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भूिमका
अध्याय एक - हम ये शरीर नहीं हैं
अध्यायदो -मृत्यु के समय उन्नित
अध्यायतीन -भौितक ग्रहों से मुिि
अध्यायचार -ब्रह्माण्ड के परे आकाश- िैकुुंठलोक
अध्यायपााँच -कृ ष्ण का सुंग करना
अध्यायछह -हम ये शरीर नहीं हैं
हे भरतिुंशी, शरीर में रहने िाला देही (आत्मा) सनातन है और उसका कभी भी िध
नहीं ककया जा सकता। अतः तुम्हें ककसी भी जीि के िलए शोक करने की आिश्यकता
नहीं है। (भगिद्गीता 2.30)
आत्म-साक्षात्कार का पहला कदम अपने को शरीर से िभन्न समझना हैं। मैं यह शरीर
नहीं हू ,ुं बिकक आत्मा हू ुं यह अनुभि करना उन मनुष्यों के िलए अिनिायय हैं , जो मृत्यु
को लााँघकर इस लोक से परे िैकुण्ठलोक में प्रिेश करना चाहते हैं। यह के िल कहने
की बात नहीं हैं कक, मैं यह शरीर नहीं हू ुं , बिकक िास्ति में अनुभि करने की बात है।
यह इतना सरल नहीं है, िजतना शुरू में लगता है। यद्यिप हम ये शरीर नहीं हैं , ककन्तु
एक ििशुद्ध चेतना हैं , किर भी हम ककसी न ककसी तरह शरीर रूपी िेश में बाँध गये
हैं। यकद हम िास्ति में ऐसा सुख और स्ितुंत्रता चाहते हैं जो मृत्यु से परे हो , तो हमें
ििशुद्ध चेतना की अपनी िैधािनक िस्थित में अपने आपको स्थािपत करना होगा और
उसमें बने रहना होगा।
देहात्म-बुिद्ध में रह कर सुख के बारे में हमारी जो सोच है , िह एक िििक्षप्त व्यिि की
सोच जैसे हैं। कु छ दाशयिनक ऐसा दािा करते हैं कक शारीररक पहचान की इस
िििक्षप्त िस्थित की िचककत्सा कोई भी कमय न करके करनी चािहए। क्योंकक िे
साुंसाररक कियाएुं ही हमारे दुःखों की जड़ हें , इसिलए िे दािा करते हैं कक हमें ये
सभी कियाएुं िास्ति में बन्द कर देनी चािहए। उनकी पूणयता का चरम बबदु बौद्ध
िनिायण जैसा है , िजसमें कोई काययकलाप नहीं ककया जाता। बुद्ध ने सदैि यही कहा
कक भौितक तत्त्िों के सुंयोग कसे यह शरीर उत्पन्न हुआ है और यकद ककसी न ककसी
तरह हम इन भौितक तत्त्िों को िभन्न कर दें या ििखिण्डत कर दें , तो सभी दुखों का
कारण दूर हो जाएगा। यकद कर -अिधकारी हमारा बड़ा घर होने के कारण हमें बहुत
परे शान करे , तो इस समस्या का एक सीधा सादा हल यह है कक उस मकान को ही
नष्ट कर कदया जाये। परन्तु भगिद्गीता बताती है कक यह भौितक शरीर ही सब कु छ
नहीं है। इन भौितक तत्त्िों के सुंयोग के परे आत्मा है और उस आत्मा का लक्षण है
चेतना।
चेतना को नकारा नहीं जा सकता है। िबना चेतना का शरीर मुरदा है। जैसे ही शरीर
से चेतना बाहर िनकल जाती है , मुाँह बोल नहीं सकता है , आाँख देख नहीं सकती है
और कान सुन नहीं सकते हैं। इस बात को एक बच्चा भी समझ सकता है। यह एक
सत्य है कक शरीर के जीिित रहने के िलए चेतना िनतान्त रूप से अिनिायय है। यह
चेतना क्या है ? जैसे ताप अथिा धुआाँ अिि का लक्षण है , िैसे ही चेतना आत्मा का
लक्षण है। आत्मा की शिि चेतना के रूप में व्यि होती है। िस्तुतः चेतना िसद्ध
करती है कक आत्मा ििद्यमान है। यह के िल भगिद्गीता का दशयन नहीं , बिकक सारे
िैकदक सािहत्य का िनष्कषय है।
शुंकराचायय के सुंप्रदाय के िनर्विशेषिादी अनुयायी और भगिान् श्रीकृ ष्ण से चली आ
रही िशष्य-परम्परा के िैष्णि लोग आत्मा के िास्तििक अिस्तत्ि का स्िीकार करते
हैं, परन्तु बौद्ध मत के दाशयिनक इसे नहीं मानते। बौ 0 मत िाले तकय करते है कक
भौितक पदाथो के िमश्रण की ककसी ििशेष अिस्था में चतेना उत्पन्न होती हैं परन्तु
इस तकय का खण्डन इस तथ्य से हो जाता है कक भौितक पदाथय के सभी अियि हमारे
पास होने पर भी हम उनसे चेतना उत्पन्न नहीं कर सकते हैं। मरे हुए व्यिि के शरीर
में सभी भौितक तत्त्ि उपिस्थत हो सकते हैं , परन्तु हम उस व्यिि में चेतना पुनः
जागृत नहीं कर सकते हैं। यह शरीर एक युंत्र की भााँित नहीं है। जब युंत्र का कोई
पुरजा काम करना बुंद कर देता है , तो हम उसे बदल सकते हैं , और युंत्र किर से काम
