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SANSKRIT

1. गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः

गरु
ु र्देवो महे श्वरः।

गुरुः साक्षात ् परं ब्रह्म,

तस्मै श्रीगरु वे नमः॥

अर्थ : गरु
ु ब्रह्मा है ,

गुरु विष्णु है , गुरु ही शंकर है ;

गरु
ु ही साक्षात ् परम ् ब्रह्म है ;

उन सद्गुरु को प्रणाम.

2. यत्र नार्यस्तु पूज्यंते

रमंते तत्र दे वताः।

यत्र तास्तु न पूज्यंते

तत्र सर्वाफलक्रियाः॥
अर्थ : जहाँ नारी की पज
ू ा होती है ,

वहां दे वता निवास करते हैं.

जहाँ इनकी पज
ू ा नहीं होती है ,

वहां सब व्यर्थ है .

3. स्वगहृ े पूज्यते मूर्खः

स्वग्रामे पूज्यते प्रभुः।

स्वदे शे पूज्यते राजा

विद्वान्सर्वत्र पूज्यते॥

अर्थ : मूर्ख की अपने घर पूजा होती है ,

मखि
ु या की अपने गाँव में पज
ू ा होती है ,

राजा की अपने दे श में पूजा होती है

विद्वान ् की सब जगह पज
ू ा होती है .

4. ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्ष
शान्ति:पथि
ृ वी शान्तिराप:

शान्तिरोषधय: शान्ति: वनस्पतय:

शान्तिर्विश्वेदेवा: शान्तिर्ब्रह्म

शान्ति:सर्वँ शान्ति:

शान्तिरे व शान्ति:सामा

शान्तिरे धि सुशान्तिर्भवतु।

॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: ॥

अर्थ :स्वर्ग लोक में शान्ति हो,

अंतरिक्ष में शान्ति हो,

पथ्
ृ वी पर शान्ति हो,

जल में शान्ति हो,

औषधियां शान्त हों,

वनस्पतियां शान्त हो,

विश्व के दे व शान्त हो,


ब्रह्मदे व शान्त हों,

सर्वत्र शान्ति हो,

शान्ति ही शान्त हो,

सम्पूर्ण शांति हो,

मझ
ु े शान्ति प्राप्त हो,

सर्वत्र शुभ शान्ति हो.

॥ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति॥

5. यदा यदा हि धर्मस्य

ग्लानिर्भवति भारत: ।

अभ्युथानम अधर्मस्य

तदात्मानं सज
ृ ाम्यहम ॥

अर्थ : जब-जब धर्म की हानि और

अधर्म की वद्धि
ृ होती है ,
तब-तब मैं अपने रूप को रचता हूँ

यानि साकार रूप से

संसार में प्रकट होता हूँ.

6. षड् दोषा: पुरुषेणेह

हातव्या भति
ू मिच्छता।

निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध

आलस्यं दीर्घसत्र
ू ता।।

अर्थ : वैभव और उन्नति चाहने वाले

पुरुष को ये छः दोषो का त्याग कर

दे ना चाहिए : नींद, तन्द्रा (ऊंघना),

डर, क्रोध, आलस्य तथा  दीर्घ शत्रत


ु ा

(कम समय लगने वाले कार्यो में

अधिक समय नष्ट करना)।

7. किन्नु हित्वा प्रियो भवति। 


किन्नु हित्वा न सोचति।।

किन्नु हित्वा अर्थवान ् भवति।

किन्नु हित्वा सख
ु ी भवेत ्।।

अर्थ : मनुष्य किस चीज को छोड़कर

प्रिय होता है ? कौन सी चीज किसी

का हित नहीं सोचती? किस चीज को

त्याग कर व्यक्ति धनवान होता है ?

तथा किस चीज को त्याग कर

सुखी होता है ?

8. मानं हित्वा प्रियो भवति।

क्रोधं हित्वा न सोचति।।

कामं हित्वा अर्थवान ् भवति।

लोभं हित्वा सुखी भवेत ्।।

अर्थ : अहं कार को त्याग कर मनष्ु य


प्रिय होता है , क्रोध ऐसी चीज है जो

किसी का हित नहीं सोचती। कामेच्छा

को त्याग कर व्यक्ति धनवान होता है

तथा लोभ को त्याग कर

व्यक्ति सख
ु ी होता है।

9. आलस्यं हि मनुष्याणां

शरीरस्थो महान ् रिपःु ।।

नास्त्युद्यमसमो बन्धुः

कृत्वा यं नावसीदति ।।

अर्थ : मनुष्य  के शरीर में स्थित

आलस्य ही मनुष्य का सबसे महान

शत्र 
ु होता है , तथा परिश्रम जैसा

कोई मित्र नहीं होता, क्योंकि

परिश्रम करने वाला  व्यक्ति कभी


दख
ु ी नहीं होता, तथा आलस्य

करने वाला व्यक्ति सदै व दख


ु ी रहता है ।

10. अयं निजः परो वेति

गणना लघु चेतसाम ् ।।

उदारचरितानां तु

वसुधैव कुटुम्बकम ्।।

अर्थ : "यह अपना है ", "वह पराया है "

ऐसी सोच छोटे ह्रदय वाले लोगों की

होती है । इसके विपरीत बड़े ह्रदय वाले

लोगों के लिए सम्पूर्ण धरती ही उनके

परिवार के समान होती है ।

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