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पूर्वार्धम – अध्याय १
वर्णनाध्याय
(सृष्टी आरम्भ और अवतार अद्ध्याय परिचय)
अध्याय १: श्लोक – १, २
वर्णनाध्याय:
मैत्रेय उवाच – महर्षि पराशर जी के शिष्य मैत्रेय ज्योतिष शास्त्र के सार पदार्थ को जानने के लिए
उनकी स्तुति करते हैं। मैत्रेय पराशर जी से स्तुति करते हुए कहते है – अज्ञान को
नाश करने वाले, परमपूज्य भगवान आपको नमस्कार है। ॥१॥
नमस्तस्मै भगवते बोधरूपाय सर्वदा ।
परमानन्दकन्दाय गुरुवेऽज्ञानध्वंसिने ॥१॥ मैत्रेय जी की स्तुति को सुनकर महर्षि पराशर प्रसन्न होकर ज्योतिष के शुभ तत्व
शास्त्र का आदेश करने लगे। ॥२॥
इ्ति स्तुत्या सुसंहृष्टो मुनिस्तत्त्वविदाम्बर: ।
अथादिदेश सच्छास्त्रं सारं यज्ज्योतिषां शुभम् ॥२॥
स्पष्टीकरण:
गुरुवेऽज्ञानध्वंसिने = गुरुवेअज्ञानध्वंसिने
अध्याय १: श्लोक – ३, ४
वर्णनाध्याय:
पराशर जी बोले - सफे द वस्त्र को धारण किए हुए, पान्चजन्य को लिये हुए विष्णु
शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शुक्लाम्बरधरां गिरम् ।
को एवं सफे द वस्त्र को धारण किये हुए, वीणा को लिए सरस्वती को प्रणाम कर
प्रणम्य पाञ्चजन्य च वीणां याभ्यां धृतं द्वयम् ॥३॥ कहता हूं ॥३॥
संसार के उत्पत्ति के कारण, ग्रहों के स्वामी सूर्य को नमस्कार करके जैसा मैंने ब्रम्हा
सूर्य नत्वा ग्रहपतिं जगदुत्पत्तिकारणम् ।
के मुख से सुना है वैसा ही वेद के नेत्र (ज्योतिष शास्त्र) को कहूंगा। ॥४॥
वक्ष्यामि वेदनयनं यथा ब्रह्ममुखाच्छु तम् ॥४॥
अध्याय १: श्लोक – ५, ६
वर्णनाध्याय:
इस शास्त्र को शान्त स्वभाव, गुरु भक्त, सीधे स्वामिभक्त और आस्तिक को देना
शान्ताय गुरुभक्ताय ऋजवेऽर्चितस्वामिने ।
चहिये। इससे कल्याण की प्रप्ति होती है। ॥५॥
आस्तिकाय प्रदातव्यं ततः श्रेयो ह्यवाप्स्यति ॥५॥
दूसरे के शिष्य को, नास्तिक और मूर्ख को नहीं देना चहिये। ऐसा करने से प्रतिदिन
दुःख होता है, इसमे संशय नहीं है। ॥६॥
न देवं परशिष्याय नास्तिकाय शठाय च ।
दत्ते प्रतिदिनं दुःखं जायते नाऽत्र संशयः ॥६॥
अध्याय १: श्लोक – ७, ८, ९
सृष्ट्यारम्भमाह:
एक अव्यक्त आत्मा वाले विष्णु हैं, जो कि अनादि, समर्थ, इश्वर, शुद्ध, सतोगुणी,
सृष्ट्यारम्भमाह:
जगत के स्वामी, निर्गुण होते हुए भी तीनों गुणों से युक्त हैं। ॥७॥
एकोऽव्यक्तात्मको विष्णुरनादिः प्रभुरीश्वरः ।
संसार को बनाने वाले, सर्व-सम्पत्ति से युक्त, नियतात्मा वाले प्रतापी हैं। वे अपने
शुद्धसत्त्वो जगत्स्वामी निर्गुणस्त्रिगुणान्वितः ॥७॥
एक अंश से सम्पूर्ण जगत् की लीला से ही रचना करते और पालन करते हैं। ॥८॥
इनके तीन चरण अमृतमय हैं, जिसे तत्वदर्शी लोग जानते हैं। प्रधान के सहित प्रमाण
संसारकारकः श्रीमान्निमित्तात्मा प्रतापवान् ।
स्वरूप एक चरण से। ॥९॥
एकांशेन जगत्सर्व सृजत्यवति लीलया ॥८॥
सभी जीवों में दो अंश अधिक होते है, किसी में जीवांश अधिक होता है और किसी
सर्वेषु चैव जीवेषु स्थितं ह्यंशद्वयं क्वचित् । मे परमात्मांश अधिक होता है। ॥२०॥
जीवांशमधिकं तद्वत्परमांशकः किल ॥२०॥
सूर्यादि ग्रहों मे ब्रह्मा, शिव आदि देवता तथा अन्य अवतारों में परमात्मांश अधिक
होता है। ॥२१॥
सूर्यादयो ग्रहाः सर्वे ब्रह्मकामद्विषादयः ।
इनकी जो शक्तियां (लक्ष्मी आदि) है इनमें परमात्मांश अधिक होता है। अन्य देवता
एते चान्ये च बहवः परमात्मांशकाधिकाः ॥२१॥ और उनकी शक्तियों में जीवांश अधिक होता है। ॥२२॥
रामकृ ष्णादयः सर्वे ह्यवतारा भवन्ति वै । उन्हीं (सुर्यादि ग्रहों) में से जीवांश के निकलने से मनुष्य आदि जीवों की सृष्टि होती
है, वे इसलोक में अपने अपने कार्यों को करके अन्त में उन्हीं में लीन हो जाते हैं। वे
तत्रैव ते विलीयन्ते पुनः कार्यान्तरे सदा ॥३१॥
प्रलय के समय अव्यक्त परमात्मा में लीन हो जाते हैं। ॥३२॥
इन सभी बातों को बिना ज्योतिष शास्त्र के कोई भी नहीं जान सकता है। इसलिए इस
विना तज्ज्योतिषं नाऽन्यो ज्ञातुं शक्नोति कर्हिचित् । शास्त्र का अध्ययन अवश्य करना चहिए, विशेषकर ब्राह्मण को तो अवश्य करना
चाहिए।॥३४॥
तस्मादवश्यमध्येयं ब्राह्मणैश्च विशेषतः ॥३४॥
जो मनुष्य इस शास्त्र को न जानते हुए ज्योतिष की निन्दा करता है, वह रौरव नरक
को भोगकर दूसरे जन्म मे अन्धा होता है। ॥३५॥
यो नरः शास्त्रमज्ञात्वा ज्यौतिषं खलु निन्दति ।
रौरवं नरकं भुक्त्वा चाऽन्धत्वं चान्यजन्मनि ॥३५॥ यहां पर बृहद् पराशर होरा शास्त्र का पूर्व खण्ड सृष्ट्यादि क्रम शास्त्र अवतार अध्याय
समाप्त होता है। ॥१॥