करने लगता है , परन्तु जब शरीर काम करना बुंद कर देता है और चेतना शरीर छोड़
देती है , तब टू टे हुए भाग को बदलकर चेतना को पुनः जागृत करने की कोई
सम्भािना नहीं रहती। आत्मा शरीर से िभन्न है और जब तक आत्मा है , तब तक
शरीर जीिन्त है। परन्तु आत्मा की अनुपिस्थित में शरीर को जीिित रखने की कोई
सम्भािना नहीं है।
चूाँकक हम आत्मा को अपनी स्थूल इिन्ियों से अनुभि नहीं कर पाते हैं , इसिलए हम
उसके अिस्तत्ि को नकारते है। परन्तु िास्ति में ऐसी अनेक चीजें हैं , िजन्हें हम देख
नहीं सकते हैं। हम हिा को नहीं देख सकते हैं , रे िडयो की तरुं गे या ध्ििन को भी नहीं
देख सकते हैं और न ही हम अपनी कुुं द आाँखों से बहुत छोटे जीिाणुओं को देख सकते
हैं, परन्तु इस का अथय यह नहीं है कक िे होते ही नहीं। सूक्ष्मदशी युंत्र तथा अन्य युंत्रो
की सहायता से हम ऐसी बहुत सारी चीजें देख सकते है , िजन्हें पहले हम अपनी
अपूणय इिन्ियों से न देख सकने के कारण नकारते थे। चूुंकक आत्मा आकार में अणु
समान है और उसे हम अपनी इिन्ियों और युंत्रो से अभी तक नहीं देख पाए हैं , के िल
इसी कारण से हमें यह िनष्कषय नहीं िनकाल लेना चािहए कक आत्मा होता ही नहीं
है। किर भी इसके लक्षणों और प्रभाि से हम उसकी अनुभूित कर सकते हैं।
भगिद्गीता में भगिान् कृ ष्ण कहते है कक हमारे सभी दुःख शरीर के साथ हमारी
गलत पहचान के कारण हैं।
हे कु न्तीपुन, गमी और सदी एिुं सुख तथा दुख का अस्थायी तौर पर प्रकट होना तथा
कालिम में उनका अदृश्य होना शीत तथा ग्रीष्म ॠतुओं के आने -जाने के समान है। हे
भरतिुंशी, िे इिन्ियबोध से उत्पन्न होते हैं और मनुष्य को चािहए कक िह अििचल
भाि से सहन करना सीखे। (भगिद्गीता 2.14)
ग्रीष्म ॠतु में पानी के स्पशय से हमें आनन्द आता है , ककन्तु शीत ॠतु में इसी पानी
को हम छू ना नहीं चाहते , क्योंकक िह बहुत ठण्डा होता है। दोनो िस्थितयों में पानी
िही है, परन्तु शरीर के सम्पकय से िह आनन्दमयी या दुखदायी लगता है।
सुख और दुख के सारे अनुभि शरीर के कारण होते हैं। शरीर और मन ककन्ही ििशेष
पररिस्थितयों में सुख तथा दुख का अनुभि करते हैं। िास्ति में , हम सुख के िलए
लालाियत रहते हैं , क्योंकक सुख ही आत्मा का मूल स्िरूप है। आत्मा उन्हीं परमेश्वर
का अिभन्न अुंश है , जो कक सिच्चदानन्द ििग्रह हैं -जो सनातन हैं , िजन्हें पूणय ज्ञान है
और जो सदैि आनन्दमय हैं। िास्ति में कृ ष्ण नाम , जो कक साुंप्रदाियक नहीं है ,
उसका अथय है , सबसे बड़ा आनन्द। कृ ष् का अथय है , सबसे बड़ा और ण का अथय है ,
आनन्द। कृ ष्ण भगिान् आनन्द के सार हैं और उनके अुंश होने के कारण हम भी
आनन्द के िलए लालाियत रहते हैं। समुि के जल की एक बूाँद में समुि के सभी गुण
होते है। इसिलए पूणय परमेश्वर के लघु अुंश होते हुए भी हममें परमेश्वर के िही
शििशाली गुण हैं।
आत्मा अणु के समान छोटा होने पर भी हमारे सम्पूणय शरीर को अनेक आश्चययजनक
िििधयों से कायय करने के िलए चलायमान रखता है। इस सुंसार में हम इतने शहर ,
सड़कें , पुल, इमारतें, स्मारक और इतनी महान सभ्यताएाँ देखते हैं , ककन्त्ाााु उन्हें
ककसने बनाया है ? ये सब िस्तुएाँ सूक्ष्म बचगारी , आत्मा ने बनाई हैं , जो शरीर में
रहता है। यकद ऐसी आश्चययजनक चीजें छोटी सी आध्याित्मक बचगारी से बन सकती
हैं, जो हम ककपना भी नहीं कर सकते कक सिोच्च पूणय आत्मा , अथायत् परमेश्वर क्या
क्या बना सकते हैं। सूक्ष्म आित्मक बचगारी का स्िाभाििक लगाि उन्हीं गुणों से है ,
जो पूणय परमेश्वर में है -ज्ञान, आनन्द और शाश्वतता -परन्तु भौितक शरीर के कारण
आत्मा की ये इच्छाएाँ पूरी नहीं होतीं और उसे िनराशा प्राप्त होती है। आत्मा की
इच्छा को पूरा करने की िििध के बारे में जानकारी भगिद्गीता में दी गई है।
ितयमान काल में हम एक अपूणय साधन के द्वारा ज्ञान , आनन्द और शाश्वतता प्राप्त
करने की चेष्टा कर रहे हैं। िास्ति में , इन उद्ाेश्यों की ओर हमारी प्रगित भौितक
