और वाल के रोकनेक कुछ भी परवा न कर जस मागसे वे न जा सकते थे, उस मागसे
ंकार करती ई बड़े वेगसे दौड़ पड़ । उस समय उनके थन से ध बहता जाता था और
उनक गरदन सकुड़कर डीलसे मल गयी थ । वे पूँछ तथा सर उठाकर इतने वेगसे दौड़ रही
थ क मालूम होता था मानो उनके दो ही पैर ह ।।३०।। जन गौ के और भी बछड़े हो चुके
थे, वे भी गोवधनके नीचे अपने पहले बछड़ के पास दौड़ आय और उ ह नेहवश अपने-
आप बहता आ ध पलाने लग । उस समय वे अपने ब च का एक-एक अंग ऐसे चावसे
चाट रही थ , मानो उ ह अपने पेटम रख लगी ।।३१।। गोप ने उ ह रोकनेका ब त कुछ
य न कया, पर तु उनका सारा य न थ रहा। उ ह अपनी वफलतापर कुछ ल जा और

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गाय पर बड़ा ोध आया। जब वे ब त क उठाकर उस क ठन मागसे उस थानपर प ँच,े
तब उ ह ने बछड़ के साथ अपने बालक को भी दे खा ।।३२।। अपने ब च को दे खते ही
उनका दय ेमरससे सराबोर हो गया। बालक के त अनुरागक बाढ़ आ गयी, उनका
ोध न जाने कहाँ हवा हो गया। उ ह ने अपने-अपने बालक को गोदम उठाकर दयसे लगा
लया और उनका म तक सूँघकर अ य त आन दत ए ।।३३।। बूढ़े गोप को अपने
बालक के आ लगनसे परम आन द ा त आ। वे नहाल हो गये। फर बड़े क से उ ह
छोड़कर धीरे-धीरे वहाँसे गये। जानेके बाद भी बालक के और उनके आ लगनके मरणसे
उनके ने से ेमके आँसू बहते रहे ।।३४।।
बलरामजीने दे खा क जवासी गोप, गौएँ और वा लन क उन स तान पर भी, ज ह ने
अपनी माका ध पीना छोड़ दया है, ण- त ण ेम-स प और उसके अनु प
उ क ठा बढ़ती ही जा रही है, तब वे वचारम पड़ गये, य क उ ह इसका कारण मालूम न
था ।।३५।।

कमेतद त मव वासुदेवेऽ खला म न ।


ज य सा मन तोके वपूव ेम वधते ।।३६

केयं वा कुत आयाता दै वी वा नायुतासुरी ।


ायो माया तु मे भतुना या मेऽ प वमो हनी ।।३७

इ त सं च य दाशाह व सान् सवयसान प ।


सवानाच वैकु ठं च ुषा वयुनेन सः ।।३८

नैते सुरेशा ऋषयो न चैते


वमेव भासीश भदा येऽ प ।
सव पृथ वं नगमात् कथं वदे -
यु े न वृ ं भुणा बलोऽवैत् ।।३९

तावदे या मभूरा ममानेन ु नेहसा ।


पुरोवद दं ड तं द शे सकलं ह रम् ।।४०

याव तो गोकुले बालाः सव साः सव एव ह ।


मायाशये शयाना मे ना ा प पुन थताः ।।४१

इत एतेऽ कु या म मायामो हतेतरे ।


ताव त एव त ा दं ड तो व णुना समम् ।।४२

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एवमेतेषु भेदेषु चरं या वा स आ मभूः ।
स याः के कतरे ने त ातुं ने े कथंचन ।।४३
‘यह कैसी व च बात है! सवा मा ीकृ णम जवा सय का और मेरा जैसा अपूव नेह
है, वैसा ही इन बालक और बछड़ पर भी बढ़ता जा रहा है ।।३६।। यह कौन-सी माया है?
कहाँसे आयी है? यह कसी दे वताक है, मनु यक है अथवा असुर क ? पर तु या ऐसा भी
स भव है? नह -नह , यह तो मेरे भुक ही माया है। और कसीक मायाम ऐसी साम य
नह , जो मुझे भी मो हत कर ले’ ।।३७।। बलरामजीने ऐसा वचार करके ान से दे खा,
तो उ ह ऐसा मालूम आ क इन सब बछड़ और वालबाल के पम केवल ीकृ ण-ही-
ीकृ ण ह ।।३८।। तब उ ह ने ीकृ णसे कहा—‘भगवन्! ये वालबाल और बछड़े न दे वता
ह और न तो कोई ऋ ष ही। इन भ - भ प का आ य लेनेपर भी आप अकेले ही इन
प म का शत हो रहे ह। कृपया प करके थोड़ेम ही यह बतला द जये क आप इस
कार बछड़े, बालक, सगी, र सी आ दके पम अलग-अलग य का शत हो रहे ह?’
तब भगवान्ने ाक सारी करतूत सुनायी और बलरामजीने सब बात जान ल ।।३९।।
परी त्! तबतक ाजी लोकसे जम लौट आये। उनके कालमानसे अबतक
केवल एक ु ट ( जतनी दे रम तीखी सूईसे कमलक पँखुड़ी छदे ) समय तीत आ था।
उ ह ने दे खा क भगवान् ीकृ ण वालबाल और बछड़ के साथ एक सालसे पहलेक भाँ त
ही डा कर रहे ह ।।४०।। वे सोचने लगे—‘गोकुलम जतने भी वालबाल और बछड़े थे, वे
तो मेरी मायामयी श यापर सो रहे ह—उनको तो मने अपनी मायासे अचेत कर दया था; वे
तबसे अबतक सचेत नह ए ।।४१।। तब मेरी मायासे मो हत वालबाल और बछड़ के
अ त र ये उतने ही सरे बालक तथा बछड़े कहाँसे आ गये, जो एक सालसे भगवान्के
साथ खेल रहे ह? ।।४२।। ाजीने दोन थान पर दोन को दे खा और ब त दे रतक यान
करके अपनी ान से उनका रह य खोलना चाहा; पर तु इन दोन म कौन-से पहलेके
वालबाल ह और कौन-से पीछे बना लये गये ह, इनमसे कौन स चे ह और कौन बनावट
—‘यह बात वे कसी कार न समझ सके ।।४३।।

एवं स मोहयन् व णुं वमोहं व मोहनम् ।


वयैव माययाजोऽ प वयमेव वमो हतः ।।४४

त यां तमोव ैहारं ख ोता च रवाह न ।


महतीतरमायै यं नह या म न युंजतः ।।४५

तावत् सव व सपालाः प यतोऽज य त णात् ।


य त घन यामाः पीतकौशेयवाससः ।।४६

चतुभुजाः शंखच गदाराजीवपाणयः ।


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करी टनः कु ड लनो हा रणो वनमा लनः ।।४७

ीव सांगददोर नक बुकंकणपाणयः ।
नूपुरैः कटकैभाताः क टसू ांगुलीयकैः ।।४८

आङ् म तकमापूणा तुलसीनवदाम भः ।


कोमलैः सवगा ेषु भू रपु यवद पतैः ।।४९

च का वशद मेरैः सा णापांगवी तैः ।


वकाथाना मव रजःस वा यां ृ पालकाः ।।५०

आ मा द त बपय तैमू तम राचरैः ।


नृ यगीता नेकाहः पृथक् पृथगुपा सताः ।।५१
भगवान् ीकृ णक मायाम तो सभी मु ध हो रहे ह, पर तु कोई भी माया-मोह
भगवान्का पश नह कर सकता। ाजी उ ह भगवान् ीकृ णको अपनी मायासे मो हत
करने चले थे। क तु उनको मो हत करना तो र रहा, वे अज मा होनेपर भी अपनी ही
मायासे अपने-आप मो हत हो गये ।।४४।। जस कार रातके घोर अ धकारम कुहरेके
अ धकारका और दनके काशम जुगनूके काशका पता नह चलता, वैसे ही जब ु
पु ष महापु ष पर अपनी मायाका योग करते ह, तब वह उनका तो कुछ बगाड़ नह
सकती, अपना ही भाव खो बैठती है ।।४५।।
ाजी वचार कर ही रहे थे क उनके दे खते-दे खते उसी ण सभी वालबाल और
बछड़े ीकृ णके पम दखायी पड़ने लगे। सब-के-सब सजल जलधरके समान यामवण,
पीता बरधारी, शंख, च , गदा और प से यु —चतुभुज। सबके सरपर मुकुट, कान म
कु डल और क ठ म मनोहर हार तथा वनमालाएँ शोभायमान हो रही थ ।।४६-४७।। उनके
व ः थलपर सुवणक सुनहली रेखा— ीव स, बा म बाजूबंद, कलाइय म शंखाकार
र न से जड़े कंगन, चरण म नूपुर और कड़े, कमरम करधनी तथा अँगु लय म अँगू ठयाँ
जगमगा रही थ ।।४८।। वे नखसे शखतक सम त अंग म कोमल और नूतन तुलसीक
मालाएँ, जो उ ह बड़े भा यशाली भ ने पहनायी थ , धारण कये ए थे ।।४९।। उनक
मुसकान चाँदनीके समान उ वल थी और रतनारे ने क कटा पूण चतवन बड़ी ही मधुर
थी। ऐसा जान पड़ता था मानो वे इन दोन के ारा स वगुण और रजोगुणको वीकार करके
भ -जन के दयम शु लालसाएँ जगाकर उनको पूण कर रहे ह ।।५०।। ाजीने यह भी
दे खा क उ ह के-जैसे सरे ासे लेकर तृणतक सभी चराचर जीव मू तमान् होकर नाचते-
गाते अनेक कारक पूजा-साम ीसे अलग-अलग भगवान्के उन सब प क उपासना कर
रहे ह ।।५१।।

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अ णमा ैम हम भरजा ा भ वभू त भः ।
चतु वश त भ त वैः परीता महदा द भः ।।५२

काल वभावसं कारकामकमगुणा द भः ।


वम ह व तम ह भमू तम पा सताः ।।५३

स य ानान तान दमा ैकरसमूतयः ।


अ पृ भू रमाहा या अ प प नषद् शाम् ।।५४

एवं सकृद् ददशाजः पर ा मनोऽ खलान् ।


य य भासा सव मदं वभा त सचराचरम् ।।५५

ततोऽ तकुतुकोद्वृ त मतैकादशे यः ।


त ा नाभूदज तू ण पूद तीव पु का ।।५६

इतीरेशेऽत य नजम हम न व म तके


पर ाजातोऽत रसनमुख क मतौ ।
अनीशेऽ प ु ं क मद म त वा मु त स त
चछादाजो ा वा सप द परमोऽजाजव नकाम् ।।५७
उ ह अलग-अलग अ णमा-म हमा आ द स याँ, माया- व ा आ द वभू तयाँ और
मह व आ द चौबीस त व चार ओरसे घेरे ए ह ।।५२।। कृ तम ोभ उ प करनेवाला
काल, उसके प रणामका कारण वभाव, वासना को जगानेवाला सं कार, कामनाएँ, कम,
वषय और फल—सभी मू तमान् होकर भगवान्के येक पक उपासना कर रहे ह।
भगवान्क स ा और मह ाके सामने उन सभीक स ा और मह ा अपना अ त व खो
बैठ थी ।।५३।। ाजीने यह भी दे खा क वे सभी भूत, भ व यत् और वतमान कालके
ारा सी मत नह ह, कालाबा धत स य ह। वे सब-के-सब वयं काश और केवल अन त
आन द व प ह। उनम जड़ता अथवा चेतनताका भेदभाव नह है। वे सब-के-सब एक-रस
ह। यहाँतक क उप नष श त व ा नय क भी उनक अन त म हमाका पश नह कर
सकती ।।५४।। इस कार ाजीने एक साथ ही दे खा क वे सब-के-सब उन पर
परमा मा ीकृ णके ही व प ह, जनके काशसे यह सारा चराचर जगत् का शत हो रहा
है ।।५५।।
यह अ य त आ यमय य दे खकर ाजी तो च कत रह गये। उनक यारह इ याँ
(पाँच कम य, पाँच ाने य और एक मन) ु ध एवं त ध रह गय । वे भगवान्के तेजसे
न तेज होकर मौन हो गये। उस समय वे ऐसे त ध होकर खड़े रह गये, मानो जके
अ ध ातृ-दे वताके पास एक पुतली खड़ी हो ।।५६।। परी त्! भगवान्का व प तकसे परे
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है। उसक म हमा असाधारण है। वह वयं काश, आन द व प और मायासे अतीत है।
वेदा त भी सा ात् पसे उसका वणन करनेम असमथ है, इस लये उससे भ का नषेध
करके आन द- व प का कसी कार कुछ संकेत करता है। य प ाजी सम त
व ा के अ धप त ह, तथा प भगवान्के द व पको वे त नक भी न समझ सके क
यह या है। यहाँतक क वे भगवान्के उन म हमामय प को दे खनेम भी असमथ हो गये।
उनक आँख मुँद गय । भगवान् ीकृ णने ाके इस मोह और असमथताको जानकर बना
कसी यासके तुरंत अपनी मायाका परदा हटा दया ।।५७।। इससे ाजीको बा ान
आ। वे मानो मरकर फर जी उठे । सचेत होकर उ ह ने य - य करके बड़े क से अपने ने
खोले। तब कह उ ह अपना शरीर और यह जगत् दखायी पड़ा ।।५८।। फर ाजी जब
चार ओर दे खने लगे, तब पहले दशाएँ और उसके बाद तुरंत ही उनके सामने वृ दावन
दखायी पड़ा। वृ दावन सबके लये एक-सा यारा है। जधर दे खये, उधर ही जीव को
जीवन दे नेवाले फल और फूल से लदे ए, हरे-हरे प से लहलहाते ए वृ क पाँत शोभा
पा रही ह ।।५९।। भगवान् ीकृ णक लीलाभू म होनेके कारण वृ दावनधामम ोध, तृ णा
आ द दोष वेश नह कर सकते और वहाँ वभावसे ही पर पर यज वैर रखनेवाले मनु य
और पशु-प ी भी ेमी म के समान हल- मलकर एक साथ रहते ह ।।६०।। ाजीने
वृ दावनका दशन करनेके बाद दे खा क अ तीय पर गोपवंशके बालकका-सा ना कर
रहा है। एक होनेपर भी उसके सखा ह, अन त होनेपर भी वह इधर-उधर घूम रहा है और
उसका ान अगाध होनेपर भी वह अपने वालबाल और बछड़ को ढूँ ढ़ रहा है। ाजीने
दे खा क जैसे भगवान् ीकृ ण पहले अपने हाथम दही-भातका कौर लये उ ह ढूँ ढ़ रहे थे,
वैसे ही अब भी अकेले ही उनक खोजम लगे ह ।।६१।। भगवान्को दे खते ही ाजी अपने
वाहन हंसपरसे कूद पड़े और सोनेके समान चमकते ए अपने शरीरसे पृ वीपर द डक
भाँ त गर पड़े। उ ह ने अपने चार मुकुट के अ भागसे भगवान्के चरण-कमल का पश
करके नम कार कया और आन दके आँसु क धारासे उ ह नहला दया ।।६२।। वे
भगवान् ीकृ णक पहले दे खी ई म हमाका बार-बार मरण करते, उनके चरण पर गरते
और उठ-उठकर फर- फर गर पड़ते। इसी कार ब त दे रतक वे भगवान्के चरण म ही पड़े
रहे ।।६३।।

ततोऽवाक् तल धा ः कः परेतव थतः ।


कृ ा मी य वै ीराच ेदं सहा मना ।।५८

सप ेवा भतः प यन् दशोऽप यत् पुरः थतम् ।


वृ दावनं जनाजी माक ण समा यम् ।।५९

य नैसग वराः सहासन् नृमृगादयः ।


म ाणीवा जतावास त ट् तषका दकम् ।।६०

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त ो हत् पशुपवंश शशु वना ं
ा यं परमन तमगाधबोधम् ।
व सान् सखी नव पुरा प रतो व च व-
दे कं सपा णकवलं परमे च ।।६१

् वा वरेण नजधोरणतोऽवतीय
पृ ां वपुः कनकद ड मवा भपा य ।
पृ ् वा चतुमुकुटको ट भरङ् यु मं
न वा मुद ुसुजलैरकृता भषेकम् ।।६२

उ थायो थाय कृ ण य चर य पादयोः पतन् ।


आ ते म ह वं ा ं मृ वा मृ वा पुनः पुनः ।।६३

शनैरथो थाय वमृ य लोचने


मुकु दमु य वन क धरः ।
कृतांज लः यवान् समा हतः
सवेपथुगद्गदयैलतेलया ।।६४
फर धीरे-धीरे उठे और अपने ने के आँसू प छे । ेम और मु के एकमा उद्गम
भगवान्को दे खकर उनका सर झुक गया। वे काँपने लगे। अंज ल बाँधकर बड़ी न ता और
एका ताके साथ गद्गद वाणीसे वे भगवान्क तु त करने लगे ।।६४।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध
योदशोऽ यायः ।।१३।।

* भगवान् सवसमथ ह। वे ाजीके चुराये ए वालबाल और बछड़ को ला सकते थे।


क तु इससे ाजीका मोह र न होता और वे भगवान्क उस द मायाका ऐ य न दे ख
सकते, जसने उनके व कता होनेके अ भमानको न कया। इसी लये भगवान् उ ह
वालबाल और बछड़ को न लाकर वयं ही वैसे ही एवं उतने ही वालबाल और बछड़े बन
गये।

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अथ चतुदशोऽ यायः
ाजीके ारा भगवान्क तु त
ोवाच
नौमी तेऽ वपुषे त डद बराय
गुंजावतंसप र प छलस मुखाय ।
व य जे कवलवे वषाणवेण-ु
ल म ये मृ पदे पशुपा जाय ।।१

अ या प दे व वपुषो मदनु ह य
वे छामय य न तु भूतमय य कोऽ प ।
नेशे म ह वव सतुं मनसाऽऽ तरेण
सा ा वैव कमुता मसुखानुभूतेः ।।२
ाजीने तु त क — भो! एकमा आप ही तु त करनेयो य ह। म आपके चरण म
नम कार करता ।ँ आपका यह शरीर वषाकालीन मेघके समान यामल है, इसपर थर
बजलीके समान झल मल- झल मल करता आ पीता बर शोभा पाता है, आपके गलेम
घुँघचीक माला, कान म मकराकृ त कु डल तथा सरपर मोरपंख का मुकुट है, इन सबक
का तसे आपके मुखपर अनोखी छटा छटक रही है। व ः थलपर लटकती ई वनमाला
और न ही-सी हथेलीपर दही-भातका कौर। बगलम बत और सगी तथा कमरक फटम
आपक पहचान बतानेवाली बाँसुरी शोभा पा रही है। आपके कमल-से सुकोमल परम
सुकुमार चरण और यह गोपाल-बालकका सुमधुर वेष। (म और कुछ नह जानता; बस, म तो
इ ह चरण पर नछावर ँ) ।।१।। वयं- काश परमा मन्! आपका यह ी व ह
भ जन क लालसा-अ भलाषा पूण करनेवाला है। यह आपक च मयी इ छाका मू तमान्
व प मुझपर आपका सा ात् कृपा- साद है। मुझे अनुगृहीत करनेके लये ही आपने इसे
कट कया है। कौन कहता है क यह पंचभूत क रचना है? भो! यह तो अ ाकृत शु
स वमय है। म या और कोई समा ध लगाकर भी आपके इस स चदान द- व हक म हमा
नह जान सकता। फर आ मा-न दानुभव व प सा ात् आपक ही म हमाको तो कोई
एका मनसे भी कैसे जान सकता है ।।२।। भो! जो लोग ानके लये य न न करके
अपने थानम ही थत रहकर केवल स संग करते ह और आपके ेमी संत पु ष के ारा
गायी ई आपक लीला-कथाका, जो उन लोग के पास रहनेसे अपने-आप सुननेको मलती
है, शरीर, वाणी और मनसे वनयावनत होकर सेवन करते ह—यहाँतक क उसे ही अपना
जीवन बना लेते ह, उसके बना जी ही नह सकते— भो! य प आपपर लोक म कोई
कभी वजय नह ा त कर सकता, फर भी वे आपपर वजय ा त कर लेते ह, आप उनके
ेमके अधीन हो जाते ह ।।३।। भगवन्! आपक भ सब कारके क याणका मूल ोत—
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उद्गम है। जो लोग उसे छोड़कर केवल ानक ा तके लये म उठाते और ःख भोगते
ह, उनको बस, लेश-ही लेश हाथ लगता है, और कुछ नह —जैसे थोथी भूसी
कूटनेवालेको केवल म ही मलता है, चावल नह ।।४।।

ाने यासमुदपा य नम त एव
जीव त स मुख रतां भवद यवाताम् ।
थाने थताः ु तगतां तनुवाङ् मनो भ-
य ायशोऽ जत जतोऽ य स तै लो याम् ।।३

ेयः ु त भमुद य ते वभो


ल य त ये केवलबोधल धये ।
तेषामसौ लेशल एव श यते
ना यद्यथा थूलतुषावघा तनाम् ।।४

पुरेह भूमन् बहवोऽ प यो गन-


वद पतेहा नजकमल धया ।
वबु य भ यैव कथोपनीतया
पे दरेऽ ोऽ युत ते ग त पराम् ।।५

तथा प भूमन् म हमागुण य ते


वबोद्धुमह यमला तरा म भः ।
अ व यात् वानुभवाद पतो
न यबो या मतया न चा यथा ।।६

गुणा मन तेऽ प गुणान् वमातुं


हतावतीण य क ई शरेऽ य ।
हे अ युत! हे अन त! इस लोकम पहले भी ब त-से योगी हो गये ह। जब उ ह योगा दके
ारा आपक ा त न ई, तब उ ह ने अपने लौ कक और वै दक सम त कम आपके
चरण म सम पत कर दये। उन सम पत कम से तथा आपक लीला-कथासे उ ह आपक
भ ा त ई। उस भ से ही आपके व पका ान ा त करके उ ह ने बड़ी सुगमतासे
आपके परमपदक ा त कर ली ।।५।। हे अन त! आपके सगुण- नगुण दोन व प का
ान क ठन होनेपर भी नगुण व पक म हमा इ य का याहार करके शु ा तःकरणसे
जानी जा सकती है। (जाननेक या यह है क) वशेष आकारके प र यागपूवक
आ माकार अ तःकरणका सा ा कार कया जाय। यह आ माकारता घट-पटा द पके
समान ेय नह है, युत आवरणका भंगमा है। यह सा ा कार ‘यह है’, ‘म को

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जानता ँ’ इस कार नह , क तु वयं काश पसे ही होता है ।।६।। पर तु भगवन्! जन
समथ पु ष ने अनेक ज म तक प र म करके पृ वीका एक-एक परमाणु, आकाशके
हमकण (ओसक बूँद) तथा उसम चमकनेवाले न एवं तार तकको गन डाला है—उनम
भी भला, ऐसा कौन हो सकता है जो आपके सगुण व पके अन त गुण को गन सके?
भो! आप केवल संसारके क याणके लये ही अवतीण ए ह। सो भगवन्! आपक
म हमाका ान तो बड़ा ही क ठन है ।।७।। इस लये जो पु ष ण- णपर बड़ी उ सुकतासे
आपक कृपाका ही भलीभाँ त अनुभव करता रहता है और ार धके अनुसार जो कुछ सुख
या ःख ा त होता है उसे न वकार मनसे भोग लेता है, एवं जो ेमपूण दय, गद्गद वाणी
और पुल कत शरीरसे अपनेको आपके चरण म सम पत करता रहता है—इस कार जीवन
तीत करनेवाला पु ष ठ क वैसे ही आपके परम पदका अ धकारी हो जाता है, जैसे अपने
पताक स प का पु ! ।।८।।

कालेन यैवा व मताः सुक पै-


भूपांसवः खे म हका ुभासः ।।७

त ेऽनुक पां सुसमी माणो


भुंजान एवा मकृतं वपाकम् ।
ा वपु भ वदध म ते
जीवेत यो मु पदे स दायभाक् ।।८

प येश मेऽनायमन त आ े
परा म न व य प मा यमा य न ।
मायां वत ये तुमा मवैभवं
हं कयानै छ मवा चर नौ ।।९

अतः म वा युत मे रजोभुवो


जानत व पृथगीशमा ननः ।
अजावलेपा धतमोऽ धच ुष
एषोऽनुक यो म य नाथवा न त ।।१०

वाहं तमोमहदहंखचरा नवाभू-


संवे ता डघटस त वत तकायः ।
वे वधा वग णता डपराणुचया-
वाता वरोम ववर य च ते म ह वम् ।।११
भो! मेरी कु टलता तो दे खये। आप अन त आ दपु ष परमा मा ह और मेरे-जैसे बड़े-

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बड़े मायावी भी आपक मायाके च म ह। फर भी मने आपपर अपनी माया फैलाकर
अपना ऐ य दे खना चाहा! भो म आपके सामने ँ ही या। या आगके सामने चनगारीक
भी कुछ गनती है? ।।९।। भगवन्! म रजोगुणसे उ प आ ँ। आपके व पको म ठ क-
ठ क नह जानता। इसीसे अपनेको आपसे अलग संसारका वामी माने बैठा था। म अज मा
जग कता ँ—इस मायाकृत मोहके घने अ धकारसे म अ धा हो रहा था। इस लये आप यह
समझकर क ‘यह मेरे ही अधीन है— मेरा भृ य है, इसपर कृपा करनी चा हये’, मेरा अपराध
मा क जये ।।१०।। मेरे वामी! कृ त, मह व, अहंकार, आकाश, वायु, अ न, जल
और पृ वी प आवरण से घरा आ यह ा ड ही मेरा शरीर है। और आपके एक-एक
रोमके छ म ऐसे-ऐसे अग णत ा ड उसी कार उड़ते-पड़ते रहते ह, जैसे झरोखेक
जालीमसे आनेवाली सूयक करण म रजके छोटे -छोटे परमाणु उड़ते ए दखायी पड़ते ह।
कहाँ अपने प रमाणसे साढ़े तीन हाथके शरीरवाला अ य त ु म, और कहाँ आपक
अन त म हमा ।।११।।

उ ेपणं गभगत य पादयोः


क क पते मातुरधो जागसे ।
कम तना त पदे शभू षतं
तवा त कु ेः कयद यन तः ।।१२

जग या तोद धस लवोदे
नारायण योदरना भनालात् ।
व नगतोऽज व त वाङ् न वै मृषा
क वी र व व नगतोऽ म ।।१३

नारायण वं न ह सवदे हना-


मा मा यधीशा खललोकसा ी ।
नारायणोऽ ं नरभूजलायना-
चा प स यं न तवैव माया ।।१४

त चे जल थं तव स जग पुः
क मे न ं भगवं तदै व ।
क वा सु ं द मे तदै व
क नो सप ेव पुन द श ।।१५

अ ैव मायाधमनावतारे
य पंच य ब हः फुट य ।

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कृ न य चा तजठरे जन या
माया वमेव कट कृतं ते ।।१६
वृ य क पकड़म न आनेवाले परमा मन्! जब ब चा माताके पेटम रहता है, तब
अ ानवश अपने हाथ-पैर पीटता है; पर तु या माता उसे अपराध समझती है या उसके लये
वह कोई अपराध होता है? ‘है’ और ‘नह है’—इन श द से कही जानेवाली कोई भी व तु
ऐसी है या, जो आपक कोखके भीतर न हो? ।।१२।।
ु तयाँ कहती ह क जस समय तीन लोक लयकालीन जलम लीन थे, उस समय उस
जलम थत ीनारायणके ना भकमलसे ाका ज म आ। उनका यह कहना कसी
कार अस य नह हो सकता। तब आप ही बतलाइये, भो! या म आपका पु नह
ँ? ।।१३।। भो! आप सम त जीव के आ मा ह। इस लये आप नारायण (नार—जीव और
अयन—आ य) ह। आप सम त जगत्के और जीव के अधी र ह, इस लये आप नारायण
(नार—जीव और अयन— वतक) ह। आप सम त लोक के सा ी ह, इस लये भी नारायण
(नार—जीव और अयन—जाननेवाला) ह। नरसे उ प होनेवाले जलम नवास करनेके
कारण ज ह नारायण (नार—जल और अयन— नवास थान) कहा जाता है, वे भी आपके
एक अंश ही ह। वह अंश पसे द खना भी स य नह है, आपक माया ही है ।।१४।।
भगवन्! य द आपका वह वराट् व प सचमुच उस समय जलम ही था तो मने उसी समय
उसे य नह दे खा, जब क म कमलनालके मागसे उसे सौ वषतक जलम ढूँ ढ़ता रहा? फर
मने जब तप या क , तब उसी समय मेरे दयम उसका दशन कैसे हो गया? और फर कुछ
ही ण म वह पुनः य नह द खा, अ तधान य हो गया? ।।१५।। मायाका नाश करनेवाले
भो! रक बात कौन करे—अभी इसी अवतारम आपने इस बाहर द खनेवाले जगत्को
अपने पेटम ही दखला दया, जसे दे खकर माता यशोदा च कत हो गयी थ । इससे यही तो
स होता है क यह स पूण व केवल आपक माया-ही-माया है ।।१६।। जब आपके
स हत यह स पूण व जैसा बाहर द खता है वैसा ही आपके उदरम भी द खा, तब या यह
सब आपक मायाके बना ही आपम तीत आ? अव य ही आपक लीला है ।।१७।। उस
दनक बात जाने द जये, आजक ही ली जये। या आज आपने मेरे सामने अपने अ त र
स पूण व को अपनी मायाका खेल नह दखलाया है? पहले आप अकेले थे। फर स पूण
वालबाल, बछड़े और छड़ी-छ के भी आप ही हो गये। उसके बाद मने दे खा क आपके वे
सब प चतुभुज ह और मेरे स हत सब-के-सब त व उनक सेवा कर रहे ह। आपने अलग-
अलग उतने ही ा ड का प भी धारण कर लया था, पर तु अब आप केवल अप र मत
अ तीय पसे ही शेष रह गये ह ।।१८।।

य य कु ा वदं सव सा मं भा त यथा तथा ।


त व यपीह तत् सव क मदं मायया वना ।।१७
अ ैव व तेऽ य क मम न ते
माया वमाद शत-
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मेकोऽ स थमं ततो जसु द्
व साः सम ता अ प ।
ताव तोऽ स चतुभुजा तद खलैः
साकं मयोपा सता-
ताव येव जग यभू तद मतं
ा यं श यते ।।१८
अजानतां व पदवीमना म-
या माऽऽ मना भा स वत य मायाम् ।
सृ ा ववाहं जगतो वधान
इव वमेषोऽ त इव ने ः ।।१९
सुरे वृ ष वीश तथैव नृ व प
तय ु याद व प तेऽजन य ।
ज मासतां मद न हाय
भो वधातः सदनु हाय च ।।२०
को वे भूमन् भगवन् परा मन्
योगे रोतीभवत लो याम् ।
व वा कथं वा क त वा कदे त
व तारयन् ड स योगमायाम् ।।२१
त मा ददं जगदशेषमस व पं
व ाभम त धषणं पु ःख ःखम् ।
व येव न यसुखबोधतनावन ते
मायात उ द प यत् स दवावभा त ।।२२
एक वमा मा पु षः पुराणः
स यः वयं यो तरन त आ ः ।
जो लोग अ ानवश आपके व पको नह जानते, उ ह को आप कृ तम थत जीवके
पसे तीत होते ह और उनपर अपनी मायाका परदा डालकर सृ के समय मेरे ( ा)
पसे, पालनके समय अपने ( व णु) पसे और संहारके समय? के पम तीत होते
ह ।।१९।। भो! आप सारे जगत्के वामी और वधाता ह। अज मा होनेपर भी आप दे वता,
ऋ ष, मनु य, पशु-प ी और जलचर आ द यो नय म अवतार हण करते ह—इस लये क
इन प के ारा पु ष का घमंड तोड़ द और स पु ष पर अनु ह कर ।।२०।। भगवन्!
आप अन त परमा मा और योगे र ह। जस समय आप अपनी योगमायाका व तार करके
लीला करने लगते ह, उस समय लोक म ऐसा कौन है, जो यह जान सके क आपक
लीला कहाँ, कस लये, कब और कतनी होती है ।।२१।। इस लये यह स पूण जगत् व के

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समान अस य, अ ान प और ःख-पर- ःख दे नेवाला है। आप परमान द, परम
ान व प एवं अन त ह। यह मायासे उ प एवं वलीन होनेपर भी आपम आपक स ासे
स यके समान तीत होता है ।।२२।। भो! आप ही एकमा स य ह। य क आप सबके
आ मा जो ह। आप पुराणपु ष होनेके कारण सम त ज मा द वकार से र हत ह। आप
वयं काश ह; इस लये दे श, काल और व तु—जो पर काश ह— कसी कार आपको
सी मत नह कर सकते। आप जनके भी आ द काशक ह। आप अ वनाशी होनेके कारण
न य ह। आपका आन द अख डत है। आपम न तो कसी कारका मल है और न अभाव।
आप पूण, एक ह। सम त उपा धय से मु होनेके कारण आप अमृत व प ह ।।२३।।
आपका यह ऐसा व प सम त जीव का ही अपना व प है। जो गु प सूयसे
त व ान प द ा त करके उससे आपको अपने व पके पम सा ा कार कर
लेते ह, वे इस झूठे संसार-सागरको मानो पार कर जाते ह। (संसार-सागरके झूठा होनेके
कारण इससे पार जाना भी अ वचार-दशाक से ही है) ।।२४।। जो पु ष परमा माको
आ माके पम नह जानते, उ ह उस अ ानके कारण ही इस नाम पा मक न खल
णंचक उ प का म हो जाता है। क तु ान होते ही इसका आ य तक लय हो जाता
है। जैसे र सीम मके कारण ही साँपक ती त होती है और मके नवृ होते ही उसक
नवृ हो जाती है ।।२५।।

न योऽ रोऽज सुखो नरंजनः


पूण ऽ यो मु उपा धतोऽमृतः ।।२३

एवं वधं वां सकला मनाम प


वा मानमा मा मतया वच ते ।
गुवकल धोप नष सुच ुषा
ये ते तर तीव भवानृता बु धम् ।।२४

आ मानमेवा मतया वजानतां


तेनैव जातं न खलं पं चतम् ।
ानेन भूयोऽ प च तत् लीयते
र वामहेभ गभवाभवौ यथा ।।२५

अ ानसं ौ भवब धमो ौ


ौ नाम ना यौ त ऋत भावात् ।
अज च या म न केवले परे
वचायमाणे तरणा ववाहनी ।।२६

वामा मानं परं म वा परमा मानमेव च ।


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आ मा पुनब हमृ य अहोऽ जनता ता ।।२७

अ तभवेऽन त भव तमेव
त यज तो मृगय त स तः ।
अस तम य य हम तरेण
स तं गुणं तं कमु य त स तः ।।२८
संसार-स ब धी ब धन और उससे मो —ये दोन ही नाम अ ानसे क पत ह। वा तवम
ये अ ानके ही दो नाम ह। ये स य और ान व प परमा मासे भ अ त व नह रखते।
जैसे सूयम दन और रातका भेद नह है, वैसे ही वचार करनेपर अख ड च व प केवल
शु आ मत वम न ब धन है और न तो मो ।।२६।। भगवन्! कतने आ यक बात है क
आप ह अपने आ मा, पर लोग आपको पराया मानते ह। और शरीर आ द ह पराये, क तु
उनको आ मा मान बैठते ह। और इसके बाद आपको कह अलग ढूँ ढ़ने लगते ह। भला,
अ ानी जीव का यह कतना बड़ा अ ान है ।।२७।। हे अन त! आप तो सबके अ तःकरणम
ही वराजमान ह। इस लये स तलोग आपके अ त र जो कुछ तीत हो रहा है, उसका
प र याग करते ए अपने भीतर ही आपको ढूँ ढ़ते ह। य क य प र सीम साँप नह है,
फर भी उस तीयमान साँपको म या न य कये बना भला, कोई स पु ष स ची र सीको
कैसे जान सकता है? ।।२८।।

अथा प ते दे व पदा बुज य-


सादलेशानुगृहीत एव ह ।
जाना त त वं भगवन् म ह नो
न चा य एकोऽ प चरं व च वन् ।।२९

तद तु मे नाथ स भू रभागो
भवेऽ वा य तु वा तर ाम् ।
येनाहमेकोऽ प भव जनानां
भू वा नषेवे तव पादप लवम् ।।३०

अहोऽ तध या जगोरम यः
त यामृतं पीतमतीव ते मुदा ।
यासां वभो व सतरा मजा मना
य ृ तयेऽ ा प न चालम वराः ।।३१

अहो भा यमहो भा यं न दगोप जौकसाम् ।


य म ं परमान दं पूण सनातनम् ।।३२

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एषां तु भा यम हमा युत तावदा ता-
मेकादशैव ह वयं बत भू रभागाः ।
एतद्धृषीकचषकैरसकृत् पबामः
शवादयोऽङ् युदजम वमृतासवं ते ।।३३
अपने भ जन के दयम वयं फु रत होनेवाले भगवन्! आपके ानका व प और
म हमा ऐसी ही है, उससे अ ानक पत जगत्का नाश हो जाता है। फर भी जो पु ष
आपके युगल चरणकमल का त नक-सा भी कृपा- साद ा त कर लेता है, उससे अनुगृहीत
हो जाता है—वही आपक स चदान दमयी म हमाका त व जान सकता है। सरा कोई भी
ान-वैरा या द साधन प अपने य नसे ब त कालतक कतना भी अनुस धान करता रहे,
वह आपक म हमाका यथाथ ान नह ा त कर सकता ।।२९।। इस लये भगवन्! मुझे इस
ज मम, सरे ज मम अथवा कसी पशु-प ी आ दके ज मम भी ऐसा सौभा य ा त हो क
म आपके दास मसे कोई एक दास हो जाऊँ और फर आपके चरणकमल क सेवा
क ँ ।।३०।। मेरे वामी! जगत्के बड़े-बड़े य सृ के ार भसे लेकर अबतक आपको
पूणतः तृ त न कर सके। पर तु आपने जक गाय और वा लन के बछड़े एवं बालक
बनकर उनके तन का अमृत-सा ध बड़े उमंगसे पया है। वा तवम उ ह का जीवन सफल
है, वे ही अ य त ध य ह ।।३१।। अहो, न द आ द जवासी गोप के ध य भा य ह। वा तवम
उनका अहोभा य है। य क परमान द व प सनातन प रपूण आप उनके अपने सगे-
स ब धी और सु द् ह ।।३२।। हे अ युत! इन जवा सय के सौभा यक म हमा तो अलग
रही—मन आ द यारह इ य के अ ध ातृदेवताके पम रहनेवाले महादे व आ द हम लोग
बड़े ही भा यवान् ह। य क इन जवा सय क मन आ द यारह इ य को याले बनाकर
हम आपके चरणकमल का अमृतसे भी मीठा, म दरासे भी मादक मधुर मकर दरस पान
करते रहते ह। जब उसका एक-एक इ यसे पान करके हम ध य-ध य हो रहे ह, तब सम त
इ य से उसका सेवन करनेवाले जवा सय क तो बात ही या है ।।३३।।

तद् भू रभा य मह ज म कम यट ां
यद् गोकुलेऽ प कतमाङ् रजोऽ भषेकम् ।
य जी वतं तु न खलं भगवान् मुकु द-
व ा प य पदरजः ु तमृ यमेव ।।३४

एषां घोष नवा सनामुत भवान्


क दे व राते त न-
ेतो व फलात् फलं वदपरं
कु ा ययन् मु त ।
सद्वेषा दव पूतना प सकुला
वामेव दे वा पता
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य ामाथसु या मतनय-
ाणाशया व कृते ।।३५

तावद् रागादयः तेना तावत् कारागृहं गृहम् ।


ताव मोहोऽङ् नगडो यावत् कृ ण न ते जनाः ।।३६

प चं न प चोऽ प वड बय स भूतले ।
प जनतान दस दोहं थतुं भो ।।३७

जान त एव जान तु क ब या न मे भो ।
मनसो वपुषो वाचो वैभवं तव गोचरः ।।३८
भो! इस जभू मके कसी वनम और वशेष करके गोकुलम कसी भी यो नम ज म हो
जाय, यही हमारे लये बड़े सौभा यक बात होगी! य क यहाँ ज म हो जानेपर आपके
कसी-न- कसी ेमीके चरण क धू ल अपने ऊपर पड़ ही जायगी। भो! आपके ेमी
जवा सय का स पूण जीवन आपका ही जीवन है। आप ही उनके जीवनके एकमा सव व
ह। इस लये उनके चरण क धू ल मलना आपके ही चरण क धू ल मलना है और आपके
चरण क धू लको तो ु तयाँ भी अना द कालसे अबतक ढूँ ढ़ ही रही ह ।।३४।। दे वता के
भी आरा यदे व भो! इन जवा सय को इनक सेवाके बदलेम आप या फल दगे? स पूण
फल के फल व प! आपसे बढ़कर और कोई फल तो है ही नह , यह सोचकर मेरा च
मो हत हो रहा है। आप उ ह अपना व प भी दे कर उऋण नह हो सकते। य क आपके
व पको तो उस पूतनाने भी अपने स ब धय —अघासुर, बकासुर आ दके साथ ा त कर
लया, जसका केवल वेष ही सा वी ीका था, पर जो दयसे महान् ू र थी। फर, ज ह ने
अपने घर, धन, वजन, य, शरीर, पु , ाण और मन—सब कुछ आपके ही चरण म
सम पत कर दया है, जनका सब कुछ आपके ही लये है, उन जवा सय को भी वही फल
दे कर आप कैसे उऋण हो सकते ह ।।३५।। स चदान द व प यामसु दर! तभीतक राग-
े ष आ द दोष चोर के समान सव व अपहरण करते रहते ह, तभीतक घर और उसके
स ब धी कैदक तरह स ब धके ब धन म बाँध रखते ह और तभीतक मोह पैरक बे ड़य क
तरह जकड़े रखता है—जबतक जीव आपका नह हो जाता ।।३६।। भो! आप व के
बखेड़ेसे सवथा र हत ह, फर भी अपने शरणागत भ जन को अन त आन द वतरण
करनेके लये पृ वीम अवतार लेकर व के समान ही लीला- वलासका व तार करते
ह ।।३७।। मेरे वामी! ब त कहनेक आव यकता नह —जो लोग आपक म हमा जानते ह,
वे जानते रह; मेरे मन, वाणी और शरीर तो आपक म हमा जाननेम सवथा असमथ
ह ।।३८।। स चदान द व प ीकृ ण! आप सबके सा ी ह। इस लये आप सब कुछ
जानते ह। आप सम त जगत्के वामी ह। यह स पूण पंच आपम ही थत है। आपसे म
और या क ँ? अब आप मुझे वीकार क जये। मुझे अपने लोकम जानेक आ ा

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द जये ।।३९।। सबके मन- ाणको अपनी प-माधुरीसे आक षत करनेवाले यामसु दर!
आप य वंश पी कमलको वक सत करनेवाले सूय ह। भो! पृ वी, दे वता, ा ण और
पशु प समु क अ भवृ करनेवाले च मा भी आप ही ह। आप पाख डय के धम प
रा का घोर अ धकार न करनेके लये सूय और च मा दोन के ही समान ह। पृ वीपर
रहनेवाले रा स के न करनेवाले आप च मा, सूय आ द सम त दे वता के भी परम
पूजनीय ह। भगवन्! म अपने जीवनभर, महाक पपय त आपको नम कार ही करता
र ँ ।।४०।।

अनुजानी ह मां कृ ण सव वं वे स सव क् ।
वमेव जगतां नाथो जगदे त वा पतम् ।।३९

ीकृ ण वृ णकुलपु करजोषदा यन्


मा नजर जपशूद धवृ का रन् ।
उ मशावरहर तरा स ु-
गाक पमाकमहन् भगवन् नम ते ।।४०
ीशुक उवाच
इ य भ ू य भूमानं ः प र य पादयोः ।
न वाभी ं जग ाता वधाम यप त ।।४१

ततोऽनु ा य भगवान् वभुवं ागव थतान् ।


व सान् पु लनमा न ये यथापूवसखं वकम् ।।४२

एक म प यातेऽ दे ाणेशं चा तराऽऽ मनः ।


कृ णमायाहता राजन् णाध मे नरेऽभकाः ।।४३

क क न व मर तीह मायामो हतचेतसः ।


य मो हतं जगत् सवमभी णं व मृता मकम् ।।४४
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! संसारके रच यता ाजीने इस कार भगवान्
ीकृ णक तु त क । इसके बाद उ ह ने तीन बार प र मा करके उनके चरण म णाम
कया और फर अपने ग त थान स यलोकम चले गये ।।४१।। ाजीने बछड़ और
वालबाल को पहले ही यथा थान प ँचा दया था। भगवान् ीकृ णने ाजीको वदा कर
दया और बछड़ को लेकर यमुनाजीके पु लनपर आये, जहाँ वे अपने सखा वालबाल को
पहले छोड़ गये थे ।।४२।। परी त्! अपने जीवनसव व— ाणव लभ ीकृ णके वयोगम
य प एक वष बीत गया था, तथा प उन वालबाल को वह समय आधे णके समान जान

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पड़ा। य न हो, वे भगवान्क व - वमो हनी योगमायासे मो हत जो हो गये थे ।।४३।।
जगत्के सभी जीव उसी मायासे मो हत होकर शा और आचाय के बार-बार समझानेपर
भी अपने आ माको नर तर भूले ए ह। वा तवम उस मायाक ऐसी ही श है। भला,
उससे मो हत होकर जीव यहाँ या- या नह भूल जाते ह? ।।४४।।

ऊचु सु दः कृ णं वागतं तेऽ तरंहसा ।


नैकोऽ यभो ज कवल एहीतः साधु भु यताम् ।।४५

ततो हसन् षीकेशोऽ यव य सहाभकैः ।


दशयं माजगरं यवतत वनाद् जम् ।।४६

बह सूननवधातु व च तांगः
ो ामवेणुदलशृंगरवो सवा ः ।
व सान् गृण नुगगीतप व क त-
ग पी गु सव शः ववेश गो म् ।।४७

अ ानेन महा ालो यशोदान दसूनुना ।


हतोऽ वता वयं चा मा द त बाला जे जगुः ।।४८
राजोवाच
न् परो वे कृ णे इयान् ेमा कथं भवेत् ।
योऽभूतपूव तोकेषु वो वे व प क यताम् ।।४९
ीशुक उवाच
सवषाम प भूतानां नृप वा मैव व लभः ।
इतरेऽप य व ा ा त लभतयैव ह ।।५०

तद् राजे यथा नेहः व वका म न दे हनाम् ।


न तथा ममताल बपु व गृहा दषु ।।५१
परी त्! भगवान् ीकृ णको दे खते ही वालबाल ने बड़ी उतावलीसे कहा—‘भाई! तुम
भले आये। वागत है, वागत! अभी तो हमने तु हारे बना एक कौर भी नह खाया है।
आओ, इधर आओ; आन दसे भोजन करो ।।४५।। तब हँसते ए भगवान्ने वालबाल के
साथ भोजन कया और उ ह अघासुरके शरीरका ढाँचा दखाते ए वनसे जम लौट
आये ।।४६।। ीकृ णके सरपर सोरपंखका मनोहर मुकुट और घुँघराले बाल म सु दर-सु दर
महँ-महँ महँकते ए पु प गुँथ रहे थे। नयी-नयी रंगीन धातु से याम शरीरपर च कारी क
ई थी। वे चलते समय रा तेम उ च वरसे कभी बाँसुरी, कभी प े और कभी सगी बजाकर
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वा ो सवम म न हो रहे ह। पीछे -पीछे वालबाल उनक लोकपावन क तका गान करते जा
रहे ह। कभी वे नाम ले-लेकर अपने बछड़ को पुकारते, तो कभी उनके साथ लाड़-लड़ाने
लगते। मागके दोन ओर गो पयाँ खड़ी ह; जब वे कभी तरछे ने से उनक नजरम नजर
मला दे ते ह, तब गो पयाँ आन द-मु ध हो जाती ह। इस कार भगवान् ीकृ णने गो म
वेश कयो ।।४७।। परी त्! उसी दन बालक ने जम जाकर कहा क ‘आज यशोदा
मैयाके लाड़ले न दन दनने वनम एक बड़ा भारी अजगर मार डाला है और उससे हमलोग क
र ा क है’ ।।४८।।
राजा परी त्ने कहा— न्! जवा सय के लये ीकृ ण अपने पु नह थे, सरेके
पु थे। फर उनका ीकृ णके त इतना ेम कैसे आ? ऐसा ेम तो उनका अपने
बालक पर भी पहले कभी नह आ था! आप कृपा करके बतलाइये, इसका या कारण
है? ।।४९।।
ीशुकदे वजी कहते ह—राजन्! संसारके सभी ाणी अपने आ मासे ही सबसे बढ़कर
ेम करते ह। पु से, धनसे या और कसीसे जो ेम होता है—वह तो इस लये क वे व तुएँ
अपने आ माको य लगती ह ।।५०।। राजे ! यही कारण है क सभी ा णय का अपने
आ माके त जैसा ेम होता है, वैसा अपने कहलानेवाले पु , धन और गृह आ दम नह
होता ।।५१।।

दे हा मवा दनां पुंसाम प राज यस म ।


यथा दे हः यतम तथा न नु ये च तम् ।।५२

दे होऽ प ममताभाक् चे सौ ना मवत् यः ।


य जीय य प दे हेऽ मन् जी वताशा बलीयसी ।।५३

त मात् यतमः वा मा सवषाम प दे हनाम् ।


तदथमेव सकलं जगदे त चराचरम् ।।५४

कृ णमेनमवे ह वमा मानम खला मनाम् ।


जग ताय सोऽ य दे हीवाभा त मायया ।।५५

व तुतो जानताम कृ णं था नु च र णु च ।
भगव प ू म खलं ना यद् व वह कचन ।।५६

सवषाम प व तूनां भावाथ भव त थतः ।


त या प भगवान् कृ णः कमतद् व तु यताम् ।।५७

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समा ता ये पदप लव लवं
मह यदं पु ययशो मुरारेः ।
भवा बु धव सपदं परं पदं
पदं पदं यद् वपदां न तेषाम् ।।५८

एत े सवमा यातं यत् पृ ोऽह मह वया ।


यत् कौमारे ह रकृतं पौग डे प रक ततम् ।।५९

एतत् सु रतं मुरारे-


रघादनं शा लजेमनं च ।
े तरद् पमजोव भ वं
शृ वन् गृण े त नरोऽ खलाथान् ।।६०
नृप े ! जो लोग दे हको ही आ मा मानते ह, वे भी अपने शरीरसे जतना ेम करते ह,
उतना ेम शरीरके स ब धी पु - म आ दसे नह करते ।।५२।। जब वचारके ारा यह
मालूम हो जाता है क ‘यह शरीर म नह ँ, यह शरीर मेरा है’ तब इस शरीरसे भी आ माके
समान ेम नह रहता। यही कारण है क इस दे हके जीण-शीण हो जानेपर भी जीनेक
आशा बल पसे बनी रहती है ।।५३।। इससे यह बात स होती है क सभी ाणी अपने
आ मासे ही सबसे बढ़कर ेम करते ह और उसीके लये इस सारे चराचर जगत्से भी ेम
करते ह ।।५४।। इन ीकृ णको ही तुम सब आ मा का आ मा समझो। संसारके
क याणके लये ही योगमायाका आ य लेकर वे यहाँ दे हधारीके समान जान पड़ते
ह ।।५५।। जो लोग भगवान् ीकृ णके वा त वक व पको जानते ह, उनके लये तो इस
जगत्म जो कुछ भी चराचर पदाथ ह, अथवा इससे परे परमा मा, , नारायण आ द जो
भगव व प ह, सभी ीकृ ण व प ही ह। ीकृ णके अ त र और कोई ाकृत-
अ ाकृत व तु है ही नह ।।५६।। सभी व तु का अ तम प अपने कारणम थत होता
है। उस कारणके भी परम कारण ह भगवान् ीकृ ण। तब भला बताओ, कस व तुको
ीकृ णसे भ बतलाय ।।५७।। ज ह ने पु यक त मुकु द मुरारीके पदप लवक नौकाका
आ य लया है, जो क स पु ष का सव व है, उनके लये यह भवसागर बछड़ेके खुरके
गढ़े के समान है। उ ह परमपदक ा त हो जाती है और उनके लये वप य का
नवास थान—यह संसार नह रहता ।।५८।।
परी त्! तुमने मुझसे पूछा था क भगवान्के पाँचव वषक लीला वालबाल ने छठे
वषम कैसे कही, उसका सारा रह य मने तु ह बतला दया ।।५९।। भगवान् ीकृ णक
वालबाल के साथ वन ड़ा, अघासुरको मारना, हरी-हरी घाससे यु भू मपर बैठकर
भोजन करना, अ ाकृत पधारी बछड़ और वालबाल का कट होना और ाजीके ारा
क ई इस महान् तु तको जो मनु य सुनता और कहता है—उस-उसको धम, अथ, काम
और मो क ा त हो जाती है ।।६०।।
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एवं वहारैः कौमारैः कौमारं जहतु जे ।
नलायनैः सेतुब धैमकटो लवना द भः ।।६१
परी त्! इस कार ीकृ ण और बलरामने कुमार-अव थाके अनु प आँख मचौनी,
सेत-ु ब धन, ब दर क भाँ त उछलना-कूदना आ द अनेक लीलाएँ करके अपनी कुमार-
अव था जम ही याग द ।।६१।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध तु तनाम
चतुदशोऽ यायः ।।१४।।

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अथ प चदशोऽ यायः
धेनुकासुरका उ ार और वालबाल को का लयनागके वषसे बचाना
ीशुक उवाच
तत पौग डवयः तौ जे
बभूवतु तौ पशुपालस मतौ ।
गा ारय तौ स ख भः समं पदै -
वृ दावनं पु यमतीव च तुः ।।१

त माधवो वेणुमुद रयन् वृतो


गोपैगृण ः वयशो बला वतः ।
पशून् पुर कृ य पश मा वशद्
वहतुकामः कुसुमाकरं वनम् ।।२

त मंजुघोषा लमृग जाकुलं


मह मनः यपयःसर वता ।
वातेन जु ं शतप ग धना
नरी य र तुं भगवान् मनो दधे ।।३

स त त ा णप लव या
फल सूनो भरेण पादयोः ।
पृश छखान् वी य वन पतीन् मुदा
मय वाहा जमा दपू षः ।।४
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! अब बलराम और ीकृ णने पौग ड-अव थाम
अथात् छठे वषम वेश कया था। अब उ ह गौएँ चरानेक वीकृ त मल गयी। वे अपने
सखा वालबाल के साथ गौएँ चराते ए वृ दावनम जाते और अपने चरण से वृ दावनको
अ य त पावन करते ।।१।। यह वन गौ के लये हरी-हरी घाससे यु एवं रंग- बरंगे
पु प क खान हो रहा था। आगे-आगे गौएँ, उनके पीछे -पीछे बाँसुरी बजाते ए यामसु दर,
तदन तर बलराम और फर ीकृ णके यशका गान करते ए वालबाल—इस कार वहार
करनेके लये उ ह ने उस वनम वेश कया ।।२।। उस वनम कह तो भ रे बड़ी मधुर गुंजार
कर रहे थे, कह झुंड-के-झुंड ह रन चौकड़ी भर रहे थे और कह सु दर-सु दर प ी चहक रहे
थे। बड़े ही सु दर-सु दर सरोवर थे, जनका जल महा मा के दयके समान व छ और
नमल था। उनम खले ए कमल के सौरभसे सुवा सत होकर शीतल-म द-सुग ध वायु उस
वनक सेवा कर रही थी। इतना मनोहर था वह वन क उसे दे खकर भगवान्ने मन-ही-मन
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उसम वहार करनेका संक प कया ।।३।। पु षो म भगवान्ने दे खा क बड़े-बड़े वृ फल
और फूल के भारसे झुककर अपनी डा लय और नूतन क पल क ला लमासे उनके
चरण का पश कर रहे ह, तब उ ह ने बड़े आन दसे कुछ मुसकरात ए-से अपने बड़े भाई
बलरामजीसे कहा ।।४।।
ीभगवानुवाच
अहो अमी दे ववरामरा चतं
पादा बुजं ते सुमनःफलाहणम् ।
नम युपादाय शखा भरा मन-
तमोऽपह यै त ज म य कृतम् ।।५

एतेऽ लन तव यशोऽ खललोकतीथ


गाय त आ दपु षानुपदं भज ते ।
ायो अमी मु नगणा भवद यमु या
गूढं वनेऽ प न जह यनघा मदै वम् ।।६

नृ य यमी श खन ई मुदा ह र यः
कुव त गो य इव ते यमी णेन ।
सू ै को कलगणा गृहमागताय
ध या वनौकस इयान् ह सतां नसगः ।।७

ध येयम धरणी तृणवी ध वत्-


पाद पृशो मलताः करजा भमृ ाः ।
न ोऽ यः खगमृगाः सदयावलोकै-
ग योऽ तरेण भुजयोर प य पृहा ीः ।।८
भगवान् ीकृ णने कहा—दे व शरोमणे! य तो बड़े-बड़े दे वता आपके चरणकमल क
पूजा करते ह; पर तु दे खये तो, ये वृ भी अपनी डा लय से सु दर पु प और फल क
साम ी लेकर आपके चरणकमल म झुक रहे ह, नम कार कर रहे ह। य न हो, इ ह ने इसी
सौभा यके लये तथा अपना दशन एवं वण करनेवाल के अ ानका नाश करनेके लये ही
तो वृ दावनधामम वृ -यो न हण क है। इनका जीवन ध य है ।।५।। आ दपु ष! य प
आप इस वृ दावनम अपने ऐ य पको छपाकर बालक क -सी लीला कर रहे ह, फर भी
आपके े भ मु नगण अपने इ दे वको पहचानकर यहाँ भी ायः भ र के पम आपके
भुवन-पावन यशका नर तर गान करते ए आपके भजनम लगे रहते ह। वे एक णके लये
भी आपको नह छोड़ना चाहते ।।६।। भाईजी! वा तवम आप ही तु त करनेयो य ह।
दे खये, आपको अपने घर आया दे ख ये मोर आपके दशन से आन दत होकर नाच रहे ह।

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ह र नयाँ मृगनयनी गो पय के समान अपनी ेमभरी तरछ चतवनसे आपके त ेम कट
कर रही ह, आपको स कर रही ह। ये कोयल अपनी मधुर कु -कु व नसे आपका
कतना सु दर वागत कर रही ह! ये वनवासी होनेपर भी ध य ह। य क स पु ष का
वभाव ही ऐसा होता है क वे घर आये अ त थको अपनी य-से- य व तु भट कर दे ते
ह ।।७।। आज यहाँक भू म अपनी हरी-हरी घासके साथ आपके चरण का पश ा त करके
ध य हो रही है। यहाँके वृ , लताएँ और झा ड़याँ आपक अँगु लय का पश पाकर अपना
अहोभा य मान रही ह। आपक दयाभरी चतवनसे नद , पवत, पशु, प ी—सब कृताथ हो
रहे ह और जक गो पयाँ आपके व ः थलका पश ा त करके, जसके लये वयं ल मी
भी लाला यत रहती ह, ध य-ध य हो रही ह ।।८।।
ीशुक उवाच
एवं वृ दावनं ीमत् कृ णः ीतमनाः पशून् ।
रेमे संचारय े ः स र ोध सु सानुगः ।।९

व चद् गाय त गाय सु मदा धा ल वनु तैः ।


उपगीयमानच रतः वी संकषणा वतः ।।१०

व च च कलहंसानामनुकूज त कू जतम् ।
अ भनृ य त नृ य तं ब हणं हासयन् व चत् ।।११

मेघग भीरया वाचा नाम भ रगान् पशून् ।


व चदा य त ी या गोगोपालमनो या ।।१२

चकोर ौ चच ा भार ाजां ब हणः ।


अनुरौ त म स वानां भीतवद् ा सहयोः ।।१३

व चत् डाप र ा तं गोपो संगोपबहणम् ।


वयं व मय याय पादसंवाहना द भः ।।१४

नृ यतो गायतः वा प व गतो यु यतो मथः ।


गृहीतह तौ गोपालान् हस तौ शशंसतुः ।।१५

व चत् प लवत पेषु नयु मक शतः ।


वृ मूला यः शेते गोपो संगोपबहणः ।।१६

पादसंवाहनं च ु ः के च य महा मनः ।


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अपरे हतपा मानो जनैः समवीजयन् ।।१७
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! इस कार परम सु दर वृ दावनको दे खकर भगवान्
ीकृ ण ब त ही आन दत ए। वे अपने सखा वालबाल के साथ गोवधनक तराईम,
यमुनातटपर गौ को चराते ए अनेक कारक लीलाएँ करने लगे ।।९।। एक ओर
वालबाल भगवान् ीकृ णके च र क मधुर तान छे ड़े रहते ह, तो सरी ओर बलरामजीके
साथ वनमाला पहने ए ीकृ ण मतवाले भ र क सुरीली गुनगुनाहटम अपना वर मलाकर
मधुर संगीत अलापने लगते ह ।।१०।।
कभी-कभी ीकृ ण कूजते ए राजहंस के साथ वयं भी कूजने लगते ह और कभी
नाचते ए मोर के साथ वयं भी ठु मुक-ठु मुक नाचने लगते ह और ऐसा नाचते ह क मयूरको
उपहासा पद बना दे ते ह ।।११।। कभी मेघके समान ग भीर वाणीसे र गये ए पशु को
उनका नाम ले-लेकर बड़े ेमसे पुकारते ह। उनके क ठक मधुर व न सुनकर गाय और
वालबाल का च भी अपने वशम नह रहता ।।१२।। कभी चकोर, च (कराँकुल),
चकवा, भर ल और मोर आ द प य क -सी बोली बोलते तो कभी बाघ, सह आ दक
गजनासे डरे ए जीव के समान वयं भी भयभीतक -सी लीला करते ।।१३।। जब
बलरामजी खेलते-खेलते थककर कसी वाल-बालक गोदके त कयेपर सर रखकर लेट
जाते, तब ीकृ ण उनके पैर दबाने लगते, पंखा झलने लगते और इस कार अपने बड़े
भाईक थकावट र करते ।।१४।। जब वालबाल नाचने-गाने लगते अथवा ताल ठ क-
ठ ककर एक- सरेसे कु ती लड़ने लगते, तब याम और राम दोन भाई हाथम हाथ डालकर
खड़े हो जाते और हँस-हँसकर ‘वाह-वाह’ करते ।।१५।। कभी-कभी वयं ीकृ ण भी
वाल-बाल के साथ कु ती लड़ते-लड़ते थक जाते तथा कसी सु दर वृ के नीचे कोमल
प लव क सेजपर कसी वालबालक गोदम सर रखकर लेट जाते ।।१६।। परी त्! उस
समय कोई-कोई पु यके मू तमान् व प वालबाल महा मा ीकृ णके चरण दबाने लगते
और सरे न पाप बालक उ ह बड़े-बड़े प या अँगो छय से पंखा झलने लगते ।।१७।।
कसी- कसीके दयम ेमक धारा उमड़ आती तो वह धीरे-धीरे उदार शरोम ण परममन वी
ीकृ णक लीला के अनु प उनके मनको य लगनेवाले मनोहर गीत गाने
लगता ।।१८।। भगवान्ने इस कार अपनी योगमायासे अपने ऐ यमय व पको छपा
रखा था। वे ऐसी लीलाएँ करते, जो ठ क-ठ क गोपबालक क -सी ही मालूम पड़त । वयं
भगवती ल मी जनके चरणकमल क सेवाम संल न रहती ह, वे ही भगवान् इन ामीण
बालक के साथ बड़े ेमसे ामीण खेल खेला करते थे। परी त्! ऐसा होनेपर भी कभी-
कभी उनक ऐ यमयी लीलाएँ भी कट हो जाया करत ।।१९।।

अ ये तदनु पा ण मनो ा न महा मनः ।


गाय त म महाराज नेह ल धयः शनैः ।।१८

एवं नगूढा मग तः वमायया

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गोपा मज वं च रतै वड बयन् ।
रेमे रमाला लतपादप लवो
ा यैः समं ा यवद शचे तः ।।१९

ीदामा नाम गोपालो रामकेशवयोः सखा ।


सुबल तोककृ णा ा गोपाः े णेदम ुवन् ।।२०

राम राम महाबाहो कृ ण नबहण ।


इतोऽ व रे सुमहद् वनं ताला लसंकुलम् ।।२१

फला न त भूरी ण पत त प तता न च ।


स त क वव ा न धेनुकेन रा मना ।।२२

सोऽ तवीय ऽसुरो राम हेकृ ण खर पधृक् ।


आ मतु यबलैर यै ा त भब भवृतः ।।२३

त मात् कृतनराहाराद् भीतैनृ भर म हन् ।


न से ते पशुगणैः प संघै वव जतम् ।।२४

व तेऽभु पूवा ण फला न सुरभी ण च ।


एष वै सुर भग धो वषूचीनोऽवगृ ते ।।२५
बलरामजी और ीकृ णके सखा म एक धान गोप-बालक थे ीदामा। एक दन
उ ह ने तथा सुबल और तोककृ ण (छोटे कृ ण) आ द वालबाल ने याम और रामसे बड़े
ेमके साथ कहा— ।।२०।। ‘हमलोग को सवदा सुख प ँचानेवाले बलरामजी! आपके
बा बलक तो कोई थाह ही नह है। हमारे मनमोहन ीकृ ण! को न कर डालना तो
तु हारा वभाव ही है। यहाँसे थोड़ी ही रपर एक बड़ा भारी वन है। बस, उसम पाँत-के-पाँत
ताड़के वृ भरे पड़े ह ।।२१।। वहाँ ब त-से ताड़के फल पक-पककर गरते रहते ह और
ब त-से पहलेके गरे ए भी ह। पर तु वहाँ धेनुक नामका एक दै य रहता है। उसने उन
फल पर रोक लगा रखी है ।।२२।। बलरामजी और भैया ीकृ ण! वह दै य गधेके पम
रहता है। वह वयं तो बड़ा बलवान् है ही, उसके साथी और भी ब त-से उसीके समान
बलवान् दै य उसी पम रहते ह ।।२३।। मेरे श ुघाती भैया! उस दै यने अबतक न जाने
कतने मनु य खा डाले ह। यही कारण है क उसके डरके मारे मनु य उसका सेवन नह
करते और पशु-प ी भी उस जंगलम नह जाते ।।२४।। उसके फल ह तो बड़े सुग धत,
पर तु हमने कभी नह खाये। दे खो न, चार ओर उ ह क म द-म द सुग ध फैल रही है।
त नक-सा यान दे नेसे उसका रस मलने लगता है ।।२५।। ीकृ ण! उनक सुग धसे हमारा
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मन मो हत हो गया है और उ ह पानेके लये मचल रहा है। तुम हम वे फल अव य खलाओ।
दाऊ दादा! हम उन फल क बड़ी उ कट अ भलाषा है। आपको चे तो वहाँ अव य
च लये ।।२६।।

य छ ता न नः कृ ण ग धलो भतचेतसाम् ।
वा छा त महती राम ग यतां य द रोचते ।।२६

एवं सु चः ु वा सु य चक षया ।
ह य ज मतुग पैवृतौ तालवनं भू ।।२७

बलः व य बा यां तालान् स प रक पयन् ।


फला न पातयामास मतंगज इवौजसा ।।२८

फलानां पततां श दं नश यासुररासभः ।


अ यधावत् ततलं सनगं प रक पयन् ।।२९

समे य तरसा यग् ा यां पद् यां बलं बली ।


नह योर स काश दं मुंचन् पयसरत् खलः ।।३०

पुनरासा संर ध उप ो ा पराक् थतः ।


चरणावपरौ राजन् बलाय ा पद् षा ।।३१

स तं गृही वा पदो ाम य वैकपा णना ।


च ेप तृणराजा े ामण य जी वतम् ।।३२

तेनाहतो महातालो वेपमानो बृह छराः ।


पा थं क पयन् भ नः स चा यं सोऽ प चापरम् ।।३३

बल य लीलयो सृ खरदे हहताहताः ।


ताला क परे सव महावाते रता इव ।।३४
अपने सखा वालबाल क यह बात सुनकर भगवान् ीकृ ण और बलरामजी दोन हँसे
और फर उ ह स करनेके लये उनके साथ तालवनके लये चल पड़े ।।२७।। उस वनम
प ँचकर बलरामजीने अपनी बाँह से उन ताड़के पेड़ को पकड़ लया और मतवाले हाथीके
ब चेके समान उ ह बड़े जोरसे हलाकर ब त-से फल नीचे गरा दये ।।२८।। जब गधेके
पम रहनेवाले दै यने फल के गरनेका श द सुना, तब वह पवत के साथ सारी पृ वीको

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कँपाता आ उनक ओर दौड़ा ।।२९।। वह बड़ा बलवान् था। उसने बड़े वेगसे बलरामजीके
सामने आकर अपने पछले पैर से उनक छातीम ल ी मारी और इसके बाद वह बड़े
जोरसे रकता आ वहाँसे हट गया ।।३०।। राजन्! वह गधा ोधम भरकर फर रकता आ
सरी बार बलरामजीके पास प ँचा और उनक ओर पीठ करके फर बड़े ोधसे अपने
पछले पैर क ल ी चलायी ।।३१।। बलरामजीने अपने एक ही हाथसे उसके दोन पैर
पकड़ लये और उसे आकाशम घुमाकर एक ताड़के पेड़पर दे मारा। घुमाते समय ही उस
गधेके ाणपखे उड़ गये थे ।।३२।।
उसके गरनेक चोटसे वह महान् ताड़का वृ — जसका ऊपरी भाग ब त वशाल था—
वयं तो तड़तड़ाकर गर ही पड़ा, सटे ए सरे वृ को भी उसने तोड़ डाला। उसने
तीसरेको, तीसरेने चौथेको—इस कार एक- सरेको गराते ए ब त-से तालवृ गर
पड़े ।।३३।। बलरामजीके लये तो यह एक खेल था। पर तु उनके ारा फके ए गधेके
शरीरसे चोट खा-खाकर वहाँ सब-के-सब ताड़ हल गये। ऐसा जान पड़ा, मानो सबको
झंझावातने झकझोर दया हो ।।३४।।

नैत च ं भगव त न ते जगद रे ।


ओत ोत मदं य मं त तु वंग यथा पटः ।।३५

ततः कृ णं च रामं च ातयो धेनुक य ये ।


ो ारोऽ य वन् सव संर धा हतबा धवाः ।।३६

तां तानापततः कृ णो राम नृप लीलया ।


गृहीतप ा चरणान् ा हणो ृणराजसु ।।३७

फल करसंक ण दै यदे हैगतासु भः ।


रराज भूः सताला ैघनै रव नभ तलम् ।।३८

तयो तत् सुमहत् कम नशा य वबुधादयः ।


मुमुचुः पु पवषा ण च ु वा ा न तु ु वुः ।।३९

अथ तालफला यादन् मनु या गतसा वसाः ।


तृणं च पशव े हतधेनुककानने ।।४०

कृ णः कमलप ा ः पु य वणक तनः ।


तूयमानोऽनुगैग पैः सा जो जमा जत् ।।४१

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तं गोरज छु रतकु तलब बह-
व य सून चरे णचा हासम् ।
वेणुं वण तमनुगैरनुगीतक त
गो यो द त शोऽ यगमन् समेताः ।।४२
भगवान् बलराम वयं जगद र ह। उनम यह सारा संसार ठ क वैसे ही ओत ोत है, जैसे
सूत म व । तब भला, उनके लये यह कौन आ यक बात है ।।३५।। उस समय
धेनुकासुरके भाई-ब धु अपने भाईके मारे जानेसे ोधके मारे आगबबूला हो गये। सब-के-
सब गधे बलरामजी और ीकृ णपर बड़े वेगसे टू ट पड़े ।।३६।। राजन्! उनमसे जो-जो पास
आया, उसी-उसीको बलरामजी और ीकृ णने खेल-खेलम ही पछले पैर पकड़कर
तालवृ पर दे मारा ।।३७।। उस समय वह भू म ताड़के फल से पट गयी और टू टे ए वृ
तथा दै य के ाणहीन शरीर से भर गयी। जैसे बादल से आकाश ढक गया हो, उस भू मक
वैसी ही शोभा होने लगी ।।३८।। बलरामजी और ीकृ णक यह मंगलमयी लीला दे खकर
दे वतागण उनपर फूल बरसाने लगे और बाजे बजा-बजाकर तु त करने लगे ।।३९।। जस
दन धेनुकासुर मरा, उसी दनसे लोग नडर होकर उस वनके तालफल खाने लगे तथा पशु
भी व छ दताके साथ घास चरने लगे ।।४०।।
इसके बाद कमलदललोचन भगवान् ीकृ ण बड़े भाई बलरामजीके साथ जम आये।
उस समय उनके साथी वालबाल उनके पीछे -पीछे चलते ए उनक तु त करते जाते थे।
य न हो; भगवान्क लीला का वण-क तन ही सबसे बढ़कर प व जो है ।।४१।। उस
समय ीकृ णक घुँघराली अलक पर गौ के खुर से उड़-उड़कर धू ल पड़ी ई थी, सरपर
मोरपंखका मुकुट था और बाल म सु दर-सु दर जंगली पु प गुँथे ए थे। उनके ने म मधुर
चतवन और मुखपर मनोहर मुसकान थी। वे मधुर-मधुर मुरली बजा रहे थे और साथी
वालबाल उनक ल लत क तका गान कर रहे थे। वंशीक व न सुनकर ब त-सी गो पयाँ
एक साथ ही जसे बाहर नकल आय । उनक आँख न जाने कबसे ीकृ णके दशनके लये
तरस रही थ ।।४२।।

पी वा मुकु दमुखसारघम भृ ै -
तापं ज वरहजं जयो षतोऽ ।
त स कृ त सम धग य ववेश गो ं
स ीडहास वनयं यदपांगमो म् ।।४३

तयोयशोदारो ह यौ पु योः पु व सले ।


यथाकामं यथाकालं ध ां परमा शषः ।।४४

गता वान मौ त म जनो मदना द भः ।


नीव व स वा चरां द ग धम डतौ ।।४५
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जन युप तं ा य वा मुपला लतौ ।
सं व य वरश यायां सुखं सुषुपतु जे ।।४६

एवं स भगवान् कृ णो वृ दावनचरः व चत् ।


ययौ राममृते राजन् का ल द स ख भवृतः ।।४७

अथ गाव गोपा नदाघातपपी डताः ।


ं जलं पपु त या तृषाता वष षतम् ।।४८

वषा भ त प मृ य दै वोपहतचेतसः ।
नपेतु सवः सव स लला ते कु ह ।।४९

वी य तान् वै तथा भूतान् कृ णो योगे रे रः ।


इ यामृतव ष या वनाथान् समजीवयत् ।।५०

ते स तीत मृतयः समु थाय जला तकात् ।


आसन् सु व मताः सव वी माणाः पर परम् ।।५१
गो पय ने अपने ने प मर से भगवान्के मुखार व दका मकर द-रस पान करके
दनभरके वरहक जलन शा त क । और भगवान्ने भी उनक लाजभरी हँसी तथा वनयसे
यु ेमभरी तरछ चतवनका स कार वीकार करके जम वेश कया ।।४३।। उधर
यशोदामैया और रो हणीजीका दय वा स य नेहसे उमड़ रहा था। उ ह ने याम और रामके
घर प ँचते ही उनक इ छाके अनुसार तथा समयके अनु प पहलेसे ही सोच-सँजोकर रखी
ई व तुएँ उ ह खलाय - पलाय और पहनाय ।।४४।। माता ने तेल-उबटन आ द लगाकर
नान कराया। इससे उनक दनभर घूमने- फरनेक मागक थकान र हो गयी। फर उ ह ने
सु दर व पहनाकर द पु प क माला पहनायी तथा च दन लगाया ।।४५।। त प ात्
दोन भाइय ने माता का परोसा आ वा द अ भोजन कया। इसके बाद बड़े लाड़-
यारसे लार- लार कर यशोदा और रो हणीने उ ह सु दर श यापर सुलाया। याम और राम
बड़े आरामसे सो गये ।।४६।।
भगवान् ीकृ ण इस कार वृ दावनम अनेक लीलाएँ करते। एक दन अपने सखा
वालबाल के साथ वे यमुना-तटपर गये। राजन्! उस दन बलरामजी उनके साथ नह
थे ।।४७।। उस समय जेठ-आषाढ़के घामसे गौएँ और वालबाल अ य त पी ड़त हो रहे थे।
याससे उनका क ठ सूख रहा था। इस लये उ ह ने यमुनाजीका वषैला जल पी
लया ।।४८।। परी त्! होनहारके वश उ ह इस बातका यान ही नह रहा था। उस वषैले
जलके पीते ही सब गौएँ और वालबाल ाणहीन होकर यमुनाजीके तटपर गर पड़े ।।४९।।
उ ह ऐसी अव थाम दे खकर योगे र के भी ई र भगवान् ीकृ णने अपनी अमृत
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बरसानेवाली से उ ह जी वत कर दया। उनके वामी और सव व तो एकमा ीकृ ण ही
थे ।।५०।। परी त्! चेतना आनेपर वे सब यमुनाजीके तटपर उठ खड़े ए और
आ यच कत होकर एक- सरेक ओर दे खने लगे ।।५१।।

अ वमंसत तद् राजन् गो व दानु हे तम् ।

पी वा वषं परेत य पुन थानमा मनः ।।५२


राजन्! अ तम उ ह ने यही न य कया क हमलोग वषैला जल पी लेनेके कारण मर
चुके थे, पर तु हमारे ीकृ णने अपनी अनु हभरी से दे खकर हम फरसे जला दया
है ।।५२।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध धेनुकवधो नाम
प चदशोऽ यायः ।।१५।।

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अथ षोडशोऽ यायः
का लयपर कृपा
ीशुक उवाच
वलो य षतां कृ णां कृ णः कृ णा हना वभुः ।
त या वशु म व छन् सप तमुदवासयत् ।।१
राजोवाच
कथम तजलेऽगाधे यगृ ाद् भगवान हम् ।
स वै ब युगावासं यथाऽऽसीद् व क यताम् ।।२

न् भगवत त य भू नः व छ दव तनः ।
गोपालोदारच रतं क तृ येतामृतं जुषन् ।।३
ीशुक उवाच
का ल ां का लय यासीद् दः क द् वषा नना ।
यमाणपया य मन् पत युप रगाः खगाः ।।४

व ु मता वषोदो ममा तेना भम शताः ।


य ते तीरगा य य ा णनः थरजंगमाः ।।५

तं च डवेग वषवीयमवे य तेन


ां नद च खलसंयमनावतारः ।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान् ीकृ णने दे खा क महा वषधर का लय
नागने यमुनाजीका जल वषैला कर दया है। तब यमुनाजीको शु करनेके वचारसे उ ह ने
वहाँसे उस सपको नकाल दया ।।१।।
राजा परी त्ने पूछा— न्! भगवान् ीकृ णने यमुनाजीके अगाध जलम कस
कार उस सपका दमन कया? फर का लय नाग तो जलचर जीव नह था, ऐसी दशाम वह
अनेक युग तक जलम य और कैसे रहा? सो बतलाइये ।।२।। व प महा मन्!
भगवान् अन त ह। वे अपनी लीला कट करके व छ द वहार करते ह। गोपाल पसे
उ ह ने जो उदार लीला क है, वह तो अमृत व प है। भला, उसके सेवनसे कौन तृ त हो
सकता है? ।।३।।
ीशुकदे वजीने कहा—परी त्! यमुनाजीम का लय नागका एक कु ड था। उसका
जल वषक गम से खौलता रहता था। यहाँतक क उसके ऊपर उड़नेवाले प ी भी
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झुलसकर उसम गर जाया करते थे ।।४।। उसके वषैले जलक उ ाल तरंग का पश करके
तथा उसक छोट -छोट बूँद लेकर जब वायु बाहर आती और तटके घास-पात, वृ , पशु-
प ी आ दका पश करती, तब वे उसी समय मर जाते थे ।।५।। परी त्! भगवान्का
अवतार तो का दमन करनेके लये होता ही है। जब उ ह ने दे खा क उस साँपके वषका
वेग बड़ा च ड (भयंकर) है और वह भयानक वष ही उसका महान् बल है तथा उसके
कारण मेरे वहारका थान यमुनाजी भी षत हो गयी ह, तब भगवान् ीकृ ण अपनी
कमरका फटा कसकर एक ब त ऊँचे कद बके वृ पर चढ़ गये और वहाँसे ताल ठ ककर
उस वषैले जलम कूद पड़े ।।६।। यमुनाजीका जल साँपके वषके कारण पहलेसे ही खौल
रहा था। उसक तरंग लाल-पीली और अ य त भयंकर उठ रही थ । पु षो म भगवान्
ीकृ णके कूद पड़नेसे उसका जल और भी उछलने लगा। उस समय तो का लयदहका जल
इधर-उधर उछलकर चार सौ हाथतक फैल गया। अ च य अन त बलशाली भगवान्
ीकृ णके लये इसम कोई आ यक बात नह है ।।७।। य परी त्! भगवान् ीकृ ण
का लयदहम कूदकर अतुल बलशाली मतवाले गजराजके समान जल उछालने लगे। इस
कार जल- ड़ा करनेपर उनक भुजा क ट करसे जलम बड़े जोरका श द होने लगा।
आँखसे ही सुननेवाले का लय नागने वह आवाज सुनी और दे खा क कोई मेरे
नवास थानका तर कार कर रहा है। उसे यह सहन न आ। वह चढ़कर भगवान्
ीकृ णके सामने आ गया ।।८।। उसने दे खा क सामने एक साँवला-सलोना बालक है।
वषाकालीन मेघके समान अ य त सुकुमार शरीर है, उसम लगकर आँख हटनेका नाम ही
नह लेत । उसके व ः थलपर एक सुनहली रेखा— ीव सका च है और वह पीले रंगका
व धारण कये ए है। बड़े मधुर एवं मनोहर मुखपर म द-म द मुसकान अ य त
शोभायमान हो रही है। चरण इतने सुकुमार और सु दर ह, मानो कमलक ग हो। इतना
आकषक प होनेपर भी जब का लय नागने दे खा क बालक त नक भी न डरकर इस
वषैले जलम मौजसे खेल रहा है, तब उसका ोध और भी बढ़ गया। उसने ीकृ णको
मम थान म डँसकर अपने शरीरके ब धनसे उ ह जकड़ लया ।।९।। भगवान् ीकृ ण
नागपाशम बँधकर न े हो गये। यह दे खकर उनके यारे सखा वालबाल ब त ही पी ड़त
ए और उसी समय ःख, प ा ाप और भयसे मू छत होकर पृ वीपर गर पड़े। य क
उ ह ने अपने शरीर, सु द्, धन-स प , ी, पु , भोग और कामनाएँ—सब कुछ भगवान्
ीकृ णको ही सम पत कर रखा था ।।१०।।

कृ णः कद बम ध ततोऽ ततु -
मा फो गाढरशनो यपतद् वषोदे ।।६

सप दः पु षसार नपातवेग-
सं ो भतोरग वषो छ् व सता बुरा शः ।
पयक् लुतो वषकषाय वभीषणो म-
धावन् धनुःशतमन तबल य क तत् ।।७
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त य दे वहरतो भुजद डघूण-
वाघ षमंग वरवारण व म य ।
आ ु य तत् वसदना भभवं नरी य
च ुः वाः समसर दमृ यमाणः ।।८

तं े णीयसुकुमारघनावदातं
ीव सपीतवसनं मतसु दरा यम् ।
ड तम तभयं कमलोदराङ्
स द य ममसु षा भुजया चछाद ।।९

तं नागभोगप रवीतम चे -
मालो य त यसखाः पशुपा भृशाताः ।
कृ णेऽ पता मसु दथकल कामा
ःखानुशोकभयमूढ धयो नपेतुः ।।१०

गावो वृषा व सतयः दमानाः सु ः खताः ।


कृ णे य ते णा भीता द य इव त थरे ।।११

अथ जे महो पाता वधा तदा णाः ।


उ पेतुभु व द ा म यास भयशं सनः ।।१२

तानाल य भयो ना गोपा न दपुरोगमाः ।


वना रामेण गाः कृ णं ा वा चार यतुं गतम् ।।१३

तै न म ै नधनं म वा ा तमत दः ।
त ाणा त मन का ते ःखशोकभयातुराः ।।१४

आबालवृ व नताः सवऽ पशुवृ यः ।


नज मुग कुलाद् द नाः कृ णदशनलालसाः ।।१५

तां तथा कातरान् वी य भगवान् माधवो बलः ।


ह य क च ोवाच भाव ोऽनुज य सः ।।१६

तेऽ वेषमाणा द यतं कृ णं सू चतया पदै ः ।


भगव ल णैज मुः पद ा यमुनातटम् ।।१७

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ते त त ा जयवांकुशाश न-
वजोपप ा न पदा न व पतेः ।
माग गवाम यपदा तरा तरे
नरी माणा ययुरंग स वराः ।।१८
गाय, बैल, ब छया और बछड़े बड़े ःखसे डकराने लगे। ीकृ णक ओर ही उनक
टकटक बँध रही थी। वे डरकर इस कार खड़े हो गये, मानो रो रहे ह । उस समय उनका
शरीर हलता-डोलतातक न था ।।११।।
इधर जम पृ वी, आकाश और शरीर म बड़े भयंकर-भयंकर तीन कारके उ पात उठ
खड़े ए, जो इस बातक सूचना दे रहे थे क ब त ही शी कोई अशुभ घटना घटनेवाली
है ।।१२।। न दबाबा आ द गोप ने पहले तो उन अशकुन को दे खा और पीछे से यह जाना क
आज ीकृ ण बना बलरामके ही गाय चराने चले गये। वे भयसे ाकुल हो गये ।।१३।। वे
भगवान्का भाव नह जानते थे। इसी लये उन अशकुन को दे खकर उनके मनम यह बात
आयी क आज तो ीकृ णक मृ यु ही हो गयी होगी। वे उसी ण ःख, शोक और भयसे
आतुर हो गये। य न ह , ीकृ ण ही उनके ाण, मन और सव व जो थे ।।१४।। य
परी त्! जके बालक, वृ और य का वभाव गाय -जैसा ही वा स यपूण था। वे
मनम ऐसी बात आते ही अ य त द न हो गये और अपने यारे क हैयाको दे खनेक उ कट
लालसासे घर- ार छोड़कर नकल पड़े ।।१५।। बलरामजी वयं भगवान्के व प और
सवश मान् ह। उ ह ने जब जवा सय को इतना कातर और इतना आतुर दे खा, तब उ ह
हँसी आ गयी। पर तु वे कुछ बोले नह , चुप ही रहे। य क वे अपने छोटे भाई ीकृ णका
भाव भलीभाँ त जानते थे ।।१६।। जवासी अपने यारे ीकृ णको ढूँ ढ़ने लगे। कोई
अ धक क ठनाई न ई; य क मागम उ ह भगवान्के चरण च मलते जाते थे। जौ,
कमल, अंकुश आ दसे यु होनेके कारण उ ह पहचान होती जाती थी। इस कार वे यमुना-
तटक ओर जाने लगे ।।१७।।
परी त्! मागम गौ और सर के चरण च के बीच-बीचम भगवान्के चरण च भी
द ख जाते थे। उनम कमल, जौ, अंकुश, व और वजाके च ब त ही प थे। उ ह
दे खते ए वे ब त शी तासे चले ।।१८।। उ ह ने रसे ही दे खा क का लयदहम का लय
नागके शरीरसे बँधे ए ीकृ ण चे ाहीन हो रहे ह। कु डके कनारेपर वालबाल अचेत ए
पड़े ह और गौएँ, बैल, बछड़े आ द बड़े आत वरसे डकरा रहे ह। यह सब दे खकर वे सब गोप
अ य त ाकुल और अ तम मू छत हो गये ।।१९।। गो पय का मन अन त गुणगण नलय
भगवान् ीकृ णके ेमके रंगम रँगा आ था। वे तो न य- नर तर भगवान्के सौहाद, उनक
मधुर मुसकान, ेमभरी चतवन तथा मीठ वाणीका ही मरण करती रहती थ । जब उ ह ने
दे खा क हमारे यतम यामसु दरको काले साँपने जकड़ रखा है, तब तो उनके दयम बड़ा
ही ःख और बड़ी ही जलन ई। अपने ाणव लभ जीवनसव वके बना उ ह तीन लोक
सूने द खने लगे ।।२०।। माता यशोदा तो अपने लाड़ले लालके पीछे का लयदहम कूदने ही
जा रही थ ; पर तु गो पय ने उ ह पकड़ लया। उनके दयम भी वैसी ही पीड़ा थी। उनक
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आँख से भी आँसु क झड़ी लगी ई थी। सबक आँख ीकृ णके मुखकमलपर लगी थ ।
जनके शरीरम चेतना थी, वे जमोहन ीकृ णक पूतना-वध आ दक यारी- यारी ऐ यक
लीलाएँ कह-कहकर यशोदाजीको धीरज बँधाने लग । क तु अ धकांश तो मुदक तरह पड़
ही गयी थ ।।२१।। परी त्! न दबाबा आ दके जीवन- ाण तो ीकृ ण ही थे। वे
ीकृ णके लये का लयदहम घुसने लगे। यह दे खकर ीकृ णका भाव जाननेवाले भगवान्
बलरामजीने क ह को समझा-बुझाकर, क ह को बलपूवक और क ह को उनके दय म
ेरणा करके रोक दया ।।२२।।

अ त दे भुजगभोगपरीतमारात्
कृ णं नरीहमुपल य जलाशया ते ।
गोपां मूढ धषणान् प रतः पशूं
सं दतः परमक मलमापुराताः ।।१९

गो योऽनुर मनसो भगव यन ते


त सौ द मत वलोक गरः मर यः ।
तेऽ हना यतमे भृश ःखत ताः
शू यं य त तं द शु लोकम् ।।२०

ताः कृ णमातरमप यमनु व ां


तु य थाः समनुगृ शुचः व यः ।
ता ता ज यकथाः कथय य आसन्
कृ णाननेऽ पत शो मृतक तीकाः ।।२१

कृ ण ाणा वशतो न दाद न् वी य तं दम् ।


यषेधत् स भगवान् रामः कृ णानुभाव वत् ।।२२

इ थं वगोकुलमन यग त नरी य
स ीकुमारम त ः खतमा महेतोः ।
आ ाय म यपदवीमनुवतमानः
थ वा मु तमुद त रंगब धात् ।।२३
परी त्! यह साँपके शरीरसे बँध जाना तो ीकृ णक मनु य -जैसी एक लीला थी।
जब उ ह ने दे खा क जके सभी लोग ी और ब च के साथ मेरे लये इस कार अ य त
ःखी हो रहे ह और सचमुच मेरे सवा इनका कोई सरा सहारा भी नह है, तब वे एक
मु ततक सपके ब धनम रहकर बाहर नकल आये ।।२३।।

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त यमानवपुषा थता मभोग-
य वो म य कु पतः वफणान् भुजंगः ।
त थौ स छ् वसनर वषा बरीष-
त धे णो मुकमुखो ह रमी माणः ।।२४

तं ज या शखया प रले लहानं


े सृ कणी तकराल वषा न म् ।
ड मुं प रससार यथा खगे ो
ब ाम सोऽ यवसरं समी माणः ।।२५

एवं प र महतौजसमु तांस-


मान य त पृथु शर व ध ढ आ ः ।
त मूधर न नकर पशा तता -
पादा बुजोऽ खलकला दगु ननत ।।२६

तं नतुमु तमवे य तदा तद य-


ग धव स सुरचारणदे वव वः ।
ी या मृदंगपणवानकवा गीत-
पु पोपहारनु त भः सहसोपसे ः ।।२७

यद् य छरो न नमतेऽ शतैकशी ण-


त न् ममद खरद डधरोऽङ् पातैः ।
ीणायुषो मत उ बणमा यतोऽसृङ्
न तो वमन् परमक मलमाप नागः ।।२८
भगवान् ीकृ णने उस समय अपना शरीर फुलाकर खूब मोटा कर लया। इससे साँपका
शरीर टू टने लगा। वह अपना नागपाश छोड़कर अलग खड़ा हो गया और ोधसे आग बबूला
हो अपने फण ऊँचा करके फुफकार मारने लगा। घात मलते ही ीकृ णपर चोट करनेके
लये वह उनक ओर टकटक लगाकर दे खने लगा। उस समय उसके नथुन से वषक फुहार
नकल रही थ । उसक आँख थर थ और इतनी लाल-लाल हो रही थ , मानो भ पर
तपाया आ खपड़ा हो। उसके मुँहसे आगक लपट नकल रही थ ।।२४।। उस समय
का लय नाग अपनी हरी जीभ लपलपाकर अपने होठ के दोन कनार को चाट रहा था और
अपनी कराल आँख से वषक वाला उगलता जा रहा था। अपने वाहन ग ड़के समान
भगवान् ीकृ ण उसके साथ खेलते ए पतरा बदलने लगे और वह साँप भी उनपर चोट
करनेका दाँव दे खता आ पतरा बदलने लगा ।।२५।। इस कार पतरा बदलते—बदलते
उसका बल ीण हो गया। तब भगवान् ीकृ णने उसके बड़े-बड़े सर को त नक दबा दया
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और उछलकर उनपर सवार हो गये। का लय नागके म तक पर ब त-सी लाल-लाल म णयाँ
थ । उनके पशसे भगवान्के सुकुमार तलु क ला लमा और भी बढ़ गयी। नृ य-गान आ द
सम त कला के आ द वतक भगवान् ीकृ ण उसके सर पर कलापूण नृ य करने
लगे ।।२६।। भगवान्के यारे भ ग धव, स , दे वता, चारण और दे वांगना ने जब दे खा
क भगवान् नृ य करना चाहते ह, तब वे बड़े ेमसे मृदंग, ढोल, नगारे आ द बाजे बजाते ए,
सु दर-सु दर गीत गाते ए, पु प क वषा करते ए और अपनेको नछावर करते ए भट ले-
लेकर उसी समय भगवान्के पास आ प ँचे ।।२७।। परी त्! का लय नागके एक सौ एक
सर थे। वह अपने जस सरको नह झुकाता था, उसीको च ड द डधारी भगवान् अपने
पर क चोटसे कुचल डालते। इससे का लय नागक जीवनश ीण हो चली, वह मुँह और
नथुन से खून उगलने लगा। अ तम च कर काटते-काटते वह बेहोश हो गया ।।२८।। त नक
भी चेत होता तो वह अपनी आँख से वष उगलने लगता और ोधके मारे जोर-जोरसे
फुफकार मारने लगता। इस कार वह अपने सर मसे जस सरको ऊपर उठाता, उसीको
नाचते ए भगवान् ीकृ ण अपने चरण क ठोकरसे झुकाकर र द डालते। उस समय
पुराण-पु षो म भगवान् ीकृ णके चरण पर जो खूनक बूँद पड़ती थ , उनसे ऐसा मालूम
होता, मानो र -पु प से उनक पूजा क जा रही हो ।।२९।। परी त्! भगवान्के इस
अद्भुत ता डव-नृ यसे का लयके फण प छ े छ - भ हो गये। उसका एक-एक अंग
चूर-चूर हो गया और मुँहसे खूनक उलट होने लगी। अब उसे सारे जगत्के आ द श क
पुराणपु ष भगवान् नारायणक मृ त ई। वह मन-ही-मन भगवान्क शरणम गया ।।३०।।
भगवान् ीकृ णके उदरम स पूण व है। इस लये उनके भारी बोझसे का लय नागके
शरीरक एक-एक गाँठ ढ ली पड़ गयी। उनक ए ड़य क चोटसे उसके छ के समान फण
छ - भ हो गये। अपने प तक यह दशा दे खकर उसक प नयाँ भगवान्क शरणम
आय । वे अ य त आतुर हो रही थ । भयके मारे उनके व ाभूषण अ त- त हो रहे थे और
केशक चो टयाँ भी बखर रही थ ।।३१।। उस समय उन सा वी नागप नय के च म बड़ी
घबराहट थी। अपने बालक को आगे करके वे पृ वीपर लोट गय और हाथ जोड़कर उ ह ने
सम त ा णय के एकमा वामी भगवान् ीकृ णको णाम कया। भगवान् ीकृ णको
शरणागतव सल जानकर अपने अपराधी प तको छु ड़ानेक इ छासे उ ह ने उनक शरण
हण क ।।३२।।

त या भगरलमु मतः शर सु
यद् यत् समु म त नः सतो षो चैः ।
नृ यन् पदानुनमयन् दमया बभूव
पु पैः पू जत इवेह पुमान् पुराणः ।।२९

त च ता डव व णफणातप ो
र ं मुखै वमन् नृप भ नगा ः ।

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मृ वा चराचरगु ं पु षं पुराणं
नारायणं तमरणं मनसा जगाम ।।३०

कृ ण य गभजगतोऽ तभरावस ं
पा ण हारप र णफणातप म् ।
् वा हमा मुपसे रमु य प य
आताः थ सनभूषणकेशब धाः ।।३१

ता तं सु व नमनसोऽथ पुर कृताभाः


कायं नधाय भु व भूतप त णेमुः ।
सा ः कृतांज लपुटाः शमल य भतु-
म े सवः शरणदं शरणं प ाः ।।३२
नागप य ऊचुः
या यो ह द डः कृत क बषेऽ मं-
तवावतारः खल न हाय ।
रपोः सुतानाम प तु य े-
ध से दमं फलमेवानुशंसन् ।।३३
नागप नय ने कहा— भो! आपका यह अवतार ही को द ड दे नेके लये आ है।
इस लये इस अपराधीको द ड दे ना सवथा उ चत है। आपक म श ु और पु का कोई
भेदभाव नह है। इस लये आप जो कसीको द ड दे ते ह, वह उसके पाप का ाय कराने
और उसका परम क याण करनेके लये ही ।।३३।।

अनु होऽयं भवतः कृतो ह नो


द डोऽसतां ते खलु क मषापहः ।
यद् द दशूक वममु य दे हनः
ोधोऽ प तेऽनु ह एव स मतः ।।३४

तपः सुत तं कमनेन पूव


नर तमानेन च मानदे न ।
धम ऽथ वा सवजनानुक पया
यतो भवां तु य त सवजीवः ।।३५

क यानुभावोऽ य न दे व व हे
तवाङ् रेणु पशा धकारः ।

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य ा छया ीललनाऽऽचर पो
वहाय कामान् सु चरं धृत ता ।।३६

न नाकपृ ं न च सावभौमं
न पारमे ं न रसा धप यम् ।
न योग स रपुनभवं वा
वा छ त य पादरजः प ाः ।।३७

तदे ष नाथाप रापम यै-


तमोज नः ोधवशोऽ यहीशः ।
संसारच े मतः शरी रणो
य द छतः याद् वभवः सम ः ।।३८
आपने हमलोग पर यह बड़ा ही अनु ह कया। यह तो आपका कृपा- साद ही है।
य क आप जो को द ड दे ते ह, उससे उनके सारे पाप न हो जाते ह। इस सपके
अपराधी होनेम तो कोई स दे ह ही नह है। य द यह अपराधी न होता तो इसे सपक यो न ही
य मलती? इस लये हम स चे दयसे आपके इस ोधको भी आपका अनु ह ही समझती
ह ।।३४।।
अव य ही पूवज मम इसने वयं मानर हत होकर और सर का स मान करते ए कोई
ब त बड़ी तप या क है। अथवा सब जीव पर दया करते ए इसने कोई ब त बड़ा धम
कया है तभी तो आप इसके ऊपर स तु ए ह। य क सव-जीव व प आपक
स ताका यही उपाय है ।।३५।।
भगवन्! हम नह समझ पात क यह इसक कस साधनाका फल है, जो यह आपके
चरणकमल क धूलका पश पानेका अ धकारी आ है। आपके चरण क रज इतनी लभ है
क उसके लये आपक अ ा गनी ल मीजीको भी ब त दन तक सम त भोग का याग
करके नयम का पालन करते ए तप या करनी पड़ी थी ।।३६।।
भो! जो आपके चरण क धूलक शरण ले लेते ह, वे भ जन वगका रा य या
पृ वीक बादशाही नह चाहते। न वे रसातलका ही रा य चाहते और न तो ाका पद ही
लेना चाहते ह। उ ह अ णमा द योग- स य क भी चाह नह होती। यहाँतक क वे ज म-
मृ युसे छु ड़ानेवाले कैव य-मो क भी इ छा नह करते ।।३७।।
वामी! यह नागराज तमोगुणी यो नम उ प आ है और अ य त ोधी है। फर भी इसे
आपक वह परम प व चरणरज ा त ई, जो सर के लये सवथा लभ है; तथा जसको
ा त करनेक इ छा-मा से ही संसारच म पड़े ए जीवको संसारके वैभव-स प क तो
बात ही या—मो क भी ा त हो जाती है ।।३८।।

नम तु यं भगवते पु षाय महा मने ।


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भूतावासाय भूताय पराय परमा मने ।।३९

ान व ान नधये णेऽन तश ये ।
अगुणाया वकाराय नम तेऽ ाकृताय च ।।४०

कालाय कालनाभाय कालावयवसा णे ।


व ाय त प े त क व हेतवे ।।४१

भूतमा े य ाणमनोबु याशया मने ।


गुणेना भमानेन गूढ वा मानुभूतये ।।४२

नमोऽन ताय सू माय कूट थाय वप ते ।


नानावादानुरोधाय वा चवाचकश ये ।।४३

नमः माणमूलाय कवये शा योनये ।


वृ ाय नवृ ाय नगमाय नमो नमः ।।४४
भो! हम आपको णाम करती ह। आप अन त एवं अ च य ऐ यके न य न ध ह।
आप सबके अ तःकरण म वराजमान होनेपर भी अन त ह। आप सम त ा णय और
पदाथ के आ य तथा सब पदाथ के पम भी व मान ह। आप कृ तसे परे वयं परमा मा
ह ।।३९।। आप सब कारके ान और अनुभव के खजाने ह। आपक म हमा और श
अन त है। आपका व प अ ाकृत— द च मय है, ाकृ तक गुण एवं वकार का आप
कभी पश ही नह करते। आप ही ह, हम आपको नम कार कर रही ह ।।४०।। आप
कृ तम ोभ उ प करनेवाले काल ह, कालश के आ य ह और कालके ण-क प
आ द सम त अवयव के सा ी ह। आप व प होते ए भी उससे अलग रहकर उसके ा
ह। आप उसके बनानेवाले न म कारण तो ह ही, उसके पम बननेवाले उपादानकारण भी
ह ।।४१।। भो! पंचभूत, उनक त मा ाएँ, इ याँ, ाण, मन, बु और इन सबका
खजाना च —ये सब आप ही ह। तीन गुण और उनके काय म होनेवाले अ भमानके ारा
आपने अपने सा ा कारको छपा रखा है ।।४२।। आप दे श, काल और व तु क सीमासे
बाहर—अन त ह। सू मसे भी सू म और काय-कारण के सम त वकार म भी एकरस,
वकारर हत और सव ह। ई र ह क नह ह, सव ह क अ प इ या द अनेक मतभेद के
अनुसार आप उन-उन मतवा दय को उ ह -उ ह प म दशन दे ते ह। सम त श द के अथके
पम तो आप ह ही, श द के पम भी ह तथा उन दोन का स ब ध जोड़नेवाली श भी
आप ही ह। हम आपको नम कार करती ह ।।४३।। य -अनुमान आ द जतने भी माण
ह, उनको मा णत करनेवाले मूल आप ही ह। सम त शा आपसे ही नकले ह और
आपका ान वतः स है। आप ही मनको लगानेक व धके पम और उसको सब कह से

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हटा लेनेक आ ाके पम वृ माग और नवृ माग ह। इन दोन के मूल वेद भी वयं आप
ही ह। हम आपको बार-बार नम कार करती ह ।।४४।।

नमः कृ णाय रामाय वसुदेवसुताय च ।


ु नाया न ाय सा वतां पतये नमः ।।४५

नमो गुण द पाय गुणा म छादनाय च ।


गुणवृ युपल याय गुण े वसं वदे ।।४६

अ ाकृत वहाराय सव ाकृत स ये ।


षीकेश नम तेऽ तु मुनये मौनशी लने ।।४७

परावरग त ाय सवा य ाय ते नमः ।


अ व ाय च व ाय तद् ेऽ य च हेतवे ।।४८

वं य ज म थ तसंयमान् भो
गुणैरनीहोऽकृत कालश धृक् ।
त वभावान् तबोधयन् सतः
समी यामोघ वहार ईहसे ।।४९

त यैव तेऽमू तनव लो यां


शा ता अशा ता उत मूढयोनयः ।
शा ताः या ते धुना वतुं सतां
थातु ते धमपरी सयेहतः ।।५०
आप शु स वमय वसुदेवके पु वासुदेव, संकषण एवं ु न और अ न भी ह। इस
कार चतु ूहके पम आप भ तथा यादव के वामी ह। ीकृ ण! हम आपको नम कार
करती ह ।।४५।। आप अ तःकरण और उसक वृ य के काशक ह और उ ह के ारा
अपने-आपको ढक रखते ह। उन अ तःकरण और वृ य के ारा ही आपके व पका
कुछ-कुछ संकेत भी मलता है। आप उन गुण और उनक वृ य के सा ी तथा वयं काश
ह। हम आपको नम कार करती ह ।।४६।। आप मूल कृ तम न य वहार करते रहते ह।
सम त थूल और सू म जगत्क स आपसे ही होती है। षीकेश! आप मननशील
आ माराम ह। मौन ही आपका वभाव है। आपको हमारा नम कार है ।।४७।। आप थूल,
सू म सम त ग तय के जाननेवाले तथा सबके सा ी ह। आप नाम पा मक व पंचके
नषेधक अव ध तथा उसके अ ध ान होनेके कारण व प भी ह। आप व के अ यास
तथा अपवादके सा ी ह एवं अ ानके ारा उसक स य व ा त एवं व प ानके ारा

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उसक आ य तक नवृ के भी कारण ह। आपको हमारा नम कार है ।।४८।।
भो! य प कतापन न होनेके कारण आप कोई भी कम नह करते, न य ह—
तथा प अना द कालश को वीकार करके कृ तके गुण के ारा आप इस व क
उ प , थ त और लयक लीला करते ह। य क आपक लीलाएँ अमोघ ह। आप
स यसंक प ह। इस लये जीव के सं कार पसे छपे ए वभाव को अपनी से जा त्
कर दे ते ह ।।४९।। लोक म तीन कारक यो नयाँ ह—स वगुण धान शा त,
रजोगुण धान अशा त और तमोगुण धान मूढ। वे सब-क -सब आपक लीला-मू तयाँ ह।
फर भी इस समय आपको स वगुण धान शा तजन ही वशेष य ह। य क आपका यह
अवतार और ये लीलाएँ साधुजन क र ा तथा धमक र ा एवं व तारके लये ही ह ।।५०।।
शा ता मन्! वामीको एक बार अपनी जाका अपराध सह लेना चा हये। यह मूढ है,
आपको पहचानता नह है, इस लये इसे मा कर द जये ।।५१।। भगवन्! कृपा क जये;
अब यह सप मरने ही वाला है। साधुपु ष सदासे ही हम अबला पर दया करते आये ह।
अतः आप हम हमारे ाण व प प तदे वको दे द जये ।।५२।। हम आपक दासी ह। हम
आप आ ा द जये, आपक या सेवा कर? य क जो ाके साथ आपक आ ा का
पालन—आपक सेवा करता है, वह सब कारके भय से छु टकारा पा जाता है ।।५३।।

अपराधः सकृद् भ ा सोढ ः व जाकृतः ।


तुमह स शा ता मन् मूढ य वामजानतः ।।५१

अनुगृ व भगवन् ाणां यज त प गः ।


ीणां नः साधुशो यानां प तः ाणः द यताम् ।।५२

वधे ह ते ककरीणामनु ेयं तवा या ।


य यानु त न् वै मु यते सवतोभयात् ।।५३
ीशुक उवाच
इ थं स नागप नी भभगवान् सम भ ु तः ।
मू छतं भ न शरसं वससजाङ् कु नैः ।।५४

तल धे य ाणः का लयः शनकैह रम् ।


कृ ात् समु छ् वसन् द नः कृ णं ाह कतांज लः ।।५५
का लय उवाच
वयं खलाः सहो प या तामसा द घम यवः ।
वभावो यजो नाथ लोकानां यदसद् हः ।।५६

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वया सृ मदं व ं धातगुण वसजनम् ।
नाना वभाववीय जोयो नबीजाशयाकृ त ।।५७

वयं च त भगवन् सपा जा यु म यवः ।


कथं यजाम व मायां यजां मो हताः वयम् ।।५८

भवान् ह कारणं त सव ो जगद रः ।


अनु हं न हं वा म यसे तद् वधे ह नः ।।५९
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान्के चरण क ठोकर से का लय नागके फण
छ - भ हो गये थे। वह बेसुध हो रहा था। जब नागप नय ने इस कार भगवान्क तु त
क , तब उ ह ने दया करके उसे छोड़ दया ।।५४।। धीरे-धीरे का लय नागक इ य और
ाण म कुछ-कुछ चेतना आ गयी। वह बड़ी क ठनतासे ास लेने लगा और थोड़ी दे रके बाद
बड़ी द नतासे हाथ जोड़कर भगवान् ीकृ णसे इस कार बोला ।।५५।।
का लय नागने कहा—नाथ! हम ज मसे ही , तमोगुणी और ब त दन के बाद भी
बदला लेनेवाले—बड़े ोधी जीव ह। जीव के लये अपना वभाव छोड़ दे ना ब त क ठन है।
इसीके कारण संसारके लोग नाना कारके रा ह म फँस जाते ह ।।५६।। व वधाता!
आपने ही गुण के भेदसे इस जगत्म नाना कारके वभाव, वीय, बल, यो न, बीज, च
और आकृ तय का नमाण कया है ।।५७।। भगवन्! आपक ही सृ म हम सप भी ह। हम
ज मसे ही बड़े ोधी होते ह। हम इस मायाके च करम वयं मो हत हो रहे ह। फर अपने
य नसे इस यज मायाका याग कैसे कर ।।५८।। आप सव और स पूण जगत्के
वामी ह। आप ही हमारे वभाव और इस मायाके कारण ह। अब आप अपनी इ छासे—
जैसा ठ क समझ—कृपा क जये या द ड द जये ।।५९।।
ीशुक उवाच
इ याक य वचः ाह भगवान् कायमानुषः ।
ना थेयं वया सप समु ं या ह मा चरम् ।
व ा यप यदारा ो गोनृ भभु यतां नद ।।६०

य एतत् सं मरे म य तु यं मदनुशासनम् ।


क तय ुभयोः स योन यु मद् भयमा ुयात् ।।६१

योऽ मन् ना वा मदा डे दे वाद तपये जलैः ।


उपो य मां मर चत् सवपापैः मु यते ।।६२

पं रमणकं ह वा दमेतमुपा तः ।
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य यात् स सुपण वां ना ा म पादला छतम् ।।६३
ीशुक उवाच
एवमु ो भगवता कृ णेना तकमणा ।
तं पूजयामास मुदा नागप य सादरम् ।।६४

द ा बर ङ् म ण भः परा यर प भूषणैः ।
द ग धानुलेपै मह यो पलमालया ।।६५

पूज य वा जग ाथं सा ग ड वजम् ।


ततः ीतोऽ यनु ातः प र या भव तम् ।।६६

सकल सु पु ो पम धेजगाम ह ।
तदै व सामृतजला यमुना न वषाभवत् ।
अनु हाद् भगवतः डामानुष पणः ।।६७
ीशुकदे वजी कहते ह—का लय नागक बात सुनकर लीला-मनु य भगवान् ीकृ णने
कहा—‘सप! अब तुझे यहाँ नह रहना चा हये। तू अपने जा त-भाई, पु और य के साथ
शी ही यहाँसे समु म चला जा। अब गौएँ और मनु य यमुना-जलका उपभोग कर ।।६०।।
जो मनु य दोन समय तुझको द ई मेरी इस आ ाका मरण तथा क तन करे, उसे साँप से
कभी भय न हो ।।६१।। मने इस का लयदहम ड़ा क है। इस लये जो पु ष इसम नान
करके जलसे दे वता और पतर का तपण करेगा, एवं उपवास करके मेरा मरण करता आ
मेरी पूजा करेगा—वह सब पाप से मु हो जायगा ।।६२।। म जानता ँ क तू ग डके
भयसे रमणक प छोड़कर इस दहम आ बसा था। अब तेरा शरीर मेरे चरण च से अं कत
हो गया है। इस लये जा, अब ग ड तुझे खायगे नह ।।६३।।
ीशुकदे वजी कहते ह—भगवान् ीकृ णक एक-एक लीला अद्भुत है। उनक ऐसी
आ ा पाकर का लय नाग और उसक प नय ने आन दसे भरकर बड़े आदरसे उनक पूजा
क ।।६४।।
उ ह ने द व , पु पमाला, म ण, ब मू य आभूषण, द ग ध, च दन और अ त
उ म कमल क मालासे जगत्के वामी ग ड वज भगवान् ीकृ णका पूजन करके उ ह
स कया। इसके बाद बड़े ेम और आन दसे उनक प र मा क , व दना क और उनसे
अनुम त ली। तब अपनी प नय , पु और ब धु-बा धव के साथ रमणक पक , जो
समु म सप के रहनेका एक थान है, या ा क । लीला-मनु य भगवान् ीकृ णक कृपासे
यमुनाजीका जल केवल वषहीन ही नह , ब क उसी समय अमृतके समान मधुर हो
गया ।।६५-६७।।

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इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध का लयमो णं नाम
षोडशोऽ यायः ।।१६।।

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अथ स तदशोऽ यायः
का लयके का लयदहम आनेक कथा तथा भगवान्का
जवा सय को दावानलसे बचाना
राजोवाच
नागालयं रमणकं क मा याज का लयः ।
कृतं क वा सुपण य तेनैकेनासमंजसम् ।।१
ीशुक उवाच
उपहायः सपजनैमा स मासीह यो ब लः ।
वान प यो महाबाहो नागानां ाङ् न पतः ।।२

वं वं भागं य छ त नागाः पव ण पव ण ।
गोपीथाया मनः सव सुपणाय महा मने ।।३

वषवीयमदा व ः का वेय तु का लयः ।


कदथ कृ य ग डं वयं तं बुभुजे ब लम् ।।४

त छ वा कु पतो राजन् भगवान् भगव यः ।


व जघांसुमहावेगः का लयं समुपा वत् ।।५

तमापत तं तरसा वषायुधः


य यया तनैकम तकः ।
द ः सुपण दशद् ददायुधः
कराल ज ो छ् व सतो लोचनः ।।६

तं ता यपु ः स नर य म युमान्
च डवेगो मधुसूदनासनः ।
राजा परी त्ने पूछा—भगवन्! का लय नागने नाग के नवास थान रमणक
पको य छोड़ा था? और उस अकेलेने ही ग डजीका कौन-सा अपराध कया
था? ।।१।।
ीशुकदे वीजीने कहा—परी त्! पूवकालम ग डजीको उपहार व प ा त
होनेवाले सप ने यह नयम कर लया था क येक मासम न द वृ के नीचे ग डको
एक सपक भट द जाय ।।२।।
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इस नयमके अनुसार येक अमाव याको सारे सप अपनी र ाके लये महा मा
ग डजीको अपना-अपना भाग दे ते रहते थे* ।।३।। उन सप म क क ू ा पु का लय
नाग अपने वष और बलके घमंडसे मतवाला हो रहा था। उसने ग डका तर कार
करके वयं तो ब ल दे ना र रहा— सरे साँप जो ग डको ब ल दे त,े उसे भी खा
लेता ।।४।। परी त्! यह सुनकर भगवान्के यारे पाषद श शाली ग डको बड़ा
ोध आया। इस लये उ ह ने का लय नागको मार डालनेके वचारसे बड़े वेगसे उसपर
आ मण कया ।।५।। वषधर का लय नागने जब दे खा क ग ड बड़े वेगसे मुझपर
आ मण करने आ रहे ह, तब वह अपने एक सौ एक फण फैलाकर डसनेके लये
उनपर टू ट पड़ा। उसके पास श थे केवल दाँत, इस लये उसने दाँत से ग डको डस
लया। उस समय वह अपनी भयावनी जीभ लपलपा रहा था, उसक साँस लंबी चल
रही थी और आँख बड़ी डरावनी जान पड़ती थ ।।६।। ता यन दन ग डजी
व णुभगवान्के वाहन ह और उनका वेग तथा परा म भी अतुलनीय है। का लय
नागक यह ढठाई दे खकर उनका ोध और भी बढ़ गया तथा उ ह ने उसे अपने
शरीरसे झटककर फक दया एवं अपने सुनहले बाय पंखसे का लय नागपर बड़े जोरसे
हार कया ।।७।। उनके पंखक चोटसे का लय नाग घायल हो गया। वह घबड़ाकर
वहाँसे भगा और यमुनाजीके इस कु डम चला आया। यमुनाजीका यह कु ड ग डके
लये अग य था। साथ ही वह इतना गहरा था क उसम सरे लोग भी नह जा सकते
थे ।।८।। इसी थानपर एक दन ुधातुर ग डने तप वी सौभ रके मना करनेपर भी
अपने अभी भ य म यको बलपूवक पकड़कर खा लया ।।९।। अपने मु खया
म यराजके मारे जानेके कारण मछ लय को बड़ा क आ। वे अ य त द न और
ाकुल हो गय । उनक यह दशा दे खकर मह ष सौभ रको बड़ी दया आयी। उ ह ने
उस कु डम रहनेवाले सब जीव क भलाईके लये ग डको यह शाप दे दया ।।१०।।
‘य द ग ड फर कभी इस कु डम घुसकर मछ लय को खायगे, तो उसी ण ाण से
हाथ धो बैठगे। म यह स य-स य कहता ँ’ ।।११।।

प ेण स ेन हर यरो चषा
जघान क सू ुतमु व मः ।।७

सुपणप ा भहतः का लयोऽतीव व लः ।


दं ववेश का ल ा तदग यं रासदम् ।।८

त ैकदा जलचरं ग डो भ यमी सतम् ।


नवा रतः सौभ रणा स ु धतोऽहरत् ।।९

मीनान् सु ः खतान् ् वा द नान् मीनपतौ हते ।

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कृपया सौभ रः ाह त य ेममाचरन् ।।१०

अ व य ग डो य द म यान् स खाद त ।
स ः ाणै वयु येत स यमेतद् वी यहम् ।।११

तं का लयः परं वेद ना यः क न ले लहः ।


अवा सीद् ग डाद् भीतः कृ णेन च ववा सतः ।।१२

कृ णं दाद् व न ा तं द ग धवाससम् ।
महाम णगणाक ण जा बूनदप र कृतम् ।।१३

उपल यो थताः सव ल ध ाणा इवासवः ।


मोद नभृता मानो गोपाः ी या भरे भरे ।।१४

यशोदा रो हणी न दो गो यो गोपा कौरव ।


कृ णं समे य ल धेहा आसँ ल धमनोरथाः ।।१५

राम ा युतमा लगय जहासा यानुभाव वत् ।


नगा गावो वृषा व सा ले भरे परमां मुदम् ।।१६

न दं व ाः समाग य गुरवः सकल काः ।


ऊचु ते का लय तो द ा मु तवा मजः ।।१७
परी त्! मह ष सौभ रके इस शापक बात का लय नागके सवा और कोई साँप
नह जानता था। इस लये वह ग डके भयसे वहाँ रहने लगा था और अब भगवान्
ीकृ णने उसे नभय करके वहाँसे रमणक पम भेज दया ।।१२।।
परी त्! इधर भगवान् ीकृ ण द माला, ग ध, व , महामू य म ण और
सुवणमय आभूषण से वभू षत हो उस कु डसे बाहर नकले ।।१३।। उनको दे खकर
सब-के-सब जवासी इस कार उठ खड़े ए, जैसे ाण को पाकर इ याँ सचेत हो
जाती ह। सभी गोप का दय आन दसे भर गया। वे बड़े ेम और स तासे अपने
क हैयाको दयसे लगाने लगे ।।१४।। परी त्! यशोदारानी, रो हणीजी, न दबाबा,
गोपी और गोप—सभी ीकृ णको पाकर सचेत हो गये। उनका मनोरथ सफल हो
गया ।।१५।। बलरामजी तो भगवान्का भाव जानते ही थे। वे ीकृ णको दयसे
लगाकर हँसने लगे। पवत, वृ , गाय, बैल, बछड़े—सब-के-सब आन दम न हो
गये ।।१६।।
गोप के कुलगु ा ण ने अपनी प नय के साथ न दबाबाके पास आकर कहा
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—‘न दजी! तु हारे बालकको का लय नागने पकड़ लया था। सो छू टकर आ गया।
यह बड़े सौभा यक बात है! ।।१७।। ीकृ णके मृ युके मुखसे लौट आनेके उपल यम
तुम ा ण को दान करो।’ परी त्! ा ण क बात सुनकर न दबाबाको बड़ी
स ता ई। उ ह ने ब त-सा सोना और गौएँ ा ण को दान द ।।१८।। परम
सौभा यवती दे वी यशोदाने भी कालके गालसे बचे ए अपने लालको गोदम लेकर
दयसे चपका लया। उनक आँख से आन दके आँसु क बूँद बार-बार टपक
पड़ती थ ।।१९।।

दे ह दानं जातीनां कृ ण नमु हेतवे ।


न दः ीतमना राजन् गाः सुवण तदा दशत् ।।१८

यशोदा प महाभागा न ल ध जा सती ।


प र व याङकमारो य मुमोचा ुकलां मु ः ।।१९

तां रा त राजे ु ृड् यां मक शताः ।


ऊषु जौकसो गावः का ल ा उपकूलतः ।।२०

तदा शु चवनो तो दावा नः सवतो जम् ।


सु तं नशीथ आवृ य द धुमुपच मे ।।२१

तत उ थाय स ा ता द माना जौकसः ।


कृ णं ययु ते शरणं मायामनुजमी रम् ।।२२

कृ ण कृ ण महाभाग हे रामा मत व म ।
एष घोरतमो व तावकान् सते ह नः ।।२३

सु तरा ः वान् पा ह काला नेः सु दः भो ।


न श नुम व चरणं सं य ु मकुतोभयम् ।।२४

इ थं वजनवै ल ं नरी य जगद रः ।


तम नम पब ी मन तोऽन तश धृक् ।।२५
राजे ! जवासी और गौएँ सब ब त ही थक गये थे। ऊपरसे भूख- यास भी लग
रही थी। इस लये उस रात वे जम नह गये, वह यमुनाजीके तटपर सो रहे ।।२०।।
गम के दन थे, उधरका वन सूख गया था। आधी रातके समय उसम आग लग गयी।
उस आगने सोये ए जवा सय को चार ओरसे घेर लया और वह उ ह जलाने

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लगी ।।२१।। आगक आँच लगनेपर जवासी घबड़ाकर उठ खड़े ए और लीला-
मनु य भगवान् ीकृ णक शरणम गये ।।२२।। उ ह ने कहा—‘ यारे ीकृ ण!
यामसु दर! महाभा यवान् बलराम! तुम दोन का बल- व म अन त है। दे खो, दे खो,
यह भयंकर आग तु हारे सगे-स ब धी हम वजन को जलाना ही चाहती है ।।२३।।
तुमम सब साम य है। हम तु हारे सु द् ह, इस लये इस लयक अपार आगसे हम
बचाओ। भो! हम मृ युसे नह डरते, पर तु तु हारे अकुतोभय चरणकमल छोड़नेम
हम असमथ ह ।।२४।। भगवान् अन त ह; वे अन त श य को धारण करते ह, उन
जगद र भगवान् ीकृ णने जब दे खा क मेरे वजन इस कार ाकुल हो रहे ह तब
वे उस भयंकर आगको पी गये* ।।२५।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध दावा नमोचनं
नाम स तदशोऽ यायः ।।१७।।

* यह कथा इस कार है—ग डजीक माता वनता और सप क माता क म ू


पर पर वैर था। माताका वैर मरण कर ग डजी जो सप मलता उसीको खा
जाते। इससे ाकुल होकर सब सप ाजीक शरणम गये। तब ाजीने यह
नयम कर दया क येक अमावा याको येक सपप रवार बारी-बारीसे
ग डजीको एक सपक ब ल दया करे।
अ न-पान
* १. म सबका दाह र करनेके लये ही अवतीण आ ँ। इस लये यह दाह

र करना भी मेरा कत है।


* २. रामावतारम ीजानक जीको सुर त रखकर अ नने मेरा उपकार
कया था। अब उसको अपने मुखम था पत करके उसका स कार करना कत
है।
३. कायका कारणम लय होता है। भगवान्के मुखसे अ न कट आ—
मुखाद् अ नरजायत। इस लये भगवान्ने उसे मुखम ही था पत कया।
४. मुखके ारा अ न शा त करके यह भाव कट कया क भव-दावा नको
शा त करनेम भगवान्के मुख- थानीय ा ण ही समथ ह।

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अथा ादशोऽ यायः
ल बासुर-उ ार
ीशुक उवाच
अथ कृ णः प रवृतो ा त भमु दता म भः ।
अनुगीयमानो य वशद् जं गोकुलम डतम् ।।१

जे व डतोरेवं गोपाल छ मायया ।


ी मो नामतुरभव ा त ेया छरी रणाम् ।।२

स च वृ दावनगुणैवस त इव ल तः ।
य ा ते भगवान् सा ाद् रामेण सह केशवः ।।३

य नझर न ाद नवृ वन झ लकम् ।


श छ करज ष मम डलम डतम् ।।४

स र सरः वणो मवायुना


क ारकंजो पलरेणुहा रणा ।
न व ते य वनौकसां दवो
नदाघव यकभवोऽ तशा ले ।। ५

अगाधतोय दनीतटो म भ-
व युरी याः पु लनैः सम ततः ।
न य च डांशुकरा वषो बणा
भुवो रसं शा लतं च गृ ते ।।६
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! अब आन दत वजन स ब धय से घरे ए एवं
उनके मुखसे अपनी क तका गान सुनते ए ीकृ णने गोकुलम डत गो म वेश
कया ।।१।।
इस कार अपनी योगमायासे वालका-सा वेष बनाकर राम और याम जम डा कर
रहे थे। उन दन ी म ऋतु थी। यह शरीरधा रय को ब त य नह है ।।२।।
पर तु वृ दावनके वाभा वक गुण से वहाँ वस तक ही छटा छटक रही थी। इसका
कारण था, वृ दावनम परम मधुर भगवान् यामसु दर ीकृ ण और बलरामजी नवास जो
करते थे ।।३।।

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झ गुर क तीखी झंकार झरन के मधुर झर-झरम छप गयी थी। उन झरन से सदा-सवदा
ब त ठं डी जलक फु हयाँ उड़ा करती थ , जनसे वहाँके वृ क ह रयाली दे खते ही बनती
थी ।।४।।
जधर दे खये, हरी-हरी बसे पृ वी हरी-हरी हो रही है। नद , सरोवर एवं झरन क
लहर का पश करके जो वायु चलती थी उसम लाल-पीले-नीले तुरंतके खले ए, दे रके
खले ए—क ार, उ पल आ द अनेक कारके कमल का पराग मला आ होता था। इस
शीतल, म द और सुग ध वायुके कारण वनवा सय को गम का कसी कारका लेश नह
सहना पड़ता था। न दावा नका ताप लगता था और न तो सूयका घाम ही ।।५।।
न दय म अगाध जल भरा आ था। बड़ी-बड़ी लहर उनके तट को चूम जाया करती थ ।
वे उनके पु लन से टकरात और उ ह व छ बना जात । उनके कारण आस-पासक भू म
गीली बनी रहती और सूयक अ य त उ तथा तीखी करण भी वहाँक पृ वी और हरी-भरी
घासको नह सुखा सकती थ ; चार ओर ह रयाली छा रही थी ।।६।।

वनं कुसु मतं ीम द च मृग जम् ।


गाय मयूर मरं कूज को कलसारसम् ।।७

ड यमाण तत् कृ णो भगवान् बलसंयुतः ।


वेणुं वरणयन् गोपैग धनैः संवृतोऽ वशत् ।।८

वालबह तबक धातुकृतभूषणाः ।


रामकृ णादयो गोपा ननृतुयुयुधुजगुः ।।९

कृ ण य नृ यतः के च जगुः के चदवादयन् ।


वेणुपा णतलैः शृ ै ः शशंसुरथापरे ।।१०

गोपजा त त छ ौ दे वा गोपाल पणः ।


इ डरे कृ णरामौ च नटा इव नटं नृप ।।११

ामणैलघनैः पे ैरा फोटन वकषणैः ।


च डतु नयु े न काकप धरौ व चत् ।।१२

व च ृ य सु चा येषु गायकौ वादकौ वयम् ।


शशंसतुमहाराज साधु सा व त वा दनौ ।।१३
उस वनम वृ क पाँत-क -पाँत फूल से लद रही थी। जहाँ दे खये, वह से सु दरता फूट
पड़ती थी। कह रंग- बरंगे प ी चहक रहे ह, तो कह तरह-तरहके ह रन चौकड़ी भर रहे ह।
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कह मोर कूक रहे ह, तो कह भ रे गुंजार कर रहे ह। कह कोयल कुहक रही ह तो कह
सारस अलग ही अपना अलाप छे ड़े ए ह ।।७।। ऐसा सु दर वन दे खकर यामसु दर
ीकृ ण और गौरसु दर बलरामजीने उसम वहार करनेक इ छा क । आगे-आगे गौएँ चल ,
पीछे -पीछे वालबाल और बीचम अपने बड़े भाईके साथ बाँसुरी बजाते ए ीकृ ण ।।८।।
राम, याम और वालबाल ने नव प लव , मोर-पंखके गु छ , सु दर-सु दर पु प के हार
और गे आ द रंगीन धातु से अपनेको भाँ त-भाँ तसे सजा लया। फर कोई आन दम
म न होकर नाचने लगा तो कोई ताल ठ ककर कु ती लड़ने लगा और कसी- कसीने राग
अलापना शु कर दया ।।९।। जस समय ीकृ ण नाचने लगते, उस समय कुछ वालबाल
गाने लगते और कुछ बाँसुरी तथा स ग बजाने लगते। कुछ हथेलीसे ही ताल दे त,े तो कुछ
‘वाह-वाह’ करने लगते ।।१०।। परी त्! उस समय नट जैसे अपने नायकक शंसा करते
ह, वैसे ही दे वतालोग वालबाल का प धारण करके वहाँ आते और गोपजा तम ज म लेकर
छपे ए बलराम और ीकृ णक तु त करने लगते ।।११।। घुँघराली अलक वाले याम
और बलराम कभी एक- सरेका हाथ पकड़कर कु हारके चाकक तरह च कर काटते—
घुमरी-परेता खेलते। कभी एक- सरेसे अ धक फाँद जानेक इ छासे कूदते—कूँड़ी डाकते,
कभी कह होड़ लगाकर ढे ले फकते तो कभी ताल ठ क-ठ ककर र साकसी करते—एक
दल सरे दलके वपरीत र सी पकड़कर ख चता और कभी कह एक- सरेसे कु ती लड़ते-
लड़ाते। इस कार तरह-तरहके खेल खेलते ।।१२।। कह -कह जब सरे वालबाल नाचने
लगते तो ीकृ ण और बलरामजी गाते या बाँसुरी, स ग आ द बजाते। और महाराज! कभी-
कभी वे ‘वाह-वाह’ कहकर उनक शंसा भी करने लगते ।।१३।।

व चद् ब वैः व चत् कु भैः व चामलकमु भः ।


अ पृ यने ब धा ैः व च मृगखगेहया ।।१४

व च च द र लावै व वधै पहासकैः ।


कदा चत् प दो लकया क ह च ृपचे या ।।१५

एवं तौ लोक स ा भः डा भ ेरतुवने ।


न ो णकुंजेषु काननेषु सर सु च ।।१६

पशूं ारयतोग पै त ने रामकृ णयोः ।


गोप पी ल बोऽगादसुर त जहीषया ।।१७

तं व ान प दाशाह भगवान् सवदशनः ।


अ वमोदत त स यं वधं त य व च तयन् ।।१८

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त ोपा य गोपालान् कृ णः ाह वहार वत् ।
हे गोपा वह र यामो भूय यथायथम् ।।१९

त च ु ः प रवृढौ गोपा रामजनादनौ ।


कृ णसंघ नः के चदासन् राम य चापरे ।।२०

आचे व वधाः डा वा वाहकल णाः ।


य ारोह त जेतारो वह त च परा जताः ।।२१
कभी एक- सरेपर बेल, जायफल या आँवलेके फल हाथम लेकर फकते। कभी एक-
सरेक आँख बंद करके छप जाते और वह पीछे से ढूँ ढ़ता—इस कार आँख मचौनी
खेलते। कभी एक- सरेको छू नेके लये ब त र- रतक दौड़ते रहते और कभी पशु-
प य क चे ा का अनुकरण करते ।।१४।। कह मेढक क तरह फुदक-फुदककर चलते
तो कभी मुँह बना-बनाकर एक- सरेक हँसी उड़ाते। कह र सय से वृ पर झूला डालकर
झूलते तो कभी दो बालक को खड़ा कराकर उनक बाँह के बलपर ही लटकने लगते। कभी
कसी राजाक नकल करने लगते ।।१५।। इस कार राम और याम वृ दावनक नद , पवत,
घाट , कुंज, वन और सरोवर म वे सभी खेल खेलते जो साधारण ब चे संसारम खेला करते
ह ।।१६।।
एक दन जब बलराम और ीकृ ण वालबाल के साथ उस वनम गौएँ चरा रहे थे तब
वालके वेषम ल ब नामका एक असुर आया। उसक इ छा थी क म ीकृ ण और
बलरामको हर ले जाऊँ ।।१७।। भगवान् ीकृ ण सव ह। वे उसे दे खते ही पहचान गये।
फर भी उ ह ने उसका म ताका ताव वीकार कर लया। वे मन-ही-मन यह सोच रहे थे
क कस यु से इसका वध करना चा हये ।।१८।। वालबाल म सबसे बड़े खलाड़ी,
खेल के आचाय ीकृ ण ही थे। उ ह ने सब वालबाल को बुलाकर कहा—मेरे यारे म ो!
आज हमलोग अपनेको उ चत री तसे दो दल म बाँट ल और फर आन दसे खेल ।।१९।।
उस खेलम वालबाल ने बलराम और ीकृ णको नायक बनाया। कुछ ीकृ णके साथी बन
गये और कुछ बलरामके ।।२०।। फर उन लोग ने तरह-तरहसे ऐसे ब त-से खेल खेल,े
जनम एक दलके लोग सरे दलके लोग को अपनी पीठपर चढ़ाकर एक न द थानपर ले
जाते थे। जीतनेवाला दल चढ़ता था और हारनेवाला दल ढोता था ।।२१।। इस कार एक-
सरेक पीठपर चढ़ते-चढ़ाते ीकृ ण आ द वालबाल गौएँ चराते ए भा डीर नामक वटके
पास प ँच गये ।।२२।।

वह तो वा माना चारय त गोधनम् ।


भा डीरकं नाम वटं ज मुः कृ णपुरोगमाः ।।२२

रामसंघ नो य ह ीदामवृषभादयः ।
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डायां ज यन तां तानू ः कृ णादयो नृप ।।२३

उवाह कृ णो भगवान् ीदामानं परा जतः ।


वृषभं भ सेन तु ल बो रो हणीसुतम् ।।२४

अ वष ं म यमानः कृ णं दानवपुंगवः ।
वहन् ततरं ागादवरोहणतः परम् ।।२५

तमु हन् धर णधरे गौरवं


महासुरो वगतरयो नजं वपुः ।
स आ थतः पुरटप र छदो बभौ
त डद् ुमानुडुप तवा डवा बुदः ।।२६

नरी य त पुरलम बरे चरत्


द त ग् ुकु टतटो दं कम् ।
वल छखं कटक करीटकु डल-
वषा तं हलधर ईषद सत् ।।२७

अथागत मृ तरभयो रपुं बलो


वहायसाथ मव हर तमा मनः ।
षाहन छर स ढे न मु ना
सुरा धपो ग र मव व रंहसा ।।२८

स आहतः सप द वशीणम तको


मुखाद् वमन् धरमप मृतोऽसुरः ।
परी त्! एक बार बलरामजीके दलवाले ीदामा, वृषभ आ द वालबाल ने खेलम
बाजी मार ली। तब ीकृ ण आ द उ ह अपनी पीठपर चढ़ाकर ढोने लगे ।।२३।। हारे ए
ीकृ णने ीदामाको अपनी पीठपर चढ़ाया, भ सेनने वृषभको और ल बने
बलरामजीको ।।२४।। दानवपुंगव ल बने दे खा क ीकृ ण तो बड़े बलवान् ह, उ ह म नह
हरा सकूँगा। अतः वह उ ह के प म हो गया और बलरामजीको लेकर फुत से भाग चला,
और पीठपरसे उतारनेके लये जो थान नयत था, उससे आगे नकल गया ।।२५।।
बलरामजी बड़े भारी पवतके समान बोझवाले थे। उनको लेकर ल बासुर रतक न जा
सका, उसक चाल क गयी। तब उसने अपना वाभा वक दै य प धारण कर लया। उसके
काले शरीरपर सोनेके गहने चमक रहे थे और गौरसु दर बलरामजीको धारण करनेके कारण
उसक ऐसी शोभा हो रही थी, मानो बजलीसे यु काला बादल च माको धारण कये ए

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हो ।।२६।। उसक आँख आगक तरह धधक रही थ और दाढ़ भ ह तक प ँची ई बड़ी
भयावनी थ । उसके लाल-लाल बाल इस तरह बखर रहे थे, मानो आगक लपट उठ रही ह ।
उसके हाथ और पाँव म कड़े, सरपर मुकुट और कान म कु डल थे। उनक का तसे वह
बड़ा अद्भुत लग रहा था! उस भयानक दै यको बड़े वेगसे आकाशम जाते दे ख पहले तो
बलरामजी कुछ घबड़ा-से गये ।।२७।। पर तु सरे ही ण अपने व पक याद आते ही
उनका भय जाता रहा। बलरामजीने दे खा क जैसे चोर कसीका धन चुराकर ले जाय, वैसे
ही यह श ु मुझे चुराकर आकाश-मागसे लये जा रहा है। उस समय जैसे इ ने पवत पर
व चलाया था, वैसे ही उ ह ने ोध करके उसके सरपर एक घूँसा कसकर जमाया ।।२८।।
घूँसा लगना था क उसका सर चूर-चूर हो गया। वह मुँहसे खून उगलने लगा, चेतना जाती
रही और बड़ा भयंकर श द करता आ इ के ारा व से मारे ए पवतके समान वह उसी
समय ाणहीन होकर पृ वीपर गर पड़ा ।।२९।।

महारवं सुरपतत् समीरयन्


ग रयथा मघवत आयुधाहतः ।।२९

् वा ल बं नहतं बलेन बलशा लना ।


गोपाः सु व मता आसन् साधु सा व त वा दनः ।।३०

आ शषोऽ भगृण त तं शशंसु तदहणम् ।


े यागत मवा लङ् य ेम व लचेतसः ।।३१

पापे ल बे नहते दे वाः परम नवृताः ।


अ यवषन् बलं मा यैः शशंसुः साधु सा व त ।।३२
बलरामजी परम बलशाली थे। जब वालबाल ने दे खा क उ ह ने ल बासुरको मार
डाला, तब उनके आ यक सीमा न रही। वे बार-बार ‘वाह-वाह’ करने लगे ।।३०।।
वालबाल का च ेमसे व ल हो गया। वे उनके लये शुभ कामना क वषा करने लगे
और मानो मरकर लौट आये ह , इस भावसे आ लगन करके शंसा करने लगे। व तुतः
बलरामजी इसके यो य ही थे ।।३१।।
ल बासुर मू तमान् पाप था। उसक मृ युसे दे वता को बड़ा सुख मला। वे
बलरामजीपर फूल बरसाने लगे और ‘ब त अ छा कया, ब त अ छा कया’ इस कार
कहकर उनक शंसा करने लगे ।।३२।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध ल बवधो
नामा ादशोऽ यायः ।।१८।।

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अथैकोन वशोऽ यायः
गौ और गोप को दावानलसे बचाना
ीशुक उवाच
डास े षु गोपेषु तद्गावो रचा रणीः ।
वैरं चर यो व वशु तृणलोभेन ग रम् ।।१

अजा गावो म ह य न वश यो वनाद् वनम् ।


इषीकाटव न व वशुः द यो दावत षताः ।।२

तेऽप य तः पशून् गोपाः कृ णरामादय तदा ।


जातानुतापा न व व च व तो गवां ग तम् ।।३
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! उस समय जब वालबाल खेल-कूदम लग गये, तब
उनक गौएँ बेरोक-टोक चरती ई ब त र नकल गय और हरी-हरी घासके लोभसे एक
गहन वनम घुस गय ।।१।। उनक बक रयाँ, गाय और भस एक वनसे सरे वनम होती ई
आगे बढ़ गय तथा गम के तापसे ाकुल हो गय । वे बेसुध-सी होकर अ तम डकराती ई
मुंजाटवी (सरकंड के वन) म घुस गय ।।२।। जब ीकृ ण, बलराम आ द वालबाल ने दे खा
क हमारे पशु का तो कह पता- ठकाना ही नह है, तब उ ह अपने खेल-कूदपर बड़ा
पछतावा आ और वे ब त कुछ खोज-बीन करनेपर भी अपनी गौ का पता न लगा
सके ।।३।।

तृणै त खुरद छ ैग पदै रं कतैगवाम् ।


मागम वगमन् सव न ाजी ा वचेतसः ।।४

मुंजाट ां माग दमानं वगोधनम् ।


स ा य तृ षताः ा ता तत ते सं यवतयन् ।।५

ता आ ता भगवता मेघग भीरया गरा ।


वना नां ननदं ु वा तने ः ह षताः ।।६

ततः सम ताद् वनधूमकेतु-


य छयाभूत् यकृद् वनौकसाम् ।
समी रतः सार थनो बणो मुकै-
वले लहानः थरजंगमान् महान् ।।७
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तमापत तं प रतो दवा नं
गोपा गावः समी य भीताः ।
ऊचु कृ णं सबलं प ा
यथा ह र मृ युभया दता जनाः ।।८

कृ ण कृ ण महावीर हे रामा मत व म ।
दावा नना द मानान् प ां ातुमहथः ।।९

नूनं व ा धवाः कृ ण न चाह यवसी दतुम् ।


वयं ह सवधम व ाथा व परायणाः ।।१०
ीशुक उवाच
वचो नश य कृपणं ब धूनां भगवान् ह रः ।
नमीलयत मा भै लोचनानी यभाषत ।।११
गौएँ ही तो जवा सय क जी वकाका साधन थ । उनके न मलनेसे वे अचेत-से हो रहे
थे। अब वे गौ के खुर और दाँत से कट ई घास तथा पृ वीपर बने ए खुर के च से
उनका पता लगाते ए आगे बढ़े ।।४।। अ तम उ ह ने दे खा क उनक गौएँ मुंजाटवीम रा ता
भूलकर डकरा रही ह। उ ह पाकर वे लौटानेक चे ा करने लगे। उस समय वे एकदम थक
गये थे और उ ह यास भी बड़े जोरसे लगी ई थी। इससे वे ाकुल हो रहे थे ।।५।। उनक
यह दशा दे खकर भगवान् ीकृ ण अपनी मेघके समान ग भीर वाणीसे नाम ले-लेकर
गौ को पुकारने लगे। गौएँ अपने नामक व न सुनकर ब त ह षत । वे भी उ रम
ंकारने और रँभाने लग ।।६।।
परी त्! इस कार भगवान् उन गाय को पुकार ही रहे थे क उस वनम सब ओर
अक मात् दावा न लग गयी, जो वनवासी जीव का काल ही होती है। साथ ही बड़े जोरक
आँधी भी चलकर उस अ नके बढ़नेम सहायता दे ने लगी। इससे सब ओर फैली ई वह
च ड अ न अपनी भयंकर लपट से सम त चराचर जीव को भ मसात् करने लगी ।।७।।
जब वाल और गौ ने दे खा क दावानल चार ओरसे हमारी ही ओर बढ़ता आ रहा है, तब
वे अ य त भयभीत हो गये। और मृ युके भयसे डरे ए जीव जस कार भगवान्क शरणम
आते ह, वैसे ही वे ीकृ ण और बलरामजीके शरणाप होकर उ ह पुकारते ए बोले
— ।।८।। ‘महावीर ीकृ ण! यारे ीकृ ण! परम बलशाली बलराम! हम तु हारे शरणागत
ह। दे खो, इस समय हम दावानलसे जलना ही चाहते ह। तुम दोन हम इससे बचाओ ।।९।।
ीकृ ण! जनके तु ह भाई-ब धु और सब कुछ हो, उ ह तो कसी कारका क नह होना
चा हये। सब धम के ाता यामसु दर! तु ह हमारे एकमा र क एवं वामी हो; हम केवल
तु हारा ही भरोसा है’ ।।१०।।
ीशुकदे वजी कहते ह—अपने सखा वालबाल के ये द नतासे भरे वचन सुनकर
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भगवान् ीकृ णने कहा—‘डरो मत, तुम अपनी आँख बंद कर लो’ ।।११।। भगवान्क
आ ा सुनकर उन वालबाल ने कहा ‘ब त अ छा’ और अपनी आँख मूँद ल । तब योगे र
भगवान् ीकृ णने उस भयंकर आगको अपने मुँहसे पी लया* और इस कार उ ह उस घोर
संकटसे छु ड़ा दया ।।१२।। इसके बाद जब वालबाल ने अपनी-अपनी आँख खोलकर दे खा
तब अपनेको भा डीर वटके पास पाया। इस कार अपने-आपको और गौ को दावानलसे
बचा दे ख वे वालबाल ब त ही व मत ए ।।१३।। ीकृ णक इस योग स तथा
योगमायाके भावको एवं दावा-नलसे अपनी र ाको दे खकर उ ह ने यही समझा क
ीकृ ण कोई दे वता ह ।।१४।।
परी त्! सायंकाल होनेपर बलरामजीके साथ भगवान् ीकृ णने गौएँ लौटाय और
वंशी बजाते ए उनके पीछे -पीछे जक या ा क । उस समय वालबाल उनक तु त करते
आ रहे थे ।।१५।। इधर जम गो पय को ीकृ णके बना एक-एक ण सौ-सौ युगके
समान हो रहा था। जब भगवान् ीकृ ण लौटे तब उनका दशन करके वे परमान दम म न हो
गय ।।१६।।

तथे त मी लता ेषु भगवान नमु बणम् ।


पी वा मुखेन तान् कृ ाद् योगाधीशो मोचयत् ।।१२

तत तेऽ ी यु मी य पुनभा डीरमा पताः ।


नशा य व मता आस ा मानं गा मो चताः ।।१३

कृ ण य योगवीय तद् योगमायानुभा वतम् ।


दावा नेरा मनः ेमं वी य ते मे नरेऽमरम् ।।१४

गाः स व य साया े सहरामो जनादनः ।


वेणुं वरणयन् गो मगाद् गोपैर भ ु तः ।।१५

गोपीनां परमान द आसीद् गो व ददशने ।


णं युगशत मव यासां येन वनाभवत् ।।१६
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध दावा नपानं
नामैकोन वशोऽ यायः ।।१९।।

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अथ वशोऽ यायः
वषा और शरद्ऋतुका वणन
ीशुक उवाच
तयो तद तं कम दावा नेम मा मनः ।

गोपाः ी यः समाच युः ल बवधमेव च ।।१


ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! वालबाल ने घर प ँचकर अपनी मा, ब हन आ द
य से ीकृ ण और बलरामने जो कुछ अद्भुत कम कये थे—दावानलसे उनको बचाना,
ल बको मारना इ या द—सबका वणन कया ।।१।।

गोपवृ ा गो य त पाक य व मताः ।


मे नरे दे व वरौ कृ णरामौ जं गतौ ।।२

ततः ावतत ावृट् सवस वसमु वा ।


व ोतमानप र ध व फू जतनभ तला ।।३

सा नीला बुदै म स व ु तन य नु भः ।
अ प यो तरा छ ं ेव सगुणं बभौ ।।४

अ ौ मासान् नपीतं यद् भू या ोदमयं वसु ।


वगो भम ु मारेभे पज यः काल आगते ।।५

त ड व तो महामेघा ड सनवे पताः ।


ीणनं जीवनं य मुमुचुः क णा इव ।।६

तपःकृशा दे वमीढा आसीद् वष यसी मही ।


यथैव का यतपस तनुः स ा य त फलम् ।।७

नशामुखेषु ख ोता तमसा भा त न हाः ।


यथा पापेन पाख डा न ह वेदाः कलौ युगे ।।८

ु वा पज य ननदं म डू का सृजन् गरः ।


तू ण शयानाः ाग् य द् ा णा नयमा यये ।।९

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बड़े-बड़े बूढ़े गोप और गो पयाँ भी राम और यामक अलौ कक लीलाएँ सुनकर
व मत हो गय । वे सब ऐसा मानने लगे क ‘ ीकृ ण और बलरामके वेषम कोई ब त बड़े
दे वता ही जम पधारे ह’ ।।२।।
इसके बाद वषा ऋतुका शुभागमन आ। इस ऋतुम सभी कारके ा णय क बढ़ती हो
जाती है। उस समय सूय और च मापर बार-बार काशमय म डल बैठने लगे। बादल, वायु,
चमक, कड़क आ दसे आकाश ु ध-सा द खने लगा ।।३।। आकाशम नीले और घने बादल
घर आते, बजली क धने लगती, बार-बार गड़गड़ाहट सुनायी पड़ती; सूय, च मा और तारे
ढके रहते। इससे आकाशक ऐसी शोभा होती, जैसे व प होनेपर भी गुण से ढक
जानेपर जीवक होती है ।।४।। सूयने राजाक तरह पृ वी प जासे आठ महीनेतक जलका
कर हण कया था, अब समय आनेपर वे अपनी करण-कर से फर उसे बाँटने लगे ।।५।।
जैसे दयालु पु ष जब दे खते ह क जा ब त पी ड़त हो रही है, तब वे दयापरवश होकर
अपने जीवन- ाणतक नछावर कर दे ते ह— वैसे ही बजलीक चमकसे शोभायमान घनघोर
बादल तेज हवाक ेरणासे ा णय के क याणके लये अपने जीवन व प जलको बरसाने
लगे ।।६।।
जेठ-आषाढ़क गम से पृ वी सूख गयी थी। अब वषाके जलसे सचकर वह फर हरी-
भरी हो गयी—जैसे सकामभावसे तप या करते समय पहले तो शरीर बल हो जाता है,
पर तु जब उसका फल मलता है तब -पु हो जाता है ।।७।। वषाके सायंकालम
बादल से घना अँधेरा छा जानेपर ह और तार का काश तो नह दखलायी पड़ता, पर तु
जुगनू चमकने लगते ह—जैसे क लयुगम पापक बलता हो जानेसे पाख ड मत का चार
हो जाता है और वै दक स दाय लु त हो जाते ह ।।८।। जो मढक पहले चुपचाप सो रहे थे,
अब वे बादल क गरज सुनकर टर-टर करने लगे—जैसे न य- नयमसे नवृ होनेपर गु के
आदे शा-नुसार चारी लोग वेदपाठ करने लगते ह ।।९।। छोट -छोट न दयाँ, जो जेठ-
आषाढ़म बलकुल सूखनेको आ गयी थ , वे अब उमड़-घुमड़कर अपने घेरेसे बाहर बहने
लग —जैसे अ जते य पु षके शरीर और धन स प य का कुमागम उपयोग होने लगता
है ।।१०।। पृ वीपर कह -कह हरी-हरी घासक ह रयाली थी, तो कह -कह बीरब टय क
ला लमा और कह -कह बरसाती छ (सफेद कुकुरमु ) के कारण वह सफेद मालूम दे ती
थी। इस कार उसक ऐसी शोभा हो रही थी, मानो कसी राजाक रंग- बरंगी सेना
हो ।।११।। सब खेत अनाज से भरे-पूरे लहलहा रहे थे। उ ह दे खकर कसान तो मारे
आन दके फूले न समाते थे, पर तु सब कुछ ार धके अधीन है—यह बात न जाननेवाले
ध नय के च म बड़ी जलन हो रही थी क अब हम इ ह अपने पंजेम कैसे रख
सकगे ।।१२।। नये बरसाती जलके सेवनसे सभी जलचर और थलचर ा णय क सु दरता
बढ़ गयी थी, जैसे भगवान्क सेवा करनेसे बाहर और भीतरके दोन ही प सुघड़ हो जाते
ह ।।१३।। वषा-ऋतुम हवाके झोक से समु एक तो य ही उ ाल तरंग से यु हो रहा था,
अब न दय के संयोगसे वह और भी ु ध हो उठा—ठ क वैसे ही जैसे वासनायु योगीका
च वषय का स पक होनेपर कामना के उभारसे भर जाता है ।।१४।। मूसलधार वषाक
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चोट खाते रहनेपर भी पवत को कोई था नह होती थी—जैसे ःख क भरमार होनेपर भी
उन पु ष को कसी कारक था नह होती, ज ह ने अपना च भगवान्को ही सम पत
कर रखा है ।।१५।। जो माग कभी साफ नह कये जाते थे, वे घाससे ढक गये और उनको
पहचानना क ठन हो गया—जैसे जब जा त वेद का अ यास नह करते, तब काल मसे वे
उ ह भूल जाते ह ।।१६।। य प बादल बड़े लोकोपकारी ह, फर भी बज लयाँ उनम थर
नह रहत —ठ क वैसे ही, जैसे चपल अनुरागवाली का मनी याँ गुणी पु ष के पास भी
थरभावसे नह रहत ।।१७।। आकाश मेघ के गजन-तजनसे भर रहा था। उसम नगुण
( बना डोरीके) इ धनुषक वैसी ही शोभा ई, जैसी स व-रज आ द गुण के ोभसे
होनेवाले व के बखेड़ेम नगुण क ।।१८।। य प च माक उ वल चाँदनीसे
बादल का पता चलता था, फर भी उन बादल ने ही च माको ढककर शोभाहीन भी बना
दया था—ठ क वैसे ही, जैसे पु षके आभाससे आभा सत होनेवाला अहंकार ही उसे
ढककर का शत नह होने दे ता ।।१९।। बादल के शुभागमनसे मोर का रोम-रोम खल रहा
था, वे अपनी कुहक और नृ यके ारा आन दो सव मना रहे थे—ठ क वैसे ही, जैसे
गृह थीके जंजालम फँसे ए लोग, जो अ धकतर तीन ताप से जलते और घबराते रहते ह,
भगवान्के भ के शुभागमनसे आन द-म न हो जाते ह ।।२०।। जो वृ जेठ-आषाढ़म सूख
गये थे, वे अब अपनी जड़ से जल पीकर प े, फूल तथा डा लय से खूब सज-धज गये—
जैसे सकामभावसे तप या करनेवाले पहले तो बल हो जाते ह, पर तु कामना पूरी होनेपर
मोटे -तगड़े हो जाते ह ।।२१।। परी त्! तालाब के तट, काँटे-क चड़ और जलके बहावके
कारण ायः अशा त ही रहते थे, पर तु सारस एक णके लये भी उ ह नह छोड़ते थे—
जैसे अशु दयवाले वषयी पु ष काम-धंध क झंझटसे कभी छु टकारा नह पाते, फर भी
घर म ही पड़े रहते ह ।।२२।। वषा ऋतुम इ क ेरणासे मूसलधार वषा होती है, इससे
न दय के बाँध और खेत क मेड़ टू ट-फूट जाती ह—जैसे क लयुगम पाख डय के तरह-
तरहके म या मतवाद से वै दक मागक मयादा ढ ली पड़ जाती है ।।२३।। वायुक ेरणासे
घने बादल ा णय के लये अमृतमय जलक वषा करने लगते ह—जैसे ा ण क ेरणासे
धनी लोग समय-समयपर दानके ारा जाक अ भलाषाएँ पूण करते ह ।।२४।।

आस ु पथवा ह यः ु न ोऽनुशु यतीः१ ।


पुंसो यथा वत य दे ह वणस पदः ।।१०

ह रता ह र भः श पै र गोपै लो हता ।


उ छली कृत छाया नृणां ी रव भूरभूत् ।।११

े ा ण स यस प ः२ कषकाणां मुदं द ः ।
ध ननामुपतापं च दै वाधीनमजानताम् ।।१२

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जल थलौकसः सव नववा र नषेवया ।
अ ब द् चरं पं यथा ह र नषेवया ।।१३

स र ः संगतः स धु ुभे सनो ममान् ।


अप वयो गन ं कामा ं गुणयुग् यथा ।।१४

गरयो वषधारा भह यमाना न व थुः ।


अ भभूयमाना सनैयथाधो जचेतसः ।।१५

मागा बभूवुः स द धा तृणै छ ा सं कृताः ।


ना य यमानाः ुतयो जैः कालहता३ इव ।।१६

लोकब धुषु मेघेषु व ुत लसौ दाः ।


थैय न च ु ः का म यः पु षेषु गु ण वव४ ।।१७

धनु वय त माहे ं नगुणं च गु ण यभात् ।


े गुण तकरेऽगुणवान् पु षो यथा ।।१८

न रराजोडु प छ ः व यो नारा जतैघनैः ।


अहंम या भा सतया वभासा पु षो यथा ।।१९

मेघागमो सवा ाः यन द छख डनः ।


गृहेषु त ता न व णा यथा युतजनागमे ।।२०

पी वापः पादपाः प रास ाना ममूतयः ।


ाक् ामा तपसा ा ता यथा कामानुसेवया ।।२१

सर वशा तरोध सु यूषुरंगा प सारसाः ।


गृहे वशा तकृ येषु ा या इव राशयाः ।।२२

जलौघै नर भ त सेतवो वषती रे ।


पाख डनामस ादै वदमागाः कलौ यथा ।।२३

मुंचन् वायु भनु ा भूते योऽथामृतं घनाः ।


यथाऽऽ शषो व पतयः काले काले जे रताः ।।२४
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एवं वनं तद् व ष ं प वखजूरज बुमत् ।
गोगोपालैवृतो र तुं सबलः ा वश रः ।।२५
वषा ऋतुम वृ दावन इसी कार शोभायमान और पके ए खजूर तथा जामुन से भर रहा
था। उसी वनम वहार करनेके लये याम और बलरामने वालबाल और गौ के साथ वेश
कया ।।२५।।

धेनवो म दगा म य ऊधोभारेण भूयसा ।


ययुभगवताऽऽ ता तं ी या नुत तनीः ।।२६

वनौकसः मु दता वनराजीमधु युतः ।


जलधारा गरेनादानास ा द शे गुहाः ।।२७

व चद् वन प त ोडे गुहायां चा भवष त ।


न व य भगवान् रेमे क दमूलफलाशनः ।।२८

द योदनं समानीतं शलायां स लला तके ।


स भोजनीयैबुभुजे गोपैः संकषणा वतः ।।२९

शा लोप र सं व य चवतो मी लते णान् ।


तृ तान् वृषान् व सतरान् गा वोधोभर माः ।।३०

ावृट् यं च तां वी य सवभूतमुदावहाम् ।


भगवान् पूजयांच े आ मश युपबृं हताम् ।।३१

एवं नवसतो त मन् रामकेशवयो जे ।


शरत् समभवद् ा व छा वप षा नला ।।३२

शरदा नीरजो प या नीरा ण कृ त ययुः ।


ाना मव चेतां स पुनय ग नषेवया ।।३३

ो नोऽ दं भूतशाब यं भुवः पंकमपां मलम् ।


शर जहारा मणां कृ णे भ यथाशुभम् ।।३४
गौएँ अपने थन के भारी भारके कारण ब त ही धीरे-धीरे चल रही थ । जब भगवान्
ीकृ ण उनका नाम लेकर पुकारते, तब वे ेमपरवश होकर ज द -ज द दौड़ने लगत । उस
समय उनके थन से धक धारा गरती जाती थी ।।२६।। भगवान्ने दे खा क वनवासी भील
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और भील नयाँ आन दम न ह। वृ क पं याँ मधुधारा उँड़ेल रही ह। पवत से झर-झर
करते ए झरने झर रहे ह। उनक आवाज बड़ी सुरीली जान पड़ती है और साथ ही वषा
होनेपर छपनेके लये ब त-सी गुफाएँ भी ह ।।२७।। जब वषा होने लगती तब ीकृ ण
कभी कसी वृ क गोदम या खोड़रम जा छपते। कभी-कभी कसी गुफाम ही जा बैठते
और कभी क द-मूल-फल खाकर वालबाल के साथ खेलते रहते ।।२८।। कभी जलके पास
ही कसी च ानपर बैठ जाते और बलरामजी तथा वालबाल के साथ मलकर घरसे लाया
आ दही-भात, दाल-शाक आ दके साथ खाते ।।२९।। वषा ऋतुम बैल, बछड़े और थन के
भारी भारसे थक ई गौएँ थोड़ी ही दे रम भरपेट घास चर लेत और हरी-हरी घासपर बैठकर
ही आँख मूँदकर जुगाली करती रहत । वषा ऋतुक सु दरता अपार थी। वह सभी ा णय को
सुख प ँचा रही थी। इसम स दे ह नह क वह ऋतु, गाय, बैल, बछड़े—सब-के-सब
भगवान्क लीलाके ही वलास थे। फर भी उ ह दे खकर भगवान् ब त स होते और बार-
बार उनक शंसा करते ।।३०-३१।।
इस कार याम और बलराम बड़े आन दसे जम नवास कर रहे थे। इसी समय वषा
बीतनेपर शरद् ऋतु आ गयी। अब आकाशम बादल नह रहे, जल नमल हो गया, वायु बड़ी
धीमी ग तसे चलने लगी ।।३२।। शरद् ऋतुम कमल क उ प से जलाशय के जलने अपनी
सहज व छता ा त कर ली—ठ क वैसे ही, जैसे योग पु ष का च फरसे योगका
सेवन करनेसे नमल हो जाता है ।।३३।। शरद् ऋतुने आकाशके बादल, वषा-कालके बढ़े ए
जीव, पृ वीक क चड़ और जलके मटमैलेपनको न कर दया—जैसे भगवान्क भ
चारी, गृह थ, वान थ और सं या सय के सब कारके क और अशुभ का झटपट
नाश कर दे ती है ।।३४।। बादल अपने सव व जलका दान करके उ वल का तसे सुशो भत
होने लगे—ठ क वैसे ही, जैसे लोक-परलोक, ी-पु और धन-स प स ब धी च ता और
कामना का प र याग कर दे नेपर संसारके ब धनसे छू टे ए परम शा त सं यासी
शोभायमान होते ह ।।३५।। अब पवत से कह -कह झरने झरते थे और कह -कह वे अपने
क याणकारी जलको नह भी बहाते थे—जैसे ानी पु ष समयपर अपने अमृतमय ानका
दान कसी अ धकारीको कर दे ते ह और कसी- कसीको नह भी करते ।।३६।। छोटे -छोटे
ग म भरे ए जलके जलचर यह नह जानते क इस ग ेका जल दन-पर- दन सूखता जा
रहा है—जैसे कुटु बके भरण-पोषणम भूले ए मूढ़ यह नह जानते क हमारी आयु ण-
ण ीण हो रही है ।।३७।। थोड़े जलम रहनेवाले ा णय को शर कालीन सूयक खर
करण से बड़ी पीड़ा होने लगी—जैसे अपनी इ य के वशम रहनेवाले कृपण एवं द र
कुटु बीको तरह-तरहके ताप सताते ही रहते ह ।।३८।। पृ वी धीरे-धीरे अपना क चड़ छोड़ने
लगी और घास-पात धीरे-धीरे अपनी कचाई छोड़ने लगे—ठ क वैसे ही, जैसे ववेकस प
साधक धीरे-धीरे शरीर आ द अना म पदाथ मसे ‘यह म ँ और यह मेरा है’ यह अहंता और
ममता छोड़ दे ते ह ।।३९।। शरद् ऋतुम समु का जल थर, ग भीर और शा त हो गया—
जैसे मनके नःसंक प हो जानेपर आ माराम पु ष कमका डका झमेला छोड़कर शा त हो
जाता है ।।४०।। कसान खेत क मेड़ मजबूत करके जलका बहना रोकने लगे—जैसे

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योगीजन अपनी इ य को वषय क ओर जानेसे रोककर, याहार करके उनके ारा ीण
होते ए ानक र ा करते ह ।।४१।। शरद् ऋतुम दनके समय बड़ी कड़ी धूप होती,
लोग को ब त क होता; पर तु च मा रा के समय लोग का सारा स ताप वैसे ही हर लेते
—जैसे दे हा भमानसे होनेवाले ःखको ान और भगव रहसे होनेवाले गो पय के ःखको
ीकृ ण न कर दे ते ह ।।४२।।

सव वं जलदा ह वा वरेजुः शु वचसः ।


यथा य ै षणाः शा ता मुनयो मु क बषाः ।।३५

गरयो मुमुचु तोयं व च मुमुचुः शवम् ।


यथा ानामृतं काले ा ननो ददते न वा ।।३६

नैवा वदन् ीयमाणं जलं गाधजलेचराः ।


यथाऽऽयुर वहं यं नरा मूढाः कुटु बनः ।।३७

गाधवा रचरा तापम व द छरदकजम् ।


यथा द र ः कृपणः कुटु य व जते यः ।।३८

शनैः शनैज ः पङ् कं थला यामं च वी धः ।


यथाहंममतां धीराः शरीरा द वना मसु ।।३९

न ला बुरभू ू ण समु ः शरदागमे ।


आ म युपरते स यङ् मु न ुपरतागमः ।।४०

केदारे य वपोऽगृ न् कषका ढसेतु भः ।


यथा ाणौः व ानं त रोधेन यो गनः ।।४१

शरदकाशुजां तापान् भूतानामुडुपोऽहरत् ।


दे हा भमानजं बोधो मुकु दो जयो षताम् ।।४२

खमशोभत नमघं शर मलतारकम् ।


स वयु ं यथा च ं श द ाथदशनम् ।।४३

अख डम डलो ो न रराजोडु गणैः शशी ।


यथा य प तः कृ णो वृ णच ावृतो भु व ।।४४

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आ य समशीतो णं सूनवनमा तम् ।
जना तापं ज ग यो न कृ ण तचेतसः ।।४५

गावो मृगाः खगा नायः पु प यः शरदाभवन् ।


अ वीयमानाः ववृषैः फलैरीश या इव ।।४६

उद यन् वा रजा न सूय थाने कुमुद ् वना ।


रा ा तु नभया लोका यथा द यून् वना नृप ।।४७

पुर ामे वा यणैरै यै महो सवैः ।


बभौ भूः प वस या ा कला यां नतरां हरेः ।।४८

व णङ् मु ननृप नाता नग याथान् पे दरे ।


वष ा यथा स ाः व प डान् काल आगते ।।४९
जैसे वेद के अथको प पसे जाननेवाला स वगुणी च अ य त शोभायमान होता है,
वैसे ही शरद् ऋतुम रातके समय मेघ से र हत नमल आकाश तार क यो तसे जगमगाने
लगा ।।४३।।
परी त्! जैसे पृ वीतलम य वं शय के बीच य प त भगवान् ीकृ णक शोभा होती है,
वैसे ही आकाशम तार के बीच पूण च मा सुशो भत होने लगा ।।४४।। फूल से लदे ए वृ
और लता म होकर बड़ी ही सु दर वायु बहती; वह न अ धक ठं डी होती और न अ धक
गरम। उस वायुके पशसे सब लोग क जलन तो मट जाती, पर तु गो पय क जलन और
भी बढ़ जाती; य क उनका च उनके हाथम नह था, ीकृ णने उसे चुरा लया
था ।।४५।। शरद् ऋतुम गौएँ, ह र नयाँ, च ड़याँ और ना रयाँ ऋतुमती—स तानो प क
कामनासे यु हो गय तथा साँड़, ह रन, प ी और पु ष उनका अनुसरण करने लगे—ठ क
वैसे ही, जैसे समथ पु षके ारा क ई या का अनुसरण उनके फल करते ह ।।४६।।
परी त्! जैसे राजाके शुभागमनसे डाकू चोर के सवा और सब लोग नभय हो जाते ह,
वैसे ही सूय दयके कारण कुमु दनी (कुँई या को ) के अ त र और सभी कारके कमल
खल गये ।।४७।। उस समय बड़े-बड़े शहर और गाँव म नवा ाशन और इ स ब धी
उ सव होने लगे। खेतोम अनाज पक गये और पृ वी भगवान् ीकृ ण तथा बलरामजीक
उप थ तसे अ य त सुशो भत होने लगी ।।४८।। साधना करके स ए पु ष जैसे समय
आनेपर अपने दे व आ द शरीर को ा त होते ह, वैसे ही वै य, सं यासी, राजा और नातक
—जो वषाके कारण एक थानपर के ए थे—वहाँसे चलकर अपने-अपने अभी काम-
काजम लग गये ।।४९।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध ावृट्शर णन नाम

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वश ततमोऽ यायः ।।२०।।

* १. भगवान् ीकृ ण भ के ारा अ पत ेम-भ -सुधा-रसका पान करते ह।


अ नके मनम उसीका वाद लेनेक लालसा हो आयी। इस लये उसने वयं ही मुखम वेश
कया।
२. वषा न, मुंजा न और दावा न—तीन का पान करके भगवान्ने अपनी
तापनाशक श क।
३. पहले रा म अ नपान कया था, सरी बार दनम। भगवान् अपने भ जन का ताप
हरनेके लये सदा त पर रहते ह।
४. पहली बार सबके सामने और सरी बार सबक आँख बंद कराके ीकृ णने
अ नपान कया। इसका अ भ ाय यह है क भगवान् परो और अपरो दोन ही कारसे
वे भ जन का हत करते ह।
१. ऽ बुपू रताः। २. स यवृ ा न। ३. कालेन वा हताः। ४. गुणे व प।

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अथैक वशोऽ यायः
वेणुगीत
ीशुक उवाच
इ थं शर व छजलं प ाकरसुग धना ।
य वशद् वायुना वातं सगोगोपालकोऽ युतः ।।१

कुसु मतवनरा जशु मभृंग-


जकुलघु सरःस र मही म् ।
मधुप तरवगा चारयन् गाः
सहपशुपालबल कूज वेणुम् ।।२

तद् ज य आ ु य वेणुगीतं मरोदयम् ।


का त् परो ं कृ ण य वसखी योऽ ववणयन् ।।३

तद् वण यतुमार धाः मर यः कृ णचे तम् ।


नाशकन् मरवेगेन व तमनसो नृप ।।४

बहापीडं नटवरवपुः
कणयोः क णकारं
ब द् वासः कनकक पशं
वैजय त च मालाम् ।
र ान् वेणोरधरसुधया
पूरयन् गोपवृ दै -
वृ दार यं वपदरमणं
ा वशद् गीतक तः ।।५
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! शरद् ऋतुके कारण वह वन बड़ा सु दर हो रहा था।
जल नमल था और जलाशय म खले ए कमल क सुग धसे सनकर वायु म द-म द चल
रही थी। भगवान् ीकृ णने गौ और वालबाल के साथ उस वनम वेश कया ।।१।।
सु दर-सु दर पु प से प रपूण हरी-हरी वृ -पं य म मतवाले भ रे थान- थानपर गुनगुना
रहे थे और तरह-तरहके प ी झुंड-के-झुंड अलग-अलग कलरव कर रहे थे, जससे उस
वनके सरोवर, न दयाँ और पवत—सब-के-सब गूँजते रहते थे। मधुप त ीकृ णने बलरामजी
और वालबाल के साथ उसके भीतर घुसकर गौ को चराते ए अपनी बाँसुरीपर बड़ी मधुर
तान छे ड़ी ।।२।। ीकृ णक वह वंशी व न भगवान्के त ेमभावको, उनके मलनक
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आकां ाको जगानेवाली थी। (उसे सुनकर गो पय का दय ेमसे प रपूण हो गया) वे
एका तम अपनी स खय से उनके प, गुण और वंशी व नके भावका वणन करने
लग ।।३।। जक गो पय ने वंशी व नका माधुय आपसम वणन करना चाहा तो अव य;
पर तु वंशीका मरण होते ही उ ह ीकृ णक मधुर चे ा क , ेमपूण चतवन, भ ह के
इशारे और मधुर मुसकान आ दक याद हो आयी। उनक भगवान्से मलनेक आकां ा और
भी बढ़ गयी। उनका मन हाथसे नकल गया। वे मन-ही-मन वहाँ प ँच गय , जहाँ ीकृ ण
थे। अब उनक वाणी बोले कैसे? वे उसके वणनम असमथ हो गय ।।४।। (वे मन-ही-मन
दे खने लग क) ीकृ ण वालबाल के साथ वृ दावनम वेश कर रहे ह। उनके सरपर
मयूर प छ है और कान पर कनेरके पीले-पीले पु प; शरीरपर सुनहला पीता बर और गलेम
पाँच कारके सुग धत पु प क बनी वैजय ती माला है। रंगमंचपर अ भनय करते ए े
नटका-सा या ही सु दर वेष है। बाँसुरीके छ को वे अपने अधरामृतसे भर रहे ह। उनके
पीछे -पीछे वालबाल उनक लोकपावन क तका गान कर रहे ह। इस कार वैकु ठसे भी
े वह वृ दावनधाम उनके चरण च से और भी रमणीय बन गया है ।।५।। परी त्! यह
वंशी व न जड, चेतन—सम त भूत का मन चुरा लेती है। गो पय ने उसे सुना और सुनकर
उसका वणन करने लग । वणन करते-करते वे त मय हो गय और ीकृ णको पाकर
आ लगन करने लग ।।६।।

इ त वेणुरवं राजन् सवभूतमनोहरम् ।


ु वा ज यः सवा वणय योऽ भरे भरे ।।६
गो य ऊचुः
अ वतां फल मदं न परं वदामः
स यः पशूननु ववेशयतोवय यैः ।
व ं जेशसुतयोरनुवेणु जु ं
यैवा नपीतमनुर कटा मो म् ।।७

चूत वालबह तबको पला ज-


मालानुपृ प रधान व च वेषौ ।
म ये वरेजतुरलं पशुपालगो ां
रंगे यथा नटवरौ व च गायमानौ ।।८

गो यः कमाचरदयं कुशलं म वेणु-


दामोदराधरसुधाम प गो पकानाम् ।
भुङ् े वयं यदव श रसं द यो
य वचोऽ ुमुमुचु तरवो यथाऽऽयाः ।।९

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गो पयाँ आपसम बातचीत करने लग —अरी सखी! हमने तो आँखवाल के जीवनक
और उनक आँख क बस, यही—इतनी ही सफलता समझी है; और तो हम कुछ मालूम ही
नह है। वह कौन-सा लाभ है? वह यही है क जब यामसु दर ीकृ ण और गौरसु दर
बलराम वालबाल के साथ गाय को हाँककर वनम ले जा रहे ह या लौटाकर जम ला रहे
ह , उ ह ने अपने अधर पर मुरली धर रखी हो और ेमभरी तरछ चतवनसे हमारी ओर
दे ख रहे ह , उस समय हम उनक मुख-माधुरीका पान करती रह ।।७।। अरी सखी! जब वे
आमक नयी क पल, मोर के पंख, फूल के गु छे , रंग- बरंगे कमल और कुमुदक मालाएँ
धारण कर लेते ह, ीकृ णके साँवरे शरीरपर पीता बर और बलरामके गोरे शरीरपर नीला बर
फहराने लगता है, तब उनका वेष बड़ा ही व च बन जाता है। वालबाल क गो ीम वे दोन
बीचो-बीच बैठ जाते ह और मधुर संगीतक तान छे ड़ दे ते ह। मेरी यारी सखी! उस समय
ऐसा जान पड़ता है मानो दो चतुर नट रंगमंचपर अ भनय कर रहे ह । म या बताऊँ क उस
समय उनक कतनी शोभा होती है ।।८।। अरी गो पयो! यह वेणु पु ष जा तका होनेपर भी
पूवज मम न जाने ऐसा कौन-सा साधन-भजन कर चुका है क हम गो पय क अपनी
स प —दामोदरके अधर क सुधा वयं ही इस कार पये जा रहा है क हमलोग के लये
थोड़ा-सा भी रस शेष नह रहेगा। इस वेणुको अपने रससे स चनेवाली द नयाँ आज
कमल के मस रोमा चत हो रही ह और अपने वंशम भगव ेमी स तान को दे खकर े
पु ष के समान वृ भी इसके साथ अपना स ब ध जोड़कर आँख से आन दा ु बहा रहे
ह ।।९।।
वृ दावनं स ख भुवो वतनो त क त
यद् दे वक सुतपदा बुजल धल म ।
गो व दवेणुमनु म मयूरनृ यं
े या सा वपरता यसम तस वम् ।।१०

ध याः म मूढमतयोऽ प ह र य एता


या न दन दनमुपा व च वेषम् ।
आक य वेणुर णतं सहकृ णसाराः
पूजां दधु वर चतां णयावलोकैः ।।११

कृ णं नरी य व नतो सव पशीलं


ु वा च त व णतवेणु व च गीतम् ।
दे ो वमानगतयः मरनु सारा
य सूनकबरा मुमु वनी ः ।।१२
अरी सखी! यह वृ दावन वैकु ठलोकतक पृ वीक क तका व तार कर रहा है। य क
यशोदान दन ीकृ णके चरणकमल के च से यह च त हो रहा है! स ख! जब ीकृ ण
अपनी मु नजनमो हनी मुरली बजाते ह तब मोर मतवाले होकर उसक तालपर नाचने लगते
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ह। यह दे खकर पवतक चो टय पर वचरनेवाले सभी पशु-प ी चुपचाप—शा त होकर खड़े
रह जाते ह। अरी सखी! जब ाणव लभ ीकृ ण व च वेष धारण करके बाँसुरी बजाते ह,
तब मूढ़ बु वाली ये ह र नयाँ भी वंशीक तान सुनकर अपने प त कृ णसार मृग के साथ
न दन दनके पास चली आती ह और अपनी ेमभरी बड़ी-बड़ी आँख से उ ह नरखने लगती
ह। नरखती या ह, अपनी कमलके समान बड़ी-बड़ी आँख ीकृ णके चरण पर नछावर
कर दे ती ह और ीकृ णक ेमभरी चतवनके ारा कया आ अपना स कार वीकार
करती ह।’ वा तवम उनका जीवन ध य है! (हम वृ दावनक गोपी होनेपर भी इस कार
उनपर अपनेको नछावर नह कर पात , हमारे घरवाले कुढ़ने लगते ह। कतनी वड बना
है!) ।।१०-११।। अरी सखी! ह र नय क तो बात ही या है— वगक दे वयाँ जब
युव तय को आन दत करनेवाले सौ दय और शीलके खजाने ीकृ णको दे खती ह और
बाँसुरीपर उनके ारा गाया आ मधुर संगीत सुनती ह, तब उनके च - व च आलाप
सुनकर वे अपने वमानपर ही सुध-बुध खो बैठती ह—मू छत हो जाती ह। यह कैसे मालूम
आ सखी? सुनो तो, जब उनके दयम ीकृ णसे मलनेक ती आकां ा जग जाती है तब
वे अपना धीरज खो बैठती ह, बेहोश हो जाती ह। उ ह इस बातका भी पता नह चलता क
उनक चो टय म गुँथे ए फूल पृ वीपर गर रहे ह। यहाँतक क उ ह अपनी साड़ीका भी पता
नह रहता, वह कमरसे खसककर जमीनपर गर जाती है ।।१२।।
गाव कृ णमुख नगतवेणुगीत-
पीयूषमु भतकणपुटैः पब यः ।
शावाः नुत तनपयः कवलाः म त थु-
ग व दमा म न शा ुकलाः पृश यः ।।१३

ायो बता ब वहगा मुनयो वनेऽ मन्


कृ णे तं त दतं कलवेणुगीतम् ।
आ ये मभुजान् चर वालान्
शृ व यमी लत शो वगता यवाचः ।।१४

न तदा त पधाय मुकु दगीत-


मावतल तमनोभवभ नवेगाः ।
आ लगन थ गतमू मभुजैमुरारे-
गृ त पादयुगलं कमलोपहाराः ।।१५
अरी सखी! तुम दे वय क बात या कह रही हो, इन गौ को नह दे खती? जब हमारे
कृ ण- यारे अपने मुखसे बाँसुरीम वर भरते ह और गौएँ उनका मधुर संगीत सुनती ह, तब ये
अपने दोन कान के दोने स हाल लेती ह—खड़े कर लेती ह और मानो उनसे अमृत पी रही
ह , इस कार उस संगीतका रस लेने लगती ह? ऐसा य होता है सखी? अपने ने के
ारसे यामसु दरको दयम ले जाकर वे उ ह वह वराजमान कर दे ती ह और मन-ही-मन
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उनका आ लगन करती ह। दे खती नह हो, उनके ने से आन दके आँसू छलकने लगते ह!
और उनके बछड़े, बछड़ क तो दशा ही नराली हो जाती है। य प गाय के थन से अपने-
आप ध झरता रहता है, वे जब ध पीते-पीते अचानक ही वंशी व न सुनते ह तब मुँहम
लया आ धका घूँट न उगल पाते ह और न नगल पाते ह। उनके दयम भी होता है
भगवान्का सं पश और ने म छलकते होते ह आन दके आँसू। वे य -के- य ठठके रह
जाते ह ।।१३।।
अरी सखी! गौएँ और बछड़े तो हमारी घरक व तु ह। उनक बात तो जाने ही दो।
वृ दावनके प य को तुम नह दे खती हो! उ ह प ी कहना ही भूल है! सच पूछो तो उनमसे
अ धकांश बड़े-बड़े ऋ ष-मु न ह। वे वृ दावनके सु दर-सु दर वृ क नयी और मनोहर
क पल वाली डा लय पर चुपचाप बैठ जाते ह और आँख बंद नह करते, न नमेष नयन से
ीकृ णक प-माधुरी तथा यार-भरी चतवन दे ख-दे खकर नहाल होते रहते ह, तथा
कान से अ य सब कारके श द को छोड़कर केवल उ ह क मोहनी वाणी और वंशीका
भुवनमोहन संगीत सुनते रहते ह। मेरी यारी सखी! उनका जीवन कतना ध य है! ।।१४।।
अरी सखी! दे वता, गौ और प य क बात य करती हो? वे तो चेतन ह। इन जड
न दय को नह दे खत ? इनम जो भँवर द ख रहे ह, उनसे इनके दयम यामसु दरसे
मलनेक ती आकां ाका पता चलता है? उसके वेगसे ही तो इनका वाह क गया है।
इ ह ने भी ेम व प ीकृ णक वंशी व न सुन ली है। दे खो, दे खो! ये अपनी तरंग के
हाथ से उनके चरण पकड़कर कमलके फूल का उपहार चढ़ा रही ह और उनका आ लगन
कर रही ह; मानो उनके चरण पर अपना दय ही नछावर कर रही ह ।।१५।। अरी सखी! ये
न दयाँ तो हमारी पृ वीक , हमारे वृ दावनक व तुएँ ह; त नक इन बादल को भी दे खो! जब
वे दे खते ह क जराजकुमार ीकृ ण और बलरामजी वालबाल के साथ धूपम गौएँ चरा रहे
ह और साथ-साथ बाँसुरी भी बजाते जा रहे ह, तब उनके दयम ेम उमड़ आता है। वे
उनके ऊपर मँड़राने लगते ह और वे यामघन अपने सखा घन यामके ऊपर अपने शरीरको
ही छाता बनाकर तान दे ते ह। इतना ही नह सखी! वे जब उनपर न ह -न ह फु हय क वषा
करने लगते ह तब ऐसा जान पड़ता है क वे उनके ऊपर सु दर-सु दर ेत कुसुम चढ़ा रहे ह।
नह सखी, उनके बहाने वे तो अपना जीवन ही नछावर कर दे ते ह! ।।१६।।

् वाऽऽतपे जपशून् सह रामगोपैः


संचारय तमनु वेणुमुद रय तम् ।
ेम वृ उ दतः कुसुमावली भः
स यु धात् ववपुषा बुद आतप म् ।।१६

पूणाः पु ल
उ गायपदा जराग-
ीकुंकुमेन द यता तनम डतेन ।
त शन मर ज तृण षतेन
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ल प य आननकुचेषु ज तदा धम् ।।१७

ह तायम रबला ह रदासवय


यद् रामकृ णचरण पश मोदः ।
मानं तनो त सहगोगणयो तयोयत्
पानीयसूयवसक दरक दमूलैः ।।१८
अरी भटू ! हम तो वृ दावनक इन भील नय को ही ध य और कृतकृ य मानती ह। ऐसा
य सखी? इस लये क इनके दयम बड़ा ेम है। जब ये हमारे कृ ण- यारेको दे खती ह,
तब इनके दयम भी उनसे मलनेक ती आकां ा जाग उठती है। इनके दयम भी ेमक
ा ध लग जाती है। उस समय ये या उपाय करती ह, यह भी सुन लो। हमारे यतमक
ेयसी गो पयाँ अपने व ः थल पर जो केसर लगाती ह, वह यामसु दरके चरण म लगी
होती है और वे जब वृ दावनके घास-पातपर चलते ह, तब उनम भी लग जाती है। ये
सौभा यवती भील नयाँ उ ह उन तनक परसे छु ड़ाकर अपने तन और मुख पर मल लेती ह
और इस कार अपने दयक ेम-पीड़ा शा त करती ह ।।१७।।
अरी गो पयो! यह ग रराज गोव न तो भगवान्के भ म ब त ही े है। ध य ह
इसके भा य! दे खती नह हो, हमारे ाणव लभ ीकृ ण और नयना भराम बलरामके
चरणकमल का पश ा त करके यह कतना आन दत रहता है। इसके भा यक सराहना
कौन करे? यह तो उन दोन का— वालबाल और गौ का बड़ा ही स कार करता है। नान-
पानके लये झरन का जल दे ता है, गौ के लये सु दर हरी-हरी घास तुत करता है,
व ाम करनेके लये क दराएँ और खानेके लये क द-मूल फल दे ता है। वा तवम यह ध य
है! ।।१८।। अरी सखी! इन साँवरे-गोरे कशोर क तो ग त ही नराली है। जब वे सरपर
नोवना ( हते समय गायके पैर बाँधनेक र सी) लपेटकर और कंध पर फंदा (भागनेवाली
गाय को पकड़नेक र सी) रखकर गाय को एक वनसे सरे वनम हाँककर ले जाते ह, साथम
वालबाल भी होते ह और मधुर-मधुर संगीत गाते ए बाँसुरीक तान छे ड़ते ह, उस समय
मनु य क तो बात ही या अ य शरीरधा रय म भी चलनेवाले चेतन पशु-प ी और जड नद
आ द तो थर हो जाते ह, तथा अचल-वृ को भी रोमांच हो आता है। जा भरी वंशीका
और या चम कार सुनाऊँ? ।।१९।।
गा गोपकैरनुवनं नयतो दार-
वेणु वनैःकलपदै तनुभृ सु स यः ।
अ प दनं ग तमतां पुलक त णां
नय गपाशकृतल णयो व च म् ।।१९

एवं वधा भगवतो या वृ दावनचा रणः ।


वणय यो मथो गो यः डा त मयतां ययुः ।।२०
परी त्! वृ दावन वहारी ीकृ णक ऐसी-ऐसी एक नह , अनेक लीलाएँ ह। गो पयाँ
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त दन आपसम उनका वणन करत और त मय हो जात । भगवान्क लीलाएँ उनके
दयम फु रत होने लगत ।।२०।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध१ वेणुगीतं
नामैक वशोऽ यायः ।।२१।।

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अथ ा वशोऽ यायः
चीरहरण
ीशुक उवाच
हेम ते थमे मा स न द जकुमा रकाः ।

चे ह व यं भुंजानाः का याय यचन तम् ।।१


ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! अब हेम त ऋतु आयी। उसके पहले ही महीनेम
अथात् मागशीषम न दबाबाके जक कुमा रयाँ का यायनी दे वीक पूजा और त करने
लग । वे केवल ह व या ही खाती थ ।।१।।

आ लु या भ स का ल ा जला ते चो दतेऽ णे ।
कृ वा तकृ त दे वीमानचुनृप सैकतीम् ।।२

ग धैमा यैः सुर भ भब ल भधूपद पकैः ।


उ चावचै ोपहारैः वालफलत डु लैः ।।३

का याय न महामाये महायो ग यधी र ।


न दगोपसुतं दे व प त मे कु ते नमः ।
इ त म ं जप य ताः पूजां च ु ः कुमा रकाः ।।४

एवं मासं तं चे ः कुमायः कृ णचेतसः ।


भ काल समानचुभूया दसुतः प तः ।।५

उष यु थाय गो ैः वैर यो याब बाहवः ।


कृ णमु चैजगुया यः का ल ां नातुम वहम् ।।६

न ां कदा चदाग य तीरे न य पूववत् ।


वासां स कृ णं गाय यो वज ः स लले मुदा ।।७

भगवां तद भ े य कृ णो योगे रे रः ।
वय यैरावृत त गत त कम स ये ।।८

तासां वासां युपादाय नीपमा स वरः ।

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हस ः हसन् बालैः प रहासमुवाच ह ।।९

अ ाग याबलाः कामं वं वं वासः गृ ताम् ।

स यं वा ण नो नम यद् यूयं तक शताः ।।१०


राजन्! वे कुमारी क याएँ पूव दशाका तज लाल होते-होते यमुनाजलम नान कर
लेत और तटपर ही दे वीक बालुकामयी मू त बनाकर सुग धत च दन, फूल के हार, भाँ त-
भाँ तके नैवे , धूप-द प, छोट -बड़ी भटक साम ी, प लव, फल और चावल आ दसे उनक
पूजा करत ।।२३।। साथ ही ‘हे का यायनी! हे महामाये! हे महायो गनी! हे सबक एकमा
वा मनी! आप न दन दन ीकृ णको हमारा प त बना द जये। दे व! हम आपके चरण म
नम कार करती ह।’—इस म का जप करती ई वे कुमा रयाँ दे वीक आराधना
करत ।।४।। इस कार उन कुमा रय ने, जनका मन ीकृ णपर नछावर हो चुका था, इस
संक पके साथ एक महीनेतक भ कालीक भलीभाँ त पूजा क क ‘न दन दन यामसु दर
ही हमारे प त ह ’ ।।५।। वे त दन उषाकालम ही नाम ले-लेकर एक- सरी सखीको पुकार
लेत और पर पर हाथ-म-हाथ डालकर ऊँचे वरसे भगवान् ीकृ णक लीला तथा नाम का
गान करती ई यमुनाजलम नान करनेके लये जात ।।६।।
एक दन सब कुमा रय ने त दनक भाँ त यमुनाजीके तटपर जाकर अपने-अपने व
उतार दये और भगवान् ीकृ णके गुण का गान करती ई बड़े आन दसे जल- डा करने
लग ।।७।। परी त्! भगवान् ीकृ ण सनका द यो गय और शंकर आ द योगे र के भी
ई र ह। उनसे गो पय क अ भलाषा छपी न रही। वे उनका अ भ ाय जानकर अपने सखा
वालबाल के साथ उन कुमा रय क साधना सफल करनेके लये यमुना-तटपर गये ।।८।।
उ ह ने अकेले ही उन गो पय के सारे व उठा लये और बड़ी फुत से वे एक कद बके
वृ पर चढ़ गये। साथी वालबाल ठठा-ठठाकर हँसने लगे और वयं ीकृ ण भी हँसते ए
गो पय से हँसीक बात कहने लगे— ।।९।। ‘अरी कुमा रयो! तुम यहाँ आकर इ छा हो, तो
अपने-अपने व ले जाओ। म तुमलोग से सच-सच कहता ँ। हँसी बलकुल नह करता।
तुमलोग त करते-करते बली हो गयी हो ।।१०।। ये मेरे सखा वालबाल जानते ह क मने
कभी कोई झूठ बात नह कही है। सु द रयो! तु हारी इ छा हो तो अलग-अलग आकर
अपने-अपने व ले लो, या सब एक साथ ही आओ। मुझे इसम कोई आप नह
है’ ।।११।।

न मयो दतपूव वा अनृतं त दमे व ः ।


एकैकशः ती छ वं सहैवोत सुम यमाः ।।११

त य तत् वे लतं ् वा गो यः ेमप र लुताः ।


ी डताः े य चा यो यं जातहासा न नययुः ।।१२

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एवं ुव त गो व दे नमणाऽऽ तचेतसः ।
आक ठम नाः शीतोदे वेपमाना तम ुवन् ।।१३

मानयं भोः कृथा वां तु न दगोपसुतं यम् ।


जानीमोऽ ज ा यं दे ह वासां स वे पताः ।।१४

यामसु दर ते दा यः करवाम तवो दतम् ।


दे ह वासां स धम नो चेद ् रा े ुवामहे ।।१५
ीभगवानुवाच
भव यो य द मे दा यो मयो ं वा क र यथ ।
अ ाग य ववासां स ती छ तु शु च मताः ।।१६

ततो जलाशयात् सवा दा रकाः शीतवे पताः ।


पा ण यां यो नमा छा ो े ः शीतक शताः ।।१७

भगवानाहता वी य शु भाव सा दतः ।


क धे नधाय वासां स ीतः ोवाच स मतम् ।।१८
भगवान्क यह हँसी-मसखरी दे खकर गो पय का दय ेमसे सराबोर हो गया। वे त नक
सकुचाकर एक- सरीक ओर दे खने और मुसकराने लग । जलसे बाहर नह नकल ।।१२।।
जब भगवान्ने हँसी-हँसीम यह बात कही तब उनके वनोदसे कुमा रय का च और भी
उनक ओर खच गया। वे ठं ढे पानीम क ठतक डू बी ई थ और उनका शरीर थर-थर काँप
रहा था। उ ह ने ीकृ णसे कहा— ।।१३।। ‘ यारे ीकृ ण! तुम ऐसी अनी त मत करो। हम
जानती ह क तुम न दबाबाके लाड़ले लाल हो। हमारे यारे हो। सारे जवासी तु हारी
सराहना करते रहते ह। दे खो, हम जाड़ेके मारे ठठु र रही ह। तुम हम हमारे व दे
दो ।।१४।। यारे यामसु दर! हम तु हारी दासी ह। तुम जो कुछ कहोगे, उसे हम करनेको
तैयार ह। तुम तो धमका मम भलीभाँ त जानते हो। हम क मत दो। हमारे व हम दे दो;
नह तो हम जाकर न दबाबासे कह दगी’ ।।१५।।
भगवान् ीकृ णने कहा—कुमा रयो! तु हारी मुसकान प व ता और ेमसे भरी है।
दे खो, जब तुम अपनेको मेरी दासी वीकार करती हो और मेरी आ ाका पालन करना चाहती
हो तो यहाँ आकर अपने-अपने व ले लो ।।१६।। परी त्! वे कुमा रयाँ ठं डसे ठठु र रही
थ , काँप रही थ । भगवान्क ऐसी बात सुनकर वे अपने दोन हाथ से गु त अंग को छपाकर
यमुनाजीसे बाहर नकल । उस समय ठं ड उ ह ब त ही सता रही थी ।।१७।।
उनके इस शु भावसे भगवान् ब त ही स ए। उनको अपने पास आयी दे खकर
उ ह ने गो पय के व अपने कंधेपर रख लये और बड़ी स तासे मुसकराते ए बोले
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— ।।१८।। ‘अरी गो पयो! तुमने जो त लया था, उसे अ छ तरह नभाया है—इसम
स दे ह नह । पर तु इस अव थाम व हीन होकर तुमने जलम नान कया है, इससे तो
जलके अ ध ातृदेवता व णका तथा यमुनाजीका अपराध आ है। अतः अब इस दोषक
शा तके लये तुम अपने हाथ जोड़कर सरसे लगाओ और उ ह झुककर णाम करो,
तदन तर अपने-अपने व ले जाओ ।।१९।। भगवान् ीकृ णक बात सुनकर उन
जकुमा रय ने ऐसा ही समझा क वा तवम व हीन होकर नान करनेसे हमारे तम ु ट
आ गयी। अतः उसक न व न पू तके लये उ ह ने सम त कम के सा ी ीकृ णको
नम कार कया। य क उ ह नम कार करनेसे ही सारी ु टय और अपराध का माजन हो
जाता है ।।२०।। जब यशोदान दन भगवान् ीकृ णने दे खा क सब-क -सब कुमा रयाँ मेरी
आ ाके अनुसार णाम कर रही ह, तब वे ब त ही स ए। उनके दयम क णा उमड़
आयी और उ ह ने उनके व दे दये ।।२१।। य परी त्! ीकृ णने कुमा रय से छलभरी
बात क , उनका ल जा-संकोच छु ड़ाया, हँसी क और उ ह कठ-पुत लय के समान नचाया;
यहाँतक क उनके व -तक हर लये। फर भी वे उनसे नह , उनक इन चे ा को
दोष नह माना, ब क अपने यतमके संगसे वे और भी स ।।२२।। परी त्!
गो पय ने अपने-अपने व पहन लये। पर तु ीकृ णने उनके च को इस कार अपने
वशम कर रखा था क वे वहाँसे एक पग भी न चल सक । अपने यतमके समागमके लये
सजकर वे उ ह क ओर लजीली चतवनसे नहारती रह ।।२३।।

यूयं वव ा यदपो धृत ता


गाहतैत दे वहेलनम् ।
बद् वांज ल मू यपनु यऽहसः
कृ वा नमोऽधो वसनं गृ ताम् ।।१९

इ य युतेना भ हता जाबला


म वा वव ा लवनं त यु तम् ।
त पू तकामा तदशेषकमणां
सा ा कृतं नेमुरव मृग् यतः ।।२०

ता तथावनता ् वा भगवान् दे वक सुतः ।


वासां स ता यः ाय छत् क ण तेन तो षतः ।।२१

ढं ल धा पया च हा पताः
तो भताः डनव च का रताः ।
व ा ण चैवाप ता यथा यमुं
ता ना यसूयन् यसंग नवृताः ।।२२

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प रधाय ववासां स े संगमस जताः ।
गृहीत च ा नो चेलु त मँ ल जा यते णाः ।।२३

तासां व ाय भगवान् वपाद पशका यया ।


धृत तानां संक पमाह दामोदरोऽबलाः ।।२४
भगवान् ीकृ णने दे खा क उन कुमा रय ने उनके चरणकमल के पशक कामनासे ही
त धारण कया है और उनके जीवनका यही एकमा संक प है। तब गो पय के ेमके
अधीन होकर ऊखल-तकम बँध जानेवाले भगवान्ने उनसे कहा— ।।२४।। ‘मेरी परम ेयसी
कुमा रयो! म तु हारा यह संक प जानता ँ क तुम मेरी पूजा करना चाहती हो। म तु हारी
इस अ भलाषाका अनुमोदन करता ँ, तु हारा यह संक प स य होगा। तुम मेरी पूजा कर
सकोगी ।।२५।। ज ह ने अपना मन और ाण मुझे सम पत कर रखा है उनक कामनाएँ
उ ह सांसा रक भोग क ओर ले जानेम समथ नह होत । ठ क वैसे ही, जैसे भुने या उबाले
ए बीज फर अंकुरके पम उगनेके यो य नह रह जाते ।।२६।।

संक पो व दतः सा ो भवतीनां मदचनम् ।


मयानुमो दतः सोऽसौ स यो भ वतुमह त ।।२५

न म यावे शत धयां कामः कामाय क पते ।


भ जता व थता धाना ायो बीजाय ने यते ।।२६

याताबला जं स ा मयेमा रं यथ पाः ।


य य त मदं चे रायाचनं सतीः ।।२७
ीशुक उवाच
इ या द ा भगवता ल धकामाः कुमा रकाः ।
याय य त पदा भोजं कृ ा व वशु जम् ।।२८
इस लये कुमा रयो! अब तुम अपने-अपने घर लौट जाओ। तु हारी साधना स हो गयी
है। तुम आनेवाली शरद् ऋतुक रा य म मेरे साथ वहार करोगी। स तयो! इसी उ े यसे तो
तुमलोग ने यह त और का यायनी दे वीक पूजा क थी’* ।।२७।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान्क यह आ ा पाकर वे कुमा रयाँ भगवान्
ीकृ णके चरणकमल का यान करती ई जानेक इ छा न होनेपर भी बड़े क से जम
गय । अब उनक सारी कामनाएँ पूण हो चुक थ ।।२८।।

अथ गोपैः प रवृतो भगवान् दे वक सुतः ।


वृ दावनाद् गतो रं चारयन् गाः सहा जः ।।२९
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नदाघाकातपे त मे छाया भः वा भरा मनः ।
आतप ा यतान् वी य मानाह जौकसः ।।३०

हे तोककृ ण हे अंशो ीदामन् सुबलाजुन ।


वशालषभ तेज वन् दे व थ व थप ।।३१

प यतैतान् महाभागान् पराथका तजी वतान् ।


वातवषातप हमान् सह तो वारय त नः ।।३२

अहो एषां वरं ज म सव ा युपजीवनम् ।


सुजन येव येषां वै वमुखा या त ना थनः ।।३३

प पु पफल छायामूलव कलदा भः ।


ग ध नयासभ मा थतो मैः१ कामान् वत वते ।।३४

एताव ज मसाफ यं२ दे हना मह दे हषु ।


ाणैरथ धया वाचा ेय३ एवाचरेत् सदा ।।३५

इ त वाल तबकफलपु पदलो करैः ।


त णां न शाखानां म येन यमुनां गतः ।।३६
य परी त्! एक दन भगवान् ीकृ ण बलरामजी और वालबाल के साथ गौएँ चराते
ए वृ दावनसे ब त र नकल गये ।।२९।।
ी म ऋतु थी। सूयक करण ब त ही खर हो रही थ । पर तु घने-घने वृ भगवान्
ीकृ णके ऊपर छ ेका काम कर रहे थे। भगवान् ीकृ णने वृ को छाया करते दे ख
तोककृ ण, अंशु, ीदामा, सुबल, अजुन, वशाल, ऋषभ, तेज वी, दे व थ और व थप
आ द वालबाल को स बोधन करके कहा— ।।३०-३१।।
‘मेरे यारे म ो! दे खो, ये वृ कतने भा यवान् ह! इनका सारा जीवन केवल सर क
भलाई करनेके लये ही है। ये वयं तो हवाके झ के, वषा, धूप और पाला—सब कुछ सहते
ह, पर तु हम लोग क उनसे र ा करते ह ।।३२।।
म कहता ँ क इ ह का जीवन सबसे े है। य क इनके ारा सब ा णय को सहारा
मलता है, उनका जीवन- नवाह होता है। जैसे कसी स जन पु षके घरसे कोई याचक
खाली हाथ नह लौटता, वैसे ही इन वृ से भी सभीको कुछ-न-कुछ मल ही जाता
है ।।३३।।
ये अपने प े, फूल, फल, छाया, जड़, छाल, लकड़ी, ग ध, ग द, राख, कोयला, अंकुर
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और क पल से भी लोग क कामना पूण करते ह ।।३४।।
मेरे यारे म ो! संसारम ाणी तो ब त ह; पर तु उनके जीवनक सफलता इतनेम ही है
क जहाँतक हो सके अपने धनसे, ववेक- वचारसे, वाणीसे और ाण से भी ऐसे ही कम
कये जायँ, जनसे सर क भलाई हो ।।३५।।
परी त्! दोन ओरके वृ नयी-नयी क पल , गु छ , फल-फूल और प से लद रहे थे।
उनक डा लयाँ पृ वीतक झुक ई थ । इस कार भाषण करते ए भगवान् ीकृ ण
उ ह के बीचसे यमुना-तटपर नकल आये ।।३६।।

त गाः पाय य वापः सुमृ ाः शीतलाः शवाः ।


ततो नृप वयं गोपाः कामं वा पपुजलम् ।।३७

त या उपवने कामं चारय तः पशून् नृप ।


कृ णरामावुपाग य ुधाता इदम ुवन् ।।३८
राजन्! यमुनाजीका जल बड़ा ही मधुर, शीतल और व छ था। उन लोग ने पहले
गौ को पलाया और इसके बाद वयं भी जी भरकर वा जलका पान कया ।।३७।।
परी त्! जस समय वे यमुनाजीके तटपर हरे-भरे उपवनम बड़ी वत तासे अपनी
गौएँ चरा रहे थे, उसी समय कुछ भूखे वाल ने भगवान् ीकृ ण और बलरामजीके पास
आकर यह बात कही— ।।३८।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध१ गोपीव ापहारो नाम
ा वशोऽ यायः ।।२२।।

१. वृ दावन डायामेक०।
* चीर-हरणके संगको लेकर कई तरहक शंकाएँ क जाती ह, अतएव इस स ब धम
कुछ वचार करना आव यक है। वा तवम बात यह है क स चदान दघन भगवान्क द
मधुर रसमयी लीला का रह य जाननेका सौभा य ब त थोड़े लोग को होता है। जस कार
भगवान् च मय ह, उसी कार उनक लीला भी च मयी ही होती है। स चदान द रसमय-
सा ा यके जस परमो त तरम यह लीला आ करती है उसक ऐसी वल णता है क
कई बार तो ान- व ान- व प वशु चेतन परम म भी उसका ाक नह होता,
और इसी लये -सा ा कारको ा त महा मा लोग भी इस लीला-रसका समा वादन नह
कर पाते। भगवान्क इस परमो जवल द -रस-लीलाका यथाथ काश तो भगवान्क
व पभूता ा दनी श न य नकुंजे री ीवृषभानुन दनी ीराधाजी और तदं गभूता
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े मयी गो पय के ही दयम होता है और वे ही नरावरण होकर भगवान्क इस परम

अ तरंग रसमयी लीलाका समा वादन करती ह।
य तो भगवान्के ज म-कमक सभी लीलाएँ द होती ह, पर तु जक लीला, जम
नकुंजलीला और नकुंजम भी केवल रसमयी गो पय के साथ होनेवाली मधुर लीला तो
द ा त द और सवगु तम है। यह लीला सवसाधारणके स मुख कट नह है, अ तरंग
लीला है और इसम वेशका अ धकार केवल ीगोपीजन को ही है। अ तु, दशम क धके
इ क सव अ यायम ऐसा वणन आया है क भगवान्क प-माधुरी, वंशी व न और ेममयी
लीलाएँ दे ख-सुनकर गो पयाँ मु ध हो गय । बाईसव अ यायम उसी ेमक पूणता ा त
करनेके लये वे साधनम लग गयी ह। इसी अ यायम भगवान्ने आकर उनक साधना पूण क
है। यही चीर-हरणका संग है।
गो पयाँ या चाहती थ , यह बात उनक साधनासे प है। वे चाहती थ — ीकृ णके
त पूण आ मसमपण, ीकृ णके साथ इस कार घुल- मल जाना क उनका रोम-रोम,
मन- ाण, स पूण आ मा केवल ीकृ णमय हो जाय। शरत्-कालम उ ह ने ीकृ णक
वंशी व नक चचा आपसम क थी, हेम तके पहले ही महीनेम अथात् भगवान्के
वभू त व प मागशीषम उनक साधना ार भ हो गयी। वल ब उनके लये अस था।
जाड़ेके दनम वे ातःकाल ही यमुना- नानके लये जात , उ ह शरीरक परवा नह थी।
ब त-सी कुमारी वा लन एक साथ ही जात , उनम ई या- े ष नह था। वे ऊँचे वरसे
ीकृ णका नामक तन करती ई जात , उ ह गाँव और जा तवाल का भय नह था। वे घरम
भी ह व या का ही भोजन करत , वे ीकृ णके लये इतनी ाकुल हो गयी थ क उ ह
माता- पता तकका संकोच नह था। वे व धपूवक दे वीक बालुकामयी मू त बनाकर पूजा
और म -जप करती थ । अपने इस कायको सवथा उ चत और श त मानती थ । एक
वा यम—उ ह ने अपना कुल, प रवार, धम, संकोच और व भगवान्के चरण म सवथा
समपण कर दया था। वे यही जपती रहती थ क एकमा न दन दन ही हमारे ाण के
वामी ह । ीकृ ण तो व तुतः उनके वामी थे ही। पर तु लीलाक से उनके समपणम
थोड़ी कमी थी। वे नरावरण पसे ीकृ णके सामने नह जा रही थ , उनम थोड़ी झझक
थी; उनक यही झझक र करनेके लये—उनक साधना, उनका समपण पूण करनेके लये
उनका आवरण भंग कर दे नेक आव यकता थी, उनका यह आवरण प चीर हर लेना
ज री था और यही काम भगवान् ीकृ णने कया। इसीके लये वे योगे र के ई र भगवान्
अपने म वालबाल के साथ यमुनातटपर पधारे थे।
साधक अपनी श से, अपने बल और संक पसे केवल अपने न यसे पूण समपण
नह कर सकता। समपण भी एक या है और उसका करनेवाला असम पत ही रह जाता
है। ऐसी थ तम अ तरा माका पूण समपण तब होता है जब भगवान् वयं आकर वह
संक प वीकार करते ह और संक प करनेवालेको भी वीकार करते ह। यह जाकर समपण
पूण होता है। साधकका कत है—पूण समपणक तैयारी। उसे पूण तो भगवान् ही करते
ह।

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भगवान् ीकृ ण य तो लीलापु षो म ह; फर भी जब अपनी लीला कट करते ह,
तब मयादाका उ लघंन नह करते, थापना ही करते ह। व धका अ त मण करके कोई
साधनाके मागम अ सर नह हो सकता। पर तु दयक न कपटता, सचाई और स चा ेम
व धके अ त मणको भी श थल कर दे ता है। गो पयाँ ीकृ णको ा त करनेके लये जो
साधना कर रही थ , उसम एक ु ट थी। वे शा -मयादा और पर परागत सनातन मयादाका
उ लंघन करके न न- नान करती थ । य प उनक यह या अ ानपूवक ही थी, तथा प
भगवान्के ारा इसका माजन होना आव यक था। भगवान्ने गो पय से इसका ाय भी
करवाया। जो लोग भगवान्के ेमके नामपर व धका उ लंघन करते ह, उ ह यह संग
यानसे पढ़ना चा हये और भगवान् शा व धका कतना आदर करते ह, यह दे खना चा हये।
वैधी भ का पयवसान रागा मका भ म है और रागा मका भ पूण समपणके
पम प रणत हो जाती है। गो पय ने वैधी भ का अनु ान कया, उनका दय तो
रागा मकाभ से भरा आ था ही। अब पूण समपण होना चा हये। चीर-हरणके ारा वही
काय स प होता है।
गो पय ने जनके लये लोक-परलोक, वाथ-परमाथ, जा त-कुल, पुरजन-प रजन और
गु जन क परवा नह क , जनक ा तके लये ही उनका यह महान् अनु ान है, जनके
चरण म उ ह ने अपना सव व नछावर कर रखा है, जनसे नरावरण मलनक ही एकमा
अ भलाषा है, उ ह नरावरण रसमय भगवान् ीकृ णके सामने वे नरावरण भावसे न जा
सक— या यह उनक साधनाक अपूणता नह है? है, अव य है। और यह समझकर ही
गो पयाँ नरावरण पसे उनके सामने गय ।
ीकृ ण चराचर कृ तके एकमा अधी र ह; सम त या के कता, भो ा और
सा ी भी वही ह। ऐसा एक भी या अ पदाथ नह है जो बना कसी परदे के उनके
सामने न हो। वही सव ापक, अ तयामी ह। गो पय के, गोप के और न खल व के वही
आ मा ह। उ ह वामी, गु , पता, माता, सखा, प त आ दके पम मानकर लोग उ ह क
उपासना करते ह। गो पयाँ उ ह भगवान्को जान-बूझकर क यही भगवान् ह—यही
योगे रे र, रा रातीत पु षो म ह—प तके पम ा त करना चाहती थ ।
ीम ागवतके दशम क धका ाभावसे पाठ कर जानेपर यह बात ब त ही प हो
जाती है क गो पयाँ ीकृ णके वा त वक व पको जानती थ , पहचानती थ । वेणुगीत,
गोपीगीत, युगलगीत और ीकृ णके अ तधान हो जानेपर गो पय के अ वेषणम यह बात
कोई भी दे ख-सुन-समझ सकता है। जो लोग भगवान्को भगवान् मानते ह, उनसे स ब ध
रखते ह, वामी-सु द् आ दके पम उ ह मानते ह, उनके दयम गो पय के इस लोको र
माधुयस ब ध और उसक साधनाके त शंका ही कैसे हो सकती है।
गो पय क इस द लीलाका जीवन उ च ेणीके साधकके लये आदश जीवन है।
ीकृ ण जीवके एकमा ा त सा ात् परमा मा ह। हमारी बु हमारी दे हतक ही
सी मत है। इस लये हम ीकृ ण और गो पय के ेमको भी केवल दै हक तथा
कामनाकलु षत समझ बैठते ह। उस अपा थव और अ ाकृत लीलाको इस कृ तके रा यम

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घसीट लाना हमारी थूल वासना का हा नकर प रणाम है। जीवका मन भोगा भमुख
वासना से और तमोगुणी वृ य से अ भभूत रहता है। वह वषय म ही इधरसे-उधर
भटकता रहता है और अनेक कारके रोग-शोकसे आ ा त रहता है। जब कभी
पु यकम के फल उदय होनेपर भगवान्क अ च य अहैतुक कृपासे वचारका उदय होता है,
तब जीव ःख वालासे ाण पानेके लये और अपने ाण को शा तमय धामम प ँचानेके
लये उ सुक हो उठता है। वह भगवान्के लीलाधाम क या ा करता है, स संग ा त करता है
और उसके दयक छटपट उस आकां ाको लेकर, जो अबतक सु त थी, जगकर बड़े वेगसे
परमा माक ओर चल पड़ती है। चरकालसे वषय का ही अ यास होनेके कारण बीच-बीचम
वषय के सं कार उसे सताते ह और बार-बार व ेप का सामना करना पड़ता है। पर तु
भगवान्क ाथना, क तन- मरण, च तन करते-करते च सरस होने लगता है और धीरे-
धीरे उसे भगवान्क स धका अनुभव भी होने लगता है। थोड़ा-सा रसका अनुभव होते ही
च बड़े वेगसे अ तदशम वेश कर जाता है और भगवान् मागदशकके पम संसार-
सागरसे पार ले जानेवाली नावपर केवटके पम अथवा य कह क सा ात् चत् व प
गु दे वके पम कट हो जाते ह। ठ क उसी ण अभाव, अपूणता और सीमाका ब धन न
हो जाता है, वशु आन द— वशु ानक अनुभू त होने लगती है।
गो पयाँ, जो अभी-अभी साधन स होकर भगवान्क अ तरंग लीलाम व होनेवाली
ह, चरकालसे ीकृ णके ाण म अपने ाण मला दे नेके लये उ क ठत ह, स लाभके
समीप प ँच चुक ह। अथवा जो न य स ा होनेपर भी भगवान्क इ छाके अनुसार उनक
द लीलाम सहयोग दान कर रही ह, उनके दयके सम त भाव के एका त ाता ीकृ ण
बाँसुरी बजाकर उ ह आकृ करते ह और जो कुछ उनके दयम बचे-खुचे पुराने सं कार ह,
मानो उ ह धो डालनेके लये साधनाम लगाते ह। उनक कतनी दया है, वे अपने े मय से
कतना ेम करते ह—यह सोचकर च मु ध हो जाता है, गद्गद हो जाता है।
ीकृ ण गो पय के व के पम उनके सम त सं कार के आवरण अपने हाथम लेकर
पास ही कद बके वृ पर चढ़कर बैठ गये। गो पयाँ जलम थ , वे जलम सव ापक सवदश
भगवान् ीकृ णसे मानो अपनेको गु त समझ रही थ —वे मानो इस त वको भूल गयी थ
क ीकृ ण जलम ही नह ह, वयं जल व प भी वही ह। उनके पुराने सं कार ीकृ णके
स मुख जानेम बाधक हो रहे थे; वे ीकृ णके लये सब कुछ भूल गयी थ , पर तु अबतक
अपनेको नह भूली थ । वे चाहती थ केवल ीकृ णको, पर तु उनके सं कार बीचम एक
परदा रखना चाहते थे। ेम ेमी और यतमके बीचम एक पु पका भी परदा नह रखना
चाहता। ेमक कृ त है सवथा वधानर हत, अबाध और अन त मलन। जहाँतक अपना
सव व—इसका व तार चाहे जतना हो— ेमक वालाम भ म नह कर दया जाता,
वहाँतक ेम और समपण दोन ही अपूण रहते ह। इसी अपूणताको र करते ए, ‘शु
भावसे स ए’ (शु भाव सा दतः) ीकृ णने कहा क ‘मुझसे अन य ेम करनेवाली
गो पयो! एक बार, केवल एक बार अपने सव वको और अपनेको भी भूलकर मेरे पास
आओ तो सही। तु हारे दयम जो अ याग है, उसे एक णके लये तो करो।

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या तुम मेरे लये इतना भी नह कर सकती हो?’ गो पय ने मानो कहा—‘ ीकृ ण! हम
अपनेको कैसे भूल? हमारी ज म-ज मक धारणाएँ भूलने द, तब न। हम संसारके अगाध
जलम आक ठम न ह। जाड़ेका क भी है। हम आना चाहनेपर भी नह आ पाती ह।
यामसु दर! ाण के ाण! हमारा दय तु हारे सामने उ मु है। हम तु हारी दासी ह।
तु हारी आ ा का पालन करगी। पर तु हम नरावरण करके अपने सामने मत बुलाओ।’
साधकक यह दशा—भगवान्को चाहना और साथ ही संसारको भी न छोड़ना, सं कार म ही
उलझे रहना—मायाके परदे को बनाये रखना, बड़ी वधाक दशा है। भगवान् यही सखाते
ह क ‘सं कारशू य होकर, नरावरण होकर, मायाका परदा हटाकर आओ; मेरे पास आओ।
अरे, तु हारा यह मोहका परदा तो मने ही छ न लया है; तुम अब इस परदे के मोहम य पड़ी
हो? यह परदा ही तो परमा मा और जीवके बीचम बड़ा वधान है; यह हट गया, बड़ा
क याण आ। अब तुम मेरे पास आओ, तभी तु हारी चरसं चत आकां ाएँ पूरी हो
सकगी।’ परमा मा ीकृ णका यह आ ान, आ माके आ मा परम यतमके मलनका यह
मधुर आम ण भगव कृपासे जसके अ तदशम कट हो जाता है, वह ेमम नम न होकर
सब कुछ छोड़कर, छोड़ना भी भूलकर यतम ीकृ णके चरण म दौड़ आता है। फर न
उसे अपने व क सु ध रहती है और न लोग का यान! न वह जगत्को दे खता है न
अपनेको। यह भगव ेमका रह य है। वशु और अन य भगव ेमम ऐसा होता ही है।
गो पयाँ आय , ीकृ णके चरण के पास मूकभावसे खड़ी हो गय । उनका मुख
ल जावनत था। य क चत् सं कारशेष ीकृ णके पूण आ भमु यम तब ध हो रहा था।
ीकृ ण मुसकराये। उ ह ने इशारेसे कहा—‘इतने बड़े यागम यह संकोच कलंक है। तुम तो
सदा न कलंका हो; तु ह इसका भी याग, यागके भावका भी याग— यागक मृ तका भी
याग करना होगा।’ गो पय क ीकृ णके मुखकमलपर पड़ी। दोन हाथ अपने-आप
जुड़ गये और सूयम डलम वराजमान अपने यतम ीकृ णसे ही उ ह ने ेमक भ ा
माँगी। गो पय के इसी सव व यागने, इसी पूण समपणने, इसी उ चतम आ म व मृ तने उ ह
भगवान् ीकृ णके ेमसे भर दया। वे द रसके अलौ कक अ ाकृत मधुके अन त
समु म डू बने-उतराने लग । वे सब कुछ भूल गय , भूलनेवालेको भी भूल गय , उनक म
अब यामसु दर थे। बस, केवल यामसु दर थे।
जब ेमी भ आ म व मृत हो जाता है तब उसका दा य व यतम भगवान्पर होता है।
अब मयादार ाके लये गो पय को तो व क आव यकता नह थी। य क उ ह जस
व तुक आव यकता थी, वह मल चुक थी। पर तु ीकृ ण अपने ेमीको मयादा युत नह
होने दे त।े वे वयं व दे ते ह और अपनी अमृतमयी वाणीके ारा उ ह व मृ तसे जगाकर
फर जगत्म लाते ह। ीकृ णने कहा—‘गो पयो! तुम सती सा वी हो। तु हारा ेम और
तु हारी साधना मुझसे छपी नह है। तु हारा संक प स य होगा। तु हारा यह संक प—
तु हारी यह कामना तु ह उस पदपर थत करती है, जो न संक पता और न कामताका है।
तु हारा उ े य पूण, तु हारा समपण पूण और आगे आनेवाली शारद य रा य म हमारा रमण
पूण होगा। भगवान्ने साधना सफल होनेक अव ध नधा रत कर द । इससे भी प है क

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भगवान् ीकृ णम कसी भी काम वकारक क पना नह थी। कामी पु षका च व हीन
य को दे खकर एक णके लये भी कब वशम रह सकता है!
एक बात बड़ी— वल ण है। भगवान्के स मुख जानेके पहले जो व समपणक
पूणताम बाधक हो रहे थे व ेपका काम कर रहे थे—वही भगवान्क कृपा, ेम, सा य
और वरदान ा त होनेके प ात् ‘ साद’- व प हो गये। इसका कारण या है? इसका
कारण है भगवान्का स ब ध। भगवान्ने अपने हाथसे उन व को उठाया था और फर उ ह
अपने उ म अंग कंधेपर रख लया था। नीचेके शरीरम पहननेक सा ड़याँ भगवान्के कंधेपर
चढ़कर—उनका सं पश पाकर कतनी अ ाकृत रसा मक हो गय , कतनी प व —
कृ णमय हो गय , इसका अनुमान कौन लगा सकता है। असलम यह संसार तभीतक बाधक
और व ेपजनक है, जबतक यह भगवान्से स ब ध और भगवान्का साद नह हो जाता।
उनके ारा ा त होनेपर तो यह ब धन ही मु व प हो जाता है। उनके स पकम जाकर
माया शु व ा बन जाती है। संसार और उसके सम त कम अमृतमय आन दरससे प रपूण
हो जाते ह। तब ब धनका भय नह रहता। कोई भी आवरण भगवान्के दशनसे व चत नह
रख सकता। नरक नरक नह रहता, भगवान्का दशन होते रहनेके कारण वह वैकु ठ बन
जाता है। इसी थ तम प ँचकर बड़े-बड़े साधक ाकृत पु षके समान आचरण करते ए-
से द खते ह। भगवान् ीकृ णक अपनी होकर गो पयाँ पुनः वे ही व धारण करती ह
अथवा ीकृ ण वे ही व धारण कराते ह; पर तु गो पय क म अब ये व वे व नह
ह; व तुतः वे ह भी नह —अब तो ये सरी व तु हो गये ह। अब तो ये भगवान्के पावन
साद ह, पल-पलपर भगवान्का मरण करानेवाले भगवान्के परम सु दर तीक ह। इसीसे
उ ह ने वीकार भी कया। उनक ेममयी थ त मयादाके ऊपर थी, फर भी उ ह ने
भगवान्क इ छासे मयादा वीकार क । इस से वचार करनेपर ऐसा जान पड़ता है क
भगवान्क यह चीरहरण-लीला भी अ य लीला क भाँ त उ चतम मयादासे प रपूण है।
भगवान् ीकृ णक लीला के स ब धम केवल वे ही ाचीन आष थ माण ह जनम
उनक लीलाका वणन आ है। उनमसे एक भी ऐसा थ नह है, जसम ीकृ णक
भगव ाका वणन न हो। ीकृ ण ‘ वयं भगवान् ह’ यही बात सव मलती है। जो
ीकृ णको भगवान् नह मानते, यह प है क वे उन थ को भी नह मानते। और जो उन
थ को ही माण नह मानते, वे उनम व णत लीला के आधारपर ीकृ ण-च र क
समी ा करनेका अ धकार भी नह रखते। भगवान्क लीला को मानवीय च र के समक
रखना शा - से एक महान् अपराध है और उसके अनुकरणका तो सवथा ही नषेध है।
मानवबु —जो थूलता से ही प रवे त है—केवल जडके स ब धम ही सोच सकती है,
भगवान्क द च मयी लीलाके स ब धम कोई क पना ही नह कर सकती। वह बु
वयं ही अपना उपहास करती है, जो सम त बु य के ेरक और बु य से अ य त परे
रहनेवाले परमा माक द लीलाको अपनी कसौट पर कसती है।
दय और बु के सवथा वपरीत होनेपर भी य द थोड़ी दे रके लये मान ल क ीकृ ण
भगवान् नह थे या उनक यह लीला मानवी थी तो भी तक और यु के सामने ऐसी कोई

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बात नह टक पाती जो ीकृ णके च र म ला छन हो। ीम ागवतका पारायण करनेवाले
जानते ह क जम ीकृ णने केवल यारह वषक अव थातक ही नवास कया था। य द
रासलीलाका समय दसवाँ वष मान तो नव वषम ही चीरहरण लीला ई थी। इस बातक
क पना भी नह हो सकती क आठ-नौ वषके बालकम कामो ेजना हो सकती है। गाँवक
गँवा रन वा लन, जहाँ वतमानकालक नाग रक मनोवृ नह प ँच पायी है, एक आठ-नौ
वषके बालकसे अवैध स ब ध करना चाह और उसके लये साधना कर—यह कदा प स भव
नह द खता। उन कुमारी गो पय के मनम कलु षत वृ थी, यह वतमान कलु षत
मनोवृ क उ ङ् कना है। आजकल जैसे गाँवक छोट -छोट लड़ कयाँ ‘राम’-सा वर और
‘ल मण’-सा दे वर पानेके लये दे वी-दे वता क पूजा करती ह, वैसे ही उन कुमा रय ने भी
परम सु दर, परम मधुर ीकृ णको पानेके लये दे वी-पूजन और त कये थे। इसम दोषक
कौन-सी बात है?
आजक बात नराली है। भोग धान दे श म तो न नस दाय और न न नानके लब भी
बने ए ह! उनक इ य-तृ ततक ही सी मत है। भारतीय मनोवृ इस उ ेजक एवं
म लन ापारके व है। न न नान एक दोष है, जो क पशु वको बढ़ानेवाला है। शा म
इसका नषेध है, ‘न न नः नायात्’—यह शा क आ ा है। ीकृ ण नह चाहते थे क
गो पयाँ शा के व आचरण कर। केवल लौ कक अनथ ही नह —भारतीय ऋ षय का
वह स ा त, जो येक व तुम पृथक्-पृथक् दे वता का अ त व मानता है, इस
न न नानको दे वता के वपरीत बतलाता है। ीकृ ण जानते थे क इससे व ण दे वताका
अपमान होता है। गो पयाँ अपनी अभी - स के लये जो तप या कर रही थ , उसम उनका
न न नान अ न फल दे नेवाला था और इस थाके भातम ही य द इसका वरोध न कर
दया जाय तो आगे चलकर इसका व तार हो सकता है; इस लये ीकृ णने अलौ कक
ढं गसे नषेध कर दया।
गाँव क वा लन को इस थाक बुराई कस कार समझायी जाय, इसके लये भी
ीकृ णने एक मौ लक उपाय सोचा। य द वे गो पय के पास जाकर उ ह दे वतावादक
फलासफ समझाते तो वे सरलतासे नह समझ सकती थ । उ ह तो इस थाके कारण
होनेवाली वप का य अनुभव करा दे ना था। और वप का अनुभव करानेके प ात्
उ ह ने दे वता के अपमानक बात भी बता द तथा अंज ल बाँधकर मा- ाथना प
ाय भी करवाया। महापु ष म उनक बा याव थाम भी ऐसी तभा दे खी जाती है।
ीकृ ण आठ-नौ वषके थे, उनम कामो ेजना नह हो सकती और न न नानक
कु थाको न करनेके लये उ ह ने चीरहरण कया—यह उ र स भव होनेपर भी मूलम
आये ए ‘काम’ और ‘रमण’ श द से कई लोग भड़क उठते ह। यह केवल श दक पकड़ है,
जसपर महा मालोग यान नह दे ते। ु तय म और गीताम भी अनेक बार ‘काम’ ’रमण’
और ‘र त’ आ द श द का योग आ है; पर तु वहाँ उनका अ ील अथ नह होता। गीताम
तो ‘धमा व काम’ को परमा माका व प बतलाया गया है। महापु ष का आ मरमण,
आ म मथुन और आ मर त स ही है। ऐसी थ तम केवल कुछ श द को दे खकर

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भड़कना वचारशील पु ष का काम नह है। जो ीकृ णको केवल मनु य समझते ह उ ह
रमण और र त श दका अथ केवल डा अथवा खलवाड़ समझना चा हये, जैसा क
ाकरणके अनुसार ठ क है—‘रमु डायाम्’।
भेदसे ीकृ णक लीला भ - भ पम द ख पड़ती है। अ या मवाद ीकृ णको
आ माके पम दे खते ह और गो पय को वृ य के पम। वृ य का आवरण न हो जाना
ही ‘चीरहरण-लीला’ है और उनका आ माम रम जाना ही ‘रास’ है। इस से भी सम त
लीला क संग त बैठ जाती है। भ क से गोलोका धप त पूणतम पु षो म भगवान्
ीकृ णका यह सब न यलीला- वलास है और अना दकालसे अन तकालतक यह न य
चलता रहता है। कभी-कभी भ पर कृपा करके वे अपने न य धाम और न य सखा-
सहच रय के साथ लीला-धामम कट होकर लीला करते ह और भ के मरण- च तन तथा
आन दमंगलक साम ी कट करके पुनः अ तधान हो जाते ह। साधक के लये कस कार
कृपा करके भगवान् अ तमलको और अना दकालसे स चत सं कारपटको वशु कर दे ते
ह, यह बात भी इस चीरहरण-लीलासे कट होती है। भगवान्क लीला रह यमयी है, उसका
त व केवल भगवान् ही जानते ह और उनक कृपासे उनक लीलाम व भा यवान् भ
कुछ-कुछ जानते ह। यहाँ तो शा और संत क वाणीके आधारपर कुछ लखनेक धृ ता
क गयी है।
—हनुमान साद पो ार
१. थभोगैः। २. साम यं। ३. ेयआचरणं सदा।

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अथ यो वशोऽ यायः
य प नय पर कृपा
गोपा ऊचुः
राम राम महावीय कृ ण नवहण ।
एषा वै बाधते ु त छा तं कतुमहथः ।।१
ीशुक उवाच
इ त व ा पतो गोपैभगवान् दे वक सुतः ।
भ ाया व भायायाः सीद दम वीत् ।।२

यात दे वयजनं ा णा वा दनः ।


स मां गरसं नाम ासते वगका यया ।।३

त ग वौदनं गोपा याचता म स जताः ।


क तय तो भगवत आय य मम चा भधाम् ।।४

इ या द ा भगवता ग वायाच त ते तथा ।


कृतांज लपुटा व ान् द डवत् प तता भु व ।।५
वालबाल ने कहा—नयना भराम बलराम! तुम बड़े परा मी हो। हमारे च चोर
यामसु दर! तुमने बड़े-बड़े का संहार कया है। उ ह के समान यह भूख भी
हम सता रही है। अतः तुम दोन इसे भी बुझानेका कोई उपाय करो ।।१।।
ीशुकदे वजीने कहा—परी त्! जब वालबाल ने दे वक न दन भगवान्
ीकृ णसे इस कार ाथना क तब उ ह ने मथुराक अपनी भ ा णप नय पर
अनु ह करनेके लये यह बात कही— ।।२।।
‘मेरे यारे म ो! यहाँसे थोड़ी ही रपर वेदवाद ा ण वगक कामनासे
आं गरस नामका य कर रहे ह। तुम उनक य शालाम जाओ ।।३।। वालबालो! मेरे
भेजनेसे वहाँ जाकर तुमलोग मेरे बड़े भाई भगवान् ीबलरामजीका और मेरा नाम
लेकर कुछ थोड़ा-सा भात—भोजनक साम ी माँग लाओ’ ।।४।। जब भगवान्ने ऐसी
आ ा द , तब वालबाल उन ा ण क य शालाम गये और उनसे भगवान्क
आ ाके अनुसार ही अ माँगा। पहले उ ह ने पृ वीपर गरकर द डवत् णाम कया
और फर हाथ जोड़कर कहा— ।।५।।

हे भू मदे वाः शृणुत कृ ण यादे शका रणः ।


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ा ता ानीत भ ं वो गोपान् नो रामचो दतान् ।।६

गा ारय ताव व र ओदनं


रामा युतौ वो लषतो बुभु तौ ।
तयो जा ओदनम थनोय द
ा च वो य छत धम व माः ।।७

द ायाः पशुसं थायाः सौ ाम या स माः ।


अ य द त या प ना म न् ह य त ।।८

इ त ते भगव ा ञां शृ व तोऽ प न शु ुवुः ।


ु ाशा भू रकमाणो बा लशा वृ मा ननः ।।९

दे शः कालः पृथग् ं म त वजोऽ नयः ।


दे वता यजमान तुधम य मयः ।।१०

तं परमं सा ाद् भगव तमधो जम् ।


मनु य ा ा म या मानो न मे नरे ।।११

न ते यदो म त ोचुन ने त च परंतप ।


गोपा नराशाः ये य तथोचुः कृ णरामयोः ।।१२

त पाक य भगवान् ह य जगद रः ।


ाजहार पुनग पान् दशयँ लौ कक ग तम् ।।१३
‘पृ वीके मू तमान् दे वता ा णो! आपका क याण हो! आपसे नवेदन है क हम
जके वाले ह। भगवान् ीकृ ण और बलरामक आ ासे हम आपके पास आये ह।
आप हमारी बात सुन ।।६।। भगवान् बलराम और ीकृ ण गौएँ चराते ए यहाँसे थोड़े
ही रपर आये ए ह। उ ह इस समय भूख लगी है और वे चाहते ह क आपलोग उ ह
थोड़ा-सा भात दे द। ा णो! आप धमका मम जानते ह। य द आपक ा हो, तो
उन भोजना थय के लये कुछ भात दे द जये ।।७।। स जनो! जस य द ाम
पशुब ल होती है, उसम और सौ ामणी य म द त पु षका अ नह खाना चा हये।
इनके अ त र और कसी भी समय कसी भी य म द त पु षका भी अ खानेम
कोई दोष नह है ।।८।। परी त्! इस कार भगवान्के अ माँगनेक बात सुनकर भी
उन ा ण ने उसपर कोई यान नह दया। वे चाहते थे वगा द तु छ फल और उनके
लये बड़े-बड़े कम म उलझे ए थे। सच पूछो तो वे ा ण ानक से थे बालक

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ही, पर तु अपनेको बड़ा ानवृ मानते थे ।।९।। परी त्! दे श, काल अनेक
कारक साम याँ, भ - भ कम म व नयु मच, अनु ानक प त, ऋ वज्-
ा आ द य करानेवाले, अ न, दे वता, यजमान, य और धम—इन सब प म
एकाम भगवान् ही कट हो रहे ह ।।१०।। वे ही इ यातीत पर भगवान् ीकृ ण
वयं वालबाल के ारा भात माँग रहे ह। पर तु इन मूख ने, जो अपनेको शरीर ही माने
बैठे ह, भगवान्को भी एक साधारण मनु य ही माना और उनका स मान नह
कया ।।११।। परी त्! जब उन ा ण ने ‘हाँ’ या ‘ना’—कुछ नह कहा, तब
वालबाल क आशा टू ट गयी; वे लौट आये और वहाँक सब बात उ ह ने ीकृ ण तथा
बलरामसे कह द ।।१२।। उनक बात सुनकर सारे जगत्के वामी भगवान् ीकृ ण
हँसने लगे। उ ह ने वालबाल को समझाया क ‘संसारम असफलता तो बार-बार होती
ही है, उससे नराश नह होना चा हये; बार-बार य न करते रहनेसे सफलता मल ही
जाती है।’ फर उनसे कहा— ।।१३।।

मां ापयत प नी यः ससंकषणमागतम् ।


दा य त कामम ं वः न धा म यु षता धया ।।१४

ग वाथ प नीशालायां ् वाऽऽसीनाः वलंकृताः ।


न वा जसतीग पाः ता इदम ुवन् ।।१५

नमो वो व प नी यो नबोधत वचां स नः ।


इतोऽ व रे चरता कृ णेनेहे षता वयम् ।।१६

गा ारयन् सगोपालैः सरामो रमागतः ।


बुभु त य त या ं सानुग य द यताम् ।।१७

ु वा युतमुपायातं न यं त शनो सुकाः ।


त कथा तमनसो बभूवुजातस माः ।।१८

चतु वधं ब गुणम मादाय भाजनैः ।


अ भस ुः यं सवाः समु मव न नगाः ।।१९

न ष यमानाः प त भ ातृ भब धु भः सुतैः ।


भगव यु म ोके द घ ुतधृताशयाः ।।२०

यमुनोपवनेऽशोकनवप लवम डते ।

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वचर तं वृतं गोपैः सा जं द शुः यः ।।२१
‘मेरे यारे वालबालो! इस बार तुमलोग उनक प नय के पास जाओ और उनसे
कहो क राम और याम यहाँ आये ह। तुम जतना चाहोगे उतना भोजन वे तु ह दगी।
वे मुझसे बड़ा ेम करती ह। उनका मन सदा-सवदा मुझम लगा रहता है’ ।।१४।।
अबक बार वालबाल प नीशालाम गये। वहाँ जाकर दे खा तो ा ण क प नयाँ
सु दर-सु दर व और गहन से सज-धजकर बैठ ह। उ ह ने जप नय को णाम
करके बड़ी न तासे यह बात कही— ।।१५।। ‘आप व प नय को हम नम कार
करते ह। आप कृपा करके हमारी बात सुन। भगवान् ीकृ ण यहाँसे थोड़ी ही रपर
आये ए ह और उ ह ने ही हम आपके पास भेजा है ।।१६।। वे वालबाल और
बलरामजीके साथ गौएँ चराते ए इधर ब त र आ गये ह। इस समय उ ह और उनके
सा थय को भूख लगी है। आप उनके लये कुछ भोजन दे द’ ।।१७।।
परी त्! वे ा णयाँ ब त दन से भगवान्क मनोहर लीलाएँ सुनती थ । उनका
मन उनम लग चुका था। वे सदा-सवदा इस बातके लये उ सुक रहत क कसी कार
ीकृ णके दशन हो जायँ। ीकृ णके आनेक बात सुनते ही वे उतावली हो
गय ।।१८।। उ ह ने बतन म अ य त वा द और हतकर भ य, भो य, ले और
चो य—चार कारक भोजन-साम ी ले ली तथा भाई-ब धु, प त-पु के रोकते
रहनेपर भी अपने यतम भगवान् ीकृ णके पास जानेके लये घरसे नकल पड़ —
ठ क वैसे ही, जैसे न दयाँ समु के लये। य न हो; न जाने कतने दन से प व क त
भगवान् ीकृ णके गुण, लीला, सौ दय और माधुय आ दका वणन सुन-सुनकर उ ह ने
उनके चरण पर अपना दय नछावर कर दया था ।।१९-२०।।
ा णप नय ने जाकर दे खा क यमुनाके तटपर नये-नये क पल से शोभायमान
अशोक-वनम वालबाल से घरे ए बलरामजीके साथ ीकृ ण इधर-उधर घूम रहे
ह ।।२१।।

यामं हर यप र ध वनमा यबह-


धातु वालनटवेषमनु तांसे ।
व य तह त मतरेण धुनानम जं
कण पलालककपोलमुखा जहासम् ।।२२

ायः ुत यतमोदयकणपूरै-
य मन् नम नमनस तमथा र ैः ।
अ तः वे य सु चरं प रर य तापं
ा ं यथा भमतयो वज नरे ।।२३

ता तथा य सवाशाः ा ता आ म द या ।
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व ाया खल ा ाह ह सताननः ।।२४

वागतं१ वो महाभागा आ यतां करवाम कम् ।


य ो द या२ ा ता उपप मदं ह वः ।।२५
उनके साँवले शरीरपर सुनहला पीता बर झल मला रहा है। गलेम वनमाला लटक
रही है। म तकपर मोरपंखका मुकुट है। अंग-अंगम रंगीन धातु से च कारी कर रखी
है। नये-नये क पल के गु छे शरीरम लगाकर नटका-सा वेष बना रखा है। एक हाथ
अपने सखा वाल-बालके कंधेपर रखे ए ह और सरे हाथसे कमलका फूल नचा रहे
ह। कान म कमलके कु डल ह, कपोल पर घुँघराली अलक लटक रही ह और
मुखकमल म द-म द मुसकानक रेखासे फु लत हो रहा है ।।२२।। परी त्!
अबतक अपने यतम यामसु दरके गुण और लीलाएँ अपने कान से सुन-सुनकर
उ ह ने अपने मनको उ ह के ेमके रंगम रँग डाला था, उसीम सराबोर कर दया था।
अब ने के मागसे उ ह भीतर ले जाकर ब त दे रतक वे मन-ही-मन उनका आ लगन
करती रह और इस कार उ ह ने अपने दयक जलन शा त क —ठ क वैसे ही, जैसे
जा त् और व -अव था क वृ याँ ‘यह म, यह मेरा’ इस भावसे जलती रहती ह,
पर तु सुषु त-अव थाम उसके अ भमानी ा को पाकर उसीम लीन हो जाती ह और
उनक सारी जलन मट जाती है ।।२३।।
य परी त्! भगवान् सबके दयक बात जानते ह, सबक बु य के सा ी ह।
उ ह ने जब दे खा क ये ा णप नयाँ अपने भाई-ब धु और प त-पु के रोकनेपर भी
सब सगे-स ब धय और वषय क आशा छोड़कर केवल मेरे दशनक लालसासे ही
मेरे पास आयी ह, तब उ ह ने उनसे कहा। उस समय उनके मुखार व दपर हा यक
तरंग अठखे लयाँ कर रही थ ।।२४।। भगवान्ने कहा—‘महाभा यवती दे वयो!
तु हारा वागत है। आओ, बैठो। कहो, हम तु हारा या वागत कर? तुमलोग हमारे
दशनक इ छासे यहाँ आयी हो, यह तु हारे-जैसे ेमपूण दयवाल के यो य ही
है ।।२५।।

न व ा म य कुव त कुशलाः वाथदशनाः ।


अहैतु य व हतां भ मा म ये यथा ।।२६

ाणबु मनः वा मदाराप यधनादयः ।


य स पकात् या आसं ततः को वपरः यः ।।२७

तद् यात दे वयजनं पतयो वो जातयः ।


वस ं पार य य त यु मा भगृहमे धनः ।।२८

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प य ऊचुः
मैवं वभोऽह त भवान् ग दतुं नृशंसं
स यं कु व नगमं तव पादमूलम् ।
ा ता वयं तुल सदाम पदावसृ ं
केशै नवोढु म तलंघ्य१ सम तब धून् ।।२९

गृ त नो न पतयः पतरौ सुता वा


न ातृब धुसु दः कुत एव चा ये ।
त माद् भव पदयोः प तता मनां नो
ना या भवेद ् ग तर र दम तद् वधे ह ।।३०
ीभगवानुवाच
पतयो ना यसूयेरन्२ पतृ ातृसुतादयः ।
लोका वो मयोपेता दे वा अ यनुम वते ।।३१
इसम स दे ह नह क संसारम अपनी स ची भलाईको समझनेवाले जतने भी
बु मान् पु ष ह, वे अपने यतमके समान ही मुझसे ेम करते ह और ऐसा ेम
करते ह जसम कसी कारक कामना नह रहती— जसम कसी कारका वधान,
संकोच, छपाव, वधा या ै त नह होता ।।२६।। ाण, बु , मन, शरीर, वजन,
ी, पु और धन आ द संसारक सभी व तुएँ जसके लये और जसक स धसे
य लगती ह—उस आ मासे, परमा मासे, मुझ ीकृ णसे बढ़कर और कौन यारा हो
सकता है ।।२७।। इस लये तु हारा आना उ चत ही है। म तु हारे ेमका अ भन दन
करता ँ। पर तु अब तुमलोग मेरा दशन कर चुक । अब अपनी य शालाम लौट
जाओ। तु हारे प त ा ण गृह थ ह। वे तु हारे साथ मलकर ही अपना य पूण कर
सकगे’ ।।२८।।
ा णप नय ने कहा—अ तयामी यामसु दर! आपक यह बात न ु रतासे
पूण है। आपको ऐसी बात नह कहनी चा हये। ु तयाँ कहती ह क जो एक बार
भगवान्को ा त हो जाता है, उसे फर संसारम नह लौटना पड़ता। आप अपनी यह
वेदवाणी स य क जये। हम अपने सम त सगे-स ब धय क आ ाका उ लंघन करके
आपके चरण म इस लये आयी ह क आपके चरण से गरी ई तुलसीक माला अपने
केश म धारण कर ।।२९।। वामी! अब हमारे प त-पु , माता- पता, भाई-ब धु और
वजन-स ब धी हम वीकार नह करगे; फर सर क तो बात ही या है।
वीर शरोमणे! अब हम आपके चरण म आ पड़ी ह। हम और कसीका सहारा नह है।
इस लये अब हम सर क शरणम न जाना पड़े, ऐसी व था क जये ।।३०।।
भगवान् ीकृ णने कहा—दे वयो! तु हारे प त-पु , माता- पता, भाई-ब धु—

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कोई भी तु हारा तर कार नह करगे। उनक तो बात ही या, सारा संसार तु हारा
स मान करेगा। इसका कारण है। अब तुम मेरी हो गयी हो, मुझसे यु हो गयी हो।
दे खो न, ये दे वता मेरी बातका अनुमोदन कर रहे ह ।।३१।।

न ीतयेऽनुरागाय ंगसंगो नृणा मह ।


त मनो म य युंजाना अ चरा मामवा यथ ।।३२
ीशुक उवाच
इ यु ा जप य ता य वाटं पुनगताः ।
ते चानसूयवः वा भः ी भः स मपारयन् ।।३३

त ैका वधृता भ ा भगव तं यथा ुतम् ।


दोपगु वजहौ दे हं कमानुब धनम् ।।३४

भगवान प गो व द तेनैवा ेन गोपकान् ।


चतु वधेनाश य वा वयं च बुभुजे भुः ।।३५

एवं लीलानरवपुनृलोकमनुशीलयन् ।
रेमे गोगोपगोपीनां रमयन् पवाक्कृतैः ।।३६

अथानु मृ य व ा ते अ वत यन् कृतागसः ।


यद् व े रयोया ञामह म नृ वड बयोः ।।३७

् वा ीणां भगव त कृ णे भ मलौ कक म् ।


आ मानं च तया हीनमनुत ता गहयन् ।।३८
दे वयो! इस संसारम मेरा अंग-संग ही मनु य म मेरी ी त या अनुरागका कारण
नह है। इस लये तुम जाओ, अपना मन मुझम लगा दो। तु ह ब त शी मेरी ा त हो
जायगी ।।३२।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जब भगवान्ने इस कार कहा, तब वे
ा णप नयाँ य शालाम लौट गय । उन ा ण ने अपनी य म त नक भी
दोष नह क । उनके साथ मलकर अपना य पूरा कया ।।३३।।
उन य मसे एकको आनेके समय ही उसके प तने बलपूवक रोक लया था।
इसपर उस ा णप नीने भगवान्के वैसे ही व पका यान कया, जैसा क ब त
दन से सुन रखा था। जब उसका यान जम गया, तब मन-ही-मन भगवान्का
आ लगन करके उसने कमके ारा बने ए अपने शरीरको छे ड़ दया—(शु स वमय
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द शरीरसे उसने भगवान्क स ध ा त कर ली) ।।३४।।
इधर भगवान् ीकृ णने ा णय के लाये ए उस चार कारके अ से पहले
वाल-बाल को भोजन कराया और फर उ ह ने वयं भी भोजन कया ।।३५।।
परी त्! इस कार लीलामनु य भगवान् ीकृ णने मनु यक -सी लीला क और
अपने सौ दय, माधुय, वाणी तथा कम से गौएँ, वालबाल और गो पय को आन दत
कया और वयं भी उनके अलौ कक ेमरसका आ वादन करके आन दत
ए ।।३६।।
परी त्! इधर जब ा ण को यह मालूम आ क ीकृ ण तो वयं भगवान् ह,
तब उ ह बड़ा पछतावा आ। वे सोचने लगे क जगद र भगवान् ीकृ ण और
बलरामक आ ाका उ लंघन करके हमने बड़ा भारी अपराध कया है। वे तो
मनु यक -सी लीला करते ए भी परमे र ही ह ।।३७।।
जब उ ह ने दे खा क हमारी प नय के दयम तो भगवान्का अलौ कक ेम है
और हमलोग उससे बलकुल रीते ह, तब वे पछता-पछताकर अपनी न दा करने
लगे ।।३८।।

धग् ज म न वृद ् व ां धग् तं धग् ब ताम् ।


धक् कुलं धक् यादा यं वमुखा ये वधो जे ।।३९

नूनं भगवतो माया यो गनाम प मो हनी ।


यद् वयं गुरवो नॄणां वाथ मु ामहे जाः ।।४०

अहो प यत नारीणाम प कृ णे जगद्गुरौ ।


र तभावं योऽ व य मृ युपाशान् गृहा भधान् ।।४१

नासां जा तसं कारो न नवासो गुराव प ।


न तपो ना ममीमांसा न शौचं न याः शुभाः ।।४२

अथा प म ोके कृ णे योगे रे रे ।


भ ढा न चा माकं सं कारा दमताम प ।।४३

ननु१ वाथ वमूढानां म ानां गृहेहया ।


अहो नः मारयामास गोपवा यैः सतां ग तः ।।४४
वे कहने लगे—हाय! हम भगवान् ीकृ णसे वमुख ह। बड़े ऊँचे कुलम हमारा
ज म आ, गाय ी हण करके हम जा त ए, वेदा ययन करके हमने बड़े-बड़े य

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कये; पर तु वह सब कस कामका? ध कार है! ध कार है!! हमारी व ा थ गयी,
हमारे त बुरे स ए। हमारी इस ब ताको ध कार है! ऊँचे वंशम ज म लेना,
कमका डम नपुण होना कसी काम न आया। इ ह बार-बार ध कार है ।।३९।।
न य ही, भगवान्क माया बड़े-बड़े यो गय को भी मो हत कर लेती है। तभी तो हम
कहलाते ह मनु य के गु और ा ण, पर तु अपने स चे वाथ और परमाथके वषयम
बलकुल भूले ए ह ।।४०।। कतने आ यक बात है! दे खो तो सही—य प ये
याँ ह, तथा प जगद्गु भगवान् ीकृ णम इनका कतना अगाध ेम है, अख ड
अनुराग है! उसीसे इ ह ने गृह थीक वह ब त बड़ी फाँसी भी काट डाली, जो मृ युके
साथ भी नह कटती ।।४१।। इनके न तो जा तके यो य य ोपवीत आ द सं कार ए
ह और न तो इ ह ने गु कुलम ही नवास कया है। न इ ह ने तप या क है और न तो
आ माके स ब धम ही कुछ ववेक- वचार कया है। उनक बात तो र रही, इनम न तो
पूरी प व ता है और न तो शुभकम ही ।।४२।। फर भी सम त योगे र के ई र
पु यक त भगवान् ीकृ णके चरण म इनका ढ़ ेम है। और हमने अपने सं कार
कये ह, गु कुलम नवास कया है, तप या क है, आ मानुस धान कया है,
प व ताका नवाह कया है तथा अ छे -अ छे कम कये ह; फर भी भगवान्के चरण म
हमारा ेम नह है ।।४३।। स ची बात यह है क हमलोग गृह थीके काम-धंध म
मतवाले हो गये थे, अपनी भलाई और बुराईको बलकुल भूल गये थे। अहो, भगवान्क
कतनी कृपा है! भ व सल भुने वालबाल को भेजकर उनके वचन से हम चेतावनी
द , अपनी याद दलायी ।।४४।। भगवान् वयं पूणकाम ह और कैव यमो पय त
जतनी भी कामनाएँ होती ह, उनको पूण करनेवाले ह। य द हम सचेत नह करना होता
तो उनका हम-सरीखे ु जीव से योजन ही या हो सकता था? अव य ही उ ह ने
इसी उ े यसे माँगनेका बहाना बनाया। अ यथा उ ह माँगनेक भला या आव यकता
थी? ।।४५।। वयं ल मी अ य सब दे वता को छोड़कर और अपनी चंचलता, गव
आ द दोष का प र याग कर केवल एक बार उनके चरणकमल का पश पानेके लये
सेवा करती रहती ह। वे ही भु कसीसे भोजनक याचना कर, यह लोग को मो हत
करनेके लये नह तो और या है? ।।४६।। दे श, काल, पृथक्-पृथक् साम याँ, उन-
उन कम म व नयु म , अनु ानक प त, ऋ वज्, अ न, दे वता, यजमान, य
और धम—सब भगवान्के ही व प ह ।।४७।। वे ही योगे र के भी ई र भगवान्
व णु वयं ीकृ णके पम य वं शय म अवतीण ए ह, यह बात हमने सुन रखी थी;
पर तु हम इतने मूढ ह क उ ह पहचान न सके ।।४८।। यह सब होनेपर भी हम
ध या तध य ह, हमारे अहोभा य ह। तभी तो हम वैसी प नयाँ ा त ई ह। उनक
भ से हमारी बु भी भगवान् ीकृ णके अ वचल ेमसे यु हो गयी है ।।४९।।
भो! आप अ च य और अन त ऐ य के वामी ह! ीकृ ण! आपका ान अबाध
है। आपक ही मायासे हमारी बु मो हत हो रही है और हम कम के पचड़ेम भटक
रहे ह। हम आपको नम कार करते ह ।।५०।। वे आ द पु षो म भगवान् ीकृ ण

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हमारे इस अपराधको मा कर। य क हमारी बु उनक मायासे मो हत हो रही है
और हम उनके भावको न जाननेवाले अ ानी ह ।।५१।।

अ यथा पूणकाम य कैव या ा शषां पतेः ।


ई शत ैः कम मा भरीश यैतद् वड बनम् ।।४५

ह वा यान् भजते यं ीः पाद पशाशया सकृत् ।


आ मदोषापवगण त ा ञा जनमो हनी ।।४६

दे शः कालः पृथ ं म त वजोऽ नयः ।


दे वता यजमान तुधम य मयः ।।४७

स एष भगवान् सा ाद् व णुय गे रे रः ।


जातो य व यशृ म प मूढा न व हे ।।४८

अहो१ वयं ध यतमा येषां न ता शीः यः ।


भ या यासां म तजाता अ माकं न ला हरौ ।।४९

नम तु यं२ भगवते कृ णायाकु ठमेधसे ।


य मायामो हत धयो मामः कमव मसु ।।५०

स वै न आ ः पु षः वमायामो हता मनाम् ।


अ व ातानुभावानां तुमह य त मम् ।।५१

इ त वाघमनु मृ य कृ णे ते कृतहेलनाः ।
द वोऽ य युतयोः कंसाद् भीता न चाचलन् ।।५२
परी त्! उन ा ण ने ीकृ णका तर कार कया था। अतः उ ह अपने
अपराधक मृ तसे बड़ा प ा ाप आ और उनके दयम ीकृ ण-बलरामके दशनक
बड़ी इ छा भी ई; पर तु कंसके डरके मारे वे उनका दशन करने न जा सके ।।५२।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध य प यु रणं
नाम यो वशोऽ यायः ।।२३।।

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१. कृ ण डायां यमुनागमनं नाम ा वश ततमो।
१. ाचीन तम ‘ वागतं वो......’ इ या द ोकके पहले ‘ ीभगवानुवाच’ इतना
अ धक पाठ है।
२. या येता।
१. नरो म भलं य। २. न य०।
१. नूनं।
१. ाचीन तम ‘अहो वयं..’ से लेकर...........‘ न ला हरौ’ तकका पाठ नह
है। २. त मै।

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अथ चतु वशोऽ यायः
इ य - नवारण
ीशुक१ उवाच
भगवान प त ैव बलदे वेन संयुतः ।
अप य वसन् गोपा न यागकृतो मान् ।।१

तद भ ोऽ प भगवान् सवा मा सवदशनः ।


यावनतोऽपृ छद् वृ ान् न दपुरोगमान् ।।२

क यतां मे पतः कोऽयं स मो व उपागतः ।


क फलं क य चो े शः केन वा सा यते मखः ।।३

एतद् ू ह महान् कामो म ं शु ूषवे पतः ।


न ह गो यं ह साधूनां कृ यं सवा मना मह ।।४

अ य वपर ीनाम म ोदा त व षाम् ।


उदासीनोऽ रवद् व य आ मवत् सु यते ।।५

ा वा ा वा च कमा ण जनोऽयमनु त त ।
व षः कम स ः या था ना व षो भवेत् ।।६
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान् ीकृ ण बलरामजीके साथ वृ दावनम
रहकर अनेक कारक लीलाएँ कर रहे थे। उ ह ने एक दन दे खा क वहाँके सब गोप इ -
य करनेक तैयारी कर रहे ह ।।१।। भगवान् ीकृ ण सबके अ तयामी और सव ह। उनसे
कोई बात छपी नह थी, वे सब जानते थे। फर भी वनयावनत होकर उ ह ने न दबाबा
आ द बड़े-बूढ़े गोप से पूछा— ।।२।। ‘ पताजी! आपलोग के सामने यह कौन-सा बड़ा भारी
काम, कौन-सा उ सव आ प ँचा है? इसका फल या है? कस उ े यसे, कौन लोग, कन
साधन के ारा यह य कया करते ह? पताजी! आप मुझे यह अव य बतलाइये ।।३।।
आप मेरे पता ह और म आपका पु । ये बात सुननेके लये मुझे बड़ी उ क ठा भी है।
पताजी! जो संत पु ष सबको अपनी आ मा मानते ह, जनक म अपने और परायेका
भेद नह है, जनका न कोई म है, न श ु और न उदासीन—उनके पास छपानेक तो कोई
बात होती ही नह । पर तु य द ऐसी थ त न हो तो रह यक बात श ुक भाँ त उदासीनसे
भी नह कहनी चा हये। म तो अपने समान ही कहा गया है, इस लये उससे कोई बात
छपायी नह जाती ।।४-५।। यह संसारी मनु य समझे-बेसमझे अनेक कारके कम का
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अनु ान करता है। उनमसे समझ-बूझकर करनेवाले पु ष के कम जैसे सफल होते ह, वैसे
बेसमझके नह ।।६।। अतः इस समय आपलोग जो यायोग करने जा रहे ह, वह सु द के
साथ वचा रत—शा स मत है अथवा लौ कक ही है—म यह सब जानना चाहता ँ; आप
कृपा करके प पसे बतलाइये’ ।।७।।

त तावत् यायोगो भवतां क वचा रतः ।


अथवा लौ कक त मे पृ छतः साधु भ यताम् ।।७
न द१ उवाच
पज यो भगवा न ो मेघा त या ममूतयः ।
तेऽ भवष त भूतानां ीणनं जीवनं पयः ।।८

तं तात वयम ये च वामुचां प तमी रम् ।


ै त े तसा स ै यज ते तु भनराः ।।९

त छे षेणोपजीव त वगफलहेतवे ।
पुंसां पु षकाराणां पज यः फलभावनः ।।१०

य एवं वसृजेद ् धम पार पयागतं नरः ।


कामा लोभाद् भयाद् े षात् स वै ना ो त शोभनम् ।।११
ीशुक२ उवाच
वचो नश य न द य तथा येषां जौकसाम् ।
इ ाय म युं जनयन् पतरं ाह केशवः ।।१२
ीभगवानुवाच
कमणा जायते ज तुः कमणैव वलीयते ।
सुखं ःखं भयं ेमं कमणैवा भप ते ।।१३

अ त चेद रः क त् फल य यकमणाम् ।
कतारं भजते सोऽ प न कतुः भु ह सः ।।१४
न दबाबाने कहा—बेटा! भगवान् इ वषा करनेवाले मेघ के वामी ह। ये मेघ उ ह के
अपने प ह। वे सम त ा णय को तृ त करनेवाला एवं जीवनदान करनेवाला जल बरसाते
ह ।।८।। मेरे यारे पु ! हम और सरे लोग भी उ ह मेघप त भगवान् इ क य के ारा
पूजा कया करते ह। जन साम य से य होता है, वे भी उनके बरसाये ए श शाली
जलसे ही उ प होती ह ।।९।। उनका य करनेके बाद जो कुछ बच रहता है, उसी अ से
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हम सब मनु य अथ, धम और काम प वगक स के लये अपना जीवन- नवाह करते
ह। मनु य के खेती आ द य न के फल दे नेवाले इ ही ह ।।१०।। यह धम हमारी
कुलपर परासे चला आया है। जो मनु य काम, लोभ, भय अथवा े षवश ऐसे पर परागत
धमको छोड़ दे ता है, उसका कभी मंगल नह होता ।।११।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! ा, शंकर आ दके भी शासन करनेवाले केशव
भगवान्ने न दबाबा और सरे जवा सय क बात सुनकर इ को ोध दलानेके लये अपने
पता न दबाबासे कहा ।।१२।।
ीभगवान्ने कहा— पताजी! ाणी अपने कमके अनुसार ही पैदा होता और कमसे ही
मर जाता है। उसे उसके कमके अनुसार ही सुख- ःख, भय और मंगलके न म क ा त
होती है ।।१३।।
य द कम को ही सब कुछ न मानकर उनसे भ जीव के कमका फल दे नेवाला ई र
माना भी जाय तो वह कम करनेवाल को ही उनके कमके अनुसार फल दे सकता है। कम न
करने-वाल पर उसक भुता नह चल सकती ।।१४।। जब सभी ाणी अपने-अपने कम का
ही फल भोग रहे ह, तब हम इ क या आव यकता है? पताजी! जब वे पूवसं कारके
अनुसार ा त होनेवाले मनु य के कम-फलको बदल ही नह सकते—तब उनसे
योजन? ।।१५।। मनु य अपने वभाव (पूव-सं कार ) के अधीन है। वह उसीका अनुसरण
करता है। यहाँतक क दे वता, असुर, मनु य आ दको लये ए यह सारा जगत् वभावम ही
थत है ।।१६।। जीव अपने कम के अनुसार उ म और अधम शरीर को हण करता और
छोड़ता रहता है। अपने कम के अनुसार ही ‘यह श ु है, यह म है, यह उदासीन है’—ऐसा
वहार करता है। कहाँतक क ,ँ कम ही गु है और कम ही ई र ।।१७।। इस लये पताजी!
मनु यको चा हये क पूव-सं कार के अनुसार अपने वण तथा आ मके अनुकूल धम का
पालन करता आ कमका ही आदर करे। जसके ारा मनु यक जी वका सुगमतासे चलती
है, वही उसका इ दे व होता है ।।१८।। जैसे अपने ववा हत प तको छोड़कर जार प तका
सेवन करनेवाली भचा रणी ी कभी शा तलाभ नह करती, वैसे ही जो मनु य अपनी
आजी वका चलानेवाले एक दे वताको छोड़कर कसी सरेक उपासना करते ह, उससे उ ह
कभी सुख नह मलता ।।१९।। ा ण वेद के अ ययन-अ यापनसे, य पृ वीपालनसे,
वै य वातावृ से और शू ा ण, य और वै य क सेवासे अपनी जी वकाका नवाह
कर ।।२०।। वै य क वातावृ चार कारक है—कृ ष, वा ण य, गोर ा और याज लेना।
हमलोग उन चार मसे एक केवल गोपालन ही सदासे करते आये ह ।।२१।। पताजी! इस
संसारक थ त, उ प और अ तके कारण मशः स वगुण, रजोगुण और तमोगुण ह।
यह व वध कारका स पूण जगत् ी-पु षके संयोगसे रजोगुणके ारा उ प होता
है ।।२२।। उसी रजोगुणक ेरणासे मेघगण सब कह जल बरसाते ह। उसीसे अ और
अ से ही सब जीव क जी वका चलती है। इसम भला इ का या लेना-दे ना है? वह भला,
या कर सकता है? ।।२३।।

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क म े णेह भूतानां व वकमानुव तनाम् ।
अनीशेना यथा कतु वभाव व हतं नृणाम् ।।१५

वभावत ो ह जनः वभावमनुवतते ।


वभाव थ मदं सव सदे वासुरमानुषम् ।।१६

दे हानु चावचा तुः ा यो सृज त कमणा ।


श ु म मुदासीनः कमव गु री रः ।।१७

त मात् स पूजयेत् कम वभाव थः वकमकृत् ।


अ सा येन वतत तदे वा य ह दै वतम् ।।१८

आजी ैकतरं भावं य व यमुपजीव त ।


न त माद् व दते ेमं जारं नायसती यथा ।।१९

वतत णा व ो राज यो र या भुवः ।


वै य तु वातया जीवे छू तु जसेवया ।।२०

कृ षवा ण यगोर ा१ कुसीदं तुयमु यते ।


वाता चतु वधा त वयं गोवृ योऽ नशम् ।।२१

स वं रज तम इ त थ यु प य तहेतवः ।
रजसो प ते व म यो यं व वधं जगत् ।।२२

रजसा चो दता मेघा वष य बू न सवतः ।


जा तैरेव स य त महे ः क क र य त ।।२३

न नः पुरो जनपदा न ामा न गृहा वयम् ।


न यं वनौकस तात वनशैल नवा सनः ।।२४

त माद् गवां ा णानाम े ार यतां मखः ।


य इ यागस भारा तैरयं सा यतां मखः ।।२५

प य तां व वधाः पाकाः सूपा ताः पायसादयः ।


संयावापूपश कु यः सवदोह गृ ताम् ।।२६
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य ताम नयः स यग् ा णै वा द भः ।
अ ं ब वधं ते यो दे यं वो धेनुद णाः ।।२७

अ ये य ा चा डालप तते यो यथाहतः ।


यवसं च गवां द वा गरये द यतां ब लः ।।२८

वलंकृता भु व तः वनु ल ताः सुवाससः ।


द णं च कु त गो व ानलपवतान् ।।२९

एत मम मतं तात यतां य द रोचते ।


अयं गो ा णा णां म ं च द यतो मखः ।।३०
ीशुक उवाच
काला मना भगवता श दप जघांसता ।
ो ं नश य न दा ाः सा वगृ त त चः ।।३१

तथा च दधुः सव यथाऽऽह मधुसूदनः ।


वाच य वा व ययनं तद् ेण ग र जान् ।।३२

उप य बलीन् सवाना ता यवसं गवाम् ।


गोधना न पुर कृ य ग र च ु ः द णम् ।।३३
पताजी! न तो हमारे पास कसी दे शका रा य है और न तो बड़े-बड़े नगर ही हमारे
अधीन ह। हमारे पास गाँव या घर भी नह ह। हम तो सदाके वनवासी ह, वन और पहाड़ ही
हमारे घर ह ।।२४।। इस लये हमलोग गौ , ा ण और ग रराजका यजन करनेक तैयारी
कर। इ -य के लये जो साम याँ इक क गयी ह, उ ह से इस य का अनु ान होने
द ।।२५।। अनेक कारके पकवान—खीर, हलवा, पूआ, पूरी आ दसे लेकर मूँगक दालतक
बनाये जायँ। जका सारा ध एक कर लया जाय ।।२६।। वेदवाद ा ण के ारा
भलीभाँ त हवन करवाया जाय तथा उ ह अनेक कारके अ , गौएँ और द णाएँ द
जायँ ।।२७।। और भी, चा डाल, प तत तथा कु तकको यथायो य व तुएँ दे कर गाय को
चारा दया जाय और फर ग रराजको भोग लागाया जाय ।।२८।। इसके बाद खूब साद
खा-पीकर, सु दर-सु दर व पहनकर गहन से सज-सजा लया जाय और च दन लगाकर
गौ, ा ण, अ न तथा ग रराज गोवधनक द णा क जाय ।।२९।। पताजी! मेरी तो
ऐसी ही स म त है। य द आप-लोग को चे तो ऐसा ही क जये। ऐसा य गौ, ा ण और
ग रराजको तो य होगा ही; मुझे भी ब त य है ।।३०।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! काला मा भगवान्क इ छा थी क इ का घम ड
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चूर-चूर कर द। न दबाबा आ द गोप ने उनक बात सुनकर बड़ी स तासे वीकार कर
ली ।।३१।। भगवान् ीकृ णने जस कारका य करनेको कहा था, वैसा ही य उ ह ने
ार भ कया। पहले ा ण से व तवाचन कराकर उसी साम ीसे ग रराज और
ा ण को सादर भट द तथा गौ को हरी-हरी घास खलाय । इसके बाद न दबाबा आ द
गोप ने गौ को आगे करके ग रराजक द णा क ।।३२-३३।। ा ण का आशीवाद
ा त करके वे और गो पयाँ भलीभाँ त शृंगार करके और बैल से जुती गा ड़य पर सवार
होकर भगवान् ीकृ णक लीला का गान करती ई ग रराजक प र मा करने
लग ।।३४।। भगवान् ीकृ ण गोप को व ास दलानेके लये ग रराजके ऊपर एक सरा
वशाल शरीर धारण करके कट हो गये, तथा ‘म ग रराज ’ँ इस कार कहते ए सारी
साम ी आरोगने लगे ।।३५।।

अनां यनडु ु ा न ते चा वलंकृताः ।


गो य कृ णवीया ण गाय यः स जा शषः ।।३४

कृ ण व यतमं पं गोप व भणं गतः ।


शैलोऽ मी त ुवन् भू र ब लमादद् बृह पुः ।।३५

त मै नमो जजनैः सह च े ऽऽ मनाऽऽ मने ।


अहो प यत शैलोऽसौ पी नोऽनु हं धात् ।।३६

एषोऽवजानतो म यान् काम पी वनौकसः ।


ह त मै नम यामः शमणे आ मनो गवाम् ।।३७

इ य गो जमखं वासुदेव णो दताः१ ।


यथा वधाय ते गोपाः सहकृ णा जं ययुः ।।३८
भगवान् ीकृ णने अपने उस व पको सरे जवा सय के साथ वयं भी णाम कया
और कहने लगे—‘दे खो, कैसा आ य है! ग रराजने सा ात् कट होकर हमपर कृपा क
है ।।३६।। ये चाहे जैसा प धारण कर सकते ह। जो वनवासी जीव इनका नरादर करते ह,
उ ह ये न कर डालते ह। आओ, अपना और गौ का क याण करनेके लये इन
ग रराजको हम नम कार कर’ ।।३७।। इस कार भगवान् ीकृ णक ेरणासे न दबाबा
आ द बड़े-बूढ़े गोप ने ग रराज, गौ और ा ण का व धपूवक पूजन कया तथा फर
ीकृ णके साथ सब जम लौट आये ।।३८।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध२
चतु वशोऽ यायः ।।२४।।

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१. बादराय ण वाच।
१. न दगोप उवाच। २. बादराय ण वाच।
१. र यं।

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अथ प च वशोऽ यायः
गोवधनधारण
ीशुक३ उवाच
इ तदाऽऽ मनः पूजां व ाय वहतां नृप ।
गोपे यः कृ णनाथे यो न दा द य कोप सः ।।१

गणं सांवतकं नाम मेघानां चा तका रणाम् ।


इ ः ाचोदयत् ु ो वा यं चाहेशमा युत ।।२
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जब इ को पता लगा क मेरी पूजा बंद कर
द गयी है, तब वे न दबाबा आ द गोप पर ब त ही ो धत ए। पर तु उनके ोध
करनेसे होता या, उन गोप के र क तो वयं भगवान् ीकृ ण थे ।।१।। इ को अपने
पदका बड़ा घम ड था, वे समझते थे क म ही लोक का ई र ँ। उ ह ने ोधसे
तल मलाकर लय करनेवाले मेघ के सांवतक नामक गणको जपर चढ़ाई करनेक
आ ा द और कहा— ।।२।। ‘ओह, इन जंगली वाल को इतना घम ड! सचमुच यह
धनका ही नशा है। भला दे खो तो सही, एक साधारण मनु य कृ णके बलपर उ ह ने
मुझ दे वराजका अपमान कर डाला ।।३।। जैसे पृ वीपर ब त-से म दबु पु ष
भवसागरसे पार जानेके स चे साधन व ाको तो छोड़ दे ते ह और नाममा क टू ट
ई नावसे—कममय य से इस घोर संसार-सागरको पार करना चाहते ह ।।४।। कृ ण
बकवाद , नादान, अ भमानी और मूख होनेपर भी अपनेको ब त बड़ा ानी समझता
है। वह वयं मृ युका ास है। फर भी उसीका सहारा लेकर इन अहीर ने मेरी
अवहेलना क है ।।५।। एक तो ये य ही धनके नशेम चूर हो रहे थे; सरे कृ णने इनको
और बढ़ावा दे दया है। अब तुमलोग जाकर इनके इस धनके घम ड और हेकड़ीको
धूलम मला दो तथा उनके पशु का संहार कर डालो ।।६।। म भी तु हारे पीछे -पीछे
ऐरावत हाथीपर चढ़कर न दके जका नाश करनेके लये महापरा मी म द्गण के
साथ आता ँ’ ।।७।।

अहो ीमदमाहा यं गोपानां काननौकसाम् ।


कृ णं म यमुपा य ये१ च ु दवहेलनम् ।।३

यथा ढै ः कममयैः तु भनामनौ नभैः ।


व ामा वी क ह वा ततीष त भवाणवम् ।।४

वाचालं बा लशं त धम ं प डतमा ननम् ।


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कृ णं म यमुपा य गोपा मे च ु र यम् ।।५

एषां याव ल तानां कृ णेना मा यता मनाम् ।


धुनुत ीमद त भं पशून् नयत सं यम् ।।६

अहं चैरावतं नागमा ानु जे जम् ।


म द्गणैमहावीयन दगो जघांसया२ ।।७
ीशुक उवाच
इ थं मघवताऽऽ ता मेघा नमु ब धनाः ।
न दगोकुलमासारैः पीडयामासुरोजसा ।।८

व ोतमाना व ु ः तन तः तन य नु भः ।
ती ैम द्गणैनु ा ववृषुजलशकराः ।।९

थूणा थूला वषधारा मु च व े वभी णशः ।

जलौघैः ला माना भूना यत नतो तम् ।।१०

अ यासारा तवातेन पशवो जातवेपनाः ।


गोपा गो य शीताता गो व दं शरणं ययुः ।।११
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! इ ने इस कार लयके मेघ को आ ा द
और उनके ब धन खोल दये। अब वे बड़े वेगसे न दबाबाके जपर चढ़ आये और
मूसलधार पानी बरसाकर सारे जको पी ड़त करने लगे ।।८।। चार ओर बज लयाँ
चमकने लग , बादल आपसम टकराकर कड़कने लगे और च ड आँधीक ेरणासे वे
बड़े-बड़े ओले बरसाने लगे ।।९।। इस कार जब दल-के-दल बादल बार-बार आ-
आकर खंभेके समान मोट -मोट धाराएँ गराने लगे, तब जभू मका कोना-कोना
पानीसे भर गया और कहाँ नीचा है, कहाँ ऊँचा—इसका पता चलना क ठन हो
गया ।।१०।। इस कार मूसलधार वषा तथा झंझावातके झपाटे से जब एक-एक पशु
ठठु रने और काँपने लगा, वाल और वा लन भी ठं डके मारे अ य त ाकुल हो गय ,
तब वे सब-के-सब भगवान् ीकृ णक शरणम आये ।।११।। मूसलधार वषासे सताये
जानेके कारण सबने अपने-अपने सर और ब च को न ककर अपने शरीरके नीचे
छपा लया था और वे काँपते-काँपते भगवान्क चरणशरणम प ँचे ।।१२।। और बोले
—‘ यारे ीकृ ण! तुम बड़े भा यवान् हो। अब तो कृ ण! केवल तु हारे ही भा यसे
हमारी र ा होगी। भो! इस सारे गोकुलके एकमा वामी, एकमा र क तु ह हो।
भ व सल! इ के ोधसे अब तु ह हमारी र ा कर सकते हो’ ।।१३।। भगवान्ने
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दे खा क वषा और ओल क मारसे पी ड़त होकर सब बेहोश हो रहे ह। वे समझ गये
क यह सारी करतूत इ क है। उ ह ने ही ोधवश ऐसा कया है ।।१४।। वे मन-ही-
मन कहने लगे—‘हमने इ का य भंग कर दया है, इसीसे वे जका नाश करनेके
लये बना ऋतुके ही यह च ड वायु और ओल के साथ घनघोर वषा कर रहे
ह ।।१५।। अ छा, म अपनी योगमायासे इसका भलीभाँ त जवाब ँ गा। ये मूखतावश
अपनेको लोकपाल मानते ह, इनके ऐ य और धनका घम ड तथा अ ान म चूर-चूर
कर ँ गा ।।१६।। दे वतालोग तो स व धान होते ह। इनम अपने ऐ य और पदका
अ भमान न होना चा हये। अतः यह उ चत ही है क इन स वगुणसे युत
दे वता का म मान भंग कर ँ । इससे अ तम उ ह शा त ही मलेगी ।।१७।। यह सारा
ज मेरे आ त है, मेरे ारा वीकृत है और एकमा म ही इसका र क ँ। अतः म
अपनी योगमायासे इसक र ा क ँ गा। संत क र ा करना तो मेरा त ही है। अब
उसके पालनका अवसर आ प ँचा है’* ।।१८।।

शरः सुतां कायेन छा ासारपी डताः ।


वेपमाना भगवतः पादमूलमुपाययुः ।।१२

कृ ण कृ ण महाभाग व ाथं गोकुलं भो ।


ातुमह स दे वा ः कु पताद् भ व सल ।।१३

शलावष नपातेन ह यमानमचेतनम् ।


नरी य भगवान् मेने कु पते कृतं ह रः ।।१४

अप व यु बणं वषम तवातं शलामयम् ।


वयागे वहतेऽ मा भ र ो नाशाय वष त ।।१५

त त व ध स यगा मयोगेन साधये ।


लोकेशमा ननां मौ ा र ये ीमदं तमः ।।१६

न ह स ावयु ानां सुराणामीश व मयः ।


म ोऽसतां मानभंगः शमायोपक पते ।।१७

त मा म छरणं गो ं म ाथं म प र हम् ।


गोपाये वा मयोगेन सोऽयं मे त आ हतः ।।१८

इ यु वैकेन ह तेन कृ वा गोवधनाचलम् ।

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दधार लीलया कृ ण छ ाक मव बालकः ।।१९
इस कार कहकर भगवान् ीकृ णने खेल-खेलम एक ही हाथसे ग रराज
गोव नको उखाड़ लया और जैसे छोटे -छोटे बालक बरसाती छ ेके पु पको
उखाड़कर हाथम रख लेते ह, वैसे ही उ ह ने उस पवतको धारण कर लया ।।१९।।

अथाह भगवान् गोपान् हेऽ ब तात जौकसः ।


यथोपजोषं वशत ग रगत सगोधनाः ।।२०

न ास इह वः काय म ता नपातने ।
वातवषभयेनालं त ाणं व हतं ह वः ।।२१

तथा न व वशुगत कृ णा ा सतमानसाः ।


यथावकाशं सधनाः स जाः सोपजी वनः ।।२२

ु ृड् थां सुखापे ां ह वा तै जवा स भः ।


वी यमाणो दधाव १ स ताहं नाचलत् पदात् ।।२३

कृ णयोगानुभावं तं नशा ये ोऽ त व मतः ।


नः त भो संक पः वान् मेघान् सं यवारयत् ।।२४

खं मु दता द यं वातवष च दा णम् ।


नशा योपरतं गोपान् गोवधनधरोऽ वीत् ।।२५

नयात यजत ासं गोपाः स ीधनाभकाः ।


उपारतं वातवष ुद ाया न नगाः ।।२६

तत ते नययुग पाः वं वमादाय गोधनम् ।


शकटोढोपकरणं ीबाल थ वराः शनैः ।।२७

भगवान प तं शैलं व थाने पूववत् भुः ।


प यतां सवभूतानां थापयामास लीलया ।।२८
इसके बाद भगवान्ने गोप से कहा—‘माताजी, पताजी और जवा सयो! तुमलोग
अपनी गौ और सब साम य के साथ इस पवतके गड् ढे म आकर आरामसे बैठ
जाओ ।।२०।। दे खो, तुमलोग ऐसी शंका न करना क मेरे हाथसे यह पवत गर पड़ेगा।
तुमलोग त नक भी मत डरो। इस आँधी-पानीके डरसे तु ह बचानेके लये ही मने यह
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यु रची है’ ।।२१।। जब भगवान् ीकृ णने इस कार सबको आ ासन दया—
ढाढ़स बँधाया, तब सब-के-सब वाल अपने-अपने गोधन, छकड़ , आ त , पुरो हत
और भृ य को अपने-अपने साथ लेकर सुभीतेके अनुसार गोव नके गड् ढे म आ
घुसे ।।२२।।
भगवान् ीकृ णने सब जवा सय के दे खते-दे खते भूख- यासक पीड़ा, आराम-
व ामक आव यकता आ द सब कुछ भुलाकर सात दनतक लगातार उस पवतको
उठाये रखा। वे एक डग भी वहाँसे इधर-उधर नह ए ।।२३।। ीकृ णक
योगमायाका यह भाव दे खकर इ के आ यका ठकाना न रहा। अपना संक प पूरा
न होनेके कारण उनक सारी हेकड़ी बंद हो गयी, वे भ च के-से रह गये। इसके बाद
उ ह ने मेघ को अपने-आप वषा करनेसे रोक दया ।।२४।। जब गोव नधारी भगवान्
ीकृ णने दे खा क वह भयंकर आँधी और घनघोर वषा बंद हो गयी, आकाशसे बादल
छँ ट गये और सूय द खने लगे, तब उ ह ने गोप से कहा— ।।२५।। ‘मेरे यारे गोपो!
अब तुमलोग नडर हो जाओ और अपनी य , गोधन तथा ब च के साथ बाहर
नकल आओ। दे खो, अब आँधी-पानी बंद हो गया तथा न दय का पानी भी उतर
गया’ ।।२६।। भगवान्क ऐसी आ ा पाकर अपने-अपने गोधन, य , ब च और
बूढ़ को साथ ले तथा अपनी साम ी छकड़ पर लादकर धीरे-धीरे सब लोग बाहर
नकल आये ।।२७।।
सवश मान् भगवान् ीकृ णने भी सब ा णय के दे खते-दे खते खेल-खेलम ही
ग रराजको पूववत् उसके थानपर रख दया ।।२८।।

तं ेमवेगा भृता जौकसो


यथा समीयुः प रर भणा द भः ।
गो य स नेहमपूजयन् मुदा
द य ता युयुजुः सदा शषः ।।२९

यशोदा रो हणी न दो राम ब लनां वरः ।


कृ णमा लङ् य युयुजुरा शषः नेहकातराः ।।३०

द व दे वगणाः सा याः स ग धवचारणाः ।


तु ु वुमुमुचु तु ाः पु पवषा ण पा थव ।।३१

शंख भयो ने द व दे व णो दताः ।


जगुग धवपतय तु बु मुखा नृप ।।३२

ततोऽनुर ै ः पशुपैः प र तो

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राजन् स गो ं सबलोऽ ज रः ।
तथा वधा य य कृता न गो पका
गाय य ईयुमु दता द पृशः ।।३३
जवा सय का दय ेमके आवेगसे भर रहा था। पवतको रखते ही वे भगवान्
ीकृ णके पास दौड़ आये। कोई उ ह दयसे लगाने और कोई चूमने लगा। सबने
उनका स कार कया। बड़ी-बूढ़ गो पय ने बड़े आन द और नेहसे दही, चावल, जल
आ दसे उनका मंगल- तलक कया और उ मु दयसे शुभ आशीवाद दये ।।२९।।
यशोदारानी, रो हणीजी, न दबाबा और बलवान म े बलरामजीने नेहातुर होकर
ीकृ णको दयसे लगा लया तथा आशीवाद दये ।।३०।। परी त्! उस समय
आकाशम थत दे वता, सा य, स , ग धव और चारण आ द स होकर भगवान्क
तु त करते ए उनपर फूल क वषा करने लगे ।।३१।। राजन्! वगम दे वतालोग शंख
और नौबत बजाने लगे। तु बु आ द ग धवराज भगवान्क मधुर लीलाका गान करने
लगे ।।३२।। इसके बाद भगवान् ीकृ णने जक या ा क । उनके बगलम बलरामजी
चल रहे थे और उनके ेमी वालबाल उनक सेवा कर रहे थे। उनके साथ ही ेममयी
गो पयाँ भी अपने दयको आक षत करनेवाले, उसम ेम जगानेवाले भगवान्क
गोव न-धारण आ द लीला का गान करती ई बड़े आन दसे जम लौट
आय ।।३३।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध
प च वशोऽ यायः ।।२५।।

१. चो०। २. इ मखभंग तु०। ३. बादराय ण वाच।


१. मखभंगमचीकरन्। २. हावेगैन०।
* भगवान् कहते ह—

सकृदे व प ाय तवा मी त चयाचते। अभयं सवभूते यो


ददा येतद् तं मम ।।
‘जो केवल एक बार मेरी शरणम आ जाता है और ‘म तु हारा ’ँ इस कार
याचना करता है, उसे म स पूण ा णय से अभय कर दे ता ँ—यह मेरा त है।’
१. धारा ।

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अथ षड् वशोऽ यायः
न दबाबासे गोप क ीकृ णके भावके वषयम बातचीत
ीशुक उवाच
एवं वधा न कमा ण गोपाः कृ ण य वी य ते ।
अत य वदः ोचुः सम ये य सु व मताः ।।१

बालक य यदे ता न कमा य य ता न वै ।


कथमह यसौ ज म ा ये वा मजुगु सतम् ।।२
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जके गोप भगवान् ीकृ णके ऐसे अलौ कक कम
दे खकर बड़े आ यम पड़ गये। उ ह भगवान्क अन त श का तो पता था नह , वे इक े
होकर आपसम इस कार कहने लगे— ।।१।। ‘इस बालकके ये कम बड़े अलौ कक ह।
इसका हमारे-जैसे गँवार ामीण म ज म लेना तो इसके लये बड़ी न दाक बात है। यह
भला, कैसे उ चत हो सकता है ।।२।। जैसे गजराज कोई कमल उखाड़कर उसे ऊपर उठा ले
और धारण करे, वैसे ही इस न ह-से सात वषके बालकने एक ही हाथसे ग रराज गोव नको
उखाड़ लया और खेल-खेलम सात दन तक उठाये रखा ।।३।। यह साधारण मनु यके लये
भला कैसे स भव है? जब यह न हा-सा ब चा था, उस समय बड़ी भयंकर रा सी पूतना
आयी और इसने आँख बंद कये- कये ही उसका तन तो पया ही, ाण भी पी डाले—ठ क
वैसे ही, जैसे काल शरीरक आयुको नगल जाता है ।।४।। जस समय यह केवल तीन
महीनेका था और छकड़ेके नीचे सोकर रो रहा था, उस समय रोते-रोते इसने ऐसा पाँव
उछाला क उसक ठोकरसे वह बड़ा भारी छकड़ा उलटकर गर ही पड़ा ।।५।। उस समय तो
यह एक ही वषका था, जब दै य बवंडरके पम इसे बैठे-बैठे आकाशम उड़ा ले गया था।
तुम सब जानते ही हो क इसने उस तृणावत दै यको गला घ टकर मार डाला ।।६।। उस
दनक बात तो सभी जानते ह क माखनचोरी करनेपर यशोदारानीने इसे ऊखलसे बाँध
दया था। यह घुटन के बल बकैयाँ ख चते-ख चते उन दोन वशाल अजुन वृ के बीचमसे
नकल गया और उ ह उखाड़ ही डाला ।।७।। जब यह वालबाल और बलरामजीके साथ
बछड़ को चरानेके लये वनम गया आ था उस समय इसको मार डालनेके लये एक दै य
बगुलेके पम आया और इसने दोन हाथ से उसके दोन ठोर पकड़कर उसे तनकेक तरह
चीर डाला ।।८।। जस समय इसको मार डालनेक इ छासे एक दै य बछड़ेके पम
बछड़ के झुंडम घुस गया था उस समय इसने उस दै यको खेल-ही-खेलम मार डाला और
उसे कैथके पेड़ पर पटककर उन पेड़ को भी गरा दया ।।९।। इसने बलरामजीके साथ
मलकर गधेके पम रहनेवाले धेनुकासुर तथा उसके भाई-ब धु को मार डाला और पके
ए फल से पूण तालवनको सबके लये उपयोगी और मंगलमय बना दया ।।१०।। इसीने
बलशाली बलरामजीके ारा ू र ल बासुरको मरवा डाला तथा दावानलसे गौ और
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वालबाल को उबार लया ।।११।। यमुनाजलम रहनेवाला का लयनाग कतना वषैला था?
पर तु इसने उसका भी मान मदन कर उसे बलपूवक दहसे नकाल दया और यमुनाजीका
जल सदाके लये वषर हत—अमृतमय बना दया ।।१२।। न दजी! हम यह भी दे खते ह क
तु हारे इस साँवले बालकपर हम सभी जवा सय का अन त ेम है और इसका भी हमपर
वाभा वक ही नेह है। या आप बतला सकते ह क इसका या कारण है ।।१३।। भला,
कहाँ तो यह सात वषका न हा-सा बालक और कहाँ इतने बड़े ग रराजको सात दन तक
उठाये रखना! जराज! इसीसे तो तु हारे पु के स ब धम हम बड़ी शंका हो रही है ।।१४।।

यः स तहायनो बालः करेणैकेन लीलया ।


कथं ब द् ग रवरं पु करं गजरा डव ।।३

तोकेनामी लता ण
े पूतनाया महौजसः ।
पीतः तनः सह ाणैः कालेनेव वय तनोः ।।४

ह वतोऽधः शयान य मा य य चरणावुदक् ।


अनोऽपतद् वपय तं दतः पदाहतम् ।।५

एकहायन आसीनो यमाणो वहायसा ।


दै येन य तृणावतमहन् क ठ हातुरम् ।।६

व च ै यंगव तै ये मा ा ब उलूखले ।
ग छ जुनयोम ये बा यां तावपातयत् ।।७

वने संचारयन् व सान् सरामो बालकैवृतः ।


ह तुकामं बकं दो या मुखतोऽ रमपाटयत् ।।८

व सेषु व स पेण वश तं जघांसया ।


ह वा यपातय ेन क प था न च लीलया ।।९

ह वा रासभदै तेयं त धूं बला वतः ।


च े तालवनं ेमं प रप वफला वतम् ।।१०

ल बं घात य वो ं बलेन बलशा लना ।


अमोचयद् जपशून् गोपां ार यव तः ।।११

आशी वषतमाही ं द म वा वमदं दात् ।


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स ो ा य यमुनां च े ऽसौ न वषोदकाम् ।।१२

यज ानुरागोऽ मन् सवषां नो जौकसाम् ।


न द ते तनयेऽ मासु त या यौ प कः कथम् ।।१३

व स तहायनो बालः व महा वधारणम् ।


ततो नो जायते शंका जनाथ तवा मजे ।।१४
न द उवाच
ूयतां मे वचो गोपा ेतु शंका च वोऽभके ।
एनं कुमारमु य गग मे य वाच ह ।।१५

वणा यः कला यासन् गृ तोऽनुयुगं तनूः ।


शु लो र तथा पीत इदान कृ णतां गतः ।।१६

ागयं वसुदेव य व च जात तवा मजः ।


वासुदेव इ त ीमान भ ाः स च ते ।।१७

ब न स त नामा न पा ण च सुत य ते ।
गुणकमानु पा ण ता यहं वेद नो जनाः ।।१८

एष वः ेय आधा यद् गोपगोकुलन दनः ।


अनेन सव गा ण यूयम त र यथ ।।१९

पुरानेन जपते साधवो द युपी डताः ।


अराजके र यमाणा ज युद यून् समे धताः ।।२०
न दबाबाने कहा—गोपो! तुमलोग सावधान होकर मेरी बात सुनो। मेरे बालकके
वषयम तु हारी शंका र हो जाय। य क मह ष गगने इस बालकको दे खकर इसके वषयम
ऐसा ही कहा था ।।१५।। ‘तु हारा यह बालक येक युगम शरीर हण करता है। व भ
युग म इसने ेत, र और पीत—ये भ - भ रंग वीकार कये थे। इस बार यह कृ णवण
आ है ।।१६।। न दजी! यह तु हारा पु पहले कह वसुदेवके घर भी पैदा आ था, इस लये
इस रह यको जाननेवाले लोग ‘इसका नाम ीमान् वासुदेव है’—ऐसा कहते ह ।।१७।।
तु हारे पु के गुण और कम के अनु प और भी ब त-से नाम ह तथा ब त-से प। म तो
उन नाम को जानता ँ, पर तु संसारके साधारण लोग नह जानते ।।१८।। यह तुमलोग का
परम क याण करेगा, सम त गोप और गौ को यह ब त ही आन दत करेगा। इसक

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सहायतासे तुमलोग बड़ी-बड़ी वप य को बड़ी सुगमतासे पार कर लोगे ।।१९।।
‘ जराज! पूवकालम एक बार पृ वीम कोई राजा नह रह गया था। डाकु ने चार ओर
लूट-खसोट मचा रखी थी। तब तु हारे इसी पु ने स जन पु ष क र ा क और इससे बल
पाकर उन लोग ने लुटेर पर वजय ा त क ।।२०।।

य एत मन् महाभागाः ी त कुव त मानवाः ।


नारयोऽ भभव येतान् व णुप ा नवासुराः ।।२१

त मा द कुमारोऽयं नारायणसमो गुणैः ।


या क यानुभावेन त कमसु न व मयः ।।२२

इ य ा मां समा द य गग च वगृहं गते ।


म ये नारायण यांशं कृ णम ल का रणम् ।।२३

इ त न दवचः ु वा गगगीतं जौकसः ।


ुतानुभावा ते कृ ण या मततेजसः ।
मु दता न दमानचुः कृ णं च गत व मयाः ।।२४

दे वे वष त य व लव षा
व ा मपषा नलैः
सीद पालपशु आ मशरणं
् वानुक यु मयन् ।
उ पा ैककरेण शैलमबलो
लीलो छली ं यथा
ब द् गो मपा महे मद भत्
ीया इ ो गवाम् ।।२५
न दबाबा! जो तु हारे इस साँवले शशुसे ेम करते ह, वे बड़े भा यवान् ह। जैसे
व णुभगवान्के करकमल क छ छायाम रहनेवाले दे वता को असुर नह जीत सकते, वैसे
ही इससे ेम करनेवाल को भीतरी या बाहरी— कसी भी कारके श ु नह जीत
सकते ।।२१।। न दजी! चाहे जस से दे ख—गुणसे, ऐ य और सौ दयसे, क त और
भावसे तु हारा बालक वयं भगवान् नारायणके ही समान है, अतः इस बालकके अलौ कक
काय को दे खकर आ य न करना चा हये’ ।।२२।। गोपो! मुझे वयं गगाचायजी यह आदे श
दे कर अपने घर चले गये। तबसे म अलौ कक और परम सुखद कम करनेवाले इस बालकको
भगवान् नारायणका ही अंश मानता ँ ।।२३।। जब जवा सय ने न दबाबाके मुखसे
गगजीक यह बात सुनी, तब उनका व मय जाता रहा। य क अब वे अ मततेज वी
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ीकृ णके भावको पूण पसे दे ख और सुन चुके थे। आन दम भरकर उ ह ने न दबाबा
और ीकृ णक भू र-भू र शंसा क ।।२४।।
जस समय अपना य भंग हो जानेके कारण इ ोधके मारे आग-बबूला हो गये थे
और मूसलधार वषा करने लगे थे, उस समय व पात, ओल क बौछार और च ड आँधीसे
ी, पशु तथा वाले अ य त पी ड़त हो गये थे। अपनी शरणम रहनेवाले जवा सय क यह
दशा दे खकर भगवान्का दय क णासे भर आया। पर तु फर एक नयी लीला करनेके
वचारसे वे तुरंत ही मुसकराने लगे। जैसे कोई न हा-सा नबल बालक खेल-खेलम ही
बरसाती छ ेका पु प उखाड़ ले, वैसे ही उ ह ने एक हाथसे ही ग रराज गोव नको
उखाड़कर धारण कर लया और सारे जक र ा क । इ का मद चूर करनेवाले वे ही
भगवान् गो व द हमपर स ह ।।२५।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध
षड् वशोऽ यायः ।।२६।।

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अथ स त वशोऽ यायः
ीकृ णका अ भषेक
ीशुक उवाच
गोवधने धृते शैल आसाराद् र ते जे ।
गोलोकादा जत् कृ णं सुर भः श एव च ।।१

व व उपस य ी डतः कृतहेलनः ।


प पश पादयोरेनं करीटे नाकवचसा ।।२

ुतानुभावोऽ य कृ ण या मततेजसः ।
न लोकेशमद इ आह कृतांज लः ।।३
इ उवाच
वशु स वं तव धाम शा तं
तपोमयं व तरज तम कम् ।
मायामयोऽयं गुणस वाहो
न व ते तेऽ हणानुब धः ।।४

कुतो नु त े तव ईश त कृता
लोभादयो येऽबुध ल भावाः ।
तथा प द डं भगवान् बभ त
धम य गु यै खल न हाय ।।५

पता गु वं जगतामधीशो
र ययः काल उपा द डः ।
हताय वे छातनु भः समीहसे
मानं वधु व गद शमा ननाम् ।।६
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जब भगवान् ीकृ णने ग रराज गोव नको धारण
करके मूसलधार वषासे जको बचा लया, तब उनके पास गोलोकसे कामधेनु (बधाई दे नेके
लये) और वगसे दे वराज इ (अपने अपराधको मा करानेके लये) आये ।।१।।
भगवान्का तर कार करनेके कारण इ ब त ही ल जत थे। इस लये उ ह ने एका त-
थानम भगवान्के पास जाकर अपने सूयके समान तेज वी मुकुटसे उनके चरण का पश
कया ।।२।। परम तेज वी भगवान् ीकृ णका भाव दे ख-सुनकर इ का यह घमंड जाता
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रहा क म ही तीन लोक का वामी ँ। अब उ ह ने हाथ जोड़कर उनक तु त क ।।३।।
इ ने कहा—भगवन्! आपका व प परम शा त, ानमय, रजोगुण तथा तमोगुणसे
र हत एवं वशु अ ाकृत स वमय है। यह गुण के वाह पसे तीत होनेवाला पंच केवल
मायामय है; य क आपका व प न जाननेके कारण ही आपम इसक ती त होती
है ।।४।। जब आपका स ब ध अ ान और उसके कारण तीत होनेवाले दे हा दसे है ही नह ,
फर उन दे ह आ दक ा तके कारण तथा उ ह से होनेवाले लोभ- ोध आ द दोष तो आपम
हो ही कैसे सकते ह? भो! इन दोष का होना तो अ ानका ल ण है। इस कार य प
अ ान और उससे होनेवाले जगत्से आपका कोई स ब ध नह है, फर भी धमक र ा और
का दमन करनेके लये आप अवतार हण करते ह और न ह-अनु ह भी करते
ह ।।५।। आप जगत्के पता, गु और वामी ह। आप जगत्का नय ण करनेके लये द ड
धारण कये ए तर काल ह। आप अपने भ क लालसा पूण करनेके लये व छ दतासे
लीला-शरीर कट करते ह और जो लोग हमारी तरह अपनेको ई र मान बैठते ह, उनका
मान मदन करते ए अनेक कारक लीलाएँ करते ह ।।६।। भो! जो मेरे-जैसे अ ानी
और अपनेको जगत्का ई र माननेवाले ह, वे जब दे खते ह क बड़े-बड़े भयके अवसर पर
भी आप नभय रहते ह, तब वे अपना घमंड छोड़ दे ते ह और गवर हत होकर संतपु ष के
ारा से वत भ मागका आ य लेकर आपका भजन करते ह। भो! आपक एक-एक
चे ा के लये द ड वधान है ।।७।। भो! मने ऐ यके मदसे चूर होकर आपका अपराध
कया है; य क म आपक श और भावके स ब धम बलकुल अनजान था। परमे र!
आप कृपा करके मुझ मूख अपराधीका यह अपराध मा कर और ऐसी कृपा कर क मुझे
फर कभी ऐसे अ ानका शकार न होना पड़े ।।८।। वयं काश, इ यातीत परमा मन्!
आपका यह अवतार इस लये आ है क जो असुर-सेनाप त केवल अपना पेट पालनेम ही
लग रहे ह और पृ वीके लये बड़े भारी भारके कारण बन रहे ह, उनका वध करके उ ह मो
दया जाय और जो आपके चरण के सेवक ह—आ ाकारी भ जन ह, उनका अ युदय हो
—उनक र ा हो ।।९।। भगवन्! म आपको नम कार करता ।ँ आप सवा तयामी
पु षो म तथा सवा मा वासुदेव ह। आप य वं शय के एकमा वामी, भ व सल एवं
सबके च को आक षत करनेवाले ह। म आपको बार-बार नम कार करता ँ ।।१०।।
आपने जीव के समान कमवश होकर नह , वत तासे अपने भ क तथा अपनी इ छाके
अनुसार शरीर वीकार कया है। आपका यह शरीर भी वशु - ान व प है। आप सब
कुछ ह, सबके कारण ह और सबके आ मा ह। म आपको बार-बार नम कार करता
ँ ।।११।। भगवन्! मेरे अ भमानका अ त नह है और मेरा ोध भी ब त ही ती , मेरे वशके
बाहर है। जब मने दे खा क मेरा य तो न कर दया गया, तब मने मूसलधार वषा और
आँधीके ारा सारे जम डलको न कर दे ना चाहा ।।१२।। पर तु भो! आपने मुझपर
ब त ही अनु ह कया। मेरी चे ा थ होनेसे मेरे घमंडक जड़ उखड़ गयी। आप मेरे वामी
ह, गु ह और मेरे आ मा ह। म आपक शरणम ँ ।।१३।।

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ये म धा ा जगद शमा नन-
वां वी य कालेऽभयमाशु त मदम् ।
ह वाऽऽयमाग भज यप मया
ईहा खलानाम प तेऽनुशासनम् ।।७

स वं ममै यमद लुत य


कृतागस तेऽ व षः भावम् ।
तुं भोऽथाह स मूढचेतसो
मैवं पुनभू म तरीश मेऽसती ।।८

तवावतारोऽयमधो जेह
वय भराणामु भारज मनाम् ।
चमूपतीनामभवाय दे व
भवाय यु म चरणानुव तनाम् ।।९

नम तु यं भगवते पु षाय महा मने ।

वासुदेवाय कृ णाय सा वतां पतये नमः ।।१०

व छ दोपा दे हाय वशु ानमूतये ।


सव मै सवबीजाय सवभूता मने नमः ।।११

मयेदं भगवन् गो नाशायासारवायु भः ।


चे तं वहते य े मा नना ती म युना ।।१२

वयेशानुगृहीतोऽ म व त त भो वृथो मः ।
ई रं गु मा मानं वामहं शरणं गतः ।। १३
ीशुक उवाच
एवं संक ततः कृ णो मघोना भगवानमुम् ।
मेघग भीरया वाचा हस दम वीत् ।।१४
ीभगवानुवाच
मया तेऽका र मघवन् मखभ ोऽनुगृ ता ।
मदनु मृतये न यं म ये या भृशम् ।।१५

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मामै य ीमदा धो द डपा ण न प य त ।
तं ंशया म स पद् यो य य चे छा यनु हम् ।।१६

ग यतां श भ ं वः यतां मेऽनुशासनम् ।


थीयतां वा धकारेषु यु ै वः त भव जतैः ।।१७

अथाह सुर भः कृ णम भव मन वनी ।


वस तानै पाम य गोप पणमी रम् ।।१८
सुर भ वाच
कृ ण कृ ण महायो गन् व ा मन् व स भव ।
भवता लोकनाथेन सनाथा वयम युत ।।१९

वं नः परमकं दै वं वं न इ ो जग पते ।
भवाय भव गो व दे वानां ये च साधवः ।।२०

इ ं न वा भषे यामो णा नो दता वयम् ।


अवतीण ऽ स व ा मन् भूमेभारापनु ये ।।२१
ीशुक उवाच
एवं कृ णमुपाम य सुर भः पयसाऽऽ मनः ।
जलैराकाशग ाया ऐरावतकरोद्धृतैः ।।२२
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जब दे वराज इ ने भगवान् ीकृ णक इस कार
तु त क , तब उ ह ने हँसते ए मेघके समान ग भीर वाणीसे इ को स बोधन करके कहा
— ।।१४।।
ीभगवान्ने कहा—इ ! तुम ऐ य और धन-स प के मदसे पूर-े पूरे मतवाले हो रहे
थे। इस लये तुमपर अनु ह करके ही मने तु हारा य भंग कया है। यह इस लये क अब तुम
मुझे न य- नर तर मरण रख सको ।।१५।। जो ऐ य और धन-स प के मदसे अंधा हो
जाता है, वह यह नह दे खता क म काल प परमे र हाथम द ड लेकर उसके सरपर
सवार ँ। म जसपर अनु ह करना चाहता ँ, उसे ऐ य कर दे ता ँ ।।१६।। इ !
तु हारा मंगल हो। अब तुम अपनी राजधानी अमरावतीम जाओ और मेरी आ ाका पालन
करो। अब कभी घमंड न करना। न य- नर तर मेरी स धका, मेरे संयोगका अनुभव करते
रहना और अपने अ धकारके अनुसार उ चत री तसे मयादाका पालन करना ।।१७।।
परी त्! भगवान् इस कार आ ा दे ही रहे थे क मन वनी कामधेनुने अपनी
स तान के साथ गोपवेषधारी परमे र ीकृ णक व दना क और उनको स बो धत करके
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कहा— ।।१८।।
कामधेनुने कहा—स चदान द व प ीकृ ण! आप महायोगी—योगे र ह। आप
वयं व ह, व के परमकारण ह, अ युत ह। स पूण व के वामी आपको अपने र कके
पम ा तकर हम सनाथ हो गयी ।।१९।। आप जगत्के वामी ह, पर तु हमारे तो परम
पूजनीय आरा यदे व ही ह। भो! इ लोक के इ आ कर, पर तु हमारे इ तो आप ही
ह। अतः आप ही गौ, ा ण, दे वता और साधुजन क र ाके लये हमारे इ बन
जाइये ।।२०।। हम गौएँ ाजीक ेरणासे आपको अपना इ मानकर अ भषेक करगी।
व ा मन्! आपने पृ वीका भार उतारनेके लये ही अवतार धारण कया है ।।२१।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान् ीकृ णसे ऐसा कहकर कामधेनुने अपने
धसे और दे वमाता क ेरणासे दे वराज इ ने ऐरावतक सूँडके ारा लाये ए
आकाशगंगाके जलसे दे व षय के साथ य नाथ ीकृ णका अ भषेक कया और उ ह
‘गो व द’ नामसे स बो धत कया ।।२२-२३।। उस समय वहाँ नारद, तु बु आ द ग धव,
व ाधर, स और चारण पहलेसे ही आ गये थे। वे सम त संसारके पाप-तापको मटा
दे नेवाले भगवान्के लोकमलापह यशका गान करने लगे और अ सराएँ आन दसे भरकर नृ य
करने लग ।।२४।।

इ ः सुर ष भः साकं नो दतो दे वमातृ भः ।


अ य ष चत दाशाह गो व द इ त चा यधात् ।।२३

त ागता तु बु नारदादयो
ग धव व ाधर स चारणाः ।
जगुयशो लोकमलापहं हरेः
सुरा नाः संननृतुमुदा वताः ।।२४

तं तु ु वुदव नकायकेतवो
वा करं ा तपु पवृ भः ।
लोकाः परां नवृ तमा ुवं यो
गाव तदा गामनयन् पयो ताम् ।।२५

नानारसौघाः स रतो वृ ा आसन् मधु वाः ।


अकृ प यौषधयो गरयोऽ ब मणीन् ।।२६

कृ णेऽ भ ष एता न स वा न कु न दन ।
नवरा यभवं तात ू रा य प नसगतः ।।२७

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इ त गोगोकुलप त गो व दम भ ष य सः ।
अनु ातो ययौ श ो वृतो दे वा द भ दवम् ।।२८
मु य-मु य दे वता भगवान्क तु त करके उनपर न दनवनके द पु प क वषा करने
लगे। तीन लोक म परमान दक बाढ़ आ गयी और गौ के तन से आप-ही-आप इतना ध
गरा क पृ वी गीली हो गयी ।।२५।। न दय म व वध रस क बाढ़ आ गयी। वृ से मधुधारा
बहने लगी। बना जोते-बोये पृ वीम अनेक कारक ओष धयाँ, अ पैदा हो गये। पवत म
छपे ए म ण-मा ण य वयं ही बाहर नकल आये ।।२६।। परी त्! भगवान् ीकृ णका
अ भषेक होनेपर जो जीव वभावसे ही ू र ह, वे भी वैरहीन हो गये, उनम भी पर पर
म ता हो गयी ।।२७।। इ ने इस कार गौ और गोकुलके वामी ीगो व दका अ भषेक
कया और उनसे अनुम त ा त होनेपर दे वता, ग धव आ दके साथ वगक या ा
क ।।२८।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध इ तु तनाम
स त वशोऽ यायः ।।२७।।

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अथा ा वशोऽ यायः
व णलोकसे न दजीको छु ड़ाकर लाना
ीशुक उवाच
एकाद यां नराहारः सम य य जनादनम् ।
नातुं न द तु का ल ा ाद यां जलमा वशत् ।।१

तं गृही वानयद् भृ यो व ण यासुरोऽ तकम् ।


अ व ायासुर वेलां व मुदकं न श ।।२
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! न दबाबाने का तक शु ल एकादशीका उपवास
कया और भगवान्क पूजा क तथा उसी दन रातम ादशी लगनेपर नान करनेके लये
यमुना-जलम वेश कया ।।१।। न दबाबाको यह मालूम नह था क यह असुर क वेला है,
इस लये वे रातके समय ही यमुनाजलम घुस गये। उस समय व णके सेवक एक असुरने उ ह
पकड़ लया और वह अपने वामीके पास ले गया ।।२।। न दबाबाके खो जानेसे जके सारे
गोप ‘ ीकृ ण! अब तु ह अपने पताको ला सकते हो; बलराम! अब तु हारा ही भरोसा
है’—इस कार कहते ए रोने-पीटने लगे। भगवान् ीकृ ण सवश मान् ह एवं सदासे ही
अपने भ का भय भगाते आये ह। जब उ ह ने जवा सय का रोना-पीटना सुना और यह
जाना क पताजीको व णका कोई सेवक ले गया है, तब वे व णजीके पास गये ।।३।। जब
लोकपाल व णने दे खा क सम त जगत्के अ त र य और ब ह र य के वतक भगवान्
ीकृ ण वयं ही उनके यहाँ पधारे ह, तब उ ह ने उनक ब त बड़ी पूजा क । भगवान्के
दशनसे उनका रोम-रोम आन दसे खल उठा। इसके बाद उ ह ने भगवान्से नवेदन
कया ।।४।।

चु ु शु तमप य तः कृ ण रामे त गोपकाः ।


भगवां त प ु य पतरं व णा तम् ।
तद तकं गतो राजन् वानामभयदो वभुः ।।३

ा तं वी य षीकेशं लोकपालः सपयया ।


मह या पूज य वाऽऽह त शनमहो सवः ।।४
व ण उवाच
अ मे नभृतो दे होऽ ैवाथ ऽ धगतः भो ।
व पादभाजो भगव वापुः पारम वनः ।।५

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नम तु यं भगवते णे परमा मने ।
नय ूयते माया लोकसृ वक पना ।।६

अजानता मामकेन मूढेनाकायवे दना ।


आनीतोऽयं तव पता तद् भवान् तुमह त ।।७

ममा यनु हं कृ ण कतुमह यशेष क् ।


गो व द नीयतामेष पता ते पतृव सल ।।८
ीशुक उवाच
एवं सा दतः कृ णो भगवानी रे रः ।
आदायागात् व पतरं ब धूनां चावहन् मुदम् ।।९
व णजीने कहा— भो! आज मेरा शरीर धारण करना सफल आ। आज मुझे स पूण
पु षाथ ा त हो गया; य क आज मुझे आपके चरण क सेवाका शुभ अवसर ा त आ
है। भगवन्! ज ह भी आपके चरणकमल क सेवाका सुअवसर मला, वे भवसागरसे पार हो
गये ।।५।। आप भ के भगवान्, वेदा तय के और यो गय के परमा मा ह। आपके
व पम व भ लोकसृ य क क पना करनेवाली माया नह है—ऐसा ु त कहती है। म
आपको नम कार करता ँ ।।६।। भो! मेरा यह सेवक बड़ा मूढ़ और अनजान है। वह अपने
कत को भी नह जानता। वही आपके पताजीको ले आया है, आप कृपा करके उसका
अपराध मा क जये ।।७।। गो व द! म जानता ँ क आप अपने पताके त बड़ा
ेमभाव रखते ह। ये आपके पता ह। इ ह आप ले जाइये। पर तु भगवन्! आप सबके
अ तयामी, सबके सा ी ह। इस लये व वमोहन ीकृ ण! आप मुझ दासपर भी कृपा
क जये ।।८।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान् ीकृ ण ा आ द ई र के भी ई र ह।
लोकपाल व णने इस कार उनक तु त करके उ ह स कया। इसके बाद भगवान् अपने
पता न दजीको लेकर जम चले आये और जवासी भाई-ब धु को आन दत
कया ।।९।। न दबाबाने व णलोकम लोक-पालके इ यातीत ऐ य और सुख-स प को
दे खा तथा यह भी दे खा क वहाँके नवासी उनके पु ीकृ णके चरण म झुक-झुककर
णाम कर रहे ह। उ ह बड़ा व मय आ। उ ह ने जम आकर अपने जा त-भाइय को सब
बात कह सुनाय ।।१०।।

न द वती यं ् वा लोकपालमहोदयम् ।
कृ णे च स त तेषां ा त यो व मतोऽ वीत् ।।१०

ते वौ सु य धयो राजन् म वा गोपा तमी रम् ।

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अ प नः वग त सू मामुपाधा यदधी रः ।।११

इ त वानां स भगवान् व ाया खल क् वयम् ।


संक प स ये तेषां कृपयैतद च तयत् ।।१२

जनो वै लोक एत म व ाकामकम भः ।


उ चावचासु ग तषु न वेद वां ग त मन् ।।१३

इ त सं च य भगवान् महाका णको ह रः ।


दशयामास लोकं वं गोपानां तमसः परम् ।।१४

स यं ानमन तं यद् यो तः सनातनम् ।


य प य त मुनयो गुणापाये समा हताः ।।१५

ते तु दं नीता म नाः कृ णेन चोद्धृताः ।


द शु णो लोकं य ा ू रोऽ यगात् पुरा ।।१६
परी त्! भगवान्के ेमी गोप यह सुनकर ऐसा समझने लगे क अरे, ये तो वयं
भगवान् ह। तब उ ह ने मन-ही-मन बड़ी उ सुकतासे वचार कया क या कभी जगद र
भगवान् ीकृ ण हमलोग को भी अपना वह मायातीत वधाम, जहाँ केवल इनके ेमी-भ
ही जा सकते ह, दखलायगे ।।११।।
परी त्! भगवान् ीकृ ण वयं सवदश ह। भला, उनसे यह बात कैसे छपी रहती? वे
अपने आ मीय गोप क यह अ भलाषा जान गये और उनका संक प स करनेके लये
कृपासे भरकर इस कार सोचने लगे ।।१२।। ‘इस संसारम जीव अ ानवश शरीरम
आ मबु करके भाँ त-भाँ तक कामना और उनक पू तके लये नाना कारके कम करता
है। फर उनके फल व प दे वता, मनु य, पशु, प ी आ द ऊँची-नीची यो नय म भटकता
फरता है, अपनी असली ग तको—आ म व पको नह पहचान पाता ।।१३।।
परमदयालु भगवान् ीकृ णने इस कार सोचकर उन गोप को माया धकारसे अतीत
अपना परमधाम दखलाया ।।१४।।
भगवान्ने पहले उनको उस का सा ा कार करवाया जसका व प स य, ान,
अन त, सनातन और यो तः व प है तथा समा ध न गुणातीत पु ष ही जसे दे ख पाते
ह ।।१५।।
जस जलाशयम अ ू रको भगवान्ने अपना व प दखलाया था, उसी व प
दम भगवान् उन गोप को ले गये। वहाँ उन लोग ने उसम डु बक लगायी। वे दम
वेश कर गये। तब भगवान्ने उसमसे उनको नकालकर अपने परमधामका दशन
कराया ।।१६।।
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न दादय तु तं ् वा परमान द नवृताः ।

कृ णं च त छ दो भः तूयमानं सु व मताः ।।१७


उस द भगव व प लोकको दे खकर न द आ द गोप परमान दम म न हो गये। वहाँ
उ ह ने दे खा क सारे वेद मू तमान् होकर भगवान् ीकृ णक तु त कर रहे ह। यह दे खकर
वे सब-के-सब परम व मत हो गये ।।१७।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे
पूवाधऽ ा वशोऽ यायः ।।२८।।

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अथैकोन शोऽ यायः
रासलीलाका आर भ
ीशुक उवाच
भगवान प ता रा ीः शरदो फु लम लकाः ।
वी य र तुं मन े योगमायामुपा तः ।।१

तदोडु राजः ककुभः करैमुखं


ा या व ल प णेन श तमैः ।
स चषणीनामुदगा छु चो मृजन्
यः याया इव द घदशनः ।।२

् वा कुमु तमख डम डलं


रमाननाभं नवकुंकुमा णम् ।
वनं च त कोमलगो भरं जतं
जगौ कलं वाम शां मनोहरम् ।।३
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! शरद् ऋतु थी। उसके कारण बेला, चमेली आ द
सुग धत पु प खलकर महँ-महँ महँक रहे थे। भगवान्ने चीरहरणके समय गो पय को जन
रा य का संकेत कया था, वे सब-क -सब पुंजीभूत होकर एक ही रा के पम उ ल सत
हो रही थ । भगवान्ने उ ह दे खा, दे खकर द बनाया। गो पयाँ तो चाहती ही थ । अब
भगवान्ने भी अपनी अ च य महाश योगमायाके सहारे उ ह न म बनाकर रसमयी
रास डा करनेका संक प कया। अमना होनेपर भी उ ह ने अपने े मय क इ छा पूण
करनेके लये मन वीकार कया ।।१।। भगवान्के संक प करते ही च दे वने ाची दशाके
मुखम डलपर अपने शीतल करण पी करकमल से ला लमाक रोली-केसर मल द , जैसे
ब त दन के बाद अपनी ाण या प नीके पास आकर उसके यतम प तने उसे आन दत
करनेके लये ऐसा कया हो! इस कार च दे वने उदय होकर न केवल पूव दशाका, युत
संसारके सम त चर-अचर ा णय का स ताप—जो दनम शर कालीन खर सूय-र मय के
कारण बढ़ गया था— र कर दया ।।२।।
उस दन च दे वका म डल अख ड था। पू णमाक रा थी। वे नूतन केशरके समान
लाल-लाल हो रहे थे, कुछ संकोच म त अ भलाषासे यु जान पड़ते थे। उनका
मुखम डल ल मीजीके समान मालूम हो रहा था। उनक कोमल करण से सारा वन
अनुरागके रंगम रँग गया था। वनके कोने-कोनेम उ ह ने अपनी चाँदनीके ारा अमृतका
समु उड़ेल दया था। भगवान् ीकृ णने अपने द उ वल रसके उ पनक पूरी साम ी
उ ह और उस वनको दे खकर अपनी बाँसुरीपर जसु द रय के मनको हरण करनेवाली
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कामबीज ‘ ल ’ क अ प एवं मधुर तान छे ड़ी ।।३।। भगवान्का वह वंशीवादन भगवान्के
ेमको, उनके मलनक लालसाको अ य त उकसानेवाला—बढ़ानेवाला था। य तो
यामसु दरने पहलेसे ही गो पय के मनको अपने वशम कर रखा था। अब तो उनके मनक
सारी व तुए—
ँ भय, संकोच, धैय, मयादा आ दक वृ याँ भी—छ न ल । वंशी व न सुनते ही
उनक व च ग त हो गयी। ज ह ने एक साथ साधना क थी ीकृ णको प त पम ा त
करनेके लये, वे गो पयाँ भी एक- सरेको सूचना न दे कर—यहाँतक क एक- सरेसे अपनी
चे ाको छपाकर जहाँ वे थे, वहाँके लये चल पड़ । परी त्! वे इतने वेगसे चली थ क
उनके कान के कु डल झ के खा रहे थे ।।४।।

नश य गीतं तदन वधनं


ज यः कृ णगृहीतमानसाः ।
आज मुर यो यमल तो माः
स य का तो जवलोलकु डलाः ।।४

ह योऽ भययुः का द् दोहं ह वा समु सुकाः ।


पयोऽ ध य संयावमनु ा यापरा ययुः ।।५

प रवेषय य त वा पायय यः शशून् पयः ।


शु ूष यः पतीन् का द योऽपा य भोजनम् ।।६

ल प यः मृज योऽ या अंज यः का लोचने ।


य तव ाभरणाः का त् कृ णा तकं ययुः ।।७
वंशी व न सुनकर जो गो पयाँ ध ह रही थ , वे अ य त उ सुकतावश ध हना
छोड़कर चल पड़ । जो चू हेपर ध टा रही थ , वे उफनता आ ध छोड़कर और जो
लपसी पका रही थ वे पक ई लपसी बना उतारे ही य -क - य छोड़कर चल द ।।५।।
जो भोजन परस रही थ वे परसना छोड़कर, जो छोटे -छोटे ब च को ध पला रही थ वे ध
पलाना छोड़कर, जो प तय क सेवा-शु ूषा कर रही थ वे सेवा-शु ूषा छोड़कर और जो
वयं भोजन कर रही थ वे भोजन करना छोड़कर अपने कृ ण यारेके पास चल पड़ ।।६।।
कोई-कोई गोपी अपने शरीरम अंगराग च दन और उबटन लगा रही थ और कुछ आँख म
अंजन लगा रही थ । वे उ ह छोड़कर तथा उलटे -पलटे व धारणकर ीकृ णके पास
प ँचनेके लये चल पड़ ।।७।।

ता वायमाणाः प त भः पतृ भ ातृब धु भः ।


गो व दाप ता मानो न यवत त मो हताः ।।८

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अ तगृहगताः का द् गो योऽल ध व नगमाः ।
कृ णं त ावनायु ा द युम लतलोचनाः ।।९

ःसह े वरहती तापधुताशुभाः ।


यान ा ता युता ेष नवृ या ीणम लाः ।।१०

तमेव परमा मानं जारबु या प स ताः ।


ज गुणमयं दे हं स ः ीणब धनाः ।।११
राजोवाच
कृ णं व ः परं का तं न तु तया मुने ।
गुण वाहोपरम तासां गुण धयां कथम् ।।१२
पता और प तय ने, भाई और जा त-ब धु ने उ ह रोका, उनक मंगलमयी ेमया ाम
व न डाला। पर तु वे इतनी मो हत हो गयी थ क रोकनेपर भी न क , न क सक ।
कत कैसे? व वमोहन ीकृ णने उनके ाण, मन और आ मा सब कुछका अपहरण जो
कर लया था ।।८।। परी त्! उस समय कुछ गो पयाँ घर के भीतर थ । उ ह बाहर
नकलनेका माग ही न मला। तब उ ह ने अपने ने मूँद लये और बड़ी त मयतासे
ीकृ णके सौ दय, माधुय और लीला का यान करने लग ।।९।। परी त्! अपने परम
यतम ीकृ णके अस वरहक ती वेदनासे उनके दयम इतनी था—इतनी जलन
ई क उनम जो कुछ अशुभ सं कार का लेशमा अवशेष था, वह भ म हो गया। इसके बाद
तुरंत ही यान लग गया। यानम उनके सामने भगवान् ीकृ ण कट ए। उ ह ने मन-ही-
मन बड़े ेमसे, बड़े आवेगसे उनका आ लगन कया। उस समय उ ह इतना सुख, इतनी
शा त मली क उनके सब-के-सब पु यके सं कार एक साथ ही ीण हो गये ।।१०।।
परी त्! य प उनका उस समय ीकृ णके त जारभाव भी था; तथा प कह स य व तु
भी भावक अपे ा रखती है? उ ह ने जनका आ लगन कया, चाहे कसी भी भावसे कया
हो, वे वयं परमा मा ही तो थे। इस लये उ ह ने पाप और पु य प कमके प रणामसे बने ए
गुणमय शरीरका प र याग कर दया। (भगवान्क लीलाम स म लत होनेके यो य द
अ ाकृत शरीर ा त कर लया।) इस शरीरसे भोगे जानेवाले कमब धन तो यानके समय ही
छ - भ हो चुके थे ।।११।।
राजा परी त्ने पूछा—भगवन्! गो पयाँ तो भगवान् ीकृ णको केवल अपना परम
यतम ही मानती थ । उनका उनम भाव नह था। इस कार उनक ाकृत गुण म
ही आस द खती है। ऐसी थ तम उनके लये गुण के वाह प इस संसारक नवृ कैसे
स भव ई? ।।१२।।
ीशुक उवाच

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उ ं पुर तादे त े चै ः स यथा गतः ।
ष प षीकेशं कमुताधो ज याः ।।१३

नृणां नः ेयसाथाय भगवतो नृप ।


अ य या मेय य नगुण य गुणा मनः ।।१४

कामं ोधं भयं नेहमै यं सौ दमेव च ।


न यं हरौ वदधतो या त त मयतां ह ते ।।१५

न चैवं व मयः काय भवता भगव यजे ।


योगे रे रे कृ णे यत एतद् वमु यते ।।१६

ता ् वा तकमायाता भगवान् जयो षतः ।


अवदद् वदतां े ो वाचः पेशै वमोहयन् ।।१७
ीभगवानुवाच
वागतं वो महाभागाः यं क करवा ण वः ।
ज यानामयं क चद् ूतागमनकारणम् ।।१८
ीशुकदे वजीने कहा—परी त्! म तुमसे पहले ही कह चुका ँ क चे दराज शशुपाल
भगवान्के त े षभाव रखनेपर भी अपने ाकृत शरीरको छोड़कर अ ाकृत शरीरसे उनका
पाषद हो गया। ऐसी थ तम जो सम त कृ त और उसके गुण से अतीत भगवान्
ीकृ णक यारी ह और उनसे अन य ेम करती ह, वे गो पयाँ उ ह ा त हो जायँ—इसम
कौन-सी आ यक बात है ।।१३।। परी त्! वा तवम भगवान् कृ तस ब धी वृ -
वनाश, माण- मेय और गुण-गुणीभावसे र हत ह। वे अ च य अन त अ ाकृत परम
क याण व प गुण के एकमा आ य ह। उ ह ने यह जो अपनेको तथा अपनी लीलाको
कट कया है, उसका योजन केवल इतना ही है क जीव उसके सहारे अपना परम
क याण स पादन करे ।।१४।। इस लये भगवान्से केवल स ब ध हो जाना चा हये। वह
स ब ध चाहे जैसा हो—कामका हो, ोधका हो या भयका हो; नेह, नातेदारी या सौहादका
हो। चाहे जस भावसे भगवान्म न य- नर तर अपनी वृ याँ जोड़ द जायँ, वे भगवान्से ही
जुड़ती ह। इस लये वृ याँ भगव मय हो जाती ह और उस जीवको भगवान्क ही ा त
होती है ।।१५।। परी त्! तु हारे-जैसे परम भागवत भगवान्का रह य जाननेवाले भ को
ीकृ णके स ब धम ऐसा स दे ह नह करना चा हये। योगे र के भी ई र अज मा भगवान्के
लये भी यह कोई आ यक बात है? अरे! उनके संक पमा से—भ ह के इशारेसे सारे
जगत्का परम क याण हो सकता है ।।१६।। जब भगवान् ीकृ णने दे खा क जक
अनुपम वभू तयाँ गो पयाँ मेरे बलकुल पास आ गयी ह, तब उ ह ने अपनी वनोदभरी

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वाक्चातुरीसे उ ह मो हत करते ए कहा— य न हो—भूत, भ व य और वतमानकालके
जतने व ा ह, उनम वे ही तो सव े ह ।।१७।।
भगवान् ीकृ णने कहा—महाभा यवती गो पयो! तु हारा वागत है। बतलाओ, तु ह
स करनेके लये म कौन-सा काम क ँ ? जम तो सब कुशल-मंगल है न? कहो, इस
समय यहाँ आनेक या आव यकता पड़ गयी? ।।१८।। सु दरी गो पयो! रातका समय है,
यह वयं ही बड़ा भयावना होता है और इसम बड़े-बड़े भयावने जीव-ज तु इधर-उधर घूमते
रहते ह। अतः तुम सब तुरंत जम लौट जाओ। रातके समय घोर जंगलम य को नह
कना चा हये ।।१९।। तु ह न दे खकर तु हारे माँ-बाप, प त-पु और भाई-ब धु ढूँ ढ़ रहे
ह गे। उ ह भयम न डालो ।।२०।। तुमलोग ने रंग- बरंगे पु प से लदे ए इस वनक शोभाको
दे खा। पूण च माक कोमल र मय से यह रँगा आ है, मानो उ ह ने अपने हाथ च कारी
क हो; और यमुनाजीके जलका पश करके बहनेवाले शीतल समीरक म द-म द ग तसे
हलते ए ये वृ के प े तो इस वनक शोभाको और भी बढ़ा रहे ह। पर तु अब तो
तुमलोग ने यह सब कुछ दे ख लया ।।२१।। अब दे र मत करो, शी -से-शी जम लौट
जाओ। तुमलोग कुलीन ी हो और वयं भी सती हो; जाओ, अपने प तय क और
स तय क सेवा-शु ूषा करो। दे खो, तु हारे घरके न हे-न हे ब चे और गौ के बछड़े रो-रँभा
रहे ह; उ ह ध पलाओ, गौएँ हो ।।२२।। अथवा य द मेरे ेमसे परवश होकर तुमलोग यहाँ
आयी हो तो इसम कोई अनु चत बात नह ई, यह तो तु हारे यो य ही है; य क जगत्के
पशु-प ीतक मुझसे ेम करते ह, मुझे दे खकर स होते ह ।।२३।। क याणी गो पयो!
य का परम धम यही है क वे प त और उसके भाई-ब धु क न कपटभावसे सेवा कर
और स तानका पालन-पोषण कर ।।२४।। जन य को उ म लोक ा त करनेक
अ भलाषा हो, वे पातक को छोड़कर और कसी भी कारके प तका प र याग न कर। भले
ही वह बुरे वभाव-वाला, भा यहीन, वृ , मूख, रोगी या नधन ही य न हो ।।२५।। कुलीन
य के लये जार पु षक सेवा सब तरहसे न दनीय ही है। इससे उनका परलोक बगड़ता
है, वग नह मलता, इस लोकम अपयश होता है। यह कुकम वयं तो अ य त तु छ, णक
है ही; इसम य —वतमानम भी क -ही-क है। मो आ दक तो बात ही कौन करे, यह
सा ात् परम भय—नरक आ दका हेतु है ।।२६।।

रज येषा घोर पा घोरस व नषे वता ।


तयात जं नेह थेयं ी भः सुम यमाः ।।१९

मातरः पतरः पु ा ातरः पतय वः ।


व च व त प य तो मा कृढ् वं ब धुसा वसम् ।।२०

ं वनं कुसु मतं राकेशकररं जतम् ।


यमुना नललीलैज प लवशो भतम् ।।२१

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तद् यात मा चरं गो ं शु ूष वं पतीन् सतीः ।
द त व सा बाला तान् पाययत त ।।२२

अथवा मद भ नेहाद् भव यो य ताशयाः ।


आगता पप ं वः ीय ते म य ज तवः ।।२३

भतुः शु ूषणं ीणां परो धम मायया ।


त धूनां च क या यः जानां चानुपोषणम् ।।२४

ःशीलो भगो वृ ो जडो रो यधनोऽ प वा ।


प तः ी भन हात ो लोके सु भरपातक ।।२५

अ व यमयश यं च फ गु कृ ं भयावहम् ।
जुगु सतं च सव औपप यं कुल याः ।। २६

वणाद् दशनाद् याना म य भावोऽनुक तनात् ।


न तथा स कषण तयात ततो गृहान् ।।२७
ीशुक उवाच
इ त व यमाक य गो यो गो व दभा षतम् ।
वष णा भ नसंक पा तामापु र ययाम् ।।२८

कृ वा मुखा यव शुचः सनेन शु यद्


ब बाधरा ण चरणेन भुवं लख यः ।
अ ै पा म ष भः कुचकुंकुमा न
त थुमृज य उ ःखभराः म तू णीम् ।।२९

े ं येतर मव तभाषमाणं
कृ णं तदथ व नव ततसवकामाः ।
ने े वमृ य दतोपहते म क चत्
संर भगद्गद गरोऽ ुवतानुर ाः ।।३०
गो य ऊचुः
मैवं वभोऽह त भवान् ग दतुं नृशंसं
स य य सव वषयां तव पादमूलम् ।
भ ा भज व रव ह मा यजा मान्
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दे वो यथाऽऽ दपु षो भजते मुमु ून् ।।३१
गो पयो! मेरी लीला और गुण के वणसे, पके दशनसे, उन सबके क तन और यानसे
मेरे त जैसे अन य ेमक ा त होती है, वैसे ेमक ा त पास रहनेसे नह होती।
इस लये तुमलोग अभी अपने-अपने घर लौट जाओ ।।२७।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान् ीकृ णका यह अ य भाषण सुनकर
गो पयाँ उदास, ख हो गय । उनक आशा टू ट गयी। वे च ताके अथाह एवं अपार समु म
डू बने-उतराने लग ।।२८।। उनके ब बाफल (पके ए कुँद ) के समान लाल-लाल अधर
शोकके कारण चलनेवाली ल बी और गरम साँससे सूख गये। उ ह ने अपने मुँह नीचेक ओर
लटका लये, वे पैरके नख से धरती कुरेदने लग । ने से ःखके आँसू बह-बहकर काजलके
साथ व ः थलपर प ँचने और वहाँ लगी ई केशरको धोने लगे। उनका दय ःखसे इतना
भर गया क वे कुछ बोल न सक , चुपचाप खड़ी रह गय ।।२९।। गो पय ने अपने यारे
यामसु दरके लये सारी कामनाएँ, सारे भोग छोड़ दये थे। ीकृ णम उनका अन य
अनुराग, परम ेम था। जब उ ह ने अपने यतम ीकृ णक यह न ु रतासे भरी बात सुनी,
जो बड़ी ही अ य-सी मालूम हो रही थी, तब उ ह बड़ा ःख आ। आँख रोते-रोते लाल हो
गय , आँसु के मारे ँ ध गय । उ ह ने धीरज धारण करके अपनी आँख के आँसू प छे और
फर णयकोपके कारण वे गद्गद वाणीसे कहने लग ।।३०।।
गो पय ने कहा— यारे ीकृ ण! तुम घट-घट ापी हो। हमारे दयक बात जानते हो।
तु ह इस कार न ु रताभरे वचन नह कहने चा हये। हम सब कुछ छोड़कर केवल तु हारे
चरण म ही ेम करती ह। इसम स दे ह नह क तुम वत और हठ ले हो। तुमपर हमारा
कोई वश नह है। फर भी तुम अपनी ओरसे, जैसे आ दपु ष भगवान् नारायण कृपा करके
अपने मुमु ु भ से ेम करते ह, वैसे ही हम वीकार कर लो। हमारा याग मत
करो ।।३१।। यारे यामसु दर! तुम सब धम का रह य जानते हो। तु हारा यह कहना क
‘अपने प त, पु और भाई-ब धु क सेवा करना ही य का वधम है’—अ रशः ठ क
है। पर तु इस उपदे शके अनुसार हम तु हारी ही सेवा करनी चा हये; य क तु ह सब
उपदे श के पद (चरम ल य) हो; सा ात् भगवान् हो। तु ह सम त शरीरधा रय के सु द् हो,
आ मा हो और परम यतम हो ।।३२।। आ म ानम नपुण महापु ष तुमसे ही ेम करते
ह; य क तुम न य य एवं अपने ही आ मा हो। अ न य एवं ःखद प त-पु ा दसे या
योजन है? परमे र! इस लये हमपर स होओ। कृपा करो। कमलनयन! चरकालसे
तु हारे त पाली-पोसी आशा-अ भलाषाक लहलहाती लताका छे दन मत करो ।।३३।।
मनमोहन! अबतक हमारा च घरके काम-धंध म लगता था। इसीसे हमारे हाथ भी उनम
रमे ए थे। पर तु तुमने हमारे दे खते-दे खते हमारा वह च लूट लया। इसम तु ह कोई
क ठनाई भी नह उठानी पड़ी, तुम तो सुख व प हो न! पर तु अब तो हमारी ग त-म त
नराली ही हो गयी है। हमारे ये पैर तु हारे चरणकमल को छोड़कर एक पग भी हटनेके लये
तैयार नह ह, नह हट रहे ह। फर हम जम कैसे जायँ? और य द वहाँ जायँ भी तो कर
या? ।।३४।। ाणव लभ! हमारे यारे सखा! तु हारी म द-म द मधुर मुसकान, ेमभरी
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चतवन और मनोहर संगीतने हमारे दयम तु हारे ेम और मलनक आग धधका द है। उसे
तुम अपने अधर क रसधारासे बुझा दो। नह तो यतम! हम सच कहती ह, तु हारी
वरह थाक आगसे हम अपने-अपने शरीर जला दगी और यानके ारा तु हारे
चरणकमल को ा त करगी ।।३५।।

