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यह एक सर्वविदित तथ्य है कि मानवीय गुणों का अधिकाधिक विकास विपरीत परिस्थितियों में होता है । जीवन
में सर्वत्र इस सत्य के उदाहरण भरे हुए हैं ।कष्ट और पीड़ा आंतरिक वत्ति
ृ यों के परिशोधन के साथ ही एक ऐसी
आंतरिक दृढ़ता को जन्म दे ते हैं जो मनुष्य को तप्त स्वर्ण की भांति खरा बनाती है ।विपत्तियों के पहाड़ से टकराकर
उसका बल बढ़ता है । हृदय में ऐसी अद्भत
ु वत्ति
ृ का जन्म होता है कि एक बार कष्टों से जझ
ू कर फिर वह उनको खेल
समझने लगता है । उसके हृदय में विपत्तियों को ठोकर मारकर अपना मार्ग बना लेने की वीरता उत्पन्न हो जाती है ।
मन की भांति ही शरीर की दृढ़ता शारीरिक श्रम के द्वारा आती है ।शारीरिक परिश्रम उसके शरीर को बलिष्ठ बनाता
है । विपत्तियों में तपकर दृढ़ हुए हृदय की भांति परिश्रम की अग्नि में तपकर शरीर लौह इस्पात बन जाता है । जब
एक शायर ने कहा है कि 'मुश्किलें इतनी पड़ी मुझ पर की आसां हो गई 'तो वह इस सत्य से परिचित था। चारित्रिक
दृढ़ता के लिए जो कार्य कष्टों का आधिक्य करता है ,शारीरिक दृढ़ता के लिए वहीं श्रम करता है ।दोनों ही ऐसे हथोड़े है
जो पीट- पीट कर शरीर और मन में इस्पाती दृढ़ता को जन्म दे ते हैं।
मानवीय गण
ु ों का मानव का बल का श्रम का
कष्टों से जझ
ू कर अश्रम से तपकर आलस्य से
घ)विपत्तियों में तप कर दृढ़ हुए मन की भांति परिश्रम की अग्नि में तप कर शरीर कैसा बन जाता है ?
लौहइस्पात दर्ब
ु ल निर्बल कमज़ोर
अथवा
लोभ और अहं कार किसलिए जबकि एक दिन सब कुछ यहीं छोड़कर जाना है । लोभ का कोई अंत नहीं। जब
सिकंदर जैसे लोग साथ ही नहीं ले जा पाए- तो इतनी धन सम्पदा की लालसा करने से क्या लाभ। यह एक अंधी दौड़
है जिसमें आप कितना भी आगे निकल जाएं, फिर भी किसी से आप पीछे रहें गे ही और अंत में सभी कुछ यहीं
छोड़कर चले जाएँगे ।इसलिए ज्ञानी संत कह गए हैं कि हमें अपनी आवश्यकताओं और कामानाओं को सीमित करना
चाहिए, क्योंकि वे अंतहीन है और आप उस के भँवर में फँस कर अपनी सख
ु -शान्ति सब खो दें गे। यदि व्यक्ति
परिग्रह- रहित जीवन यापन करे , यदि वह यह मानकर चलें कि उसका कुछ नहीं है ,यह तो ईश्वर की दे न है और वह
इसका अभिरक्षक या संरक्षक है , तो वह खोने- पाने के तनाव से मक्ति
ु पा सकता है ।गीता में कहा गया है - मैं कौन हूँ
,मैं क्या लाया था,मैं क्या ले जाऊंगा। यदि हम अपने जीवन को तनाव रहित और खश
ु हाल बनाना चाहते हैं तो हमें
व्यर्थ की धन -वैभव की लालसा और लोभ छोड़कर जीवन को ईश्वर की अमानत समझकर, ईश्वर का आशीर्वाद
समझकर ,दस
ू रों की भलाई करते हुए एक संरक्षक की तरह कर्तव्य का निर्वाह करते हुए जीवन यापन करना होगा।
धन कम होता है
धन ही सबकुछ है
प्रसन्न रह कर
जीवन यापन कर
लालसा को अपनाकर
स्वयं को
आत्मा को
पुण्य को
प्रसन्नता को त्यागना
आशा को त्यागना
लाभ को त्यागना