शरीर के कारण अिरूद्ध हो रही हैं , इसिलए हमें शरीर से परे अपने अिस्तत्ि
साक्षात्कार पर पहुाँचना है। सैद्धािन्तक ज्ञान कक हम ये शरीर नहीं हैं , कु छ काम नहीं
आएगा। हमें अपने आपको शरीर से अलग , उसके स्िामी के रूप में रखना होगा ,
सेिक के रूप में नहीं। यकद हम भलीभााँित जानते हैं कक कार कै से चलाई जाती है , तो
िह हमें अच्छी सेिा देगी लेककन यकद हम नहीं जानते , तो यह हमारे िलए खतरनाक
िस्थित होगी।
शरीर इिन्ियों से बना है और इिन्ियााँ सदैि अपने ििषयों की भूखी रहती हैं। जब
आाँख ककसी सुन्दर व्यिि को देखती है तो िह हमसे कहती है , अरे िहााँ एक सुन्दर
लड़की है , सुन्दर लड़का है , िहााँ चलकर देखो। कान हमसे कहते हैं , अरे िहााँ बहुत
अच्छा सुंगीत हो रहा है , उसे सुनने चलो। जीभ कहती है , अरे , िहााँ स्िाकदष्ट भोजन
का अच्छा भोजनालय हैं , िहााँ चलो। इस प्रकार इिन्ियााँ हमें एक स्थान से दूसरे
स्थान की ओर घसीट रही हैं और इसके कारण हम परे शान हैं।
िजस प्रकार पानी में तैरती नाि को प्रचण्ड िायु दूर बहा ले जाती है उसी प्रकार
ििचरणशील इिन्ियों में से कोई एक िजस पर मन िनरन्तर लगा रहता हैं , मनुष्य की
बुिद्ध को हर लेती हैाैाुं। (भगिद्गीता 2.67)
हम अपनी इिन्ियों को कै से िनयुंित्रत करें , यह सीखना अिनिायय है। गोस्िामी उपािध
उसे दी जाती है , िजसने यह सीख िलया हो कक इिन्ियों के स्िामी कै से बनें। गो का
अथय है इिन्ियााँ और स्िामी का अथय है िश में करने िाला ; इसिलए जो इिन्ियााँ को
िश में कर सकता है , िही गोस्िामी माना जाता है। कृ ष्ण भगिान् कहते हैं कक जो
अपनी पहचान भ्रामक भौितक शरीर से रखता है , िह अपने सही स्िरूप , आत्मा में
िस्थत नहीं हो सकता है। शारीररक आनन्द चुंचल और प्रमादी है और इसके क्षिणक
स्िभाि के कारण हम िास्ति में इसका आनन्द नहीं ले सकते हैं। िास्तििक आनन्द
आत्मा का है , शरीर का नहीं है। हमें अपने जीिन को इस तरह मोड़ना है कक हम
शारीररक आनन्द के कारण पथभ्रष्ट न हो जाएाँ। यकद ककसी प्रकार हम पथ से
ििचिलत हो गये , तो हमारे िलए अपनी चेतना को शरीर से परे िास्तििक स्िरूप में
स्थािपत करना सम्भि नहीं है।
जो लोग इिन्ियभोग तथा भौितक ऐश्वयय के प्रित अत्यिधक आसि होने से ऐसी
िस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाते हैं , उनके मनों में भगिान् के प्रित भिि का दृढ़ िनश्चय
नहीं होता। िेदों में मुख्यतया प्रकृ ित के तीनों गुणों का िणयन हुआ हैं। हे अजुयन ! इन
तीनों गुणों से ऊपर उठों। समस्त द्वैतों और लाभ तथा सुरक्षा की सारी िचन्ताओं से
मुि होकर आत्म-परायण बनों। (भगिद्गीता 2.44-45)
िेद शब्द का अथय है , ज्ञान की पुस्तक। ज्ञान की अनेक पुस्तकें हैं जो कक देश ,
जनमानस, िातािरण आकद के अनुसार बदलती रहती हैं। भारत में ज्ञान की पुस्तकों
को तात्पयय िेदों से होता है। पाश्चात्य देशों में िे पुस्तकें ओकड टेस्टामेन्ट तथा न्यू
टेस्टामेन्ट कहलाती हैं। मुसलमान लोग कु रान को स्िीकार करते है। ज्ञान की इन सब
पुस्तकों का उदेश्् य क्या है ? ये हमें शुद्ध आत्मा के रूप में अपनी िस्थित को समझने में
प्रिशिक्षत करने के िलए हैं। इनका उदेश्् य कु छ िनयमों और िििधयााँ से शारीररक
कियाओं को िनयुंित्रत करना है और ये िििधयााँ और िनगम नैितकता के िसद्धान्त
कहलात हैं। उदाहरण के िलए , हमारे जीिन को िनयिमत करने के िलए बाइबल में
दस िनदेश कदए गए हैं। सिोच्च िसिद्ध पाने के िलए शरीर को सुंयम में रखना
अिनिायय हे; िबना िनयामक िसद्धान्तों के जीिन में िसिद्ध पाना सम्भि नहीं है। िभन्न
िभन्न देशों अथिा िभन्न िभन्न शास्त्रों में िनयामक िसद्धान्तों में भेद हो सकते है , ककन्तु
इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता क्योंकक िे देश , काल और जनता की रुिचयों के
अनुसार ही बनाये जाते है। परन्तु िनयमन लागू करने का िसद्धान्त िही रहता हैं।