य प यप यसु दामनुवृ र
ीणां वधम इ त धम वदा वयो म् ।
अ वेवमेत पदे शपदे वयीशे
े ो भवां तनुभृतां कल ब धुरा मा ।।३२

कुव त ह व य र त कुशलाः व आ मन्


न य ये प तसुता द भरा तदै ः कम् ।
त ः सीद परमे र मा म छ ा
आशां भृतां व य चरादर व दने ।।३३

च ं सुखेन भवताप तं गृहेषु


य वश युत कराव प गृ कृ ये ।
पादौ पदं न चलत तव पादमूलाद्
यामः कथं जमथो करवाम क वा ।।३४

स चा न वदधरामृतपूरकेण
हासावलोककलगीतज छया नम् ।
नो चेद ् वयं वरहजा युपयु दे हा
यानेन याम पदयोः पदव सखे ते ।।३५

य बुजा तव पादतलं रमाया


द णं व चदर यजन य य ।
अ ा म त भृ त ना यसम म
थातुं वया भर मता बत पारयामः ।।३६
यारे कमलनयन! तुम वनवा सय के यारे हो और वे भी तुमसे ब त ेम करते ह। इससे
ायः तुम उ ह के पास रहते हो। यहाँतक क तु हारे जन चरणकमल क सेवाका अवसर
वयं ल मीजीको कभी-कभी ही मलता है, उ ह चरण का पश हम ा त आ। जस दन
यह सौभा य हम मला और तुमने हम वीकार करके आन दत कया, उसी दनसे हम और
कसीके सामने एक णके लये भी ठहरनेम असमथ हो गयी ह—प त-पु ा दक क सेवा
तो र रही ।।३६।। हमारे वामी! जन ल मीजीका कृपाकटा ा त करनेके लये बड़े-बड़े

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दे वता तप या करते रहते ह, वही ल मीजी तु हारे व ः थलम बना कसीक त ताके
थान ा त कर लेनेपर भी अपनी सौत तुलसीके साथ तु हारे चरण क रज पानेक
अ भलाषा कया करती ह। अबतकके सभी भ ने उस चरणरजका सेवन कया है। उ ह के
समान हम भी तु हारी उसी चरणरजक शरणम आयी ह ।।३७।। भगवन्! अबतक जसने
भी तु हारे चरण क शरण ली, उसके सारे क तुमने मटा दये। अब तुम हमपर कृपा करो।
हम भी अपने सादका भाजन बनाओ। हम तु हारी सेवा करनेक आशा-अ भलाषासे घर,
गाँव, कुटु ब—सब कुछ छोड़कर तु हारे युगल चरण क शरणम आयी ह। यतम! वहाँ तो
तु हारी आराधनाके लये अवकाश ही नह है। पु षभूषण! पु षो म! तु हारी मधुर मुसकान
और चा चतवनने हमारे दयम ेमक — मलनक आकां ाक आग धधका द है; हमारा
रोम-रोम उससे जल रहा है। तुम हम अपनी दासीके पम वीकार कर लो। हम अपनी
सेवाका अवसर दो ।।३८।। यतम! तु हारा सु दर मुखकमल, जसपर घुँघराली अलक
झलक रही ह; तु हारे ये कमनीय कपोल, जनपर सु दर-सु दर कु डल अपना अन त सौ दय
बखेर रहे ह; तु हारे ये मधुर अधर, जनक सुधा सुधाको भी लजानेवाली है; तु हारी यह
नयनमनोहारी चतवन, जो म द-म द मुसकानसे उ ल सत हो रही है; तु हारी ये दोन
भुजाएँ, जो शरणागत को अभयदान दे नेम अ य त उदार ह और तु हारा यह व ः थल, जो
ल मीजीका—सौ दयक एकमा दे वीका न य डा थल है, दे खकर हम सब तु हारी दासी
हो गयी ह ।।३९।। यारे यामसु दर! तीन लोक म भी और ऐसी कौन-सी ी है, जो मधुर-
मधुर पद और आरोह-अवरोह- मसे व वध कारक मू छना से यु तु हारी वंशीक
तान सुनकर तथा इस लोकसु दर मो हनी मू तको—जो अपने एक बूँद सौ दयसे
लोक को सौ दयका दान करती है एवं जसे दे खकर गौ, प ी, वृ और ह रन भी
रोमां चत, पुल कत हो जाते ह—अपने ने से नहारकर आय—मयादासे वच लत न हो
जाय, कुल-कान और लोकल जाको यागकर तुमम अनुर न हो जाय ।।४०।। हमसे यह
बात छपी नह है क जैसे भगवान् नारायण दे वता क र ा करते ह, वैसे ही तुम
जम डलका भय और ःख मटानेके लये ही कट ए हो! और यह भी प ही है क
द न- खय पर तु हारा बड़ा ेम, बड़ी कृपा है। यतम! हम भी बड़ी ः खनी ह। तु हारे
मलनक आकां ाक आगसे हमारा व ः थल जल रहा है। तुम अपनी इन दा सय के
व ः थल और सरपर अपने कोमल करकमल रखकर इ ह अपना लो; हम जीवनदान
दो ।।४१।।
ीय पदा बुजरज कमे तुल या
ल वा प व स पदं कल भृ यजु म् ।
य याः ववी णकृतेऽ यसुर यास-
त द् वयं च तव पादरजः प ाः ।।३७

त ः सीद वृ जनादन तेऽङ् मूलं


ा ता वसृ य वसती व पासनाशाः ।

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व सु दर मत नरी णती काम-
त ता मनां पु षभूषण दे ह दा यम् ।।३८

वी यालकावृतमुखं तव कु डल ी-
ग ड थलाधरसुधं ह सतावलोकम् ।
द ाभयं च भुजद डयुगं वलो य
व ः यैकरमणं च भवाम दा यः ।।३९

का य ते कलपदायतमू छतेन
स मो हताऽऽयच रता चले लो याम् ।
ै ो यसौभग मदं च नरी य पं

यद् गो ज ममृगाः पुलका य ब न् ।। ४०

ं भवान् जभया तहरोऽ भजातो


दे वो यथाऽऽ दपु षः सुरलोकगो ता ।
त ो नधे ह करपंकजमातब धो
त त तनेषु च शर सु च ककरीणाम् ।।४१
ीशुक उवाच
इ त व ल वतं तासां ु वा योगे रे रः ।
ह य सदयं गोपीरा मारामोऽ यरीरमत् ।।४२

ता भः समेता भ दारचे तः
ये णो फु लमुखी भर युतः ।
उदारहास जकु दद ध त-
रोचतैणांक इवोडु भवृतः ।।४३

उपगीयमान उद्गायन् व नताशतयूथपः ।


मालां ब द् वैजय त चर म डयन् वनम् ।।४४
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान् ीकृ ण सनका द यो गय और शवा द
योगे र के भी ई र ह। जब उ ह ने गो पय क था और ाकुलतासे भरी वाणी सुनी, तब
उनका दय दयासे भर गया और य प वे आ माराम ह—अपने-आपम ही रमण करते रहते
ह, उ ह अपने अ त र और कसी भी बा व तुक अपे ा नह है, फर भी उ ह ने हँसकर
उनके साथ डा ार भ क ।।४२।। भगवान् ीकृ णने अपनी भाव-भंगी और चे ाएँ
गो पय के अनुकूल कर द ; फर भी वे अपने व पम य -के- य एकरस थत थे, अ युत

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थे। जब वे खुलकर हँसते, तब उनके उ वल-उ वल दाँत कु दकलीके समान जान पड़ते
थे। उनक ेमभरी चतवनसे और उनके दशनके आन दसे गो पय का मुखकमल फु लत
हो गया। वे उ ह चार ओरसे घेरकर खड़ी हो गय । उस समय ीकृ णक ऐसी शोभा ई,
मानो अपनी प नी ता रका से घरे ए च मा ही ह ।।४३।। गो पय के शत-शत यूथ के
वामी भगवान् ीकृ ण वैजय ती माला पहने वृ दावनको शोभायमान करते ए वचरण
करने लगे। कभी गो पयाँ अपने यतम ीकृ णके गुण और लीला का गान करत , तो
कभी ीकृ ण गो पय के ेम और सौ दयके गीत गाने लगते ।।४४।। इसके बाद भगवान्
ीकृ णने गो पय के साथ यमुनाजीके पावन पु लनपर, जो कपूरके समान चमक ली बालूसे
जगमगा रहा था, पदापण कया। वह यमुनाजीक तरल तरंग के पशसे शीतल और
कुमु दनीक सहज सुग धसे सुवा सत वायुके ारा से वत हो रहा था। उस आन द द
पु लनपर भगवान्ने गो पय के साथ डा क ।।४५।। हाथ फैलाना, आ लगन करना,
गो पय के हाथ दबाना, उनक चोट , जाँघ, नीवी और तन आ दका पश करना, वनोद
करना, नख त करना, वनोदपूण चतवनसे दे खना और मुसकाना—इन या के ारा
गो पय के द कामरसको, परमो वल ेमभावको उ े जत करते ए भगवान् ीकृ ण
उ ह डा ारा आन दत करने लगे ।।४६।।

न ाः पु लनमा व य गोपी भ हमवालुकम् ।


रेमे त रलान दकुमुदामोदवायुना ।।४५

बा सारप रर भकरालको -
नीवी तनालभननमनखा पातैः ।
वे यावलोकह सतै जसु दरीणा-
मु भयन् र तप त रमया चकार ।।४६

एवं भगवतः कृ णा ल धमाना महा मनः ।


आ मानं मे नरे ीणां मा न योऽ य धकं भु व ।।४७

तासां तत् सौभगमदं वी य मानं च केशवः ।


शमाय सादाय त ैवा तरधीयत ।।४८
उदार शरोम ण सव ापक भगवान् ीकृ णने जब इस कार गो पय का स मान कया,
तब गो पय के मनम ऐसा भाव आया क संसारक सम त य म हम ही सव े ह, हमारे
समान और कोई नह है। वे कुछ मानवती हो गय ।।४७।। जब भगवान्ने दे खा क इ ह तो
अपने सुहागका कुछ गव हो आया है और अब मान भी करने लगी ह, तब वे उनका गव
शा त करनेके लये तथा उनका मान र कर स करनेके लये वह —उनके बीचम ही
अ तधान हो गये ।।४८।।

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इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध भगवतो
रास डावणनं नामैकोन शोऽ यायः ।।२९।।

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अथ शोऽ यायः
ीकृ णके वरहम गो पय क दशा
ीशुक उवाच
अ त हते भगव त सहसैव जा नाः ।

अत यं तमच ाणाः क र य इव यूथपम् ।।१


ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान् सहसा अ तधान हो गये। उ ह न दे खकर
जयुव तय क वैसी ही दशा हो गयी, जैसे यूथप त गजराजके बना ह थ नय क होती है।
उनका दय वरहक वालासे जलने लगा ।।१।। भगवान् ीकृ णक मदो म गजराजक -
सी चाल, ेमभरी मुसकान, वलासभरी चतवन, मनोरम ेमालाप, भ - भ कारक
लीला तथा शृंगार-रसक भाव-भं गय ने उनके च को चुरा लया था। वे ेमक मतवाली
गो पयाँ ीकृ णमय हो गय और फर ीकृ णक व भ चे ा का अनुकरण करने
लग ।।२।। अपने यतम ीकृ णक चाल-ढाल, हास- वलास और चतवन-बोलन आ दम
ीकृ णक यारी गो पयाँ उनके समान ही बन गय ; उनके शरीरम भी वही ग त-म त, वही
भाव-भंगी उतर आयी। वे अपनेको सवथा भूलकर ीकृ ण- व प हो गय और उ ह के
लीला- वलासका अनुकरण करती ई ‘म ीकृ ण ही ँ’—इस कार कहने लग ।।३।। वे
सब पर पर मलकर ऊँचे वरसे उ ह के गुण का गान करने लग और मतवाली होकर एक
वनसे सरे वनम, एक झाड़ीसे सरी झाड़ीम जा-जाकर ीकृ णको ढूँ ढने लग । परी त्!
भगवान् ीकृ ण कह र थोड़े ही गये थे। वे तो सम त जड-चेतन पदाथ म तथा उनके
बाहर भी आकाशके समान एकरस थत ही ह। वे वह थे, उ ह म थे, पर तु उ ह न दे खकर
गो पयाँ वन प तय से—पेड़-पौध से उनका पता पूछने लग ।।४।।

ग यानुराग मत व मे तै-
मनोरमालाप वहार व मैः ।
आ त च ाः मदा रमापते-
ता ता वचे ा जगृ तदा मकाः ।।२

ग त मत े णभाषणा दषु
याः य य त ढमूतयः ।
असावहं व यबला तदा मका
यवे दषुः कृ ण वहार व माः ।।३

गाय य उ चैरमुमेव संहता

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व च यु म कवद् वनाद् वनम् ।
प छु राकाशवद तरं ब ह-
भूतेषु स तं पु षं वन पतीन् ।।४

ो वः क चद थ ल य ोध नो मनः ।
न दसूनुगतो वा ेमहासावलोकनैः ।।५

क चत् कुरबकाशोकनागपु ागच पकाः ।


रामानुजो मा ननीना मतो दपहर मतः ।।६

क च ुल स क या ण गो व दचरण ये ।
सह वा लकुलै ब द् तेऽ त योऽ युतः ।।७
(गो पय ने पहले बड़े-बड़े वृ से जाकर पूछा) ‘हे पीपल, पाकर और बरगद! न दन दन
यामसु दर अपनी ेमभरी मुसकान और चतवनसे हमारा मन चुराकर चले गये ह। या
तुमलोग ने उ ह दे खा है? ।।५।। कुरबक, अशोक, नागकेशर, पु ाग और च पा!
बलरामजीके छोटे भाई, जनक मुसकान-मा से बड़ी-बड़ी मा न नय का मानमदन हो जाता
है, इधर आये थे या?’ ।।६।। (अब उ ह ने ीजा तके पौध से कहा—) ‘ब हन तुलसी!
तु हारा दय तो बड़ा कोमल है, तुम तो सभी लोग का क याण चाहती हो। भगवान्के
चरण म तु हारा ेम तो है ही, वे भी तुमसे ब त यार करते ह। तभी तो भ र के मँडराते
रहनेपर भी वे तु हारी माला नह उतारते, सवदा पहने रहते ह। या तुमने अपने परम यतम
यामसु दरको दे खा है? ।।७।। यारी मालती! म लके! जाती और जूही! तुमलोग ने
कदा चत् हमारे यारे माधवको दे खा होगा। या वे अपने कोमल कर से पश करके तु ह
आन दत करते ए इधरसे गये ह?’ ।।८।। ‘रसाल, याल, कटहल, पीतशाल, कचनार,
जामुन, आक, बेल, मौल सरी, आम, कद ब और नीम तथा अ या य यमुनाके तटपर
वराजमान सुखी त वरो! तु हारा ज म-जीवन केवल परोपकारके लये है। ीकृ णके बना
हमारा जीवन सूना हो रहा है। हम बेहोश हो रही ह। तुम हम उ ह पानेका माग बता
दो’ ।।९।। ‘भगवान्क ेयसी पृ वीदे वी! तुमने ऐसी कौन-सी तप या क है क ीकृ णके
चरणकमल का पश ा त करके तुम आन दसे भर रही हो और तृण-लता आ दके पम
अपना रोमांच कट कर रही हो? तु हारा यह उ लास- वलास ीकृ णके चरण पशके
कारण है अथवा वामनावतारम व प धारण करके उ ह ने तु ह जो नापा था, उसके
कारण है? कह उनसे भी पहले वराह भगवान्के अंग-संगके कारण तो तु हारी यह दशा नह
हो रही है?’ ।।१०।। ‘अरी सखी! ह र नयो! हमारे यामसु दरके अंग-संगसे सुषमा-
सौ दयक धारा बहती रहती है, वे कह अपनी ाण याके साथ तु हारे नयन को
परमान दका दान करते ए इधरसे ही तो नह गये ह? दे खो, दे खो; यहाँ कुलप त ीकृ णक
कु दकलीक मालाक मनोहर ग ध आ रही है, जो उनक परम ेयसीके अंग-संगसे लगे ए
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कुच-कुंकुमसे अनुरं जत रहती है’ ।।११।। ‘त वरो! उनक मालाक तुलसीम ऐसी सुग ध है
क उसक ग धके लोभी मतवाले भ रे येक ण उसपर मँडराते रहते ह। उनके एक हाथम
लीलाकमल होगा और सरा हाथ अपनी ेयसीके कंधेपर रखे ह गे। हमारे यारे यामसु दर
इधरसे वचरते ए अव य गये ह गे। जान पड़ता है, तुमलोग उ ह णाम करनेके लये ही
झुके हो। पर तु उ ह ने अपनी ेमभरी चतवनसे भी तु हारी व दनाका अ भन दन कया है
या नह ?’ ।।१२।। ‘अरी सखी! इन लता से पूछो। ये अपने प त वृ को भुजपाशम
बाँधकर आ लगन कये ए ह, इससे या आ? इनके शरीरम जो पुलक है, रोमांच है, वह
तो भगवान्के नख के पशसे ही है। अहो! इनका कैसा सौभा य है?’ ।।१३।।

माल यद श वः क च म लके जा त यू थके ।


ी त वो जनयन् यातः कर पशन माधवः ।।८

चूत यालपनसासनको वदार-


ज वक ब वबकुला कद बनीपाः ।
येऽ ये पराथभवका यमुनोपकूलाः
शंस तु कृ णपदव र हता मनां नः ।।९

क ते कृतं
त तपो बत केशवाङ् -
पश सवो पुल कता है वभा स ।
अ यङ् स भव उ म व माद् वा
आहो वराहवपुषः प रर भणेन ।।१०

अ येणप युपगतः ययेह गा -ै


त वन् शां स ख सु नवृ तम युतो वः ।
का ता स कुचकुंकुमरं जतायाः
कु द जः कुलपते रह वा त ग धः ।।११

बा ं यांस उपधाय गृहीतपद्मो


रामानुज तुल सका लकुलैमदा धैः ।
अ वीयमान इह व तरवः णामं
क वा भन द त चरन् णयावलोकैः ।।१२

पृ छतेमा लता बा न या ा वन पतेः ।


नूनं त करज पृ ा ब यु पुलका यहो ।।१३

इ यु म वचो गो यः कृ णा वेषणकातराः ।
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लीला भगवत ता ता नुच ु तदा मकाः ।।१४

क या त् पूतनाय याः कृ णाय य पबत् तनम् ।


तोका य वा द य या पदाह छकटायतीम् ।।१५

दै या य वा जहारा यामेका कृ णाभभावनाम् ।


र यामास का यङ् ी कष ती घोष नः वनैः ।।१६

कृ णरामा यते े तु गोपय य का न ।


व सायत ह त चा या त ैका तु बकायतीम् ।।१७

आ य रगा य त् कृ ण तमनुकुवतीम् ।
वेणुं वण त ड तीम याः शंस त सा व त ।।१८

क यां चत् वभुजं य य चल याहापरा ननु ।


कृ णोऽहं प यत ग त ल लता म त त मनाः ।।१९

मा भै वातवषा यां त ाणं व हतं मया ।


इ यु वैकेन ह तेन यत यु दधेऽ बरम् ।।२०

आ ै ा पदाऽऽ य शर याहापरां नृप ।



ाहे ग छ जातोऽहं खलानां ननु द डधृक् ।।२१
परी त्! इस कार मतवाली गो पयाँ लाप करती ई भगवान् ीकृ णको ढूँ ढ़ते-ढूँ ढ़ते
कातर हो रही थ । अब और भी गाढ़ आवेश हो जानेके कारण वे भगव मय होकर
भगवान्क व भ लीला का अनुकरण करने लग ।।१४।। एक पूतना बन गयी, तो सरी
ीकृ ण बनकर उसका तन पीने लग । कोई छकड़ा बन गयी, तो कसीने बालकृ ण बनकर
रोते ए उसे पैरक ठोकर मारकर उलट दया ।।१५।। कोई सखी बालकृ ण बनकर बैठ गयी
तो कोई तृणावत दै यका प धारण करके उसे हर ले गयी। कोई गोपी पाँव घसीट-घसीटकर
घुटन के बल बकैयाँ चलने लगी और उस समय उसके पायजेब नझुन- नझुन बोलने
लगे ।।१६।। एक बनी कृ ण, तो सरी बनी बलराम, और ब त-सी गो पयाँ वालबाल के
पम हो गय । एक गोपी बन गयी व सासुर, तो सरी बनी बकासुर। तब तो गो पय ने
अलग-अलग ीकृ ण बनकर व सासुर और बकासुर बनी ई गो पय को मारनेक लीला
क ।।१७।। जैसे ीकृ ण वनम करते थे, वैसे ही एक गोपी बाँसुरी बजा-बजाकर र गये ए
पशु को बुलानेका खेल खेलने लगी। तब सरी गो पयाँ ‘वाह-वाह’ करके उसक शंसा
करने लग ।।१८।। एक गोपी अपनेको ीकृ ण समझकर सरी सखीके गलेम बाँह डालकर

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चलती और गो पय से कहने लगती—‘ म ो! म ीकृ ण ।ँ तुमलोग मेरी यह मनोहर चाल
दे खो’ ।।१९।। कोई गोपी ीकृ ण बनकर कहती—‘अरे जवा सयो! तुम आँधी-पानीसे मत
डरो। मने उससे बचनेका उपाय नकाल लया है।’ ऐसा कहकर गोवधन-धारणका अनुकरण
करती ई वह अपनी ओढ़नी उठाकर ऊपर तान लेती ।।२०।। परी त्! एक गोपी बनी
का लय नाग, तो सरी ीकृ ण बनकर उसके सरपर पैर रखकर चढ़ -चढ़ बोलने लगी
—‘रे साँप! तू यहाँसे चला जा। म का दमन करनेके लये ही उ प आ ँ’ ।।२१।।
इतनेम ही एक गोपी बोली—‘अरे वालो! दे खो, वनम बड़ी भयंकर आग लगी है। तुमलोग
ज द -से-ज द अपनी आँख मूँद लो, म अनायास ही तुमलोग क र ा कर लूँगा’ ।।२२।।
एक गोपी यशोदा बनी और सरी बनी ीकृ ण। यशोदाने फूल क मालासे ीकृ णको
ऊखलम बाँध दया। अब वह ीकृ ण बनी ई सु दरी गोपी हाथ से मुँह ढँ ककर भयक
नकल करने लगी ।।२३।।

त क
ै ोवाच हेगोपा दावा नं प यतो बणम् ।
च ंू या पद वं वो वधा ये ेममंजसा ।।२२

ब ा यया जा का च वी त उलूखले ।
भीता सु क् पधाया यं भेजे भी त वड बनम् ।।२३

एवं कृ णं पृ छमाना वृ दावनलता त न् ।


च त वनो े शे पदा न परमा मनः ।।२४

पदा न मेता न न दसूनोमहा मनः ।


ल य ते ह वजा भोजव ांकुशयवा द भः ।।२५

तै तैः पदै त पदवीम व छ योऽ तोऽबलाः ।


व वाः पदै ः सुपृ ा न वलो याताः सम ुवन् ।।२६

क याः पदा न चैता न याताया न दसूनुना ।


अंस य त को ायाः करेणोः क रणा यथा ।।२७

अनयाऽऽरा धतो नूनं भगवान् ह ररी रः ।


य ो वहाय गो व दः ीतो यामनयद् रहः ।।२८

ध या अहो अमी आ यो गो व दाङ् य जरेणवः ।


यान् ेशो रमा दे वी दधुमू यघनु ये ।।२९

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त या अमू न नः ोभं कुव यु चैः पदा न यत् ।
यैकाप य गोपीनां रहो भुङ् े ऽ युताधरम् ।।३०
परी त्! इस कार लीला करते-करते गो पयाँ वृ दावनके वृ और लता आ दसे फर
भी ीकृ णका पता पूछने लग । इसी समय उ ह ने एक थानपर भगवान्के चरण च
दे खे ।।२४।। वे आपसम कहने लग —‘अव य ही ये चरण च उदार शरोम ण न दन दन
यामसु दरके ह; य क इनम वजा, कमल, व , अंकुश और जौ आ दके च प ही
द ख रहे ह’ ।।२५।। उन चरण च के ारा जव लभ भगवान्को ढूँ ढ़ती ई गो पयाँ आगे
बढ़ , तब उ ह ीकृ णके साथ कसी जयुवतीके भी चरण च द ख पड़े। उ ह दे खकर वे
ाकुल हो गय । और आपसम कहने लग — ।।२६।। ‘जैसे ह थनी अपने यतम
गजराजके साथ गयी हो, वैसे ही न दन दन यामसु दरके साथ उनके कंधेपर हाथ रखकर
चलनेवाली कस बड़भा गनीके ये चरण च ह? ।।२७।। अव य ही सवश मान् भगवान्
ीकृ णक यह ‘आरा धका’ होगी। इसी लये इसपर स होकर हमारे ाण यारे
यामसु दरने हम छोड़ दया है और इसे एका तम ले गये ह ।।२८।। यारी स खयो! भगवान्
ीकृ ण अपने चरणकमलसे जस रजका पश कर दे ते ह, वह ध य हो जाती है, उसके
अहोभा य ह! य क ा, शंकर और ल मी आ द भी अपने अशुभ न करनेके लये उस
रजको अपने सरपर धारण करते ह’ ।।२९।। ‘अरी सखी! चाहे कुछ भी हो—यह जो सखी
हमारे सव व ीकृ णको एका तम ले जाकर अकेले ही उनक अधर-सुधाका रस पी रही है,
इस गोपीके उभरे ए चरण च तो हमारे दयम बड़ा ही ोभ उ प कर रहे ह’ ।।३०।।
यहाँ उस गोपीके पैर नह दखायी दे त।े मालूम होता है, यहाँ यारे यामसु दरने दे खा होगा
क मेरी ेयसीके सुकुमार चरणकमल म घासक नोक गड़ती होगी; इस लये उ ह ने उसे
अपने कंधेपर चढ़ा लया होगा ।।३१।। स खयो! यहाँ दे खो, यारे ीकृ णके चरण च
अ धक गहरे—बालूम धँसे ए ह। इससे सू चत होता है क यहाँ वे कसी भारी व तुको
उठाकर चले ह, उसीके बोझसे उनके पैर जमीनम धँस गये ह। हो-न-हो यहाँ उस कामीने
अपनी यतमाको अव य कंधेपर चढ़ाया होगा ।।३२।। दे खो-दे खो, यहाँ परम ेमी
जव लभने फूल चुननेके लये अपनी ेयसीको नीचे उतार दया है और यहाँ परम यतम
ीकृ णने अपनी ेयसीके लये फूल चुने ह। उचक-उचककर फूल तोड़नेके कारण यहाँ
उनके पंजे तो धरतीम गड़े ए ह और एड़ीका पता ही नह है ।।३३।। परम ेमी ीकृ णने
कामी पु षके समान यहाँ अपनी ेयसीके केश सँवारे ह। दे खो, अपने चुने ए फूल को
ेयसीक चोट म गूँथनेके लये वे यहाँ अव य ही बैठे रहे ह गे ।।३४।। परी त्! भगवान्
ीकृ ण आ माराम ह। वे अपने-आपम ही स तु और पूण ह। जब वे अख ड ह, उनम
सरा कोई है ही नह , तब उनम कामक क पना कैसे हो सकती है? फर भी उ ह ने
का मय क द नता- ीपरवशता और य क कु टलता दखलाते ए वहाँ उस गोपीके
साथ एका तम डा क थी—एक खेल रचा था ।।३५।।
न ल य ते पदा य त या नूनं तृणांकुरैः ।
ख सुजाताङ् तलामु ये ेयस यः ।।३१
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इमा य धकम ना न पदा न वहतो वधूम् ।
गो यः प यत कृ ण य भारा ा त य का मनः ।।३२

अ ावरो पता का ता पु पहेतोमहा मना ।


अ सूनावचयः याथ ेयसा कृतः ।
पदा मणे एते प यतासकले पदे ।।३३

केश साधनं व का म याः का मना कृतम् ।


ता न चूडयता का तामुप व मह ुवम् ।।३४

रेमे तया चा मरत आ मारामोऽ यख डतः ।


का मनां दशयन् दै यं ीणां चैव रा मताम् ।।३५

इ येवं दशय य ता े ग यो वचेतसः ।


यां गोपीमनयत् कृ णो वहाया याः यो वने ।।३६

सा च मेने तदाऽऽ मानं व र ं सवयो षताम् ।


ह वा गोपीः कामयाना मामसौ भजते यः ।।३७
इस कार गो पयाँ मतवाली-सी होकर—अपनी सुधबुध खोकर एक सरेको भगवान्
ीकृ णके चरण च दखलाती ई वन-वनम भटक रही थ । इधर भगवान् ीकृ ण सरी
गो पय को वनम छोड़कर जस भा यवती गोपीको एका तम ले गये थे, उसने समझा क ‘म
ही सम त गो पय म े ँ। इसी लये तो हमारे यारे ीकृ ण सरी गो पय को छोड़कर, जो
उ ह इतना चाहती ह, केवल मेरा ही मान करते ह। मुझे ही आदर दे रहे ह ।।३६-३७।।
भगवान् ीकृ ण ा और शंकरके भी शासक ह। वह गोपी वनम जाकर अपने ेम और
सौभा यके मदसे मतवाली हो गयी और उ ह ीकृ णसे कहने लगी—‘ यारे! मुझसे अब तो
और नह चला जाता। मेरे सुकुमार पाँव थक गये ह। अब तुम जहाँ चलना चाहो, मुझे अपने
कंधेपर चढ़ाकर ले चलो’ ।।३८।। अपनी यतमाक यह बात सुनकर यामसु दरने कहा
—‘अ छा यारी! तुम अब मेरे कंधेपर चढ़ लो।’ यह सुनकर वह गोपी य ही उनके कंधेपर
चढ़ने चली, य ही ीकृ ण अ तधान हो गये और वह सौभा यवती गोपी रोने-पछताने
लगी ।।३९।। ‘हा नाथ! हा रमण! हा े ! हा महाभुज! तुम कहाँ हो! कहाँ हो!! मेरे सखा!
म तु हारी द न-हीन दासी ँ। शी ही मुझे अपने सा यका अनुभव कराओ, मुझे दशन
दो’ ।।४०।। परी त्! गो पयाँ भगवान्के चरण च के सहारे उनके जानेका माग ढूँ ढ़ती-
ढूँ ढ़ती वहाँ जा प ँची। थोड़ी रसे ही उ ह ने दे खा क उनक सखी अपने यतमके
वयोगसे ःखी होकर अचेत हो गयी है ।।४१।। जब उ ह ने उसे जगाया, तब उसने भगवान्
ीकृ णसे उसे जो यार और स मान ा त आ था, वह उनको सुनाया। उसने यह भी कहा
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क ‘मने कु टलतावश उनका अपमान कया, इसीसे वे अ तधान हो गये।’ उसक बात
सुनकर गो पय के आ यक सीमा न रही ।।४२।।
ततो ग वा वनो े शं ता केशवम वीत् ।
न पारयेऽहं च लतुं नय मां य ते मनः ।।३८

एवमु ः यामाह क ध आ ता म त ।
तत ा तदधे कृ णः सा वधूर वत यत ।।३९

हा नाथ रमण े वा स वा स महाभुज ।


दा या ते कृपणाया मे सखे दशय स धम् ।।४०

अ व छ यो भगवतो माग गो योऽ व रतः ।


द शुः य व ेषमो हतां ः खतां सखीम् ।।४१

तया क थतमाक य मान ा तं च माधवात् ।


अवमानं च दौरा याद् व मयं परमं ययुः ।।४२

ततोऽ वशन् वनं च यो ना यावद् वभा ते ।


तयः व माल य ततो नववृतुः यः ।।४३

त मन का तदालापा त चे ा तदा मकाः ।


तद्गुणानेव गाय यो ना मागारा ण स म ः ।।४४
इसके बाद वनम जहाँतक च दे वक चाँदनी छटक रही थी, वहाँतक वे उ ह ढूँ ढ़ती ई
गय । पर तु जब उ ह ने दे खा क आगे घना अ धकार है—घोर जंगल है—हम ढूँ ढ़ती जायँगी
तो ीकृ ण और भी उसके अंदर घुस जायँग,े तब वे उधरसे लौट आय ।।४३।। परी त्!
गो पय का मन ीकृ णमय हो गया था। उनक वाणीसे कृ णचचाके अ त र और कोई
बात नह नकलती थी। उनके शरीरसे केवल ीकृ णके लये और केवल ीकृ णक चे ाएँ
हो रही थ । कहाँतक क ँ; उनका रोम-रोम, उनक आ मा ीकृ णमय हो रही थी। वे केवल
उनके गुण और लीला का ही गान कर रही थ और उनम इतनी त मय हो रही थ क उ ह
अपने शरीरक भी सुध नह थी, फर घरक याद कौन करता? ।।४४।।

पुनः पु लनमाग य का ल ाः कृ णभावनाः ।


समवेता जगुः कृ णं तदागमनकां ताः ।।४५
गो पय का रोम-रोम इस बातक ती ा और आकां ा कर रहा था क ज द -से-ज द
ीकृ ण आय। ीकृ णक ही भावनाम डू बी ई गो पयाँ यमुनाजीके पावन पु लनपर—
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रमणरेतीम लौट आय और एक साथ मलकर ीकृ णके गुण का गान करने लग ।।४५।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध रास डायां
कृ णा वेषणं नाम शोऽ यायः ।।३०।।

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अथैक शोऽ यायः
गो पकागीत
गो य ऊचुः
जय त तेऽ धकं ज मना जः
यत इ दरा श द ह ।
द यत यतां द ु तावका-
व य धृतासव वां व च वते ।।१

शर दाशये साधुजातसत्
सर सजोदर ीमुषा शा ।
सुरतनाथ तेऽशु कदा सका
वरद न नतो नेह क वधः ।।२

वषजला ययाद् ालरा साद्


वषमा ताद् वै ुतानलात् ।
वृषमया मजाद् व तोभया-
षभ ते वयं र ता मु ः ।।३

न खलु गो पकान दनो भवा-


न खलदे हनाम तरा म क् ।
वखनसा थतो व गु तये
सख उदे यवान् सा वतां कुले ।।४
गो पयाँ वरहावेशम गाने लग —‘ यारे! तु हारे ज मके कारण वैकु ठ आ द लोक से
भी जक म हमा बढ़ गयी है। तभी तो सौ दय और मृ लताक दे वी ल मीजी अपना
नवास थान वैकु ठ छोड़कर यहाँ न य- नर तर नवास करने लगी ह, इसक सेवा करने
लगी ह। पर तु यतम! दे खो तु हारी गो पयाँ ज ह ने तु हारे चरण म ही अपने ाण
सम पत कर रखे ह, वन-वनम भटककर तु ह ढूँ ढ़ रही ह ।।१।। हमारे ेमपूण दयके
वामी! हम तु हारी बना मोलक दासी ह। तुम शर कालीन जलाशयम सु दर-से-सु दर
सर सजक क णकाके सौ दयको चुरानेवाले ने से हम घायल कर चुके हो। हमारे मनोरथ
पूण करनेवाले ाणे र! या ने से मारना वध नह है? अ से ह या करना ही वध
है? ।।२।। पु ष शरोमणे! यमुनाजीके वषैले जलसे होनेवाली मृ यु, अजगरके पम
खानेवाले अघासुर, इ क वषा, आँधी, बजली, दावानल, वृषभासुर और ोमासुर आ दसे
एवं भ - भ अवसर पर सब कारके भय से तुमने बार-बार हमलोग क र ा क है ।।३।।
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तुम केवल यशोदान दन ही नह हो; सम त शरीरधा रय के दयम रहनेवाले उनके सा ी हो,
अ तयामी हो। सखे! ाजीक ाथनासे व क र ा करनेके लये तुम य वंशम अवतीण
ए हो ।।४।।

वर चताभयं वृ णधुय ते
चरणमीयुषां संसृतेभयात् ।
करसरो हं का त कामदं
शर स धे ह नः ीकर हम् ।।५

जजना तहन् वीर यो षतां


नजजन मय वंसन मत ।
भज सखे भव कंकरीः म नो
जल हाननं चा दशय ।।६

णतदे हनां पापकशनं


तृणचरानुगं ी नकेतनम् ।
फ णफणा पतं ते पदा बुजं
कृणु कुचेषु नः कृ ध छयम् ।।७

मधुरया गरा व गुवा यया


बुधमनो या पु करे ण ।
व धकरी रमा वीर मु ती-
रधरसीधुनाऽऽ यायय व नः ।।८
अपने े मय क अ भलाषा पूण करनेवाल म अ ग य य वंश शरोमणे! जो लोग ज म-
मृ यु प संसारके च करसे डरकर तु हारे चरण क शरण हण करते ह, उ ह तु हारे
करकमल अपनी छ -छायाम लेकर अभय कर दे ते ह। हमारे यतम! सबक लालसा-
अ भलाषा को पूण करनेवाला वही करकमल, जससे तुमने ल मीजीका हाथ पकड़ा है,
हमारे सरपर रख दो ।।५।।
जवा सय के ःख र करनेवाले वीर शरोम ण यामसु दर! तु हारी म द-म द
मुसकानक एक उ वल रेखा ही तु हारे ेमीजन के सारे मान-मदको चूर-चूर कर दे नेके
लये पया त है। हमारे यारे सखा! हमसे ठो मत, ेम करो। हम तो तु हारी दासी ह, तु हारे
चरण पर नछावर ह। हम अबला को अपना वह परम सु दर साँवला-साँवला मुखकमल
दखलाओ ।।६।।
तु हारे चरणकमल शरणागत ा णय के सारे पाप को न कर दे ते ह। वे सम त सौ दय,
माधुयक खान ह और वयं ल मीजी उनक सेवा करती रहती ह। तुम उ ह चरण से हमारे
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बछड़ के पीछे -पीछे चलते हो और हमारे लये उ ह साँपके फण तकपर रखनेम भी तुमने
संकोच नह कया। हमारा दय तु हारी वरह थाक आगसे जल रहा है तु हारी मलनक
आकां ा हम सता रही है। तुम अपने वे ही चरण हमारे व ः थलपर रखकर हमारे दयक
वालाको शा त कर दो ।।७।।
कमलनयन! तु हारी वाणी कतनी मधुर है! उसका एक-एक पद, एक-एक श द, एक-
एक अ र मधुरा तमधुर है। बड़े-बड़े व ान् उसम रम जाते ह। उसपर अपना सव व
नछावर कर दे ते ह। तु हारी उसी वाणीका रसा वादन करके तु हारी आ ाका रणी दासी
गो पयाँ मो हत हो रही ह। दानवीर! अब तुम अपना द अमृतसे भी मधुर अधर-रस
पलाकर हम जीवन-दान दो, छका दो ।।८।। भो! तु हारी लीलाकथा भी अमृत व प है।
वरहसे सताये ए लोग के लये तो वह जीवन सव व ही है। बड़े-बड़े ानी महा मा —
भ क वय ने उसका गान कया है, वह सारे पाप-ताप तो मटाती ही है, साथ ही
वणमा से परम मंगल—परम क याणका दान भी करती है। वह परम सु दर, परम मधुर
और ब त व तृत भी है। जो तु हारी उस लीला-कथाका गान करते ह, वा तवम भूलोकम वे
ही सबसे बड़े दाता ह ।।९।। यारे! एक दन वह था, जब तु हारी ेमभरी हँसी और चतवन
तथा तु हारी तरह-तरहक डा का यान करके हम आन दम म न हो जाया करती थ ।
उनका यान भी परम मंगलदायक है, उसके बाद तुम मले। तुमने एका तम दय पश
ठठो लयाँ क , ेमक बात कह । हमारे कपट म ! अब वे सब बात याद आकर हमारे
मनको ु ध कये दे ती ह ।।१०।।
तव कथामृतं त तजीवनं
क व भरी डतं क मषापहम् ।
वणम लं ीमदाततं
भु व गृण त ते भू रदा जनाः ।।९

ह सतं य ेमवी णं
वहरणं च ते यानम लम् ।
रह स सं वदो या द पृशः
कुहक नो मनः ोभय त ह ।।१०

चल स यद् जा चारयन् पशून्


न लनसु दरं नाथ ते पदम् ।
शलतृणांकुरैः सीदती त नः
क ललतां मनः का त ग छ त ।।११

दनप र ये नीलकु तलै-


वन हाननं ब दावृतम् ।
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घनरज वलं दशयन् मु -
मन स नः मरं वीर य छ स ।।१२

णतकामदं प जा चतं
धर णम डनं येयमाप द ।
चरणपंकजं श तमं च ते
रमण नः तने वपया धहन् ।।१३
हमारे यारे वामी! तु हारे चरण कमलसे भी सुकोमल और सु दर ह। जब तुम गौ को
चरानेके लये जसे नकलते हो तब यह सोचकर क तु हारे वे युगल चरण कंकड़, तनके
और कुश-काँटे गड़ जानेसे क पाते ह गे, हमारा मन बेचैन हो जाता है। हम बड़ा ःख होता
है ।।११।। दन ढलनेपर जब तुम वनसे घर लौटते हो, तो हम दे खती ह क तु हारे
मुखकमलपर नीली-नीली अलक लटक रही ह और गौ के खुरसे उड़-उड़कर घनी धूल
पड़ी ई है। हमारे वीर यतम! तुम अपना वह सौ दय हम दखा- दखाकर हमारे दयम
मलनक आकां ा— ेम उ प करते हो ।।१२।। यतम! एकमा तु ह हमारे सारे
ःख को मटानेवाले हो। तु हारे चरणकमल शरणागत भ क सम त अ भलाषा को पूण
करनेवाले ह। वयं ल मीजी उनक सेवा करती ह और पृ वीके तो वे भूषण ही ह। आप के
समय एकमा उ ह का च तन करना उ चत है, जससे सारी आप याँ कट जाती ह।
कुंज वहारी! तुम अपने वे परम क याण व प चरणकमल हमारे व ः थलपर रखकर
दयक था शा त कर दो ।।१३।। वीर शरोमणे! तु हारा अधरामृत मलनके सुखको—
आकां ाको बढ़ानेवाला है। वह वरहज य सम त शोक-स तापको न कर दे ता है। यह
गानेवाली बाँसुरी भलीभाँ त उसे चूमती रहती है। ज ह ने एक बार उसे पी लया, उन
लोग को फर सर और सर क आस य का मरण भी नह होता। हमारे वीर! अपना
वही अधरामृत हम वतरण करो, पलाओ ।।१४।। यारे! दनके समय जब तुम वनम वहार
करनेके लये चले जाते हो, तब तु ह दे खे बना हमारे लये एक-एक ण युगके समान हो
जाता है और जब तुम स याके समय लौटते हो तथा घुँघराली अलक से यु तु हारा परम
सु दर मुखार व द हम दे खती ह, उस समय पलक का गरना हमारे लये भार हो जाता है
और ऐसा जान पड़ता है क इन ने क पलक को बनानेवाला वधाता मूख है ।।१५।। यारे
यामसु दर! हम अपने प त-पु , भाई-ब धु और कुल-प रवारका यागकर, उनक इ छा
और आ ा का उ लंघन करके तु हारे पास आयी ह। हम तु हारी एक-एक चाल जानती ह,
संकेत समझती ह और तु हारे मधुर गानक ग त समझकर, उसीसे मो हत होकर यहाँ आयी
ह। कपट ! इस कार रा के समय आयी ई युव तय को तु हारे सवा और कौन छोड़
सकता है ।।१६।। यारे! एका तम तुम मलनक आकां ा, ेम-भावको जगानेवाली बात
करते थे। ठठोली करके हम छे ड़ते थे। तुम ेमभरी चतवनसे हमारी ओर दे खकर मुसकरा
दे ते थे और हम दे खती थ तु हारा वह वशाल व ः थल, जसपर ल मीजी न य- नर तर
नवास करती ह। तबसे अबतक नर तर हमारी लालसा बढ़ती ही जा रही है और हमारा मन

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अ धका धक मु ध होता जा रहा है ।।१७।। यारे! तु हारी यह अ भ ज-वनवा सय के
स पूण ःख-तापको न करनेवाली और व का पूण मंगल करनेके लये है। हमारा दय
तु हारे त लालसासे भर रहा है। कुछ थोड़ी-सी ऐसी ओष ध दो, जो तु हारे नजजन के
दयरोगको सवथा नमूल कर दे ।।१८।।

सुरतवधनं शोकनाशनं
व रतवेणुना सु ु चु बतम् ।
इतरराग व मारणं नृणां
वतर वीर न तेऽधरामृतम् ।।१४

अट त यद् भवान काननं


ु टयुगायते वामप यताम् ।
कु टलकु तलं ीमुखं च ते
जड उद तां प मकृद् शाम् ।।१५

प तसुता वय ातृबा धवा-


न त वलङ् य तेऽ य युतागताः ।
ग त वद तवोद्गीतमो हताः
कतव यो षतः क यजे श ।।१६

रह स सं वदं छयोदयं
ह सताननं ेमवी णम् ।
बृह रः यो वी य धाम ते
मु र त पृहा मु ते मनः ।।१७

जवनौकसां र ते
वृ जनह यलं व म लम् ।
यज मनाक् च न व पृहा मनां
वजन जां य षूदनम् ।।१८
य े सुजातचरणा बु हं तनेषु
भीताः शनैः य दधीम ह ककशेषु ।
तेनाटवीमट स तद् थते न क वत्
कूपा द भ म त धीभवदायुषां नः ।।१९
तु हारे चरण कमलसे भी सुकुमार ह। उ ह हम अपने कठोर तन पर भी डरते-डरते
ब त धीरेसे रखती ह क कह उ ह चोट न लग जाय। उ ह चरण से तुम रा के समय घोर
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जंगलम छपे- छपे भटक रहे हो! या कंकड़, प थर आ दक चोट लगनेसे उनम पीड़ा नह
होती? हम तो इसक स भावनामा से ही च कर आ रहा है। हम अचेत होती जा रही ह।
ीकृ ण! यामसु दर! ाणनाथ! हमारा जीवन तु हारे लये है, हम तु हारे लये जी रही ह,
हम तु हारी ह ।।१९।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध रास डायां गोपीगीतं
नामैक शोऽ यायः ।।३१।।

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अथ ा शोऽ यायः
भगवान्का कट होकर गो पय को सा वना दे ना
ीशुक उवाच
इ त गो यः गाय यः लप य च धा ।
ः सु वरं राजन् कृ णदशनलालसाः ।।१

तासामा वरभू छौ रः मयमानमुखा बुजः ।


पीता बरधरः वी सा ा म मथम मथः ।।२

तं वलो यागतं े ं ी यु फु ल शोऽबलाः ।


उ थुयगपत्
ु सवा त वः ाण मवागतम् ।।३

का चत् करा बुजं शौरेजगृहेऽ लना मुदा ।


का चद् दधार त ा मंसे च दन षतम् ।।४
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान्क यारी गो पयाँ वरहके आवेशम इस
कार भाँ त-भाँ तसे गाने और लाप करने लग । अपने कृ ण- यारेके दशनक लालसासे वे
अपनेको रोक न सक , क णाजनक सुमधुर वरसे फूट-फूटकर रोने लग ।।१।। ठ क उसी
समय उनके बीचोबीच भगवान् ीकृ ण कट हो गये। उनका मुखकमल म द-म द
मुसकानसे खला आ था। गलेम वनमाला थी, पीता बर धारण कये ए थे। उनका यह प
या था, सबके मनको मथ डालनेवाले कामदे वके मनको भी मथनेवाला था ।।२।। को ट-
को ट काम से भी सु दर परम मनोहर ाणव लभ यामसु दरको आया दे ख गो पय के ने
ेम और आन दसे खल उठे । वे सब-क -सब एक ही साथ इस कार उठ खड़ी , मानो
ाणहीन शरीरम द ाण का संचार हो गया हो, शरीरके एक-एक अंगम नवीन चेतना—
नूतन फू त आ गयी हो ।।३।। एक गोपीने बड़े ेम और आन दसे ीकृ णके करकमलको
अपने दोन हाथ म ले लया और वह धीरे-धीरे उसे सहलाने लगी। सरी गोपीने उनके
च दनच चत भुजद डको अपने कंधेपर रख लया ।।४।। तीसरी सु दरीने भगवान्का चबाया
आ पान अपने हाथ म ले लया। चौथी गोपी, जसके दयम भगवान्के वरहसे बड़ी जलन
हो रही थी, बैठ गयी और उनके चरणकमल को अपने व ः थलपर रख लया ।।५।। पाँचव
गोपी णयकोपसे व ल होकर, भ ह चढ़ाकर, दाँत से होठ दबाकर अपने कटा -बाण से
ब धती ई उनक ओर ताकने लगी ।।६।। छठ गोपी अपने न नमेष नयन से उनके
मुखकमलका मकर द-रस पान करने लगी। पर तु जैसे संत पु ष भगवान्के चरण के दशनसे
कभी तृ त नह होते, वैसे ही वह उनक मुख-माधुरीका नर तर पान करते रहनेपर भी तृ त
नह होती थी ।।७।। सातव गोपी ने के मागसे भगवान्को अपने दयम ले गयी और फर
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उसने आँख बंद कर ल । अब मन-ही-मन भगवान्का आ लगन करनेसे उसका शरीर
पुल कत हो गया, रोम-रोम खल उठा और वह स यो गय के समान परमान दम म न हो
गयी ।।८।। परी त्! जैसे मुमु ुजन परम ानी संत पु षको ा त करके संसारक पीड़ासे
मु हो जाते ह, वैसे ही सभी गो पय को भगवान् ीकृ णके दशनसे परम आन द और परम
उ लास ा त आ। उनके वरहके कारण गो पय को जो ःख आ था, उससे वे मु हो
गय और शा तके समु म डू बने-उतराने लग ।।९।। परी त्! य तो भगवान् ीकृ ण
अ युत और एकरस ह, उनका सौ दय और माधुय नर तशय है; फर भी वरह- थासे मु
ई गो पय के बीचम उनक शोभा और भी बढ़ गयी। ठ क वैसे ही, जैसे परमे र अपने न य
ान, बल आ द श य से से वत होनेपर और भी शोभायमान होता है ।।१०।।

का चद लनागृ ा वी ता बूलच वतम् ।


एका तदङ् कमलं स त ता तनयोरधात् ।।५

एका ुकु टमाब य ेमसंर भ व ला ।


नतीवै त् कटा ेपःै संद दशन छदा ।।६

अपरा न मषद् यां जुषाणा त मुखा बुजम् ।


आपीतम प नातृ यत् स त त चरणं यथा ।।७

तं का च े र ण
े दकृ य नमी य च ।
पुलका युपगु ा ते योगीवान दस लुता ।।८

सवा ताः केशवालोकपरमो सव नवृताः ।


ज वरहजं तापं ा ं ा य यथा जनाः ।।९

ता भ वधूतशोका भभगवान युतो वृतः ।

रोचता धकं तात पु षः श भयथा ।।१०

ताः समादाय का ल ा न व य पु लनं वभुः ।


वकस कु दम दारसुर य नलषट् पदम् ।।११
इसके बाद भगवान् ीकृ णने उन जसु द रय को साथ लेकर यमुनाजीके पु लनम
वेश कया। उस समय खले ए कु द और म दारके पु प क सुर भ लेकर बड़ी ही शीतल
और सुग धत म द-म द वायु चल रही थी और उसक महँकसे मतवाले होकर भ रे इधर-
उधर मँडरा रहे थे ।।११।। शर पू णमाके च माक चाँदनी अपनी नराली ही छटा दखला
रही थी। उसके कारण रा के अ धकारका तो कह पता ही न था, सव आन द-मंगलका ही
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सा ा य छाया था। वह पु लन या था, यमुनाजीने वयं अपनी लहर के हाथ भगवान्क
लीलाके लये सुकोमल बालुकाका रंगमंच बना रखा था ।।१२।। परी त्! भगवान्
ीकृ णके दशनसे गो पय के दयम इतने आन द और इतने रसका उ लास आ क उनके
दयक सारी आ ध- ा ध मट गयी। जैसे कमका डक ु तयाँ उसका वणन करते-करते
अ तम ानका डका तपादन करने लगती ह और फर वे सम त मनोरथ से ऊपर उठ
जाती ह, कृतकृ य हो जाती ह—वैसे ही गो पयाँ भी पूणकाम हो गय । अब उ ह ने अपने
व ः थलपर लगी ई रोली-केसरसे च त ओढ़नीको अपने परम यारे सु द् ीकृ णके
वराजनेके लये बछा दया ।।१३।। बड़े-बड़े योगे र अपने योगसाधनसे प व कये ए
दयम जनके लये आसनक क पना करते रहते ह, कतु फर भी अपने दय- सहासनपर
बठा नह पाते, वही सवश मान् भगवान् यमुनाजीक रेतीम गो पय क ओढ़नीपर बैठ
गये। सह -सह गो पय के बीचम उनसे पू जत होकर भगवान् बड़े ही शोभायमान हो रहे
थे। परी त्! तीन लोक म—तीन काल म जतना भी सौ दय का शत होता है, वह सब
तो भगवान्के ब मा सौ दयका आभासभर है। वे उसके एकमा आ य ह ।।१४।।
भगवान् ीकृ ण अपने इस अलौ कक सौ दयके ारा उनके ेम और आकां ाको और भी
उभाड़ रहे थे। गो पय ने अपनी म द-म द मुसकान, वलासपूण चतवन और तरछ भ ह से
उनका स मान कया। कसीने उनके चरणकमल को अपनी गोदम रख लया, तो कसीने
उनके करकमल को। वे उनके सं पशका आन द लेती ई कभी-कभी कह उठती थ —
कतना सुकुमार है, कतना मधुर है! इसके बाद ीकृ णके छप जानेसे मन-ही-मन त नक
ठकर उनके मुँहसे ही उनका दोष वीकार करानेके लये वे कहने लग ।।१५।।

शर च ांशुस दोह व तदोषातमः शवम् ।


कृ णाया ह ततरला चतकोमलवालुकम् ।।१२

त शना ाद वधूत जो
मनोरथा तं ुतयो यथा ययुः ।
वै रीयैः कुचकुंकुमां कतै-
रची लृप ासनमा मब धवे ।।१३

त ोप व ो भगवान् स ई रो
योगे रा त द क पतासनः ।
चकास गोपीप रषद्गतोऽ चत-
ैलो यल येकपदं वपुदधत् ।।१४

सभाज य वा तमन द पनं


सहासलीले ण व म ुवा ।

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सं पशनेनाङ् ककृताङ् ह तयोः
सं तु य ईष कु पता बभा षरे ।।१५
गो य ऊचुः
भजतोऽनुभज येक एक एत पययम् ।
नोभयां भज येक एत ो ू ह साधु भोः ।।१६
ीभगवानुवाच
मथो भज त ये स यः वाथका तो मा ह ते ।
न त सौ दं धमः वाथाथ त ना यथा ।।१७

भज यभजतो ये वै क णाः पतरो यथा ।


धम नरपवादोऽ सौ दं च सुम यमाः ।।१८

भजतोऽ प न वै के चद् भज यभजतः कुतः ।


आ मारामा ा तकामा अकृत ा गु हः ।।१९

नाहं तु स यो भजतोऽ प ज तून्


भजा यमीषामनुवृ वृ ये ।
यथाधनो ल धधने वन े
त च तया य भृतो न वेद ।।२०

एवं मदथ झतलोकवेद-


वानां ह वो म यनुवृ येऽबलाः ।
मया परो ं भजता तरो हतं
मासू यतुं माहथ तत् यं याः ।।२१
गो पय ने कहा—नटनागर! कुछ लोग तो ऐसे होते ह, जो ेम करनेवाल से ही ेम
करते ह और कुछ लोग ेम न करनेवाल से भी ेम करते ह। परंतु कोई-कोई दोन से ही ेम
नह करते। यारे! इन तीन म तु ह कौन-सा अ छा लगता है? ।।१६।।
भगवान् ीकृ णने कहा—मेरी य स खयो! जो ेम करनेपर ेम करते ह, उनका तो
सारा उ ोग वाथको लेकर है। लेन-दे नमा है। न तो उनम सौहाद है और न तो धम। उनका
ेम केवल वाथके लये ही है; इसके अ त र उनका और कोई योजन नह है ।।१७।।
सु द रयो! जो लोग ेम न करनेवालेसे भी ेम करते ह—जैसे वभावसे ही क णाशील
स जन और माता- पता—उनका दय सौहादसे, हतै षतासे भरा रहता है और सच पूछो,
तो उनके वहारम न छल स य एवं पूण धम भी है ।।१८।। कुछ लोग ऐसे होते ह, जो ेम

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करनेवाल से भी ेम नह करते, न ेम करनेवाल का तो उनके सामने कोई ही नह है।
ऐसे लोग चार कारके होते ह। एक तो वे, जो अपने व पम ही म त रहते ह— जनक
म कभी ै त भासता ही नह । सरे वे, ज ह ै त तो भासता है, पर तु जो कृतकृ य हो
चुके ह; उनका कसीसे कोई योजन ही नह है। तीसरे वे ह, जो जानते ही नह क हमसे
कौन ेम करता है; और चौथे वे ह, जो जान-बूझकर अपना हत करनेवाले परोपकारी
गु तु य लोग से भी ोह करते ह, उनको सताना चाहते है ।।१९।। गो पयो! म तो ेम करने-
वाल से भी ेमका वैसा वहार नह करता, जैसा करना चा हये। म ऐसा केवल इसी लये
करता ँ क उनक च वृ और भी मुझम लगे, नर तर लगी ही रहे। जैसे नधन पु षको
कभी ब त-सा धन मल जाय और फर खो जाय तो उसका दय खोये ए धनक च तासे
भर जाता है, वैसे ही म भी मल- मलकर छप- छप जाता ँ ।।२०।। गो पयो! इसम स दे ह
नह क तुमलोग ने मेरे लये लोक-मयादा, वेदमाग और अपने सगे-स ब धय को भी छोड़
दया है। ऐसी थ तम तु हारी मनोवृ और कह न जाय, अपने सौ दय और सुहागक
च ता न करने लगे, मुझम ही लगी रहे—इसी लये परो पसे तुमलोग से ेम करता आ
ही म छप गया था। इस लये तुमलोग मेरे ेमम दोष मत नकालो। तुम सब मेरी यारी हो
और म तु हारा यारा ँ ।।२१।। मेरी यारी गो पयो! तुमने मेरे लये घर-गृह थीक उन
बे ड़य को तोड़ डाला है, ज ह बड़े-बड़े योगी-य त भी नह तोड़ पाते। मुझसे तु हारा यह
मलन, यह आ मक संयोग सवथा नमल और सवथा नद ष है। य द म अमर शरीरसे—
अमर जीवनसे अन त कालतक तु हारे ेम, सेवा और यागका बदला चुकाना चा ँ तो भी
नह चुका सकता। म ज म-ज मके लये तु हारा ऋणी ँ। तुम अपने सौ य वभावसे, ेमसे
मुझे उऋण कर सकती हो। पर तु म तो तु हारा ऋणी ही ँ ।।२२।।
न पारयेऽहं नरव संयुजां
वसाधुकृ यं वबुधायुषा प वः ।

या माभजन् जरगेहशृंखलाः
संवृ य तद् वः तयातु साधुना ।।२२
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध रास डायां
गोपीसा वनं नाम ा शोऽ यायः ।।३२।।

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अथ य ंशोऽ यायः
महारास
ीशुक उवाच
इ थं भगवतो गो यः ु वा वाचः सुपेशलाः ।
ज वरहजं तापं तद ोप चता शषः ।।१

त ारभत गो व दो रास डामनु तैः ।


ीर नैर वतः ीतैर यो याब बा भः ।।२

रासो सवः स वृ ो गोपीम डलम डतः ।


योगे रेण कृ णेन तासां म ये यो योः ।
व ेन गृहीतानां क ठे व नकटं यः ।।३

यं म येरन् नभ तावद् वमानशतसंकुलम ।


दवौकसां सदाराणामौ सु याप ता मनाम् ।।४
ीशुकदे वजी कहते ह—राजन्! गो पयाँ भगवान्क इस कार ेमभरी सुमधुर वाणी
सुनकर जो कुछ वरहज य ताप शेष था, उससे भी मु हो गय और सौ दय-माधुय न ध
ाण यारेके अंग-संगसे सफल-मनोरथ हो गय ।।१।। भगवान् ीकृ णक ेयसी और
से वका गो पयाँ एक- सरेक बाँह-म-बाँह डाले खड़ी थ । उन ीर न के साथ यमुनाजीके
पु लनपर भगवान्ने अपनी रसमयी रास ड़ा ार भ क ।।२।। स पूण योग के वामी
भगवान् ीकृ ण दो-दो गो पय के बीचम कट हो गये और उनके गलेम अपना हाथ डाल
दया। इस कार एक गोपी और एक ीकृ ण, यही म था। सभी गो पयाँ ऐसा अनुभव
करती थ क हमारे यारे तो हमारे ही पास ह। इस कार सह -सह गो पय से शोभायमान
भगवान् ीकृ णका द रासो सव ार भ आ। उस समय आकाशम शत-शत वमान क
भीड़ लग गयी। सभी दे वता अपनी-अपनी प नय के साथ वहाँ आ प ँचे। रासो सवके
दशनक लालसासे, उ सुकतासे उनका मन उनके वशम नह था ।।३-४।। वगक द
भयाँ अपने-आप बज उठ । वग य पु प क वषा होने लगी। ग धवगण अपनी-अपनी
प नय के साथ भगवान्के नमल यशका गान करने लगे ।।५।। रासम डलम सभी गो पयाँ
अपने यतम यामसु दरके साथ नृ य करने लग । उनक कलाइय के कंगन, पैर के पायजेब
और करधनीके छोटे -छोटे घुँघ एक साथ बज उठे । असं य गो पयाँ थ , इस लये यह मधुर
व न भी बड़े ही जोरक हो रही थी ।।६।। यमुनाजीक रमणरेतीपर जसु द रय के बीचम
भगवान् ीकृ णक बड़ी अनोखी शोभा ई। ऐसा जान पड़ता था, मानो अग णत पीली-
पीली दमकती ई सुवण-म णय के बीचम यो तमयी नीलम ण चमक रही हो ।।७।। नृ यके
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समय गो पयाँ तरह-तरहसे ठु मुक-ठु मुककर अपने पाँव कभी आगे बढ़ात और कभी पीछे
हटा लेत । कभी ग तके अनुसार धीरे-धीरे पाँव रखत , तो कभी बड़े वेगसे; कभी चाकक
तरह घूम जात , कभी अपने हाथ उठा-उठाकर भाव बतात , तो कभी व भ कारसे उ ह
चमकात । कभी बड़े कलापूण ढं गसे मुसकरात , तो कभी भ ह मटकात । नाचते-नाचते
उनक पतली कमर ऐसी लचक जाती थी, मानो टू ट गयी हो। झुकने, बैठने, उठने और
चलनेक फुत से उनके तन हल रहे थे तथा व उड़े जा रहे थे। कान के कु डल हल-
हलकर कपोल पर आ जाते थे। नाचनेके प र मसे उनके मुँहपर पसीनेक बूँद झलकने लगी
थ । केश क चो टयाँ कुछ ढ ली पड़ गयी थ । नीवीक गाँठ खुली जा रही थ । इस कार
नटवर न दलालक परम ेयसी गो पयाँ उनके साथ गा-गाकर नाच रही थ । परी त्! उस
समय ऐसा जान पड़ता था, मानो ब त-से ीकृ ण तो साँवले-साँवले मेघ-म डल ह और
उनके बीच-बीचम चमकती ई गोरी गो पयाँ बजली ह। उनक शोभा असीम थी ।।८।।
गो पय का जीवन भगवान्क र त है, ेम है। वे ीकृ णसे सटकर नाचते-नाचते ऊँचे वरसे
मधुर गान कर रही थ । ीकृ णका सं पश पा-पाकर और भी आन दम न हो रही थ । उनके
राग-रा ग नय से पूण गानसे यह सारा जगत् अब भी गूँज रहा है ।।९।। कोई गोपी भगवान्के
साथ—उनके वरम वर मलाकर गा रही थी। वह ीकृ णके वरक अपे ा और भी ऊँचे
वरसे राग अलापने लगी। उसके वल ण और उ म वरको सुनकर वे ब त ही स ए
और वाह-वाह करके उसक शंसा करने लगे। उसी रागको एक सरी सखीने ुपदम गाया।
उसका भी भगवान्ने ब त स मान कया ।।१०।। एक गोपी नृ य करते-करते थक गयी।
उसक कलाइय से कंगन और चो टय से बेलाके फूल खसकने लगे। तब उसने अपने बगलम
ही खड़े मुरलीमनोहर यामसु दरके कंधेको अपनी बाँहसे कसकर पकड़ लया ।।११।।
भगवान् ीकृ णने अपना एक हाथ सरी गोपीके कंधेपर रख रखा था। वह वभावसे तो
कमलके समान सुग धसे यु था ही, उसपर बड़ा सुग धत च दनका लेप भी था। उसक
सुग धसे वह गोपी पुल कत हो गयी, उसका रोम-रोम खल उठा। उसने झटसे उसे चूम
लया ।।१२।। एक गोपी नृ य कर रही थी। नाचनेके कारण उसके कु डल हल रहे थे, उनक
छटासे उसके कपोल और भी चमक रहे थे। उसने अपने कपोल को भगवान् ीकृ णके
कपोलसे सटा दया और भगवान्ने उसके मुँहम अपना चबाया आ पान दे दया ।।१३।।
कोई गोपी नूपुर और करधनीके घुँघ को झनकारती ई नाच और गा रही थी। वह जब
ब त थक गयी, तब उसने अपने बगलम ही खड़े यामसु दरके शीतल करकमलको अपने
दोन तन पर रख लया ।।१४।।

ततो भयो ने नपेतुः पु पवृ यः ।


जगुग धवपतयः स ीका त शोऽमलम् ।।५

वलयानां नूपुराणां क कणीनां च यो षताम् ।


स याणामभू छ द तुमुलो रासम डले ।।६

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त ा तशुशुभे ता भभगवान् दे वक सुतः ।
म ये मणीनां हैमानां महामरकतो यथा ।।७

पाद यासैभुज वधु त भः


स मतै ू वलासै-
भ य म यै लकुचपटै ः
कु डलैग डलोलैः ।
व मु यः कबररशना-
थयः कृ णव वो
गाय य तं त डत इव
ता मेघच े वरेजुः ।।८

उ चैजगुनृ यमाना र क ो र त याः ।


कृ णा भमशमु दता यद्गीतेनेदमावृतम् ।।९

का चत् समं मुकु दे न वरजातीर म ताः ।


उ ये पू जता तेन ीयता साधु सा व त ।
तदे व ुवमु ये त यै मानं च ब दात् ।।१०

का चद् रासप र ा ता पा थ य गदाभृतः ।


ज ाह बा ना क धं थ लयम लका ।।११

त ैकांसगतं बा ं कृ ण यो पलसौरभम् ।
च दना ल तमा ाय रोमा चुचु ब ह ।।१२

क या ा व तकु डल वषम डतम् ।


ग डं ग डे स दध या अदा ा बूलच वतम् ।।१३

नृ य ती गायती का चत् कूज ूपुरमेखला ।


पा था युतह ता जं ा ताधात् तनयोः शवम् ।।१४

गो यो ल वा युतं का तं य एका तव लभम् ।


गृहीतक त ो या गाय य तं वज रे ।।१५

कण पलालक वटं ककपोलघम-


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व यो वलयनूपुरघोषवा ैः ।
गो यः समं भगवता ननृतुः वकेश-
त जो मरगायकरासगो ाम् ।।१६
परी त्! गो पय का सौभा य ल मीजीसे भी बढ़कर है। ल मीजीके परम यतम
एका तव लभ भगवान् ीकृ णको अपने परम यतमके पम पाकर गो पयाँ गान करती
ई उनके साथ वहार करने लग । भगवान् ीकृ णने उनके गल को अपने भुजपाशम बाँध
रखा था, उस समय गो पय क बड़ी अपूव शोभा थी ।।१५।। उनके कान म कमलके कु डल
शोभायमान थे। घुँघराली अलक कपोल पर लटक रही थ । पसीनेक बूँद झलकनेसे उनके
मुखक छटा नराली ही हो गयी थी। वे रासम डलम भगवान् ीकृ णके साथ नृ य कर रही
थ । उनके कंगन और पायजेब के बाजे बज रहे थे। भ रे उनके ताल-सुरम अपना सुर
मलाकर गा रहे थे। और उनके जूड़ तथा चो टय म गुँथे ए फूल गरते जा रहे थे ।।१६।।
परी त्! जैसे न हा-सा शशु न वकारभावसे अपनी परछा के साथ खेलता है, वैसे ही
रमारमण भगवान् ीकृ ण कभी उ ह अपने दयसे लगा लेत,े कभी हाथसे उनका अंग पश
करते, कभी ेमभरी तरछ चतवनसे उनक ओर दे खते तो कभी लीलासे उ मु हँसी
हँसने लगते। इस कार उ ह ने जसु द रय के साथ डा क , वहार कया ।।१७।।
परी त्! भगवान्के अंग का सं पश ा त करके गो पय क इ याँ ेम और आन दसे
व ल हो गय । उनके केश बखर गये। फूल के हार टू ट गये और गहने अ त- त हो गये।
वे अपने केश, व और कंचुक को भी पूणतया सँभालनेम असमथ हो गय ।।१८।। भगवान्
ीकृ णक यह रास डा दे खकर वगक दे वांगनाएँ भी मलनक कामनासे मो हत हो गय
और सम त तार तथा ह के साथ च मा च कत, व मत हो गये ।।१९।। परी त्! य प
भगवान् आ माराम ह—उ ह अपने अ त र और कसीक भी आव यकता नह है— फर
भी उ ह ने जतनी गो पयाँ थ , उतने ही प धारण कये और खेल-खेलम उनके साथ इस
कार वहार कया ।।२०।। जब ब त दे रतक गान और नृ य आ द वहार करनेके कारण
गो पयाँ थक गय , तब क णामय भगवान् ीकृ णने बड़े ेमसे वयं अपने सुखद
करकमल के ारा उनके मुँह प छे ।।२१।। परी त्! भगवान्के करकमल और नख पशसे
गो पय को बड़ा आन द आ। उ ह ने अपने उन कपोल के सौ दयसे, जनपर सोनेके कु डल
झल- मला रहे थे और घुँघराली अलक लटक रही थ , तथा उस ेमभरी चतवनसे, जो
सुधासे भी मीठ मुसकानसे उ वल हो रही थी, भगवान् ीकृ णका स मान कया और
भुक परम प व लीला का गान करने लग ।।२२।। इसके बाद जैसे थका आ गजराज
कनार को तोड़ता आ ह थ नय के साथ जलम घुसकर डा करता है, वैसे ही लोक और
वेदक मयादाका अ त मण करनेवाले भगवान्ने अपनी थकान र करनेके लये गो पय के
साथ जल डा करनेके उ े यसे यमुनाके जलम वेश कया। उस समय भगवान्क
वनमाला गो पय के अंगक रगड़से कुछ कुचल-सी गयी थी और उनके व ः थलक केसरसे
वह रँग भी गयी थी। उसके चार ओर गुनगुनाते ए भ रे उनके पीछे -पीछे इस कार चल रहे
थे, मानो ग धवराज उनक क तका गान करते ए पीछे -पीछे चल रहे ह ।।२३।। परी त्!
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यमुनाजलम गो पय ने ेमभारी चतवनसे भगवान्क ओर दे ख-दे खकर तथा हँस-हँसकर
उनपर इधर-उधरसे जलक खूब बौछार डाल । जल उलीच-उलीचकर उ ह खूब नहलाया।
वमान पर चढ़े ए दे वता पु प क वषा करके उनक तु त करने लगे। इस कार
यमुनाजलम वयं आ माराम भगवान् ीकृ णने गजराजके समान जल वहार कया ।।२४।।
इसके बाद भगवान् ीकृ ण जयुव तय और भ र क भीड़से घरे ए यमुनातटके उपवनम
गये। वह बड़ा ही रमणीय था। उसके चार ओर जल और थलम बड़ी सु दर सुग धवाले
फूल खले ए थे। उनक सुवास लेकर म द-म द वायु चल रही थी। उसम भगवान् इस
कार वचरण करने लगे, जैसे मदम गजराज ह थ नय के झुंडके साथ घूम रहा हो ।।२५।।
परी त्! शरद्क वह रा जसके पम अनेक रा याँ पुंजीभूत हो गयी थ , ब त ही
सु दर थी। चार ओर च माक बड़ी सु दर चाँदनी छटक रही थी। का म शरद् ऋतुक
जन रस-साम य का वणन मलता है, उन सभीसे वह यु थी। उसम भगवान् ीकृ णने
अपनी ेयसी गो पय के साथ यमुनाके पु लन, यमुनाजी और उनके उपवनम वहार कया।
यह बात मरण रखनी चा हये क भगवान् स यसंक प ह। यह सब उनके च मय संक पक
ही च मयी लीला है। और उ ह ने इस लीलाम कामभावको, उसक चे ा को तथा उसक
याको सवथा अपने अधीन कर रखा था, उ ह अपने-आपम कैद कर रखा था ।।२६।।

ता भयुतः ममपो हतुम स -


घृ जः स कुचकुंकुमरं जतायाः ।
ग धवपा ल भरनु त आ वशद् वाः
ा तो गजी भ रभरा डव भ सेतुः ।।२३

सोऽ भ यलं युव त भः प र ष यमानः


े णे तः हसती भ रत ततोऽ ।
वैमा नकैः कुसुमव ष भरी मानो
रेमे वयं वर तर गजे लीलः ।।२४

तत कृ णोपवने जल थल-
सूनग धा नलजु द टे ।
चचार भृ मदागणावृतो
यथा मद युद ् रदः करेणु भः ।।२५

एवं शशांकांशु वरा जता नशाः


स स यकामोऽनुरताबलागणः ।

सषेव आ म यव सौरतः
सवाः शर का कथारसा याः ।।२६
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राजोवाच
सं थापनाय धम य शमायेतर य च ।
अवतीण ह भगवानंशेन जगद रः ।।२७

स कथं धमसेतूनां व ा कता भर ता ।


तीपमाचरद् न् परदारा भमशनम् ।।२८

आ तकामो य प तः कृतवान् वै जुगु सतम् ।


कम भ ाय एतं नः संशयं छ ध सु त ।।२९
ीशुक उवाच
धम त मो ई राणां च साहसम् ।
तेजीयसां न दोषाय व े ः सवभुजो यथा ।।३०

नैतत् समाचरे जातु मनसा प नी रः ।


वन य याचरन् मौ ा था ोऽ धजं वषम् ।।३१

ई वराणां वचः स यं तथैवाच रतं व चत् ।


तेषां यत् ववचोयु ं बु मां तत् समाचरेत् ।।३२
राजा परी त्ने पूछा—भगवन्! भगवान् ीकृ ण सारे जगत्के एकमा वामी ह।
उ ह ने अपने अंश ीबलरामजीके स हत पूण पम अवतार हण कया था। उनके
अवतारका उ े य ही यह था क धमक थापना हो और अधमका नाश ।।२७।। न्! वे
धममयादाके बनानेवाले, उपदे श करनेवाले और र क थे। फर उ ह ने वयं धमके वपरीत
पर य का पश कैसे कया ।।२८।। म मानता ँ क भगवान् ीकृ ण पूणकाम थे, उ ह
कसी भी व तुक कामना नह थी, फर भी उ ह ने कस अ भ ायसे यह न दनीय कम
कया? परम चारी मुनी र! आप कृपा करके मेरा यह स दे ह मटाइये ।।२९।।
ीशुकदे वजी कहते ह—सूय, अ न आ द ई र (समथ) कभी-कभी धमका उ लंघन
और साहसका काम करते दे खे जाते ह। परंतु उन काम से उन तेज वी पु ष को कोई दोष
नह होता। दे खो, अ न सब कुछ खा जाता है, पर तु उन पदाथ के दोषसे ल त नह
होता ।।३०।। जन लोग म ऐसी साम य नह है, उ ह मनसे भी वैसी बात कभी नह सोचनी
चा हये, शरीरसे करना तो र रहा। य द मूखतावश कोई ऐसा काम कर बैठे, तो उसका नाश
हो जाता है। भगवान् शंकरने हलाहल वष पी लया था, सरा कोई पये तो वह जलकर
भ म हो जायगा ।।३१।। इस लये इस कारके जो शंकर आ द ई र ह, अपने अ धकारके
अनुसार उनके वचनको ही स य मानना और उसीके अनुसार आचरण करना चा हये। उनके
आचरणका अनुकरण तो कह -कह ही कया जाता है। इस लये बु मान् पु षको चा हये
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क उनका जो आचरण उनके उपदे शके अनुकूल हो, उसीको जीवनम उतारे ।।३२।।

कुशलाच रतेनैषा मह वाथ न व ते ।


वपययेण वानथ नरहंका रणां भो ।।३३

कमुता खलस वानां तयङ् म य दवौकसाम् ।


ई शतु े शत ानां कुशलाकुशला वयः ।।३४

य पादपंकजपराग नषेवतृ ता
योग भाव वधुता खलकमब धाः ।
वैरं चर त मुनयोऽ प न न माना-
त ये छयाऽऽ वपुषः कुत एव ब धः ।।३५

गोपीनां त पतीनां च सवषामेव दे हनाम् ।


योऽ त र त सोऽ य ः डनेनेह दे हभाक् ।।३६

अनु हाय भूतानां मानुषं दे हमा थतः ।


भजते ता शीः डा याः ु वा त परो भवेत् ।।३७

नासूयन् खलु कृ णाय मो हता त य-मायया ।


म यमानाः वपा थान् वान् वान् दारान् जौकसः ।।३८

रा उपावृ े वासुदेवानुमो दताः ।


अ न छ यो ययुग यः वगृहान् भगव याः ।।३९
परी त्! वे साम यवान् पु ष अहंकारहीन होते ह, शुभकम करनेम उनका कोई
सांसा रक वाथ नह होता और अशुभ कम करनेम अनथ (नुकसान) नह होता। वे वाथ
और अनथसे ऊपर उठे होते ह ।।३३।। जब उ ह के स ब धम ऐसी बात है तब जो पशु,
प ी, मनु य, दे वता आ द सम त चराचर जीव के एकमा भु सव र भगवान् ह, उनके
साथ मानवीय शुभ और अशुभका स ब ध कैसे जोड़ा जा सकता है ।।३४।। जनके
चरणकमल के रजका सेवन करके भ जन तृ त हो जाते ह, जनके साथ योग ा त करके
उसके भावसे योगीजन अपने सारे कमब धन काट डालते ह और वचारशील ानीजन
जनके त वका वचार करके त व प हो जाते ह तथा सम त कम-ब धन से मु होकर
व छ द वचरते ह, वे ही भगवान् अपने भ क इ छासे अपना च मय ी व ह कट
करते ह; तब भला, उनम कमब धनक क पना ही कैसे हो सकती है ।।३५।। गो पय के,
उनके प तय के और स पूण शरीरधा रय के अ तःकरण म जो आ मा पसे वराजमान ह,

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जो सबके सा ी और परमप त ह, वही तो अपना द - च मय ी व ह कट करके यह
लीला कर रहे ह ।।३६।।
भगवान् जीव पर कृपा करनेके लये ही अपनेको मनु य पम कट करते ह और ऐसी
लीलाएँ करते ह, ज ह सुनकर जीव भगव परायण हो जायँ ।।३७।। जवासी गोप ने
भगवान् ीकृ णम त नक भी दोषबु नह क । वे उनक योगमायासे मो हत होकर ऐसा
समझ रहे थे क हमारी प नयाँ हमारे पास ही ह ।।३८।। ाक रा के बराबर वह रा
बीत गयी। ा मु त आया। य प गो पय क इ छा अपने घर लौटनेक नह थी, फर भी
भगवान् ीकृ णक आ ासे वे अपने-अपने घर चली गय । य क वे अपनी येक चे ासे,
येक संक पसे केवल भगवान्को ही स करना चाहती थ ।।३९।।

व डतं जवधू भ रदं च व णोः


ा वतोऽनुशृणुयादथ वणयेद ् यः ।

भ परां भगव त तल य कामं


ोगमा प हनो य चरेण धीरः ।।४०
परी त्! जो धीर पु ष जयुव तय के साथ भगवान् ीकृ णके इस च मय रास-
वलासका ाके साथ बार-बार वण और वणन करता है, उसे भगवान्के चरण म परा
भ क ा त होती है और वह ब त ही शी अपने दयके रोग—काम वकारसे छु टकारा
पा जाता है। उसका कामभाव सवदाके लये न हो जाता है* ।।४०।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध रास डावणनं नाम
य ंशोऽ यायः ।।३३।।

* ीम ागवतम ये रासलीलाके पाँच अ याय उसके पाँच ाण माने जाते ह। भगवान्


ीकृ णक परम अ तरंगलीला, नज व पभूता गो पका और ा दनी श
ीराधाजीके साथ होनेवाली भगवान्क द ा त द डा, इन अ याय म कही गयी है।
‘रास’ श दका मूल रस है और रस वयं भगवान् ीकृ ण ह—‘रसो वै सः’। जस द
डाम एक ही रस अनेक रस के पम होकर अन त-अन त रसका समा वादन करे; एक
रस ही रस-समूहके पम कट होकर वयं ही आ वा -आ वादक, लीला, धाम और
व भ आल बन एवं उ पनके पम डा करे—उसका नाम रास है। भगवान्क यह
द लीला भगवान्के द धामम द पसे नर तर आ करती है। यह भगवान्क
वशेष कृपासे ेमी साधक के हताथ कभी-कभी अपने द धामके साथ ही भूम डलपर
भी अवतीण आ करती है, जसको दे ख-सुन एवं गाकर तथा मरण- च तन करके
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अ धकारी पु ष रस व प भगवान्क इस परम रसमयी लीलाका आन द ले सक और वयं
भी भगवान्क लीलाम स म लत होकर अपनेको कृतकृ य कर सक। इस पंचा यायीम
वंशी व न, गो पय के अ भसार, ीकृ णके साथ उनक बातचीत, रमण, ीराधाजीके साथ
अ तधान, पुनः ाक , गो पय के ारा दये ए वसनासनपर वराजना, गो पय के कूट
का उ र, रासनृ य, डा, जलके ल और वन वहारका वणन है—जो मानवी भाषाम
होनेपर भी व तुतः परम द है।
समयके साथ ही मानव-म त क भी पलटता रहता है। कभी अ त क धानता हो
जाती है और कभी ब ह क । आजका युग ही ऐसा है, जसम भगवान्क द -
लीला क तो बात ही या, वयं भगवान्के अ त वपर ही अ व ास कट कया जा रहा
है। ऐसी थ तम इस द लीलाका रह य न समझकर लोग तरह-तरहक आशंका कट
कर, इसम आ यक कोई बात नह है। यह लीला अ त से और मु यतः भगव कृपासे ही
समझम आती है। जन भा यवान् और भगव कृपा ा त महा मा ने इसका अनुभव कया
है, वे ध य ह और उनक चरण-धू लके तापसे ही लोक ध य है। उ ह क उ य का
आ य लेकर यहाँ रासलीलाके स ब धम य कं चत् लखनेक धृ ता क जाती है।
यह बात पहले ही समझ लेनी चा हये क भगवान्का शरीर जीव-शरीरक भाँ त जड
नह होता। जडक स ा केवल जीवक म होती है, भगवान्क म नह । यह दे ह है
और यह दे ही है, इस कारका भेदभाव केवल कृ तके रा यम होता है। अ ाकृत लोकम—
जहाँक कृ त भी च मय है—सब कुछ च मय ही होता है; वहाँ अ चत्क ती त तो
केवल च लास अथवा भगवान्क लीलाक स के लये होती है। इस लये थूलताम—या
य क हये क जडरा यम रहनेवाला म त क जब भगवान्क अ ाकृत लीला के स ब धम
वचार करने लगता है, तब वह अपनी पूव वासना के अनुसार जडरा यक धारणा ,
क पना और या का ही आरोप उस द रा यके वषयम भी करता है, इस लये
द -लीलाके रह यको समझनेम असमथ हो जाता है। यह रास व तुतः परम उ वल
रसका एक द काश है। जड जगत्क बात तो र रही, ान प या व ान प जगत्म
भी यह कट नह होता। अ धक या, सा ात् च मय त वम भी इस परम द उ वल
रसका लेशाभास नह दे खा जाता। इस परम रसक फू त तो परम भावमयी
ीकृ ण ेम व पा गोपीजन के मधुर दयम ही होती है। इस रासलीलाके यथाथ व प और
परम माधुयका आ वाद उ ह को मलता है, सरे लोग तो इसक क पना भी नह कर
सकते।
भगवान्के समान ही गो पयाँ भी परमरसमयी और स चदान दमयी ही ह। साधनाक
से भी उ ह ने न केवल जड शरीरका ही याग कर दया है, ब क सू म शरीरसे ा त
होनेवाले वग, कैव यसे अनुभव होनेवाले मो —और तो या, जडताक का ही याग
कर दया है। उनक म केवल चदान द व प ीकृ ण ह, उनके दयम ीकृ णको तृ त
करनेवाला ेमामृत है। उनक इस अलौ कक थ तम थूलशरीर, उसक मृ त और उसके
स ब धसे होनेवाले अंग-संगक क पना कसी भी कार नह क जा सकती। ऐसी क पना
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तो केवल दे हा मबु से जकड़े ए जीव क ही होती है। ज ह ने गो पय को पहचाना है,
उ ह ने गो पय क चरणधू लका पश ा त करके अपनी कृतकृ यता चाही है। ा, शंकर,
उ व और अजुनने गो पय क उपासना करके भगवान्के चरण म वैसे ेमका वरदान ा त
कया है या ा त करनेक अ भलाषा क है। उन गो पय के द भावको साधारण ी-
पु षके भाव-जैसा मानना गो पय के त, भगवान्के त और वा तवम स यके त महान्
अ याय एवं अपराध है। इस अपराधसे बचनेके लये भगवान्क द लीला पर वचार
करते समय उनक अ ाकृत द ताका मरण रखना परमाव यक है।
भगवान्का चदान दघन शरीर द है। वह अज मा और अ वनाशी है, हानोपादानर हत
है। वह न य सनातन शु भगव व प ही है। इसी कार गो पयाँ द जगत्क
भगवान्क व पभूता अ तरंगश याँ ह। इन दोन का स ब ध भी द ही है। यह उ चतम
भावरा यक लीला थूल शरीर और थूल मनसे परे है। आवरण-भंगके अन तर अथात्
चीरहरण करके जब भगवान् वीकृ त दे ते ह, तब इसम वेश होता है।
ाकृत दे हका नमाण होता है थूल, सू म और कारण—इन तीन दे ह के संयोगसे।
जबतक ‘कारण शरीर’ रहता है, तबतक इस ाकृत दे हसे जीवको छु टकारा नह मलता।
‘कारण शरीर’ कहते ह पूवकृत कम के उन सं कार को, जो दे ह- नमाणम कारण होते ह। इस
‘कारण शरीर’ के आधारपर जीवको बार-बार ज म-मृ युके च करम पड़ना होता है और यह
च जीवक मु न होनेतक अथवा ‘कारण’ का सवथा अभाव न होनेतक चलता ही रहता
है। इसी कमब धनके कारण पांचभौ तक थूलशरीर मलता है—जो र , मांस, अ थ
आ दसे भरा और चमड़ेसे ढका होता है। कृ तके रा यम जतने शरीर होते ह, सभी व तुतः
यो न और ब के संयोगसे ही बनते ह; फर चाहे कोई कामज नत नकृ मैथुनसे उ प हो
या ऊ वरेता महापु षके संक पसे, ब के अधोगामी होनेपर कत प े मैथुनसे हो,
अथवा बना ही मैथुनके ना भ, दय, क ठ, कण, ने , सर, म तक आ दके पशसे, बना
ही पशके केवल मा से अथवा बना दे खे केवल संक पसे ही उ प हो। ये मैथुनी-
अमैथुनी (अथवा कभी-कभी ी या पु ष-शरीरके बना भी उ प होनेवाले) सभी शरीर ह
यो न और ब के संयोगज नत ही। ये सभी ाकृत शरीर ह। इसी कार यो गय के ारा
न मत ‘ नमाणकाय’ य प अपे ाकृत शु ह, पर तु वे भी ह ाकृत ही। पतर या दे व के
द कहलानेवाले शरीर भी ाकृत ही ह। अ ाकृत शरीर इन सबसे वल ण ह, जो
महा लयम भी न नह होते। और भगव े ह तो सा ात् भगव व प ही है। दे व-शरीर ायः
र -मांस-मेद-अ थवाले नह होते। अ ाकृत शरीर भी नह होते। फर भगवान् ीकृ णका
भगव व प शरीर तो र -मांस-अ थमय होता ही कैसे। वह तो सवथा चदान दमय है।
उसम दे ह-दे ही, गुण-गुणी, प- पी, नाम-नामी और लीला तथा लीलापु षो मका भेद
नह है। ीकृ णका एक-एक अंग पूण ीकृ ण है। ीकृ णका मुखम डल जैसे पूण
ीकृ ण है, वैसे ही ीकृ णका पदनख भी पूण ीकृ ण है। ीकृ णक सभी इ य से
सभी काम हो सकते ह। उनके कान दे ख सकते ह, उनक आँख सुन सकती ह, उनक नाक
पश कर सकती है, उनक रसना सूँघ सकती है, उनक वचा वाद ले सकती है। वे हाथ से
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दे ख सकते ह, आँख से चल सकते ह। ीकृ णका सब कुछ ीकृ ण होनेके कारण वह
सवथा पूणतम है। इसीसे उनक पमाधुरी न यव नशील, न य नवीन सौ दयमयी है।
उसम ऐसा चम कार है क वह वयं अपनेको ही आक षत कर लेती है। फर उनके सौ दय-
माधुयसे गौ-ह रन और वृ -बेल पुल कत हो जायँ, इसम तो कहना ही या है। भगवान्के
ऐसे व पभूत शरीरसे गंदा मैथुनकम स भव नह । मनु य जो कुछ खाता है, उससे मशः
रस, र , मांस, मेद, म जा और अ थ बनकर अ तम शु बनता है; इसी शु के आधारपर
शरीर रहता है और मैथुन याम इसी शु का रण आ करता है। भगवान्का शरीर न तो
कमज य है, न मैथुनी सृ का है और न दै वी ही है। वह तो इन सबसे परे सवथा वशु
भगव व प है। उसम र , मांस, अ थ आ द नह ह; अतएव उसम शु भी नह है।
इस लये उसम ाकृत पांचभौ तक शरीर वाले ी-पु ष के रमण या मैथुनक क पना भी
नह हो सकती। इसी लये भगवान्को उप नषद्म ‘अख ड चारी’ बतलाया गया है और
इसीसे भागवतम उनके लये ‘अव सौरत’ आ द श द आये ह। फर कोई शंका करे क
उनके सोलह हजार एक सौ आठ रा नय के इतने पु कैसे ए तो इसका सीधा उ र यही है
क यह सारी भागवती सृ थी, भगवान्के संक पसे ई थी। भगवान्के शरीरम जो र -
मांस आ द दखलायी पड़ते ह, वह तो भगवान्क योगमायाका चम कार है। इस ववेचनसे
भी यही स होता है क गो पय के साथ भगवान् ीकृ णका जो रमण आ वह सवथा
द भगवत्-रा यक लीला है, लौ कक काम- डा नह ।

इन गो पय क साधना पूण हो चुक है। भगवान्ने अगली रा य म उनके साथ वहार


करनेका ेम-संक प कर लया है। इसीके साथ उन गो पय को भी जो न य स ा ह, जो
लोक म ववा हता भी ह, इ ह रा य म द -लीलाम स म लत करना है। वे अगली
रा याँ कौन-सी ह, यह बात भगवान्क के सामने है। उ ह ने शारद य रा य को दे खा।
‘भगवान्ने दे खा’—इसका अथ सामा य नह , वशेष है। जैसे सृ के ार भम ‘स ऐ त
एकोऽहं ब याम्।’—भगवान्के इस ई णसे जगत्क उ प होती है, वैसे ही रासके
ार भम भगवान्के ेमवी णसे शर कालक द रा य क सृ होती है। म लका-पु प,
च का आ द सम त उ पनसाम ी भगवान्के ारा वी त है अथात् लौ कक नह ,
अलौ कक—अ ाकृत है। गो पय ने अपना मन ीकृ णके मनम मला दया था। उनके पास
वयं मन न था। अब ेमदान करनेवाले ीकृ णने वहारके लये नवीन मनक , द मनक
सृ क । योगे रे र भगवान् ीकृ णक यही योगमाया है, जो रासलीलाके लये द
थल, द साम ी एवं द मनका नमाण कया करती है। इतना होनेपर भगवान्क
बाँसुरी बजती है।
भगवान्क बाँसुरी जडको चेतन, चेतनको जड, चलको अचल और अचलको चल,
व तको समा ध थ और समा ध थको व त बनाती रहती है। भगवान्का ेमदान ा त
करके गो पयाँ न संक प, न त होकर घरके कामम लगी ई थ । कोई गु जन क सेवा-
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शु ूषा—धमके कामम लगी ई थी, कोई गो-दोहन आ द अथके कामम लगी ई थी, कोई
साज-शृंगार आ द कामके साधनम त थी, कोई पूजा-पाठ आ द मो साधनम लगी ई
थी। सब लगी ई थ अपने-अपने कामम, पर तु वा तवम वे उनमसे एक भी पदाथ चाहती न
थ । यही उनक वशेषता थी और इसका य माण यह है क वंशी व न सुनते ही
कमक पूणतापर उनका यान नह गया; काम पूरा करके चल, ऐसा उ ह ने नह सोचा। वे
चल पड़ उस साधक सं यासीके समान, जसका दय वैरा यक द त वालासे प रपूण
है। कसीने कसीसे पूछा नह , सलाह नह क ; अ त- त ग तसे जो जैसे थी, वैसे ही
ीकृ णके पास प ँच गयी। वैरा यक पूणता और ेमक पूणता एक ही बात है, दो नह ।
गो पयाँ ज और ीकृ णके बीचम मू तमान् वैरा य ह या मू तमान् ेम, या इसका नणय
कोई कर सकता है?
साधनाके दो भेद ह—१—मयादापूण वैध साधना और २—मयादार हत अवैध
ेमसाधना। दोन के ही अपने-अपने वत नयम ह। वैध साधनाम जैसे नयम के
ब धनका, सनातन प तका, कत का और व वध पालनीय कम का याग साधनासे
करनेवाला और महान् हा नकर है, वैसे ही अवैध ेमसाधनाम इनका पालन कलंक प होता
है। यह बात नह क इन सब आ मो तके साधन को वह अवैध ेमसाधनाका साधक जान-
बूझकर छोड़ दे ता है। बात यह है क वह तर ही ऐसा है, जहाँ इनक आव यकता नह है। ये
वहाँ अपने-आप वैसे ही छू ट जाते ह, जैसे नद के पार प ँच जानेपर वाभा वक ही नौकाक
सवारी छू ट जाती है। जमीनपर न तो नौकापर बैठकर चलनेका उठता है और न ऐसा
चाहने या करनेवाला बु मान् ही माना जाता है। ये सब साधन वह तक रहते ह, जहाँतक
सारी वृ याँ सहज वे छासे सदा-सवदा एकमा भगवान्क ओर दौड़ने नह लग जात ।
इसी लये भगवान्ने गीताम एक जगह तो अजुनसे कहा है—
न मे पाथा त कत ं षु लोकेषु कचन । नानवा तमवा त ं वत एव च
कम ण ।।
य द हं न वतयं जातु कम यत तः । मम व मानुवत ते मनु याः पाथ
सवशः ।।
उ सीदे यु रमे लोका न कुया कम चेदहम् । संकर य च कता यामुपह या ममाः
जाः ।।
स ाः कम य व ांसो यथा कुव त भारत ।
कुया ां तथास क षुल कसं हम् ।।
(३।२२-२५)
‘अजुन! य प तीन लोक म मुझे कुछ भी करना नह है और न मुझे कसी व तुको
ा त ही करना है, जो मुझे न ा त हो; तो भी म कम करता ही ँ। य द म सावधान होकर
कम न क ँ तो अजुन! मेरी दे खा-दे खी लोग कम को छोड़ बैठ और य मेरे कम न करनेसे ये
सारे लोक हो जायँ तथा म इ ह वणसंकर बानानेवाला और सारी जाका नाश

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करनेवाला बनूँ। इस लये मेरे इस आदशके अनुसार अनास ानी पु षको भी लोकसं हके
लये वैसे ही कम करना चा हये, जैसे कमम आस अ ानी लोग करते ह।’
यहाँ भगवान् आदश लोकसं ही महापु षके पम बोलते ह, लोकनायक बनकर
सवसाधारणको श ा दे ते ह। इस लये वयं अपना उदाहरण दे कर लोग को कमम वृ
करना चाहते ह। ये ही भगवान् उसी गीताम जहाँ अ तरंगताक बात कहते ह, वहाँ प
कहते ह—
सवधमान् प र य य मामेकं शरणं ज । (१८।६६)
‘सारे धम का याग करके तू केवल एक मेरी शरणम आ जा।’
यह बात सबके लये नह है। इसीसे भगवान् १८।६४ म इसे सबसे बढ़कर छपी ई गु त
बात (सवगु तम) कहकर इसके बादके ही ोकम कहते ह—
इदं ते नातप काय नाभ ायकदाचन । न चाशु ूषवे वा यं न च मां
योऽ यसूय त ।। (१८।६७)
‘भैया अजुन! इस सवगु तम बातको जो इ य- वजयी तप वी न हो, मेरा भ न हो,
सुनना न चाहता हो और मुझम दोष लगाता हो, उसे न कहना।’
ीगोपीजन साधनाके इसी उ च तरम परम आदश थ । इसीसे उ ह ने दे ह-गेह, प त-
पु , लोक-परलोक, कत -धम—सबको छोड़कर, सबका उ लंघन कर, एकमा
परमधम व प भगवान् ीकृ णको ही पानेके लये अ भसार कया था। उनका यह प त-
पु का याग, यह सवधमका याग ही उनके तरके अनु प वधम है।
इस ‘सवधम याग’ प वधमका आचरण गो पय -जैसे उ च तरके साधक म ही
स भव है। य क सब धम का यह याग वही कर सकते ह, जो इसका यथा व ध पूरा पालन
कर चुकनेके बाद इसके परमफल अन य और अ च य दे व लभ भगव ेमको ा त कर
चुकते ह, वे भी जान-बूझकर याग नह करते। सूयका खर काश हो जानेपर
तैलद पकक भाँ त वतः ही ये धम उसे याग दे ते ह। यह याग तर कारमूलक नह , वरं
तृ तमूलक है। भगव ेमक ऊँची थ तका यही व प है। दे व ष नारदजीका एक सू है

‘वेदान प सं य य त, केवलम व छ ानुरागं लभते । ’
‘जो वेद का (वेदमूलक सम त धममयादा का) भी भलीभाँ त याग कर दे ता है, वह
अख ड, असीम भगव ेमको ा त करता है।’
जसको भगवान् अपनी वंशी व न सुनाकर—नाम ले-लेकर बुलाय, वह भला, कसी
सरे धमक ओर ताककर कब और कैसे क सकता है।
रोकनेवाल ने रोका भी, पर तु हमालयसे नकलकर समु म गरनेवाली पु नद क
खर धाराको या कोई रोक सकता है? वे न क , नह रोक जा सक । जनके च म कुछ
ा न सं कार अव श थे, वे अपने अन धकारके कारण सशरीर जानेम समथ न ।
उनका शरीर घरम पड़ा रह गया, भगवान्के वयोग- ःखसे उनके सारे कलुष धुल गये,
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यानम ा त भगवान्के ेमा लगनसे उनके सम त सौभा यका परमफल ा त हो गया और
वे भगवान्के पास सशरीर जानेवाली गो पय के प ँचनेसे पहले ही भगवान्के पास प ँच
गय । भगवान्म मल गय । यह शा का स स ा त है क पाप-पु यके कारण ही
ब धन होता है और शुभाशुभका भोग होता है। शुभाशुभ कम के भोगसे जब पाप-पु य दोन
न हो जाते ह, तब जीवक मु हो जाती है। य प गो पयाँ पाप-पु यसे र हत
ीभगवान्क ेम- तमा व पा थ , तथा प लीलाके लये यह दखाया गया है क अपने
यतम ीकृ णके पास न जा सकनेसे, उनके वरहानलसे उनको इतना महान् स ताप आ
क उससे उनके स पूण अशुभका भोग हो गया, उनके सम त पाप न हो गये। और यतम
भगवान्के यानसे उ ह इतना आन द आ क उससे उनके सारे पु य का फल मल गया।
इस कार पाप-पु य का पूण पसे अभाव होनेसे उनक मु हो गयी। चाहे कसी भी
भावसे हो—कामसे, ोधसे, लोभसे—जो भगवान्के मंगलमय ी व हका च तन करता है,
उसके भावक अपे ा न करके व तुश से ही उसका क याण हो जाता है। यह भगवान्के
ी व हक वशेषता है। भावके ारा तो एक तरमू त भी परम क याणका दान कर
सकती है, बना भावके ही क याणदान भगव हका सहज दान है।
भगवान् ह बड़े लीलामय। जहाँ वे अ खल व के वधाता ा- शव आ दके भी
व दनीय, न खल जीव के यगा मा ह, वह वे लीलानटवर गो पय के इशारेपर नाचनेवाले
भी ह। उ ह क इ छासे, उ ह के ेमा ानसे, उ ह के वंशी- नम णसे े रत होकर गो पयाँ
उनके पास आय ; परंतु उ ह ने ऐसी भावभंगी कट क , ऐसा वाँग बनाया, मानो उ ह
गो पय के आनेका कुछ पता ही न हो। शायद गो पय के मुँहसे वे उनके दयक बात, ेमक
बात सुनना चाहते ह । स भव है, वे व ल भके ारा उनके मलन-भावको प रपु करना
चाहते ह । ब त करके तो ऐसा मालूम होता है क कह लोग इसे साधारण बात न समझ ल,
इस लये साधारण लोग के लये उपदे श और गो पय का अ धकार भी उ ह ने सबके सामने
रख दया। उ ह ने बतलाया—‘गो पयो! जम कोई वप तो नह आयी, घोर रा म यहाँ
आनेका कारण या है? घरवाले ढूँ ढ़ते ह गे, अब यहाँ ठहरना नह चा हये। वनक शोभा दे ख
ली, अब ब च और बछड़ का भी यान करो। धमके अनुकूल मो के खुले ए ार अपने
सगे-स ब धय क सेवा छोड़कर वनम दर-दर भटकना य के लये अनु चत है। ीको
अपने प तक ही सेवा करनी चा हये, वह कैसा भी य न हो। यही सनातन धम है। इसीके
अनुसार तु ह चलना चा हये। म जानता ँ क तुम सब मुझसे ेम करती हो। पर तु ेमम
शारी रक स ध आव यक नह है। वण, मरण, दशन और यानसे सा यक अपे ा
अ धक ेम बढ़ता है। जाओ, तुम सनातन सदाचारका पालन करो। इधर-उधर मनको मत
भटकने दो।’
ीकृ णक यह श ा गो पय के लये नह , सामा य नारी-जा तके लये है। गो पय का
अ धकार वशेष था और उसको कट करनेके लये ही भगवान् ीकृ णने ऐसे वचन कहे थे।
इ ह सुनकर गो पय क या दशा ई और इसके उ रम उ ह ने ीकृ णसे या ाथना क ;
वे ीकृ णको मनु य नह मानत , उनके पूण सनातन व पको भलीभाँ त जानती ह
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और यह जानकर ही उनसे ेम करती ह—इस बातका कतना सु दर प रचय दया; यह सब
वषय मूलम ही पाठ करनेयो य है। सचमुच जनके दयम भगवान्के परमत वका वैसा
अनुपम ान और भगवान्के त वैसा महान् अन य अनुराग है और सचाईके साथ जनक
वाणीम वैसे उद्गार ह, वे ही वशेष अ धकारवान् ह।
गो पय क ाथनासे यह बात प है क वे ीकृ णको अ तयामी, योगे रे र
परमा माके पम पहचानती थ और जैसे सरे लोग गु , सखा या माता- पताके पम
ीकृ णक उपासना करते ह, वैसे ही वे प तके पम ीकृ णसे ेम करती थ , जो क
शा म मधुर भावके—उ वल परम रसके नामसे कहा गया है। जब ेमके सभी भाव पूण
होते ह और साधक को वा म-सखा दके पम भगवान् मलते ह, तब गो पय ने या
अपराध कया था क उनका यह उ चतम भाव— जसम शा त, दा य, स य और वा स य
सब-के-सब अ तभूत ह और जो सबसे उ त एवं सबका अ तम प है—न पूण हो?
भगवान्ने उनका भाव पूण कया और अपनेको असं य प म कट करके गो पय के साथ
डा क । उनक डाका व प बतलाते ए कहा गया है—‘रेमे रमेशो
जसु दरी भयथाभकः व त ब ब व मः । ’ जैसे न हा-सा शशु दपण अथवा जलम
पड़े ए अपने त ब बके साथ खेलता है, वैसे ही रमेश भगवान् और जसु द रय ने रमण
कया। अथात् स चदान दघन सवा तयामी ेमरस- व प, लीलारसमय परमा मा भगवान्
ीकृ णने अपनी ा दनी-श पा आन द- च मयरस- तभा वता अपनी ही तमू तसे
उ प अपनी त ब ब- व पा गो पय से आ म डा क । पूण सनातन रस व प
रसराज र सक-शेखर रसपर अ खलरसामृत व ह भगवान् ीकृ णक इस चदान द-
रसमयी द डाका नाम ही रास है। इसम न कोई जड शरीर था, न ाकृत अंग-संग था
और न इसके स ब धक ाकृत और थूल क पनाएँ ही थ । यह था चदान दमय
भगवान्का द वहार, जो द लीलाधामम सवदा होते रहनेपर भी कभी-कभी कट
होता है।
वयोग ही संयोगका पोषक है, मान और मद ही भगवान्क लीलाम बाधक ह।
भगवान्क द लीलाम मान और मद भी, जो क द ह, इसी लये होते ह क उनसे
लीलाम रसक और भी पु हो। भगवान्क इ छासे ही गो पय म लीलानु प मान और
मदका संचार आ और भगवान् अ तधान हो गये। जनके दयम लेशमा भी मद अवशेष
है, नाममा भी मानका सं कार शेष है, वे भगवान्के स मुख रहनेके अ धकारी नह । अथवा
वे भगवान्का, पास रहनेपर भी, दशन नह कर सकते। पर तु गो पयाँ गो पयाँ थ , उनसे
जगत्के कसी ाणीक तलमा भी तुलना नह है। भगवान्के वयोगम गो पय क या
दशा ई, इस बातको रासलीलाका येक पाठक जानता है। गो पय के शरीर-मन- ाण, वे
जो कुछ थ —सब ीकृ णम एकतान हो गये। उनके ेमो मादका वह गीत, जो उनके
ाण का य तीक है, आज भी भावुक भ को भावम न करके भगवान्के लीलालोकम
प ँचा दे ता है। एक बार सरस दयसे दयहीन होकर नह , पाठ करनेमा से ही यह
गो पय क मह ा स पूण दयम भर दे ता है। गो पय के उस ‘महाभाव’—उस ‘अलौ कक
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े ो माद’को दे खकर
म ीकृ ण भी अ त हत न रह सके, उनके सामने
‘सा ा म मथम मथः’ पसे कट ए और उ ह ने मु क ठसे वीकार कया क
‘गो पयो! म तु हारे ेमभावका चर-ऋणी ँ। य द म अन तकालतक तु हारी सेवा करता
र ँ, तो भी तुमसे उऋण नह हो सकता। मेरे अ तधान होनेका योजन तु हारे च को
खाना नह था, ब क तु हारे ेमको और भी उ वल एवं समृ करना था।’ इसके बाद
रास डा ार भ ई।
ज ह ने अ या मशा का वा याय कया है, वे जानते ह क योग स ा त साधारण
योगी भी काय ूहके ारा एक साथ अनेक शरीर का नमाण कर सकते ह और अनेक
थान पर उप थत रहकर पृथक्-पृथक् काय कर सकते ह। इ ा द दे वगण एक ही समय
अनेक थान पर उप थत होकर अनेक य म युगपत् आ त वीकार कर सकते ह।
न खल यो गय और योगे र के ई र सवसमथ भगवान् ीकृ ण य द एक ही साथ अनेक
गो पय के साथ डा कर, तो इसम आ यक कौन-सी बात है? जो लोग भगवान्को
भगवान् नह वीकार करते, वही अनेक कारक शंका-कुशंकाएँ करते ह। भगवान्क नज
लीलाम इन तक का सवथा वेश नह है।
गो पयाँ ीकृ णक वक या थ या परक या, यह भी ीकृ णके व पको
भुलाकर ही उठाया जाता है। ीकृ ण जीव नह ह क जगत्क व तु म उनका ह सेदार
सरा भी जीव हो। जो कुछ भी था, है और आगे होगा—उसके एकमा प त ीकृ ण ही ह।
अपनी ाथनाम गो पय ने और परी त्के के उ रम ीशुकदे वजीने यही बात कही है
क गोपी, गो पय के प त, उनके पु , सगे-स ब धी और जगत्के सम त ा णय के दयम
आ मा पसे, परमा मा पसे जो भु थत ह—वही ीकृ ण ह। कोई मसे, अ ानसे,
भले ही ीकृ णको पराया समझे; वे कसीके पराये नह ह, सबके अपने ह, सब उनके ह।
ीकृ णक से, जो क वा त वक है, कोई परक या है ही नह ; सब वक या ह, सब
केवल अपना ही लीला वलास ह, सभी व पभूता अ तरंगा श ह। गो पयाँ इस बातको
जानती थ और थान- थानपर उ ह ने ऐसा कहा है।
ऐसी थ तम ‘जारभाव’ और ‘औपप य’ का कोई लौ कक अथ नह रह जाता। जहाँ
काम नह है, अंग-संग नह है, वहाँ ‘औपप य’ और ‘जारभाव’ क क पना ही कैसे हो
सकती है? गो पयाँ परक या नह थ , वक या थ ; पर तु उनम परक याभाव था। परक या
होनेम और परक याभाव होनेम आकाश-पातालका अ तर है। परक याभावम तीन बात बड़े
मह वक होती ह—अपने यतमका नर तर च तन, मलनक उ कट उ क ठा और
दोष का सवथा अभाव। वक याभावम नर तर एक साथ रहनेके कारण ये तीन बात
गौण हो जाती ह; पर तु परक याभावम ये तीन भाव बने रहते ह। कुछ गो पयाँ जारभावसे
ीकृ णको चाहती थ , इसका इतना ही अथ है क वे ीकृ णका नर तर च तन करती थ ,
मलनेके लये उ क ठत रहती थ और ीकृ णके येक वहारको ेमक आँख से ही
दे खती थ । चौथा भाव वशेष मह वका और है—वह यह क वक या अपने घरका, अपना
और अपने पु एवं क या का पालन-पोषण, र णावे ण प तसे चाहती है। वह समझती है
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क इनक दे खरेख करना प तका कत है; य क ये सब उसीके आ त ह, और वह
प तसे ऐसी आशा भी रखती है। कतनी ही प तपरायणा य न हो, वक याम यह
सकामभाव छपा रहता ही है। पर तु परक या अपने यतमसे कुछ नह चाहती, कुछ भी
आशा नह रखती; वह तो केवल अपनेको दे कर ही उसे सुखी करना चाहती है। ीगो पय म
यह भाव भी भलीभाँ त फु टत था। इसी वशेषताके कारण सं कृत-सा ह यके कई थ म
नर तर च तनके उदाहरण व प परक याभावका वणन आता है।
गो पय के इस भावके एक नह , अनेक ा त ीम ागवतम मलते ह; इस लये
गो पय पर परक यापनका आरोप उनके भावको न समझनेके कारण है। जसके जीवनम
साधारण धमक एक हलक -सी काशरेखा आ जाती है, उसीका जीवन परम प व और
सर के लये आदश- व प बन जाता है। फर वे गो पयाँ, जनका जीवन साधनाक चरम
सीमापर प ँच चुका है, अथवा जो न य स ा एवं भगवान्क व पभूता ह, या ज ह ने
क प तक साधना करके ीकृ णक कृपासे उनका सेवा धकार ा त कर लया है,
सदाचारका उ लंघन कैसे कर सकती ह और सम त धम-मयादा के सं थापक ीकृ णपर
धम लंघनका ला छन कैसे लगाया जा सकता है? ीकृ ण और गो पय के स ब धम इस
कारक कुक पनाएँ उनके द व प और द लीलाके वषयम अन भ ता ही कट
करती ह।
ीम ागवतपर, दशम क धपर और रासपंचा यायीपर अबतक अनेकानेक भा य और
ट काएँ लखी जा चुक ह जनके लेखक म जगद्गु ीव लभाचाय, ी ीधर वामी,
ीजीवगो वामी आ द ह। उन लोग ने बड़े व तारसे रासलीलाक म हमा समझायी है।
कसीने इसे कामपर वजय बतलाया है, कसीने भगवान्का द वहार बतलाया है और
कसीने इसका आ या मक अथ कया है। भगवान् ीकृ ण आ मा ह, आ माकार वृ
ीराधा ह और शेष आ मा भमुख वृ याँ गो पयाँ ह। उनका धारा वाह पसे नर तर
आ मरमण ही रास है। कसी भी से दे ख, रासलीलाक म हमा अ धका धक कट होती
है।
पर तु इससे ऐसा नह मानना चा हये क ीम ागवतम व णत रास या रमण- संग
केवल पक या क पनामा है। वह सवथा स य है और जैसा वणन है, वैसा ही मलन-
वलासा द प शृंगारका रसा वादन भी आ था। भेद इतना ही है क वह लौ कक ी-
पु ष का मलन न था। उनके नायक थे स चदान द व ह, परा परत व, पूणतम वाधीन
और नरंकुश वे छा वहारी गोपीनाथ भगवान् न दन दन; और ना यका थ वयं
ा दनीश ीराधाजी और उनक काय ूह पा, उनक घनीभूत मू तयाँ ीगोपीजन!
अतएव इनक यह लीला अ ाकृत थी। सवथा मीठ म ीक अ य त कडए इ ायण (तूँबे)-
जैसी कोई आकृ त बना ली जाय, जो दे खनेम ठ क तूँबे-जैसी ही मालूम हो; पर तु इससे
असलम या वह म ीका तूँबा कडआ थोड़े ही हो जाता है? या तूँबेके आकारक होनेसे
ही म ीके वाभा वक गुण मधुरताका अभाव हो जाता है? नह -नह , वह कसी भी
आकारम हो—सव , सवदा और सवथा केवल म ी-ही- म ी है ब क इसम लीला-
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चम कारक बात ज र है। लोग समझते ह कडआ तूँबा, और होती है वह मधुर म ी। इसी
कार अ खलरसामृत स धु स चदान द व ह भगवान् ीकृ ण और उनक अ तरंगा
अ भ व पा गो पय क लीला भी दे खनेम कैसी ही य न हो, व तुतः वह
स चदान दमयी ही है। उसम सांसा रक गंदे कामका कडआ वाद है ही नह । हाँ, यह
अव य है क इस लीलाक नकल कसीको नह करनी चा हये, करना स भव भी नह है।
मा यक पदाथ के ारा मायातीत भगवान्का अनुकरण कोई कैसे कर सकता है? कडए
तूँबेको चाहे जैसी सु दर मठाईक आकृ त दे द जाय, उसका कडआपन कभी मट नह
सकता। इसी लये जन मोह त मनु य ने ीकृ णक रास आ द अ तरंगलीला का
अनुकरण करके नायक-ना यकाका रसा वादन करना चाहा या चाहते ह, उनका घोर पतन
आ है और होगा। ीकृ णक इन लीला का अनुकरण तो केवल ीकृ ण ही कर सकते
ह। इसी लये शुकदे वजीने रासपंचा यायीके अ तम सबको सावधान करते ए कह दया है
क भगवान्के उपदे श तो सब मानने चा हये, पर तु उनके सभी आचरण का अनुकरण नह
करना चा हये।
जो लोग भगवान् ीकृ णको केवल मनु य मानते ह और केवल मानवीय भाव एवं
आदशक कसौट पर उनके च र को कसना चाहते ह, वे पहले ही शा से वमुख हो जाते ह,
उनके च म धमक कोई धारणा ही नह रहती और वे भगवान्को भी अपनी बु के पीछे
चलाना चाहते ह। इस लये साधक के सामने उनक यु य का कोई मह व ही नह रहता।
जो शा के ‘ ीकृ ण वयं भगवान् ह’ इस वचनको नह मानता, वह उनक लीला को
कस आधारपर स य मानकर उनक आलोचना करता है—यह समझम नह आता। जैसे
मानवधम, दे वधम और पशुधम पृथक्-पृथक् होते ह, वैसे ही भगव म भी पृथक् होता है
और भगवान्के च र का परी ण उसक ही कसौट पर होना चा हये। भगवान्का एकमा
धम है— ेमपरवशता, दयापरवशता और भ क अ भलाषाक पू त। यशोदाके हाथ से
ऊखलम बँध जानेवाले ीकृ ण अपने नजजन गो पय के ेमके कारण उनके साथ नाच,
यह उनका सहज धम है।
य द यह हठ ही हो क ीकृ णका च र मानवीय धारणा और आदश के अनुकूल ही
होना चा हये, तो इसम भी कोई आप क बात नह है। ीकृ णक अव था उस समय दस
वषके लगभग थी, जैसा क भागवतम प वणन मलता है। गाँव म रहनेवाले ब त-से दस
वषके ब चे तो नंगे ही रहते ह। उ ह कामवृ और ी-पु ष-स ब धका कुछ ान ही नह
रहता। लड़के-लड़क एक साथ खेलते ह, नाचते ह, गाते ह, योहार मनाते ह, गुडई-गुडएक
शाद करते ह, बारात ले जाते ह और आपसम भोज-भात भी करते ह। गाँवके बड़े-बूढ़े लोग
ब च का यह मनोरंजन दे खकर स ही होते ह, उनके मनम कसी कारका भाव नह
आता। ऐसे ब च को युवती याँ भी बड़े ेमसे दे खती ह, आदर करती ह, नहलाती ह,
खलाती ह। यह तो साधारण ब च क बात है। ीकृ ण-जैसे असाधारण धी-श स प
बालक जनके अनेक सद्गुण बा यकालम ही कट हो चुके थे; जनक स म त, चातु य
और श से बड़ी-बड़ी वप य से जवा सय ने ाण पाया था; उनके त वहाँक य,
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बा लका और बालक का कतना आदर रहा होगा—इसक क पना नह क जा सकती।
उनके सौ दय, माधुय और ऐ यसे आकृ होकर गाँवक बालक-बा लकाएँ उनके साथ ही
रहती थ और ीकृ ण भी अपनी मौ लक तभासे राग, ताल आ द नये-नये ढं गसे उनका
मनोरंजन करते थे और उ ह श ा दे ते थे। ऐसे ही मनोरंजन मसे रासलीला भी एक थी, ऐसा
समझना चा हये। जो ीकृ णको केवल मनु य समझते ह, उनक म भी यह दोषक बात
नह होनी चा हये। वे उदारता और बु मानीके साथ भागवतम आये ए काम-र त आ द
श द का ठ क वैसा ही अथ समझ, जैसा क उप नषद् और गीताम इन श द का अथ होता
है। वा तवम गो पय के न कपट ेमका ही नामा तर काम है और भगवान् ीकृ णका
आ मरमण अथवा उनक द डा ही र त है। इसी लये थान- थानपर उनके लये वभु,
परमे र, ल मीप त, भगवान्, योगे रे र, आ माराम, म मथम मथ आ द श द आये ह—
जससे कसीको कोई म न हो जाय।
जब गो पयाँ ीकृ णक वंशी व न सुनकर वनम जाने लगी थ , तब उनके सगे-
स ब धय ने उ ह जानेसे रोका था। रातम अपनी बा लका को भला, कौन बाहर जाने दे ता।
फर भी वे चली गय और इससे घरवाल को कसी कारक अ स ता नह ई। और न तो
उ ह ने ीकृ णपर या गो पय पर कसी कारका ला छन ही लगाया। उनका ीकृ णपर,
गो पय पर व ास था और वे उनके बचपन और खेल से प र चत थे। उ ह तो ऐसा मालूम
आ मानो गो पयाँ हमारे पास ही ह। इसको दो कारसे समझ सकते ह। एक तो यह क
ीकृ णके त उनका इतना व ास था क ीकृ णके पास गो पय का रहना भी अपने ही
पास रहना है। यह तो मानवीय है। सरी यह है क ीकृ णक योगमायाने ऐसी
व था कर रखी थी, गोप को वे घरम ही द खती थ । कसी भी से रासलीला षत
संग नह है, ब क अ धकारी पु ष के लये तो यह स पूण मनोमलको न करनेवाला है।
रासलीलाके अ तम कहा गया है क जो पु ष ा-भ पूवक रासलीलाका वण और
वणन करता है, उसके दयका रोग-काम ब त ही शी न हो जाता है और उसे भगवान्का
ेम ा त होता है। भागवतम अनेक थानपर ऐसा वणन आता है क जो भगवान्क
मायाका वणन करता है, वह मायासे पार हो जाता है। जो भगवान्के कामजयका वणन
करता है, वह कामपर वजय ा त करता है। राजा परी त्ने अपने म जो शंकाएँ क ह,
उनका उ र के अनु प ही अ याय २९ के ोक १३ से १६ तक और अ याय ३३ के
ोक ३० से ३७ तक ीशुकदे वजीने दया है।
उस उ रसे वे शंकाएँ तो हट गयी ह, पर तु भगवान्क द लीलाका रह य नह खुलने
पाया; स भवतः उस रह यको गु त रखनेके लये ही ३३व अ यायम रासलीला संग समा त
कर दया गया। व तुतः इस लीलाके गूढ़ रह यक ाकृत-जगत्म ा या क भी नह जा
सकती य क यह इस जगत्क डा ही नह है। यह तो उस द आन दमय रसमय
रा यक चम कारमयी लीला है, जसके वण और दशनके लये परमहंस मु नगण भी सदा
उ क ठत रहते ह। कुछ लोग इस लीला संगको भागवतम ेपक मानते ह, वे वा तवम
रा ह करते ह। य क ाचीन-से- ाचीन तय म भी यह संग मलता है और जरा वचार
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करके दे खनेसे यह सवथा सुसंगत और नद ष तीत होता है। भगवान् ीकृ ण कृपा करके
ऐसी वमल बु द, जससे हमलोग इसका कुछ रह य समझनेम समथ ह ।
भगवान्के इस द -लीलाके वणनका यही योजन है क जीव गो पय के उस अहैतुक
ेमका, जो क ीकृ णको ही सुख प ँचानेके लये था, मरण करे और उसके ारा
भगवान्के रसमय द लीलालोकम भगवान्के अन त ेमका अनुभव करे। हम रासलीलाका
अ ययन करते समय कसी कारक भी शंका न करके इस भावको जगाये रखना चा हये।
—हनुमान साद पो ार

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अथ चतु ंशोऽ यायः
सुदशन और शंखचूडका उ ार
ीशुक उवाच
एकदा दे वया ायां गोपाला जातकौतुकाः ।
अनो भरनडु ु ै ः ययु तेऽ बकावनम् ।।१

त ना वा सर व यां दे वं पशुप त वभुम् ।


आनचुरहणैभ या दे व च नृपतेऽ बकाम् ।।२

गावो हर यं वासां स मधु म व मा ताः ।


ा णे यो द ः सव दे वो नः ीयता म त ।।३

ऊषुः सर वतीतीरे जलं ा य धृत ताः ।


रजन तां महाभागा न दसुन दकादयः ।।४

क महान ह त मन् व पनेऽ तबुभु तः ।


य छयाऽऽगतो न दं शयानमुरगोऽ सीत् ।।५

स चु ोशा हना तः कृ ण कृ ण महानयम् ।


सप मां सते तात प ं प रमोचय ।।६

त य चा दतं ु वा गोपालाः सहसो थताः ।


तं च ् वा व ा ताः सप व धु मुकैः ।।७

अलातैद मानोऽ प नामु च मुर मः ।


तम पृशत् पदा ये य भगवान् सा वतां प तः ।।८

स वै भगवतः ीम पाद पशहताशुभः ।


भेजे सपवपु ह वा पं व ाधरा चतम् ।।९
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! एक बार न दबाबा आ द गोप ने शवरा के
अवसरपर बड़ी उ सुकता, कौतूहल और आन दसे भरकर बैल से जुती ई गा ड़य पर सवार
होकर अ बकावनक या ा क ।।१।। राजन्! वहाँ उन लोग ने सर वती नद म नान कया
और सवा तयामी पशुप त भगवान् शंकरजीका तथा भगवती अ बकाजीका बड़ी भ से
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अनेक कारक साम य के ारा पूजन कया ।।२।। वहाँ उ ह ने आदरपूवक गौएँ, सोना,
व , मधु और मधुर अ ा ण को दये तथा उनको खलाया- पलाया। वे केवल यही
चाहते थे क इनसे दे वा धदे व भगवान् शंकर हमपर स ह ।।३।। उस दन परम भा यवान्
न द-सुन द आ द गोप ने उपवास कर रखा था, इस लये वे लोग केवल जल पीकर रातके
समय सर वती नद के तटपर ही बेखटके सो गये ।।४।।
उस अ बकावनम एक बड़ा भारी अजगर रहता था। उस दन वह भूखा भी ब त था।
दै ववश वह उधर ही आ नकला और उसने सोये ए न दजीको पकड़ लया ।।५।। अजगरके
पकड़ लेनेपर न दरायजी च लाने लगे—‘बेटा कृ ण! कृ ण! दौड़ो, दौड़ो। दे खो बेटा! यह
अजगर मुझे नगल रहा है। म तु हारी शरणम ँ। ज द मुझे इस संकटसे बचाओ’ ।।६।।
न दबाबाका च लाना सुनकर सब-के-सब गोप एकाएक उठ खड़े ए और उ ह अजगरके
मुँहम दे खकर घबड़ा गये। अब वे लुका ठय (अधजली लक ड़य ) से उस अजगरको मारने
लगे ।।७।। क तु लुका ठय से मारे जाने और जलनेपर भी अजगरने न दबाबाको छोड़ा नह ।
इतनेम ही भ व सल भगवान् ीकृ णने वहाँ प ँचकर अपने चरण से उस अजगरको छू
दया ।।८।। भगवान्के ीचरण का पश होते ही अजगरके सारे अशुभ भ म हो गये और
वह उसी ण अजगरका शरीर छोड़कर व ाधरा चत सवाग-सु दर पवान् बन गया ।।९।।

तमपृ छद्धृषीकेशः णतं समुप थतम् ।


द यमानेन वपुषा पु षं हेममा लनम् ।।१०

को भवान् परया ल या रोचतेऽ तदशनः ।


कथं जुगु सतामेतां ग त वा ा पतोऽवशः ।।११
सप उवाच
अहं व ाधरः क त् सुदशन इ त ुतः ।
या व पस प या वमानेनाचरं दशः ।।१२

ऋषीन् व पानं गरसः ाहसं पद पतः ।


तै रमां ा पतो यो न ल धैः वेन पा मना ।।१३

शापो मेऽनु हायैव कृत तैः क णा म भः ।


यदहं लोकगु णा पदा पृ ो हताशुभः ।।१४

तं वाहं भवभीतानां प ानां भयापहम् ।


आपृ छे शाप नमु ः पाद पशादमीवहन् ।।१५

प ोऽ म महायो गन् महापु ष स पते ।


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अनुजानी ह मां दे व सवलोके रे र ।।१६

द डाद् वमु ोऽहं स तेऽ युत दशनात् ।


य ाम गृ खलान् ोतॄना मानमेव च ।
स ः पुना त क भूय त य पृ ः पदा ह ते ।।१७
उस पु षके शरीरसे द यो त नकल रही थी। वह सोनेके हार पहने ए था। जब वह
णाम करनेके बाद हाथ जोड़कर भगवान्के सामने खड़ा हो गया, तब उ ह ने उससे पूछा
— ।।१०।। ‘तुम कौन हो? तु हारे अंग-अंगसे सु दरता फूट पड़ती है। तुम दे खनेम बड़े
अद्भुत जान पड़ते हो। तु ह यह अ य त न दनीय अजगरयो न य ा त ई थी? अव य
ही तु ह ववश होकर इसम आना पड़ा होगा’ ।।११।।
अजगरके शरीरसे नकला आ पु ष बोला—भगवन्! म पहले एक व ाधर था।
मेरा नाम था सुदशन। मेरे पास सौ दय तो था ही, ल मी भी ब त थी। इससे म वमानपर
चढ़कर यहाँ-से-वहाँ घूमता रहता था ।।१२।। एक दन मने अं गरा गो के कु प ऋ षय को
दे खा। अपने सौ दयके घमंडसे मने उनक हँसी उड़ायी। मेरे इस अपराधसे कु पत होकर उन
लोग ने मुझे अजगरयो नम जानेका शाप दे दया। यह मेरे पाप का ही फल था ।।१३।। उन
कृपालु ऋ षय ने अनु हके लये ही मुझे शाप दया था। य क यह उसीका भाव है क
आज चराचरके गु वयं आपने अपने चरणकमल से मेरा पश कया है, इससे मेरे सारे
अशुभ न हो गये ।।१४।। सम त पाप का नाश करनेवाले भो! जो लोग ज म-मृ यु प
संसारसे भयभीत होकर आपके चरण क शरण हण करते ह, उ ह आप सम त भय से
मु कर दे ते ह। अब म आपके ीचरण के पशसे शापसे छू ट गया ँ और अपने लोकम
जानेक अनुम त चाहता ँ ।।१५।। भ व सल! महायोगे र पु षो म! म आपक शरणम
ँ। इ ा द सम त लोके र के परमे र! वयं काश परमा मन्! मुझे आ ा द जये ।।१६।।
अपने व पम न य- नर तर एकरस रहनेवाले अ युत! आपके दशनमा से म ा ण के
शापसे मु हो गया, यह कोई आ यक बात नह है; य क जो पु ष आपके नाम का
उ चारण करता है, वह अपने-आपको और सम त ोता को भी तुरंत प व कर दे ता है।
फर मुझे तो आपने वयं अपने चरणकमल से पश कया है। तब भला, मेरी मु म या
स दे ह हो सकता है? ।।१७।। इस कार सुदशनने भगवान् ीकृ णसे वनती क , प र मा
क और णाम कया। फर उनसे आ ा लेकर वह अपने लोकम चला गया और न दबाबा
इस भारी संकटसे छु ट गये ।।१८।। राजन्! जब जवा सय ने भगवान् ीकृ णका यह
अद्भुत भाव दे खा, तब उ ह बड़ा व मय आ। उन लोग ने उस े म जो नयम ले रखे
थे, उनको पूण करके वे बड़े आदर और ेमसे ीकृ णक उस लीलाका गान करते ए पुनः
जम लौट आये ।।१९।।

इ यनु ा य दाशाह प र या भव च ।
सुदशनो दवं यातः कृ ा द मो चतः ।।१८
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नशा य कृ ण य तदा मवैभवं
जौकसो व मतचेतस ततः ।
समा य त मन् नयमं पुन जं
नृपाययु तत् कथय त आ ताः ।।१९

कदा चदथ गो व दो राम ा त व मः ।


वज तुवने रा यां म यगौ जयो षताम् ।।२०

उपगीयमानौ ल लतं ीजनैब सौ दै ः ।


वलंकृतानु ल ता ौ वणौ वरजोऽ बरौ ।।२१

नशामुखं मानय तावु दतोडु पतारकम् ।


म लकाग धम ा लजु ं कुमुदवायुना ।।२२

जगतुः सवभूतानां मनः वणम लम् ।


तौ क पय तौ युगपत् वरम डलमू छतम् ।।२३

गो य तद्गीतमाक य मू छता ना वदन् नृप ।


ंस कूलमा मानं तकेश जं ततः ।।२४

एवं व डतोः वैरं गायतोः स म वत् ।


शंखचूड इ त यातो धनदानुचरोऽ यगात् ।।२५
एक दनक बात है, अलौ कक कम करनेवाले भगवान् ीकृ ण और बलरामजी रा के
समय वनम गो पय के साथ वहार कर रहे थे ।।२०।। भगवान् ीकृ ण नमल पीता बर और
बलरामजी नीला बर धारण कये ए थे। दोन के गलेम फूल के सु दर-सु दर हार लटक रहे थे
तथा शरीरम अंगराग, सुग धत च दन लगा आ था और सु दर-सु दर आभूषण पहने ए
थे। गो पयाँ बड़े ेम और आन दसे ल लत वरम उ ह के गुण का गान कर रही थ ।।२१।।
अभी-अभी सायंकाल आ था। आकाशम तारे उग आये थे और चाँदनी छटक रही थी।
बेलाके सु दर ग धसे मतवाले होकर भ रे इधर-उधर गुनगुना रहे थे तथा जलाशयम खली
ई कुमु दनीक सुग ध लेकर वायु म द-म द चल रही थी। उस समय उनका स मान करते
ए भगवान् ीकृ ण और बलरामजीने एक ही साथ मलकर राग अलापा। उनका राग
आरोह-अवरोह वर के चढ़ाव-उतारसे ब त ही सु दर लग रहा था। वह जगत्के सम त
ा णय के मन और कान को आन दसे भर दे नेवाला था ।।२२-२३।। उनका वह गान सुनकर
गो पयाँ मो हत हो गय । परी त्! उ ह अपने शरीरक भी सु ध नह रही क वे उसपरसे
खसकते ए व और चो टय से बखरते ए पु प को सँभाल सक ।।२४।।
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जस समय बलराम और याम दोन भाई इस कार व छ द वहार कर रहे थे और
उ म क भाँ त गा रहे थे, उसी समय वहाँ शंखचूड नामक एक य आया। वह कुबेरका
अनुचर था ।।२५।। परी त्! दोन भाइय के दे खते-दे खते वह उन गो पय को लेकर बेखटके
उ रक ओर भाग चला। जनके एकमा वामी भगवान् ीकृ ण ही ह, वे गो पयाँ उस
समय रो-रोकर च लाने लग ।।२६।। दोन भाइय ने दे खा क जैसे कोई डाकू गौ को लूट
ले जाय, वैसे ही यह य हमारी ेय सय को लये जा रहा है और वे ‘हा कृ ण! हा राम!’
पुकारकर रो-पीट रही ह। उसी समय दोन भाई उसक ओर दौड़ पड़े ।।२७।। ‘डरो मत, डरो
मत’ इस कार अभयवाणी कहते ए हाथम शालका वृ लेकर बड़े वेगसे णभरम ही उस
नीच य के पास प ँच गये ।।२८।। य ने दे खा क काल और मृ युके समान ये दोन भाई मेरे
पास आ प ँचे। तब वह मूढ़ घबड़ा गया। उसने गो पय को वह छोड़ दया, वयं ाण
बचानेके लये भागा ।।२९।। तब य क र ा करनेके लये बलरामजी तो वह खड़े रह
गये, पर तु भगवान् ीकृ ण जहाँ-जहाँ वह भागकर गया, उसके पीछे -पीछे दौड़ते गये। वे
चाहते थे क उसके सरक चूड़ाम ण नकाल ल ।।३०।। कुछ ही र जानेपर भगवान्ने उसे
पकड़ लया और उस के सरपर कसकर एक घूँसा जमाया और चूड़ाम णके साथ उसका
सर भी धड़से अलग कर दया ।।३१।। इस कार भगवान् ीकृ ण शंखचूडको मारकर और
वह चमक ली म ण लेकर लौट आये तथा सब गो पय के सामने ही उ ह ने बड़े ेमसे वह
म ण बड़े भाई बलरामजीको दे द ।।३२।।

तयो नरी तो राजं त ाथं मदाजनम् ।


ोश तं कालयामास द युद यामशं कतः ।।२६

ोश तं कृ ण रामे त वलो य वप र हम् ।


यथा गा द युना ता ातराव वधावताम् ।।२७

मा भै े यभयारावौ शालह तौ तर वनौ ।


आसेदतु तं तरसा व रतं गु काधमम् ।।२८

स वी य तावनु ा तौ कालमृ यू इवो जन् ।


वसृ य ीजनं मूढः ा व जी वते छया ।।२९

तम वधावद् गो व दो य य स धाव त ।
जहीषु त छरोर नं त थौ र न् यो बलः ।।३०

अ व र इवा ये य शर त य रा मनः ।
जहार मु नैवा सहचूडाम ण वभुः ।।३१

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शंखचूडं नह यैवं म णमादाय भा वरम् ।
अ जायाददात् ी या प य तीनां च यो षताम् ।।३२
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध शंखचूडवधो नाम
चतु ंशोऽ यायः ।।३४।।

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अथ प च शोऽ यायः
युगलगीत
ीशुक उवाच

गो यः कृ णे वनं याते तमनु तचेतसः ।

कृ णलीलाः गाय यो न यु ःखेन वासरान् ।।१


ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान् ीकृ णके गौ को चरानेके लये त दन
वनम चले जानेपर उनके साथ गो पय का च भी चला जाता था। उनका मन ीकृ णका
च तन करता रहता और वे वाणीसे उनक लीला का गान करती रहत । इस कार वे बड़ी
क ठनाईसे अपना दन बतात ।।१।।
गो य ऊचुः
वामबा कृतवामकपोलो
व गत ुरधरा पतवेणुम् ।
कोमलाङ् गु ल भरा तमाग
गो य ईरय त य मुकु दः ।।२

ोमयानव नताः सह स ै -
व मता त पधाय सल जाः ।
काममागणसम पत च ाः
क मलं ययुरप मृतनी ः ।।३

ह त च मबलाः शृणुतेदं
हारहास उर स थर व ुत् ।
न दसूनुरयमातजनानां
नमदो य ह कू जतवेणुः ।।४

वृ दशो जवृषा मृगगावो


वेणुवा तचेतस आरात् ।
द तद कवला धृतकणा
न ता ल खत च मवासन् ।।५
गो पयाँ आपसम कहत —अरी सखी! अपने ेमीजन को ेम वतरण करनेवाले और
े ष करनेवाल -तकको मो दे दे नेवाले यामसु दर नटनागर जब अपने बाय कपोलको बाय
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बाँहक ओर लटका दे ते ह और अपनी भ ह नचाते ए बाँसुरीको अधर से लगाते ह तथा
अपनी सुकुमार अंगु लय को उसके छे द पर फराते ए मधुर तान छे ड़ते ह, उस समय
स प नयाँ आकाशम अपने प त स गण के साथ वमान पर चढ़कर आ जाती ह और
उस तानको सुनकर अ य त ही च कत तथा व मत हो जाती ह। पहले तो उ ह अपने
प तय के साथ रहनेपर भी च क यह दशा दे खकर ल जा मालूम होती है; पर तु णभरम
ही उनका च कामबाणसे बध जाता है, वे ववश और अचेत हो जाती ह। उ ह इस बातक
भी सु ध नह रहती क उनक नीवी खुल गयी है और उनके व खसक गये ह ।।२-३।।
अरी गो पयो! तुम यह आ यक बात सुनो! ये न दन दन कतने सु दर ह। जब वे हँसते
ह तब हा यरेखाएँ हारका प धारण कर लेती ह, शु मोती-सी चमकने लगती ह। अरी
वीर! उनके व ः थलपर लहराते ए हारम हा यक करण चमकने लगती ह। उनके
व ः थलपर जो ीव सक सुनहली रेखा है, वह तो ऐसी जान पड़ती है, मानो याम मेघपर
बजली ही थर पसे बैठ गयी है। वे जब ःखीजन को सुख दे नेके लये, वर हय के मृतक
शरीरम ाण का संचार करनेके लये बाँसुरी बजाते ह, तब जके झुंड-के-झुंड बैल, गौएँ
और ह रन उनके पास ही दौड़ आते ह। केवल आते ही नह , सखी! दाँत से चबाया आ
घासका ास उनके मुँहम य -का- य पड़ा रह जाता है, वे उसे न नगल पाते और न तो
उगल ही पाते ह। दोन कान खड़े करके इस कार थरभावसे खड़े हो जाते ह, मानो सो गये
ह या केवल भीतपर लखे ए च ह। उनक ऐसी दशा होना वाभा वक ही है, य क यह
बाँसुरीक तान उनके च को चुरा लेती है ।।४-५।।

ब हण तबकधातुपलाशै-
ब म लप रबह वड बः ।
क ह चत् सबल आ ल स गोपै-
गाः समा य त य मुकु दः ।।६

त ह भ नगतयः स रतो वै
त पदा बुजरजोऽ नलनीतम् ।
पृहयतीवय मवाब पु याः
ेमवे पतभुजाः त मतापः ।।७

अनुचरैः समनुव णतवीय


आ दपू ष इवाचलभू तः ।
वनचरो ग रतटे षु चर ती-
वणुनाऽऽ य त गाः स यदा ह ।।८

वनलता तरव आ म न व णुं

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ं य य इव पु पफला ाः ।

णतभार वटपा मधुधाराः
ेम तनवः ससृजुः म ।।९
हे स ख! जब वे न दके लाड़ले लाल अपने सरपर मोरपंखका मुकुट बाँध लेते ह,
घुँघराली अलक म फूलके गु छे ख स लेते ह, रंगीन धातु से अपना अंग-अंग रँग लेते ह
और नये-नये प लव से ऐसा वेष सजा लेते ह, जैसे कोई ब त बड़ा पहलवान हो और फर
बलरामजी तथा वालबाल के साथ बाँसुरीम गौ का नाम ले-लेकर उ ह पुकारते ह; उस
समय यारी स खयो! न दय क ग त भी क जाती है। वे चाहती ह क वायु उड़ाकर हमारे
यतमके चरण क धू ल हमारे पास प ँचा दे और उसे पाकर हम नहाल हो जायँ, पर तु
स खयो! वे भी हमारे ही जैसी म दभा गनी ह। जैसे न दन दन ीकृ णका आ लगन करते
समय हमारी भुजाएँ काँप जाती ह और जड़ता प संचारीभावका उदय हो जानेसे हम अपने
हाथ को हला भी नह पात , वैसे ही वे भी ेमके कारण काँपने लगती ह। दो-चार बार
अपनी तरंग प भुजा को काँपते-काँपते उठाती तो अव य ह, पर तु फर ववश होकर
थर हो जाती ह, ेमावेशसे त भत हो जाती ह ।।६-७।।
अरी वीर! जैसे दे वता लोग अन त और अ च य ऐ य के वामी भगवान् नारायणक
श य का गान करते ह, वैसे ही वालबाल अन तसु दर नटनागर ीकृ णक लीला का
गान करते रहते ह। वे अ च य ऐ य-स प ीकृ ण जब वृ दावनम वहार करते रहते ह
और बाँसुरी बजाकर ग रराज गोवधनक तराईम चरती ई गौ को नाम ले-लेकर पुकारते
ह, उस समय वनके वृ और लताएँ फूल और फल से लद जाती ह, उनके भारसे डा लयाँ
झुककर धरती छू ने लगती ह, मानो णाम कर रही ह , वे वृ और लताएँ अपने भीतर
भगवान् व णुक अ भ सू चत करती ई-सी ेमसे फूल उठती ह, उनका रोम-रोम
खल जाता है और सब-क -सब मधुधाराएँ उँड़ेलने लगती ह ।।८-९।।

दशनीय तलको वनमाला-


द ग धतुलसीमधुम ैः ।
अ लकुलैरलघुगीतमभी -
मा यन् य ह स धतवेणुः ।।१०

सर स सारसहंस वह ा-
ा गीत तचेतस ए य ।
ह रमुपासत ते यत च ा
ह त मी लत शो धृतमौनाः ।।११

सहबलः गवतंस वलासः


सानुषु तभृतो जदे ः ।
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हषयन् य ह वेणुरवेण
जातहष उपर भ त व म् ।।१२

महद त मणशं कतचेता


म दम दमनुगज त मेघः ।
सु दम यवषत् सुमनो भ-
छायया च वदधत् तप म् ।।१३
अरी सखी! जतनी भी व तुएँ संसारम या उसके बाहर दे खनेयो य ह, उनम सबसे सु दर,
सबसे मधुर, सबके शरोम ण ह—ये हमारे मनमोहन। उनके साँवले ललाटपर केसरक खौर
कतनी फबती है—बस, दे खती ही जाओ! गलेम घुटन तक लटकती ई वनमाला, उसम
परोयी ई तुलसीक द ग ध और मधुर मधुसे मतवाले होकर झुंड-के-झुंड भ रे बड़े
मनोहर एवं उ च वरसे गुंजार करते रहते ह। हमारे नटनागर यामसु दर भ र क उस
गुनगुनाहटका आदर करते ह और उ ह के वरम वर मलाकर अपनी बाँसुरी फूँकने लगते
ह। उस समय स ख! उस मु नजनमोहन संगीतको सुनकर सरोवरम रहनेवाले सारस-हंस
आ द प य का भी च उनके हाथसे नकल जाता है, छन जाता है। वे ववश होकर यारे
यामसु दरके पास आ बैठते ह तथा आँख मूँद, चुपचाप, च एका करके उनक आराधना
करने लगते ह—मानो कोई वहंगमवृ के र सक परमहंस ही ह , भला कहो तो यह कतने
आ यक बात है! ।।१०-११।।
अरी जदे वयो! हमारे यामसु दर जब पु प के कु डल बनाकर अपने कान म धारण
कर लेते ह और बलरामजीके साथ ग रराजके शखर पर खड़े होकर सारे जगत्को ह षत
करते ए बाँसुरी बजाने लगते ह—बाँसुरी या बजाते ह, आन दम भरकर उसक व नके
ारा सारे व का आ लगन करने लगते ह—उस समय याम मेघ बाँसुरीक तानके साथ
म द-म द गरजने लगता है। उसके च म इस बातक शंका बनी रहती है क कह म जोरसे
गजना कर उठूँ और वह कह बाँसुरीक तानके वपरीत पड़ जाय, उसम बेसुरापन ले आये,
तो मुझसे महा मा ीकृ णका अपराध हो जायगा। सखी! वह इतना ही नह करता; वह जब
दे खता है क हमारे सखा घन यामको घाम लग रहा है, तब वह उनके ऊपर आकर छाया कर
लेता है, उनका छ बन जाता है। अरी वीर! वह तो स होकर बड़े ेमसे उनके ऊपर
अपना जीवन ही नछावर कर दे ता है—न ह -न ह फु हय के पम ऐसा बरसने लगता है,
मानो द पु प क वषा कर रहा हो। कभी-कभी बादल क ओटम छपकर दे वता-लोग भी
पु पवषा कर जाया करते ह ।।१२-१३।।

व वधगोपचरणेषु वद धो
वेणुवा उ धा नज श ाः ।
तव सुतः स त यदाधर ब बे
द वेणुरनयत् वरजातीः ।।१४
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सवनश त पधाय सुरेशाः
श शवपरमे पुरोगाः ।
कवय आनतक धर च ाः
क मलं ययुर न तत वाः ।।१५

नजपदा जदलै वजव -


नीरजांकुश व च ललामैः ।
जभुवः शमयन् खुरतोदं
व मधुयग तरी डतवेणुः ।।१६

ज त तेन वयं स वलास-


वी णा पतमनोभववेगाः ।
कुजग त ग मता न वदामः
क मलेन कबरं वसनं वा ।।१७

म णधरः व चदागणयन् गा
मालया द यतग धतुल याः ।
ण यनोऽनुचर य कदांसे
पन् भुजमगायत य ।।१८
सती शरोम ण यशोदाजी! तु हारे सु दर कुँवर वालबाल के साथ खेल खेलनेम बड़े
नपुण ह। रानीजी! तु हारे लाड़ले लाल सबके यारे तो ह ही, चतुर भी ब त ह। दे खो, उ ह ने
बाँसुरी बजाना कसीसे सीखा नह । अपने ही अनेक कारक राग-रा ग नयाँ उ ह ने नकाल
ल । जब वे अपने ब बाफल स श लाल-लाल अधर पर बाँसुरी रखकर ऋषभ, नषाद आ द
वर क अनेक जा तयाँ बजाने लगते ह, उस समय वंशीक परम मो हनी और नयी तान
सुनकर ा, शंकर और इ आ द बड़े-बड़े दे वता भी—जो सव ह—उसे नह पहचान
पाते। वे इतने मो हत हो जाते ह क उनका च तो उनके रोकनेपर भी उनके हाथसे
नकलकर वंशी व नम त लीन हो ही जाता है, सर भी झुक जाता है, और वे अपनी सुध-बुध
खोकर उसीम त मय हो जाते ह ।।१४-१५।।
अरी वीर! उनके चरणकमल म वजा, व , कमल, अंकुश आ दके व च और सु दर-
सु दर च ह। जब जभू म गौ के खुरसे खुद जाती है, तब वे अपने सुकुमार चरण से
उसक पीड़ा मटाते ए गजराजके समान म दग तसे आते ह और बाँसुरी भी बजाते रहते ह।
उनक वह वंशी व न, उनक वह चाल और उनक वह वलासभरी चतवन हमारे दयम
ेमके, मलनक आकां ाका आवेग बढ़ा दे ती है। हम उस समय इतनी मु ध, इतनी मो हत
हो जाती ह क हल-डोलतक नह सकत , मानो हम जड़ वृ ह ! हम तो इस बातका भी
पता नह चलता क हमारा जूड़ा खुल गया है या बँधा है, हमारे शरीरपरका व उतर गया है
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या है ।।१६-१७।।
अरी वीर! उनके गलेम म णय क माला ब त ही भली मालूम होती है। तुलसीक मधुर
ग ध उ ह ब त यारी है। इसीसे तुलसीक मालाको तो वे कभी छोड़ते ही नह , सदा धारण
कये रहते ह। जब वे यामसु दर उस म णय क मालासे गौ क गनती करते-करते कसी
ेमी सखाके गलेम बाँह डाल दे ते ह और भाव बता-बताकर बाँसुरी बजाते ए गाने लगते ह,
उस समय बजती ई उस बाँसुरीके मधुर वरसे मो हत होकर कृ णसार मृग क प नी
ह र नयाँ भी अपना च उनके चरण पर नछावर कर दे ती ह और जैसे हम गो पयाँ अपने
घर-गृह थीक आशा-अ भलाषा छोड़कर गुणसागर नागर न दन दनको घेरे रहती ह, वैसे ही
वे भी उनके पास दौड़ आती ह और वह एकटक दे खती ई खड़ी रह जाती ह, लौटनेका
नाम भी नह लेत ।।१८-१९।।

व णतवेणुरववं चत च ाः
कृ णम वसत कृ णगृ ह यः ।
गुणगणाणमनुग य ह र यो
गो पका इव वमु गृहाशाः ।।१९

कु ददामकृतकौतुकवेषो
गोपगोधनवृतो यमुनायाम् ।
न दसूनुरनघे तव व सो
नमदः ण यनां वजहार ।।२०

म दवायु पवा यनुकूलं


मानयन् मलयज पशन ।
व दन तमुपदे वगणा ये
वा गीतब ल भः प रव ुः ।।२१

व सलो जगवां यदग ो


व मानचरणः प थ वृ ै ः ।
कृ नगोधनमुपो दना ते
गीतवेणुरनुगे डतक तः ।।२२

उ सवं म चा प शीना-
मु यन् खुररज छु रत क् ।
द सयै त सु दा शष एष
दे वक जठरभू डु राजः ।।२३

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न दरानी यशोदाजी! वा तवम तुम बड़ी पु यवती हो। तभी तो तु ह ऐसे पु मले ह।
तु हारे वे लाड़ले लाल बड़े ेमी ह, उनका च बड़ा कोमल है। वे ेमी सखा को तरह-
तरहसे हास-प रहासके ारा सुख प ँचाते ह। कु दकलीका हार पहनकर जब वे अपनेको
व च वेषम सजा लेते ह और वालबाल तथा गौ के साथ यमुनाजीके तटपर खेलने लगते
ह, उस समय मलयज च दनके समान शीतल और सुग धत पशसे म द-म द अनुकूल
बहकर वायु तु हारे लालक सेवा करती है और ग धव आ द उपदे वता वंद जन के समान गा-
बजाकर उ ह स तु करते ह तथा अनेक कारक भट दे ते ए सब ओरसे घेरकर उनक
सेवा करते ह ।।२०-२१।।
अरी सखी! यामसु दर जक गौ से बड़ा ेम करते ह। इसी लये तो उ ह ने गोवधन
धारण कया था। अब वे सब गौ को लौटाकर आते ही ह गे; दे खो, सायंकाल हो चला है।
तब इतनी दे र य होती है, सखी? रा तेम बड़े-बड़े ा आ द वयोवृ और शंकर आ द
ानवृ उनके चरण क व दना जो करने लगते ह। अब गौ के पीछे -पीछे बाँसुरी बजाते
ए वे आते ही ह गे। वालबाल उनक क तका गान कर रहे ह गे। दे खो न, यह या आ रहे
ह। गौ के खुर से उड़-उड़कर ब त-सी धूल वनमालापर पड़ गयी है। वे दनभर जंगल म
घूमते-घूमते थक गये ह। फर भी अपनी इस शोभासे हमारी आँख को कतना सुख, कतना
आन द दे रहे ह। दे खो, ये यशोदाक कोखसे कट ए सबको आ ा दत करनेवाले च मा
हम ेमीजन क भलाईके लये, हमारी आशा-अ भलाषा को पूण करनेके लये ही हमारे
पास चले आ रहे ह ।।२२-२३।।

मद वघू णतलोचन ईषन्


मानदः वसु दां वनमाली ।
बदरपा डु वदनो मृ ग डं
म डयन् कनककु डलल या ।।२४

य प त रदराज वहारो
या मनीप त रवैष दना ते ।
मु दतव उपया त र तं
मोचयन् जगवां दनतापम् ।।२५
ीशुक उवाच
एवं ज यो राजन् कृ णलीला नु गायतीः ।
रे मरेऽहःसु त च ा त मन का महोदयाः ।।२६
सखी! दे खो कैसा सौ दय है! मदभरी आँख कुछ चढ़ ई ह। कुछ-कुछ ललाई लये ए
कैसी भली जान पड़ती ह। गलेम वनमाला लहरा रही है। सोनेके कु डल क का तसे वे
अपने कोमल कपोल को अलंकृत कर रहे ह। इसीसे मुँहपर अधपके बेरके समान कुछ

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पीलापन जान पड़ता है और रोम-रोमसे वशेष करके मुखकमलसे स ता फूट पड़ती है।
दे खो, अब वे अपने सखा वालबाल का स मान करके उ ह वदा कर रहे ह। दे खो, दे खो
सखी! ज- वभूषण ीकृ ण गजराजके समान मदभरी चालसे इस स या वेलाम हमारी
ओर आ रहे ह। अब जम रहनेवाली गौ का, हमलोग का दनभरका अस वरह-ताप
मटानेके लये उ दत होनेवाले च माक भाँ त ये हमारे यारे यामसु दर समीप चले आ रहे
ह ।।२४-२५।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! बड़भा गनी गो पय का मन ीकृ णम ही लगा
रहता था। वे ीकृ णमय हो गयी थ । जब भगवान् ीकृ ण दनम गौ को चरानेके लये
वनम चले जाते, तब वे उ ह का च तन करती रहत और अपनी-अपनी स खय के साथ
अलग-अलग उ ह क लीला का गान करके उसीम रम जात । इस कार उनके दन बीत
जाते ।।२६।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध वृ दावन डायां
गो पकायुगलगीतं नाम प च शोऽ यायः ।।३५।।

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अथ षट् शोऽ यायः
अ र ासुरका उ ार और कंसका ीअ ू रजीको जम भेजना
ीशुक उवाच
अथ त ागतो गो म र ो वृषभासुरः ।

मह महाककु कायः क पयन् खुर व ताम् ।।१


ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जस समय भगवान् ीकृ ण जम वेश कर रहे
थे और वहाँ आन दो सवक धूम मची ई थी, उसी समय अ र ासुर नामका एक दै य
बैलका प धारण करके आया। उसका ककुद् (कंधेका पु ा) या थुआ और डील-डौल दोन
ही ब त बड़े-बड़े थे। वह अपने खुर को इतने जोरसे पटक रहा था क उससे धरती काँप रही
थी ।।१।। वह बड़े जोरसे गज रहा था और पैर से धूल उछालता जाता था। पूँछ खड़ी कये
ए था और स ग से चहारद वारी, खेत क मड़ आ द तोड़ता जाता था ।।२।। बीच-बीचम
बार-बार मूतता और गोबर छोड़ता जाता था। आँख फाड़कर इधर-उधर दौड़ रहा था।
परी त्! उसके जोरसे हँकड़नेसे— न ु र गजनासे भयवश य और गौ के तीन-चार
महीनेके गभ वत हो जाते थे और पाँच-छः महीनेके गर जाते थे। और तो या क ँ, उसके
ककुद्को पवत समझकर बादल उसपर आकर ठहर जाते थे ।।३-४।। परी त्! उस तीखे
स गवाले बैलको दे खकर गो पयाँ और गोप सभी भयभीत हो गये। पशु तो इतने डर गये क
अपने रहनेका थान छोड़कर भाग ही गये ।।५।। उस समय सभी जवासी ‘ ीकृ ण!
ीकृ ण! हम इस भयसे बचाओ’ इस कार पुकारते ए भगवान् ीकृ णक शरणम आये।
भगवान्ने दे खा क हमारा गोकुल अ य त भयातुर हो रहा है ।।६।। तब उ ह ने ‘डरनेक कोई
बात नह है’—यह कहकर सबको ढाढ़स बँधाया और फर वृषासुरको ललकारा, ‘अरे मूख!
महा ! तू इन गौ और वाल को य डरा रहा है? इससे या होगा ।।७।। दे ख, तुझ-जैसे
रा मा के बलका घमंड चूर-चूर कर दे नेवाला यह म ँ।’ इस कार ललकारकर
भगवान्ने ताल ठ क और उसे ो धत करनेके लये वे अपने एक सखाके गलेम बाँह
डालकर खड़े हो गये। भगवान् ीकृ णक इस चुनौतीसे वह ोधके मारे तल मला उठा
और अपने खुर से बड़े जोरसे धरती खोदता आ ीकृ णक ओर झपटा। उस समय उसक
उठायी ई पूँछके ध केसे आकाशके बादल ततर- बतर होने लगे ।।८-९।। उसने अपने
तीखे स ग आगे कर लये। लाल-लाल आँख से टकटक लगाकर ीकृ णक ओर टे ढ़
नजरसे दे खता आ वह उनपर इतने वेगसे टू टा, मानो इ के हाथसे छोड़ा आ व
हो ।।१०।। भगवान् ीकृ णने अपने दोन हाथ से उसके दोन स ग पकड़ लये और जैसे
एक हाथी अपनेसे भड़नेवाले सरे हाथीको पीछे हटा दे ता है, वैसे ही उ ह ने उसे अठारह
पग पीछे ठे लकर गरा दया ।।११।। भगवान्के इस कार ठे ल दे नेपर वह फर तुरंत ही उठ
खड़ा आ और ोधसे अचेत होकर लंबी-लंबी साँस छोड़ता आ फर उनपर झपटा। उस

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समय उसका सारा शरीर पसीनेसे लथपथ हो रहा था ।।१२।। भगवान्ने जब दे खा क वह
अब मुझपर हार करना ही चाहता है, तब उ ह ने उसके स ग पकड़ लये और उसे लात
मारकर जमीनपर गरा दया और फर पैर से दबाकर इस कार उसका कचूमर नकाला,
जैसे कोई गीला कपड़ा नचोड़ रहा हो। इसके बाद उसीका स ग उखाड़कर उसको खूब
पीटा, जससे वह पड़ा ही रह गया ।।१३।। परी त्! इस कार वह दै य मुँहसे खून उगलता
और गोबर-मूत करता आ पैर पटकने लगा। उसक आँख उलट गय और उसने बड़े क के
साथ ाण छोड़े। अब दे वतालोग भगवान्पर फूल बरसा-बरसाकर उनक तु त करने
लगे ।।१४।। जब भगवान् ीकृ णने इस कार बैलके पम आने-वाले अ र ासुरको मार
डाला, तब सभी गोप उनक शंसा करने लगे। उ ह ने बलरामजीके साथ गो म वेश कया
और उ ह दे ख-दे खकर गो पय के नयन-मन आन दसे भर गये ।।१५।।

र भमाणः खरतरं पदा च व लखन् महीम् ।


उ य पु छं व ा ण वषाणा ेण चो रन् ।।२

क चत् क च छकृ मु चन् मू यन् त धलोचनः ।


य य न ा दतेना न ु रेण गवां नृणाम्१ ।।३

पत य२ कालतो गभाः व त म भयेन वै ।


न वश त घना य य ककु चलशंकया ।।४

तं ती णशृ मु य गो यो गोपा त सुः ।


पशवो वुभ ता राजन् सं य य गोकुलम् ।।५

कृ ण कृ णे त ते सव गो व दं शरणं ययुः ।
भगवान प तद् वी य गोकुलं भय व तम् ।।६

मा भै े त गराऽऽ ा य वृषासुरमुपा यत् ।


गोपालैः पशु भम द ा सतैः कमस म ।।७

बलदपहाहं ानां व धानां रा मनाम् ।


इ या फो ा युतोऽ र ं तलश दे न कोपयन् ।।८

स युरंसे भुजाभोगं सायाव थतो ह रः ।


सोऽ येवं को पतोऽ र ः खुरेणाव नमु लखन् ।
उ पु छ म मेघः ु ः कृ णमुपा वत् ।।९
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अ य त वषाणा ः त धासृ लोचनोऽ युतम् ।
कटा या व ूण म मु ोऽश नयथा ।।१०

गृही वा शृ यो तं वा अ ादश पदा न सः ।


यपोवाह भगवान् गजः तगजं यथा ।।११

सोऽप व ो भगवता पुन थाय स वरः ।


आपतत् व सवागो नः सन् ोधमू छतः ।।१२

तमापत तं स नगृ शृ योः


पदा समा य नपा य भूतले ।
न पीडयामास यथाऽऽ म बरं
कृ वा वषाणेन जघान सोऽपतत् ।।१३

असृग् वमन् मू शकृत् समु सृजन्


पं पादाननव थते णः ।
जगाम कृ ं नऋतेरथ यं
पु पैः कर तो ह रमी डरे सुराः ।।१४

एवं ककुद् मनं ह वा तूयमानः वजा त भः ।


ववेश गो ं सबलो गोपीनां नयनो सवः ।।१५

अ र े नहते दै ये कृ णेना तकमणा ।


कंसायाथाह भगवान् नारदो दे वदशनः ।।१६

यशोदायाः सुतां क यां दे व याः कृ णमेव च ।


रामं च रो हणीपु ं वसुदेवेन ब यता ।।१७

य तौ व म े न दे वै या यां ते पु षा हताः ।
नश य तद् भोजप तः कोपात् च लते यः ।।१८
परी त्! भगवान्क लीला अ य त अद्भुत है। इधर जब उ ह ने अ र ासुरको मार
डाला, तब भगव मय नारद, जो लोग को शी -से-शी भगवान्का दशन कराते रहते ह,
कंसके पास प ँच।े उ ह ने उससे कहा— ।।१६।। ‘कंस! जो क या तु हारे हाथसे छू टकर
आकाशम चली गयी, वह तो यशोदाक पु ी थी। और जम जो ीकृ ण ह, वे दे वक के पु
ह। वहाँ जो बलरामजी ह, वे रो हणीके पु ह। वसुदेवने तुमसे डरकर अपने म न दके पास
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उन दोन को रख दया है। उ ह ने ही तु हारे अनुचर दै य का वध कया है।’ यह बात सुनते ही
कंसक एक-एक इ य ोधके मारे काँप उठ ।।१७-१८।।

नशातम समाद वसुदेव जघांसया ।


नवा रतो नारदे न त सुतौ मृ युमा मनः ।।१९

ा वा लोहमयैः पाशैबब ध सह भायया ।


तयाते तु दे वष कंस आभा य के शनम् ।।२०

े यामास ह येतां भवता रामकेशवौ ।



ततो मु कचाणूरशलतोशलका दकान् ।।२१

अमा यान् ह तपां ैव समा याह भोजराट् ।


भो भो नश यतामेतद् वीरचाणूरमु कौ ।।२२

न द जे कलासाते सुतावानक भेः ।


रामकृ णौ ततो म ं मृ युः कल नद शतः ।।२३

भवद् या मह स ा तौ ह येतां म ललीलया ।


मंचाः य तां व वधा म लर प र ताः ।
पौरा जानपदाः सव प य तु वैरसंयुगम् ।।२४

महामा वया भ र ायुपनीयताम् ।


पः कुवलयापीडो ज ह तेन ममा हतौ ।।२५

आर यतां धनुयाग तुद यां यथा व ध ।


वशस तु पशून् मे यान् भूतराजाय मीढु षे ।।२६

इ या ा याथत आ य य पु वम् ।
गृही वा पा णना पा ण ततोऽ ू रमुवाच ह ।।२७

भो भो दानपते म ं यतां मै मा तः ।
ना य व ो हततमो व ते भोजवृ णषु ।।२८
उसने वसुदेवजीको मार डालनेके लये तुरंत तीखी तलवार उठा ली, पर तु नारदजीने
रोक दया। जब कंसको यह मालूम हो गया क वसुदेवके लड़के ही हमारी मृ युके कारण ह,
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तब उसने दे वक और वसुदेव दोन ही प त-प नीको हथकड़ी और बेड़ीसे जकड़कर फर
जेलम डाल दया। जब दे व ष नारद चले गये, तब कंसने केशीको बुलाया और कहा—‘तुम
जम जाकर बलराम और कृ णको मार डालो।’ वह चला गया। इसके बाद कंसने मु क,
चाणूर, शल तोशल आ द पहलवान , म य और महावत को बुलाकर कहा—‘वीरवर
चाणूर और मु क! तुमलोग यानपूवक मेरी बात सुनो ।।१९-२२।। वसुदेवके दो पु बलराम
और कृ ण न दके जम रहते ह। उ ह के हाथसे मेरी मृ यु बतलायी जाती है ।।२३।। अतः
जब वे यहाँ आव, तब तुमलोग उ ह कु ती लड़ने-लड़ानेके बहाने मार डालना। अब तुमलोग
भाँ त-भाँ तके मंच बनाओ और उ ह अखाड़ेके चार ओर गोल-गोल सजा दो। उनपर बैठकर
नगरवासी और दे शक सरी जा इस व छ द दं गलको दे ख ।।२४।। महावत! तुम बड़े
चतुर हो। दे खो भाई! तुम दं गलके घेरेके फाटकपर ही अपने कुवलयापीड हाथीको रखना
और जब मेरे श ु उधरसे नकल, तब उसीके ारा उ ह मरवा डालना ।।२५।। इसी
चतुदशीको व धपूवक धनुषय ार भ कर दो और उसक सफलताके लये वरदानी
भूतनाथ भैरवको ब त-से प व पशु क ब ल चढ़ाओ ।।२६।।
परी त्! कंस तो केवल वाथ-साधनका स ा त जानता था। इस लये उसने म ी,
पहलवान और महावतको इस कार आ ा दे कर े य वंशी अ ू रको बुलवाया और
उनका हाथ अपने हाथम लेकर बोला— ।।२७।। ‘अ ू रजी! आप तो बड़े उदार दानी ह। सब
तरहसे मेरे आदरणीय ह। आज आप मेरा एक म ो चत काम कर द जये; य क भोजवंशी
और वृ णवंशी यादव म आपसे बढ़कर मेरी भलाई करनेवाला सरा कोई नह है ।।२८।।
यह काम ब त बड़ा है, इस लये मेरे म ! मने आपका आ य लया है। ठ क वैसे ही, जैसे
इ समथ होनेपर भी व णुका आ य लेकर अपना वाथ साधता रहता है ।।२९।।
आप न दरायके जम जाइये। वहाँ वसुदेवजीके दो पु ह। उ ह इसी रथपर चढ़ाकर यहाँ
ले आइये। बस, अब इस कामम दे र नह होनी चा हये ।।३०।। सुनते ह, व णुके भरोसे
जीनेवाले दे वता ने उन दोन को मेरी मृ युका कारण न त कया है। इस लये आप उन
दोन को तो ले ही आइये, साथ ही न द आ द गोप को भी बड़ी-बड़ी भट के साथ ले
आइये ।।३१।। यहाँ आनेपर म उ ह अपने कालके समान कुवलयापीड हाथीसे मरवा
डालूँगा। य द वे कदा चत् उस हाथीसे बच गये, तो म अपने व के समान मजबूत और
फुत ले पहलवान मु क-चाणूर आ दसे उ ह मरवा डालूँगा ।।३२।। उनके मारे जानेपर
वसुदेव आ द वृ ण, भोज और दशाहवंशी उनके भाई-ब धु शोकाकुल हो जायँग।े फर उ ह
म अपने हाथ मार डालूँगा ।।३३।। मेरा पता उ सेन य तो बूढ़ा हो गया है, पर तु अभी
उसको रा यका लोभ बना आ है। यह सब कर चुकनेके बाद म उसको, उसके भाई
दे वकको और सरे भी जो-जो मुझसे े ष करनेवाले ह—उन सबको तलवारके घाट उतार
ँ गा ।।३४।। मेरे म अ ू रजी! फर तो म होऊँगा और आप ह गे तथा होगा इस पृ वीका
अक टक रा य। जरास ध हमारे बड़े-बूढ़े ससुर ह और वानरराज वद मेरे यारे सखा
ह ।।३५।। श बरासुर, नरकासुर और बाणासुर—ये तो मुझसे म ता करते ही ह, मेरा मुँह
दे खते रहते ह; इन सबक सहायतासे म दे वता के प पाती नरप तय को मारकर पृ वीका
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अक टक रा य भोगूँगा ।।३६।। यह सब अपनी गु त बात मने आपको बतला द । अब आप
ज द -से-ज द बलराम और कृ णको यहाँ ले आइये। अभी तो वे ब चे ही ह। उनको मार
डालनेम या लगता है? उनसे केवल इतनी ही बात क हयेगा क वे लोग धनुषय के दशन
और य वं शय क राजधानी मथुराक शोभा दे खनेके लये यहाँ आ जायँ’ ।।३७।।

अत वामा तः सौ य कायगौरवसाधनम् ।
यथे ो व णुमा य वाथम यगमद् वभुः ।।२९

ग छ न द जं त सुतावानक भेः ।
आसाते ता वहानेन रथेनानय मा चरम् ।।३०

नसृ ः कल मे मृ युदवैवकु ठसं यैः ।


तावानय समं गोपैन दा ैः सा युपायनैः ।।३१

घात य य इहानीतौ कालक पेन ह तना ।


य द मु ौ ततो म लैघातये वै ुतोपमैः ।।३२

तयो नहतयो त तान् वसुदेवपुरोगमान् ।


तद्ब धून् नह न या म वृ णभोजदशाहकान् ।।३३

उ सेनं च पतरं थ वरं रा यकामुकम् ।


तद् ातरं दे वकं च ये चा ये व षो मम ।।३४

तत ैषा मही म भ व ी न क टका ।


जरास धो मम गु वदो द यतः सखा ।।३५

श बरो नरको बाणो म येव कृतसौ दाः ।


तैरहं सुरप ीयान् ह वा भो ये मह नृपान् ।।३६

एत ा वाऽऽनय ं रामकृ णा वहाभकौ ।


धनुमख नरी ाथ ु ं य पुर यम् ।।३७
अ ू र उवाच
राजन् मनी षतं स यक् तव वाव माजनम् ।
स यत स योः समं कुयाद् दै वं ह फलसाधनम् ।।३८

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मनोरथान् करो यु चैजनो दै वहतान प ।
यु यते हषशोका यां तथा या ां करो म ते ।।३९
ीशुक उवाच
एवमा द य चा ू रं म ण वसृ य सः ।
ववेश गृहं कंस तथा ू रः वमालयम् ।।४०
अ ू रजीने कहा—महाराज! आप अपनी मृ यु, अपना अ र र करना चाहते ह,
इस लये आपका ऐसा सोचना ठ क ही है। मनु यको चा हये क चाहे सफलता हो या
असफलता, दोन के त समभाव रखकर अपना काम करता जाय। फल तो य नसे नह ,
दै वी ेरणासे मलते ह ।।३८।। मनु य बड़े-बड़े मनोरथ के पुल बाँधता रहता है, पर तु वह
यह नह जानता क दै वने, ार धने इसे पहलेसे ही न कर रखा है। यही कारण है क कभी
ार धके अनुकूल होनेपर य न सफल हो जाता है तो वह हषसे फूल उठता है और
तकूल होनेपर वफल हो जाता है तो शोक त हो जाता है। फर भी म आपक आ ाका
पालन तो कर ही रहा ँ ।।३९।।
ीशुकदे वजी कहते ह—कंसने म य और अ ू रजीको इस कारक आ ा दे कर
सबको वदा कर दया। तदन तर वह अपने महलम चला गया और अ ू रजी अपने घर लौट
आये ।।४०।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाधऽ ू रसं ेषणं नाम
षट् शोऽ यायः ।।३६।।

१. भृशम् २. वाका लका गभाः।

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अथ स त शोऽ यायः
केशी और ोमासुरका उ ार तथा नारदजीके ारा भगवान्क तु त
ीशुक उवाच
केशी तु कंस हतः खुरैमह
महाहयो नजरयन् मनोजवः ।
सटावधूता वमानसंकुलं
कुवन् नभो हे षतभी षता खलः ।।१

वशालने ो वकटा यकोटरो


बृहद्गलो नीलमहा बुदोपमः ।
राशयः कंस हतं चक षु-
जं स न द य जगाम क पयन् ।।२
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! कंसने जस केशी नामक दै यको भेजा था, वह बड़े
भारी घोड़ेके पम मनके समान वेगसे दौड़ता आ जम आया। वह अपनी टाप से धरती
खोदता आ रहा था! उसक गरदनके छतराये ए बाल के झटकेसे आकाशके बादल और
वमान क भीड़ तीतर- बतर हो रही थी। उसक भयानक हन हनाहटसे सब-के-सब भयसे
काँप रहे थे। उसक बड़ी-बड़ी आँख थ , मुँह या था, मानो कसी वृ का खोड़र ही हो। उसे
दे खनेसे ही डर लगता था। बड़ी मोट गरदन थी। शरीर इतना वशाल था क मालूम होता था
काली-काली बादलक घटा है। उसक नीयतम पाप भरा था। वह ीकृ णको मारकर अपने
वामी कंसका हत करना चाहता था। उसके चलनेसे भूक प होने लगता था ।।१-२।।
भगवान् ीकृ णने दे खा क उसक हन हनाहटसे उनके आ त रहनेवाला गोकुल भयभीत
हो रहा है और उसक पूँछके बाल से बादल ततर- बतर हो रहे ह, तथा वह लड़नेके लये
उ ह को ढूँ ढ़ भी रहा है—तब वे बढ़कर उसके सामने आ गये और उ ह ने सहके समान
गरजकर उसे ललकारा ।।३।। भगवान्को सामने आया दे ख वह और भी चढ़ गया तथा
उनक ओर इस कार मुँह फैलाकर दौड़ा, मानो आकाशको पी जायगा। परी त्! सचमुच
केशीका वेग बड़ा च ड था। उसपर वजय पाना तो क ठन था ही, उसे पकड़ लेना भी
आसान नह था। उसने भगवान्के पास प ँचकर ल ी झाड़ी ।।४।।

तं ासय तं भगवान् वगोकुलं


त े षतैवाल वघू णता बुदम् ।
आ मानमाजौ मृगय तम णी-
पा यत् स नद मृगे वत् ।।३

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स तं नशा या भमुखो मुखेन खं
पब वा य वद यमषणः ।
जघान पद् यामर व दलोचनं
रासद डजवो र ययाः ।।४

तद् वंच य वा तमधो जो षा


गृ दो या प र व य पादयोः ।
साव मु सृ य धनुःशता तरे
यथोरगं ता यसुतो व थतः ।।५

स ल धसं ः पुन थतो षा


ादाय केशी तरसाऽऽपत रम् ।
सोऽ य य व े भुजमु रं मयन्
वेशयामास यथोरगं बले ।।६

द ता नपेतुभगव ज पृश-
ते के शन त तमय पृशो यथा ।
बा त े हगतो महा मनो
यथाऽऽमयः संववृधे उपे तः ।।७

समेधमानेन स कृ णबा ना
न वायु रणां व पन् ।
व गा ः प रवृ लोचनः
पपात ले डं वसृजन् तौ सुः ।।८
पर तु भगवान्ने उससे अपनेको बचा लया। भला, वह इ यातीतको कैसे मार पाता!
उ ह ने अपने दोन हाथ से उसके दोन पछले पैर पकड़ लये और जैसे ग ड़ साँपको
पकड़कर झटक दे ते ह, उसी कार ोधसे उसे घुमाकर बड़े अपमानके साथ चार सौ
हाथक रीपर फक दया और वयं अकड़कर खड़े हो गये ।।५।। थोड़ी ही दे रके बाद केशी
फर सचेत हो गया और उठ खड़ा आ। इसके बाद वह ोधसे तल मलाकर और मुँह
फाड़कर बड़े वेगसे भगवान्क ओर झपटा। उसको दौड़ते दे ख भगवान् मुसकराने लगे।
उ ह ने अपना बायाँ हाथ उसके मुँहम इस कार डाल दया, जैसे सप बना कसी आशंकाके
अपने बलम घुस जाता है ।।६।। परी त्! भगवान्का अ य त कोमल करकमल भी उस
समय ऐसा हो गया, मानो तपाया आ लोहा हो। उसका पश होते ही केशीके दाँत टू ट-
टू टकर गर गये और जैसे जलोदर रोग उपे ा कर दे नेपर ब त बढ़ जाता है, वैसे ही
ीकृ णका भुजद ड उसके मुँहम बढ़ने लगा ।।७।। अ च यश भगवान् ीकृ णका हाथ
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उसके मुँहम इतना बढ़ गया क उसक साँसके भी आने-जानेका माग न रहा। अब तो दम
घुटनेके कारण वह पैर पीटने लगा। उसका शरीर पसीनेसे लथपथ हो गया, आँख क पुतली
उलट गयी, वह मल- याग करने लगा। थोड़ी ही दे रम उसका शरीर न े होकर पृ वीपर गर
पड़ा तथा उसके ाण-पखे उड़ गये ।।८।। उसका न ाण शरीर फूला आ होनेके कारण
गरते ही पक ककड़ीक तरह फट गया। महाबा भगवान् ीकृ णने उसके शरीरसे अपनी
भुजा ख च ली। उ ह इससे कुछ भी आ य या गव नह आ। बना य नके ही श ुका नाश
हो गया। दे वता को अव य ही इससे बड़ा आ य आ। वे स हो-होकर भगवान्के ऊपर
पु प बरसाने और उनक तु त करने लगे ।।९।।

त े हतः कक टकाफलोपमाद्
सोरपाकृ य भुजं महाभुजः ।
अ व मतोऽय नहता र मयैः१
सूनवष द वष री डतः ।।९

दे व ष पसंग य भागवत वरो नृप ।


कृ णम ल कमाणं रह येतदभाषत ।।१०

कृ ण कृ णा मेया मन् योगेश जगद र ।


वासुदेवा खलावास सा वतां वर भो ।।११

वमा मा सवभूतानामेको यो त रवैधसाम् ।


गूढो गुहाशयः सा ी महापु ष ई रः ।।१२

आ मनाऽऽ मा यः पूव मायया ससृजे गुणान् ।


तै रदं स यसंक पः सृज य यवसी रः ।।१३

स वं भूधरभूतानां दै य मथर साम् ।


अवतीण वनाशाय सेतूनां र णाय च ।।१४
परी त्! दे व ष नारदजी भगवान्के परम ेमी और सम त जीव के स चे हतैषी ह।
कंसके यहाँसे लौटकर वे अनायास ही अद्भुत कम करनेवाले भगवान् ीकृ णके पास आये
और एका तम उनसे कहने लगे— ।।१०।। ‘स चदान द व प ीकृ ण! आपका व प
मन और वाणीका वषय नह है। आप योगे र ह। सारे जगत्का नय ण आप ही करते ह।
आप सबके दयम नवास करते ह और सब-के-सब आपके दयम नवास करते ह। आप
भ के एकमा वांछनीय, य वंश- शरोम ण और हमारे वामी ह ।।११।। जैसे एक ही
अ न सभी लक ड़य म ा त रहती है, वैसे एक ही आप सम त ा णय के आ मा ह।
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आ माके पम होनेपर भी आप अपनेको छपाये रखते ह; य क आप पंचकोश प
गुफा के भीतर रहते ह। फर भी पु षो मके पम, सबके नय ताके पम और सबके
सा ीके पम आपका अनुभव होता ही है ।।१२।। भो! आप सबके अ ध ान और वयं
अ ध ानर हत ह। अपने सृ के ार भम अपनी मायासे ही गुण क सृ क और उन
गुण को ही वीकार करके आप जगत्क उ प थ त और लय करते रहते ह। यह सब
करनेके लये आपको अपनेसे अ त र और कसी भी व तुक आव यकता नह है। य क
आप सवश मान् और स यसङ् क प ह ।।१३।। वही आप दै य, मथ और रा स का,
ज ह ने आजकल राजा का वेष धारण कर रखा है, वनाश करनेके लये तथा धमक
मयादा क र ा करनेके लये य वंशम अवतीण ए ह ।।१४।। यह बड़े आन दक बात है
क आपने खेल-ही-खेलम घोड़ेके पम रहनेवाले इस केशी दै यको मार डाला। इसक
हन हनाहटसे डरकर दे वतालोग अपना वग छोड़कर भाग जाया करते थे ।।१५।।

द ा ते नहतो दै यो लीलयायं हयाकृ तः ।


य य हे षतसं ता यज य न मषा दवम् ।।१५

चाणूरं मु कं चैव म लान यां ह तनम् ।


कंसं च नहतं ये पर ोऽह न ते वभो ।।१६

त यानु शंखयवनमुराणां नरक य च ।


पा रजातापहरण म य च पराजयम् ।।१७

उ ाहं वीरक यानां वीयशु का दल णम् ।


नृग य मो णं पापाद् ारकायां जग पते ।।१८

यम तक य च मणेरादानं सह भायया ।
मृतपु दानं च ा ण य वधामतः ।।१९

पौ क य वधं प ात् का शपुया द पनम् ।


द तव य नधनं चै य च महा तौ ।।२०

या न चा या न वीया ण ारकामावसन् भवान् ।


कता या यहं ता न गेया न क व भभु व ।।२१

अथ ते काल प य प य णोरमु य वै ।
अ ौ हणीनां नधनं या यजुनसारथेः ।।२२

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वशु व ानघनं वसं थया
समा तसवाथममोघवां छतम् ।
भो! अब परस म आपके हाथ चाणूर, मु क, सरे पहलवान, कुवलयापीड हाथी
और वयं कंसको भी मरते दे खूँगा ।।१६।।
उसके बाद शंखासुर, कालयवन, मुर और नरकासुरका वध दे खूँगा। आप वगसे
क पवृ उखाड़ लायगे और इ के च -चपड़ करनेपर उनको उसका मजा चखायगे ।।१७।।
आप अपनी कृपा, वीरता, सौ दय आ दका शु क दे कर वीर-क या से ववाह करगे,
और जगद र! आप ारकाम रहते ए नृगको पापसे छु ड़ायगे ।।१८।।
आप जा बवतीके साथ यम तक म णको जा बवान्से ले आयगे और अपने धामसे
ा णके मरे ए पु को ला दगे ।।१९।।
इसके प ात् आप पौ क— म यावासुदेवका वध करगे। काशीपुरीको जला दगे।
यु ध रके राजसूय-य म चे दराज शशुपालको और वहाँसे लौटते समय उसके मौसेरे भाई
द तव को न करगे ।।२०।।
भो! ारकाम नवास करते समय आप और भी ब त-से परा म कट करगे ज ह
पृ वीके बड़े-बड़े ानी और तभाशील पु ष आगे चलकर गायगे। म वह सब
दे खूँगा ।।२१।।
इसके बाद आप पृ वीका भार उतारनेके लये काल पसे अजुनके सार थ बनगे और
अनेक अ ौ हणी सेनाका संहार करगे। यह सब म अपनी आँख से दे खूँगा ।।२२।।
भो! आप वशु व ानघन ह। आपके व पम और कसीका अ त व है ही नह ।
आप न य- नर तर अपने परमान द व पम थत रहते ह। इस लये सारे पदाथ आपको
न य ा त ही ह। आपका संक प अमोघ है। आपक च मयी श के सामने माया और
मायासे होनेवाला यह गुणमय संसार-च न य नवृ है—कभी आ ही नह । ऐसे आप
अख ड, एकरस, स चदान द व प, नर तशय ऐ यस प भगवान्क म शरण हण
करता ँ ।।२३।।

वतेजसा न य नवृ माया-


गुण वाहं भगव तमीम ह ।।२३

वामी रं वा यमा ममायया


व न मताशेष वशेषक पनम् ।
डाथम ा मनु य व हं
नतोऽ म धुय य वृ णसा वताम् ।।२४
ीशुक उवाच

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एवं य प त कृ णं भागवत वरो मु नः ।
णप या यनु ातो ययौ त शनो सवः ।।२५

भगवान प गो व दो ह वा के शनमाहवे ।
पशूनपालयत् पालैः ीतै जसुखावहः ।।२६

एकदा ते पशून् पाला ारय तोऽ सानुषु ।


च ु नलायन डा ोरपालापदे शतः ।।२७

त ासन् क त च चोराः पाला क त च ृप ।


मेषा यता त ैके वज रकुतोभयाः ।।२८

मयपु ो महामायो ोमो गोपालवेषधृक् ।


मेषा यतानपोवाह ाय ोरा यतो ब न् ।।२९

ग रदया व न य नीतं नीतं महासुरः ।


शलया पदधे ारं चतुःपंचावशे षताः ।।३०
आप सबके अ तयामी और नय ता ह। अपने-आपम थत, परम वत ह। जगत् और
उसके अशेष वशेष —भाव-अभाव प सारे भेद- वभेद क क पना केवल आपक मायासे
ही ई है। इस समय अपने अपनी लीला कट करनेके लये मनु यका-सा ी व ह कट
कया है और आप य , वृ ण तथा सा वतवं शय के शरोम ण बने ह। भो! म आपको
नम कार करता ँ’ ।।२४।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान्के परम ेमी भ दे व ष नारदजीने इस
कार भगवान्क तु त और णाम कया। भगवान्के दशन के आ ादसे नारदजीका रोम-
रोम खल उठा। तदन तर उनक आ ा ा त करके वे चले गये ।।२५।।
इधर भगवान् ीकृ ण केशीको लड़ाईम मारकर फर अपने ेमी एवं स च वाल-
बाल के साथ पूववत् पशु-पालनके कामम लग गये तथा जवा सय को परमान द वतरण
करने लगे ।।२६।।
एक समय वे सब वालबाल पहाड़क चो टय पर गाय आ द पशु को चरा रहे थे तथा
कुछ चोर और कुछ र क बनकर छपने- छपानेका—लुका-लुक का खेल खेल रहे
थे ।।२७।।
राजन्! उन लोग मसे कुछ तो चोर और कुछ र क तथा कुछ भेड़ बन गये थे। इस कार
वे नभय होकर खेलम रम गये थे ।।२८।।
उसी समय वालका वेष धारण करके ोमासुर वहाँ आया। वह माया वय के आचाय

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मयासुरका पु था और वयं भी बड़ा मायावी था। वह खेलम ब धा चोर ही बनता और भेड़
बने ए ब त-से बालक को चुराकर छपा आता ।।२९।।
वह महान् असुर बार-बार उ ह ले जाकर एक पहाड़क गुफाम डाल दे ता और उसका
दरवाजा एक बड़ी च ानसे ढक दे ता। इस कार वालबाल म केवल चार-पाँच बालक ही
बच रहे ।।३०।।

त य तत् कम व ाय कृ णः शरणदः सताम् ।


गोपान् नय तं ज ाह वृकं ह र रवौजसा ।।३१

स नजं पमा थाय गरी स शं बली ।


इ छन् वमो ु मा मानं नाश नोद् हणातुरः ।।३२

तं नगृ ा युतो दो या पात य वा महीतले ।


प यतां द व दे वानां पशुमारममारयत् ।।३३

गुहा पधानं न भ गोपान् नःसाय कृ तः ।


तूयमानः सुरैग पैः ववेश वगोकुलम् ।।३४
भ व सल भगवान् उसक यह करतूत जान गये। जस समय वह वालबाल को लये
जा रहा था, उसी समय उ ह ने, जैसे सह भे ड़येको दबोच ले उसी कार, उसे धर
दबाया ।।३१।।
ोमासुर बड़ा बली था। उसने पहाड़के समान अपना असली प कट कर दया और
चाहा क अपनेको छु ड़ा लू।ँ पर तु भगवान्ने उसको इस कार अपने शकंजेम फाँस लया
था क वह अपनेको छु ड़ा न सका ।।३२।।
तब भगवान् ीकृ णने अपने दोन हाथ से जकड़कर उसे भू मपर गरा दया और
पशुक भाँ त गला घ टकर मार डाला। दे वतालोग वमान पर चढ़कर उनक यह लीला दे ख
रहे थे ।।३३।।
अब भगवान् ीकृ णने गुफाके ारपर लगे ए च ान के पहान तोड़ डाले और
वालबाल को उस संकटपूण थानसे नकाल लया। बड़े-बड़े दे वता और वालबाल उनक
तु त करने लगे और भगवान् ीकृ ण जम चले आये ।।३४।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध ोमासुरवधो नाम
स त शोऽ यायः ।।३७।।

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१. सु व मतैः प भवा द भः सुरैः सू०।

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अथा ा शोऽ यायः
अ ू रजीक जया ा
ीशुक उवाच
अ ू रोऽ प च तां रा मधुपुया महाम तः ।
उ ष वा रथमा थाय ययौ न दगोकुलम् ।।१
ग छन् प थ महाभागो भगव य बुजे णे ।
भ परामुपगत एवमेतद च तयत् ।।२
क मयाऽऽच रतं भ ं क त तं परमं तपः ।
क वाथा यहते द ं यद् या य केशवम् ।।३
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! महाम त अ ू रजी भी वह रात मथुरापुरीम बताकर
ातःकाल होते ही रथपर सवार ए और न दबाबाके गोकुलक ओर चल दये ।।१।। परम
भा यवान् अ ू रजी जक या ा करते समय मागम कमलनयन भगवान् ीकृ णक परम
ेममयी भ से प रपूण हो गये। वे इस कार सोचने लगे— ।।२।। ‘मने ऐसा कौन-सा शुभ
कम कया है, ऐसी कौन-सी े तप या क है अथवा कसी स पा को ऐसा कौन-सा
मह वपूण दान दया है जसके फल व प आज म भगवान् ीकृ णके दशन क ँ गा ।।३।।
ममैतद् लभं म य उ म ोकदशनम् ।
वषया मनो यथा क तनं शू ज मनः ।।४

मैवं ममाधम या प यादे वा युतदशनम् ।


यमाणः कालन ा व च र त क न ।।५

ममा ामंगलं न ं फलवां ैव मे भवः ।


य म ये भगवतो यो ग येयाङ् पंकजम् ।।६

कंसो बता ाकृत मेऽ यनु हं


येऽङ् प ं हतोऽमुना हरेः ।
कृतावतार य र ययं तमः
पूवऽतरन् य खम डल वषा ।।७

यद चतं भवा द भः सुरैः


या च दे ा मु न भः ससा वतैः ।
गोचारणायानुचरै रद्वने
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यद् गो पकानां कुचकुंकुमाङ् कतम् ।।८

या म नूनं सुकपोलना सकं


मतावलोका णक चलोचनम् ।
मुखं मुकु द य गुडालकावृतं
द णं मे चर त वै मृगाः ।।९
म बड़ा वषयी ँ। ऐसी थ तम, बड़े-बड़े सा वक पु ष भी जनके गुण का ही गान
करते रहते ह, दशन नह कर पाते—उन भगवान्के दशन मेरे लये अ य त लभ ह, ठ क
वैसे ही, जैसे शू कुलके बालकके लये वेद का क तन ।।४।। परंतु नह , मुझ अधमको भी
भगवान् ीकृ णके दशन ह गे ही। य क जैसे नद म बहते ए तनके कभी-कभी इस
पारसे उस पार लग जाते ह, वैसे ही समयके वाहसे भी कह कोई इस संसारसागरको पार
कर सकता है ।।५।। अव य ही आज मेरे सारे अशुभ न हो गये। आज मेरा ज म सफल हो
गया। य क आज म भगवान्के उन चरणकमल म सा ात् नम कार क ँ गा, जो बड़े-बड़े
योगी-य तय के भी केवल यानके ही वषय ह ।।६।। अहो! कंसने तो आज मेरे ऊपर बड़ी
ही कृपा क है। उसी कंसके भेजनेसे म इस भूतलपर अवतीण वयं भगवान्के
चरणकमल के दशन पाऊँगा। जनके नखम डलक का तका यान करके पहले युग के
ऋ ष-मह ष इस अ ान प अपार अ धकार-रा शको पार कर चुके ह, वयं वही भगवान् तो
अवतार हण करके कट ए ह ।।७।। ा, शंकर, इ आ द बड़े-बड़े दे वता जन
चरणकमल क उपासना करते रहते ह, वयं भगवती ल मी एक णके लये भी जनक
सेवा नह छोड़त , ेमी भ के साथ बड़े-बड़े ानी भी जनक आराधनाम संल न रहते ह
—भगवान्के वे ही चरणकमल गौ को चरानेके लये वालबाल के साथ वन-वनम वचरते
ह। वे ही सुर-मु न-व दत ीचरण गो पय के व ः- थलपर लगी ई केसरसे रँग जाते ह,
च त हो जाते ह, ।।८।। म अव य-अव य उनका दशन क ँ गा। मरकतम णके समान
सु न ध का तमान् उनके कोमल कपोल ह, तोतेक ठोरके समान नुक ली ना सका है,
होठ पर म द-म द मुसकान, ेमभरी चतवन, कमल-से कोमल रतनारे लोचन और
कपोल पर घुँघराली अलक लटक रही ह। म ेम और मु के परम दानी ीमुकु दके उस
मुखकमलका आज अव य दशन क ँ गा। य क ह रन मेरी दाय ओरसे नकल रहे
ह ।।९।। भगवान् व णु पृ वीका भार उतारनेके लये वे छासे मनु यक -सी लीला कर रहे
ह! वे स पूण लाव यके धाम ह। सौ दयक मू तमान् न ध ह। आज मुझे उ ह का दशन
होगा! अव य होगा! आज मुझे सहजम ही आँख का फल मल जायगा ।।१०।। भगवान् इस
काय-कारण प जगत्के ामा ह, और ऐसा होनेपर भी ापनका अहंकार उ ह छू तक
नह गया है। उनक च मयी श से अ ानके कारण होनेवाला भेद म अ ानस हत रसे
ही नर त रहता है। वे अपनी योगमायासे ही अपने-आपम ू वलासमा से ाण, इ य और
बु आ दके स हत अपने व पभूत जीव क रचना कर लेते ह और उनके साथ
वृ दावनक कुंज म तथा गो पय के घर म तरह-तरहक लीलाएँ करते ए तीत होते

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ह ।।११।। जब सम त पाप के नाशक उनके परम मंगलमय गुण, कम और ज मक
लीला से यु होकर वाणी उनका गान करती है, तब उस गानसे संसारम जीवनक फू त
होने लगती है, शोभाका संचार हो जाता है, सारी अप व ताएँ धुलकर प व ताका सा ा य
छा जाता है; पर तु जस वाणीसे उनके गुण, लीला और ज मक कथाएँ नह गायी जात ,
वह तो मुद को ही शो भत करनेवाली है, होनेपर भी नह के समान— थ है ।।१२।। जनके
गुणगानका ही ऐसा माहा य है, वे ही भगवान् वयं य वंशम अवतीण ए ह। कस लये?
अपनी ही बनायी मयादाका पालन करनेवाले े दे वता का क याण करनेके लये। वे ही
परम ऐ यशाली भगवान् आज जम नवास कर रहे ह और वह से अपने यशका व तार
कर रहे ह उनका यश कतना प व है! अहो, दे वतालोग भी उस स पूण मंगलमय यशका
गान करते रहते ह ।।१३।। इसम स दे ह नह क आज म अव य ही उ ह दे खूँगा। वे बड़े-बड़े
संत और लोकपाल के भी एकमा आ य ह। सबके परम गु ह। और उनका प-सौ दय
तीन लोक के मनको मोह लेनेवाला है। जो ने वाले ह उनके लये वह आन द और रसक
चरम सीमा है। इसीसे वयं ल मीजी भी, जो सौ दयक अधी री ह, उ ह पानेके लये
ललकती रहती ह। हाँ, तो म उ ह अव य दे खूँगा। य क आज मेरा मंगल- भात है, आज
मुझे ातःकालसे ही अ छे -अ छे शकुन द ख रहे ह ।।१४।। जब म उ ह दे खूँगा तब सव े
पु ष बलराम तथा ीकृ णके चरण म नम कार करनेके लये तुरंत रथसे कूद पडँगा। उनके
चरण पकड़ लूँगा। ओह! उनके चरण कतने लभ ह! बड़े-बड़े योगी-य त आ म-
सा ा कारके लये मन-ही-मन अपने दयम उनके चरण क धारणा करते ह और म तो उ ह
य पा जाऊँगा और लोट जाऊँगा उनपर। उन दोन के साथ ही उनके वनवासी सखा एक-
एक वालबालके चरण क भी व दना क ँ गा ।।१५।। मेरे अहोभा य! जब म उनके चरण-
कमल म गर जाऊँगा, तब या वे अपना करकमल मेरे सरपर रख दगे? उनके वे करकमल
उन लोग को सदाके लये अभयदान दे चुके ह, जो काल पी साँपके भयसे अ य त
घबड़ाकर उनक शरण चाहते और शरणम आ जाते ह ।।१६।। इ तथा दै यराज ब लने
भगवान्के उ ह करकमल म पूजाक भट सम पत करके तीन लोक का भु व—इ पद
ा त कर लया। भगवान्के उ ह करकमल ने, जनमसे द कमलक -सी सुग ध आया
करती है, अपने पशसे रासलीलाके समय जयुव तय क सारी थकान मटा द थी ।।१७।।
म कंसका त ँ। उसीके भेजनेसे उनके पास जा रहा ँ। कह वे मुझे अपना श ु तो न
समझ बैठगे? राम-राम! वे ऐसा कदा प नह समझ सकते। य क वे न वकार ह, सम ह,
अ युत ह, सारे व के सा ी ह, सव ह, वे च के बाहर भी ह और भीतर भी। वे
े पसे थत होकर अ तःकरणक एक-एक चे ाको अपनी नमल ान- के ारा
दे खते रहते ह ।।१८।। तब मेरी शंका थ है। अव य ही म उनके चरण म हाथ जोड़कर
वनीतभावसे खड़ा हो जाऊँगा। वे मुसकराते ए दयाभरी न ध से मेरी ओर दे खगे। उस
समय मेरे ज म-ज मके सम त अशुभ सं कार उसी ण न हो जायँगे और म नःशंक
होकर सदाके लये परमान दम म न हो जाऊँगा ।।१९।।
अ य व णोमनुज वमीयुषो

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भारावताराय भुवो नजे छया ।
लाव यधा नो भ वतोपल भनं
म ं न न यात् फलम सा शः ।।१०

य ई ताहंर हतोऽ यस सतोः


वतेजसापा ततमो भदा मः ।
वमाययाऽऽ मन् र चतै तद या
ाणा धी भः सदने वभीयते ।।११

य या खलामीवह भः सुम लै-


वाचो व म ा गुणकमज म भः ।
ाण त शु भ त पुन त वै जगद्
या त र ाः शवशोभना मताः ।।१२

स चावतीणः कल सा वता वये


वसेतुपालामरवयशमकृत् ।
यशो वत वन् ज आ त ई रो
गाय त दे वा यदशेषम लम् ।।१३

तं व नूनं महतां ग त गु ं
ैलो यका तं शम महो सवम् ।
पं दधानं य ई सता पदं
ये ममास ुषसः सुदशनाः ।।१४

अथाव ढः सपद शयो रथात्


धानपुंसो रणं वल धये ।
धया धृतं यो ग भर यहं ुवं
नम य आ यां च सखीन् वनौकसः ।।१५

अ यङ् मूले प तत य मे वभुः


शर यधा य जह तपंकजम् ।
द ाभयं कालभुजंगरंहसा
ो े जतानां शरणै षणां नृणाम् ।।१६

समहणं य नधाय कौ शक-

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तथा ब ल ाप जग ये ताम् ।
यद् वा वहारे जयो षतां मं
पशन सौग धकग यपानुदत् ।।१७

न म युपै य य रबु म युतः


कंस य तः हतोऽ प व क् ।
योऽ तब ह ेतस एतद हतं
े ई यमलेन च ुषा ।।१८

अ यङ् मूलेऽव हतं कृतांज ल


मामी ता स मतमा या शा ।
सप प व तसम त क बषो
वोढा मुदं वीत वशंक ऊ जताम् ।।१९
सु मं ा तमन यदै वतं
दो या बृह यां प रर यतेऽथ माम् ।
आ मा ह तीथ यते तदै व मे
ब ध कमा मक उ छ् व स यतः ।।२०

ल धांगसंगं णतं कृतांज ल


मां व यतेऽ ू र तते यु वाः ।
तदा वयं ज मभृतो महीयसा
नैवा तो यो धगमु य ज म तत् ।।२१

न त य क द् द यतः सु मो
न चा यो े य उपे य एव वा ।
तथा प भ ान् भजते यथा तथा
सुर मो य पा तोऽथदः ।।२२

कचा जो मावनतं य मः
मयन् प र व य गृहीतमंजलौ ।
गृहं वे या तसम तस कृतं
सं यते कंसकृतं वब धुषु ।।२३
ीशुक उवाच
इ त स च तयन् कृ णं फ कतनयोऽ व न ।

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रथेन गोकुलं ा तः सूय ा त ग र नृप ।।२४
म उनके कुटु बका ँ और उनका अ य त हत चाहता ।ँ उनके सवा और कोई मेरा
आरा यदे व भी नह है। ऐसी थ तम वे अपनी लंबी-लंबी बाँह से पकड़कर मुझे अव य
अपने दयसे लगा लगे। अहा! उस समय मेरी तो दे ह प व होगी ही, वह सर को प व
करनेवाली भी बन जायगी और उसी समय—उनका आ लगन ा त होते ही—मेरे कममय
ब धन, जनके कारण म अना दकालसे भटक रहा ँ, टू ट जायँगे ।।२०।। जब वे मेरा
आ लगन कर चुकगे और म हाथ जोड़, सर झुकाकर उनके सामने खड़ा हो जाऊँगा तब वे
मुझे ‘चाचा अ ू र!’ इस कार कहकर स बोधन करगे! य न हो, इसी प व और मधुर
यशका व तार करनेके लये ही तो वे लीला कर रहे ह। तब मेरा जीवन सफल हो जायगा।
भगवान् ीकृ णने जसको अपनाया नह , जसे आदर नह दया—उसके उस ज मको,
जीवनको ध कार है ।।२१।। न तो उ ह कोई य है और न तो अ य। न तो उनका कोई
आ मीय सु द् है और न तो श ु। उनक उपे ाका पा भी कोई नह है। फर भी जैसे
क पवृ अपने नकट आकर याचना करनेवाल को उनक मुँहमाँगी व तु दे ता है, वैसे ही
भगवान् ीकृ ण भी, जो उ ह जस कार भजता है, उसे उसी पम भजते ह—वे अपने
ेमी भ से ही पूण ेम करते ह ।।२२।। म उनके सामने वनीत भावसे सर झुकाकर खड़ा
हो जाऊँगा और बलरामजी मुसकराते ए मुझे अपने दयसे लगा लगे और फर मेरे दोन
हाथ पकड़कर मुझे घरके भीतर ले जायँग।े वहाँ सब कारसे मेरा स कार करगे। इसके बाद
मुझसे पूछगे क ‘कंस हमारे घरवाल के साथ कैसा वहार करता है?’ ।।२३।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! फ क-न दन अ ू र मागम इसी च तनम डू ब-े डू बे
रथसे न द-गाँव प ँच गये और सूय अ ताचलपर चले गये ।।२४।। जनके चरणकमलक
रजका सभी लोकपाल अपने करीट के ारा सेवन करते ह, अ ू रजीने गो म उनके
चरण च के दशन कये। कमल, यव, अंकुश आ द असाधारण च के ारा उनक पहचान
हो रही थी और उनसे पृ वीक शोभा बढ़ रही थी ।।२५।। उन चरण च के दशन करते ही
अ ू रजीके दयम इतना आ ाद आ क वे अपनेको सँभाल न सके, व ल हो गये। ेमके
आवेगसे उनका रोम-रोम खल उठा, ने म आँसू भर आये और टप-टप टपकने लगे। वे
रथसे कूद-कर उस धू लम लोटने लगे और कहने लगे—‘अहो! यह हमारे भुके चरण क
रज है’ ।।२६।।
पदा न त या खललोकपाल-
करीटजु ामलपादरेणोः ।
ददश गो े तकौतुका न
वल ता य जयवांकुशा ैः ।।२५

त शना ाद ववृ स मः
े णो वरोमा ुकलाकुले णः ।
रथादव क स ते वचे त
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भोरमू यङ् रजां यहो इ त ।।२६

दे हंभृता मयानथ ह वा द भं भयं शुचम् ।


संदेशाद् यो हरे लगदशन वणा द भः ।।२७

ददश कृ णं रामं च जे गोदोहनं गतौ ।


पीतनीला बरधरौ शरद बु हे णौ ।।२८

कशोरौ यामल ेतौ ी नकेतौ बृह जौ ।


सुमुखौ सु दरवरौ बाल रद व मौ ।।२९

वजव ांकुशा भोजै तैरङ् भ जम् ।


शोभय तौ महा मानावनु ोश मते णौ ।।३०

उदार चर डौ वणौ वनमा लनौ ।


पु यग धानु ल तांगौ नातौ वरजवाससौ ।।३१
परी त्! कंसके स दे शसे लेकर यहाँतक अ ू रजीके च क जैसी अव था रही है, यही
जीव के दे ह धारण करनेका परम लाभ है। इस लये जीवमा का यही परम कत है क
द भ, भय और शोक यागकर भगवान्क मू त ( तमा, भ आ द) च , लीला, थान
तथा गुण के दशन- वण आ दके ारा ऐसा ही भाव स पादन कर ।।२७।।
जम प ँचकर अ ू रजीने ीकृ ण और बलराम दोन भाइय को गाय हनेके थानम
वराजमान दे खा। यामसु दर ीकृ ण पीता बर धारण कये ए थे और गौरसु दर बलराम
नीला बर। उनके ने शर कालीन कमलके समान खले ए थे ।।२८।। उ ह ने अभी कशोर-
अव थाम वेश ही कया था। वे दोन गौर- याम न खल सौ दयक खान थे। घुटन का पश
करनेवाली लंबी-लंबी भुजाएँ, सु दर बदन, परम मनोहर और गजशावकके समान ल लत
चाल थी ।।२९।। उनके चरण म वजा, व , अंकुश और कमलके च थे। जब वे चलते थे,
उनसे च त होकर पृ वी शोभायमान हो जाती थी। उनक म द-म द मुसकान और चतवन
ऐसी थी मानो दया बरस रही हो। वे उदारताक तो मानो मू त ही थे ।।३०।। उनक एक-एक
लीला उदारता और सु दर कलासे भरी थी। गलेम वनमाला और म णय के हार जगमगा रहे
थे। उ ह ने अभी-अभी नान करके नमल व पहने थे और शरीरम प व अंगराग तथा
च दनका लेप कया था ।।३१।।
धानपु षावा ौ जग े तू जग पती ।
अवतीण जग यथ वांशेन बलकेशवौ ।।३२

दशो व त मरा राजन् कुवाणौ भया वया ।


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यथा मारकतः शैलो रौ य कनका चतौ ।।३३

रथा ूणमव लु य सोऽ ू रः नेह व लः ।


पपात चरणोपा ते द डवद् रामकृ णयोः ।।३४

भगव शना ादबा पपयाकुले णः ।


पुलका चतांग औ क ात् वा याने नाशकन् नृप ।।३५

भगवां तम भ े य रथांगाङ् कतपा णना ।


प ररेभेऽ युपाकृ य ीतः णतव सलः ।।३६

संकषण णतमुपगु महामनाः ।


गृही वा पा णना पाणी अनयत् सानुजो गृहम् ।।३७

पृ ् वाथ वागतं त मै नवे च वरासनम् ।


ा य व धवत् पादौ मधुपकाहणमाहरत् ।।३८

नवे गां चा तथये संवा ा तमा तः ।


अ ं ब गुणं मे यं योपाहरद् वभुः ।।३९

त मै भु वते ी या रामः परमधम वत् ।


मुखवासैग धमा यैः परां ी त धात् पुनः ।।४०

प छ स कृतं न दः कथं थ नरनु हे ।


कंसे जीव त दाशाह सौनपाला इवावयः ।।४१
परी त्! अ ू रने दे खा क जगत्के आ दकारण, जगत्के परमप त, पु षो म ही
संसारक र ाके लये अपने स पूण अंश से बलरामजी और ीकृ णके पम अवतीण
होकर अपनी अंगका तसे दशा का अ धकार र कर रहे ह। वे ऐसे भले मालूम होते थे,
जैसे सोनेसे मढ़े ए मरकतम ण और चाँद के पवत जगमगा रहे ह ।।३२-३३।। उ ह दे खते
ही अ ू रजी ेमावेगसे अधीर होकर रथसे कूद पड़े और भगवान् ीकृ ण तथा बलरामके
चरण के पास सा ांग लोट गये ।।३४।। परी त्! भगवान्के दशनसे उ ह इतना आ ाद
आ क उनके ने आँसूसे सवथा भर गये। सारे शरीरम पुलकावली छा गयी। उ क ठावश
गला भर आनेके कारण वे अपना नाम भी न बतला सके ।।३५।। शरणागतव सल भगवान्
ीकृ ण उनके मनका भाव जान गये। उ ह ने बड़ी स तासे च ां कत हाथ के ारा उ ह
ख चकर उठाया और दयसे लगा लया ।।३६।। इसके बाद जब वे परम मन वी

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ीबलरामजीके सामने वनीत भावसे खड़े हो गये, तब उ ह ने उनको गले लगा लया और
उनका एक हाथ ीकृ णने पकड़ा तथा सरा बलरामजीने। दोन भाई उ ह घर ले
गये ।।३७।।
घर ले जाकर भगवान्ने उनका बड़ा वागत-स कार कया। कुशल-मंगल पूछकर े
आसनपर बैठाया और व धपूवक उनके पाँव पखारकर मधुपक (शहद मला आ दही)
आ द पूजाक साम ी भट क ।।३८।। इसके बाद भगवान्ने अ त थ अ ू रजीको एक गाय
द और पैर दबाकर उनक थकावट र क तथा बड़े आदर एवं ासे उ ह प व और
अनेक गुण से यु अ का भोजन कराया ।।३९।। जब वे भोजन कर चुके, तब धमके परम
मम भगवान् बलरामजीने बड़े ेमसे मुखवास (पान-इलायची आ द) और सुग धत माला
आ द दे कर उ ह अ य त आन दत कया ।।४०।। इस कार स कार हो चुकनेपर
न दरायजीने उनके पास आकर पूछा—‘अ ू रजी! आपलोग नदयी कंसके जीते-जी कस
कार अपने दन काटते ह? अरे! उसके रहते आपलोग क वही दशा है जो कसाई ारा
पाली ई भेड़ क होती है ।।४१।। जस इ याराम पापीने अपनी बलखती ई बहनके
न हे-न हे ब च को मार डाला। आपलोग उसक जा ह। फर आप सुखी ह, यह अनुमान तो
हम कर ही कैसे सकते ह? ।।४२।। अ ू रजीने न दबाबासे पहले ही कुशल-मंगल पूछ लया
था। जब इस कार न दबाबाने मधुर वाणीसे अ ू रजीसे कुशल-मंगल पूछा और उनका
स मान कया तब अ ू रजीके शरीरम रा ता चलनेक जो कुछ थकावट थी, वह सब र हो
गयी ।।४३।।
योऽवधीत् व वसु तोकान् ोश या असुतृप् खलः ।
क नु व जानां वः कुशलं वमृशामहे ।।४२

इ थं सूनृतया वाचा न दे न सुसभा जतः ।


अ ू रः प रपृ ेन जहाव वप र मम् ।।४३
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाधऽ ू रागमनं
नामा ा शोऽ यायः ।।३८।।

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अथैकोनच वा रशोऽ यायः
ीकृ ण-बलरामका मथुरागमन
ीशुक उवाच
सुखोप व ः पयके रामकृ णो मा नतः ।
लेभे मनोरथान् सवान् प थ यान् स चकार ह ।।१

कमल यं भगव त स े ी नकेतने ।


तथा प त परा राज ह वा छ त कचन ।।२

सायंतनाशनं कृ वा भगवान् दे वक सुतः ।


सु सु वृ ं कंस य प छा य चक षतम् ।।३
ीभगवानुवाच
तात सौ यागतः क चत् वागतं भ म तु वः ।
अ प व ा तब धूनामनमीवमनामयम् ।।४

क नु नः कुशलं पृ छे एधमाने कुलामये ।


कंसे मातुलना य वानां न त जासु च ।।५
ीशुकदे वजी कहते ह—भगवान् ीकृ ण और बलरामजीने अ ू रजीका भलीभाँ त
स मान कया। वे आरामसे पलँगपर बैठ गये। उ ह ने मागम जो-जो अ भलाषाएँ क थ , वे
सब पूरी हो गय ।।१।। परी त्! ल मीके आ य थान भगवान् ीकृ णके स होनेपर
ऐसी कौन-सी व तु है, जो ा त नह हो सकती? फर भी भगवान्के परम ेमी भ जन
कसी भी व तुक कामना नह करते ।।२।।
दे वक न दन भगवान् ीकृ णने सायंकालका भोजन करनेके बाद अ ू रजीके पास
जाकर अपने वजन-स ब धय के साथ कंसके वहार और उसके अगले काय मके
स ब धम पूछा ।।३।।
भगवान् ीकृ णने कहा—चाचाजी! आपका दय बड़ा शु है। आपको या ाम कोई
क तो नह आ? वागत है। म आपक मंगलकामना करता ँ। मथुराके हमारे आ मीय
सु द्, कुटु बी तथा अ य स ब धी सब सकुशल और व थ ह न? ।।४।। हमारा नाममा का
मामा कंस तो हमारे कुलके लये एक भयंकर ा ध है। जबतक उसक बढ़ती हो रही है,
तबतक हम अपने वंशवाल और उनके बाल-ब च का कुशल-मंगल या पूछ ।।५।।
चाचाजी! हमारे लये यह बड़े खेदक बात है क मेरे ही कारण मेरे नरपराध और सदाचारी
माता- पताको अनेक कारक यातनाएँ झेलनी पड़ —तरह-तरहके क उठाने पड़े। और
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तो या क ँ, मेरे ही कारण उ ह हथकड़ी-बेड़ीसे जकड़कर जेलम डाल दया गया तथा मेरे
ही कारण उनके ब चे भी मार डाले गये ।।६।। म ब त दन से चाहता था क आप-लोग मसे
कसी-न- कसीका दशन हो। यह बड़े सौभा यक बात है क आज मेरी वह अ भलाषा पूरी
हो गयी। सौ य- वभाव चाचाजी! अब आप कृपा करके यह बतलाइये क आपका शुभागमन
कस न म से आ? ।।७।।
अहो अ मदभूद ् भू र प ोवृ जनमाययोः ।
य े तोः पु मरणं य े तोब धनं तयोः ।।६

द ा दशनं वानां म ं वः सौ य कां तम् ।


संजातं व यतां तात तवागमनकारणम् ।।७
ीशुक उवाच
पृ ो भगवता सव वणयामास माधवः ।
वैरानुब धं य षु वसुदेववधो मम् ।।८

य संदेशो यदथ वा तः सं े षतः वयम् ।


य ं नारदे ना य वज मानक भेः ।।९

ु वा ू रवचः कृ णो बल परवीरहा ।
ह य न दं पतरं रा ाऽऽ द ं वज तुः ।।१०

गोपान् समा दशत् सोऽ प गृ तां सवगोरसः ।


उपायना न गृ वं यु य तां शकटा न च ।।११

या यामः ो मधुपुर दा यामो नृपते रसान् ।


यामः सुमहत् पव या त जानपदाः कल ।
एवमाघोषयत् ा न दगोपः वगोकुले ।।१२

गो य ता त प ु य बभूवु थता भृशम् ।


रामकृ णौ पुर नेतुम ू रं जमागतम् ।।१३
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जब भगवान् ीकृ णने अ ू रजीसे इस कार
कया, तब उ ह ने बतलाया क ‘कंसने तो सभी य वं शय से घोर वैर ठान रखा है। वह
वसुदेवजीको मार डालनेका भी उ म कर चुका है’ ।।८।। अ ू रजीने कंसका स दे श और
जस उ े यसे उसने वयं अ ू रजीको त बनाकर भेजा था और नारदजीने जस कार
वसुदेवजीके घर ीकृ णके ज म लेनेका वृ ा त उसको बता दया था, सो सब कह
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सुनाया ।।९।। अ ू रजीक यह बात सुनकर वप ी श ु का दमन करनेवाले भगवान्
ीकृ ण और बलरामजी हँसने लगे और इसके बाद उ ह ने अपने पता न दजीको कंसक
आ ा सुना द ।।१०।। तब न दबाबाने सब गोप को आ ा द क ‘सारा गोरस एक करो।
भटक साम ी ले लो और छकड़े जोड़ो ।।११।। कल ातःकाल ही हम सब मथुराक या ा
करगे और वहाँ चलकर राजा कंसको गोरस दगे। वहाँ एक ब त बड़ा उ सव हो रहा है। उसे
दे खनेके लये दे शक सारी जा इक हो रही है। हमलोग भी उसे दे खगे।’ न दबाबाने
गाँवके कोतवालके ारा यह घोषणा सारे जम करवा द ।।१२।।
परी त्! जब गो पय ने सुना क हमारे मनमोहन यामसु दर और गौरसु दर
बलरामजीको मथुरा ले जानेके लये अ ू रजी जम आये ह तब उनके दयम बड़ी था
ई। वे ाकुल हो गय ।।१३।। भगवान् ीकृ णके मथुरा जानेक बात सुनते ही ब त के
दयम ऐसी जलन ई क गरम साँस चलने लगी, मुखकमल कु हला गया। और ब त क
ऐसी दशा ई—वे इस कार अचेत हो गय क उ ह खसक ई ओढ़नी, गरते ए कंगन
और ढ ले ए जूड़ तकका पता न रहा ।।१४।। भगवान्के व पका यान आते ही ब त-सी
गो पय क च वृ याँ सवथा नवृ हो गय , मानो वे समा ध थ—आ माम थत हो गयी
ह , और उ ह अपने शरीर और संसारका कुछ यान ही न रहा ।।१५।। ब त-सी गो पय के
सामने भगवान् ीकृ णका ेम, उनक म द-म द मुसकान और दयको पश करनेवाली
व च पद से यु मधुर वाणी नाचने लगी। वे उसम त लीन हो गय । मो हत हो
गय ।।१६।। गो पयाँ मन-ही-मन भगवान्क लटक ली चाल, भाव-भंगी, ेमभरी मुसकान,
चतवन, सारे शोक को मटा दे नेवाली ठठो लयाँ तथा उदारता-भरी लीला का च तन
करने लग और उनके वरहके भयसे कातर हो गय । उनका दय, उनका जीवन—सब कुछ
भगवान्के त सम पत था। उनक आँख से आँसू बह रहे थे। वे झुंड-क -झुंड इक होकर
इस कार कहने लग ।।१७-१८।।
का कृत ाप ास लानमुख यः१ ।
ंसद् कूलवलयकेश य २ का न ।।१४

अ या तदनु यान नवृ ाशेषवृ यः ।


ना यजान मं लोकमा मलोकं गता इव ।।१५

मर य ापराः शौरेरनुराग मते रताः३ ।


द पृश पदा गरः संमुमु ः यः ।।१६

ग त सुल लतां चे ां न धहासावलोकनम् ।


शोकापहा न नमा ण ो ामच रता न च ।।१७

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च तय यो मुकु द य भीता वरहकातराः ।
समेताः संघशः ोचुर ुमु योऽ युताशयाः४ ।।१८
गो य ऊचुः
अहो वधात तव न व चद् दया
संयो य मै या णयेन दे हनः ।
तां ाकृताथान् वयुनङ् यपाथकं
व डतं तेऽभकचे तं यथा ।।१९

य वं द या सतकु तलावृतं
मुकु दव ं सुकपोलमु सम् ।
शोकापनोद मतलेशसु दरं
करो ष पारो यमसाधु ते कृतम् ।।२०
गो पय ने कहा—ध य हो वधाता! तुम सब कुछ वधान तो करते हो, पर तु तु हारे
दयम दयाका लेश भी नह है। पहले तो तुम सौहाद और ेमसे जगत्के ा णय को एक-
सरेके साथ जोड़ दे ते हो, उ ह आपसम एक कर दे ते हो; मला दे ते हो पर तु अभी उनक
आशा-अ भलाषाएँ पूरी भी नह हो पात , वे तृ त भी नह हो पाते क तुम उ ह थ ही
अलग-अलग कर दे ते हो! सच है, तु हारा यह खलवाड़ ब च के खेलक तरह थ ही
है ।।१९।। यह कतने ःखक बात है! वधाता! तुमने पहले हम ेमका वतरण करनेवाले
यामसु दरका मुखकमल दखलाया। कतना सु दर है वह! काले-काले घुँघराले बाल
कपोल पर झलक रहे ह। मरकतम ण-से चकने सु न ध कपोल और तोतेक च च-सी सु दर
ना सका तथा अधर पर म द-म द मुसकानक सु दर रेखा, जो सारे शोक को त ण भगा
दे ती है। वधाता! तुमने एक बार तो हम वह परम सु दर मुखकमल दखाया और अब उसे ही
हमारी आँख से ओझल कर रहे हो! सचमुच तु हारी यह करतूत ब त ही अनु चत है ।।२०।।
हम जानती ह, इसम अ ू रका दोष नह है; यह तो साफ तु हारी ू रता है। वा तवम तु ह
अ ू रके नामसे यहाँ आये हो और अपनी ही द ई आँख तुम हमसे मूखक भाँ त छ न रहे
हो। इनके ारा हम यामसु दरके एक-एक अंगम तु हारी सृ का स पूण सौ दय नहारती
रहती थ । वधाता! तु ह ऐसा नह चा हये ।।२१।।

ू र वम ू रसमा यया म न-
ु ह द ं हरसे बता वत् ।
येनैकदे शेऽ खलसगसौ वं
वद यम ा म वयं मधु षः ।।२१

न न दसूनुः णभंगसौ दः

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समी ते नः वकृतातुरा बत ।
वहाय गेहान् वजनान् सुतान् पत -
त ा यम ोपगता नव यः ।।२२

सुखं भाता रजनीयमा शषः


स या बभूवुः पुरयो षतां ुवम् ।
याः सं व य मुखं ज पतेः
पा य यपांगो क लत मतासवम् ।।२३

तासां मुकु दो मधुमंजुभा षतै-


गृहीत च ः परवान् मन प।
कथं पुननः तया यतेऽबला
ा याः सल ज मत व मै मन् ।।२४

अ ुवं त शो भ व यते
दाशाहभोजा धकवृ णसा वताम् ।
महो सवः ीरमणं गुणा पदं
य त ये चा व न दे वक सुतम् ।।२५
अहो! न दन दन यामसु दरको भी नये-नये लोग से नेह लगानेक चाट पड़ गयी है।
दे खो तो सही—इनका सौहाद, इनका ेम एक णम ही कहाँ चला गया? हम तो अपने घर-
ार, वजन-स ब धी, प त-पु आ दको छोड़कर इनक दासी बन और इ ह के लये आज
हमारा दय शोकातुर हो रहा है, पर तु ये ऐसे ह क हमारी ओर दे खतेतक नह ।।२२।।
आजक रातका ातःकाल मथुराक य के लये न य ही बड़ा मंगलमय होगा। आज
उनक ब त दन क अ भलाषाएँ अव य ही पूरी हो जायँगी। जब हमारे जराज यामसु दर
अपनी तरछ चतवन और म द-म द मुसकानसे यु मुखार व दका मादक मधु वतरण
करते ए मथुरापुरीम वेश करगे, तब वे उसका पान करके ध य-ध य हो जायँगी ।।२३।।
य प हमारे यामसु दर धैयवान् होनेके साथ ही न दबाबा आ द गु जन क आ ाम रहते ह,
तथा प मथुराक युव तयाँ अपने मधुके समान मधुर वचन से इनका च बरबस अपनी ओर
ख च लगी और ये उनक सल ज मुसकान तथा वलासपूण भाव-भंगीसे वह रम जायँग।े
फर हम गँवार वा लन के पास ये लौटकर य आने लगे ।।२४।। ध य है आज हमारे
यामसु दरका दशन करके मथुराके दाशाह, भोज, अ धक और वृ णवंशी यादव के ने
अव य ही परमान दका सा ा कार करगे। आज उनके यहाँ महान् उ सव होगा। साथ ही जो
लोग यहाँसे मथुरा जाते ए रमारमण गुणसागर नटनागर दे वक न दन यामसु दरका मागम
दशन करगे, वे भी नहाल हो जायँगे ।।२५।।

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मैत ध याक ण य नाम भू-
द ू र इ येतदतीव दा णः ।
योऽसावना ा य सु ः खतं जनं
या यं ने य त पारम वनः ।।२६

अना धीरेष समा थतो रथं


तम वमी च वरय त मदाः ।
गोपा अनो भः थ वरै पे तं
दै वं च नोऽ तकूलमीहते ।।२७

नवारयामः समुपे य माधवं


क नोऽक र यन् कुलवृ बा धवाः ।
मुकु दसंगा मषाध यजाद्
दै वेन व वं सतद नचेतसाम् ।।२८

य यानुरागल लत मतव गुम -


लीलावलोकप रर भणरासगो ाम् ।
नीताः म नः ण मव णदा वना तं
गो यः कथं व ततरेम तमो र तम् ।।२९

योऽ ः ये जमन तसखः परीतो


गोपै वशन् खुररज छु रतालक क् ।
वेणुं वणन् मतकटा नरी णेन
च ं णो यमुमृते नु कथं भवेम ।।३०
दे खो सखी! यह अ ू र कतना नठु र, कतना दयहीन है। इधर तो हम गो पयाँ इतनी
ः खत हो रही ह और यह हमारे परम यतम न द लारे यामसु दरको हमारी आँख से
ओझल करके ब त र ले जाना चाहता है और दो बात कहकर हम धीरज भी नह बँधाता,
आ ासन भी नह दे ता। सचमुच ऐसे अ य त ू र पु षका ‘अ ू र’ नाम नह होना चा हये
था ।।२६।। सखी! हमारे ये यामसु दर भी तो कम नठु र नह ह। दे खो-दे खो, वे भी रथपर
बैठ गये। और मतवाले गोपगण छकड़ ारा उनके साथ जानेके लये कतनी ज द मचा रहे
ह। सचमुच ये मूख ह। और हमारे बड़े-बूढ़े! उ ह ने तो इन लोग क ज दबाजी दे खकर
उपे ा कर द है क ‘जाओ जो मनम आवे, करो!’ अब हम या कर? आज वधाता सवथा
हमारे तकूल चे ा कर रहा है ।।२७।। चलो, हम वयं ही चलकर अपने ाण यारे
यामसु दरको रोकगी; कुलके बड़े-बूढ़े और ब धुजन हमारा या कर लगे? अरी सखी! हम
आधे णके लये भी ाणव लभ न दन दनका संग छोड़नेम असमथ थ । आज हमारे
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भा यने हमारे सामने उनका वयोग उप थत करके हमारे च को वन एवं ाकुल कर
दया है ।।२८।। स खयो! जनक ेमभरी मनोहर मुसकान, रह यक मीठ -मीठ बात,
वलासपूण चतवन और ेमा लगनसे हमने रासलीलाक वे रा याँ—जो ब त वशाल थ
—एक णके समान बता द थ । अब भला, उनके बना हम उ ह क द ई अपार
वरह थाका पार कैसे पावगी ।।२९।। एक दनक नह , त दनक बात है, सायंकालम
त दन वे वालबाल से घरे ए बलरामजीके साथ वनसे गौएँ चराकर लौटते ह। उनक
काली-काली घुँघराली अलक और गलेके पु पहार गौ के खुरक रजसे ढके रहते ह। वे
बाँसुरी बजाते ए अपनी म द-म द मुसकान और तरछ चतवनसे दे ख-दे खकर हमारे
दयको बेध डालते ह। उनके बना भला, हम कैसे जी सकगी? ।।३०।।
ीशुक उवाच
एवं ुवाणा वरहातुरा भृशं
ज यः कृ ण वष मानसाः ।
वसृ य ल जां ः म सु वरं
गो व द दामोदर माधवे त ।।३१

ीणामेवं द तीनामु दते स वतयथ ।


अ ू र ोदयामास कृतमै ा दको रथम् ।।३२

गोपा तम वस ज त न दा ाः शकटै ततः ।


आदायोपायनं भू र कु भान् गोरसस भृतान् ।।३३

गो य द यतं कृ णमनु यानुरं जताः ।


यादे शं भगवतः कां य ावत थरे ।।३४

ता तथा त यतीव य व थाने य मः ।


सा वयामास स ेमैराया य इ त दौ यकैः ।।३५

यावदाल यते केतुयावद् रेणू रथ य च ।


अनु था पता मानो ले यानीवोपल ताः ।।३६

ता नराशा नववृतुग व द व नवतने ।


वशोका अहनी न युगाय यः यचे तम् ।।३७

भगवान प स ा तो रामा ू रयुतो नृप ।


रथेन वायुवेगेन का ल द मघना शनीम् ।।३८
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ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! गो पयाँ वाणीसे तो इस कार कह रही थ ; पर तु
उनका एक-एक मनोभाव भगवान् ीकृ णका पश, उनका आ लगन कर रहा था। वे
वरहक स भावनासे अ य त ाकुल हो गय और लाज छोड़कर ‘हे गो व द! हे दामोदर! हे
माधव!’—इस कार ऊँची आवाजसे पुकार-पुकारकर सुल लत वरसे रोने लग ।।३१।।
गो पयाँ इस कार रो रही थ ! रोते-रोते सारी रात बीत गयी, सूय दय आ। अ ू रजी स या-
व दन आ द न य कम से नवृ होकर रथपर सवार ए और उसे हाँक ले चले ।।३२।।
न दबाबा आ द गोप ने भी ध, दही, म खन, घी आ दसे भरे मटके और भटक ब त-सी
साम याँ ले ल तथा वे छकड़ पर चढ़कर उनके पीछे -पीछे चले ।।३३।। इसी समय
अनुरागके रंगम रँगी ई गो पयाँ अपने ाण यारे ीकृ णके पास गय और उनक चतवन,
मुसकान आ द नरखकर कुछ-कुछ सुखी । अब वे अपने यतम यामसु दरसे कुछ
स दे श पानेक आकां ासे वह खड़ी हो गय ।।३४।। य वंश शरोम ण भगवान् ीकृ णने
दे खा क मेरे मथुरा जानेसे गो पय के दयम बड़ी जलन हो रही है, वे स त त हो रही ह, तब
उ ह ने तके ारा ‘म आऊँगा’ यह ेम-स दे श भेजकर उ ह धीरज बँधाया ।।३५।।
गो पय को जबतक रथक वजा और प हय से उड़ती ई धूल द खती रही तबतक उनके
शरीर च ल खत-से वह य -के- य खड़े रहे। पर तु उ ह ने अपना च तो मनमोहन
ाणव लभ ीकृ णके साथ ही भेज दया था ।।३६।। अभी उनके मनम आशा थी क
शायद ीकृ ण कुछ र जाकर लौट आय! पर तु जब नह लौटे , तब वे नराश हो गय और
अपने-अपने घर चली आय । परी त्! वे रात- दन अपने यारे यामसु दरक लीला का
गान करती रहत और इस कार अपने शोकस तापको हलका करत ।।३७।।
परी त्! इधर भगवान् ीकृ ण भी बलरामजी और अ ू रजीके साथ वायुके समान
वेगवाले रथपर सवार होकर पापना शनी यमुनाजीके कनारे जा प ँचे ।।३८।। वहाँ उन
लोग ने हाथ-मुँह धोकर यमुनाजीका मरकत-म णके समान नीला और अमृतके समान मीठा
जल पया। इसके बाद बलरामजीके साथ भगवान् वृ के झुरमुटम खड़े रथपर सवार हो
गये ।।३९।। अ ू रजीने दोन भाइय को रथपर बैठाकर उनसे आ ा ली और यमुनाजीके
कु ड (अन त—तीथ या द) पर आकर वे व धपूवक नान करने लगे ।।४०।। उस
कु डम नान करनेके बाद वे जलम डु बक लगाकर गाय ीका जप करने लगे। उसी समय
जलके भीतर अ ू रजीने दे खा क ीकृ ण और बलराम दोन भाई एक साथ ही बैठे ए
ह ।।४१।। अब उनके मनम यह शंका ई क ‘वसुदेवजीके पु को तो म रथपर बैठा आया
ँ, अब वे यहाँ जलम कैसे आ गये? जब यहाँ ह तो शायद रथपर नह ह गे।’ ऐसा सोचकर
उ ह ने सर बाहर नकालकर दे खा ।।४२।। वे उस रथपर भी पूववत् बैठे ए थे। उ ह ने यह
सोचकर क मने उ ह जो जलम दे खा था, वह म ही रहा होगा, फर डु बक लगायी ।।४३।।
पर तु फर उ ह ने वहाँ भी दे खा क सा ात् अन तदे व ीशेषजी वराजमान ह और स ,
चारण, ग धव एवं असुर अपने-अपने सर झुकाकर उनक तु त कर रहे ह ।।४४।।
शेषजीके हजार सर ह और येक फणपर मुकुट सुशो भत है। कमलनालके समान उ वल
शरीरपर नीला बर धारण कये ए ह और उनक ऐसी शोभा हो रही है, मानो सह

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शखर से यु ेत ग र कैलास शोभायमान हो ।।४५।। अ ू रजीने दे खा क शेषजीक गोदम
याम मेघके समान घन याम वराजमान हो रहे ह। वे रेशमी पीता बर पहने ए ह। बड़ी ही
शा त चतुभुज मू त है और कमलके र दलके समान रतनारे ने ह ।।४६।। उनका वदन
बड़ा ही मनोहर और स ताका सदन है। उनका मधुर हा य और चा चतवन च को
चुराये लेती है। भ ह सु दर और ना सका त नक ऊँची तथा बड़ी ही सुघड़ है। सु दर कान,
कपोल और लाल-लाल अधर क छटा नराली ही है ।।४७।। बाँह घुटन तक लंबी और -
पु ह। कंधे ऊँचे और व ः थल ल मीजीका आ य- थान है। शंखके समान उतार-
चढ़ाववाला सुडौल गला, गहरी ना भ और वलीयु उदर पीपलके प ेके समान
शोभायमान है ।।४८।।

त ोप पृ य पानीयं पी वा मृ ं म ण भम् ।
वृ ष डमुप य सरामो रथमा वशत् ।।३९

अ ू र तावुपाम य नवे य च रथोप र ।


का ल ा दमाग य नानं व धवदाचरत् ।।४०

नम य त मन् स लले जपन् सनातनम् ।


तावेव द शेऽ ू रो रामकृ णौ सम वतौ ।।४१

तौ रथ थौ कथ मह सुतावानक भेः ।
त ह वत् य दने न त इ यु म य च सः ।।४२

त ा प च यथापूवमासीनौ पुनरेव सः ।
यम जद् दशनं य मे मृषा क स लले तयोः ।।४३

भूय त ा प सोऽ ा ीत् तूयमानमही रम् ।


स चारणग धवरसुरैनतक धरैः१ ।।४४

सह शरसं दे वं सह फणमौ लनम् ।


नीला बरं बस ेतं शृ ै ः ेत मव थतम् ।।४५

त यो संगे घन यामं पीतकौशेयवाससम् ।


पु षं चतुभुजं शा तं प प ा णे णम् ।।४६

चा स वदनं चा हास नरी णम् ।

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सु ू सं चा कण सुकपोला णाधरम् ।।४७
ल बपीवरभुजं तुंगांसोरः थल यम् ।
क बुक ठं न नना भ व लम प लवोदरम् ।।४८

बृह क टतट ो णकरभो या वतम् ।


चा जानुयुगं चा जंघायुगलसंयुतम् ।।४९

तुंगगु फा णनख ातद ध त भवृतम्१ ।


नवांगु यंगु दलै वलस पादपंकजम् ।।५०

सुमहाहम ण ात करीटकटकांगदै ः ।
क टसू सू हारनूपुरकु डलैः ।।५१

ाजमानं प करं शंखच गदाधरम् ।


ीव सव सं ाज कौ तुभं वनमा लनम् ।।५२

सुन दन द मुखैः पाषदै ः सनका द भः ।


सुरेशै ा ैनव भ जो मैः ।।५३

ादनारदवसु मुखैभागवतो मैः ।


तूयमानं पृथ भावैवचो भरमला म भः ।।५४

या पु ा गरा का या क या तु ेलयोजया ।
व या व या श या मायया च नषे वतम् ।।५५
थूल क ट दे श और नत ब, हाथीक सूँडके समान जाँघ, सु दर घुटने एवं पड लयाँ ह।
एड़ीके ऊपरक गाँठ उभरी ई ह और लाल-लाल नख से द यो तमय करण फैल रही
ह। चरणकमलक अंगु लयाँ और अंगूठे नयी और कोमल पँखु ड़य के समान सुशो भत
ह ।।४९-५०।।
अ य त ब मू य म णय से जड़ा आ मुकुट, कड़े, बाजूबंद, करधनी, हार, नूपुर और
कु डल से तथा य ोपवीतसे वह द मू त अलंकृत हो रही है। एक हाथम प शोभा पा
रहा है और शेष तीन हाथ म शंख, च और गदा, व ः थलपर ीव सका च , गलेम
कौ तुभम ण और वनमाला लटक रही है ।।५१-५२।।
न द-सुन द आ द पाषद अपने ‘ वामी’, सनका द परम ष ‘पर ’, ा, महादे व आ द
दे वता ‘सव र’, मरी च आ द नौ ा ण ‘ जाप त’ और ाद-नारद आ द भगवान्के परम

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े ी भ तथा आठ वसु अपने परम यतम ‘भगवान्’ समझकर भ - भ भाव के

अनुसार नद ष वेदवाणीसे भगवान्क तु त कर रहे ह ।।५३-५४।।
साथ ही ल मी, पु , सर वती, का त, क त और तु (अथात् ऐ य, बल, ान, ी,
यश और वैरा य—ये षडै य प श याँ), इला (स धनी प पृ वी-श ), ऊजा
(लीलाश ), व ा-अ व ा (जीव के मो और ब धनम कारण पा ब हरंग श ),
ा दनी, सं वत् (अ तरंगा श ) और माया आ द श याँ मू तमान् होकर उनक सेवा कर
रही ह ।।५५।।

वलो य सुभृशं ीतो१ भ या परमया युतः ।


य नू हो भावप र ल ा मलोचनः ।।५६

गरा गद्गदया तौषीत् स वमाल य सा वतः ।


ण य मू नाव हतः कृतांज लपुटः शनैः ।।५७
भगवान्क यह झाँक नरखकर अ ू रजीका दय परमान दसे लबालब भर गया। उ ह
परम भ ा त हो गयी। सारा शरीर हषावेशसे पुल कत हो गया। ेमभावका उ े क होनेसे
उनके ने आँसूसे भर गये ।।५६।। अब अ ू रजीने अपना साहस बटोरकर भगवान्के
चरण म सर रखकर णाम कया और वे उसके बाद हाथ जोड़कर बड़ी सावधानीसे धीरे-
धीरे गद्गद वरसे भगवान्क तु त करने लगे ।।५७।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे२ पूवाधऽ ू र तयाने
एकोनच वा रशोऽ यायः ।।३९।।

१. संतापाः ास०। २. ब धा । ३. ते णाः। ४. ता याः।


१. स ै भुजंगप त भरसु०।
१. भनृप।
१. शा तं। २. धेऽ ू र तयानं नामैकोन०।

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अथ च वा रशोऽ यायः
अ ू रजीके ारा भगवान् ीकृ णक तु त
अ ू र उवाच
नतोऽ यहं वा खलहेतुहेतुं
नारायणं पू षमा म यम् ।
य ा भजातादर व दकोशाद्
ाऽऽ वरासीद् यत एष लोकः ।।१

भू तोयम नः पवनः खमा द-


महानजा दमन इ या ण ।
सव याथा वबुधा सव
ये हेतव ते जगतोऽ भूताः ।।२

नैते व पं व रा मन ते
जादयोऽना मतया गृहीताः ।
अजोऽनुब ः स गुणैरजाया
गुणात् परं वेद न ते व पम् ।।३
अ ू रजी बोले— भो! आप कृ त आ द सम त कारण के परम कारण ह। आप ही
अ वनाशी पु षो म नारायण ह तथा आपके ही ना भकमलसे उन ाजीका आ वभाव
आ है, ज ह ने इस चराचर जगत्क सृ क है। म आपके चरण म नम कार करता
ँ ।।१।। पृ वी, जल, अ न, वायु, आकाश, अहंकार, मह व, कृ त, पु ष, मन, इ य,
स पूण इ य के वषय और उनके अ ध ातृदेवता—यही सब चराचर जगत् तथा उसके
वहारके कारण ह और ये सब-के-सब आपके ही अंग व प ह ।।२।। कृ त और
कृ तसे उ प होनेवाले सम त पदाथ ‘इदं वृ ’ के ारा हण कये जाते ह, इस लये ये
सब अना मा ह। अना मा होनेके कारण जड ह और इस लये आपका व प नह जान
सकते। य क आप तो वयं आ मा ही ठहरे। ाजी अव य ही आपके व प ह। पर तु
वे कृ तके गुण रजस्से यु ह, इस लये वे भी आपक कृ तका और उसके गुण से परेका
व प नह जानते ।।३।। साधु योगी वयं अपने अ तःकरणम थत ‘अ तयामी’ के पम,
सम त भूत-भौ तक पदाथ म ा त ‘परमा माके’ पम और सूय, च , अ न आ द
दे वम डलम थत ‘इ -दे वता’ के पम तथा उनके सा ी महापु ष एवं नय ता ई रके
पम सा ात् आपक ही उपासना करते ह ।।४।। ब त-से कमका डी ा ण कममागका
उपदे श करनेवाली यी व ाके ारा, जो आपके इ , अ न आ द अनेक दे ववाचक नाम
तथा व ह त, स ता च आ द अनेक प बतलाती है, बड़े-बड़े य करते ह और उनसे
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आपक ही उपासना करते ह ।।५।। ब त-से ानी अपने सम त कम का सं यास कर दे ते ह
और शा त-भावम थत हो जाते ह। वे इस कार ानय के ारा ान व प आपक ही
आराधना करते ह ।।६।। और भी ब त-से सं कार-स प अथवा शु च वै णवजन
आपक बतलायी ई पांचरा आ द व धय से त मय होकर आपके चतु ूह आ द अनेक
और नारायण प एक व पक पूजा करते ह ।।७।। भगवन्! सरे लोग शवजीके ारा
बतलाये ए मागसे, जसके आचाय भेदसे अनेक अवा तर भेद भी ह, शव व प आपक
ही पूजा करते ह ।।८।। वा मन्! जो लोग सरे दे वता क भ करते ह और उ ह आपसे
भ समझते ह, वे सब भी वा तवम आपक ही आराधना करते ह; य क आप ही सम त
दे वता के पम ह और सव र भी ह ।।९।। भो! जैसे पवत से सब ओर ब त-सी न दयाँ
नकलती ह और वषाके जलसे भरकर घूमती-घामती समु म वेश कर जाती ह, वैसे ही
सभी कारके उपासना-माग घूम-घामकर दे र-सबेर आपके ही पास प ँच जाते ह ।।१०।।
वां यो गनो यज य ा महापु षमी रम् ।
सा या मं सा धभूतं च सा धदै वं च साधवः ।।४

या च व या के चत् वां वै वैता नका जाः ।


यज ते वततैय ैनाना पामरा यया ।।५

एके वा खलकमा ण सं य योपशमं गताः ।


ा ननो ानय ेन यज त ान व हम् ।।६

अ ये च सं कृता मानो व धना भ हतेन ते ।


यज त व मया वां वै ब मू यकमू तकम् ।।७

वामेवा ये शवो े न मागण शव पणम् ।


ब ाचाय वभेदेन भगवन् समुपासते ।।८

सव एव यज त वां सवदे वमये रम् ।


येऽ य यदे वताभ ा य य य धयः भो ।।९

यथा भवा न ः पज यापू रताः भो ।

वश त सवतः स धुं त वां गतयोऽ ततः ।।१०

स वं रज तम इ त भवतः कृतेगुणाः ।
तेषु ह ाकृताः ोता आ थावरादयः ।।११

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भो! आपक कृ तके तीन गुण ह—स व, रज और तम। ासे लेकर थावरपय त
स पूण चराचर जीव ाकृत ह और जैसे व सू से ओत ोत रहते ह, वैसे ही ये सब
कृ तके उन गुण से ही ओत ोत ह ।।११।।
तु यं नम तेऽ व वष ये
सवा मने सव धयां च सा णे ।
गुण वाहोऽयम व या कृतः
वतते दे वनृ तयगा मसु ।।१२

अ नमुखं तेऽव नरङ् री णं


सूय नभो ना भरथो दशः ु तः ।
ौः कं सुरे ा तव बाहवोऽणवाः
कु म त् ाणबलं क पतम् ।।१३

रोमा ण वृ ौषधयः शरो हा


मेघाः पर या थनखा न तेऽ यः ।
नमेषणं रा यहनी जाप त-
म तु वृ तव वीय म यते ।।१४

व य या मन् पु षे क पता
लोकाः सपाला ब जीवसंकुलाः ।
यथा जले सं जहते जलौकसो-
ऽ यु बरे वा मशका मनोमये ।।१५

या न यानीह पा ण डनाथ बभ ष ह ।
तैरामृ शुचो लोका मुदा गाय त ते यशः ।।१६

नमः कारणम याय लया धचराय च ।


हयशी ण नम तु यं मधुकैटभमृ यवे ।।१७

अकूपाराय बृहते नमो म दरधा रणे ।


यु ार वहाराय नमः सूकरमूतये ।।१८
पर तु आप सव व प होनेपर भी उनके साथ ल त नह ह। आपक न ल त है,
य क आप सम त वृ य के सा ी ह। यह गुण के वाहसे होनेवाली सृ अ ानमूलक है
और वह दे वता, मनु य, पशु-प ी आ द सम त यो नय म ा त है; पर तु आप उससे सवथा
अलग ह। इस लये म आपको नम कार करता ँ ।।१२।।
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अ न आपका मुख है। पृ वी चरण है। सूय और च मा ने ह। आकाश ना भ है।
दशाएँ कान ह। वग सर है। दे वे गण भुजाएँ ह। समु कोख है और यह वायु ही आपक
ाणश के पम उपासनाके लये क पत ई है ।।१३।।
वृ और ओष धयाँ रोम ह। मेघ सरके केश ह। पवत आपके अ थसमूह और नख ह।
दन और रात पलक का खोलना और म चना है। जाप त जनने य ह और वृ ही
आपका वीय है ।।१४।।
अ वनाशी भगवन्! जैसे जलम ब त-से जलचर जीव और गूलरके फल म न ह-न ह
क ट रहते ह, उसी कार उपासनाके लये वीकृत आपके मनोमय पु ष पम अनेक
कारके जीव-ज तु से भरे ए लोक और उनके लोकपाल क पत कये गये ह ।।१५।।
भो! आप डा करनेके लये पृ वीपर जो-जो प धारण करते ह, वे सब अवतार लोग के
शोक-मोहको धो-बहा दे ते ह; और फर सब लोग बड़े आन दसे आपके नमल यशका गान
करते ह ।।१६।।
भो! आपने वेद , ऋ षय , ओष धय और स य त आ दक र ा-द ाके लये
म य प धारण कया था और लयके समु म व छ द वहार कया था। आपके
म य पको म नम कार करता ँ। आपने ही मधु और कैटभ नामके असुर का संहार
करनेके लये हय ीव अवतार हण कया था। म आपके उस पको भी नम कार करता
ँ ।।१७।।
आपने ही वह वशाल क छप प हण करके म दराचलको धारण कया था, आपको
म नम कार करता ँ। आपने ही पृ वीके उ ारक लीला करनेके लये वराह प वीकार
कया था, आपको मेरा बार-बार नम कार ।।१८।।
नम तेऽ त सहाय साधुलोकभयापह ।
वामनाय नम तु यं ा त भुवनाय च ।।१९

नमो भृगूणां पतये त वन छदे ।


नम ते रघुवयाय रावणा तकराय च ।।२०

नम ते वासुदेवाय नमः संकषणाय च ।


ु नाया न ाय सा वतां पतये नमः ।।२१

नमो बु ाय शु ाय दै यदानवमो हने ।


ले छ ाय ह े नम ते क क पणे ।।२२

भगव ीवलोकोऽयं मो हत तव मायया ।


अहंममे यसद् ाहो ा यते कमव मसु ।।२३

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अहं चा मा मजागारदाराथ वजना दषु ।
मा म व क पेषु मूढः स य धया वभो ।।२४

अ न याना म ःखेषु वपययम त हम् ।


ाराम तमो व ो न जाने वाऽऽ मनः यम् ।।२५
ाद-जैसे साधुजन का भय मटानेवाले भो! आपके उस अलौ कक नृ सह- पको म
नम कार करता ँ। आपने वामन प हण करके अपने पग से तीन लोक नाप लये थे,
आपको म नम कार करता ँ ।।१९।। धमका उ लंघन करनेवाले घमंडी य के वनका
छे दन कर दे नेके लये आपने भृगुप त परशुराम प हण कया था। म आपके उस पको
नम कार करता ँ। रावणका नाश करनेके लये आपने रघुवंशम भगवान् रामके पसे
अवतार हण कया था। म आपको नम कार करता ँ ।।२०।। वै णवजन तथा य -
वं शय का पालन-पोषण करनेके लये आपने ही अपनेको वासुदेव, संकषण, ु न और
अ न —इस चतु ूहके पम कट कया है। म आपको बार-बार नम कार करता
ँ ।।२१।। दै य और दानव को मो हत करनेके लये आप शु अ हसा-मागके वतक
बु का प हण करगे। म आपको नम कार करता ँ और पृ वीके य जब ले छ ाय
हो जायँगे तब उनका नाश करनेके लये आप ही क कके पम अवतीण ह गे। म आपको
नम कार करता ँ ।।२२।।
भगवन्! ये सब-के-सब जीव आपक मायासे मो हत हो रहे ह और इस मोहके कारण ही
‘यह म ँ और यह मेरा है’ इस झूठे रा हम फँसकर कमके माग म भटक रहे ह ।।२३।। मेरे
वामी! इसी कार म भी व म द खनेवाले पदाथ के समान झूठे दे ह-गेह, प नी-पु और
धन- वजन आ दको स य समझकर उ ह के मोहम फँस रहा ँ और भटक रहा ँ ।।२४।।
मेरी मूखता तो दे खये, भो! मने अ न य व तु को न य, अना माको आ मा और
ःखको सुख समझ लया। भला, इस उलट बु क भी कोई सीमा है! इस कार
अ ानवश सांसा रक सुख- ःख आ द म ही रम गया और यह बात बलकुल भूल गया
क आप ही हमारे स चे यारे ह ।।२५।। जैसे कोई अनजान मनु य जलके लये तालाबपर
जाय और उसे उसीसे पैदा ए सवार आ द घास से ढका दे खकर ऐसा समझ ले क यहाँ
जल नह है, तथा सूयक करण म झूठ-मूठ तीत होनेवाले जलके लये मृगतृ णाक ओर
दौड़ पड़े, वैसे ही म अपनी ही मायासे छपे रहनेके कारण आपको छोड़कर वषय म सुखक
आशासे भटक रहा ँ ।।२६।। म अ वनाशी अ र व तुके ानसे र हत ँ। इसीसे मेरे मनम
अनेक व तु क कामना और उनके लये कम करनेके संक प उठते ही रहते ह। इसके
अ त र ये इ याँ भी जो बड़ी बल एवं दमनीय ह, मनको मथ-मथकर बलपूवक इधर-
उधर घसीट ले जाती ह। इसी लये इस मनको म रोक नह पाता ।।२७।। इस कार भटकता
आ म आपके उन चरण-कमल क छ छायाम आ प ँचा ँ, जो के लये लभ ह। मेरे
वामी! इसे भी म आपका कृपा साद ही मानता ँ। य क प नाभ! जब जीवके संसारसे
मु होनेका समय आता है, तब स पु ष क उपासनासे च वृ आपम लगती है ।।२८।।
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भो! आप केवल व ान व प ह, व ान-घन ह। जतनी भी ती तयाँ होती ह, जतनी भी
वृ याँ ह, उन सबके आप ही कारण और अ ध ान ह। जीवके पम एवं जीव के सुख- ःख
आ दके न म काल, कम, वभाव तथा कृ तके पम भी आप ही ह तथा आप ही उन
सबके नय ता भी ह। आपक श याँ अन त ह। आप वयं ह। म आपको नम कार
करता ँ ।।२९।। भो! आप ही वासुदेव, आप ही सम त जीव के आ य (संकषण) ह; तथा
आप ही बु और मनके अ ध ातृ-दे वता षीकेश ( ु न और अ न ) ह। म आपको
बार-बार नम कार करता ँ। भो! आप मुझ शरणागतक र ा क जये ।।३०।।
यथाबुधो जलं ह वा त छ ं त वैः ।
अ ये त मृगतृ णां वै त वाहं पराङ् मुखः ।।२६

नो सहेऽहं कृपणधीः कामकमहतं मनः ।


रोद्धुं मा थ भ ा ै यमाण मत ततः ।।२७

सोऽहं तवाङ् युपगतोऽ यसतां रापं


त चा यहं भवदनु ह ईश म ये ।
पुंसो भवेद ् य ह संसरणापवग-
व य जनाभ स पासनया म तः यात् ।।२८

नमो व ानमा ाय सव ययहेतवे ।


पु षेश धानाय णेऽन तश ये ।।२९

नम ते वासुदेवाय सवभूत याय च ।


षीकेश नम तु यं प ं पा ह मां भो ।।३०
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाधऽ ू र तु तनाम
च वा रशोऽ यायः ।।४०।।

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अथैकच वा रशोऽ यायः
ीकृ णका मथुराजीम वेश
ीशुक उवाच
तुवत त य भगवान् दश य वा जले वपुः ।
भूयः समाहरत् कृ णो नटो ना मवा मनः ।।१

सोऽ प चा त हतं वी य जला म य स वरः ।


कृ वा चाव यकं सव व मतो रथमागमत् ।।२

तमपृ छ षीकेशः क ते मवा तम् ।


भूमौ वय त तोये वा तथा वां ल यामहे ।।३
अ ू र उवाच
अद्भुतानीह याव त भूमौ वय त वा जले ।
व य व ा मके ता न क मेऽ ं वप यतः ।।४

य ा ता न सवा ण भूमौ वय त वा जले ।


तं वानुप यतो न् क मे महा तम् ।।५

इ यु वा चोदयामास य दनं गा दनीसुतः ।


मथुरामनयद् रामं कृ णं चैव दना यये ।।६

माग ामजना राजं त त ोपसंगताः ।


वसुदेवसुतौ वी य ीता न चाद ः ।।७

तावद् जौकस त न दगोपादयोऽ तः ।


पुरोपवनमासा ती तोऽवत थरे ।।८
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! अ ू रजी इस कार तु त कर रहे थे। उ ह भगवान्
ीकृ णने जलम अपने द पके दशन कराये और फर उसे छपा लया, ठ क वैसे ही
जैसे कोई नट अ भनयम कोई प दखाकर फर उसे परदे क ओटम छपा दे ।।१।। जब
अ ू रजीने दे खा क भगवान्का वह द प अ तधान हो गया, तब वे जलसे बाहर नकल
आये और फर ज द -ज द सारे आव यक कम समा त करके रथपर चले आये। उस समय
वे ब त ही व मत हो रहे थे ।।२।। भगवान् ीकृ णने उनसे पूछा—‘चाचाजी! आपने
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पृ वी, आकाश या जलम कोई अद्भुत व तु दे खी है या? य क आपक आकृ त दे खनेसे
ऐसा ही जान पड़ता है’ ।।३।।
अ ू रजीने कहा—‘ भो! पृ वी, आकाश या जलम और सारे जगत्म जतने भी
अद्भुत पदाथ ह, वे सब आपम ही ह। य क आप व प ह। जब म आपको ही दे ख रहा
ँ तब ऐसी कौन-सी अद्भुत व तु रह जाती है, जो मने न दे खी हो ।।४।। भगवन्! जतनी
भी अद्भुत व तुएँ ह, वे पृ वीम ह या जल अथवा आकाशम—सब-क -सब जनम ह, उ ह
आपको म दे ख रहा ँ! फर भला, मने यहाँ अद्भुत व तु कौन-सी दे खी? ।।५।। गा दनी-
न दन अ ू रजीने यह कहकर रथ हाँक दया और भगवान् ीकृ ण तथा बलरामजीको लेकर
दन ढलते-ढलते वे मथुरापुरी जा प ँचे ।।६।। परी त्! मागम थान- थानपर गाँव के लोग
मलनेके लये आते और भगवान् ीकृ ण तथा बलरामजीको दे खकर आन द-म न हो जाते।
वे एकटक उनक ओर दे खने लगते, अपनी हटा न पाते ।।७।। न दबाबा आ द ज-
वासी तो पहलेसे ही वहाँ प ँच गये थे, और मथुरापुरीके बाहरी उपवनम ककर उनक
ती ा कर रहे थे ।।८।।

तान् समे याह भगवान ू रं जगद रः ।


गृही वा पा णना पा ण तं हस व ।।९

भवान् वशताम े सहयानः पुर गृहम् ।


वयं वहावमु याथ ततो यामहे पुरीम् ।।१०
अ ू र उवाच
नाहं भवद् यां र हतः वे ये मथुरां भो ।
य ुं नाह स मां नाथ भ ं ते भ व सल ।।११

आग छ याम गेहान् नः सनाथान् कुवधो ज ।


सहा जः सगोपालैः सु सु म ।।१२

पुनी ह पादरजसा गृहान् नो गृहमे धनाम् ।


य छौचेनानुतृ य त पतरः सा नयः सुराः ।।१३

अव न याङ् युगलमासी छ् लो यो ब लमहान् ।


ऐ यमतुलं लेभे ग त चैका तनां तु या ।।१४

आप तेऽङ् यवनेज य लोका छु चयोऽपुनन् ।


शरसाध याः शवः वयाताः सगरा मजाः ।।१५

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दे वदे व जग ाथ पु य वणक तन ।
य मो म ोक नारायण नमोऽ तु ते ।।१६
ीभगवानुवाच
आया ये भवतो गेहमहमायसम वतः ।
य च हं ह वा वत र ये सु यम् ।।१७
ीशुक उवाच
एवमु ो भगवता सोऽ ू रो वमना इव ।
पुर व ः कंसाय कमावे गृहं ययौ ।।१८
उनके पास प ँचकर जगद र भगवान् ीकृ णने वनीतभावसे खड़े अ ू रजीका हाथ
अपने हाथम लेकर मुसकराते ए कहा— ।।९।। ‘चाचाजी! आप रथ लेकर पहले
मथुरापुरीम वेश क जये और अपने घर जाइये। हमलोग पहले यहाँ उतरकर फर नगर
दे खनेके लये आयगे’ ।।१०।।
अ ू रजीने कहा— भो! आप दोन के बना म मथुराम नह जा सकता। वामी! म
आपका भ ँ! भ व सल भो! आप मुझे मत छो ड़ये ।।११।। भगवन्! आइये, चल। मेरे
परम हतैषी और स चे सु द् भगवन्! आप बलरामजी, वालबाल तथा न दरायजी आ द
आ मीय के साथ चलकर हमारा घर सनाथ क जये ।।१२।। हम गृह थ ह। आप अपने
चरण क धू लसे हमारा घर प व क जये। आपके चरण क धोवन (गंगाजल या चरणामृत)
से अ न, दे वता, पतर—सब-के-सब तृ त हो जाते ह ।।१३।। भो! आपके युगल चरण को
पखारकर महा मा ब लने वह यश ा त कया, जसका गान स त पु ष करते ह। केवल यश
ही नह —उ ह अतुलनीय ऐ य तथा वह ग त ा त ई, जो अन य ेमी भ को ा त होती
है ।।१४।। आपके चरणोदक—गंगाजीने तीन लोक प व कर दये। सचमुच वे मू तमान्,
प व ता ह। उ ह के पशसे सगरके पु को सद्ग त ा त ई और उसी जलको वयं
भगवान् शंकरने अपने सरपर धारण कया ।।१५।। य वंश शरोमणे! आप दे वता के भी
आरा यदे व ह। जगत्के वामी ह। आपके गुण और लीला का वण तथा क तन बड़ा ही
मंगलकारी है। उ म पु ष आपके गुण का क तन करते रहते ह। नारायण! म आपको
नम कार करता ँ ।।१६।।
ीभगवान्ने कहा—चाचाजी! म दाऊ भैयाके साथ आपके घर आऊँगा और पहले इस
य वं शय के ोही कंसको मारकर तब अपने सभी सु द्- वजन का य क ँ गा ।।१७।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान्के इस कार कहनेपर अ ू रजी कुछ
अनमने-से हो गये। उ ह ने पुरीम वेश करके कंससे ीकृ ण और बलरामके ले आनेका
समाचार नवेदन कया और फर अपने घर गये ।।१८।। सरे दन तीसरे पहर बलरामजी
और वालबाल के साथ भगवान् ीकृ णने मथुरापुरीको दे खनेके लये नगरम वेश
कया ।।१९।। भगवान्ने दे खा क नगरके परकोटे म फ टकम ण ( ब लौर) के ब त ऊँचे-
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ऊँचे गोपुर ( धान दरवाजे) तथा घर म भी बड़े-बड़े फाटक बने ए ह। उनम सोनेके बड़े-बड़े
कवाड़ लगे ह और सोनेके ही तोरण (बाहरी दरवाजे) बने ए ह। नगरके चार ओर ताँबे
और पीतलक चहारद वारी बनी ई है। खा के कारण और कह से उस नगरम वेश करना
ब त क ठन है। थान- थानपर सु दर-सु दर उ ान और रमणीय उपवन (केवल य के
उपयोगम आनेवाले बगीचे) शोभायमान ह ।।२०।। सुवणसे सजे ए चौराहे, ध नय के महल,
उ ह के साथके बगीचे, कारीगर के बैठनेके थान या जावगके सभा-भवन (टाउनहाल) और
साधारण लोग के नवासगृह नगरक शोभा बढ़ा रहे ह। वै य, हीरे, फ टक ( ब लौर),
नीलम, मूँगे, मोती और प े आ दसे जड़े ए छ जे, चबूतरे, झरोखे एवं फश आ द जगमगा
रहे ह। उनपर बैठे ए कबूतर, मोर आ द प ी भाँ त-भाँ तक बोली बोल रहे ह। सड़क,
बाजार, गली एवं चौराह पर खूब छड़काव कया गया है। थान- थानपर फूल के गजरे,
जवारे (जौके अंकुर), खील और चावल बखरे ए ह ।।२१-२२।। घर के दरवाज पर दही
और च दन आ दसे च चत जलसे भरे ए कलश रखे ह और वे फूल, द पक, नयी-नयी
क पल फलस हत केले और सुपारीके वृ , छोट -छोट झं डय और रेशमी व से
भलीभाँ त सजाए ए ह ।।२३।।

अथापरा े भगवान् कृ णः संकषणा वतः ।


मथुरां ा वशद् गोपै द ुः प रवा रतः ।।१९

ददश तां फा टकतुंगगोपुर-


ारां बृह े मकपाटतोरणाम् ।
ता ारको ां प रखा रासदा-
मु ानर योपवनोपशो भताम् ।।२०

सौवणशृंगाटकह य न कुटै ः
ेणीसभा भभवनै प कृताम् ।
वै यव ामलनील व मै-
मु ाह र वलभीषु वे दषु ।।२१

जु ेषु जालामुखर कु मे-


वा व पारावतब हना दताम् ।
सं स र यापणमागच वरां
क णमा यांकुरलाजत डु लाम् ।।२२

आपूणकु भैद धच दनो तैः


सूनद पाव ल भः सप लवैः ।

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सवृ दर भा मुकैः सकेतु भः
वलंकृत ारगृहां सप कैः ।।२३

तां स व ौ वसुदेवन दनौ


वृतौ वय यैनरदे वव मना ।
ु ं समीयु व रताः पुर यो
ह या ण चैवा नृपो सुकाः ।।२४
परी त्! वसुदेवन दन भगवान् ीकृ ण और बलरामजीने वालबाल के साथ राजपथसे
मथुरा नगरीम वेश कया। उस समय नगरक ना रयाँ बड़ी उ सुकतासे उ ह दे खनेके लये
झटपट अटा रय पर चढ़ गय ।।२४।। कसी- कसीने ज द के कारण अपने व और गहने
उलटे पहन लये। कसीने भूलसे कु डल, कंगन आ द जोड़ेसे पहने जानेवाले आभूषण मसे
एक ही पहना और चल पड़ी। कोई एक ही कानम प नामक आभूषण धारण कर पायी थी
तो कसीने एक ही पाँवम पायजेब पहन रखा था। कोई एक ही आँखम अंजन आँज पायी थी
और सरीम बना आँजे ही चल पड़ी ।।२५।। कई रम णयाँ तो भोजन कर रही थ , वे
हाथका कौर फककर चल पड़ । सबका मन उ साह और आन दसे भर रहा था। कोई-कोई
उबटन लगवा रही थ , वे बना नान कये ही दौड़ पड़ । जो सो रही थ , वे कोलाहल सुनकर
उठ खड़ी और उसी अव थाम दौड़ चल । जो माताएँ ब च को ध पला रही थ , वे उ ह
गोदसे हटाकर भगवान् ीकृ णको दे खनेके लये चल पड़ ।।२६।। कमलनयन भगवान्
ीकृ ण मत-वाले गजराजके समान बड़ी म तीसे चल रहे थे। उ ह ने ल मीको भी आन दत
करनेवाले अपने यामसु दर व हसे नगरना रय के ने को बड़ा आन द दया और अपनी
वलासपूण ग भ हँसी तथा ेमभरी चतवनसे उनके मन चुरा लये ।।२७।। मथुराक
याँ ब त दन से भगवान् ीकृ णक अद्भुत लीलाएँ सुनती आ रही थ । उनके च
चरकालसे ीकृ णके लये चंचल, ाकुल हो रहे थे। आज उ ह ने उ ह दे खा। भगवान्
ीकृ णने भी अपनी ेमभरी चतवन और म द मुसकानक सुधासे स चकर उनका स मान
कया। परी त्! उन य ने ने के ारा भगवान्को अपने दयम ले जाकर उनके
आन दमय व पका आ लगन कया। उनका शरीर पुल कत हो गया और ब त दन क
वरह- ा ध शा त हो गयी ।।२८।। मथुराक ना रयाँ अपने-अपने महल क अटा रय पर
चढ़कर बलराम और ीकृ णपर पु प क वषा करने लग । उस समय उन य के
मुखकमल ेमके आवेगसे खल रहे थे ।।२९।। ा ण, य और वै य ने थान- थानपर
दही, अ त, जलसे भरे पा , फूल के हार, च दन और भटक साम य से आन दम न होकर
भगवान् ीकृ ण और बलरामजीक पूजा क ।।३०।। भगवान्को दे खकर सभी पुरवासी
आपसम कहने लगे—‘ध य है! ध य है!’ गो पय ने ऐसी कौन-सी महान् तप या क है,
जसके कारण वे मनु यमा को परमान द दे नेवाले इन दोन मनोहर कशोर को दे खती रहती
ह ।।३१।।

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का द् वपय धृतव भूषणा
व मृ य चैकं युगले वथापराः ।
कृतैकप वणैकनूपुरा
नाङ् वा तीयं वपरा लोचनम् ।।२५

अ य एका तदपा य सो सवा


अ य यमाना अकृतोपम जनाः ।
वप य उ थाय नश य नः वनं
पायय योऽभमपो मातरः ।।२६

मनां स तासामर व दलोचनः


ग भलीलाह सतावलोकनैः ।
जहार म रदे व मो
शां दद रमणा मनो सवम् ।।२७

् वा मु ः त
ु मनु तचेतस तं
त े णो मतसुधो णल धमानाः ।
आन दमू तमुपगु शाऽऽ मल धं
य वचो ज रन तम र दमा धम् ।।२८

ासाद शखरा ढाः ी यु फु लमुखा बुजाः ।


अ यवषन् सौमन यैः मदा बलकेशवौ ।।२९

द य तैः सोदपा ैः ग धैर युपायनैः ।


तावानचुः मु दता त त जातयः ।।३०

ऊचुः पौरा अहो गो य तपः कमचरन् महत् ।


या ेतावनुप य त नरलोकमहो सवौ ।।३१

रजकं कं चदाया तं रंगकारं गदा जः ।


् वायाचत वासां स धौता य यु मा न च ।।३२

दे ावयोः समु चता यंग वासां स चाहतोः ।


भ व य त परं ेयो दातु ते ना संशयः ।।३३

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स या चतो भगवता प रपूणन सवतः ।
सा ेपं षतः ाह भृ यो रा ः सु मदः ।।३४

ई शा येव वासां स न यं ग रवनेचराः ।


प रध कमुदवृ ् ा राज ा यभी सथ ।।३५

याताशु बा लशा मैवं ा य य द जजी वषा ।


ब न त न त लु प त तं राजकुला न वै ।।३६

एवं वक थमान य कु पतो दे वक सुतः ।


रजक य करा ेण शरः कायादपातयत् ।।३७

त यानुजी वनः सव वासः१ कोशान् वसृ य वै ।


वुः सवतो माग वासां स जगृहेऽ युतः ।।३८
इसी समय भगवान् ीकृ णने दे खा क एक धोबी, जो कपड़े रँगनेका भी काम करता
था, उनक ओर आ रहा है। भगवान् ीकृ णने उससे धुले ए उ म-उ म कपड़े
माँगे ।।३२।। भगवान्ने कहा—‘भाई! तुम हम ऐसे व दो, जो हमारे शरीरम पूरे-पूरे आ
जायँ। वा तवम हमलोग उन व के अ धकारी ह। इसम स दे ह नह क य द तुम
हमलोग को व दोगे तो तु हारा परम क याण होगा’ ।।३३।। परी त्! भगवान् सव
प रपूण ह। सब कुछ उ ह का है। फर भी उ ह ने इस कार माँगनेक लीला क । पर तु वह
मूख राजा कंसका सेवक होनेके कारण मतवाला हो रहा था। भगवान्क व तु भगवान्को
दे ना तो र रहा, उसने ोधम भरकर आ ेप करते ए कहा— ।।३४।। ‘तुमलोग रहते हो
सदा पहाड़ और जंगल म। या वहाँ ऐसे ही व पहनते हो? तुमलोग ब त उ ड हो गये
हो तभी तो ऐसी बढ़-बढ़कर बात करते हो। अब तु ह राजाका धन लूटनेक इ छा ई
है ।।३५।। अरे, मूख ! जाओ, भाग जाओ! य द कुछ दन जीनेक इ छा हो तो फर इस
तरह मत माँगना। राजकमचारी तु हारे जैसे उ छृ ं खल को कैद कर लेते ह, मार डालते ह और
जो कुछ उनके पास होता है, छ न लेते ह’ ।।३६।। जब वह धोबी इस कार ब त कुछ
बहक-बहककर बात करने लगा, तब भगवान् ीकृ णने त नक कु पत होकर उसे एक
तमाचा जमाया और उसका सर धड़ामसे धड़से नीचे जा गरा ।।३७।। यह दे खकर उस
धोबीके अधीन काम करनेवाले सब-के-सब कपड़ के ग र वह छोड़कर इधर-उधर भाग
गये। भगवान्ने उन व को ले लया ।।३८।।

व स वाऽऽ म ये व े कृ णः संकषण तथा ।


शेषा याद गोपे यो वसृ य भु व का न चत् ।।३९

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तत तु वायकः ीत तयोवषमक पयत् ।
व च वण ैलेयैराक पैरनु पतः ।।४०

नानाल णवेषा यां कृ णरामौ वरेजतुः ।


वलंकृतौ बालगजौ पवणीव सतेतरौ ।।४१

त य स ो भगवान् ादात् सा यमा मनः ।


यं च परमां लोके बलै य मृती यम् ।।४२

ततः सुदा नो भवनं मालाकार य ज मतुः ।


तौ ् वा स समु थाय ननाम शरसा भु व ।।४३

तयोरासनमानीय पा ं चा याहणा द भः ।
पूजां सानुगयो े क्ता बूलानुलेपनैः ।।४४

ाह नः साथकं ज म पा वतं च कुलं भो ।


पतृदेवषयो म ं तु ा ागमनेन वाम् ।।४५

भव तौ कल व य जगतः कारणं परम् ।


अवतीणा वहांशेन ेमाय च भवाय च ।।४६

न ह वां वषमा ः सु दोजगदा मनोः ।


समयोः सवभूतेषु भज तं भजतोर प ।।४७
भगवान् ीकृ ण और बलरामजीने मनमाने व पहन लये तथा बचे ए व मसे
ब त-से अपने साथी वाल-बाल को भी दये। ब त-से कपड़े तो वह जमीनपर ही छोड़कर
चल दये ।।३९।।
भगवान् ीकृ ण और बलराम जब कुछ आगे बढ़े , तब उ ह एक दज मला। भगवान्का
अनुपम सौ दय दे खकर उसे बड़ी स ता ई। उसने उन रंग- बरंगे सु दर व को उनके
शरीरपर ऐसे ढं गसे सजा दया क वे सब ठ क-ठ क फब गये ।।४०।। अनेक कारके
व से वभू षत होकर दोन भाई और भी अ धक शोभायमान ए ऐसे जान पड़ते, मानो
उ सवके समय ेत और याम गजशावक भलीभाँ त सजा दये गये ह ।।४१।। भगवान्
ीकृ ण उस दज पर ब त स ए। उ ह ने उसे इस लोकम भरपूर धन-स प , बल-
ऐ य, अपनी मृ त और रतक दे खने-सुनने आ दक इ यस ब धी श याँ द और
मृ युके बादके लये अपना सा य मो भी दे दया ।।४२।।
इसके बाद भगवान् ीकृ ण सुदामा मालीके घर गये। दोन भाइय को दे खते ही सुदामा
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उठ खड़ा आ और पृ वीपर सर रखकर उ ह णाम कया ।।४३।। फर उनको आसनपर
बैठाकर उनके पाँव पखारे, हाथ धुलाये और तदन तर वालबाल के स हत सबक फूल के
हार, पान, च दन आ द साम य से व धपूवक पूजा क ।।४४।। इसके प ात् उसने ाथना
क —‘ भो! आप दोन के शुभागमनसे हमारा ज म सफल हो गया। हमारा कुल प व हो
गया। आज हम पतर, ऋ ष और दे वता के ऋणसे मु हो गये। वे हमपर परम स तु
ह ।।४५।। आप दोन स पूण जगत्के परम कारण ह। आप संसारके अ युदय-उ त और
नः ेयस—मो के लये ही इस पृ वीपर अपने ान, बल आ द अंश के साथ अवतीण ए
ह ।।४६।। य प आप ेम करनेवाल से ही ेम करते ह, भजन करनेवाल को ही भजते ह—
फर भी आपक म वषमता नह है। य क आप सारे जगत्के परम सु द् और आ मा
ह। आप सम त ा णय और पदाथ म सम पसे थत ह ।।४७।।

तावा ापयतं भृ यं कमहं करवा ण वाम् ।


पुंसोऽ यनु हो ेष भव य यु यते ।।४८

इ य भ े य राजे सुदामा ीतमानसः ।


श तैः सुग धैः कुसुमैमाला वर चता ददौ ।।४९

ता भः वलंकृतौ ीतौ कृ णरामौ सहानुगौ ।


णताय प ाय ददतुवरदौ वरान् ।।५०

सोऽ प व ेऽचलां भ त म ेवा खला म न ।


त े षु च सौहाद भूतेषु च दयां पराम् ।।५१

इ त त मै वरं द वा यं चा वयव धनीम् ।


बलमायुयशः का तं नजगाम सहा जः ।।५२
म आपका दास ँ। आप दोन मुझे आ ा द जये क म आपलोग क या सेवा क ँ ।
भगवन्! जीवपर आपका यह ब त बड़ा अनु ह है, पूण कृपा साद है क आप उसे आ ा
दे कर कसी कायम नयु करते ह ।।४८।। राजे ! सुदामा मालीने इस कार ाथना
करनेके बाद भगवान्का अ भ ाय जानकर बड़े ेम और आन दसे भरकर अ य त सु दर-
सु दर तथा सुग धत पु प से गुँथे ए हार उ ह पहनाये ।।४९।। जब वालबाल और
बलरामजीके साथ भगवान् ीकृ ण उन सु दर-सु दर माला से अलंकृत हो चुके, तब उन
वरदायक भुने स होकर वनीत और शरणागत सुदामाको े वर दये ।।५०।। सुदामा
मालीने उनसे यही वर माँगा क ‘ भो! आप ही सम त ा णय के आ मा ह। सव व प
आपके चरण म मेरी अ वचल भ हो। आपके भ से मेरा सौहाद, मै ीका स ब ध हो
और सम त ा णय के त अहैतुक दयाका भाव बना रहे’ ।।५१।।

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भगवान् ीकृ णने सुदामाको उसके माँगे ए वर तो दये ही—ऐसी ल मी भी द जो
वंशपर पराके साथ-साथ बढ़ती जाय; और साथ ही बल, आयु, क त तथा का तका भी
वरदान दया। इसके बाद भगवान् ीकृ ण बलरामजीके साथ वहाँसे बदा ए ।।५२।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध पुर वेशो नाम
एकच वा रशोऽ यायः ।।४१।।

१. बा घोषै वत सुः।

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अथ च वा रशोऽ यायः
कु जापर कृपा, धनुषभंग और कंसक घबड़ाहट
ीशुक उवाच
अथ जन् राजपथेन माधवः
यं गृहीता वलेपभाजनाम् ।
वलो य कु जां युवत वराननां
प छ या त हसन् रस दः ।।१
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! इसके बाद भगवान् ीकृ ण जब अपनी म डलीके
साथ राजमागसे आगे बढ़े , तब उ ह ने एक युवती ीको दे खा। उसका मुँह तो सु दर था,
पर तु वह शरीरसे कुबड़ी थी। इसीसे उसका नाम पड़ गया था ‘कु जा’। वह अपने हाथम
च दनका पा लये ए जा रही थी। भगवान् ीकृ ण ेमरसका दान करनेवाले ह, उ ह ने
कु जापर कृपा करनेके लये हँसते ए उससे पूछा— ।।१।। ‘सु दरी! तुम कौन हो? यह
च दन कसके लये ले जा रही हो? क या ण! हम सब बात सच-सच बतला दो। यह उ म
च दन, यह अंगराग हम भी दो। इस दानसे शी ही तु हारा परम क याण होगा’ ।।२।।

का वं वरोवत हानुलेपनं
क यांगने वा कथय व साधु नः ।
दे ावयोरंग वलेपमु मं
ेय तत ते न चराद् भ व य त ।।२
सैर युवाच
दा य यहं सु दर कंसस मता
व नामा नुलेपकम ण ।
म ा वतं भोजपतेर त यं
वना युवां कोऽ यतम तदह त ।।३

पपेशलमाधुयह सतालापवी तैः ।


ध षता मा ददौ सा मुभयोरनुलेपनम् ।।४

तत ताव रागेण ववणतरशो भना ।


स ा तपरभागेन शुशुभातेऽनुर तौ ।।५

स ो भगवान् कु जां व ां चराननाम् ।

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ऋ व कतु मन े दशयन् दशने फलम् ।।६

प यामा य पदे यंगु यु ानपा णना ।


गृ चुबुकेऽ या ममुदनीनमद युतः ।।७

सा तदजुसमानांगी बृह ो णपयोधरा ।


मुकु द पशनात् स ो बभूव मदो मा ।।८

ततो पगुणौदायस प ा ाह केशवम् ।


उ रीया तमाकृ य मय ती जात छया ।।९
उबटन आ द लगानेवाली सैर ी कु जाने कहा—‘परम सु दर! म कंसक य दासी
ँ। महाराज मुझे ब त मानते ह। मेरा नाम व ा (कु जा) है। म उनके यहाँ च दन, अंगराग
लगानेका काम करती ँ। मेरे ारा तैयार कये ए च दन और अंगराग भोजराज कंसको
ब त भाते ह। पर तु आप दोन से बढ़कर उसका और कोई उ म पा नह है’ ।।३।।
भगवान्के सौ दय, सुकुमारता, र सकता, म दहा य, ेमालाप और चा चतवनसे कु जाका
मन हाथसे नकल गया। उसने भगवान्पर अपना दय योछावर कर दया। उसने दोन
भाइय को वह सु दर और गाढ़ा अंगराग दे दया ।।४।।
तब भगवान् ीकृ णने अपने साँवले शरीरपर पीले रंगका और बलरामजीने अपने गोरे
शरीरपर लाल रंगका अंगराग लगाया तथा ना भसे ऊपरके भागम अनुरं जत होकर वे
अ य त सुशो भत ए ।।५।। भगवान् ीकृ ण उस कु जापर ब त स ए। उ ह ने अपने
दशनका य फल दखलानेके लये तीन जगहसे टे ढ़ क तु सु दर मुखवाली कु जाको
सीधी करनेका वचार कया ।।६।। भगवान्ने अपने चरण से कु जाके पैरके दोन पंजे दबा
लये और हाथ ऊँचा करके दो अँगु लयाँ उसक ठोड़ीम लगाय तथा उसके शरीरको त नक
उचका दया ।।७।। उचकाते ही उसके सारे अंग सीधे और समान हो गये। ेम और मु के
दाता भगवान्के पशसे वह त काल वशाल नत ब तथा पीन पयोधर से यु एक उ म
युवती बन गयी ।।८।।
उसी ण कु जा प, गुण और उदारतासे स प हो गयी। उसके मनम भगवान्के
मलनक कामना जाग उठ । उसने उनके प े का छोर पकड़कर मुसकराते ए कहा
— ।।९।।
ए ह वीर गृहं यामो न वां य ु महो सहे ।
वयो म थत च ायाः सीद पु षषभ ।।१०

एवं या या यमानः कृ णो राम य प यतः ।


मुखं वी यानुगानां च हसं तामुवाच ह ।।११

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ए या म ते गृहं सु ूः पुंसामा ध वकशनम् ।
सा धताथ ऽगृहाणां नः पा थानां वं परायणम् ।।१२

वसृ य मा ा वा या तां जन् माग व ण पथैः ।


नानोपायनता बूल ग धैः सा जोऽ चतः ।।१३

त शन मर ोभादा मानं ना वदन् यः ।


व तवासःकबरवलयाले यमूतयः ।।१४

ततः पौरान् पृ छमानो धनुषः थानम युतः ।


त मन् व ो द शे धनुरै मवा तम् ।।१५

पु षैब भगु तम चतं परम मत् ।


वायमाणो नृ भः कृ णः स धनुराददे ।।१६

करेण वामेन सलीलमुदधृ् तं


स यं च कृ वा न मषेण प यताम् ।
नृणां वकृ य बभंज म यतो
यथे ुद डं मदकयु मः ।।१७

धनुषो भ यमान य श दः खं रोदसी दशः ।


पूरयामास यं ु वा कंस ासमुपागमत् ।।१८
‘वीर शरोमणे! आइये, घर चल। अब म आपको यहाँ नह छोड़ सकती। य क आपने
मेरे च को मथ डाला है। पु षो म! मुझ दासीपर स होइये’ ।।१०।। जब बलरामजीके
सामने ही कु जाने इस कार ाथना क , तब भगवान् ीकृ णने अपने साथी वालबाल के
मुँहक ओर दे खकर हँसते ए उससे कहा— ।।११।। ‘सु दरी! तु हारा घर संसारी लोग के
लये अपनी मान सक ा ध मटानेका साधन है। म अपना काय पूरा करके अव य वहाँ
आऊँगा। हमारे-जैसे बेघरके बटो हय को तु हारा ही तो आसरा है’ ।।१२।। इस कार मीठ -
मीठ बात करके भगवान् ीकृ णने उसे वदा कर दया। जब वे ापा रय के बाजारम
प ँच,े तब उन ापा रय ने उनका तथा बलरामजीका पान, फूल के हार, च दन और तरह-
तरहक भट—उपहार से पूजन कया ।।१३।। उनके दशनमा से य के दयम ेमका
आवेग, मलनक आकां ा जग उठती थी। यहाँतक क उ ह अपने शरीरक भी सुध न
रहती। उनके व , जूड़े और कंगन ढ ले पड़ जाते थे तथा वे च ल खत मू तय के समान
य -क - य खड़ी रह जाती थ ।।१४।।
इसके बाद भगवान् ीकृ ण पुरवा सय से धनुष-य का थान पूछते ए रंगशालाम
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प ँचे और वहाँ उ ह ने इ धनुषके समान एक अद्भुत धनुष दे खा ।।१५।। उस धनुषम
ब त-सा धन लगाया गया था, अनेक ब मू य अलंकार से उसे सजाया गया था। उसक खूब
पूजा क गयी थी और ब त-से सै नक उसक र ा कर रहे थे। भगवान् ीकृ णने र क के
रोकनेपर भी उस धनुषको बलात् उठा लया ।।१६।। उ ह ने सबके दे खते-दे खते उस
धनुषको बाय हाथसे उठाया, उसपर डोरी चढ़ायी और एक णम ख चकर बीचो-बीचसे
उसी कार उसके दो टु कड़े कर डाले, जैसे ब त बलवान् मतवाला हाथी खेल-ही-खेलम
ईखको तोड़ डालता है ।।१७।। जब धनुष टू टा तब उसके श दसे आकाश, पृ वी और दशाएँ
भर गय ; उसे सुनकर कंस भी भयभीत हो गया ।।१८।। अब धनुषके र क आततायी असुर
अपने सहायक के साथ ब त ही बगड़े। वे भगवान् ीकृ णको घेरकर खड़े हो गये और उ ह
पकड़ लेनेक इ छासे च लाने लगे—‘पकड़ लो, बाँध लो, जाने न पावे’ ।।१९।। उनका
अ भ ाय जानकर बलरामजी और ीकृ ण भी त नक ो धत हो गये और उस धनुषके
टु कड़ को उठाकर उ ह से उनका काम तमाम कर दया ।।२०।। उ ह धनुषख ड से उ ह ने
उन असुर क सहायताके लये कंसक भेजी ई सेनाका भी संहार कर डाला। इसके बाद वे
य शालाके धान ारसे होकर बाहर नकल आये और बड़े आन दसे मथुरापुरीक शोभा
दे खते ए वचरने लगे ।।२१।। जब नगर नवा सय ने दोन भाइय के इस अद्भुत परा मक
बात सुनी और उनके तेज, साहस तथा अनुपम पको दे खा तब उ ह ने यही न य कया
क हो-न-हो ये दोन कोई े दे वता ह ।।२२।। इस कार भगवान् ीकृ ण और बलरामजी
पूरी वत तासे मथुरापुरीम वचरण करने लगे। जब सूया त हो गया तब दोन भाई
वालबाल से घरे ए नगरसे बाहर अपने डेरेपर, जहाँ छकड़े थे, लौट आये ।।२३।। तीन
लोक के बड़े-बड़े दे वता चाहते थे क ल मी हम मल, पर तु उ ह ने सबका प र याग कर
दया और न चाहनेवाले भगवान्का वरण कया। उ ह को सदाके लये अपना नवास थान
बना लया। मथुरावासी उ ह पु षभूषण भगवान् ीकृ णके अंग-अंगका सौ दय दे ख रहे ह।
उनका कतना सौभा य है! जम भगवान्क या ाके समय गो पय ने वरहातुर होकर
मथुरावा सय के स ब धम जो-जो बात कही थ , वे सब यहाँ अ रशः स य । सचमुच वे
परमान दम म न हो गये ।।२४।।
त णः सानुचराः कु पता आतता यनः ।
हीतुकामा आव ुगृ तां ब यता म त ।।१९

अथ तान् र भ ायान् वलो य बलकेशवौ ।


ु ौ ध वन आदाय शकले तां ज नतुः ।।२०

बलं च कंस हतं ह वा शालामुखा तः ।


न य चेरतु ौ नरी य पुरस पदः ।।२१

तयो तद तं वीय नशा य पुरवा सनः ।

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तेजः ाग यं पं च मे नरे वबुधो मौ ।।२२

तयो वचरतोः वैरमा द योऽ तमुपे यवान् ।


कृ णरामौ वृतौ गोपैः पुरा छकटमीयतुः ।।२३

गो यो मुकु द वगमे वरहातुरा या


आशासता शष ऋता मधुपुयभूवन् ।
स प यतां पु षभूषणगा ल म
ह वेतरान् नु भजत कमेऽयनं ीः ।।२४

अव न ाङ् युगलौ भु वा ीरोपसेचनम् ।


ऊषतु तां सुखं रा ा वा कंस चक षतम् ।।२५

कंस तु धनुषो भंगं र णां वबल य च ।


वधं नश य गो व दराम व डतं परम् ।।२६
फर हाथ-पैर धोकर ीकृ ण और बलरामजीने धम बने ए खीर आ द पदाथ का
भोजन कया और कंस आगे या करना चाहता है, इस बातका पता लगाकर उस रातको
वह आरामसे सो गये ।।२५।।
जब कंसने सुना क ीकृ ण और बलरामने धनुष तोड़ डाला, र क तथा उनक
सहायताके लये भेजी ई सेनाका भी संहार कर डाला और यह सब उनके लये केवल एक
खलवाड़ ही था—इसके लये उ ह कोई म या क ठनाई नह उठानी पड़ी ।।२६।। तब वह
ब त ही डर गया, उस बु को ब त दे रतक न द न आयी। उसे जा त्-अव थाम तथा
व म भी ब त-से ऐसे अपशकुन ए जो उसक मृ युके सूचक थे ।।२७।। जा त्-अव थाम
उसने दे खा क जल या दपणम शरीरक परछा तो पड़ती है, पर तु सर नह दखायी दे ता;
अँगुली आ दक आड़ न होनेपर भी च मा, तारे और द पक आ दक यो तयाँ उसे दो-दो
दखायी पड़ती ह ।।२८।। छायाम छे द दखायी पड़ता है और कान म अँगुली डालकर
सुननेपर भी ाण का घू-ँ घूँ श द नह सुनायी पड़ता। वृ सुनहले तीत होते ह और बालू या
क चड़म अपने पैर के च नह द ख पड़ते ।।२९।। कंसने व ाव थाम दे खा क वह ेत के
गले लग रहा है, गधेपर चढ़कर चलता है और वष खा रहा है। उसका सारा शरीर तेलसे तर
है, गलेम जपाकुसुम (अड़ ल)-क माला है और न न होकर कह जा रहा है ।।३०।। व
और जा त्-अव थाम उसने इसी कारके और भी ब त-से अपशकुन दे ख।े उनके कारण
उसे बड़ी च ता हो गयी, वह मृ युसे डर गया और उसे न द न आयी ।।३१।।

द घ जागरो भीतो न म ा न म तः ।
ब यच ोभयथा मृ योद यकरा ण च ।।२७
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अदशनं व शरसः त पे च स य प ।
अस य प तीये च ै यं यो तषां तथा ।।२८

छ ती त छायायां ाणघोषानुप ु तः ।
वण ती तवृ ेषु वपदानामदशनम् ।।२९

व े ेतप र वंगः खरयानं वषादनम् ।


याया लदमा येक तैला य ो दग बरः ।।३०

अ या न चे थंभूता न व जाग रता न च ।


प यन् मरणस तो न ां लेभे न च तया ।।३१

ु ायां न श कौर सूय चा यः समु थते ।


कारयामास वै कंसो म ल डामहो सवम् ।।३२

आनचुः पु षा रंगं तूयभेय ज नरे ।


मंचा ालंकृताः भः पताकाचैलतोरणैः ।।३३

तेषु पौरा जानपदा पुरोगमाः ।


यथोपजोषं व वशू राजान कृतासनाः ।।३४

कंसः प रवृतोऽमा यै राजमंच उपा वशत् ।


म डले रम य थो दयेन व यता ।।३५

वा मानेषु तूयषु म लतालो रेषु च ।


म लाः वलंकृता ताः सोपा यायाः समा वशन् ।।३६
परी त्! जब रात बीत गयी और सूयनारायण पूव समु से ऊपर उठे , तब राजा कंसने
म ल- ड़ा (दं गल)-का महो सव ार भ कराया ।।३२।। राजकमचा रय ने रंगभू मको
भलीभाँ त सजाया। तुरही, भेरी आ द बाजे बजने लगे। लोग के बैठनेके मंच फूल के गजर ,
झं डय , व और बंदनवार से सजा दये गये ।।३३।। उनपर ा ण, य आ द नाग रक
तथा ामवासी—सब यथा थान बैठ गये। राजालोग भी अपने-अपने न त थानपर जा
डटे ।।३४।। राजा कंस अपने म य के साथ म डले र (छोटे -छोटे राजा ) के बीचम
सबसे े राज सहासनपर जा बैठा। इस समय भी अपशकुन के कारण उसका च
घबड़ाया आ था ।।३५।। तब पहलवान के ताल ठ कनेके साथ ही बाजे बजने लगे और
गरबीले पहलवान खूब सज-धजकर अपने-अपने उ ताद के साथ अखाड़ेम आ उतरे ।।३६।।
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चाणूर, मु क, कूट, शल और तोशल आ द धान- धान पहलवान बाज क सुमधुर व नसे
उ सा हत होकर अखाड़ेम आ-आकर बैठ गये ।।३७।। इसी समय भोजराज कंसने न द
आ द गोप को बुलवाया। उन लोग ने आकर उसे तरह-तरहक भट द और फर जाकर वे
एक मंचपर बैठ गये ।।३८।।

चाणूरो मु कः कूटः शल तोशल एव च ।


त आसे प थानं व गुवा ह षताः ।।३७

न दगोपादयो गोपा भोजराजसमा ताः ।


नवे दतोपायना ते एक मन् मंच आ वशन् ।।३८
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध म लरंगोपवणनं नाम
च वा रशोऽ यायः ।।४२।।

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अथ च वा रशोऽ यायः
कुवलयापीडका उ ार और अखाड़ेम वेश
ीशुक उवाच
अथ कृ ण राम कृतशौचौ पर तप ।
म ल भ नघ षं ु वा ु मुपेयतुः ।।१
रंग ारं समासा त मन् नागमव थतम् ।
अप यत् कुवलयापीडं कृ णोऽ ब चो दतम् ।।२
बद् वा प रकरं शौ रः समु कु टलालकान् ।
उवाच ह तपं वाचा मेघनादगभीरया ।।३
अ ब ा ब माग नौ दे प म मा चरम् ।
नो चेत् सकुंजरं वा नया म यमसादनम् ।।४
एवं नभ सतोऽ ब ः कु पतः को पतं गजम् ।
चोदयामास कृ णाय काला तकयमोपमम् ।।५
करी तम भ य करेण तरसा हीत् ।
कराद् वग लतः सोऽमुं नह याङ् वलीयत ।।६
सं ु तमच ाणो ाण ः स केशवम् ।
परामृशत् पु करेण स स व नगतः ।।७
ीशुकदे वजी कहते ह—काम- ोधा द श ु को परा जत करनेवाले परी त्! अब
ीकृ ण और बलराम भी नाना द न यकमसे नवृ हो दं गलके अनु प नगाड़ेक व न
सुनकर रंगभू म दे खनेके लये चल पड़े ।।१।। भगवान् ीकृ णने रंग-भू मके दरवाजेपर
प ँचकर दे खा क वहाँ महावतक ेरणासे कुवलयापीड नामका हाथी खड़ा है ।।२।। तब
भगवान् ीकृ णने अपनी कमर कस ली और घुँघराली अलक समेट ल तथा मेघके समान
ग भीर वाणीसे महावतको ललकारकर कहा ।।३।। ‘महावत, ओ महावत! हम दोन को
रा ता दे दे । हमारे मागसे हट जा। अरे, सुनता नह ? दे र मत कर। नह तो म हाथीके साथ
अभी तुझे यमराजके घर प ँचाता ँ’ ।।४।। भगवान् ीकृ णने महावतको जब इस कार
धमकाया, तब वह ोधसे तल मला उठा और उसने काल, मृ यु तथा यमराजके समान
अ य त भयंकर कुवलयापीडको अंकुशक मारसे ु करके ीकृ णक ओर बढ़ाया ।।५।।
कुवलयापीडने भगवान्क ओर झपटकर उ ह बड़ी तेजीसे सूँड़म लपेट लया; पर तु
भगवान् सूँड़से बाहर सरक आये और उसे एक घूँसा जमाकर उसके पैर के बीचम जा
छपे ।।६।। उ ह अपने सामने न दे खकर कुवलयापीडको बड़ा ोध आ। उसने सूँघकर
भगवान्को अपनी सूँड़से टटोल लया और पकड़ा भी; पर तु उ ह ने बलपूवक अपनेको
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उससे छु ड़ा लया ।।७।। इसके बाद भगवान् उस बलवान् हाथीक पूँछ पकड़कर खेल-खेलम
ही उसे सौ हाथतक पीछे घसीट लाये; जैसे ग ड़ साँपको घसीट लाते ह ।।८।। जस कार
घूमते ए बछड़ेके साथ बालक घूमता है अथवा वयं भगवान् ीकृ ण जस कार बछड़ से
खेलते थे, वैसे ही वे उसक पूँछ पकड़कर उसे घुमाने और खेलने लगे। जब वह दायसे
घूमकर उनको पकड़ना चाहता, तब वे बाय आ जाते और जब वह बायक ओर घूमता, तब
वे दाय घूम जाते ।।९।। इसके बाद हाथीके सामने आकर उ ह ने उसे एक घूँसा जमाया और
वे उसे गरानेके लये इस कार उसके सामनेसे भागने लगे, मानो वह अब छू लेता है, तब छू
लेता है ।।१०।। भगवान् ीकृ णने दौड़ते-दौड़ते एक बार खेल-खेलम ही पृ वीपर गरनेका
अ भनय कया और झट वहाँसे उठकर भाग खड़े ए। उस समय वह हाथी ोधसे जल-भुन
रहा था। उसने समझा क वे गर पड़े और बड़े जोरसे अपने दोन दाँत धरतीपर मारे ।।११।।
जब कुवलयापीडका यह आ मण थ हो गया, तब वह और भी चढ़ गया। महावत क
ेरणासे वह ु होकर भगवान् ीकृ णपर टू ट पड़ा ।।१२।। भगवान् मधुसूदनने जब उसे
अपनी ओर झपटते दे खा, तब उसके पास चले गये और अपने एक ही हाथसे उसक सूँड़
पकड़कर उसे धरतीपर पटक दया ।।१३।। उसके गर जानेपर भगवान्ने सहके समान
खेल-ही-खेलम उसे पैर से दबाकर उसके दाँत उखाड़ लये और उ ह से हाथी और
महावत का काम तमाम कर दया ।।१४।।

पु छे गृ ा तबलं धनुषः पंच वश तम् ।


वचकष यथा नागं सुपण इव लीलया ।।८

स पयावतमानेन स द णतोऽ युतः ।


ब ाम ा यमाणेन गोव सेनेव बालकः ।।९

ततोऽ भमुखम ये य पा णनाऽऽह य वारणम् ।


ा वन् पातयामास पृ यमानः पदे पदे ।।१०

स धावन् डया भूमौ प त वा सहसो थतः ।


तं म वा प ततं ु ो द ता यां सोऽहन तम् ।।११

व व मे तहते कुंजरे ोऽ यम षतः ।


चो मनो महामा ैः कृ णम य वद् षा ।।१२

तमापत तमासा भगवान् मधुसूदनः ।


नगृ पा णना ह तं पातयामास भूतले ।।१३

प तत य पदाऽऽ य मृगे इव लीलया ।


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द तमु या तेनेभं ह तपां ाहन रः ।।१४

मृतकं पमु सृ य द तपा णः समा वशत् ।


अंस य त वषाणोऽसृङ्मद ब भरं कतः ।
व ढ वेदक णकावदना बु हो बभौ ।।१५
परी त्! मरे ए हाथीको छोड़कर भगवान् ीकृ णने हाथम उसके दाँत लये- लये ही
रंगभू मम वेश कया। उस समय उनक शोभा दे खने ही यो य थी। उनके कंधेपर हाथीका
दाँत रखा आ था, शरीर र और मदक बूँद से सुशो भत था और मुखकमलपर पसीनेक
बूँद झलक रही थ ।।१५।।
वृतौ गोपैः क तपयैबलदे वजनादनौ ।
रंगं व वशतू राजन् गजद तवरायुधौ ।।१६

म लानामश ननृणां नरवरः


ीणां मरो मू तमान्
गोपानां वजनोऽसतां तभुजां
शा ता व प ोः शशुः ।
मृ युभ जपते वराड व षां
त वं परं यो गनां
वृ णीनां परदे वते त व दतो
रंगं गतः सा जः ।।१७

हतं कुवलयापीडं ् वा ताव प जयौ ।


कंसो मन प तदा भृशमु वजे नृप ।।१८

तौ रेजतू रंगगतौ महाभुजौ


व च वेषाभरण ग बरौ ।
यथा नटावु मवेषधा रणौ
मनः प तौ भया नरी ताम् ।।१९

नरी य तावु मपू षौ जना


मंच थता नागररा का नृप ।
हषवेगो क लते णाननाः
पपुन तृ ता नयनै तदाननम् ।।२०

पब त इव च ु या लह त इव ज या ।
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ज त इव नासा यां य त इव बा भः ।।२१

ऊचुः पर परं ते वै यथा ं यथा ुतम् ।


त पू गुणमाधुय ाग य मा रता इव ।।२२
परी त्! भगवान् ीकृ ण और बलराम दोन के ही हाथ म कुवलयापीडके बड़े-बड़े दाँत
श के पम सुशो भत हो रहे थे और कुछ वालबाल उनके साथ-साथ चल रहे थे। इस
कार उ ह ने रंगभू मम वेश कया ।।१६।। जस समय भगवान् ीकृ ण बलरामजीके
साथ रंगभू मम पधारे, उस समय वे पहलवान को व कठोर शरीर, साधारण मनु य को नर-
र न, य को मू तमान् कामदे व, गोप को वजन, राजा को द ड दे नेवाले शासक,
माता- पताके समान बड़े-बूढ़ को शशु, कंसको मृ यु, अ ा नय को वराट् , यो गय को परम
त व और भ शरोम ण वृ णवं शय को अपने इ दे व जान पड़े (सबने अपने-अपने
भावानु प मशः रौ , अद्भुत, शृंगार, हा य, वीर, वा स य, भयानक, बीभ स, शा त और
ेमभ रसका अनुभव कया) ।।१७।। राजन्! वैसे तो कंस बड़ा धीर-वीर था; फर भी जब
उसने दे खा क इन दोन ने कुवलयापीडको मार डाला, तब उसक समझम यह बात आयी
क इनको जीतना तो ब त क ठन है। उस समय वह ब त घबड़ा गया ।।१८।। ीकृ ण और
बलरामक बाँह बड़ी ल बी-ल बी थ । पु प के हार, व और आभूषण आ दसे उनका वेष
व च हो रहा था; ऐसा जान पड़ता था, मानो उ म वेष धारण करके दो नट अ भनय
करनेके लये आये ह । जनके ने एक बार उनपर पड़ जाते, बस, लग ही जाते। यही नह ,
वे अपनी का तसे उसका मन भी चुरा लेत।े इस कार दोन रंगभू मम शोभायमान
ए ।।१९।। परी त्! मंच पर जतने लोग बैठे थे—वे मथुराके नाग रक और रा के जन-
समुदाय पु षो म भगवान् ीकृ ण और बलरामजीको दे खकर इतने स ए क उनके
ने और मुखकमल खल उठे । उ क ठासे भर गये। वे ने के ारा उनक मुखमाधुरीका पान
करते-करते तृ त ही नह होते थे ।।२०।। मानो वे उ ह ने से पी रहे ह , ज ासे चाट रहे ह ,
ना सकासे सूँघ रहे ह और भुजा से पकड़कर दयसे सटा रहे ह ।।२१।। उनके सौ दय,
गुण, माधुय और नभयताने मानो दशक को उनक लीला का मरण करा दया और वे
लोग आपसम उनके स ब धक दे खी-सुनी बात कहने-सुनने लगे ।।२२।। ‘ये दोन सा ात्
भगवान् नारायणके अंश ह। इस पृ वीपर वसुदेवजीके घरम अवतीण ए ह ।।२३।।

एतौ भगवतः सा ा रेनारायण य ह ।


अवतीणा वहांशेन वसुदेव य वे म न ।।२३

एष वै कल दे व यां जातो नीत गोकुलम् ।


कालमेतं वसन् गूढो ववृधे न दवे म न ।।२४

पूतनानेन नीता तं च वात दानवः ।

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अजुनौ गु कः केशी धेनुकोऽ ये च त धाः ।।२५

गावः सपाला एतेन दावा नेः प रमो चताः ।


का लयो द मतः सप इ वमदः कृतः ।।२६

स ताहमेकह तेन धृतोऽ वरोऽमुना ।


वषवाताश न य प र ातं च गोकुलम् ।।२७

गो योऽ य न यमु दतह सत े णं मुखम् ।


प य यो व वधां तापां तर त मा मं मुदा ।।२८

वद यनेन वंशोऽयं यदोः सुब व त


ु ः।
यं यशो मह वं च ल यते प रर तः ।।२९

अयं चा या जः ीमान् रामः कमललोचनः ।


ल बो नहतो येन व सको ये बकादयः ।।३०

जने वेवं ुवाणेषु तूयषु ननद सु च ।


कृ णरामौ समाभा य चाणूरो वा यम वीत् ।।३१

हे न दसूनो हे राम भव तौ वीरसंमतौ ।


नयु कुशलौ ु वा रा ाऽऽ तौ द ुणा ।।३२

यं रा ः कुव यः ेयो व द त वै जाः ।


मनसा कमणा वाचा वपरीतमतोऽ यथा ।।३३
[अँगुलीसे दखलाकर] ये साँवले-सलोने कुमार दे वक के गभसे उ प ए थे। ज मते ही
वसुदेवजीने इ ह गोकुल प ँचा दया था। इतने दन तक ये वहाँ छपकर रहे और न दजीके
घरम ही पलकर इतने बड़े ए ।।२४।। इ ह ने ही पूतना, तृणावत, शंखचूड़, केशी और धेनुक
आ दका तथा और भी दै य का वध तथा यमलाजुनका उ ार कया है ।।२५।। इ ह ने ही
गौ और वाल को दावानलक वालासे बचाया था। का लयनागका दमन और इ का मान-
मदन भी इ ह ने ही कया था ।।२६।। इ ह ने सात दन तक एक ही हाथपर ग रराज
गोवधनको उठाये रखा और उसके ारा आँधी-पानी तथा व पातसे गोकुलको बचा
लया ।।२७।। गो पयाँ इनक म द-म द मुसकान, मधुर चतवन और सवदा एकरस स
रहनेवाले मुखार व दके दशनसे आन दत रहती थ और अनायास ही सब कारके ताप से
मु हो जाती थ ।।२८।। कहते ह क ये य वंशक र ा करगे। यह व यात वंश इनके ारा

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महान् समृ , यश और गौरव ा त करेगा ।।२९।। ये सरे इ ह यामसु दरके बड़े भाई
कमलनयन ीबलरामजी ह। हमने कसी- कसीके मुँहसे ऐसा सुना है क इ ह ने ही
ल बासुर, व सासुर और बकासुर आ दको मारा है’ ।।३०।।
जस समय दशक म यह चचा हो रही थी और अखाड़ेम तुरही आ द बाजे बज रहे थे,
उस समय चाणूरने भगवान् ीकृ ण और बलरामको स बोधन करके यह बात कही
— ।।३१।। ‘न दन दन ीकृ ण और बलरामजी! तुम दोन वीर के आदरणीय हो। हमारे
महाराजने यह सुनकर क तुमलोग कु ती लड़नेम बड़े नपुण हो, तु हारा कौशल दे खनेके
लये तु ह यहाँ बुलवाया है ।।३२।। दे खो भाई! जो जा मन, वचन और कमसे राजाका य
काय करती है, उसका भला होता है और जो राजाक इ छाके वपरीत काम करती है, उसे
हा न उठानी पड़ती है ।।३३।। यह सभी जानते ह क गाय और बछड़े चरानेवाले वा लये
त दन आन दसे जंगल म कु ती लड़-लड़कर खेलते रहते ह और गाय चराते रहते
ह ।।३४।।

न यं मु दता गोपा व सपाला यथा फुटम् ।


वनेषु म लयु े न ड त ारय त गाः ।।३४

त माद् रा ः यं यूयं वयं च करवाम हे ।


भूता न नः सीद त सवभूतमयो नृपः ।।३५

त श या वीत् कृ णो दे शकालो चतं वचः ।


नयु मा मनोऽभी ं म यमानोऽ भन च ।।३६

जा भोजपतेर य वयं चा प वनेचराः ।


करवाम यं न यं त ः परमनु हः ।।३७

बाला वयं तु यबलैः ड यामो यथो चतम् ।


भवे यु ं माधमः पृशे म ल सभासदः ।।३८
चाणूर उवाच
न बालो न कशोर वं बल ब लनां वरः ।
लीलयेभो हतो येन सह पस वभृत् ।।३९

त माद् भवद् यां ब ल भय ं नानयोऽ वै ।


म य व म वा णय बलेन सह मु कः ।।४०
इस लये आओ, हम और तुम मलकर महाराजको स करनेके लये कु ती लड़। ऐसा

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करनेसे हमपर सभी ाणी स ह गे, य क राजा सारी जाका तीक है’ ।।३५।।
परी त्! भगवान् ीकृ ण तो चाहते ही थे क इनसे दो-दो हाथ कर। इस लये उ ह ने
चाणूरक बात सुनकर उसका अनुमोदन कया और दे श-कालके अनुसार यह बात कही
— ।।३६।। ‘चाणूर! हम भी इन भोजराज कंसक वनवासी जा ह। हम इनको स
करनेका य न अव य करना चा हये। इसीम हमारा क याण है ।।३७।। क तु चाणूर!
हमलोग अभी बालक ह। इस लये हम अपने समान बलवाले बालक के साथ ही कु ती
लड़नेका खेल करगे। कु ती समान बलवाल के साथ ही होनी चा हये, जससे दे खनेवाले
सभासद को अ यायके समथक होनेका पाप न लगे’ ।।३८।।
चाणूरने कहा—अजी! तुम और बलराम न बालक हो और न तो कशोर। तुम दोन
बलवान म े हो, तुमने अभी-अभी हजार हा थय का बल रखनेवाले कुवलयापीडको खेल-
ही-खेलम मार डाला ।।३९।। इस लये तुम दोन को हम-जैसे बलवान के साथ ही लड़ना
चा हये। इसम अ यायक कोई बात नह है। इस लये ीकृ ण! तुम मुझपर अपना जोर
आजमाओ और बलरामके साथ मु क लड़ेगा ।।४०।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध कुवलयापीडवधो नाम
च वा रशोऽ यायः ।।४३।।

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अथ चतु वा रशोऽ यायः
चाणूर, मु क आ द पहलवान का तथा कंसका उ ार
ीशुक उवाच
एवं च चतसंक पो भगवान् मधुसूदनः ।
आससादाथ चाणूरं मु कं रो हणीसुतः ।।१
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान् ीकृ णने चाणूर आ दके वधका न त
संक प कर लया। जोड़ बद दये जानेपर ीकृ ण चाणूरसे और बलरामजी मु कसे जा
भड़े ।।१।।
ह ता यां ह तयोबद् वा पद् यामेव च पादयोः ।
वचकषतुर यो यं स व जगीषया ।।२

अर नी े अर न यां जानु यां चैव जानुनी ।


शरः शी ण रसोर ताव यो यम भज नतुः ।।३

प र ामण व ेपप रर भावपातनैः ।


उ सपणापसपणै ा यो यं य धताम् ।।४

उ थापनै यनै ालनैः थापनैर प ।


पर परं जगीष तावपच तुरा मनः ।।५

तद् बलाबलव ु ं समेताः सवयो षतः ।


ऊचुः पर परं राजन् सानुक पा व थशः ।।६

महानयं बताधम एषां राजसभासदाम् ।


ये बलाबलव ु ं रा ोऽ व छ त प यतः ।।७

व व सारसवागौ म लौ शैले स भौ ।
व चा तसुकुमारांगौ कशोरौ ना तयौवनौ ।।८

धम त मो य समाज य ुवं भवेत् ।


य ाधमः समु े थेयं त क ह चत् ।।९

न सभां वशेत् ा ः स यदोषाननु मरन् ।


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अ ुवन् व ुव ो नरः क बषम ुते ।।१०
वे लोग एक- सरेको जीत लेनेक इ छासे हाथसे हाथ बाँधकर और पैर म पैर अड़ाकर
बलपूवक अपनी-अपनी ओर ख चने लगे ।।२।। वे पंज से पंज,े घुटन से घुटने, माथेसे माथा
और छातीसे छाती भड़ाकर एक- सरेपर चोट करने लगे ।।३।। इस कार दाँव-पच करते-
करते अपने-अपने जोड़ीदारको पकड़कर इधर-उधर घुमाते, र ढकेल दे त,े जोरसे जकड़
लेत,े लपट जाते, उठाकर पटक दे त,े छू टकर नकल भागते और कभी छोड़कर पीछे हट
जाते थे। इस कार एक- सरेको रोकते, हार करते और अपने जोड़ीदारको पछाड़ दे नेक
चे ा करते। कभी कोई नीचे गर जाता, तो सरा उसे घुटन और पैर म दबाकर उठा लेता।
हाथ से पकड़कर ऊपर ले जाता। गलेम लपट जानेपर ढकेल दे ता और आव यकता होनेपर
हाथ-पाँव इक े करके गाँठ बाँध दे ता ।।४-५।।
परी त्! इस दं गलको दे खनेके लये नगरक ब त-सी म हलाएँ भी आयी ई थ ।
उ ह ने जब दे खा क बड़े-बड़े पहलवान के साथ ये छोटे -छोटे बलहीन बालक लड़ाये जा रहे
ह, तब वे अलग-अलग टो लयाँ बनाकर क णावश आपसम बातचीत करने लग — ।।६।।
‘यहाँ राजा कंसके सभासद् बड़ा अ याय और अधम कर रहे ह। कतने खेदक बात है क
राजाके सामने ही ये बली पहलवान और नबल बालक के यु का अनुमोदन करते ह ।।७।।
ब हन! दे खो, इन पहलवान का एक-एक अंग व के समान कठोर है। ये दे खनेम बड़े भारी
पवत-से मालूम होते ह। पर तु ीकृ ण और बलराम अभी जवान भी नह ए ह। इनक
कशोराव था है। इनका एक-एक अंग अ य त सुकुमार है। कहाँ ये और कहाँ वे? ।।८।।
जतने लोग यहाँ इक े ए ह, दे ख रहे ह, उ ह अव य-अव य धम लंघनका पाप लगेगा।
सखी! अब हम भी यहाँसे चल दे ना चा हये। जहाँ अधमक धानता हो, वहाँ कभी न रहे;
यही शा का नयम है ।।९।। दे खो, शा कहता है क बु मान् पु षको सभासद के
दोष को जानते ए सभाम जाना ठ क नह है। य क वहाँ जाकर उन अवगुण को कहना,
चुप रह जाना अथवा म नह जानता ऐसा कह दे ना—ये तीन ही बात मनु यको दोषभागी
बनाती ह ।।१०।। दे खो, दे खो, ीकृ ण श ुके चार ओर पतरा बदल रहे ह। उनके मुखपर
पसीनेक बूँद ठ क वैसे ही शोभा दे रही ह, जैसे कमलकोशपर जलक बूँद ।।११।। स खयो!
या तुम नह दे ख रही हो क बलरामजीका मुख मु कके त ोधके कारण कुछ-कुछ
लाल लोचन से यु हो रहा है! फर भी हा यका अ न आवेग कतना सु दर लग रहा
है ।।१२।।
व गतः श ुम भतः कृ ण य वदना बुजम् ।
वी यतां मवायु तं प कोश मवा बु भः ।।११

क न प यत राम य मुखमाता लोचनम् ।


मु कं त सामष हाससंर भशो भतम् ।।१२

पु या बत जभुवो यदयं नृ लग-


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गूढः पुराणपु षो वन च मा यः ।
गाः पालयन् सहबलः यणयं वेणुं
व डया च त ग र रमा चताङ् ः ।।१३

गो य तपः कमचरन् यदमु य पं


लाव यसारमसमो वमन य स म् ।
भः पब यनुसवा भनवं राप-
मेका तधाम यशसः य ऐ र य ।।१४

या दोहनेऽवहनने मथनोपलेप-
ेङ्खेङ्खनाभ दतो णमाजनादौ ।
गाय त चैनमनुर धयोऽ ुक ो
ध या ज य उ म च यानाः ।।१५
सखी! सच पूछो तो जभू म ही परम प व और ध य है। य क वहाँ ये पु षो म
मनु यके वेषम छपकर रहते ह। वयं भगवान् शंकर और ल मीजी जनके चरण क पूजा
करती ह, वे ही भु वहाँ रंग- बरंगे जंगली पु प क माला धारण कर लेते ह तथा
बलरामजीके साथ बाँसुरी बजाते, गौएँ चराते और तरह-तरहके खेल खेलते ए आन दसे
वचरते ह ।।१३।।
सखी! पता नह , गो पय ने कौन-सी तप या क थी, जो ने के दोन से न य- नर तर
इनक प-माधुरीका पान करती रहती ह। इनका प या है, लाव यका सार! संसारम या
उससे परे कसीका भी प इनके पके समान नह है, फर बढ़कर होनेक तो बात ही या
है! सो भी कसीके सँवारने-सजानेसे नह , गहने-कपड़ेसे भी नह , ब क वयं स है। इस
पको दे खते-दे खते तृ त भी नह होती। य क यह त ण नया होता जाता है, न य
नूतन है। सम यश, सौ दय और ऐ य इसीके आ त ह। स खयो! पर तु इसका दशन तो
और के लये बड़ा ही लभ है। वह तो गो पय के ही भा यम बदा है ।।१४।।
सखी! जक गो पयाँ ध य ह। नर तर ीकृ णम ही च लगा रहनेके कारण ेमभरे
दयसे, आँसु के कारण गद्गद क ठसे वे इ ह क लीला का गान करती रहती ह। वे ध
हते, दही मथते, धान कूटते, घर लीपते, बालक को झूला झुलाते, रोते ए बालक को चुप
कराते, उ ह नहलाते-धुलाते, घर को झाड़ते-बुहारते—कहाँतक कह, सारे काम-काज करते
समय ीकृ णके गुण के गानम ही म त रहती ह ।।१५।।
ात जाद् जत आ वशत सायं
गो भः समं वणयतोऽ य नश य वेणुम् ।
नग य तूणमबलाः प थ भू रपु याः
प य त स मतमुखं सदयावलोकम् ।।१६

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एवं भाषमाणासु षु योगे रो ह रः ।
श ुं ह तुं मन े भगवान् भरतषभ ।।१७

सभयाः ी गरः ु वा पु नेहशुचाऽऽतुरौ ।


पतराव वत येतां पु योरबुधौ बलम् ।।१८

तै तै नयु व ध भ व वधैर युतेतरौ ।


युयुधाते यथा यो यं तथैव बलमु कौ ।।१९

भगवद्गा न पातैव न पेष न ु रैः ।


चाणूरो भ यमानांगो मु ला नमवाप ह ।।२०

स येनवेग उ प य मु ीकृ य करावुभौ ।


भगव तं वासुदेवं ु ो व यबाधत ।।२१

नाचल हारेण मालाहत इव पः ।


बा ो नगृ चाणूरं ब शो ामयन् ह रः ।।२२

भूपृ े पोथयामास तरसा ीणजी वतम् ।


व ताक पकेश ग वज इवापतत् ।।२३
ये ीकृ ण जब ातःकाल गौ को चरानेके लये जसे वनम जाते ह और सायंकाल
उ ह लेकर जम लौटते ह, तब बड़े मधुर वरसे बाँसुरी बजाते ह। उसक टे र सुनकर गो पयाँ
घरका सारा कामकाज छोड़कर झटपट रा तेम दौड़ आती ह और ीकृ णका म द-म द
मुसकान एवं दयाभरी चतवनसे यु मुखकमल नहार- नहारकर नहाल होती ह। सचमुच
गो पयाँ ही परम पु यवती ह’ ।।१६।।
भरतवंश शरोमणे! जस समय पुरवा सनी याँ इस कार बात कर रही थ , उसी
समय योगे र भगवान् ीकृ णने मन-ही-मन श ुको मार डालनेका न य कया ।।१७।।
य क ये भयपूण बात माता- पता दे वक -वसुदेव भी सुन रहे थे*। वे पु नेहवश शोकसे
व ल हो गये। उनके दयम बड़ी जलन, बड़ी पीड़ा होने लगी। य क वे अपने पु के बल-
वीयको नह जानते थे ।।१८।। भगवान् ीकृ ण और उनसे भड़नेवाला चाणूर दोन ही
भ -भ कारके दाँव-पचका योग करते ए पर पर जस कार लड़ रहे थे, वैसे ही
बलरामजी और मु क भी भड़े ए थे ।।१९।। भगवान्के अंग- यंग व से भी कठोर हो
रहे थे। उनक रगड़से चाणूरक रग-रग ढ ली पड़ गयी। बार-बार उसे ऐसा मालूम हो रहा था
मानो उसके शरीरके सारे ब धन टू ट रहे ह। उसे बड़ी ला न, बड़ी था ई ।।२०।। अब वह
अ य त ो धत होकर बाजक तरह झपटा और दोन हाथ के घूँसे बाँधकर उसने भगवान्
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ीकृ णक छातीपर हार कया ।।२१।। पर तु उसके हारसे भगवान् त नक भी वच लत
न ए, जैसे फूल के गजरेक मारसे गजराज। उ ह ने चाणूरक दोन भुजाएँ पकड़ ल और
उसे अ त र म बड़े वेगसे कई बार घुमाकर धरतीपर दे मारा। परी त्! चाणूरके ाण तो
घुमानेके समय ही नकल गये थे। उसक वेष-भूषा अ त- त हो गयी, केश और मालाएँ
बखर गय , वह इ वज (इ क पूजाके लये खड़े कये गये बड़े झंडे) के समान गर
पड़ा ।।२२-२३।।
तथैव मु कः पूव वमु या भहतेन वै ।
बलभ े ण ब लना तलेना भहतो भृशम् ।।२४

वे पतः स धरमु मन् मुखतोऽ दतः ।


सुः पपातो ुप थे वाताहत इवाङ् पः ।।२५

ततः कूटमनु ा तं रामः हरतां वरः ।


अवधी लीलया राजन् साव ं वाममु ना ।।२६

त व ह शलः कृ णपदापहतशीषकः ।
धा वद ण तोशलक उभाव प नपेततुः ।।२७

चाणूरे मु के कूटे शले तोशलके हते ।


शेषाः वुम लाः सव ाणपरी सवः ।।२८

गोपान् वय यानाकृ य तैः संसृ य वज तुः ।


वा मानेषु तूयषु व ग तौ तनूपुरौ ।।२९

जनाः ज षुः सव कमणा रामकृ णयोः ।


ऋते कंसं व मु याः साधवः साधु सा व त ।।३०

हतेषु म लवयषु व तेषु च भोजराट् ।


यवारयत् वतूया ण वा यं चेदमुवाच ह ।।३१

नःसारयत वृ ौ वसुदेवा मजौ पुरात् ।


धनं हरत गोपानां न दं ब नीत म तम् ।।३२

वसुदेव तु मधा ह यतामा स मः ।


उ सेनः पता चा प सानुगः परप गः ।।३३
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इसी कार मु कने भी पहले बलरामजीको एक घूँसा मारा। इसपर बली बलरामजीने
उसे बड़े जोरसे एक तमाचा जड़ दया ।।२४।। तमाचा लगनेसे वह काँप उठा और आँधीसे
उखड़े ए वृ के समान अ य त थत और अ तम ाणहीन होकर खून उगलता आ
पृ वीपर गर पड़ा ।।२५।। हे राजन्! इसके बाद यो ा म े भगवान् बलरामजीने अपने
सामने आते ही कूट नामक पहलवानको खेल-खेलम ही बाय हाथके घूँसेसे उपे ापूवक मार
डाला ।।२६।। उसी समय भगवान् ीकृ णने पैरक ठोकरसे शलका सर धड़से अलग कर
दया और तोशलको तनकेक तरह चीरकर दो टु कड़े कर दया। इस कार दोन धराशायी
हो गये ।।२७।। जब चाणूर, मु क, कूट, शल और तोशल—ये पाँच पहलवान मर चुके, तब
जो बच रहे थे, वे अपने ाण बचानेके लये वयं वहाँसे भाग खड़े ए ।।२८।। उनके भाग
जानेपर भगवान् ीकृ ण और बलरामजी अपने समवय क वाल-बाल को ख च-ख चकर
उनके साथ भड़ने और नाच-नाचकर भेरी व नके साथ अपने नूपुर क झनकारको मलाकर
म ल डा—कु तीके खेल करने लगे ।।२९।।
भगवान् ीकृ ण और बलरामक इस अ भुत लीलाको दे खकर सभी दशक को बड़ा
आन द आ। े ा ण और साधु पु ष ‘ध य है, ध य है’—इस कार कहकर शंसा
करने लगे। पर तु कंसको इससे बड़ा ःख आ। वह और भी चढ़ गया ।।३०।। जब उसके
धान पहलवान मार डाले गये और बचे ए सब-के-सब भाग गये, तब भोजराज कंसने
अपने बाजे-गाजे बंद करा दये और अपने सेवक को यह आ ा द — ।।३१।। ‘अरे,
वसुदेवके इन र लड़क को नगरसे बाहर नकाल दो। गोप का सारा धन छ न लो और
बु न दको कैद कर लो ।।३२।। वसुदेव भी बड़ा कुबु और है। उसे शी मार डालो
और उ सेन मेरा पता होनेपर भी अपने अनुया यय के साथ श ु से मला आ है।
इस लये उसे भी जीता मत छोड़ो’ ।।३३।।
एवं वक थमाने वै कंसे कु पतोऽ यः ।
ल घ नो य य तरसा मंचमु ुंगमा हत् ।।३४

तमा वश तमालो य मृ युमा मन आसनात् ।


मन वी सहसो थाय जगृहे सोऽ सचमणी ।।३५

तं खड् गपा ण वचर तमाशु


येनं यथा द णस म बरे ।
सम हीद् वषहो तेजा
यथोरगं ता यसुतः स ।।३६

गृ केशेषु चल करीटं
नपा य र ोप र तु म चात् ।
त योप र ात् वयम जनाभः
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पपात व ा य आ मत ः ।।३७

तं स परेतं वचकष भूमौ


ह रयथेभं जगतो वप यतः ।
हाहे त श दः सुमहां तदाभू-
द रतः सवजनैनरे ।।३८

स न यदो न धया तमी रं


पबन् वदन् वा वचरन् वपन् सन् ।
ददश च ायुधम तो य-
तदे व पं रवापमाप ।।३९

त यानुजा ातरोऽ ौ कंक य ोधकादयः ।


अ यधाव भ ु ा ातु नवशका रणः ।।४०

तथा तरभसां तां तु संय ान् रो हणीसुतः ।


अहन् प रघमु य पशू नव मृगा धपः ।।४१
कंस इस कार बढ़-बढ़कर बकवाद कर रहा था क अ वनाशी ीकृ ण कु पत होकर
फुत से वेगपूवक उछलकर लीलासे ही उसके ऊँचे मंचपर जा चढ़े ।।३४।। जब मन वी कंसने
दे खा क मेरे मृ यु प भगवान् ीकृ ण सामने आ गये, तब वह सहसा अपने सहासनसे उठ
खड़ा आ और हाथम ढाल तथा तलवार उठा ली ।।३५।। हाथम तलवार लेकर वह चोट
करनेका अवसर ढूँ ढ़ता आ पतरा बदलने लगा। आकाशम उड़ते ए बाजके समान वह
कभी दाय ओर जाता तो कभी बाय ओर। पर तु भगवान्का च ड तेज अ य त सह है।
जैसे ग ड़ साँपको पकड़ लेते ह, वैसे ही भगवान्ने बलपूवक उसे पकड़ लया ।।३६।। इसी
समय कंसका मुकुट गर गया और भगवान्ने उसके केश पकड़कर उसे भी उस ऊँचे मंचसे
रंगभू मम गरा दया। फर परम वत और सारे व के आ य भगवान् ीकृ ण उसके
ऊपर वयं कूद पड़े ।।३७।। उनके कूदते ही कंसक मृ यु हो गयी। सबके दे खते-दे खते
भगवान् ीकृ ण कंसक लाशको धरतीपर उसी कार घसीटने लगे, जैसे सह हाथीको
घसीटे । नरे ! उस समय सबके मुँहसे ‘हाय! हाय!’ क बड़ी ऊँची आवाज सुनायी
पड़ी ।।३८।। कंस न य- नर तर बड़ी घबड़ाहटके साथ ीकृ णका ही च तन करता रहता
था। वह खाते-पीते, सोते-चलते, बोलते और साँस लेत— े सब समय अपने सामने च हाथम
लये भगवान् ीकृ णको ही दे खता रहता था। इस न य च तनके फल व प—वह चाहे
े षभावसे ही य न कया गया हो—उसे भगवान्के उसी पक ा त ई, सा य मु
ई, जसक ा त बड़े-बड़े तप वी यो गय के लये भी क ठन है ।।३९।।
कंसके कंक और य ोध आ द आठ छोटे भाई थे। वे अपने बड़े भाईका बदला लेनेके
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लये ोधसे आगबबूले होकर भगवान् ीकृ ण और बलरामक ओर दौड़े ।।४०।। जब
भगवान् बलरामजीने दे खा क वे बड़े वेगसे यु के लये तैयार होकर दौड़े आ रहे ह, तब
उ ह ने प रघ उठाकर उ ह वैसे ही मार डाला, जैसे सह पशु को मार डालता है ।।४१।।
ने भयो ो न ेशा ा वभूतयः ।
पु पैः कर त तं ीताः शशंसुननृतुः यः ।।४२

तेषां यो महाराज सु मरण ः खताः ।


त ाभीयु व न न यः शीषा य ु वलोचनाः ।।४३

शयानान् वीरश यायां पतीना लङ् य शोचतीः ।


वलेपुः सु वरं नाय वसृज यो मु ः शुचः ।।४४

हा नाथ य धम क णानाथव सल ।
वया हतेन नहता वयं ते सगृह जाः ।।४५

वया वर हता प या पुरीयं पु षषभ ।


न शोभते वय मव नवृ ो सवमंगला ।।४६

अनागसां वं भूतानां कृतवान् ोहमु बणम् ।


तेनेमां भो दशां नीतो भूत ुक् को लभेत शम् ।।४७

सवषा मह भूतानामेष ह भवा ययः ।


गो ता च तदव यायी न व चत् सुखमेधते ।।४८
ीशुक उवाच
राजयो षत आ ा य भगवाँ लोकभावनः ।
यामा ल कक सं थां हतानां समकारयत् ।।४९

मातरं पतरं चैव मोच य वाथ ब धनात् ।


कृ णरामौ वव दाते शरसाऽऽ पृ य पादयोः ।।५०
उस समय आकाशम भयाँ बजने लग । भगवान्के वभू त व प ा, शंकर आ द
दे वता बड़े आन दसे पु प क वषा करते ए उनक तु त करने लगे। अ सराएँ नाचने
लग ।।४२।। महाराज! कंस और उसके भाइय क याँ अपने आ मीय वजन क मृ युसे
अ य त ः खत । वे अपने सर पीटती ई आँख म आँसू भरे वहाँ आय ।।४३।।
वीरश यापर सोये ए अपने प तय से लपटकर वे शोक त हो गय और बार-बार आँसू
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बहाती ई ऊँचे वरसे वलाप करने लग ।।४४।। ‘हा नाथ! हे यारे! हे धम ! हे
क णामय! हे अनाथव सल! आपक मृ युसे हम सबक मृ यु हो गयी। आज हमारे घर
उजड़ गये। हमारी स तान अनाथ हो गयी ।।४५।। पु ष े ! इस पुरीके आप ही वामी थे।
आपके वरहसे इसके उ सव समा त हो गये और मंगल च उतर गये। यह हमारी ही भाँ त
वधवा होकर शोभाहीन हो गयी ।।४६।। वामी! आपने नरपराध ा णय के साथ घोर ोह
कया था, अ याय कया था; इसीसे आपक यह ग त ई। सच है, जो जगत्के जीव से ोह
करता है, उनका अ हत करता है, ऐसा कौन पु ष शा त पा सकता है? ।।४७।। ये भगवान्
ीकृ ण जगत्के सम त ा णय क उ प और लयके आधार ह। यही र क भी ह। जो
इनका बुरा चाहता है, इनका तर कार करता है; वह कभी सुखी नह हो सकता ।।४८।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान् ीकृ ण ही सारे संसारके जीवनदाता ह।
उ ह ने रा नय को ढाढ़स बँधाया, सा वना द ; फर लोक-री तके अनुसार मरनेवाल का जैसा
या-कम होता है, वह सब कराया ।।४९।।
तदन तर भगवान् ीकृ ण और बल-रामजीने जेलम जाकर अपने माता- पताको
ब धनसे छु ड़ाया और सरसे पश करके उनके चरण क व दना क ।।५०।।
दे वक वसुदेव व ाय जगद रौ ।

कृतसंव दनौ पु ौ स वजाते न शङ कतौ ।।५१


कतु अपने पु के णाम करनेपर भी दे वक और वसुदेवने उ ह जगद र समझकर
अपने दयसे नह लगाया। उ ह शंका हो गयी क हम जगद रको पु कैसे समझ ।।५१।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध कंसवधो नाम
चतु वा रशोऽ यायः ।।४४।।

* याँ जहाँ बात कर रही थ , वहाँसे नकट ही वसुदेव-दे वक कैद थे, अतः वे उनक
बात सुन सके।

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अथ प चच वा रशोऽ यायः
ीकृ ण-बलरामका य ोपवीत और गु कुल वेश
ीशुक उवाच
पतरावुपल धाथ व द वा पु षो मः ।
मा भू द त नजां मायां ततान जनमो हनीम् ।।१

