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श्री दु र्गा सप्तशती संपूर्ा पगठ विवि

साधक स्नान करके पवित्र हो कर शुद्ध आसन पर बैठ जाएं । सारी सामग्री एकवत्रत कर लें ।
माथे पर अपनी पसंद के अनुसार भस्म, चंदन अथिा रोली लगा लें , वशखा बां ध लें ।
पवित्रीकरण-
हाथ में जल ले कर मंत्र पढ़ते हुए स्वयं पर तथा सभी पूजन सामग्री पर जल विड़क दें
ॐ पवित्रः अपवित्रो िा सिाा िसथां गतोऽवपिा।
यः स्मरे त् पुण्डरीकाक्षं स िाह्यभ्यन्तर शुवचः॥
आसन शुद्धद्ध
इसके बाद आसन को भी जल विड़क कर वनम्नवलद्धखत मंत्र से शुद्ध कर लें :-
पृद्धिवत मंत्रस्य मेरुपृष्ठः ग व ः सुतलं िन्दः
कूमोदे िता आसने विवनयोगः॥
पृिी पूजन-
अब मां पृिी को प्रणाम करके मंत्र बोलें -
ॐ पृिी त्वया धृता लोका दे वि त्वं विष्णुना धृता।
त्वं च धारय मां दे वि पवित्रं कुरु चासनम्॥
पृवथव्यै नमः आधारशक्तये नमः
आचमन-
विर पूिाा वभमुख होकर तत्व शुद्धद्ध के वलए चार बार आचमन करें । इस समय वनम्न मंत्रों को
बोलें -
ॐ ऐं आत्मतत्त्वं शोधयावम नमः स्वाहा।
ॐ ह्ीं विद्यातत्त्वं शोधयावम नमः स्वाहा॥
ॐ क्ीं वशितत्त्वं शोधयावम नमः स्वाहा।
ॐ ऐं ह्ीं क्ीं सिातत्त्वं शोधयावम नमः स्वाहा॥
पवित्री धारण
तत्पश्चात प्राणायाम करके गणेश आवद दे िताओं एिं गुरुजनों को प्रणाम करें , कुश की पवित्री
धारण करें -
पवित्रे सथो िैष्णव्यौ सवितुिाः प्रसि उत्पुनाम्यद्धिद्रे ण पवित्रेण सूयास्य रद्धश्मवभः ।
तस्य ते पवित्रपते पवित्रपू तस्य यत्कामः पुने तिकेयम् ।

संकल् प
हाथ में लाल िूल, अक्षत और जल ले कर वनम्नां वकत रूप से संकल् प करें -
ॐ विष्णुविाष्णुविाष्णुः। ॐ नमः परमात्मने , श्रीपुराणपुरु ोत्तमस्य श्रीविष्णोराज्ञया प्रितामानस्याद्य
श्रीब्रह्मणो वितीयपराद्धे श्रीश्िेतिाराहकल् पे िैिस्वतमन्वन्तरे ऽष्टाविंशवततमे कवलयुगे प्रथमचरणे
जम्बूिीपे भारति े भरतखण्डे आयाा िताा न्तगातब्रह्माितैकदे शे पुण्यप्रदे शे बौद्धाितारे ितामाने
यथानामसंित्सरे अमुकामने महामां गल् यप्रदे मासानाम् उत्तमे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकवतथौ
अमुकिासराद्धन्वतायाम् अमुकनक्षत्रे अमुकरावशद्धसथते सूये अमुकामुकरावशद्धसथते ु
चन्द्रभौमबुधगुरुशुक्रशवन ु सत्सु शुभे योगे शुभकरणे एिं गुणविशे णविवशष्टायां शुभ पुण्यवतथौ
सकलशास्त्र श्रुवत स्मृवत पुराणोक्त िलप्राद्धिकामः अमुकगोत्रोत्पन्नः अमुक नाम अहं ममात्मनः
सपुत्रस्त्रीबान्धिस्य श्रीनिदु गाा नुग्रहतो ग्रहकृतराजकृतसिा -विधपीडावनिृवत्तपूिाकं नैरुज्यदीर्ाा युः
पुवष्टधनधान्यसमृद्ध्यथं श्री निदु गाा प्रसादे न सिाा पवन्निृवत्तसिाा भीष्टिलािाद्धिधमाा था-
काममोक्षचतुविाधपुरु ाथावसद्धद्धिारा श्रीमहाकाली-महालक्ष्मीमहासरस्वतीदे िताप्रीत्यथं शापोद्धारपुरस्परं
किचागालाकीलकपाठ- िेदतन्त्रोक्त रावत्रसूक्त पाठ दे व्यथिाशी ा पाठन्यास विवध सवहत निाणाजप
सिशतीन्यास- धन्यानसवहतचररत्रसम्बद्धन्धविवनयोगन्यासध्यानपूिाकं च 'माकाण्डे य उिाच॥ सािवणाः
सूयातनयो यो मनुः कथ्यते ऽष्टमः।' इत्याद्यारभ्य 'सािवणाभाविता मनुः' इत्यन्तं दु गाा सिशतीपाठं तदन्ते
न्यासविवधसवहतनिाणामन्त्रजपं िेदतन्त्रोक्तदे िीसूक्तपाठं रहस्यत्रयपठनं शापोद्धारावदकं च
वकरष्ये /कररष्यावम।
इस प्रकार प्रवतज्ञा (संकल् प) करके दे िी का ध्यान करें ।