इसी प्रकार सरकार भी नागररकों द्वारा पालन ककए जाने के िलए कु छ ििशेष िनयम
बनाती है। िबना िनयामक िसद्धान्त के , सरकार या समाज की प्रगित की कोई
सम्भािना नहीं है। उपरोि श्लोक में भगिान् श्रीकृ ष्ण अजुयन से कहते हैं कक िेदों के
िनयामक िसद्धान्त भौितक प्रकृ ित के तीनों गुणों सत्त्ि , रज और तम को िनयुंित्रत
करने के िलए हैं (त्रैगुण्य ििषया िेदा)। तथािप भगिान् कृ ष्ण अजुयन को परामशय देते
हैं कक िह अपने आप शुद्ध आत्मा के रूप में अपनी स्िाभाििक िस्थित में स्थािपत
करें , जो कक भौितक प्रकृ ित के द्वन्द्वों से परे हैं।
जैसे हमने पहले भी इुं िगत ककया है , ये द्वन्द्व जैसे जाड़ा और गमी , सुख और दुख ,
इिन्ियों के उनके ििषयों के साथ सम्पकय से उत्पन्न होते हैं। दूसरे शब्दों में , ये शरीर के
साथ हमारी पहचान के कारण उत्पन्न होते हैं। भगिान् कृ ष्ण बतलाते हैं कक जो लोग
भौितक सुख और शिि में िलप्त होते हैं , िे िेदों की उिियों के धोखे में आ जाते हैं ,
िजनमें यज्ञों और िनयिमत कमों से स्िगयलोक के आनन्द का प्रलोभन कदया गया है।
आनन्द लेना हमारा जन्मिसद्ध अिधकार है , क्योंकक यह आत्मा का गुण है , ककन्तु
आत्मा साुंसाररक चीजों को भोगने का प्रयास करता है और यही गलती है।
हर कोई आनन्द उठाने के िलए भौितक ििषयों की तरि मुड़ जाता है और िजतना
सम्भि हो सकता है उतना ज्ञान एकित्रत करता है। कोई रसायन शास्त्री , भौितक
शास्त्री, राजिनतीज्ञ या कलाकार इत्याकद बन रहा है। हर कोई व्यिि हर चीज के
ििषय में कु छ न कु छ तो जानता है अथिा कु छ चाजों के बारे में सब कु छ जानता है
और सामान्य रूप में इसी को ज्ञान कहा जाता है। परन्तु जैसे ही हम यह शरीर को
छोड़ते हैं , हमारा यह सभी ज्ञान नष्ट हो जाता है। िपछले जन्म में कोई व्यिि महान
ज्ञानी हुआ होगा , परन्तु इस जीिन में उसे किर से ििद्यालय जाकर शुरुआत करनी
पड़ती है और प्रारम्भ से पढ़ना -सीखना पड़ता है। िपछले जन्म में हमने जो भी ज्ञान
प्राप्त ककया था , उसे हम इस जन्म में भूल जाते हैं। िस्थित यह है कक हम िास्ति में
शाश्वत ज्ञान खोज रहे हैं , परन्तु िह इस भौितक शरीर से प्राप्त नहीं ककया जा सकता
है। हम सब इन शरीरों के माध्यम से आनन्द खोज रहे हैं , परन्तु शारीररक आनन्द
हमारा िास्तिकक आनन्द नहीं है। यह कृ ित्रम है। हमें यह समझना होगा कक यकद हम
इस कृ ित्रम आनन्द में लगे रहना चाहते हैं , तो हम अपने सनातन आनन्द की िस्थित
को नहीं पा सकें गे।
इस शरीर को बीमारी की िस्थित समझना चािहए। बीमार व्यिि ठीक से आनन्द
नहीं उठा सकता है। उदाहरण के िलए , पीिलया से पीिड़त व्यिि को चीनी कड़िी
लगेगी, परन्तु स्िस्थ व्यिि उसके मीठे पन का स्िाद ले सकता है। दोनों िस्थितयों में
चीनी तो िही है , लेककन हमें अपनी िस्थित के अनुसार इसके स्िाद अलग लगते हैं।
जब तक हम इस देहात्मभाि की बीमार अिस्था को ठीक नहीं हो जाते , हम
आध्याित्मक जीिन के मीठे पन का आस्िाद नहीं ले सकते। िास्ति में , िह हमें स्िाद
में कड़िा लगेगा और साथ ही साथ इस भौितक जीिन के आनन्द को बढ़ानके से हम
अपनी बीमार िस्थित को और भी जरटल बनाते जाएाँगे। टाइिाइड का रोगी ठोस
भोजन नहीं खा सकता है और यकद कोई उसके आनन्द के िलए उसे ऐसा भोजन दे
और िह उसे खा ले , तो िह अपनी बीमारी और अिधक जरटल बना रहा है और
अपने अिस्तत्ि के दुखों से मुिि पाना चाहते हैं , तो हमें शरीर की आिश्यकताएाँ और
उसके सुख कम करने होंगे।
िास्ति में , भौितक आनन्द तो रुं च मात्र भी आनन्द नहीं है। िास्तििक आनन्द कभी
समाप्त नहीं होता है। महाभारत में एक श्लोक है - रमन्ते योिगनोऽनन्ते -अथायत
योगीजन (योिगनो) जो आत्मज्ञान के स्तर तक प्रगित करने की चेष्टा कर रहे हैं ,
िास्ति में आनन्द ले रहे हैं (रमन्ते), ककन्तु उनका िह आनुंद अनुंत है (अनन्ते)-कभी
अन्त न होने िाला। ऐसा इसिलए है कक उनका आनन्द परम भोिा (राम) कृ ष्ण के