उवाच पतरावे य सा जः सा वतषभः ।


यावनतः ीण ब ताते त सादरम् ।।२

ना म ो युवयो तात न यो क ठतयोर प ।


बा यपौग डकैशोराः पु ा यामभवन् व चत् ।।३

न ल धो दै वहतयोवासो नौ भवद तके ।


यां बालाः पतृगेह था व द ते ला लता मुदम् ।।४

सवाथस भवो दे हो ज नतः पो षतो यतः ।


न तयोया त नवशं प ोम यः शतायुषा ।।५

य तयोरा मजः क प आ मना च धनेन च ।


वृ न द ा ं े य वमांसं खादय त ह ।।६
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान् ीकृ णने दे खा क माता- पताको मेरे
ऐ यका, मेरे भगवद्भावका ान हो गया है, परंतु इ ह ऐसा ान होना ठ क नह , (इससे तो
ये पु - नेहका सुख नह पा सकगे—) ऐसा सोचकर उ ह ने उनपर अपनी वह योगमाया
फैला द , जो उनके वजन को मु ध रखकर उनक लीलाम सहायक होती है ।।१।।
य वंश शरोम ण भगवान् ीकृ ण बड़े भाई बलरामजीके साथ अपने माँ-बापके पास जाकर
आदरपूवक और वनयसे झुककर ‘मेरी अ मा! मेरे पताजी!’ इन श द से उ ह स करते
ए कहने लगे— ।।२।। ‘ पताजी! माताजी! हम आपके पु ह और आप हमारे लये सवदा
उ क ठत रहे ह, फर भी आप हमारे बा य, पौग ड और कशोर-अव थाका सुख हमसे
नह पा सके ।।३।। दववश हमलोग को आपके पास रहनेका सौभा य ही नह मला।
इसीसे बालक को माता- पताके घरम रहकर जो लाड़- यारका सुख मलता है, वह हम भी
नह मल सका ।।४।। पता और माता ही इस शरीरको ज म दे ते ह और इसका लालन-
पालन करते ह। तब कह जाकर यह शरीर धम, अथ, काम अथवा मो क ा तका साधन
बनता है। य द कोई मनु य सौ वषतक जीकर माता और पताक सेवा करता रहे, तब भी वह
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उनके उपकारसे उऋण नह हो सकता ।।५।। जो पु साम य रहते भी अपने माँ-बापक
शरीर और धनसे सेवा नह करता, उसके मरनेपर यम त उसे उसके अपने शरीरका मांस
खलाते ह ।।६।। जो पु ष समथ होकर भी बूढ़े माता- पता, सती प नी, बालक, स तान,
गु , ा ण और शरणागतका भरण-पोषण नह करता—वह जीता आ भी मुदके समान
ही है! ।।७।। पताजी! हमारे इतने दन थ ही बीत गये। य क कंसके भयसे सदा
उ न च रहनेके कारण हम आपक सेवा करनेम असमथ रहे ।।८।। मेरी माँ और मेरे
पताजी! आप दोन हम मा कर। हाय! कंसने आपको इतने-इतने क दये, परंतु हम
परत रहनेके कारण आपक कोई सेवा-शु ूषा न कर सके’ ।।९।।
मातरं पतरं वृ ं भाया सा व सुतं शशुम् ।
गु ं व ं प ं च क पोऽ ब छ् वसन् मृतः ।।७

त ावक पयोः कंसा यमु नचेतसोः ।


मोघमेते त ा ता दवसा वामनचतोः ।।८

तत् तुमहथ तात मातन परत योः ।


अकुवतोवा शु ूषां ल यो दा भृशम् ।।९
ीशुक उवाच
इ त मायामनु य य हरे व ा मनो गरा ।
मो हतावङ् कमारो य प र व यापतुमुदम् ।।१०

सच ताव ुधारा भः नेहपाशेन चावृतौ ।


न क च चतू राजन् बा पक ठौ वमो हतौ ।।११

एवमा ा य पतरौ भगवान् दे वक सुतः ।


मातामहं तू सेनं य नामकरो ृपम् ।।१२

आह चा मान् महाराज जा ा तुमह स ।


यया तशापाद् य भना सत ं नृपासने ।।१३

म य भृ य उपासीने भवतो वबुधादयः ।


ब ल हर यवनताः कमुता ये नरा धपाः ।।१४

सवान् वा ा तसंब धान् द यः कंसभयाकुलान् ।


य वृ य धकमधुदाशाहकुकुरा दकान् ।।१५

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सभा जतान् समा ा य वदे शावासक शतान् ।
यवासयत् वगेहेषु व ैः संत य व कृत् ।।१६
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! अपनी लीलासे मनु य बने ए व ा मा ीह रक
इस वाणीसे मो हत हो दे वक -वसुदेवने उ ह गोदम उठा लया और दयसे चपकाकर
परमान द ा त कया ।।१०।। राजन्! वे नेह-पाशसे बँधकर पूणतः मो हत हो गये और
आँसु क धारासे उनका अ भषेक करने लगे। यहाँतक क आँसु के कारण गला ँ ध
जानेसे वे कुछ बोल भी न सके ।।११।।
दे वक न दन भगवान् ीकृ णने इस कार अपने माता- पताको सा वना दे कर अपने
नाना उ सेनको य वं शय का राजा बना दया ।।१२।। और उनसे कहा—‘महाराज! हम
आपक जा ह। आप हमलोग पर शासन क जये। राजा यया तका शाप होनेके कारण
य वंशी राज सहासनपर नह बैठ सकते; (परंतु मेरी ऐसी ही इ छा है, इस लये आपको कोई
दोष न होगा ।।१३।। जब म सेवक बनकर आपक सेवा करता र ँगा, तब बड़े-बड़े दे वता भी
सर झुकाकर आपको भट दगे।’ सरे नरप तय के बारेम तो कहना ही या है ।।१४।।
परी त्! भगवान् ीकृ ण ही सारे व के वधाता ह। उ ह ने, जो कंसके भयसे ाकुल
होकर इधर-उधर भाग गये थे, उन य , वृ ण, अ धक, मधु, दाशाह और कुकुर आ द वंश म
उ प सम त सजातीय स ब धय को ढूँ ढ़-ढूँ ढ़कर बुलवाया। उ ह घरसे बाहर रहनेम बड़ा
लेश उठाना पड़ा था। भगवान्ने उनका स कार कया, सा वना द और उ ह खूब धन-
स प दे कर तृ त कया तथा अपने-अपने घर म बसा दया ।।१५-१६।।
कृ णसंकषणभुजैगु ता ल धमनोरथाः ।
गृहेषु रे मरे स ाः कृ णरामगत वराः ।।१७

वी तोऽहरहः ीता मुकु दवदना बुजम् ।


न यं मु दतं ीमत् सदय मतवी णम् ।।१८

त वयसोऽ यासन् युवानोऽ तबलौजसः ।


पब तोऽ ैमुकु द य मुखा बुजसुधां मु ः ।।१९

अथ न दं समासा भगवान् दे वक सुतः ।


संकषण राजे प र व येदमूचतुः ।।२०

पतयुवा यां न धा यां पो षतौ ला लतौ भृशम् ।


प ोर य धका ी तरा मजे वा मनोऽ प ह ।।२१

स पता सा च जननी यौ पु णीतां वपु वत् ।


शशून् ब धु भ सृ ानक पैः पोषर णे ।।२२
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यात यूयं जं तात वयं च नेह ः खतान् ।
ातीन् वो ु मे यामो वधाय सु दां सुखम् ।।२३

एवं सा व य भगवान् न दं स जम युतः ।


वासोऽलंकारकु या ैरहयामास सादरम् ।।२४

इ यु तौ प र व य न दः णय व लः ।
पूरय ु भन े सह गोपै जं ययौ ।।२५
अब सारे-के-सारे य वंशी भगवान् ीकृ ण तथा बलरामजीके बा बलसे सुर त थे।
उनक कृपासे उ ह कसी कारक था नह थी, ःख नह था। उनके सारे मनोरथ सफल
हो गये थे। वे कृताथ हो गये थे। अब वे अपने-अपने घर म आन दसे वहार करने
लगे ।।१७।। भगवान् ीकृ णका वदन आन दका सदन है। वह न य फु लत, कभी न
कु हलानेवाला कमल है। उसका सौ दय अपार है। सदय हास और चतवन उसपर सदा
नाचती रहती है। य वंशी दन- त दन उसका दशन करके आन दम न रहते ।।१८।।
मथुराके वृ पु ष भी युवक के समान अ य त बलवान् और उ साही हो गये थे; य क वे
अपने ने के दोन से बारंबार भगवान्के मुखार व दका अमृतमय मकर द-रस पान करते
रहते थे ।।१९।।
य परी त्! अब दे वक न दन भगवान् ीकृ ण और बलरामजी दोन ही न दबाबाके
पास आये और गले लगनेके बाद उनसे कहने लगे— ।।२०।। ‘ पताजी! आपने और माँ
यशोदाने बड़े नेह और लारसे हमारा लालन-पालन कया है। इसम कोई स दे ह नह क
माता- पता स तानपर अपने शरीरसे भी अ धक नेह करते ह ।।२१।। ज ह पालन-पोषण न
कर सकनेके कारण वजन-स ब धय ने याग दया है, उन बालक को जो लोग अपने पु के
समान लाड़- यारसे पालते ह, वे ही वा तवम उनके माँ-बाप ह ।।२२।। पताजी! अब
आपलोग जम जाइये। इसम स दे ह नह क हमारे बना वा स य- नेहके कारण
आपलोग को ब त ःख होगा। यहाँके सु द्-स ब धय को सुखी करके हम आपलोग से
मलनेके लये आयगे’ ।।२३।। भगवान् ीकृ णने न दबाबा और सरे जवा सय को इस
कार समझा-बुझाकर बड़े आदरके साथ व , आभूषण और अनेक धातु के बने बरतन
आ द दे कर उनका स कार कया ।।२४।। भगवान्क बात सुनकर न द-बाबाने ेमसे अधीर
होकर दोन भाइय को गले लगा लया और फर ने म आँसू भरकर गोप के साथ जके
लये थान कया ।।२५।।
अथ शूरसुतो राजन् पु योः समकारयत् ।
पुरोधसा ा णै यथावद् जसं कृ तम् ।।२६

ते योऽदाद् द णा गावो ममालाः वलंकृताः ।


वलंकृते यः संपू य सव साः ौममा लनीः ।।२७
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याः कृ णरामज म मनोद ा महाम तः ।
ता ाददादनु मृ य कंसेनाधमतो ताः ।।२८

तत ल धसं कारौ ज वं ा य सु तौ ।
गगाद् य कुलाचायाद् गाय ं तमा थतौ ।।२९

भवौ सव व ानां सव ौ जगद रौ ।


ना य स ामल ानं गूहमानौ नरे हतैः ।।३०

अथो गु कुले वास म छ तावुपज मतुः ।


का यं सा द प न नाम व तीपुरवा सनम् ।।३१

यथोपसा तौ दा तौ गुरौ वृ म न दताम् ।


ाहय तावुपेतौ म भ या दे व मवा तौ ।।३२

तयो जवर तु ः शु भावानुवृ भः ।


ोवाच वेदान खलान् सांगोप नषदो गु ः ।।३३
हे राजन्! इसके बाद वसुदेवजीने अपने पुरो हत गगाचाय तथा सरे ा ण से दोन
पु का व धपूवक जा त-समु चत य ोरवीत सं कार करवाया ।।२६।। उ ह ने व वध
कारके व और आभूषण से ा ण का स कार करके उ ह ब त-सी द णा तथा
बछड़ वाली गौएँ द । सभी गौएँ गलेम सोनेक माला पहने ए थ तथा और भी ब तसे
आभूषण एवं रेशमी व क माला से वभू षत थ ।।२७।। महाम त वसुदेवजीने भगवान्
ीकृ ण और बलरामजीके ज म-न म जतनी गौएँ मन-ही-मन संक प करके द थ , उ ह
पहले कंसने अ यायसे छ न लया था। अब उनका मरण करके उ ह ने ा ण को वे फरसे
द ।।२८।। इस कार य वंशके आचाय गगजीसे सं कार कराकर बलरामजी और भगवान्
ीकृ ण ज वको ा त ए। उनका चय त अख ड तो था ही, अब उ ह ने
गाय ीपूवक अ ययन करनेके लये उसे नयमतः वीकार कया ।।२९।। ीकृ ण और
बलराम जगत्के एकमा वामी ह। सव ह। सभी व ाएँ उ ह से नकली ह। उनका नमल
ान वतः स है। फर भी उ ह ने मनु यक -सी लीला करके उसे छपा रखा था ।।३०।।
अब वे दोन गु कुलम नवास करनेक इ छासे का यपगो ी सा द प न मु नके पास गये,
जो अव तीपुर (उ जैन) म रहते थे ।।३१।। वे दोन भाई व धपूवक गु जीके पास रहने लगे।
उस समय वे बड़े ही सुसंयत, अपनी चे ा को सवथा नय मत रखे ए थे। गु जी तो
उनका आदर करते ही थे, भगवान् ीकृ ण और बलरामजी भी गु क उ म सेवा कैसे
करनी चा हये, इसका आदश लोग के सामने रखते ए बड़ी भ से इ दे वके समान उनक
सेवा करने लगे ।।३२।। गु वर सा द प नजी उनक शु भावसे यु सेवासे ब त स ए।
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उ ह ने दोन भाइय को छह अंग और उप नषद के स हत स पूण वेद क श ा द ।।३३।।
इनके सवा म और दे वता के ानके साथ धनुवद, मनु मृ त आ द धमशा , मीमांसा
आ द, वेद का ता पय बतलानेवाले शा , तक व ा ( यायशा ) आ दक भी श ा द ।
साथ ही स ध, व ह, यान, आसन, ै ध और आ य—इन छः भेद से यु राजनी तका भी
अ ययन कराया ।।३४।। परी त्! भगवान् ीकृ ण और बलराम सारी व ा के वतक
ह। इस समय केवल े मनु यका-सा वहार करते ए ही वे अ ययन कर रहे थे। उ ह ने
गु जीके केवल एक बार कहनेमा से सारी व ाएँ सीख ल ।।३५।। केवल च सठ दन-
रातम ही संयमी शरोम ण दोन भाइय ने च सठ कला का* ान ा त कर लया। इस
कार अ ययन समा त होनेपर उ ह ने सा द प न मु नसे ाथना क क ‘आपक जो इ छा
हो, गु -द णा माँग ल’ ।।३६।। महाराज! सा द प न मु नने उनक अद्भुत म हमा और
अलौ कक बु का अनुभव कर लया था। इस लये उ ह ने अपनी प नीसे सलाह करके यह
गु द णा माँगी क ‘ भास े म हमारा बालक समु म डू बकर मर गया था, उसे तुमलोग
ला दो’ ।।३७।।

सरह यं धनुवदं धमान् यायपथां तथा ।


तथा चा वी क व ां राजनी त च षड् वधाम् ।।३४

सव नरवर े ौ सव व ा वतकौ ।
सकृ गदमा ेण तौ संजगृहतुनृप ।।३५

अहोरा ै तुःष ा संय ौ तावतीः कलाः ।


गु द णयाऽऽचाय छ दयामासतुनृप ।।३६

ज तयो तं म हमानम तं
संल य राज तमानुष म तम् ।
स म य प या स महाणवे मृतं
बालं भासे वरया बभूव ह ।।३७
तथे यथा महारथौ रथं
भासमासा र त व मौ ।
वेलामुप य नषीदतुः णं
स धु व द वाहणमाहर योः ।।३८

तमाह भगवानाशु गु पु ः द यताम् ।


योऽसा वह वया तो बालको महतो मणा ।।३९

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समु उवाच
नैवाहाषमहं दे व दै यः पंचजनो महान् ।
अ तजलचरः कृ ण शंख पधरोऽसुरः ।।४०

आ ते तेना तो नूनं त छ वा स वरं भुः ।


जलमा व य तं ह वा नाप य दरेऽभकम् ।।४१

तदं ग भवं शंखमादाय रथमागमत् ।


ततः संयमन नाम यम य द यतां पुरीम् ।।४२

ग वा जनादनः शंखं द मौ सहलायुधः ।


शंख न ादमाक य जासंयमनो यमः ।।४३

तयोः सपया महत च े भ युपबृं हताम् ।


उवाचावनतः कृ णं सवभूताशयालयम् ।
लीलामनु य हे व णो युवयोः करवाम कम् ।।४४
ीभगवानुवाच
गु पु महानीतं नजकम नब धनम् ।
आनय व महाराज म छासनपुर कृतः ।।४५

तथे त तेनोपानीतं गु पु ं य मौ ।
द वा वगुरवे भूयो वृणी वे त तमूचतुः ।।४६
बलरामजी और ीकृ णका परा म अन त था। दोन ही महारथी थे। उ ह ने ‘ब त
अ छा’ कहकर गु जीक आ ा वीकार क और रथपर सवार होकर भास े म गये। वे
समु तटपर जाकर णभर बैठे रहे। उस समय यह जानकर क ये सा ात् परमे र ह, अनेक
कारक पूजा-साम ी लेकर समु उनके सामने उप थत आ ।।३८।।
भगवान्ने समु से कहा—‘समु ! तुम यहाँ अपनी बड़ी-बड़ी तरंग से हमारे जस
गु पु को बहा ले गये थे, उसे लाकर शी हम दो’ ।।३९।।
मनु यवेषधारी समु ने कहा—‘दे वा धदे व ीकृ ण! मने उस बालकको नह लया है।
मेरे जलम पंचजन नामका एक बड़ा भारी दै य जा तका असुर शंखके पम रहता है।
अव य ही उसीने वह बालक चुरा लया होगा’ ।।४०।।
समु क बात सुनकर भगवान् तुरंत ही जलम जा घुसे और शंखासुरको मार डाला।
पर तु वह बालक उसके पेटम नह मला ।।४१।।

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तब उसके शरीरका शंख लेकर भगवान् रथपर चले आये। वहाँसे बलरामजीके साथ
ीकृ णने यमराजक य पुरी संयमनीम जाकर अपना शंख बजाया। शंखका श द सुनकर
सारी जाका शासन करनेवाले यमराजने उनका वागत कया और भ भावसे भरकर
व धपूवक उनक ब त बड़ी पूजा क । उ ह ने न तासे झुककर सम त ा णय के दयम
वराजमान स चदान द-ख प भगवान् ीकृ णसे कहा—‘लीलासे ही मनु य बने ए
सव ापक परमे र! म आप दोन क या सेवा क ँ ?’ ।।४२—४४।।
ीभगवान्ने कहा—‘यमराज! यहाँ अपने कमब धनके अनुसार मेरा गु पु लाया गया
है। तुम मेरी आ ा वीकार करो और उसके कमपर यान न दे कर उसे मेरे पास ले
आओ ।।४५।।
यमराजने ‘जो आ ा’ कहकर भगवान्का आदे श वीकार कया और उनका गु पु ला
दया। तब य वंश शरोम ण भगवान् ीकृ ण और बलरामजी उस बालकको लेकर उ जैन
लौट आये और उसे अपने गु दे वको स पकर कहा क ‘आप और जो कुछ चाह, माँग
ल’ ।।४६।।
गु वाच
स यक् संपा दतो व स भवद् यां गु न यः ।
को नु यु म धगुरोः कामानामव श यते ।।४७

ग छतं वगृहं वीरौ क तवाम तु पावनी ।


छ दां ययातयामा न भव वह पर च ।।४८

गु णैवमनु ातौ रथेना नलरंहसा ।


आयातौ वपुरं तात पज य ननदे न वै ।।४९

समन दन् जाः सवा ् वा रामजनादनौ ।


अप य यो ब हा न न ल धधना इव ।।५०
गु जीने कहा—‘बेटा! तुम दोन ने भलीभाँ त गु द णा द । अब और या चा हये?
जो तु हारे जैसे पु षो म का गु है, उसका कौन-सा मनोरथ अपूण रह सकता है? ।।४७।।
वीरो! अब तुम दोन अपने घर जाओ। तु ह लोक को प व करनेवाली क त ा त हो।
तु हारी पढ़ ई व ा इस लोक और परलोकम सदा नवीन बनी रहे, कभी व मृत न
हो’ ।।४८।। बेटा परी त्! फर गु जीसे आ ा लेकर वायुके समान वेग और मेघके समान
श दवाले रथपर सवार होकर दोन भाई मथुरा लौट आये ।।४९।। मथुराक जा ब त
दन तक ीकृ ण और बलरामको न दे खनेसे अ य त ःखी हो रही थी। अब उ ह आया आ
दे ख सब-के-सब परमान दम म न हो गये, मानो खोया आ धन मल गया हो ।।५०।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध गु पु ानयनं नाम
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प चच वा रशोऽ यायः ।।४५।।

* च सठ कलाएँ ये ह—
१ गान व ा, २ वा —भाँ त-भाँ तके बाजे बजाना, ३ नृ य, ४ ना , ५ च कारी, ६
बेल-बूटे बनाना, ७ चावल और पु पा दसे पूजाके उपहारक रचना करना, ८ फूल क सेज
बनाना, ९ दाँत, व और अंग को रँगना, १० म णय क फश बनाना, ११ श या-रचना, १२
जलको बाँध दे ना, १३ व च स याँ दखलाना, १४ हार-माला आ द बनाना, १५ कान
और चोट के फूल के गहने बनाना, १६ कपड़े और गहने बनाना, १७ फूल के आभूषण से
शृंगार करना, १८ कान के प क रचना करना, १९ सुग धत व तुए— ँ इ , तैल आ द
बनाना, २० इ जाल—जा गरी, २१ चाहे जैसा वेष धारण कर लेना, २२ हाथक फुत के
काम, २३ तरह-तरहक खानेक व तुएँ बनाना, २४ तरह-तरहके पीनेके पदाथ बनाना, २५
सूईका काम, २६ कठपुतली बनाना, नचाना, २७ पहेली, २८ तमा आ द बनाना, २९
कूटनी त, ३० थ के पढ़ानेक चातुरी, ३१ नाटक, आ या यका आ दक रचना करना, ३२
सम यापू त करना, ३३ प , बत, बाण आ द बनाना, ३४ गलीचे, दरी आ द बनाना, ३५
बढ़इक कारीगरी, ३६ गृह आ द बनानेक कारीगरी, ३७ सोने, चाँद आ द धातु तथा हीरे-
प े आ द र न क परी ा, ३८ सोना-चाँद आ द बना लेना, ३९ म णय के रंगको पहचानना,
४० खान क पहचान, ४१ वृ क च क सा, ४२ भेड़ा, मुगा, बटे र आ दको लड़ानेक री त,
४३ तोता-मैना आ दक बो लयाँ बोलना, ४४ उ चाटनक व ध, ४५ केश क सफाईका
कौशल, ४६ मु क चीज या मनक बात बता दे ना, ४७ ले छ-का का समझ लेना, ४८
व भ दे श क भाषाका ान, ४९ शकुन-अपशकुन जानना, के उ रम शुभाशुभ
बतलाना, ५० नाना कारके मातृकाय बनाना, ५१ र न को नाना कारके आकार म
काटना, ५२ सांके तक भाषा बनाना, ५३ मनम कटकरचना करना, ५४ नयी-नयी बात
नकालना, ५५ छलसे काम नकालना, ५६ सम त कोश का ान, ५७ सम त छ द का ान,
५८ व को छपाने या बदलनेक व ा, ५९ ूत ड़ा, ६० रके मनु य या व तु का
आकषण कर लेना, ६१ बालक के खेल, ६२ म व ा, ६३ वजय ा त करानेवाली व ा,
६४ वेताल आ दको वशम रखनेक व ा।

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अथ षट् च वा रशोऽ यायः
उ वजीक जया ा
ीशुक उवाच
वृ णीनां वरो म ी कृ ण य द यतः सखा ।
श यो बृह पतेः सा ा वो बु स मः ।।१

तमाह भगवान् े ं भ मेका तनं व चत् ।


गृही वा पा णना पा ण प ा तहरो ह रः ।।२

ग छो व जं सौ य प ोन ी तमावह ।
गोपीनां म योगा ध म स दे शै वमोचय ।।३
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! उ वजी वृ णवं शय म एक धान पु ष थे। वे
सा ात् बृह प तजीके श य और परम बु मान् थे। उनक म हमाके स ब धम इससे
बढ़कर और कौन-सी बात कही जा सकती है क वे भगवान् ीकृ णके यारे सखा तथा
म ी भी थे ।।१।। एक दन शरणागत के सारे ःख हर लेनेवाले भगवान् ीकृ णने अपने
य भ और एका त ेमी उ वजीका हाथ अपने हाथम लेकर कहा— ।।२।।
‘सौ य वभाव उ व! तुम जम जाओ। वहाँ मेरे पता-माता न दबाबा और यशोदा मैया
ह, उ ह आन दत करो; और गो पयाँ मेरे वरहक ा धसे ब त ही ःखी हो रही ह, उ ह मेरे
स दे श सुनाकर उस वेदनासे मु करो ।।३।।
ता म मन का म ाणा मदथ य दै हकाः ।
मामेव द यतं े मा मानं मनसा गताः ।
ये य लोकधमा मदथ तान् बभ यहम् ।।४

म य ताः ेयसां े े र थे गोकुल यः ।


मर योऽ वमु त वरहौ क व लाः ।।५

धारय य तकृ े ण ायः ाणान् कथंचन ।


यागमनस दे शैब ल ो मे मदा मकाः ।।६
ीशुक उवाच
इ यु उ वो राजन् संदेशं भतुरा तः ।
आदाय रथमा ययौ न दगोकुलम् ।।७

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ा तो न द जं ीमान् न लोच त वभावसौ ।
छ यानः वशतां पशूनां खुररेणु भः ।।८

वा सताथऽ भयु य ना दतं शु म भवृषैः ।


धाव ती भ वा ा भ धोभारैः वव सकान् ।।९

इत ततो वलंघ ग व सैम डतं सतैः ।


गोदोहश दा भरवं वेणूनां नः वनेन च ।।१०
यारे उ व! गो पय का मन न य- नर तर मुझम ही लगा रहता है। उनके ाण, उनका
जीवन, उनका सव व म ही ँ। मेरे लये उ ह ने अपने प त-पु आ द सभी सगे-
स ब धय को छोड़ दया है। उ ह ने बु से भी मुझीको अपना यारा, अपना यतम—नह ,
नह ; अपना आ मा मान रखा है। मेरा यह त है क जो लोग मेरे लये लौ कक और
पारलौ कक धम को छोड़ दे ते ह, उनका भरण-पोषण म वयं करता ँ ।।४।।
य उ व! म उन गो पय का परम यतम ँ। मेरे यहाँ चले आनेसे वे मुझे र थ
मानती ह और मेरा मरण करके अ य त मो हत हो रही ह, बार-बार मू छत हो जाती ह। वे
मेरे वरहक थासे व ल हो रही ह, त ण मेरे लये उ क ठत रहती ह ।।५।।
मेरी गो पयाँ, मेरी ेय सयाँ इस समय बड़े ही क और य नसे अपने ाण को कसी
कार रख रही ह। मने उनसे कहा था क ‘म आऊँगा।’ वही उनके जीवनका आधार है।
उ व! और तो या क ँ, म ही उनक आ मा ँ। वे न य- नर तर मुझम ही त मय रहती
ह’ ।।६।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जब भगवान् ीकृ णने यह बात कही, तब
उ वजी बड़े आदरसे अपने वामीका स दे श लेकर रथपर सवार ए और न दगाँवके लये
चल पड़े ।।७।।
परम सु दर उ वजी सूया तके समय न दबाबाके जम प ँच।े उस समय जंगलसे गौएँ
लौट रही थ । उनके खुर के आघातसे इतनी धूल उड़ रही थी क उनका रथ ढक गया
था ।।८।।
जभू मम ऋतुमती गौ के लये मतवाले साँड़ आपसम लड़ रहे थे। उनक गजनासे
सारा ज गूँज रहा था। थोड़े दन क यायी ई गौएँ अपने थन के भारी भारसे दबी होनेपर
भी अपने-अपने बछड़ क ओर दौड़ रही थ ।।९।। सफेद रंगके बछड़े इधर-उधर उछल-कूद
मचाते ए ब त ही भले मालूम होते थे। गाय हनेक ‘घर-घर’ व नसे और बाँसु रय क
मधुर टे रसे अब भी जक अपूव शोभा हो रही थी ।।१०।।
गाय ती भ कमा ण शुभा न बलकृ णयोः ।
वलंकृता भग पी भग पै सु वरा जतम् ।।११

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अ यका त थगो व पतृदेवाचना वतैः ।
धूपद पै मा यै गोपावासैमनोरमम् ।।१२

सवतः पु पतवनं जा लकुलना दतम् ।


हंसकार डवाक णः प ष डै म डतम् ।।१३

तमागतं समाग य कृ ण यानुचरं यम् ।


न दः ीतः प र व य वासुदेव धयाचयत् ।।१४

भो जतं परमा ेन सं व ं क शपौ सुखम् ।


गत मं पयपृ छत् पादसंवाहना द भः ।।१५

क चद महाभाग सखा नः शूरन दनः ।


आ ते कुश यप या ैयु ो मु ः सु द्वृतः ।।१६

द ा कंसो हतः पापः सानुगः वेन पा मना ।


साधूनां धमशीलानां य नां े यः सदा ।।१७

अ प मर त नः कृ णो मातरं सु दः सखीन् ।
गोपान् जं चा मनाथं गावो वृ दावनं ग रम् ।।१८
गोपी और गोप सु दर-सु दर व तथा गहन से सज-धजकर ीकृ ण तथा बलरामजीके
मंगलमय च र का गान कर रहे थे और इस कार जक शोभा और भी बढ़ गयी
थी ।।११।। गोप के घर म अ न, सूय, अ त थ, गौ, ा ण और दे वता- पतर क पूजा क
ई थी। धूपक सुग ध चार ओर फैल रही थी और द पक जगमगा रहे थे। उन घर को
पु प से सजाया गया था। ऐसे मनोहर गृह से सारा ज और भी मनोरम हो रहा था ।।१२।।
चार ओर वन-पं याँ फूल से लद रही थ । प ी चहक रहे थे और भ रे गुंजार कर रहे थे।
वहाँ जल और थल दोन ही कमल के वनसे शोभायमान थे और हंस, ब ख आ द प ी
वनम वहार कर रहे थे ।।१३।।
जब भगवान् ीकृ णके यारे अनुचर उ वजी जम आये, तब उनसे मलकर न दबाबा
ब त ही स ए। उ ह ने उ वजीको गले लगाकर उनका वैसे ही स मान कया, मानो
वयं भगवान् ीकृ ण आ गये ह ।।१४।। समयपर उ म अ का भोजन कराया और जब वे
आरामसे पलँगपर बैठ गये, सेवक ने पाँव दबाकर, पंखा झलकर उनक थकावट र कर
द ।।१५।। तब न दबाबाने उनसे पूछा—‘परम भा यवान् उ वजी! अब हमारे सखा
वसुदेवजी जेलसे छू ट गये। उनके आ मीय वजन तथा पु आ द उनके साथ ह। इस समय
वे सब कुशलसे तो ह न? ।।१६।। यह बड़े सौभा यक बात है क अपने पाप के फल व प
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पापी कंस अपने अनुया यय के साथ मारा गया। य क वभावसे ही धा मक परम साधु
य वं शय से वह सदा े ष करता था ।।१७।। अ छा उ वजी! ीकृ ण कभी हमलोग क
भी याद करते ह? यह उनक माँ ह, वजन-स ब धी ह, सखा ह, गोप ह; उ ह को अपना
वामी और सव व माननेवाला यह ज है; उ ह क गौएँ, वृ दावन और यह ग रराज है, या
वे कभी इनका मरण करते ह? ।।१८।।
अ याया य त गो व दः वजनान् सकृद तुम् ।
त ह याम त ं सुनसं सु मते णम् ।।१९

दावा नेवातवषा च वृषसपा च र ताः ।


र यये यो मृ यु यः कृ णेन सुमहा मना ।।२०

मरतां कृ णवीया ण लीलापांग नरी तम् ।


ह सतं भा षतं चा सवा नः श थलाः याः ।।२१

स र छै लवनो े शान् मुकु दपदभू षतान् ।


आ डानी माणानां मनो या त तदा मताम् ।।२२

म ये कृ णं च रामं च ा ता वह सुरो मौ ।
सुराणां महदथाय गग य वचनं यथा ।।२३

कंसं नागायुत ाणं म लौ गजप त तथा ।


अव ध ां लीलयैव पशू नव मृगा धपः ।।२४

ताल यं महासारं धनुय मवेभराट् ।


बभंजैकेन ह तेन स ताहमदधाद् ग रम् ।।२५
आप यह तो बतलाइये क हमारे गो व द अपने सु द्-बा धव को दे खनेके लये एक बार
भी यहाँ आयगे या? य द वे यहाँ आ जाते तो हम उनक वह सुघड़ ना सका, उनका मधुर
हा य और मनोहर चतवनसे यु मुखकमल दे ख तो लेते ।।१९।। उ वजी! ीकृ णका
दय उदार है, उनक श अन त है, उ ह ने दावानलसे, आँधी-पानीसे, वृषासुर और
अजगर आ द अनेक मृ युके न म से— ज ह टालनेका कोई उपाय न था—एक बार नह ,
अनेक बार हमारी र ा क है ।।२०।। उ वजी! हम ीकृ णके व च च र , उनक
वलासपूण तरछ चतवन, उ मु हा य, मधुर भाषण आ दका मरण करते रहते ह और
उसम इतने त मय रहते ह क अब हमसे कोई काम-काज नह हो पाता ।।२१।। जब हम
दे खते ह क यह वही नद है, जसम ीकृ ण जल डा करते थे; यह वही ग रराज है, जसे
उ ह ने अपने एक हाथपर उठा लया था; ये वे ही वनके दे श ह, जहाँ ीकृ ण गौएँ चराते
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ए बाँसुरी बजाते थे, और ये वे ही थान ह, जहाँ वे अपने सखा के साथ अनेक कारके
खेल खेलते थे; और साथ ही यह भी दे खते ह क वहाँ उनके चरण च अभी मटे नह ह,
तब उ ह दे खकर हमारा मन ीकृ णमय हो जाता है ।।२२।। इसम स दे ह नह क म
ीकृ ण और बलरामको दे व शरोम ण मानता ँ और यह भी मानता ँ क वे दे वता का
कोई ब त बड़ा योजन स करनेके लये यहाँ आये ए ह। वयं भगवान् गगाचायजीने
मुझसे ऐसा ही कहा था ।।२३।। जैसे सह बना कसी प र मके पशु को मार डालता है,
वैसे ही उ ह ने खेल-खेलम ही दस हजार हा थय का बल रखनेवाले कंस, उसके दोन अजेय
पहलवान और महान् बलशाली गजराज कुवलयापीडाको मार डाला ।।२४।। उ ह ने तीन
ताल लंबे और अ य त ढ़ धनुषको वैसे ही तोड़ डाला, जैसे कोई हाथी कसी छड़ीको तोड़
डाले। हमारे यारे ीकृ णने एक हाथसे सात दन तक ग रराजको उठाये रखा था ।।२५।।
ल बो धेनुकोऽ र तृणावत बकादयः ।
दै याः सुरासुर जतो हता येनेह लीलया ।।२६
ीशुक उवाच
इ त सं मृ य सं मृ य न दः कृ णानुर धीः ।
अ यु क ठोऽभव ू ण ेम सर व लः ।।२७

यशोदा व यमाना न पु य च रता न च ।


शृ व य ू यवा ा ीत् नेह नुतपयोधरा ।।२८

तयो र थं भगव त कृ णे न दयशोदयोः ।


वी यानुरागं परमं न दमाहो वो मुदा ।।२९
उ व उवाच
युवां ा यतमौ नूनं दे हना मह मानद ।
नारायणेऽ खलगुरौ यत् कृता म तरी शी ।।३०

एतौ ह व य च बीजयोनी
रामो मुकु दः पु षः धानम् ।
अ वीय भूतेषु वल ण य
ान य चेशात इमौ पुराणौ ।।३१

य म नः ाण वयोगकाले
णं समावे य मनो वशु म् ।
न य कमाशयमाशु या त

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परां ग त मयोऽकवणः ।।३२
यह सबके दे खते-दे खते खेल-खेलम उ ह ने ल ब, धेनुक, अ र , तृणावत और बक
आ द उन बड़े-बड़े दै य को मार डाला, ज ह ने सम त दे वता और असुर पर वजय ा त
कर ली थी’ ।।२६।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! न दबाबाका दय य ही भगवान् ीकृ णके
अनुराग-रंगम रँगा आ था। जब इस कार वे उनक लीला का एक-एक करके मरण
करने लगे, तब तो उनम ेमक बाढ़ ही आ गयी, वे व ल हो गये और मलनेक अ य त
उ क ठा होनेके कारण उनका गला ँ ध गया। वे चुप हो गये ।।२७।।
यशोदारानी भी वह बैठकर न दबाबाक बात सुन रही थ , ीकृ णक एक-एक लीला
सुनकर उनके ने से आँसू बहते जाते थे और पु नेहक बाढ़से उनके तन से धक धारा
बहती जा रही थी ।।२८।।
उ वजी न दबाबा और यशोदारानीके दयम ीकृ णके त कैसा अगाध अनुराग है—
यह दे खकर आन दम न हो गये और उनसे कहने लगे ।।२९।।
उ वजीने कहा—हे मानद! इसम स दे ह नह क आप दोन सम त शरीरधा रय म
अ य त भा यवान् ह, सराहना करनेयो य ह। य क जो सारे चराचर जगत्के बनानेवाले
और उसे ान दे नेवाले नारायण ह, उनके त आपके दयम ऐसा वा स य नेह—पु भाव
है ।।३०।।
बलराम और ीकृ ण पुराणपु ष ह; वे सारे संसारके उपादानकारण और न म कारण
भी ह। भगवान् ीकृ ण पु ष ह तो बलरामजी धान ( कृ त)। ये ही दोन सम त शरीर म
व होकर उ ह जीवनदान दे ते ह और उनम उनसे अ य त वल ण जो ान व प जीव
है, उसका नयमन करते ह ।।३१।।
जो जीव मृ युके समय अपने शु मनको एक णके लये भी उनम लगा दे ता है, वह
सम त कम-वासना को धो बहाता है और शी ही सूयके समान तेज वी तथा मय
होकर परमग तको ा त होता है ।।३२।।
त मन् भव ताव खला महेतौ
नारायणे कारणम यमूत ।
भावं वध ां नतरां महा मन्
क वाव श ं युवयोः सुकृ यम् ।।३३

आग म य यद घण कालेन जम युतः ।
यं वधा यते प ोभगवान् सा वतां प तः ।।३४

ह वा कंसं रंगम ये तीपं सवसा वताम् ।


यदाह वः समाग य कृ णः स यं करो त तत् ।।३५
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मा ख तं महाभागौ यथः कृ णम तके ।
अ त द स भूतानामा ते यो त रवैध स ।।३६

न या त यः क ा यो वा यमा ननः ।
नो मो नाधमो ना प समान यासमोऽ प वा ।।३७

न माता न पता त य न भाया न सुतादयः ।


ना मीयो न पर ा प न दे हो ज म एव च ।।३८

न चा य कम वा लोके सदस म यो नषु ।


डाथः सोऽ प साधूनां प र ाणाय क पते ।।३९

स वं रज तम इ त भजते नगुणो गुणान् ।


ड तीतोऽ गुणैः सृज यव त ह यजः ।।४०
वे भगवान् ही, जो सबके आ मा और परम कारण ह, भ क अ भलाषा पूण करने
और पृ वीका भार उतारनेके लये मनु यका-सा शरीर हण करके कट ए ह। उनके त
आप दोन का ऐसा सु ढ़ वा स यभाव है; फर महा माओ! आप दोन के लये अब कौन-सा
शुभ कम करना शेष रह जाता है ।।३३।।
भ व सल य वंश शरोम ण भगवान् ीकृ ण थोड़े ही दन म जम आयगे और आप
दोन को—अपने माँ-बापको आन दत करगे ।।३४।। जस समय उ ह ने सम त य वं शय के
ोही कंसको रंगभू मम मार डाला और आपके पास आकर कहा क ‘म जम आऊँगा’ उस
कथनको वे स य करगे ।।३५।।
न दबाबा और माता यशोदाजी! आप दोन परम भा यशाली ह। खेद न कर। आप
ीकृ णको अपने पास ही दे खगे; य क जैसे का म अ न सदा ही ापक पसे रहती है,
वैसे ही वे सम त ा णय के दयम सवदा वराजमान रहते ह ।।३६।।
एक शरीरके त अ भमान न होनेके कारण न तो कोई उनका य है और न तो अ य।
वे सबम और सबके त समान ह; इस लये उनक म न तो कोई उ म है और न तो
अधम। यहाँतक क वषमताका भाव रखनेवाला भी उनके लये वषम नह है ।।३७।। न तो
उनक कोई माता है और न पता। न प नी है और न तो पु आ द। न अपना है और न तो
पराया। न दे ह है और न तो ज म ही ।।३८।। इस लोकम उनका कोई कम नह है फर भी वे
साधु के प र ाणके लये, लीला करनेके लये दे वा द सा वक, म या द तामस एवं मनु य
आ द म यो नय म शरीर धारण करते ह ।।३९।। भगवान् अज मा ह। उनम ाकृत स व,
रज आ दमसे एक भी गुण नह है। इस कार इन गुण से अतीत होनेपर भी लीलाके लये
खेल-खेलम वे स व, रज और तम—इन तीन गुण को वीकार कर लेते ह और उनके ारा
जगत्क रचना, पालन और संहार करते ह ।।४०।। जब ब चे घुमरीपरेता खेलने लगते ह या
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मनु य वेगसे च कर लगाने लगते ह, तब उ ह सारी पृ वी घूमती ई जान पड़ती है। वैसे ही
वा तवम सब कुछ करनेवाला च ही है; पर तु उस च म अहंबु हो जानेके कारण,
मवश उसे आ मा—अपना ‘म’ समझ लेनेके कारण, जीव अपनेको कता समझने लगता
है ।।४१।। भगवान् ीकृ ण केवल आप दोन के ही पु नह ह, वे सम त ा णय के आ मा,
पु , पता-माता और वामी भी ह ।।४२।। बाबा! जो कुछ दे खा या सुना जाता है—वह चाहे
भूतसे स ब ध रखता हो, वतमानसे अथवा भ व यसे; थावर हो या जंगम हो, महान् हो
अथवा अ प हो—ऐसी कोई व तु ही नह है जो भगवान् ीकृ णसे पृथक् हो। बाबा!
ीकृ णके अ त र ऐसी कोई व तु नह है, जसे व तु कह सक। वा तवम सब वे ही ह, वे
ही परमाथ स य ह ।।४३।।

यथा म रका ा ा यतीव महीयते ।


च े कत र त ा मा कतवाहं धया मृतः ।।४१

युवयोरेव नैवायमा मजो भगवान् ह रः ।


सवषामा मजो ा मा पता माता स ई रः ।।४२

ं ुतं भूतभवद् भ व यत्


था नु र णुमहद पकं च ।
वना युताद् व तु तरां न वा यं
स एव सव परमाथभूतः ।।४३

एवं नशा सा ुवतो तीता


न द य कृ णानुचर य राजन् ।
गो यः समु थाय न य द पान्
वा तून् सम य य दधी यम थन् ।।४४

ता द पद तैम ण भ वरेजू
र जू वकष जकंकण जः ।
चल त ब तनहारकु डल-
वष कपोला णकुंकुमाननाः ।।४५

उद्गायतीनामर व दलोचनं
जांगनानां दवम पृशद् व नः ।
द न नम थनश द म तो
नर यते येन दशाममंगलम् ।।४६

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परी त्! भगवान् ीकृ णके सखा उ व और न दबाबा इसी कार आपसम बात करते
रहे और वह रात बीत गयी। कुछ रात शेष रहनेपर गो पयाँ उठ , द पक जलाकर उ ह ने
घरक दे ह लय पर वा तुदेवका पूजन कया, अपने घर को झाड़-बुहारकर साफ कया और
फर दही मथने लग ।।४४।।
गो पय क कलाइय म कंगन शोभायमान हो रहे थे, र सी ख चते समय वे ब त भली
मालूम हो रही थ । उनके नत ब, तन और गलेके हार हल रहे थे। कान के कु डल हल-
हलकर उनके कुंकुम-म डत कपोल क ला लमा बढ़ा रहे थे। उनके आभूषण क म णयाँ
द पकक यो तसे और भी जगमगा रही थ और इस कार वे अ य त शोभासे स प होकर
दही मथ रही थ ।।४५।।
उस समय गो पयाँ—कमलनयन भगवान् ीकृ णके मंगलमय च र का गान कर रही
थ । उनका वह संगीत दही मथनेक व नसे मलकर और भी अद्भुत हो गया तथा
वगलोकतक जा प ँचा, जसक वर-लहरी सब ओर फैलकर दशा का अमंगल मटा
दे ती है ।।४६।।
भगव यु दते सूय न द ा र जौकसः ।
् वा रथं शातकौ भं क याय म त चा ुवन् ।।४७

अ ू र आगतः क वा यः कंस याथसाधकः ।


येन नीतो मधुपुर कृ णः कमललोचनः ।।४८

क साध य य य मा भभतुः ेत य न कृ तम् ।


इ त ीणां वद तीनामु वोऽगात् कृता कः ।।४९
जब भगवान् भुवनभा करका उदय आ, तब जांगना ने दे खा क न दबाबाके
दरवाजेपर एक सोनेका रथ खड़ा है। वे एक- सरेसे पूछने लग ‘यह कसका रथ
है?’ ।।४७।। कसी गोपीने कहा—‘कंसका योजन स करनेवाला अ ू र ही तो कह फर
नह आ गया है? जो कमलनयन यारे यामसु दरको यहाँसे मथुरा ले गया था’ ।।४८।।
कसी सरी गोपीने कहा—‘ या अब वह हम ले जाकर अपने मरे ए वामी कंसका
प डदान करेगा? अब यहाँ उसके आनेका और या योजन हो सकता है?’ जवा सनी
याँ इसी कार आपसम बातचीत कर रही थ क उसी समय न यकमसे नवृ होकर
उ वजी आ प ँचे ।।४९।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध न दशोकापनयनं नाम
षट् च वा रशोऽ यायः ।।४६।।

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अथ स तच वा रशोऽ यायः
उ व तथा गो पय क बातचीत और मरगीत
ीशुक उवाच
तं वी य कृ णानुचरं ज यः
ल बबा ं नवकंजलोचनम् ।
पीता बरं पु करमा लनं लस-
मुखार व दं म णमृ कु डलम् ।।१

शु च मताः कोऽयमपी यदशनः


कुत क या युतवेषभूषणः ।
इ त म सवाः प रव ु सुका-
तमु म ोकपदा बुजा यम् ।।२
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! गो पय ने दे खा क ीकृ णके सेवक उ वजीक
आकृ त और वेषभूषा ीकृ णसे मलती-जुलती है। घुटन तक लंबी-लंबी भुजाएँ ह, नूतन
कमलदलके समान कोमल ने ह, शरीरपर पीता बर धारण कये ए ह, गलेम कमल-
पु प क माला है, कान म म णज टत कु डल झलक रहे ह और मुखार व द अ य त
फु लत है ।।१।। प व मुसकानवाली गो पय ने आपसम कहा—‘यह पु ष दे खनेम तो
ब त सु दर है। पर तु यह है कौन? कहाँसे आया है? कसका त है? इसने ीकृ ण-जैसी
वेषभूषा य धारण कर रखी है?’ सब-क -सब गो पयाँ उनका प रचय ा त करनेके लये
अ य त उ सुक हो गय और उनमसे ब त-सी प व क त भगवान् ीकृ णके चरणकमल के
आ त तथा उनके सेवक-सखा उ वजीको चार ओरसे घेरकर खड़ी हो गय ।।२।।
तं येणावनताः सुस कृतं
स ीडहासे णसूनृता द भः ।
रह यपृ छ ुप व मासने
व ाय स दे शहरं रमापतेः ।।३

जानीम वां य पतेः पाषदं समुपागतम् ।


भ ह े षतः प ोभवान् य चक षया ।।४

अ यथा गो जे त य मरणीयं न च महे ।


नेहानुब धो ब धूनां मुनेर प सु यजः ।।५

अ ये वथकृता मै ी यावदथ वड बनम् ।


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पु भः ीषु कृता य त् सुमन वव षट् पदै ः ।।६

न वं यज त ग णका अक पं नृप त जाः ।


अधीत व ा आचायमृ वजो द द णम् ।।७

खगा वीतफलं वृ ं भु वा चा तथयो गृहम् ।


द धं मृगा तथार यं जारो भु वा रतां यम् ।।८

इ त गो यो ह गो व दे गतवा कायमानसाः ।
कृ ण ते जं याते उ वे य लौ ककाः ।।९
जब उ ह मालूम आ क ये तो रमारमण भगवान् ीकृ णका स दे श लेकर आये ह, तब
उ ह ने वनयसे झुककर सल ज हा य, चतवन और मधुर वाणी आ दसे उ वजीका
अ य त स कार कया तथा एका तम आसनपर बैठाकर वे उनसे इस कार कहने लग
— ।।३।। ‘उ वजी! हम जानती ह क आप य नाथके पाषद ह। उ ह का संदेश लेकर यहाँ
पधारे ह। आपके वामीने अपने माता- पताको सुख दे नेके लये आपको यहाँ भेजा है ।।४।।
अ यथा हम तो अब इस न दगाँवम—गौ के रहनेक जगहम उनके मरण करने यो य कोई
भी व तु दखायी नह पड़ती; माता- पता आ द सगे-स ब धय का नेह-ब धन तो बड़े-बड़े
ऋ ष-मु न भी बड़ी क ठनाईसे छोड़ पाते ह ।।५।। सर के साथ जो ेम-स ब धका वाँग
कया जाता है, वह तो कसी-न- कसी वाथके लये ही होता है। भ र का पु प से और
पु ष का य से ऐसा ही वाथका ेम-स ब ध होता है ।।६।। जब वे या समझती है क
अब मेरे यहाँ आनेवालेके पास धन नह है, तब उसे वह धता बता दे ती है। जब जा दे खती है
क यह राजा हमारी र ा नह कर सकता, तब वह उसका साथ छोड़ दे ती है। अ ययन
समा त हो जानेपर कतने श य अपने आचाय क सेवा करते ह? य क द णा मली क
ऋ वजलोग चलते बने ।।७।। जब वृ पर फल नह रहते, तब प ीगण वहाँसे बना कुछ
सोचे- वचारे उड़ जाते ह। भोजन कर लेनेके बाद अ त थलोग ही गृह थक ओर कब दे खते
ह? वनम आग लगी क पशु भाग खड़े ए। चाहे ीके दयम कतना भी अनुराग हो, जार
पु ष अपना काम बना लेनेके बाद उलटकर भी तो नह दे खता’ ।।८।।
परी त्! गो पय के मन, वाणी और शरीर ीकृ णम ही त लीन थे। जब भगवान्
ीकृ णके त बनकर उ वजी जम आये, तब वे उनसे इस कार कहते-कहते यह भूल ही
गय क कौन-सी बात कस तरह कसके सामने कहनी चा हये। भगवान् ीकृ णने
बचपनसे लेकर कशोर-अव थातक जतनी भी लीलाएँ क थ , उन सबक याद कर-करके
गो पयाँ उनका गान करने लग । वे आ म व मृत होकर ी-सुलभ ल जाको भी भूल गय
और फूट-फूटकर रोने लग ।।९-१०।।

गाय यः यकमा ण द य गत यः ।

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त य सं मृ य सं मृ य या न कैशोरबा ययोः ।।१०

का च मधुकरं ् वा याय ती कृ णसंगमम् ।


य था पतं तं क प य वेदम वीत् ।।११
गो युवाच
मधुप कतवब धो मा पृशाङ् सप याः
कुच वलु लतमालाकुङकुम म ु भनः ।
वहतु मधुप त त मा ननीनां सादं
य सद स वड यं य य त वमी क् ।।१२

सकृदधरसुधां वां मो हन पाय य वा


सुमनस इव स त यजेऽ मान् भवा क् ।
प रचर त कथं त पादप ं तु प ा
प बत तचेता उ म ोकज पैः ।।१३
एक गोपीको उस समय मरण हो रहा था भगवान् ीकृ णके मलनक लीलाका। उसी
समय उसने दे खा क पास ही एक भ रा गुनगुना रहा है। उसने ऐसा समझा मानो मुझे ठ
ई समझकर ीकृ णने मनानेके लये त भेजा हो। वह गोपी भ रेसे इस कार कहने लगी
— ।।११।।
गोपीने कहा—रे मधुप! तू कपट का सखा है; इस लये तू भी कपट है। तू हमारे पैर को
मत छू । झूठे णाम करके हमसे अनुनय- वनय मत कर। हम दे ख रही ह क ीकृ णक जो
वनमाला हमारी सौत के व ः थलके पशसे मसली ई है, उसका पीला-पीला कुंकुम तेरी
मूछ पर भी लगा आ है। तू वयं भी तो कसी कुसुमसे ेम नह करता, यहाँ-से-वहाँ उड़ा
करता है। जैसे तेरे वामी, वैसा ही तू! मधुप त ीकृ ण मथुराक मा ननी ना यका को
मनाया कर, उनका वह कुंकुम प कृपा- साद, जो युदवं शय क सभाम उपहास करनेयो य
है, अपने ही पास रख। उसे तेरे ारा यहाँ भेजनेक या आव यकता है? ।।१२।।
जैसा तू काला है, वैसे ही वे भी ह। तू भी पु प का रस लेकर उड़ जाता है, वैसे ही वे भी
नकले। उ ह ने हम केवल एक बार—हाँ, ऐसा ही लगता है—केवल एक बार अपनी त नक-
सी मो हनी और परम मादक अधरसुधा पलायी थी और फर हम भोली-भाली गो पय को
छोड़कर वे यहाँसे चले गये। पता नह ; सुकुमारी ल मी उनके चरण-कमल क सेवा कैसे
करती रहती ह! अव य ही वे छै ल-छबीले ीकृ णक चकनी-चुपड़ी बात म आ गयी ह गी।
चतचोरने उनका भी च चुरा लया होगा ।।१३।।
क मह ब षडङ् े गाय स वं य ना-
म धप तमगृहाणाम तो नः पुराणम् ।
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वजयसखसखीनां गीयतां त संगः
पतकुच ज ते क पय ती म ाः ।।१४

द व भु व च रसायां काः य त रापाः


कपट चरहास ू वजृ भ य याः युः ।
चरणरज उपा ते य य भू तवयं का
अ प च कृपणप े म ोकश दः ।।१५

वसृज शर स पादं वेद ् यहं चाटु कारै-


रनुनय व ष तेऽ ये य दौ यैमुकु दात् ।
वकृत इह वसृ ाप यप य यलोका
सृजदकृतचेताः क नु स धेयम मन् ।।१६
अरे मर! हम वनवा सनी ह। हमारे तो घर- ार भी नह है। तू हमलोग के सामने
य वंश शरोम ण ीकृ णका ब त-सा गुणगान य कर रहा है? यह सब भला हमलोग को
मनानेके लये ही तो? पर तु नह -नह , वे हमारे लये कोई नये नह ह। हमारे लये तो जाने-
पहचाने, बलकुल पुराने ह। तेरी चापलूसी हमारे पास नह चलेगी। तू जा, यहाँसे चला जा
और जनके साथ सदा वजय रहती है, उन ीकृ णक मधुपुरवा सनी स खय के सामने
जाकर उनका गुणगान कर। वे नयी ह, उनक लीलाएँ कम जानती ह और इस समय वे
उनक यारी ह; उनके दयक पीड़ा उ ह ने मटा द है। वे तेरी ाथना वीकार करगी, तेरी
चापलूसीसे स होकर तुझे मुँहमाँगी व तु दगी ।।१४।। भ रे! वे हमारे लये छटपटा रहे ह,
ऐसा तू य कहता है? उनक कपटभरी मनोहर मुसकान और भ ह के इशारेसे जो वशम न
हो जायँ, उनके पास दौड़ी न आव—ऐसी कौन-सी याँ ह? अरे अनजान! वगम,
पातालम और पृ वीम ऐसी एक भी ी नह है। और क तो बात ही या, वयं ल मीजी भी
उनके चरणरजक सेवा कया करती ह। फर हम ीकृ णके लये कस गनतीम ह? पर तु
तू उनके पास जाकर कहना क ‘तु हारा नाम तो ‘उ म ोक’ है, अ छे -अ छे लोग तु हारी
क तका गान करते ह; पर तु इसक साथकता तो इसीम है क तुम द न पर दया करो। नह
तो ीकृ ण! तु हारा ‘उ म ोक’ नाम झूठा पड़ जाता है ।।१५।। अरे मधुकर! दे ख, तू मेरे
पैरपर सर मत टे क। म जानती ँ क तू अनुनय- वनय करनेम, मा-याचना करनेम बड़ा
नपुण है। मालूम होता है तू ीकृ णसे ही यही सीखकर आया है क ठे एको मनानेके
लये तको—स दे श-वाहकको कतनी चाटु का रता करनी चा हये। पर तु तू समझ ले क
यहाँ तेरी दाल नह गलनेक । दे ख, हमने ीकृ णके लये ही अपने प त, पु और सरे
लोग को छोड़ दया। पर तु उनम त नक भी कृत ता नह । वे ऐसे नम ही नकले क हम
छोड़कर चलते बने! अब तू ही बता, ऐसे अकृत के साथ हम या स ध कर? या तू अब
भी कहता है क उनपर व ास करना चा हये? ।।१६।।

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मृगयु रव कपी ं व धे लु धधमा
यमकृत व पां ी जतः कामयानाम् ।
ब लम प ब लम वावे यद् वां वद् य-
तदलम सतस यै यज त कथाथः ।।१७

यदनुच रतलीलाकणपीयूष व ुट्-


सकृददन वधूत धमा वन ाः ।
सप द गृहकु बं द नमु सृ य द ना
बहव इह वहंगा भ ुचया चर त ।।१८

वयमृत मव ज ा तं धानाः
कु लक त मवा ाः कृ णव वो ह र यः ।
द शुरसकृदे त ख पशती -
मर ज उपम न् भ यताम यवाता ।।१९
ऐ रे मधुप! जब वे राम बने थे, तब उ ह ने क पराज बा लको ाधके समान छपकर
बड़ी नदयतासे मारा था। बेचारी शूपणखा कामवश उनके पास आयी थी, पर तु उ ह ने
अपनी ीके वश होकर उस बेचारीके नाक-कान काट लये और इस कार उसे कु प कर
दया। ा णके घर वामनके पम ज म लेकर उ ह ने या कया? ब लने तो उनक पूजा
क , उनक मुँहमाँगी व तु द और उ ह ने उसक पूजा हण करके भी उसे व णपाशसे
बाँधकर पातालम डाल दया। ठ क वैसे ही, जैसे कौआ ब ल खाकर भी ब ल दे नेवालेको
अपने अ य सा थय के साथ मलकर घेर लेता है और परेशान करता है। अ छा, तो अब जाने
दे ; हम ीकृ णसे या, कसी भी काली व तुके साथ म तासे कोई योजन नह है। पर तु
य द तू यह कहे क ‘जब ऐसा है तब तुमलोग उनक चचा य करती हो?’ तो मर! हम
सच कहती ह, एक बार जसे उसका चसका लग जाता है, वह उसे छोड़ नह सकता। ऐसी
दशाम हम चाहनेपर भी उनक चचा छोड़ नह सकत ।।१७।। ीकृ णक लीला प
कणामृतके एक कणका भी जो रसा वादन कर लेता है, उसके राग- े ष, सुख- ःख आ द
सारे छू ट जाते ह। यहाँतक क ब त-से लोग तो अपनी ःखमय— ःखसे सनी ई घर-
गृह थी छोड़कर अ कचन हो जाते ह, अपने पास कुछ भी सं ह-प र ह नह रखते और
प य क तरह चुन-चुनकर—भीख माँगकर अपना पेट भरते ह, द न- नयासे जाते रहते ह।
फर भी ीकृ णक लीलाकथा छोड़ नह पाते। वा तवम उसका रस, उसका चसका ऐसा ही
है। यही दशा हमारी हो रही है ।।१८।। जैसे कृ णसार मृगक प नी भोली-भाली ह र नयाँ
ाधके सुमधुर गानका व ास कर लेती ह और उसके जालम फँसकर मारी जाती ह, वैसे
ही हम भोली-भाली गो पयाँ भी उस छ लया कृ णक कपटभरी मीठ -मीठ बात म आकर
उ ह स यके समान मान बैठ और उनके नख पशसे होनेवाली काम ा धका बार-बार
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अनुभव करती रह । इस लये ीकृ णके त भ रे! अब इस वषयम तू और कुछ मत कह।
तुझे कहना ही हो तो कोई सरी बात कह ।।१९।।
यसख पुनरागाः ेयसा े षतः क
वरय कमनु धे माननीयोऽ स मेऽ ।
नय स कथ महा मान् यज पा
सततमुर स सौ य ीवधूः साकमा ते ।।२०

अ प बत मधुपुयामायपु ोऽधुनाऽऽ ते
मर त स पतृगेहान् सौ य ब धूं गोपान् ।
व चद प स कथा नः ककरीणां गृणीते
भुजमगु सुग धं मू यधा यत् कदा नु ।।२१
ीशुक उवाच
अथो वो नश यैवं कृ णदशनलालसाः ।
सा वयन् यस दे शैग पी रदमभाषत ।।२२
उ व उवाच
अहो यूयं म पूणाथा भव यो लोकपू जताः ।
वासुदेवे भगव त यासा म य पतं मनः ।।२३

दान ततपोहोमजप वा यायसंयमैः ।


ेयो भ व वधै ा यैः कृ णे भ ह सा यते ।।२४
हमारे यतमके यारे सखा! जान पड़ता है तुम एक बार उधर जाकर फर लौट आये
हो। अव य ही हमारे यतमने मनानेके लये तु ह भेजा होगा। य मर! तुम सब कारसे
हमारे माननीय हो। कहो, तु हारी या इ छा है? हमसे जो चाहो सो माँग लो। अ छा, तुम
सच बताओ, या हम वहाँ ले चलना चाहते हो? अजी, उनके पास जाकर लौटना बड़ा
क ठन है। हम तो उनके पास जा चुक ह। पर तु तुम हम वहाँ ले जाकर करोगे या? यारे
मर! उनके साथ—उनके व ः थलपर तो उनक यारी प नी ल मीजी सदा रहती ह न?
तब वहाँ हमारा नवाह कैसे होगा ।।२०।। अ छा, हमारे यतमके यारे त मधुकर! हम यह
बतलाओ क आयपु भगवान् ीकृ ण गु कुलसे लौटकर मधुपुरीम अब सुखसे तो ह न?
या वे कभी न दबाबा, यशोदारानी, यहाँके घर, सगे-स ब धी और वालबाल क भी याद
करते ह? और या हम दा सय क भी कोई बात कभी चलाते ह? यारे मर! हम यह भी
बतलाओ क कभी वे अपनी अगरके समान द सुग धसे यु भुजा हमारे सर पर रखगे?
या हमारे जीवनम कभी ऐसा शुभ अवसर भी आयेगा? ।।२१।।

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ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! गो पयाँ भगवान् ीकृ णके दशनके लये अ य त
उ सुक—लाला यत हो रही थ , उनके लये तड़प रही थ । उनक बात सुनकर उ वजीने
उ ह उनके यतमका स दे श सुनाकर सा वना दे ते ए इस कार कहा— ।।२२।।
उ वजीने कहा—अहो गो पयो! तुम कृतकृ य हो। तु हारा जीवन सफल है। दे वयो!
तुम सारे संसारके लये पूजनीय हो; य क तुमलोग ने इस कार भगवान् ीकृ णको
अपना दय, अपना सव व सम पत कर दया है ।।२३।। दान, त, तप, होम, जप,
वेदा ययन, यान, धारणा, समा ध और क याणके अ य व वध साधन के ारा भगवान्क
भ ा त हो, यही य न कया जाता है ।।२४।। यह बड़े सौभा यक बात है क
तुमलोग ने प व क त भगवान् ीकृ णके त वही सव म ेमभ ा त क है और
उसीका आदश था पत कया है, जो बड़े-बड़े ऋ ष-मु नय के लये भी अ य त लभ
है ।।२५।। सचमुच यह कतने सौभा यक बात है क तुमने अपने पु , प त, दे ह, वजन और
घर को छोड़कर पु षो म भगवान् ीकृ णको, जो सबके परम प त ह, प तके पम वरण
कया है ।।२६।। महाभा यवती गो पयो! भगवान् ीकृ णके वयोगसे तुमने उन इ यातीत
परमा माके त वह भाव ा त कर लया है, जो सभी व तु के पम उनका दशन कराता
है। तुमलोग का वह भाव मेरे सामने भी कट आ, यह मेरे ऊपर तुम दे वय क बड़ी ही दया
है ।।२७।। म अपने वामीका गु त काम करनेवाला त ।ँ तु हारे यतम भगवान्
ीकृ णने तुमलोग को परम सुख दे नेके लये यह य स दे श भेजा है। क या णयो! वही
लेकर म तुमलोग के पास आया ँ, अब उसे सुनो ।।२८।।

भगव यु म ोके भवती भरनु मा ।


भ ः व तता द ा मुनीनाम प लभा ।।२५

द ा पु ान् पतीन् दे हान् वजनान् भवना न च ।


ह वावृणीत यूयं यत् कृ णा यं पु षं परम् ।।२६

सवा मभावोऽ धकृतो भवतीनामधो जे ।


वरहेण महाभागा महान् मेऽनु हः कृतः ।।२७

ू तां यस दे शो भवतीनां सुखावहः ।



यमादायागतो भ ा अहं भतू रह करः ।।२८
ीभगवानुवाच
भवतीनां वयोगो मे न ह सवा मना व चत् ।
यथा भूता न भूतेषु खं वा व नजलं मही ।
तथाहं च मनः ाणभूते यगुणा यः ।।२९

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आ म येवा मनाऽऽ मानं सृजे ह यनुपालये ।
आ ममायानुभावेन भूते यगुणा मना ।।३०

आ मा ानमयः शु ो त र ोऽगुणा वयः ।


सुषु त व जा मायावृ भरीयते ।।३१
भगवान् ीकृ णने कहा है—म सबका उपादान कारण होनेसे सबका आ मा ,ँ सबम
अनुगत ँ; इस लये मुझसे कभी भी तु हारा वयोग नह हो सकता। जैसे संसारके सभी
भौ तक पदाथ म आकाश, वायु, अ न, जल और पृ वी—ये पाँच भूत ा त ह, इ ह से सब
व तुएँ बनी ह, और यही उन व तु के पम ह। वैसे ही म मन, ाण, पंचभूत, इ य और
उनके वषय का आ य ँ। वे मुझम ह, म उनम ँ और सच पूछो तो म ही उनके पम
कट हो रहा ँ ।।२९।। म ही अपनी मायाके ारा भूत, इ य और उनके वषय के पम
होकर उनका आ य बन जाता ँ तथा वयं न म भी बनकर अपने-आपको ही रचता ,ँ
पालता ँ और समेट लेता ँ ।।३०।। आ मा माया और मायाके काय से पृथक् है। वह
वशु ान व प, जड कृ त, अनेक जीव तथा अपने ही अवा तर भेद से र हत सवथा
शु है। कोई भी गुण उसका पश नह कर पाते। मायाक तीन वृ याँ ह—सुषु त, व
और जा त्। इनके ारा वही अख ड, अन त बोध व प आ मा कभी ा , तो कभी तैजस
और कभी व पसे तीत होता है ।।३१।।

येने याथान् यायेत मृषा व व थतः ।


त या द या ण व न ः यप त ।।३२

एतद तः समा नायो योगः सां यं मनी षणाम् ।


याग तपो दमः स यं समु ा ता इवापगाः ।।३३

य वहं भवतीनां वै रे वत यो शाम् ।


मनसः स कषाथ मदनु यानका यया ।।३४

यथा रचरे े े मन आ व य वतते ।


ीणां च न तथा चेतः स कृ ेऽ गोचरे ।।३५

म यावे य मनः कृ नं१ वमु ाशेषवृ यत् ।


अनु मर यो मां न यम चरा मामुपै यथ ।।३६

या मया डता रा यां वनेऽ मन् ज आ थताः ।


अल धरासाः क या यो माऽऽपुम य च तया ।।३७
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ीशुक उवाच
एवं यतमा द माक य जयो षतः ।
ता ऊचु वं ीता त स दे शागत मृतीः ।।३८
मनु यको चा हये क वह समझे क व म द खनेवाले पदाथ के समान ही जा त्-
अव थाम इ य के वषय भी तीत हो रहे ह, वे म या ह। इस लये उन वषय का च तन
करनेवाले मन और इ य को रोक ले और मानो सोकर उठा हो, इस कार जगत्के वा क
वषय को यागकर मेरा सा ा कार करे ।।३२।। जस कार सभी न दयाँ घूम- फरकर
समु म ही प ँचती ह, उसी कार मन वी पु ष का वेदा यास, योग-साधन, आ माना म-
ववेक, याग, तप या, इ यसंयम और स य आ द सम त धम, मेरी ा तम ही समा त होते
ह। सबका स चा फल है मेरा सा ा कार; य क वे सब मनको न करके मेरे पास
प ँचाते ह ।।३३।।
गो पयो! इसम स दे ह नह क म तु हारे नयन का ुवतारा ।ँ तु हारा जीवन-सव व ँ।
क तु म जो तुमसे इतना र रहता ँ, उसका कारण है। वह यही क तुम नर तर मेरा यान
कर सको, शरीरसे र रहनेपर भी मनसे तुम मेरी स धका अनुभव करो, अपना मन मेरे
पास रखो ।।३४।। य क य और अ या य े मय का च अपने परदे शी यतमम
जतना न ल भावसे लगा रहता है, उतना आँख के सामने, पास रहनेवाले यतमम नह
लगता ।।३५।। अशेष वृ य से र हत स पूण मन मुझम लगाकर जब तुमलोग मेरा
अनु मरण करोगी, तब शी ही सदाके लये मुझे ा त हो जाओगी ।।३६।। क या णयो!
जस समय मने वृ दावनम शारद य पू णमाक रा म रास- डा क थी उस समय जो
गो पयाँ वजन के रोक लेनेसे जम ही रह गय —मेरे साथ रास- वहारम स म लत न हो
सक , वे मेरी लीला का मरण करनेसे ही मुझे ा त हो गयी थ । (तु ह भी म मलूँगा
अव य, नराश होनेक कोई बात नह है) ।।३७।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! अपने यतम ीकृ णका यह सँदेशा सुनकर
गो पय को बड़ा आन द आ उनके संदेशसे उ ह ीकृ णके व प और एक-एक लीलाक
याद आने लगी। ेमसे भरकर उ ह ने उ वजीसे कहा ।।३८।।
गो य ऊचुः
द ा हतो हतः कंसो य नां सानुगोऽघकृत् ।
द ाऽऽ तैल धसवाथः कुश या तेऽ युतोऽधुना ।।३९

क चद् गदा जः सौ य करो त पुरयो षताम् ।


ी त नः न धस ीडहासोदारे णा चतः ।।४०

कथं र त वशेष ः य वरयो षताम् ।


नानुब येत त ा यै व मै ानुभा जतः ।।४१
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अ प मर त नः साधो गो व दः तुते व चत् ।
गो ीम ये पुर ीणां ा याः वैरकथा तरे ।।४२

ताः क नशाः मर त यासु तदा या भ-


वृ दावने कुमुदकु दशशांकर ये ।
रेमे वण चरणनूपुररासगो ा-
म मा भरी डतमनो कथः कदा चत् ।।४३
गो पय ने कहा—उ वजी! यह बड़े सौभा यक और आन दक बात है क
य वं शय को सतानेवाला पापी कंस अपने अनुया यय के साथ मारा गया। यह भी कम
आन दक बात नह है क ीकृ णके ब धु-बा धव और गु जन के सारे मनोरथ पूण हो गये
तथा अब हमारे यारे यामसु दर उनके साथ सकुशल नवास कर रहे ह ।।३९।।
क तु उ वजी! एक बात आप हम बतलाइये। ‘ जस कार हम अपनी ेमभरी लजीली
मुसकान और उ मु चतवनसे उनक पूजा करती थ और वे भी हमसे यार करते थे, उसी
कार मथुराक य से भी वे ेम करते ह या नह ?’ ।।४०।।
तबतक सरी गोपी बोल उठ —‘अरी सखी! हमारे यारे यामसु दर तो ेमक मो हनी
कलाके वशेष ह। सभी े याँ उनसे यार करती ह, फर भला जब नगरक याँ
उनसे मीठ -मीठ बात करगी और हाव-भावसे उनक ओर दे खगी तब वे उनपर य न
रीझगे?’ ।।४१।।
सरी गो पयाँ बोल —‘साधो! आप यह तो बतलाइये क जब कभी नागरी ना रय क
म डलीम कोई बात चलती है और हमारे यारे व छ द पसे, बना कसी संकोचके जब
ेमक बात करने लगते ह, तब या कभी संगवश हम गँवार वा लन -क भी याद करते
ह?’ ।।४२।।
कुछ गो पय ने कहा—‘उ वजी! या कभी ीकृ ण उन रा य का मरण करते ह,
जब कुमु दनी तथा कु दके पु प खले ए थे, चार ओर चाँदनी छटक रही थी और वृ दावन
अ य त रमणीय हो रहा था! उन रा य म ही उ ह ने रास-म डल बनाकर हम-लोग के साथ
नृ य कया था। कतनी सु दर थी वह रासलीला! उस समय हमलोग के पैर के नूपुर नझुन-
नझुन बज रहे थे। हम सब स खयाँ उ ह क सु दर-सु दर लीला का गान कर रही थ और
वे हमारे साथ नाना कारके वहार कर रहे थे’ ।।४३।।

अ ये यतीह दाशाह त ताः वकृतया शुचा ।


संजीवयन् नु नो गा ैयथे ो वनम बुदैः ।।४४

क मात् कृ ण इहाया त ा तरा यो हता हतः ।


नरे क या उ ा ीतः सवसु द्वृतः ।।४५

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कम मा भवनौको भर या भवा महा मनः ।
ीपतेरा तकाम य येताथः कृता मनः ।।४६

परं सौ यं ह नैरा यं वै र य याह पगला ।


त जानतीनां नः कृ णे तथा याशा र यया ।।४७

क उ सहेत स य ु मु म ोकसं वदम् ।


अ न छतोऽ प य य ीरंगा यवते व चत् ।।४८
कुछ सरी गो पयाँ बोल उठ —‘उ वजी! हम सब तो उ ह के वरहक आगसे जल रही
ह। दे वराज इ जैसे जल बरसाकर वनको हरा-भरा कर दे ते ह, उसी कार या कभी
ीकृ ण भी अपने कर- पश आ दसे हम जीवनदान दे नेके लये यहाँ आवगे?’ ।।४४।।
तबतक एक गोपीने कहा—‘अरी सखी! अब तो उ ह ने श ु को मारकर रा य पा
लया है; जसे दे खो, वही उनका सु द् बना फरता है। अब वे बड़े-बड़े नरप तय क
कुमा रय से ववाह करगे, उनके साथ आन दपूवक रहगे; यहाँ हम गँवा रन के पास य
आयगे?’ ।।४५।।
सरी गोपीने कहा—‘नह सखी! महा मा ीकृ ण तो वयं ल मीप त ह। उनक सारी
कामनाएँ पूण ही ह, वे कृतकृ य ह। हम वनवा सनी वा लन अथवा सरी राजकुमा रय से
उनका कोई योजन नह है। हमलोग के बना उनका कौन-सा काम अटक रहा है ।।४६।।
दे खो वे या होनेपर भी पगलाने या ही ठ क कहा है—संसारम कसीक आशा न
रखना ही सबसे बड़ा सुख है।’ यह बात हम जानती ह, फर भी दम भगवान् ीकृ णके
लौटनेक आशा छोड़नेम असमथ ह। उनके शुभागमनक आशा ही तो हमारा जीवन
है ।।४७।।
हमारे यारे यामसु दरने, जनक क तका गान बड़े-बड़े महा मा करते रहते ह, हमसे
एका तम जो मीठ -मीठ ेमक बात क ह उ ह छोड़नेका, भुलानेका उ साह भी हम कैसे
कर सकती ह? दे खो तो, उनक इ छा न होनेपर भी वयं ल मीजी उनके चरण से लपट
रहती ह, एक णके लये भी उनका अंग-संग छोड़कर कह नह जात ।।४८।।
स र छै लवनो े शा गावो वेणुरवा इमे ।
संकषणसहायेन कृ णेनाच रताः भो ।।४९

पुनः पुनः मारय त न दगोपसुतं बत ।


ी नकेतै त पदकै व मतु नैव श नुमः ।।५०

ग या ल लतयोदारहासलीलावलोकनैः ।
मा ा गरा त धयः कथं तं व मरामहे ।।५१
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हे नाथ हे रमानाथ जनाथा तनाशन ।
म नमु र गो व द गोकुलं वृ जनाणवात् ।।५२
ीशुक उवाच
तत ताः कृ णस दे शै पेत वरह वराः ।
उ वं पूजयांच ु ा वाऽऽ मानमधो जम् ।।५३
उ वजी! यह वही नद है, जसम वे वहार करते थे। यह वही पवत है, जसके
शखरपर चढ़कर वे बाँसुरी बजाते थे। ये वे ही वन ह, जनम वे रा के समय रासलीला करते
थे, और ये वे ही गौएँ ह, जनको चरानेके लये वे सुबह-शाम हमलोग को दे खते ए जाते-
आते थे। और यह ठ क वैसी ही वंशीक तान हमारे कान म गूँजती रहती है, जैसी वे अपने
अधर के संयोगसे छे ड़ा करते थे। बलरामजीके साथ ीकृ णने इन सभीका सेवन कया
है ।।४९।।
यहाँका एक-एक दे श, एक-एक धू लकण उनके परम सु दर चरणकमल से च त है।
इ ह जब-जब हम दे खती ह, सुनती ह— दनभर यही तो करती रहती ह—तब-तब वे हमारे
यारे यामसु दर न दन दनको हमारे ने के सामने लाकर रख दे ते ह। उ वजी! हम कसी
भी कार मरकर भी उ ह भूल नह सकत ।।५०।।
उनक वह हंसक -सी सु दर चाल, उ मु हा य, वलासपूण चतवन और मधुमयी
वाणी! आह! उन सबने हमारा च चुरा लया है, हमारा मन हमारे वशम नह है; अब हम
उ ह भूल तो कस तरह? ।।५१।।
हमारे यारे ीकृ ण! तु ह हमारे जीवनके वामी हो, सव व हो। यारे! तुम ल मीनाथ
हो तो या आ? हमारे लये तो जनाथ ही हो। हम जगो पय के एकमा तु ह स चे
वामी हो। यामसु दर! तुमने बार-बार हमारी था मटायी है, हमारे संकट काटे ह।
गो व द! तुम गौ से ब त ेम करते हो। या हम गौएँ नह ह? तु हारा यह सारा गोकुल
जसम वालबाल, माता- पता, गौएँ और हम गो पयाँ सब कोई ह— ःखके अपार सागरम
डू ब रहा है। तुम इसे बचाओ, आओ, हमारी र ा करो ।।५२।।
ीशुकदे वजी कहते ह— य परी त्! भगवान् ीकृ णका य स दे श सुनकर
गो पय के वरहक था शा त हो गयी थी। वे इ यातीत भगवान् ीकृ णको अपने
आ माके पम सव थत समझ चुक थ । अब वे बड़े ेम और आदरसे उ वजीका
स कार करने लग ।।५३।।
उवास क त च मासान् गोपीनां वनुद छु चः ।
कृ णलीलाकथां गायन् रमयामास गोकुलम् ।।५४

याव यहा न न द य जेऽवा सीत् स उ वः ।


जौकसां ण ाया यासन् कृ ण य वातया ।।५५

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स र न ग र ोणीव न् कुसु मतान् मान् ।
कृ णं सं मारयन् रेमे ह रदासो जौकसाम् ।।५६

् वैवमा द गोपीनां कृ णावेशा म व लवम् ।


उ वः परम ीत ता नम य दं जगौ ।।५७

एताः परं तनुभृतो भु व गोपव वो


गो व द एव न खला म न ढभावाः ।
वा छ त यद् भव भयो मुनयो वयं च
क ज म भरन तकथारस य ।।५८
उ वजी गो पय क वरह- था मटानेके लये कई महीन तक वह रहे। वे भगवान्
ीकृ णक अनेक लीलाएँ और बात सुना-सुनाकर ज-वा सय को आन दत करते
रहते ।।५४।।
न दबाबाके जम जतने दन तक उ वजी रहे, उतने दन तक भगवान् ीकृ णक
लीलाक चचा होते रहनेके कारण जवा सय को ऐसा जान पड़ा, मानो अभी एक ही ण
आ हो ।।५५।।
भगवान्के परम ेमी भ उ वजी कभी नद तटपर जाते, कभी वन म वहरते और
कभी ग रराजक घा टय म वचरते। कभी रंग- बरंगे फूल से लदे ए वृ म ही रम जाते
और यहाँ भगवान् ीकृ णने कौन-सी लीला क है, यह पूछ-पूछकर जवा सय को भगवान्
ीकृ ण और उनक लीलाके मरणम त मय कर दे ते ।।५६।।
उ वजीने जम रहकर गो पय क इस कारक ेम- वकलता तथा और भी ब त-सी
ेम-चे ाएँ दे ख । उनक इस कार ीकृ णम त मयता दे खकर वे ेम और आन दसे भर
गये। अब वे गो पय को नम कार करते ए इस कार गान करने लगे— ।।५७।।
‘इस पृ वीपर केवल इन गो पय का ही शरीर धारण करना े एवं सफल है; य क ये
सवा मा भगवान् ीकृ णके परम ेममय द महाभावम थत हो गयी ह। ेमक यह
ऊँची-से-ऊँची थ त संसारके भयसे भीत मुमु ुजन के लये ही नह , अ पतु बड़े-बड़े मु नय
—मु पु ष तथा हम भ जन के लये भी अभी वा छनीय ही है। हम इसक ा त नह
हो सक । स य है, ज ह भगवान् ीकृ णक लीला-कथाके रसका चसका लग गया है, उ ह
कुलीनताक , जा तसमु चत सं कारक और बड़े-बड़े य -याग म द त होनेक या
आव यकता है? अथवा य द भगवान्क कथाका रस नह मला, उसम च नह ई, तो
अनेक महाक प तक बार-बार ा होनेसे ही या लाभ? ।।५८।।
वेमाः यो वनचरी भचार ाः
कृ णे व चैष परमा म न ढभावः ।
न वी रोऽनुभजतोऽ व षोऽ प सा ा-
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े य तनो यगदराज इवोपयु ः ।।५९

नायं योऽ उ नता तरतेः सादः


वय षतां न लनग ध चां कुतोऽ याः ।
रासो सवेऽ य भुजद डगृहीतक ठ-
ल धा शषां य उदगाद् जब लवीनाम् ।।६०

आसामहो चरणरेणुजुषामहं यां


वृ दावने कम प गु मलतौषधीनाम् ।
या यजं वजनमायपथं च ह वा
भेजुमुकु दपदव ु त भ वमृ याम् ।।६१

या वै या चतमजा द भरा तकामै-


य गे रैर प यदा म न रासगो ाम् ।
कृ ण य तद् भगवत रणार व दं
य तं तनेषु वज ः प रर य तापम् ।।६२
कहाँ ये वनचरी आचार, ान और जा तसे हीन गाँवक गँवार वा लन और कहाँ
स चदान दघन भगवान् ीकृ णम यह अन य परम ेम! अहो, ध य है! ध य है! इससे
स होता है क कोई भगवान्के व प और रह यको न जानकर भी उनसे ेम करे, उनका
भजन करे, तो वे वयं अपनी श से अपनी कृपासे उसका परम क याण कर दे ते ह; ठ क
वैसे ही, जैसे कोई अनजानम भी अमृत पी ले तो वह अपनी व तु-श से ही पीनेवालेको
अमर बना दे ता है ।।५९।। भगवान् ीकृ णने रासो सवके समय इन जांगना के गलेम
बाँह डाल-डालकर इनके मनोरथ पूण कये। इ ह भगवान्ने जस कृपा- सादका वतरण
कया, इ ह जैसा ेमदान कया, वैसा भगवान्क परम ेमवती न यसं गनी व ः थलपर
वराजमान ल मीजीको भी नह ा त आ। कमलक -सी सुग ध और का तसे यु
दे वांगना को भी नह मला। फर सरी य क तो बात ही या कर? ।।६०।। मेरे लये
तो सबसे अ छ बात यही होगी क म इस वृ दावनधामम कोई झाड़ी, लता अथवा ओष ध
—जड़ी-बूट ही बन जाऊँ! अहा! य द म ऐसा बन जाऊँगा, तो मुझे इन जांगना क
चरणधू ल नर तर सेवन करनेके लये मलती रहेगी। इनक चरण-रजम नान करके म ध य
हो जाऊँगा। ध य ह ये गो पयाँ। दे खो तो सही, जनको छोड़ना अ य त क ठन है, उन
वजन-स ब धय तथा लोक-वेदक आय-मयादाका प र याग करके इ ह ने भगवान्क
पदवी, उनके साथ त मयता, उनका परम ेम ा त कर लया है—और क तो बात ही या
—भगव ाणी, उनक नः ास प सम त ु तयाँ, उप नषद भी अबतक भगवान्के परम
ेममय व पको ढूँ ढ़ती ही रहती ह, ा त नह कर पात ।।६१।।
वयं भगवती ल मीजी जनक पूजा करती रहती ह; ा, शंकर आ द परम समथ
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दे वता, पूणकाम आ माराम और बड़े-बड़े योगे र अपने दयम जनका च तन करते रहते
ह, भगवान् ीकृ णके उ ह चरणार व द को रास-लीलाके समय गो पय ने अपने
व ः थलपर रखा और उनका आ लगन करके अपने दयक जलन, वरह- था शा त
क ।।६२।। न दबाबाके जम रहनेवाली गोपांगना क चरण-धू लको म बारंबार णाम
करता — ँ उसे सरपर चढ़ाता ँ। अहा! इन गो पय ने भगवान् ीकृ णक लीलाकथाके
स ब धम जो कुछ गान कया है, वह तीन लोक को प व कर रहा है और सदा-सवदा प व
करता रहेगा’ ।।६३।।

व दे न द ज ीणां पादरेणुमभी णशः ।


यासां ह रकथोद्गीतं पुना त भुवन यम् ।।६३
ीशुक उवाच
अथ गोपीरनु ा य यशोदां न दमेव च ।
गोपानाम य दाशाह या य ा हे रथम् ।।६४

तं नगतं समासा नानोपायनपाणयः ।


न दादयोऽनुरागेण ावोच ुलोचनाः ।।६५

मनसो वृ यो नः युः कृ णपादा बुजा याः ।


वाचोऽ भधा यनीना नां काय त णा दषु ।।६६

कम भ ा यमाणानां य वापी रे छया ।


मंगलाच रतैदानै र तनः कृ ण ई रे ।।६७

एवं सभा जतो गोपैः कृ णभ या नरा धप ।


उ वः पुनराग छ मथुरां कृ णपा लताम् ।।६८

कृ णाय णप याह भ यु े कं जौकसाम् ।


वसुदेवाय रामाय रा े चोपायना यदात् ।।६९
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! इस कार कई महीन तक जम रहकर उ वजीने
अब मथुरा जानेके लये गो पय से, न दबाबा और यशोदा मैयासे आ ा ा त क ।
वालबाल से वदा लेकर वहाँसे या ा करनेके लये वे रथपर सवार ए ।।६४।। जब उनका
रथ जसे बाहर नकला, तब न दबाबा आ द गोपगण ब त-सी भटक साम ी लेकर उनके
पास आये और आँख म आँसू भरकर उ ह ने बड़े ेमसे कहा— ।।६५।। ‘उ वजी! अब हम
यही चाहते ह क हमारे मनक एक-एक वृ , एक-एक संक प ीकृ णके चरणकमल के

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ही आ त रहे। उ ह क सेवाके लये उठे और उ ह म लगी भी रहे। हमारी वाणी न य-
नर तर उ ह के नाम का उ चारण करती रहे और शरीर उ ह को णाम करने, उ ह क
आ ा-पालन और सेवाम लगा रहे ।।६६।। उ वजी! हम सच कहते ह, हम मो क इ छा
बलकुल नह है। हम भगवान्क इ छासे अपने कम के अनुसार चाहे जस यो नम ज म ल
—वहाँ शुभ आचरण कर, दान कर और उसका फल यही पाव क हमारे अपने ई र
ीकृ णम हमारी ी त उ रो र बढ़ती रहे’ ।।६७।। य परी त्! न दबाबा आ द गोप ने
इस कार ीकृ ण-भ के ारा उ वजीका स मान कया। अब वे भगवान् ीकृ णके
ारा सुर त मथुरापुरीम लौट आये ।।६८।। वहाँ प ँचकर उ ह ने भगवान् ीकृ णको
णाम कया और उ ह जवा सय क ेममयी भ का उ े क, जैसा उ ह ने दे खा था, कह
सुनाया। इसके बाद न दबाबाने भटक जो-जो साम ी द थी वह उनको, वसुदेवजी,
बलरामजी और राजा उ सेनको दे द ।।६९।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध उ व तयाने
स तच वा रशोऽ यायः ।।४७।।

१. कृ णे।

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अथा च वा रशोऽ यायः
भगवान्का कु जा और अ ू रजीके घर जाना
ीशुक उवाच
अथ व ाय भगवान् सवा मा सवदशनः ।
सैर याः कामत तायाः य म छन् गृहं ययौ ।।१

महाह प करैरा ं कामोपायोपबृं हतम् ।


मु ादामपताका भ वतानशयनासनैः ।
धूपैः सुर भ भद पैः ग धैर प म डतम् ।।२

गृहं तमाया तमवे य साऽऽसनात्


स ः समु थाय ह जातस मा ।
यथोपसंग य सखी भर युतं
सभाजयामास सदासना द भः ।।३

तथो वः साधु तया भपू जतो


यषीद ाम भमृ य चासनम् ।
कृ णोऽ प तूण शयनं महाधनं
ववेश लोकाच रता यनु तः ।।४

सा म जनालेप कूलभूषण-
ग धता बूलसुधासवा द भः ।
सा धता मोपससार माधवं
स ीडलीलो मत व मे तैः ।।५

आ य का तां नवसंगम या
वशं कतां कंकणभू षते करे ।
गृ श याम धवे य रामया
रेमेऽनुलेपापणपु यलेशया ।।६
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! तदन तर सबके आ मा तथा सब कुछ दे खनेवाले
भगवान् ीकृ ण अपनेसे मलनक आकां ा रखकर ाकुल ई कु जाका य करने—उसे
सुख दे नेक इ छासे उसके घर गये ।।१।। कु जाका घर ब मू य साम य से स प था।
उसम शृंगार-रसका उ पन करनेवाली ब त-सी साधन-साम ी भी भरी ई थी। मोतीक
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झालर और थान- थानपर झं डयाँ भी लगी ई थ । चँदोवे तने ए थे। सेज बछायी ई थ
और बैठनेके लये ब त सु दर-सु दर आसन लगाये ए थे। धूपक सुग ध फैल रही थी।
द पकक शखाएँ जगमगा रही थ । थान- थानपर फूल के हार और च दन रखे ए
थे ।।२।। भगवान्को अपने घर आते दे ख कु जा तुरंत हड़बड़ाकर अपने आसनसे उठ खड़ी
ई और स खय के साथ आगे बढ़कर उसने व धपूवक भगवान्का वागत-स कार कया।
फर े आसन आ द दे कर व वध उपचार से उनक व धपूवक पूजा क ।।३।। कु जाने
भगवान्के परमभ उ वजीक भी समु चत री तसे पूजा क ; पर तु वे उसके स मानके
लये उसका दया आ आसन छू कर धरतीपर ही बैठ गये। (अपने वामीके सामने उ ह ने
आसनपर बैठना उ चत न समझा।) भगवान् ीकृ ण स चदान द- व प होनेपर भी
लोकाचारका अनुकरण करते ए तुरंत उसक ब मू य सेजपर जा बैठे ।।४।। तब कु जा
नान, अंगराग, व , आभूषण, हार, ग ध (इ आ द), ता बूल और सुधासव आ दसे
अपनेको खूब सजाकर लीलामयी लजीली मुसकान तथा हाव-भावके साथ भगवान्क ओर
दे खती ई उनके पास आयी ।।५।। कु जा नवीन मलनके संकोचसे कुछ झझक रही थी।
तब याम-सु दर ीकृ णने उसे अपने पास बुला लया और उसक कंकणसे सुशो भत
कलाई पकड़कर अपने पास बैठा लया और उसके साथ डा करने लगे। परी त्!
कु जाने इस ज मम केवल भगवान्को अंगराग अ पत कया था, उसी एक शुभकमके
फल व प उसे ऐसा अनुपम अवसर मला ।।६।। कु जा भगवान् ीकृ णके चरण को
अपने काम-संत त दय, व ः थल और ने पर रखकर उनक द सुग ध लेने लगी और
इस कार उसने अपने दयक सारी आ ध- ा ध शा त कर ली। व ः थलसे सटे ए
आन दमू त यतम यामसु दरका अपनी दोन भुजा से गाढ़ आ लगन करके कु जाने
द घकालसे बढ़े ए वरहतापको शा त कया ।।७।। परी त्! कु जाने केवल अंगराग
सम पत कया था। उतनेसे ही उसे उन सवश मान् भगवान्क ा त ई, जो
कैव यमो के अधी र ह और जनक ा त अ य त क ठन है। पर तु उस भगाने उ ह
ा त करके भी जगो पय क भाँ त सेवा न माँगकर यही माँगा— ।।८।। ‘ यतम! आप
कुछ दन यह रहकर मेरे साथ डा क जये। य क हे कमलनयन! मुझसे आपका साथ
नह छोड़ा जाता’ ।।९।।

सानंगत तकुचयो रस तथा णो-


ज यन तचरणेन जो मृज ती ।
दो या तना तरगतं प रर य का त-
मान दमू तमजहाद तद घतापम् ।।७

सैवं कैव यनाथं तं ा य ापमी रम् ।


अंगरागापणेनाहो भगेदमयाचत ।।८

आहो यता मह े दना न क त च मया ।


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रम व नो सहे य ुं संगं तेऽ बु हे ण ।।९

त यै कामवरं द वा मान य वा च मानदः ।


सहो वेन सवशः वधामागमद चतम्१ ।।१०

रारा यं समारा य व णुं सव रे रम् ।


यो वृणीते मनो ा मस वात् कुमनी यसौ ।।११

अ ू रभवनं कृ णः सहरामो वः भुः ।


क च चक षयन् ागाद ू र यका यया ।।१२

स तान् नरवर े ानाराद् वी य वबा धवान् ।


यु थाय मु दतः प र व या यन दत ।।१३
परी त्! भगवान् ीकृ ण सबका मान रखनेवाले और सव र ह। उ ह ने अभी वर
दे कर उसक पूजा वीकार क और फर अपने यारे भ उ वजीके साथ अपने
सवस मा नत घरपर लौट आये ।।१०।। परी त्! भगवान् ा आ द सम त ई र के भी
ई र ह। उनको स कर लेना भी जीवके लये ब त ही क ठन है। जो कोई उ ह स
करके उनसे वषय-सुख माँगता है, वह न य ही बु है; य क वा तवम वषय-सुख
अ य त तु छ—नह के बराबर है ।।११।।
तदन तर एक दन सवश मान् भगवान् ीकृ ण बलरामजी और उ वजीके साथ
अ ू रजीक अ भलाषा पूण करने और उनसे कुछ काम लेनेके लये उनके घर गये ।।१२।।
अ ू रजीने रसे ही दे ख लया क हमारे परम ब धु मनु यलोक शरोम ण भगवान् ीकृ ण
और बलरामजी आ द पधार रहे ह। वे तुरंत उठकर आगे गये तथा आन दसे भरकर उनका
अ भन दन और आ लगन कया ।।१३।। अ ू रजीने भगवान् ीकृ ण और बलरामजीको
नम कार कया तथा उ वजीके साथ उन दोन भाइय ने भी उ ह नम कार कया। जब सब
लोग आरामसे आसन पर बैठ गये, तब अ ू रजी उन लोग क व धवत् पूजा करने
लगे ।।१४।। परी त्! उ ह ने पहले भगवान्के चरण धोकर चरणोदक सरपर धारण कया
और फर अनेक कारक पूजा-साम ी, द व , ग ध, माला और े आभूषण से
उनका पूजन कया, सर झुकाकर उ ह णाम कया और उनके चरण को अपनी गोदम
लेकर दबाने लगे। उसी समय उ ह ने वनयावनत होकर भगवान् ीकृ ण और बलरामजीसे
कहा— ।।१५-१६।। ‘भगवन्! यह बड़े ही आन द और सौभा यक बात है क पापी कंस
अपने अनुया यय के साथ मारा गया। उसे मारकर आप दोन ने युदवंशको ब त बड़े संकटसे
बचा लया है तथा उ त और समृ कया है ।।१७।। आप दोन जगत्के कारण और
जगद् प, आ दपु ष ह। आपके अ त र और कोई व तु नह है, न कारण और न तो
काय ।।१८।। परमा मन्! आपने ही अपनी श से इसक रचना क है और आप ही अपनी
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काल, माया आ द श य से इसम व होकर जतनी भी व तुएँ दे खी और सुनी जाती ह,
उनके पम तीत हो रहे ह ।।१९।। जैसे पृ वी आ द कारणत व से ही उनके काय थावर-
जंगम शरीर बनते ह; वे उनम अनु व -से होकर अनेक प म तीत होते ह, पर तु
वा तवम वे कारण प ही ह। इसी कार ह तो केवल आप ही, पर तु अपने काय प जगत्म
वे छासे अनेक प म तीत होते ह। यह भी आपक एक लीला ही है ।।२०।। भो! आप
रजोगुण, स वगुण और तमोगुण प अपनी श य से मशः जगत्क रचना, पालन और
संहार करते ह; क तु आप उन गुण से अथवा उनके ारा होनेवाले कम से ब धनम नह
पड़ते, य क आप शु ान व प ह। ऐसी थ तम आपके लये ब धनका कारण ही या
हो सकता है? ।।२१।।
ननाम कृ णं रामं च स तैर य भवा दतः ।
पूजयामास व धवत् कृतासनप र हान् ।।१४

पादावनेजनीरापो धारय छरसा नृप ।


अहणेना बरै द ैग ध भूषणो मैः ।।१५

अ च वा शरसाऽऽन य पादावंकगतौ मृजन् ।


यावनतोऽ ू रः कृ णरामावभाषत ।।१६

द ा पापो हतः कंसः सानुगो वा मदं कुलम् ।


भवद् यामुदधृ
् तं कृ ाद् र ता च समे धतम् ।।१७

युवां धानपु षौ जगद्धेतू जग मयौ ।


भवद् यां न वना क चत् परम त न चापरम् ।।१८

आ मसृ मदं व म वा व य वश भः ।
इयते ब धा न् ुत य गोचरम् ।।१९

यथा ह भूतेषु चराचरेषु


म ादयो यो नषु भा त नाना ।
एवं भवान् केवल आ मयो न-
वा माऽऽ मत ो ब धा वभा त ।।२०

सृज यथो लु प स पा स व ं
रज तमःस वगुणैः वश भः ।
न ब यसे तद्गुणकम भवा
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ाना मन ते व च ब धहेतुः ।। २१
दे हा ुपाधेर न पत वाद्
भवो न सा ा भदाऽऽ मनः यात् ।
अतो न ब ध तव नैव मो ः
यातां नकाम व य नोऽ ववेकः ।।२२

वयो दतोऽयं जगतो हताय


यदा यदा वेदपथः पुराणः ।
बा येत पाख डपथैरस -
तदा भवान् स वगुणं बभ त ।।२३

स वं भोऽ वसुदेवगृहेऽवतीणः
वांशेन भारमपनेतु महा स भूमेः ।
अ ौ हणीशतवधेन सुरेतरांश-
रा ाममु य च कुल य यशो वत वन् ।।२४

अ ेश नो वसतयः खलु भू रभागा


यः सवदे व पतृभूतनृदेवमू तः ।
य पादशौचस ललं जगत् पुना त
स वं जगद्गु रधो ज याः व ः ।।२५

कः प डत वदपरं शरणं समीयाद्


भ या त गरः सु दः कृत ात् ।
सवान् ददा त सु दो भजतोऽ भकामा-
ना मानम युपचयापचयौ न य य ।।२६

द ा जनादन भवा नह नः तीतो


योगे रैर प रापग तः सुरेशैः ।
छ याशु नः सुतकल धना तगेह-
दे हा दमोहरशनां भवद यमायाम् ।।२७
भो! वयं आ मव तुम थूलदे ह, सू मदे ह आ द उपा धयाँ न होनेके कारण न तो उसम
ज म-मृ यु है और न कसी कारका भेदभाव। यही कारण है क न आपम ब धन है और न
मो ! आपम अपने-अपने अ भ ायके अनुसार ब धन या मो क जो कुछ क पना होती है,
उसका कारण केवल हमारा अ ववेक ही है ।।२२।। आपने जगत्के क याणके लये यह
सनातन वेदमाग कट कया है। जब-जब इसे पाख ड-पथसे चलनेवाले के ारा त
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प ँचती है, तब-तब आप शु स वमय शरीर हण करते ह ।।२३।। भो! वही आप इस
समय अपने अंश ीबलरामजीके साथ पृ वीका भार र करनेके लये यहाँ वसुदेवजीके घर
अवतीण ए ह। आप असुर के अंशसे उ प नाममा के शासक क सौ-सौ अ ौ हणी
सेनाका संहार करगे और य वंशके यशका व तार करगे ।।२४।। इ यातीत परमा मन्!
सारे दे वता, पतर, भूतगण और राजा आपक मू त ह। आपके चरण क धोवन गंगाजी तीन
लोक को प व करती ह। आप सारे जगत्के एकमा पता और श क ह। वही आज आप
हमारे घर पधारे। इसम स दे ह नह क आज हमारे घर ध य-ध य हो गये। उनके सौभा यक
सीमा न रही ।।२५।। भो! आप ेमी भ के परम यतम, स यव ा, अकारण हतू और
कृत ह—जरा-सी सेवाको भी मान लेते ह। भला, ऐसा कौन बु मान् पु ष है जो आपको
छोड़कर कसी सरेक शरणम जायगा? आप अपना भजन करनेवाले ेमी भ क सम त
अ भलाषाएँ पूण कर दे ते ह। यहाँतक क जसक कभी त और वृ नह होती—जो
एकरस है, अपने उस आ माका भी आप दान कर दे ते ह ।।२६।। भ के क मटानेवाले
और ज म-मृ युके ब धनसे छु ड़ानेवाले भो! बड़े-बड़े यो गराज और दे वराज भी आपके
व पको नह जान सकते। पर तु हम आपका सा ात् दशन हो गया, यह कतने
सौभा यक बात है। भो! हम ी, पु , धन, वजन, गेह और दे ह आ दके मोहक र सीसे
बँधे ए ह। अव य ही यह आपक मायाका खेल है। आप कृपा करके इस गाढ़े ब धनको
शी काट द जये’ ।।२७।।
ीशुक उवाच
इ य चतः सं तुत भ े न भगवान् ह रः ।
अ ू रं स मतं ाह गी भः स मोहय व ।।२८
ीभगवानुवाच
वं नो गु ः पतृ ा यो ब धु न यदा ।
वयं तु र याः पो या अनुक याः जा ह वः ।।२९

भव धा महाभागा नषे ा अहस माः ।


ेय कामैनृ भ न यं दे वाः वाथा न साधवः ।।३०

न मया न तीथा न न दे वा मृ छलामयाः ।


ते पुन यु कालेन दशनादे व साधवः ।।३१

स भवान् सु दां वै नः ेया े य क षया ।


ज ासाथ पा डवानां ग छ व वं गजा यम् ।।३२

पतयुपरते बालाः सह मा ा सु ः खताः ।


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आनीताः वपुरं रा ा वस त इ त शु ुम ।।३३

तेषु राजा बकापु ो ातृपु ेषु द नधीः ।


समो न वतते नूनं पु वशगोऽ ध क् ।।३४
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! इस कार भ अ ू रजीने भगवान् ीकृ णक
पूजा और तु त क । इसके बाद भगवान् ीकृ णने मुसकराकर अपनी मधुर वाणीसे उ ह
मानो मो हत करते ए कहा ।।२८।।
भगवान् ीकृ णने कहा—‘तात! आप हमारे गु — हतोपदे शक और चाचा ह। हमारे
वंशम अ य त शंसनीय तथा हमारे सदाके हतैषी ह। हम तो आपके बालक ह और सदा ही
आपक र ा, पालन और कृपाके पा ह ।।२९।।
अपना परम क याण चाहनेवाले मनु य को आप-जैसे परम पूजनीय और महाभा यवान्
संत क सवदा सेवा करनी चा हये। आप-जैसे संत दे वता से भी बढ़कर ह; य क
दे वता म तो वाथ रहता है, पर तु संत म नह ।।३०।।
केवल जलके तीथ (नद , सरोवर आ द) ही तीथ नह ह, केवल मृ का और शला
आ दक बनी ई मू तयाँ ही दे वता नह ह। चाचाजी! उनक तो ब त दन तक ासे सेवा
क जाय, तब वे प व करते ह। पर तु संतपु ष तो अपने दशनमा से प व कर दे ते
ह ।।३१।।
चाचाजी! आप हमारे हतैषी सु द म सव े ह। इस लये आप पा डव का हत करनेके
लये तथा उनका कुशल-मंगल जाननेके लये ह तनापुर जाइये ।।३२।।
हमने ऐसा सुना है क राजा पा डु के मर जानेपर अपनी माता कु तीके साथ यु ध र
आ द पा डव बड़े ःखम पड़ गये थे। अब राजा धृतरा उ ह अपनी राजधानी ह तनापुरम
ले आये ह और वे वह रहते ह ।।३३।।
आप जानते ही ह क राजा धृतरा एक तो अंधे ह और सरे उनम मनोबलक भी कमी
है। उनका पु य धन ब त है और उसके अधीन होनेके कारण वे पा डव के साथ
अपने पु -जैसा—समान वहार नह कर पाते ।।३४।।
ग छ जानी ह तद्वृ मधुना सा वसाधु वा ।
व ाय तद् वधा यामो यथा शं सु दां भवेत् ।।३५

इ य ू रं समा द य भगवान् ह ररी रः ।


संकषणो वा यां वै ततः वभवनं ययौ ।।३६
इस लये आप वहाँ जाइये और मालूम क जये क उनक थ त अ छ है या बुरी।
आपके ारा उनका समाचार जानकर म ऐसा उपाय क ँ गा, जससे उन सु द को सुख
मले’ ।।३५।। सवश मान् भगवान् ीकृ ण अ ू रजीको इस कार आदे श दे कर
बलरामजी और उ वजीके साथ वहाँसे अपने घर लौट आये ।।३६।।
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इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे पूवाध
अ च वा रशोऽ यायः ।।४८।।

१. मत्।

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अथैकोनप चाश मोऽ यायः
अ ू रजीका ह तनापुर जाना
ीशुक उवाच
स ग वा हा तनपुरं पौरवे यशोऽङ् कतम् ।
ददश त ा बकेयं सभी मं व रं पृथाम् ।।१

सहपु ं च बा कं भार ाजं सगौतमम् ।


कण सुयोधनं ौ ण पा डवान् सु दोऽपरान् ।।२

यथाव पसंग य ब धु भगा दनीसुतः ।


स पृ तैः सु ाता वयं चापृ छद यम् ।।३

उवास क त च मासान् रा ो वृ व व सया ।


ज या पसार य खल छ दानुव तनः ।।४

तेज ओजो बलं वीय याद सद्गुणान् ।


जानुरागं पाथषु न सह क षतम् ।।५
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान्के आ ानुसार अ ू रजी ह तनापुर गये।
वहाँक एक-एक व तुपर पु वंशी नरप तय क अमरक तक छाप लग रही है। वे वहाँ पहले
धृतरा , भी म, व र, कु ती, बा क और उनके पु सोमद , ोणाचाय, कृपाचाय, कण,
य धन, ोणपु अ थामा, यु ध र आ द पाँच पा डव तथा अ या य इ - म से
मले ।।१-२।। जब गा दनीन दन अ ू रजी सब इ - म और स ब धय से भलीभाँ त मल
चुके, तब उनसे उन लोग ने अपने मथुरावासी वजन-स ब धय क कुशल- ेम पूछ । उनका
उ र दे कर अ ू रजीने भी ह तनापुरवा सय के कुशलमंगलके स ब धम पूछताछ क ।।३।।
परी त्! अ ू रजी यह जाननेके लये क धृतरा पा डव के साथ कैसा वहार करते ह,
कुछ महीन तक वह रहे। सच पूछो तो, धृतरा म अपने पु क इ छाके वपरीत कुछ
भी करनेका साहस न था। वे शकु न आ द क सलाहके अनुसार ही काम करते थे ।।४।।
अ ू रजीको कु ती और व रने यह बतलाया क धृतरा के लड़के य धन आ द पा डव के
भाव, श कौशल, बल, वीरता तथा वनय आ द सद्गुण दे ख-दे खकर उनसे जलते रहते
ह। जब वे यह दे खते ह क जा पा डव से ही वशेष ेम रखती है, तब तो वे और भी चढ़
जाते ह और पा डव का अ न करनेपर उता हो जाते ह। अबतक य धन आ द धृतरा के
पु ने पा डव पर कई बार वषदान आ द ब त-से अ याचार कये ह और आगे भी ब त
कुछ करना चाहते ह ।।५-६।।
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कृतं च धातरा ैयद् गरदाना पेशलम् ।
आच यौ सवमेवा मै पृथा व र एव च ।।६

पृथा तु ातरं ा तम ू रमुपसृ य तम् ।


उवाच ज म नलयं मर य ुकले णा ।।७

अ प मर त नः सौ य पतरौ ातर मे ।
भ ग यो ातृपु ा जामयः स य एव च ।।८

ा ये ो भगवान् कृ णः शर यो भ व सलः ।
पैतृ वसेयान् मर त राम ा बु हे णः ।।९

साप नम ये शोच त वृकाणां ह रणी मव ।


सा व य य त मां वा यैः पतृहीनां बालकान् ।।१०

कृ ण कृ ण महायो गन् व ा मन् व भावन ।


प ां पा ह गो व द शशु भ ावसीदतीम् ।।११

ना य व पदा भोजात् प या म शरणं नृणाम् ।


ब यतां मृ युसंसाराद र यापव गकात् ।।१२

नमः कृ णाय शु ाय णे परमा मने ।


योगे राय योगाय वामहं शरणं गता ।।१३
जब अ ू रजी कु तीके घर आये, तब वह अपने भाईके पास जा बैठ । अ ू रजीको
दे खकर कु तीके मनम अपने मायकेक मृ त जग गयी और ने म आँसू भर आये। उ ह ने
कहा— ।।७।। ‘ यारे भाई! या कभी मेरे माँ-बाप, भाई-ब हन, भतीजे, कुलक याँ और
सखी-सहे लयाँ मेरी याद करती ह? ।।८।। मने सुना है क हमारे भतीजे भगवान् ीकृ ण
और कमलनयन बलराम बड़े ही भ -व सल और शरणागत-र क ह। या वे कभी अपने
इन फुफेरे भाइय को भी याद करते ह? ।।९।। म श ु के बीच घरकर शोकाकुल हो रही ँ।
मेरी वही दशा है, जैसे कोई ह रनी भे ड़य के बीचम पड़ गयी हो। मेरे ब चे बना बापके हो
गये ह। या हमारे ीकृ ण कभी यहाँ आकर मुझको और इन अनाथ बालक को सा वना
दगे? ।।१०।। ( ीकृ णको अपने सामने समझकर कु ती कहने लग —) ‘स चदान द व प
ीकृ ण! तुम महायोगी हो, व ा मा हो और तुम सारे व के जीवनदाता हो। गो व द! म
अपने ब च के साथ ःख-पर- ःख भोग रही ँ। तु हारी शरणम आयी ँ। मेरी र ा करो। मेरे
ब च को बचाओ ।।११।। मेरे ीकृ ण! यह संसार मृ युमय है और तु हारे चरण मो
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दे नेवाले ह। म दे खती ँ क जो लोग इस संसारसे डरे ए ह, उनके लये तु हारे
चरणकमल के अ त र और कोई शरण, और कोई सहारा नह है ।।१२।। ीकृ ण! तुम
मायाके लेशसे र हत परम शु हो। तुम वयं पर परमा मा हो। सम त साधन , योग
और उपाय के वामी हो तथा वयं योग भी हो। ीकृ ण! म तु हारी शरणम आयी ँ। तुम
मेरी र ा करो’ ।।१३।।
ीशुक उवाच
इ यनु मृ य वजनं कृ णं च जगद रम् ।
ा दद् ः खता राजन् भवतां पतामही ।।१४

सम ःखसुखोऽ ू रो व र महायशाः ।
सा वयामासतुः कु त त पु ो प हेतु भः ।।१५

या यन् राजानम ये य वषमं पु लालसम् ।


अवदत् सु दां म ये ब धु भः सौ दो दतम् ।।१६
अ ू र उवाच
भो भो वै च वीय वं कु णां क तवधन ।
ातयुपरते पा डावधुनाऽऽसनमा थतः ।।१७

धमण पालय ुव जाः शीलेन रंजयन् ।


वतमानः समः वेषु ेयः क तमवा य स ।।१८

अ यथा वाचरँ लोके ग हतो या यसे तमः ।


त मात् सम वे वत व पा डवे वा मजेषु च ।।१९

नेह चा य तसंवासः क ह चत् केन चत् सह ।


राजन् वेना प दे हेन कमु जाया मजा द भः ।।२०
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! तु हारी परदाद कु ती इस कार अपने सगे-
स ब धय और अ तम जगद र भगवान् ीकृ णको मरण करके अ य त ः खत हो गय
और फफक-फफककर रोने लग ।।१४।।
अ ू रजी और व रजी दोन ही सुख और ःखको समान से दे खते थे। दोन यश वी
महा मा ने कु तीको उसके पु के ज मदाता धम, वायु आ द दे वता क याद दलायी
और यह कहकर क, तु हारे पु अधमका नाश करनेके लये ही पैदा ए ह, ब त कुछ
समझाया-बुझाया और सा वना द ।।१५।। अ ू रजी जब मथुरा जाने लगे, तब राजा

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धृतरा के पास आये। अबतक यह प हो गया था क राजा अपने पु का प पात करते ह
और भतीज के साथ अपने पु का-सा बताव नह करते। अब अ ू रजीने कौरव क भरी
सभाम ीकृ ण और बलरामजी आ दका हतै षतासे भरा स दे श कह सुनाया ।।१६।।
अ ू रजीने कहा—महाराज धृतरा जी! आप कु वं शय क उ वल क तको और भी
बढ़ाइये। आपको यह काम वशेष पसे इस लये भी करना चा हये क अपने भाई पा डु के
परलोक सधार जानेपर अब आप रा य सहासनके अ धकारी ए ह ।।१७।।
आप धमसे पृ वीका पालन क जये। अपने सद् वहारसे जाको स र खये और
अपने वजन के साथ समान बताव क जये। ऐसा करनेसे ही आपको लोकम यश और
परलोकम सद्ग त ा त होगी ।।१८।।
य द आप इसके वपरीत आचरण करगे तो इस लोकम आपक न दा होगी और मरनेके
बाद आपको नरकम जाना पड़ेगा। इस लये अपने पु और पा डव के साथ समानताका
बताव क जये ।।१९।।
आप जानते ही ह क इस संसारम कभी कह कोई कसीके साथ सदा नह रह सकता।
जनसे जुड़े ए ह, उनसे एक दन बछु ड़ना पड़ेगा ही। राजन्! यह बात अपने शरीरके लये
भी सोलह आने स य है। फर ी, पु , धन आ दको छोड़कर जाना पड़ेगा, इसके वषयम
तो कहना ही या है ।।२०।।
एकः सूयते ज तुरेक एव लीयते ।
एकोऽनुभुङ् े सुकृतमेक एव च कृतम् ।।२१

अधम प चतं व ं हर य येऽ पमेधसः ।


स भोजनीयापदे शैजलानीव जलौकसः ।।२२

पु णा त यानधमण वबु या तमप डतम् ।


तेऽकृताथ ह व त ाणा रायः सुतादयः ।।२३

वयं क बषमादाय तै य ो नाथको वदः ।


अ स ाथ वश य धं वधम वमुख तमः ।।२४

त मा लोक ममं राजन् व मायामनोरथम् ।


वी याय या मनाऽऽ मानं समः शा तो भव भो ।।२५
धृतरा उवाच
यथा वद त क याण वाचं दानपते भवान् ।
तथानया न तृ या म म यः ा य यथामृतम् ।।२६

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जीव अकेला ही पैदा होता है और अकेला ही मरकर जाता है। अपनी करनी-धरनीका,
पाप-पु यका फल भी अकेला ही भुगतता है ।।२१।।
जन ी-पु को हम अपना समझते ह, वे तो ‘हम तु हारे अपने ह, हमारा भरण-पोषण
करना तु हारा धम है’—इस कारक बात बनाकर मूख ाणीके अधमसे इक े कये ए
धनको लूट लेते ह, जैसे जलम रहनेवाले ज तु के सव व जलको उ ह के स ब धी चाट
जाते ह ।।२२।।
यह मूख जीव ज ह अपना समझकर अधम करके भी पालता-पोसता है, वे ही ाण,
धन और पु आ द इस जीवको अस तु छोड़कर ही चले जाते ह ।।२३।।
जो अपने धमसे वमुख है—सच पू छये, तो वह अपना लौ कक वाथ भी नह जानता।
जनके लये वह अधम करता है, वे तो उसे छोड़ ही दगे; उसे कभी स तोषका अनुभव न
होगा और वह अपने पाप क गठरी सरपर लादकर वयं घोर नरकम जायगा ।।२४।।
इस लये महाराज! यह बात समझ ली जये क यह नया चार दनक चाँदनी है,
सपनेका खलवाड़ है, जा का तमाशा है और है मनोरा यमा ! आप अपने य नसे, अपनी
श से च को रो कये; ममतावश प पात न क जये। आप समथ ह, सम वम थत हो
जाइये और इस संसारक ओरसे उपराम—शा त हो जाइये ।।२५।।
राजा धृतरा ने कहा—दानपते अ ू रजी! आप मेरे क याणक , भलेक बात कह रहे
ह, जैसे मरनेवालेको अमृत मल जाय तो वह उससे तृ त नह हो सकता, वैसे ही म भी
आपक इन बात से तृ त नह हो रहा ँ ।।२६।।
तथा प सूनृता सौ य द न थीयते चले ।
पु ानुराग वषमे व ुत् सौदामनी यथा ।।२७

ई र य व ध को नु वधुनो य यथा पुमान् ।


भूमेभारावताराय योऽवतीण यदोः कुले ।।२८

यो वमशपथया नजमाययेदं
सृ ् वा गुणान् वभजते तदनु व ः ।
त मै नमो रवबोध वहारत -
संसारच गतये परमे राय ।।२९
ीशुक उवाच
इ य भ े य नृपतेर भ ायं स यादवः ।
सु ः समनु ातः पुनय पुरीमगात् ।।३०

शशंस रामकृ णा यां धृतरा वचे तम् ।

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पा डवान् त कौर यदथ े षतः वयम् ।।३१
फर भी हमारे हतैषी अ ू रजी! मेरे चंचल च म आपक यह य श ा त नक भी
नह ठहर रही है; य क मेरा दय पु क ममताके कारण अ य त वषम हो गया है। जैसे
फ टक पवतके शखरपर एक बार बजली क धती है और सरे ही ण अ तधान हो जाती
है, वही दशा आपके उपदे श क है ।।२७।।
अ ू रजी! सुना है क सवश मान् भगवान् पृ वीका भार उतारनेके लये य कुलम
अवतीण ए ह। ऐसा कौन पु ष है, जो उनके वधानम उलट-फेर कर सके। उनक जैसी
इ छा होगी, वही होगा ।।२८।। भगवान्क मायाका माग अ च य है। उसी मायाके ारा इस
संसारक सृ करके वे इसम वेश करते ह और कम तथा कमफल का वभाजन कर दे ते
ह। इस संसार-च क बेरोक-टोक चालम उनक अ च य लीला-श के अ त र और
कोई कारण नह है। म उ ह परमै यश शाली भुको नम कार करता ँ ।।२९।।
ीशुकदे वजी कहते ह—इस कार अ ू रजी महाराज धृतरा का अ भ ाय जानकर
और कु वंशी वजन-स ब धय से ेमपूवक अनुम त लेकर मथुरा लौट आये ।।३०।।
परी त्! उ ह ने वहाँ भगवान् ीकृ ण और बलरामजीके सामने धृतरा का वह सारा
वहार-बताव, जो वे पा डव के साथ करते थे, कह सुनाया, य क उनको ह तनापुर
भेजनेका वा तवम उ े य भी यही था ।।३१।।
इ त ीम ागवते महापुराणे वैया स याम ादशसाह यां पारमहं यां सं हतायां दशम क धे
पूवाध एकोनप चाश मोऽ यायः ।।४९।।
समा त मदं दशम क ध य पूवा म्
ीकृ णापणम तु

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।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।।
ीम ागवतमहापुराणम्
दशमः क धः
(उ राधः)
अथ प चाश मोऽ यायः
जरास धसे यु और ारकापुरीका नमाण
ीशुक उवाच
अ तः ा त कंस य म ह यौ भरतषभ ।
मृते भत र ःखात ईयतुः म पतुगृहान् ।।१

प े मगधराजाय जरास धाय ः खते ।


वेदयांच तुः सवमा मवैध कारणम् ।।२

स तद यमाक य शोकामषयुतो नृप ।


अयादव मह कतु च े परममु मम् ।।३

अ ौ हणी भ वश या तसृ भ ा प संवृतः ।


य राजधान मथुरां य णत् सवतो दशम् ।।४

नरी य त लं कृ ण उ े ल मव सागरम् ।
वपुरं तेन सं ं वजनं च भयाकुलम् ।।५

च तयामास भगवान् ह रः कारणमानुषः ।


त े शकालानुगुणं वावतार योजनम् ।।६

ह न या म बलं ेतद् भु व भारं समा हतम् ।


मागधेन समानीतं व यानां सवभूभुजाम् ।।७

अ ौ हणी भः सं यातं भटा रथकुंजरैः ।

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मागध तु न ह त ो भूयः कता बलो मम् ।।८
ीशुकदे वजी कहते ह—भरतवंश शरोम ण परी त्! कंसक दो रा नयाँ थ —अ त
और ा त। प तक मृ युसे उ ह बड़ा ःख आ और वे अपने पताक राजधानीम चली
गय ।।१।। उन दोन का पता था मगधराज जरास ध। उससे उ ह ने बड़े ःखके साथ अपने
वधवा होनेके कारण का वणन कया ।।२।। परी त्! यह अ य समाचार सुनकर पहले तो
जरास धको बड़ा शोक आ, पर तु पीछे वह ोधसे तल मला उठा। उसने यह न य करके
क म पृ वीपर एक भी य वंशी नह रहने ँ गा, यु क ब त बड़ी तैयारी क ।।३।। और
तेईस अ ौ हणी सेनाके साथ य वं शय क राजधानी मथुराको चार ओरसे घेर लया ।।४।।
भगवान् ीकृ णने दे खा—जरास धक सेना या है, उमड़ता आ समु है। उ ह ने यह
भी दे खा क उसने चार ओरसे हमारी राजधानी घेर ली है और हमारे वजन तथा पुरवासी
भयभीत हो रहे ह ।।५।। भगवान् ीकृ ण पृ वीका भार उतारनेके लये ही मनु यका-सा वेष
धारण कये ए ह। अब उ ह ने वचार कया क मेरे अवतारका या योजन है और इस
समय इस थानपर मुझे या करना चा हये ।।६।। उ ह ने सोचा यह बड़ा अ छा आ क
मगध-राज जरास धने अपने अधीन थ नरप तय क पैदल, घुड़सवार, रथी और हा थय से
यु कई अ ौ हणी सेना इक कर ली है। यह सब तो पृ वीका भार ही जुटकर मेरे पास
आ प ँचा है। म इसका नाश क ँ गा। पर तु अभी मगधराज जरास धको नह मारना
चा हये। य क वह जी वत रहेगा तो फरसे असुर क ब त-सी सेना इक कर
लायेगा ।।७-८।। मेरे अवतारका यही योजन है क म पृ वीका बोझ हलका कर ँ , साधु-
स जन क र ा क ँ और - जन का संहार ।।९।। समय-समयपर धम-र ाके लये और
बढ़ते ए अधमको रोकनेके लये म और भी अनेक शरीर हण करता ँ ।।१०।।
एतदथ ऽवतारोऽयं भूभारहरणाय मे ।
संर णाय साधूनां कृतोऽ येषां वधाय च ।।९

अ योऽ प धमर ायै दे हः सं यते मया ।


वरामाया यधम य काले भवतः व चत् ।।१०

एवं याय त गो व द आकाशात् सूयवचसौ ।


रथावुप थतौ स ः ससूतौ सप र छदौ ।।११

आयुधा न च द ा न पुराणा न य छया ।


् वा ता न षीकेशः संकषणमथा वीत् ।।१२

प याय सनं ा तं य नां वावतां भो ।


एष ते रथ आयातो द यता यायुधा न च ।।१३

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यानमा थाय ज त
े द् सनात् वान् समु र ।
एतदथ ह नौ ज म साधूनामीश शमकृत् ।।१४

यो वश यनीका यं भूमेभारमपाकु ।
एवं स म य दाशाह दं शतौ र थनौ पुरात् ।।१५

नज मतुः वायुधा ौ बलेना पीयसाऽऽवृतौ ।


शंखं द मौ व नग य ह रदा कसार थः ।।१६

ततोऽभूत् परसै यानां द व ासवेपथुः ।


तावाह मागधो वी य हे कृ ण पु षाधम ।।१७

न वया योद्धु म छा म बालेनैकेन ल जया ।


गु तेन ह वया म द न यो ये या ह ब धुहन् ।।१८
परी त्! भगवान् ीकृ ण इस कार वचार कर ही रहे थे क आकाशसे सूयके समान
चमकते ए दो रथ आ प ँच।े उनम यु क सारी साम याँ सुस जत थ और दो सार थ
उ ह हाँक रहे थे ।।११।। इसी समय भगवान्के द और सनातन आयुध भी अपने-आप
वहाँ आकर उप थत हो गये। उ ह दे खकर भगवान् ीकृ णने अपने बड़े भाई बलरामजीसे
कहा— ।।१२।। ‘भाईजी! आप बड़े श शाली ह। इस समय जो य वंशी आपको ही अपना
वामी और र क मानते ह, जो आपसे ही सनाथ ह, उनपर ब त बड़ी वप आ पड़ी है।
दे खये, यह आपका रथ है और आपके यारे आयुध हल-मूसल भी आ प ँचे ह ।।१३।। अब
आप इस रथपर सवार होकर श ु-सेनाका संहार क जये और अपने वजन को इस
वप से बचाइये। भगवन्! साधु का क याण करनेके लये ही हम दोन ने अवतार हण
कया है ।।१४।। अतः अब आप यह तेईस अ ौ हणी सेना, पृ वीका यह वपुल भार न
क जये।’ भगवान् ीकृ ण और बलरामजीने यह सलाह करके कवच धारण कये और
रथपर सवार होकर वे मथुरासे नकले। उस समय दोन भाई अपने-अपने आयुध लये ए थे
और छोट -सी सेना उनके साथ-साथ चल रही थी। ीकृ णका रथ हाँक रहा था दा क।
पुरीसे बाहर नकलकर उ ह ने अपना पांचज य शंख बजाया ।।१५-१६।। उनके शंखक
भयंकर व न सुनकर श ुप क सेनाके वीर का दय डरके मारे थरा उठा। उ ह दे खकर
मगधराज जरास धने कहा—‘पु षाधम कृ ण! तू तो अभी नरा ब चा है। अकेले तेरे साथ
लड़नेम मुझे लाज लग रही है। इतने दन तक तू न जाने कहाँ-कहाँ छपा फरता था। म द!
तू तो अपने मामाका ह यारा है। इस लये म तेरे साथ नह लड़ सकता। जा, मेरे सामनेसे भाग
जा ।।१७-१८।। बलराम! य द तेरे च म यह ा हो क यु म मरनेपर वग मलता है तो
तू आ, ह मत बाँधकर मुझसे लड़। मेरे बाण से छ - भ ए शरीरको यहाँ छोड़कर वगम
जा अथवा य द तुझम श हो तो मुझे ही मार डाल’ ।।१९।।
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तव राम य द ा यु य व धैयमु ह ।
ह वा वा म छरै छ ं दे हं वया ह मां ज ह ।।१९
ीभगवानुवाच
न वै शूरा वक थ ते दशय येव पौ षम् ।
न गृ मो वचो राज ातुर य मुमूषतः ।।२०
ीशुक उवाच
जरासुत ताव भसृ य माधवौ
महाबलौघेन बलीयसाऽऽवृणोत् ।
ससै ययान वजवा जसारथी
सूयानलौ वायु रवा रेणु भः ।।२१

सुपणताल वज च तौ रथा-
वल य यो ह ररामयोमृधे ।
यः पुरा ालकह यगोपुरं
समा ताः संमुमु ः शुचा दताः ।।२२

ह रः परानीकपयोमुचां मु ः
शलीमुखा यु बणवषपी डतम् ।
वसै यमालो य सुरासुरा चतं
फूजय छा शरासनो मम् ।।२३

गृ न् नषंगादथ स दध छरान्
वकृ य मु च छतबाणपूगान् ।
न नन् रथान् कुंजरवा जप ीन्
नर तरं य दलातच म् ।।२४
भगवान् ीकृ णने कहा—मगधराज! जो शूरवीर होते ह, वे तु हारी तरह ड ग नह
हाँकते, वे तो अपना बल-पौ ष ही दखलाते ह। दे खो, अब तु हारी मृ यु तु हारे सरपर नाच
रही है। तुम वैसे ही अकबक कर रहे हो, जैसे मरनेके समय कोई स पातका रोगी करे। बक
लो, म तु हारी बातपर यान नह दे ता ।।२०।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जैसे वायु बादल से सूयको और धूएस ँ े आगको ढक
लेती है, क तु वा तवम वे ढकते नह , उनका काश फर फैलता ही है; वैसे ही मगधराज
जरास धने भगवान् ीकृ ण और बलरामके सामने आकर अपनी ब त बड़ी बलवान् और
अपार सेनाके ारा उ ह चार ओरसे घेर लया—यहाँतक क उनक सेना, रथ, वजा, घोड़

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और सार थय का द खना भी बंद हो गया ।।२१।। मथुरापुरीक याँ अपने महल क
अटा रय , छ ज और फाटक पर चढ़कर यु का कौतुक दे ख रही थ । जब उ ह ने दे खा क
यु भू मम भगवान् ीकृ णक ग ड़ च से च त और बलरामजीक ताल च से च त
वजावाले रथ नह द ख रहे ह, तब वे शोकके आवेगसे मू छत हो गय ।।२२।। जब
भगवान् ीकृ णने दे खा क श ु-सेनाके वीर हमारी सेनापर इस कार बाण क वषा कर रहे
ह, मानो बादल पानीक अन गनत बूँद बरसा रहे ह और हमारी सेना उससे अ य त पी ड़त,
थत हो रही है; तब उ ह ने अपने दे वता और असुर—दोन से स मा नत शा धनुषका
टं कार कया ।।२३।। इसके बाद वे तरकसमसे बाण नकालने, उ ह धनुषपर चढ़ाने और
धनुषक डोरी ख चकर झुंड-के-झुंड बाण छोड़ने लगे। उस समय उनका वह धनुष इतनी
फुत से घूम रहा था, मानो कोई बड़े वेगसे अलातच (लुकारी) घुमा रहा हो। इस कार
भगवान् ीकृ ण जरास धक चतुरं गणी—हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेनाका संहार करने
लगे ।।२४।। इससे ब त-से हा थय के सर फट गये और वे मर-मरकर गरने लगे। बाण क
बौछारसे अनेक घोड़ के सर धड़से अलग हो गये। घोड़े, वजा, सार थ और र थय के न
हो जानेसे ब त-से रथ बेकाम हो गये। पैदल सेनाक बाँह, जाँघ और सर आ द अंग- यंग
कट-कटकर गर पड़े ।।२५।। उस यु म अपार तेज वी भगवान् बलरामजीने अपने मूसलक
चोटसे ब त-से मतवाले श ु को मार-मारकर उनके अंग- यंगसे नकले ए खूनक
सैकड़ न दयाँ बहा द । कह मनु य कट रहे ह तो कह हाथी और घोड़े छटपटा रहे ह। उन
न दय म मनु य क भुजाएँ साँपके समान जान पड़त और सर इस कार मालूम पड़ते,
मानो कछु क भीड़ लग गयी हो। मरे ए हाथी द प-जैसे और घोड़े ाह के समान जान
पड़ते। हाथ और जाँघ मछ लय क तरह, मनु य के केश सेवारके समान, धनुष तरंग क
भाँ त और अ -श लता एवं तनक के समान जान पड़ते। ढाल ऐसी मालूम पड़त , मानो
भयानक भँवर ह । ब मू य म णयाँ और आभूषण प थरके रोड़ तथा कंकड़ के समान बहे
जा रहे थे। उन न दय को दे खकर कायर पु ष डर रहे थे और वीर का आपसम खूब उ साह
बढ़ रहा था ।।२६-२८।। परी त्! जरास धक वह सेना समु के समान गम, भयावह और
बड़ी क ठनाईसे जीतनेयो य थी। पर तु भगवान् ीकृ ण और बलरामजीने थोड़े ही समयम
उसे न कर डाला। वे सारे जगत्के वामी ह। उनके लये एक सेनाका नाश कर दे ना केवल
खलवाड़ ही तो है ।।२९।। परी त्! भगवान्के गुण अन त ह। वे खेल-खेलम ही तीन
लोक क उ प , थ त और संहार करते ह। उनके लये यह कोई बड़ी बात नह है क वे
श ु क सेनाका इस कार बात-क -बातम स यानाश कर द। तथा प जब वे मनु यका-सा
वेष धारण करके मनु यक -सी लीला करते ह, तब उसका भी वणन कया ही जाता
है ।।३०।।

न भ कु भाः क रणो नपेत-ु


रनेकशोऽ ा शरवृ णक धराः ।
रथा हता वजसूतनायकाः

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पदातय छ भुजो क धराः ।।२५

सं छ मान पदे भवा जना-


मंग सूताः शतशोऽसृगापगाः ।
भुजाहयः पू षशीषक छपा
हत प पहय हाकुलाः ।।२६

करो मीना नरकेशशैवला


धनु तरंगायुधगु मसंकुलाः ।
अ छू रकावतभयानका महा-
म ण वेकाभरणा मशकराः ।।२७

व तता भी भयावहा मृधे


मन वनां हषकरीः पर परम् ।
व न नतारीन् मुसलेन मदान्
संकषणेनाप रमेयतेजसा ।।२८

बलं तदं गाणव गभैरवं


र तपारं मगधे पा लतम् ।
यं णीतं वसुदेवपु यो-
व डतं त जगद शयोः परम् ।।२९

थ यु वा तं भुवन य य यः
समीहतेऽन तगुणः वलीलया ।
न त य च ं परप न ह-
तथा प म यानु वध य व यते ।।३०
ज ाह वरथं रामो जरास धं महाबलम् ।
हतानीकाव श ासुं सहः सह मवौजसा ।।३१

ब यमानं हतारा त पाशैवा णमानुषैः ।


वारयामास गो व द तेन काय चक षया ।।३२

स मु ो लोकनाथा यां ी डतो वीरसंमतः ।


तपसे कृतसंक पो वा रतः प थ राज भः ।।३३

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वा यैः प व ाथपदै नयनैः ाकृतैर प ।
वकमब ध ा तोऽयं य भ ते पराभवः ।।३४

हतेषु सवानीकेषु नृपो बाह थ तदा ।


उपे तो भगवता मगधान् मना ययौ ।।३५

मुकु दोऽ य तबलो न तीणा रबलाणवः ।


वक यमाणः कुसुमै दशैरनुमो दतः ।।३६

माथुरै पसंग य व वरैमु दता म भः ।


उपगीयमान वजयः सूतमागधव द भः ।।३७
इस कार जरास धक सारी सेना मारी गयी। रथ भी टू ट गया। शरीरम केवल ाण
बाक रहे। तब भगवान् ीबलरामजीने जैसे एक सह सरे सहको पकड़ लेता है, वैसे ही
बलपूवक महाबली जरास धको पकड़ लया ।।३१।। जरास धने पहले ब त-से वप ी
नरप तय का वध कया था, पर तु आज उसे बलरामजी व णक फाँसी और मनु य के फंदे से
बाँध रहे थे। भगवान् ीकृ णने यह सोचकर क यह छोड़ दया जायगा तो और भी सेना
इक करके लायेगा तथा हम सहज ही पृ वीका भार उतार सकगे, बलरामजीको रोक
दया ।।३२।। बड़े-बड़े शूरवीर जरास धका स मान करते थे। इस लये उसे इस बातपर बड़ी
ल जा मालूम ई क मुझे ीकृ ण और बलरामने दया करके द नक भाँ त छोड़ दया है।
अब उसने तप या करनेका न य कया। पर तु रा तेम उसके साथी नरप तय ने ब त
समझाया क ‘राजन्! य वं शय म या रखा है? वे आपको बलकुल ही परा जत नह कर
सकते थे। आपको ार धवश ही नीचा दे खना पड़ा है।’ उन लोग ने भगवान्क इ छा, फर
वजय ा त करनेक आशा आ द बतलाकर तथा लौ कक ा त एवं यु याँ दे -दे कर यह
बात समझा द क आपको तप या नह करनी चा हये ।।३३-३४।। परी त्! उस समय
मगधराज जरास धक सारी सेना मर चुक थी। भगवान् बलरामजीने उपे ापूवक उसे छोड़
दया था, इससे वह ब त उदास होकर अपने दे श मगधको चला गया ।।३५।।
परी त्! भगवान् ीकृ णक सेनाम कसीका बाल भी बाँका न आ और उ ह ने
जरास धक तेईस अ ौ हणी सेनापर, जो समु के समान थी, सहज ही वजय ा त कर
ली। उस समय बड़े-बड़े दे वता उनपर न दनवनके पु प क वषा और उनके इस महान्
कायका अनुमोदन— शंसा कर रहे थे ।।३६।। जरास धक सेनाके पराजयसे मथुरा-वासी
भयर हत हो गये थे और भगवान् ीकृ णक वजयसे उनका दय आन दसे भर रहा था।
भगवान् ीकृ ण आकर उनम मल गये। सूत, मागध और व द जन उनक वजयके गीत गा
रहे थे ।।३७।। जस समय भगवान् ीकृ णने नगरम वेश कया, उस समय वहाँ शंख,
नगारे, भेरी, तुरही, वीणा, बाँसुरी और मृदंग आ द बाजे बजने लगे थे ।।३८।। मथुराक एक-
एक सड़क और गलीम छड़काव कर दया गया था। चार ओर हँसते-खेलते नाग रक क
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चहल-पहल थी। सारा नगर छोट -छोट झं डय और बड़ी-बड़ी वजय-पताका से सजा
दया गया था। ा ण क वेद व न गूँज रही थी और सब ओर आन दो सवके सूचक
बंदनवार बाँध दये गये थे ।।३९।। जस समय ीकृ ण नगरम वेश कर रहे थे, उस समय
नगरक ना रयाँ ेम और उ क ठासे भरे ए ने से उ ह नेहपूवक नहार रही थ और
फूल के हार, दही, अ त और जौ आ दके अंकुर क उनके ऊपर वषा कर रही थ ।।४०।।
भगवान् ीकृ ण रणभू मसे अपार धन और वीर के आभूषण ले आये थे। वह सब उ ह ने
य वं शय के राजा उ सेनके पास भेज दया ।।४१।।

शंख भयो ने भरीतूया यनेकशः ।


वीणावेणुमृदंगा न पुरं वश त भौ ।।३८

स मागा जनां पताका भरलंकृताम् ।


नघु ां घोषेण कौतुकाब तोरणाम् ।।३९

नचीयमानो१ नारी भमा यद य तांकुरैः ।


नरी यमाणः स नेहं ी यु क लतलोचनैः ।।४०

आयोधनगतं व मन तं वीरभूषणम् ।
य राजाय तत् सवमा तं ा दश भुः ।।४१

एवं स तदशकृ व ताव य ौ हणीबलः२ ।


युयुधे मागधो राजा य भः कृ णपा लतैः ।।४२

अ वं त लं सव वृ णयः कृ णतेजसा ।
हतेषु वे वनीकेषु य ोऽयाद र भनृपः ।।४३

अ ादशमसं ामे आगा म न तद तरा ।


नारद े षतो वीरो यवनः य यत ।।४४

रोध मथुरामे य तसृ भ ल छको ट भः ।


नृलोके चा त ो वृ णी छ वाऽऽ मस मतान् ।।४५

तं ् वा च तयत् कृ णः संकषणसहायवान् ।
अहो य नां वृ जनं ा तं भयतो महत् ।।४६
परी त्! इस कार स ह बार तेईस-तेईस अ ौ हणी सेना इक करके मगधराज
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जरास धने भगवान् ीकृ णके ारा सुर त य वं शय से यु कया ।।४२।। क तु यादव ने
भगवान् ीकृ णक श से हर बार उसक सारी सेना न कर द । जब सारी सेना न हो
जाती, तब य वं शय के उपे ापूवक छोड़ दे नेपर जरास ध अपनी राजधानीम लौट
जाता ।।४३।।
जस समय अठारहवाँ सं ाम छड़नेहीवाला था, उसी समय नारदजीका भेजा आ वीर
कालयवन दखायी पड़ा ।।४४।। यु म कालयवनके सामने खड़ा होनेवाला वीर संसारम
सरा कोई न था। उसने जब यह सुना क य वंशी हमारे ही-जैसे बलवान् ह और हमारा
सामना कर सकते ह, तब तीन करोड़ ले छ क सेना लेकर उसने मथुराको घेर
लया ।।४५।।
कालयवनक यह असमय चढ़ाई दे खकर भगवान् ीकृ णने बलरामजीके साथ मलकर
वचार कया—‘अहो! इस समय तो य वं शय पर जरास ध और कालयवन—ये दो-दो
वप याँ एक साथ ही मँडरा रही ह ।।४६।। आज इस परम बलशाली यवनने हम आकर घेर
लया है और जरास ध भी आज, कल या परस म आ ही जायेगा ।।४७।। य द हम दोन भाई
इसके साथ लड़नेम लग गये और उसी समय जरास ध भी आ प ँचा, तो वह हमारे
ब धु को मार डालेगा या तो कैद करके अपने नगरम ले जायगा; य क वह ब त बलवान्
है ।।४८।। इस लये आज हमलोग एक ऐसा ग—ऐसा कला बनायगे, जसम कसी भी
मनु यका वेश करना अ य त क ठन होगा। अपने वजन-स ब धय को उसी कलेम
प ँचाकर फर इस यवनका वध करायगे’ ।।४९।। बलरामजीसे इस कार सलाह करके
भगवान् ीकृ णने समु के भीतर एक ऐसा गम नगर बनवाया, जसम सभी व तुएँ अद्भुत
थ और उस नगरक ल बाई-चौड़ाई अड़तालीस कोसक थी ।।५०।। उस नगरक एक-एक
व तुम व कमाका व ान (वा तु- व ान) और श पकलाक नपुणता कट होती थी।
उसम वा तुशा के अनुसार बड़ी-बड़ी सड़क , चौराह और ग लय का यथा थान ठ क-ठ क
वभाजन कया गया था ।।५१।। वह नगर ऐसे सु दर-सु दर उ ान और व च - व च
उपवन से यु था, जनम दे वता के वृ और लताएँ लहलहाती रहती थ । सोनेके इतने
ऊँचे-ऊँचे शखर थे, जो आकाशसे बात करते थे। फ टकम णक अटा रयाँ और ऊँचे-ऊँचे
दरवाजे बड़े ही सु दर लगते थे ।।५२।। अ रखनेके लये चाँद और पीतलके ब त-से कोठे
बने ए थे। वहाँके महल सोनेके बने ए थे और उनपर कामदार सोनेके कलश सजे ए थे।
उनके शखर र न के थे तथा गच प ेक बनी ई ब त भली मालूम होती थी ।।५३।। इसके
अ त र उस नगरम वा तुदेवताके म दर और छ जे भी ब त सु दर-सु दर बने ए थे।
उसम चार वणके लोग नवास करते थे। और सबके बीचम य वं शय के धान उ सेनजी,
वसुदेवजी, बलरामजी तथा भगवान् ीकृ णके महल जगमगा रहे थे ।।५४।।
यवनोऽयं न धेऽ मान ताव महाबलः ।
मागधोऽ य वा ो वा पर ो वाऽऽग म य त ।।४७

आवयोयु यतोर य य ाग ता जरासुतः ।


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ब धून् व ध य यथवा ने यते वपुरं बली ।।४८

त माद वधा यामो ग पद गमम् ।


त ातीन् समाधाय यवनं घातयामहे ।।४९

इ त स म य भगवान् ग ादशयोजनम् ।
अ तःसमु े नगरं कृ ना तमचीकरत् ।।५०

यते य ह वा ं व ानं श पनैपुणम् ।


र याच वरवीथी भयथावा तु व न मतम् ।।५१

सुर मलतो ान व च ोपवना वतम् ।


हेमशृ ै द व मृ भः फा टका ालगोपुरैः ।।५२

राजतारकुटै ः को ैहमकु भैरलंकृतैः ।


र नकूटै गृहैहमैमहामरकत थलैः ।।५३

वा तो पतीनां च गृहैवलभी भ न मतम् ।


चातुव यजनाक ण य दे वगृहो लसत् ।।५४
सुधमा पा रजातं च महे ः ा हणो रेः ।
य चाव थतो म य म यधमन यु यते ।।५५

यामैककणान् व णो हया छु लान् मनोजवान् ।


अ ौ न धप तः कोशान् लोकपालो नजोदयान् ।।५६

यद् यद् भगवता द मा धप यं व स ये ।


सव यपयामासुहरौ भू मगते नृप ।।५७

त योग भावेण नी वा सवजनं ह रः ।


जापालेन रामेण कृ णः समनुम तः ।
नजगाम पुर ारात् प माली नरायुधः ।।५८
परी त्! उस समय दे वराज इ ने भगवान् ीकृ णके लये पा रजातवृ और सुधमा-
सभाको भेज दया। वह सभा ऐसी द थी क उसम बैठे ए मनु यको भूख- यास आ द
म यलोकके धम नह छू पाते थे ।।५५।। व णजीने ऐसे ब त-से ेत घोड़े भेज दये, जनका
एक-एक कान यामवणका था और जनक चाल मनके समान तेज थी। धनप त कुबेरजीने
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अपनी आठ न धयाँ भेज द और सरे लोकपाल ने भी अपनी-अपनी वभू तयाँ भगवान्के
पास भेज द ।।५६।। परी त्! सभी लोकपाल को भगवान् ीकृ णने ही उनके अ धकारके
नवाहके लये श याँ और स याँ द ह। जब भगवान् ीकृ ण पृ वीपर अवतीण होकर
लीला करने लगे, तब सभी स याँ उ ह ने भगवान्के चरण म सम पत कर द ।।५७।।
भगवान् ीकृ णने अपने सम त वजन-स ब धय को अपनी अ च य महाश
योगमायाके ारा ारकाम प ँचा दया। शेष जाक र ाके लये बलरामजीको मथुरापुरीम
रख दया और उनसे सलाह लेकर गलेम कमल क माला पहने, बना कोई अ -श लये
वयं नगरके बड़े दरवाजेसे बाहर नकल आये ।।५८।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध ग नवेशनं नाम
प चाश मोऽ यायः ।।५०।।

१. वक यमाणो। २. णीनृपः।

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अथैकप चाश मोऽ यायः
कालयवनका भ म होना, मुचुकु दक कथा
ीशुक उवाच
तं वलो य व न ा तमु जहान मवोडु पम् ।
दशनीयतमं यामं पीतकौशेयवाससम् ।।१

ीव सव सं ाज कौ तुभामु क धरम् ।
पृथुद घचतुबा ं नवक ा णे णम् ।।२
ीशुकदे वजी कहते ह— य परी त्! जस समय भगवान् ीकृ ण मथुरा नगरके
मु य ारसे नकले, उस समय ऐसा मालूम पड़ा मानो पूव दशासे च ोदय हो रहा हो।
उनका यामल शरीर अ य त ही दशनीय था, उसपर रेशमी पीता बरक छटा नराली ही थी;
व ः थलपर वणरेखाके पम ीव स च शोभा पा रहा था और गलेम कौ तुभम ण
जगमगा रही थी। चार भुजाएँ थ , जो ल बी-ल बी और कुछ मोट -मोट थ । हालके खले
ए कमलके समान कोमल और रतनारे ने थे। मुखकमलपर रा श-रा श आन द खेल रहा
था। कपोल क छटा नराली ही थी। म द-म द मुसकान दे खनेवाल का मन चुराये लेती थी।
कान म मकराकृत कु डल झल मल- झल मल झलक रहे थे। उ ह दे खकर कालयवनने
न य कया क ‘यही पु ष वासुदेव है। य क नारदजीने जो-जो ल ण बतलाये थे—
व ः थलपर ीव सका च , चार भुजाएँ, कमलके-से ने , गलेम वनमाला और सु दरताक
सीमा; वे सब इसम मल रहे ह। इस लये यह कोई सरा नह हो सकता। इस समय यह बना
कसी अ -श के पैदल ही इस ओर चला आ रहा है, इस लये म भी इसके साथ बना
अ -श के ही लडँगा’ ।।१-५।।

न य मु दतं ीम सुकपोलं शु च मतम् ।


मुखार व दं ब ाणं फुर मकरकु डलम् ।।३

वासुदेवो य म त पुमा व सला छनः ।


चतुभुजोऽर व दा ो वनमा य तसु दरः ।।४

ल णैनारद ो ै ना यो भ वतुमह त ।
नरायुध लन् प यां यो येऽनेन नरायुधः ।।५

इ त न य यवनः ा व तं पराङ् मुखम् ।


अ वधाव जघृ ु तं रापम प यो गनाम् ।।६
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ह त ा त मवा मानं ह रणा स पदे पदे ।
नीतो दशयता रं यवनेशोऽ क दरम् ।।७

पलायनं य कुले जात य तव नो चतम् ।


इ त प नुगतो नैनं ापाहताशुभः ।।८

एवं तोऽ प भगवान् ा वशद् ग रक दरम् ।


सोऽ प व त ा यं शयानं द शे नरम् ।।९

न वसौ रमानीय शेते मा मह साधुवत् ।

इ त म वा युतं मूढ तं पदा समताडयत् ।।१०

स उ थाय चरं सु तः शनै मी य लोचने ।


दशो वलोकयन् पा तम ा ीदव थतम् ।।११
ऐसा न य करके जब कालयवन भगवान् ीकृ णक ओर दौड़ा, तब वे सरी ओर मुँह
करके रणभू मसे भाग चले और उन यो ग लभ भुको पकड़नेके लये कालयवन उनके
पीछे -पीछे दौड़ने लगा ।।६।। रणछोड़ भगवान् लीला करते ए भाग रहे थे; कालयवन पग-
पगपर यही समझता था क अब पकड़ा, तब पकड़ा। इस कार भगवान् उसे ब त र एक
पहाड़क गुफाम ले गये ।।७।। कालयवन पीछे से बार-बार आ ेप करता क ‘अरे भाई! तुम
परम यश वी य वंशम पैदा ए हो, तु हारा इस कार यु छोड़कर भागना उ चत नह है।’
पर तु अभी उसके अशुभ नःशेष नह ए थे, इस लये वह भगवान्को पानेम समथ न हो
सका ।।८।। उसके आ ेप करते रहनेपर भी भगवान् उस पवतक गुफाम घुस गये। उनके
पीछे कालयवन भी घुसा। वहाँ उसने एक सरे ही मनु यको सोते ए दे खा ।।९।। उसे
दे खकर कालयवनने सोचा ‘दे खो तो सही, यह मुझे इस कार इतनी र ले आया और अब
इस तरह—मानो इसे कुछ पता ही न हो—साधुबाबा बनकर सो रहा है।’ यह सोचकर उस
मूढ़ने उसे कसकर एक लात मारी ।।१०।। वह पु ष वहाँ ब त दन से सोया आ था। पैरक
ठोकर लगनेसे वह उठ पड़ा और धीरे-धीरे उसने अपनी आँख खोल । इधर-उधर दे खनेपर
पास ही कालयवन खड़ा आ दखायी दया ।।११।। परी त्! वह पु ष इस कार ठोकर
मारकर जगाये जानेसे कुछ हो गया था। उसक पड़ते ही कालयवनके शरीरम आग
पैदा हो गयी और वह णभरम जलकर राखका ढे र हो गया ।।१२।।

स ताव य य पातेन भारत ।


दे हजेना नना द धो भ मसादभवत् णात् ।।१२
राजोवाच
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को नाम स पुमान् न् क य कवीय एव च ।
क माद् गुहां गतः श ये क तेजो यवनादनः ।।१३
ीशुक उवाच
स इ वाकुकुले जातो मा धातृतनयो महान् ।
मुचुकु द इ त यातो यः स यसंगरः ।।१४

स या चतः सुरगणै र ा ैरा मर णे ।


असुरे यः प र तै त ां सोऽकरो चरम् ।।१५

ल वा गुहं ते वःपालं मुचुकु दमथा ुवन् ।


राजन् वरमतां कृ ाद् भवान् नः प रपालनात् ।।१६

नरलोके प र य य रा यं नहतक टकम् ।


अ मान् पालयतो वीर कामा ते सव उ झताः ।।१७

सुता म ह यो भवतो ातयोऽमा यम णः ।


जा तु यकालीया नाधुना स त का लताः ।।१८

कालो बलीयान् ब लनां भगवानी रोऽ यः ।


जाः कालयते डन् पशुपालो यथा पशून् ।।१९

वरं वृणी व भ ं ते ऋते कैव यम नः ।


एक एवे र त य भगवान् व णुर यः ।।२०
राजा परी त्ने पूछा—भगवन्! जसके पातमा से कालयवन जलकर भ म हो
गया, वह पु ष कौन था? कस वंशका था? उसम कैसी श थी और वह कसका पु था?
आप कृपा करके यह भी बतलाइये क वह पवतक गुफाम जाकर य सो रहा था? ।।१३।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! वे इ वाकुवंशी महाराजा मा धाताके पु राजा
मुचुकु द थे। वे ा ण के परम भ , स य त , सं ाम वजयी और महापु ष थे ।।१४।।
एक बार इ ा द दे वता असुर से अ य त भयभीत हो गये थे। उ ह ने अपनी र ाके लये राजा
मुचुकु दसे ाथना क और उ ह ने ब त दन तक उनक र ा क ।।१५।। जब ब त दन के
बाद दे वता को सेनाप तके पम वा म-का तकेय मल गये, तब उन लोग ने राजा
मुचुकु दसे कहा—‘राजन्! आपने हमलोग क र ाके लये ब त म और क उठाया है।
अब आप व ाम क जये ।।१६।। वीर शरोमणे! आपने हमारी र ाके लये मनु यलोकका
अपना अक टक रा य छोड़ दया और जीवनक अ भलाषाएँ तथा भोग का भी प र याग
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कर दया ।।१७।। अब आपके पु , रा नयाँ, ब धु-बा धव और अमा य-म ी तथा आपके
समयक जामसे कोई नह रहा है। सब-के-सब कालके गालम चले गये ।।१८।। काल
सम त बलवान से भी बलवान् है। वह वयं परम समथ अ वनाशी और भगव व प है।
जैसे वाले पशु को अपने वशम रखते ह, वैसे ही वह खेल-खेलम सारी जाको अपने
अधीन रखता है ।।१९।। राजन्! आपका क याण हो। आपक जो इ छा हो हमसे माँग
ली जये। हम कैव य-मो के अ त र आपको सब कुछ दे सकते ह। य क कैव य-मो
दे नेक साम य तो केवल अ वनाशी भगवान् व णुम ही है ।।२०।। परम यश वी राजा
मुचुकु दने दे वता के इस कार कहनेपर उनक व दना क और ब त थके होनेके कारण
न ाका ही वर माँगा तथा उनसे वर पाकर वे न दसे भरकर पवतक गुफाम जा सोये ।।२१।।
उस समय दे वता ने कह दया था क ‘राजन्! सोते समय य द आपको कोई मूख बीचम ही
जगा दे गा तो वह आपक पड़ते ही उसी ण भ म हो जायगा’ ।।२२।।

एवमु ः स वै दे वान भव महायशाः ।


अश य गुहा व ो न या दे वद या ।।२१

वापं यातं य तु म ये बोधये वामचेतनः ।


स वया मा तु भ मीभवतु त णात् ।।२२

यवने भ मसा ीते भगवान् सा वतषभः ।


आ मानं दशयामास मुचुकु दाय धीमते ।।२३

तमालो य घन यामं पीतकौशेयवाससम् ।


ीव सव सं ाज कौ तुभेन वरा जतम् ।।२४

चतुभुजं रोचमानं वैजय या च मालया ।


चा स वदनं फुर मकरकु डलम् ।।२५

े णीयं नृलोक य सानुराग मते णम् ।


अपी यवयसं म मृगे ोदार व मम् ।।२६

पयपृ छ महाबु तेजसा त य ध षतः ।


शं कतः शनकै राजा धष मव तेजसा ।।२७
मुचुकु द उवाच
को भवा नह स ा तो व पने ग रग रे ।
पद् यां प पलाशा यां वचर यु क टके ।।२८
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क व ेज वनां तेजो भगवान् वा वभावसुः ।
सूयः सोमो महे ो वा लोकपालोऽपरोऽ प वा ।।२९

म ये वां दे वदे वानां याणां पु षषभम् ।


यद् बाधसे गुहा वा तं द पः भया यथा ।।३०
परी त्! जब कालयवन भ म हो गया, तब य वंश शरोम ण भगवान् ीकृ णने परम
बु मान् राजा मुचुकु दको अपना दशन दया। भगवान् ीकृ णका ी व ह वषाकालीन
मेघके समान साँवला था। रेशमी पीता बर धारण कये ए थे। व ः थलपर ीव स और
गलेम कौ तुभम ण अपनी द यो त बखेर रहे थे। चार भुजाएँ थ । वैजय तीमाला अलग
ही घुटन तक लटक रही थी। मुखकमल अ य त सु दर और स तासे खला आ था।
कान म मकराकृ त कु डल जगमगा रहे थे। होठ पर ेमभरी मुसकराहट थी और ने क
चतवन अनुरागक वषा कर रही थी। अ य त दशनीय त ण-अव था और मतवाले सहके
समान नभ क चाल! राजा मुचुकु द य प बड़े बु मान् और धीर पु ष थे, फर भी
भगवान्क यह द यो तमयी मू त दे खकर कुछ च कत हो गये—उनके तेजसे हत तभ
हो सकपका गये। भगवान् अपने तेजसे ष जान पड़ते थे; राजाने त नक शं कत होकर
पूछा ।।२३-२७।।
राजा मुचुकु दने कहा—‘आप कौन ह? इस काँट से भरे ए घोर जंगलम आप
कमलके समान कोमल चरण से य वचर रहे ह? और इस पवतक गुफाम ही पधारनेका
या योजन था? ।।२८।। या आप सम त तेज वय के मू तमान् तेज अथवा भगवान्
अ नदे व तो नह ह? या आप सूय, च मा, दे वराज इ या कोई सरे लोकपाल
ह? ।।२९।। म तो ऐसा समझता ँ क आप दे वता के आरा यदे व ा, व णु तथा शंकर
—इन तीन मसे पु षो म भगवान् नारायण ही ह। य क जैसे े द पक अँधेरेको र कर
दे ता है, वैसे ही आप अपनी अंगका तसे इस गुफाका अँधेरा भगा रहे ह ।।३०।। पु ष े !
य द आपको चे तो हम अपना ज म, कम और गो बतलाइये; य क हम स चे दयसे
उसे सुननेके इ छु क ह ।।३१।। और पु षो म! य द आप हमारे बारेम पूछ तो हम
इ वाकुवंशी य ह, मेरा नाम है मुचुकु द। और भु! म युवना न दन महाराज
मा धाताका पु ँ ।।३२।। ब त दन तक जागते रहनेके कारण म थक गया था। न ाने मेरी
सम त इ य क श छ न ली थी, उ ह बेकाम कर दया था, इसीसे म इस नजन थानम
न सो रहा था। अभी-अभी कसीने मुझे जगा दया ।।३३।। अव य उसके पाप ने ही
उसे जलाकर भ म कर दया है। इसके बाद श ु के नाश करनेवाले परम सु दर आपने मुझे
दशन दया ।।३४।। महाभाग! आप सम त ा णय के माननीय ह। आपके परम द और
अस तेजसे मेरी श खो गयी है। म आपको ब त दे रतक दे ख भी नह सकता ।।३५।।
जब राजा मुचुकु दने इस कार कहा, तब सम त ा णय के जीवनदाता भगवान् ीकृ णने
हँसते ए मेघ व नके समान ग भीर वाणीसे कहा— ।।३६।।

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शु ूषताम लीकम माकं नरपुंगव ।
वज म कम गो ं वा क यतां य द रोचते ।।३१
वयं तु पु ष ा ऐ वाकाः ब धवः ।
मुचुकु द इ त ो ो यौवना ा मजः भो ।।३२
चर जागर ा तो न योपहते यः ।
शयेऽ मन् वजने कामं केना यु था पतोऽधुना ।।३३
सोऽ प भ मीकृतो नूनमा मीयेनैव१ पा मना ।
अन तरं भवा मान् ल तोऽ म शातनः२ ।।३४
तेजसा तेऽ वष ेण भू र ु ं न श नुमः ।
हतौजसो महाभाग माननीयोऽ स दे हनाम् ।।३५
एवं स भा षतो रा ा भगवान् भूतभावनः ।
याह हसन् वा या मेघनादगभीरया ।।३६
ीभगवानुवाच
ज मकमा भधाना न स त मेऽ सह शः ।
न श य तेऽनुसं यातुमन त वा मया प ह ।।३७
व चद् रजां स वममे पा थवा यु ज म भः ।
गुणकमा भधाना न न मे ज मा न क ह चत् ।।३८
काल योपप ा न ज मकमा ण मे नृप ।
अनु म तो नैवा तं ग छ त परमषयः ।।३९
तथा य तना यंग शृणु व गदतो मम ।
व ा पतो व र चेन पुराहं धमगु तये ।
भूमेभारायमाणानामसुराणां याय च ।।४०
अवतीण य कुले गृह आनक भेः ।
वद त वासुदेवे त वसुदेवसुतं ह माम् ।।४१
भगवान् ीकृ णने कहा— य मुचुकु द! मेरे हजार ज म, कम और नाम ह। वे
अन त ह, इस लये म भी उनक गनती करके नह बतला सकता ।।३७।। यह स भव है क
कोई पु ष अपने अनेक ज म म पृ वीके छोटे -छोटे धूल-कण क गनती कर डाले; पर तु मेरे
ज म, गुण, कम और नाम को कोई कभी कसी कार नह गन सकता ।।३८।। राजन्!
सनक-सन दन आ द परम षगण मेरे काल स ज म और कम का वणन करते रहते ह,
पर तु कभी उनका पार नह पाते ।।३९।। य मुचुकु द! ऐसा होनेपर भी म अपने वतमान
ज म, कम और नाम का वणन करता ँ, सुनो। पहले ाजीने मुझसे धमक र ा और
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पृ वीके भार बने ए असुर का संहार करनेके लये ाथना क थी ।।४०।। उ ह क ाथनासे
मने य वंशम वसुदेवजीके यहाँ अवतार हण कया है। अब म वसुदेवजीका पु ँ, इस लये
लोग मुझे ‘वासुदेव’ कहते ह ।।४१।। अबतक म कालने म असुरका, जो कंसके पम पैदा
आ था, तथा ल ब आ द अनेक साधु ोही असुर का संहार कर चुका ँ। राजन्! यह
कालयवन था, जो मेरी ही ेरणासे तु हारी ती ण पड़ते ही भ म हो गया ।।४२।। वही म
तुमपर कृपा करनेके लये ही इस गुफाम आया ँ। तुमने पहले मेरी ब त आराधना क है
और म ँ भ व सल ।।४३।। इस लये राजष! तु हारी जो अ भलाषा हो, मुझसे माँग लो। म
तु हारी सारी लालसा, अ भलाषाएँ पूण कर ँ गा। जो पु ष मेरी शरणम आ जाता है उसके
लये फर ऐसी कोई व तु नह रह जाती, जसके लये वह शोक करे ।।४४।।
कालने महतः कंसः ल बा ा सद् षः ।
अयं च यवनो द धो राजं ते त मच ुषा ।।४२

सोऽहं तवानु हाथ गुहामेतामुपागतः ।


ा थतः चुरं पूव वयाहं भ व सलः ।।४३

वरान् वृणी व राजष सवान् कामान् ददा म ते ।


मां प ो जनः क भूयोऽह त शो चतुम् ।।४४
ीशुक उवाच
इ यु तं ण याह मुचुकु दो मुदा वतः ।
ा वा नारायणं दे वं गगवा यमनु मरन् ।।४५
मुचुकु द उवाच
वमो हतोऽयं जन ईश मायया
वद यया वां न भज यनथ क् ।
सुखाय ःख भवेषु स जते
गृहेषु यो षत् पु ष वं चतः ।।४६

ल वा जनो लभम मानुषं


कथं चद ंगमय नतोऽनघ ।
पादार व दं न भज यस म त-
गृहा धकूपे प ततो यथा पशुः ।।४७
ीशुकदे वजी कहते ह—जब भगवान् ीकृ णने इस कार कहा, तब राजा
मुचुकु दको वृ गगका यह कथन याद आ गया क य वंशम भगवान् अवतीण होनेवाले ह।
वे जान गये क ये वयं भगवान् नारायण ह। आन दसे भरकर उ ह ने भगवान्के चरण म

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णाम कया और इस कार तु त क ।।४५।।
मुचुकु दने कहा—‘ भो! जगत्के सभी ाणी आपक मायासे अ य त मो हत हो रहे
ह। वे आपसे वमुख होकर अनथम ही फँसे रहते ह और आपका भजन नह करते। वे
सुखके लये घर-गृह थीके उन झंझट म फँस जाते ह, जो सारे ःख के मूल ोत ह। इस
तरह ी और पु ष सभी ठगे जा रहे ह ।।४६।। इस पाप प संसारसे सवथा र हत भो!
यह भू म अ य त प व कमभू म है, इसम मनु यका ज म होना अ य त लभ है। मनु य-
जीवन इतना पूण है क उसम भजनके लये कोई भी असु वधा नह है। अपने परम सौभा य
और भगवान्क अहैतुक कृपासे उसे अनायास ही ा त करके भी जो अपनी म त, ग त
असत् संसारम ही लगा दे ते ह और तु छ वषयसुखके लये ही सारा य न करते ए घर-
गृह थीके अँधेरे कूएँम पड़े रहते ह—भगवान्के चरणकमल क उपासना नह करते, भजन
नह करते, वे तो ठ क उस पशुके समान ह, जो तु छ तृणके लोभसे अँधेरे कूएँम गर जाता
है ।।४७।। भगवन्! म राजा था, रा यल मीके मदसे म मतवाला हो रहा था। इस मरनेवाले
शरीरको ही तो म आ मा—अपना व प समझ रहा था और राजकुमार, रानी, खजाना तथा
पृ वीके लोभ-मोहम ही फँसा आ था। उन व तु क च ता दन-रात मेरे गले लगी रहती
थी। इस कार मेरे जीवनका यह अमू य समय बलकुल न फल— थ चला गया ।।४८।।
जो शरीर य ही घड़े और भीतके समान म का है और य होनेके कारण उ ह के
समान अपनेसे अलग भी है, उसीको मने अपना व प मान लया था और फर अपनेको
मान बैठा था ‘नरदे व’! इस कार मने मदा ध होकर आपको तो कुछ समझा ही नह । रथ,
हाथी, घोड़े और पैदलक चतुरं गणी सेना तथा सेनाप तय से घरकर म पृ वीम इधर-उधर
घूमता रहता ।।४९।। मुझे यह करना चा हये और यह नह करना चा हये, इस कार व वध
कत और अकत क च ताम पड़कर मनु य अपने एकमा कत भगव ा तसे
वमुख होकर म हो जाता है, असावधान हो जाता है। संसारम बाँध रखनेवाले वषय के
लये उसक लालसा दन नी रात चौगुनी बढ़ती ही जाती है। पर तु जैसे भूखके कारण
जीभ लपलपाता आ साँप असावधान चूहेको दबोच लेता है, वैसे ही काल पसे सदा-सवदा
सावधान रहनेवाले आप एकाएक उस माद त ाणीपर टू ट पड़ते ह और उसे ले बीतते
ह ।।५०।। जो पहले सोनेके रथ पर अथवा बड़े-बड़े गजराज पर चढ़कर चलता था और
नरदे व कहलाता था, वही शरीर आपके अबाध कालका ास बनकर बाहर फक दे नेपर
प य क व ा, धरतीम गाड़ दे नेपर सड़कर क ड़ा और आगम जला दे नेपर राखका ढे र बन
जाता है ।।५१।। भो! जसने सारी दशा पर वजय ा त कर ली है और जससे
लड़नेवाला संसारम कोई रह नह गया है, जो े सहासनपर बैठता है और बड़े-बड़े
नरप त, जो पहले उसके समान थे, अब जसके चरण म सर झुकाते ह, वही पु ष जब
वषय-सुख भोगनेके लये, जो घर-गृह थीक एक वशेष व तु है, य के पास जाता है,
तब उनके हाथका खलौना, उनका पालतू पशु बन जाता है ।।५२।। ब त-से लोग वषय-
भोग छोड़कर पुनः रा या द भोग मलनेक इ छासे ही दान-पु य करते ह और ‘म फर ज म
लेकर सबसे बड़ा परम वत स ाट् होऊँ।’ ऐसी कामना रखकर तप याम भलीभाँ त थत

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हो शुभकम करते ह। इस कार जसक तृ णा बढ़ ई है, वह कदा प सुखी नह हो
सकता ।।५३।। अपने व पम एकरस थत रहनेवाले भगवन्! जीव अना दकालसे ज म-
मृ यु प संसारके च करम भटक रहा है। जब उस च करसे छू टनेका समय आता है, तब
उसे स संग ा त होता है। यह न य है क जस ण स संग ा त होता है, उसी ण
संत के आ य, काय-कारण प जगत्के एकमा वामी आपम जीवक बु अयत
ढ़तासे लग जाती है ।।५४।। भगवन्! म तो ऐसा समझता ँ क आपने मेरे ऊपर परम
अनु हक वषा क , य क बना कसी प र मके—अनायास ही मेरे रा यका ब धन टू ट
गया। साधु- वभावके च वत राजा भी जब अपना रा य छोड़कर एका तम भजन-साधन
करनेके उ े यसे वनम जाना चाहते ह, तब उसके ममता-ब धनसे मु होनेके लये बड़े
ेमसे आपसे ाथना कया करते ह ।।५५।। अ तयामी भो! आपसे या छपा है? म
आपके चरण क सेवाके अ त र और कोई भी वर नह चाहता; य क जनके पास कसी
कारका सं ह-प र ह नह है अथवा जो उसके अ भमानसे र हत ह, वे लोग भी केवल
उसीके लये ाथना करते रहते ह। भगवन्! भला, बतलाइये तो सही—मो दे नेवाले आपक
आराधना करके ऐसा कौन े पु ष होगा, जो अपनेको बाँधनेवाले सांसा रक वषय का वर
माँगे ।।५६।।

ममैष कालोऽ जत न फलो गतो


रा य यो मद य भूपतेः ।
म या मबु े ः सुतदारकोशभू-
वास जमान य र त च तया ।।४८

कलेवरेऽ मन् घटकु स भे


न ढमानो नरदे व इ यहम् ।
वृतो रथेभा पदा यनीकपै-
गा पयटं वागणयन् सु मदः ।।४९

म मु चै र तकृ य च तया
वृ लोभं वषयेषु लालसम् ।
वम म ः सहसा भप से
ु ले लहानोऽ ह रवाखुम तकः ।।५०

पुरा रथैहमप र कृतै रन्


मतंगजैवा नरदे वसं तः ।
स एव कालेन र ययेन ते
कलेवरो वट् कृ मभ मसं तः ।।५१

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न ज य दक्च मभूत व हो
वरासन थः समराजव दतः ।
गृहेषु मैथु यसुखेषु यो षतां
डामृगः पू ष ईश नीयते ।।५२
करो त कमा ण तप सु न तो
नवृ भोग तदपे या ददत् ।
पुन भूयेयमहं वरा ड त
वृ तष न सुखाय क पते ।।५३

भवापवग मतो यदा भवे-


जन य त युत स समागमः ।
स संगमो य ह तदै व सद्गतौ
परावरेशे व य जायते म तः ।।५४

म ये ममानु ह ईश ते कृतो
रा यानुब धापगमो य छया ।
यः ा यते साधु भरेकचयया
वनं व व रख डभू मपैः ।।५५

न कामयेऽ यं तव पादसेवना-
द क चन ा यतमाद् वरं वभो ।
आरा य क वां पवगदं हरे
वृणीत आय वरमा मब धनम् ।।५६

त माद् वसृ या शष ईश सवतो


रज तमःस वगुणानुब धनाः ।
नरंजनं नगुणम यं परं
वां तमा ं पु षं जा यहम् ।।५७

चर मह वृ जनात त यमानोऽनुतापै-
र वतृषषड म ोऽल धशा तः कथं चत् ।
इस लये भो! म स वगुण, रजोगुण और तमोगुणसे स ब ध रखनेवाली सम त
कामना को छोड़कर केवल मायाके लेशमा स ब धसे र हत, गुणातीत, एक—अ तीय,
च व प परमपु ष आपक शरण हण करता ँ ।।५७।। भगवन्! म अना दकालसे अपने
कमफल को भोगते-भोगते अ य त आत हो रहा था, उनक ःखद वाला रात- दन मुझे
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जलाती रहती थी। मेरे छः श ु (पाँच इ य और एक मन) कभी शा त न होते थे, उनक
वषय क यास बढ़ती ही जा रही थी। कभी कसी कार एक णके लये भी मुझे शा त न
मली। शरणदाता! अब म आपके भय, मृ यु और शोकसे र हत चरणकमल क शरणम
आया ँ। सारे जगत्के एकमा वामी! परमा मन्! आप मुझ शरणागतक र ा
क जये ।।५८।।
शरणद समुपेत व पदा जं परा म-
भयमृतमशोकं पा ह माऽऽप मीश ।।५८
ीभगवानुवाच
सावभौम महाराज म त ते वमलो जता ।
वरैः लो भत या प न कामै वहता यतः ।।५९

लो भतो वरैय वम मादाय व तत् ।


न धीम येकभ ानामाशी भ भ ते व चत् ।।६०

युंजानानामभ ानां ाणायामा द भमनः ।


अ ीणवासनं राजन् यते पुन थतम् ।।६१

वचर व मह कामं म यावे शतमानसः ।


अ वेव न यदा तु यं भ म यनपा यनी ।।६२

ा धम थतो ज तून् यवधीमृगया द भः ।


समा हत त पसा ज घं म पा तः ।।६३

ज म यन तरे राजन् सवभूतसु मः ।


भू वा जवर वं वै मामुपै य स केवलम् ।।६४
भगवान् ीकृ णने कहा—‘सावभौम महाराज! तु हारी म त, तु हारा न य बड़ा ही
प व और ऊँची को टका है। य प मने तु ह बार-बार वर दे नेका लोभन दया, फर भी
तु हारी बु कामना के अधीन न ई ।।५९।। मने तु ह जो वर दे नेका लोभन दया, वह
केवल तु हारी सावधानीक परी ाके लये। मेरे जो अन य भ होते ह, उनक बु कभी
कामना से इधर-उधर नह भटकती ।।६०।। जो लोग मेरे भ नह होते, वे चाहे ाणायाम
आ दके ारा अपने मनको वशम करनेका कतना ही य न य न कर, उनक वासनाएँ
ीण नह होत और राजन्! उनका मन फरसे वषय के लये मचल पड़ता है ।।६१।। तुम
अपने मन और सारे मनोभाव को मुझे सम पत कर दो, मुझम लगा दो और फर
व छ द पसे पृ वीपर वचरण करो। मुझम तु हारी वषय-वासनाशू य नमल भ सदा

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बनी रहेगी ।।६२।। तुमने यधमका आचरण करते समय शकार आ दके अवसर पर
ब त-से पशु का वध कया है। अब एका च से मेरी उपासना करते ए तप याके ारा
उस पापको धो डालो ।।६३।। राजन्! अगले ज मम तुम ा ण बनोगे और सम त
ा णय के स चे हतैषी, परम सु द् होओगे तथा फर मुझ वशु व ानघन परमा माको
ा त करोगे’ ।।६४।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध
मुचुकु द तु तनामैकप चाश मोऽ यायः ।।५१।।

१. मा मजेनैव। २. नाशनः।

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अथ प चाश मोऽ यायः
ारकागमन, ीबलरामजीका ववाह तथा ीकृ णके पास
मणीजीका स दे शा लेकर ा णका आना
ीशुक उवाच
इ थं सोऽनुगृहीतोऽ कृ णेने वाकुन दनः ।
तं प र य स य न ाम गुहामुखात् ।।१

स वी य ु लकान् म यान् पशून् वी न पतीन् ।


म वा क लयुगं ा तं जगाम दशमु राम् ।।२

तपः ायुतो धीरो नःसंगो मु संशयः ।


समाधाय मनः कृ णे ा वशद् ग धमादनम् ।।३
बदया ममासा नरनारायणालयम् ।
सव सहः शा त तपसाऽऽराधय रम् ।।४

भगवान् पुनरा य पुर यवनवे ताम् ।


ह वा ले छबलं न ये तद यं ारकां धनम् ।।५

नीयमाने धने गो भनृ भ ा युतचो दतैः ।


आजगाम जरास ध यो वश यनीकपः ।।६

वलो य वेगरभसं रपुसै य य माधवौ ।


मनु यचे ामाप ौ राजन् वतु तम् ।।७

वहाय व ं चुरमभीतौ भी भीतवत् ।


प यां प पलाशा यां चेरतुब योजनम् ।।८
ीशुकदे वजी कहते ह— यारे परी त्! भगवान् ीकृ णने इस कार इ वाकुन दन
राजा मुचुकु दपर अनु ह कया। अब उ ह ने भगवान्क प र मा क , उ ह नम कार कया
और गुफासे बाहर नकले ।।१।। उ ह ने बाहर आकर दे खा क सब-के-सब मनु य, पशु, लता
और वृ -वन प त पहलेक अपे ा ब त छोटे -छोटे आकारके हो गये ह। इससे यह जानकर
क क लयुग आ गया, वे उ र दशाक ओर चल दये ।।२।। महाराज मुचुकु द तप या,
ा, धैय तथा अनास से यु एवं संशय-स दे हसे मु थे। वे अपना च भगवान्

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ीकृ णम लगाकर ग ध-मादन पवतपर जा प ँचे ।।३।। भगवान् नर-नारायणके न य
नवास थान बद रका मम जाकर बड़े शा त-भावसे गम -सद आ द सहते ए वे
तप याके ारा भगवान्क आराधना करने लगे ।।४।।
इधर भगवान् ीकृ ण मथुरापुरीम लौट आये। अबतक कालयवनक सेनाने उसे घेर रखा
था। अब उ ह ने ले छ क सेनाका संहार कया और उसका सारा धन छ नकर ारकाको ले
चले ।।५।। जस समय भगवान् ीकृ णके आ ानुसार मनु य और बैल पर वह धन ले
जाया जाने लगा, उसी समय मगधराज जरास ध फर (अठारहव बार) तेईस अ ौ हणी
सेना लेकर आ धमका ।।६।। परी त्! श ु-सेनाका बल वेग दे खकर भगवान् ीकृ ण
और बलराम मनु य क -सी लीला करते ए उसके सामनेसे बड़ी फुत के साथ भाग
नकले ।।७।। उनके मनम त नक भी भय न था। फर भी मानो अ य त भयभीत हो गये ह
—इस कारका नाट् य करते ए, वह सब-का-सब धन वह छोड़कर अनेक योजन तक वे
अपने कमलदलके समान सुकोमल चरण से ही—पैदल भागते चले गये ।।८।। जब महाबली
मगधराज जरास धने दे खा क ीकृ ण और बलराम तो भाग रहे ह, तब वह हँसने लगा और
अपनी रथ-सेनाके साथ उनका पीछा करने लगा। उसे भगवान् ीकृ ण और बलरामजीके
ऐ य, भाव आ दका ान न था ।।९।। ब त रतक दौड़नेके कारण दोन भाई कुछ थक-
से गये। अब वे ब त ऊँचे वषण पवतपर चढ़ गये। उस पवतका ‘ वषण’ नाम इस लये
पड़ा था क वहाँ सदा ही मेघ वषा कया करते थे ।।१०।। परी त्! जब जरास धने दे खा
क वे दोन पहाड़म छप गये और ब त ढूँ ढ़नेपर भी पता न चला, तब उसने धनसे भरे ए
वषण पवतके चार ओर आग लगवाकर उसे जला दया ।।११।। जब भगवान्ने दे खा क
पवतके छोर जलने लगे ह, तब दोन भाई जरास धक सेनाके घेरेको लाँघते ए बड़े वेगसे
उस यारह योजन (चौवालीस कोस) ऊँचे पवतसे एकदम नीचे धरती-पर कूद आये ।।१२।।
राजन्! उ ह जरास धने अथवा उसके कसी सै नकने दे खा नह और वे दोन भाई वहाँसे
चलकर फर अपनी समु से घरी ई ारकापुरीम चले आये ।।१३।। जरास धने झूठमूठ
ऐसा मान लया क ीकृ ण और बलराम तो जल गये और फर वह अपनी ब त बड़ी सेना
लौटाकर मगधदे शको चला गया ।।१४।।
पलायमानौ तौ ् वा मागधः हसन् बली ।
अ वधावद् रथानीकैरीशयोर माण वत् ।।९

य रं सं ा तौ तुंगमा हतां ग रम् ।


वषणा यं भगवान् न यदा य वष त ।।१०

गरौ नलीनावा ाय ना धग य पदं नृप ।


ददाह ग रमेधो भः सम ताद नमु सृजन् ।।११

तत उ प य तरसा द मानतटा भौ ।
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दशैकयोजनो ुंगा पेततुरधो भु व ।।१२

अल यमाणौ रपुणा सानुगेन य मौ ।


वपुरं पुनरायातौ समु प रखां नृप ।।१३

सोऽ प द धा व त मृषा म वानो बलकेशवौ ।


बलमाकृ य सुमह मगधान् मागधो ययौ ।।१४

आनता धप तः ीमान् रैवतो रेवत सुताम् ।


णा चो दतः ादाद् बलाये त पुरो दतम् ।।१५

भगवान प गो व द उपयेमे कु ह।
वैदभ भी मकसुतां यो मा ां वयंवरे ।।१६

म य तरसा रा ः शा वाद ै प गान् ।


प यतां सवलोकानां ता यपु ः सुधा मव ।।१७
राजोवाच
भगवान् भी मकसुतां मण चराननाम् ।
रा सेन वधानेन उपयेम इ त ुतम् ।।१८
यह बात म तुमसे पहले ही (नवम क धम कह चुका ँ क आनतदे शके राजा ीमान्
रैवतजीने अपनी रेवती नामक क या ाजीक ेरणासे बल-रामजीके साथ याह
द ।।१५।। परी त्! भगवान् ीकृ ण भी वयंवरम आये ए शशुपाल और उसके
प पाती शा व आ द नरप तय को बलपूवक हराकर सबके दे खते-दे खते, जैसे ग ड़ने
सुधाका हरण कया था, वैसे ही वदभदे शक राजकुमारी मणीको हर लाये और उनसे
ववाह कर लया। मणीजी राजा भी मकक क या और वयं भगवती ल मीजीका
अवतार थ ।।१६-१७।।
राजा परी त्ने पूछा—भगवन्! हमने सुना है क भगवान् ीकृ णने भी मकन दनी
परमसु दरी मणीदे वीको बलपूवक हरण करके रा स व धसे उनके साथ ववाह कया
था ।।१८।। महाराज! अब म यह सुनना चाहता ँ क परम तेज वी भगवान् ीकृ णने
जरास ध, शा व आ द नरप तय को जीतकर कस कार मणीका हरण कया? ।।१९।।
ष! भगवान् ीकृ णक लीला के स ब धम या कहना है? वे वयं तो प व ह ही,
सारे जगत्का मल धो-बहाकर उसे भी प व कर दे नेवाली ह। उनम ऐसी लोको र माधुरी है,
जसे दन-रात सेवन करते रहनेपर भी न य नया-नया रस मलता रहता है। भला ऐसा कौन
र सक, कौन मम है, जो उ ह सुनकर तृ त न हो जाय ।।२०।।

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भगव ोतु म छा म कृ ण या मततेजसः ।
यथा मागधशा वाद न् ज वा क यामुपाहरत् ।।१९

न् कृ णकथाः पु या मा वील कमलापहाः ।


को नु तृ येत शृ वानः ुत ो न यनूतनाः ।।२०
ीशुक उवाच
राजाऽऽसीद् भी मको नाम वदभा धप तमहान् ।
त य पंचाभवन् पु ाः क यैका च वरानना ।।२१

य जो मरथो मबा रन तरः ।


मकेशो ममाली म येषां वसा सती ।।२२

सोप ु य मुकु द य पवीयगुण यः ।


गृहागतैग यमाना तं मेने स शं प तम् ।।२३

तां बु ल णौदाय पशीलगुणा याम् ।


कृ ण स श भाया समु ोढुं मनो दधे ।।२४

ब धूना म छतां दातुं कृ णाय भ गन नृप ।


ततो नवाय कृ ण ड् मी चै मम यत ।।२५

तदवे या सतापांगी वैदभ मना भृशम् ।


व च या तं जं कं चत् कृ णाय ा हणोद् तम् ।।२६
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! महाराज भी मक वदभदे शके अ धप त थे। उनके
पाँच पु और एक सु दरी क या थी ।।२१।। सबसे बड़े पु का नाम था मी और चार छोटे
थे— जनके नाम थे मशः मरथ, मबा , मकेश और ममाली। इनक ब हन थी
सती मणी ।।२२।। जब उसने भगवान् ीकृ णके सौ दय, परा म, गुण और वैभवक
शंसा सुनी—जो उसके महलम आनेवाले अ त थ ायः गाया ही करते थे—तब उसने यही
न य कया क भगवान् ीकृ ण ही मेरे अनु प प त ह ।।२३।। भगवान् ीकृ ण भी
समझते थे क ‘ मणीम बड़े सु दर-सु दर ल ण ह, वह परम बु मती है; उदारता,
सौ दय, शील वभाव और गुण म भी अ तीय है। इस लये मणी ही मेरे अनु प प नी
है। अतः भगवान्ने मणीजीसे ववाह करनेका न य कया ।।२४।। मणीजीके भाई-
ब धु भी चाहते थे क हमारी ब हनका ववाह ीकृ णसे ही हो। पर तु मी ीकृ णसे बड़ा
े ष रखता था, उसने उ ह ववाह करनेसे रोक दया और शशुपालको ही अपनी ब हनके

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यो य वर समझा ।।२५।।
जब परमसु दरी मणीको यह मालूम आ क मेरा बड़ा भाई मी शशुपालके साथ
मेरा ववाह करना चाहता है, तब वे ब त उदास हो गय । उ ह ने ब त कुछ सोच- वचारकर
एक व ास-पा ा णको तुरंत ीकृ णके पास भेजा ।।२६।। जब वे ा णदे वता
ारकापुरीम प ँचे तब ारपाल उ ह राजमहलके भीतर ले गये। वहाँ जाकर ा ण-दे वताने
दे खा क आ दपु ष भगवान् ीकृ ण सोनेके सहासनपर वराजमान ह ।।२७।। ा ण के
परमभ भगवान् ीकृ ण उन ा णदे वताको दे खते ही अपने आसनसे नीचे उतर गये और
उ ह अपने आसनपर बैठाकर वैसी ही पूजा क जैसे दे वतालोग उनक (भगवान्क ) कया
करते ह ।।२८।। आदर-स कार, कुशल- के अन तर जब ा णदे वता खा-पी चुके,
आराम- व ाम कर चुके तब संत के परम आ य भगवान् ीकृ ण उनके पास गये और
अपने कोमल हाथ से उनके पैर सहलाते ए बड़े शा त भावसे पूछने लगे— ।।२९।।

ारकां स सम ये य तीहारैः वे शतः ।


अप यदा ं पु षमासीनं कांचनासने ।।२७

् वा यदे व तमव नजासनात् ।


उपवे याहयांच े यथाऽऽ मानं दवौकसः ।।२८

तं भु व तं व ा तमुपग य सतां ग तः ।
पा णना भमृशन् पादाव तमपृ छत ।।२९

क चद् जवर े धम ते वृ स मतः ।


वतते ना तकृ े ण संतु मनसः सदा ।।३०

संतु ो य ह वतत ा णो येन केन चत् ।


अहीयमानः वा मात् स या खलकामधुक् ।।३१

अस तु ोऽसकृ लोकाना ो य प सुरे रः ।


अ कचनोऽ प संतु शेते सवाग व वरः ।।३२

व ान् वलाभसंतु ान् साधून् भूतसु मान् ।


नरहंका रणः शा तान् नम ये शरसासकृत् ।।३३

क चद् वः कुशलं न् राजतो य य ह जाः ।


सुखं वस त वषये पा यमानाः स मे यः ।।३४

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‘ ा ण शरोमणे! आपका च तो सदा-सवदा स तु रहता है न? आपको अपने
पूवपु ष ारा वीकृत धमका पालन करनेम कोई क ठनाई तो नह होती ।।३०।। ा ण
य द जो कुछ मल जाय उसीम स तु रहे और अपने धमका पालन करे, उससे युत न हो तो
वह स तोष ही उसक सारी कामनाएँ पूण कर दे ता है ।।३१।। य द इ का पद पाकर भी
कसीको स तोष न हो तो उसे सुखके लये एक लोकसे सरे लोकम बार-बार भटकना
पड़ेगा, वह कह भी शा तसे बैठ नह सकेगा। पर तु जसके पास त नक भी सं ह-प र ह
नह है और जो उसी अव थाम स तु है, वह सब कारसे स तापर हत होकर सुखक न द
सोता है ।।३२।। जो वयं ा त ई व तुसे स तोष कर लेते ह, जनका वभाव बड़ा ही मधुर
है और जो सम त ा णय के परम हतैषी, अहंकारर हत और शा त ह—उन ा ण को म
सदा सर झुकाकर नम कार करता ँ ।।३३।। ा णदे वता! राजाक ओरसे तो
आपलोग को सब कारक सु वधा है न? जसके रा यम जाका अ छ तरह पालन होता है
और वह आन दसे रहती है, वह राजा मुझे ब त ही य है ।।३४।। ा णदे वता! आप
कहाँस,े कस हेतुसे और कस अ भलाषासे इतना क ठन माग तय करके यहाँ पधारे ह? य द
कोई बात वशेष गोपनीय न हो तो हमसे क हये। हम आपक या सेवा कर?’ ।।३५।।
परी त्! लीलासे ही मनु य प धारण करनेवाले भगवान् ीकृ णने जब इस कार
ा णदे वतासे पूछा, तब उ ह ने सारी बात कह सुनायी। इसके बाद वे भगवान्से
मणीजीका स दे श कहने लगे ।।३६।।

यत वमागतो ग न तीयह य द छया ।


सव नो ू गु ं चेत् क काय करवाम ते ।।३५

एवं स पृ स ो ा णः परमे ना ।
लीलागृहीतदे हेन त मै सवमवणयत् ।।३६
म युवाच
ु वा गुणान् भुवनसु दर शृ वतां ते
न व य कण ववरैहरतोऽ तापम् ।
पं शां शमताम खलाथलाभं
व य युता वश त च मप पं मे ।।३७

का वा मुकु द महती कुलशील प-


व ावयो वणधाम भरा मतु यम् ।
धीरा प त कुलवती न वृणीत क या
काले नृ सह नरलोकमनोऽ भरामम् ।।३८

त मे भवान् खलु वृतः प तर जाया-


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मा मा पत भवतोऽ वभो वधे ह ।
मा वीरभागम भमशतु चै आराद्
गोमायुव मृगपतेब लम बुजा ।।३९

पूत द नयम तदे व व -


गुवचना द भरलं भगवान् परेशः ।
मणीजीने कहा है— भुवनसु दर! आपके गुण को, जो सुननेवाल के कान के
रा ते दयम वेश करके एक-एक अंगके ताप, ज म-ज मक जलन बुझा दे ते ह तथा अपने
प-सौ दयको जो ने वाले जीव के ने के लये धम, अथ, काम, मो —चार पु षाथ के
फल एवं वाथ-परमाथ, सब कुछ ह, वण करके यारे अ युत! मेरा च ल जा, शम सब
कुछ छोड़कर आपम ही वेश कर रहा है ।।३७।। ेम व प यामसु दर! चाहे जस से
दे ख; कुल, शील, वभाव, सौ दय, व ा, अव था, धन-धाम—सभीम आप अ तीय ह,
अपने ही समान ह। मनु यलोकम जतने भी ाणी ह, सबका मन आपको दे खकर शा तका
अनुभव करता है, आन दत होता है। अब पु षभूषण! आप ही बतलाइये—ऐसी कौन-सी
कुलवती महागुणवती और धैयवती क या होगी, जो ववाहके यो य समय आनेपर आपको ही
प तके पम वरण न करेगी? ।।३८।। इसी लये यतम! मने आपको प त पसे वरण कया
है। म आपको आ मसमपण कर चुक ँ। आप अ तयामी ह। मेरे दयक बात आपसे छपी
नह है। आप यहाँ पधारकर मुझे अपनी प नीके पम वीकार क जये। कमलनयन!
ाणव लभ! म आप-सरीखे वीरको सम पत हो चुक ँ, आपक ँ। अब जैसे सहका भाग
सयार छू जाय, वैसे कह शशुपाल नकटसे आकर मेरा पश न कर जाय ।।३९।। मने य द
ज म-ज मम पूत (कुआँ, बावली आ द खुदवाना), इ (य ा द करना), दान, नयम, त
तथा दे वता, ा ण और गु आ दक पूजाके ारा भगवान् परमे रक ही आराधना क हो
और वे मुझपर स ह तो भगवान् ीकृ ण आकर मेरा पा ण हण कर; शशुपाल अथवा
सरा कोई भी पु ष मेरा पश न कर सके ।।४०।। भो! आप अ जत ह। जस दन मेरा
ववाह होनेवाला हो उसके एक दन पहले आप हमारी राजधानीम गु त पसे आ जाइये और
फर बड़े-बड़े सेनाप तय के साथ शशुपाल तथा जरास धक सेना को मथ डा लये, तहस-
नहस कर द जये और बलपूवक रा स- व धसे वीरताका मू य दे कर मेरा पा ण हण
क जये ।।४१।। य द आप यह सोचते ह क ‘तुम तो अ तःपुरम—भीतरके जनाने महल म
पहरेके अंदर रहती हो, तु हारे भाई-ब धु को मारे बना म तु ह कैसे ले जा सकता ?
ँ ’ तो
इसका उपाय म आपको बतलाये दे ती ।ँ हमारे कुलका ऐसा नयम है क ववाहके पहले
दन कुलदे वीका दशन करनेके लये एक ब त बड़ी या ा होती है, जुलूस नकलता है—
जसम ववाही जानेवाली क याको, ल हनको नगरके बाहर ग रजादे वीके म दरम जाना
पड़ता है ।।४२।। कमलनयन! उमाप त भगवान् शंकरके समान बड़े-बड़े महापु ष भी
आ मशु के लये आपके चरणकमल क धूलसे नान करना चाहते ह। य द म आपका वह
साद, आपक वह चरणधूल नह ा त कर सक तो त ारा शरीरको सुखाकर ाण छोड़

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ँ गी। चाहे उसके लये सैकड़ ज म य न लेने पड़, कभी-न-कभी तो आपका वह साद
अव य ही मलेगा ।।४३।।

आरा धतो य द गदा ज ए य पा ण


गृ ातु मे न दमघोषसुतादयोऽ ये ।।४०

ोभा व न वम जतो हने वदभान्


गु तः समे य पृतनाप त भः परीतः ।
नम य चै मगधे बलं स
मां रा सेन व धनो ह वीयशु काम् ।।४१

अ तःपुरा तरचरीम नह य ब धू-ं


वामु हे कथ म त वदा युपायम् ।
पूव ुर त महती कुलदे वया ा
य यां ब हनववधू ग रजामुपेयात् ।।४२

य याङ् पंकजरजः नपनं महा तो


वा छ युमाप त रवा मतमोऽपह यै ।
य बुजा न लभेय भव सादं
ज ामसून् तकृशा छतज म भः यात् ।।४३
ा ण उवाच
इ येते गु स दे शा य दे व मयाऽऽ ताः ।
वमृ य कतु य चा यतां तदन तरम् ।।४४
ा णदे वताने कहा—य वंश शरोमणे! यही मणीके अ य त गोपनीय स दे श ह,
ज ह लेकर म आपके पास आया ँ। इसके स ब धम जो कुछ करना हो, वचार कर ली जये
और तुरंत ही उसके अनुसार काय क जये ।।४४।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध म यु ाह तावे
प चाश मोऽ यायः ।।५२।।

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अथ प चाश मोऽ यायः
मणीहरण
ीशुक उवाच
वैद याः स तु स दे शं नश य य न दनः ।
गृ पा णना पा ण हस दम वीत् ।।१
ीभगवानुवाच
तथाहम प त च ो न ां च न लभे न श ।
वेदाहं मणा े षा ममो ाहो नवा रतः ।।२

तामान य य उ म य राज यापसदान् मृधे ।


म परामनव ांगीमेधसोऽ न शखा मव ।।३
ीशुक उवाच
उ ाह च व ाय म या मधुसूदनः ।
रथः संयु यतामाशु दा के याह सार थम् ।।४

स चा ैः शै सु ीवमेघपु यबलाहकैः ।
यु ं रथमुपानीय त थौ ांज लर तः ।।५

आ य दनं शौ र जमारो य तूणगैः ।


आनतादे करा ेण वदभानगम यैः ।।६

राजा स कु डनप तः पु नेहवशं गतः ।


शशुपालाय वां क यां दा यन् कमा यकारयत् ।।७

पुरं स मृ सं स मागर याचतु पथम् ।


च वजपताका भ तोरणैः समलंकृतम् ।।८
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान् ीकृ णने वदभराजकुमारी
मणीजीका यह स दे श सुनकर अपने हाथसे ा णदे वताका हाथ पकड़ लया और हँसते
ए य बोले ।।१।।
भगवान् ीकृ णने कहा— ा णदे वता! जैसे वदभराजकुमारी मुझे चाहती ह, वैसे ही
म भी उ ह चाहता ँ। मेरा च उ ह म लगा रहता है। कहाँतक क ँ, मुझे रातके समय
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न दतक नह आती। म जानता ँ क मीने े षवश मेरा ववाह रोक दया है ।।२।। पर तु
ा णदे वता! आप दे खयेगा, जैसे लक ड़य को मथकर—एक- सरेसे रगड़कर मनु य
उनमसे आग नकाल लेता है, वैसे ही यु म उन नामधारी यकुल-कलंक को तहस-नहस
करके अपनेसे ेम करनेवाली परमसु दरी राजकुमारीको म नकाल लाऊँगा ।।३।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! मधुसूदन ीकृ णने यह जानकर क मणीके
ववाहक ल न परस रा म ही है, सार थको आ ा द क ‘दा क! त नक भी वल ब न
करके रथ जोत लाओ’ ।।४।। दा क भगवान्के रथम शै , सु ीव, मेघपु प और बलाहक
नामके चार घोड़े जोतकर उसे ले आया और हाथ जोड़कर भगवान्के सामने खड़ा हो
गया ।।५।। शूरन दन ीकृ ण ा णदे वताको पहले रथपर चढ़ाकर फर आप भी सवार ए
और उन शी गामी घोड़ के ारा एक ही रातम आनत-दे शसे वदभदे शम जा प ँचे ।।६।।
कु डननरेश महाराज भी मक अपने बड़े लड़के मीके नेहवश अपनी क या
शशुपालको दे नेके लये ववाहो सवक तैयारी करा रहे थे ।।७।। नगरके राजपथ, चौराहे
तथा गली-कूचे झाड़-बुहार दये गये थे, उनपर छड़काव कया जा चुका था। च - व च ,
रंग- बरंगी, छोट -बड़ी झं डयाँ और पताकाएँ लगा द गयी थ । तोरण बाँध दये गये थे ।।८।।
वहाँके ी-पु ष पु प-माला, हार, इ -फुलेल, च दन, गहने और नमल व से सजे ए थे।
वहाँके सु दर-सु दर घर मसे अगरके धूपक सुग ध फैल रही थी ।।९।। परी त्! राजा
भी मकने पतर और दे वता का व धपूवक पूजन करके ा ण को भोजन कराया और
नयमानुसार व तवाचन भी ।।१०।। सुशो भत दाँत वाली परमसु दरी राजकुमारी
मणीजीको नान कराया गया, उनके हाथ म मंगलसू कंकण पहनाये गये, कोहबर
बनाया गया, दो नये-नये व उ ह पहनाये गये और वे उ म-उ म आभूषण से वभू षत क
गय ।।११।। े ा ण ने साम, ऋक् और यजुवदके म से उनक र ा क और
अथववेदके व ान् पुरो हतने ह-शा तके लये हवन कया ।।१२।। राजा भी मक
कुलपर परा और शा ीय व धय के बड़े जानकार थे। उ ह ने सोना, चाँद , व , गुड़ मले
ए तल और गौएँ ा ण को द ।।१३।।

ग धमा याभरणै वरजोऽ बरभू षतैः ।


जु ं ीपु षैः ीमद्गृहैरगु धू पतैः ।।९

पतॄन् दे वान् सम य य व ां व धव ृप ।
भोज य वा यथा यायं वाचयामास मंगलम् ।।१०

सु नातां सुदत क यां कृतकौतुकमंगलाम् ।


अहतांशुकयु मेन भू षतां भूषणो मैः ।।११

च ु ः साम यजुम ैव वा र ां जो माः ।

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पुरो हतोऽथव वद् वै जुहाव हशा तये ।।१२

हर य यवासां स तलां गुड म तान् ।


ादाद् धेनू व े यो राजा व ध वदां वरः ।।१३

एवं चे दपती राजा दमघोषः सुताय वै ।


कारयामास म ैः सवम युदयो चतम् ।।१४

मद यु गजानीकैः य दनैहममा ल भः ।
प य संकुलैः सै यैः परीतः कु डनं ययौ ।।१५

तं वै वदभा धप तः सम ये या भपू य च ।
नवेशयामास मुदा क पता य नवेशने ।।१६

त शा वो जरास धो द तव ो व रथः ।
आज मु ै प ीयाः पौ का ाः सह शः ।।१७

कृ णराम षो य ाः क यां चै ाय सा धतुम् ।


य ाग य हरेत् कृ णो रामा ैय भवृतः ।।१८

यो यामः संहता तेन इ त न तमानसाः ।


आज मुभूभुजः सव सम बलवाहनाः ।।१९
इसी कार चे दनरेश राजा दमघोषने भी अपने पु शशुपालके लये म ा ण से
अपने पु के ववाह-स ब धी मंगलकृ य कराये ।।१४।। इसके बाद वे मद चुआते ए
हा थय , सोनेक माला से सजाये ए रथ , पैदल तथा घुड़सवार क चतुरं गणी सेना साथ
लेकर कु डनपुर जा प ँचे ।।१५।। वदभराज भी मकने आगे आकर उनका वागत-स कार
और थाके अनुसार अचन-पूजन कया। इसके बाद उन लोग को पहलेसे ही न त कये
ए जनवास म आन दपूवक ठहरा दया ।।१६।। उस बारातम शा व, जरास ध, द तव ,
व रथ और पौ क आ द शशुपालके सह म नरप त आये थे ।।१७।। वे सब राजा
ीकृ ण और बलरामजीके वरोधी थे और राजकुमारी मणी शशुपालको ही मले, इस
वचारसे आये थे। उ ह ने अपने-अपने मनम पहलेसे ही न य कर रखा था क य द ीकृ ण
बलराम आ द य वं शय के साथ आकर क याको हरनेक चे ा करेगा तो हम सब मलकर
उससे लड़गे। यही कारण था क उन राजा ने अपनी-अपनी पूरी सेना और रथ, घोड़े, हाथी
आ द भी अपने साथ ले लये थे ।।१८-१९।।

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ु वैतद् भगवान् रामो वप ीयनृपो मम् ।
कृ णं चैकं गतं हतु क यां कलहशं कतः ।।२०

बलेन महता साध ातृ नेहप र लुतः ।


व रतः कु डनं ागाद् गजा रथप भः ।।२१

भी मक या वरारोहा कां यागमनं हरेः ।


याप मप य ती ज या च तय दा ।।२२

अहो यामा त रत उ ाहो मेऽ पराधसः ।


नाग छ यर व दा ो नाहं वेद ् य कारणम् ।
सोऽ प नावततेऽ ा प म स दे शहरो जः ।।२३

अ प म यनव ा मा ् वा क च जुगु सतम् ।


म पा ण हणे नूनं नाया त ह कृतो मः ।।२४

भगाया न मे धाता नानुकूलो महे रः ।


दे वी वा वमुखा गौरी ाणी ग रजा सती ।।२५

एवं च तयती बाला गो व द तमानसा ।


यमीलयत काल ा ने े चा ुकलाकुले ।।२६

एवं व वाः ती या गो व दागमनं नृप ।


वाम ऊ भुजो ने म फुरन् यभा षणः ।।२७
वप ी राजा क इस तैयारीका पता भगवान् बलरामजीको लग गया और जब उ ह ने
यह सुना क भैया ीकृ ण अकेले ही राजकुमारीका हरण करनेके लये चले गये ह, तब उ ह
वहाँ लड़ाई-झगड़ेक बड़ी आशंका ई ।।२०।। य प वे ीकृ णका बल- व म जानते थे,
फर भी ातृ नेहसे उनका दय भर आया; वे तुरंत ही हाथी, घोड़े, रथ और पैदल क बड़ी
भारी चतुरं गणी सेना साथ लेकर कु डनपुरके लये चल पड़े ।।२१।।
इधर परमसु दरी मणीजी भगवान् ीकृ णके शुभागमनक ती ा कर रही थ ।
उ ह ने दे खा ीकृ णक तो कौन कहे, अभी ा णदे वता भी नह लौटे ! तो वे बड़ी च ताम
पड़ गय ; सोचने लग ।।२२।। ‘अहो! अब मुझ अभा गनीके ववाहम केवल एक रातक दे री
है। पर तु मेरे जीवनसव व कमलनयन भगवान् अब भी नह पधारे! इसका या कारण हो
सकता है, कुछ न य नह मालूम पड़ता। यही नह , मेरे स दे श ले जानेवाले ा णदे वता भी
तो अभीतक नह लौटे ।।२३।। इसम स दे ह नह क भगवान् ीकृ णका व प परम शु
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है और वशु पु ष ही उनसे ेम कर सकते ह। उ ह ने मुझम कुछ-न-कुछ बुराई दे खी होगी,
तभी तो मेरे हाथ पकड़नेके लये—मुझे वीकार करनेके लये उ त होकर वे यहाँ नह पधार
रहे ह? ।।२४।। ठ क है, मेरे भा य ही म द ह! वधाता और भगवान् शंकर भी मेरे अनुकूल
नह जान पड़ते। यह भी स भव है क प नी ग रराजकुमारी सती पावतीजी मुझसे
अ स ह ’ ।।२५।। परी त्! मणीजी इसी उधेड़-बुनम पड़ी ई थ । उनका स पूण मन
और उनके सारे मनोभाव भ मनचोर भगवान्ने चुरा लये थे। उ ह ने उ ह को सोचते-सोचते
‘अभी समय है’ ऐसा समझकर अपने आँसूभरे ने ब द कर लये ।।२६।। परी त्! इस
कार मणीजी भगवान् ीकृ णके शुभागमनक ती ा कर रही थ । उसी समय उनक
बाय जाँघ, भुजा और ने फड़कने लगे, जो यतमके आगमनका य संवाद सू चत कर
रहे थे ।।२७।। इतनेम ही भगवान् ीकृ णके भेजे ए वे ा ण-दे वता आ गये और उ ह ने
अ तःपुरम राजकुमारी मणीको इस कार दे खा, मानो कोई यानम न दे वी हो ।।२८।।
सती मणीजीने दे खा ा ण-दे वताका मुख फु लत है। उनके मन और चेहरेपर कसी
कारक घबड़ाहट नह है। वे उ ह दे खकर ल ण से ही समझ गय क भगवान् ीकृ ण आ
गये! फर स तासे खलकर उ ह ने ा णदे वतासे पूछा ।।२९।। तब ा णदे वताने
नवेदन कया क ‘भगवान् ीकृ ण यहाँ पधार गये ह।’ और उनक भू र-भू र शंसा क ।
यह भी बतलाया क ‘राजकुमारीजी! आपको ले जानेक उ ह ने स य त ा क है’ ।।३०।।
भगवान्के शुभागमनका समाचार सुनकर मणीजीका दय आन दा तरेकसे भर गया।
उ ह ने इसके बदलेम ा णके लये भगवान्के अ त र और कुछ य न दे खकर उ ह ने
केवल नम कार कर लया। अथात् जगत्क सम ल मी ा णदे वताको स प द ।।३१।।

अथ कृ ण व न द ः स एव जस मः ।
अ तःपुरचर दे व राजपु ददश ह ।।२८

सा तं वदनम ा मग त सती ।
आल य ल णा भ ा समपृ छ छु च मता ।।२९

त या आवेदयत् ा तं शशंस य न दनम् ।


उ ं च स यवचनमा मोपनयनं त ।।३०

तमागतं समा ाय वैदभ मानसा ।


न प य ती ा णाय यम य नाम सा ।।३१

ा तौ ु वा व हतु ाह े णो सुकौ ।
अ यया ूयघोषेण रामकृ णौ समहणैः ।।३२

मधुपकमुपानीय वासां स वरजां स सः ।


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उपायना यभी ा न व धवत् समपूजयत् ।।३३

तयो नवेशनं ीम पक य महाम तः ।


ससै ययोः सानुगयोरा त यं वदधे यथा ।।३४

एवं रा ां समेतानां यथावीय यथावयः ।


यथाबलं यथा व ं सवः कामैः समहयत् ।।३५

कृ णमागतमाक य वदभपुरवा सनः ।


आग य ने ांज ल भः पपु त मुखपंकजम् ।।३६
राजा भी मकने सुना क भगवान् ीकृ ण और बलरामजी मेरी क याका ववाह दे खनेके
लये उ सुकतावश यहाँ पधारे ह। तब तुरही, भेरी आ द बाजे बजवाते ए पूजाक साम ी
लेकर उ ह ने उनक अगवानी क ।।३२।। और मधुपक, नमल व तथा उ म-उ म भट
दे कर व धपूवक उनक पूजा क ।।३३।। भी मकजी बड़े बु मान् थे। भगवान्के त
उनक बड़ी भ थी। उ ह ने भगवान्को सेना और सा थय के स हत सम त साम य से
यु नवास थानम ठहराया और उनका यथावत् आ त य-स कार कया ।।३४।। वदभराज
भी मकजीके यहाँ नम णम जतने राजा आये थे, उ ह ने उनके परा म, अव था, बल
और धनके अनुसार सारी इ छत व तुएँ दे कर सबका खूब स कार कया ।।३५।।
वदभदे शके नाग रक ने जब सुना क भगवान् ीकृ ण यहाँ पधारे ह, तब वे लोग भगवान्के
नवास थानपर आये और अपने नयन क अंज लम भर-भरकर उनके वदनार व दका मधुर
मकर द-रस पान करने लगे ।।३६।। वे आपसम इस कार बातचीत करते थे— मणी
इ ह क अ ा गनी होनेके यो य है, और ये परम प व मू त यामसु दर मणीके ही यो य
प त ह। सरी कोई इनक प नी होनेके यो य नह है ।।३७।। य द हमने अपने पूवज म या
इस ज मम कुछ भी स कम कया हो तो लोक- वधाता भगवान् हमपर स ह और ऐसी
कृपा कर क यामसु दर ीकृ ण ही वदभराजकुमारी मणीजीका पा ण हण
कर’ ।।३८।।

अ यैव भाया भ वतुं म यह त नापरा ।


असाव यनव ा मा भै याः समु चतः प तः ।।३७

क च सुच रतं य तेन तु लोककृत् ।


अनुगृ ातु गृ ातु वैद याः पा णम युतः ।।३८

एवं ेमकलाब ा वद त म पुरौकसः ।


क या चा तःपुरात् ागाद् भटै गु ता बकालयम् ।।३९

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प यां व नययौ ु ं भवा याः पादप लवम् ।
सा चानु यायती स यङ् मुकु दचरणा बुजम् ।।४०

यतवाङ् मातृ भः साध सखी भः प रवा रता ।


गु ता राजभटै ः शूरैः स ै तायुधैः ।
मृदंगशंखपणवा तूयभेय ज नरे ।।४१

नानोपहारब ल भवारमु याः सह शः ।


ग धव ाभरणै जप यः वलंकृताः ।।४२

गाय त तुव त गायका वा वादकाः ।


प रवाय वधूं ज मुः सूतमागधव दनः ।।४३

आसा दे वीसदनं धौतपादकरा बुजा ।


उप पृ य शु चः शा ता ववेशा बका तकम् ।।४४

तां वै वयसो बालां व ध ा व यो षतः ।


भवान व दयांच ु भवप न भवा वताम् ।।४५
परी त्! जस समय ेम-परवश होकर पुरवासी-लोग पर पर इस कार बातचीत कर
रहे थे, उसी समय मणीजी अ तःपुरसे नकलकर दे वीजीके म दरके लये चल । ब त-से
सै नक उनक र ाम नयु थे ।।३९।। वे ेममू त ीकृ णच के चरण-कमल का च तन
करती ई भगवती भवानीके पाद-प लव का दशन करनेके लये पैदल ही चल ।।४०।। वे
वयं मौन थ और माताएँ तथा सखी-सहे लयाँ सब ओरसे उ ह घेरे ए थ । शूरवीर
राजसै नक हाथ म अ -श उठाये, कवच पहने उनक र ा कर रहे थे। उस समय मृदंग,
शंख, ढोल, तुरही और भेरी आ द बाजे बज रहे थे ।।४१।।
ब त-सी ा णप नयाँ पु पमाला, च दन आ द सुग ध- और गहने-कपड़ से सज-
धजकर साथ-साथ चल रही थ और अनेक कारके उपहार तथा पूजन आ दक साम ी
लेकर सह े वारा नाएँ भी साथ थ ।।४२।। गवैये गाते जाते थे, बाजेवाले बाजे बजाते
चलते थे और सूत, मागध तथा वंद जन ल हनके चार ओर जय-जयकार करते— वरद
बखानते जा रहे थे ।।४३।। दे वीजीके म दरम प ँचकर मणीजीने अपने कमलके स श
सुकोमल हाथ-पैर धोये, आचमन कया; इसके बाद बाहर-भीतरसे प व एवं शा तभावसे
यु होकर अ बकादे वीके म दरम वेश कया ।।४४।। ब त-सी व ध- वधान जाननेवाली
बड़ी-बूढ़ ा णयाँ उनके साथ थ । उ ह ने भगवान् शंकरक अ ा गनी भवानीको और
भगवान् शंकरजीको भी मणीजीसे णाम करवाया ।।४५।। मणीजीने भगवतीसे
ाथना क —‘अ बकामाता! आपक गोदम बैठे ए आपके य पु गणेशजीको तथा
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आपको म बार-बार नम कार करती ँ। आप ऐसा आशीवाद द जये क मेरी अ भलाषा पूण
हो। भगवान् ीकृ ण ही मेरे प त ह ’ ।।४६।। इसके बाद मणीजीने जल, ग ध, अ त,
धूप, व , पु पमाला, हार, आभूषण, अनेक कारके नैवे , भट और आरती आ द
साम य से अ बकादे वीक पूजा क ।।४७।। तदन तर उ साम य से तथा नमक, पूआ,
पान, क ठसू , फल और ईखसे सुहा गन ा णय क भी पूजा क ।।४८।। तब
ा णय ने उ ह साद दे कर आशीवाद दये और ल हनने ा णय और माता
अ बकाको नम कार करके साद हण कया ।।४९।। पूजा-अचाक व ध समा त हो
जानेपर उ ह ने मौन त तोड़ दया और र नज टत अँगूठ से जगमगाते ए करकमलके ारा
एक सहेलीका हाथ पकड़कर वे ग रजाम दरसे बाहर नकल ।।५०।।

नम ये वा बकेऽभी णं वस तानयुतां शवाम् ।


भूयात् प तम भगवान् कृ ण तदनुमोदताम् ।।४६

अ ग धा तैधूपैवासः ङ् मा यभूषणैः ।
नानोपहारब ल भः द पाव ल भः पृथक् ।।४७

व यः प तमती तथा तैः समपूजयत् ।


लवणापूपता बूलक ठसू फले ु भः ।।४८

त यै य ताः द ः शेषां युयुजुरा शषः ।


ता यो दे ै नम े शेषां च जगृहे वधूः ।।४९

मु न तमथ य वा न ामा बकागृहात् ।


गृ पा णना भृ यां र नमु ोपशो भना ।।५०

तां दे वमाया मव वीरमो हन


सुम यमां कु डलम डताननाम् ।
यामां नत बा पतर नमेखलां
तन कु तलशं कते णाम् ।।५१

शु च मतां ब बफलाधर ु त-
शोणायमान जकु दकुड् मलाम् ।
पदा चल त कलहंसगा मन
शज कलानूपुरधामशो भना ।
वलो य वीरा मुमु ः समागता

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यश वन त कृत छया दताः ।।५२
परी त्! मणीजी भगवान्क मायाके समान ही बड़े-बड़े धीर-वीर को भी मो हत
कर लेनेवाली थ । उनका क टभाग ब त ही सु दर और पतला था। मुखम डलपर
कु डल क शोभा जगमगा रही थी। वे कशोर और त ण-अव थाक स धम थत थ ।
नत बपर जड़ाऊ करधनी शोभायमान हो रही थी, व ः थल कुछ उभरे ए थे और उनक
लटकती ई अलक के कारण कुछ चंचल हो रही थी ।।५१।।
उनके होठ पर मनोहर मुसकान थी। उनके दाँत क पाँत थी तो कु दकलीके समान परम
उ वल, पर तु पके ए कुँद के समान लाल-लाल होठ क चमकसे उसपर भी ला लमा आ
गयी थी। उनके पाँव के पायजेब चमक रहे थे और उनम लगे ए छोटे -छोटे घुँघ नझुन-
नझुन कर रहे थे। वे अपने सुकुमार चरण-कमल से पैदल ही राजहंसक ग तसे चल रही
थ । उनक वह अपूव छ ब दे खकर वहाँ आये ए बड़े-बड़े यश वी वीर सब मो हत हो गये।
कामदे वने ही भगवान्का काय स करनेके लये अपने बाण से उनका दय जजर कर
दया ।।५२।। मणीजी इस कार इस उ सवया ाके बहाने म द-म द ग तसे चलकर
भगवान् ीकृ णपर अपना रा श-रा श सौ दय नछावर कर रही थ । उ ह दे खकर और
उनक खुली मुसकान तथा लजीली चतवनपर अपना च लुटाकर वे बड़े-बड़े नरप त एवं
वीर इतने मो हत और बेहोश हो गये क उनके हाथ से अ -श छू टकर गर पड़े और वे
वयं भी रथ, हाथी तथा घोड़ से धरतीपर आ गरे ।।५३।। इस कार मणीजी भगवान्
ीकृ णके शुभागमनक ती ा करती ई अपने कमलक कलीके समान सुकुमार चरण को
ब त ही धीरे-धीरे आगे बढ़ा रही थ । उ ह ने अपने बाय हाथक अँगु लय से मुखक ओर
लटकती ई अलक हटाय और वहाँ आये ए नरप तय क ओर लजीली चतवनसे दे खा।
असी समय उ ह यामसु दर भगवान् ीकृ णके दशन ए ।।५४।। राजकुमारी मणीजी
रथपर चढ़ना ही चाहती थ क भगवान् ीकृ णने सम त श ु के दे खते-दे खते उनक
भीड़मसे मणीजीको उठा लया और उन सैकड़ राजा के सरपर पाँव रखकर उ ह
अपने उस रथपर बैठा लया, जसक वजापर ग ड़का च लगा आ था ।।५५।। इसके
बाद जैसे सह सयार के बीचमसे अपना भाग ले जाय, वैसे ही मणीजीको लेकर
भगवान् ीकृ ण बलरामजी आ द य वं शय के साथ वहाँसे चल पड़े ।।५६।। उस समय
जरास धके वशवत अ भमानी राजा को अपना यह बड़ा भारी तर कार और यश-
क तका नाश सहन न आ। वे सब-के-सब चढ़कर कहने लगे—‘अहो, हम ध कार है।
आज हमलोग धनुष धारण करके खड़े ही रहे और ये वाले, जैसे सहके भागको ह रन ले
जाय उसी कार हमारा सारा यश छ न ले गये’ ।।५७।।

यां वी य ते नृपतय त दारहास-


ीडावलोक तचेतस उ झता ाः ।
पेतुः तौ गजरथा गता वमूढा
या ा छलेन हरयेऽपयत वशोभाम् ।।५३
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सैवं शनै लयती चलप कोशौ
ा तं तदा भगवतः समी माणा ।
उ साय वामकरजैरलकानपा ै ः
ा तान् यै त नृपान् द शेऽ युतं सा ।।५४

तां राजक यां रथमा त


जहार कृ णो षतां समी ताम् ।
रथं समारो य सुपणल णं
राज यच ं प रभूय माधवः ।।५५

ततो ययौ रामपुरोगमैः शनैः


सृगालम या दव भाग रः ।।५६

तं मा ननः वा भभवं यशः यं


परे जरास धवशा न से हरे ।
अहो धग मान् यश आ ध वनां
गोपै तं केस रणां मृगै रव ।।५७
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध मणीहरणं नाम
प चाश मोऽ यायः ।।५३।।

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अथ चतुःप चाश मोऽ यायः
शशुपालके साथी राजा क और मीक हार तथा ीकृ ण- मणी-
ववाह
ीशुक उवाच
इ त सव सुसंर धा वाहाना दं शताः ।
वैः वैबलैः प र ा ता अ वीयुधृतकामुकाः ।।१

तानापतत आलो य यादवानीकयूथपाः ।


त थु त संमुखा राज व फू य वधनूं ष ते ।।२

अ पृ े गज क धे रथोप थे च को वदाः ।
मुमुचुः शरवषा ण मेघा अ वपो यथा ।।३

प युबलं शरासारै छ ं वी य सुम यमा ।


स ीडमै ं भय व ललोचना ।।४

ह य भगवानाह मा म भैवामलोचने ।
वनं य यधुनैवैतत् तावकैः शा वं बलम् ।।५

तेषां त मं वीरा गदसंकषणादयः ।


अमृ यमाणा नाराचैज नुहयगजान् रथान् ।।६

पेतुः शरां स र थनाम नां ग जनां भु व ।


सकु डल करीटा न सो णीषा ण च को टशः ।।७

ह ताः सा सगदे वासाः करभा ऊरवोऽङ् यः ।


अ ा तरनागो खरम य शरां स च ।।८

ह यमानबलानीका वृ ण भजयकां भः ।
राजानो वमुखा ज मुजरास धपुरःसराः ।।९
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! इस कार कह-सुनकर सब-के-सब राजा ोधसे
आगबबूला हो उठे और कवच पहनकर अपने-अपने वाहन पर सवार हो गये। अपनी-अपनी
सेनाके साथ सब धनुष ले-लेकर भगवान् ीकृ णके पीछे दौड़े ।।१।। राजन्! जब
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य वं शय के सेनाप तय ने दे खा क श ुदल हमपर चढ़ा आ रहा है, तब उ ह ने भी अपने-
अपने धनुषका टं कार कया और घूमकर उनके सामने डट गये ।।२।। जरास धक सेनाके
लोग कोई घोड़ेपर, कोई हाथीपर, तो कोई रथपर चढ़े ए थे। वे सभी धनुवदके बड़े मम थे।
वे य वं शय पर इस कार बाण क वषा करने लगे, मानो दल-के-दल बादल पहाड़ पर
मूसलधार पानी बरसा रहे ह ।।३।। परमसु दरी मणीजीने दे खा क उनके प त
ीकृ णक सेना बाण-वषासे ढक गयी है। तब उ ह ने ल जाके साथ भयभीत ने से
भगवान् ीकृ णके मुखक ओर दे खा ।।४।। भगवान्ने हँसकर कहा—‘सु दरी! डरो मत।
तु हारी सेना अभी तु हारे श ु क सेनाको न कये डालती है’ ।।५।। इधर गद और
संकषण आ द य वंशी वीर अपने श ु का परा म और अ धक न सह सके। वे अपने
बाण से श ु के हाथी, घोड़े तथा रथ को छ - भ करने लगे ।।६।। उनके बाण से रथ,
घोड़े और हा थय पर बैठे वप ी वीर के कु डल, करीट और पग ड़य से सुशो भत करोड़
सर, खड् ग, गदा और धनुषयु हाथ, प ँच,े जाँघ और पैर कट-कटकर पृ वीपर गरने लगे।
इसी कार घोड़े, ख चर, हाथी, ऊँट, गधे और मनु य के सर भी कट-कटकर रण-भू मम
लोटने लगे ।।७-८।। अ तम वजयक स ची आकां ावाले य वं शय ने श ु क सेना
तहस-नहस कर डाली। जरास ध आ द सभी राजा यु से पीठ दखाकर भाग खड़े
ए ।।९।।

शशुपालं सम ये य तदार मवातुरम् ।


न वषं गतो साहं शु य दनम ुवन् ।।१०

भो भोः पु षशा ल दौमन य मदं यज ।


न या ययो राजन् न ा दे हषु यते ।।११

यथा दा मयी यो ष ृ यते कुहके छया ।


एवमी रत ोऽयमीहते सुख ःखयोः ।।१२

शौरेः स तदशाहं वै संयुगा न परा जतः ।


यो वश त भः सै यै ज य एकमहं परम् ।।१३

तथा यहं न शोचा म न या म क ह चत् ।


कालेन दै वयु े न जानन् व ा वतं जगत् ।।१४

अधुना प वयं सव वीरयूथपयूथपाः ।


परा जताः फ गुत ैय भः कृ णपा लतैः ।।१५

रपवो ज युरधुना काल आ मानुसा र ण ।


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तदा वयं वजे यामो यदा कालः द णः ।।१६

एवं बो धतो म ै ै ोऽगात् सानुगः पुरम् ।


हतशेषाः पुन तेऽ प ययुः वं वं पुरं नृपाः ।।१७

मी तु रा सो ाहं कृ ण डसहन् वसुः ।


पृ तोऽ वगमत् कृ णम ौ ह या वृतो बली ।।१८
उधर शशुपाल अपनी भावी प नीके छन जानेके कारण मरणास -सा हो रहा था। न तो
उसके दयम उ साह रह गया था और न तो शरीरपर का त। उसका मुँह सूख रहा था।
उसके पास जाकर जरास ध कहने लगा— ।।१०।। ‘ शशुपालजी! आप तो एक े पु ष
ह, यह उदासी छोड़ द जये। य क राजन्! कोई भी बात सवदा अपने मनके अनुकूल ही हो
या तकूल, इस स ब धम कुछ थरता कसी भी ाणीके जीवनम नह दे खी जाती ।।११।।
जैसे कठपुतली बाजीगरक इ छाके अनुसार नाचती है, वैसे ही यह जीव भी भगव द छाके
अधीन रहकर सुख और ःखके स ब धम यथाश चे ा करता रहता है ।।१२।। दे खये,
ीकृ णने मुझे तेईस-तेईस अ ौ हणी सेना के साथ स ह बार हरा दया, मने केवल एक
बार—अठारहव बार उनपर वजय ा त क ।।१३।। फर भी इस बातको लेकर म न तो
कभी शोक करता ँ और न तो कभी हष; य क म जानता ँ क ार धके अनुसार काल
भगवान् ही इस चराचर जगत्को झकझोरते रहते ह ।।१४।। इसम स दे ह नह क हमलोग
बड़े-बड़े वीर सेनाप तय के भी नायक ह। फर भी, इस समय ीकृ णके ारा सुर त
य वं शय क थोड़ी-सी सेनाने हम हरा दया है ।।१५।। इस बार हमारे श ु क ही जीत
ई, य क काल उ ह के अनुकूल था। जब काल हमारे दा हने होगा, तब हम भी उ ह जीत
लगे’ ।।१६।। परी त्! जब म ने इस कार समझाया, तब चे दराज शशुपाल अपने
अनुया यय के साथ अपनी राजधानीको लौट गया और उसके म राजा भी, जो मरनेसे बचे
थे, अपने-अपने नगर को चले गये ।।१७।।
मणीजीका बड़ा भाई मी भगवान् ीकृ णसे ब त े ष रखता था। उसको यह
बात बलकुल सहन न ई क मेरी ब हनको ीकृ ण हर ले जायँ और रा सरी तसे
बलपूवक उसके साथ ववाह कर। मी बली तो था ही, उसने एक अ ौ हणी सेना साथ ले
ली और ीकृ णका पीछा कया ।।१८।। महाबा मी ोधके मारे जल रहा था। उसने
कवच पहनकर और धनुष धारण करके सम त नरप तय के सामने यह त ा क
— ।।१९।। ‘म आपलोग के बीचम यह शपथ करता ँ क य द म यु म ीकृ णको न मार
सका और अपनी ब हन मणीको न लौटा सका तो अपनी राजधानी कु डनपुरम वेश
नह क ँ गा’ ।।२०।। परी त्! यह कहकर वह रथपर सवार हो गया और सार थसे बोला
—‘जहाँ कृ ण हो वहाँ शी -से-शी मेरा रथ ले चलो। आज मेरा उसीके साथ यु
होगा ।।२१।। आज म अपने तीखे बाण से उस खोट बु वाले वालेके बल-वीयका घमंड
चूर-चूर कर ँ गा। दे खो तो उसका साहस, वह हमारी ब हनको बलपूवक हर ले गया
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है’ ।।२२।। परी त्! मीक बु बगड़ गयी थी। वह भगवान्के तेज- भावको बलकुल
नह जानता था। इसीसे इस कार बहक-बहककर बात करता आ वह एक ही रथसे
ीकृ णके पास प ँचकर ललकारने लगा—‘खड़ा रह! खड़ा रह!’ ।।२३।। उसने अपने
धनुषको बलपूवक ख चकर भगवान् ीकृ णको तीन बाण मारे और कहा—‘एक ण मेरे
सामने ठहर! य वं शय के कुलकलंक! जैसे कौआ होमक साम ी चुराकर उड़ जाय, वैसे ही
तू मेरी ब हनको चुराकर कहाँ भागा जा रहा है? अरे म द! तू बड़ा मायावी और कपट-यु म
कुशल है। आज म तेरा सारा गव खव कये डालता ँ ।।२४-२५।। दे ख! जबतक मेरे बाण
तुझे धरतीपर सुला नह दे त,े उसके पहले ही इस ब चीको छोड़कर भाग जा।’ मीक बात
सुनकर भगवान् ीकृ ण मुसकराने लगे। उ ह ने उसका धनुष काट डाला और उसपर छः
बाण छोड़े ।।२६।। साथ ही भगवान् ीकृ णने आठ बाण उसके चार घोड़ पर और दो
सार थपर छोड़े और तीन बाण से उसके रथक वजाको काट डाला। तब मीने सरा
धनुष उठाया और भगवान् ीकृ णको पाँच बाण मारे ।।२७।। उन बाण के लगनेपर उ ह ने
उसका वह धनुष भी काट डाला। मीने इसके बाद एक और धनुष लया, पर तु हाथम
लेत-े ही-लेते अ वनाशी अ युतने उसे भी काट डाला ।।२८।। इस कार मीने प रघ,
प श, शूल, ढाल, तलवार, श और तोमर— जतने अ -श उठाये, उन सभीको
भगवान्ने हार करनेके पहले ही काट डाला ।।२९।। अब मी ोधवश हाथम तलवार
लेकर भगवान् ीकृ णको मार डालनेक इ छासे रथसे कूद पड़ा और इस कार उनक ओर
झपटा, जैसे प तगा आगक ओर लपकता है ।।३०।। जब भगवान्ने दे खा क मी मुझपर
चोट करना चाहता है, तब उ ह ने अपने बाण से उसक ढाल-तलवारको तल- तल करके
काट दया और उसको मार डालनेके लये हाथम तीखी तलवार नकाल ली ।।३१।। जब
मणीजीने दे खा क ये तो हमारे भाईको अब मार ही डालना चाहते ह, तब वे भयसे
व ल हो गय और अपने यतम प त भगवान् ीकृ णके चरण पर गरकर क ण- वरम
बोल — ।।३२।। ‘दे वता के भी आरा यदे व! जग पते! आप योगे र ह। आपके व प
और इ छा को कोई जान नह सकता। आप परम बलवान् ह, पर तु क याण व प भी तो
ह। भो! मेरे भैयाको मारना आपके यो य काम नह है’ ।।३३।।

यमष सुसंर धः शृ वतां सवभूभुजाम् ।


तज े महाबा द शतः सशरासनः ।।१९

अह वा समरे कृ णम यू च मणीम् ।
कु डनं न वे या म स यमेतद् वी म वः ।।२०

इ यु वा रथमा सार थ ाह स वरः ।


चोदया ान् यतः कृ ण त य मे संयुगं भवेत् ।।२१

अ ाहं न शतैबाणैग पाल य सु मतेः ।


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ने ये वीयमदं येन वसा मे सभं ता ।।२२

वक थमानः कुम तरी र या माण वत् ।


रथेनैकेन गो व दं त त े यथा यत् ।।२३

धनु वकृ य सु ढं ज ने कृ णं भः शरैः ।


आह चा णं त य नां कुलपांसन ।।२४

कु या स वसारं मे मु ष वा वां व वः ।
ह र येऽ मदं म द मा यनः कूटयो धनः ।।२५

याव मे हतो बाणैः शयीथा मु च दा रकाम् ।


मयन्कृ णो धनु छ वा षड् भ व ाध मणम् ।।२६

अ भ तुरो वाहान् ा यां सूतं वजं भः ।


स चा यद् धनुरादाय कृ णं व ाध प च भः ।।२७

तै ता डतः शरौघै तु च छे द धनुर युतः ।


पुनर य पाद तद य छनद यः ।।२८

प रघं प शं शूलं चमासी श तोमरौ ।


यद् यदायुधमाद तत् सव सोऽ छन रः ।।२९

ततो रथादव लु य खड् गपा ण जघांसया ।


कृ णम य वत् ु ः पतंग इव पावकम् ।।३०

त य चापततः खड् गं तलश म चेषु भः ।


छ वा समाददे त मं मणं ह तुमु तः ।।३१

् वा ातृवधो ोगं मणी भय व ला ।


प त वा पादयोभतु वाच क णं सती ।।३२

योगे रा मेया मन् दे वदे व जग पते ।


ह तुं नाह स क याण ातरं मे महाभुज ।।३३
ीशुक उवाच
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तया प र ास वक पतांगया
शुचावशु य मुख क ठया ।
कातय व ं सतहेममालया
गृहीतपादः क णो यवतत ।।३४

चैलेन ब वा तमसाधुका रणं


स म ुकेशं वपन् पयत् ।
ताव मम ः परसै यम तं
य वीरा न लन यथा गजाः ।।३५
ीशुकदे वजी कहते ह— मणीजीका एक-एक अंग भयके मारे थर-थर काँप रहा
था। शोकक बलतासे मुँह सूख गया था, गला ँ ध गया था। आतुरतावश सोनेका हार गलेसे
गर पड़ा था और इसी अव थाम वे भगवान्के चरणकमल पकड़े ए थ । परमदयालु
भगवान् उ ह भयभीत दे खकर क णासे वत हो गये। उ ह ने मीको मार डालनेका
वचार छोड़ दया ।।३४।। फर भी मी उनके अ न क चे ासे वमुख न आ। तब
भगवान् ीकृ णने उसको उसीके प े से बाँध दया और उसक दाढ़ -मूँछ तथा केश कई
जगहसे मूँड़कर उसे कु प बना दया। तबतक य वंशी वीर ने श ुक अद्भुत सेनाको
तहस-नहस कर डाला—ठ क वैसे ही, जैसे हाथी कमलवनको र द डालता है ।।३५।। फर वे
लोग उधरसे लौटकर ीकृ णके पास आये तो दे खा क मी प े से बँधा आ अधमरी
अव थाम पड़ा आ है। उसे दे खकर सवश मान् भगवान् बलरामजीको बड़ी दया आयी
और उ ह ने उसके ब धन खोलकर उसे छोड़ दया तथा ीकृ णसे कहा— ।।३६।। ‘कृ ण!
तुमने यह अ छा नह कया। यह न दत काय हमलोग के यो य नह है। अपने स ब धीक
दाढ़ -मूँछ मूँड़कर उसे कु प कर दे ना, यह तो एक कारका वध ही है’ ।।३७।। इसके बाद
बलरामजीने मणीको स बोधन करके कहा—‘सा वी! तु हारे भाईका प वकृत कर
दया गया है, यह सोचकर हमलोग से बुरा न मानना; य क जीवको सुख- ःख दे नेवाला
कोई सरा नह है। उसे तो अपने ही कमका फल भोगना पड़ता है’ ।।३८।। अब ीकृ णसे
बोले—‘कृ ण! य द अपना सगा-स ब धी वध करनेयो य अपराध करे तो भी अपने ही
स ब धय के ारा उसका मारा जाना उ चत नह है। उसे छोड़ दे ना चा हये। वह तो अपने
अपराधसे ही मर चुका है, मरे एको फर या मारना?’ ।।३९।। फर मणीजीसे बोले
—‘सा वी! ाजीने य का धम ही ऐसा बना दया है क सगा भाई भी अपने भाईको
मार डालता है। इस लये यह ा धम अ य त घोर है’ ।।४०।। इसके बाद ीकृ णसे बोले
—‘भाई कृ ण! यह ठ क है क जो लोग धनके नशेम अंधे हो रहे ह और अ भमानी ह, वे
रा य, पृ वी, पैसा, ी, मान, तेज अथवा कसी और कारणसे अपने ब धु का भी
तर कार कर दया करते ह’ ।।४१।।

कृ णा तकमुप य द शु त मणम् ।

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तथाभूतं हत ायं ् वा संकषणो वभुः ।
वमु य ब ं क णो भगवान् कृ णम वीत् ।।३६

असा वदं वया कृ ण कृतम म जुगु सतम् ।


वपनं म क
ु े शानां वै यं सु दो वधः ।।३७

मैवा मान् सा सूयेथा ातुव य च तया ।


सुख ःखदो न चा योऽ त यतः वकृतभुक्पुमान् ।।३८

ब धुवधाहदोषोऽ प न ब धोवधमह त ।
या यः वेनैव दोषेण हतः क ह यते पुनः ।।३९

याणामयं धमः जाप त व न मतः ।


ाता प ातरं ह याद् येन घोरतर ततः ।।४०

रा य य भूमे व य यो मान य तेजसः ।


मा ननोऽ य य वा हेतोः ीमदा धाः प त ह ।।४१

तवेयं वषमा बु ः सवभूतेषु दाम् ।


य म यसे सदाभ ं सु दां भ म वत् ।।४२

आ ममोहो नृणामेष क यते दे वमायया ।


सु द् दासीन इ त दे हा ममा ननाम् ।।४३
अब वे मणीजीसे बोले—‘सा वी! तु हारे भाई-ब धु सम त ा णय के त भाव
रखते ह। हमने उनके मंगलके लये ही उनके त द ड वधान कया है। उसे तुम
अ ा नय क भाँ त अमंगल मान रही हो, यह तु हारी बु क वषमता है ।।४२।। दे व! जो
लोग भगवान्क मायासे मो हत होकर दे हको ही आ मा मान बैठते ह, उ ह को ऐसा
आ ममोह होता है क यह म है, यह श ु है और यह उदासीन है ।।४३।। सम त
दे हधा रय क आ मा एक ही है और काय-कारणसे, मायासे उसका कोई स ब ध नह है।
जल और घड़ा आ द उपा धय के भेदसे जैसे सूय, च मा आ द काशयु पदाथ और
आकाश भ - भ मालूम पड़ते ह; पर तु ह एक ही, वैसे ही मूख लोग शरीरके भेदसे
आ माका भेद मानते ह ।।४४।। यह शरीर आ द और अ तवाला है। प चभूत, प च ाण,
त मा ा और गुण ही इसका व प है। आ माम उसके अ ानसे ही इसक क पना ई है
और वह क पत शरीर ही, जो उसे ‘म समझता है’, उसको ज म-मृ युके च करम ले जाता
है ।।४५।। सा वी! ने और प दोन ही सूयके ारा का शत होते ह। सूय ही उनका
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कारण है। इस लये सूयके साथ ने और पका न तो कभी वयोग होता है और न संयोग।
इसी कार सम त संसारक स ा आ मस ाके कारण जान पड़ती है, सम त संसारका
काशक आ मा ही है। फर आ माके साथ सरे असत् पदाथ का संयोग या वयोग हो ही
कैसे सकता है? ।।४६।। ज म लेना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और मरना ये सारे वकार
शरीरके ही होते ह, आ माके नह । जैसे कृ णप म कला का ही य होता है, च माका
नह , पर तु अमाव याके दन वहारम लोग च माका ही य आ कहते-सुनते ह; वैसे ही
ज म-मृ यु आ द सारे वकार शरीरके ही होते ह, पर तु लोग उसे मवश अपना—अपने
आ माका मान लेते ह ।।४७।। जैसे सोया आ पु ष कसी पदाथके न होनेपर भी व म
भो ा, भो य और भोग प फल का अनुभव करता है, उसी कार अ ानी लोग झूठमूठ
संसार-च का अनुभव करते ह ।।४८।। इस लये सा वी! अ ानके कारण होनेवाले इस
शोकको याग दो। यह शोक अ तःकरणको मुरझा दे ता है, मो हत कर दे ता है। इस लये इसे
छोड़कर तुम अपने व पम थत हो जाओ’ ।।४९।।

एक एव परो ा मा सवषाम प दे हनाम् ।


नानेव गृ ते मूढैयथा यो तयथा नभः ।।४४

दे ह आ तवानेष ाणगुणा मकः ।


आ म य व या लृ तः संसारय त दे हनम् ।।४५

ना मनोऽ येन संयोगो वयोग ासतः स त ।


त े तु वा स े ूपा यां यथा रवेः ।।४६

ज मादय तु दे ह य व या ना मनः व चत् ।


कलाना मव नैवे दोमृ त य कु रव ।।४७

यथा शयान आ मानं वषयान् फलमेव च ।


अनुभुङ् े ऽ यस यथ तथाऽऽ ो यबुधो भवम् ।।४८

त माद ानजं शोकमा मशोष वमोहनम् ।


त व ानेन न य व था भव शु च मते ।।४९
ीशुक उवाच
एवं भगवता त वी रामेण तबो धता ।
वैमन यं प र य य मनो बु या समादधे ।।५०
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जब बलरामजीने इस कार समझाया, तब

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परमसु दरी मणीजीने अपने मनका मैल मटाकर ववेक-बु से उसका समाधान
कया ।।५०।। मीक सेना और उसके तेजका नाश हो चुका था। केवल ाण बच रहे थे।
उसके च क सारी आशा-अ भलाषाएँ थ हो चुक थ और श ु ने अपमा नत करके
उसे छोड़ दया था। उसे अपने व प कये जानेक क दायक मृ त भूल नह पाती
थी ।।५१।। अतः उसने अपने रहनेके लये भोजकट नामक एक ब त बड़ी नगरी बसायी।
उसने पहले ही यह त ा कर ली थी क ‘ बु कृ णको मारे बना और अपनी छोट
ब हनको लौटाये बना म कु डनपुरम वेश नह क ँ गा।’ इस लये ोध करके वह वह
रहने लगा ।।५२।।

ाणावशेष उ सृ ो ड् भहतबल भः ।
मरन् व पकरणं वतथा ममनोरथः ।।५१

च े भोजकटं नाम नवासाय महत् पुरम् ।


अह वा म त कृ णम यू यवीयसीम् ।
कु डनं न वे यामी यु वा त ावसद् षा ।।५२

भगवान् भी मकसुतामेवं न ज य भू मपान् ।


पुरमानीय व धव पयेमे कु ह ।।५३

तदा महो सवो नॄणां य पुया गृहे गृहे ।


अभूदन यभावानां कृ णे य पतौ नृप ।।५४

नरा नाय मु दताः मृ म णकु डलाः ।


पा रबहमुपाज वरयो वाससोः ।।५५

सा वृ णपुयु भते केतु भ-


व च मा या बरर नतोरणैः ।
बभौ त ायुप लृ तमंगलै-
रापूणकु भागु धूपद पकैः ।।५६

स मागा मद यु रा त े भूभुजाम् ।
गजै ा सु परामृ र भापूगोपशो भता ।।५७

कु सृंजयकैकेय वदभय कु तयः ।


मथो मुमु दरे त मन् स मात् प रधावताम् ।।५८

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परी त्! भगवान् ीकृ णने इस कार सब राजा को जीत लया और
वदभराजकुमारी मणीजीको ारकाम लाकर उनका व धपूवक पा ण हण
कया ।।५३।। हे राजन्! उस समय ारकापुरीम घर-घर बड़ा ही उ सव मनाया जाने लगा।
य न हो, वहाँके सभी लोग का य प त ीकृ णके त अन य ेम जो था ।।५४।। वहाँके
सभी नर-नारी म णय के चमक ले कु डल धारण कये ए थे। उ ह ने आन दसे भरकर
च - व च व पहने हा और ल हनको अनेक भटक साम याँ उपहारम द ।।५५।।
उस समय ारकाक अपूव शोभा हो रही थी। कह बड़ी-बड़ी पताकाएँ ब त ऊँचेतक फहरा
रही थ । च - व च मालाएँ, व और र न के तोरन बँधे ए थे। ार- ारपर ब, खील
आ द मंगलक व तुएँ सजायी ई थ । जलभरे कलश, अरगजा और धूपक सुग ध तथा
द पावलीसे बड़ी ही वल ण शोभा हो रही थी ।।५६।। म नरप त आम त कये गये थे।
उनके मतवाले हा थय के मदसे ारकाक सड़क और ग लय का छड़काव हो गया था।
येक दरवाजेपर केल के खंभे और सुपारीके पेड़ रोपे ए ब त ही भले मालूम होते
थे ।।५७।। उस उ सवम कुतूहलवश इधर-उधर दौड़-धूप करते ए ब धु-वग म कु , सृ य,
कैकय, वदभ, य और कु त आ द वंश के लोग पर पर आन द मना रहे थे ।।५८।। जहाँ-
तहाँ मणी-हरणक ही गाथा गायी जाने लगी। उसे सुनकर राजा और राजक याएँ अ य त
व मत हो गय ।।५९।। महाराज! भगवती ल मीजीको मणीके पम सा ात्
ल मीप त भगवान् ीकृ णके साथ दे खकर ारकावासी नर-ना रय को परम आन द
आ ।।६०।।

म या हरपं ु वा गीयमानं तत ततः ।


राजानो राजक या बभूवुभृश व मताः ।।५९

ारकायामभूद ् राजन् महामोदः पुरौकसाम् ।


म या रमयोपेतं ् वा कृ णं यः प तम् ।।६०
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध म यु ाहे
चतुःप चाश मोऽ यायः ।।५४।।

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अथ प चप चाश मोऽ यायः
ु नका ज म और श बरासुरका वध
ीशुक उवाच
काम तु वासुदेवांशो द धः ाग् म युना ।
दे होपप ये भूय तमेव यप त ।।१

स एव जातो वैद या कृ णवीयसमु वः ।


ु न इ त व यातः सवतोऽनवमः पतुः ।।२

तं श बरः काम पी वा तोकम नदशम् ।


स व द वाऽऽ मनः श ुं ा योद व यगाद् गृहम् ।।३

तं नजगार बलवान् मीनः सोऽ यपरैः सह ।


वृतो जालेन महता गृहीतो म यजी व भः ।।४

तं श बराय कैवता उपाज पायनम् ।


सूदा महानसं नी वाव न् व ध तना तम् ।।५

् वा त दरे बालं मायाव यै यवेदयन् ।


नारदोऽकथयत् सव त याः शं कतचेतसः ।
बाल य त वमु प म योदर नवेशनम् ।।६
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! कामदे व भगवान् वासुदेवके ही अंश ह। वे पहले
भगवान्क ोधा नसे भ म हो गये थे। अब फर शरीर- ा तके लये उ ह ने अपने अंशी
भगवान् वासुदेवका ही आ य लया ।।१।। वे ही काम अबक बार भगवान् ीकृ णके ारा
मणीजीके गभसे उ प ए और ु न नामसे जगत्म स ए। सौ दय, वीय,
सौशी य आ द सद्गुण म भगवान् ीकृ णसे वे कसी कार कम न थे ।।२।। बालक ुन
अभी दस दनके भी न ए थे क काम पी श बरासुर वेष बदलकर सू तकागृहसे उ ह हर ले
गया और समु म फककर अपने घर लौट गया। उसे मालूम हो गया था क यह मेरा भावी
श ु है ।।३।। समु म बालक ु नको एक बड़ा भारी म छ नगल गया। तदन तर मछु ने
अपने ब त बड़े जालम फँसाकर सरी मछ लय के साथ उस म छको भी पकड़
लया ।।४।। और उ ह ने उसे ले जाकर श बरासुरको भटके पम दे दया। श बरासुरके
रसोइये उस अद्भुत म छको उठाकर रसोईघरम ले आये और कु हा ड़य से उसे काटने
लगे ।।५।। रसोइय ने म यके पेटम बालक दे खकर उसे श बरासुरक दासी मायावतीको
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सम पत कया। उसके मनम बड़ी शंका ई। तब नारदजीने आकर बालकका कामदे व होना,
ीकृ णक प नी मणीके गभसे ज म लेना, म छके पेटम जाना सब कुछ कह
सुनाया ।।६।। परी त्! वह मायावती कामदे वक यश वनी प नी र त ही थी। जस दन
शंकरजीके ोधसे कामदे वका शरीर भ म हो गया था, उसी दनसे वह उसक दे हके पुनः
उ प होनेक ती ा कर रही थी ।।७।। उसी र तको श बरासुरने अपने यहाँ दाल-भात
बनानेके कामम नयु कर रखा था। जब उसे मालूम आ क इस शशुके पम मेरे प त
कामदे व ही ह, तब वह उसके त ब त ेम करने लगी ।।८।। ीकृ णकुमार भगवान् ुन
ब त थोड़े दन म जवान हो गये। उनका प-लाव य इतना अद्भुत था क जो याँ
उनक ओर दे खत , उनके मनम शृंगार-रसका उ पन हो जाता ।।९।।

सा च काम य वै प नी र तनाम यश वनी ।


प यु नद धदे ह य दे हो प ती ती ।।७

न पता श बरेण सा सूपौदनसाधने ।


कामदे वं शशुं बुद ् वा च े नेहं तदाभके ।।८

ना तद घण कालेन स का ण ढयौवनः ।
जनयामास नारीणां वी तीनां च व मम् ।।९

सा तं प त प दलायते णं
ल बबा ं नरलोकसु दरम् ।
स ीडहासो भत ुवे ती
ी योपत थे र तरंग सौरतैः ।।१०

तामाह भगवान् का णमात ते म तर यथा ।


मातृभावम त य वतसे का मनी यथा ।।११
र त वाच
भवान् नारायणसुतः श बरेणा तो गृहात् ।
अहं तेऽ धकृता प नी र तः कामो भवान् भो ।।१२

एष वा नदशं स धाव प छ बरोऽसुरः ।


म योऽ सी दरा दह ा तो भवान् भो ।।१३

त ममं ज ह धष जयं श ुमा मनः ।


मायाशत वदं वं च माया भम हना द भः ।।१४
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कमलदलके समान कोमल एवं वशाल ने , घुटन तक लंबी-लंबी बाँह और मनु यलोकम
सबसे सु दर शरीर! र त सल ज हा यके साथ भ ह मटका-कर उनक ओर दे खती और
ेमसे भरकर ी-पु षस ब धी भाव करती ई उनक सेवा-शु ूषाम लगी
रहती ।।१०।। ीकृ णन दन भगवान् ु नने उसके भाव म प रवतन दे खकर कहा—‘दे व!
तुम तो मेरी माँके समान हो। तु हारी बु उलट कैसे हो गयी? म दे खता ँ क तुम माताका
भाव छोड़कर का मनीके समान हाव-भाव दखा रही हो’ ।।११।।
र तने कहा—‘ भो! आप वयं भगवान् नारायणके पु ह। श बरासुर आपको
सू तकागृहसे चुरा लाया था। आप मेरे प त वयं कामदे व ह और म आपक सदाक धम-
प नी र त ँ ।।१२।। मेरे वामी! जब आप दस दनके भी न थे, तब इस श बरासुरने आपको
हरकर समु म डाल दया था। वहाँ एक म छ आपको नगल गया और उसीके पेटसे आप
यहाँ मुझे ा त ए ह ।।१३।। यह श बरासुर सैकड़ कारक माया जानता है। इसको अपने
वशम कर लेना या जीत लेना ब त ही क ठन है। आप अपने इस श ुको मोहन आ द
माया के ारा न कर डा लये ।।१४।। वा मन्! अपनी स तान आपके खो जानेसे
आपक माता पु नेहसे ाकुल हो रही ह, वे आतुर होकर अ य त द नतासे रात- दन च ता
करती रहती ह। उनक ठ क वैसी ही दशा हो रही है, जैसी ब चा खो जानेपर कुररी प ीक
अथवा बछड़ा खो जानेपर बेचारी गायक होती है’ ।।१५।। मायावती र तने इस कार
कहकर परमश शाली ु नको महामाया नामक व ा सखायी। यह व ा ऐसी है, जो
सब कारक माया का नाश कर दे ती है ।।१६।। अब ु नजी श बरासुरके पास जाकर
उसपर बड़े कटु -कटु आ ेप करने लगे। वे चाहते थे क यह कसी कार झगड़ा कर बैठे।
इतना ही नह , उ ह ने यु के लये उसे प पसे ललकारा ।।१७।।

प रशोच त ते माता कुररीव गत जा ।


पु नेहाकुला द ना वव सा गौ रवातुरा ।।१५

भा यैवं ददौ व ां ु नाय महा मने ।


मायावती महामायां सवमाया वना शनीम् ।।१६

स च श बरम ये य संयुगाय समा यत् ।


अ वष ै तमा ेपैः पन् संजनयन् क लम् ।।१७

सोऽ ध तो वचो भः पादाहत इवोरगः ।


न ाम गदापा णरमषा ा लोचनः ।।१८

गदामा व य तरसा ु नाय महा मने ।


य नद ादं व न पेष न ु रम् ।।१९

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तामापत त भगवान् ु नो गदया गदाम् ।
अपा य श वे ु ः ा हणोत् वगदां नृप ।।२०

स च मायां समा य दै तेय मयद शताम् ।


मुमुचेऽ मयं वष का ण वैहायसोऽसुरः ।।२१

बा यमानोऽ वषण रौ मणेयो महारथः ।


स वा मकां महा व ां सवमायोपम दनीम् ।।२२

ततो गौ कगा धवपैशाचोरगरा सीः ।


ायुं शतशो दै यः का ण धमयत् स ताः ।।२३

नशातम समु य स करीटं सकु डलम् ।


श बर य शरः कायात् ता म वोजसाहरत् ।।२४
ु नजीके कटु वचन क चोटसे श बरासुर तल मला उठा। मानो कसीने वषैले साँपको
पैरसे ठोकर मार द हो। उसक आँख ोधसे लाल हो गय । वह हाथम गदा लेकर बाहर
नकल आया ।।१८।। उसने अपनी गदा बड़े जोरसे आकाशम घुमायी और इसके बाद
ु नजीपर चला द । गदा चलाते समय उसने इतना ककश सहनाद कया, मानो बजली
कड़क रही हो ।।१९।।
परी त्! भगवान् ु नने दे खा क उसक गदा बड़े वेगसे मेरी ओर आ रही है। तब
उ ह ने अपनी गदाके हारसे उसक गदा गरा द और ोधम भरकर अपनी गदा उसपर
चलायी ।।२०।। तब वह दै य मयासुरक बतलायी ई आसुरी मायाका आ य लेकर
आकाशम चला गया और वह से ु नजीपर अ -श क वषा करने लगा ।।२१।।
महारथी ु नजीपर ब त-सी अ -वषा करके जब वह उ ह पी ड़त करने लगा तब उ ह ने
सम त माया को शा त करनेवाली स वमयी महा व ाका योग कया ।।२२।। तदन तर
श बरासुरने य , ग धव, पशाच, नाग और रा स क सैकड़ माया का योग कया;
पर तु ीकृ णकुमार ु नजीने अपनी महा व ासे उन सबका नाश कर दया ।।२३।।
इसके बाद उ ह ने एक ती ण तलवार उठायी और श बरासुरका करीट एवं कु डलसे
सुशो भत सर, जो लाल-लाल दाढ़ , मूँछ से बड़ा भयंकर लग रहा था, काटकर धड़से अलग
कर दया ।।२४।। दे वतालोग पु प क वषा करते ए तु त करने लगे और इसके बाद
मायावती र त, जो आकाशम चलना जानती थी, अपने प त ु नजीको आकाशमागसे
ारकापुरीम ले गयी ।।२५।।

आक यमाणो द वजैः तुव ः कुसुमो करैः ।


भायया बरचा र या पुरं नीतो वहायसा ।।२५
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अ तःपुरवरं राजन् ललनाशतसंकुलम् ।
ववेश प या गगनाद् व ुतेव बलाहकः ।।२६

तं ् वा जलद यामं पीतकौशेयवाससम् ।


ल बबा ं ता ा ं सु मतं चराननम् ।।२७

वलंकृतमुखा भोजं नीलव ालका ल भः ।


कृ णं म वा यो ीता न ल यु त त ह ।।२८

अवधाय शनैरीष ै ल येन यो षतः ।


उपज मुः मु दताः स ीर नं सु व मताः ।।२९

अथ त ा सतापांगी वैदभ व गुभा षणी ।


अ मरत् वसुतं न ं नेह नुतपयोधरा ।।३०

को वयं नरवै यः क य वा कमले णः ।


धृतः कया वा जठरे केयं ल धा वनेन वा ।।३१

मम चा या मजो न ो नीतो यः सू तकागृहात् ।


एत ु यवयो पो य द जीव त कु चत् ।।३२

कथं वनेन सं ा तं सा यं शा ध वनः ।


आकृ यावयवैग या वरहासावलोकनैः ।।३३
परी त्! आकाशम अपनी गोरी प नीके साथ साँवले ु नजीक ऐसी शोभा हो रही
थी, मानो बजली और मेघका जोड़ा हो। इस कार उ ह ने भगवान्के उस उ म अ तःपुरम
वेश कया जसम सैकड़ े रम णयाँ नवास करती थ ।।२६।। अ तः-पुरक ना रय ने
दे खा क ु नजीका शरीर वषाकालीन मेघके समान यामवण है। रेशमी पीता बर धारण
कये ए ह। घुटन तक लंबी भुजाएँ ह। रतनारे ने ह और सु दर मुखपर म द-म द
मुसकानक अनूठ ही छटा है। उनके मुखार व दपर घुँघराली और नीली अलक इस कार
शोभायमान हो रही ह, मानो भ र खेल रहे ह । वे सब उ ह ीकृ ण समझकर सकुचा गय
और घर म इधर-उधर लुक- छप गय ।।२७-२८।। फर धीरे-धीरे य को यह मालूम हो
गया क ये ीकृ ण नह ह। य क उनक अपे ा इनम कुछ वल णता अव य है। अब वे
अ य त आन द और व मयसे भरकर इस े द प तके पास आ गय ।।२९।। इसी समय
वहाँ मणीजी आ प ँच । परी त्! उनके ने कजरारे और वाणी अ य त मधुर थी। इस
नवीन द प तको दे खते ही उ ह अपने खोये ए पु क याद हो आयी। वा स य नेहक
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अ धकतासे उनके तन से ध झरने लगा ।।३०।।
मणीजी सोचने लग —‘यह नरर न कौन है? यह कमलनयन कसका पु है? कस
बड़भा गनीने इसे अपने गभम धारण कया होगा? इसे यह कौन सौभा यवती प नी- पम
ा त ई है? ।।३१।। मेरा भी एक न हा-सा शशु खो गया था। न जाने कौन उसे
सू तकागृहसे उठा ले गया! य द वह कह जीता-जागता होगा तो उसक अव था तथा प
भी इसीके समान आ होगा ।।३२।। म तो इस बातसे हैरान ँ क इसे भगवान्
यामसु दरक -सी प-रेखा, अंग क गठन, चाल-ढाल, मुसकान- चतवन और बोल-चाल
कहाँसे ा त ई? ।।३३।। हो-न-हो यह वही बालक है, जसे मने अपने गभम धारण कया
था; य क वभावसे ही मेरा नेह इसके त उमड़ रहा है और मेरी बाय बाँह भी फड़क
रही है’ ।।३४।।

स एव वा भवे ूनं यो मे गभ धृतोऽभकः ।


अमु मन् ी तर धका वामः फुर त मे भुजः ।।३४

एवं मीमांसमानायां वैद या दे वक सुतः ।


दे व यानक यामु म ोक आगमत् ।।३५

व ाताथ ऽ प भगवां तू णीमास जनादनः ।


नारदोऽकथयत् सव श बराहरणा दकम् ।।३६
त छ वा महदा य कृ णा तःपुरयो षतः ।
अ यन दन् ब न दान् न ं मृत मवागतम् ।।३७

दे वक वसुदेव कृ णरामौ तथा यः ।


द पती तौ प र व य मणी च ययुमुदम् ।।३८

न ं ु नमायातमाक य ारकौकसः ।
अहो मृत इवायातो बालो द े त हा ुवन् ।।३९

यं वै मु ः पतृस प नजेशभावा-
त मातरो यदभजन् रह ढभावाः ।
च ं न तत् खलु रमा पद ब ब ब बे
कामे मरेऽ वषये कमुता यनायः ।।४०
जस समय मणीजी इस कार सोच- वचार कर रही थ — न य और स दे हके
झूलेम झूल रही थ , उसी समय प व क त भगवान् ीकृ ण अपने माता- पता दे वक -
वसुदेवजीके साथ वहाँ पधारे ।।३५।। भगवान् ीकृ ण सब कुछ जानते थे। पर तु वे कुछ न
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बोले, चुपचाप खड़े रहे। इतनेम ही नारदजी वहाँ आ प ँचे और उ ह ने ु नजीको
श बरासुरका हर ले जाना, समु म फक दे ना आ द जतनी भी घटनाएँ घ टत ई थ , वे सब
कह सुनाय ।।३६।। नारदजीके ारा यह महान् आ यमयी घटना सुनकर भगवान्
ीकृ णके अ तःपुरक याँ च कत हो गय और ब त वष तक खोये रहनेके बाद लौटे ए
ु नजीका इस कार अ भन दन करने लग , मानो कोई मरकर जी उठा हो ।।३७।।
दे वक जी, वसुदेवजी, भगवान् ीकृ ण, बलरामजी, मणीजी और याँ—सब उस
नवद प तको दयसे लगाकर ब त ही आन दत ए ।।३८।। जब ारकावासी नर-
ना रय को यह मालूम आ क खोये ए ु नजी लौट आये ह तब वे पर पर कहने लगे
‘अहो, कैसे सौभा यक बात है क यह बालक मानो मरकर फर लौट आया’ ।।३९।।
परी त्! ु नजीका प-रंग भगवान् ीकृ णसे इतना मलता-जुलता था क उ ह
दे खकर उनक माताएँ भी उ ह अपना प तदे व ीकृ ण समझकर मधुरभावम म न हो जाती
थ और उनके सामनेसे हटकर एका तम चली जाती थ ! ी नकेतन भगवान्के
त ब ब व प कामावतार भगवान् ु नके द ख जानेपर ऐसा होना कोई आ यक बात
नह है। फर उ ह दे खकर सरी य क व च दशा हो जाती थी, इसम तो कहना ही या
है ।।४०।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध ु नो प न पणं
नाम प चप चाश मोऽ यायः ।।५५।।

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अथ षट् प चाश मोऽ यायः
यम तकम णक कथा, जा बवती और स यभामाके साथ
ीकृ णका ववाह
ीशुक उवाच
स ा जतः वतनयां कृ णाय कृत क बषः ।
यम तकेन म णना वयमु य द वान् ।।१
राजोवाच
स ा जतः कमकरोद् न् कृ ण य क बषम् ।
यम तकः कुत त य क माद् द ा सुता हरेः ।।२
ीशुक उवाच
आसीत् स ा जतः सूय भ य परमः सखा ।
ीत त मै म ण ादात् सूय तु ः यम तकम् ।।३

स तं ब न् म ण क ठे ाजमानो यथा र वः ।
व ो ारकां राजं तेजसा नोपल तः ।।४

तं वलो य जना रा ेजसा मु यः ।


द तेऽ भ ै गवते शशंसुः सूयशं कताः ।।५

नारायण नम तेऽ तु शंखच गदाधर ।


दामोदरार व दा गो व द य न दन ।।६

एष आया त स वता वां द ज ु ग पते ।


मु णन् गभ तच े ण नृणां च ंू ष त मगुः ।।७

न व व छ त ते माग लो यां वबुधषभाः ।


ा वा गूढं य षु ु ं वां या यजः भो ।।८
ीशुक उवाच
नश य बालवचनं ह या बुजलोचनः ।
ाह नासौ र वदवः स ा ज म णना वलन् ।।९

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ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! स ा जत्ने ीकृ णको झूठा कलंक लगाया
था। फर उस अपराधका माजन करनेके लये उसने वयं यम तकम ण स हत अपनी
क या स यभामा भगवान् ीकृ णको स प द ।।१।।
राजा परी त्ने पूछा—भगवन्! स ा जत्ने भगवान् ीकृ णका या अपराध
कया था? उसे यम तकम ण कहाँसे मली? और उसने अपनी क या उ ह य
द ? ।।२।।
ीशुकदे वजीने कहा—परी त्! स ा जत् भगवान् सूयका ब त बड़ा भ था।
वे उसक भ से स होकर उसके ब त बड़े म बन गये थे। सूय भगवान्ने ही
स होकर बड़े ेमसे उसे यम तकम ण द थी ।।३।। स ा जत् उस म णको गलेम
धारणकर ऐसा चमकने लगा, मानो वयं सूय ही हो। परी त्! जब स ा जत् ारकाम
आया, तब अ य त तेज वताके कारण लोग उसे पहचान न सके ।।४।। रसे ही उसे
दे खकर लोग क आँख उसके तेजसे च धया गय । लोग ने समझा क कदा चत् वयं
भगवान् सूय आ रहे ह। उन लोग ने भगवान्के पास आकर उ ह इस बातक सूचना द ।
उस समय भगवान् ीकृ ण चौसर खेल रहे थे ।।५।। लोग ने कहा—‘शंख-च -
गदाधारी नारायण! कमलनयन दामोदर! य वंश शरोम ण गो व द! आपको नम कार
है ।।६।। जगद र! दे खये! अपनी चमक ली करण से लोग के ने को च धयाते ए
च डर म भगवान् सूय आपका दशन करने आ रहे ह ।।७।। भो! सभी े दे वता
लोक म आपक ा तका माग ढूँ ढ़ते रहते ह; क तु उसे पाते नह । आज आपको
य वंशम छपा आ जानकर वयं सूयनारायण आपका दशन करने आ रहे ह’ ।।८।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! अनजान पु ष क यह बात सुनकर
कमलनयन भगवान् ीकृ ण हँसने लगे। उ ह ने कहा—‘अरे, ये सूयदे व नह ह। यह तो
स ा जत् है, जो म णके कारण इतना चमक रहा है ।।९।। इसके बाद स ा जत् अपने
समृ घरम चला आया। घरपर उसके शुभागमनके उपल यम मंगल-उ सव मनाया जा
रहा था। उसने ा ण के ारा यम तकम णको एक दे वम दरम था पत करा
दया ।।१०।। परी त्! वह म ण त दन आठ भार* सोना दया करती थी। और जहाँ
वह पू जत होकर रहती थी वहाँ भ , महामारी, हपीडा, सपभय, मान सक और
शारी रक था तथा माया- वय का उप व आ द कोई भी अशुभ नह होता था ।।११।।
एक बार भगवान् ीकृ णने संगवश कहा—‘स ा जत्! तुम अपनी म ण राजा
उ सेनको दे दो।’ पर तु वह इतना अथलोलुप—लोभी था क भगवान्क आ ाका
उ लंघन होगा, इसका कुछ भी वचार न करके उसे अ वीकार कर दया ।।१२।।

स ा जत् वगृहं ीमत् कृतकौतुकमंगलम् ।


व य दे वसदने म ण व ै यवेशयत् ।।१०

दने दने वणभारान ौ स सृज त भो ।


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भ माय र ा न सपा ध ाधयोऽशुभाः ।
न स त मा यन त य ा तेऽ य चतो म णः ।।११

स या चतो म ण वा प य राजाय शौ रणा ।


नैवाथकामुकः ादाद् या ञाभंगमतकयन् ।।१२

तमेकदा म ण क ठे तमु य महा भम् ।


सेनो हयमा मृगयां चरद् वने ।।१३

सेनं सहयं ह वा म णमा छ केसरी ।


ग र वश ा बवता नहतो म ण म छता ।।१४

सोऽ प च े कुमार य म ण डनकं बले ।


अप यन् ातरं ाता स ा जत् पयत यत ।।१५

ायः कृ णेन नहतो म ण ीवो वनं गतः ।


ाता ममे त त छ वा कण कणऽजप नाः ।।१६
एक दन स ा जत्के भाई सेनने उस परम काशमयी म णको अपने गलेम
धारण कर लया और फर वह घोड़ेपर सवार होकर शकार खेलने वनम चला
गया ।।१३।। वहाँ एक सहने घोड़े स हत सेनको मार डाला और उस म णको छ न
लया। वह अभी पवतक गुफाम वेश कर ही रहा था क म णके लये ऋ राज
जा बवान्ने उसे मार डाला ।।१४।। उ ह ने वह म ण अपनी गुफाम ले जाकर ब चेको
खेलनेके लये दे द । अपने भाई सेनके न लौटनेसे उसके भाई स ा जत्को बड़ा ःख
आ ।।१५।। वह कहने लगा, ‘ब त स भव है ीकृ णने ही मेरे भाईको मार डाला हो;
य क वह म ण गलेम डालकर वनम गया था।’ स ा जत्क यह बात सुनकर लोग
आपसम काना-फूसी करने लगे ।।१६।। जब भगवान् ीकृ णने सुना क यह
कलंकका ट का मेरे ही सर लगाया गया है, तब वे उसे धो-बहानेके उ े यसे नगरके
कुछ स य पु ष को साथ लेकर सेनको ढूँ ढ़नेके लये वनम गये ।।१७।। वहाँ खोजते-
खोजते लोग ने दे खा क घोर जंगलम सहने सेन और उसके घोड़ेको मार डाला है।
जब वे लोग सहके पैर का च दे खते ए आगे बढ़े , तब उन लोग ने यह भी दे खा क
पवतपर एक रीछने सहको भी मार डाला है ।।१८।।

भगवां त प ु य यशो ल तमा म न ।


मा ु सेनपदवीम वप त नागरैः ।।१७

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हतं सेनम ं च वी य केस रणा वने ।
तं चा पृ े नहतमृ ेण द शुजनाः ।।१८

ऋ राज बलं भीमम धेन तमसाऽऽवृतम् ।


एको ववेश भगवानव था य ब हः जाः ।।१९

त ् वा म ण े ं बाल डनकं कृतम् ।


हतु कृतम त त म वत थेऽभका तके ।।२०

तमपूव नरं ् वा धा ी चु ोश भीतवत् ।


त छ वा य वत् ु ो जा बवान् ब लनां वरः ।।२१

स वै भगवता तेन युयुधे वा मनाऽऽ मनः ।


पु षं ाकृतं म वा कु पतो नानुभाव वत् ।।२२

यु ं सुतुमुलमुभयो व जगीषतोः ।
आयुधा म मैद भः ाथ येनयो रव ।।२३

आसी द ा वशाह मतरेतरमु भः ।


व न पेषप षैर व ममह नशम् ।।२४

कृ णमु व न पात न प ांगो ब धनः ।


ीणस वः व गा तमाहातीव व मतः ।।२५
भगवान् ीकृ णने सब लोग को बाहर ही बठा दया और अकेले ही घोर
अ धकारसे भरी ई ऋ राजक भयंकर गुफाम वेश कया ।।१९।। भगवान्ने वहाँ
जाकर दे खा क े म ण यम तकको ब च का खलौना बना दया गया है। वे उसे हर
लेनेक इ छासे ब चेके पास जा खड़े ए ।।२०।। उस गुफाम एक अप र चत मनु यको
दे खकर ब चेक धाय भयभीतक भाँ त च ला उठ । उसक च लाहट सुनकर परम
बली ऋ राज जा बवान् ो धत होकर वहाँ दौड़ आये ।।२१।। परी त्! जा बवान्
उस समय कु पत हो रहे थे। उ ह भगवान्क म हमा, उनके भावका पता न चला।
उ ह ने उ ह एक साधारण मनु य समझ लया और वे अपने वामी भगवान् ीकृ णसे
यु करने लगे ।।२२।। जस कार मांसके लये दो बाज आपसम लड़ते ह, वैसे ही
वजया भलाषी भगवान् ीकृ ण और जा बवान् आपसम घमासान यु करने लगे।
पहले तो उ ह ने अ -श का हार कया, फर शला का, त प ात् वे वृ
उखाड़कर एक- सरेपर फकने लगे। अ तम उनम बा यु होने लगा ।।२३।। परी त्!
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व - हारके समान कठोर घूँस से आपसम वे अ ाईस दनतक बना व ाम कये
रात- दन लड़ते रहे ।।२४।। अ तम भगवान् ीकृ णके घूँस क चोटसे जा बवान्के
शरीरक एक-एक गाँठ टू ट-फूट गयी। उ साह जाता रहा। शरीर पसीनेसे लथपथ हो
गया। तब उ ह ने अ य त व मत—च कत होकर भगवान् ीकृ णसे कहा— ।।२५।।
‘ भो! म जान गया। आप ही सम त ा णय के वामी, र क, पुराणपु ष भगवान्
व णु ह। आप ही सबके ाण, इ यबल, मनोबल और शरीरबल ह ।।२६।। आप
व के रच यता ा आ दको भी बनानेवाले ह। बनाये ए पदाथ म भी स ा पसे
आप ही वराजमान ह। कालके जतने भी अवयव ह, उनके नयामक परम काल आप
ही ह और शरीर-भेदसे भ - भ तीयमान अ तरा मा के परम आ मा भी आप ही
ह ।।२७।। भो! मुझे मरण है, आपने अपने ने म त नक-सा ोधका भाव लेकर
तरछ से समु क ओर दे खा था। उस समय समु के अंदर रहनेवाले बड़े-बड़े नाक
(घ ड़याल) और मगरम छ ु ध हो गये थे और समु ने आपको माग दे दया था। तब
आपने उसपर सेतु बाँधकर सु दर यशक थापना क तथा लंकाका व वंस कया।
आपके बाण से कट-कटकर रा स के सर पृ वीपर लोट रहे थे (अव य ही आप मेरे वे
ही ‘रामजी’ ीकृ णके पम आये ह)’ ।।२८।। परी त्! जब ऋ राज जा बवान्ने
भगवान्को पहचान लया, तब कमलनयन ीकृ णने अपने परम क याणकारी शीतल
करकमलको उनके शरीरपर फेर दया और फर अहैतुक कृपासे भरकर ेम-ग भीर
वाणीसे अपने भ जा बवान्जीसे कहा— ।।२९-३०।। ‘ऋ राज! हम म णके लये
ही तु हारी इस गुफाम आये ह। इस म णके ारा म अपनेपर लगे झूठे कलंकको
मटाना चाहता ँ’ ।।३१।। भगवान्के ऐसा कहनेपर जा बवान्ने बड़े आन दसे उनक
पूजा करनेके लये अपनी क या कुमारी जा बवतीको म णके साथ उनके चरण म
सम पत कर दया ।।३२।।

जाने वां सवभूतानां ाण ओजः सहो बलम् ।


व णुं पुराणपु षं भ व णुमधी रम् ।।२६

वं ह व सृजां ा सृ यानाम प य च सत् ।


कालः कलयतामीशः पर आ मा तथाऽऽ मनाम् ।।२७

य येष क लतरोषकटा मो ै-
व मा दशत् ु भतन त म गलोऽ धः ।
सेतुः कृतः वयश उ व लता च लंका
र ः शरां स भु व पेतु रषु ता न ।।२८

इ त व ात व ानमृ राजानम युतः ।

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ाजहार महाराज भगवान् दे वक सुतः ।।२९

अ भमृ यार व दा ः पा णना शंकरेण तम् ।


कृपया परया भ ं मे ग भीरया गरा ।।३०

म णहेतो रह ा ता वयमृ पते बलम् ।


म या भशापं मृज ा मनो म णनामुना ।।३१

इ यु ः वां हतरं क यां जा बवत मुदा ।


अहणाथ स म णना कृ णायोपजहार ह ।।३२

अ ् वा नगमं शौरेः व य बलं जनाः ।


ती य ादशाहा न ः खताः वपुरं ययुः ।।३३

नश य दे वक दे वी म यानक भः ।
सु दो ातयोऽशोचन् बलात् कृ णम नगतम् ।।३४
भगवान् ीकृ ण जन लोग को गुफाके बाहर छोड़ गये थे, उ ह ने बारह दनतक
उनक ती ा क । पर तु जब उ ह ने दे खा क अबतक वे गुफामसे नह नकले, तब वे
अ य त ःखी होकर ारकाको लौट गये ।।३३।। वहाँ जब माता दे वक , मणी,
वसुदेवजी तथा अ य स ब धय और कुटु बय को यह मालूम आ क ीकृ ण
गुफामसे नह नकले, तब उ ह बड़ा शोक आ ।।३४।। सभी ारकावासी अ य त
ः खत होकर स ा जत्को भला-बुरा कहने लगे और भगवान् ीकृ णक ा तके
लये महामाया गादे वीक शरणम गये, उनक उपासना करने लगे ।।३५।। उनक
उपासनासे गादे वी स और उ ह ने आशीवाद दया। उसी समय उनके बीचम
म ण और अपनी नववधू जा बवतीके साथ सफलमनोरथ होकर ीकृ ण सबको स
करते ए कट हो गये ।।३६।। सभी ारकावासी भगवान् ीकृ णको प नीके साथ
और गलेम म ण धारण कये ए दे खकर परमान दम म न हो गये, मानो कोई मरकर
लौट आया हो ।।३७।।

स ा जतं शप त ते ः खता ारकौकसः ।


उपत थुमहामायां गा कृ णोपल धये ।।३५

तेषां तु दे ुप थानात् या द ा शषा स च ।


ा बभूव स ाथः सदारो हषयन् ह रः ।।३६

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उपल य षीकेशं मृतं पुन रवागतम् ।
सह प या म ण ीवं सव जातमहो सवाः ।।३७

स ा जतं समा य सभायां राजस धौ ।


ा तं चा याय भगवात् म ण त मै यवेदयत् ।।३८

स चा त ी डतो र नं गृही वावाङ् मुख ततः ।


अनुत यमानो भवनमगमत् वेन पा मना ।।३९

सोऽनु यायं तदे वाघं बलव हाकुलः ।


कथं मृजा या मरजः सीदे द ् वा युतः कथम् ।।४०

क कृ वा साधु म ं या शपेद ् वा जनो यथा ।


अद घदशनं ु ं मूढं वणलोलुपम् ।।४१

दा ये हतरं त मै ीर नं र नमेव च ।
उपायोऽयं समीचीन त य शा तन चा यथा ।।४२

एवं व सतो बु या स ा जत् वसुतां शुभाम् ।


म ण च वयमु य कृ णायोपजहार ह ।।४३
तदन तर भगवान्ने स ा जत्को राजसभाम महाराज उ सेनके पास बुलवाया और
जस कार म ण ा त ई थी, वह सब कथा सुनाकर उ ह ने वह म ण स ा जत्को
स प द ।।३८।। स ा जत् अ य त ल जत हो गया। म ण तो उसने ले ली, पर तु
उसका मुँह नीचेक ओर लटक गया। अपने अपराधपर उसे बड़ा प ा ाप हो रहा था,
कसी कार वह अपने घर प ँचा ।।३९।।
उसके मनक आँख के सामने नर तर अपना अपराध नाचता रहता। बलवान्के
साथ वरोध करनेके कारण वह भयभीत भी हो गया था। अब वह यही सोचता रहता
क ‘म अपने अपराधका माजन कैसे क ँ ? मुझपर भगवान् ीकृ ण कैसे स
ह ।।४०।। म ऐसा कौन-सा काम क ँ , जससे मेरा क याण हो और लोग मुझे कोस
नह । सचमुच म अ रदश , ु ँ। धनके लोभसे म बड़ी मूढ़ताका काम कर
बैठा ।।४१।। अब म रम णय म र नके समान अपनी क या स यभामा और वह
यम तकम ण दोन ही ीकृ णको दे ँ । यह उपाय ब त अ छा है। इसीसे मेरे
अपराधका माजन हो सकता है, और कोई उपाय नह है’ ।।४२।। स ा जत्ने अपनी
ववेक-बु से ऐसा न य करके वयं ही इसके लये उ ोग कया और अपनी क या
तथा यम तकम ण दोन ही ले जाकर ीकृ णको अपण कर द ।।४३।। स यभामा
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शील- वभाव, सु दरता, उदारता आ द सद्गुण से स प थ । ब त-से लोग चाहते थे
क स यभामा हम मल और उन लोग ने उ ह माँगा भी था। पर तु अब भगवान्
ीकृ णने व धपूवक उनका पा ण हण कया ।।४४।। परी त्! भगवान् ीकृ णने
स ा जत्से कहा—‘हम यम तकम ण न लगे। आप सूयभगवान्के भ ह, इस लये
वह आपके ही पास रहे। हम तो केवल उसके फलके, अथात् उससे नकले ए सोनेके
अ धकारी ह। वही आप हम दे दया कर’ ।।४५।।

तां स यभामां भगवानुपयेमे यथा व ध ।


ब भया चतां शील पौदायगुणा वताम् ।।४४

भगवानाह न म ण ती छामो वयं नृप ।


तवा तां दे वभ य वयं च फलभा गनः ।।४५
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध
यम तकोपा याने षट् प चाश मोऽ यायः ।।५६।।

*भारका प रमाण इस कार है—


चतु भ ह भगुजं गुंजा पंच पणं पणान् ।
अ ौ धरणम ौ च कष तां तुरः पलम् ।
तुलां पलशतं ा भारं या श त तुलाः ।।
अथात् ‘चार ी ह (धान) क एक गुंजा, पाँच गुंजाका एक पण, आठ पणका
एक धरण, आठ धरणका एक कष, चार कषका एक पल, सौ पलक एक तुला
और बीस तुलाका एक भार कहलाता है।’

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अथ स तप चाश मोऽ यायः
यम तक-हरण, शतध वाका उ ार और अ ू रजीको फरसे ारका
बुलाना
ीशुक उवाच
व ाताथ ऽ प गो व दो द धानाक य पा डवान् ।
कु त च कु यकरणे सहरामो ययौ कु न् ।।१

भी मं कृपं स व रं गा धार ोणमेव च ।


तु य ःखौ च संग य हा क म त होचतुः ।।२

ल वैतद तरं राजन् शतध वानमूचतुः ।


अ ू रकृतवमाणौ म णः क मा गृ ते ।।३

योऽ म यं सं त ु य क यार नं वग नः ।
कृ णायादा स ा जत् क माद् ातरम वयात् ।।४
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! य प भगवान् ीकृ णको इस बातका पता था क
ला ागृहक आगसे पा डव का बाल भी बाँका नह आ है, तथा प जब उ ह ने सुना क
कु ती और पा डव जल मरे, तब उस समयका कुल-पर परो चत वहार करनेके लये वे
बलरामजीके साथ ह तनापुर गये ।।१।। वहाँ जाकर भी म पतामह, कृपाचाय, व र,
गा धारी और ोणाचायसे मलकर उनके साथ समवेदना—सहानुभू त कट क और उन
लोग से कहने लगे—‘हाय-हाय! यह तो बड़े ही ःखक बात ई’ ।।२।।
भगवान् ीकृ णके ह तनापुर चले जानेसे ारकाम अ ू र और कृतवमाको अवसर
मल गया। उन लोग ने शतध वासे आकर कहा—‘तुम स ा जत्से म ण य नह छ न
लेते? ।।३।। स ा जत्ने अपनी े क या स यभामाका ववाह हमसे करनेका वचन दया
था और अब उसने हमलोग का तर कार करके उसे ीकृ णके साथ ाह दया है। अब
स ा जत् भी अपने भाई सेनक तरह य न यमपुरीम जाय?’ ।।४।। शतध वा पापी था
और अब तो उसक मृ यु भी उसके सरपर नाच रही थी। अ ू र और कृतवमाके इस कार
बहकानेपर शतध वा उनक बात म आ गया और उस महा ने लोभवश सोये ए
स ा जत्को मार डाला ।।५।। इस समय याँ अनाथके समान रोने- च लाने लग ; पर तु
शतध वाने उनक ओर त नक भी यान न दया; जैसे कसाई पशु क ह या कर डालता है,
वैसे ही वह स ा जत्को मारकर और म ण लेकर वहाँसे च पत हो गया ।।६।।

एवं भ म त ता यां स ा जतमस मः ।


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शयानमवधी लोभात्स पापः ीणजी वतः ।।५

ीणां व ोशमानानां द तीनामनाथवत् ।


ह वा पशून् सौ नकव म णमादाय ज मवान् ।।६

स यभामा च पतरं हतं वी य शुचा पता ।


लप ात ताते त हा हता मी त मु ती ।।७

तैल ो यां मृतं ा य जगाम गजसा यम् ।


कृ णाय व दताथाय त ताऽऽच यौ पतुवधम् ।।८

तदाक य रौ राज नुसृ य नृलोकताम् ।


अहो नः परमं क म य ा ौ वलेपतुः ।।९

आग य भगवां त मात् सभायः सा जः पुरम् ।


शतध वानमारेभे ह तुं हतु म ण ततः ।।१०

सोऽ प कृ णो मं ा वा भीतः ाणपरी सया ।


साहा ये कृतवमाणमयाचत स चा वीत् ।।११

नाहमी रयोः कुया हेलनं रामकृ णयोः ।


को नु ेमाय क पेत तयोवृ जनमाचरन् ।।१२
स यभामाजीको यह दे खकर क मेरे पता मार डाले गये ह, बड़ा शोक आ और वे ‘हाय
पताजी! हाय पताजी! म मारी गयी’—इस कार पुकार-पुकारकर वलाप करने लग ।
बीच-बीचम वे बेहोश हो जात और होशम आनेपर फर वलाप करने लगत ।।७।। इसके
बाद उ ह ने अपने पताके शवको तेलके कड़ाहेम रखवा दया और आप ह तनापुरको गय ।
उ ह ने बड़े ःखसे भगवान् ीकृ णको अपने पताक ह याका वृ ा त सुनाया—य प इन
बात को भगवान् ीकृ ण पहलेसे ही जानते थे ।।८।। परी त्! सवश मान् भगवान्
ीकृ ण और बलरामजीने सब सुनकर मनु य क -सी लीला करते ए अपनी आँख म आँसू
भर लये और वलाप करने लगे क ‘अहो! हम लोग पर तो यह ब त बड़ी वप आ
पड़ी!’ ।।९।। इसके बाद भगवान् ीकृ ण स यभामाजी और बलरामजीके साथ
ह तनापुरसे ारका लौट आये और शतध वाको मारने तथा उससे म ण छ ननेका उ ोग
करने लगे ।।१०।।
जब शतध वाको यह मालूम आ क भगवान् ीकृ ण मुझे मारनेका उ ोग कर रहे ह,
तब वह ब त डर गया और अपने ाण बचानेके लये उसने कृतवमासे सहायता माँगी। तब
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कृतवमाने कहा— ।।११।। ‘भगवान् ीकृ ण और बलरामजी सव-श मान् ई र ह। म
उनका सामना नह कर सकता। भला, ऐसा कौन है, जो उनके साथ वैर बाँधकर इस लोक
और परलोकम सकुशल रह सके? ।।१२।। तुम जानते हो क कंस उ ह से े ष करनेके
कारण रा यल मीको खो बैठा और अपने अनुया यय के साथ मारा गया। जरास ध-जैसे
शूरवीरको भी उनके सामने स ह बार मैदानम हारकर बना रथके ही अपनी राजधानीम लौट
जाना पड़ा था’ ।।१३।। जब कृतवमाने उसे इस कार टका-सा जवाब दे दया, तब
शतध वाने सहायताके लये अ ू रजीसे ाथना क । उ ह ने कहा—‘भाई! ऐसा कौन है, जो
सवश मान् भगवान्का बल-पौ ष जानकर भी उनसे वैर- वरोध ठाने। जो भगवान् खेल-
खेलम ही इस व क रचना, र ा और संहार करते ह तथा जो कब या करना चाहते ह—
इस बातको मायासे मो हत ा आ द व वधाता भी नह समझ पाते; ज ह ने सात
वषक अव थाम—जब वे नरे बालक थे, एक हाथसे ही ग रराज गोव नको उखाड़ लया
और जैसे न हे-न हे ब चे बरसाती छ ेको उखाड़कर हाथम रख लेते ह, वैसे ही खेल-खेलम
सात दन तक उसे उठाये रखा; म तो उन भगवान् ीकृ णको नम कार करता ँ। उनके कम
अद्भुत ह। वे अन त, अना द, एकरस और आ म व प ह। म उ ह नम कार करता
ँ’ ।।१४-१७।। जब इस कार अ ू रजीने भी उसे कोरा जवाब दे दया, तब शतध वाने
यम तक-म ण उ ह के पास रख द और आप चार सौ कोस लगातार चलनेवाले घोड़ेपर
सवार होकर वहाँसे बड़ी फुत से भागा ।।१८।।

कंसः सहानुगोऽपीतो यद् े षा या जतः या ।


जरास धः स तदश संयुगान् वरथो गतः ।।१३

या यातः स चा ू रं पा ण ाहमयाचत ।
सोऽ याह को व येत व ानी रयोबलम् ।।१४

य इदं लीलया व ं सृज यव त ह त च ।


चे ां व सृजो य य न व म हताजया ।।१५

यः स तहायनः शैलमु पा ैकेन पा णना ।


दधार लीलया बाल उ छली मवाभकः ।।१६

नम त मै भगवते कृ णाया तकमणे ।


अन ताया दभूताय कूट थाया मने नमः ।।१७

या यातः स तेना प शतध वा महाम णम् ।


त मन् य या मा शतयोजनगं ययौ ।।१८

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ग ड वजमा रथं रामजनादनौ ।
अ वयातां महावेगैर ै राजन् गु हम् ।।१९

म थलायामुपवने वसृ य प ततं हयम् ।


प यामधावत् स तः कृ णोऽ य व वद् षा ।।२०

पदातेभगवां त य पदा त त मने मना ।


च े ण शर उ कृ य वाससो चनो म णम् ।।२१
परी त्! भगवान् ीकृ ण और बलराम दोन भाई अपने उस रथपर सवार ए, जसपर
ग ड़ च से च त वजा फहरा रही थी और बड़े वेगवाले घोड़े जुते ए थे। अब उ ह ने
अपने शुर स ा जत्को मारनेवाले शतध वाका पीछा कया ।।१९।। म थलापुरीके नकट
एक उपवनम शतध वाका घोड़ा गर पड़ा, अब वह उसे छोड़कर पैदल ही भागा। वह अ य त
भयभीत हो गया था। भगवान् ीकृ ण भी ोध करके उसके पीछे दौड़े ।।२०।। शतध वा
पैदल ही भाग रहा था, इस लये भगवान्ने भी पैदल ही दौड़कर अपने ती ण धारवाले च से
उसका सर उतार लया और उसके व म यम तकम णको ढूँ ढ़ा ।।२१।। पर तु जब म ण
मली नह तब भगवान् ीकृ णने बड़े भाई बलरामजीके पास आकर कहा—‘हमने
शतध वाको थ ही मारा। य क उसके पास यम तकम ण तो है ही नह ’ ।।२२।।
बलरामजीने कहा—‘इसम स दे ह नह क शतध वाने यम तकम णको कसी-न- कसीके
पास रख दया है। अब तुम ारका जाओ और उसका पता लगाओ ।।२३।। म वदे हराजसे
मलना चाहता ँ; य क वे मेरे ब त ही य म ह।’ परी त्! यह कहकर
य वंश शरोम ण बलरामजी म थला नगरीम चले गये ।।२४।। जब म थलानरेशने दे खा क
पूजनीय बलरामजी महाराज पधारे ह, तब उनका दय आन दसे भर गया। उ ह ने झटपट
अपने आसनसे उठकर अनेक साम य से उनक पूजा क ।।२५।। इसके बाद भगवान्
बलरामजी कई वष तक म थलापुरीम ही रहे। महा मा जनकने बड़े ेम और स मानसे उ ह
रखा। इसके बाद समयपर धृतरा के पु य धनने बलरामजीसे गदायु क श ा हण
क ।।२६।। अपनी या स यभामाका य काय करके भगवान् ीकृ ण ारका लौट आये
और उनको यह समाचार सुना दया क शतध वाको मार डाला गया, पर तु यम तकम ण
उसके पास न मली ।।२७।। इसके बाद उ ह ने भाई-ब धु के साथ अपने शुर
स ा जत्क वे सब औ वदै हक याएँ करवाय , जनसे मृतक ाणीका परलोक सुधरता
है ।।२८।।

अल धम णराग य कृ ण आहा जा तकम् ।


वृथा हतः शतधनुम ण त न व ते ।।२२

तत आह बलो नूनं स म णः शतध वना ।

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क मं त् पु षे य त तम वेष पुरं ज ।।२३

अहं वदे ह म छा म ु ं यतमं मम ।


इ यु वा म थलां राजन् ववेश य न दनः ।।२४

तं ् वा सहसो थाय मै थलः ीतमानसः ।


अहयामास व धवदहणीयं समहणैः ।।२५

उवास त यां क त च म थलायां समा वभुः ।


मा नतः ी तयु े न जनकेन महा मना ।
ततोऽ श द् गदां काले धातरा ः सुयोधनः ।।२६

केशवो ारकामे य नधनं शतध वनः ।


अ ा तं च मणेः ाह यायाः यकृद् वभुः ।।२७

ततः स कारयामास या ब धोहत य वै ।


साकं सु भगवान् या याः युः सा परा यकाः ।।२८

अ ू रः कृतवमा च ु वा शतधनोवधम् ।
ूषतुभय व तौ ारकायाः योजकौ ।।२९

अ ू रे ो षतेऽ र ा यासन् वै ारकौकसाम् ।


शारीरा मानसा तापा मु द वकभौ तकाः ।।३०

इ यंगोप दश येके व मृ य ागुदा तम् ।


मु नवास नवासे क घटे ता र दशनम् ।।३१
अ ू र और कृतवमाने शतध वाको स ा जत्के वधके लये उ े जत कया था। इस लये
जब उ ह ने सुना क भगवान् ीकृ णने शतध वाको मार डाला है, तब वे अ य त भयभीत
होकर ारकासे भाग खड़े ए ।।२९।। परी त्! कुछ लोग ऐसा मानते ह क अ ू रके
ारकासे चले जानेपर ारकावा सय को ब त कारके अ न और अ र का सामना
करना पड़ा। दै वक और भौ तक न म से बार-बार वहाँके नाग रक को शारी रक और
मान सक क सहना पड़ा। पर तु जो लोग ऐसा कहते ह, वे पहले कही ई बात को भूल
जाते ह। भला, यह भी कभी स भव है क जन भगवान् ीकृ णम सम त ऋ ष-मु न नवास
करते ह, उनके नवास थान ारकाम उनके रहते कोई उप व खड़ा हो जाय ।।३०-३१।।
उस समय नगरके बड़े-बूढ़े लोग ने कहा—‘एक बार काशी-नरेशके रा यम वषा नह हो रही
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थी, सूखा पड़ गया था। तब उ ह ने अपने रा यम आये ए अ ू रके पता फ कको अपनी
पु ी गा दनी याह द । तब उस दे शम वषा ई। अ ू र भी फ कके ही पु ह और इनका
भाव भी वैसा ही है। इस लये जहाँ-जहाँ अ ू र रहते ह, वहाँ-वहाँ खूब वषा होती है तथा
कसी कारका क और महामारी आ द उप व नह होते।’ परी त्! उन लोग क बात
सुनकर भगवान्ने सोचा क ‘इस उप वका यही कारण नह है’ यह जानकर भी भगवान्ने
त भेजकर अ ू रजीको ढुँ ढ़वाया और आनेपर उनसे बातचीत क ।।३२-३४।। भगवान्ने
उनका खूब वागत-स कार कया और मीठ -मीठ ेमक बात कहकर उनसे स भाषण
कया। परी त्! भगवान् सबके च का एक-एक संक प दे खते रहते ह। इस लये उ ह ने
मुसकराते ए अ ू रसे कहा— ।।३५।। ‘चाचाजी! आप दान-धमके पालक ह। हम यह बात
पहलेसे ही मालूम है क शतध वा आपके पास वह यम तकम ण छोड़ गया है, जो बड़ी ही
काशमान और धन दे नेवाली है ।।३६।। आप जानते ही ह क स ा जत्के कोई पु नह है।
इस लये उनक लड़क के लड़के—उनके नाती ही उ ह तलांज ल और प डदान करगे,
उनका ऋण चुकायगे और जो कुछ बच रहेगा, उसके उ रा धकारी ह गे ।।३७।। इस कार
शा ीय से य प यम तकम ण हमारे पु को ही मलनी चा हये, तथा प वह म ण
आपके ही पास रहे। य क आप बड़े त न और प व ा मा ह तथा सर के लये उस
म णको रखना अ य त क ठन भी है। पर तु हमारे सामने एक ब त बड़ी क ठनाई यह आ
गयी है क हमारे बड़े भाई बलरामजी म णके स ब धम मेरी बातका पूरा व ास नह
करते ।।३८।। इस लये महाभा यवान् अ ू रजी! आप वह म ण दखाकर हमारे इ - म —
बलरामजी, स यभामा और जा बवतीका स दे ह र कर द जये और उनके दयम शा तका
संचार क जये। हम पता है क उसी म णके तापसे आजकल आप लगातार ही ऐसे य
करते रहते ह, जनम सोनेक वे दयाँ बनती ह’ ।।३९।। परी त्! जब भगवान् ीकृ णने
इस कार सा वना दे कर उ ह समझाया-बुझाया तब अ ू रजीने व म लपेट ई सूयके
समान काशमान वह म ण नकाली और भगवान् ीकृ णको दे द ।।४०।। भगवान्
ीकृ णने वह यम तकम ण अपने जा त-भाइय को दखाकर अपना कलंक र कया और
उसे अपने पास रखनेम समथ होनेपर भी पुनः अ ू रजीको लौटा दया ।।४१।।

दे वेऽवष त काशीशः फ कायागताय वै ।


वसुतां गा दन ादात् ततोऽवषत् म का शषु ।।३२

त सुत त भावोऽसाव ू रो य य ह ।
दे वोऽ भवषते त नोपतापा न मा रकाः ।।३३

इ त वृ वचः ु वा नैताव दह कारणम् ।


इ त म वा समाना य ाहा ू रं जनादनः ।।३४

पूज य वा भभा यैनं कथ य वा याः कथाः ।


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व ाता खल च ः मयमान उवाच ह ।।३५

ननु दानपते य त व या ते शतध वना ।


यम तको म णः ीमान् व दतः पूवमेव नः ।।३६

स ा जतोऽनप य वाद् गृ यु हतुः सुताः ।


दायं ननीयापः प डान् वमु यण च शे षतम् ।।३७

तथा प धर व यै व या तां सु ते म णः ।
क तु माम जः स यङ् न ये त म ण त ।।३८

दशय व महाभाग ब धूनां शा तमावह ।


अ ु छ ा मखा तेऽ वत ते मवेदयः ।।३९

एवं साम भराल धः फ कतनयो म णम् ।


आदाय वाससा छ ं ददौ सूयसम भम् ।।४०

यम तकं दश य वा ा त यो रज आ मनः ।
वमृ य म णना भूय त मै यपयत् भुः ।।४१

य वेतद् भगवत ई र य व णो-


व या ं वृ जनहरं सुमंगलं च ।
आ यानं पठ त शृणो यनु मरेद ् वा
क त रतमपो या त शा तम् ।।४२
सवश मान् सव ापक भगवान् ीकृ णके परा म से प रपूण यह आ यान सम त
पाप , अपराध और कलंक का माजन करनेवाला तथा परम मंगलमय है। जो इसे पढ़ता,
सुनता अथवा मरण करता है, वह सब कारक अपक त और पाप से छू टकर शा तका
अनुभव करता है ।।४२।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध यम तकोपा याने
स तप चाश मोऽ यायः ।।५७।।

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अथा प चाश मोऽ यायः
भगवान् ीकृ णके अ या य ववाह क कथा
ीशुक उवाच
एकदा पा डवान् ु ं तीतान् पु षो मः ।
इ थं गतः ीमान् युयुधाना द भवृतः ।।१

् वा तमागतं पाथा मुकु दम खले रम् ।


उ थुयुगपद् वीराः ाणा मु य मवागतम् ।।२

प र व या युतं वीरा अंगसंगहतैनसः ।


सानुराग मतं व ं वी य त य मुदं ययुः ।।३

यु ध र य भीम य कृ वा पादा भव दनम् ।


फा गुनं प रर याथ यमा यां चा भव दतः ।।४
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! अब पा डव का पता चल गया था क वे
ला ाभवनम जले नह ह। एक बार भगवान् ीकृ ण उनसे मलनेके लये इ थ पधारे।
उनके साथ सा य क आ द ब त-से य वंशी भी थे ।।१।। जब वीर पा डव ने दे खा क
सव र भगवान् ीकृ ण पधारे ह तो जैसे ाणका संचार होनेपर सभी इ याँ सचेत हो
जाती ह, वैसे ही वे सब-के-सब एक साथ उठ खड़े ए ।।२।। वीर पा डव ने भगवान्
ीकृ णका आ लगन कया, उनके अंग-संगसे इनके सारे पाप-ताप धुल गये। भगवान्क
ेमभरी मुसकराहटसे सुशो भत मुख-सुषमा दे खकर वे आन दम म न हो गये ।।३।। भगवान्
ीकृ णने यु ध र और भीमसेनके चरण म णाम कया और अजुनको दयसे लगाया।
नकुल और सहदे वने भगवान्के चरण क व दना क ।।४।। जब भगवान् ीकृ ण े
सहासनपर वराजमान हो गये; तब परमसु दरी यामवणा ौपद , जो नव ववा हता होनेके
कारण त नक लजा रही थी, धीरे-धीरे भगवान् ीकृ णके पास आयी और उ ह णाम
कया ।।५।। पा डव ने भगवान् ीकृ णके समान ही वीर सा य कका भी वागत-स कार
और अ भन दन-व दन कया। वे एक आसनपर बैठ गये। सरे य वं शय का भी यथायो य
स कार कया गया तथा वे भी ीकृ णके चार ओर आसन पर बैठ गये ।।६।। इसके बाद
भगवान् ीकृ ण अपनी फूआ कु तीके पास गये और उनके चरण म णाम कया।
कु तीजीने अ य त नेहवश उ ह अपने दयसे लगा लया। उस समय उनके ने म ेमके
आँसू छलक आये। कु तीजीने ीकृ णसे अपने भाई-ब धु क कुशल- ेम पूछ और
भगवान्ने भी उनका यथो चत उ र दे कर उनसे उनक पु वधू ौपद और वयं उनका
कुशल-मंगल पूछा ।।७।। उस समय ेमक व लतासे कु तीजीका गला ँ ध गया था, ने से
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आँसू बह रहे थे। भगवान्के पूछनेपर उ ह अपने पहलेके लेश-पर- लेश याद आने लगे और
वे अपनेको ब त सँभालकर, जनका दशन सम त लेश का अ त करनेके लये ही आ
करता है, उन भगवान् ीकृ णसे कहने लग — ।।८।।

परमासन आसीनं कृ णा कृ णम न दता ।


नवोढा ी डता क च छनैरे या यव दत ।।५

तथैव सा य कः पाथः पू जत ा भव दतः ।


नषसादासनेऽ ये च पू जताः पयुपासत ।।६

पृथां समाग य कृता भवादन-


तया तहादा शा भर भतः ।
आपृ वां तां कुशलं सह नुषां
पतृ वसारं प रपृ बा धवः ।।७

तमाह ेमवै ल क ठा ल ु ोचना ।


मर ती तान् ब न् लेशान् लेशापाया मदशनम् ।।८

तदै व कुशलं नोऽभूत् सनाथा ते कृता वयम् ।


ातीन् नः मरता कृ ण ाता मे े षत वया ।।९

न तेऽ त वपर ा त व य सु दा मनः ।


तथा प मरतां श त् लेशान् हं स द थतः ।।१०
यु ध र उवाच
क न आच रतं ेयो न वेदाहमधी र ।
योगे राणां दश य ो ः कुमेधसाम् ।।११
‘ ीकृ ण! जस समय तुमने हमलोग को अपना कुटु बी, स ब धी समझकर मरण
कया और हमारा कुशल-मंगल जाननेके लये भाई अ ू रको भेजा, उसी समय हमारा
क याण हो गया, हम अनाथ को तुमने सनाथ कर दया ।।९।। म जानती ँ क तुम स पूण
जगत्के परम हतैषी सु द् और आ मा हो। यह अपना है और यह पराया, इस कारक
ा त तु हारे अंदर नह है। ऐसा होनेपर भी, ीकृ ण! जो सदा तु ह मरण करते ह, उनके
दयम आकर तुम बैठ जाते हो और उनक लेश-पर पराको सदाके लये मटा दे ते
हो’ ।।१०।।
यु ध रजीने कहा—‘सव र ीकृ ण! हम इस बातका पता नह है क हमने अपने

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पूवज म म या इस ज मम कौन-सा क याण-साधन कया है? आपका दशन बड़े-बड़े
योगे र भी बड़ी क ठनतासे ा त कर पाते ह और हम कुबु य को घर बैठे ही आपके दशन
हो रहे ह’ ।।११।। राजा यु ध रने इस कार भगवान्का खूब स मान कया और कुछ दन
वह रहनेक ाथना क । इसपर भगवान् ीकृ ण इ थके नर-ना रय को अपनी
पमाधुरीसे नयनान दका दान करते ए बरसातके चार महीन तक सुखपूवक वह
रहे ।।१२।। परी त्! एक बार वीर शरोम ण अजुनने गा डीव धनुष और अ य बाणवाले दो
तरकस लये तथा भगवान् ीकृ णके साथ कवच पहनकर अपने उस रथपर सवार ए,
जसपर वानर- च से च त वजा लगी ई थी। इसके बाद वप ी वीर का नाश करनेवाले
अजुन उस गहन वनम शकार खेलने गये, जो ब त-से सह, बाघ आ द भयंकर जानवर से
भरा आ था ।।१३-१४।। वहाँ उ ह ने ब त-से बाघ, सूअर, भसे, काले ह रन, शरभ, गवय
(नीलापन लये ए भूरे रंगका एक बड़ा हरन), गडे, ह रन, खरगोश और श लक (साही)
आ द पशु पर अपने बाण का नशाना लगाया ।।१५।। उनमसे जो य के यो य थे, उ ह
सेवकगण पवका समय जानकर राजा यु ध रके पास ले गये। अजुन शकार खेलते-खेलते
थक गये थे। अब वे यास लगनेपर यमुनाजीके कनारे गये ।।१६।। भगवान् ीकृ ण और
अजुन दोन महार थय ने यमुनाजीम हाथ-पैर धोकर उनका नमल जल पया और दे खा क
एक परमसु दरी क या वहाँ तप या कर रही है ।।१७।। उस े सु दरीक जंघा, दाँत और
मुख अ य त सु दर थे। अपने य म ीकृ णके भेजनेपर अजुनने उसके पास जाकर
पूछा— ।।१८।। ‘सु दरी! तुम कौन हो? कसक पु ी हो? कहाँसे आयी हो? और या
करना चाहती हो? म ऐसा समझता ँ क तुम अपने यो य प त चाह रही हो। हे क या ण!
तुम अपनी सारी बात बतलाओ’ ।।१९।।
इ त वै वा षकान् मासान् रा ा सोऽ य थतः सुखम् ।
जनयन् नयनान द म थौकसां वभुः ।।१२

एकदा रथमा वजयो वानर वजम् ।


गा डीवं धनुरादाय तूणौ चा यसायकौ ।।१३

साकं कृ णेन स ो वहतु व पनं वनम् ।


ब ालमृगाक ण ा वशत् परवीरहा ।।१४

त ा व य छरै ा ान् सूकरान् म हषान् न् ।


शरभान् गवयान् खड् गान् ह रणा छशश लकान् ।।१५

तान् न युः ककरा रा े मे यान् पव युपागते ।


तृट्परीतः प र ा तो बीभ सुयमुनामगात् ।।१६

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त ोप पृ य वशदं पी वा वा र महारथौ ।
कृ णौ द शतुः क यां चर त चा दशनाम् ।।१७

तामासा वरारोहां सु जां चराननाम् ।


प छ े षतः स या फा गुनः मदो माम् ।।१८

का वं क या स सु ो ण कुतोऽ स क चक ष स ।
म ये वां प त म छ त सव कथय शोभने ।।१९
का ल ुवाच
अहं दे व य स वतु हता प त म छती ।
व णुं वरे यं वरदं तपः परममा थता ।।२०
का ल द ने कहा—‘म भगवान् सूयदे वक पु ी ँ। म सव े वरदानी भगवान् व णुको
प तके पम ा त करना चाहती ँ और इसी लये यह कठोर तप या कर रही ँ ।।२०।। वीर
अजुन! म ल मीके परम आ य भगवान्को छोड़कर और कसीको अपना प त नह बना
सकती। अनाथ के एकमा सहारे, ेम वतरण करनेवाले भगवान् ीकृ ण मुझपर स
ह ।।२१।। मेरा नाम है का ल द । यमुनाजलम मेरे पता सूयने मेरे लये एक भवन भी बनवा
दया है। उसीम म रहती ँ। जबतक भगवान्का दशन न होगा, म यह र ँगी’ ।।२२।।
अजुनने जाकर भगवान् ीकृ णसे सारी बात कह । वे तो पहलेसे ही यह सब कुछ जानते थे,
अब उ ह ने का ल द को अपने रथपर बैठा लया और धमराज यु ध रके पास ले
आये ।।२३।।

ना यं प त वृणे वीर तमृते ी नकेतनम् ।


तु यतां मे स भगवान् मुकु दोऽनाथसं यः ।।२१

का ल द त समा याता वसा म यमुनाजले ।


न मते भवने प ा यावद युतदशनम् ।।२२

तथावदद् गुडाकेशो वासुदेवाय सोऽ प ताम् ।


रथमारो य तद् व ान् धमराजमुपागमत् ।।२३

यदै व कृ णः स द ः पाथानां परमा तम् ।


कारयामास नगरं व च ं व कमणा ।।२४

भगवां त नवसन् वानां य चक षया ।

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अ नये खा डवं दातुमजुन यास सार थः ।।२५

सोऽ न तु ो धनुरदा या छ् वेतान् रथं नृप ।


अजुनाया यौ तूणौ वम चाभे म भः ।।२६

मय मो चतो व े ः सभां स य उपाहरत् ।


य मन् य धन यासी जल थल श मः ।।२७

स तेन समनु ातः सु ानुमो दतः ।


आययौ ारकां भूयः सा य क मुखैवृतः ।।२८

अथोपयेमे का ल द सुपु य वृ ऊ जते ।


वत वन् परमान दं वानां परममंगलम् ।।२९
इसके बाद पा डव क ाथनासे भगवान् ीकृ णने पा डव के रहनेके लये एक अ य त
अद्भुत और व च नगर व कमाके ारा बनवा दया ।।२४।। भगवान् इस बार
पा डव को आन द दे ने और उनका हत करनेके लये वहाँ ब त दन तक रहे। इसी बीच
अ नदे वको खा डव-वन दलानेके लये वे अजुनके सार थ भी बने ।।२५।। खा डव-वनका
भोजन मल जानेसे अ नदे व ब त स ए। उ ह ने अजुनको गा डीव धनुष, चार ेत
घोड़े, एक रथ, दो अटू ट बाण वाले तरकस और एक ऐसा कवच दया, जसे कोई अ -
श धारी भेद न सके ।।२६।। खा डव-दाहके समय अजुनने मय दानवको जलनेसे बचा
लया था। इस लये उसने अजुनसे म ता करके उनके लये एक परम अद्भुत सभा बना द ।
उसी सभाम य धनको जलम थल और थलम जलका म हो गया था ।।२७।।
कुछ दन के बाद भगवान् ीकृ ण अजुनक अनुम त एवं अ य स ब धय का अनुमोदन
ा त करके सा य क आ दके साथ ारका लौट आये ।।२८।। वहाँ आकर उ ह ने ववाहके
यो य ऋतु और यौ तष-शा के अनुसार शं सत प व ल नम का ल द जीका पा ण हण
कया। इससे उनके वजन-स ब धय को परम मंगल और परमान दक ा त ई ।।२९।।

व दानु व दावाव यौ य धनवशानुगौ ।


वयंवरे वभ गन कृ णे स ां यषेधताम् ।।३०

राजा धदे ा तनयां म व दां पतृ वसुः ।


स तवान् कृ णो राजन् रा ां प यताम् ।।३१

न न ज ाम कौस य आसीद् राजा तधा मकः ।


त य स याभवत् क या दे वी ना न जती नृप ।।३२
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न तां शेकुनृपा वोढु म ज वा स त गोवृषान् ।
ती णशृंगान् सु धषान् वीरग धासहान् खलान् ।।३३

तां ु वा वृष ज ल यां भगवान् सा वतां प तः ।


जगाम कौस यपुरं सै येन महता वृतः ।।३४

स कोसलप तः ीतः यु थानासना द भः ।


अहणेना प गु णा पूजयन् तन दतः ।।३५

वरं वलो या भमतं समागतं


नरे क या चकमे रमाप तम् ।
भूयादयं मे प तरा शषोऽमलाः
करोतु स या य द मे धृतो तैः ।।३६

य पादपंकजरजः शरसा बभ त
ीर जजः स ग रशः सहलोकपालैः ।
लीलातनूः वकृतसेतुपरी सयेशः
काले दधत् स भगवान् मम केन तु येत् ।।३७
अव ती (उ जैन) दे शके राजा थे व द और अनु व द। वे य धनके वशवत तथा
अनुयायी थे। उनक ब हन म व दाने वयंवरम भगवान् ीकृ णको ही अपना प त बनाना
चाहा। पर तु व द और अनु व दने अपनी ब हनको रोक दया ।।३०।। परी त्! म व दा
ीकृ णक फूआ राजा धदे वीक क या थी। भगवान् ीकृ ण राजा क भरी सभाम उसे
बलपूवक हर ले गये, सब लोग अपना-सा मुँह लये दे खते ही रह गये ।।३१।।
परी त्! कोसलदे शके राजा थे न न जत्। वे अ य त धा मक थे। उनक परमसु दरी
क याका नाम था स या; न न जत्क पु ी होनेसे वह ना न जती भी कहलाती थी। परी त्!
राजाक त ाके अनुसार सात दा त बैल पर वजय ा त न कर सकनेके कारण कोई
राजा उस क यासे ववाह न कर सके। य क उनके स ग बड़े तीखे थे और वे बैल कसी वीर
पु षक ग ध भी नह सह सकते थे ।।३२-३३।। जब य वंश शरोम ण भगवान् ीकृ णने
यह समाचार सुना क जो पु ष उन बैल को जीत लेगा, उसे ही स या ा त होगी; तब वे
ब त बड़ी सेना लेकर कोसलपुरी (अयो या) प ँचे ।।३४।। कोसलनरेश महाराज न न जत्ने
बड़ी स तासे उनक अगवानी क और आसन आ द दे कर ब त बड़ी पूजा-साम ीसे
उनका स कार कया। भगवान् ीकृ णने भी उनका ब त-ब त अ भन दन कया ।।३५।।
राजा न न जत्क क या स याने दे खा क मेरे चर-अ भल षत रमारमण भगवान् ीकृ ण
यहाँ पधारे ह; तब उसने मन-ही-मन यह अ भलाषा क क ‘य द मने त- नयम आ दका
पालन करके इ ह का च तन कया है तो ये ही मेरे प त ह और मेरी वशु लालसाको पूण
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कर’ ।।३६।। ना न जती स या मन-ही मन सोचने लगी—‘भगवती ल मी, ा, शंकर और
बड़े-बड़े लोकपाल जनके पदपंकजका पराग अपने सरपर धारण करते ह और जन भुने
अपनी बनायी ई मयादाका पालन करनेके लये ही समय-समयपर अनेक लीलावतार हण
कये ह, वे भु मेरे कस धम, त अथवा नयमसे स ह गे? वे तो केवल अपनी कृपासे ही
स हो सकते ह’ ।।३७।। परी त्! राजा न न जत्ने भगवान् ीकृ णक व ध-पूवक
अचा-पूजा करके यह ाथना क —‘जगत्के एकमा वामी नारायण! आप अपने
व पभूत आन दसे ही प रपूण ह और म ँ एक तु छ मनु य! म आपक या सेवा
क ँ ?’ ।।३८।।

अ चतं पुन र याह नारायण जग पते ।


आ मान दे न पूण य करवा ण कम पकः ।।३८
ीशुक उवाच
तमाह भगवान् ः१ कृतासनप र हः ।
मेघग भीरया वाचा स मतं कु न दन ।।३९
ीभगवानुवाच
नरे या ञा क व भ वग हता
राज यब धो नजधमव तनः ।
तथा प याचे तव सौ दे छया
क यां वद यां न ह शु कदा वयम् ।।४०
राजोवाच
कोऽ य तेऽ य धको नाथ क यावर इहे सतः ।
गुणैकधा नो य यांगे ीवस यनपा यनी ।।४१

क व मा भः कृतः पूव समयः सा वतषभ ।


पुंसां वीयपरी ाथ क यावरपरी सया ।।४२

स तैते गोवृषा वीर दा ता रव हाः ।


एतैभ नाः सुबहवो भ गा ा नृपा मजाः ।।४३

य दमे नगृहीताः यु वयैव य न दन ।


वरो भवान भमतो हतुम यः२ पते ।।४४

एवं समयमाक य बद् वा प रकरं भुः ।


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आ मानं स तधा कृ वा यगृ ा लीलयैव तान् ।।४५
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! राजा न न जत्का दया आ आसन, पूजा आ द
वीकार करके भगवान् ीकृ ण ब त स तु ए। उ ह ने मुसकराते ए मेघके समान ग भीर
वाणीसे कहा ।।३९।।
भगवान् ीकृ णने कहा—राजन्! जो य अपने धमम थत है, उसका कुछ भी
माँगना उ चत नह । धम व ान ने उसके इस कमक न दा क है। फर भी म आपसे
सौहादका— ेमका स ब ध था पत करनेके लये आपक क या चाहता ँ। हमारे यहाँ
इसके बदलेम कुछ शु क दे नेक था नह है ।।४०।।
राजा न न जत्ने कहा—‘ भो! आप सम त गुण के धाम ह, एकमा आ य ह।
आपके व ः थलपर भगवती ल मी न य- नर तर नवास करती ह। आपसे बढ़कर क याके
लये अभी वर भला और कौन हो सकता है? ।।४१।। पर तु य वंश शरोमणे! हमने पहले
ही इस वषयम एक ण कर लया है। क याके लये कौन-सा वर उपयु है, उसका बल-
पौ ष कैसा है—इ या द बात जाननेके लये ही ऐसा कया गया है ।।४२।। वीर े ीकृ ण!
हमारे ये सात बैल कसीके वशम न आनेवाले और बना सधाये ए ह। इ ह ने ब त-से
राजकुमार के अंग को ख डत करके उनका उ साह तोड़ दया है ।।४३।। ीकृ ण! य द
इ ह आप ही नाथ ल, अपने वशम कर ल, तो ल मीपते! आप ही हमारी क याके लये
अभी वर ह गे’ ।।४४।। भगवान् ीकृ णने राजा न न जत्का ऐसा ण सुनकर कमरम फट
कस ली और अपने सात प बनाकर खेल-खेलम ही उन बैल को नाथ लया ।।४५।। इससे
बैल का घमंड चूर हो गया और उनका बल-पौ ष भी जाता रहा। अब भगवान् ीकृ ण उ ह
र सीसे बाँधकर इस कार ख चने लगे, जैसे खेलते समय न हा-सा बालक काठके बैल को
घसीटता है ।।४६।। राजा न न जत्को बड़ा व मय आ। उ ह ने स होकर भगवान्
ीकृ णको अपनी क याका दान कर दया और सवश मान् भगवान् ीकृ णने भी अपने
अनु प प नी स याका व धपूवक पा ण हण कया ।।४७।। रा नय ने दे खा क हमारी
क याको उसके अ य त यारे भगवान् ीकृ ण ही प तके पम ा त हो गये ह। उ ह बड़ा
आन द आ और चार ओर बड़ा भारी उ सव मनाया जाने लगा ।।४८।। शंख, ढोल, नगारे
बजने लगे। सब ओर गाना-बजाना होने लगा। ा ण आशीवाद दे ने लगे। सु दर व ,
पु प के हार और गहन से सज-धजकर नगरके नर-नारी आन द मनाने लगे ।।४९।। राजा
न न जत्ने दस हजार गौएँ और तीन हजार ऐसी नवयुवती दा सयाँ जो सु दर व तथा
गलेम वणहार पहने ए थ , दहेजम द । इनके साथ ही नौ हजार हाथी, नौ लाख रथ, नौ
करोड़ घोड़े और नौ अरब सेवक भी दहेजम दये ।।५०-५१।। कोसलनरेश राजा न न जत्ने
क या और दामादको रथपर चढ़ाकर एक बड़ी सेनाके साथ वदा कया। उस समय उनका
दय वा स य- नेहके उ े कसे वत हो रहा था ।।५२।।

बद् वा तान् दाम भः शौ रभ नदपान् हतौजसः ।


कष लीलया ब ान् बालो दा मयान् यथा ।।४६
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ततः ीतः सुतां राजा ददौ कृ णाय व मतः ।
तां यगृ ाद् भगवान् व धवत् स श भुः ।।४७

राजप य हतुः कृ णं ल वा यं प तम् ।


ले भरे परमान दं जात परमो सवः ।।४८

शंखभेयानका ने ग तवा जा शषः ।


नरा नायः मु दताः सुवासः गलंकृताः ।।४९

दशधेनुसह ा ण पा रबहमदाद् वभुः ।


युवतीनां साह ं न क ीवसुवाससाम् ।।५०

नवनागसह ा ण नागा छतगुणान् रथान् ।


रथा छतगुणान ान ा छतगुणान् नरान् ।।५१

द पती रथमारो य मह या सेनया वृतौ ।


नेह ल दयो यापयामास कोसलः ।।५२

ु वैतद् धुभूपा नय तं प थ क यकाम् ।


भ नवीयाः सु मषा य भग वृषैः पुरा ।।५३

तान यतः शर ातान् ब धु यकृदजुनः ।


गा डीवी कालयामास सहः ु मृगा नव ।।५४
परी त्! य वं शय ने और राजा न न जत्के बैल ने पहले ब त-से राजा का बल-
पौ ष धूलम मला दया था। जब उन राजा ने यह समाचार सुना, तब उनसे भगवान्
ीकृ णक यह वजय सहन न ई। उन लोग ने ना न जती स याको लेकर जाते समय मागम
भगवान् ीकृ णको घेर लया ।।५३।। और वे बड़े वेगसे उनपर बाण क वषा करने लगे।
उस समय पा डववीर अजुनने अपने म भगवान् ीकृ णका य करनेके लये गा डीव
धनुष धारण करके—जैसे सह छोटे -मोटे पशु को खदे ड़ दे , वैसे ही उन नरप तय को मार-
पीटकर भगा दया ।।५४।। तदन तर य वंश शरोम ण दे वक न दन भगवान् ीकृ ण उस
दहेज और स याके साथ ारकाम आये और वहाँ रहकर गृह थो चत वहार करने
लगे ।।५५।।

पा रबहमुपागृ ारकामे य स यया ।


रेमे य नामृषभो भगवान् दे वक सुतः ।।५५
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ु क तः सुतां भ ामुपयेमे पतृ वसुः ।

कैकेय ातृ भद ां कृ णः स तदना द भः ।।५६

सुतां च म ा धपतेल मणां ल णैयुताम् ।


वयंवरे जहारैकः स सुपणः सुधा मव ।।५७

अ या ैवं वधा भायाः कृ ण यासन् सह शः ।


भौमं ह वा त रोधादा ता ा दशनाः ।।५८
परी त्! भगवान् ीकृ णक फूआ ुतक त केकय-दे शम याही गयी थ । उनक
क याका नाम था भ ा। उसके भाई स तदन आ दने उसे वयं ही भगवान् ीकृ णको दे दया
और उ ह ने उसका पा ण हण कया ।।५६।। म दे शके राजाक एक क या थी ल मणा।
वह अ य त सुल णा थी। जैसे ग ड़ने वगसे अमृतका हरण कया था, वैसे ही भगवान्
ीकृ णने वयंवरम अकेले ही उसे हर लया ।।५७।।
परी त्! इसी कार भगवान् ीकृ णक और भी सह याँ थ । उन परम
सु द रय को वे भौमासुरको मारकर उसके बंद गृहसे छु ड़ा लाये थे ।।५८।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध अ म ह यु ाहो
नामा प चाश मोऽ यायः ।।५८।।

१. कृ णः। २. यः प तः।

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अथैकोनष तमोऽ यायः
भौमासुरका उ ार और सोलह हजार एक सौ राज-क या के साथ
भगवान्का ववाह
राजोवाच
यथा हतो भगवता भौमो येन च ताः यः ।
न ा एतदाच व व मं शा ध वनः ।।१
ीशुक उवाच
इ े ण तछ ेण तकु डलब धुना ।
तामरा थानेन ा पतो भौमचे तम् ।
सभाय ग डा ढः ा यो तषपुरं ययौ ।।२
राजा परी त्ने पूछा—भगवन्! भगवान् ीकृ णने भौमासुरको, जसने उन य को
बंद गृहम डाल रखा था, य और कैसे मारा? आप कृपा करके शा े -धनुषधारी भगवान्
ीकृ णका वह व च च र सुनाइये ।।१।।
ीशुकदे वजीने कहा—परी त्! भौमासुरने व णका छ , माता अ द तके कु डल
और मे पवतपर थत दे वता का म णपवत नामक थान छ न लया था। इसपर सबके
राजा इ ारकाम आये और उसक एक-एक करतूत उ ह ने भगवान् ीकृ णको सुनायी।
अब भगवान् ीकृ ण अपनी य प नी स यभामाके साथ ग ड़पर सवार ए और
भौमासुरक राजधानी ाग् यो तषपुरम गये ।।२।। ाग् यो तषपुरम वेश करना ब त
क ठन था। पहले तो उसके चार ओर पहाड़ क कलेबंद थी, उसके बाद श का घेरा
लगाया आ था। फर जलसे भरी खा थी, उसके बाद आग या बजलीक चहारद वारी थी
और उसके भीतर वायु (गैस) बंद करके रखा गया था। इससे भी भीतर मुर दै यने नगरके
चार ओर अपने दस हजार घोर एवं सु ढ फंदे (जाल) बछा रखे थे ।।३।। भगवान्
ीकृ णने अपनी गदाक चोटसे पहाड़ को तोड़-फोड़ डाला और श क मोरचे-बंद को
बाण से छ - भ कर दया। च के ारा अ न, जल और वायुक चहारद वा रय को तहस-
नहस कर दया और मुर दै यके फंद को तलवारसे काट-कूटकर अलग रख दया ।।४।। जो
बड़े-बड़े य —मशीन वहाँ लगी ई थ , उनको तथा वीरपु ष के दयको शंखनादसे वद ण
कर दया और नगरके परकोटे को गदाधर भगवान्ने अपनी भारी गदासे वंस कर
डाला ।।५।।

ग र गः श गजला य नल गमम् ।
मुरपाशायुतैघ रै ढै ः सवत आवृतम् ।।३

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गदया न बभेदा न् श गा ण सायकैः ।
च े णा नं जलं वायुं मुरपाशां तथा सना ।।४

शंखनादे न य ा ण दया न मन वनाम् ।


ाकारं गदया गु ा न बभेद गदाधरः ।।५

पांचज य व न ु वा युगा ताश नभीषणम् ।


मुरः शयान उ थौ दै यः पंच शरा जलात् ।।६

शूलमु य सु नरी णो
युगा तसूयानलरो च बणः ।
सं लोक मव पंच भमुखै-
र य व ा यसुतं यथोरगः ।।७

आ व य शूलं तरसा ग मते


नर य व ै नदत् स पंच भः ।
स रोदसी सव दशोऽ तरं महा-
नापूरय डकटाहमावृणोत् ।।८

तदापतद् वै शखं ग मते


ह रः शरा याम भन धौजसा ।
भगवान्के पांचज य शंखक व न लयकालीन बजलीक कड़कके समान महाभयंकर
थी। उसे सुनकर मुर दै यक न द टू ट और वह बाहर नकल आया। उसके पाँच सर थे और
अबतक वह जलके भीतर सो रहा था ।।६।। वह दै य लयकालीन सूय और अ नके समान
च ड तेज वी था। वह इतना भयंकर था क उसक ओर आँख उठाकर दे खना भी आसान
काम नह था। उसने शूल उठाया और इस कार भगवान्क ओर दौड़ा, जैसे साँप
ग ड़जीपर टू ट पड़े। उस समय ऐसा मालूम होता था मानो वह अपने पाँच मुख से
लोक को नगल जायगा ।।७।। उसने अपने शूलको बड़े वेगसे घुमाकर ग ड़जीपर
चलाया और फर अपने पाँच मुख से घोर सहनाद करने लगा। उसके सहनादका महान्
श द पृ वी, आकाश, पाताल और दस दशा म फैलकर सारे ा डम भर गया ।।८।।
भगवान् ीकृ णने दे खा क मुर दै यका शूल ग ड़क ओर बड़े वेगसे आ रहा है। तब
अपना ह तकौशल दखाकर फुत से उ ह ने दो बाण मारे, जनसे वह शूल कटकर तीन
टू क हो गया। इसके साथ ही मुर दै यके मुख म भी भगवान्ने ब त-से बाण मारे। इससे वह
दै य अ य त ु हो उठा और उसने भगवान्पर अपनी गदा चलायी ।।९।। पर तु भगवान्
ीकृ णने अपनी गदाके हारसे मुर दै यक गदाको अपने पास प ँचनेके पहले ही चूर-चूर

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कर दया। अब वह अ हीन हो जानेके कारण अपनी भुजाएँ फैलाकर ीकृ णक ओर
दौड़ा और उ ह ने खेल-खेलम ही च से उसके पाँच सर उतार लये ।।१०।। सर कटते ही
मुर दै यके ाण-पखे उड़ गये और वह ठ क वैसे ही जलम गर पड़ा, जैसे इ के व से
शखर कट जानेपर कोई पवत समु म गर पड़ा हो। मुर दै यके सात पु थे—ता ,
अ त र , वण, वभावसु, वसु, नभ वान् और अ ण। ये अपने पताक मृ युसे अ य त
शोकाकुल हो उठे और फर बदला लेनेके लये ोधसे भरकर श ा से सुस जत हो गये
तथा पीठ नामक दै यको अपना सेनाप त बनाकर भौमासुरके आदे शसे ीकृ णपर चढ़
आये ।।११-१२।। वे वहाँ आकर बड़े ोधसे भगवान् ीकृ णपर बाण, खड् ग, गदा, श ,
ऋ और शूल आ द च ड श क वषा करने लगे। परी त्! भगवान्क श अमोघ
और अन त है। उ ह ने अपने बाण से उनके को ट-को ट श ा तल- तल करके काट
गराये ।।१३।। भगवान्के श हारसे सेनाप त पीठ और उसके साथी दै य के सर, जाँघ,
भुजा, पैर और कवच कट गये और उन सभीको भगवान्ने यमराजके घर प ँचा दया। जब
पृ वीके पु नरकासुर (भौमासुर) ने दे खा क भगवान् ीकृ णके च और बाण से हमारी
सेना और सेनाप तय का संहार हो गया, तब उसे अस ोध आ। वह समु तटपर पैदा ए
ब त-से मदवाले हा थय क सेना लेकर नगरसे बाहर नकला। उसने दे खा क भगवान्
ीकृ ण अपनी प नीके साथ आकाशम ग ड़पर थत ह, जैसे सूयके ऊपर बजलीके साथ
वषाकालीन याममेघ शोभायमान हो। भौमासुरने वयं भगवान्के ऊपर शत नी नामक
श चलायी और उसके सब सै नक ने भी एक ही साथ उनपर अपने-अपने अ -श
छोड़े ।।१४-१५।। अब भगवान् ीकृ ण भी च - व च पंखवाले तीखे-तीखे बाण चलाने
लगे। इससे उसी समय भौमासुरके सै नक क भुजाएँ, जाँघ, गदन और धड़ कट-कटकर
गरने लगे; हाथी और घोड़े भी मरने लगे ।।१६।।

मुखेषु तं चा प शरैरताडयत्
त मै गदां सोऽ प षा मु चत ।।९

तामापत त गदया गदां मृधे


गदा जो न ब भदे सह धा ।
उ य बा न भधावतोऽ जतः
शरां स च े ण जहार लीलया ।।१०

सुः पपाता भ स कृ शीष


नकृ शृंगोऽ रवे तेजसा ।
त या मजाः स त पतुवधातुराः
त यामषजुषः समु ताः ।।११

ता ोऽ त र ः वणो वभावसु-
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वसुनभ वान ण स तमः ।
पीठं पुर कृ य चमूप त मृधे
भौम यु ा नरगन् धृतायुधाः ।।१२

ायुंजतासा शरानसीन् गदाः


श यृ शूला य जते षो बणाः ।
त छ कूटं भगवान् वमागणै-
रमोघवीय तलश कत ह ।।१३

तान् पीठमु याननयद् यम यं


नकृ शीष भुजाङ् वमणः ।
वानीकपान युतच सायकै-
तथा नर तान् नरको धरासुतः ।।१४

नरी य मषण आ व मदै -


गजैः पयो ध भवै नरा मत् ।
् वा सभाय ग डोप र थतं
सूय प र ात् सत डद्घनं यथा ।
कृ णं स त मै सृज छत न
योधा सव युगपत् म व धुः ।।१५

तद् भौमसै यं भगवान् गदा जो


व च वाजै न शतैः शलीमुखैः ।
नकृ बा शरो व हं
चकार त व हता कु रम् ।।१६

या न योधैः यु ा न श ा ा ण कु ह।
ह र ता य छन ी णैः शरैरेकैकश भः ।।१७

उ मानः सुपणन प ा यां न नता गजान् ।


ग मता ह यमाना तु डप नखैगजाः ।।१८

पुरमेवा वश ाता नरको यु ययु यत ।


् वा व ा वतं सै यं ग डेना दतं वकम् ।।१९

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तं भौमः ाहर छ या व ः तहतो यतः ।
नाक पत तया व ो मालाहत इव पः ।।२०

शूलं भौमोऽ युतं ह तुमाददे वतथो मः ।


त सगात् पूवमेव नरक य शरो ह रः ।
अपाहरद् गज थ य च े ण ुरने मना ।।२१

सकु डलं चा करीटभूषणं


बभौ पृ थ ां प ततं समु वलत् ।
हाहे त सा व यृषयः सुरे रा
मा यैमुकु दं व कर त ई डरे ।।२२