पुस्तक पूजा-
अब पंचोपचार की विवध से पुस्तक की पूजा करें -
दु गाा -सिशती पुस्तक को काष्ठ के शुद्ध आसन पर रख लें । अब गंध,िूल,धूप तथा दीप से
पुस्तक पूजा करे और कुि नैिैद्य अवपात करें ।
ॐ नमो दे व्यै महादे व्यै वशिायै सततं नम:।
नम: प्रकृत्यै भद्रायै वनयता: प्रणता: स्म ताम्॥
योवनमुद्रा का प्रदशान करके भगिती को प्रणाम करें , विर मूल निाणा मन्त्र से पीठ आवद में
आधारशद्धक्त की सथापना करके उसके ऊपर पु स्तक को विराजमान करें ।
ध्यात्वा दे िी ं पञ्चपूजां कृत्वा योन्या प्रणम्य च ।
आधारं सथाप्य मूलेन सथापयेत्तत्र पुस्तकम्॥
इसके बाद शापोद्धार करना चावहए। इसके अनेक प्रकार हैं ।
'ॐ ह्ीं क्ीं श्रीं क्रां क्रीं चद्धण्डकादे व्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा'
इस मंत्र का आवद और अन्त में सात बार जप करें । यह शापोद्धार मंत्र कहलाता है । इसके
अनन्तर उत्कीलन मन्त्र का जाप वकया जाता है ।
इसका जप आवद और अन्त में इक्कीस-इक्कीस बार होता है । यह मन्त्र इस प्रकार है - 'ॐ
श्री ं क्ीं ह्ीं सिशवत चद्धण्डके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।' इसके जप के पश्चात् आवद और
अन्त में सात-सात बार मृतसंजीिनी विद्या का जाप करना चावहए, जो इस प्रकार है -
'ॐ ह्ीं ह्ीं िं िं ऐं ऐं मृतसंजीिवन विद्ये मृतमुत्थापयोत्थापय क्रीं ह्ीं ह्ीं िं स्वाहा।'
मारीचकल् प के अनुसार सिशती-शापविमोचन का मन्त्र यह है -
'ॐ श्रीं श्रीं क्ीं हं ॐ ऐं क्षोभय मोहय उत्कीलय उत्कीलय उत्कीलय ठं ठं ।'
इस मन्त्र का आरं भ में ही एक सौ आठ बार जाप करना चावहए, पाठ के अन्त में नहीं।
अथिा रुद्रयामल महातन्त्र के अंतगात दु गाा कल् प में कहे हुए चद्धण्डका शाप विमोचन मन्त्र का
आरं भ में ही पाठ करना चावहए। िे मन्त्र इस प्रकार हैं -
ॐ अस्य श्रीचद्धण्डकाया ब्रह्मिवसष्ठविश्िावमत्रशापविमोचनमन्त्रस्य िवसष्ठ-
नारदसंिादसामिेदावधपवतब्रह्माण ऋ यः सिैश्ियाकाररणी श्रीदु गाा दे िता चररत्रत्रयं बीजं ह्ी शद्धक्तः
वत्रगुणात्मस्वरूपचद्धण्डकाशापविमुक्तौ मम संकवल् पतकायावसद्ध् यथे जपे विवनयोगः।
ॐ (ह्ीं) रीं रे तःस्वरूवपण्यै मधुकैटभमवदा न्यै
ब्रह्मिवसष्ठविश्िावमत्रशापाद् विमुक्ता भि॥१॥
ॐ श्रीं बुद्धद्धस्वरूवपण्यै मवह ासुरसैन्यनावशन्यै
ब्रह्मिवसष्ठ विश्िावमत्रशापाद् विमुक्ता भि॥२॥
ॐ रं रक्तस्वरूवपण्यै मवह ासुरमवदा न्यै
ब्रह्मिवसष्ठविश्िावमत्रशापाद् विमुक्ता भि॥३॥
ॐ क्षुं क्षुधास्वरूवपण्यै दे ििद्धन्दतायै
ब्रह्मिवसष्ठविश्िावमत्रशापाद् विमुक्ता भि॥४॥
ॐ िां िायास्वरूवपण्यै दू तसंिावदन्यै
ब्रह्मिवसष्ठविश्िावमत्रशापाद् विमुक्ता भि॥५॥
ॐ शं शद्धक्तस्वरूवपण्यै धूम्रलोचनर्ावतन्यै
ब्रह्मिवसष्ठविश्िावमत्रशापाद् विमुक्ता भि॥६॥
ॐ तृं तृ ास्वरूवपण्यै चण्डमुण्डिधकाररण्यै
ब्रह्मिवसष्ठविश्िावमत्र शापाद् विमुक्ता भि॥७॥
ॐ क्षां क्षाद्धन्तस्वरूवपण्यै रक्तबीजिधकाररण्यै
ब्रह्मिवसष्ठविश्िावमत्रशापाद् विमुक्ता भि॥८॥
ॐ जां जावतस्वरूवपण्यै वनशुम्भिधकाररण्यै
ब्रह्मिवसष्ठविश्िावमत्रशापाद् विमुक्ता भि॥९॥
ॐ लं लज्जास्वरूवपण्यै शुम्भिधकाररण्यै
ब्रह्मिवसष्ठविश्िावमत्रशापाद् विमुक्ता भि॥१०॥
ॐ शां शाद्धन्तस्वरूवपण्यै दे िस्तुत्यै
ब्रह्मिवसष्ठविश्िावमत्रशापाद् विमुक्ता भि॥११॥