सम्बन्ध में है। भगिान् श्रीकृ श्ण िास्तििक भोिा हैं और भगिद्गीता इसकी पुिष्ट
करती है ाः
मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परम भोिा , समस्त लोकों तथा देिताओं का
परमेश्वर एिुं समस्त जीिों का उपकारी एिुं िहतैषी जानकर सुंत -महात्मा भौितक
दुखों की पीड़ा से शािन्त प्राप्त करते हैं। (भगिद्गीता 5.21)
भोग का अथय है आनन्द और हमारा आनन्द अपनी िस्थित को भोग्य के रूप में
समझने से आता हैाै। िास्तििक भोिा परम भगिान् हैं और हम उनके द्वारा भोगे
जाते है।
इस सम्बन्ध का एक उदाहरण भौितक सुंसार में पित और पत्नी के बीच पाया जा
सकता है -पित भोिा है अथायत पुरुष है और पत्नी भोग्य अथायत प्रकृ ित है। प्री शब्द
का अथय है स्त्री। पुरुष या आत्मा भोिा है , और प्रकृ ित भोग का ििषय है। ककन्तु
आनन्द पित और पत्नी दोनों की लेते हैं। जब िास्ति में आनन्द होता है , तब ऐसी
कोई िभन्नता नहीं रहती कक पित अिधक आनन्द ले रहा है या पत्नी कम आनन्द ले
रही है। यद्यिप पुरुष भोगने िाला है और स्त्री भोग्या है , परन्तु जब आनन्द आता है
तब कोई िभन्नता नहीं रहती है। व्यापक दृिष्ट से देखने से कोई भी जीि भोिा नहीं
है।
भगिान् अनेक अुंशो में ििस्ताररत हुए और हम उन्हीं में से एक अुंश हैं। भगिान् एक
और अिद्वत्तीय हैं , परन्तु उन्होंने आनन्द की अनुभूित के िलए अनेक रूपों में
ििस्ताररत होने की इच्छा की। हमें अनुभि है कक एक कमरे में अके ले बैठे , अपने आप
से बाते है करने से बहुत कम या कु छ भी आनन्द नहीं िमलता। लेककन , यकद कमरे में
पााँच व्यिि उपिस्थत हों , तो हमारा आनन्द बढ़ जाता है और यकद हम अनेक
व्यिियों के समक्ष भगिान् कृ ष्ण की चचाय कर सकें , तो हमारा आनन्द और भी बढ़
जाता है। आनन्द का अथय है ििििधता । भगिान् अपने आनन्द के िलए अनेक
ििस्ताररत हुए और इस प्रकार हमारी िस्थित उन्हें आनन्द देने की है। यही हमारा
िैधािनक स्िरूप है और यही हमारे सृजन होने का उदेश्् य है। आनन्द का भोिा और
भोग्य दोनों ही चेतनायुि हैं , परन्तु भोग्य की चेतना भोिा की चेतना के अधीनस्थ
है। यद्यिप कृ ष्ण भोिा हैं और हम भोग्य है , तथािप इस आनन्द में प्रत्येक व्यिि
बराबरी से सहभागी बन सकता है। हमारा आनन्द तब पूणय बन सकता है , जब हम
भगिान् के आनन्द में सहयोग दें। हमारे िलए शारीररक स्तर पर अलग से आनन्द
लेने की कोई सम्भािना नहीं है।
हे कु न्तीपुत्र ! सुख तथा दुख का क्षिणक उदय तथा कालिम में उनका अन्तधायन होना
सदी तथा गमी की ॠतुओं के आने जाने के समान हैं। हे भारतिुंशी ! िे इिन्ियबोध से
उत्पन्न होता हैं और मनुष्य को चािहए कक अििचल भाि से उनको सहन करना
सीखे। (भगिद्गीता 2.14)
इस प्रकृ ित के तीन गुणों की प्रितिया से यह स्थूल भौितक शरीर उत्पन्न हुआ है और
इसका ििनाश िनिश्चत है।
अििनाशी, अप्रमेय तथा शाश्वत जीि के भौितक शरीर का अन्त अिश्यम्भािी हैं।
अतः हे भरतिुंशी! युद्ध करों। (भगिद्गीता 2.18)
इसिलए भगिान् कृ ष्ण हमें देहात्मबुिद्ध से ऊपर उठकर अपना िास्तििक
आध्याित्मक जीिन प्राप्त करने के िलए प्रोत्सािहत करते हैं।
जब देहधारी जीि भौितक शरीर से सम्बद्ध इन तीनों गुणों को लााँघने में समथय होता
हैं तो िह जन्म , मृत्यु, बुढ़ापा तथा उनके कष्टों से मुि हो सकता है और इसी जीिन
में अमृत भोग सकता हैं। (भगिद्गीता 14.20)
हमें अपने आप को तीनों गुणों से ऊपर शुद्ध ब्रह्मभूत आध्याित्मक स्तर में िस्थत करने
के िलए कृ ष्णभािनामृत की िििध स्िीकार करनी होगी। श्रीचैतन्य महाप्रभु का
उपहार, यह महामुंत्र , हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण , कृ ष्ण कृ ष्ण, हरे हरे , हरे राम, हरे राम,
राम राम, हरे हरे का कीतयन इस िििध को सुगम बना देता है। यह िििध भिियोग
या मुंत्रयोग कहलाती है और सियश्रेष्ठ योगी इस िििध का उपयोग करते है।
अध्यात्मिादी ककस प्रकार जन्म-मृत्यु से परे , भौितक शरीर से परे अपनी पहचान का