तत भूः कृ णमुपे य कु डले


त तजा बूनदर नभा वरे ।
सवैजय या वनमालयापयत्
ाचेतसं छ मथो महाम णम् ।।२३
परी त्! भौमासुरके सै नक ने भगवान्पर जो-जो अ -श चलाये थे, उनमसे
येकको भगवान्ने तीन-तीन तीखे बाण से काट गराया ।।१७।। उस समय भगवान्
ीकृ ण ग ड़जीपर सवार थे और ग ड़जी अपने पंख से हा थय को मार रहे थे। उनक
च च, पंख और पंज क मारसे हा थय को बड़ी पीड़ा ई और वे सब-के-सब आत होकर
यु भू मसे भागकर नगरम घुस गये। अब वहाँ अकेला भौमासुर ही लड़ता रहा। जब उसने
दे खा क ग ड़जीक मारसे पी ड़त होकर मेरी सेना भाग रही है, तब उसने उनपर वह श
चलायी, जसने व को भी वफल कर दया था। पर तु उसक चोटसे प राज ग ड़ त नक
भी वच लत न ए, मानो कसीने मतवाले गजराजपर फूल क मालासे हार कया
हो ।।१८-२०।। अब भौमासुरने दे खा क मेरी एक भी चाल नह चलती, सारे उ ोग वफल
होते जा रहे ह, तब उसने ीकृ णको मार डालनेके लये एक शूल उठाया। पर तु उसे
अभी वह छोड़ भी न पाया था क भगवान् ीकृ णने छु रेके समान तीखी धारवाले च से
हाथीपर बैठे ए भौमासुरका सर काट डाला ।।२१।। उसका जगमगाता आ सर कु डल
और सु दर करीटके स हत पृ वीपर गर पड़ा। उसे दे खकर भौमासुरके सगे-स ब धी हाय-
हाय पुकार उठे , ऋ षलोग ‘साधु साधु’ कहने लगे और दे वतालोग भगवान्पर पु प क वषा
करते ए तु त करने लगे ।।२२।।
अब पृ वी भगवान्के पास आयी। उसने भगवान् ीकृ णके गलेम वैजय तीके साथ
वनमाला पहना द और अ द त माताके जगमगाते ए कु डल, जो तपाये ए सोनेके एवं
र नज टत थे, भगवान्को दे दये तथा व णका छ और साथ ही एक महाम ण भी उनको
द ।।२३।। राजन्! इसके बाद पृ वीदे वी बड़े-बड़े दे वता के ारा पू जत व े र भगवान्
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ीकृ णको णाम करके हाथ जोड़कर भ भावभरे दयसे उनक तु त करने
लग ।।२४।।

अ तौषीदथ व ेशं दे वी दे ववरा चतम् ।


ांज लः णता राजन् भ वणया धया ।।२४
भू म वाच
नम ते दे वदे वेश शंखच गदाधर ।
भ े छोपा पाय परमा मन् नमोऽ तु ते ।।२५

नमः पंकजनाभाय नमः पंकजमा लने ।


नमः पंकजने ाय नम ते पंकजाङ् ये ।।२६

नमो भगवते तु यं वासुदेवाय व णवे ।


पु षाया दबीजाय पूणबोधाय ते नमः ।।२७

अजाय जन य ेऽ य णेऽन तश ये ।
परावरा मन् भूता मन् परमा मन् नमोऽ तु ते ।।२८

वं वै ससृ ू रज उ कटं भो
तमो नरोधाय बभ यसंवृतः ।
थानाय स वं जगतो जग पते
कालः धानं पु षो भवान् परः ।।२९

अहं पयो यो तरथा नलो नभो


मा ा ण दे वा मन इ या ण ।
कता महा न य खलं चराचरं
व य तीये भगव यं मः ।।३०
पृ वीदे वीने कहा—शंखच गदाधारी दे व-दे वे र! म आपको नम कार करती ँ।
परमा मन्! आप अपने भ क इ छा पूण करनेके लये उसीके अनुसार प कट कया
करते ह। आपको म नम कार करती ँ ।।२५।। भो! आपक ना भसे कमल कट आ है।
आप कमलक माला पहनते ह। आपके ने कमलसे खले ए और शा तदायक ह। आपके
चरण कमलके समान सुकुमार और भ के दयको शीतल करनेवाले ह। आपको म बार-
बार नम कार करती ँ ।।२६।। आप सम ऐ य, धम, यश, स प , ान और वैरा यके
आ य ह। आप सव ापक होनेपर भी वयं वसुदेवन दनके पम कट ह। म आपको

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नम कार करती ँ। आप ही पु ष ह और सम त कारण के भी परम कारण ह। आप वयं
पूण ान व प ह। म आपको नम कार करती ँ ।।२७।। आप वयं तो ह ज मर हत, पर तु
इस जगत्के ज मदाता आप ही ह। आप ही अन त श य के आ य ह। जगत्का जो
कुछ भी काय-कारणमय प है, जतने भी ाणी या अ ाणी ह— सब आपके ही व प ह।
परमा मन्! आपके चरण म मेरे बार-बार नम कार ।।२८।।
भो! जब आप जगत्क रचना करना चाहते ह, तब उ कट रजोगुणको, और जब
इसका लय करना चाहते ह तब तमोगुणको, तथा जब इसका पालन करना चाहते ह तब
स वगुणको वीकार करते ह। पर तु यह सब करनेपर भी आप इन गुण से ढकते नह , ल त
नह होते। जग पते! आप वयं ही कृ त, पु ष और दोन के संयोग- वयोगके हेतु काल ह
तथा उन तीन से परे भी ह ।।२९।। भगवन्! म (पृ वी), जल, अ न, वायु, आकाश,
पंचत मा ाएँ, मन, इ य और इनके अ ध ातृ-दे वता, अहंकार और मह व—कहाँतक
क ,ँ यह स पूण चराचर जगत् आपके अ तीय व- पम मके कारण ही पृथक् तीत हो
रहा है ।।३०।। शरणागत-भय-भंजन भो! मेरे पु भौमासुरका यह पु भगद अ य त
भयभीत हो रहा है। म इसे आपके चरणकमल क शरणम ले आयी ँ। भो! आप इसक
र ा क जये और इसके सरपर अपना वह करकमल र खये जो सारे जगत्के सम त पाप-
ताप को न करनेवाला है ।।३१।।

त या मजोऽयं तव पादपंकजं
भीतः प ा तहरोपसा दतः ।
तत् पालयैनं कु ह तपंकजं
शर यमु या खलक मषापहम् ।।३१
ीशुक उवाच
इ त भू या थतो वा भभगवान् भ न या ।
द वाभयं भौमगृहं ा वशत् सकल मत् ।।३२

त राज यक यानां षट् सह ा धकायुतम् ।


भौमा तानां व य राज यो द शे ह रः ।।३३

तं व ं यो वी य नरवीरं वमो हताः ।


मनसा व रेऽभी ं प त दै वोपसा दतम् ।।३४

भूयात् प तरयं म ं धाता तदनुमोदताम् ।


इ त सवाः पृथक् कृ णे भावेन दयं दधुः ।।३५

ताः ा हणोद् ारवत सुमृ वरजोऽ बराः ।


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नरयानैमहाकोशान् रथा ान् वणं महत् ।।३६

ऐरावतकुलेभां चतुद तां तर वनः ।


पा डु रां चतुःष ेषयामास केशवः ।।३७

ग वा सुरे भवनं द वा द यै च कु डले ।


पू जत दशे े ण सहे ा या च स यः ।।३८

चो दतो भाययो पा पा रजातं ग म त ।


आरो य से ान् वबुधान् न ज योपानयत् पुरम् ।।३९
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जब पृ वीने भ भावसे वन होकर इस कार
भगवान् ीकृ णक तु त- ाथना क , तब उ ह ने भगद को अभयदान दया और
भौमासुरके सम त स प य से स प महलम वेश कया ।।३२।। वहाँ जाकर भगवान्ने
दे खा क भौमासुरने बलपूवक राजा से सोलह हजार राजकुमा रयाँ छ नकर अपने यहाँ रख
छोड़ी थ ।।३३।। जब उन राजकुमा रय ने अ तःपुरम पधारे ए नर े भगवान् ीकृ णको
दे खा, तब वे मो हत हो गय और उ ह ने उनक अहैतुक कृपा तथा अपना सौभा य
समझकर मन-ही-मन भगवान्को अपने परम यतम प तके पम वरण कर लया ।।३४।।
उन राजकुमा रय मसे येकने अलग-अलग अपने मनम यही न य कया क ‘ये ीकृ ण
ही मेरे प त ह और वधाता मेरी इस अ भलाषाको पूण कर।’ इस कार उ ह ने ेम-भावसे
अपना दय भगवान्के त नछावर कर दया ।।३५।। तब भगवान् ीकृ णने उन
राजकुमा रय को सु दर-सु दर नमल व ाभूषण पहनाकर पाल कय से ारका भेज दया
और उनके साथ ही ब त-से खजाने, रथ, घोड़े तथा अतुल स प भी भेजी ।।३६।।
ऐरावतके वंशम उ प ए अ य त वेगवान् चार-चार दाँत वाले सफेद रंगके च सठ हाथी भी
भगवान्ने वहाँसे ारका भेजे ।।३७।।
इसके बाद भगवान् ीकृ ण अमरावतीम थत दे वराज इ के महल म गये। वहाँ
दे वराज इ ने अपनी प नी इ ाणीके साथ स यभामाजी और भगवान् ीकृ णक पूजा क ,
तब भगवान्ने अ द तके कु डल उ ह दे दये ।।३८।। वहाँसे लौटते समय स यभामाजीक
ेरणासे भगवान् ीकृ णने क पवृ उखाड़कर ग ड़पर रख लया और दे वराज इ तथा
सम त दे वता को जीतकर उसे ारकाम ले आये ।।३९।। भगवान्ने उसे स यभामाके
महलके बगीचेम लगा दया। इससे उस बगीचेक शोभा अ य त बढ़ गयी। क पवृ के साथ
उसके ग ध और मकर दके लोभी भ रे वगसे ारकाम चले आये थे ।।४०।। परी त्! दे खो
तो सही, जब इ को अपना काम बनाना था, तब तो उ ह ने अपना सर झुकाकर मुकुटक
नोकसे भगवान् ीकृ णके चरण का पश करके उनसे सहायताक भ ा माँगी थी, पर तु
जब काम बन गया, तब उ ह ने उ ह भगवान् ीकृ णसे लड़ाई ठान ली। सचमुच ये दे वता
भी बड़े तमोगुणी ह और सबसे बड़ा दोष तो उनम धना ताका है। ध कार है ऐसी
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धना ताको ।।४१।।
था पतः स यभामाया गृहो ानोपशोभनः ।
अ वगु मराः वगात् तद्ग धासवल पटाः ।।४०

ययाच आन य करीटको ट भः
पादौ पृश युतमथसाधनम् ।
स ाथ एतेन वगृ ते महा-
नहो सुराणां च तमो धगा ताम् ।।४१

अथो मु त एक मन् नानागारेषु ताः यः ।


यथोपयेमे भगवां ताव प
ू धरोऽ यः ।।४२

गृहेषु तासामनपा यत यकृ-


र तसा या तशये वव थतः ।
रेमे रमा भ नजकामसं लुतो
यथेतरो गाहकमे धकां रन् ।।४३

इ थं रमाप तमवा य प त य ता
ादयोऽ प न व ः पदव यद याम् ।
भेजुमुदा वरतमे धतयानुराग-
हासावलोकनवसंगमज पल जाः ।। ४४
तदन तर भगवान् ीकृ णने एक ही मु तम अलग-अलग भवन म अलग-अलग प
धारण करके एक ही साथ सब राजकुमा रय का शा ो व धसे पा ण हण कया।
सवश मान् अ वनाशी भगवान्के लये इसम आ यक कौन-सी बात है ।।४२।। परी त्!
भगवान्क प नय के अलग-अलग महल म ऐसी द साम याँ भरी ई थ , जनके
बराबर जगत्म कह भी और कोई भी साम ी नह है; फर अ धकक तो बात ही या है।
उन महल म रहकर म त-ग तके परेक लीला करनेवाले अ वनाशी भगवान् ीकृ ण अपने
आ मान दम म न रहते ए ल मीजीक अंश व पा उन प नय के साथ ठ क वैसे ही वहार
करते थे, जैसे कोई साधारण मनु य घर-गृह थीम रहकर गृह थ-धमके अनुसार आचरण
करता हो ।।४३।। परी त्! ा आ द बड़े-बड़े दे वता भी भगवान्के वा त वक व पको
और उनक ा तके मागको नह जानते। उ ह रमारमण भगवान् ीकृ णको उन य ने
प तके पम ा त कया था। अब न य- नर तर उनके ेम और आन दक अ भवृ होती
रहती थी और वे ेमभरी मुसकराहट, मधुर चतवन, नवसमागम, ेमालाप तथा भाव
बढ़ानेवाली ल जासे यु होकर सब कारसे भगवान्क सेवा करती रहती थ ।।४४।।
उनमसे सभी प नय के साथ सेवा करनेके लये सैकड़ दा सयाँ रहत , फर भी जब उनके
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महलम भगवान् पधारते तब वे वयं आगे जाकर आदरपूवक उ ह लवा लात , े
आसनपर बैठात , उ म साम य से पूजा करत , चरणकमल पखारत , पान लगाकर
खलात , पाँव दबाकर थकावट र करत , पंखा झलत , इ -फुलेल, च दन आ द लगात ,
फूल के हार पहनात , केश सँवारत , सुलात , नान करात और अनेक कारके भोजन
कराकर अपने ही हाथ भगवान्क सेवा करत ।।४५।।
युदगमासनवराहणपादशौच-

ता बूल व मणवीजनग धमा यैः ।
केश सारशयन नपनोपहाय-
दासीशता अ प वभो वदधुः म दा यम् ।। ४५
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध
पा रजातहरणनरकवधो नाम एकोनष तमोऽ यायः ।।५९।।

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अथ ष तमोऽ यायः
ीकृ ण- मणी-संवाद
ीशुक उवाच
क ह चत् सुखमासीनं वत प थं जगद्गु म् ।
प त पयचरद् भै मी जनेन सखीजनैः ।।१

य वेत लीलया व ं सृज य यवती रः ।


स ह जातः वसेतूनां गोपीथाय य वजः ।।२

त म तगृहे ाज मु ादाम वल बना ।


वरा जते वतानेन द पैम णमयैर प ।।३

म लकादाम भः पु पै रेफकुलना दतैः ।


जालर व ै गो भ मसोऽमलैः ।।४

पा रजातवनामोदवायुनो ानशा लना ।


धूपैरगु जै राजन् जालर व नगतैः ।।५
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! एक दन सम त जगत्के परम पता और ानदाता
भगवान् ीकृ ण मणीजीके पलँगपर आरामसे बैठे ए थे। भी मकन दनी
ी मणीजी स खय के साथ अपने प तदे वक सेवा कर रही थ , उ ह पंखा झल रही
थ ।।१।। परी त्! जो सवश मान् भगवान् खेल-खेलम ही इस जगत्क रचना, र ा और
लय करते ह—वही अज मा भु अपनी बनायी ई धम-मयादा क र ा करनेके लये
य वं शय म अवतीण ए ह ।।२।। मणीजीका महल बड़ा ही सु दर था। उसम ऐसे-ऐसे
चँदोवे तने ए थे, जनम मो तय क ल ड़य क झालर लटक रही थ । म णय के द पक
जगमगा रहे थे ।।३।। बेला-चमेलीके फूल और हार मँह-मँह मँहक रहे थे। फूल पर झुंड-के-
झुंड भ रे गुंजार कर रहे थे। सु दर-सु दर झरोख क जा लय मसे च माक शु करण
महलके भीतर छटक रही थ ।।४।। उ ानम पा रजातके उपवनक सुग ध लेकर म द-म द
शीतल वायु चल रही थी। झरोख क जा लय मसे अगरके धूपका धूआँ बाहर नकल रहा
था ।।५।। ऐसे महलम धके फेनके समान कोमल और उ वल बछौन से यु सु दर
पलँगपर भगवान् ीकृ ण बड़े आन दसे वराजमान थे और मणीजी लोक के
वामीको प त पम ा त करके उनक सेवा कर रही थ ।।६।। मणीजीने अपनी
सखीके हाथसे वह चँवर ले लया, जसम र न क डाँडी लगी थी और परम पवती
ल मी पणी दे वी मणीजी उसे डु ला-डु लाकर भगवान्क सेवा करने लग ।।७।। उनके
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करकमल म जड़ाऊ अँगू ठयाँ, कंगन और चँवर शोभा पा रहे थे। चरण म म णज टत
पायजेब नझुन- नझुन कर रहे थे। अंचलके नीचे छपे ए तन क केशरक ला लमासे
हार लाल-लाल जान पड़ता था और चमक रहा था। नत बभागम ब मू य करधनीक
ल ड़याँ लटक रही थ । इस कार वे भगवान्के पास ही रहकर उनक सेवाम संल न
थ ।।८।। मणीजीक घुँघराली अलक, कान के कु डल और गलेके वणहार अ य त
वल ण थे। उनके मुखच से मुसकराहटक अमृतवषा हो रही थी। ये मणीजी
अलौ कक पलाव यवती ल मीजी ही तो ह। उ ह ने जब दे खा क भगवान्ने लीलाके लये
मनु यका-सा शरीर हण कया है, तब उ ह ने भी उनके अनु प प कट कर दया।
भगवान् ीकृ ण यह दे खकर ब त स ए क मणीजी मेरे परायण ह, मेरी अन य
ेयसी ह। तब उ ह ने बड़े ेमसे मुसकराते ए उनसे कहा ।।९।।
पयःफेन नभे शु े पयके क शपू मे ।
उपत थे सुखासीनं जगतामी रं प तम् ।।६

वाल जनमादाय र नद डं सखीकरात् ।


तेन वीजयती दे वी उपासांच ई रम् ।।७

सोपा युतं वणयती म णनूपुरा यां


रेजेऽ लीयवलय जना ह ता ।
व ा तगूढकुचकुंकुमशोणहार-
भासा नत बधृतया च परा यका चया ।।८

तां पण यमन यग त नरी य


या लीलया धृततनोरनु प पा ।
ीतः मय लककु डल न कक ठ-
व ो लस मतसुधां ह रराबभाषे ।।९
ीभगवानुवाच
राजपु ी सता भूपैल कपाल वभू त भः ।
महानुभावैः ीम पौदायबलो जतैः ।।१०

तान् ा तान थनो ह वा चै ाद न् मर मदान् ।


द ा ा ा व प ा च क मा ो ववृषेऽसमान् ।।११
भगवान् ीकृ णने कहा—राजकुमारी! बड़े-बड़े नरप त, जनके पास लोकपाल के
समान ऐ य और स प है, जो बड़े महानुभाव और ीमान् ह तथा सु दरता, उदारता और
बलम भी ब त आगे बढ़े ए ह, तुमसे ववाह करना चाहते थे ।।१०।। तु हारे पता और भाई
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भी उ ह के साथ तु हारा ववाह करना चाहते थे, यहाँतक क उ ह ने वा दान भी कर दया
था। शशुपाल आ द बड़े-बड़े वीर को, जो कामो म होकर तु हारे याचक बन रहे थे, तुमने
छोड़ दया और मेरे-जैसे को, जो कसी कार तु हारे समान नह है, अपना प त
वीकार कया। ऐसा तुमने य कया? ।।११।। सु दरी! दे खो, हम जरास ध आ द
राजा से डरकर समु क शरणम आ बसे ह। बड़े-बड़े बलवान से हमने वैर बाँध रखा है
और ायः राज सहासनके अ धकारसे भी हम वं चत ही ह ।।१२।। सु दरी! हम कस मागके
अनुयायी ह, हमारा कौन-सा माग है, यह भी लोग को अ छ तरह मालूम नह है। हमलोग
लौ कक वहारका भी ठ क-ठ क पालन नह करते, अनुनय- वनयके ारा य को
रझाते भी नह । जो याँ हमारे-जैसे पु ष का अनुसरण करती ह, उ ह ायः लेश-ही-
लेश भोगना पड़ता है ।।१३।। सु दरी! हम तो सदाके अ कचन ह। न तो हमारे पास कभी
कुछ था और न रहेगा। ऐसे ही अ कचन लोग से हम ेम भी करते ह और वे लोग भी हमसे
ेम करते ह। यही कारण है क अपनेको धनी समझनेवाले लोग ायः हमसे ेम नह करते,
हमारी सेवा नह करते ।।१४।। जनका धन, कुल, ऐ य, सौ दय और आय अपने समान
होती है—उ ह से ववाह और म ताका स ब ध करना चा हये। जो अपनेसे े या अधम
ह , उनसे नह करना चा हये ।।१५।। वदभराजकुमारी! तुमने अपनी अ रद शताके कारण
इन बात का वचार नह कया और बना जाने-बूझे भ ुक से मेरी झूठ शंसा सुनकर मुझ
गुणहीनको वरण कर लया ।।१६।। अब भी कुछ बगड़ा नह है। तुम अपने अनु प कसी
े यको वरण कर लो। जसके ारा तु हारी इहलोक और परलोकक सारी आशा-
अ भलाषाएँ पूरी हो सक ।।१७।। सु दरी! तुम जानती ही हो क शशुपाल, शा व, जरास ध,
द तव आ द नरप त और तु हारा बड़ा भाई मी-सभी मुझसे े ष करते थे ।।१८।।
क याणी! वे सब बल-पौ षके मदसे अंधे हो रहे थे, अपने सामने कसीको कुछ नह गनते
थे। उन का मान मदन करनेके लये ही मने तु हारा हरण कया था और कोई कारण नह
था ।।१९।। न य ही हम उदासीन ह। हम ी, स तान और धनके लोलुप नह ह। न य
और दे ह-गेहसे स ब धर हत द प शखाके समान सा ीमा ह। हम अपने आ माके
सा ा कारसे ही पूणकाम ह, कृतकृ य ह ।।२०।।

राज यो ब यतः सु ःू समु ं शरणं गतान् ।


बलव ः कृत े षान् ाय य नृपासनान् ।।१२

अ प व मनां पुंसामलोकपथमीयुषाम् ।
आ थताः पदव सु ूः ायः सीद त यो षतः ।।१३

न कंचना वयं श कंचनजन याः ।


त मात् ायेण न ा ा मां भज त सुम यमे ।।१४

ययोरा मसमं व ं ज मै याकृ तभवः ।


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तयो ववाहो मै ी च नो माधमयोः व चत् ।।१५

वैद यतद व ाय वयाद घसमी या ।


वृता वयं गुणैह ना भ ु भः ा घता मुधा ।।१६

अथा मनोऽनु पं वै भज व यषभम् ।


येन वमा शषः स या इहामु च ल यसे ।।१७

चै शा वजरास धद तव ादयो नृपाः ।


मम ष त वामो मी चा प तवा जः ।।१८

तेषां वीयमदा धानां तानां मयनु ये ।


आनीता स मया भ े तेजोऽपहरतासताम् ।।१९

उदासीना वयं नूनं न यप याथकामुकाः ।


आ मल याऽऽ महे पूणा गेहयो य तर याः ।। २०
ीशुक उवाच
एताव वा भगवाना मानं व लभा मव ।
म यमानाम व ेषात् त प न उपारमत् ।।२१

इत लोकेशपते तदाऽऽ मनः


य य दे ुतपूवम यम् ।
आ ु य भीता द जातवेपथु-
तां र तां दती जगाम ह ।।२२

पदा सुजातेन नखा ण या


भुवं लख य ु भरंजना सतैः ।
आ सचती कुंकुम षतौ तनौ
त थावधोमु य त ःख वाक् ।।२३

त याः सु ःखभयशोक वन बु े -
ह ता छ् लथ लयतो जनं पपात ।
दे ह व लव धयः सहसैव मु न्
र भेव वायु वहता वक य केशान् ।।२४

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तद् ् वा भगवान् कृ णः यायाः ेमब धनम् ।
हा य ौ ढमजान याः क णः सोऽ वक पत ।।२५

पयकादव ाशु तामु था य चतुभुजः ।


केशान् समु त ं ामृजत् प पा णना ।।२६

मृ या ुकले ने े तनौ चोपहतौ शुचा ।


आ य बा ना राज न य वषयां सतीम् ।।२७
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान् ीकृ णके णभरके लये भी अलग न
होनेके कारण मणीजीको यह अ भमान हो गया था क म इनक सबसे अ धक यारी ँ।
इसी गवक शा तके लये इतना कहकर भगवान् चुप हो गये ।।२१।। परी त्! जब
मणीजीने अपने परम यतम प त लोके र भगवान्क यह अ य वाणी सुनी—जो
पहले कभी नह सुनी थी, तब वे अ य त भयभीत हो गय ; उनका दय धड़कने लगा, वे
रोते-रोते च ताके अगाध समु म डू बने-उतराने लग ।।२२।। वे अपने कमलके समान
कोमल और नख क ला लमासे कुछ-कुछ लाल तीत होनेवाले चरण से धरती कुरेदने लग ।
अंजनसे मले ए काले-काले आँसू केशरसे रँगे ए व ः थलको धोने लगे। मुँह नीचेको
लटक गया। अ य त ःखके कारण उनक वाणी क गयी और वे ठठक -सी रह
गय ।।२३।। अ य त था, भय और शोकके कारण वचारश लु त हो गयी, वयोगक
स भावनासे वे त ण इतनी बली हो गय क उनक कलाईका कंगनतक खसक गया।
हाथका चँवर गर पड़ा, बु क वकलताके कारण वे एकाएक अचेत हो गय , केश बखर
गये और वे वायुवेगसे उखड़े ए केलेके खंभेक तरह धरतीपर गर पड़ ।।२४।। भगवान्
ीकृ णने दे खा क मेरी ेयसी मणीजी हा य- वनोदक ग भीरता नह समझ रही ह
और ेम-पाशक ढ़ताके कारण उनक यह दशा हो रही है। वभावसे ही परम का णक
भगवान् ीकृ णका दय उनके त क णासे भर गया ।।२५।। चार भुजा वाले वे
भगवान् उसी समय पलँगसे उतर पड़े और मणीजीको उठा लया तथा उनके खुले ए
केशपाश को बाँधकर अपने शीतल करकमल से उनका मुँह प छ दया ।।२६।। भगवान्ने
उनके ने के आँसू और शोकके आँसु से भ गे ए तन को प छकर अपने त अन य
ेमभाव रखनेवाली उन सती मणीजीको बाँह म भरकर छातीसे लगा लया ।।२७।।
भगवान् ीकृ ण समझाने-बुझानेम बड़े कुशल और अपने ेमी भ के एकमा आ य ह।
जब उ ह ने दे खा क हा यक ग भीरताके कारण मणीजीक बु च करम पड़ गयी है
और वे अ य त द न हो रही ह, तब उ ह ने इस अव थाके अयो य अपनी ेयसी
मणीजीको समझाया ।।२८।।

सा वयामास सा व ः कृपया कृपणां भुः ।


हा य ौ ढ म च ामतदहा सतां ग तः ।।२८
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ीभगवानुवाच
मा मा वैद यसूयेथा जाने वां म परायणाम् ।
व चः ोतुकामेन वे याऽऽच रतमंगने ।।२९

मुखं च ेमसंर भ फु रताधरमी तुम् ।


कटा ेपा णापांगं सु दर ुकुट तटम् ।।३०

अयं ह परमो लाभो गृहेषु गृहमे धनाम् ।


य मन यते यामः यया भी भा म न ।।३१
ीशुक उवाच
सैवं भगवता राजन् वैदभ प रसा वता ।
ा वा त प रहासो य यागभयं जहौ ।।३२

बभाष ऋषभं पुंसां वी ती भगव मुखम् ।


स ीडहास चर न धापांगेन भारत ।।३३
म युवाच
न वेवमेतदर व द वलोचनाद ।
यद् वै भवान् भगवतोऽस शी वभू नः ।
व वे म ह य भरतो भगवां यधीशः
वाहं गुण कृ तर गृहीतपादा ।।३४
भगवान् ीकृ णने कहा— वदभन दनी! तुम मुझसे बुरा मत मानना। मुझसे ठना
नह । म जानता ँ क तुम एकमा मेरे ही परायण हो। मेरी य सहचरी! तु हारी ेमभरी
बात सुननेके लये ही मने हँसी-हँसीम यह छलना क थी ।।२९।। म दे खना चाहता था क मेरे
य कहनेपर तु हारे लाल-लाल होठ णय-कोपसे कस कार फड़कने लगते ह। तु हारे
कटा पूवक दे खनेसे ने म कैसी लाली छा जाती है और भ ह चढ़ जानेके कारण तु हारा
मुँह कैसा सु दर लगता है ।।३०।। मेरी परम ये! सु दरी! घरके काम-धंध म रात- दन लगे
रहनेवाले गृह थ के लये घर-गृह थीम इतना ही तो परम लाभ है क अपनी य
अ ा गनीके साथ हास-प रहास करते ए कुछ घ ड़याँ सुखसे बता ली जाती ह ।।३१।।
ीशुकदे वजी कहते ह—राजन्! जब भगवान् ीकृ णने अपनी ाण याको इस
कार समझाया-बुझाया, तब उ ह इस बातका व ास हो गया क मेरे यतमने केवल
प रहासम ही ऐसा कहा था। अब उनके दयसे यह भय जाता रहा क यारे हम छोड़
दगे ।।३२।। परी त्! अब वे सल ज हा य और ेमपूण मधुर चतवनसे पु षभूषण
भगवान् ीकृ णका मुखार व द नरखती ई उनसे कहने लग — ।।३३।।
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मणीजीने कहा—कमलनयन! आपका यह कहना ठ क है क ऐ य आ द सम त
गुण से यु , अन त भगवान्के अनु प म नह ।ँ आपक समानता म कसी कार नह
कर सकती। कहाँ तो अपनी अख ड म हमाम थत, तीन गुण के वामी तथा ाआद
दे वता से से वत आप भगवान्; और कहाँ तीन गुण के अनुसार वभाव रखनेवाली
गुणमयी कृ त म, जसक सेवा कामना के पीछे भटकनेवाले अ ानी लोग ही करते
ह ।।३४।। भला, म आपके समान कब हो सकती ँ। वा मन्! आपका यह कहना भी ठ क
ही है क आप राजा के भयसे समु म आ छपे ह। पर तु राजा श दका अथ पृ वीके राजा
नह , तीन गुण प राजा ह। मानो आप उ ह के भयसे अ तःकरण प समु म चैत यघन
अनुभू त व प आ माके पम वराजमान रहते ह। इसम स दे ह नह क आप राजा से
वैर रखते ह, पर तु वे राजा कौन ह? यही अपनी इ याँ। इनसे तो आपका वैर है ही।
और भो! आप राज सहासनसे र हत ह, यह भी ठ क ही है; य क आपके चरण क सेवा
करनेवाल ने भी राजाके पदको घोर अ ाना धकार समझकर रसे ही कार रखा है। फर
आपके लये तो कहना ही या है ।।३५।। आप कहते ह क हमारा माग प नह है और
हम लौ कक पु ष -जैसा आचरण भी नह करते; यह बात भी न स दे ह स य है। य क जो
ऋ ष-मु न आपके पादप का मकर द-रस सेवन करते ह, उनका माग भी अ प रहता है
और वषय म उलझे ए नरपशु उसका अनुमान भी नह लगा सकते। और हे अन त!
आपके मागपर चलनेवाले आपके भ क भी चे ाएँ जब ायः अलौ कक ही होती ह, तब
सम त श य और ऐ य के आ य आपक चे ाएँ अलौ कक ह इसम तो कहना ही या
है? ।।३६।। आपने अपनेको अ कचन बतलाया है; पर तु आपक अ कचनता द र ता नह
है। उसका अथ यह है क आपके अ त र और कोई व तु न होनेके कारण आप ही सब
कुछ ह। आपके पास रखनेके लये कुछ नह है। पर तु जन ा आ द दे वता क पूजा
सब लोग करते ह, भट दे ते ह, वे ही लोग आपक पूजा करते रहते ह। आप उनके यारे ह
और वे आपके यारे ह। (आपका यह कहना भी सवथा उ चत है क धना लोग मेरा भजन
नह करते;) जो लोग अपनी धना ताके अ भमानसे अंधे हो रहे ह और इ य को तृ त
करनेम ही लगे ह, वे न तो आपका भजन-सेवन ही करते और न तो यह जानते ह क आप
मृ युके पम उनके सरपर सवार ह ।।३७।। जगत्म जीवके लये जतने भी वा छनीय
पदाथ ह—धम, अथ, काम, मो —उन सबके पम आप ही कट ह। आप सम त वृ य
— वृ य , साधन , स य और सा य के फल व प ह। वचारशील पु ष आपको ा त
करनेके लये सब कुछ छोड़ दे ते ह। भगवन्! उ ह ववेक पु ष का आपके साथ स ब ध
होना चा हये। जो लोग ी-पु षके सहवाससे ा त होनेवाले सुख या ःखके वशीभूत ह, वे
कदा प आपका स ब ध ा त करनेके यो य नह ह ।।३८।। यह ठ क है क भ ुक ने
आपक शंसा क है। पर तु कन भ ुक ने? उन परमशा त सं यासी महा मा ने आपक
म हमा और भावका वणन कया है, ज ह ने अपराधी-से-अपराधी को भी द ड न
दे नेका न य कर लया है। मने अ रद शतासे नह , इस बातको समझते ए आपको वरण
कया है क आप सारे जगत्के आ मा ह और अपने े मय को आ मदान करते ह। मने

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जान-बूझकर उन ा और दे वराज इ आ दका भी इस लये प र याग कर दया है क
आपक भ ह के इशारेसे पैदा होनेवाला काल अपने वेगसे उनक आशा-अ भलाषा पर
पानी फेर दे ता है। फर सर क — शशुपाल, द तव या जरास धक तो बात ही या
है? ।।३९।।

स यं भया दव गुणे य उ मा तः
शेते समु उपल भनमा आ मा ।
न यं क द यगणैः कृत व ह वं
व सेवकैनृपपदं वधुतं तमोऽ धम् ।।३५

व पादप मकर दजुषां मुनीनां


व मा फुटं नृपशु भननु वभा म् ।
य मादलौ कक मवे हतमी र य
भूमं तवे हतमथो अनु ये भव तम् ।।३६

न कंचनो ननु भवान् न यतोऽ त क चद्


य मै ब ल ब लभुजोऽ प हर यजा ाः ।
न वा वद यसुतृपोऽ तकमा ता धाः
े ो भवान् ब लभुजाम प तेऽ प तु यम् ।।३७

वं वै सम तपु षाथमयः फला मा


य ा छया सुमतयो वसृज त कू नम् ।
तेषां वभो समु चतो भवतः समाजः
पुंसः या रतयोः सुख ः खनोन ।।३८

वं य तद डमु न भग दतानुभाव
आ माऽऽ मद जगता म त मे वृतोऽ स ।
ह वा भवद् ुव उद रतकालवेग-
व ता शषोऽ जभवनाकपतीन् कुतोऽ ये ।।३९

जा ं वच तव गदा ज य तु भूपान्
व ा शा ननदे न जहथ मां वम् ।
सहो यथा वब लमीश पशून् वभागं
ते यो भयाद् य द ध शरणं प ः ।।४०

य ा छया नृप शखामणयोऽ वै य-


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जाय तना षगयादय ऐकप यम् ।
रा यं वसृ य व वशुवनम बुजा
सीद त तेऽनुपदव त इहा थताः कम् ।।४१
सव र आयपु ! आपक यह बात कसी कार यु संगत नह मालूम होती क आप
राजा से भयभीत होकर समु म आ बसे ह। य क आपने केवल अपने शा धनुषके
टं कारसे मेरे ववाहके समय आये ए सम त राजा को भगाकर अपने चरण म सम पत
मुझ दासीको उसी कार हरण कर लया, जैसे सह अपनी ककश व नसे वन-पशु को
भगाकर अपना भाग ले आवे ।।४०।। कमलनयन! आप कैसे कहते ह क जो मेरा अनुसरण
करता है, उसे ायः क ही उठाना पड़ता है। ाचीन कालके अंग, पृथ,ु भरत, यया त और
गय आ द जो बड़े-बड़े राजराजे र अपना-अपना एकछ सा ा य छोड़कर आपको पानेक
अ भलाषासे तप या करने वनम चले गये थे, वे आपके मागका अनुसरण करनेके कारण या
कसी कारका क उठा रहे ह ।।४१।। आप कहते ह क तुम और कसी राजकुमारका
वरण कर लो। भगवन्! आप सम त गुण के एकमा आ य ह। बड़े-बड़े संत आपके
चरणकमल क सुग धका बखान करते रहते ह। उसका आ य लेनेमा से लोग संसारके
पाप-तापसे मु हो जाते ह। ल मी सवदा उ ह म नवास करती ह। फर आप बतलाइये क
अपने वाथ और परमाथको भलीभाँ त समझनेवाली ऐसी कौन-सी ी है, जसे एक बार
उन चरणकमल क सुग ध सूँघनेको मल जाय और फर वह उनका तर कार करके ऐसे
लोग को वरण करे जो सदा मृ यु, रोग, ज म, जरा आ द भय से यु ह! कोई भी बु मती
ी ऐसा नह कर सकती ।।४२।। भो! आप सारे जगत्के एकमा वामी ह। आप ही इस
लोक और परलोकम सम त आशा को पूण करनेवाले एवं आ मा ह। मने आपको अपने
अनु प समझकर ही वरण कया है। मुझे अपने कम के अनुसार व भ यो नय म भटकना
पड़े, इसक मुझको परवा नह है। मेरी एकमा अ भलाषा यही है क म सदा अपना भजन
करनेवाल का म या संसार म नवृ करनेवाले तथा उ ह अपना व पतक दे डालनेवाले
आप परमे रके चरण क शरणम र ँ ।।४३।। अ युत! श ुसूदन! गध के समान घरका बोझा
ढोनेवाले, बैल के समान गृह थीके ापार म जुते रहकर क उठानेवाले, कु के समान
तर कार सहनेवाले, बलावके समान कृपण और हसक तथा त दास के समान ीक
सेवा करनेवाले शशुपाल आ द राजालोग, ज ह वरण करनेके लये आपने मुझे संकेत कया
है—उसी अभा गनी ीके प त ह , जनके कान म भगवान् शंकर, ा आ द दे वे र क
सभाम गायी जानेवाली आपक लीलाकथाने वेश नह कया है ।।४४।। यह मनु यका शरीर
जी वत होनेपर भी मुदा ही है। ऊपरसे चमड़ी, दाढ़ -मूँछ, रोएँ, नख और केश से ढका आ
है; पर तु इसके भीतर मांस, ह ी, खून, क ड़े, मल-मू , कफ, प और वायु भरे पड़े ह। इसे
वही मूढ़ ी अपना यतम प त समझकर सेवन करती है, जसे कभी आपके
चरणार व दके मकर दक सुग ध सूँघनेको नह मली है ।।४५।। कमलनयन! आप
आ माराम ह। म सु दरी अथवा गुणवती ,ँ इन बात पर आपक नह जाती। अतः
आपका उदासीन रहना वाभा वक है, फर भी आपके चरणकमल म मेरा सु ढ़ अनुराग हो,
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यही मेरी अ भलाषा है। जब आप इस संसारक अ भवृ के लये उ कट रजोगुण वीकार
करके मेरी ओर दे खते ह, तब वह भी आपका परम अनु ह ही है ।।४६।। मधुसूदन! आपने
कहा क कसी अनु प वरको वरण कर लो। म आपक इस बातको भी झूठ नह मानती।
य क कभी-कभी एक पु षके ारा जीती जानेपर भी काशी-नरेशक क या अ बाके
समान कसी- कसीक सरे पु षम भी ी त रहती है ।।४७।। कुलटा ीका मन तो ववाह
हो जानेपर भी नये-नये पु ष क ओर खचता रहता है। बु मान् पु षको चा हये क वह
ऐसी कुलटा ीको अपने पास न रखे। उसे अपनानेवाला पु ष लोक और परलोक दोन खो
बैठता है, उभय हो जाता है ।।४८।।

का यं येत तव पादसरोजग ध-
मा ाय स मुख रतं जनतापवगम् ।
ल यालयं व वगण य गुणालय य
म या सदो भयमथ व व ः ।।४२

तं वानु पमभजं जगतामधीश-


मा मानम च पर च कामपूरम् ।
या मे तवाङ् ररणं सृ त भ म या
यो वै भज तमुपया यनृतापवगः ।।४३

त याः युर युत नृपा भवतोप द ाः


ीणां गृहेषु खरगो बडालभृ याः ।
य कणमूलम रकषण नोपयायाद्
यु म कथा मृड व रचसभासु गीता ।।४४

वक् म ुरोमनखकेश पन म त-
मासा थर कृ म वट् कफ प वातम् ।
जीव छवं भज त का तम त वमूढा
या ते पदा जमकर दम ज ती ी ।।४५

अ व बुजा मम ते चरणानुराग
आ मन् रत य म य चान त र ेः ।
य य वृ य उपा रजोऽ तमा ो
मामी से त ह नः परमानुक पा ।।४६

नैवालीकमहं म ये वच ते मधुसूदन ।

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अ बाया इव ह ायः क यायाः याद् र तः व चत् ।।४७

ू ाया ा प पुं या मनोऽ ये त नवं नवम् ।



बुधोऽसत न बभृयात् तां ब भय युतः ।।४८
ीभगवानुवाच
सा ेत ोतुकामै वं राजपु ल भता ।
मयो दतं यद वा थ सव तत् स यमेव ह ।।४९

यान् यान् कामयसे कामान् म यकामाय भा म न ।


स त ेका तभ ाया तव क या ण न यदा ।।५०

उपल धं प त ेम पा त यं च तेऽनघे ।
य ा यै ा यमानाया न धीम यपक षता ।।५१

ये मां भज त दा प ये तपसा तचयया ।


कामा मानोऽपवगशं मो हता मम मायया ।।५२
भगवान् ीकृ णने कहा—सा वी! राजकुमारी! यही बात सुननेके लये तो मने तुमसे
हँसी-हँसीम तु हारी वंचना क थी, तु ह छकाया था। तुमने मेरे वचन क जैसी ा या क है,
वह अ रशः स य है ।।४९।। सु दरी! तुम मेरी अन य ेयसी हो। मेरे त तु हारा अन य ेम
है। तुम मुझसे जो-जो अ भलाषाएँ करती हो, वे तो तु ह सदा-सवदा ा त ही ह। और यह
बात भी है क मुझसे क ई अ भलाषाएँ सांसा रक कामना के समान ब धनम
डालनेवाली नह होत , ब क वे सम त कामना से मु कर दे ती ह ।।५०।। पु यमयी
ये! मने तु हारा प त ेम और पा त य भी भलीभाँ त दे ख लया। मने उलट -सीधी बात
कह-कहकर तु ह वच लत करना चाहा था; पर तु तु हारी बु मुझसे त नक भी इधर-उधर
न ई ।।५१।। ये! म मो का वामी ँ। लोग को संसार-सागरसे पार करता ।ँ जो सकाम
पु ष अनेक कारके त और तप या करके दा प य-जीवनके वषय-सुखक अ भलाषासे
मेरा भजन करते ह, वे मेरी मायासे मो हत ह ।।५२।। मा ननी ये! म मो तथा स पूण
स पदा का आ य ,ँ अधी र ।ँ मुझ परमा माको ा त करके भी जो लोग केवल
वषयसुखके साधन स प क ही अ भलाषा करते ह, मेरी पराभ नह चाहते, वे बड़े
म दभागी ह, य क वषयसुख तो नरकम और नरकके ही समान सूकर-कूकर आ द
यो नय म भी ा त हो सकते ह। पर तु उन लोग का मन तो वषय म ही लगा रहता है,
इस लये उ ह नरकम जाना भी अ छा जान पड़ता है ।।५३।। गृहे री ाण ये! यह बड़े
आन दक बात है क तुमने अबतक नर तर संसार-ब धनसे मु करनेवाली मेरी सेवा क
है। पु ष ऐसा कभी नह कर सकते। जन य का च षत कामना से भरा आ

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है और जो अपनी इ य क तृ तम ही लगी रहनेके कारण अनेक कारके छल-छ द रचती
रहती ह, उनके लये तो ऐसा करना और भी क ठन है ।।५४।। मा न न! मुझे अपने घरभरम
तु हारे समान ेम करनेवाली भाया और कोई दखायी नह दे ती। य क जस समय तुमने
मुझे दे खा न था, केवल मेरी शंसा सुनी थी, उस समय भी अपने ववाहम आये ए
राजा क उपे ा करके ा णके ारा मेरे पास गु त स दे श भेजा था ।।५५।। तु हारा हरण
करते समय मने तु हारे भाईको यु म जीतकर उसे व प कर दया था और अ न के
ववाहो सवम चौसर खेलते समय बलरामजीने तो उसे मार ही डाला। क तु हमसे वयोग हो
जानेक आशंकासे तुमने चुपचाप वह सारा ःख सह लया। मुझसे एक बात भी नह कही।
तु हारे इस गुणसे म तु हारे वश हो गया ँ ।।५६।। तुमने मेरी ा तके लये तके ारा
अपना गु त स दे श भेजा था; पर तु जब तुमने मेरे प ँचनेम कुछ वल ब होता दे खा; तब
तु ह यह सारा संसार सूना द खने लगा। उस समय तुमने अपना यह सवागसु दर शरीर कसी
सरेके यो य न समझकर इसे छोड़नेका संक प कर लया था। तु हारा यह ेमभाव तु हारे
ही अंदर रहे। हम इसका बदला नह चुका सकते। तु हारे इस सव च ेम-भावका केवल
अ भन दन करते ह ।।५७।।

मां ा य मा न यपवगस पदं


वा छ त ये स पद एव त प तम् ।
ते म दभा या नरयेऽ प ये नृणां
मा ा मक वा रयः सुसंगमः ।।५३

द ा गृहे यसकृ म य वया


कृतानुवृ भवमोचनी खलैः ।
सु करासौ सुतरां रा शषो
सु भराया नकृ तजुषः याः ।।५४

न वा श ण यन गृ हण गृहेषु
प या म मा न न यया व ववाहकाले ।
ा तान् नृपानवगण य रहोहरो मे
था पतो ज उप ुतस कथ य ।।५५

ातु व पकरणं यु ध न जत य
ो ाहपव ण च त धम गो ाम् ।
ःखं समु थमसहोऽ मदयोगभी या
नैवा वीः कम प तेन वयं जता ते ।।५६

त वयाऽऽ मलभने सु व व म ः
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था पतो म य चराय त शू यमेतत् ।
म वा जहास इदमंगमन ययो यं
त ेत त व य वयं तन दयामः ।।५७
ीशुक उवाच
एवं सौरतसंलापैभगवान् जगद रः ।
वरतो रमया रेमे नरलोकं वड बयन् ।।५८

तथा यासाम प वभुगृहेषु गृहवा नव ।


आ थतो गृहमेधीयान् धमा लोकगु ह रः ।।५९
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जगद र भगवान् ीकृ ण आ माराम ह। वे जब
मनु य क -सी लीला कर रहे ह, तब उसम दा प य- ेमको बढ़ानेवाले वनोदभरे वातालाप भी
करते ह और इस कार ल मी पणी मणीजीके साथ वहार करते ह ।।५८।। भगवान्
ीकृ ण सम त जगत्को श ा दे नेवाले और सव ापक ह। वे इसी कार सरी प नय के
महल म भी गृह थ के समान रहते और गृह थो चत धमका पालन करते थे ।।५९।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध कृ ण मणीसंवादो
नाम ष तमोऽ यायः ।।६०।।

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अथैकष तमोऽ यायः
भगवान्क स त तका वणन तथा अ न के ववाहम मीका मारा
जाना
ीशुक उवाच
एकैकश ताः कृ ण य पु ान् दश दशाबलाः ।
अजीजन नवमा पतुः सवा मस पदा ।।१

गृहादनपगं वी य राजपु योऽ युतं थतम् ।


े ं यमंसत वं वं न त व वदः यः ।।२

चाव जकोशवदनायतबा ने -
स ेमहासरसवी तव गुज पैः ।
स मो हता भगवतो न मनो वजेतुं
वै व मैः समशकन् व नता वभू नः ।।३

मायावलोकलवद शतभावहा र-
ूम डल हतसौरतम शौ डैः ।
प य तु षोडशसह मनंगबाणै-
य ये यं वम थतुं करणैन शेकुः ।।४
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान् ीकृ णक येक प नीके गभसे दस-दस
पु उ प ए। वे प, बल आ द गुण म अपने पता भगवान् ीकृ णसे कसी बातम कम
न थे ।।१।। राजकुमा रयाँ दे खत क भगवान् ीकृ ण हमारे महलसे कभी बाहर नह जाते।
सदा हमारे ही पास बने रहते ह। इससे वे यही समझत क ीकृ णको म ही सबसे यारी ँ।
परी त्! सच पूछो तो वे अपने प त भगवान् ीकृ णका त व—उनक म हमा नह
समझती थ ।।२।। वे सु द रयाँ अपने आ मान दम एकरस थत भगवान् ीकृ णके कमल-
कलीके समान सु दर मुख, वशाल बा , कण पश ने , ेमभरी मुसकान, रसमयी चतवन
और मधुर वाणीसे वयं ही मो हत रहती थ । वे अपने शृंगारस ब धी हावभाव से उनके
मनको अपनी ओर ख चनेम समथ न हो सक ।।३।। वे सोलह हजारसे अ धक थ । अपनी
म द-म द मुसकान और तरछ चतवनसे यु मनोहर भ ह के इशारेसे ऐसे ेमके बाण
चलाती थ , जो काम-कलाके भाव से प रपूण होते थे, पर तु कसी भी कारसे, क ह
साधन के ारा वे भगवान्के मन एवं इ य म चंचलता नह उ प कर सक ।।४।।

इ थं रमाप तमवा य प त य ता
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ादयोऽ प न व ः पदव यद याम् ।
भेजुमुदा वरतमे धतयानुराग-
हासावलोकनवसंगमलालसा म् ।।५

युदगमासनवराहणपादशौच-

ता बूल व मणवीजनग धमा यैः ।
केश सारशयन नपनोपहाय-
दासीशता अ प वभो वदधुः म दा यम् ।।६

तासां१ या दशपु ाणां कृ ण ीणां पुरो दताः ।


अ ौ म ह य त पु ान् ु नाद न् गृणा म ते ।।७

चा दे णः सुदे ण चा दे ह वीयवान् ।
सुचा ा गु त २ भ चा तथापरः ।।८

चा च ो वचा चा दशमो हरेः ।


ु न मुखा जाता म यां नावमाः पतुः ।।९

भानुः सुभानुः वभानुः भानुभानुमां तथा ।


च भानुबृह ानुर तभानु तथा मः ।।१०

ीभानुः तभानु स यभामा मजा दश ।


सा बः सु म ः पु ज छत ज च सह जत् ।।११

वजय केतु वसुमान् वडः तुः ।


जा बव याः सुता ेते सा बा ाः पतृसंमताः३ ।।१२

वीर ोऽ सेन ४ च गुवगवान् वृषः ।


आमः शंकुवसुः ीमान् कु तना न जतेः सुताः ।।१३

ु ः क ववृषो वीरः सुबा भ एकलः ।



शा तदशः पूणमासः का ल ाः सोमकोऽवरः ।।१४
परी त्! ा आ द बड़े-बड़े दे वता भी भगवान्के वा त वक व पको या उनक
ा तके मागको नह जानते। उ ह रमारमण भगवान् ीकृ णको उन य ने प तके पम

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ा त कया था। अब न य- नर तर उनके ेम और आन दक अ भवृ होती रहती थी और
वे ेमभरी मुसकराहट, मधुर चतवन, नवसमागमक लालसा आ दसे भगवान्क सेवा करती
रहती थ ।।५।। उनमसे सभी प नय के साथ सेवा करनेके लये सैकड़ दा सयाँ रहत । फर
भी जब उनके महलम भगवान् पधारते तब वे वयं आगे जाकर आदरपूवक उ ह लवा लात ,
े आसनपर बैठात , उ म साम य से उनक पूजा करत , चरणकमल पखारत , पान
लगाकर खलात , पाँव दबाकर थकावट र करत , पंखा झलत , इ -फुलेल, च दन आ द
लगात , फूल के हार पहनात , केश सँवारत , सुलात , नान करात और अनेक कारके
भोजन कराकर अपने हाथ भगवान्क सेवा करत ।।६।।
परी त्! म कह चुका ँ क भगवान् ीकृ णक येक प नीके दस-दस पु थे। उन
रा नय म आठ पटरा नयाँ थ , जनके ववाहका वणन म पहले कर चुका ँ। अब उनके
ु न आ द पु का वणन करता ँ ।।७।। मणीके गभसे दस पु ए— ु न,
चा दे ण, सुदे ण, परा मी चा दे ह, सुचा , चा गु त, भ चा , चा च , वचा और
दसवाँ चा । ये अपने पता भगवान् ीकृ णसे कसी बातम कम न थे ।।८-९।। स यभामाके
भी दस पु थे—भानु, सुभानु, वभानु, भानु, भानुमान्, च भानु, बृह ानु, अ तभानु,
ीभानु और तभानु। जा बवतीके भी सा ब आ द दस पु थे—सा ब, सु म , पु जत्,
शत जत्, सह जत्, वजय, च केतु, वसुमान्, वड और तु। ये सब ीकृ णको ब त
यारे थे ।।१०-१२।। ना न जती स याके भी दस पु ए—वीर, च , अ सेन, च गु,
वेगवान्, वृष, आम, शंकु, वसु और परम तेज वी कु त ।।१३।। का ल द के दस पु ये थे—
ुत, क व, वृष, वीर, सुबा , भ , शा त, दश, पूणमास और सबसे छोटा सोमक ।।१४।।

घोषो गा वा संहो बलः बल ऊ वगः ।


मा याः
् पु ा महाश ः सहओजोऽपरा जतः ।।१५

वृको हष ऽ नलो गृ ो वधनोऽ ाद एव च ।


महाशः पावनो व म व दा मजाः ु धः ।।१६

सं ाम जद् बृह सेनः शूरः हरणोऽ र जत् ।


जयः सुभ ो भ ाया वाम आयु स यकः ।।१७

द तमां ता त ता ा१ रो ह या तनया हरेः ।


ु ना चा न ोऽभू मव यां महाबलः ।।१८

पु यां तु मणो राजन् ना ना भोजकटे पुरे ।


एतेषां पु पौ ा बभूवुः को टशो नृप ।
मातरः कृ णजातानां सह ा ण च षोडश ।।१९
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राजोवाच
कथं य रपु ाय ादाद् हतरं यु ध ।
कृ णेन प रभूत तं२ ह तुं र ं ती ते ।
एतदा या ह मे व न् षोववा हकं मथः ।।२०

अनागतमतीतं च वतमानमती यम् ।


व कृ ं व हतं स यक् प य त यो गनः ।।२१
ीशुक उवाच
वृतः३ वयंवरे सा ादनंगोऽ युत तया ।
रा ः समेतान् न ज य जहारैकरथो यु ध ।।२२
म दे शक राजकुमारी ल मणाके गभसे घोष, गा वान्, सह, बल, बल, ऊ वग,
महाश , सह, ओज और अपरा जतका ज म आ ।।१५।। म व दाके पु थे—वृक, हष,
अ नल, गृ , वधन, अ ाद, महाश, पावन, व और ु ध ।।१६।। भ ाके पु थे—
सं ाम जत्, बृह सेन, शूर, हरण, अ र जत्, जय, सुभ , वाम, आयु और स यक ।।१७।।
इन पटरा नय के अ त र भगवान्क रो हणी आ द सोलह हजार एक सौ और भी प नयाँ
थ । उनके द तमान् और ता त त आ द दस-दस पु ए। मणीन दन ु नका
मायावती र तके अ त र भोजकट-नगर- नवासी मीक पु ी मवतीसे भी ववाह आ
था। उसीके गभसे परम बलशाली अ न का ज म आ। परी त्! ीकृ णके पु क
माताएँ ही सोलह हजारसे अ धक थ । इस लये उनके पु -पौ क सं या करोड़ तक प ँच
गयी ।।१८-१९।।
राजा परी त्ने पूछा—परम ानी मुनी र! भगवान् ीकृ णने रणभू मम मीका
बड़ा तर कार कया था। इस लये वह सदा इस बातक घातम रहता था क अवसर मलते
ही ीकृ णसे उसका बदला लूँ और उनका काम तमाम कर डालू।ँ ऐसी थ तम उसने
अपनी क या मवती अपने श ुके पु ु नजीको कैसे याह द ? कृपा करके बतलाइये!
दो श ु म— ीकृ ण और मीम फरसे पर पर वैवा हक स ब ध कैसे आ? ।।२०।।
आपसे कोई बात छपी नह है। य क योगीजन भूत, भ व य और वतमानक सभी बात
भलीभाँ त जानते ह। उनसे ऐसी बात भी छपी नह रहत ; जो इ य से परे ह, ब त र ह
अथवा बीचम कसी व तुक आड़ होनेके कारण नह द खत ।।२१।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! ु नजी मू तमान् कामदे व थे। उनके सौ दय और
गुण पर रीझकर मवतीने वयंवरम उ ह को वरमाला पहना द । ु नजीने यु म अकेले
ही वहाँ इक े ए नर-प तय को जीत लया और मवतीको हर लाये ।।२२।।

य यनु मरन् वैरं मी कृ णावमा नतः ।

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तरद् भा गनेयाय सुतां कुवन् वसुः यम् ।।२३

म या तनयां राजन् कृतवमसुतो बली ।


उपयेमे वशाला क यां चा मत कल ।।२४

दौ ह ाया न ाय पौ यददा रेः ।


रोचनां ब वैरोऽ प वसुः य चक षया ।
जान धम तद् यौनं नेहपाशानुब धनः ।।२५

त म युदये राजन् मणी रामकेशवौ ।


पुरं भोजकटं ज मुः सा ब ु नकादयः ।।२६

त मन् नवृ उ ाहे का लग मुखा नृपाः ।


ता ते मणं ोचुबलम ै व नजय ।।२७

अन ो यं राज प तद् सनं महत् ।


इ यु ो बलमा य तेना ै यद त ।।२८

शतं सह मयुतं राम त ाददे पणम् ।


तं तु यजय का लगः ाहसद् बलम् ।
द तान् स दशय ु चैनामृ य लायुधः ।।२९

ततो ल ं यगृ ाद् लहं त ाजयद् बलः ।


जतवानह म याह मी कैतवमा तः ।।३०
य प भगवान् ीकृ णसे अपमा नत होनेके कारण मीके दयक ोधा न शा त
नह ई थी, वह अब भी उनसे वैर गाँठे ए था, फर भी अपनी ब हन मणीको स
करनेके लये उसने अपने भानजे ु नको अपनी बेट याह द ।।२३।। परी त्! दस
पु के अ त र मणीजीके एक परम सु दरी बड़े-बड़े ने वाली क या थी। उसका नाम
था चा मती। कृतवमाके पु बलीने उसके साथ ववाह कया ।।२४।।
परी त्! मीका भगवान् ीकृ णके साथ पुराना वैर था। फर भी अपनी ब हन
मणीको स करनेके लये उसने अपनी पौ ी रोचनाका ववाह मणीके पौ , अपने
नाती (दौ ह ) अ न के साथ कर दया। य प मीको इस बातका पता था क इस
कारका ववाह-स ब ध धमके अनुकूल नह है, फर भी नेह-ब धनम बँधकर उसने ऐसा
कर दया ।।२५।। परी त्! अ न के ववाहो सवम स म लत होनेके लये भगवान्
ीकृ ण, बलरामजी, मणीजी, ु न, सा ब आ द ारकावासी भोजकट नगरम
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पधारे ।।२६।। जब ववाहो सव न व न समा त हो गया, तब क लगनरेश आ द घमंडी
नरप तय ने मीसे कहा क ‘तुम बलरामजीको पास के खेलम जीत लो ।।२७।। राजन्!
बलरामजीको पासे डालने तो आते नह , पर तु उ ह खेलनेका ब त बड़ा सन है।’ उन
लोग के बहकानेसे मीने बलरामजीको बुलवाया और वह उनके साथ चौसर खेलने
लगा ।।२८।। बलरामजीने पहले सौ, फर हजार और इसके बाद दस हजार मुहर का दाँव
लगाया। उ ह मीने जीत लया। मीक जीत होनेपर क लगनरेश दाँत दखा- दखाकर,
ठहाका मारकर बलरामजीक हँसी उड़ाने लगा। बलरामजीसे वह हँसी सहन न ई। वे कुछ
चढ़ गये ।।२९।। इसके बाद मीने एक लाख मुहर का दाँव लगाया। उसे बलरामजीने जीत
लया। पर तु मी धूततासे यह कहने लगा क ‘मने जीता है’ ।।३०।। इसपर ीमान्
बलरामजी ोधसे तल मला उठे । उनके दयम इतना ोभ आ, मानो पू णमाके दन
समु म वार आ गया हो। उनके ने एक तो वभावसे ही लाल-लाल थे, सरे अ य त
ोधके मारे वे और भी दहक उठे । अब उ ह ने दस करोड़ मुहर का दाँव रखा ।।३१।। इस
बार भी ूत नयमके अनुसार बलरामजीक ही जीत ई। पर तु मीने छल करके कहा
—‘मेरी जीत है। इस वषयके वशेष क लगनरेश आ द सभासद् इसका नणय कर
द’ ।।३२।।

म युना ु भतः ीमान् समु इव पव ण ।


जा या णा ोऽ त षा यबुदं लहमाददे ।।३१

तं चा प जतवान् रामो धमण छलमा तः ।


मी जतं मया ेमे वद तु ा का इ त ।।३२

तदा वी भोवाणी बलेनैव जतो लहः ।


धमतो वचनेनैव मी वद त वै मृषा ।।३३

तामना य वैदभ राज यचो दतः ।


संकषणं प रहसन् बभाषे कालचो दतः ।।३४

नैवा को वदा यूयं गोपाला वनगोचराः ।


अ ैद त राजानो बाणै न भवा शाः ।।३५

मणैवम ध तो राज भ ोपहा सतः ।


ु ः प रघमु य ज ने तं नृ णसंस द ।।३६

क लगराजं तरसा गृही वा दशमे पदे ।

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द तानपातयत् ु ो योऽहसद् ववृतै जैः ।।३७

अ ये न भ बा शरसो धरो ताः ।


राजानो वुभ ता बलेन प रघा दताः ।।३८

नहते म ण याले ना वीत् सा वसाधु वा ।


मणीबलयो राजन् नेहभंगभया रः ।।३९
उस समय आकाशवाणीने कहा—‘य द धम-पूवक कहा जाय, तो बलरामजीने ही यह
दाँव जीता है। मीका यह कहना सरासर झूठ है क उसने जीता है’ ।।३३।। एक तो
मीके सरपर मौत सवार थी और सरे उसके साथी राजा ने भी उसे उभाड़ रखा
था। इससे उसने आकाशवाणीपर कोई यान न दया और बलरामजीक हँसी उड़ाते ए
कहा— ।।३४।। ‘बलरामजी! आ खर आपलोग वन-वन भटकनेवाले वाले ही तो ठहरे!
आप पासा खेलना या जान? पास और बाण से तो केवल राजालोग ही खेला करते ह,
आप-जैसे नह ’ ।।३५।। मीके इस कार आ ेप और राजा के उपहास करनेपर
बलरामजी ोधसे आगबबूला हो उठे । उ ह ने एक मुदगर ् उठाया और उस मांग लक सभाम
ही मीको मार डाला ।।३६।। पहले क लगनरेश दाँत दखा- दखाकर हँसता था, अब रंगम
भंग दे खकर वहाँसे भागा; पर तु बलरामजीने दस ही कदमपर उसे पकड़ लया और ोधसे
उसके दाँत तोड़ डाले ।।३७।। बलरामजीने अपने मुदगरक
् चोटसे सरे राजा क भी बाँह,
जाँघ और सर आ द तोड़-फोड़ डाले। वे खूनसे लथपथ और भयभीत होकर वहाँसे भागते
बने ।।३८।। परी त्! भगवान् ीकृ णने यह सोचकर क बलरामजीका समथन करनेसे
मणीजी अ स ह गी और मीके वधको बुरा बतलानेसे बलरामजी ह गे, अपने
साले मीक मृ युपर भला-बुरा कुछ भी न कहा ।।३९।। इसके बाद अ न जीका ववाह
और श ुका वध दोन योजन स हो जानेपर भगवान्के आ त बलरामजी आ द य वंशी
नव ववा हता ल हन रोचनाके साथ अ न जीको े रथपर चढ़ाकर भोजकट नगरसे
ारकापुरीको चले आये ।।४०।।

ततोऽ न ं सह सूयया वरं


रथं समारो य ययुः कुश थलीम् ।
रामादयो भोजकटाद् दशाहाः
स ा खलाथा मधुसूदना याः ।।४०
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध अ न ववाहे
मवधो नामैकष तमोऽ यायः ।।६१।।

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१. आसां। २. द त । ३. पतृव सला। ४. चा च ोऽ सेन ।
१. प ा ाः। २. तोऽसौ। ३. ाचीन तम ‘वृतः वयंवरे……….रथो यु ध’ यह ोक
‘य यनु मरन्…’ इस तेईसव ोकके बाद है।

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अथ ष तमोऽ यायः
ऊषा-अ न - मलन
राजोवाच
बाण य तनयामूषामुपयेमे य मः ।
त यु मभूद ् घोरं ह रशंकरयोमहत् ।
एतत् सव महायो गन् समा यातुं वमह स ।।१
ीशुक उवाच
बाणः पु शत ये ो बलेरासी महा मनः ।
येन वामन पाय हरयेऽदा य मे दनी ।।२

त यौरसः सुतो बाणः शवभ रतः सदा ।


मा यो वदा यो धीमां स यस धो ढ तः ।।३

शो णता ये पुरे र ये स रा यमकरोत् पुरा ।


त य श भोः सादे न ककरा इव तेऽमराः ।
सह बा वा ेन ता डवेऽतोषय मृडम् ।।४

भगवान् सवभूतेशः शर यो भ व सलः ।


वरेण छ दयामास स तं व े पुरा धपम् ।।५
राजा परी त्ने पूछा—महायोगस प मुनी र! मने सुना है क य वंश शरोम ण
अ न जीने बाणासुरक पु ी ऊषासे ववाह कया था और इस संगम भगवान् ीकृ ण
और शंकरजीका ब त बड़ा घमासान यु आ था। आप कृपा करके यह वृ ा त व तारसे
सुनाइये ।।१।।
ीशुकदे वजीने कहा—परी त्! महा मा ब लक कथा तो तुम सुन ही चुके हो।
उ ह ने वामन पधारी भगवान्को सारी पृ वीका दान कर दया था। उनके सौ लड़के थे।
उनम सबसे बड़ा था बाणासुर ।।२।। दै यराज ब लका औरस पु बाणासुर भगवान् शवक
भ म सदा रत रहता था। समाजम उसका बड़ा आदर था। उसक उदारता और बु म ा
शंसनीय थी। उसक त ा अटल होती थी और सचमुच वह बातका धनी था ।।३।। उन
दन वह परम रमणीय शो णतपुरम रा य करता था। भगवान् शंकरक कृपासे इ ा द दे वता
नौकर-चाकरक तरह उसक सेवा करते थे। उसके हजार भुजाएँ थ । एक दन जब भगवान्
शंकर ता डवनृ य कर रहे थे, तब उसने अपने हजार हाथ से अनेक कारके बाजे बजाकर
उ ह स कर लया ।।४।। सचमुच भगवान् शंकर बड़े ही भ व सल और शरणागतर क
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ह। सम त भूत के एकमा वामी भुने बाणासुरसे कहा—‘तु हारी जो इ छा हो, मुझसे
माँग लो।’ बाणासुरने कहा—‘भगवन्! आप मेरे नगरक र ा करते ए यह रहा कर’ ।।५।।

स एकदाऽऽह ग रशं पा थं वीय मदः ।


करीटे नाकवणन सं पृशं त पदा बुजम् ।।६

नम ये वां महादे व लोकानां गु मी रम् ।


पुंसामपूणकामानां कामपूरामराङ् पम् ।।७

दोःसह ं वया द ं परं भाराय मेऽभवत् ।


लो यां तयो ारं न लभे व ते समम् ।।८

क डू या नभृतैद भयुयु सु द गजानहम् ।


आ ायां चूणय न् भीता तेऽ प वुः ।।९

त छ वा भगवान् ु ः केतु ते भ यते यदा ।


व प नं भवे मूढ संयुगं म समेन ते ।।१०

इ यु ः कुम त ः वगृहं ा वश ृप ।
ती न् ग रशादे शं ववीयनशनं कुधीः ।।११

त योषा नाम हता व े ा ु नना र तम् ।


क यालभत का तेन ाग ु ेन सा ।।१२

सा त तमप य ती वा स का ते त वा दनी ।
सखीनां म य उ थौ व ला ी डता भृशम् ।।१३
एक दन बल-पौ षके घमंडम चूर बाणासुरने अपने समीप ही थत भगवान् शंकरके
चरणकमल को सूयके समान चमक ले मुकुटसे छू कर णाम कया और कहा— ।।६।।
‘दे वा धदे व! आप सम त चराचर जगत्के गु और ई र ह। म आपको नम कार करता ँ।
जन लोग के मनोरथ अबतक पूरे नह ए ह, उनको पूण करनेके लये आप क पवृ
ह ।।७।। भगवन्! आपने मुझे एक हजार भुजाएँ द ह, पर तु वे मेरे लये केवल भार प हो
रही ह। य क लोक म आपको छोड़कर मुझे अपनी बराबरीका कोई वीर-यो ा ही नह
मलता, जो मुझसे लड़ सके ।।८।।
आ ददे व! एक बार मेरी बाह म लड़नेके लये इतनी खुजलाहट ई क म द गज क
ओर चला। पर तु वे भी डरके मारे भाग खड़े ए। उस समय मागम अपनी बाह क चोटसे
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मने ब तसे पहाड़ को तोड़-फोड़ डाला था’ ।।९।। बाणासुरक यह ाथना सुनकर भगवान्
शंकरने त नक ोधसे कहा—‘रे मूढ़! जस समय तेरी वजा टू टकर गर जायगी, उस समय
मेरे ही समान यो ासे तेरा यु होगा और वह यु तेरा घमंड चूर-चूर कर दे गा’ ।।१०।।
परी त्! बाणासुरक बु इतनी बगड़ गयी थी क भगवान् शंकरक बात सुनकर उसे
बड़ा हष आ और वह अपने घर लौट गया। अब वह मूख भगवान् शंकरके आदे शानुसार
उस यु क ती ा करने लगा, जसम उसके बल-वीयका नाश होनेवाला था ।।११।।
परी त्! बाणासुरक एक क या थी, उसका नाम था ऊषा। अभी वह कुमारी ही थी क
एक दन व म उसने दे खा क ‘परम सु दर अ न जीके साथ मेरा समागम हो रहा है।’
आ यक बात तो यह थी क उसने अ न जीको न तो कभी दे खा था और न सुना ही
था ।।१२।। व म ही उ ह न दे खकर वह बोल उठ —‘ ाण यारे! तुम कहाँ हो?’ और
उसक न द टू ट गयी। वह अ य त व लताके साथ उठ बैठ और यह दे खकर क म
स खय के बीचम ँ, ब त ही ल जत ई ।।१३।। परी त्! बाणासुरके म ीका नाम था
कु भा ड। उसक एक क या थी, जसका नाम था च लेखा। ऊषा और च लेखा एक-
सरेक सहे लयाँ थ । च लेखाने ऊषासे कौतूहलवश पूछा— ।।१४।। ‘सु दरी!
राजकुमारी! म दे खती ँ क अभीतक कसीने तु हारा पा ण हण भी नह कया है। फर
तुम कसे ढूँ ढ़ रही हो और तु हारे मनोरथका या व प है?’ ।।१५।।

बाण य म ी कु भा ड लेखा च त सुता ।


स यपृ छत् सखीमूषां कौतूहलसम वता ।।१४

कं वं मृगयसे सु ूः क श ते मनोरथः ।
ह त ाहं न तेऽ ा प राजपु युपल ये ।।१५
ऊषोवाच
ःक रः व े यामः कमललोचनः ।
पीतवासा बृह ा य षतां दयंगमः ।।१६

तमहं मृगये का तं पाय य वाधरं मधु ।


वा प यातः पृहयत वा मां वृ जनाणवे ।।१७
च लेखोवाच
सनं तेऽपकषा म लो यां य द भा ते ।
तमाने ये नरं य ते मनोहता तमा दश ।।१८

इ यु वा दे वग धव स चारणप गान् ।
दै य व ाधरान् य ान् मनुजां यथा लखत् ।।१९
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मनुजेषु च सा वृ णीन् शूरमानक भम् ।
लखद् रामकृ णौ च ु नं वी य ल जता ।।२०

अ न ं व ल खतं वी योषावाङ् मुखी या ।


सोऽसावसा व त ाह मयमाना महीपते ।।२१
ऊषाने कहा—सखी! मने व म एक ब त ही सु दर नवयुवकको दे खा है। उसके
शरीरका रंग साँवला-साँवला-सा है। ने कमलदलके समान ह। शरीरपर पीला-पीला
पीता बर फहरा रहा है। भुजाएँ ल बी-ल बी ह और वह य का च चुरानेवाला है ।।१६।।
उसने पहले तो अपने अधर का मधुर मधु मुझे पलाया, पर तु म उसे अघाकर पी ही न पायी
थी क वह मुझे ःखके सागरम डालकर न जाने कहाँ चला गया। म तरसती ही रह गयी।
सखी! म अपने उसी ाणव लभको ढूँ ढ़ रही ँ ।।१७।।
च लेखाने कहा—‘सखी! य द तु हारा च चोर लोक म कह भी होगा, और उसे
तुम पहचान सकोगी, तो म तु हारी वरह- था अव य शा त कर ँ गी। म च बनाती ँ,
तुम अपने च चोर ाणव लभको पहचानकर बतला दो। फर वह चाहे कह भी होगा, म
उसे तु हारे पास ले आऊँगी’ ।।१८।। य कहकर च लेखाने बात-क -बातम ब त-से दे वता,
ग धव, स , चारण, प ग, दै य, व ाधर, य और मनु य के च बना दये ।।१९।।
मनु य म उसने वृ णवंशी वसुदेवजीके पता शूर, वयं वसुदेवजी, बलरामजी और भगवान्
ीकृ ण आ दके च बनाये। ु नका च दे खते ही ऊषा ल जत हो गयी ।।२०।।
परी त्! जब उसने अ न का च दे खा, तब तो ल जाके मारे उसका सर नीचा हो गया।
फर म द-म द मुसकराते ए उसने कहा—‘मेरा वह ाणव लभ यही है, यही है’ ।।२१।।

च लेखा तमा ाय पौ ं कृ ण य यो गनी ।


ययौ वहायसा राजन् ारकां कृ णपा लताम् ।।२२

त सु तं सुपयके ा ु नं योगमा थता ।


गृही वा शो णतपुरं स यै यमदशयत् ।।२३

सा च तं सु दरवरं वलो य मु दतानना ।


े ये वगृहे पु भी रेमे ा ु नना समम् ।।२४

परा यवासः ग धधूपद पासना द भः ।


पानभोजनभ यै वा यैः शु ूषया चतः ।।२५

गूढः क यापुरे श वृ नेहया तया ।


नाहगणान् स बुबुधे ऊषयाप ते यः ।।२६
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तां तथा य वीरेण भु यमानां हत ताम् ।
हेतु भल यांच ु रा ीतां रव छदै ः ।।२७

भटा आवेदयांच ू राजं ते हतुवयम् ।


वचे तं ल यामः क यायाः कुल षणम् ।।२८
परी त्! च लेखा यो गनी थी। वह जान गयी क ये भगवान् ीकृ णके पौ ह। अब
वह आकाशमागसे रा म ही भगवान् ीकृ णके ारा सुर त ारकापुरीम प ँची ।।२२।।
वहाँ अ न जी ब त ही सु दर पलँगपर सो रहे थे। च लेखा योग स के भावसे उ ह
उठाकर शो णतपुर ले आयी और अपनी सखी ऊषाको उसके यतमका दशन करा
दया ।।२३।। अपने परम सु दर ाण-व लभको पाकर आन दक अ धकतासे उसका
मुखकमल फु लत हो उठा और वह अ न जीके साथ अपने महलम वहार करने लगी।
परी त्! उसका अ तःपुर इतना सुर त था क उसक ओर कोई पु ष झाँकतक नह
सकता था ।।२४।। ऊषाका ेम दन ना रात चौगुना बढ़ता जा रहा था। वह ब मू य व ,
पु प के हार, इ -फुलेल, धूप-द प, आसन आ द साम य से, सुमधुर पेय (पीनेयो य पदाथ
— ध, शरबत आ द), भो य (चबाकर खाने-यो य) और भ य ( नगल जानेयो य) पदाथ से
तथा मनोहर वाणी एवं सेवा-शु ूषासे अ न जीका बड़ा स कार करती। ऊषाने अपने
ेमसे उनके मनको अपने वशम कर लया। अ न जी उस क याके अ तःपुरम छपे रहकर
अपने-आपको भूल गये। उ ह इस बातका भी पता न चला क मुझे यहाँ आये कतने दन
बीत गये ।।२५-२६।।
परी त्! य कुमार अ न जीके सहवाससे ऊषाका कुआँरपन न हो चुका था। उसके
शरीरपर ऐसे च कट हो गये, जो प इस बातक सूचना दे रहे थे और ज ह कसी
कार छपाया नह जा सकता था। ऊषा ब त स भी रहने लगी। पहरेदार ने समझ लया
क इसका कसी-न- कसी पु षसे स ब ध अव य हो गया है। उ ह ने जाकर बाणासुरसे
नवेदन कया—‘राजन्! हमलोग आपक अ ववा हता राजकुमारीका जैसा रंग-ढं ग दे ख रहे
ह, वह आपके कुलपर ब ा लगानेवाला है ।।२७-२८।। भो! इसम स दे ह नह क हमलोग
बना म टू टे, रात- दन महलका पहरा दे ते रहते ह। आपक क याको बाहरके मनु य दे ख
भी नह सकते। फर भी वह कलं कत कैसे हो गयी? इसका कारण हमारी समझम नह आ
रहा है’ ।।२९।।

अनपा य भर मा भगु ताया गृहे भो ।


क याया षणं पु भ े ाया न व हे ।।२९

ततः थतो बाणो हतुः त ु षणः ।


व रतः क यकागारं ा तोऽ ा ीद् य हम् ।।३०

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कामा मजं तं भुवनैकसु दरं
यामं पशंगा बरम बुजे णम् ।
बृह जं कु डलकु तल वषा
मतावलोकेन च म डताननम् ।।३१

द तम ैः यया भनृ णया


तदं गसंग तनकुंकुम जम् ।
बा ोदधानं मधुम लका तां
त या आसीनमवे य व मतः ।।३२

स तं व ं वृतमातता य भ-
भटै रनीकैरवलो य माधवः ।
उ य मौव प रघं व थतो
यथा तको द डधरो जघांसया ।।३३

जघृ या तान् प रतः सपतः


शुनो यथा सूकरयूथपोऽहनत् ।
ते ह यमाना भवनाद् व नगता
न भ मूध भुजाः वुः ।।३४
परी त्! पहरेदार से यह समाचार जानकर क क याका च र षत हो गया है,
बाणासुरके दयम बड़ी पीड़ा ई। वह झटपट ऊषाके महलम जा धमका और दे खा क
अ न जी वहाँ बैठे ए ह ।।३०।। य परी त्! अ न जी वयं कामावतार ु नजीके
पु थे। भुवनम उनके जैसा सु दर और कोई न था। साँवरा-सलोना शरीर और उसपर
पीता बर फहराता आ, कमलदलके समान बड़ी-बड़ी कोमल आँख, ल बी-ल बी भुजाएँ,
कपोल पर घुँघराली अलक और कु डल क झल मलाती ई यो त, होठ पर म द-म द
मुसकान और ेमभरी चतवनसे मुखक शोभा अनूठ हो रही थी ।।३१।। अ न जी उस
समय अपनी सब ओरसे सज-धजकर बैठ ई यतमा ऊषाके साथ पासे खेल रहे थे।
उनके गलेम बसंती बेलाके ब त सु दर पु प का हार सुशो भत हो रहा था और उस हारम
ऊषाके अंगका स पक होनेसे उसके व ः थलक केशर लगी ई थी। उ ह ऊषाके सामने ही
बैठा दे खकर बाणासुर व मत—च कत हो गया ।।३२।। जब अ न जीने दे खा क
बाणासुर ब त-से आ मणकारी श ा से सुस जत वीर सै नक के साथ महल म घुस
आया है, तब वे उ ह धराशायी कर दे नेके लये लोहेका एक भयंकर प रघ लेकर डट गये,
मानो वयं कालद ड लेकर मृ यु (यम) खड़ा हो ।।३३।। बाणासुरके साथ आये ए सै नक
उनको पकड़नेके लये य - य उनक ओर झपटते, य - य वे उ ह मार-मारकर गराते
जाते—ठ क वैसे ही, जैसे सूअर के दलका नायक कु को मार डाले! अ न जीक चोटसे
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उन सै नक के सर, भुजा, जंघा आ द अंग टू ट-फूट गये और वे महल से नकल भागे ।।३४।।
जब बली बाणासुरने दे खा क यह तो मेरी सारी सेनाका संहार कर रहा है, तब वह ोधसे
तल मला उठा और उसने नागपाशसे उ ह बाँध लया। ऊषाने जब सुना क उसके
यतमको बाँध लया गया है, तब वह अ य त शोक और वषादसे व ल हो गयी; उसके
ने से आँसूक धारा बहने लगी, वह रोने लगी ।।३५।।

तं नागपाशैब लन दनो बली


न तं वसै यं कु पतो बब ध ह ।

ऊषा भृशं शोक वषाद व ला


ब ं नश या ुकला यरौ दषीत् ।।३५
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध-ऽ न ब धो नाम
ष तमोऽ यायः ।।६२।।

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अथ ष तमोऽ यायः
भगवान् ीकृ णके साथ बाणासुरका यु
ीशुक उवाच
अप यतां चा न ं त धूनां च भारत ।
च वारो वा षका मासा तीयुरनुशोचताम् ।।१

नारदा पाक य वाता ब य कम च ।


ययुः शो णतपुरं वृ णयः कृ णदे वताः ।।२

ु नो युयुधान गदः सा बोऽथ सारणः ।


न दोपन दभ ा ा रामकृ णानुव तनः ।।३

अ ौ हणी भ ादश भः समेताः सवतो दशम् ।


धुबाणनगरं सम तात् सा वतषभाः ।।४

भ यमानपुरो ान ाकारा ालगोपुरम् ।


े माणो षा व तु यसै योऽ भ नययौ ।।५

बाणाथ भगवान् ः ससुतैः मथैवृतः ।


आ न दवृषभं युयुधे रामकृ णयोः ।।६

आसीत् सुतुमुलं यु म तं रोमहषणम् ।


कृ णशंकरयो राजन् ु नगुहयोर प ।।७
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! बरसातके चार महीने बीत गये। पर तु
अ न जीका कह पता न चला। उनके घरके लोग, इस घटनासे ब त ही शोकाकुल हो रहे
थे ।।१।। एक दन नारदजीने आकर अ न का शो णतपुर जाना, वहाँ बाणासुरके
सै नक को हराना और फर नागपाशम बाँधा जाना—यह सारा समाचार सुनाया। तब
ीकृ णको ही अपना आरा यदे व माननेवाले य वं शय ने शो णतपुरपर चढ़ाई कर द ।।२।।
अब ीकृ ण और बलरामजीके साथ उनके अनुयायी सभी य वंशी— ु न, सा य क, गद,
सा ब, सारण, न द, उपन द और भ आ दने बारह अ ौ हणी सेनाके साथ ूह बनाकर
चार ओरसे बाणासुरक राजधानीको घेर लया ।।३-४।। जब बाणासुरने दे खा क
य वं शय क सेना नगरके उ ान, परकोट , बुज और सह ार को तोड़-फोड़ रही है, तब
उसे बड़ा ोध आया और वह भी बारह अ ौ हणी सेना लेकर नगरसे नकल पड़ा ।।५।।
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बाणासुरक ओरसे सा ात् भगवान् शंकर वृषभराज न द पर सवार होकर अपने पु
का तकेय और गण के साथ रणभू मम पधारे और उ ह ने भगवान् ीकृ ण तथा बलरामजीसे
यु कया ।।६।। परी त्! वह यु इतना अद्भुत और घमासान आ क उसे दे खकर
र गटे खड़े हो जाते थे। भगवान् ीकृ णसे शंकरजीका और ु नसे वा मका तकका यु
आ ।।७।। बलरामजीसे कु भा ड और कूपकणका यु आ। बाणासुरके पु के साथ
सा ब और वयं बाणासुरके साथ सा य क भड़ गये ।।८।। ा आ द बड़े-बड़े दे वता,
ऋ ष-मु न, स -चारण, ग धव-अ सराएँ और य वमान पर चढ़-चढ़कर यु दे खनेके
लये आ प ँचे ।।९।। भगवान् ीकृ णने अपने शा धनुषके तीखी नोकवाले बाण से
शंकरजीके अनुचर —भूत, ेत, मथ, गु क, डा कनी, यातुधान, वेताल, वनायक, ेतगण,
मातृगण, पशाच, कू मा ड और -रा स को मार-मारकर खदे ड़ दया ।।१०-११।।
पनाकपा ण शंकरजीने भगवान् ीकृ णपर भाँ त-भाँ तके अग णत अ -श का योग
कया, पर तु भगवान् ीकृ णने बना कसी कारके व मयके उ ह वरोधी श ा से
शा त कर दया ।।१२।। भगवान् ीकृ णने ा क शा तके लये ा का,
वाय ा के लये पावता का, आ नेया के लये पज या का और पाशुपता के लये
नारायणा का योग कया ।।१३।। इसके बाद भगवान् ीकृ णने जृ भणा से ( जससे
मनु यको जँभाई-पर-जँभाई आने लगती है) महादे वजीको मो हत कर दया। वे यु से वरत
होकर जँभाई लेने लगे, तब भगवान् ीकृ ण शंकरजीसे छु पाकर तलवार, गदा और
बाण से बाणासुरक सेनाका संहार करने लगे ।।१४।। इधर ु नने बाण क बौछारसे
वा मका तकको घायल कर दया, उनके अंग-अंगसे र क धारा बह चली, वे रणभू म
छोड़कर अपने वाहन मयूर ारा भाग नकले ।।१५।। बलरामजीने अपने मूसलक चोटसे
कु भा ड और कूपकणको घायल कर दया, वे रणभू मम गर पड़े। इस कार अपने
सेनाप तय को हताहत दे खकर बाणासुरक सारी सेना ततर- बतर हो गयी ।।१६।।

कु भा डकूपकणा यां बलेन सह संयुगः ।


सा ब य बाणपु ेण बाणेन सह सा यकेः ।।८

ादयः सुराधीशा मुनयः स चारणाः ।


ग धवा सरसो य ा वमानै ु मागमन् ।।९

शंकरानुचरा छौ रभूत मथगु कान् ।


डा कनीयातुधानां वेतालान् स वनायकान् ।।१०

े मातृ पशाचां कू मा डान्


त रा सान् ।
ावयामास ती णा ैः शरैः शा धनु युतैः ।।११

पृथ वधा न ायुङ् पना य ा ण शा णे ।


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य ैः शमयामास शा पा णर व मतः ।।१२

ा यच ा ं वाय य च पावतम् ।
आ नेय य च पाज यं नैजं पाशुपत य च ।।१३

मोह य वा तु ग रशं जृ भणा ेण जृ भतम् ।


बाण य पृतनां शौ रजघाना सगदे षु भः ।।१४

क दः ु नबाणौघैर मानः सम ततः ।


असृग् वमुंचन् गा े यः श खनापा मद् रणात् ।।१५

कु भा डः कूपकण पेततुमुसला दतौ ।


वु तदनीका न हतनाथा न सवतः ।।१६

वशीयमाणं वबलं ् वा बाणोऽ यमषणः ।


कृ णम य वत् सं ये रथी ह वैव सा य कम् ।।१७
जब रथपर सवार बाणासुरने दे खा क ीकृ ण आ दके हारसे हमारी सेना ततर- बतर
और तहस-नहस हो रही है, तब उसे बड़ा ोध आया। उसने चढ़कर सा य कको छोड़ दया
और वह भगवान् ीकृ णपर आ मण करनेके लये दौड़ पड़ा ।।१७।। परी त्! रणो म
बाणासुरने अपने एक हजार हाथ से एक साथ ही पाँच सौ धनुष ख चकर एक-एकपर दो-दो
बाण चढ़ाये ।।१८।। पर तु भगवान् ीकृ णने एक साथ ही उसके सारे धनुष काट डाले और
सार थ, रथ तथा घोड़ को भी धराशायी कर दया एवं शंख व न क ।।१९।। कोटरा नामक
एक दे वी बाणासुरक धममाता थी। वह अपने उपासक पु के ाण क र ाके लये बाल
बखेरकर नंग-धड़ंग भगवान् ीकृ णके सामने आकर खड़ी हो गयी ।।२०।। भगवान्
ीकृ णने इस लये क कह उसपर न पड़ जाय, अपना मुँह फेर लया और वे सरी
ओर दे खने लगे। तबतक बाणासुर धनुष कट जाने और रथहीन हो जानेके कारण अपने
नगरम चला गया ।।२१।। इधर जब भगवान् शंकरके भूतगण इधर-उधर भाग गये, तब
उनका छोड़ा आ तीन सर और तीन पैरवाला वर दस दशा को जलाता आ-सा
भगवान् ीकृ णक ओर दौड़ा ।।२२।। भगवान् ीकृ णने उसे अपनी ओर आते दे खकर
उसका मुकाबला करनेके लये अपना वर छोड़ा। अब वै णव और माहे र दोन वर
आपसम लड़ने लगे ।।२३।। अ तम वै णव वरके तेजसे माहे र वर पी ड़त होकर
च लाने लगा और अ य त भयभीत हो गया। जब उसे अ य कह ाण न मला, तब वह
अ य त न तासे हाथ जोड़कर शरणम लेनेके लये भगवान् ीकृ णसे ाथना करने
लगा ।।२४।।

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धनूं याकृ य युगपद् बाणः पंचशता न वै ।
एकैक म छरौ ौ ौ स दधे रण मदः ।।१८

ता न च छे द भगवान् धनूं ष युगप रः ।


सार थ रथम ां ह वा शंखमपूरयत् ।।१९

त माता कोटरा नाम न ना मु शरो हा ।


पुरोऽवत थे कृ ण य पु ाण रर या ।।२०

तत तयङ् मुखो न नाम नरी न् गदा जः ।


बाण तावद् वरथ छ ध वा वशत् पुरम् ।।२१

व ा वते भूतगणे वर तु शरा पात् ।


अ यधावत दाशाह दह व दशो दश ।।२२

अथ नारायणो दे व तं ् वा सृज वरम् ।


माहे रो वै णव युयुधाते वरावुभौ ।।२३

माहे रः समा दन् वै णवेन बला दतः ।


अल वाभयम य भीतो माहे रो वरः ।
शरणाथ षीकेशं तु ाव यतांज लः ।।२४
वर उवाच
नमा म वान तश परेशं
सवा मानं केवलं तमा म् ।
व ो प थानसंरोधहेतुं
य द् लगं शा तम् ।।२५

कालो दै वं कम जीवः वभावो


ं े ं ाण आ मा वकारः ।
त संघातो बीजरोह वाह-
व मायैषा त षेधं प े ।।२६
वरने कहा— भो! आपक श अन त है। आप ा द ई र के भी परम महे र
ह। आप सबके आ मा और सव व प ह। आप अ तीय और केवल ान व प ह।
संसारक उ प , थ त और संहारके कारण आप ही ह। ु तय के ारा आपका ही वणन
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और अनुमान कया जाता है। आप सम त वकार से र हत वयं ह। म आपको णाम
करता ँ ।।२५।। काल, दै व (अ ), कम, जीव, वभाव, सू मभूत, शरीर, सू ा मा ाण,
अहंकार, एकादश इ याँ और पंचभूत—इन सबका संघात लगशरीर और बीजांकुर-
यायके अनुसार उससे कम और कमसे फर लग-शरीरक उ प —यह सब आपक माया
है। आप मायाके नषेधक परम अव ध ह। म आपक शरण हण करता ँ ।।२६।। भो!
आप अपनी लीलासे ही अनेक प धारण कर लेते ह और दे वता, साधु तथा
लोकमयादा का पालन-पोषण करते ह। साथ ही उ मागगामी और हसक असुर का संहार
भी करते ह। आपका यह अवतार पृ वीका भार उतारनेके लये ही आ है ।।२७।। भो!
आपके शा त, उ और अ य त भयानक सह तेज वरसे म अ य त स त त हो रहा ँ।
भगवन्! दे हधारी जीव को तभीतक ताप-स ताप रहता है, जबतक वे आशाके फंद म फँसे
रहनेके कारण आपके चरण-कमल क शरण नह हण करते ।।२८।।

नानाभावैल लयैवोपप ै-
दवान् साधूँ लोकसेतून् बभ ष ।
हं यु मागान् हसया वतमानान्
ज मैत े भारहाराय भूमेः ।।२७

त तोऽहं ते तेजसा ःसहेन


शा तो ेणा यु बणेन वरेण ।
ताव ापो दे हनां तेऽङ् मूलं
नो सेवेरन् यावदाशानुब ाः ।।२८
ीभगवानुवाच
शर ते स ोऽ म ेतु ते म वराद् भयम् ।
यो नौ मर त संवादं त य व भवेद ् भयम् ।।२९

इ यु ोऽ युतमान य गतो माहे रो वरः ।


बाण तु रथमा ढः ागा ो यंजनादनम् ।।३०

ततो बा सह णे नानायुधधरोऽसुरः ।
मुमोच परम ु ो बाणां ायुधे नृप ।।३१

त या यतोऽ ा यसकृ च े ण ुरने मना ।


च छे द भगवान् बा न् शाखा इव वन पतेः ।।३२

बा षु छ मानेषु बाण य भगवान् भवः ।


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भ ानुक युप य च ायुधमभाषत ।।३३

उवाच
वं ह परं यो तगूढं ण वाङ् मये ।
यं प य यमला मान आकाश मव केवलम् ।।३४

ना भनभोऽ नमुखम बु रेतो


ौः शीषमाशा ु तरङ् व ।
च ो मनो य य गक आ मा
अहं समु ो जठरं भुजे ः ।।३५
भगवान् ीकृ णने कहा—‘ शरा! म तुमपर स ँ। अब तुम मेरे वरसे नभय हो
जाओ। संसारम जो कोई हम दोन के संवादका मरण करेगा, उसे तुमसे कोई भय न
रहेगा’ ।।२९।। भगवान् ीकृ णके इस कार कहनेपर माहे र वर उ ह णाम करके चला
गया। तबतक बाणासुर रथपर सवार होकर भगवान् ीकृ णसे यु करनेके लये फर आ
प ँचा ।।३०।। परी त्! बाणासुरने अपने हजार हाथ म तरह-तरहके ह थयार ले रखे थे।
अब वह अ य त ोधम भरकर च पा ण भगवान्पर बाण क वषा करने लगा ।।३१।। जब
भगवान् ीकृ णने दे खा क बाणासुरने तो बाण क झड़ी लगा द है, तब वे छु रेके समान
तीखी धारवाले च से उसक भुजाएँ काटने लगे, मानो कोई कसी वृ क छोट -छोट
डा लयाँ काट रहा हो ।।३२।। जब भ व सल भगवान् शंकरने दे खा क बाणासुरक भुजाएँ
कट रही ह, तब वे च धारी भगवान् ीकृ णके पास आये और तु त करने लगे ।।३३।।
भगवान् शंकरने कहा— भो! आप वेदम म ता पय पसे छपे ए परम यो तः-
व प पर ह। शु दय महा मागण आपके आकाशके समान सव ापक और
न वकार ( नलप) व पका सा ा कार करते ह ।।३४।। आकाश आपक ना भ है, अ न
मुख है और जल वीय। वग सर, दशाएँ कान और पृ वी चरण है। च मा मन, सूय ने
और म शव आपका अहंकार ँ। समु आपका पेट है और इ भुजा ।।३५।। धा या द
ओष धयाँ रोम ह, मेघ केश ह और ा बु । जाप त लग ह और धम दय। इस कार
सम त लोक और लोका तर के साथ जसके शरीरक तुलना क जाती है, वे परमपु ष आप
ही ह ।।३६।। अख ड यो तः व प परमा मन्! आपका यह अवतार धमक र ा और
संसारके अ युदय—अ भवृ के लये आ है। हम सब भी आपके भावसे ही भावा वत
होकर सात भुवन का पालन करते ह ।।३७।। आप सजातीय, वजातीय और वगतभेदसे
र हत ह—एक और अ तीय आ दपु ष ह। मायाकृत जा त्, व और सुबु त—इन तीन
अव था म अनुगत और उनसे अतीत तुरीयत व भी आप ही ह। आप कसी सरी व तुके
ारा का शत नह होते, वयं काश ह। आप सबके कारण ह, पर तु आपका न तो कोई
कारण है और न तो आपम कारणपना ही है। भगवन्! ऐसा होनेपर भी आप तीन गुण क
व भ वषमता को का शत करनेके लये अपनी मायासे दे वता, पशु-प ी, मनु य आ द

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शरीर के अनुसार भ - भ प म तीत होते ह ।।३८।। भो! जैसे सूय अपनी छाया
बादल से ही ढक जाता है और उन बादल तथा व भ प को का शत करता है उसी
कार आप तो वयं काश ह, पर तु गुण के ारा मानो ढक-से जाते ह और सम त गुण
तथा गुणा भमानी जीव को का शत करते ह। वा तवम आप अन त ह ।।३९।।
रोमा ण य यौषधयोऽ बुवाहाः
केशा व र चो धषणा वसगः ।
जाप त दयं य य धमः
स वै भवान् पु षो लोकक पः ।।३६

तवावतारोऽयमकु ठधामन्
धम य गु यै जगतो भवाय ।
वयं च सव भवतानुभा वता
वभावयामो भुवना न स त ।।३७

वमेक आ ः पु षोऽ तीय-


तुयः व घेतुरहेतुरीशः ।
तीयसेऽथा प यथा वकारं
वमायया सवगुण स यै ।।३८

यथैव सूयः प हत छायया वया


छायां च पा ण च संचका त ।
एवं गुणेना प हतो गुणां व-
मा म द पो गु णन भूमन् ।।३९

य मायामो हत धयः पु दारगृहा दषु ।


उ म ज त नम ज त स ा वृ जनाणवे ।।४०

दे वद ममं ल वा नृलोकम जते यः ।


यो ना येत व पादौ स शो यो ा मवंचकः ।।४१

य वां वसृजते म य आ मानं यमी रम् ।


वपयये याथाथ वषम यमृतं यजन् ।।४२
भगवन्! आपक मायासे मो हत होकर लोग ी-पु , दे ह-गेह आ दम आस हो जाते
ह और फर ःखके अपार सागरम डू बने-उतराने लगते ह ।।४०।। संसारके मानव को यह
मनु य-शरीर आपने अ य त कृपा करके दया है। जो पु ष इसे पाकर भी अपनी इ य को
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वशम नह करता और आपके चरणकमल का आ य नह लेता—उनका सेवन नह करता,
उसका जीवन अ य त शोचनीय है और वह वयं अपने-आपको धोखा दे रहा है ।।४१।।
भो! आप सम त ा णय के आ मा, यतम और ई र ह। जो मृ युका ास मनु य आपको
छोड़ दे ता है और अना म, ःख प एवं तु छ वषय म सुखबु करके उनके पीछे भटकता
है, वह इतना मूख है क अमृतको छोड़कर वष पी रहा है ।।४२।। म, ा, सारे दे वता और
वशु दयवाले ऋ ष-मु न सब कारसे और सवा मभावसे आपके शरणागत ह; य क
आप ही हमलोग के आ मा, यतम और ई र ह ।।४३।। आप जगत्क उ प , थ त
और लयके कारण ह। आप सबम सम, परम शा त, सबके सु द्, आ मा और इ दे व ह।
आप एक, अ तीय और जगत्के आधार तथा अ ध ान ह। हे भो! हम सब संसारसे मु
होनेके लये आपका भजन करते ह ।।४४।।

अहं ाथ वबुधा मुनय ामलाशयाः ।


सवा मना प ा वामा मानं े मी रम् ।।४३

तं वा जग थ युदया तहेतुं
समं शा तं सु दा मदै वम् ।
अन यमेकं जगदा मकेतं
भवापवगाय भजाम दे वम् ।।४४

अयं ममे ो द यतोऽनुवत


मयाभयं द ममु य दे व ।
स पा तां तद् भवतः सादो
यथा ह ते दै यपतौ सादः ।।४५
ीभगवानुवाच
यदा थ भगवं व ः करवाम यं तव ।
भवतो यद् व सतं त मे सा वनुमो दतम् ।।४६

अव योऽयं ममा येष वैरोच नसुतोऽसुरः ।


ादाय वरो द ो न व यो मे तवा वयः ।।४७

दप पशमनाया य वृ णा बाहवो मया ।


सू दतं च बलं भू र य च भारा यतं भुवः ।।४८

च वारोऽ य भुजाः श ा भ व य यजरामराः ।


पाषदमु यो भवतो नकुत योऽसुरः ।।४९
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इ त ल वाभयं कृ णं ण य शरसासुरः ।
ा ु नं रथमारो य सव वा समुपानयत् ।।५०

अ ौ ह या प रवृतं सुवासःसमलंकृतम् ।
सप नीकं पुर कृ य ययौ ानुमो दतः ।।५१
दे व! यह बाणासुर मेरा परम य, कृपापा और सेवक है। मने इसे अभयदान दया है।
भो! जस कार इसके परदादा दै यराज ादपर आपका कृपा साद है, वैसा ही
कृपा साद आप इसपर भी कर ।।४५।।
भगवान् ीकृ णने कहा—भगवन्! आपक बात मानकर—जैसा आप चाहते ह, म
इसे नभय कये दे ता ँ। आपने पहले इसके स ब धम जैसा न य कया था—मने इसक
भुजाएँ काटकर उसीका अनुमोदन कया है ।।४६।। म जानता ँ क बाणासुर दै यराज
ब लका पु है। इस लये म भी इसका वध नह कर सकता; य क मने ादको वर दे दया
है क म तु हारे वंशम पैदा होनेवाले कसी भी दै यका वध नह क ँ गा ।।४७।। इसका घमंड
चूर करनेके लये ही मने इसक भुजाएँ काट द ह। इसक ब त बड़ी सेना पृ वीके लये भार
हो रही थी, इसी लये मने उसका संहार कर दया है ।।४८।। अब इसक चार भुजाएँ बच रही
ह। ये अजर, अमर बनी रहगी। यह बाणासुर आपके पाषद म मु य होगा। अब इसको
कसीसे कसी कारका भय नह है ।।४९।।
ीकृ णसे इस कार अभयदान ा त करके बाणासुरने उनके पास आकर धरतीम माथा
टे का, णाम कया और अ न जीको अपनी पु ी ऊषाके साथ रथपर बैठाकर भगवान्के
पास ले आया ।।५०।। इसके बाद भगवान् ीकृ णने महादे वजीक स म तसे
व ालंकार वभू षत ऊषा और अ न जीको एक अ ौ हणी सेनाके साथ आगे करके
ारकाके लये थान कया ।।५१।। इधर ारकाम भगवान् ीकृ ण आ दके शुभागमनका
समाचार सुनकर झं डय और तोरण से नगरका कोना-कोना सजा दया गया। बड़ी-बड़ी
सड़क और चौराह को च दन- म त जलसे स च दया गया। नगरके नाग रक , ब धु-
बा धव और ा ण ने आगे आकर खूब धूमधामसे भगवान्का वागत कया। उस समय
शंख, नगार और ढोल क तुमुल व न हो रही थी। इस कार भगवान् ीकृ णने अपनी
राजधानीम वेश कया ।।५२।।

वराजधान समलंकृतां वजैः


सतोरणै तमागच वराम् ।
ववेश शंखानक भ वनै-
र यु तः पौरसु द् जा त भः ।।५२

य एवं कृ ण वजयं शंकरेण च संयुगम् ।


सं मरेत् ात थाय न त य यात् पराजयः ।।५३
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परी त्! जो पु ष ीशंकरजीके साथ भगवान् ीकृ णका यु और उनक वजयक
कथाका ातःकाल उठकर मरण करता है, उसक पराजय नह होती ।।५३।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे१ उ राध ऽ न ानयनं नाम
ष तमोऽ यायः ।।६३।।

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अथ चतुःष तमोऽ यायः
नृग राजाक कथा
ीशुक उवाच
एकदोपवनं राजन् ज मुय कुमारकाः ।
वहतु सा ब ु नचा भानुगदादयः ।।१

ड वा सु चरं त व च व तः पपा सताः ।


जलं न दके कूपे द शुः स वम तम् ।।२

कृकलासं ग र नभं वी य व मतमानसाः ।


त य चो रणे य नं च ु ते कृपया वताः ।।३

चमजै ता तवैः पाशैबद् वा प ततमभकाः ।


नाश नुवन् समु तु कृ णायाच यु सुकाः ।।४
ीशुकदे वजी कहते ह— य परी त्! एक दन सा ब, ु न, चा भानु और गद
आ द य वंशी राजकुमार घूमनेके लये उपवनम गये ।।१।। वहाँ ब त दे रतक खेल खेलते ए
उ ह यास लग आयी। अब वे इधर-उधर जलक खोज करने लगे। वे एक कूएँके पास गये;
उसम जल तो था नह , एक बड़ा व च जीव द ख पड़ा ।।२।। वह जीव पवतके समान
आकारका एक गर गट था। उसे दे खकर उनके आ यक सीमा न रही। उनका दय
क णासे भर आया और वे उसे बाहर नकालनेका य न करने लगे ।।३।। पर तु जब वे
राजकुमार उस गरे ए गर गटको चमड़े और सूतक र सय से बाँधकर बाहर न नकाल
सके, तब कुतूहलवश उ ह ने यह आ यमय वृ ा त भगवान् ीकृ णके पास जाकर नवेदन
कया ।।४।। जगत्के जीवनदाता कमलनयन भगवान् ीकृ ण उस कूएँपर आये। उसे
दे खकर उ ह ने बाय हाथसे खेल-खेलम—अनायास ही उसको बाहर नकाल लया ।।५।।
भगवान् ीकृ णके करकमल का पश होते ही उसका गर गट- प जाता रहा और वह एक
वग य दे वताके पम प रणत हो गया। अब उसके शरीरका रंग तपाये ए सोनेके समान
चमक रहा था। और उसके शरीरपर अद्भुत व , आभूषण और पु प के हार शोभा पा रहे
थे ।।६।। य प भगवान् ीकृ ण जानते थे क इस द पु षको गर गट-यो न य मली
थी, फर भी वह कारण सवसाधारणको मालूम हो जाय, इस लये उ ह ने उस द पु षसे
पूछा—‘महाभाग! तु हारा प तो ब त ही सु दर है। तुम हो कौन? म तो ऐसा समझता ँ
क तुम अव य ही कोई े दे वता हो ।।७।। क याणमूत! कस कमके फलसे तु ह इस
यो नम आना पड़ा था? वा तवम तुम इसके यो य नह हो। हमलोग तु हारा वृ ा त जानना
चाहते ह। य द तुम हमलोग को वह बतलाना उ चत समझो तो अपना प रचय अव य
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दो’ ।।८।।

त ाग यार व दा ो भगवान् व भावनः ।


वी यो जहार वामेन तं करेण स लीलया ।।५

सउ म ोककरा भमृ ो
वहाय स ः कृकलास पम् ।
स त तचामीकरचा वणः
व य तालंकरणा बर क् ।।६

प छ व ान प त दानं
जनेषु व याप यतुं मुकु दः ।
क वं महाभाग वरे य पो
दे वो मं वां गणया म नूनम् ।।७

दशा ममां वा कतमेन कमणा


स ा पतोऽ यतदहः सुभ ।
आ मानमा या ह व व सतां नो
य म यसे नः मम व ु म् ।।८
ीशुक उवाच
इ त म राजा स पृ ः कृ णेनान तमू तना ।
माधवं णप याह करीटे नाकवचसा ।।९
नृग उवाच
नृगो नाम नरे ोऽह म वाकुतनयः१ भो ।
दा न वा यायमानेषु य द ते कणम पृशम् ।।१०

क नु तेऽ व दतं नाथ सवभूता मसा णः ।


कालेना ाहत शो व येऽथा प तवा या ।।११
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जब अन तमू त भगवान् ीकृ णने राजा नृगसे
[ य क वे ही इस पम कट ए थे] इस कार पूछा, तब उ ह ने अपना सूयके समान
जा व यमान मुकुट झुकाकर भगवान्को णाम कया और वे इस कार कहने लगे ।।९।।
राजा नृगने कहा— भो! म महाराज इ वाकुका पु राजा नृग ।ँ जब कभी कसीने
आपके सामने दा नय क गनती क होगी, तब उसम मेरा नाम भी अव य ही आपके कान म

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पड़ा होगा ।।१०।। भो! आप सम त ा णय क एक-एक वृ के सा ी ह। भूत और
भ व यका वधान भी आपके अख ड ानम कसी कारक बाधा नह डाल सकता।
अतः आपसे छपा ही या है? फर भी म आपक आ ाका पालन करनेके लये कहता
ँ ।।११।। भगवन्! पृ वीम जतने धू लकण ह, आकाशम जतने तारे ह और वषाम जतनी
जलक धाराएँ गरती ह, मने उतनी ही गौएँ दान क थ ।।१२।। वे सभी गौएँ धार,
नौजवान, सीधी, सु दर, सुल णा और क पला थ । उ ह मने यायके धनसे ा त कया था।
सबके साथ बछड़े थे। उनके स ग म सोना मढ़ दया गया था और खुर म चाँद । उ ह व ,
हार और गहन से सजा दया जाता था। ऐसी गौएँ मने द थ ।।१३।। भगवन्! म युवाव थासे
सप े ा णकुमार को—जो सद्गुणी, शीलस प , क म पड़े ए कुटु बवाले,
द भर हत तप वी, वेदपाठ , श य को व ादान करनेवाले तथा स च र होते—
व ाभूषणसे अलंकृत करता और उन गौ का दान करता ।।१४।। इस कार मने ब त-सी
गौएँ, पृ वी, सोना, घर, घोड़े, हाथी, दा सय के स हत क याएँ, तल के पवत, चाँद , श या,
व , र न, गृह-साम ी और रथ आ द दान कये। अनेक य कये और ब त-से कूएँ,
बावली आ द बनवाये ।।१५।।

याव यः सकता भूमेयाव यो द व तारकाः ।


याव यो वषधारा तावतीरददां म गाः ।।१२

पय वनी त णीः शील प-


गुणोपप ाः क पला हेमशृंगीः ।
याया जता यखुराः सव सा
कूलमालाभरणा ददावहम् ।।१३

वलंकृते यो गुणशीलवद् यः
सीद कुटु बे य ऋत ते यः ।
तपः ुत वदा यसद् यः
ादां युव यो जपुंगवे यः ।।१४

गोभू हर यायतना ह तनः


क याः सदासी तल यश याः ।
वासां स र ना न प र छदान् रथा-
न ं च य ै रतं च पूतम् ।।१५

क य चद् जमु य य ा गौमम गोधने ।


स पृ ा व षा सा च मया द ा जातये ।।१६

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तां नीयमानां त वामी ् वोवाच ममे त तम् ।
ममे त त ा ाह नृगो मे द वा न त ।।१७

व ौ ववदमानौ मामूचतुः वाथसाधकौ ।


भवान् दातापहत त त छ वा मेऽभवद् मः ।।१८

अनुनीतावुभौ व ौ धमकृ गतेन वै ।


गवां ल ं कृ ानां दा या येषा द यताम् ।।१९
एक दन कसी अ त ही (दान न लेनेवाले), तप वी ा णक एक गाय बछु ड़कर
मेरी गौ म आ मली। मुझे इस बातका बलकुल पता न चला। इस लये मने अनजानम उसे
कसी सरे ा णको दान कर दया ।।१६।। जब उस गायको वे ा ण ले चले, तब उस
गायके असली वामीने कहा—‘यह गौ मेरी है।’ दान ले जानेवाले ा णने कहा—‘यह तो
मेरी है, य क राजा नृगने मुझे इसका दान कया है’ ।।१७।। वे दोन ा ण आपसम
झगड़ते ए अपनी-अपनी बात कायम करनेके लये मेरे पास आये। एकने कहा—‘यह गाय
अभी-अभी आपने मुझे द है’ और सरेने कहा क ‘य द ऐसी बात है तो तुमने मेरी गाय चुरा
ली है।’ भगवन्! उन
दोन ा ण क बात सुनकर मेरा च मत हो गया ।।१८।। मने धमसंकटम पड़कर
उन दोन से बड़ी अनुनय- वनय क और कहा क ‘म बदलेम एक लाख उ म गौएँ ँ गा।
आपलोग मुझे यह गाय दे द जये ।।१९।। म आपलोग का सेवक ँ। मुझसे अनजानम यह
अपराध बन गया है। मुझपर आपलोग कृपा क जये और मुझे इस घोर क से तथा घोर
नरकम गरनेसे बचा ली जये’ ।।२०।। ‘राजन्! म इसके बदलेम कुछ नह लूँगा।’ यह कहकर
गायका वामी चला गया। ‘तुम इसके बदलेम एक लाख ही नह , दस हजार गौएँ और दो तो
भी म लेनेका नह ।’ इस कार कहकर सरा ा ण भी चला गया ।।२१।। दे वा धदे व
जगद र! इसके बाद आयु समा त होनेपर यमराजके त आये और मुझे यमपुरी ले गये।
वहाँ यमराजने मुझसे पूछा— ।।२२।। ‘राजन्! तुम पहले अपने पापका फल भोगना चाहते
हो या पु यका? तु हारे दान और धमके फल व प तु ह ऐसा तेज वी लोक ा त होनेवाला
है, जसक कोई सीमा ही नह है’ ।।२३।। भगवन्! तब मने यमराजसे कहा—‘दे व! पहले म
अपने पापका फल भोगना चाहता ।ँ ’ और उसी ण यमराजने कहा—‘तुम गर जाओ।’
उनके ऐसा कहते ही म वहाँसे गरा और गरते ही समय मने दे खा क म गर गट हो गया
ँ ।।२४।। भो! म ा ण का सेवक, उदार, दानी और आपका भ था। मुझे इस बातक
उ कट अ भलाषा थी क कसी कार आपके दशन हो जायँ। इस कार आपक कृपासे मेरे
पूवज म क मृ त न न ई ।।२५।। भगवन्! आप परमा मा ह। बड़े-बड़े शु - दय
योगी र उप नषद क से (अभेद से) अपने दयम आपका यान करते रहते ह।
इ यातीत परमा मन्! सा ात् आप मेरे ने के सामने कैसे आ गये! य क म तो अनेक
कारके सन , ःखद कम म फँसकर अंधा हो रहा था। आपका दशन तो तब होता है,
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जब संसारके च करसे छु टकारा मलनेका समय आता है ।।२६।। दे वता के भी
आरा यदे व! पु षो म गो व द! आप ही और अ जगत् तथा जीव के वामी ह।
अ वनाशी अ युत! आपक क त प व है। अ तयामी नारायण! आप ही सम त वृ य
और इ य के वामी ह ।।२७।। भो! ीकृ ण! म अब दे वता के लोकम जा रहा ँ। आप
मुझे आ ा द जये। आप ऐसी कृपा क जये क म चाहे कह भी य न र ँ, मेरा च सदा
आपके चरणकमल म ही लगा रहे ।।२८।। आप सम त काय और कारण के पम व मान
ह। आपक श अन त है और आप वयं ह। आपको म नम कार करता ँ।
स चदान द व प सवा तयामी वासुदेव ीकृ ण! आप सम त योग के वामी, योगे र ह।
म आपको बार-बार नम कार करता ँ ।।२९।।
भव तावनुगृ तां ककर या वजानतः ।
समु रत मां कृ ात् पत तं नरयेऽशुचौ ।।२०

नाहं ती छे वै राज यु वा वा यपा मत् ।


ना यद् गवाम ययुत म छामी यपरो ययौ ।।२१

एत म तरे या यै तैन तो यम यम् ।


यमेन पृ त ाहं दे वदे व जग पते ।।२२

पूव वमशुभं भुं े उताहो नृपते शुभम् ।


ना तं दान य धम य प ये लोक य भा वतः ।।२३

पूव दे वाशुभं भुंज इ त ाह पते त सः ।


तावद ा मा मानं कृकलासं पतन् भो ।।२४

य य वदा य य तव दास य केशव ।


मृ तना ा प व व ता भव स दशना थनः ।।२५

स वं कथं मम वभोऽ पथः परा मा


योगे रैः ु त शामल भा ः ।
सा ादधो ज उ सना धबु े ः
या मेऽनु य इह य य भवापवगः ।।२६

दे वदे व जग ाथ गो व द पु षो म ।
नारायण षीकेश पु य ोका युता य ।।२७

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अनुजानी ह मां कृ ण या तं दे वग त भो ।
य वा प सत ेतो भूया मे व पदा पदम् ।।२८

नम ते सवभावाय णेऽन तश ये ।
कृ णाय वासुदेवाय योगानां पतये नमः ।।२९

इ यु वा तं प र य पादौ पृ ् वा वमौ लना ।


अनु ातो वमाना यमा हत् प यतां नृणाम् ।।३०

कृ पः प रजनं ाह भगवान् दे वक सुतः ।


यदे वो धमा मा राज याननु श यन् ।।३१

जरं बत वं भु म नेमनाग प ।
तेजीयसोऽ प कमुत रा ामी रमा ननाम् ।।३२

नाहं हालाहलं म ये वषं य य त या ।


वं ह वषं ो ं ना य त व धभु व ।।३३

हन त वषम ारं व र ः शा य त ।
कुलं समूलं दह त वार णपावकः ।।३४

वं रनु ातं भु ं ह त पू षम् ।


स तु बलाद् भु ं दश पूवान् दशापरान् ।।३५
राजा नृगने इस कार कहकर भगवान्क प र मा क और अपने मुकुटसे उनके
चरण का पश करके णाम कया। फर उनसे आ ा लेकर सबके दे खते-दे खते ही वे े
वमानपर सवार हो गये ।।३०।।
राजा नृगके चले जानेपर ा ण के परम ेमी, धमके आधार दे वक न दन भगवान्
ीकृ णने य को श ा दे नेके लये वहाँ उप थत अपने कुटु बके लोग से कहा
— ।।३१।। ‘जो लोग अ नके समान तेज वी ह, वे भी ा ण का थोड़े-से-थोड़ा धन
हड़पकर नह पचा सकते। फर जो अ भमानवश झूठ-मूठ अपनेको लोग का वामी समझते
ह, वे राजा तो या पचा सकते ह? ।।३२।। म हलाहल वषको वष नह मानता, य क
उसक च क सा होती है। व तुतः ा ण का धन ही परम वष है; उसको पचा लेनेके लये
पृ वीम कोई औषध, कोई उपाय नह है ।।३३।। हलाहल वष केवल खानेवालेका ही ाण
लेता है और आग भी जलके ारा बुझायी जा सकती है; पर तु ा णके धन प अर णसे
जो आग पैदा होती है, वह सारे कुलको समूल जला डालती है ।।३४।। ा णका धन य द
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उसक पूरी-पूरी स म त लये बना भोगा जाय तब तो वह भोगनेवाले, उसके लड़के और
पौ —इन तीन पी ढ़य को ही चौपट करता है। पर तु य द बलपूवक हठ करके उसका
उपभोग कया जाय, तब तो पूवपु ष क दस पी ढ़याँ और आगेक भी दस पी ढ़याँ न हो
जाती ह ।।३५।। जो मूख राजा अपनी राजल मीके घमंडसे अंधे होकर ा ण का धन
हड़पना चाहते ह, समझना चा हये क वे जान-बूझकर नरकम जानेका रा ता साफ कर रहे
ह। वे दे खते नह क उ ह अधःपतनके कैसे गहरे ग ेम गरना पड़ेगा ।।३६।। जन उदार दय
और ब -कुटु बी ा ण क वृ छ न ली जाती है, उनके रोनेपर उनके आँसूक बूँद से
धरतीके जतने धू लकण भीगते ह, उतने वष तक ा णके व वको छ ननेवाले उस
उ छृ ं खल राजा और उसके वंशज को कु भीपाक नरकम ःख भोगना पड़ता है ।।३७-३८।।
जो मनु य अपनी या सर क द ई ा ण क वृ , उनक जी वकाके साधन छ न लेते ह,
वे साठ हजार वषतक व ाके क ड़े होते ह ।।३९।। इस लये म तो यही चाहता ँ क
ा ण का धन कभी भूलसे भी मेरे कोषम न आये, य क जो लोग ा ण के धनक इ छा
भी करते ह—उसे छ ननेक बात तो अलग रही—वे इस ज मम अ पायु, श ु से परा जत
और रा य हो जाते ह और मृ युके बाद भी वे सर को क दे नेवाले साँप ही होते
ह ।।४०।। इस लये मेरे आ मीयो! य द ा ण अपराध करे, तो भी उससे े ष मत करो। वह
मार ही य न बैठे या ब त-सी गा लयाँ या शाप ही य न दे , उसे तुमलोग सदा नम कार ही
करो ।।४१।। जस कार म बड़ी सावधानीसे तीन समय ा ण को णाम करता ँ, वैसे
ही तुमलोग भी कया करो। जो मेरी इस आ ाका उ लंघन करेगा, उसे म मा नह क ँ गा,
द ड ँ गा ।।४२।। य द ा णके धनका अपहरण हो जाय तो वह अप त धन उस अपहरण
करनेवालेको—अनजानम उसके ारा यह अपराध आ हो तो भी—अधःपतनके ग ेम डाल
दे ता है। जैसे ा णक गायने अनजानम उसे लेनेवाले राजा नृगको नरकम डाल दया
था ।।४३।। परी त्! सम त लोक को प व करनेवाले भगवान् ीकृ ण ारकावा सय को
इस कार उपदे श दे कर अपने महलम चले गये ।।४४।।

राजानो राजल या धा ना मपातं वच ते ।


नरयं येऽ भम य ते वं साधु बा लशाः ।।३६

गृ त यावतः पांसून् दताम ु ब दवः ।


व ाणां तवृ ीनां वदा यानां कुटु बनाम् ।।३७

राजानो राजकु या तावतोऽ दा रंकुशाः ।


कु भीपाकेषु प य ते दायापहा रणः ।।३८

वद ां परद ां वा वृ हरे च यः ।
ष वषसह ा ण व ायां जायते कृ मः ।।३९

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न मे धनं भूयाद् यद् गृद ् वा पायुषो नराः१ ।
परा जता युता रा याद् भव यु े जनोऽहयः२ ।।४०

व ं कृतागसम प नैव त मामकाः ।


न तं ब शप तं वा नम कु त न यशः ।।४१

यथाहं णमे व ाननुकालं समा हतः ।


तथा नमत यूयं च योऽ यथा मे स द डभाक् ।।४२

ा णाथ प तो हतारं पातय यधः ।


अजान तम प ेनं नृगं ा णगौ रव ।।४३

एवं व ा भगवान् मुकु दो ारकौकसः३ ।


पावनः सवलोकानां ववेश नजम दरम् ।।४४
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध नृगोपा यानं नाम
चतुःष तमोऽ यायः ।।६४।।

१. धे बाणासुरसं ामे कृ ण वजयः। २. णोपप ः।


१. ऽहं मानवे व णा मजः।
१. नृपाः। २. ह ये। ३. ारका जाः।

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अथ प चष तमोऽ यायः
ीबलरामजीका जगमन
ीशुक उवाच
बलभ ः कु े भगवान् रथमा थतः ।
सु ु क ठः ययौ न दगोकुलम् ।।१

पर व रो क ठै ग पैग पी भरेव च ।
रामोऽ भवा पतरावाशी भर भन दतः ।।२

चरं नः पा ह दाशाह सानुजो जगद रः ।


इ यारो यांकमा लङ् य ने ैः स षचतुजलैः ।।३

गोपवृ ां व धवद् य व ैर भव दतः ।


यथावयो यथास यं यथास ब धमा मनः ।।४

समुपे याथ गोपालान् हा यह त हा द भः ।


व ा तं सुखमासीनं प छु ः पयुपागताः ।।५

पृ ा ानामयं वेषु ेमगद्गदया गरा ।


कृ णे कमलप ा े सं य ता खलराधसः ।।६

क च ो बा धवा राम सव कुशलमासते ।


क चत् मरथ नो राम यूयं दारसुता वताः ।।७

द ा कंसो हतः पापो द ा मु ाः सु जनाः ।


नह य न ज य रपून् द ा ग समा ताः ।।८
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान् बलरामजीके मनम जके न दबाबा आ द
वजन स ब धय से मलनेक बड़ी इ छा और उ क ठा थी। अब वे रथपर सवार होकर
ारकासे न दबाबाके जम आये ।।१।। इधर उनके लये जवासी गोप और गो पयाँ भी
ब त दन से उ क ठत थ । उ ह अपने बीचम पाकर सबने बड़े ेमसे गले लगाया।
बलरामजीने माता यशोदा और न दबाबाको णाम कया। उन लोग ने भी आशीवाद दे कर
उनका अ भन दन कया ।।२।। यह कहकर क ‘बलरामजी! तुम जगद र हो, अपने छोटे
भाई ीकृ णके साथ सवदा हमारी र ा करते रहो, उनको गोदम ले लया और अपने
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े ा ु से उ ह भगो दया ।।३।। इसके बाद बड़े-बड़े गोप को बलरामजीने और छोटे -छोटे

गोप ने बलरामजीको नम कार कया। वे अपनी आयु, मेल-जोल और स ब धके अनुसार
सबसे मले-जुले ।।४।। वालबाल के पास जाकर कसीसे हाथ मलाया, कसीसे मीठ -मीठ
बात क , कसीको खूब हँस-हँसकर गले लगाया। इसके बाद जब बलरामजीक थकावट र
हो गयी, वे आरामसे बैठ गये, तब सब वाल उनके पास आये। इन वाल ने कमलनयन
भगवान् ीकृ णके लये सम त भोग, वग और मो तक याग रखा था। बलरामजीने जब
उनके और उनके घरवाल के स ब धम कुशल कया, तब उ ह ने ेम-गद्गद वाणीसे
उनसे कया ।।५-६।। ‘बलरामजी! वसुदेवजी आ द हमारे सब भाई-ब धु सकुशल ह न?
अब आपलोग ी-पु आ दके साथ रहते ह, बाल-ब चेदार हो गये ह; या कभी आप-
लोग को हमारी याद भी आती है? ।।७।। यह बड़े सौभा यक बात है क पापी कंसको
आपलोग ने मार डाला और अपने सु द्-स ब धय को बड़े क से बचा लया। यह भी कम
आन दक बात नह है क आपलोग ने और भी ब त-से श ु को मार डाला या जीत लया
और अब अ य त सुर त ग ( कले) म आपलोग नवास करते ह’ ।।८।।

गो यो हस यः प छू रामस दशना ताः ।


क चदा ते सुखं कृ णः पुर ीजनव लभः ।।९

क चत् मर त वा ब धून् पतरं मातरं च सः ।


अ यसौ मातरं ु ं सकृद याग म य त ।
अ प वा मरतेऽ माकमनुसेवां महाभुजः ।।१०

मातरं पतरं ातॄन् पतीन् पु ान् वसॄर प ।


यदथ ज हम दाशाह यजान् वजनान् भो ।।११

ता नः स ः प र य य गतः सं छ सौ दः ।
कथं नु ता शं ी भन येत भा षतम् ।।१२

कथं नु गृ यनव थता मनो


वचः कृत न य बुधाः पुर यः ।
गृ त वै च कथ य सु दर-
मतावलोको छ् व सत मरातुराः ।।१३

क न त कथया गो यः कथाः कथयतापराः ।


या य मा भ वना कालो य द त य तथैव नः ।।१४

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ह त ह सतं शौरेज पतं चा वी तम् ।
ग त ेमप र व ं मर यो ः यः ।।१५
परी त्! भगवान् बलरामजीके दशनसे, उनक ेमभरी चतवनसे गो पयाँ नहाल हो
गय । उ ह ने हँसकर पूछा—‘ य बलरामजी! नगर-ना रय के ाणव लभ ीकृ ण अब
सकुशल तो ह न? ।।९।। या कभी उ ह अपने भाई-ब धु और पता-माताक भी याद आती
है! या वे अपनी माताके दशनके लये एक बार भी यहाँ आ सकगे! या महाबा ीकृ ण
कभी हमलोग क सेवाका भी कुछ मरण करते ह ।।१०।। आप जानते ह क वजन-
स ब धय को छोड़ना ब त ही क ठन है। फर भी हमने उनके लये माँ-बाप, भाई-ब धु,
प त-पु और ब हन-बे टय को भी छोड़ दया। पर तु भो! वे बात-क -बातम हमारे सौहाद
और ेमका ब धन काटकर, हमसे नाता तोड़कर परदे श चले गये; हमलोग को बलकुल ही
छोड़ दया। हम चाहत तो उ ह रोक लेत ; पर तु जब वे कहते क हम तु हारे ऋणी ह—
तु हारे उपकारका बदला कभी नह चुका सकते, तब ऐसी कौन-सी ी है, जो उनक मीठ -
मीठ बात पर व ास न कर लेती’ ।।११-१२।। एक गोपीने कहा—‘बलरामजी! हम तो
गाँवक गँवार वा लन ठहर , उनक बात म आ गय । पर तु नगरक याँ तो बड़ी चतुर
होती ह। भला, वे चंचल और कृत न ीकृ णक बात म य फँसने लग ; उ ह तो वे नह
छका पाते ह गे!’ सरी गोपीने कहा—‘नह सखी, ीकृ ण बात बनानेम तो एक ही ह। ऐसी
रंग- बरंगी मीठ -मीठ बात गढ़ते ह क या कहना! उनक सु दर मुसकराहट और ेमभरी
चतवनसे नगर-ना रयाँ भी ेमावेशसे ाकुल हो जाती ह गी और वे अव य उनक बात म
आकर अपनेको नछावर कर दे ती ह गी’ ।।१३।। तीसरी गोपीने कहा—‘अरी गो पयो!
हमलोग को उसक बातसे या मतलब है? य द समय ही काटना है तो कोई सरी बात करो।
य द उस न ु रका समय हमारे बना बीत जाता है तो हमारा भी उसीक तरह, भले ही ःखसे
य न हो, कट ही जायगा’ ।।१४।। अब गो पय के भाव-ने के सामने भगवान् ीकृ णक
हँसी, ेमभरी बात, चा चतवन, अनूठ चाल और ेमा लगन आ द मू तमान् होकर नाचने
लगे। वे उन बात क मधुर मृ तम त मय होकर रोने लग ।।१५।।

संकषण ताः कृ ण य स दे शै दयंगमैः ।


सा वयामास भगवान् नानानुनयको वदः ।।१६

ौ मासौ त चावा सी मधुं माधवमेव च ।


रामः पासु भगवान् गोपीनां र तमावहन् ।।१७

पूणच कलामृ े कौमुद ग धवायुना ।


यमुनोपवने रेमे से वते ीगणैवृतः ।।१८

व ण े षता दे वी वा णी वृ कोटरात् ।

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पत ती तद् वनं सव वग धेना यवासयत् ।।१९

तं ग धं मधुधाराया वायुनोप तं बलः ।


आ ायोपगत त ललना भः समं पपौ ।।२०

उपगीयमानच रतो व नता भहलायुधः ।


वनेषु चरत् ीबो मद व ललोचनः ।।२१

े कु डलो म ो वैजय या च मालया ।



ब त् मतमुखा भोजं वेद ालेयभू षतम् ।।२२

स आजुहाव यमुनां जल डाथमी रः ।


नजं वा यमना य म इ यापगां बलः ।
अनागतां हला ेण कु पतो वचकष ह ।।२३

पापे वं मामव ाय य ाया स मयाऽऽ ता ।


ने ये वां लांगला ेण शतधा कामचा रणीम् ।।२४
परी त्! भगवान् बलरामजी नाना कारसे अनुनय वनय करनेम बड़े नपुण थे। उ ह ने
भगवान् ीकृ णके दय पश और लुभावने स दे श सुना-सुनाकर गो पय को सा वना
द ।।१६।। और वस तके दो महीने—चै और वैशाख वह बताये। वे रा के समय
गो पय म रहकर उनके ेमक अ भवृ करते। य न हो, भगवान् राम ही जो
ठहरे! ।।१७।।
उस समय कुमु दनीक सुग ध लेकर भीनी-भीनी वायु चलती रहती, पूण च माक
चाँदनी छटककर यमुनाजीके तटवत उपवनको उ वल कर दे ती और भगवान् बलराम
गो पय के साथ वह वहार करते ।।१८।। व णदे वने अपनी पु ी वा णीदे वीको वहाँ भेज
दया था। वह एक वृ के खोड़रसे बह नकली। उसने अपनी सुग धसे सारे वनको सुग धत
कर दया ।।१९।। मधुधाराक वह सुग ध वायुने बलरामजीके पास प ँचायी, मानो उसने
उ ह उपहार दया हो! उसक महकसे आकृ होकर बलरामजी गो पय को लेकर वहाँ प ँच
गये और उनके साथ उसका पान कया ।।२०।। उस समय गो पयाँ बलरामजीके चार ओर
उनके च र का गान कर रही थ , और वे मतवाले-से होकर वनम वचर रहे थे। उनके ने
आन दमदसे व ल हो रहे थे ।।२१।। गलेम पु प का हार शोभा पा रहा था। वैजय तीक
माला पहने ए आन दो म हो रहे थे। उनके एक कानम कु डल झलक रहा था।
मुखार व दपर मुसकराहटक शोभा नराली ही थी। उसपर पसीनेक बूँद हमकणके समान
जान पड़ती थ ।।२२।। सवश मान् बलरामजीने जल डा करनेके लये यमुनाजीको
पुकारा। पर तु यमुनाजीने यह समझकर क ये तो मतवाले हो रहे ह, उनक आ ाका
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उ लंघन कर दया; वे नह आय । तब बलरामजीने ोधपूवक अपने हलक नोकसे उ ह
ख चा ।।२३।। और कहा ‘पा पनी यमुने! मेरे बुलानेपर भी तू मेरी आ ाका उ लंघन करके
यहाँ नह आ रही है, मेरा तर कार कर रही है! दे ख, अब म तुझे तेरे वे छाचारका फल
चखाता ँ। अभी-अभी तुझे हलक नोकसे सौ-सौ टु कड़े कये दे ता ँ’ ।।२४।। जब
बलरामजीने यमुनाजीको इस कार डाँटा-फटकारा, तब वे च कत और भयभीत होकर
बलरामजीके चरण पर गर पड़ और गड़ गड़ाकर ाथना करने लग — ।।२५।।
‘लोका भराम बलरामजी! महाबाहो! म आपका परा म भूल गयी थी। जग पते! अब म
जान गयी क आपके अंशमा शेषजी इस सारे जगत्को धारण करते ह ।।२६।। भगवन्!
आप परम ऐ यशाली ह। आपके वा त वक व पको न जाननेके कारण ही मुझसे यह
अपराध बन गया है। सव व प भ व सल! म आपक शरणम ँ। आप मेरी भूल-चूक मा
क जये, मुझे छोड़ द जये’ ।।२७।।

एवं नभ सता भीता यमुना य न दनम् ।


उवाच च कता वाचं प तता पादयोनृप ।।२५

राम राम महाबाहो न जाने तव व मम् ।


य यैकांशेन वधृता जगती जगतः पते ।।२६

परं भावं भगवतो भगवन् मामजानतीम् ।


मो ु मह स व ा मन् प ां भ व सल ।।२७

ततो मुंचद् यमुनां या चतो भगवान् बलः ।


वजगाह जलं ी भः करेणु भ रवेभराट् ।।२८

कामं व य स लला ीणाया सता बरे ।


भूषणा न महाहा ण ददौ का तः शुभां जम् ।।२९

व स वा वाससी नीले मालामामु य कांचनीम् ।


रेजे वलंकृतो ल तो माहे इव वारणः ।।३०

अ ा प यते राजन् यमुनाऽऽकृ व मना ।


बल यान तवीय य वीय सूचयतीव ह ।।३१

एवं सवा नशा याता एकेव रमतो जे ।


राम या त च य माधुय जयो षताम् ।।३२

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अब यमुनाजीक ाथना वीकार करके भगवान् बलरामजीने उ ह मा कर दया और
फर जैसे गजराज ह थ नय के साथ डा करता है, वैसे ही वे गो पय के साथ जल डा
करने लगे ।।२८।। जब वे यथे जल- वहार करके यमुनाजीसे बाहर नकले, तब ल मीजीने
उ ह नीला बर, ब मू य आभूषण और सोनेका सु दर हार दया ।।२९।। बलरामजीने नीले
व पहन लये और सोनेक माला गलेम डाल ली। वे अंगराग लगाकर, सु दर भूषण से
वभू षत होकर इस कार शोभायमान ए मानो इ का ेतवण ऐरावत हाथी हो ।।३०।।
परी त्! यमुनाजी अब भी बलरामजीके ख चे ए मागसे बहती ह और वे ऐसी जान पड़ती
ह, मानो अन तश भगवान् बलरामजीका यश-गान कर रही ह ।।३१।। बलरामजीका
च जवा सनी गो पय के माधुयसे इस कार मु ध हो गया क उ ह समयका कुछ यान ही
न रहा, ब त-सी रा याँ एक रातके समान तीत हो गय । इस कार बलरामजी जम
वहार करते रहे ।।३२।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध बलदे व वजये
यमुनाकषणं नाम प चष तमोऽ यायः ।।६५।।

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अथ षट् ष तमोऽ यायः
पौ क और का शराजका उ ार
ीशुक उवाच
न द जं गते रामे क षा धप तनृप ।
वासुदेवोऽह म य ो तं कृ णाय ा हणोत् ।।१

वं वासुदेवो भगवानवतीण जग प तः ।
इ त तो भतो बालैमन आ मानम युतम् ।।२

तं च ा हणो म दः कृ णाया व मने ।


ारकायां यथा बालो नृपो बालकृतोऽबुधः ।।३

त तु ारकामे य सभायामा थतं भुम् ।


कृ णं कमलप ा ं राजस दे शम वीत् ।।४

वासुदेवोऽवतीण ऽहमेक एव न चापरः ।


भूतानामनुक पाथ वं तु म या भधां यज ।।५

या न वम म च ा न मौ ाद् बभ ष सा वत ।
य वै ह मां वं शरणं नो चेद ् दे ह ममाहवम् ।।६
ीशुक उवाच
क थनं त पाक य पौ क या पमेधसः ।
उ सेनादयः स या उ चकैजहसु तदा ।।७

उवाच तं भगवान् प रहासकथामनु ।


उ ये मूढ च ा न यै वमेवं वक थसे ।।८

मुखं तद पधाया कंकगृ वटै वृतः ।


श य यसे हत त भ वता शरणं शुनाम् ।।९
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जब भगवान् बलरामजी न दबाबाके जम गये ए
थे, तब पीछे से क ष दे शके अ ानी राजा पौ कने भगवान् ीकृ णके पास एक त
भेजकर यह कहलाया क ‘भगवान् वासुदेव म ँ’ ।।१।। मूखलोग उसे बहकाया करते थे क
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‘आप ही भगवान् वासुदेव ह और जगत्क र ाके लये पृ वीपर अवतीण ए ह।’ इसका
फल यह आ क वह मूख अपनेको ही भगवान् मान बैठा ।।२।। जैसे ब चे आपसम खेलते
समय कसी बालकको ही राजा मान लेते ह और वह राजाक तरह उनके साथ वहार करने
लगता है, वैसे ही म दम त अ ानी पौ कने अ च यग त भगवान् ीकृ णक लीला और
रह य न जानकर ारकाम उनके पास त भेज दया ।।३।। पौ कका त ारका आया
और राजसभाम बैठे ए कमलनयन भगवान् ीकृ णको उसने अपने राजाका यह स दे श
कह सुनाया— ।।४।।
‘एकमा म ही वासुदेव ँ। सरा कोई नह है। ा णय पर कृपा करनेके लये मने ही
अवतार हण कया है। तुमने झूठ-मूठ अपना नाम वासुदेव रख लया है, अब उसे छोड़
दो ।।५।। य वंशी! तुमने मूखतावश मेरे च धारण कर रखे ह। उ ह छोड़कर मेरी शरणम
आओ और य द मेरी बात तु ह वीकार न हो, तो मुझसे यु करो’ ।।६।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! म दम त पौ कक यह बहक सुनकर उ सेन
आ द सभासद् जोर-जोरसे हँसने लगे ।।७।। उन लोग क हँसी समा त होनेके बाद भगवान्
ीकृ णने तसे कहा—‘तुम जाकर अपने राजासे कह दे ना क ‘रे मूढ़! म अपने च आ द
च य नह छोडँगा। इ ह म तुझपर छोडँगा और केवल तुझपर ही नह , तेरे उन सब
सा थय पर भी, जनके बहकानेसे तू इस कार बहक रहा है। उस समय मूख! तू अपना मुँह
छपाकर— धे मुँह गरकर चील, गीध, बटे र आ द मांसभोजी प य से घरकर सो जायगा
और तू मेरा शरणदाता नह , उन कु क शरण होगा, जो तेरा मांस च थ-च थकर खा
जायँगे’ ।।८-९।। परी त्! भगवान्का यह तर कारपूण संवाद लेकर पौ कका त अपने
वामीके पास गया और उसे कह सुनाया। इधर भगवान् ीकृ णने भी रथपर सवार होकर
काशीपर चढ़ाई कर द । ( य क वह क षका राजा उन दन वह अपने म का शराजके
पास रहता था) ।।१०।।

इ त त तदा ेपं वा मने सवमाहरत् ।


कृ णोऽ प रथमा थाय काशीमुपजगाम ह ।।१०

पौ कोऽ प त ोगमुपल य महारथः ।


अ ौ हणी यां संयु ो न ाम पुराद् तम् ।।११

त य का शप त म ं पा ण ाहोऽ वया ृप ।
अ ौ हणी भ तसृ भरप यत् पौ कं ह रः ।।१२

शंखाय सगदाशा ीव सा ुपल तम् ।


ब ाणं कौ तुभम ण वनमाला वभू षतम् ।।१३

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कौशेयवाससी पीते वसानं ग ड वजम् ।
अमू यमौ याभरणं फुर मकरकु डलम् ।।१४

् वा तमा मन तु यवेषं कृ ममा थतम् ।


यथा नटं रंगगतं वजहास भृशं ह रः ।।१५

शूलैगदा भः प रघैः श यृ ासतोमरैः ।


अ स भः प शैबाणैः ाहर रयो ह रम् ।।१६

कृ ण तु त पौ कका शराजयो-
बलं गज य दनवा जप मत् ।
गदा सच े षु भरादयद् भृशं
यथा युगा ते तभुक् पृथक् जाः ।।१७

आयोधनं त थवा जकुंजर-


प खरो ैर रणावख डतैः ।
बभौ चतं मोदवहं मन वना-
मा डनं भूतपते रवो बणम् ।।१८
भगवान् ीकृ णके आ मणका समाचार पाकर महारथी पौ क भी दो अ ौ हणी
सेनाके साथ शी ही नगरसे बाहर नकल आया ।।११।। काशीका राजा पौ कका म
था। अतः वह भी उसक सहायता करनेके लये तीन अ ौ हणी सेनाके साथ उसके पीछे -
पीछे आया। परी त्! अब भगवान् ीकृ णने पौ कको दे खा ।।१२।। पौ कने भी शंख,
च , तलवार, गदा, शा धनुष और ीव स च आ द धारण कर रखे थे। उसके
व ः थलपर बनावट कौ तुभम ण और वनमाला भी लटक रही थी ।।१३।। उसने रेशमी
पीले व पहन रखे थे और रथक वजापर ग ड़का च भी लगा रखा था। उसके सरपर
अमू य मुकुट था और कान म मकराकृत कु डल जगमगा रहे थे ।।१४।। उसका यह सारा-
का-सारा वेष बनावट था, मानो कोई अ भनेता रंगमंचपर अ भनय करनेके लये आया हो।
उसक वेष-भूषा अपने समान दे खकर भगवान् ीकृ ण खल खलाकर हँसने लगे ।।१५।।
अब श ु ने भगवान् ीकृ णपर शूल, गदा, मुदगर, ् श , ऋ , ास, तोमर, तलवार,
प श और बाण आ द अ -श से हार कया ।।१६।। लयके समय जस कार आग
सभी कारके ा णय को जला दे ती है, वैसे ही भगवान् ीकृ णने भी गदा, तलवार, च
और बाण आ द श ा से पौ क तथा का श-राजके हाथी, रथ, घोड़े और पैदलक
चतुरं गणी सेनाको तहस-नहस कर दया ।।१७।। वह रणभू म भगवान्के च से ख ड-ख ड
ए रथ, घोड़े, हाथी, मनु य, गधे और ऊँट से पट गयी। उस समय ऐसा मालूम हो रहा था,
मानो वह भूतनाथ शंकरक भयंकर डा थली हो। उसे दे ख-दे खकर शूरवीर का उ साह
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और भी बढ़ रहा था ।।१८।।

अथाह पौ कं शौ रभ भोः पौ क यद् भवान् ।


तवा येन मामाह ता य ा यु सृजा म ते ।।१९

याज य येऽ भधानं मे य वया मृषा धृतम् ।


जा म शरणं तेऽ य द ने छा म संयुगम् ।।२०

इत वा शतैबाणै वरथीकृ य पौ कम् ।


शरोऽवृ द् रथांगेन व ेणे ो यथा गरेः ।।२१

तथा का शपतेः काया छर उ कृ य प भः ।


यपातयत् का शपुया प कोश मवा नलः ।।२२

एवं म स रणं ह वा पौ कं ससखं ह रः ।


ारकामा वशत् स ै ग यमानकथामृतः ।।२३

स न यं भगव यान व ता खलब धनः ।


ब ाण हरे राजन् व पं त मयोऽभवत् ।।२४

शरः प ततमालो य राज ारे सकु डलम् ।


क मदं क य वा व म त सं श यरे जनाः ।।२५

रा ः का शपते ा वा म ह यः पु बा धवाः ।
पौरा हा हता राजन् नाथ नाथे त ा दन् ।।२६

सुद ण त य सुतः कृ वा सं था व ध पतुः ।


नह य पतृह तारं या या यप च त पतुः ।।२७

इ या मना भस धाय सोपा यायो महे रम् ।


सुद णोऽचयामास परमेण समा धना ।।२८
अब भगवान् ीकृ णने पौ कसे कहा—‘रे पौ क! तूने तके ारा कहलाया था क
मेरे च अ -श ा द छोड़ दो। सो अब म उ ह तुझपर छोड़ रहा ँ ।।१९।। तूने झूठ-मूठ
मेरा नाम रख लया है। अतः मूख! अब म तुझसे उन नाम को भी छु ड़ाकर र ँगा। रही तेरे
शरणम आनेक बात; सो य द म तुझसे यु न कर सकूँगा तो तेरी शरण हण

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क ँ गा’ ।।२०।। भगवान् ीकृ णने इस कार पौ कका तर कार करके अपने तीखे
बाण से उसके रथको तोड़-फोड़ डाला और च से उसका सर वैसे ही उतार लया, जैसे
इ ने अपने व से पहाड़क चो टय को उड़ा दया था ।।२१।। इसी कार भगवान्ने अपने
बाण से का शनरेशका सर भी धड़से ऊपर उड़ाकर काशीपुरीम गरा दया, जैसे वायु
कमलका पु प गरा दे ती है ।।२२।। इस कार अपने साथ डाह रखनेवाले पौ कको और
उसके सखा का शनरेशको मारकर भगवान् ीकृ ण अपनी राजधानी ारकाम लौट आये।
उस समय स गण भगवान्क अमृतमयी कथाका गान कर रहे थे ।।२३।। परी त्!
पौ क भगवान्के पका, चाहे वह कसी भावसे हो, सदा च तन करता रहता था। इससे
उसके सारे ब धन कट गये। वह भगवान्का बनावट वेष धारण कये रहता था, इससे बार-
बार उसीका मरण होनेके कारण वह भगवान्के सा यको ही ा त आ ।।२४।।
इधर काशीम राजमहलके दरवाजेपर एक कु डल-म डत मु ड गरा दे खकर लोग
तरह-तरहका स दे ह करने लगे और सोचने लगे क ‘यह या है, यह कसका सर
है?’ ।।२५।।
जब यह मालूम आ क वह तो का शनरेशका ही सर है, तब रा नयाँ, राजकुमार,
राजप रवारके लोग तथा नाग रक रो-रोकर वलाप करने लगे—‘हा नाथ! हा राजन्! हाय-
हाय! हमारा तो सवनाश हो गया’ ।।२६।। का शनरेशका पु था सुद ण। उसने अपने
पताका अ ये -सं कार करके मन-ही-मन यह न य कया क अपने पतृघातीको मारकर
ही म पताके ऋणसे ऊऋण हो सकूँगा। नदान वह अपने कुलपुरो हत और आचाय के साथ
अ य त एका तासे भगवान् शंकरक आराधना करने लगा ।।२७-२८।। काशी नगरीम
उसक आराधनासे स होकर भगवान् शंकरने वर दे नेको कहा। सुद णने यह अभी वर
माँगा क मुझे मेरे पतृघातीके वधका उपाय बतलाइये ।।२९।। भगवान् शंकरने कहा—‘तुम
ा प के साथ मलकर य के दे वता ऋ व भूत द णा नक अ भचार व धसे आराधना
करो। इससे वह अ न मथगण के साथ कट होकर य द ा ण के अभ पर योग करोगे
तो वह तु हारा संक प स करेगा।’ भगवान् शंकरक ऐसी आ ा ा त करके सुद णने
अनु ानके उपयु नयम हण कये और वह भगवान् ीकृ णके लये अ भचार (मारणका
पुर रण) करने लगा ।।३०-३१।। अ भचार पूण होते ही य कु डसे अ त भीषण अ न
मू तमान् होकर कट आ। उसके केश और दाढ़ -मूँछ तपे ए ताँबेके समान लाल-लाल थे।
आँख से अंगारे बरस रहे थे ।।३२।। उ दाढ़ और टे ढ़ भृकु टय के कारण उसके मुखसे
ू रता टपक रही थी। वह अपनी जीभसे मुँहके दोन कोने चाट रहा था। शरीर नंग-धड़ंग था।
हाथम शूल लये ए था, जसे वह बार-बार घुमाता जाता था और उसमसे अ नक लपट
नकल रही थ ।।३३।। ताड़के पेड़के समान बड़ी-बड़ी टाँग थ । वह अपने वेगसे धरतीको
कँपाता आ और वाला से दस दशा को द ध करता आ ारकाक ओर दौड़ा और
बात-क -बातम ारकाके पास जा प ँचा। उसके साथ ब त-से भूत भी थे ।।३४।। उस
अ भचारक आगको बलकुल पास आयी ई दे ख ारकावासी वैसे ही डर गये, जैसे जंगलम
आग लगनेपर ह रन डर जाते ह ।।३५।। वे लोग भयभीत होकर भगवान्के पास दौड़े ए
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आये; भगवान् उस समय सभाम चौसर खेल रहे थे, उन लोग ने भगवान्से ाथना क
—‘तीन लोक के एकमा वामी! ारका नगरी इस आगसे भ म होना चाहती है। आप
हमारी र ा क जये। आपके सवा इसक र ा और कोई नह कर सकता’ ।।३६।।
शरणागतव सल भगवान्ने दे खा क हमारे वजन भयभीत हो गये ह और पुकार-पुकारकर
वकलताभरे वरसे हमारी ाथना कर रहे ह; तब उ ह ने हँसकर कहा—‘डरो मत, म
तुमलोग क र ा क ँ गा’ ।।३७।।

ीतोऽ वमु े भगवां त मै वरमदाद् भवः ।


पतृह तृवधोपायं स व े वरमी सतम् ।।२९

द णा नं प रचर ा णैः सममृ वजम् ।


अ भचार वधानेन स चा नः मथैवृतः ।।३०

साध य य त संक पम ये यो जतः ।


इ या द तथा च े कृ णाया भचरन् ती ।।३१

ततोऽ न थतः कु डा मू तमान तभीषणः ।


त तता शखा म ुरंगारोद्गा रलोचनः ।।३२

दं ो ुकुट द डकठोरा यः व ज या ।
आ लहन् सृ कणी न नो वधु वं शखं वलन् ।।३३

पद् यां ताल माणा यां क पय वनीतलम् ।


सोऽ यधावद् वृतो भूतै ारकां दहन् दशः ।।३४

तमा भचारदहनमाया तं ारकौकसः ।


वलो य त सुः सव वनदाहे मृगा यथा ।।३५

अ ैः सभायां ड तं भगव तं भयातुराः ।


ा ह ा ह लोकेश व े ः दहतः पुरम् ।।३६

ु वा त जनवै ल ं ् वा वानां च सा वसम् ।


शर यः स ह याह मा भै े य वता यहम् ।।३७

सव या तब हःसा ी कृ यां माहे र वभुः ।

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व ाय त घाताथ पा थं च मा दशत् ।।३८

तत् सूयको ट तमं सुदशनं


जा व यमानं लयानल भम् ।
वतेजसा खं ककुभोऽथ रोदसी
च ं मुकु दा मथा नमादयत् ।।३९

कृ यानलः तहतः स रथांगपाणे-


र ौजसा स नृप भ नमुखो नवृ ः ।
वाराणस प रसमे य सुद णं तं
स व जनं समदहत् वकृतोऽ भचारः ।।४०

च ं च व णो तदनु व ं
वाराणस सा सभालयापणाम् ।
सगोपुरा ालकको संकुलां
सकोशह य रथा शालाम् ।।४१

द वा वाराणस सवा व णो ं सुदशनम् ।


भूयः पा मुपा त त् कृ ण या ल कमणः ।।४२

य एत ावये म य उ म ोक व मम् ।
समा हतो वा शृणुयात् सवपापैः मु यते ।।४३
परी त्! भगवान् सबके बाहर-भीतरक जाननेवाले ह। वे जान गये क यह काशीसे
चली ई माहे री कृ या है। उ ह ने उसके तीकारके लये अपने पास ही वराजमान
च सुदशनको आ ा द ।।३८।। भगवान् मुकु दका यारा अ सुदशनच को ट-को ट
सूय के समान तेज वी और लयकालीन अ नके समान जा व यमान है। उसके तेजसे
आकाश, दशाएँ और अ त र चमक उठे और अब उसने उस अ भचार-अ नको कुचल
डाला ।।३९।। भगवान् ीकृ णके अ सुदशनच क श से कृ या प आगका मुँह टू ट-
फूट गया, उसका तेज न हो गया, श कु ठत हो गयी और वह वहाँसे लौटकर काशी आ
गयी तथा उसने ऋ वज् आचाय के साथ सुद णको जलाकर भ म कर दया। इस कार
उसका अ भचार उसीके वनाशका कारण आ ।।४०।। कृ याके पीछे -पीछे सुदशनच भी
काशी प ँचा। काशी बड़ी वशाल नगरी थी। वह बड़ी-बड़ी अटा रय , सभाभवन, बाजार,
नगर ार, ार के शखर, चहारद वा रय , खजाने, हाथी, घोड़े, रथ और अ के गोदामसे
सुस जत थी। भगवान् ीकृ णके सुदशनच ने सारी काशीको जलाकर भ म कर दया
और फर वह परमान दमयी लीला करनेवाले भगवान् ीकृ णके पास लौट

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आया ।।४१-४२।।
जो मनु य पु यक त भगवान् ीकृ णके इस च र को एका ताके साथ सुनता या
सुनाता है, वह सारे पाप से छू ट जाता है ।।४३।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध पौ का दवधो नाम
षट् ष तमोऽ यायः ।।६६।।

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अथ स तष तमोऽ यायः
वदका उ ार
राजोवाच
भूयोऽहं ोतु म छा म राम या तकमणः ।
अन त या मेय य यद यत् कृतवान् भुः ।।१
राजा परी त्ने पूछा—भगवान् बलरामजी सवश मान् एवं सृ - लयक सीमासे
परे, अन त ह। उनका व प, गुण, लीला आ द मन, बु और वाणीके वषय नह ह।
उनक एक-एक लीला लोकमयादासे वल ण है, अलौ कक है। उ ह ने और जो कुछ
अद्भुत कम कये ह , उ ह म फर सुनना चाहता ँ ।।१।।
ीशुक उवाच
नरक य सखा क द् वदो नाम वानरः ।
सु ीवस चवः सोऽथ ाता मै द य वीयवान् ।।२

स युः सोऽप च त कुवन् वानरो रा व लवम् ।


पुर ामाकरान् घोषानदहद् व मु सृजन् ।।३

व चत् स शैलानु पा तैदशान् समचूणयत् ।


आनतान् सुतरामेव य ा ते म हा ह रः ।।४

व चत् समु म य थो दो यामु य त जलम् ।


दे शान् नागायुत ाणो वेलाकूलानम जयत् ।।५

आ मानृ षमु यानां कृ वा भ नवन पतीन् ।


अ षय छकृ मू ैर नीन् वैता नकान् खलः ।।६

पु षान् यो षतो तः माभृद ् ोणीगुहासु सः ।


न य चा यधा छै लःै पेश कारीव क टकम् ।।७

एवं दे शान् व कुवन् षयं कुल यः ।


ु वा सुल लतं गीतं ग र रैवतकं ययौ ।।८

त ाप यद् य प त रामं पु करमा लनम् ।

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सुदशनीयसवागं ललनायूथम यगम् ।।९

गाय तं वा ण पी वा मद व ललोचनम् ।
व ाजमानं वपुषा भ मव वारणम् ।।१०
ीशुकदे वजीने कहा—परी त्! वद नामका एक वानर था। वह भौमासुरका सखा,
सु ीवका म ी और मै दका श शाली भाई था ।।२।। जब उसने सुना क ीकृ णने
भौमासुरको मार डाला, तब वह अपने म क म ताके ऋणसे उऋण होनेके लये रा -
व लव करनेपर उता हो गया। वह वानर बड़े-बड़े नगर , गाँव , खान और अहीर क
ब तय म आग लगाकर उ ह जलाने लगा ।।३।। कभी वह बड़े-बड़े पहाड़ को उखाड़कर
उनसे ा त-के- ा त चकनाचूर कर दे ता और वशेष करके ऐसा काम वह आनत
(का ठयावाड़) दे शम ही करता था। य क उसके म को मारनेवाले भगवान् ीकृ ण उसी
दे शम नवास करते थे ।।४।। वद वानरम दस हजार हा थय का बल था। कभी-कभी वह
समु म खड़ा हो जाता और हाथ से इतना जल उछालता क समु तटके दे श डू ब
जाते ।।५।। वह बड़े-बड़े ऋ ष-मु नय के आ म क सु दर-सु दर लता-वन प तय को
तोड़-मरोड़कर चौपट कर दे ता और उनके य स ब धी अ न-कु ड म मलमू डालकर
अ नय को षत कर दे ता ।।६।। जैसे भृंगी नामका क ड़ा सरे क ड़ को ले जाकर अपने
बलम बंद कर दे ता है, वैसे ही वह मदो म वानर य और पु ष को ले जाकर पहाड़ क
घा टय तथा गुफा म डाल दे ता। फर बाहरसे बड़ी-बड़ी च ान रखकर उनका मुँह बंद कर
दे ता ।।७।। इस कार वह दे शवा सय का तो तर कार करता ही, कुलीन य को भी षत
कर दे ता था। एक दन वह सुल लत संगीत सुनकर रैवतक पवतपर गया ।।८।।
वहाँ उसने दे खा क य वंश शरोम ण बलरामजी सु दर-सु दर युव तय के झुंडम
वराजमान ह। उनका एक-एक अंग अ य त सु दर और दशनीय है और व ः थलपर
कमल क माला लटक रही है ।।९।।
वे मधुपान करके मधुर संगीत गा रहे थे और उनके ने आन दो मादसे व ल हो रहे थे।
उनका शरीर इस कार शोभायमान हो रहा था, मानो कोई मदम गजराज हो ।।१०।। वह
वानर वृ क शाखा पर चढ़ जाता और उ ह झकझोर दे ता। कभी य के सामने
आकर कलकारी भी मारने लगता ।।११।। युवती याँ वभावसे ही चंचल और हास-
प रहासम च रखनेवाली होती ह। बलरामजीक याँ उस वानरक ढठाई दे खकर हँसने
लग ।।१२।। अब वह वानर भगवान् बलरामजीके सामने ही उन य क अवहेलना करने
लगा। वह उ ह कभी अपनी गुदा दखाता तो कभी भ ह मटकाता, फर कभी-कभी गरज-
तरजकर मुँह बनाता, घुड़कता ।।१३।। वीर शरोम ण बलरामजी उसक यह चे ा दे खकर
ो धत हो गये। उ ह ने उसपर प थरका एक टु कड़ा फका। पर तु वदने उससे अपनेको
बचा लया और झपटकर मधुकलश उठा लया तथा बलरामजीक अवहेलना करने लगा।
उस धूतने मधुकलशको तो फोड़ ही डाला, य के व भी फाड़ डाले और अब वह
हँस-हँसकर बलरामजीको ो धत करने लगा ।।१४-१५।। परी त्! जब इस कार बलवान्
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और मदो म वद बलरामजीको नीचा दखाने तथा उनका घोर तर कार करने लगा, तब
उ ह ने उसक ढठाई दे खकर और उसके ारा सताये ए दे श क दशापर वचार करके
उस श ुको मार डालनेक इ छासे ोधपूवक अपना हल-मूसल उठाया। वद भी बड़ा
बलवान् था। उसने अपने एक ही हाथसे शालका पेड़ उखाड़ लया और बड़े वेगसे दौड़कर
बलरामजीके सरपर उसे दे मारा। भगवान् बलराम पवतक तरह अ वचल खड़े रहे। उ ह ने
अपने हाथसे उस वृ को सरपर गरते- गरते पकड़ लया और अपने सुन द नामक मूसलसे
उसपर हार कया। मूसल लगनेसे वदका म तक फट गया और उससे खूनक धारा बहने
लगी। उस समय उसक ऐसी शोभा ई, मानो कसी पवतसे गे का सोता बह रहा हो। पर तु
वदने अपने सर फटनेक कोई परवा नह क । उसने कु पत होकर एक सरा वृ
उखाड़ा, उसे झाड़-झूड़कर बना प ेका कर दया और फर उससे बलरामजीपर बड़े जोरका
हार कया।
ः शाखामृगः शाखामा ढः क पयन् मान् ।
च े कल कलाश दमा मानं स दशयन् ।।११

त य धा य कपेव य त यो जा तचापलाः ।
हा य या वजहसुबलदे वप र हाः ।।१२

ता हेलयामास क प ू ेपैः स मुखा द भः ।


दशयन् वगुदं तासां राम य च नरी तः ।।१३

तं ा णा ाहरत् ु ो बलः हरतां वरः ।


स व च य वा ावाणं म दराकलशं क पः ।।१४

गृही वा हेलयामास धूत तं कोपयन् हसन् ।


न भ कलशं ो वासां या फालयद् बलम् ।।१५

कदथ कृ य बलवान् व च े मदो तः ।


तं त या वनयं ् वा दे शां त प तान् ।।१६

ु ो मुसलमाद हलं चा र जघांसया ।


वदोऽ प महावीयः शालमु य पा णना ।।१७

अ ये य तरसा तेन बलं मूध यताडयत् ।


तं तु संकषणो मू न पत तमचलो यथा ।।१८

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तज ाह बलवान् सुन दे नाहन च तम् ।
मुसलाहतम त को वरेजे र धारया ।।१९

ग रयथा गै रकया हारं नानु च तयन् ।


पुनर यं समु य कृ वा न प मोजसा ।।२०
तेनाहनत् सुसं ु तं बलः शतधा छनत् ।
ततोऽ येन षा ज ने तं चा प शतधा छनत् ।।२१

एवं यु यन् भगवता भ ने भ ने पुनः पुनः ।


आकृ य सवतो वृ ान् नवृ मकरोद् वनम् ।।२२

ततोऽमु च छलावष बल योपयम षतः ।


तत् सव चूणयामास लीलया मुसलायुधः ।।२३

स बा तालसंकाशौ मु ीकृ य कपी रः ।


आसा रो हणीपु ं ता यां व य जत् ।।२४

यादवे ोऽ प तं दो या य वा मुसललांगले ।
ज ाव यदय ु ः सोऽपतद् धरं वमन् ।।२५

चक पे तेन पतता सटं कः सवन प तः ।


पवतः कु शा ल वायुना नौ रवा भ स ।।२६

जयश दो नमःश दः साधु सा व त चा बरे ।


सुर स मुनी ाणामासीत् कुसुमव षणाम् ।।२७

एवं नह य वदं जगद् तकरावहम् ।


सं तूयमानो भगवां नैः वपुरमा वशत् ।।२८
बलरामजीने उस वृ के सैकड़ टु कड़े कर दये। इसके बाद वदने बड़े ोधसे सरा
वृ चलाया, पर तु भगवान् बलरामजीने उसे भी शतधा छ - भ कर दया ।।१६-२१।।
इस कार वह उनसे यु करता रहा। एक वृ के टू ट जानेपर सरा वृ उखाड़ता और
उससे हार करनेक चे ा करता। इस तरह सब ओरसे वृ उखाड़-उखाड़कर लड़ते-लड़ते
उसने सारे वनको ही वृ हीन कर दया ।।२२।। वृ न रहे, तब वदका ोध और भी बढ़
गया तथा वह ब त चढ़कर बलरामजीके ऊपर बड़ी-बड़ी च ान क वषा करने लगा। पर तु
भगवान् बलरामजीने अपने मूसलसे उन सभी च ान को खेल-खेलम ही चकनाचूर कर
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दया ।।२३।। अ तम क पराज वद अपनी ताड़के समान ल बी बाँह से घूँसा बाँधकर
बलरामजीक ओर झपटा और पास जाकर उसने उनक छातीपर हार कया ।।२४।। अब
य वंश- शरोम ण बलरामजीने हल और मूसल अलग रख दये तथा कु होकर दोन हाथ से
उसके ज ु थान (हँसली) पर हार कया। इससे वह वानर खून उगलता आ धरतीपर गर
पड़ा ।।२५।। परी त्! आँधी आनेपर जैसे जलम ड गी डगमगाने लगती है, वैसे ही उसके
गरनेसे बड़े-बड़े वृ और चो टय के साथ सारा पवत हल गया ।।२६।। आकाशम दे वता
लोग ‘जय-जय’, स लोग ‘नमो नमः’ और बड़े-बड़े ऋ ष-मु न ‘साधु-साधु’ के नारे लगाने
और बलरामजीपर फूल क वषा करने लगे ।।२७।। परी त्! वदने जगत्म बड़ा उप व
मचा रखा था, अतः भगवान् बलरामजीने उसे इस कार मार डाला और फर वे ारकापुरीम
लौट आये। उस समय सभी पुरजन-प रजन भगवान् बलरामक शंसा कर रहे थे ।।२८।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध वदवधो नाम
स तष तमोऽ यायः ।।६७।।

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अथा ष तमोऽ यायः
कौरव पर बलरामजीका कोप और सा बका ववाह
ीशुक उवाच
य धनसुतां राजन् ल मणां स म तजयः ।
वयंवर थामहरत् सा बो जा बवतीसुतः ।।१

कौरवाः कु पता ऊचु वनीतोऽयमभकः ।


कदथ कृ य नः क यामकामामहरद् बलात् ।।२

ब नीतेमं वनीतं क क र य त वृ णयः ।


येऽ म सादोप चतां द ां नो भुंजते महीम् ।।३

नगृहीतं सुतं ु वा य े य तीह वृ णयः ।


भ नदपाः शमं या त ाणा इव सुसंयताः ।।४

इ त कणः शलो भू रय केतुः सुयोधनः ।


सा बमारे भरे ब ं कु वृ ानुमो दताः ।।५

् वानुधावतः सा बो धातरा ान् महारथः ।


गृ चरं चापं त थौ सह इवैकलः ।।६

तं ते जघृ वः ु ा त त े त भा षणः ।
आसा ध वनो बाणैः कणा यः समा करन् ।।७

सोऽप व ः कु े कु भय न दनः ।
नामृ य द च याभः सहः ु मृगै रव ।।८

व फू य चरं चापं सवान् व ाध सायकैः ।


कणाद न् षड् रथान् वीरां ताव युगपत् पृथक् ।।९
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जा बवती-न दन सा ब अकेले ही ब त बड़े-बड़े
वीर पर वजय ा त करनेवाले थे। वे वयंवरम थत य धनक क या ल मणाको हर
लाये ।।१।। इससे कौरव को बड़ा ोध आ, वे बोले—‘यह बालक ब त ढ ठ है। दे खो तो
सही, इसने हमलोग को नीचा दखाकर बलपूवक हमारी क याका अपहरण कर लया। वह
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तो इसे चाहती भी न थी ।।२।। अतः इस ढ ठको पकड़कर बाँध लो। य द य वंशीलोग
भी ह गे तो वे हमारा या बगाड़ लगे? वे लोग हमारी ही कृपासे हमारी ही द ई धन-
धा यसे प रपूण पृ वीका उपभोग कर रहे ह ।।३।। य द वे लोग अपने इस लड़केके बंद
होनेका समाचार सुनकर यहाँ आयगे, तो हमलोग उनका सारा घमंड चूर-चूर कर दगे और
उन लोग के मजाज वैसे ही ठं डे हो जायँग,े जैसे संयमी पु षके ारा ाणायाम आ द
उपाय से वशम क ई इ याँ’ ।।४।। ऐसा वचार करके कण, शल, भू र वा, य केतु और
य धना द वीर ने कु वंशके बड़े-बूढ़ क अनुम त ली तथा सा बको पकड़ लेनेक तैयारी
क ।।५।।
जब महारथी सा बने दे खा क धृतरा के पु मेरा पीछा कर रहे ह, तब वे एक सु दर
धनुष चढ़ाकर सहके समान अकेले ही रणभू मम डट गये ।।६।। इधर कणको मु खया
बनाकर कौरववीर धनुष चढ़ाये ए सा बके पास आ प ँचे और ोधम भरकर उनको पकड़
लेनेक इ छासे ‘खड़ा रह! खड़ा रह!’ इस कार ललकारते ए बाण क वषा करने
लगे ।।७।। परी त्! य न दन सा ब अ च यै यशाली भगवान् ीकृ णके पु थे।
कौरव के हारसे वे उनपर चढ़ गये, जैसे सह तु छ ह रन का परा म दे खकर चढ़ जाता
है ।।८।। सा बने अपने सु दर धनुषका टं कार करके कण आ द छः वीर पर, जो अलग-अलग
छः रथ पर सवार थे, छः-छः बाण से एक साथ अलग-अलग हार कया ।।९।।

चतु भ तुरो वाहानेकैकेन च सारथीन् ।


र थन महे वासां त य त ेऽ यपूजयन् ।।१०

तं तु ते वरथं च ु वार तुरो हयान् ।


एक तु सार थ ज ने च छे दा यः शरासनम् ।।११

तं बद् वा वरथीकृ य कृ े ण कुरवो यु ध ।


कुमारं व य क यां च वपुरं ज यनोऽ वशन् ।।१२

त छ वा नारदो े न राजन् संजातम यवः ।


कु न् यु मं च ु सेन चो दताः ।।१३

सा व य वा तु तान् रामः स ान् वृ णपुंगवान् ।


नै छत् कु णां वृ णीनां क ल क लमलापहः ।।१४

जगाम हा तनपुरं रथेना द यवचसा ।


ा णैः कुलवृ ै वृत इव हैः ।।१५

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ग वा गजा यं रामो बा ोपवनमा थतः ।
उ वं ेषयामास धृतरा ं बुभु सया ।।१६

सोऽ भव ा बकापु ं भी मं ोणं च बा कम् ।


य धनं च व धवद् राममागतम वीत् ।।१७

तेऽ त ीता तमाक य ा तं रामं सु मम् ।


तमच य वा भययुः सव मंगलपाणयः ।।१८
उनमसे चार-चार बाण उनके चार-चार घोड़ पर, एक-एक उनके सार थय पर और एक-
एक उन महान् धनुषधारी रथी वीर पर छोड़ा। सा बके इस अद्भुत ह तलाघवको दे खकर
वप ी वीर भी मु -क ठसे उनक शंसा करने लगे ।।१०।। इसके बाद उन छह वीर ने
एक साथ मलकर सा बको रथहीन कर दया। चार वीर ने एक-एक बाणसे उनके चार
घोड़ को मारा, एकने सार थको और एकने सा बका धनुष काट डाला ।।११।। इस कार
कौरव ने यु म बड़ी क ठनाई और क से सा बको रथहीन करके बाँध लया। इसके बाद वे
उ ह तथा अपनी क या ल मणाको लेकर जय मनाते ए ह तनापुर लौट आये ।।१२।।
परी त्! नारदजीसे यह समाचार सुनकर य वं शय को बड़ा ोध आया। वे महाराज
उ सेनक आ ासे कौरव पर चढ़ाई करनेक तैयारी करने लगे ।।१३।। बलरामजी
कलह धान क लयुगके सारे पाप-तापको मटानेवाले ह। उ ह ने कु वं शय और
य वं शय के लड़ाई-झगड़ेको ठ क न समझा। य प य वंशी अपनी तैयारी पूरी कर चुके थे,
फर भी उ ह ने उ ह शा त कर दया और वयं सूयके समान तेज वी रथपर सवार होकर
ह तनापुर गये। उनके साथ कुछ ा ण और य वंशके बड़े-बूढ़े भी गये। उनके बीचम
बलरामजीक ऐसी शोभा हो रही थी, मानो च मा ह से घरे ए ह ।।१४-१५।। ह तनापुर
प ँचकर बलरामजी नगरके बाहर एक उपवनम ठहर गये और कौरवलोग या करना चाहते
ह, इस बातका पता लगानेके लये उ ह ने उ वजीको धृतरा के पास भेजा ।।१६।।
उ वजीने कौरव क सभाम जाकर धृतरा , भी म पतामह, ोणाचाय, बा क और
य धनक व धपूवक अ यथना-व दना क और नवेदन कया क ‘बलरामजी पधारे
ह’ ।।१७।। अपने परम हतैषी और यतम बलरामजीका आगमन सुनकर कौरव क
स ताक सीमा न रही। वे उ वजीका व धपूवक स कार करके अपने हाथ म मांग लक
साम ी लेकर बलरामजीक अगवानी करने चले ।।१८।। फर अपनी-अपनी अव था और
स ब धके अनुसार सब लोग बलरामजीसे मले तथा उनके स कारके लये उ ह गौ अपण क
एवं अ य दान कया। उनम जो लोग भगवान् बलरामजीका भाव जानते थे, उ ह ने सर
झुकाकर उ ह णाम कया ।।१९।। तदन तर उन लोग ने पर पर एक- सरेका कुशल-मंगल
पूछा और यह सुनकर क सब भाई-ब धु सकुशल ह, बलरामजीने बड़ी धीरता और
ग भीरताके साथ यह बात कही— ।।२०।।

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तं संग य यथा यायं गाम य च यवेदयन् ।
तेषां ये त भाव ाः पेमुः शरसा बलम् ।।१९

ब धून् कुश लनः ु वा पृ ् वा शवमनामयम् ।


पर परमथो रामो बभाषेऽ व लवं वचः ।।२०

उ सेनः तीशेशो यद् व आ ापयत् भुः ।


तद धयः ु वा कु वं मा वल बतम् ।।२१

यद् यूयं बहव वेकं ज वाधमण धा मकम् ।


अब नीताथ त मृ ये ब धूनामै यका यया ।।२२

वीयशौयबलो मा मश समं वचः ।


कुरवो बलदे व य नश योचुः को पताः ।।२३

अहो मह च मदं कालग या र यया ।


आ युपानद् वै शरो मुकुटसे वतम् ।।२४

एते यौनेन स ब ाः सहश यासनाशनाः ।


वृ णय तु यतां नीता अ म नृपासनाः ।।२५

चामर जने शंखमातप ं च पा डु रम् ।


करीटमासनं श यां भुंज य म पे या ।।२६

अलं य नां नरदे वला छनै-


दातुः तीपैः फ णना मवामृतम् ।
येऽ म सादोप चता ह यादवा
आ ापय य गत पा बत ।।२७
‘सवसमथ राजा धराज महाराज उ सेनने तुमलोग को एक आ ा द है। उसे तुमलोग
एका ता और सावधानीके साथ सुनो और अ वल ब उसका पालन करो ।।२१।। उ सेनजीने
कहा है—हम जानते ह क तुमलोग ने कइय ने मलकर अधमसे अकेले धमा मा सा बको
हरा दया और बंद कर लया है। यह सब हम इस लये सह लेते ह क हम स ब धय म
पर पर फूट न पड़े, एकता बनी रहे। (अतः अब झगड़ा मत बढ़ाओ, सा बको उसक
नववधूके साथ हमारे पास भेज दो) ।।२२।।
परी त्! बलरामजीक वाणी वीरता, शूरता और बल-पौ षके उ कषसे प रपूण और
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उनक श के अनु प थी। यह बात सुनकर कु वंशी ोधसे तल- मला उठे । वे कहने लगे
— ।।२३।। ‘अहो, यह तो बड़े आ यक बात है! सचमुच कालक चालको कोई टाल नह
सकता। तभी तो आज पैर क जूती उस सरपर चढ़ना चाहती है, जो े मुकुटसे सुशो भत
है ।।२४।। इन य वं शय के साथ कसी कार हमलोग ने ववाह-स ब ध कर लया। ये हमारे
साथ सोने-बैठने और एक पं म खाने लगे। हमलोग ने ही इ ह राज सहासन दे कर राजा
बनाया और अपने बराबर बना लया ।।२५।। ये य वंशी चँवर, पंखा, शंख, ेतछ , मुकुट,
राज सहासन और राजो चत श याका उपयोग-उपभोग इस लये कर रहे ह क हमने जान-
बूझकर इस वषयम उपे ा कर रखी है ।।२६।। बस-बस, अब हो चुका। य वं शय के पास
अब राज च रहनेक आव यकता नह , उ ह उनसे छ न लेना चा हये। जैसे साँपको ध
पलाना पलानेवालेके लये ही घातक है, वैसे ही हमारे दये ए राज च को लेकर ये
य वंशी हमसे ही वपरीत हो रहे ह। दे खो तो भला हमारे ही कृपा- सादसे तो इनक बढ़ती
ई और अब ये नल ज होकर हम पर कुम चलाने चले ह। शोक है! शोक है! ।।२७।। जैसे
सहका ास कभी भेड़ा नह छ न सकता, वैसे ही य द भी म, ोण, अजुन आ द कौरववीर
जान-बूझकर न छोड़ द, न दे द तो वयं दे वराज इ भी कसी व तुका उपभोग कैसे कर
सकते ह? ।।२८।।

कथ म ोऽ प कु भभ म ोणाजुना द भः ।
अद मव धीत सह त मवोरणः ।।२८
ीशुक उवाच
ज मब धु यो मदा ते भरतषभ ।
आ ा रामं वा यमस याः पुरमा वशन् ।।२९

् वा कु णां दौःशी यं ु वावा या न चा युतः ।


अवोचत् कोपसंर धो े यः हसन् मु ः ।।३०

नूनं नानामदो ाः शा तं ने छ यसाधवः ।


तेषां ह शमो द डः पशूनां लगुडो यथा ।।३१

अहो य न् सुसंर धान् कृ णं च कु पतं शनैः ।


सा व य वाहमेतेषां शम म छ हागतः ।।३२

त इमे म दमतयः कलहा भरताः खलाः ।


तं मामव ाय मु भाषान् मा ननोऽ ुवन् ।।३३

नो सेनः कल वभुभ जवृ य धके रः ।


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श ादयो लोकपाला य यादे शानुव तनः ।।३४
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! कु वंशी अपनी कुलीनता, बा धव -प रवारवाल
(भी मा द) के बल और धनस प के घमंडम चूर हो रहे थे। उ ह ने साधारण श ाचारक
भी परवा नह क और वे भगवान् बलरामजीको इस कार वचन कहकर ह तनापुर लौट
गये ।।२९।। बलरामजीने कौरव क ता-अ श ता दे खी और उनके वचन भी सुने। अब
उनका चेहरा ोधसे तमतमा उठा। उस समय उनक ओर दे खातक नह जाता था। वे बार-
बार जोर-जोरसे हँसकर कहने लगे— ।।३०।। ‘सच है, जन को अपनी कुलीनता,
बलपौ ष और धनका घमंड हो जाता है, वे शा त नह चाहते। उनको दमन करनेका,
रा तेपर लानेका उपाय समझाना-बुझाना नह , ब क द ड दे ना है—ठ क वैसे ही, जैसे
पशु को ठ क करनेके लये डंडेका योग आवशयक होता है ।।३१।। भला, दे खो तो सही
—सारे य वंशी और ीकृ ण भी ोधसे भरकर लड़ाईके लये तैयार हो रहे थे। म उ ह
शनैः-शनैः समझा-बुझाकर इन लोग को शा त करनेके लये, सुलह करनेके लये यहाँ
आया ।।३२।। फर भी ये मूख ऐसी ता कर रहे ह! इ ह शा त यारी नह , कलह यारी है।
ये इतने घमंडी हो रहे ह क बार-बार मेरा तर कार करके गा लयाँ बक गये ह ।।३३।। ठ क
है, भाई! ठ क है। पृ वीके राजा क तो बात ही या, लोक के वामी इ आ द
लोकपाल जनक आ ाका पालन करते ह, वे उ सेन राजा धराज नह ह; वे तो केवल
भोज, वृ ण और अ धकवंशी यादव के ही वामी ह! ।।३४।। य ? जो सुधमासभाको
अ धकारम करके उसम वराजते ह और जो दे वता के वृ पा रजातको उखाड़कर ले आते
और उसका उपभोग करते ह, वे भगवान् ीकृ ण भी राज सहासनके अ धकारी नह ह!
अ छ बात है! ।।३५।। सारे जगत्क वा मनी भगवती ल मी वयं जनके चरण-कमल क
उपासना करती ह, वे ल मीप त भगवान् ीकृ णच छ , चँवर आ द राजो चत
साम य को नह रख सकते ।।३६।। ठ क है भाई! जनके चरण-कमल क धूल संत
पु ष के ारा से वत गंगा आ द तीथ को भी तीथ बनानेवाली है, सारे लोकपाल अपने-अपने
े मुकुटपर जनके चरणकमल क धूल धारण करते ह; ा, शंकर, म और ल मीजी
जनक कलाक भी कला ह और जनके चरण क धूल सदा-सवदा धारण करते ह; उन
भगवान् ीकृ णके लये भला; राज सहासन कहाँ रखा है! ।।३७।। बेचारे य वंशी तो
कौरव का दया आ पृ वीका एक टु कड़ा भोगते ह। या खूब! हमलोग जूती ह और ये
कु वंशी वयं सर ह ।।३८।। ये लोग ऐ यसे उ म , घमंडी कौरव पागल-सरीखे हो रहे ह।
इनक एक-एक बात कटु तासे भरी और बे सर-पैरक है। मेरे जैसा पु ष—जो इनका शासन
कर सकता है, इ ह द ड दे कर इनके होश ठकाने ला सकता है—भला इनक बात को कैसे
सहन कर सकता है? ।।३९।। आज म सारी पृ वीको कौरवहीन कर डालूँगा, इस कार
कहते-कहते बलरामजी ोधसे ऐसे भर गये, मानो लोक को भ म कर दगे। वे अपना हल
लेकर खड़े हो गये ।।४०।। उ ह ने उसक नोकसे बार-बार चोट करके ह तनापुरको उखाड़
लया और उसे डु बानेके लये बड़े ोधसे गंगाजीक ओर ख चने लगे ।।४१।।

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सुधमाऽऽ यते येन पा रजातोऽमराङ् पः ।
आनीय भु यते सोऽसौ न कला यासनाहणः ।।३५

य य पादयुगं सा ात् ी पा तेऽ खले री ।


स नाह त कल ीशो नरदे वप र छदान् ।।३६

य याङ् पंकजरजोऽ खललोकपालै-


म यु मैधृतमुपा सततीथतीथम् ।
ा भवोऽहम प य य कलाः कलायाः
ी ो हेम चरम य नृपासनं व ।।३७

भुंजते कु भद ं भूख डं वृ णयः कल ।


उपानहः कल वयं वयं तु कुरवः शरः ।।३८

अहो ऐ यम ानां म ाना मव मा ननाम् ।


अस ब ा गरो ाः कः सहेतानुशा सता ।।३९

अ न कौरव पृ व क र यामी यम षतः ।


गृही वा हलमु थौ दह व जग यम् ।।४०

लांगला ेण नगरमु दाय गजा यम् ।


वचकष स गंगायां ह र य म षतः ।।४१

जलयान मवाघूण गंगायां नगरं पतत् ।


आकृ यमाणमालो य कौरवा जातस माः ।।४२
हलसे ख चनेपर ह तनापुर इस कार काँपने लगा, मानो जलम कोई नाव डगमगा रही
हो। जब कौरव ने दे खा क हमारा नगर तो गंगाजीम गर रहा है, तब वे घबड़ा उठे ।।४२।।
फर उन लोग ने ल मणाके साथ सा बको आगे कया और अपने ाण क र ाके लये
कुटु बके साथ हाथ जोड़कर सवश मान् उ ह भगवान् बलरामजीक शरणम गये ।।४३।।
और कहने लगे—‘लोका भराम बलरामजी! आप सारे जगत्के आधार शेषजी ह। हम
आपका भाव नह जानते। भो! हमलोग मूढ़ हो रहे ह, हमारी बु बगड़ गयी है;
इस लये आप हमलोग का अपराध मा कर द जये ।।४४।। आप जगत्क थ त, उ प
और लयके एकमा कारण ह और वयं नराधार थत ह। सवश मान् भो! बड़े-बड़े
ऋ ष-मु न कहते ह क आप खलाड़ी ह और ये सब-के-सब लोग आपके खलौने ह ।।४५।।
अन त! आपके सह -सह सर ह और आप खेल-खेलम ही इस भूम डलको अपने
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सरपर रखे रहते ह। जब लयका समय आता है, तब आप सारे जगत्को अपने भीतर लीन
कर लेते ह और केवल आप ही बचे रहकर अ तीय पसे शयन करते ह ।।४६।। भगवन्!
आप जगत्क थ त और पालनके लये वशु स वमय शरीर हण कये ए ह। आपका
यह ोध े ष या म सरके कारण नह है। यह तो सम त ा णय को श ा दे नेके लये
है ।।४७।। सम त श य को धारण करनेवाले सव ा ण व प अ वनाशी भगवन्! आपको
हम नम कार करते ह। सम त व के रच यता दे व! हम आपको बार-बार नम कार करते ह।
हम आपक शरणम ह। आप कृपा करके हमारी र ा क जये’ ।।४८।।

तमेव शरणं ज मुः सकुटु बा जजी वषवः ।


सल मणं पुर कृ य सा बं ांजलयः भुम् ।।४३

राम रामा खलाधार भावं न वदाम ते ।


मूढानां नः कुबु नां तुमह य त मम् ।।४४

थ यु प य ययानां वमेको हेतु नरा यः ।


लोकान् डनकानीश डत ते वद त ह ।।४५

वमेव मू न दमन त लीलया


भूम डलं बभ ष सह मूधन् ।
अ ते च यः वा म न व ः
शेषेऽ तीयः प र श यमाणः ।।४६

कोप तेऽ खल श ाथ न े षा च म सरात् ।


ब तो भगवन् स वं थ तपालनत परः ।।४७

नम ते सवभूता मन् सवश धरा य ।


व कमन् नम तेऽ तु वां वयं शरणं गताः ।।४८
ीशुक उवाच
एवं प ैः सं व नैवपमानायनैबलः ।
सा दतः सु स ो मा भै े यभयं ददौ ।।४९

य धनः पा रबह कुंजरान् ष हायनान् ।


ददौ च ादशशता ययुता न तुरंगमान् ।।५०

रथानां षट् सह ा ण रौ माणां सूयवचसाम् ।


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दासीनां न कक ठ नां सह ं हतृव सलः ।।५१
ीशुकदे वजी कहते ह— परी त्! कौरव का नगर डगमगा रहा था और वे अ य त
घबराहटम पड़े ए थे। जब सब-के-सब कु वंशी इस कार भगवान् बलरामजीक शरणम
आये और उनक तु त- ाथना क , तब वे स हो गये और ‘डरो मत’ ऐसा कहकर उ ह
अभयदान दया ।।४९।। परी त्! य धन अपनी पु ी ल मणासे बड़ा ेम करता था। उसने
दहेजम साठ-साठ वषके बारह सौ हाथी, दस हजार घोड़े, सूयके समान चमकते ए सोनेके
छः हजार रथ और सोनेके हार पहनी ई एक हजार दा सयाँ द ।।५०-५१।।
य वंश शरोम ण भगवान् बलरामजीने यह सब दहेज वीकार कया और नवद प त ल मणा
तथा सा बके साथ कौरव का अ भन दन वीकार करके ारकाक या ा क ।।५२।। अब
बलरामजी ारकापुरीम प ँचे और अपने ेमी तथा समाचार जाननेके लये उ सुक ब धु-
बा धव से मले। उ ह ने य वं शय क भरी सभाम अपना वह सारा च र कह सुनाया, जो
ह तनापुरम उ ह ने कौरव के साथ कया था ।।५३।। परी त्! यह ह तनापुर आज भी
द णक ओर ऊँचा और गंगाजीक ओर कुछ झुका आ है और इस कार यह भगवान्
बलरामजीके परा मक सूचना दे रहा है ।।५४।।

तगृ तु तत् सव भगवान् सा वतषभः ।


ससुतः स नुषः ागात् सु र भन दतः ।।५२

ततः व ः वपुरं हलायुधः


समे य ब धूननुर चेतसः ।
शशंस सव य पुंगवानां
म ये सभायां कु षु वचे तम् ।।५३

अ ा प च पुरं ेतत् सूचयद् राम व मम् ।


समु तं द णतो गंगायामनु यते ।।५४
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध
हा तनपुरकषण पसंकषण वजयो नामा ष तमोऽ यायः ।।६८।।

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अथैकोनस त ततमोऽ यायः
दे व ष नारदजीका भगवान्क गृहचया दे खना
ीशुक उवाच
नरकं नहतं ु वा तथो ाहं च यो षताम् ।
कृ णेनैकेन ब नां तद् द ुः म नारदः ।।१

च ं बतैतदे केन वपुषा युगपत् पृथक् ।


गृहेषु य साह ं य एक उदावहत् ।।२

इ यु सुको ारवत दे व ष ु मागमत् ।


पु पतोपवनाराम जा लकुलना दताम् ।।३

उ फु ले द वरा भोजक ारकुमुदो पलैः ।


छु रतेषु सर सू चैः कू जतां हंससारसैः ।।४
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जब दे व ष नारदने सुना क भगवान् ीकृ णने
नरकासुर (भौमासुर) को मारकर अकेले ही हजार राज-कुमा रय के साथ ववाह कर लया
है, तब उनके मनम भगवान्क रहन-सहन दे खनेक बड़ी अ भलाषा ई ।।१।। वे सोचने लगे
—अहो, यह कतने आ यक बात है क भगवान् ीकृ णने एक ही शरीरसे एक ही समय
सोलह हजार महल म अलग-अलग सोलह हजार राजकुमा रय का पा ण हण कया ।।२।।
दे व ष नारद इस उ सुकतासे े रत होकर भगवान्क लीला दे खनेके लये ारका आ प ँचे।
वहाँके उपवन और उ ान खले ए रंग- बरंगे पु प से लदे वृ से प रपूण थे, उनपर तरह-
तरहके प ी चहक रहे थे और भ रे गुंजार कर रहे थे ।।३।। नमल जलसे भरे सरोवर म
नीले, लाल और सफेद रंगके भाँ त-भाँ तके कमल खले ए थे। कुमुद (को ) और नवजात
कमल क मानो भीड़ ही लगी ई थी। उनम हंस और सारस कलरव कर रहे थे ।।४।।
ारकापुरीम फ टकम ण और चाँद के नौ लाख महल थे। वे फश आ दम जड़ी ई
महामरकतम ण (प े) क भासे जगमगा रहे थे और उनम सोने तथा हीर क ब त-सी
साम याँ शोभायमान थ ।।५।। उसके राजपथ (बड़ी-बड़ी सड़क), ग लयाँ, चौराहे और
बाजार ब त ही सु दर-सु दर थे। घुड़साल आ द पशु के रहनेके थान, सभा-भवन और
दे व-म दर के कारण उसका सौ दय और भी चमक उठा था। उसक सड़क , चौक, गली
और दरवाज पर छड़काव कया गया था। छोट -छोट झं डयाँ और बड़े-बड़े झंडे जगह-
जगह फहरा रहे थे, जनके कारण रा त पर धूप नह आ पाती थी ।।६।।

ासादल ैनव भजु ां फा टकराजतैः ।


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महामरकत यैः वणर नप र छदै ः ।।५

वभ र यापथच वरापणैः
शालासभाभी चरां सुरालयैः ।
सं स मागागणवी थदे हल १
पत पताका वजवा रतातपाम्२ ।।६

त याम तःपुरं ीमद चतं सव ध यपैः ।


हरेः३ वकौशलं य व ा का यन द शतम् ।।७

त षोडश भः स सह ैः समलंकृतम् ।
ववेशैकतमं शौरेः प नीनां भवनं महत् ।।८

व धं व म त भैव यफलको मैः ।


इ नीलमयैः कु ैजग या४ चाहत वषा ।।९

वतानै न मतै व ा मु ादाम वल ब भः ।


दा तैरासनपयकैम यु मप र कृतैः ।।१०

दासी भ न कक ठ भः सुवासो भरलंकृतम् ।


पु भः सक चुको णीषसुव म णकु डलैः५ ।।११
उसी ारकानगरीम भगवान् ीकृ णका ब त ही सु दर अ तःपुर था। बड़े-बड़े लोकपाल
उसक पूजा- शंसा कया करते थे। उसका नमाण करनेम व कमाने अपना सारा कला-
कौशल, सारी कारीगरी लगा द थी ।।७।। उस अ तःपुर (र नवास) म भगवान्क रा नय के
सोलह हजारसे अ धक महल शोभायमान थे, उनमसे एक बड़े भवनम दे व ष नारदजीने वेश
कया ।।८।। उस महलम मूँग के ख भे, वै यके उ म-उ म छ जे तथा इ नीलम णक
द वार जगमगा रही थ और वहाँक गच भी ऐसी इ -नीलम णय से बनी ई थ , जनक
चमक कसी कार कम नह होती ।।९।। व कमाने ब त-से ऐसे चँदोवे बना रखे थे, जनम
मोतीक ल ड़य क झालर लटक रही थ । हाथी-दाँतके बने ए आसन और पलँग थे, जनम
े - े म ण जड़ी ई थी ।।१०।। ब त-सी दा सयाँ गलेम सोनेका हार पहने और सु दर
व से सुस जत होकर तथा ब त-से सेवक भी जामा-पगड़ी और सु दर-सु दर व पहने
तथा जड़ाऊ कु डल धारण कये अपने-अपने कामम त थे और महलक शोभा बढ़ा रहे
थे ।।११।। अनेक र न- द प अपनी जगमगाहटसे उसका अ धकार र कर रहे थे। अगरक
धूप दे नेके कारण झरोख से धूआँ नकल रहा था। उसे दे खकर रंग- बरंगे म णमय छ ज पर

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बैठे ए मोर बादल के मसे कूक-कूककर नाचने लगते ।।१२।। दे व ष नारदजीने दे खा क
भगवान् ीकृ ण उस महलक वा मनी मणीजीके साथ बैठे ए ह और वे अपने हाथ
भगवान्को सोनेक डाँड़ीवाले चँवरसे हवा कर रही ह। य प उस महलम मणीजीके
समान ही गुण, प, अव था और वेष-भूषावाली सह दा सयाँ भी हर समय व मान
रहती थ ।।१३।।
र न द प नकर ु त भ नर त-
वा तं व च वलभीषु शख डनोऽ ।
नृ य त य व हतागु धूपम ै-
नया तमी य घनबु य उ द तः ।।१२

त मन् समानगुण पवय सुवेष-


दासीसह युतयानुसवं गृ ह या ।
व ो ददश चमर जनेन म-
द डेन सा वतप त प रवीजय या ।।१३

तं स री य भगवान् सहसो थतः ी-


पयङ् कतः सकलधमभृतां व र ः ।
आन य पादयुगलं शरसा करीट-
जु ेन सा लरवी वशदासने वे ।।१४

त याव न य चरणौ तदपः वमू ना


ब जगद्गु तरोऽ प सतां प त ह ।
यदे व इ त यद्गुणनाम यु ं
त यैव य चरणशौचमशेषतीथम् ।।१५

स पू य दे वऋ षवयमृ षः पुराणो
नारायणो नरसखो व धनो दतेन ।
वा या भभा य मतयामृत म या तं
ाह भो भगवते करवाम हे कम् ।।१६
नारद उवाच
नैवा तं व य वभोऽ खललोकनाथे
मै ी जनेषु सकलेषु दमः खलानाम् ।
नः य े साय ह जग थ तर णा यां
वैरावतार उ गाय वदाम सु ु ।।१७

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नारदजीको दे खते ही सम त धा मक के मुकुट-म ण भगवान् ीकृ ण मणीजीके
पलँगसे सहसा उठ खड़े ए। उ ह ने दे व ष नारदके युगलचरण म मुकुटयु सरसे णाम
कया और हाथ जोड़कर उ ह अपने आसनपर बैठाया ।।१४।। परी त्! इसम स दे ह नह
क भगवान् ीकृ ण चराचर जगत्के परम गु ह और उनके चरण का धोवन गंगाजल सारे
जगत्को प व करनेवाला है। फर भी वे परमभ व सल और संत के परम आदश, उनके
वामी ह। उनका एक असाधारण नाम यदे व भी है। वे ा ण को ही अपना आरा यदे व
मानते ह। उनका यह नाम उनके गुणके अनु प एवं उ चत ही है। तभी तो भगवान् ीकृ णने
वयं ही नारदजीके पाँव पखारे और उनका चरणामृत अपने सरपर धारण कया ।।१५।।
नर शरोम ण नरके सखा सवदश पुराणपु ष भगवान् नारायणने शा ो व धसे
दे व ष शरोम ण भगवान् नारदक पूजा क । इसके बाद अमृतसे भी मीठे क तु भोड़े श द म
उनका वागत-स कार कया और फर कहा—‘ भो! आप तो वयं सम ान, वैरा य, धम,
यश, ी और ऐ यसे पूण ह। आपक हम या सेवा कर’? ।।१६।।
दे व ष नारदने कहा—भगवन्! आप सम त लोक के एकमा वामी ह। आपके लये
यह कोई नयी बात नह है क आप अपने भ जन से ेम करते ह और को द ड दे ते ह।
परमयश वी भो! आपने जगत्क थ त और र ाके ारा सम त जीव का क याण
करनेके लये वे छासे अवतार हण कया है। भगवन्! यह बात हम भलीभाँ त जानते
ह ।।१७।। यह बड़े सौभा यक बात है क आज मुझे आपके चरणकमल के दशन ए ह।
आपके ये चरणकमल स पूण जनताको परम सा य, मो दे नेम समथ ह। जनके ानक
कोई सीमा ही नह है, वे ा, शंकर आ द सदा-सवदा अपने दयम उनका च तन करते
रहते ह। वा तवम वे ीचरण ही संसार प कूएँम गरे ए लोग को बाहर नकलनेके लये
अवल बन ह। आप ऐसी कृपा क जये क आपके उन चरणकमल क मृ त सवदा बनी रहे
और म चाहे जहाँ जैसे र ँ, उनके यानम त मय र ँ ।।१८।।

ं तवाङ् युगलं जनतापवग


ा द भ द व च यमगाधबोधैः ।
संसारकूपप ततो रणावल बं
यायं रा यनुगृहाण यथा मृ तः यात् ।।१८

ततोऽ यदा वशद् गेहं कृ णप याः स नारदः ।


योगे रे र या योगमाया व व सया ।।१९

द तम ै त ा प यया चो वेन च ।
पू जतः परया भ या यु थानासना द भः ।।२०

पृ ा व षेवासौ कदाऽऽयातो भवा न त ।

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यते क नु पूणानामपूणर मदा द भः ।।२१

अथा प ू ह नो न् ज मैत छोभनं कु ।


स तु व मत उ थाय तू णीम यदगाद् गृहम् ।।२२

त ा यच गो व दं लालय तं सुता छशून् ।


ततोऽ य मन् गृहेऽप य म जनाय कृतो मम् ।।२३
परी त्! इसके बाद दे व ष नारदजी योगे र के भी ई र भगवान् ीकृ णक
योगमायाका सह य जाननेके लये उनक सरी प नीके महलम गये ।।१९।। वहाँ उ ह ने
दे खा क भगवान् ीकृ ण अपनी ाण या और उ वजीके साथ चौसर खेल रहे ह। वहाँ
भी भगवान्ने खड़े होकर उनका वागत कया, आसनपर बैठाया और व वध साम य ारा
बड़ी भ से उनक अचा-पूजा क ।।२०।। इसके बाद भगवान्ने नापदजीसे अनजानक
तरह पूछा—‘आप यहाँ कब पधारे! आप तो प रपूण आ माराम—आ तकाम ह और
हमलोग ह अपूण। ऐसी अव थाम भला हम आपक या सेवा कर सकते ह ।।२१।। फर भी
व प नारदजी! आप कुछ-न-कुछ आ ा अव य क जये और हम सेवाका अवसर
दे कर हमारा ज म सफल क जये।’ नारदजी यह सब दे ख-सुनकर च कत और व मत हो
रहे थे। वे वहाँसे उठकर चुपचाप सरे महलम चले गये ।।२२।। उस महलम भी दे व ष
नारदने दे खा क भगवान् ीकृ ण अपने न हे-न हे ब च को लार रहे ह। वहाँसे फर सरे
महलम गये तो या दे खते ह क भगवान् ीकृ ण नानक तैयारी कर रहे ह ।।२३।। (इसी
कार दे व ष नारदने व भ महल म भगवान्को भ - भ काय करते दे खा।) कह वे य -
कु ड म हवन कर रहे ह तो कह पंचमहाय से दे वता आ दक आराधना कर रहे ह। कह
ा ण को भोजन करा रहे ह, तो कह य का अवशेष वयं भोजन कर रहे ह ।।२४।। कह
स या कर रहे ह, तो कह मौन होकर गाय ीका जप कर रहे ह। कह हाथ म ढाल-तलवार
लेकर उनको चलानेके पैतरे बदल रहे ह ।।२५।। कह घोड़े, हाथी अथवा रथपर सवार होकर
ीकृ ण वचरण कर रहे ह। कह पलंगपर सो रहे ह, तो कह वंद जन उनक तु त कर रहे
ह ।।२६।। कसी महलम उ व आ द म य के साथ कसी ग भीर वषयपर परामश कर
रहे ह, तो कह उ मो म वारांगना से घरकर जल डा कर रहे ह ।।२७।। कह े
ा ण को व ाभूषणसे सुस जत गौ का दान कर रहे ह, तो कह मंगलमय इ तहास-
पुराण का वण कर रहे ह ।।२८।। कह कसी प नीके महलम अपनी ाण याके साथ
हा य- वनोदक बात करके हँस रहे ह। तो कह धमका सेवन कर रहे ह। कह अथका सेवन
कर रहे ह—धन-सं ह और धनवृ के कायम लगे ए ह, तो कह धमानुकूल गृह थो चत
वषय का उपभोग कर रहे ह ।।२९।। कह एका तम बैठकर कृ तसे अतीत पुराण-पु षका
यान कर रहे ह, तो कह गु जन को इ छत भोग-साम ी सम पत करके उनक सेवा-
शु ूषा कर रहे ह ।।३०।।

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जु तं च वताना नीन् यज तं प च भमखैः ।
भोजय तं जान् वा प भु ानमवशे षतम् ।।२४

वा प स यामुपासीनं जप तं वा यतम् ।
एक चा सचम यां चर तम सव मसु ।।२५

अ ैगजैः रथैः वा प वचर तं गदा जम् ।


व च छयानं पयके तूयमानं च व द भः ।।२६

म य तं च क मं म भ ो वा द भः ।
जल डारतं वा प वारमु याबलावृतम् ।।२७

कु चद् जमु ये यो ददतं गाः वलंकृताः ।


इ तहासपुराणा न शृ व तं मंगला न च ।।२८

हस तं हा यकथया कदा चत् यया गृहे ।


वा प धम सेवमानमथकामौ च कु चत् ।।२९

याय तमेकमासीनं पु षं कृतेः परम् ।


शु ूष तं गु न् वा प कामैभ गैः सपयया ।।३०

कुव तं व हं कै त् स धं चा य केशवम् ।
कु ा प सह रामेण च तय तं सतां शवम् ।।३१

पु ाणां हतॄणां च काले व युपयापनम् ।


दारैवरै त स शैः क पय तं वभू त भः ।।३२

थापनोपानयनैरप यानां महो सवान् ।


वी य योगे रेश य येषां लोका व स मरे ।।३३
दे व ष नारदने दे खा क भगवान् ीकृ ण कसीके साथ यु क बात कर रहे ह, तो
कसीके साथ स धक । कह भगवान् बलरामजीके साथ बैठकर स पु ष के क याणके
बारेम वचार कर रहे ह ।।३१।। कह उ चत समयपर पु और क या का उनके स श प नी
और वर के साथ बड़ी धूमधामसे व धवत् ववाह कर रहे ह ।।३२।। कह घरसे क या को
वदा कर रहे ह, तो कह बुलानेक तैयारीम लगे ए ह। योगे रे र भगवान् ीकृ णके इन
वराट् उ सव को दे खकर सभी लोग व मत—च कत हो जाते थे ।।३३।। कह बड़े-बड़े
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य के ारा सम त दे वता का यजन-पूजन और कह कूएँ, बगीचे तथा मठ आ द
बनवाकर इ ापूत धमका आचरण कर रहे ह ।।३४।। कह े यादव से घरे ए स धुदेशीय
घोड़ेपर चढ़कर मृगया कर रहे ह, इस कार य के लये मे य पशु का सं ह कर रहे
ह ।।३५।। और कह जाम तथा अ तःपुरके महल म वेष बदलकर छपे पसे सबका
अ भ ाय जाननेके लये वचरण कर रहे ह। य न हो, भगवान् योगे र जो ह ।।३६।।

यज तं सकलान् दे वान् वा प तु भ जतैः ।


पूतय तं व चद् धम कूपाराममठा द भः ।।३४

चर तं मृगयां वा प हयमा सै धवम् ।


न तं ततः पशून् मे यान् परीतं य पुंगवैः ।।३५

अ लगं कृ त व तःपुरगृहा दषु ।


व च चर तं योगेशं त ावबुभु सया ।।३६

अथोवाच षीकेशं नारदः हस व ।


योगमायोदयं वी य मानुषीमीयुषो ग तम् ।।३७

वदाम योगमाया ते दशा अ प मा यनाम् ।


योगे रा मन् नभाता भव पाद नषेवया ।।३८

अनुजानी ह मां दे व लोकां ते यशसाऽऽ लुतान् ।


पयटा म तवोद्गायन् लीलां भुवनपावनीम् ।।३९
ीभगवानुवाच
न् धम य व ाहं कता तदनुमो दता ।
त छ यँ लोक मममा थतः पु मा खदः ।।४०
ीशुक उवाच
इ याचर तं स मान् पावनान् गृहमे धनाम् ।
तमेव सवगेहेषु स तमेकं ददश ह ।।४१

कृ ण यान तवीय य योगमायामहोदयम् ।


मु ् वा ऋ षरभूद ् व मतो जातकौतुकः ।।४२
परी त्! इस कार मनु यक -सी लीला करते ए षीकेश भगवान् ीकृ णक
योगमायाका वैभव दे खकर दे व ष नारदजीने मुसकराते ए उनसे कहा— ।।३७।। ‘योगे र!
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आ मदे व! आपक योग-माया ाजी आ द बड़े-बड़े माया वय के लये भी अग य है। पर तु
हम आपक योगमायाका रह य जानते ह; य क आपके चरणकमल क सेवा करनेसे वह
वयं ही हमारे सामने कट हो गयी है ।।३८।। दे वता के भी आरा यदे व भगवन्! चौदह
भुवन आपके सुयशसे प रपूण हो रहे ह। अब मुझे आ ा द जये क म आपक भुवन-
पावनी लीलाका गान करता आ उन लोक म वचरण क ँ ’ ।।३९।।
भगवान् ीकृ णने कहा—दे व ष नारदजी! म ही धमका उपदे शक, पालन करनेवाला
और उसका अनु ान करनेवाल का अनुमोदनकता भी ।ँ इस लये संसारको धमक श ा
दे नेके उ े यसे ही म इस कार धमका आचरण करता ।ँ मेरे यारे पु ! तुम मेरी यह
योगमाया दे खकर मो हत मत होना ।।४०।।
ीशुकदे वजी कहते ह—इस कार भगवान् ीकृ ण गृह थ को प व करनेवाले े
धम का आचरण कर रहे थे। य प वे एक ही ह, फर भी दे व ष नारदजीने उनको उनक
येक प नीके महलम अलग-अलग दे खा ।।४१।।
भगवान् ीकृ णक श अन त है। उनक योगमायाका परम ऐ य बार-बार दे खकर
दे व ष नारदके व मय और कौतूहलक सीमा न रही ।।४२।। ारकाम भगवान् ीकृ ण
गृह थक भाँ त ऐसा आचरण करते थे, मानो धम, अथ और काम प पु षाथ म उनक बड़ी
ा हो। उ ह ने दे व ष नारदका ब त स मान कया। वे अ य त स होकर भगवान्का
मरण करते ए वहाँसे चले गये ।।४३।। राजन्! भगवान् नारायण सारे जगत्के क याणके
लये अपनी अ च य महाश योगमायाको वीकार करते ह और इस कार मनु य क -सी
लीला करते ह। ारकापुरीम सोलह हजारसे भी अ धक प नयाँ अपनी सल ज एवं ेमभरी
चतवन तथा म द-म द मुसकानसे उनक सेवा करती थ और वे उनके साथ वहार करते
थे ।।४४।। भगवान् ीकृ णने जो लीलाएँ क ह, उ ह सरा कोई नह कर सकता। परी त्!
वे व क उ प , थ त और लयके परम कारण ह। जो उनक लीला का गान, वण
और गान- वण करनेवाल का अनुमोदन करता है, उसे मो के माग व प भगवान्
ीकृ णके चरण म परम ेममयी भ ा त हो जाती है ।।४५।।

इ यथकामधमषु कृ णेन ता मना ।


स यक् सभा जतः ीत तमेवानु मरन् ययौ ।।४३

एवं मनु यपदवीमनुवतमानो


नारायणोऽ खलभवाय गृहीतश ः ।
रेमेऽ षोडशसह वरांगनानां
स ीडसौ द नरी णहासजु ः ।।४४

यानीह व वलयो ववृ हेतुः


कमा यन य वषया ण ह र कार ।
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य वंग गाय त शृणो यनुमोदते वा
भ भवेद ् भगव त पवगमाग ।।४५
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध कृ णगाह यदशनं
नामैकोनस त ततमोऽ यायः ।।६९।।

१. थशोभां। २. ा तम ‘…वा रतातपाम् ।। ’ इस ोकके बाद


‘उ फु ले द वरा भोजक ारकुमुदो पलैः । छु रतेषु सर सू चैः कू जतां हंससारसैः ।।
पु पतोपवनाराम जा लकुलना दताम् । ’ इस डेढ़ ोकका पाठ है, इसके पहले नह । ३.
सव व मापकं य ना व ा का यन न मतम्। ४. जालैमरकतो मैः। ५. षैः सुवासोम ण०।

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अथ स त ततमोऽ यायः
भगवान् ीकृ णक न यचया और उनके पास जरास धके कैद
राजा के तका आना
ीशुक उवाच
अथोष युपवृ ायां कु कुटान् कूजतोऽशपन् ।
गृहीतक ः प त भमाध ो वरहातुराः ।।१

वयां य वन् कृ णं बोधय तीव व दनः ।


गाय व ल व न ा ण म दारवनवायु भः ।।२
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जब सबेरा होने लगता, कु कुट (मुरगे) बोलने
लगते, तब वे ीकृ ण-प नयाँ, जनके क ठम ीकृ णने अपनी भुजा डाल रखी है, उनके
वछोहक आशंकासे ाकुल हो जात और उन मुरग को कोसने लगत ।।१।। उस समय
पा रजातक सुग धसे सुवा सत भीनी-भीनी वायु बहने लगती। भ रे ताल वरसे अपने
संगीतक तान छे ड़ दे ते। प य क न द उचट जाती और वे वंद जन क भाँ त भगवान्
ीकृ णको जगानेके लये मधुर वरसे कलरव करने लगते ।।२।। मणीजी अपने
यतमके भुजपाशसे बँधी रहनेपर भी आ लगन छू ट जानेक आशंकासे अ य त सुहावने
और प व ा मु तको भी अस समझने लगती थ ।।३।।
मु त तं तु वैदभ नामृ यद तशोभनम् ।
प रर भण व ेषात् यबा तरं गता ।।३

ा े मु त उ थाय वायुप पृ य माधवः ।


द यौ स करण आ मानं तमसः परम् ।।४

एकं वयं यो तरन यम यं


वसं थया न य नर तक मषम् ।
ा यम यो वनाशहेतु भः
वश भल तभाव नवृ तम् ।।५

अथा लुतोऽ भ यमले यथा व ध


याकलापं प रधाय वाससी ।
चकार स योपगमा द स मो
तानलो जजाप वा यतः ।।६

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उप थायाकमु तं तप य वाऽऽ मनः कलाः ।
दे वानृषीन् पतॄन् वृ ान् व ान य य चा मवान् ।।७

धेनूनां मशृंगीणां सा वीनां मौ क जाम् ।


पय वनीनां गृ ीनां सव सानां सुवाससाम् ।।८
भगवान् ीकृ ण त दन ा मु तम ही उठ जाते और हाथ-मुँह धोकर अपने
मायातीत आ म व पका यान करने लगते। उस समय उनका रोम-रोम आन दसे खल
उठता था ।।४।। परी त्! भगवान्का वह आ म व प सजातीय, वजातीय और
वगतभेदसे र हत एक, अख ड है। य क उसम कसी कारक उपा ध या उपा धके
कारण होनेवाला अ य व तुका अ त व नह है। और यही कारण है क वह अ वनाशी स य
है। जैसे च मा-सूय आ द ने -इ यके ारा और ने -इ य च मा-सूय आ दके ारा
का शत होती है, वैसे वह आ म व प सरेके ारा का शत नह , वयं काश है। इसका
कारण यह है क अपने व पम ही सदा-सवदा और कालक सीमाके परे भी एकरस थत
रहनेके कारण अ व ा उसका पश भी नह कर सकती। इसीसे का य- काशकभाव उसम
नह है। जगत्क उ प , थ त और नाशक कारणभूता श , व णुश और
श य के ारा केवल इस बातका अनुमान हो सकता है क वह व प एकरस स ा प
और आन द व प है। उसीको समझानेके लये ‘ ’ नामसे कहा जाता है। भगवान्
ीकृ ण अपने उसी आ म व पका त दन यान करते ।।५।। इसके बाद वे व धपूवक
नमल और प व जलम नान करते। फर शु धोती पहनकर, प ा ओढ़कर यथा व ध
न यकम स या-व दन आ द करते। इसके बाद हवन करते और मौन होकर गाय ीका जप
करते। य न हो, वे स पु ष के पा आदश जो ह ।।६।। इसके बाद सूय दय होनेके समय
सूय प थान करते और अपने कला व प दे वता, ऋ ष तथा पतर का तपण करते। फर
कुलके बड़े-बुढ़ और ा ण क व धपूवक पूजा करते। इसके बाद परम मन वी ीकृ ण
धा , पहले-पहल यायी ई, बछड़ वाला सीधी-शा त गौ का दान करते। उस समय उ ह
सु दर व और मो तय क माला पहना द जाती। स गम सोना और खुर म चाँद मढ़ द
जाती। वे ा ण को व ाभूषण से सुस जत करके रेशमी व , मृगचम और तलके साथ
त दन तेरह हजार चौरासी गौएँ इस कार दान करते ।।७-९।। तदन तर अपनी वभू त प
गौ, ा ण, दे वता, कुलके बड़े-बूढ़े, गु जन और सम त ा णय को णाम करके मांग लक
व तु का पश करते ।।१०।।
ददौ यखुरा ाणां ौमा जन तलैः सह ।
अलंकृते यो व े यो ब ं ब ं दने दने ।।९

गो व दे वतावृ गु न् भूता न सवशः ।


नम कृ या मस भूतीमगला न सम पृशत् ।।१०

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आ मानं भूषयामास नरलोक वभूषणम् ।
वासो भभूषणैः वीयै द गनुलेपनैः ।।११

अवे या यं तथाऽऽदश गोवृष जदे वताः ।


कामां सववणानां पौरा तःपुरचा रणाम् ।
दा य कृतीः कामैः तो य यन दत ।।१२

सं वभ या तो व ान् क्ता बूलानुलेपनैः ।


सु दः कृतीदारानुपायुं ततः वयम् ।।१३

तावत् सूत उपानीय य दनं परमा तम् ।


सु ीवा ैहयैयु ं ण याव थतोऽ तः ।।१४

गृही वा पा णना पाणी सारथे तमथा हत् ।


सा य यु वसंयु ः पूवा मव भा करः ।।१५

ई तोऽ तःपुर ीणां स ीड ेमवी तैः ।


कृ ाद् वसृ ो नरगा जातहासो हरन् मनः ।।१६

सुधमा यां सभां सववृ ण भः प रवा रतः ।


ा वशद् य व ानां न स यंग षडू मयः ।।१७
परी त्! य प भगवान्के शरीरका सहज सौ दय ही मनु य-लोकका अलंकार है, फर
भी वे अपने पीता बरा द द व , कौ तुभा द आभूषण, पु प के हार और च दना द द
अंगरागसे अपनेको आभू षत करते ।।११।। इसके बाद वे घी और दपणम अपना मुखार व द
दे खते; गाय, बैल, ा ण और दे व- तमा का दशन करते। फर पुरवासी और अ तःपुरम
रहनेवाले चार वण के लोग क अ भलाषाएँ पूण करते और फर अपनी अ य ( ामवासी)
जाक कामनापू त करके उसे स तु करते और इन सबको स दे खकर वयं ब त ही
आन दत होते ।।१२।। वे पु पमाला, ता बूल, च दन और अंगराग आ द व तुएँ पहले
ा ण, वजनस ब धी, म ी और रा नय को बाँट दे ते; और उनसे बची ई वयं अपने
कामम लाते ।।१३।। भगवान् यह सब करते होते, तबतक दा क नामका सार थ सु ीव आ द
घोड़ से जुता आ अ य त अद्भुत रथ ले आता और णाम करके भगवान्के सामने खड़ा
हो जाता ।।१४।। इसके बाद भगवान् ीकृ ण सा य क और उ वजीके साथ अपने हाथसे
सार थका हाथ पकड़कर रथपर सवार होते—ठ क वैसे ही जैसे भुवनभा कर भगवान् सूय
उदयाचलपर आ ढ़ होते ह ।।१५।। उस समय र नवासक याँ ल जा एवं ेमसे भरी
चतवनसे उ ह नहारने लगत और बड़े क से उ ह वदा करत । भगवान् मुसकराकर उनके
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च को चुराते ए महलसे नकलते ।।१६।।
परी त्! तदन तर भगवान् ीकृ ण सम त य वं शय के साथ सुधमा नामक सभाम
वेश करते। उस सभाक ऐसी म हमा है क जो लोग उस सभाम जा बैठते ह, उ ह भूख-
यास, शोक-मोह और जरा-मृ यु—ये छः ऊ मयाँ नह सतात ।।१७।। इस कार भगवान्
ीकृ ण सब रा नय से अलग-अलग वदा होकर एक ही पम सुधमा-सभाम वेश करते
और वहाँ जाकर े सहासनपर वराज जाते। उनक अंगका तसे दशाएँ का शत होती
रहत । उस समय य वंशी वीर के बीचम य वंश- शरोम ण भगवान् ीकृ णक ऐसी शोभा
होती, जैसे आकाशम तार से घरे ए च दे व शोभायमान होते ह ।।१८।। परी त्! सभाम
व षकलोग व भ कारके हा य- वनोदसे, नटाचाय अ भनयसे और नत कयाँ कलापूण
नृ य से अलग-अलग अपनी टो लय के साथ भगवान्क सेवा करत ।।१९।। उस समय
मृदंग, वीणा, पखावज, बाँसुरी, झाँझ और शंख बजने लगते और सूत, मागध तथा वंद जन
नाचते-गाते और भगवान्क तु त करते ।।२०।। कोई-कोई ा याकुशल ा ण वहाँ
बैठकर वेदम क ा या करते और कोई पूवकालीन प व क त नरप तय के च र कह-
कहकर सुनाते ।।२१।।
त ोप व ः परमासने वभु-
बभौ वभासा ककुभोऽवभासयन् ।
वृतो नृ सहैय भय मो
यथोडु राजो द व तारकागणैः ।।१८

त ोपम णो राजन् नानाहा यरसै वभुम् ।


उपत थुनटाचाया नत य ता डवैः पृथक् ।।१९

मृदंगवीणामुरजवेणुतालदर वनैः ।
ननृतुजगु तु ु वु सूतमागधव दनः ।।२०

त ा ा णाः के चदासीना वा दनः ।


पूवषां पु ययशसां रा ां चाकथयन् कथाः ।।२१

त क
ै ः पु षो राज ागतोऽपूवदशनः ।
व ा पतो भगवते तीहारैः वे शतः ।।२२

स नम कृ य कृ णाय परेशाय कृतांज लः ।


रा ामावेदयद् ःखं जरास ध नरोधजम् ।।२३

ये च द वजये त य स त न ययुनृपाः ।
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स ा तेनास युते े ग र जे ।।२४

कृ ण कृ णा मेया मन् प भयभंजन ।


वयं वां शरणं यामो भवभीताः पृथ धयः ।।२५

लोको वकम नरतः कुशले म ः


कम ययं व दते भवदचने वे ।
एक दनक बात है, ारकापुरीम राजसभाके ारपर एक नया मनु य आया। ारपाल ने
भगवान्को उसके आनेक सूचना दे कर उसे सभाभवनम उप थत कया ।।२२।। उस
मनु यने परमे र भगवान् ीकृ णको हाथ जोड़कर नम कार कया और उन राजा का,
ज ह ने जरास धके द वजयके समय उसके सामने सर नह झुकाया था और बलपूवक
कैद कर लये गये थे, जनक सं या बीस हजार थी, जरास धके बंद बननेका ःख
ीकृ णके सामने नवेदन कया— ।।२३-२४।। ‘स चदान द व प ीकृ ण! आप मन
और वाणीके अगोचर ह। जो आपक शरणम आता है, उसके सारे भय आप न कर दे ते ह।
भो! हमारी भेद-बु मट नह है। हम ज म-मृ यु प संसारके च करसे भयभीत होकर
आपक शरणम आये ह ।।२५।। भगवन्! अ धकांश जीव ऐसे सकाम और न ष कम म
फँसे ए ह क वे आपके बतलाये ए अपने परम क याणकारी कम, आपक उपासनासे
वमुख हो गये ह और अपने जीवन एवं जीवनस ब धी आशा-अ भलाषा म म-भटक
भटक रहे ह। पर तु आप बड़े बलवान् ह। आप काल पसे सदा-सवदा सावधान रहकर
उनक आशालताका तुरंत समूल उ छे द कर डालते ह। हम आपके उस काल पको
नम कार करते ह ।।२६।। आप वयं जगद र ह और आपने जगत्म अपने ान, बल आ द
कला के साथ इस लये अवतार हण कया है क संत क र ा कर और को द ड द।
ऐसी अव थाम भो! जरास ध आ द कोई सरे राजा आपक इ छा और आ ाके वपरीत
हम कैसे क दे रहे ह, यह बात हमारी समझम नह आती। य द यह कहा जाय क जरास ध
हम क नह दे ता, उसके पम—उसे न म बनाकर हमारे अशुभ कम ही हम ःख प ँचा
रहे ह; तो यह भी ठ क नह । य क जब हमलोग आपके अपने ह, तब हमारे कम हम
फल दे नेम कैसे समथ हो सकते ह? इस लये आप कृपा करके अव य ही हम इस लेशसे
मु क जये ।।२७।। भो! हम जानते ह क राजापनेका सुख ार धके अधीन एवं
वषयसा य है। और सच कह तो व -सुखके समान अ य त तु छ और असत् है। साथ ही
उस सुखको भोगनेवाला यह शरीर भी एक कारसे मुदा ही है और इसके पीछे सदा-सवदा
सैकड़ कारके भय लगे रहते ह। पर तु हम तो इसीके ारा जगत्के अनेक भार ढो रहे ह
और यही कारण है क हमने अ तःकरणके न काम-भाव और न संक प थ तसे ा त
होनेवाले आ मसुखका प र याग कर दया है। सचमुच हम अ य त अ ानी ह और आपक
मायाके फंदे म फँसकर लेश-पर- लेश भोगते जा रहे ह ।।२८।। भगवन्! आपके चरण-
कमल शरणागत पु ष के सम त शोक और मोह को न कर दे नेवाले ह। इस लये आप ही

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जरास ध प कम के ब धनसे हम छु ड़ाइये। भो! यह अकेला ही दस हजार हा थय क
श रखता है और हमलोग को उसी कार बंद बनाये ए है, जैसे सह भेड़ को घेर
रखे ।।२९।। च पाणे! आपने अठारह बार जरास धसे यु कया और स ह बार उसका
मान-मदन करके उसे छोड़ दया। पर तु एक बार उसने आपको जीत लया। हम जानते ह
क आपक श , आपका बल-पौ ष अन त है। फर भी मनु य का-सा आचरण करते ए
आपने हारनेका अ भनय कया। पर तु इसीसे उसका घमंड बढ़ गया है। हे अ जत! अब वह
यह जानकर हमलोग को और भी सताता है क हम आपके भ ह, आपक जा ह। अब
आपक जैसी इ छा हो, वैसा क जये’ ।।३०।।
य तावद य बलवा नह जी वताशां
स छन य न मषाय नमोऽ तु त मै ।।२६

लोके भवांजग दनः कलयावतीणः


स णाय खल न हणाय चा यः ।
क त् वद यम तया त नदे शमीश
क वा जनः वकृतमृ छ त त व ः ।।२७

व ा यतं नृपसुखं परत मीश


श येन मृतकेन धुरं वहामः ।
ह वा तदा म न सुखं वदनीहल यं
ल यामहेऽ तकृपणा तव माययेह ।।२८

त ो भवान् णतशोकहराङ् यु मो
ब ान् वयुङ् व मगधा यकमपाशात् ।
यो भूभुजोऽयुतमतंगजवीयमेको
ब द् रोध भवने मृगरा डवावीः ।।२९
यो वै वया नवकृ व उदा च
भ नो मृधे खलु भव तमन तवीयम् ।
ज वा नृलोक नरतं सकृ ढदप
यु म जा ज त नोऽ जत तद् वधे ह ।।३०
त उवाच
इ त मागधसं ा भव शनकां णः ।
प ाः पादमूलं ते द नानां शं वधीयताम् ।।३१
ीशुक उवाच

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राज ते ुव येवं दे व षः परम ु तः ।
ब त् पगजटाभारं ा रासीद् यथा र वः ।।३२

तं ् वा भगवान् कृ णः सवलोके रे रः ।
वव द उ थतः शी णा सस यः सानुगो मुदा ।।३३

सभाज य वा व धवत् कृतासनप र हम् ।


बभाषे सूनृतैवा यैः या तपयन् मु नम् ।।३४

अ प वद लोकानां याणामकुतोभयम् ।
ननु भूयान् भगवतो लोकान् पयटतो गुणः ।।३५

न ह तेऽ व दतं क च लोके वी रकतृषु ।


अथ पृ छामहे यु मान् पा डवानां चक षतम् ।।३६
तने कहा—भगवन्! जरास धके बंद नरप तय ने इस कार आपसे ाथना क है। वे
आपके चरणकमल क शरणम ह और आपका दशन चाहते ह। आप कृपा करके उन
द न का क याण क जये ।।३१।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! राजा का त इस कार कह ही रहा था क
परमतेज वी दे व ष नारदजी वहाँ आ प ँच।े उनक सुनहरी जटाएँ चमक रही थ । उ ह
दे खकर ऐसा मालूम हो रहा था, मानो सा ात् भगवान् सूय ही उदय हो गये ह ।।३२।। ा
आ द सम त लोकपाल के एकमा वामी भगवान् ीकृ ण उ ह दे खते ही सभासद और
सेवक के साथ ह षत होकर उठ खड़े ए और सर झुकाकर उनक व दना करने
लगे ।।३३।। जब दे व ष नारद आसन वीकार करके बैठ गये, तब भगवान्ने उनक व ध-
पूवक पूजा क और अपनी ासे उनको स तु करते ए वे मधुर वाणीसे बोले— ।।३४।।
‘दे वष! इस समय तीन लोक म कुशल-मंगल तो है न’? आप तीन लोक म वचरण करते
रहते ह, इससे हम यह ब त बड़ा लाभ है क घर बैठे सबका समाचार मल जाता है ।।३५।।
ई रके ारा रचे ए तीन लोक म ऐसी कोई बात नह है, जसे आप न जानते ह । अतः हम
आपसे यह जानना चाहते ह क यु ध र आ द पा डव इस समय या करना चाहते
ह?’ ।।३६।।
ीनारद उवाच
ा मया ते ब शो र यया
माया वभो व सृज मा यनः ।
भूतेषु भूमं रतः वश भ-
व े रव छ चो न मेऽ तम् ।।३७
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तवे हतं कोऽह त साधु वे दतुं
वमाययेदं सृजतो नय छतः ।
यद् व माना मतयावभासते
त मै नम ते व वल णा मने ।।३८

जीव य यः संसरतो वमो णं


न जानतोऽनथवहा छरीरतः ।
लीलावतारैः वयशः द पकं
ा वालय वा तमहं प े ।।३९

अथा या ावये नरलोक वड बनम् ।


रा ः पैतृ वसेय य भ य च चक षतम् ।।४०

य य त वां मखे े ण राजसूयेन पा डवः ।


पारमे कामो नृप त तद् भवाननुमोदताम् ।।४१
दे व ष नारदजीने कहा—सव ापक अन त! आप व के नमाता ह और इतने बड़े
मायावी ह क बड़े-बड़े मायावी ाजी आ द भी आपक मायाका पार नह पा सकते?
भो! आप सबके घट-घटम अपनी अ च य श से ा त रहते ह—ठ क वैसे ही; जैसे
अ न लक ड़य म अपनेको छपाये रखता है। लोग क स व आ द गुण पर ही अटक
जाती है, इससे आपको वे नह दे ख पाते। मने एक बार नह , अनेक बार आपक माया दे खी
है। इस लये आप जो य अनजान बनकर पा डव का समाचार पूछते ह, इससे मुझे कोई
कौतूहल नह हो रहा है ।।३७।। भगवन्! आप अपनी मायासे ही इस जगत्क रचना और
संहार करते ह, और आपक मायाके कारण ही यह अस य होनेपर भी स यके समान तीत
होता है। आप कब या करना चाहते ह, यह बात भलीभाँ त कौन समझ सकता है। आपका
व प सवथा अ च तनीय है। म तो केवल बार-बार आपको नम कार करता ँ ।।३८।।
शरीर और इससे स ब ध रखनेवाली वासना म फँसकर जीव ज म-मृ युके च करम
भटकता रहता है तथा यह नह जानता क म इस शरीरसे कैसे मु हो सकता ँ। वा तवम
उसीके हतके लये आप नाना कारके लीलावतार हण करके अपने प व यशका द पक
जला दे ते ह, जसके सहारे वह इस अनथकारी शरीरसे मु हो सके। इस लये म आपक
शरणम ँ ।।३९।। भो! आप वयं पर ह, तथा प मनु य क -सी लीलाका ना करते
ए मुझसे पूछ रहे ह। इस लये आपके फुफेरे भाई और ेमी भ राजा यु ध र या करना
चाहते ह, यह बात म आपको सुनाता ँ ।।४०।। इसम स दे ह नह क लोकम कसीको
जो भोग ा त हो सकता है, वह राजा यु ध रको यह ा त है। उ ह कसी व तुक कामना
नह है। फर भी वे े य राजसूयके ारा आपक ा तके लये आपक आराधना करना
चाहते ह। आप कृपा करके उनक इस अ भलाषाका अनुमोदन क जये ।।४१।। भगवन्!
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उस े य म आपका दशन करनेके लये बड़े-बड़े दे वता और यश वी नरप तगण एक
ह गे ।।४२।। भो! आप वयं व ानान दघन ह। आपके वण, क तन और यान
करनेमा से अ यज भी प व हो जाते ह। फर जो आपका दशन और पश ा त करते ह,
उनके स ब धम तो कहना ही या है ।।४३।। भुवन-मंगल! आपक नमल क त सम त
दशा म छा रही है तथा वग, पृ वी और पातालम ा त हो रही है; ठ क वैसे ही, जैसे
आपक चरणामृतधारा वगम म दा कनी, पातालम भोगवती और म यलोकम गंगाके नामसे
वा हत होकर सारे व को प व कर रही है ।।४४।।
त मन् दे व तुवरे भव तं वै सुरादयः ।
द वः समे य त राजान यश वनः ।।४२

वणात् क तनाद् यानात् पूय तेऽ तेवसा यनः ।


तव मय येश कमुते ा भम शनः ।।४३

य यामलं द व यशः थतं रसायां


भूमौ च ते भुवनमंगल द वतानम् ।
म दा कनी त द व भोगवती त चाधो
गंगे त चेह चरणा बु पुना त व म् ।।४४
ीशुक उवाच
त ते वा मप े वगृ सु व जगीषया ।
वाचःपेशैः मयन् भृ यमु वं ाह केशवः ।।४५
ीभगवानुवाच
वं ह नः परमं च ःु सु म ाथत व वत् ।
तथा ू नु ेयं मः करवाम तत् ।।४६

इ युपाम तो भ ा सव ेना प मु धवत् ।


नदे शं शरसाऽऽधाय उ वः यभाषत ।।४७
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! सभाम जतने य वंशी बैठे थे, वे सब इस बातके
लये अ य त उ सुक हो रहे थे क पहले जरास धपर चढ़ाइ करके उसे जीत लया जाय।
अतः उ ह नारदजीक बात पसंद न आयी। तब ा आ दके शासक भगवान् ीकृ णने
त नक मुसकराकर बड़ी मीठ वाणीम उ वजीसे कहा— ।।४५।।
भगवान् ीकृ णने कहा—‘उ व! तुम मेरे हतैषी सु द् हो। शुभ स म त दे नेवाले और
कायके त वको भलीभाँ त समझनेवाले हो, इसी लये हम तु ह अपना उ म ने मानते ह।
अब तु ह बताओ क इस वषयम हम या करना चा हये। तु हारी बातपर हमारी ा है।
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इस लये हम तु हारी सलाहके अनुसार ही काम करगे’ ।।४६।। जब उ वजीने दे खा क
भगवान् ीकृ ण सव होनेपर भी अनजानक तरह सलाह पूछ रहे ह, तब वे उनक आ ा
शरोधाय करके बोले ।।४७।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध भगव ान वचारे
स त ततमोऽ यायः ।।७०।।

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अथैकस त ततमोऽ यायः
ीकृ णभगवान्का इ थ पधारना
ीशुक उवाच
इ युद रतमाक य दे वष वोऽ वीत् ।
स यानां मतमा ाय कृ ण य च महाम तः ।।१
उ व उवाच
य मृ षणा दे व सा च ं य यत वया ।
काय पैतृ वसेय य र ा च शरणै षणाम् ।।२

य ं राजसूयेन द च ज यना वभो ।


अतो जरासुतजय उभयाथ मतो मम ।।३

अ माकं च महानथ त े ेनैव भ व य त ।


यश तव गो व द रा ो ब ान् वमु चतः ।।४

स वै वषहो राजा नागायुतसमो बले ।


ब लनाम प चा येषां भीमं समबलं वना ।।५

ै रथे स तु जेत ो मा शता ौ हणीयुतः ।


योऽ य थतो व ैन या या त क ह चत् ।।६

वेषधरो ग वा तं भ ेत वृकोदरः ।
ह न य त न स दे हो ै रथे तव स धौ ।।७
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान् ीकृ णके वचन सुनकर महाम त
उ वजीने दे व ष नारद, सभासद् और भगवान् ीकृ णके मतपर वचार कया और फर वे
कहने लगे ।।१।।
उ वजीने कहा—भगवन्! दे व ष नारदजीने आपको यह सलाह द है क फुफेरे भाई
पा डव के राजसूय-य म स म लत होकर उनक सहायता करनी चा हये। उनका यह कथन
ठ क ही है और साथ ही यह भी ठ क है क शरणागत क र ा अव यकत है ।।२।। भो!
जब हम इस से वचार करते ह क राजसूय-य वही कर सकता है, जो दस दशा पर
वजय ा त कर ले, तब हम इस नणयपर बना कसी वधाके प ँच जाते ह क
पा डव के य और शरणागत क र ा दोन काम के लये जरास धको जीतना आव यक
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है ।।३।। भो! केवल जरास धको जीत लेनेसे ही हमारा महान् उ े य सफल हो जायगा,
साथ ही उससे बंद राजा क मु और उसके कारण आपको सुयशक भी ा त हो
जायगी ।।४।। राजा जरास ध बड़े-बड़े लोग के भी दाँत ख े कर दे ता है; य क दस हजार
हा थय का बल उसे ा त है। उसे य द हरा सकते ह तो केवल भीमसेन, य क वे भी वैसे ही
बली ह ।।५।। उसे आमने-सामनेके यु म एक वीर जीत ले, यही सबसे अ छा है। सौ
अ ौ हणी सेना लेकर जब वह यु के लये खड़ा होगा, उस समय उसे जीतना आसान न
होगा। जरास ध ब त बड़ा ा णभ है। य द ा ण उससे कसी बातक याचना करते ह,
तो वह कभी कोरा जवाब नह दे ता ।।६।। इस लये भीमसेन ा णके वेषम जायँ और उससे
यु क भ ा माँग। भगवन्! इसम स दे ह नह क य द आपक उप थ तम भीमसेन और
जरास धका यु हो, तो भीमसेन उसे मार डालगे ।।७।।
न म ं परमीश य व सग नरोधयोः ।
हर यगभः शव काल या पण तव ।।८

गाय त ते वशदकम गृहेषु दे ो


रा ां वश ुवधमा म वमो णं च ।
गो य कुंजरपतेजनका मजायाः
प ो ल धशरणा मुनयो वयं च ।।९

जरास धवधः कृ ण भूयथायोपक पते ।


ायः पाक वपाकेन तव चा भमतः तुः ।।१०
ीशुक उवाच
इ यु ववचो राजन् सवतोभ म युतम् ।
दे व षय वृ ा कृ ण यपूजयन् ।।११

अथा दशत् याणाय भगवान् दे वक सुतः ।


भृ यान् दा कजै ाद ननु ा य गु न् वभुः ।।१२

नगम यावरोधान् वान् ससुतान् सप र छदान् ।


संकषणमनु ा य य राजं च श ुहन् ।
सूतोपनीतं वरथमा हद् ग ड वजम् ।।१३

ततो रथ पभटसा दनायकैः


करालया प रवृत आ मसेनया ।
मृदंगभेयानकशंखगोमुखैः
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घोषघो षतककुभो नरा मत् ।।१४
भो! आप सवश मान्, पर हत काल व प ह। व क सृ और लय आपक
ही श से होता है। ा और शंकर तो उसम न म मा ह। (इसी कार जरास धका वध
तो होगा आपक श से, भीमसेन केवल उसम न म मा बनगे) ।।८।। जब इस कार
आप जरास धका वध कर डालगे, तब कैदम पड़े ए राजा क रा नयाँ अपने महल म
आपक इस वशु लीलाका गान करगी क आपने उनके श ुका नाश कर दया और उनके
ाणप तय को छु ड़ा दया। ठ क वैसे ही, जैसे गो पयाँ शंखचूड़से छु ड़ानेक लीलाका, आपके
शरणागत मु नगण गजे और जानक जीके उ ारक लीलाका तथा हमलोग आपके माता-
पताको कंसके कारागारसे छु ड़ानेक लीलाका गान करते ह ।।९।। इस लये भो!
जरास धका वध वयं ही ब त-से योजन स कर दे गा। बंद नरप तय के पु य-प रणामसे
अथवा जरास धके पाप-प रणामसे स चदान द व प ीकृ ण! आप भी तो इस समय
राजसूय-अ का होना ही पसंद करते ह (इस लये पहले आप वह पधा रये ।।१०।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! उ वजीक यह सलाह सब कारसे हतकर और
नद ष थी। दे व ष नारद, य वंशके बड़े-बूढ़े और वयं भगवान् ीकृ णने भी उनक बातका
समथन कया ।।११।। अब अ तयामी भगवान् ीकृ णने वसुदेव आ द गु जन से अनुम त
लेकर दा क, जै आ द सेवक को इ थ जानेक तैयारी करनेके लये आ ा द ।।१२।।
इसके बाद भगवान् ीकृ णने य राज उ सेन और बलरामजीसे आ ा लेकर बाल-ब च के
साथ रा नय और उनके सब सामान को आगे चला दया और फर दा कके लाये ए
ग ड़ वज रथपर वयं सवार ए ।।१३।। इसके बाद रथ , हा थय , घुड़सवार और पैदल क
बड़ी भारी सेनाके साथ उ ह ने थान कया। उस समय मृदंग, नगारे, ढोल, शंख और
नर सग क ऊँची व नसे दस दशाएँ गूँज उठ ।।१४।।
नृवा जकांचन श बका भर युतं
सहा मजाः प तमनु सु ता ययुः ।
वरा बराभरण वलेपन जः
सुसंवृता नृ भर सचमपा ण भः ।।१५

नरो गोम हषखरा तयनः


करेणु भः प रजनवारयो षतः ।
वलंकृताः कटकु टक बला बरा-
ुप करा ययुर धयु य सवतः ।।१६

बलं बृहद् वजपटछ चामरै-


वरायुधाभरण करीटवम भः ।
दवांशु भ तुमुलरवं बभौ रवे-
यथाणवः ु भत त म गलो म भः ।।१७
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अथो मु नय प तना सभा जतः
ण य तं द वदधद् वहायसा ।
नश य तद् व सतमा ताहणो
मुकु दस दशन नवृते यः ।।१८

राज तमुवाचेदं भगवान् ीणयन् गरा ।


मा भै त भ ं वो घात य या म मागधम् ।।१९

इ यु ः थतो तो यथावदवद ृपान् ।


तेऽ प स दशनं शौरेः यै न् य मुमु वः ।।२०
सती शरोम ण मणीजी आ द सह ीकृ णप नयाँ अपनी स तान के साथ सु दर-
सु दर व ाभूषण, च दन, अंगराग और पु प के हार आ दसे सज-धजकर डो लय , रथ और
सोनेक बनी ई पाल कय म चढ़कर अपने प तदे व भगवान् ीकृ णके पीछे -पीछे चल ।
पैदल सपाही हाथ म ढाल-तलवार लेकर उनक र ा करते ए चल रहे थे ।।१५।। इसी
कार अनुचर क याँ और वारांगनाएँ भलीभाँ त शृंगार करके खस आ दक झोप ड़य ,
भाँ त-भाँ तके तंबु , कनात , क बल और ओढ़ने- बछाने आ दक साम य को बैल ,
भस , गध और ख चर पर लादकर तथा वयं पालक , ऊँट, छकड़ और ह थ नय पर सवार
होकर चल ।।१६।। जैसे मगरम छ और लहर क उछल-कूदसे ु ध समु क शोभा होती
है, ठ क वैसे ही अ य त कोलाहलसे प रपूण, फहराती ई बड़ी-बड़ी पताका , छ ,
चँवर , े अ -श , व ाभूषण , मुकुट , कवच और दनके समय उनपर पड़ती ई
सूयक करण से भगवान् ीकृ णक सेना अ य त शोभायमान ई ।।१७।। दे व ष नारदजी
भगवान् ीकृ णसे स मा नत होकर और उनके न यको सुनकर ब त स ए।
भगवान्के दशनसे उनका दय और सम त इ याँ परमान दम म न हो गय । वदा होनेके
समय भगवान् ीकृ णने उनका नाना कारक साम य से पूजन कया। अब दे व ष नारदने
उ ह मन-ही-मन णाम कया और उनक द मू तको दयम धारण करके आकाश-मागसे
थान कया ।।१८।। इसके बाद भगवान् ीकृ णने जरास धके बंद नरप तय के तको
अपनी मधुर वाणीसे आ ासन दे ते ए कहा—‘ त! तुम अपने राजा से जाकर कहना—
डरो मत! तुमलोग का क याण हो। म जरास धको मरवा डालूँगा’ ।।१९।। भगवान्क ऐसी
आ ा पाकर वह त ग र ज चला गया और नरप तय को भगवान् ीकृ णका स दे श य -
का- य सुना दया। वे राजा भी कारागारसे छू टनेके लये शी -से-शी भगवान्के शुभ
दशनक बाट जोहने लगे ।।२०।।
आनतसौवीरम ं ती वा वनशनं ह रः ।
गरीन् नद रतीयाय पुर ाम जाकरान् ।।२१

ततो ष त ती वा मुकु दोऽथ सर वतीम् ।


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पंचालानथ म यां श थमथागमत् ।।२२

तमुपागतमाक य ीतो दशनं नृणाम् ।


अजातश ु नरगात् सोपा यायः सु द्वृतः ।।२३

गीतवा द घोषेण घोषेण भूयसा ।


अ ययात् स षीकेशं ाणाः ाण मवा तः ।।२४

् वा व ल दयः कृ णं नेहेन पा डवः ।


चराद् ं यतमं स वजेऽथ पुनः पुनः ।।२५

दो या प र व य रमामलालयं
मुकु दगा ं नृप तहताशुभः ।
लेभे परां नवृ तम ुलोचनो
य नु व मृतलोक व मः ।।२६

तं मातुलेयं प रर य नवृतो
भीमः मयन् ेमजवाकुले यः ।
यमौ करीट च सु मं मुदा
वृ बा पाः प ररे भरेऽ युतम् ।।२७
परी त्! अब भगवान् ीकृ ण आनत, सौवीर, म , कु े और उनके बीचम
पड़नेवाले पवत, नद , नगर, गाँव, अहीर क ब तयाँ तथा खान को पार करते ए आगे बढ़ने
लगे ।।२१।।
भगवान् मुकु द मागम ष ती एवं सर वती नद पार करके पांचाल और म य दे श म
होते ए इ थ जा प ँचे ।।२२।। परी त्! भगवान् ीकृ णका दशन अ य त लभ है।
जब अजातश ु महाराज यु ध रको यह समाचार मला क भगवान् ीकृ ण पधार गये ह,
तब उनका रोम-रोम आन दसे खल उठा। वे अपने आचाय और वजन-स ब धय के साथ
भगवान्क अगवानी करनेके लये नगरसे बाहर आये ।।२३।। मंगल-गीत गाये जाने लगे,
बाजे बजने लगे, ब त-से ा ण मलकर ऊँचे वरसे वेदम का उ चारण करने लगे। इस
कार वे बड़े आदरसे षीकेशभगवान्का वागत करनेके लये चले, जैसे इ याँ मु य
ाणसे मलने जा रही ह ।।२४।। भगवान् ीकृ णको दे खकर राजा यु ध रका दय
नेहा तरेकसे गद्गद हो गया। उ ह ब त दन पर अपने यतम भगवान् ीकृ णको
दे खनेका सौभा य ा त आ था। अतः वे उ ह बार-बार अपने दयसे लगाने लगे ।।२५।।
भगवान् ीकृ णका ी व ह भगवती ल मीजीका प व और एकमा नवास- थान है।
राजा यु ध र अपनी दोन भुजा से उसका आ लगन करके सम त पाप-ताप से छु टकारा
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पा गये। वे सवतोभावेन परमान दके समु म म न हो गये। ने म आँसू छलक आये, अंग-अंग
पुल कत हो गया, उ ह इस व - पंचके मका त नक भी मरण न रहा ।।२६।। तदन तर
भीमसेनने मुसकराकर अपने ममेरे भाई ीकृ णका आ लगन कया। इससे उ ह बड़ा आन द
मला। उस समय उनके दयम इतना ेम उमड़ा क उ ह बा व मृ त-सी हो गयी। नकुल,
सहदे व और अजुनने भी अपने परम यतम और हतैषी भगवान् ीकृ णका बड़े आन दसे
आ लगन ा त कया। उस समय उनके ने म आँसु क बाढ़-सी आ गयी थी ।।२७।।
अजुनने पुनः भगवान् ीकृ णका आ लगन कया, नकुल और सहदे वने अ भवादन कया
और वयं भगवान् ीकृ णने ा ण और कु वंशी वृ को यथायो य नम कार
कया ।।२८।। कु , सृंजय और केकय दे शके नरप तय ने भगवान् ीकृ णका स मान कया
और भगवान् ीकृ णने भी उनका यथो चत स कार कया। सूत, मागध, वंद जन और
ा ण भगवान्क तु त करने लगे तथा ग धव, नट, व षक आ द मृदंग, शंख, नगारे,
वीणा, ढोल और नर सगे बजा-बजाकर कमलनयन भगवान् ीकृ णको स करनेके लये
नाचने-गाने लगे ।।२९-३०।। इस कार परमयश वी भगवान् ीकृ णने अपने सु द्-
वजन के साथ सब कारसे सुस जत इ थ नगरम वेश कया। उस समय लोग
आपसम भगवान् ीकृ णक शंसा करते चल रहे थे ।।३१।।
अजुनेन प र व ो यमा याम भवा दतः ।
ा णे यो नम कृ य वृ े य यथाहतः ।।२८

मा नतो मानयामास कु सृंजयकैकयान् ।


सूतमागधग धवा व दन ोपम णः ।।२९

मृदंगशंखपटहवीणापणवगोमुखैः ।
ा णा ार व दा ं तु ु वुननृतुजगुः ।।३०

एवं सु ः पय तः पु य ोक शखाम णः ।
सं तूयमानो भगवान् ववेशालंकृतं पुरम् ।।३१

सं स व म क रणां मदग धतोयै-


वजैः कनकतोरणपूणकु भैः ।
मृ ा म भनव कूल वभूषण ग्
ग धैनृ भयुव त भ वराजमानम् ।।३२

उ तद पब ल भः तस जाल-
नयातधूप चरं वलस पताकम् ।
मूध यहेमकलशै रजतो शृ ै -
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जु ं ददश भवनैः कु राजधाम ।।३३

ा तं नश य नरलोचनपानपा -
मौ सु य व थतकेश कूलब धाः ।
स ो वसृ य गृहकम पत त पे
ु ं ययुयुवतयः म नरे माग ।।३४
इ थ नगरक सड़क और ग लयाँ मतवाले हा थय के मदसे तथा सुग धत जलसे
स च द गयी थ । जगह-जगह रंग- बरंगी झं डयाँ लगा द गयी थ । सुनहले तोरन बाँधे ए थे
और सोनेके जलभरे कलश थान- थानपर शोभा पा रहे थे। नगरके नर-नारी नहा-धोकर
तथा नये व , आभूषण, पु प के हार, इ -फुलेल आ दसे सज-धजकर घूम रहे थे ।।३२।।
घर-घरम ठौर-ठौरपर द पक जलाये गये थे, जनसे द पावलीक -सी छटा हो रही थी। येक
घरके झरोख से धूपका धूआँ नकलता आ ब त ही भला मालूम होता था। सभी घर के
ऊपर पताकाएँ फहरा रही थ तथा सोनेके कलश और चाँद के शखर जगमगा रहे थे।
भगवान् ीकृ ण इस कारके महल से प रपूण पा डव क राजधानी इ थ नगरको
दे खते ए आगे बढ़ रहे थे ।।३३।। जब युव तय ने सुना क मानव-ने के पानपा अथात्
अ य त दशनीय भगवान् ीकृ ण राजपथपर आ रहे ह, तब उनके दशनक उ सुकताके
आवेगसे उनक चो टय और सा ड़य क गाँठ ढ ली पड़ गय । उ ह ने घरका काम-काज तो
छोड़ ही दया, सेजपर सोये ए अपने प तय को भी छोड़ दया और भगवान् ीकृ णका
दशन करनेके लये राजपथपर दौड़ आय ।।३४।। सड़कपर हाथी, घोड़े, रथ और पैदल
सेनाक भीड़ लग रही थी। उन य ने अटा रय पर चढ़कर रा नय के स हत भगवान्
ीकृ णका दशन कया, उनके ऊपर पु प क वषा क और मन-ही-मन आ लगन कया तथा
ेमभरी मुसकान एवं चतवनसे उनका सु वागत कया ।।३५।। नगरक याँ राजपथपर
च माके साथ वराजमान तारा के समान ीकृ णक प नय को दे खकर आपसम कहने
लग —‘सखी! इन बड़भा गनी रा नय ने न जाने ऐसा कौन-सा पु य कया है, जसके कारण
पु ष शरोम ण भगवान् ीकृ ण अपने उ मु हा य और वलासपूण कटा से उनक ओर
दे खकर उनके ने को परम आन द दान करते ह ।।३६।। इसी कार भगवान् ीकृ ण
राजपथसे चल रहे थे। थान- थानपर ब त-से न पाप धनी-मानी और श पजीवी
नाग रक ने अनेक मांग लक व तुएँ ला-लाकर उनक पूजा-अचा और वागत-स कार
कया ।।३७।।
त मन् सुसंकुल इभा रथ प ः
कृ णं सभायमुपल य गृहा ध ढाः ।
नाय वक य कुसुमैमनसोपगु
सु वागतं वदधु मयवी तेन ।।३५

ऊचुः यः प थ नरी य मुकु दप नी-


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तारा यथोडु पसहाः कमकायमू भः ।
यच ष
ु ां पु षमौ ल दारहास-
लीलावलोककलयो सवमातनो त ।।३६

त त ोपसंग य पौरा मंगलपाणयः ।


च ु ः सपया कृ णाय ेणीमु या हतैनसः ।।३७

अ तःपुरजनैः ी या मुकु दः फु ललोचनैः ।


सस मैर युपेतः ा वशद् राजम दरम् ।।३८

पृथा वलो य ा ेयं कृ णं भुवने रम् ।


ीता मो थाय पयकात् स नुषा प रष वजे ।।३९

गो व दं गृहमानीय दे वदे वेशमा तः ।


पूजायां ना वदत् कृ यं मोदोपहतो नृपः ।।४०

पतृ वसुगु ीणां कृ ण े ऽ भवादनम् ।


वयं च कृ णया राजन् भ ग या चा भव दतः ।।४१
अ तःपुरक याँ भगवान् ीकृ णको दे खकर ेम और आन दसे भर गय । उ ह ने
अपने ेम व ल और आन दसे खले ने के ारा भगवान्का वागत कया और ीकृ ण
उनका वागत-स कार वीकार करते ए राजमहलम पधारे ।।३८।।
जब कु तीने अपने भुवनप त भतीजे ीकृ णको दे खा, तब उनका दय ेमसे भर
आया। वे पलंगसे उठकर अपनी पु वधू ौपद के साथ आगे गय और भगवान् ीकृ णको
दयसे लगा लया ।।३९।। दे वदे वे र भगवान् ीकृ णको राजमहलके अंदर लाकर राजा
यु ध र आदरभाव और आन दके उ े कसे आ म- व मृत हो गये; उ ह इस बातक भी सु ध
न रही क कस मसे भगवान्क पूजा करनी चा हये ।।४०।। भगवान् ीकृ णने अपनी
फूआ कु ती और गु जन क प नय का अ भवादन कया। उनक ब हन सुभ ा और
ौपद ने भगवान्को नम कार कया ।।४१।।
वा संचो दता कृ णा कृ णप नी सवशः ।
आनच मण स यां भ ां जा बवत तथा ।।४२

का ल द म व दां च शै यां ना न जत सतीम् ।


अ या ा यागता या तु वासः ङ् म डना द भः ।।४३

सुखं नवासयामास धमराजो जनादनम् ।


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ससै यं सानुगामा यं सभाय च नवं नवम् ।।४४

तप य वा खा डवेन व फा गुनसंयुतः ।
मोच य वा मयं येन रा े द ा सभा कृता ।।४५

उवास क त च मासान् रा ः य चक षया ।


वहरन् रथमा फा गुनेन भटै वृतः ।।४६
अपनी सास कु तीक ेरणासे ौपद ने व , आभूषण, माला आ दके ारा मणी,
स यभामा, भ ा, जा बवती, का ल द , म व दा, ल मणा और परम सा वी स या—
भगवान् ीकृ णक इन पटरा नय का तथा वहाँ आयी ई ीकृ णक अ या य रा नय का
भी यथायो य स कार कया ।।४२-४३।। धमराज यु ध रने भगवान् ीकृ णको उनक
सेना, सेवक, म ी और प नय के साथ ऐसे थानम ठहराया जहाँ उ ह न य नयी-नयी
सुखक साम याँ ा त ह ।।४४।। अजुनके साथ रहकर भगवान् ीकृ णने खा डव वनका
दाह करवाकर अ नको तृ त कया था और मयासुरको उससे बचाया था। परी त्! उस
मयासुरने ही धमराज यु ध रके लये भगवान्क आ ासे एक द सभा तैयार कर
द ।।४५।। भगवान् ीकृ ण राजा यु ध रको आन दत करनेके लये कई महीन तक
इ थम ही रहे। वे समय-समयपर अजुनके साथ रथपर सवार होकर वहार करनेके लये
इधर-उधर चले जाया करते थे। उस समय बड़े-बड़े वीर सै नक भी उनक सेवाके लये साथ-
साथ जाते ।।४६।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध कृ ण ये थगमनं
नामैकस त ततमोऽ यायः ।।७१।।

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अथ स त ततमोऽ यायः
पा डव के राजसूयय का आयोजन और जरास धका उ ार
ीशुक उवाच
एकदा तु सभाम ये आ थतो मु न भवृतः ।
ा णैः यैव यै ातृ भ यु ध रः ।।१

आचायः कुलवृ ै ा तस ब धबा धवैः ।


शृ वतामेव चैतेषामाभा येदमुवाच ह ।।२
यु ध र उवाच
तुराजेन गो व द राजसूयेन पावनीः ।
य ये वभूतीभवत तत् स पादय नः भो ।।३
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! एक दन महाराज यु ध र ब त-से मु नय ,
ा ण, य , वै य , भीमसेन आ द भाइय , आचाय , कुलके बड़े-बूढ़ , जा त-ब धु ,
स ब धय एवं कुटु बय के साथ राजसभाम बैठे ए थे। उ ह ने सबके सामने ही भगवान्
ीकृ णको स बो धत करके यह बात कही ।।१-२।।
धमराज यु ध रने कहा—गो व द! म सव े राजसूय-य के ारा आपका और
आपके परम पावन वभू त व प दे वता का यजन करना चाहता ँ। भो! आप कृपा
करके मेरा यह संक प पूरा क जये ।।३।। कमलनाभ! आपके चरणकमल क पा काएँ
सम त अमंगल को न करनेवाली ह। जो लोग नर तर उनक सेवा करते ह, यान और
तु त करते ह, वा तवम वे ही प व ा मा ह। वे ज म-मृ युके च करसे छु टकारा पा जाते ह।
और य द वे सांसा रक वषय क अ भलाषा कर तो उ ह उनक भी ा त हो जाती है। पर तु
जो आपके चरणकमल क शरण हण नह करते, उ ह मु तो मलती ही नह , सांसा रक
भोग भी नह मलते ।।४।। दे वता के भी आरा यदे व! म चाहता ँ क संसारी लोग आपके
चरणकमल क सेवाका भाव दे ख। भो! कु वंशी और सृंजयवंशी नरप तय म जो लोग
आपका भजन करते ह और जो नह करते, उनका अ तर आप जनताको दखला
द जये ।।५।। भो! आप सबके आ मा, समदश और वयं आ मान दके सा ा कार ह,
वयं ह। आपम ‘यह म ँ और यह सरा, यह अपना है और यह पराया’—इस
कारका भेदभाव नह है। फर भी जो आपक सेवा करते ह, उ ह उनक भावनाके अनुसार
फल मलता ही है—ठ क वैसे ही, जैसे क पवृ क सेवा करनेवालेको। उस फलम जो
यूना धकता होती है वह तो यूना धक सेवाके अनु प ही होती है। इससे आपम वषमता या
नदयता आ द दोष नह आते ।।६।।
व पा के अ वरतं प र ये चर त
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याय यभ नशने शुचयो गृण त ।
व द त ते कमलनाभ भवापवग-
माशासते य द त आ शष ईश ना ये ।।४

तद् दे वदे व भवत रणार व द-


सेवानुभाव मह प यतु लोक एषः ।
ये वां भज त न भज युत वोभयेषां
न ां दशय वभो कु सृंजयानाम् ।।५

न णः वपरभेदम त तव यात्
सवा मनः सम शः वसुखानुभूतेः ।
संसेवतां सुरतरो रव ते सादः
सेवानु पमुदयो न वपययोऽ ।।६
ीभगवानुवाच
स यग् व सतं राजन् भवता श ुकशन ।
क याणी येन ते क तल काननु भ व य त ।।७

ऋषीणां पतृदेवानां सु दाम प नः भो ।


सवषाम प भूतानामी सतः तुराडयम् ।।८

व ज य नृपतीन् सवान् कृ वा च जगत वशे ।


स भृ य सवस भारानाहर व महा तुम् ।।९

एते ते ातरो राजन् लोकपालांशस भवाः ।


जतोऽ या मवता तेऽहं जयो योऽकृता म भः ।।१०
भगवान् ीकृ णने कहा—श ु वजयी धमराज! आपका न य ब त ही उ म है।
राजसूय-य करनेसे सम त लोक म आपक मंगलमयी क तका व तार होगा ।।७।।
राजन्! आपका यह महाय ऋ षय , पतर , दे वता , सगे-स ब धय , हम—और
कहाँतक कह, सम त ा णय को अभी है ।।८।। महाराज! पृ वीके सम त नरप तय को
जीतकर, सारी पृ वीको अपने वशम करके और य ो चत स पूण साम ी एक त करके
फर इस महाय का अनु ान क जये ।।९।। महाराज! आपके चार भाई वायु, इ आ द
लोकपाल के अंशसे पैदा ए ह। वे सब-के-सब बड़े वीर ह। आप तो परम मन वी और
संयमी ह ही। आपलोग ने अपने सद्गुण से मुझे अपने वशम कर लया है। जन लोग ने
अपनी इ य और मनको वशम नह कया है, वे मुझे अपने वशम नह कर सकते ।।१०।।
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संसारम कोई बड़े-से-बड़ा दे वता भी तेज, यश, ल मी, सौ दय और ऐ य आ दके ारा मेरे
भ का तर कार नह कर सकता। फर कोई राजा उसका तर कार कर दे , इसक तो
स भावना ही या है? ।।११।।
न क म परं लोके तेजसा यशसा या ।
वभू त भवा भभवेद ् दे वोऽ प कमु पा थवः ।।११
ीशुक उवाच
नश य भगवद्गीतं ीतः फु लमुखा बुजः ।
ातॄन् द वजयेऽयुङ् व णुतेजोपबृं हतान् ।।१२

सहदे वं द ण यामा दशत् सह सृंजयैः ।


द श ती यां नकुलमुद यां स सा चनम् ।
ा यां वृकोदरं म यैः केकयैः सह म कैः ।।१३

ते व ज य नृपान् वीरा आज द य ओजसा ।


अजातश वे भू र वणं नृप य यते ।।१४

ु वा जतं जरास धं नृपते यायतो ह रः ।


आहोपायं तमेवा उ वो यमुवाच ह ।।१५

भीमसेनोऽजुनः कृ णो लगधरा यः ।
ज मु ग र जं तात बृह थसुतो यतः ।।१६

ते ग वाऽऽ त यवेलायां गृहेषु गृहमे धनम् ।


यं समयाचेरन् राज या ल गनः ।।१७

राजन् व य तथीन् ा तान थनो रमागतान् ।


त ः य छ भ ं ते यद् वयं कामयामहे ।।१८
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान्क बात सुनकर महाराज यु ध रका दय
आन दसे भर गया। उनका मुखकमल फु लत हो गया। अब उ ह ने अपने भाइय को
द वजय करनेका आदे श दया। भगवान् ीकृ णने पा डव म अपनी श का संचार करके
उनको अ य त भावशाली बना दया था ।।१२।। धमराज यु ध रने सृंजयवंशी वीर के साथ
सहदे वको द ण दशाम द वजय करनेके लये भेजा। नकुलको म यदे शीय वीर के साथ
प मम, अजुनको केकयदे शीय वीर के साथ उ रम और भीमसेनको म दे शीय वीर के साथ
पूव दशाम द वजय करनेका आदे श दया ।।१३।। परी त्! उन भीमसेन आ द वीर ने
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अपने बल-पौ षसे सब ओरके नरप तय को जीत लया और य करनेके लये उ त
महाराज यु ध रको ब त-सा धन लाकर दया ।।१४।। जब महाराज यु ध रने यह सुना क
अबतक जरास धपर वजय नह ा त क जा सक , तब वे च ताम पड़ गये। उस समय
भगवान् ीकृ णने उ ह वही उपाय कह सुनाया, जो उ वजीने बतलाया था ।।१५।।
परी त्! इसके बाद भीमसेन, अजुन और भगवान् ीकृ ण—ये तीन ही ा णका वेष
धारण करके ग र ज गये। वही जरास धक राजधानी थी ।।१६।। राजा जरास ध
ा ण का भ और गृह थो चत धम का पालन करनेवाला था। उपयु तीन य
ा णका वेष धारण करके अ त थ-अ यागत के स कारके समय जरास धके पास गये और
उससे इस कार याचना क — ।।१७।।
‘राजन्! आपका क याण हो। हम तीन आपके अ त थ ह और ब त रसे आ रहे ह।
अव य ही हम यहाँ कसी वशेष योजनसे ही आये ह। इस लये हम आपसे जो कुछ चाहते
ह, वह आप हम अव य द जये ।।१८।। त त ु पु ष या नह सह सकते। पु ष बुरा-
से-बुरा या नह कर सकते। उदार पु ष या नह दे सकते और समदश के लये पराया कौन
है? ।।१९।। जो पु ष वयं समथ होकर भी इस नाशवान् शरीरसे ऐसे अ वनाशी यशका
सं ह नह करता, जसका बड़े-बड़े स पु ष भी गान कर; सच पू छये तो उसक जतनी
न दा क जाय, थोड़ी है। उसका जीवन शोक करनेयो य है ।।२०।। राजन्! आप तो जानते
ही ह गे—राजा ह र , र तदे व, केवल अ के दाने बीन-चुनकर नवाह करनेवाले महा मा
मुदगल,
् श ब, ब ल, ाध और कपोत आ द ब त-से अ त थको अपना सव व दे कर
इस नाशवान् शरीरके ारा अ वनाशी पदको ा त हो चुके ह। इस लये आप भी हमलोग को
नराश मत क जये ।।२१।।
क मष त त ूणां कमकायमसाधु भः ।
क न दे यं वदा यानां कः परः समद शनाम् ।।१९

योऽ न येन शरीरेण सतां गेयं यशो ुवम् ।


ना चनो त वयं क पः स वा यः शो य एव सः ।।२०

हर ो र तदे व उ छवृ ः श बब लः ।
ाधः कपोतो बहवो ुवेण ुवं गताः ।।२१
ीशुक उवाच
वरैराकृ त भ तां तु को ै याहतैर प ।
राज यब धून् व ाय पूवान च तयत् ।।२२

राज यब धवो ेते लगा न ब त ।


ददा म भ तं ते य आ मानम प यजम् ।।२३
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बलेनु ूयते क त वतता द वक मषा ।
ऐ याद् ं शत या प व ाजेन व णुना ।।२४

यं जहीषते य व णवे ज पणे ।


जान प मह ादाद् वायमाणोऽ प दै यराट् ।।२५
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जरास धने उन लोग क आवाज, सूरत-शकल और
कलाइय पर पड़े ए धनुषक यंचाक रगड़के च को दे खकर पहचान लया क ये तो
ा ण नह , य ह। अब वह सोचने लगा क मने कह -न-कह इ ह दे खा भी अव य
है ।।२२।। फर उसने मन-ही-मन यह वचार कया क ‘ये य होनेपर भी मेरे भयसे
ा णका वेष बनाकर आये ह। जब ये भ ा माँगनेपर ही उता हो गये ह, तब चाहे जो
कुछ माँग ल, म इ ह ँ गा। याचना करनेपर अपना अ य त यारा और यज शरीर दे नेम भी
मुझे हच कचाहट न होगी ।।२३।। व णुभगवान्ने ा णका वेष धारण करके ब लका धन,
ऐ य—सब कुछ छ न लया; फर भी ब लक प व क त सब ओर फैली ई है और आज
भी लोग बड़े आदरसे उसका गान करते ह ।।२४।। इसम स दे ह नह क व णुभगवान्ने
दे वराज इ क रा यल मी ब लसे छ नकर उ ह लौटानेके लये ही ा ण प धारण कया
था। दै यराज ब लको यह बात मालूम हो गयी थी और शु ाचायने उ ह रोका भी; पर तु
उ ह ने पृ वीका दान कर ही दया ।।२५।।
जीवता ा णाथाय को वथः ब धुना ।
दे हेन पतमानेन नेहता वपुलं यशः ।।२६

इ युदारम तः ाह कृ णाजुनवृकोदरान् ।
हे व ा यतां कामो ददा या म शरोऽ प वः ।।२७
ीभगवानुवाच
यु ं नो दे ह राजे शो य द म यसे ।
यु ा थनो वयं ा ता राज या ना कां णः ।।२८

असौ वृकोदरः पाथ त य ाताजुनो यम् ।


अनयोमातुलेयं मां कृ णं जानी ह ते रपुम् ।।२९

एवमावे दतो राजा जहासो चैः म मागधः ।


आह चाम षतो म दा यु ं त ह ददा म वः ।।३०

न वया भी णा यो ये यु ध व लवचेतसा ।
मथुरां वपुर य वा समु ं शरणं गतः ।।३१
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अयं तु वयसा तु यो ना तस वो न मे समः ।
अजुनो न भवेद ् यो ा भीम तु यबलो मम ।।३२

इ यु वा भीमसेनाय ादाय महत गदाम् ।


तीयां वयमादाय नजगाम पुराद् ब हः ।।३३

ततः समे खले वीरौ संयु ा वतरेतरौ ।


ज नतुव क पा यां गदा यां रण मदौ ।।३४

म डला न व च ा ण स ं द णमेव च ।
चरतोः शुशुभे यु ं नटयो रव रं गणोः ।।३५
मेरा तो यह प का न य है क यह शरीर नाशवान् है। इस शरीरसे जो वपुल यश नह
कमाता और जो य ा णके लये ही जीवन नह धारण करता, उसका जीना थ
है’ ।।२६।।
परी त्! सचमुच जरास धक बु बड़ी उदार थी। उपयु वचार करके उसने
ा ण-वेषधारी ीकृ ण, अजुन और भीमसेनसे कहा—‘ ा णो! आपलोग मनचाही व तु
माँग ल, आप चाह तो म आपलोग को अपना सर भी दे सकता ’ँ ।।२७।।
भगवान् ीकृ णने कहा—‘राजे ! हमलोग अ के इ छु क ा ण नह ह, य ह;
हम आपके पास यु के लये आये ह। य द आपक इ छा हो तो हम यु क भ ा
द जये ।।२८।। दे खो, ये पा डु पु भीमसेन ह और यह इनका भाई अजुन है और म इन
दोन का ममेरा भाई तथा आपका पुराना श ु कृ ण ँ’ ।।२९।। जब भगवान् ीकृ णने इस
कार अपना प रचय दया, तब राजा जरास ध ठठाकर हँसने लगा। और चढ़कर बोला
—‘अरे मूख ! य द तु ह यु क ही इ छा है तो लो म तु हारी ाथना वीकार करता
ँ ।।३०।। पर तु कृ ण! तुम तो बड़े डरपोक हो। यु म तुम घबरा जाते हो। यहाँतक क मेरे
डरसे तुमने अपनी नगरी मथुरा भी छोड़ द तथा समु क शरण ली है। इस लये म तु हारे
साथ नह लडँगा ।।३१।। यह अजुन भी कोई यो ा नह है। एक तो अव थाम मुझसे छोटा,
सरे कोई वशेष बलवान् भी नह है। इस लये यह भी मेरे जोड़का वीर नह है। म इसके
साथ भी नह लडँगा। रहे भीमसेन, ये अव य ही मेरे समान बलवान् और मेरे जोड़के
ह’ ।।३२।। जरास धने यह कहकर भीमसेनको एक ब त बड़ी गदा दे द और वयं सरी
गदा लेकर नगरसे बाहर नकल आया ।।३३।। अब दोन रणो म वीर अखाड़ेम आकर
एक- सरेसे भड़ गये और अपनी व के समान कठोर गदा से एक- सरेपर चोट करने
लगे ।।३४।। वे दाय-बाय तरह-तरहके पतरे बदलते ए ऐसे शोभायमान हो रहे थे—मानो दो
े नट रंगमंचपर यु का अ भनय कर रहे ह ।।३५।। परी त्! जब एकक गदा सरेक
गदासे टकराती, तब ऐसा मालूम होता मानो यु करनेवाले दो हा थय के दाँत आपसम
भड़कर चटचटा रहे ह या बड़े जोरसे बजली तड़क रही हो ।।३६।।
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तत टचटाश दो व न पेषस भः ।
गदयोः तयो राजन् द तयो रव द तनोः ।।३६

ते वै गदे भुजजवेन नपा यमाने


अ यो यत ऽसक टपादकरो ज ून् ।
चूण बभूवतु पे य यथाकशाखे
संयु यतो रदयो रव द तम वोः ।।३७

इ थं तयोः हतयोगदयोनृवीरौ
ु ौ वमु भरयः पशर प ाम् ।
श द तयोः हरतो रभयो रवासी-
घातव प ष तलताडनो थः ।।३८

तयोरेवं हरतोः सम श ाबलौजसोः ।


न वशेषमभूद ् यु म ीणजवयोनृप ।।३९

एवं तयोमहाराज यु यतोः स त वश तः ।


दना न नरगं त सु श त तोः ।।४०

एकदा मातुलेयं वै ाह राजन् वृकोदरः ।


न श ोऽहं जरास धं नजतुं यु ध माधव ।।४१

श ोज ममृती व ान् जी वतं च जराकृतम् ।


पाथमा याययन् वेन तेजसा च तय रः ।।४२
जब दो हाथी ोधम भरकर लड़ने लगते ह और आकक डा लयाँ तोड़-तोड़कर एक-
सरेपर हार करते ह, उस समय एक- सरेक चोटसे वे डा लयाँ चूर-चूर हो जाती ह; वैसे
ही जब जरास ध और भीमसेन बड़े वेगसे गदा चला-चलाकर एक- सरेके कंध , कमर , पैर ,
हाथ , जाँघ और हँस लय पर चोट करने लगे; तब उनक गदाएँ उनके अंग से टकरा-
टकराकर चकनाचूर होने लग ।।३७।। इस कार जब गदाएँ चूर-चूर हो गय , तब दोन वीर
ोधम भरकर अपने घूँस से एक- सरेको कुचल डालनेक चे ा करने लगे। उनके घूँसे ऐसी
चोट करते, मानो लोहेका घन गर रहा हो। एक- सरेपर खुलकर चोट करते ए दो
हा थय क तरह उनके थ पड़ और घूँस का कठोर श द बजलीक कड़-कड़ाहटके समान
जान पड़ता था ।।३८।। परी त्! जरास ध और भीमसेन दोन क गदा-यु म कुशलता, बल
और उ साह समान थे। दोन क श त नक भी ीण नह हो रही थी। इस कार लगातार
हार करते रहनेपर भी दोन मसे कसीक जीत या हार न ई ।।३९।। दोन वीर रातके समय
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म के समान रहते और दनम छू टकर एक- सरेपर हार करते और लड़ते। महाराज! इस
कार उनके लड़ते-लड़ते स ाईस दन बीत गये ।।४०।।
य परी त्! अ ाईसव दन भीमसेनने अपने ममेरे भाई ीकृ णसे कहा—‘ ीकृ ण!
म यु म जरास धको जीत नह सकता ।।४१।। भगवान् ीकृ ण जरास धके ज म और
मृ युका रह य जानते थे और यह भी जानते थे क जरा रा सीने जरास धके शरीरके दो
टु कड़ को जोड़कर इसे जीवन-दान दया है। इस लये उ ह ने भीमसेनके शरीरम अपनी
श का संचार कया और जरास धके वधका उपाय सोचा ।।४२।। परी त्! भगवान्का
ान अबाध है। अब उ ह ने उसक मृ युका उपाय जानकर एक वृ क डालीको बीचोबीचसे
चीर दया और इशारेसे भीमसेनको दखाया ।।४३।। वीर शरोम ण एवं परम श शाली
भीमसेनने भगवान् ीकृ णका अ भ ाय समझ लया और जरास धके पैर पकड़कर उसे
धरतीपर दे मारा ।।४४।। फर उसके एक पैरको अपने पैरके नीचे दबाया और सरेको अपने
दोन हाथ से पकड़ लया। इसके बाद भीमसेनने उसे गुदाक ओरसे इस कार चीर डाला,
जैसे गजराज वृ क डाली चीर डाले ।।४५।। लोग ने दे खा क जरास धके शरीरके दो टु कड़े
हो गये ह, और इस कार उनके एक-एक पैर, जाँघ, अ डकोश, कमर, पीठ, तन, कंधा,
भुजा, ने , भ ह और कान अलग-अलग हो गये ह ।।४६।।
सं च या रवधोपायं भीम यामोघदशनः ।
दशयामास वटपं पाटय व सं या ।।४३

तद् व ाय महास वो भीमः हरतां वरः ।


गृही वा पादयोः श ुं पातयामास भूतले ।।४४

एकं पादं पदाऽऽ य दो याम यं गृ सः ।


गुदतः पाटयामास शाखा मव महागजः ।।४५

एकपादो वृषणक टपृ तनांसके ।


एकबा ू ण शकले द शुः जाः ।।४६

हाहाकारो महानासी हते मगधे रे ।


पूजयामासतुभ मं प रर य जया युतौ ।।४७

सहदे वं त नयं भगवान् भूतभावनः ।


अ य षचदमेया मा मगधानां प त भुः ।
मोचयामास राज यान् सं ा मागधेन ये ।।४८
मगधराज जरास धक मृ यु हो जानेपर वहाँक जा बड़े जोरसे ‘हाय-हाय!’ पुकारने
लगी। भगवान् ीकृ ण और अजुनने भीमसेनका आ लगन करके उनका स कार
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कया ।।४७।। सवश मान् भगवान् ीकृ णके व प और वचार को कोई समझ नह
सकता। वा तवम वे ही सम त ा णय के जीवनदाता ह। उ ह ने जरास धके राज सहासनपर
उसके पु सहदे वका अ भषेक कर दया और जरास धने जन राजा को कैद बना रखा
था, उ ह कारागारसे मु कर दया ।।४८।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध जरास धवधो नाम
स त ततमोऽ यायः ।।७२।।

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अथ स त ततमोऽ यायः
जरास धके जेलसे छू टे ए राजा क बदाई और भगवान्का इ थ
लौट आना
ीशुक उवाच
अयुते े शता य ौ लीलया यु ध न जताः ।
ते नगता ग र ो यां म लना मलवाससः ।।१
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जरास धने अनायास ही बीस हजार आठ सौ
राजा को जीतकर पहाड़ क घाट म एक कलेके भीतर कैद कर रखा था। भगवान्
ीकृ णके छोड़ दे नेपर जब वे वहाँसे नकले, तब उनके शरीर और व मैले हो रहे थे ।।१।।
वे भूखसे बल हो रहे थे और उनके मुँह सूख गये थे। जेलम बंद रहनेके कारण उनके
शरीरका एक-एक अंग ढ ला पड़ गया था। वहाँसे नकलते ही उन नरप तय ने दे खा क
सामने भगवान् ीकृ ण खड़े ह। वषाकालीन मेघके समान उनका साँवला-सलोना शरीर है
और उसपर पीले रंगका रेशमी व फहरा रहा है ।।२।। चार भुजाएँ ह— जनम गदा, शंख,
च और कमल सुशो भत ह। व ः थलपर सुनहली रेखा— ीव सका च है और कमलके
भीतरी भागके समान कोमल, रतनारे ने ह। सु दर वदन स ताका सदन है। कान म
मकराकृ त कु डल झल मला रहे ह। सु दर मुकुट, मो तय का हार, कड़े, करधनी और
बाजूबंद अपने-अपने थानपर शोभा पा रहे ह ।।३-४।। गलेम कौ तुभम ण जगमगा रही है
और वनमाला लटक रही है। भगवान् ीकृ णको दे खकर उन राजा क ऐसी थ त हो
गयी, मानो वे ने से उ ह पी रहे ह। जीभसे चाट रहे ह, ना सकासे सूँघ रहे ह और बा से
आ लगन कर रहे ह। उनके सारे पाप तो भगवान्के दशनसे ही धुल चुके थे। उ ह ने भगवान्
ीकृ णके चरण पर अपना सर रखकर णाम कया ।।५-६।। भगवान् ीकृ णके दशनसे
उन राजा को इतना अ धक आन द आ क कैदम रहनेका लेश बलकुल जाता रहा। वे
हाथ जोड़कर वन वाणीसे भगवान् ीकृ णक तु त करने लगे ।।७।।
ु ामाः शु कवदनाः संरोधप रक शताः ।
द शु ते घन यामं पीतकौशेयवाससम् ।।२

ीव सांकं चतुबा ं प गभा णे णम् ।


चा स वदनं फुर मकरकु डलम् ।।३

प ह तं गदाशंखरथा ै पल तम् ।
करीटहारकटकक टसू ांगदा चतम् ।।४

ाज रम ण ीवं नवीतं वनमालया ।


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पब त इव च ु या लह त इव ज या ।।५

ज त इव नासा यां र भ त इव बा भः ।
णेमुहतपा मानो मूध भः पादयोहरेः ।।६

कृ णस दशना ाद व तसंरोधन लमाः ।


शशंसु षीकेशं गी भः ांजलयो नृपाः ।।७
राजान ऊचुः
नम ते दे वदे वेश प ा तहरा य ।
प ान् पा ह नः कृ ण न व णान् घोरसंसृतेः ।।८

नैनं नाथा वसूयामो मागधं मधुसूदन ।


अनु हो यद् भवतो रा ां रा य यु त वभो ।।९
राजा ने कहा—शरणागत के सारे ःख और भय हर लेनेवाले दे वदे वे र!
स चदान द व प अ वनाशी ीकृ ण! हम आपको नम कार करते ह। आपने जरास धके
कारागारसे तो हम छु ड़ा ही दया, अब इस ज म-मृ यु प घोर संसार-च से भी छु ड़ा
द जये; य क हम संसारम ःखका कटु अनुभव करके उससे ऊब गये ह और आपक
शरणम आये ह। भो! अब आप हमारी र ा क जये ।।८।। मधुसूदन! हमारे वामी! हम
मगधराज जरास धका कोई दोष नह दे खते। भगवन्! यह तो आपका ब त बड़ा अनु ह है
क हम राजा कहलाने-वाले लोग रा यल मीसे युत कर दये गये ।।९।। य क जो राजा
अपने रा य-ऐ यके मदसे उ म हो जाता है, उसको स चे सुखक —क याणक ा त
कभी नह हो सकती। वह आपक मायासे मो हत होकर अ न य स प य को ही अचल
मान बैठता है ।।१०।। जैसे मूखलोग मृगतृ णाके जलको ही जलाशय मान लेते ह, वैसे ही
इ यलोलुप और अ ानी पु ष भी इस प रवतनशील मायाको स य व तु मान लेते
ह ।।११।। भगवन्! पहले हमलोग धन-स प के नशेम चूर होकर अंधे हो रहे थे। इस
पृ वीको जीत लेनेके लये एक- सरेक होड़ करते थे और अपनी ही जाका नाश करते
रहते थे! सचमुच हमारा जीवन अ य त ू रतासे भरा आ था, और हमलोग इतने अ धक
मतवाले हो रहे थे क आप मृ यु पसे हमारे सामने खड़े ह, इस बातक भी हम त नक परवा
नह करते थे ।।१२।। स चदान द व प ीकृ ण! कालक ग त बड़ी गहन है। वह इतना
बलवान् है क कसीके टाले टलता नह । य न हो, वह आपका शरीर ही तो है। अब उसने
हमलोग को ीहीन, नधन कर दया है। आपक अहैतुक अनुक पासे हमारा घमंड चूर-चूर
हो गया। अब हम आपके चरणकमल का मरण करते ह ।।१३।। वभो! यह शरीर दनो दन
ीण होता जा रहा है। रोग क तो यह ज मभू म ही है। अब हम इस शरीरसे भोगे जानेवाले
रा यक अ भलाषा नह है। य क हम समझ गये ह क वह मृगतृ णाके जलके समान

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सवथा म या है। यही नह , हम कमके फल वगा द लोक क भी, जो मरनेके बाद मलते ह,
इ छा नह है। य क हम जानते ह क वे न सार ह, केवल सुननेम ही आकषक जान पड़ते
ह ।।१४।। अब हम कृपा करके आप वह उपाय बतलाइये, जससे आपके चरणकमल क
व मृ त कभी न हो, सवदा मृ त बनी रहे। चाहे हम संसारक कसी भी यो नम ज म य न
लेना पड़े ।।१५।। णाम करनेवाल के लेशका नाश करनेवाले ीकृ ण, वासुदेव, ह र,
परमा मा एवं गो व दके त हमारा बार-बार नम कार है ।।१६।।
रा यै यमदो ो न ेयो व दते नृपः ।
व मायामो हतोऽ न या म यते स पदोऽचलाः ।।१०

मृगतृ णां यथा बाला म य त उदकाशयम् ।


एवं वैका रक मायामयु ा व तु च ते ।।११

वयं पुरा ीमदन यो


जगीषया या इतरेतर पृधः ।
न तः जाः वा अ त नघृणाः भो
मृ युं पुर वा वगण य मदाः ।।१२

त एव कृ णा गभीररंहसा
र तवीयण वचा लताः यः ।
कालेन त वा भवतोऽनुक पया
वन दपा रणौ मराम ते ।।१३

अथो न रा यं मृगतृ ण पतं


दे हेन श त् पतता जां भुवा ।
उपा सत ं पृहयामहे वभो
याफलं े य च कणरोचनम् ।।१४

तं नः समा दशोपायं येन ते चरणा जयोः ।


मृ तयथा न वरमेद प संसरता मह ।।१५

कृ णाय वासुदेवाय हरये परमा मने ।


णत लेशनाशाय गो व दाय नमो नमः ।।१६
ीशुक उवाच
सं तूयमानो भगवान् राज भमु ब धनैः ।

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तानाह क ण तात शर यः णया गरा ।।१७
ीभगवानुवाच
अ भृ त वो भूपा म या म य खले रे ।
सु ढा जायते भ बाढमाशं सतं तथा ।।१८

द ा व सतं भूपा भव त ऋतभा षणः ।


यै यमदो ाहं प य उ मादकं नृणाम् ।।१९

हैहयो न षो वेनो रावणो नरकोऽपरे ।


ीमदाद् ं शताः थानाद् दे वदै यनरे राः ।।२०

भव त एतद् व ाय दे हा ु पा म तवत् ।
मां यज तोऽ वरैयु ाः जा धमण र थ ।।२१

स त व तः जात तून् सुखं ःखं भवाभवौ ।


ा तं ा तं च सेव तो म च ा वच र यथ ।।२२

उदासीना दे हादावा मारामा धृत ताः ।


म यावे य मनः स यङ् माम ते या यथ ।।२३
ीशुक उवाच
इ या द य नृपान् कृ णो भगवान् भुवने रः ।
तेषां ययुं पु षान् यो म जनकम ण ।।२४
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! कारागारसे मु राजा ने जब इस कार
क णाव णालय भगवान् ीकृ णक तु त क , तब शरणागतर क भुने बड़ी मधुर
वाणीसे उनसे कहा ।।१७।।
भगवान् ीकृ णने कहा—नरप तयो! तुम-लोग ने जैसी इ छा कट क है, उसके
अनुसार आजसे मुझम तुमलोग क न य ही सु ढ़ भ होगी। यह जान लो क म सबका
आ मा और सबका वामी ँ ।।१८।। नरप तयो! तुमलोग ने जो न य कया है, वह सचमुच
तु हारे लये बड़े सौभा य और आन दक बात है। तुमलोग ने मुझसे जो कुछ कहा है, वह
बलकुल ठ क है। य क म दे खता ँ, धन-स प और ऐ यके मदसे चूर होकर ब त-से
लोग उ छृ ं खल और मतवाले हो जाते ह ।।१९।। हैहय, न ष, वेन, रावण, नरकासुर आ द
अनेक दे वता, दै य और नरप त ीमदके कारण अपने थानसे, पदसे युत हो गये ।।२०।।
तुमलोग यह समझ लो क शरीर और इसके स ब धी पैदा होते ह, इस लये उनका नाश भी

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अव य भावी है। अतः उनम आस मत करो। बड़ी सावधानीसे मन और इ य को वशम
रखकर य के ारा मेरा यजन करो और धमपूवक जाक र ा करो ।।२१।। तुमलोग
अपनी वंश-पर पराक र ाके लये, भोगके लये नह , स तान उ प करो और ार धके
अनुसार ज म-मृ यु, सुख- ःख, लाभ-हा न—जो कुछ भी ा त ह , उ ह समानभावसे मेरा
साद समझकर सेवन करो और अपना च मुझम लगाकर जीवन बताओ ।।२२।। दे ह
और दे हके स ब धय से कसी कारक आस न रखकर उदासीन रहो; अपने-आपम,
आ माम ही रमण करो और भजन तथा आ मके यो य त का पालन करते रहो। अपना मन
भलीभाँ त मुझम लगाकर अ तम तुमलोग मुझ व पको ही ा त हो जाओगे ।।२३।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भुवने र भगवान् ीकृ णने राजा को यह आदे श
दे कर उ ह नान आ द करानेके लये ब त-से ी-पु ष नयु कर दये ।।२४।।
सपया कारयामास सहदे वेन भारत ।
नरदे वो चतैव ैभूषणैः वलेपनैः ।।२५

भोज य वा वरा न
े सु नातान् समलंकृतान् ।
भोगै व वधैयु ां ता बूला ैनृपो चतैः ।।२६

ते पू जता मुकु दे न राजानो मृ कु डलाः ।


वरेजुम चताः लेशात् ावृड ते यथा हाः ।।२७

रथान् सद ानारो य म णकांचनभू षतान् ।


ीण य सूनृतैवा यैः वदे शान् ययापयत् ।।२८

त एवं मो चताः कृ ात् कृ णेन सुमहा मना ।


ययु तमेव याय तः कृता न च जग पतेः ।।२९

जग ः कृ त य ते महापु षचे तम् ।


यथा वशासद् भगवां तथा च ु रत ताः ।।३०

जरास धं घात य वा भीमसेनेन केशवः ।


पाथा यां संयुतः ायात् सहदे वेन पू जतः ।।३१

ग वा ते खा डव थं शंखान् द मु जतारयः ।
हषय तः वसु दो दां चासुखावहाः ।।३२

त छ वा ीतमनस इ थ नवा सनः ।


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मे नरे मागधं शा तं राजा चा तमनोरथः ।।३३

अ भव ाथ राजानं भीमाजुनजनादनाः ।
सवमा ावयांच ु रा मना यदनु तम् ।।३४
परी त्! जरास धके पु सहदे वसे उनको राजो चत व -आभूषण, माला-च दन आ द
दलवाकर उनका खूब स मान करवाया ।।२५।। जब वे नान करके व ाभूषणसे सुस जत
हो चुके, तब भगवान्ने उ ह उ म-उ म पदाथ का भोजन करवाया और पान आ द व वध
कारके राजो चत भोग दलवाये ।।२६।। भगवान् ीकृ णने इस कार उन बंद राजा को
स मा नत कया। अब वे सम त लेश से छु टकारा पाकर तथा कान म झल मलाते ए
सु दर-सु दर कु डल पहनकर ऐसे शोभायमान ए, जैसे वषाऋतुका अ त हो जानेपर
तारे ।।२७।। फर भगवान् ीकृ णने उ ह सुवण और म णय से भू षत एवं े घोड़ से यु
रथ पर चढ़ाया, मधुर वाणीसे तृ त कया और फर उ ह उनके दे श को भेज दया ।।२८।।
इस कार उदार शरोम ण भगवान् ीकृ णने उन राजा को महान् क से मु कया। अब
वे जग प त भगवान् ीकृ णके प, गुण और लीला का च तन करते ए अपनी-अपनी
राजधानीको चले गये ।।२९।। वहाँ जाकर उन लोग ने अपनी-अपनी जासे परमपु ष
भगवान् ीकृ णक अद्भुत कृपा और लीला कह सुनायी और फर बड़ी सावधानीसे
भगवान्के आ ानुसार वे अपना जीवन तीत करने लगे ।।३०।।
परी त्! इस कार भगवान् ीकृ ण भीमसेनके ारा जरास धका वध करवाकर
भीमसेन और अजुनके साथ जरास धन दन सहदे वसे स मा नत होकर इ - थके लये
चले। उन वजयी वीर ने इ थके पास प ँचकर अपने-अपने शंख बजाये, जससे उनके
इ म को सुख और श ु को बड़ा ःख आ ।।३१-३२।। इ थ नवा सय का मन उस
शंख व नको सुनकर खल उठा। उ ह ने समझ लया क जरास ध मर गया और अब राजा
यु ध रका राजसूय-य करनेका संक प एक कारसे पूरा हो गया ।।३३।। भीमसेन, अजुन
और भगवान् ीकृ णने राजा यु ध रक व दना क और वह सब कृ य कह सुनाया, जो
उ ह जरास धके वधके लये करना पड़ा था ।।३४।।
नश य धमराज तत् केशवेनानुक पतम् ।
आन दा ुकलां मुंचन् े णा नोवाच कचन ।।३५
धमराज यु ध र भगवान् ीकृ णके इस परम अनु हक बात सुनकर ेमसे भर गये,
उनके ने से आन दके आँसु क बूँद टपकने लग और वे उनसे कुछ भी कह न
सके ।।३५।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध कृ णा ागमने
स त ततमोऽ यायः ।।७३।।

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अथ चतुःस त ततमोऽ यायः
भगवान्क अ पूजा और शशुपालका उ ार
ीशुक उवाच
एवं यु ध रो राजा जरास धवधं वभोः ।
कृ ण य चानुभावं तं ु वा ीत तम वीत् ।।१
यु ध र उवाच
ये यु ैलो यगुरवः सव लोकमहे राः ।
वह त लभं ल वा शरसैवानुशासनम् ।।२

स भवानर व दा ो द नानामीशमा ननाम् ।


ध ेऽनुशासनं भूमं तद य त वड बनम् ।।३

न ेक या तीय य णः परमा मनः ।


कम भवधते तेजो सते च यथा रवेः ।।४

न वै तेऽ जत भ ानां ममाह म त माधव ।


वं तवे त च नानाधीः पशूना मव वैकृता ।।५
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! धमराज यु ध र जरास धका वध और
सवश मान् भगवान् ीकृ णक अद्भुत म हमा सुनकर ब त स ए और उनसे
बोले ।।१।।
धमराज यु ध रने कहा—स चदान द व प ीकृ ण! लोक के वामी ा,
शंकर आ द और इ ा द लोकपाल—सब आपक आ ा पानेके लये तरसते रहते ह और
य द वह मल जाती है तो बड़ी ासे उसको शरोधाय करते ह ।।२।। अन त! हमलोग ह
तो अ य त द न, पर तु मानते ह अपनेको भूप त और नरप त। ऐसी थ तम ह तो हम
द डके पा , पर तु आप हमारी आ ा वीकार करते ह और उसका पालन करते ह।
सवश मान् कमलनयन भगवान्के लये यह मनु य-लीलाका अ भनयमा है ।।३।। जैसे
उदय अथवा अ तके कारण सूयके तेजम घटती या बढ़ती नह होती, वैसे ही कसी भी
कारके कम से न तो आपका उ लास होता है और न तो ास ही। य क आप सजातीय,
वजातीय और वगतभेदसे र हत वयं पर परमा मा ह ।।४।। कसीसे परा जत न
होनेवाले माधव! ‘यह म ँ और यह मेरा है तथा यह तू है और यह तेरा’—इस कारक
वकारयु भेदबु तो पशु क होती है। जो आपके अन य भ ह, उनके च म ऐसे
पागलपनके वचार कभी नह आते। फर आपम तो ह गे ही कहाँस? े (इस लये आप जो कुछ
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कर रहे ह, वह लीला-ही-लीला है) ।।५।।
ीशुक उवाच
इ यु वा य ये काले व े यु ान् स ऋ वजः ।
कृ णानुमो दतः पाथ ा णान् वा दनः ।।६

ै पायनो भर ाजः सुम तुग तमोऽ सतः ।


व स यवनः क वो मै ेयः कवष तः ।।७

व ा म ो वामदे वः सुम तज म नः तुः ।


पैलः पराशरो गग वैश पायन एव च ।।८

अथवा क यपो धौ यो रामो भागव आसु रः ।


वी तहो ो मधु छ दा वीरसेनोऽकृत णः ।।९

उप ता तथा चा ये ोणभी मकृपादयः ।


धृतरा ः सहसुतो व र महाम तः ।।१०

ा णाः या वै याः शू ा य द वः ।
त ेयुः सवराजानो रा ां कृतयो नृप ।।११

तत ते दे वयजनं ा णाः वणलांगलैः ।


कृ ् वा त यथा नायं द यांच रे नृपम् ।।१२

हैमाः कलोपकरणा व ण य यथा पुरा ।


इ ादयो लोकपाला व र चभवसंयुताः ।।१३

सगणाः स ग धवा व ाधरमहोरगाः ।


मुनयो य र ां स खग क रचारणाः ।।१४

राजान समा ता राजप य सवशः ।


राजसूयं समीयुः म रा ः पा डु सुत य वै ।।१५

मे नरे कृ णभ य सूपप म व मताः ।


अयाजयन् महाराजं याजका दे ववचसः ।

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राजसूयेन व धवत् ाचेतस मवामराः ।।१६
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! इस कार कहकर धमराज यु ध रने भगवान्
ीकृ णक अनुम तसे य के यो य समय आनेपर य के कम म नपुण वेदवाद ा ण को
ऋ वज्, आचाय आ दके पम वरण कया ।।६।।
उनके नाम ये ह— ीकृ ण ै पायन ासदे व, भर ाज, सुम तु, गौतम, अ सत, व स ,
यवन, क व, मै ेय, कवष, त, व ा म , वामदे व, सुम त, जै म न, तु, पैल, पराशर,
गग, वैश पायन, अथवा, क यप, धौ य, परशुराम, शु ाचाय, आसु र, वी तहो , मधु छ दा,
वीरसेन और अकृत ण ।।७-९।।
इनके अ त र धमराजने ोणाचाय, भी म- पतामह, कृपाचाय, धृतरा और उनके
य धन आ द पु और महाम त व र आ दको भी बुलवाया ।।१०।। राजन्! राजसूय-
य का दशन करनेके लये दे शके सब राजा, उनके म ी तथा कमचारी, ा ण, य,
वै य, शू —सब-के-सब वहाँ आये ।।११।।
इसके बाद ऋ वज् ा ण ने सोनेके हल से य भू मको जुतवाकर राजा यु ध रको
शा ानुसार य क द ा द ।।१२।। ाचीन कालम जैसे व णदे वके य म सब-के-सब
य पा सोनेके बने ए थे, वैसे ही यु ध रके य म भी थे। पा डु न दन महाराज यु ध रके
य म नम ण पाकर ाजी, शंकरजी, इ ा द लोकपाल, अपने गण के साथ स और
ग धव, व ाधर, नाग, मु न, य , रा स, प ी, क र, चारण, बड़े-बड़े राजा और रा नयाँ—
ये सभी उप थत ए ।।१३-१५।।
सबने बना कसी कारके कौतूहलके यह बात मान ली क राजसूय-य करना
यु ध रके यो य ही है। य क भगवान् ीकृ णके भ के लये ऐसा करना कोई ब त बड़ी
बात नह है। उस समय दे वता के समान तेज वी याजक ने धमराज यु ध रसे व धपूवक
राजसूय-य कराया; ठ क वैसे ही, जैसे पूवकालम दे वता ने व णसे करवाया था ।।१६।।
सोमलतासे रस नकालनेके दन महाराज यु ध रने अपने परम भा यवान् याजक और
य कमक भूल-चूकका नरी ण करनेवाले सदस प तय का बड़ी सावधानीसे व धपूवक
पूजन कया ।।१७।।
सौ येऽह यवनीपालो याजकान् सदस पतीन् ।
अपूजयन् महाभागान् यथावत् सुसमा हतः ।।१७

सद या ्याहणाह वै वमृश तः सभासदः ।


ना यग छ नैका यात् सहदे व तदा वीत् ।।१८

अह त युतः ै ं भगवान् सा वतां प तः ।


एष वै दे वताः सवा दे शकालधनादयः ।।१९

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यदा मक मदं व ं तव यदा मकाः ।
अ नरा तयो म ाः सां यं योग य परः ।।२०

एक एवा तीयोऽसावैतदा य मदं जगत् ।


आ मनाऽऽ मा यः स याः सृज यव त ह यजः ।।२१

व वधानीह कमा ण जनयन् यदवे या ।


इहते यदयं सवः ेयो धमा दल णम् ।।२२

त मात् कृ णाय महते द यतां परमाहणम् ।


एवं चेत् सवभूतानामा मन ाहणं भवेत् ।।२३

सवभूता मभूताय कृ णायान यद शने ।


दे यं शा ताय पूणाय द यान य म छता ।।२४

इ यु वा सहदे वोऽभूत् तू ण कृ णानुभाव वत् ।


त छ वा तु ु वुः सव साधु सा व त स माः ।।२५
अब सभासद् लोग इस वषयपर वचार करने लगे क सद य म सबसे पहले कसक
पूजा—अ पूजा होनी चा हये। जतनी म त, उतने मत। इस लये सवस म तसे कोई नणय न
हो सका। ऐसी थ तम सहदे वने कहा— ।।१८।। ‘य वंश शरोम ण भ व सल भगवान्
ीकृ ण ही सद य म सव े और अ पूजाके पा ह; य क यही सम त दे वता के पम
ह; और दे श, काल, धन आ द जतनी भी व तुएँ ह, उन सबके पम भी ये ही ह ।।१९।। यह
सारा व ीकृ णका ही प है। सम त य भी ीकृ ण व प ही ह। भगवान् ीकृ ण ही
अ न, आ त और म के पम ह। ानमाग और कम-माग—ये दोन भी ीकृ णक
ा तके ही हेतु ह ।।२०।। सभासदो! म कहाँतक वणन क ँ , भगवान् ीकृ ण वह एकरस
अ तीय ह, जसम सजातीय, वजातीय और वगतभेद नाममा का भी नह है। यह
स पूण जगत् उ ह का व प है। वे अपने-आपम ही थत और ज म, अ त व, वृ आ द
छः भाव वकार से र हत ह। वे अपने आ म व प संक पसे ही जगत्क सृ , पालन और
संहार करते ह ।।२१।। सारा जगत् ीकृ णके ही अनु हसे अनेक कारके कमका अनु ान
करता आ धम, अथ, काम और मो प पु षाथ का स पादन करता है ।।२२।। इस लये
सबसे महान् भगवान् ीकृ णक ही अ पूजा होनी चा हये। इनक पूजा करनेसे सम त
ा णय क तथा अपनी भी पूजा हो जाती है ।।२३।। जो अपने दान-धमको अन त भावसे
यु करना चाहता हो, उसे चा हये क सम त ा णय और पदाथ के अ तरा मा,
भेदभावर हत, परम शा त और प रपूण भगवान् ीकृ णको ही दान करे ।।२४।। परी त्!
सहदे व भगवान्क म हमा और उनके भावको जानते थे। इतना कहकर वे चुप हो गये। उस
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समय धमराज यु ध रक य सभाम जतने स पु ष उप थत थे, सबने एक वरसे ‘ब त
ठ क, ब त ठ क’ कहकर सहदे वक बातका समथन कया ।।२५।। धमराज यु ध रने
ा ण क यह आ ा सुनकर तथा सभासद का अ भ ाय जानकर बड़े आन दसे ेमो े कसे
व ल होकर भगवान् ीकृ णक पूजा क ।।२६।। अपनी प नी, भाई, म ी और
कुटु बय के साथ धमराज यु ध रने बड़े ेम और आन दसे भगवान्के पाँव पखारे तथा
उनके चरणकमल का लोकपावन जल अपने सरपर धारण कया ।।२७।। उ ह ने भगवान्को
पीले-पीले रेशमी व और ब मू य आभूषण सम पत कये। उस समय उनके ने ेम और
आन दके आँसु से इस कार भर गये क वे भगवान्को भलीभाँ त दे ख भी नह सकते
थे ।।२८।।
ु वा जे रतं राजा ा वा हाद सभासदाम् ।
समहयद्धृषीकेशं ीतः णय व लः ।।२६

त पादावव न यापः शरसा लोकपावनीः ।


सभायः सानुजामा यः१ सकुटु बोऽवह मुदा ।।२७

वासो भः पीतकौशेयैभूषणै महाधनैः ।


अह य वा ुपूणा ो नाशकत् समवे तुम् ।।२८

इ थं सभा जतं वी य सव ांजलयो जनाः ।


नमो जये त नेमु तं नपेतुः पु पवृ यः ।।२९

इ थं नश य दमघोषसुतः वपीठा-
थाय कृ णगुणवणनजातम युः ।
उ य बा मदमाह सद यमष
सं ावयन् भगवते प षा यभीतः ।।३०

इशो र ययः काल इ त स यवती ु तः ।


वृ ानाम प यद् बु बालवा यै व भ ते ।।३१

यूयं पा वदां े ा मा म वं बालभा षतम् ।


सदस पतयः सव कृ णो यत् स मतोऽहणे ।।३२

तपो व ा तधरान् ान व व तक मषान् ।


परमष न् न ान् लोकपालै पू जतान् ।।३३
य सभाम उप थत सभी लोग भगवान् ीकृ णको इस कार पू जत, स कृत दे खकर
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हाथ जोड़े ए ‘नमो नमः! जय जय!’ इस कारके नारे लगाकर उ ह नम कार करने लगे।
उस समय आकाशसे वयं ही पु प क वषा होने लगी ।।२९।।
परी त्! अपने आसनपर बैठा आ शशुपाल यह सब दे ख-सुन रहा था। भगवान्
ीकृ णके गुण सुनकर उसे ोध हो आया और वह उठकर खड़ा हो गया। वह भरी सभाम
हाथ उठाकर बड़ी अस ह णुता क तु नभयताके साथ भगवान्को सुना-सुनाकर अ य त
कठोर बात कहने लगा— ।।३०।। ‘सभासदो! ु तय का यह कहना सवथा स य है क काल
ही ई र है। लाख चे ा करनेपर भी वह अपना काम करा ही लेता है—इसका य माण
हमने दे ख लया क यहाँ ब च और मूख क बातसे बड़े-बड़े वयोवृ और ानवृ क
बु भी चकरा गयी है ।।३१।। पर म मानता ँ क आपलोग अ पूजाके यो य पा का
नणय करनेम सवथा समथ ह। इस लये सदस प तयो! आपलोग बालक सहदे वक यह बात
ठ क न मान क ‘कृ ण ही अ पूजाके यो य ह ।।३२।। यहाँ बड़े-बड़े तप वी, व ान्,
तधारी, ानके ारा अपने सम त पाप-ताप को शा त करनेवाले, परम ानी परम ष,
न आ द उप थत ह— जनक पूजा बड़े-बड़े लोकपाल भी करते ह ।।३३।। य क
भूल-चूक बतलानेवाले उन सदस प तय को छोड़कर यह कुलकलंक वाला भला,
अ पूजाका अ धकारी कैसे हो सकता है? या कौआ कभी य के पुरोडाशका अ धकारी हो
सकता है? ।।३४।। न इसका कोई वण है और न तो आ म। कुल भी इसका ऊँचा नह है।
सारे धम से यह बाहर है। वेद और लोकमयादा का उ लंघन करके मनमाना आचरण
करता है। इसम कोई गुण भी नह है। ऐसी थ तम यह अ पूजाका पा कैसे हो सकता
है? ।।३५।। आपलोग जानते ह क राजा यया तने इसके वंशको शाप दे रखा है। इस लये
स पु ष ने इस वंशका ही ब ह कार कर दया है। ये सब सवदा थ मधुपानम आस रहते
ह। फर ये अ पूजाके यो य कैसे हो सकते ह? ।।३६।। इन सबने षय के ारा से वत
मथुरा आ द दे श का प र याग कर दया और वचस्के वरोधी (वेदचचार हत) समु म
कला बनाकर रहने लगे। वहाँसे जब ये बाहर नकलते ह तो डाकु क तरह सारी जाको
सताते ह’ ।।३७।। परी त्! सच पूछो तो शशुपालका सारा शुभ न हो चुका था। इसीसे
उसने और भी ब त-सी कड़ी-कड़ी बात भगवान् ीकृ णको सुनाय । पर तु जैसे सह कभी
सयारक ‘ आँ- आँ’ पर यान नह दे ता, वैसे ही भगवान् ीकृ ण चुप रहे, उ ह ने उसक
बात का कुछ भी उ र न दया ।।३८।। पर तु सभासद के लये भगवान्क न दा सुनना
अस था। उनमसे कई अपने-अपने कान बंद करके ोधसे शशुपालको गाली दे ते ए
बाहर चले गये ।।३९।। परी त्! जो भगवान्क या भगव परायण भ क न दा सुनकर
वहाँसे हट नह जाता, वह अपने शुभकम से युत हो जाता है और उसक अधोग त होती
है ।।४०।।
सद पतीन त य गोपालः कुलपांसनः ।
यथा काकः पुरोडाशं सपया कथमह त ।।३४

वणा मकुलापेतः सवधमब ह कृतः ।


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वैरवत गुणैह नः सपया कथमह त ।।३५

यया तनैषां ह कुलं श तं स ब ह कृतम् ।


वृथापानरतं श त् सपया कथमह त ।।३६

षसे वतान् दे शान् ह वैतेऽ वचसम् ।


समु ं गमा य बाध ते द यवः जाः ।।३७

एवमाद यभ ा ण बभाषे न मंगलः ।


नोवाच क चद् भगवान् यथा सहः शवा तम् ।।३८

भगव दनं ु वा ःसहं तत् सभासदः ।


कण पधाय नज मुः शप त े दपं षा ।।३९

न दां भगवतः शृ वं त पर य जन य वा ।
ततो नापै त यः सोऽ प या यधः सुकृता युतः ।।४०

ततः पा डु सुताः ु ा म यकैकयसृंजयाः ।


उदायुधाः समु थुः शशुपाल जघांसवः ।।४१

तत ै वस ा तो जगृहे खड् गचमणी ।


भ सयन् कृ णप ीयान् रा ः सद स भारत ।।४२
परी त्! अब शशुपालको मार डालनेके लये पा डव, म य, केकय और सृंजयवंशी
नरप त ो धत होकर हाथ म ह थयार ले उठ खड़े ए ।।४१।। पर तु शशुपालको इससे
कोई घबड़ाहट न ई। उसने बना कसी कारका आगा-पीछा सोचे अपनी ढाल-तलवार
उठा ली और वह भरी सभाम ीकृ णके प पाती राजा को ललकारने लगा ।।४२।। उन
लोग को लड़ते-झगड़ते दे ख भगवान् ीकृ ण उठ खड़े ए। उ ह ने अपने प पाती
राजा को शा त कया और वयं ोध करके अपने ऊपर झपटते ए शशुपालका सर
छु रेके समान तीखी धारवाले च से काट लया ।।४३।। शशुपालके मारे जानेपर वहाँ बड़ा
कोलाहल मच गया। उसके अनुयायी नरप त अपने-अपने ाण बचानेके लये वहाँसे भाग
खड़े ए ।।४४।। जैसे आकाशसे गरा आ लूक धरतीम समा जाता है, वैसे ही सब
ा णय के दे खते-दे खते शशुपालके शरीरसे एक यो त नकलकर भगवान् ीकृ णम समा
गयी ।।४५।। परी त्! शशुपालके अ तःकरणम लगातार तीन ज मसे वैरभावक अ भवृ
हो रही थी। और इस कार, वैरभावसे ही सही, यान करते-करते वह त मय हो गया—
पाषद हो गया। सच है—मृ युके बाद होनेवाली ग तम भाव ही कारण है ।।४६।। शशुपालक

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सद्ग त होनेके बाद च वत धमराज यु ध रने सद य और ऋ वज को पु कल द णा द
तथा सबका स कार करके व धपूवक य ा त- नान—अवमृथ- नान कया ।।४७।।
ताव थाय भगवान् वान् नवाय वयं षा ।
शरः ुरा तच े ण जहारापततो रपोः ।।४३

श दः कोलाहलोऽ यासीत् शशुपाले हते महान् ।


त यानुया यनो भूपा वुज वतै षणः ।।४४

चै दे हो थतं यो तवासुदेवमुपा वशत् ।


प यतां सवभूतानामु केव भु व खा युता ।।४५

ज म यानुगु णतवैरसंर धया धया ।


यायं त मयतां यातो भावो ह भवकारणम् ।।४६

ऋ व यः ससद ये यो द णां वपुलामदात् ।


सवान् स पू य व धव च े ऽवभृथमेकराट् ।।४७

साध य वा तुं रा ः कृ णो योगे रे रः ।


उवास क त च मासान् सु र भया चतः ।।४८

ततोऽनु ा य राजानम न छ तमपी रः ।


ययौ सभायः सामा यः वपुरं दे वक सुतः ।।४९

व णतं त पा यानं मया ते ब व तरम् ।


वैकु ठवा सनोज म व शापात् पुनः पुनः ।।५०

राजसूयावभृ येन नातो राजा यु ध रः ।


सभाम ये शुशुभे सुररा डव ।।५१
परी त्! इस कार योगे रे र भगवान् ीकृ णने धमराज यु ध रका राजसूय य
पूण कया और अपने सगे-स ब धी और सु द क ाथनासे कुछ महीन तक वह
रहे ।।४८।। इसके बाद राजा यु ध रक इ छा न होनेपर भी सव-श मान् भगवान्
ीकृ णने उनसे अनुम त ले ली और अपनी रा नय तथा म य के साथ इ थसे
ारकापुरीक या ा क ।।४९।।
परी त्! म यह उपा यान तु ह ब त व तारसे (सातव क धम) सुना चुका ँ क
वैकु ठवासी जय और वजयको सनका द ऋ षय के शापसे बार-बार ज म लेना पड़ा
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था ।।५०।। महाराज यु ध र राजसूयका य ा त- नान करके ा ण और य क सभाम
दे वराज इ के समान शोभायमान होने लगे ।।५१।। राजा यु ध रने दे वता, मनु य और
आकाशचा रय का यथायो य स कार कया तथा वे भगवान् ीकृ ण एवं राजसूय य क
शंसा करते ए बड़े आन दसे अपने-अपने लोकको चले गये ।।५२।। परी त्! सब तो
सुखी ए, पर तु य धनसे पा डव क यह उ वल रा यल मीका उ कष सहन न आ।
य क वह वभावसे ही पापी, कलह ेमी और कु कुलका नाश करनेके लये एक महान्
रोग था ।।५३।।
रा ा सभा जताः सव सुरमानवखेचराः ।
कृ णं तुं च शंस तः वधामा न ययुमुदा ।।५२

य धनमृते पापं क ल कु कुलामयम् ।


यो न सेहे यं फ तां ् वा पा डु सुत य ताम् ।।५३

य इदं क तयेद ् व णोः कम चै वधा दकम् ।


राजमो ं वतानं च सवपापैः मु यते ।।५४
परी त्! जो पु ष भगवान् ीकृ णक इस लीलाका— शशुपालवध, जरास धवध,
बंद राजा क मु और य ानु ानका क तन करेगा, वह सम त पाप से छू ट
जायगा ।।५४।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध शशुपालवधो नाम
चतुःस त ततमोऽ यायः ।।७४।।

१. जोऽ ः।

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अथ प चस त ततमोऽ यायः
राजसूय य क पू त और य धनका अपमान
राजोवाच
अजातश ो तं ् वा राजसूयमहोदयम् ।
सव मुमु दरे न् नृदेवा ये समागताः ।।१

य धनं वज य वा राजानः सषयः सुराः ।


इ त ुतं नो भगवं त कारणमु यताम् ।।२
ऋ ष वाच
पतामह य ते य े राजसूये महा मनः ।
बा धवाः प रचयायां त यासन् ेमब धनाः ।।३

भीमो महानसा य ो धना य ः सुयोधनः ।


सहदे व तु पूजायां नकुलो साधने ।।४

गु शु ूषणे ज णुः कृ णः पादावनेजने ।


प रवेषणे पदजा कण दाने महामनाः ।।५
राजा परी त्ने पूछा—भगवन्! अजातश ु धमराज यु ध रके राजसूय
य महो सवको दे खकर, जतने मनु य, नरप त, ऋ ष, मु न और दे वता आ द आये थे, वे सब
आन दत ए। पर तु य धनको बड़ा ःख, बड़ी पीड़ा ई; यह बात मने आपके मुखसे सुनी
है। भगवन्! आप कृपा करके इसका कारण बतलाइये ।।१-२।।
ीशुकदे वजी महाराजने कहा—परी त्! तु हारे दादा यु ध र बड़े महा मा थे।
उनके ेमब धनसे बँधकर सभी ब धु-बा धव ने राजसूय य म व भ सेवाकाय वीकार
कया था ।।३।।
भीमसेन भोजनालयक दे ख-रेख करते थे। य धन कोषा य थे। सहदे व अ यागत के
वागत-स कारम नयु थे और नकुल व वध कारक साम ी एक करनेका काम दे खते
थे ।।४।। अजुन गु जन क सेवा-शु ूषा करते थे और वयं भगवान् ीकृ ण आये ए
अ त थय के पाँव पखारनेका काम करते थे। दे वी ौपद भोजन परसनेका काम करत और
उदार- शरोम ण कण खुले हाथ दान दया करते थे ।।५।। परी त्! इसी कार सा य क,
वकण, हा द य, व र, भू र वा आ द बा कके पु और स तदन आ द राजसूय य म
व भ कम म नयु थे। वे सब-के-सब वैसा ही काम करते थे, जससे महाराज यु ध रका
य और हत हो ।।६-७।।
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युयुधानो वकण हा द यो व रादयः ।
बा कपु ा भूया ा ये च स तदनादयः ।।६

न पता महाय े नानाकमसु ते तदा ।


वत ते म राजे रा ः य चक षवः ।।७

ऋ व सद यब व सु सु मेषु
व ेषु सूनृतसमहणद णा भः ।
चै े च सा वतपते रणं व े
च ु तत ववभृथ नपनं ुन ाम् ।।८

मृदंगशंखपणवधु धुयानकगोमुखाः ।
वा द ा ण व च ा ण ने रावभृथो सवे ।।९

नत यो ननृतु ा गायका यूथशो जगुः ।


वीणावेणुतलो ाद तेषां स दवम पृशत् ।।१०

च वजपताका ै रभे य दनाव भः ।


वलंकृतैभटै भूपा नययू ममा लनः ।।११

य सृंजयका बोजकु केकयकोसलाः ।


क पय तो भुवं सै यैयजमानपुरःसराः ।।१२

सद य व ज े ा घोषेण भूयसा ।
दे व ष पतृग धवा तु ु वुः पु पव षणः ।।१३

वलंकृता नरा नाय ग ध भूषणा बरैः ।


व ल प योऽ भ षच यो वज व वधै रसैः ।।१४

तैलगोरसग धोदह र ासा कुंकुमैः ।


पु भ ल ताः ल प यो वज वारयो षतः ।।१५
परी त्! जब ऋ वज्, सद य और ब पु ष का तथा अपने इ - म एवं ब धु-
बा धव का सुमधुर वाणी, व वध कारक पूजा-साम ी और द णा आ दसे भलीभाँ त
स कार हो चुका तथा शशुपाल भ व सल भगवान्के चरण म समा गया, तब धमराज
यु ध र गंगाजीम य ा त- नान करने गये ।।८।। उस समय जब वे अवभृथ- नान करने लगे,
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तब मृदंग, शंख, ढोल, नौबत, नगारे और नर सगे आ द तरह-तरहके बाजे बजने लगे ।।९।।
नत कयाँ आन दसे झूम-झूमकर नाचने लग । झुंड-के-झुंड गवैये गाने लगे और वीणा, बाँसुरी
तथा झाँझ-मँजीरे बजने लगे। इनक तुमुल व न सारे आकाशम गूँज गयी ।।१०।। सोनेके
हार पहने ए य , सृंजय, क बोज, कु , केकय और कोसल दे शके नरप त रंग- बरंगी
वजा-पताका से यु और खूब सजे-धजे गजराज , रथ , घोड़ तथा सुस जत वीर
सै नक के साथ महाराज यु ध रको आगे करके पृ वीको कँपाते ए चल रहे थे ।।११-१२।।
य के सद य ऋ वज् और ब त-से े ा ण वेदम का ऊँचे वरसे उ चारण करते ए
चले। दे वता, ऋ ष, पतर, ग धव आकाशसे पु प क वषा करते ए उनक तु त करने
लगे ।।१३।। इ थके नर-नारी इ -फुलेल, पु प के हार, रंग- बरंगे व और ब मू य
आभूषण से सज-धजकर एक- सरेपर जल, तेल, ध, म खन आ द रस डालकर भगो दे त,े
एक- सरेके शरीरम लगा दे ते और इस कार डा करते ए चलने लगे ।।१४।। वारा ाएँ
पु ष को तेल, गोरस, सुग धत जल, ह द और गाढ़ केसर मल दे त और पु ष भी उ ह
उ ह व तु से सराबोर कर दे ते ।।१५।।
गु ता नृ भ नरगम ुपल धुमेतद्
दे ो यथा द व वमानवरैनृदे ः ।
ता मातुलेयस ख भः प र ष यमानाः
स ीडहास वकस दना वरेजुः ।।१६

ता दे वरानुत सखीन् स षचु ती भः


ल ा बरा ववृतगा कुचो म याः ।
औ सु यमु कबरा यवमानमा याः
ोभं दधुमल धयां चरै वहारैः ।।१७

स स ाड् रथमा ढः सद ं ममा लनम् ।


रोचत वप नी भः या भः तुरा डव ।।१८

प नीसंयाजावभृ यौ र वा ते तमृ वजः ।


आचा तं नापयांच ु गगायां सह कृ णया ।।१९

दे व भयो ने नर भ भः समम् ।
मुमुचुः पु पवषा ण दे व ष पतृमानवाः ।।२०

स नु त ततः सव वणा मयुता नराः ।


महापात य प यतः स ो मु येत क बषात् ।।२१
उस समय इस उ सवको दे खनेके लये जैसे उ म-उ म वमान पर चढ़कर आकाशम
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ब त-सी दे वयाँ आयी थ , वैसे ही सै नक के ारा सुर त इ थक ब त-सी
राजम हलाएँ भी सु दर-सु दर पाल कय पर सवार होकर आयी थ । पा डव के ममेरे भाई
ीकृ ण और उनके सखा उन रा नय के ऊपर तरह-तरहके रंग आ द डाल रहे थे। इससे
रा नय के मुख लजीली मुसकराहटसे खल उठते थे और उनक बड़ी शोभा होती थी ।।१६।।
उन लोग के रंग आ द डालनेसे रा नय के व भीग गये थे। इससे उनके शरीरके अंग- यंग
—व ः थल, जंघा और क टभाग कुछ-कुछ द ख-से रहे थे। वे भी पचकारी और पा म रंग
भर-भरकर अपने दे वर और उनके सखा पर उड़ेल रही थ । ेमभरी उ सुकताके कारण
उनक चो टय और जूड़ के ब धन ढ ले पड़ गये थे तथा उनम गुँथे ए फूल गरते जा रहे थे।
परी त्! उनका यह चर और प व वहार दे खकर म लन अ तःकरणवाले पु ष का च
चंचल हो उठता था, काम-मो हत हो जाता था ।।१७।।
च वत राजा यु ध र ौपद आ द रा नय के साथ सु दर घोड़ से यु एवं सोनेके
हार से सुस जत रथपर सवार होकर ऐसे शोभायमान हो रहे थे, मानो वयं राजसूय य
याज आ द या के साथ मू तमान् होकर कट हो गया हो ।।१८।। ऋ वज ने प नी-
संयाज (एक कारका य कम) तथा य ा त- नानस ब धी कम करवाकर ौपद के साथ
स ाट् यु ध रको आचमन करवाया और इसके बाद गंगा नान ।।१९।। उस समय मनु य क
भय के साथ ही दे वता क भयाँ भी बजने लग । बड़े-बड़े दे वता, ऋ ष-मु न,
पतर और मनु य पु प क वषा करने लगे ।।२०।। महाराज यु ध रके नान कर लेनेके बाद
सभी वण एवं आ म के लोग ने गंगाजीम नान कया; य क इस नानसे बड़े-से-बड़ा
महापापी भी अपनी पाप-रा शसे त काल मु हो जाता है ।।२१।।
अथ राजाहते ौमे प रधाय वलंकृतः ।
ऋ व सद य व ाद नानचाभरणा बरैः ।।२२

ब धु ा तनृपान् म सु दोऽ यां सवशः ।


अभी णं पूजयामास नारायणपरो नृपः ।।२३

सव जनाः सुर चो म णकु डल -


गु णीषकंचुक कूलमहा यहाराः ।
नाय कु डलयुगालकवृ दजु -
व यः कनकमेखलया वरेजुः ।।२४

अथ वजो महाशीलाः सद या वा दनः ।


य वट् शू ा राजानो ये समागताः ।।२५

दे व ष पतृभूता न लोकपालाः सहानुगाः ।


पू जता तमनु ा य वधामा न ययुनृप ।।२६
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ह रदास य राजष राजसूयमहोदयम् ।
नैवातृ यन् शंस तः पबन् म य ऽमृतं यथा ।।२७

ततो यु ध रो राजा सु स ब धबा धवान् ।


े णा नवासयामास कृ णं च यागकातरः ।।२८

भगवान प त ांग यवा सी यंकरः ।


था य य वीरां सा बाद कुश थलीम् ।।२९

इ थं राजा धमसुतो मनोरथमहाणवम् ।


सु तरं समु ीय कृ णेनासीद् गत वरः ।।३०
तदन तर धमराज यु ध रने नयी रेशमी धोती और प ा धारण कया तथा व वध
कारके आभूषण से अपनेको सजा लया। फर ऋ वज्, सद य, ा ण आ दको
व ाभूषण दे -दे कर उनक पूजा क ।।२२।। महाराज यु ध र भगव परायण थे, उ ह सबम
भगवान्के ही दशन होते। इस लये वे भाई-ब धु, कुटु बी, नरप त, इ - म , हतैषी और सभी
लोग क बार-बार पूजा करते ।।२३।। उस समय सभी लोग जड़ाऊ कु डल, पु प के हार,
पगड़ी, लंबी अँगरखी, प ा तथा म णय के ब मू य हार पहनकर दे वता के समान
शोभायमान हो रहे थे। य के मुख क भी दोन कान के कणफूल और घुँघराली अलक से
बड़ी शोभा हो रही थी तथा उनके क टभागम सोनेक करध नयाँ तो ब त ही भली मालूम हो
रही थ ।।२४।।
परी त्! राजसूय य म जतने लोग आये थे—परम शीलवान् ऋ वज्, वाद
सद य, ा ण, य, वै य, शू , राजा, दे वता, ऋ ष, मु न, पतर तथा अ य ाणी और
अपने अनुया यय के साथ लोकपाल—इन सबक पूजा महाराज यु ध रने क । इसके बाद
वे लोग धमराजसे अनुम त लेकर अपने-अपने नवास थानको चले गये ।।२५-२६।।
परी त्! जैसे मनु य अमृतपान करते-करते कभी तृ त नह हो सकता, वैसे ही सब लोग
भगव राज ष यु ध रके राजसूय महाय क शंसा करते-करते तृ त न होते थे ।।२७।।
इसके बाद धमराज यु ध रने बड़े ेमसे अपने हतैषी सु द्-स ब धय , भाई-ब धु और
भगवान् ीकृ णको भी रोक लया, य क उ ह उनके वछोहक क पनासे ही बड़ा ःख
होता था ।।२८।। परी त्! भगवान् ीकृ णने य वंशी वीर सा ब आ दको ारकापुरी भेज
दया और वयं राजा यु ध रक अ भलाषा पूण करनेके लये, उ ह आन द दे नेके लये वह
रह गये ।।२९।। इस कार धमन दन महाराज यु ध र मनोरथ के महान् समु को, जसे पार
करना अ य त क ठन है, भगवान् ीकृ णक कृपासे अनायास ही पार कर गये और उनक
सारी च ता मट गयी ।।३०।।
एकदा तःपुरे त य वी य य धनः यम् ।
अत यद् राजसूय य म ह वं चा युता मनः ।।३१
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य मन् नरे द तजे सुरे ल मी-
नाना वभा त कल व सृजोप लृ ताः ।
ता भः पतीन् पदराजसुतोपत थे
य यां वष दयः कु राडत यत् ।।३२

य मं तदा मधुपतेम हषीसह ं


ोणीभरेण शनकैः वणदङ् शोभम् ।
म ये सुचा कुचकुंकुमशोणहारं
ीम मुखं चलकु डलकु तला म् ।।३३

सभायां मय लृ तायां वा प धमसुतोऽ धराट् ।


वृतोऽनुजैब धु भ कृ णेना प वच ुषा ।।३४

आसीनः कांचने सा ादासने मघवा नव ।


पारमे या जु ः तूयमान व द भः ।।३५

त य धनो मानी परीतो ातृ भनृप ।


करीटमाली य वशद सह तः पन् षा ।।३६

थलेऽ यगृ ाद् व ा तं जलं म वा थलेऽपतत् ।


जले च थलवद् ा या मयमाया वमो हतः ।।३७
एक दनक बात है, भगवान्के परम ेमी महाराज यु ध रके अ तःपुरक सौ दय-
सप और राजसूय य ारा ा त मह वको दे खकर य धनका मन डाहसे जलने
लगा ।।३१।। परी त्! पा डव के लये मय दानवने जो महल बना दये थे, उनम नरप त,
दै यप त और सुरप तय क व वध वभू तयाँ तथा े सौ दय थान- थानपर शोभायमान
था। उनके ारा राजरानी ौपद अपने प तय क सेवा करती थ । उस राजभवनम उन दन
भगवान् ीकृ णक सह रा नयाँ नवास करती थ । नत बके भारी भारके कारण जब वे
उस राजभवनम धीरे-धीरे चलने लगती थ , तब उनके पायजेब क झनकार चार ओर फैल
जाती थी। उनका क टभाग ब त ही सु दर था तथा उनके व ः थलपर लगी ई केसरक
ला लमासे मो तय के सु दर ेत हार भी लाल-लाल जान पड़ते थे। कु डल क और घुँघराली
अलक क चंचलतासे उनके मुखक शोभा और भी बढ़ जाती थी। यह सब दे खकर
य धनके दयम बड़ी जलन होती। परी त्! सच पूछो तो य धनका च ौपद म
आस था और यही उसक जलनका मु य कारण भी था ।।३२-३३।।
एक दन राजा धराज महाराज यु ध र अपने भाइय , स ब धय एवं अपने नयन के

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तारे परम हतैषी भगवान् ीकृ णके साथ मयदानवक बनायी सभाम वण सहासनपर
दे वराज इ के समान वराजमान थे। उनक भोग-साम ी, उनक रा यल मी ाजीके
ऐ यके समान थी। वंद जन उनक तु त कर रहे थे ।।३४-३५।। उसी समय अ भमानी
य धन अपने ःशासन आ द भाइय के साथ वहाँ आया। उसके सरपर मुकुट, गलेम माला
और हाथम तलवार थी। परी त्! वह ोधवश ारपाल और सेवक को झड़क रहा
था ।।३६।। उस सभाम मय दानवने ऐसी माया फैला रखी थी क य धनने उससे मो हत हो
थलको जल समझकर अपने व समेट लये और जलको थल समझकर वह उसम गर
पड़ा ।।३७।। उसको गरते दे खकर भीमसेन, राजरा नयाँ तथा सरे नरप त हँसने लगे।
य प यु ध र उ ह ऐसा करनेसे रोक रहे थे, पर तु यारे परी त्! उ ह इशारेसे ीकृ णका
अनुमोदन ा त हो चुका था ।।३८।। इससे य धन ल जत हो गया, उसका रोम-रोम
ोधसे जलने लगा। अब वह अपना मुँह लटकाकर चुपचाप सभाभवनसे नकलकर
ह तनापुर चला गया। इस घटनाको दे खकर स पु ष म हाहाकार मच गया और धमराज
यु ध रका मन भी कुछ ख -सा हो गया। परी त्! यह सब होनेपर भी भगवान् ीकृ ण
चुप थे। उनक इ छा थी क कसी कार पृ वीका भार उतर जाय; और सच पूछो तो
उहक से य धनको वह म आ था ।।३९।। परी त्! तुमने मुझसे यह पूछा था क
उस महान् राजसूय-य म य धनको डाह य आ? जलन य ई? सो वह सब मने तु ह
बतला दया ।।४०।।
जहास भीम तं ् वा यो नृपतयोऽपरे ।
नवायमाणा अ यंग रा ा कृ णानुमो दताः ।।३८

स ी डतोऽवा वदनो षा वलन्


न य तू ण ययौ गजा यम् ।
हाहे त श दः सुमहानभूत् सता-
मजातश ु वमना इवाभवत् ।
बभूव तू ण भगवान् भुवो भरं
समु जहीषु म त म यद् शा ।।३९

एत ेऽ भ हतं राजन् यत् पृ ोऽह मह वया ।


सुयोधन य दौरा यं राजसूये महा तौ ।।४०
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध य धनमानभंगो नाम
प चस त ततमोऽ यायः ।।७५।।

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अथ षट् स त ततमोऽ यायः
शा वके साथ यादव का यु
ीशुक उवाच
अथा यद प कृ ण य शृणु कमा तं नृप ।
डानरशरीर य यथा सौभप तहतः ।।१

शशुपालसखः शा वो म यु ाह आगतः ।
य भ न जतः सं ये जरास धादय तथा ।।२

शा वः त ामकरोत् शृ वतां सवभूभुजाम् ।


अयादव मां क र ये पौ षं मम प यत ।।३
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! अब मनु यक -सी लीला करनेवाले भगवान्
ीकृ णका एक और भी अद्भुत च र सुनो। इसम यह बताया जायगा क सौभनामक
वमानका अ धप त शा व कस कार भगवान्के हाथसे मारा गया ।।१।। शा व
शशुपालका सखा था और मणीके ववाहके अवसरपर बारातम शशुपालक ओरसे
आया आ था। उस समय य वं शय ने यु म जरास ध आ दके साथ-साथ शा वको भी
जीत लया था ।।२।। उस दन सब राजा के सामने शा वने यह त ा क थी क ‘म
पृ वीसे य वं शय को मटाकर छोडँगा, सब लोग मेरा बल-पौ ष दे खना’ ।।३।।
इ त मूढः त ाय दे वं पशुप त भुम् ।
आराधयामास नृप पांसुमु सकृद् सन् ।।४

संव सरा ते भगवानाशुतोष उमाप तः ।


वरेण छ दयामास शा वं शरणमागतम् ।।५

दे वासुरमनु याणां ग धव रगर साम् ।


अभे ं कामगं व े स यानं वृ णभीषणम् ।।६

तथे त ग रशा द ो मयः परपुरंजयः ।


पुरं नमाय शा वाय ादा सौभमय मयम् ।।७

स ल वा कामगं यानं तमोधाम रासदम् ।


ययौ ारवत शा वो वैरं वृ णकृतं मरन् ।।८

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न य सेनया शा वो मह या भरतषभ ।
पुर बभंजोपवना यु ाना न च सवशः ।।९

सगोपुरा ण ारा ण ासादा ालतो लकाः ।


वहारान् स वमाना या पेतःु श वृ यः ।।१०

शला मा ाशनयः सपा आसारशकराः ।


च ड वातोऽभूद ् रजसाऽऽ छा दता दशः ।।११

इ य माना सौभेन कृ ण य नगरी भृशम् ।


ना यप त शं राजं पुरेण यथा मही ।।१२
परी त्! मूढ़ शा वने इस कार त ा करके दे वा धदे व भगवान् पशुप तक आराधना
ार भ क । वह उन दन दनम केवल एक बार मुट्ठ भर राख फाँक लया करता था ।।४।।
य तो पावतीप त भगवान् शंकर आशुतोष ह, औढरदानी ह, फर भी वे शा वका घोर
संक प जानकर एक वषके बाद स ए। उ ह ने अपने शरणागत शा वसे वर माँगनेके
लये कहा ।।५।। उस समय शा वने यह वर माँगा क ‘मुझे आप एक ऐसा वमान द जये
जो दे वता, असुर, मनु य, ग धव, नाग और रा स से तोड़ा न जा सके; जहाँ इ छा हो, वह
चला जाय और य वं शय के लये अ य त भयंकर हो’ ।।६।। भगवान् शंकरने कह दया
‘तथा तु!’ इसके बाद उनक आ ासे वप य के नगर जीतनेवाले मय दानवने लोहेका
सौभनामक वमान बनाया और शा वको दे दया ।।७।। वह वमान या था एक नगर ही
था। वह इतना अ धकारमय था क उसे दे खना या पकड़ना अ य त क ठन था। चलानेवाला
उसे जहाँ ले जाना चाहता, वह वह उसके इ छा करते ही चला जाता था। शा वने वह वमान
ा त करके ारकापर चढ़ाई कर द , य क वह वृ णवंशी यादव ारा कये ए वैरको सदा
मरण रखता था ।।८।।
परी त्! शा वने अपनी ब त बड़ी सेनासे ारकाको चार ओरसे घेर लया और फर
उसके फल-फूलसे लदे ए उपवन और उ ान को उजाड़ने और नगर ार , फाटक ,
राजमहल , अटा रय , द वार और नाग रक के मनो वनोदके थान को न - करने लगा।
उस े वमानसे श क झड़ी लग गयी ।।९-१०।। बड़ी-बड़ी च ान, वृ , व , सप और
ओले बरसने लगे। बड़े जोरका बवंडर उठ खड़ा आ। चार ओर धूल-ही-धूल छा
गयी ।।११।। परी त्! ाचीन कालम जैसे पुरासुरने सारी पृ वीको पी ड़त कर रखा था,
वैसे ही शा वके वमानने ारकापुरीको अ य त पी ड़त कर दया। वहाँके नर-ना रय को
कह एक णके लये भी शा त न मलती थी ।।१२।।
ु नो भगवान् वी य बा यमाना नजाः जाः ।
मा भै े य यधाद् वीरो रथा ढो महायशाः ।।१३