ॐ श्रं श्रद्धास्वरूवपण्यै सकलिलदात्र्यै
ब्रह्मिवसष्ठविश्िावमत्रशापाद् विमुक्ता भि॥१२॥
ॐ कां काद्धन्तस्वरूवपण्यै राजिरप्रदायै
ब्रह्मिवसष्ठविश्िावमत्रशापाद् विमुक्ता भि॥१३॥
ॐ मां मातृस्वरूवपण्यै अनगालमवहमसवहतायै
ब्रह्मिवसष्ठविश्िावमत्रशापाद् विमुक्ता भि॥१४॥
ॐ ह्ीं श्रीं दुं दु गाा यै सं सिैश्ियाकाररण्यै
ब्रह्मिवसष्ठविश्िावमत्रशापाद् विमुक्ता भि॥१५॥
ॐ ऐं ह्ीं क्ीं नमः वशिायै अभेद्यकिचस्वरूवपण्यै
ब्रह्मिवसष्ठविश्िावमत्रशापाद् विमुक्ता भि॥१६॥
ॐ क्रीं काल् यै कावल ह्ीं िट् स्वाहायै ऋग्वेदस्वरूवपण्यै
ब्रह्मिवसष्ठविश्िावमत्रशापाद् विमुक्ता भि॥१७॥
ॐ ऐं ह्ी क्ीं महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीस्वरूवपण्यै
वत्रगुणाद्धत्मकायै दु गाा देव्यै नमः॥१८॥
इत्येिं वह महामन्त्रान् पवठत्वा परमेश्िर।
चण्डीपाठं वदिा रात्रौ कुयाा देि न संशयः॥१९॥
एिं मन्त्रं न जानावत चण्डीपाठं करोवत यः।
आत्मानं चैि दातारं क्षीणं कुयाा न्न संशयः॥२०॥
इस प्रकार शापोद्धार करने के अनन्तर अन्तमाा तृका बवहमाा तृका आवद न्यास करें , विर श्रीदे िी
का ध्यान करके रहस्य में बताए अनुसार नौ कोष्ठों िाले यन्त्र में महालक्ष्मी आवद का पूजन
करें , इसके बाद ि: अं गों सवहत दु गाा सिशती का पाठ आरं भ वकया जाता है ।
किच, अगाला, कीलक और तीनों रहस्य- ये ही सिशती के ि: अं ग माने गए हैं । इनके क्रम
में भी मतभेद हैं । वचदम्बरसंवहता में पहले अगाला, विर कीलक तथा अन्त में किच पढ़ने का
विधान है , वकन्तु योगरत्नािली में पाठ का क्रम इससे वभन्न है । उसमें किच को बीज, अगाला
को शद्धक्त तथा कीलक को कीलक संज्ञा दी गई है ।
वजस प्रकार सब मंत्रों में पहले बीज का, विर शद्धक्त का तथा अन्त में कीलक का उच्चारण
होता है , उसी प्रकार यहााँ भी पहले किच रूप बीज का, विर अगाला रूप शद्धक्त का तथा
अन्त में कीलक रूप कीलक का क्रमशः पाठ होना चावहए। यहााँ इसी क्रम का अनुसरण
वकया गया है ।
(इसके बाद दे िी किच का पाठ करना चावहए।)

॥अथ निाणाविवधः॥
इस प्रकार रावत्रसूक्त और दे व्यथिाशी ा का पाठ करने के पश्चात्
वनम्नां वकतरूपसे निाणामन्त्र के विवनयोग, न्यास और ध्यान आवद करें ।
॥विवनयोगः॥
श्रीगणपवतजायवत। "ॐ अस्य श्रीनिाणामन्त्रस्य ब्रह्मविष्णुरुद्रा ऋ यः,
गायत्र्युद्धष्णगनुष्टु भश्िन्दां वस, श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो
दे िताः, ऐं बीजम्, ह्ीं शद्धक्तः, क्ीं कीलकम्,
श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीप्रीत्यथे जपे विवनयोगः।"
इसे पढ़कर जल वगराये।
॥ऋष्यावदन्यासः॥
तत्पश्चात् न्यासिाक्ों में से एक-एक का उच्चारण करके दावहने हाथ की अाँगुवलयों से क्रमशः
वसर, मुख, हृदय, गुदा, दोनों, चरण और नावभ - इन अंगों का स्पशा करें ।
ब्रह्मविष्णुरुद्रऋव भ्यो नमः, वशरवस।
गायत्र्युद्धष्णगनुष्टु प्िन्दोभ्यो नमः मुखे। महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीदे िताभ्यो नमः, हृवद।
ऐं बीजाय नमः, गुह्ये। ह्ीं शक्तये नमः, पादयोः।
क्ीं कीलकाय नमः, नाभौ।
"ॐ ऐं ह्ीं क्ीं चामुण्डायै विच्चे"- इस मूलमन्त्र से हाथों की शुद्धद्ध करके करन्यास करें ।
॥करन्यासः॥
करन्यास में हाथ की विवभन्न अाँगुवलयों, हथेवलयों और हाथ के पृष्ठभाग में मन्त्रों का न्यास