अनुभि करते हैं और अपने आपको इस भौितक ब्रह्माण्ड से आध्याित्मक लोकों में
स्थानान्तररत करते हैं, िह अगले प्रकरणों का ििषय है।
कृ ष्णकृ पामूर्वत
श्री श्रीमद् ए.सी. भिििेदान्त स्िामी प्रभुपाद
सुंस्थापकाचायय ाः अन्तरायष्ट्रीय कृ ष्णभािनामृत सुंघ
िजस प्रकार पानी में तैरता नाि को प्रचण्ड िायु दूर बहा ले जाती है , उसी प्रकार
इिन्ियों में से कोई एक िजस पर मन के िन्ित रहता है , मनुष्य की बुिद्ध को हर लेती
है। (पृष्ठ 7)
भगिान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने किलयुग की पित मानि जाित के उद्धार के िलए हरे
कृ ष्ण महामुंत्र प्रदान ककया है ाः हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण , कृ ष्ण कृ ष्ण, हरे हरे , हरे राम,
हरे राम, राम राम, हरे हरे ॥ (पृष्ठ 15)
भगिान् कृ ष्ण के भि भििमय सेिा के कायो द्वारा िास्तििक आनन्द का अनुभि
करते हैं , जब कक आधुिनक सभ्यता में भौितकतािादी मनुष्य नशा इत्याकद के द्वारा
कृ ित्रम रूप से आनन्द लेने का प्रयास करते हैं। (पृष्ठ 38)
हजारों मी तक यात्रा कर सकते हैं , परनतु यकद उन्हें ककसी ग्रह पर ििश्राम नहीं
िमलता, तो उन्हें इस पृथ्िी पर िापस आना पड़ता है। कु छ भी हो , ििश्राम की
आिश्यकता तो होती ही है। अव्यि रूप में ििश्राम अिनिश्चत है। इसिलए
श्रीमद्भागितम् कहता है कक इतने पररश्रम के बाद भी यकद िनर्विशेषिादी
आध्याित्मक ििश्व में प्रिेश करता है और अव्यि रूप पाता है , तब भी िह इस
भौितक सुंसार में िापस आता हैं क्योंकक उसने प्रेम तथा भिि के साथ भगिान् की
सेिा करने की उपेक्षा की है। इसिलए जब तक हम इस पृथ्िी पर हैं , हमें परम
भगिान् कृ ष्ण की सेिा और उन्हें प्रेम करने की अभ्यास करना सीखना चािहए। यकद
हम इसे सीख लें , तो हम उन आध्याित्मक लोकों को प्रिेश कर सकते है।
िनर्विशेषिाकदयों की परव्योम में िस्थित अस्थाई होती है , क्योंकक अके लेपन के कारण
िे कु छ सुंग पाने का प्रयास करें गे। चूुंकक िे व्यििगत रूप से भगिान् की सुंगित प्राप्त
नहीं करते हैं , इसिलए उन्हें इस सुंसार में किर से आकर बद्धजीिों के सुंग में रहना
पड़ता है।
इसिलए यह बहुत ही महत्त्िपूणय बात है कक हम अपने िैधािनक स्िरूप को समझें।
हम शाश्वतता , पूणय ज्ञान और साथ ही साथ आनन्द भी कहते है , अतः हम इस
भौितक सुंसार से िमलने िाले आनन्द को स्िीकार करते हैं। ककन्तु कृ ष्णभािनामृत में
िास्तििक आनन्द का आस्िादन ककया जाता है। भौितक जगत में साधारणतया मैथुन
ही सबसे ऊाँचा आनन्द माना जाता है। यह आनन्द आध्याित्मक जगत में पाये जाने
िाले सुंभोग -आनन्द अथायत् कृ ष्ण भगिान् के सािन्नध्य से िमलने िाले आनन्द की
ििकृ त परछाई है। परन्तु हमें यह नीं सोचना चािहए कक िह आनन्द इस भौितक
सुंसार के मैथुन के आनन्द जैसा है। नहीं , िह िभन्न है। परन्तु जब तक आध्याित्मक
जगत मेाेाुं यौन जीिन नहीं है , जब तक उसकी परछाई यहााँ नहीं आ सकती है।
यहााँ तो यह के िल ििकृ त परछाई है , परन्तु िास्तििक जीिन िहााँ भगिान् कृ ष्ण में
है, जो कक सभी आनन्दों से पूणय हैं। इसिलए सबसे उत्तम िििध अपने आप को अभी से
प्रिशिक्षत करना है , िजससे मृत्यु के समय हम िहााँ कृ ष्ण की सुंगित करें । ब्रह्मसुंिहता
(5.21) में भगिान् कृ ष्ण और उनके धाम का िणयन इस प्रकार ककया गया हैं ाः
मैं उन आकदपुरुष भगिान् गोििन्द का भजन करता हू ुं जो लाखो ककपिृक्षों से िघरे
हुए बचतामिणसमूह से िनर्वमत भिनों में कामधेनु गायों का पालन करते हैं एिुं जो
असुंख्य लिक्ष्मयों अथ्िा गोिपयों द्वारा सदैि प्रगाढ़ आदर और प्रेम सिहत सेिित है।
यह कृ ष्णलोक का एक िणयन है। िहााँ के घर िचन्तामिण रत्न से बने हुए हैं।
िचन्तामिण पत्थर िजसे भी छू ता है , िह तुरन्त सोना बन जाता है। िहााँ के िृक्ष
इच्छा की पूर्वत करने िाले ककपिृक्ष हैं। उनसे व्यिि जो कु छ चाहे , पा सकता हैं इस