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सा य क ा दे ण सा बोऽ ू रः सहानुजः ।
हा द यो भानु व द गद शुकसारणौ ।।१४

अपरे च महे वासा रथयूथपयूथपाः ।


नययुद शता गु ता रथेभा पदा त भः ।।१५

ततः ववृते यु ं शा वानां य भः सह ।


यथासुराणां वबुधै तुमुलं लोमहषणम् ।।१६

ता सौभपतेमाया द ा ै मणीसुतः ।
णेन नाशयामास नैशं तम इवो णगुः ।।१७

व ाध पंच वश या वणपुंखैरयोमुखैः ।
शा व य व जनीपालं शरैः स तपव भः ।।१८

शतेनाताडय छा वमेकैकेना य सै नकान् ।


दश भदश भनतॄन् वाहना न भ भः ।।१९

तद तं महत् कम ु न य महा मनः ।


् वा तं पूजयामासुः सव वपरसै नकाः ।।२०

ब पैक पं तद् यते न च यते ।


मायामयं मयकृतं वभा ं परैरभूत् ।।२१

व चद् भूमौ व चद् ो न ग रमू न जले व चत् ।


अलातच वद् ा यत् सौभं तद् रव थतम् ।।२२
परमयश वी वीर भगवान् ु नने दे खा—हमारी जाको बड़ा क हो रहा है, तब
उ ह ने रथपर सवार होकर सबको ढाढ़स बँधाया और कहा क ‘डरो मत’ ।।१३।। उनके
पीछे -पीछे सा य क, चा दे ण, सा ब, भाइय के साथ अ ू र, कृतवमा, भानु व द, गद, शुक,
सारण आ द ब त-से वीर बड़े-बड़े धनुष धारण करके नकले। ये सब-के-सब महारथी थे।
सबने कवच पहन रखे थे और सबक र ाके लये ब त-से रथ, हाथी, घोड़े तथा पैदल सेना
साथ-साथ चल रही थी ।।१४-१५।। इसके बाद ाचीन कालम जैसे दे वता के साथ
असुर का घमासान यु आ था वैसे ही शा वके सै नक और य वं शय का यु होने लगा।
उसे दे खकर लोग के र गटे खड़े हो जाते थे ।।१६।। ु नजीने अपने द अ से
णभरम ही सौभप त शा वक सारी माया काट डाली; ठ क वैसे ही जैसे सूय अपनी खर
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करण से रा का अ धकार मटा दे ते ह ।।१७।। ु नजीके बाण म सोनेके पंख एवं लोहेके
फल लगे ए थे। उनक गाँठ जान नह पड़ती थ । उ ह ने ऐसे ही पचीस बाण से शा वके
सेनाप तको घायल कर दया ।।१८।। परममन वी ु नजीने सेनाप तके साथ ही शा वको
भी सौ बाण मारे, फर येक सै नकको एक-एक और सार थय को दस-दस तथा वाहन को
तीन-तीन बाण से घायल कया ।।१९।। महामना ु नजीके इस अद्भुत और महान् कमको
दे खकर अपने एवं पराये—सभी सै नक उनक शंसा करने लगे ।।२०।।
परी त्! मय दानवका बनाया आ शा वका वह वमान अ य त मायामय था। वह
इतना व च था क कभी अनेक प म द खता तो कभी एक पम, कभी द खता तो कभी
न भी द खता। य वं शय को इस बातका पता ही न चलता क वह इस समय कहाँ है ।।२१।।
वह कभी पृ वीपर आ जाता तो कभी आकाशम उड़ने लगता। कभी पहाड़क चोट पर चढ़
जाता तो कभी जलम तैरने लगता। वह अलातच के समान—मानो कोई मुँही लुका रय क
बनेठ भाँज रहा हो—घूमता रहता था, एक णके लये भी कह ठहरता न था ।।२२।।
शा व अपने वमान और सै नक के साथ जहाँ-जहाँ दखायी पड़ता, वह -वह य वंशी
सेनाप त बाण क झड़ी लगा दे ते थे ।।२३।। उनके बाण सूय और अ नके समान जलते ए
तथा वषैले साँपक तरह अस होते थे। उनसे शा वका नगराकार वमान और सेना अ य त
पी ड़त हो गयी, यहाँतक क य वं शय के बाण से शा व वयं मू छत हो गया ।।२४।।

य य ोपल येत ससौभः सहसै नकः ।


शा व तत ततोऽमुंचन् शरान् सा वतयूथपाः ।।२३

शरैर यकसं पशराशी वष रासदै ः ।


पी मानपुरानीकः शा वोऽमु त् परे रतैः ।।२४

शा वानीकपश ौघैवृ णवीरा भृशा दताः ।


न त यजू रणं वं वं लोक य जगीषवः१ ।।२५

शा वामा यो ुमान् नाम ु नं ाक् पी डतः ।


आसा गदया मौ ा२ ाह य नदद् बली ।।२६

ु नं गदया शीणव ः थलम र दमम् ।


अपोवाह रणात् सूतो धम वद् दा का मजः ।।२७

ल धसं ो मु तन का णः सार थम वीत् ।


अहो असा वदं सूत यद् रणा मेऽपसपणम् ।।२८

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न य नां कुले जातः ूयते रण व युतः ।
वना मत् लीब च ेन सूतेन ा त क बषात्३ ।।२९

क नु व येऽ भसंग य पतरौ रामकेशवौ ।


यु ात् स यगप ा तः पृ त ा मनः मम् ।।३०

ं मे कथ य य त हस यो ातृजामयः ।
लै यं कथं कथं वीर तवा यैः क यतां मृधे ।।३१
परी त्! शा वके सेनाप तय ने भी य वं शय पर खूब श क वषा कर रखी थी, इससे
वे अ य त पी ड़त थे; पर तु उ ह ने अपना-अपना मोचा छोड़ा नह । वे सोचते थे क मरगे तो
परलोक बनेगा और जीतगे तो वजयक ा त होगी ।।२५।। परी त्! शा वके म ीका
नाम था ुमान्, जसे पहले ु नजीने पचीस बाण मारे थे। वह ब त बली था। उसने
झपटकर ु नजीपर अपनी फौलाद गदासे बड़े जोरसे हार कया और ‘मार लया, मार
लया’ कहकर गरजने लगा ।।२६।। परी त्! गदाक चोटसे श ुदमन ु नजीका
व ः थल फट-सा गया। दा कका पु उनका रथ हाँक रहा था। वह सार थधमके अनुसार
उ ह रणभू मसे हटा ले गया ।।२७।। दो घड़ीम ु नजीक मू छा टू ट । तब उ ह ने सार थसे
कहा—‘सारथे! तूने यह ब त बुरा कया। हाय, हाय! तू मुझे रणभू मसे हटा लाया? ।।२८।।
सूत! हमने ऐसा कभी नह सुना क हमारे वंशका कोई भी वीर कभी रणभू म छोड़कर अलग
हट गया हो! यह कलंकका ट का तो केवल मेरे ही सर लगा। सचमुच सूत! तू कायर है,
नपुंसक है ।।२९।। बतला तो सही, अब म अपने ताऊ बलरामजी और पता ीकृ णके
सामने जाकर या क ँगा? अब तो सब लोग यही कहगे न, क म यु से भग गया? उनके
पूछनेपर म अपने अनु प या उ र दे सकूँगा’ ।।३०।। मेरी भा भयाँ हँसती ई मुझसे
साफ-साफ पूछगी क ‘कहो, वीर! तुम नपुंसक कैसे हो गये? सर ने यु म तु ह नीचा कैसे
दखा दया?’ ‘सूत! अव य ही तुमने मुझे रणभू मसे भगाकर अ य अपराध कया
है!’ ।।३१।।
सार थ वाच
धम वजानताऽऽयु मन् कृतमेत मया वभो ।
सूतः कृ गतं र ेद ् र थनं सार थ रथी ।।३२

एतद् व द वा तु भवान् मयापोवा हतो रणात् ।


उपसृ ः परेणे त मू छतो गदया हतः ।।३३
सारथीने कहा—आयु मन्! मने जो कुछ कया है, सारथीका धम समझकर ही कया
है। मेरे समथ वामी! यु का ऐसा धम है क संकट पड़नेपर सारथी रथीक र ा कर ले और
रथी सारथीक ।।३२।। इस धमको समझते ए ही मने आपको रणभू मसे हटाया है। श ुने
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आपपर गदाका हार कया था, जससे आप मू छत हो गये थे, बड़े संकटम थे; इसीसे मुझे
ऐसा करना पड़ा ।।३३।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध शा वयु े
षट् स त ततमोऽ यायः ।।७६।।

१. य०। २. गु ा। ३. तक मषात्।

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अथ स तस त ततमोऽ यायः
शा व-उ ार
ीशुक उवाच
स तूप पृ य स ललं दं शतो धृतकामुकः ।
नय मां ुमतः पा वीर ये याह सार थम् ।।१

वधम तं वसै या न ुम तं मणीसुतः ।


तह य य व य ाराचैर भः मयन् ।।२

चतु भ तुरो वाहान् सूतमेकेन चाहनत् ।


ा यां धनु केतुं च शरेणा येन वै शरः ।।३

गदसा य कसा बा ा ज नुः सौभपतेबलम् ।


पेतुः समु े सौभेयाः सव सं छ क धराः ।।४

एवं य नां शा वानां न नता मतरेतरम् ।


यु ं णवरा ं तदभू ुमुलमु बणम् ।।५

इ थं गतः कृ ण आ तो धमसूनुना ।
राजसूयेऽथ नवृ े शशुपाले च सं थते ।।६
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! अब ु नजीने हाथ-मुँह धोकर, कवच पहन धनुष
धारण कया और सारथीसे कहा क ‘मुझे वीर ुमान्के पास फरसे ले चलो’ ।।१।। उस
समय ुमान् यादवसेनाको तहस-नहस कर रहा था। ु नजीने उसके पास प ँचकर उसे
ऐसा करनेसे रोक दया और मुसकराकर आठ बाण मारे ।।२।।
चार बाण से उसके चार थोड़े और एक-एक बाणसे सारथी, धनुष, वजा और उसका
सर काट डाला ।।३।। इधर गद, सा य क, सा ब आ द य वंशी वीर भी शा वक सेनाका
संहार करने लगे। सौभ वमानपर चढ़े ए सै नक क गरदन कट जात और वे समु म गर
पड़ते ।।४।।
इस कार य वंशी और शा वके सै नक एक- सरेपर हार करते रहे। बड़ा ही घमासान
और भयंकर यु आ और वह लगातार स ाईस दन तक चलता रहा ।।५।।
उन दन भगवान् ीकृ ण धमराज यु ध रके बुलानेसे इ थ गये ए थे। राजसूय
य हो चुका था और शशुपालक भी मृ यु हो गयी थी ।।६।।

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कु वृ ाननु ा य मुन ससुतां पृथाम् ।
न म ा य तघोरा ण प यन् ारवत ययौ ।।७

आह चाह महायात आय म ा भसंगतः ।


राज या ै प ीया नूनं ह युः पुर मम ।।८

वी य तत् कदनं वानां न य पुरर णम् ।


सौभं च शा वराजं च दा कं ाह केशवः ।।९

रथं ापय मे सूत शा व या तकमाशु वै ।


स म ते न कत ो मायावी सौभराडयम् ।।१०

इ यु ोदयामास रथमा थाय दा कः ।


वश तं द शुः सव वे परे चा णानुजम् ।।११

शा व कृ णमालो य हत ायबले रः ।
ाहरत् कृ णसूताय श भीमरवां मृधे ।।१२

तामापत त नभ स महो का मव रंहसा ।


भासय त दशः शौ रः सायकैः शतधा छनत् ।।१३

तं च षोडश भ वद् वा बाणैः सौभं च खे मत् ।


अ व य छरस दोहैः खं सूय इव र म भः ।।१४

शा वः शौरे तु दोः स ं सशा शा ध वनः ।


बभेद यपत तात् शा मासी द तम् ।।१५

हाहाकारो महानासीद् भूतानां त प यताम् ।


वन सौभराडु चै रदमाह जनादनम् ।।१६
वहाँ भगवान् ीकृ णने दे खा क बड़े भयंकर अपशकुन हो रहे ह। तब उ ह ने कु वंशके
बड़े-बूढ़ , ऋ ष-मु नय , कु ती और पा डव से अनुम त लेकर ारकाके लये थान
कया ।।७।। वे मन-ही-मन कहने लगे क ‘म पू य भाई बलरामजीके साथ यहाँ चला आया।
अब शशुपालके प पाती य अव य ही ारकापर आ मण कर रहे ह गे’ ।।८।।
भगवान् ीकृ णने ारकाम प ँचकर दे खा क सचमुच यादव पर बड़ी वप आयी है। तब
उ ह ने बलरामजीको नगरक र ाके लये नयु कर दया और सौभप त शा वको दे खकर
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अपने सार थ दा कसे कहा— ।।९।। ‘दा क! तुम शी -से-शी मेरा रथ शा वके पास ले
चलो। दे खो, यह शा व बड़ा मायावी है, तो भी तुम त नक भी भय न करना’ ।।१०।।
भगवान्क ऐसी आ ा पाकर दा क रथपर चढ़ गया और उसे शा वक ओर ले चला।
भगवान्के रथक वजा ग ड़ च से च त थी। उसे दे खकर य वं शय तथा शा वक
सेनाके लोग ने यु भू मम वेश करते ही भगवान्को पहचान लया ।।११।। परी त्!
अबतक शा वक सारी सेना ायः न हो चुक थी। भगवान् ीकृ णको दे खते ही उसने
उनके सारथीपर एक ब त बड़ी श चलायी। वह श बड़ा भयंकर श द करती ई
आकाशम बड़े वेगसे चल रही थी और ब त बड़े लूकके समान जान पड़ती थी। उसके
काशसे दशाएँ चमक उठ थ । उसे सारथीक ओर आते दे ख भगवान् ीकृ णने अपने
बाण से उसके सैकड़ टु कड़े कर दये ।।१२-१३।। इसके बाद उ ह ने शा वको सोलह बाण
मारे और उसके वमानको भी, जो आकाशम घूम रहा था, असं य बाण से चलनी कर दया
—ठ क वैसे ही, जैसे सूय अपनी करण से आकाशको भर दे ता है ।।१४।। शा वने भगवान्
ीकृ णक बाय भुजाम, जसम शा धनुष शोभायमान था, बाण मारा, इससे शा धनुष
भगवान्के हाथसे छू टकर गर पड़ा। यह एक अद्भुत घटना घट गयी ।।१५।। जो लोग
आकाश या पृ वीसे यह यु दे ख रहे थे, वे बड़े जोरसे ‘हाय-हाय’ पुकार उठे । तब शा वने
गरजकर भगवान् ीकृ णसे य कहा— ।।१६।।
य वया मूढ नः स यु ातुभाया ते ताम् ।
म ः स सभाम ये वया ापा दतः सखा ।।१७

तं वा न शतैबाणैरपरा जतमा ननम् ।


नया यपुनरावृ य द त ेममा तः ।।१८
ीभगवानुवाच
वृथा वं क थसे म द न प य य तकेऽ तकम् ।
पौ षं दशय त म शूरा न ब भा षणः ।।१९

इ यु वा भगवा छा वं गदया भीमवेगया ।


तताड ज ौ संर धः स चक पे वम सृक् ।।२०

गदायां स वृ ायां शा व व तरधीयत ।


ततो मु त आग य पु षः शरसा युतम् ।
दे व या हतोऽ मी त न वा ाह वचो दन् ।।२१

कृ ण कृ ण महाबाहो पता ते पतृव सल ।


बद् वापनीतः शा वेन सौ नकेन यथा पशुः ।।२२
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नश य व यं कृ णो मानुष कृ त गतः ।
वमन को घृणी नेहाद् बभाषे ाकृतो यथा ।।२३

कथं राममस ा तं ज वाजेयं सुरासुरैः ।


शा वेना पीयसा नीतः पता मे बलवान् व धः ।।२४

इ त ुवाणे गो व दे सौभराट् युप थतः ।


वसुदेव मवानीय कृ णं चेदमुवाच सः ।।२५
‘मूढ़! तूने हमलोग के दे खते-दे खते हमारे भाई और सखा शशुपालक प नीको हर लया
तथा भरी सभाम, जब क हमारा म शशुपाल असावधान था, तूने उसे मार डाला ।।१७।।
म जानता ँ क तू अपनेको अजेय मानता है। य द मेरे सामने ठहर गया तो म आज तुझे
अपने तीखे बाण से वहाँ प ँचा ँ गा, जहाँसे फर कोई लौटकर नह आता’ ।।१८।।
भगवान् ीकृ णने कहा—‘रे म द! तू वृथा ही बहक रहा है। तुझे पता नह क तेरे
सरपर मौत सवार है। शूरवीर थक बकवाद नह करते, वे अपनी वीरता ही दखलाया
करते ह’ ।।१९।। इस कार कहकर भगवान् ीकृ णने ो धत हो अपनी अ य त वेगवती
और भयंकर गदासे शा वके ज ु थान (हँसली) पर हार कया। इससे वह खून उगलता
आ काँपने लगा ।।२०।। इधर जब गदा भगवान्के पास लौट आयी, तब शा व अ तधान हो
गया। इसके बाद दो घड़ी बीतते-बीतते एक मनु यने भगवान्के पास प ँचकर उनको सर
झुकाकर णाम कया और वह रोता आ बोला—‘मुझे आपक माता दे वक जीने भेजा
है ।।२१।। उ ह ने कहा है क अपने पताके त अ य त ेम रखनेवाले महाबा ीकृ ण!
शा व तु हारे पताको उसी कार बाँधकर ले गया है, जैसे कोई कसाई पशुको बाँधकर ले
जाय!’ ।।२२।। यह अ य समाचार सुनकर भगवान् ीकृ ण मनु य-से बन गये। उनके
मुँहपर कुछ उदासी छा गयी। वे साधारण पु षके समान अ य त क णा और नेहसे कहने
लगे— ।।२३।। ‘अहो! मेरे भाई बलरामजीको तो दे वता अथवा असुर कोई नह जीत
सकता। वे सदा-सवदा सावधान रहते ह। शा वका बल-पौ ष तो अ य त अ प है। फर भी
इसने उ ह कैसे जीत लया और कैसे मेरे पताजीको बाँधकर ले गया? सचमुच, ार ध ब त
बलवान् है’ ।।२४।। भगवान् ीकृ ण इस कार कह ही रहे थे क शा व वसुदेवजीके समान
एक मायार चत मनु य लेकर वहाँ आ प ँचा और ीकृ णसे कहने लगा— ।।२५।।
एष ते ज नता तातो यदथ मह जीव स ।
व ध ये वी त तेऽमुमीश ेत् पा ह बा लश ।।२६

एवं नभ य मायावी खड् गेनानक भेः ।


उ कृ य शर आदाय ख थं सौभं समा वशत् ।।२७

ततो मु त कृतावुप लुतः


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वबोध आ ते वजनानुषंगतः ।
महानुभाव तदबु यदासुर
मायां स शा व सृतां मयो दताम् ।।२८

नत तं न पतुः कलेवरं
बु आजौ समप यद युतः ।
वा ं यथा चा बरचा रणं रपुं
सौभ थमालो य नह तुमु तः ।।२९

एवं वद त राजष ऋषयः केच ना वताः ।


यत् ववाचो व येत नूनं ते न मर युत ।।३०

व शोकमोहौ नेहो वा भयं वा येऽ स भवाः ।


व चाख डत व ान ानै य वख डतः ।।३१

य पादसेवो जतयाऽऽ म व या
ह व यना ा म वपयय हम् ।
लभ त आ मीयमन तमै रं
कुतो नु मोहः परम य सद्गतेः ।।३२

तं श पूगैः हर तमोजसा
शा वं शरैः शौ ररमोघ व मः ।
वद् वा छनद् वम धनुः शरोम ण
सौभं च श ोगदया रोज ह ।।३३
‘मूख! दे ख, यही तुझे पैदा करनेवाला तेरा बाप है, जसके लये तू जी रहा है। तेरे दे खते-
दे खते म इसका काम तमाम करता ँ। कुछ बल-पौ ष हो, तो इसे बचा’ ।।२६।। मायावी
शा वने इस कार भगवान्को फटकार कर मायार चत वसुदेवका सर तलवारसे काट लया
और उसे लेकर अपने आकाश थ वमानपर जा बैठा ।।२७।। परी त्! भगवान् ीकृ ण
वयं स ान व प और महानुभाव ह। वे यह घटना दे खकर दो घड़ीके लये अपने वजन
वसुदेवजीके त अ य त ेम होनेके कारण साधारण पु ष के समान शोकम डू ब गये। पर तु
फर वे जान गये क यह तो शा वक फैलायी ई आसुरी माया ही है, जो उसे मय दानवने
बतलायी थी ।।२८।। भगवान् ीकृ णने यु भू मम सचेत होकर दे खा—न वहाँ त है और
न पताका वह शरीर; जैसे व म एक य द खकर लु त हो गया हो! उधर दे खा तो शा व
वमानपर चढ़कर आकाशम वचर रहा है। तब वे उसका वध करनेके लये उ त हो
गये ।।२९।।
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य परी त्! इस कारक बात पूवापरका वचार न करनेवाले कोई-कोई ऋ ष कहते
ह। अव य ही वे इस बातको भूल जाते ह क ीकृ णके स ब धम ऐसा कहना उ ह के
वचन के वपरीत है ।।३०।। कहाँ अ ा नय म रहनेवाले शोक, मोह, नेह और भय; तथा
कहाँ वे प रपूण भगवान् ीकृ ण— जनका ान, व ान और ऐ य अख डत है, एकरस है
(भला, उनम वैसे भाव क स भावना ही कहाँ है?) ।।३१।। बड़े-बड़े ऋ ष-मु न भगवान्
ीकृ णके चरणकमल क सेवा करके आ म व ाका भलीभाँ त स पादन करते ह और
उसके ारा शरीर आ दम आ मबु प अना द अ ानको मटा डालते ह तथा
आ मस ब धी अन त ऐ य ा त करते ह। उन संत के परम ग त व प भगवान् ीकृ णम
भला, मोह कैसे हो सकता है? ।।३२।।
अब शा व भगवान् ीकृ णपर बड़े उ साह और वेगसे श क वषा करने लगा था।
अमोघश भगवान् ीकृ णने भी अपने बाण से शा वको घायल कर दया और उसके
कवच, धनुष तथा सरक म णको छ - भ कर दया। साथ ही गदाक चोटसे उसके
वमानको भी जजर कर दया ।।३३।। परी त्! भगवान् ीकृ णके हाथ से चलायी ई
गदासे वह वमान चूर-चूर होकर समु म गर पड़ा। गरनेके पहले ही शा व हाथम गदा लेकर
धरतीपर कूद पड़ा और सावधान होकर बड़े वेगसे भगवान् ीकृ णक ओर झपटा ।।३४।।
शा वको आ मण करते दे ख उ ह ने भालेसे गदाके साथ उसका हाथ काट गराया। फर
उसे मार डालनेके लये उ ह ने लयकालीन सूयके समान तेज वी और अ य त अद्भुत
सुदशन च धारण कर लया। उस समय उनक ऐसी शोभा हो रही थी, मानो सूयके साथ
उदयाचल शोभायमान हो ।।३५।। भगवान् ीकृ णने उस च से परम मायावी शा वका
कु डल- करीटस हत सर धड़से अलग कर दया; ठ क वैसे ही, जैसे इ ने व से वृ ासुरका
सर काट डाला था। उस समय शा वके सै नक अ य त ःखसे ‘हाय-हाय’ च ला
उठे ।।३६।। परी त्! जब पापी शा व मर गया और उसका वमान भी गदाके हारसे चूर-
चूर हो गया, तब दे वतालोग आकाशम भयाँ बजाने लगे। ठ क इसी समय द तव
अपने म शशुपाल आ दका बदला लेनेके लये अ य त ो धत होकर आ प ँचा ।।३७।।
तत् कृ णह ते रतया वचू णतं
पपात तोये गदया सह धा ।
वसृ य तद् भूतलमा थतो गदा-
मु य शा वोऽ युतम यगाद् तम् ।।३४

आधावतः सगदं त य बा ं
भ लेन छ वाथ रथांगम तम् ।
वधाय शा व य लयाकस भं
ब द् बभौ साक इवोदयाचलः ।।३५

जहार तेनैव शरः सकु डलं


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करीटयु ं पु मा यनो ह रः ।
व ण
े वृ य यथा पुर दरो
बभूव हाहे त वच तदा नृणाम् ।।३६

त मन् नप तते पापे सौभे च गदया हते ।


ने भयो राजन् द व दे वगणे रताः ।
सखीनामप च त कुवन् द तव ो षा यगात् ।।३७
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध सौभवधो नाम
स तस त ततमोऽ यायः ।।७७।।

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अथा स त ततमोऽ यायः
द तव और व रथका उ ार तथा तीथया ाम बलरामजीके हाथसे
सूतजीका वध
ीशुक उवाच
शशुपाल य शा व य पौ क या प म तः ।
परलोकगतानां च कुवन् पारो यसौ दम् ।।१

एकः पदा तः सं ु ो गदापा णः क पयन् ।


पद् या ममां महाराज महास वो यत ।।२
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! शशुपाल, शा व और पौ कके मारे जानेपर
उनक म ताका ऋण चुकानेके लये मूख द तव अकेला ही पैदल यु भू मम आ
धमका। वह ोधके मारे आग-बबूला हो रहा था। श के नामपर उसके हाथम एकमा गदा
थी। पर तु परी त्! लोग ने दे खा, वह इतना श शाली है क उसके पैर क धमकसे पृ वी
हल रही है ।।१-२।।
तं तथाऽऽया तमालो य गदामादाय स वरः ।
अव लु य रथात् कृ णः स धुं वेलेव यधात् ।।३

गदामु य का षो मुकु दं ाह मदः ।


द ा द ा भवान मम पथं गतः ।।४

वं मातुलेयो नः कृ ण म ुङ्मां जघांस स ।


अत वां गदया म द ह न ये व क पया ।।५

त ानृ यमुपै य म ाणां म व सलः ।


ब धु पम र ह वा ा ध दे हचरं यथा ।।६

एवं ै तुदन् वा यैः कृ णं तो ै रव पम् ।


गदयाताडय मू न सहवद् नद च सः ।।७

गदया भहतोऽ याजौ न चचाल य हः ।


कृ णोऽ प तमहन् गु ा कौमोद या तना तरे ।।८

गदा न भ दय उ मन् धरं मुखात् ।


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साय केशबा ङ् ीन् धर यां यपतद् सुः ।।९

ततः सू मतरं यो तः कृ णमा वशद तम् ।


प यतां सवभूतानां यथा चै वधे नृप ।।१०

व रथ तु तद् ाता ातृशोकप र लुतः ।


आग छद सचम यामु छ् वसं त जघांसया ।।११
भगवान् ीकृ णने जब उसे इस कार आते दे खा, तब झटपट हाथम गदा लेकर वे रथसे
कूद पड़े। फर जैसे समु के तटक भू म उसके वार-भाटे को आगे बढ़नेसे रोक दे ती है, वैसे
ही उ ह ने उसे रोक दया ।।३।। घमंडके नशेम चूर क षनरेश द तव ने गदा तानकर
भगवान् ीकृ णसे कहा—‘बड़े सौभा य और आन दक बात है क आज तुम मेरी आँख के
सामने पड़ गये ।।४।।
कृ ण! तुम मेरे मामाके लड़के हो, इस लये तु ह मारना तो नह चा हये; पर तु एक तो
तुमने मेरे म को मार डाला है और सरे मुझे भी मारना चाहते हो। इस लये म तम द! आज
म तु ह अपनी व ककश गदासे चूर-चूर कर डालूँगा ।।५।। मूख! वैसे तो तुम मेरे स ब धी
हो, फर भी हो श ु ही, जैसे अपने ही शरीरम रहनेवाला कोई रोग हो! म अपने म से बड़ा
ेम करता ँ, उनका मुझपर ऋण है। अब तु ह मारकर ही म उनके ऋणसे उऋण हो सकता
ँ ।।६।। जैसे महावत अंकुशसे हाथीको घायल करता है, वैसे ही द तव ने अपनी कड़वी
बात से ीकृ णको चोट प ँचानेक चे ा क और फर वह उनके सरपर बड़े वेगसे गदा
मारकर सहके समान गरज उठा ।।७।। रणभू मम गदाक चोट खाकर भी भगवान् ीकृ ण
टस-से-मस न ए। उ ह ने अपनी ब त बड़ी कौमोदक गदा सँभालकर उससे द तव के
व ः थलपर हार कया ।।८।। गदाक चोटसे द तव का कलेजा फट गया। वह मुँहसे
खून उगलने लगा। उसके बाल बखर गये, भुजाएँ और पैर फैल गये। नदान न ाण होकर
वह धरतीपर गर पड़ा ।।९।। परी त्! जैसा क शशुपालक मृ युके समय आ था, सब
ा णय के सामने ही द तव के मृत शरीरसे एक अ य त सू म यो त नकली और वह
बड़ी व च री तसे भगवान् ीकृ णम समा गयी ।।१०।।
द तव के भाईका नाम था व रथ। वह अपने भाईक मृ युसे अ य त शोकाकुल हो
गया। अब वह ोधके मारे ल बी-ल बी साँस लेता आ हाथम ढाल-तलवार लेकर भगवान्
ीकृ णको मार डालनेक इ छासे आया ।।११।।
त य चापततः कृ ण े ण ुरने मना ।
शरो जहार राजे स करीटं सकु डलम् ।।१२

एवं सौभं च शा वं च द तव ं सहानुजम् ।


ह वा वषहान यैरी डतः सुरमानवैः ।।१३

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मु न भः स ग धव व ाधरमहोरगैः ।
अ सरो भः पतृगणैय ैः क रचारणैः ।।१४

उपगीयमान वजयः कुसुमैर भव षतः ।


वृत वृ ण वरै ववेशालङ् कृतां पुरीम् ।।१५

एवं योगे रः कृ णो भगवान् जगद रः ।


इयते पशु ीनां न जतो जयती त सः ।।१६

ु वा यु ो मं रामः कु णां सह पा डवैः ।


तीथा भषेक ाजेन म य थः ययौ कल ।।१७

ना वा भासे स त य दे व ष पतृमानवान् ।
सर वत त ोतं ययौ ा णसंवृतः ।।१८

पृथूदकं ब सर तकूपं सुदशनम् ।


वशालं तीथ च च ं ाच सर वतीम् ।।१९

यमुनामनु या येव गंगामनु च भारत ।


जगाम नै मषं य ऋषयः स मासते ।।२०
राजे ! जब भगवान् ीकृ णने दे खा क अब वह हार करना ही चाहता है, तब उ ह ने
अपने छु रेके समान तीखी धारवाले च से करीट और कु डलके साथ उसका सर धड़से
अलग कर दया ।।१२।। इस कार भगवान् ीकृ णने शा व, उसके वमान सौभ, द तव
और व रथको, ज ह मारना सर के लये अश य था, मारकर ारकापुरीम वेश कया।
उस समय दे वता और मनु य उनक तु त कर रहे थे। बड़े-बड़े ऋ ष-मु न, स -ग धव,
व ाधर और वासु क आ द महानाग, अ सराएँ, पतर, य , क र तथा चारण उनके ऊपर
पु प क वषा करते ए उनक वजयके गीत गा रहे थे। भगवान्के वेशके अवसरपर पुरी
खूब सजा द गयी थी और बड़े-बड़े वृ णवंशी यादव वीर उनके पीछे -पीछे चल रहे
थे ।।१३-१५।। योगे र एवं जगद र भगवान् ीकृ ण इसी कार अनेक खेल खेलते रहते
ह। जो पशु के समान अ ववेक ह, वे उ ह कभी हारते भी दे खते ह। पर तु वा तवम तो वे
सदा-सवदा वजयी ही ह ।।१६।।
एक बार बलरामजीने सुना क य धना द कौरव पा डव के साथ यु करनेक तैयारी
कर रहे ह। वे म य थ थे, उ ह कसीका प लेकर लड़ना पसंद नह था। इस लये वे तीथ म
नान करनेके बहाने ारकासे चले गये ।।१७।। वहाँसे चलकर उ ह ने भास े म नान
कया और तपण तथा ा णभोजनके ारा दे वता, ऋ ष, पतर और मनु य को तृ त कया।
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इसके बाद वे कुछ ा ण के साथ जधरसे सर वती नद आ रही थी, उधर ही चल
पड़े ।।१८।। वे मशः पृथूदक, ब सर, तकूप, सुदशनतीथ, वशालतीथ, तीथ,
च तीथ और पूववा हनी सर वती आ द तीथ म गये ।।१९।। परी त्! तदन तर यमुनातट
और गंगातटके धान- धान तीथ म होते ए वे नै मषार य े म गये। उन दन नै मषार य
े म बड़े-बड़े ऋ ष स संग प महान् स कर रहे थे ।।२०।।
तमागतम भ े य मुनयो द घस णः ।
अ भन यथा यायं ण यो थाय चाचयन् ।।२१

सोऽ चतः सपरीवारः कृतासनप र हः ।


रोमहषणमासीनं महषः श यमै त ।।२२

अ यु था यनं सूतमकृत णांज लम् ।


अ यासीनं च तान् व ां कोपो य माधवः ।।२३

क मादसा वमान् व ान या ते तलोमजः ।


धमपालां तथैवा मान् वधमह त म तः ।।२४

ऋषेभगवतो भू वा श योऽधी य ब न च ।
से तहासपुराणा न धमशा ा ण सवशः ।।२५

अदा त या वनीत य वृथा प डतमा ननः ।


न गुणाय भव त म नट येवा जता मनः ।।२६

एतदथ ह लोकेऽ म वतारो मया कृतः ।


व या मे धम व जन ते ह पात कनोऽ धकाः ।।२७

एताव वा भगवान् नवृ ोऽस धाद प ।


भा व वा ं कुशा ेण कर थेनाहनत् भुः ।।२८

हाहे त वा दनः सव मुनयः ख मानसाः ।


ऊचुः संकषणं दे वमधम ते कृतः भो ।।२९
द घकालतक स संगस का नयम लेकर बैठे ए ऋ षय ने बलरामजीको आया दे ख
अपने-अपने आसन से उठकर उनका वागत-स कार कया और यथायो य णाम-आशीवाद
करके उनक पूजा क ।।२१।। वे अपने सा थय के साथ आसन हण करके बैठ गये और
उनक अचा-पूजा हो चुक , तब उ ह ने दे खा क भगवान् ासके श य रोमहषण
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ासग पर बैठे ए ह ।।२२।। बलरामजीने दे खा क रोमहषणजी सूत-जा तम उ प
होनेपर भी उन े ा ण से ऊँचे आसनपर बैठे ए ह और उनके आनेपर न तो उठकर
वागत करते ह और न हाथ जोड़कर णाम ही। इसपर बलरामजीको ोध आ गया ।।२३।।
वे कहने लगे क ‘यह रोमहषण तलोम जा तका होनेपर भी इन े ा ण से तथा धमके
र क हमलोग से ऊपर बैठा आ है, इस लये यह बु मृ युद डका पा है ।।२४।।
भगवान् ासदे वका श य होकर इसने इ तहास, पुराण, धमशा आ द ब त-से शा का
अ ययन भी कया है; पर तु अभी इसका अपने मनपर संयम नह है। यह वनयी नह ,
उ ड है। इस अ जता माने झूठमूठ अपनेको ब त बड़ा प डत मान रखा है। जैसे नटक
सारी चे ाएँ अ भनयमा होती ह, वैसे ही इसका सारा अ ययन वाँगके लये है। उससे न
इसका लाभ है और न कसी सरेका ।।२५-२६।।
जो लोग धमका च धारण करते ह, पर तु धमका पालन नह करते, वे अ धक पापी ह
और वे मेरे लये वध करने यो य ह। इस जगत्म इसी लये मने अवतार धारण कया
है’ ।।२७।। भगवान् बलराम य प तीथया ाके कारण के वधसे भी अलग हो गये थे,
फर भी इतना कहकर उ ह ने अपने हाथम थत कुशक नोकसे उनपर हार कर दया और
वे तुरंत मर गये। होनहार ही ऐसी थी ।।२८।। सूतजीके मरते ही सब ऋ ष-मु न हाय-हाय
करने लगे, सबके च ख हो गये। उ ह ने दे वा धदे व भगवान् बलरामजीसे कहा—‘ भो!
आपने यह ब त बड़ा अधम कया ।।२९।।
अय ासनं द म मा भय न दन ।
आयु ा मा लमं तावद् यावत् स ं समा यते ।।३०

अजानतैवाच रत वया वधो यथा ।


योगे र य भवतो ना नायोऽ प नयामकः ।।३१

य ेतद् ह यायाः पावनं लोकपावन ।


च र य त भवाँ लोकसङ् होऽन यचो दतः ।।३२
ीभगवानुवाच
क र ये वध नवशं लोकानु हका यया ।
नयमः थमे क पे यावान् स तु वधीयताम् ।।३३

द घमायुबतैत य स व म यमेव च ।
आशा सतं य द् त ू साधये योगमायया ।।३४
ऋषय ऊचुः
अ य तव वीय य मृ योर माकमेव च ।

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यथा भवेद ् वचः स यं तथा राम वधीयताम् ।।३५
ीभगवानुवाच
आ मा वै पु उ प इ त वेदानुशासनम् ।
त माद य भवेद ् व ा आयु र यस ववान् ।।३६

क वः कामो मु न े ा ूताहं करवा यथ ।


अजानत वप च त यथा मे च यतां बुधाः ।।३७
य वंश शरोमणे! सूतजीको हम लोग ने ही ा णो चत आसनपर बैठाया था और
जबतक हमारा यह स समा त न हो, तबतकके लये उ ह शारी रक क से र हत आयु भी दे
द थी ।।३०।। आपने अनजानम यह ऐसा काम कर दया, जो ह याके समान है।
हमलोग यह मानते ह क आप योगे र ह, वेद भी आपपर शासन नह कर सकता। फर भी
आपसे यह ाथना है क आपका अवतार लोग को प व करनेके लये आ है; य द आप
कसीक ेरणाके बना वयं अपनी इ छासे ही इस ह याका ाय कर लगे तो इससे
लोग को ब त श ा मलेगी’ ।।३१-३२।।
भगवान् बलरामने कहा—म लोग को श ा दे नेके लये, लोग पर अनु ह करनेके लये
इस ह याका ाय अव य क ँ गा, अतः इसके लये थम ेणीका जो ाय हो,
आपलोग उसीका वधान क जये ।।३३।। आपलोग इस सूतको ल बी आयु, बल, इ य-
श आ द जो कुछ भी दे ना चाहते ह , मुझे बतला द जये; म अपने योगबलसे सब कुछ
स प कये दे ता ँ ।।३४।।
ऋ षय ने कहा—बलरामजी! आप ऐसा कोई उपाय क जये जससे आपका श ,
परा म और इनक मृ यु भी थ न हो और हमलोग ने इ ह जो वरदान दया था, वह भी
स य हो जाय ।।३५।।
भगवान् बलरामने कहा—ऋ षयो! वेद का ऐसा कहना है क आ मा ही पु के पम
उ प होता है। इस लये रोमहषणके थानपर उनका पु आपलोग को पुराण क कथा
सुनायेगा। उसे म अपनी श से द घायु, इ यश और बल दये दे ता ँ ।।३६।।
ऋ षयो! इसके अ त र आपलोग और जो कुछ भी चाहते ह , मुझसे क हये। म
आपलोग क इ छा पूण क ँ गा। अनजानम मुझसे जो अपराध हो गया है, उसका ाय
भी आपलोग सोच- वचारकर बतलाइये; य क आपलोग इस बषयके व ान् ह ।।३७।।
ऋषय ऊचुः
इ वल य सुतो घोरो ब वलो नाम दानवः ।
स षय त नः स मे य पव ण पव ण ।।३८

तं पापं ज ह दाशाह त ः शु ूषणं परम् ।


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पूयशो णत व मू सुरामांसा भव षणम् ।।३९

तत भारतं वष परी य सुसमा हतः ।


च र वा ादश मासां तीथ नायी वशु यसे ।।४०
ऋ षय ने कहा—बलरामजी! इ वलका पु ब वल नामका एक भयंकर दानव है। वह
येक पवपर यहाँ आ प ँचता है और हमारे इस स को षत कर दे ता है ।।३८।।
य न दन! वह यहाँ आकर पीब, खून, व ा, मू , शराब और मांसक वषा करने लगता है।
आप उस पापीको मार डा लये। हमलोग क यह ब त बड़ी सेवा होगी ।।३९।। इसके बाद
आप एका च से तीथ म नान करते ए बारह महीन तक भारतवषक प र मा करते ए
वचरण क जये। इससे आपक शु हो जायगी ।।४०।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध बलदे वच र े
ब वलवधोप मो नामा स त ततमोऽ यायः ।।७८।।

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अथैकोनाशी ततमोऽ यायः
ब वलका उ ार और बलरामजीक तीथया ा
ीशुक उवाच
ततः पव युपावृ े च डः पांसुवषणः ।
भीमो वायुरभूद ् राजन् पूयग ध तु सवशः ।।१

ततोऽमे यमयं वष ब वलेन व न मतम् ।


अभवद् य शालायां सोऽ व यत शूलधृक् ।।२

तं वलो य बृह कायं भ ा नचयोपमम् ।


त तता शखा म ुं दं ो ुकुट मुखम् ।।३

स मार मुसलं रामः परसै य वदारणम् ।


हलं च दै यदमनं ते तूणमुपत थतुः ।।४

तमाकृ य हला णे ब वलं गगनेचरम् ।


मुसलेनाहनत् ु ो मू न हं बलः ।।५

सोऽपतद् भु व न भ ललाटोऽसृक् समु सृजन् ।


मुंच ात वरं शैलो यथा व हतोऽ णः ।।६
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! पवका दन आनेपर बड़ा भयंकर अंधड़ चलने
लगा। धूलक वषा होने लगी और चार ओरसे पीबक ग ध आने लगी ।।१।। इसके बाद
य शालाम ब वल दानवने मल-मू आ द अप व व तु क वषा क । तदन तर हाथम
शूल लये वह वयं दखायी पड़ा ।।२।। उसका डील-डौल ब त बड़ा था, ऐसा जान पड़ता
मानो ढे र-का-ढे र का लख इकट् ठा कर दया गया हो। उसक चोट और दाढ़ -मूँछ तपे ए
ताँबेके समान लाल-लाल थ । बड़ी-बड़ी दाढ़ और भ ह के कारण उसका मुँह बड़ा भयावना
लगता था। उसे दे खकर भगवान् बलरामजीने श ुसेनाक कुंद करने-वाले मूसल और
दै य को चीर-फाड़ डालनेवाले हलका मरण कया। उनके मरण करते ही वे दोन श
तुरंत वहाँ आ प ँचे ।।३-४।।
बलरामजीने आकाशम वचरनेवाले ब वल दै यको अपने हलके अगले भागसे ख चकर
उस ोहीके सरपर बड़े ोधसे एक मूसल कसकर जमाया, जससे उसका ललाट फट
गया और वह खून उगलता तथा आत वरसे च लाता आ धरतीपर गर पड़ा, ठ क वैसे ही
जैसे व क चोट खाकर गे आ दसे लाल आ कोई पहाड़ गर पड़ा हो ।।५-६।।
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सं तु य मुनयो रामं यु या वतथा शषः ।
अ य षचन् महाभागा वृ नं वबुधा यथा ।।७

वैजय त द मालां ीधामा लानपंकजाम् ।


रामाय वाससी द े द ा याभरणा न च ।।८

अथ तैर यनु ातः कौ शक मे य ा णैः ।


ना वा सरोवरमगाद् यतः सरयुरा वत् ।।९

अनु ोतेन सरयू१ं यागमुपग य सः ।


ना वा स त य दे वाद न् जगाम पुलहा मम् ।।१०

गोमत ग डक ना वा वपाशां शोण आ लुतः ।


गयां ग वा पतॄ न ् वा गंगासागरसंगमे ।।११

उप पृ य महे ा ौ रामं ् वा भवा च ।


स तगोदावर वेणां प पां भीमरथ ततः ।।१२

क दं ् वा ययौ रामः ीशैलं ग रशालयम् ।


वडेषु महापु यं ् वा वकटं भुः ।।१३

कामको ण पुर कांच कावेर च स र राम् ।


ीरंगा यं महापु यं य स हतो ह रः ।।१४

ऋषभा हरेः े ं द णां मथुरां तथा ।


सामु ं सेतुमगम महापातकनाशनम् ।।१५
नै मषार यवासी महाभा यवान् मु नय ने बलरामजीक तु त क , उ ह कभी न थ
होनेवाले आशीवाद दये और जैसे दे वतालोग दे वराज इ का अ भषेक करते ह, वैसे ही
उनका अ भषेक कया ।।७।। इसके बाद ऋ षय ने बलरामजीको द व और द
आभूषण दये तथा एक ऐसी वैजय ती माला भी द , जो सौ दयका आ य एवं कभी न
मुरझानेवाले कमलके पु प से यु थी ।।८।।
तदन तर नै मषार यवासी ऋ षय से वदा होकर उनके आ ानुसार बलरामजी
ा ण के साथ कौ शक नद के तटपर आये। वहाँ नान करके वे उस सरोवरपर गये, जहाँसे
सरयू नद नकली है ।।९।। वहाँसे सरयूके कनारे- कनारे चलने लगे, फर उसे छोड़कर
याग आये; और वहाँ नान तथा दे वता, ऋ ष एवं पतर का तपण करके वहाँसे पुलहा म
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गये ।।१०।। वहाँसे ग डक , गोमती तथा वपाशा न दय म नान करके वे सोननदके तटपर
गये और वहाँ नान कया। इसके बाद गयाम जाकर पतर का वसुदेवजीके आ ानुसार
पूजन-यजन कया। फर गंगासागर-संगमपर गये; वहाँ भी नान आ द तीथ-कृ य से नवृ
होकर महे पवतपर गये। वहाँ परशुरामजीका दशन और अ भवादन कया। तदन तर
स तगोदावरी, वेणा, प पा और भीमरथी आ दम नान करते ए वा मका तकका दशन
करने गये तथा वहाँसे महादे वजीके नवास थान ीशैलपर प ँच।े इसके बाद भगवान्
बलरामने वड़ दे शके परम पु यमय थान वकटाचल (बालाजी) का दशन कया और
वहाँसे वे कामा ी— शवकांची, व णुकांची होते ए तथा े नद कावेरीम नान करते ए
पु यमय ीरंग े म प ँच।े ीरंग े म भगवान् व णु सदा वराजमान रहते ह ।।११-१४।।
वहाँसे उ ह ने व णुभगवान्के े ऋषभ पवत, द ण मथुरा तथा बड़े-बड़े महापाप को न
करनेवाले सेतुब धक या ा क ।।१५।।
त ायुतमदाद् धेनू ा णे यो हलायुधः ।
कृतमालां ता पण मलयं च कुलाचलम् ।।१६

त ाग यं समासीनं नम कृ या भवा च ।
यो जत तेन चाशी भरनु ातो गतोऽणवम् ।
द णं त क या यां गा दे व ददश सः ।।१७

ततः फा गुनमासा पंचा सरसमु मम् ।


व णुः स हतो य ना वा पशद् गवायुतम् ।।१८

ततोऽ भ य भगवान् केरलां तु गतकान् ।


गोकणा यं शव े ं सा यं य धूजटे ः ।।१९

आया ै पायन ् वा शूपारकमगाद् बलः ।


ताप पयो ण न व यामुप पृ याथ द डकम् ।।२०

व य रेवामगमद् य मा ह मती पुरी ।


मनुतीथमुप पृ य भासं पुनरागमत् ।।२१

ु वा जैः क यमानं कु पा डवसंयुगे ।


सवराज य नधनं भारं मेने तं भुवः ।।२२

स भीम य धनयोगदा यां यु यतोमृधे ।


वार य यन् वनशनं जगाम य न दनः ।।२३
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यु ध र तु तं ् वा यमौ कृ णाजुनाव प ।
अ भवा ाभवं तू ण क वव ु रहागतः ।।२४
वहाँ बलरामजीने ा ण को दस हजार गौएँ दान क । फर वहाँसे कृतमाला और
ता पण न दय म नान करते ए वे मलयपवतपर गये। वह पवत सात कुलपवत मसे एक
है ।।१६।। वहाँपर वराजमान अग य मु नको उ ह ने नम कार और अ भवादन कया।
अग यजीसे आशीवाद और अनुम त ा त करके बलरामजीने द ण समु क या ा क ।
वहाँ उ ह ने गादे वीका क याकुमारीके पम दशन कया ।।१७।। इसके बाद वे फा गुन
तीथ—अन तशयन े म गये और वहाँके सव े पंचा सरस तीथम नान कया। उस
तीथम सवदा व णुभगवान्का सा य रहता है। वहाँ बलरामजीने दस हजार गौएँ दान
क ।।१८।।
अब भगवान् बलराम वहाँसे चलकर केरल और गत दे श म होकर भगवान् शंकरके
े गोकणतीथम आये। वहाँ सदा-सवदा भगवान् शंकर वराजमान रहते ह ।।१९।। वहाँसे
जलसे घरे पम नवास करनेवाली आयादे वीका दशन करने गये और फर उस पसे
चलकर शूपारक- े क या ा क , इसके बाद तापी, पयो णी और न व या न दय म नान
करके वे द डकार यम आये ।।२०।। वहाँ होकर वे नमदाजीके तटपर गये। परी त्! इस
प व नद के तटपर ही मा ह मतीपुरी है। वहाँ मनुतीथम नान करके वे फर भास े म
चले आये ।।२१।। वह उ ह ने ा ण से सुना क कौरव और पा डव के यु म अ धकांश
य का संहार हो गया। उ ह ने ऐसा अनुभव कया क अब पृ वीका ब त-सा भार उतर
गया ।।२२।। जस दन रणभू मम भीमसेन और य धन गदायु कर रहे थे, उसी दन
बलरामजी उ ह रोकनेके लये कु े जा प ँचे ।।२३।।
महाराज यु ध र, नकुल, सहदे व, भगवान् ीकृ ण और अजुनने बलरामजीको दे खकर
णाम कया तथा चुप हो रहे। वे डरते ए मन-ही-मन सोचने लगे क ये न जाने या
कहनेके लये यहाँ पधारे ह? ।।२४।।

गदापाणी उभौ ् वा संर धौ वजयै षणौ ।


म डला न व च ा ण चर ता वदम वीत् ।।२५

युवां तु यबलौ वीरौ हे राजन् हे वृकोदर ।


एकं ाणा धकं म ये उतैकं श या धकम् ।।२६

त मादे कतर येह युवयोः समवीययोः ।


न ल यते जयोऽ यो वा वरम वफलो रणः ।।२७

न त ा यं जगृहतुब वैरौ नृपाथवत् ।


अनु मर ताव यो यं ं कृता न च ।।२८
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द ं तदनुम वानो रामो ारवत ययौ ।
उ सेना द भः ीतै ा त भः समुपागतः ।।२९

तं पुनन मषं ा तमृषयोऽयाजयन् मुदा ।


व ं तु भः सव नवृ ा खल व हम् ।।३०

ते यो वशु व ानं भगवान् तरद् वभुः ।


येनैवा म यदो व मा मानं व गं व ः ।।३१

वप यावभृथ नातो ा तब धुसु द्वृतः ।


रेजे व यो नयेवे ः सुवासाः सु ् वलङ् कृतः ।।३२
उस समय भीमसेन और य धन दोन ही हाथम गदा लेकर एक- सरेको जीतनेके लये
ोधसे भरकर भाँ त-भाँ तके पतरे बदल रहे थे। उ ह दे खकर बलरामजीने कहा— ।।२५।।
‘राजा य धन और भीमसेन! तुम दोन वीर हो। तुम दोन म बल-पौ ष भी समान है। म ऐसा
समझता ँ क भीमसेनम बल अ धक है और य धनने गदायु म श ा अ धक पायी
है ।।२६।।
इस लये तुमलोग -जैसे समान बलशा लय म कसी एकक जय या पराजय नह होती
द खती। अतः तुमलोग थका यु मत करो, अब इसे बंद कर दो’ ।।२७।। परी त्!
बलरामजीक बात दोन के लये हतकर थी। पर तु उन दोन का वैरभाव इतना ढ़मूल हो
गया था क उ ह ने बलरामजीक बात न मानी। वे एक- सरेक कटु वाणी और वहार का
मरण करके उ म -से हो रहे थे ।।२८।। भगवान् बलरामजीने न य कया क इनका
ार ध ऐसा ही है; इस लये उसके स ब धम वशेष आ ह न करके वे ारका लौट गये।
ारकाम उ सेन आ द गु जन तथा अ य स ब धय ने बड़े ेमसे आगे आकर उनका
वागत कया ।।२९।। वहाँसे बलरामजी फर नै मषार य े म गये। वहाँ ऋ षय ने
वरोधभावसे—यु ा दसे नवृ बलरामजीके ारा बड़े ेमसे सब कारके य कराये।
परी त्! सच पूछो तो जतने भी य ह, वे बलरामजीके अंग ही ह। इस लये उनका यह
य ानु ान लोकसं हके लये ही था ।।३०।। सवसमथ भगवान् बलरामने उन ऋ षय को
वशु त व ानका उपदे श कया, जससे वे लोग इस स पूण व को अपने-आपम और
अपने-आपको सारे व म अनुभव करने लगे ।।३१।। इसके बाद बलरामजीने अपनी प नी
रेवतीके साथ य ा त- नान कया और सु दर-सु दर व तथा आभूषण पहनकर अपने
भाई-ब धु तथा वजन-स ब धय के साथ इस कार शोभायमान ए, जैसे अपनी च का
एवं न के साथ च दे व होते ह ।।३२।।

ई वधा यसं या न बल य बलशा लनः ।


अन त या मेय य मायाम य य स त ह ।।३३
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योऽनु मरेत राम य कमा य तकमणः ।
सायं ातरन त य व णोः स द यतो भवेत् ।।३४
परी त्! भगवान् बलराम वयं अन त ह। उनका व प मन और वाणीके परे है।
उ ह ने लीलाके लये ही यह मनु य का-सा शरीर हण कया है। उन बलशाली बलरामजीके
ऐसे-ऐसे च र क गनती भी नह क जा सकती ।।३३।। जो पु ष अन त, सव ापक,
अद्भुतकमा भगवान् बलरामजीके च र का सायं- ातः मरण करता है, वह भगवान्का
अ य त य हो जाता है ।।३४।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध बलदे व-
तीथया ा न पणं नामैकोनाशी ततमोऽ यायः ।।७९।।

१. रमयन्।

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अथाशी ततमोऽ यायः
ीकृ णके ारा सुदामाजीका वागत
राजोवाच
भगवन् या न चा या न मुकु द य महा मनः ।
वीया यन तवीय य ोतु म छामहे भो ।।१

को नु ु वासकृद् ु म ोकस कथाः ।


वरमेत वशेष ो वष णः काममागणैः ।।२

सा वाग् यया त य गुणान् गृणीते


करौ च त कमकरौ मन ।
मरेद ् वस तं थरजंगमेषु
शृणो त त पु यकथाः स कणः ।।३

शर तु त योभय लगमानमे-
दे व यत् प य त त च ुः ।
अंगा न व णोरथ त जनानां
पादोदकं या न भज त न यम् ।।४
राजा परी त्ने कहा—भगवन्! ेम और मु के दाता पर परमा मा भगवान्
ीकृ णक श अन त है। इस लये उनक माधुय और ऐ यसे भरी लीलाएँ भी अन त ह।
अब हम उनक सरी लीलाएँ, जनका वणन आपने अबतक नह कया है, सुनना चाहते
ह ।।१।। न्! यह जीव वषय-सुखको खोजते-खोजते अ य त ःखी हो गया है। वे
बाणक तरह इसके च म चुभते रहते ह। ऐसी थ तम ऐसा कौन-सा र सक—रसका
वशेष पु ष होगा, जो बार-बार प व क त भगवान् ीकृ णक मंगलमयी लीला का
वण करके भी उनसे वमुख होना चाहेगा ।।२।। जो वाणी भगवान्के गुण का गान करती
है, वही स ची वाणी है। वे ही हाथ स चे हाथ ह, जो भगवान्क सेवाके लये काम करते ह।
वही मन स चा मन है, जो चराचर ा णय म नवास करनेवाले भगवान्का मरण करता है;
और वे ही कान वा तवम कान कहनेयो य ह, जो भगवान्क पु यमयी कथा का वण
करते ह ।।३।। वही सर सर है, जो चराचर जगत्को भगवान्क चल-अचल तमा
समझकर नम कार करता है; और जो सव भगव हका दशन करते ह, वे ही ने
वा तवम ने ह। शरीरके जो अंग भगवान् और उनके भ के चरणोदकका सेवन करते ह, वे
ही अंग वा तवम अंग ह; सच पू छये तो उ ह का होना सफल है ।।४।।

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सूत उवाच
व णुरातेन स पृ ो भगवान् बादराय णः ।
वासुदेवे भगव त नम न दयोऽ वीत् ।।५
ीशुक उवाच
कृ ण यासीत् सखा क द् ा णो व मः ।
वर इ याथषु शा ता मा जते यः ।।६

य छयोपप ेन वतमानो गृहा मी ।


त य भाया कुचैल य ु ामा च तथा वधा ।।७

प त ता प त ाह लायता वदनेन सा ।
द र ा सीदमाना सा वेपमाना भग य च ।।८

ननु न् भगवतः सखा सा ा यः प तः ।


य शर य भगवान् सा वतषभः ।।९

तमुपै ह महाभाग साधूनां च परायणम् ।


दा य त वणं भू र सीदते ते कुटु बने ।।१०

आ तेऽधुना ारव यां भोजवृ य धके रः ।


मरतः पादकमलमा मानम प य छ त ।
क वथकामान् भजतो ना यभी ांजगद्गु ः ।।११

स एवं भायया व ो ब शः ा थतो मृ ।


अयं ह परमो लाभ उ म ोकदशनम् ।।१२
सूतजी कहते ह—शौनका द ऋ षयो! जब राजा परी त्ने इस कार कया, तब
भगवान् ीशुकदे वजीका दय भगवान् ीकृ णम ही त लीन हो गया। उ ह ने परी त्से
इस कार कहा ।।५।।
ीशुकदे वजीने कहा—परी त्! एक ा ण भगवान् ीकृ णके परम म थे। वे बड़े
ानी, वषय से वर , शा त च और जते य थे ।।६।। वे गृह थ होनेपर भी कसी
कारका सं ह-प र ह न रखकर ार धके अनुसार जो कुछ मल जाता, उसीम स तु रहते
थे। उनके व तो फटे -पुराने थे ही, उनक प नीके भी वैसे ही थे। वह भी अपने प तके
समान ही भूखसे बली हो रही थी ।।७।। एक दन द र ताक तमू त ः खनी प त ता
भूखके मारे काँपती ई अपने प तदे वके पास गयी और मुरझाये ए मुँहसे बोली— ।।८।।
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‘भगवन्! सा ात् ल मीप त भगवान् ीकृ ण आपके सखा ह। वे भ वा छाक पत ,
शरणागतव सल और ा ण के परम भ ह ।।९।। परम भा यवान् आयपु ! वे साधु-
संत के, स पु ष के एकमा आ य ह। आप उनके पास जाइये। जब वे जानगे क आप
कुटु बी ह और अ के बना ःखी हो रहे ह तो वे आपको ब त-सा धन दगे ।।१०।।
आजकल वे भोज, वृ ण और अ धकवंशी यादव के वामीके पम ारकाम ही नवास कर
रहे ह और इतने उदार ह क जो उनके चरणकमल का मरण करते ह, उन ेमी भ को वे
अपने-आपतकका दान कर डालते ह। ऐसी थ तम जगद्गु भगवान् ीकृ ण अपने
भ को य द धन और वषय-सुख, जो अ य त वा छनीय नह है, दे द तो इसम आ यक
कौन-सी बात है?’ ।।११।। इस कार जब उन ा णदे वताक प नीने अपने प तदे वसे कई
बार बड़ी न तासे ाथना क , तब उ ह ने सोचा क ‘धनक तो कोई बात नह है; पर तु
भगवान् ीकृ णका दशन हो जायगा, यह तो जीवनका ब त बड़ा लाभ है’ ।।१२।। यही
वचार करके उ ह ने जानेका न य कया और अपनी प नीसे बोले—‘क याणी! घरम कुछ
भट दे नेयो य व तु भी है या? य द हो तो दे दो’ ।।१३।। तब उस ा णीने पास-पड़ोसके
ा ण के घरसे चार मुट्ठ चउड़े माँगकर एक कपड़ेम बाँध दये और भगवान्को भट दे नेके
लये अपने प तदे वको दे दये ।।१४।। इसके बाद वे ा णदे वता उन चउड़ को लेकर
ारकाके लये चल पड़े। वे मागम यह सोचते जाते थे क ‘मुझे भगवान् ीकृ णके दशन
कैसे ा त ह गे?’ ।।१५।।

इ त सं च य मनसा गमनाय म त दधे ।


अ य युपायनं क चद् गृहे क या ण द यताम् ।।१३

या च वा चतुरो मु ीन् व ान् पृथुकत डु लान् ।


चैलख डेन तान् बद् वा भ ादा पायनम् ।।१४

स तानादाय व ा ्यः ययौ ारकां कल ।


कृ णस दशनं म ं कथं या द त च तयन् ।।१५

ी ण गु मा यतीयाय त ः क ा स जः ।
व ोऽग या धकवृ णीनां गृहे व युतध मणाम् ।।१६

गृहं य सह ाणां म हषीणां हरे जः ।


ववेशैकतमं ीमद् ान दं गतो यथा ।।१७

तं वलो या युतो रात् यापयकमा थतः ।


सहसो थाय चा ये य दो या पय ही मुदा ।।१८

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स युः य य व षरंगसंगा त नवृतः ।
ीतो मुंचद ब न् ने ा यां पु करे णः ।।१९

अथोपवे य पयके वयं स युः समहणम् ।


उप याव न या य पादौ पादावनेजनीः ।।२०

अ ही छसा राजन् भगवाँ लोकपावनः ।


ल पद् द ग धेन च दनागु कुंकुमैः ।।२१
परी त्! ारकाम प ँचनेपर वे ा णदे वता सरे ा ण के साथ सै नक क तीन
छाव नयाँ और तीन ो ढ़याँ पार करके भगव मका पालन करनेवाले अ धक और
वृ णवंशी यादव के महल म, जहाँ प ँचना अ य त क ठन है, जा प ँचे ।।१६।। उनके बीच
भगवान् ीकृ णक सोलह हजार रा नय के महल थे। उनमसे एकम उन ा णदे वताने
वेश कया। वह महल खूब सजा-सजाया—अ य त शोभा-यु था। उसम वेश करते
समय उ ह एसे मालूम आ, मानो वे ान दके समु म डू ब-उतरा रहे ह ! ।।१७।।
उस समय भगवान् ीकृ ण अपनी ाण या मणीजीके पलंगपर वराजे ए थे।
ा णदे वताको रसे ही दे खकर वे सहसा उठ खड़े ए और उनके पास आकर बड़े
आन दसे उ ह अपने भुजपाशम बाँध लया ।।१८।। परी त्! परमान द व प भगवान्
अपने यारे सखा ा णदे वताके अंग- पशसे अ य त आन दत ए। उनके कमलके समान
कोमल ने से ेमके आँसू बरसने लगे ।।१९।। परी त्! कुछ समयके बाद भगवान्
ीकृ णने उ ह ले जाकर अपने पलंगपर बैठा दया और वयं पूजनक साम ी लाकर उनक
पूजा क । य परी त्! भगवान् ीकृ ण सभीको प व करनेवाले ह; फर भी उ ह ने
अपने हाथ ा णदे वताके पाँव पखारकर उनका चरणोदक अपने सरपर धारण कया और
उनके शरीरम च दन, अरगजा, केसर आ द द ग ध का लेपन कया ।।२०-२१।। फर
उ ह ने बड़े आन दसे सुग धत धूप और द पावलीसे अपने म क आरती उतारी। इस कार
पूजा करके पान एवं गाय दे कर मधुर वचन से ‘भले पधारे’ ऐसा कहकर उनका वागत
कया ।।२२।। ा णदे वता फटे -पुराने व पहने ए थे। शरीर अ य त म लन और बल
था। दे हक सारी नस दखायी पड़ती थ । वयं भगवती मणीजी चँवर डु लाकर उनक
सेवा करने लग ।।२३।। अ तःपुरक याँ यह दे खकर अ य त व मत हो गय क
प व क त भगवान् ीकृ ण अ तशय ेमसे इस मैल-े कुचैले अवधूत ा णक पूजा कर रहे
ह ।।२४।। वे आपसम कहने लग —‘इस नंग-धड़ंग, नधन, न दनीय और नकृ भखमंगेने
ऐसा कौन-सा पु य कया है, जससे लोक -गु ी नवास ीकृ ण वयं इसका आदर-
स कार कर रहे ह। दे खो तो सही, इ ह ने अपने पलंगपर सेवा करती ई वयं ल मी पणी
मणीजीको छोड़कर इस ा णको अपने बड़े भाई बलरामजीके समान दयसे लगाया
है’ ।।२५-२६।। य परी त्! भगवान् ीकृ ण और वे ा ण दोन एक- सरेका हाथ
पकड़कर अपने पूवजीवनक उन आन ददायक घटना का मरण और वणन करने लगे जो
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गु कुलम रहते समय घ टत ई थ ।।२७।।

धूपैः सुर भ भ म ं द पाव ल भमुदा ।


अ च वाऽऽवे ता बूलं गां च वागतम वीत् ।।२२

कुचैलं म लनं ामं जं धम नसंततम् ।


दे वी पयचरत् सा ा चामर जनेन वै ।।२३

अ तःपुरजनो ् वा कृ णेनामलक तना ।


व मतोऽभूद त ी या अवधूतं सभा जतम् ।।२४

कमनेन कृतं पु यमवधूतेन भ ुणा ।


या हीनेन लोकेऽ मन् ग हतेनाधमेन च ।।२५

योऽसौ लोकगु णा ी नवासेन स भृतः ।


पयक थां यं ह वा प र व ोऽ जो यथा ।।२६

कथयांच तुगाथाः पूवा गु कुले सतोः ।


आ मनो ल लता राजन् करौ गृ पर परम् ।।२७
ी भगवानुवाच
अप न् गु कुलाद् भवता ल धद णात् ।
समावृ ेन धम भाय ढा स शी न वा ।।२८

ायो गृहेषु ते च मकाम वहतं तथा ।


नैवा त ीयसे व न् धनेषु व दतं ह मे ।।२९

के चत् कुव त कमा ण कामैरहतचेतसः ।


यज तः कृतीदवीयथाहं लोकसङ् हम् ।।३०

क चद् गु कुले वासं न् मर स नौ यतः ।


जो व ाय व ेयं तमसः पारम ुते ।।३१
भगवान् ीकृ णने कहा—धमके मम ा णदे व! गु द णा दे कर जब आप
गु कुलसे लौट आये, तब आपने अपने अनु प ीसे ववाह कया या नह ? ।।२८।। म
जानता ँ क आपका च गृह थीम रहनेपर भी ायः वषय-भोग म आस नह है।

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व न्! यह भी मुझे मालूम है क धन आ दम भी आपक कोई ी त नह है ।।२९।। जगत्म
वरले ही लोग ऐसे होते ह, जो भगवान्क मायासे न मत वषयस ब धी वासना का याग
कर दे ते ह और च म वषय क त नक भी वासना न रहनेपर भी मेरे समान केवल
लोक श ाके लये कम करते रहते ह ।।३०।। ा ण शरोमणे! या आपको उस समयक
बात याद है, जब हम दोन एक साथ गु कुलम नवास करते थे। सचमुच गु कुलम ही
जा तय को अपने ात व तुका ान होता है, जसके ारा वे अ ाना धकारसे पार हो
जाते ह ।।३१।। म ! इस संसारम शरीरका कारण—ज मदाता पता थम गु है। इसके
बाद उपनयन-सं कार करके स कम क श ा दे नेवाला सरा गु है। वह मेरे ही समान पू य
है। तदन तर ानोपदे श करके परमा माको ा त करानेवाला गु तो मेरा व प ही है।
वणा मय के ये तीन गु होते ह ।।३२।। मेरे यारे म ! गु के व पम वयं म ।ँ इस
जगत्म वणा मय म जो लोग अपने गु दे वके उपदे शानुसार अनायास ही भवसागर पार कर
लेते ह, वे अपने वाथ और परमाथके स चे जानकार ह ।।३३।। य म ! म सबका आ मा
ँ, सबके दयम अ तयामी पसे वराजमान ँ। म गृह थके धम पंचमहाय आ दसे,
चारीके धम उपनयन-वेदा ययन आ दसे, वान थीके धम तप यासे और सब ओरसे
उपरत हो जाना—इस सं यासीके धमसे भी उतना स तु नह होता, जतना गु दे वक सेवा-
शु ूषासे स तु होता ँ ।।३४।।

स वै स कमणां सा ाद् जाते रह स भवः ।


आ ोऽ य ा मणां यथाहं ानदो गु ः ।।३२

न वथको वदा न् वणा मवता मह ।


ये मया गु णा वाचा तर यंजो भवाणवम् ।।३३

नाह म या जा त यां तपसोपशमेन वा ।


तु येयं सवभूता मा गु शु ूषया यथा ।।३४

अ प नः मयते न् वृ ं नवसतां गुरौ ।


गु दारै ो दताना म धनानयने व चत् ।।३५

व ानां महार यमपत सुमहद् ज ।


वातवषमभू ी ं न ु राः तन य नवः ।।३६

सूय ा तं गत तावत् तमसा चावृता दशः ।


न नं कूलं जलमयं न ा ायत कचन ।।३७

वयं भृशं त महा नला बु भ-


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नह यमाना मु र बुस लवे ।
दशोऽ वद तोऽथ पर परं वने
गृहीतह ताः प रब मातुराः ।।३८

एतद् व द वा उ दते रवौ सा द प नगु ः ।


अ वेषमाणो नः श यानाचाय ऽप यदातुरान् ।।३९
न्! जस समय हमलोग गु कुलम नवास कर रहे थे; उस समयक वह बात आपको
याद है या, जब हम दोन को एक दन हमारी गु प नीने धन लानेके लये जंगलम भेजा
था ।।३५।। उस समय हमलोग एक घोर जंगलम गये ए थे और बना ऋतुके ही बड़ा
भयंकर आँधी-पानी आ गया था। आकाशम बजली कड़कने लगी थी ।।३६।। तबतक
सूया त हो गया; चार ओर अँधेरा-ही-अँधेरा फैल गया। धरतीपर इस कार पानी-ही-पानी
हो गया क कहाँ गड् ढा है, कहाँ कनारा, इसका पता ही न चलता था ।।३७।।
वह वषा या थी, एक छोटा-मोटा लय ही था। आँधीके झटक और वषाक बौछार से
हमलोग को बड़ी पीड़ा ई, दशाका ान न रहा। हमलोग अ य त आतुर हो गये और एक-
सरेका हाथ पकड़कर जंगलम इधर-उधर भटकते रहे ।।३८।। जब हमारे गु दे व सा द प न
मु नको इस बातका पता चला, तब वे सूय दय होनेपर अपने श य हमलोग को ढूँ ढ़ते ए
जंगलम प ँचे और उ ह ने दे खा क हम अ य त आतुर हो रहे ह ।।३९।। वे कहने लगे
—‘आ य है, आ य है! पु ो! तुमलोग ने हमारे लये अ य त क उठाया। सभी ा णय को
अपना शरीर सबसे अ धक य होता है; पर तु तुम दोन उसक भी परवा न करके हमारी
सेवाम ही संल न रहे ।।४०।। गु के ऋणसे मु होनेके लये सत्- श य का इतना ही कत
है क वे वशु भावसे अपना सब कुछ और शरीर भी गु दे वक सेवाम सम पत कर
द ।।४१।। ज- शरोम णयो! म तुमलोग से अ य त स ँ। तु हारे सारे मनोरथ, सारी
अ भलाषाएँ पूण ह और तुमलोग ने हमसे जो वेदा ययन कया है, वह तु ह सवदा क ठ थ
रहे तथा इस लोक एवं परलोकम कह भी न फल न हो’ ।।४२।। य म ! जस समय
हमलोग गु कुलम नवास कर रहे थे, हमारे जीवनम ऐसी-ऐसी अनेक घटनाएँ घ टत ई
थ । इसम स दे ह नह क गु दे वक कृपासे ही मनु य शा तका अ धकारी होता और
पूणताको ा त करता है ।।४३।।

अहो हे पु का यूयम मदथऽ त ः खताः ।


आ मा वै ा णनां े तमना य म पराः ।।४०

एतदे व ह स छ यैः कत ं गु न कृतम् ।


यद् वै वशु भावेन सवाथा मापणं गुरौ ।।४१

तु ोऽहं भो ज े ाः स याः स तु मनोरथाः ।


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छ दां ययातयामा न भव वह पर च ।।४२

इ थं वधा यनेका न वसतां गु वे मसु ।


गुरोरनु हेणैव पुमान् पूणः शा तये ।।४३
ा ण उवाच
कम मा भर नवृ ं दे वदे व जगद्गुरो ।
भवता स यकामेन येषां वासो गुरावभूत् ।।४४

य य छ दोमयं दे ह आवपनं वभो ।


ेयसां त य गु षु वासोऽ य त वड बनम् ।।४५
ा णदे वताने कहा—दे वता के आरा यदे व जगद्गु ीकृ ण! भला, अब हम या
करना बाक है? य क आपके साथ, जो स यसंक प परमा मा ह, हम गु कुलम रहनेका
सौभा य ा त आ था ।।४४।। भो! छ दोमय वेद, धम, अथ, काम, मो , चतु वध
पु षाथके मूल ोत ह; और वे ह आपके शरीर। वही आप वेदा ययनके लये गु कुलम
नवास कर, यह मनु य-लीलाका अ भनय नह तो और या है? ।।४५।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध
ीदामच रतेऽशी ततमोऽ यायः ।।८०।।

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अथैकाशी ततमोऽ यायः
सुदामाजीको ऐ यक ा त
ीशुक उवाच
स इ थं जमु येन सह संकथयन् ह रः ।
सवभूतमनोऽ भ ः मयमान उवाच तम् ।।१
ीशुकदे वजी कहते ह— य परी त्! भगवान् ीकृ ण सबके मनक बात जानते ह।
वे ा ण के परम भ , उनके लेश के नाशक तथा संत के एकमा आ य ह। वे पूव
कारसे उन ा णदे वताके साथ ब त दे रतक बातचीत करते रहे। अब वे अपने यारे सखा
उन ा णसे त नक मुसकराकर वनोद करते ए बोले। उस समय भगवान् ीकृ ण उन
ा ण-दे वताक ओर ेमभरी से दे ख रहे थे ।।१-२।।

यो ा णं कृ णो भगवान् हसन् यम् ।


े णा नरी णेनव
ै े न् खलु सतां ग तः ।।२
ीभगवानुवाच
कमुपायनमानीतं न् मे भवता गृहात् ।
अ व युपा तं भ ै ः े णा भूयव मे भवेत् ।
भूय यभ ोप तं न मे तोषाय क पते ।।३

प ं पु पं फलं तोयं यो मे भ या य छ त ।
तदहं भ युप तम ा म यता मनः ।।४

इ यु ोऽ प ज त मै ी डतः पतये यः ।
पृथुक सृ त राजन् न ाय छदवाङ् मुखः ।।५

सवभूता म क् सा ात् त यागमनकारणम् ।


व ाया च तय ायं ीकामो माभज पुरा ।।६

प याः प त ताया तु सखा य चक षया ।


ा तो माम य दा या म स पदोऽम य लभाः ।।७

इ थं व च य वसना चीरब ा ज मनः ।


वयं जहार क मद म त पृथुकत डु लान् ।।८
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न वेत पनीतं मे परम ीणनं सखे ।
तपय यंग मां व मेते पृथुकत डु लाः ।।९

इ त मु सकृ ज वा तीयां ज धुमाददे ।


ताव जगृहे ह तं त परा परमे नः ।।१०
भगवान् ीकृ णने कहा—‘ न्! आप अपने घरसे मेरे लये या उपहार लाये ह?
मेरे ेमी भ जब ेमसे थोड़ी-सी व तु भी मुझे अपण करते ह तो वह मेरे लये ब त हो
जाती है। पर तु मेरे अभ य द ब त-सी साम ी भी मुझे भट करते ह तो उससे म स तु
नह होता ।।३।। जो पु ष ेम-भ से फल-फूल अथवा प ा-पानीमसे कोई भी व तु मुझे
सम पत करता है, तो म उस शु च भ का वह ेमोपहार केवल वीकार ही नह करता,
ब क तुरंत भोग लगा लेता ँ’ ।।४।। परी त्! भगवान् ीकृ णके ऐसा कहनेपर भी उन
ा णदे वताने ल जावश उन ल मीप तको वे चार मुट्ठ चउड़े नह दये। उ ह ने संकोचसे
अपना मुँह नीचे कर लया था। परी त्! भगवान् ीकृ ण सम त ा णय के दयका एक-
एक संक प और उनका अभाव भी जानते ह। उ ह ने ा णके आनेका कारण, उनके
दयक बात जान ली। अब वे वचार करने लगे क ‘एक तो यह मेरा यारा सखा है, सरे
इसने पहले कभी ल मीक कामनासे मेरा भजन नह कया है। इस समय यह अपनी
प त ता प नीको स करनेके लये उसीके आ हसे यहाँ आया है। अब म इसे ऐसी
सप ँ गा, जो दे वता के लये भी अ य त लभ है’ ।।५-७।। भगवान् ीकृ णने ऐसा
वचार करके उनके व मसे चथड़ेक एक पोटलीम बँधा आ चउड़ा ‘यह या है’—ऐसा
कहकर वयं ही छ न लया ।।८।। और बड़े आदरसे कहने लगे—‘ यारे म ! यह तो तुम मेरे
लये अ य त य भट ले आये हो। ये चउड़े न केवल मुझ,े ब क सारे संसारको तृ त
करनेके लये पया त ह’ ।।९।। ऐसा कहकर वे उसमसे एक मुट्ठ चउड़ा खा गये और सरी
मुट्ठ य ही भरी, य ही मणीके पम वयं भगवती ल मीजीने भगवान् ीकृ णका
हाथ पकड़ लया! य क वे तो एकमा भगवान्के परायण ह, उ ह छोड़कर और कह जा
नह सकत ।।१०।।

एतावतालं व ा मन् सवस प समृ ये ।


अ मँ लोकेऽथवामु मन् पुंस व ोषकारणम् ।।११

ा ण तां तु रजनीमु ष वा युतम दरे ।


भु वा पी वा सुखं मेने आ मानं वगतं यथा ।।१२

ोभूते व भावेन वसुखेना भव दतः ।


जगाम वालयं तात प यनु य न दतः ।।१३

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स चाल वा धनं कृ णा तु या चतवान् वयम् ।
वगृहान् ी डतोऽग छ मह शन नवृतः ।।१४

अहो यदे व य ा यता मया ।


यद् द र तमो ल मीमा ो ब तोर स ।।१५

वाहं द र ः पापीयान् व कृ णः ी नकेतनः ।


ब धु र त माहं बा यां प रर भतः ।।१६

नवा सतः याजु े पयके ातरो यथा ।


म ह या वी जतः ा तो वाल जनह तया ।।१७

शु ूषया परमया पादसंवाहना द भः ।


पू जतो दे वदे वेन व दे वेन दे ववत् ।।१८

वगापवगयोः पुंसां रसायां भु व स पदाम् ।


सवासाम प स नां मूलं त चरणाचनम् ।।१९

अधनोऽयं धनं ा य मा ु चैन मां मरेत् ।


इ त का णको नूनं धनं मेऽभू र नाददात् ।।२०
मणीजीने कहा—‘ व ा मन्! बस, बस। मनु यको इस लोकम तथा मरनेके बाद
परलोकम भी सम त स प य क समृ ा त करनेके लये यह एक मुट्ठ चउड़ा ही
ब त है; य क आपके लये इतना ही स ताका हेतु बन जाता है’ ।।११।।
परी त्! ा णदे वता उस रातको भगवान् ीकृ णके महलम ही रहे। उ ह ने बड़े
आरामसे वहाँ खाया- पया और ऐसा अनुभव कया, मानो म वैकु ठम ही प ँच गया
ँ ।।१२।। परी त्! ीकृ णसे ा णको य पम कुछ भी न मला। फर भी उ ह ने
उनसे कुछ माँगा नह ! वे अपने च क करतूतपर कुछ ल जत-से होकर भगवान्
ीकृ णके दशनज नत आन दम डू बते-उतराते अपने घरक ओर चल पड़े ।।१३-१४।। वे
मन-ही-मन सोचने लगे—‘अहो, कतने आन द और आ यक बात है! ा ण को अपना
इ दे व माननेवाले भगवान् ीकृ णक ा णभ आज मने अपनी आँख दे ख ली। ध य
है! जनके व ः थलपर वयं ल मीजी सदा वराजमान रहती ह, उ ह ने मुझ अ य त
द र को अपने दयसे लगा लया ।।१५।। कहाँ तो म अ य त पापी और द र , और कहाँ
ल मीके एकमा आ य भगवान् ीकृ ण! पर तु उ ह ने ‘यह ा ण है’—ऐसा समझकर
मुझे अपनी भुजा म भरकर दयसे लगा लया ।।१६।। इतना ही नह , उ ह ने मुझे उस
पलंगपर सुलाया, जसपर उनक ाण या मणीजी शयन करती ह। मानो म उनका सगा
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भाई ँ! कहाँतक क ँ? म थका आ था, इस लये वयं उनक पटरानी मणीजीने अपने
हाथ चँवर डु लाकर मेरी सेवा क ।।१७।। ओह, दे वता के आरा यदे व होकर भी
ा ण को अपना इ दे व माननेवाले भुने पाँव दबाकर, अपने हाथ खला- पलाकर मेरी
अ य त सेवा-शु ूषा क और दे वताके समान मेरी पूजा क ।।१८।। वग, मो , पृ वी और
रसातलक स प तथा सम त योग स य क ा तका मूल उनके चरण क पूजा ही
है ।।१९।। फर भी परमदयालु ीकृ णने यह सोचकर मुझे थोड़ा-सा भी धन नह दया क
कह यह द र धन पाकर बलकुल मतवाला न हो जाय और मुझे न भूल बैठे’ ।।२०।।

इ त त च तय तः ा तो नजगृहा तकम् ।
सूयानले संकाशै वमानैः सवतो वृतम् ।।२१

व च ोपवनो ानैः कूजद् जकुलाकुलैः ।


ो फु लकुमुदा भोजक ारो पलवा र भः ।।२२

जु ं वलंकृतैः पु भः ी भ ह रणा भः ।
क मदं क य वा थानं कथं त दद म यभूत् ।।२३

एवं मीमांसमानं तं नरा नाय ऽमर भाः ।


यगृ न् महाभागं गीतवा ेन भूयसा ।।२४

प तमागतमाक य प यु षा तस मा ।
न ाम गृहा ूण पणी ी रवालयात् ।।२५

प त ता प त ् वा मे ो क ठा ुलोचना ।
मी लता यनमद् बु या मनसा प रष वजे ।।२६

प न वी य व फुर त दे व वैमा नक मव ।
दासीनां न कक ठ नां म ये भा त स व मतः ।।२७

ीतः वयं तया यु ः व ो नजम दरम् ।


म ण त भशतोपेतं महे भवनं यथा ।।२८

पयःफेन नभाः श या दा ता मप र छदाः ।


पयका हेमद डा न चामर जना न च ।।२९
इस कार मन-ही-मन वचार करते-करते ा णदे वता अपने घरके पास प ँच गये। वे

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वहाँ या दे खते ह क सब-का-सब थान सूय, अ न और च माके समान तेज वी
र न न मत महल से घरा आ है। ठौर-ठौर च - व च उपवन और उ ान बने ए ह तथा
उनम झुंड-के-झुंड रंग- बरंगे प ी कलरव कर रहे ह। सरोवर म कुमु दनी तथा ेत, नील
और सौग धक—भाँ त-भाँ तके कमल खले ए ह; सु दर-सु दर ी-पु ष बन-ठनकर
इधर-उधर वचर रहे ह। उस थानको दे खकर ा णदे वता सोचने लगे—‘म यह या दे ख
रहा ँ? यह कसका थान है? य द यह वही थान है, जहाँ म रहता था तो यह ऐसा कैसे हो
गया’ ।।२१-२३।। इस कार वे सोच ही रहे थे क दे वता के समान सु दर-सु दर ी-पु ष
गाजे-बाजेके साथ मंगलगीत गाते ए उस महाभा यवान् ा णक अगवानी करनेके लये
आये ।।२४।। प तदे वका शुभागमन सुनकर ा णीको अपार आन द आ और वह
हड़बड़ाकर ज द -ज द घरसे नकल आयी, वह ऐसी मालूम होती थी मानो मू तमती
ल मीजी ही कमलवनसे पधारी ह ।।२५।। प तदे वको दे खते ही प त ता प नीके ने म ेम
और उ क ठाके आवेगसे आँसू छलक आये। उसने अपने ने बंद कर लये। ा णीने बड़े
ेमभावसे उ ह नम कार कया और मन-ही-मन आ लगन भी ।।२६।।
य परी त्! ा णप नी सोनेका हार पहनी ई दा सय के बीचम वमान थत
दे वांगनाके समान अ य त शोभायमान एवं दे द यमान हो रही थी। उसे इस पम दे खकर वे
व मत हो गये ।।२७।। उ ह ने अपनी प नीके साथ बड़े ेमसे अपने महलम वेश कया।
उनका महल या था, मानो दे वराज इ का नवास थान। इसम म णय के सैकड़ खंभे खड़े
थे ।।२८।। हाथीके दाँतके बने ए और सोनेके पातसे मँढ़े ए पलंग पर धके फेनक तरह
ेत और कोमल बछौने बछ रहे थे। ब त-से चँवर वहाँ रखे ए थे, जनम सोनेक डं डयाँ
लगी ई थ ।।२९।। सोनेके सहासन शोभायमान हो रहे थे, जनपर बड़ी कोमल-कोमल
ग याँ लगी ई थ ! ऐसे चँदोवे भी झल मला रहे थे जनम मो तय क ल ड़याँ लटक रही
थ ।।३०।। फ टकम णक व छ भीत पर प ेक प चीकारी क ई थी। र न न मत
ीमू तय के हाथ म र न के द पक जगमगा रहे थे ।।३१।।
आसना न च हैमा न मृ प तरणा न च ।
मु ादाम वल बी न वताना न ुम त च ।।३०

व छ फ टककु ेषु महामारकतेषु च ।


र नद पा ाजमाना ललनार नसंयुताः ।।३१

वलो य ा ण त समृ ः सवस पदाम् ।


तकयामास न ः वसमृ महैतुक म् ।।३२

नूनं बतैत मम भग य
श र य समृ हेतुः ।
महा वभूतेरवलोकतोऽ यो
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नैवोपप ेत य म य ।।३३

न व ुवाणो दशते सम ं
या च णवे भूय प भू रभोजः ।
पज यव त् वयमी माणो
दाशाहकाणामृषभः सखा मे ।।३४

क च करो युव प यत् वद ं


सु कृतं फ गव प भू रकारी ।
मयोपनीतां पृथुकैकमु
य हीत् ी तयुतो महा मा ।।३५

त यैव मे सौ दस यमै ी
दा यं पुनज म न ज म न यात् ।
महानुभावेन गुणालयेन
वष जत त पु ष संगः ।।३६
इस कार सम त स प य क समृ दे खकर और उसका कोई य कारण न
पाकर, बड़ी ग भीरतासे ा णदे वता वचार करने लगे क मेरे पास इतनी स प कहाँसे
आ गयी ।।३२।। वे मन-ही-मन कहने लगे—‘म ज मसे ही भा यहीन और द र ँ। फर मेरी
इस स प -समृ का कारण या है? अव य ही परमै यशाली य वंश शरोम ण भगवान्
ीकृ णके कृपाकटा के अ त र और कोई कारण नह हो सकता ।।३३।। यह सब कुछ
उनक क णाक ही दे न है। वयं भगवान् ीकृ ण पूणकाम और ल मीप त होनेके कारण
अन त भोग-साम य से यु ह। इस लये वे याचक भ को उसके मनका भाव जानकर
ब त कुछ दे दे ते ह, पर तु उसे समझते ह ब त थोड़ा; इस लये सामने कुछ कहते नह । मेरे
य वंश शरोम ण सखा यामसु दर सचमुच उस मेघसे भी बढ़कर उदार ह, जो समु को भर
दे नेक श रखनेपर भी कसानके सामने न बरसकर उसके सो जानेपर रातम बरसता है
और ब त बरसनेपर भी थोड़ा ही समझता है ।।३४।। मेरे यारे सखा ीकृ ण दे ते ह ब त,
पर उसे मानते ह ब त थोड़ा! और उनका ेमी भ य द उनके लये कुछ भी कर दे , तो वे
उसको ब त मान लेते ह। दे खो तो सही! मने उ ह केवल एक मुट्ठ चउड़ा भट कया था,
पर उदार शरोम ण ीकृ णने उसे कतने ेमसे वीकार कया ।।३५।। मुझे ज म-ज म
उ ह का ेम, उ ह क हतै षता, उ ह क म ता और उ ह क सेवा ा त हो। मुझे
स प क आव यकता नह , सदा-सवदा उ ह गुण के एकमा नवास थान महानुभाव
भगवान् ीकृ णके चरण म मेरा अनुराग बढ़ता जाय और उ ह के ेमी भ का स संग
ा त हो ।।३६।। अज मा भगवान् ीकृ ण स प आ दके दोष जानते ह। वे दे खते ह क
बड़े-बड़े ध नय का धन और ऐ यके मदसे पतन हो जाता है। इस लये वे अपने अ रदश

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भ को उसके माँगते रहनेपर भी तरह-तरहक स प , रा य और ऐ य आ द नह दे त।े
यह उनक बड़ी कृपा है’ ।।३७।। परी त्! अपनी बु से इस कार न य करके वे
ा णदे वता यागपूवक अनास भावसे अपनी प नीके साथ भगव साद व प वषय को
हण करने लगे और दन दन उनक ेम-भ बढ़ने लगी ।।३८।।

भ ाय च ा भगवान् ह स पदो
रा यं वभूतीन समथय यजः ।
अद घबोधाय वच णः वयं
प यन् नपातं ध ननां मदो वम् ।।३७

इ थं व सतो बु या भ ोऽतीव जनादने ।


वषया ायया य यन् बुभुजे ना तल पटः ।।३८

त य वै दे वदे व य हरेय पतेः भोः ।


ा णाः भवो दै वं न ते यो व ते परम् ।।३९

एवं स व ो भगव सु दा
् वा वभृ यैर जतं परा जतम् ।
त यानवेगोद् थता मब धन-
त ाम लेभेऽ चरतः सतां ग तम् ।।४०

एतद् यदे व य ु वा यतां नरः ।


ल धभावो भगव त कमब धाद् वमु यते ।।४१
य परी त्! दे वता के भी आरा यदे व भ -भयहारी य प त सवश मान् भगवान्
वयं ा ण को अपना भु, अपना इ दे व मानते ह। इस लये ा ण से बढ़कर और कोई
भी ाणी जगत्म नह है ।।३९।। इस कार भगवान् ीकृ णके यारे सखा उस ा णने
दे खा क ‘य प भगवान् अ जत ह, कसीके अधीन नह ह; फर भी वे अपने सेवक के
अधीन हो जाते ह, उनसे परा जत हो जाते ह,’ अब वे उ ह के यानम त मय हो गये। यानके
आवेगसे उनक अ व ाक गाँठ कट गयी और उ ह ने थोड़े ही समयम भगवान्का धाम, जो
क संत का एकमा आ य है, ा त कया ।।४०।। परी त्! ा ण को अपना इ दे व
माननेवाले भगवान् ीकृ णक इस ा णभ को जो सुनता है, उसे भगवान्के चरण म
ेमभाव ा त हो जाता है और वह कमब धनसे मु हो जाता है ।।४१।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध पृथुकोपा यानं
नामैकाशी ततमोऽ यायः ।।८१।।

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अथ यशी ततमोऽ यायः
भगवान् ीकृ ण-बलरामसे गोप-गो पय क भट
ीशुक उवाच
अथैकदा ारव यां वसतो रामकृ णयोः ।
सूय परागः सुमहानासीत् क प ये यथा ।।१
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! इसी कार भगवान् ीकृ ण और बलरामजी
ारकाम नवास कर रहे थे। एक बार सव ास सूय हण लगा, जैसा क लयके समय लगा
करता है ।।१।। परी त्! मनु य को यो त षय के ारा उस हणका पता पहलेसे ही चल
गया था, इस लये सब लोग अपने-अपने क याणके उ े यसे पु य आ द उपाजन करनेके
लये सम तपंचक-तीथ कु े म आये ।।२।। सम तपंचक े वह है, जहाँ श धा रय म
े परशुरामजीने सारी पृ वीको यहीन करके राजा क धरधारासे पाँच बड़े-बड़े
कु ड बना दये थे ।।३।। जैसे कोई साधारण मनु य अपने पापक नवृ के लये ाय
करता है, वैसे ही सवश मान् भगवान् परशुरामने अपने साथ कमका कुछ स ब ध न
होनेपर भी लोकमयादाक र ाके लये वह पर य कया था ।।४।।

तं ा वा मनुजा राजन् पुर तादे व सवतः ।


सम तपंचकं े ं ययुः ेयो व ध सया ।।२

नः यां मह कुवन् रामः श भृतां वरः ।


नृपाणां धरौघेण य च े महा दान् ।।३

ईजे च भगवान् रामो य ा पृ ोऽ प कमणा ।


लोक य ाहय ीशो यथा योऽघापनु ये ।।४

मह यां तीथया ायां त ागन् भारतीः जाः ।


वृ णय तथा ू रवसुदेवा कादयः ।।५

ययुभारत तत् े ं वमघं प य णवः ।


गद ु नसा बा ाः सुच शुकसारणैः ।।६

आ तेऽ न ो र ायां कृतवमा च यूथपः ।


ते रथैदव ध याभैहयै तरल लवैः ।।७

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गजैनद र ाभैनृ भ व ाधर ु भः ।
रोच त महातेजाः प थ कांचनमा लनः ।।८

द व स ाहाः कल ैः खेचरा इव ।
त ना वा महाभागा उपो य सुसमा हताः ।।९
परी त्! इस महान् तीथया ाके अवसरपर भारतवषके सभी ा त क जनता कु े
आयी थी। उनम अ ू र, वसुदेव, उ सेन आ द बड़े-बूढ़े तथा गद, ु न, सा ब आ द अ य
य वंशी भी अपने-अपने पाप का नाश करनेके लये कु े आये थे। ु नन दन अ न
और य वंशी सेनाप त कृतवमा—ये दोन सुच , शुक, सारण आ दके साथ नगरक र ाके
लये ारकाम रह गये थे। य वंशी एक तो वभावसे ही परम तेज वी थे; सरे गलेम सोनेक
माला, द पु प के हार, ब मू य व और कवच से सुस जत होनेके कारण उनक शोभा
और भी बढ़ गयी थी। वे तीथया ाके पथम दे वता के वमानके समान रथ , समु क
तरंगके समान चलनेवाले घोड़ , बादल के समान वशालकाय एवं गजना करते ए हा थय
तथा व ाधर के समान मनु य के ारा ढोयी जानेवाली पाल कय पर अपनी प नय के साथ
इस कार शोभायमान हो रहे थे, मानो वगके दे वता ही या ा कर रहे ह । महाभा यवान्
य वं शय ने कु े म प ँचकर एका च से संयमपूवक नान कया और हणके
उपल यम न त कालतक उपवास कया ।।५-९।।

ा णे यो द धनूवासः ु ममा लनीः ।


राम दे षु व धवत् पुनरा लु य वृ णयः ।।१०

द ः व ं जा ्ये यः कृ णे नो भ र व त ।
वयं च तदनु ाता वृ णयः कृ णदे वताः ।।११

भु वोप व वशुः कामं न ध छायाङ् पाङ् षु ।


त ागतां ते द शुः सु स ब धनो नृपान् ।।१२

म योशीनरकौस य वदभकु सृंजयान् ।


का बोजकैकयान् म ान् कु ीनानतकेरलान् ।।१३

अ यां ैवा मप ीयान् परां शतशो नृप ।


न दाद न् सु दो गोपान् गोपी ो क ठता रम् ।।१४

अ यो यस दशनहषरंहसा
ो फु ल सरो ह यः ।

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आ य गाढं नयनैः व जला
य वचो गरो ययुमुदम् ।।१५

य संवी य मथोऽ तसौ द-


मतामलापांग शोऽ भरे भरे ।
तनैः तनान् कुंकुमपंक षतान्
नह य दो भः णया ुलोचनाः ।।१६
उ ह ने ा ण को गोदान कया। ऐसी गौ का दान कया ज ह व क सु दर-सु दर
झूल, पु पमालाएँ एवं सोनेक जंजीर पहना द गयी थ । इसके बाद हणका मो हो
जानेपर परशुरामजीके बनाये ए कु ड म य वं शय ने व धपूवक नान कया और स पा
ा ण को सु दर-सु दर पकवान का भोजन कराया। उ ह ने अपने मनम यह संक प कया
था क भगवान् ीकृ णके चरण म हमारी ेमभ बनी रहे। भगवान् ीकृ णको ही अपना
आदश और इ दे व माननेवाले य वं शय ने ा ण से अनुम त लेकर तब वयं भोजन कया
और फर घनी एवं ठं डी छायावाले वृ के नीचे अपनी-अपनी इ छाके अनुसार डेरा डालकर
ठहर गये। परी त्! व ाम कर लेनेके बाद य वं शय ने अपने सु द् और स ब धी
राजा से मलना-भटना शु कया ।।१०-१२।। वहाँ म य, उशीनर, कोसल, वदभ, कु ,
सृंजय, का बोज, कैकय, म , कु त, आनत, केरल एवं सरे अनेक दे श के—अपने प के
तथा श ुप के—सैकड़ नरप त आये ए थे। परी त्! इनके अ त र य वं शय के परम
हतैषी ब धु न द आ द गोप तथा भगवान्के दशनके लये चरकालसे उ क ठत गो पयाँ भी
वँहा आयी ई थ । यादव ने इन सबको दे खा ।।१३-१४।। परी त्! एक- सरेके दशन,
मलन और वातालापसे सभीको बड़ा आन द आ। सभीके दय-कमल एवं मुख-कमल
खल उठे । सब एक- सरेको भुजा म भरकर दयसे लगाते, उनके ने से आँसु क झड़ी
लग जाती, रोम-रोम खल उठता, ेमके आवेगसे बोली बंद हो जाती और सब-के-सब
आन द-समु म डू बने-उतराने लगते ।।१५।।
पु ष क भाँ त याँ भी एक- सरेको दे खकर ेम और आन दसे भर गय । वे अ य त
सौहाद, म द-म द मुसकान, परम प व तरछ चतवनसे दे ख-दे खकर पर पर भट-अँकवार
भरने लग । वे अपनी भुजा म भरकर केसर लगे ए व ः थल को सरी य के
व ः थल से दबात और अ य त आन दका अनुभव करत । उस समय उनके ने से ेमके
आँसू छलकने लगते ।।१६।। अव था आ दम छोट ने बड़े-बूढ़ को णाम कया और उ ह ने
अपनेसे छोट का णाम वीकार कया। वे एक- सरेका वागत करके तथा कुशल-मंगल
आ द पूछकर फर ीकृ णक मधुर लीलाएँ आपसम कहने-सुनने लगे ।।१७।। परी त्!
कु ती वसुदेव आ द अपने भाइय , ब हन , उनके पु , माता- पता, भा भय और भगवान्
ीकृ णको दे खकर तथा उनसे बातचीत करके अपना सारा ःख भूल गय ।।१८।।

ततोऽ भवा ते वृ ान् य व ैर भवा दताः ।

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वागतं कुशलं पृ ् वा च ु ः कृ णकथा मथः ।।१७
पृथा ातॄन् वसॄव य त पु ान् पतराव प ।
ातृप नीमुकु दं च जहौ संकथया शुचः ।।१८
कु युवाच
आय ातरहं म ये आ मानमकृता शषम् ।
यद् वा आप सु म ाता नानु मरथ स माः ।।१९
सु दो ातयः पु ा ातरः पतराव प ।
नानु मर त वजनं य य दै वमद णम् ।।२०
वसुदेव उवाच
अ ब मा मानसूयेथा दै व डनकान् नरान् ।
ईश य ह वशे लोकः कु ते कायतेऽथवा ।।२१
कंस ता पताः सव वयं याता दशं दशम् ।
एत व पुनः थानं दै वेनासा दताः वसः ।।२२
ीशुक उवाच
वसुदेवो सेना ैय भ तेऽ चता नृपाः ।
आस युतस दशपरमान द नवृताः ।।२३
भी मो ोणोऽ बकापु ो गा धारी ससुता तथा ।
सदाराः पा डवाः कु ती सृंजयो व रः कृपः ।।२४
कु तभोजो वराट भी मको न न ज महान् ।
पु जद् पदः श यो१ धृ केतुः सका शराट् ।।२५
दमघोषो वशाला ो मै थलो म केकयौ ।
युधाम युः सुशमा च ससुता२ बा कादयः ।।२६
राजानो ये च राजे यु ध रमनु ताः ।
ी नकेतं वपुः शौरेः स ीकं वी य व मताः ।।२७
कु तीने वसुदेवजीसे कहा—भैया! म सचमुच बड़ी अभा गन ँ। मेरी एक भी साध पूरी
न ई। आप-जैसे साधु- वभाव स जन भाई आप के समय मेरी सु ध भी न ल, इससे
बढ़कर ःखक बात या होगी? ।।१९।। भैया! वधाता जसके बाँय हो जाता है उसे
वजन-स ब धी, पु और माता- पता भी भूल जाते ह। इसम आपलोग का कोई दोष
नह ।।२०।।
वसुदेवजीने कहा—ब हन! उलाहना मत दो। हमसे बलग न मानो। सभी मनु य दै वके
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खलौने ह। यह स पूण लोक ई रके वशम रहकर कम करता है और उसका फल भोगता
है ।।२१।। ब हन! कंससे सताये जाकर हमलोग इधर-उधर अनेक दशा म भगे ए थे।
अभी कुछ ही दन ए, ई रकृपासे हम सब पुनः अपना थान ा त कर सके ह ।।२२।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! वहाँ जतने भी नरप त आये थे—वसुदेव, उ सेन
आ द य वं शय ने उनका खूब स मान-स कार कया। वे सब भगवान् ीकृ णका दशन
पाकर परमान द और शा तका अनुभव करने लगे ।।२३।। परी त्! भी म पतामह,
ोणाचाय, धृतरा , य धना द पु के साथ गा धारी, प नय के स हत यु ध र आ द
पा डव, कु ती, सृंजय, व र, कृपाचाय, कु तभोज, वराट, भी मक, महाराज न न जत्,
पु जत्, पद, श य, धृ केतु, काशीनरेश, दमघोष, वशाला , म थलानरेश, म नरेश,
केकयनरेश, युधामा यु, सुशमा, अपने पु के साथ बा क और सरे भी यु ध रके
अनुयायी नृप त भगवान् ीकृ णका परम सु दर ी नकेतन व ह और उनक रा नय को
दे खकर अ य त व मत हो गये ।।२४-२७।।

अथ ते रामकृ णा यां स यक् ा तसमहणाः ।


शशंसुमुदा यु ा वृ णीन् कृ णप र हान् ।।२८

अहो भोजपते यूयं ज मभाजो नृणा मह ।


यत् प यथासकृत् कृ णं दशम प यो गनाम् ।।२९

य ु तः ु तनुतेदमलं पुना त
पादावनेजनपय वच शा म् ।
भूः कालभ जतभगा प यदङ् प -
पश थश र भवष त नोऽ खलाथान् ।।३०

त शन पशनानुपथ ज प-
श यासनाशनसयौनस प डब धः ।
येषां गृहे नरयव म न वततां वः
वगापवग वरमः वयमास व णुः ।।३१
ीशुक उवाच
न द त य न् ा तान् ा वा कृ णपुरोगमान् ।
त ागमद् वृतो गोपैरनः थाथ द या ।।३२

तं ् वा वृ णयो ा त वः ाण मवो थताः ।


प रष व जरे गाढं चरदशनकातराः ।।३३

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अब वे बलरामजी तथा भगवान् ीकृ णसे भलीभाँ त स मान ा त करके बड़े आन दसे
ीकृ णके वजन —य वं शय क शंसा करने लगे ।।२८।। उन लोग ने मु यतया
उ सेनजीको स बो धत कर कहा—‘भोजराज उ सेनजी! सच पू छये तो इस जगत्के
मनु य म आपलोग का जीवन ही सफल है, ध य है! ध य है! य क जन ीकृ णका दशन
बड़े-बड़े यो गय के लये भी लभ है, उ ह को आपलोग न य- नर तर दे खते रहते ह ।।२९।।
वेद ने बड़े आदरके साथ भगवान् ीकृ णक क तका गान कया है। उनके चरणधोवनका
जल गंगाजल, उनक वाणी—शा और उनक क त इस जगत्को अ य त प व कर रही
है। अभी हमलोग के जीवनक ही बात है, समयके फेरसे पृ वीका सारा सौभा य न हो
चुका था; पर तु उनके चरणकमल के पशसे पृ वीम फर सम त श य का संचार हो गया
और अब वह फर हमारी सम त अ भलाषा —मनोरथ को पूण करने लगी ।।३०।।
उ सेनजी! आपलोग का ीकृ णके साथ वैवा हक एवं गो स ब ध है। यही नह , आप हर
समय उनका दशन और पश ा त करते रहते ह। उनके साथ चलते ह, बोलते ह, सोते ह,
बैठते ह और खाते-पीते ह। य तो आपलोग गृह थीक झंझट म फँसे रहते ह—जो नरकका
माग है, पर तु आपलोग के घर वे सव ापक व णु भगवान् मू तमान् पसे नवास करते ह,
जनके दशनमा से वग और मो तकक अ भलाषा मट जाती है’ ।।३१।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जब न दबाबाको यह बात मालूम ई क ीकृ ण
आ द य वंशी कु े म आये ए ह, तब वे गोप के साथ अपनी सारी साम ी गा ड़य पर
लादकर अपने य पु ीकृ ण-बलराम आ दको दे खनेके लये वहाँ आये ।।३२।। न द
आ द गोप को दे खकर सब-के-सब य वंशी आन दसे भर गये। वे इस कार उठ खड़े ए,
मानो मृत शरीरम ाण का संचार हो गया हो। वे लोग एक- सरेसे मलनेके लये ब त
दन से आतुर हो रहे थे। इस लये एक- सरेको ब त दे रतक अ य त गाढ़भावसे आ लगन
करते रहे ।।३३।। वसुदेवजीने अ य त ेम और आन दसे व ल होकर न दजीको दयसे
लगा लया। उ ह एक-एक करके सारी बात याद हो आय —कंस कस कार उ ह सताता
था और कस कार उ ह ने अपने पु को गोकुलम ले जाकर न दजीके घर रख दया
था ।।३४।। भगवान् ीकृ ण और बलरामजीने माता यशोदा और पता न दजीके दयसे
लगकर उनके चरण म णाम कया। परी त्! उस समय ेमके उ े कसे दोन भाइय का
गला ँ ध गया, वे कुछ भी बोल न सके ।।३५।। महाभा यवती यशोदाजी और न दबाबाने
दोन पु को अपनी गोदम बैठा लया और भुजा से उनका गाढ़ आ लगन कया। उनके
दयम चरकालतक न मलनेका जो ःख था, वह सब मट गया ।।३६।। रो हणी और
दे वक जीने जे री यशोदाको अपनी अँकवारम भर लया। यशोदाजीने उन लोग के साथ
म ताका जो वहार कया था, उसका मरण करके दोन का गला भर आया। वे
यशोदाजीसे कहने लग — ।।३७।। ‘यशोदारानी! आपने और जे र न दजीने हमलोग के
साथ जो म ताका वहार कया है, वह कभी मटनेवाला नह है, उसका बदला इ का
ऐ य पाकर भी हम कसी कार नह चुका सकत । न दरानीजी! भला ऐसा कौन कृत न है,
जो आपके उस उपकारको भूल सके? ।।३८।। दे व! जस समय बलराम और ीकृ णने

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अपने मा-बापको दे खातक न था और इनके पताने धरोहरके पम इ ह आप दोन के पास
रख छोड़ा था, उस समय आपने इन दोन क इस कार र ा क , जैसे पलक पुत लय क
र ा करती ह। तथा आपलोग ने ही इ ह खलाया- पलाया, लार कया और रझाया; इनके
मंगलके लये अनेक कारके उ सव मनाये। सच पू छये, तो इनके मा-बाप आप ही लोग ह।
आपलोग क दे ख-रेखम इ ह कसीक आँचतक न लगी, ये सवथा नभय रहे, ऐसा करना
आपलोग के अनु प ही था। य क स पु ष क म अपने-परायेका भेद-भाव नह
रहता। न दरानीजी! सचमुच आपलोग परम संत ह ।।३९।।

वसुदेवः प र व य स ीतः ेम व लः ।
मरन् कंसकृतान् लेशान् पु यासं च गोकुले ।।३४

कृ णारामौ प र व य पतराव भवा च ।


न कचनोचतुः े णा सा ुक ठौ कु ह ।।३५

तावा मासनमारो य बा यां प रर य च ।


यशोदा च महाभागा सुतौ वजहतुः शुचः ।।३६

रो हणी दे वक चाथ प र व य जे रीम् ।


मर यौ त कृतां मै बा पक ठ् यौ समूचतुः ।।३७

का व मरेत वां मै ीम नवृ ां जे र ।


अवा या यै मै य य या नेह त या ।।३८

एताव पतरौ युवयोः म प ोः


स ीणना युदयपोषणपालना न ।
ा योषतुभव त प म ह य द णो-
य तावकु च भयौ न सतां परः वः ।। ३९
ीशुक उवाच
गो य कृ णमुपल य चरादभी ं
य े णे शषु प मकृतं शप त ।
भ द कृतमलं प रर य सवा-
त ावमापुर प न ययुजां रापम् ।।४०

भगवां ता तथाभूता व व उपसंगतः ।


आ यानामयं पृ ् वा हस दम वीत् ।।४१
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अ प मरथ नः स यः वानामथ चक षया ।
गतां रा यता छ ुप पणचेतसः ।।४२

अ यव यायथा मान् वदकृत ा वशंकया ।


नूनं भूता न भगवान् युन वयुन च ।।४३

वायुयथा घनानीकं तृणं तूलं रजां स च ।


संयो या पते भूय तथा भूता न भूतकृत् ।।४४

म य भ ह भूतानाममृत वाय क पते ।


द ा यदासी म नेहो भवतीनां मदापनः ।।४५
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! म कह चुका ँ क गो पय के परम यतम,
जीवनसव व ीकृ ण ही थे। जब उनके दशनके समय ने क पलक गर पड़त , तब वे
पलक को बनानेवालेको ही कोसने लगत । उ ह ेमक मू त गो पय को आज ब त दन के
बाद भगवान् ीकृ णका दशन आ। उनके मनम इसके लये कतनी लालसा थी, इसका
अनुमान भी नह कया जा सकता। उ ह ने ने के रा ते अपने यतम ीकृ णको दयम ले
जाकर गाढ़ आ लगन कया और मन-ही-मन आ लगन करते-करते त मय हो गय ।
परी त्! कहाँतक क ,ँ वे उस भावको ा त हो गय , जो न य- नर तर अ यास करनेवाले
यो गय के लये भी अ य त लभ है ।।४०।। जब भगवान् ीकृ णने दे खा क गो पयाँ मुझसे
तादा यको ा त—एक हो रही ह, तब वे एका तम उनके पास गये, उनको दयसे लगाया,
कुशल-मंगल पूछा और हँसते ए य बोले— ।।४१।। ‘स खयो! हमलोग अपने वजन-
स ब धय का काम करनेके लये जसे बाहर चले आये और इस कार तु हारी-जैसी
ेय सय को छोड़कर हम श ु का वनाश करनेम उलझ गये। ब त दन बीत गये, या
कभी तुमलोग हमारा मरण भी करती हो? ।।४२।। मेरी यारी गो पयो! कह तुमलोग के
मनम यह आशंका तो नह हो गयी है क म अकृत ँ और ऐसा समझकर तुमलोग हमसे
बुरा तो नह मानने लगी हो? न स दे ह भगवान् ही ा णय के संयोग और वयोगके कारण
ह ।।४३।। जैसे वायु बादल , तनक , ई और धूलके कण को एक- सरेसे मला दे ती है
और फर व छ द पसे उ ह अलग-अलग कर दे ती है, वैसे ही सम त पदाथ के नमाता
भगवान् भी सबका संयोग- वयोग अपनी इ छानुसार करते रहते ह ।।४४।। स खयो! यह बड़े
सौभा यक बात है क तुम सब लोग को मेरा वह ेम ा त हो चुका है, जो मेरी ही ा त
करानेवाला है। य क मेरे त क ई ेम-भ ा णय को अमृत व (परमान द-धाम)
दान करनेम समथ है ।।४५।। यारी गो पयो! जैसे घट, पट आ द जतने भी भौ तक पदाथ
ह, उनके आ द, अ त और म यम, बाहर और भीतर, उनके मूल कारण पृ वी, जल, वायु,
अ न तथा आकाश ही ओत ोत हो रहे ह, वैसे ही जतने भी पदाथ ह, उनके पहले, पीछे ,
बीचम, बाहर और भीतर केवल म-ही-म ँ ।।४६।। इसी कार सभी ा णय के शरीरम यही
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पाँच भूत कारण पसे थत ह और आ मा भो ाके पसे अथवा जीवके पसे थत है।
पर तु म इन दोन से परे अ वनाशी स य ँ। ये दोन मेरे ही अंदर तीत हो रहे ह, तुमलोग
ऐसा अनुभव करो ।।४७।।

अहं ह सवभूतानामा दर तोऽ तरं ब हः ।


भौ तकानां यथा खं वाभूवायु य तरंगनाः ।।४६

एवं ेता न भूता न भूते वा माऽऽ मना ततः ।


उभयं म यथ परे प यताभातम रे ।।४७
ीशुक उवाच
अ या म श या गो य एवं कृ णेन श ताः ।
तदनु मरण व तजीवकोशा तम यगन् ।।४८

आ ते न लननाभ पदार व दं
योगे रै द व च यमगाधबोधैः ।
संसारकूपप ततो रणावल बं
गेह ुषाम प मन यु दयात् सदा नः ।।४९
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान् ीकृ णने इस कार गो पय को
अ या म ानक श ासे श त कया। उसी उपदे शके बार-बार मरणसे गो पय का
जीवकोश— लगशरीर न हो गया और वे भगवान्से एक हो गय , भगवान्को ही सदा-
सवदाके लये ा त हो गय ।।४८।।
उ ह ने कहा—‘हे कमलनाभ! अगाधबोध-स प बड़े-बड़े योगे र अपने दयकमलम
आपके चरणकमल का च तन करते रहते ह। जो लोग संसारके कूएँम गरे ए ह, उ ह उससे
नकलनेके लये आपके चरणकमल ही एकमा अवल बन ह। भो! आप ऐसी कृपा
क जये क आपका वह चरणकमल, घर-गृह थके काम करते रहनेपर भी सदा-सवदा हमारे
दयम वराजमान रहे, हम एक णके लये भी उसे न भूल ।।४९।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध वृ णगोपसंगमो नाम
यशी ततमोऽ यायः ।।८२।।

१. शै ो धृ केतु का श०। २. य ाव तकादयः।

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अथ यशी ततमोऽ यायः
भगवान्क पटरा नय के साथ ौपद क बातचीत
ीशुक उवाच
तथानुगृ भगवान् गोपीनां स गु ग तः ।
यु ध रमथापृ छत् सवा सु दोऽ यम् ।।१
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान् ीकृ ण ही गो पय को श ा दे नेवाले ह
और वही उस श ाके ारा ा त होनेवाली व तु ह। इसके पहले, जैसा क वणन कया गया
है, भगवान् ीकृ णने उनपर महान् अनु ह कया। अब उ ह ने धमराज यु ध र तथा अ य
सम त स ब धय से कुशल-मंगल पूछा ।।१।। भगवान् ीकृ णके चरणकमल का दशन
करनेसे ही उनके सारे अशुभ न हो चुके थे। अब जब भगवान् ीकृ णने उनका स कार
कया, कुशल-मंगल पूछा, तब वे अ य त आन दत होकर उनसे कहने लगे— ।।२।।
‘भगवन्! बड़े बड़े महापु ष मन-ही-मन आपके चरणार व दका मकर द रस पान करते रहते
ह। कभी-कभी उनके मुखकमलसे लीला-कथाके पम वह रस छलक पड़ता है। भो! वह
इतना अद्भुत द रस है क कोई भी ाणी उसको पी ले तो वह ज म-मृ युके च करम
डालनेवाली व मृ त अथवा अ व ाको न कर दे ता है। उसी रसको जो लोग अपने कान के
दोन म भर-भरकर जी-भर पीते ह, उनके अमंगलक आशंका ही या है? ।।३।। भगवन्!
आप एकरस ान व प और अख ड आन दके समु ह। बु -वृ य के कारण होनेवाली
जा त्, व , सुषु त—ये तीन अव थाएँ आपके वयं काश व पतक प ँच ही नह
पात , रसे ही न हो जाती ह। आप परमहंस क एकमा ग त ह। समयके फेरसे वेद का
ास होते दे खकर उनक र ाके लये आपने अपनी अ च य योगमायाके ारा मनु यका-सा
शरीर हण कया है। हम आपके चरण म बार-बार नम कार करते ह’ ।।४।।

त एवं लोकनाथेन प रपृ ाः सुस कृताः ।


यूचु मनस त पादे ाहतांहसः ।।२

कुतोऽ शवं व चरणा बुजासवं


मह मन तो मुख नःसृतं व चत् ।
पब त ये कणपुटैरलं भो
दे ह भृतां दे हकृद मृ त छदम् ।।३

ह वाऽऽ मधाम वधुता मकृत यव थ-


मान दस लवमख डमकु ठबोधम् ।
कालोपसृ नगमावन आ योग-
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मायाकृ त परमहंसग त नताः म ।।४
ऋ ष वाच
इ यु म ोक शखाम ण जने-
व भ ु व व धककौरव यः ।
समे य गो व दकथा मथोऽगृणं-
लोकगीताः शृणु वणया म ते ।।५
ौप ुवाच
हे वैद य युतो भ े हे जा बव त कौसले ।
हे स यभामे का ल द शै ये रो ह ण ल मणे ।।६

हे कृ णप य एत ो ूत वो भगवान् वयम् ।
उपयेमे यथा लोकमनुकुवन् वमायया ।।७
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जस समय सरे लोग इस कार भगवान्
ीकृ णक तु त कर रहे थे, उसी समय यादव और कौरव-कुलक याँ एक होकर
आपसम भगवान्क भुवन- व यात लीला का वणन कर रही थ । अब म तु ह उ ह क
बात सुनाता ँ ।।५।।
ौपद ने कहा—हे मणी, भ े , हे जा बवती, स ये, हे स यभामे, का ल द , शै ,े
ल मणे, रो हणी और अ या य ीकृ णप नयो! तुमलोग हम यह तो बताओ क वयं
भगवान् ीकृ णने अपनी मायासे लोग का अनुकरण करते ए तुमलोग का कस कार
पा ण हण कया? ।।६-७।।
म युवाच
चै ाय माप यतुमु तकामुकेषु
राज वजेयभटशेख रताङ् रेणुः ।
न ये मृगे इव भागमजा वयूथात्
त नकेतचरणोऽ तु ममाचनाय ।।८
स यभामोवाच
यो मे सना भवधत त दा ततेन
ल ता भशापमपमा ु मुपाजहार ।
ज व राजमथ र नमदात् स तेन
भीतः पता दशत मां भवेऽ प द ाम् ।।९
जा बव युवाच

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ा ाय दे हकृदमुं नजनाथदे वं
सीताप त णवहा यमुना ययु यत् ।
ा वा परी त उपाहरदहणं मां
पादौ गृ म णनाहममु य दासी ।।१०
का ल ुवाच
तप र तीमा ाय वपाद पशनाशया ।
स योपे या हीत् पा ण योऽहं तद्गृहमाजनी ।।११
मणीजीने कहा— ौपद जी! जरास ध आ द सभी राजा चाहते थे क मेरा ववाह
शशुपालके साथ हो; इसके लये सभी श ा से सुस जत होकर यु के लये तैयार थे।
पर तु भगवान् मुझे वैसे ही हर लाये, जैसे सह बकरी और भेड़ के झुंडमसे अपना भाग छ न
ले जाय। य न हो—जगत्म जतने भी अजेय वीर ह, उनके मुकुट पर इ ह क चरणधू ल
शोभायमान होती है। ौपद जी! मेरी तो यही अ भलाषा है क भगवान्के वे ही सम त
स प और सौ दय के आ य चरणकमल ज म-ज म मुझे आराधना करनेके लये ा त
होते रहे, म उ ह क सेवाम लगी र ँ ।।८।।
स यभामाने कहा— ौपद जी! मेरे पताजी अपने भाई सेनक मृ युसे ब त ःखी हो
रहे थे, अतः उ ह ने उनके वधका कलंक भगवान्पर ही लगाया। उस कलंकको र करनेके
लये भगवान्ने ऋ राज जा बवान्पर वजय ा त क और वह र न लाकर मेरे पताको दे
दया। अब तो मेरे पताजी म या कलंक लगानेके कारण डर गये। अतः य ा प वे सरेको
मेरा वा दान कर चुके थे, फर भी उ ह ने मुझे यम तकम णके साथ भगवान्के चरण म ही
सम पत कर दया ।।९।।
जा बवतीने कहा— ौपद जी! मेरे पता ऋ राज जा बवान्को इस बातका पता न था
क यही मेरे वामी भगवान् सीताप त ह। इस लये वे इनसे स ाईस दनतक लड़ते रहे। पर तु
जब परी ा पूरी ई, उ ह ने जान लया क ये भगवान् राम ही ह, तब इनके चरणकमल
पकड़कर यम तकम णके साथ उपहारके पम मुझे सम पत कर दया। म यही चाहती ँ
क ज म-ज म इ ह क दासी बनी र ँ ।।१०।।
का ल द ने कहा— ौपद जी! जब भगवान्को यह मालूम आ क म उनके चरण का
पश करनेक आशा-अ भलाषासे तप या कर रही ँ, तब वे अपने सखा अजुनके साथ
यमुना-तटपर आये और मुझे वीकार कर लया। म उनका घर बुहारनेवाली उनक दासी
ँ ।।११।।
म व दोवाच
यो मां वयंवर उपे य व ज य भूपान्
न ये यूथग मवा मब ल पा रः ।
ातॄं मेऽपकु तः वपुरं यौक-
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त या तु मेऽनुभवमङ् यवनेजन वम् ।।१२
स योवाच
स तो णोऽ तबलवीयसुती णशृंगान्
प ा कृतान् तपवीयपरी णाय ।
तान् वीर मदहन तरसा नगृ
डन् बब ध ह यथा शशवोऽजतोकान् ।।१३

य इ थं वीयशु लां मां दासी भ तुरं गणीम् ।


प थ न ज य राज यान् न ये त ा यम तु मे ।।१४
भ ोवाच
पता मे मातुलेयाय वयमा य द वान् ।
कृ णे कृ णाय त च ाम ौ ह या सखीजनैः ।।१५

अ य मे पादसं पश भवे ज म न ज म न ।
कम भ ा यमाणाया येन त े य आ मनः ।।१६
ल मणोवाच
ममा प रा य युतज मकम
ु वा मु नारदगीतमास ह ।
च ं मुकु दे कल प ह तया
वृतः सुसंमृ य वहाय लोकपान् ।।१७
म व दाने कहा— ौपद जी! मेरा वयंवर हो रहा था। वहाँ आकर भगवान्ने सब
राजा को जीत लया और जैसे सह झुंड-के-झुंड कु मसे अपना भाग ले जाय, वैसे ही
मुझे अपनी शोभामयी ारका-पुरीम ले आये। मेरे भाइय ने भी मुझे भगवान्से छु ड़ाकर मेरा
अपकार करना चाहा, पर तु उ ह ने उ ह भी नीचा दखा दया। म ऐसा चाहती ँ क मुझे
ज म-ज म उनके पाँव पखारनेका सौभा य ा त होता रहे ।।१२।।
स याने कहा— ौपद जी! मेरे पताजीने मेरे वयंवरम आये ए राजा के बल-
पौ षक परी ाके लये बड़े बलवान् और परा मी, तीखे स गवाले सात बैल रख छोड़े थे।
उन बैल ने बड़े-बड़े वीर का घमंड चूर-चूर कर दया था। उ ह भगवान्ने खेल-खेलम ही
झपटकर पकड़ लया, नाथ लया और बाँध दया; ठ क वैसे ही, जैसे छोटे -छोटे ब चे
बकरीके ब च को पकड़ लेते ह ।।१३।। इस कार भगवान् बल-पौ षके ारा मुझे ा त
कर चतुरं गणी सेना और दा सय के साथ ारका ले आये। मागम जन य ने व न डाला,
उ ह जीत भी लया। मेरी यही अ भलाषा है क मुझे इनक सेवाका अवसर सदा-सवदा ा त
होता रहे ।।१४।।
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भ ाने कहा— ौपद जी! भगवान् मेरे मामाके पु ह। मेरा च इ ह के चरण म
अनुर हो गया था। जब मेरे पताजीको यह बात मालूम ई, तब उ ह ने वयं ही भगवान्को
बुलाकर अ ौ हणी सेना और ब त-सी दा सय के साथ मुझे इ ह के चरण म सम पत कर
दया ।।१५।। म अपना परम क याण इसीम समझती ँ क कमके अनुसार मुझे जहाँ-जहाँ
ज म लेना पड़े, सव इ ह के चरणकमल का सं पश ा त होता रहे ।।१६।।
ल मणाने कहा—रानीजी! दे व ष नारद बार-बार भगवान्के अवतार और लीला का
गान करते रहते थे। उसे सुनकर और यह सोचकर क ल मीजीने सम त लोकपाल का याग
करके भगवान्का ही वरण कया, मेरा च भगवान्के चरण म आस हो गया ।।१७।।

ा वा मम मतं सा व पता हतृव सलः ।


बृह सेन इ त यात त ोपायमचीकरत् ।।१८

यथा वयंवरे रा म यः पाथ सया कृतः ।


अयं तु ब हरा छ ो यते स जले परम् ।।१९

ु वैतत् सवतो भूपा आययुम पतुः पुरम् ।


सवा श त व ाः सोपा यायाः सह शः ।।२०

प ा स पू जताः सव यथावीय यथावयः ।


आद ः सशरं चापं वेदधु
् ं पष द म यः ।।२१

आदाय सृजन् के चत् स यं कतुमनी राः ।


आको ट यां समु कृ य पेतुरेकेऽमुना हताः ।।२२

स यं कृ वा परे वीरा मागधा ब चे दपाः ।


भीमो य धनः कण ना व दं तदव थ तम् ।।२३

म याभासं जले वी य ा वा च तदव थ तम् ।


पाथ य ोऽसृजद् बाणं ना छनत् प पृशे परम् ।।२४

राज येषु नवृ ेषु भ नमानेषु मा नषु ।


भगवान् धनुरादाय स यं कृ वाथ लीलया ।।२५

त मन् स धाय व शखं म यं वी य सकृ जले ।


छ वेषुणापातय ं सूय चा भ ज त थते ।।२६

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सा वी! मेरे पता बृह सेन मुझपर ब त ेम रखते थे। जब उ ह मेरा अ भ ाय मालूम
आ, तब उ ह ने मेरी इ छाक पू तके लये यह उपाय कया ।।१८।। महारानी! जस कार
पा डववीर अजुनक ा तके लये आपके पताने वयंवरम म यवेधका आयोजन कया
था, उसी कार मेरे पताने भी कया। आपके वयंवरक अपे ा हमारे यहाँ यह वशेषता थी
क म य बाहरसे ढका आ था, केवल जलम ही उसक परछा द ख पड़ती थी ।।१९।।
जब यह समाचार राजा को मला, तब सब ओरसे सम त अ -श के त व हजार
राजा अपने-अपने गु के साथ मेरे पताजीक राजधानीम आने लगे ।।२०।। मेरे पताजीने
आये ए सभी राजा का बल-पौ ष और अव थाके अनुसार भलीभाँ त वागत-स कार
कया। उन लोग ने मुझे ा त करनेक इ छासे वयंवर-सभाम रखे ए धनुष और बाण
उठाये ।।२१।। उनमसे कतने ही राजा तो धनुषपर ताँत भी न चढ़ा सके। उ ह ने धनुषको
य -का- य रख दया। कइय ने धनुषक डोरीको एक सरेसे बाँधकर सरे सरेतक ख च
तो लया, पर तु वे उसे सरे सरेसे बाँध न सके, उसका झटका लगनेसे गर पड़े ।।२२।।
रानीजी! बड़े-बड़े स वीर—जैसे जरास ध, अ ब नरेश, शशुपाल, भीमसेन, य धन
और कण—इन लोग ने धनुषपर डोरी तो चढ़ा ली; पर तु उ ह मछलीक थ तका पता न
चला ।।२३।। पा डववीर अजुनने जलम उस मछलीक परछा दे ख ली और यह भी जान
लया क वह कहाँ है। बड़ी सावधानीसे उ ह ने बाण छोड़ा भी; पर तु उससे ल यवेध न
आ, उनके बाणने केवल उसका पशमा कया ।।२४।।
रानीजी! इस कार बड़े-बड़े अ भमा नय का मान मदन हो गया। अ धकांश नरप तय ने
मुझे पानेक लालसा एवं साथ-ही-साथ ल यवेधक चे ा भी छोड़ द । तब भगवान्ने धनुष
उठाकर खेल-खेलम—अनायास ही उसपर डोरी चढ़ा द , बाण साधा और जलम केवल एक
बार मछलीक परछा दे खकर बाण मारा तथा उसे नीचे गरा दया। उस समय ठ क दोपहर
हो रहा था, सवाथसाधक ‘अ भ जत्’ नामक मु त बीत रहा था ।।२५-२६।। दे वीजी! उस
समय पृ वीम जय-जयकार होने लगा और आकाशम भयाँ बजने लग । बड़े-बड़े दे वता
आन द- व ल होकर पु प क वषा करने लगे ।।२७।। रानीजी! उसी समय मने रंगशालाम
वेश कया। मेरे पैर के पायजेब नझुन- नझुन बोल रहे थे। मने नये-नये उ म रेशमी व
धारण कर रखे थे। मेरी चो टय म मालाएँ गुँथी ई थ और मुँहपर ल जा म त मुसकराहट
थी। म अपने हाथ म र न का हार लये ए थी, जो बीच-बीचम लगे ए सोनेके कारण और
भी दमक रहा था। रानीजी! उस समय मेरा मुखम डल घनी घुँघराली अलक से सुशो भत हो
रहा था तथा कपोल पर कु डल क आभा पड़नेसे वह और भी दमक उठा था। मने एक बार
अपना मुख उठाकर च माक करण के समान सुशीतल हा यरेखा और तरछ चतवनसे
चार ओर बैठे ए राजा क और दे खा, फर धीरेसे अपनी वरमाला भगवान्के गलेम डाल
द । यह तो कह ही चुक ँ क मेरा दय पहलेसे ही भगवान्के त अनुर था ।।२८-२९।।
मने य ही वरमाला पहनायी य ही मृदंग, पखावज, शंख, ढोल, नगारे आ द बाजे बजने
लगे। नट और नत कयाँ नाचने लग । गवैये गाने लगे ।।३०।।

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दव भयो ने जयश दयुता भु व ।
दे वा कुसुमासारान् मुमुचुहष व लाः ।।२७

तद् रंगमा वशमहं कलनूपुरा यां


पद् यां गृ कनको वलर नमालाम् ।
नू ने नवीय प रधाय च कौ शका ये्
स ीडहासवदना कबरीधृत क् ।।२८

उ ीय व मु कु तलकु डल वड्
ग ड थलं श शरहासकटा मो ैः ।
रा ो नरी य प रतः शनकैमुरारे-
रंसेऽनुर दया नदधे वमालाम् ।।२९

ताव मृदंगपटहाः शंखभेयानकादयः ।


नने नटनत यो ननृतुगायका जगुः ।।३०

एवं वृते भगव त मयेशे१ नृपयूथपाः ।


न से हरे या से न पध तो छयातुराः ।।३१

मां तावद् रथमारो य हयर नचतु यम् ।


शा मु य स त थावाजौ चतुभुजः ।।३२

दा क ोदयामास कांचनोप करं रथम् ।


मषतां भूभुजां रा मृगाणां मृगरा डव ।।३३

् २ प थ केचन ।
तेऽ वस ज त राज या नषेदधु
संय ा उ ते वासा ाम सहा यथा ह रम् ।।३४
ौपद जी! जब मने इस कार अपने वामी यतम भगवान्को वरमाला पहना द , उ ह
वरण कर लया, तब कामातुर राजा को बड़ा डाह आ। वे ब त ही चढ़ गये ।।३१।।
चतुभुज भगवान्ने अपने े चार घोड़ वाले रथपर मुझे चढ़ा लया और हाथम शा धनुष
लेकर तथा कवच पहनकर यु करनेके लये वे रथपर खड़े हो गये ।।३२।। पर रानीजी!
दा कने सोनेके साज-सामानसे लदे ए रथको सब राजा के सामने ही ारकाके लये हाँक
दया, जैसे कोई सह ह रन के बीचसे अपना भाग ले जाय ।।३३।। उनमसे कुछ राजा ने
धनुष लेकर यु के लये सज-धजकर इस उ े यसे रा तेम पीछा कया क हम भगवान्को
रोक ल; पर तु रानीजी! उनक चे ा ठ क वैसी ही थी, जैसे कु े सहको रोकना
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चाह ।।३४।। शा धनुषके छू टे ए तीर से कसीक बाँह कट गयी तो कसीके पैर कटे और
कसीक गदन ही उतर गयी। ब त-से लोग तो उस रणभू मम ही सदाके लये सो गये और
ब त-से यु भू म छोड़कर भाग खड़े ए ।।३५।।

ते शा युतबाणौघैः कृ बा ङ् क धराः ।
नपेतुः धने के चदे के स य य वुः ।।३५

ततः पुर य प तर यलंकृतां


र व छद वजपट च तोरणाम् ।
कुश थल द व भु व चा भसं तुतां१
समा वश र ण रव वकेतनम् ।।३६

पता मे पूजयामास सु स ब धबा धवान् ।


महाहवासोऽलंकारैः श यासनप र छदै ः ।।३७

दासी भः सवस प भटे भरथवा ज भः ।


आयुधा न महाहा ण ददौ पूण य भ तः ।।३८

आ माराम य त येमा वयं वै गृहदा सकाः ।


सवसंग नवृ या ा तपसा च बभू वम ।।३९
म ह य ऊचुः
भौमं नह य सगणं यु ध तेन ा
ा वाथ नः तजये जतराजक याः ।
नमु य संसृ त वमो मनु मर तीः
पादा बुजं प र णनाय य आ तकामः ।।४०
तदन तर य वंश शरोम ण भगवान्ने सूयक भाँ त अपने नवास थान वग और पृ वीम
सव शं सत ारका-नगरीम वेश कया। उस दन वह वशेष पसे सजायी गयी थी।
इतनी इं डयाँ, पताकाएँ और तोरण लगाये गये थे क उनके कारण सूयका काश धरतीतक
नह आ पाता था ।।३६।। मेरी अ भलाषा पूण हो जानेसे पताजीको ब त स ता ई।
उ ह ने अपने हतैषी-सु द , सगे-स ब धय और भाई-ब धु को ब मू य व , आभूषण,
श या, आसन और व वध कारक साम याँ दे कर स मा नत कया ।।३७।। भगवान्
प रपूण ह—तथा प मेरे पताजीने ेमवश उ ह ब त-सी दा सयाँ, सब कारक स प याँ,
सै नक, हाथी, रथ, घोड़े एवं ब त-से ब मू य अ -श सम पत कये ।।३८।। रानीजी!
हमने पूवज मम सबक आस छोड़कर कोई ब त बड़ी तप या क होगी। तभी तो हम

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इस ज मम आ माराम भगवान्क गृह-दा सयाँ ई ह ।।३९।।
सोलह हजार प नय क ओरसे रो हणीजीने कहा—भौमासुरने द वजयके समय
ब त-से राजा को जीतकर उनक क या हमलोग को अपने महलम बंद बना रखा था।
भगवान्ने यह जानकर यु म भौमासुर और उसक सेनाका संहार कर डाला और वयं
पूणकाम होनेपर भी उ ह ने हमलोग को वहाँसे छु ड़ाया तथा पा ण हण करके अपनी दासी
बना लया। रानीजी! हम सदा-सवदा उनके उ ह चरणकमल का च तन करती रहती थ ,
जो ज म-मृ यु प संसारसे मु करनेवाले ह ।।४०।। सा वी ौपद जी! हम सा ा य,
इ पद अथवा इन दोन के भोग, अ णमा आ द ऐ य, ाका पद, मो अथवा सालो य,
सा य आ द मु याँ—कुछ भी नह चाहत । हम केवल इतना ही चाहती ह क अपने
यतम भुके सुकोमल चरणकमल क वह ीरज सवदा अपने सरपर वहन कया कर, जो
ल मीजीके व ः थलपर लगी ई केशरक सुग धसे यु है ।।४१-४२।। उदार शरोम ण
भगवान्के जन चरणकमल का पश उनके गौ चराते समय गोप, गो पयाँ, भी लन, तनके
और घास लताएँतक करना चाहती थ , उ ह क हम भी चाह है ।।४३।।

न वयं सा व सा ा यं वारा यं भौ यम युत ।


वैरा यं पारमे ं च आन यं वा हरेः पदम् ।।४१

कामयामह एत य ीम पादरजः यः ।
कुचकुंकुमग धा ं मू ना वोढुं गदाभृतः ।।४२

ज यो यद् वा छ त पु ल तृणवी धः ।
गाव ारयतो गोपाः पाद पश महा मनः ।।४३
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध
यशी ततमोऽ यायः ।।८३।।

१. मयेमे। २. नयोद्धुं।
१. स मतां।

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अथ चतुरशी ततमोऽ यायः
वसुदेवजीका य ो सव
ीशुक उवाच
ु वा पृथा सुबलपु यथ या सेनी
माध थ तपप य उत वगो यः ।
कृ णेऽ खला म न हरौ णयानुब धं
सवा व स युरलम ुकलाकुला यः ।।१
इ त स भाषमाणासु ी भः ीषु नृ भनृषु ।
आययुमुनय त कृ णराम द या ।।२
ै पायनो नारद यवनो दे वलोऽ सतः ।
व ा म ः शतान दो भर ाजोऽथ गौतमः ।।३
रामः स श यो भगवान् व स ो गालवो भृगुः ।
पुल यः क यपोऽ माक डेयो बृह प तः ।।४
त त ैकत पु ा तथां गराः ।
अग यो या व य वामदे वादयोऽपरे ।।५
तान् ् वा सहसो थाय ागासीना नृपादयः ।
पा डवाः कृ णरामौ च णेमु व व दतान् ।।६
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! सवा मा भ भयहारी भगवान् ीकृ णके त
उनक प नय का कतना ेम है—यह बात कु ती, गा धारी, ौपद , सुभ ा, सरी
राजप नय और भगवान्क यतमा गो पय ने भी सुनी। सब-क -सब उनका यह
अलौ कक ेम दे खकर अ य त मु ध, अ य त व मत हो गय । सबके ने म ेमके आँसू
छलक आये ।।१।। इस कार जस समय य से याँ और पु ष से पु ष बातचीत कर
रहे थे, उसी समय ब त-से ऋ ष-मु न भगवान् ीकृ ण और बलरामजीका दशन करनेके
लये वहाँ आये ।।२।। उनम धान ये थे— ीकृ ण ै पायन ास, दे व ष नारद, यवन,
दे वल, अ सत, व ा म , शतान द, भर ाज, गौतम, अपने श य के स हत भगवान्
परशुराम, व स , गालव, भृगु, पुल य, क यप, अ , माक डेय, बृह प त, त, त,
एकत, सनक, सन दन, सनातन, सन कुमार, अं गरा, अग य, या व य और वामदे व
इ या द ।।३-५।। ऋ षय को दे खकर पहलेसे बैठे ए नरप तगण, यु ध र आ द पा डव,
भगवान् ीकृ ण और बलरामजी सहसा उठकर खड़े हो गये और सबने उन व व दत
ऋ षय को णाम कया ।।६।।

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तानानचुयथा सव सहरामोऽ युतोऽचयत् ।
वागतासनपा ा यमा यधूपानुलेपनैः ।।७

उवाच सुखमासीनान् भगवान् धमगु तनुः ।


सदस त य महतो यतवाचोऽनुशृ वतः ।।८
ीभगवानुवाच
अहो वयं ज मभृतो ल धं का यन त फलम् ।
दे वानाम प ापं यद् योगे रदशनम् ।।९

क व पतपसां नॄणामचायां दे वच ुषाम् ।


दशन पशन पादाचना दकम् ।।१०

न मया न तीथा न न दे वा मृ छलामयाः ।


ते पुन यु कालेन दशनादे व साधवः ।।११

ना नन सूय न च च तारका
न भूजलं खं सनोऽथ वाङ् मनः ।
उपा सता भेदकृतो हर यघं
वप तो न त मु तसेवया ।।१२

य या मबु ः कुणपे धातुके


वधीः कल ा दषु भौम इ यधीः ।
य ीथबु ः स लले न क ह च-
जने व भ ेषु स एव गोखरः ।।१३
इसके बाद वागत, आसन, पा , अ य, पु पमाला, धूप और च दन आ दसे सब
राजा ने तथा बलरामजीके साथ वयं भगवान् ीकृ णने उन सब ऋ षय क व धपूवक
पूजा क ।।७।। जब सब ऋ ष-मु न आरामसे बैठ गये, तब धमर ाके लये अवतीण भगवान्
ीकृ णने उनसे कहा। उस समय वह ब त बड़ी सभा चुपचाप भगवान्का भाषण सुन रही
थी ।।८।।
भगवान् ीकृ णने कहा—ध य है! हमलोग का जीवन सफल हो गया, आज ज म
लेनेका हम पूरा-पूरा फल मल गया; य क जन योगे र का दशन बड़े-बड़े दे वता के
लये भी अ य त लभ है, उ ह का दशन हम ा त आ है ।।९।। ज ह ने ब त थोड़ी
तप या क है और जो लोग अपने इ दे वको सम त ा णय के दयम न दे खकर केवल
मू त वशेषम ही उनका दशन करते ह, उ ह आपलोग के दशन, पश, कुशल- , णाम
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और पादपूजन आ दका सुअवसर भला कब मल सकता है? ।।१०।।
केवल जलमय तीथ ही तीथ नह कहलाते और केवल म या प थरक तमाएँ ही
दे वता नह होत ; संत पु ष ही वा तवम तीथ और दे वता ह; य क उनका ब त समयतक
सेवन कया जाय, तब वे प व करते ह; परंतु संत पु ष तो दशनमा से ही कृताथ कर दे ते
ह ।।११।। अ न, सूय, च मा, तारे, पृ वी, जल, आकाश, वायु, वाणी और मनके अ ध ातृ-
दे वता उपासना करनेपर भी पापका पूरा-पूरा नाश नह कर सकते; य क उनक उपासनासे
भेद-बु का नाश नह होता, वह और भी बढ़ती है। पर तु य द घड़ी-दो-घड़ी भी ानी
महापु ष क सेवा क जाय तो वे सारे पाप-ताप मटा दे ते ह; य क वे भेद-बु के
वनाशक ह ।।१२।। महा माओ और सभासदो! जो मनु य वात, प और कफ—इन तीन
धातु से बने ए शवतु य शरीरको ही आ मा—अपना ‘म’, ी-पु आ दको ही अपना
और म , प थर, का आ द पा थव वकार को ही इ दे व मानता है तथा जो केवल जलको
ही तीथ समझता है— ानी महापु ष को नह , वह मनु य होनेपर भी पशु म भी नीच गधा
ही है ।।१३।।
ीशुक उवाच
नश ये थं भगवतः कृ ण याकु ठमेधसः ।
वचो र वयं व ा तू णीमासन् म यः ।।१४

चरं वमृ य मुनय ई र ये शत ताम् ।


जनसङ् ह इ यूचुः मय त तं जगद्गु म् ।।१५
मुनय ऊचुः
य मायया त व व मा वयं
वमो हता व सृजामधी राः ।
यद शत ाय त गूढ ईहया
अहो व च ं भगव चे तम् ।।१६

अनीह एतद् ब धैक आ मना


सृज यव य न ब यते यथा ।
भौमै ह भू मब नाम पणी
अहो वभू न रतं वड बनम् ।।१७

अथा प काले वजना भगु तये


बभ ष स वं खल न हाय च ।
वलीलया वेदपथं सनातनं
वणा मा मा पु षः परो भवान् ।।१८
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ते दयं शु लं तपः वा यायसंयमैः ।
य ोपल धं सद् म ं च ततः परम् ।।१९
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान् ीकृ ण अख ड ानस प ह। उनका
यह गूढ भाषण सुनकर सब-के-सब ऋ ष-मु न चुप रह गये। उनक बु च करम पड़ गयी,
वे समझ न सके क भगवान् यह या कह रहे ह ।।१४।। उ ह ने ब त दे रतक वचार करनेके
बाद यह न य कया क भगवान् सव र होनेपर भी जो इस कार सामा य, कम-परत
जीवक भाँ त वहार कर रहे ह—यह केवल लोकसं हके लये ही है। ऐसा समझकर वे
मुसकराते ए जगद्गु भगवान् ीकृ णसे कहने लगे ।।१५।।
मु नय ने कहा—भगवन्! आपक मायासे जाप तय के अधी र मरी च आ द तथा
बड़े-बड़े त व ानी हमलोग मो हत हो रहे ह। आप वयं ई र होते ए भी मनु यक -सी
चे ा से अपनेको छपाये रखकर जीवक भाँ त आचरण करते ह। भगवन्! सचमुच
आपक लीला अ य त व च है। परम आ यमयी है ।।१६।। जैसे पृ वी अपने वकार —
वृ , प थर, घट आ दके ारा ब त-से नाम और प हण कर लेती है, वा तवम वह एक
ही है, वैसे ही आप एक और चे ाहीन होनेपर भी अनेक प धारण कर लेते ह और अपने-
आपसे ही इस जगत्क रचना, र ा और संहार करते ह। पर यह सब करते ए भी इन
कम से ल त नह होते। जो सजातीय, वजातीय और वगत भेदशू य एकरस अन त है,
उसका यह च र लीलामा नह तो और या है? ध य है आपक यह लीला! ।।१७।।
भगवन्! य प आप कृ तसे परे, वयं पर परमा मा ह; तथा प समय-समयपर
भ जन क र ा और का दमन करनेके लये वशु स वमय ी व ह कट करते ह
और अपनी लीलाके ारा सनातन वै दक मागक र ा करते ह; य क सभी वण और
आ म के पम आप वयं ही कट ह ।।१८।। भगवन्! वेद आपका वशु दय है;
तप या, वा याय, धारणा, यान और समा धके ारा उसीम आपके साकार- नराकार प
और दोन के अ ध ान- व प पर परमा माका सा ा कार होता है ।।१९।। परमा मन्!
ा ण ही वेद के आधारभूत आपके व पक उपल धके थान ह; इसीसे आप ा ण का
स मान करते ह और इसीसे आप ा णभ म अ ग य भी ह ।।२०।। आप सव वध
क याण-साधन क चरमसीमा ह और संत पु ष क एकमा ग त ह। आपसे मलकर आज
हमारे ज म, व ा, तप और ान सफल हो गये। वा तवम सबके परम फल आप ही
ह ।।२१।। भो! आपका ान अन त है, आप वयं स चदान द व प पर परमा मा
भगवान् ह। आपने अपनी अ च य श योगमायाके ारा अपनी म हमा छपा रखी है, हम
आपको नम कार करते ह ।।२२।। ये सभाम बैठे ए राजालोग और सर क तो बात ही
या, वयं आपके साथ आहार- वहार करनेवाले य वंशी लोग भी आपको वा तवम नह
जानते; य क आपने अपने व पको—जो सबका आ मा, जगत्का आ दकारण और
नय ता है—मायाके परदे से ढक रखा है ।।२३।। जब मनु य व दे खने लगता है, उस समय
व के म या पदाथ को ही स य समझ लेता है और नाममा क इ य से तीत होनेवाले
अपने व शरीरको ही वा त वक शरीर मान बैठता है। उसे उतनी दे रके लये इस बातका
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बलकुल ही पता नह रहता क व शरीरके अ त र एक जा त्-अव थाका शरीर भी
है ।।२४।। ठ क इसी कार, जा त्-अव थाम भी इ य क वृ प मायासे च मो हत
होकर नाममा के वषय म भटकने लगता है। उस समय भी च के च करसे ववेकश
ढक जाती है और जीव यह नह जान पाता क आप इस जा त् संसारसे परे ह ।।२५।।
भो! बड़े-बड़े ऋ ष-मु न अ य त प रप व योग-साधनाके ारा आपके उन चरणकमल को
दयम धारण करते ह, जो सम त पाप-रा शको न करनेवाले गंगाजलके भी आ य- थान
ह। यह बड़े सौभा यक बात है क आज हम उ ह का दशन आ है। भो! हम आपके भ
ह, आप हमपर अनु ह क जये; य क आपके परम पदक ा त उ ह लोग को होती है,
जनका लगशरीर प जीव-कोश आपक उ कृ भ के ारा न हो जाता है ।।२६।।

त माद् कुलं न् शा योने वमा मनः ।


सभाजय स स ाम१ तद् या णीभवान् ।।२०

अ नो ज मसाफ यं व ाया तपसो शः ।


वया संग य सद्ग या यद तः य
े सां परः ।।२१

नम त मै भगवते कृ णायाकु ठमेधसे ।


वयोगमायया छ म ह ने परमा मने ।।२२

न यं वद यमी भूपा एकारामा वृ णयः ।


मायाजव नका छ मा मानं कालमी रम् ।।२३

यथा शयानः पु ष आ मानं गुणत व क् ।


नाममा े याभातं न वेद र हतं परम् ।।२४

एवं वा नाममा ेषु वषये व येहया ।


मायया व म च ो न वेद मृ युप लवात् ।।२५

त या ते द शमाङ् मघौघमष-
तीथा पदं द कृतं सु वप वयोगैः ।
उ स भ युपहताशयजीवकोशा
आपुभवद्ग तमथोऽनुगृहाण भ ान् ।।२६
ीशुक उवाच
इ यनु ा य दाशाह धृतरा ं यु ध रम् ।

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राजष वा मान् ग तुं मुनयो द धरे मनः ।।२७

तद् वी य तानुप य वसुदेवो महायशाः ।


ण य चोपसंगृ बभाषेदं सुय तः ।।२८
वसुदेव उवाच
नमो वः सवदे वे य ऋषयः ोतुमहथ ।
कमणा कम नहारो यथा या त यताम् ।।२९
नारद उवाच
ना त च मदं व ा वसुदेवो बुभु सया ।
कृ णं म वाभकं य ः पृ छ त ेय आ मनः ।।३०

स कष ह म यानामनादरणकारणम् ।
गा ं ह वा यथा या भ त यो या त शु ये ।।३१

य यानुभू तः कालेन लयो प या दना य वै ।


वतोऽ य मा च गुणतो न कुत न र य त ।।३२

तं लेशकमप रपाकगुण वाहै-


र ाहतानुभवमी रम तीयम् ।
ाणा द भः व वभवै पगूढम यो
म येत सूय मव मेघ हमोपरागैः ।।३३

अथोचुमुनयो राज ाभा यानक भम् ।


सवषां शृ वतां रा ां तथैवा युतरामयोः ।।३४

कमणा कम नहार एष साधु न पतः ।


य या यजेद ् व णुं सवय े रं मखैः ।।३५
ीशुकदे वजी कहते ह—राजष! भगवान्क इस कार तु त करके और उनसे, राजा
धृतरा से तथा धमराज यु ध रजीसे अनुम त लेकर उन लोग ने अपने-अपने आ मपर
जानेका वचार कया ।।२७।। परम यश वी वसुदेवजी उनका जानेका वचार दे खकर उनके
पास आये और उ ह णाम कया और उनके चरण पकड़कर बड़ी न तासे नवेदन करने
लगे ।।२८।।
वसुदेवजीने कहा—ऋ षयो! आपलोग सवदे व व प ह। म आपलोग को नम कार

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करता ।ँ आपलोग कृपा करके मेरी एक ाथना सुन ली जये। वह यह क जन कम के
अनु ानसे कम और कमवासना का आ य तक नाश—मो हो जाय, उनका आप मुझे
उपदे श क जये ।।२९।।
नारदजीने कहा—ऋ षयो! यह कोई आ यक बात नह है क वसुदेवजी ीकृ णको
अपना बालक समझकर शु ज ासाके भावसे अपने क याणका साधन हमलोग से पूछ
रहे ह ।।३०।। संसारम ब त पास रहना मनु य के अनादरका कारण आ करता है। दे खते ह,
गंगातटपर रहनेवाला पु ष गंगाजल छोड़कर अपनी शु के लये सरे तीथम जाता
है ।।३१।। ीकृ णक अनुभू त समयके फेरसे होनेवाली जगत्क सृ , थ त और लयसे
मटनेवाली नह है। वह वतः कसी सरे न म से, गुण से और कसीसे भी ीण नह
होती ।।३२।। उनका ानमय व प अ व ा, राग- े ष आ द लेश, पु य-पापमय कम,
सुख- ःखा द कमफल तथा स व आ द गुण के वाहसे ख डत नह है। वे वयं अ तीय
परमा मा ह। जब वे अपनेको अपनी ही श य — ाण आ दसे ढक लेते ह, तब मूखलोग
ऐसा समझते ह क वे ढक गये; जैसे बादल, कुहरा या हणके ारा अपने ने के ढक
जानेपर सूयको ढका आ मान लेते ह ।।३३।।
परी त्! इसके बाद ऋ षय ने भगवान् ीकृ ण, बलरामजी और अ या य राजा के
सामने ही वसुदेवजीको स बो धत करके कहा— ।।३४।। ‘कम के ारा कमवासना और
कमफल का आ य तक नाश करनेका सबसे अ छा उपाय यह है क य आ दके ारा
सम त य के अ धप त भगवान् व णुक ा-पूवक आराधना करे ।।३५।।

च योपशमोऽयं वै क व भः शा च ुषा ।
द शतः सुगमो योगो धम ा ममुदावहः ।।३६

अयं व ययनः प था जातेगृहमे धनः ।


य याऽऽ त व ेन१ शु लेने येत पू षः ।।३७

व ैषणां य दानैगृहैदारसुतैषणाम् ।
आ मलोकैषणां दे व कालेन वसृजेद ् बुधः ।
ामे य ै षणाः सव ययुध रा तपोवनम् ।।३८

ऋणै भ जो जातो दे व ष पतृणां भो ।


य ा ययनपु ै ता य न तीय यजन् पतेत् ।।३९

वं व मु ो ा यां वै ऋ ष प ोमहामते ।
य ैदवणमु मु य नऋणोऽशरणो भव ।।४०

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वसुदेव भवान् नूनं भ या परमया ह रम् ।
जगतामी रं ाचः स यद् वां पु तां गतः ।।४१
ीशुक उवाच
इ त त चनं ु वा वसुदेवो महामनाः ।
तानृषीनृ वजो व े मू नाऽऽन य२ सा च ।।४२

त एनमृषयो राजन् वृता धमण धा मकम् ।


त म याजयन् े े मखै मक पकैः ।।४३

त ायां वृ ायां वृ णयः पु कर जः ।


नाताः सुवाससो राजन् राजानः सु ् वलंकृताः ।।४४
कालदश ा नय ने शा से यही च क शा तका उपाय, सुगम मो साधन और
च म आन दका उ लास करनेवाला धम बतलाया है ।।३६।। अपने याया जत धनसे
ापूवक पु षो मभगवान्क आराधना करना ही जा त— ा ण, य और वै य
गृह थके लये परम क याणका माग है ।।३७।। वसुदेवजी! वचारवान् पु षको चा हये क
य , दान आ दके ारा धनक इ छाको, गृह थो चत भोग ारा ी-पु क इ छाको और
काल मसे वगा द भोग भी न हो जाते ह—इस वचारसे लोकैषणाको याग दे । इस कार
धीर पु ष घरम रहते ए ही तीन कारक एषणा —इ छा का प र याग करके
तपोवनका रा ता लया करते थे ।।३८।। समथ वसुदेवजी! ा ण, य और वै य—ये
तीन दे वता, ऋ ष और पतर का ऋण लेकर ही पैदा होते ह। इनके ऋण से छु टकारा मलता
है य , अ ययन और स तानो प से। इनसे उऋण ए बना ही जो संसारका याग करता
है, उसका पतन हो जाता है ।।३९।। परम बु मान् वसुदेवजी! आप अबतक ऋ ष और
पतर के ऋणसे तो मु हो चुके ह। अब य के ारा दे वता का ऋण चुका द जये; और
इस कार सबसे उऋण होकर गृह याग क जये, भगवान्क शरण हो जाइये ।।४०।।
वसुदेवजी! आपने अव य ही परम भ से जगद रभगवान्क आराधना क है; तभी तो वे
आप दोन के पु ए ह ।।४१।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! परम मन वी वसुदेवजीने ऋ षय क यह बात
सुनकर, उनके चरण म सर रखकर णाम कया, उ ह स कया और य के लये
ऋ वज के पम उनका वरण कर लया ।।४२।। राजन्! जब इस कार वसुदेवजीने
धमपूवक ऋ षय को वरण कर लया, तब उ ह ने पु य े कु े म परम धा मक
वसुदेवजीके ारा उ मो म साम ीसे यु य करवाये ।।४३।। परी त्! जब वसुदेवजीने
य क द ा ले ली, तब य वं शय ने नान करके सु दर व और कमल क मालाएँ धारण
कर ल , राजालोग व ाभूषण से खूब सुस जत हो गये ।।४४।। वसुदेवजीक प नय ने
सु दर व , अंगराग और सोनेके हार से अपनेको सजा लया और फर वे सब बड़े आन दसे
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अपने-अपने हाथ म मांग लक साम ी लेकर य शालाम आय ।।४५।।

त म ह य मु दता न कक ः सुवाससः ।
द ाशालामुपाज मुरा ल ता व तुपाणयः ।।४५

ने मृदं गपटहशंखभेयानकादयः ।
ननृतुनटनत य तु ु वुः सूतमागधाः ।
जगुः सुक ो ग ध ः संगीतं सहभतृकाः ।।४६

तम य षचन् व धवद म य मृ वजः ।


प नी भर ादश भः सोमराज मवोडु भः ।।४७

ता भ कूलवलयैहारनूपुरकु डलैः ।
वलंकृता भ वबभौ द तोऽ जनसंवृतः ।।४८

त य वजो महाराज र नकौशेयवाससः ।


ससद या वरेजु ते यथा वृ हणोऽ वरे ।।४९

तदा राम कृ ण वैः वैब धु भर वतौ ।


रेजतुः वसुतैदारैज वेशौ व वभू त भः ।।५०

ईजेऽनुय ं व धना अ नहो ा दल णैः ।


ाकृतैवकृतैय ै ान ये रम् ।।५१

अथ व योऽददात् काले यथा नातं स द णाः ।


वलंकृते योऽलंकृ य गोभूक या महाधनाः ।।५२
उस समय मृदंग, पखावज, शंख, ढोल और नगारे आ द बाजे बजने लगे। नट और
नत कयाँ नाचने लग । सूत और मागध तु तगान करने लगे। ग धव के साथ सुरीले गलेवाली
ग धवप नयाँ गान करने लग ।।४६।। वसुदेवजीने पहले ने म अंजन और शरीरम म खन
लगा लया; फर उनक दे वक आ द अठारह प नय के साथ उ ह ऋ वज ने महा भषेकक
व धसे वैसे ही अ भषेक कराया, जस कार ाचीन कालम न के साथ च माका
अ भषेक आ था ।।४७।। उस समय य म द त होनेके कारण वसुदेवजी तो मृगचम
धारण कये ए थे; पर तु उनक प नयाँ सु दर-सु दर साड़ी, कंगन, हार, पायजेब और
कणफूल आ द आभूषण से खूब सजी ई थ । वे अपनी प नय के साथ भलीभाँ त
शोभायमान ए ।।४८।। महाराज! वसुदेवजीके ऋ वज् और सद य र नज टत आभूषण
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तथा रेशमी व धारण करके वैसे ही सुशो भत ए, जैसे पहले इ के य म ए थे ।।४९।।
उस समय भगवान् ीकृ ण और बलरामजी अपने-अपने भाई-ब धु और ी-पु के साथ
इस कार शोभायमान ए, जैसे अपनी श य के साथ सम त जीव के ई र वयं भगवान्
सम जीव के अ भमानी ीसंकषण तथा अपने वशु नारायण व पम शोभायमान होते
ह ।।५०।।
वसुदेवजीने येक य म यो त ोम, दश, पूणमास आ द ाकृत य , सौरस ा द
वैकृत य और अ नहो आ द अ या य य के ारा , या और उनके ानके—
म के वामी व णु-भगवान्क आराधना क ।।५१।। इसके बाद उ ह ने उ चत समयपर
ऋ वज को व ालंकार से सुस जत कया और शा के अनुसार ब त-सी द णा तथा
चुर धनके साथ अलंकृत गौएँ, पृ वी और सु दरी क याएँ द ।।५२।।

प नीसंयाजावभृ यै र वा ते महषयः ।
स नू राम दे व ा यजमानपुरःसराः ।।५३

नातोऽलंकारवासां स व द योऽदा था यः ।
ततः वलंकृतो वणाना योऽ ेन पूजयत् ।।५४

ब धून् सदारान् ससुतान् पा रबहण भूयसा ।


वदभकोसलकु न् का शकेकयसृंजयान् ।।५५

सद य व सुरगणान् नृभूत पतृचारणान् ।


ी नकेतमनु ा य शंस तः ययुः तुम् ।।५६

धृतरा ोऽनुजः पाथा भी मो ोणः पृथा यमौ ।


नारदो भगवान् ासः सु स ब धबा धवाः ।।५७

ब धून् प र व य य न् सौ दात् ल चेतसः ।


ययु वरहकृ े ण वदे शां ापरे जनाः ।।५८

न द तु सह गोपालैबृह या पूजया चतः ।


कृ णरामो सेना ै यवा सीद् ब धुव सलः ।।५९

वसुदेवोऽ सो ीय मनोरथमहाणवम् ।
सु द्वृतः ीतमना न दमाह करे पृशन् ।।६०
वसुदेव उवाच
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ातरीशकृतः पाशो नृणां यः नेहसं तः ।
तं यजमहं म ये शूराणाम प यो गनाम् ।।६१
इसके बाद मह षय ने प नीसंयाज नामक य ांग और अवभृथ नान अथात् य ा त-
नानस ब धी अवशेष कम कराकर वसुदेवजीको आगे करके परशुरामजीके बनाये दम—
राम दम नान कया ।।५३।। नान करनेके बाद वसुदेवजी और उनक प नय ने वंद -
जन को अपने सारे व ाभूषण दे दये तथा वयं नये व ाभूषणसे सुस जत होकर उ ह ने
ा ण से लेकर कु तकको भोजन कराया ।।५४।। तदन तर अपने भाई-ब धु , उनके
ी-पु तथा वदभ, कोसल, कु , काशी, केकय और सृंजय आ द दे श के राजा ,
सद य , ऋ वज , दे वता , मनु य , भूत , पतर और चारण को वदाईके पम ब त-सी
भट दे कर स मा नत कया। वे लोग ल मीप त भगवान् ीकृ णक अनुम त लेकर य क
शंसा करते ए अपने-अपने घर चले गये ।।५५-५६।। परी त्! उस समय राजा धृतरा ,
व र, यु ध र, भीम, अजुन, भी म पतामह, ोणाचाय, कु ती, नकुल, सहदे व, नारद,
भगवान् ासदे व तथा सरे वजन, स ब धी और बा धव अपने हतैषी ब धु यादव को
छोड़कर जानेम अ य त वरह- थाका अनुभव करने लगे। उ ह ने अ य त नेहा च से
य वं शय का आ लगन कया और बड़ी क ठनाईसे कसी कार अपने-अपने दे शको गये।
सरे लोग भी इनके साथ ही वहाँसे रवाना हो गये ।।५७-५८।। परी त्! भगवान् ीकृ ण,
बलरामजी तथा उ सेन आ दने न दबाबा एवं अ य सब गोप क ब त बड़ी-बड़ी साम य से
अचा-पूजा क ; उनका स कार कया; और वे ेम-परवश होकर ब त दन तक वह
रहे ।।५९।। वसुदेवजी अनायास ही अपने ब त बड़े मनोरथका महासागर पार कर गये थे।
उनके आन दक सीमा न थी। सभी आ मीय वजन उनके साथ थे। उ ह ने न दबाबाका हाथ
पकड़कर कहा ।।६०।।
वसुदेवजीने कहा—भाईजी! भगवान्ने मनु य के लये एक ब त बड़ा ब धन बना दया
है। उस ब धनका नाम है नेह, ेमपाश। म तो ऐसा समझता ँ क बड़े-बड़े शूरवीर और
योगी-य त भी उसे तोड़नेम असमथ ह ।।६१।।

अ मा व तक पेयं यत् कृता ेषु स मैः ।


मै य पताफला वा प न नवतत क ह चत् ।।६२

ागक पा च कुशलं ातव नाचराम ह ।


अधुना ीमदा धा ा न प यामः पुरः सतः ।।६३

मा रा य ीरभूत् पुंसः ेय काम य मानद ।


वजनानुत ब धून् वा न प य त यया ध क् ।।६४
ीशुक उवाच

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एवं सौ दशै थ य च आनक भः ।
रोद त कृतां मै मर ु वलोचनः ।।६५

न द तु स युः यकृत् े णा गो व दरामयोः ।


अ इ त मासां ीन् य भमा नतोऽवसत् ।।६६

ततः कामैः पूयमाणः स जः सहबा धवः ।


परा याभरण ौमनानान यप र छदै ः ।।६७

वसुदेवो सेना यां कृ णो वबला द भः ।


द मादाय पा रबह या पतो य भययौ ।।६८

न दो गोपा गो य गो व दचरणा बुजे ।


मनः तं पुनहतुमनीशा मथुरां ययुः ।।६९
आपने हम अकृत के त अनुपम म ताका वहार कया है। य न हो, आप-
सरीखे संत शरोम णय का तो ऐसा वभाव ही होता है। हम इसका कभी बदला नह चुका
सकते, आपको इसका कोई फल नह दे सकते। फर भी हमारा यह मै ी-स ब ध कभी
टू टनेवाला नह है। आप इसको सदा नभाते रहगे ।।६२।। भाईजी! पहले तो बंद गृहम बंद
होनेके कारण हम आपका कुछ भी य और हत न कर सके। अब हमारी यह दशा हो रही
है क हम धन-स प के नशेस— े ीमदसे अंधे हो रहे ह; आप हमारे सामने ह तो भी हम
आपक ओर नह दे ख पाते ।।६३।। सर को स मान दे कर वयं स मान न चाहनेवाले
भाईजी! जो क याणकामी है उसे रा यल मी न मले—इसीम उसका भला है; य क
मनु य रा यल मीसे अंधा हो जाता है और अपने भाई-ब धु, वजन तकको नह दे ख
पाता ।।६४।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! इस कार कहते-कहते वसुदेवजीका दय ेमसे
गद्गद हो गया। उ ह न दबाबाक म ता और उपकार मरण हो आये। उनके ने म ेमा ु
उमड़ आये, वे रोने लगे ।।६५।। न दजी अपने सखा वसुदेवजीको स करनेके लये एवं
भगवान् ीकृ ण और बलरामजीके ेमपाशम बँधकर आज-कल करते-करते तीन महीनेतक
वह रह गये। य वं शय ने जीभर उनका स मान कया ।।६६।। इसके बाद ब मू य
आभूषण, रेशमी व , नाना कारक उ मो म साम य और भोग से न दबाबाको, उनके
जवासी सा थय को और ब धु-बा धव को खूब तृ त कया ।।६७।। वसुदेवजी, उ सेन,
ीकृ ण, बलराम, उ व आ द य वं शय ने अलग-अलग उ ह अनेक कारक भट द ।
उनके वदा करनेपर उन सब साम य को लेकर न दबाबा, अपने जके लये रवाना
ए ।।६८।। न दबाबा, गोप और गो पय का च भगवान् ीकृ णके चरण-कमल म इस
कार लग गया क वे फर य न करनेपर भी उसे वहाँसे लौटा न सके। सुतरां बना ही
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मनके उ ह ने मथुराक या ा क ।।६९।।

ब धुषु तयातेषु वृ णयः कृ णदे वताः ।


वी य ावृषमास ां ययु ारवत पुनः ।।७०

जने यः कथयांच ु य दे वमहो सवम् ।


यदासी ीथया ायां सु स दशना दकम् ।।७१
जब सब ब धु-बा धव वहाँसे वदा हो चुके, तब भगवान् ीकृ णको ही एकमा इ दे व
मानने-वाले य वं शय ने यह दे खकर क अब वषा ऋतु आ प ँची है, ारकाके लये थान
कया ।।७०।। वहाँ जाकर उ ह ने सब लोग से वसुदेवजीके य महो सव, वजन-
स ब धय के दशन- मलन आ द तीथया ाके संग को कह सुनाया ।।७१।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध तीथया ानुवणनं नाम
चतुरशी ततमोऽ यायः ।।८४।।

१. यः सवा त माद् ा ०।
१. च े०। २. न योपस य च।

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अथ प चाशी ततमोऽ यायः
ीभगवान्के ारा वसुदेवजीको ानका उपदे श तथा दे वक जीके छः
पु को लौटा लाना
ीबादराय ण वाच
अथैकदाऽऽ मजौ ा तौ कृतपादा भव दनौ ।
वसुदेवोऽ भन ाह ी या संकषणा युतौ ।।१

मुनीनां स वचः ु वा पु योधामसूचकम् ।


त यजात व भः प रभा या यभाषत ।।२

कृ ण कृ ण महायो गन् संकषण सनातन ।


जाने वाम य यत् सा ात् धानपु षौ परौ ।।३

य येन यतो य य य मै यद् यद् यथा यदा ।


या ददं भगवान् सा ात् धानपु षे रः ।।४
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! इसके बाद एक दन भगवान् ीकृ ण और
बलरामजी ातःकालीन णाम करनेके लये माता- पताके पास गये। णाम कर लेनेपर
वसुदेवजी बड़े ेमसे दोन भाइय का अ भन दन करके कहने लगे ।।१।। वसुदेवजीने बड़े-
बड़े ऋ षय के मुँहसे भगवान्क म हमा सुनी थी तथा उनके ऐ यपूण च र भी दे खे थे।
इससे उ ह इस बातका ढ़ व ास हो गया था क ये साधारण पु ष नह , वयं भगवान् ह।
इस लये उ ह ने अपने पु को ेमपूवक स बो धत करके य कहा— ।।२।।
‘स चदान द व प ीकृ ण! महायोगी र संकषण! तुम दोन सनातन हो। म जानता ँ क
तुम दोन सारे जगत्के सा ात् कारण व प धान और पु षके भी नयामक परमे र
हो ।।३।। इस जगत्के आधार, नमाता और नमाणसाम ी भी तु ह हो। इस सारे जगत्के
वामी तुम दोन हो और तु हारी ही डाके लये इसका नमाण आ है। यह जस समय,
जस पम जो कुछ रहता है, होता है—वह सब तु ह हो। इस जगत्म कृ त- पसे भो य
और पु ष पसे भो ा तथा दोन से परे दोन के नयामक सा ात् भगवान् भी तु ह
हो ।।४।।

एत ाना वधं व मा मसृ मधो ज ।


आ मनानु व या मन् ाणो जीवो बभ यजः ।।५

ाणाद नां व सृजां श यो याः पर य ताः ।


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पारत याद् वैसा याद् यो े ैव चे ताम् ।।६

का त तेजः भा स ा च ा यक व ुताम् ।
यत् थैय भूभृतां भूमेवृ ग धोऽथतो भवान् ।।७

तपणं ाणनमपां दे व वं ता त सः ।
ओजः सहो बलं चे ा ग तवायो तवे र ।।८

दशां वमवकाशोऽ स दशः खं फोट आ यः ।


नादो वण वम कार आकृतीनां पृथ कृ तः ।।९

इ यं व याणां वं दे वा तदनु हः ।

अवबोधो भवान् बु े ज व यानु मृ तः सती ।।१०

भूतानाम स भूता द र याणां च तैजसः ।


वैका रको वक पानां धानमनुशा यनाम् ।।११

न रे वह भावेषु तद स वमन रम् ।


यथा वकारेषु मा ं न पतम् ।।१२
इ यातीत! ज म, अ त व आ द भाव वकार से र हत परमा मन्! इस च - व च
जगत्का तु ह ने नमाण कया है और इसम वयं तुमने ही आ मा पसे वेश भी कया है।
तुम ाण ( याश ) और जीव ( ानश ) के पम इसका पालन-पोषण कर रहे
हो ।।५।। याश धान ाण आ दम जो जगत्क व तु क सृ करनेक साम य है,
वह उनक अपनी साम य नह , तु हारी ही है। य क वे तु हारे समान चेतन नह , अचेतन ह;
वत नह , परत ह। अतः उन चे ाशील ाण आ दम केवल चे ामा होती है, श
नह । श तो तु हारी है ।।६।। भो! च माक का त, अ नका तेज, सूयक भा, न
और व ुत् आ दक फुरण पसे स ा, पवत क थरता, पृ वीक साधारणश प वृ
और ग ध प गुण—ये सब वा तवम तु ह हो ।।७।। परमे र! जलम तृ त करने, जीवन दे ने
और शु करनेक जो श याँ ह, वे तु हारा ही व प ह। जल और उसका रस भी तु ह
हो। भो! इ यश , अ तःकरणक श , शरीरक श , उसका हलना-डोलना,
चलना- फरना—ये सब वायुक श याँ तु हारी ही ह ।।८।। दशाएँ और उनके अवकाश भी
तु ह हो। आकाश और उसका आ यभूत फोट—श दत मा ा या परा वाणी, नाद—
प य ती, कार—म यमा तथा वण (अ र) एवं पदाथ का अलग-अलग नदश करनेवाले
पद, प, वैखरी वाणी भी तु ह हो ।।९।। इ याँ, उनक वषय का शनी श और
अ ध ातृ-दे वता तु ह हो! बु क न या मका श और जीवक वशु मृ त भी तु ह
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हो ।।१०।। भूत म उनका कारण तामस अहंकार, इ य म उनका कारण तैजस अहंकार
और इ य के अ ध ातृ-दे वता म उनका कारण सा वक अहंकार तथा जीव के
आवागमनका कारण माया भी तु ह हो ।।११।। भगवन्! जैसे म आ द व तु के वकार
घड़ा, वृ आ दम म नर तर वतमान है और वा तवम वे कारण (मृ का) प ही ह—
उसी कार जतने भी वनाशवान् पदाथ ह, उनम तुम कारण पसे अ वनाशी त व हो।
वा तवम वे सब तु हारे ही व प ह ।।१२।।

स वं रज तम इ त गुणा तद्वृ य याः ।


वय ा ण परे क पता योगमायया ।।१३

त मा स यमी भावा य ह व य वक पताः ।


वं चामीषु वकारेषु यदा ावहा रकः ।।१४

गुण वाह एत म बुधा व खला मनः ।


ग त सू मामबोधेन संसर तीह कम भः ।।१५

य छया नृतां ा य सुक पा मह लभाम् ।


वाथ म य वयो गतं व मायये र ।।१६

असावहं ममैवैते दे हे चा या वया दषु ।


नेहपाशै नब ना त भवान् सव मदं जगत् ।।१७

युवां न नः सुतौ सा ात् धानपु षे रौ ।


भूभार पण अवतीण तथाऽऽ थ ह ।।१८

त े गतोऽ यरणम पदार व द-


माप संसृ तभयापहमातब धो ।
एतावतालमल म यलालसेन
म या म क् व य परे यदप यबु ः ।।१९

सूतीगृहे ननु जगाद भवानजो नौ


संज इ यनुयुगं नजधमगु यै ।
भो! स व, रज, तम—ये तीन गुण और उनक वृ याँ (प रणाम)—मह वा द
पर परमा माम, तुमम योगमायाके ारा क पत ह ।।१३।। इस लये ये जतने भी ज म,
अ त, वृ , प रणाम आ द भाव- वकार ह, वे तुमम सवथा नह ह। जब तुमम इनक

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क पना कर ली जाती है, तब तुम इन वकार म अनुगत जान पड़ते हो। क पनाक नवृ
हो जानेपर तो न वक प परमाथ व प तु ह तुम रह जाते हो ।।१४।। यह जगत् स व, रज,
तम—इन तीन गुण का वाह है; दे ह, इ य, अ तःकरण, सुख, ःख और राग-लोभा द
उ ह के काय ह। इनम जो अ ानी तु हारा, सवा माका सू म व प नह जानते, वे अपने
दे हा भमान प अ ानके कारण ही कम के फंदे म फँसकर बार-बार ज म-मृ युके च करम
भटकते रहते ह ।।१५।। परमे र! मुझे शुभ ार धके अनुसार इ या दक साम यसे यु
अ य त लभ मनु य-शरीर ा त आ। क तु तु हारी मायाके वश होकर म अपने स चे
वाथ-परमाथसे ही असावधान हो गया और मेरी सारी आयु य ही बीत गयी ।।१६।। भो!
यह शरीर म ँ और इस शरीरके स ब धी मेरे अपने ह, इस अहंता एवं ममता प नेहक
फाँसीसे तुमने इस सारे जगत्को बाँध रखा है ।।१७।। म जानता ँ क तुम दोन मेरे पु नह
हो, स पूण कृ त और जीव के वामी हो। पृ वीके भारभूत राजा के नाशके लये ही तुमने
अवतार हण कया है। यह बात तुमने मुझसे कही भी थी ।।१८।। इस लये द नजन के
हतैषी, शरणागतव सल! म अब तु हारे चरणकमल क शरणम ;ँ य क वे ही
शरणागत के संसारभयको मटानेवाले ह। अब इ य क लोलुपतासे भर पाया! इसीके
कारण मने मृ युके ास इस शरीरम आ मबु कर ली और तुमम, जो क परमा मा हो,
पु बु ।।१९।। भो! तुमने सव-गृहम ही हमसे कहा था क ‘य प म अज मा ँ, फर
भी म अपनी ही बनायी ई धम-मयादाक र ा करनेके लये येक युगम तुम दोन के ारा
अवतार हण करता रहा ँ।’ भगवन्! तुम आकाशके समान अनेक शरीर हण करते और
छोड़ते रहते हो। वा तवम तुम अन त, एकरस स ा हो। तु हारी आ यमयी श
योगमायाका रह य भला कौन जान सकता है? सब लोग तु हारी क तका ही गान करते रहते
ह ।।२०।।

नानातनूगगनवद् वदध जहा स


को वेद भू न उ गाय वभू तमायाम् ।।२०
ीशुक उवाच
आक य थं पतुवा यं भगवान् सा वतषभः ।
याह यान ः हस णया गरा ।।२१
ीभगवानुवाच
वचो वः समवेताथ तातैत पम महे ।
य ः पु ान् समु य त व ाम उदा तः ।।२२

अहं यूयमसावाय१ इमे च ारकौकसः ।


सवऽ येवं य े वमृ याः सचराचरम् ।।२३

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आ मा ेकः वयं यो त न योऽ यो नगुणो गुणैः ।
आ मसृ ै त कृतेषु भूतेषु ब धेयते ।।२४

खं वायु य तरापो भू त कृतेषु यथाशयम् ।


आ व तरोऽ पभूयको नाना वं या यसाव प ।।२५
ीशुक उवाच
एवं भगवता राजन् वसुदेव उदा तम् ।
ु वा वन नानाधी तू ण ीतमना अभूत् ।।२६

अथ त कु े दे वक सवदे वता ।
ु वाऽऽनीतं गुरोः पु मा मजा यां सु व मता ।।२७
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! वसुदेवजीके ये वचन सुनकर य वंश शरोम ण
भ व सल भगवान् ीकृ ण मुसकराने लगे। उ ह ने वनयसे झुककर मधुर वाणीसे
कहा ।।२१।।
भगवान् ीकृ णने कहा— पताजी! हम तो आपके पु ही ह। हम ल य करके आपने
यह ानका उपदे श कया है। हम आपक एक-एक बात यु यु मानते ह ।।२२।।
पताजी! आपलोग, म, भैया बलरामजी, सारे ारकावासी, स पूण चराचर जगत्—सब-के-
सब आपने जैसा कहा, वैसे ही ह, सबको प ही समझना चा हये ।।२३।। पताजी!
आ मा तो एक ही है। पर तु वह अपनेम ही गुण क सृ कर लेता है और गुण के ारा
बनाये ए पंचभूत म एक होनेपर भी अनेक, वयं काश होनेपर भी य, अपना व प
होनेपर भी अपनेसे भ , न य होनेपर भी अ न य और नगुण होनेपर भी सगुणके पम
तीत होता है ।।२४।। जैसे आकाश, वायु, अ न, जल और पृ वी—ये पंचमहाभूत अपने
काय घट, कु डल आ दम कट-अ कट, बड़े-छोटे , अ धक-थोड़े, एक और अनेक-से तीत
होते ह—पर तु वा तवम स ा पसे वे एक ही रहते ह; वैसे ही आ माम भी उपा धय के
भेदसे ही नाना वक ती त होती है। इस लये जो म ँ, वही सब ह—इस से आपका
कहना ठ क ही है ।।२५।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान् ीकृ णके इन वचन को सुनकर
वसुदेवजीने नाना व-बु छोड़ द ; वे आन दम म न होकर वाणीसे मौन और मनसे
न संक प हो गये ।।२६।। कु े ! उस समय वहाँ सवदे वमयी दे वक जी भी बैठ ई थ ।
वे ब त पहलेसे ही यह सुनकर अ य त व मत थ क ीकृ ण और बलरामजीने अपने मरे
ए गु पु को यमलोकसे वापस ला दया ।।२७।। अब उ ह अपने उन पु क याद आ गयी,
ज ह कंसने मार डाला था। उनके मरणसे दे वक जीका दय आतुर हो गया, ने से आँसू
बहने लगे। उ ह ने बड़े ही क ण वरसे ीकृ ण और बलरामजीको स बो धत करके
कहा ।।२८।।
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कृ णरामौ समा ा पु ान् कंस व ह सतान् ।
मर ती कृपणं ाह वै ल ाद ुलोचना ।।२८
दे व युवाच
राम रामा मेया मन् कृ ण योगे रे र ।
वेदाहं वां व सृजामी रावा दपू षौ ।।२९

काल व व तस वानां रा ामु छा व तनाम् ।


भूमेभारायमाणानामवतीण कला मे ।।३०

य यांशांशांशभागेन व ो प लयोदयाः ।
भव त कल व ा मं तं वा ाहं ग त गता ।।३१

चरा मृतसुतादाने गु णा कालचो दतौ ।


आ न यथुः पतृ थानाद् गुरवे गु द णाम् ।।३२

तथा मे कु तं कामं युवां योगे रे रौ ।


भोजराजहतान् पु ान् कामये ु मा तान् ।।३३
ऋ ष वाच
एवं संचो दतौ मा ा रामः कृ ण भारत ।
सुतलं सं व वशतुय गमायामुपा तौ ।।३४

त मन् व ावुपल य दै यराड्


व ा मदै वं सुतरां तथाऽऽ मनः ।
त शना ादप र लुताशयः
स ः समु थाय ननाम सा वयः ।।३५
दे वक जीने कहा—लोका भराम राम! तु हारी श मन और वाणीके परे है। ीकृ ण!
तुम योगे र के भी ई र हो। म जानती ँ क तुम दोन जाप तय के भी ई र, आ दपु ष
नारायण हो ।।२९।। यह भी मुझे न त पसे मालूम है क जन लोग ने काल मसे अपना
धैय, संयम और स वगुण खो दया है तथा शा क आ ा का उ लंघन करके जो
वे छाचारपरायण हो रहे ह, भू मके भारभूत उन राजा का नाश करनेके लये ही तुम दोन
मेरे गभसे अवतीण ए हो ।।३०।।
व ा मन्! तु हारे पु ष प अंशसे उ प ई मायासे गुण क उ प होती है और
उनके लेशमा से जगत्क उ प , वकास तथा लय होता है। आज म सवा तःकरणसे

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तु हारी शरण हो रही ँ ।।३१।। मने सुना है क तु हारे गु सा द प नजीके पु को मरे ब त
दन हो गये थे। उनको गु द णा दे नेके लये उनक आ ा तथा कालक ेरणासे तुम दोन ने
उनके पु को यमपुरीसे वापस ला दया ।।३२।। तुम दोन योगी र के भी ई र हो। इस लये
आज मेरी भी अ भलाषा पूण करो। म चाहती ँ क तुम दोन मेरे उन पु को, ज ह कंसने
मार डाला था, ला दो और उ ह म भर आँख दे ख लूँ ।।३३।।
ीशुकदे वजी कहते ह— य परी त्! माता दे वक जीक यह बात सुनकर भगवान्
ीकृ ण और बलराम दोन ने योगमायाका आ य लेकर सुतल लोकम वेश कया ।।३४।।
जब दै यराज ब लने दे खा क जगत्के आ मा और इ दे व तथा मेरे परम वामी भगवान्
ीकृ ण और बलरामजी सुतल लोकम पधारे ह, तब उनका दय उनके दशनके आन दम
नम न हो गया। उ ह ने झटपट अपने कुटु बके साथ आसनसे उठकर भगवान्के चरण म
णाम कया ।।३५।।

तयोः समानीय वरासनं मुदा


न व यो त महा मनो तयोः ।
दधार पादावव न य त जलं
सवृ द आ पुनद् यद बु ह ।।३६

समहयामास स तौ वभू त भ-
महाहव ाभरणानुलेपनैः ।
ता बूलद पामृतभ णा द भः
वगो व ा मसमपणेन च ।।३७

स इ सेनो भगव पदा बुजं


ब मु ः ेम व भ या धया ।
उवाच हान दजलाकुले णः
रोमा नृप गद्गदा रम् ।।३८
ब ल वाच
नमोऽन ताय बृहते नमः कृ णाय वेधसे ।
सां ययोग वतानाय णे परमा मने ।।३९

दशनं वां ह भूतानां ापं चा य लभम् ।


रज तमः वभावानां य ः ा तौ य छया ।।४०

दै यदानवग धवाः स व ा चारणाः ।

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य र ः पशाचा भूत मथनायकाः ।।४१

वशु स वधा य ा व य शा शरी र ण ।


न यं नब वैरा ते वयं चा ये च ता शाः ।।४२

केचनोद्ब वैरेण भ या केचन कामतः ।


न तथा स वसंर धाः स कृ ाः सुरादयः ।।४३
अ य त आन दसे भरकर दै यराज ब लने भगवान् ीकृ ण और बलरामजीको े
आसन दया और जब वे दोन महापु ष उसपर वराज गये, तब उ ह ने उनके पाँव पखारकर
उनका चरणोदक प रवारस हत अपने सरपर धारण कया। परी त्! भगवान्के चरण का
जल ापय त सारे जगत्को प व कर दे ता है ।।३६।। इसके बाद दै यराज ब लने ब मू य
व , आभूषण, च दन, ता बूल, द पक, अमृतके समान भोजन एवं अ य व वध साम य से
उनक पूजा क और अपने सम त प रवार, धन तथा शरीर आ दको उनके चरण म सम पत
कर दया ।।३७।। परी त्! दै यराज ब ल बार-बार भगवान्के चरणकमल को अपने
व ः थल और सरपर रखने लगे, उनका दय ेमसे व ल हो गया। ने से आन दके आँसू
बहने लगे। रोम-रोम खल उठा। अब वे गद्गद वरसे भगवान्क तु त करने लगे ।।३८।।
दै यराज ब लने कहा—बलरामजी! आप अन त ह। आप इतने महान् ह क शेष आ द
सभी व ह आपके अ तभूत ह। स चदान द व प ीकृ ण! आप सकल जगत्के नमाता
ह। ानयोग और भ योग दोन के वतक आप ही ह। आप वयं ही पर परमा मा ह।
हम आप दोन को बार-बार नम कार करते ह ।।३९।। भगवन्! आप दोन का दशन
ा णय के लये अ य त लभ है। फर भी आपक कृपासे वह सुलभ हो जाता है। य क
आज आपने कृपा करके हम रजोगुणी एवं तमोगुणी वभाववाले दै य को भी दशन दया
है ।।४०।। भो! हम और हमारे ही समान सरे दै य, दानव, ग धव, स , व ाधर, चारण,
य , रा स, पशाच, भूत और मथनायक आ द आपका ेमसे भजन करना तो र रहा,
आपसे सवदा ढ़ वैरभाव रखते ह; पर तु आपका ी व ह सा ात् वेदमय और वशु
स व व प है। इस लये हमलोग मसे ब त ने ढ़ वैरभावसे, कुछने भ से और कुछने
कामनासे आपका मरण करके उस पदको ा त कया है, जसे आपके समीप रहनेवाले
स व धान दे वता भी नह ा त कर सकते ।।४०-४३।। योगे र के अधी र! बड़े-बड़े
योगे र भी ायः यह बात नह जानते क आपक योगमाया यह है और ऐसी है; फर हमारी
तो बात ही या है? ।।४४।। इस लये वामी! मुझपर ऐसी कृपा क जये क मेरी च -वृ
आपके उन चरणकमल म लग जाय, जसे कसीक अपे ा न रखनेवाले परमहंस लोग ढूँ ढ़ा
करते ह; और उनका आ य लेकर म उससे भ इस घर-गृह थीके अँधेरे कूएँसे नकल
जाऊँ। भो! इस कार आपके उन चरणकमल क , जो सारे जगत्के एकमा आ य ह,
शरण लेकर शा त हो जाऊँ और अकेला ही वचरण क ँ । य द कभी कसीका संग करना ही
पड़े तो सबके परम हतैषी संत का ही ।।४५।। भो! आप सम त चराचर जगत्के नय ता
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और वामी ह। आप हम आ ा दे कर न पाप बनाइये, हमारे पाप का नाश कर द जये;
य क जो पु ष ाके साथ आपक आ ाका पालन करता है, वह व ध- नषेधके
ब धनसे मु हो जाता है ।।४६।।

इद म थ म त ाय तव योगे रे र ।
न वद य प योगेशा योगमायां कुतो वयम् ।।४४

त ः सीद नरपे वमृ ययु मत्-


पादार व द धषणा यगृहा धकूपात् ।
न य व शरणाङ् युपल धवृ ः
शा तो यथैक उत सवसखै रा म ।।४५

शा य मानी शत ेश न पापान् कु नः भो ।
पुमान् य याऽऽ त ं ोदनाया वमु यते ।।४६
ीभगवानुवाच
आसन् मरीचेः षट् पु ा ऊणायां थमेऽ तरे ।
दे वाः कं जहसुव य सुतां य भतुमु तम् ।।४७

तेनासुरीमगन् यो नमधुनाव कमणा ।


हर यक शपोजाता नीता ते योगमायया ।।४८

दे व या उदरे जाता राजन् कंस व ह सताः ।


सा ता छोच या मजान् वां त इमेऽ यासतेऽ तके ।।४९

इत एतान् णे यामो मातृशोकापनु ये ।


ततः शापाद् व नमु ा लोकं या य त व वराः ।।५०

मरोद्गीथः प र वंगः पतंगः ु भृद ् घृणी ।


ष डमे म सादे न पुनया य त सद्ग तम् ।।५१

इ यु वा तान् समादाय इ सेनेन पू जतौ ।


पुन ारवतीमे य मातुः पु ानय छताम् ।।५२
भगवान् ीकृ णने कहा—‘दै यराज! वाय भुव म व तरम जाप त मरी चक प नी
ऊणाके गभसे छः पु उ प ए थे। वे सभी दे वता थे। वे यह दे खकर क ाजी अपनी

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पु ीसे समागम करनेके लये उ त ह, हँसने लगे ।।४७।। इस प रहास प अपराधके कारण
उह ाजीने शाप दे दया और वे असुर-यो नम हर यक शपुके पु पसे उ प ए। अब
योगमायाने उ ह वहाँसे लाकर दे वक के गभम रख दया और उनको उ प होते ही कंसने
मार डाला। दै यराज! माता दे वक जी अपने उन पु के लये अ य त शोकातुर हो रही ह और
वे तु हारे पास ह ।।४८-४९।। अतः हम अपनी माताका शोक र करनेके लये इ ह यहाँसे ले
जायँग।े इसके बाद ये शापसे मु हो जायँगे और आन दपूवक अपने लोकम चले
जायँगे ।।५०।। इनके छः नाम ह— मर, उद्गीथ, प र वंग, पतंग, ु भृत् और घृ ण। इ ह
मेरी कृपासे पुनः सद्ग त ा त होगी’ ।।५१।। परी त्! इतना कहकर भगवान् ीकृ ण चुप
हो गये। दै यराज ब लने उनक पूजा क ; इसके बाद ीकृ ण और बलरामजी बालक को
लेकर फर ारका लौट आये तथा माता दे वक को उनके पु स प दये ।।५२।। उन
बालक को दे खकर दे वी दे वक के दयम वा स य- नेहक बाढ़ आ गयी। उनके तन से ध
बहने लगा। वे बार-बार उ ह गोदम लेकर छातीसे लगात और उनका सर सूँघत ।।५३।।
पु के पशके आन दसे सराबोर एवं आन दत दे वक ने उनको तन-पान कराया। वे
व णुभगवान्क उस मायासे मो हत हो रही थ , जससे यह सृ -च चलता है ।।५४।।
परी त्! दे वक जीके तन का ध सा ात् अमृत था; य न हो, भगवान् ीकृ ण जो उसे
पी चुके थे! उन बालक ने वही अमृतमय ध पया। उस धके पीनेसे और भगवान्
ीकृ णके अंग का सं पश होनेसे उ ह आ मसा ा कार हो गया ।।५५।। इसके बाद उन
लोग ने भगवान् ीकृ ण, माता दे वक , पता वसुदेव और बलरामजीको नम कार कया।
तदन तर सबके सामने ही वे दे वलोकम चले गये ।।५६।। परी त्! दे वी दे वक यह दे खकर
अ य त व मत हो गय क मरे ए बालक लौट आये और फर चले भी गये। उ ह ने ऐसा
न य कया क यह ीकृ णका ही कोई लीला-कौशल है ।।५७।। परी त्! भगवान्
ीकृ ण वयं परमा मा ह, उनक श अन त है। उनके ऐसे-ऐसे अद्भुत च र इतने ह क
कसी कार उनका पार नह पाया जा सकता ।।५८।।

तान् ् वा बालकान् दे वी पु नेह नुत तनी ।


प र व यांकमारो य मू य ज दभी णशः ।।५३

अपाययत् तनं ीता सुत पशप र लुता ।


मो हता मायया व णोयया सृ ः वतते ।।५४

पी वामृतं पय त याः पीतशेषं गदाभृतः ।


नारायणांगसं पश तल धा मदशनाः ।।५५

ते नम कृ य गो व दं दे वक पतरं बलम् ।
मषतां सवभूतानां ययुधाम दवौकसाम् ।।५६

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तं ् वा दे वक दे वी मृतागमन नगमम् ।
मेने सु व मता मायां कृ ण य र चतां नृप ।।५७

एवं वधा य ता न कृ ण य परमा मनः ।


वीया यन तवीय य स यन ता न भारत ।।५८
सूत उवाच
य इदमनुशृणो त ावयेद ् वा मुरारे-
रतममृतक तव णतं ासपु ैः ।
जगदघ भदलं त स कणपूरं
भगव त कृत च ो या त त ेमधाम ।।५९
सूतजी कहते ह—शौनका द ऋ षयो! भगवान् ीकृ णक क त अमर है, अमृतमयी
है। उनका च र जगत्के सम त पाप-ताप को मटानेवाला तथा भ जन के कणकुहर म
आन दसुधा वा हत करनेवाला है। इसका वणन वयं ासन दन भगवान् ीशुकदे वजीने
कया है। जो इसका वण करता है अथवा सर को सुनाता है, उसक स पूण च वृ
भगवान्म लग जाती है और वह उ ह के परम क याण व प धामको ा त होता है ।।५९।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध मृता जानयनं नाम
प चाशी ततमोऽ यायः ।।८५।।

१. यो ममाचाय।

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अथ षडशी ततमोऽ यायः
सुभ ाहरण और भगवान्का म थलापुरीम राजा जनक ुतदे व ा णके
घर एक ही साथ जाना
राजोवाच
न् वे दतु म छामः वसारं रामकृ णयोः ।
यथोपयेमे वजयो या ममासीत् पतामही ।।१
ीशुक उवाच
अजुन तीथया ायां पयट वन भुः ।
गतः भासमशृणो मातुलेय स आ मनः ।।२

य धनाय राम तां दा यती त न चापरे ।


त ल सुः स य तभू वा द डी ारकामगात् ।।३

त वै वा षकान् मासानवा सीत् वाथसाधकः ।


पौरैः सभा जतोऽभी णं रामेणाजानता च सः ।।४

एकदा गृहमानीय आ त येन नम य तम् ।


योप तं भै यं बलेन बुभुजे कल ।।५

सोऽप य महत क यां वीरमनोहराम् ।


ी यु फु ले ण त यां भाव ु धं१ मनो दधे ।।६

सा प तं चकमे वी य नारीणां दयंगमम् ।


हस ती ी डतापांगी त य त दये णा ।।७
राजा परी त्ने पूछा—भगवन्! मेरे दादा अजुनने भगवान् ीकृ ण और
बलरामजीक ब हन सुभ ाजीसे, जो मेरी दाद थ , कस कार ववाह कया? म यह
जाननेके लये ब त उ सुक ँ ।।१।।
ीशुकदे वजीने कहा—परी त्! एक बार अ य त श शाली अजुन तीथया ाके लये
पृ वीपर वचरण करते ए भास े प ँच।े वहाँ उ ह ने यह सुना क बलरामजी मेरे
मामाक पु ी सुभ ाका ववाह य धनके साथ करना चाहते ह और वसुदेव, ीकृ ण आ द
उनसे इस वषयम सहमत नह ह। अब अजुनके मनम सुभ ाको पानेक लालसा जग आयी।
वे द डी वै णवका वेष धारण करके ारका प ँचे ।।२-३।। अजुन सुभ ाको ा त करनेके
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लये वहाँ वषाकालम चार महीनेतक रहे। वहाँ पुरवा सय और बलरामजीने उनका खूब
स मान कया। उ ह यह पता न चला क ये अजुन ह ।।४।।
एक दन बलरामजीने आ त यके लये उ ह नम त कया और उनको वे अपने घर ले
आये। द डी-वेषधारी अजुनको बलरामजीने अ य त ाके साथ भोजन-साम ी नवे दत
क और उ ह ने बड़े ेमसे भोजन कया ।।५।। अजुनने भोजनके समय वहाँ ववाहयो य
परम सु दरी सुभ ाको दे खा। उसका सौ दय बड़े-बड़े वीर का मन हरनेवाला था। अजुनके
ने ेमसे फु लत हो गये। उनका मन उसे पानेक आकां ासे ु ध हो गया और उ ह ने
उसे प नी बनानेका ढ़ न य कर लया ।।६।। परी त्! तु हारे दादा अजुन भी बड़े ही
सु दर थे। उनके शरीरक गठन, भाव-भंगी य का दय पश कर लेती थी। उ ह दे खकर
सुभ ाने भी मनम उ ह को प त बनानेका न य कया। वह त नक मुसकराकर लजीली
चतवनसे उनक ओर दे खने लगी। उसने अपना दय उ ह सम पत कर दया ।।७।। अब
अजुन केवल उसीका च तन करने लगे और इस बातका अवसर ढूँ ढ़ने लगे क इसे कब हर
ले जाऊँ। सुभ ाको ा त करनेक उ कट कामनासे उनका च च कर काटने लगा, उ ह
त नक भी शा त नह मलती थी ।।८।।

तां परं समनु याय तरं े सुरजुनः ।


न लेभे शं म च ः कामेना तबलीयसा ।।८

मह यां दे वया ायां रथ थां ग नगताम् ।


जहारानुमतः प ोः कृ ण य च महारथः ।।९

रथ थो धनुरादाय शूरां ा धतो भटान् ।


व ा ोशतां वानां वभागं मृगरा डव ।।१०

त छ वा ु भतो रामः पवणीव महाणवः ।


गृहीतपादः कृ णेन सु ा वशा यत१ ।।११

ा हणोत् पा रबहा ण वरव वोमुदा बलः ।


महाधनोप करेभरथा नरयो षतः ।।१२
ीशुक उवाच
कृ ण यासीद् ज े ः ुतदे व इ त ुतः ।
कृ णैकभ या पूणाथः शा तः क वरल पटः ।।१३

स उवास वदे हेषु म थलायां गृहा मी ।

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अनीहयाऽऽगताहाय नव तत नज यः ।।१४

या ामा ं वहरहदवा पनम युत२ ।


ना धकं तावता तु ः या े यथो चताः ।।१५

तथा त ा पालोऽ ब ला इ त ुतः ।


मै थलो नरह मान उभाव य युत यौ ।।१६
एक बार सुभ ाजी दे व-दशनके लये रथपर सवार होकर ारका- गसे बाहर नकल ।
उसी समय महारथी अजुनने दे वक -वसुदेव और ीकृ णक अनुम तसे सुभ ाका हरण कर
लया ।।९।। रथपर सवार होकर वीर अजुनने धनुष उठा लया और जो सै नक उ ह रोकनेके
लये आये, उ ह मार-पीटकर भगा दया। सुभ ाके नज-जन रोते- च लाते रह गये और
अजुन जस कार सह अपना भाग लेकर चल दे ता है, वैसे ही सुभ ाको लेकर चल
पड़े ।।१०।। यह समाचार सुनकर बलरामजी ब त बगड़े। वे वैसे ही ु ध हो उठे , जैसे
पू णमाके दन समु । पर तु भगवान् ीकृ ण तथा अ य सु द्-स ब धय ने उनके पैर
पकड़कर उ ह ब त कुछ समझाया-बुझाया, तब वे शा त ए ।।११।। इसके बाद
बलरामजीने स होकर वर-वधूके लये ब त-सा धन, साम ी, हाथी, रथ, घोड़े और दासी-
दास दहेजम भेजे ।।१२।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! वदे हक राजधानी म थलाम एक गृह थ ा ण
थे। उनका नाम था ुतदे व। वे भगवान् ीकृ णके परम भ थे। वे एकमा भगव से ही
पूणमनोरथ, परम शा त, ानी और वर थे ।।१३।। वे गृह था मम रहते ए भी कसी
कारका उ ोग नह करते थे; जो कुछ मल जाता, उसीसे अपना नवाह कर लेते थे ।।१४।।
ार धवश त दन उ ह जीवन- नवाहभरके लये साम ी मल जाया करती थी, अ धक
नह । वे उतनेसे ही स तु भी थे, और अपने वणा मके अनुसार धम-पालनम त पर रहते
थे ।।१५।। य परी त्! उस दे शके राजा भी ा णके समान ही भ मान् थे।
मै थलवंशके उन त त नरप तका नाम था ब ला । उनम अहंकारका लेश भी न था।
ुतदे व और ब ला दोन ही भगवान् ीकृ णके यारे भ थे ।।१६।।

तयोः स ो भगवान् दा केणा तं रथम् ।


आ साकं मु न भ वदे हान् ययौ भुः ।।१७

नारदो वामदे वोऽ ः कृ णो रामोऽ सतोऽ णः ।


अहं बृह प तः क वो मै ेय यवनादयः ।।१८

त त तमाया तं पौरा जानपदा नृप ।


उपत थुः सा यह ता हैः सूय मवो दतम् ।।१९
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आनतध वकु जांगलकंकम य-
पांचालकु तमधुकेकयकोसलाणाः ।
अ ये च त मुखसरोजमुदारहास-
न धे णं नृप पपु श भनृनायः ।।२०

ते यः ववी ण वन त म यः
ेमं लोकगु रथ शं च य छन् ।
शृ वन् दग तधवलं वयशोऽशुभ नं
गीतं सुरैनृ भरगा छनकै वदे हान् ।।२१

तेऽ युतं ा तमाक य पौरा जानपदा नृप ।


अभीयुमु दता त मै गृहीताहणपाणयः ।।२२

् वा त उ म ोकं ी यु फु लाननाशयाः ।
कैधृतांज ल भनमुः ुतपूवा तथा मुनीन् ।।२३

वानु हाय स ा तं म वानौ तं जगद्गु म् ।


मै थलः ुतदे व पादयोः पेततुः भोः ।।२४
एक बार भगवान् ीकृ णने उन दोन पर स होकर दा कसे रथ मँगवाया और उसपर
सवार होकर ारकासे वदे ह दे शक ओर थान कया ।।१७।। भगवान्के साथ नारद,
वामदे व, अ , वेद ास, परशुराम, अ सत, आ ण, म (शुकदे व), बृह प त, क व, मै ेय,
यवन आ द ऋ ष भी थे ।।१८।। परी त्! वे जहाँ-जहाँ प ँचते, वहाँ-वहाँक नाग रक और
ामवासी जा पूजाक साम ी लेकर उप थत होती। पूजा करनेवाल को भगवान् ऐसे जान
पड़ते, मानो ह के साथ सा ात् सूयनारायण उदय हो रहे ह ।।१९।। परी त्! उस या ाम
आनत, ध व, कु जांगल, कंक, म य, पांचाल, कु त, मधु, केकय, कोसल, अण आ द
अनेक दे श के नर-ना रय ने अपने ने पी दोन से भगवान् ीकृ णके उ मु हा य और
ेमभरी चतवनसे यु मुखार व दके मकर द-रसका पान कया ।।२०।। लोकगु
भगवान् ीकृ णके दशनसे उन लोग क अ ान न हो गयी। भु-दशन करनेवाले नर-
ना रय को अपनी से परम क याण और त व ानका दान करते चल रहे थे। थान-
थानपर मनु य और दे वता भगवान्क उस क तका गान करके सुनाते, जो सम त
दशा को उ वल बनानेवाली एवं सम त अशुभ का वनाश करनेवाली है। इस कार
भगवान् ीकृ ण धीरे-धीरे वदे ह दे शम प ँचे ।।२१।।
परी त्! भगवान् ीकृ णके शुभागमनका समाचार सुनकर नाग रक और
ामवा सय के आन दक सीमा न रही। वे अपने हाथ म पूजाक व वध साम याँ लेकर
उनक अगवानी करने आये ।।२२।। भगवान् ीकृ णका दशन करके उनके दय और
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मुखकमल ेम और आन दसे खल उठे । उ ह ने भगवान्को तथा उन मु नय को, जनका
नाम केवल सुन रखा था, दे खा न था—हाथ जोड़ म तक झुकाकर णाम कया ।।२३।।
म थलानरेश ब ला और ुतदे वने, यह समझकर क जगद्गु भगवान् ीकृ ण हम-
लोग पर अनु ह करनेके लये ही पधारे ह, उनके चरण पर गरकर णाम कया ।।२४।।

यम येतां दाशाहमा त येन सह जैः ।


मै थलः ुतदे व युगपत् संहतांजली ।।२५

भगवां तद भ े य योः य चक षया ।


उभयोरा वशद् गेहमुभा यां तदल तः ।।२६

ोतुम यसतां रान् जनकः वगृहागतान् ।


आनीते वासना ्येषु सुखासीनान् महामनाः ।।२७

वृ भ या उ ष दया ा वले णः ।
न वा तदङ् ीन् ा य तदपो लोकपावनीः ।।२८

सकुटु बो वहन् मू ना पूजयांच ई रान् ।


ग धमा या बराक पधूपद पा यगोवृषैः ।।२९

वाचा मधुरया ीण दमाहा त पतान् ।


पादावंकगतौ व णोः सं पृश छनकैमुदा ।।३०
राजोवाच
भवान् ह सवभूतानामा मा सा ी व ग् वभो ।
अथ न व पदा भोजं मरतां दशनं गतः ।।३१

ववच त तं कतुम मद् गोचरो भवान् ।


यदा थैका तभ ा मे नान तः ीरजः यः ।।३२
ब ला और ुतदे व दोन ने ही एक साथ हाथ जोड़कर मु न-म डलीके स हत भगवान्
ीकृ णको आ त य हण करनेके लये नम त कया ।।२५।।
भगवान् ीकृ ण दोन क ाथना वीकार करके दोन को ही स करनेके लये एक ही
समय पृथक्-पृथक् पसे दोन के घर पधारे और यह बात एक- सरेको मालूम न ई क
भगवान् ीकृ ण मेरे घरके अ त र और कह भी जा रहे ह ।।२६।। वदे हराज ब ला बड़े
मन वी थे; उ ह ने यह दे खकर क - राचारी पु ष जनका नाम भी नह सुन सकते, वे ही

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भगवान् ीकृ ण और ऋ ष-मु न मेरे घर पधारे ह, सु दर-सु दर आसन मँगाये और भगवान्
ीकृ ण तथा ऋ ष-मु न आरामसे उनपर बैठ गये। उस समय ब ला क व च दशा थी।
ेम-भ के उ े कसे उनका दय भर आया था। ने म आँसू उमड़ रहे थे। उ ह ने अपने
पू यतम अ त थय के चरण म नम कार करके पाँव पखारे और अपने कुटु बके साथ उनके
चरण का लोकपावन जल सरपर धारण कया और फर भगवान् एवं भगव व प
ऋ षय को ग ध, माला, व , अलंकार, धूप, द प, अ य, गौ, बैल आ द सम पत करके
उनक पूजा क ।।२७-२९।। जब सब लोग भोजन करके तृ त हो गये, तब राजा ब ला
भगवान् ीकृ णके चरण को अपनी गोदम लेकर बैठ गये। और बड़े आन दसे धीरे-धीरे उ ह
सहलाते ए बड़ी मधुर वाणीसे भगवान्क तु त करने लगे ।।३०।।
राजा ब ला ने कहा—‘ भो! आप सम त ा णय के आ मा, सा ी एवं वयं काश
ह। हम सदा-सवदा आपके चरणकमल का मरण करते रहते ह। इसीसे आपने हमलोग को
दशन दे कर कृताथ कया है ।।३१।। भगवन्! आपके वचन ह क मेरा अन य ेमी भ मुझे
अपने व प बलरामजी, अ ा गनी ल मी और पु ासे भी बढ़कर य है। अपने उन
वचन को स य करनेके लये ही आपने हमलोग को दशन दया है ।।३२।।

को नु व चरणा भोजमेवं वद् वसृजेत् पुमान् ।


न कंचनानां शा तानां मुनीनां य वमा मदः ।।३३

योऽवतीय यदोवशे नृणां संसरता मह ।


यशो वतेने त छा यै ैलो यवृ जनापहम् ।।३४

नम तु यं भगवते कृ णायाकु ठमेधसे ।


नारायणाय ऋषये सुशा तं तप ईयुषे ।।३५

दना न क त चद् भूमन् गृहान् नो नवस जैः ।


समेतः पादरजसा पुनीहीदं नमेः कुलम् ।।३६

इ युपाम तो रा ा भगवाँ लोकभावनः ।


उवास कुवन् क याणं म थलानरयो षताम् ।।३७

ुतदे वोऽ युतं ा तं वगृहांजनको यथा ।


न वा मुनीन् सुसं ो धु वन् वासो ननत ह ।।३८

तृणपीठबृसी वेतानानीतेषूपवे य सः ।
वागतेना भन ाङ् ीन् सभाय ऽव नजे मुदा ।।३९

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तद भसा महाभाग आ मानं सगृहा वयम् ।
नापयांच उ ष ल धसवमनोरथः ।।४०
भला, ऐसा कौन पु ष है, जो आपक इस परम दयालुता और ेमपरवशताको जानकर
भी आपके चरणकमल का प र याग कर सके? भो! ज ह ने जगत्क सम त व तु का
एवं शरीर आ दका भी मनसे प र याग कर दया है, उन परम शा त मु नय को आप
अपनेतकको भी दे डालते ह ।।३३।। आपने य वंशम अवतार लेकर ज म-मृ युके च करम
पड़े ए मनु य को उससे मु करनेके लये जगत्म ऐसे वशु यशका व तार कया है, जो
लोक के पाप-तापको शा त करनेवाला है ।।३४।। भो! आप अ च य, अन त ऐ य और
माधुयक न ध ह; सबके च को अपनी ओर आक षत करनेके लये आप
स चदान द व प परम ह। आपका ान अन त है। परम शा तका व तार करनेके
लये आप ही नारायण ऋ षके पम तप या कर रहे ह। म आपको नम कार करता
ँ ।।३५।। एकरस अन त! आप कुछ दन तक मु नम डलीके साथ हमारे यहाँ नवास
क जये और अपने चरण क धूलसे इस न मवंशको प व क जये’ ।।३६।। परी त्!
सबके जीवनदाता भगवान् ीकृ ण राजा ब ला क यह ाथना वीकार करके
म थलावासी नर-ना रय का क याण करते ए कुछ दन तक वह रहे ।।३७।।
य परी त्! जैसे राजा ब ला भगवान् ीकृ ण और मु न-म डलीके पधारनेपर
आन दम न हो गये थे, वैसे ही ुतदे व ा ण भी भगवान् ीकृ ण और मु नय को अपने घर
आया दे खकर आन द व ल हो गये; वे उ ह नम कार करके अपने व उछाल-उछालकर
नाचने लगे ।।३८।। ुतदे वने चटाई, पीढ़े और कुशासन बछाकर उनपर भगवान् ीकृ ण
और मु नय को बैठाया, वागत-भाषण आ दके ारा उनका अ भन दन कया तथा अपनी
प नीके साथ बड़े आन दसे सबके पाँव पखारे ।।३९।। परी त्! महान् सौभा यशाली
ुतदे वने भगवान् और ऋ षय के चरणोदकसे अपने घर और कुटु बय को स च दया। इस
समय उनके सारे मनोरथ पूण हो गये थे। वे हषा तरेकसे मतवाले हो रहे थे ।।४०।। तदन तर
उ ह ने फल, ग ध, खससे सुवा सत नमल एवं मधुर जल, सुग धत म , तुलसी, कुश,
कमल आ द अनायास- ा त पूजा-साम ी और स वगुण बढ़ानेवाले अ से सबक आराधना
क ।।४१।। उस समय ुतदे वजी मन-ही-मन तकना करने लगे क ‘म तो घर-गृह थीके
अँधेरे कूएँम गरा आ ँ, अभागा ँ; मुझे भगवान् ीकृ ण और उनके नवास थान ऋ ष-
मु नय का, जनके चरण क धूल ही सम त तीथ को तीथ बनानेवाली है, समागम कैसे ा त
हो गया?’ ।।४२।। जब सब लोग आ त य वीकार करके आरामसे बैठ गये, तब ुतदे व
अपने ी-पु तथा अ य स ब धय के साथ उनक सेवाम उप थत ए। वे भगवान्
ीकृ णके चरणकमल का पश करते ए कहने लगे ।।४३।।

फलाहणोशीर शवामृता बु भ-
मृदा सुर या तुलसीकुशा बुजैः ।
आराधयामास यथोपप या
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सपयया स व ववधना धसा ।।४१

स तकयामास कुतो ममा वभूद ्


गृहा धकूपे प तत य संगमः ।
यः सवतीथा पदपादरेणु भः
कृ णेन चा या म नकेतभूसुरैः ।।४२

सूप व ान् कृता त या छतदे व उप थतः ।


सभाय वजनाप य उवाचाङ् य भमशनः ।।४३
ु दे व उवाच

ना नो दशनं ा तः परं परमपू षः ।
यह दं श भः सृ ् वा व ो ा मस या ।।४४

यथा शयानः पु षो मनसैवा ममायया ।


सृ ् वा लोकं परं वा मनु व यावभासते ।।४५

शृ वतां गदतां श दचतां वा भव दताम् ।


नृणां संवदताम त द भा यमला मनाम् ।।४६

द थोऽ य त र थः कम व तचेतसाम् ।
आ मश भर ा ोऽ य युपेतगुणा मनाम् ।।४७
ुतदे वने कहा— भो! आप -अ प कृ त और जीव से परे पु षो म ह।
मुझे आपने आज ही दशन दया हो, ऐसी बात नह है। आप तो तभीसे सब लोग से मले ए
ह, जबसे आपने अपनी श य के ारा इस जगत्क रचना करके आ मस ाके पम इसम
वेश कया है ।।४४।। जैसे सोया आ पु ष व ाव थाम अ व ावश मन-ही-मन व -
जगत्क सृ कर लेता है और उसम वयं उप थत होकर अनेक प म अनेक कम करता
आ तीत होता है, वैसे ही आपने अपनेम ही अपनी मायासे जगत्क रचना कर ली है और
अब इसम वेश करके अनेक प से का शत हो रहे ह ।।४५।। लोग सवदा आपक
लीलाकथाका वण-क तन तथा आपक तमा का अचन-व दन करते ह और आपसम
आपक ही चचा करते ह, उनका दय शु हो जाता है और आप उसम का शत हो जाते
ह ।।४६।। जन लोग का च लौ कक-वै दक आ द कम क वासनासे ब हमुख हो रहा है,
उनके दयम रहनेपर भी आप उनसे ब त र ह। क तु जन लोग ने आपके गुणगानसे
अपने अ तःकरणको सद्गुणस प बना लया है, उनके लये च वृ य से अ ा होनेपर
भी आप अ य त नकट ह ।।४७।। भो! जो लोग आ मत वको जाननेवाले ह, उनके

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आ माके पम ही आप थत ह और जो शरीर आ दको ही अपना आ मा मान बैठे ह,
उनके लये आप अना माको ा त होनेवाली मृ युके पम ह। आप मह व आ द काय
और कृ त प कारणके नयामक ह—शासक ह। आपक माया आपक अपनी पर
पदा नह डाल सकती, क तु उसने सर क को ढक रखा है। आपको म नम कार
करता ँ ।।४८।। वयं काश भो! हम आपके सेवक ह। हम आ ा द जये क हम आपक
या सेवा कर? ने के ारा आपका दशन होनेतक ही जीव के लेश रहते ह। आपके
दशनम ही सम त लेश क प रसमा त है ।।४९।।

नमोऽ तु तेऽ या म वदां परा मने


अना मने वा म वभ मृ यवे ।
सकारणाकारण लगमीयुषे
वमाययासंवृत ये ।।४८

स वं शा ध वभृ यान् नः क दे व करवामहे ।


एतद तो नृणां लेशो यद् भवान गोचरः ।।४९
ीशुक उवाच
त म युपाक य भगवान् णता तहा ।
गृही वा पा णना पा ण हसं तमुवाच ह ।।५०
ीभगवानुवाच
ं तेऽनु हाथाय स ा तान् व यमून् मुनीन् ।
संचर त मया लोकान् पुन तः पादरेणु भः ।।५१

दे वाः े ा ण तीथा न दशन पशनाचनैः ।


शनैः पुन त कालेन तद यह मे या ।।५२

ा णो ज मना ये ान् सवषां ा णना मह ।


तपसा व या तु ा कमु म कलया युतः ।।५३

न ा णा मे द यतं पमेत चतुभुजम् ।


सववेदमयो व ः सवदे वमयो हम् ।।५४

ा अ व द वैवमवजान यसूयवः ।
गु ं मां व मा मानमचादा व य यः ।।५५
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! शरणागत-भयहारी भगवान् ीकृ णने ुतदे वक
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ाथना सुनकर अपने हाथसे उनका हाथ पकड़ लया और मुसकराते ए कहा ।।५०।।
भगवान् ीकृ णने कहा— य ुतदे व! ये बड़े-बड़े ऋ ष-मु न तुमपर अनु ह करनेके
लये ही यहाँ पधारे ह। ये अपने चरणकमल क धूलसे लोग और लोक को प व करते ए
मेरे साथ वचरण कर रहे ह ।।५१।। दे वता, पु य े और तीथ आ द तो दशन, पश, अचन
आ दके ारा धीरे-धीरे ब त दन म प व करते ह; पर तु संत पु ष अपनी से ही सबको
प व कर दे ते ह। यही नह ; दे वता आ दम जो प व करनेक श है, वह भी उ ह संत क
से ही ा त होती है ।।५२।। ुतदे व! जगत्म ा ण ज मसे ही सब ा णय से े ह।
य द वह तप या, व ा, स तोष और मेरी उपासना—मेरी भ से यु हो तब तो कहना ही
या है ।।५३।।
मुझे अपना यह चतुभुज प भी ा ण क अपे ा अ धक य नह है। य क ा ण
सववेदमय है और म सवदे वमय ँ ।।५४।। बु मनु य इस बातको न जानकर केवल मू त
आ दम ही पू यबु रखते ह और गुण म दोष नकालकर मेरे व प जगद्गु ा णका,
जो क उनका आ मा ही है, तर कार करते ह ।।५५।।

चराचर मदं व ं भावा ये चा य हेतवः ।


म प
ू ाणी त चेत याध े व ो मद या ।।५६

त माद् ऋषीनेतान् न् म याचय ।


एवं चेद चतोऽ य ा ना यथा भू रभू त भः ।।५७
ीशुक उवाच
स इ थं भुणाऽऽ द ः सहकृ णान् जो मान् ।
आरा यैका मभावेन मै थल ाप सद्ग तम् ।।५८

एवं वभ यो राजन् भगवान् भ भ मान् ।


उ ष वाऽऽ द य स माग पुन ारवतीमगात् ।।५९
ा ण मेरा सा ा कार करके अपने च म यह न य कर लेता है क यह चराचर
जगत्, इसके स ब धक सारी भावनाएँ और इसके कारण कृ त-मह वा द सब-के-सब
आ म व प भगवान्के ही प ह ।।५६।। इस लये ुतदे व! तुम इन षय को मेरा ही
व प समझकर पूरी ासे इनक पूजा करो। य द तुम ऐसा करोगे, तब तो तुमने सा ात्
अनायास ही मेरा पूजन कर लया; नह तो बड़ी-बड़ी ब मू य साम य से भी मेरी पूजा नह
हो सकती ।।५७।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान् ीकृ णका यह आदे श ा त करके
ुतदे वने भगवान् ीकृ ण और उन षय क एका मभावसे आराधना क तथा उनक
कृपासे वे भगव व पको ा त हो गये। राजा ब ला ने भी वही ग त ा त क ।।५८।।
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य परी त्! जैसे भ भगवान्क भ करते ह, वैसे ही भगवान् भी भ क भ
करते ह। वे अपने दोन भ को स करनेके लये कुछ दन तक म थलापुरीम रहे और
उ ह साधु पु ष के मागका उपदे श करके वे ारका लौट आये ।।५९।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध ुतदे वानु हो नाम
षडशी ततमोऽ यायः ।।८६।।

१. मर ु०।
१. ानुसा वतः। २. म ययम्।

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अथ स ताशी ततमोऽ यायः
वेद तु त
परी वाच
न् य नद ये नगुणे गुणवृ यः ।
कथं चर त ुतयः सा ात् सदसतः परे ।।१
राजा परी त्ने पूछा—भगवन्! काय और कारणसे सवथा परे है। स व,
रज और तम—ये तीन गुण उसम ह ही नह । मन और वाणीसे संकेत पम भी उसका
नदश नह कया जा सकता। सरी ओर सम त ु तय का वषय गुण ही है। (वे जस
वषयका वणन करती ह उसके गुण, जा त, या अथवा ढका ही नदश करती ह)
ऐसी थ तम ु तयाँ नगुण का तपादन कस कार करती ह? य क नगुण
व तुका व प तो उनक प ँचके परे है ।।१।।
ीशुक उवाच
बु यमनः ाणान् जनानामसृजत् भुः ।
मा ाथ च भवाथ च आ मनेऽक पनाय च ।।२

सैषा प नषद् ा ी पूवषां पूवजैधृता ।


या धारयेद ् य तां ेमं ग छे द कचनः ।।३

अ ते वण य या म गाथां नारायणा वताम् ।


नारद य च संवादमृषेनारायण य च ।।४

एकदा नारदो लोकान् पयटन् भगव यः ।


सनातनमृ ष ु ं ययौ नारायणा मम् ।।५

यो वै भारतवषऽ मन् ेमाय व तये नृणाम् ।


धम ानशमोपेतमाक पादा थत तपः ।।६

त ोप व मृ ष भः कलाप ामवा स भः ।
परीतं णतोऽपृ छ ददमेव कु ह ।।७
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! (भगवान् सवश मान् और गुण के नधान
ह। ु तयाँ प तः सगुणका ही न पण करती ह, पर तु वचार करनेपर उनका
ता पय नगुण ही नकलता है। वचार करनेके लये ही) भगवान्ने जीव के लये बु ,
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इ य, मन और ाण क सृ क है। इनके ारा वे वे छासे अथ, धम, काम अथवा
मो का अजन कर सकते ह ( ाण के ारा जीवन-धारण, वणा द इ य के ारा
महावा य आ दका वण, मनके ारा मनन और बु के ारा न य करनेपर
ु तय के ता पय नगुण व पका सा ा कार हो सकता है। इस लये ु तयाँ सगुणका
तपादन करनेपर भी व तुतः नगुणपरक ह) ।।२।।
का तपादन करनेवाली उप नषद्का यही व प है। इसे पूवज के भी पूवज
सनका द ऋ षय ने आ म न यके ारा धारण कया है। जो भी मनु य इसे ापूवक
धारण करता है, वह ब धनके कारण सम त उपा धय —अना मभाव से मु होकर
अपने परम क याण व प परमा माको ा त हो जाता है ।।३।।
इस वषयम म तु ह एक गाथा सुनाता ँ। उस गाथाके साथ वयं भगवान्
नारायणका स ब ध है। वह गाथा दे व ष नारद और ऋ ष े नारायणका संवाद
है ।।४।।
एक समयक बात है, भगवान्के यारे भ दे व ष नारदजी व भ लोक म
वचरण करते ए सनातनऋ ष भगवान् नारायणका दशन करनेके लये बद रका म
गये ।।५।।
भगवान् नारायण मनु य के अ युदय (लौ कक क याण) और परम नः ेयस
(भगव व प अथवा मो क ा त) के लये इस भारतवषम क पके ार भसे ही
धम, ान और संयमके साथ महान् तप या कर रहे ह ।।६।।
परी त्! एक दन वे कलाप ामवासी स ऋ षय के बीचम बैठे ए थे। उस
समय नारदजीने उ ह णाम करके बड़ी न तासे यही पूछा, जो तुम मुझसे पूछ रहे
हो ।।७।।

त मै वोचद् भगवानृषीणां शृ वता मदम् ।


यो वादः पूवषां जनलोक नवा सनाम् ।।८
ीभगवानुवाच
वाय भुव स ं जनलोकेऽभवत् पुरा ।
त थानां मानसानां मुनीनामू वरेतसाम् ।।९

ेत पं गतव त व य ु ं तद रम् ।
वादः सुसंवृ ः त
ु यो य शेरते ।
त हायमभूत् वं मां यमनुपृ छ स ।।१०

तु य ुततपःशीला तु य वीया रम यमाः ।


अ प च ु ः वचनमेकं शु ूषवोऽपरे ।।११
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सन दन उवाच
वसृ मदमापीय शयानं सह श भः ।
तद ते बोधयांच ु त ल ै ः ुतयः परम् ।।१२

यथा शयानं स ाजं व दन त परा मैः ।


यूषेऽ ये य सु ोकैब धय यनुजी वनः ।।१३
भगवान् नारायणने ऋ षय क उस भरी सभाम नारदजीको उनके का उ र
दया और वह कथा सुनायी, जो पूवकालीन जनलोक नवा सय म पर पर वेद के
ता पय और के व पके स ब धम वचार करते समय कही गयी थी ।।८।।
भगवान् नारायणने कहा—नारदजी! ाचीन कालक बात है। एक बार
जनलोकम वहाँ रहनेवाले ाके मानस पु नै क चारी सनक, सन दन, सनातन
आ द परम षय का स ( वषयक वचार या वचन) आ था ।।९।।
उस समय तुम मेरी ेत पा धप त अ न -मू तका दशन करनेके लये ेत प
चले गये थे। उस समय वहाँ उस के स ब धम बड़ी ही सु दर चचा ई थी, जसके
वषयम ु तयाँ भी मौन धारण कर लेती ह, प वणन न करके ता पय पसे ल त
कराती ई उसीम सो जाती ह। उस स म यही उप थत कया गया था, जो
तुम मुझसे पूछ रहे हो ।।१०।।
सनक, सन दन, सनातन, सन कुमार—ये चार भाई शा ीय ान, तप या और
शील- वभावम समान ह। उन लोग क म श ु, म और उदासीन एक-से ह। फर
भी उ ह ने अपनेमसे सन दनको तो व ा बना लया और शेष भाई सुननेके इ छु क
बनकर बैठ गये ।।११।।
सन दनजीने कहा— जस कार ातःकाल होनेपर सोते ए स ाट् को जगानेके
लये अनुजीवी वंद जन उसके पास आते ह और स ाट् के परा म तथा सुयशका गान
करके उसे जगाते ह, वैसे ही जब परमा मा अपने बनाये ए स पूण जगत्को अपनेम
लीन करके अपनी श य के स हत सोये रहते ह; तब लयके अ तम ु तयाँ उनका
तपादन करनेवाले वचन से उ ह इस कार जगाती ह ।।१२-१३।।
ु य ऊचुः

जय जय ज जाम जत दोषगृभीतगुणां
वम स यदा मना समव सम तभगः ।
अगजगदोकसाम खलश यवबोधक ते
व चदजयाऽऽ मना च चरतोऽनुचरे गमः ।।१४
बृह पल धमेतदवय यवशेषतया
यत उदया तमयौ वकृतेमृ द वा वकृतात् ।
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ु तयाँ कहती ह—अ जत! आप ही सव े ह, आपपर कोई वजय नह ा त
कर सकता। आपक जय हो, जय हो। भो! आप वभावसे ही सम त ऐ य से पूण
ह, इस लये चराचर ा णय को फँसानेवाली मायाका नाश कर द जये। भो! इस
गुणमयी मायाने दोषके लये—जीव के आन दा दमय सहज व पका आ छादन
करके उ ह ब धनम डालनेके लये ही स वा द गुण को हण कया है। जगत्म जतनी
भी साधना, ान, या आ द श याँ ह, उन सबको जगानेवाले आप ही ह। इस लये
आपके मटाये बना यह माया मट नह सकती। (इस वषयम य द माण पूछा जाय,
तो आपक ासभूता ु तयाँ ही—हम ही माण ह।) य प हम आपका व पतः
वणन करनेम असमथ ह, पर तु जब कभी आप मायाके ारा जगत्क सृ करके
सगुण हो जाते ह या उसको नषेध करके व प थ तक लीला करते ह अथवा अपना
स चदान द व प ी व ह कट करके ड़ा करते ह, तभी हम य कं चत् आपका
वणन करनेम समथ होती ह* ।।१४।।
इसम स दे ह नह क हमारे ारा इ , व ण आ द दे वता का भी वणन कया
जाता है, पर तु हमारे ( ु तय के) सारे म अथवा सभी म ा ऋ ष तीत
होनेवाले इस स पूण जगत्को व प ही अनुभव करते ह। य क जस समय यह
सारा जगत् नह रहता, उस समय भी आप बच रहते ह। जैसे घट, शराव ( म का
याला—कसोरा) आ द सभी वकार म से ही उ प और उसीम लीन होते ह, उसी
कार स पूण जगत्क उ प और लय आपम ही होती है। तब या आप पृ वीके
समान वकारी ह? नह -नह , आप तो एकरस— न वकार ह। इसीसे तो यह जगत्
आपम उ प नह , तीत है। इस लये जैसे घट, शराव आ दका वणन भी म का ही
वणन है, वैसे ही इ , व ण आ द दे वता का वणन भी आपका ही वणन है। यही
कारण है क वचारशील ऋ ष, मनसे जो कुछ सोचा जाता है और वाणीसे जो कुछ
कहा जाता है, उसे आपम ही थत, आपका ही व प दे खते ह। मनु य अपना पैर
चाहे कह भी रखे— ट, प थर या काठपर—होगा वह पृ वीपर ही; य क वे सब
पृ वी व प ही ह। इस लये हम चाहे जस नाम या जस पका वणन कर, वह
आपका ही नाम, आपका ही प है* ।।१५।।

अत ऋषयो दधु व य मनोवचनाच रतं


कथमयथा भव त भु व द पदा न नृणाम् ।।१५

इ त तव सूरय य धपतेऽ खललोकमल-


पणकथामृता धमवगा तपां स ज ः ।
कमुत पुनः वधाम वधुताशयकालगुणाः
परम भज त ये पदमज सुखानुभवम् ।।१६

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भगवन्! लोग स व, रज, तम—इन तीन गुण क मायासे बने ए अ छे -बुरे भाव
या अ छ -बुरी या म उलझ जाया करते ह, पर तु आप तो उस मायानट के वामी,
उसको नचानेवाले ह। इसी लये वचारशील पु ष आपक लीलाकथाके अमृतसागरम
गोते लगाते रहते ह और इस कार अपने सारे पाप-तापको धो-बहा दे ते ह। य न हो,
आपक लीला-कथा सभी जीव के मायामलको न करनेवाली जो है। पु षो म! जन
महापु ष ने आ म ानके ारा अ तःकरणके राग- े ष आ द और शरीरके कालकृत
जरा-मरण आ द दोष मटा दये ह और नर तर आपके उस व पक अनुभू तम म न
रहते ह, जो अख ड आन द व प है, उ ह ने अपने पाप-ताप को सदाके लये शा त,
भ म कर दया है—इसके वषयम तो कहना ही या है† ।।१६।।

तय इव स यसुभृतो य द तेऽनु वधा


महदहमादयोऽ डमसृजन् यदनु हतः ।
पु ष वधोऽ वयोऽ चरमोऽ मया दषु यः
सदसतः परं वमथ यदे ववशेषमृतम् ।।१७
उदरमुपासते य ऋ षव मसु कूप शः
प रसरप त दयमा णयो दहरम् ।
भगवन्! ाणधा रय के जीवनक सफलता इसीम है क वे आपका भजन-सेवन
कर, आपक आ ाका पालन कर; य द वे ऐसा नह करते तो उनका जीवन थ है
और उनके शरीरम ासका चलना ठ क वैसा ही है, जैसा लुहारक ध कनीम हवाका
आना-जाना। मह व, अहंकार आ दने आपके अनु हसे—आपके उनम वेश
करनेपर ही इस ा डक सृ क है। अ मय, ाणमय, मनोमय, व ानमय और
आन दमय—इन पाँच कोश म पु ष- पसे रहनेवाले, उनम ‘म-म’ क फू त
करनेवाले भी आप ही ह! आपके ही अ त वसे उन कोश के अ त वका अनुभव होता
है और उनके न रहनेपर भी अ तम अव ध पसे आप वराजमान रहते ह। इस कार
सबम अ वत और सबक अव ध होनेपर भी आप असंग ही ह। य क वा तवम जो
कुछ वृ य के ारा अ त अथवा ना तके पम अनुभव होता है, उन सम त काय-
कारण से आप परे ह। ‘ने त-ने त’ के ारा इन सबका नषेध हो जानेपर भी आप ही
शेष रहते ह, य क आप उस नषेधके भी सा ी ह और वा तवम आप ही एकमा
स य ह (इस लये आपके भजनके बना जीवका जीवन थ ही है, य क वह इस
महान् स यसे वं चत है)* ।।१७।।
ऋ षय ने आपक ा तके लये अनेक माग माने ह। उनम जो थूल वाले ह,
वे म णपूरक च म अ न पसे आपक उपासना करते ह। अ णवंशके ऋ ष सम त
ना ड़य के नकलनेके थान दयम आपके परम सू म व प दहर क उपासना
करते ह। भो! दयसे ही आपको ा त करनेका े माग सुषु ना नाड़ी र तक
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गयी ई है। जो पु ष उस यो तमय मागको ा त कर लेता है और उससे ऊपरक
ओर बढ़ता है, वह फर ज म-मृ युके च करम नह पड़ता* ।।१८।। भगवन्! आपने ही
दे वता, मनु य और पशु-प ी आ द यो नयाँ बनायी ह। सदा-सव सब प म आप ह
ही, इस लये कारण पसे वेश न करनेपर भी आप ऐसे जान पड़ते ह, मानो उसम
व ए ह । साथ ही व भ आकृ तय का अनुकरण करके कह उ म, तो कह
अधम पसे तीत होते ह, जैसे आग छोट -बड़ी लक ड़य और कम के अनुसार चुर
अथवा अ प प रमाणम या उ म-अधम पम तीत होती है। इस लये संत पु ष
लौ कक-पारलौ कक कम क कानदारीसे, उनके फल से वर हो जाते ह और
अपनी नमल बु से स य-अस य, आ मा-अना माको पहचानकर जगत्के झूठे
प म नह फँसते; आपके सव एकरस, समभावसे थत स य व पका सा ा कार
करते ह† ।।१९।।

तत उदगादन त तव धाम शरः परमं


पुन रह यत् समे य न पत त कृता तमुखे ।।१८
वकृत व च यो नषु वश व हेतुतया
तरतमत का यनलवत् वकृतानुकृ तः ।
अथ वतथा वमू व वतथं तव धाम समं
वरज धयोऽ वय य भ वप यव एकरसम् ।।१९
वकृतपुरे वमी वब हर तरसंवरणं
तव पु षं वद य खलश धृत ऽशकृतम् ।
भो! जीव जन शरीर म रहता है, वे उसके कमके ारा न मत होते ह और
वा तवम उन शरीर के काय-कारण प आवरण से वह र हत है, य क व तुतः उन
आवरण क स ा ही नह है। त व ानी पु ष ऐसा कहते ह क सम त श य को
धारण करनेवाले आपका ही वह व प है। व प होनेके कारण अंश न होनेपर भी
उसे अंश कहते ह और न मत न होनेपर भी न मत कहते ह। इसीसे बु मान् पु ष
जीवके वा त वक व पपर वचार करके परम व ासके साथ आपके चरणकमल क
उपासना करते ह। य क आपके चरण ही सम त वै दक कम के समपण थान और
मो व प ह* ।।२०।। भगवन्! परमा मत वका ान ा त करना अ य त क ठन है।
उसीका ान करानेके लये आप व वध कारके अवतार हण करते ह और उनके
ारा ऐसी लीला करते ह, जो अमृतके महासागरसे भी मधुर और मादक होती है। जो
लोग उसका सेवन करते ह, उनक सारी थकावट र हो जाती है, वे परमान दम म न
हो जाते ह। कुछ ेमी भ तो ऐसे होते ह, जो आपक लीला-कथा को छोड़कर
मो क भी अ भलाषा नह करते— वग आ दक तो बात ही या है। वे आपके
चरणकमल के ेमी परमहंस के स संगम, जहाँ आपक कथा होती है, इतना सुख
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मानते ह क उसके लये इस जीवनम ा त अपनी घर-गृह थीका भी प र याग कर दे ते
ह† ।।२१।।

इ त नृग त व व य कवयो नगमावपनं


भवत उपासतेऽङ् मभवं भु व व सताः ।।२०
रवगमा मत व नगमाय तवा तनो-
रतमहामृता धप रवतप र मणाः ।
न प रलष त के चदपवगमपी र ते
चरणसरोजहंसकुलसंग वसृ गृहाः ।।२१
वदनुपथं कुलाय मदमा मसु यव-
चर त तथो मुखे व य हते य आ म न च ।
भो! यह शरीर आपक सेवाका साधन होकर जब आपके पथका अनुरागी हो
जाता है, तब आ मा, हतैषी, सु द् और य के समान आचरण करता है। आप
जीवके स चे हतैषी, यतम और आ मा ही ह और सदा-सवदा जीवको अपनानेके
लये तैयार भी रहते ह। इतनी सुगमता होनेपर तथा अनुकूल मानव-शरीरको पाकर भी
लोग स यभाव आ दके ारा आपक उपासना नह करते, आपम नह रमते, ब क
इस वनाशी और असत् शरीर तथा उसके स ब धय म ही रम जाते ह, उ ह क
उपासना करने लगते ह और इस कार अपने आ माका हनन करते ह, उसे अधोग तम
प ँचाते ह। भला, यह कतने क क बात है! इसका फल यह होता है क उनक सारी
वृ याँ, सारी वासनाएँ शरीर आ दम ही लग जाती ह और फर उनके अनुसार उनको
पशु-प ी आ दके न जाने कतने बुर-े बुरे शरीर हण करने पड़ते ह और इस कार
अ य त भयावह ज म-मृ यु प संसारम भटकना पड़ता है* ।।२२।।

न बत रम यहो अस पासनयाऽऽ महनो


यदनुशया म यु भये कुशरीरभूतः ।।२२
नभृतम मनोऽ ढयोगयुजो द य-
मुनय उपासते तदरयोऽ प ययुः मरणात् ।
य उरगे भोगभुजद ड वष धयो
वयम प ते समाः सम शोऽङ् सरोजसुधाः ।।२३
भो! बड़े-बड़े वचारशील योगी-य त अपने ाण, मन और इ य को वशम
करके ढ़ योगा यासके ारा दयम आपक उपासना करते ह। पर तु आ यक बात
तो यह है क उ ह जस पदक ा त होती है, उसीक ा त उन श ु को भी हो
जाती है, जो आपसे वैर-भाव रखते ह। य क मरण तो वे भी करते ही ह। कहाँतक
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कह, भगवन्! वे याँ, जो अ ानवश आपको प र छ मानती ह और आपक
शेषनागके समान मोट , ल बी तथा सुकुमार भुजा के त कामभावसे आस रहती
ह, जस परम पदको ा त करती ह, वही पद हम ु तय को भी ा त होता है—य प
हम आपको सदा-सवदा एकरस अनुभव करती ह और आपके चरणार व दका
मकर दरस पान करती रहती ह। य न हो, आप समदश जो ह। आपक म
उपासकके प र छ या अप र छ भावम कोई अ तर नह है† ।।२३।।

क इह नु वेद बतावरज मलयोऽ सरं


यत उदगा षयमनु दे वगणा उभये ।
त ह न स चास भयं न च कालजवः
कम प न त शा मवकृ य शयीत यदा ।।२४
ज नमसतः सतो मृ तमुता म न ये च भदां
वपणमृतं मर युप दश त त आ पतैः ।
गुणमयः पुमा न त भदा यदबोधकृता
व य न ततः पर स भवेदवबोधरसे ।।२५
भगवन्! आप अना द और अन त ह। जसका ज म और मृ यु कालसे सी मत है,
वह भला, आपको कैसे जान सकता है। वयं ाजी, नवृ परायण सनका द तथा
वृ परायण मरी च आ द भी ब त पीछे आपसे ही उ प ए ह। जस समय आप
सबको समेटकर सो जाते ह, उस समय ऐसा कोई साधन नह रह जाता, जससे उनके
साथ ही सोया आ जीव आपको जान सके। य क उस समय न तो आकाशा द थूल
जगत् रहता है और न तो मह वा द सू म जगत्। इन दोन से बने ए शरीर और उनके
नम ण-मु त आ द कालके अंग भी नह रहते। उस समय कुछ भी नह रहता।
यहाँतक क शा भी आपम ही समा जाते ह (ऐसी अव थाम आपको जाननेक चे ा
न करके आपका भजन करना ही सव म माग है।)* ।।२४।। भो! कुछ लोग मानते
ह क असत् जगत्क उ प होती है और कुछ लोग कहते ह क सत्- प ःख का
नाश होनेपर मु मलती है। सरे लोग आ माको अनेक मानते ह, तो कई लोग
कमके ारा ा त होनेवाले लोक और परलोक प वहारको स य मानते ह। इसम
स दे ह नह क ये सभी बात ममूलक ह और वे आरोप करके ही ऐसा उपदे श करते
ह। पु ष गुणमय है—इस कारका भेदभाव केवल अ ानसे ही होता है और आप
अ ानसे सवथा परे ह। इस लये ान व प आपम कसी कारका भेदभाव नह
है† ।।२५।।

स दव मन वृ व य वभा यसदामनुजात्
सद भमृश यशेष मदमा मतयाऽऽ म वदः ।
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न ह वकृ त यज त कनक य तदा मतया
वकृतमनु व मदमा मतयाव सतम् ।।२६

तव प र ये चर य खलस व नकेततया
त उत पदाऽऽ म य वगण य शरो नऋतेः ।
प रवयसे पशू नव गरा वबुधान प तां-
व य कृतसौ दाः खलु पुन त न ये वमुखाः ।।२७
यह गुणा मक जगत् मनक क पनामा है। केवल यही नह , परमा मा और
जगत्से पृथक् तीत होनेवाला पु ष भी क पनामा ही है। इस कार वा तवम असत्
होनेपर भी अपने स य अ ध ान आपक स ाके कारण यह स य-सा तीत हो रहा है।
इस लये भो ा, भो य और दोन के स ब धको स करनेवाली इ याँ आ द जतना
भी जगत् है, सबको आ म ानी पु ष आ म पसे स य ही मानते ह। सोनेसे बने ए
कड़े, कु डल आ द वण प ही तो ह; इस लये उनको इस पम जाननेवाला पु ष
उ ह छोड़ता नह , वह समझता है क यह भी सोना है। इसी कार यह जगत् आ माम
ही क पत, आ मासे ही ा त है; इस लये आ म ानी पु ष इसे आ म प ही मानते
ह* ।।२६।। भगवन्! जो लोग यह समझते ह क आप सम त ा णय और पदाथ के
अ ध ान ह, सबके आधार ह और सवा मभावसे आपका भजन-सेवन करते ह, वे
मृ युको तु छ समझकर उसके सरपर लात मारते ह अथात् उसपर वजय ा त कर
लेते ह। जो लोग आपसे वमुख ह, वे चाहे जतने बड़े व ान् ह , उ ह आप कम का
तपादन करनेवाली ु तय से पशु के समान बाँध लेते ह। इसके वपरीत ज ह ने
आपके साथ ेमका स ब ध जोड़ रखा है, वे न केवल अपनेको ब क सर को भी
प व कर दे ते ह—जगत्के ब धनसे छु ड़ा दे ते ह। ऐसा सौभा य भला, आपसे वमुख
लोग को कैसे ा त हो सकता है† ।।२७।।

वमकरणः वराड खलकारकश धर-


तव ब लमु ह त समद यजया न मषाः ।
वषभुजोऽ खल तपते रव व सृजो
वदध त य ये व धकृता भवत कताः ।।२८

थरचरजातयः युरजयो थ न म युजो


वहर उद या य द पर य वमु ततः ।
न ह परम य क दपरो न पर भवेद ्
वयत इवापद य तव शू यतुलां दधतः ।।२९
भो! आप मन, बु और इ य आ द करण से— च तन, कम आ दके
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साधन से सवथा र हत ह। फर भी आप सम त अ तःकरण और बा करण क
श य से सदा-सवदा स प ह। आप वतः स ानवान्, वयं काश ह; अतः कोई
काम करनेके लये आपको इ य क आव यकता नह है। जैसे छोटे -छोटे राजा
अपनी-अपनी जासे कर लेकर वयं अपने स ाट् को कर दे ते ह, वैसे ही मनु य के
पू य दे वता और दे वता के पू य ा आ द भी अपने अ धकृत ा णय से पूजा
वीकार करते ह और मायाके अधीन होकर आपक पूजा करते रहते ह। वे इस कार
आपक पूजा करते ह क आपने जहाँ जो कम करनेके लये उ ह नयु कर दया है,
वे आपसे भयभीत रहकर वह वह काम करते रहते ह* ।।२८।।
न यमु ! आप मायातीत ह, फर भी जब अपने ई णमा से—संक पमा से
मायाके साथ डा करते ह, तब आपका संकेत पाते ही जीव के सू म शरीर और
उनके सु त कम-सं कार जग जाते ह और चराचर ा णय क उ प होती है। भो!
आप परम दयालु ह। आकाशके समान सबम सम होनेके कारण न तो कोई आपका
अपना है और न तो पराया। वा तवम तो आपके व पम मन और वाणीक ग त ही
नह है। आपम काय-कारण प पंचका अभाव होनेसे बा से आप शू यके
समान ही जान पड़ते ह; पर तु उस के भी अ ध ान होनेके कारण आप परम स य
ह† ।।२९।।

अप र मता ुवा तनुभृतो य द सवगता-


त ह न शा यते त नयमो ुव नेतरथा ।
अज न च य मयं तद वमु य नय तृ भवेत्
सममनुजानतां यदमतं मत तया ।।३०

न घटत उ वः कृ तपू षयोरजयो-


भययुजा भव यसुभृतो जलबुदबु् दवत् ।
भगवन्! आप न य एकरस ह। य द जीव असं य ह और सब-के-सब न य एवं
सव ापक ह , तब तो वे आपके समान ही हो जायँग;े उस हालतम वे शा सत ह और
आप शासक—यह बात बन ही नह सकती, और तब आप उनका नय ण कर ही
नह सकते। उनका नय ण आप तभी कर सकते ह, जब वे आपसे उ प एवं
आपक अपे ा यून ह । इसम स दे ह नह क ये सब-के-सब जीव तथा इनक एकता
या व भ ता आपसे ही उ प ई है। इस लये आप उनम कारण पसे रहते ए भी
उनके नयामक ह। वा तवम आप उनम सम पसे थत ह। पर तु यह जाना नह जा
सकता क आपका वह व प कैसा है। य क जो लोग ऐसा समझते ह क हमने
जान लया, उ ह ने वा तवम आपको नह जाना; उ ह ने तो केवल अपनी बु के
वषयको जाना है, जससे आप परे ह। और साथ ही म तके ारा जतनी व तुएँ जानी

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जाती ह, वे म तय क भ ताके कारण भ - भ होती ह; इस लये उनक ता, एक
मतके साथ सरे मतका वरोध य ही है। अतएव आपका व प सम त मत के
परे है* ।।३०।।
वा मन्! जीव आपसे उ प होता है, यह कहनेका ऐसा अथ नह है क आप
प रणामके ारा जीव बनते ह। स ा त तो यह है क कृ त और पु ष दोन ही
अज मा ह। अथात् उनका वा त वक व प—जो आप ह—कभी वृ य के अंदर
उतरता नह , ज म नह लेता। तब ा णय का ज म कैसे होता है? अ ानके कारण
कृ तको पु ष और पु षको कृ त समझ लेनेस,े एकका सरेके साथ संयोग हो
जानेसे जैसे ‘बुलबुला’ नामक कोई वत व तु नह है, पर तु उपादान-कारण जल
और न म -कारण वायुके संयोगसे उसक सृ हो जाती है। कृ तम पु ष और
पु षम कृ तका अ यास (एकम सरेक क पना) हो जानेके कारण ही जीव के
व वध नाम और गुण रख लये जाते ह। अ तम जैसे समु म न दयाँ और मधुम सम त
पु प के रस समा जाते ह, वैसे ही वे सब-के-सब उपा धर हत आपम समा जाते ह।
(इस लये जीव क भ ता और उनका पृथक् अ त व आपके ारा नय त है।
उनक पृथक् वत ता और सव- ापकता आ द वा त वक स यको न जाननेके
कारण ही मानी जाती है)* ।।३१।।

व य त इमे ततो व वधनामगुणैः परमे


स रत इवाणवे मधु न ल युरशेषरसाः ।।३१

नृषु तव मायया मममी ववग य भृशं


व य सु धयोऽभवे दध त भावमनु भवम् ।
कथमनुवततां भवभयं तव यद् ुकु टः
सृज त मु णे मरभव छरणेषु भयम् ।।३२
भगवन्! सभी जीव आपक मायासे मम भटक रहे ह, अपनेको आपसे पृथक्
मानकर ज म-मृ युका च कर काट रहे ह। पर तु बु मान् पु ष इस मको समझ
लेते ह और स पूण भ भावसे आपक शरण हण करते ह, य क आप ज म-
मृ युके च करसे छु ड़ानेवाले ह। य प शीत, ी म और वषा—इन तीन भाग वाला
कालच आपका ू वलासमा है, वह सभीको भयभीत करता है, पर तु वह उ ह को
बार-बार भयभीत करता है, जो आपक शरण नह लेते। जो आपके शरणागत भ ह,
उ ह भला, ज म-मृ यु प संसारका भय कैसे हो सकता है?† ।।३२।।

व जत षीकवायु भरदा तमन तुरगं


य इह यत त य तुम तलोलमुपाय खदः ।

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सनशता वताः समवहाय गुरो रणं
व णज इवाज स यकृतकणधरा जलधौ ।।३३

वजनसुता मदारधनधामधरासुरथै-
व य स त क नृणां यत आ म न सवरसे ।
इ त सदजानतां मथुनतो रतये चरतां
सुखय त को वह व वहते व नर तभगे ।।३४

भु व पु पु यतीथसदना यृषयो वमदा-


त उत भव पदा बुज दोऽघ भदङ् जलाः ।
अज मा भो! जन यो गय ने अपनी इ य और ाण को वशम कर लया है, वे
भी, जब गु दे वके चरण क शरण न लेकर उ छृ ं खल एवं अ य त चंचल मन-तुरंगको
अपने वशम करनेका य न करते ह, तब अपने साधन म सफल नह होते। उ ह बार-
बार खेद और सैकड़ वप य का सामना करना पड़ता है, केवल म और ःख ही
उनके हाथ लगता है। उनक ठ क वही दशा होती है, जैसी समु म बना कणधारक
नावपर या ा करनेवाले ापा रय क होती है (ता पय यह क जो मनको वशम करना
चाहते ह, उनके लये कणधार—गु क अ नवाय आव यकता है)* ।।३३।।
भगवन्! आप अख ड आन द व प और शरणागत के आ मा ह। आपके रहते
वजन, पु , दे ह, ी, धन, महल, पृ वी, ाण और रथ आ दसे या योजन है? जो
लोग इस स य स ा तको न जानकर ी-पु षके स ब धसे होनेवाले सुख म ही रम
रहे ह, उ ह संसारम भला, ऐसी कौन-सी व तु है, जो सुखी कर सके। य क संसारक
सभी व तुएँ वभावसे ही वनाशी ह, एक-न-एक दन म टयामेट हो जानेवाली ह। और
तो या, वे व पसे ही सारहीन और स ाहीन ह; वे भला, या सुख दे सकती
ह† ।।३४।। भगवन्! जो ऐ य, ल मी, व ा, जा त, तप या आ दके घमंडसे र हत ह,
वे संतपु ष इस पृ वीतलपर परम प व और सबको प व करनेवाले पु यमय स चे
तीथ थान ह। य क उनके दयम आपके चरणार व द सवदा वराजमान रहते ह और
यही कारण है क उन संत पु ष का चरणामृत सम त पाप और ताप को सदाके लये
न कर दे नेवाला है। भगवन्! आप न य-आन द व प आ मा ही ह। जो एक बार भी
आपको अपना मन सम पत कर दे ते ह—आपम मन लगा दे ते ह—वे उन दे ह-गेह म
कभी नह फँसते जो जीवके ववेक, वैरा य, धैय, मा और शा त आ द गुण का नाश
करनेवाले ह। वे तो बस, आपम ही रम जाते ह* ।।३५।।

दध त सकृ मन व य य आ म न न यसुखे
न पुन पासते पु षसारहरावसथान् ।।३५
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सत इदमु थतं
स द त चे नु तकहतं
भचर त व च
व च मृषा न तथोभययुक् ।
भगवन्! जैसे म से बना आ घड़ा म प ही होता है, वैसे ही सत्से बना आ
जगत् भी सत् ही है—यह बात यु संगत नह है। य क कारण और कायका नदश
ही उनके भेदका ोतक है। य द केवल भेदका नषेध करनेके लये ही ऐसा कहा जा
रहा हो तो पता और पु म, द ड और घटनाशम काय-कारण-भाव होनेपर भी वे एक
सरेसे भ ह। इस कार काय-कारणक एकता सव एक-सी नह दे खी जाती। य द
कारण-श दसे न म -कारण न लेकर केवल उपादान-कारण लया जाय—जैसे
कु डलका सोना—तो भी कह -कह कायक अस यता मा णत होती है; जैसे र सीम
साँप। यहाँ उपादान-कारणके स य होनेपर भी उसका काय सप सवथा अस य है। य द
यह कहा जाय क तीत होनेवाले सपका उपादान-कारण केवल र सी नह है, उसके
साथ अ व ाका— मका मेल भी है, तो यह समझना चा हये क अ व ा और सत्
व तुके संयोगसे ही इस जगत्क उ प ई है। इस लये जैसे र सीम तीत होनेवाला
सप म या है, वैसे ही सत् व तुम अ व ाके संयोगसे तीत होनेवाला नाम- पा मक
जगत् भी म या है। य द केवल वहारक स के लये ही जगत्क स ा अभी हो,
तो उसम कोई आप नह ; य क वह पारमा थक स य न होकर केवल ावहा रक
स य है। यह म ावहा रक जगत्म माने ए कालक से अना द है; और
अ ानीजन बना वचार कये पूव-पूवके मसे े रत होकर अ धपर परासे इसे मानते
चले आ रहे ह। ऐसी थ तम कमफलको स य बतलानेवाली ु तयाँ केवल उ ह
लोग को मम डालती ह, जो कमम जड हो रहे ह और यह नह समझते क इनका
ता पय कमफलक न यता बतलानेम नह , ब क उनक शंसा करके उन कम म
लगानेम है* ।।३६।।

व तये वक प
इ षतोऽ धपर परया
मय त भारती त
उ वृ भ थजडान् ।।३६

न य ददम आस न भ व यदतो नधना-


दनु मतम तरा व य वभा त मृषैकरसे ।
अत उपमीयते वणजा त वक पपथै-
वतथमनो वलासमृत म यवय यबुधाः ।।३७

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भगवन्! वा त वक बात तो यह है क यह जगत् उ प के पहले नह था और
लयके बाद नह रहेगा; इससे यह स होता है क यह बीचम भी एकरस परमा माम
म या ही तीत हो रहा है। इसीसे हम ु तयाँ इस जगत्का वणन ऐसी उपमा दे कर
करती ह क जैसे म म घड़ा, लोहेम श और सोनेम कु डल आ द नाममा ह,
वा तवम म , लोहा और सोना ही ह। वैसे ही परमा माम व णत जगत् नाममा है,
सवथा म या और मनक क पना है। इसे नासमझ मूख ही स य मानते ह† ।।३७।।

स यदजया वजामनुशयीत गुणां जुषन्


भज त स पतां तदनु मृ युमपेतभगः ।
वमुत जहा स ताम ह रव वचमा भगो
मह स महीयसेऽ गु णतेऽप रमेयभगः ।।३८

य द न समु र त यतयो द कामजटा


र धगमोऽसतां द गतोऽ मृतक ठम णः ।
असुतृपयो गनामुभयतोऽ यसुखं भगव-
नपगता तकादन ध ढपदाद् भवतः ।।३९
भगवन्! जब जीव मायासे मो हत होकर अ व ाको अपना लेता है, उस समय
उसके व पभूत आन दा द गुण ढक जाते ह; वह गुणज य वृ य , इ य और
दे ह म फँस जाता है तथा उ ह को अपना आपा मानकर उनक सेवा करने लगता है।
अब उनक ज म-मृ युम अपनी ज म-मृ यु मानकर उनके च करम पड़ जाता है।
पर तु भो! जैसे साँप अपने कचुलसे कोई स ब ध नह रखता, उसे छोड़ दे ता है—
वैसे ही आप माया—अ व ासे कोई स ब ध नह रखते, उसे सदा-सवदा छोड़े रहते ह।
इसीसे आपके स पूण ऐ य, सदा-सवदा आपके साथ रहते ह। अ णमा आ द
अ स य से यु परमै यम आपक थ त है। इसीसे आपका ऐ य, धम, यश, ी,
ान और वैरा य अप र मत है, अन त है; वह दे श, काल और व तु क सीमासे
आब नह है* ।।३८।।
भगवन्! य द मनु य योगी-य त होकर भी अपने दयक वषय-वासना को
उखाड़ नह फकते तो उन असाधक के लये आप दयम रहनेपर भी वैसे ही लभ ह,
जैसे कोई अपने गलेम म ण पहने ए हो, पर तु उसक याद न रहनेपर उसे ढूँ ढ़ता फरे
इधर-उधर। जो साधक अपनी इ य को तृ त करनेम ही लगे रहते ह, वषय से वर
नह होते, उ ह जीवनभर और जीवनके बाद भी ःख-ही- ःख भोगना पड़ता है।
य क वे साधक नह , द भी ह। एक तो अभी उ ह मृ युसे छु टकारा नह मला है,
लोग को रझाने, धन कमाने आ दके लेश उठाने पड़ रहे ह, और सरे आपका व प
न जाननेके कारण अपने धम-कमका उ लंघन करनेसे परलोकम नरक आ द ा त
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होनेका भय भी बना ही रहता है† ।।३९।।

वदवगमी न वे भव थशुभाशुभयो-
गुण वगुणा वयां त ह दे हभृतां च गरः ।
अनुयुगम वहं सगुण गीतपर परया
वणभृतो यत वमपवगग तमनुजैः ।।४०

ु तय एव ते न ययुर तमन ततया



वम प यद तरा ड नचया ननु सावरणाः ।
भगवन्! आपके वा त वक व पको जाननेवाला पु ष आपके दये ए पु य और
पाप-कम के फल सुख एवं ःख को नह जानता, नह भोगता; वह भो य और
भो ापनके भावसे ऊपर उठ जाता है। उस समय व ध- नषेधके तपादक शा भी
उससे नवृ हो जाते ह; य क वे दे हा भमा नय के लये ह। उनक ओर तो उसका
यान ही नह जाता। जसे आपके व पका ान नह आ है, वह भी य द त दन
आपक येक युगम क ई लीला , गुण का गान सुन-सुनकर उनके ारा आपको
अपने दयम बैठा लेता है तो अन त, अ च य, द गुणगण के नवास थान भो!
आपका वह ेमी भ भी पाप-पु य के फल सुख- ःख और व ध- नषेध से अतीत
हो जाता है। य क आप ही उनक मो व प ग त ह। (पर तु इन ानी और
े मय को छोड़कर और सभी शा ब धनम ह तथा वे उसका उ लंघन करनेपर
ग तको ा त होते ह)* ।।४०।।
भगवन्! वगा द लोक के अ धप त इ , ा भृ त भी आपक थाह—आपका
पार न पा सके; और आ यक बात तो यह है क आप भी उसे नह जानते। य क
जब अ त है ही नह , तब कोई जानेगा कैसे? भो! जैसे आकाशम हवासे धूलके न ह-
न ह कण उड़ते रहते ह, वैसे ही आपम कालके वेगसे अपनेसे उ रो र दसगुने सात
आवरण के स हत असं य ा ड एक साथ ही घूमते रहते ह। तब भला, आपक
सीमा कैसे मले। हम ु तयाँ भी आपके व पका सा ात् वणन नह कर सकत ,
आपके अ त र व तु का नषेध करते-करते अ तम अपना भी नषेध कर दे ती ह
और आपम ही अपनी स ा खोकर सफल हो जाती ह* ।।४१।।

ख इव रजां स वा त वयसा सह य छतय-


व य ह फल यत रसनेन भव धनाः ।।४१
ीभगवानुवाच
इ येतद् णः पु ा आ ु या मानुशासनम् ।

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सन दनमथानचुः स ा ा वाऽऽ मनो ग तम् ।।४२

इ यशेषसमा नायपुराणोप नष सः ।
समुदधृ
् तः पूवजातै मयानैमहा म भः ।।४३

वं चैतद् दायाद याऽऽ मानुशासनम् ।


धारयं र गां कामं कामानां भजनं नृणाम् ।।४४
ीशुक उवाच
एवं स ऋ षणाऽऽ द ं गृही वा याऽऽ मवान् ।
पूणः ुतधरो राज ाह वीर तो मु नः ।।४५
भगवान् नारायणने कहा—दे वष! इस कार सनका द ऋ षय ने आ मा और
क एकता बतलानेवाला उपदे श सुनकर आ म व पको जाना और न य स
होनेपर भी इस उपदे शसे कृतकृ य-से होकर उन लोग ने सन दनक पूजा क ।।४२।।
नारद! सनका द ऋ ष सृ के आर भम उ प ए थे, अतएव वे सबके पूवज ह।
उन आकाशगामी महा मा ने इस कार सम त वेद, पुराण और उप नषद का रस
नचोड़ लया है, यह सबका सार-सव व है ।।४३।।
दे वष! तुम भी उ ह के समान ाके मानस-पु हो—उनक ान-स प के
उ रा धकारी हो। तुम भी ाके साथ इस ा म व ाको धारण करो और
व छ दभावसे पृ वीम वचरण करो। यह व ा मनु य क सम त वासना को भ म
कर दे नेवाली है ।।४४।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! दे व ष नारद बड़े संयमी, ानी, पूणकाम और
नै क चारी ह। वे जो कुछ सुनते ह, उ ह उसक धारणा हो जाती है। भगवान्
नारायणने उ ह जब इस कार उपदे श कया, तब उ ह ने बड़ी ासे उसे हण कया
और उनसे यह कहा ।।४५।।
नारद उवाच
नम त मै भगवते कृ णायामलक तये ।
यो ध े सवभूतानामभवायोशतीः कलाः ।।४६

इ या मृ षमान य त छ यां महा मनः ।


ततोऽगादा मं सा ात् पतु पायन य मे ।।४७

सभा जतो भगवता कृतासनप र हः ।


त मै तद् वणयामास नारायणमुखा छतम् ।।४८
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इ येतद् व णतं राजन् य ः ः कृत वया ।
यथा य नद ये नगुणेऽ प मन रेत् ।।४९

योऽ यो े क आ दम य नधने
योऽ जीवे रो
यः सृ ् वेदमनु व य ऋ षणा
च े पुरः शा त ताः ।
यं संप जहा यजामनुशयी
सु तः कुलायं यथा
तं कैव य नर तयो नमभयं
यायेदज ं ह रम् ।।५०
दे व ष नारदने कहा—भगवन्! आप स चदान द व प ीकृ ण ह। आपक
क त परम प व है। आप सम त ा णय के परम क याण—मो के लये कमनीय
कलावतार धारण कया करते ह। म आपको नम कार करता ँ ।।४६।।
परी त्! इस कार महा मा दे व ष नारद आ द ऋ ष भगवान् नारायणको और
उनके श य को नम कार करके वयं मेरे पता ीकृ ण ै पायनके आ मपर
गये ।।४७।। भगवान् वेद ासने उनका यथो चत स कार कया। वे आसन वीकार
करके बैठ गये, इसके बाद दे व ष नारदने जो कुछ भगवान् नारायणके मुँहसे सुना था,
वह सब कुछ मेरे पताजीको सुना दया ।।४८।। राजन्! इस कार मने तु ह बतलाया
क मन-वाणीसे अगोचर और सम त ाकृत गुण से र हत पर परमा माका वणन
ु तयाँ कस कार करती ह और उसम मनका कैसे वेश होता है? यही तो तु हारा
था ।।४९।। परी त्! भगवान् ही इस व का संक प करते ह तथा उसके आ द,
म य और अ तम थत रहते ह। वे कृ त और जीव दोन के वामी ह। उ ह ने ही
इसक सृ करके जीवके साथ इसम वेश कया है और शरीर का नमाण करके वे ही
उनका नय ण करते ह। जैसे गाढ़ न ा—सुषु तम म न पु ष अपने शरीरका
अनुस धान छोड़ दे ता है, वैसे ही भगवान्को पाकर यह जीव मायासे मु हो जाता है।
भगवान् ऐसे वशु , केवल च मा त व ह क उनम जगत्के कारण माया अथवा
कृ तका र ीभर भी अ त व नह है। वे ही वा तवम अभय- थान ह। उनका च तन
नर तर करते रहना चा हये ।।५०।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध
नारदनारायणसंवादे वेद तु तनाम स ताशी ततमोऽ यायः ।।८७।।

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* इन ोक पर ी ीधर वामीने ब त सु दर ोक लखे ह, वे अथस हत
यहाँ दये जाते ह—
जय जया जत ज गजंगमावृ तमजामुपनीतमृषागुणाम् ।
न ह भव तमृते भव यमी नगमगीतगुणाणवता तव ।।१।।
अ जत! आपक जय हो, जय हो! झूठे गुण धारण करके चराचर जीवको
आ छा दत करनेवाली इस मायाको न कर द जये। आपके बना बेचारे जीव
इसको नह मार सकगे—नह पार कर सकगे। वेद इस बातका गान करते रहते ह
क आप सकल सद्गुण के समु ह ।।१।।
* हणव रवी मुखामरा जग ददं न भवे पृथगु थतम् ।
ब मुखैर प म गणैरज वमु मू तरतो व नग से ।।२।।
ा, अ न, सूय, इ आ द दे वता तथा यह स पूण जगत् तीत होनेपर भी
आपसे पृथक् नह है। इस लये अनेक दे वता का तपादन करनेवाले वेद-म
उन दे वता के नामसे पृथक्-पृथक् आपक ही व भ मू तय का वणन करते ह।
व तुतः आप अज मा ह; उन मू तय के पम भी आपका ज म नह होता ।।२।।
† सकलवेदगणे रतसद्गुण व म त सवमनी षजना रताः ।
व य सुभ गुण वणा द भ तव पद मरणेन गत लमाः ।।३।।
सारे वेद आपके सद्गुण का वणन करते ह। इस लये संसारके सभी व ान्
आपके मंगलमय क याणकारी गुण के वण, मरण आ दके ारा आपसे ही ेम
करते ह और आपके चरण का मरण करके स पूण लेश से मु हो जाते
ह ।।३।।

* नरवपुः तप य द व य वणवणनसं मरणा द भः ।


नरहरे! न भज त नृणा मदं तव छ् व सतं वफलं ततः ।।४।।
नरहरे! मनु य-शरीर ा त करके य द जीव आपके वण, वणन और
सं मरण आ दके ारा आपका भजन करते तो जीव का ास लेना ध कनीके
समान ही सवथा थ है ।।४।।
* उदरा दषु यः पुंसां च ततो मु नव म भः ।
ह त मृ युभयं दे वो द्गतं तमुपा महे ।।५।।
मनु य ऋ ष-मु नय के ारा बतलायी ई प तय से उदर आ द थान म
जनका च तन करते ह और जो भु उनके च तन करनेपर मृ यु-भयका नाश
कर दे ते ह, उन दयदे शम वराजमान भुक हम उपासना करते ह ।।५।।
† व न मतेषु कायषु तारत य वव जतम् ।
सवानु यूतस मा ं भगव तं भजामहे ।।६।।

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अपने ारा न मत स पूण काय म जो यूना धक े -क न के भावसे र हत
एवं सबम भरपूर ह, इस पम अनुभवम आनेवाली न वशेष स ाके पम थत
ह, उन भगवान्का हम भजन करते ह ।।६।।

* वदं श य ममेशान व मायाकृतब धनम् ।


वदङ् सेवामा द य परान द नवतय ।।७।।
मेरे परमान द व प वामी! म आपका अंश ।ँ अपने चरण क सेवाका
आदे श दे कर अपनी मायाके ारा न मत मेरे ब धनको नवृ कर दो ।।७।।
† व कथामृतपाथोघौ वहर तो महामुदः ।
कुव त कृ तनः के च चतुवग तृणोपमम् ।।८।।
कोई-कोई वरले शु ा तःकरण महापु ष आपके अमृतमय कथा-समु म
वहार करते ए परमान दम म न रहते ह और धम, अथ, काम, मो —इन चार
पु षाथ को तृणके समान तु छ बना दे ते ह।

* व या म न जग ाथे म मनो रमता मह ।


कदा ममे शं ज म मानुषं स भ व य त ।।९।।
आप जगत्के वामी ह और अपनी आ मा ही ह। इस जीवनम ही मेरा मन
आपम रम जाय। मेरे वामी! मेरा ऐसा सौभा य कब होगा, जब मुझे इस
कारका मनु यज म ा त होगा?
† चरण मरणं े णा तव दे व सु लभम् ।
यथाकथ च ृहरे मम भूयादह नशम् ।।१०।।
दे व! आपके चरण का ेमपूवक मरण अ य त लभ है। चाहे जैस-े कैसे भी
हो, नृ सह! मुझे तो आपके चरण का मरण दन-रात बना रहे।

* वाहं बु या दसं ः व च भूम मह तव ।


द नब धो दया स धो भ मे नृहरे दश ।।११।।
अन त! कहाँ बु आ द प र छ उपा धय से घरा आ म और कहाँ
आपका मन, वाणी आ दके अगोचर व प! (आपका ान तो ब त ही क ठन
है) इस लये द नब ध, दया स धु! नरह र दे व! मुझे तो अपनी भ ही द जये।
† म यातकसुककशे रतमहावादा धकारा तर-
ा य म दमतेरम दम हमं व ानव मा फुटम् ।
ीम माधव वामन नयन ीशंकर ीपते
गो व दे त मुदा वदन् मधुपते मु ः कदा यामहम् ।।१२।।
अन त म हमाशाली भो! जो म दम त पु ष झूठे तक के ारा े रत अ य त
ककश वाद- ववादके घोर अ धकारम भटक रहे ह, उनके लये आपके ानका
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माग प सूझना स भव नह है। इस लये मेरे जीवनम ऐसी सौभा यक घड़ी कब
आवेगी क म ीम माधव, वामन, लोचन, ीशंकर, ीपते, गो व द, मधुपते—
इस कार आपको आन दम भरकर पुकारता आ मु हो जाऊँगा।

* य स वतः सदाभा त जगदे तदसत् वतः ।


सदाभासमस य मन् भगव तं भजाम तम् ।।१३।।
यह जगत् अपने व प, नाम और आकृ तके पम असत् है, फर भी जस
अ ध ान-स ाक स यतासे यह स य जान पड़ता है तथा जो इस अस य पंचम
स यके पसे सदा काशमान रहता है, उस भगवान्का हम भजन करते ह।
† तप तु तापैः पत तु पवतादट तु तीथा न पठ तु चागमान् ।
यज तु यागै ववद तु वादै ह र वना नैव मृ त तर त ।।१४।।
लोग पंचा न आ द ताप से त त ह , पवतसे गरकर आ मघात कर ल,
तीथ का पयटन कर, वेद का पाठ कर, य के ारा यजन कर अथवा भ - भ
मतवाद के ारा आपसम ववाद कर, पर तु भगवान्के बना इस मृ युमय संसार-
सागरसे पार नह जाते।
* अ न योऽ प यो दे वः सवकारकश धृक् ।
सव ः सवकता च सवसे ं नमा म तम् ।।१५।।
जो भु इ यर हत होनेपर भी सम त बा और आ त रक इ यक
श को धारण करता है और सव एवं सवकता है, उस सबके सेवनीय भुको
म नम कार करता ।ँ
† वद णवश ोभमायाबो धतकम भः ।
जातान् संसरतः ख ा ृहरे पा ह नः पतः ।।१६।।
नृ सह! आपके सृ -संक पसे ु ध होकर मायाने कम को जा त् कर दया
है। उ ह के कारण हम लोग का ज म आ और अब आवागमनके च करम
भटककर हम ःखी हो रहे ह। पताजी! आप हमारी र ा क जये।

* अ तय ता सवलोक य गीतः ु या यु या चैवमेवावसेयः ।


यः सव ः सवश नृ सहः ीम तं तं चेतसैवावल बे ।।१७।।
ु तने सम त य पंचके अ तयामीके पम जनका गान कया है, और
यु से भी वैसा ही न य होता है। जो सव , सवश और नृ सह—पु षो म
ह, उ ह सवसौ दय-माधुय न ध भुका म मन-ही-मन आ य हण करता ।ँ
*य म ु द् वलयम प यद् भा त व ं लयादौ
जीवोपेतं गु क णया केवला मावबोधे ।
अ य ता तं ज त सहसा स धुव स धुम ये

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म ये च ं भुवनगु ं भावये तं नृ सहम् ।।१८।।
जीव के स हत यह स पूण व जनम उदय होता है और सुषु त आ द
अव था म वलयको ा त होता है तथा भान होता है, गु दे वक क णा ा त
होनेपर जब शु आ माका ान होता है, तब समु म नद के समान सहसा यह
जनम आ य तक लयको ा त हो जाता है, उ ह भुवनगु नृ सहभगवान्क
म अपने दयम भावना करता ँ।
† संसारच कचै वद णमुद णनानाभवतापत तम् ।
कथं चदाप मह प ं वमु र ीनृहरे नृलोकम् ।।१९।।
नृ सह! यह जीव संसार-च के आरेसे टु कड़े-टु कड़े हो रहा है और नाना
कारके सांसा रक ताप क धधकती ई लपट से झुलस रहा है। यह आप त
जीव कसी कार आपक कृपासे आपक शरणम आया है। आप इसका उ ार
क जये।

* यदा परान दगुरो भव पदे पदं मनो मे भगवँ लभेत ।


तदा नर ता खलसाधन मः येय सौ यं भवतः कृपातः ।।२०।।
परमान दमय गु दे व! भगवन्! जब मेरा मन आपके चरण म थान ा त कर
लेगा, तब म आपक कृपासे सम त साधन के प र मसे छु टकारा पाकर
परमान द ा त क ँ गा।
† भजतो ह भवान् सा ा परमान द चद्घनः ।
आ मैव कमतः कृ यं तु छदारसुता द भः ।।२१।।
जो आपका भजन करते ह, उनके लये आप वयं सा ात् परमान द चद्घन
आ मा ही ह। इस लये उ ह तु छ ी, पु , धन आ दसे या योजन है?

*मुंच ंगतदं गसंगम नशं वामेव सं च तयन्


स तः स त यतो यतो गतमदा ताना मानावसन् ।
न यं त मुखपंकजा ग लत व पु यगाथामृत-
ोतःस लवसं लुतो नरहरे न यामहं दे हभृत् ।।२२।।
म शरीर और उसके स ब धय क आस छोड़कर रात- दन आपका ही
च तन क ँ गा और जहाँ-जहाँ नर भमान स त नवास करते ह, उ ह -उ ह
आ म म र ँगा। उन स पु ष के मुख-कमलसे नःसृत आपक पु यमयी कथा-
सुधाक न दय क धाराम त दन नान क ँ गा और नृ सह! फर म कभी दे हके
ब धनम नह पडँगा।

*उ तं भवतः सतोऽ प भुवनं स ैव सपः जः


कुवत् कायमपीह कूटकनकं वेदोऽ प नैवंपरः ।
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अ ै तं तव स परं तु परमान दं पदं त मुदा
व दे सु दर म दरानुत हरे मा मुंच मामानतम् ।।२३।।
मालाम तीयमान सपके समान स य व प आपसे उदय होनेपर भी यह
भुवन स य नह है। झूठा सोना बाजारम चल जानेपर भी स य नह हो जाता।
वेद का ता पय भी जगत्क स यताम नह है। इस लये आपका जो परम स य
परमान द व प अ ै त सु दर पद है, हे इ दराव दत ीहरे! म उसीक व दना
करता ।ँ मुझ शरणागतको मत छो ड़ये।
† मुकुटकु डलकंकण क कणीप रणतं कनकं परमाथतः ।
महदहङ् कृ तख मुखं तथा नरहरे न परं परमाथतः ।।२४।।
सोना मुकुट, कु डल, कंकण और क कणीके पम प रणत होनेपर भी
व तुतः सोना ही है। इसी कार नृ सह! मह व, अहंकार और आकाश, वायु
आ दके पम उपल ध होनेवाला यह स पूण जगत् व तुतः आपसे भ नह है।

* नृ य ती तव वी णांगणगता काल वभावा द भ-


भावान् स वरज तमोगुणमयानु मीलय ती ब न् ।
मामा य पदा शर य तभरं स मदय यातुरं
माया ते शरणं गतोऽ म नृहरे वामेव तां वारय ।।२५।।
भो! आपक यह माया आपक के आँगनम आकर नाच रही है और
काल, वभाव आ दके ारा स वगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी अनेकानेक
भाव का दशन कर रही है। साथ ही यह मेरे सरपर सवार होकर मुझ आतुरको
बलपूवक र द रही है। नृ सह! म आपक शरणम आया ,ँ आप ही इसे रोक
द जये।
† द भ यास मषेण वं चतजनं भोगैक च तातुरं
स मु तमह नशं वर चतो ोग लमैराकुलम् ।

आ ालं घनम म जनतास माननास मदं


द नानाथ दया नधान परमान द भो पा ह माम् ।।२६।।
भो! म द भपूण सं यासके बहाने लोग को ठग रहा ।ँ एकमा भोगक
च तासे ही आतुर ँ तथा रात- दन नाना कारके उ ोग क रचनाक थकावटसे
ाकुल तथा बेसुध हो रहा ँ। म आपक आ ाका उ लंघन करता ,ँ अ ानी ँ
और अ ानी लोग के ारा ा त स मानसे ‘म स त ’ँ ऐसा घम ड कर बैठा ।ँ
द नानाथ, दया नधान, परमान द! मेरी र ा क जये।
*अवगमं तव मे द श माधव फुर त य सुखासुखसंगमः ।
वणवणनभावमथा प वा न ह भवा म यथा व ध ककरः ।।२७।।
माधव! आप मुझे अपने व पका अनुभव कराइये, जससे फर सुख-
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ःखके संयोगक फू त नह होती। अथवा मुझे अपने गुण के वण और
वणनका ेम ही द जये, जससे क म व ध- नषेधका ककर न होॐ।

* ुपतयो व र तमन त ते न च भवा गरः ु तमौलयः ।


व य फल त यतो नम इ यतो जय जये त भजे तव
त पदम् ।।२८।।
हे अन त! ा आ द दे वता आपका अ त नह जानते, न आप ही जानते
और न तो वेद क मुकुटम ण उप नषद ही जानती ह; य क आप अन त ह।
उप नषद ‘नमो नमः’, ‘जय हो, जय हो’ यह कहकर आपम च रताथ होती ह।
इस लये म भी ‘नमो नमः’, ‘जय हो’, ‘जय हो’ यही कहकर आपके चरण-
कमलक उपासना करता ।ँ

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अथा ाशी ततमोऽ यायः
शवजीका संकटमोचन
राजोवाच
दे वासुरमनु येषु ये भज य शवं शवम् ।
ाय ते ध ननो भोजा न तु ल याः प त ह रम् ।।१

एतद् वे दतु म छामः स दे होऽ महान् ह नः ।


व शीलयोः वो व ा भजतां ग तः ।।२
ीशुक उवाच
शवः श युतः श त् लगो गुणसंवृतः ।
वैका रक तैजस तामस े यहं धा ।।३

ततो वकारा अभवन् षोडशामीषु कंचन ।


उपधावन् वभूतीनां सवासाम ुते ग तम् ।।४

ह र ह नगुणः सा ात् पु षः कृतेः परः ।


स सव गुप ा तं भजन् नगुणो भवेत् ।।५

नवृ े व मेधेषु राजा यु म पतामहः ।


शृ वन् भगवतो धमानपृ छ ददम युतम् ।।६

स आह भगवां त मै ीतः शु ूषवे भुः ।


नृणां नः ेयसाथाय योऽवतीण यदोः कुले ।।७
राजा परी त्ने पूछा—भगवन्! भगवान् शंकरने सम त भोग का प र याग कर रखा
है; पर तु दे खा यह जाता है क जो दे वता, असुर अथवा मनु य उनक उपासना करते ह, वे
ायः धनी और भोगस प हो जाते ह। और भगवान् व णु ल मीप त ह, पर तु उनक
उपासना करनेवाले ायः धनी और भोग स प नह होते ।।१।। दोन भु याग और
भोगक से एक- सरेसे व वभाववाले ह, परंतु उनके उपासक को उनके व पके
वपरीत फल मलता है। मुझे इस वषयम बड़ा स दे ह है क यागीक उपासनासे भोग और
ल मीप तक उपासनासे याग कैसे मलता है? म आपसे यह जानना चाहता ँ ।।२।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! शवजी सदा अपनी श से यु रहते ह। वे स व
आ द गुण से यु तथा अहंकारके अ ध ाता ह। अहंकारके तीन भेद ह—वैका रक, तैजस
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और तामस ।।३।। वध अहंकारसे सोलह वकार ए—दस इ याँ, पाँच महाभूत और
एक मन। अतः इन सबके अ ध ातृ-दे वता मसे कसी एकक उपासना करनेपर सम त
ऐ य क ा त हो जाती है ।।४।। पर तु परी त्! भगवान् ीह र तो कृ तसे परे वयं
पु षो म एवं ाकृत गुणर हत ह। वे सव तथा सबके अ तःकरण के सा ी ह। जो उनका
भजन करता है, वह वयं भी गुणातीत हो जाता है ।।५।। परी त्! जब तु हारे दादा धमराज
यु ध र अ मेध य कर चुके, तब भगवान्से व वध कारके धम का वणन सुनते समय
उ ह ने भी यही कया था ।।६।। परी त्! भगवान् ीकृ ण सवश मान् परमे र ह।
मनु य के क याणके लये ही उ ह ने य वंशम अवतार धारण कया था। राजा यु ध रका
सुनकर और उनक सुननेक इ छा दे खकर उ ह ने स तापूवक इस कार उ र दया
था ।।७।।
ीभगवानुवाच
य याहमनुगृ ा म ह र ये त नं शनैः ।
ततोऽधनं यज य य वजना ःख ः खतम् ।।८
स यदा वतथो ोगो न व णः याद् धनेहया ।
म परैः कृतमै य क र ये मदनु हम् ।।९

तद् परमं सू मं च मा ं सदन तकम् ।


अतो मां सु रारा यं ह वा यान् भजते जनः ।।१०

तत त आशुतोषे यो ल धरा य यो ताः ।


म ाः म ा वरदान् व मर यवजानते ।।११
ीशुक उवाच
शाप सादयोरीशा व णु शवादयः ।
स ःशाप सादोऽ शवो ा न चा युतः ।।१२

अ चोदाहर तीम म तहासं पुरातनम् ।


वृकासुराय ग रशो वरं द वाऽऽप संकटम् ।।१३

वृको नामासुरः पु ः शकुनेः प थ नारदम् ।


् वाऽऽशुतोषं प छ दे वेषु षु म तः ।।१४

स आह दे वं ग रशमुपाधावाशु स य स ।
योऽ पा यां गुणदोषा यामाशु तु य त कु य त ।।१५

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भगवान् ीकृ णने कहा—राजन्! जसपर म कृपा करता ँ, उसका सब धन धीरे-धीरे
छ न लेता ।ँ जब वह नधन हो जाता है, तब उसके सगे-स ब धी उसके ःखाकुल च क
परवा न करके उसे छोड़ दे ते ह, ।।८।। फर वह धनके लये उ ोग करने लगता है, तब म
उसका वह य न भी न फल कर दे ता ँ। इस कार बार-बार असफल होनेके कारण जब
धन कमानेसे उसका मन वर हो जाता है, उसे ःख समझकर वह उधरसे अपना मुँह मोड़
लेता है और मेरे ेमी भ का आ य लेकर उनसे मेल-जोल करता है, तब म उसपर अपनी
अहैतुक कृपाक वषा करता ँ ।।९।। मेरी कृपासे उसे परम सू म अन त स चदान द व प
पर क ा त हो जाती है। इस कार मेरी स ता, मेरी आराधना ब त क ठन है। इसीसे
साधारण लोग मुझे छोड़कर मेरे ही सरे प अ या य दे वता क आराधना करते
ह ।।१०।। सरे दे वता आशुतोष ह। वे झटपट पघल पड़ते ह और अपने भ को सा ा य-
ल मी दे दे ते ह। उसे पाकर वे उ छृ ं खल, माद और उ म हो उठते ह और अपने वरदाता
दे वता को भी भूल जाते ह तथा उनका तर कार कर बैठते ह ।।११।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! ा, व णु और महादे व—ये तीन शाप और
वरदान दे नेम समथ ह; पर तु इनम महादे व और ा शी ही स या होकर वरदान
अथवा शाप दे दे ते ह। पर तु व णु भगवान् वैसे नह ह ।।१२।। इस वषयम महा मालोग
एक ाचीन इ तहास कहा करते ह। भगवान् शंकर एक बार वृकासुरको वर दे कर संकटम
पड़ गये थे ।।१३।। परी त्! वृकासुर शकु नका पु था। उसक बु ब त बगड़ी ई थी।
एक दन कह जाते समय उसने दे व ष नारदको दे ख लया और उनसे पूछा क ‘तीन
दे वता म झटपट स होनेवाला कौन है?’ ।।१४।। परी त्! दे व ष नारदने कहा—‘तुम
भगवान् शंकरक आराधना करो। इससे तु हारा मनोरथ ब त ज द पूरा हो जायगा। वे थोड़े
ही गुण से शी -से-शी स और थोड़े ही अपराधसे तुर त ोध कर बैठते ह ।।१५।।
रावण और बाणासुरने केवल वंद जन के समान शंकरजीक कुछ तु तयाँ क थ । इसीसे वे
उनपर स हो गये और उ ह अतुलनीय ऐ य दे दया। बादम रावणके कैलास उठाने और
बाणासुरके नगरक र ाका भार लेनेसे वे उनके लये संकटम भी पड़ गये थे’ ।।१६।।

दशा यबाणयो तु ः तुवतोव दनो रव ।


ऐ यमतुलं द वा तत आप सुसंकटम् ।।१६

इ या द तमसुर उपाधावत् वगा तः ।


केदार आ म ेण जु ानोऽ नमुखं हरम् ।।१७

दे वोपल धम ा य नवदात् स तमेऽह न ।


शरोऽवृ चत् व ध तना त ीथ ल मूधजम् ।।१८

तदा महाका णकः स धूज ट-

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यथा वयं चा न रवो थतोऽनलात् ।
नगृ दो या भुजयो यवारयत्
त पशनाद् भूय उप कृताकृ तः ।।१९

तमाह चांगालमलं वृणी व मे


यथा भकामं वतरा म ते वरम् ।
ीयेय तोयेन नृणां प ता-
महो वयाऽऽ मा भृशम ते वृथा ।।२०

दे वं स व े पापीयान् वरं भूतभयावहम् ।


य य य य करं शी ण धा ये स यता म त ।।२१

त छ वा भगवान् ो मना इव भारत ।


ओ म त हसं त मै ददे ऽहेरमृतं यथा ।।२२
नारदजीका उपदे श पाकर वृकासुर केदार े म गया और अ नको भगवान् शंकरका
मुख मानकर अपने शरीरका मांस काट-काटकर उसम हवन करने लगा ।।१७।। इस कार
छः दनतक उपासना करनेपर भी जब उसे भगवान् शंकरके दशन न ए, तब उसे बड़ा ःख
आ। सातव दन केदारतीथम नान करके उसने अपने भीगे बालवाले म तकको कु हाड़ेसे
काटकर हवन करना चाहा ।।१८।। परी त्! जैसे जगत्म कोई ःखवश आ मह या करने
जाता है तो हमलोग क णावश उसे बचा लेते ह, वैसे ही परम दयालु भगवान् शंकरने
वृकासुरके आ मघातके पहले ही अ नकु डसे अ नदे वके समान कट होकर अपने दोन
हाथ से उसके दोन हाथ पकड़ लये और गला काटनेसे रोक दया। उनका पश होते ही
वृकासुरके अंग य -के- य पूण हो गये ।।१९।। भगवान् शंकरने वृकासुरसे कहा—‘ यारे
वृकासुर! बस करो, बस करो; ब त हो गया। म तु ह वर दे ना चाहता ँ। तुम मुँहमाँगा वर
माँग लो। अरे भाई! म तो अपने शरणागत भ पर केवल जल चढ़ानेसे ही स तु हो जाया
करता ँ। भला, तुम झूठ-मूठ अपने शरीरको य पीड़ा दे रहे हो?’ ।।२०।। परी त्!
अ य त पापी वृकासुरने सम त ा णय को भयभीत करनेवाला यह वर माँगा क ‘म जसके
सरपर हाथ रख ँ , वही मर जाय’ ।।२१।। परी त्! असक यह याचना सुनकर भगवान्
पहले तो कुछ अनमने-से हो गये, फर हँसकर कह दया—‘अ छा, ऐसा ही हो । ’ ऐसा
वर दे कर उ ह ने मानो साँपको अमृत पला दया ।।२२।।

इ यु ः सोऽसुरो नूनं गौरीहरणलालसः ।


स त रपरी ाथ श भोमू न कलासुरः ।
वह तं धातुमारेभे सोऽ ब यत् वकृता छवः ।।२३

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तेनोपसृ ः सं तः पराधावन् सवेपथुः ।
यावद तं दवो भूमेः का ानामुदगा दक् ।।२४

अजान तः त व ध तू णीमासन् सुरे राः ।


ततो वैकु ठमगमद् भा वरं तमसः परम् ।।२५

य नारायणः सा ा या सनां परमा ग तः ।


शा तानां य तद डानां यतो नावतते गतः ।।२६

तं तथा सनं ् वा भगवान् वृ जनादनः ।


रात् यु दयाद् भू वा वटु को योगमायया ।।२७

मेखला जनद डा ै तेजसा न रव वलन् ।


अ भवादयामास च तं कुशपा ण वनीतवत् ।।२८
ीभगवानुवाच
शाकुनेय भवान् ं ा तः क रमागतः ।
णं व यतां पुंस आ मायं सवकामधुक् ।।२९

य द नः वणायालं यु मद् व सतं वभो ।


भ यतां ायशः पु भधृतैः वाथान् समीहते ।।३०
भगवान् शंकरके इस कार कह दे नेपर वृकासुरके मनम यह लालसा हो आयी क ‘म
पावतीजीको ही हर लू।ँ ’ वह असुर शंकरजीके वरक परी ाके लये उ ह के सरपर हाथ
रखनेका उ ोग करने लगा। अब तो शंकरजी अपने दये ए वरदानसे ही भयभीत हो
गये ।।२३।। वह उनका पीछा करने लगा और वे उससे डरकर काँपते ए भागने लगे। वे
पृ वी, वग और दशा के अ ततक दौड़ते गये; पर तु फर भी उसे पीछा करते दे खकर
उ रक ओर बढ़े ।।२४।। बड़े-बड़े दे वता इस संकटको टालनेका कोई उपाय न दे खकर चुप
रह गये। अ तम वे ाकृ तक अंधकारसे परे परम काशमय वैकु ठ-लोकम गये ।।२५।।
वैकु ठम वयं भगवान् नारायण नवास करते ह। एकमा वे ही उन सं या सय क परम ग त
ह जो सारे जगत्को अभयदान करके शा तभावम थत हो गये ह। वैकु ठम जाकर जीवको
फर लौटना नह पड़ता ।।२६।। भ भयहारी भगवान्ने दे खा क शंकरजी तो बड़े संकटम
पड़े ए ह। तब वे अपनी योगमायासे चारी बनकर रसे ही धीरे-धीरे वृकासुरक ओर
आने लगे ।।२७।। भगवान्ने मूँजक मेखला, काला मृगचम, द ड और ा क माला
धारण कर रखी थी। उनके एक-एक अंगसे ऐसी यो त नकल रही थी, मानो आग धधक
रही हो। वे हाथम कुश लये ए थे। वृकासुरको दे खकर उ ह ने बड़ी न तासे झुककर णाम

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कया ।।२८।।
चारी-वेषधारी भगवान्ने कहा—शकु न-न दन वृकासुरजी! आप प ही ब त
थके-से जान पड़ते ह। आज आप ब त रसे आ रहे ह या? त नक व ाम तो कर
ली जये। दे खये, यह शरीर ही सारे सुख क जड़ है। इसीसे सारी कामनाएँ पूरी होती ह। इसे
अ धक क न दे ना चा हये ।।२९।।
आप तो सब कारसे समथ ह। इस समय आप या करना चाहते ह? य द मेरे
सुननेयो य कोई बात हो तो बतलाइये। य क संसारम दे खा जाता है क लोग सहायक के
ारा ब त-से काम बना लया करते ह ।।३०।।
ीशुक उवाच
एवं भगवता पृ ो वचसामृतव षणा ।
गत लमोऽ वी मै यथापूवमनु तम् ।।३१
ीभगवानुवाच
एवं चे ह त ा यं न वयं धीम ह ।
यो द शापात् पैशा यं ा तः ेत पशाचराट् ।।३२

य द व त व भो दानवे जगद्गुरौ ।
त गाशु व शर स ह तं य य तीयताम् ।।३३

य स यं वचः श भोः कथं चद् दानवषभ ।


तदै नं ज सद्वाचं न यद् व ानृतं पुनः ।।३४

इ थं भगवत ैवचो भः स सुपेशलैः ।


भ धी व मृतः शी ण वह तं कुम त धात् ।।३५

अथापतद् भ शरा व ाहत इव णात् ।


जयश दो नमःश दः साधुश दोऽभवद् द व ।।३६

मुमुचुः पु पवषा ण हते पापे वृकासुरे ।


दे व ष पतृग धवा मो चतः संकटा छवः ।।३७

मु ं ग रशम याह भगवान् पु षो मः ।


अहो दे व महादे व पापोऽयं वेन पा मना ।।३८

हतः को नु मह वीश ज तुव कृत क बषः ।


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े ी यात् कमु व ेशे कृताग को जगद्गुरौ ।।३९

ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान्के एक-एक श दसे अमृत बरस रहा था।
उनके इस कार पूछनेपर पहले तो उसने त नक ठहरकर अपनी थकावट र क ; उसके बाद
मशः अपनी तप या, वरदान- ा त तथा भगवान् शंकरके पीछे दौड़नेक बात शु से कह
सुनायी ।।३१।।
ीभगवान्ने कहा—‘अ छा, ऐसी बात है? तब तो भाई! हम उसक बातपर व ास
नह करते। आप नह जानते ह या? वह तो द जाप तके शापसे पशाचभावको ा त हो
गया है। आजकल वही ेत और पशाच का स ाट् है ।।३२।। दानवराज! आप इतने बड़े
होकर ऐसी छोट -छोट बात पर व ास कर लेते ह? आप य द अब भी उसे जगद्गु मानते
ह और उसक बातपर व ास करते ह तो झटपट अपने सरपर हाथ रखकर परी ा कर
ली जये ।।३३।। दानव- शरोमणे! य द कसी कार शंकरक बात अस य नकले तो उस
अस यवाद को मार डा लये, जससे फर कभी वह झूठ न बोल सके ।।३४।। परी त्!
भगवान्ने ऐसी मो हत करनेवाली अद्भुत और मीठ बात कही क उसक ववेक-बु
जाती रही। उस बु ने भूलकर अपने ही सरपर हाथ रख लया ।।३५।। बस, उसी ण
उसका सर फट गया और वह वह धरतीपर गर पड़ा, मानो उसपर बजली गर पड़ी हो।
उस समय आकाशम दे वतालोग ‘जय-जय, नमो नमः, साधु-साधु!’ के नारे लगाने
लगे ।।३६।। पापी वृकासुरक मृ युसे दे वता, ऋ ष, पतर और ग धव अ य त स होकर
पु प क वषा करने लगे और भगवान् शंकर उस वकट संकटसे मु हो गये ।।३७।। अब
भगवान् पु षो मने भयमु शंकरजीसे कहा क ‘दे वा धदे व! बड़े हषक बात है क इस
को इसके पाप ने ही न कर दया। परमे र! भला, ऐसा कौन ाणी है जो महापु ष का
अपराध करके कुशलसे रह सके? फर वयं जगद्गु व े र! आपका अपराध करके तो
कोई सकुशल रह ही कैसे सकता है?’ ।।३८-३९।।

य एवम ाकृतश युद वतः


पर य सा ात् परमा मनो हरेः ।
ग र मो ं कथये छृ णो त वा
वमु यते संसृ त भ तथा र भः ।।४०
भगवान् अन त श य के समु ह। उनक एक-एक श मन और वाणीक सीमाके
परे है। वे कृ तसे अतीत वयं परमा मा ह। उनक शंकरजीको संकटसे छु ड़ानेक यह लीला
जो कोई कहता या सुनता है, वह संसारके ब धन और श ु के भयसे मु हो जाता
है ।।४०।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध मो णं
नामा ाशी ततमोऽ यायः ।।८८।।

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अथैकोननव ततमोऽ यायः
भृगुजीके ारा दे व क परी ा तथा भगवान्का मरे ए ा ण-
बालक को वापस लाना
ीशुक उवाच
सर व या तटे राज ृषयः स मासत ।
वतकः समभू ेषां वधीशेषु को महान् ।।१

त य ज ासया ते वै भृगुं सुतं नृप ।


त यै ेषयामासुः सोऽ यगाद् णः सभाम् ।।२

न त मै णं तो ं च े स वपरी या ।
त मै चु ोध भगवान् वलन् वेन तेजसा ।।३

स आ म यु थतं म युमा मजाया मना भुः ।


अशीशमद् यथा व वयो या वा रणाऽऽ मभूः ।।४

ततः कैलासमगमत् स तं दे वो महे रः ।


प रर धुं समारेभे उ थाय ातरं मुदा ।।५
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! एक बार सर वती नद के पावन तटपर य ार भ
करनेके लये बड़े-बड़े ऋ ष-मु न एक होकर बैठे। उन लोग म इस वषयपर वाद- ववाद
चला क ा, शव और व णुम सबसे बड़ा कौन है? ।।१।।
परी त्! उन लोग ने यह बात जाननेके लये ा, व णु और शवक परी ा लेनेके
उ े यसे ाके पु भृगुजीको उनके पास भेजा। मह ष भृगु सबसे पहले ाजीक सभाम
गये ।।२।।
उ ह ने ाजीके धैय आ दक परी ा करनेके लये न उ ह नम कार कया और न तो
उनक तु त ही क । इसपर ऐसा मालूम आ क ाजी अपने तेजसे दहक रहे ह। उ ह
ोध आ गया ।।३।।
पर तु जब समथ ाजीने दे खा क यह तो मेरा पु ही है, तब अपने मनम उठे ए
ोधको भीतर-ही-भीतर ववेकबु से दबा लया; ठ क वैसे ही, जैसे कोई अर ण-म थनसे
उ प अ नको जलसे बुझा दे ।।४।।
वहाँसे मह ष भृगु कैलासम गये। दे वा धदे व भगवान् शंकरने जब दे खा क मेरे भाई
भृगुजी आये ह, तब उ ह ने बड़े आन दसे खड़े होकर उनका आ लगन करनेके लये भुजाएँ
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फैला द ।।५।।

नै छ वम यु पथग इ त दे व कोप ह ।
शूलमु य तं ह तुमारेभे त मलोचनः ।।६

प त वा पादयोदवी सा वयामास तं गरा ।


अथो जगाम वैकु ठं य दे वो जनादनः ।।७

शयानं य उ संगे पदा व यताडयत् ।


तत उ थाय भगवान् सह ल या सतां ग तः ।।८

वत पादव ाथ ननाम शरसा मु नम् ।


आह१ ते वागतं न् नषीदा ासने णम् ।
अजानतामागतान्२ वः तुमहथ नः भो ।।९

अतीव कोमलौ तात चरणौ ते महामुने ।


इ यु वा व चरणौ मदयन् वेन पा णना ।।१०

पुनी ह सहलोकं मां लोकपालां मद्गतान् ।


पादोदकेन भवत तीथानां तीथका रणा ।।११

अ ाहं भगवँ ल या आसमेका तभाजनम् ।


व य युर स मे भू तभव पादहतांहसः ।।१२
ीशुक उवाच
एवं ुवाणे वैकु ठे भृगु त म या३ गरा ।
नवृत त पत तू ण भ यु क ठोऽ ुलोचनः ।।१३

पुन स मा य मुनीनां वा दनाम् ।


वानुभूतमशेषेण राजन् भृगुरवणयत् ।।१४
पर तु मह ष भृगुने उनसे आ लगन करना वीकार न कया और कहा—‘तुम लोक और
वेदक मयादाका उ लंघन करते हो, इस लये म तुमसे नह मलता।’ भृगुजीक यह बात
सुनकर भगवान् शंकर ोधके मारे तल मला उठे । उनक आँख चढ़ गय । उ ह ने शूल
उठाकर मह ष भृगुको मारना चाहा ।।६।। पर तु उसी समय भगवती सतीने उनके चरण पर
गरकर ब त अनुनय- वनय क और कसी कार उनका ोध शा त कया। अब मह ष
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भृगुजी भगवान् व णुके नवास थान वैकु ठम गये ।।७।। उस समय भगवान् व णु
ल मीजीक गोदम अपना सर रखकर लेटे ए थे। भृगुजीने जाकर उनके व ः थलपर एक
लात कसकर जमा द । भ व सल भगवान् व णु ल मीजीके साथ उठ बैठे और झटपट
अपनी श यासे नीचे उतरकर मु नको सर झुकाया, णाम कया। भगवान्ने कहा—‘ न्!
आपका वागत है, आप भले पधारे। इस आसनपर बैठकर कुछ ण व ाम क जये। भो!
मुझे आपके शुभागमनका पता न था। इसीसे म आपक अगवानी न कर सका। मेरा अपराध
मा क जये ।।८-९।। महामुने! आपके चरणकमल अ य त कोमल ह।’ य कहकर
भृगुजीके चरण को भगवान् अपने हाथ से सहलाने लगे ।।१०।। और बोले—‘महष! आपके
चरण का जल तीथ को भी तीथ बनानेवाला है। आप उससे वैकु ठलोक, मुझे और मेरे अ दर
रहनेवाले लोकपाल को प व क जये ।।११।। भगवन्! आपके चरणकमल के पशसे मेरे
सारे पाप धुल गये। आज म ल मीका एकमा आ य हो गया। अब आपके चरण से च त
मेरे व ः थलपर ल मी सदा-सवदा नवास करगी’ ।।१२।।
ीशुकदे वजी कहते ह—जब भगवान्ने अ य त ग भीर वाणीसे इस कार कहा, तब
भृगुजी परम सुखी और तृ त हो गये। भ के उ े कसे उनका गला भर आया, आँख म आँसू
छलक आये और वे चुप हो गये ।।१३।। परी त्! भृगुजी वहाँसे लौटकर वाद मु नय के
स संगम आये और उ ह ा, शव और व णुभगवान्के यहाँ जो कुछ अनुभव आ था, वह
सब कह सुनाया ।।१४।।
त श याथ मुनयो व मता मु संशयाः ।
भूयांसं धु व णुं यतः शा तयतोऽभयम् ।।१५
धमः सा ाद् यतो ानं वैरा यं च तद वतम् ।
ऐ य चा धा य माद् यश ा ममलापहम् ।।१६
मुनीनां य तद डानां शा तानां समचेतसाम् ।
अ कचनानां साधूनां यमा ः परमां ग तम् ।।१७
स वं य य या मू त ा णा व दे वताः ।
भज यना शषः शा ता यं वा नपुणबु यः ।।१८
वधाकृतय त य रा सा असुराः सुराः ।
गु ण या मायया सृ ाः स वं त ीथसाधनम् ।।१९
ीशुक उवाच
एवं सार वता व ा नृणां संशयनु ये ।
पु ष य पदा भोजसेवया तद्ग त गताः ।।२०
सूत उवाच
इ येत मु नतनया यप ग ध-
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पीयूषं भवभय भत् पर य पुंसः ।
सु ोकं वणपुटैः पब यभी णं
पा थोऽ व मणप र मं जहा त ।।२१
ीशुक उवाच
एकदा ारव यां तु व प याः कुमारकः ।
जातमा ो भुवं पृ ् वा ममार कल भारत ।।२२
व ो गृही वा मृतकं राज ायुपधाय सः ।
इदं ोवाच वलप ातुरो द नमानसः ।।२३
षः शठ धयो लु ध य वषया मनः ।
ब धोः कमदोषात् पंच वं मे गतोऽभकः ।।२४
भृगुजीका अनुभव सुनकर सभी ऋ ष-मु नय को बड़ा व मय आ, उनका स दे ह र हो
गया। तबसे वे भगवान् व णुको ही सव े मानने लगे; य क वे ही शा त और अभयके
उद्गम थान ह ।।१५।। भगवान् व णुसे ही सा ात् धम, ान, वैरा य, आठ कारके ऐ य
और च को शु करनेवाला यश ा त होता है ।।१६।। शा त, सम च , अ कचन और
सबको अभय दे नेवाले साधु-मु नय क वे ही एकमा परम ग त ह। ऐसा सारे शा कहते
ह ।।१७।।
उनक य मू त है स व और इ दे व ह ा ण। न काम, शा त और नपुणबु
( ववेकस प ) पु ष उनका भजन करते ह ।।१८।। भगवान्क गुणमयी मायाने रा स,
असुर और दे वता—उनक ये तीन मू तयाँ बना द ह। इनम स वमयी दे वमू त ही उनक
ा तका साधन है। वे वयं ही सम त पु षाथ व प ह ।।१९।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! सर वती-तटके ऋ षय ने अपने लये नह ,
मनु य का संशय मटानेके लये ही ऐसी यु रची थी। पु षो म भगवान्के चरणकमल क
सेवा करके उ ह ने उनका परमपद ा त कया ।।२०।।
सूतजी कहते ह—शौनका द ऋ षयो! भगवान् पु षो मक यह कमनीय क त-कथा
ज म-मृ यु प संसारके भयको मटानेवाली है। यह ासन दन भगवान् ीशुकदे वजीके
मुखार व दसे नकली ई सुर भमयी मधुमयी सुधाधारा है। इस संसारके लंबे पथका जो
बटोही अपने कान के दोन से इसका नर तर पान करता रहता है, उसक सारी थकावट, जो
जगत्म इधर-उधर भटकनेसे होती है, र हो जाती है ।।२१।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! एक दनक बात है, ारकापुरीम कसी ा णीके
गभसे एक पु पैदा आ, पर तु वह उसी समय पृ वीका पश होते ही मर गया ।।२२।।
ा ण अपने बालकका मृत शरीर लेकर राजमहलके ारपर गया और वहाँ उसे रखकर
अ य त आतुरता और ःखी मनसे वलाप करता आ यह कहने लगा— ।।२३।। ‘इसम
स दे ह नह क ा ण ोही, धूत, कृपण और वषयी राजाके कमदोषसे ही मेरे बालकक
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मृ यु ई है ।।२४।। जो राजा हसापरायण, ःशील और अ जते य होता है, उसे राजा
मानकर सेवा करनेवाली जा द र होकर ःख-पर- ःख भोगती रहती है और उसके सामने
संकट-पर-संकट आते रहते ह ।।२५।। परी त्! इसी कार अपने सरे और तीसरे
बालकके भी पैदा होते ही मर जानेपर वह ा ण लड़केक लाश राजमहलके दरवाजेपर
डाल गया और वही बात कह गया ।।२६।। नव बालकके मरनेपर जब वह वहाँ आया, तब
उस समय भगवान् ीकृ णके पास अजुन भी बैठे ए थे। उ ह ने ा णक बात सुनकर
उससे कहा— ।।२७।। ‘ न्! आपके नवास थान ारकाम कोई धनुषधारी य नह है
या? मालूम होता है क ये य वंशी ा ण ह और जापालनका प र याग करके कसी
य म बैठे ए ह! ।।२८।। जनके रा यम धन, ी अथवा पु से वयु होकर ा ण
ःखी होते ह, वे य नह ह, यके वेषम पेट पालनेवाले नट ह। उनका जीवन थ
है ।।२९।। भगवन्! म समझता ँ क आप ी-पु ष अपने पु क मृ युसे द न हो रहे ह। म
आपक स तानक र ा क ँ गा। य द म अपनी त ा पूरी न कर सका तो आगम कूदकर
जल म ँ गा और इस कार मेरे पापका ाय हो जायगा’ ।।३०।।

हसा वहारं नृप त ःशीलम जते यम् ।


जा भज यः सीद त द र ा न य ः खताः ।।२५

एवं तीयं व ष तृतीयं वेवमेव च ।


वसृ य स नृप ा र तां गाथां समगायत ।।२६

तामजुन उप ु य क ह चत् केशवा तके ।


परेते नवमे बाले ा णं समभाषत ।।२७

क वद् ं व वासे इह ना त धनुधरः ।


राज यब धुरेते वै ा णाः स आसते ।।२८

धनदारा मजापृ ा य शोच त ा णाः ।


ते वै राज यवेषेण नटा जीव यसु भराः ।।२९

अहं जा वां भगवन् र ये द नयो रह ।


अ न तीण त ोऽ नं वे ये हतक मषः ।।३०
ा ण उवाच
संकषणो वासुदेवः ु नो ध वनां वरः ।
अ न ोऽ तरथो न ातुं श नुव त यत् ।।३१

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तत् कथं नु भवान् कम करं जगद रैः ।
चक ष स वं बा ल यात् त महे वयम् ।।३२
अजुन उवाच
नाहं संकषणो न् न कृ णः का णरेव च ।
अहं वा अजुनो नाम गा डीवं य य वै धनुः ।।३३

मावमं था मम न् वीय य बकतोषणम् ।


मृ युं व ज य धने आने ये ते जां भो ।।३४
ा णने कहा—अजुन! यहाँ बलरामजी, भगवान् ीकृ ण, धनुधर शरोम ण ु न,
अ तीय यो ा अ न भी जब मेरे बालक क र ा करनेम समथ नह ह; इन जगद र के
लये भी यह काम क ठन हो रहा है; तब तुम इसे कैसे करना चाहते हो? सचमुच यह तु हारी
मूखता है। हम तु हारी इस बातपर बलकुल व ास नह करते ।।३१-३२।।
अजुनने कहा— न्! म बलराम, ीकृ ण अथवा ु न नह ँ। म ँ अजुन,
जसका गा डीव नामक धनुष व व यात है ।।३३।। ा णदे वता! आप मेरे बल-
पौ षका तर कार मत क जये। आप जानते नह , म अपने परा मसे भगवान् शंकरको
स तु कर चुका ँ। भगवन्! म आपसे अ धक या क ,ँ म यु म सा ात् मृ युको भी
जीतकर आपक स तान ला ँ गा ।।३४।।

एवं व भतो व ः फा गुनेन परंतप ।


जगाम वगृहं ीतः पाथवीय नशामयन् ।।३५

सू तकाल आस े भायाया जस मः ।
पा ह पा ह जां मृ यो र याहाजुनमातुरः ।।३६

स उप पृ य शु य भो नम कृ य महे रम् ।
द ा य ा ण सं मृ य स यं गा डीवमाददे ।।३७

य णत् सू तकागारं शरैनाना यो जतैः ।


तयगू वमधः पाथ कार शरपंजरम् ।।३८

ततः कुमारः संजातो व प या दन् मु ः ।


स ोऽदशनमापेदे सशरीरो वहायसा ।।३९

तदाऽऽह व ो वजयं व न दन् कृ णस धौ ।

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मौ ं प यत मे योऽहं धे लीबक थनम् ।।४०

न ु नो ना न ो न रामो न च केशवः ।
य य शेकुः प र ातुं कोऽ य तद वते रः ।।४१

धगजुनं मृषावादं धगा म ा घनो धनुः ।


दै वोपसृ ं यो मौ ादा ननीष त म तः ।।४२

एवं शप त व ष व ामा थाय फा गुनः ।


ययौ संयमनीमाशु य ा ते भगवान् यमः ।।४३

व ाप यमच ाण तत ऐ मगात् पुरीम् ।


आ नेय नैऋत सौ यां वाय ां वा णीमथ ।
रसातलं नाकपृ ं ध या य या युदायुधः ।।४४
परी त्! जब अजुनने उस ा णको इस कार व ास दलाया, तब वह लोग से उनके
बल-पौ षका बखान करता आ बड़ी स तासे अपने घर लौट गया ।।३५।। सवका
समय नकट आनेपर ा ण आतुर होकर अजुनके पास आया और कहने लगा—‘इस बार
तुम मेरे ब चेको मृ युसे बचा लो’ ।।३६।। यह सुनकर अजुनने शु जलसे आचमन कया,
तथा भगवान् शंकरको नम कार कया। फर द अ का मरण कया और गा डीव
धनुषपर डोरी चढ़ाकर उसे हाथम ले लया ।।३७।।
अजुनने बाण को अनेक कारके अ -म से अ भम त करके सवगृहको चार
ओरसे घेर दया। इस कार उ ह ने सू तकागृहके ऊपर-नीचे, अगल-बगल बाण का एक
पजड़ा-सा बना दया ।।३८।। इसके बाद ा णीके गभसे एक शशु पैदा आ, जो बार-बार
रो रहा था। पर तु दे खते-ही-दे खते वह सशरीर आकाशम अ तधान हो गया ।।३९।। अब वह
ा ण भगवान् ीकृ णके सामने ही अजुनक न दा करने लगा। वह बोला—‘मेरी मूखता
तो दे खो, मने इस नपुंसकक ड गभरी बात पर व ास कर लया ।।४०।। भला जसे ु न,
अन यहाँतक क बलराम और भगवान् ीकृ ण भी न बचा सके, उसक र ा करनेम
और कौन समथ है? ।।४१।। म यावाद अजुनको ध कार है! अपने मुँह अपनी बड़ाई
करनेवाले अजुनके धनुषको ध कार है!! इसक बु तो दे खो! यह मूढ़तावश उस
बालकको लौटा लाना चाहता है, जसे ार धने हमसे अलग कर दया है’ ।।४२।।
जब वह ा ण इस कार उ ह भला-बुरा कहने लगा, तब अजुन योगबलसे त काल
संयमनीपुरीम गये, जहाँ भगवान् यमराज नवास करते ह ।।४३।। वहाँ उ ह ा णका
बालक नह मला। फर वे श लेकर मशः इ , अ न, नऋ त, सोम, वायु और व ण
आ दक पु रय म, अतला द नीचेके लोक म, वगसे ऊपरके महल का दम एवं अ या य
थान म गये ।।४४।।
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ततोऽल ध जसुतो न तीण त ुतः ।
अ नं व व ुः कृ णेन यु ः तषेधता ।।४५

दशये जसूनूं ते माव ा मानमा मना ।


ये ते नः क त वमलां मनु याः थाप य य त ।।४६

इ त संभा य भगवानजुनेन सहे रः ।


द ं वरथमा थाय तीच दशमा वशत् ।।४७

स त पान् स त स धून् स तस त गरीनथ ।


लोकालोकं तथाती य ववेश सुमह मः ।।४८

त ा ाः शै यसु ीवमेघपु पबलाहकाः ।


तम स गतयो बभूवुभरतषभ ।।४९

तान् ् वा भगवान् कृ णो महायोगे रे रः ।


सह ा द यसंकाशं वच ं ा हणोत् पुरः ।।५०

तमः सुघोरं गहनं कृतं महद्


वदारयद् भू रतरेण रो चषा ।
मनोजवं न व वशे सुदशनं
गुण युतो रामशरो यथा चमूः ।।५१

ारेण च ानुपथेन त मः
परं१ परं यो तरन तपारम् ।
सम ुवानं समी य फा गुनः
ता डता ो पदधेऽ णी उभे ।।५२
पर तु कह भी उ ह ा णका बालक न मला। उनक त ा पूरी न हो सक । अब
उ ह ने अ नम वेश करनेका वचार कया। पर तु भगवान् ीकृ णने उ ह ऐसा करनेसे
रोकते ए कहा— ।।४५।। ‘भाई अजुन! तुम अपने आप अपना तर कार मत करो। म तु ह
ा णके सब बालक अभी दखाये दे ता ँ। आज जो लोग तु हारी न दा कर रहे ह, वे ही
फर हमलोग क नमल क तक थापना करगे’ ।।४६।।
सवश मान् भगवान् ीकृ ण इस कार समझा-बुझाकर अजुनके साथ अपने द
रथपर सवार ए और प म दशाको थान कया ।।४७।। उ ह ने सात-सात पवत वाले
सात प, सात समु और लोकालोक-पवतको लाँघकर घोर अ धकारम वेश
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कया ।।४८।।
परी त्! वह अ धकार इतना घोर था क उसम शै य, सु ीव, मेघपु प और बलाहक
नामके चार घोड़े अपना माग भूलकर इधर-उधर भटकने लगे। उ ह कुछ सूझता ही न
था ।।४९।। योगे र के भी परमे र भगवान् ीकृ णने घोड़ क यह दशा दे खकर अपने
सह -सह सूय के समान तेज वी च को आगे चलनेक आ ा द ।।५०।।
सुदशन च अपने यो तमय तेजसे वयं भगवान्के ारा उ प उस घने एवं महान्
अ धकारको चीरता आ मनके समान ती ग तसे आगे-आगे चला। उस समय वह ऐसा
जान पड़ता था, मानो भगवान् रामका बाण धनुषसे छू टकर रा स क सेनाम वेश कर रहा
हो ।।५१।।
इस कार सुदशन च के ारा बतलाये ए मागसे चलकर रथ अ धकारक अ तम
सीमापर प ँचा। उस अ धकारके पार सव े पारावारर हत ापक परम यो त जगमगा
रही थी। उसे दे खकर अजुनक आँख च धया गय और उ ह ने ववश होकर अपने ने बंद
कर लये ।।५२।।

ततः व ः स ललं नभ वता


बलीयसैजद्बृह मभूषणम्१ ।
त ा तं वै भवनं ुम मं
ाज म ण त भसह शो भतम् ।।५३

त मन् महाभीममन तम तं
सह मूध यफणाम ण ु भः२ ।
व ाजमानं गुणो बणे णं
सताचलाभं श तक ठ ज म्३ ।।५४

ददश त ोगसुखासनं वभुं


महानुभावं पु षो मो मम् ।
सा ा बुदाभं सु पशंगवाससं
स व ं चरायते णम् ।।५५

महाम ण ात करीटकु डल-


भाप र तसह कु तलम् ।
ल बचाव भुजं सकौ तुभं
ीव सल मं वनमालया वृतम् ।।५६

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सुन दन द मुखैः वपाषदै -
ा द भमू तधरै नजायुधैः ।
पु ा या क यजया खल भ-
नषे माणं परमे नां प तम् ।।५७

वव द आ मानमन तम युतो४
ज णु त शनजातसा वसः ।
तावाह५ भूमा परमे नां भु-
ब ांजली स मतमूजया गरा ।।५८
इसके बाद भगवान्के रथने द जलरा शम वेश कया। बड़ी तेज आँधी चलनेके
कारण उस जलम बड़ी-बड़ी तरंग उठ रही थ , जो ब त ही भली मालूम होती थ । वहाँ एक
बड़ा सु दर महल था। उसम म णय के सह -सह खंभे चमक-चमककर उसक शोभा बढ़ा
रहे थे और उसके चार ओर बड़ी उ वल यो त फैल रही थी ।।५३।। उसी महलम भगवान्
शेषजी वराजमान थे। उनका शरीर अ य त भयानक और अद्भुत था। उनके सह सर थे
और येक फणपर सु दर-सु दर म णयाँ जगमगा रही थ । येक सरम दो-दो ने थे और
वे बड़े ही भयंकर थे। उनका स पूण शरीर कैलासके समान ेतवणका था और गला तथा
जीभ नीले रंगक थी ।।५४।। परी त्! अजुनने दे खा क शेषभगवान्क सुखमयी श यापर
सव ापक महान् भावशाली परम पु षो म भगवान् वराजमान ह। उनके शरीरक का त
वषाकालीन मेघके समान यामल है। अ य त सु दर पीला व धारण कये ए ह। मुखपर
स ता खेल रही है और बड़े-बड़े ने ब त ही सुहावने लगते ह ।।५५।। ब मू य म णय से
ज टत मुकुट और कु डल क का तसे सह घुँघराली अलक चमक रही ह। लंबी-लंबी,
सु दर आठ भुजाएँ ह; गलेम कौ तुभ म ण है; व ः थलपर ीव सका च है और
घुटन तक वनमाला लटक रही है ।।५६।। अजुनने दे खा क उनके न द-सुन द आ द अपने
पाषद, च -सुदशन आ द अपने मू तमान् आयुध तथा पु , ी, क त और अजा—ये चार
श याँ एवं स पूण ऋ याँ ा द लोकपाल के अधी र भगवान्क सेवा कर रही
ह ।।५७।। परी त्! भगवान् ीकृ णने अपने ही व प ीअन त भगवान्को णाम
कया। अजुन उनके दशनसे कुछ भयभीत हो गये थे; ीकृ णके बाद उ ह ने भी उनको
णाम कया और वे दोन हाथ जोड़कर खड़े हो गये। अब ा द लोकपाल के वामी भूमा
पु षने मुसकराते ए मधुर एवं ग भीर वाणीसे कहा— ।।५८।।

जा मजा मे युवयो द ुणा


मयोपनीता भु व धमगु तये ।
कलावतीणाववनेभरासुरान्
ह वेह भूय वरयेतम त मे ।।५९

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पूणकामाव प युवां नरनारायणावृषी ।
धममाचरतां थ यै ऋषभौ लोकसं हम् ।।६०

इ या द ौ भगवता तौ कृ णौ परमे ना ।
ओ म यान य भूमानमादाय जदारकान् ।।६१

यवततां वकं धाम स ौ यथागतम् ।


व ाय ददतुः पु ान् यथा पं यथावयः ।।६२

नशा य वै णवं धाम पाथः परम व मतः ।


य कं चत् पौ षं पुंसां मेने कृ णानुक पतम् ।।६३

इती शा यनेका न वीयाणीह दशयन् ।


बुभुजे वषयान् ा यानीजे चा यू जतैमखैः ।।६४

ववषा खलान् कामान् जासु ा णा दषु ।


यथाकालं यथैवे ो भगवा ै मा थतः ।।६५
‘ ीकृ ण और अजुन! मने तुम दोन को दे खनेके लये ही ा णके बालक अपने पास
मँगा लये थे। तुम दोन ने धमक र ाके लये मेरी कला के साथ पृ वीपर अवतार हण
कया है; पृ वीके भार प दै य का संहार करके शी -से-शी तुमलोग फर मेरे पास लौट
आओ ।।५९।।
तुम दोन ऋ षवर नर और नारायण हो। य प तुम पूणकाम और सव े हो, फर भी
जगत्क थ त और लोकसं हके लये धमका आचरण करो’ ।।६०।।
जब भगवान् भूमा पु षने ीकृ ण और अजुनको इस कार आदे श दया, तब उन
लोग ने उसे वीकार करके उ ह नम कार कया और बड़े आन दके साथ ा ण-बालक को
लेकर जस रा तेसे, जस कार आये थे, उसीसे वैसे ही ारकाम लौट आये। ा णके
बालक अपनी आयुके अनुसार बड़े-बड़े हो गये थे। उनका प और आकृ त वैसी ही थी,
जैसी उनके ज मके समय थी। उ ह भगवान् ीकृ ण और अजुनने उनके पताको स प
दया ।।६१-६२।।
भगवान् व णुके उस परमधामको दे खकर अजुनके आ यक सीमा न रही। उ ह ने ऐसा
अनुभव कया क जीव म जो कुछ बल-पौ ष है, वह सब भगवान् ीकृ णक ही कृपाका
फल है ।।६३।।
परी त्! भगवान्ने और भी ऐसी अनेक ऐ य और वीरतासे प रपूण लीलाएँ क ।
लोक म साधारण लोग के समान सांसा रक वषय का भोग कया और बड़े-बड़े

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महाराजा के समान े - े य कये ।।६४।।
भगवान् ीकृ णने आदश महापु ष का-सा आचरण करते ए ा ण आ द सम त
जावग के सारे मनोरथ पूण कये, ठ क वैसे ही, जैसे इ जाके लये समयानुसार वषा
करते ह ।।६५।।

ह वा नृपानध म ान् घात य वाजुना द भः ।


अंजसा वतयामास धम धमसुता द भः ।।६६
उ ह ने ब त-से अधम राजा को वयं मार डाला और ब त को अजुन आ दके ारा
मरवा डाला। इस कार धमराज यु ध र आ द धा मक राजा से उ ह ने अनायास ही सारी
पृ वीम धममयादाक थापना करा द ।।६६।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां दशम क धे उ राध जकुमारानयनं नाम
एकोननव ततमोऽ यायः ।।८९।।

१. अहो। २. मागमनं तु०। ३. गु तं सा या।


१. परा परं।
१. भीषणं। २. ु त। ३. ठभूषणं। ४. जं तम युत।ं ५. स चाह भू नां पर०।

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अथ नव ततमोऽ यायः
भगवान् ीकृ णके लीला- वहारका वणन
ीशुक उवाच
सुखं वपुया नवसन् ारकायां यः प तः ।
सवसंप समृ ायां जु ायां वृ णपुंगवैः ।।१

ी भ ो मवेषा भनवयौवनका त भः ।
क का द भह यषु ड ती भ त डद् ु भः ।।२

न यं संकुलमागायां मद यु मतंगजैः ।
वलंकृतैभटै र े रथै कनको वलैः ।।३

उ ानोपवना ायां पु पत मरा जषु ।


न वशद्भृंग वहगैना दतायां सम ततः ।।४

रेमे षोडशसाह प नीनामेकव लभः ।


ताव च पोऽसौ तद्गृहेषु मह षु ।।५

ो फु लो पलक ारकुमुदा भोजरेणु भः ।


वा सतामलतोयेषु कूजद् जकुलेषु च ।।६
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! ारका-नगरीक छटा अलौ कक थी। उसक
सड़क, मद चूते ए मतवाले हा थय , सुस जत यो ा , घोड़ और वणमय रथ क
भीड़से सदा-सवदा भरी रहती थ । जधर दे खये, उधर ही हरे-भरे उपवन और उ ान लहरा
रहे ह। पाँत-के-पाँत वृ फूल से लदे ए ह। उनपर बैठकर भ रे गुनगुना रहे ह और तरह-
तरहके प ी कलरव कर रहे ह। वह नगरी सब कारक स प य से भरपूर थी। जगत्के
े वीर य वंशी उसका सेवन करनेम अपना सौभा य मानते थे। वहाँक याँ सु दर वेष-
भूषासे वभू षत थ और उनके अंग-अंगसे जवानीक छटा छटकती रहती थी। वे जब अपने
महल म गद आ दके खेल खेलत और उनका कोई अंग कभी द ख जाता तो ऐसा जान
पड़ता, मानो बजली चमक रही है। ल मीप त भगवान्क यही अपनी नगरी ारका थी।
इसीम वे नवास करते थे। भगवान् ीकृ ण सोलह हजारसे अ धक प नय के एकमा
ाण-व लभ थे। उन प नय के अलग-अलग महल भी परम ऐ यसे स प थे। जतनी
प नयाँ थ , उतने ही अद्भुत प धारण करके वे उनके साथ वहार करते थे ।।१-५।। सभी
प नय के महल म सु दर-सु दर सरोवर थे। उनका नमल जल खले ए नीले, पीले, ेत,
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लाल आ द भाँ त-भाँ तके कमल के परागसे मँहकता रहता था। उनम झुंड-के-झुंड हंस,
सारस आ द सु दर-सु दर प ी चहकते रहते थे। भगवान् ीकृ ण उन जलाशय म तथा
कभी-कभी न दय के जलम भी वेश कर अपनी प नय के साथ जल- वहार करते थे।
भगवान्के साथ वहार करनेवाली प नयाँ जब उ ह अपने भुजपाशम बाँध लेत , आ लगन
करत , तब भगवान्के ीअंग म उनके व ः थलक केसर लग जाती थी ।।६-७।।

वजहार वगा ा भो दनीषु महोदयः ।


कुचकुंकुम ल तांगः प रर ध यो षताम् ।।७

उपगीयमानो ग धवमृदं गपणवानकान् ।


वादय मुदा वीणां सूतमागधव द भः ।।८

स यमानोऽ युत ता भहस ती भः म रेचकैः ।


त षचन् व च डे य ी भय रा डव ।।९

ताः ल व ववृतो कुच दे शाः


सच य उद्धृतबृह कबर सूनाः ।
का तं म रेचक जहीरषयोपगु
जात मरो सवलस दना वरेजुः ।।१०

कृ ण तु त तन वष जतकुंकुम क्
डा भषंगधुतकु तलवृ दब धः ।
सचन् मु युव त भः त ष यमानो
रेमे करेणु भ रवेभप तः परीतः ।।११

नटानां नतक नां च गीतवा ोपजी वनाम् ।


डालंकारवासां स कृ णोऽदा य च यः ।।१२
उस समय ग धव उनके यशका गान करने लगते और सूत, मागध एवं व द जन बड़े
आन दसे मृदंग, ढोल, नगारे और वीणा आ द बाजे बजाने लगते ।।८।।
भगवान्क प नयाँ कभी-कभी हँसते-हँसते पचका रय से उ ह भगो दे ती थ । वे भी
उनको तर कर दे त।े इस कार भगवान् अपनी प नय के साथ डा करते; मानो य राज
कुबेर य णय के साथ वहार कर रहे ह ।।९।।
उस समय भगवान्क प नय के व ः थल और जंघा आ द अंग व के भीग जानेके
कारण उनमसे झलकने लगते। उनक बड़ी-बड़ी चो टय और जूड़ मसे गुँथे ए फूल गरने
लगते, वे उ ह भगोते- भगोते पचकारी छ न लेनेके लये उनके पास प ँच जात और इसी
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बहाने अपने यतमका आ लगन कर लेत । उनके पशसे प नय के दयम ेम-भावक
अ भवृ हो जाती, जससे उनका मुखकमल खल उठता। ऐसे अवसर पर उनक शोभा
और भी बढ़ जाया करती ।।१०।।
उस समय भगवान् ीकृ णक वनमाला उन रा नय के व ः थलपर लगी ई केसरके
रंगसे रँग जाती। वहारम अ य त म न हो जानेके कारण घुँघराली अलक उ मु भावसे
लहराने लगत । वे अपनी रा नय को बार-बार भगो दे ते और रा नयाँ भी उ ह सराबोर कर
दे त । भगवान् ीकृ ण उनके साथ इस कार वहार करते, मानो कोई गजराज ह थ नय से
घरकर उनके साथ ड़ा कर रहा हो ।।११।।
भगवान् ीकृ ण और उनक प नयाँ डा करनेके बाद अपने-अपने व ाभूषण
उतारकर उन नट और नत कय को दे दे ते, जनक जी वका केवल गाना-बजाना ही
है ।।१२।।

कृ ण यैवं वहरतो ग यालापे त मतैः ।


नम वे लप र व ै ः ीणां कल ता धयः ।।१३

ऊचुमुकु दै क धयोऽ गर उ म व जडम् ।


च तय योऽर व दा ं ता न मे गदतः शृणु ।।१४
म ह य ऊचुः
कुर र वलप स वं वीत न ा न शेषे
व प त जग त रा यामी रो गु तबोधः ।
वय मव स ख क चद् गाढ न भ चेता
न लननयनहासोदारलीले तेन ।।१५

ने े नमीलय स न म ब धु-
वं रोरवी ष क णं बत च वा क ।
दा यं गता वय मवा युतपादजु ां
क वा जं पृहयसे कबरेण वोढु म् ।।१६