(सथापन) वकया जाता है ; इसी प्रकार अंगन्यास में ह्दयावद अंगों में मन्त्रों की सथापना होती है ।
मन्त्रों को चेतन और मूवतामान् मानकर उन-उन अंगों का नाम ले कर उन मन्त्रमय दे िताओं
का ही स्पशा और िन्दन वकया जाता है , ऐसा करने से पाठ या जप करनेिाला स्वयं मन्त्रमय
होकर मन्त्रदे िताओं िारा सिाथा सुरवक्षत हो जाता है । उसके बाहर-भीतर की शुद्धद्ध होती है ,
वदव्य बल प्राि होता है और साधना वनविाघ्नतापूिाक पूणा तथा परम लाभदायक होती है ।
ॐ ऐं अङ्गुष्ठाभ्यां नमः।
(दोनों हाथों की तजानी अंगुवलयों से दोनों अंगूठों का स्पशा )
ॐ ह्ीं तजानीभ्यां नमः।
(दोनों हाथों की तजानी अंगुवलयों से दोनों तजानी का स्पशा )
ॐ क्ीं मध्यमाभ्यां नमः।
(अंगूठों से मध्यमा अंगुवलयों का स्पशा)
ॐ चामुण्डायै अनावमकाभ्यां नमः।
(अंगूठों से अनावमका अंगुवलयों का स्पशा )
ॐ विच्चे कवनवष्ठकाभ्यां नमः।
(अंगूठों से कवनवष्ठका अं गुवलयों का स्पशा )
ॐ ऐं ह्ीं क्ीं चामुण्डायै विच्चे करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।
(हथेवलयों और उनके पृष्ठभागों का परस्पर स्पशा )
॥हृदयावदन्यासः॥
इसमें दावहने हाथ की पााँ चों अाँगुवलयों से ‘हृदय’ आवद अंगों का स्पशा वकया जाता है ।
ॐ ऐं हृदयाय नमः।
(दावहने हाथ की पााँ चों अंगुवलयों से हृदय का स्पशा)
ॐ ह्ीं वशरसे स्वाहा।
( वसर का स्पशा )
ॐ क्ीं वशखायै ि ट् ।
(वशखा का स्पशा )
ॐ चामुण्डायै किचाय हुम्।
(दावहने हाथ की अंगुवलयों से बायें कंधे का और बायें हाथ की अंगुवलयों से दायें कंधे का
साथ ही स्पशा )
ॐ विच्चे नेत्रत्रयाय िौ ट् ।
(दावहने हाथ की अंगुवलयों के अग्रभाग से दोनों नेत्रों और ललाट के मध्यभाग का स्पशा)
ॐ ऐं ह्ीं क्ीं चामुण्डायै विच्चे अस्त्राय िट् ।
(यह िाक् पढ़कर दावहने हाथ को वसर के ऊपर से बायीं ओर से पीिे की ओर ले जाकर
दावहनी ओर से आगे की ओर ले जाये और तजानी तथा मध्यमा अंगुवलयों से बायें हाथ की
हथेलीपर ताली बजाये )
॥अक्षरन्यासः॥
वनम्नां वकत िाक्ों को पढ़कर क्रमशः वशखा आवद का दावहने हाथ की अाँ गुवलयों से स्पशा करें ।
ॐ ऐं नमः, वशखायाम्।
ॐ ह्ीं नमः, दवक्षणनेत्रे।
ॐ क्ीं नमः, िामनेत्रे।
ॐ चां नमः, दवक्षणकणे।
ॐ मुं नमः, िामकणे।
ॐ डां नमः, दवक्षणनासापुटे।
ॐ यैं नमः, िामनासापुटे।
ॐ विं नमः, मुखे।
ॐ च्चें नमः, गुह्ये।
इस प्रकार न्यास करके मूलमन्त्र से आठ बार व्यापक (दोनों हाथों िारा वसर से ले कर पैर
तक के सब अं गों का) स्पशा करें ।
॥वदङ्न्यासः॥
विर प्रत्येक वदशा में चुटकी बजाते हुए न्यास करें -
ॐ ऐं प्राच्यै नमः।
ॐ ऐं आग्नेय्यै नमः।
ॐ ह्ीं दवक्षणायै नमः।
ॐ ह्ीं नैऋात्यै नमः।
ॐ क्ीं प्रतीच्यै नमः।
ॐ क्ीं िायव्यै नमः।
ॐ चामुण्डायै उदीच्यै नमः।
ॐ चामुण्डायै ऐशान्यै नमः।
ॐ ऐं ह्ीं क्ीं चामुण्डायै विच्चे ऊर्ध्ाा यै नमः।
ॐ ऐं ह्ीं क्ीं चामुण्डायै विच्चे भूम्यै नमः।
॥ध्यानम्॥
खड् गं चक्रगदे ुचापपररर्ाञ्छूलं भुशुण्डीं वशरः
शङ्खं संदधतीं करै द्धस्त्रनयनां सिाा ङ्गभू ािृताम्।
नीलाश्मद् युवतमास्यपाददशकां सेिे महाकावलकां
यामस्तौत्स्ववपते हरौ कमलजो हन्तुं मधुं कैटभम्॥१॥
अक्षस्रक्परशुं गदे ुकुवलशं पद्मं धनुष्कुद्धण्डकां
दण्डं शद्धक्तमवसं च चमा जलजं र्ण्ां सुराभाजनम्।
शूलं पाशसुदशाने च दधतीं हस्तैः प्रसन्नाननां