सुंसार में हमें आम के िृक्ष से आम िमलता है और सेब के िृक्ष से सेब िमलता है , परन्तु
िहााँ ककसी भी िृक्ष से व्यिि जो चाहे िह पा सकता है। इसी प्रकार िहााँ गाएाँ सुरिभ
कहलाती है , जो असीिमत दूध देती है। यह िैकुण्ठ लोक का िणयन है , जो िैकदक
सािहत्य में पाया जाता हैं।
इस भौितक सुंसार में हम जन्म , मृत्यु और अनेक प्रकार के दुखों के अभ्यस्त हो गये
हैं। भौितक िैज्ञािनकों ने इिन्ियों के आनन्द के िलए और ििनाश के िलए अनेक
सुििधाओं का आििश्कार कर िलया है , परन्तु उन्होंने िृद्धािस्था , बीमारी और मृत्यु
जैसी समस्याओं का कोई भी हल नहीं ढ़ुंढ़ ू ा है। िे ककस ऐसे युंत्र का आििषकर नहीं
कर सकते हैं जो कक िृद्धािस्था, मृत्यु और बीमारी को रोक सके । हम ऐसी कोई चीज
का िनमायण कर सकते हैं , जो कक मृत्यु की गित को और तेज कर दे , परन्तु ऐसी ककसी
चीज का नहीं जो कक मृत्यु को रोक दे। ककन्तु जो बुिद्धमान हैं , िे इस साुंसाररक
जीिन के चार प्रकार के दुखों से मतलब नहीं रखते हैं , बिकक आध्याित्मक लोकों में
उन्नित करने से मतलब रखते हैं। जो सदैि उपािध (िनत्य युिस्य योिगनः ) में रहता
है, िह अपना ध्यान ककसी अन्य चीज में नहीं मोड़ता है। िह सदैि समािध में िस्थर
रहता है। उसका मन सदैि कृ ष्ण के िचन्तन में , ककसी प्रकार से ििचिलत हुए िबना
(अनन्य-चेताःसततम्) लगा रहता है। सततम् से तात्पयय ककसी भी जगह , ककसी भी
समय से हैं।
मैं भारत में िृन्दािन में रहता था और अब मैं अमरीका में हू ुं परन्तु इसका अथय यह
नहीं है कक मैं िृन्दािन में हू ुं , परन्तु इसका अथय यह नहीं है कक मैं िृन्दािन के बाहर
हू ;ुं क्योंकक यकद मैं सदैि कृ ष्ण के ििषय में सोचूुं , तो मैंाुं भौितक उपािधयों ले जुड़े
होने के बािजूद भी िृन्दािन में हू ।ुं कृ ष्णभािना का अथय यह है कक मनुष्य सदैि
भगिान् कृ ष्ण के साथ िैकुण्ठ में , गोलोक िृन्दािन में रहता है और िह इस भौितक
शरीर को छोड़ने मात्र की प्रतीक्षा करता रहता है स्मरित िनत्यशः का अथय है ,
िनरन्तर याद करना और जो कृ ष्ण का लगातार स्मरण करता है , उसके िलए कृ ष्ण
सरलता से खरीदे जा सकते हैं -तस्याहम् सुलभः। कृ ष्ण स्ियुं कहते हैं कक िे इस
भिियोग की प्रकिया के द्वारा िे सरलता से खरीदे जा सकते है। तो हम ककसी अन्य
िििध को क्यों अपनाएाँ ? हम प्रित चौबीसो घुंटे हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण , कृ ष्ण कृ ष्ण, हरे
हरे / हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे ॥ का कीतयन कर सकते है। इसके िलए कोई
िनयम या िििध नहीं है। हम सड़क पर , रे लगाडी में , अपने घर में या कायायलय में
कीतयन कर सकते है। इसमें कोई कर नहीं लगता या कोई खचय नहीं होता। तो हम
क्यों न इसे अपनाएुं?
भौितक ग्रहो से मुिि
ज्ञानी और योगी साधारण रूप से िनर्विशेषिादी होते हैं और यद्यिप िे अव्यि
ब्रह्मज्योित अथायत् आध्याित्मक आकाश में लीन होकर अस्थाई रूप से मुिि को प्राप्त
कर लेते हैं , परन्तु श्रीमद्भागितम् के अनुसार उनका ज्ञान शुद्ध नहीं माना जाता है।
तपस्या, सुंयम और यान के द्वारा िे परम सत्य के स्तर तक उन्नित कर सकते हैं ,
परन्तु जैसाकक पहले बताया गया है , िे किर से इस भौितक सुंसार में िगर जाते हैं ,
क्योंकक उन्होंने भगिान् कृ ष्ण के साकार रूप को गम्भीरता से नहीं िलया है। जब तक
कोई भगिान् कृ ष्ण के चरणारििन्द की पूजा नहीं करता है , तब तक उसे किर से
भौितक स्तर पर उतरना पड़ता है। इसिलए सबसे आदशय दृिष्टकोण यह होगा कक मैं
आपका सनातन सेिक हू ।ुं कृ ाृपा करके मुझे ककसी न ककसी प्रकार से अपनी सेिा में
लगाइए। कृ ष्ण भगिान् अिजतः कहलाते हैं अथायत् िे जीते नहीं जा सकते हैं , क्योंकक
कोई भी भगिान् को नहीं जीत सकता है परन्तु श्रीमद्भागितम् के अनुसार िजसने
ऐसा स्िभाि बना िलया हैं , िह भगिान् पर सरलता से ििजय पा सकता है।