भो भोः सदा न नसे उद व-


ल ध न ोऽ धगत जागरः ।
क वा मुकु दाप ता मला छनः
ा तां दशां वं च गतो र ययाम् ।।१७
परी त्! भगवान् इसी कार उनके साथ वहार करते रहते। उनक चाल-ढाल,
बातचीत, चतवन-मुसकान, हास- वलास और आ लगन आ दसे रा नय क च वृ
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उ ह क ओर खची रहती। उ ह और कसी बातका मरण ही न होता ।।१३।। परी त्!
रा नय के जीवन-सव व, उनके एकमा दये र भगवान् ीकृ ण ही थे। वे कमलनयन
यामसु दरके च तनम ही इतनी म न हो जात क कई दे रतक चुप हो रहत और फर
उ म के समान अस ब बात कहने लगत । कभी-कभी तो भगवान् ीकृ णक
उप थ तम ही ेमो मादके कारण उनके वरहका अनुभव करने लगत । और न जाने या-
या कहने लगत । म उनक बात तु ह सुनाता ँ ।।१४।।
रा नयाँ कहत —अरी कुररी! अब तो बड़ी रात हो गयी है। संसारम सब ओर स ाटा छा
गया है। दे ख, इस समय वयं भगवान् अपना अख ड बोध छपाकर सो रहे ह और तुझे न द
ही नह आती? तू इस तरह रात-रातभर जगकर वलाप य कर रही है? सखी! कह
कमलनयन भगवान्के मधुर हा य और लीलाभरी उदार ( वीकृ तसूचक) चतवनसे तेरा दय
भी हमारी ही तरह बध तो नह गया है? ।।१५।।
अरी चकवी! तूने रातके समय अपने ने य बंद कर लये ह? या तेरे प तदे व कह
वदे श चले गये ह क तू इस कार क ण वरसे पुकार रही है? हाय-हाय! तब तो तू बड़ी
ः खनी है। पर तु हो-न-हो तेरे दयम भी हमारे ही समान भगवान्क दासी होनेका भाव
जग गया है। या अब तू उनके चरण पर चढ़ायी ई पु प क माला अपनी चो टय म धारण
करना चाहती है? ।।१६।।
अहो समु ! तुम नर तर गरजते ही रहते हो। तु ह न द नह आती या? जान पड़ता है
तु ह सदा जागते रहनेका रोग लग गया है। पर तु नह -नह , हम समझ गय , हमारे यारे
यामसु दरने तु हारे धैय, गा भीय आ द वाभा वक गुण छ न लये ह। या इसीसे तुम हमारे
ही समान ऐसी ा धके शकार हो गये हो, जसक कोई दवा नह है? ।।१७।।

वं य मणा बलवता स गृहीत इ दो


ीण तमो न नजद ध त भः णो ष ।
क च मुकु दग दता न यथा वयं वं
व मृ य भोः थ गतगी पल यसे नः ।।१८

क वाच रतम मा भमलया नल तेऽ यम् ।


गो व दापांग न भ े द रय स नः मरम् ।।१९

मेघ ीमं वम स द यतो यादवे य नूनं


ीव सांकं वय मव भवान् याय त ेमब ः ।
अ यु क ठः शबल दयोऽ म धो बा पधाराः
मृ वा मृ वा वसृज स मु ःखद त संगः ।।२०

यरावपदा न भाषसे
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मृतसंजी वकयानया गरा ।
करवा ण कम ते यं
वद मे व गतक ठ को कल ।।२१

न चल स न वद युदारबु े
तधर च तयसे महा तमथम् ।
अ प बत वसुदेवन दनाङ्
वय मव कामयसे तनै वधतुम् ।।२२
च दे व! तु ह ब त बड़ा रोग राजय मा हो गया है। इसीसे तुम इतने ीण हो रहे हो।
अरे राम-राम, अब तुम अपनी करण से अँधेरा भी नह हटा सकते! या हमारी ही भाँ त
हमारे यारे यामसु दरक मीठ -मीठ रह यक बात भूल जानेके कारण तु हारी बोलती बंद
हो गयी है? या उसीक च तासे तुम मौन हो रहे हो? ।।१८।।
मलया नल! हमने तेरा या बगाड़ा है, जो तू हमारे दयम कामका संचार कर रहा है?
अरे तू नह जानता या? भगवान्क तरछ चतवनसे हमारा दय तो पहलेसे ही घायल हो
गया है ।।१९।।
ीमन् मेघ! तु हारे शरीरका सौ दय तो हमारे यतम-जैसा ही है। अव य ही तुम
य वंश शरोम ण भगवान्के परम यारे हो। तभी तो तुम हमारी ही भाँ त ेमपाशम बँधकर
उनका यान कर रहे हो! दे खो-दे खो! तु हारा दय च तासे भर रहा है, तुम उनके लये
अ य त उ क ठत हो रहे हो! तभी तो बार-बार उनक याद करके हमारी ही भाँ त आँसूक
धारा बहा रहे हो। यामघन! सचमुच घन यामसे नाता जोड़ना घर बैठे पीड़ा मोल लेना
है ।।२०।।
री कोयल! तेरा गला बड़ा ही सुरीला है, मीठ बोली बोलनेवाले हमारे ाण यारेके समान
ही मधुर वरसे तू बोलती है। सचमुच तेरी बोलीम सुधा घोली ई है, जो यारेके वरहसे मरे
ए े मय को जलानेवाली है। तू ही बता, इस समय हम तेरा या य कर? ।।२१।। य
पवत! तुम तो बड़े उदार वचारके हो। तुमने ही पृ वीको भी धारण कर रखा है। न तुम
हलते-डोलते हो और न कुछ कहते-सुनते हो। जान पड़ता है क कसी बड़ी बातक च ताम
म न हो रहे हो। ठ क है, ठ क है; हम समझ गय । तुम हमारी ही भाँ त चाहते हो क अपने
तन के समान ब त-से शखर पर म भी भगवान् यामसु दरके चरण-कमल धारण
क ँ ।।२२।।

शु यद् दाः क शता बत स धुप यः


स यपा तकमल य इ भतुः ।
य द् वयं मधुपतेः णयावलोक-
म ा य मु दयाः पु क शताः म ।।२३

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हंस वागतमा यतां पब पयो
ू ंग शौरेः कथां
तं वां नु वदाम क चद जतः
व या त उ ं पुरा ।
क वा न लसौ दः मर त तं
क माद् भजामो वयं
ौ ालापय कामदं यमृते
सैवैक न ा याम् ।।२४

इती शेन भावेन कृ णे योगे रे रे ।


यमाणेन माध ो ले भरे परमां ग तम् ।।२५

ुतमा ोऽ प यः ीणां स ाकषते मनः ।


उ गायो गीतो वा प य तीनां कुतः पुनः ।।२६

याः स पयचरन् े णा पादसंवाहना द भः ।


जगद्गु ं भतृबु या तासां क व यते तपः ।।२७
समु प नी न दयो! यह ी म ऋतु है। तु हारे कु ड सूख गये ह। अब तु हारे अंदर खले
ए कमल का सौ दय नह द खता। तुम ब त बली-पतली हो गयी हो। जान पड़ता है, जैसे
हम अपने यतम यामसु दरक ेमभरी चतवन न पाकर अपना दय खो बैठ ह और
अ य त बली-पतली हो गयी ह, वैसे ही तुम भी मेघ के ारा अपने यतम समु का जल न
पाकर ऐसी द न-हीन हो गयी हो ।।२३।। हंस! आओ, आओ! भले आये, वागत है।
आसनपर बैठो; लो, ध पयो। य हंस! यामसु दरक कोई बात तो सुनाओ। हम समझती
ह क तुम उनके त हो। कसीके वशम न होनेवाले यामसु दर सकुशल तो ह न? अरे भाई!
उनक म ता तो बड़ी अ थर है, णभंगुर है। एक बात तो बतलाओ, उ ह ने हमसे कहा था
क तु ह हमारी परम यतमा हो। या अब उ ह यह बात याद है? जाओ, जाओ; हम
तु हारी अनुनय- वनय नह सुनत । जब वे हमारी परवा नह करते, तो हम उनके पीछे य
मर? ु के त! हम उनके पास नह जात । या कहा? वे हमारी इ छा पूण करनेके लये ही
आना चाहते ह, अ छा! तब उ ह तो यहाँ बुला लाना, हमसे बात कराना, पर तु कह
ल मीको साथ न ले आना। तब या वे ल मीको छोड़कर यहाँ नह आना चाहते? यह कैसी
बात है? या य म ल मी ही एक ऐसी ह, जनका भगवान्से अन य ेम है? या हममसे
कोई एक भी वैसी नह है? ।।२४।।
परी त्! ीकृ ण-प नयाँ योगे रे र भगवान् ीकृ णम ऐसा ही अन य ेम-भाव
रखती थ । इसीसे उ ह ने परमपद ा त कया ।।२५।। भगवान् ीकृ णक लीलाएँ अनेक
कारसे अनेक गीत ारा गान क गयी ह। वे इतनी मधुर, इतनी मनोहर ह क उनके
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सुननेमा से य का मन बलात् उनक ओर खच जाता है। फर जो याँ उ ह अपने
ने से दे खती थ , उनके स ब धम तो कहना ही या है ।।२६।।
जन बड़भा गनी य ने जगद्गु भगवान् ीकृ णको अपना प त मानकर परम ेमसे
उनके चरण-कमल को सहलाया, उ ह नहलाया-धुलाया, खलाया- पलाया, तरह-तरहसे
उनक सेवा क , उनक तप याका वणन तो भला, कया ही कैसे जा सकता है ।।२७।।

एवं वेदो दतं धममनु त न् सतां ग तः ।


गृहं धमाथकामानां मु ादशयत् पदम् ।।२८
आ थत य परं धम कृ ण य गृहमे धनाम् ।
आसन् षोडशसाह ं म ह य शता धकम् ।।२९
तासां ीर नभूतानाम ौ याः ागुदा ताः ।
मणी मुखा राजं त पु ा ानुपूवशः ।।३०
एकैक यां दश दश कृ णोऽजीजनदा मजान् ।
याव य आ मनो भाया अमोघग तरी रः ।।३१
तेषामु ामवीयाणाम ादश महारथाः ।
आस ुदारयशस तेषां नामा न मे शृणु ।।३२
ुन ान द तमान् भानुरेव च ।
सा बो मधुबृह ानु भानुवृकोऽ णः ।।३३
पु करो वेदबा ुतदे वः सुन दनः ।
च बा व प क व य ोध एव च ।।३४
एतेषाम प राजे तनुजानां मधु षः ।
ु न आसीत् थमः पतृवद् मणीसुतः ।।३५
स मणो हतरमुपयेमे महारथः ।
त मात् सुतोऽ न ोऽभू ागायुतबला वतः ।।३६
स चा प मणः पौ दौ ह ो जगृहे ततः ।
व त याभवद् य तु मौसलादवशे षतः ।।३७
तबा रभू मात् सुबा त य चा मजः ।
सुबाहोः शा तसेनोऽभू छतसेन तु त सुतः ।।३८
न ेत मन् कुले जाता अधना अब जाः ।
अ पायुषोऽ पवीया अ या ज रे ।।३९
परी त्! भगवान् ीकृ ण स पु ष के एकमा आ य ह। उ ह ने वेदो धमका बार-

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बार आचरण करके लोग को यह बात दखला द क घर ही धम, अथ और काम—साधनका
थान है ।।२८।। इसी लये वे गृह थो चत े धमका आ य लेकर वहार कर रहे थे।
परी त्! म तुमसे कह ही चुका ँ क उनक रा नय क सं या थी सोलह हजार एक सौ
आठ ।।२९।। उन े य मसे मणी आ द आठ पटरा नय और उनके पु का तो म
पहले ही मसे वणन कर चुका ँ ।।३०।। उनके अ त र भगवान् ीकृ णक और जतनी
प नयाँ थ , उनसे भी येकके दस-दस पु उ प कये। यह कोई आ यक बात नह है।
य क भगवान् सवश मान् और स यसंक प ह ।।३१।। भगवान्के परम परा मी पु म
अठारह तो महारथी थे, जनका यश सारे जगत्म फैला आ था। उनके नाम मुझसे
सुनो ।।३२।। ु न, अ न , द तमान्, भानु, सा ब, मधु, बृह ानु, च भानु, वृक,
अ ण, पु कर, वेदबा , ुतदे व, सुन दन, च बा , व प, क व और य ोध ।।३३-३४।।
राजे ! भगवान् ीकृ णके इन पु म भी सबसे े मणीन दन ु नजी थे। वे सभी
गुण म अपने पताके समान ही थे ।।३५।। महारथी ु नने मीक क यासे अपना ववाह
कया था। उसीके गभसे अ न जीका ज म आ। उनम दस हजार हा थय का बल
था ।।३६।। मीके दौ ह अ न जीने अपने नानाक पोतीसे ववाह कया। उसके गभसे
व का ज म आ। ा ण के शापसे पैदा ए मूसलके ारा य वंशका नाश हो जानेपर
एकमा वे ही बच रहे थे ।।३७।।
व के पु ह तबा , तबा के सुबा , सुबा के शा तसेन और शा तसेनके
शतसेन ।।३८।। परी त्! इस वंशम कोई भी पु ष ऐसा न आ जो ब त-सी स तानवाला
न हो तथा जो नधन, अ पायु और अ पश हो। वे सभी ा ण के भ थे ।।३९।।

य वंश सूतानां पुंसां व यातकमणाम् ।


सं या न श यते कतुम प वषायुतैनृप ।।४०

त ः को ः सह ाणाम ाशी तशता न च ।


आसन् य कुलाचायाः कुमाराणा म त ुतम् ।।४१

सं यानं यादवानां कः क र य त महा मनाम् ।


य ायुतानामयुतल ेणा ते स आ कः ।।४२

दे वासुराहवहता दै तेया ये सुदा णाः ।


ते चो प ा मनु येषु जा ता बबा धरे ।।४३

त हाय ह रणा ो ा दे वा यदोः कुले ।


अवतीणाः कुलशतं तेषामेका धकं नृप ।।४४

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तेषां माणं भगवान् भु वेनाभव रः ।
ये चानुव तन त य ववृधुः सवयादवाः ।।४५

श यासनाटनालाप डा नाना दकमसु ।


न व ः स तमा मानं वृ णयः कृ णचेतसः ।।४६

तीथ च े नृपोनं यदज न य षु


वःस र पादशौचं
व ट् न धाः व पं ययुर जतपरा
ीयदथऽ यय नः ।
य ामामंगल नं ुतमथ ग दतं
य कृतो गो धमः
परी त्! य वंशम ऐसे-ऐसे यश वी और परा मी पु ष ए ह, जनक गनती भी
हजार वष म पूरी नह हो सकती ।।४०।। मने ऐसा सुना है क य वंशके बालक को श ा
दे नेके लये तीन करोड़ अट् ठासी लाख आचाय थे ।।४१।। ऐसी थ तम महा मा
य वं शय क सं या तो बतायी ही कैसे जा सकती है! वयं महाराज उ सेनके साथ एक
नील (१०००००००००००००) के लगभग सै नक रहते थे ।।४२।। परी त्! ाचीन कालम
दे वासुरसं ामके समय ब त-से भयंकर असुर मारे गये थे। वे ही मनु य म उ प ए और बड़े
घमंडसे जनताको सताने लगे ।।४३।। उनका दमन करनेके लये भगवान्क आ ासे
दे वता ने ही य वंशम अवतार लया था। परी त्! उनके कुल क सं या एक सौ एक
थी ।।४४।। वे सब भगवान् ीकृ णको ही अपना वामी एवं आदश मानते थे। जो य वंशी
उनके अनुयायी थे, उनक सब कारसे उ त ई ।।४५।। य वं शय का च इस कार
भगवान् ीकृ णम लगा रहता था क उ ह सोने-बैठने, घूमने- फरने, बोलने-खेलने और
नहाने-धोने आ द काम म अपने शरीरक भी सु ध न रहती थी। वे जानते ही न थे क हमारा
शरीर या कर रहा है। उनक सम त शारी रक याएँ य क भाँ त अपने-आप होती रहती
थ ।।४६।।
परी त्! भगवान्का चरणधोवन गंगाजी अव य ही सम त तीथ म महान् एवं प व ह।
पर तु जब वयं परमतीथ व प भगवान्ने ही य वंशम अवतार हण कया, तब तो
गंगाजलक म हमा अपने-आप ही उनके सुयशतीथक अपे ा कम हो गयी। भगवान्के
व पक यह कतनी बड़ी म हमा है क उनसे ेम करनेवाले भ और े ष करनेवाले श ु
दोन ही उनके व पको ा त ए। जस ल मीको ा त करनेके लये बड़े-बड़े दे वता य न
करते रहते ह, वे ही भगवान्क सेवाम न य- नर तर लगी रहती ह। भगवान्का नाम एक बार
सुनने अथवा उ चारण करनेसे ही सारे अमंगल को न कर दे ता है। ऋ षय के वंशज म
जतने भी धम च लत ह, सबके सं थापक भगवान् ीकृ ण ही ह। वे अपने हाथम काल-
व प च लये रहते ह। परी त्! ऐसी थ तम वे पृ वीका भार उतार दे ते ह, यह कौन
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बड़ी बात है ।।४७।। भगवान् ीकृ ण ही सम त जीव के आ य थान ह। य प वे सदा-
सवदा सव उप थत ही रहते ह, फर भी कहनेके लये उ ह ने दे वक जीके गभसे ज म
लया है। य वंशी वीर पाषद के पम उनक सेवा करते रहते ह। उ ह ने अपने भुजबलसे
अधमका अ त कर दया है। परी त्! भगवान् वभावसे ही चराचर जगत्का ःख मटाते
रहते ह। उनका म द-म द मुसकानसे यु सु दर मुखार व द ज य और पुर य के
दयम ेम-भावका संचार करता रहता है। वा तवम सारे जगत्पर वही वजयी ह। उ ह क
जय हो! जय हो!! ।।४८।।

कृ ण यैत च ं तभरहरणं
कालच ायुध य ।।४७

जय त जन नवासो दे वक ज मवादो
य वरपष वैद भर य धमम् ।
थरचरवृ जन नः सु मत ीमुखेन
जपुरव नतानां वधयन् कामदे वम् ।।४८

इ थं पर य नजव म रर याऽऽ -
लीलातनो तदनु प वड बना न ।
कमा ण कमकषणा न य म य
ूयादमु य पदयोरनुवृ म छन् ।।४९

म य तयानुसवमे धतया मुकु द-


ीम कथा वणक तन च तयै त ।
त ाम तरकृता तजवापवग
ामाद् वनं तभुजोऽ प ययुयदथाः ।।५०
परी त्! कृ तसे अतीत परमा माने अपने ारा था पत धम-मयादाक र ाके लये
द लीला-शरीर हण कया और उसके अनु प अनेक अद्भुत च र का अ भनय
कया। उनका एक-एक कम मरण करनेवाल के कमब धन को काट डालनेवाला है। जो
य वंश शरोम ण भगवान् ीकृ णके चरणकमल क सेवाका अ धकार ा त करना चाहे,
उसे उनक लीला का ही वण करना चा हये ।।४९।। परी त्! जब मनु य त ण
भगवान् ीकृ णक मनोहा रणी लीला-कथा का अ धका धक वण, क तन और च तन
करने लगता है, तब उसक यही भ उसे भगवान्के परमधामम प ँचा दे ती है। य प
कालक ग तके परे प ँच जाना ब त ही क ठन है, पर तु भगवान्के धामम कालक दाल
नह गलती। वह वहाँतक प ँच ही नह पाता। उसी धामक ा तके लये अनेक स ाट ने
अपना राजपाट छोड़कर तप या करनेके उ े यसे जंगलक या ा क है। इस लये मनु यको

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उनक लीला-कथाका ही वण करना चा हये ।।५०।।
इ त ीम ागवते महापुराणे वैया स याम ादशसाह यां
् पारमहं यां सं हतायां दशम क धे
उ राध ीकृ णच रतानुवणनं नाम नव ततमोऽ यायः ।।९०।।

।।इ त दशम क धो राधः स पूणः ।।


ीकृ णापणम तु

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।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।।
ीम ागवतमहापुराणाम्
एकादशः क धः
अथ थमोऽ यायः
य वंशको ऋ षय का शाप
ीबादराय ण वाच
कृ वा दै यवधं कृ णः सरामो प भवृतः ।
भुवोऽवतारयद् भारं ज व ं जनयन् क लम् ।।१

ये को पताः सुब पा डु सुताः सप नै-


ूतहेलनकच हणा द भ तान् ।
कृ वा न म मतरेतरतः समेतान्
ह वा नृपान् नरहरत् तभारमीशः ।।२

भूभारराजपृतना य भ नर य
गु तैः वबा भर च तयद मेयः ।
म येऽवनेननु गतोऽ यगतं ह भारं
यद् यादवं कुलमहो अ वष मा ते ।।३

नैवा यतः प रभवोऽ य भवेत् कथं च-


म सं य य वभवो हन य न यम् ।
अ तःक ल य कुल य वधाय वेणु-
त ब य व मव शा तमुपै म धाम ।।४
ासन दन भगवान् ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान् ीकृ णने
बलरामजी तथा अ य य वं शय के साथ मलकर ब त-से दै य का संहार कया तथा कौरव
और पा डव म भी शी मार-काट मचानेवाला अ य त बल कलह उ प करके पृ वीका
भार उतार दया ।।१।।
कौरव ने कपटपूण जूएसे, तरह-तरहके अपमान से तथा ौपद के केश ख चने आ द
अ याचार से पा डव को अ य त ो धत कर दया था। उ ह पा डव को न म बनाकर
भगवान् ीकृ णने दोन प म एक ए राजा को मरवा डाला और इस कार पृ वीका
भार हलका कर दया ।।२।।
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अपने बा बलसे सुर त य वं शय के ारा पृ वीके भार—राजा और उनक सेनाका
वनाश करके, माण के ारा ानके वषय न होनेवाले भगवान् ीकृ णने वचार कया क
लोक से पृ वीका भार र हो जानेपर भी व तुतः मेरी से अभीतक र नह आ;
य क जसपर कोई वजय नह ा त कर सकता, वह य वंश अभी पृ वीपर व मान
है ।।३।।
यह य वंश मेरे आ त है और हाथी, घोड़े, जनबल, धनबल आ द वशाल वैभवके
कारण उ छृ ं खल हो रहा है। अ य कसी दे वता आ दसे भी इसक कसी कार पराजय नह
हो सकती। बाँसके वनम पर पर संघषसे उ प अ नके समान इस य वंशम भी पर पर
कलह खड़ा करके म शा त ा त कर सकूँगा और इसके बाद अपने धामम जाऊँगा ।।४।।

एवं व सतो राजन् स यसंक प ई रः ।


शाप ाजेन व ाणां संज े वकुलं वभुः ।।५

वमू या लोकलाव य नमु या लोचनं नृणाम् ।


गी भ ताः मरतां च ं पदै तानी तां याः ।।६

आ छ क त सु ोकां वत य ंजसा नु कौ ।
तमोऽनया त र य ती यगात् वं पदमी रः ।।७
राजोवाच
यानां वदा यानां न यं वृ ोपसे वनाम् ।
व शापः कथमभूद ् वृ णीनां कृ णचेतसाम् ।।८

य म ः स वै शापो या शो जस म ।
कथमेका मनां भेद एतत् सव वद व मे ।।९
राजन्! भगवान् सवश मान् और स यसंक प ह। उ ह ने इस कार अपने मनम न य
करके ा ण के शापके बहाने अपने ही वंशका संहार कर डाला, सबको समेटकर अपने
धामम ले गये ।।५।।
परी त्! भगवान्क वह मू त लोक के सौ दयका तर कार करनेवाली थी। उ ह ने
अपनी सौ दय-माधुरीसे सबके ने अपनी ओर आक षत कर लये थे। उनक वाणी, उनके
उपदे श परम मधुर, द ा त द थे। उनके ारा उ ह मरण करनेवाल के च उ ह ने छ न
लये थे। उनके चरणकमल लोक-सु दर थे। जसने उनके एक चरण- च का भी दशन कर
लया, उसक ब हमुखता र भाग गयी, वह कम पंचसे ऊपर उठकर उ ह क सेवाम लग
गया। उ ह ने अनायास ही पृ वीम अपनी क तका व तार कर दया, जसका बड़े-बड़े
सुक वय ने बड़ी ही सु दर भाषाम वणन कया है। वह इस लये क मेरे चले जानेके बाद लोग
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मेरी इस क तका गान, वण और मरण करके इस अ ान प अ धकारसे सुगमतया पार
हो जायँगे। इसके बाद परमै यशाली भगवान् ीकृ णने अपने धामको याण
कया ।।६-७।।
राजा परी त्ने पूछा—भगवन्! य वंशी बड़े ा णभ थे। उनम बड़ी उदारता भी
थी और वे अपने कुलवृ क न य- नर तर सेवा करनेवाले थे। सबसे बड़ी बात तो यह थी
क उनका च भगवान् ीकृ णम लगा रहता था; फर उनसे ा ण का अपराध कैसे बन
गया? और य ा ण ने उ ह शाप दया? ।।८।।
भगवान्के परम ेमी व वर! उस शापका कारण या था तथा या व प था? सम त
य वं शय के आ मा, वामी और यतम एकमा भगवान् ीकृ ण ही थे; फर उनम फूट
कैसे ई? सरी से दे ख तो वे सब ऋ ष अ ै तदश थे, फर उनको ऐसी भेद कैसे
ई? यह सब आप कृपा करके मुझे बतलाइये ।।९।।
ीशुक उवाच
ब द् वपुः सकलसु दरस वेशं
कमाचरन् भु व सुमंगलमा तकामः ।
आ थाय धाम रममाण उदारक तः
संहतुमै छत कुलं थतकृ यशेषः ।।१०

कमा ण पु य नवहा न सुमंगला न


गाय जग क लमलापहरा ण कृ वा ।
काला मना नवसता य दे वगेहे
प डारकं समगमन् मुनयो नसृ ाः ।।११

व ा म ोऽ सतः क वो वासा भृगुरं गराः ।


क यपो वामदे वोऽ व स ो नारदादयः ।।१२

ड त तानुप य कुमारा य न दनाः ।


उपसंगृ प छु र वनीता वनीतवत् ।।१३

ते वेष य वा ीवेषैः सा बं जा बवतीसुतम् ।


एषा पृ छ त वो व ा अ तव य सते णा ।।१४

ु ं वल जती सा ात् ूतामोघदशनाः ।


सो य ती पु कामा क वत् संजन य य त ।।१५

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एवं ल धा मुनय तानूचुः कु पता नृप ।
जन य य त वो म दा मुसलं कुलनाशनम् ।।१६
ीशुकदे वजीने कहा—भगवान् ीकृ णने वह शरीर धारण करके जसम स पूण सु दर
पदाथ का स वेश था (ने म मृगनयन, क ध म सह क ध, कर म क र-कर, चरण म
कमल आ दका व यास था।) पृ वीम मंगलमय क याणकारी कम का आचरण कया। वे
पूणकाम भु ारकाधामम रहकर डा करते रहे और उ ह ने अपनी उदार क तक
थापना क । (जो क त वयं अपने आ यतकका दान कर सके वह उदार है।) अ तम
ीह रने अपने कुलके संहार—उपसंहारक इ छा क ; य क अब पृ वीका भार उतरनेम
इतना ही काय शेष रह गया था ।।१०।। भगवान् ीकृ णने ऐसे परम मंगलमय और पु य-
ापक कम कये, जनका गान करनेवाले लोग के सारे क लमल न हो जाते ह। अब
भगवान् ीकृ ण महाराज उ सेनक राजधानी ारकापुरीम वसुदेवजीके घर यादव का
संहार करनेके लये काल पसे ही नवास कर रहे थे। उस समय उनके वदा कर दे नेपर—
व ा म , अ सत, क व, वासा, भृगु, अं गरा, क यप, वामदे व, अ , व स और नारद
आ द बड़े-बड़े ऋ ष ारकाके पास ही प डारक े म जाकर नवास करने लगे
थे ।।११-१२।।
एक दन य वंशके कुछ उ ड कुमार खेलते-खेलते उनके पास जा नकले। उ ह ने
बानवट न तासे उनके चरण म णाम करके कया ।।१३।। वे जा बवतीन दन सा बको
ीके वेषम सजाकर ले गये और कहने लगे, ‘ ा णो! यह कजरारी आँख वाली सु दरी
गभवती है। यह आपसे एक बात पूछना चाहती है। पर तु वयं पूछनेम सकुचाती है।
आपलोग का ान अमोघ—अबाध है, आप सव ह। इसे पु क बड़ी लालसा है और अब
सवका समय नकट आ गया है। आपलोग बताइये, यह क या जनेगी या
पु ?’ ।।१४-१५।। परी त्! जब उन कुमार ने इस कार उन ऋ ष-मु नय को धोखा दे ना
चाहा, तब वे भगव ेरणासे ो धत हो उठे । उ ह ने कहा—‘मूख ! यह एक ऐसा मूसल पैदा
करेगी, जो तु हारे कुलका नाश करनेवाला होगा ।।१६।। मु नय क यह बात सुनकर वे
बालक ब त ही डर गये। उ ह ने तुरंत सा बका पेट खोलकर दे खा तो सचमुच उसम एक
लोहेका मूसल मला ।।१७।। अब तो वे पछताने लगे और कहने लगे—‘हम बड़े अभागे ह।
दे खो, हमलोग ने यह या अनथ कर डाला? अब लोग हम या कहगे?’ इस कार वे ब त
ही घबरा गये तथा मूसल लेकर अपने नवास थानम गये ।।१८।। उस समय उनके चेहरे
फ के पड़ गये थे। मुख कु हला गये थे। उ ह ने भरी सभाम सब यादव के सामने ले जाकर
वह मूसल रख दया और राजा उ सेनसे सारी घटना कह सुनायी ।।१९।। राजन्! जब सब
लोग ने ा ण के शापक बात सुनी और अपनी आँख से उस मूसलको दे खा, तब सब-के-
सब ारकावासी व मत और भयभीत हो गये; य क वे जानते थे क ा ण का शाप
कभी झूठा नह होता ।।२०।। य राज उ सेनने उस मूसलको चूरा-चूरा करा डाला और उस
चूरे तथा लोहेके बचे ए छोटे टु कड़ेको समु म फकवा दया। (इसके स ब धम उ ह ने
भगवान् ीकृ णसे कोई सलाह न ली; ऐसी ही उनक ेरणा थी) ।।२१।।
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त छ वा तेऽ तस ता वमु य सहसोदरम् ।
सा ब य द शु त मन् मुसलं ख वय मयम् ।।१७

क कृतं म दभा यैनः क व द य त नो जनाः ।


इ त व लता गेहानादाय मुसलं ययुः ।।१८

त चोपनीय सद स प र लानमुख यः ।
रा आवेदयांच ु ः सवयादवस धौ ।।१९

ु वामोघं व शापं ् वा च मुसलं नृप ।


व मता भयस ता बभूवु ारकौकसः ।।२०

त चूण य वा मुसलं य राजः स आ कः ।


समु स लले ा य लोहं चा यावशे षतम् ।।२१

क म योऽ सी लोहं चूणा न तरलै ततः ।


उ माना न वेलायां ल ना यासन् कलैरकाः ।।२२

म यो गृहीतो म य नैजालेना यैः सहाणवे ।


त योदरगतं लोहं स श ये लु धकोऽकरोत् ।।२३

भगवा ातसवाथ ई रोऽ प तद यथा ।


कतु नै छद् व शापं काल य वमोदत ।।२४
परी त्! उस लोहेके टु कड़ेको एक मछली नगल गयी और चूरा तरंग के साथ बह-
बहकर समु के कनारे आ लगा। वह थोड़े दन म एरक ( बना गाँठक एक घास) के पम
उग आया ।।२२।। मछली मारनेवाले मछु ने समु म सरी मछ लय के साथ उस मछलीको
भी पकड़ लया। उसके पेटम जो लोहेका टु कड़ा था, उसको जरा नामक ाधने अपने
बाणके नोकम लगा लया ।।२३।। भगवान् सब कुछ जानते थे। वे इस शापको उलट भी
सकते थे। फर भी उ ह ने ऐसा करना उ चत न समझा। काल पधारी भुने ा ण के
शापका अनुमोदन ही कया ।।२४।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायामेकादश क धे थमोऽ यायः ।।१।।

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अथ तीयोऽ यायः
वसुदेवजीके पास ीनारदजीका आना और उ ह राजा जनक तथा नौ
योगी र का संवाद सुनाना
ीशुक उवाच
गो व दभुजगु तायां ारव यां कु ह।
अवा सी ारदोऽभी णं कृ णोपासनलालसः ।।१

को नु राज यवान् मुकु दचरणा बुजम् ।


न भजेत् सवतोमृ यु पा यममरो मैः ।।२

तमेकदा तु दे व ष वसुदेवो गृहागतम् ।


अ चतं सुखमासीनम भवा ेदम वीत् ।।३
वसुदेव उवाच
भगवन् भवतो या ा व तये सवदे हनाम् ।
कृपणानां यथा प ो म ोकव मनाम् ।।४

भूतानां दे वच रतं ःखाय च सुखाय च ।


सुखायैव ह साधूनां वा शाम युता मनाम् ।।५
ीशुकदे वजी कहते ह—कु न दन! दे व ष नारदके मनम भगवान् ीकृ णक
स धम रहनेक बड़ी लालसा थी। इस लये वे ीकृ णके नज बा से सुर त ारकाम
—जहाँ द आ दके शापका कोई भय नह था, वदा कर दे नेपर भी पुनः-पुनः आकर ायः
रहा ही करते थे ।।१।।
राजन्! ऐसा कौन ाणी है, जसे इ याँ तो ा त ह और वह भगवान्के ा आद
बड़े-बड़े दे वता के भी उपा य चरणकमल क द ग ध, मधुर मकर द-रस, अलौ कक
पमाधुरी, सुकुमार पश और मंगलमय व नका सेवन करना न चाहे? य क यह बेचारा
ाणी सब ओरसे मृ युसे ही घरा आ है ।।२।।
एक दनक बात है, दे व ष नारद वसुदेवजीके यहाँ पधारे। वसुदेवजीने उनका अ भवादन
कया तथा आरामसे बैठ जानेपर व धपूवक उनक पूजा क और इसके बाद पुनः णाम
करके उनसे यह बात कही ।।३।।
वसुदेवजीने कहा—संसारम माता- पताका आगमन पु के लये और भगवान्क ओर
अ सर होनेवाले साधु-संत का पदापण पंचम उलझे ए द न- ः खय के लये बड़ा ही

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सुखकर और बड़ा ही मंगलमय होता है। पर तु भगवन्! आप तो वयं भगव मय,
भगव व प ह। आपका चलना- फरना तो सम त ा णय के क याणके लये ही होता
है ।।४।।
दे वता के च र भी कभी ा णय के लये ःखके हेतु, तो कभी सुखके हेतु बन जाते
ह। पर तु जो आप-जैसे भगव ेमी पु ष ह— जनका दय, ाण, जीवन, सब कुछ
भगव मय हो गया है—उनक तो येक चे ा सम त ा णय के क याणके लये ही होती
है ।।५।।

भज त ये यथा दे वान् दे वा अ प तथैव तान् ।


छायेव कमस चवाः साधवो द नव सलाः ।।६

ं तथा प पृ छामो धमान् भागवतां तव ।


या छ वा या म य मु यते सवतोभयात् ।।७

अहं कल पुरान तं जाथ भु व मु दम् ।


अपूजयं न मो ाय मो हतो दे वमायया ।।८

यथा व च सनाद् भव व तोभयात् ।


मु येम ंजसैवा ा तथा नः शा ध सु त ।।९
ीशुक उवाच
राज ेवं कृत ो वसुदेवेन धीमता ।
ीत तमाह दे व षहरेः सं मा रतो गुणैः ।।१०
नारद उवाच
स यगेतद् व सतं भवता सा वतषभ ।
यत् पृ छसे भागवतान् धमा वं व भावनान् ।।११

ुतोऽनुप ठतो यात आ तो वानुमो दतः ।


स ः पुना त स म दे व व होऽ प ह ।।१२
जो लोग दे वता का जस कार भजन करते ह, दे वता भी परछा के समान ठ क उसी
री तसे भजन करनेवाल को फल दे ते ह; य क दे वता कमके म ी ह, अधीन ह। पर तु
स पु ष द नव सल होते ह अथात् जो सांसा रक स प एवं साधनसे भी हीन ह, उ ह
अपनाते ह ।।६।। न्! (य प हम आपके शुभागमन और शुभ दशनसे ही कृतकृ य हो
गये ह) तथा प आपसे उन धम के—साधन के स ब धम कर रहे ह, जनको मनु य

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ासे सुन भर ले तो इस सब ओरसे भयदायक संसारसे मु हो जाय ।।७।। पहले ज मम
मने मु दे नेवाले भगवान्क आराधना तो क थी, पर तु इस लये नह क मुझे मु मले।
मेरी आराधनाका उ े य था क वे मुझे पु पम ा त ह । उस समय म भगवान्क लीलासे
मु ध हो रहा था ।।८।। सु त! अब आप मुझे ऐसा उपदे श द जये जससे म इस ज म-
मृ यु प भयावह संसारसे— जसम ःख भी सुखका व च और मोहक प धारण करके
सामने आते ह—अनायास ही पार हो जाऊँ ।।९।।
ीशुकदे वजी कहते ह—राजन्! बु मान् वसुदेवजीने भगवान्के व प और गुण
आ दके वणके अ भ ायसे ही यह कया था। दे व ष नारद उनका सुनकर
भगवान्के अ च य अन त क याणमय गुण के मरणम त मय हो गये और ेम एवं
आन दम भरकर वसुदेवजीसे बोले ।।१०।।
नारदजीने कहा—य वंश शरोमणे! तु हारा यह न य ब त ही सु दर है; य क यह
भागवत धमके स ब धम है, जो सारे व को जीवन-दान दे नेवाला है, प व करनेवाला
है ।।११।। वसुदेवजी! यह भागवतधम एक ऐसी व तु है, जसे कान से सुनने, वाणीसे
उ चारण करने, च से मरण करने, दयसे वीकार करने या कोई इसका पालन करने जा
रहा हो तो उसका अनुमोदन करनेसे ही मनु य उसी ण प व हो जाता है—चाहे वह
भगवान्का एवं सारे संसारका ोही ही य न हो ।।१२।। जनके गुण, लीला और नाम
आ दका वण तथा क तन प तत को भी पावन करनेवाला है, उ ह परम क याण व प
मेरे आरा यदे व भगवान् नारायणका तुमने आज मुझे मरण कराया है ।।१३।। वसुदेवजी!
तुमने मुझसे जो कया है, इसके स ब धम संत पु ष एक ाचीन इ तहास कहा करते ह।
वह इ तहास है—ऋषभके पु नौ योगी र और महा मा वदे हका शुभ संवाद ।।१४।। तुम
जानते ही हो क वाय भुव मनुके एक स पु थे य त। य तके आ नी ,
आ नी के ना भ और ना भके पु ए ऋषभ ।।१५।। शा ने उ ह भगवान् वासुदेवका अंश
कहा है। मो धमका उपदे श करनेके लये उ ह ने अवतार हण कया था। उनके सौ पु थे
और सब-के-सब वेद के पारदश व ान् थे ।।१६।।

वया परमक याणः पु य वणक तनः ।


मा रतो भगवान दे वो नारायणो मम ।।१३

अ ा युदाहर तीम म तहासं पुरातनम् ।


आषभाणां च संवादं वदे ह य महा मनः ।।१४

य तो नाम सुतो मनोः वाय भुव य यः ।


त या नी ततो ना भऋषभ त सुतः मृतः ।।१५

तमा वासुदेवांशं मो धम वव या ।

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अवतीण सुतशतं त यासीद् पारगम् ।।१६

तेषां वै भरतो ये ो नारायणपरायणः ।


व यातं वषमेतद् य ा ना भारतम तम् ।।१७

स भु भोगां य वेमां नगत तपसा ह रम् ।


उपासीन त पदव लेभे वै ज म भ भः ।।१८

तेषां नव नव पपतयोऽ य सम ततः ।


कमत णेतार एकाशी त जातयः ।।१९

नवाभवन् महाभागा मुनयो थशं सनः ।


मणा वातरशना आ म व ा वशारदाः ।।२०

क वह रर त र ः बु ः प पलायनः ।
आ वह ोऽथ मल मसः करभाजनः ।।२१

त एते भगव प ू ं व ं सदसदा मकम् ।


आ मनोऽ तरेकेण प य तो चरन् महीम् ।।२२
उनम सबसे बड़े थे राज ष भरत। वे भगवान् नारायणके परम ेमी भ थे। उ ह के
नामसे यह भू मख ड, जो पहले ‘अजनाभवष’ कहलाता था, ‘भारतवष’ कहलाया। यह
भारतवष भी एक अलौ कक थान है ।।१७।। राज ष भरतने सारी पृ वीका रा य-भोग
कया, पर तु अ तम इसे छोड़कर वनम चले गये। वहाँ उ ह ने तप याके ारा भगवान्क
उपासना क और तीन ज म म वे भगवान्को ा त ए ।।१८।। भगवान् ऋषभदे वजीके शेष
न यानबे पु म नौ पु तो इस भारतवषके सब ओर थत नौ प के अ धप त ए और
इ यासी पु कमका डके रच यता ा ण हो गये ।।१९।। शेष नौ सं यासी हो गये। वे बड़े
ही भा यवान् थे। उ ह ने आ म व ाके स पादनम बड़ा प र म कया था और वा तवम वे
उसम बड़े नपुण थे। वे ायः दग बर ही रहते थे और अ धका रय को परमाथ-व तुका
उपदे श कया करते थे। उनके नाम थे—क व, ह र, अ त र , बु , प पलायन, आ वह ,
मल, चमस और कर-भाजन ।।२०-२१।। वे इस काय-कारण और -अ
भगवद् प जगत्को अपने आ मासे अ भ अनुभव करते ए पृ वीपर व छ द वचरण
करते थे ।।२२।।

अ ाहते गतयः सुर स सा य-


ग धवय नर क रनागलोकान् ।

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मु ा र त मु नचारणभूतनाथ-
व ाधर जगवां भुवना न कामम् ।।२३

त एकदा नमेः स मुपज मुय छया ।


वतायमानमृ ष भरजनाभे महा मनः ।।२४

तान् ् वा सूयसंकाशान् महाभागवतान् नृपः ।


यजमानोऽ नयो व ाः सव एवोपत थरे ।।२५

वदे ह तान भ े य नारायणपरायणान् ।


ीतः स पूजयांच े आसन थान् यथाहतः ।।२६

तान् रोचमानान् व चा पु ोपमान् नव ।


प छ परम ीतः यावनतो नृपः ।।२७
वदे ह उवाच
म ये भगवतः सा ात् पाषदान् वो मधु षः ।
व णोभूता न लोकानां पावनाय चर त ह ।।२८

लभो मानुषो दे हो दे हनां णभंगुरः ।


त ा प लभं म ये वैकु ठ यदशनम् ।।२९

अत आ य तकं ेमं पृ छामो भवतोऽनघाः ।


संसारेऽ मन् णाध ऽ प स संगः शेव धनृणाम् ।।३०
उनके लये कह भी रोक-टोक न थी। वे जहाँ चाहते, चले जाते। दे वता, स , सा य-
ग धव, य , मनु य, क र और नाग के लोक म तथा मु न, चारण, भूतनाथ, व ाधर,
ा ण और गौ के थान म वे वछ द वचरते थे। वसुदेवजी! वे सब-के-सब जीव मु
थे ।।२३।।
एक बारक बात है, इस अजनाभ (भारत) वषम वदे हराज महा मा न म बड़े-बड़े
ऋ षय के ारा एक महान् य करा रहे थे। पूव नौ योगी र व छ द वचरण करते ए
उनके य म जा प ँचे ।।२४।। वसुदेवजी! वे योगी र भगवान्के परम ेमी भ और सूयके
समान तेज वी थे। उ ह दे खकर राजा न म, आहवनीय आ द मू तमान् अ न और ऋ वज्
आ द ा ण सब-के-सब उनके वागतम खड़े हो गये ।।२५।। वदे हराज न मने उ ह
भगवान्के परम ेमी भ जानकर यथायो य आसन पर बैठाया और ेम तथा आन दसे
भरकर व धपूवक उनक पूजा क ।।२६।। वे नव योगी र अपने अंग क का तसे इस

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कार चमक रहे थे, मानो सा ात् ाजीके पु सनका द मुनी र ही ह । राजा न मने
वनयसे झुककर परम ेमके साथ उनसे कया ।।२७।।
वदे हराज न मने कहा—भगवन्! म ऐसा समझता ँ क आपलोग मधुसूदन
भगवान्के पाषद ही ह, य क भगवान्के पाषद संसारी ा णय को प व करनेके लये
वचरण कया करते ह ।।२८।। जीव के लये मनु य-शरीरका ा त होना लभ है। य द यह
ा त भी हो जाता है तो त ण मृ युका भय सरपर सवार रहता है, य क यह णभंगुर
है। इस लये अ न त मनु य-जीवनम भगवान्के यारे और उनको यार करनेवाले
भ जन का, संत का दशन तो और भी लभ है ।।२९।। इस लये लोकपावन महा माओ!
हम आपलोग से यह करते ह क परम क याणका व प या है? और उसका साधन
या है? इस संसारम आधे णका स संग भी मनु य के लये परम न ध है ।।३०।।

धमान् भागवतान् ूत य द नः ुतये मम् ।


यैः स ः प ाय दा य या मानम यजः ।।३१
ीनारद उवाच
एवं ते न मना पृ ा वसुदेव मह माः ।
तपू या ुवन् ी या ससद य वजं नृपम् ।।३२
क व वाच
म येऽकुत यम युत य
पादा बुजोपासनम न यम् ।
उ नबु े रसदा मभावाद्
व ा मना य नवतते भीः ।।३३

ये वै भगवता ो ा उपाया ा मल धये ।


अंजः पुंसाम व षां व भागवतान् ह तान् ।।३४

याना थाय नरो राजन् न मा ेत क ह चत् ।


धावन् नमी य वा ने े न खले पते दह ।।३५

कायेन वाचा मनसे यैवा


बु याऽऽ मना वानुसृत वभावात् ।
करो त यद् यत् सकलं पर मै
नारायणाये त समपये त् ।।३६
योगी रो! य द हम सुननेके अ धकारी ह तो आप कृपा करके भागवत-धम का उपदे श

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क जये; य क उनसे ज मा द वकारसे र हत, एकरस भगवान् ीकृ ण स होते ह और
उन धम का पालन करनेवाले शरणागत भ को अपने-आपतकका दान कर डालते
ह ।।३१।।
दे व ष नारदजीने कहा—वसुदेवजी! जब राजा न मने उन भगव ेमी संत से यह
कया, तब उन लोग ने बड़े ेमसे उनका और उनके का स मान कया और सद य तथा
ऋ वज के साथ बैठे ए राजा न मसे बोले ।।३२।।
पहले उन नौ योगी र मसे क वजीने कहा—राजन्! भ जन के दयसे कभी र न
होनेवाले अ युत भगवान्के चरण क न य- नर तर उपासना ही इस संसारम परम क याण
—आ य तक ेम है और सवथा भयशू य है, ऐसा मेरा न त मत है। दे ह, गेह आ द तु छ
एवं असत् पदाथ म अहंता एवं ममता हो जानेके कारण जन लोग क च वृ उ न हो
रही है, उनका भय भी इस उपासनाका अनु ान करनेपर पूणतया नवृ हो जाता है ।।३३।।
भगवान्ने भोले-भाले अ ानी पु ष को भी सुगमतासे सा ात् अपनी ा तके लये जो
उपाय वयं ीमुखसे बतलाये ह, उ ह ही ‘भागवत धम’ समझो ।।३४।। राजन्! इन
भागवतधम का अवल बन करके मनु य कभी व न से पी ड़त नह होता और ने बंद करके
दौड़नेपर भी अथात् व ध- वधानम ु ट हो जानेपर भी न तो मागसे ख लत ही होता है और
न तो प तत—फलसे व चत ही होता है ।।३५।। (भागवतधमका पालन करनेवालेके लये
यह नयम नह है क वह एक वशेष कारका कम ही करे।) वह शरीरसे, वाणीसे, मनसे,
इ य से, बु से, अहंकारसे, अनेक ज म अथवा एक ज मक आदत से वभाववश जो-
जो करे, वह सब परमपु ष भगवान् नारायणके लये ही है—इस भावसे उ ह समपण कर दे ।
(यही सरल-से-सरल, सीधा-सा भागवतधम है) ।।३६।।

भयं तीया भ नवेशतः या-


द शादपेत य वपययोऽ मृ तः ।
त माययातो बुध आभजे ं
भ यैकयेशं गु दे वता मा ।।३७

अ व मानोऽ यवभा त ह यो-


यातु धया व मनोरथौ यथा ।
तत् कमसंक प वक पकं मनो
बुधो न यादभयं ततः यात् ।।३८

शृ वन् सुभ ा ण रथांगपाणे-


ज मा न कमा ण च या न लोके ।
गीता न नामा न तदथका न
गायन् वल जो वचरेदसंगः ।।३९
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एवं तः व यनामक या
जातानुरागो त च उ चैः ।
हस यथो रो द त रौ त गाय-
यु मादव ृ य त लोकबा ः ।।४०
ई रसे वमुख पु षको उनक मायासे अपने व पक व मृ त हो जाती है और इस
व मृ तसे ही ‘म दे वता ,ँ म मनु य ँ,’ इस कारका म— वपयय हो जाता है। इस दे ह
आ द अ य व तुम अ भ नवेश, त मयता होनेके कारण ही बुढ़ापा, मृ यु, रोग आ द अनेक
भय होते ह। इस लये अपने गु को ही आरा यदे व परम यतम मानकर अन य भ के ारा
उस ई रका भजन करना चा हये ।।३७।। राजन्! सच पूछो तो भगवान्के अ त र ,
आ माके अ त र और कोई व तु है ही नह । पर तु न होनेपर भी इसक ती त इसका
च तन करनेवालेको उसके च तनके कारण, उधर मन लगनेके कारण ही होती है—जैसे
व के समय व ाक क पनासे अथवा जा त् अव थाम नाना कारके मनोरथ से एक
वल ण ही सृ द खने लगती है। इस लये वचारवान् पु षको चा हये क सांसा रक
कम के स ब धम संक प- वक प करनेवाले मनको रोक दे —कैद कर ले। बस, ऐसा करते
ही उसे अभय पदक , परमा माक ा त हो जायगी ।।३८।। संसारम भगवान्के ज मक
और लीलाक ब त-सी मंगलमयी कथाएँ स ह। उनको सुनते रहना चा हये। उन गुण
और लीला का मरण दलानेवाले भगवान्के ब त-से नाम भी स ह। लाज-संकोच
छोड़कर उनका गान करते रहना चा हये। इस कार कसी भी , व तु और थानम
आस न करके वचरण करते रहना चा हये ।।३९।। जो इस कार वशु त— नयम ले
लेता है, उसके दयम अपने परम यतम भुके नाम-क तनसे अनुरागका, ेमका अंकुर
उग आता है। उसका च वत हो जाता है। अब वह साधारण लोग क थ तसे ऊपर उठ
जाता है। लोग क मा यता , धारणा से परे हो जाता है। द भसे नह , वभावसे ही
मतवाला-सा होकर कभी खल खलाकर हँसने लगता है तो कभी फूट-फूटकर रोने लगता है।
कभी ऊँचे वरसे भगवान्को पुकारने लगता है, तो कभी मधुर वरसे उनके गुण का गान
करने लगता है। कभी-कभी जब वह अपने यतमको अपने ने के सामने अनुभव करता है,
तब उ ह रझानेके लये नृ य भी करने लगता है ।।४०।।

खं वायुम नं स ललं मह च
योत ष स वा न दशो माद न् ।
स र समु ां हरेः शरीरं
यत् क च भूतं णमेदन यः ।।४१

भ ः परेशानुभवो वर -
र य चैष क एककालः ।
प मान य यथा तः यु-
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तु ः पु ः ुदपायोऽनुघासम् ।।४२

इ य युताङ् भजतोऽनुवृ या
भ वर भगव बोधः ।
भव त वै भागवत य राजं-
ततः परां शा तमुपै त सा ात् ।।४३
राजोवाच
अथ भागवतं ूत य म या शो नृणाम् ।
यथा चर त यद् ूते यै ल ै भगव यः ।।४४
ह र वाच
सवभूतेषु यः प येद ् भगव ावमा मनः ।
भूता न भगव या म येष भागवतो मः ।।४५
राजन्! यह आकाश, वायु, अ न, जल, पृ वी, ह-न , ाणी, दशाएँ, वृ -वन प त,
नद , समु —सब-के-सब भगवान्के शरीर ह। सभी प म वयं भगवान् कट ह। ऐसा
समझकर वह जो कोई भी उसके सामने आ जाता है—चाहे वह ाणी हो या अ ाणी—उसे
अन यभावसे—भगव ावसे णाम करता है ।।४१।। जैसे भोजन करनेवालेको येक
ासके साथ ही तु (तृ त अथवा सुख), पु (जीवनश का संचार) और ुधा- नवृ —
ये तीन एक साथ होते जाते ह; वैसे ही जो मनु य भगवान्क शरण लेकर उनका भजन
करने लगता है, उसे भजनके येक णम भगवान्के त ेम, अपने ेमा पद भुके
व पका अनुभव और उनके अ त र अ य व तु म वैरा य—इन तीन क एक साथ ही
ा त होती जाती है ।।४२।। राजन्! इस कार जो त ण एक-एक वृ के ारा
भगवान्के चरणकमल का ही भजन करता है, उसे भगवान्के त ेममयी भ , संसारके
त वैरा य और अपने यतम भगवान्के व पक फू त—ये सब अव य ही ा त होते
ह; वह भागवत हो जाता है और जब ये सब ा त हो जाते ह, तब वह वयं परम शा तका
अनुभव करने लगता है ।।४३।।
राजा न मने पूछा—योगी र! अब आप कृपा करके भगव का ल ण वणन
क जये। उसके या धम ह? और कैसा वभाव होता है? वह मनु य के साथ वहार करते
समय कैसा आचरण करता है? या बोलता है? और कन ल ण के कारण भगवान्का
यारा होता है? ।।४४।।
अब नौ योगी र मसे सरे ह रजी बोले—राजन्! आ म व प भगवान् सम त
ा णय म आ मा पसे— नय ता पसे थत ह। जो कह भी यूना धकता न दे खकर सव
प रपूण भगव स ाको ही दे खता है और साथ ही सम त ाणी और सम त पदाथ
आ म व प भगवान्म ही आधेय पसे अथवा अ य त पसे थत ह, अथात् वा तवम

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भगव व प ही ह—इस कारका जसका अनुभव है, ऐसी जसक स है, उसे
भगवान्का परम ेमी उ म भागवत समझना चा हये ।।४५।।

इ रे तदधीनेषु बा लशेषु ष सु च ।
ेममै ीकृपोपे ा यः करो त स म यमः ।।४६

अचायामेव हरये पूजां यः येहते ।


न त े षु चा येषु स भ ः ाकृतः मृतः ।।४७

गृही वापी यैरथान् यो न े न य त ।


व णोमाया मदं प यन् स वै भागवतो मः ।।४८

दे हेय ाणमनो धयां यो


ज मा यय ु यतषकृ ै ः ।
संसारधमर वमु मानः
मृ या हरेभागवत धानः ।।४९

न कामकमबीजानां य य चेत स स भवः ।


वासुदेवैक नलयः स वै भागवतो मः ।।५०

न य य ज मकम यां न वणा मजा त भः ।


स जतेऽ म हंभावो दे हे वै स हरेः यः ।।५१

न य य वः पर इ त व े वा म न वा भदा ।
सवभूतसमः शा तः स वै भागवतो मः ।।५२
जो भगवान्से ेम, उनके भ से म ता, ःखी और अ ा नय पर कृपा तथा भगवान्से
े ष करनेवाल क उपे ा करता है, वह म यम को टका भागवत है ।।४६।।
और जो भगवान्के अचा- व ह—मू त आ दक पूजा तो ासे करता है, पर तु
भगवान्के भ या सरे लोग क वशेष सेवा-शु ूषा नह करता, वह साधारण ेणीका
भगव है ।।४७।।
जो ो -ने आ द इ य के ारा श द- प आ द वषय का हण तो करता है; पर तु
अपनी इ छाके तकूल वषय से े ष नह करता और अनुकूल वषय के मलनेपर ह षत
नह होता—उसक यह बनी रहती है क यह सब हमारे भगवान्क माया है—वह पु ष
उ म भागवत है ।।४८।।
संसारके धम ह—ज म-मृ यु, भूख- यास, म-क , भय और तृ णा। ये मशः शरीर,
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ाण, इ य, मन और बु को ा त होते ही रहते ह। जो पु ष भगवान्क मृ तम इतना
त मय रहता है क इनके बार-बार होते-जाते रहनेपर भी उनसे मो हत नह होता, पराभूत
नह होता, वह उ म भागवत है ।।४९।।
जसके मनम वषय-भोगक इ छा, कम- वृ और उनके बीज वासना का उदय नह
होता और जो एकमा भगवान् वासुदेवम ही नवास करता है, वह उ म भगव
है ।।५०।।
जनका इस शरीरम न तो स कुलम ज म, तप या आ द कमसे तथा न वण, आ म एवं
जा तसे ही अहंभाव होता है, वह न य ही भगवान्का यारा है ।।५१।।
जो धन-स प अथवा शरीर आ दम ‘यह अपना है और यह पराया’—इस कारका
भेद-भाव नह रखता, सम त पदाथ म सम व प परमा माको दे खता रहता है, समभाव
रखता है तथा कसी भी घटना अथवा संक पसे व त न होकर शा त रहता है, वह
भगवान्का उ म भ है ।।५२।।

भुवन वभवहेतवेऽ यकु ठ-


मृ तर जता मसुरा द भ वमृ यात् ।
न चल त भगव पदार व दा-
लव न मषाधम प यः स वै णवा ्यः ।।५३

भगवत उ व माङ् शाखा-


नखम णच कया नर ततापे ।
द कथमुपसीदतां पुनः स
भव त च इवो दतेऽकतापः ।।५४

वसृज त दयं न य य सा ा-
ररवशा भ हतोऽ यघौघनाशः ।
णयरशनया धृताङ् प ः
स भव त भागवत धान उ ः ।।५५
राजन्! बड़े-बड़े दे वता और ऋ ष-मु न भी अपने अ तःकरणको भगव मय बनाते ए
ज ह ढूँ ढ़ते रहते ह—भगवान्के ऐसे चरणकमल से आधे ण, आधे पलके लये भी जो नह
हटता, नर तर उन चरण क स ध और सेवाम ही संल न रहता है; यहाँतक क कोई वयं
उसे भुवनक रा यल मी दे तो भी वह भगव मृ तका तार नह तोड़ता, उस
रा यल मीक ओर यान ही नह दे ता; वही पु ष वा तवम भगव वै णव म अ ग य है,
सबसे े है ।।५३।।
रासलीलाके अवसरपर नृ य-ग तसे भाँ त-भाँ तके पाद- व यास करनेवाले न खल
सौ दय-माधुय- न ध भगवान्के चरण के अंगु ल-नखक म ण-च कासे जन शरणागत
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भ जन के दयका वरहज य संताप एक बार र हो चुका है, उनके दयम वह फर कैसे
आ सकता है, जैसे च ोदय होनेपर सूयका ताप नह लग सकता ।।५४।।
ववशतासे नामो चारण करनेपर भी स पूण अघ-रा शको न कर दे नेवाले वयं भगवान्
ीह र जसके दयको णभरके लये भी नह छोड़ते ह, य क उसने ेमक र सीसे
उनके चरण-कमल को बाँध रखा है, वा तवम ऐसा पु ष ही भगवान्के भ म धान
है ।।५५।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायामेकादश क धे तीयोऽ यायः ।।२।।

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अथ तृतीयोऽ यायः
माया, मायासे पार होनेके उपाय तथा और कमयोगका न पण
राजोवाच
पर य व णोरीश य मा यनाम प मो हनीम् ।
मायां वे दतु म छामो भगव तो ुव तु नः ।।१
राजा न मने पूछा—भगवन्! सवश मान् परमकारण व णुभगवान्क माया बड़े-बड़े
माया- वय को भी मो हत कर दे ती है, उसे कोई पहचान नह पाता; (और आप कहते ह क
भ उसे दे खा करता है।) अतः अब म उस मायाका व प जानना चाहता ँ, आपलोग
कृपा करके बतलाइये ।।१।।

नानुतृ ये जुषन् यु म चो ह रकथामृतम् ।


संसारताप न त तो म य त ापभेषजम् ।।२
अ त र उवाच
ए भभूता न भूता मा महाभूतैमहाभुज ।
ससज चावचा या ः वमा ा म स ये ।।३

एवं सृ ा न भूता न व ः पंचधातु भः ।


एकधा दशधाऽऽ मानं वभजंजुषते गुणान् ।।४

गुणैगुणान् स भुंजान आ म ो ततैः भुः ।


म यमान इदं सृ मा मान मह स जते ।।५

कमा ण कम भः कुवन् स न म ा न दे हभृत् ।


त त् कमफलं गृ न् मतीह सुखेतरम् ।।६

इ थं कमगतीग छन् ब भ वहाः पुमान् ।


आभूतस लवात् सग लयाव ुतेऽवशः ।।७
योगी रो! म एक मृ युका शकार मनु य ।ँ संसारके तरह-तरहके ताप ने मुझे ब त
दन से तपा रखा है। आपलोग जो भगव कथा प अमृतका पान करा रहे ह, वह उन
ताप को मटानेक एकमा ओष ध है; इस लये म आपलोग क इस वाणीका सेवन करते-
करते तृ त नह होता। आप कृपया और क हये ।।२।।
अब तीसरे योगी र अ त र जीने कहा—राजन्! (भगवान्क माया व पतः
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अ नवचनीय है, इस लये उसके काय के ारा ही उसका न पण होता है।) आ द-पु ष
परमा मा जस श से स पूण भूत के कारण बनते ह और उनके वषय-भोग तथा मो क
स के लये अथवा अपने उपासक क उ कृ स के लये व न मत पंचभूत के ारा
नाना कारके दे व, मनु य आ द शरीर क सृ करते ह, उसीको माया कहते ह ।।३।।
इस कार पंचमहाभूत के ारा बने ए ा ण-शरीर म उ ह ने अ तयामी पसे वेश
कया और अपनेको ही पहले एक मनके पम और इसके बाद पाँच ाने य तथा पाँच
कम य—इन दस प म वभ कर दया तथा उ ह के ारा वषय का भोग कराने
लगे ।।४।।
वह दे हा भमानी जीव अ तयामीके ारा का शत इ य के ारा वषय का भोग करता
है और इस पंचभूत के ारा न मत शरीरको आ मा—अपना व प मानकर उसीम आस
हो जाता है। (यह भगवान्क माया है) ।।५।।
अब वह कम य से सकाम कम करता है और उनके अनुसार शुभ कमका फल सुख
और अशुभ कमका फल ःख भोग करने लगता है और शरीरधारी होकर इस संसारम
भटकने लगता है। यह भगवान्क माया है ।।६।।
इस कार यह जीव ऐसी अनेक अमंगलमय कमग तय को, उनके फल को ा त होता है
और महाभूत के लयपय त ववश होकर ज मके बाद मृ यु और मृ युके बाद ज मको ा त
होता रहता है—यह भगवान्क माया है ।।७।।

धातूप लव आस े ं गुणा मकम् ।


अना द नधनः कालो ायापकष त ।।८

शतवषा नावृ भ व य यु बणा भु व ।


त कालोप चतो णाक लोकां ीन् त प य त ।।९

पातालतलमार य संकषणमुखानलः ।
दह ू व शखो व वग् वधते वायुने रतः ।।१०

सांवतको मेघगणो वष त म शतं समाः ।


धारा भह तह ता भल यते स लले वराट् ।।११

ततो वराजमु सृ य वैराजः पु षो नृप ।


अ ं वशते सू मं न र धन इवानलः ।।१२

वायुना तग धा भूः स लल वाय क पते ।


स ललं तद्धृतरसं यो त ् वायोपक पते ।।१३
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त पं तु तमसा वायौ यो तः लीयते ।
त पश ऽवकाशेन वायुनभ स लीयते ।।१४

काला मना तगुणं नभ आ म न लीयते ।


इ या ण मनो बु ः सह वैका रकैनृप ।
वश त हंकारं वगुणैरहमा म न ।।१५
जब पंचभूत के लयका समय आता है, तब अना द और अन त काल थूल तथा सू म
एवं गुण प इस सम त सृ को अ क ओर, उसके मूल कारणक ओर
ख चता है—यह भगवान्क माया है ।।८।। उस समय पृ वीपर लगातार सौ वषतक भयंकर
सूखा पड़ता है, वषा बलकुल नह होती; लयकालक श से सूयक उ णता और भी बढ़
जाती है तथा वे तीन लोक को तपाने लगते ह—यह भगवान्क माया है ।।९।। उस समय
शेषनाग—संकषणके मुँहसे आगक च ड लपट नकलती ह और वायुक ेरणासे वे लपट
पाताललोकसे जलाना आर भ करती ह तथा और भी ऊँची-ऊँची होकर चार ओर फैल
जाती ह—यह भगवान्क माया है ।।१०।। इसके बाद लयकालीन सांवतक मेघगण
हाथीक सूँडके समान मोट -मोट धारा से सौ वषतक बरसता रहता है। उससे यह वराट्
ा ड जलम डू ब जाता है—यह भगवान्क माया है ।।११।। राजन्! उस समय जैसे बना
धनके आग बुझ जाती है, वैसे ही वराट् पु ष ा अपने ा ड-शरीरको छोड़कर
सू म व प अ म लीन हो जाते ह—यह भगवान्क माया है ।।१२।। वायु पृ वीक ग ध
ख च लेती है, जससे वह जलके पम हो जाती है और जब वही वायु जलके रसको ख च
लेती है, तब वह जल अपना कारण अ न बन जाता है—यह भगवान्क माया है ।।१३।।
जब अ धकार अ नका प छ न लेता है, तब वह अ न वायुम लीन हो जाती है और जब
अवकाश प आकाश वायुक पश-श छ न लेता है, तब वह आकाशम लीन हो जाता है
—यह भगवान्क माया है ।।१४।। राजन्! तदन तर काल प ई र आकाशके श द गुणको
हरण कर लेता है जससे वह तामस अहंकारम लीन हो जाता है। इ याँ और बु राजस
अहंकारम लीन होती ह। मन सा वक अहंकारसे उ प दे वता के साथ सा वक
अहंकारम वेश कर जाता है तथा अपने तीन कारके काय के साथ अहंकार मह वम
लीन हो जाता है। मह व कृ तम और कृ त म लीन होती है। फर इसीके उलटे
मसे सृ होती है—यह भगवान्क माया है ।।१५।।

एषा माया भगवतः सग थ य तका रणी ।


वणा व णता मा भः क भूयः ोतु म छ स ।।१६
राजोवाच
यथैतामै र मायां तरामकृता म भः ।
तर यंजः थूल धयो महष इदमु यताम् ।।१७
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बु उवाच
कमा यारभमाणानां ःखह यै सुखाय च ।
प येत् पाक वपयासं मथुनीचा रणां नृणाम् ।।१८

न या तदे न व ेन लभेना ममृ युना ।


गृहाप या तपशु भः का ी तः सा धतै लैः ।।१९

एवं लोकं परं व ा रं कम न मतम् ।


सतु या तशय वंसं यथा म डलव तनाम् ।।२०
यह सृ , थ त और संहार करनेवाली गुणमयी माया है। इसका हमने आपसे वणन
कया। अब आप और या सुनना चाहते ह? ।।१६।।
राजा न मने पूछा—मह षजी! इस भगवान्क मायाको पार करना उन लोग के लये
तो ब त ही क ठन है, जो अपने मनको वशम नह कर पाये ह। अब आप कृपा करके यह
बताइये क जो लोग शरीर आ दम आ मबु रखते ह तथा जनक समझ मोट है, वे भी
अनायास ही इसे कैसे पार कर सकते ह? ।।१७।।
अब चौथे योगी र बु जी बोले—राजन्! ी-पु ष-स ब ध आ द ब धन म बँधे
ए संसारी मनु य सुखक ा त और ःखक नवृ के लये बड़े-बड़े कम करते रहते ह।
जो पु ष मायाके पार जाना चाहता है, उसको वचार करना चा हये क उनके कम का फल
कस कार वपरीत होता जाता है। वे सुखके बदले ःख पाते ह और ःख- नवृ के
थानपर दन दन ःख बढ़ता ही जाता है ।।१८।। एक धनको ही लो। इससे दन-पर- दन
ःख बढ़ता ही है, इसको पाना भी क ठन है और य द कसी कार मल भी जाय तो
आ माके लये तो यह मृ यु व प ही है। जो इसक उलझन म पड़ जाता है, वह अपने-
आपको भूल जाता है। इसी कार घर, पु , वजन-स ब धी, पशुधन आ द भी अ न य और
नाशवान् ही ह; य द कोई इ ह जुटा भी ले तो इनसे या सुख-शा त मल सकती है? ।।१९।।
इसी कार जो मनु य मायासे पार जाना चाहता है, उसे यह भी समझ लेना चा हये क
मरनेके बाद ा त होनेवाले लोक-परलोक भी ऐसे ही नाशवान् ह। य क इस लोकक
व तु के समान वे भी कुछ सी मत कम के सी मत फलमा ह। वहाँ भी पृ वीके छोटे -छोटे
राजा के समान बराबरवाल से होड़ अथवा लाग-डाँट रहती है, अ धक ऐ य और
सुखवाल के त छ ा वेषण तथा ई या- े षका भाव रहता है, कम सुख और ऐ यवाल के
त घृणा रहती है एवं कम का फल पूरा हो जानेपर वहाँसे पतन तो होता ही है। उसका नाश
न त है। नाशका भय वहाँ भी नह छू ट पाता ।।२०।।

त माद् गु ं प ेत ज ासुः ेय उ मम् ।


शा दे परे च न णातं युपशमा यम् ।।२१

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त भागवतान् धमान् श ेद ् गुवा मदै वतः ।
अमाययानुवृ या यै तु येदा माऽऽ मदो ह रः ।।२२

सवतो मनसोऽसंगमादौ संगं च साधुषु ।


दयां मै यं च भूते व ा यथो चतम् ।।२३

शौचं तप त त ां च मौनं वा यायमाजवम् ।


चयम हसां च सम वं सं योः ।।२४

सव ा मे रा वी ां कैव यम नकेतताम् ।
व व चीरवसनं स तोषं येन केन चत् ।।२५
इस लये जो परम क याणका ज ासु हो, उसे गु दे वक शरण लेनी चा हये। गु दे व ऐसे
ह , जो श द —वेद के पारदश व ान् ह , जससे वे ठ क-ठ क समझा सक; और साथ
ही पर म प र न त त व ानी भी ह , ता क अपने अनुभवके ारा ा त ई रह यक
बात को बता सक। उनका च शा त हो, वहारके पंचम वशेष वृ न हो ।।२१।।
ज ासुको चा हये क गु को ही अपना परम यतम आ मा और इ दे व माने। उनक
न कपटभावसे सेवा करे और उनके पास रहकर भागवतधमक —भगवान्को ा त
करानेवाले भ -भावके साधन क या मक श ा हण करे। इ ह साधन से सवा मा एवं
भ को अपने आ माका दान करनेवाले भगवान् स होते ह ।।२२।।
पहले शरीर, स तान आ दम मनक अनास सीखे। फर भगवान्के भ से ेम कैसा
करना चा हये—यह सीखे। इसके प ात् ा णय के त यथायो य दया, मै ी और वनयक
न कपट भावसे श ा हण करे ।।२३।।
म , जल आ दसे बा शरीरक प व ता, छल-कपट आ दके यागसे भीतरक
प व ता, अपने धमका अनु ान, सहनश , मौन, वा याय, सरलता, चय, अ हसा तथा
शीत-उ ण, सुख- ःख आ द म हष- वषादसे र हत होना सीखे ।।२४।।
सव अथात् सम त दे श, काल और व तु म चेतन पसे आ मा और नय ता पसे
ई रको दे खना, एका तसेवन, ‘यही मेरा घर है’—ऐसा भाव न रखना, गृह थ हो तो प व
व पहनना और यागी हो तो फटे -पुराने प व चथड़े, जो कुछ ार धके अनुसार मल
जाय, उसीम स तोष करना सीखे ।।२५।।

ां भागवते शा ेऽ न दाम य चा प ह ।
मनोवा कमद डं च स यं शमदमाव प ।।२६

वणं क तनं यानं हरेर तकमणः ।

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ज मकमगुणानां च तदथऽ खलचे तम् ।।२७

इ ं द ं तपो ज तं वृ ं य चा मनः यम् ।


दारान् सुतान् गृहान् ाणान् यत् पर मै नवेदनम् ।।२८

एवं कृ णा मनाथेषु मनु येषु च सौ दम् ।


प रचया चोभय महा सु नृषु साधुषु ।।२९

पर परानुकथनं पावनं भगव शः ।


मथो र त मथ तु नवृ मथ आ मनः ।।३०

मर तः मारय त मथोऽघौघहरं ह रम् ।


भ या संजातया भ या ब यु पुलकां तनुम् ।।३१
भगवान्क ा तका माग बतलानेवाले शा म ा और सरे कसी भी शा क
न दा न करना, ाणायामके ारा मनका, मौनके ारा वाणीका और वासनाहीनताके
अ याससे कम का संयम करना, स य बोलना, इ य को अपने-अपने गोलक म थर
रखना और मनको कह बाहर न जाने दे ना सीखे ।।२६।।
राजन्! भगवान्क लीलाएँ अद्भुत ह। उनके ज म, कम और गुण द ह। उ ह का
वण, क तन और यान करना तथा शरीरसे जतनी भी चे ाएँ ह , सब भगवान्के लये
करना सीखे ।।२७।।
य , दान, तप अथवा जप, सदाचारका पालन और ी, पु , घर, अपना जीवन, ाण
तथा जो कुछ अपनेको य लगता हो—सब-का-सब भगवान्के चरण म नवेदन करना उ ह
स प दे ना सीखे ।।२८।।
जन संत पु ष ने स चदान द व प भगवान् ीकृ णका अपने आ मा और वामीके
पम सा ा कार कर लया हो, उनसे ेम और थावर, जंगम दोन कारके ा णय क
सेवा; वशेष करके मनु य क , मनु य म भी परोपकारी स जन क और उनम भी भगव ेमी
संत क करना सीखे ।।२९।।
भगवान्के परम पावन यशके स ब धम ही एक- सरेसे बातचीत करना और इस
कारके साधक का इकट् ठे होकर आपसम ेम करना, आपसम स तु रहना और पंचसे
नवृ होकर आपसम ही आ या मक शा तका अनुभव करना सीखे ।।३०।।
राजन्! ीकृ ण रा श-रा श पाप को एक णम भ म कर दे ते ह। सब उ ह का मरण
कर और एक- सरेको मरण कराव। इस कार साधन-भ का अनु ान करते-करते ेम-
भ का उदय हो जाता है और वे ेमो े कसे पुल कत-शरीर धारण करते ह ।।३१।।

व चद् द य युत च तया व च-


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स त न द त वद यलौ ककाः ।
नृ य त गाय यनुशीलय यजं
भव त तू ण परमे य नवृताः ।।३२

इ त भागवतान् धमान् श न् भ या त थया ।


नारायणपरो मायामंज तर त तराम् ।।३३
राजोवाच
नारायणा भधान य णः परमा मनः ।
न ामहथ नो व ुं यूयं ह व माः ।।३४
प पलायन उवाच
थ यु व लयहेतुरहेतुर य
यत् व जागरसुषु तषु सद् ब ह ।
दे हे यासु दया न चर त येन
संजी वता न तदवे ह परं नरे ।।३५
उनके दयक बड़ी वल ण थ त होती है। कभी-कभी वे इस कार च ता करने
लगते ह क अबतक भगवान् नह मले, या क ँ , कहाँ जाऊँ, कसे पूछूँ, कौन मुझे उनक
ा त करावे? इस तरह सोचते-सोचते वे रोने लगते ह तो कभी भगवान्क लीलाक फू त
हो जानेसे ऐसा दे खकर क परमै यशाली भगवान् गो पय के डरसे छपे ए ह,
खल खलाकर हँसने लगते ह। कभी-कभी उनके ेम और दशनक अनुभू तसे आन दम न
हो जाते ह तो कभी लोकातीत भावम थत होकर भगवान्के साथ बातचीत करने लगते ह।
कभी मानो उ ह सुना रहे ह , इस कार उनके गुण का गान छे ड़ दे ते ह और कभी नाच-
नाचकर उ ह रझाने लगते ह। कभी-कभी उ ह अपने पास न पाकर इधर-उधर ढूँ ढ़ने लगते ह
तो कभी-कभी उनसे एक होकर, उनक स धम थत होकर परम शा तका अनुभव करते
और चुप हो जाते ह ।।३२।। राजन्! जो इस कार भागवतधम क श ा हण करता है,
उसे उनके ारा ेम-भ क ा त हो जाती है और वह भगवान् नारायणके परायण होकर
उस मायाको अनायास ही पार कर जाता है, जसके पंजेसे नकलना ब त ही क ठन
है ।।३३।।
राजा न मने पूछा—मह षयो! आपलोग परमा माका वा त वक व प जाननेवाल म
सव े ह। इस लये मुझे यह बतलाइये क जस पर परमा माका ‘नारायण’ नामसे
वणन कया जाता है, उनका व प या है? ।।३४।।
अब पाँचव योगी र प पलायनजीने कहा—राजन्! जो इस संसारक उ प ,
थ त और लयका न म -कारण और उपादान-कारण दोन ही है, बननेवाला भी है और
बनानेवाला भी—पर तु वयं कारणर हत है; जो व , जा त् और सुषु त अव था म
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उनके सा ीके पम व मान रहता है और उनके अ त र समा धम भी य -का- य
एकरस रहता है; जसक स ासे ही स ा-वान् होकर शरीर, इ य, ाण और अ तःकरण
अपना-अपना काम करनेम समथ होते ह, उसी परम स य व तुको आप ‘नारायण’
सम झये ।।३५।। जैसे चनगा रयाँ न तो अ नको का शत ही कर सकती ह और न जला ही
सकती ह, वैसे ही उस परमत वम—आ म व पम न तो मनक ग त है और न वाणीक , ने
उसे दे ख नह सकते और बु सोच नह सकती, ाण और इ याँ तो उसके पासतक नह
फटक पात । ‘ने त-ने त’—इ या द ु तय के श द भी वह यह है—इस पम उसका वणन
नह करते, ब क उसको बोध करानेवाले जतने भी साधन ह, उनका नषेध करके
ता पय पसे अपना मूल— नषेधका मूल ल त करा दे ते ह; य क य द नषेधके
आधारक , आ माक स ा न हो तो नषेध कौन कर रहा है, नषेधक वृ कसम है—इन
का कोई उ र ही न रहे, नषेधक ही स न हो ।।३६।। जब सृ नह थी, तब केवल
एक वही था। सृ का न पण करनेके लये उसीको गुण (स व-रज-तम)-मयी कृ त
कहकर वणन कया गया। फर उसीको ान धान होनेसे मह व, या धान होनेसे
सू ा मा और जीवक उपा ध होनेसे अहंकारके पम वणन कया गया। वा तवम जतनी
भी श याँ ह—चाहे वे इ य के अ ध ातृ-दे वता के पम ह , चाहे इ य के, उनके
वषय के अथवा वषय के काशके पम ह —सब-का-सब वह ही है; य क क
श अन त है। कहाँतक क ? ँ जो कुछ य-अ य, काय-कारण, स य और अस य है—
सब कुछ है। इनसे परे जो कुछ है, वह भी ही है ।।३७।। वह व प आ मा न
तो कभी ज म लेता है और न मरता है। वह न तो बढ़ता है और न घटता ही है। जतने भी
प रवतनशील पदाथ ह—चाहे वे या, संक प और उनके अभावके पम ही य न ह —
सबक भूत, भ व यत् और वतमान स ाका वह सा ी है। सबम है। दे श, काल और व तुसे
अप र छ है, अ वनाशी है। वह उपल ध करनेवाला अथवा उपल धका वषय नह है।
केवल उपल ध व प— ान व प है। जैसे ाण तो एक ही रहता है, पर तु थानभेदसे
उसके अनेक नाम हो जाते ह—वैसे ही ान एक होनेपर भी इ य के सहयोगसे उसम
अनेकताक क पना हो जाती है ।।३८।।

नैत मनो वश त वागुत च ुरा मा


ाणे या ण च यथानलम चषः वाः ।
श दोऽ प बोधक नषेधतयाऽऽ ममूल-
मथ माह य ते न नषेध स ः ।।३६

स वं रज तम इ त वृदेकमादौ
सू ं महानह म त वद त जीवम् ।
ान याथफल पतयो श
ैव भा त सदस च तयोः परं यत् ।।३७

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ना मा जजान न म र य त नैधतेऽसौ
न ीयते सवन वद् भचा रणां ह ।
सव श दनपा युपल धमा ं
ाणो यथे यबलेन वक पतं सत् ।।३८

अ डेषु पे शषु त व व न तेषु


ाणो ह जीवमुपधाव त त त ।
स े य द यगणेऽह म च सु ते
कूट थ आशयमृते तदनु मृ तनः ।।३९

य जनाभचरणैषणयो भ या
चेतोमला न वधमेद ् गुणकमजा न ।
त मन् वशु उपल यत आ मत वं
सा ाद् यथामल शोः स वतृ काशः ।।४०
राजोवाच
कमयोगं वदत नः पु षो येन सं कृतः ।
वधूयेहाशु कमा ण नै क य व दते परम् ।।४१

एवं मृषीन् पूवमपृ छं पतुर तके ।


ना ुवन् णः पु ा त कारणमु यताम् ।।४२
आ वह उवाच
कमाकम वकम त वेदवादो न लौ ककः ।
वेद य चे रा म वात् त मु त सूरयः ।।४३
जगत्म चार कारके जीव होते ह—अंडा फोड़कर पैदा होनेवाले प ी-साँप आ द,
नालम बँधे पैदा होनेवाले पशु-मनु य, धरती फोड़कर नकलनेवाले वृ -वन प त और
पसीनेसे उ प होनेवाले खटमल आ द। इन सभी जीव-शरीर म ाणश जीवके पीछे लगी
रहती है। शरीर के भ - भ होनेपर भी ाण एक ही रहता है। सुषु त-अव थाम जब
इ याँ न े हो जाती ह, अहंकार भी सो जाता है—लीन हो जाता है, अथात् लगशरीर
नह रहता, उस समय य द कूट थ आ मा भी न हो तो इस बातक पीछे से मृ त ही कैसे हो
क म सुखसे सोया था। पीछे होनेवाली यह मृ त ही उस समय आ माके अ त वको
मा णत करती है ।।३९।। जब भगवान् कमलनाभके चरण-कमल को ा त करनेक
इ छासे ती भ क जाती है तब वह भ ही अ नक भाँ त गुण और कम से उ प ए
च के सारे मल को जला डालती है। जब च शु हो जाता है, तब आ मत वका

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सा ा कार हो जाता है—जैसे ने के न वकार हो जानेपर सूयके काशक य अनुभू त
होने लगती है ।।४०।।
राजा न मने पूछा—योगी रो! अब आपलोग हम कमयोगका उपदे श क जये, जसके
ारा शु होकर मनु य शी ा तशी परम नै क य अथात् कतृ व, कम और कमफलक
नवृ करनेवाला ान ा त करता है ।।४१।। एक बार यही मने अपने पता महाराज
इ वाकुके सामने ाजीके मानस पु सनका द ऋ षय से पूछा था, पर तु उ ह ने सव
होनेपर भी मेरे का उ र न दया। इसका या कारण था? कृपा करके मुझे
बतलाइये ।।४२।।
अब छठे योगी र आ वह जीने कहा—राजन्! कम (शा व हत), अकम
( न ष ) और वकम ( व हतका उ लंघन)—ये तीन एकमा वेदके ारा जाने जाते ह,
इनक व था लौ कक री तसे नह होती। वेद अपौ षेय ह—ई र प ह; इस लये उनके
ता पयका न य करना ब त क ठन है। इसीसे बड़े-बड़े व ान् भी उनके अ भ ायका
नणय करनेम भूल कर बैठते ह। (इसीसे तु हारे बचपनक ओर दे खकर—तु ह अन धकारी
समझकर सनका द ऋ षय ने तु हारे का उ र नह दया) ।।४३।।

परो वादो वेदोऽयं बालानामनुशासनम् ।


कममो ाय कमा ण वध े गदं यथा ।।४४

नाचरेद ् य तु वेदो ं वयम ोऽ जते यः ।


वकमणा धमण मृ योमृ युमुपै त सः ।।४५

वेदो मेव कुवाणो नःसंगोऽ पतमी रे ।


नै क या लभते स रोचनाथा फल ु तः ।।४६

य आशु दय थं न जहीषुः परा मनः ।


व धनोपचरेद ् दे वं त ो े न च केशवम् ।।४७

ल धानु ह आचायात् तेन स द शतागमः ।


महापु षम यच मू या भमतयाऽऽ मनः ।।४८

शु चः स मुखमासीनः ाणसंयमना द भः ।
प डं वशो य सं यासकृतर ोऽचये रम् ।।४९
यह वेद परो वादा मक* है। यह कम क नवृ के लये कमका वधान करता है, जैसे
बालकको मठाई आ दका लालच दे कर औषध खलाते ह, वैसे ही यह अन भ को वग
आ दका लोभन दे कर े कमम वृ करता है ।।४४।।
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जसका अ ान नवृ नह आ है, जसक इ याँ वशम नह ह, वह य द मनमाने
ढं गसे वेदो कम का प र याग कर दे ता है, तो वह व हत कम का आचरण न करनेके
कारण वकम प अधम ही करता है। इस लये वह मृ युके बाद फर मृ युको ा त होता
है ।।४५।।
इस लये फलक अ भलाषा छोड़कर और व ा मा भगवान्को सम पत कर जो वेदो
कमका ही अनु ान करता है, उसे कम क नवृ से ा त होनेवाली ान प स मल
जाती है। जो वेद म वगा द प फलका वणन है, उसका ता पय फलक स यताम नह है,
वह तो कम म च उ प करानेके लये है ।।४६।।
राजन्! जो पु ष चाहता है क शी -से-शी मेरे व प आ माक दय- थ—म
और मेरेक क पत गाँठ खुल जाय, उसे चा हये क वह वै दक और ता क दोन ही
प तय से भगवान्क आराधना करे ।।४७।।
पहले सेवा आ दके ारा गु दे वक द ा ा त करे, फर उनके ारा अनु ानक व ध
सीखे; अपनेको भगवान्क जो मू त य लगे, अभी जान पड़े, उसीके ारा पु षो म
भगवान्क पूजा करे ।।४८।।
पहले नाना दसे शरीर और स तोष आ दसे अ तः-करणको शु करे, इसके बाद
भगवान्क मू तके सामने बैठकर ाणायाम आ दके ारा भूतशु —नाडी-शोधन करे,
त प ात् व धपूवक म , दे वता आ दके याससे अंगर ा करके भगवान्क पूजा
करे ।।४९।।

अचादौ दये चा प यथाल धोपचारकैः ।


या म लगा न न पा ो य चासनम् ।।५०

पा ाद नुपक याथ स धा य समा हतः ।


दा द भः कृत यासो मूलम ेण चाचयेत् ।।५१

सांगोपांगां सपाषदां तां तां मू त वम तः ।


पा ा याचमनीया ैः नानवासो वभूषणैः ।।५२

ग धमा या त भधूपद पोपहारकैः ।


सांगं स पू य व धवत् तवैः तु वा नमे रम् ।।५३

आ मानं त मयं यायन् मू त स पूजये रेः ।


शेषामाधाय शर स वधा नयु ा य स कृतम् ।।५४

एवम यकतोयादाव तथौ दये च यः ।


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यजती रमा मानम चरा मु यते ह सः ।।५५
पहले पु प आ द पदाथ का ज तु आ द नकालकर, पृ वीको स माजन आ दसे,
अपनेको अ होकर और भगवान्क मू तको पहलेहीक पूजाके लगे ए पदाथ के ालन
आ दसे पूजाके यो य बनाकर फर आसनपर म ो चारणपूवक जल छड़ककर पा , अ य
आ द पा को था पत करे। तदन तर एका च होकर दयम भगवान्का यान करके फर
उसे सामनेक ीमू तम च तन करे। तदन तर दय, सर, शखा ( दयाय नमः, शरसे
वाहा) इ या द म से यास करे और अपने इ दे वके मूलम के ारा दे श, काल आ दके
अनुकूल ा त पूजा-साम ीसे तमा आ दम अथवा दयम भगवान्क पूजा
करे ।।५०-५१।।
अपने-अपने उपा यदे वके व हक दया द अंग, आयुधा द उपांग और पाषद स हत
उसके मूलम ारा पा , अ य, आचमन, मधुपक, नान, व , आभूषण, ग ध, पु प, द ध-
अ तके* तलक, माला, धूप, द प और नैवे आ दसे व धवत् पूजा करे तथा फर
तो ारा तु त करके सप रवार भगवान् ीह रको नम कार करे ।।५२-५३।।
अपने-आपको भगव मय यान करते ए ही भगवान्क मू तका पूजन करना चा हये।
नमा यको अपने सरपर रखे और आदरके साथ भगव हको यथा थान था पत कर
पूजा समा त करनी चा हये ।।५४।।
इस कार जो पु ष अ न, सूय, जल, अ त थ और अपने दयम आ म प ीह रक
पूजा करता है, वह शी ही मु हो जाता है ।।५५।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायामेकादश क धे तृतीयोऽ यायः ।।३।।

* जसम श दाथ कुछ और मालूम दे और ता पयाथ कुछ और हो—उसे परो वाद कहते
ह।
*व णुभगवान्क पूजाम अ त का योग केवल तलकालंकारम ही करना चा हये,
पूजाम नह —‘ना तैरचयेद ् व णुं न केत या महे रम।’

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अथ चतुथ ऽ यायः
भगवान्के अवतार का वणन
राजोवाच
या न यानीह कमा ण यैयः व छ दज म भः ।
च े करो त कता वा ह र ता न ुव तु नः ।।१
मल उवाच
यो वा अन त य गुणानन ता-
ननु म यन् स तु बालबु ः ।
रजां स भूमेगणयेत् कथं चत्
कालेन नैवा खलश धा नः ।।२

भूतैयदा पंच भरा मसृ ैः


पुरं वराजं वरच य त मन् ।
वांशेन व ः पु षा भधान-
मवाप नारायण आ ददे वः ।।३

य काय एष भुवन यस वेशो


य ये यै तनुभृतामुभये या ण ।
ानं वतः सनतो बलमोज ईहा
स वा द भः थ तलयो व आ दकता ।।४

आदावभू छतधृती रजसा य सग


व णुः थतौ तुप त जधमसेतुः ।
ोऽ ययाय तमसा पु षः स आ
इ यु व थ तलयाः सततं जासु ।।५
राजा न मने पूछा—योगी रो! भगवान् वत तासे अपने भ क भ के वश
होकर अनेक कारके अवतार हण करते ह और अनेक लीलाएँ करते ह। आपलोग कृपा
करके भगवान्क उन लीला का वणन क जये, जो वे अबतक कर चुके ह, कर रहे ह या
करगे ।।१।।
अब सातव योगी र मलजीने कहा—राजन्! भगवान् अन त ह। उनके गुण भी
अन त ह। जो यह सोचता है क म उनके गुण को गन लूँगा, वह मूख है, बालक है। यह तो
स भव है क कोई कसी कार पृ वीके धू ल-कण को गन ले, पर तु सम त श य के
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आ य भगवान्के अन त गुण का कोई कभी कसी कार पार नह पा सकता ।।२।।
भगवान्ने ही पृ वी, जल, अ न, वायु, आकाश—इन पाँच भूत क अपने-आपसे अपने-
आपम सृ क है। जब वे इनके ारा वराट् शरीर, ा डका नमाण करके उसम लीलासे
अपने अंश अ तयामी पसे वेश करते ह, (भो ा पसे नह , य क भो ा तो अपने
पु य के फल व प जीव ही होता है) तब उन आ ददे व नारायणको ‘पु ष’ नामसे कहते ह,
यही उनका पहला अवतार है ।।३।। उ ह के इस वराट् ा ड शरीरम तीन लोक थत ह।
उ ह क इ य से सम त दे हधा रय क ाने याँ और कम याँ बनी ह। उनके व पसे
ही वतः स ानका संचार होता है। उनके ास- ाससे सब शरीर म बल आता है तथा
इ य म ओज (इ य क श ) और कम करनेक श ा त होती है। उ ह के स व
आ द गुण से संसारक थ त, उ प और लय होते ह। इस वराट् शरीरके जो शरीरी ह, वे
ही आ दकता नारायण ह ।।४।। पहले-पहल जगत्क उ प के लये उनके रजोगुणके
अंशसे ा ए, फर वे आ दपु ष ही संसारक थ तके लये अपने स वांशसे धम तथा
ा ण के र क य प त व णु बन गये। फर वे ही तमोगुणके अंशसे जगत्के संहारके लये
बने। इस कार नर तर उ ह से प रवतनशील जाक उ प - थ त और संहार होते
रहते ह ।।५।।

धम य द हतयज न मू या
नारायणो नर ऋ ष वरः शा तः ।
नै क यल णमुवाच चचार कम
योऽ ा प चा त ऋ षवय नषे वताङ् ः ।।६

इ ो वशङ् य मम धाम जघृ ती त


कामं ययुङ् सगणं स बदयुपा यम् ।
ग वा सरोगणवस तसुम दवातैः
ी े णेषु भर व यदत म ह ः ।।७

व ाय श कृतम ममा ददे वः


ाह ह य गत व मय एजमानान् ।
मा भै भो मदन मा त दे वव वो
गृ त नो ब लमशू य ममं कु वम् ।।८

इ थं ुव यभयदे नरदे व दे वाः


स ीडन शरसः सघृणं तमूचुः ।
नैतद् वभो व य परेऽ वकृते व च ं
वारामधीर नकरानतपादप े ।।९

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द जाप तक एक क याका नाम था मू त। वह धमक प नी थी। उसके गभसे
भगवान्ने ऋ ष े शा ता मा ‘नर’ और ‘नारायण’ के पम अवतार लया। उ ह ने
आ मत वका सा ा कार करानेवाले उस भगवदाराधन प कमका उपदे श कया, जो
वा तवम कमब धनसे छु ड़ानेवाला और नै क य थ तको ा त करानेवाला है। उ ह ने वयं
भी वैसे ही कमका अनु ान कया। बड़े-बड़े ऋ ष-मु न उनके चरणकमल क सेवा करते
रहते ह। वे आज भी बद रका मम उसी कमका आचरण करते ए वराजमान ह ।।६।। ये
अपनी घोर तप याके ारा मेरा धाम छ नना चाहते ह—इ ने ऐसी आशंका करके ी,
वस त आ द दल-बलके साथ कामदे वको उनक तप याम व न डालनेके लये भेजा।
कामदे वको भगवान्क म हमाका ान न था; इस लये वह अ सरागण, वस त तथा म द-
सुग ध वायुके साथ बद रका मम जाकर य के कटा बाण से उ ह घायल करनेक चे ा
करने लगा ।।७।। आ ददे व नर-नारायणने यह जानकर क यह इ का कुच है, भयसे
काँपते ए काम आ दक से हँसकर कहा—उस समय उनके मनम कसी कारका अ भमान
या आ य नह था। ‘कामदे व, मलय-मा त और दे वांगनाओ! तुमलोग डरो मत; हमारा
आ त य वीकार करो। अभी यह ठहरो, हमारा आ म सूना मत करो’ ।।८।। राजन्! जब
नर-नारायण ऋ षने उ ह अभयदान दे ते ए इस कार कहा, तब कामदे व आ दके सर
ल जासे झुक गये। उ ह ने दयालु भगवान् नर-नारायणसे कहा—‘ भो! आपके लये यह
कोई आ यक बात नह है। य क आप मायासे परे और न वकार ह। बड़े-बड़े आ माराम
और धीर पु ष नर तर आपके चरणकमल म णाम करते रहते ह ।।९।। आपके भ
आपक भ के भावसे दे वता क राजधानी अमरावतीका उ लंघन करके आपके परम-
पदको ा त होते ह। इस लये जब वे भजन करने लगते ह, तब दे वतालोग तरह-तरहसे
उनक साधनाम व न डालते ह। क तु जो लोग केवल कमका डम लगे रहकर य ा दके
ारा दे वता को ब लके पम उनका भाग दे ते रहते ह, उन लोग के मागम वे कसी
कारका व न नह डालते। पर तु भो! आपके भ जन उनके ारा उप थत क ई
व न-बाधा से गरते नह । ब क आपके करकमल क छ छायाम रहते ए वे व न के
सरपर पैर रखकर आगे बढ़ जाते ह, अपने ल यसे युत नह होते ।।१०।।

वां सेवतां सुरकृता बहवोऽ तरायाः


वौको वलङ् य परमं जतां पदं ते ।
ना य य ब ह ष बलीन् ददतः वभागान्
ध े पदं वम वता य द व नमू न ।।१०

ु ृट् कालगुणमा तजै यशै या-


न मानपारजलधीन ततीय के चत् ।
ोध य या त वफल य वशं पदे गो-
म ज त रतप वृथो सृज त ।।११

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इ त गृणतां तेषां योऽ य तदशनाः ।
दशयामास शु ूषां व चताः कुवती वभुः ।।१२

ते दे वानुचरा ् वा यः ी रव पणीः ।
ग धेन मुमु तासां पौदायहत यः ।।१३

तानाह दे वदे वेशः णतान् हस व ।


आसामेकतमां वृङ् वं सवणा वगभूषणाम् ।।१४

ओ म यादे शमादाय न वा तं सुरव दनः ।


उवशीम सरः े ां पुर कृ य दवं ययुः ।।१५
ब त-से लोग तो ऐसे होते ह जो भूख- यास, गम -सद एवं आँधी-पानीके क को तथा
रसने य और जनने यके वेग को, जो अपार समु के समान ह, सह लेते ह—पार कर
जाते ह। पर तु फर भी वे उस ोधके वशम हो जाते ह, जो गायके खुरसे बने गड् ढे के समान
है और जससे कोई लाभ नह है—आ मनाशक है। और भो! वे इस कार अपनी क ठन
तप याको खो बैठते ह ।।११।। जब कामदे व, वस त आ द दे वता ने इस कार तु त क
तब सवश मान् भगवान्ने अपने योगबलसे उनके सामने ब त-सी ऐसी रम णयाँ कट
करके दखलाय , जो अद्भुत प-लाव यसे स प और व च व ालंकार से सुस जत
थ तथा भगवान्क सेवा कर रही थ ।।१२।। जब दे वराज इ के अनुचर ने उन ल मीजीके
समान पवती य को दे खा, तब उनके महान् सौ दयके सामने उनका चेहरा फ का पड़
गया, वे ीहीन होकर उनके शरीरसे नकलनेवाली द सुग धसे मो हत हो गये ।।१३।।
अब उनका सर झुक गया। दे वदे वेश भगवान् नारायण हँसते ए-से उनसे बोले—‘तुमलोग
इनमसे कसी एक ीको, जो तु हारे अनु प हो, हण कर लो। वह तु हारे वग-लोकक
शोभा बढ़ानेवाली होगी ।।१४।। दे वराज इ के अनुचर ने ‘जो आ ा’ कहकर भगवान्के
आदे शको वीकार कया तथा उ ह नम कार कया। फर उनके ारा बनायी ई य मसे
े अ सरा उवशीको आगे करके वे वगलोकम गये ।।१५।। वहाँ प ँचकर उ ह ने इ को
नम कार कया तथा भरी सभाम दे वता के सामने भगवान् नर-नारायणके बल और
भावका वणन कया। उसे सुनकर दे वराज इ अ य त भयभीत और च कत हो
गये ।।१६।।

इ ायान य सद स शृ वतां दवौकसाम् ।


ऊचुनारायणबलं श त ास व मतः ।।१६

हंस व यवदद युत आ मयोगं


द ः कुमार ऋषभो भगवान् पता नः ।

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व णुः शवाय जगतां कलयावतीण-
तेना ता मधु भदा ुतयो हया ये ।।१७

गु तोऽ यये मनु रलौषधय मा ये


ौडे हतो द तज उ रता भसः माम् ।
कौम धृतोऽ रमृतो मथने वपृ े
ाहात् प मभराजममु चदातम् ।।१८

सं तु वतोऽ धप तता मणानृष


श ं च वृ वधत तम स व म् ।
दे व योऽसुरगृहे प हता अनाथा
ज नेऽसुरे मभयाय सतां नृ सहे ।।१९
भगवान् व णुने अपने व पम एकरस थत रहते ए भी स पूण जगत्के क याणके
लये ब त-से कलावतार हण कये ह। वदे हराज! हंस, द ा ेय, सनक-सन दन-सनातन-
सन कुमार और हमारे पता ऋषभके पम अवतीण होकर उ ह ने आ मसा ा कारके
साधन का उपदे श कया है। उ ह ने ही हय ीव-अवतार लेकर मधु-कैटभ नामक असुर का
संहार करके उन लोग के ारा चुराये ए वेद का उ ार कया है ।।१७।। लयके समय
म यावतार लेकर उ ह ने भावी मनु स य त, पृ वी और ओष धय क —धा या दक र ा
क और वराहावतार हण करके पृ वीका रसातलसे उ ार करते समय हर या का संहार
कया। कूमावतार हण करके उ ह भगवान्ने अमृत-म थनका काय स प करनेके लये
अपनी पीठपर म दराचल धारण कया और उ ह भगवान् व णुने अपने शरणागत एवं आत
भ गजे को ाहसे छु ड़ाया ।।१८।।
एक बार वाल ख य ऋ ष तप या करते-करते अ य त बल हो गये थे। वे जब क यप
ऋ षके लये स मधा ला रहे थे तो थककर गायके खुरसे बने ए गड् ढे म गर पड़े, मानो
समु म गर गये ह । उ ह ने जब तु त क , तब भगवान्ने अवतार लेकर उनका उ ार
कया। वृ ासुरको मारनेके कारण जब इ को ह या लगी और वे उसके भयसे भागकर
छप गये, तब भगवान्ने उस ह यासे इ क र ा क ; और जब असुर ने अनाथ
दे वांगना को बंद बना लया, तब भी भगवान्ने ही उ ह असुर के चंगुलसे छु ड़ाया। जब
हर यक शपुके कारण ाद आ द संत पु ष को भय प ँचने लगा तब उनको नभय
करनेके लये भगवान्ने नृ सहावतार हण कया और हर यक शपुको मार डाला ।।१९।।
उ ह ने दे वता क र ाके लये दे वासुर सं ामम दै यप तय का वध कया और व भ
म व तर म अपनी श से अनेक कलावतार धारण करके भुवनक र ा क । फर वामन-
अवतार हण करके उ ह ने याचनाके बहाने इस पृ वीको दै यराज ब लसे छ न लया और
अ द तन दन दे वता को दे दया ।।२०।। परशुराम-अवतार हण करके उ ह ने ही पृ वीको
इ क स बार यहीन कया। परशुरामजी तो हैहय-वंशका लय करनेके लये मानो
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भृगुवंशम अ न पसे ही अवतीण ए थे। उ ह भगवान्ने रामावतारम समु पर पुल बाँधा
एवं रावण और उसक राजधानी लंकाको म टयामेट कर दया। उनक क त सम त लोक के
मलको न करनेवाली है। सीताप त भगवान् राम सदा-सवदा, सव वजयी-ही- वजयी
ह ।।२१।। राजन्! अज मा होनेपर भी पृ वीका भार उतारनेके लये वे ही भगवान् य वंशम
ज म लगे और ऐसे-ऐसे कम करगे, ज ह बड़े-बड़े दे वता भी नह कर सकते। फर आगे
चलकर भगवान् ही बु के पम कट ह गे और य के अन धका रय को य करते दे खकर
अनेक कारके तक- वतक से मो हत कर लगे और क लयुगके अ तम क क-अवतार लेकर
वे ही शू राजा का वध करगे ।।२२।। महाबा वदे हराज! भगवान्क क त अन त है।
महा मा ने जग प त भगवान्के ऐसे-ऐसे अनेक ज म और कम का चुरतासे गान भी
कया है ।।२३।।

दे वासुरे यु ध च दै यपतीन् सुराथ


ह वा तरेषु भुवना यदधात् कला भः ।
भू वाथ वामन इमामहरद् बलेः मां
या ञा छलेन समदाद दतेः सुते यः ।।२०

नः यामकृत गां च ःस तकृ वो


राम तु हैहयकुला ययभागवा नः ।
सोऽ धं बब ध दशव महन् सलङकं
सीताप तजय त लोकमल नक तः ।।२१

भूमेभरावतरणाय य वज मा
जातः क र य त सुरैर प करा ण ।
वादै वमोहय त य कृतोऽतदहान्
शू ान् कलौ तभुजो यह न यद ते ।।२२

एवं वधा न कमा ण ज मा न च जग पतेः ।


भूरी ण भू रयशसो व णता न महाभुज ।।२३
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायामेकादश क धे चतुथ ऽ यायः ।।४।।

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अथ प चमोऽ यायः
भ हीन पु ष क ग त और भगवान्क पूजा व धका वणन
राजोवाच
भगव तं ह र ायो न भज या म व माः ।
तेषामशा तकामानां का न ा व जता मनाम् ।।१
राजा न मने पूछा—योगी रो! आपलोग तो े आ म ानी और भगवान्के परमभ
ह। कृपा करके यह बतलाइये क जनक कामनाएँ शा त नह ई ह, लौ कक-पारलौ कक
भोग क लालसा मट नह है और मन एवं इ याँ भी वशम नह ह तथा जो ायः
भगवान्का भजन भी नह करते, ऐसे लोग क या ग त होती है? ।।१।।
चमस उवाच
मुखबा पादे यः पु ष या मैः सह ।
च वारो ज रे वणा गुणै व ादयः पृथक् ।।२

य एषां पु षं सा ादा म भवमी रम् ।


न भज यवजान त थानाद् ाः पत यधः ।।३

रेह रकथाः के चद् रेचा युतक तनाः ।


यः शू ादय ैव तेऽनुक या भवा शाम् ।।४

व ो राज यवै यौ च हरेः ा ताः पदा तकम् ।


ौतेन ज मनाथा प मु या नायवा दनः ।।५

कम यको वदाः त धा मूखाः प डतमा ननः ।


वद त चाटु कान् मूढा यया मा ा गरो सुकाः ।।६

रजसा घोरसंक पाः कामुका अ हम यवः ।


दा भका मा ननः पापा वहस य युत यान् ।।७

वद त तेऽ यो यमुपा सत यो
गृहेषु मैथु यपरेषु चा शषः ।
अब आठव योगी र चमसजीने कहा—राजन्! वराट् पु षके मुखसे स व धान
ा ण, भुजा से स व-रज धान य, जाँघ से रज-तम- धान वै य और चरण से
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तमः धान शू क उ प ई है। उ ह क जाँघ से गृह था म, दयसे चय, व ः थलसे
वान थ और म तकसे सं यास—ये चार आ म कट ए ह। इन चार वण और आ म के
ज मदाता वयं भगवान् ही ह। वही इनके वामी, नय ता और आ मा भी ह। इस लये इन
वण और आ मम रहनेवाला जो मनु य भगवान्का भजन नह करता, ब क उलटा उनका
अनादर करता है, वह अपने थान, वण, आ म और मनु य-यो नसे भी युत हो जाता है;
उसका अधःपतन हो जाता है ।।२-३।। ब त-सी याँ और शू आ द भगवान्क कथा
और उनके नामक तन आ दसे कुछ र पड़ गये ह। वे आप-जैसे भगव क दयाके पा
ह। आपलोग उ ह कथा-क तनक सु वधा दे कर उनका उ ार कर ।।४।। ा ण, य
और वै य ज मसे, वेदा- ययनसे तथा य ोपवीत आ द सं कार से भगवान्के चरण के
नकटतक प ँच चुके ह। फर भी वे वेद का असली ता पय न समझकर अथवादम लगकर
मो हत हो जाते ह ।।५।। उ ह कमका रह य मालूम नह है। मूख होनेपर भी वे अपनेको
प डत मानते ह और अ भमानम अकड़े रहते ह। वे मीठ -मीठ बात म भूल जाते ह और
केवल व तु-शू य श द-माधुरीके मोहम पड़कर चटक ली-भड़क ली बात कहा करते ह ।।६।।
रजोगुणक अ धकताके कारण उनके संक प बड़े घोर होते ह। कामना क तो सीमा ही
नह रहती, उनका ोध भी ऐसा होता है जैसे साँपका, बनावट और घमंडसे उ ह ेम होता
है। वे पापीलोग भगवान्के यारे भ क हँसी उड़ाया करते ह ।।७।। वे मूख बड़े-बूढ़ क
नह , य क उपासना करते ह। यही नह , वे पर पर इकट् ठे होकर उस घर-गृह थीके
स ब धम ही बड़े-बड़े मनसूबे बाँधते ह, जहाँका सबसे बड़ा सुख ी-सहवासम ही सी मत
है। वे य द कभी य भी करते ह तो अ -दान नह करते, व धका उ लंघन करते और
द णातक नह दे ते। वे कमका रह य न जाननेवाले मूख केवल अपनी जीभको स तु करने
और पेटक भूख मटाने—शरीरको पु करनेके लये बेचारे पशु क ह या करते ह ।।८।।
धन-वैभव, कुलीनता, व ा, दान, सौ दय, बल और कम आ दके घमंडसे अंधे हो जाते ह
तथा वे उन भगव ेमी संत तथा ई रका भी अपमान करते रहते ह ।।९।। राजन्! वेद ने
इस बातको बार-बार हराया है क भगवान् आकाशके समान न य- नर तर सम त
शरीरधा रय म थत ह। वे ही अपने आ मा और यतम ह। पर तु वे मूख इस वेदवाणीको
तो सुनते ही नह और केवल बड़े-बड़े मनोरथ क बात आपसम कहते-सुनते रहते ह ।।१०।।
(वेद व धके पम ऐसे ही कम के करनेक आ ा दे ता है क जनम मनु यक वाभा वक
वृ नह होती।) संसारम दे खा जाता है क मैथुन, मांस और म क ओर ाणीक
वाभा वक वृ त हो जाती है। तब उसे उसम वृ करनेके लये वधान तो हो ही नह
सकता। ऐसी थ तम ववाह, य और सौ ाम ण य के ारा ही जो उनके सेवनक
व था द गयी है, उसका अथ है लोग क उ छृ ं खल वृ का नय ण, उनका मयादाम
थापन। वा तवम उनक ओरसे लोग को हटाना ही ु तको अभी है ।।११।। धनका
एकमा फल है धम; य क धमसे ही परम-त वका ान और उसक न ा—अपरो
अनुभू त स होती है और न ाम ही परम शा त है। पर तु यह कतने खेदक बात है क
लोग उस धनका उपयोग घर-गृह थीके वाथ म या कामभोगम ही करते ह और यह नह

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दे खते क हमारा यह शरीर मृ युका शकार है और वह मृ यु कसी कार भी टाली नह जा
सकती ।।१२।। सौ ाम ण य म भी सुराको सूँघनेका ही वधान है, पीनेका नह । य म
पशुका आलभन ( पशमा ) ही व हत है, हसा नह । इसी कार अपनी धमप नीके साथ
मैथुनक आ ा भी वषयभोगके लये नह , धा मक पर पराक र ाके न म स तान उ प
करनेके लये ही द गयी है। पर तु जो लोग अथवादके वचन म फँसे ह, वषयी ह, वे अपने
इस वशु धमको जानते ही नह ।।१३।।

यज यसृ ा वधानद णं
वृ यै परं न त पशूनत दः ।।८

या वभू या भजनेन व या
यागेन पेण बलेन कमणा ।
जात मयेना ध धयः सहे रान्
सतोऽवम य त ह र यान् खलाः ।।९

सवषु श नुभृ वव थतं


यथा खमा मानमभी मी रम् ।
वेदोपगीतं च न शृ वतेऽबुधा
मनोरथानां वद त वातया ।।१०

लोके वाया मषम सेवा


न या तु ज तोन ह त चोदना ।
व थ त तेषु ववाहय -
सुरा हैरासु नवृ र ा ।।११

धनं च धमकफलं यतो वै


ानं स व ानमनु शा त ।
गृहेषु यु त कलेवर य
मृ युं न प य त र तवीयम् ।।१२

यद् ाणभ ो व हतः सुराया-


तथा पशोरालभनं न हसा ।

एवं वायः जया न र या


इमं वशु ं न व ः वधमम् ।।१३

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ये वनेवं वदोऽस तः त धाः सद भमा ननः ।
पशून् त व धाः े य खाद त ते च तान् ।।१४

ष तः परकायेषु वा मानं ह रमी रम् ।


मृतके सानुब धेऽ मन् ब नेहाः पत यधः ।।१५

ये कैव यमस ा ता ये चातीता मूढताम् ।


ैव गका णका आ मानं घातय त ते ।।१६

एत आ महनोऽशा ता अ ाने ानमा ननः ।


सीद यकृतकृ या वै काल व तमनोरथाः ।।१७

ह वा यायासर चता गृहाप यसु यः ।


तमो वश य न छ तो वासुदेवपराङ् मुखाः ।।१८
राजोवाच
क मन् काले स भगवान् क वणः क शो नृ भः ।
ना ना वा केन व धना पू यते त दहो यताम् ।।१९
जो इस वशु धमको नह जानते, वे घमंडी वा तवम तो ह, पर तु समझते ह
अपनेको े । वे धोखेम पड़े ए लोग पशु क हसा करते ह और मरनेके बाद वे पशु ही
उन मारनेवाल को खाते ह ।।१४।। यह शरीर मृतक-शरीर है। इसके स ब धी भी इसके साथ
ही छू ट जाते ह। जो लोग इस शरीरसे तो ेमक गाँठ बाँध लेते ह और सरे शरीर म
रहनेवाले अपने ही आ मा एवं सवश मान् भगवान्से े ष करते ह, उन मूख का अधःपतन
न त है ।।१५।। जन लोग ने आ म ान स पादन करके कैव य-मो नह ा त कया है
और जो पूर-े पूरे मूढ़ भी नह ह, वे अधूरे न इधरके ह और न उधरके। वे अथ, धम, काम—
इन तीन पु षाथ म फँसे रहते ह, एक णके लये भी उ ह शा त नह मलती। वे अपने
हाथ अपने पैर म कु हाड़ी मार रहे ह। ऐसे ही लोग को आ मघाती कहते ह ।।१६।।
अ ानको ही ान मानने-वाले इन आ मघा तय को कभी शा त नह मलती, इनके कम क
पर परा कभी शा त नह होती। काल-भगवान् सदा-सवदा इनके मनोरथ पर पानी फेरते रहते
ह। इनके दयक जलन, वषाद कभी मटनेका नह ।।१७।। राजन्! जो लोग अ तयामी
भगवान् ीकृ णसे वमुख ह, वे अ य त प र म करके गृह, पु , म और धन-स प
इकट् ठ करते ह; पर तु उ ह अ तम सब कुछ छोड़ दे ना पड़ता है और न चाहनेपर भी ववश
होकर घोर नरकम जाना पड़ता है। (भगवान्का भजन न करनेवाले वषयी पु ष क यही
ग त होती है) ।।१८।।
राजा न मने पूछा—योगी रो! आपलोग कृपा करके यह बतलाइये क भगवान् कस
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समय कस रंगका, कौन-सा आकार वीकार करते ह और मनु य कन नाम और व धय से
उनक उपासना करते ह ।।१९।।
करभाजन उवाच
कृतं ेता ापरं च क ल र येषु केशवः ।
नानावणा भधाकारो नानैव व धने यते ।।२०

कृते शु ल तुबा ज टलो व कला बरः ।


कृ णा जनोपवीता ान् ब द् द डकम डलू ।।२१

मनु या तु तदा शा ता नवराः सु दः समाः ।


यज त तपसा दे वं शमेन च दमेन च ।।२२

हंसः सुपण वैकु ठो धम योगे रोऽमलः ।


ई रः पु षोऽ ः परमा मे त गीयते ।।२३

े ायां र वण ऽसौ चतुबा


त मेखलः ।
हर यकेश या मा ु ुवा ुपल णः ।।२४

तं तदा मनुजा दे वं सवदे वमयं ह रम् ।


यज त व या या ध म ा वा दनः ।।२५

व णुय ः पृ गभः सवदे व उ मः ।


वृषाक पजय त उ गाय इतीयते ।।२६

ापरे भगवा ामः पीतवासा नजायुधः ।


ीव सा द भरंकै ल णै पल तः ।।२७

तं तदा पु षं म या महाराजोपल णम् ।


यज त वेदत ा यां परं ज ासवो नृप ।।२८
अब नव योगी र करभाजनजीने कहा—राजन्! चार युग ह—स य, ेता, ापर और
क ल। इन युग म भगवान्के अनेक रंग, नाम और आकृ तयाँ होती ह तथा व भ व धय से
उनक पूजा क जाती है ।।२०।। स ययुगम भगवान्के ी व हका रंग होता है ेत। उनके
चार भुजाएँ और सरपर जटा होती है तथा वे व कलका ही व पहनते ह। काले मृगका
चम, य ोपवीत, ा क माला, द ड और कम डलु धारण करते ह ।।२१।। स ययुगके

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मनु य बड़े शा त, पर पर वैरर हत, सबके हतैषी और समदश होते ह। वे लोग इ य और
मनको वशम रखकर यान प तप याके ारा सबके काशक परमा माक आराधना करते
ह ।।२२।। वे लोग हंस, सुपण, वैकु ठ, धम, योगे र, अमल, ई र, पु ष, अ और
परमा मा आ द नाम के ारा भगवान्के गुण, लीला आ दका गान करते ह ।।२३।। राजन्!
ेतायुगम भगवान्के ी व हका रंग होता है लाल। चार भुजाएँ होती ह और क टभागम वे
तीन मेखला धारण करते ह। उनके केश सुनहले होते ह और वे वेद तपा दत य के पम
रहकर ुक्, ुवा आ द य -पा को धारण कया करते ह ।।२४।। उस युगके मनु य अपने
धमम बड़ी न ा रखनेवाले और वेद के अ ययन-अ यापनम बड़े वीण होते ह। वे लोग
ऋ वेद, यजुवद और सामवेद प वेद यीके ारा सवदे व व प दे वा धदे व भगवान् ीह रक
आराधना करते ह ।।२५।। ेतायुगम अ धकांश लोग व णु, य , पृ नगभ, सवदे व, उ म,
वृषाक प, जय त और उ गाय आ द नाम से उनके गुण और लीला आ दका क तन करते
है ।।२६।। राजन्! ापरयुगम भगवान्के ी व हका रंग होता है साँवला। वे पीता बर तथा
शंख, च , गदा आ द अपने आयुध धारण करते ह। व ः- थलपर ीव सका च ,
भृगुलता, कौ तुभम ण आ द ल ण से वे पहचाने जाते ह ।।२७।। राजन्! उस समय ज ासु
मनु य महाराज के च छ , चँवर आ दसे यु परमपु ष भगवान्क वै दक और ता क
व धसे आराधना करते ह ।।२८।। वे लोग इस कार भगवान्क तु त करते ह—‘हे
ान व प भगवान् वासुदेव एवं याश प संकषण! हम आपको बार-बार नम कार
करते ह। भगवान् ु न और अ न के पम हम आपको नम कार करते ह। ऋ ष
नारायण, महा मा नर, व े र, व प और सवभूता मा भगवान्को हम नम कार करते
ह ।।२९-३०।। राजन्! ापरयुगम इस कार लोग जगद र भगवान्क तु त करते ह। अब
क लयुगम अनेक त के व ध- वधानसे भगवान्क जैसी पूजा क जाती है, उसका वणन
सुनो— ।।३१।।

नम ते वासुदेवाय नमः संकषणाय च ।


ु नाया न ाय तु यं भगवते नमः ।।२९

नारायणाय ऋषये पु षाय महा मने ।


व े राय व ाय सवभूता मने नमः ।।३०

इ त ापर उव श तुव त जगद रम् ।


नानात वधानेन कलाव प यथा शृणु ।।३१

कृ णवण वषाकृ णं सांगोपांगा पाषदम् ।


य ैः संक तन ायैयज त ह सुमेधसः ।।३२

येयं सदा प रभव नमभी दोहं


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तीथा पदं शव व र चनुतं शर यम् ।
भृ या तहं णतपाल भवा धपोतं
व दे महापु ष ते चरणार व दम् ।।३३

य वा सु यजसुरे सतरा यल म
ध म आयवचसा यदगादर यम् ।
क लयुगम भगवान्का ी व ह होता है कृ ण-वण—काले रंगका। जैसे नीलम म णमसे
उ वल का तधारा नकलती रहती है, वैसे ही उनके अंगक छटा भी उ वल होती है। वे
दय आ द अंग, कौ तुभ आ द उपांग, सुदशन आ द अ और सुन द भृ त पाषद से
संयु रहते ह। क लयुगम े बु स प पु ष ऐसे य के ारा उनक आराधना करते ह
जनम नाम, गुण, लीला आ दके क तनक धानता रहती है ।।३२।। वे लोग भगवान्क
तु त इस कार करते ह—‘ भो! आप शरणागत र क ह। आपके चरणार व द सदा-सवदा
यान करनेयो य, माया-मोहके कारण होनेवाले सांसा रक पराजय का अ त कर दे नेवाले तथा
भ क सम त अभी व तु का दान करनेवाले कामधेनु व प ह। वे तीथ को भी तीथ
बनानेवाले वयं परम तीथ व प ह; शव, ा आ द बड़े-बड़े दे वता उ ह नम कार करते ह
और चाहे जो कोई उनक शरणम आ जाय उसे वीकार कर लेते ह। सेवक क सम त आ त
और वप के नाशक तथा संसार-सागरसे पार जानेके लये जहाज ह। महापु ष! म आपके
उ ह चरणार व द क व दना करता ँ ।।३३।। भगवन्! आपके चरणकमल क म हमा कौन
कहे? रामावतारम अपने पता दशरथजीके वचन से दे वता के लये भी वांछनीय और
यज रा य-ल मीको छोड़कर आपके चरण-कमल वन-वन घूमते फरे! सचमुच आप
धम न ताक सीमा ह। और महापु ष! अपनी ेयसी सीताजीके चाहनेपर जान-बूझकर
आपके चरणकमल मायामृगके पीछे दौड़ते रहे। सचमुच आप ेमक सीमा ह। भो! म
आपके उ ह चरणार व द क व दना करता ँ’ ।।३४।।

मायामृगं द यतये सतम वधावद्


व दे महापु ष ते चरणार व दम् ।।३४

एवं युगानु पा यां भगवान् युगव त भः ।


मनुजै र यते राजन् ेयसामी रो ह रः ।।३५

क ल सभाजय याया गुण ाः सारभा गनः ।


य संक तनेनैव सवः वाथ ऽ भल यते ।।३६

न तः परमो लाभो दे हनां ा यता मह ।


यतो व दे त परमां शा तं न य त संसृ तः ।।३७

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कृता दषु जा राजन् कला व छ त स भवम् ।
कलौ खलु भ व य त नारायणपरायणाः ।।३८

व चत् व च महाराज वडेषु च भू रशः ।


ता पण नद य कृतमाला पय वनी ।।३९

कावेरी च महापु या तीची च महानद ।


ये पब त जलं तासां मनुजा मनुजे र ।
ायो भ ा भगव त वासुदेवेऽमलाशयाः ।।४०

दे व षभूता तनृणां पतॄणां


न ककरो नायमृणी च राजन् ।
सवा मना यः शरणं शर यं
गतो मुकु दं प र य कतम् ।।४१
राजन्! इस कार व भ युग के लोग अपने-अपने युगके अनु प नाम- प ारा
व भ कारसे भगवान्क आराधना करते ह। इसम स दे ह नह क धम, अथ, काम, मो
—सभी पु षाथ के एकमा वामी भगवान् ीह र ही ह ।।३५।। क ल-युगम केवल
संक तनसे ही सारे वाथ और परमाथ बन जाते ह। इस लये इस युगका गुण जाननेवाले
सार ाही े पु ष क लयुगक बड़ी शंसा करते ह, इससे बड़ा ेम करते ह ।।३६।।
दे हा भमानी जीव संसारच म अना द कालसे भटक रहे ह। उनके लये भगवान्क लीला,
गुण और नामके क तनसे बढ़कर और कोई परम लाभ नह है; य क इससे संसारम
भटकना मट जाता है और परम शा तका अनुभव होता है ।।३७।। राजन्! स ययुग, ेता
और ापरक जा चाहती है क हमारा ज म क लयुगम हो; य क क लयुगम कह -कह
भगवान् नारायणके शरणागत उ ह के आ यम रहनेवाले ब त-से भ उ प ह गे। महाराज
वदे ह! क लयुगम वड़दे शम अ धक भ पाये जाते ह; जहाँ ता पण , कृतमाला,
पय वनी, परम प व कावेरी, महानद और तीची नामक न दयाँ बहती ह। राजन्! जो
मनु य इन न दय का जल पीते ह, ायः उनका अ तःकरण शु हो जाता है और वे भगवान्
वासुदेवके भ हो जाते ह ।।३८-४०।।
राजन्! जो मनु य ‘यह करना बाक है, वह करना आव यक है’—इ या द कम-
वासना का अथवा भेद-बु का प र याग करके सवा मभावसे शरणागतव सल, ेमके
वरदानी भगवान् मुकु दक शरणम आ गया है, वह दे वता , ऋ षय , पतर , ा णय ,
कुटु बय और अ त थय के ऋणसे उऋण हो जाता है; वह कसीके अधीन, कसीका सेवक,
कसीके ब धनम नह रहता ।।४१।।

वपादमूलं भजतः यय
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य ा यभाव य ह रः परेशः ।
वकम य चो प ततं कथं चद्
धुनो त सव द स व ः ।।४२
नारद उवाच
धमान् भागवता न थं ु वाथ म थले रः ।
जाय तेयान् मुनीन् ीतः सोपा यायो पूजयत् ।।४३

ततोऽ तद धरे स ाः सवलोक य प यतः ।


राजा धमानुपा त वाप परमां ग तम् ।।४४

वम येतान् महाभाग धमान् भागवता छतान् ।


आ थतः या यु ो नःसंगो या यसे परम् ।।४५

युवयोः खलु द प योयशसा पू रतं जगत् ।


पु तामगमद् यद् वां भगवानी रो ह रः ।।४६

दशना लगनालापैः शयनासनभोजनैः ।


आ मा वां पा वतः कृ णे पु नेहं कुवतोः ।।४७

वैरेण यं नृपतयः शशुपालपौ -


शा वादयो ग त वलास वलोकना ैः ।
याय त आकृत धयः शयनासनादौ
त सा यमापुरनुर धयां पुनः कम् ।।४८
जो ेमी भ अपने यतम भगवान्के चरण-कमल का अन यभावसे— सरी
भावना , आ था , वृ य और वृ य को छोड़कर—भजन करता है, उससे, पहली
बात तो यह है क पापकम होते ही नह ; पर तु य द कभी कसी कार हो भी जायँ तो
परमपु ष भगवान् ीह र उसके दयम बैठकर वह सब धो-बहा दे ते और उसके दयको
शु कर दे ते ह ।।४२।।
नारदजी कहते ह—वसुदेवजी! म थलानरेश राजा न म नौ योगी र से इस कार
भागवतधम का वणन सुनकर ब त ही आन दत ए। उ ह ने अपने ऋ वज् और आचाय के
साथ ऋषभन दन नव योगी र क पूजा क ।।४३।। इसके बाद सब लोग के सामने ही वे
स अ तधान हो गये। वदे हराज न मने उनसे सुने ए भागवतधम का आचरण कया और
परमग त ा त क ।।४४।। महाभा यवान् वसुदेवजी! मने तु हारे आगे जन भागवतधम का
वणन कया है, तुम भी य द ाके साथ इनका आचरण करोगे तो अ तम सब आस य से
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छू टकर भगवान्का परमपद ा त कर लोगे ।।४५।। वसुदेवजी! तु हारे और दे वक के यशसे
तो सारा जगत् भरपूर हो रहा है; य क सवश मान् भगवान् ीकृ ण तु हारे पु के पम
अवतीण ए ह ।।४६।। तुमलोग ने भगवान्के दशन, आ लगन तथा बातचीत करने एवं उ ह
सुलाने, बैठाने, खलाने आ दके ारा वा स य- नेह करके अपना दय शु कर लया है;
तुम परम प व हो गये हो ।।४७।। वसुदेवजी! शशुपाल, पौ क और शा व आ द
राजा ने तो वैरभावसे ीकृ णक चाल-ढाल, लीला- वलास, चतवन-बोलन आ दका
मरण कया था। वह भी नयमानुसार नह , सोते, बैठते, चलते- फरते— वाभा वक पसे
ही। फर भी उनक च वृ ीकृ णाकार हो गयी और वे सा यमु के अ धकारी ए।
फर जो लोग ेमभाव और अनुरागसे ीकृ णका च तन करते ह, उ ह ीकृ णक ा त
होनेम कोई स दे ह है या? ।।४८।।

माप यबु मकृथाः कृ णे सवा मनी रे ।


मायामनु यभावेन गूढै य परेऽ ये ।।४९

भूभारासुरराज यह तवे गु तये सताम् ।


अवतीण य नवृ यै यशो लोके वत यते ।।५०
ीशुक उवाच
एत छ वा महाभागो वसुदेवोऽ त व मतः ।
दे वक च महाभागा जहतुम हमा मनः ।।५१

इ तहास ममं पु यं धारयेद ् यः समा हतः ।


स वधूयेह शमलं भूयाय क पते ।।५२
वसुदेवजी! तुम ीकृ णको केवल अपना पु ही मत समझो। वे सवा मा, सव र,
कारणातीत और अ वनाशी ह। उ ह ने लीलाके लये मनु य प कट करके अपना ऐ य
छपा रखा है ।।४९।। वे पृ वीके भारभूत राजवेषधारी असुर का नाश और संत क र ा
करनेके लये तथा जीव को परम शा त और मु दे नेके लये ही अवतीण ए ह और
इसीके लये जगत्म उनक क त भी गायी जाती है ।।५०।।
ीशुकदे वजी कहते ह— य परी त्! नारदजीके मुखसे यह सब सुनकर परम
भा यवान् वसुदेवजी और परम भा यवती दे वक जीको बड़ा ही व मय आ। उनम जो कुछ
माया-मोह अवशेष था, उसे उ ह ने त ण छोड़ दया ।।५१।। राजन्! यह इ तहास परम
प व है। जो एका च से इसे धारण करता है, वह अपना सारा शोक-मोह र करके
पदको ा त होता है ।।५२।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायामेकादश क धे प चमोऽ यायः ।।५।।

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अथ ष ोऽ यायः
दे वता क भगवान्से वधाम सधारनेके लये ाथना तथा
यादव को भास े जानेक तैयारी करते दे खकर उ वका
भगवान्के पास आना
ीशुक उवाच
अथ ाऽऽ मजैदवैः जेशैरावृतोऽ यगात् ।
भव भूतभ ेशो ययौ भूतगणैवृतः ।।१

इ ोम भगवाना द या वसवोऽ नौ ।
ऋभवोऽ रसो ा व े सा या दे वताः ।।२

ग धवा सरसो नागाः स चारणगु काः ।


ऋषयः पतर ैव स व ाधर क राः ।।३
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जब दे व ष नारद वसुदेवजीको उपदे श करके
चले गये, तब अपने पु सनका दक , दे वता और जाप तय के साथ ाजी,
भूतगण के साथ सव र महादे वजी और म द्गण के साथ दे वराज इ ारकानगरीम
आये। साथ ही सभी आ द यगण, आठ वसु, अ नीकुमार, ऋभु, अं गराके वंशज
ऋ ष, यारह , व ेदेव, सा यगण, ग धव, अ सराएँ, नाग, स , चारण, गु क,
ऋ ष, पतर, व ाधर और क र भी वह प ँचे। इन लोग के आगमनका उ े य यह
था क मनु यका-सा मनोहर वेष धारण करनेवाले और अपने यामसु दर व हसे सभी
लोग का मन अपनी ओर ख चकर रमा लेनेवाले भगवान् ीकृ णका दशन कर;
य क इस समय उ ह ने अपना ी व ह कट करके उसके ारा तीन लोक म ऐसी
प व क तका व तार कया है, जो सम त लोक के पाप-तापको सदाके लये मटा
दे ती है ।।१-४।। ारकापुरी सब कारक स प और ऐ य से समृ तथा अलौ कक
द तसे दे द यमान हो रही थी। वहाँ आकर उन लोग ने अनूठ छ बसे यु भगवान्
ीकृ णके दशन कये। भगवान्क प-माधुरीका न नमेष नयन से पान करनेपर भी
उनके ने तृ त न होते थे। वे एकटक ब त दे रतक उ ह दे खते ही रहे ।।५।। उन लोग ने
वगके उ ान न दन-वन, चै रथ आ दके द पु प से जगद र भगवान् ीकृ णको
ढक दया और च - व च पद तथा अथ से यु वाणीके ारा उनक तु त करने
लगे ।।६।।

ारकामुपसंज मुः सव कृ ण द वः ।
वपुषा येन भगवान् नरलोकमनोरमः ।
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यशो वतेने लोकेषु सवलोकमलापहम् ।।४

त यां व ाजमानायां समृ ायां मह भः ।


च ता वतृ ता ाः कृ णम तदशनम् ।।५

वग ानोपगैमा यै छादय तो य मम् ।


गी भ पदाथा भ तु ु वुजगद रम् ।।६
दे वा ऊचुः
नताः म ते नाथ पदार व दं
बु य ाणमनोवचो भः ।
य च यतेऽ त द भावयु ै -
मुमु ु भः कममयो पाशात् ।।७

वं मायया गुणयाऽऽ म न वभा ं


ं सृज यव स लु प स तद्गुण थः ।
नैतैभवान जत कम भर यते वै
यत् वे सुखेऽ व हतेऽ भरतोऽनव ः ।।८

शु नृणां न तु तथे राशयानां


व ा ुता ययनदानतपः या भः ।
स वा मनामृषभ ते यश स वृ -
स या वणस भृतया यथा यात् ।।९
दे वता ने ाथना क — वामी! कम के वकट फंद से छू टनेक इ छावाले
मुमु ुजन भ -भावसे अपने दयम जसका च तन करते रहते ह, आपके उसी
चरणकमलको हमलोग ने अपनी बु , इ य, ाण, मन और वाणीसे सा ात्
नम कार कया है। अहो! आ य है!* ।।७।। अ जत! आप मा यक रज आ द गुण म
थत होकर इस अ च य नाम- पा मक पंचक गुणमयी मायाके ारा अपने-
आपम ही रचना करते ह, पालन करते और संहार करते ह। यह सब करते ए भी इन
कम से आप ल त नह होते ह; य क आप राग- े षा द दोष से सवथा मु ह और
अपने नरावरण अख ड व पभूत परमान दम म न रहते ह ।।८।। तु त करनेयो य
परमा मन्! जन मनु य क च वृ राग- े षा दसे कलु षत ह, वे उपासना,
वेदा ययन, दान, तप या और य आ द कम भले ही कर; परंतु उनक वैसी शु नह
हो सकती, जैसी वणके ारा स पु शु ा तःकरण स जन पु ष क आपक
लीलाकथा, क तके वषयम दन दन बढ़कर प रपूण होनेवाली ासे होती है ।।९।।

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या तवाङ् रशुभाशयधूमकेतुः
ेमाय यो मु न भरा दो मानः ।
यः सा वतैः सम वभूतय आ मव -
ूहेऽ चतः सवनशः वर त माय ।।१०

य यते यतपा ण भर वरा नौ


या न व धनेश ह वगृही वा ।
अ या मयोग उत यो ग भरा ममायां
ज ासु भः परमभागवतैः परी ः ।।११

पयु या तव वभो वनमालयेयं


सं प धनी भगवती तप नव ः ।
यः सु णीतममुयाहणमादद ो
भूयात् सदाङ् रशुभाशयधूमकेतुः ।।१२

केतु व मयुत पत पताको


य ते भयाभयकरोऽसुरदे वच वोः ।
वगाय साधुषु खले वतराय भूमन्
पादः पुनातु भगवन् भजतामघं नः ।।१३
मननशील मुमु ुजन मो - ा तके लये अपने ेमसे पघले ए दयके ारा
ज ह लये- लये फरते ह, पांचरा व धसे उपासना करनेवाले भ जन समान
ऐ यक ा तके लये वासुदेव, संकषण, ु न और अ न —इस चतु ूहके पम
जनका पूजन करते ह और जते य धीरपु ष वगलोकका अ त मण करके
भगव ामक ा तके लये तीन समय जनक पूजा कया करते ह, या क लोग
तीन वेद के ारा बतलायी ई व धसे अपने संयत हाथ म ह व य लेकर य कु डम
आ त दे ते और उ ह का च तन करते ह। आपक आ म- व पणी मायाके ज ासु
योगीजन दयके अ तदशम दहर व ा आ दके ारा आपके चरणकमल का ही यान
करते ह और आपके बड़े-बड़े ेमी भ जन उ ह को अपना परम इ आरा यदे व
मानते ह। भो! आपके वे ही चरणकमल हमारी सम त अशुभ वासना — वषय-
वासना को भ म करनेके लये अ न व प ह । वे अ नके समान हमारे पाप-
ताप को भ म कर द ।।१०-११।। भो! यह भगवती ल मी आपके व ः- थलपर
मुरझायी ई बासी वनमालासे भी सौतक तरह प ा रखती ह। फर भी आप उनक
परवा न कर भ के ारा इस बासी मालासे क ई पूजा भी ेमसे वीकार करते ह।
ऐसे भ व सल भुके चरणकमल सवदा हमारी वषयवासना को जलाने-वाले
अ न व प ह ।।१२।। अन त! वामनावतारम दै यराज ब लक द ई पृ वीको
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नापनेके लये जब आपने अपना पग उठाया था और वह स यलोकम प ँच गया था,
तब यह ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई ब त बड़ा वजय वज हो। ाजीके
पखारनेके बाद उससे गरती ई गंगाजीके जलक तीन धाराएँ ऐसी जान पड़ती थ ,
मानो उसम लगी ई तीन पताकाएँ फहरा रही ह । उसे दे खकर असुर क सेना भयभीत
हो गयी थी और दे वसेना नभय। आपका वह चरणकमल साधु वभाव पु ष के लये
आपके धाम वैकु ठलोकक ा तका और के लये अधो-ग तका कारण है।
भगवन्! आपका वही पादप हम भजन करनेवाल के सारे पाप-ताप धो-बहा
दे ।।१३।। ा आ द जतने भी शरीरधारी ह, वे स व, रज, तम—इन तीन गुण के
पर पर- वरोधी वध भाव क ट करसे जीते-मरते रहते ह। वे सुख- ःखके थपेड़ से
बाहर नह ह और ठ क वैसे ही आपके वशम ह, जैसे नथे ए बैल अपने वामीके
वशम होते ह। आप उनके लये भी काल व प ह। उनके जीवनका आ द, म य और
अ त आपके ही अधीन है। इतना ही नह , आप कृ त और पु षसे भी परे वयं
पु षो म ह। आपके चरणकमल हम-लोग का क याण कर ।।१४।। भो! आप इस
जगत्क उ प , थ त और लयके परम कारण ह; य क शा ने ऐसा कहा है क
आप कृ त, पु ष और मह वके भी नय ण करनेवाले काल ह। शीत, ी म और
वषाकाल प तीन ना भय वाले संव सरके पम सबको यक ओर ले जानेवाले
काल आप ही ह। आपक ग त अबाध और ग भीर है। आप वयं पु षो म ह ।।१५।।
यह पु ष आपसे श ा त करके अमोघवीय हो जाता है और फर मायाके साथ
संयु होकर व के मह व प गभका थापन करता है। इसके बाद वह मह व
गुणमयी मायाका अनुसरण करके पृ वी, जल, तेज, वायु, आकाश, अहंकार और
मन प सात आवरण (परत ) वाले इस सुवणवण ा डक रचना करता है ।।१६।।
इस लये षीकेश! आप सम त चराचर जगत्के अधी र ह। यही कारण है क मायाक
गुण वषमताके कारण बननेवाले व भ पदाथ का उपभोग करते ए भी आप उनम
ल त नह होते। यह केवल आपक ही बात है। आपके अ त र सरे तो वयं उनका
याग करके भी उन वषय से डरते रहते ह ।।१७।। सोलह हजारसे अ धक रा नयाँ
आपके साथ रहती ह। वे सब अपनी म द-म द मुसकान और तरछ चतवनसे यु
मनोहर भ ह के इशारेसे और सुरतालाप से ौढ़ स मोहक कामबाण चलाती ह और
कामकलाक व वध री तय से आपका मन आक षत करना चाहती ह; परंतु फर भी वे
अपने प रपु कामबाण से आपका मन त नक भी न डगा सक , वे असफल ही
रह ।।१८।। आपने लोक क पाप-रा शको धो बहानेके लये दो कारक प व
न दयाँ बहा रखी ह—एक तो आपक अमृतमयी लीलासे भरी कथानद और सरी
आपके पाद- ालनके जलसे भरी गंगाजी। अतः स संगसेवी ववेक जन कान के
ारा आपक कथा-नद म और शरीरके ारा गंगाजीम गोता लगाकर दोन ही तीथ का
सेवन करते ह और अपने पाप-ताप मटा दे ते ह ।।१९।।

न योतगाव इव य य वशे भव त
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ादय तनुभृतो मथुर मानाः ।
काल य ते कृ तपू षयोः पर य
शं न तनोतु चरणः पु षो म य ।।१४

अ या स हेतु दय थ तसंयमाना-
म जीवमहताम प कालमा ः ।
सोऽयं णा भर खलापचये वृ ः
कालो गभीररय उ मपू ष वम् ।।१५

व ः पुमान् सम धग य यया ववीय


ध े महा त मव गभममोघवीयः ।
सोऽयं तयानुगत आ मन आ डकोशं
हैमं ससज ब हरावरणै पेतम् ।।१६

त थुष जगत भवानधीशो


य माययो थगुण व ययोपनीतान् ।
अथाजुष प षीकपते न ल तो
येऽ ये वतः प र ताद प ब य त म ।।१७

मायावलोकलवद शतभावहा र-
ूम डल हतसौरतम शौ डैः ।
प य तु षोडशसह मनंगबाणै-
य ये यं वम थतुं करणैन व ः ।।१८

व तवामृतकथोदवहा लो याः
पादावनेजस रतः शमला न ह तुम् ।
आनु वं ु त भरङ् जमंगस ै -
तीथ यं शु चषद त उप पृश त ।।१९
बादराय ण वाच
इ य भ ू य वबुधैः सेशः शतधृ तह रम् ।
अ यभाषत गो व दं ण या बरमा तः ।।२०
ोवाच
भूमेभारावताराय पुरा व ा पतः भो ।
वम मा भरशेषा मं त थैवोपपा दतम् ।।२१
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धम था पतः स सु स यस धेषु वै वया ।
क त द ु व ता सवलोकमलापहा ।।२२

अवतीय यदोवशे ब द् पमनु मम् ।


कमा यु ामवृ ा न हताय जगतोऽकृथाः ।।२३

या न ते च रतानीश मनु याः साधवः कलौ ।


शृ व तः क तय त त र य य सा तमः ।।२४

य वंशेऽवतीण य भवतः पु षो म ।
शर छतं तीताय पंच वशा धकं भो ।।२५

नाधुना तेऽ खलाधार दे वकायावशे षतम् ।


कुलं च व शापेन न ायमभू ददम् ।।२६

ततः वधाम परमं वश व य द म यसे ।


सलोकाँ लोकपालान् नःपा ह वैकु ठ ककरान् ।।२७
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! सम त दे वता और भगवान् शंकरके साथ
ाजीने इस कार भगवान्क तु त क । इसके बाद वे णाम करके अपने धामम
जानेके लये आकाशम थत होकर भगवान्से इस कार कहने लगे ।।२०।।
ाजीने कहा—सवा मन् भो! पहले हमलोग ने आपसे अवतार लेकर
पृ वीका भार उतारनेके लये ाथना क थी। सो वह काम आपने हमारी ाथनाके
अनुसार ही यथो चत पसे पूरा कर दया ।।२१।। आपने स यपरायण साधुपु ष के
क याणाथ धमक थापना भी कर द और दस दशा म ऐसी क त फैला द , जसे
सुन-सुनाकर सब लोग अपने मनका मैल मटा दे ते ह ।।२२।। आपने यह सव म प
धारण करके य वंशम अवतार लया और जगत्के हतके लये उदारता और परा मसे
भरी अनेक लीलाएँ क ।।२३।। भो! क लयुगम जो साधु वभाव मनु य आपक इन
लीला का वण-क तन करगे वे सुगमतासे ही इस अ ान प अ धकारसे पार हो
जायँगे ।।२४।। पु षो म सवश मान् भो! आपको य वंशम अवतार हण कये
एक सौ पचीस वष बीत गये ह ।।२५।। सवाधार! अब हमलोग का ऐसा कोई काम
बाक नह है, जसे पूण करनेके लये आपके यहाँ रहनेक आव यकता हो। ा ण के
शापके कारण आपका यह कुल भी एक कारसे न हो ही चुका है ।।२६।। इस लये
वैकु ठनाथ! य द आप उ चत समझ तो अपने परमधामम पधा रये और अपने सेवक
हम लोकपाल का तथा हमारे लोक का पालन-पोषण क जये ।।२७।।

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ीभगवानुवाच
अवधा रतमेत मे यदा थ वबुधे र ।
कृतं वः कायम खलं भूमेभारोऽवता रतः ।।२८

त ददं यादवकुलं वीयशौय यो तम् ।


लोकं जघृ द् ं मे वेलयेव महाणवः ।।२९

य सं य तानां य नां वपुलं कुलम् ।


ग ता यनेन लोकोऽयमु े लेन वनङ् य त ।।३०

इदान नाश आर धः कुल य जशापतः ।


या या म भवनं े द ते तवानघ ।।३१

ीशुक उवाच
इ यु ो लोकनाथेन वय भूः णप य तम् ।
सह दे वगणैदवः वधाम समप त ।।३२

अथ त यां महो पातान् ारव यां समु थतान् ।


वलो य भगवानाह य वृ ान् समागतान् ।।३३
ीभगवानुवाच
एते वै सुमहो पाता ु तीह सवतः ।
शाप नः कुल यासीद् ा णे यो र ययः ।।३४

न व त महा मा भ जजी वषु भरायकाः ।


भासं सुमह पु यं या यामोऽ ैव मा चरम् ।।३५

य ना वा द शापाद् गृहीतो य मणोडु राट् ।


वमु ः क बषात् स ो भेजे भूयः कलोदयम् ।।३६
भगवान् ीकृ णने कहा— ाजी! आप जैसा कहते ह, म पहलेसे ही वैसा
न य कर चुका ँ। मने आपलोग का सब काम पूरा करके पृ वीका भार उतार
दया ।।२८।। पर तु अभी एक काम बाक है; वह यह क य वंशी बल- व म, वीरता-
शूरता और धन-स प से उ म हो रहे ह। ये सारी पृ वीको स लेनेपर तुले ए ह।
इ ह मने ठ क वैसे ही रोक रखा है, जैसे समु को उसके तटक भू म ।।२९।। य द म
घमंडी और उ छृ ं खल य वं शय का यह वशाल वंश न कये बना ही चला जाऊँगा

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तो ये सब मयादाका उ लंघन करके सारे लोक का संहार कर डालगे ।।३०।। न पाप
ाजी! अब ा ण के शापसे इस वंशका नाश ार भ हो चुका है। इसका अ त हो
जानेपर म आपके धामम होकर जाऊँगा ।।३१।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जब अ खललोका धप त भगवान् ीकृ णने
इस कार कहा, तब ाजीने उ ह णाम कया और दे वता के साथ वे अपने
धामको चले गये ।।३२।। उनके जाते ही ारकापुरीम बड़े-बड़े अपशकुन, बड़े-बड़े
उ पात उठ खड़े ए। उ ह दे खकर य वंशके बड़े-बूढ़े भगवान् ीकृ णके पास आये।
भगवान् ीकृ णने उनसे यह बात कही ।।३३।।
भगवान् ीकृ णने कहा—गु जनो! आजकल ारकाम जधर दे खये, उधर ही
बड़े-बड़े अपशकुन और उ पात हो रहे ह। आपलोग जानते ही ह क ा ण ने हमारे
वंशको ऐसा शाप दे दया है, जसे टाल सकना ब त ही क ठन है। मेरा ऐसा वचार है
क य द हमलोग अपने ाण क र ा चाहते ह तो हम यहाँ नह रहना चा हये। अब
वल ब करनेक आव यकता नह है। हमलोग आज ही परम प व भास े के लये
नकल पड़ ।।३४-३५।। भास े क म हमा ब त स है। जस समय द
जाप तके शापसे च माको राजय मा रोगने स लया था, उस समय उ ह ने
भास े म जाकर नान कया और वे त ण उस पापज य रोगसे छू ट गये। साथ ही
उ ह कला क अ भवृ भी ा त हो गयी ।।३६।। हमलोग भी भास े म चलकर
नान करगे, दे वता एवं पतर का तपण करगे और साथ ही अनेक गुणवाले पकवान
तैयार करके े ा ण को भोजन करायगे। वहाँ हमलोग उन स पा ा ण को पूरी
ासे बड़ी-बड़ी दान-द णा दगे और इस कार उनके ारा अपने बड़े-बड़े
संकट को वैसे ही पार कर जायँगे, जैसे कोई जहाजके ारा समु पार कर
जाय! ।।३७-३८।।

वयं च त म ा लु य तप य वा पतॄन् सुरान् ।


भोज य वो शजो व ान् नानागुणवता धसा ।।३७

तेषु दाना न पा ेषु यो वा महा त वै ।


वृ जना न त र यामो दानैन भ रवाणवम् ।।३८
ीशुक उवाच
एवं भगवताऽऽ द ा यादवाः कुलन दन ।
ग तुं कृत धय तीथ य दनान् समयूयुजन् ।।३९

त री यो वो राजन् ु वा भगवतो दतम् ।


् वा र ा न घोरा ण न यं कृ णमनु तः ।।४०

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व व उपसंग य जगतामी रे रम् ।
ण य शरसा पादौ ांज ल तमभाषत ।।४१
उ व उवाच
दे वदे वेश योगेश पु य वणक तन ।
सं यैतत् कुलं नूनं लोकं स य यते भवान् ।
व शापं समथ ऽ प यह यद रः ।।४२

नाहं तवाङ् कमलं णाधम प केशव ।


य ुं समु सहे नाथ वधाम नय माम प ।।४३

तव व डतं कृ ण नृणां परममंगलम् ।


कणपीयूषमा वा यज य य पृहां जनः ।।४४
ीशुकदे वजी कहते ह—कुलन दन! जब भगवान् ीकृ णने इस कार आ ा
द , तब य वं शय ने एक मतसे भास जानेका न य कर लया और सब अपने-अपने
रथ सजाने-जोतने लगे ।।३९।। परी त्! उ वजी भगवान् ीकृ णके बड़े ेमी और
सेवक थे। उ ह ने जब य वं शय को या ाक तैयारी करते दे खा, भगवान्क आ ा सुनी
और अ य त घोर अपशकुन दे खे तब वे जगत्के एकमा अ धप त भगवान् ीकृ णके
पास एका तम गये, उनके चरण पर अपना सर रखकर णाम कया और हाथ
जोड़कर उनसे ाथना करने लगे ।।४०-४१।।
उ वजीने कहा—योगे र! आप दे वा धदे व के भी अधी र ह। आपक
लीला के वण-क तनसे जीव प व हो जाता है। आप सवश मान् परमे र ह।
आप चाहते तो ा ण के शापको मटा सकते थे। पर तु आपने वैसा कया नह । इससे
म यह समझ गया क अब आप य वंशका संहार करके, इसे समेटकर अव य ही इस
लोकका प र याग कर दगे ।।४२।। पर तु घुँघराली अलक वाले यामसु दर! म आधे
णके लये भी आपके चरणकमल के यागक बात सोच भी नह सकता। मेरे
जीवनसव व, मेरे वामी! आप मुझे भी अपने धामम ले च लये ।।४३।। यारे कृ ण!
आपक एक-एक लीला मनु य के लये परम मंगलमयी और कान के लये
अमृत व प है। जसे एक बार उस रसका चसका लग जाता है, उसके मनम फर
कसी सरी व तुके लये लालसा ही नह रह जाती। भो! हम तो उठते-बैठते, सोते-
जागते, घूमते- फरते आपके साथ रहे ह, हमने आपके साथ नान कया, खेल खेले,
भोजन कया; कहाँतक गनाव, हमारी एक-एक चे ा आपके साथ होती रही। आप
हमारे यतम ह; और तो या, आप हमारे आ मा ही ह। ऐसी थ तम हम आपके
ेमी भ आपको कैसे छोड़ सकते ह? ।।४४-४५।। हमने आपक धारण क ई माला
पहनी, आपके लगाये ए च दन लगाये, आपके उतारे ए व पहने और आपके
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धारण कये ए गहन से अपने-आपको सजाते रहे। हम आपक जूठन खानेवाले सेवक
ह। इस लये हम आपक मायापर अव य ही वजय ा त कर लगे। (अतः भो! हम
आपक मायाका डर नह है, डर है तो केवल आपके वयोगका) ।।४६।। हम जानते ह
क मायाको पार कर लेना ब त ही क ठन है। बड़े-बड़े ऋ ष-मु न दग बर रहकर और
आजीवन नै क चयका पालन करके अ या म व ाके लये अ य त प र म करते
ह। इस कारक क ठन साधनासे उन सं या सय के दय नमल हो पाते ह और तब
कह वे सम त वृ य क शा त प नै क य-अव थाम थत होकर आपके
नामक धामको ा त होते ह ।।४७।। महायोगे र! हमलोग तो कम-मागम ही म-
भटक रहे ह! पर तु इतना न त है क हम आपके भ जन के साथ आपके गुण
और लीला क चचा करगे तथा मनु यक -सी लीला करते ए आपने जो कुछ कया
या कहा है, उसका मरण-क तन करते रहगे। साथ ही आपक चाल-ढाल, मुसकान-
चतवन और हास-प रहासक मृ तम त लीन हो जायँगे। केवल इसीसे हम तर
मायाको पार कर लगे। (इस लये हम मायासे पार जानेक नह , आपके वरहक च ता
है। आप हम छो ड़ये नह , साथ ले च लये) ।।४८-४९।।

श यासनाटन थान नान डाशना दषु ।


कथं वां यमा मानं वयं भ ा यजेम ह ।।४५

वयोपभु ग धवासोऽलंकारच चताः ।


उ छ भो जनो दासा तव मायां जयेम ह ।।४६

वातरशना य ऋषयः मणा ऊ वम थनः ।


ा यं धाम ते या त शा ताः सं या सनोऽमलाः ।।४७

वयं वह महायो गन् म तः कमव मसु ।


व ातया त र याम तावकै तरं तमः ।।४८

मर तः क तय त ते कृता न ग दता न च ।
ग यु मते ण वे ल य ृलोक वड बनम् ।।४९
ीशुक उवाच
एवं व ा पतो राजन् भगवान् दे वक सुतः ।
एका तनं यं भृ यमु वं समभाषत ।।५०
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जब उ वजीने दे वक न दन भगवान्
ीकृ णसे इस कार ाथना क , तब उ ह ने अपने अन य ेमी सखा एवं सेवक

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उ वजीसे कहा ।।५०।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायामेकादश क धे ष ोऽ यायः ।।६।।

*यहाँ सा ांग णामसे ता पय है—


दो या पादा यां जानु यामुरसा शरसा शा । मनसा वचसा चे त णामोऽ ांग
ई रतः ।।
हाथ से, चरण से, घुटन से, व ः थलसे, सरसे, ने से, मनसे और वाणीसे—
इन आठ अंग से कया गया णाम सा ांग णाम कहलाता है।

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अथ स तमोऽ यायः
अवधूतोपा यान—पृ वीसे लेकर कबूतरतक आठ गु क कथा
ीभगवानुवाच
यदा थ मां महाभाग त चक षतमेव मे ।
ा भवो लोकपालाः ववासं मेऽ भकां णः ।।१

मया न पा दतं दे वकायमशेषतः ।


यदथमवतीण ऽहमंशेन णा थतः ।।२

कुलं वै शाप नद धं नं य य यो य व हात् ।


समु ः स तमेऽ येतां पुर च लाव य य त ।।३

य वायं मया य ो लोकोऽयं न मंगलः ।


भ व य य चरात् साधो क लना प नराकृतः ।।४

न व त ं वयैवेह मया य े महीतले ।


जनोऽधम चभ भ व य त कलौ युगे ।।५

वं तु सव प र य य नेहं वजनब धुषु ।


म यावे य मनः स यक् सम ग् वचर व गाम् ।।६

य ददं मनसा वाचा च ु या वणा द भः ।


न रं गृ माणं च व मायामनोमयम् ।।७

पुंसोऽयु य नानाथ मः स गुणदोषभाक् ।


कमाकम वकम त गुणदोष धयो भदा ।।८
भगवान् ीकृ णने कहा—महाभा यवान् उ व! तुमने मुझसे जो कुछ कहा है, म वही
करना चाहता ँ। ा, शंकर और इ ा द लोकपाल भी अब यही चाहते ह क म उनके
लोक म होकर अपने धामको चला जाऊँ ।।१।। पृ वीपर दे वता का जतना काम करना
था, उसे म पूरा कर चुका। इसी कामके लये ाजीक ाथनासे म बलरामजीके साथ
अवतीण आ था ।।२।। अब यह य वंश, जो ा ण के शापसे भ म हो चुका है, पार प रक
फूट और यु से न हो जायगा। आजके सातव दन समु इस पुरी— ारकाको डु बो
दे गा ।।३।। यारे उ व! जस ण म म यलोकका प र याग कर ँ गा, उसी ण इसके सारे
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मंगल न हो जायँगे और थोड़े ही दन म पृ वीपर क लयुगका बोलबाला हो जायगा ।।४।।
जब म इस पृ वीका याग कर ँ तब तुम इसपर मत रहना; य क साधु उ व! क लयुगम
अ धकांश लोग क च अधमम ही होगी ।।५।। अब तुम अपने आ मीय वजन और ब धु-
बा धव का नेह-स ब ध छोड़ दो और अन य ेमसे मुझम अपना मन लगाकर सम से
पृ वीम व छ द वचरण करो ।।६।। इस जगत्म जो कुछ मनसे सोचा जाता है, वाणीसे
कहा जाता है, ने से दे खा जाता है और वण आ द इ य से अनुभव कया जाता है, वह
सब नाशवान् है। सपनेक तरह मनका वलास है। इस लये मायामा है, म या है—ऐसा
समझ लो ।।७।। जस पु षका मन अशा त है, असंयत है, उसीको पागलक तरह अनेक
व तुएँ मालूम पड़ती ह; वा तवम यह च का म ही है। नाना वका म हो जानेपर ही ‘यह
गुण है’ और ‘यह दोष’ इस कारक क पना करनी पड़ती है। जसक बु म गुण और
दोषका भेद बैठ गया है, ढ़मूल हो गया है, उसीके लये कम*, अकम† और वकम प‡
भेदका तपादन आ है ।।८।। इस लये उ व! तुम पहले अपनी सम त इ य को अपने
वशम कर लो, उनक बागडोर अपने हाथम ले लो और केवल इ य को ही नह , च क
सम त वृ य को भी रोक लो और फर ऐसा अनुभव करो क यह सारा जगत् अपने
आ माम ही फैला आ है और आ मा मुझ सवा मा इ यातीत से एक है, अ भ
है ।।९।। जब वेद के मु य ता पय— न य प ान और अनुभव प व ानसे भलीभाँ त
स प होकर तुम अपने आ माके अनुभवम ही आन दम न रहोगे और स पूण दे वता आ द
शरीरधा रय के आ मा हो जाओगे। इस लये कसी भी व नसे तुम पी डत नह हो सकोगे;
य क उन व न और व न करनेवाल क आ मा भी तु ह होगे ।।१०।। जो पु ष गुण और
दोष-बु से अतीत हो जाता है वह बालकके समान न ष कमसे नवृ होता है, पर तु
दोष-बु से नह । वह व हत कमका अनु ान भी करता है, पर तु गुणबु से नह ।।११।।
जसने ु तय के ता पयका यथाथ ान ही नह ा त कर लया, ब क उनका सा ा कार
भी कर लया है और इस कार जो अटल न यसे स प हो गया है वह सम त ा णय का
हतैषी सु द् होता है और उसक वृ याँ सवथा शा त रहती ह। वह सम त तीयमान
व को मेरा ही व प—आ म व प दे खता है; इस लये उसे फर कभी ज म-मृ युके
च करम नह पड़ना पड़ता ।।१२।।

त माद् यु े य ामो यु च इदं जगत् ।


आ मनी व वततमा मानं म यधी रे ।।९

ान व ानसंयु आ मभूतः शरी रणाम् ।


आ मानुभवतु ा मा ना तरायै वह यसे ।।१०

दोषबु योभयातीतो नषेधा नवतते ।


गुणबु या च व हतं न करो त यथाभकः ।।११

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सवभूतसु छा तो ान व ान न यः ।
प यन् मदा मकं व ं न वप ेत वै पुनः ।।१२
ीशुक उवाच
इ या द ो भगवता महाभागवतो नृप ।
उ वः णप याह त व ज ासुर युतम् ।।१३
उ व उवाच
योगेश योग व यास योगा मन् योगस भव ।
नः ेयसाय मे ो यागः सं यासल णः ।।१४

यागोऽयं करो भूमन् कामानां वषया म भः ।


सुतरां व य सवा म भ ै र त मे म तः ।।१५
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जब भगवान् ीकृ णने इस कार आदे श दया,
तब भगवान्के परम ेमी उ वजीने उ ह णाम करके त व ानक ा तक इ छासे यह
कया ।।१३।।
उ वजीने कहा—भगवन्! आप ही सम त यो गय क गु त पूँजी योग के कारण और
योगे र ह। आप ही सम त योग के आधार, उनके कारण और योग व प भी ह। आपने मेरे
परम-क याणके लये उस सं यास प यागका उपदे श कया है ।।१४।। पर तु अन त! जो
लोग वषय के च तन और सेवनम घुल- मल गये ह, वषया मा हो गये ह, उनके लये वषय-
भोग और कामना का याग अ य त क ठन है। सव व प! उनम भी जो लोग आपसे
वमुख ह, उनके लये तो इस कारका याग सवथा अस भव ही है ऐसा मेरा न य
है ।।१५।। भो! म भी ऐसा ही ँ; मेरी म त इतनी मूढ़ हो गयी है क ‘यह म ँ, यह मेरा है’
इस भावसे म आपक मायाके खेल, दे ह और दे हके स ब धी ी, पु , धन आ दम डू ब रहा
ँ। अतः भगवन्! आपने जस सं यासका उपदे श कया है, उसका त व मुझ सेवकको इस
कार समझाइये क म सुगमतापूवक उसका साधन कर सकूँ ।।१६।। मेरे भो! आप भूत,
भ व य, वतमान इन तीन काल से अबा धत, एकरस स य ह। आप सरेके ारा का शत
नह , वयं काश आ म व प ह। भो! म समझता ँ क मेरे लये आ मत वका उपदे श
करनेवाला आपके अ त र दे वता म भी कोई नह है। ा आ द जतने बड़े-बड़े दे वता
ह, वे सब शरीरा भमानी होनेके कारण आपक मायासे मो हत हो रहे ह। उनक बु मायाके
वशम हो गयी है। यही कारण है क वे इ य से अनुभव कये जानेवाले बा वषय को स य
मानते ह। इसी लये मुझे तो आप ही उपदे श क जये ।।१७।। भगवन्! इसीसे चार ओरसे
ःख क दावा नसे जलकर और वर होकर म आपक शरणम आया ँ। आप नद ष
दे श-कालसे अप र छ , सव , सवश मान् और अ वनाशी वैकु ठलोकके नवासी एवं
नरके न य सखा नारायण ह। (अतः आप ही मुझे उपदे श क जये) ।।१८।।

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सोऽहं ममाह म त मूढम त वगाढ-
व मायया वर चता म न सानुब धे ।
त व सा नग दतं भवता यथाहं
संसाधया म भगव नुशा ध भृ यम् ।।१६

स य य ते व श आ मन आ मनोऽ यं
व ारमीश वबुधे व प नानुच े ।
सव वमो हत धय तव माययेमे
ादय तनुभृतो ब हरथभावाः ।।१७

त माद् भव तमनव मन तपारं


सव मी रमकु ठ वकु ठ ध यम् ।
न व णधीरहमु ह वृ जना भत तो
नारायणं नरसखं शरणं प े ।।१८
ीभगवानुवाच
ायेण मनुजा लोके लोकत व वच णाः ।
समु र त ा मानमा मनैवाशुभाशयात् ।।१९

आ मनो गु रा मैव पु ष य वशेषतः ।


यत् य ानुमाना यां ेयोऽसावनु व दते ।।२०

पु ष वे च मां धीराः सां ययोग वशारदाः ।


आ व तरां प य त सवश युपबृं हतम् ।।२१
भगवान् ीकृ णने कहा—उ व! संसारम जो मनु य ‘यह जगत् या है? इसम या
हो रहा है?’ इ या द बात का वचार करनेम नपुण ह, वे च म भरी ई अशुभ वासना से
अपने-आपको वयं अपनी ववेक-श से ही ायः बचा लेते ह ।।१९।। सम त ा णय का
वशेषकर मनु यका आ मा अपने हत और अ हतका उपदे शक गु है। य क मनु य अपने
य अनुभव और अनुमानके ारा अपने हत-अ हतका नणय करनेम पूणतः समथ
है ।।२०।। सां य-योग वशारद धीर पु ष इस मनु ययो नम इ यश , मनःश आ दके
आ यभूत मुझ आ मत वको पूणतः कट पसे सा ा कार कर लेते ह ।।२१।।

एक चतु पादो ब पाद तथापदः ।


ब ः स त पुरः सृ ा तासां मे पौ षी या ।।२२

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अ मां मागय य ा यु ा हेतु भरी रम् ।
गृ माणैगुणै ल ै र ा मनुमानतः ।।२३

अ ा युदाहर तीम म तहासं पुरातनम् ।


अवधूत य संवादं यदोर मततेजसः ।।२४

अवधूतं जं कं च चर तमकुतोभयम् ।
क व नरी य त णं य ः प छ धम वत् ।।२५
य वाच
कुतो बु रयं कतुः सु वशारदा ।
यामासा भवाँ लोकं व ां र त बालवत् ।।२६

ायो धमाथकामेषु व व सायां च मानवाः ।


हेतुनैव समीह ते आयुषो यशसः यः ।।२७

वं तु क पः क वद ः सुभगोऽमृतभाषणः ।
न कता नेहसे क च जडो म पशाचवत् ।।२८

जनेषु द मानेषु कामलोभदवा नना ।


न त यसेऽ नना मु ो गंगा भः थ इव पः ।।२९
मने एक पैरवाले, दो पैरवाले, तीन पैरवाले, चार पैरवाले, चारसे अ धक पैरवाले और
बना पैरके—इ या द अनेक कारके शरीर का नमाण कया है। उनम मुझे सबसे अ धक
य मनु यका ही शरीर है ।।२२।। इस मनु य-शरीरम एका च ती णबु पु ष बु
आ द हण कये जानेवाले हेतु से जनसे क अनुमान भी होता है, अनुमानसे अ ा
अथात् अहंकार आ द वषय से भ मुझ सव व क ई रको सा ात् अनुभव करते
ह* ।।२३।। इस वषयम महा मा-लोग एक ाचीन इ तहास कहा करते ह। वह इ तहास परम
तेज वी अवधूत द ा ेय और राजा य के संवादके पम है ।।२४।। एक बार धमके मम
राजा य ने दे खा क एक कालदश त ण अवधूत ा ण नभय वचर रहे ह। तब उ ह ने
उनसे यह कया ।।२५।।
राजा य ने पूछा— न्! आप कम तो करते नह , फर आपको यह अ य त नपुण
बु कहाँसे ा त ई? जसका आ य लेकर आप परम व ान् होनेपर भी बालकके समान
संसारम वचरते रहते ह ।।२६।। ऐसा दे खा जाता है क मनु य आयु, यश अथवा सौ दय-
स प आ दक अ भलाषा लेकर ही धम, अथ, काम अथवा त व- ज ासाम वृ होते ह;
अकारण कह कसीक वृ नह दे खी जाती ।।२७।। म दे ख रहा ँ क आप कम करनेम
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समथ, व ान् और नपुण ह। आपका भा य और सौ दय भी शंसनीय है। आपक वाणीसे
तो मानो अमृत टपक रहा है। फर भी आप जड, उ म अथवा पशाचके समान रहते ह; न
तो कुछ करते ह और न चाहते ही ह ।।२८।। संसारके अ धकांश लोग काम और लोभके
दावानलसे जल रहे ह। पर तु आपको दे खकर ऐसा मालूम होता है क आप मु ह, आपतक
उसक आँच भी नह प ँच पाती; ठ क वैसे ही जैसे कोई हाथी वनम दावा न लगनेपर उससे
छू टकर गंगाजलम खड़ा हो ।।२९।। न्! आप पु , ी, धन आ द संसारके पशसे भी
र हत ह। आप सदा-सवदा अपने केवल व पम ही थत रहते ह। हम आपसे यह पूछना
चाहते ह क आपको अपने आ माम ही ऐसे अ नवचनीय आन दका अनुभव कैसे होता है?
आप कृपा करके अव य बतलाइये ।।३०।।

वं ह नः पृ छतां ा म यान दकारणम् ।


ू ह पश वहीन य भवतः केवला मनः ।।३०
ीभगवानुवाच
य नैवं महाभागो येन सुमेधसा ।
पृ ः सभा जतः ाह यावनतं जः ।।३१
ा ण उवाच
स त मे गुरवो राजन् बहवो बु युपा ताः ।
यतो बु मुपादाय मु ोऽटामीह ता छृ णु ।।३२

पृ थवी वायुराकाशमापोऽ न मा र वः ।
कपोतोऽजगरः स धुः पतंगो मधुकृद् गजः ।।३३

मधुहा ह रणो मीनः पगला कुररोऽभकः ।


कुमारी शरकृत् सप ऊणना भः सुपेशकृत् ।।३४

एते मे गुरवो राजं तु वश तरा ताः ।


श ा वृ भरेतेषाम व श महा मनः ।।३५

यतो यदनु श ा म यथा वा ना षा मज ।


त था पु ष ा नबोध कथया म ते ।।३६

भूतैरा यमाणोऽ प धीरो दै ववशानुगैः ।


तद् व ा चले मागाद व श ं ते तम् ।।३७
भगवान् ीकृ णने कहा—उ व! हमारे पूवज महाराज य क बु शु थी और
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उनके दयम ा ण-भ थी। उ ह ने परमभा यवान् द ा ेयजीका अ य त स कार करके
यह पूछा और बड़े वन भावसे सर झुकाकर वे उनके सामने खड़े हो गये। अब
द ा ेयजीने कहा ।।३१।।
वे ा द ा ेयजीने कहा—राजन्! मने अपनी बु से ब त-से गु का आ य
लया है, उनसे श ा हण करके म इस जगत्म मु भावसे व छ द वचरता ँ। तुम उन
गु के नाम और उनसे हण क ई श ा सुनो ।।३२।। मेरे गु के नाम ह—पृ वी,
वायु, आकाश, जल, अ न, च मा, सूय, कबूतर, अजगर, समु , पतंग, भ रा या मधुम खी,
हाथी, शहद नकालनेवाला, ह रन, मछली, पगला वे या, कुरर प ी, बालक, कुँआरी क या,
बाण बनानेवाला, सप, मकड़ी और भृंगी क ट ।।३३-३४।। राजन्! मने इन चौबीस गु का
आ य लया है और इ ह के आचरणसे इस लोकम अपने लये श ा हण क है ।।३५।।
वीरवर यया तन दन! मने जससे जस कार जो कुछ सीखा है, वह सब य -का- य तुमसे
कहता ँ, सुनो ।।३६।।
मने पृ वीसे उसके धैयक , माक श ा ली है। लोग पृ वीपर कतना आघात और
या- या उ पात नह करते; पर तु वह न तो कसीसे बदला लेती है और न रोती- च लाती
है। संसारके सभी ाणी अपने-अपने ार धके अनुसार चे ा कर रहे ह, वे समय-समयपर
भ -भ कारसे जान या अनजानम आ मण कर बैठते ह। धीर पु षको चा हये क
उनक ववशता समझे, न तो अपना धीरज खोवे और न ोध करे। अपने मागपर य -का-
य चलता रहे ।।३७।।

श पराथसवहः पराथका तस भवः ।


साधुः श ेत भूभृ ो नग श यः परा मताम् ।।३८

ाणवृ यैव स तु ये मु ननवे य यैः ।


ानं यथा न न येत नावक यत वाङ् मनः ।।३९

वषये वा वशन् योगी नानाधमषु सवतः ।


गुणदोष पेता मा न वष जेत वायुवत् ।।४०

पा थवे वह दे हेषु व तद्गुणा यः ।


गुणैन यु यते योगी ग धैवायु रवा म क् ।।४१

अ त हत थरजंगमेषु
ा मभावेन सम वयेन ।
पृ वीके ही वकार पवत और वृ से मने यह श ा हण क है क जैसे उनक सारी
चे ाएँ सदा-सवदा सर के हतके लये ही होती ह, ब क य कहना चा हये क उनका ज म
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ही एकमा सर का हत करनेके लये ही आ है, साधु पु षको चा हये क उनक श यता
वीकार करके उनसे परोपकारक श ा हण करे ।।३८।।
मने शरीरके भीतर रहनेवाले वायु— ाणवायुसे यह श ा हण क है क जैसे वह
आहारमा क इ छा रखता है और उसक ा तसे ही स तु हो जाता है, वैसे ही साधकको
भी चा हये क जतनेसे जीवन- नवाह हो जाय, उतना भोजन कर ले। इ य को तृ त
करनेके लये ब त-से वषय न चाहे। सं ेपम उतने ही वषय का उपयोग करना चा हये
जनसे बु वकृत न हो, मन चंचल न हो और वाणी थक बात म न लग जाय ।।३९।।
शरीरके बाहर रहनेवाले वायुसे मने यह सीखा है क जैसे वायुको अनेक थान म जाना
पड़ता है, पर तु वह कह भी आस नह होता, कसीका भी गुण-दोष नह अपनाता, वैसे
ही साधक पु ष भी आव यकता होनेपर व भ कारके धम और वभाववाले वषय म
जाय, पर तु अपने ल यपर थर रहे। कसीके गुण या दोषक ओर झुक न जाय, कसीसे
आस या े ष न कर बैठे ।।४०।। ग ध वायुका गुण नह , पृ वीका गुण है। पर तु वायुको
ग धका वहन करना पड़ता है। ऐसा करनेपर भी वायु शु ही रहता है, ग धसे उसका स पक
नह होता। वैसे ही साधकका जबतक इस पा थव शरीरसे स ब ध है, तबतक उसे इसक
ा ध-पीड़ा और भूख- यास आ दका भी वहन करना पड़ता है। पर तु अपनेको शरीर नह ,
आ माके पम दे खनेवाला साधक शरीर और उसके गुण का आ य होनेपर भी उनसे
सवथा न ल त रहता है ।।४१।।
राजन्! जतने भी घट-मठ आ द पदाथ ह, वे चाहे चल ह या अचल, उनके कारण भ -
भ तीत होनेपर भी वा तवम आकाश एक और अप र छ (अख ड) ही है। वैसे ही
चर-अचर जतने भी सू म- थूल शरीर ह, उनम आ मा पसे सव थत होनेके कारण
सभीम है। साधकको चा हये क सूतके म नय म ा त सूतके समान आ माको अख ड
और असंग पसे दे ख।े वह इतना व तृत है क उसक तुलना कुछ-कुछ आकाशसे ही क
जा सकती है। इस लये साधकको आ माक आकाश पताक भावना करनी चा हये ।।४२।।
आग लगती है, पानी बरसता है, अ आ द पैदा होते और न होते ह, वायुक ेरणासे बादल
आ द आते और चले जाते ह; यह सब होनेपर भी आकाश अछू ता रहता है। आकाशक
से यह सब कुछ है ही नह । इसी कार भूत, वतमान और भ व यके च करम न जाने
कन- कन नाम प क सृ और लय होते ह; पर तु आ माके साथ उनका कोई सं पश
नह है ।।४३।।

ा या व छे दमसंगमा मनो
मु ननभ वं वतत य भावयेत् ।।४२

तेजोऽब मयैभावैमघा ैवायुने रतैः ।


न पृ यते नभ त त् कालसृ ैगुणैः पुमान् ।।४३

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व छः कृ ततः न धो माधुय तीथभूनृणाम् ।
मु नः पुना यपां म मी ोप पशक तनैः ।।४४

तेज वी तपसा द तो धष दरभाजनः ।


सवभ ोऽ प यु ा मा नाद े मलम नवत् ।।४५
जस कार जल वभावसे ही व छ, चकना, मधुर और प व करनेवाला होता है तथा
गंगा आ द तीथ के दशन, पश और नामो चारणसे भी लोग प व हो जाते ह—वैसे ही
साधकको भी वभावसे ही शु , न ध, मधुरभाषी और लोकपावन होना चा हये। जलसे
श ा हण करनेवाला अपने दशन, पश और नामो चारणसे लोग को प व कर दे ता
है ।।४४।।
राजन्! मने अ नसे यह श ा ली है क जैसे वह तेज वी और यो तमय होती है, जैसे
उसे कोई अपने तेजसे दबा नह सकता, जैसे उसके पास सं ह-प र हके लये कोई पा
नह —सब कुछ अपने पेटम रख लेती है, और जैसे सब कुछ खा-पी लेनेपर भी व भ
व तु के दोष से वह ल त नह होती वैसे ही साधक भी परम तेज वी, तप यासे
दे द यमान, इ य से अपराभूत, भोजनमा का सं ही और यथायो य सभी वषय का
उपभोग करता आ भी अपने मन और इ य को वशम रखे, कसीका दोष अपनेम न आने
दे ।।४५।।

व च छ ः व चत् प उपा यः ेय इ छताम् ।


भुङ् े सव दातॄणां दहन् ागु राशुभम् ।।४६

वमायया सृ मदं सदस ल णं वभुः ।


व ईयते त व पोऽ न रवैध स ।।४७

वसगा ाः मशाना ता भावा दे ह य ना मनः ।


कलाना मव च य कालेना व मना ।।४८

कालेन ोघवेगेन भूतानां भवा ययौ ।


न याव प न येते आ मनोऽ नेयथा चषाम् ।।४९

गुणैगुणानुपाद े यथाकालं वमु च त ।


न तेषु यु यते योगी गो भगा इव गोप तः ।।५०
जैसे अ न कह (लकड़ी आ दम) अ कट रहती है और कह कट, वैसे ही साधक भी
कह गु त रहे और कह कट हो जाय। वह कह -कह ऐसे पम भी कट हो जाता है,
जससे क याणकामी पु ष उसक उपासना कर सक। वह अ नके समान ही भ ा प
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हवन करनेवाल के अतीत और भावी अशुभको भ म कर दे ता है तथा सव अ हण
करता है ।।४६।। साधक पु षको इसका वचार करना चा हये क जैसे अ न ल बी-चौड़ी,
टे ढ़ -सीधी लक ड़य म रहकर उनके समान ही सीधी-टे ढ़ या ल बी-चौड़ी दखायी पड़ती है
—वा तवम वह वैसी है नह ; वैसे ही सव ापक आ मा भी अपनी मायासे रचे ए काय-
कारण प जगत्म ा त होनेके कारण उन-उन व तु के नाम- पसे कोई स ब ध न
होनेपर भी उनके पम तीत होने लगता है ।।४७।।
मने च मासे यह श ा हण क है क य प जसक ग त नह जानी जा सकती, उस
कालके भावसे च माक कलाएँ घटती-बढ़ती रहती ह, तथा प च मा तो च मा ही है,
वह न घटता है और न बढ़ता ही है; वैसे ही ज मसे लेकर मृ यु पय त जतनी भी अव थाएँ
ह, सब शरीरक ह, आ मासे उनका कोई भी स ब ध नह है ।।४८।। जैसे आगक लपट
अथवा द पकक लौ ण- णम उ प और न होती रहती है—उनका यह म नर तर
चलता रहता है, पर तु द ख नह पड़ता—वैसे ही जल वाहके समान वेगवान् कालके ारा
ण- णम ा णय के शरीरक उ प और वनाश होता रहता है, पर तु अ ानवश वह
दखायी नह पड़ता ।।४९।।
राजन्! मने सूयसे यह श ा हण क है क जैसे वे अपनी करण से पृ वीका जल
ख चते और समयपर उसे बरसा दे ते ह, वैसे ही योगी पु ष इ य के ारा समयपर
वषय का हण करता है और समय आनेपर उनका याग—उनका दान भी कर दे ता है।
कसी भी समय उसे इ यके कसी भी वषयम आस नह होती ।।५०।।

बु यते वे न भेदेन थ इव तद्गतः ।


ल यते थूलम त भरा मा चाव थतोऽकवत् ।।५१

ना त नेहः संगो वा कत ः वा प केन चत् ।


कुवन् व दे त स तापं कपोत इव द नधीः ।।५२

कपोतः क नार ये कृतनीडो वन पतौ ।


कपो या भायया साधमुवास क त चत् समाः ।।५३

कपोतौ नेहगु णत दयौ गृहध मणौ ।


ांगमंगेन बु बु या बब धतुः ।।५४

श यासनाटन थानवाता डाशना दकम् ।


मथुनीभूय व धौ चेरतुवनरा जषु ।।५५

यं यं वा छ त सा राजं तपय यनुक पता ।

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तं तं समनयत् कामं कृ े णा य जते यः ।।५६

कपोती थमं गभ गृ ती काल आगते ।


अ डा न सुषुवे नीडे वप युः स धौ सती ।।५७

तेषु काले जाय त र चतावयवा हरेः ।


श भ वभा ा भः कोमलांगतनू हाः ।।५८
जाः पुपुषतुः ीतौ द पती पु व सलौ ।
शृ व तौ कू जतं तासां नवृतौ कलभा षतैः ।।५९
थूलबु पु ष को जलके व भ पा म त ब बत आ सूय उ ह म व -सा
होकर भ - भ दखायी पड़ता है। पर तु इससे व पतः सूय अनेक नह हो जाता; वैसे ही
चल-अचल उपा धय के भेदसे ऐसा जान पड़ता है क येक म आ मा अलग-अलग
है। पर तु जनको ऐसा मालूम होता है, उनक बु मोट है। असल बात तो यह है क
आ मा सूयके समान एक ही है। व पतः उसम कोई भेद नह है ।।५१।।
राजन्! कह कसीके साथ अ य त नेह अथवा आस न करनी चा हये, अ यथा
उसक बु अपना वात य खोकर द न हो जायगी और उसे कबूतरक तरह अ य त लेश
उठाना पड़ेगा ।।५२।। राजन्! कसी जंगलम एक कबूतर रहता था, उसने एक पेड़पर अपना
घ सला बना रखा था। अपनी मादा कबूतरीके साथ वह कई वष तक उसी घ सलेम
रहा ।।५३।। उस कबूतरके जोड़ेके दयम नर तर एक- सरेके त नेहक वृ होती
जाती थी। वे गृह थधमम इतने आस हो गये थे क उ ह ने एक- सरेक -से- , अंग-
से-अंग और बु -से-बु को बाँध रखा था ।।५४।।
उनका एक- सरेपर इतना व ास हो गया था क वे नःशंक होकर वहाँक वृ ावलीम
एक साथ सोते, बैठते, घूमते- फरते, ठहरते, बातचीत करते, खेलते और खाते-पीते
थे ।।५५।। राजन्! कबूतरीपर कबूतरका इतना ेम था क वह जो कुछ चाहती, कबूतर बड़े-
से-बड़ा क उठाकर उसक कामना पूण करता; वह कबूतरी भी अपने कामुक प तक
कामनाएँ पूण करती ।।५६।। समय आनेपर कबूतरीको पहला गभ रहा। उसने अपने प तके
पास ही घ सलेम अंडे दये ।।५७।। भगवान्क अ च य श से समय आनेपर वे अंडे फूट
गये और उनमसे हाथ-पैरवाले ब चे नकल आये। उनका एक-एक अंग और रोएँ अ य त
कोमल थे ।।५८।। अब उन कबूतर-कबूतरीक आँख अपने ब च पर लग गय , वे बड़े ेम
और आन दसे अपने ब च का लालन-पालन, लाड़- यार करते और उनक मीठ बोली,
उनक गुटर-गूँ सुन-सुनकर आन दम न हो जाते ।।५९।।

तासां पत ैः सु पशः कू जतैमु धचे तैः ।


युदगमै
् रद नानां पतरौ मुदमापतुः ।।६०

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नेहानुब दयाव यो यं व णुमायया ।
वमो हतौ द न धयौ शशून् पुपुषतुः जाः ।।६१

एकदा ज मतु तासाम ाथ तौ कुटु बनौ ।


प रतः कानने त म थनौ चेरतु रम् ।।६२

् वा ताँ लु धकः क द् य छातो वनेचरः ।


जगृहे जालमात य चरतः वालया तके ।।६३

कपोत कपोती च जापोषे सदो सुकौ ।


गतौ पोषणमादाय वनीडमुपज मतुः ।।६४

कपोती वा मजान् वी य बालकान् जालसंवृतान् ।


तान यधावत् ोश ती ोशतो भृश ः खता ।।६५

सासकृ नेहगु णता द न च ाजमायया ।


वयं चाब यत शचा ब ान् प य यप मृ तः ।।६६

कपोत ा मजान् ब ाना मनोऽ य धकान् यान् ।


भाया चा मसमां द नो वललापा त ः खतः ।।६७
ब चे तो सदा-सवदा स रहते ही ह; वे जब अपने सुकुमार पंख से माँ-बापका पश
करते, कूजते, भोली-भाली चे ाएँ करते और फुदक-फुदककर अपने माँ-बापके पास दौड़
आते तब कबूतर-कबूतरी आन दम न हो जाते ।।६०।। राजन्! सच पूछो तो वे कबूतर-
कबूतरी भगवान्क मायासे मो हत हो रहे थे। उनका दय एक- सरेके नेहब धनसे बँध रहा
था। वे अपने न ह-न ह ब च के पालन-पोषणम इतने रहते क उ ह द न- नया, लोक-
परलोकक याद ही न आती ।।६१।। एक दन दोन नर-मादा अपने ब च के लये चारा लाने
जंगलम गये ए थे। य क अब उनका कुटु ब ब त बढ़ गया था। वे चारेके लये
चरकालतक जंगलम चार ओर वचरते रहे ।।६२।। इधर एक बहे लया घूमता-घूमता
संयोगवश उनके घ सलेक ओर आ नकला। उसने दे खा क घ सलेके आस-पास कबूतरके
ब चे फुदक रहे ह; उसने जाल फैलाकर उ ह पकड़ लया ।।६३।। कबूतर-कबूतरी ब च को
खलाने- पलानेके लये हर समय उ सुक रहा करते थे। अब वे चारा लेकर अपने घ सलेके
पास आये ।।६४।। कबूतरीने दे खा क उसके न ह-न ह ब चे, उसके दयके टु कड़े जालम
फँसे ए ह और ःखसे च-च कर रहे ह। उ ह ऐसी थ तम दे खकर कबूतरीके ःखक सीमा
न रही। वह रोती- च लाती उनके पास दौड़ गयी ।।६५।।
भगवान्क मायासे उसका च अ य त द न- ःखी हो रहा था। वह उमड़ते ए नेहक
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र सीसे जकड़ी ई थी; अपने ब च को जालम फँसा दे खकर उसे अपने शरीरक भी सुध-
बुध न रही। और वह वयं ही जाकर जालम फँस गयी ।।६६।। जब कबूतरने दे खा क मेरे
ाण से भी यारे ब चे जालम फँस गये और मेरी ाण या प नी भी उसी दशाम प ँच गयी,
तब वह अ य त ः खत होकर वलाप करने लगा। सचमुच उस समय उसक दशा अ य त
दयनीय थी ।।६७।। ‘म अभागा ँ, म त ।ँ हाय, हाय! मेरा तो स यानाश हो गया। दे खो,
दे खो, न मुझे अभी तृ त ई और न मेरी आशाएँ ही पूरी । तबतक मेरा धम, अथ और
कामका मूल यह गृह था म ही न हो गया ।।६८।। हाय! मेरी ाण यारी मुझे ही अपना
इ दे व समझती थी; मेरी एक-एक बात मानती थी, मेरे इशारेपर नाचती थी, सब तरहसे मेरे
यो य थी। आज वह मुझे सूने घरम छोड़कर हमारे सीधे-सादे न छल ब च के साथ वग
सधार रही है ।।६९।। मेरे ब चे मर गये। मेरी प नी जाती रही। मेरा अब संसारम या काम
है? मुझ द नका यह वधुर जीवन— बना गृ हणीका जीवन जलनका— थाका जीवन है।
अब म इस सूने घरम कसके लये जीऊँ? ।।७०।। राजन्! कबूतरके ब चे जालम फँसकर
तड़फड़ा रहे थे, प द ख रहा था क वे मौतके पंजेम ह, पर तु वह मूख कबूतर यह सब
दे खते ए भी इतना द न हो रहा था क वयं जान-बूझकर जालम कूद पड़ा ।।७१।। राजन्!
वह बहे लया बड़ा ू र था। गृह था मी कबूतर-कबूतरी और उनके ब च के मल जानेसे उसे
बड़ी स ता ई; उसने समझा मेरा काम बन गया और वह उ ह लेकर चलता बना ।।७२।।
जो कुटु बी है, वषय और लोग के संग-साथम ही जसे सुख मलता है एवं अपने कुटु बके
भरण-पोषणम ही जो सारी सुध-बुध खो बैठा है, उसे कभी शा त नह मल सकती। वह
उसी कबूतरके समान अपने कुटु बके साथ क पाता है ।।७३।। यह मनु य-शरीर मु का
खुला आ ार है। इसे पाकर भी जो कबूतरक तरह अपनी घर-गृह थीम ही फँसा आ है,
वह ब त ऊँचेतक चढ़कर गर रहा है। शा क भाषाम वह ‘आ ढ़ युत’ है ।।७४।।

अहो मे प यतापायम पपु य य मतेः ।


अतृ त याकृताथ य गृह ैव गको हतः ।।६८

अनु पानुकूला च य य मे प तदे वता ।


शू ये गृहे मां स य य पु ैः वया त साधु भः ।।६९

सोऽहं शू ये गृहे द नो मृतदारो मृत जः ।


जजी वषे कमथ वा वधुरो ःखजी वतः ।।७०

तां तथैवावृता छ भमृ यु तान् वचे तः ।


वयं च कृपणः श ु प य यबुधोऽपतत् ।।७१

तं ल वा लु धकः ू रः कपोतं गृहमे धनम् ।

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कपोतकान् कपोत च स ाथः ययौ गृहम् ।।७२

एवं कुटु यशा ता मा ारामः पत वत् ।


पु णन् कुटु बं कृपणः सानुब धोऽवसीद त ।।७३

यः ा य मानुषं लोकं मु ारमपावृतम् ।


गृहेषु खगवत् स तमा ढ युतं व ः ।।७४
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायामेकादश क धे स तमोऽ यायः ।।७।।

* व हत कम। † व हत कमका लोप। ‡ न ष कम।


* अनुस धानके दो कार ह—(१) एक व काश त वके बना बु आ द जड
पदाथ का काश नह हो सकता। इस कार अथाप के ारा और (२) जैसे बसूला आ द
औजार कसी कताके ारा यु होते ह। इसी कार यह बु आ द औजार कसी कताके
ारा ही यु हो रहे ह। पर तु इसका यह अथ नह है क आ मा आनुमा नक है। यह तो
दे हा दसे वल ण वम् पदाथके शोधनक यु मा है।

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अथा मोऽ यायः
अवधूतोपा यान—अजगरसे लेकर पगलातक नौ गु क कथा
ा ण उवाच
सुखमै यकं राजन् वग नरक एव च ।
दे हनां यद् यथा ःखं त मा े छे त तद् बुधः ।।१

ासं सुमृ ं वरसं महा तं तोकमेव वा ।


य छयैवाप ततं सेदाजगरोऽ यः ।।२

शयीताहा न भूरी ण नराहारोऽनुप मः ।


य द नोपनमेद ् ासो महा ह रव द भुक् ।।३

ओजःसहोबलयुतं ब द् दे हमकमकम् ।
शयानो वीत न नेहत
े े यवान प ।।४

मु नः स ग भीरो वगा ो र ययः ।


अन तपारो ो यः त मतोद इवाणवः ।।५

समृ कामो हीनो वा नारायणपरो मु नः ।


नो सपत न शु येत स र रव सागरः ।।६
अवधूत द ा ेयजी कहते ह—राजन्! ा णय को जैसे बना इ छाके, बना कसी
य नके, रोकनेक चे ा करनेपर भी पूवकमानुसार ःख ा त होते ह, वैसे ही वगम या
नरकम—कह भी रह, उ ह इ यस ब धी सुख भी ा त होते ही ह। इस लये सुख और
ःखका रह य जाननेवाले बु मान् पु षको चा हये क इनके लये इ छा अथवा कसी
कारका य न न करे ।।१।। बना माँगे, बना इ छा कये वयं ही अनायास जो कुछ मल
जाय—वह चाहे खा-सूखा हो, चाहे ब त मधुर और वा द , अ धक हो या थोड़ा—
बु मान् पु ष अजगरके समान उसे ही खाकर जीवन- नवाह कर ले और उदासीन
रहे ।।२।। य द भोजन न मले तो उसे भी ार ध-भोग समझकर कसी कारक चे ा न
करे, ब त दन तक भूखा ही पड़ा रहे। उसे चा हये क अजगरके समान केवल ार धके
अनुसार ा त ए भोजनम ही स तु रहे ।।३।। उसके शरीरम मनोबल, इ यबल और
दे हबल तीन ह तब भी वह न े ही रहे। न ार हत होनेपर भी सोया आ-सा रहे और
कम य के होनेपर भी उनसे कोई चे ा न करे। राजन्! मने अजगरसे यही श ा हण क
है ।।४।।
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समु से मने यह सीखा है क साधकको सवदा स और ग भीर रहना चा हये, उसका
भाव अथाह, अपार और असीम होना चा हये तथा कसी भी न म से उसे ोभ न होना
चा हये। उसे ठ क वैसे ही रहना चा हये, जैसे वार-भाटे और तरंग से र हत शा त
समु ।।५।। दे खो, समु वषाऋतुम न दय क बाढ़के कारण बढ़ता नह और न ी म-ऋतुम
घटता ही है; वैसे ही भगव परायण साधकको भी सांसा रक पदाथ क ा तसे फु लत न
होना चा हये और न उनके घटनेसे उदास ही होना चा हये ।।६।।

् वा यं दे वमायां त ावैर जते यः ।


लो भतः पत य धे तम य नौ पतंगवत् ।।७

यो ष र याभरणा बरा द-
ेषु मायार चतेषु मूढः ।
लो भता मा पभोगबु या
पतंगव य त न ः ।।८

तोकं तोकं सेद ् ासं दे हो वतत यावता ।


गृहान हस ा त ेद ् वृ माधुकर मु नः ।।९

अणु य महद् य शा े यः कुशलो नरः ।


सवतः सारमाद ात् पु पे य इव षट् पदः ।।१०

साय तनं तनं वा न संगृ त भ तम् ।


पा णपा ोदराम ो म केव न सङ् ही ।।११

साय तनं तनं वा न संगृ त भ ुकः ।


म का इव संगृ न् सह तेन वन य त ।।१२
राजन्! मने प तगेसे यह श ा हण क है क जैसे वह पपर मो हत होकर आगम
कूद पड़ता है और जल मरता है, वैसे ही अपनी इ य को वशम न रखनेवाला पु ष जब
ीको दे खता है तो उसके हाव-भावपर ल हो जाता है और घोर अ धकारम, नरकम
गरकर अपना स यानाश कर लेता है। सचमुच ी दे वता क वह माया है, जससे जीव
भगवान् या मो क ा तसे व चत रह जाता है ।।७।। जो मूढ़ का मनी-कंचन, गहने-कपड़े
आ द नाशवान् मा यक पदाथ म फँसा आ है और जसक स पूण च वृ उनके
उपभोगके लये ही लाला यत है, वह अपनी ववेकबु खोकर प तगेके समान न हो जाता
है ।।८।।
राजन्! सं यासीको चा हये क गृह थ को कसी कारका क न दे कर भ रेक तरह
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अपना जीवन- नवाह करे। वह अपने शरीरके लये उपयोगी रोट के कुछ टु कड़े कई घर से
माँग ले* ।।९।। जस कार भ रा व भ पु प से—चाहे वे छोटे ह या बड़े—उनका सार
सं ह करता है, वैसे ही बु मान् पु षको चा हये क छोटे -बड़े सभी शा से उनका सार—
उनका रस नचोड़ ले ।।१०।। राजन्! मने मधुम खीसे यह श ा हण क है क
सं यासीको सायंकाल अथवा सरे दनके लये भ ाका सं ह न करना चा हये। उसके पास
भ ा लेनेको कोई पा हो तो केवल हाथ और रखनेके लये कोई बतन हो तो पेट। वह कह
सं ह न कर बैठे, नह तो मधुम खय के समान उसका जीवन ही भर हो जायगा ।।११।।
यह बात खूब समझ लेनी चा हये क सं यासी सबेर-े शामके लये कसी कारका सं ह न
करे; य द सं ह करेगा तो मधुम खय के समान अपने सं हके साथ ही जीवन भी गँवा
बैठेगा ।।१२।।

पदा प युवत भ ुन पृशेद ् दारवीम प ।


पृशन् करीव ब येत क र या अंगसंगतः ।।१३

ना धग छे त् यं ा ः क ह च मृ युमा मनः ।
बला धकैः स ह येत गजैर यैगजो यथा ।।१४

न दे यं नोपभो यं च लु धैयद् ःखसं चतम् ।


भुङ् े तद प त चा यो मधुहेवाथ व मधु ।।१५

सु ःखोपा जतै व रै ाशासानां गृहा शषः ।


मधुहेवा तो भुङ् े य तव गृहमे धनाम् ।।१६

ा यगीतं न शृणुयाद् य तवनचरः व चत् ।


श ेत ह रणाद् ब ा मृगयोग तमो हतात् ।।१७

नृ यवा द गीता न जुषन् ा या ण यो षताम् ।


आसां डनको व य ऋ यशृंगो मृगीसुतः ।।१८
राजन्! मने हाथीसे यह सीखा क सं यासीको कभी पैरसे भी काठक बनी ई ीका
भी पश न करना चा हये। य द वह ऐसा करेगा तो जैसे ह थनीके अंग-संगसे हाथी बँध जाता
है, वैसे ही वह भी बँध जायगा* ।।१३।। ववेक पु ष कसी भी ीको कभी भी भो य पसे
वीकार न करे; य क यह उसक मू तमती मृ यु है। य द वह वीकार करेगा तो हा थय से
हाथीक तरह अ धक बलवान् अ य पु ष के ारा मारा जायगा ।।१४।।
मने मधु नकालनेवाले पु षसे यह श ा हण क है क संसारके लोभी पु ष बड़ी
क ठनाईसे धनका संचय तो करते रहते ह, क तु वह सं चत धन न कसीको दान करते ह
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और न वयं उसका उपभोग ही करते ह। बस, जैसे मधु नकालनेवाला मधुम खय ारा
सं चत रसको नकाल ले जाता है वैसे ही उनके सं चत धनको भी उसक टोह रखनेवाला
कोई सरा पु ष ही भोगता है ।।१५।।
तुम दे खते हो न क मधुहारी मधुम खय का जोड़ा आ मधु उनके खानेसे पहले ही
साफ कर जाता है; वैसे ही गृह थ के ब त क ठनाईसे सं चत कये पदाथ को, जनसे वे
सुखभोगक अ भलाषा रखते ह, उनसे भी पहले सं यासी और चारी भोगते ह। य क
गृह थ तो पहले अ त थ-अ यागत को भोजन कराकर ही वयं भोजन करेगा ।।१६।।
मने ह रनसे यह सीखा है क वनवासी सं यासीको कभी वषय-स ब धी गीत नह सुनने
चा हये। वह इस बातक श ा उस ह रनसे हण करे जो ाधके गीतसे मो हत होकर बँध
जाता है ।।१७।। तु ह इस बातका पता है क ह रनीके गभसे पैदा ए ऋ यशृंग मु न
य का वषय-स ब धी गाना-बजाना, नाचना आ द दे ख-सुनकर उनके वशम हो गये थे
और उनके हाथक कठपुतली बन गये थे ।।१८।।

ज या त मा थ या जनो रस वमो हतः ।


मृ युमृ छ यसद्बु म न तु ब डशैयथा ।।१९

इ या ण जय याशु नराहारा मनी षणः ।


वज य वा तु रसनं त र य वधते ।।२०

ताव जते यो न याद् व जता ये यः पुमान् ।


न जयेद ् रसनं याव जतं सव जते रसे ।।२१

पगला नाम वे याऽऽसीद् वदे हनगरे पुरा ।


त या मे श तं क च बोध नृपन दन ।।२२

सा वै र येकदा का तं संकेत उपने यती ।


अभूत् काले ब ह ा र ब ती पमु मम् ।।२३

माग आग छतो वी य पु षान् पु षषभ ।


ता छु कदान् व वतः का तान् मेनेऽथकामुका ।।२४

आगते वपयातेषु सा संकेतोपजी वनी ।


अ य यो व वान् कोऽ प मामुपै य त भू रदः ।।२५

एवं राशया व त न ा ायवल बती ।

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नग छ ती वशती नशीथं समप त ।।२६
अब म तु ह मछलीक सीख सुनाता ँ। जैसे मछली काँटेम लगे ए मांसके टु कड़ेके
लोभसे अपने ाण गँवा दे ती है, वैसे ही वादका लोभी बु मनु य भी मनको मथकर
ाकुल कर दे नेवाली अपनी ज ाके वशम हो जाता है और मारा जाता है ।।१९।। ववेक
पु ष भोजन बंद करके सरी इ य पर तो ब त शी वजय ा त कर लेते ह, पर तु इससे
उनक रसना-इ य वशम नह होती। वह तो भोजन बंद कर दे नेसे और भी बल हो जाती
है ।।२०।। मनु य और सब इ य पर वजय ा त कर लेनेपर भी तबतक जते य नह हो
सकता, जबतक रसने यको अपने वशम नह कर लेता। और य द रसने यको वशम कर
लया, तब तो मानो सभी इ याँ वशम हो गय ।।२१।।
नृपन दन! ाचीन कालक बात है, वदे हनगरी म थलाम एक वे या रहती थी। उसका
नाम था पगला। मने उससे जो कुछ श ा हण क , वह म तु ह सुनाता ँ; सावधान होकर
सुनो ।।२२।। वह वे छाचा रणी तो थी ही, पवती भी थी। एक दन रा के समय कसी
पु षको अपने रमण थानम लानेके लये खूब बन-ठनकर—उ म व ाभूषण से सजकर
ब त दे रतक अपने घरके बाहरी दरवाजेपर खड़ी रही ।।२३।। नरर न! उसे पु षक नह ,
धनक कामना थी और उसके मनम यह कामना इतनी ढ़मूल हो गयी थी क वह कसी भी
पु षको उधरसे आते-जाते दे खकर यही सोचती क यह कोई धनी है और मुझे धन दे कर
उपभोग करनेके लये ही आ रहा है ।।२४।।
जब आने-जानेवाले आगे बढ़ जाते, तब फर वह संकेतजी वनी वे या यही सोचती क
अव य ही अबक बार कोई ऐसा धनी मेरे पास आवेगा जो मुझे ब त-सा धन दे गा ।।२५।।
उसके च क यह राशा बढ़ती ही जाती थी। वह दरवाजेपर ब त दे रतक टँ गी रही। उसक
न द भी जाती रही। वह कभी बाहर आती तो कभी भीतर जाती। इस कार आधी रात हो
गयी ।।२६।।

त या व ाशया शु य ाया द नचेतसः ।


नवदः परमो ज े च ताहेतुः सुखावहः ।।२७

त या न व ण च ाया गीतं शृणु यथा मम ।


नवद आशापाशानां पु ष य यथा सः ।।२८

न ंगा जात नवदो दे हब धं जहास त ।


यथा व ानर हतो मनुजो ममतां नृप ।।२९
पगलोवाच
अहो मे मोह वत त प यता व जता मनः ।
या का तादसतः कामं कामये येन बा लशा ।।३०
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स तं समीपे रमणं र त दं
व दं न य ममं वहाय ।
अकामदं ःखभया धशोक-
मोह दं तु छमहं भजेऽ ा ।।३१

अहो मयाऽऽ मा प रता पतो वृथा


सांके यवृ या त वग वातया ।
ैणा राद् याथतृषोऽनुशो यात्
तेन व ं र तमा मने छती ।।३२
राजन्! सचमुच आशा और सो भी धनक —ब त बुरी है। धनीक बाट जोहते-जोहते
उसका मुँह सूख गया, च ाकुल हो गया। अब उसे इस वृ से बड़ा वैरा य आ। उसम
ःख-बु हो गयी। इसम स दे ह नह क इस वैरा यका कारण च ता ही थी। पर तु ऐसा
वैरा य भी है तो सुखका ही हेतु ।।२७।। जब पगलाके च म इस कार वैरा यक भावना
जा त् ई, तब उसने एक गीत गाया। वह म तु ह सुनाता ँ। राजन्! मनु य आशाक
फाँसीपर लटक रहा है। इसको तलवारक तरह काटनेवाली य द कोई व तु है तो वह केवल
वैरा य है ।।२८।। य राजन्! जसे वैरा य नह आ है, जो इन बखेड़ से ऊबा नह है, वह
शरीर और इसके ब धनसे उसी कार मु नह होना चाहता, जैसे अ ानी पु ष ममता
छोड़नेक इ छा भी नह करता ।।२९।।
पगलाने यह गीत गाया था—हाय! हाय! म इ य के अधीन हो गयी। भला! मेरे
मोहका व तार तो दे खो, म इन पु ष से, जनका कोई अ त व ही नह है, वषयसुखक
लालसा करती ँ। कतने ःखक बात है! म सचमुच मूख ँ ।।३०।। दे खो तो सही, मेरे
नकट-से- नकट दयम ही मेरे स चे वामी भगवान् वराजमान ह। वे वा त वक ेम, सुख
और परमाथका स चा धन भी दे नेवाले ह। जगत्के पु ष अ न य ह और वे न य ह। हाय!
हाय! मने उनको तो छोड़ दया और उन तु छ मनु य का सेवन कया जो मेरी एक भी
कामना पूरी नह कर सकते; उलटे ःख-भय, आ ध- ा ध, शोक और मोह ही दे ते ह। यह
मेरी मूखताक हद है क म उनका सेवन करती ँ ।।३१।। बड़े खेदक बात है, मने अ य त
न दनीय आजी वका वे यावृ का आ य लया और थम अपने शरीर और मनको लेश
दया, पीड़ा प ँचायी। मेरा यह शरीर बक गया है। ल पट, लोभी और न दनीय मनु य ने इसे
खरीद लया है और म इतनी मूख ँ क इसी शरीरसे धन और र त-सुख चाहती ँ। मुझे
ध कार है! ।।३२।।

यद थ भ न मतवंशवं य-
थूणं वचा रोमनखैः पन म् ।
र व ारमगारमेतद्
व मू पूण म पै त का या ।।३३
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वदे हानां पुरे म हमेकैव मूढधीः ।
या य म छ यस य मादा मदात् कामम युतात् ।।३४

सु त् े तमो नाथ आ मा चायं शरी रणाम् ।


तं व या मनैवाहं रमेऽनेन यथा रमा ।।३५

कयत् यं ते भजन् कामा ये कामदा नराः ।


आ तव तो भायाया दे वा वा काल व ताः ।।३६

नूनं मे भगवान् ीतो व णुः केना प कमणा ।


नवदोऽयं राशाया य मे जातः सुखावहः ।।३७

मैवं युम दभा यायाः लेशा नवदहेतवः ।


येनानुब धं न य पु षः शममृ छ त ।।३८

तेनोपकृतमादाय शरसा ा यसंगताः ।


य वा राशाः शरणं जा म तमधी रम् ।।३९

स तु ा ध येत थालाभेन जीवती ।


वहरा यमुनैवाहमा मना रमणेन वै ।।४०
यह शरीर एक घर है। इसम ह य के टे ढ़े- तरछे बाँस और खंभे लगे ए ह; चाम, रोएँ
और नाखून से यह छाया गया है। इसम नौ दरवाजे ह, जनसे मल नकलते ही रहते ह। इसम
सं चत स प के नामपर केवल मल और मू ह। मेरे अ त र ऐसी कौन ी है जो इस
थूल शरीरको अपना य समझकर सेवन करेगी ।।३३।। य तो यह वदे ह क —
जीव मु क नगरी है, पर तु इसम म ही सबसे मूख और ँ; य क अकेली म ही तो
आ मदानी, अ वनाशी एवं परम यतम परमा माको छोड़कर सरे पु षक अ भलाषा
करती ँ ।।३४।। मेरे दयम वराजमान भु, सम त ा णय के हतैषी, सु द्, यतम,
वामी और आ मा ह। अब म अपने-आपको दे कर इ ह खरीद लूँगी और इनके साथ वैसे ही
वहार क ँ गी, जैसे ल मीजी करती ह ।।३५।। मेरे मूख च ! तू बतला तो सही, जगत्के
वषयभोग ने और उनको दे नेवाले पु ष ने तुझे कतना सुख दया है। अरे! वे तो वयं ही पैदा
होते और मरते रहते ह। म केवल अपनी ही बात नह कहती, केवल मनु य क भी नह ; या
दे वता ने भी भोग के ारा अपनी प नय को स तु कया है? वे बेचारे तो वयं कालके
गालम पड़े-पड़े कराह रहे ह ।।३६।। अव य ही मेरे कसी शुभकमसे व णुभगवान् मुझपर
स ह, तभी तो राशासे मुझे इस कार वैरा य आ है। अव य ही मेरा यह वैरा य सुख
दे नेवाला होगा ।।३७।। य द म म दभा गनी होती तो मुझे ऐसे ःख ही न उठाने पड़ते, जनसे
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वैरा य होता है। मनु य वैरा यके ारा ही घर आ दके सब ब धन को काटकर शा त-लाभ
करता है ।।३८।। अब म भगवान्का यह उपकार आदरपूवक सर झुकाकर वीकार करती ँ
और वषयभोग क राशा छोड़कर उ ह जगद रक शरण हण करती ँ ।।३९।। अब
मुझे ार धके अनुसार जो कुछ मल जायगा उसीसे नवाह कर लूँगी और बड़े स तोष तथा
ाके साथ र ँगी। म अब कसी सरे पु षक ओर न ताककर अपने दये र,
आ म व प भुके साथ ही वहार क ँ गी ।।४०।। यह जीव संसारके कूएँम गरा आ है।
वषय ने इसे अंधा बना दया है, काल पी अजगरने इसे अपने मुँहम दबा रखा है। अब
भगवान्को छोड़कर इसक र ा करनेम सरा कौन समथ है ।।४१।। जस समय जीव
सम त वषय से वर हो जाता है, उस समय वह वयं ही अपनी र ा कर लेता है। इस लये
बड़ी सावधानीके साथ यह दे खते रहना चा हये क सारा जगत् काल पी अजगरसे त
है ।।४२।।

संसारकूपे प ततं वषयैमु षते णम् ।


तं काला हनाऽऽ मानं कोऽ य ातुमधी रः ।।४१

आ मैव ा मनो गो ता न व ेत यदा खलात् ।


अ म इदं प येद ् तं काला हना जगत् ।।४२
ा ण उवाच
एवं व सतम त राशां का ततषजाम् ।
छ वोपशममा थाय श यामुप ववेश सा ।।४३

आशा ह परमं ःखं नैरा यं परमं सुखम् ।


यथा स छ का ताशां सुखं सु वाप पगला ।।४४
अवधूत द ा ेयजी कहते ह—राजन्! पगला वे याने ऐसा न य करके अपने य
ध नय क राशा, उनसे मलनेक लालसाका प र याग कर दया और शा तभावसे जाकर
वह अपनी सेजपर सो रही ।।४३।। सचमुच आशा ही सबसे बड़ा ःख है और नराशा ही
सबसे बड़ा सुख है; य क पगला वे याने जब पु षक आशा याग द , तभी वह सुखसे सो
सक ।।४४।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायामेकादश क धेऽ मोऽ यायः ।।८।।

*नह तो एक ही कमलके ग धम आस आ मर जैसे रा के समय उसम बंद हो


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जानेसे न हो जाता है, उसी कार वादवासनासे एक ही गृह थका अ खानेसे उसके
सांस गक मोहम फँसकर य त भी न हो जायगा।
* हाथी पकड़नेवाले तनक से ढके ए गड् ढे पर कागजक ह थनी खड़ी कर दे ते ह। उसे

दे खकर हाथी वहाँ आता है और गड् ढे म गरकर फँस जाता है।

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अथ नवमोऽ यायः
अवधूतोपा यान—कुररसे लेकर भृंगीतक सात गु क कथा
ा ण उवाच
प र हो ह ःखाय यद् य यतमं नृणाम् ।
अन तं सुखमा ो त तद् व ान् य व कचनः ।।१

सा मषं कुररं ज नुब लनो ये नरा मषाः ।


तदा मषं प र य य स सुखं सम व दत ।।२

न मे मानावमानौ तो न च ता गेहपु णाम् ।


आ म ड आ मर त वचरामीह बालवत् ।।३
अवधूत द ा ेयजीने कहा—राजन्! मनु य को जो व तुएँ अ य त य लगती ह, उ ह
इकट् ठा करना ही उनके ःखका कारण है। जो बु मान् पु ष यह बात समझकर
अ कचनभावसे रहता है—शरीरक तो बात ही अलग, मनसे भी कसी व तुका सं ह नह
करता—उसे अन त सुख व प परमा माक ा त होती है ।।१।। एक कुररप ी अपनी
च चम मांसका टु कड़ा लये ए था। उस समय सरे बलवान् प ी, जनके पास मांस नह
था, उससे छ ननेके लये उसे घेरकर च च मारने लगे। जब कुररप ीने अपनी च चसे मांसका
टु कड़ा फक दया, तभी उसे सुख मला ।।२।।
मुझे मान या अपमानका कोई यान नह है और घर एवं प रवारवाल को जो च ता होती
है, वह मुझे नह है। म अपने आ माम ही रमता ँ और अपने साथ ही डा करता ँ। यह
श ा मने बालकसे ली है। अतः उसीके समान म भी मौजसे रहता ँ ।।३।। इस जगत्म दो
ही कारके न त और परमान दम म न रहते ह—एक तो भोलाभाला न े न हा-
सा बालक और सरा वह पु ष जो गुणातीत हो गया हो ।।४।।

ावेव च तया मु ौ परमान द आ लुतौ ।


यो वमु धो जडो बालो यो गुणे यः परं गतः ।।४

व चत् कुमारी वा मानं वृणानान् गृहमागतान् ।


वयं तानहयामास वा प यातेषु ब धुषु ।।५

तेषाम यवहाराथ शालीन् रह स पा थव ।


अव न याः को था ु ः शंखाः वनं महत् ।।६

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सा त जुगु सतं म वा महती ी डता ततः ।
बभंजैकैकशः शंखान् ौ ौ पा योरशेषयत् ।।७

उभयोर यभूद ् घोषो व न याः म शंखयोः ।


त ा येकं नर भददे क मा ाभवद् व नः ।।८

अ व श ममं त या उपदे शम र दम ।
लोकाननुचर ेताँ लोकत व व व सया ।।९

वासे ब नां कलहो भवेद ् वाता योर प ।


एक एव चरे मात् कुमाया इव कंकणः ।।१०

मन एक संयु या जत ासो जतासनः ।


वैरा या यासयोगेन यमाणमत तः ।।११

य मन् मनो ल धपदं यदे त-


छनैः शनैमुच त कमरेणून् ।
स वेन वृ े न रज तम
वधूय नवाणमुपै य न धनम् ।।१२
एक बार कसी कुमारी क याके घर उसे वरण करनेके लये कई लोग आये ए थे। उस
दन उसके घरके लोग कह बाहर गये ए थे। इस लये उसने वयं ही उनका आ त यस कार
कया ।।५।।
राजन्! उनको भोजन करानेके लये वह घरके भीतर एका तम धान कूटने लगी। उस
समय उसक कलाईम पड़ी शंखक चू ड़याँ जोर-जोरसे बज रही थ ।।६।। इस श दको
न दत समझकर कुमारीको बड़ी ल जा मालूम ई* और उसने एक-एक करके सब चू ड़याँ
तोड़ डाली और दोन हाथ म केवल दो-दो चू ड़याँ रहने द ।।७।। अब वह फर धान कूटने
लगी। पर तु वे दो-दो चू ड़याँ भी बजने लग , तब उसने एक-एक चूड़ी और तोड़ द । जब
दोन कलाइय म केवल एक-एक चूड़ी रह गयी तब कसी कारक आवाज नह ई ।।८।।
रपुदमन! उस समय लोग का आचार- वचार नरखने-परखनेके लये इधर-उधर घूमता-
घामता म भी वहाँ प ँच गया था। मने उससे यह श ा हण क क जब ब त लोग एक
साथ रहते ह तब कलह होता है और दो आदमी साथ रहते ह तब भी बातचीत तो होती ही है;
इस लये कुमारी क याक चूड़ीके समान अकेले ही वचरना चा हये ।।९-१०।।
राजन्! मने बाण बनानेवालेसे यह सीखा है क आसन और ासको जीतकर वैरा य
और अ यासके ारा अपने मनको वशम कर ले और फर बड़ी सावधानीके साथ उसे एक
ल यम लगा दे ।।११।। जब परमान द व प परमा माम मन थर हो जाता है तब वह धीरे-
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धीरे कमवासना ती धूलको धो बहाता है। स वगुणक वृ से रजोगुणी और तमोगुणी
वृ य का याग करके मन वैसे ही शा त हो जाता है, जैसे धनके बना अ न ।।१२।। इस
कार जसका च अपने आ माम ही थर— न हो जाता है, उसे बाहर-भीतर कह
कसी पदाथका भान नह होता। मने दे खा था क एक बाण बनानेवाला कारीगर बाण
बनानेम इतना त मय हो रहा था क उसके पाससे ही दलबलके साथ राजाक सवारी नकल
गयी और उसे पतातक न चला ।।१३।।

तदै वमा म यव च ो
न वेद क चद् ब हर तरं वा ।
यथेषुकारो नृप त ज त-
मषौ गता मा न ददश पा ।।१३

एकचाय नकेतः याद म ो गुहाशयः ।


अल यमाण आचारैमु नरेकोऽ पभाषणः ।।१४

गृहार भोऽ त ःखाय वफल ा ुवा मनः ।


सपः परकृतं वे म व य सुखमेधते ।।१५

एको नारायणो दे वः पूवसृ ं वमायया ।


सं य कालकलया क पा त इदमी रः ।।१६

एक एवा तीयोऽभूदा माधारोऽ खला यः ।


कालेना मानुभावेन सा यं नीतासु श षु ।
स वा द वा दपु षः धानपु षे रः ।।१७

परावराणां परम आ ते कैव यसं तः ।


केवलानुभवान दस दोहो न पा धकः ।।१८

केवला मानुभावेन वमायां गुणा मकाम् ।


सं ोभयन् सृज यादौ तया सू म र दम ।।१९
राजन्! मने साँपसे यह श ा हण क है क सं यासीको सपक भाँ त अकेले ही
वचरण करना चा हये, उसे म डली नह बाँधनी चा हये, मठ तो बनाना ही नह चा हये। वह
एक थानम न रहे, माद न करे, गुहा आ दम पड़ा रहे, बाहरी आचार से पहचाना न जाय।
कसीसे सहायता न ले और ब त कम बोले ।।१४।। इस अ न य शरीरके लये घर बनानेके
बखेड़ेम पड़ना थ और ःखक जड़ है। साँप सर के बनाये घरम घुसकर बड़े आरामसे
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अपना समय काटता है ।।१५।।
अब मकड़ीसे ली ई श ा सुनो। सबके काशक और अ तयामी सवश मान्
भगवान्ने पूवक पम बना कसी अ य सहायकके अपनी ही मायासे रचे ए जगत्को
क पके अ तम ( लयकाल उप थत होनेपर) कालश के ारा न कर दया—उसे
अपनेम लीन कर लया और सजातीय, वजातीय तथा वगतभेदसे शू य अकेले ही शेष रह
गये। वे सबके अ ध ान ह, सबके आ य ह; पर तु वयं अपने आ य—अपने ही आधारसे
रहते ह, उनका कोई सरा आधार नह है। वे कृ त और पु ष दोन के नयामक, काय और
कारणा मक जगत्के आ दकारण परमा मा अपनी श कालके भावसे स व-रज आ द
सम त श य को सा याव थाम प ँचा दे ते ह और वयं कैव य पसे एक और
अ तीय पसे वराजमान रहते ह। वे केवल अनुभव व प और आन दघन मा ह। कसी
भी कारक उपा धका उनसे स ब ध नह है। वे ही भु केवल अपनी श कालके ारा
अपनी गुणमयी मायाको ु ध करते ह और उससे पहले याश - धान सू (मह व)
क रचना करते ह। यह सू प मह व ही तीन गुण क पहली अ भ है, वही सब
कारक सृ का मूल कारण है। उसीम यह सारा व , सूतम ताने-बानेक तरह ओत ोत है
और इसीके कारण जीवको ज म-मृ युके च करम पड़ना पड़ता है ।।१६-२०।। जैसे मकड़ी
अपने दयसे मुँहके ारा जाला फैलाती है, उसीम वहार करती है और फर उसे नगल
जाती है, वैसे ही परमे र भी इस जगत्को अपनेमसे उ प करते ह, उसम जीव पसे वहार
करते ह और फर उसे अपनेम लीन कर लेते ह ।।२१।।

तामा गुण सृज त व तोमुखम् ।


य मन् ोत मदं व ं येन संसरते पुमान् ।।२०

यथोणना भ दया णा स त य व तः ।
तया व य भूय तां स येवं महे रः ।।२१

य य मनो दे ही धारयेत् सकलं धया ।


नेहाद् े षाद् भयाद् वा प या त त स पताम् ।।२२

क टः पेश कृतं यायन् कु ां तेन वे शतः ।


या त त सा मतां राजन् पूव पमस यजन् ।।२३

एवं गु य एते य एषा मे श ता म तः ।


वा मोप श तां बु शृणु मे वदतः भो ।।२४

दे हो गु मम वर ववेकहेत-ु

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ब त् म स व नधनं सतता युदकम् ।
त वा यनेन वमृशा म यथा तथा प
पार य म यव सतो वचरा यसंगः ।।२५

जाया मजाथपशुभृ यगृहा तवगान्


पु णा त य य चक षुतया वत वन् ।
राजन्! मने भृंगी ( बलनी) क ड़ेसे यह श ा हण क है क य द ाणी नेहसे, े षसे
अथवा भयसे भी जान-बूझकर एका पसे अपना मन कसीम लगा दे तो उसे उसी व तुका
व प ा त हो जाता है ।।२२।। राजन्! जैसे भृंगी एक क ड़ेको ले जाकर द वारपर अपने
रहनेक जगह बंद कर दे ता है और वह क ड़ा भयसे उसीका च तन करते-करते अपने पहले
शरीरका याग कये बना ही उसी शरीरसे त प ू हो जाता है* ।।२३।।
राजन्! इस कार मने इतने गु से ये श ाएँ हण क । अब मने अपने शरीरसे जो
कुछ सीखा है, वह तु ह बताता ँ, सावधान होकर सुनो ।।२४।। यह शरीर भी मेरा गु ही है;
य क यह मुझे ववेक और वैरा यक श ा दे ता है। मरना और जीना तो इसके साथ लगा
ही रहता है। इस शरीरको पकड़ रखनेका फल यह है क ःख-पर- ःख भोगते जाओ।
य प इस शरीरसे त व वचार करनेम सहायता मलती है, तथा प म इसे अपना कभी नह
समझता; सवदा यही न य रखता ँ क एक दन इसे सयार-कु े खा जायँग।े इसी लये म
इससे असंग होकर वचरता ँ ।।२५।। जीव जस शरीरका य करनेके लये ही अनेक
कारक कामनाएँ और कम करता है तथा ी-पु , धन-दौलत, हाथी-घोड़े, नौकर-चाकर,
घर- ार और भाई-ब धु का व तार करते ए उनके पालन-पोषणम लगा रहता है। बड़ी-
बड़ी क ठनाइयाँ सहकर धनसंचय करता है। आयु य पूरी होनेपर वही शरीर वयं तो न
होता ही है, वृ के समान सरे शरीरके लये बीज बोकर उसके लये भी ःखक व था
कर जाता है ।।२६।। जैसे ब त-सी सौत अपने एक प तको अपनी-अपनी ओर ख चती ह,
वैसे ही जीवको जीभ एक ओर— वा द पदाथ क ओर ख चती है तो यास सरी ओर—
जलक ओर; जनने य एक ओर— ीसंभोगक ओर ले जाना चाहती है तो वचा, पेट
और कान सरी ओर—कोमल पश, भोजन और मधुर श दक ओर ख चने लगते ह। नाक
कह सु दर ग ध सूँघनेके लये ले जाना चाहती है तो चंचल ने कह सरी ओर सु दर प
दे खनेके लये। इस कार कम याँ और ाने याँ दोन ही इसे सताती रहती ह ।।२७।।
वैसे तो भगवान्ने अपनी अ च य श मायासे वृ , सरीसृप (रगनेवाले ज तु) पशु, प ी,
डाँस और मछली आ द अनेक कारक यो नयाँ रच ; पर तु उनसे उ ह स तोष न आ। तब
उ ह ने मनु यशरीरक सृ क । यह ऐसी बु से यु है जो का सा ा कार कर सकती
है। इसक रचना करके वे ब त आन दत ए ।।२८।। य प यह मनु यशरीर है तो अ न य
ही—मृ यु सदा इसके पीछे लगी रहती है। पर तु इससे परमपु षाथक ा त हो सकती है;
इस लये अनेक ज म के बाद यह अ य त लभ मनु य-शरीर पाकर बु मान् पु षको
चा हये क शी -से-शी , मृ युके पहले ही मो - ा तका य न कर ले। इस जीवनका मु य
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उ े य मो ही है। वषय-भोग तो सभी यो नय म ा त हो सकते ह, इस लये उनके सं हम
यह अमू य जीवन नह खोना चा हये ।।२९।।

वा ते सकृ मव धनः स दे हः
सृ ् वा य बीजमवसीद त वृ धमा ।।२६

ज ै कतोऽमुमपकष त क ह तषा
श ोऽ यत वगुदरं वणं कुत त् ।
ाणोऽ यत पल क् व च कमश -
ब यः सप य इव गेहप त लुन त ।।२७

सृ ् वा पुरा ण व वधा यजयाऽऽ मश या


वृ ान् सरीसृपपशून् खगदं शम यान् ।
तै तैरतु दयः पु षं वधाय
ावलोक धषणं मुदमाप दे वः ।।२८

ल वा सु लभ मदं ब स भवा ते
मानु यमथदम न यमपीह धीरः ।
तूण यतेत न पतेदनुमृ यु याव-
ः ेयसाय वषयः खलु सवतः यात् ।।२९

एवं संजातवैरा यो व ानालोक आ म न ।


वचरा म महीमेतां मु संगोऽनहंकृ तः ।।३०
राजन्! यही सब सोच- वचारकर मुझे जगत्से वैरा य हो गया। मेरे दयम ान-
व ानक यो त जगमगाती रहती है। न तो कह मेरी आस है और न कह अहंकार ही।
अब म व छ द पसे इस पृ वीम वचरण करता ँ ।।३०।। राजन्! अकेले गु से ही यथे
और सु ढ़ बोध नह होता, उसके लये अपनी बु से भी ब त कुछ सोचने-समझनेक
आव यकता है। दे खो! ऋ षय ने एक ही अ तीय का अनेक कारसे गान कया है।
(य द तुम वयं वचारकर नणय न करोगे तो के वा त वक व पको कैसे जान
सकोगे?) ।।३१।।

न े माद् गुरो ानं सु थरं यात् सुपु कलम् ।



ैतद तीयं वै गीयते ब ध ष भः ।।३१
ीभगवानुवाच
इ यु वा स य ं व तमाम य गभीरधीः ।
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व दतोऽ य थतो रा ा ययौ ीतो यथागतम् ।।३२

अवधूतवचः ु वा पूवषां नः स पूवजः ।


सवसंग व नमु ः सम च ो बभूव ह ।।३३
भगवान् ीकृ णने कहा— यारे उ व! ग भीरबु अवधूत द ा ेयने राजा य को
इस कार उपदे श कया। य ने उनक पूजा और व दना क , द ा ेयजी उनसे अनुम त
लेकर बड़ी स तासे इ छानुसार पधार गये ।।३२।। हमारे पूवज के भी पूवज राजा य
अवधूत द ा ेयक यह बात सुनकर सम त आस य से छु टकारा पा गये और समदश हो
गये। (इसी कार तु ह भी सम त आस य का प र याग करके समदश हो जाना
चा हये) ।।३३।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायामेकादश क धे नवमोऽ यायः ।।९।।

* य क उससे उसका वयं धान कूटना सू चत होता था, जो क उसक र ताका


ोतक था।
* जब उसी शरीरसे च तन कये पक ा त हो जाती है; तब सरे शरीरसे तो कहना

ही या है? इस लये मनु यको अ य व तुका च तन न करके केवल परमा माका ही च तन


करना चा हये।

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अथ दशमोऽ यायः
लौ कक तथा पारलौ कक भोग क असारताका न पण
ीभगवानुवाच
मयो दते वव हतः वधमषु मदा यः ।
वणा मकुलाचारमकामा मा समाचरेत् ।।१

अ वी ेत वशु ा मा दे हनां वषया मनाम् ।


गुणेषु त व यानेन सवार भ वपययम् ।।२

सु त य वषयालोको यायतो वा मनोरथः ।


नान मक वाद् वफल तथा भेदा मधीगुणैः ।।३
भगवान् ीकृ ण कहते ह— यारे उ व! साधकको चा हये क सब तरहसे मेरी
शरणम रहकर (गीता-पा चरा आ दम) मेरे ारा उप द अपने धम का सावधानीसे पालन
करे। साथ ही जहाँतक उनसे वरोध न हो वहाँतक न कामभावसे अपने वण, आ म और
कुलके अनुसार सदाचारका भी अनु ान करे ।।१।। न काम होनेका उपाय यह है क
वधम का पालन करनेसे शु ए अपने च म यह वचार करे क जगत्के वषयी ाणी
श द, पश, प आ द वषय को स य समझकर उनक ा तके लये जो य न करते ह,
उसम उनका उ े य तो यह होता है क सुख मले, पर तु मलता है ःख ।।२।। इसके
स ब धम ऐसा वचार करना चा हये क व -अव थाम और मनोरथ करते समय जा त्-
अव थाम भी मनु य मन-ही-मन अनेक कारके वषय का अनुभव करता है, पर तु उसक
वह सारी क पना व तुशू य होनेके कारण थ है। वैसे ही इ य के ारा होनेवाली भेदबु
भी थ ही है, य क यह भी इ यज य और नाना व तु वषयक होनेके कारण पूववत्
अस य ही है ।।३।। जो पु ष मेरी शरणम है, उसे अ तमुख करनेवाले न काम अथवा
न यकम ही करने चा हये। उन कम का बलकुल प र याग कर दे ना चा हये जो ब हमुख
बनानेवाले अथवा सकाम ह । जब आ म ानक उ कट इ छा जाग उठे , तब तो कमस ब धी
व ध- वधान का भी आदर नह करना चा हये ।।४।। अ हसा आ द यम का तो आदरपूवक
सेवन करना चा हये, पर तु शौच (प व ता) आ द नयम का पालन श के अनुसार और
आ म ानके वरोधी न होनेपर ही करना चा हये। ज ासु पु षके लये यम और नयम के
पालनसे भी बढ़कर आव यक बात यह है क वह अपने गु क , जो मेरे व पको
जाननेवाले और शा त ह , मेरा ही व प समझकर सेवा करे ।।५।। श यको अ भमान न
करना चा हये। वह कभी कसीसे डाह न करे— कसीका बुरा न सोचे। वह येक कायम
कुशल हो—उसे आल य छू न जाय। उसे कह भी ममता न हो, गु के चरण म ढ़ अनुराग
हो। कोई काम हड़बड़ाकर न करे—उसे सावधानीसे पूरा करे। सदा परमाथके स ब धम ान
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ा त करनेक इ छा बनाये रखे। कसीके गुण म दोष न नकाले और थक बात न
करे ।।६।। ज ासुका परम धन है आ मा; इस लये वह ी-पु , घर-खेत, वजन और धन
आ द स पूण पदाथ म एक सम आ माको दे खे और कसीम कुछ वशेषताका आरोप करके
उससे ममता न करे, उदासीन रहे ।।७।। उ व! जैसे जलनेवाली लकड़ीसे उसे जलाने और
का शत करनेवाली आग सवथा अलग है। ठ क वैसे ही वचार करनेपर जान पड़ता है क
प चभूत का बना थूलशरीर और मन-बु आ द स ह त व का बना सू मशरीर दोन ही
य और जड ह। तथा उनको जानने और का शत करनेवाला आ मा सा ी एवं
वयं काश है। शरीर अ न य, अनेक एवं जड ह। आ मा न य, एक एवं चेतन है। इस कार
दे हक अपे ा आ माम महान् वल णता है। अतएव दे हसे आ मा भ है ।।८।। जब आग
लकड़ीम व लत होती है, तब लकड़ीके उ प - वनाश, बड़ाई-छोटाई और अनेकता आ द
सभी गुण वह वयं हण कर लेती है। पर तु सच पूछो, तो लकड़ीके उन गुण से आगका
कोई स ब ध नह है। वैसे ही जब आ मा अपनेको शरीर मान लेता है तब वह दे हके जडता,
अ न यता, थूलता, अनेकता आ द गुण से सवथा र हत होनेपर भी उनसे यु जान पड़ता
है ।।९।।

नवृ ं कम सेवेत वृ ं म पर यजेत् ।


ज ासायां सं वृ ो ना येत् कमचोदनाम् ।।४

यमानभी णं सेवेत नयमान् म परः व चत् ।


मद भ ं गु ं शा तमुपासीत मदा मकम् ।।५

अमा यम सरो द ो नममो ढसौ दः ।


अस वरोऽथ ज ासुरनसूयुरमोघवाक् ।।६

जायाप यगृह े वजन वणा दषु ।


उदासीनः समं प यन् सव वथ मवा मनः ।।७

वल णः थूलसू माद् दे हादा मे ता व क् ।


यथा नदा णो दा ाद् दाहकोऽ यः काशकः ।।८

नरोधो प यणुबृह ाना वं त कृतान् गुणान् ।


अ तः व आध एवं दे हगुणान् परः ।।९

योऽसौ गुणै वर चतो दे होऽयं पु ष य ह ।


संसार त ब धोऽयं पुंसो व ा छदा मनः ।।१०

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त मा ज ासयाऽऽ मानमा म थं केवलं परम् ।
संग य नरसेदेत तुबु यथा मम् ।।११

आचाय ऽर णरा ः याद तेवा यु रार णः ।


त स धानं वचनं व ास धः सुखावहः ।।१२
ई रके ारा नय त मायाके गुण ने ही सू म और थूलशरीरका नमाण कया है।
जीवको शरीर और शरीरको जीव समझ लेनेके कारण ही थूलशरीरके ज म-मरण और
सू मशरीरके आवागमनका आ मापर आरोप कया जाता है। जीवको ज म-मृ यु प संसार
इसी म अथवा अ यासके कारण ा त होता है। आ माके व पका ान होनेपर उसक
जड़ कट जाती है ।।१०।। यारे उ व! इस ज म-मृ यु प संसारका कोई सरा कारण नह ,
केवल अ ान ही मूल कारण है। इस लये अपने वा त वक व पको, आ माको जाननेक
इ छा करनी चा हये। अपना यह वा त वक व प सम त कृ त और ाकृत जगत्से
अतीत, ै तक ग धसे र हत एवं अपने-आपम ही थत है। उसका और कोई आधार नह है।
उसे जानकर धीरे-धीरे थूलशरीर, सू मशरीर आ दम जो स य वबु हो रही है उसे मशः
मटा दे ना चा हये ।।११।। (य म जब अर णम थन करके अ न उ प करते ह, तो उसम
नीचे-ऊपर दो लक ड़याँ रहती ह और बीचम म थनका रहता है; वैसे ही) व ा प
अ नक उ प के लये आचाय और श य तो नीचे-ऊपरक अर णयाँ ह तथा उपदे श
म थनका है। इनसे जो ाना न व लत होती है वह वल ण सुख दे नेवाली है। इस
य म बु मान् श य सद्गु के ारा जो अ य त वशु ान ा त करता है, वह गुण से
बनी ई वषय क मायाको भ म कर दे ता है। त प ात् वे गुण भी भ म हो जाते ह, जनसे
क यह संसार बना आ है। इस कार सबके भ म हो जानेपर जब आ माके अ त र और
कोइ व तु शेष नह रह जाती, तब वह ाना न भी ठ क वैसे ही अपने वा त वक व पम
शा त हो जाती है, जैसे स मधा न रहनेपर आग बुझ जाती है* ।।१२-१३।।

वैशारद सा त वशु बु -
धुनो त मायां गुणस सूताम् ।
गुणां स द यदा ममेतत्
वयं च शा य यस मद् यथा नः ।।१३

अथैषां कमकतॄणां भो ॄ णां सुख ःखयोः ।


नाना वमथ न य वं लोककालागमा मनाम् ।।१४

म यसे सवभावानां सं था ौ प क यथा ।


त दाकृ तभेदेन जायते भ ते च धीः ।।१५

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एवम यंग सवषां दे हनां दे हयोगतः ।
कालावयवतः स त भावा ज मादयोऽसकृत् ।।१६

अ ा प कमणां कतुर वात यं च ल यते ।


भो ु ःखसुखयोः को वथ ववशं भजेत् ।।१७
यारे उ व! य द तुम कदा चत् कम के कता और सुख- ख के भो ा जीव को अनेक
तथा जगत्, काल, वेद और आ मा को न य मानते हो; साथ ही सम त पदाथ क थ त
वाहसे न य और यथाथ वीकार करते हो तथा यह समझते हो क घट-पट आ द बा
आकृ तय के भेदसे उनके अनुसार ान ही उ प होता और बदलता रहता है; तो ऐसे मतके
माननेसे बड़ा अनथ हो जायगा। ( य क इस कार जगत्के कता आ माक न य स ा और
ज म-मृ युके च करसे मु भी स न हो सकेगी।) य द कदा चत् ऐसा वीकार भी कर
लया जाय तो दे ह और संव सरा द कालावयव के स ब धसे होनेवाली जीव क ज म-मरण
आ द अव थाएँ भी न य होनेके कारण र न हो सकगी; य क तुम दे हा द पदाथ और
कालक न यता वीकार करते हो। इसके सवा, यहाँ भी कम का कता तथा सुख- ःखका
भो ा जीव परत ही दखायी दे ता है; य द वह वत हो तो ःखका फल य भोगना
चाहेगा? इस कार सुख-भोगक सम या सुलझ जानेपर भी ःख-भोगक सम या तो
उलझी ही रहेगी। अतः इस मतके अनुसार जीवको कभी मु या वत ता ा त न हो
सकेगी। जब जीव व पतः परत है, ववश है, तब तो वाथ या परमाथ कोइ भी उसका
सेवन न करेगा। अथात् वह वाथ और परमाथ दोन से ही व चत रह जायगा ।।१४-१७।।
(य द यह कहा जाय क जो भलीभाँ त कम करना जानते ह, वे सुखी रहते ह, और जो नह
जानते उ ह ःख भोगना पड़ता है तो यह कहना भी ठ क नह ; य क) ऐसा दे खा जाता है
क बड़े-बड़े कमकुशल व ान को भी कुछ सुख नह मलता और मूढ़ का भी कभी ःखसे
पाला नह पड़ता। इस लये जो लोग अपनी बु या कमसे सुख पानेका घमंड करते ह,
उनका वह अ भमान थ है ।।१८।। य द यह वीकार कर लया जाय क वे लोग सुखक
ा त और ःखके नाशका ठ क-ठ क उपाय जानते ह, तो भी यह तो मानना ही पड़ेगा क
उ ह भी ऐसे उपायका पता नह है, जससे मृ यु उनके ऊपर कोई भाव न डाल सके और वे
कभी मर ही नह ।।१९।। जब मृ यु उनके सरपर नाच रही है तब ऐसी कौन-सी भोग-
साम ी या भोग-कामना है जो उ ह सुखी कर सके? भला, जस मनु यको फाँसीपर
लटकानेके लये वध थानपर ले जाया जा रहा है, उसे या फूल-च दन- ी आ द पदाथ
स तु कर सकते ह? कदा प नह । (अतः पूव मत माननेवाल क से न सुख ही स
होगा और न जीवका कुछ पु षाथ ही रहेगा) ।।२०।।

न दे हनां सुखं क चद् व ते व षाम प ।


तथा च ःखं मूढानां वृथाहंकरणं परम् ।।१८

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य द ा तं वघातं च जान त सुख ःखयोः ।
तेऽ य ा न व य गं मृ युन भवेद ् यथा ।।१९

को वथः सुखय येनं कामो वा मृ युर तके ।


आघातं नीयमान य व य येव न तु दः ।।२०

ुतं च वद् ं पधासूया यय यैः ।


ब तरायकाम वात् कृ षव चा प न फलम् ।।२१

अ तरायैर वहतो य द धमः वनु तः ।


तेना प न जतं थानं यथा ग छ त त छृ णु ।।२२
यारे उ व! लौ कक सुखके समान पार-लौ कक सुख भी दोषयु ही है; य क वहाँ
भी बराबरीवाल से होड़ चलती है, अ धक सुख भोगने-वाल के त असूया होती है—उनके
गुण म दोष नकाला जाता है और छोट से घृणा होती है। त दन पु य ीण होनेके साथ ही
वहाँके सुख भी यके नकट प ँचते रहते ह और एक दन न हो जाते ह। वहाँक कामना
पूण होनेम भी यजमान, ऋ वज् और कम आ दक ु टय के कारण बड़े-बड़े व न क
स भावना रहती है। जैसे हरी-भरी खेती भी अ तवृ -अनावृ आ दके कारण न हो जाती
है, वैसे ही वग भी ा त होते-होते व न के कारण नह मल पाता ।।२१।। य द य -यागा द
धम बना कसी व नके पूरा हो जाय तो उसके ारा जो वगा द लोक मलते ह, उनक
ा तका कार म बतलाता ँ, सुनो ।।२२।। य करनेवाला पु ष य के ारा दे वता क
आराधना करके वगम जाता है और वहाँ अपने पु यकम के ारा उपा जत द भोग को
दे वता के समान भोगता है ।।२३।। उसे उसके पु य के अनुसार एक चमक ला वमान
मलता है और वह उसपर सवार होकर सुर-सु द रय के साथ वहार करता है। ग धवगण
उसके गुण का गान करते ह और उसके प-लाव यको दे खकर सर का मन लुभा जाता
है ।।२४।। उसका वमान वह जहाँ ले जाना चाहता है, वह चला जाता है और उसक घं टयाँ
घनघनाकर दशा को गुंजा रत करती ह। वह अ सरा के साथ न दनवन आ द
दे वता क वहार- थ लय म ड़ाएँ करते-करते इतना बेसुध हो जाता है क उसे इस
बातका पता ही नह चलता क अब मेरे पु य समा त हो जायँगे और म यहाँसे ढकेल दया
जाऊँगा ।।२५।। जबतक उसके पु य शेष रहते ह, तबतक वह वगम चैनक वंशी बजाता
रहता है; पर तु पु य ीण होते ही इ छा न रहनेपर भी उसे नीचे गरना पड़ता है, य क
कालक चाल ही ऐसी है ।।२६।।

इ ् वेह दे वता य ैः वल कं या त या कः ।
भुंजीत दे वव भोगान् द ान् नजा जतान् ।।२३

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वपु योप चते शु े वमान उपगीयते ।
ग धव वहरन् म ये दे वीनां वेषधृक् ।।२४

ी भः कामगयानेन क कणीजालमा लना ।


डन् न वेदा मपातं सुरा डेषु नवृतः ।।२५

तावत् मोदते वग यावत् पु यं समा यते ।


ीणपु यः पत यवाग न छन् कालचा लतः ।।२६

य धमरतः संगादसतां वा जते यः ।


कामा मा कृपणो लु धः ैणो भूत व हसकः ।।२७

पशून व धनाऽऽल य ेतभूतगणान् यजन् ।


नरकानवशो ज तुग वा या यु बणं तमः ।।२८

कमा ण ःखोदका ण कुवन् दे हेन तैः पुनः ।


दे हमाभजते त क सुखं म यध मणः ।।२९

लोकानां लोकपालानां म यं क पजी वनाम् ।


णोऽ प भयं म ो पराधपरायुषः ।।३०
य द कोई मनु य क संग तम पड़कर अधम-परायण हो जाय, अपनी इ य के
वशम होकर मनमानी करने लगे, लोभवश दाने-दानेम कृपणता करने लगे, ल पट हो जाय
अथवा ा णय को सताने लगे और व ध- व पशु क ब ल दे कर भूत और ेत क
उपासनाम लग जाय, तब तो वह पशु से भी गया-बीता हो जाता है और अव य ही नरकम
जाता है। उसे अ तम घोर अ धकार, वाथ और परमाथसे र हत अ ानम ही भटकना पड़ता
है ।।२७-२८।। जतने भी सकाम और ब हमुख करनेवाले कम ह, उनका फल ःख ही है।
जो जीव शरीरम अहंता-ममता करके उ ह म लग जाता है, उसे बार-बार ज म-पर-ज म और
म यु-पर-मृ यु ा त होती रहती है। ऐसी थ तम मृ युधमा जीवको या सुख हो सकता
है? ।।२९।।
सारे लोक और लोकपाल क आयु भी केवल एक क प है, इस लये मुझसे भयभीत
रहते ह। और क तो बात ही या, वयं ा भी मुझसे भयभीत रहते ह; य क उनक
आयु भी कालसे सी मत—केवल दो परा है ।।३०।। स व, रज और तम—ये तीन गुण
इ य को उनके कम म े रत करते ह और इ याँ कम करती ह। जीव अ ानवश स व,
रज आ द गुण और इ य को अपना व प मान बैठता है और उनके कये ए कम का
फल सुख- ःख भोगने लगता है ।।३१।। जबतक गुण क वषमता है अथात् शरीरा दम म
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और मेरेपनका अ भमान है; तभीतक आ माके एक वक अनुभू त नह होती—वह अनेक
जान पड़ता है; और जबतक आ माक अनेकता है, तबतक तो उ ह काल अथवा कम
कसीके अधीन रहना ही पड़ेगा ।।३२।। जबतक परत ता है, तबतक ई रसे भय बना ही
रहता है। जो म और मेरेपनके भावसे त रहकर आ माक अनेकता, परत ता आ द
मानते ह और वैरा य न हण करके ब हमुख करनेवाले कम का ही सेवन करते रहते ह, उ ह
शोक और मोहक ा त होती है ।।३३।। यारे उ व! जब मायाके गुण म ोभ होता है, तब
मुझ आ माको ही काल, जीव, वेद, लोक, वभाव और धम आ द अनेक नाम से न पण
करने लगते ह। (ये सब मायामय ह। वा त वक स य म आ मा ही ँ) ।।३४।।
गुणाः सृज त कमा ण गुणोऽनुसृजते गुणान् ।
जीव तु गुणसंयु ो भुङ् े कमफला यसौ ।।३१

यावत् याद् गुणवैष यं ताव ाना वमा मनः ।


नाना वमा मनो यावत् पारत यं तदै व ह ।।३२

यावद या वत वं तावद रतो भयम् ।


य एतत् समुपासीरं ते मु त शुचा पताः ।।३३

काल आ माऽऽगमो लोकः वभावो धम एव च ।


इ त मां ब धा ा गुण तकरे स त ।।३४
उ व उवाच
गुणेषु वतमानोऽ प दे हजे वनपावृतः ।
गुणैन ब यते दे ही ब यते वा कथं वभो ।।३५

कथं वतत वहरेत् कैवा ायेत ल णैः ।


क भुंजीतोत वसृजे छयीतासीत या त वा ।।३६

एतद युत मे ू ह ं वदां वर ।


न यमु ो न यब एक एवे त मे मः ।।३७
उ वजीने पूछा—भगवन्! यह जीव दे ह आ द प गुण म ही रह रहा है। फर दे हसे
होनेवाले कम या सुख- ःख आ द प फल म य नह बँधता है? अथवा यह आ मा
गुण से न ल त है, दे ह आ दके स पकसे सवथा र हत है, फर इसे ब धनक ा त कैसे
होती है? ।।३५।। ब अथवा मु पु ष कैसा बताव करता है, वह कैसे वहार करता है, या
वह कन ल ण से पहचाना जाता है, कैसे भोजन करता है? और मल- याग आ द कैसे
करता है? कैसे सोता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है? ।।३६।। अ युत! का मम
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जाननेवाल म आप े ह। इस लये आप मेरे इस का उ र द जये—एक ही आ मा
अना द गुण के संसगसे न यब भी मालूम पड़ता है और असंग होनेके कारण न यमु
भी। इस बातको लेकर मुझे म हो रहा है ।।३७।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायामेकादश क धे भगव वसंवादे
दशमोऽ यायः ।।१०।।

* यहाँतक यह बात प हो गयी क वयं काश ान व प न य एक ही आ मा है।


कतृ व, भो ृ व आ द धम दे हके कारण ह। आ माके अ त र जो कुछ है, सब अ न य और
मायामय है; इस लये आ म ान होते ही सम त वप य से मु मल जाती है।

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अथैकादशोऽ यायः
ब , मु और भ जन के ल ण
ीभगवानुवाच
ब ो मु इ त ा या गुणतो मे न व तुतः ।
गुण य मायामूल वा मे मो ो न ब धनम् ।।१

शोकमोहौ सुखं ःखं दे हाप मायया ।


व ो यथाऽऽ मनः या तः संसृ तन तु वा तवी ।।२

व ा व े मम तनू व यु व शरी रणाम् ।


मो ब धकरी आ े मायया मे व न मते ।।३

एक यैव ममांश य जीव यैव महामते ।


ब धोऽ या व याना द व या च तथेतरः ।।४

अथ ब य मु य वैल यं वदा म ते ।
व ध मणो तात थतयोरेकध म ण ।।५

सुपणावेतौ स शौ सखायौ
य छयैतौ कृतनीडौ च वृ े ।
एक तयोः खाद त प पला -
म यो नर ोऽ प बलेन भूयान् ।।६
भगवान् ीकृ णने कहा— यारे उ व! आ मा ब है या मु है, इस कारक
ा या या वहार मेरे अधीन रहनेवाले स वा द गुण क उपा धसे ही होता है। व तुतः—
त व से नह । सभी गुण माया-मूलक ह—इ जाल ह—जा के खेलके समान ह। इस लये
न मेरा मो है, न तो मेरा ब धन ही है ।।१।। जैसे व बु का ववत है—उसम बना ए
ही भासता है— म या है, वैसे ही शोक-मोह, सुख- ःख, शरीरक उ प और मृ यु—यह
सब संसारका बखेड़ा माया (अ व ा) के कारण तीत होनेपर भी वा त वक नह है ।।२।।
उ व! शरीरधा रय को मु का अनुभव करानेवाली आ म व ा और ब धनका अनुभव
करानेवाली अ व ा—ये दोन ही मेरी अना द श याँ ह। मेरी मायासे ही इनक रचना ई
है। इनका कोई वा त वक अ त व नह है ।।३।। भाई! तुम तो वयं बड़े बु मान् हो, वचार
करो—जीव तो एक ही है। वह वहारके लये ही मेरे अंशके पम क पत आ है, व तुतः
मेरा व प ही है। आ म ानसे स प होनेपर उसे मु कहते ह और आ माका ान न
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होनेसे ब । और यह अ ान अना द होनेसे ब धन भी अना द कहलाता है ।।४।। इस कार
मुझ एक ही धम म रहनेपर भी जो शोक और आन द प व धमवाले जान पड़ते ह, उन
ब और मु जीवका भेद म बतलाता ँ ।।५।। (वह भेद दो कारका है—एक तो
न यमु ई रसे जीवका भेद, और सरा मु -ब जीवका भेद। पहला सुनो)—जीव और
ई र ब और मु के भेदसे भ - भ होनेपर भी एक ही शरीरम नय ता और नय तके
पसे थत ह। ऐसा समझो क शरीर एक वृ है, इसम दयका घ सला बनाकर जीव और
ई र नामके दो प ी रहते ह। वे दोन चेतन होनेके कारण समान ह और कभी न बछु ड़नेके
कारण सखा ह। इनके नवास करनेका कारण केवल लीला ही है। इतनी समानता होनेपर भी
जीव तो शरीर प वृ के फल सुख- ःख आ द भोगता है, पर तु ई र उ ह न भोगकर
कमफल सुख- ःख आ दसे असंग और उनका सा ीमा रहता है। अभो ा होनेपर भी
ई रक यह वल णता है क वह ान, ऐ य, आन द और साम य आ दम भो ा जीवसे
बढ़कर है ।।६।। साथ ही एक यह भी वल णता है क अभो ा ई र तो अपने वा त वक
व प और इसके अ त र जगत्को भी जानता है, पर तु भो ा जीव न अपने वा त वक
पको जानता है और न अपनेसे अ त र को! इन दोन म जीव तो अ व ासे यु होनेके
कारण न यब है और ई र व ा व प होनेके कारण न यमु है ।।७।। यारे उ व!
ानस प पु ष भी मु ही है; जैसे व टू ट जानेपर जगा आ पु ष व के मयमाण
शरीरसे कोई स ब ध नह रखता, वैसे ही ानी पु ष सू म और थूल-शरीरम रहनेपर भी
उनसे कसी कारका स ब ध नह रखता, पर तु अ ानी पु ष वा तवम शरीरसे कोई
स ब ध न रखनेपर भी अ ानके कारण शरीरम ही थत रहता है, जैसे व दे खनेवाला
पु ष व दे खते समय वा क शरीरम बँध जाता है ।।८।। वहारा दम इ याँ श द-
पशा द वषय को हण करती ह; य क यह तो नयम ही है क गुण ही गुणको हण
करते ह, आ मा नह । इस लये जसने अपने न वकार आ म व पको समझ लया है, वह
उन वषय के हण- यागम कसी कारका अ भमान नह करता ।।९।। यह शरीर ार धके
अधीन है। इससे शारी रक और मान सक जतने भी कम होते ह, सब गुण क ेरणासे ही
होते ह। अ ानी पु ष झूठमूठ अपनेको उन हण- याग आ द कम का कता मान बैठता है
और इसी अ भमानके कारण वह बँध जाता है ।।१०।।

आ मानम यं च स वेद व ा-
न प पलादो न तु प पलादः ।
योऽ व या युक् स तु न यब ो
व ामयो यः स तु न यमु ः ।।७

दे ह थोऽ प न दे ह थो व ान् व ाद् यथो थतः ।


अदे ह थोऽ प दे ह थः कुम तः व ग् यथा ।।८

इ यै र याथषु गुणैर प गुणेषु च ।


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गृ माणे वहंकुया व ान् य व व यः ।।९

दै वाधीने शरीरेऽ मन् गुणभा ेन कमणा ।


वतमानोऽबुध त कता मी त नब यते ।।१०

एवं वर ः शयने आसनाटनम जने ।


दशन पशन ाणभोजन वणा दषु ।।११
यारे उ व! पूव प तसे वचार करके ववेक पु ष सम त वषय से वर रहता है
और सोने-बैठने, घूमने- फरने, नहाने, दे खने, छू ने, सूँघने, खाने और सुनने आ द या म
अपनेको कता नह मानता, ब क गुण को ही कता मानता है। गुण ही सभी कम के कता-
भो ा ह—ऐसा जानकर व ान् पु ष कमवासना और फल से नह बँधते। वे कृ तम
रहकर भी वैसे ही असंग रहते ह, जैसे पश आ दसे आकाश, जलक आ ता आ दसे सूय
और ग ध आ दसे वायु। उनक वमल बु क तलवार असंग-भावनाक सानसे और भी
तीखी हो जाती है, और वे उससे अपने सारे संशय-स दे ह को काट-कूटकर फक दे ते ह। जैसे
कोई व से जाग उठा हो, उसी कार वे इस भेदबु के मसे मु हो जाते ह ।।११-१३।।
जनके ाण, इ य, मन और बु क सम त चे ाएँ बना संक पके होती ह, वे दे हम थत
रहकर भी उसके गुण से मु ह ।।१४।।
न तथा ब यते व ां त त ादयन् गुणान् ।
कृ त थोऽ यसंस ो यथा खं स वता नलः ।।१२

वैशार े यासंग शतया छ संशयः ।


तबु इव व ा ाना वाद् व नवतते ।।१३

य य युव तसंक पाः ाणे यमनो धयाम् ।


वृ यः स व नमु ो दे ह थोऽ प ह तद्गुणैः ।।१४

य या मा ह यते ह ैयन क चद् य छया ।


अ यते वा व च न त यते बुधः ।।१५

न तुवीत न न दे त कुवतः सा वसाधु वा ।


वदतो गुणदोषा यां व जतः सम ङ् मु नः ।।१६

न कुया वदे त् क च यायेत् सा वसाधु वा ।


आ मारामोऽनया वृ या वचरे जडव मु नः ।।१७

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शद ण न णातो न न णायात् परे य द ।
म त य मफलो धेनु मव र तः ।।१८

गां धदोहामसत च भाया


दे हं पराधीनमस जां च ।
व ं वतीथ कृतमंग वाचं
हीनां मया र त ःख ःखी ।।१९

य यां न मे पावनमंग कम
थ यु व ाण नरोधम य ।
लीलावतारे सतज म वा याद्
व यां गरं तां बभृया धीरः ।।२०
उन त व मु पु ष के शरीरको चाहे हसक लोग पीड़ा प ँचाय और चाहे कभी कोई
दै वयोगसे पूजा करने लगे—वे न तो कसीके सतानेसे ःखी होते ह और न पूजा करनेसे
सुखी ।।१५।। जो समदश महा मा गुण और दोषक भेद से ऊपर उठ गये ह, वे न तो
अ छे काम करनेवालेक तु त करते ह और न बुरे काम करनेवालेक न दा; न वे कसीक
अ छ बात सुनकर उसक सराहना करते ह और न बुरी बात सुनकर कसीको झड़कते ही
ह ।।१६।। जीव मु पु ष न तो कुछ भला या बुरा काम करते ह, न कुछ भला या बुरा
कहते ह और न सोचते ही ह। वे वहारम अपनी समान वृ रखकर आ मान दम ही म न
रहते ह और जडके समान मानो कोई मूख हो इस कार वचरण करते रहते ह ।।१७।।
यारे उ व! जो पु ष वेद का तो पारगामी व ान् हो, पर तु पर के ानसे शू य हो,
उसके प र मका कोई फल नह है वह तो वैसा ही है, जैसे बना धक गायका
पालनेवाला ।।१८।। ध न दे नेवाली गाय, भचा रणी ी, पराधीन शरीर, पु ,
स पा के ा त होनेपर भी दान न कया आ धन और मेरे गुण से र हत वाणी थ है। इन
व तु क रखवाली करनेवाला ःख-पर- ःख ही भोगता रहता है ।।१९।। इस लये उ व!
जस वाणीम जगत्क उ प , थ त और लय प मेरी लोक-पावन लीलाका वणन न हो
और लीलावतार म भी मेरे लोक य राम-कृ णा द अवतार का जसम यशोगान न हो, वह
वाणी व या है। बु मान् पु षको चा हये क ऐसी वाणीका उ चारण एवं वण न
करे ।।२०।।

एवं ज ासयापो नाना व ममा म न ।


उपारमेत वरजं मनो म य य सवगे ।।२१

य नीशो धार यतुं मनो ण न लम् ।


म य सवा ण कमा ण नरपे ः समाचर ।।२२
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ालुम कथाः शृ वन् सुभ ा लोकपावनीः ।
गाय नु मरन् कम ज म चा भनयन् मु ः ।।२३

मदथ धमकामाथानाचरन् मदपा यः ।


लभते न लां भ म यु व सनातने ।।२४

स संगल धया भ या म य मां स उपा सता ।


स वै मे द शतं स रंजसा व दते पदम् ।।२५
उ व उवाच
साधु तवो म ोक मतः क वधः भो ।
भ व युपयु येत क शी स रा ता ।।२६

एत मे पु षा य लोका य जग भो ।
णतायानुर ाय प ाय च क यताम् ।।२७

वं परमं ोम पु षः कृतेः परः ।


अवतीण ऽ स भगवन् वे छोपा पृथ वपुः ।।२८
य उ व! जैसा क ऊपर वणन कया गया है, आ म ज ासा और वचारके ारा
आ माम जो अनेकताका म है उसे र कर दे और मुझ सव ापी परमा माम अपना नमल
मन लगा दे तथा संसारके वहार से उपराम हो जाय ।।२१।। य द तुम अपना मन पर म
थर न कर सको तो सारे कम नरपे होकर मेरे लये ही करो ।।२२।। मेरी कथाएँ सम त
लोक को प व करनेवाली एवं क याण व पणी ह। ाके साथ उ ह सुनना चा हये।
बार-बार मेरे अवतार और लीला का गान, मरण और अ भनय करना चा हये ।।२३।। मेरे
आ त रहकर मेरे ही लये धम, काम और अथका सेवन करना चा हये। य उ व! जो
ऐसा करता है, उसे मुझ अ वनाशी पु षके त अन य ेममयी भ ा त हो जाती
है ।।२४।।
भ क ा त स संगसे होती है; जसे भ ा त हो जाती है वह मेरी उपासना करता
है, मेरे सा यका अनुभव करता है। इस कार जब उसका अ तःकरण शु हो जाता है,
तब वह संत के उपदे श के अनुसार उनके ारा बताये ए मेरे परमपदको—वा त वक
व पको सहजहीम ा त हो जाता है ।।२५।।
उ वजीने पूछा—भगवन्! बड़े-बड़े संत आपक क तका गान करते ह। आप कृपया
बतलाइये क आपके वचारसे संत पु षका या ल ण है? आपके त कैसी भ करनी
चा हये, जसका संतलोग आदर करते ह? ।।२६।। भगवन्! आप ही ा आ द े दे वता,
स या द लोक और चराचर जगत्के वामी ह। म आपका वनीत, ेमी और शरणागत भ
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ँ। आप मुझे भ और भ का रह य बतलाइये ।।२७।। भगवन्! म जानता ँ क आप
कृ तसे परे पु षो म एवं चदाकाश व प ह। आपसे भ कुछ भी नह है; फर भी
आपने लीलाके लये वे छासे ही यह अलग शरीर धारण करके अवतार लया है। इस लये
वा तवम आप ही भ और भ का रह य बतला सकते ह ।।२८।।
ीभगवानुवाच
कृपालुरकृत ोह त त ुः सवदे हनाम् ।
स यसारोऽनव ा मा समः सव पकारकः ।।२९

कामैरहतधीदा तो मृ ः शु चर कचनः ।
अनीहो मतभुक् शा तः थरो म छरणो मु नः ।।३०

अ म ो गभीरा मा धृ तमां जतषड् गुणः ।


अमानी मानदः क पो मै ः का णकः क वः ।।३१

आ ायैवं गुणान् दोषान् मयाऽऽ द ान प वकान् ।


धमान् स य य यः सवान् मां भजेत स स मः ।।३२

ा वा ा वाथ ये वै मां यावान् य ा म या शः ।


भज यन यभावेन ते मे भ तमा मताः ।।३३

म ल म जनदशन पशनाचनम् ।
प रचया तु तः गुणकमानुक तनम् ।।३४
भगवान् ीकृ णने कहा— यारे उ व! मेरा भ कृपाक मू त होता है। वह कसी भी
ाणीसे वैरभाव नह रखता और घोर-से-घोर ःख भी स तापूवक सहता है। उसके
जीवनका सार है स य, और उसके मनम कसी कारक पापवासना कभी नह आती। वह
समदश और सबका भला करनेवाला होता है ।।२९।। उसक बु कामना से कलु षत
नह होती। वह संयमी, मधुर वभाव और प व होता है। सं ह-प र हसे सवथा र रहता है।
कसी भी व तुके लये वह कोई चे ा नह करता। प र मत भोजन करता है और शा त रहता
है। उसक बु थर होती है। उसे केवल मेरा ही भरोसा होता है और वह आ मत वके
च तनम सदा संल न रहता है ।।३०।। वह मादर हत, ग भीर वभाव और धैयवान् होता है।
भूख- यास, शोक-मोह और ज म-मृ यु—ये छह उसके वशम रहते ह। वह वयं तो कभी
कसीसे कसी कारका स मान नह चाहता, पर तु सर का स मान करता रहता है। मेरे
स ब धक बात सर को समझानेम बड़ा नपुण होता है और सभीके साथ म ताका
वहार करता है। उसके दयम क णा भरी होती है। मेरे त वका उसे यथाथ ान होता

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है ।।३१।।
य उ व! मने वेद और शा के पम मनु य के धमका उपदे श कया है, उनके
पालनसे अ तःकरणशु आ द गुण और उ लंघनसे नरका द ःख ा त होते ह; पर तु मेरा
जो भ उ ह भी अपने यान आ दम व ेप समझकर याग दे ता है और केवल मेरे ही
भजनम लगा रहता है, वह परम संत है ।।३२।। म कौन ँ, कतना बड़ा ँ, कैसा — ँ इन
बात को जाने, चाहे न जाने; क तु जो अन यभावसे मेरा भजन करते ह, वे मेरे वचारसे मेरे
परम भ ह ।।३३।।
यारे उ व! मेरी मू त और मेरे भ जन का दशन, पश, पूजा, सेवा-शु ूषा, तु त और
णाम करे तथा मेरे गुण और कम का क तन करे ।।३४।। उ व! मेरी कथा सुननेम ा
रखे और नर तर मेरा यान करता रहे। जो कुछ मले, वह मुझे सम पत कर दे और
दा यभावसे मुझे आ म नवेदन करे ।।३५।। मेरे द ज म और कम क चचा करे।
ज मा मी, रामनवमी आ द पव पर आन द मनावे और संगीत, नृ य, बाजे और समाज ारा
मेरे म दर म उ सव करे-करावे ।।३६।। वा षक योहार के दन मेरे थान क या ा करे,
जुलूस नकाले तथा व वध उपहार से मेरी पूजा करे। वै दक अथवा ता क प तसे द ा
हण करे। मेरे त का पालन करे ।।३७।। म दर म मेरी मू तय क थापनाम ा रखे।
य द यह काम अकेला न कर सके, तो और के साथ मलकर उ ोग करे। मेरे लये
पु पवा टका, बगीचे, ड़ाके थान, नगर और म दर बनवावे ।।३८।। सेवकक भाँ त
ाभ के साथ न कपट भावसे मेरे म दर क सेवा-शु ूषा करे—झाड़े-बुहारे, लीपे-
पोते, छड़काव करे और तरह-तरहके चौक पूरे ।।३९।। अ भमान न करे, द भ न करे। साथ
ही अपने शुभ कम का ढढोरा भी न पीटे । य उ व! मेरे चढ़ावेक , अपने कामम लगानेक
बात तो र रही, मुझे सम पत द पकके काशसे भी अपना काम न ले। कसी सरे दे वताक
चढ़ायी ई व तु मुझे न चढ़ावे ।।४०।। संसारम जो व तु अपनेको सबसे य, सबसे अभी
जान पड़े वह मुझे सम पत कर दे । ऐसा करनेसे वह व तु अन त फल दे नेवाली हो जाती
है ।।४१।।
म कथा वणे ा मदनु यानमु व ।
सवलाभोपहरणं दा येना म नवेदनम् ।।३५

म ज मकमकथनं मम पवानुमोदनम् ।
गीतता डववा द गो ी भमद्गृहो सवः ।।३६

या ा ब ल वधानं च सववा षकपवसु ।


वै दक ता क द ा मद य तधारणम् ।।३७

ममाचा थापने ा वतः संह य चो मः ।


उ ानोपवना डपुरम दरकम ण ।।३८
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स माजनोपलेपा यां सेकम डलवतनैः ।
गृहशु ूषणं म ं दासवद् यदमायया ।।३९

अमा न वमद भ वं कृत याप रक तनम् ।


अ प द पावलोकं मे नोपयु याा वे दतम् ।।४०

यद् य द तमं लोके य चा त यमा मनः ।


त वेदये म ं तदान याय क पते ।।४१

सूय ऽ न ा णो गावो वै णवः खं म जलम् ।


भूरा मा सवभूता न भ पूजापदा न मे ।।४२

सूय तु व या या ह वषा नौ यजेत माम् ।


आ त येन तु व ा ्ये गो वंग यवसा दना ।।४३

वै णवे ब धुस कृ या द खे यान न या ।


वायौ मु य धया तोये ै तोयपुर कृतैः ।।४४
भ ! सूय, अ न, ा ण, गौ, वै णव, आकाश, वायु, जल, पृ वी, आ मा और सम त
ाणी—ये सब मेरी पूजाके थान ह ।।४२।। यारे उ व! ऋ वेद, यजुवद और सामवेदके
म ारा सूयम मेरी पूजा करनी चा हये। हवनके ारा अ नम, आ त य ारा े ा णम
और हरी-हरी घास आ दके ारा गौम मेरी पूजा करे ।।४३।।
भाई-ब धुके समान स कारके ारा वै णवम, नर तर यानम लगे रहनेसे दयाकाशम,
मु य ाण समझनेसे वायुम और जल-पु प आ द साम य - ारा जलम मेरी आराधना क
जाती है ।।४४।। गु त म ारा यास करके म क वेद म, उपयु भोग ारा आ माम
और सम ारा स पूण ा णय म मेरी आराधना करनी चा हये, य क म सभीम े
आ माके पसे थत ँ ।।४५।। इन सभी थान म शंख-च -गदा-प धारण कये चार
भुजा वाले शा तमू त ीभगवान् वराजमान ह, ऐसा यान करते ए एका ताके साथ मेरी
पूजा करनी चा हये ।।४६।। इस कार जो मनु य एका च से य -यागा द इ और कुआँ-
बावली बनवाना आ द पू कम के ारा मेरी पूजा करता है, उसे मेरी े भ ा त होती है
तथा संत-पु ष क सेवा करनेसे मेरे व पका ान भी हो जाता है ।।४७।। यारे उ व! मेरा
ऐसा न य है क स संग और भ योग—इन दो साधन का एक साथ ही अनु ान करते
रहना चा हये। ायः इन दोन के अ त र संसारसागरसे पार होनेका और कोई उपाय नह है,
य क संतपु ष मुझे अपना आ य मानते ह और म सदा-सवदा उनके पास बना रहता
ँ ।।४८।। यारे उ व! अब म तु ह एक अ य त गोपनीय परम रह यक बात बतलाऊँगा;
य क तुम मेरे य सेवक, हतैषी, सु द् और ेमी सखा हो; साथ ही सुननेके भी इ छु क
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हो ।।४९।।
थ डले म दयैभ गैरा मानमा म न ।
े ं सवभूतेषु सम वेन यजेत माम् ।।४५

ध ये वे व त मद् पं शंखच गदा बुजैः ।


यु ं चतुभुजं शा तं याय चत् समा हतः ।।४६

इ ापूतन मामेवं यो यजेत समा हतः ।


लभते म य स म मृ तः साधुसेवया ।।४७

ायेण भ योगेन स संगेन वनो व ।


नोपायो व ते स यङ् ायणं ह सतामहम् ।।४८

अथैतत् परमं गु ं शृ वतो य न दन ।


सुगो यम प व या म वं मे भृ यः सु त् सखा ।।४९
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायामेकादश क धे एकादशोऽ यायः ।।११।।

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अथ ादशोऽ यायः
स संगक म हमा और कम तथा कम यागक व ध
ीभगवानुवाच
न रोधय त मां योगो न सां यं धम एव च ।
न वा याय तप यागो ने ापूत न द णा ।।१

ता न य छ दां स तीथा न नयमा यमाः ।


यथाव धे स संगः सवसंगापहो ह माम् ।।२
भगवान् ीकृ ण कहते ह— य उ व! जगत्म जतनी आस याँ ह, उ ह स संग
न कर दे ता है। यही कारण है क स संग जस कार मुझे वशम कर लेता है वैसा साधन न
योग है न सां य, न धमपालन और न वा याय। तप या, याग, इ ापू और द णासे भी म
वैसा स नह होता। कहाँतक क — ँ त, य , वेद, तीथ और यम- नयम भी स संगके
समान मुझे वशम करनेम समथ नह ह ।।१-२।। न पाप उ वजी! यह एक युगक नह ,
सभी युग क एक-सी बात है। स संगके ारा ही दै य-रा स, पशु-प ी, ग धव-अ सरा,
नाग- स , चारण-गु क और व ाधर को मेरी ा त ई है। मनु य म वै य, शू , ी और
अ यज आ द रजोगुणी-तमोगुणी कृ तके ब त-से जीव ने मेरा परमपद ा त कया है।
वृ ासुर, ाद, वृषपवा, ब ल, बाणासुर, मयदानव, वभीषण, सु ीव, हनुमान्, जा बवान्,
गजे , जटायु, तुलाधार वै य, धम ाध, कु जा, जक गो पयाँ, य प नयाँ और सरे लोग
भी स संगके भावसे ही मुझे ा त कर सके ह ।।३-६।। उन लोग ने न तो वेद का वा याय
कया था और न व धपूवक महापु ष क उपासना क थी। इसी कार उ ह ने
कृ चा ायण आ द त और कोई तप या भी नह क थी। बस, केवल स संगके भावसे
ही वे मुझे ा त हो गये ।।७।। गो पयाँ, गाय, यमलाजुन आ द वृ , जके ह रन आ द पशु,
का लय आ द नाग—ये तो साधन-सा यके स ब धम सवथा ही मूढ़बु थे। इतने ही नह ,
ऐसे-ऐसे और भी ब त हो गये ह, ज ह ने केवल ेमपूण भावके ारा ही अनायास मेरी
ा त कर ली और कृतकृ य हो गये ।।८।। उ व! बड़े-बड़े य नशील साधक योग, सां य,
दान, त, तप या, य , ु तय क ा या, वा याय और सं यास आ द साधन के ारा मुझे
नह ा त कर सकते; पर तु स संगके ारा तो म अ य त सुलभ हो जाता ँ ।।९।। उ व!
जस समय अ ू रजी भैया बलरामजीके साथ मुझे जसे मथुरा ले आये, उस समय
गो पय का दय गाढ़ ेमके कारण मेरे अनुरागके रंगम रँगा आ था। मेरे वयोगक ती
ा धसे वे ाकुल हो रही थ और मेरे अ त र कोई भी सरी व तु उ ह सुखकारक नह
जान पड़ती थी ।।१०।। तुम जानते हो क म ही उनका एकमा यतम ँ। जब म
वृ दावनम था, तब उ ह ने ब त-सी रा याँ—वे रासक रा याँ मेरे साथ आधे णके समान
बता द थ ; पर तु यारे उ व! मेरे बना वे ही रा याँ उनके लये एक-एक क पके समान
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हो गय ।।११।। जैसे बड़े-बड़े ऋ ष-मु न समा धम थत होकर तथा गंगा आ द बड़ी-बड़ी
न दयाँ समु म मलकर अपने नाम- प खो दे ती ह, वैसे ही वे गो पयाँ परम ेमके ारा
मुझम इतनी त मय हो गयी थ क उ ह लोक-परलोक, शरीर और अपने कहलानेवाले प त-
पु ा दक भी सुध-बुध नह रह गयी थी ।।१२।। उ व! उन गो पय म ब त-सी तो ऐसी थ ,
जो मेरे वा त वक व पको नह जानती थ । वे मुझे भगवान् न जानकर केवल यतम ही
समझती थ और जारभावसे मुझसे मलनेक आकां ा कया करती थ । उन साधनहीन
सैकड़ , हजार अबला ने केवल संगके भावसे ही मुझ पर परमा माको ा त कर
लया ।।१३।। इस लये उ व! तुम ु त- मृ त, व ध- नषेध, वृ - नवृ और सुननेयो य
तथा सुने ए वषयका भी प र याग करके सव मेरी ही भावना करते ए सम त ा णय के
आ म व प मुझ एकक ही शरण स पूण पसे हण करो; य क मेरी शरणम आ जानेसे
तुम सवथा नभय हो जाओगे ।।१४-१५।।

स संगेन ह दै तेया यातुधाना मृगाः खगाः ।


ग धवा सरसो नागाः स ा ारणगु काः ।।३

व ाधरा मनु येषु वै याः शू ाः योऽ यजाः ।


रज तमः कृतय त मं त मन् युगेऽनघ ।।४

बहवो म पदं ा ता वा कायाधवादयः ।


वृषपवा ब लबाणो मय ाथ वभीषणः ।।५

सु ीवो हनुमानृ ो गजो गृ ो व ण पथः ।


ाधः कु जा जे गो यो य प य तथापरे ।।६

ते नाधीत ु तगणा नोपा सतमह माः ।


अ तात ततपसः स संगा मामुपागताः ।।७

केवलेन ह भावेन गो यो गावो नगा मृगाः ।


येऽ ये मूढ धयो नागाः स ा मामीयुर सा ।।८

यं न योगेन सां येन दान ततपोऽ वरैः ।


ा या वा यायसं यासैः ा ुयाद् य नवान प ।।९

रामेण साध मथुरां णीते


ाफ कना म यनुर च ाः ।

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वगाढभावेन न मे वयोग-
ती ाधयोऽ यं द शुः सुखाय ।।१०

ता ताः पाः े तमेन नीता


मयैव वृ दावनगोचरेण ।
णाधव ाः पुनरंग तासां
हीना मया क पसमा बभूवुः ।।११

ता ना वदन् म यनुषंगब -
धयः वमा मानमद तथेदम् ।
यथा समाधौ मुनयोऽ धतोये
न ः व ा इव नाम पे ।।१२

म कामा रमणं जारम व प वदोऽबलाः ।


मां परमं ापुः संगा छतसह शः ।।१३

त मा वमु वो सृ य चोदनां तचोदनाम् ।


वृ ं च नवृ ं च ोत ं ुतमेव च ।।१४

मामेकमेव शरणमा मानं सवदे हनाम् ।


या ह सवा मभावेन मया या कुतोभयः ।।१५
उ व उवाच
संशयः शृ वतो वाचं तव योगे रे र ।
न नवतत आ म थो येन ा य त मे मनः ।।१६
ीभगवानुवाच
स एष जीवो ववर सू तः
ाणेन घोषेण गुहां व ः ।
मनोमयं सू ममुपे य पं
मा ा वरो वण इ त थ व ः ।।१७
उ वजीने कहा—सनका द योगे र के भी परमे र भो! य तो म आपका उपदे श
सुन रहा ,ँ पर तु इससे मेरे मनका स दे ह मट नह रहा है। मुझे वधमका पालन करना
चा हये या सब कुछ छोड़कर आपक शरण हण करनी चा हये, मेरा मन इसी वधाम
लटक रहा है। आप कृपा करके मुझे भली-भाँ त समझाइये ।।१६।।

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भगवान् ीकृ णने कहा— य उ व! जस परमा माका परो पसे वणन कया
जाता है, वे सा ात् अपरो — य ही ह, य क वे ही न खल व तु को स ा- फू त—
जीवन-दान करनेवाले ह, वे ही पहले अनाहत नाद व प परा वाणी नामक ाणके साथ
मूलाधारच म वेश करते ह। उसके बाद म णपूरकच (ना भ- थान) म आकर प य ती
वाणीका मनोमय सू म प धारण करते ह। तदन तर क ठदे शम थत वशु नामक च म
आते ह और वहाँ म यमा वाणीके पम होते ह। फर मशः मुखम आकर व-
द घा द मा ा, उदा -अनुदा आ द वर तथा ककारा द वण प थूल—वैखरी वाणीका
प हण कर लेते ह ।।१७।। अ न आकाशम ऊ मा अथवा व ुत्के पसे अ पम
थत है। जब बलपूवक का म थन कया जाता है, तब वायुक सहायतासे वह पहले
अ य त सू म चनगारीके पम कट होती है और फर आ त दे नेपर च ड प धारण
कर लेती है, वैसे ही म भी श द व पसे मशः परा, प य ती, म यमा और वैखरी
वाणीके पम कट होता ँ ।।१८।। इसी कार बोलना, हाथ से काम करना, पैर से चलना,
मू े य तथा गुदासे मल-मू यागना, सूँघना, चखना, दे खना, छू ना, सुनना, मनसे संक प-
वक प करना, बु से समझना, अहंकारके ारा अ भमान करना, मह वके पम सबका
ताना-बाना बुनना तथा स वगुण, रजोगुण और तमोगुणके सारे वकार; कहाँतक क ँ—
सम त कता, करण और कम मेरी ही अ भ याँ ह ।।१९।। यह सबको जी वत करनेवाला
परमे र ही इस गुणमय ा ड-कमलका कारण है। यह आ द-पु ष पहले एक और
अ था। जैसे उपजाऊ खेतम बोया आ बीज शाखा-प -पु पा द अनेक प धारण कर
लेता है, वैसे ही कालग तसे मायाका आ य लेकर श - वभाजनके ारा परमे र ही अनेक
प म तीत होने लगता है ।।२०।। जैसे ताग के ताने-बानेम व ओत ोत रहता है, वैसे ही
यह सारा व परमा माम ही ओत ोत है। जैसे सूतके बना व का अ त व नह है; क तु
सूत व के बना भी रह सकता है, वैसे ही इस जगत्के न रहनेपर भी परमा मा रहता है;
क तु यह जगत् परमा म व प ही है—परमा माके बना इसका कोई अ त व नह है। यह
संसारवृ अना द और वाह पसे न य है। इसका व प ही है—कमक पर परा तथा इस
वृ के फल-फूल ह—मो और भोग ।।२१।।

यथानलः खेऽ नलब धु मा


बलेन दा य धम यमानः ।
अणुः जातो ह वषा स म यते
तथैव मे रयं ह वाणी ।।१८

एवं ग दः कम ग त वसग
ाणो रसो क् पशः ु त ।
संक प व ानमथा भमानः
सू ं रजःस वतमो वकारः ।।१९

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अयं ह जीव वृद जयो न-
र एको वयसा स आ ः ।
व श ब धेव भा त
बीजा न यो न तप य त् ।।२०

य म दं ोतमशेषमोतं
पटो यथा त तु वतानसं थः ।
य एष संसारत ः पुराणः
कमा मकः पु पफले सूते ।।२१

े अ य बीजे शतमूल नालः


पंच क धः पंचरस सू तः ।
दशैकशाखो सुपणनीड-
व कलो फलोऽक व ः ।।२२

अद त चैकं फलम य गृ ा
ामेचरा एकमर यवासाः ।
हंसा य एकं ब प म यै-
मायामयं वेद स वेद वेदम् ।।२३

एवं गु पासनयैकभ या
व ाकुठारेण शतेन धीरः ।
ववृ य जीवाशयम म ः
स प चा मानमथ यजा म् ।।२४
इस संसारवृ के दो बीज ह—पाप और पु य। असं य वासनाएँ जड़ ह और तीन गुण
तने ह। पाँच भूत इसक मोट -मोट धान शाखाएँ ह और श दा द पाँच वषय रस ह, यारह
इ याँ शाखा ह तथा जीव और ई र—दो प ी इसम घ सला बनाकर नवास करते ह। इस
वृ म वात, प और कफ प तीन तरहक छाल है। इसम दो तरहके फल लगते ह—सुख
और ःख। यह वशाल वृ सूयम डलतक फैला आ है (इस सूयम डलका भेदन कर
जानेवाले मु पु ष फर संसार-च म नह पड़ते) ।।२२।। जो गृह थ श द- प-रस आ द
वषय म फँसे ए ह, वे कामनासे भरे ए होनेके कारण गीधके समान ह। वे इस वृ का
ःख प फल भोगते ह, य क वे अनेक कारके कम के ब धनम फँसे रहते ह। जो
अर यवासी परमहंस वषय से वर ह, वे इस वृ म राजहंसके समान ह और वे इसका
सुख प फल भोगते ह। य उ व! वा तवम म एक ही ँ। यह मेरा जो अनेक कारका
प है, वह तो केवल मायामय है। जो इस बातको गु के ारा समझ लेता है, वही
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वा तवम सम त वेद का रह य जानता है ।।२३।। अतः उ व! तुम इस कार गु दे वक
उपासना प अन य भ के ारा अपने ानक कु हाड़ीको तीखी कर लो और उसके ारा
धैय एवं सावधानीसे जीवभावको काट डालो। फर परमा म व प होकर उस वृ प
अ को भी छोड़ दो और अपने अख ड व पम ही थत हो रहो ।।२४।। *
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायामेकादश क धे ादशोऽ यायः ।।१२।।

* ई र अपनी मायाके ारा पंच पसे तीत हो रहा है। इस पंचके अ यासके कारण
ही जीव को अना द अ व ासे कतापन आ दक ा त होती है। फर ‘यह करो, यह मत
करो’ इस कारके व ध- नषेधका अ धकार होता है। तब ‘अ तःकरणक शु के लये कम
करो’—यह बात कही जाती है। जब अ तःकरण शु हो जाता है, तब कमस ब धी रा ह
मटानेके लये यह बात कही जाती है क भ म व ेप डालनेवाले कम के त आदरभाव
छोड़कर ढ़ व ाससे भजन करो। त व ान हो जानेपर कुछ भी कत शेष नह रह जाता।
यही इस संगका अ भ ाय है।

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अथ योदशोऽ यायः
हंस पसे सनका दको दये ए उपदे शका वणन
ीभगवानुवाच
स वं रज तम इ त गुणा बु े न चा मनः ।
स वेना यतमौ ह यात् स वं स वेन चैव ह ।।१

स वाद् धम भवेद ् वृ ात् पुंसो म ल णः ।


सा वकोपासया स वं ततो धमः वतते ।।२

धम रज तमो ह यात् स ववृ रनु मः ।


आशु न य त त मूलो धम उभये हते ।।३

आगमोऽपः जा दे शः कालः कम च ज म च ।
यानं म ोऽथ सं कारो दशैते गुणहेतवः ।।४

त त् सा वकमेवैषां यद् यद् वृ ाः च ते ।


न द त तामसं त द् राजसं त पे तम् ।।५

सा वका येव सेवेत पुमान् स व ववृ ये ।


ततो धम ततो ानं यावत् मृ तरपोहनम् ।।६

वेणुसंघषजो व द वा शा य त त नम् ।
एवं गुण ययजो दे हः शा य त त यः ।।७
भगवान् ीकृ ण कहते ह— य उ व! स व, रज और तम—ये तीन बु ( कृ त)
के गुण ह, आ माके नह । स वके ारा रज और तम—इन दो गुण पर वजय ा त कर लेनी
चा हये। तदन तर स वगुणक शा तवृ के ारा उसक दया आ द वृ य को भी शा त कर
दे ना चा हये ।।१।। जब स वगुणक वृ होती है, तभी जीवको मेरे भ प वधमक
ा त होती है। नर तर सा वक व तु का सेवन करनेसे ही स वगुणक वृ होती है और
तब मेरे भ प वधमम वृ होने लगती है ।।२।। जस धमके पालनसे स वगुणक
वृ हो, वही सबसे े है। वह धम रजोगुण और तमोगुणको न कर दे ता है। जब वे दोन
न हो जाते ह, तब उ ह के कारण होनेवाला अधम भी शी ही मट जाता है ।।३।। शा ,
जल, जाजन, दे श, समय, कम, ज म, यान, म और सं कार—ये दस व तुएँ य द
सा वक ह तो स वगुणक , राज सक ह तो रजोगुणक और ताम सक ह तो तमोगुणक
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वृ करती ह ।।४।। इनमसे शा महा मा जनक शंसा करते ह, वे सा वक ह,
जनक न दा करते ह, वे ताम सक ह और जनक उपे ा करते ह, वे व तुएँ राज सक
ह ।।५।।
जबतक अपने आ माका सा ा कार तथा थूल-सू म शरीर और उनके कारण तीन
गुण क नवृ न हो, तबतक मनु यको चा हये क स वगुणक वृ के लये सा वक शा
आ दका ही सेवन करे; य क उससे धमक वृ होती है और धमक वृ से अ तःकरण
शु होकर आ मत वका ान होता है ।।६।। बाँस क रगड़से आग पैदा होती है और वह
उनके सारे वनको जलाकर शा त हो जाती है। वैसे ही यह शरीर गुण के वैष यसे उ प आ
है। वचार ारा म थन करनेपर इससे ाना न व लत होती है और वह सम त शरीर एवं
गुण को भ म करके वयं भी शा त हो जाती है ।।७।।
उ व उवाच
वद त म याः ायेण वषयान् पदमापदाम् ।
तथा प भुंजते कृ ण तत् कथं खराजवत् ।।८
ीभगवानुवाच
अह म य यथाबु ः म य यथा द ।
उ सप त रजो घोरं ततो वैका रकं मनः ।।९

रजोयु य मनसः संक पः स वक पकः ।


ततः कामो गुण यानाद् ःसहः या मतेः ।।१०

करो त कामवशगः कमा य व जते यः ।


ःखोदका ण स प यन् रजोवेग वमो हतः ।।११

रज तमो यां यद प व ान् व तधीः पुनः ।


अत तो मनो युंजन् दोष न स जते ।।१२

अ म ोऽनुयुंजीत मनो म यपय छनैः ।


अ न व णो यथाकालं जत ासो जतासनः ।।१३

एतावान् योग आ द ो म छ यैः सनका द भः ।


सवतो मन आकृ य म य ाऽऽवे यते यथा ।।१४
उ व उवाच
यदा वं सनका द यो येन पेण केशव ।
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योगमा द वानेतद् प म छा म वे दतुम् ।।१५
उ वजीने पूछा—भगवन्! ायः सभी मनु य इस बातको जानते ह क वषय
वप य के घर ह; फर भी वे कु े, गधे और बकरेके समान ःख सहन करके भी उ ह को
ही भोगते रहते ह। इसका या कारण है? ।।८।।
भगवान् ीकृ णने कहा— य उ व! जीव जब अ ानवश अपने व पको भूलकर
दयसे सू म- थूला द शरीर म अहंबु कर बैठता है—जो क सवथा म ही है—तब
उसका स व धान मन घोर रजोगुणक ओर झुक जाता है; उससे ा त हो जाता है ।।९।।
बस, जहाँ मनम रजोगुणक धानता ई क उसम संक प- वक प का ताँता बँध जाता है।
अब वह वषय का च तन करने लगता है और अपनी बु के कारण कामके फंदे म फँस
जाता है, जससे फर छु टकारा होना ब त ही क ठन है ।।१०।। अब वह अ ानी कामवश
अनेक कारके कम करने लगता है और इ य के वश होकर, यह जानकर भी क इन
कम का अ तम फल ःख ही है, उ ह को करता है, उस समय वह रजोगुणके ती वेगसे
अ य त मो हत रहता है ।।११।। य प ववेक पु षका च भी कभी-कभी रजोगुण और
तमोगुणके वेगसे व त होता है, तथा प उसक वषय म दोष बनी रहती है; इस लये
वह बड़ी सावधानीसे अपने च को एका करनेक चे ा करता रहता है, जससे उसक
वषय म आस नह होती ।।१२।। साधकको चा हये क आसन और ाणवायुपर वजय
ा त कर अपनी श और समयके अनुसार बड़ी सावधानीसे धीरे-धीरे मुझम अपना मन
लगावे और इस कार अ यास करते समय अपनी असफलता दे खकर त नक भी ऊबे नह ,
ब क और भी उ साहसे उसीम जुड़ जाय ।।१३।। य उ व! मेरे श य सनका द
परम षय ने योगका यही व प बताया है क साधक अपने मनको सब ओरसे ख चकर
वराट् आ दम नह , सा ात् मुझम ही पूण पसे लगा द ।।१४।।
उ वजीने कहा— ीकृ ण! आपने जस समय जस पसे, सनका द परम षय को
योगका आदे श दया था, उस पको म जानना चाहता ँ ।।१५।।
ीभगवानुवाच
पु ा हर यगभ य मानसाः सनकादयः ।
प छु ः पतरं सू मां योग यैका तक ग तम् ।।१६
सनकादय ऊचुः
गुणे वा वशते चेतो गुणा ेत स च भो ।
कथम यो यसं यागो मुमु ोर त ततीष ः ।।१७
ीभगवानुवाच
एवं पृ ो महादे वः वयंभूभूतभावनः ।
यायमानः बीजं ना यप त कमधीः ।।१८

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स माम च तयद् दे वः पार ततीषया ।
त याहं हंस पेण सकाशमगमं तदा ।।१९

् वा मां त उप य कृ वा पादा भव दनम् ।


ाणम तः कृ वा प छु ः को भवा न त ।।२०

इ यहं मु न भः पृ त व ज ासु भ तदा ।


यदवोचमहं ते य त व नबोध मे ।।२१

व तुनो य नाना वमा मनः ई शः ।


कथं घटे त वो व ा व ु वा मे क आ यः ।।२२

पंचा मकेषु भूतेषु समानेषु च व तुतः ।


को भवा न त वः ो वाचार भो नथकः ।।२३
भगवान् ीकृ णने कहा— य उ व! सनका द परम ष ाजीके मानस पु ह।
उ ह ने एक बार अपने पतासे योगक सू म अ तम सीमाके स ब धम इस कार कया
था ।।१६।।
सनका द परम षय ने पूछा— पताजी! च गुण अथात् वषय म घुसा ही रहता है
और गुण भी च क एक-एक वृ म व रहते ही ह। अथात् च और गुण आपसम
मले-जुले ही रहते ह। ऐसी थ तम जो पु ष इस संसारसागरसे पार होकर मु पद ा त
करना चाहता है, वह इन दोन को एक- सरेसे अलग कैसे कर सकता है? ।।१७।।
भगवान् ीकृ ण कहते ह— य उ व! य प ाजी सब दे वता के शरोम ण,
वय भू और ा णय के ज मदाता ह। फर भी सनका द परम षय के इस कार पूछनेपर
यान करके भी वे इस का मूल कारण न समझ सके; य क उनक बु कम वण
थी ।।१८।। उ व! उस समय ाजीने इस का उ र दे नेके लये भ भावसे मेरा
च तन कया। तब म हंसका प धारण करके उनके सामने कट आ ।।१९।। मुझे
दे खकर सनका द ाजीको आगे करके मेरे पास आये और उ ह ने मेरे चरण क व दना
करके मुझसे पूछा क ‘आप कौन ह?’ ।।२०।। य उ व! सनका द परमाथत वके ज ासु
थे; इस लये उनके पूछनेपर उस समय मने जो कुछ कहा वह तुम मुझसे सुनो— ।।२१।।
‘ ा णो! य द परमाथ प व तु नाना वसे सवथा र हत है, तब आ माके स ब धम
आपलोग का ऐसा कैसे यु संगत हो सकता है? अथवा म य द उ र दे नेके लये बोलूँ
भी तो कस जा त, गुण, या और स ब ध आ दका आ य लेकर उ र ँ ? ।।२२।।
दे वता, मनु य, पशु, प ी आ द सभी शरीर पंच-भूता मक होनेके कारण अ भ ही ह
और परमाथ- पसे भी अ भ ह। ऐसी थ तम ‘आप कौन ह?’ आपलोग का यह ही
केवल वाणीका वहार है। वचारपूवक नह है, अतः नरथक है ।।२३।। मनसे, वाणीसे,
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से तथा अ य इ य से भी जो कुछ हण कया जाता है, वह सब म ही ँ, मुझसे भ
और कुछ नह है। यह स ा त आपलोग त व- वचारके ारा समझ ली जये ।।२४।। पु ो!
यह च च तन करते-करते वषयाकार हो जाता है और वषय च म व हो जाते ह,
यह बात स य है, तथा प वषय और च ये दोन ही मेरे व पभूत जीवके दे ह ह—उपा ध
ह। अथात् आ माका च और वषयके साथ कोई स ब ध ही नह है ।।२५।। इस लये बार-
बार वषय का सेवन करते रहनेसे जो च वषय म आस हो गया है और वषय भी
च म व हो गये ह, इन दोन को अपने वा त वकसे अ भ मुझ परमा माका सा ा कार
करके याग दे ना चा हये ।।२६।। जा त्, व और सुषु त—ये तीन अव थाएँ स वा द
गुण के अनुसार होती ह और बु क वृ याँ ह, स चदान दका वभाव नह । इन वृ य का
सा ी होनेके कारण जीव उनसे वल ण है। यह स ा त ु त, यु और अनुभू तसे यु
है ।।२७।। य क बु -वृ य के ारा होनेवाला यह ब धन ही आ माम गुणमयी
वृ य का दान करता है। इस लये तीन अव था से वल ण और उनम अनुगत मुझ तुरीय
त वम थत होकर इस बु के ब धनका प र याग कर दे । तब वषय और च दोन का
युगपत् याग हो जाता है ।।२८।। यह ब धन अहंकारक ही रचना है और यही आ माके
प रपूणतम स य, अख ड ान और परमान द व पको छपा दे ता है। इस बातको जानकर
वर हो जाय और अपने तीन अव था म अनुगत तुरीय व पम होकर संसारक
च ताको छोड़ दे ।।२९।। जबतक पु षक भ - भ पदाथ म स य वबु , अहंबु और
ममबु यु य के ारा नवृ नह हो जाती, तबतक वह अ ानी य प जागता है तथा प
सोता आ-सा रहता है—जैसे व ाव थाम जान पड़ता है क म जाग रहा ँ ।।३०।।
आ मासे अ य दे ह आ द तीयमान नाम- पा मक पंचका कुछ भी अ त व नह है।
इस लये उनके कारण होनेवाले वणा मा दभेद, वगा दफल और उनके कारणभूत कम—ये
सब-के-सब इस आ माके लये वैसे ही म या ह; जैसे व दश पु षके ारा दे खे ए सब-
के-सब पदाथ ।।३१।।

मनसा वचसा या गृ तेऽ यैरपी यैः ।


अहमेव न म ोऽ य द त बु य वमंजसा ।।२४

गुणे वा वशते चेतो गुणा त


े स च जाः ।
जीव य दे ह उभयं गुणा ेतो मदा मनः ।।२५

गुणेषु चा वश च मभी णं गुणसेवया ।


गुणा च भवा म प ू उभयं यजेत् ।।२६

जा त् व ः सुषु तं च गुणतो बु वृ यः ।
तासां वल णो जीवः सा वेन व न तः ।।२७

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य ह संसृ तब धोऽयमा मनो गुणवृ दः ।
म य तुय थतो ज ात् याग तद् गुणचेतसाम् ।।२८

अहंकारकृतं ब धमा मनोऽथ वपययम् ।


व ान् न व संसार च तां तुय थत यजेत् ।।२९

याव ानाथधीः पुंसो न नवतत यु भः ।


जाग य प वप ः व े जागरणं यथा ।।३०

अस वादा मनोऽ येषां भावानां त कृता भदा ।


गतयो हेतव ा य मृषा व शो यथा ।।३१

यो जागरे ब हरनु णध मणोऽथान्


भुङ् े सम तकरणै द त स ान् ।
व े सुषु त उपसंहरते स एकः
मृ य वया गुणवृ ग येशः ।।३२

एवं वमृ य गुणतो मनस यव था


म मायया म य कृता इ त न ताथाः ।
सं छ हादमनुमानस ती ण-
ाना सना भजत मा खलसंशया धम् ।।३३

इ ेत व म मदं मनसो वलासं


ं वन म तलोलमलातच म् ।
व ानमेकमु धेव वभा त माया
व धा गुण वसगकृतो वक पः ।।३४
जो जा त्-अव थाम सम त इ य के ारा बाहर द खनेवाले स पूण णभंगुर
पदाथ को अनुभव करता है और व ाव थाम दयम ही जा त्म दे खे ए पदाथ के समान
ही वासनामय वषय का अनुभव करता है और सुषु त-अव थाम उन सब वषय को
समेटकर उनके लयको भी अनुभव करता है, वह एक ही है। जा त्-अव थाके इ य,
व ाव थाके मन और सुषु तक सं कारवती बु का भी वही वामी है। य क वह
गुणमयी तीन अव था का सा ी है। ‘ जस मने व दे खा, जो म सोया, वही म जाग
रहा ँ’—इस मृ तके बलपर एक ही आ माका सम त अव था म होना स हो जाता
है ।।३२।। ऐसा वचारकर मनक ये तीन अव थाएँ गुण के ारा मेरी मायासे मेरे अंश व प
जीवम क पत क गयी ह और आ माम ये नता त अस य ह, ऐसा न य करके तुमलोग
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अनुमान, स पु ष ारा कये गये उप नषद के वण और ती ण ानखड् गके ारा सकल
संशय के आधार अहंकारका छे दन करके दयम थत मुझ परमा माका भजन करो ।।३३।।
यह जगत् मनका वलास है, द खनेपर भी न ाय है, अलातच (लुका रय क बनेठ )
के समान अ य त चंचल है और ममा है—ऐसा समझे। ाता और ेयके भेदसे र हत एक
ान व प आ मा ही अनेक-सा तीत हो रहा है। यह थूल शरीर इ य और
अ तःकरण प तीन कारका वक प गुण के प रणामक रचना है और व के समान
मायाका खेल है, अ ानसे क पत है ।।३४।। इस लये उस दे हा द प यसे हटाकर
तृ णार हत इ य के ापारसे हीन और नरीह होकर आ मान दके अनुभवम म न हो
जाय। य प कभी-कभी आहार आ दके समय यह दे हा दक पंच दे खनेम आता है, तथा प
यह पहले ही आ मव तुसे अ त र और म या समझकर छोड़ा जा चुका है। इस लये वह
पुनः ा तमूलक मोह उ प करनेम समथ नह हो सकता। दे हपातपय त केवल सं कारमा
उसक ती त होती है ।।३५।। जैसे म दरा पीकर उ म पु ष यह नह दे खता क मेरे ारा
पहना आ व शरीरपर है या गर गया, वैसे ही स पु ष जस शरीरसे उसने अपने
व पका सा ा कार कया है, वह ार धवश खड़ा है, बैठा है या दै ववश कह गया या
आया है—न र शरीरस ब धी इन बात पर नह डालता ।।३६।।

ततः त नव य नवृ तृ ण-
तू ण भवे जसुखानुभवो नरीहः ।
सं यते व च यद दमव तुबु या
य ं माय न भवेत् मृ तरा नपातात् ।।३५

दे हं च न रमव थतमु थतं वा


स ो न प य त यतोऽ यगमत् व पम् ।
दै वादपेतमुत दै ववशा पेतं
वासो यथा प रकृतं म दरामदा धः ।।३६

दे होऽ प दै ववशगः खलु कम यावत्


वार भकं तसमी त एव सासुः ।
तं स पंचम ध ढसमा धयोगः
वा ं पुनन भजते तबु व तुः ।।३७

मयैत ं वो व ा गु ं यत् सां ययोगयोः ।


जानीत माऽऽगतं य ं यु म म वव या ।।३८

अहं योग य सां य य स य यत य तेजसः ।

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परायणं ज े ाः यः क तदम य च ।।३९

मां भज त गुणाः सव नगुणं नरपे कम् ।


सु दं यमा मानं सा यासंगादयोऽगुणाः ।।४०
ाण और इ य के साथ यह शरीर भी ार धके अधीन है। इस लये अपने आर भक
(बनानेवाले) कम जबतक ह, तबतक उनक ती ा करता ही रहता है। पर तु आ मव तुका
सा ा कार करनेवाला तथा समा धपय त योगम आ ढ़ पु ष ी, पु , धन आ द पंचके
स हत उस शरीरको फर कभी वीकार नह करता, अपना नह मानता, जैसे जगा आ
पु ष व ाव थाके शरीर आ दको ।।३७।। सनका द ऋ षयो! मने तुमसे जो कुछ कहा है,
वह सां य और योग दोन का गोपनीय रह य है। म वयं भगवान् ,ँ तुमलोग को त व ानका
उपदे श करनेके लये ही यहाँ आया ,ँ ऐसा समझो ।।३८।। व वरो! म योग, सां य, स य,
ऋत (मधुरभाषण), तेज, ी, क त और दम (इ य न ह)—इन सबका परम ग त—परम
अ ध ान ँ ।।३९।। म सम त गुण से र हत ँ और कसीक अपे ा नह रखता। फर भी
सा य, असंगता आ द सभी गुण मेरा ही सेवन करते ह, मुझम ही त त ह; य क म
सबका हतैषी, सु द्, यतम और आ मा ।ँ सच पूछो तो उ ह गुण कहना भी ठ क नह है;
य क वे स वा द गुण के प रणाम नह ह और न य ह ।।४०।।

इ त मे छ स दे हा मुनयः सनकादयः ।
सभाज य वा परया भ यागृणत सं तवैः ।।४१

तैरहं पू जतः स यक् सं तुतः परम ष भः ।


येयाय वकं धाम प यतः परमे नः ।।४२
य उ व! इस कार मने सनका द मु नय के संशय मटा दये। उ ह ने परम भ से
मेरी पूजा क और तु तय ारा मेरी म हमाका गान कया ।।४१।। जब उन परम षय ने
भली-भाँ त मेरी पूजा और तु त कर ली, तब म ाजीके सामने ही अ य होकर अपने
धामम लौट आया ।।४२।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायामेकादश क धे योदशोऽ यायः ।।१३।।

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अथ चतुदशोऽ यायः
भ योगक म हमा तथा यान व धका वणन
उ व उवाच
वद त कृ ण ेयां स ब न वा दनः ।
तेषां वक प ाधा यमुताहो एकमु यता ।।१

भवतोदा तः वा मन् भ योगोऽनपे तः ।


नर य सवतः संगं येन व या वशे मनः ।।२
ीभगवानुवाच
कालेन न ा लये वाणीयं वेदसं ता ।
मयाऽऽदौ णे ो ा धम य यां मदा मकः ।।३

तेन ो ा च पु ाय मनवे पूवजाय सा ।


ततो भृ वादयोऽगृ न् स त महषयः ।।४

ते यः पतृ य त पु ा दे वदानवगु काः ।


मनु याः स ग धवाः स व ाधरचारणाः ।।५
उ वजीने पूछा— ीकृ ण! वाद महा मा आ मक याणके अनेक साधन बतलाते
ह। उनम अपनी-अपनी के अनुसार सभी े ह अथवा कसी एकक धानता
है? ।।१।। मेरे वामी! आपने तो अभी-अभी भ योगको ही नरपे एवं वत साधन
बतलाया है; य क इसीसे सब ओरसे आस छोड़कर मन आपम ही त मय हो जाता
है ।।२।।
भगवान् ीकृ णने कहा— य उ व! यह वेदवाणी समयके फेरसे लयके अवसरपर
लु त हो गयी थी; फर जब सृ का समय आया, तब मने अपने संक पसे ही इसे ाको
उपदे श कया, इसम मेरे भागवतधमका ही वणन है ।।३।। ाने अपने ये पु वाय भुव
मनुको उपदे श कया और उनसे भृगु, अं गरा, मरी च, पुलह, अ , पुल य और तु—इन
सात जाप त-मह षय ने हण कया ।।४।। तदन तर इन षय क स तान दे वता, दानव,
गु क, मनु य, स , ग धव, व ाधर, चारण, क दे व*, क र†, नाग, रा स और
क पु ष‡ आ दने इसे अपने पूवज इ ह षय से ा त कया। सभी जा तय और
य के वभाव—उनक वासनाएँ स व, रज और तमोगुणके कारण भ - भ ह;
इस लये उनम और उनक बु -वृ य म भी अनेक भेद ह। इसी लये वे सभी अपनी-अपनी

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कृ तके अनुसार उस वेदवाणीका भ - भ अथ हण करते ह। वह वाणी ही ऐसी
अलौ कक है क उससे व भ अथ नकलना वाभा वक ही है ।।५-७।। इसी कार
वभावभेद तथा पर परागत उपदे शके भेदसे मनु य क बु म भ ता आ जाती है और कुछ
लोग तो बना कसी वचारके वेद व पाख डमतावल बी हो जाते ह ।।८।। य उ व!
सभीक बु मेरी मायासे मो हत हो रही है; इसीसे वे अपने-अपने कम-सं कार और अपनी-
अपनी चके अनुसार आ मक याणके साधन भी एक नह , अनेक बतलाते ह ।।९।।
पूवमीमांसक धमको, सा ह याचाय यशको, कामशा ी कामको, योगवे ा स य और
शमदमा दको, द डनी तकार ऐ यको, यागी यागको और लोकाय तक भोगको ही मनु य-
जीवनका वाथ—परम लाभ बतलाते ह ।।१०।। कमयोगी लोग य , तप, दान, त तथा
यम- नयम आ दको पु षाथ बतलाते ह। पर तु ये सभी कम ह; इनके फल व प जो लोक
मलते ह, वे उ प और नाशवाले ह। कम का फल समा त हो जानेपर उनसे ःख ही
मलता है और सच पूछो, तो उनक अ तम ग त घोर अ ान ही है। उनसे जो सुख मलता
है, वह तु छ ह—नग य है और वे लोग भोगके समय भी असूया आ द दोष के कारण
शोकसे प रपूण ह। (इस लये इन व भ साधन के फेरम न पड़ना चा हये) ।।११।।

कदे वाः क रा नागा र ः क पु षादयः ।


ब य तेषां कृतयो रजःस वतमोभुवः ।।६

या भभूता न भ ते भूतानां मतय तथा ।


यथा कृ त सवषां च ा वाचः व त ह ।।७

एवं कृ तवै च याद् भ ते मतयो नृणाम् ।


पार पयण केषा चत् पाख डमतयोऽपरे ।।८

म मायामो हत धयः पु षाः पु षषभ ।


ेयो वद यनेका तं यथाकम यथा च ।।९

धममेके यश ा ये कामं स यं दमं शमम् ।


अ ये वद त वाथ वा ऐ य यागभोजनम् ।।१०

के चद् य तपोदानं ता न नयमान् यमान् ।


आ तव त एवैषां लोकाः कम व न मताः ।
ःखोदका तमो न ाः ु ान दाः शुचा पताः ।।११

म य पता मनः स य नरपे य सवतः ।

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मयाऽऽ मना सुखं य त् कुतः याद् वषया मनाम् ।।१२
य उ व! जो सब ओरसे नरपे —बेपरवाह हो गया है, कसी भी कम या फल
आ दक आव यकता नह रखता और अपने अ तःकरणको सब कारसे मुझे ही सम पत
कर चुका है, परमान द व प म उसक आ माके पम फु रत होने लगता ँ। इससे वह
जस सुखका अनुभव करता है, वह वषय-लोलुप ा णय को कसी कार मल नह
सकता ।।१२।। जो सब कारके सं ह-प र हसे र हत—अ कचन है, जो अपनी इ य पर
वजय ा त करके शा त और समदश हो गया है, जो मेरी ा तसे ही मेरे सा यका
अनुभव करके ही सदा-सवदा पूण स तोषका अनुभव करता है, उसके लये आकाशका एक-
एक कोना आन दसे भरा आ है ।।१३।। जयने अपनेको मुझे स प दया है, वह मुझे
छोड़कर न तो ाका पद चाहता है और न दे वराज इ का, उसके मनम न तो सावभौम
स ाट् बननेक इ छा होती है और न वह वगसे भी े रसातलका ही वामी होना चाहता
है। वह योगक बड़ी बड़ी स य और मो तकक अ भलाषा नह करता ।।१४।। उ व!
मुझे तु हारे-जैसे ेमी भ जतने यतम ह, उतने य मेरे पु ा, आ मा शंकर, सगे
भाई बलरामजी, वयं अधा गनी ल मीजी और मेरा अपना आ मा भी नह है ।।१५।। जसे
कसीक अपे ा नह , जो जगत्के च तनसे सवथा उपरत होकर मेरे ही मनन- च तनम
त लीन रहता है और राग- े ष न रखकर सबके त समान रखता है, उस महा माके
पीछे -पीछे म नर तर यह सोचकर घूमा करता ँ क उसके चरण क धूल उड़कर मेरे ऊपर
पड़ जाय और म प व हो जाऊँ ।।१६।। जो सब कारके सं ह-प र हसे र हत ह—
यहाँतक क शरीर आ दम भी अहंता-ममता नह रखते, जनका च मेरे ही ेमके रंगम रँग
गया है, जो संसारक वासना से शा त-उपरत हो चुके ह और जो अपनी मह ा—
उदारताके कारण वभावसे ही सम त ा णय के त दया और ेमका भाव रखते ह, कसी
कारक कामना जनक बु का पश नह कर पाती, उ ह मेरे जस परमान द व पका
अनुभव होता है, उसे और कोइ नह जान सकता; य क वह परमान द तो केवल
नरपे तासे ही ा त होता है ।।१७।।

अ कचन य दा त य शा त य समचेतसः ।
मया स तु मनसः सवाः सुखमया दशः ।।१३

न पारमे ं न महे ध यं
न सावभौमं न रसा धप यम् ।
न योग स रपुनभवं वा
म य पता मे छ त मद् वना यत् ।।१४

न तथा मे यतम आ मयो नन शंकरः ।


न च संकषणो न ीनवा मा च यथा भवान् ।।१५

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नरपे ं मु न शा तं नवरं समदशनम् ।
अनु जा यहं न यं पूयेये यङ् रेणु भः ।।१६

न क चना म यनुर चेतसः


शा ता महा तोऽ खलजीवव सलाः ।
कामैरनाल ध धयो जुष त यत्
त ैरपे यं न व ः सुखं मम ।।१७

बा यमानोऽ प म ो वषयैर जते यः ।


ायः ग भया भ या वषयैना भभूयते ।।१८
उ वजी! मेरा जो भ अभी जते य नह हो सका है और संसारके वषय बार-बार
उसे बाधा प ँचाते रहते ह—अपनी ओर ख च लया करते ह, वह भी ण- णम बढ़नेवाली
मेरी ग भ भ के भावसे ायः वषय से परा जत नह होता ।।१८।। उ व! जैसे
धधकती ई आग लक ड़य के बड़े ढे रको भी जलाकर खाक कर दे ती है, वैसे ही मेरी भ
भी सम त पाप-रा शको पूणतया जला डालती है ।।१९।। उ व! योग-साधन, ान- व ान,
धमानु ान, जप-पाठ और तप- याग मुझे ा त करानेम उतने समथ नह ह, जतनी दन -
दन बढ़नेवाली अन य ेममयी मेरी भ ।।२०।। म संत का यतम आ मा ,ँ म अन य
ा और अन य भ से ही पकड़म आता ँ। मुझे ा त करनेका यह एक ही उपाय है।
मेरी अन य भ उन लोग को भी प व —जा तदोषसे मु कर दे ती है, जो ज मसे ही
चा डाल ह ।।२१।। इसके वपरीत जो मेरी भ से व चत ह, उनके च को स य और
दयासे यु , धम और तप यासे यु व ा भी भलीभाँ त प व करनेम असमथ है ।।२२।।
जबतक सारा शरीर पुल कत नह हो जाता, च पघलकर गद्गद नह हो जाता, आन दके
आँसू आँख से छलकने नह लगते तथा अ तरंग और ब हरंग भ क बाढ़म च डू बने-
उतराने नह लगता, तबतक इसके शु होनेक कोई स भावना नह है ।।२३।। जसक
वाणी ेमसे गद्गद हो रही है, च पघलकर एक ओर बहता रहता है, एक णके लये भी
रोनेका ताँता नह टू टता, पर तु जो कभी-कभी खल- खलाकर हँसने भी लगता है, कह
लाज छोड़कर ऊँचे वरसे गाने लगता है, तो कह नाचने लगता है, भैया उ व! मेरा वह
भ न केवल अपनेको ब क सारे संसारको प व कर दे ता है ।।२४।। जैसे आगम तपानेपर
सोना मैल छोड़ दे ता है— नखर जाता है और अपने असली शु पम थत हो जाता है,
वैसे ही मेरे भ योगके ारा आ मा कम-वासना से मु होकर मुझको ही ा त हो जाता
है, य क म ही उसका वा त वक व प ँ ।।२५।। उ वजी! मेरी परमपावन लीला-
कथाके वण-क तनसे य - य च का मैल धुलता जाता है, य - य उसे सू म-व तुके—
वा त वक त वके दशन होने लगते ह—जैसे अंजनके ारा ने का दोष मटनेपर उनम सू म
व तु को दे खनेक श आने लगती है ।।२६।।

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यथा नः सुसमृ ा चः करो येधां स भ मसात् ।
तथा म षया भ वैनां स कृ नशः ।।१९

न साधय त मां योगो न सां यं धम उ व ।


न वा याय तप यागो यथा भ ममो जता ।।२०

भ याहमेकया ा ः याऽऽ मा यः सताम् ।


भ ः पुना त म ा पाकान प स भवात् ।।२१

धमः स यदयोपेतो व ा वा तपसा वता ।


म यापेतमा मानं न स यक् पुना त ह ।।२२

कथं वना रोमहष वता चेतसा वना ।


वनाऽऽन दा ुकलया शु येद ् भ या वनाऽऽशयः ।।२३

वाग् गद्गदा वते य य च ं


द यभी णं हस त व च च ।
वल ज उद्गाय त नृ यते च
म यु ो भुवनं पुना त ।।२४

यथा नना हेम मलं जहा त


मातं पुनः वं भजते च पम् ।
आ मा च कमानुशयं वधूय
म योगेन भज यथो माम् ।।२५

यथा यथाऽऽ मा प रमृ यतेऽसौ


म पु यगाथा वणा भधानैः ।
तथा तथा प य त व तु सू मं
च ुयथैवांजनस यु म् ।।२६

वषयान् यायत ं वषयेषु वष जते ।


मामनु मरत ं म येव वलीयते ।।२७

त मादसद भ यानं यथा व मनोरथम् ।


ह वा म य समाध व मनो म ावभा वतम् ।।२८

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ीणां ीसं गनां संगं य वा रत आ मवान् ।
ेमे व व आसीन तये मामत तः ।।२९

न तथा य भवेत् लेशो ब ध ा य संगतः ।


यो ष संगाद् यथा पुंसो यथा त सं गसंगतः ।।३०
उ व उवाच
यथा वामर व दा या शं वा यदा मकम् ।
याये मुमु रु ेत मे यानं वं व ु मह स ।।३१
ीभगवानुवाच
सम आसन आसीनः समकायो यथासुखम् ।
ह तावु संग आधाय वनासा कृते णः ।।३२

ाण य शोधये माग पूरकु भकरेचकैः ।


वपययेणा प शनैर यसे जते यः ।।३३

व छ म कारं घ टानादं वसोणवत् ।


ाणेनोद य त ाथ पुनः संवेशयेत् वरम् ।।३४

एवं णवसंयु ं ाणमेव सम यसेत् ।


दशकृ व षवणं मासादवाग् जता नलः ।।३५
जो पु ष नर तर वषय- च तन कया करता है, उसका च वषय म फँस जाता है
और जो मेरा मरण करता है, उसका च मुझम त लीन हो जाता है ।।२७।। इस लये तुम
सरे साधन और फल का च तन छोड़ दो। अरे भाई! मेरे अ त र और कुछ है ही नह ,
जो कुछ जान पड़ता है, वह ठ क वैसा ही है जैसे व अथवा मनोरथका रा य। इस लये मेरे
च तनसे तुम अपना च शु कर लो और उसे पूरी तरहसे—एका तासे मुझम ही लगा
दो ।।२८।। संयमी पु ष य और उनके े मय का संग रसे ही छोड़कर, प व एका त
थानम बैठकर बड़ी सावधानीसे मेरा ही च तन करे ।।२९।। यारे उ व! य के संगसे
और ीसं गय के—ल पट के संगसे पु षको जैसे लेश और ब धनम पड़ना पड़ता है, वैसा
लेश और फँसावट और कसीके भी संगसे नह होती ।।३०।।
उ वजीने पूछा—कमलनयन यामसु दर! आप कृपा करके यह बतलाइये क मुमु ु
पु ष आपका कस पसे, कस कार और कस भावसे यान करे? ।।३१।।
भगवान् ीकृ णने कहा— य उ व! जो न तो ब त ऊँचा हो और न ब त नीचा ही
—ऐसे आसनपर शरीरको सीधा रखकर आरामसे बैठ जाय, हाथ को अपनी गोदम रख ले
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और अपनी ना सकाके अ भागपर जमावे ।।३२।। इसके बाद पूरक, कु भक और रेचक
तथा रेचक, कु भक और पूरक—इन ाणायाम के ारा ना ड़य का शोधन करे। ाणायामका
अ यास धीरे-धीरे बढ़ाना चा हये और उसके साथ-साथ इ य को जीतनेका भी अ यास
करना चा हये ।।३३।। दयम कमलनालगत पतले सूतके समान ॐकारका च तन करे,
ाणके ारा उसे ऊपर ले जाय और उसम घ टानादके समान वर थर करे। उस वरका
ताँता टू टने न पावे ।।३४।। इस कार त दन तीन समय दस-दस बार ॐकार-स हत
ाणायामका अ यास करे। ऐसा करनेसे एक महीनेके अंदर ही ाणवायु वशम हो जाता
है ।।३५।। इसके बाद ऐसा च तन करे क दय एक कमल है, वह शरीरके भीतर इस कार
थत है मानो उसक डंडी तो ऊपरक ओर है और मुँह नीचेक ओर। अब यान करना
चा हये क उसका मुख ऊपरक ओर होकर खल गया है, उसके आठ दल (पँखु ड़याँ) ह
और उनके बीचोबीच पीली-पीली अ य त सुकुमार क णका (ग ) है ।।३६।। क णकापर
मशः सूय, च मा और अ नका यास करना चा हये। तदन तर अ नके अंदर मेरे इस
पका मरण करना चा हये। मेरा यह व प यानके लये बड़ा ही मंगलमय है ।।३७।।
पु डरीकम तः थमू वनालमधोमुखम् ।
या वो वमुखमु म प ं सक णकम् ।।३६

क णकायां यसेत् सूयसोमा नीनु रो रम् ।


व म ये मरेद ् पं ममैतद् यानमंगलम् ।।३७

समं शा तं सुमुखं द घचा चतुभुजम् ।


सुचा सु दर ीवं सुकपोलं शु च मतम् ।।३८

समानकण व य त फुर मकरकु डलम् ।


हेमा बरं घन यामं ीव स ी नकेतनम् ।।३९

शंखच गदाप वनमाला वभू षतम् ।


नूपुरै वलस पादं कौ तुभ भया युतम् ।।४०

ु करीटकटकक टसू ांगदायुतम् ।



सवागसु दरं ं सादसुमुखे णम् ।
सुकुमारम भ यायेत् सवागेषु मनो दधत् ।।४१

इ याणी याथ यो मनसाऽऽकृ य त मनः ।


बु या सार थना धीरः णये म य सवतः ।।४२
मेरे अवयव क गठन बड़ी ही सुडौल है। रोम-रोमसे शा त टपकती है। मुखकमल
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अ य त फु लत और सु दर है। घुटन तक लंबी मनोहर चार भुजाएँ ह। बड़ी ही सु दर और
मनोहर गरदन है। मरकत-म णके समान सु न ध कपोल ह। मुखपर म द-म द मुसकानक
अनोखी ही छटा है। दोन ओरके कान बराबर ह और उनम मकराकृत कु डल झल मल-
झल मल कर रहे ह। वषाकालीन मेघके समान यामल शरीरपर पीता बर फहरा रहा है।
ीव स एवं ल मीजीका च व ः थलपर दाय-बाय वराजमान है। हाथ म मशः शंख,
च , गदा एवं प धारण कये ए ह। गलेम वनमाला लटक रही है। चरण म नूपुर शोभा दे
रहे ह, गलेम कौ तुभम ण जगमगा रही है। अपने-अपने थानपर चमचमाते ए करीट,
कंगन, करधनी और बाजूबंद शोभायमान हो रहे ह। मेरा एक-एक अंग अ य त सु दर एवं
दयहारी है। सु दर मुख और यारभरी चतवन कृपा- सादक वषा कर रही है। उ व! मेरे
इस सुकुमार पका यान करना चा हये और अपने मनको एक-एक अंगम लगाना
चा हये ।।३८-४१।।
बु मान् पु षको चा हये क मनके ारा इ य को उनके वषय से ख च ले और
मनको बु प सार थक सहायतासे मुझम ही लगा दे , चाहे मेरे कसी भी अंगम य न
लगे ।।४२।। जब सारे शरीरका यान होने लगे, तब अपने च को ख चकर एक थानम
थर करे और अ य अंग का च तन न करके केवल म द-म द मुसकानक छटासे यु मेरे
मुखका ही यान करे ।।४३।। जब च मुखार व दम ठहर जाय, तब उसे वहाँसे हटाकर
आकाशम थर करे। तदन तर आकाशका च तन भी यागकर मेरे व पम आ ढ हो जाय
और मेरे सवा कसी भी व तुका च तन न करे ।।४४।। जब इस कार च समा हत हो
जाता है, तब जैसे एक यो त सरी यो तसे मलकर एक हो जाती है, वैसे ही अपनेम मुझे
और मुझ सवा माम अपनेको अनुभव करने लगता है ।।४५।। जो योगी इस कार ती
यानयोगके ारा मुझम ही अपने च का संयम करता है, उसके च से व तुक अनेकता,
त स ब धी ान और उनक ा तके लये होनेवाले कम का म शी ही नवृ हो जाता
है ।।४६।।

तत् सव ापकं च माकृ यैक धारयेत् ।


ना या न च तयेद ् भूयः सु मतं भावये मुखम् ।।४३

त ल धपदं च माकृ य ो न धारयेत् ।


त च य वा मदारोहो न क चद प च तयेत् ।।४४

एवं समा हतम तमामेवा मानमा म न ।


वच े म य सवा मन् यो त य त ष संयुतम् ।।४५

यानेने थं सुती ेण युंजतो यो गनो मनः ।


संया य याशु नवाणं ान या मः ।।४६

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इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायामेकादश क धे चतुदशोऽ यायः ।।१४।।

* म और वेदा द ग धसे र हत होनेके कारण जनके वषयम ‘ये दे वता ह या मनु य’


ऐसा स दे ह हो, वे पा तर- नवासी मनु य।
† मुख तथा शरीरक आकृ तसे कुछ-कुछ मनु यके समान ाणी।
‡ कुछ-कुछ पु षके समान तीत होनेवाले वानरा द।

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अथ प चदशोऽ यायः
भ -भ स य के नाम और ल ण
ीभगवानुवाच
जते य य यु य जत ास य यो गनः ।
म य धारयत ेत उप त त स यः ।।१
उ व उवाच
कया धारणया का वत् कथं वत् स र युत ।
क त वा स यो ू ह यो गनां स दो भवान् ।।२
ीभगवानुवाच
स योऽ ादश ो ा धारणायोगपारगैः ।
तासाम ौ म धाना दशैव गुणहेतवः ।।३
भगवान् ीकृ ण कहते ह— य उ व! जब साधक इ य, ाण और मनको अपने
वशम करके अपना च मुझम लगाने लगता है, मेरी धारणा करने लगता है, तब उसके
सामने ब त-सी स याँ उप थत होती ह ।।१।।
उ वजीने कहा—अ युत! कौन-सी धारणा करनेसे कस कार कौन-सी स ात
होती है और उनक सं या कतनी है, आप ही यो गय को स याँ दे ते ह, अतः आप इनका
वणन क जये ।।२।।
भगवान् ीकृ णने कहा— य उ व! धारणायोगके पारगामी यो गय ने अठारह
कारक स याँ बतलायी ह। उनम आठ स याँ तो धान पसे मुझम ही रहती ह और
सर म यून; तथा दस स वगुणके वकाससे भी मल जाती ह ।।३।। उनम तीन स याँ तो
शरीरक ह—‘अ णमा’, ‘म हमा’ और ‘ल घमा’। इ य क एक स है—‘ ा त’।
लौ कक और पारलौ कक पदाथ का इ छानुसार अनुभव करनेवाली स ‘ ाका य’ है।
माया और उसके काय को इ छानुसार संचा लत करना ‘ई शता’ नामक स है ।।४।।
वषय म रहकर भी उनम आस न होना ‘व शता’ है और जस- जस सुखक कामना करे,
उसक सीमातक प ँच जाना ‘कामावसा यता’ नामक आठव स है। ये आठ स याँ
मुझम वभावसे ही रहती ह और ज ह म दे ता ँ, उ ह को अंशतः ा त होती ह ।।५।। इनके
अ त र और भी कई स याँ ह। शरीरम भूख- यास आ द वेग का न होना, ब त रक
व तु दे ख लेना और ब त रक बात सुन लेना, मनके साथ ही शरीरका उस थानपर प ँच
जाना, जो इ छा हो वही प बना लेना; सरे शरीरम वेश करना, जब इ छा हो तभी शरीर
छोड़ना, अ सरा के साथ होनेवाली दे व ड़ाका दशन, संक पक स , सब जगह सबके
ारा बना ननु-नचके आ ापालन—ये दस स याँ स वगुणके वशेष वकाससे होती
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ह ।।६-७।। भूत, भ व य और वतमानक बात जान लेना; शीत-उ ण, सुख- ःख और राग-
ेष आ द के वशम न होना, सरेके मन आ दक बात जान लेना; अ न, सूय, जल,
वष आ दक श को त भत कर दे ना और कसीसे भी परा जत न होना—ये पाँच
स याँ भी यो गय को ा त होती ह ।।८।। य उ व! योग-धारणा करनेसे जो स याँ
ा त होती ह, उनका मने नाम- नदशके साथ वणन कर दया। अब कस धारणासे कौन-सी
स कैसे ा त होती है, यह बतलाता ँ, सुनो ।।९।।

अ णमा म हमा मूतल घमा ा त र यैः ।


ाका यं ुत ेषु श ेरणमी शता ।।४

गुणे वसंगो व शता य काम तदव य त ।


एता मे स यः सौ य अ ावौ प का मताः ।।५

अनू मम वं दे हेऽ मन् र वणदशनम् ।


मनोजवः काम पं परकाय वेशनम् ।।६

व छ दमृ युदवानां सह डानुदशनम् ।


यथासंक पसं स रा ा तहताग तः ।।७

काल वम ं पर च ा भ ता ।
अ यका बु वषाद नां त भोऽपराजयः ।।८

एता ो े शतः ो ा योगधारण स यः ।


यया धारणया या याद् यथा वा या बोध मे ।।९

भूतसू मा म न म य त मा ं धारये मनः ।


अ णमानमवा ो त त मा ोपासको मम ।।१०
य उ व! पंचभूत क सू मतम मा ाएँ मेरा ही शरीर है। जो साधक केवल मेरे उसी
शरीरक उपासना करता है और अपने मनको तदाकार बनाकर उसीम लगा दे ता है अथात्
मेरे त मा ा मक शरीरके अ त र और कसी भी व तुका च तन नह करता, उसे
‘अ णमा’ नामक स अथात् प थरक च ान आ दम भी वेश करनेक श —अणुता
ा त हो जाती है ।।१०।। मह वके पम भी म ही का शत हो रहा ँ और उस पम
सम त ावहा रक ान का के ँ। जो मेरे उस पम अपने मनको मह वाकार करके
त मय कर दे ता है, उसे ‘म हमा’ नामक स ा त होती है, और इसी कार आकाशा द
पंचभूत म—जो मेरे ही शरीर ह—अलग-अलग मन लगानेसे उन-उनक मह ा ा त हो

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जाती है, यह भी ‘म हमा’ स के ही अ तगत है ।।११।। जो योगी वायु आ द चार भूत के
परमाणु को मेरा ही प समझकर च को तदाकार कर दे ता है, उसे ‘ल घमा’ स ात
हो जाती है—उसे परमाणु प कालके* समान सू म व तु बननेका साम य ा त हो जाता
है ।।१२।। जो सा वक अहंकारको मेरा व प समझकर मेरे उसी पम च क धारणा
करता है, वह सम त इ य का अ ध ाता हो जाता है। मेरा च तन करनेवाला भ इस
कार ‘ ा त’ नामक स ा त कर लेता है ।।१३।। जो पु ष मुझ मह वा भमानी
सू ा माम अपना च थर करता है, उसे मुझ अ ज मा (सू ा मा) क ‘ ाका य’
नामक स ा त होती है— जससे इ छानुसार सभी भोग ा त हो जाते ह ।।१४।। जो
गुणमयी मायाके वामी मेरे काल- व प व पक धारणा करता है, वह शरीर और
जीव को अपने इ छानुसार े रत करनेक साम य ा त कर लेता है। इस स का नाम
‘ई श व’ है ।।१५।। जो योगी मेरे नारायण- व पम— जसे तुरीय और भगवान् भी कहते ह
—मनको लगा दे ता है, मेरे वाभा वक गुण उसम कट होने लगते ह और उसे ‘व शता’
नामक स ा त हो जाती है ।।१६।। नगुण भी म ही ँ। जो अपना नमल मन मेरे
इस व पम थत कर लेता है, उसे परमान द- व पणी ‘कामावसा यता’ नामक
स ा त होती है। इसके मलनेपर उसक सारी कामनाएँ पूण हो जाती ह, समा त हो
जाती ह ।।१७।। य उ व! मेरा वह प, जो ेत पका वामी है, अ य त शु और
धममय है। जो उसक धारणा करता है, वह भूख- यास, ज म-मृ यु और शोक-मोह—इन छः
ऊ मय से मु हो जाता है और उसे शु व पक ा त होती है ।।१८।। म ही सम -
ाण प आकाशा मा ँ। जो मेरे इस व पम मनके ारा अनाहत नादका च तन करता है,
वह ‘ र वण’ नामक स से स प हो जाता है और आकाशम उपल ध होनेवाली व वध
ा णय क बोली सुन-समझ सकता है ।।१९।। जो योगी ने को सूयम और सूयको ने म
संयु कर दे ता है और दोन के संयोगम मन-ही-मन मेरा यान करता है, उसक सू म
हो जाती है, उसे ‘ रदशन’ नामक स ा त होती है और वह सारे संसारको दे ख सकता
है ।।२०।। मन और शरीरको ाणवायुके स हत मेरे साथ संयु कर दे और मेरी धारणा करे
तो इससे ‘मनोजव’ नामक स ा त हो जाती है। इसके भावसे वह योगी जहाँ भी
जानेका संक प करता है, वह उसका शरीर उसी ण प ँच जाता है ।।२१।। जस समय
योगी मनको उपादान-कारण बनाकर कसी दे वता आ दका प धारण करना चाहता है तो
वह अपने मनके अनुकूल वैसा ही प धारण कर लेता है। इसका कारण यह है क उसने
अपने च को मेरे साथ जोड़ दया है ।।२२।। जो योगी सरे शरीरम वेश करना चाहे, वह
ऐसी भावना करे क म उसी शरीरम ँ। ऐसा करनेसे उसका ाण वायु प धारण कर लेता है
और वह एक फूलसे सरे फूलपर जानेवाले भ रेके समान अपना शरीर छोड़कर सरे
शरीरम वेश कर जाता है ।।२३।। योगीको य द शरीरका प र याग करना हो तो एड़ीसे
गुदा ारको दबाकर ाणवायुको मशः दय, व ः थल, क ठ और म तकम ले जाय। फर
र के ारा उसे म लीन करके शरीरका प र याग कर दे ।।२४।। य द उसे
दे वता के वहार थल म ड़ा करनेक इ छा हो, तो मेरे शु स वमय व पक भावना

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करे। ऐसा करनेसे स वगुणक अंश व पा सुर-सु द रयाँ वमानपर चढ़कर उसके पास प ँच
जाती ह ।।२५।।

मह या म म य परे यथासं थं मनो दधत् ।


म हमानमवा ो त भूतानां च पृथक् पृथक् ।।११

परमाणुमये च ं भूतानां म य रंजयन् ।


कालसू माथतां योगी ल घमानमवा ुयात् ।।१२

धारयन् म यहंत वे मनो वैका रकेऽ खलम् ।


सव याणामा म वं ा तं ा ो त म मनाः ।।१३

मह या म न यः सू े धारये म य मानसम् ।
ाका यं पारमे ं मे व दतेऽ ज मनः ।।१४

व णौ यधी रे च ं धारयेत् काल व हे ।


स ई श वमवा ो त े े चोदनाम् ।।१५

नारायणे तुरीया ये भगव छ दश दते ।


मनो म यादधद् योगी म मा व शता मयात् ।।१६

नगुणे ण म य धारयन् वशदं मनः ।


परमान दमा ो त य कामोऽवसीयते ।।१७

े पपतौ च ं शु े धममये म य ।

धारय वेततां या त षडू मर हतो नरः ।।१८

म याकाशा म न ाणे मनसा घोषमु हन् ।


त ोपल धा भूतानां हंसो वाचः शृणो यसौ ।।१९

च ु व र संयो य व ारम प च ु ष ।
मां त मनसा यायन् व ं प य त सू म क् ।।२०

मनो म य सुसंयो य दे हं तदनु वायुना ।


म ारणानुभावेन त ा मा य वै मनः ।।२१

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यदा मन उपादाय यद् यद् पं बुभूष त ।
त द् भवे मनो पं म ोगबलमा यः ।।२२