सेिे सैररभमवदा नीवमह महालक्ष्मीं सरोजद्धसथताम्॥२॥
र्ण्ाशूलहलावन शङ्खमुसले चक्रं धनुः सायकं
हस्ताब्जैदाधतीं र्नान्तविलसिीतां शुतुल्यप्रभाम्।
गौरीदे हसमुद्भिां वत्रजगतामाधारभूतां महा-
पूिाा मत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भावददै त्यावदा नीम्॥३॥
भगिान् विष्णु के सो जानेपर मधु और कैटभ को मारने के वलये कमल जन्मा ब्रह्माजी ने
वजनका स्तिन वकया था, उन महाकाली दे िी का मैं सेिन करता हाँ । िे अपने दस हाथों में
खड् ग , चक्र, गदा , बाण, धनु , पररध , शूल , भुशुद्धण्ड , मस्तक और शंख धारण करती है ।
उनके तीन नेत्र हैं । िे समस्त अंगों में वदव्य आभू णों से विभूव त हैं । उनके शरीर की
काद्धन्त नीलमवण के समान है तथा िे दस मुख और दस पैरों से युक्त हैं ॥१॥ मैं कमल के
आसनपर बैठी हुई प्रसन्न मुखिाली मवह ासुरमवदा नी भगिती महालक्ष्मी का भजन करता हाँ , जो
अपने हाथों में अक्षमाला , िरसा , गदा , बाण , िज्र, पद्म , धनु , कुद्धण्डका , दण्ड , शद्धक्त ,
खड् ग , ढ़ाल , शंख . र्ण्ा , मधुपात्र , शूल ,पाश और चक्र धारण करती है ॥२॥ जो अपने
करकमलों में र्ण्ा , शू ल ,हल , शंख ,मूसल , चक्र ,धनु और बाण धारण करती हैं ,
शरदऋतु के शोभा सम्पन्न चंद्रमा के समान वजनकी मनोहर काद्धन्त है , जो तीनों लोकों की
आधारभूता और शुम्भ आवद दै त्यों का नाशा करनेिाली हैं तथा गौरी के शरीर से वजनका
प्राकट्य हुआ है , उन महासरस्वती दे िी का मैं वनरं तर भजन करता हाँ ॥३॥
॥माला प्राथाना॥
विर "ऐं ह्ीं अक्षमावलकायै नमः" इस मन्त्र से माला की पूजा करके प्राथा ना करें -
ॐ मां माले महामाये सिाशद्धक्तस्वरूवपवण।
चतुिागास्त्ववय न्यस्तस्तस्मान्मे वसद्धद्धदा भि॥
ॐ अविघ्नं कुरु माले त्वं गृह्णावम दवक्षणे करे ।
जपकाले च वसद्ध्यथं प्रसीद मम वसद्धये॥
ॐ अक्षमालावधपतये सुवसद्धद्धं दे वह दे वह सिामन्त्राथा सावधवन
साधय साधय सिावसद्धद्धं पररकल् पय पररकल् पय मे स्वाहा।
इसके बाद "ॐ ऐं ह्ीं क्ीं चामुण्डायै विच्चे " इस मन्त्र का १०८ बार जप करें और-
गुह्यावतगुह्यगोप्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम्।
वसद्धद्धभाितु मे दे वि त्वत्प्रसादान्महे श्िरर॥
इस श्लो्क को पढ़कर दे िी के िामहस्तमें जप वनिेदन करें ।
॥सिशतीन्यासः॥
तदनन्तर सिशती के विवनयोग, न्यास और ध्यान करने चावहये। न्यास की प्रणाली पूिाित् है -
॥विवनयोगः॥
प्रथममध्यमोत्तरचररत्राणां ब्रह्मविष्णुरुद्रा ऋ यः, श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो दे िताः,
गायत्र्युद्धष्णगनुष्टु भश्िं न्दां वस, नन्दाशाकम्भरीभीमाः शक्तयः, रक्तदद्धन्तकादु गाा भ्रामयो बीजावन,
अवग्निायुसूयाा स्तत्त्वावन,
ऋग्यजुःसामिेदा ध्यानावन, सकलकामनावसद्धये
श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीदे िताप्रीत्यथे जपे विवनयोगः।
इसे पढ़कर जल वगरायें ।
॥ऋष्यावदन्यासः॥
तत्पश्चात् न्यासिाक्ों में से एक-एक का उच्चारण करके दावहने हाथ की अाँगुवलयों से क्रमशः
वसर, मुख, हृदय, गुदा, दोनों, चरण और नावभ - इन अंगों का स्पशा करें ।
ब्रह्मविष्णुरुद्रऋव भ्यो नमः, वशरवस।
गायत्र्युद्धष्णगनुष्टु प्िन्दोभ्यो नमः मुखे। महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीदे िताभ्यो नमः, हृवद।
ऐं बीजाय नमः, गुह्ये। ह्ीं शक्तये नमः, पादयोः।