परकायं वशन् स आ मानं त भावयेत् ।


प डं ह वा वशेत् ाणो वायुभूतः षडङ् वत् ।।२३

पा याऽऽपी गुदं ाणं रःक ठमूधसु ।


आरो य र ण
े नी वो सृजे नुम् ।।२४

वह र यन् सुरा डे म थं स वं वभावयेत् ।


वमानेनोप त त स ववृ ीः सुर यः ।।२५

यथा संक पयेद ् बु या यदा वा म परः पुमान् ।


म य स ये मनो युंजं तथा तत् समुपा ुते ।।२६

यो वै म ावमाप ई शतुव शतुः पुमान् ।


कुत त वह येत त य चा ा यथा मम ।।२७

म या शु स व य यो गनो धारणा वदः ।


त य ैका लक बु ज ममृ यूपबृं हता ।।२८

अ या द भन ह येत मुनेय गमयं वपुः ।


म ोग ा त च य यादसामुदकं यथा ।।२९

म भूतीर भ यायन् ीव सा वभू षताः ।


वजातप जनैः स भवेदपरा जतः ।।३०

उपासक य मामेवं योगधारणया मुनेः ।


स यः पूवक थता उप त यशेषतः ।।३१

जते य य दा त य जत ासा मनो मुनेः ।


म ारणां धारयतः का सा स ः सु लभा ।।३२

अ तरायान् वद येता युंजतो योगमु मम् ।


मया स प मान य काल पणहेतवः ।।३३

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जस पु षने मेरे स यसंक प व पम अपना च थर कर दया है, उसीके यानम
संल न है, वह अपने मनसे जस समय जैसा संक प करता है, उसी समय उसका वह संक प
स हो जाता है ।।२६।। म ‘ई श व’ और ‘व श व’—इन दोन स य का वामी ँ;
इस लये कभी कोई मेरी आ ा टाल नह सकता। जो मेरे उस पका च तन करके उसी
भावसे यु हो जाता है, मेरे समान उसक आ ाको भी कोई टाल नह सकता ।।२७।। जस
योगीका च मेरी धारणा करते-करते मेरी भ के भावसे शु हो गया है, उसक बु
ज म-मृ यु आ द अ वषय को भी जान लेती है। और तो या—भूत, भ व य और
वतमानक सभी बात उसे मालूम हो जाती ह ।।२८।। जैसे जलके ारा जलम रहनेवाले
ा णय का नाश नह होता, वैसे ही जस योगीने अपना च मुझम लगाकर श थल कर
दया है, उसके योगमय शरीरको अ न, जल आ द कोई भी पदाथ न नह कर
सकते ।।२९।। जो पु ष ीव स आ द च और शंख-गदा-च -प आ द आयुध से
वभू षत तथा वजा-छ -चँवर आ दसे स प मेरे अवतार का यान करता है, वह अजेय हो
जाता है ।।३०।।
इस कार जो वचारशील पु ष मेरी उपासना करता है और योगधारणाके ारा मेरा
च तन करता है, उसे वे सभी स याँ पूणतः ा त हो जाती ह, जनका वणन मने कया
है ।।३१।। यारे उ व! जसने अपने ाण, मन और इ य पर वजय ा त कर ली है, जो
संयमी है और मेरे ही व पक धारणा कर रहा है, उसके लये ऐसी कोई भी स नह , जो
लभ हो। उसे तो सभी स याँ ा त ही ह ।।३२।। पर तु े पु ष कहते ह क जो लोग
भ योग अथवा ानयोगा द उ म योग का अ यास कर रहे ह, जो मुझसे एक हो रहे ह
उनके लये इन स य का ा त होना एक व न ही है; य क इनके कारण थ ही उनके
समयका पयोग होता है ।।३३।। जगत्म ज म, ओष ध, तप या और म ा दके ारा
जतनी स याँ ा त होती ह, वे सभी योगके ारा मल जाती ह; पर तु योगक अ तम
सीमा—मेरे सा य, सालो य आ दक ा त बना मुझम च लगाये कसी भी साधनसे
नह ा त हो सकती ।।३४।। वा दय ने ब त-से साधन बतलाये ह—योग, सां य और
धम आ द। उनका एवं सम त स य का एकमा म ही हेतु, वामी और भु ँ ।।३५।।
जैसे थूल पंचभूत म बाहर, भीतर—सव सू म पंच-महाभूत ही ह, सू म भूत के अ त र
थूल भूत क कोई स ा ही नह है, वैसे ही म सम त ा णय के भीतर ा पसे और बाहर
य पसे थत ँ। मुझम बाहर-भीतरका भेद भी नह है; य क म नरावरण, एक—
अ तीय आ मा ँ ।।३६।।

ज मौष धतपोम ैयावती रह स यः ।


योगेना ो त ताः सवा ना यैय गग त जेत् ।।३४

सवासाम प स नां हेतुः प तरहं भुः ।


अहं योग य सां य य धम य वा दनाम् ।।३५

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अहमा माऽऽ तरो बा ोऽनावृतः सवदे हनाम् ।
यथा भूता न भूतेषु ब हर तः वयं तथा ।।३६
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायामेकादश क धे प चदशोऽ यायः ।।१५।।

* पृ वी आ दके परमाणु म गु व व मान रहता है। इसीसे उसका भी नषेध करनेके


लये कालके परमाणुक समानता बतायी है।

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अथ षोडशोऽ यायः
भगवान्क वभू तय का वणन
उ व उवाच
वं परमं सा ादना तमपावृतम् ।
सवषाम प भावानां ाण थ य ययो वः ।।१

उ चावचेषु भूतेषु यमकृता म भः ।


उपासते वां भगवन् याथात येन ा णाः ।।२

येषु येषु च भावेषु भ या वां परमषयः ।


उपासीनाः प ते सं स तद् वद व मे ।।३

गूढ र स भूता मा भूतानां भूतभावन ।


न वां प य त भूता न प य तं मो हता न ते ।।४
उ वजीने कहा—भगवन्! आप वयं पर ह, न आपका आ द है और न अ त।
आप आवरण-र हत, अ तीय त व ह। सम त ा णय और पदाथ क उ प , थ त, र ा
और लयके कारण भी आप ही ह। आप ऊँचे-नीचे सभी ा णय म थत ह; पर तु जन
लोग ने अपने मन और इ य को वशम नह कया है, वे आपको नह जान सकते। आपक
यथो चत उपासना तो वे ा पु ष ही करते ह ।।१-२।। बड़े-बड़े ऋ ष-मह ष आपके जन
प और वभू तय क परम भ के साथ उपासना करके स ा त करते ह, वह आप
मुझसे क हये ।।३।। सम त ा णय के जीवनदाता भो! आप सम त ा णय के अ तरा मा
ह। आप उनम अपनेको गु त रखकर लीला करते रहते ह। आप तो सबको दे खते ह, पर तु
जगत्के ाणी आपक मायासे ऐसे मो हत हो रहे ह क वे आपको नह दे ख पाते ।।४।।
अ च य ऐ यस प भो! पृ वी, वग, पाताल तथा दशा- व दशा म आपके भावसे
यु जो-जो भी वभू तयाँ ह, आप कृपा करके मुझसे उनका वणन क जये। भो! म
आपके उन चरणकमल क व दना करता ँ, जो सम त तीथ को भी तीथ बनानेवाले
ह ।।५।।

याः का भूमौ द व वै रसायां


वभूतयो द ु महा वभूते ।
ता म मा या नुभा वता ते
नमा म ते तीथपदाङ् प म् ।।५

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ीभगवानुवाच
एवमेतदहं पृ ः ं वदां वर ।
युयु सुना वनशने सप नैरजुनेन वै ।।६

ा वा ा तवधं ग मधम रा यहेतुकम् ।


ततो नवृ ो ह ताहं हतोऽय म त लौ ककः ।।७

स तदा पु ष ा ो यु या मे तबो धतः ।


अ यभाषत मामेवं यथा वं रणमूध न ।।८

अहमा मो वामीषां भूतानां सु द रः ।


अहं सवा ण भूता न तेषां थ यु वा ययः ।।९

अहं ग तग तमतां कालः कलयतामहम् ।


गुणानां चा यहं सा यं गु ण यौ प को गुणः ।।१०

गु णनाम यहं सू ं महतां च महानहम् ।


सू माणाम यहं जीवो जयानामहं मनः ।।११

हर यगभ वेदानां म ाणां णव वृत् ।


अ राणामकारोऽ म पदा न छ दसामहम् ।।१२

इ ोऽहं सवदे वानां वसूनाम म ह वाट् ।


आ द यानामहं व णू ाणां नीललो हतः ।।१३
भगवान् ीकृ णने कहा— य उ व! तुम का मम समझनेवाल म शरोम ण हो।
जस समय कु े म कौरव-पा डव का यु छड़ा आ था, उस समय श ु से यु के
लये त पर अजुनने मुझसे यही कया था ।।६।।
अजुनके मनम ऐसी धारणा ई क कुटु बय को मारना, और सो भी रा यके लये, ब त
ही न दनीय अधम है। साधारण पु ष के समान वह यह सोच रहा था क ‘म मारनेवाला ँ
और ये सब मरनेवाले ह। यह सोचकर वह यु से उपरत हो गया ।।७।। तब मने रणभू मम
ब त-सी यु याँ दे कर वीर शरोम ण अजुनको समझाया था। उस समय अजुनने भी मुझसे
यही कया था, जो तुम कर रहे हो ।।८।। उ वजी! म सम त ा णय का आ मा,
हतैषी, सु द् और ई र— नयामक ँ। म ही इन सम त ा णय और पदाथ के पम ँ
और इनक उ प , थ त एवं लयका कारण भी ँ ।।९।। ग तशील पदाथ म म ग त ।ँ
अपने अधीन करनेवाल म म काल ँ। गुण म म उनक मूल व पा सा याव था ँ और
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जतने भी गुणवान् पदाथ ह, उनम उनका वाभा वक गुण ँ ।।१०।। गुणयु व तु म म
या-श - धान थम काय सू ा मा ँ और महान म ान-श धान थम काय
मह व ।ँ सू म व तु म म जीव ँ और क ठनाईसे वशम होनेवाल म मन ँ ।।११।। म
वेद का अ भ थान हर यगभ ँ और म म तीन मा ा (अ+उ+म) वाला कार
ँ। म अ र म अकार, छ द म पदा गाय ी ँ ।।१२।। सम त दे वता म इ , आठ
वसु म अ न, ादश आ द य म व णु और एकादश म नीललो हत नामका
ँ ।।१३।। म षय म भृगु, राज षय म मनु, दे व षय म नारद और गौ म कामधेनु
ँ ।।१४।। म स े र म क पल, प य म ग ड़, जाप तय म द जाप त और पतर म
अयमा ँ ।।१५।। य उ व! म दै य म दै यराज ाद, न म च मा, ओष धय म
सोमरस एवं य -रा स म कुबेर — ँ ऐसा समझो ।।१६।। म गजराज म ऐरावत,
जल नवा सय म उनका भु व ण, तपने और चमकनेवाल म सूय तथा मनु य म राजा
ँ ।।१७।। म घोड़ म उ चैः वा, धातु म सोना, द डधा रय म यम और सप म वासु क
ँ ।।१८।। न पाप उ वजी! म नागराज म शेषनाग, स ग और दाढ़वाले ा णय म उनका
राजा सह, आ म म सं यास और वण म ा ण ँ ।।१९।। म तीथ और न दय म गंगा,
जलाशय म समु , अ -श म धनुष तथा धनुधर म पुरा र शंकर ँ ।।२०।।
ष णां भृगुरहं राजष णामहं मनुः ।
दे वष णां नारदोऽहं ह वधा य म धेनुषु ।।१४
स े राणां क पलः सुपण ऽहं पत णाम् ।
जापतीनां द ोऽहं पतॄणामहमयमा ।।१५
मां व यु व दै यानां ादमसुरे रम् ।
सोमं न ौषधीनां धनेशं य र साम् ।।१६
ऐरावतं गजे ाणां यादसां व णं भुम् ।
तपतां ुमतां सूय मनु याणां च भूप तम् ।।१७
उ चैः वा तुरंगाणां धातूनाम म कांचनम् ।
यमः संयमतां चाहं सपाणाम म वासु कः ।।१८
नागे ाणामन तोऽहं मृगे ः शृं गदं णाम् ।
आ माणामहं तुय वणानां थमोऽनघ ।।१९
तीथानां ोतसां गंगा समु ः सरसामहम् ।
आयुधानां धनुरहं पुर नो धनु मताम् ।।२०
ध यानाम यहं मे गहनानां हमालयः ।
वन पतीनाम थ ओषधीनामहं यवः ।।२१
पुरोधसां व स ोऽहं ानां बृह प तः ।

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क दोऽहं सवसेना याम यां भगवानजः ।।२२
य ानां य ोऽहं तानाम व हसनम् ।
वा व यका बुवागा मा शुचीनाम यहं शु चः ।।२३
योगानामा मसंरोधो म ोऽ म व जगीषताम् ।
आ वी क कौशलानां वक पः या तवा दनाम् ।।२४
ीणां तु शत पाहं पुंसां वाय भुवो मनुः ।
नारायणो मुनीनां च कुमारो चा रणाम् ।।२५
धमाणाम म सं यासः ेमाणामब हम तः ।
गु ानां सूनृतं मौनं मथुनानामज वहम् ।।२६
म नवास थान म सुमे , गम थान म हमालय, वन प तय म पीपल और धा य म जौ
ँ ।।२१।। म पुरो हत म व स , वेदवे ा म बृह प त, सम त सेनाप तय म वा मका तक
और स माग वतक म भगवान् ा ँ ।।२२।। पंचमहाय म य ( वा यायय ) ँ,
त म अ हसा त और शु करनेवाले पदाथ म न यशु वायु, अ न, सूय, जल, वाणी एवं
आ मा ँ ।।२३।। आठ कारके योग म म मनो नरोध प समा ध ।ँ वजयके इ छु क म
रहनेवाला म म (नी त) बल ँ, कौशल म आ मा और अना माका ववेक प कौशल तथा
या तवा दय म वक प ँ ।।२४।। म य म मनुप नी शत पा, पु ष म वाय भुव मनु,
मुनी र म नारायण और चा रय म सन कुमार ँ ।।२५।। म धम म कमसं यास अथवा
एषणा यके याग ारा स पूण ा णय को अभयदान प स चा सं यास ँ। अभयके
साधन म आ म व पका अनुस धान ँ, अ भ ाय-गोपनके साधन म मधुर वचन एवं मौन ँ
और ी-पु षके जोड़ म म जाप त — ँ जनके शरीरके दो भाग से पु ष और ीका
पहला जोड़ा पैदा आ ।।२६।। सदा सावधान रहकर जागनेवाल म संव सर प काल म ,ँ
ऋतु म वस त, महीन म मागशीष और न म अ भ जत् ँ ।।२७।। म युग म स ययुग,
ववे कय म मह ष दे वल और अ सत, ास म ीकृ ण ै पायन ास तथा क वय म मन वी
शु ाचाय ँ ।।२८।। सृ क उ प और लय, ा णय के ज म और मृ यु तथा व ा और
अ व ाके जाननेवाले भगवान म ( व श महा-पु ष म) म वासुदेव ँ। मेरे ेमी भ म तुम
(उ व), क पु ष म हनुमान्, व ाधर म सुदशन ( जसने अजगरके पम न दबाबाको स
लया था और फर भगवान्के पाद पशसे मु हो गया था) म ँ ।।२९।। र न म प राग
(लाल), सु दर व तु म कमलक कली, तृण म कुश और ह व य म गायका घी ँ ।।३०।। म
ापा रय म रहनेवाली ल मी, छल-कपट करनेवाल म घूत डा, त त ु क त त ा
(क स ह णुता) और सा वक पु ष म रहनेवाला स वगुण ँ ।।३१।। म बलवान म उ साह
और परा म तथा भगव म भ यु न काम कम ँ। वै णव क पू य वासुदेव,
संकषण, ु न, अ न , नारायण, हय ीव, वराह, नृ सह और ा—इन नौ मू तय म म
पहली एवं े मू त वासुदेव ँ ।।३२।। म ग धव म व ावसु और अ सरा म ाजीके
दरबारक अ सरा पूव च ँ। पवत म थरता और पृ वीम शु अ वकारी ग ध म ही
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ँ ।।३३।। म जलम रस, तेज वय म परम तेज वी अ न; सूय, च और तार म भा तथा
आकाशम उसका एकमा गुण श द ँ ।।३४।। उ वजी! म ा णभ म ब ल, वीर म
अजुन और ा णय म उनक उ प , थ त और लय ँ ।।३५।। म ही पैर म चलनेक
श , वाणीम बोलनेक श , पायुम मल- यागक श , हाथ म पकड़नेक श और
जनने यम आन दोपभोगक श ँ। वचाम पशक , ने म दशनक , रसनाम वाद
लेनेक , कान म वणक और ना सकाम सूँघनेक श भी म ही ँ। सम त इ य क
इ य-श म ही ँ ।।३६।। पृ वी, वायु, आकाश, जल, तेज, अहंकार, मह व,
पंचमहाभूत, जीव, अ , कृ त, स व, रज, तम और उनसे परे रहनेवाला —ये सब म
ही ँ ।।३७।। इन त व क गणना, ल ण ारा उनका ान तथा त व ान प उसका फल
भी म ही ँ। म ही ई र ,ँ म ही जीव ँ, म ही गुण ँ और म ही गुणी ।ँ म ही सबका
आ मा ँ और म ही सब कुछ ँ। मेरे अ त र और कोई भी पदाथ कह भी नह है ।।३८।।
य द म गनने लगूँ तो कसी समय परमाणु क गणना तो कर सकता ँ, पर तु अपनी
वभू तय क गणना नह कर सकता। य क जब मेरे रचे ए को ट-को ट ा ड क भी
गणना नह हो सकती, तब मेरी वभू तय क गणना तो हो ही कैसे सकती है ।।३९।। ऐसा
समझो क जसम भी तेज, ी, क त, ऐ य, ल जा, याग, सौ दय, सौभा य, परा म,
त त ा और व ान आ द े गुण ह , वह मेरा ही अंश है ।।४०।।
संव सरोऽ य न मषामृतूनां मधुमाधवौ ।
मासानां मागशीष ऽहं न ाणां तथा भ जत् ।।२७

अहं युगानां च कृतं धीराणां दे वलोऽ सतः ।


ै पायनोऽ म ासानां कवीनां का आ मवान् ।।२८

वासुदेवो भगवतां वं तु भागवते वहम् ।


कपु षाणां हनुमान् व ा ाणां सुदशनः ।।२९

र नानां प रागोऽ म प कोशः सुपेशसाम् ।


कुशोऽ म दभजातीनां ग मा यं ह वः वहम् ।।३०

वसा यनामहं ल मीः कतवानां छल हः ।


त त ा म त त ूणां स वं स ववतामहम् ।।३१

ओजः सहो बलवतां कमाहं व सा वताम् ।


सा वतां नवमूत नामा दमू तरहं परा ।।३२

व ावसुः पूव च ग धवा सरसामहम् ।

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भूधराणामहं थैय ग धमा महं भुवः ।।३३

अपां रस परम ते ज ानां वभावसुः ।


भा सूय ताराणां श दोऽहं नभसः परः ।।३४

यानां ब लरहं वीराणामहमजुनः ।


भूतानां थ त प रहं वै तसङ् मः ।।३५

ग यु यु सग पादानमान द पशल णम् ।


आ वाद ु यव ाणमहं सव ये यम् ।।३६

पृ थवी वायुराकाश आपो यो तरहं महान् ।


वकारः पु षोऽ ं रजः स वं तमः परम् ।।३७

अहमेत सं यानं ानं त व व न यः ।


मये रेण जीवेन गुणेन गु णना वना ।
सवा मना प सवण न भावो व ते व चत् ।।३८

सं यानं परमाणूनां कालेन यते मया ।


न तथा मे वभूतीनां सृजतोऽ डा न को टशः ।।३९

तेजः ीः क तरै य ी यागः सौभगं भगः ।


वीय त त ा व ानं य य स मऽशकः ।।४०

एता ते क तताः सवाः सं ेपेण वभूतयः ।


मनो वकारा एवैते यथा वाचा भधीयते ।।४१

वाचं य छ मनो य छ ाणान्१ य छे या ण च ।


आ मानमा मना य छ न भूयः क पसेऽ वने ।।४२

यो वै वाङ् मनसी स यगसंय छन् धया य तः ।


त य तं तपो दानं व यामघटा बुवत् ।।४३

त मा मनोवचः ाणान्२ नय छे म परायणः ।


म यु या बु या ततः प रसमा यते ।।४४
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उ वजी! मने तु हारे के अनुसार सं ेपसे वभू तय का वणन कया। ये सब परमाथ-
व तु नह ह, मनो वकारमा ह; य क मनसे सोची और वाणीसे कही ई कोई भी व तु
परमाथ (वा त वक) नह होती। उसक एक क पना ही होती है ।।४१।। इस लये तुम
वाणीको व छ दभाषणसे रोको, मनके संक प- वक प बंद करो। इसके लये ाण को
वशम करो और इ य का दमन करो। सा वक बु के ारा पंचा भमुख बु को शा त
करो। फर तु ह संसारके ज म-मृ यु प बीहड़ मागम भटकना नह पड़ेगा ।।४२।। जो
साधक बु के ारा वाणी और मनको पूणतया वशम नह कर लेता, उसके त, तप और
दान उसी कार ीण हो जाते ह, जैसे क चे घड़ेम भरा आ जल ।।४३।। इस लये मेरे ेमी
भ को चा हये क मेरे परायण होकर भ यु बु से वाणी, मन और ाण का संयम करे।
ऐसा कर लेनेपर फर उसे कुछ करना शेष नह रहता। वह कृतकृ य हो जाता है ।।४४।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायामेकादश क धे षोडशोऽ यायः ।।१६।।

१. ाणम्। २. वचोमनः ाणान्।

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अथ स तदशोऽ यायः
वणा म-धम- न पण
उ व उवाच
य वया भ हतः पूव धम व ल णः ।
वणा माचारवतां सवषां पदाम प ।।१

यथानु ीयमानेन व य भ नृणां भवेत् ।


वधमणार व दा तत्१ समा यातुमह स ।।२

पुरा कल महाबाहो धम परमकं भो ।


य ेन हंस पेण णेऽ या थ माधव ।।३

स इदान सुमहता कालेना म कशन ।


न ायो भ वता म यलोके ागनुशा सतः ।।४

व ा कता वता ना यो धम या युत ते भु व ।


सभायाम प वै र यां य मू तधराः कलाः ।।५

क ा व ा व ा च भवता मधुसूदन ।
य े महीतले दे व वन ं कः व य त ।।६

त वं२ नः सवधम धम व ल णः ।
यथा य य वधीयेत तथा वणय मे भो ।।७
ीशुक उवाच
इ थं वभृ यमु येन पृ ः स भगवान् ह रः ।
ीतः ेमाय म यानां धमानाह सनातनान् ।।८
उ वजीने कहा—कमलनयन ीकृ ण! आपने पहले वणा म-धमका पालन
करनेवाल के लये और सामा यतः मनु यमा के लये उस धमका उपदे श कया था, जससे
आपक भ ा त होती है। अब आप कृपा करके यह बतलाइये क मनु य कस कारसे
अपने धमका अनु ान करे, जससे आपके चरण म उसे भ ा त हो जाय ।।१-२।। भो!
महाबा माधव! पहले आपने हंस पसे अवतार हण करके ाजीको अपने परमधमका
उपदे श कया था ।।३।। रपुदमन! ब त समय बीत जानेके कारण वह इस समय म यलोकम
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ायः नह -सा रह गया है, य क आपको उसका उपदे श कये ब त दन हो गये ह ।।४।।
अ युत! पृ वीम तथा ाक उस सभाम भी, जहाँ स पूण वेद मू तमान् होकर वराजमान
रहते ह, आपके अ त र ऐसा कोई भी नह है, जो आपके इस धमका वचन, व न
अथवा संर ण कर सके ।।५।।
इस धमके वतक, र क और उपदे शक आप ही ह। आपने पहले जैसे मधु दै यको
मारकर वेद क र ा क थी, वैसे ही अपने धमक भी र ा क जये। वयं काश परमा मन्!
जब आप पृ वीतलसे अपनी लीला संवरण कर लगे, तब तो इस धमका लोप ही हो जायगा
तो फर उसे कौन बतावेगा? ।।६।। आप सम त धम के मम ह; इस लये भो! आप उस
धमका वणन क जये, जो आपक भ ा त करानेवाला है। और यह भी बतलाइये क
कसके लये उसका कैसा वधान है ।।७।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जब इस कार भ शरोम ण उ वजीने
कया, तब भगवान् ीकृ णने अ य त स होकर ा णय के क याणके लये उ ह सनातन
धम का उपदे श दया ।।८।।
ीभगवानुवाच
ध य एष तव ो नैः ेयसकरो नृणाम् ।
वणा माचारवतां तमु व नबोध मे ।।९

आदौ कृतयुगे वण नृणां हंस इ त मृतः ।


कृ यकृ याः जा जा या त मात्१ कृतयुगं व ः ।।१०

वेदः णव एवा े धम ऽहं वृष पधृक् ।


उपासते तपो न ा हंसं मां मु क बषाः ।।११

ेतामुख२े महाभाग ाणा मे दया यी ।


व ा ा रभू या३ अहमासं वृ मखः ।।१२

व य वट् शू ा मुखबा पादजाः ।


वैराजात् पु षा जाता य आ माचारल णाः ।।१३

गृहा मो जघनतो चय दो मम ।
व ः थानाद्४ वने वासो यासः शीष ण सं थतः ।।१४

वणानामा माणां च ज मभू यनुसा रणीः५ ।

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आसन्६ कृतयो नॄणां नीचैन चो मो माः ।।१५

शमो दम तपः शौचं स तोषः ा तराजवम् ।


म दया स यं कृतय वमाः ।।१६
भगवान् ीकृ णने कहा— य उ व! तु हारा धममय है, य क इससे
वणा मधम मनु य को परमक याण व प मो क ा त होती है। अतः म तु ह उन
धम का उपदे श करता ,ँ सावधान होकर सुनो ।।९।। जस समय इस क पका ार भ आ
था और पहला स ययुग चल रहा था, उस समय सभी मनु य का ‘हंस’ नामक एक ही वण
था। उस युगम सब लोग ज मसे ही कृतकृ य होते थे; इसी लये उसका एक नाम कृतयुग भी
है ।।१०।। उस समय केवल णव ही वेद था और तप या, शौच, दया एवं स य प चार
चरण से यु म ही वृषभ पधारी धम था। उस समयके न पाप एवं परमतप वी भ जन
मुझ हंस व प शु परमा माक उपासना करते थे ।।११।। परम भा यवान् उ व!
स ययुगके बाद ेतायुगका आर भ होनेपर मेरे दयसे ास- ासके ारा ऋ वेद, सामवेद
और यजुवद प यी व ा कट ई और उस यी व ासे होता, अ वयु और उद्गाताके
कम प तीन भेद वाले य के पसे म कट आ ।।१२।। वराट् पु षके मुखसे ा ण,
भुजासे य, जंघासे वै य और चरण से शू क उ प ई। उनक पहचान उनके
वभावानुसार और आचरणसे होती है ।।१३।। उ वजी! वराट् पु ष भी म ही ँ; इस लये
मेरे ही ऊ थलसे गृह था म, दयसे चया म, व ः थलसे वान था म और
म तकसे सं यासा मक उ प इ है ।।१४।।
इन वण और आ म के पु ष के वभाव भी इनके ज म थान के अनुसार उ म, म यम
और अधम हो गये। अथात् उ म थान से उ प होनेवाले वण और आ म के वभाव उ म
और अधम थान से उ प होनेवाल के अधम ए ।।१५।। शम, दम, तप या, प व ता,
स तोष, माशीलता, सीधापन, मेरी भ , दया और स य—ये ा ण वणके वभाव
ह ।।१६।। तेज, बल, धैय, वीरता, सहनशीलता, उदारता, उ ोगशीलता, थरता, ा ण-
भ और ऐ य—ये य वणके वभाव ह ।।१७।। आ तकता, दानशीलता, द भहीनता,
ा ण क सेवा करना और धनसंचयसे स तु न होना—ये वै य वणके वभाव ह ।।१८।।
ा ण, गौ और दे वता क न कपटभावसे सेवा करना और उसीसे जो कुछ मल जाय,
उसम स तु रहना—ये शू वणके वभाव ह ।।१९।। अप व ता, झूठ बोलना, चोरी करना,
ई र और परलोकक परवा न करना, झूठमूठ झगड़ना और काम, ोध एवं तृ णाके वशम
रहना—ये अ यज के वभाव ह ।।२०।। उ वजी! चार वण और चार आ म के लये
साधारण धम यह है क मन, वाणी और शरीरसे कसीक हसा न कर; स यपर ढ़ रह; चोरी
न कर; काम, ोध तथा लोभसे बच और जन काम के करनेसे सम त ा णय क स ता
और उनका भला हो, वही कर ।।२१।।

तेजो बलं धृ तः शौय त त ौदायमु मः ।


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थैय यतै य कृतय वमाः ।।१७

आ त यं दान न ा च अद भो सेवनम्१ ।
अतु रथ पचयैव य कृतय वमाः ।।१८

शु ष
ू णं जगवां दे वानां चा यमायया ।
त ल धेन स तोषः शू कृतय वमाः ।।१९

अशौचमनृतं तेयं ना त यं शु क व हः ।
कामः ोध तष २ वभावोऽ तेवसा यनाम्३ ।।२०

अ हसा स यम तेयमकाम ोधलोभता ।


भूत य हतेहा च धम ऽयं सावव णकः ।।२१

तीयं ा यानुपू ा ज मोपनयनं जः ।


वसन् गु कुले दा तो ाधीयीत चा तः४ ।।२२

मेखला जनद डा सू कम डलून् ।


ज टलोऽधौतद ासोऽर पीठः कुशान् दधत् ।।२३

नानभोजनहोमेषु जपो चारे५ च वा यतः ।


न छ ा खरोमा ण क ोप थगता य प ।।२४

रेतो नाव करे जातु६ तधरः वयम् ।


अवक णऽवगा ा सु यतासु पद जपेत् ।।२५

अ यकाचायगो व गु वृ सुरा छु चः७ ।


समा हत उपासीत स ये च यतवाग् जपन् ।।२६
ा ण, य तथा वै य गभाधान आ द सं कार के मसे य ोपवीत सं कार प
तीय ज म ा त करके गु कुलम रहे और अपनी इ य को वशम रखे। आचायके
बुलानेपर वेदका अ ययन करे और उसके अथका भी वचार करे ।।२२।। मेखला, मृगचम,
वणके अनुसार द ड, ा क माला, य ोपवीत और कम डलु धारण करे। सरपर जटा
रखे, शौक नीके लये दाँत और व न धोवे, रंगीन आसनपर न बैठे और कुश धारण
करे ।।२३।। नान, भोजन, हवन, जप और मल-मू यागके समय मौन रहे। और क तथा
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गु ते यके बाल और नाखून को कभी न काटे ।।२४।। पूण चयका पालन करे। वयं तो
कभी वीयपात करे ही नह । य द व आ दम वीय ख लत हो जाय, तो जलम नान करके
ाणायाम करे एवं गाय ीका जप करे ।।२५।। चारीको प व ताके साथ एका च
होकर अ न, सूय, आचाय, गौ, ा ण, गु , वृ जन और दे वता क उपासना करनी
चा हये तथा सायंकाल और ातःकाल मौन होकर स योपासन एवं गाय ीका जप करना
चा हये ।।२६।। आचायको मेरा ही व प समझे, कभी उनका तर कार न करे। उ ह
साधारण मनु य समझकर दोष न करे; य क गु सवदे वमय होता है ।।२७।। सायंकाल
और ातःकाल दोन समय जो कुछ भ ाम मले वह लाकर गु दे वके आगे रख दे । केवल
भोजन ही नह , जो कुछ हो सब। तदन तर उनके आ ानुसार बड़े संयमसे भ ा आ दका
यथो चत उपयोग करे ।।२८।। आचाय य द जाते ह तो उनके पीछे -पीछे चले, उनके सो
जानेके बाद बड़ी सावधानीसे उनसे थोड़ी रपर सोवे। थके ह , तो पास बैठकर चरण दबावे
और बैठे ह , तो उनके आदे शक ती ाम हाथ जोड़कर पासम ही खड़ा रहे। इस कार
अ य त छोटे क भाँ त सेवा-शु ूषाके ारा सदा-सवदा आचायक आ ाम त पर
रहे ।।२९।। जबतक व ा ययन समा त न हो जाय, तबतक सब कारके भोग से र रहकर
इसी कार गु कुलम नवास करे और कभी अपना चय त ख डत न होने दे ।।३०।।
आचाय मां वजानीया ावम येत क ह चत् ।
न म यबु यासूयेत सवदे वमयो गु ः ।।२७

सायं ात पानीय भै यं त मै नवेदयेत् ।


य चा यद यनु ातमुपयुंजीत संयतः ।।२८

शु ूषमाण आचाय सदोपासीत नीचवत् ।


यानश यासन थानैना त रे कृतांज लः ।।२९

एवंवृ ो गु कुले वसेद ् भोग वव जतः ।


व ा समा यते यावद् ब द् तमख डतम् ।।३०

य सौ छ दसां लोकमारो यन् व पम् ।


गुरवे व यसेद१् दे हं वा यायाथ बृहद् तः ।।३१

अ नौ गुरावा म न च सवभूतेषु मां परम् ।


अपृथ धी पासीत वच क मषः ।।३२

ीणां नरी ण पशसंलाप वेलना दकम् ।


ा णनो मथुनीभूतानगृह थोऽ त यजेत् ।।३३
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शौचमाचमनं नानं स योपासनमाजवम्२ ।
तीथसेवा जपोऽ पृ याभ यासंभा यवजनम् ।।३४
यद चारीका वचार हो क म मू तमान् वेद के नवास थान लोकम जाऊँ, तो
उसे आजीवन नै क चय- त हण कर लेना चा हये। और वेद के वा यायके लये
अपना सारा जीवन आचायक सेवाम ही सम पत कर दे ना चा हये ।।३१।। ऐसा चारी
सचमुच तेजसे स प हो जाता है और उसके सारे पाप न हो जाते ह। उसे चा हये क
अ न, गु , अपने शरीर और सम त ा णय म मेरी ही उपासना करे और यह भाव रखे क
मेरे तथा सबके दयम एक ही परमा मा वराजमान ह ।।३२।। चारी, वान थ और
सं या सय को चा हये क वे य को दे खना, पश करना, उनसे बातचीत या हँसी-मसखरी
आ द करना रसे ही याग द; मैथुन करते ए ा णय पर तो पाततक न कर ।।३३।।
य उ व! शौच, आचमन, नान, स योपासन, सरलता, तीथसेवन, जप, सम त ा णय म
मुझे ही दे खना, मन, वाणी और शरीरका संयम—यह चारी, गृह थ, वान थ और
सं यासी—सभीके लये एक-सा नयम है। अ पृ य को न छू ना, अभ य व तु को न खाना
और जनसे बोलना नह चा हये उनसे न बोलना—ये नयम भी सबके लये ह ।।३४-३५।।

सवा म यु ोऽयं नयमः कुलन दन ।


म ावः सवभूतेषु मनोवा कायसंयमः ।।३५

एवं बृहद् तधरो बा णोऽ न रव वलन् ।


म ती तपसा द धकमाशयोऽमलः ।।३६

अथान तरमावे यन् यथा ज ा सतागमः ।


गुरवे द णां द वा नायाद् गुवनुमो दतः ।।३७

गृहं वनं वोप वशेत् जेद ् वा जो मः ।


आ मादा मं ग छे ा यथा म पर रेत् ।।३८

गृहाथ स श भायामु हेदजुगु सताम् ।


यवीयस तु वयसा तां सवणामनु मात् ।।३९

इ या ययनदाना न सवषां च ज मनाम् ।


त होऽ यापनं च ा ण यैव याजनम् ।।४०

त हं म यमान तप तेजोयशोनुदम् ।
अ या यामेव जीवेत शलैवा१ दोष क् तयोः ।।४१
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नै क चारी ा ण इन नयम का पालन करनेसे अ नके समान तेज वी हो जाता
है। ती तप याके कारण उसके कम-सं कार भ म हो जाते ह, अ तःकरण शु हो जाता है
और वह मेरा भ होकर मुझे ा त कर लेता है ।।३६।।
यारे उ व! य द नै क चय हण करनेक इ छा न हो—गृह था मम वेश करना
चाहता हो, तो व धपूवक वेदा ययन समा त करके आचायको द णा दे कर और उनक
अनुम त लेकर समावतन-सं कार करावे— नातक बनकर चया म छोड़ दे ।।३७।।
चारीको चा हये क चय-आ मके बाद गृह थ अथवा वान थ-आ मम वेश करे।
य द ा ण हो तो सं यास भी ले सकता है। अथवा उसे चा हये क मशः एक आ मसे
सरे आ मम वेश करे। क तु मेरा आ ाकारी भ बना आ मके रहकर अथवा वपरीत
मसे आ म-प रवतन कर वे छाचारम न वृ हो ।।३८।।
य उ व! य द चया मके बाद गृह था म वीकार करना हो तो चारीको
चा हये क अपने अनु प एवं शा ो ल ण से स प कुलीन क यासे ववाह करे। वह
अव थाम अपनेसे छोट और अपने ही वणक होनी चा हये। य द कामवश अ य वणक
क यासे और ववाह करना हो तो मशः अपनेसे न न वणक क यासे ववाह कर सकता
है ।।३९।। य -यागा द, अ ययन और दान करनेका अ धकार ा ण, य एवं वै य को
समान- पसे है। पर तु दान लेन,े पढ़ाने और य करानेका अ धकार केवल ा ण को ही
है ।।४०।। ा णको चा हये क इन तीन वृ य म त ह अथात् दान लेनेक वृ को
तप या, तेज और यशका नाश करनेवाली समझकर पढ़ाने और य करानेके ारा ही अपना
जीवन- नवाह करे और य द इन दोन वृ य म भी दोष हो—परावल बन, द नता आ द
दोष द खते ह —तो अ कटनेके बाद खेत म पड़े हए दाने बीनकर ही अपने जीवनका
नवाह कर ले ।।४१।। उ व! ा णका शरीर अ य त लभ है। यह इस लये नह है क
इसके ारा तु छ वषय-भोग ही भोगे जायँ। यह तो जीवन-पय त क भोगने, तप या करने
और अ तम अन त आन द व प मो क ा त करनेके लये है ।।४२।।

ा ण य ह दे होऽयं ु कामाय ने यते ।


कृ ाय तपसे चेह े यान तसुखाय च ।।४२

शलो छवृ या प रतु च ो


धम महा तं वरजं जुषाणः ।
म य पता मा गृह एव त -
ा त स ः समुपै त शा तम् ।।४३

समु र त ये व ं सीद तं म परायणम् ।


तानु र ये न चरादापद् यो नौ रवाणवात् ।।४४

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सवाः समु रेद ् राजा पतेव सनात् जाः ।
आ मानमा मना धीरो यथा गजप तगजान् ।।४५

एवं वधो नरप त वमानेनाकवचसा ।


वधूयेहाशुभं कृ न म े ण सह मोदते ।।४६

सीदन् व ो व ण वृ या प यैरेवापदं तरेत् ।


खड् गेन वाऽऽपदा ा तो न वृ या कथंचन ।।४७

वै यवृ या तु राज यो जीवे मृगययाऽऽप द ।


चरेद ् वा व पेण न वृ या कथंचन ।।४८
जो ा ण घरम रहकर अपने महान् धमका न कामभावसे पालन करता है और खेत म
तथा बाजार म गरे-पड़े दाने चुनकर स तोषपूवक अपने जीवनका नवाह करता है, साथ ही
अपना शरीर, ाण, अ तःकरण और आ मा मुझे सम पत कर दे ता है और कह भी अ य त
आस नह करता, वह बना सं यास लये ही परमशा त व प परमपद ा त कर लेता
है ।।४३।। जो लोग वप म पड़े क पा रहे मेरे भ ा णको वप य से बचा लेते ह,
उ ह म शी ही सम त आप य से उसी कार बचा लेता ,ँ जैसे समु म डू बते ए ाणीको
नौका बचा लेती है ।।४४।। राजा पताके समान सारी जाका क से उ ार करे—उ ह
बचावे, जैसे गजराज सरे गज क र ा करता है और धीर होकर वयं अपने-आपसे अपना
उ ार करे ।।४५।। जो राजा इस कार जाक र ा करता है, वह सारे पाप से मु होकर
अ त समयम सूयके समान तेज वी वमानपर चढ़कर वगलोकम जाता है और इ के साथ
सुख भोगता है ।।४६।। य द ा ण अ यापन अथवा य -यागा दसे अपनी जी वका न चला
सके, तो वै य-वृ का आ य ले ले, और जबतक वप र न हो जाय तबतक करे। य द
ब त बड़ी आप का सामना करना पड़े तो तलवार उठाकर य क वृ से भी अपना
काम चला ले, पर तु कसी भी अव थाम नीच क सेवा— जसे ‘ ानवृ ’ कहते ह—न
करे ।।४७।। इसी कार य द य भी जापालन आ दके ारा अपने जीवनका नवाह न
कर सके तो वै यवृ ापार आ द कर ले। ब त बड़ी आप हो तो शकारके ारा अथवा
व ा थय को पढ़ाकर अपनी आप के दन काट दे , पर तु नीच क सेवा, ‘ ानवृ ’ का
आ य कभी न ले ।।४८।। वै य भी आप के समय शू क वृ सेवासे अपना जीवन-
नवाह कर ले और शू चटाई बुनने आ द का वृ का आ य ले ले; पर तु उ व! ये सारी
बात आप कालके लये ही ह। आप का समय बीत जानेपर न नवण क वृ से
जी वकोपाजन करनेका लोभ न करे ।।४९।। गृह थ पु षको चा हये क वेदा ययन प
य , तपण प पतृय , हवन प दे वय , काकब ल आ द भूतय और अ दान प
अ त थय आ दके ारा मेरे व पभूत ऋ ष, दे वता, पतर, मनु य एवं अ य सम त
ा णय क यथाश त दन पूजा करता रहे ।।५०।।
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शू वृ १ भजेद ् वै यः शू ः का कट याम्२ ।
कृ ा मु ो न ग ण वृ ल सेत कमणा ।।४९

वेदा याय वधा वाहाब य ा ैयथोदयम् ।


दे व ष पतृभूता न म प
ू य वहं यजेत् ।।५०

य छयोपप ेन शु लेनोपा जतेन वा ।


धनेनापीडयन् भृ यान् यायेनैवाहरेत् तून् ।।५१

कुटु बेषु न स जेत न मा त


े ् कुटु य प ।
वप रं प येद म प वत् ।।५२

पु दारा तब धूनां संगमः पा थसंगमः ।


अनुदेहं वय येते व ो न ानुगो यथा ।।५३

इ थं प रमृश मु ो गृहे व त थवद् वसन् ।


न गृहैरनुब येत नममो नरहंकृतः ।।५४

कम भगृहमेधीयै र ् वा मामेव भ मान् ।


त ेद ् वनं वोप वशेत् जावान् वा प र जेद ् ।।५५
गृह थ पु ष अनायास ा त अथवा शा ो री तसे उपा जत अपने शु धनसे अपने
भृ य, आ त जाजनको कसी कारका क न प ँचाते ए याय और व धके साथ ही
य करे ।।५१।।
य उ व! गृह थ पु ष कुटु बम आस न हो। बड़ा कुटु ब होनेपर भी भजनम माद
न करे। बु मान् पु षको यह बात भी समझ लेनी चा हये क जैसे इस लोकक सभी व तुएँ
नाशवान् ह, वैसे ही वगा द परलोकके भोग भी नाशवान् ही ह ।।५२।। यह जो ी-पु ,
भाई-ब धु और गु जन का मलना-जुलना है, यह वैसा ही है, जैसे कसी याऊपर कुछ
बटोही इकट् ठे हो गये ह । सबको अलग-अलग रा ते जाना है। जैसे व न द टू टनेतक ही
रहता है, वैसे ही इन मलने-जुलनेवाल का स ब ध ही बस, शरीरके रहनेतक ही रहता है;
फर तो कौन कसको पूछता है ।।५३।। गृह थको चा हये क इस कार वचार करके घर-
गृह थीम फँसे नह , उसम इस कार अनास भावसे रहे मानो कोई अ त थ नवास कर रहा
हो। जो शरीर आ दम अहंकार और घर आ दम ममता नह करता, उसे घर-गृह थीके फंदे
बाँध नह सकते ।।५४।। भ मान् पु ष गृह थो चत शा ो कम के ारा मेरी आराधना
करता आ घरम ही रहे, अथवा य द पु वान् हो तो वान थ आ मम चला जाय या
सं यासा म वीकार कर ले ।।५५।। य उ व! जो लोग इस कारका गृह थजीवन न
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बताकर घर-गृह थीम ही आस हो जाते ह, ी, पु और धनक कामना म फँसकर
हाय-हाय करते रहते और मूढ़तावश ील पट और कृपण होकर म-मेरेके फेरम पड़ जाते ह,
वे बँध जाते ह ।।५६।। वे सोचते रहते ह—हाय! हाय! मेरे माँ-बाप बूढ़े हो गये; प नीके बाल-
ब चे अभी छोटे -छोटे ह, मेरे न रहनेपर ये द न, अनाथ और ःखी हो जायँग;े फर इनका
जीवन कैसे रहेगा?’ ।।५७।। इस कार घर-गृह थीक वासनासे जसका च व त हो
रहा है, वह मूढ़बु पु ष वषयभोग से कभी तृ त नह होता, उ ह म उलझकर अपना
जीवन खो बैठता है और मरकर घोर तमोमय नरकम जाता है ।।५८।।

य वास म तगहे पु व ैषणातुरः ।


ैणः कृपणधीमूढो ममाह म त ब यते ।।५६

अहो मे पतरौ वृ ौ भाया बाला मजाऽऽ मजाः ।


अनाथा मामृते द नाः कथं जीव त ः खताः ।।५७

एवं गृहाशया त दयो मूढधीरयम् ।


अतृ त ताननु यायन् मृतोऽ धं वशते तमः ।।५८
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायामेकादश क धे स तदशोऽ यायः ।।१७।।

१. त ममा०। २. त वतः सव०।


१. य मात्। २. ेतायुग।े ३. । ४. व ः थला ने वासः सं यासः शर स थतः। ५.
चा रणीः। ६. आस वै गतयो नॄणां।
१. व सेवनम्। २. हष । ३. यावसा यनान्। ४. चा यतः। ५. म ो चारे। ६. न
व करेत।् ७. वृ ान् सुरान प।
१. च यसे े हम्। २. स योपा तममाचनम्।
१. श पौः।
१. शू वृ भवे ै यः। २. का कट यः।

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अथा ादशोऽ यायः
वान थ और सं यासीके धम
ीभगवानुवाच
वनं व व ुः पु ेषु भाया य य सहैव वा ।
वन एव वसे छा त तृतीयं भागमायुषः ।।१

क दमूलफलैव यैम यैवृ क पयेत् ।


वसीत व कलं वास तृणपणा जना न च ।।२

केशरोमनख म ुमला न बभृयाद् दतः ।


न धावेद सु म जेत कालं थ डलेशयः ।।३

ी मे त येत पंचा नीन् वषा वासारषाड् जले ।


आक ठम नः श शरे एवंवृ तप रेत् ।।४

अ नप वं सम ीयात् कालप वमथा प वा ।


उलूखला मकु ो वा द तोलूखल एव वा ।।५
भगवान् ीकृ ण कहते ह— य उ व! य द गृह थ मनु य वान थ आ मम जाना
चाहे, तो अपनी प नीको पु के हाथ स प दे अथवा अपने साथ ही ले ले और फर शा त
च से अपनी आयुका तीसरा भाग वनम ही रहकर तीत करे ।।१।। उसे वनके प व
क द-मूल और फल से ही शरीर- नवाह करना चा हये; व क जगह वृ क छाल प हने
अथवा घास-पात और मृगछालासे ही काम नकाल ले ।।२।। केश, रोएँ, नख और मूँछ-
दाढ़ प शरीरके मलको हटावे नह । दातुन न करे। जलम घुसकर काल नान करे और
धरतीपर ही पड़ रहे ।।३।। ी म ऋतुम पंचा न तपे, वषा ऋतुम खुले मैदानम रहकर वषाक
बौछार सहे। जाड़ेके दन म गलेतक जलम डू बा रहे। इस कार घोर तप यामय जीवन
तीत करे ।।४।। क द-मूल को केवल आगम भूनकर खा ले अथवा समयानुसार पके ए
फल आ दके ारा ही काम चला ले। उ ह कूटनेक आव यकता हो तो ओखलीम या सलपर
कूट ले, अ यथा दाँत से ही चबा-चबाकर खा ले ।।५।। वान था मीको चा हये क कौन-सा
पदाथ कहाँसे लाना चा हये, कस समय लाना चा हये, कौन-कौन पदाथ अपने अनुकूल ह—
इन बात को जानकर अपने जीवन- नवाहके लये वयं ही सब कारके क द-मूल-फल आ द
ले आवे। दे श-काल आ दसे अन भ लोग से लाये ए अथवा सरे समयके सं चत
पदाथ को अपने कामम न ले* ।।६।। नीवार आ द जंगली अ से ही च -पुरोडाश आ द
तैयार करे और उ ह से समयो चत आ यण आ द वै दक कम करे। वान थ हो जानेपर
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वेद व हत पशु ारा मेरा यजन न करे ।।७।। वेदवे ा ने वान थीके लये अ नहो ,
दश, पौणमास और चातुमा य आ दका वैसा ही वधान कया है, जैसा गृह थ के लये
है ।।८।। इस कार घोर तप या करते-करते मांस सूख जानेके कारण वान थीक एक-एक
नस द खने लगती है। वह इस तप याके ारा मेरी आराधना करके पहले तो ऋ षय के
लोकम जाता है और वहाँसे फर मेरे पास आ जाता है; य क तप मेरा ही व प है ।।९।।
य उ व! जो पु ष बड़े क से कये ए और मो दे नेवाले इस महान् तप याको वग,
लोक आ द छोटे -मोटे फल क ा तके लये करता है, उससे बढ़कर मूख और कौन
होगा? इस लये तप याका अनु ान न कामभावसे ही करना चा हये ।।१०।।

वयं सं चनुयात् सवमा मनो वृ कारणम् ।


दे शकालबला भ ो नादद ता यदाऽऽ तम् ।।६

व यै पुरोडाशै नवपेत् कालचो दतान्१ ।


न तु ौतेन पशुना मां यजेत वना मी ।।७

अ नहो ं च दश पूणमास २ पूववत् ।


चातुमा या न च मुनेरा नाता न च नैगमैः ।।८

एवं चीणन तपसा मु नधम नस ततः ।


मां तपोमयमारा य ऋ षलोका पै त माम् ।।९

य वेतत् कृ त ीण तपो नः ेयसं महत् ।


कामाया पीयसे यु याद् बा लशः कोऽपर ततः ।।१०

यदासौ नयमेऽक पो जरया जातवेपथुः ।


आ म य नीन् समारो य म च ोऽ नं समा वशेत् ।।११
यारे उ व! वान थी जब अपने आ मो चत नयम का पालन करनेम असमथ हो
जाय, बुढ़ापेके कारण उसका शरीर काँपने लगे, तब य ा नय को भावनाके ारा अपने
अ तःकरणम आरो पत कर ले और अपना मन मुझम लगाकर अ नम वेश कर जाय। (यह
वधान केवल उनके लये है, जो वर नह ह) ।।११।। य द उसक समझम यह बात आ
जाय क का य कम से उनके फल व प जो लोक ा त होते ह, वे नरक के समान ही
ःखपूण ह और मनम लोक-परलोकसे पूरा वैरा य हो जाय तो व धपूवक य ा नय का
प र याग करके सं यास ले ले ।।१२।। जो वान थी सं यासी होना चाहे, वह पहले
वेद व धके अनुसार आठ कारके ा और ाजाप य य से मेरा यजन करे। इसके बाद
अपना सव व ऋ वजको दे दे । य ा नय को अपने ाण म लीन कर ले और फर कसी भी
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थान, व तु और य क अपे ा न रखकर व छ द वचरण करे ।।१३।। उ वजी! जब
ा ण सं यास लेने लगता है, तब दे वतालोग ी-पु ा द सगे-स ब धय का प धारण
करके उसके सं यास- हणम व न डालते ह। वे सोचते ह क ‘अरे! यह तो हमलोग क
अवहेलना कर, हमलोग को लाँघकर परमा माको ा त होने जा रहा है’ ।।१४।।

यदा कम वपाकेषु लोकेषु नरया मसु ।


वरागो जायते स यङ् य ता नः जे तः ।।१२

इ ् वा यथोपदे शं मां द वा सव वमृ वजे ।


अ नीन् व ाण आवे य नरपे ः प र जेत् ।।१३

व य वै सं यसतो दे वा दारा द पणः ।


व नान् कुव ययं माना य स मयात् परम् ।।१४

बभृया चे मु नवासः कौपीना छादनं परम् ।


य ं न द डपा ा याम यत् क चदनाप द ।।१५

पूतं यसेत् पादं व पूतं पबे जलम् ।


स यपूतां वदे द ् वाचं मनःपूतं समाचरेत् ।।१६

मौनानीहा नलायामा द डा वा दे हचेतसाम् ।


न ेते य य स यंग वेणु भन भवेद ् य तः ।।१७

भ ां चतुषु वणषु वग ान् वजयं रेत् ।


स तागारानसं लृ तां तु ये ल धेन तावता ।।१८
य द सं यासी व धारण करे तो केवल लँगोट लगा ले और अ धक-से-अ धक उसके
ऊपर एक ऐसा छोटा-सा टु कड़ा लपेट ले क जसम लँगोट ढक जाय। तथा आ मो चत
द ड और कम डलुके अ त र और कोई भी व तु अपने पास न रखे। यह नयम
आप कालको छोड़कर सदाके लये है ।।१५।। ने से धरती दे खकर पैर रखे, कपड़ेसे
छानकर जल पये, मुँहसे येक बात स यपूत—स यसे प व ई ही नकाले और शरीरसे
जतने भी काम करे, बु -पूवक—सोच- वचार कर ही करे ।।१६।। वाणीके लये मौन,
शरीरके लये न े थ त और मनके लये ाणायाम द ड ह। जसके पास ये तीन द ड
नह ह, वह केवल शरीरपर बाँसके द ड धारण करनेसे द डी वामी नह हो जाता ।।१७।।
सं यासीको चा हये क जा त युत और गोघाती आ द प तत को छोड़कर चार वण क भ ा
ले। केवल अ न त सात घर से जतना मल जाय, उतनेसे ही स तोष कर ले ।।१८।। इस

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कार भ ा लेकर ब तीके बाहर जलाशयपर जाय, वहाँ हाथ-पैर धोकर जलके ारा भ ा
प व कर ले; फर शा ो प तसे ज ह भ ाका भाग दे ना चा हये, उ ह दे कर जो कुछ
बचे उसे मौन होकर खा ले। सरे समयके लये बचाकर न रखे और न अ धक माँगकर ही
लाये ।।१९।। सं यासीको पृ वीपर अकेले ही वचरना चा हये। उसक कह भी आस न
हो, सब इ याँ अपने वशम ह । वह अपने-आपम ही म त रहे, आ म- ेमम ही त मय रहे,
तकूल-से- तकूल प र थ तय म भी धैय रखे और सव समान पसे थत परमा माका
अनुभव करता रहे ।।२०।। सं यासीको नजन और नभय एका त- थानम रहना चा हये।
उसका दय नर तर मेरी भावनासे वशु बना रहे। वह अपने-आपको मुझसे अ भ और
अ तीय, अख डके पम च तन करे ।।२१।। वह अपनी ान न ासे च के ब धन और
मो पर वचार करे तथा न य करे क इ य का वषय के लये व त होना—चंचल
होना ब धन है और उनको संयमम रखना ही मो है ।।२२।। इस लये सं यासीको चा हये क
मन एवं पाँच ाने य को जीत ले, भोग क ु ता समझकर उनक ओरसे सवथा मुँह
मोड़ ले और अपने-आपम ही परम आन दका अनुभव करे। इस कार वह मेरी भावनासे
भरकर पृ वीम वचरता रहे ।।२३।। केवल भ ाके लये ही नगर, गाँव, अहीर क ब ती या
या य क टोलीम जाय। प व दे श, नद , पवत, वन और आ म से पूण पृ वीम बना कह
ममता जोड़े घूमता- फरता रहे ।।२४।। भ ा भी अ धकतर वान थय के आ मसे ही
हण करे; य क कटे ए खेत के दानेसे बनी ई भ ा शी ही च को शु कर दे ती है
और उससे बचा-खुचा मोह र होकर स ा त हो जाती है ।।२५।।
ब हजलाशयं ग वा त ोप पृ य वा यतः ।
वभ य पा वतं शेषं भुंजीताशेषमा तम् ।।१९

एक रे महीमेतां नःसंगः संयते यः ।


आ म ड आ मरत आ मवान् समदशनः ।।२०

वव े शरणो म ाव वमलाशयः ।

आ मानं च तयेदेकमभेदेन मया मु नः ।।२१

अ वी त
े ा मनो ब धं मो ं च ान न या ।
ब ध इ य व ेपो मो एषां च संयमः ।।२२

त मा य य षड् वग म ावेन चरे मु नः ।


वर ः ु लकामे यो ल वाऽऽ म न सुखं महत् ।।२३

पुर ाम जान् साथान् भ ाथ वशं रेत् ।


पु यदे शस र छै लवना मवत महीम् ।।२४
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वान था मपदे वभी णं भै यमाचरेत् ।
सं स य या संमोहः शु स वः शला धसा ।।२५

नैतद् व तुतया प येद ् यमानं वन य त ।


अस च ो वरमे दहामु चक षतात् ।।२६
वचारवान् सं यासी यमान जगत्को स य व तु कभी न समझे; य क यह तो य
ही नाशवान् है। इस जगत्म कह भी अपने च को लगाये नह । इस लोक और परलोकम
जो कुछ करने-पानेक इ छा हो, उससे वर हो जाय ।।२६।।

यदे तदा म न जग मनोवा ाणसंहतम् ।


सव माये त तकण व थ य वा न तत् मरेत् ।।२७

ान न ो वर ो वा म ो वानपे कः ।
स लगाना मां य वा चरेद व धगोचरः ।।२८

बुधो बालकवत् डेत् कुशलो जडव चरेत् ।


वदे म वद् व ान् गोचया नैगम रेत् ।।२९

वेदवादरतो न या पाख डी न हैतुकः ।


शु कवाद ववादे न कं चत् प ं समा येत् ।।३०

नो जेत जनाद् धीरो जनं चो े जये तु ।


अ तवादां त त ेत नावम येत कंचन ।
दे हमु य पशुवद् वैरं कुया केन चत् ।।३१

एक एव परो ा मा भूते वा म यव थतः ।


यथे दपा ेषु भूता येका मका न च ।।३२

अल वा न वषीदे त काले कालेऽशनं व चत् ।


ल वा न येद ् धृ तमानुभयं दै वत तम् ।।३३
सं यासी वचार करे क आ माम जो मन, वाणी और ाण का संघात प यह जगत् है,
वह सारा-का-सारा माया ही है। इस वचारके ारा इसका बाध करके अपने व पम थत
हो जाय और फर कभी उसका मरण भी न करे ।।२७।। ान न , वर , मुमु ु और
मो क भी अपे ा न रखनेवाला मेरा भ आ म क मयादाम ब नह है। वह चाहे तो
आ म और उनके च को छोड़-छाड़कर, वेद-शा के व ध- नषेध से परे होकर व छ द
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वचरे ।।२८।। वह बु मान् होकर भी बालक के समान खेल।े नपुण होकर भी जडवत् रहे,
व ान् होकर भी पागलक तरह बातचीत करे और सम त वेद- व धय का जानकार होकर
भी पशुवृ से (अ नयत आचारवान्) रहे ।।२९।। उसे चा हये क वेद के कमका ड-भागक
ा याम न लगे, पाख ड न करे, तक- वतकसे बचे और जहाँ कोरा वाद- ववाद हो रहा हो,
वहाँ कोई प न ले ।।३०।। वह इतना धैयवान् हो क उसके मनम कसी भी ाणीसे उ े ग न
हो और वह वयं भी कसी ाणीको उ न न करे। उसक कोई न दा करे, तो स तासे
सह ले; कसीका अपमान न करे। य उ व! सं यासी इस शरीरके लये कसीसे भी वैर न
करे। ऐसा वैर तो पशु करते ह ।।३१।। जैसे एक ही च मा जलसे भरे ए व भ पा म
अलग-अलग दखायी दे ता है, वैसे ही एक ही परमा मा सम त ा णय म और अपनेम भी
थत है। सबक आ मा तो एक है ही, पंचभूत से बने ए शरीर भी सबके एक ही ह, य क
सब पांचभौ तक ही तो ह। (ऐसी अव थाम कसीसे भी वैर- वरोध करना अपना ही वैर-
वरोध है) ।।३२।।
य उ व! सं यासीको कसी दन य द समयपर भोजन न मले, तो उसे ःखी नह
होना चा हये और य द बराबर मलता रहे, तो ह षत न होना चा हये। उसे चा हये क वह धैय
रखे। मनम हष और वषाद दोन कारके वकार न आने दे ; य क भोजन मलना और न
मलना दोन ही ार धके अधीन ह ।।३३।। भ ा अव य माँगनी चा हये, ऐसा करना उ चत
ही है; य क भ ासे ही ाण क र ा होती है। ाण रहनेसे ही त वका वचार होता है और
त व वचारसे त व ान होकर मु मलती है ।।३४।। सं यासीको ार धके अनुसार अ छ
या बुरी—जैसी भी भ ा मल जाय, उसीसे पेट भर ले। व और बछौने भी जैसे मल
जायँ, उ ह से काम चला ले। उनम अ छे पन या बुरेपनक क पना न करे ।।३५।। जैसे म
परमे र होनेपर भी अपनी लीलासे ही शौच आ द शा ो नयम का पालन करता ँ, वैसे
ही ान न पु ष भी शौच, आचमन, नान और सरे नयम का लीलासे ही आचरण करे।
वह शा व धके अधीन होकर— व ध- ककर होकर न करे ।।३६।। य क ान न
पु षको भेदक ती त ही नह होती। जो पहले थी, वह भी मुझ सवा माके सा ा कारसे न
हो गयी। य द कभी-कभी मरणपय त बा धत भेदक ती त भी होती है, तब भी दे हपात हो
जानेपर वह मुझसे एक हो जाता है ।।३७।।

आहाराथ समीहेत यु ं तत् ाणधारणम् ।


त वं वमृ यते तेन तद् व ाय वमु यते ।।३४

य छयोपप ा म ा े मुतापरम् ।
तथा वास तथा श यां ा तं ा तं भजे मु नः ।।३५

शौचमाचमनं नानं न तु चोदनया चरेत् ।


अ यां नयमान् ानी यथाहं लीलये रः ।।३६

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न ह त य वक पा या या च म या हता ।
आदे हा तात् व चत् या त ततः स प ते मया ।।३७

ःखोदकषु कामेषु जात नवद आ मवान् ।


अ ज ा सतम म गु ं मु नमुपा जेत् ।।३८

तावत् प रचरेद ् भ ः ावाननसूयकः ।


यावद् वजानीया मामेव गु मा तः ।।३९

य वसंयतषड् वगः च डे यसार थः ।


ानवैरा यर हत द डमुपजीव त ।।४०
उ वजी! (यह तो ई ानवान्क बात, अब केवल वैरा यवान्क बात सुनो।) जते य
पु ष, जब यह न य हो जाय क संसारके वषय के भोगका फल ःख-ही- ःख है, तब वह
वर हो जाय और य द वह मेरी ा तके साधन को न जानता हो तो भगव च तनम त मय
रहनेवाले न सद्गु क शरण हण करे ।।३८।। वह गु क ढ़ भ करे, ा रखे
और उनम दोष कभी न नकाले। जबतक का ान हो, तबतक बड़े आदरसे मुझे ही
गु के पम समझता आ उनक सेवा करे ।।३९।। क तु जसने पाँच इ याँ और मन, इन
छह पर वजय नह ा त क है, जसके इ य पी घोड़े और बु पी सार थ बगड़े ए
ह और जसके दयम न ान है और न तो वैरा य, वह य द द डी सं यासीका वेष
धारणकर पेट पालता है तो वह सं यासधमका स ानाश ही कर रहा है और अपने पू य
दे वता को, अपने-आपको और अपने दयम थत मुझको ठगनेक चे ा करता है। अभी
उस वेषमा के सं यासीक वासनाएँ ीण नह ई ह; इस लये वह इस लोक और परलोक
दोन से हाथ धो बैठता है ।।४०-४१।। सं यासीका मु य धम है—शा त और अ हसा।
वान थीका मु य धम है—तप या और भगव ाव। गृह थका मु य धम है— ा णय क
र ा और य -याग तथा चारीका मु य धम है—आचायक सेवा ।।४२।। गृह थ भी
केवल ऋतुकालम ही अपनी ीका सहवास करे। उसके लये भी चय, तप या, शौच,
स तोष और सम त ा णय के त ेमभाव—ये मु य धम ह। मेरी उपासना तो सभीको
करनी चा हये ।।४३।। जो पु ष इस कार अन यभावसे अपने वणा मधमके ारा मेरी
सेवाम लगा रहता है और सम त ा णय म मेरी भावना करता रहता है, उसे मेरी अ वचल
भ ा त हो जाती है ।।४४।। उ वजी! म स पूण लोक का एकमा वामी, सबक
उ प और लयका परम कारण ।ँ न य- नर तर बढ़नेवाली अख ड भ के ारा
वह मुझे ा त कर लेता है ।।४५।। इस कार वह गृह थ अपने धमपालनके ारा
अ तःकरणको शु करके मेरे ऐ यको—मेरे व पको जान लेता है और ान- व ानसे
स प होकर शी ही मुझे ा त कर लेता है ।।४६।। मने तु ह यह सदाचार प
वणा मय का धम बतलाया है। य द इस धमानु ानम मेरी भ का पुट लग जाय, तब तो
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इससे अनायास ही परम क याण व प मो क ा त हो जाय ।।४७।। साधु वभाव उ व!
तुमने मुझसे जो कया था, उसका उ र मने दे दया और यह बतला दया क अपने
धमका पालन करनेवाला भ मुझ पर - व पको कस कार ा त होता है ।।४८।।

सुराना मानमा म थं न ते मां च धमहा ।


अ वप वकषायोऽ मादमु मा च वहीयते ।।४१

भ ोधमः शमोऽ हसा तप ई ा वनौकसः ।


गृ हणो भूतर े या ज याचायसेवनम् ।।४२

चय तपः शौचं स तोषो भुतसौ दम् ।


गृह थ या यृतौ ग तुः सवषां म पासनम् ।।४३

इ त मां यः वधमण भजन् न यमन यभाक् ।


सवभूतेषु म ावो म व दते ढाम् ।।४४

भ यो वानपा य या सवलोकमहे रम् ।


सव प य ययं कारणं मोपया त सः ।।४५

इ त वधम न ण स वो न ातमद्ग तः ।
ान व ानस प ो न चरात् समुपै त माम् ।।४६

वणा मवतां धम एष आचारल णः ।


स एव म युतो नः ेयसकरः परः ।।४७

एत ऽे भ हतं साधो भवान् पृ छ त य च माम् ।


यथा वधमसंयु ो भ ो मां स मयात् परम् ।।४८
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायामेकादश क धे अ ादशोऽ यायः ।।१८।।

१. कालचो दतम्। २. पौणमासः।


* अथात् मु न इस बातको जानकर क अमुक पदाथ कहाँसे लाना चा हये, कस समय

लाना चा हये और कौन-कौन पदाथ अपने अनुकूल ह, वयं ही नवीन-नवीन क द-मूल-फल


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आ दका संचय करे। दे श-काला दसे अन भ अ य जन के लाये ए अथवा काला तरम
संचय कये ए पदाथ के सेवनसे ा ध आ दके कारण तप याम व न होनेक आशंका है।

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अथैकोन वशोऽ यायः
भ , ान और यम- नयमा द साधन का वणन
ीभगवानुवाच
यो व ा ुतस प आ मवान् नानुमा नकः ।
मायामा ा मदं ा वा ानं च म य सं यसेत् ।। १
भगवान् ीकृ ण कहते ह—उ वजी! जसने उप नषदा द शा के वण, मनन और
न द यासनके ारा आ मसा ा कार कर लया है, जो ो य एवं न है, जसका
न य केवल यु य और अनुमान पर ही नभर नह करता, सरे श द म—जो केवल
परो ानी नह है, वह यह जानकर क स पूण ै त पंच और इसक नवृ का साधन
वृ ान मायामा है, उ ह मुझम लीन कर दे , वे दोन ही मुझ आ माम अ य त ह, ऐसा
जान ले ।।१।। ानी पु षका अभी पदाथ म ही ँ, उसके साधन-सा य, वग और अपवग
भी म ही ँ, मेरे अ त र और कसी भी पदाथसे वह ेम नह करता ।।२।। जो ान और
व ानसे स प स पु ष ह, वे ही मेरे वा त वक व पको जानते ह। इसी लये ानी पु ष
मुझे सबसे य है। उ वजी! ानी पु ष अपने ानके ारा नर तर मुझे अपने
अ तःकरणम धारण करता है ।।३।। त व ानके लेशमा का उदय होनेसे जो स ात
होती है, वह तप या, तीथ, जप, दान अथवा अ तःकरणशु के और कसी भी साधनसे
पूणतया नह हो सकती ।।४।।

ा नन वहमेवे ः वाथ हेतु संमतः ।


वग ैवापवग ना योऽथ म ते यः ।।२

ान व ानसं स ाः पदं े ं व मम ।
ानी यतमोऽतो मे ानेनासौ बभ त माम् ।।३

तप तीथ जपो दानं प व ाणीतरा ण च ।


नालं कुव त तां स या ानकलया कृता ।।४

त मा ानेन स हतं ा वा वा मानमु व ।


ान व ानस प ो भज मां भ भा वतः ।।५

ान व ानय ेन मा म ् वाऽऽ मानमा म न ।


सवय प त मां वै सं स मुनयोऽगमन् ।।६

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व यु वा य त य वधो वकारो
माया तराऽऽपत त ना पवगयोयत् ।
ज मादयोऽ य यदमी तव त य क यु-
रा तयोयदसतोऽ त तदे व म ये ।।७
इस लये मेरे यारे उ व! तुम ानके स हत अपने आ म व पको जान लो और फर
ान- व ानसे स प होकर भ भावसे मेरा भजन करो ।।५।। बड़े-बड़े ऋ ष-मु नय ने
ान- व ान प य के ारा अपने अ तःकरणम मुझ सब य के अ धप त आ माका यजन
करके परम स ा त क है ।।६।। उ व! आ या मक, आ धदै वक और आ धभौ तक
—इन तीन वकार क सम ही शरीर है और वह सवथा तु हारे आ त है। यह पहले नह
था और अ तम नह रहेगा; केवल बीचम ही द ख रहा है। इस लये इसे जा के खेलके समान
माया ही समझना चा हये। इसके जो ज मना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और न होना—
ये छः भाव वकार ह, इनसे तु हारा कोई स ब ध नह है। यही नह , ये वकार उसके भी नह
ह; य क वह वयं असत् है। असत् व तु तो पहले नह थी, बादम भी नह रहेगी; इस लये
बीचम भी उसका कोई अ त व नह होता ।।७।।
उ व उवाच
ानं वशु ं वपुलं यथैत-
ै रा य व ानयुतं पुराणम् ।
आ या ह व े र व मूत
व योगं च मह मृ यम् ।।८

ताप येणा भहत य घोरे


संत यमान य भवा वनीश ।
प या म ना य छरणं तवङ् -
ातप ादमृता भवषात् ।।९

द ं जनं संप ततं बलेऽ मन्


काला हना ु सुखो तषम् ।
समु रैनं कृपयाऽऽपव य-
वचो भरा स च महानुभाव ।।१०
ीभगवानुवाच
इ थमेतत् पुरा राजा भी मं धमभृतां वरम् ।
अजातश ुः प छ सवषां नोऽनुशृ वताम् ।।११

नवृ े भारते यु े सु धन व लः ।
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ु वा धमान् ब न् प ा मो धमानपृ छत ।।१२

तानहं तेऽ भधा या म दे व तमुखा छतान् ।


ानवैरा य व ान ाभ युपबृं हतान् ।।१३

नवैकादश पंच ीन् भावान् भूतेषु येन वै ।


ई ेताथैकम येषु त ानं मम न तम् ।।१४
उ वजीने कहा— व प परमा मन्! आप ही व के वामी ह। आपका यह वैरा य
और व ानसे यु सनातन एवं वशु ान जस कार सु ढ़ हो जाय, उसी कार मुझे
प करके समझाइये और उस अपने भ योगका भी वणन क जये, जसे ा आद
महापु ष भी ढूँ ढ़ा करते ह ।।८।। मेरे वामी! जो पु ष इस संसारके वकट मागम तीन
ताप के थपेड़े खा रहे ह, और भीतर-बाहर जल-भुन रहे ह, उनके लये आपके अमृतवष
युगल चरणार व द क छ -छायाके अ त र और कोई भी आ य नह द खता ।।९।।
महानुभाव! आपका यह अपना सेवक अँधेरे कुएँम पड़ा आ है, काल पी सपने इसे डस
रखा है; फर भी वषय के ु सुख-भोग क ती तृ णा मटती नह , बढ़ती ही जा रही है।
आप कृपा करके इसका उ ार क जये और इससे मु करनेवाली वाणीक सुधा-धारासे
इसे सराबोर कर द जये ।।१०।।
भगवान् ीकृ णने कहा—उ वजी! जो तुमने मुझसे कया है, यही धमराज
यु ध रने धा मक शरोम ण भी म पतामहसे कया था। उस समय हम सभी लोग वहाँ
व मान थे ।।११।। जब भारतीय महायु समा त हो चुका था और धमराज यु ध र अपने
वजन-स ब धय के संहारसे शोक- व ल हो रहे थे, तब उ ह ने भी म पतामहसे ब त-से
धम का ववरण सुननेके प ात् मो के साधन के स ब धम कया था ।।१२।। उस समय
भी म पतामहके मुखसे सुने ए मो धम म तु ह सुनाऊँगा; य क वे ान, वैरा य, व ान,
ा और भ के भाव से प रपूण ह ।।१३।। उ वजी! जस ानसे कृ त, पु ष,
मह व, अहंकार और पंच-त मा ा—ये नौ, पाँच ाने य, पाँच कम य और एक मन—
ये यारह, पाँच महाभूत और तीन गुण अथात् इन अट् ठाईस त व को ासे लेकर तृणतक
स पूण काय म दे खा जाता है और इनम भी एक परमा मत वको अनुगत पसे दे खा जाता
है—वह परो ान है, ऐसा मेरा न य है ।।१४।। जब जस एक त वसे अनुगत एका मक
त व को पहले दे खता था, उनको पहलेके समान न दे खे, क तु एक परम कारण को ही
दे ख,े तब यही न त व ान (अपरो ान) कहा जाता है। (इस ान और व ानको ा त
करनेक यु यह है क) यह शरीर आ द जतने भी गुणा मक सावयव पदाथ ह, उनक
थ त, उ प और लयका वचार करे ।।१५।। जो त वव तु सृ के ार भम और अ तम
कारण पसे थत रहती है, वही म यम भी रहती है और वही तीयमान कायसे तीयमान
काया तरम अनुगत भी होती है। फर उन काय का लय अथवा बाध होनेपर उसके सा ी
एवं अ ध ान पसे शेष रह जाती है। वही स य परमाथ व तु है, ऐसा समझे ।।१६।। ु त,
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य , ऐ त (महापु ष म स ) और अनुमान— माण म यह चार मु य ह। इनक
कसौट पर कसनेसे य पंच अ थर, न र एवं वकारी होनेके कारण स य स नह
होता, इस लये ववेक पु ष इस व वध क पना प अथवा श दमा पंचसे वर हो
जाता है ।।१७।। ववेक पु षको चा हये क वह वगा द फल दे नेवाले य ा द कम के
प रणामी—न र होनेके कारण लोकपय त वगा द सुख—अ को भी इस य
वषय-सुखके समान ही अमंगल, ःखदायी एवं नाशवान् समझे ।।१८।।

एतदे व ह व ानं न तथैकेन येन यत् ।


थ यु प य ययान् प येद ् भावानां गुणा मनाम् ।।१५

आदाव ते च म ये च सृ यात् सृ यं यद वयात् ।


पुन त तसं ामे य छ येत तदे व सत् ।।१६

ु तः य मै त मनुमानं चतु यम् ।


माणे वनव थानाद् वक पात् स वर यते ।।१७

कमणां प रणा म वादा व र चादमंगलम् ।


वप रं प येद म प वत् ।।१८

भ योगः पुरैवो ः ीयमाणाय तेऽनघ ।


पुन कथ य या म म े ः कारणं परम् ।।१९

ामृतकथायां मे श मदनुक तनम् ।


प र न ा च पूजायां तु त भः तवनं मम ।। २०

आदरः प रचयायां सवा ै र भव दनम् ।


म पूजा य धका सवभूतेषु म म तः ।।२१

मदथ वंगचे ा च वचसा मद्गुणेरणम् ।


म यपणं च मनसः सवकाम ववजनम् ।।२२
न पाप उ वजी! भ योगका वणन म तु ह पहले ही सुना चुका ँ; पर तु उसम
तु हारी ब त ी त है, इस लये म तु ह फरसे भ ा त होनेका े साधन बतलाता
ँ ।।१९।। जो मेरी भ ा त करना चाहता हो, वह मेरी अमृतमयी कथाम ा रखे;
नर तर मेरे गुण-लीला और नाम का संक तन करे; मेरी पूजाम अ य त न ा रखे और
तो के ारा मेरी तु त करे ।।२०।। मेरी सेवा-पूजाम ेम रखे और सामने सा ांग लोटकर

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णाम करे; मेरे भ क पूजा मेरी पूजासे बढ़कर करे और सम त ा णय म मुझे ही
दे खे ।।२१।। अपने एक-एक अंगक चे ा केवल मेरे ही लये करे, वाणीसे मेरे ही गुण का
गान करे और अपना मन भी मुझे ही अ पत कर दे तथा सारी कामनाएँ छोड़ दे ।।२२।। मेरे
लये धन, भोग और ा त सुखका भी प र याग कर दे और जो कुछ य , दान, हवन, जप,
त और तप कया जाय, वह सब मेरे लये ही करे ।।२३।। उ वजी! जो मनु य इन धम का
पालन करते ह और मेरे त आ म- नवेदन कर दे ते ह, उनके दयम मेरी ेममयी भ का
उदय होता है और जसे मेरी भ ा त हो गयी, उसके लये और कस सरी व तुका ा त
होना शेष रह जाता है? ।।२४।।

मदथऽथप र यागो भोग य च सुख य च ।


इ ं द ं तं ज तं मदथ यद् तं तपः ।।२३

एवं धममनु याणामु वा म नवे दनाम् ।


म य संजायते भ ः कोऽ योऽथ ऽ याव श यते ।।२४

यदाऽऽ म य पतं च ं शा तं स वोपबृं हतम् ।


धम ानं सवैरा यमै य चा भप ते ।।२५

यद पतं तद् वक पे इ यैः प रधाव त ।


रज वलं चास ं च ं व वपययम् ।।२६

धम म कृत् ो ो ानं चैका यदशनम् ।


गुणे वसंगो वैरा यमै य चा णमादयः ।।२७
उ व उवाच
यमः क त वधः ो ो नयमो वा रकशन ।
कः शमः को दमः कृ ण का त त ा धृ तः भो ।।२८

क दानं क तपः शौय क स यमृतमु यते ।


क यागः क धनं चे ं को य ः का च द णा ।।२९

पुंसः क वद् बलं ीमन् भगो लाभ केशव ।


का व ा ीः परा का ीः क सुखं ःखमेव च ।।३०

कः प डतः क मूखः कः प था उ पथ कः ।
कः वग नरकः कः वत् को ब धु त क गृहम् ।।३१
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इस कारके धम का पालन करनेसे च म जब स वगुणक वृ होती है और वह
शा त होकर आ माम लग जाता है, उस समय साधकको धम, ान, वैरा य और ऐ य वयं
ही ा त हो जाते ह ।।२५।। यह संसार व वध क पना से भरपूर है। सच पूछो तो इसका
नाम तो है, क तु कोई व तु नह है। जब च इसम लगा दया जाता है, तब इ य के साथ
इधर-उधर भटकने लगता है। इस कार च म रजोगुणक बाढ़ आ जाती है, वह असत्
व तुम लग जाता है और उसके धम, ान आ द तो लु त हो ही जाते ह, वह अधम, अ ान
और मोहका भी घर बन जाता है ।।२६।। उ व! जससे मेरी भ हो, वही धम है; जससे
और आ माक एकताका सा ा कार हो, वही ान है; वषय से असंग— नलप रहना ही
वैरा य है और अ णमा द स याँ ही ऐ य ह ।।२७।।
उ वजीने कहा— रपुसूदन! यम और नयम कतने कारके ह? ीकृ ण! शम या
है? दम या है? भो! त त ा और धैय या है? ।।२८।। आप मुझे दान, तप या, शूरता,
स य और ऋतका भी व प बतलाइये। याग या है? अभी धन कौन-सा है? य कसे
कहते ह? और द णा या व तु है? ।।२९।। ीमान् केशव! पु षका स चा बल या है?
भग कसे कहते ह? और लाभ या व तु है? उ म व ा, ल जा, ी तथा सुख और ःख
या है? ।।३०।। प डत और मूखके ल ण या ह? सुमाग और कुमागका या ल ण है?
वग और नरक या ह? भाई-ब धु कसे मानना चा हये? और घर या है? ।।३१।।

कआ ः को द र ो वा कृपणः कः क ई रः ।
एतान् ान् मम ू ह वपरीतां स पते ।।३२
ीभगवानुवाच
अ हसा स यम तेयमसंगो ीरसंचयः ।
आ त यं चय च मौनं थैय माभयम् ।।३३

शौचं जप तपो होमः ाऽऽ त यं मदचनम् ।


तीथाटनं पराथहा तु राचायसेवनम् ।।३४

एते यमाः स नयमा उभयो ादश मृताः ।


पुंसामुपा सता तात यथाकामं ह त ह ।।३५

शमो म ता बु े दम इ यसंयमः ।
त त ा ःखसंमष ज ोप थजयो धृ तः ।।३६

द ड यासः परं दानं काम याग तपः मृतम् ।


वभाव वजयः शौय स यं च समदशनम् ।।३७

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ऋतं च सूनृता वाणी क व भः प रक तता ।
कम वसंगमः शौचं यागः सं यास उ यते ।।३८

धम इ ं धनं नॄणां य ोऽहं भगव मः ।


द णा ानस दे शः ाणायामः परं बलम् ।।३९

भगो म ऐ रो भावो लाभो म मः ।


व ाऽऽ म न भदाबाधो जुगु सा ीरकमसु ।।४०
धनवान् और नधन कसे कहते ह? कृपण कौन है? और ई र कसे कहते ह?
भ व सल भो! आप मेरे इन का उ र द जये और साथ ही इनके वरोधी भाव क भी
ा या क जये ।।३२।।
भगवान् ीकृ णने कहा—‘यम’ बारह ह—अ हसा, स य, अ तेय (चोरी न करना),
असंगता, ल जा, असंचय (आव यकतासे अ धक धन आ द न जोड़ना), आ तकता,
चय, मौन, थरता, मा और अभय। नयम क सं या भी बारह ही ह। शौच (बाहरी
प व ता और भीतरी प व ता), जप, तप, हवन, ा, अ त थसेवा, मेरी पूजा, तीथया ा,
परोपकारक चे ा, स तोष और गु सेवा—इस कार ‘यम’ और ‘ नयम’ दोन क सं या
बारह-बारह ह। ये सकाम और न काम दोन कारके साधक के लये उपयोगी ह। उ वजी!
जो पु ष इनका पालन करते ह, वे यम और नयम उनके इ छानुसार उ ह भोग और मो
दोन दान करते ह ।।३३-३५।। बु का मुझम लग जाना ही ‘शम’ है। इ य के संयमका
नाम ‘दम’ है। यायसे ा त ःखके सहनेका नाम ‘ त त ा’ है। ज ा और जनने यपर
वजय ा त करना ‘धैय’ है ।।३६।। कसीसे ोह न करना सबको अभय दे ना ‘दान’ है।
कामना का याग करना ही ‘तप’ है। अपनी वासना पर वजय ा त करना ही ‘शूरता’
है। सव सम व प, स य व प परमा माका दशन ही ‘स य’ है ।।३७।। इसी कार स य
और मधुर भाषणको ही महा मा ने ‘ऋत’ कहा है। कम म आस न होना ही ‘शौच’ है।
कामना का याग ही स चा ‘सं यास’ है ।।३८।। धम ही मनु य का अभी ‘धन’ है। म
परमे र ही ‘य ’ ँ। ानका उपदे श दे ना ही ‘द णा’ है। ाणायाम ही े ‘बल’
है ।।३९।। मेरा ऐ य ही ‘भग’ है, मेरी े भ ही उ म ‘लाभ’ है, स ची ‘ व ा’ वही है
जससे और आ माका भेद मट जाता है। पाप करनेसे घृणा होनेका नाम ही ‘ल जा’
है ।।४०।। नरपे ता आ द गुण ही शरीरका स चा सौ दय—‘ ी’ है, ःख और सुख
दोन क भावनाका सदाके लये न हो जाना ही ‘सुख’ है। वषयभोग क कामना ही ‘ ःख’
है। जो ब धन और मो का त व जानता है, वही ‘प डत’ है ।।४१।। शरीर आ दम जसका
मपन है, वही ‘मूख’ है। जो संसारक ओरसे नवृ करके मुझे ा त करा दे ता है, वही स चा
‘सुमाग’ है। च क ब हमुखता ही ‘कुमाग’ है। स वगुणक वृ ही ‘ वग’ और सखे!
तमोगुणक वृ ही ‘नरक’ है। गु ही स चा ‘भाई-ब धु’ है और वह गु म ँ। यह मनु य-
शरीर ही स चा ‘घर’ है तथा स चा ‘धनी’ वह है, जो गुण से स प है, जसके पास गुण का
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खजाना है ।।४२-४३।। जसके च म अस तोष है, अभावका बोध है, वही ‘द र ’ है। जो
जते य नह है, वही ‘कृपण’ है। समथ, वत और ‘ई र’ वह है, जसक च वृ
वषय म आस नह है। इसके वपरीत जो वषय म आस है, वही सवथा ‘असमथ’
है ।।४४।। यारे उ व! तुमने जतने पूछे थे, उनका उ र मने दे दया; इनको समझ
लेना मो -मागके लये सहायक है। म तु ह गुण और दोष का ल ण अलग-अलग कहाँतक
बताऊँ? सबका सारांश इतनेम ही समझ लो क गुण और दोष पर जाना ही सबसे बड़ा
दोष है और गुण-दोष पर न जाकर अपने शा त नःसंक प व पम थत रहे—वही
सबसे बड़ा गुण है ।।४५।।

ीगुणा नैरपे या ाः सुखं ःखसुखा ययः ।


ःखं कामसुखापे ा प डतो ब धमो वत् ।।४१

मूख दे हा हंबु ः प था म गमः मृतः ।


उ पथ व प े ः वगः स वगुणोदयः ।।४२

नरक तमउ ाहो ब धुगु रहं सखे ।


गृहं शरीरं मानु यं गुणा ो ा उ यते ।।४३

द र ो य वस तु ः कृपणो योऽ जते यः ।


गुणे वस धीरीशो गुणसंगो वपययः ।।४४

एत उ व ते ाः सव साधु न पताः ।
क व णतेन ब ना ल णं गुणदोषयोः ।
गुणदोष शद षो गुण तूभयव जतः ।।४५
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायामेकादश क धे एकोन वशोऽ यायः ।।१९।।

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अथ वशोऽ यायः
ानयोग, कमयोग और भ योग
उ व उवाच
वध तषेध नगमो ही र य ते ।
अवे तेऽर व दा गुणं दोषं च कमणाम् ।।१
उ वजीने कहा—कमलनयन ीकृ ण! आप सवश मान् ह। आपक आ ा ही वेद
है; उसम कुछ कम को करनेक व ध है और कुछके करनेका नषेध है। यह व ध- नषेध
कम के गुण और दोषक परी ा करके ही तो होता है ।।१।। वणा म-भेद, तलोम और
अनुलोम प वणसंकर, कमके उपयु और अनुपयु , दे श, आयु और काल तथा वग
और नरकके भेद का बोध भी वेद से ही होता है ।।२।। इसम स दे ह नह क आपक वाणी
ही वेद है, पर तु उसम व ध- नषेध ही तो भरा पड़ा है। य द उसम गुण और दोषम भेद
करनेवाली न हो, तो वह ा णय का क याण करनेम समथ ही कैसे हो? ।।३।।
सवश मान् परमे र! आपक वाणी वेद ही पतर, दे वता और मनु य के लये े माग-
दशकका काम करता है; य क उसीके ारा वग-मो आ द अ व तु का बोध होता है
और इस लोकम भी कसका कौन-सा सा य है और या साधन—इसका नणय भी उसीसे
होता है ।।४।। भो! इसम स दे ह नह क गुण और दोष म भेद आपक वाणी वेदके ही
अनुसार है, कसीक अपनी क पना नह ; पर तु तो यह है क आपक वाणी ही भेदका
नषेध भी करती है। यह वरोध दे खकर मुझे म हो रहा है। आप कृपा करके मेरा यह म
मटाइये ।।५।।

वणा म वक पं च तलोमानुलोमजम् ।
दे शवयःकालान् वग नरकमेव च ।।२

गुणदोष भदा म तरेण वच तव ।


नः ेयसं कथं नॄणां नषेध व धल णम् ।।३

पतृदेवमनु याणां वेद ु तवे र ।


ेय वनुपल धेऽथ सा यसाधनयोर प ।।४

गुणदोष भदा नगमा े न ह वतः ।


नगमेनापवाद भदाया इ त ह मः ।।५
ीभगवानुवाच

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योगा यो मया ो ा नृणां ेयो व ध सया ।
ानं कम च भ नोपायोऽ योऽ त कु चत् ।।६

न व णानां ानयोगो या सना मह कमसु ।


ते व न व ण च ानां कमयोग तु का मनाम् ।।७

य छया म कथादौ जात तु यः पुमान् ।


न न व णो ना तस ो भ योगोऽ य स दः ।।८
भगवान् ीकृ णने कहा— य उ व! मने ही वेद म एवं अ य भी मनु य का
क याण करनेके लये अ धका रभेदसे तीन कारके योग का उपदे श कया है। वे ह— ान,
कम और भ । मनु यके परम क याणके लये इनके अ त र और कोई उपाय कह नह
है ।।६।। उ वजी! जो लोग कम तथा उनके फल से वर हो गये ह और उनका याग कर
चुके ह, वे ानयोगके अ धकरी ह। इसके वपरीत जनके च म कम और उनके फल से
वैरा य नह आ है, उनम ःखबु नह ई है, वे सकाम कमयोगके अ धकारी
ह ।।७।। जो पु ष न तो अ य त वर है और न अ य त आस ही है तथा कसी
पूवज मके शुभकमसे सौभा यवश मेरी लीला-कथा आ दम उसक ा हो गयी है, वह
भ योगका अ धकारी है। उसे भ योगके ारा ही स मल सकती है ।।८।। कमके
स ब धम जतने भी व ध- नषेध ह, उनके अनुसार तभीतक कम करना चा हये, जबतक
कममय जगत् और उससे ा त होनेवाले वगा द सुख से वैरा य न हो जाय अथवा जबतक
मेरी लीला-कथाके वण-क तन आ दम ा न हो जाय ।।९।। उ व! इस कार अपने
वण और आ मके अनुकूल धमम थत रहकर य के ारा बना कसी आशा और
कामनाके मेरी आराधना करता रहे और न ष कम से र रहकर केवल व हत कम का ही
आचरण करे तो उसे वग या नरकम नह जाना पड़ता ।।१०।। अपने धमम न ा रखनेवाला
पु ष इस शरीरम रहते-रहते ही न ष कमका प र याग कर दे ता है और रागा द मल से भी
मु —प व हो जाता है। इसीसे अनायास ही उसे आ मसा ा कार प वशु त व ान
अथवा त- च होनेपर मेरी भ ा त होती है ।।११।। यह व ध- नषेध प कमका
अ धकारी मनु य-शरीर ब त ही लभ है। वग और नरक दोन ही लोक म रहनेवाले जीव
इसक अ भलाषा करते रहते ह; य क इसी शरीरम अ तःकरणक शु होनेपर ान
अथवा भ क ा त हो सकती है, वग अथवा नरकका भोग धान शरीर कसी भी
साधनके उपयु नह है। बु मान् पु षको न तो वगक अ भलाषा करनी चा हये और न
नरकक ही। और तो या, इस मनु य-शरीरक भी कामना न करनी चा हये; य क कसी
भी शरीरम गुणबु और अ भमान हो जानेसे अपने वा त वक व पक ा तके साधनम
माद होने लगता है ।।१२-१३।। य प यह मनु य-शरीर है तो मृ यु त ही, पर तु इसके
ारा परमाथक —स य व तुक ा त हो सकती है। बु मान् पु षको चा हये क यह बात
जानकर मृ यु होनेके पूव ही सावधान होकर ऐसी साधना कर ले, जससे वह ज म-मृ युके
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च करसे सदाके लये छू ट जाय—मु हो जाय ।।१४।। यह शरीर एक वृ है। इसम घ सला
बनाकर जीव प प ी नवास करता है। इसे यमराजके त त ण काट रहे ह। जैसे प ी
कटते ए वृ को छोड़कर उड़ जाता है, वैसे ही अनास जीव भी इस शरीरको छोड़कर
मो का भागी बन जाता है। पर तु आस जीव ःख ही भोगता रहता है ।।१५।। य
उ व! ये दन और रात ण- णम शरीरक आयुको ीण कर रहे ह। यह जानकर जो
भयसे काँप उठता है, वह इसम आस छोड़कर परमत वका ान ा त कर लेता है
और फर इसके जीवन-मरणसे नरपे होकर अपने आ माम ही शा त हो जाता है ।।१६।।
यह मनु य-शरीर सम त शुभ फल क ा तका मूल है और अ य त लभ होनेपर भी
अनायास सुलभ हो गया है। इस संसार-सागरसे पार जानेके लये यह एक सु ढ़ नौका है।
शरण- हणमा से ही गु दे व इसके केवट बनकर पतवारका संचालन करने लगते ह और
मरणमा से ही म अनुकूल वायुके पम इसे ल यक ओर बढ़ाने लगता ँ। इतनी सु वधा
होनेपर भी जो इस शरीरके ारा संसार-सागरसे पार नह हो जाता, वह तो अपने हाथ अपने
आ माका हनन—अधःपतन कर रहा है ।।१७।।

तावत् कमा ण कुव त न न व ेत यावता ।


म कथा वणादौ वा ा याव जायते ।।९

वधम थो यजन् य ैरनाशीःकाम उ व ।


न या त वगनरकौ य य समाचरेत् ।।१०

अ मँ लोके वतमानः वधम थोऽनघः शु चः ।


ानं वशु मा ो त म वा य छया ।।११

व गणोऽ येत म छ त लोकं नर यण तथा ।


साधकं ानभ यामुभयं तदसाधकम् ।।१२

न नरः वग त कां े ारक वा वच णः ।


नेमं लोकं च कां ेत दे हावेशात् मा त ।।१३

एतद् व ान् पुरा मृ योरभवाय घटे त सः ।


अ म इदं ा वा म यम यथ स दम् ।।१४

छ मानं यमैरेतैः कृतनीडं वन प तम् ।


खगः वकेतमु सृ य ेमं या त ल पटः ।। १५

अहोरा ै छ मानं बुद ् वाऽऽयुभयवेपथुः ।


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मु संगः परं बुद ् वा नरीह उपशा य त ।।१६

नृदेहमा ं सुलभं सु लभं


लवं सुक पं गु कणधारम् ।
मयानुकूलेन नभ वते रतं
पुमान् भवा धं न तरेत् स आ महा ।।१७

यदाऽऽर भेषु न व णो वर ः संयते यः ।


अ यासेना मनो योगी धारयेदचलं मनः ।।१८

धायमाणं मनो य ह ा यदा नव थतम् ।


अत तोऽनुरोधेन मागणा मवशं नयेत् ।।१९

मनोग त न वसृजे जत ाणो जते यः ।


स वस प या बु या मन आ मवशं नयेत् ।।२०

एष वै परमो योगो मनसः सं हः मृतः ।


दय वम व छन् द य येवावतो मु ः ।।२१
य उ व! जब पु ष दोषदशनके कारण कम से उ न और वर हो जाय, तब
जते य होकर वह योगम थत हो जाय और अ यास—आ मानुस धानके ारा अपना
मन मुझ परमा माम न ल पसे धारण करे ।।१८।। जब थर करते समय मन चंचल होकर
इधर-उधर भटकने लगे, तब झटपट बड़ी सावधानीसे उसे मनाकर, समझा-बुझाकर,
फुसलाकर अपने वशम कर ले ।।१९।। इ य और ाण को अपने वशम रखे और मनको
एक णके लये भी वत न छोड़े। उसक एक-एक चाल, एक-एक हरकतको दे खता रहे।
इस कार स वस प बु के ारा धीरे-धीरे मनको अपने वशम कर लेना चा हये ।।२०।।
जैसे सवार घोड़ेको अपने वशम करते समय उसे अपने मनोभावक पहचान कराना चाहता है
—अपनी इ छाके अनुसार उसे चलाना चाहता है और बार-बार फुसलाकर उसे अपने वशम
कर लेता है, वैसे ही मनको फुसलाकर, उसे मीठ -मीठ बात सुनाकर वशम कर लेना भी
परम योग है ।।२१।। सां यशा म कृ तसे लेकर शरीरपय त सृ का जो म बतलाया
गया है, उसके अनुसार सृ - च तन करना चा हये और जस मसे शरीर आ दका कृ तम
लय बताया गया है, उस कार लय- च तन करना चा हये। यह म तबतक जारी रखना
चा हये, जबतक मन शा त— थर न हो जाय ।।२२।। जो पु ष संसारसे वर हो गया है
और जसे संसारके पदाथ म ःख-बु हो गयी है, वह अपने गु जन के उपदे शको
भलीभाँ त समझकर बार-बार अपने व पके ही च तनम संल न रहता है। इस अ याससे
ब त शी ही उसका मन अपनी वह चंचलता, जो अना मा शरीर आ दम आ मबु करनेसे

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ई है, छोड़ दे ता है ।।२३।। यम, नयम, आसन, ाणायाम, याहार, धारणा, यान, समा ध
आ द योगमाग से, व तुत वका नरी ण-परी ण करनेवाली आ म व ासे तथा मेरी
तमाक उपासनासे—अथात् कमयोग, ानयोग और भ योगसे मन परमा माका च तन
करने लगता है; और कोई उपाय नह है ।।२४।।

सां येन सवभावानां तलोमानुलोमतः ।


भवा ययावनु याये मनो यावत् सीद त ।।२२

न व ण य वर य पु ष यो वे दनः ।
मन यज त दौरा यं च तत यानु च तया ।।२३

यमा द भय गपथैरा वी या च व या ।
ममाच पासना भवा ना यैय यं मरे मनः ।।२४

य द कुयात् मादे न योगी कम वग हतम् ।


योगेनैव दहेदंहो ना य कदाचन ।।२५

वे वेऽ धकारे या न ा स गुणः प रक ततः ।


कमणां जा यशु ानामनेन नयमः कृतः ।
गुणदोष वधानेन संगानां याजने छया ।।२६

जात ो म कथासु न व णः सवकमसु ।


वेद ःखा मकान् कामान् प र यागेऽ यनी रः ।।२७
उ वजी! वैसे तो योगी कभी कोई न दत कम करता ही नह ; पर तु य द कभी उससे
मादवश कोई अपराध बन जाय तो योगके ारा ही उस पापको जला डाले, कृ -
चा ायण आ द सरे य त कभी न करे ।।२५।। अपने-अपने अ धकारम जो न ा है,
वही गुण कहा गया है। इस गुण-दोष और व ध- नषेधके वधानसे यही ता पय नकलता है
क कसी कार वषयास का प र याग हो जाय; य क कम तो ज मसे ही अशु ह,
अनथके मूल ह। शा का ता पय उनका नय ण, नयम ही है। जहाँतक हो सके वृ का
संकोच ही करना चा हये ।।२६।।
जो साधक सम त कम से वर हो गया हो, उनम ःखबु रखता हो, मेरी
लीलाकथाके त ालु हो और यह भी जानता हो क सभी भोग और भोगवासनाएँ
ःख प ह, क तु इतना सब जानकर भी जो उनके प र यागम समथ न हो, उसे चा हये क
उन भोग को तो भोग ले; पर तु उ ह स चे दयसे ःखजनक समझे और मन-ही-मन उनक
न दा करे तथा उसे अपना भा य ही समझे। साथ ही इस वधाक थ तसे छु टकारा
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पानेके लये ा, ढ़ न य और ेमसे मेरा भजन करे ।।२७-२८।। इस कार मेरे बतलाये
ए भ योगके ारा नर तर मेरा भजन करनेसे म उस साधकके दयम आकर बैठ जाता
ँ और मेरे वराजमान होते ही उसके दयक सारी वासनाएँ अपने सं कार के साथ न हो
जाती ह ।।२९।। इस तरह जब उसे मुझ सवा माका सा ा कार हो जाता है, तब तो उसके
दयक गाँठ टू ट जाती है, उसके सारे संशय छ - भ हो जाते ह और कम-वासनाएँ सवथा
ीण हो जाती ह ।।३०।। इसीसे जो योगी मेरी भ से यु और मेरे च तनम म न रहता है,
उसके लये ान अथवा वैरा यक आव यकता नह होती। उसका क याण तो ायः मेरी
भ के ारा ही हो जाता है ।।३१।। कम, तप या, ान, वैरा य, योगा यास, दान, धम और
सरे क याणसाधन से जो कुछ वग, अपवग, मेरा परम धाम अथवा कोई भी व तु ा त
होती है, वह सब मेरा भ मेरे भ योगके भावसे ही, य द चाहे तो, अनायास ा त कर
लेता है ।।३२-३३।। मेरे अन य ेमी एवं धैयवान् साधु भ वयं तो कुछ चाहते ही नह ; य द
म उ ह दे ना चाहता ँ और दे ता भी ँ तो भी सरी व तु क तो बात ही या—वे कैव य-
मो भी नह लेना चाहते ।।३४।। उ वजी! सबसे े एवं महान् नः ेयस (परम क याण)
तो नरपे ताका ही सरा नाम है। इस लये जो न काम और नरपे होता है, उसीको मेरी
भ ा त होती है ।।३५।। मेरे अन य ेमी भ का और उन समदश महा मा का; जो
बु से अतीत परमत वको ा त हो चुके ह, इन व ध और नषेधसे होनेवाले पु य और
पापसे कोई स ब ध ही नह होता ।।३६।। इस कार जो लोग मेरे बतलाये ए इन ान,
भ और कममाग का आ य लेते ह, वे मेरे परम क याण- व प धामको ा त होते ह,
य क वे पर त वको जान लेते ह ।।३७।।

ततो भजेत मां ीतः ालु ढ न यः ।


जुषमाण तान् कामान् ःखोदका गहयन् ।।२८

ो े न भ योगेन भजतो मासकृ मुनेः ।


कामा द या न य त सव म य द थते ।।२९

भ ते दय थ छ ते सवसंशयाः ।
ीय ते चा य कमा ण म य ेऽ खला म न ।।३०

त मा म यु य यो गनो वै मदा मनः ।


न ानं न च वैरा यं ायः ेयो भवे दह ।।३१

यत् कम भय पसा ानवैरा यत यत् ।


योगेन दानधमण ेयो भ रतरैर प ।।३२

सव म योगेन म ो लभतेऽ सा ।
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वगापवग म ाम कथं चद् य द वा छ त ।।३३

न क चत् साधवो धीरा भ ा ेका तनो मम ।


वा छ य प मया द ं कैव यमपुनभवम् ।।३४

नैरपे यं परं ा नः य
े समन पकम् ।
त मा रा शषो भ नरपे य मे भवेत् ।।३५

न म येका तभ ानां गुणदोषो वा गुणाः ।


साधूनां सम च ानां बु े ः परमुपेयुषाम् ।।३६

एवमेतान् मयाऽऽ द ाननु त त मे पथः ।


ेमं व द त म थानं यद् परमं व ः ।।३७
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायामेकादश क धे वशोऽ यायः ।।२०।।

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अथैक वशोऽ यायः
गुण-दोष- व थाका व प और रह य
ीभगवानुवाच
य एतान् म पथो ह वा भ ान या मकान् ।
ु ान् कामां लैः ाणैजुष तः संसर त ते ।।१

वे वेऽ धकारे या न ा स गुणः प रक ततः ।


वपयय तु दोषः या भयोरेष न यः ।।२

शु यशु वधीयेते समाने व प व तुषु ।


य व च क साथ गुणदोषौ शुभाशुभौ ।।३

धमाथ वहाराथ या ाथ म त चानघ ।


द शतोऽयं मयाऽऽचारो धममु हतां धुरम् ।।४

भू य व य नलाकाशा भूतानां पंच धातवः ।


आ थावराद नां शारीरा आ मसंयुताः ।।५

वेदेन नाम पा ण वषमा ण समे व प ।


धातुपू व क य ते एतेषां वाथ स ये ।।६
भगवान् ीकृ ण कहते ह— य उ व! मेरी ा तके तीन माग ह—भ योग,
ानयोग और कमयोग। जो इ ह छोड़कर चंचल इ य के ारा ु भोग भोगते रहते ह, वे
बार-बार ज म-मृ यु प संसारके च करम भटकते रहते ह ।।१।। अपने-अपने अ धकारके
अनुसार धमम ढ़ न ा रखना ही गुण कहा गया है और इसके वपरीत अन धकार चे ा
करना दोष है। ता पय यह क गुण और दोष दोन क व था अ धकारके अनुसार क जाती
है, कसी व तुके अनुसार नह ।।२।। व तु के समान होनेपर भी शु -अशु , गुण-दोष
और शुभ-अशुभ आ दका जो वधान कया जाता है, उसका अ भ ाय यह है क पदाथका
ठ क-ठ क नरी ण-परी ण हो सके और उनम स दे ह उ प करके ही यह यो य है क
अयो य, वाभा वक वृ को नय त—संकु चत कया जा सके ।।३।। उनके ारा धम-
स पादन कर सके, समाजका वहार ठ क-ठ क चला सके और अपने गत जीवनके
नवाहम भी सु वधा हो। इससे यह लाभ भी है क मनु य अपनी वासनामुलक सहज
वृ य के ारा इनके जालम न फँसकर शा ानुसार अपने जीवनको नय त और मनको
वशीभूत कर लेता है। न पाप उ व! यह आचार मने ही मनु आ दका प धारण करके
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धमका भार ढोनेवाले कम जड के लये उपदे श कया है ।।४।। पृ वी, जल, तेज, वायु,
आकाश—ये पंचभूत ही ासे लेकर पवत-वृ पय त सभी ा णय के शरीर के मूलकारण
ह। इस तरह वे सब शरीरक से तो समान ह ही, सबका आ मा भी एक ही है ।।५।। य
उ व! य प सबके शरीर के पंचभूत समान ह, फर भी वेद ने इनके वणा म आ द अलग-
अलग नाम और प इस लये बना दये ह क ये अपनी वासना-मूलक वृ य को संकु चत
करके— नय त करके धम, अथ, काम, मो —इन चार पु षाथ को स कर
सक ।।६।। साधु े ! दे श, काल, फल, न म , अ धकारी और धा य आ द व तु के गुण-
दोष का वधान भी मेरे ारा इसी लये कया गया है क कम म लोग क उ छृ ं खल वृ न
हो, मयादाका भंग न होने पावे ।।७।। दे श म वह दे श अप व है, जसम कृ णसार मृग न ह
और जसके नवासी ा ण-भ न ह । कृ णसार मृगके होनेपर भी, केवल उन दे श को
छोड़कर जहाँ संत पु ष रहते ह, क कट दे श अप व ही है। सं कारर हत और ऊसर आ द
थान भी अप व ही होते ह ।।८।। समय वही प व है, जसम कम करने-यो य साम ी
मल सके तथा कम भी हो सके। जसम कम करनेक साम ी न मले, आग तुक दोष से
अथवा वाभा वक दोषके कारण जसम कम ही न हो सके, वह समय अशु है ।।९।।
पदाथ क शु और अशु , वचन, सं कार, काल, मह व अथवा अ प वसे भी होती
है। (जैसे कोई पा जलसे शु और मू ा दसे अशु हो जाता है। कसी व तुक शु
अथवा अशु म शंका होनेपर ा ण के वचनसे वह शु हो जाती है अ यथा अशु रहती
है। पु पा द जल छड़कनेसे शु और सूँघनेसे अशु माने जाते ह। त कालका पकाया आ
अ शु और बासी अशु माना जाता है। बड़े सरोवर और नद आ दका जल शु और
छोटे गड् ढ का अशु माना जाता है। इस कार मसे समझ लेना चा हये।) ।।१०।। श ,
अश , बु और वैभवके अनुसार भी प व ता और अप व ताक व था होती है। उसम
भी थान और उपयोग करनेवालेक आयुका वचार करते ए ही अशु व तु के
वहारका दोष ठ क तरहसे आँका जाता है। (जैसे धनी-द र , बलवान्- नबल, बु मान्-
मूख, उप वपूण और सुखद दे श तथा त ण एवं वृ ाव थाके भेदसे शु और अशु क
व थाम अ तर पड़ जाता है।) ।।११।। अनाज, लकड़ी, हाथीदाँत आ द ह ी, सूत, मधु,
नमक, तेल, घी आ द रस, सोना-पारा आ द तैजस पदाथ, चाम और घड़ा आ द म के बने
पदाथ समयपर अपने-आप हवा लगनेस,े आगम जलानेस,े म लगानेसे अथवा जलम
धोनेसे शु हो जाते ह। दे श, काल और अव थाके अनुसार कह जल- म आ द शोधक
साम ीके संयोगसे शु करनी पड़ती है तो कह -कह एक-एकसे भी शु हो जाती
है ।।१२।। य द कसी व तुम कोई अशु पदाथ लग गया हो तो छ लनेसे या म आ द
मलनेसे जब उस पदाथक ग ध और लेप न रहे और वह व तु अपने पूव पम आ जाय, तब
उसको शु समझना चा हये ।।१३।। नान, दान, तप या, वय, साम य, सं कार, कम और
मेरे मरणसे च क शु होती है। इनके ारा शु होकर ा ण, य और वै यको
व हत कम का आचरण करना चा हये ।।१४।। गु मुखसे सुनकर भलीभाँ त दयंगम कर
लेनेसे म क और मुझे सम पत कर दे नेसे कमक शु होती है। उ वजी! इस कार दे श,

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काल, पदाथ, कता, म और कम—इन छह के शु होनेसे धम और अशु होनेसे अधम
होता है ।।१५।। कह -कह शा व धसे गुण दोष हो जाता है और दोष गुण। (जैसे ा णके
लये स या-व दन, गाय ी-जप आ द गुण ह; पर तु शू के लये दोष ह। और ध आ दका
ापार वै यके लये व हत है; पर तु ा णके लये अ य त न ष है।) एक ही व तुके
वषयम कसीके लये गुण और कसीके लये दोषका वधान गुण और दोष क
वा त वकताका ख डन कर दे ता है और इससे यह न य होता है क गुण-दोषका यह भेद
क पत है ।।१६।। जो लोग प तत ह, वे प तत का-सा आचरण करते ह तो उ ह पाप नह
लगता, जब क े पु ष के लये वह सवथा या य होता है। जैसे गृह थ के लये
वाभा वक होनेके कारण अपनी प नीका संग पाप नह है; पर तु सं यासीके लये घोर पाप
है। उ वजी! बात तो यह है क जो नीचे सोया आ है, वह गरेगा कहाँ? वैसे ही जो पहलेसे
ही प तत ह, उनका अब और पतन या होगा? ।।१७।। जन- जन दोष और गुण से
मनु यका च उपरत हो जाता है, उ ह व तु के ब धनसे वह मु हो जाता है। मनु य के
लये यह नवृ प धम ही परम क याणका साधन है; य क यही शोक, मोह और भयको
मटानेवाला है ।।१८।।

दे शकाला दभावानां व तूनां मम स म ।


गुणदोषौ वधीयेते नयमाथ ह कमणाम् ।।७

अकृ णसारो दे शानाम योऽशु चभवेत् ।


कृ णसारोऽ यसौवीरक कटासं कृते रणम् ।।८

कम यो गुणवान् कालो तः वत एव वा ।
यतो नवतते कम स दोषोऽकमकः मृतः ।।९

य शु यशु च ेण वचनेन च ।
सं कारेणाथ कालेन मह वा पतयाथवा ।।१०

श याश याथवा बु या समृ या च यदा मने ।


अघं कुव त ह यथा दे शाव थानुसारतः ।।११

धा यदाव थत तूनां रसतैजसचमणाम् ।


कालवा व नमृ ोयैः पा थवानां युतायुतैः ।।१२

अमे य ल तं यद् येन ग धं लेपं पोह त ।


भजते कृ त त य त छौचं ताव द यते ।।१३

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नानदानतपोऽव थावीयसं कारकम भः ।
म मृ या चा मनः शौचं शु ः कमाचरेद ् जः ।।१४

म य च प र ानं कमशु मदपणम् ।


धमः स प ते षड् भरधम तु वपययः ।।१५

व चद् गुणोऽ प दोषः याद् दोषोऽ प व धना गुणः ।


गुणदोषाथ नयम त दामेव बाधते ।।१६

समानकमाचरणं प ततानां न पातकम् ।


औ प को गुणः संगो न शयानः पत यधः ।।१७

यतो यतो नवतत वमु येत तत ततः ।


एष धम नृणां ेमः शोकमोहभयापहः ।।१८

वषयेषु गुणा यासात् पुंसः संग ततो भवेत् ।


संगा भवेत् कामः कामादे व क लनृणाम् ।।१९

कले वषहः ोध तम तमनुवतते ।


तमसा यते पुंस ेतना ा पनी तम् ।।२०

तया वर हतः साधो ज तुः शू याय क पते ।


ततोऽ य वाथ व ंशो मू छत य मृत य च ।।२१

वषया भ नवेशेन ना मानं वेद नापरम् ।


वृ जी वकया जीवन् थ भ ेव यः सन् ।।२२

फल ु त रयं नॄणां न ेयो रोचनं परम् ।


ेयो वव या ो ं यथा भैष यरोचनम् ।।२३

उ प यैव ह कामेषु ाणेषु वजनेषु च ।


आस मनसो म या आ मनोऽनथहेतुषु ।।२४
उ वजी! वषय म कह भी गुण का आरोप करनेसे उस व तुके त आस हो जाती
है। आस होनेसे उसे अपने पास रखनेक कामना हो जाती है और इस कामनाक पू तम
कसी कारक बाधा पड़नेपर लोग म पर पर कलह होने लगता है ।।१९।। कलहसे अस
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ोधक उ प होती है और ोधके समय अपने हत-अ हतका बोध नह रहता, अ ान छा
जाता है। इस अ ानसे शी ही मनु यक कायाकायका नणय करनेवाली ापक
चेतनाश लु त हो जाती है ।।२०।। साधो! चेतना-श अथात् मृ तके लु त हो जानेपर
मनु यम मनु यता नह रह जाती, पशुता आ जाती है और वह शू यके समान अ त वहीन हो
जाता है। अब उसक अव था वैसी ही हो जाती है, जैसे कोई मू छत या मुदा हो। ऐसी
थ तम न तो उसका वाथ बनता है और न तो परमाथ ।।२१।। वषय का च तन करते-
करते वह वषय प हो जाता है। उसका जीवन वृ के समान जड हो जाता है। उसके
शरीरम उसी कार थ ास चलता रहता है, जैसे लुहारक ध कनीक हवा। उसे न अपना
ान रहता है और न कसी सरेका। वह सवथा आ मव चत हो जाता है ।।२२।।
उ वजी! यह वगा द प फलका वणन करनेवाली ु त मनु य के लये उन-उन
लोक को परम पु षाथ नह बतलाती; पर तु ब हमुख पु ष के लये अ तःकरणशु के ारा
परम क याणमय मो क वव ासे ही कम म च उ प करनेके लये वैसा वणन करती
है। जैसे ब च से ओष धम च उ प करनेके लये रोचक वा य कहे जाते ह। (बेटा! ेमसे
गलोयका काढ़ा पी लो तो तु हारी चोट बढ़ जायगी) ।।२३।। इसम स दे ह नह क संसारके
वषय-भोग म, ाण म और सगे-स ब धय म सभी मनु य ज मसे ही आस ह और उन
व तु क आस उनक आ मो तम बाधक एवं अनथका कारण है ।।२४।। वे अपने
परम पु षाथको नह जानते, इस लये वगा दका जो वणन मलता है, वह य -का- य स य
है—ऐसा व ास करके दे वा द यो नय म भटकते रहते ह और फर वृ आ द यो नय के घोर
अ धकारम आ पड़ते ह। ऐसी अव थाम कोई भी व ान् अथवा वेद फरसे उ ह उ ह
वषय म य वृ करेगा? ।।२५।। बु लोग (कमवाद ) वेद का यह अ भ ाय न
समझकर कमास वश पु प के समान वगा द लोक का वणन दे खते ह और उ ह को परम
फल मानकर भटक जाते ह। पर तु वेदवे ा लोग ु तय का ऐसा ता पय नह
बतलाते ।।२६।। वषय-वासना म फँसे ए द न-हीन, लोभी पु ष रंग- बरंगे पु प के समान
वगा द लोक को ही सब कुछ समझ बैठते ह, अ नके ारा स होनेवाले य -यागा द
कम म ही मु ध हो जाते ह। उ ह अ तम दे वलोक, पतृलोक आ दक ही ा त होती है।
सरी ओर भटक जानेके कारण उ ह अपने नजधाम आ मपदका पता नह लगता ।।२७।।
यारे उ व! उनके पास साधना है तो केवल कमक और उसका कोई फल है तो इ य क
तृ त। उनक आँख धुँधली हो गयी ह; इसीसे वे यह बात नह जानते क जससे इस
जगत्क उ प ई है, जो वयं इस जगत्के पम है, वह परमा मा म उनके दयम ही
ँ ।।२८।। य द हसा और उसके फल मांस-भ णम राग ही हो, उसका याग न कया जा
सकता हो, तो य म ही करे—यह प रसं या व ध है, वाभा वक वृ का संकोच है,
स याव दना दके समान अपूव व ध नह है। इस कार मेरे परो अ भ ायको न जानकर
वषयलोलुप पु ष हसाका खलवाड़ खेलते ह और तावश अपनी इ य क तृ तके
लये वध कये ए पशु के मांससे य करके दे वता, पतर तथा भूतप तय के यजनका ढ ग
करते ह ।।२९-३०।।

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न तान व षः वाथ ा यतो वृ जना व न ।
कथं यु यात् पुन तेषु तां तमो वशतो बुधः ।।२५

एवं व सतं के चद व ाय कुबु यः ।


फल ु त कुसु मतां न वेद ा वद त ह ।।२६

का मनः कृपणा लु धाः पु पेषु फलबु यः ।


अ नमु धा धूमता ताः वं लोकं न वद त ते ।।२७

न ते मामंग जान त द थं य इदं यतः ।


उ थश ा सुतृपो यथा नीहारच ुषः ।।२८

ते मे मतम व ाय परो ं वषया मकाः ।


हसायां य द रागः याद् य एव न चोदना ।।२९

हसा वहारा ाल धैः पशु भः वसुखे छया ।


यज ते दे वता य ैः पतृभूतपतीन् खलाः ।।३०

व ोपमममुं लोकमस तं वण यम् ।


आ शषो द संक य यज यथान् यथा व णक् ।।३१
उ वजी! वगा द परलोक व के य के समान ह, वा तवम वे असत् ह, केवल उनक
बात सुननेम ब त मीठ लगती ह। सकाम पु ष वहाँके भोग के लये मन-ही-मन अनेक
कारके संक प कर लेते ह और जैसे ापारी अ धक लाभक आशासे मूलधनको भी खो
बैठता है, वैसे ही वे सकाम य ारा अपने धनका नाश करते ह ।।३१।। वे वयं रजोगुण,
स वगुण या तमोगुणम थत रहते ह और रजोगुणी, स वगुणी अथवा तमोगुणी इ ा द
दे वता क उपासना करते ह। वे उ ह साम य से उतने ही प र मसे मेरी पूजा नह
करते ।।३२।। वे जब इस कारक पु पता वाणी—रंग- बरंगी मीठ -मीठ बात सुनते ह क
‘हमलोग इस लोकम य के ारा दे वता का यजन करके वगम जायँगे और वहाँ द
आन द भोगगे, उसके बाद जब फर हमारा ज म होगा, तब हम बड़े कुलीन प रवारम पैदा
ह गे, हमारे बड़े-बड़े महल ह गे और हमारा कुटु ब ब त सुखी और ब त बड़ा होगा’ तब
उनका च ु ध हो जाता है और उन हेकड़ी जतानेवाले घमं डय को मेरे स ब धक
बातचीत भी अ छ नह लगती ।।३३-३४।।

रजःस वतमो न ा रजःस वतमोजुषः ।


उपासत इ मु यान् दे वाद न् न तथैव माम् ।।३२
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इ ् वेह दे वता य ैग वा रं यामहे द व ।
त या त इह भूया म महाशाला महाकुलाः ।।३३

एवं पु पतया वाचा ा तमनसां नृणाम् ।


मा ननां चा त त धानां म ाता प न रोचते ।।३४

वेदा ा म वषया का ड वषया इमे ।


परो वादा ऋषयः परो ं मम च यम् ।।३५

शद सु ब धं ाणे यमनोमयम् ।
अन तपारं ग भीरं वगा ं समु वत् ।।३६

मयोपबृं हतं भू ना णान तश ना ।


भूतेषु घोष पेण बसेषूणव ल यते ।।३७
उ वजी! वेद म तीन का ड ह—कम, उपासना और ान। इन तीन का ड के ारा
तपा दत वषय है और आ माक एकता, सभी म और म - ा ऋ ष इस
वषयको खोलकर नह , गु तभावसे बतलाते ह और मुझे भी इस बातको गु त पसे कहना
ही अभी है* ।।३५।। वेद का नाम है श द । वे मेरी मू ह, इसीसे उनका रह य
समझना अ य त क ठन है। वह श द परा, प य ती और म यमा वाणीके पम ाण,
मन और इ यमय है। समु के समान सीमार हत और गहरा है। उसक थाह लगाना अ य त
क ठन है। (इसीसे जै म न आ द बड़े-बड़े व ान् भी उसके ता पयका ठ क-ठ क नणय नह
कर पाते) ।।३६।। उ व! म अन त-श -स प एवं वयं अन त ँ। मने ही
वेदवाणीका व तार कया है। जैसे कमलनालम पतला-सा सूत होता है, वैसे ही वह वेदवाणी
ा णय के अ तःकरणम अनाहतनादके पम कट होती है ।।३७।। भगवान् हर यगभ
वयं वेदमू त एवं अमृतमय ह। उनक उपा ध है ाण और वयं अनाहत श दके ारा ही
उनक अ भ ई है। जैसे मकड़ी अपने दयसे मुख ारा जाला उगलती और फर
नगल लेती है, वैसे ही वे पश आ द वण का संक प करनेवाले मन प न म कारणके
ारा दयाकाशसे अन त अपार अनेक माग वाली वैखरी प वेदवाणीको वयं ही कट
करते ह और फर उसे अपनेम लीन कर लेते ह। वह वाणी द्गत सू म कारके ारा
अभ पश (‘क’ से लेकर ‘म’ तक-२५), वर (‘अ’ से ‘औ’ तक-९), ऊ मा (श, ष, स,
ह) और अ तः थ (य, र, ल, व)—इन वण से वभू षत है। उसम ऐसे छ द ह, जनम
उ रो र चार-चार वण बढ़ते जाते ह और उनके ारा व च भाषाके पम वह व तृत ई
है ।।३८-४०।। (चार-चार अ धक वण वाले छ द मसे कुछ ये ह—) गाय ी, उ णक्, अनु ु प,्
बृहती, पं , ु प,् जगती, अ त छ द, अ य , अ तजगती और वराट् ।।४१।। वह
वेदवाणी कमका डम या वधान करती है, उपासनाका डम कन दे वता का वणन करती
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है और ानका डम कन ती तय का अनुवाद करके उनम अनेक कारके वक प करती
है—इन बात को इस स ब धम ु तके रह यको मेरे अ त र और कोई नह
जानता ।।४२।। म तु ह प बतला दे ता ,ँ सभी ु तयाँ कमका डम मेरा ही वधान करती
ह, उपासनाका डम उपा य दे वता के पम वे मेरा ही वणन करती ह और ानका डम
आकाशा द पसे मुझम ही अ य व तु का आरोप करके उनका नषेध कर दे ती ह। स पूण
ु तय का बस, इतना ही ता पय है क वे मेरा आ य लेकर मुझम भेदका आरोप करती ह,
मायामा कहकर उसका अनुवाद करती ह और अ तम सबका नषेध करके मुझम ही शा त
हो जाती ह और केवल अ ध ान पसे म ही शेष रह जाता ँ ।।४३।।

यथोणना भ दया णामु मते मुखात् ।


आकाशाद् घोषवान् ाणो मनसा पश पणा ।।३८

छ दोमयोऽमृतमयः सह पदव भुः ।


काराद् त पश वरो मा तः थभू षताम् ।।३९

व च भाषा वततां छ दो भ तु रैः ।


अन तपारां बृहत सृज या पते वयम् ।।४०

गाय यु णगनु ु प् च बृहती पङ् रेव च ।


ु जग य त छ दो य तजगद् वराट् ।।४१

क वध े कमाच े कमनू वक पयेत् ।


इ य या दयं लोके ना यो मद् वेद क न ।।४२

मां वध ेऽ भध े मां वक यापो ते वहम् ।


एतावान् सववेदाथः श द आ थाय मां भदाम् ।
मायामा मनू ा ते त ष य सीद त ।।४३
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायामेकादश क धे एक वशोऽ यायः ।।२१।।

* य क सब लोग इसके अ धकारी नह ह, अ तःकरण शु होनेपर ही यह बात


समझम आती है।

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अथ ा वशोऽ यायः
त व क सं या और पु ष- कृ त- ववेक
उ व उवाच
क त त वा न व ेश सं याता यृ ष भः भो ।
नवैकादश पंच ी या थ व मह शु ुम ।।१

के चत् षड् वश त ा रपरे पंच वश तम् ।


स तैके नव षट् के च च वायकादशापरे ।।२

के चत् स तदश ा ः षोडशैके योदश ।


एताव वं ह सं यानामृषयो य व या ।
गाय त पृथगायु म दं नो व ु मह स ।।३
ीभगवानुवाच
यु ं च स त सव भाष ते ा णा यथा ।
मायां मद यामुदगृ
् वदतां क नु घटम् ।।४

नैतदे वं यथाऽऽ थ वं यदहं व म त था ।


एवं ववदतां हेतुं श यो मे र ययाः ।।५

यासां तकरादासीद् वक पो वदतां पदम् ।


ा ते शमदमेऽ ये त वाद तमनुशा य त ।।६

पर परानु वेशात् त वानं पु षषभ ।


पौवापय सं यानं यथा व ु वव तम् ।।७
उ वजीने कहा— भो! व े र! ऋ षय ने त व क सं या कतनी बतलायी है?
आपने तो अभी (उ ीसव अ यायम) नौ, यारह, पाँच और तीन अथात् कुल अट् ठाईस त व
गनाये ह। यह तो हम सुन चुके ह ।।१।। क तु कुछ लोग छ बीस त व बतलाते ह तो कुछ
पचीस; कोई सात, नौ अथवा छः वीकार करते ह, कोई चार बतलाते ह तो कोई
यारह ।।२।। इसी कार क ह - क ह ऋ ष-मु नय के मतम उनक सं या स ह है, कोई
सोलह और कोई तेरह बतलाते ह। सनातन ीकृ ण! ऋ ष-मु न इतनी भ सं याएँ कस
अ भ ायसे बतलाते ह? आप कृपा करके हम बतलाइये ।।३।।
भगवान् ीकृ णने कहा—उ वजी! वेद ा ण इस वषयम जो कुछ कहते ह, वह
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सभी ठ क है; य क सभी त व सबम अ तभूत ह। मेरी मायाको वीकार करके या कहना
अस भव है? ।।४।। ‘जैसा तुम कहते हो, वह ठ क नह है, जो म कहता ँ, वही यथाथ
है’—इस कार जगत्के कारणके स ब धम ववाद इस लये होता है क मेरी श य —
स व, रज आ द गुण और उनक वृ य का रह य लोग समझ नह पाते; इस लये वे अपनी-
अपनी मनोवृ पर ही आ ह कर बैठते ह ।।५।। स व आ द गुण के ोभसे ही यह व वध
क पना प पंच—जो व तु नह केवल नाम है—उठ खड़ा आ है। यही वाद- ववाद
करनेवाल के ववादका वषय है। जब इ याँ अपने वशम हो जाती ह तथा च शा त हो
जाता है, तब यह पंच भी नवृ हो जाता है और इसक नवृ के साथ ही सारे वाद- ववाद
भी मट जाते ह ।।६।। पु ष- शरोमणे! त व का एक- सरेम अनु वेश है, इस लये व ा
त व क जतनी सं या बतलाना चाहता है, उसके अनुसार कारणको कायम अथवा कायको
कारणम मलाकर अपनी इ छत सं या स कर लेता है ।।७।। ऐसा दे खा जाता है क एक
ही त वम ब त-से सरे त व का अ तभाव हो गया है। इसका कोई ब धन नह है क
कसका कसम अ तभाव हो। कभी घट-पट आ द काय व तु का उनके कारण म -सूत
आ दम, तो कभी म -सूत आ दका घट-पट आ द काय म अ तभाव हो जाता है ।।८।।
इस लये वाद - तवा दय मसे जसक वाणीने जस कायको जस कारणम अथवा जस
कारणको जस कायम अ तभूत करके त व क जतनी सं या वीकार क है, वह हम
न य ही वीकार करते ह; य क उनका वह उपपादन यु संगत ही है ।।९।।

एक म प य ते व ानीतरा ण च ।
पूव मन् वा पर मन् वा त वे त वा न सवशः ।।८

पौवापयमतोऽमीषां सं यानमभी सताम् ।


यथा व व ं य ं गृ मो यु स भवात् ।।९

अना व ायु य पु ष या मवेदनम् ।


वतो न स भवाद य त व ो ानदो भवेत् ।।१०

पु षे रयोर न वैल यम व प ।
तद यक पनापाथा ानं च कृतेगुणः ।।११

कृ तगुणसा यं वै कृतेना मनो गुणाः ।


स वं रज तम इ त थ यु प य तहेतवः ।।१२

स वं ानं रजः कम तमोऽ ान महो यते ।


गुण तकरः कालः वभावः सू मेव च ।।१३

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पु षः कृ त महंकारो नभोऽ नलः ।
यो तरापः त र त त वा यु ा न मे नव ।।१४
उ वजी! जन लोग ने छ बीस सं या वीकार क है, वे ऐसा कहते ह क जीव अना द
कालसे अ व ासे त हो रहा है। वह वयं अपने-आपको नह जान सकता। उसे आ म ान
करानेके लये कसी अ य सव क आव यकता है। (इस लये कृ तके कायकारण प
चौबीस त व, पचीसवाँ पु ष और छ बीसवाँ ई र—इस कार कुल छ बीस त व वीकार
करने चा हये) ।।१०।। पचीस त व माननेवाले कहते ह क इस शरीरम जीव और ई रका
अणुमा भी अ तर या भेद नह है, इस लये उनम भेदक क पना थ है। रही ानक बात,
सो तो स वा मका कृ तका गुण है ।।११।। तीन गुण क सा याव था ही कृ त है;
इस लये स व, रज आ द गुण आ माके नह , कृ तके ही ह। इ ह के ारा जगत्क थ त,
उ प और लय आ करते ह। इस लये ान आ माका गुण नह , कृ तका ही गुण स
होता है ।।१२।। इस संगम स वगुण ही ान है, रजोगुण ही कम है और तमोगुण ही अ ान
कहा गया है। और गुण म ोभ उ प करनेवाला ई र ही काल है और सू अथात् मह व
ही वभाव है। (इस लये पचीस और छ बीस त व क —दोन ही सं या यु संगत
है) ।।१३।।
उ वजी! (य द तीन गुण को कृ तसे अलग मान लया जाय, जैसा क उनक उ प
और लयको दे खते ए मानना चा हये, तो त व क सं या वयं ही अट् ठाईस हो जाती है।
उन तीन के अ त र पचीस ये ह—) पु ष, कृ त, मह व, अहंकार, आकाश, वायु, तेज,
जल और पृ वी—ये नौ त व म पहले ही गना चुका ँ ।।१४।। ो , वचा, च ,ु ना सका
और रसना—ये पाँच ाने याँ; वाक्, पा ण, पाद, पायु और उप थ—ये पाँच कम याँ;
तथा मन, जो कम य और ाने य दोन ही ह। इस कार कुल यारह इ याँ तथा श द,
पश, प, रस और ग ध—ये ाने य के पाँच वषय। इस कार तीन, नौ, यारह और
पाँच—सब मलाकर अट् ठाईस त व होते ह। कम य के ारा होनेवाले पाँच कम—चलना,
बोलना, मल यागना, पेशाब करना और काम करना—इनके ारा त व क सं या नह
बढ़ती। इ ह कम य व प ही मानना चा हये ।।१५-१६।। सृ के आर भम काय ( यारह
इ य और पंचभूत) और कारण (मह व आ द) के पम कृ त ही रहती है। वही
स वगुण, रजोगुण और तमोगुणक सहायतासे जगत्क थ त, उ प और संहारस ब धी
अव थाएँ धारण करती है। अ पु ष तो कृ त और उसक अव था का केवल
सा ीमा बना रहता है ।।१७।। मह व आ द कारण धातुएँ वकारको ा त होते ए
पु षके ई णसे श ा त करके पर पर मल जाते ह और कृ तका आ य लेकर उसीके
बलसे ा डक सृ करते ह ।।१८।।

ो ं व दशनं ाणो ज े त ानश यः ।


वा पा युप थपा वङ् कमा यंगोभयं मनः ।।१५

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श दः पश रसो ग धो पं चे यथजातयः ।
ग यु यु सग श पा न कमायतन स यः ।।१६

सगादौ कृ त य कायकारण पणी ।


स वा द भगुणैध े पु षोऽ ई ते ।।१७

ादयो वकुवाणा धातवः पु षे या ।


ल धवीयाः सृज या डं संहताः कृतेबलात् ।।१८

स तैव धातव इ त त ाथाः पंच खादयः ।


ानमा मोभयाधार तातो दे हे यासवः ।।१९

ष ड य ा प भूता न पंच ष ः परः पुमान् ।


तैयु आ मस भूतैः सृ ् वेदं समुपा वशत् ।।२०
उ वजी! जो लोग त व क सं या सात वीकार करते ह, उनके वचारसे आकाश, वायु,
तेज, जल और पृ वी—ये पाँच भूत, छठा जीव और सातवाँ परमा मा—जो सा ी जीव और
सा य जगत् दोन का अ ध ान है—ये ही त व ह। दे ह, इ य और ाणा दक उ प तो
पंचभूत से ही ई है [इस लये वे इ ह अलग नह गनते] ।।१९।। जो लोग केवल छः त व
वीकार करते ह, वे कहते ह क पाँच भूत ह और छठा है परमपु ष परमा मा। वह परमा मा
अपने बनाये ए पंचभूत से यु होकर दे ह आ दक सृ करता है और उनम जीव पसे
वेश करता है (इस मतके अनुसार जीवका परमा माम और शरीर आ दका पंचभूत म
समावेश हो जाता है) ।।२०।। जो लोग कारणके पम चार ही त व वीकार करते ह, वे
कहते ह क आ मासे तेज, जल और पृ वीक उ प ई है और जगत्म जतने पदाथ ह,
सब इ ह से उ प होते ह। वे सभी काय का इ ह म समावेश कर लेते ह ।।२१।। जो लोग
त व क सं या स ह बतलाते ह, वे इस कार गणना करते ह—पाँच भूत, पाँच त मा ाएँ,
पाँच ाने याँ, एक मन और एक आ मा ।।२२।। जो लोग त व क सं या सोलह बतलाते
ह, उनक गणना भी इसी कार है। अ तर केवल इतना ही है क वे आ माम मनका भी
समावेश कर लेते ह और इस कार उनक त वसं या सोलह रह जाती है। जो लोग तेरह
त व मानते ह, वे कहते ह क आकाशा द पाँच भूत, ो ा द पाँच ाने याँ, एक मन, एक
जीवा मा और परमा मा—ये तेरह त व ह ।।२३।। यारह सं या माननेवाल ने पाँच भूत,
पाँच ाने याँ और इनके अ त र एक आ माका अ त व वीकार कया है। जो लोग नौ
त व मानते ह, वे आकाशा द पाँच भूत और मन, बु , अहंकार—ये आठ कृ तयाँ और
नवाँ पु ष—इ ह को त व मानते ह ।।२४।। उ वजी! इस कार ऋ ष-मु नय ने भ - भ
कारसे त व क गणना क है। सबका कहना उ चत ही है, य क सबक सं या यु यु
है। जो लोग त व ानी ह, उ ह कसी भी मतम बुराई नह द खती। उनके लये तो सब कुछ
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ठ क ही है ।।२५।।

च वायवे त त ा प तेज आपोऽ मा मनः ।


जाता न तै रदं जातं ज मावय वनः खलु ।।२१

सं याने स तदशके भूतमा े या ण च ।


पंच पंचैकमनसा आ मा स तदशः मृतः ।।२२

त त् षोडशसं याने आ मैव मन उ यते ।


भूते या ण पंचैव मन आ मा योदश ।।२३

एकादश व आ मासौ महाभूते या ण च ।


अ ौ कृतय ैव पु ष नवे यथ ।।२४

इ त नाना सं यानं त वानामृ ष भः कृतम् ।


सव या यं यु म वाद् व षां कमशोभनम् ।।२५
उ व उवाच
कृ तः पु ष ोभौ य या म वल णौ ।
अ यो यापा यात् कृ ण यते न भदा तयोः ।।२६

कृतौ ल यते ा मा कृ त तथाऽऽ म न ।


एवं मे पु डरीका महा तं संशयं द ।
छे ुमह स सव वचो भनयनैपुणैः ।।२७
उ वजीने कहा— यामसु दर! य प व पतः कृ त और पु ष—दोन एक- सरेसे
सवथा भ ह, तथा प वे आपसम इतने घुल- मल गये ह क साधारणतः उनका भेद नह
जान पड़ता। कृ तम पु ष और पु षम कृ त अ भ -से तीत होते ह। इनक भ ता
प कैसे हो? ।।२६।।
कमलनयन ीकृ ण! मेरे दयम इनक भ ता और अ भ ताको लेकर ब त बड़ा
स दे ह है। आप तो सव ह, अपनी यु यु वाणीसे मेरे स दे हका नवारण कर
द जये ।।२७।। भगवन्! आपक ही कृपासे जीव को ान होता है और आपक माया-
श से ही उनके ानका नाश होता है। अपनी आ म व पणी मायाक व च ग त आप
ही जानते ह और कोई नह जानता। अतएव आप ही मेरा स दे ह मटानेम समथ ह ।।२८।।

व ो ानं ह जीवानां मोष तेऽ श तः ।

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वमेव ा ममायाया ग त वे थ न चापरः ।।२८
ीभगवानुवाच
कृ तः पु ष े त वक पः पु षषभ ।
एष वैका रकः सग गुण तकरा मकः ।।२९

ममा माया गुणम यनेकधा


वक पबु गुणै वध े ।
वैका रक वधोऽ या ममेक-
मथा धदै वम धभूतम यत् ।।३०

ग् पमाक वपुर र े
पर परं स य त यः वतः खे ।
आ मा यदे षामपरो य आ ः
वयानुभू या खल स स ः ।
एवं वगा द वणा द च -ु
ज ा द नासा द च च यु म् ।।३१

योऽसौ गुण ोभकृतो वकारः


धानमूला महतः सूतः ।
अहं वृ मोह वक पहेत-ु
वका रक तामस ऐ य ।।३२
भगवान् ीकृ णने कहा—उ वजी! कृ त और पु ष, शरीर और आ मा—इन
दोन म अ य त भेद है। इस ाकृत जगत्म ज म-मरण एवं वृ - ास आ द वकार लगे ही
रहते ह। इसका कारण यह है क यह गुण के ोभसे ही बना है ।।२९।। य म ! मेरी माया
गुणा मका है। वही अपने स व, रज आ द गुण से अनेक कारक भेदवृ याँ पैदा कर
दे ती है। य प इसका व तार असीम है, फर भी इस वकारा मक सृ को तीन भाग म बाँट
सकते ह। वे तीन भाग ह—अ या म, अ धदै व और अ धभूत ।।३०।। उदाहरणाथ—ने े य
अ या म है, उसका वषय प अ धभूत है और ने -गोलकम थत सूयदे वताका अंश
अ धदै व है। ये तीन पर पर एक- सरेके आ मसे स होते ह। और इस लये अ या म,
अ धदै व और अ धभूत—ये तीन ही पर पर सापे ह। पर तु आकाशम थत सूयम डल
इन तीन क अपे ासे मु है, य क वह वतः स है। इसी कार आ मा भी उपयु
तीन भेद का मूलकारण, उनका सा ी और उनसे परे है। वही अपने वयं स काशसे
सम त स पदाथ क मूल स है। उसीके ारा सबका काश होता है। जस कार
च ुके तीन भेद बताये गये, उसी कार वचा, ो , ज ा, ना सका और च आ दके भी

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तीन-तीन भेद ह* ।।३१।। कृ तसे मह व बनता है और मह वसे अहंकार। इस कार
यह अहंकार गुण के ोभसे उ प आ कृ तका ही एक वकार है। अहंकारके तीन भेद ह
—सा वक, तामस और राजस। यह अहंकार ही अ ान और सृ क व वधताका
मूलकारण है ।।३२।।

आ मा प र ानमयो ववादो
ती त ना ती त भदाथ न ः ।
थ ऽ प नैवोपरमेत पुंसां
म ः परावृ धयां वलोकात् ।।३३
उ व उवाच
व ः परावृ धयः वकृतैः कम भः भो ।
उ चावचान् यथा दे हान् गृ त वसृज त च ।।३४

त ममा या ह गो व द वभा मना म भः ।


न ेतत् ायशो लोके व ांसः स त वं चताः ।।३५
ीभगवानुवाच
मनः कममयं नॄणा म यैः पंच भयुतम् ।
लोका लोकं या य य आ मा तदनुवतते ।।३६

यायन् मनोऽनु वषयान् ात् वानु ुतानथ ।


उ त् सीदत् कमत ं मृ त तदनु शा य त ।।३७
आ मा ान व प है; उसका इन पदाथ से न तो कोई स ब ध है और न उसम कोई
ववादक ही बात है! अ त-ना त (है-नह ), सगुण- नगुण, भाव-अभाव, स य- म या आ द
पसे जतने भी वाद- ववाद ह, सबका मूलकारण भेद ही है। इसम स दे ह नह क इस
ववादका कोई योजन नह है; यह सवथा थ है तथा प जो लोग मुझसे—अपने
वा त वक व पसे वमुख ह, वे इस ववादसे मु नह हो सकते ।।३३।।
उ वजीने पूछा—भगवन्! आपसे वमुख जीव अपने कये ए पु य-पाप के
फल व प ऊँची-नीची यो नय म जाते-आते रहते ह। अब यह है क ापक आ माका
एक शरीरसे सरे शरीरम जाना, अकताका कम करना और न य-व तुका ज म-मरण कैसे
स भव है? ।।३४।। गो व द! जो लोग आ म ानसे र हत ह, वे तो इस वषयके ठ क-ठ क
सोच भी नह सकते। और इस वषयके व ान् संसारम ायः मलते नह , य क सभी लोग
आपक मायाक भूल-भुलैयाम पड़े ए ह। इस लये आप ही कृपा करके मुझे इसका रह य
समझाइये ।।३५।।

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भगवान् ीकृ णने कहा— य उ व! मनु य का मन कम-सं कार का पुंज है। उन
सं कार के अनुसार भोग ा त करनेके लये उसके साथ पाँच इ याँ भी लगी ई ह।
इसीका नाम है लगशरीर। वही कम के अनुसार एक शरीरसे सरे शरीरम, एक लोकसे सरे
लोकम आता-जाता रहता है। आ मा इस लगशरीरसे सवथा पृथक् है। उसका आना-जाना
नह होता; पर तु जब वह अपनेको लगशरीर ही समझ बैठता है, उसीम अहंकार कर लेता
है, तब उसे भी अपना जाना-आना तीत होने लगता है ।।३६।। मन कम के अधीन है। वह
दे खे ए या सुने ए वषय का च तन करने लगता है और णभरम ही उनम तदाकार हो
जाता है तथा उ ह पूव च तत वषय म लीन हो जाता है। धीरे-धीरे उसक मृ त, पूवापरका
अनुस धान भी न हो जाता है ।।३७।। उन दे वा द शरीर म इसका इतना अ भ नवेश, इतनी
त लीनता हो जाती है क जीवको अपने पूव शरीरका मरण भी नह रहता। कसी भी
कारणसे शरीरको सवथा भूल जाना ही मृ यु है ।।३८।। उदार उ व! जब यह जीव कसी भी
शरीरको अभेद-भावसे ‘म’ के पम वीकार कर लेता है, तब उसे ही ज म कहते ह, ठ क
वैसे ही जैसे व कालीन और मनोरथकालीन शरीरम अ भमान करना ही व और मनोरथ
कहा जाता है ।।३९।। यह वतमान दे हम थत जीव जैसे पूव दे हका मरण नह करता, वैसे
ही व या मनोरथम थत जीव भी पहलेके व और मनोरथको मरण नह करता, युत
उस वतमान व और मनोरथम पूव स होनेपर भी अपनेको नवीन-सा ही समझता
है ।।४०।। इ य के आ य मन या शरीरक सृ से आ मव तुम यह उ म, म यम और
अधमक वधता भासती है। उनम अ भमान करनेसे ही आ मा बा और आ य तर
भेद का हेतु मालूम पड़ने लगता है, जैसे पु को उ प करनेवाला पता पु के श ु- म
आ दके लये भेदका हेतु हो जाता है ।।४१।। यारे उ व! कालक ग त सू म है। उसे
साधारणतः दे खा नह जा सकता। उसके ारा त ण ही शरीर क उ प और नाश होते
रहते ह। सू म होनेके कारण ही त ण होनेवाले ज म-मरण नह द ख पड़ते ।।४२।। जैसे
कालके भावसे दयेक लौ, न दय के वाह अथवा वृ के फल क वशेष- वशेष अव थाएँ
बदलती रहती ह, वैसे ही सम त ा णय के शारीर क आयु, अव था आ द भी बदलती रहती
है ।।४३।। जैसे यह उ ह यो तय का वही द पक है, वाहका यह वही जल है—ऐसा
समझना और कहना म या है, वैसे ही वषय- च तनम थ आयु बतानेवाले अ ववेक
पु ष का ऐसा कहना और समझना क यह वही पु ष है, सवथा म या है ।।४४।। य प
वह ा त पु ष भी अपने कम के बीज ारा न पैदा होता है और न तो मरता ही है; वह भी
अज मा और अमर ही है, फर भी ा तसे वह उ प होता है और मरता-सा भी है, जैसे क
का से यु अ न पैदा होता और न होता दखायी पड़ता है ।।४५।।

वषया भ नवेशेन ना मानं यत् मरेत् पुनः ।


ज तोव क य च े तोमृ युर य त व मृ तः ।।३८

ज म वा मतया पुंसः सवभावेन भू रद ।

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वषय वीकृ त ा यथा व मनोरथः ।।३९

व ं मनोरथं चे थं ा नं न मर यसौ ।
त पूव मवा मानमपूव चानुप य त ।।४०

इ यायनसृ ेदं ै व यं भा त व तु न ।
ब हर त भदाहेतुजनोऽस जनकृद् यथा ।।४१

न यदा ग ं भूता न भव त न भव त च ।
कालेनाल यवेगेन सू म वा यते ।।४२

यथा चषां ोतसां च फलानां वा वन पतेः ।


तथैव सवभूतानां वयोऽव थादयः कृताः ।।४३

सोऽयं द पोऽ चषां य ोतसां त ददं जलम् ।


सोऽयं पुमा न त नृणां मृषा गीध मृषायुषाम् ।।४४

मा व य कमबीजेन जायते सोऽ ययं पुमान् ।


यते वामरो ा या यथा नदा संयतु ः ।।४५

नषेकगभज मा न बा यकौमारयौवनम् ।
वयोम यं जरा मृ यु र यव था तनोनव ।।४६

एता मनोरथमयी य यो चावचा तनूः ।


गुणसंगा पाद े व चत् क जहा त च ।।४७

आ मनः पतृपु ा यामनुमेयौ भवा ययौ ।


न भवा ययव तूनाम भ ो यल णः ।।४८

तरोब ज वपाका यां यो व ांज मसंयमौ ।


तरो वल णो ा एवं ा तनोः पृथक् ।।४९

कृतेरेवमा मानम व व याबुधः पुमान् ।


त वेन पशस मूढः संसारं तप ते ।।५०

स वसंगा षीन् दे वान् रजसासुरमानुषान् ।


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तमसा भूत तय वं ा मतो या त कम भः ।।५१

नृ यतो गायतः प यन् यथैवानुकरो त तान् ।


एवं बु गुणान् प य तनीहोऽ यनुकायते ।।५२

यथा भसा चलता तरवोऽ प चला इव ।


च ुषा ा यमाणेन यते मतीव भूः ।।५३
उ वजी! गभाधान, गभवृ , ज म, बा याव था, कुमाराव था, जवानी, अधेड़ अव था,
बुढ़ापा और मृ यु—ये नौ अव थाएँ शरीरक ही ह ।।४६।। यह शरीर जीवसे भ है और ये
ऊँची-नीची अव थाएँ उसके मनोरथके अनुसार ही ह; पर तु वह अ ानवश गुण के संगसे
इ ह अपनी मानकर भटकने लगता है और कभी-कभी ववेक हो जानेपर इ ह छोड़ भी दे ता
है ।।४७।। पताको पु के ज मसे और पु को पताक मृ युसे अपने-अपने ज म-मरणका
अनुमान कर लेना चा हये। ज म-मृ युसे यु दे ह का ा ज म और मृ युसे यु शरीर नह
है ।।४८।। जैसे जौ-गे ँ आ दक फसल बोनेपर उग आती है और पक जानेपर काट द जाती
है, क तु जो पु ष उनके उगने और काटनेका जाननेवाला सा ी है, वह उनसे सवथा पृथक्
है; वैसे ही जो शरीर और उसक अव था का सा ी है, वह शरीरसे सवथा पृथक्
है ।।४९।। अ ानी पु ष इस कार कृ त और शरीरसे आ माका ववेचन नह करते। वे उसे
उनसे त वतः अलग अनुभव नह करते और वषयभोगम स चा सुख मानने लगते ह तथा
उसीम मो हत हो जाते ह। इसीसे उ ह ज म-मृ यु प संसारम भटकना पड़ता है ।।५०।। जब
अ ववेक जीव अपने कम के अनुसार ज म-मृ युके च म भटकने लगता है, तब सा वक
कम क आस से वह ऋ षलोक और दे वलोकम राज सक कम क आस से मनु य और
असुरयो नय म तथा तामसी कम क आस से भूत- ेत एवं पशु-प ी आ द यो नय म जाता
है ।।५१।। जब मनु य कसीको नाचते-गाते दे खता है, तब वह वयं भी उसका अनुकरण
करने—तान तोड़ने लगता है। वैसे ही जब जीव बु के गुण को दे खता है, तब वयं न य
होनेपर भी उसका अनुकरण करनेके लये बा य हो जाता है ।।५२।। जैसे नद -तालाब
आ दके जलके हलने या चंचल होनेपर उसम त ब बत तटके वृ भी उसके साथ हलते-
डोलते-से जान पड़ते ह, जैसे घुमाये जानेवाले ने के साथ-साथ पृ वी भी घूमती ई-सी
दखायी दे ती है, जैसे मनके ारा सोचे गये तथा व म दे खे गये भोग पदाथ सवथा अलीक
ही होते ह, वैसे ही हे दाशाह! आ माका वषयानुभव प संसार भी सवथा अस य है। आ मा
तो न य शु -बु -मु वभाव ही है ।।५३-५४।। वषय के स य न होनेपर भी जो जीव
वषय का ही च तन करता रहता है, उसका यह ज म-मृ यु प संसार-च कभी नवृ नह
होता, जैसे व म ा त अनथ-पर परा जागे बना नवृ नह होती ।।५५।।

यथा मनोरथ धयो वषयानुभवो मृषा ।


व ा दाशाह तथा संसार आ मनः ।।५४

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अथ व मानेऽ प संसृ तन नवतते ।
यायतो वषयान य व ेऽनथागमो यथा ।।५५

त मा व मा भुङ् व वषयानस द यैः ।


आ मा हण नभातं प य वैक पकं मम् ।।५६

तोऽवमा नतोऽस ः ल धोऽसू यतोऽथवा ।


ता डतः स ब ो वा वृ या वा प रहा पतः ।।५७

न तो मू तो वा ैब धैवं क पतः ।
ेय कामः कृ गत आ मनाऽऽ मानमु रेत् ।।५८
उ व उवाच
यथैवमनुबु येयं वद नो वदतां वर ।
सु ःसह ममं म ये आ म यसद त मम् ।।५९

व षाम प व ा मन् कृ त ह बलीयसी ।


ऋते व म नरतान् शा तां ते चरणालयान् ।।६०
य उ व! इस लये इन (कभी तृ त न होनेवाली) इ य से वषय को मत भोगो।
आ म- वषयक अ ानसे तीत होनेवाला सांसा रक भेद-भाव ममूलक ही है, ऐसा
समझो ।।५६।। असाधु पु ष गदन पकड़कर बाहर नकाल द, वाणी ारा अपमान कर,
उपहास कर, न दा कर, मार-पीट, बाँध, आजी वका छ न ल, ऊपर थूक द, मूत द अथवा
तरह-तरहसे वच लत कर, न ासे डगानेक चे ा कर; उनके कसी भी उप वसे ु ध न
होना चा हये; य क वे तो बेचारे अ ानी ह, उ ह परमाथका तो पता नह है। अतः जो अपने
क याणका इ छु क है, उसे सभी क ठनाइय से अपनी ववेक-बु ारा ही— कसी बा
साधनसे नह —अपनेको बचा लेना चा हये। व तुतः आ म- ही सम त वप य से
बचनेका एकमा साधन है ।।५७-५८।।
उ वजीने कहा—भगवन्! आप सम त व ा के शरोम ण ह। म इस जन से कये
गये तर कारको अपने मनम अ य त अस समझता ँ। अतः जैसे म इसको समझ सकूँ,
आपका उपदे श जीवनम धारण कर सकूँ, वैसे हम बतलाइये ।।५९।। व ा मन्! जो आपके
भागवतधमके आचरणम ेम-पूवक संल न ह, ज ह ने आपके चरणकमल का ही आ य ले
लया है, उन शा त पु ष के अ त र बड़े-बड़े व ान के लये भी के ारा कया आ
तर कार सह लेना अ य त क ठन है; य क कृ त अ य त बलवती है ।।६०।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायामेकादश क धे ा वशोऽ यायः ।।२२।।

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* यथा— वचा, पश और वायु; वण, श द और दशा; ज ा, रस और व ण;
ना सका, ग ध और अ नीकुमार; प , च तनका वषय और वासुदेव; मन, मनका वषय
और च मा; अहंकार, अहंकारका वषय और ; बु , समझनेका वषय और ा—इन
सभी वध त व से आ माका कोई स ब ध नह है।

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अथ यो वशोऽ यायः
एक त त ु ा णका इ तहास
बादराय ण वाच
स एवमाशं सत उ वेन
भागवतमु येन दाशाहमु यः ।
सभाजयन् भृ यवचो मुकु द-
तमाबभाषे वणीयवीयः ।।१
ीभगवानुवाच
बाह प य स वै ना साधुव जने रतैः ।
ै भ मा मानं यः समाधातुमी रः ।।२

न तथा त यते व ः पुमान् बाणैः सुममगैः ।


यथा तुद त मम था सतां प षेषवः ।।३

कथय त मह पु य म तहास महो व ।


तमहं वण य या म नबोध सुसमा हतः ।।४

केन चद् भ ुणा गीतं प रभूतेन जनैः ।


मरता धृ तयु े न वपाकं नजकमणाम् ।।५

अव तषु जः क दासीदा तमः या ।


वातावृ ः कदय तु कामी लु धोऽ तकोपनः ।।६

ातयोऽ तथय त य वाङ् मा ेणा प ना चताः ।


शू यावसथ आ मा प काले कामैरन चतः ।।७

ःशील य कदय य ते पु बा धवाः ।


दारा हतरो भृ या वष णा नाचरन् यम् ।।८
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! वा तवम भगवान्क लीलाकथा ही वण
करनेयो य है। वे ही ेम और मु के दाता ह। जब उनके परम ेमी भ उ वजीने इस
कार ाथना क , तब य वंश वभूषण ीभगवान्ने उनके क शंसा करके उनसे इस
कार कहा— ।।१।।
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भगवान् ीकृ णने कहा—दे वगु बृह प तके श य उ वजी! इस संसारम ायः ऐसे
संत पु ष नह मलते, जो जन क कटु वाणीसे बधे ए अपने दयको सँभाल सक ।।२।।
मनु यका दय ममभेद बाण से बधनेपर भी उतनी पीडाका अनुभव नह करता, जतनी
पीडा उसे जन के ममा तक एवं कठोर वा बाण प ँचाते ह ।।३।। उ वजी! इस वषयम
महा मालोग एक बड़ा प व ाचीन इ तहास कहा करते ह; म वही तु ह सुनाऊँगा, तुम मन
लगाकर उसे सुनो ।।४।। एक भ ुकको ने ब त सताया था। उस समय भी उसने अपना
धैय न छोड़ा और उसे अपने पूवज मके कम का फल समझकर कुछ अपने मान सक उद्गार
कट कये थे। उ ह का इस इ तहासम वणन है ।।५।।
ाचीन समयक बात है, उ जैनम एक ा ण रहता था। उसने खेती- ापार आ द
करके ब त-सी धन-स प इकट् ठ कर ली थी। वह ब त ही कृपण, कामी और लोभी था।
ोध तो उसे बात-बातम आ जाया करता था ।।६।। उसने अपने जा त-ब धु और
अ त थय को कभी मीठ बातसे भी स नह कया, खलाने- पलानेक तो बात ही या है।
वह धम-कमसे रीते घरम रहता और वयं भी अपनी धन-स प के ारा समयपर अपने
शरीरको भी सुखी नह करता था ।।७।। उसक कृपणता और बुरे वभावके कारण उसके
बेटे-बेट , भाई-ब धु, नौकर-चाकर और प नी आ द सभी ःखी रहते और मन-ही-मन
उसका अ न च तन कया करते थे। कोई भी उसके मनको य लगनेवाला वहार नह
करता था ।।८।। वह लोक-परलोक दोन से ही गर गया था। बस, य के समान धनक
रखवाली करता रहता था। उस धनसे वह न तो धम कमाता था और न भोग ही भोगता था।
ब त दन तक इस कार जीवन बतानेसे उसपर पंचमहायजके भागी दे वता बगड़
उठे ।।९।। उदार उ वजी! पंचमहाय के भा गय के तर कारसे उसके पूव-पु य का सहारा
— जसके बलसे अबतक धन टका आ था—जाता रहा और जसे उसने बड़े उ ोग और
प र मसे इकट् ठा कया था, वह धन उसक आँख के सामने ही न - हो गया ।।१०।।
उस नीच ा णका कुछ धन तो उसके कुटु बय ने ही छ न लया, कुछ चोर चुरा ले गये।
कुछ आग लग जाने आ द दै वी कोपसे न हो गया, कुछ समयके फेरसे मारा गया। कुछ
साधारण मनु य ने ले लया और बचा-खुचा कर और द डके पम शासक ने हड़प
लया ।।११।। उ वजी! इस कार उसक सारी स प जाती रही। न तो उसने धम ही
कमाया और न भोग ही भोगे। इधर उसके सगे-स ब धय ने भी उसक ओरसे मुँह मोड़
लया। अब उसे बड़ी भयानक च ताने घेर लया ।।१२।। धनके नाशसे उसके दयम बड़ी
जलन ई। उसका मन खेदसे भर गया। आँसु के कारण गला ँ ध गया। पर तु इस तरह
च ता करते-करते ही उसके मनम संसारके त महान् ःखबु और उ कट वैरा यका उदय
हो गया ।।१३।।

त यैवं य व य युत योभयलोकतः ।


धमकाम वहीन य चु ु धुः पंचभा गनः ।।९

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तदव यान व तपु य क ध य भू रद ।
अथ ऽ यग छ धनं ब ायासप र मः ।।१०

ातयो जगृ ः क चत् क चद् द यव उ व ।


दै वतः कालतः क चद् ब धोनृपा थवात् ।।११

स एवं वणे न े धमकाम वव जतः ।


उपे त वजनै तामाप र ययाम् ।।१२

त यैवं यायतो द घ न राय तप वनः ।


ख तो बा पक ठ य नवदः सुमहानभूत् ।।१३

स चाहेदमहो क ं वृथाऽऽ मा मेऽनुता पतः ।


न धमाय न कामाय य याथायास ई शः ।।१४

ायेणाथाः कदयाणां न सुखाय कदाचन ।


इह चा मोपतापाय मृत य नरकाय च ।।१५
अब वह ा ण मन-ही-मन कहने लगा—‘हाय! हाय!! बड़े खेदक बात है, मने इतने
दन तक अपनेको थ ही इस कार सताया। जस धनके लये मने सरतोड़ प र म कया,
वह न तो धमकमम लगा और न मेरे सुखभोगके ही काम आया ।।१४।। ायः दे खा जाता है
क कृपण पु ष को धनसे कभी सुख नह मलता। इस लोकम तो वे धन कमाने और र ाक
च तासे जलते रहते ह और मरनेपर धम न करनेके कारण नरकम जाते ह ।।१५।। जैसे
थोड़ा-सा भी कोढ़ सवागसु दर व पको बगाड़ दे ता है, वैसे ही त नक-सा भी लोभ
यश वय के शु यश और गु णय के शंसनीय गुण पर पानी फेर दे ता है ।।१६।। धन
कमानेम, कमा लेनेपर उसको बढ़ाने, रखने एवं खच करनेम तथा उसके नाश और उपभोगम
—जहाँ दे खो वह नर तर प र म, भय, च ता और मका ही सामना करना पड़ता
है ।।१७।। चोरी, हसा, झूठ बोलना, द भ, काम, ोध, गव, अहंकार, भेदबु , वैर,
अ व ास, प ा, ल पटता, जूआ और शराब—ये प ह अनथ मनु य म धनके कारण ही
माने गये ह। इस लये क याणकामी पु षको चा हये क वाथ एवं परमाथके वरोधी
अथनामधारी अनथको रसे ही छोड़ दे ।।१८-१९।। भाई-ब धु, ी-पु , माता- पता, सगे-
स ब धी—जो नेहब धनसे बँधकर बलकुल एक ए रहते ह—सब-के-सब कौड़ीके कारण
इतने फट जाते ह क तुरंत एक- सरेके श ु बन जाते ह ।।२०।। ये लोग थोड़े-से धनके लये
भी ु ध और ु हो जाते ह। बात-क -बातम सौहाद-स ब ध छोड़ दे ते ह, लाग-डाँट रखने
लगते ह और एकाएक ाण लेन-े दे नेपर उता हो जाते ह। यहाँतक क एक- सरेका
सवनाश कर डालते ह ।।२१।। दे वता के भी ाथनीय मनु य-ज मको और उसम भी े
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ा ण-शरीर ा त करके जो उसका अनादर करते ह और अपने स चे वाथ-परमाथका
नाश करते ह, वे अशुभ ग तको ा त होते ह ।।२२।। यह मनु य-शरीर मो और वगका
ार है, इसको पाकर भी ऐसा कौन बु मान् मनु य है जो अनथ के धाम धनके च करम
फँसा रहे ।।२३।। जो मनु य दे वता, ऋ ष, पतर, ाणी, जा त-भाई, कुटु बी और धनके सरे
भागीदार को उनका भाग दे कर स तु नह रखता और न वयं ही उसका उपभोग करता है,
वह य के समान धनक रखवाली करनेवाला कृपण तो अव य ही अधोग तको ा त होता
है ।।२४।। म अपने कत से युत हो गया ँ। मने मादम अपनी आयु, धन और बल-पौ ष
खो दये। ववेक लोग जन साधन से मो तक ा त कर लेते ह, उ ह को मने धन इकट् ठा
करनेक थ चे ाम खो दया। अब बुढ़ापेम म कौन-सा साधन क ँ गा ।।२५।। मुझे मालूम
नह होता क बड़े-बड़े व ान् भी धनक थ तृ णासे नर तर य ःखी रहते ह? हो-न-
हो, अव य ही यह संसार कसीक मायासे अ य त मो हत हो रहा है ।।२६।। यह मनु य-
शरीर कालके वकराल गालम पड़ा आ है। इसको धनसे, धन दे नेवाले दे वता और
लोग से, भोगवासना और उनको पूण करनेवाल से तथा पुनः-पुनः ज म-मृ युके च करम
डालनेवाले सकाम कम से लाभ ही या है? ।।२७।।

यशो यश वनां शु ं ा या ये गु णनां गुणाः ।


लोभः व पोऽ प तान् ह त ो प मवे सतम् ।।१६

अथ य साधने स े उ कष र णे ये ।
नाशोपभोग आयास ास ता मो नृणाम् ।।१७

तेयं हसानृतं द भः कामः ोधः मयो मदः ।


भेदो वैरम व ासः सं पधा सना न च ।।१८

एते पंचदशानथा थमूला मता नृणाम् ।


त मादनथमथा यं ेयोऽथ रत यजेत् ।।१९

भ ते ातरो दाराः पतरः सु द तथा ।


एका न धाः का क णना स ः सवऽरयः कृताः ।।२०

अथना पीयसा ेते संर धा द तम यवः ।


यज याशु पृधो न त सहसो सृ य सौ दम् ।।२१

ल वा ज मामर ा य मानु यं तद् जा ्यताम् ।


तदना य ये वाथ न त या यशुभां ग तम् ।।२२

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वगापवगयो ारं ा य लोक ममं पुमान् ।
वणे कोऽनुष जेत म य ऽनथ य धाम न ।।२३

दे व ष पतृभूता न ातीन् ब धूं भा गनः ।


असं वभ य चा मानं य व ः पत यधः ।।२४

थयाथहया व ं म य वयो बलम् ।


कुशला येन स य त जरठः क नु साधये ।।२५

क मात् सं ल यते व ान् थयाथहयासकृत् ।


क य च मायया नूनं लोकोऽयं सु वमो हतः ।।२६

क धनैधनदै वा क कामैवा कामदै त ।


मृ युना यमान य कम भव त ज मदै ः ।।२७

नूनं मे भगवां तु ः सवदे वमयो ह रः ।


येन नीतो दशामेतां नवद ा मनः लवः ।।२८

सोऽहं कालावशेषेण शोष य येऽ मा मनः ।


अ म ोऽ खल वाथ य द यात् स आ म न ।।२९

त मामनुमोदे रन् दे वा भुवने राः ।


मु तन लोकं खट् वांगः समसाधयत् ।।३०
ीभगवानुवाच
इ य भ े य मनसा ाव यो जस मः ।
उ मु य दय थीन् शा तो भ ुरभू मु नः ।।३१

स चचार महीमेतां संयता मे या नलः ।


भ ाथ नगर ामानसंगोऽल तोऽ वशत् ।।३२
इसम स दे ह नह क सवदे व व प भगवान् मुझपर स ह। तभी तो उ ह ने मुझे इस
दशाम प ँचाया है और मुझे जगत्के त यह ःख-बु और वैरा य दया है। व तुतः वैरा य
ही इस संसार-सागरसे पार होनेके लये नौकाके समान है ।।२८।। म अब ऐसी अव थाम
प ँच गया ँ। य द मेरी आयु शेष हो तो म आ मलाभम ही स तु रहकर अपने परमाथके
स ब धम सावधान हो जाऊँगा और अब जो समय बच रहा है, उसम अपने शरीरको

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तप याके ारा सुखा डालूँगा ।।२९।। तीन लोक के वामी दे वगण मेरे इस संक पका
अनुमोदन कर। अभी नराश होनेक कोई बात नह है, य क राजा खट् वांगने तो दो घड़ीम
ही भगव ामक ा त कर ली थी ।।३०।।
भगवान् ीकृ ण कहते ह—उ वजी! उस उ जैन नवासी ा णने मन-ही-मन इस
कार न य करके ‘म’ और ‘मेरे’ पनक गाँठ खोल द । इसके बाद वह शा त होकर मौनी
सं यासी हो गया ।।३१।। अब उसके च म कसी भी थान, व तु या के त आस
न रही। उसने अपने मन, इ य और ाण को वशम कर लया। वह पृ वीपर व छ द पसे
वचरने लगा। वह भ ाके लये नगर और गाँव म जाता अव य था, पर तु इस कार जाता
था क कोई उसे पहचान न पाता था ।।३२।। उ वजी! वह भ ुक अवधूत ब त बूढ़ा हो
गया था। उसे दे खते ही टू ट पड़ते और तरह-तरहसे उसका तर कार करके उसे तंग
करते ।।३३।। कोई उसका द ड छ न लेता, तो कोई भ ापा ही झटक ले जाता। कोई
कम डलु उठा ले जाता तो कोई आसन, ा माला और क था ही लेकर भाग जाता। कोई
तो उसक लँगोट और व को ही इधर-उधर डाल दे ते ।।३४।। कोई-कोई वे व तुएँ दे कर
और कोई दखला- दखलाकर फर छ न लेत।े जब वह अवधूत मधुकरी माँगकर लाता और
बाहर नद -तटपर भोजन करने बैठता, तो पापी लोग कभी उसके सरपर मूत दे त,े तो कभी
थूक दे त।े वे लोग उस मौनी अवधूतको तरह-तरहसे बोलनेके लये ववश करते और जब वह
इसपर भी न बोलता तो उसे पीटते ।।३५-३६।। कोई उसे चोर कहकर डाँटने-डपटने लगता।
कोई कहता ‘इसे बाँध लो, बाँध लो’ और फर उसे र सीसे बाँधने लगते ।।३७।। कोई उसका
तर कार करके इस कार ताना कसते क ‘दे खो-दे खो, अब इस कृपणने धमका ढ ग रचा
है। धन-स प जाती रही, ी-पु ने घरसे नकाल दया; तब इसने भीख माँगनेका रोजगार
लया है ।।३८।। ओहो! दे खो तो सही, यह मोटा-तगड़ा भखारी धैयम बड़े भारी पवतके
समान है। यह मौन रहकर अपना काम बनाना चाहता है। सचमुच यह बगुलेसे भी बढ़कर
ढ गी और ढ़ न यी है’ ।।३९।। कोई उस अवधूतक हँसी उड़ाता, तो कोई उसपर अधोवायु
छोड़ता। जैसे लोग तोता-मैना आ द पालतू प य को बाँध लेते या पजड़ेम बंद कर लेते ह,
वैसे ही उसे भी वे लोग बाँध दे ते और घर म बंद कर दे ते ।।४०।। क तु वह सब कुछ चुपचाप
सह लेता। उसे कभी वर आ दके कारण दै हक पीड़ा सहनी पड़ती, कभी गरमी-सद
आ दसे दै वी क उठाना पड़ता और कभी जन लोग अपमान आ दके ारा उसे भौ तक
पीड़ा प ँचाते; पर तु भ ुकके मनम इससे कोई वकार न होता। वह समझता क यह सब
मेरे पूवज मके कमका फल है और इसे मुझे अव य भोगना पड़ेगा ।।४१।। य प नीच
मनु य तरह-तरहके तर कार करके उसे उसके धमसे गरानेक चे ा कया करते, फर भी
वह बड़ी ढ़तासे अपने धमम थर रहता और सा वक धैयका आ य लेकर कभी-कभी
ऐसे उद्गार कट कया करता ।।४२।।

तं वै वयसं भ ुमवधूतमस जनाः ।


् वा पयभवन् भ ब भः प रभू त भः ।।३३

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के च वेणुं जगृ रेके पा ं कम डलुम् ।
पीठं चैकेऽ सू ं च क थां चीरा ण केचन ।।३४

दाय च पुन ता न द शता याद मुनेः ।


अ ं च भै यस प ं भुंजान य स र टे ।।३५

मू य त च पा प ाः ीव य य च मूध न ।
यतवाचं वाचय त ताडय त न व चेत् ।।३६

तजय यपरे वा भः तेनोऽय म त वा दनः ।


ब न त र वा तं के चद् ब यतां ब यता म त ।।३७

प येकेऽवजान त एष धम वजः शठः ।


ीण व इमां वृ म हीत् वजनो झतः ।।३८

अहो एष महासारो धृ तमान् ग ररा डव ।


मौनेन साधय यथ बकवद् ढ न यः ।।३९

इ येके वहस येनमेके वातय त च ।


तं बब धु न धुयथा डनकं जम् ।।४०

एवं स भौ तकं ःखं दै वकं दै हकं च यत् ।


भो मा मनो द ं ा तं ा तमबु यत ।।४१

प रभूत इमां गाथामगायत नराधमैः ।


पातय ः वधम थो धृ तमा थाय सा वक म् ।। ४२
ज उवाच
नायं जनो मे सुख ःखहेतु-
न दे वताऽऽ मा हकमकालाः ।
मनः परं कारणमामन त
संसारच ं प रवतयेद ् यत् ।।४३

मनो गुणान् वै सृजते बलीय-


तत कमा ण वल णा न ।

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शु ला न कृ णा यथ लो हता न
ते यः सवणाः सृतयो भव त ।।४४

अनीह आ मा मनसा समीहता


हर मयो म सख उ च े ।
मनः व लगं प रगृ कामान्
जुषन् नब ो गुणसंगतोऽसौ ।।४५

दानं वधम नयमो यम


ुतं च कमा ण च सद् ता न ।
सव मनो न हल णा ताः
परो ह योगो मनसः समा धः ।।४६

समा हतं य य मनः शा तं


दाना द भः क वद त य कृ यम् ।
असंयतं य य मनो वन यद्
दाना द भ ेदपरं कमे भः ।।४७

मनोवशेऽ ये भवन् म दे वा
मन ना य य वशं समे त ।
भी मो ह दे वः सहसः सहीयान्
यु याद् वशे तं स ह दे वदे वः ।।४८
ा ण कहता—मेरे सुख अथवा ःखका कारण न ये मनु य ह, न दे वता ह, न शरीर है
और न ह, कम एवं काल आ द ही ह। ु तयाँ और महा माजन मनको ही इसका परम
कारण बताते ह और मन ही इस सारे संसार-च को चला रहा है ।।४३।। सचमुच यह मन
ब त बलवान् है। इसीने वषय , उनके कारण गुण और उनसे स ब ध रखनेवाली वृ य क
सृ क है। उन वृ य के अनुसार ही सा वक, राजस और तामस—अनेक कारके कम
होते ह और कम के अनुसार ही जीवक व वध ग तयाँ होती ह ।।४४।। मन ही सम त चे ाएँ
करता है। उसके साथ रहनेपर भी आ मा न य ही है। वह ानश धान है, मुझ
जीवका सनातन सखा है और अपने अलु त ानसे सब कुछ दे खता रहता है। मनके ारा ही
उसक अ भ होती है। जब वह मनको वीकार करके उसके ारा वषय का भो ा बन
बैठता है, तब कम के साथ आस होनेके कारण वह उनसे बँध जाता है ।।४५।।
दान, अपने धमका पालन, नयम, यम, वेदा ययन, स कम और चया द े त—
इन सबका अ तम फल यही है क मन एका हो जाय, भगवान्म लग जाय। मनका
समा हत हो जाना ही परम योग है ।।४६।। जसका मन शा त और समा हत है, उसे दान
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आ द सम त स कम का फल ा त हो चुका है। अब उनसे कुछ लेना बाक नह है। और
जसका मन चंचल है अथवा आल यसे अ भभूत हो रहा है, उसको इन दाना द शुभकम से
अबतक कोई लाभ नह आ ।।४७।। सभी इ याँ मनके वशम ह। मन कसी भी इ यके
वशम नह है। यह मन बलवान्से भी बलवान्, अ य त भयंकर दे व है। जो इसको अपने
वशम कर लेता है, वही दे व-दे व—इ य का वजेता है ।।४८।। सचमुच मन ब त बड़ा श ु
है। इसका आ मण अस है। यह बाहरी शरीरको ही नह , दया द मम थान को भी बेधता
रहता है। इसे जीतना ब त ही क ठन है। मनु य को चा हये क सबसे पहले इसी श ुपर
वजय ा त करे; पर तु होता है यह क मूख लोग इसे तो जीतनेका य न करते नह , सरे
मनु य से झूठमूठ झगड़ा-बखेड़ा करते रहते ह और इस जगत्के लोग को ही म -श -ु
उदासीन बना लेते ह ।।४९।। साधारणतः मनु य क बु अंधी हो रही है। तभी तो वे इस
मनःक पत शरीरको ‘म’ और ‘मेरा’ मान बैठते ह और फर इस मके फंदे म फँस जाते ह
क ‘यह म ँ और यह सरा।’ इसका प रणाम यह होता है क वे इस अन त
अ ाना धकारम ही भटकते रहते ह ।।५०।।

तं जयं श म
ु स वेग-
म तुदं त व ज य के चत् ।
कुव यस हम म य-
म ा युदासीन रपून् वमूढाः ।।४९

दे हं मनोमा ममं गृही वा


ममाह म य ध धयो मनु याः ।
एषोऽहम योऽय म त मेण
र तपारे तम स म त ।।५०

जन तु हेतुः सुख ःखयो ेत्


कमा मन ा ह भौमयो तत् ।
ज ां व चत् संदश त वद -
त े दनायां कतमाय कु येत् ।।५१

ःख य हेतुय द दे वता तु
कमा मन त वकारयो तत् ।
यदं गमंगेन नह यते व चत्
ु येत क मै पु षः वदे हे ।।५२

आ मा य द यात् सुख ःखहेतुः


कम यत त नज वभावः ।
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न ा मनोऽ यद् य द त मृषा यात्
ु येत क मा सुखं न ःखम् ।।५३

हा न म ं सुख ःखयो ेत्


कमा मनोऽज य जन य ते वै ।

है ह यैव वद त पीडां
ु येत क मै पु ष ततोऽ यः ।।५४
य द मान ल क मनु य ही सुख- ःखका कारण है, तो भी उनसे आ माका या स ब ध?
य क सुख- ःख प ँचानेवाला भी म का शरीर है और भोगनेवाला भी। कभी भोजन
आ दके समय य द अपने दाँत से ही अपनी जीभ कट जाय और उससे पीड़ा होने लगे, तो
मनु य कसपर ोध करेगा? ।।५१।। य द ऐसा मान ल क दे वता ही ःखके कारण ह तो भी
इस ःखसे आ माक या हा न? य क य द ःखके कारण दे वता ह, तो इ या भमानी
दे वता के पम उनके भो ा भी तो वे ही ह। और दे वता सभी शरीर म एक ह; जो दे वता
एक शरीरम ह; वे ही सरेम भी ह। ऐसी दशाम य द अपने ही शरीरके कसी एक अंगसे
सरे अंगको चोट लग जाय तो भला, कसपर ोध कया जायगा? ।।५२।। य द ऐसा मान
क आ मा ही सुख- ःखका कारण है तो वह तो अपना आप ही है, कोई सरा नह ; य क
आ मासे भ कुछ और है ही नह । य द सरा कुछ तीत होता है तो वह म या है।
इस लये न सुख है, न ःख; फर ोध कैसा? ोधका न म ही या? ।।५३।। य द ह को
सुख- ःखका न म मान, तो उनसे भी अज मा आ माक या हा न? उनका भाव भी
ज म-मृ युशील शरीरपर ही होता है। ह क पीड़ा तो उनका भाव हण करनेवाले
शरीरको ही होती है और आ मा उन ह और शरीर से सवथा परे है। तब भला वह कसपर
ोध करे? ।।५४।। य द कम को ही सुख- ःखका कारण मान, तो उनसे आ माका या
योजन? य क वे तो एक पदाथके जड और चेतन—उभय प होनेपर ही हो सकते ह।
(जो व तु वकारयु और अपना हता हत जाननेवाली होती है, उसीसे कम हो सकते ह;
अतः वह वकारयु होनेके कारण जड होनी चा हये और हता हतका ान रखनेके कारण
चेतन।) क तु दे ह तो अचेतन है और उसम प ी पसे रहनेवाला आ मा सवथा न वकार
और सा ीमा है। इस कार कम का तो कोई आधार ही स नह होता। फर ोध
कसपर कर? ।।५५।। य द ऐसा मान क काल ही सुख- ःखका कारण है, तो आ मापर
उसका या भाव? य क काल तो आ म व प ही है। जैसे आग आगको नह जला
सकती और बफ बफको नह गला सकता, वैसे ही आ म व प काल अपने आ माको ही
सुख- ःख नह प ँचा सकता। फर कसपर ोध कया जाय? आ मा शीत-उ ण, सुख-
ःख आ द से सवथा अतीत है ।।५६।। आ मा कृ तके व प, धम, काय, लेश,
स ब ध और ग धसे भी र हत है। उसे कभी कह कसीके ारा कसी भी कारसे का
पश ही नह होता। वह तो ज म-मृ युके च म भटकनेवाले अहंकारको ही होता है। जो इस
बातको जान लेता है, वह फर कसी भी भयके न म से भयभीत नह होता ।।५७।। बड़े-
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बड़े ाचीन ऋ ष-मु नय ने इस परमा म न ाका आ य हण कया है। म भी इसीका
आ य हण क ँ गा और मु तथा ेमके दाता भगवान्के चरणकमल क सेवाके ारा ही
इस र त अ ानसागरको अनायास ही पार कर लूँगा ।।५८।।

कमा तु हेतुः सुख ःखयो ेत्


कमा मन त जडाजड वे ।
दे ह व चत् पु षोऽयं सुपणः
ु येत क मै न ह कममूलम् ।।५५

काल तु हेतुः सुख ःखयो ेत्


कमा मन त तदा मकोऽसौ ।
ना ने ह तापो न हम य तत् यात्
ु येत क मै न पर य म् ।।५६

न केन चत् वा प कथंचना य


ोपरागः परतः पर य ।
यथाहमः संसृ त पणः या-
दे वं बु ो न बभे त भूतैः ।।५७

एतां स आ थाय परा म न ा-


म या सतां पूवतमैमह ष भः ।
अहं त र या म र तपारं
तमो मुकु दाङ् नषेवयैव ।।५८
ीभगवानुवाच
नव न वणो गत लमः
य गां पयटमान इ थम् ।

नराकृतोऽस र प वधमा-
दक पतोऽमुं मु नराह गाथाम् ।।५९
भगवान् ीकृ ण कहते ह—उ वजी! उस ा णका धन या न आ, उसका सारा
लेश ही र हो गया। अब वह संसारसे वर हो गया था और सं यास लेकर पृ वीम
व छ द वचर रहा था। य प ने उसे ब त सताया, फर भी वह अपने धमम अटल रहा,
त नक भी वच लत न आ। उस समय वह मौनी अवधूत मन-ही-मन इस कारका गीत
गाया करता था ।।५९।। उ वजी! इस संसारम मनु यको कोई सरा सुख या ःख नह दे ता,
यह तो उसके च का ममा है। यह सारा संसार और इसके भीतर म , उदासीन और
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श ुके भेद अ ानक पत ह ।।६०।। इस लये यारे उ व! अपनी वृ य को मुझम त मय
कर दो और इस कार अपनी सारी श लगाकर मनको वशम कर लो और फर मुझम ही
न ययु होकर थत हो जाओ। बस, सारे योगसाधनका इतना ही सार-सं ह है ।।६१।।
यह भ ुकका गीत या है, मू तमान् ान- न ा ही है। जो पु ष एका च से इसे
सुनता, सुनाता और धारण करता है वह कभी सुख- ःखा द के वशम नह होता। उनके
बीचम भी वह सहके समान दहाड़ता रहता है ।।६२।।

सुख ःख दो ना यः पु ष या म व मः ।
म ोदासीन रपवः संसार तमसः कृतः ।।६०

त मात् सवा मना तात नगृहाण मनो धया ।


म यावे शतया यु एतावान् योगसं हः ।।६१

य एतां भ ुणा गीतां न ां समा हतः ।


धारय ावय छृ वन् ै नवा भभूयते ।।६२
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायामेकादश क धे यो वशोऽ यायः ।।२३।।

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अथ चतु वशोऽ यायः
सां ययोग
ीभगवानुवाच
अथ ते सं व या म सां यं पूव व न तम् ।
यद् व ाय पुमान् स ो ज ाद् वैक पकं मम् ।।१

आसी ानमथो थ एकमेवा वक पतम् ।


यदा ववेक नपुणा आदौ कृतयुगेऽयुगे ।।२

त मायाफल पेण केवलं न वक पतम् ।


वाङ् मनोऽगोचरं स यं धा समभवद् बृहत् ।।३
भगवान् ीकृ ण कहते ह— यारे उ व! अब म तु ह सां यशा का नणय सुनाता
ँ। ाचीन कालके बड़े-बड़े ऋ ष-मु नय ने इसका न य कया है। जब जीव इसे भलीभाँ त
समझ लेता है तो वह भेदबु मूलक सुख- ःखा द प मका त काल याग कर दे ता
है ।।१।। युग से पूव लयकालम आ दस ययुगम और जब कभी मनु य ववेक नपुण होते ह
—इन सभी अव था म यह स पूण य और ा, जगत् और जीव वक पशू य कसी
कारके भेदभावसे र हत केवल ही होते ह ।।२।। इसम स दे ह नह क म कसी
कारका वक प नह है, वह केवल—अ तीय स य है; मन और वाणीक उसम ग त नह
है। वह ही माया और उसम त ब बत जीवके पम— य और ाके पम—दो
भाग म वभ -सा हो गया ।।३।। उनमसे एक व तुको कृ त कहते ह। उसीने जगत्म काय
और कारणका प धारण कया है। सरी व तुको, जो ान व प है, पु ष कहते ह ।।४।।
उ वजी! मने ही जीव के शुभ-अशुभ कम के अनुसार कृ तको ु ध कया। तब उससे
स व, रज और तम—ये तीन गुण कट ए ।।५।। उनसे या-श धान सू और
ानश धान मह व कट ए। वे दोन पर पर मले ए ही ह। मह वम वकार
होनेपर अहंकार आ। यह अहंकार ही जीव को मोहम डालनेवाला है ।।६।। वह तीन
कारका है—सा वक, राजस और तामस। अहंकार पंचत मा ा, इ य और मनका कारण
है; इस लये वह जड-चेतन—उभया मक है ।।७।। तामस अहंकारसे पंचत मा ाएँ और उनसे
पाँच भूत क उ प ई। तथा राजस अहंकारसे इ याँ और सा वक अहंकारसे इ य के
अ ध ाता यारह दे वता* कट ए ।।८।। ये सभी पदाथ मेरी ेरणासे एक होकर पर पर
मल गये और इ ह ने यह ा ड- प अ ड उ प कया। यह अ ड मेरा उ म
नवास थान है ।।९।। जब वह अ ड जलम थत हो गया, तब म नारायण पसे इसम
वराजमान हो गया। मेरी ना भसे व कमलक उ प ई। उसीपर ाका आ वभाव
आ ।।१०।। व सम के अ तःकरण ाने पहले ब त बड़ी तप या क । उसके बाद मेरा
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कृपा- साद ा त करके रजोगुणके ारा भूः, भुवः, वः अथात् पृ वी, अ त र और वग—
इन तीन लोक क और इनके लोकपाल क रचना क ।।११।। दे वता के नवासके लये
वल क, भूत- ेता दके लये भुवल क (अ त र ) और मनु य आ दके लये भूल क
(पृ वीलोक) का न य कया गया। इन तीन लोक से ऊपर महल क, तपलोक आ द
स के नवास थान ए ।।१२।। सृ कायम समथ ाजीने असुर और नाग के लये
पृ वीके नीचे अतल, वतल, सुतल आ द सात पाताल बनाये। इ ह तीन लोक म
गुणा मक कम के अनुसार व वध ग तयाँ ा त होती ह ।।१३।। योग, तप या और
सं यासके ारा महल क, जनलोक, तपलोक और स यलोक प उ म ग त ा त होती है
तथा भ योगसे मेरा परम धाम मलता है ।।१४।। यह सारा जगत् कम और उनके
सं कार से यु है। म ही काल पसे कम के अनुसार उनके फलका वधान करता ँ। इस
गुण वाहम पड़कर जीव कभी डू ब जाता है और कभी ऊपर आ जाता है—कभी उसक
अधोग त होती है और कभी उसे पु यवश उ चग त ा त हो जाती है ।।१५।। जगत्म छोटे -
बड़े, मोटे -पतले— जतने भी पदाथ बनते ह, सब कृ त और पु ष दोन के संयोगसे ही स
होते है ।।१६।।

तयोरेकतरो थः कृ तः सोभया मका ।


ानं व यतमो भावः पु षः सोऽ भधीयते ।।४

तमो रजः स व म त कृतेरभवन् गुणाः ।


मया ो यमाणायाः पु षानुमतेन च ।।५

ते यः समभवत् सू ं महान् सू ेण संयुतः ।


ततो वकुवतो जातोऽहंकारो यो वमोहनः ।।६

वैका रक तैजस तामस े यहं वृत् ।


त मा े यमनसां कारणं चद च मयः ।।७

अथ त मा का ज े तामसा द या ण च ।
तैजसाद् दे वता आस क
े ादश च वैकृतात् ।।८

मया संचो दता भावाः सव संह यका रणः ।


अ डमु पादयामासुममायतनमु मम् ।।९

त म हं समभवम डे स ललसं थतौ ।


मम ना यामभूत् प ं व ा यं त चा मभूः ।।१०

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सोऽसृज पसा यु ो रजसा मदनु हात् ।
लोकान् सपालान् व ा मा भूभुवः व र त धा ।।११

दे वानामोक आसीत् वभूतानां च भुवः पदम् ।


म याद नां च भूल कः स ानां तयात् परम् ।।१२

अधोऽसुराणां नागानां भूमेरोकोऽसृजत् भुः ।


लो यां गतयः सवाः कमणां गुणा मनाम् ।।१३

योग य तपस ैव यास य गतयोऽमलाः ।


महजन तपः स यं भ योग य मद्ग तः ।।१४

मया काला मना धा ा कमयु मदं जगत् ।


गुण वाह एत म ु म ज त नम ज त ।।१५

अणुबृहत् कृशः थूलो यो यो भावः स य त ।


सव ऽ युभयसंयु ः कृ या पु षेण च ।।१६

य तु य या दर त स वै म यं च त य सन् ।
वकारो वहाराथ यथा तैजसपा थवाः ।।१७

य पादाय पूव तु भावो वकु तेऽपरम् ।


आ दर तो यदा य य तत् स यम भधीयते ।।१८

कृ त योपादानमाधारः पु षः परः ।
सतोऽ भ कः कालो त तयं वहम् ।।१९

सगः वतते तावत् पौवापयण न यशः ।


महान् गुण वसगाथः थ य तो यावद णम् ।।२०

वरा मयाऽऽसा मानो लोकक प वक पकः ।


पंच वाय वशेषाय क पते भुवनैः सह ।।२१
जसके आ द और अ तम जो है, वही बीचम भी है और वही स य है। वकार तो केवल
वहारके लये क ई क पनामा है। जैसे कंगन-कु डल आ द सोनेके वकार और घड़े-
सकोरे आ द म के वकार पहले सोना या म ही थे, बादम भी सोना या म ही रहगे।
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अतः बीचम भी वे सोना या म ही ह। पूववत कारण (मह व आ द) भी जस परम
कारणको उपादान बनाकर अपर (अहंकार आ द) काय-वगक सृ करते ह, वही उनक
अपे ा भी परम स य है। ता पय यह क जब जो जस कसी भी कायके आ द और अ तम
व मान रहता है, वही स य है ।।१७-१८।। इस पंचका उपादान-कारण कृ त है, परमा मा
अ ध ान है और इसको कट करनेवाला काल है। वहार-कालक यह वधता व तुतः
- व प है और म वही शु ँ ।।१९।। जबतक परमा माक ई णश अपना
काम करती रहती है, जबतक उनक पालन- वृ बनी रहती है, तबतक जीव के कमभोगके
लये कारण-काय पसे अथवा पता-पु ा दके पसे यह सृ च नर तर चलता रहता
है ।।२०।।
यह वराट् ही व वध लोक क सृ , थ त और संहारक लीलाभू म है। जब म
काल पसे इसम ा त होता ,ँ लयका संक प करता ँ, तब यह भुवन के साथ
वनाश प वभागके यो य हो जाता है ।।२१।। उसके लीन होनेक या यह है क
ा णय के शरीर अ म, अ बीजम, बीज भू मम और भू म ग ध-त मा ाम लीन हो जाती
है ।।२२।। ग ध जलम, जल अपने गुण रसम, रस तेजम और तेज पम लीन हो जाता
है ।।२३।। प वायुम, वायु पशम, पश आकाशम तथा आकाश श दत मा ाम लीन हो
जाता है। इ याँ अपने कारण दे वता म और अ ततः राजस अहंकारम समा जाती
ह ।।२४।। हे सौ य! राजस अहंकार अपने नय ता सा वक अहंकार प मनम, श दत मा ा
पंचभूत के कारण तामस अहंकारम और सारे जगत्को मो हत करनेम समथ वध अहंकार
मह वम लीन हो जाता है ।।२५।। ानश और याश धान मह व अपने कारण
गुण म लीन हो जाता है। गुण अ कृ तम और कृ त अपने ेरक अ वनाशी कालम
लीन हो जाती है ।।२६।। काल मायामय जीवम और जीव मुझ अज मा आ माम लीन हो
जाता है। आ मा कसीम लीन नह होता, वह उपा धर हत अपने व पम ही थत रहता है।
वह जगत्क सृ और लयका अ ध ान एवं अव ध है ।।२७।। उ वजी! जो इस कार
ववेक से दे खता है उसके च म यह पंचका म हो ही नह सकता। य द कदा चत्
उसक फू त हो भी जाय तो वह अ धक कालतक दयम ठहर कैसे सकता है? या
सूय दय होनेपर भी आकाशम अ धकार ठहर सकता है ।।२८।। उ वजी! म काय और
कारण दोन का ही सा ी ँ। मने तु ह सृ से लय और लयसे सृ तकक सां य व ध
बतला द । इससे स दे हक गाँठ कट जाती है और पु ष अपने व पम थत हो जाता
है ।।२९।।

अ े लीयते म यम ं धानासु लीयते ।


धाना भूमौ लीय ते भू मग धे लीयते ।।२२

अ सु लीयते ग ध आप वगुणे रसे ।


लीयते यो त ष रसो योती पे लीयते ।।२३

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पं वायौ स च पश लीयते सोऽ प चा बरे ।
अ बरं श दत मा इ या ण वयो नषु ।।२४

यो नवका रके सौ य लीयते मनसी रे ।


श दो भूता दम ये त भूता दमह त भुः ।।२५

स लीयते महान् वेषु गुणेषु गुणव मः ।


तेऽ े सं लीय ते तत् काले लीयतेऽ ये ।।२६

कालो मायामये जीवे जीव आ म न म यजे ।


आ मा केवल आ म थो वक पापायल णः ।।२७

एवम वी माण य कथं वैक पको मः ।


मनसो द त ेत ो नीवाक दये तमः ।।२८

एष सां य व धः ो ः संशय थभेदनः ।


तलोमानुलोमा यां परावर शा मया ।।२९
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायामेकादश क धे चतु वशोऽ यायः ।।२४।।

*पाँच ाने य, पाँच कम य और एक मन—इस कार यारह इ य के अ ध ाता


यारह दे वता ह।

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अथ प च वशोऽ यायः
तीन गुण क वृ य का न पण
ीभगवानुवाच
गुणानामस म ाणां पुमान् येन यथा भवेत् ।
त मे पु षवयदमुपधारय शंसतः ।।१
भगवान् ीकृ ण कहते ह—पु ष वर उ वजी! येक म अलग-अलग
गुण का काश होता है। उनके कारण ा णय के वभावम भी भेद हो जाता है। अब म
बतलाता ँ क कस गुणसे कैसा-कैसा वभाव बनता है। तुम सावधानीसे सुनो ।।१।।
स वगुणक वृ याँ ह—शम (मनःसंयम), दम (इ य न ह), त त ा (स ह णुता), ववेक,
तप, स य, दया, मृ त, स तोष, याग, वषय के त अ न छा, ा, ल जा (पाप करनेम
वाभा वक संकोच), आ मर त, दान, वनय और सरलता आ द ।।२।। रजोगुणक वृ याँ ह
—इ छा, य न, घमंड, तृ णा (अस तोष), ठ या अकड़, दे वता से धन आ दक याचना,
भेदबु , वषयभोग, यु ा दके लये मदज नत उ साह, अपने यशम ेम, हा य, परा म
और हठपूवक उ ोग करना आ द ।।३।। तमोगुणक वृ याँ ह— ोध (अस ह णुता), लोभ,
म याभाषण, हसा, याचना, पाख ड, म, कलह, शोक, मोह, वषाद, द नता, न ा, आशा,
भय और अकम यता आ द ।।४।। इस कार मसे स वगुण, रजोगुण और तमोगुणक
अ धकांश वृ य का पृथक्-पृथक् वणन कया गया। अब उनके मेलसे होनेवाली वृ य का
वणन सुनो ।।५।। उ वजी! ‘म ँ और यह मेरा है’ इस कारक बु म तीन गुण का
म ण है। जन मन, श दा द वषय, इ य और ाण के कारण पूव वृ य का उदय
होता है, वे सब-के-सब सा वक, राजस और तामस ह ।।६।। जब मनु य धम, अथ और
कामम संल न रहता है, तब उसे स वगुणसे ा, रजोगुणसे र त और तमोगुणसे धनक
ा त होती है। यह भी गुण का म ण ही है ।।७।। जस समय मनु य सकाम कम,
गृह था म और वधमाचगणम अ धक ी त रखता है, उस समय भी उसम तीन गुण का
मेल ही समझना चा हये ।।८।।
शमो दम त त े ा तपः स यं दया मृ तः ।
तु यागोऽ पृहा ा ीदया दः व नवृ तः ।।२

काम ईहा मद तृ णा त भ आशी भदा सुखम् ।


मदो साहो यशः ी तहा यं वीय बलो मः ।।३

ोधो लोभोऽनृतं हसा या ञा द भः लमः क लः ।


शोकमोहौ वषादात न ाऽऽशा भीरनु मः ।।४

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स व य रजस ैता तमस ानुपूवशः ।
वृ ये व णत ायाः स पातमथो शृणु ।।५

स पात वह म त ममे यु व या म तः ।
वहारः स पातो मनोमा े यासु भः ।।६

धम चाथ च कामे च यदासौ प र न तः ।


गुणानां स कष ऽयं ार तधनावहः ।।७

वृ ल णे न ा पुमान् य ह गृहा मे ।
वधम चानु त ेत गुणानां स म त ह सा ।।८

पु षं स वसंयु मनुमीया छमा द भः ।


कामा दभी रजोयु ं ोधा ै तमसा युतम् ।।९

यदा भज त मां भ या नरपे ः वकम भः ।


तं स व कृ त व ात् पु षं यमेव वा ।।१०
मान सक शा त और जते यता आ द गुण से स वगुणी पु षक , कामना आ दसे
रजोगुणी पु षक और ोध- हसा आ दसे तमोगुणी पु षक पहचान करे ।।९।। पु ष हो,
चाहे ी—जब वह न काम होकर अपने न य-नै म क कम ारा मेरी आराधना करे, तब
उसे स वगुणी जानना चा हये ।।१०।। सकामभावसे अपने कम के ारा मेरा भजन-पूजन
करनेवाला रजोगुणी है और जो अपने श ुक मृ यु आ दके लये मेरा भजन-पूजन करे, उसे
तमोगुणी समझना चा हये ।।११।। स व, रज और तम—इन तीन गुण का कारण जीवका
च है। उनसे मेरा कोई स ब ध नह है। इ ह गुण के ारा जीव शरीर अथवा धन आ दम
आस होकर ब धनम पड़ जाता है ।।१२।। स वगुण काशक, नमल और शा त है। जस
समय वह रजोगुण और तमोगुणको दबाकर बढ़ता है, उस समय पु ष सुख, धम और ान
आ दका भाजन हो जाता है ।।१३।। रजोगुण भेदबु का कारण है। उसका वभाव है
आस और वृ । जस समय तमोगुण और स वगुणको दबाकर रजोगुण बढ़ता है, उस
समय मनु य ःख, कम, यश और ल मीसे स प होता है ।।१४।। तमोगुणका व प है
अ ान। उसका वभाव है आल य और बु क मूढ़ता। जब वह बढ़कर स वगुण और
रजोगुणको दबा लेता है, तब ाणी तरह-तरहक आशाएँ करता है, शोक-मोहम पड़ जाता है,
हसा करने लगता है अथवा न ा-आल यके वशीभूत होकर पड़ रहता है ।।१५।। जब च
स हो, इ याँ शा त ह , दे ह नभय हो और मनम आस न हो, तब स वगुणक वृ
समझनी चा हये। स वगुण मेरी ा तका साधन है ।।१६।। जब काम करते-करते जीवक
बु चंचल, ाने याँ अस तु , कम याँ वकारयु , मन ा त और शरीर अ व थ हो
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जाय, तब समझना चा हये क रजोगुण जोर पकड़ रहा है ।।१७।।

यदा आ शष आशा य मां भजेत वकम भः ।


तं रजः कृ त व ा सामाशा य तामसम् ।।११

स वं रज तम इ त गुणा जीव य नैव मे ।


च जा यै तु भूतानां स जमानो नब यते ।।१२

यदे तरौ जयेत् स वं भा वरं वशदं शवम् ।


तदा सुखेन यु येत धम ाना द भः पुमान् ।।१३

यदा जये मः स वं रजः संगं भदा चलम् ।


तदा ःखेन यु येत कमणा यशसा या ।।१४

यदा जयेद ् रजः स वं तमो मूढं लयं जडम् ।


यु येत शोकमोहा यां न या हसयाऽऽशया ।।१५

यदा च ं सीदे त इ याणां च नवृ तः ।


दे हेऽभयं मनोऽसंगं तत् स वं व म पदम् ।।१६

वकुवन् यया चाधीर नवृ चेतसाम् ।


गा ा वा यं मनो ा तं रज एतै नशामय ।।१७

सीद च ं वलीयेत चेतसो हणेऽ मम् ।


मनो न ं तमो ला न तम त पधारय ।।१८

एधमाने गुणे स वे दे वानां बलमेधते ।


असुराणां च रज स तम यु व र साम् ।।१९
जब च ाने य के ारा श दा द वषय को ठ क-ठ क समझनेम असमथ हो जाय
और ख होकर लीन होने लगे, मन सूना-सा हो जाय तथा अ ान और वषादक वृ हो,
तब समझना चा हये क तमोगुण वृ पर है ।।१८।।
उ वजी! स वगुणके बढ़नेपर दे वता का, रजोगुणके बढ़नेपर असुर का और
तमोगुणके बढ़नेपर रा स का बल बढ़ जाता है। (वृ य म भी मशः स वा द गुण क
अ धकता होनेपर दे व व, असुर व और रा स व- धान नवृ , वृ अथवा मोहक
धानता हो जाती है) ।।१९।। स वगुणसे जा त्-अव था, रजोगुणसे व ाव था और
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तमोगुणसे सुषु त-अव था होती है। तुरीय इन तीन म एक-सा ा त रहता है। वही शु
और एकरस आ मा है ।।२०।। वेद के अ यासम त पर ा ण स वगुणके ारा उ रो र
ऊपरके लोक म जाते ह। तमोगुणसे जीव को वृ ा दपय त अधोग त ा त होती है और
रजोगुणसे मनु य-शरीर मलता है ।।२१।। जसक मृ यु स वगुण क वृ के समय होती है,
उसे वगक ा त होती है; जसक रजोगुणक वृ के समय होती है, उसे मनु य-लोक
मलता है और जो तमोगुणक वृ के समय मरता है, उसे नरकक ा त होती है। पर तु जो
पु ष गुणातीत—जीव तु हो गये ह, उ ह मेरी ही ा त होती है ।।२२।। जब अपने
धमका आचरण मुझे सम पत करके अथवा न कामभावसे कया जाता है तब वह सा वक
होता है। जस कमके अनु ानम कसी फलक कामना रहती है, वह राज सक होता है और
जस कमम कसीको सताने अथवा दखाने आ दका भाव रहता है, वह ताम सक होता
है ।।२३।। शु आ माका ान सा वक है। उसको कता-भो ा समझना राजस ान है और
उसे शरीर समझना तो सवथा ताम सक है। इन तीन से वल ण मेरे व पका वा त वक
ान नगुण ान है ।।२४।। वनम रहना सा वक नवास है, गाँवम रहना राजस है और
जूआघरम रहना ताम सक है। इन सबसे बढ़कर मेरे म दरम रहना नगुण नवास है ।।२५।।
अनास भावसे कम करनेवाला सा वक है, रागा ध होकर कम करनेवाला राज सक है और
पूवापर वचारसे र हत होकर करनेवाला ताम सक है। इनके अ त र जो पु ष केवल मेरी
शरणम रहकर बना अहंकारके कम करता है, वह नगुण कता है ।।२६।। आ म ान वषयक
ा सा वक ा है, कम वषयक ा राजस है और जो ा अधमम होती है, वह
तामस है तथा मेरी सेवाम जो ा है, वह नगुण ा है ।।२७।।

स वा जागरणं व ाद् रजसा व मा दशेत् ।


वापं तमसा ज तो तुरीयं षु स ततम् ।।२०

उपयुप र ग छ त स वेन ा णा जनाः ।


तमसाधोऽध आमु याद् रजसा तरचा रणः ।।२१

स वे लीनाः वया त नरलोकं रजोलयाः ।


तमोलया तु नरयं या त मामेव नगुणाः ।।२२

मदपणं न फलं वा सा वकं नजकम तत् ।


राजसं फलसंक पं हसा ाया द तामसम् ।।२३

कैव यं सा वकं ानं रजो वैक पकं च यत् ।


ाकृतं तामसं ानं म ं नगुणं मृतम् ।।२४

वनं तु सा वको वासो ामो राजस उ यते ।


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तामसं ूतसदनं म केतं तु नगुणम् ।।२५

सा वकः कारकोऽसंगी रागा धो राजसः मृतः ।


तामसः मृ त व ो नगुणो मदपा यः ।।२६

सा व या या मक ा कम ा तु राजसी ।
ताम यधम या ा म सेवायां तु नगुणा ।।२७

प यं पूतमनाय तमाहाय सा वकं मृतम् ।


राजसं चे य े ं तामसं चा तदाशु च ।।२८

सा वकं सुखमा मो थं वषयो थं तु राजसम् ।


तामसं मोहदै यो थं नगुणं मदपा यम् ।।२९

ं दे शः फलं कालो ानं कम च कारकः ।


ाव थाऽऽकृ त न ा ैगु यः सव एव ह ।।३०

सव गुणमया भावाः पु षा ध ताः ।


ं ुतमनु यातं बु या वा पु षषभ ।।३१

एताः संसृतयः पुंसो गुणकम नब धनाः ।


येनेमे न जताः सौ य गुणा जीवेन च जाः ।
भ योगेन म ो म ावाय प ते ।।३२

त माद् दे ह ममं ल वा ान व ानस भवम् ।


गुणसंगं व नधूय मां भज तु वच णाः ।।३३

नःसंगो मां भजेद ् व ान म ो जते यः ।


रज तम ा भजयेत् स वसंसेवया मु नः ।।३४

स वं चा भजयेद ् यु ो नैरपे येण शा तधीः ।


स प ते गुणैमु ो जीवो जीवं वहाय माम् ।।३५
आरो यदायक, प व और अनायास ा त भोजन सा वक है। रसने यको चकर
और वादक से यु आहार राजस है तथा ःखदायी और अप व आहार तामस
है ।।२८।। अ तमुखतासे—आ म च तनसे ा त होनेवाला सुख सा वक है। ब हमुखतासे—
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वषय से ा त होनेवाला राजस है तथा अ ान और द नतासे ा त होनेवाला सुख तामस है
और जो सुख मुझसे मलता है, वह तो गुणातीत और अ ाकृत है ।।२९।।
उ वजी! (व तु), दे श ( थान), फल, काल, ान, कम, कता, ा, अव था, दे व-
मनु य- तयगा द शरीर और न ा—सभी गुणा मक ह ।।३०।। नरर न! पु ष और
कृ तके आ त जतने भी भाव ह, सभी गुणमय ह—वे चाहे ने ा द इ य से अनुभव
कये ए ह , शा के ारा लोक-लोका तर के स ब धम सुने गये ह अथवा बु के ारा
सोचे- वचारे गये ह ।।३१।। जीवको जतनी भी यो नयाँ अथवा ग तयाँ ा त होती ह, वे सब
उनके गुण और कम के अनुसार ही होती ह। हे सौ य! सब-के-सब गुण च से ही स ब ध
रखते ह (इस लये जीव उ ह अनायास ही जीत सकता है) जो जीव उनपर वजय ा त कर
लेता है, वह भ योगके ारा मुझम ही प र न त हो जाता है और अ ततः मेरा वा त वक
व प, जसे मो भी कहते ह, ा त कर लेता है ।।३२।। यह मनु यशरीर ब त ही लभ
है। इसी शरीरम त व ान और उसम न ा प व ानक ा त स भव है; इस लये इसे
पाकर बु मान् पु ष को गुण क आस हटाकर मेरा भजन करना चा हये ।।३३।।
वचारशील पु षको चा हये क बड़ी सावधानीसे स वगुणके सेवनसे रजोगुण और
तमोगुणको जीत ले, इ य को वशम कर ले और मेरे व पको समझकर मेरे भजनम लग
जाय। आस को लेशमा भी न रहने दे ।।३४।। योगयु से च वृ य को शा त करके
नरपे ताके ारा स वगुणपर भी वजय ा त कर ले। इस कार गुण से मु होकर जीव
अपने जीवभावको छोड़ दे ता है और मुझसे एक हो जाता है ।।३५।। जीव लगशरीर प
अपनी उपा ध जीव वसे तथा अ तःकरणम उदय होनेवाली स वा द गुण क वृ य से मु
होकर मुझ क अनुभू तसे एक वदशनसे पूण हो जाता है और वह फर बा अथवा
आ त रक कसी भी वषयम नह जाता ।।३६।।

जीवो जीव व नमु ो गुणै ाशयस भवैः ।

मयैव णा पूण न ब हना तर रेत् ।।३६


इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायामेकादश क धे प च वशोऽ यायः ।।२५।।

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अथ षड् वशोऽ यायः
पु रवाक वैरा यो
ीभगवानुवाच
म ल ण ममं कायं ल वा म म आ थतः ।
आन दं परमा मानमा म थं समुपै त माम् ।।१

गुणम या जीवयो या वमु ो ान न या ।


गुणेषु मायामा ेषु यमाने वव तुतः ।
वतमानोऽ प न पुमान् यु यतेऽव तु भगुणैः ।।२

संगं न कुयादसतां श ोदरतृपां व चत् ।


त यानुग तम य धे पत य धानुगा धवत् ।।३

ऐलः स ा डमां गाथामगायत बृह वाः ।


उवशी वरहान् मु न् न व णः शोकसंयमे ।।४

य वाऽऽ मानं ज त तां न न उ म व ृपः ।


वलप वगा जाये घोरे त े त व लवः ।।५
भगवान् ीकृ ण कहते ह—उ वजी! यह मनु यशरीर मेरे व प ानक ा तका—
मेरी ा तका मु य साधन है। इसे पाकर जो मनु य स चे ेमसे मेरी भ करता है, वह
अ तःकरणम थत मुझ आन द व प परमा माको ा त हो जाता है ।।१।। जीव क सभी
यो नयाँ, सभी ग तयाँ गुणमयी ह। जीव ान न ाके ारा उनसे सदाके लये मु हो जाता
है। स व-रज आ द गुण जो द ख रहे ह वे वा त वक नह ह, मायामा ह। ान हो जानेके
बाद पु ष उनके बीचम रहनेपर भी, उनके ारा वहार करनेपर भी उनसे बँधता नह ।
इसका कारण यह है क उन गुण क वा त वक स ा ही नह है ।।२।। साधारण लोग को इस
बातका यान रखना चा हये क जो लोग वषय के सेवन और उदरपोषणम ही लगे ए ह,
उन असत् पु ष का संग कभी न कर; य क उनका अनुगमन करनेवाले पु षक वैसी ही
दशा होती है, जैसे अंधेके सहारे चलनेवाले अंधेक । उसे तो घोर अ धकारम ही भटकना
पड़ता है ।।३।। उ वजी! पहले तो परम यश वी स ाट् इलान दन पु रवा उवशीके वरहसे
अ य त बेसुध हो गया था। पीछे शोक हट जानेपर उसे बड़ा वैरा य आ और तब उसने यह
गाथा गायी ।।४।। राजा पु रवा न न होकर पागलक भाँ त अपनेको छोड़कर भागती ई
उवशीके पीछे अ य त व ल होकर दौड़ने लगा और कहने लगा—‘दे व! न ु र दये! थोड़ी
दे र ठहर जा, भाग मत’ ।।५।। उवशीने उनका च आकृ कर लया था। उ ह तृ त नह
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ई थी। वे ु वषय के सेवनम इतने डू ब गये थे क उ ह वष क रा याँ न जाती मालूम
पड़ और न तो आत ।।६।।

कामानतृ तोऽनुजुषन् ु लकान् वषया मनीः ।


न वेद या तीनाया ती व याकृ चेतनः ।।६
ऐल उवाच

अहो मे मोह व तारः कामक मलचेतसः ।


दे ा गृहीतक ठ य नायुःख डा इमे मृताः ।।७

नाहं वेदा भ नमु ः सूय वा यु दतोऽमुया ।


मु षतो वषपूगानां बताहा न गता युत ।।८

अहो मे आ मस मोहो येना मा यो षतां कृतः ।


डामृग वत नरदे व शखाम णः ।।९

सप र छदमा मानं ह वा तृण मवे रम् ।


या त यं चा वगमं न न उ म वद् दन् ।।१०

कुत त यानुभावः यात् तेज ईश वमेव वा ।


योऽ वग छं यं या त खरवत् पादता डतः ।।११

क व या क तपसा क यागेन ुतेन वा ।


क व व े न मौनेन ी भय य मनो तम् ।।१२

वाथ याको वदं धङ् मां मूख प डतमा ननम् ।


योऽहमी रतां ा य ी भग खरव जतः ।।१३

सेवतो वषपूगान् मे उव या अधरासवम् ।


न तृ य या मभूः कामो व रा त भयथा ।।१४

पुं याप तं च ं को व यो मो चतुं भुः ।


आ मारामे रमृते भगव तमधो जम् ।।१५
पु रवाने कहा—हाय-हाय! भला, मेरी मूढ़ता तो दे खो, कामवासनाने मेरे च को
कतना कलु षत कर दया! उवशीने अपनी बा से मेरा ऐसा गला पकड़ा क मने आयुके
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न जाने कतने वष खो दये। ओह! व मृ तक भी एक सीमा होती है ।।७।। हाय-हाय! इसने
मुझे लूट लया। सूय अ त हो गया या उ दत आ—यह भी म न जान सका। बड़े खेदक
बात है क ब त-से वष के दन-पर- दन बीतते गये और मुझे मालूमतक न पड़ा ।।८।। अहो!
आ य है! मेरे मनम इतना मोह बढ़ गया, जसने नरदे व- शखाम ण च वत स ाट् मुझ
पु रवाको भी य का डामृग ( खलौना) बना दया ।।९।। दे खो, म जाको मयादाम
रखनेवाला स ाट् ँ। वह मुझे और मेरे राजपाटको तनकेक तरह छोड़कर जाने लगी और
म पागल होकर नंग-धड़ंग रोता- बलखता उस ीके पीछे दौड़ पड़ा। हाय! हाय! यह भी
कोई जीवन है ।।१०।। म गधेक तरह ल याँ सहकर भी ीके पीछे -पीछे दौड़ता रहा;
फर मुझम भाव, तेज और वा म व भला कैसे रह सकता है ।।११।। ीने जसका मन
चुरा लया, उसक व ा थ है। उसे तप या, याग और शा ा याससे भी कोई लाभ नह ।
और इसम स दे ह नह क उसका एका तसेवन और मौन भी न फल है ।।१२।। मुझे अपनी
ही हा न-लाभका पता नह , फर भी अपनेको ब त बड़ा प डत मानता ँ। मुझ मूखको
ध कार है! हाय! हाय! म च वत स ाट् होकर भी गधे और बैलक तरह ीके फंदे म फँस
गया ।।१३।। म वष तक उवशीके होठ क मादक म दरा पीता रहा, पर मेरी कामवासना तृ त
न ई। सच है, कह आ तय से अ नक तृ त ई है ।।१४।। उस कुलटाने मेरा च चुरा
लया। आ माराम जीव मु के वामी इ यातीत भगवान्को छोड़कर और ऐसा कौन है,
जो मुझे उसके फंदे से नकाल सके ।।१५।। उवशीने तो मुझे वै दक सू के वचन ारा यथाथ
बात कहकर समझाया भी था; पर तु मेरी बु ऐसी मारी गयी क मेरे मनका वह भयंकर
मोह तब भी मटा नह । जब मेरी इ याँ ही मेरे हाथके बाहर हो गय , तब म समझता भी
कैसे ।।१६।। जो र सीके व पको न जानकर उसम सपक क पना कर रहा है और खी
हो रहा है, र सीने उसका या बगाड़ा है? इसी कार इस उवशीने भी हमारा या बगाड़ा?
य क वयं म ही अ जते य होनेके कारण अपराधी ँ ।।१७।। कहाँ तो यह मैला-कुचैला,
ग धसे भरा अप व शरीर और कहाँ सुकुमारता, प व ता, सुग ध आ द पु पो चत गुण!
पर तु मने अ ानवश असु दरम सु दरका आरोप कर लया ।।१८।। यह शरीर माता- पताका
सव व है अथवा प नीक स प ? यह वामीक मोल ली ई व तु है, आगका धन है
अथवा कु े और गीध का भोजन? इसे अपना कह अथवा सु द्-स ब धय का? ब त
सोचने- वचारनेपर भी कोई न य नह होता ।।१९।। यह शरीर मल-मू से भरा आ अ य त
अप व है। इसका अ त यही है क प ी खाकर व ा कर द, इसके सड़ जानेपर इसम क ड़े
पड़ जायँ अथवा जला दे नेपर यह राखका ढे र हो जाय। ऐसे शरीरपर लोग लट् टू हो जाते ह
और कहने लगते ह—‘अहो! इस ीका मुखड़ा कतना सु दर है! नाक कतनी सुघड़ है
और म द-म द मुसकान कतनी मनोहर है ।।२०।। यह शरीर वचा, मांस, धर, नायु, मेदा,
म जा और ह य का ढे र और मल-मू तथा पीबसे भरा आ है। य द मनु य इसम रमता है
तो मल-मू के क ड़ म और उसम अ तर ही या है ।।२१।। इस लये अपनी भलाई
समझनेवाले ववेक मनु यको चा हये क य और ी-ल पट पु ष का संग न करे।
वषय और इ य के संयोगसे ही मनम वकार होता है; अ यथा वकारका कोई अवसर ही

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नह है ।।२२।। जो व तु कभी दे खी या सुनी नह गयी है, उसके लये मनम वकार नह
होता। जो लोग वषय के साथ इ य का संयोग नह होने दे त,े उनका मन अपने-आप
न ल होकर शा त हो जाता है ।।२३।। अतः वाणी, कान और मन आ द इ य से य
और ील पट का संग कभी नह करना चा हये। मेरे-जैसे लोग क तो बात ही या, बड़े-बड़े
व ान के लये भी अपनी इ याँ और मन व सनीय नह ह ।।२४।।

बो धत या प दे ा मे सू वा येन मतेः ।
मनोगतो महामोहो नापया य जता मनः ।।१६

कमेतया नोऽपकृतं र वा वा सपचेतसः ।


र जु व पा व षो योऽहं यद जते यः ।।१७

वायं मलीमसः कायो दौग या ा मकोऽशु चः ।


व गुणाः सौमन या ा यासोऽ व या कृतः ।।१८

प ोः क वं नु भायायाः वा मनोऽ नेः गृ योः ।


कमा मनः क सु दा म त यो नावसीयते ।।१९

त मन् कलेवरेऽमे ये तु छ न े वष जते ।


अहो सुभ ं सुनसं सु मतं च मुखं यः ।।२०

वङ् मांस धर नायुमेदोम जा थसंहतौ ।


वणमू पूये रमतां कृमीणां कयद तरम् ।।२१

अथा प नोपस जेत ीषु ैणेषु चाथ वत् ।


वषये यसंयोगा मनः ु य त ना यथा ।।२२

अ ाद ुताद् भावा भाव उपजायते ।


अस युज
ं तः ाणान् शा य त त मतं मनः ।। २३

त मात् संगो न कत ः ीषु ैणेषु चे यैः ।


व षां चा य व धः षड् वगः कमु मा शाम् ।।२४
ीभगवानुवाच

एवं गायन् नृपदे वदे वः


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स उवशीलोकमथो वहाय ।
आ मानमा म यवग य मां वै
उपारम ान वधूतमोहः ।।२५

ततो ःसंगमु सृ य स सु स जेत बु मान् ।


स त एत य छ द त मनो ासंगमु भः ।।२६

स तोऽनपे ा म च ाः शा ताः समद शनः ।


नममा नरहंकारा न ा न प र हाः ।।२७

तेषु न यं महाभाग महाभागेषु म कथाः ।


स भव त हता नॄणां जुषतां पुन यघम् ।।२८

ता ये शृ व त गाय त नुमोद त चा ताः ।


म पराः धाना भ व द त ते म य ।।२९

भ ल धवतः साधोः कम यदव श यते ।


म यन तगुणे यान दानुभवा म न ।।३०
भगवान् ीकृ ण कहते ह—उ वजी! राजराजे र पु रवाके मनम जब इस तरहके
उद्गार उठने लगे, तब उसने उवशीलोकका प र याग कर दया। अब ानोदय होनेके कारण
उसका मोह जाता रहा और उसने अपने दयम ही आ म व पसे मेरा सा ा कार कर लया
और वह शा तभावम थत हो गया ।।२५।। इस लये बु मान् पु षको चा हये क
पु रवाक भाँ त कुसंग छोड़कर स पु ष का संग करे। संत पु ष अपने स पदे श से उसके
मनक आस न कर दगे ।।२६।। संत पु ष का ल ण यह है क उ ह कभी कसी
व तुक अपे ा नह होती। उनका च मुझम लगा रहता है। उनके दयम शा तका अगाध
समु लहराता रहता है। वे सदा-सवदा सव सबम सब पसे थत भगवान्का ही दशन
करते ह। उनम अहंकारका लेश भी नह होता, फर ममताक तो स भावना ही कहाँ है। वे
सद -गरमी, सुख- ःख आ द म एकरस रहते ह तथा बौ क, मान सक, शारी रक और
पदाथ-स ब धी कसी कारका भी प र ह नह रखते ।।२७।। परमभा यवान् उ वजी!
संत के सौभा यक म हमा कौन कहे? उनके पास सदा-सवदा मेरी लीला-कथाएँ आ करती
ह। मेरी कथाएँ मनु य के लये परम हतकर ह; जो उनका सेवन करते ह, उनके सारे पाप-
ताप को वे धो डालती ह ।।२८।। जो लोग आदर और ासे मेरी लीला-कथा का वण,
गान और अनुमोदन करते ह, वे मेरे परायण हो जाते ह और मेरी अन य ेममयी भ ात
कर लेते ह ।।२९।। उ वजी! म अन त अ च य क याणमय गुणगण का आ य ँ। मेरा
व प है—केवल आन द, केवल अनुभव, वशु आ मा। म सा ात् पर ँ। जसे मेरी
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भ मल गयी, वह तो संत हो गया। अब उसे कुछ भी पाना शेष नह है ।।३०।। उनक तो
बात ही या— जसने उन संत पु ष क शरण हण कर ली उसक भी कमजडता,
संसारभय और अ ान आ द सवथा नवृ हो जाते ह। भला, जसने अ नभगवान्का
आ य ले लया उसे शीत, भय अथवा अ धकारका ःख हो सकता है? ।।३१।। जो इस घोर
संसारसागरम डू ब-उतरा रहे ह, उनके लये वे ा और शा त संत ही एकमा आ य ह,
जैसे जलम डू ब रहे लोग के लये ढ़ नौका ।।३२।। जैसे अ से ा णय के ाणक र ा
होती है, जैसे म ही द न- खय का परम र क ँ, जैसे मनु यके लये परलोकम धम ही
एकमा पूँजी है—वैसे ही जो लोग संसारसे भयभीत ह, उनके लये संतजन ही परम आ य
ह ।।३३।। जैसे सूय आकाशम उदय होकर लोग को जगत् तथा अपनेको दे खनेके लये
ने दान करता है, वैसे ही संत पु ष अपनेको तथा भगवान्को दे खनेके लये अ त दे ते ह।
संत अनु हशील दे वता ह। संत अपने हतैषी सु द् ह। संत अपने यतम आ मा ह। और
अ धक या क ,ँ वयं म ही संतके पम व मान ँ ।।३४।। य उ व! आ मसा ा कार
होते ही इलान दन पु रवाको उवशीके लोकक पृहा न रही। उसक सारी आस याँ मट
गय और वह आ माराम होकर व छ द पसे इस पृ वीपर वचरण करने लगा ।।३५।।

यथोप यमाण य भगव तं वभावसुम् ।


शीतं भयं तमोऽ ये त साधून् संसेवत तथा ।।३१

नम यो म जतां घोरे भवा धौ परमायनम् ।


स तो वदः शा ता नौ ढे वा सु म जताम् ।।३२

अ ं ह ा णनां ाण आतानां शरणं वहम् ।


धम व ं नृणां े य स तोऽवाग् ब यतोऽरणम् ।।३३

स तो दश त च ूं ष ब हरकः समु थतः ।


दे वता बा धवाः स तः स त आ माहमेव च ।।३४

वैतसेन ततोऽ येवमुव या लोक नः पृहः ।


मु संगो महीमेतामा माराम चार ह ।।३५
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायामेकादश क धे षड् वशोऽ यायः ।।२६।।

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अथ स त वशोऽ यायः
यायोगका वणन
उ व उवाच

यायोगं समाच व भवदाराधनं भो ।


य मा वां ये यथाच त सा वताः सा वतषभ ।।१

एतद् वद त मुनयो मु नः ेयसं नृणाम् ।


नारदो भगवान् ास आचाय ऽ रसः सुतः ।।२
उ वजीने पूछा—भ व सल ीकृ ण! जस यायोगका आ य लेकर जो भ जन
जस कारसे जस उ े यसे आपक अचा-पूजा करते ह, आप अपने उस आराधन प
यायोगका वणन क जये ।।१।। दे व ष नारद, भगवान् ासदे व और आचाय वृह प त
आ द बड़े-बड़े ऋ ष-मु न यह बात बार-बार कहते ह क यायोगके ारा आपक आराधना
ही मनु य के परम क याणक साधना है ।।२।। यह यायोग पहले-पहल आपके
मुखार व दसे ही नकला था। आपसे ही हण करके इसे ाजीने अपने पु भृगु आ द
मह षय को और भगवान् शंकरने अपनी अ ा गनी भगवती पावतीजीको उपदे श कया
था ।।३।। मयादार क भो! यह यायोग ा ण- य आ द वण और चारी-गृह थ
आ द आ म के लये भी परम क याणकारी है। म तो ऐसा समझता ँ क ी-शू ा दके
लये भी यही सबसे े साधना-प त है ।।४।। कमलनयन यामसु दर! आप शंकर आ द
जगद र के भी ई र ह और म आपके चरण का ेमी भ ँ। आप कृपा करके मुझे यह
कमब धनसे मु करनेवाली व ध बतलाइये ।।५।।

नःसृतं ते मुखा भोजाद् यदाह भगवानजः ।


पु े यो भृगुमु ये यो दे ै च भगवान् भवः ।।३

एतद् वै सववणानामा माणां च स मतम् ।


ेयसामु मं म ये ीशू ाणां च मानद ।।४

एतत् कमलप ा कमब ध वमोचनम् ।


भ ाय चानुर ाय ू ह व े रे र ।।५
ीभगवानुवाच

न तोऽन तपार य कमका ड य चो व ।


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सं तं वण य या म यथावदनुपूवशः ।।६

वै दक ता को म इ त मे वधो मखः ।
याणामी सतेनैव व धना मां समचयेत् ।।७

यदा व नगमेनो ं ज वं ा य पू षः ।
यथा यजेत मां भ या या त बोध मे ।।८

अचायां थ डलेऽ नौ वा सूय वा सु द जे ।


ेण भ यु ोऽचत् वगु ं माममायया ।।९

पुव नानं कुव त धौतद तोऽ शु ये ।


उभयैर प च नानं म ैमृद् हणा दना ।।१०

स योपा या दकमा ण वेदेनाचो दता न मे ।


पूजां तैः क पयेत् स यक् संक पः कमपावनीम् ।।११
भगवान् ीकृ णने कहा—उ वजी! कमका डका इतना व तार है क उसक कोई
सीमा नह है; इस लये म उसे थोड़ेम ही पूवापर- मसे व धपूवक वणन करता ँ ।।६।। मेरी
पूजाक तीन व धयाँ ह—वै दक, ता क और म त। इन तीन मसे मेरे भ को जो भी
अपने अनुकूल जान पड़े, उसी व धसे मेरी आराधना करनी चा हये ।।७।। पहले अपने
अ धकारानुसार शा ो व धसे समयपर य ोपवीत-सं कारके ारा सं कृत होकर ज व
ा त करे, फर ा और भ के साथ वह कस कार मेरी पूजा करे, इसक व ध तुम
मुझसे सुनो ।।८।। भ पूवक न कपट भावसे अपने पता एवं गु प मुझ परमा माका
पूजाक साम य के ारा मू तम, वेद म, अ नम, सूयम, जलम, दयम अथवा ा णम—
चाहे कसीम भी आराधना करे ।।९।। उपासकको चा हये क ातःकाल दतुअन करके पहले
शरीरशु के लये नान करे और फर वै दक और ता क दोन कारके म से म और
भ म आ दका लेप करके पुनः नान करे ।।१०।। इसके प ात् वेदो स या-व दना द
न यकम करने चा हये। उसके बाद मेरी आराधनाका ही सु ढ़ संक प करके वै दक और
ता क व धय से कमब धन से छु ड़ानेवाली मेरी पूजा करे ।।११।। मेरी मू त आठ कारक
होती है—प थरक , लकड़ीक , धातुक , म और च दन आ दक , च मयी, बालुकामयी,
मनोमयी और म णमयी ।।१२।। चल और अचल भेदसे दो कारक तमा ही मुझ
भगवान्का म दर है। उ वजी! अचल तमाके पूजनम त दन आवाहन और वसजन
नह करना चा हये ।।१३।। चल तमाके स ब धम वक प है। चाहे करे और चाहे न करे।
पर तु बालुकामयी तमाम तो आवाहन और वसजन त दन करना ही चा हये। म और
च दनक तथा च मयी तमा को नान न करावे, केवल माजन कर दे ; पर तु और

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सबको नान कराना चा हये ।।१४।। स - स पदाथ से तमा आ दम मेरी पूजा क
जाती है, पर तु जो न काम भ है, वह अनायास ा त पदाथ से और भावनामा से ही
दयम मेरी पूजा कर ले ।।१५।। उ वजी! नान, व , आभूषण आ द तो पाषाण अथवा
धातुक तमाके पूजनम ही उपयोगी ह। बालुकामयी मू त अथवा म क वेद म पूजा
करनी हो तो उसम म के ारा अंग और उसके धान दे वता क यथा थान पूजा करनी
चा हये। तथा अ नम पूजा करनी हो तो घृत म त हवन-साम य से आ त दे नी
चा हये ।।१६।। सूयको तीक मानकर क जानेवाली उपासनाम मु यतः अ यदान एवं
उप थान ही य है और जलम तपण आ दसे मेरी उपासना करनी चा हये। जब मुझे कोई
भ हा दक ासे जल भी चढ़ाता है, तब म उसे बड़े ेमसे वीकार करता ँ ।।१७।। य द
कोई अभ मुझे ब त-सी साम ी नवेदन करे तो भी म उससे स तु नह होता। जब म
भ - ापूवक सम पत जलसे ही स हो जाता ँ, तब ग ध, पु प, धूप, द प और नैवे
आ द व तु के समपणसे तो कहना ही या है ।।१८।।

शैली दा मयी लौही ले या ले या च सैकती ।


मनोमयी म णमयी तमा वधा मृता ।।१२

चलाचले त वधा त ा जीवम दरम् ।


उ ासावाहने न तः थरायामु वाचने ।।१३

अ थरायां वक पः यात् थ डले तु भवेद ् यम् ।


नपनं व वले यायाम य प रमाजनम् ।।१४

ैः स ै म ागः तमा द वमा यनः ।


भ य च यथाल धै द भावेन चैव ह ।।१५

नानालंकरणं े मचायामेव तू व ।
थ डले त व व यासो व ावा य लुतं ह वः ।।१६

सूय चा यहणं े ं स लले स लला द भः ।


योपा तं े ं भ े न मम वाय प ।।१७

भूय यभ ोप तं न मे तोषाय क पते ।


ग धो धूपः सुमनसो द पोऽ ा ं च क पुनः ।।१८

शु चः स भृतस भारः ा दभः क पतासनः ।

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आसीनः ागुदग् वाचदचायामथ स मुखः ।।१९
उपासक पहले पूजाक साम ी इकट् ठ कर ले। फर इस कार कुश बछाये क उनके
अगले भाग पूवक ओर रह। तदन तर पूव या उ रक ओर मुँह करके प व तासे उन कुश के
आसनपर बैठ जाय। य द तमा अचल हो तो उसके सामने ही बैठना चा हये। इसके बाद
पूजाकाय ार भ करे ।।१९।। पहले व धपूवक अंग यास और कर यास कर ले। इसके बाद
मू तम म यास करे और हाथसे तमापरसे पूवसम पत साम ी हटाकर उसे प छ दे ।
इसके बाद जलसे भरे ए कलश और ो णपा आ दक पूजा ग ध-पु प आ दसे
करे ।।२०।। ो णपा के जलसे पूजासाम ी और अपने शरीरका ो ण कर ले। तदन तर
पा , अ य और आचमनके लये तीन पा म कलशमसे जल भरकर रख ले और उनम
पूजा-प तके अनुसार साम ी डाले। (पा पा म यामाक—साँवेके दाने, ब, कमल,
व णु ा ता और च दन, तुलसीदल आ द; अ यपा म ग ध, पु प, अ त, जौ, कुश, तल,
सरस और ब तथा आचमनपा म जायफल, ल ग आ द डाले।) इसके बाद पूजा
करनेवालेको चा हये क तीन पा को मशः दयम , शरोम और शखाम से
अ भम त करके अ तम गाय ीम से तीन को अ भम त करे ।।२१-२२।। इसके बाद
ाणायामके ारा ाण-वायु और भावना ारा शरीर थ अ नके शु हो जानेपर
दयकमलम परम सू म और े द प शखाके समान मेरी जीवकलाका यान करे। बड़े-बड़े
स ऋ ष-मु न ॐकारके अकार, उकार, मकार, ब और नाद—इन पाँच कला के
अ तम उसी जीवकलाका यान करते ह ।।२३।। वह जीवकला आ म व पणी है। जब
उसके तेजसे सारा अ तःकरण और शरीर भर जाय तब मान सक उपचार से मन-ही-मन
उसक पूजा करनी चा हये। तदन तर त मय होकर मेरा आवाहन करे और तमा आ दम
थापना करे। फर म के ारा अंग यास करके उसम मेरी पूजा करे ।।२४।। उ वजी! मेरे
आसनम धम आ द गुण और वमला आ द श य क भावना करे। अथात् आसनके चार
कोन म धम, ान, वैरा य और ऐ य प चार पाये ह; अधम, अ ान, अवैरा य और अनै य
—ये चार चार दशा म डंडे ह; स व-रज-तम- प तीन पट रय क बनी ई पीठ है;
असपर वमला, उ क षणी, ाना, या, योगा, , स या, ईशाना और अनु हा—ये नौ
श याँ वराजमान ह। उस आसनपर एक अ दल कमल है, उसक क णका अ य त
काशमान है और पीली-पीली केसर क छटा नराली ही है। आसनके स ब धम ऐसी
भावना करके पा , आचमनीय और अ य आ द उपचार तुत करे। तदन तर भोग और
मो क स के लये वै दक और ता क व धसे मेरी पूजा करे ।।२५-२६।।

कृत यासः कृत यासां मदचा पा णना मृजेत् ।


कलशं ो णीयं च यथाव पसाधयेत् ।।२०

तद दवयजनं ा या मानमेव च ।
ो य पा ा ण ी य तै तै ै साधयेत् ।।२१

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पा ा याचमनीयाथ ी ण पा ा ण दै शकः ।
दा शी णाथ शखया गाय या चा भम येत् ।।२२

प डे वा व नसंशु े प थां परां मम ।


अ व जीवकलां याये ादा ते स भा वताम् ।।२३

तयाऽऽ मभूतया प डे ा ते स पू य त मयः ।


आवा ाचा दषु था य य तांगं मां पूजयेत् ।।२४

पा ोप पशाहणाद नुपचारान् क पयेत् ।


धमा द भ नव भः क प य वाऽऽसनं मम ।। २५

प म दलं त क णकाकेसरो वलम् ।


उभा यां वेदत ा यां म ं तूभय स ये ।।२६

सुदशनं पा ज यं गदासीषुधनुहलान् ।
मुसलं कौ तुभं मालां ीव सं चानुपूजयेत् ।।२७

न दं सुन दं ग डं च डं च डमेव च ।
महाबलं बलं चैव कुमुदं कुमुदे णम् ।।२८

गा वनायकं ासं व व सेनं गु न् सुरान् ।


वे वे थाने व भमुखान् पूजयेत् ो णा द भः ।।२९

च दनोशीरकपूरकुंकुमागु वा सतैः ।
स ललैः नापये म ै न यदा वभवे स त ।।३०

वणघमानुवाकेन महापु ष व या ।
पौ षेणा प सू े न सामभी राजना द भः ।।३१

व ोपवीताभरणप स ग धलेपनैः ।
अलंकुव त स ेम म ो मां यथो चतम् ।।३२

पा माचमनीयं च ग धं सुमनसोऽ तान् ।


धूपद पोपहाया ण द ा मे याचकः ।।३३

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गुडपायससप ष श कु यापुपमोदकान् ।
संयावद धसूपां नैवे ं स त क पयेत् ।।३४

अ यंगो मदनादशद तधावा भषेचनम् ।


अ ा गीतनृ या द१ पव ण यु ता वहम् ।।३५
सुदशनच , पा चज य शंख, कौमोदक गदा, खड् ग, बाण, धनुष, हल, मूसल—इन
आठ आयुध क पूजा आठ दशा म करे और कौ तुभम ण, वैजय तीमाला तथा
ीव स च क व ः थलपर यथा थान पूजा करे ।।२७।। न द, सुन द, च ड, च ड,
महाबल, बल, कुमुद और कुमुदे ण—इन आठ पाषद क आठ दशा म; ग ड़क सामने;
गा, वनायक, ास और व वक्सेनक चार कोन म थापना करके पूजन करे। बाय ओर
गु क और यथा म पूवा द दशा म इ ा द आठ लोकपाल क थापना करके ो ण,
अ यदान आ द मसे उनक पूजा करनी चा हये ।।२८-२९।।
य उ व! य द साम य हो तो त दन च दन, खस, कपूर, केसर और अरगजा आ द
सुग धत व तु ारा सुवा सत जलसे मुझे नान कराये और उस समय ‘सुवण घम’
इ या द वणघमानुवाक ‘ जतं ते पु डरीका ’ इ या द महापु ष व ा, ‘सह शीषा
पु षः’ इ या द पु षसू और ‘इ ं नरो नेम धता हव त’ इ या द म ो राजना द साम-
गायनका पाठ भी करता रहे ।।३०-३१।। मेरा भ व , य ोपवीत, आभूषण, प , माला,
ग ध और च दना दसे ेमपूवक यथावत् मेरा शृंगार करे ।।३२।। उपासक ाके साथ मुझे
पा , आचमन, च दन, पु प, अ त, धूप, द प आ द साम याँ सम पत करे ।।३३।। य द हो
सके तो गुड़, खीर, घृत, पूड़ी, पूए, लड् डू , हलुआ, दही और दाल आ द व वध ंजन का
नैवे लगावे ।।३४।। भगवान्के व हको दतुअन कराये, उबटन लगाये, प चामृत आ दसे
नान कराये, सुग धत पदाथ का लेप करे, दपण दखाये, भोग लगाये और श हो तो
त दन अथवा पव के अवसरपर नाचने-गाने आ दका भी ब ध करे ।।३५।।

व धना व हते कु डे मेखलागतवे द भः ।


अ नमाधाय प रतः समूहेत् पा णनो दतम् ।।३६

प र तीयाथ पयु ेद वाधाय यथा व ध ।


ो याऽऽसा १ ा ण ो या नौ भावयेत माम् ।।३७

त तजा बूनद यं शंखच गदा बुजैः ।


लस चतुभुजं शा तं प कज कवाससम् ।।३८

फुर करीटकटकक टसू वरांगदम् ।


ीव सव सं ाज कौ तुभं वनमा लनम् ।।३९
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याय य य दा ण ह वषा भघृता न च ।
ा या यभागावाघारौ द वा चा य लुतं ह वः ।।४०

जु या मूलम ेण षोडशचावदानतः ।
धमा द यो यथा यायं म ैः व कृतं बुधः ।।४१

अ य याथ नम कृ य पाषदे यो ब ल हरेत् ।


मूलम ं जपेद ् मर ारायणा मकम् ।।४२
उ वजी! तदन तर पूजाके बाद श ो व धसे बने ए कु डम अ नक थापना करे।
वह कु ड मेखला, गत और वेद से शोभायमान हो। उसम हाथक हवासे अ न व लत
करके उसका प रसमूहन करे, अथात् उसे एक कर दे ।।३६।। वेद के चार ओर
कुशक डका करके अथात् चार ओर बीस-बीस कुश बछाकर म पढ़ता आ उनपर जल
छड़के। इसके बाद व धपूवक स मधा का आधान प अ वाधान कम करके अ नके
उ र भागम होमोपयोगी साम ी रखे और ो णीपा के जलसे ो ण करे। तदन तर
अ नम मेरा इस कार यान करे ।।३७।। ‘मेरी मू त तपाये ए सोनेके समान दम-दम दमक
रही है। रोम-रोमसे शा तक वषा हो रही है। लंबी और वशाल चार भुजाएँ शोभायमान ह।
उनम शंख, च , गदा, प वराजमान ह। कमलक केसरके समान पीला-पीला व फहरा
रहा है ।।३८।। सरपर मुकुट, कलाइय म कंगन, कमरम करधनी और बाँह म बाजूबंद
झल मला रहे ह। व ः थलपर ीव सका च है। गलेम कौ तुभम ण जगमगा रही है।
घुटन तक वनमाला लटक रही है’ ।।३९।। अ नम मेरी इस मू तका यान करके पूजा करनी
चा हये। इसके बाद सूखी स मधा को घृतम डु बोकर आ त दे और आ यभाग और
आघार नामक दो-दो आ तय से और भी हवन करे। तदन तर घीसे भगोकर अ य हवन-
साम य से आ त दे ।।४०।। इसके बाद अपने इ म से अथवा ‘ॐ नमो नारायणाय’
इस अ ा र म से तथा पु षसू के सोलह म से हवन करे। बु मान् पु षको चा हये
क धमा द दे वता के लये भी व धपूवक म से हवन करे और व कृत् आ त भी
दे ।।४१।।
इस कार अ नम अ तयामी पसे थत भगवान्क पूजा करके उ ह नम कार करे
और न द-सुन द आ द पाषद को आठ दशा म हवनकमाग ब ल दे । तदन तर तमाके
स मुख बैठकर पर व प भगवान् नारायणका मरण करे और भगव व प मूलम
‘ॐ नमो नारायणाय’ का जप करे ।।४२।। इसके बाद भगवान्को आचमन करावे और
उनका साद व व सेनको नवेदन करे। इसके प ात् अपने इ दे वक सेवाम सुग धत
ता बूल आ द मुखवास उप थत करे तथा पु पा ल सम पत करे ।।४३।। मेरी लीला को
गावे, उनका वणन करे और मेरी ही लीला का अ भनय करे। यह सब करते समय ेमो म
होकर नाचने लगे। मेरी लीला-कथाएँ वयं सुने और सर को सुनावे। कुछ समयतक संसार
और उसके रगड़ -झगड़ को भूलकर मुझम ही त मय हो जाय ।।४४।। ाचीन ऋ षय के
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ारा अथवा ाकृत भ के ारा बनाये ए छोटे -बड़े तव और तो से मेरी तु त करके
ाथना करे—‘भगवन्! आप मुझपर स ह । मुझे अपने कृपा सादसे सराबोर कर द।’
तदन तर द डवत् णाम करे ।।४५।। अपना सर मेरे चरण पर रख दे और अपने दोन
हाथ से—दायसे दा हना और बायसे बायाँ चरण पकड़कर कहे—‘भगवन्! इस संसार-
सागरम म डू ब रहा ँ। मृ यु प मगर मेरा पीछा कर रहा है। म डरकर आपक शरणम आया
ँ। भो! आप मेरी र ा क जये’ ।।४६।। इस कार तु त करके मुझे सम पत क ई माला
आदरके साथ अपने सरपर रखे और उसे मेरा दया आ साद समझे। य द वसजन करना
हो तो ऐसी भावना करनी चा हये क तमामसे एक द यो त नकली है और वह मेरी
दय थ यो तम लीन हो गयी है। बस, यही वसजन है ।।४७।। उ वजी! तमा आ दम
जब जहाँ ा हो तब, तहाँ मेरी पूजा करनी चा हये, य क म सवा मा ँ और सम त
ा णय म तथा अपने दयम भी थत ँ ।।४८।।

द वाऽऽचमनमु छे षं व व सेनाय क पयेत् ।


मुखवासं सुर भमत् ता बूला मथाहयेत् ।।४३

उपगायन् गृणन् नृ यन् कमा य भनयन् मम ।


म कथाः ावय छृ वन् मु त णको भवेत् ।।४४

तवै चावचैः तो ःै पौराणैः ाकृतैर प ।


तु वा सीद भगव त व दे त द डवत् ।।४५

शरो म पादयोः कृ वा बा यां च पर परम् ।


प ं पा ह मामीश भीतं मृ यु हाणवात् ।।४६

इ त शेषां मया द ां शर याधाय सादरम् ।


उ ासये चे ा यं यो त य त ष तत् पुनः ।।४७

अचा दषु यदा य ा मां त चाचयेत् ।


सवभूते वा म न च सवा माहमव थतः ।।४८

एवं यायोगपथैः पुमान् वै दकता कैः ।


अच ुभयतः स म ो व द यभी सताम् ।।४९

मदचा स त ा य म दरं कारयेद ् ढम् ।


पु पो ाना न र या ण पूजाया ो सवा तान् ।।५०

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उ वजी! जो मनु य इस कार वै दक, ता क यायोगके ारा मेरी पूजा करता है
वह इस लोक और परलोकम मुझसे अभी स ा त करता है ।।४९।। य द श हो तो
उपासक सु दर और सु ढ़ म दर बनवाये और उसम मेरी तमा था पत करे। सु दर-सु दर
फूल के बगीचे लगवा दे ; न यक पूजा, पवक या ा और बड़े-बड़े उ सव क व था कर
दे ।।५०।। जो मनु य पव के उ सव और त दनक पूजा लगातार चलनेके लये खेत,
बाजार, नगर अथवा गाँव मेरे नामपर सम पत कर दे ते ह, उ ह मेरे समान ऐ यक ा त
होती है ।।५१।। मेरी मू तक त ा करनेसे पृ वीका एक छ रा य, म दर- नमाणसे
लोक का रा य, पूजा आ दक व था करनेसे लोक और तीन के ारा मेरी समानता
ा त होती है ।।५२।। जो न काम-भावसे मेरी पूजा करता है, उसे मेरा भ योग ा त हो
जाता है और उस नरपे भ योगके ारा वह वयं मुझे ा त कर लेता है ।।५३।। जो
अपनी द ई या सर क द ई दे वता और ा णक जी वका हरण कर लेता है, वह
करोड़ वष तक व ाका क ड़ा होता है ।।५४।। जो लोग ऐसे काम म सहायता, ेरणा
अथवा अनुमोदन करते ह, वे भी मरनेके बाद ा त करनेवालेके समान ही फलके भागीदार
होते ह। य द उनका हाथ अ धक रहा तो फल भी उ ह अ धक ही मलता है ।।५५।।

पूजाद नां वाहाथ महापव वथा वहम् ।


े ापणपुर ामान् द वा म सा ता मयात् ।।५१

त या सावभौमं स ना भुवन यम् ।


पूजा दना लोकं भम सा यता मयात् ।।५२

मामेव नैरपे येण भ योगेन१ व द त ।


भ योगं स लभते एवं यः पूजयेत माम् ।।५३

यः वद ां परैद ां हरेत सुर व योः ।


वृ स जायते वड् भुग् वषाणामयुतायुतम् ।।५४

कतु सारथेहतोरनुमो दतुरेव च ।


कमणां भा गनः े य भूयो भूय स तत् फलम् ।।५५
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायामेकादश क धे स त वशोऽ यायः ।।२७।।

१. अ ा द गीतनृ या द म पव ण यथाहतः।
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१. ो या रा य ा ण ो या नावावहेत माम्।
१. यायोगेन।

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अथा ा वशोऽ यायः
परमाथ न पण
ीभगवानुवाच

पर वभावकमा ण न शंसे गहयेत् ।


व मेका मकं प यन् कृ या पु षेण च ।।१

पर वभावकमा ण यः शंस त न द त ।
स आशु यते वाथादस य भ नवेशतः ।।२
भगवान् ीकृ ण कहते ह—उ वजी! य प वहारम पु ष और कृ त— ा और
यके भेदसे दो कारका जगत् जान पड़ता है, तथा प परमाथ- से दे खनेपर यह सब
एक अ ध ान- व प ही है; इस लये कसीके शा त, घोर और मूढ़ वभाव तथा उनके
अनुसार कम क न तु त करनी चा हये और न न दा। सवदा अ ै त- रखनी
चा हये ।।१।। जो पु ष सर के वभाव और उनके कम क शंसा अथवा न दा करते ह, वे
शी ही अपने यथाथ परमाथ-साधनसे युत हो जाते ह; य क साधन तो ै तके
अ भ नवेशका—उसके त स य व-बु का नषेध करता है और शंसा तथा न दा उसक
स यताके मको और भी ढ़ करती ह ।।२।। उ वजी! सभी इ याँ राजस अहंकारके
काय ह। जब वे न त हो जाती ह तब शरीरका अ भमानी जीव चेतनाशू य हो जाता है;
अथात् उसे बाहरी शरीरक मृ त नह रहती। उस समय य द मन बच रहा, तब तो वह
सपनेके झूठे य म भटकने लगता है और वह भी लीन हो गया, तब तो जीव मृ युके समान
गाढ़ न ा—सुषु तम लीन हो जाता है। वैसे ही जब जीव अपने अ तीय आ म व पको
भूलकर नाना व तु का दशन करने लगता है तब वह व के समान झूठे य म फँस जाता
है; अथवा मृ युके समान अ ानम लीन हो जाता है ।।३।। उ वजी! जब ै त नामक कोई
व तु ही नह है, तब उसम अमुक व तु भली है और अमुक बुरी, अथवा इतनी भली और
इतनी बुरी है—यह ही नह उठ सकता। व क सभी व तुएँ वाणीसे कही जा सकती ह
अथवा मनसे सोची जा सकती ह; इस लये य एवं अ न य होनेके कारण उनका म या व
तो प ही है ।।४।। परछा , त व न और सीपी आ दम चाँद आ दके आभास य प ह
तो सवथा म या, पर तु उनके ारा मनु यके दयम भय-क प आ दका संचार हो जाता है।
वैसे ही दे हा द सभी व तुएँ ह तो सवथा म या ही, पर तु जबतक ानके ारा इनक
अस यताका बोध नह हो जाता, इनक आ य तक नवृ नह हो जाती, तबतक ये भी
अ ा नय को भयभीत करती रहती ह ।।५।। उ वजी! जो कुछ य या परो व तु है,
वह आ मा ही है। वही सवश मान् भी है। जो कुछ व -सृ तीत हो रही है, इसका वह
न म -कारण तो है ही, उपादान-कारण भी है। अथात् वही व बनता है और वही बनाता

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भी है, वही र क है और र त भी वही है। सवा मा भगवान् ही इसका संहार करते ह और
जसका संहार होता है, वह भी वे ही ह ।।६।। अव य ही वहार से दे खनेपर आ मा इस
व से भ है; पर तु आ म से उसके अ त र और कोई व तु ही नह है। उसके
अ त र जो कुछ तीत हो रहा है, उसका कसी भी कार नवचन नह कया जा सकता
और अ नवचनीय तो केवल आ म व प ही है; इस लये आ माम सृ - थ त-संहार अथवा
अ या म, अ धदै व और अ धभूत—ये तीन-तीन कारक ती तयाँ सवथा नमूल ही ह। न
होनेपर भी य ही तीत हो रही ह। यह स व, रज और तमके कारण तीत होनेवाली ा-
दशन- य आ दक वधता मायाका खेल है ।।७।। उ वजी! तुमसे मने ान और
व ानक उ म थ तका वणन कया है। जो पु ष मेरे इन वचन का रह य जान लेता है वह
न तो कसीक शंसा करता है और न न दा। वह जगत्म सूयके समान समभावसे वचरता
रहता है ।।८।। य , अनुमान, शा और आ मानुभू त आ द सभी माण से यह स है
क यह जगत् उ प - वनाशशील होनेके कारण अ न य एवं अस य है। यह बात जानकर
जगत्म असंगभावसे वचरना चा हये ।।९।।

तैजसे न याऽऽप े प ड थो न चेतनः ।


मायां ा ो त मृ युं वा त ानाथ क् पुमान् ।।३

क भ ं कमभ ं वा ै त याव तुनः कयत् ।


वाचो दतं तदनृतं मनसा यातमेव च ।।४

छाया या याभासा स तोऽ यथका रणः ।


एवं दे हादयो भावा य छ यामृ युतो भयम् ।।५

आ मैव त ददं व ं सृ यते सृज त भुः ।


ायते ा त व ा मा यते हरती रः ।।६

त मा ा मनोऽ य माद यो भावो न पतः ।


न पतेयं वधा नमूला भा तरा म न ।
इदं गुणमयं व वधं मायया कृतम् ।। ७

एतद् व ान् म दतं ान व ाननैपुणम् ।


न न द त न च तौ त लोके चर त सूयवत् ।।८

य ेणानुमानेन नगमेना मसं वदा ।


आ तवदस ा वा नःसंगो वचरे दह ।।९

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उ व उवाच

नैवा मनो न दे ह य संसृ त ृ ययोः ।


अना म व शोरीश क य या पल यते ।।१०

आ मा योऽगुणः शु ः वयं यो तरनावृतः ।


अ नव ा वद च े हः क येह संसृ तः ।।११
ीभगवानुवाच
यावद् दे हे य ाणैरा मनः स कषणम् ।
संसारः फलवां तावदपाथ ऽ य ववे कनः ।।१२

अथ व मानेऽ प संसृ तन नवतते ।


यायतो वषयान य व ेऽनथागमो यथा ।।१३
उ वजीने पूछा—भगवन्! आ मा है ा और दे ह है य। आ मा वयं काश है और
दे ह है जड। ऐसी थ तम ज म-मृ यु प संसार न शरीरको हो सकता है और न आ माको।
पर तु इसका होना भी उपल ध होता है। तब यह होता कसे है? ।।१०।। आ मा तो
अ वनाशी, ाकृत-अ ाकृत गुण से र हत, शु , वयं काश और सभी कारके आवरण से
र हत है; तथा शरीर वनाशी, सगुण, अशु , का य और आवृत है। आ मा अ नके समान
काशमान है तो शरीर काठक तरह अचेतन। फर यह ज म-मृ यु प संसार है
कसे? ।।११।।
भगवान् ीकृ णने कहा—व तुतः य उ व! संसारका अ त व नह है तथा प
जबतक दे ह, इ य और ाण के साथ आ माक स ब ध- ा त है तबतक अ ववेक
पु षको वह स य-सा फु रत होता है ।।१२।। जैसे व म अनेक वप याँ आती ह पर
वा तवम वे ह नह , फर भी व टू टनेतक उनका अ त व नह मटता, वैसे ही संसारके न
होनेपर भी जो उसम तीत होनेवाले वषय का च तन करते रहते ह, उनके ज म-मृ यु प
संसारक नवृ नह होती ।।१३।। जब मनु य व दे खता रहता है, तब न द टू टनेके पहले
उसे बड़ी-बड़ी वप य का सामना करना पड़ता है; पर तु जब उसक न द टू ट जाती है, वह
जग पड़ता है, तब न तो व क वप याँ रहती ह और न उनके कारण होनेवाले मोह आ द
वकार ।।१४।। उ वजी! अहंकार ही शोक, हष, भय, ोध, लोभ, मोह, पृहा और ज म-
मृ युका शकार बनता है। आ मासे तो इनका कोई स ब ध ही नह है ।।१५।। उ वजी! दे ह,
इ य, ाण और मनम थत आ मा ही जब उनका अ भमान कर बैठता है—उ ह अपना
व प मान लेता है—तब उसका नाम ‘जीव’ हो जाता है। उस सू मा तसू म आ माक मू त
है—गुण और कम का बना आ लगशरीर। उसे ही कह सू ा मा कहा जाता है और कह
मह व। उसके और भी ब त-से नाम ह। वही काल प परमे रके अधीन होकर ज म-

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मृ यु प संसारम इधर-उधर भटकता रहता है ।।१६।। वा तवम मन, वाणी, ाण और शरीर
अहंकारके ही काय ह। यह है तो नमूल, पर तु दे वता, मनु य आ द अनेक प म इसीक
ती त होती है। मननशील पु ष उपासनाक शानपर चढ़ाकर ानक तलवारको अ य त
तीखी बना लेता है और उसके ारा दे हा भमानका—अहंकारका मूलो छे द करके पृ वीम
न होकर वचरता है। फर उसम कसी कारक आशा-तृ णा नह रहती ।।१७।।
आ मा और अना माके व पको पृथक्-पृथक् भलीभाँ त समझ लेना ही ान है, य क
ववेक होते ही ै तका अ त व मट जाता है। उसका साधन है तप याके ारा दयको शु
करके वेदा द शा का वण करना। इनके अ त र वणानुकूल यु याँ, महापु ष के
उपदे श और इन दोन से अ व वानुभू त भी माण ह। सबका सार यही नकलता है क
इस संसारके आ दम जो था तथा अ तम जो रहेगा, जो इसका मूल कारण और काशक है,
वही अ तीय, उपा धशू य परमा मा बीचम भी है। उसके अ त र और कोई व तु नह
है ।।१८।।
यथा तबु य वापो ब नथभूत् ।
स एव तबु य न वै मोहाय क पते ।।१४

शोकहषभय ोधलोभमोह पृहादयः ।


अहंकार य य ते ज म मृ यु ना मनः ।।१५

दे हे य ाणमनोऽ भमानो
जीवोऽ तरा मा गुणकममू तः ।
सू ं महा न यु धेव गीतः
संसार आधाव त कालत ः ।।१६

अमूलमेतद् ब प पतं
मनोवचः ाणशरीरकम ।
ाना सनोपासनया शतेन-
छ वा मु नगा वचर यतृ णः ।।१७

ानं ववेको नगम तप


य मै त मथानुमानम् ।
आ तयोर य यदे व केवलं
काल हेतु तदे व म ये ।।१८

यथा हर यं वकृतं पुर तात्


प ा च सव य हर मय य ।

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तदे व म ये वहायमाणं
नानापदे शैरहम य त त् ।।१९

व ानमेत यव थमंग
गुण यं कारणकायकतृ ।
सम वयेन तरेकत
येनैव तुयण तदे व स यम् ।।२०

न यत् पुर ता त य प ा-
म ये च त पदे शमा म् ।
भूतं स ं च परेण यद् यत्
तदे व तत् या द त मे मनीषा ।।२१

अ व मानोऽ यवभासते यो
वैका रको राजससग एषः ।
वयं यो तरतो वभा त
े याथा म वकार च म् ।।२२

एवं फुटं ववेकहेतु भः


परापवादे न वशारदे न ।
छ वाऽऽ मस दे हमुपारमेत
वान दतु ोऽ खलकामुके यः ।।२३
उ वजी! सोनेसे कंगन, कु डल आ द ब त-से आभूषण बनते ह; पर तु जब वे गहने
नह बने थे, तब भी सोना था और जब नह रहगे, तब भी सोना रहेगा। इस लये जब बीचम
उसके कंगन-कु डल आ द अनेक नाम रखकर वहार करते ह, तब भी वह सोना ही है।
ठ क ऐसे ही जगत्का आ द, अ त और म य म ही ँ। वा तवम म ही स य त व ँ ।।१९।।
भाई उ व! मनक तीन अव थाएँ होती ह—जा त्, व और सुषु त; इन अव था के
कारण तीन ही गुण ह स व, रज और तम, और जगत्के तीन भेद ह—अ या म (इ याँ),
अ धभूत (पृ थ ा द) और अ धदै व (कता)। ये सभी वधताएँ जसक स ासे स यके
समान तीत होती ह और समा ध आ दम यह वधता न रहनेपर भी जसक स ा बनी
रहती है, वह तुरीयत व—इन तीन से परे और इनम अनुगत चौथा त व ही स य
है ।।२०।। जो उ प से पहले नह था और लयके प ात् भी नह रहेगा, ऐसा समझना
चा हये क बीचम भी वह है नह —केवल क पनामा , नाममा ही है। यह न त स य है
क जो पदाथ जससे बनता है और जसके ारा का शत होता है, वही उसका वा त वक
व प है, वही उसक परमाथ-स ा है—यह मेरा ढ़ न य है ।।२१।। यह जो वकारमयी

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राजस सृ है, यह न होनेपर भी द ख रही है। यह वयं काश ही है। इस लये इ य,
वषय, मन और प चभूता द जतने च - व च नाम प ह उनके पम ही तीत हो
रहा है ।।२२।। वचारके साधन ह— वण, मनन, न द यासन और वानुभू त। उनम
सहायक ह—आ म ानी गु दे व! इनके ारा वचार करके प पसे दे हा द अना म
पदाथ का नषेध कर दे ना चा हये। इस कार नषेधके ारा आ म वषयक स दे ह को छ -
भ करके अपने आन द व प आ माम ही म न हो जाय और सब कारक
वषयवासना से र हत हो जाय ।।२३।। नषेध करनेक या यह है क पृ वीका वकार
होनेके कारण शरीर आ मा नह है। इ य, उनके अ ध ातृ-दे वता, ाण, वायु, जल, अ न
एवं मन भी आ मा नह ह; य क इनका धारण-पोषण शरीरके समान ही अ के ारा होता
है। बु , च , अहंकार, आकाश, पृ वी, श दा द वषय और गुण क सा याव था कृ त
भी आ मा नह ह; य क ये सब-के-सब य एवं जड ह ।।२४।।

ना मा वपुः पा थव म या ण
दे वा सुवायुजलं ताशः ।
मनोऽ मा ं धषणा च स व-
महंकृ तः खं तरथसा यम् ।।२४

समा हतैः कः करणैगुणा म भ-


गुणो भवे म सु व व धा नः ।
व यमाणै त क नु षणं
घनै पेतै वगतै रवेः कम् ।।२५

यथा नभो वा वनला बुभूगुण-ै


गतागतैवतुगुणैन स जते ।
तथा रं स वरज तमोमलै-
रहंमतेः संसृ तहेतु भः परम् ।।२६

तथा प संगः प रवजनीयो


गुणेषु मायार चतेषु तावत् ।
म योगेन ढे न यावद्
रजो नर येत मनःकषायः ।।२७

यथाऽऽमयोऽसाधु च क सतो नृणां


पुनः पुनः संतुद त रोहन् ।
एवं मनोऽप वकषायकम

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कुयो गनं व य त सवसंगम् ।।२८
उ वजी! जसे मेरे व पका भलीभाँ त ान हो गया है, उसक वृ याँ और इ याँ
य द समा हत रहती ह तो उसे उनसे लाभ या है? और य द वे व त रहती ह तो उनसे
हा न भी या है? य क अ तःकरण और बा करण—सभी गुणमय ह और आ मासे
इनका कोई स ब ध नह है। भला, आकाशम बादल के छा जाने अथवा ततर- बतर हो
जानेसे सूयका या बनता- बगड़ता है? ।।२५।। जैसे वायु आकाशको सुखा नह सकती,
आग जला नह सकती, जल भगो नह सकता, धूल-धुएँ मटमैला नह कर सकते और
ऋतु के गुण गरमी-सद आ द उसे भा वत नह कर सकते— य क ये सब आने-
जानेवाले णक भाव ह और आकाश इन सबका एकरस अ ध ान है—वैसे ही स वगुण,
रजोगुण और तमोगुणक वृ याँ तथा कम अ वनाशी आ माका पश नह कर पाते; वह तो
इनसे सवथा परे है। इनके ारा तो केवल वही संसारम भटकता है जो इनम अहंकार कर
बैठता है ।।२६।। उ वजी! ऐसा हेनेपर भी तबतक इन माया न मत गुण और उनके
काय का संग सवथा याग दे ना चा हये, जबतक मेरे सु ढ़ भ योगके ारा मनका
रजोगुण प मल एकदम नकल न जाय ।।२७।।
उ वजी! जैसे भलीभाँ त च क सा न करनेपर रोगका समूल नाश नह होता, वह बार-
बार उभरकर मनु यको सताया करता है; वैसे ही जस मनक वासनाएँ और कम के सं कार
मट नह गये ह, जो ी-पु आ दम आस है, वह बार-बार अधूरे योगीको बेधता रहता है
और उसे कई बार योग भी कर दे ता है ।।२८।। दे वता के ारा े रत श य-पु आ दके
ारा कये ए व न से य द कदा चत् अधूरा योगी माग युत हो जाय तो भी वह अपने
पुवा यासके कारण पुनः योगा यासम ही लग जाता है। कम आ दम उसक वृ नह
होती ।।२९।। उ वजी! जीव सं कार आ दसे े रत होकर ज मसे लेकर मृ युपय त कमम
ही लगा रहता है और उनम इ -अ न -बु करके हष- वषाद आ द वकार को ा त होता
रहता है। पर तु जो त वका सा ा कार कर लेता है, वह कृ तम थत रहनेपर भी
सं कारानुसार कम होते रहनेपर भी उनम इ -अ न -बु करके हष- वषाद आ द वकार से
यु नह होता; य क आन द व प आ माके सा ा कारसे उसक संसारस ब धी सभी
आशा-तृ णाएँ पहले ही न हो चुक होती ह ।।३०।।
कुयो गनो ये व हता तरायै-
मनु यभूतै दशोपसृ ैः ।
ते ा ना यासबलेन भूयो
यु त योगं न तु कमत म् ।।२९

करो त कम यते च ज तुः


केना यसौ चो दत आ नपातात् ।
नत व ान् कृतौ थतोऽ प
नवृ तृ णः वसुखानुभू या ।।३०
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त तमासीनमुत ज तं
शयानमु तमद तम म् ।
वभावम यत् कमपीहमान-
मा मानमा म थम तन वेद ।।३१

य द म प य यस द याथ
नानानुमानेन व म यत् ।
न म यते व तुतया मनीषी
वा ं यथो थाय तरोदधानम् ।।३२

पूव गृहीतं गुणकम च -


म ानमा म य व व मंग ।
नवतते तत् पुनरी यैव
न गृ ते ना प वसृ य आ मा ।।३३
जो अपने व पम थत हो गया है, उसे इस बातका भी पता नह रहता क शरीर खड़ा
है या बैठा, चल रहा है या सो रहा है, मल-मू याग रहा है, भोजन कर रहा है अथवा और
कोई वाभा वक कम कर रहा है; य क उसक वृ तो आ म व पम थत— ाकार
रहती है ।।३१।। य द ानी पु षक म इ य के व वध बा वषय, जो क असत् ह,
आते भी ह तो वह उ ह अपने आ मासे भ नह मानता, य क वे यु य , माण और
वानुभू तसे स नह होते। जैसे न द टू ट जानेपर व म दे खे ए और जागनेपर तरो हत
ए पदाथ को कोई स य नह मानता, वैसे ही ानी पु ष भी अपनेसे भ तीयमान
पदाथ को स य नह मानते ।।३२।। उ वजी! (इसका यह अथ नह है क अ ानीने
आ माका याग कर दया है और ानी उसको हण करता है। इसका ता पय केवल इतना
ही है क) अनेक कारके गुण और कम से यु दे ह, इ य आ द पदाथ पहले अ ानके
कारण आ मासे अ भ मान लये गये थे, उनका ववेक नह था। अब आ म होनेपर
अ ान और उसके काय क नवृ हो जाती है। इस लये अ ानक नवृ ही अभी है।
वृ य के ारा न तो आ माका हण हो सकता है और न याग ।।३३।। जैसे सूय उदय
होकर मनु य के ने के सामनेसे अ धकारका परदा हटा दे ते ह, कसी नयी व तुका नमाण
नह करते, वैसे ही मेरे व पका ढ़ अपरो ान पु षके बु गत अ ानका आवरण न
कर दे ता है। वह इदं पसे कसी व तुका अनुभव नह कराता ।।३४।। उ वजी! आ मा
न य अपरो है, उसक ा त नह करनी पड़ती। वह वयं काश है। उसम अ ान आ द
कसी कारके वकार नह ह। वह ज मर हत है अथात् कभी कसी कार भी वृ म
आ ढ़ नह होता। इस लये अ मेय है। ान आ दके ारा उसका सं कार भी नह कया जा
सकता। आ माम दे श, काल और व तुकृत प र छे द न होनेके कारण अ त व, वृ ,
प रवतन, ास और वनाश उसका पश भी नह कर सकते। सबक और सब कारक
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अनुभु तयाँ आ म व प ही ह। जब मन और वाणी आ माको अपना अ वषय समझकर
नवृ हो जाते ह, तब वही सजातीय, वजातीय और वगत भेदसे शू य एक अ तीय रह
जाता है। वहार से उसके व पका वाणी और ाण आ दके वतकके पम न पण
कया जाता है ।।३५।।

यथा ह भानो दयो नृच ुषां


तमो नह या तु सद् वध े ।
एवं समी ा नपुणा सती मे
ह या म ं पु ष य बु े ः ।।३४

एष वयं यो तरजोऽ मेयो


महानुभू तः सकलानुभू तः ।
एकोऽ तीयो वचसां वरामे
येने षता वागसव र त ।।३५

एतावाना मसंमोहो यद् वक प तु केवले ।


आ म ृते वमा मानमवल बो न य य ह ।।३६

य ामाकृ त भ ा ं पंचवणमबा धतम् ।


थना यथवादोऽयं यं प डतमा ननाम् ।।३७

यो गनोऽप वयोग य युंजतः काय उ थतैः ।


उपसग वह येत त ायं व हतो व धः ।।३८
उ वजी! अ तीय आ मत वम अथहीन नाम के ारा व वधता मान लेना ही मनका
म है, अ ान है। सचमुच यह ब त बड़ा मोह है, य क अपने आ माके अ त र उस
मका भी और कोई अ ध ान नह है। अ ध ान-स ाम अ य तक स ा है ही नह ।
इस लये सब कुछ आ मा ही है ।।३६।। ब त-से प डता भमानी लोग ऐसा कहते ह क यह
पा चभौ तक ै त व भ नाम और प के पम इ य के ारा हण कया जाता है,
इस लये स य है। पर तु यह तो अथहीन वाणीका आड बरमा है; य क त वतः तो
इ य क पृथक् स ा ही स नह होती, फर वे कसीको मा णत कैसे करगी? ।।३७।।
उ वजी! य द योगसाधना पूण होनेके पहले ही कसी साधकका शरीर रोगा द उप व से
पी ड़त हो, तो उसे इन उपाय का आ य लेना चा हये ।।३८।। गरमी-ठं डक आ दको च मा-
सूय आ दक धारणाके ारा, वात आ द रोग को वायुधारणायु आसन के ारा और ह-
सपा दकृत व न को तप या, म एवं ओष धके ारा न कर डालना चा हये ।।३९।।
काम- ोध आ द व न को मेरे च तन और नाम-संक तन आ दके ारा न करना चा हये।
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तथा पतनक ओर ले जानेवाले द भ-मद आ द व न को धीरे-धीरे महापु ष क सेवाके ारा
र कर दे ना चा हये ।।४०।। कोई-कोई मन वी योगी व वध उपाय के ारा इस शरीरको
सु ढ़ और युवाव थाम थर करके फर अ णमा आ द स य के लये योगसाधन करते ह,
पर तु बु मान् पु ष ऐसे वचारका समथन नह करते, य क यह तो एक थ यास है।
वृ म लगे ए फलके समान इस शरीरका नाश तो अव य भावी है ।।४१-४२।। य द
कदा चत् ब त दन तक नर तर और आदरपूवक योगसाधना करते रहनेपर शरीर सु ढ़ भी
हो जाय, तब भी बु मान् पु षको अपनी साधना छोड़कर उतनेम ही स तोष नह कर लेना
चा हये। उसे तो सवदा मेरी ा तके लये ही संल न रहना चा हये ।।४३।। जो साधक मेरा
आ य लेकर मेरे ारा कही ई योगसाधनाम संल न रहता है, उसे कोई भी व न-बाधा डगा
नह सकती। उसक सारी कामनाएँ न हो जाती ह और वह आ मान दक अनुभू तम म न
हो जाता है ।।४४।।

योगधारणया कां दासनैधारणा वतैः ।


तपोम ौषधैः कां पसगान् व नदहेत् ।।३९

कां ममानु यानेन नामसंक तना द भः ।


योगे रानुवृ या वा ह यादशुभदा छनैः ।।४०

के चद् दे ह ममं धीराः सुक पं वय स थरम् ।


वधाय व वधोपायैरथ युंज त स ये ।।४१

न ह तत् कुशला यं तदायासो पाथकः ।


अ तव वा छरीर य फल येव वन पतेः ।।४२

योगं नषेवतो न यं काय ेत् क पता मयात् ।


त या म तमान् योगमु सृ य म परः ।।४३

योगचया ममां योगी वचरन् मदपा यः ।


ना तरायै वह येत नः पृहः वसुखानुभूः ।।४४
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायामेकादश क धेऽ ा वशोऽ यायः ।।२८।।

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अथैकोन शोऽ यायः
भागवतधम का न पण और उ वजीका बद रका मगमन
उ व उवाच
सु रा ममां म ये योगचयामना मनः ।

यथांजसा पुमान् स येत् त मे ू ंजसा युत ।।१


उ वजीने कहा—अ युत! जो अपना मन वशम नह कर सका है, उसके लये आपक
बतलायी ई इस योगसाधनाको तो म ब त ही क ठन समझता ।ँ अतः अब आप कोई ऐसा
सरल और सुगम साधन बतलाइये, जससे मनु य अनायास ही परमपद ा त कर
सके ।।१।। कमलनयन! आप जानते ही ह क अ धकांश योगी जब अपने मनको एका
करने लगते ह, तब वे बार-बार चे ा करनेपर भी सफल न होनेके कारण हार मान लेते ह और
उसे वशम न कर पानेके कारण ःखी हो जाते ह ।।२।। प लोचन! आप व े र ह! आपके
ही ारा सारे संसारका नयमन होता है। इसीसे सारासार- वचारम चतुर मनु य आपके
आन दवष चरणकमल क शरण लेते ह और अनायास ही स ा त कर लेते ह। आपक
माया उनका कुछ नह बगाड़ सकती; य क उ ह योगसाधन और कमानु ानका अ भमान
नह होता। पर तु जो आपके चरण का आ य नह लेते, वे योगी और कम अपने साधनके
घमंडसे फूल जाते ह; अव य ही आपक मायाने उनक म त हर ली है ।।३।। भो! आप
सबके हतैषी सु द् ह। आप अपने अन य शरणागत ब ल आ द सेवक के अधीन हो जायँ,
यह आपके लये कोई आ यक बात नह है; य क आपने रामावतार हण करके ेमवश
वानर से भी म ताका नवाह कया। य प ा आ द लोके रगण भी अपने द
करीट को आपके चरणकमल रखनेक चौक पर रगड़ते रहते ह ।।४।। भो! आप सबके
यतम, वामी और आ मा ह। आप अपने अन य शरणागत को सब कुछ दे दे ते ह। आपने
ब ल- ाद आ द अपने भ को जो कुछ दया है, उसे जानकर ऐसा कौन पु ष होगा जो
आपको छोड़ दे गा? यह बात कसी कार बु म ही नह आती क भला, कोई वचारवान्
व मृ तके गतम डालनेवाले तु छ वषय म ही फँसा रखनेवाले भोग को य चाहेगा?
हमलोग आपके चरणकमल क रजके उपासक ह। हमारे लये लभ ही या है? ।।५।।
भगवन्! आप सम त ा णय के अ तःकरणम अ तयामी पसे और बाहर गु पसे थत
होकर उनके सारे पाप-ताप मटा दे ते ह और अपने वा त वक व पको उनके त कट
कर दे ते ह। बड़े-बड़े ानी ाजीके समान लंबी आयु पाकर भी आपके उपकार का
बदला नह चुका सकते। इसीसे वे आपके उपकार का मरण करके ण- ण अ धका धक
आन दका अनुभव करते रहते ह ।।६।।

ायशः पु डरीका युंज तो यो गनो मनः ।

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वषीद यसमाधाना मनो न हक शताः ।।२

अथात आन द घं पदा बुजं


हंसाः येर र व दलोचन ।
सुखं नु व े र योगकम भ-
व माययामी वहता न मा ननः ।।३

क च म युत तवैतदशेषब धो
दासे वन यशरणेषु यदा मसा वम् ।
योऽरोचयत् सह मृगैः वयमी राणां
ीम करीटतटपी डतपादपीठः ।।४

तं वा खला मद यते रमा तानां


सवाथदं वकृत वद् वसृजेत को नु ।
को वा भजेत् कम प व मृतयेऽनु भू यै
क वा भवे तव पादरजोजुषां नः ।।५

नैवोपय यप च त कवय तवेश


ायुषा प कृतमृ मुदः मर तः ।
योऽ तब ह तनुभृतामशुभं वधु व-
ाचायचै यवपुषा वग त न ।।६
ीशुक उवाच

इ यु वेना यनुर चेतसा


पृ ो जग डनकः वश भः ।
गृहीतमू त य ई रे रो
जगाद स ेममनोहर मतः ।।७
ीभगवानुवाच

ह त ते कथ य या म मम धमान् सुमंगलान् ।
या याऽऽचरन् म य मृ युं जय त जयम् ।।८

कुयात् सवा ण कमा ण मदथ शनकैः मरन् ।


म य पतमन ो म मा ममनोर तः ।।९

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दे शान् पु याना येत म ै ः साधु भः तान् ।
दे वासुरमनु येषु म ाच रता न च ।।१०

पृथक् स ेण वा म ं पवया ामहो सवान् ।


कारयेद ् ग तनृ या ैमहाराज वभू त भः ।।११

मामेव सवभूतेषु ब हर तरपावृतम् ।


ई ेता म न चा मानं यथा खममलाशयः ।।१२

इ त सवा ण भूता न म ावेन महा ुते ।


सभाजयन् म यमानो ानं केवलमा तः ।।१३

ा णे पु कसे तेने येऽक फु लगके ।


अ ू रे ू रके चैव सम क् प डतो मतः ।।१४

नरे वभी णं म ावं पुंसो भावयतोऽ चरात् ।


पधासूया तर काराः साहंकारा वय त ह ।।१५
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान् ीकृ ण ा द ई र के भी ई र ह। वे ही
स व-रज आ द गुण के ारा ा, व णु और का प धारण करके जगत्क उ प -
थ त आ दके खेल खेला करते ह। जब उ वजीने अनुरागभरे च से उनसे यह कया,
तब उ ह ने म द-म द मुसकराकर बड़े ेमसे कहना ार भ कया ।।७।।
ीभगवान्ने कहा— य उ व! अब म तु ह अपने उन मंगलमय भागवतधम का
उपदे श करता ँ, जनका ापूवक आचरण करके मनु य संसार प जय मृ युको
अनायास ही जीत लेता है ।।८।। उ वजी! मेरे भ को चा हये क अपने सारे कम मेरे लये
ही करे और धीर-धीरे उनको करते समय मेरे मरणका अ यास बढ़ाये। कुछ ही दन म
उसके मन और च मुझम सम पत हो जायँग।े उसके मन और आ मा मेरे ही धम म रम
जायँगे ।।९।। मेरे भ साधुजन जन प व थान म नवास करते ह , उ ह म रहे और
दे वता, असुर अथवा मनु य म जो मेरे अन य भ ह , उनके आचरण का अनुसरण
करे ।।१०।। पवके अवसर पर सबके साथ मलकर अथवा अकेला ही नृ य, गान, वा आ द
महाराजो चत ठाट-बाटसे मेरी या ा आ दके महो सव करे ।।११।। शु ा तःकरण पु ष
आकाशके समान बाहर और भीतर प रपूण एवं आवरणशू य मुझ परमा माको ही सम त
ा णय और अपने दयम थत दे खे ।।१२।। नमलबु उ वजी! जो साधक केवल इस
ान- का आ य लेकर स पूण ा णय और पदाथ म मेरा दशन करता है और उ ह मेरा
ही प मानकर स कार करता है तथा ा ण और चा डाल, चोर और ा णभ , सूय
और चनगारी तथा कृपालु और ू रम समान रखता है, उसे ही स चा ानी समझना
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चा हये ।।१३-१४।। जब नर तर सभी नर-ना रय म मेरी ही भावना क जाती है, तब थोड़े ही
दन म साधकके च से प ा (होड़), ई या, तर कार और अहंकार आ द दोष र हो जाते
ह ।।१५।। अपने ही लोग य द हँसी कर तो करने दे , उनक परवा न करे; ‘म अ छा ँ, वह
बुरा है’ ऐसी दे ह को और लोक-ल जाको छोड़ दे और कु े, चा डाल, गौ एवं गधेको भी
पृ वीपर गरकर सा ांग द डवत् णाम करे ।।१६।। जबतक सम त ा णय म मेरी भावना
—भगव ावना न होने लगे, तबतक इस कारसे मन, वाणी और शरीरके सभी संक प और
कम ारा मेरी उपासना करता रहे ।।१७।। उ वजी! जब इस कार सव आ मबु —
बु का अ यास कया जाता है, तब थोड़े ही दन म उसे ान होकर सब कुछ
व प द खने लगता है। ऐसी हो जानेपर सारे संशय-स दे ह अपने-आप नवृ हो
जाते ह और वह सब कह मेरा सा ा कार करके संसार से उपराम हो जाता है ।।१८।।
मेरी ा तके जतने साधन ह, उनम म तो सबसे े साधन यही समझता ँ क सम त
ा णय और पदाथ म मन, वाणी और शरीरक सम त वृ य से मेरी ही भावना क
जाय ।।१९।। उ वजी! यही मेरा अपना भागवत-धम है; इसको एक बार आर भ कर दे नेके
बाद फर कसी कारक व न-बाधासे इसम र ीभर भी अ तर नह पड़ता; य क यह धम
न काम है और वयं मने ही इसे नगुण होनेके कारण सव म न य कया है ।।२०।।
भागवतधमम कसी कारक ु ट पड़नी तो र रही—य द इस धमका साधक भय-शोक
आ दके अवसरपर होनेवाली भावना और रोने-पीटने, भागने-जैसा नरथक कम भी
न कामभावसे मुझे सम पत कर दे तो वे भी मेरी स ताके कारण धम बन जाते ह ।।२१।।
ववे कय के ववेक और चतुर क चतुराईक पराका ा इसीम है क वे इस वनाशी और
अस य शरीरके ारा मुझ अ वनाशी एवं स य त वको ा त कर ल ।।२२।।

वसृ य मयमानान् वान् शं ीडां च दै हक म् ।


णमेद ् द डवद् भूमावा चा डालगोखरम् ।।१६

यावत् सवषु भूतेषु म ावो नोपजायते ।


तावदे वमुपासीत वाङ् मनःकायवृ भः ।।१७

सव ा मकं त य व याऽऽ ममनीषया ।


प रप य ुपरमेत् सवतो मु संशयः ।।१८

अयं ह सवक पानां स ीचीनो मतो मम ।


म ावः सवभूतेषु मनोवा कायवृ भः ।।१९

न ंगोप मे वंसो म म यो वा व प ।
मया व सतः स यङ् नगुण वादना शषः ।।२०

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यो यो म य परे धमः क यते न फलाय चेत् ।
तदायासो नरथः याद् भयादे रव स म ।।२१

एषा बु मतां बु मनीषा च मनी षणाम् ।


यत् स यमनृतेनेह म यना ो त मामृतम् ।।२२

एष तेऽ भ हतः कृ नो वाद य सङ् हः ।


समास ास व धना दे वानाम प गमः ।।२३

अभी णश ते ग दतं ानं व प यु मत् ।


एतद् व ाय मु येत पु षो न संशयः ।।२४
उ वजी! यह स पूण व ाका रह य मने सं ेप और व तारसे तु ह सुना दया। इस
रह यको समझना मनु य क तो कौन कहे, दे वता के लये भी अ य त क ठन है ।।२३।।
मने जस सु प और यु यु ानका वणन बार-बार कया है, उसके ममको जो समझ
लेता है, उसके दयक संशय- थयाँ छ - भ हो जाती ह और वह मु हो जाता
है ।।२४।। मने तु हारे का भलीभाँ त खुलासा कर दया; जो पु ष हमारे ो रको
वचारपूवक धारण करेगा, वह वेद के भी परम रह य सनातन पर को ा त कर
लेगा ।।२५।। जो पु ष मेरे भ को इसे भलीभाँ त प करके समझायेगा, उस ानदाताको
म स मनसे अपना व पतक दे डालूँगा, उसे आ म ान करा ँ गा ।।२६।। उ वजी! यह
तु हारा और मेरा संवाद वयं तो परम प व है ही, सर को भी प व करनेवाला है। जो
त दन इसका पाठ करेगा और सर को सुनायेगा, वह इस ानद पके ारा सर को मेरा
दशन करानेके कारण प व हो जायगा ।।२७।। जो कोई एका च से इसे ापूवक न य
सुनेगा, उसे मेरी पराभ ा त होगी और वह कमब धनसे मु हो जायगा ।।२८।। य
सखे! तुमने भलीभाँ त का व प समझ लया न? और तु हारे च का मोह एवं शोक
तो र हो गया न? ।।२९।। तुम इसे दा भक, ना तक, शठ, अ ालु, भ हीन और उ त
पु षको कभी मत दे ना ।।३०।। जो इन दोष से र हत हो, ा णभ हो, ेमी हो,
साधु वभाव हो और जसका च र प व हो, उसीको यह संग सुनाना चा हये। य द शू
और ी भी मेरे त ेम-भ रखते ह तो उ ह भी इसका उपदे श करना चा हये ।।३१।।
जैसे द अमृतपान कर लेनेपर कुछ भी पीना शेष नह रहता, वैसे ही यह जान लेनेपर
ज ासुके लये और कुछ भी जानना शेष नह रहता ।।३२।। यारे उ व! मनु य को ान,
कम, योग, वा ण य और राजद डा दसे मशः मो , धम, काम और अथ प फल ा त
होते ह; पर तु तु हारे-जैसे अन य भ के लये वह चार कारका फल केवल म ही
ँ ।।३३।। जस समय मनु य सम त कम का प र याग करके मुझे आ मसमपण कर दे ता है,
उस समय वह मेरा वशेष माननीय हो जाता है और म उसे उसके जीव वसे छु ड़ाकर
अमृत व प मो क ा त करा दे ता ँ और वह मुझसे मलकर मेरा व प हो जाता
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है ।।३४।।
सु व व ं तव ं मयैतद प धारयेत् ।
सनातनं गु ं परं ा धग छ त ।।२५

य एत मम भ े षु स द ात् सुपु कलम् ।


त याहं दाय य ददा या मानमा मना ।।२६

य एतत् समधीयीत प व ं परमं शु च ।


स पूयेताहरहमा ानद पेन दशयन् ।।२७

य एत या न यम ः शृणुया रः ।
मयभ परां कुवन् कम भन स ब यते ।।२८

अ यु व वया सखे समवधा रतम् ।


अ प ते वगतो मोहः शोक ासौ मनोभवः ।।२९

नैत वया दा भकाय ना तकाय शठाय च ।


अशु ूषोरभ ाय वनीताय द यताम् ।।३०

एतैद षै वहीनाय याय याय च ।


साधवे शुचये ूयाद् भ ः या छू यो षताम् ।।३१

नैतद् व ाय ज ासो ात मव श यते ।


पी वा पीयूषममृतं पात ं नाव श यते ।।३२

ाने कम ण योगे च वातायां द डधारणे ।


यावानथ नृणां तात तावां तेऽहं चतु वधः ।।३३

म य यदा य सम तकमा
नवे दता मा व चक षतो मे ।
तदामृत वं तप मानो
मयाऽऽ मभूयाय च क पते वै ।।३४
ीशुक उवाच

स एवमाद शतयोगमाग-
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तदो म ोकवचो नश य ।
ब ांज लः ी युप क ठो
न क च चेऽ ुप र लुता ः ।।३५

व य च ं णयावघूण
धैयण राजन् ब म यमानः ।
कृतांज लः ाह य वीरं
शी णा पृशं त चरणार व दम् ।।३६
उ व उवाच

व ा वतो मोहमहा धकारो


य आ तो मे तव स धानात् ।
वभावसोः क नु समीपग य
शीतं तमो भीः भव यजा ।।३७

य पतो मे भवतानुक पना


भृ याय व ानमयः द पः ।
ह वा कृत तव पादमूलं
कोऽ यत् समीया छरणं वद यम् ।।३८

वृ ण मे सु ढः नेहपाशो
दाशाहवृ य धकसा वतेषु ।
सा रतः सृ ववृ ये वया
वमायया ा मसुबोधहे तना ।।३९

नमोऽ तु ते महायो गन् प मनुशा ध माम् ।


यथा व चरणा भोजे र तः यादनपा यनी ।।४०
ीभगवानुवाच
ग छो व मयाऽऽ द ो बदया यं ममा मम् ।
त म पादतीथ दे नानोप पशनैः शु चः ।।४१
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! अब उ वजी योगमागका पूरा-पूरा उपदे श ा त
कर चुके थे। भगवान् ीकृ णक बात सुनकर उनक आँख म आँसू उमड़ आये। ेमक
बाढ़से गला ँ ध गया, चुपचाप हाथ जोड़े रह गये और वाणीसे कुछ बोला न गया ।।३५।।
उनका च ेमावेशसे व ल हो रहा था, उ ह ने धैयपूवक उसे रोका और अपनेको अ य त
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सौभा यशाली अनुभव करते ए सरसे य वंश शरोम ण भगवान् ीकृ णके चरण को पश
कया तथा हाथ जोड़कर उनसे यह ाथना क ।।३६।।
उ वजीने कहा— भो! आप माया और ा आ दके भी मूल कारण ह। म मोहके
महान् अ धकारम भटक रहा था। आपके स संगसे वह सदाके लये भाग गया। भला, जो
अ नके पास प ँच गया उसके सामने या शीत, अ धकार और उसके कारण होनेवाला भय
ठहर सकते ह? ।।३७।। भगवन्! आपक मो हनी मायाने मेरा ानद पक छ न लया था,
पर तु आपने कृपा करके वह फर अपने सेवकको लौटा दया। आपने मेरे ऊपर महान्
अनु हक वषा क है। ऐसा कौन होगा, जो आपके इस कृपा- सादका अनुभव करके भी
आपके चरणकमल क शरण छोड़ दे और कसी सरेका सहारा ले? ।।३८।। आपने अपनी
मायासे सृ वृ के लये दाशाह, वृ ण, अ धक और सा वतवंशी यादव के साथ मुझे सु ढ़
नेह-पाशसे बाँध दया था। आज आपने आ मबोधक तीखी तलवारसे उस ब धनको
अनायास ही काट डाला ।।३९।। महायोगे र! मेरा आपको नम कार है। अब आप कृपा
करके मुझ शरणागतको ऐसी आ ा द जये, जससे आपके चरणकमल म मेरी अन य भ
बनी रहे ।।४०।।
भगवान् ीकृ णने कहा—उ वजी! अब तुम मेरी आ ासे बदरीवनम चले जाओ। वह
मेरा ही आ म है। वहाँ मेरे चरणकमल के धोवन गंगा-जलका नानपानके ारा सेवन करके
तुम प व हो जाओगे ।।४१।। अलकन दाके दशनमा से तु हारे सारे पाप-ताप न हो
जायँग।े य उ व! तुम वहाँ वृ क छाल पहनना, वनके क द-मूल-फल खाना और कसी
भोगक अपे ा न रखकर नः पृह-वृ से अपने-आपम म त रहना ।।४२।। सद -गरमी,
सुख- ःख—जो कुछ आ पड़े, उसे सम रहकर सहना। वभाव सौ य रखना, इ य को
वशम रखना। च शा त रहे। बु समा हत रहे और तुम वयं मेरे व पके ान और
अनुभवम डू बे रहना ।।४३।। मने तु ह जो कुछ श ा द है, उसका एका तम वचारपूवक
अनुभव करते रहना। अपनी वाणी और च मुझम ही लगाये रहना और मेरे बतलाये ए
भागवतधमम ेमसे रम जाना। अ तम तुम गुण और उनसे स ब ध रखनेवाली ग तय को
पार करके उनसे परे मेरे परमाथ व पम मल जाओगे ।।४४।।

ई यालकन दाया वधूताशेषक मषः ।


वसानो व कला यंग व यभुक् सुख नः पृहः ।।४२

त त ु मा ाणां सुशीलः संयते यः ।


शा तः समा हत धया ान व ानसंयुतः ।।४३

म ोऽनु श तं य े व व मनुभावयन् ।
म यावे शतवा च ो म म नरतो भव ।
अ त य गती त ो मामे य स ततः परम् ।।४४
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ीशुक उवाच

स एवमु ो ह रमेधसो वः
द णं तं प रसृ य पादयोः ।
शरो नधाया ुकला भरा धी-
य षचद परोऽ यप मे ।।४५

सु यज नेह वयोगकातरो
न श नुवं तं प रहातुमातुरः ।
कृ ं ययौ मूध न भतृपा के
ब म कृ य ययौ पुनः पुनः ।।४६

तत तम त द सं नवे य
गतो महाभागवतो वशालाम् ।
यथोप द ां जगदे कब धुना
तपः समा थाय हरेरगाद् ग तम् ।।४७
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान् ीकृ णके व पका ान संसारके
भेद मको छ - भ कर दे ता है। जब उ ह ने वयं उ वजीको ऐसा उपदे श कया तो
उ ह ने उनक प र मा क और उनके चरण पर सर रख दया। इसम स दे ह नह क
उ वजी संयोग- वयोगसे होनेवाले सुख- ःखके जोड़ेसे परे थे, य क वे भगवान्के न
चरण क शरण ले चुके थे; फर भी वहाँसे चलते समय उनका च ेमावेशसे भर गया।
उ ह ने अपने ने क झरती ई अ ुधारासे भगवान्के चरणकमल को भगो दया ।।४५।।
परी त्! भगवान्के त ेम करके उसका याग करना स भव नह है। उ ह के वयोगक
क पनासे उ वजी कातर हो गये, उनका याग करनेम समथ न ए। बार-बार व ल होकर
मू छत होने लगे। कुछ समयके बाद उ ह ने भगवान् ीकृ णके चरण क पा काएँ अपने
सरपर रख ल और बार-बार भगवान्के चरण म णाम करके वहाँसे थान कया ।।४६।।
भगवान्के परम ेमी भ उ वजी दयम उनक द छ ब धारण कये बद रका म प ँचे
और वहाँ उ ह ने तपोमय जीवन तीत करके जगत्के एकमा हतैषी भगवान् ीकृ णके
उपदे शानुसार उनक व पभूत परमग त ा त क ।।४७।। भगवान् शंकर आ द योगे र भी
स चदान द व प भगवान् ीकृ णके चरण क सेवा कया करते ह। उ ह ने वयं ीमुखसे
अपने परम ेमी भ उ वके लये इस ानामृतका वतरण कया। यह ानामृत
आन दमहासागरका सार है। जो ाके साथ इसका सेवन करता है, वह तो मु हो ही
जाता है, उसके संगसे सारा जगत् मु हो जाता है ।।४८।। परी त्! जैसे भ रा व भ
पु प से उनका सार-सार मधु सं ह कर लेता है, वैसे ही वयं वेद को का शत करनेवाले
भगवान् ीकृ णने भ को संसारसे मु करनेके लये यह ान और व ानका सार

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नकाला है। उ ह ने जरा-रोगा द भयक नवृ के लये ीर-समु से अमृत भी नकाला था
तथा इ ह मशः अपने नवृ माग और वृ माग भ को पलाया, वे ही पु षो म
भगवान् ीकृ ण सारे जगत्के मूल कारण ह। म उनके चरण म नम कार करता ँ ।।४९।।

य एतदान दसमु स भृतं


ानामृतं भागवताय भा षतम् ।
कृ णेन योगे रसे वताङ् णा
स याऽऽसे जगद् वमु यते ।।४८

भवभयमपह तुं ान व ानसारं


नगमकृ पज े भृंगवद् वेदसारम् ।
अमृतमुद धत ापाययद् भृ यवगान्
पु षमृषभमा ं कृ णसं ं नतोऽ म ।।४९
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायामेकादश क धे एकोन शोऽ यायः ।।२९।।

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अथ शोऽ यायः
य कुलका संहार
राजोवाच

ततो महाभागवत उ वे नगते वनम् ।


ारव यां कमकरोद् भगवान् भूतभावनः ।।१

शापोपसंसृ े वकुले यादवषभः ।


ेयस सवने ाणां तनुं स कथम यजत् ।।२

या ु ं नयनमबला य ल नं न शेकुः
कणा व ं न सर त ततो यत् सतामा मल नम् ।
राजा परी त्ने पूछा—भगवन्! जब महाभागवत उ वजी बदरीवनको चले गये, तब
भूतभावन भगवान् ीकृ णने ारकाम या लीला रची? ।।१।। भो! य वंश शरोम ण
भगवान् ीकृ णने अपने कुलके शाप त होनेपर सबके ने ा द इ य के परम य
अपने द ी व हक लीलाका संवरण कैसे कया? ।।२।। भगवन्! जब य के ने
उनके ी व हम लग जाते थे, तब वे उ ह वहाँसे हटानेम असमथ हो जाती थ । जब संत
पु ष उनक पमाधुरीका वणन सुनते ह, तब वह ी व ह कान के रा ते वेश करके उनके
च म गड़-सा जाता है, वहाँसे हटना नह जानता। उसक शोभा क वय क का रचनाम
अनुरागका रंग भर दे ती है और उनका स मान बढ़ा दे ती है, इसके स ब धम तो कहना ही
या है। महाभारतयु के समय जब वे हमारे दादा अजुनके रथपर बैठे ए थे, उस समय
जन यो ा ने उसे दे खते-दे खते शरीर- याग कया; उ ह सा यमु मल गयी। उ ह ने
अपना ऐसा अद्भुत ी व ह कस कार अ तधान कया? ।।३।।

य वाचां जनय त र त क नु मानं कवीनां


् वा ज णोयु ध रथगतं य च त सा यमीयुः ।।३
ऋ ष वाच

द व भु त र े च महो पातान् समु थतान् ।


् वाऽऽसीनान् सुधमायां कृ णः ाह य नदम् ।।४

एते घोरा महो पाता ाव यां यमकेतवः ।


मु म प न थेयम नो य पुंगवाः ।।५
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यो बाला वृ ा शंखो ारं ज वतः ।
वयं भासं या यामो य यक् सर वती ।।६

त ा भ ष य शुचय उपो य सुसमा हताः ।


दे वताः पूज य यामः नपनालेपनाहणैः ।।७

ा णां तु महाभागान् कृत व ययना वयम् ।


गोभू हर यवासो भगजा रथवे म भः ।।८

व धरेष र नो मंगलायनमु मम् ।


दे व जगवां पूजा भूतेषु परमो भवः ।।९

इ त सव समाक य य वृ ा मधु षः ।
तथे त नौ भ ीय भासं ययू रथैः ।।१०

त मन् भगवताऽऽ द ं य दे वेन यादवाः ।


च ु ः परमया भ या सव ेयोपबृं हतम् ।।११

तत त मन् महापानं पपुमरेयकं मधु ।


द व ं शत धयो यद् वै यते म तः ।।१२
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जब भगवान् ीकृ णने दे खा क आकाश, पृ वी
और अ त र म बड़े-बड़े उ पात—अशकुन हो रहे ह, तब उ ह ने सुधमा-सभाम उप थत
सभी य वं शय से यह बात कही— ।।४।। ‘ े य वं शयो! यह दे खो, ारकाम बड़े-बड़े
भयंकर उ पात होने लगे ह। ये सा ात् यमराजक वजाके समान हमारे महान् अ न के
सूचक ह। अब हम यहाँ घड़ी-दो-घड़ी भी नह ठहरना चा हये ।।५।। याँ, ब चे और बूढ़े
यहाँसे शंखो ार े म चले जायँ और हमलोग भास े म चल। आप सब जानते ह क वहाँ
सर वती प मक ओर बहकर समु म जा मली ह ।।६।। वहाँ हम नान करके प व ह गे,
उपवास करगे और एका च से नान एवं च दन आ द साम य से दे वता क पूजा
करगे ।।७।। वहाँ व तवाचनके बाद हमलोग गौ, भू म, सोना, व , हाथी, घोड़े, रथ और
घर आ दके ारा महा मा ा ण का स कार करगे ।।८।। यह व ध सब कारके
अमंगल का नाश करनेवाली और परम मंगलक जननी है। े य वं शयो! दे वता, ा ण
और गौ क पूजा ही ा णय के ज मका परम लाभ है’ ।।९।।
परी त्! सभी वृ य वं शय ने भगवान् ीकृ णक यह बात सुनकर ‘तथा तु’ कहकर
उसका अनुमोदन कया और तुरंत नौका से समु पार करके रथ ारा भास े क या ा
क ।।१०।। वहाँ प ँचकर यादव ने य वंश शरोम ण भगवान् ीकृ णके आदे शानुसार बड़ी
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ा और भ से शा तपाठ आ द तथा और भी सब कारके मंगलकृ य कये ।।११।। यह
सब तो उ ह ने कया; पर तु दै वने उनक बु हर ली और वे उस मैरेयक नामक म दराका
पान करने लगे, जसके नशेसे बु हो जाती है। वह पीनेम तो अव य मीठ लगती है,
पर तु प रणामम सवनाश करनेवाली है ।।१२।। उस ती म दराके पानसे सब-के-सब उ म
हो गये और वे घमंडी वीर एक- सरेसे लड़ने-झगड़ने लगे। सच पूछो तो ीकृ णक मायासे
वे मूढ़ हो रहे थे ।।१३।। उस समय वे ोधसे भरकर एक- सरेपर आ मण करने लगे और
धनुष-बाण, तलवार, भाले, गदा, तोमर और ऋ आ द अ -श से वहाँ समु तटपर ही
एक- सरेसे भड़ गये ।।१४।। मतवाले य वंशी रथ , हा थय , घोड़ , गध , ऊँट , ख चर ,
बैल , भस और मनु य पर भी सवार होकर एक- सरेको बाण से घायल करने लगे—मानो
जंगली हाथी एक- सरेपर दाँत से चोट कर रहे ह । सबक सवा रय पर वजाएँ फहरा रही
थ , पैदल सै नक भी आपसम उलझ रहे थे ।।१५।। ु न सा बसे, अ ू र भोजसे, अ न
सा य कसे, सुभ सं ाम जत्से, भगवान् ीकृ णके भाई गद उसी नामके उनके पु से और
सु म सुरथसे यु करने लगे। ये सभी बड़े भयंकर यो ा थे और ोधम भरकर एक-
सरेका नाश करनेपर तुल गये थे ।।१६।। इनके अ त र नशठ, उ मुक, सह जत्,
शत जत् और भानु आ द यादव भी एक- सरेसे गुँथ गये। भगवान् ीकृ णक मायाने तो
इ ह अ य त मो हत कर ही रखा था, इधर म दराके नशेने भी इ ह अंधा बना दया
था ।।१७।। दाशाह, वृ ण, अ धक, भोज, सा वत, मधु, अबुद, माथुर, शूरसेन, वसजन,
कुकुर और कु त आ द वंश के लोग सौहाद और ेमको भुलाकर आपसम मार-काट करने
लगे ।।१८।।

महापाना भम ानां वीराणां तचेतसाम् ।


कृ णमाया वमूढानां संघषः सुमहानभूत् ।।१३

युयुधुः ोधसंर धा वेलायामातता यनः ।


धनु भर स भभ लैगदा भ तोमर भः ।।१४

पत पताकै रथकु रा द भः
खरो गो भम हषैनरैर प ।

मथः समे या तरैः सु मदा


यह छरैद रव पा वने ।।१५

ु नसा बौ यु ध ढम सरा-
व ू रभोजाव न सा यक ।

सुभ सङ् ाम जतौ सुदा णौ


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गदौ सु म ासुरथौ समीयतुः ।।१६

अ ये च ये वै नशठो मुकादयः
सह ज छत ज ानुमु याः ।

अ यो यमासा मदा धका रता

ज नुमुकु दे न वमो हता भृशम् ।।१७

दाशाहवृ य धकभोजसा वता


म वबुदा माथुरशूरसेनाः ।

वसजनाः कुकुराः कु तय
मथ तत तेऽथ वसृ य सौ दम् ।।१८

पु ा अयु यन् पतृ भ ातृ भ


व ीयदौ ह पतृ मातुलैः ।

म ा ण म ैः सु दः सु -
ात वह झातय एव मूढाः ।।१९

शरेषु ीयमाणेषु भ यमानेषु ध वसु ।


श ेषु ीयमाणेषु मु भज रेरकाः ।।२०
मूढ़तावश पु पताका, भाई भाईका, भानजा मामाका, नाती नानाका, म म का,
सु द् सु द्का, चाचा भतीजेका तथा एक गो वाले आपसम एक- सरेका खून करने
लगे ।।१९।। अ तम जब उनके सब बाण समा त हो गये, धनुष टू ट गये और श ा न -
हो गये तब उ ह ने अपने हाथ से समु तटपर लगी ई एरका नामक घास उखाड़नी
शु क । यह वही घास थी, जो ऋ षय के शापके कारण उ प ए लोहमय मूसलके चूरेसे
पैदा ई थी ।।२०।। हे राजन्! उनके हाथ म आते ही वह घास व के समान कठोर मुदगर
् के
पम प रणत हो गयी। अब वे रोषम भरकर उसी घासके ारा अपने वप य पर हार
करने लगे। भगवान् ीकृ णने उ ह मना कया, तो उ ह ने उनको और बलरामजीको भी
अपना श ु समझ लया। उन आतता यय क बु ऐसी मूढ़ हो रही थी क वे उ ह मारनेके
लये उनक ओर दौड़ पड़े ।।२१-२२।। कु न दन! अब भगवान् ीकृ ण और बलरामजी भी
ोधम भरकर यु भू मम इधर-उधर वचरने और मुट्ठ -क -मुट्ठ एरका घास उखाड़-
उखाड़कर उ ह मारने लगे। एरका घासक मुट्ठ ही मुदगरक् े समान चोट करती थी ।।२३।।
जैसे बाँस क रगड़से उ प होकर दावानल बाँस को ही भ म कर दे ता है, वैसे ही शापसे

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त और भगवान् ीकृ णक मायासे मो हत य वं शय के प ामूलक ोधने उनका वंस
कर दया ।।२४।। जब भगवान् ीकृ णने दे खा क सम त य वं शय का संहार हो चुका, तब
उ ह ने यह सोचकर स तोषक साँस ली क पृ वीका बचा-खुचा भार भी उतर गया ।।२५।।

ता व क पा भवन् प रघा मु ना भृताः ।


ज नु ष तैः कृ णेन वायमाणा तु तं च ते ।।२१

यनीकं म यमाना बलभ ं च मो हताः ।


ह तुं कृत धयो राज ाप ा आतता यनः ।।२२

अथ ताव प सङ् ु ावु य कु न दन ।


एरकामु प रघौ चर तौ ज नतुयु ध ।।२३

शापोपसृ ानां कृ णमायावृता मनाम् ।


पधा ोधः यं न ये वैणवोऽ नयथा वनम् ।।२४

एवं न ेषु सवषु कुलेषु वेषु केशवः ।


अवता रतो भुवो भार इ त मेनेऽवशे षतः ।।२५

रामः समु वेलायां योगमा थाय पौ षम् ।


त याज लोकं मानु यं संयो या मानमा म न ।।२६

राम नयाणमालो य भगवान् दे वक सुतः ।


नषसाद धरोप थे तू णीमासा प पलम् ।।२७

ब चतुभुजं पं ा ज णु भया वया ।


दशो व त मराः कुवन् वधूम इव पावकः ।।२८

ीव सांङ्कं घन यामं त तहाटकवचसम् ।


कौशेया बरयु मेन प रवीतं सुमंगलम् ।।२९
परी त्! बलरामजीने समु तटपर बैठकर एका - च से परमा म च तन करते ए
अपने आ माको आ म व पम ही थर कर लया और मनु यशरीर छोड़ दया ।।२६।। जब
भगवान् ीकृ णने दे खा क मेरे बड़े भाई बलरामजी परमपदम लीन हो गये, तब वे एक
पीपलके पेड़के तले जाकर चुपचाप धरतीपर ही बैठ गये ।।२७।। भगवान् ीकृ णने उस
समय अपनी अंगका तसे दे द यमान चतुभुज प धारण कर रखा था और धूमसे र हत

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अ नके समान दशा को अ धकारर हत— काशमान बना रहे थे ।।२८।। वषाकालीन
मेघके समान साँवले शरीरसे तपे ए सोनेके समान यो त नकल रही थी। व ः थलपर
ीव सका च शोभायमान था। वे रेशमी पीता बरक धोती और वैसा ही प ा धारण कये
ए थे। बड़ा ही मंगलमय प था ।।२९।। मुखकमलपर सु दर मुसकान और कपोल पर
नीली-नीली अलक बड़ी ही सुहावनी लगती थ । कमलके समान सु दर-सु दर एवं सुकुमार
ने थे। कान म मकराकृत कु डल झल मला रहे थे ।।३०।। कमरम करधनी, कंधेपर
य ोपवीत, माथेपर मुकुट, कलाइय म कंगन, बाँह म बाजूबंद, व ः थलपर हार, चरण म
नूपुर, अँगु लय म अँगू ठयाँ और गलेम कौ तुभम ण शोभायमान हो रही थी ।।३१।।
घुटन तक वनमाला लटक ई थी। शंख, च , गदा आ द आयुध मू तमान् होकर भुक
सेवा कर रहे थे। उस समय भगवान् अपनी दा हनी जाँघपर बायाँ चरण रखकर बैठे ए थे,
लाल-लाल तलवा र कमलके समान चमक रहा था ।।३२।।

सु दर मतव ा जं नीलकु तलम डतम् ।


पु डरीका भरामा ं फुर मकरकु डलम् ।।३०

क टसू सू करीटकटकांगदै ः ।
हारनूपुरमु ा भः कौ तुभेन वरा जतम् ।।३१

वनमालापरीतांगं मू तम नजायुधैः ।
कृ वोरौ द णे पादमासीनं पंकजा णम् ।।३२

मुसलावशेषायःख डकृतेषुलु धको जरा ।


मृगा याकारं त चरणं व ाध मृगशंकया ।।३३

चतुभुजं तं पु षं ् वा स कृत क बषः ।


भीतः पपात शरसा पादयोरसुर षः ।।३४

अ ानता कृत मदं पापेन मधुसूदन ।


तुमह स पाप य उ म ोक मेऽनघ ।।३५

य यानु मरणं नॄणाम ान वा तनाशनम् ।


वद त त य ते व णो मयासाधु कृतं भो ।।३६

त माऽऽशु ज ह वैकु ठ पा मानं मृगलु धकम् ।


यथा पुनरहं वेवं न कुया सद त मम् ।।३७

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य या मयोगर चतं न व व र चो
ादयोऽ य तनयाः पतयो गरां ये ।
व मायया प हत य एतद ः
क त य ते वयमसद्गतयो गृणीमः ।।३८
परी त्! जरा नामका एक बहे लया था। उसने मूसलके बचे ए टु कड़ेसे अपने बाणक
गाँसी बना ली थी। उसे रसे भगवान्का लाल-लाल तलवा ह रनके मुखके समान जान पड़ा।
उसने उसे सचमुच ह रन समझकर अपने उसी बाणसे ब ध दया ।।३३।। जब वह पास
आया, तब उसने दे खा क ‘अरे! ये तो चतुभुज पु ष ह।’ अब तो वह अपराध कर चुका था,
इस लये डरके मारे काँपने लगा और दै यदलन भगवान् ीकृ णके चरण पर सर रखकर
धरतीपर गर पड़ा ।।३४।। उसने कहा—‘हे मधुसूदन! मने अनजानम यह पाप कया है।
सचमुच म ब त बड़ा पापी ँ; पर तु आप परमयश वी और न वकार ह। आप कृपा करके
मेरा अपराध मा क जये ।।३५।। सव ापक सवश मान् भो! महा मालोग कहा करते
ह क आपके मरणमा से मनु य का अ ाना धकार न हो जाता है। बड़े खेदक बात है क
मने वयं आपका ही अ न कर दया ।।३६।। वैकु ठनाथ! म नरपराध ह रण को
मारनेवाला महापापी ँ। आप मुझे अभी-अभी मार डा लये, य क मर जानेपर म फर
कभी आप-जैसे महापु ष का ऐसा अपराध न क ँ गा ।।३७।। भगवन्! स पूण व ा के
पारदश ाजी और उनके पु आ द भी आपक योगमायाका वलास नह समझ पाते;
य क उनक भी आपक मायासे आवृत है। ऐसी अव थाम हमारे-जैसे पापयो न लोग
उसके वषयम कह ही या सकते ह? ।।३८।।
ीभगवानुवाच

मा भैजरे वमु काम एष कृतो ह मे ।


या ह वं मदनु ातः वग सुकृ तनां पदम् ।।३९

इ या द ो भगवता कृ णेने छाशरी रणा ।


ः प र य तं न वा वमानेन दवं ययौ ।।४०

दा कः कृ णपदवीम व छ धग य ताम् ।
वायुं तुल सकामोदमा ाया भमुखं ययौ ।।४१

तं त त म ु भरायुधैवृतं
थमूले कृतकेतनं प तम् ।
नेह लुता मा नपपात पादयो
रथादव लु य सबा पलोचनः ।।४२

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अप यत व चरणा बुजं भो
ः न ा तम स व ा ।
दशो न जाने न लभे च शा तं
यथा नशायामुडुपे न े ।।४३

इ त ुव त सूते वै रथो ग डला छनः ।


खमु पपात राजे सा वज उद तः ।।४४

तम वग छन् द ा न व णु हरणा न च ।
तेना त व मता मानं सूतमाह जनादनः ।।४५

ग छ ारवत सूत ातीनां नधनं मथः ।


संकषण य नमाणं ब धु यो ू ह म शाम् ।।४६
भगवान् ीकृ णने कहा—हे जरे! तू डर मत, उठ-उठ! यह तो तूने मेरे मनका काम
कया है। जा, मेरी आ ासे तू उस वगम नवास कर, जसक ा त बड़े-बड़े पु यवान को
होती है ।।३९।।
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! भगवान् ीकृ ण तो अपनी इ छासे शरीर धारण
करते ह। जब उ ह ने जरा ाधको यह आदे श दया, तब उसने उनक तीन बार प र मा
क , नम कार कया और वमानपर सवार होकर वगको चला गया ।।४०।।
भगवान् ीकृ णका सार थ दा क उनके थानका पता लगाता आ उनके ारा धारण
क ई तुलसीक ग धसे यु वायु सूँघकर और उससे उनके होनेके थानका अनुमान
लगाकर सामनेक ओर गया ।।४१।। दा कने वहाँ जाकर दे खा क भगवान् ीकृ ण
पीपलके वृ के नीचे आसन लगाये बैठे ह। अस तेजवाले आयुध मू तमान् होकर उनक
सेवाम संल न ह। उ ह दे खकर दा कके दयम ेमक बाढ़ आ गयी। ने से आँसु क
धारा बहने लगी। वह रथसे कूदकर भगवान्के चरण पर गर पड़ा ।।४२।। उसने भगवान्से
ाथना क —‘ भो! रा के समय च माके अ त हो जानेपर राह चलनेवालेक जैसी दशा
हो जाती है, आपके चरणकमल का दशन न पाकर मेरी भी वैसी ही दशा हो गयी है। मेरी
न हो गयी है, चार ओर अँधेरा छा गया है। अब न तो मुझे दशा का ान है और न
मेरे दयम शा त ही है’ ।।४३।। परी त्! अभी दा क इस कार कह ही रहा था क उसके
सामने ही भगवान्का ग ड़- वज रथ पताका और घोड़ के साथ आकाशम उड़ गया ।।४४।।
उसके पीछे -पीछे भगवान्के द आयुध भी चले गये। यह सब दे खकर दा कके आ यक
सीमा न रही। तब भगवान्ने उससे कहा— ।।४५।। ‘दा क! अब तुम ारका चले जाओ
और वहाँ य वं शय के पार प रक संहार, भैया बलरामजीक परम ग त और मेरे वधाम-
गमनक बात कहो’ ।।४६।। उनसे कहना क ‘अब तुमलोग को अपने प रवारवाल के साथ
ारकाम नह रहना चा हये। मेरे न रहनेपर समु उस नगरीको डु बो दे गा ।।४७।। सब लोग
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अपनी-अपनी धन-स प , कुटु ब और मेरे माता- पताको लेकर अजुनके संर णम इ थ
चले जायँ ।।४८।। दा क! तुम मेरे ारा उप द भागवतधमका आ य लो और ान न
होकर सबक उपे ा कर दो तथा इस यको मेरी मायाक रचना समझकर शा त हो
जाओ’ ।।४९।।

ारकायां च न थेयं भव वब धु भः ।
मया य ां य पुर समु ः लाव य य त ।।४७

वं वं प र हं सव आदाय पतरौ च नः ।
अजुनेना वताः सव इ थं ग म यथ ।।४८

वं तु म ममा थाय ान न उपे कः ।


म मायारचनामेतां व ायोपशमं ज ।।४९

इ यु तं प र य नम कृ य पुनः पुनः ।
त पादौ शी युपाधाय मनाः ययौ पुरीम् ।।५०
भगवान्का यह आदे श पाकर दा कने उनक प र मा क और उनके चरणकमल अपने
सरपर रखकर बार बार णाम कया। तदन तर वह उदास मनसे ारकाके लये चल
पड़ा ।।५०।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायामेकादश क धे शोऽ यायः ।।३०।।

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अथैक शोऽ यायः
ीभगवान्का वधामगमन
ीशुक उवाच

अथ त ागमद् ा भवा या च समं भवः ।


महे मुखा दे वा मुनयः स जे राः ।।१

पतरः स ग धवा व ाधरमहोरगाः ।


चारणाः य र ां स क रा सरसो जाः ।।२

ु कामा भगवतो नयाणं परमो सुकाः ।


गाय त गृण त शौरेः कमा ण ज म च ।।३

ववृषुः पु पवषा ण वमानाव ल भनभः ।


कुव तः संकुलं राजन् भ या परमया युताः ।।४

भगवान् पतामहं वी य वभूतीरा मनो वभुः ।


संयो या म न चा मानं प ने े यमीलयत् ।।५
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! दा कके चले जानेपर ाजी, शव-पावती,
इ ा द लोकपाल, मरी च आ द जाप त, बड़े-बड़े ऋ ष-मु न, पतर- स , ग धव- व ाधर,
नाग-चारण, य -रा स, क र-अ सराएँ तथा ग ड़लोकके व भ प ी अथवा मै ेय आ द
ा ण भगवान् ीकृ णके परमधाम- थानको दे खनेके लये बड़ी उ सुकतासे वहाँ आये।
वे सभी भगवान् ीकृ णके ज म और लीला का गान अथवा वणन कर रहे थे। उनके
वमान से सारा आकाश भर-सा गया था। वे बड़ी भ से भगवान्पर पु प क वषा कर रहे
थे ।।१-४।।
सव ापक भगवान् ीकृ णने ाजी और अपने वभू त व प दे वता को दे खकर
अपने आ माको व पम थत कया और कमलके समान ने बंद कर लये ।।५।।

लोका भरामां वतनुं धारणा यानमंगलम् ।


योगधारणयाऽऽ ने याद वा धामा वशत् वकम् ।।६

दव भयो ने ः पेतुः सुमनस खात् ।


स यं धम धृ तभूमेः क तः ी ानु तं ययुः ।।७
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दे वादयो मु या न वश तं वधाम न ।
अ व ातग त कृ णं द शु ा त व मताः ।।८

सौदाम या यथाऽऽकाशे या या ह वा म डलम् ।


ग तन ल यते म य तथा कृ ण य दै वतैः ।।९

ादय ते तु ् वा योगग त हरेः ।


व मता तां शंस तः वं वं लोकं ययु तदा ।।१०

राजन् पर य तनुभृ जनना ययेहा


माया वड बनमवे ह यथा नट य ।
सृ ् वाऽऽ मनेदमनु व य व य चा ते
सं य चा मम हमोपरतः स आ ते ।।११

म यन यो गु सुतं यमलोकनीतं
वां चानय छणदः परमा द धम् ।
ज येऽ तका तकमपीशमसावनीशः
क वावने वरनय मृगयुं सदे हम् ।।१२
भगवान्का ी व ह उपासक के यान और धारणाका मंगलमय आधार और सम त
लोक के लये परम रमणीय आ य है; इस लये उ ह ने (यो गय के समान)
अ नदे वतास ब धी योगधारणाके ारा असको जलाया नह , सशरीर अपने धामम चले
गये ।।६।। उस समय वगम नगारे बजने लगे और आकाशसे पु प क वषा होने लगी।
परी त्! भगवान् ीकृ णके पीछे -पीछे इस लोकसे स य, धम, धैय, क त और ीदे वी भी
चली गय ।।७।।
भगवान् ीकृ णक ग त मन और वाणीके परे है; तभी तो जब भगवान् अपने धामम
वेश करने लगे, तब ा द दे वता भी उ ह न दे ख सके। इस घटनासे उ ह बड़ा ही व मय
आ ।।८।। जैसे बजली मेघम डलको छोड़कर जब आकाशम वेश करती है, तब मनु य
उसक चाल नह दे ख पाते, वैसे ही बड़े-बड़े दे वता भी ीकृ णक ग तके स ब धम कुछ न
जान सके ।।९।। ाजी और भगवान् शंकर आ द दे वता भगवान्क यह परमयोगमयी ग त
दे खकर बड़े व मयके साथ उसक शंसा करते अपने-अपने लोकम चले गये ।।१०।।
परी त्! जैसे नट अनेक कारके वाँग बनाता है, पर तु रहता है उन सबसे नलप;
वैसे ही भगवान्का मनु य के समान ज म लेना, लीला करना और फर उसे संवरण कर लेना
उनक मायाका वलासमा है—अ भनयमा है। वे वयं ही इस जगत्क सृ करके इसम
वेश करके वहार करते ह और अ तम संहार-लीला करके अपने अन त म हमामय
व पम ही थत हो जाते ह ।।११।। सा द प न गु का पु यमपुरी चला गया था, पर तु
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उसे वे मनु य-शरीरके साथ लौटा लाये। तु हारा ही शरीर ा से जल चुका था; पर तु
उ ह ने तु ह जी वत कर दया। वा तवम उनक शरणागतव सलता ऐसी ही है। और तो या
क ,ँ उ ह ने काल के महाकाल भगवान् शंकरको भी यु म जीत लया और अ य त
अपराधी—अपने शरीरपर ही हार करनेवाले ाधको भी सदे ह वग भेज दया। य
परी त्! ऐसी थ तम या वे अपने शरीरको सदाके लये यहाँ नह रख सकते थे? अव य
ही रख सकते थे ।।१२।। य प भगवान् ीकृ ण स पूण जगत्क थ त, उ प और
संहारके नरपे कारण ह और स पूण श य के धारण करनेवाले ह तथा प उ ह ने अपने
शरीरको इस संसारम बचा रखनेक इ छा नह क । इससे उ ह ने यह दखाया क इस
मनु य-शरीरसे मुझे या योजन है? आ म न पु ष के लये यही आदश है क वे शरीर
रखनेक चे ा न कर ।।१३।। जो पु ष ातःकाल उठकर भगवान् ीकृ णके
परमधामगमनक इस कथाका एका ता और भ के साथ क तन करेगा, उसे भगवान्का
वही सव े परमपद ा त होगा ।।१४।।

तथा यशेष थ तस भवा यये-


वन यहेतुयदशेषश धृक् ।
नै छत् णेतुं वपुर शे षतं
म यन क व थग त दशयन् ।।१३

य एतां ात थाय कृ ण य पदव पराम् ।


यतः क तयेद ् भ या तामेवा ो यनु माम् ।।१४

दा को ारकामे य वसुदेवो सेनयोः ।


प त वा चरणाव ै य षचत् कृ ण व युतः ।।१५

कथयामास नधनं वृ णीनां कृ नशो नृप ।


त छ वो न दया जनाः शोक वमू छताः ।।१६

त म व रता ज मुः कृ ण व ेष व लाः ।


सवः शेरते य ातयो न त आननम् ।।१७

दे वक रो हणी चैव वसुदेव तथा सुतौ ।


कृ णरामावप य तः शोकाता वज ः मृ तम् ।।१८

ाणां वज त भगव रहातुराः ।


उपगु पत तात चतामा ः यः ।।१९

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रामप य त े हमुपगु ा नमा वशन् ।
वसुदेवप य तद्गा ं ु नाद न् हरेः नुषाः ।
कृ णप योऽ वश नं म या ा तदा मकाः ।।२०

अजुनः ेयसः स युः कृ ण य वरहातुरः ।


आ मानं सा वयामास कृ णगीतैः स भः ।।२१
इधर दा क भगवान् ीकृ णके वरहसे ाकुल होकर ारका आया और वसुदेवजी
तथा उ सेनके चरण पर गर- गरकर उ ह आँसु से भगोने लगा ।।१५।। परी त्! उसने
अपनेको सँभालकर य वं शय के वनाशका पूरा-पूरा ववरण कह सुनाया। उसे सुनकर लोग
ब त ही ःखी ए और मारे शोकके मू छत हो गये ।।१६।। भगवान् ीकृ णके वयोगसे
व ल होकर वे लोग सर पीटते ए वहाँ तुरंत प ँच,े जहाँ उनके भाई-ब धु न ाण होकर
पड़े ए थे ।।१७।। दे वक , रो हणी और वसुदेवजी अपने यारे पु ीकृ ण और बलरामको
न दे खकर शोकक पीड़ासे बेहोश हो गये ।।१८।। उ ह ने भगव रहसे ाकुल होकर वह
अपने ाण छोड़ दये। य ने अपने-अपने प तय के शव पहचानकर उ ह दयसे लगा
लया और उनके साथ चतापर बैठकर भ म हो गय ।।१९।। बलरामजीक प नयाँ उनके
शरीरको, वसुदेवजीक प नयाँ उनके शवको और भगवान्क पु वधुएँ अपने प तय क
लाश को लेकर अ नम वेश कर गय । भगवान् ीकृ णक मणी आ द पटरा नयाँ
उनके यानम म न होकर अ नम व हो गय ।।२०।।
परी त्! अजुन अपने यतम और सखा भगवान् ीकृ णके वरहसे पहले तो अ य त
ाकुल हो गये; फर उ ह ने उ ह के गीतो स पदे श का मरण करके अपने मनको
सँभाला ।।२१।। य वंशके मृत य म जनको कोई प ड दे नेवाला न था, उनका ा
अजुनने मशः व धपूवक करवाया ।।२२।। महाराज! भगवान्के न रहनेपर समु ने एकमा
भगवान् ीकृ णका नवास थान छोड़कर एक ही णम सारी ारका डु बो द ।।२३।।
भगवान् ीकृ ण वहाँ अब भी सदा-सवदा नवास करते ह। वह थान मरणमा से ही सारे
पाप-ताप का नाश करनेवाला और सवमंगल को भी मंगल बनानेवाला है ।।२४।। य
परी त्! प डदानके अन तर बची-खुची य , ब च और बूढ़ को लेकर अजुन इ थ
आये। वहाँ सबको यथायो य बसाकर अ न के पु व का रा या भषेक कर दया ।।२५।।
राजन्! तु हारे दादा यु ध र आ द पा डव को अजुनसे ही यह बात मालूम ई क
य वं शय का संहार हो गया है। तब उ ह ने अपने वंशधर तु ह रा यपदपर अ भ ष करके
हमालयक वीरया ा क ।।२६।।

ब धूनां न गो ाणामजुनः सा परा यकम् ।


हतानां कारयामास यथावदनुपूवशः ।।२२

ारकां ह रणा य ां समु ोऽ लावयत् णात् ।


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वज य वा महाराज ीम गवदालयम् ।।२३

न यं स हत त भगवान् मधुसूदनः ।
मृ याशेषाशुभहरं सवमंगलमंगलम् ।।२४

ीबालवृ ानादाय हतशेषान् धनंजयः ।


इ थं समावे य व ं त ा यषेचयत् ।।२५

ु वा सु धं राज जुना े पतामहाः ।


वां तु वंशधरं कृ वा ज मुः सव महापथम् ।।२६

य एतद् दे वदे व य व णोः कमा ण ज म च ।


क तये या म यः सवपापैः मु यते ।।२७

इ थं हरेभगवतो चरावतार-
वीया ण बालच रता न च श तमा न ।
अ य चेह च ुता न गृणन् मनु यो
भ परां परमहंसगतौ लभेत ।।२८
मने तु ह दे वता के भी आरा यदे व भगवान् ीकृ णक ज मलीला और कमलीला
सुनायी। जो मनु य ाके साथ इसका क तन करता है, वह सम त पाप से मु हो जाता
है ।।२७।। परी त्! जो मनु य इस कार भ भयहारी न खल सौ दय-माधुय न ध
ीकृ णच के अवतार-स ब धी चर परा म और इस ीम ागवतमहापुराणम तथा सरे
पुराण म व णत परमान दमयी बाललीला, कैशोरलीला आ दका संक तन करता है, वह
परमहंस मुनी के अ तम ा त ीकृ णके चरण म पराभ ा त करता है ।।२८।।
इ त ीम ागवते महापुराणे वैया स याम ादशसाह यां पारमहं यां
सं हतायामेकादश क धे एक शोऽ यायः ।।३१।।

।। इ येकादशः क धः समा तः ।।
।। ह रः ॐ त सत् ।।

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।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।।
ीम ागवतमहापुराणम्
ादशः क धः
अथ थमोऽ यायः
क लयुगके राजवंश का वणन
राजोवाच
वधामानुगते कृ णे य वंश वभूषणे ।
क य वंशोऽभवत् पृ ामेतदाच व मे मुने ।।१
ीशुक उवाच

योऽ यः पुरंजयो नाम भा ो बाह थो नृप ।


त यामा य तु शुनको ह वा वा मनमा मजम् ।।२

ोतसं ं राजानं कता यत् पालकः सुतः ।


वशाखयूप त पु ो भ वता राजक ततः ।।३

न दवधन त पु ः पंच ोतना इमे ।


अ शो रशतं भो य त पृ थव नृपाः ।।४

शशुनाग ततो भा ः काकवण तु त सुतः ।


ेमधमा त य सुतः े ः ेमधमजः ।।५

व धसारः सुत त याजातश ुभ व य त ।


दभक त सुतो भावी दभक याजयः मृतः ।।६

न दवधन आजेयो महान दः सुत ततः ।


शशुनागा दशैवैते ष ु रशत यम् ।।७

समा भो य त पृ थव कु े कलौ नृपाः ।


महान दसुतो राजन् शू गभ वो बली ।।८
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महाप प तः क दः वनाशकृत् ।
ततो नृपा भ व य त शू ाया वधा मकाः ।।९
राजा परी त्ने पूछा—भगवन्! य वंश- शरोम ण भगवान् ीकृ ण जब अपने
परमधाम पधार गये, तब पृ वीपर कस वंशका रा य आ? तथा अब कसका रा य होगा?
आप कृपा करके मुझे यह बतलाइये ।।१।।
ीशुकदे वजीने कहा— य परी त! मने तु ह नव क धम यह बात बतलायी थी क
जरास धके पता बृह थके वंशम अ तम राजा होगा पुरंजय अथवा रपुंजय। उसके म ीका
नाम होगा शुनक। वह अपने वामीको मार डालेगा और अपने पु ोतको राज सहासनपर
अ भ ष करेगा। ोतका पु होगा पालक, पालकका वशाखयूप, वशाखयूपका राजक
और राजकका पु होगा न दव न। ोतवंशम यही पाँच नरप त ह गे। इनक सं ा होगी
‘ ोतन’। ये एक सौ अड़तीस वषतक पृ वीका उपभोग करगे ।।२-४।।
इसके प ात् शशुनाग नामका राजा होगा। शशुनागका काकवण, उसका ेमधमा और
ेमधमाका पु होगा े ।।५।। े का व धसार, उसका अजातश ,ु फर दभक और
दभकका पु अजय होगा ।।६।। अजयसे न दव न और उससे महान दका ज म होगा।
शशुनाग-वंशम ये दस राजा ह गे। ये सब मलकर क लयुगम तीन सौ साठ वषतक पृ वीपर
रा य करगे। य परी त्! महान दक शू ा प नीके गभसे न द नामका पु होगा। वह
बड़ा बलवान् होगा। महान द ‘महाप ’ नामक न धका अ धप त होगा। इसी लये लोग उसे
‘महाप ’ भी कहगे। वह य राजा के वनाशका कारण बनेगा। तभीसे राजालोग ायः
शू और अधा मक हो जायँगे ।।७-९।।
स एक छ ां पृ थवीमनु लं घतशासनः ।
शा स य त महाप ो तीय इव भागवः ।।१०
त य चा ौ भ व य त सुमा य मुखाः सुताः ।
य इमां भो य त मह राजानः म शतं समाः ।।११
नव न दान् जः क त् प ानु र य त ।
तेषामभावे जगत मौया भो य त वै कलौ ।।१२
स एव च गु तं वै जो रा येऽ भषे य त ।
त सुतो वा रसार तु तत ाशोकवधनः ।।१३
सुयशा भ वता त य संगतः सुयशःसुतः ।
शा लशूक तत त य सोमशमा भ व य त ।।१४
शतध वा तत त य भ वता तद् बृह थः ।
मौया ेते दश नृपाः स त श छतो रम् ।
समा भो य त पृ थव कलौ कु कुलो ह ।।१५