क्ीं कीलकाय नमः, नाभौ।
"ॐ ऐं ह्ीं क्ीं चामुण्डायै विच्चे"- इस मूलमन्त्र से हाथों की शुद्धद्ध करके करन्यास करें ।
॥करन्यासः॥
करन्यास में हाथ की विवभन्न अाँगुवलयों, हथेवलयों और हाथ के पृष्ठभाग में मन्त्रों का न्यास
(सथापन) वकया जाता है ; इसी प्रकार अंगन्यास में ह्दयावद अंगों में मन्त्रों की सथापना होती है ।
मन्त्रों को चेतन और मूवतामान् मानकर उन-उन अंगों का नाम ले कर उन मन्त्रमय दे िताओं
का ही स्पशा और िन्दन वकया जाता है , ऐसा करने से पाठ या जप करनेिाला स्वयं मन्त्रमय
होकर मन्त्रदे िताओं िारा सिाथा सुरवक्षत हो जाता है । उसके बाहर-भीतर की शुद्धद्ध होती है ,
वदव्य बल प्राि होता है और साधना वनविाघ्नतापूिाक पूणा तथा परम लाभदायक होती है ।
ॐ खड् वगनी शूवलनी र्ोरा गवदनी चवक्रणी तथा।
शङ्द्धखनी चावपनी बाणभुशुण्डीपररर्ायु धा॥ अङ्गुष्ठाभ्यां नमः।
ॐ शूलेन पावह नो दे वि पावह खड् गेन चाद्धम्बके।
र्ण्ास्वनेन नः पावह चापज्यावनःस्वनेन च॥ तजानीभ्यां नमः।
ॐ प्राच्यां रक्ष प्रतीच्यां च चद्धण्डके रक्ष दवक्षणे।
भ्रामणेनात्मशूलस्य उत्तरस्यां तथेश्िरर॥ मध्यमाभ्यां नमः।
ॐ सौम्यावन यावन रूपावण त्रैलोक्े विचरद्धन्त ते।
यावन चात्यथार्ोरावण तै रक्षास्मां स्तथा भुिम्॥ अनावमकाभ्यां नमः।
ॐ खड् गशूलगदादीवन यावन चास्त्रावण तेऽद्धम्बके।
करपल् लिसङ्गीवन तैरस्मान् रक्ष सिातः॥ कवनवष्ठकाभ्यां नमः।
ॐ सिास्वरूपे सिेशे सिाशद्धक्तसमद्धन्वते।
भयेभ्यस्त्रावह नो दे वि दु गे दे वि नमोऽस्तु ते॥ करतलकरपृष्ठाभ्यां ।
॥हृदयावदन्यासः॥
इसमें दावहने हाथ की पााँ चों अाँगुवलयों से ‘हृदय’ आवद अंगों का स्पशा वकया जाता है ।
ॐ खड् वगनी शूवलनी र्ोरा गवदनी चवक्रणी तथा।
शङ्द्धखनी चावपनी बाणभुशुण्डीपररर्ायु धा॥ हृदयाय नमः।
ॐ शूलेन पावह नो दे वि पावह खड् गेन चाद्धम्बके।
र्ण्ास्वनेन नः पावह चापज्यावनःस्वनेन च॥ वशरसे स्वाहा ।
ॐ प्राच्यां रक्ष प्रतीच्यां च चद्धण्डके रक्ष दवक्षणे।
भ्रामणेनात्मशूलस्य उत्तरस्यां तथेश्िरर॥ वशखायै ि ट् ।
ॐ सौम्यावन यावन रूपावण त्रैलोक्े विचरद्धन्त ते।
यावन चात्यथार्ोरावण तै रक्षास्मां स्तथा भुिम्॥ किचाय हुम् ।
ॐ खड् गशूलगदादीवन यावन चास्त्रावण तेऽद्धम्बके।
करपल् लिसङ्गीवन तैरस्मान् रक्ष सिातः॥ नेत्रत्रयाय िौ ट् ।
ॐ सिास्वरूपे सिेशे सिाशद्धक्तसमद्धन्वते।
भयेभ्यस्त्रावह नो दे वि दु गे दे वि नमोऽस्तु ते॥ अस्त्राय िट् ।
॥ध्यानम्॥
ॐ विद् युद्दामसमप्रभां मृगपवतस्कन्धद्धसथतां भी णां
कन्यावभः करिालखेटविलसद्धस्तावभरासेविताम्।
हस्तैश्च क्रगदावसखेटविवशखां श्चा्पं गुणं तजानीं
वबभ्राणामनलाद्धत्मकां शवशधरां दु गां वत्रनेत्रां भजे॥
मैं तीन नेत्रोंिाली दु गाा देिी का ध्यान करता हाँ , उनके श्रीअंगों की प्रभा वबजली के समान है ।
िे वसंह के कंधे पर बैठी हुई भयंकर प्रतीत होती हैं । हाथों में तलिार और ढ़ाल वलये अनेक
कन्याएाँ उनकी सेिा में खड़ी हैं । िे अपने हाथों में चक्र , गदा ,तलिार , ढ़ाल , बाण , धनु ,
पाश और तजानी मुद्रा धारण वकये हुए हैं । उनका स्वरूप अवग्नमय है तथा िे माथेपर चंद्रमा
का मुकुट धारण करती हैं ।
इसके बाद प्रथम चररत्र का विवनयोग और ध्यान करके "माकाण्डे य उिाच" से सिशती का
पाठ आरम्भ करें । प्रत्येक चररत्र का विवनयोग मूल सिशती के साथ ही वदया गया है तथा