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ह वा बृह थं मौय त य सेनाप तः कलौ ।
पु य म तु शुंगा ः वयं रा यं क र य त ।
अ न म तत त मात् सु ये ोऽथ भ व य त ।।१६
वसु म ो भ क पु ल दो भ वता ततः ।
ततो घोषः सुत त माद् व म ो भ व य त ।।१७
ततो भागवत त माद् दे वभू त र त ुतः ।
शुंगा दशैते भो य त भू म वषशता धकम् ।।१८
ततः क वा नयं भू मया य य पगुणान् नृप ।
शुंगं ह वा दे वभू त क वोऽमा य तु का मनम् ।।१९
वयं क र यते रा यं वसुदेवो महाम तः ।
त य पु तु भू म त य नारायणः सुतः ।
नारायण य भ वता सुशमा नाम व ुतः ।।२०
महाप पृ वीका एक छ शासक होगा। उसके शासनका उ लंघन कोई भी नह कर
सकेगा। य के वनाशम हेतु होनेक से तो उसे सरा परशुराम ही समझना
चा हये ।।१०।। उसके सुमा य आ द आठ पु ह गे। वे सभी राजा ह गे और सौ वषतक इस
पृ वीका उपभोग करगे ।।११।। कौ ट य, वा यायन तथा चाण यके नामसे स एक
ा ण व व यात न द और उनके सुमा य आ द आठ पु का नाश कर डालेगा। उनका
नाश हो जानेपर क लयुगम मौयवंशी नरप त पृ वीका रा य करगे ।।१२।। वही ा ण
पहले-पहल च गु त मौयको राजाके पदपर अ भ ष करेगा। च गु तका पु होगा
वा रसार और वा रसारका अशोकव न ।।१३।। अशोकव नका पु होगा सुयश। सुयशका
संगत, संगतका शा लशूक और शा लशूकका सोमशमा ।।१४।। सोमशमाका शतध वा और
शतध वाका पु बृह थ होगा। कु वंश वभूषण परी त्! मौयवंशके ये दस* नरप त
क लयुगम एक सौ सतीस वषतक पृ वीका उपभोग करगे। बृह थका सेनाप त होगा
पु य म शुंग। वह अपने वामीको मारकर वयं राजा बन बैठेगा। पु य म का अ न म
और अ न म का सु ये होगा ।।१५-१६।। सु ये का वसु म , वसु म का भ क और
भ कका पु ल द, पु ल दका घोष और घोषका पु होगा व म ।।१७।। व म का
भागवत और भागवतका पु होगा दे वभू त। शुंगवंशके ये दस नरप त एक सौ बारह वषतक
पृ वीका पालन करगे ।।१८।।
परी त्! शुंगवंशी नरप तय का रा यकाल समा त होनेपर यह पृ वी क ववंशी
नरप तय के हाथम चली जायगी। क ववंशी नरप त अपने पूववत राजा क अपे ा कम
गुणवाले ह गे। शुंगवंशका अ तम नरप त दे वभू त बड़ा ही ल पट होगा। उसे उसका म ी
क ववंशी वसुदेव मार डालेगा और अपने बु बलसे वयं रा य करेगा। वसुदेवका पु होगा
भू म , भू म का नारायण और नारायणका सुशमा। सुशमा बड़ा यश वी होगा ।।१९-२०।।
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क ववंशके ये चार नरप त का वायन कहलायगे और क लयुगम तीन सौ पतालीस वषतक
पृ वीका उपभोग करगे ।।२१।। य परी त्! क ववंशी सुशमाका एक शू सेवक होगा—
बली। वह अ जा तका एवं बड़ा होगा। वह सुशमाको मारकर कुछ समयतक वयं
पृ वीका रा य करेगा ।।२२।। इसके बाद उसका भाई कृ ण राजा होगा। कृ णका पु
ीशा तकण और उसका पौणमास होगा ।।२३।। पौणमासका ल बोदर और ल बोदरका पु
च बलक होगा। च बलकका मेघ वा त, मेघ वा तका अटमान, अटमानका अ न कमा,
अ न कमाका हालेय, हालेयका तलक, तलकका पुरीषभी और पुरीषभी का पु होगा
राजा सुन दन ।।२४-२५।। परी त्! सुन दनका पु होगा चकोर; चकोरके आठ पु ह गे,
जो सभी ‘ब ’ कहलायगे। इनम सबसे छोटे का नाम होगा शव वा त। वह बड़ा वीर होगा
और श ु का दमन करेगा। शव वा तका गोमतीपु और उसका पु होगा पुरीमान् ।।२६।।
पुरीमान्का मेदः शरा, मेदः शराका शव क द, शव क दका य ी, य ीका वजय और
वजयके दो पु ह गे—च व और लोम ध ।।२७।। परी त्! ये तीस राजा चार सौ छ पन
वषतक पृ वीका रा य भोगगे ।।२८।।
का वायना इमे भू म च वा रश च पंच च ।
शता न ी ण भो य त वषाणां च कलौ युगे ।।२१
ह वा का वं सुशमाणं तद्भृ यो वृषलो बली ।
गां भो य य जातीयः कं चत् कालमस मः ।।२२
कृ णनामाथ तद् ाता भ वता पृ थवीप तः ।
ीशा तकण त पु ः पौणमास तु त सुतः ।।२३
ल बोदर तु त पु त मा च बलको नृपः ।
मेघ वा त बलकादटमान तु त य च ।।२४
अ न कमा हालेय तलक त य चा मजः ।
पुरीषभी त पु ततो राजा सुन दनः ।।२५
चकोरो बहवो य शव वा तर र दमः ।
त या प गोमतीपु ः पुरीमान् भ वता ततः ।।२६
मेदः शराः शव क दो य ी त सुत ततः ।
वजय त सुतो भा व ः सलोम धः ।।२७
एते श ृपतय वाय दशता न च ।
षट् पंचाश च पृ थव भो य त कु न दन ।।२८
स ताभीरा आवभृ या दश गद भनो नृपाः ।
कंकाः षोडश भूपाला भ व य य तलोलुपाः ।।२९
ततोऽ ौ यवना भा ा तुदश तु ककाः ।

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भूयो दश गु डा मौना एकादशैव तु ।।३०
एते भो य त पृ थव दशवषशता न च ।
नवा धकां च नव त मौना एकादश तम् ।।३१
भो य य दशता यंग ी ण तैः सं थते ततः ।
क ल कलायां नृपतयो भूतन दोऽथ वं ग रः ।।३२
शशुन द तद् ाता यशोन दः वीरकः ।
इ येते वै वषशतं भ व य य धका न षट् ।।३३
तेषां योदश सुता भ वतार बा काः ।
पु प म ोऽथ राज यो म ोऽ य तथैव च ।।३४
परी त्! इसके प ात् अवभृ त-नगरीके सात आभीर, दस गदभी और सोलह कंक
पृ वीका रा य करगे। ये सब-के-सब बड़े लोभी ह गे ।।२९।। इनके बाद आठ यवन और
चौदह तुक रा य करगे। इसके बाद दस गु ड और यारह मौन नरप त ह गे ।।३०।। मौन के
अ त र ये सब एक हजार न यानबे वषतक पृ वीका उपभोग करगे। तथा यारह मौन
नरप त तीन सौ वषतक पृ वीका शासन करगे। जब उनका रा यकाल समा त हो जायगा,
तब क ल कला नामक नगरीम भूतन द नामका राजा होगा। भूतन दका वं ग र, वं ग रका
भाई शशुन द तथा यशोन द और वीरक—ये एक सौ छः वषतक रा य
करगे ।।३१-३३।।
इनके तेरह पु ह गे और वे सब-के-सब बा क कहलायगे। उनके प ात् पु प म
नामक य और उसके पु म का रा य होगा ।।३४।। परी त्! बा कवंशी नरप त
एक साथ ही व भ दे श म रा य करगे। उनम सात अ दे शके तथा सात ही कोसलदे शके
अ धप त ह गे, कुछ व र-भू मके शासक और कुछ नषधदे शके वामी ह गे ।।३५।।

एककाला इमे भूपाः स ता ाः स त कोसलाः ।


व रपतयो भा ा नषधा तत एव ह ।।३५

मागधानां तु भ वता व फू जः पुरंजयः ।


क र य यपरो वणान् पु ल दय म कान् ।।३६

जा ा भू य ाः थाप य य त म तः ।
वीयवान् मु सा प व यां स वै पु र ।
अनुगंगामा यागं गु तां भो य त मे दनीम् ।।३७

सौरा ाव याभीरा शूरा अबुदमालवाः ।


ा या जा भ व य त शू ाया जना धपाः ।।३८
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स धो तटं च भागां कौ त का मीरम डलम् ।
भो य त शू ा ा या ा ले छा ा वचसः ।।३९

तु यकाला इमे राजन् ले छ ाया भूभृतः ।


एतेऽधमानृतपराः फ गुदा ती म यवः ।।४०

ीबालगो ज ना परदारधना ताः ।


उ दता त मत ाया अ पस वा पकायुषः ।।४१

असं कृताः याहीना रजसा तमसाऽऽवृताः ।


जा ते भ य य त ले छा राज य पणः ।।४२
इनके बाद मगध दे शका राजा होगा व - फू ज। यह पूव पुरंजयके अ त र तीय
पुरंजय कहलायेगा। यह ा णा द उ च वण को पु ल द, य और म आ द ले छ ाय
जा तय के पम प रणत कर दे गा ।।३६।। इसक बु इतनी होगी क यह ा ण,
य और वै य का नाश करके शू ाय जनताक र ा करेगा। यह अपने बल-वीयसे
य को उजाड़ दे गा और प वती पुरीको राजधानी बनाकर ह र ारसे लेकर यागपय त
सुर त पृ वीका रा य करेगा ।।३७।। परी त्! य - य घोर क लयुग आता जायगा, य -
य सौरा अव ती, आभीर, शूर, अबुद और मालव दे शके ा णगण सं कारशू य हो जायँगे
तथा राजालोग भी शू तु य हो जायँगे ।।३८।। स धुतट, च भागाका तटवत दे श,
कौ तीपुरी और का मीर-म डलपर ायः शू का, सं कार एवं तेजसे हीन नाममा के
ज का और ले छ का रा य होगा ।।३९।।
परी त्! ये सब-के-सब राजा आचार- वचारम ले छ ाय ह गे। ये सब एक ही समय
भ - भ ा त म रा य करगे। ये सब-के-सब परले सरेके झूठे, अधा मक और व प दान
करनेवाले ह गे। छोट -छोट बात को लेकर ही ये ोधके मारे आगबबूला हो जाया
करगे ।।४०।। ये लोग ी, ब च , गौ , ा ण को मारनेम भी नह हचकगे। सरेक
ी और धन ह थया लेनेके लये ये सवदा उ सुक रहगे। न तो इ ह बढ़ते दे र लगेगी और न तो
घटते। णम तो णम तु । इनक श और आयु थोड़ी होगी ।।४१।। इनम
पर परागत सं कार नह ह गे। ये अपने कत -कमका पालन नह करगे। रजोगुण और
तमोगुणसे अंधे बने रहगे। राजाके वेषम वे ले छ ही ह गे। वे लूट-खसोटकर अपनी जाका
खून चूसगे ।।४२।।

त ाथा ते जनपदा त छ लाचारवा दनः ।

अ यो यतो राज भ यं या य त पी डताः ।।४३


जब ऐसे लोग का शासन होगा, तो दे शक जाम भी वैसे ही वभाव, आचरण और
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भाषणक वृ हो जायगी। राजालोग तो उनका शोषण करगे ही, वे आपसम भी एक-
सरेको उ पी ड़त करगे ओर अ ततः सब-के-सब न हो जायँगे ।।४३।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां ादश क धे थमोऽ यायः ।।१।।

* मौय क सं या च गु तको मलाकर नौ ही होती है। व णुपुराणा दम च गु तसे


पाँचव दशरथ नामके एक और मौयवंशी राजाका उ लेख मलता है। उसीको लेकर यहाँ दस
सं या समझनी चा हये।

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अथ तीयोऽ यायः
क लयुगके धम
ीशुक उवाच
तत ानु दनं धमः स यं शौचं मा दया ।
कालेन ब लना राजन् नङ् य यायुबलं मृ तः ।।१

व मेव कलौ नॄणां ज माचारगुणोदयः ।


धम याय व थायां कारणं बलमेव ह ।।२

दा प येऽ भ चहतुमायैव ावहा रके ।


ी वे पुं वे च ह र त व वे सू मेव ह ।।३

लगमेवा म याताव यो याप कारणम् ।


अवृ या यायदौब यं पा ड ये चापलं वचः ।।४
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! समय बड़ा बलवान् है; य - य घोर क लयुग
आता जायगा, य - य उ रो र धम, स य, प व ता, मा, दया, आयु, बल और
मरणश का लोप होता जायगा ।।१।। क लयुगम जसके पास धन होगा, उसीको लोग
कुलीन, सदाचारी और सद्गुणी मानगे। जसके हाथम श होगी वही धम और यायक
व था अपने अनुकूल करा सकेगा ।।२।। ववाह-स ब धके लये कुल-शील-यो यता
आ दक परख- नरख नह रहेगी, युवक-युवतीक पार प रक चसे ही स ब ध हो जायगा।
वहारक नपुणता स चाई और ईमानदारीम नह रहेगी; जो जतना छल-कपट कर
सकेगा, वह उतना ही वहारकुशल माना जायगा। ी और पु षक े ताका आधार
उनका शील-संयम न होकर केवल र तकौशल ही रहेगा। ा णक पहचान उसके गुण-
वभावसे नह य ोपवीतसे आ करेगी ।।३।। व , द ड-कम डलु आ दसे ही चारी,
सं यासी आ द आ मय क पहचान होगी और एक- सरेका च वीकार कर लेना ही
एकसे सरे आ मम वेशका व प होगा। जो घूस दे ने या धन खच करनेम असमथ होगा,
उसे अदालत से ठ क-ठ क याय न मल सकेगा। जो बोलचालम जतना चालाक होगा, उसे
उतना ही बड़ा प डत माना जायगा ।।४।।

अना तैवासाधु वे साधु वे द भ एव तु ।


वीकार एव चो ाहे नानमेव साधनम् ।।५

रे वाययनं तीथ लाव यं केशधारणम् ।


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उदर भरता वाथः स य वे धा मेव ह ।।६

दा यं कुटु बभरणं यशोऽथ धमसेवनम् ।


एवं जा भ ा भराक ण तम डल ।।७

वट् शू ाणां यो बली भ वता नृपः ।


जा ह लु धै राज यै नघृणैद युधम भः ।।८

आ छ दार वणा या य त ग रकाननम् ।


शाकमूला मष ौ फलपु पा भोजनाः ।।९

अनावृ ा वनङ् य त भ करपी डताः ।

शीतवातातप ावृड् हमैर यो यतः जाः ।।१०

ु ड
ृ ् यां ा ध भ ैव स त य ते च च तया ।
श श तवषा ण परमायुः कलौ नृणाम् ।।११
असाधुताक —दोषी होनेक एक ही पहचान रहेगी—गरीब होना। जो जतना अ धक
द भ-पाख ड कर सकेगा, उसे उतना ही बड़ा साधु समझा जायगा। ववाहके लये एक-
सरेक वीकृ त ही पया त होगी, शा ीय व ध- वधानक —सं कार आ दक कोई
आव यकता न समझी जायगी। बाल आ द सँवारकर कपड़े-ल ेसे लैस हो जाना ही नान
समझा जायगा ।।५।।
लोग रके तालाबको तीथ मानगे और नकटके तीथ गंगा-गोमती, माता- पता आ दक
उपे ा करगे। सरपर बड़े-बड़े बाल—काकुल रखाना ही शरी रक सौ दयका च समझा
जायगा और जीवनका सबसे बड़ा पु षाथ होगा—अपना पेट भर लेना। जो जतनी ढठाईसे
बात कर सकेगा, उसे उतना ही स चा समझा जायगा ।।६।। यो यता चतुराईका सबसे बड़ा
ल ण यह होगा क मनु य अपने कुटु बका पालन कर ले। धमका सेवन यशके लये कया
जायगा। इस कार जब सारी पृ वीपर का बोलबाला हो जायगा, तब राजा होनेका कोई
नयम न रहेगा; ा ण, य, वै य अथवा शू म जो बली होगा, वही राजा बन बैठेगा।
उस समयके नीच राजा अ य त नदय एवं ू र ह गे; लोभी तो इतने ह गे क उनम और
लुटेर म कोई अ तर न कया जा सकेगा। वे जाक पूँजी एवं प नय तकको छ न लगे।
उनसे डरकर जा पहाड़ और जंगल म भाग जायगी। उस समय जा तरह-तरहके शाक,
क द-मूल, मांस, मधु, फल-फूल और बीज-गुठली आ द खा-खाकर अपना पेट
भरेगी ।।७-९।। कभी वषा न होगी—सूखा पड़ जायगा; तो कभी कर-पर-कर लगाये जायँग।े
कभी कड़ाकेक सद पड़ेगी तो कभी पाला पड़ेगा, कभी आँधी चलेगी, कभी गरमी पड़ेगी

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तो कभी बाढ़ आ जायगी। इन उ पात से तथा आपसके संघषसे जा अ य त पी ड़त होगी,
न हो जायगी ।।१०।। लोग भूख- यास तथा नाना कारक च ता से ःखी रहगे। रोग से
तो उ ह छु टकारा ही न मलेगा। क लयुगम मनु य क परमायु केवल बीस या तीस वषक
होगी ।।११।।

ीयमाणेषु दे हेषु दे हनां क लदोषतः ।


वणा मवतां धम न े वेदपथे नृणाम् ।।१२

पाख ड चुरे धम द यु ायेषु राजसु ।


चौयानृतवृथा हसानानावृ षु वै नृषु ।।१३

शू ायेषु वणषु छाग ायासु धेनुषु ।


गृह ाये वा मेषु यौन ायेषु ब धुषु ।।१४

अणु ाया वोषधीषु शमी ायेषु था नुषु ।


व ु ायेषु मेघेषु शू य ायेषु स सु ।।१५

इ थं कलौ गत ाये जने तु खरध म ण ।


धम ाणाय स वेन भगवानवत र य त ।।१६

चराचरगुरो व णोरी र या खला मनः ।


धम ाणाय साधूनां ज म कमापनु ये ।।१७

स भल ाममु य य ा ण य महा मनः ।


भवने व णुयशसः क कः ा भ व य त ।।१८
परी त्! क लकालके दोषसे ा णय के शरीर छोटे -छोटे , ीण और रोग त होने
लगगे। वण और आ म का धम बतलानेवाला वेद-माग न ाय हो जायगा ।।१२।। धमम
पाख डक धानता हो जायगी। राजे-महाराजे डाकू-लुटेर के समान हो जायँग।े मनु य चोरी,
झूठ तथा नरपराध हसा आ द नाना कारके कुकम से जी वका चलाने लगगे ।।१३।। चार
वण के लोग शू के समान हो जायँग।े गौएँ बक रय क तरह छोट -छोट और कम ध
दे नेवाली हो जायँगी। वान थी और सं यासी आ द वर आ मवाले भी घर-गृह थी
जुटाकर गृह थ का-सा ापार करने लगगे। जनसे वैवा हक स ब ध है, उ ह को अपना
स ब धी माना जायगा ।।१४।।
धान, जौ, गे ँ आ द धा य के पौधे छोटे -छोटे होने लगगे। वृ म अ धकांश शमीके
समान छोटे और कँट ले वृ ही रह जायँग।े बादल म बजली तो ब त चमकेगी, पर तु वषा
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कम होगी। गृह थ के घर अ त थ-स कार या वेद व नसे र हत होनेके कारण अथवा
जनसं या घट जानेके कारण सून-े सूने हो जायँगे ।।१५।। परी त्! अ धक या कह—
क लयुगका अ त होते-होते मनु य का वभाव गध -जैसा ःसह बन जायगा, लोग ायः
गृह थीका भार ढोनेवाले और वषयी हो जायँग।े ऐसी थ तम धमक र ा करनेके लये
स वगुण वीकार करके वयं भगवान् अवतार हण करगे ।।१६।।
य परी त्! सव ापक भगवान् व णु सवश मान् ह। वे सव व प होनेपर भी
चराचर जगत्के स चे श क—सद्गु ह। वे साधु—स जन पु ष के धमक र ाके लये,
उनके कमका ब धन काटकर उ ह ज म-मृ युके च से छु ड़ानेके लये अवतार हण करते
ह ।।१७।। उन दन श भल- ामम व णुयश नामके एक े ा ण ह गे। उनका दय बड़ा
उदार एवं भगव से पूण होगा। उ ह के घर क कभगवान् अवतार हण करगे ।।१८।।
ीभगवान् ही अ स य के और सम त सद्गुण के एकमा आ य ह। सम त चराचर
जगत्के वे ही र क और वामी ह। वे दे वद नामक शी गामी घोड़ेपर सवार होकर को
तलवारके घाट उतारकर ठ क करगे ।।१९।। उनके रोम-रोमसे अतुलनीय तेजक करण
छटकती ह गी। वे अपने शी गामी घोड़ेसे पृ वीपर सव वचरण करगे और राजाके वेषम
छपकर रहनेवाले को ट-को ट डाकु का संहार करगे ।।२०।।

अ माशुगमा दे वद ं जग प तः ।
अ सनासाधुदमनम ै यगुणा वतः ।।१९

वचर ाशुना ो यां हयेना तम ु तः ।


नृप लग छदो द यून् को टशो नह न य त ।।२०

अथ तेषां भ व य त मनां स वशदा न वै ।


वासुदेवांगरागा तपु यग धा नल पृशाम् ।
पौरजानपदानां वै हते व खलद युषु ।।२१

तेषां जा वसग थ व ः स भ व य त ।
वासुदेवे भगव त स वमूत द थते ।।२२

यदावतीण भगवान् क कधमप तह रः ।


कृतं भ व य त तदा जासू त सा वक ।।२३

यदा च सूय तथा त यबृह पती ।


एकराशौ समे य त तदा भव त तत् कृतम् ।।२४

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येऽतीता वतमाना ये भ व य त च पा थवाः ।
ते त उ े शतः ो ा वंशीयाः सोमसूययोः ।।२५

आर य भवतो ज म याव दा भषेचनम् ।


एतद् वषसह ं तु शतं पंचदशो रम् ।।२६

स तष णां तु यौ पूव येते उ दतौ द व ।


तयो तु म ये न ं यते यत् समं न श ।।२७

तेनैत ऋषयो यु ा त य दशतं नृणाम् ।


ये वद ये जाः काले अधुना चा ता मघाः ।।२८
य परी त्! जब सब डाकु का संहार हो चुकेगा, तब नगरक और दे शक सारी
जाका दय प व तासे भर जायगा; य क भगवान् क कके शरीरम लगे ए अंगरागका
पश पाकर अ य त प व ई वायु उनका पश करेगी और इस कार वे भगवान्के
ी व हक द ग ध ा त कर सकगे ।।२१।। उनके प व दय म स वमू त भगवान्
वासुदेव वराजमान ह गे और फर उनक स तान पहलेक भाँ त -पु और बलवान् होने
लगेगी ।।२२।। जाके नयन-मनोहारी ह र ही धमके र क और वामी ह। वे ही भगवान् जब
क कके पम अवतार हण करगे, उसी समय स ययुगका ार भ हो जायगा और जाक
स तान-पर परा वयं ही स वगुणसे यु हो जायगी ।।२३।। जस समय च मा, सूय और
बृह प त एक ही समय एक ही साथ पु य न के थम पलम वेश करके एक रा शपर
आते ह, उसी समय स ययुगका ार भ होता है ।।२४।।
परी त्! च वंश और सूयवंशम जतने राजा हो गये ह या ह गे, उन सबका मने
सं ेपसे वणन कर दया ।।२५।। तु हारे ज मसे लेकर राजा न दके अ भषेकतक एक हजार
एक सौ पं ह वषका समय लगेगा ।।२६।। जस समय आकाशम स त षय का उदय होता है,
उस समय पहले उनमसे दो ही तारे दखायी पड़ते ह। उनके बीचम द णो र रेखापर
समभागम अ नी आ द न मसे एक न दखायी पड़ता है ।।२७।। उस न के साथ
स त षगण मनु य क गणनासे सौ वषतक रहते ह। वे तु हारे ज मके समय और इस समय
भी मघा न पर थत ह ।।२८।।

व णोभगवतो भानुः कृ णा योऽसौ दवं गतः ।


तदा वशत् क लल कं पापे यद् रमते जनः ।।२९

यावत् स पादप ा यां पृश ा ते रमाप तः ।


तावत् क लव पृ थव पराका तुं न चाशकत् ।।३०

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यदा दे वषयः स त मघासु वचर त ह ।
तदा वृ तु क ल ादशा दशता मकः ।।३१

यदा मघा यो या य त पूवाषाढां महषयः ।


तदा न दात् भू येष क लवृ ग म य त ।।३२

य मन् कृ णो दवं यात त म ेव तदाह न ।


तप ं क लयुग म त ा ः पुरा वदः ।।३३

द ा दानां सह ा ते चतुथ तु पुनः कृतम् ।


भ व य त यदा नॄणां मन आ म काशकम् ।।३४

इ येष मानवो वंशो यथा सं यायते भु व ।


तथा वट् शू व ाणां ता ता ेया युगे युगे ।।३५

एतेषां नाम लगानां पु षाणां महा मनाम् ।


कथामा ाव श ानां क तरेव थता भु व ।।३६

दे वा पः श तनो ाता म े वाकुवंशजः ।


कलाप ाम आसाते महायोगबला वतौ ।।३७
वयं सव ापक सवश मान् भगवान् ही शु स वमय व हके साथ ीकृ णके
पम कट ए थे। वे जस समय अपनी लीला संवरण करके परमधामको पधार गये, उसी
समय क लयुगने संसारम वेश कया। उसीके कारण मनु य क म त-ग त पापक ओर
ढु लक गयी ।।२९।। जबतक ल मीप त भगवान् ीकृ ण अपने चरणकमल से पृ वीका पश
करते रहे, तबतक क लयुग पृ वीपर अपना पैर न जमा सका ।।३०।। परी त्! जस समय
स त ष मघान पर वचरण करते रहते ह, उसी समय क लयुगका ार भ होता है।
क लयुगक आयु दे वता क वषगणनासे बारह सौ वष क अथात् मनु य क गणनाके
अनुसार चार लाख ब ीस हजार वषक है ।।३१।। जस समय स त ष मघासे चलकर
पूवाषाढ़ान म जा चुके ह गे, उस समय राजा न दका रा य रहेगा। तभीसे क लयुगक
वृ शु होगी ।।३२।। पुरात ववे ा ऐ तहा सक व ान का कहना है क जस दन
भगवान् ीकृ णने अपने परम-धामको याण कया, उसी दन, उसी समय क लयुगका
ार भ हो गया ।।३३।। परी त्! जब दे वता क वषगणनाके अनुसार एक हजार वष बीत
चुकगे, तब क लयुगके अ तम दन म फरसे क कभगवान्क कृपासे मनु य के मनम
सा वकताका संचार होगा, लोग अपने वा त वक व पको जान सकगे और तभीसे
स ययुगका ार भ भी होगा ।।३४।।
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परी त्! मने तो तुमसे केवल मनुवंशका, सो भी सं ेपसे वणन कया है। जैसे
मनुवंशक गणना होती है, वैसे ही येक युगम ा ण, वै य और शू क भी वंशपर परा
समझनी चा हये ।।३५।। राजन्! जन पु ष और महा मा का वणन मने तुमसे कया है,
अब केवल नामसे ही उनक पहचान होती है। अब वे नह ह, केवल उनक कथा रह गयी है।
अब उनक क त ही पृ वीपर जहाँ-तहाँ सुननेको मलती है ।।३६।। भी म पतामहके पता
राजा श तनुके भाई दे वा प और इ वाकुवंशी म इस समय कलाप- ामम थत ह। वे ब त
बड़े योगबलसे यु ह ।।३७।। क लयुगके अ तम क कभगवान्क आ ासे वे फर यहाँ
आयगे और पहलेक भाँ त ही वणा मधमका व तार करगे ।।३८।। स ययुग, ेता, ापर
और क लयुग—ये ही चार युग ह; ये पूव मके अनुसार अपने-अपने समयम पृ वीके
ा णय पर अपना भाव दखाते रहते ह ।।३९।। परी त्! मने तुमसे जन राजा का
वणन कया है, वे सब और उनके अ त र सरे राजा भी इस पृ वीको ‘मेरी-मेरी’ करते रहे,
पर तु अ तम मरकर धूलम मल गये ।।४०।। इस शरीरको भले ही कोई राजा कह ले; पर तु
अ तम यह क ड़ा, व ा अथवा राखके पम ही प रणत होगा, राख ही होकर रहेगा। इसी
शरीरके या इसके स ब धय के लये जो कसी भी ाणीको सताता है, वह न तो अपना
वाथ जानता है और न तो परमाथ। य क ा णय को सताना तो नरकका ार है ।।४१।।
वे लोग यही सोचा करते ह क मेरे दादा-परदादा इस अख ड भूम डलका शासन करते थे;
अब यह मेरे अधीन कस कार रहे और मेरे बाद मेरे बेटे-पोते, मेरे वंशज कस कार इसका
उपभोग कर ।।४२।। वे मूख इस आग, पानी और म के शरीरको अपना आपा मान बैठते ह
और बड़े अ भमानके साथ ड ग हाँकते ह क यह पृ वी मेरी है। अ तम वे शरीर और पृ वी
दोन को छोड़कर वयं ही अ य हो जाते ह ।।४३।। य परी त्! जो-जो नरप त बड़े
उ साह और बल-पौ षसे इस पृ वीके उपभोगम लगे रहे, उन सबको कालने अपने वकराल
गालम धर दबाया। अब केवल इ तहासम उनक कहानी ही शेष रह गयी है ।।४४।।

ता वहै य कलेर ते वासुदेवानु श तौ ।


वणा मयुतं धम पूववत् थ य यतः ।।३८

कृतं ेता ापरं च क ल े त चतुयुगम् ।


अनेन मयोगेन भु व ा णषु वतते ।।३९

राज ेते मया ो ा नरदे वा तथापरे ।


भूमौ मम वं कृ वा ते ह वेमां नधनं गताः ।।४०

कृ म वड् भ मसं ा ते राजना नोऽ प य य च ।


भूत ुक् त कृते वाथ क वेद नरयो यतः ।।४१

कथं सेयमख डा भूः पूवम पु षैधृता ।


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म पु य च पौ य म पूवा वंशज य वा ।।४२

तेजोऽब मयं कायं गृही वाऽऽ मतयाबुधाः ।


मह ममतया चोभौ ह वा तेऽदशनं गताः ।।४३

ये ये भूपतयो राजन् भुंज त भुवमोजसा ।


कालेन ते कृताः सव कथामा ाः कथासु च ।।४४
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां ादश क धे तीयोऽ यायः ।।२।।

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अथ तृतीयोऽ यायः
रा य, युगधम और क लयुगके दोष से बचनेका उपाय—नामसंक तन
ीशुक उवाच
् वाऽऽ म न जये ान् नृपान् हस त भू रयम् ।
अहो मा व जगीष त मृ योः डनका नृपाः ।।१
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! जब पृ वी दे खती है क राजा लोग मुझपर वजय
ा त करनेके लये उतावले हो रहे ह, तब वह हँसने लगती है और कहती है—“ कतने
आ यक बात है क ये राजा लोग, जो वयं मौतके खलौने ह, मुझे जीतना चाहते ह ।।१।।
राजा से यह बात छपी नह है क वे एक-न-एक दन मर जायँगे, फर भी वे थम ही
मुझे जीतनेक कामना करते ह। सचमुच इस कामनासे अंधे होनेके कारण ही वे पानीके
बुलबुलेके समान णभंगुर शरीरपर व ास कर बैठते ह और धोखा खाते ह ।।२।। वे सोचते
ह क ‘हम पहले मनके स हत अपनी पाँच इ य पर वजय ा त करगे—अपने भीतरी
श ु को वशम करगे; य क इनको जीते बना बाहरी श ु को जीतना क ठन है। उसके
बाद अपने श ुके म य , अमा य , नाग रक , नेता और सम त सेनाको भी वशम कर
लगे। जो भी हमारे वजय-मागम काँटे बोयेगा, उसे हम अव य जीत लगे ।।३।। इस कार
धीरे-धीरे मसे सारी पृ वी हमारे अधीन हो जायगी और फर तो समु ही हमारे रा यक
खा का काम करेगा।’ इस कार वे अपने मनम अनेक आशाएँ बाँध लेते ह और उ ह यह
बात बलकुल नह सूझती क उनके सरपर काल सवार है ।।४।। यह तक नह , जब एक
प उनके वशम हो जाता है, तब वे सरे पपर वजय करनेके लये बड़ी श और
उ साहके साथ समु या ा करते ह। अपने मनको, इ य को वशम करके लोग मु ात
करते ह, पर तु ये लोग उनको वशम करके भी थोड़ा-सा भूभाग ही ा त करते ह। इतने
प र म और आ मसंयमका यह कतना तु छ फल है!” ।।५।। परी त्! पृ वी कहती है क
‘बड़े-बड़े मनु और उनके वीर पु मुझे य -क - य छोड़कर जहाँसे आये थे, वह खाली
हाथ लौट गये, मुझे अपने साथ न ले जा सके। अब ये मूख राजा मुझे यु म जीतकर वशम
करना चाहते ह ।।६।। जनके च म यह बात ढ़ मूल हो गयी है क यह पृ वी मेरी है, उन
के रा यम मेरे लये पता-पु और भाई-भाई भी आपसम लड़ बैठते ह ।।७।।
काम एष नरे ाणां मोघः याद् व षाम प ।
येन फेनोपमे प डे येऽ त व भता नृपाः ।।२

पूव न ज य षड् वग जे यामो राजम णः ।


ततः स चवपौरा तकरी ान य क टकान् ।।३

एवं मेण जे यामः पृ व सागरमेखलाम् ।


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इ याशाब दया न प य य तकेऽ तकम् ।।४

समु ावरणां ज वा मां वश य धमोजसा ।


कयदा मजय यैत मु रा मजये फलम् ।।५

यां वसृ यैव मनव त सुता कु ह।


गता यथागतं यु े तां मां जे य यबु यः ।।६

म कृते पतृपु ाणां ातॄणां चा प व हः ।


जायते सतां रा ये ममताब चेतसाम् ।।७

ममैवेयं मही कृ ना न ते मूढे त वा दनः ।


पधमाना मथो न त य ते म कृते नृपाः ।।८
वे पर पर इस कार कहते ह क ‘ओ मूढ़! यह सारी पृ वी मेरी ही है, तेरी नह ’, इस
कार राजा लोग एक- सरेको कहते-सुनते ह, एक- सरेसे प ा करते ह, मेरे लये एक-
सरेको मारते ह और वयं मर मटते ह ।।८।।

पृथुः पु रवा गा धन षो भरतोऽजुनः ।


मा धाता सगरो रामः खट् वांगो धु धुहा रघुः ।।९
तृण ब यया त शया तः श तनुगयः ।
भगीरथः कुवलया ः ककु थो नैषधो नृगः ।।१०
हर यक शपुवृ ो रावणो लोकरावणः ।
नमु चः श बरो भौमो हर या ोऽथ तारकः ।।११
अ ये च बहवो दै या राजानो ये महे राः ।
सव सव वदः शूराः सव सव जतोऽ जताः ।।१२
ममतां म यवत त कृ वो चैम यध मणः ।
कथावशेषाः कालेन कृताथाः कृता वभो ।।१३
कथा इमा ते क थता महीयसां
वताय लोकेषु यशः परेयुषाम् ।
व ानवैरा य वव या वभो
वचो वभूतीन तु पारमा यम् ।।१४
य तू म ोकगुणानुवादः
संगीयतेऽभी णममंगल नः ।

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तमेव न यं शृणुयादभी णं
कृ णेऽमलां भ मभी समानः ।।१५
राजोवाच
केनोपायेन भगवन् कलेद षान् कलौ जनाः ।
वध म य युप चतां त मे ू ह यथा मुने ।।१६
युगा न युगधमा मानं लयक पयोः ।
काल ये र प य ग त व णोमहा मनः ।।१७
पृथु, पु रवा, गा ध, न ष, भरत, सह बा , अजुन, मा धाता, सगर, राम, खट् वांग,
धु धुमार, रघु, तृण ब , यया त, शया त, श तनु, गय, भगीरथ, कुवलया , ककु थ, नल,
नृग, हर यक शपु, वृ ासुर, लोक ोही रावण, नमु च, श बर, भौमासुर, हर या और
तारकासुर तथा और ब त-से दै य एवं श शाली नरप त हो गये। ये सब लोग सब कुछ
समझते थे, शूर थे, सभीने द वजयम सर को हरा दया; क तु सरे लोग इ ह न जीत
सके, पर तु सब-के-सब मृ युके ास बन गये। राजन्! उ ह ने अपने पूरे अ तःकरणसे मुझसे
ममता क और समझा क ‘यह पृ वी मेरी है’। पर तु वकराल कालने उनक लालसा पूरी न
होने द । अब उनके बल-पौ ष और शरीर आ दका कुछ पता ही नह है। केवल उनक
कहानी मा शेष रह गयी है ।।९-१३।।
परी त्! संसारम बड़े-बड़े तापी और महान् पु ष ए ह। वे लोक म अपने यशका
व तार करके यहाँसे चल बसे। मने तु ह ान और वैरा यका उपदे श करनेके लये ही उनक
कथा सुनायी है। यह सब वाणीका वलास मा है। इसम पारमा थक स य कुछ भी नह
है ।।१४।। भगवान् ीकृ णका गुणानुवाद सम त अमंगल का नाश करनेवाला है, बड़े-बड़े
महा मा उसीका गान करते रहते ह। जो भगवान् ीकृ णके चरण म अन य ेममयी भ क
लालसा रखता हो, उसे न य- नर तर भगवान्के द गुणानुवादका ही वण करते रहना
चा हये ।।१५।।
राजा परी त्ने पूछा—भगवन्! मुझे तो क लयुगम रा श-रा श दोष ही दखायी दे रहे
ह। उस समय लोग कस उपायसे उन दोष का नाश करगे। इसके अ त र युग का व प,
उनके धम, क पक थ त और लयकालके मान एवं सव ापक सवश मान् भगवान्के
काल पका भी यथावत् वणन क जये ।।१६-१७।।
ीशुक उवाच
कृते वतते धम तु पा जनैधृतः१ ।
स यं दया तपो दान म त पादा वभोनृप ।।१८

स तु ाः क णा मै ाः शा ता दा ता त त वः ।

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आ मारामाः सम शः ायशः मणा२ जनाः ।।१९

े ायां धमपादानां तुयाशो हीयते शनैः ।



अधमपादै रनृत हसास तोष व हैः ।।२०

तदा यातपो न ा ना त ह ा३ न ल पटाः ।


ैव गका यीवृ ा वणा ो रा नृप ।।२१

तपःस यदयादाने वध स त ापरे ।


हसातु नृत े षैधम याधमल णैः ।।२२

यश वनो महाशालाः वा याया ययने रताः ।


आ ाः कुटु बनो ा वणाः जो राः४ ।।२३

कलौ तु धमहेतूनां तुयाशोऽधमहेतु भः ।


एधमानैः ीयमाणो ते सोऽ प वनङ् य त ।।२४
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! स ययुगम धमके चार चरण होते ह; वे चरण ह—
स य, दया, तप और दान। उस समयके लोग पूरी न ाके साथ अपने-अपने धमका पालन
करते ह। धम वयं भगवान्का व प है ।।१८।।
स ययुगके लोग बड़े स तोषी और दयालु होते ह। वे सबसे म ताका वहार करते और
शा त रहते ह। इ याँ और मन उनके वशम रहते ह और सुख- ःख आ द को वे समान
भावसे सहन करते ह। अ धकांश लोग तो समदश और आ माराम होते ह और बाक लोग
व प- थ तके लये अ यासम त पर रहते ह ।।१९।। परी त्! धमके समान अधमके भी
चार चरण ह—अस य, हसा, अस तोष और कलह। ेतायुगम इनके भावसे धीरे-धीरे
धमके स य आ द चरण का चतुथाश ीण हो जाता है ।।२०।। राजन्! उस समय वण म
ा ण क धानता अ ु ण रहती है। लोग म अ य त हसा और ल पटताका अभाव रहता
है। सभी लोग कमका ड और तप याम न ा रखते ह और अथ, धम एवं काम प वगका
सेवन करते ह। अ धकांश लोग कम तपादक वेद के पारदश व ान् होते ह ।।२१।।
ापरयुगम हसा, अस तोष, झूठ और े ष—अधमके इन चरण क वृ हो जाती है एवं
इनके कारण धमके चार चरण—तप या, स य, दया और दान आधे-आधे ीण हो जाते
ह ।।२२।। उस समयके लोग बड़े यश वी, कमका डी और वेद के अ ययन-अ यापनम बड़े
त पर होते ह। लोग के कुटु ब बड़े-बड़े होते ह, ायः लोग धना एवं सुखी होते ह। उस
समय वण म य और ा ण दो वण क धानता रहती है ।।२३।। क लयुगम तो
अधमके चार चरण अ य त बढ़ जाते ह। उनके कारण धमके चार चरण ीण होने लगते ह
और उनका चतुथाश ही बच रहता है। अ तम तो उस चतुथाशका भी लोप हो जाता
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है ।।२४।।

त मँ लु धा राचारा नदयाः शु कवै रणः ।


भगा भू रतषा शू दाशो राः जाः ।।२५

स वं रज तम इ त य ते पु षे गुणाः ।
कालसंचो दता ते वै प रवत त आ म न ।।२६

भव त यदा स वे मनोबु या ण च ।
तदा कृतयुगं व ा ाने तप स यद् चः ।।२७

यदा१ धमाथकामेषु भ भव त दे हनाम् ।


तदा ेता रजोवृ र त जानी ह२ बु मन् ।।२८

यदा लोभ वस तोषो मानो द भोऽथ म सरः ।


कमणां चा प का यानां ापरं तद् रज तमः ।।२९

यदा मायानृतं त ा न ा हसा वषादनम् ।


शोको मोहो भयं दै यं स क ल तामसः मृतः ।।३०

य मात् ु शो म याः ु भा या महाशनाः ।


का मनो व हीना वै र य योऽसतीः ।।३१
क लयुगम लोग लोभी, राचारी और कठोर दय होते ह। वे झूठमूठ एक- सरेसे वैर
मोल ले लेते ह, एवं लालसा-तृ णाक तरंग म बहते रहते ह। उस समयके अभागे लोग म शू ,
केवट आ दक ही धानता रहती है ।।२५।।
सभी ा णय म तीन गुण होते ह—स व, रज और तम। कालक ेरणासे समय-समयपर
शरीर, ाण और मनम उनका ास और वकास भी आ करता है ।।२६।। जस समय मन,
बु और इ याँ स वगुणम थत होकर अपना-अपना काम करने लगती ह, उस समय
स ययुग समझना चा हये। स वगुणक धानताके समय मनु य ान और तप यासे अ धक
ेम करने लगता है ।।२७।। जस समय मनु य क वृ और च धम, अथ और लौ कक-
पारलौ कक सुख-भोग क ओर होती है तथा शरीर, मन एवं इ याँ रजोगुणम थत होकर
काम करने लगती ह—बु मान् परी त्! समझना चा हये क उस समय ेतायुग अपना
काम कर रहा है ।।२८।। जस समय लोभ, अस तोष, अ भमान, द भ और म सर आ द
दोष का बोलबाला हो और मनु य बड़े उ साह तथा चके साथ सकाम कम म लगना चाहे,
उस समय ापरयुग समझना चा हये। अव य ही रजोगुण और तमोगुणक म त
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धानताका नाम ही ापरयुग है ।।२९।। जस समय झूठ-कपट, त ा- न ा, हसा- वषाद,
शोक-मोह, भय और द नताक धानता हो, उसे तमोगुण- धान क लयुग समझना
चा हये ।।३०।। जब क लयुगका रा य होता है, तब लोग क ु हो जाती है; अ धकांश
लोग होते तो ह अ य त नधन, पर तु खाते ह ब त अ धक। उनका भा य तो होता है ब त
ही म द और च म कामनाएँ होती ह ब त बड़ी-बड़ी। य म ता और कुलटापनक
वृ हो जाती है ।।३१।।

द यू कृ ा जनपदा वेदाः पाख ड षताः ।


राजान जाभ ाः श ोदरपरा जाः ।।३२

अ ता वटवोऽशौचा भ व कुटु बनः ।


तप वनो ामवासा या सनोऽ यथलोलुपाः ।।३३

वकाया महाहारा भूयप या गत यः ।


श कटु कभा ष य ौयमायो साहसाः ।।३४

पण य य त वै ु ाः कराटाः कूटका रणः ।


अनाप प मं य ते वाता साधुजुगु सताम् ।।३५

प त य य त न ं भृ या अ य खलो मम् ।
भृ यं वप ं पतयः कौलं गा ापय वनीः ।।३६

पतृ ातृसु ातीन् ह वा सौरतसौ दाः ।


नना यालसंवादा द नाः ैणाः कलौ नराः ।।३७
सारे दे शम, गाँव-गाँवम लुटेर क धानता एवं चुरता हो जाती है। पाख डी लोग अपने
नये-नये मत चलाकर मनमाने ढं गसे वेद का ता पय नकालने लगते ह और इस कार उ ह
कलं कत करते ह। राजा कहलानेवाले लोग जाक सारी कमाई हड़पकर उ ह चूसने लगते
ह। ा णनामधारी जीव पेट भरने और जनने यको तृ त करनेम ही लग जाते ह ।।३२।।
चारी लोग चय तसे र हत और अप व रहने लगते ह। गृह थ सर को भ ा दे नेके
बदले वयं भीख माँगने लगते ह, वान थी गाँव म बसने लगते ह और सं यासी धनके
अ य त लोभी—अथ पशाच हो जाते ह ।।३३।। य का आकार तो छोटा हो जाता है, पर
भूख बढ़ जाती है। उ ह स तान ब त अ धक होती है और वे अपनी कुल-मयादाका उ लंघन
करके लाज-हया—जो उनका भूषण है—छोड़ बैठती ह। वे सदा-सवदा कड़वी बात कहती
रहती ह और चोरी तथा कपटम बड़ी नपुण हो जाती ह। उनम साहस भी ब त बढ़ जाता
है ।।३४।। ापा रय के दय अ य त ु हो जाते ह। वे कौड़ी—कौड़ीसे लपटे रहते और

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छदाम-छदामके लये धोखाधड़ी करने लगते ह। और तो या—आप काल न होनेपर तथा
धनी होनेपर भी वे न न ेणीके ापार को, जनक स पु ष न दा करते ह, ठ क समझने
और अपनाने लगते ह ।।३५।।
वामी चाहे सव े ही य न ह —जब सेवक लोग दे खते ह क इसके पास धन-दौलत
नह रही, तब उसे छोड़कर भाग जाते ह। सेवक चाहे कतना ही पुराना य न हो—पर तु
जब वह कसी वप म पड़ जाता है, तब वामी उसे छोड़ दे ते ह, और तो या, जब गौएँ
बकेन हो जाती ह— ध दे ना ब द कर दे ती ह, तब लोग उनका भी प र याग कर दे ते
ह ।।३६।।
य परी त्! क लयुगके मनु य बड़े ही ल पट हो जाते ह, वे अपनी कामवासनाको
तृ त करनेके लये ही कसीसे ेम करते ह। वे वषयवासनाके वशीभूत होकर इतने द न हो
जाते ह क माता- पता, भाई-ब धु और म को भी छोड़कर केवल अपनी साली और
साल से ही सलाह लेने लगते ह ।।३७।। शू तप वय का वेष बनाकर अपना पेट भरते और
दान लेने लगते ह। ज ह धमका र ीभर भी ान नह है, वे ऊँचे सहासनपर वराजमान
होकर धमका उपदे श करने लगते ह ।।३८।। य परी त्! क लयुगक जा सूखा पड़नेके
कारण अ य त भयभीत और आतुर हो जाती है। एक तो भ और सरे शासक क कर-
वृ ! जाके शरीरम केवल अ थपंजर और मनम केवल उ े ग शेष रह जाता है। ाण-
र ाके लये रोट का टु कड़ा मलना भी क ठन हो जाता है ।।३९।। क लयुगम जा शरीर
ढकनेके लये व और पेटक वाला शा त करनेके लये रोट , पीनेके लये पानी और
सोनेके लये दो हाथ जमीनसे भी वं चत हो जाती है। उसे दा प य-जीवन, नान और
आभूषण पहननेतकक सु वधा नह रहती। लोग क आकृ त, कृ त और चे ाएँ
पशाच क -सी हो जाती ह ।।४०।। क लयुगम लोग, अ धक धनक तो बात ही या, कुछ
कौ ड़य के लये आपसम वैर- वरोध करने लगते और ब त दन के सद्भाव तथा म ताको
तलांज ल दे दे ते ह। इतना ही नह , वे दमड़ी-दमड़ीके लये अपने सगे-स ब धय तकक
ह या कर बैठते और अपने य ाण से भी हाथ धो बैठते ह ।।४१।। परी त्! क लयुगके
ु ाणी केवल कामवासनाक पू त और पेट भरनेक धुनम ही लगे रहते ह। पु अपने बूढ़े
मा-बापक भी र ा—पालन-पोषण नह करते, उनक उपे ा कर दे ते ह और पता अपने
नपुण-से- नपुण, सब काम म यो य पु क भी परवा नह करते, उ ह अलग कर दे ते
ह ।।४२।।

शू ाः त ही य त तपोवेषोपजी वनः ।
धम व य यधम ा अ ध ो मासनम् ।।३८

न यमु नमनसो भ करक शता ।


नर े भूतले राज नावृ भयातुराः ।।३९

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वासोऽ पानशयन वाय नानभूषणैः ।
हीनाः पशाचस दशा भ व य त कलौ जाः ।।४०

कलौ का क णकेऽ यथ वगृ य सौ दाः ।


य य त च यान् ाणान् ह न य त वकान प ।।४१

न र य त मनुजाः थ वरौ पतराव प ।


पु ान् सवाथकुशलान् ु ाः श ोदर भराः ।।४२

कलौ न राज गतां परं गु ं


लोकनाथानतपादपंकजम् ।
ायेण म या भगव तम युतं
य य त पाख ड व भ चेतसः ।।४३
परी त्! ीभगवान् ही चराचर जगत्के परम पता और परम गु ह। इ - ा आ द
लोका धप त उनके चरणकमल म अपना सर झुकाकर सव व समपण करते रहते ह।
उनका ऐ य अन त है और वे एकरस अपने व पम थत ह। पर तु क लयुगम लोग म
इतनी मूढ़ता फैल जाती है, पाख डय के कारण लोग का च इतना भटक जाता है क
ायः लोग अपने कम और भावना के ारा भगवान्क पूजासे भी वमुख हो जाते
ह ।।४३।।

य ामधेयंयमाण आतुरः
पतन् खलन् वा ववशो गृणन् पुमान् ।
वमु कमागल उ मां ग त
ा ो त य य त न तं कलौ जनाः ।।४४

पुंसां क लकृतान् दोषान् दे शा मस भवान् ।


सवान् हर त च थो भगवान् पु षो मः ।।४५

ु ः संक ततो यातः पू जत ा तोऽ प वा ।



नृणां धुनो त भगवान् थो ज मायुताशुभम् ।।४६

यथा हे न थतो व वण ह त धातुजम् ।


एवमा मगतो व णुय गनामशुभाशयम् ।।४७

व ातपः ाण नरोधमै ी-

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तीथा भषेक तदानज यैः ।
ना य तशु लभतेऽ तरा मा
यथा द थे भगव यन ते ।।४८

त मात् सवा मना राजन् द थं कु केशवम् ।


यमाणो व हत ततो या स परां ग तम् ।।४९

यमाणैर भ येयो भगवान् परमे रः ।


आ मभावं नय यंग सवा मा सवसं यः ।।५०
मनु य मरनेके समय आतुरताक थ तम अथवा गरते या फसलते समय ववश होकर
भी य द भगवान्के कसी एक नामका उ चारण कर ले, तो उसके सारे कमब धन छ - भ
हो जाते ह और उसे उ म-से-उ म ग त ा त होती है। पर तु हाय रे क लयुग! क लयुगसे
भा वत होकर लोग उन भगवान्क आराधनासे भी वमुख हो जाते ह ।।४४।।
परी त्! क लयुगके अनेक दोष ह। कुल व तुएँ षत हो जाती ह, थान म भी दोषक
धानता हो जाती है। सब दोष का मूल ोत तो अ तःकरण है ही, पर तु जब
पु षो मभगवान् दयम आ वराजते ह, तब उनक स धमा से ही सब-के-सब दोष न
हो जाते ह ।।४५।। भगवान्के प, गुण, लीला, धाम और नामके वण, संक तन, यान,
पूजन और आदरसे वे मनु यके दयम आकर वराजमान हो जाते ह। और एक-दो ज मके
पाप को तो बात ही या, हजार ज म के पापके ढे र-के-ढे र भी णभरम भ म कर दे ते
ह ।।४६।। जैसे सोनेके साथ संयु होकर अ न उसके धातुस ब धी म लनता आ द दोष को
न कर दे ती है, वैसे ही साधक के दयम थत होकर भगवान् व णु उनके अशुभ
सं कार को सदाके लये मटा दे ते ह ।।४७।। परी त्! व ा, तप या, ाणायाम, सम त
ा णय के त म भाव, तीथ नान, त, दान और जप आ द कसी भी साधनसे मनु यके
अ तःकरणक वैसी वा त वक शु नह होती, जैसी शु भगवान् पु षो मके दयम
वराजमान हो जानेपर होती है ।।४८।।
परी त्! अब तु हारी मृ युका समय नकट आ गया है। अब सावधान हो जाओ। पूरी
श से और अ तःकरणक सारी वृ य से भगवान् ीकृ णको अपने दय सहासनपर बैठा
लो। ऐसा करनेसे अव य ही तु ह परमग तक ा त होगी ।।४९।।
जो लोग मृ युके नकट प ँच रहे ह, उ ह सब कारसे परम ऐ यशाली भगवान्का ही
यान करना चा हये। यारे परी त्! सबके परम आ य और सवा मा भगवान् अपना यान
करनेवालेको अपने व पम लीन कर लेते ह, उसे अपना व प बना लेते ह ।।५०।।

कलेद ष नधे राज त ेको महान् गुणः ।


क तनादे व कृ ण य मु संगः परं जेत् ।।५१

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कृते यद् यायतो व णुं ेतायां यजतो मखैः ।
ापरे प रचयायां कलौ त रक तनात् ।।५२
परी त्! य तो क लयुग दोष का खजाना है, पर तु इसम एक ब त बड़ा गुण है। वह
गुण यही है क क लयुगम केवल भगवान् ीकृ णका संक तन करनेमा से ही सारी
आस याँ छू ट जाती ह और परमा माक ा त हो जाती है ।।५१।। स ययुगम भगवान्का
यान करनेसे, ेताम बड़े-बड़े य के ारा उनक आराधना करनेसे और ापरम व ध-पूवक
उनक पूजा-सेवासे जो फल मलता है, वह क लयुगम केवल भगव ामका क तन करनेसे ही
ा त हो जाता है ।।५२।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां ादश क धे तृतीयोऽ यायः ।।३।।

१. यादो जनै०। २. सुमहाजनाः। ३. सा। ४. माः।


१. यदा कमसु का येषु भ यश स दे हनाम्। २. नीत बु मान्।

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अथ चतुथ ऽ यायः
चार कारके लय
ीशुक उवाच
काल ते परमा वा द पराधाव धनृप ।
क थतो युगमानं च शृणु क पलयाव प ।।१

चतुयुगसह ं च णो दनमु यते ।


स क पो य मनव तुदश वशांपते ।।२

तद ते लय तावान् ा ी रा दा ता ।
यो लोका इमे त क प ते लयाय ह ।।३

एष नै म कः ो ः लयो य व सृक् ।
शेतेऽन तासनो व मा मसा कृ य चा मभूः ।।४

पराध व त ा ते णः परमे नः ।
तदा कृतयः स त क प ते लयाय वै ।।५
ीशुकदे वजी कहते ह—परी त्! (तीसरे क धम) परमाणुसे लेकर पराधपय त
कालका व प और एक-एक युग कतने- कतने वष का होता है, यह म तु ह बतला चुका
ँ। अब तुम क पक थ त और उसके लयका वणन भी सुनो ।।१।। राजन्! एक हजार
चतुयुगीका ाका एक दन होता है। ाके इस दनको ही क प भी कहते ह। एक
क पम चौदह मनु होते ह ।।२।। क पके अ तम उतने ही समयतक लय भी रहता है।
लयको ही ाक रात भी कहते ह। उस समय ये तीन लोक लीन हो जाते ह, उनका
लय हो जाता है ।।३।। इसका नाम नै म क लय है। इस लयके अवसरपर सारे व को
अपने अंदर समेटकर—लीन कर ा और त प ात् शेषशायी भगवान् नारायण भी शयन
कर जाते ह ।।४।। इस कार रातके बाद दन और दनके बाद रात होते-होते जब ाजीक
अपने मानसे सौ वषक और मनु य क म दो परा क आयु समा त हो जाती है, तब
मह व, अहंकार और पंचत मा ा—ये सात कृ तयाँ अपने कारण मूल कृ तम लीन हो
जाती ह ।।५।।

एष ाकृ तको राजन् लयो य लीयते ।


आ डकोश तु संघातो वघात उपसा दते ।।६

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पज यः शतवषा ण भूमौ राजन् न वष त ।
तदा नर े यो यं भ माणाः ुधा दताः ।।७

यं या य त शनकैः कालेनोप ताः जाः ।


सामु ं दै हकं भौमं रसं सांवतको र वः ।।८

र म भः पबते घोरैः सव नैव वमुंच त ।


ततः संवतको व ः संकषणमुखो थतः ।।९

दह य नलवेगो थः शू यान् भू ववरानथ ।


उपयधः सम ता च शखा भव सूययोः ।।१०

द मानं वभा य डं द धगोमय प डवत् ।


ततः च डपवनो वषाणाम धकं शतम् ।।११

परः सांवतको वा त धू ं खं रजसाऽऽवृतम् ।


ततो मेघकुला यंग च वणा यनेकशः ।।१२

शतं वषा ण वष त नद त रभस वनैः ।


तत एकोदकं व ं ा ड ववरा तरम् ।।१३

तदा भूमेग धगुणं स याप उद लवे ।


तग धा तु पृ थवी लय वाय क पते ।।१४
राजन्! इसीका नाम ाकृ तक लय है। इस लयम लयका कारण उप थत होनेपर
पंचभूत के म णसे बना आ ा ड अपना थूल प छोड़कर कारण पम थत हो
जाता है, घुल- मल जाता है ।।६।। परी त्! लयका समय आनेपर सौ वषतक मेघ
पृ वीपर वषा नह करते। कसीको अ नह मलता। उस समय जा भूख- याससे ाकुल
होकर एक- सरेको खाने लगती है ।।७।। इस कार कालके उप वसे पी ड़त होकर धीरे-
धीरे सारी जा ीण हो जाती है। लयकालीन सांवतक सूय अपनी च ड करण से समु ,
ा णय के शरीर और पृ वीका सारा रस ख च-ख चकर सोख जाते ह और फर उ ह सदाक
भाँ त पृ वीपर बरसाते नह । उस समय संकषणभगवान्के मुखसे लयकालीन संवतक
अ न कट होती है ।।८-९।। वायुके वेगसे वह और भी बढ़ जाती है और तल-अतल आ द
सात नीचेके लोक को भ म कर दे ती है। वहाँके ाणी तो पहले ही मर चुके होते ह नीचेसे
आगक करारी लपट और ऊपरसे सूयक च ड गरमी! उस समय ऊपर-नीचे, चार ओर
यह ा ड जलने लगता है और ऐसा जान पड़ता है, मानो गोबरका उपला जलकर
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अंगारेके पम दहक रहा हो। इसके बाद लयकालीन अ य त च ड सांवतक वायु सैकड़
वष तक चलती रहती है। उस समयका आकाश धूएँ और धूलसे तो भरा ही रहता है, उसके
बाद असं य रंग- बरंगे बादल आकाशम मँडराने लगते ह और बड़ी भयंकरताके साथ गरज-
गरजकर सैकड़ वष तक वषा करते रहते ह। उस समय ा डके भीतरका सारा संसार
एक समु हो जाता है, सब कुछ जलम न हो जाता है ।।१०-१३।।
इस कार जब जल- लय हो जाता है, तब जल पृ वीके वशेष गुण ग धको स लेता है
—अपनेम लीन कर लेता है। ग ध गुणके जलम लीन हो जानेपर पृ वीका लय हो जाता है,
वह जलम घुल- मलकर जल प बन जाती है ।।१४।।

अपां रसमथो तेज ता लीय तेऽथ नीरसाः ।


सते तेजसो पं वायु त हतं तदा ।।१५

लीयते चा नले तेजो वायोः खं सते गुणम् ।


स वै वश त खं राजं तत नभसो गुणम् ।।१६

श दं स त भूता दनभ तमनुलीयते ।


तैजस े या य दे वान् वैका रको गुणैः ।।१७

महान् स यहंकारं गुणाः स वादय तम् ।


सतेऽ ाकृतं राजन् गुणान् कालेन चो दतम् ।।१८

न त य कालावयवैः प रणामादयो गुणाः ।


अना न तम ं न यं कारणम यम् ।।१९

न य वाचो न मनो न स वं
तमो रजो वा महदादयोऽमी ।
न ाणबु यदे वता वा
न स वेशः खलु लोकक पः ।।२०

न व जा च तत् सुषु तं
न खं जलं भूर नलोऽ नरकः ।
संसु तव छू यवद त य
त मूलभूतं पदमामन त ।।२१

लयः ाकृ तको ेष पु षा योयदा ।

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श यः स लीय ते ववशाः काल व ताः ।।२२
राजन्! इसके बाद जलके गुण रसको तेज त व स लेता है और जल नीरस होकर
तेजम समा जाता है। तदन तर वायु तेजके गुण पको स लेता है और तेज पर हत
होकर वायुम लीन हो जाता है। अब आकाश वायुके गुण पशको अपनेम मला लेता है और
वायु पशहीन होकर आकाशम शा त हो जाता है। इसके बाद तामस अहंकार आकाशके
गुण श दको स लेता है और आकाश श दहीन होकर तामस अहंकारम लीन हो जाता है।
इसी कार तैजस अहंकार इ य को और वैका रक (सा वक) अहंकार इ या ध ातृ-
दे वता और इ यवृ य को अपनेम लीन कर लेता है ।।१५-१७।। त प ात् मह व
अहंकारको और स व आ द गुण मह वको स लेते ह। परी त्! यह सब कालक म हमा
है। उसीक ेरणासे अ कृ त गुण को स लेती है और तब केवल कृ त-ही- कृ त
शेष रह जाती है ।।१८।। वही चराचर जगत्का मूल कारण है। वह अ , अना द, अन त,
न य और अ वनाशी है। जब वह अपने काय को लीन करके लयके समय सा याव थाको
ा त हो जाती है, तब कालके अवयव वष, मास, दन-रात ण आ दके कारण उसम
प रणाम, य, वृ आ द कसी कारके वकार नह होते ।।१९।। उस समय कृ तम थूल
अथवा सू म पसे वाणी, मन, स वगुण, रजोगुण, तमोगुण, मह व आ द वकार, ाण,
बु , इ य और उनके दे वता आ द कुछ नह रहते। सृ के समय रहनेवाले लोक क
क पना और उनक थ त भी नह रहती ।।२०।। उस समय व , जा त् और सुषु त—ये
तीन अव थाएँ नह रहत । आकाश, जल, पृ वी, वायु, अ न और सूय भी नह रहते। सब
कुछ सोये एके समान शू य-सा रहता है। उस अव थाका तकके ारा अनुमान करना भी
अस भव है। उस अ को ही जगत्का मूलभूत त व कहते ह ।।२१।। इसी अव थाका
नाम ‘ ाकृत लय’ है। उस समय पु ष और कृ त दोन क श याँ कालके भावसे ीण
हो जाती ह और ववश होकर अपने मूल- व पम लीन हो जाती ह ।।२२।।

बु याथ पेण ानं भा त तदा यम् ।


य वा तरेका यामा तवदव तु यत् ।।२३

दप ु पं च यो तषो न पृथग् भवेत् ।


एवं धीः खा न मा ा न युर यतमा तात् ।।२४

बु े जागरणं व ः सुषु त र त चो यते ।


मायामा मदं राजन् नाना वं यगा म न ।।२५

यथा जलधरा ो न भव त न भव त च ।
णीदं तथा व मवय ुदया ययात् ।।२६

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स यं वयवः ो ः सवावय वना मह ।
वनाथन तीयेरन् पट येवांग त तवः ।।२७

यत् सामा य वशेषा यामुपल येत स मः ।


अ यो यापा यात् सवमा तवदव तु यत् ।।२८
परी त्! (अब आ य तक लय अथात् मो का व प बतलाया जाता है।) बु ,
इ य और उनके वषय के पम उनका अ ध ान, ान व प व तु ही भा सत हो रही है।
उन सबका तो आ द भी है और अ त भी। इस लये वे सब स य नह ह। वे य ह और अपने
अ ध ानसे भ उनक स ा भी नह है। इस लये वे सवथा म या—मायामा ह ।।२३।।
जैसे द पक, ने और प—ये तीन तेजसे भ नह ह, वैसे ही बु इ य और इनके
वषय त मा ाएँ भी अपने अ ध ान व प से भ नह ह य प वह इनसे सवथा भ
है; (जैसे र जु प अ ध ानम अ य त सप अपने अ ध ानसे पृथक् नह है, पर तु अ य त
सपसे अ ध ानका कोई स ब ध नह है) ।।२४।।
परी त्! जा त्, व और सुषु त—ये तीन अव थाएँ बु क ही ह। अतः इनके
कारण अ तरा माम जो व , तैजस और ा प नाना वक ती त होती है, वह केवल
मायामा है। बु गत नाना वका एकमा स य आ मासे कोई स ब ध नह है ।।२५।। यह
व उ प और लयसे त है, इस लये अनेक अवयव का समूह अवयवी है। अतः यह
कभी म होता है और कभी नह होता, ठ क वैसे ही जैसे आकाशम मेघमाला कभी होती
है और कभी नह होती ।।२६।। परी त्! जगत्के वहारम जतने भी अवयवी पदाथ होते
ह, उनके न होनेपर भी उनके भ - भ अवयव स य माने जाते ह। य क वे उनके कारण
ह। जैसे व प अवयवीके न होनेपर भी उसके कारण प सूतका अ त व माना ही जाता
है, उसी कार काय प जगत्के अभावम भी इस जगत्के कारण प अवयवक थ त हो
सकती है ।।२७।। पर तु म यह काय-कारणभाव भी वा त वक नह है। य क दे खो,
कारण तो सामा य व तु है और काय वशेष व तु। इस कारका जो भेद दखायी दे ता है, वह
केवल म ही है। इसका हेतु यह है क सामा य और वशेष भाव आपे क ह, अ यो या त
ह। वशेषके बना सामा य और सामा यके बना वशेषक थ त नह हो सकती। काय और
कारणभावका आ द और अ त दोन ही मलते ह, इस लये भी वह वा क भेद-भावके
समान सवथा अव तु है ।।२८।।

वकारः यायमानोऽ प यगा मानम तरा ।


न न योऽ यणुर प या चे च सम आ मवत् ।।२९

न ह स य य नाना वम व ान् य द म यते ।


नाना वं छ योय यो तषोवातयो रव ।।३०

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यथा हर यं ब धा समीयते१
नृ भः या भ वहारव मसु ।
एवं वचो भभगवानधो जो
ा यायते लौ ककवै दकैजनैः ।।३१

यथा घनोऽक भवोऽकद शतो


काशभूत य च च ुष तमः ।
एवं वहं गुण तद तो
ांशक या मन आ मब धनः ।।३२

घनो यदाक भवो वद यते


च ुः व पं र वमी ते तदा ।
यदा हंकार उपा धरा मनो
ज ासया न य त त नु मरेत् ।।३३

यदै वमेतेन ववेकहे तना


मायामयाहंकरणा मब धनम् ।
छ वा युता मानुभवोऽव त ते
तमा रा य तकमंग स लवम् ।।३४
इसम स दे ह नह क यह पंच प वकार वा क वकारके समान ही तीत हो रहा है,
तो भी यह अपने अ ध ान व प आ मासे भ नह है। कोई चाहे भी तो आ मासे
भ पम अणुमा भी इसका न पण नह कर सकता। य द आ मासे पृथक् इसक स ा
मानी भी जाय तो यह भी च प ू आ माके समान वयं काश होगा, और ऐसी थ तम वह
आ माक भाँ त ही एक प स होगा ।।२९।। पर तु इतना तो सवथा न त है क
परमाथ-स य व तुम नाना व नह है। य द कोई अ ानी परमाथ-स य व तुम नाना व वीकार
करता है, तो उसका वह मानना वैसा ही है, जैसा महाकाश और घटाकाशका, आकाश थत
सूय और जलम त ब बत सूयका तथा बा वायु और आ तर वायुका भेद मानना ।।३०।।
जैसे वहारम मनु य एक ही सोनेको अनेक प म गढ़-गलाकर तैयार कर लेते ह और
वह कंगन, कु डल, कड़ा आ द अनेक प म मलता है; इसी कार वहारम नपुण
व ान् लौ कक और वै दक वाणीके ारा इ यातीत आ म व प भगवान्का भी अनेक
प म वणन करते ह ।।३१।। दे खो न, बादल सूयसे उ प होता है और सूयसे ही का शत।
फर भी वह सूयके ही अंश ने के लये सूयका दशन होनेम बाधक बन बैठता है। इसी कार
अहंकार भी से ही उ प होता, से ही का शत होता और के अंश जीवके लये
व पके सा ा कारम बाधक बन बैठता है ।।३२।। जब सूयसे कट होनेवाला बादल
ततर- बतर हो जाता है, तब ने अपने व प सूयका दशन करनेम समथ होते ह। ठ क वैसे
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ही, जब जीवके दयम ज ासा जगती है, तब आ माक उपा ध अहंकार न हो जाता है
और उसे अपने व पका सा ा कार हो जाता है ।।३३।। य परी त्! जब जीव ववेकके
खड् गसे मायामय अहंकारका ब धन काट दे ता है, तब यह अपने एकरस आ म व पके
सा ा कारम थत हो जाता है। आ माक यह मायामु वा त वक थ त ही आ य तक
लय कही जाती है ।।३४।।

न यदा सवभूतानां ाद नां परंतप ।


उप लयावेके सू म ाः स च ते ।।३५

काल ोतोजवोनाशु यमाण य न यदा ।


प रणा मनामव था ता ज म लयहेतवः ।।३६

अना तवतानेन कालेने रमू तना ।


अव था नैव य ते वय त यो तषा मव ।।३७

न यो नै म क ैव तथा ाकृ तको लयः ।


आ य तक क थतः काल य ग तरी शी ।।३८

एताः कु े जग धातु-
नारायण या खलस वधा नः ।
लीलाकथा ते क थताः समासतः
का यन नाजोऽ य भधातुमीशः ।।३९

संसार स धुम त तरमु तीष -


ना यः लवो भगवतः पु षो म य ।
लीलाकथारस नषेवणम तरेण
पुंसो भवेद ् व वध ःखदवा दत य ।।४०

पुराणसं हतामेतामृ षनारायणोऽ यः ।


नारदाय पुरा ाह कृ ण ै पायनाय सः ।।४१
हे श ुदमन! त वदश लोग कहते ह क ासे लेकर तनकेतक जतने ाणी या पदाथ
ह, सभी हर समय पैदा होते और मरते रहते ह। अथात् न य पसे उ प और लय होता
ही रहता है ।।३५।। संसारके प रणामी पदाथ नद - वाह और द प- शखा आ द ण- ण
बदलते रहते ह। उनक बदलती ई अव था को दे खकर यह न य होता है क दे ह आ द
भी काल प सोतेके वेगम बहते-बदलते जा रहे ह। इस लये ण- णम उनक उ प और

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लय हो रहा है ।।३६।। जैसे आकाशम तारे हर समय चलते ही रहते ह, पर तु उनक ग त
प पसे नह दखायी पड़ती, वैसे ही भगवान्के व पभूत अना द-अन त कालके कारण
ा णय क त ण होनेवाली उ प और लयका भी पता नह चलता ।।३७।। परी त्!
मने तुमसे चार कारके लयका वणन कया; उनके नाम ह— न य लय, नै म क लय,
ाकृ तक लय और आ य तक लय। वा तवम कालक सू म ग त ऐसी ही है ।।३८।।
हे कु े ! व वधाता भगवान् नारायण ही सम त ा णय और श य के आ य ह।
जो कुछ मने सं ेपसे कहा है, वह सब उ ह क लीला-कथा है। भगवान्क लीला का पूण
वणन तो वयं ाजी भी नह कर सकते ।।३९।।
जो लोग अ य त तर संसार-सागरसे पार जाना चाहते ह अथवा जो लोग अनेक
कारके ःख-दावानलसे द ध हो रहे ह, उनके लये पुषो मभगवान्क लीला-कथा प
रसके सेवनके अ त र और कोई साधन, कोई नौका नह है। ये केवल लीला-रसायनका
सेवन करके ही अपना मनोरथ स कर सकते ह ।।४०।। जो कुछ मने तु ह सुनाया है, यही
ीम ागवतपुराण है। इसे सनातन ऋ ष नर-नारायणने पहले दे व ष नारदको सुनाया था और
उ ह ने मेरे पता मह ष कृ ण ै पायनको ।।४१।। महाराज! उ ह बदरीवन वहारी भगवान्
ीकृ णदै पायनने स होकर मुझे इस वेदतु य ीभागवतसं हताका उपदे श कया ।।४२।।
कु े ! आगे चलकर जब शौनका द ऋ ष नै मषार य े म ब त बड़ा स करगे, तब
उनके करनेपर पौरा णक व ा ीसूतजी उन लोग को इस सं हताका वण
करायगे ।।४३।।

स वै म ं महाराज भगवान् बादरायणः ।


इमां भागवत ीतः सं हतां वेदस मताम् ।।४२

एतां व य यसौ सूत ऋ ष यो नै मषालये ।


द घस े कु े स पृ ः शौनका द भः ।।४३
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां ादश क धे चतुथ ऽ यायः ।।४।।

१. तीयते।

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अथ प चमोऽ यायः
ीशुकदे वजीका अ तम उपदे श
ीशुक उवाच
अ ानुव यतेऽभी णं व ा मा भगवान् ह रः ।
य य सादजो ा ः ोधसमु वः ।।१

वं तु राजन् म र ये त पशुबु ममां ज ह ।


न जातः ागभूतोऽ दे हव वं न नङ् य स ।।२

न भ व य स भू वा वं पु पौ ा द पवान् ।
बीजांकुरवद् दे हादे त र ो यथानलः ।।३

व े यथा शर छे दं पंच वा ा मनः वयम् ।


य मात् प य त दे ह य तत आ मा जोऽमरः ।।४
ीशुकदे वजी कहते ह— य परी त्! इस ीम ागवतमहापुराणम बार-बार और
सव व ा मा भगवान् ीह रका ही संक तन आ है। ा और भी ीह रसे पृथक्
नह ह, उ ह क साद-लीला और ोध-लीलाक अ भ ह ।।१।। हे राजन्! अब तुम
यह पशु क -सी अ ववेकमूलक धारणा छोड़ दो क म म ँ गा; जैसे शरीर पहले नह था
और अब पैदा आ और फर न हो जायगा, वैसे ही तुम भी पहले नह थे, तु हारा ज म
आ, तुम मर जाओगे—यह बात नह है ।।२।। जैसे बीजसे अंकुर और अंकुरसे बीजक
उ प होती है, वैसे ही एक दे हसे सरे दे हक और सरे दे हसे तीसरेक उ प होती है।
क तु तुम न तो कसीसे उ प ए हो और न तो आगे पु -पौ ा दक के शरीरके पम
उ प होओगे। अजी, जैसे आग लकड़ीसे सवथा अलग रहती है—लकड़ीक उ प और
वनाशसे सवथा परे, वैसे ही तुम भी शरीर आ दसे सवथा अलग हो ।।३।।
व ाव थाम ऐसा मालूम होता है क मेरा सर कट गया है और म मर गया ँ, मुझे लोग
मशानम जला रहे ह; पर तु ये सब शरीरक ही अव थाएँ द खती ह, आ माक नह ।
दे खनेवाला तो उन अव था से सवथा परे, ज म और मृ युसे र हत, शु -बु
परमत व व प है ।।४।।

घटे भ े यथाऽऽकाश आकाशः याद् यथा पुरा ।


एवं दे हे मृते जीवो स प ते पुनः ।।५

मनः सृज त वै दे हान् गुणान् कमा ण चा मनः ।


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त मनः सृजते माया ततो जीव य संसृ तः ।।६

नेहा ध ानव य नसंयोगो यावद यते ।


ततो द प य द प वमेवं दे हकृतो भवः ।
रजःस वतमोवृ या जायतेऽथ वन य त ।।७

न त ा मा वयं यो तय ा योः परः ।


आकाश इव चाधारो ुवोऽन तोपम ततः ।।८

एवमा मानमा म थमा मनैवामृश भो ।


बु यानुमानग भ या वासुदेवानु च तया ।।९

चो दतो व वा येन न वां ध य त त कः ।


मृ यवो नोपध य त मृ यूनां मृ युमी रम् ।।१०

अहं परं धाम ाहं परमं पदम् ।


एवं समी ा मानमा म याधाय न कले ।।११
जैसे घड़ा फूट जानेपर आकाश पहलेक ही भाँ त अख ड रहता है, पर तु
घटाकाशताक नवृ हो जानेसे लोग को ऐसा तीत होता है क वह महाकाशसे मल गया
है—वा तवम तो वह मला आ था ही, वैसे ही दे हपात हो जानेपर ऐसा मालूम पड़ता है
मानो जीव हो गया। वा तवम तो वह था ही, उसक अ ता तो ती तमा
थी ।।५।। मन ही आ माके लये शरीर, वषय और कम क क पना कर लेता है; और उस
मनक सृ करती है माया (अ व ा)। वा तवम माया ही जीवके संसार-च म पड़नेका
कारण है ।।६।। जबतक तेल, तेल रखनेका पा , ब ी और आगका संयोग रहता है,
तभीतक द पकम द पकपना है; वैसे ही उनके ही समान जबतक आ माका कम, मन, शरीर
और इनम रहनेवाले चैत या यासके साथ स ब ध रहता है तभीतक उसे ज म-मृ युके च
संसारम भटकना पड़ता है और रजोगुण, स वगुण तथा तमोगुणक वृ य से उसे उ प ,
थत एवं वन होना पड़ता है ।।७।। पर तु जैसे द पकके बुझ जानेसे त व प तेजका
वनाश नह होता, वैसे ही संसारका नाश होनेपर भी वयं काश आ माका नाश नह होता।
य क वह काय और कारण, और अ सबसे परे है, वह आकाशके समान सबका
आधार है, न य और न ल है, वह अन त है। सचमुच आ माक उपमा आ मा ही है ।।८।।
हे राजन्! तुम अपनी वशु एवं ववेकवती बु को परमा माके च तनसे भरपूर कर
लो और वयं ही अपने अ तरम थत परमा माका सा ा कार करो ।।९।। दे खो, तुम
मृ यु क भी मृ यु हो! तुम वयं ई र हो। ा णके शापसे े रत त क तु ह भ म न कर
सकेगा। अजी, त कक तो बात ही या, वयं मृ यु और मृ यु का समूह भी तु हारे
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पासतक न फटक सकगे ।।१०।। तुम इस कार अनुसंधान— च तन करो क ‘म ही
सवा ध ान पर ँ। सवा ध ान म ही ँ।’ इस कार तुम अपने-आपको अपने
वा त वक एकरस अन त अख ड व पम थत कर लो ।।११।।

दश तं त कं पादे ले लहानं वषाननैः ।


न य स शरीरं च व ं च पृथगा मनः ।।१२

एत े क थतं तात यथाऽऽ मा पृ वान् नृप ।


हरे व ा मन े ां क भूयः ोतु म छ स ।।१३
उस समय अपनी वषैली जीभ लपलपाता आ, अपने होठ के कोने चाटता आ त क
आये और अपने वषपूण मुख से तु हारे पैर म डस ले—कोइ परवा नह । तुम अपने
आ म व पम थत होकर इस शरीरको—और तो या, सारे व को भी अपनेसे पृथक् न
दे खोगे ।।१२।। आ म व प बेटा परी त्! तुमने व ा मा भगवान्क लीलाके स ब धम
जो कया था, उसका उ र मने दे दया, अब और या सुनना चाहते हो? ।।१३।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां ादश क धे ोपदे शो नाम
प चमोऽ यायः ।।५।।

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अथ ष ोऽ यायः
परी त्क परमग त, जनमेजयका सपस और वेद के शाखाभेद
सूत उवाच
एत श य मु नना भ हतं परी द्
ासा मजेन न खला म शा समेन ।
त पादमूलमुपसृ य नतेन मू ना
ब ांज ल त मदमाह स व णुरातः ।।१
राजोवाच
स ोऽ यनुगृहीतोऽ म भवता क णा मना ।
ा वतो य च मे सा ादना द नधनो ह रः ।।२

ना य तमहं म ये महताम युता मनाम् ।


अ ेषु तापत तेषु भूतेषु यदनु हः ।।३
ीसूतजी कहते ह—शौनका द ऋ षयो! ासन दन ीशुकदे व मु न सम त चराचर
जगत्को अपनी आ माके पम अनुभव करते ह और वहारम सबके त सम रखते
ह। भगवान्के शरणागत एवं उनके ारा सुर त राज ष परी त्ने उनका स पूण उपदे श
बड़े यानसे वण कया। अब वे सर झुकाकर उनके चरण के त नक और पास खसक
आये तथा अंज ल बाँधकर उनसे यह ाथना करने लगे ।।१।।
राजा परी त्ने कहा—भगवन्! आप क णाके मू तमान् व प ह। आपने मुझपर
परम कृपा करके अना द-अन त, एकरस, स य भगवान् ीह रके व प और लीला का
वणन कया है। अब म आपक कृपासे परम अनुगृहीत और कृतकृ य हो गया ँ ।।२।।
संसारके ाणी अपने वाथ और परमाथके ानसे शू य ह और व भ कारके ःख के
दावानलसे द ध हो रहे ह। उनके ऊपर भगव मय महा मा का अनु ह होना कोई नयी
घटना अथवा आ यक बात नह है। यह तो उनके लये वाभा वक ही है ।।३।। मने और
मेरे साथ और ब त-से लोग ने आपके मुखार व दसे इस ीम ागवतमहापुराणका वण
कया है। इस पुराणम पद-पदपर भगवान् ीह रके उस व प और उन लीला का वणन
आ है, जसके गानम बड़े-बड़े आ माराम पु ष रमते रहते ह ।।४।।

पुराणसं हतामेताम ौ म भवतो वयम् ।


य यां खलू म ोको भगवाननुव यते ।।४

भगवं त का द यो मृ यु यो न बभे यहम् ।


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व ो नवाणमभयं द शतं वया ।।५

अनुजानी ह मां न् वाचं य छा यधो जे ।


मु कामाशयं चेतः वे य वसृजा यसून् ।।६

अ ानं च नर तं मे ान व ान न या ।
भवता द शतं ेमं परं भगवतः पदम् ।।७
सूत उवाच
इ यु तमनु ा य भगवान् बादराय णः ।
जगाम भ ु भः साकं नरदे वेन पू जतः ।।८

परी द प राज षरा म या मानमा मना ।


समाधाय परं द याव प दासुयथा त ः ।।९

ा कूले ब ह यासीनो गंगाकूल उदङ् मुखः ।


भूतो महायोगी नःसंग छ संशयः ।।१०
भगवन्! आपने मुझे अभयपदका, और आ माक एकताका सा ा कार करा दया
है। अब म परम शा त- व प म थत ँ। अब मुझे त क आ द कसी भी मृ युके
न म से अथवा दल-के-दल मृ यु से भी भय नह है। म अभय हो गया ँ ।।५।। न्!
अब आप मुझे आ ा द जये क म अपनी वाणी बंद कर लूँ, मौन हो जाऊँ और साथ ही
कामना के सं कारसे भी र हत च को इ यातीत परमा माके व पम वलीन करके
अपने ाण का याग कर ँ ।।६।। आपके ारा उपदे श कये ए ान और व ानम
प र न त हो जानेसे मेरा अ ान सवदाके लये न हो गया। आपने भगवान्के परम
क याणमय व पका मुझे सा ा कार करा दया है ।।७।।
सूतजी कहते ह—शौनका द ऋ षयो! राजा परी त्ने भगवान् ीशुकदे वजीसे इस
कार कहकर बड़े ेमसे उनक पूजा क । अब वे परी त्से वदा लेकर समागत यागी
महा मा , भ ु के साथ वहाँसे चले गये ।।८।। राज ष परी त्ने भी बना कसी बा
सहायताके वयं ही अपने अ तरा माको परमा माके च तनम समा हत कया और यानम न
हो गये। उस समय उनका ास- ास भी नह चलता था, ऐसा जान पड़ता था मानो कोई
वृ का ठूँ ठ हो ।।९।। उ ह ने गंगाजीके तटपर कुश को इस कार बछा रखा था, जसम
उनका अ भाग पूवक ओर हो और उनपर वयं उ र मुँह होकर बैठे ए थे। उनक आस
और संशय तो पहले ही मट चुके थे। अब वे और आ माक एकता प महायोगम थत
होकर व प हो गये ।।१०।।

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त कः हतो व ाः ु े न जसूनुना ।
ह तुकामो नृपं ग छन् ददश प थ क यपम् ।।११

तं तप य वा वणै नव य वषहा रणम् ।


ज प त छ ः काम पोऽदश ृपम् ।।१२

भूत य राजषदहोऽ हगरला नना ।


बभूव भ मसात् स ः प यतां सवदे हनाम् ।।१३

हाहाकारो महानासीद् भु व खे द ु सवतः ।


व मता भवन् सव दे वासुरनरादयः ।।१४

दे व भयो ने ग धवा सरसो जगुः ।


ववृषुः पु पवषा ण वबुधाः साधुवा दनः ।।१५

जनमेजयः व पतरं ु वा त कभ तम् ।


यथा जुहाव सं ु ो नागान् स े सह जैः ।।१६

सपस े स म ा नौ द मानान् महोरगान् ।


् वे ं भयसं व न त कः शरणं ययौ ।।१७

अप यं त कं त राजा पारी तो जान् ।


उवाच त कः क मा द त े ोरगाधमः ।।१८

तं गोपाय त राजे श ः शरणमागतम् ।


तेन सं त भतः सप त मा ा नौ पत यसौ ।।१९
शौनका द ऋ षयो! मु नकुमार शृंगीने ो धत होकर परी त्को शाप दे दया था। अब
उनका भेजा आ त क सप राजा परी त्को डसनेके लये उनके पास चला। रा तेम उसने
क यप नामके एक ा णको दे खा ।।११।। क यप ा ण सप वषक च क सा करनेम बड़े
नपुण थे। त कने ब त-सा धन दे कर क यपको वह से लौटा दया, उ ह राजाके पास न
जाने दया। और वयं ा णके पम छपकर, य क वह इ छानुसार प धारण कर
सकता था, राजा परी त्के पास गया और उ ह डस लया ।।१२।। राज ष परी त्
त कके डसनेके पहले ही म थत हो चुके थे। अब त कके वषक आगसे उनका
शरीर सबके सामने ही जलकर भ म हो गया ।।१३।।
पृ वी, आकाश और सब दशा म बड़े जोरसे ‘हाय-हाय’ क व न होने लगी। दे वता,
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असुर, मनु य आ द सब-के-सब परी त्क यह परम ग त दे खकर व मत हो गये ।।१४।।
दे वता क भयाँ अपने-आप बज उठ । ग धव और अ सराएँ गान करने लग ।
दे वतालोग ‘साधु-साधु’ के नारे लगाकर पु प क वषा करने लगे ।।१५।।
जब जनमेजयने सुना क त कने मेरे पताजीको डस लया है, तो उसे बड़ा ोध आ।
अब वह ा ण के साथ व धपूवक सप का अ नकु डम हवन करने लगा ।।१६।। त कने
दे खा क जनमेजयके सप-स क व लत अ नम बड़े-बड़े महासप भ म होते जा रहे ह,
तब वह अ य त भयभीत होकर दे वराज इ क शरणम गया ।।१७।। ब त सप के भ म
होनेपर भी त क न आया, यह दे खकर परी त्न दन राजा जनमेजयने ा ण से कहा क
‘ ा णो! अबतक सपाधम त क य नह भ म हो रहा है?’ ।।१८।। ा ण ने कहा
—‘राजे ! त क इस समय इ क शरणम चला गया है और वे उसक र ा कर रहे ह।
उ ह ने ही त कको त भत कर दया है, इसीसे वह अ नकु डम गरकर भ म नह हो रहा
है’ ।।१९।।

पारी त इ त ु वा ाह वज उदारधीः ।
सहे त को व ा ना नौ क म त पा यते ।।२०

त छ वाऽऽजु वु व ाः सहे ं त कं मखे ।


त काशु पत वेह सहे े ण म वता ।।२१

इत ो दता ेपैः थाना द ः चा लतः ।


बभूव स ा तम तः स वमानः सत कः ।।२२

तं पत तं वमानेन सहत कम बरात् ।


वलो यां गरसः ाह राजानं तं बृह प तः ।।२३

नैष वया मनु ये वधमह त सपराट् ।


अनेन पीतममृतमथ वा अजरामरः ।।२४

जी वतं मरणं ज तोग तः वेनैव कमणा ।


राजं ततोऽ यो ना य य दाता सुख ःखयोः ।।२५

सपचौरा न व ुद ् यः ु ृड् ा या द भनृप ।


पंच वमृ छते ज तुभुङ् आर धकम तत् ।।२६

त मात् स मदं राजन् सं थीयेता भचा रकम् ।

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सपा अनागसो द धा जनै द ं ह भु यते ।।२७
सूत उवाच
इ यु ः स तथे याह महषमानयन् वचः ।
सपस ा परतः पूजयामास वा प तम् ।।२८
परी त्न दन जनमेजय बड़े ही बु मान् और वीर थे। उ ह ने ा ण क बात सुनकर
ऋ वज से कहा क ‘ ा णो! आपलोग इ के साथ त कको य नह अ नम गरा
दे त?े ’ ।।२०।। जनमेजयक बात सुनकर ा ण ने उस य म इ के साथ त कका
अ नकु डम आवाहन कया। उ ह ने कहा—‘रे त क! तू म द्गणके सहचर इ के साथ
इस अ नकु डम शी आ पड़’ ।।२१।। जब ा ण ने इस कार आकषणम का पाठ
कया, तब तो इ अपने थान— वगलोकसे वच लत हो गये। वमानपर बैठे ए इ
त कके साथ ही ब त घबड़ा गये और उनका वमान भी च कर काटने लगा ।।२२।।
अं गरान दन बृह प तजीने दे खा क आकाशसे दे वराज इ वमान और त कके साथ ही
अ नकु डम गर रहे ह; तब उ ह ने राजा जनमेजयसे कहा— ।।२३।। ‘नरे ! सपराज
त कको मार डालना आपके यो य काम नह है। यह अमृत पी चुका है। इस लये यह अजर
और अमर है ।।२४।।
राजन्! जगत्के ाणी अपने-अपने कमके अनुसार ही जीवन, मरण और मरणो र ग त
ा त करते ह। कमके अ त र और कोई भी कसीको सुख- ःख नह दे सकता ।।२५।।
जनमेजय! य तो ब त-से लोग क मृ यु साँप, चोर, आग, बजली आ दसे तथा भूख- यास,
रोग आ द न म से होती है; पर तु यह तो कहनेक बात है। वा तवम तो सभी ाणी अपने
ार ध-कमका ही उपभोग करते ह ।।२६।। राजन्! तुमने ब त-से नरपराध सप को जला
दया है। इस अ भचार-य का फल केवल ा णय क हसा ही है। इस लये इसे ब द कर दे ना
चा हये। य क जगत्के सभी ाणी अपने-अपने ार धकमका ही भोग कर रहे ह ।।२७।।
सूतजी कहते ह—शौनका द ऋ षयो! मह ष बृह प तजीक बातका स मान करके
जनमेजयने कहा क ‘आपक आ ा शरोधाय है।’ उ ह ने सप-स बंद कर दया और
दे वगु बृह प तजीक व धपूवक पूजा क ।।२८।।

सैषा व णोमहामायाबा ययाल णा यया ।


मु य यैवा मभूता भूतेषु गुणवृ भः ।।२९

न य द भी यभया वरा जता


मायाऽऽ मवादे ऽसकृदा मवा द भः ।
न य वादो व वध तदा यो
मन संक प वक पवृ यत् ।।३०

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न य सृ यं सृजतोभयोः परं
ेय जीव भर वत वहम् ।
तदे त सा दतबा यबाधकं
न ष य चोम न् वरमेत् वयं मु नः ।।३१

परं पदं वै णवमामन त तद्


य े त नेती यत ससृ वः ।

वसृ य दौरा यमन यसौ दा


दोपगु ाव सतं समा हतैः ।।३२
ऋ षगण! ( जससे व ान् ा णको भी ोध आया, राजाको शाप आ, मृ यु ई, फर
जनमेजयको ोध आया, सप मारे गये) यह वही भगवान् व णुक महामाया है। यह
अ नवचनीय है, इसीसे भगवान्के व पभूत जीव ोधा द गुण-वृ य के ारा शरीर म
मो हत हो जाते ह, एक- सरेको ःख दे ते और भोगते ह और अपने य नसे इसको नवृ
नह कर सकते ।।२९।। ( व णुभगवान्के व पका न य करके उनका भजन करनेसे ही
मायासे नवृ होती है; इस लये उनके व पका न पण सुनो—) यह द भी है, कपट है
—इ याकारक बु म बार-बार जो द भ-कपटका फुरण होता है, वही माया है। जब
आ मवाद पु ष आ मचचा करने लगते ह, तब वह परमा माके व पम नभय पसे
का शत नह होती; क तु भयभीत होकर अपना मोह आ द काय न करती ई ही कसी
कार रहती है। इस पम उसका तपादन कया गया है। मायाके आ त नाना कारके
ववाद, मतवाद भी परमा माके व पम नह ह; य क वे वशेष वषयक ह और परमा मा
न वशेष है। केवल वाद- ववादक तो बात ही या, लोक-परलोकके वषय के स ब धम
संक प- वक प करनेवाला मन भी शा त हो जाता है ।।३०।। कम, उसके स पादनक
साम ी और उनके ारा सा यकम—इन तीन से अ वत अहंकारा मक जीव—यह सब
जसम नह ह, वह आ म- व प परमा मा न तो कभी कसीके ारा बा धत होता है और न
तो कसीका वरोधी ही है। जो पु ष उस परमपदके व पका वचार करता है, वह मनक
मायामयी लहर , अहंकार आ दका बाध करके वयं अपने आ म व पम वहार करने लगता
है ।।३१।। जो मुमु ु एवं वचारशील पु ष परमपदके अ त र व तुका प र याग करते ए
‘ने त-ने त’ के ारा उसका नषेध करके ऐसी व तु ा त करते ह, जसका कभी नषेध नह
हो सकता और न तो कभी याग ही, वही व णुभगवान्का परमपद है; यह बात सभी
महा मा और ु तयाँ एक मतसे वीकार करती ह। अपने च को एका करनेवाले पु ष
अ तःकरणक अशु य को, अना म-भावना को सदा-सवदाके लये मटाकर अन य
ेमभावसे प रपूण दयके ारा उसी परमपदका आ लगन करते ह और उसीम समा जाते
ह ।।३२।। व णुभगवान्का यही वा त वक व प है, यही उनका परमपद है। इसक ा त
उ ह लोग को होती है, जनके अ तःकरणम शरीरके त अहंभाव नह है और न तो इसके

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स ब धी गृह आ द पदाथ म ममता ही। सचमुच जगत्क व तु म मपन और मेरेपनका
आरोप ब त बड़ी जनता है ।।३३।। शौनकजी! जसे इस परमपदक ा त अभी है, उसे
चा हये क वह सर क कटु वाणी सहन कर ले और बदलेम कसीका अपमान न करे। इस
णभंगुर शरीरम अहंता-ममता करके कसी भी ाणीसे कभी वैर न करे ।।३४।। भगवान्
ीकृ णका ान अन त है। उ ह के चरणकमल के यानसे मने इस ीम ागवत-
महापुराणका अ ययन कया है। म अब उ ह को नम कार करके यह पुराण समा त करता
ँ ।।३५।।

त एतद धग छ त व णोयत् परमं पदम् ।


अहं ममे त दौज यं न येषां दे हगेहजम् ।।३३

अ तवादां त त ेत नावम येत कंचन ।


न चेमं दे हमा य वैरं कुव त केन चत् ।।३४

नमो भगवते त मै कृ णायाकु ठमेधसे ।


य पादा बु ह यानात् सं हताम यगा ममाम् ।।३५
शौनक उवाच
पैला द भ ास श यैवदाचायमहा म भः ।
वेदा क तधा ता एतत् सौ या भधे ह नः ।।३६
सूत उवाच
समा हता मनो न् णः परमे नः ।
ाकाशादभू ादो वृ रोधाद् वभा ते ।।३७

य पासनया न् यो गनो मलमा मनः ।


याकारका यं धू वा या यपुनभवम् ।।३८
शौनकजीने पूछा—साधु शरोम ण सूतजी! वेद ासजीके श य पैल आ द मह ष बड़े
महा मा और वेद के आचाय थे। उन लोग ने कतने कारसे वेद का वभाजन कया, यह
बात आप कृपा करके हम सुनाइये ।।३६।।
सूतजीने कहा— न्! जस समय परमे ी ाजी पूवसृ का ान स पादन करनेके
लये एका च ए, उस समय उनके दयाकाशसे क ठ-तालु आ द थान के संघषसे
र हत एक अ य त वल ण अनाहत नाद कट आ। जब जीव अपनी मनोवृ य को रोक
लेता है, तब उसे भी उस अनाहत नादका अनुभव होता है ।।३७।।
शौनकजी! बड़े-बड़े योगी उसी अनाहत नादक उपासना करते ह और उसके भावसे

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अ तःकरणके (अ धभूत), या (अ या म) और कारक (अ धदै व) प मलको न
करके वह परमग त प मो ा त करते ह, जसम ज म-मृ यु प संसारच नह
है ।।३८।।

ततोऽभू वृदोङ् कारो योऽ भवः वराट् ।


य ल भगवतो णः परमा मनः ।।३९

शृणो त य इमं फोटं सु त ो े च शू य क् ।


येन वाग् यते य य राकाश आ मनः ।।४०

वधा नो णः सा ाद् वाचकः परमा मनः ।


स सवम ोप नष े दबीजं सनातनम् ।।४१

त य ासं यो वणा अकारा ा भृगू ह ।


धाय ते यै यो भावा गुणनामाथवृ यः ।।४२

ततोऽ रसमा नायमसृजद् भगवानजः ।


अ तः थो म वर पश वद घा दल णम् ।।४३

तेनासौ चतुरो वेदां तु भवदनै वभुः ।


स ा तकान् स कारां ातुह वव या ।।४४

पु ान यापय ां तु ष न् को वदान् ।
ते तु धम पदे ारः वपु े यः समा दशन् ।।४५
उसी अनाहत नादसे ‘अ’ कार, ‘उ’ कार और ‘म’ कार प तीन मा ा से यु ॐकार
कट आ। इस ॐकारक श से ही कृ त अ से पम प रणत हो जाती है।
ॐकार वयं भी अ एवं अना द है और परमा म- व प होनेके कारण वयं काश भी
है। जस परम व तुको भगवान् अथवा परमा माके नामसे कहा जाता है, उसके
व पका बोध भी ॐकारके ारा ही होता है ।।३९।। जब वणे यक श लु त हो
जाती है, तब भी इस ॐकारको—सम त अथ को का शत करनेवाले फोट त वको जो
सुनता है और सुषु त एवं समा ध-अव था म सबके अभावको भी जानता है, वही
परमा माका वशु व प है। वही ॐकार परमा मासे दयाकाशम कट होकर वेद पा
वाणीको अ भ करता है ।।४०।। ॐकार अपने आ य परमा मा पर का सा ात्
वाचक है और ॐकार ही स पूण म , उप नषद् और वेद का सनातन बीज है ।।४१।।
शौनकजी! ॐकारके तीन वण ह —‘अ’, ‘उ’, और ‘म’। ये ही तीन वण स व, रज, तम
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—इन तीन गुण ; ऋक्, यजुः, साम—इन तीन नाम ; भूः, भुवः, वः—इन तीन अथ और
जा त्, व , सुषु त—इन तीन वृ य के पम तीन-तीनक सं यावाले भाव को धारण
करते ह ।।४२।। इसके बाद सवश मान् ाजीने ॐकारसे ही अ तः थ (य, र, ल, व),
ऊ म (श, ष, स, ह), वर (‘अ’ से ‘औ’ तक), पश (‘क’ से ‘म’ तक) तथा व और द घ
आ द ल ण से यु अ र-समा नाय अथात् वणमालाक रचना क ।।४३।। उसी
वणमाला ारा उ ह ने अपने चार मुख से होता, अ वयु, उद्गाता और ा—इन चार
ऋ वज के कम बतलानेके लये ॐकार और ा तय के स हत चार वेद कट कये और
अपने पु ष मरी च आ दको वेदा ययनम कुशल दे खकर उ ह वेद क श ा द । वे सभी
जब धमका उपदे श करनेम नपुण हो गये, तब उ ह ने अपने पु को उनका अ ययन
कराया ।।४४-४५।।

ते पर परया ा ता त छ यैधृत तैः ।


चतुयुगे वथ ता ापरादौ मह ष भः ।।४६

ीणायुषः ीणस वान् मधान् वी य कालतः ।


वेदान् षयो यन् द था युतचो दताः ।।४७

अ म य तरे न् भगवाँ लोकभावनः ।


ेशा ैल कपालैया चतो धमगु तये ।।४८

पराशरात् स यव यामंशांशकलया वभुः ।


अवतीण महाभाग वेदं च े चतु वधम् ।।४९

ऋगथवयजुःसा नां राशीनु य वगशः ।


चत ः सं हता े म ैम णगणा इव ।।५०

तासां स चतुरः श यानुपा य महाम तः ।


एकैकां सं हतां ेकैक मै ददौ वभुः ।।५१

पैलाय सं हतामा ां ब चा यामुवाच ह ।


वैश पायनसं ाय नगदा यं यजुगणम् ।।५२

सा नां जै मनये ाह तथा छ दोगसं हताम् ।


अथवा गरस नाम व श याय सुम तवे ।।५३

पैलः वसं हतामूचे इ मतये मु नः ।


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बा कलाय च सोऽ याह श ये यः सं हतां वकाम् ।।५४

चतुधा य बो याय या व याय भागव ।


पराशराया न म े इ म तरा मवान् ।।५५

अ यापयत् सं हतां वां मा डू केयमृ ष क वम् ।


त य श यो दे व म ः सौभया द य ऊ चवान् ।।५६
तदन तर, उ ह लोग के नै क चारी श य- श य के ारा चार युग म स दायके
पम वेद क र ा होती रही। ापरके अ तम मह षय ने उनका वभाजन भी कया ।।४६।।
जब वे ा ऋ षय ने दे खा क समयके फेरसे लोग क आयु, श और बु ीण हो
गयी है, तब उ ह ने अपने दय-दे शम वराजमान परमा माक ेरणासे वेद के अनेक वभाग
कर दये ।।४७।।
शौनकजी! इस वैव वत म व तरम भी ा-शंकर आ द लोकपाल क ाथनासे अ खल
व के जीवनदाता भगवान्ने धमक र ाके लये मह ष पराशर ारा स यवतीके गभसे अपने
अंशांश-कला व प ासके पम अवतार हण कया है। परम भा यवान् शौनकजी!
उ ह ने ही वतमान युगम वेदके चार वभाग कये ह ।।४८-४९।। जैसे म णय के समूहमसे
व भ जा तक म णयाँ छाँटकर अलग-अलग कर द जाती ह, वैसे ही महाम त भगवान्
ासदे वने म -समुदायमसे भ - भ करण के अनुसार म का सं ह करके उनसे ऋग्,
यजुः, साम और अथव—ये चार सं हताएँ बनाय और अपने चार श य को बुलाकर
येकको एक-एक सं हताक श ा द ।।५०-५१।। उ ह ने ‘ब च’ नामक पहली
ऋ सं हता पैलको, ‘ नगद’ नामक सरी यजुःसं हता वैश पायनको, साम ु तय क
‘छ दोग-सं हता’ जै म नको और अपने श य सुम तुको ‘अथवा गरससं हता’ का अ ययन
कराया ।।५२-५३।।
शौनकजी! पैल मु नने अपनी सं हताके दो वभाग करके एकका अ ययन इ म तको
और सरेका बा कलको कराया। बा कलने भी अपनी शाखाके चार वभाग करके उ ह
अलग-अलग अपने श य बोध, या व य, पराशर और अ न म को पढ़ाया। परमसंयमी
इ - म तने तभाशाली मा डू केय ऋ षको अपनी सं हताका अ ययन कराया।
मा डू केयके श य थे—दे व म । उ ह ने सौभ र आ द ऋ षय को वेद का अ ययन
कराया ।।५४-५६।।

शाक य त सुतः वां तु पंचधा य सं हताम् ।


वा यमुदगलशालीयगोख
् य श शरे वधात् ।।५७

जातूक य त छ यः स न ां वसं हताम् ।


बलाकपैजवैताल वरजे यो ददौ मु नः ।।५८
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बा क लः तशाखा यो वाल ख या यसं हताम् ।
च े बालाय नभ यः कासार ैव तां दधुः ।।५९

ब चाः सं हता ेता ए भ ष भधृताः ।


ु वैत छ दसां ासं सवपापैः मु यते ।।६०

वैश पायन श या वै चरका वयवोऽभवन् ।


य चे ह यांहः पणं वगुरो तम् ।।६१

या व य त छ य आहाहो भगवन् कयत् ।


च रतेना पसाराणां च र येऽहं सु रम् ।।६२

इ यु ो गु र याह कु पतो या लं वया ।


व ावम ा श येण मदधीतं यजा त ।।६३

दे वरातसुतः सोऽ प छ द वा यजुषां गणम् ।


ततो गतोऽथ मुनयो द शु तान् यजुगणान् ।।६४

यजूं ष त रा भू वा त लोलुपतयाऽऽद ः ।
तै रीया इ त यजुःशाखा आसन् सुपेशलाः ।।६५
मा डू केयके पु का नाम था शाक य। उ ह ने अपनी सं हताके पाँच वभाग करके उ ह
वा य, मुदगल,् शालीय, गोख य और श शर नामक श य को पढ़ाया ।।५७।। शाक यके
एक और श य थे—जातूक यमु न। उ ह ने अपनी सं हताके तीन वभाग करके त स ब धी
न के साथ अपने श य बलाक, पैज, वैताल और वरजको पढ़ाया ।।५८।। बा कलके
पु बा क लने सब शाखा से एक ‘वाल ख य’ नामक शाखा रची। उसे बालाय न, भ य
एवं कासारने हण कया ।।५९।। इन षय ने पूव स दायके अनुसार ऋ वेदस ब धी
ब च शाखा को धारण कया। जो मनु य यह वेद के वभाजनका इ तहास वण करता
है, वह सब पाप से छू ट जाता है ।।६०।।
शौनकजी! वैश पायनके कुछ श य का नाम था चरका वयु। इन लोग ने अपने गु दे वके
ह या-ज नत पापका ाय करनेके लये एक तका अनु ान कया। इसी लये इनका
नाम ‘चरका वयु’ पड़ा ।।६१।। वैश पायनके एक श य या व यमु न भी थे। उ ह ने अपने
गु दे वसे कहा—‘अहो भगवन्! ये चरका वयु ा ण तो ब त ही थोड़ी श रखते ह।
इनके तपालनसे लाभ ही कतना है? म आपके ाय के लये ब त ही क ठन तप या
क ँ गा’ ।।६२।। या व यमु नक यह बात सुनकर वैश पायनमु नको ोध आ गया।
उ ह ने कहा—‘बस-बस’, चुप रहो। तु हारे-जैसे ा ण का अपमान करनेवाले श यक
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मुझे कोई आव यकता नह है। दे खो, अबतक तुमने मुझसे जो कुछ अ ययन कया है उसका
शी -से-शी याग कर दो और यहाँसे चले जाओ ।।६३।। या व यजी दे वरातके पु थे।
उ ह ने गु जीक आ ा पाते ही उनके पढ़ाये ए यजुवदका वमन कर दया और वे वहाँसे
चले गये। जब मु नय ने दे खा क या व यने तो यजुवदका वमन कर दया, तब उनके
च म इस बातके लये बड़ा लालच आ क हमलोग कसी कार इसको हण कर ल।
पर तु ा ण होकर उगले ए म को हण करना अनु चत है, ऐसा सोचकर वे तीतर बन
गये और उस सं हताको चुग लया। इसीसे यजुवदक वह परम रमणीय शाखा ‘तै रीय’ के
नामसे स ई ।।६४-६५।। शौनकजी! अब या व यने सोचा क म ऐसी ु तयाँ ा त
क ँ , जो मेरे गु जीके पास भी न ह । इसके लये वे सूयभगवान्का उप थान करने
लगे ।।६६।।

या व य ततो न् छ दां य धगवेषयन् ।


गुरोर व माना न सूपत थेऽकमी रम् ।।६६
या व य उवाच
ॐ नमो भगवते आ द याया खलजगता-मा म व पेण काल व पेण
चतु वधभूत न-कायानां ा द त बपय तानाम त दयेषु ब हर प चाकाश
इवोपा धना वधीयमानो भवानेक एव णलव नमेषावयवोप चतसंव सरगणेनापा-
मादान वसगा या ममां लोकया ामनुवह त ।। ६७ ।।
य ह वाव वबुधषभ स वतरद तप यनुसवन-
महरहरा नाय व धनोप त मानानाम खल रत-वृ जनबीजावभजन भगवतः
सम भधीम ह तपनम डलम् ।। ६८ ।। य इह वाव थरचर- नकराणां
नज नकेतनानां मनइ यासुगणा-नना मनः वयमा मा तयामी चोदय त ।। ६९ ।।
य एवेमं लोकम तकरालवदना धकारसं ाजगर- ह ग लतं मृतक मव
वचेतनमवलो यानु-क पया परमका णक ई यैवो था याहरह-रनुसवनं ेय स
वधमा या माव थाने वतय- यव नप त रवासाधूनां भयमुद रय ट त ।। ७० ।।
प रत आशापालै त त कमलकोशा ल भ- प ताहणः ।। ७१ ।। अथ ह
भगवं तव चरण-न लनयुगलं भुवनगु भव दतमहमयातयाम-यजुःकाम
उपसरामी त ।। ७२ ।।
या व यजी इस कार उप थान करते ह—म ॐकार व प भगवान् सूयको
नम कार करता ।ँ आप स पूण जगत्के आ मा और काल व प ह। ासे लेकर
तृणपय त जतने भी जरायुज, अ डज, वेदज और उ ज—चार कारके ाणी ह, उन
सबके दयदे शम और बाहर आकाशके समान ा त रहकर भी आप उपा धके धम से असंग
रहनेवाले अ तीय भगवान् ही ह। आप ही ण, लव, नमेष आ द अवयव से संघ टत
संव सर के ारा एवं जलके आकषण- वकषण—आदान- दानके ारा सम त लोक क

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जीवनया ा चलाते ह ।।६७।। भो! आप सम त दे वता म े ह। जो लोग त दन तीन
समय वेद- व धसे आपक उपासना करते ह, उनके सारे पाप और ःख के बीज को आप
भ म कर दे ते ह। सूयदे व! आप सारी सृ के मूल कारण एवं सम त ऐ य के वामी ह।
इस लये हम आपके इस तेजोमय म डलका पूरी एका ताके साथ यान करते ह ।।६८।।
आप सबके आ मा और अ तयामी ह। जगत्म जतने चराचर ाणी ह, सब आपके ही
आ त ह। आप ही उनके अचेतन मन, इ य और ाण के ेरक ह* ।।६९।। यह लोक
त दन अ धकार प अजगरके वकराल मुँहम पड़कर अचेत और मुदा-सा हो जाता है।
आप परम क णा व प ह, इस लये कृपा करके अपनी मा से ही इसे सचेत कर दे ते ह
और परम क याणके साधन समय-समयके धमानु ान म लगाकर आ मा भमुख करते ह।
जैसे राजा को भयभीत करता आ अपने रा यम वचरण करता है, वैसे ही आप चोर-
जार आ द को भयभीत करते ए वचरते रहते ह ।।७०।। चार ओर सभी द पाल
थान- थानपर अपनी कमलक कलीके समान अंज लय से आपको उपहार सम पत करते
ह ।।७१।। भगवन्! आपके दोन चरणकमल तीन लोक के गु -स श महानुभाव से भी
व दत ह। मने आपके युगल चरणकमल क इस लये शरण ली है क मुझे ऐसे यजुवदक
ा त हो, जो अबतक कसीको न मला हो ।।७२।।
सूत उवाच
एवं तुतः स भगवान् वा ज पधरो ह रः ।
यजूं ययातयामा न मुनयेऽदात् सा दतः ।।७३

यजु भरकरो छाखा दशपंच शतै वभुः ।


जगृ वाजस य ताः का वमा य दनादयः ।।७४

जै मनेः सामग यासीत् सुम तु तनयो मु नः ।


सु वां तु त सुत ता यामेकैकां ाह सं हताम् ।।७५

सुकमा चा प त छ यः सामवेदतरोमहान् ।
सह सं हताभेदं च े सा नां ततो जः ।।७६

हर यनाभः कौस यः पौ यं ज सुकमणः ।


श यौ जगृहतु ा य आव यो व मः ।।७७

उद याः सामगाः श या आसन् पंचशता न वै ।


पौ य याव ययो ा प तां ा यान् च ते ।।७८

लौगा माग लः कु यः कुसीदः कु रेव च ।


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पौ यं ज श या जगृ ः सं हता ते शतं शतम् ।।७९

कृतो हर यनाभ य चतु वश तसं हताः ।


श य ऊचे व श ये यः शेषा आव य आ मवान् ।।८०
सूतजी कहते ह—शौकना द ऋ षयो! जब या व यमु नने भगवान् सूयक इस कार
तु त क , तब वे स होकर उनके सामने अ पसे कट ए और उ ह यजुवदके उन
म का उपदे श कया, जो अबतक कसीको ा त न ए थे ।।७३।। इसके बाद
या व यमु नने यजुवदके असं य म से उसक पं ह शाखा क रचना क । वही
वाजसनेय शाखाके नामसे स ह। उ ह क व, मा य दन आ द ऋ षय ने हण
कया ।।७४।।
यह बात म पहले ही कह चूका ँ क मह ष ीकृ ण- ै पायनने जै म नमु नको
सामसं हताका अ ययन कराया। उनके पु थे सुम तुमु न और पौ थे सु वान्। जै म नमु नने
अपने पु और पौ को एक-एक सं हता पढ़ायी ।।७५।। जै म नमु नके एक श यका नाम था
सुकमा। वह एक महान् पु ष था। जैसे एक वृ म ब त-सी डा लयाँ होती ह, वैसे ही
सुकमाने सामवेदक एक हजार सं हताएँ बना द ।।७६।। सुकमाके श य कोसलदे श नवासी
हर यनाभ, पौ यं ज और वे ा म े आव यने उन शाखा को हण
कया ।।७७।। पौ यं ज और आव यके पाँच सौ श य थे। वे उ र दशाके नवासी होनेके
कारण औद य सामवेद कहलाते थे। उ ह को ा य सामवेद भी कहते ह। उ ह ने एक-एक
सं हताका अ ययन कया ।।७८।। पौ यं जके और भी श य थे—लौगा , मांग ल, कु य,
कुसीद और कु । इसमसे येकने सौ-सौ सं हता का अ ययन कया ।।७९।।
हर यनाभका श य था—कृत। उसने अपने श य को चौबीस सं हताएँ पढ़ाय । शेष
सं हताएँ परम संयमी आव यने अपने श य को द । इस कार सामवेदका व तार
आ ।।८०।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां ादश क धे वेदशाखा णयनं नाम
ष ोऽ यायः ।।६।।

* ६७, ६८, ६९—इन तीन वा य ारा मशः गाय ीम के ‘त स वतुवरे यम्,’ ‘भग
दे व य धीम ह’ और ‘ धयो यो नः चोदयात्’—इन तीन चरण क ा या करते ए भगवान्
सूयक तु त क गयी है।

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अथ स तमोऽ यायः
अथववेदक शाखाएँ और पुराण के ल ण
सूत उवाच

अथव वत् सुम तु श यम यापयत् वकाम् ।


सं हतां सोऽ प प याय वेददशाय चो वान् ।।१
शौ लाय न ब लम दोषः प पलाय नः ।
वेददश य श या ते प य श यानथो शृणु ।।२
कुमुदः शुनको न् जाज ल ा यथव वत् ।
ब ुः श योऽथां गरसः सै धवायन एव च ।
अधीयेतां सं हते े साव या ा तथापरे ।।३
न क पः शा त क यपां गरसादयः ।
एते आथवणाचायाः शृणु पौरा णकान् मुने ।।४
या णः क यप साव णरकृत णः ।
वैश पायन हारीतौ षड् वै पौरा णका इमे ।।५
अधीय त ास श यात् सं हतां म पतुमुखात् ।
एकैकामहमेतेषां श यः सवाः सम यगाम् ।।६

क यपोऽहं च सावण राम श योऽकृत णः ।


अधीम ह ास श या चत ो मूलसं हताः ।।७
पुराणल णं न् ष भ न पतम् ।
शृणु व बु मा य वेदशा ानुसारतः ।।८
सग ऽ याथ वसग वृ ी र ा तरा ण च ।
वंशो वंशानुच रतं सं था हेतुरपा यः ।।९
दश भल णैयु ं पुराणं त दो व ः ।
के चत् पंच वधं न् महद प व थया ।।१०
सूतजी कहते ह—शौनका द ऋ षयो! म कह चुका ँ क अथववेदके ाता सुम तुमु न
थे। उ ह ने अपनी सं हता अपने य श य कब धको पढ़ायी। कब धने उस सं हताके दो
भाग करके प य और वेद-दशको उसका अ ययन कराया ।।१।। वेददशके चार श य ए—
शौ लाय न, ब ल, मोदोष और प पलाय न। अब प यके श य के नाम सुनो ।।२।।

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शौनकजी! प यके तीन श य थे—कुमुद, शुनक और अथववे ा जाज ल। अं गरा-गो ो प
शुनकके दो श य थे—ब ु और सै धवायन। उन लोग ने दो सं हता का अ ययन कया।
अथववेदके आचाय म इनके अ त र सै धवायना दके श य साव य आ द तथा
न क प, शा त, क यप, आं गरस आ द कई व ान् और भी ए। अब म तु ह
पौरा णक के स ब धम सुनाता ँ ।।३-४।।
शौनकजी! पुराण के छः आचाय स ह— या ण, क यप, साव ण, अकृत ण,
वैश पायन और हारीत ।।५।। इन लोग ने मेरे पताजीसे एक-एक पुराणसं हता पढ़ थी और
मेरे पताजीने वयं भगवान् ाससे उन सं हता का अ ययन कया था। मने उन छह
आचाय से सभी सं हता का अ ययन कया था ।।६।। उन छः सं हता के अ त र और
भी चार मूल सं हताएँ थ । उ ह भी क यप, साव ण, परशुरामजीके श य अकृत ण और उन
सबके साथ मने ासजीके श य ीरोमहषणजीसे, जो मेरे पता थे, अ ययन कया
था ।।७।।
शौनकजी! मह षय ने वेद और शा के अनुसार पुराण के ल ण बतलाये ह। अब तुम
व थ होकर सावधानीसे उनका वणन सुनो ।।८।। शौनकजी! पुराण के पारदश व ान्
बतलाते ह क पुराण के दस ल ण ह— व सग, वसग, वृ , र ा, म व तर, वंश,
वंशानुच रत, सं था ( लय), हेतु (ऊ त) और अपा य। कोई-कोई आचाय पुराण के पाँच ही
ल ण मानते ह। दोन ही बात ठ क ह, य क महापुराण म दस ल ण होते ह और छोटे
पुराण म पाँच। व तार करके दस बतलाते ह और सं ेप करके पाँच ।।९-१०।। (अब इनके
ल ण सुनो) जब मूल कृ तम लीन गुण ु ध होते ह, तब मह वक उ प होती है।
मह वसे तामस, राजस और वैका रक (सा वक)—तीन कारके अहंकार बनते ह।
वध अहंकारसे ही पंचत मा ा, इ य और वषय क उ प होती है। इसी उ प मका
नाम ‘सग’ है ।।११।। परमे रके अनु हसे सृ का साम य ा त करके मह व आ द
पूवकम के अनुसार अ छ और बुरी वासना क धानतासे जो यह चराचर शरीरा मक
जीवक उपा धक सृ करते ह, एक बीजसे सरे बीजके समान, इसीको वसग कहते
ह ।।१२।। चर ा णय क अचर-पदाथ ‘वृ ’ अथात् जीवन- नवाहक साम ी है। चर
ा णय के ध आ द भी इनमसे मनु य ने कुछ तो वभाववश कामनाके अनुसार न त
कर ली है और कुछने शा के आ ानुसार ।।१३।।

अ ाकृतगुण ोभा महत वृतोऽहमः ।


भूतमा े याथानां स भवः सग उ यते ।।११

पु षानुगृहीतानामेतेषां वासनामयः ।
वसग ऽयं समाहारो बीजाद् बीजं चराचरम् ।।१२

वृ भूता न भूतानां चराणामचरा ण च ।

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कृता वेन नृणां त कामा चोदनया प वा ।।१३

र ा युतावतारेहा व यानु युगे युगे ।


तयङ् म य षदे वेषु ह य ते यै यी षः ।।१४

म व तरं मनुदवा मनुपु ाः सुरे रः ।


ऋषय ऽशावतार हरेः षड् वधमु यते ।।१५

रा ां सूतानां वंश ैका लकोऽ वयः ।


वंशानुच रतं तेषां वृ ं वंशधरा ये ।।१६

नै म कः ाकृ तको न य आ य तको लयः ।


सं थे त क व भः ो ा चतुधा य वभावतः ।।१७

हेतुज वोऽ य सगादे र व ाकमकारकः ।


यं चानुश यनं ा र ाकृतमुतापरे ।।१८
भगवान् युग-युगम पशु-प ी, मनु य, ऋ ष, दे वता आ दके पम अवतार हण करके
अनेक लीलाएँ करते ह। इ ह अवतार म वे वेदधमके वरो धय का संहार भी करते ह। उनक
यह अवतार-लीला व क र ाके लये ही होती है, इसी लये उसका नाम ‘र ा’ है ।।१४।।
मनु, दे वता, मनुपु , इ , स त ष और भगवान्के अंशावतार—इ ह छः बात क वशेषतासे
यु समयको ‘म व तर’ कहते ह ।।१५।। ाजीसे जतने राजा क सृ ई है, उनक
भूत, भ व य और वतमानकालीन स तान-पर पराको ‘वंश’ कहते ह। उन राजा के तथा
उनके वंशधर के च र का नाम ‘वंशानुच रत’ है ।।१६।। इस व ा डका वभावसे ही
लय हो जाता है। उसके चार भेद ह—नै म क, ाकृ तक, न य और आ य तक। त व
व ान ने इ ह को ‘सं था’ कहा है ।।१७।। पुराण के ल णम ‘हेतु’ नामसे जसका वहार
होता है, वह जीव ही है; य क वा तवम वही सग- वसग आ दका हेतु है और अ व ावश
अनेक कारके कमकलापम उलझ गया है। जो लोग उसे चैत य धानक से दे खते ह, वे
उसे अनुशयी अथात् कृ तम शयन करनेवाला कहते ह; और जो उपा धक से कहते ह,
वे उसे अ ाकृत अथात् कृ त प कहते ह ।।१८।।
तरेका वयो य य जा व सुषु तषु ।
मायामयेषु तद् जीववृ वपा यः ।।१९

पदाथषु यथा ं स मा ं पनामसु ।


बीजा दपंचता तासु व थासु युतायुतम् ।।२०

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वरमेत यदा च ं ह वा वृ यं वयम् ।
योगेन वा तदाऽऽ मानं वेदेहाया नवतते ।।२१

एवंल णल या ण पुराणा न पुरा वदः ।


मुनयोऽ ादश ा ः ु लका न महा त च ।।२२

ा ं पा ं वै णवं च शैवं लगं सगा डम् ।


नारद यं भागवतमा नेयं का दसं तम् ।।२३

भ व यं वैवत माक डेयं सवामनम् ।


वाराहं मा यं कौम च ा डा य म त षट् ।।२४

दं समा यातं शाखा णयनं मुनेः ।


श य श य श याणां तेजो ववधनम् ।।२५
जीवक वृ य के तीन वभाग ह—जा त्, व और सुषु त। जो इन अव था म
इनके अ भमानी व , तैजस और ा के मायामय प म तीत होता है और इन
अव था से परे तुरीयत वके पम भी ल त होता है, वही है; उसीको यहाँ
‘अपा य’ श दसे कहा गया है ।।१९।। नाम वशेष और प वशेषसे यु पदाथ पर वचार
कर तो वे स ामा व तुके पम स होते ह। उनक वशेषताएँ लु त हो जाती ह। असलम
वह स ा ही उन वशेषता के पम तीत भी हो रही है और उनसे पृथक् भी है। ठ क इसी
यायसे शरीर और व ा डक उ प से लेकर मृ यु और महा लयपय त जतनी भी
वशेष अव थाएँ ह, उनके पम परम स य व प ही तीत हो रहा है और वह उनसे
सवथा पृथक् भी है। यही वा य-भेदसे अ ध ान और सा ीके पम ही पुराणो
आ यत व है ।।२०।। जब च वयं आ म वचार अथवा योगा यासके ारा स वगुण-
रजोगुण-तमोगुण-स ब धी ावहा रक वृ य और जा त्- व आ द वाभा वक
वृ य का याग करके उपराम हो जाता है, तब शा तवृ म ‘त वम स’ आ द महावा य के
ारा आ म ानका उदय होता है। उस समय आ मवे ा पु ष अ व ाज नत कम-वासना
और कम वृ से नवृ हो जाता है ।।२१।।
शौनका द ऋ षयो! पुरात ववे ा ऐ तहा सक व ान ने इ ह ल ण के ारा पुराण क
यह पहचान बतलायी है। ऐसे ल ण से यु छोटे -बड़े अठारह पुराण ह ।।२२।। उनके नाम
ये ह — पुराण, प पुराण, व णुपुराण, शवपुराण, लगपुराण, ग डपुराण, नारदपुराण,
भागवतपुराण, अ नपुराण, क दपुराण, भ व यपुराण, वैवतपुराण, माक डेयपुराण,
वामनपुराण, वराहपुराण, म यपुराण, कूमपुराण और ा डपुराण यह अठारह
ह ।।२३-२४।। शौनकजी! ासजीक श य-पर पराने जस कार वेदसं हता और
पुराणसं हता का अ ययन-अ यापन, वभाजन आ द कया वह मने तु ह सुना दया। यह
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संग सुनने और पढ़नेवाल के तेजक अ भवृ करता है ।।२५।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां ादश क धे स तमोऽ यायः ।।७।।

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अथा मोऽ यायः
माक डेयजीक तप या और वर- ा त
शौनक उवाच
सूत जीव चरं साधो वद नो वदतां वर ।
तम यपारे मतां नृणां वं पारदशनः ।।१

आ रायुषमृ ष मृक डतनयं जनाः ।


यः क पा ते उव रतो येन त मदं जगत् ।।२

स वा अ म कुलो प ः क पेऽ मन् भागवषभः ।


नैवाधुना प भूतानां स लवः कोऽ प जायते ।।३

एक एवाणवे ा यन् ददश पु षं कल ।


वटप पुटे तोकं शयानं वेकमद्भुतम् ।।४

एष नः संशयो भूयान् सूत कौतूहलं यतः ।


तं न छ ध महायो गन् पुराणे व प स मतः ।।५
सूत उवाच

वया महषऽयं कृतो लोक मापहः ।


नारायणकथा य गीता क लमलापहा ।।६

ा त जा तसं कारो माक डेयः पतुः मात् ।


छ दां यधी य धमण तपः वा यायसंयुतः ।।७

बृहद् तधरः शा तो ज टलो व कला बरः ।


ब त् कम डलुं द डमुपवीतं समेखलम् ।।८
शौनकजीने कहा—साधु शरोम ण सूतजी! आप आयु मान् ह । सचमुच आप
व ा के सरमौर ह। जो लोग संसारके अपार अ धकारम भूल-भटक रहे ह, उ ह आप
वहाँसे नकालकर काश व प परमा माका सा ा कार करा दे ते ह। आप कृपा करके हमारे
एक का उ र द जये ।।१।। लोग कहते ह क मृक ड ऋ षके पु माक डेय ऋ ष
चरायु ह और जस समय लयने सारे जगत्को नगल लया था, उस समय भी वे बचे

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रहे ।।२।। पर तु सूतजी! वे तो इसी क पम हमारे ही वंशम उ प ए एक े भृगुवंशी ह
और जहाँतक हम मालूम है, इस क पम अबतक ा णय का कोई लय नह आ है ।।३।।
ऐसी थ तम यह बात कैसे स य हो सकती है क जस समय सारी पृ वी लयकालीन
समु म डू ब गयी थी, उस समय माक डेयजी उसम डू ब-उतरा रहे थे और उ ह ने अ यवटके
प ेके दोनेम अ य त अद्भुत और सोये ए बालमुकु दका दशन कया ।।४।। सूतजी! हमारे
मनम बड़ा स दे ह है और इस बातको जाननेक बड़ी उ क ठा है। आप बड़े योगी ह,
पौरा णक म स मा नत ह। आप कृपा करके हमारा यह स दे ह मटा द जये ।।५।।
सूतजीने कहा—शौनकजी! आपने बड़ा सु दर कया। इससे लोग का म मट
जायगा और सबसे बड़ी बात तो यह है क इस कथाम भगवान् नारायणक म हमा है। जो
इसका गान करता है, उसके सारे क लमल न हो जाते ह ।।६।। शौनकजी! मृक ड ऋ षने
अपने पु माक डेयके सभी सं कार समय-समयपर कये। माक डेयजी व धपूवक वेद का
अ ययन करके तप या और वा यायसे स प हो गये थे ।।७।। उ ह ने आजीवन चयका
त ले रखा था। शा तभावसे रहते थे। सरपर जटाएँ बढ़ा रखी थ । वृ क छालका ही व
पहनते थे। वे अपने हाथ म कम डलु और द ड धारण करते, शरीरपर य ोपवीत और
मेखला शोभायमान रहती ।।८।। काले मृगका चम, ा माला और कुश—यही उनक पूँजी
थी। यह सब उ ह ने अपने आजीवन चय- तक पू तके लये ही हण कया था। वे
सायंकाल और ातःकाल अ नहो , सूय प थान, गु व दन, ा ण-स कार, मानस-पूजा
और ‘म परमा माका व प ही ँ’ इस कारक भावना आ दके ारा भगवान्क आराधना
करते ।।९।। सायं- ातः भ ा लाकर गु दे वके चरण म नवेदन कर दे ते और मौन हो जाते।
गु जीक आ ा होती तो एक बार खा लेते, अ यथा उपवास कर जाते ।।१०।।
माक डेयजीने इस कार तप या और वा यायम त पर रहकर करोड़ वष तक भगवान्क
आराधना क और इस कार उस मृ युपर भी वजय ा त कर ली, जसको जीतना बड़े-बड़े
यो गय के लये भी क ठन है ।।११।। माक डेयजीक मृ यु- वजयको दे खकर ा, भृगु,
शंकर, द जाप त, ाजीके अ या य पु तथा मनु य, दे वता, पतर एवं अ य सभी ाणी
अ य त व मत हो गये ।।१२।। आजीवन चय- तधारी एवं योगी माक डेयजी इस
कार तप या, वा याय और संयम आ दके ारा अ व ा आ द सारे लेश को मटाकर शु
अ तःकरणसे इ यातीत परमा माका यान करने लगे ।।१३।। योगी माक डेयजी
महायोगके ारा अपना च भगवान्के व पम जोड़ते रहे। इस कार साधन करते-करते
ब त समय—छः म व तर तीत हो गये ।।१४।।

कृ णा जनं सा सू ं कुशां नयम ये ।


अ यकगु व ा म वचयन् स ययोह रम् ।।९

सायं ातः स गुरवे भै यमा य वा यतः ।


बुभुजे गुवनु ातः सकृ ो चे पो षतः ।।१०

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एवं तपः वा यायपरो वषाणामयुतायुतम् ।
आराधयन् षीकेशं ज ये मृ युं सु जयम् ।।११

ा भृगुभवो द ो पु ा ये परे ।
नृदेव पतृभूता न तेनास त व मताः ।।१२

इ थं बृहद् तधर तप वा यायसंयमैः ।


द यावधो जं योगी व त लेशा तरा मना ।।१३

त यैवं युंजत ं महायोगेन यो गनः ।


तीयाय महान् कालो म व तरषडा मकः ।।१४

एतत् पुर दरो ा वा स तमेऽ मन् कला तरे ।


तपो वशं कतो ारेभे त घातनम् ।।१५

ग धवा सरसः कामं वस तमलया नलौ ।


मुनये ेषयामास रज तोकमदौ तथा ।।१६

ते वै तदा मं ज मु हमा े ः पा उ रे ।
पु पभ ा नद य च ा या च शला वभो ।।१७
न्! इस सातव म व तरम जब इ को इस बातका पता चला, तब तो वे उनक
तप यासे शं कत और भयभीत हो गये। इस लये उ ह ने उनक तप याम व न डालना
आर भ कर दया ।।१५।।
शौनकजी! इ ने माक डेयजीक तप याम व न डालनेके लये उनके आ मपर ग धव,
अ सराएँ, काम, वस त, मलया नल, लोभ और मदको भेजा ।।१६।। भगवन्! वे सब उनक
आ ाके अनुसार उनके आ मपर गये। माक डेयजीका आ म हमालयके उ रक ओर है।
वहाँ पु पभ ा नामक नद बहती है और उसके पास ही च ा नामक एक शला है ।।१७।।
शौनकजी! माक डेयजीका आ म बड़ा ही प व है। चार ओर हरे-भरे प व वृ क
पं याँ ह, उनपर लताएँ लहलहाती रहती ह। वृ के झुरमुटम थान- थानपर पु या मा
ऋ षगण नवास करते ह और बड़े ही प व एवं नमल जलसे भरे जलाशय सब ऋतु म
एक-से ही रहते ह ।।१८।। कह मतवाले भ रे अपनी संगीतमयी गुंजारसे लोग का मन
आक षत करते रहते ह तो कह मतवाले को कल पंचम वरम ‘कु -कु ’ कूकते रहते ह;
कह मतवाले मोर अपने पंख फैलाकर कलापूण नृ य करते रहते ह तो कह अ य मतवाले
प य का झुंड खेलता रहता है ।।१९।। माक डेय मु नके ऐसे प व आ मम इ के भेजे
ए वायुने वेश कया। वहाँ उसने पहले शीतल झरन क न ह -न ह फु हयाँ सं ह क ।
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इसके बाद सुग धत पु प का आ लगन कया और फर कामभावको उ े जत करते ए
धीरे-धीरे बहने लगा ।।२०।। कामदे वके यारे सखा वस तने भी अपनी माया फैलायी।
स याका समय था। च मा उ दत हो अपनी मनोहर करण का व तार कर रहे थे। सह -
सह डा लय वाले वृ लता का आ लगन पाकर धरतीतक झुके ए थे। नयी-नयी
कोपल , फल और फूल के गु छे अलग ही शोभायमान हो रहे थे ।।२१।। वस तका सा ा य
दे खकर कामदे वने भी वहाँ वेश कया। उसके साथ गाने-बजानेवाले ग धव झुंड-के-झुंड
चल रहे थे, उसके चार ओर ब त-सी वग य अ सराएँ चल रही थ और अकेला काम ही
सबका नायक था। उसके हाथम पु प का धनुष और उसपर स मोहन आ द बाण चढ़े ए
थे ।।२२।।

तदा मपदं पु यं पु य मलतां चतम् ।


पु य जकुलाक ण पु यामलजलाशयम् ।।१८

म मरसंगीतं म को कलकू जतम् ।


म ब हनटाटोपं म जकुलाकुलम् ।।१९

वायुः व आदाय हम नझरशीकरान् ।


सुमनो भः प र व ो ववावु भयन् मरम् ।।२०

उ च नशाव ः वाल तबका ल भः ।


गोप मलताजालै त ासीत् कुसुमाकरः ।।२१

अ वीयमानो ग धवग तवा द यूथकैः ।


अ यता चापेषुः वः ीयूथप तः मरः ।।२२

वा नं समुपासीनं द शुः श ककराः ।


मी लता ं राधष मू तम त मवानलम् ।।२३
उस समय माक डेय मु न अ नहो करके भगवान्क उपासना कर रहे थे। उनके ने
बंद थे। वे इतने तेज वी थे, मानो वयं अ नदे व ही मू तमान् होकर बैठे ह ! उनको दे खनेसे
ही मालूम हो जाता था क इनको परा जत कर सकना ब त ही क ठन है। इ के आ ाकारी
सेवक ने माक डेय मु नको इसी अव थाम दे खा ।।२३।।

ननृतु त य पुरतः योऽथो गायका जगुः ।


मृदंगवीणापणवैवा ं च ु मनोरमम् ।।२४

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स दधेऽ ं वधनु ष कामः पंचमुखं तदा ।
मधुमनो रज तोक इ भृ या क पयन् ।।२५

ड याः पुं जक थ याः क कैः तनगौरवात् ।


भृशमु नम यायाः केश व ं सत जः ।।२६

इत ततो मद् े ल या अनुक कम् ।


वायुजहार त ासः सू मं ु टतमेखलम् ।।२७

वससज तदा बाणं म वा तं व जतं मरः ।


सव त ाभव मोघमनीश य यथो मः ।।२८

त इ थमपकुव तो मुने त ेजसा मुने ।


द माना नववृतुः बो या ह मवाभकाः ।।२९

इती ानुचरै न् ध षतोऽ प महामु नः ।


य ागादहमो भावं न त च ं मह सु ह ।।३०
अब अ सराएँ उनके सामने नाचने लग । कुछ ग धव मधुर गान करने लगे तो कुछ मृदंग,
वीणा, ढोल आ द बाजे बड़े मनोहर वरम बजाने लगे ।।२४।। शौनकजी! अब कामदे वने
अपने पु प न मत धनुषपर पंचमुख बाण चढ़ाया। उसके बाणके पाँच मुख ह—शोषण,
द पन, स मोहन, तापन और उ मादन। जस समय वह नशाना लगानेक ताकम था, उस
समय इ के सेवक वस त और लोभ माक डेयमु नका मन वच लत करनेके लये
य नशील थे ।।२५।। उनके सामने ही पुं जक थली नामक सु दरी अ सरा गद खेल रही
थी। तन के भारसे बार-बार उसक कमर लचक जाया करती थी। साथ ही उसक चो टय म
गुँथे ए सु दर-सु दर पु प और मालाएँ बखरकर धरतीपर गरती जा रही थ ।।२६।। कभी-
कभी वह तरछ चतवनसे इधर-उधर दे ख लया करती थी। उसके ने कभी गदके साथ
आकाशक ओर जाते, कभी धरतीक ओर और कभी हथे लय क ओर। वह बड़े हाव-
भावके साथ गदक ओर दौड़ती थी। उसी समय उसक करधनी टू ट गयी और वायुने उसक
झीनी-सी साड़ीको शरीरसे अलग कर दया ।।२७।। कामदे वने अपना उपयु अवसर
दे खकर और यह समझकर क अब माक डेय मु नको मने जीत लया, उनके ऊपर अपना
बाण छोड़ा। पर तु उसक एक न चली। माक डेय मु नपर उसका सारा उ ोग न फल हो
गया—ठ क वैसे ही, जैसे असमथ और अभागे पु ष के य न वफल हो जाते ह ।।२८।।
शौनकजी! माक डेय मु न अप र मत तेज वी थे। काम, वस त आ द आये तो थे इस लये क
उ ह तप यासे कर द; पर तु अब उनके तेजसे जलने लगे और ठ क उसी कार भाग
गये, जैसे छोटे -छोटे ब चे सोते ए साँपको जगाकर भाग जाते ह ।।२९।। शौनकजी! इ के
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सेवक ने इस कार माक डेयजीको परा जत करना चाहा, पर तु वे र ीभर भी वच लत न
ए। इतना ही नह , उनके मनम इस बातको लेकर त नक भी अहंकारका भाव न आ। सच
है, महापु ष के लये यह कौन-सी आ यक बात है ।।३०।। जब दे वराज इ ने दे खा क
कामदे व अपनी सेनाके साथ न तेज—हत भ होकर लौटा है और सुना क ष
माक डेयजी परम भावशाली ह, तब उ ह बड़ा ही आ य आ ।।३१।।

् वा न तेजसं कामं सगणं भगवान् वराट् ।


ु वानुभावं ष व मयं समगात् परम् ।।३१

त यैवं युंजत ं तपः वा यायसंयमैः ।


अनु हाया वरासी रनारायणो ह रः ।।३२

तौ शु लकृ णौ नवक लोचनौ


चतुभुजौ रौरवव कला बरौ ।
प व पाणी उपवीतकं वृत्
कम डलुं द डमृजुं च वैणवम् ।।३३

प ा मालामुत ज तुमाजनं
वेदं च सा ा प एव पणौ ।
तप ड ण पशंगरो चषा
ांशू दधानौ वबुधषभा चतौ ।।३४

ते वै भगवतो पे नरनारायणावृषी ।
् वो थायादरेणो चैननामांगेन द डवत् ।।३५

स त स दशनान द नवृता मे याशयः ।


रोमा ुपूणा ो न सेहे तावुद तुम् ।।३६

उ थाय ांज लः औ सु यादा ष व ।


नमो नम इतीशानौ बभाषे गद्गदा रः ।।३७
शौनकजी! माक डेय मु न तप या, वा याय, धारणा, यान और समा धके ारा
भगवान्म च लगानेका य न करते रहते थे। अब उनपर कृपा सादक वषा करनेके लये
मु नजन-नयन-मनोहारी नरो म नर और भगवान् नारायण कट ए ।।३२।। उन दोन म
एकका शरीर गौरवण था और सरेका याम। दोन के ही ने तुरंतके खले ए कमलके
समान कोमल और वशाल थे। चार-चार भुजाएँ थ । एक मृगचम पहने ए थे तो सरे

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वृ क छाल। हाथ म कुश लये ए थे और गलेम तीन-तीन सूतके य ोपवीत शोभायमान
थे। वे कम डलु और बाँसका सीधा द ड हण कये ए थे ।।३३।। कमलग े क माला और
जीव को हटानेके लये व क कूँची भी रखे ए थे। ा, इ आ दके भी पू य भगवान्
नर-नारायण कुछ ऊँचे कदके थे और वेद धारण कये ए थे। उनके शरीरसे चमकती ई
बजलीके समान पीले-पीले रंगक का त नकल रही थी। वे ऐसे मालूम होते थे, मानो वयं
तप ही मू तमान् हो गया हो ।।३४।। जब माक डेय मु नने दे खा क भगवान्के सा ात्
व प नर-नारायण ऋ ष पधारे ह, तब वे बड़े आदरभावसे उठकर खड़े हो गये और
धरतीपर द डवत् लोटकर सा ांग णाम कया ।।३५।। भगवान्के द दशनसे उ ह इतना
आन द आ क उनका रोम-रोम, उनक सारी इ याँ एवं अ तःकरण शा तके समु म
गोता खाने लगे। शरीर पुल कत हो गया। ने म आँसू उमड़ आये, जनके कारण वे उ ह भर
आँख दे ख भी न सकते ।।३६।। तदन तर वे हाथ जोड़कर उठ खड़े ए। उनका अंग-अंग
भगवान्के सामने झुका जा रहा था। उनके दयम उ सुकता तो इतनी थी, मानो वे
भगवान्का आ लगन कर लगे। उनसे और कुछ तो बोला न गया, गद्गद वाणीसे केवल इतना
ही कहा—‘नम कार! नम कार’ ।।३७।।

तयोरासनमादाय पादयोरव न य च ।
अहणेनानुलेपेन धूपमा यैरपूजयत् ।।३८

सुखमासनमासीनौ सादा भमुखौ मुनी ।


पुनरान य पादा यां ग र ा वदम वीत् ।।३९
माक डेय उवाच

क वणये तव वभो य द रतोऽसुः


सं प दते तमनु वाङ् मनइ या ण ।
प द त वै तनुभृतामजशवयो
व या यथा प भजताम स भावब धुः ।।४०

मूत इमे भगवतो भगवं लो याः


ेमाय ताप वरमाय च मृ यु ज यै ।
नाना बभ य वतुम यतनूयथेदं
सृ ् वा पुन स स सव मवोणना भः ।।४१

त या वतुः थरचरे शतुरङ् मूलं


य थं न कमगुणकाल जः पृश त ।
यद् वै तुव त ननम त यज यभी णं
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याय त वेद दया मुनय तदा यै ।।४२

ना यं तवांङ् यपनयादपवगमूतः
ेमं जन य प रतो भय ईश व ः ।

ा बभे यलमतो पराध ध यः


काल य ते कमुत त कृतभौ तकानाम् ।।४३
इसके बाद उ ह ने दोन को आसनपर बैठाया, बड़े ेमसे उनके चरण पखारे और अ य,
च दन, धूप और माला आ दसे उनक पूजा करने लगे ।।३८।। भगवान् नर-नारायण
सुखपूवक आसनपर वराजमान थे और माक डेयजीपर कृपा- सादक वषा कर रहे थे।
पूजाके अन तर माक डेय मु नने उन सव े मु नवेषधारी नर-नारायणके चरण म णाम
कया और यह तु त क ।।३९।।
माक डेय मु नने कहा—भगवन्! म अ प जीव भला, आपक अन त म हमाका
कैसे वणन क ँ ? आपक ेरणासे ही स पूण ा णय — ा, शंकर तथा मेरे शरीरम भी
ाणश का संचार होता है और फर उसीके कारण वाणी, मन तथा इ य म भी बोलने,
सोचने- वचारने और करने-जाननेक श आती है। इस कार सबके ेरक और परम
वत होनेपर भी आप अपना भजन करनेवाले भ के ेम-ब धनम बँधे ए ह ।।४०।।
भो! आपने केवल व क र ाके लये ही जैसे म य-कूम आ द अनेक अवतार हण
कये ह, वैसे ही आपने ये दोन प भी लोक के क याण, उसक ःख- नवृ और
व के ा णय को मृ युपर वजय ा त करानेके लये हण कया है। आप र ा तो करते ही
ह, मकड़ीके समान अपनेसे ही इस व को कट करते ह और फर वयं अपनेम ही लीन
भी कर लेते ह ।।४१।। आप चराचरका पालन और नयमन करनेवाले ह। म आपके
चरणकमल म णाम करता ।ँ जो आपके चरणकमल क शरण हण कर लेते ह, उ ह
कम, गुण और कालज नत लेश पश भी नह कर सकते। वेदके मम ऋ ष-मु न आपक
ा तके लये नर तर आपका तवन, व दन, पूजन और यान कया करते ह ।।४२।। भो!
जीवके चार ओर भय-ही-भयका बोलबाला है। और क तो बात ही या, आपके काल पसे
वयं ा भी अ य त भयभीत रहते ह; य क उनक आयु भी सी मत—केवल दो
पराधक है। फर उनके बनाये ए भौ तक शरीरवाले ा णय के स ब धम तो कहना ही या
है। ऐसी अव थाम आपके चरणकमल क शरण हण करनेके अ त र और कोई भी परम
क याण तथा सुख-शा तका उपाय हमारी समझम नह आता; य क आप वयं ही
मो व प ह ।।४३।। भगवन्! आप सम त जीव के परम गु , सबसे े और स य
ान व प ह। इस लये आ म व पको ढक दे नेवाले दे ह-गेह आ द न फल, अस य,
नाशवान् और ती तमा पदाथ को याग कर म आपके चरणकमल क ही शरण हण
करता ।ँ कोई भी ाणी य द आपक शरण हण कर लेता है तो वह उससे अपने सारे
अभी पदाथ ा त कर लेता है ।।४४।। जीव के परम सु द् भो! य प स व, रज और

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तम—ये तीन गुण आपक ही मू त ह—इ ह के ारा आप जगत्क उ प , थ त, लय
आ द अनेक मायामयी लीलाएँ करते ह फर भी आपक स वगुणमयी मू त ही जीव को
शा त दान करती है। रजोगुणी और तमोगुणी मू तय से जीव को शा त नह मल सकती।
उनसे तो ःख, मोह और भयक वृ ही होती है ।।४५।। भगवन्! इस लये बु मान् पु ष
आपक और आपके भ क परम य एवं शु मू त नर-नारायणक ही उपासना करते ह।
पांचरा - स ा तके अनुयायी वशु स वको ही आपका ी व ह मानते ह। उसीक
उपासनासे आपके न यधाम वैकु ठक ा त होती है। उस धामक यह वल णता है क
वह लोक होनेपर भी सवथा भयर हत और भोगयु होनेपर भी आ मान दसे प रपूण है। वे
रजोगुण और तमोगुणको आपक मू त वीकार नह करते ।।४६।। भगवन्! आप अ तयामी,
सव ापक, सव व प, जगद्गु परमारा य और शु व प ह। सम त लौ कक और
वै दक वाणी आपके अधीन है। आप ही वेदमागके वतक ह। म आपके इस युगल व प
नरो म नर और ऋ षवर नारायणको नम कार करता ँ ।।४७।। आप य प येक जीवक
इ य तथा उनके वषय म, ाण म तथा दयम भी व मान ह तो भी आपक मायासे
जीवक बु इतनी मो हत हो जाती है—ढक जाती है क वह न फल और झूठ इ य के
जालम फँसकर आपक झाँक से वं चत हो जाता है। क तु सारे जगत्के गु तो आप ही ह।
इस लये पहले अ ानी होनेपर भी जब आपक कृपासे उसे आपके ान-भ डार वेद क
ा त होती है, तब वह आपके सा ात् दशन कर लेता है ।।४८।। भो! वेदम आपका
सा ा कार करानेवाला वह ान पूण पसे व मान है, जो आपके व पका रह य कट
करता है। ा आ द बड़े-बड़े तभाशाली मनीषी उसे ा त करनेका य न करते रहनेपर
भी मोहम पड़ जाते ह। आप भी ऐसे लीला वहारी ह क व भ मतवाले आपके स ब धम
जैसा सोचते- वचारते ह, वैसा ही शील- वभाव और प हण करके आप उनके सामने
कट हो जाते ह। वा तवम आप दे ह आ द सम त उपा धय म छपे ए वशु व ानघन ही
ह। हे पु षो म! म आपक व दना करता ँ ।।४९।।

तद् वै भजा यृत धय तव पादमूलं


ह वेदमा म छ द चा मगुरोः पर य ।
दे हा पाथमसद यम भ मा ं
व दे त ते त ह सवमनी षताथम् ।।४४

स वं रज तम इतीश तवा मब धो
मायामयाः थ तलयोदयहेतवोऽ य ।
लीला धृता यद प स वमयी शा यै
ना ये नृणां सनमोह भय या याम् ।।४५

त मा वेह भगव थ तावकानां


शु लां तनुं वद यतां कुशला भज त ।
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यत् सा वताः पु ष पमुश त स वं
लोको यतोऽभयमुता मसुखं न चा यत् ।।४६

त मै नमो भगवते पु षाय भू ने


व ाय व गुरवे परदे वतायै ।
नारायणाय ऋषये च नरो माय
हंसाय संयत गरे नगमे राय ।।४७

यं वै न वेद वतथा पथै म ः


स तं वखे वसुषु प पथेषु ।

त माययाऽऽवृतम तः स उ एव सा ा-
दा तवा खलगुरो पसा वेदम् ।।४८

य शनं नगम आ मरहः काशं


मु त य कवयोऽजपरा यत तः ।
तं सववाद वषय त पशीलं
व दे महापु षमा म नगूढबोधम् ।।४९
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां ादश क धेऽ मोऽ यायः ।।८।।

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अथ नवमोऽ यायः
माक डेयजीका माया-दशन
सूत उवाच

सं तुतो भगवा न थं माक डेयेन धीमता ।


नारायणो नरसखः ीत आह भृगू हम् ।।१
ीभगवानुवाच
भो भो षवया स स आ मसमा धना ।
म य भ यानपा य या तपः वा यायसंयमैः ।।२

वयं ते प रतु ाः म वद्बृहद् तचयया ।


वरं ती छ भ ं ते वरदे शादभी सतम् ।।३
ऋ ष वाच
जतं ते दे वदे वेश प ा तहरा युत ।
वरेणैतावतालं नो यद् भवान् सम यत ।।४
सूतजी कहते ह—जब ानस प माक डेय मु नने इस कार तु त क , तब भगवान्
नर-नारायणने स होकर माक डेयजीसे कहा ।।१।।
भगवान् नारायणने कहा—स मा य ष- शरोम ण! तुम च क एका ता, तप या,
वा याय, संयम और मेरी अन य भ से स हो गये हो ।।२।। तु हारे इस आजीवन
चय- तक न ा दे खकर हम तुमपर ब त ही स ए ह। तु हारा क याण हो! म
सम त वर दे ने-वाल का वामी ँ। इस लये तुम अपना अभी वर मुझसे माँग लो ।।३।।
माक डेय मु नने कहा—दे वदे वेश! शरणागत-भयहारी अ युत! आपक जय हो! जय
हो! हमारे लये बस इतना ही वर पया त है क आपने कृपा करके अपने मनोहर व पका
दशन कराया ।।४।। ा-शंकर आ द दे वगण योग-साधनाके ारा एका ए मनसे ही
आपके परम सु दर ीचरणकमल का दशन ा त करके कृताथ हो गये ह। आज उ ह
आपने मेरे ने के सामने कट होकर मुझे ध य बनाया है ।।५।। प व क त महानुभाव के
शरोम ण कमलनयन! फर भी आपक आ ाके अनुसार म आपसे वर माँगता ँ। म
आपक वह माया दे खना चाहता ँ, जससे मो हत होकर सभी लोक और लोकपाल
अ तीय व तु म अनेक कारके भेद- वभेद दे खने लगते ह ।।६।।

गृही वाजादयो य य ीम पादा जदशनम् ।

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मनसा योगप वेन स भवान् मेऽ गोचरः ।।५

अथा य बुजप ा पु य ोक शखामणे ।


ये मायां यया लोकः सपालो वेद स दाम् ।।६
सूत उवाच
इती डतोऽ चतः काममृ षणा भगवान् मुने ।
तथे त स मयन् ागाद् बदया ममी रः ।।७

तमेव च तय थमृ षः वा म एव सः ।
वस यकसोमा बु भूवायु वयदा मसु ।।८

यायन् सव च ह र भाव ैरपूजयत् ।


व चत् पूजां वस मार ेम सरस लुतः ।।९

त यैकदा भृगु े पु पभ ातटे मुनेः ।


उपासीन य स यायां न् वायुरभू महान् ।।१०

तं च डश दं समुद रय तं
बलाहका अ वभवन् करालाः ।
अ थ व ा मुमुचु त ड ः
वन त उ चैर भवषधाराः ।।११

ततो य त चतुःसमु ाः
सम ततः मातलमा स तः ।

समीरवेगो म भ न -
महाभयावतगभीरघोषाः ।।१२
सूतजी कहते ह—शौनकजी! जब इस कार माक डेय मु नने भगवान् नर-नारायणक
इ छानुसार तु त-पूजा कर ली एवं वरदान माँग लया, तब उ ह ने मुसकराते ए कहा
—‘ठ क है, ऐसा ही होगा।’ इसके बाद वे अपने आ म बदरीवनको चले गये ।।७।।
माक डेय मु न अपने आ मपर ही रहकर नर तर इस बातका च तन करते रहते क मुझे
मायाके दशन कब ह गे। वे अ न, सूय, च मा, जल, पृ वी, वायु, आकाश एवं अ तःकरणम
—और तो या, सव भगवान्का ही दशन करते ए मान सक व तु से उनका पूजन करते
रहते। कभी-कभी तो उनके दयम ेमक ऐसी बाढ़ आ जाती क वे उसके वाहम डू बने-
उतराने लगते, उ ह इस बातक भी याद न रहती क कब कहाँ कस कार भगवान्क पूजा
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करनी चा हये? ।।८-९।।
शौनकजी! एक दनक बात है, स याके समय पु पभ ा नद के तटपर माक डेय मु न
भगवान्क उपासनाम त मय हो रहे थे। न्! उसी समय एकाएक बड़े जोरक आँधी
चलने लगी ।।१०।। उस समय आँधीके कारण बड़ी भयंकर आवाज होने लगी और बड़े
वकराल बादल आकाशम मँडराने लगे। बजली चमक-चमककर कड़कने लगी और रथके
धुरेके समान जलक मोट -मोट धाराएँ पृ वीपर गरने लग ।।११।। यही नह , माक डेय
मु नको ऐसा दखायी पड़ा क चार ओरसे चार समु समूची पृ वीको नगलते ए उमड़े आ
रहे ह। आँधीके वेगसे समु म बड़ी-बड़ी लहर उठ रही ह, बड़े भयंकर भँवर पड़ रहे ह और
भयंकर व न कान फाड़े डालती है। थान- थानपर बड़े-बड़े मगर उछल रहे ह ।।१२।। उस
समय बाहर-भीतर, चार ओर जल-ही-जल द खता था। ऐसा जान पड़ता था क उस
जलरा शम पृ वी ही नह , वग भी डू बा जा रहा है; ऊपरसे बड़े वेगसे आँधी चल रही है और
बजली चमक रही है, जससे स पूण जगत् संत त हो रहा है। जब माक डेय मु नने दे खा क
इस जल- लयसे सारी पृ वी डू ब गयी है, उ ज, वेदज, अ डज और जरायुज—चार
कारके ाणी तथा वयं वे भी अ य त ाकुल हो रहे ह, तब वे उदास हो गये और साथ ही
अ य त भयभीत भी ।।१३।। उनके सामने ही लयसमु म भयंकर लहर उठ रही थ ,
आँधीके वेगसे जलरा श उछल रही थी और लयकालीन बादल बरस-बरसकर समु को और
भी भरते जा रहे थे। उ ह ने दे खा क समु ने प, वष और पवत के साथ सारी पृ वीको
डु बा दया ।।१४।। पृ वी, अ त र , वग, यो तम डल ( ह, न एवं तार का समूह) और
दशा के साथ तीन लोक जलम डू ब गये। बस, उस समय एकमा महामु न माक डेय ही
बच रहे थे। उस समय वे पागल और अंधेके समान जटा फैलाकर यहाँसे वहाँ और वहाँसे
यहाँ भाग-भागकर अपने ाण बचानेक चे ा कर रहे थे ।।१५।। वे भूख- याससे ाकुल हो
रहे थे। कसी ओर बड़े-बड़े मगर तो कसी ओर बड़े-बड़े त म गल म छ उनपर टू ट पड़ते।
कसी ओरसे हवाका झ का आता, तो कसी ओरसे लहर के थपेड़े उ ह घायल कर दे ते। इस
कार इधर-उधर भटकते-भटकते वे अपार अ ाना धकारम पड़ गये—बेहोश हो गये और
इतने थक गये क उ ह पृ वी और आकाशका भी ान न रहा ।।१६।। वे कभी बड़े भारी
भँवरम पड़ जाते, कभी तरल तरंग क चोटसे चंचल हो उठते। जब कभी जल-ज तु आपसम
एक- सरेपर आ मण करते, तब ये अचानक ही उनके शकार बन जाते ।।१७।। कह
शोक त हो जाते तो कह मोह त। कभी ःख-ही- ःखके न म आते तो कभी त नक
सुख भी मल जाता। कभी भयभीत होते, कभी मर जाते तो कभी तरह-तरहके रोग उ ह
सताने लगते ।।१८।। इस कार माक डेय मु न व णुभगवान्क मायाके च करम मो हत हो
रहे थे। उस लयकालके समु म भटकते-भटकते उ ह सैकड़ -हजार ही नह , लाख -करोड़
वष बीत गये ।।१९।।

अ तब ह ा र त ु भः खरैः
शत दाभी पता पतं जगत् ।

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चतु वधं वी य सहा मना मु न-
जला लुतां मां वमनाः सम सत् ।।१३

त यैवमु त ऊ मभीषणः
भंजनाघू णतवामहाणवः ।
आपूयमाणो वरष र बुदैः
माम यधाद् पवषा भः समम् ।।१४

स मा त र ं स दवं सभागणं
ैलो यमासीत् सह द भरा लुतम् ।
स एक एवोव रतो महामु न-
ब ाम व य जटा जडा धवत् ।।१५

ु ृट्परीतो मकरै त म गलै-


प तो वी चनभ वता हतः ।
तम यपारे प ततो मन् दशो
न वेद खं गां च प र मे षतः ।।१६

व चद् गतो महावत तरलै ता डतः व चत् ।


यादो भभ यते वा प वयम यो यघा त भः ।।१७

व च छोकं व च मोहं व चद् ःखं सुखं भयम् ।


व च मृ युमवा ो त ा या द भ ता दतः ।।१८

अयुतायुतवषाणां सह ा ण शता न च ।
तीयु मत त मन् व णुमायावृता मनः ।।१९

स कदा चद् मं त मन् पृ थ ाः ककु द जः ।


य ोधपोतं द शे फलप लवशो भतम् ।।२०

ागु र यां शाखायां त या प द शे शशुम् ।


शयानं पणपुटके स तं भया तमः ।।२१

महामरकत यामं ीम दनपंकजम् ।


क बु ीवं महोर कं सुनासं सु दर ुवम् ।।२२

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ासैजदलकाभातं क बु ीकणदा डमम् ।
व माधरभासेष छोणा यतसुधा मतम् ।।२३

प गभा णापांगं हासावलोकनम् ।


ासैज लसं व न न नना भदलोदरम् ।।२४

चावङ् गु ल यां पा ण यामु ीय चरणा बुजम् ।


मुखे नधाय व े ो धय तं वी य व मतः ।।२५
शौनकजी! माक डेय मु न इसी कार लयके जलम ब त समयतक भटकते रहे। एक
बार उ ह ने पृ वीके एक ट लेपर एक छोटा-सा बरगदका पेड़ दे खा। उसम हरे-हरे प े और
लाल-लाल फल शोभाय-मान हो रहे थे ।।२०।। बरगदके पेड़म ईशानकोणपर एक डाल थी,
उसम एक प का दोना-सा बन गया था। उसीपर एक बड़ा ही सु दर न हा-सा शशु लेट रहा
था। उसके शरीरसे ऐसी उ वल छटा छटक रही थी, जससे आसपासका अँधेरा र हो रहा
था ।।२१।। वह शशु मरकतम णके समान साँवल-साँवला था। मुखकमलपर सारा सौ दय
फूटा पड़ता था। गरदन शंखके समान उतार-चढ़ाववाली थी। छाती चौड़ी थी। तोतेक च चके
समान सु दर ना सका और भ ह बड़ी मनोहर थ ।।२२।। काली-काली घुँघराली अलक
कपोल पर लटक रही थ और ास लगनेसे कभी-कभी हल भी जाती थ । शंखके समान
घुमावदार कान म अनारके लाल-लाल फूल शोभायमान हो रहे थे। मूँगेके समान लाल-लाल
होठ क का तसे उनक सुधामयी ेत मुसकान कुछ ला लमा म त हो गयी थी ।।२३।।
ने के कोने कमलके भीतरी भागके समान त नक लाल-लाल थे। मुसकान और चतवन
बरबस दयको पकड़ लेती थी। बड़ी ग भीर ना भ थी। छोट -सी त द पीपलके प ेके समान
जान पड़ती और ास लेनेके समय उसपर पड़ी ई बल तथा ना भ भी हल जाया करती
थी ।।२४।। न ह-न ह हाथ म बड़ी सु दर-सु दर अँगु लयाँ थ । वह शशु अपने दोन
करकमल से एक चरणकमलको मुखम डालकर चूस रहा था। माक डेय मु न यह द य
दे खकर अ य त व मत हो गये ।।२५।।

त शनाद् वीतप र मो मुदा


ो फु ल प वलोचना बुजः ।
रोमाद्भुतभावशं कतः
ु ं पुर तं ससार बालकम् ।।२६

ताव छशोव सतेन भागवः


सोऽ तःशरीरं मशको यथा वशत् ।
त ा यदो य तमच कृ नशो
यथा पुरामु दतीव व मतः ।।२७
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खं रोदसी भगणान सागरान्
पान् सवषान् ककुभः सुरासुरान् ।
वना न दे शान् स रतः पुराकरान्
खेटान् जाना मवणवृ यः ।।२८

महा त भूता यथ भौ तका यसौ


कालं च नानायुगक पक पनम् ।
यत् क चद यद् वहारकारणं
ददश व ं स दवावभा सतम् ।।२९

हमालयं पु पवहां च तां नद


नजा मं त ऋषीनप यत् ।
व ं वप य छ् व सता छशोव
ब ह नर तो यपत लया धौ ।।३०

त मन् पृ थ ाः ककु द ढं
वटं च त पणपुटे शयानम् ।
तोकं च त ेमसुधा मतेन
नरी तोऽपांग नरी णेन ।।३१
शौनकजी! उस द शशुको दे खते ही माक डेय मु नक सारी थकावट जाती रही।
आन दसे उनके दय-कमल और ने कमल खल गये। शरीर पुल कत हो गया। उस न ह-से
शशुके इस अद्भुत भावको दे खकर उनके मनम तरह-तरहक शंकाएँ—‘यह कौन है’
इ या द—आने लग और वे उस शशुसे ये बात पूछनेके लये उसके सामने सरक
गये ।।२६।। अभी माक डेयजी प ँच भी न पाये थे क उस शशुके ासके साथ उसके
शरीरके भीतर उसी कार घुस गये, जैसे कोई म छर कसीके पेटम चला जाय। उस शशुके
पेटम जाकर उ ह ने सब-क -सब वही सृ दे खी, जैसी लयके पहले उ ह ने दे खी थी। वे
वह सब व च य दे खकर आ यच कत हो गये। वे मोहवश कुछ सोच- वचार भी न
सके ।।२७।। उ ह ने उस शशुके उदरम आकाश, अ त र , यो तम डल, पवत, समु ,
प, वष, दशाएँ, दे वता, दै य, वन, दे श, न दयाँ, नगर, खान, कसान के गाँव, अहीर क
ब तयाँ, आ म, वण, उनके आचार- वहार, पंचमहाभूत, भूत से बने ए ा णय के शरीर
तथा पदाथ, अनेक युग और क प के भेदसे यु काल आ द सब कुछ दे खा। केवल इतना
ही नह जन दे श , व तु और काल के ारा जगत्का वहार स प होता है, वह सब
कुछ वहाँ व मान था। कहाँतक कह, यह स पूण व न होनेपर भी वहाँ स यके समान
तीत होते दे खा ।।२८-२९।। हमालय पवत, वही पु पभ ा नद , उसके तटपर अपना
आ म और वहाँ रहनेवाले ऋ षय को भी माक डेयजीने य ही दे खा। इस कार स पूण
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व को दे खते-दे खते ही वे उस द शशुके ासके ारा ही बाहर आ गये और फर
लयकालीन समु म गर पड़े ।।३०।। अब फर उ ह ने दे खा क समु के बीचम पृ वीके
ट लेपर वही बरगदका पेड़ य -का- य व मान है और उसके प ेके दोनेम वही शशु सोया
आ है। उसके अधर पर ेमामृतसे प रपूण म द-म द मुसकान है और अपनी ेमपूण
चतवनसे वह माक डेयजीक ओर दे ख रहा है ।।३१।।

अथ तं बालकं वी य ने ा यां ध तं द ।
अ ययाद तसं ल ः प र व ु मधो जम् ।।३२

तावत् स भगवान् सा ाद् योगाधीशो गुहाशयः ।


अ तदध ऋषेः स ो यथेहानीश न मता ।।३३

तम वथ वटो न् स ललं लोकस लवः ।


तरोधा य णाद य वा मे पूववत् थतः ।।३४
अब माक डेय मु न इ यातीत भगवान्को जो शशुके पम डा कर रहे थे और
ने के मागसे पहले ही दयम वराजमान हो चुके थे, आ लगन करनेके लये बड़े म और
क ठनाईसे आगे बढ़े ।।३२।।
पर तु शौनकजी! भगवान् केवल यो गय के ही नह , वयं योगके भी वामी और सबके
दयम छपे रहनेवाले ह। अभी माक डेय मु न उनके पास प ँच भी न पाये थे क वे तुरंत
अ तधान हो गये—ठ क वैसे ही, जैसे अभागे और असमथ पु ष के प र मका पता नह
चलता क वह फल दये बना ही या हो गया? ।।३३।। शौनकजी! उस शशुके अ तधान
होते ही वह बरगदका वृ तथा लयकालीन य एवं जल भी त काल लीन हो गया और
माक डेय मु नने दे खा क म तो पहलेके समान ही अपने आ मम बैठा आ ँ ।।३४।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां ादश क धे मायादशनं नाम
नवमोऽ यायः ।।९।।

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अथ दशमोऽ यायः
माक डेयजीको भगवान् शंकरका वरदान
सूत उवाच
स एवमनुभूयेदं नारायण व न मतम् ।
वैभवं योगमायाया तमेव शरणं ययौ ।।१
माक डेय उवाच
प ोऽ यङ् मूलं ते प ाभयदं हरे ।
य मायया प वबुधा मु त ानकाशया ।।२
सूतजी कहते ह—शौनका द ऋ षयो! माक डेय मु नने इस कार नारायण- न मत
योगमाया-वैभवका अनुभव कया। अब यह न य करके क इस मायासे मु होनेके लये
मायाप त भगवान्क शरण ही एकमा उपाय है, उ ह क शरणम थत हो गये ।।१।।
माक डेयजीने मन-ही-मन कहा— भो! आपक माया वा तवम ती तमा होनेपर
भी स य ानके समान का शत होती है और बड़े-बड़े व ान् भी उसके खेल म मो हत हो
जाते ह। आपके ीचरणकमल ही शरणागत को सब कारसे अभयदान करते ह। इस लये
मने उ ह क शरण हण क है ।।२।।
सूत उवाच
तमेवं नभृता मानं वृषेण द व पयटन् ।
ा या भगवान् ो ददश वगणैवृतः ।।३

अथोमा तमृ ष वी य ग रशं समभाषत ।


प येमं भगवन् व ं नभृता मे याशयम् ।।४

नभृतोदझष ातं वातापाये यथाणवम् ।


कुव य तपसः सा ात् सं स स दो भवान् ।।५
ीभगवानुवाच
नैवे छ या शषः वा प षम म युत ।
भ परां भगव त ल धवान् पु षेऽ ये ।।६

अथा प संव द यामो भवा येतेन साधुना ।


अयं ह परमो लाभो नृणां साधुसमागमः ।।७

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सूत उवाच
इ यु वा तमुपेयाय भगवान् स सतां ग तः ।
ईशानः सव व ानामी रः सवदे हनाम् ।।८

तयोरागमनं सा ाद शयोजगदा मनोः ।


न वेद धीवृ रा मानं व मेव च ।।९
सूतजी कहते ह—माक डेयजी इस कार शरणाग तक भावनाम त मय हो रहे थे।
उसी समय भगवान् शंकर भगवती पावतीजीके साथ न द पर सवार होकर आकाशमागसे
वचरण करते ए उधर आ नकले और माक डेयजीको उसी अव थाम दे खा। उनके साथ
ब त-से गण भी थे ।।३।। जब भगवती पावतीने माक डेय मु नको यानक अव थाम दे खा,
तब उनका दय वा स य- नेहसे उमड़ आया। उ ह ने शंकरजीसे कहा—‘भगवन्! त नक
इस ा णक ओर तो दे खये। जैसे तूफान शा त हो जानेपर समु क लहर और मछ लयाँ
शा त हो जाती ह और समु धीर-ग भीर हो जाता है, वैसे ही इस ा णका शरीर, इ य
और अ तःकरण शा त हो रहा है। सम त स य के दाता आप ही ह। इस लये कृपा करके
आप इस ा णक तप याका य फल द जये’ ।।४-५।।
भगवान् शंकरने कहा—दे व! ये ष लोक अथवा परलोकक कोई भी व तु नह
चाहते। और तो या, इनके मनम कभी मो क भी आकां ा नह होती। इसका कारण यह
है क घट-घटवासी अ वनाशी भगवान्के चरणकमल म इ ह परम भ ा त हो चुक
है ।।६।। ये! य प इ ह हमारी कोई आव यकता नह है, फर भी म इनके साथ बातचीत
क ँ गा; य क ये महा मा पु ष ह। जीवमा के लये सबसे बड़े लाभक बात यही है क
संत पु ष का समागम ा त हो ।।७।।
सूतजी कहते ह—शौनकजी! भगवान् शंकर सम त व ा के वतक और सारे
ा णय के दयम वराजमान अ तयामी भु ह। जगत्के जतने भी संत ह, उनके एकमा
आ य और आदश भी वही ह। भगवती पावतीसे इस कार कहकर भगवान् शंकर
माक डेय मु नके पास गये ।।८।। उस समय माक डेय मु नक सम त मनोवृ याँ
भगव ावम त मय थ । उ ह अपने शरीर और जगत्का बलकुल पता न था। इस लये उस
समय वे यह भी न जान सके क मेरे सामने सारे व के आ मा वयं भगवान् गौरी-शंकर
पधारे ए ह ।।९।।

भगवां तद भ ाय गरीशो योगमायया ।


आ वश द्गुहाकाशं वायु छ मवे रः ।।१०

आ म य प शवं ा तं त ड पंगजटाधरम् ।
य १ं दशभुजं ांशुमु त मव भा करम् ।।११

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ा चमा बरधरं शूलखट् वांगचम भः२ ।
अ मालाडम ककपाला सधनुः सह ।।१२

ब ाणं सहसा भातं वच य द व मतः ।


क मदं कुत एवे त समाधे वरतो मु नः ।।१३

ने े उ मी य द शे सगणं सोमयाऽऽगतम् ।
ं लोकैकगु ं ३ ननाम शरसा मु नः ।।१४

त मै४ सपया दधात् सगणाय सहोमया ।


वागतासनपा ा यग ध धूपद पकैः ।।१५

आह चा मानुभावेन पूणकाम य ते वभो ।


करवाम कमीशान येनेदं नवृतं जगत् ।।१६

नमः शवाय शा ताय५ स वाय मृडाय च ।


रजोजुषेऽ यघोराय नम तु यं तमोजुषे ।।१७
शौनकजी! सवश मान् भगवान् कैलासप तसे यह बात छपी न रही क माक डेय
मु न इस समय कस अव थाम ह। इस लये जैसे वायु अवकाशके थानम अनायास ही वेश
कर जाती है, वैसे ही वे अपनी योगमायासे माक डेय मु नके दयाकाशम वेश कर
गये ।।१०।। माक डेय मु नने दे खा क उनके दयम तो भगवान् शंकरके दशन हो रहे ह।
शंकरजीके सरपर बजलीके समान चमक ली पीली-पीली जटाएँ शोभायमान हो रही ह।
तीन ने ह और दस भुजाएँ। ल बा-तगड़ा शरीर उदयकालीन सूयके समान तेज वी
है ।।११।। शरीरपर बाघ बर धारण कये ए ह और हाथ म शूल, खट् वांग, ढाल, ा -
माला, डम , ख पर, तलवार और धनुष लये ह ।।१२।। माक डेय मु न अपने दयम
अक मात् भगवान् शंकरका यह प दे खकर व मत हो गये। ‘यह या है? कहाँसे आया?’
इस कारक वृ य का उदय हो जानेसे उ ह ने अपनी समा ध खोल द ।।१३।। जब उ ह ने
आँख खोल , तब दे खा क तीन लोक के एकमा गु भगवान् शंकर ीपावतीजी तथा
अपने गण के साथ पधारे ए ह। उ ह ने उनके चरण म माथा टे ककर णाम कया ।।१४।।
तदन तर माक डेय मु नने वागत, आसन, पा , अ य, ग ध, पु पमाला, धूप और द प आ द
उपचार से भगवान् शंकर, भगवती पावती और उनके गण क पूजा क ।।१५।। इसके प ात्
माक डेय मु न उनसे कहने लगे—‘सव ापक और सवश मान् भो! आप अपनी
आ मानुभू त और म हमासे ही पूणकाम ह। आपक शा त और सुखसे ही सारे जगत्म
सुख-शा तका व तार हो रहा है, ऐसी अव थाम म आपक या सेवा क ँ ? ।।१६।। म

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आपके गुणातीत सदा शव व पको और स वगुणसे यु शा त- व पको नम कार
करता ।ँ म आपके रजोगुणयु सव वतक व प एवं तमोगुणयु अघोर व पको
नम कार करता ँ’ ।।१७।।
सूत उवाच
एवं तुतः स भगवाना ददे वः सतां ग तः ।
प रतु ः स ा मा हसं तमभाषत ।।१८
ीभगवानुवाच

वरं वृणी व नः कामं वरदे शा वयं यः ।


अमोघं दशनं येषां म य यद् व दतेऽमृतम् ।।१९

ा णाः साधवः शा ता नःसंगा भूतव सलाः ।


एका तभ ा अ मासु नवराः समद शनः ।।२०

सलोका लोकपाला तान् व द यच युपासते ।


अहं च भगवान् ा वयं च ह ररी रः ।।२१

न ते म य युतेऽजे च भदाम व प च ते ।
ना मन जन या प तद् यु मान् वयमीम ह ।।२२

न मया न तीथा न न दे वा ेतनो झताः ।


ते पुन यु कालेन यूयं दशनमा तः ।।२३

ा णे यो नम यामो येऽ म प
ू ं यीमयम् ।
ब या मसमाधानतपः वा यायसंयमैः ।।२४

वणाद् दशनाद् वा प महापात कनोऽ प वः ।


शु येर यजा ा प कमु स भाषणा द भः ।।२५
सूतजी कहते ह—शौनकजी! जब माक डेय मु नने संत के परम आ य दे वा धदे व
भगवान् शंकरक इस कार तु त क , तब वे उनपर अ य त स तु ए और बड़े
स च से हँसते ए कहने लगे ।।१८।।
भगवान् शंकरने कहा—माक डेयजी! ा, व णु तथा म—हम तीन ही
वरदाता के वामी ह, हमलोग का दशन कभी थ नह जाता। हमलोग से ही मरणशील
मनु य भी अमृत वक ा त कर लेता है। इस लये तु हारी जो इ छा हो, वही वर मुझसे माँग
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लो ।।१९।। ा ण वभावसे ही परोपकारी, शा त च एवं अनास होते ह। वे कसीके
साथ वैरभाव नह रखते और समदश होनेपर भी ा णय का क दे खकर उसके नवारणके
लये पूरे दयसे जुट जाते ह। उनक सबसे बड़ी वशेषता तो यह होती है क वे हमारे अन य
ेमी एवं भ होते ह ।।२०।। सारे लोक और लोकपाल ऐसे ा ण क व दना, पूजा और
उपासना कया करते ह। केवल वे ही य ; म, भगवान् ा तथा वयं सा ात् ई र व णु
भी उनक सेवाम संल न रहते ह ।।२१।। ऐसे शा त महापु ष मुझम, व णुभगवान्म,
ाम, अपनेम और सब जीव म अणुमा भी भेद नह दे खते। सदा-सवदा, सव और
सवथा एकरस आ माका ही दशन करते ह। इस लये हम तु हारे-जैसे महा मा क तु त
और सेवा करते ह ।।२२।। माक डेयजी! केवल जलमय तीथ ही तीथ नह होते तथा केवल
जड मू तयाँ ही दे वता नह होत । सबसे बड़े तीथ और दे वता तो तु हारे-जैसे संत ह; य क
वे तीथ और दे वता ब त दन म प व करते ह, पर तु तुमलोग दशनमा से ही प व कर दे ते
हो ।।२३।। हमलोग तो ा ण को ही नम कार करते ह; य क वे च क एका ता,
तप या, वा याय, धारणा, यान और समा धके ारा हमारे वेदमय शरीरको धारण करते
ह ।।२४।। माक डेयजी! बड़े-बड़े महापापी और अ यज भी तु हारे-जैसे महापु ष के
च र वण और दशनसे ही शु हो जाते ह; फर वे तुमलोग के स भाषण और सहवास
आ दसे शु हो जायँ, इसम तो कहना ही या है ।।२५।।
सूत उवाच

इ त च ललाम य धमगु ोपबृं हतम् ।


वचोऽमृतायनमृ षनातृ यत् कणयोः पबन् ।।२६

स चरं मायया व णो ा मतः क शतो भृशम् ।


शववागमृत व त लेशपुंज तम वीत् ।।२७
ऋ ष वाच

अहो ई रलीलेयं वभा ा शरी रणाम् ।


य म ती शत ा न तुव त जगद राः ।।२८

धम ाह यतुं ायः व ार दे हनाम् ।


आचर यनुमोद ते यमाणं तुव त च ।।२९

नैतावता भगवतः वमायामयवृ भः ।


न येतानुभाव तैमा यनः कुहकं यथा ।।३०

सृ ् वेदं मनसा व मा मनानु व य यः ।


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गुणैः कुव राभा त कतव व ग् यथा ।।३१

त मै नमो भगवते गुणाय गुणा मने ।


केवलाया तीयाय गुरवे मूतये ।।३२

कं वृणे नु परं भूमन् वरं वद् वरदशनात् ।


य शनात् पूणकामः स यकामः पुमान् भवेत् ।।३३
सूतजी कहते ह—शौनका द ऋ षय ! च भूषण भगवान् शंकरक एक-एक बात
धमके गु ततम रह यसे प रपूण थी। उसके एक-एक अ रम अमृतका समु भरा आ था।
माक डेय मु न अपने कान के ारा पूरी त मयताके साथ उसका पान करते रहे; पर तु उ ह
तृ त न ई ।।२६।। वे चरकालतक व णुभगवान्क मायासे भटक चुके थे और ब त थके
ए भी थे। भगवान् शवक क याणी वाणीका अमृतपान करनेसे उनके सारे लेश न हो
गये। उ ह ने भगवान् शंकरसे इस कार कहा ।।२७।।
माक डेयजीने कहा—सचमुच सवश मान् भगवान्क यह लीला सभी ा णय क
समझके परे है। भला, दे खो तो सही—ये सारे जगत्के वामी होकर भी अपने अधीन
रहनेवाले मेरे-जैसे जीव क व दना और तु त करते ह ।।२८।। धमके वचनकार ायः
ा णय को धमका रह य और व प समझानेके लये उसका आचरण और अनुमोदन करते
ह तथा कोई धमका आचरण करता है तो उसक शंसा भी करते ह ।।२९।। जैसे जा गर
अनेक खेल दखलाता है और उन खेल से उसके भावम कोई अ तर नह पड़ता, वैसे ही
आप अपनी वजनमो हनी मायाक वृ य को वीकार करके कसीक व दना- तु त आ द
करते ह तो केवल इस कामके ारा आपक म हमाम कोई ु ट नह आती ।।३०।। आपने
व ाके समान अपने मनसे ही स पूण व क सृ क है और इसम वयं वेश करके
कता न होनेपर भी कम करनेवाले गुण के ारा कताके समान तीत होते ह ।।३१।।
भगवन्! आप गुण व प होनेपर भी उनके परे उनक आ माके पम थत ह। आप
ही सम त ानके मूल, केवल, अ तीय व प ह। म आपको नम कार करता
ँ ।।३२।। अन त! आपके े दशनसे बढ़कर ऐसी और कौन-सी व तु है, जसे म वरदानके
पम माँगूँ? मनु य आपके दशनसे ही पूणकाम और स यसंक प हो जाता है ।।३३।। आप
वयं तो पूण ह ही, अपने भ क भी सम त कामना को पूण करनेवाले ह। इस लये म
आपका दशन ा त कर लेनेपर भी एक वर और माँगता ँ। वह यह क भगवान्म, उनके
शरणागत भ म और आपम मेरी अ वचल भ सदा-सवदा बनी रहे ।।३४।।

वरमेकं वृणेऽथा प पूणात् कामा भवषणात् ।


भगव य युतां भ त परेषु तथा व य ।।३४
सूत उवाच

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इ य चतोऽ भ ु त मु नना सू या गरा ।
तमाह भगवा छवः शवया चा भन दतः ।।३५

कामो महष सव ऽयं भ मां वमधो जे ।


आक पा ताद् यशः पु यमजरामरता तथा ।।३६

ानं ैका लकं न् व ानं च वर मत् ।


वच वनो भूयात् पुराणाचायता तु ते ।।३७
सूत उवाच
एवं वरान् स मुनये द वागा य ई रः ।
दे ै त कम कथय नुभूतं पुरामुना ।।३८

सोऽ यवा तमहायोगम हमा भागवो मः ।


वचर यधुना य ा हरावेका ततां गतः ।।३९

अनुव णतमेत े माक डेय य धीमतः ।


अनुभूतं भगवतो मायावैभवमद्भुतम् ।।४०

एतत् के चद व ांसो मायासंसृ तमा मनः ।


अना ाव ततं नॄणां कादा च कं च ते ।।४१
सूतजी कहते ह—शौनकजी! जब माक डेय मु नने सुमधुर वाणीसे इस कार भगवान्
शंकरक तु त और पूजा क , तब उ ह ने भगवती पावतीक साद- ेरणासे यह बात
कही ।।३५।। महष! तु हारी सारी कामनाएँ पूण ह । इ यातीत परमा माम तु हारी अन य
भ सदा-सवदा बनी रहे। क पपय त तु हारा प व यश फैले और तुम अजर एवं अमर हो
जाओ ।।३६।। न्! तु हारा तेज तो सवदा अ ु ण रहेगा ही। तु ह भूत, भ व य और
वतमानके सम त वशेष ान का एक अ ध ान प ान और वैरा ययु व प थ तक
ा त हो जाय। तु ह पुराणका आचाय व भी ा त हो ।।३७।।
सूतजी कहते ह—शौनकजी! इस कार लोचन भगवान् शंकर माक डेय मु नको वर
दे कर भगवती पावतीसे माक डेय मु नक तप या और उनके लयस ब धी अनुभव का
वणन करते ए वहाँसे चले गये ।।३८।। भृगुवंश शरोम ण माक डेय मु नको उनके
महायोगका परम फल ा त हो गया। वे भगवान्के अन य ेमी हो गये। अब भी वे
भ भावभ रत दयसे पृ वीपर वचरण कया करते ह ।।३९।। परम ानस प माक डेय
मु नने भगवान्क योगमायासे जस अद्भुत लीलाका अनुभव कया था, वह मने
आपलोग को सुना दया ।।४०।। शौनकजी! यह जो माक डेयजीने अनेक क प का—सृ -
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लय का अनुभव कया, वह भगवान्क मायाका ही वैभव था, ता का लक था और उ ह के
लये था, सवसाधारणके लये नह । कोई-कोई इस मायाक रचनाको न जानकर अना द-
कालसे बार-बार होनेवाले सृ - लय ही इसको भी बतलाते ह। (इस लये आपको यह शंका
नह करनी चा हये क इसी क पके हमारे पूवज माक डेयजीक आयु इतनी ल बी कैसे हो
गयी?) ।।४१।।

य एवमेतद् भृगुवय व णतं


रथांगपाणेरनुभावभा वतम् ।
सं ावयेत् संशृणुया तावुभौ
तयोन कमाशयसंसृ तभवेत् ।।४२
भृगुवंश शरोमणे! मने आपको यह जो माक डेय-च र सुनाया है, वह भगवान्
च पा णके भाव और म हमासे भरपूर है। जो इसका वण एवं क तन करते ह, वे दोन ही
कम-वासना के कारण ा त होनेवाले आवागमनके च करसे सवदाके लये छू ट जाते
ह ।।४२।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां ादश क धे दशमोऽ यायः ।।१०।।

१. य म भुजम्। २. तोमरैः। ३. वलो यैक०। ४. ाचीन तम ‘त मै……सहोमया’


इस ोकाधके थानम ‘ वमु या मसमाधानं तपसा नयमैयमैः’ ऐसा पाठ है। इसके सवा
वतमान तम जो २५व सं याका ‘ वणा शना……. क ु स भाषणा द भः’ यह ोक है।
इसको वहाँ न पढ़कर यहाँ ही (‘ वमु या…..यमैः’ इसके बाद) पढ़ा गया है। इसके प ात्
‘ वागतासन……’ इ या द ोक का पाठ है। ५. दे वाय न याय मृ०।

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अथैकादशोऽ यायः
भगवान्के अंग, उपांग और आयुध का रह य तथा व भ सूयगण का
वणन
शौनक उवाच
अथेममथ पृ छामो भव तं ब व मम् ।
सम तत रा ा ते भवान् भागवतत व वत् ।।१

ता काः प रचयायां केवल य यः पतेः ।


अंगोपांगायुधाक पं क पय त यथा च यैः ।।२

त ो वणय भ ं ते यायोगं बुभु सताम् ।


येन यानैपुणेन म य यायादम यताम् ।।३
सूत उवाच
नम कृ य गु न् व ये वभूतीव णवीर प ।
याः ो ा वेदत ा यामाचायः प जा द भः ।।४

माया ैनव भ त वैः स वकारमयो वराट् ।


न मतो यते य स च के भुवन यम् ।।५

एतद् वै पौ षं पं भूः पादौ ौः शरो नभः ।


ना भः सूय ऽ णी नासे वायुः कण दशः भोः ।।६
शौनकजीने कहा—सूतजी! आप भगवान्के परमभ और ब म शरोम ण ह।
हमलोग सम त शा के स ा तके स ब धम आपसे एक वशेष पूछना चाहते ह,
य क आप उसके मम ह ।।१।। हमलोग यायोगका यथावत् ान ा त करना चाहते
ह; य क उसका कुशलतापूवक ठ क-ठ क आचरण करनेसे मरणधमा पु ष अमर व ा त
कर लेता है। अतः आप हम यह बतलाइये क पांचरा ा द त क व ध जाननेवाले लोग
केवल ील मीप त भगवान्क आराधना करते समय कन- कन त व से उनके चरणा द
अंग, ग डा द उपांग, सुदशना द आयुध और कौ तुभा द आभूषण क क पना करते ह?
भगवान् आपका क याण कर ।।२-३।।
सूतजीने कहा—शौनकजी! ा द आचाय ने, वेद ने और पांचरा ा द त - थ ने
व णुभगवान्क जन वभू तय का वणन कया है, म ीगु दे वके चरण म नम कार करके
आपलोग को वही सुनाता ँ ।।४।। भगवान्के जस चेतना ध त वराट् पम यह लोक
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दखायी दे ती है, वह कृ त, सू ा मा, मह व, अहंकार और पंचत मा ा—इन नौ त व के
स हत यारह इ य तथा पंचभूत—इन सोलह वकार से बना आ है ।।५।। यह भगवान्का
ही पु ष प है। पृ वी इसके चरण ह, वग म तक है, अ त र ना भ है, सूय ने ह, वायु
ना सका है और दशाएँ कान ह ।।६।।

जाप तः जननमपानो मृ युरी शतुः ।


तद्बाहवो लोकपाला मन ो ुवौ यमः ।।७

ल जो रोऽधरो लोभो द ता यो ना मयो मः ।


रोमा ण भू हा भू नो मेघाः पु षमूधजाः ।।८

यावानयं वै पु षो याव या सं थया मतः ।


तावानसाव प महापु षो लोकसं थया ।।९

कौ तुभ पदे शेन वा म यो त बभ यजः ।


त भा ा पनी सा ात् ीव समुरसा वभुः ।।१०

वमायां वनमाला यां नानागुणमय दधत् ।


वास छ दोमयं पीतं सू ं वृत् वरम् ।।११

बभ त सां यं योगं च दे वो मकरकु डले ।


मौ ल पदं पारमे ं सवलोकाभयंकरम् ।।१२

अ ाकृतमन ता यमासनं यद ध तः ।
धम ाना द भयु ं स वं प महो यते ।।१३

ओजःसहोबलयुतं मु यत वं गदां दधत् ।


अपां त वं दरवरं तेज त वं सुदशनम् ।।१४

नभो नभं नभ त वम स चम तमोमयम् ।


काल पं धनुः शा तथा कममयेषु धम् ।।१५

इ या ण शराना राकूतीर य य दनम् ।


त मा ा य या भ मु याथ या मताम् ।।१६
जाप त लग है, मृ यु गुदा है, लोकपालगण भुजाएँ ह, च मा मन है और यमराज भ ह

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ह ।।७।। ल जा ऊपरका होठ है, लोभ नीचेका होठ है, च माक चाँदनी द तावली है, म
मुसकान है, वृ रोम ह और बादल ही वराट् पु षके सरपर उगे ए बाल ह ।।८।।
शौनकजी! जस कार यह पु ष अपने प रमाणसे सात ब ेका है उसी कार वह
सम पु ष भी इस लोकसं थ तके साथ अपने सात ब ेका है ।।९।।
वयं भगवान् अज मा ह। वे कौ तुभम णके बहाने जीव-चैत य प आ म यो तको ही
धारण करते ह और उसक सव ा पनी भाको ही व ः थलपर ीव स पसे ।।१०।।
वे अपनी स व, रज आ द गुण वाली मायाको वनमालाके पसे, छ दको पीता बरके
पसे तथा अ+उ+म्—इन तीन मा ावाले णवको य ोपवीतके पम धारण करते
ह ।।११।।
दे वा धदे व भगवान् सां य और योग प मकराकृत कु डल तथा सब लोक को अभय
करनेवाले लोकको ही मुकुटके पम धारण करते ह ।।१२।।
मूल कृ त ही उनक शेषश या है, जसपर वे वराजमान रहते ह और धम- ाना दयु
स वगुण ही उनके ना भ-कमलके पम व णत आ है ।।१३।।
वे मन, इ य और शरीरस ब धी श य से यु ाण-त व प कौमोदक गदा,
जलत व प पांचज य शंख और तेज त व प सुदशनच को धारण करते ह ।।१४।।
आकाशके समान नमल आकाश व प खड् ग, तमोमय अ ान प ढाल, काल प
शा धनुष और कमका ही तरकस धारण कये ए ह ।।१५।।
इ य को ही भगवान्के बाण के पम कहा गया है। याश यु मन ही रथ है।
त मा ाएँ रथके बाहरी भाग ह और वर-अभय आ दक मु ा से उनक वरदान, अभयदान
आ दके पम याशीलता कट होती है ।।१६।।

म डलं दे वयजनं द ा सं कार आ मनः ।


प रचया भगवत आ मनो रत यः ।।१७

भगवान् भगश दाथ लीलाकमलमु हन् ।


धम यश भगवां ामर जनेऽभजत् ।।१८

आतप ं तु वैकु ठं जा धामाकुतोभयम् ।


वृदवे
् दः सुपणा यो य ं वह त पू षम् ।।१९

अनपा यनी भगवती ीः सा ादा मनो हरेः ।


व व सेन त मू त व दतः पाषदा धपः ।
न दादयोऽ ौ ाः था तेऽ णमा ा हरेगुणाः ।।२०

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वासुदेवः संकषणः ु नः पु षः वयम् ।
अन इत न् मू त ूहोऽ भधीयते ।।२१

स व तैजसः ा तुरीय इ त वृ भः ।
अथ याशय ानैभगवान् प रभा ते ।।२२

अंगोपांगायुधाक पैभगवां त चतु यम् ।


बभ त म चतुमू तभगवान् ह ररी रः ।।२३
सूयम डल अथवा अ नम डल ही भगवान्क पूजाका थान है, अ तःकरणक शु ही
म द ा है और अपने सम त पाप को न कर दे ना ही भगवान्क पूजा है ।।१७।।
ा णो! सम ऐ य, धम, यश, ल मी, ान और वैरा य—इन छः पदाथ का नाम ही
लीला-कमल है, जसे भगवान् अपने करकमलम धारण करते ह। धम और यशको मशः
चँवर एवं जन (पंख)े के पसे तथा अपने नभय धाम वैकु ठको छ पसे धारण कये
ए ह। तीन वेद का ही नाम ग ड है। वे ही अ तयामी परमा माका वहन करते
ह ।।१८-१९।।
आ म व प भगवान्क उनसे कभी न बछु ड़नेवाली आ मश का ही नाम ल मी है।
भगवान्के पाषद के नायक व व ुत व व सेन पांचरा ा द आगम प ह। भगवान्के
वाभा वक गुण अ णमा, म हमा आ द अ स य को ही न द-सुन दा द आठ ारपाल
कहते ह ।।२०।।
शौनकजी! वयं भगवान् ही वासुदेव, संकषण, ु न और अ न —इन चार
मू तय के पम अव थत ह; इस लये उ ह को चतु ूहके पम कहा जाता है ।।२१।।
वे ही जा त्-अव थाके अ भमानी ‘ व ’ बनकर श द, पश आ द बा वषय को
हण करते और वे ही व ाव थाके अ भमानी ‘तैजस’ बनकर बा वषय के बना ही मन-
ही-मन अनेक वषय को दे खते और हण करते ह। वे ही सुषु त-अव थाके अ भमानी
‘ ा ’ बनकर वषय और मनके सं कार से यु अ ानसे ढक जाते ह और वही सबके सा ी
‘तुरीय’ रहकर सम त ान के अ ध ान रहते ह ।।२२।।
इस कार अंग, उपांग, आयुध और आभूषण से यु तथा वासुदेव, संकषण, ु न एवं
अ न —इन चार मू तय के पम कट सवश मान् भगवान् ीह र ही मशः व ,
तैजस, ा एवं तुरीय पसे का शत होते ह ।।२३।।

जऋषभ स एष यो नः वयं क्
वम हमप रपूण मायया च वयैतत् ।
सृज त हर त पाती या ययानावृता ो
ववृत इव न त परैरा मल यः ।।२४

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ीकृ ण कृ णसख वृ यृषभाव न -ु
ाज यवंशदहनानपवगवीय ।
गो व द गोपव नता जभृ यगीत-
तीथ वः वणमंगल पा ह भृ यान् ।।२५

य इदं क य उ थाय महापु षल णम् ।


त च ः यतो ज वा वेद गुहाशयम् ।।२६
शौनक उवाच
शुको यदाह भगवान् व णुराताय शृ वते ।
सौरो गणो मा स मा स नाना वस त स तकः ।।२७

तेषां नामा न कमा ण संयु ानामधी रैः ।


ू ह नः धानानां ूहं सूया मनो हरेः ।।२८
सूत उवाच
अना व या व णोरा मनः सवदे हनाम् ।
न मतो लोकत ोऽयं लोकेषु प रवतते ।।२९
शौनकजी! वही सव व प भगवान् वेद के मूल कारण ह, वे वयं काश एवं अपनी
म हमासे प रपूण ह। वे अपनी मायासे ा आ द प एवं नाम से इस व क सृ , थ त
और संहार स प करते ह। इन सब कम और नाम से उनका ान कभी आवृत नह होता।
य प शा म भ के समान उनका वणन आ है अव य, पर तु वे अपने भ को
आ म व पसे ही ा त होते ह ।।२४।। स चदान द व प ीकृ ण! आप अजुनके सखा
ह। आपने य वंश शरोम णके पम अवतार हण करके पृ वीके ोही भूपाल को भ म कर
दया है। आपका परा म सदा एकरस रहता है। जक गोपबालाएँ और आपके नारदा द
ेमी नर तर आपके प व यशका गान करते रहते ह। गो व द! आपके नाम, गुण और
लीला दका वण करनेसे ही जीवका मंगल हो जाता है। हम सब आपके सेवक ह। आप
कृपा करके हमारी र ा क जये ।।२५।।
पु षो मभगवान्के च भूत अंग, उपांग और आयुध आ दके इस वणनका जो मनु य
भगवान्म ही च लगाकर प व होकर ातःकाल पाठ करेगा, उसे सबके दयम रहनेवाले
व प परमा माका ान हो जायगा ।।२६।।
शौनकजीने कहा—सूतजी! भगवान् ीशुकदे वजीने ीम ागवत-कथा सुनाते समय
राज ष परी त्से (पंचम क धम) कहा था क ऋ ष, ग धव, नाग, अ सरा, य , रा स
और दे वता का एक सौरगण होता है और ये सात येक महीनेम बदलते रहते ह। ये बारह
गण अपने वामी ादश आ द य के साथ रहकर या काम करते ह और उनके अ तगत
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य के नाम या ह? सूयके पम भी वयं भगवान् ही ह; इस लये उनके वभागको हम
बड़ी ाके साथ सुनना चाहते ह, आप कृपा करके क हये ।।२७-२८।।
सूतजीने कहा—सम त ा णय के आ मा भगवान् व णु ही ह। अना द अ व ासे
अथात् उनके वा त वक व पके अ ानसे ही सम त लोक के वहार- वतक ाकृत
सूयम डलका नमाण आ है। वही लोक म मण कया करता है ।।२९।।

एक एव ह लोकानां सूय आ माऽऽ दकृ रः ।


सववेद यामूलमृ ष भब धो दतः ।।३०

कालो दे शः या कता करणं कायमागमः ।


ं फल म त न् नवधो ोऽजया ह रः ।।३१

म वा दषु ादशसु भगवान् काल पधृक् ।


लोकत ाय चर त पृथ ादश भगणैः ।।३२

धाता कृत थली हे तवासुक रथकृ मुने ।


पुल य तु बु र त मधुमासं नय यमी ।।३३

अयमा पुलहोऽथौजाः हे तः पुं जक थली ।


नारदः क छनीर नय येते म माधवम् ।।३४

म ोऽ ः पौ षेयोऽथ त को मेनका हहाः ।


रथ वन इ त ेते शु मासं नय यमी ।।३५

व स ो व णो र भा सहज य तथा ः ।
शु वन ैव शु चमासं नय यमी ।।३६

इ ो व ावसुः ोता एलाप तथां गराः ।


लोचा रा सो वय नभोमासं नय यमी ।।३७

वव वानु सेन ा आसारणो भृगुः ।


अनु लोचा शंखपालो नभ या यं नय यमी ।।३८

पूषा धनंजयो वातः सुषेणः सु च तथा ।


घृताची गौतम े त तपोमासं नय यमी ।।३९

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असलम सम त लोक के आ मा एवं आ दकता एकमा ीह र ही अ तयामी पसे सूय
बने ए ह। वे य प एक ही ह, तथा प ऋ षय ने उनका ब त प म वणन कया है, वे ही
सम त वै दक या के मूल ह ।।३०।। शौनकजी! एक भगवान् ही मायाके ारा काल,
दे श, य ा द या, कता, ुवा आ द करण, यागा द कम, वेदम , शाक य आ द और
फल पसे नौ कारके कहे जाते ह ।।३१।। काल पधारी भगवान् सूय लोग का वहार
ठ क-ठ क चलानेके लये चै ा द बारह महीन म अपने भ - भ बारह गण के साथ च कर
लगाया करते ह ।।३२।।
शौनकजी! धाता नामक सूय, कृत थली अ सरा, हे त रा स, वासु क सप, रथकृत् य ,
पुल य ऋ ष और तु बु ग धव—ये चै मासम अपना-अपना काय स प करते ह ।।३३।।
अयमा सूय, पुलह ऋ ष, अथौजा य , हे त रा स, पुं जक थली अ सरा, नारद ग धव और
क छनीर सप—ये वैशाख मासके काय- नवाहक ह ।।३४।। म सूय, अ ऋ ष, पौ षेय
रा स, त क सप, मेनका अ सरा, हाहा ग धव और रथ वन य —ये ये मासके
काय नवाहक ह ।।३५।। आषाढ़म व ण नामक सूयके साथ व स ऋ ष, र भा अ सरा,
सहज य य , ग धव, शु नाग और च वन रा स अपने-अपने कायका नवाह करते
ह ।।३६।। ावण मास इ नामक सूयका कायकाल है। उनके साथ व ावसु ग धव, ोता
य , एलाप नाग, अं गरा ऋ ष, लोचा अ सरा एवं वय नामक रा स अपने कायका
स पादन करते ह ।।३७।। भा पदके सूयका नाम है वव वान्। उनके साथ उ सेन ग धव,
ा रा स, आसारण य , भृगु ऋ ष, अनु लोचा अ सरा और शंखपाल नाग रहते
ह ।।३८।। शौनकजी! माघ मासम पूषा नामके सूय रहते ह। उनके साथ धनंजय नाग, वात
रा स, सुषेण ग धव, सु च य , घृताची अ सरा और गौतम ऋ ष रहते ह ।।३९।। फा गुन
मासका कायकाल पज य नामक सूयका है। उनके साथ तु य , वचा रा स, भर ाज
ऋ ष, सेन जत् अ सरा, व ग धव और ऐरावत सप रहते ह ।।४०।। मागशीष मासम
सूयका नाम होता है अंशु। उनके साथ क यप ऋ ष, ता य य , ऋतसेन ग धव, उवशी
अ सरा, व ु छ ु रा स और महाशंख नाग रहते ह ।।४१।। पौष मासम भग नामक सूयके
साथ फूज रा स, अ र ने म ग धव, ऊण य , आयु ऋ ष, पूव च अ सरा और कक टक
नाग रहते ह ।।४२।। आ न मासम व ा सूय, जमद न ऋ ष, क बल नाग, तलो मा
अ सरा, ापेत रा स, शत जत् य और धृतरा ग धवका कायकाल है ।।४३।। तथा
का तकम व णु नामक सूयके साथ अ तर नाग, र भा अ सरा, सूयवचा ग धव, स य जत्
य , व ा म ऋ ष और मखापेत रा स अपना-अपना काय स प करते ह ।।४४।।

तुवचा भर ाजः पज यः सेन ज था ।


व ऐरावत ैव तप या यं नय यमी ।।४०

अथांशुः क यप ता य ऋतसेन तथोवशी ।


व ु छ ुमहाशंखः सहोमासं नय यमी ।।४१

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भगः फूज ऽ र ने म ण आयु पंचमः ।
कक टकः पूव च ः पु यमासं नय यमी ।।४२

व ा ऋचीकतनयः क बल तलो मा ।
ापेतोऽथ शत जद् धृतरा इष भराः ।।४३

व णुर तरो र भा सूयवचा स य जत् ।


व ा म ो मखापेत ऊजमासं नय यमी ।।४४

एता भगवतो व णोरा द य य वभूतयः ।


मरतां स ययोनॄणां हर यंहो दने दने ।।४५

ादश व प मासेषु दे वोऽसौ षड् भर य वै ।


चरन् सम ता नुते पर ेह च स म तम् ।।४६

साम यजु भ त ल ै ऋषयः सं तुव यमुम् ।


ग धवा तं गाय त नृ य य सरसोऽ तः ।।४७

उ त रथं नागा ाम यो रथयोजकाः ।


चोदय त रथं पृ े नैऋता बलशा लनः ।।४८

वाल ख याः सह ा ण ष षयोऽमलाः ।


पुरतोऽ भमुखं या त तुव त तु त भ वभुम् ।।४९

एवं ना द नधनो भगवान् ह ररी रः ।


क पे क पे वमा मानं ू लोकानव यजः ।।५०
शौनकजी! ये सब सूय प भगवान्क वभू तयाँ ह। जो लोग इनका त दन ातःकाल
और सायंकाल मरण करते ह, उनके सारे पाप न हो जाते ह ।।४५।। ये सूयदे व अपने छः
गण के साथ बारह महीने सव वचरते रहते ह और इस लोक तथा परलोकम ववेक-
बु का व तार करते ह ।।४६।। सूयभगवान्के गण म ऋ षलोग तो सूयस ब धी ऋ वेद,
यजुवद और सामवेदके म ारा उनक तु त करते ह और गंधव उनके सुयशका गान करते
रहते ह। अ सराएँ आगे-आगे नृ य करती चलती ह ।।४७।।
नागगण र सीक तरह उनके रथको कसे रहते ह। य गण रथका साज सजाते ह और
बलवान् रा स उसे पीछे से ढकेलते ह ।।४८।। इनके सवा वाल ख य नामके साठ हजार
नमल वभाव ष सूयक ओर मुँह करके उनके आगे-आगे तु तपाठ करते चलते
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ह ।।४९।। इस कार अना द, अन त, अज मा भगवान् ीह र ही क प-क पम अपने
व पका वभाग करके लोक का पालन-पोषण करते-रहते ह ।।५०।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां ादश क धे आ द य ूह ववरणं
नामैकादशोऽ यायः ।।११।।

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अथ ादशोऽ यायः
ीम ागवतक सं त वषय-सूची
सूत उवाच
नमो धमाय महते नमः कृ णाय वेधसे ।
ा णे यो नम कृ य धमान् व ये सनातनान् ।।१

एतद् वः क थतं व ा व णो रतम तम् ।


भव यदहं पृ ो नराणां पु षो चतम् ।।२

अ संक ततः सा ात् सवपापहरो ह रः ।


नारायणो षीकेशो भगवान् सा वतां प तः ।।३

अ परं गु ं जगतः भवा ययम् ।


ानं च त पा यानं ो ं व ानसंयुतम् ।।४

भ योगः समा यातो वैरा यं च तदा यम् ।


पारी तमुपा यानं नारदा यानमेव च ।।५

ायोपवेशो राजष व शापात् परी तः ।


शुक य षभ य संवाद परी तः ।।६

योगधारणयो ा तः संवादो नारदाजयोः ।


अवतारानुगीतं च सगः ाधा नकोऽ तः ।।७
सूतजी कहते ह—भगव प महान् धमको नम कार है। व वधाता भगवान्
ीकृ णको नम कार है। अब म ा ण को नम कार करके ीम ागवतो सनातन
धम का सं त ववरण सुनाता ँ ।।१।।
शौनका द ऋ षयो! आपलोग ने मुझसे जो कया था, उसके अनुसार मने भगवान्
व णुका यह अद्भुत च र सुनाया। यह सभी मनु य के वण करनेयो य है ।।२।।
इस ीम ागवतपुराणम सवपापापहारी वयं भगवान् ीह रका ही संक तन आ है। वे
ही सबके दयम वराजमान, सबक इ य के वामी और ेमी भ के जीवनधन ह ।।३।।
इस ीम ागवतपुराणम परम रह यमय—अ य त गोपनीय त वका वणन आ है।
उस म ही इस जगत्क उ प , थ त और लयक ती त होती है। इस पुराणम उसी

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परमत वका अनुभवा मक ान और उसक ा तके साधन का प नदश है ।।४।।
शौनकजी! इस महापुराणके थम क धम भ योगका भलीभाँ त न पण आ है
और साथ ही भ योगसे उ प एवं उसको थर रखनेवाले वैरा यका भी वणन कया गया
है। परी त्क कथा और ास-नारद-संवादके संगसे नारदच र भी कहा गया है ।।५।।
राज ष परी त् ा णका शाप हो जानेपर कस कार गंगातटपर अनशन- त लेकर
बैठ गये और ऋ ष वर ीशुकदे वजीके साथ कस कार उनका संवाद ार भ आ, यह
कथा भी थम क धम ही है ।।६।।
योगधारणाके ारा शरीर यागक व ध, ा और नारदका संवाद, अवतार क सं त
चचा तथा मह व आ दके मसे ाकृ तक सृ क उ प आ द वषय का वणन तीय
क धम आ है ।।७।।

व रो वसंवादः ृमै य
े यो ततः ।
पुराणसं हता ो महापु षसं थ तः ।।८

ततः ाकृ तकः सगः स त वैकृ तका ये ।


ततो ा डस भू तवराजः पु षो यतः ।।९

काल य थूलसू म य ग तः प समु वः ।


भुव उ रणेऽ भोधे हर या वधो यथा ।।१०

ऊ व तयगवा सग सग तथैव च ।
अधनारीनर याथ यतः वाय भुवो मनुः ।।११

शत पा च या ीणामा ा कृ त मा ।
स तानो धमप नीनां कदम य जापतेः ।।१२

अवतारो भगवतः क पल य महा मनः ।


दे व या संवादः क पलेन च धीमता ।।१३

नव समु प द य वनाशनम् ।
ुव य च रतं प ा पृथोः ाचीनब हषः ।।१४

नारद य च संवाद ततः यै तं जाः ।


नाभे ततोऽनुच रतमृषभ य भरत य च ।।१५

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पवषसमु ाणां ग रन ुपवणनम् ।
यो त य सं थानं पातालनरक थ तः ।।१६

द ज म चेतो य त पु ीणां च स त तः ।
यतो दे वासुरनरा तयङ् नगखगादयः ।।१७

वा य ज म नधनं पु यो दते जाः ।


दै ये र य च रतं ाद य महा मनः ।।१८
तीसरे क धम पहले-पहल व रजी और उ वजीके, तदन तर व र तथा मै ेयजीके
समागम और संवादका संग है। इसके प ात् पुराणसं हताके वषयम है और फर
लयकालम परमा मा कस कार थत रहते ह, इसका न पण है ।।८।।
गुण के ोभसे ाकृ तक सृ और मह व आ द सात कृ त- वकृ तय के ारा काय-
सृ का वणन है। इसके बाद ा डक उ प और उसम वराट् पु षक थ तका व प
समझाया गया है ।।९।।
तदन तर थूल और सू म कालका व प, लोक-प क उ प , लय-समु से
पृ वीका उ ार करते समय वराहभगवान्के ारा हर या का वध; दे वता, पशु, प ी और
मनु य क सृ एवं क उ प का संग है। इसके प ात् उस अ नारी-नरके व पका
ववेचन है, जससे वाय भुव मनु और य क अ य त उ म आ ा कृ त शत पाका
ज म आ था। कदम जाप तका च र , उनसे मु नप नय का ज म, महा मा भगवान्
क पलका अवतार और फर क पलदे व तथा उनक माता दे व तके संवादका संग आता
है ।।१०-१३।।
चौथे क धम मरी च आ द नौ जाप तय क उ प , द य का व वंस, राज ष ुव
एवं पृथुका च र तथा ाचीनब ह और नारदजीके संवादका वणन है। पाँचव क धम
य तका उपा यान; ना भ, ऋषभ और भरतके च र , प, वष, समु , पवत और
न दय का वणन; यो त के व तार एवं पाताल तथा नरक क थ तका न पण आ
है ।।१४-१६।।
शौनका द ऋ षयो! छठे क धम ये वषय आये ह— चेता से द क उ प ; द -
पु य क स तान दे वता, असुर, मनु य, पशु, पवत और प य का ज म-कम; वृ ासुरक
उ प और उसक परम ग त। (अब सातव क धके वषय बतलाये जाते ह—) इस
क धम मु यतः दै यराज हर यक शपु और हर या के ज म-कम एवं दै य शरोम ण
महा मा ादके उ कृ च र का न पण है ।।१७-१८।।
म व तरानुकथनं गजे य वमो णम् ।
म व तरावतारा व णोहय शरादयः ।।१९
कौम धा व तरं मा यं वामनं च जग पतेः ।
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ीरोदमथनं त दमृताथ दवौकसाम् ।।२०
दे वासुरमहायु ं राजवंशानुक तनम् ।
इ वाकुज म त ं शः सु ु न य महा मनः ।।२१
इलोपा यानम ो ं तारोपा यानमेव च ।
सूयवंशानुकथनं शशादा ा नृगादयः ।।२२
सौक यं चाथ शयातेः ककु थ य च धीमतः ।
खट् वांग य च मा धातुः सौभरेः सगर य च ।।२३
राम य कोसले य च रतं क बषापहम् ।
नमेरंगप र यागो जनकानां च स भवः ।।२४
राम य भागवे य नः करणं भुवः ।
ऐल य सोमवंश य ययातेन ष य च ।।२५
दौ य तेभरत या प श तनो त सुत य च ।
ययाते य पु य यदोवशोऽनुक ततः ।।२६
य ावतीण भगवा कृ णा यो जगद रः ।
वसुदेवगृहे ज म ततो वृ गोकुले ।।२७
त य कमा यपारा ण क तता यसुर षः ।
पूतनासुपयःपानं शकटो चाटनं शशोः ।।२८
तृणावत य न पेष तथैव बकव सयोः ।
धेनुक य सह ातुः ल ब य च सं यः ।।२९
आठव क धम म व तर क कथा, गजे मो , व भ म व तर म होनेवाले जगद र
भगवान् व णुके अवतार—कूम, म य, वामन, ध व त र, हय ीव आ द; अमृत- ा तके
लये दे वता और दै य का समु -म थन और दे वासुर-सं ाम आ द वषय का वणन है। नव
क धम मु यतः राजवंश का वणन है। इ वाकुके ज म-कम, वंश व तार, महा मा सु ु न,
इला एवं ताराके उपा यान—इन सबका वणन कया गया है। सूयवंशका वृ ा त, शशाद
और नृग आ द राजा का वणन, सुक याका च र , शया त, खट् वांग, मा धाता, सौभ र,
सगर, बु मान् ककु थ और कोसले भगवान् रामके सवपापहारी च र का वणन भी इसी
क धम है। तदन तर न मका दे ह- याग और जनक क उ प का वणन है ।।१९-२४।।
भृगुवंश शरोम ण परशुरामजीका यसंहार, च वंशी नरप त पु रवा, यया त, न ष,
य त-न दन भरत, श तनु और उनके पु भी म आ दक सं त कथाएँ भी नवम क धम
ही ह। सबके अ तम यया तके बड़े लड़के य का वंश व तार कहा गया है ।।२५-२६।।
शौनका द ऋ षयो! इसी य वंशम जग प त भगवान् ीकृ णने अवतार हण कया था।
उ ह ने अनेक असुर का संहार कया। उनक लीलाएँ इतनी ह क कोई पार नह पा सकता।
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फर भी दशम क धम उनका कुछ क तन कया गया है। वसुदेवक प नी दे वक के गभसे
उनका ज म आ। गोकुलम न दबाबाके घर जाकर बढ़े । पूतनाके ाण को धके साथ पी
लया। बचपनम ही छकड़ेको उलट दया ।।२७-२८।।
तृणावत, बकासुर एवं व सासुरको पीस डाला। सप रवार धेनुकासुर और ल बासुरको
मार डाला ।।२९।।

गोपानां च प र ाणं दावा ने प रसपतः ।


दमनं का लय याहेमहाहेन दमो णम् ।।३०

तचया तु क यानां य तु ोऽ युतो तैः ।


सादो य प नी यो व ाणां चानुतापनम् ।।३१

गोवधनो ारणं च श य सुरभेरथ ।


य ा भषेकं कृ ण य ी भः डा च रा षु ।।३२

शंखचूड य बु े वधोऽ र य के शनः ।


अ ू रागमनं प ात् थानं रामकृ णयोः ।।३३

ज ीणां वलाप मथुरालोकनं ततः ।


गजमु कचाणूरकंसाद नां च यो वधः ।।३४

मृत यानयनं सूनोः पुनः सा द पनेगुरोः ।


मथुरायां नवसता य च य य यम् ।
कृतमु वरामा यां युतेन ह रणा जाः ।।३५

जरास धसमानीतसै य य ब शो वधः ।


घातनं यवने य कुश थ या नवेशनम् ।।३६

आदानं पा रजात य सुधमायाः सुरालयात् ।


म या हरणं यु े म य षतो हरेः ।।३७
दावानलसे घरे गोप क र ा क । का लय नागका दमन कया। अजगरसे न दबाबाको
छु ड़ाया ।।३०।।
इसके बाद गो पय ने भगवान्को प त पसे ा त करनेके लये त कया और भगवान्
ीकृ णने स होकर उ ह अ भमत वर दया। भगवान्ने य प नय पर कृपा क । उनके
प तय — ा ण को बड़ा प ाप आ ।।३१।।
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गोव नधारणक लीला करनेपर इ और कामधेनुने आकर भगवान्का य ा भषेक
कया। शरद् ऋतुक रा य म जसु द रय के साथ रास- डा क ।।३२।।
शंखचूड, अ र , और केशीके वधक लीला ई। तदन तर अ ू रजी मथुरासे
वृ दावन आये और उनके साथ भगवान् ीकृ ण तथा बलरामजीने मथुराके लये थान
कया ।।३३।।
उस संगपर जसु द रय ने जो वलाप कया था, उसका वणन है। राम और यामने
मथुराम जाकर वहाँक सजावट दे खी और कुवलयापीड़ हाथी, मु क, चाणूर एवं कंस
आ दका संहार कया ।।३४।।
सा द प न गु के यहाँ व ा ययन करके उनके मृत पु को लौटा लाये। शौनका द
ऋ षयो! जस समय भगवान् ीकृ ण मथुराम नवास कर रहे थे, उस समय उ ह ने उ व
और बलरामजीके साथ य वं शय का सब कारसे य और हत कया ।।३५।।
जरास ध कई बार बड़ी-बड़ी सेनाएँ लेकर आया और भगवान्ने उनका उ ार करके
पृ वीका भार हलका कया। कालयवनको मुचुकु दसे भ म करा दया। ारकापुरी बसाकर
रात -रात सबको वहाँ प ँचा दया ।।३६।।
वगसे क पवृ एवं सुधमा सभा ले आये। भगवान्ने दल-के-दल श ु को यु म
परा जत करके मणीका हरण कया ।।३७।।

हर य जृ भणं यु े बाण य भुजकृ तनम् ।


ा यो तषप त ह वा क यानां हरणं च यत् ।।३८

चै पौ कशा वानां द तव य मतेः ।


श बरो वदः पीठो मुरः पंचजनादयः ।।३९

माहा यं च वध तेषां वाराण या दाहनम् ।


भारावतरणं भूमे न म ीकृ य पा डवान् ।।४०

व शापापदे शेन संहारः वकुल य च ।


उ व य च संवादो वासुदेव य चा तः ।।४१

य ा म व ा खला ो ा धम व नणयः ।
ततो म यप र याग आ मयोगानुभावतः ।।४२

युगल णवृ कलौ नॄणामुप लवः ।


चतु वध लय उ प वधा तथा ।।४३

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दे ह याग राजष व णुरात य धीमतः ।
शाखा णयनमृषेमाक डेय य स कथा ।
महापु ष व यासः सूय य जगदा मनः ।।४४
बाणासुरके साथ यु के संगम महादे वजी-पर ऐसा बाण छोड़ा क वे जँभाई लेने लगे
और इधर बाणसुरक भुजाएँ काट डाल । ाग्- यो तषपुरके वामी भौमासुरको मारकर
सोलह हजार क याएँ हण क ।।३८।।
शशुपाल, पौ क, शा व, द तव , श बरासुर, वद, पीठ, मुर, पंचजन आ द
दै य के बल-पौ षका वणन करके यह बात बतलायी गयी क भगवान्ने उ ह कैसे-कैसे
मारा। भगवान्के च ने काशीको जला दया और फर उ ह ने भारतीय यु म पा डव को
न म बनाकर पृ वीका ब त बड़ा भार उतार दया ।।३९-४०।।
शौनका द ऋ षयो! यारहव क धम इस बातका वणन आ है क भगवान्ने ा ण के
शापके बहाने कस कार य वंशका संहार कया। इस क धम भगवान् ीकृ ण और
उ वका संवाद बड़ा ही अद्भुत है ।।४१।।
उसम स पूण आ म ान और धम- नणयका न पण आ है और अ तम यह बात
बतायी गयी है क भगवान् ीकृ णने अपने आ मयोगके भावसे कस कार म यलोकका
प र याग कया ।।४२।।
बारहव क धम व भ युग के ल ण और उनम रहनेवाले लोग के वहारका वणन
कया गया है तथा यह भी बतलाया गया है क क ल-युगम मनु य क ग त वपरीत होती है।
चार कारके लय और तीन कारक उ प का वणन भी इसी क धम है ।।४३।।
इसके बाद परम ानी राज ष परी त्के शरीर यागक बात कही गयी है। तदन तर
वेद के शाखा- वभाजनका संग आया है। माक डेयजीक सु दर कथा, भगवान्के अंग-
उपांग का व पकथन और सबके अ तम व ा मा भगवान् सूयके गण का वणन है ।।४४।।

इ त चो ं ज े ा य पृ ोऽह महा म वः ।
लीलावतारकमा ण क ततानीह सवशः ।।४५

प ततः ख लत ातः ु वा वा ववशो ुवन् ।


हरये नम इ यु चैमु यते सवपातकात् ।।४६

संक यमानो भगवानन तः


ुतानुभावो सनं ह पुंसाम् ।
व य च ं वधुनो यशेषं
यथा तमोऽक ऽ मवा तवातः ।।४७

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मृषा गर ता सतीरस कथा
न क यते यद् भगवानधो जः ।
तदे व स यं त हैव मंगलं
तदे व पु यं भगवद्गुणोदयम् ।।४८

तदे व र यं चरं नवं नवं


तदे व श मनसो महो सवम् ।
तदे व शोकाणवशोषणं नृणां
य म ोकयशोऽनुगीयते ।।४९
शौनका द ऋ षयो! आपलोग ने इस स संगके अवसरपर मुझसे जो कुछ पूछा था,
उसका वणन मने कर दया। इसम स दे ह नह क इस अवसरपर मने हर तरहसे भगवान्क
लीला और उनके अवतार-च र का ही क तन कया है ।।४५।।
जो मनु य गरते-पड़ते, फसलते, ःख भोगते अथवा छ कते समय ववशतासे भी ऊँचे
वरसे बोल उठता है—‘हरये नमः’, वह सब पाप से मु हो जाता है ।।४६।।
य द दे श, काल एवं व तुसे अप र छ भगवान् ीकृ णके नाम, लीला, गुण आ दका
संक तन कया जाय अथवा उनके भाव, म हमा आ दका वण कया जाय तो वे वयं ही
दयम आ वराजते ह और वण तथा क तन करनेवाले पु षके सारे ःख मटा दे ते ह—
ठ क वैसे ही जैसे सूय अ धकारको और आँधी बादल को ततर- बतर कर दे ती है ।।४७।।
जस वाणीके ारा घट-घटवासी अ वनाशी भगवान्के नाम, लीला, गुण आ दका
उ चारण नह होता, वह वाणी भावपूण होनेपर भी नरथक है—सारहीन है, सु दर होनेपर
भी असु दर है और उ मो म वषय का तपादन करनेवाली होनेपर भी अस कथा है। जो
वाणी और वचन भगवान्के गुण से प रपूण रहते ह, वे ही परम पावन ह, वे ही मंगलमय ह
और वे ही परम स य ह ।।४८।।
जस वचनके ारा भगवान्के परम प व यशका गान होता है, वही परम रमणीय,
चकर एवं त ण नया-नया जान पड़ता है। उससे अन त कालतक मनको परमान दक
अनुभू त होती रहती है। मनु य का सारा शोक, चाहे वह समु के समान लंबा और गहरा य
न हो, उस वचनके भावसे सदाके लये सूख जाता है ।।४९।।

न तद् वच पदं हरेयशो


जग प व ं गृणीत क ह चत् ।
तद् वां तीथ न तु हंससे वतं
य ा युत त ह साधवोऽमलाः ।।५०

स वा वसग जनताघसं लवो


य म त ोकमब व य प ।
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नामा यन त य यशोऽङ् कता न य-
छृ व त गाय त गृण त साधवः ।।५१

नै क यम य युतभावव जतं
न शोभते ानमलं नरंजनम् ।
कुतः पुनः श दभ मी रे
न पतं कम यद यनु मम् ।।५२

यशः यामेव प र मः परो


वणा माचारतपः ुता दषु ।
अ व मृ तः ीधरपादप यो-
गुणानुवाद वणा द भहरेः ।।५३

अ व मृ तः कृ णपदार व दयोः
णो यभ ा ण शमं तनो त च ।
स व य शु परमा मभ
ानं च व ान वरागयु म् ।।५४
जस वाणीसे—चाहे वह रस, भाव, अलंकार आ दसे यु ही य न हो—जगत्को
प व करनेवाले भगवान् ीकृ णके यशका कभी गान नह होता, वह तो कौ के लये
उ छ फकनेके थानके समान अ य त अप व है। मानससरोवर- नवासी हंस अथवा
धामम वहार करनेवाले भगव चरणार व दा त परमहंस भ उसका कभी सेवन नह
करते। नमल दयवाले साधुजन तो वह नवास करते ह, जहाँ भगवान् रहते ह ।।५०।।
इसके वपरीत जसम सु दर रचना भी नह है और जो ाकरण आ दक से षत
श द से यु भी है, पर तु जसके येक ोकम भगवान्के सुयशसूचक नाम जड़े ए ह,
वह वाणी लोग के सारे पाप का नाश कर दे ती है; य क स पु ष ऐसी ही वाणीका वण,
गान और क तन कया करते ह ।।५१।।
वह नमल ान भी, जो मो क ा तका सा ात् साधन है, य द भगवान्क भ से
र हत हो तो उसक उतनी शोभा नह होती। फर जो कम भगवान्को अपण नह कया गया
है—वह चाहे कतना ही ऊँचा य न हो—सवदा अमंगल प, ःख दे नेवाला ही है; वह तो
शोभन—वरणीय हो ही कैसे सकता है? ।।५२।।
वणा मके अनुकूल आचरण, तप या और अ ययन आ दके लये जो ब त बड़ा प र म
कया जाता है, उसका फल है—केवल यश अथवा ल मीक ा त। पर तु भगवान्के गुण,
लीला, नाम आ दका वण, क तन आ द तो उनके ीचरणकमल क अ वचल मृ त दान
करता है ।।५३।।
भगवान् ीकृ णके चरणकमल क अ वचल मृ त सारे पाप-ताप और अमंगल को न
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कर दे ती और परम शा तका व तार करती है। उसीके ारा अ तःकरण शु हो जाता है,
भगवान्क भ ा त होती है एवं परवैरा यसे यु भगवान्के व पका ान तथा अनुभव
ा त होता है ।।५४।।

यूयं जा या ् बत भू रभागा
य छ दा म य खला मभूतम् ।
नारायणं दे वमदे वमीश-
मज भावा भजता ववे य ।।५५

अहं च सं मा रत आ मत वं
ुतं पुरा मे परम षव ात् ।
ायोपवेशे नृपतेः परी तः
सद यृषीणां महतां च शृ वताम् ।।५६

एत ः क थतं व ाः कथनीयो कमणः ।


माहा यं वासुदेव य सवाशुभ वनाशनम् ।।५७

य एवं ावये यं याम णमन यधीः ।


ावान् योऽनुशृणुयात् पुना या मानमेव सः ।।५८

ाद यामेकाद यां वा शृ व ायु यवान् भवेत् ।


पठ यन न् यत ततो भव यपातक ।।५९

पु करे मथुरायां च ारव यां यता मवान् ।


उपो य सं हतामेतां प ठ वा मु यते भयात् ।।६०

दे वता मुनयः स ाः पतरो मनवो नृपाः ।


य छ त कामान् गृणतः शृ वतो य य क तनात् ।।६१
शौनका द ऋ षयो! आपलोग बड़े भा यवान् ह। ध य ह, ध य ह! य क आपलोग बड़े
ेमसे नर तर अपने दयम सवा तयामी, सवा मा, सव-श मान् आ ददे व सबके
आरा यदे व एवं वयं सरे आरा यदे वसे र हत नारायण भगवान्को था पत करके भजन
करते रहते ह ।।५५।।
जस समय राज ष परी त् अनशन करके बड़े-बड़े ऋ षय क भरी सभाम सबके
सामने ीशुकदे वजी महाराजसे ीम ागवतक कथा सुन रहे थे, उस समय वह बैठकर मने
भी उ ह परम षके मुखसे इस आ मत वका वण कया था। आपलोग ने उसका मरण
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कराकर मुझपर बड़ा अनु ह कया। म इसके लये आपलोग का बड़ा ऋणी ँ ।।५६।।
शौनका द ऋ षयो! भगवान् वासुदेवक एक-एक लीला सवदा वण-क तन करनेयो य
है। मने इस संगम उ ह क म हमाका वणन कया है; जो सारे अशुभ सं कार को धो बहाती
है ।।५७।।
जो मनु य एका च से एक पहर अथवा एक ण ही त दन इसका क तन करता है
और जो ाके साथ इसका वण करता है, वह अव य ही शरीरस हत अपने
अ तःकरणको प व बना लेता है ।।५८।।
जो पु ष ादशी अथवा एकादशीके दन इसका वण करता है, वह द घायु हो जाता है
और जो संयमपूवक नराहार रहकर पाठ करता है, उसके पहलेके पाप तो न हो ही जाते ह,
पापक वृ भी न हो जाती है ।।५९।।
जो मनु य इ य और अ तःकरणको अपने वशम करके उपवासपूवक पु कर, मथुरा
अथवा ारकाम इस पुराणसं हताका पाठ करता है, वह सारे भय से मु हो जाता
है ।।६०।।
जो मनु य इसका वण या उ चारण करता है, उसके क तनसे दे वता, मु न, स ,
पतर, मनु और नरप त स तु होते ह और उसक अ भलाषाएँ पूण करते ह ।।६१।।

ऋचो यजूं ष सामा न जोऽधी यानु व दते ।


मधुकु या घृतकु याः पयःकु या त फलम् ।।६२

पुराणसं हतामेतामधी य यतो जः ।


ो ं भगवता य ु त पदं परमं जेत् ।।६३

व ोऽधी या ुयात् ां राज योद धमेखलाम् ।


वै यो न धप त वं च शू ः शु ेत पातकात् ।।६४

क लमलसंह तकालनोऽ खलेशो


ह र रतर न गीयते भी णम् ।
इह तु पुनभगवानशेषमू तः
प रप ठतोऽनुपदं कथा स ै ः ।।६५

तमहमजमन तमा मत वं
जग दय थ तसंयमा मश म् ।
ुप त भरजश शंकरा -ै
रव सत तवम युतं नतोऽ म ।।६६

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उप चतनवश भः व आ म-
युपर चत थरजंगमालयाय ।
भगवत उपल धमा धा ने
सुरऋषभाय नमः सनातनाय ।।६७
ऋ वेद, यजुवद और सामवेदके पाठसे ा णको मधुकु या, घृतकु या और पयःकु या
(मधु, घी एवं धक न दयाँ अथात् सब कारक सुख-समृ ) क ा त होती है। वही फल
ीम ागवतके पाठसे भी मलता है ।।६२।।
जो ज संयमपूवक इस पुराणसं हताका अ ययन करता है, उसे उसी परमपदक ा त
होती है, जसका वणन वयं भगवान्ने कया है ।।६३।। इसके अ ययनसे ा णको
ऋत भरा ा (त व ानको ा त करानेवाली बु ) क ा त होती है और यको
समु पय त भूम डलका रा य ा त होता है। वै य कुबेरका पद ा त करता है और शू सारे
पाप से छु टकारा पा जाता है ।।६४।।
भगवान् ही सबके वामी ह और समूह-के-समूह क लमल को वंस करनेवाले ह। य तो
उनका वणन करनेके लये ब त-से पुराण ह, पर तु उनम सव और नर तर भगवान्का
वणन नह मलता। ीम ागवत-महापुराणम तो येक कथा- संगम पद-पदपर सव व प
भगवान्का ही वणन आ है ।।६५।।
वे ज म-मृ यु आ द वकार से र हत, दे शकाला- दकृत प र छे द से मु एवं वयं
आ मत व ही ह। जगत्क उ प - थ त- लय करनेवाली श याँ भी उनक व पभूत
ही ह, भ नह । ा, शंकर, इ आ द लोकपाल भी उनक तु त करना लेशमा भी नह
जानते। उ ह एकरस स चदान द व प परमा माको म नम कार करता ँ ।।६६।।
ज ह ने अपने व पम ही कृ त आ द नौ श य का संक प करके इस चराचर
जगत्क सृ क है और जो इसके अ ध ान पसे थत ह तथा जनका परम पद केवल
अनुभू त व प है, उ ह दे वता के आरा यदे व सनातन भगवान्के चरण म म नम कार
करता ँ ।।६७।।

वसुख नभृतचेता तद् ुद ता यभावो-


ऽ य जत चरलीलाकृ सार तद यम् ।
तनुत कृपया य त वद पं पुराणं
तम खलवृ जन नं ाससूनुं नतोऽ म ।।६८
ीशुकदे वजी महाराज अपने आ मान दम ही नम न थे। इस अख ड अ ै त थ तसे
उनक भेद सवथा नवृ हो चुक थी। फर भी मुरलीमनोहर यामसु दरक मधुमयी,
मंगलमयी, मनोहा रणी लीला ने उनक वृ य को अपनी ओर आक षत कर लया और
उ ह ने जगत्के ा णय पर कृपा करके भगव वको का शत करनेवाले इस महापुराणका
व तार कया। म उ ह सवपापहारी ासन दन भगवान् ीशुकदे वजीके चरण म नम कार

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करता ँ ।।६८।।
इ त ीम ागवते महापुराणे पारमहं यां सं हतायां ादश क धे ादश क धाथ न पणं नाम
ादशोऽ यायः ।।१२।।

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अथ योदशोऽ यायः
व भ पुराण क ोक-सं या और ीम ागवतक म हमा
सूत उवाच
यं ा व णे म तः
तु व त द ैः तवै-
वदै ः सांगपद मोप नषदै -
गाय त यं सामगाः ।
यानाव थततद्गतेन मनसा
प य त यं यो गनो
य या तं न व ः सुरासुरगणा
दे वाय त मै नमः ।।१

पृ े ा यदम दम दर ग र-
ावा क डू यना-
ालोः कमठाकृतेभगवतः
ासा नलाः पा तु वः ।
य सं कारकलानुवतनवशाद्
वेला नभेना भसां
यातायातमत तं जल नधे-
ना ा प व ा य त ।।२
सूतजी कहते ह— ा, व ण, इ , और म द्गण द तु तय के ारा जनके
गुण-गानम संल न रहते ह; साम-संगीतके मम ऋ ष-मु न अंग, पद, म एवं उप नषद के
स हत वेद ारा जनका गान करते रहते ह; योगीलोग यानके ारा न ल एवं त लीन मनसे
जनका भावमय दशन ा त करते रहते ह; क तु यह सब करते रहनेपर भी दे वता, दै य,
मनु य—कोई भी जनके वा त वक व पको पूणतया न जान सका, उन वयं काश
परमा माको नम कार है ।।१।।
जस समय भगवान्ने क छप प धारण कया था और उनक पीठपर बड़ा भारी
म दराचल मथानीक तरह घूम रहा था, उस समय म दराचलक च ान क नोकसे
खुजलानेके कारण भगवान्को त नक सुख मला। वे सो गये और ासक ग त त नक बढ़
गयी। उस समय उस ासवायुसे जो समु के जलको ध का लगा था, उसका सं कार आज
भी उसम शेष है। आज भी समु उसी ासवायुके थपेड़ के फल व प वार-भाट के पम
दन-रात चढ़ता-उतरता रहता है, उसे अबतक व ाम न मला। भगवान्क वही
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परम भावशाली ासवायु आपलोग क र ा करे ।।२।।

पुराणसं यास भू तम य वा य योजने ।


दानं दान य माहा यं पाठादे नबोधत ।।३

ा ं दशसह ा ण पा ं पंचोनष च ।
ीवै णवं यो वश चतु वश त शैवकम् ।।४

दशा ौ ीभागवतं नारदं पंच वश तः ।


माक डं नव वा ं च दशपंच चतुःशतम् ।।५

चतुदश भ व यं या था पंचशता न च ।
दशा ौ वैवत लगमेकादशैव तु ।।६

चतु वश त वाराहमेकाशी तसह कम् ।


का दं शतं तथा चैकं वामनं दश क ततम् ।।७

कौम स तदशा यातं मा यं त ु चतुदश ।


एकोन वश सौपण ा डं ादशैव तु ।।८

एवं पुराणस दोह तुल उदा तः ।


त ा ादशसाह ं ीभागवत म यते ।।९

इदं भगवता पूव णे ना भपंकजे ।


थताय भवभीताय का यात् स का शतम् ।।१०

आ दम यावसानेषु वैरा या यानसंयुतम् ।


ह रलीलाकथा ातामृतान दतस सुरम् ।।११

सववेदा तसारं यद् ा मैक वल णम् ।


व व तीयं त ं कैव यैक योजनम् ।।१२
शौनकजी! अब पुराण क अलग-अलग ोक-सं या, उनका जोड़, ीम ागवतका
तपा वषय और उसका योजन भी सु नये। इसके दानक प त तथा दान और पाठ
आ दक म हमा भी आपलोग वण क जये ।।३।। पुराणम दस हजार ोक,
प पुराणम पचपन हजार, ी व णुपुराणम तेईस हजार और शवपुराणक ोकसं या

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चौबीस हजार है ।।४।। ीम ागवतम अठारह हजार, नारदपुराणम पचीस हजार,
माक डेयपुराणम नौ हजार तथा अ नपुराणम प ह हजार चार सौ ोक ह ।।५।।
भ व यपुराणक ोक-सं या चौदह हजार पाँच सौ है और वैवतपुराणक अठारह
हजार तथा लगपुराणम यारह हजार ोक ह ।।६।। वराहपुराणम चौबीस हजार, क ध-
पुराणक ोक-सं या इ यासी हजार एक सौ है और वामनपुराणक दस हजार ।।७।।
कूमपुराण स ह हजार ोक का और म यपुराण चौदह हजार ोक का है। ग ड़पुराणम
उ ीस हजार ोक ह और ा डपुराणम बारह हजार ।।८।। इस कार सब पुराण क
ोकसं या कुल मलाकर चार लाख होती है। उनम ीम ागवत, जैसा क पहले कहा जा
चुका है, अठारह हजार ोक का है ।।९।।
शौनकजी! पहले-पहल भगवान् व णुने अपने ना भकमलपर थत एवं संसारसे
भयभीत ापर परम क णा करके इस पुराणको का शत कया था ।।१०।।
इसके आ द, म य और अ तम वैरा य उ प करनेवाली ब त-सी कथाएँ ह। इस
महापुराणम जो भगवान् ीह रक लीला-कथाएँ ह, वे तो अमृत व प ह ही; उनके सेवनसे
स पु ष और दे वता को बड़ा ही आन द मलता है ।।११।।
आपलोग जानते ह क सम त उप नषद का सार है और आ माका एक व प
अ तीय सद्व तु। वही ीम ागवतका तपा वषय है। इसके नमाणका योजन है
एकमा कैव य-मो ।।१२।।
ौ प ां पौणमा यां हेम सहसम वतम् ।
ददा त यो भागवतं स या त परमां ग तम् ।।१३
राज ते तावद या न पुराणा न सतां गणे ।
याव यते सा ा म ागवतं परम् ।।१४
सववेदा तसारं ह ीभागवत म यते ।
त सामृततृ त य ना य या तः व चत् ।।१५
न नगानां यथा गंगा दे वानाम युतो यथा ।
वै णवानां यथा श भुः पुराणाना मदं तथा ।।१६
े ाणां चैव सवषां यथा काशी नु मा ।
तथा पुराण ातानां ीम ागवतं जाः ।।१७
ीम ागवतं पुराणममलं
य ै णवानां यं
य मन् पारमहं यमेकममलं
ानं परं गीयते ।
त ान वरागभ स हतं
नै क यमा व कृतं
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त छृ वन् वपठन् वचारणपरो
भ या वमु ये रः ।।१८

क मै येन वभा सतोऽयमतुलो


ान द पः पुरा
त पू ेण च नारदाय मुनये
कृ णाय त ू पणा ।
योगी ाय तदा मनाथ भगवद्-
राताय का यत-
त छु ं वमलं वशोकममृतं
स यं परं धीम ह ।।१९
जो पु ष भा पद मासक पू णमाके दन ीम ागवतको सोनेके सहासनपर रखकर
उसका दान करता है, उसे परमग त ा त होती है ।।१३।। संत क सभाम तभीतक सरे
पुराण क शोभा होती है, जबतक सव े वयं ीम ागवतमहापुराणके दशन नह
होते ।।१४।। यह ीम ागवत सम त उप नषद का सार है। जो इस रस-सुधाका पान करके
छक चुका है, वह कसी और पुराण-शा म रम नह सकता ।।१५।। जैसे न दय म गंगा,
दे वता म व णु और वै णव म ीशंकरजी सव े ह, वैसे ही पुराण म ीम ागवत
है ।।१६।। शौनका द ऋ षयो! जैसे स पूण े म काशी सव े है, वैसे ही पुराण म
ीम ागवतका थान सबसे ऊँचा है ।।१७।। यह ीम ागवतपुराण सवथा नद ष है।
भगवान्के यारे भ वै णव इससे बड़ा ेम करते ह। इस पुराणम जीव मु परमहंस के
सव े , अ तीय एवं मायाके लेशसे र हत ानका गान कया गया है। इस थक सबसे
बड़ी वल णता यह है क इसका नै क य अथात् कम क आ य तक नवृ भी ान-
वैरा य एवं भ से यु है। जो इसका वण, पठन और मनन करने लगता है, उसे
भगवान्क भ ा त हो जाती है और वह मु हो जाता है ।।१८।।
यह ीम ागवत भगव व ानका एक े काशक है। इसक तुलनाम और कोई भी
पुराण नह है। इसे पहले-पहल वयं भगवान् नारायणने ाजीके लये कट कया था।
फर उ ह ने ही ाजीके पसे दे व ष नारदको उपदे श कया और नारदजीके पसे
भगवान् ीकृ ण ै पायन ासको। तदन तर उ ह ने ही ास पसे योगी शुकदे वजीको
और ीशुकदे वजीके पसे अ य त क णावश राज ष परी त्को उपदे श कया। वे भगवान्
परम शु एवं मायामलसे र हत ह। शोक और मृ यु उनके पासतक नह फटक सकते। हम
सब उ ह परम स य व प परमे रका यान करते ह ।।१९।।

नम त मै भगवते वासुदेवाय सा णे ।
य इदं कृपया क मै ाचच े मुमु वे ।।२०

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योगी ाय नम त मै शुकाय पणे ।
संसारसपद ं यो व णुरातममूमुचत् ।।२१

भवे भवे यथा भ ः पादयो तव जायते ।


तथा कु व दे वेश नाथ वं नो यतः भो ।।२२

नामसंक तनं य य सवपाप णाशनम् ।


णामो ःखशमन तं नमा म ह र परम् ।।२३
हम उन सवसा ी भगवान् वासुदेवको नम कार करते ह, ज ह ने कृपा करके
मो ा भलाषी ाजीको इस ीम ागवतमहापुराणका उपदे श कया ।।२०।। साथ ही हम
उन यो गराज व प ीशुकदे वजीको भी नम कार करते ह, ज ह ने
ीम ागवतमहापुराण सुनाकर संसार-सपसे डसे ए राज ष परी त्को मु
कया ।।२१।।
दे वता के आरा यदे व सव र! आप ही हमारे एकमा वामी एवं सव व ह। अब आप
ऐसी कृपा क जये क बार-बार ज म हण करते रहनेपर भी आपके चरणकमल म हमारी
अ वचल भ बनी रहे ।।२२।।
जन भगवान्के नाम का संक तन सारे पाप को सवथा न कर दे ता है और जन
भगवान्के चरण म आ मसमपण, उनके चरण म ण त सवदाके लये सब कारके ःख को
शा त कर दे ती है, उ ह परम-त व व प ीह रको म नम कार करता ँ ।।२३।।
इ त ीम ागवते महापुराणे वैया स याम ादशसाह यां् पारमहं यां सं हतायां ादश क धे
योदशोऽ यायः ।।१३।।

इ त ादशः क धः समा तः
स पूण ऽयं थः

वद यं व तु गो व द तु यमेव समपये ।
तेन वदङ् कमले र त मे य छ शा तीम् ।।
हे गो व द! आपक व तु आपको ही समपण कर रहा ँ। इसके ारा आपके
चरणकमल म मुझे शा त ेम दान करनेक कृपा कर।

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।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।।
ीम ागवतमाहा यम्
अथ थमोऽ यायः
परी त् और व नाभका समागम, शा ड यमु नके मुखसे भगवान्क
लीलाके रह य और जभू मके मह वका वणन
ास उवाच
ीस चदान दघन व पणे
कृ णाय चान तसुखा भव षणे ।
व ो व थान नरोधहेतवे
नुमो वयं भ रसा तयेऽ नशम् ।।१

नै मषे सूतमासीनम भवा महाम तम् ।


कथामृतरसा वादकुशला ऋषयोऽ ुवन् ।।२
ऋषय ऊचुः
व ं ीमाथुरे दे शे वपौ ं ह तनापुरे ।
अ भ ष य गते रा तौ कथं क च च तुः ।।३
सूत उवाच
नारायणं नम कृ य नरं चैव नरो मम् ।
दे व सर वत ासं ततो जयमुद रयेत् ।।४

महापथं गते रा परी त् पृ थवीप तः ।


जगाम मथुरां व ा व नाभ द या ।।५
मह ष ास कहते ह— जनका व प है स चदान दघन, जो अपने सौ दय और
माधुया द गुण से सबका मन अपनी ओर आक षत कर लेते ह और सदा-सवदा अन त
सुखक वषा करते रहते ह, जनक ही श से इस व क उ प , थ त और लय होते
ह—उन भगवान् ीकृ णको हम भ रसका आ वादन करनेके लये न य- नर तर णाम
करते ह ।।१।।
नै मषार य े म ीसूतजी व थ च से अपने आसनपर बैठे ए थे। उस समय
भगवान्क अमृतमयी लीलाकथाके र सक, उसके रसा वादनम अ य त कुशल शौनका द

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ऋ षय ने सूतजीको णाम करके उनसे यह कया ।।२।।
ऋ षय ने पूछा—सूतजी! धमराज यु ध र जब ीमथुराम डलम अ न न दन
व का और ह तनापुरम अपने पौ परी त्का रा या भषेक करके हमालयपर चले गये,
तब राजा व और परी त्ने कैसे-कैसे कौन-कौन-सा काय कया ।।३।।
सूतजीने कहा—भगवान् नारायण, नरो म नर, दे वी सर वती और मह ष ासको
नम कार करके शु च होकर भगव वको का शत करनेवाले इ तहासपुराण प ‘जय’
का उ चारण करना चा हये ।।४।।
शौनका द षयो! जब धमराज यु ध र आ द पा डवगण वगारोहणके लये
हमालय चले गये, तब स ाट् परी त् एक दन मथुरा गये। उनक इस या ाका उ े य इतना
ही था क वहाँ चलकर व नाभसे मल-जुल आय ।।५।।

पतृ मागतं ा वा व ः ेमप र लुतः ।


अ भग या भवा ाथ ननाय नजम दरम् ।।६

प र व य स तं वीरः कृ णैकगतमानसः ।
रो ह या ा हरेः प नीवव दायतनागतः ।।७

ता भः संमा नतोऽ यथ परी त् पृ थवीप तः ।


व ा तः सुखमासीनो व नाभमुवाच ह ।।८
परी वाच
तात व पतृ भनूनम म पतृ पतामहाः ।
उद्धृता भू र ःखौघादहं च प रर तः ।।९

न पारया यहं तात साधु कृ वोपकारतः ।


वामतः ाथया यंग सुखं रा येऽनुयु यताम् ।।१०

कोशसै या दजा च ता तथा रदमना दजा ।


मनाग प न काया ते सुसे ाः क तु मातरः ।।११

नवे म य कत ं सवा धप रवजनम् ।


ु वैतत् परम ीतो व तं युवाच ह ।।१२
व नाभ उवाच
राज ु चतमेत े यद मासु भाषसे ।

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व प ोपकृत ाहं धनु व ा दानतः ।।१३
जब व नाभको यह समाचार मालूम आ क मेरे पतातु य परी त् मुझसे मलनेके
लये आ रहे ह, तब उनका दय ेमसे भर गया। उ ह ने नगरसे आगे बढ़कर उनक अगवानी
क , चरण म णाम कया और बड़े ेमसे उ ह अपने महलम ले आये ।।६।। वीर परी त्
भगवान् ीकृ णके परम ेमी भ थे। उनका मन न य- नर तर आन दघन ीकृ णच म
ही रमता रहता था। उ ह ने भगवान् ीकृ णके पौ व नाभका बड़े ेमसे आ लगन
कया। इसके बाद अ तःपुरम जाकर भगवान् ीकृ णक रो हणी आ द प नय को नम कार
कया ।।७।। रो हणी आ द ीकृ ण-प नय ने भी स ाट् परी त्का अ य त स मान कया।
वे व ाम करके जब आरामसे बैठ गये, तब उ ह ने व नाभसे यह बात कही ।।८।।
राजा परी त्ने कहा—‘हे तात! तु हारे पता और पतामह ने मेरे पता- पतामहको
बड़े-बड़े संकट से बचाया है। मेरी र ा भी उ ह ने ही क है ।।९।। य व नाभ! य द म
उनके उपकार का बदला चुकाना चा ँ तो कसी कार नह चुका सकता। इस लये म तुमसे
ाथना करता ँ क तुम सुखपूवक अपने राजकाजम लगे रहो ।।१०।।
तु ह अपने खजानेक , सेनाक तथा श ु को दबाने आ दक त नक भी च ता न करनी
चा हये। तु हारे लये कोई कत है तो केवल एक ही; वह यह क तु ह अपनी इन
माता क खूब ेमसे भलीभाँ त सेवा करते रहना चा हये ।।११।।
य द कभी तु हारे ऊपर कोई आप - वप आये अथवा कसी कारणवश तु हारे
दयम अ धक लेशका अनुभव हो तो मुझसे बताकर न त हो जाना; म तु हारी सारी
च ताएँ र कर ँ गा।’ स ाट् परी त्क यह बात सुनकर व नाभको बड़ी स ता ई।
उ ह ने राजा परी त्से कहा— ।।१२।।
व नाभने कहा—‘महाराज! आप मुझसे जो कुछ कह रहे ह, वह सवथा आपके
अनु प है। आपके पताने भी मुझे धनुवदक श ा दे कर मेरा महान् उपकार कया
है ।।१३।।

त मा ा पा प मे च ता ा ं ढमुपेयुषः ।
क वेका परमा च ता त क चद् वचायताम् ।।१४

माथुरे व भ ष ोऽ प थतोऽहं नजने वने ।


व गता वै जा या य रा यं रोचते ।।१५

इ यु ो व णुरात तु न दाद नां पुरो हतम् ।


शा ड यमाजुहावाशु व स दे हनु ये ।।१६

अथोटजं वहायाशु शा ड यः समुपागतः ।


पू जतो व नाभेन नषसादासनो मे ।।१७
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उपोद्घातं व णुरात काराशु तत वसौ ।
उवाच परम ीत तावुभौ प रसा वयन् ।।१८
शा ड य उवाच
शृणुतं द च ौ मे रह यं जभू मजम् ।
जनं ा त र यु या ापनाद् ज उ यते ।।१९

गुणातीतं परं ापकं ज उ यते ।


सदान दं परं यो तमु ानां पदम यम् ।।२०

त मन् न दा मजः कृ णः सदान दांग व हः ।


आ माराम ा तकामः ेमा ै रनुभूयते ।।२१

आ मा तु रा धका त य तयैव रमणादसौ ।


आ मारामतया ा ैः ो यते गूढवे द भः ।।२२
इस लये मुझे कसी बातक त नक भी च ता नह है; य क उनक कृपासे म
यो चत शूरवीरतासे भलीभाँ त स प ँ। मुझे केवल एक बातक ब त बड़ी च ता है,
आप उसके स ब धम कुछ वचार क जये ।।१४।। य प म मथुराम डलके रा यपर
अभष ँ, तथा प म यहाँ नजन वनम ही रहता ँ। इस बातका मुझे कुछ भी पता नह है
क यहाँक जा कहाँ चली गयी; य क रा यका सुख तो तभी है, जब जा रहे’ ।।१५।।
जब व नाभने परी त्से यह बात कही, तब उ ह ने व नाभका स दे ह मटानेके लये
मह ष शा ड यको बुलवाया। ये ही मह ष शा ड य पहले न द आ द गोप के पुरो हत
थे ।।१६।। परी त्का स दे श पाते ही मह ष शा ड य अपनी कुट छोड़कर वहाँ आ प ँच।े
व नाभने व धपूवक उनका वागत-स कार कया और वे एक ऊँचे आसनपर वराजमान
ए ।।१७।। राजा परी त्ने व नाभक बात उ ह कह सुनायी। इसके बाद मह ष शा ड य
बड़ी स तासे उनको सा वना दे ते ए कहने लगे— ।।१८।।
शा ड यजीने कहा— य परी त् और व नाभ! म तुमलोग से जभू मका रह य
बतलाता ।ँ तुम द च होकर सुनो। ‘ ज’ श दका अथ है ा त। इस वृ वचनके
अनुसार ापक होनेके कारण ही इस भू मका नाम ‘ ज’ पड़ा है ।।१९।। स व, रज, तम—
इन तीन गुण से अतीत जो पर है, वही ापक है। इस लये उसे ‘ ज’ कहते ह। वह
सदान द व प, परम यो तमय और अ वनाशी है। जीव मु पु ष उसीम थत रहते
ह ।।२०।। इस पर व प जधामम न दन दन भगवान् ीकृ णका नवास है। उनका
एक-एक अंग स चदान द व प है। वे आ माराम और आ तकाम ह। ेमरसम डू बे ए
र सकजन ही उनका अनुभव करते ह ।।२१।। भगवान् ीकृ णक आ मा ह—रा धका;
उनसे रमण करनेके कारण ही रह यरसके मम ानी पु ष उ ह ‘आ माराम’ कहते
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ह ।।२२।। ‘काम’ श दका अथ है कामना—अ भलाषा; जम भगवान् ीकृ णके वां छत
पदाथ ह—गौएँ, वालबाल, गो पयाँ और उनके साथ लीला- वहार आ द; वे सब-के-सब यहाँ
न य ा त ह। इसीसे ीकृ णको ‘आ तकाम’ कहा गया है ।।२३।। भगवान् ीकृ णक यह
रह य-लीला कृ तसे परे है। वे जस समय कृ तके साथ खेलने लगते ह, उस समय सरे
लोग भी उनक लीलाका अनुभव करते ह ।।२४।। कृ तके साथ होनेवाली लीलाम ही
रजोगुण, स वगुण और तमोगुणके ारा सृ , थ त और लयक ती त होती है। इस
कार यह न य होता है क भगवान्क लीला दो कारक है—एक वा तवी और सरी
ावहा रक ।।२५।। वा तवी लीला वसंवे है—उसे वयं भगवान् और उनके र सक
भ जन ही जानते ह। जीव के सामने जो लीला होती है, वह ावहा रक लीला है। वा तवी
लीलाके बना ावहा रक लीला नह हो सकती; पर तु ावहा रक लीलाका वा त वक
लीलाके रा यम कभी वेश नह हो सकता ।।२६।। तुम दोन भगवान्क जस लीलाको
दे ख रहे हो, यह ावहा रक लीला है। यह पृ वी और वग आ द लोक इसी लीलाके
अ तगत ह। इसी पृ वीपर यह मथुराम डल है ।।२७।। यह वह जभू म है, जसम
भगवान्क वह वा तवी रह य-लीला गु त पसे होती रहती है। वह कभी-कभी ेमपूण
दयवाले र सक भ को सब ओर द खने लगती है ।।२८।। कभी अट् ठाईसव ापरके
अ तम जब भगवान्क रह य-लीलाके अ धकारी भ जन यहाँ एक होते ह, जैसा क इस
समय भी कुछ काल पहले ए थे, उस समय भगवान् अपने अ तरंग े मय के साथ अवतार
लेते ह। उनके अवतारका यह योजन होता है क रह य-लीलाके अ धकारी भ जन भी
अ तरंग प रकर के साथ स म लत होकर लीला-रसका आ वादन कर सक। इस कार जब
भगवान् अवतार हण करते ह, उस समय भगवान्के अ भमत ेमी दे वता और ऋ ष आ द
भी सब ओर अवतार लेते ह ।।२९-३०।।

कामा तु वां छता त य गावो गोपा गो पकाः ।


न याः सव वहारा ा आ तकाम तत वयम् ।।२३

रह यं वदमेत य कृतेः परमु यते ।


कृ या खेलत त य लीला यैरनुभूयते ।।२४

सग थ य यया य रजःस वतमोगुणैः ।


लीलैवं वधा त य वा तवी ावहा रक ।।२५

वा तवी त वसंवे ा जीवानां ावहा रक ।


आ ां वना तीया न तीया ना गा व चत् ।।२६

युवयोग चरेयं तु त लीला ावहा रक ।

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य भूरादयो लोका भु व माथुरम डलम् ।।२७

अ ैव जभू मः सा य त वं सुगो पतम् ।


भासते ेमपूणानां कदा चद प सवतः ।।२८

कदा चद् ापर या ते रहोलीला धका रणः ।


समवेता यदा युयथेदान तदा ह रः ।।२९

वैः सहावतरेत् वेषु समावेशाथमी सताः ।


तदा दे वादयोऽ य येऽवतर त सम ततः ।।३०

सवषां वां छतं कृ वा ह रर त हतोऽभवत् ।


तेना वधा लोकाः थताः पूव न संशयः ।।३१

न या त ल सव ैव दे वा ा े त भेदतः ।
दे वा ा तेषु कृ णेन ारकां ा पताः पुरा ।।३२

पुनम शलमागण वा धकारेषु चा पताः ।


त ल सूं सदा कृ णः ेमान दै क पणः ।।३३

वधाय वीय न येषु समावे शतवां तदा ।


न याः सवऽ ययो येषु दशनाभावतां गताः ।।३४

ावहा रकलीला था त य ा धका रणः ।


प य य ागता त मा जन वं सम ततः ।।३५

त मा च ता न ते काया व नाभ मदा या ।


वासया ब न् ामान् सं स ते भ व य त ।।३६

कृ णलीलानुसारेण कृ वा नामा न सवतः ।


वया वासयता ामान् संसे ा भू रयं परा ।।३७
अभी-अभी जो अवतार आ था, उसम भगवान् अपने सभी े मय क अ भलाषाएँ पूण
करके अब अ तधान हो चुके ह। इससे यह न य आ क यहाँ पहले तीन कारके भ जन
उप थत थे; इसम स दे ह नह है ।।३१।। उन तीन म थम तो उनक ेणी है, जो भगवान्के
न य ‘अ तरंग’ पाषद ह— जनका भगवान्से कभी वयोग होता ही नह । सरे वे ह, जो

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एकमा भगवान्को पानेक इ छा रखते ह—उनक अ तरंग-लीलाम अपना वेश चाहते ह।
तीसरी ेणीम दे वता आ द ह। इनमसे जो दे वता आ दके अंशसे अवतीण ए थे, उ ह
भगवान्ने जभू मसे हटाकर पहले ही ारका प ँचा दया था ।।३२।। फर भगवान्ने
ा णके शापसे उ प मूसलको न म बनाकर य कुलम अवतीण दे वता को वगम
भेज दया और पुनः अपने-अपने अ धकारपर था पत कर दया। तथा ज ह एकमा
भगवान्को ही पानेक इ छा थी, उ ह ेमान द व प बनाकर ीकृ णने सदाके लये अपने
न य अ तरंग पाषद म स म लत कर लया। जो न य पाषद ह, वे य प यहाँ गु त पसे
होनेवाली न यलीलाम सदा ही रहते ह, पर तु जो उनके दशनके अ धकारी नह ह, ऐसे
पु ष के लये वे भी अ य हो गये ह ।।३३-३४।। जो लोग ावहा रक लीलाम थत ह, वे
न यलीलाका दशन पानेके अ धकारी नह ह; इस लये यहाँ आनेवाल को सब ओर नजन
वन—सूना-ही-सूना दखायी दे ता है; य क वे वा त वक लीलाम थत भ जन को दे ख
नह सकते ।।३५।।
इस लये व नाभ! तु ह त नक भी च ता नह करनी चा हये। तुम मेरी आ ासे यहाँ
ब त-से गाँव बसाओ; इससे न य ही तु हारे मनोरथ क स होगी ।।३६।।
भगवान् ीकृ णने जहाँ जैसी लीला क है, उसके अनुसार उस थानका नाम रखकर
तुम अनेक गाँव बसाओ और इस कार द जभू मका भलीभाँ त सेवन करते
रहो ।।३७।।

गोव ने द घपुरे मथुरायां महावने ।


न द ामे बृह सानौ काया रा य थ त वया ।।३८

न ो णकु डा दकु ान् संसेवत तव ।


रा ये जाः सुस प ा वं च ीतो भ व य स ।।३९

स चदान दभूरेषा वया से ा य नतः ।


तव कृ ण थला य फुर तु मदनु हात् ।।४०

व संसेवनाद य उ व वां म ल य त ।
ततो रह यमेत मात् ा य स वं समातृकः ।।४१

एवमु वा तु शा ड यो गतः कृ णमनु मरन् ।


व णुरातोऽथ व परां ी तमवापतुः ।।४२
गोवधन, द घपुर (डीग), मथुरा, महावन (गोकुल), न द ाम (न दगाँव) और बृह सानु
(बरसाना) आ दम तु ह अपने लये छावनी बनवानी चा हये ।।३८।। उन-उन थान म रहकर
भगवान्क लीलाके थल नद , पवत, घाट , सरोवर और कु ड तथा कुंज-वन आ दका सेवन
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करते रहना चा हये। ऐसा करनेसे तु हारे रा यम जा ब त ही स प होगी और तुम भी
अ य त स रहोगे ।।३९।। यह जभू म स चदान दमयी है, अतः तु ह य नपूवक इस
भू मका सेवन करना चा हये। म आशीवाद दे ता ँ; मेरी कृपासे भगवान्क लीलाके जतने
भी थल ह, सबक तु ह ठ क-ठ क पहचान हो जायगी ।।४०।। व नाभ! इस जभू मका
सेवन करते रहनेसे तु ह कसी दन उ वजी मल जायँग।े फर तो अपनी माता स हत तुम
उ ह से इस भू मका तथा भगवान्क लीलाका रह य भी जान लोगे ।।४१।।
मु नवर शा ड यजी उन दोन को इस कार समझा-बुझाकर भगवान् ीकृ णका
मरण करते ए अपने आ मपर चले गये। उनक बात सुनकर राजा परी त् और व नाभ
दोन ही ब त स ए ।।४२।।
इ त ी का दे महापुराण एकाशी तसाह यां सं हतायां तीये वै णवख डे
ीम ागवतमाहा ये शा ड योप द जभू ममाहा यवणनं नाम थमोऽ यायः ।।१।।

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अथ तीयोऽ यायः
यमुना और ीकृ णप नय का संवाद, क तनो सवम उ वजीका कट
होना
ऋषय ऊचुः
शा ड ये तौ समा द य परावृ े वमा मम् ।
क कथं च तु तौ तु राजानौ सूत तद् वद ।।१
सूत उवाच
तत तु व णुरातेन ेणीमु याः सह शः ।
इ थात् समाना य मथुरा थानमा पताः ।।२
ऋ षय ने पूछा—सूतजी! अब यह बतलाइये क परी त् और व नाभको इस कार
आदे श दे कर जब शा ड य मु न अपने आ मको लौट गये, तब उन दोन राजा ने कैसे-
कैसे और कौन-कौन-सा काम कया? ।।१।।
सूतजी कहने लगे—तदन तर महाराज परी त्ने इ थ ( द ली) से हजार बड़े-बड़े
सेठ को बुलवाकर मथुराम रहनेक जगह द ।।२।।

माथुरान् ा णां त वानरां पुरातनान् ।


व ाय माननीय वं तेषु था पतवान् वराट् ।।३

व तु त सहायेन शा ड य या यनु हात् ।


गो व दगोपगोपीनां लीला थाना यनु मात् ।।४

व ाया भधयाऽऽ था य ामानावासयद् ब न् ।


कु डकूपा दपूतन शवा द थापनेन च ।।५

गो व दह रदे वा द व पारोपणेन च ।
कृ णैकभ वे रा ये ततान च मुमोद ह ।।६

जा तु मु दता त य कृ णक तनत पराः ।


परमान दस प ा रा यं त यैव तु ु वुः ।।७

एकदा कृ णप य तु ीकृ ण वरहातुराः ।


का ल द मु दतां वी य प छु गतम सराः ।।८
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ीकृ णप य ऊचुः
यथा वयं कृ णप य तथा वम प शोभने ।
वयं वरह ःखाता वं न का ल द तद् वद ।।९
इनके अ त र स ाट् परी त्ने मथुराम डलके ा ण तथा ाचीन वानर को, जो
भगवान्के बड़े ही ेमी थे, बुलवाया और उ ह आदरके यो य समझकर मथुरा नगरीम
बसाया ।।३।। इस कार राजा परी त्क सहायता और मह ष शा ड यक कृपासे
व नाभने मशः उन सभी थान क खोज क , जहाँ भगवान् ीकृ ण अपने ेमी गोप-
गो पय के साथ नाना कारक लीलाएँ करते थे। लीला- थान का ठ क-ठ क न य हो
जानेपर उ ह ने वहाँ-वहाँक लीलाके अनुसार उस-उस थानका नामकरण कया, भगवान्के
लीला व ह क थापना क तथा उन-उन थान पर अनेक गाँव बसाये। थान- थानपर
भगवान्के नामसे कु ड और कुएँ खुदवाये। कुंज और बगीचे लगवाये, शव आ द
दे वता क थापना क ।।४-५।। गो व ददे व, ह रदे व आ द नाम से भगव ह था पत
कये। इन सब शुभ कम के ारा व नाभने अपने रा यम सब ओर एकमा
ीकृ णभ का चार कया और बड़े ही आन दत ए ।।६।। उनके जाजन को भी बड़ा
आन द था, वे सदा भगवान्के मधुर नाम तथा लीला के क तनम संल न हो परमान दके
समु म डू बे रहते थे और सदा ही व नाभके रा यक शंसा कया करते थे ।।७।।
एक दन भगवान् ीकृ णक वरह-वेदनासे ाकुल सोलह हजार रा नयाँ अपने
यतम प तदे वक चतुथ पटरानी का ल द (यमुनाजी) को आन दत दे खकर सरलभावसे
उनसे पूछने लग । उनके मनम सौ तयाडाहका लेशमा भी नह था ।।८।।
ीकृ णक रा नय ने कहा—ब हन का ल द ! जैसे हम सब ीकृ णक धमप नी ह,
वैसे ही तुम भी तो हो। हम तो उनक वरहा नम जली जा रही ह, उनके वयोग- ःखसे
हमारा दय थत हो रहा है; क तु तु हारी यह थ त नह है, तुम स हो। इसका या
कारण है? क याणी! कुछ बताओ तो सही ।।९।।

त छ वा मयमाना सा का ल द वा यम वीत् ।
साप यं वी य त ासां क णापरमानसा ।।१०
का ल ुवाच
आ माराम य कृ ण य ुवमा मा त रा धका ।
त या दा य भावेण वरहोऽ मान् न सं पृशेत् ।।११

त या एवांश व ताराः सवाः ीकृ णना यकाः ।


न यस भोग एवा त त याः सा मु ययोगतः ।।१२

स एव सा स सैवा त वंशी त ेम पका ।


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ीकृ णनखच ा लसंगा च ावली मृता ।।१३

पा तरमगृ ाना तयोः सेवा तलालसा ।


म या दसमावेशो मया ैव वलो कतः ।।१४

यु माकम प कृ णेन वरहो नैव सवतः ।


क तु एवं न जानीथ त माद् ाकुलता मताः ।।१५

एवमेवा गोपीनाम ू रावसरे पुरा ।


वरहाभास एवासी वेन समा हतः ।।१६
उनका सुनकर यमुनाजी हँस पड़ । साथ ही यह सोचकर क मेरे यतमक प नी
होनेके कारण ये भी मेरी ही ब हन ह, पघल गय ; उनका रदय दयासे वत हो उठा। अतः वे
इस कार कहने लग ।।१०।।
यमुनाजीने कहा—अपनी आ माम ही रमण करनेके कारण भगवान् ीकृ ण
आ माराम ह और उनक आ मा ह— ीराधाजी। म दासीक भाँ त राधाजीक सेवा करती
रहती ;ँ उनक सेवाका ही यह भाव है क वरह हमारा पश नह कर सकता ।।११।।
भगवान् ीकृ णक जतनी भी रा नयाँ ह, सब-क -सब ीराधाजीके ही अंशका व तार
ह। भगवान् ीकृ ण और राधा सदा एक- सरेके स मुख ह, उनका पर पर न य संयोग है;
इस लये राधाके व पम अंशतः व मान जो ीकृ णक अ य रा नयाँ ह, उनको भी
भगवान्का न य संयोग ा त है ।।१२।। ीकृ ण ही राधा ह और राधा ही ीकृ ण ह। उन
दोन का ेम ही वंशी है। तथा राधाक यारी सखी च ावली भी ीकृ ण-चरण के नख पी
च मा क सेवाम आस रहनेके कारण ही ‘च ावली’ नामसे कही जाती है ।।१३।।
ीराधा और ीकृ णक सेवाम उसक बड़ी लालसा, बड़ी लगन है; इसी लये वह कोई सरा
व प धारण नह करती। मने यह ीराधाम ही मणी आ दका समावेश दे खा है ।।१४।।
तुमलोग का भी सवाशम ीकृ णके साथ वयोग नह आ है, क तु तुम इस रह यको इस
पम जानती नह हो, इसी लये इतनी ाकुल हो रही हो ।।१५।। इसी कार पहले भी जब
अ ू र ीकृ णको न दगाँवसे मथुराम ले आये थे, उस अवसरपर जो गो पय को ीकृ णसे
वरहक ती त ई थी, वह भी वा त वक वरह नह , केवल वरहका आभास था। इस
बातको जबतक वे नह जानती थ , तबतक उ ह बड़ा क था; फर जब उ वजीने आकर
उनका समाधान कया, तब वे इस बातको समझ सक ।।१६।।

तेनैव भवतीनां चेद ् भवेद समागमः ।


त ह न यं वका तेन वहारम प ल यथ ।।१७
सूत उवाच

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एवमु ा तु ताः प यः स ां पुनर ुवन् ।
उ वालोकनेना म े संगमलालसाः ।।१८
ीकृ णप य ऊचुः
ध या स स ख का तेन य या नैवा त व यु तः ।
यत ते वाथसं स त या दा यो बभू वम ।।१९

पर तू वलाभे याद म सवाथसाधनम् ।


तथा वद व का ल द त लाभोऽ प यथा भवेत् ।।२०
सूत उवाच
एवमु ा तु का ल द युवाचाथ ता तथा ।
मर ती कृ णच य कलाः षोडश पणीः ।।२१

साधनभू मबदरी जता कृ णेन म णे ो ा ।


त ा ते स तु सा ा युनं ाहयँ लोकान् ।।२२

फलभू म जभू मद ा त मै पुरैव सरह यम् ।


फल मह तरो हतं स दहेदान स उ वोऽल यः ।।२३
य द तु ह भी उ वजीका स संग ा त हो जाय, तो तुम सब भी अपने यतम
ीकृ णके साथ न य वहारका सुख ा त कर लोगी ।।१७।।
सूतजी कहते ह—ऋ षगण! जब उ ह ने इस कार समझाया, तब ीकृ णक प नयाँ
सदा स रहनेवाली यमुनाजीसे पुनः बोल । उस समय उनके दयम इस बातक बड़ी
लालसा थी क कसी उपायसे उ वजीका दशन हो, जससे हम अपने यतमके न य
संयोगका सौभा य ा त हो सके ।।१८।।
ीकृ णप नय ने कहा—सखी! तु हारा ही जीवन ध य है; य क तु ह कभी भी
अपने ाणनाथके वयोगका ःख नह भोगना पड़ता। जन ीरा धकाजीक कृपासे तु हारे
अभी अथक स ई है, उनक अब हमलोग भी दासी ।।१९।। क तु तुम अभी कह
चुक हो क उ वजीके मलनेपर ही हमारे सभी मनोरथ पूण ह गे; इस लये का ल द ! अब
ऐसा कोई उपाय बताओ, जससे उ वजी भी शी ही मल जायँ ।।२०।।
सूतजी कहते ह— ीकृ णक रा नय ने जब यमुनाजीसे इस कार कहा, तब वे
भगवान् ीकृ ण-च क सोलह कला का च तन करती ई उनसे कहने लग ।।२१।।
“जब भगवान् ीकृ ण अपने परमधामको पधारने लगे, तब उ ह ने अपने म ी उ वसे
कहा—‘उ व! साधना करनेक भू म है बद रका म, अतः अपनी साधना पूण करनेके लये
तुम वह जाओ।’ भगवान्क इस आ ाके अनुसार उ वजी इस समय अपने सा ात्
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व पसे बद रका मम वराजमान ह और वहाँ जानेवाले ज ासु लोग को भगवान्के बताये
ए ानका उपदे श करते रहते ह ।।२२।। साधनक फल पा भू म है— जभू म; इसे भी
इसके रह य स हत भगवान्ने पहले ही उ वको दे दया था। क तु वह फलभू म यहाँसे
भगवान्के अ तधान होनेके साथ ही थूल से परे जा चुक है; इसी लये इस समय यहाँ
उ व य दखायी नह पड़ते ।।२३।।

गोव न ग र नकटे सखी थले त जःकामः ।


त यांकुरव ली पेणा ते स उ वो नूनम् ।।२४

आ मो सव प वं ह रणा त मै सम पतं नयतम् ।


त मा थ वा कुसुमसरःप रसरे सव ा भः ।।२५

वीणावेणुमृद ै ः क तनका ा दसरससंगीतैः ।


उ सव आर ध ो ह ररतलोकान् समाना य ।।२६

त ो वावलोको भ वता नयतं महो सवे वतते ।


यौ माक णाम भमत स स वता स एव स वतानाम् ।।२७
सूत उवाच
इ त ु वा स ा ताः का ल द म भव तत् ।
कथयामासुराग य व ं त परी तम् ।।२८

व णुरात तु त छ वा स त ुत तदा ।
त ैवाग य तत् सव कारयामास स वरम् ।।२९

गोव नाद रेण वृ दार ये सखी थले ।


वृ ः कुसुमा भोधौ कृ णसंक तनो सवः ।।३०

वृषभानुसुताका त वहारे क तन या ।
सा ा दव समावृ े सवऽन य शोऽभवन् ।।३१
फर भी एक थान है, जहाँ उ वजीका दशन हो सकता है। गोवधन पवतके नकट
भगवान्क लीला-सहचरी गो पय क वहार- थली है; वहाँक लता, अंकुर और बेल के
पम अव य ही उ वजी वहाँ नवास करते ह। लता के पम उनके रहनेका यही उ े य
है क भगवान्क यतमा गो पय क चरणरज उनपर पड़ती रहे ।।२४।। उ वजीके
स ब धम एक न त बात यह भी है क उ ह भगवान्ने अपना उ सव- व प दान कया

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है। भगवान्का उ सव उ वजीका अंग है, वे उससे अलग नह रह सकते; इस लये अब
तुमलोग व नाभको साथ लेकर वहाँ जाओ और कुसुमसरोवरके पास ठहरो ।।२५।।
भगव क म डली एक करके वीणा, वेणु और मृदंग आ द बाज के साथ भगवान्के
नाम और लीला के क तन, भगव स ब धी का -कथा के वण तथा भगवद्गुण-गानसे
यु सरस संगीत ारा महान् उ सव आर भ करो ।।२६।। इस कार जब उस महान्
उ सवका व तार होगा, तब न य है क वहाँ उ वजीका दशन मलेगा। वे ही भलीभाँ त
तुम सब लोग के मनोरथ पूण करगे” ।।२७।।
सूतजी कहते ह—यमुनाजीक बतायी ई बात सुनकर ीकृ णक रा नयाँ ब त स
। उ ह ने यमुनाजीको णाम कया और वहाँसे लौट-कर व नाभ तथा परी त्से वे सारी
बात कह सुनाय ।।२८।। सब बात सुनकर परी त्को बड़ी स ता ई और उ ह ने
व नाभ तथा ीकृ णप नय को उसी समय साथ ले उस थानपर प ँचकर त काल वह
सब काय आर भ करवा दया, जो क यमुनाजीने बताया था ।।२९।।
गोवधनके नकट वृ दावनके भीतर कुसुम-सरोवरपर जो स खय क वहार थली है, वहाँ
ही ीकृ णक तनका उ सव आर भ आ ।।३०।। वृषभानु-न दनी ीराधाजी तथा उनके
यतम ीकृ णक वह लीलाभू म जब सा ात् संक तनक शोभासे स प हो गयी, उस
समय वहाँ रहनेवाले सभी भ जन एका हो गये; उनक , उनके मनक वृ कह
अ य न जाती थी ।।३१।।

ततः प य सु सवषु तृणगु मलताचयात् ।


आजगामो वः वी यामः पीता बरावृतः ।।३२

गुंजामालाधरो गायन् व लवीव लभं मु ः ।


तदागमनतो रेजे भृशं संक तनो सवः ।।३३

च कागमतो य त् फा टका ालभूम णः ।


अथ सव सुखा भोधौ म नाः सव वस म ः ।।३४

णेनागत व ाना ् वा ीकृ ण पणम् ।


उ वं पूजयांच ु ः तल धमनोरथाः ।।३५
तदन तर सबके दे खते-दे खते वहाँ फैले ए तृण, गु म और लता के समूहसे कट
होकर ीउ वजी सबके सामने आये। उनका शरीर याम-वण था, उसपर पीता बर शोभा
पा रहा था। वे गलेम वनमाला और गुंजाक माला धारण कये ए थे तथा मुखसे बारंबार
गोपीव लभ ीकृ णक मधुर लीला का गान कर रहे थे। उ वजीके आगमनसे उस
संक तनो सवक शोभा कई गुनी बढ़ गयी। जैसे फ टकम णक बनी ई अ ा लकाक
छतपर चाँदनी छटकनेसे उसक शोभा ब त बढ़ जाती है। उस समय सभी लोग आन दके
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समु म नम न हो अपना सब कुछ भूल गये, सुध-बुध खो बैठे ।।३२-३४।।
थोड़ी दे र बाद जब उनक चेतना द लोकसे नीचे आयी, अथात् जब उ ह होश आ
तब उ वजीको भगवान् ीकृ णके व पम उप थत दे ख, अपना मनोरथ पूण हो जानेके
कारण स हो, वे उनक पूजा करने लगे ।।३५।।
इ त ी का दे महापुराण एकाशी तसाह यां सं हतायां तीये वै णवख डे
ीम ागवतमाहा ये गोवधनपवतसमीपे परी दाद नामु व-दशनवणनं नाम
तीयोऽ यायः ।।२।।

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अथ तृतीयोऽ यायः
ीम ागवतक पर परा और उसका माहा य, भागवत वणसे
ोता को भगव ामक ा त
सूत उवाच
अथो व तु तान् ् वा कृ णक तनत परान् ।
स कृ याथ प र व य परी तमुवाच ह ।।१
उ व उवाच
ध योऽ स राजन् कृ णैकभ या पूण ऽ स न यदा ।
य वं नम न च ोऽ स कृ णसंक तनो सवे ।।२
सूतजी कहते ह—उ वजीने वहाँ एक ए सब लोग को ीकृ णक तनम लगा
दे खकर सभीका स कार कया और राजा परी त्को दयसे लगाकर कहा ।।१।।
उ वजीने कहा—राजन्! तुम ध य हो, एक-मा ीकृ णक भ से ही पूण हो!
य क ीकृ ण-संक तनके महो सवम तु हारा दय इस कार नम न हो रहा है ।।२।।

कृ णप नीषु व े च द ा ी तः व तता ।
तवो चत मदं तात कृ णद ांगवैभव ।।३

ारका थेषु सवषु ध या एते न संशयः ।


येषां ज नवासाय पाथमा द वान् भुः ।।४

ीकृ ण य मन ो राधा य भया वतः ।


त हारवनं गो भम डयन् रोचते सदा ।।५

कृ णच ः सदा पूण त य षोडश याः कलाः ।


च सह भा भ ा अ ा ते त व पता ।।६

एवं व तु राजे प भयभंजकः ।


ीकृ णद णे पादे थानमेत य वतते ।।७

अवतारेऽ कृ णेन योगमाया तभा वताः ।


तद्बलेना म व मृ या सीद येते न संशयः ।।८

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ऋते कृ ण काशं तु वा मबोधो न क य चत् ।
त काश तु जीवानां मायया प हतः सदा ।।९

अ ा वशे ापरा ते वयमेव यदा ह रः ।


उ सारये जां मायां त काशो भवे दा ।।१०
बड़े सौभा यक बात है क ीकृ णक प नय के त तु हारी भ और व नाभपर
तु हारा ेम है। तात! तुम जो कुछ कर रहे हो, सब तु हारे अनु प ही है। य न हो,
ीकृ णने ही तु ह शरीर और वैभव दान कया है; अतः तु हारा उनके पौ पर ेम होना
वाभा वक ही है ।।३।। इसम त नक भी स दे ह नह क सम त ारकावा सय म ये लोग
सबसे बढ़कर ध य ह, ज ह जम नवास करानेके लये भगवान् ीकृ णने अजुनको आ ा
क थी ।।४।। ीकृ णका मन पी च मा राधाके मुखक भा प चाँदनीसे यु हो उनक
लीलाभू म वृ दावनको अपनी करण से सुशो भत करता आ यहाँ सदा काशमान रहता
है ।।५।। ीकृ णच न य प रपूण ह, ाकृत च माक भाँ त उनम वृ और य प
वकार नह होते। उनक जो सोलह कलाएँ ह, उनसे सह च मय करण नकलती रहती
ह; इससे उनके सह भेद हो जाते ह। इन सभी कला से यु , न य प रपूण ीकृ ण इस
जभू मम सदा ही व मान रहते ह; इस भू मम और उनके व पम कुछ अ तर नह
है ।।६।। राजे परी त्! इस कार वचार करनेपर सभी जवासी भगवान्के अंगम थत
ह। शरणागत का भय र करनेवाले जो ये व ह, इनका थान ीकृ णके दा हने चरणम
है ।।७।। इस अवतारम भगवान् ीकृ णने इन सबको अपनी योगमायासे अ भभूत कर लया
है, उसीके भावसे ये अपने व पको भूल गये ह और इसी कारण सदा ःखी रहते ह। यह
बात न स दे ह ऐसी ही है ।।८।। ीकृ णका काश ा त ए बना कसीको भी अपने
व पका बोध नह हो सकता। जीव के अ तःकरणम जो ीकृ णत वका काश है, उसपर
सदा मायाका पदा पड़ा रहता है ।।९।। अट् ठाईसव ापरके अ तम जब भगवान् ीकृ ण
वयं ही सामने कट होकर अपनी मायाका पदा उठा लेते ह, उस समय जीव को उनका
काश ा त होता है ।।१०।। क तु अब वह समय तो बीत गया; इस लये उनके काशक
ा तके लये अब सरा उपाय बतलाया जा रहा है, सुनो। अट् ठाईसव ापरके अ त र
समयम य द कोई ीकृ णत वका काश पाना चाहे तो उसे वह ीम ागवतसे ही ा त हो
सकता है ।।११।।

स तु कालो त ा त तेनेदमपरं शृणु ।


अ यदा त काश तु ीम ागवताद् भवेत् ।।११

ीम ागवतं शा ं य भागवतैयदा ।
क यते ूयते चा प ीकृ ण त न तम् ।।१२

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ीम ागवतं य ोकं ोका मेव च ।
त ा प भगवान् कृ णो ब लवी भ वराजते ।।१३

भारते मानवं ज म ा य भागवतं न यैः ।


ुतं पापपराधीनैरा मघात तु तैः कृतः ।।१४

ीम ागवतं शा ं न यं यैः प रसे वतम् ।


पतुमातु भायायाः कुलपङ् ः सुता रता ।।१५

व ा काशो व ाणां रा ां श ुजयो वशाम् ।


धनं वा यं च शू ाणां ीम ागवताद् भवेत् ।।१६

यो षतामपरेषां च सववां छतपूरणम् ।


अतो भागवतं न यं को न सेवेत भा यवान् ।।१७

अनेकज मसं स ः ीम ागवतं लभेत् ।


काशो भगव े व त जायते ।।१८

सां यायन सादा तं ीम ागवतं पुरा ।


बृह प तद वान् मे तेनाहं कृ णव लभः ।।१९
भगवान्के भ जहाँ जब कभी ीम ागवत शा का क तन और वण करते ह, वहाँ
उस समय भगवान् ीकृ ण सा ात् पसे वराजमान रहते ह ।।१२।।
जहाँ ीम ागवतके एक या आधे ोकका ही पाठ होता है, वहाँ भी ीकृ ण अपनी
यतमा गो पय के साथ व मान रहते ह ।।१३।।
इस प व भारतवषम मनु यका ज म पाकर भी जन लोग ने पापके अधीन होकर
ीम ागवत नह सुना, उ ह ने मानो अपने ही हाथ अपनी ह या कर ली ।।१४।।
जन बड़भा गय ने त दन ीम ागवत शा का सेवन कया है, उ ह ने अपने पता,
माता और प नी—तीन के ही कुलका भलीभाँ त उ ार कर दया ।।१५।।
ीम ागवतके वा याय और वणसे ा ण को व ाका काश (बोध) ा त होता है,
यलोग श ु पर वजय पाते ह, वै य को धन मलता है और शू व थ—नीरोग बने
रहते ह ।।१६।।
य तथा अ यज आ द अ य लोग क भी इ छा ीम ागवतसे पूण होती है; अतः
कौन ऐसा भा यवान् पु ष है, जो ीम ागवतका न य ही सेवन न करेगा ।।१७।।
अनेक ज म तक साधना करते-करते जब मनु य पूण स हो जाता है, तब उसे
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ीम ागवतक ा त होती है। भागवतसे भगवान्का काश मलता है, जससे भगव
उ प होती है ।।१८।।
पूवकालम सां यायनक कृपासे ीम ागवत बृह प तजीको मला और बृह प तजीने
मुझे दया; इसीसे म ीकृ णका यतम सखा हो सका ँ ।।१९।।

आ या यकां च तेनो ां व णुरात नबोध ताम् ।


ायते स दायोऽ प य भागवत ुतेः ।।२०
बृह प त वाच
ई ांच े यदा कृ णो मायापु ष पधृक् ।
ा व णुः शव ा प रजःस वतमोगुणैः ।।२१

पु षा य उ थुर धकारां तदा दशत् ।


उ प ौ पालने चैव संहारे मेण तान् ।।२२

ा तु ना भकमला प तं ज पत् ।
ोवाच
नारायणा दपु ष परमा मन् नमोऽ तु ते ।।२३

वया सग नयु ोऽ म पापीयान् मां रजोगुणः ।


व मृतौ नैव बाधेत तथैव कृपया भो ।।२४
बृह प त वाच
यदा तु भगवां त मै ीम ागवतं पुरा ।
उप द या वीद् न् सेव वैनत् व स ये ।।२५

ा तु परम ीत तेन कृ णा तयेऽ नशम् ।


स तावरणभंगाय स ताहं समवतयत् ।।२६

ीभागवतस ताहसेवना तमनोरथः ।


सृ वतनुते न यं सस ताहः पुनः पुनः ।।२७
परी त्! बृह प तजीने मुझे एक आ या यका भी सुनायी थी, उसे तुम सुनो। इस
आ या यकासे ीम ागवत वणके स दायका म भी जाना जा सकता है ।।२०।।
बृह प तजीने कहा था—अपनी मायासे पु ष प धारण करनेवाले भगवान् ीकृ णने
जब सृ के लये संक प कया, तब उनके द व हसे तीन पु ष कट ए। इनम
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रजोगुणक धानतासे ा, स वगुणक धानतासे व णु और तमोगुणक धानतासे
कट ए। भगवान्ने इन तीन को मशः जगत्क उ प , पालन और संहार करनेका
अ धकार दान कया ।।२१-२२।। तब भगवान्के ना भ-कमलसे उ प ए ाजीने उनसे
अपना मनोभाव य कट कया।
ाजीने कहा—परमा मन्! आप नार अथात् जलम शयन करनेके कारण ‘नारायण’
नामसे स ह, सबके आ द कारण होनेसे आ दपु ष ह; आपको नम कार है ।।२३।।
भो! आपने मुझे सृ कमम लगाया है, मगर मुझे भय है क सृ कालम अ य त पापा मा
रजोगुण आपक मृ तम कह बाधा न डालने लग जाय। अतः कृपा करके ऐसी कोई बात
बताय, जससे आपक याद बराबर बनी रहे ।।२४।।
बृह प तजी कहते ह—जब ाजीने ऐसी ाथना क , तब पूवकालम भगवान्ने उ ह
ीम ागवतका उपदे श दे कर कहा—‘ न्! तुम अपने मनोरथक स के लये सदा ही
इसका सेवन करते रहो’ ।।२५।।
ाजी ीम ागवतका उपदे श पाकर बड़े स ए और उ ह ने ीकृ णक न य
ा तके लये तथा सात आवरण का भंग करनेके लये ीम ागवतका स ताहपारायण
कया ।।२६।।
स ताहय क व धसे सात दन तक ीम ागवतका सेवन करनेसे ाजीके सभी
मनोरथ पूण हो गये। इससे वे सदा भगव मरणपूवक सृ का व तार करते और बारंबार
स ताहय का अनु ान करते रहते ह ।।२७।।

व णुर यथयामास पुमांसं वाथ स ये ।


जानां पालने पुंसा यदनेना प क पतः ।।२८
व णु वाच
जानां पालनं दे व क र या म यथो चतम् ।
वृ या च नवृ या च कम ान योजनात् ।।२९

यदा यदै व कालेन धम ला नभ व य त ।


धम सं थाप य या म वतारै तदा तदा ।।३०

भोगा थ य तु य ा दफलं दा या म न तम् ।


मो ा थ यो वर े यो मु प च वधां तथा ।।३१

येऽ प मो ं न वा छ त तान् कथं पालया यहम् ।


आ मानं च यं चा प पालया म कथं वद ।।३२

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त मा अ प पुमाना ः ीभागवतमा दशत् ।
उवाच च पठ वैन व सवाथ स ये ।।३३

ततो व णुः स ा मा परमाथकपालने ।


समथ ऽभू या मा स मा स भागवतं मरन् ।।३४

यदा व णुः वयं व ा ल मी वणे रता ।


तदा भागवत ावो मासेनैव पुनः पुनः ।।३५

यदा ल मीः वयं व ी व णु वणे रतः ।


मास यं रसा वाद तदातीव सुशोभते ।।३६
ाजीक ही भाँ त व णुने भी अपने अभी अथक स के लये उन परमपु ष
परमा मासे ाथना क ; य क उन पु षो मने व णुको भी जा-पालन प कमम नयु
कया था ।।२८।।
व णुने कहा—दे व! म आपक आ ाके अनुसार कम और ानके उ े यसे वृ और
नवृ के ारा यथो चत पसे जा का पालन क ँ गा ।।२९।। काल मसे जब-जब
धमक हा न होगी, तब-तब अनेक अवतार धारण कर पुनः धमक थापना क ँ गा ।।३०।।
जो भोग क इ छा रखनेवाले ह, उ ह अव य ही उनके कये ए य ा द कम का फल अपण
क ँ गा; तथा जो संसारब धनसे मु होना चाहते ह, वर ह, उ ह उनके इ छानुसार पाँच
कारक मु भी दे ता र ँगा ।।३१।। पर तु जो लोग मो भी नह चाहते, उनका पालन म
कैसे क ँ गा—यह बात समझम नह आती। इसके अ त र म अपनी तथा ल मीजीक भी
र ा कैसे कर सकूँगा, इसका उपाय भी बताइये ।।३२।।
व णुक यह ाथना सुनकर आ दपु ष ीकृ णने उ ह भी ीम ागवतका उपदे श
कया और कहा—‘तुम अपने मनोरथक स के लये इस ीम ागवत-शा का सदा पाठ
कया करो’ ।।३३।। उस उपदे शसे व णुभगवान्का च स हो गया और वे ल मीजीके
साथ येक मासम ीम ागवतका च तन करने लगे। इससे वे परमाथका पालन और
यथाथ पसे संसारक र ा करनेम समथ ए ।।३४।।
जब भगवान् व णु वयं व ा होते ह और ल मीजी ेमसे वण करती ह, उस समय
येक बार भागवतकथाका वण एक मासम ही समा त होता है ।।३५।।
क तु जब ल मीजी वयं व ा होती ह और व णु ोता बनकर सुनते ह, तब
भागवतकथाका रसा वादन दो मासतक होता रहता है; उस समय कथा बड़ी सु दर, ब त ही
चकर होती है ।।३६।।

अ धकारे थतो व णुल मी न तमानसा ।

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तेन भागवता वाद त या भू र काशते ।।३७

अथ ोऽ प तं दे वं संहारा धकृतः पुरा ।


पुमांसं ाथयामास वसाम य ववृ ये ।।३८
उवाच
न ये नै म के चैव संहारे ाकृते तथा ।
श यो मम व ते दे वदे व मम भो ।।३९

आ य तके तु संहारे मम श न व ते ।
महद् ःखं ममैत ु तेन वां ाथया यहम् ।।४०
बृह प त वाच
ीम ागवतं त मा अ प नारायणो ददौ ।
स तु संसेवनाद य ज ये चा प तमोगुणम् ।।४१

कथा भागवती तेन से वता वषमा तः ।


लये वा य तके तेनावाप श सदा शवः ।।४२
उ व उवाच
ीभागवतमाहा य इमामा या यकां गुरोः ।
ु वा भागवतं ल वा मुमुदेऽहं ण य तम् ।।४३

तत तु वै णव री त गृही वा मासमा तः ।
ीम ागवता वादो मया स यङ् नषे वतः ।।४४

तावतैव बभूवाहं कृ ण य द यतः सखा ।


कृ णेनाथ नयु ोऽहं जे व ेयसीगणे ।।४५

वरहा ासु गोपीषु वयं न य वहा रणा ।


ीभागवतस दे शो म मुखेन यो जतः ।।४६
इसका कारण यह है क व णु तो अ धकारा ढ ह, उ ह जगत्के पालनक च ता करनी
पड़ती है; पर ल मीजी इन झंझट से अलग ह, अतः उनका दय न त है। इसीसे
ल मीजीके मुखसे भागवतकथाका रसा वादन अ धक का शत होता है। इसके प ात् ने
भी, ज ह भगवान्ने पहले संहारकायम लगाया था, अपनी साम यक वृ के लये उन
परमपु ष भगवान् ीकृ णसे ाथना क ।।३७-३८।।
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ने कहा—मेरे भु दे वदे व! मुझम न य, नै म क और ाकृत संहारक श याँ तो
ह, पर आ य तक संहारक श बलकुल नह है। यह मेरे लये बड़े ःखक बात है। इसी
कमीक पू तके लये म आपसे ाथना करता ँ ।।३९-४०।।
बृह प तजी कहते ह— क ाथना सुनकर नारायणने उ ह भी ीम ागवतका ही
उपदे श कया। सदा शव ने एक वषम एक पारायणके मसे भागवतकथाका सेवन
कया। इसके सेवनसे उ ह ने तमोगुणपर वजय पायी और आ य तक संहार (मो ) क
श भी ा त कर ली ।।४१-४२।।
उ वजी कहते ह— ीम ागवतके माहा यके स ब धम यह आ या यका मने अपने
गु ीबृह प तजीसे सुनी और उनसे भागवतका उपदे श ा त कर उनके चरण म णाम
करके म ब त ही आन दत आ ।।४३।। त प ात् भगवान् व णुक री त वीकार करके
मने भी एक मासतक ीम ागवतकथाका भलीभाँ त रसा वादन कया ।।४४।। उतनेसे ही
म भगवान् ीकृ णका यतम सखा हो गया। इसके प ात् भगवान्ने मुझे जम अपनी
यतमा गो पय क सेवाम नयु कया ।।४५।। य प भगवान् अपने लीलाप रकर के
साथ न य वहार करते रहते ह, इस लये गो पय का ीकृ णसे कभी भी वयोग नह होता;
तथा प जो मसे वरहवेदनाका अनुभव कर रही थ , उन गो पय के त भगवान्ने मेरे
मुखसे भागवतका स दे श कहलाया ।।४६।।

तं यथाम त ल वा ता आसन् वरहव जताः ।


ना ा सषं रह यं त चम कार तु लो कतः ।।४७

ववासं ा य कृ णं च ा ेषु गतेषु मे ।


ीम ागवते कृ ण त ह यं वयं ददौ ।।४८

पुरतोऽ थमूल य चकार म य तद् ढम् ।


तेना जव लीषु वसा म बदर गतः ।।४९

त मा ारदकु डेऽ त ा म वे छया सदा ।


कृ ण काशो भ ानां ीम ागवताद् भवेत् ।।५०

तदे षाम प कायाथ ीम ागवतं वहम् ।


व या म सहायोऽ वयैवानु तो भवेत् ।।५१
सूत उवाच
व णुरात तु ु वा त वं णतोऽ वीत् ।
परी वाच
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ह रदास वया काय ीभागवतक तनम् ।।५२
आ ा योऽहं यथा कायः सहायोऽ मया तथा ।
सूत उवाच
ु वैत वो वा यमुवाच ीतमानसः ।।५३
उ व उवाच
ीकृ णेन प र य े भूतले बलवान् क लः ।
क र य त परं व नं स काय समुप थते ।।५४
उस स दे शको अपनी बु के अनुसार हण कर गो पयाँ तुर त ही वरहवेदनासे मु हो
गय । म भागवतके इस रह यको तो नह समझ सका, क तु मने उसका चम कार य
दे खा ।।४७।।
इसके ब त समयके बाद जब ा द दे वता आकर भगवान्से अपने परमधामम
पधारनेक ाथना करके चले गये, उस समय पीपलके वृ क जड़के पास अपने सामने खड़े
ए मुझे भगवान्ने ीम ागवत- वषयक उस रह यका वयं ही उपदे श कया और मेरी
बु म उसका ढ़ न य करा दया। उसीके भावसे म बद रका मम रहकर भी यहाँ
जक लता और बेल म नवास करता ँ ।।४८-४९।।
उसीके बलसे यहाँ नारदकु डपर सदा वे छानुसार वराजमान रहता ँ। भगवान्के
भ को ीम ागवतके सेवनसे ीकृ णत वका काश ा त हो सकता है ।।५०।।
इस कारण यहाँ उप थत ए इन सभी भ जन के कायक स के लये म
ीम ागवतका पाठ क ँ गा; क तु इस कायम तु ह ही सहायता करनी पड़ेगी ।।५१।।
सूतजी कहते ह—यह सुनकर राजा परी त् उ वजीको णाम करके उनसे बोले।
परी त्ने कहा—ह रदास उ वजी! आप न त होकर ीम ागवतकथाका क तन
कर ।।५२।। इस कायम मुझे जस कारक सहायता करनी आव यक हो, उसके लये आ ा
द।
सूतजी कहते ह—परी त्का यह वचन सुनकर उ वजी मन-ही-मन ब त स ए
और बोले ।।५३।।
उ वजीने कहा—राजन्! भगवान् ीकृ णने जबसे इस पृ वीतलका प र याग कर
दया है, तबसे यहाँ अ य त बलवान् क लयुगका भु व हो गया है। जस समय यह शुभ
अनु ान यहाँ आर भ हो जायगा, बलवान् क लयुग अव य ही इसम ब त बड़ा व न
डालेगा ।।५४।।

त माद् द वजयं या ह क ल न हमाचर ।


अहं तु मासमा ेण वै णव री तमा थतः ।।५५

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ीम ागवता वादं चाय व सहायतः ।
एतान् स ाप य या म न यधा न मधु षः ।।५६
सूत उवाच
ु वैवं त चो राजा मु दत तयाऽऽतुरः ।
तदा व ापयामास वा भ ायं तमु वम् ।।५७
परी वाच
क ल तु न ही या म तात ते वच स थतः ।
ीभागवतस ा तः कथं मम भ व य त ।।५८

अहं तु समनु ा तव पादतले तः ।


सूत उवाच
ु वैतद् वचनं भूयोऽ यु व तमुवाच ह ।।५९
उ व उवाच
राजं ता तु ते का प नैव काया कथंचन ।
तवैव भगव छा े यतो मु या धका रता ।।६०

एताव कालपय तं ायो भागवत ुतेः ।


वाताम प न जान त मनु याः कमत पराः ।।६१

व सादे न बहवो मनु या भारता जरे ।


ीम ागवत ा तौ सुखं ा य त शा तम् ।।६२

न दन दन प तु ीशुको भगवानृ षः ।
ीम ागवतं तु यं ाव य य यसंशयम् ।।६३
इस लये तुम द वजयके लये जाओ और क लयुगको जीतकर अपने वशम करो। इधर
म तु हारी सहायतासे वै णवी री तका सहारा लेकर एक महीनेतक यहाँ ीम ागवतकथाका
रसा वादन कराऊँगा और इस कार भागवतकथाके रसका सार करके इन सभी
ोता को भगवान् मधुसूदनके न य गोलोकधामम प ँचाऊँगा ।।५५-५६।।
सूतजी कहते ह—उ वजीक बात सुनकर राजा परी त् पहले तो क लयुगपर वजय
पानेके वचारसे बड़े ही स ए; पर तु पीछे यह सोचकर क मुझे भागवतकथाके वणसे
वं चत ही रहना पड़ेगा, च तासे ाकुल हो उठे । उस समय उ ह ने उ वजीसे अपना
अ भ ाय इस कार कट कया ।।५७।।
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राजा परी त्ने कहा—हे तात! आपक आ ाके अनुसार त पर होकर म क लयुगको
तो अव य ही अपने वशम क ँ गा, मगर ीम ागवतक ा त मुझे कैसे होगी ।।५८।।
म भी आपके चरण क शरणम आया ,ँ अतः मुझपर भी आपको अनु ह करना
चा हये।
सूतजी कहते ह—उनके इस वचनको सुनकर उ वजी पुनः बोले ।।५९।।
उ वजीने कहा—राजन्! तु ह तो कसी भी बातके लये कसी कार भी च ता नह
करनी चा हये; य क इस भागवतशा के धान अ धकारी तो तु ह हो ।।६०।। संसारके
मनु य नाना कारके कम म रचे-पचे ए ह, ये लोग आजतक ायः भागवत- वणक बात
भी नह जानते ।।६१।। तु हारे ही सादसे इस भारतवषम रहनेवाले अ धकांश मनु य
ीम ागवतकथाक ा त होनेपर शा त सुख ा त करगे ।।६२।। मह ष भगवान्
ीशुकदे वजी सा ात् न दन दन ीकृ णके व प ह, वे ही तु ह ीम ागवतक कथा
सुनायगे; इसम त नक भी स दे हक बात नह है ।।६३।।

तेन ा य स राजं वं न यं धाम जे शतुः ।


ीभागवतसंचार ततो भु व भ व य त ।।६४

त मा वं ग छ राजे क ल न हमाचर ।
सूत उवाच
इ यु तं प र य गतो राजा दशां जये ।।६५

व तु नजरा येशं तबा ं वधाय च ।


त ैव मातृ भः साकं त थौ भागवताशया ।।६६

अथ वृ दावने मासं गोवधनसमीपतः ।


ीम ागवता वाद तू वेन व ततः ।।६७

त म ा वा माने तु स चदान द पणी ।


चकाशे हरेल ला सवतः कृ ण एव च ।।६८

आ मानं च तद तः थं सवऽ प द शु तदा ।


व तु द णे ् वा कृ णपादसरो हे ।।६९

वा मानं कृ णवैधुया मु त शोभत ।


ता त मातरः कृ णे रासरा का श न ।।७०

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च े कला भा पमा मानं वी य व मताः ।
व े वरह ा ध वमु ाः वपदं ययुः ।।७१

येऽ ये च त ते सव न यलीला तरं गताः ।


ावहा रकलोके यः स ोऽदशनमागताः ।।७२

गोवधन नकुंजेषु गोषु वृ दावना दषु ।


न यं कृ णेन मोद ते य ते ेमत परैः ।।७३
राजन्! उस कथाके वणसे तुम जे र ीकृ णके न यधामको ा त करोगे। इसके
प ात् इस पृ वीपर ीम ागवत-कथाका चार होगा ।।६४।। अतः राजे परी त्! तुम
जाओ और क लयुगको जीतकर अपने वशम करो।
सूतजी कहते ह—उ वजीके इस कार कहनेपर राजा परी त्ने उनक प र मा
करके उ ह णाम कया और द वजयके लये चले गये ।।६५।। इधर व ने भी अपने पु
तबा को अपनी राजधानी मथुराका राजा बना दया और माता को साथ ले उसी
थानपर, जहाँ उ वजी कट ए थे, जाकर ीम ागवत सुननेक इ छासे रहने
लगे ।।६६।। तदन तर उ वजीने वृ दावनम गोवधनपवतके नकट एक महीनेतक
ीम ागवत-कथाके रसक धारा बहायी ।।६७।। उस रसका आ वादन करते समय ेमी
ोता क म सब ओर भगवान्क स चदान दमयी लीला का शत हो गयी और सव
ीकृ णच का सा ा कार होने लगा ।।६८।। उस समय सभी ोता ने अपनेको
भगवान्के व पम थत दे खा। व नाभने ीकृ णके दा हने चरणकमलम अपनेको थत
दे खा और ीकृ णके वरहशोकसे मु होकर उस थानपर अ य त सुशो भत होने लगे।
व नाभक वे रो हणी आ द माताएँ भी रासक रजनीम का शत होनेवाले ीकृ ण पी
च माके व हम अपनेको कला और भाके पम थत दे ख ब त ही व मत तथा
अपने ाण यारेक वरह-वेदनासे छु टकारा पाकर उनके परमधामम व हो
गय ।।६९-७१।।
इनके अ त र भी जो ोतागण वहाँ उप थत थे वे भी भगवान्क न य
अ तरंगलीलाम स म लत होकर इस थूल ावहा रक जगत्से त काल अ तधान हो
गये ।।७२।। वे सभी सदा ही गोवधन-पवतके कुंज और झा ड़य म, वृ दावन-का यवन आ द
वन म तथा वहाँक द गौ के बीचम ीकृ णके साथ वचरते ए अन त आन दका
अनुभव करते रहते ह। जो लोग ीकृ णके ेमम म न ह, उन भावुक भ को उनके दशन
भी होते ह ।।७३।।
सूत उवाच
य एतां भगव ा तं शृणुया चा प क तयेत् ।
त य वै भगव ा त ःखहा न जायते ।।७४
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सूतजी कहते ह—जो लोग इस भगव ा तक कथाको सुनगे और कहगे, उ ह
भगवान् मल जायँगे और उनके ःख का सदाके लये अ त हो जायगा ।।७४।।
इ त ी का दे महापुराण एकाशी तसाह यां सं हतायां तीये वै णवख डे
परी वसंवादे ीम ागवतमाहा ये तृतीयोऽ यायः ।।३।।

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अथ चतुथ ऽ यायः
ीम ागवतका व प, माण, ोता-व ाके ल ण, वण व ध और
माहा य
ऋषय ऊचुः
साधु सूत चरं जीव चरमेवं शा ध नः ।
ीभागवतमाहा यमपूव व मुखा छतम् ।।१

त व पं माणं च व ध च वणे वद ।
त ु ल णं सूत ोतु ा प वदाधुना ।।२
सूत उवाच
ीम ागवत याथ ीम गवतः सदा ।
व पमेकमेवा त स चदान दल णम् ।।३

ीकृ णास भ ानां त माधुय काशकम् ।


समु जृ भ त य ा यं व भागवतं ह तत् ।।४

ान व ानभ य चतु यपरं वचः ।


मायामदनद ं च व भागवतं च तत् ।।५

माणं त य को वेद न त या रा मनः ।


णे ह रणा त क् चतुः ो या द शता ।।६
शौनका द ऋ षय ने कहा—सूतजी! आपने हमलोग को ब त अ छ बात बतायी।
आपक आयु बढ़े , आप चरजीवी ह और चरकालतक हम इसी कार उपदे श करते रह।
आज हमलोग ने आपके मुखसे ीम ागवतका अपूव माहा य सुना है ।।१।।
सूतजी! अब इस समय आप हम यह बताइये क ीम ागवतका व प या है?
उसका माण—उसक ोकसं या कतनी है? कस व धसे उसका वण करना चा हये?
तथा ीम ागवतके व ा और ोताके या ल ण ह? अ भ ाय यह क उसके व ा और
ोता कैसे होने चा हये ।।२।।
सूतजी कहते ह—ऋ षगण! ीम ागवत और ीभगवान्का व प सदा एक ही है
और वह है स चदान दमय ।।३।।
भगवान् ीकृ णम जनक लगन लगी है उन भावुक भ के दयम जो भगवान्के

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माधुय भावको अ भ करनेवाला, उनके द माधुयरसका आ वादन करानेवाला
सव कृ वचन है, उसे ीम ागवत समझो ।।४।।
जो वा य ान, व ान, भ एवं इनके अंगभूत साधनचतु यको का शत करनेवाला
है तथा जो मायाका मदन करनेम समथ है, उसे भी तुम ीम ागवत समझो ।।५।।
ीम ागवत अन त, अ र व प है; इसका नयत माण भला कौन जान सकता है?
पूवकालम भगवान् व णुने ाजीके त चार ोक म इसका द दशनमा कराया
था ।।६।।

तदान यावगाहेन वे सतावहन माः ।


त एव स त भो व ा व णु शवादयः ।।७

मतबु ा दवृ ीनां मनु याणां हताय च ।


परी छु कसंवादो योऽसौ ासेन क ततः ।।८

थोऽ ादशसाह ो योऽसौ भागवता भधः ।


क ल हगृहीतानां स एव परमा यः ।।९

ोतारोऽथ न य ते ीम णुकथा याः ।


वरा अवरा े त ोतारो वधा मताः ।।१०

वरा ातको हंसः शुको मीनादय तथा ।


अवरा वृकभू डवृषो ा ाः क तताः ।।११

अ खलोपे या य तु कृ णशा ुतौ ती ।


स चातको यथा भोदमु े पाथ स चातकः ।।१२

हंसः यात् सारमाद े यः ोता व वधा छतात् ।


धेनै यं गता ोयाद् यथा हंसोऽमलं पयः ।।१३

शुकः सु ु मतं व ासं ोतॄं हषयन् ।


सुपा ठतः शुको य छ कं पा गान प ।।१४
व गण! इस भागवतक अपार गहराईम डु बक लगाकर इसमसे अपनी अभी व तुको
ा त करनेम केवल ा, व णु और शव आ द ही समथ ह; सरे नह ।।७।। पर तु
जनक बु आ द वृ याँ प र मत ह, ऐसे मनु य का हतसाधन करनेके लये ी ासजीने
परी त् और शुकदे वजीके संवादके पम जसका गान कया है, उसीका नाम ीम ागवत
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है। उस थक ोक-सं या अठारह हजार है। इस भवसागरम जो ाणी क ल पी ाहसे
त हो रहे ह, उनके लये वह ीम ागवत ही सव म सहारा है ।।८-९।।
अब भगवान् ीकृ णक कथाका आ य लेनेवाले ोता का वणन करते ह। ोता दो
कारके माने गये ह— वर (उ म) तथा अवर (अधम) ।।१०।।
वर ोता के ‘चातक’, ‘हंस’, ‘शुक’ और ‘मीन’ आ द कई भेद ह। अवरके भी
‘वृक’, ‘भू ड’, ‘वृष’ और ‘उ ’ आ द अनेक भेद बतलाये गये ह ।।११।।
‘चातक’ कहते ह पपीहेको। वह जैसे बादलसे बरसते ए जलम ही पृहा रखता है, सरे
जलको छू ता ही नह —उसी कार जो ोता सब कुछ छोड़कर केवल ीकृ णस ब धी
शा के वणका त ले लेता है, वह ‘चातक’ कहा गया है ।।१२।।
जैसे हंस धके साथ मलकर एक ए जलसे नमल ध हण कर लेता और पानीको
छोड़ दे ता है, उसी कार जो ोता अनेक शा का वण करके भी उसमसे सारभाग
अलग करके हण करता है, उसे ‘हंस’ कहते ह ।।१३।।
जस कार भलीभाँ त पढ़ाया आ तोता अपनी मधुर वाणीसे श कको तथा पास
आनेवाले सरे लोग को भी स करता है, उसी कार जो ोता कथावाचक ासके मुँहसे
उपदे श सुनकर उसे सु दर और प र मत वाणीम पुनः सुना दे ता और ास एवं अ या य
ोता को अ य त आन दत करता है, वह ‘शुक’ कहलाता है ।।१४।।

श दं ना न मषो जातु करो या वादयन् रसम् ।


ोता न धो भवे मीनो मीनः ीर नधौ यथा ।।१५

य तुदन् र सका ोतॄन् वरौ य ो वृको ह सः ।


वेणु वनरसास ान् वृकोऽर ये मृगान् यथा ।।१६

भू डः श येद या छ वा न वयमाचरेत् ।
यथा हमवतः शृंगे भू डा यो वहंगमः ।।१७

सव तु मुपाद े सारासारा धधीवृषः ।


वा ा ां ख ल चा प न वशेषं यथा वृषः ।।१८

स उ ो मधुरं मु चन् वपरीते रमेत यः ।


यथा न बं चर यु ो ह वा म प तद्युतम् ।।१९

अ येऽ प बहवो भेदा योभृगखरादयः ।


व ेया त दाचारै त कृ तस भवैः ।।२०

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जैसे ीरसागरम मछली मौन रहकर अपलक आँख से दे खती ई सदा ध पान करती
रहती है, उसी कार जो कथा सुनते समय न नमेष नयन से दे खता आ मुँहसे कभी एक
श द भी नह नकालता और नर तर कथारसका ही आ वादन करता रहता है, वह ेमी
ोता ‘मीन’ कहा गया है ।।१५।।
(ये वर अथात् उ म ोता के भेद बताये गये ह, अब अवर यानी अधम ोता बताये
जाते ह।) ‘वृक’ कहते ह भे ड़येको। जैसे भे ड़या वनके भीतर वेणुक मीठ आवाज सुननेम
लगे ए मृग को डरानेवाली भयानक गजना करता है, वैसे ही जो मूख कथा वणके समय
र सक ोता को उ न करता आ बीच-बीचम जोर-जोरसे बोल उठता है, वह ‘वृक’
कहलाता है ।।१६।।
हमालयके शखरपर एक भू ड जा तका प ी होता है। वह कसीके श ा द वा य
सुनकर वैसा ही बोला करता है, क तु वयं उससे लाभ नह उठाता। इसी कार जो
उपदे शक बात सुनकर उसे सर को तो सखाये पर वयं आचरणम न लाये, ऐसे ोताको
‘भू ड’ कहते ह ।।१७।।
‘वृष’ कहते ह बैलको। उसके सामने मीठे -मीठे अंगूर हो या कड़वी खली, दोन को वह
एक-सा ही मानकर खाता है। उसी कार जो सुनी ई सभी बात हण करता है, पर सार
और असार व तुका वचार करनेम उसक बु अंधी—असमथ होती है, ऐसा ोता ‘वृष’
कहलाता है ।।१८।।
जस कार ऊँट माधुयगुणसे यु आमको भी छोड़कर केवल नीमक ही प ी चबाता
है, उसी कार जो भगवान्क मधुर कथाको छोड़कर उसके वप रत संसारी बात म रमता
रहता है, उसे ‘ऊँट’ कहते ह ।।१९।। ये कुछ थोड़े-से भेद यहाँ बताये गये। इनके अ त र
भी वर-अवर दोन कारके ोता के ‘ मर’ और ‘गदहा’ आ द ब त-से भेद ह,’ इन सब
भेद को उन-उन ोता के वाभा वक आचार- वहार से परखना चा हये ।।२०।।

यः थ वा भमुखं ण य व धव-
य ा यवादो हरे-
ल लाः ोतुमभी सतेऽ त नपुणो
न ोऽथ लृ तांज लः ।
श यो व सतोऽनु च तनपरः
ेऽनुर ः शु च-
न यं कृ णजन यो नग दतः
ोता स वै व ृ भः ।।२१

भगव म तरनपे ः सु दो द नेषु सानुक पो यः ।


ब धा बोधनचतुरो व ा स मा नतो मु न भः ।।२२

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अथ भारतभू थाने ीभागवतसेवने ।
व ध शृंणुत भो व ा येन यात् सुखस त तः ।।२३

राजसं सा वकं चा प तामसं नगुणं तथा ।


चतु वधं तु व ेयं ीभागवतसेवनम् ।।२४

स ताहं य वद् य ु स मं स वरं मुदा ।


से वतं राजसं त ु ब पूजा दशोभनम् ।।२५

मासेन ऋतुना वा प वणं वादसंयुतम् ।


सा वकं यदनायासं सम तान दवधनम् ।।२६

तामसं य ु वषण सालसं या युतम् ।


व मृ त मृ तसंयु ं सेवनं त च सौ यदम् ।।२७
जो व ाके सामने उ ह व धवत् णाम करके बैठे और अ य संसारी बात को छोड़कर
केवल ीभगवान्क लीला-कथा को ही सुननेक इ छा रखे, समझनेम अ य त कुशल हो,
न हो, हाथ जोड़े रहे, श यभावसे उपदे श हण करे और भीतर ा तथा व ास रखे;
इसके सवा, जो कुछ सुने उसका बराबर च तन करता रहे, जो बात समझम न आये, पूछे
और प व भावसे रहे तथा ीकृ णके भ पर सदा ही ेम रखता हो—ऐसे ही ोताको
व ा लोग उ म ोता कहते ह ।।२१।। अब व ाके ल ण बतलाते ह। जसका मन सदा
भगवान्म लगा रहे, जसे कसी भी व तुक अपे ा न हो, जो सबका सु द् और द न पर दया
करनेवाला हो तथा अनेक यु य से त वका बोध करा दे नेम चतुर हो, उसी व ाका
मु नलोग भी स मान करते ह ।।२२।।
व गण! अब म भारतवषक भू मपर ीम ागवत-कथाका सेवन करनेके लये जो
आव यक व ध है, उसे बतलाता ँ; आप सुन। इस व धके पालनसे ोताक सुख-
पर पराका व तार होता है ।।२३।। ीम ागवतका सेवन चार कारका है—सा वक,
राजस, तामस और नगुण ।।२४।। जसम य क भाँ त तैयारी क गयी हो, ब त-सी पूजा-
साम य के कारण जो अ य त शोभास प दखायी दे रहा हो और बड़े ही प र मसे ब त
उतावलीके साथ सात दन म ही जसक समा त क जाय, वह स तापूवक कया आ
ीम ागवतका सेवन ‘राजस’ है ।।२५।। एक या दो महीनेम धीरे-धीरे कथाके रसका
आ वादन करते ए बना प र मके जो वण होता है, वह पूण आन दको बढ़ानेवाला
‘सा वक’ सेवन कहलाता है ।।२६।। तामस सेवन वह है जो कभी भूलसे छोड़ दया जाय
और याद आनेपर फर आर भ कर दया जाय, इस कार एक वषतक आल य और
अ ाके साथ चलाया जाय। यह ‘तामस’ सेवन भी न करनेक अपे ा अ छा और सुख ही
दे नेवाला है ।।२७।।
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वषमास दनानां तु वमु य नयमा हम् ।
सवदा ेमभ यैव सेवनं नगुणं मतम् ।।२८

पारी तेऽ प संवादे नगुणं तत् क ततम् ।


त स त दना यानं तदायु दनसं यया ।।२९

अय गुणं चा प नगुणं च यथे छया ।


यथा कथं चत् कत ं सेवनं भगव छतेः ।।३०

ये ीकृ ण वहारैकभजना वादलोलुपाः ।


मु ाव प नराकां ा तेषां भागवतं धनम् ।।३१

येऽ प संसारस ताप न व णा मो कां णः ।


तेषां भवौषधं चैतत् कलौ से ं य नतः ।।३२

ये चा प वषयारामाः सांसा रकसुख पृहाः ।


तेषां तु कममागण या स ः साधुना कलौ ।।३३

साम यधन व ानाभावाद य त लभा ।


त मा ैर प संसे ा ीम ागवती कथा ।।३४

धनं पु ां तथा दारान् वाहना द यशो गृहान् ।


असाप यं च रा यं च द ाद् भागवती कथा ।।३५

इह लोके वरान् भु वा भोगान् वै मनसे सतान् ।


ीभागवतसंगेन या य ते ीहरेः पदम् ।।३६
जब वष, महीना और दन के नयमका आ ह छोड़कर सदा ही ेम और भ के साथ
वण कया जाय, तब वह सेवन ‘ नगुण’ माना गया है ।।२८।।
राजा परी त् और शुकदे वके संवादम भी जो भागवतका सेवन आ था, वह नगुण ही
बताया गया है। उसम जो सात दन क बात आती है, वह राजाक आयुके बचे ए दन क
सं याके अनुसार है, स ताह-कथाका नयम करनेके लये नह ।।२९।।
भारतवषके अ त र अ य थान म भी गुण (सा वक, राजस और तामस) अथवा
नगुण-सेवन अपनी चके अनुसार करना चा हये। ता पय यह क जस कसी कार भी हो
सके ीम ागवतका सेवन, उसका वण करना ही चा हये ।।३०।।
जो केवल ीकृ णक लीला के ही वण, क तन एवं रसा वादनके लये लाला यत
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रहते और मो क भी इ छा नह रखते, उनका तो ीम ागवत ही धन है ।।३१।।
तथा जो संसारके ःख से घबराकर अपनी मु चाहते ह, उनके लये भी यही इस
भवरोगक ओष ध है। अतः इस क लकालम इसका य नपूवक सेवन करना
चा हये ।।३२।।
इनके अ त र जो लोग वषय म ही रमण करनेवाले ह, सांसा रक सुख क ही ज ह
सदा चाह रहती है, उनके लये भी अब इस क लयुगम साम य, धन और व ध- वधानका
ान न होनेके कारण कममाग (य ा द) से मलनेवाली स अ य त लभ हो गयी है। ऐसी
दशाम उ ह भी सब कारसे अब इस भागवतकथाका ही सेवन करना चा हये ।।३३-३४।।
यह ीम ागवतक कथा धन, पु , ी, हाथी-घोड़े आ द वाहन, यश, मकान और
न क टक रा य भी दे सकती है ।।३५।।
सकाम भावसे भागवतका सहारा लेनेवाले मनु य इस संसारम मनोवां छत उ म
भोग को भोगकर अ तम ीम ागवतके ही संगसे ीह रके परमधामको ा त हो जाते
ह ।।३६।।

य भागवती वाता ये च त वणे रताः ।


तेषां संसेवनं कुयाद् दे हेन च धनेन च ।।३७

तदनु हतोऽ या प ीभागवतसेवनम् ।


ीकृ ण त र ं य त् सव धनसं तम् ।।३८

कृ णाथ त धनाथ त ोता व ा धा मतः ।


यथा व ा तथा ोता त सौ यं ववधते ।।३९

उभयोवपरी ये तु रसाभासे फल यु तः ।
क तु कृ णा थनां स वल बेना प जायते ।।४०

धना थन तु सं स व धस पूणतावशात् ।
कृ णा थनोऽगुण या प ेमैव व ध मः ।।४१

आसमा त सकामेन क ो ह व धः वयम् ।


नातो न य यां कृ वा ा य पादोदकं हरेः ।।४२

पु तकं च गु ं चैव पूज य वोपचारतः ।


ूयाद् वा शृणुयाद् वा प ीम ागवतं मुदा ।।४३

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पयसा वा ह व येण मौनं भोजनमाचरेत् ।
चयमधःसु तं ोधलोभा दवजनम् ।।४४
जनके यहाँ ीम ागवतक कथा-वाता होती हो तथा जो लोग उस कथाके वणम लगे
रहते ह , उनक सेवा और सहायता अपने शरीर और धनसे करनी चा हये ।।३७।।
उ ह के अनु हसे सहायता करनेवाले पु षको भी भागवत-सेवनका पु य ा त होता है।
कामना दो व तु क होती है— ीकृ णक और धनक । ीकृ णके सवा जो कुछ भी चाहा
जाय, यह सब धनके अ तगत है; उसक ‘धन’ सं ा है ।।३८।।
ोता और व ा भी दो कारके माने गये ह, एक ीकृ णको चाहनेवाले और सरे
धनको। जैसा व ा, वैसा ही ोता भी हो तो वहाँ कथाम रस मलता है, अतः सुखक वृ
होती है ।।३९।।
य द दोन वपरीत वचारके ह तो रसाभास हो जाता है, अतः फलक हा न होती है।
क तु जो ीकृ णको चाहनेवाले व ा और ोता ह, उ ह वल ब होनेपर भी स अव य
मलती है ।।४०।।
पर धनाथ को तो तभी स मलती है, जब उनके अनु ानका व ध- वधान पूरा उतर
जाय। ीकृ णक चाह रखनेवाला सवथा गुणहीन हो और उसक व धम कुछ कमी रह जाय
तो भी, य द उसके दयम ेम है तो, वही उसके लये सव म व ध है ।।४१।।
सकाम पु षको कथाक समा तके दनतक वयं सावधानीके साथ सभी व धय का
पालन करना चा हये। (भागवत-कथाके ोता और व ा दोन के ही पालन करनेयो य व ध
यह है—) त दन ातःकाल नान करके अपना न यकम पूरा कर ले। फर भगवान्का
चरणामृत पीकर पूजाके सामानसे ीम ागवतक पु तक और गु दे व ( ास) का पूजन
करे। इसके प ात् अ य त स ता-पूवक ीम ागवतक कथा वयं कहे अथवा
सुने ।।४२-४३।। ध या खीरका मौन भोजन करे। न य चयका पालन और भू मपर
शयन करे, ोध और लोभ आ दको याग दे ।।४४।।

कथा ते क नं न यं समा तौ जागरं चरेत् ।


ा णान् भोज य वा तु द णा भः तोषयेत् ।।४५

गुरवे व भूषा द द वा गां च समपयेत् ।


एवं कृते वधाने तु लभते वां छतं फलम् ।।४६

दारागारसुतान् रा यं धना द च यद सतम् ।


परंतु शोभते ना सकाम वं वड बनम् ।।४७

कृ ण ा तकरं श त् ेमान दफल दम् ।

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ीम ागवतं शा ं कलौ क रेण भा षतम् ।।४८
त दन कथाके अ तम क तन करे और कथासमा तके दन रा म जागरण करे।
समा त होनेपर ा ण को भोजन कराकर उ ह द णासे स तु करे ।।४५।।
कथावाचक गु को व , आभूषण आ द दे कर गौ भी अपण करे। इस कार व ध-
वधान पूण करनेपर मनु यको ी, घर, पु , रा य और धन आ द जो-जो उसे अभी होता
है, वह सब मनोवां छत फल ा त होता है। पर तु सकामभाव ब त बड़ी वड बना है, वह
ीम ागवतक कथाम शोभा नह दे ता ।।४६-४७।।
ीशुकदे वजीके मुखसे कहा आ यह ीम ागवतशा तो क लयुगम सा ात्
ीकृ णक ा त करानेवाला और न य ेमान द प फल दान करनेवाला है ।।४८।।
इ त ी का दे महापुराण एकाशी तसाह यां सं हतायां तीये वै णवख डे
ीम ागवतमाहा ये भागवत ोतृव ृ ल ण वण व ध- न पणं नाम चतुथ ऽ यायः ।।४।।

।।समा त मदं ीम ागवतमाहा यम् ।।


।।ह रः ॐ त सत् ।।

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ीम ागवत-पाठके व भ योग१
भागवत-म हमा
ोका ोकपादं वा न यं भागवतं पठे त् ।
यः पुमान् सोऽ प संसारा मु यते कमुता खलात् ।।
आधा ोक या चौथाई ोकका भी न य जो मनु य पाठ करता है, उसक भी
संसारसे मु हो जाती है; फर स पूण पाठ करनेवालेक तो बात ही या है।
एषा बु मतां बु यद् भागवतमादरात् ।
न यं पठे द् यथाश यतः यात् संसृ त यः ।।
बु मान क बु म ा यही है क संसारभयनाशक ीम ागवतका आदरपूवक
यथाश पाठ करे।
अश ो न य पठने मासे वषऽ प वैकदा ।
पालयन् नयमान् भ या ीम ागवतं पठे त् ।।
य द न य पाठ न कर सकता हो तो महीने या वषम एक बार नयमपूवक
भ स हत भागवतका पाठ अव य करना चा हये।
एकाहे नैव श तु यहेनाथ यहेण वा ।
पंच भ दवसैः षड् भः स त भवा पठे त् पुमान् ।।
दशाहेनाथ प ेण मासेन ऋतुना प वा ।
पठे द् भागवतं य तु भु मु स व दते ।।
जो एक दनम पाठ न कर सकता हो वह दो, तीन, पाँच, छः, सात, दस, पं ह,
तीस या साठ दनम ीम ागवतका पाठ करे। इससे भोग एवं मो दोन क ा त
होती है।
एषोऽ य यु मः प ः स ताहो ब स मतः ।
ीवासुदेव ी यथ पठतः पुंस आदरात् ।।
सव प ाः स त तु या वशेषो ना त क न ।
वशेषोऽ त सकामानां कामनाफलभेदतः ।।
ब त-से ऋ षय ने स ताहपारायणका भी उ म प माना है। केवल भगवान्क
ी तके लये स पूण प बराबर ह। कोई यूना धक नह ह। फल चाहने-वाल के लये
फलभेदसे पारायणभेद कहा गया है।

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(१) न कामपारायण भगव ी यथ
पाठकता ा ण १ या ५, पारायण-सं या १०० या १०८
वशेष नयम—करानेवाला फलाहार या ह व य भोजन करे।

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(४) आर भ कये ए कायम व ननाशके लये
पाठकता ा ण ९, पारायण-सं या १४०
वशेष नयम— त दन चतुथ क धके उ ीसव अ याय (पृथु वजय) का पाठ,

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पाठके आर भ एवं समा तम करना चा हये।

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(७) स ताहपारायणके योग (सात दनके)
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बा धवपीडा नवृ और संकटनाशके लये
पाठकता ा ण ४, पारायण-सं या १९६
वशेष नयम— त दन पाठके आर भ एवं समा तम ष क धक दे व तु त (अ०
९, ो० ३१-४५) का पाठ करना चा हये। पाठ व ध—

(८) कैदसे छु ड़ानेके लये


पाठकता ा ण ७, पारायण-सं या १४३
वशेष नयम— त दन पाठके आर भ एवं अ तम दशम क धके १०।२९; १९।९;
२५।१३; २७।१९; ४९।११ और ७०।२५—इन ६ ोक का पाठ करना चा हये।

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(९) श ुपराजयके लये
पाठकता ा ण ६, पारायण-सं या १९४
वशेष नयम— त दन पाठके ार भ एवं समा तम अ म क धके ‘य ेश
य पु ष’ (अ० १७, ो० ८) आ द ३ ोक का पाठ करे।

(१०) रोगमु के लये


पाठकता ा ण ३, पारायण-सं या १५७
वशेष नयम— त दन येक अ यायके आर भम पंचम क धके नार सह म
(अ० १८, ो० ८) का पाठ करे।

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(११) पु और ी ा तके लये
पाठकता ा ण ५, पारायण-सं या १४५
वशेष नयम— त दन येक अ यायके आर भ एवं अ तम पंचम क धके
कामम (अ० १८, ो० १८) का पाठ करे।

(१२) न क टक रा यके लये


पाठकता ा ण १०, पारायण-सं या १९८
वशेष नयम— त दन पाठके आर भ एवं समा तम चतुथ क धक ुव तु त (अ०

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९) का पाठ करे।

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(३८) प पारायण (पं ह दनका)
प , मास और ऋतुपारायण तपद् त थसे ही ार भ कया जाय—यह नयम नह
है। केवल दन-सं याका नयम है।

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१-(भागवतांकम का शत ‘ ीम ागवतक अनु ान- व ध’ शीषक दो
लेख के आधारपर।)
* यह च क धक समा त और ÷ यह च दशम क धके पूवाधक
समा तका है।

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।। ीह रः ।।
ीगो व ददामोदर तो म्
कारार व दे न पदार व दं मुखार व दे व नवेशय तम् ।
वट य प य पुटे शयानं बालं मुकु दं मनसा मरा म ।।१।।

ीकृ ण गो व द हरे मुरारे, हे नाथ नारायण वासुदेव ।


ज े पब वामृतमेतदे व गो व द दामोदर माधवे त ।।२।।

व े तुकामा खलगोपक या मुरा रपादा पत च वृ ः ।


द या दकं मोहवशादवोचद् गो व द दामोदर माधवे त ।।३।।

गृहे गृहे गोपवधू-कद बाः सव म ल वा समवा य योगम् ।


पु या न नामा न पठ त न यं गो व द दामोदर माधवे त ।।४।।

सुखं शयाना नलये नजेऽ प नामा न व णोः वद त म याः ।


ते न तं त मयतां ज त गो व द दामोदर माधवे त ।।५।।

ज े सदै वं भज सु दरा ण नामा न कृ ण य मनोहरा ण ।


सम त-भ ा त- वनाशना न गो व द दामोदर माधवे त ।।६।।

सुखावसाने इदमेव सारं ःखावसाने इदमेव ेयम् ।


दे हावसाने इदमेव जा यं गो व द दामोदर माधवे त ।।७।।

ज े रस े मधुर- ये वं स यं हतं वां परमं वदा म ।


आवणयेथा मधुरा रा ण गो व द दामोदर माधवे त ।।८।।

वामेव याचे मम दे ह ज े समागते द डधरे कृता ते ।


व मेवं मधुरं सुभ या गो व द दामोदर माधवे त ।।९।।

ीकृ ण राधावर गोकुलेश गोपाल गोवधन नाथ व णो ।


ज े पब वामृतमेतदे व गो व द दामोदर माधवे त ।।१०।।

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