प्रत्येक अध्याय के आरम्भ में अथासवहत ध्यान भी दे वदया गया है । पाठ प्रेमपूिाक भगिती का
ध्यान करते हुए करें । मीठा स्वर , अक्षरों का स्पष्ट उच्चारण, पदों का विभाग , उत्तम स्वर ,
धीरता , एक लय के साथ बोलना - ये सब पाठकों के गुण हैं ।* जो पाठ करते समय
रागपूिाक गात , उच्चारण में जल् दबाजी करता , वसर वहलाता , अपनी हाथ से वलखी हुई पुस्तक
पर पाठ करता , अथा की जानकारी नहीं रखता और अधूरा ही मन्त्र कण्ठसथ करता है , िह
पाठ करनेिालों में अधम माना गया है ।* जबतक अध्याय की पूवता न हो , तब तक बीच में
पाठ बन्द न करें । यवद प्रमादिश अध्याय के बीच में पाठ का विराम हो जाय तो पुनः प्रवत
बार पूरे अध्याय का पाठ करें ।* अज्ञानिश पुस्तक हाथ में ले कर पाठ करने का िल आधा
ही होता है । स्तोत्र का पाठ मानवसक नहीं , िावचक होना चावहये। िाणी से उसका स्पष्ट
उच्चारण ही उत्तम माना गया है ।* बहुत जोर-जोर से बोलना तथा पाठ में उतािली करना
िवजात है । यत्नपूिाक शुद्ध एिं द्धसथरवचत्त से पाठ करना चावहये।* यवद पाठ कण्ठसथ न हो तो
पुस्तक से करें । अपने हाथ से वलखे हुए अथिा ब्राह्मणेतर पुरु के वलखे हुए स्तोत्र का पाठ
न करें ।* यवद एक सहस्र से अवधक श्लोकों का या मन्त्रों का ग्रन्थ हो तो पुस्तक दे खकर ही
पाठ करें ; इससे कम श्लोक हों तो उन्हें कण्ठसथ करके वबना पुस्तक के भी पाठ वकया जा
सकता है ।* अध्याय समाि होने पर "इवत", "िध", "अध्याय" तथा "समाि" शब्दका उच्चारण
नहीं करना चावहये।
॥उपसंहारः॥
इस प्रकार सिशती का पाठ पूरा होने पर पहले निाणाजप करके विर दे िीसूक्त के पाठ का
विधान है ; अतः यहााँ भी निाणा -विवध उद् धृत की जाती है । सब काया पहले की ही भााँ वत
होंगे।
॥विवनयोगः॥
श्रीगणपवतजायवत। ॐ अस्य श्रीनिाणामन्त्रस्य ब्रह्मविष्णुरुद्रा ऋ यः,
गायत्र्युद्धष्णगनुष्टु भश्िन्दां वस, श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो दे िताः,
ऐं बीजम्, ह्ीं शद्धक्तः, क्ीं कीलकम्, श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीप्रीत्यथे जपे विवनयोगः।
॥ऋष्यावदन्यासः॥
ब्रह्मविष्णुरुद्रऋव भ्यो नमः, वशरवस। गायत्र्युद्धष्णगनुष्टु प्िन्दोभ्यो नमः, मुखे।
महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीदे िताभ्यो नमः, हृवद।
ऐं बीजाय नमः, गुह्ये। ह्ीं शक्तये नमः, पादयोः। क्ीं कीलकाय नमः, नाभौ।
"ॐ ऐं ह्ीं क्ीं चामुण्डायै विच्चे " - इवत मूलेन करौ संशोध्य-
॥करन्यासः॥
ॐ ऐं अङ्गुष्ठाभ्यां नमः। ॐ ह्ीं तजानीभ्यां नमः।
ॐ क्ीं मध्यमाभ्यां नमः। ॐ चामुण्डायै अनावमकाभ्यां नमः।
ॐ विच्चे कवनवष्ठकाभ्यां नमः। ॐ ऐं ह्ीं क्ीं चामुण्डायै विच्चे करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।
॥हृदयावदन्यासः॥
ॐ ऐं हृदयाय नमः। ॐ ह्ीं वशरसे स्वाहा। ॐ क्ीं वशखायै ि ट् ।
ॐ चामुण्डायै किचाय हुम्। ॐ विच्चे नेत्रत्रयाय िौ ट् ।
ॐ ऐं ह्ीं क्ीं चामुण्डायै विच्चे अस्त्राय िट् ।
॥अक्षरन्यासः॥
ॐ ऐं नमः, वशखायाम्। ॐ ह्ीं नमः, दवक्षणनेत्रे।
ॐ क्ीं नमः, िामनेत्रे। ॐ चां नमः, दवक्षणकणे।
ॐ मुं नमः, िामकणे। ॐ डां नमः, दवक्षणनासापुटे।
ॐ यैं नमः, िामनासापुटे। ॐ विं नमः, मुखे। ॐ च्चें नमः, गुह्ये।
"एिं विन्यस्याष्टिारं मूलेन व्यापकं कुयाा त्"
॥वदङ्न्यासः॥
ॐ ऐं प्राच्यै नमः। ॐ ऐं आग्नेय्यै नमः।
ॐ ह्ीं दवक्षणायै नमः। ॐ ह्ीं नैऋात्यै नमः।
ॐ क्ीं प्रतीच्यै नमः। ॐ क्ीं िायव्यै नमः।
ॐ चामुण्डायै उदीच्यै नमः। ॐ चामुण्डायै ऐशान्यै नमः।
ॐ ऐं ह्ीं क्ीं चामुण्डायै विच्चे ऊर्ध्ाा यै नमः।
ॐ ऐं ह्ीं क्ीं चामुण्डायै विच्चे भूम्यै नमः।
॥ध्यानम्॥
खड् गं चक्रगदे ुचापपररर्ाञ्छूलं भुशुण्डीं वशरः
शङ्खं संदधतीं करै द्धस्त्रनयनां सिाा ङ्गभू ािृताम्।
नीलाश्मद् युवतमास्यपाददशकां सेिे महाकावलकां
यामस्तौत्स्ववपते हरौ कमलजो हन्तुंह मधुं कैटभम्॥१॥
अक्षस्रक्परशुं गदे ुकुवलशं पद्मं धनुष्कुद्धण्डकां
दण्डं शद्धक्तमवसं च चमा जलजं र्ण्ां सुराभाजनम्।
शूलं पाशसुदशाने च दधतीं हस्तैः प्रसन्नाननां
सेिे सैररभमवदा नीवमह महालक्ष्मीं सरोजद्धसथताम्॥२॥
र्ण्ाशूलहलावन शङ्खमुसले चक्रं धनुः सायकं
हस्ताब्जैदाधतीं र्नान्तविलसिीतां शुतुल्यप्रभाम्।
गौरीदे हसमुद्भिां वत्रजगतामाधारभूतां महा-
पूिाा मत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भावददै त्यावदा नीम्॥३॥
इस प्रकार न्यास और ध्यान करके मानवसक उपचार से दे िी की पूजा करें । विर १०८ या
१००८ बार निाणामन्त्र का जप करना चावहये। जप आरम्भ करने के पहले "ऐं ह्ीं
अक्षमावलकायै नमः" इस मन्त्रसे माला की पूजा करके इस प्रकार प्राथाना करें -
ॐ मां माले महामाये सिाशद्धक्तस्वरूवपवण।
चतुिागास्त्ववय न्यस्तस्तस्मान्मे वसद्धद्धदा भि॥
ॐ अविघ्नं कुरु माले त्वं गृह्णावम दवक्षणे करे ।
जपकाले च वसद्ध्यथं प्रसीद मम वसद्धये॥
ॐ अक्षमालावधपतये सुवसद्धद्धं दे वह दे वह सिामन्त्राथा सावधवन
साधय साधय सिावसद्धद्धं पररकल् पय पररकल् पय मे स्वाहा।
इस प्रकार प्राथाना करके जप आरम्भ करें । जप पूरा करके उसे भगिती को समवपात करते
हुए कहे -
गुह्यावतगुह्यगोप्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम्।
वसद्धद्धभाितु मे दे वि त्वत्प्रसादान्महे श्िंरर॥
तत्पश्चात् विर नीचे वलखे अनुसार न्यास करें -
॥करन्यासः॥
ॐ ह्ीं अङ्गुष्ठाभ्यां नमः। ॐ चं तजानीभ्यां नमः।
ॐ वडं मध्यमाभ्यां नमः। ॐ कां अनावमकाभ्यां नमः।
ॐ यैं कवनवष्ठकाभ्यां नमः। ॐ ह्ीं चद्धण्डकायै करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।
॥हृदयावदन्यासः॥
ॐ खड् वगनी शूवलनी र्ोरा गवदनी चवक्रणी तथा।
शङ्द्धखनी चावपनी बाणभुशुण्डीपररर्ायु धा॥ हृदयाय नमः।
ॐ शूलेन पावह नो दे वि पावह खड् गेन चाद्धम्बके।
र्ण्ास्वनेन नः पावह चापज्यावनःस्वनेन च॥ वशरसे स्वाहा।
ॐ प्राच्यां रक्ष प्रतीच्यां च चद्धण्डके रक्ष दवक्षणे।
भ्रामणेनात्मशूलस्य उत्तरस्यां तथेश्िरर॥ वशखायै ि ट् ।
ॐ सौम्यावन यावन रूपावण त्रैलोक्े विचरद्धन्त ते।
यावन चात्यथार्ोरावण तै रक्षास्मां स्तथा भुिम्॥ किचाय हुम्।
ॐ खड् गशूलगदादीवन यावन चास्त्रावण तेऽद्धम्बके।
करपल् लिसङ्गीवन तैरस्मान् रक्ष सिातः॥ नेत्रत्रयाय िौ ट् ।
ॐ सिास्वरूपे सिेशे सिाशद्धक्तसमद्धन्वते।
भयेभ्यस्त्रावह नो दे वि दु गे दे वि नमोऽस्तु ते॥ अस्त्राय िट् ।
॥ध्यानम्॥
ॐ विद् युद्दामसमप्रभां मृगपवतस्कन्धद्धसथतां भी णां
कन्यावभः करिालखेटविलसद्धस्तावभरासेविताम्।
हस्तैश्च क्रगदावसखेटविवशखां श्चा्पं गुणं तजानीं
वबभ्राणामनलाद्धत्मकां शवशधरां दु गां वत्रनेत्रां भजे॥

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