श्रीमद्भागितम् में इस बात की सुंस्तुित भी की गई है कक हमें भगिान् को नापने की
व्यथय की प्रकिया को छोड़ देना चािहए। हम इस आकाश की सीमाओं को भी नहीं
नाप सकते हैं , तो परमेश्वर का क्या कहना। भगिान् कृ ष्ण की लम्बाई और चौड़ाई
को अपने अकप ज्ञान से नाप लेना सम्भि नहीं है और जो इस िनष्कषय पर पहुाँचता हैं।
हर एक को बहुत ही नम्र भाि से यह समझना चािहए कक िह इस ब्रह्माण्ड का बहुत
ही नगण्य अुंश है। परमेश्वर को अपने सीिमत ज्ञान से या अपनी मानिसक ककपनाओं
से समझने की चेष्टाओं का त्याग करके हमे नम्र बनना चािहए और परमेश्वर के ििषय
में प्रमािणत शास्त्रों, जैसे भगिद्गीता अथिा ककसी आत्मदशी व्यिि के मुख से सुनना
चािहए।
भगिद्गीता में अजुयन भगिान् के ििषय में स्ियुं कृ ष्ण के श्रीमुख से ही सुन रहा है।
इस प्रकार अजुयन ने िििनत भाि से सुनकर परमेश्वर को समझने की िििध का
मापदण्ड स्थािपत ककया हैं। यही हमारी िस्थित है कक हम भगिद्गीता को अजुयन के
मुख से या उनके अिधकृ त प्रितिनिध अथायत आध्याित्मक गुरु से सुनें। सुनने के पश्चात ,
इस उपार्वजत ज्ञान का अभ्यास दैिनक जीिन में करना आिश्यक है। भि प्राथयना
करता हैं मेरे िप्रय भगिान् , आप अजेय हैं , परन्तु सुनने की इस िििध से आप जीत
िलए गए हैं। भगिान् अजेय हैं परन्तु िे उन भिों द्वारा जीत िलए जाते है , िजन्होंने
मानिसक ककपनाओं को छोड़ कदया है और अिधकृ त स्रोतों से सुनना शुरु ककया है।
ब्रह्म-सुंिहता के अनुसार ज्ञान प्राप्त करने के दो मागय हैं -आरोह मागय या चढ़ाि की
िििध और अिरोह मागय अथायत उतार की िििध। आरोह मागय में मनुष्य अपने खुद के
द्वारा प्राप्त ककये गये ज्ञान से प्रगित करता है। इसमें िह इस प्रकार सोचता है , मैं
ककसी शास्त्र या महात्माओं की परिाह नहीं करता हू ।ुं मैं ज्ञान की प्रािप्त अपने आप
ध्यान से या तत्त्िज्ञान नहीं करता हाँ। मैं ज्ञान की प्रािप्त अपने आप ध्यान से या
तत्त्िज्ञान इत्याकद से कर लूुंगा , इत्याकद। इस प्रकार मैं भगिान् को समझ जाऊाँगा।
दूसरी िििध अथायत अिरोही िििध से ज्ञान उच्च अिधकाररयों से प्राप्त ककया जाता है।
ब्रह्म-सुंिहता बताती है कक यकद कोई आरोह िििध से हिा या मन की गित से लाखों
िषो तक यात्रा करे , तब भी िह ज्ञान नही पा सके गा। उसके िलए यह ििषय सदैि
दुग्रायह्य तथा अिचन्तनीय रहेगा। परन्तु यह ििषयिस्तु भगिद्गीता में दी गई है -
अनन्यचेताः-कृ ष्ण कहते हैं कक ििनीत भाि से की जाने िाली भििमय सेिा के माय से
ििचिलत हुए िबना उनका ध्यान करो। जो इस प्रकार उनकी पूजा करता है -तस्याहम्
सुलभः- उसके िलए मैं बहुत सरलता से उपलब्ध हो जाता हू ।ुं िििध यह हैः यकद कोई
कदन में चौबीसों घुंटे भगिान् कृ ष्ण के िलए कायय करता है , तो कृ ष्ण उसे भूल नहीं
सकते हैं। ििनम्र होकर िह भगिान् का ध्यान आकर्वषत कर सकता है। जैसा हमारे
गुरु महाराज भिििसद्धान्त सरस्िती कहा करते थे , भगिान् को देखने का प्रयत्न मत
करे ा। क्या िे नौकर की तरह हमारे सामने आकर खड़े जो जाएाँ , के िल इसिलए कक
हम उन्हें देखना चाहते हैं ? यह नम्रता की िििध नहीं हैं। हमें उन्हें अपने प्रेम और
अपनी सेिा के द्वारा अनुग्रहीत करना है।
मानि जाित को कृ ष्ण तक पहुाँचने की सही िििध चैतन्य महाप्रभु ने दी थी और
उनके प्रथम िशष्य रूप गोस्िामी ने इसकी प्रशुंसा की थी। रूप गोस्िामी मुसलमान
सरकार में मुंत्री थे , लेककन चैतन्य महाप्रभु के िशष्य बनने के िलए उन्होंने सरकारी
पदिी छोड़ दी थी। जब िे सियप्रथम महाप्रभु को िमलने के िलए गए थे , तब िे
िनम्निलिखत श्लोका उच्चारण करते हुए उनके समीप पहुाँचे थेः
मैं परम ईश्वर , श्रीकृ ष्ण चैतन्य के चरणो में सादर प्रणाम करता हू ुं , जो अन्य ककसी
भी अितार से -स्ियुं कृ ष्ण से भी-अिधक उदार हैं , क्योंकक िे िबना ककसी भेद के कृ ष्ण
के शुद्ध प्रेम का मुि भाि से िितरण कर रहे हैं , जैसा और ककसी ने नहीं ककया है।
(चैतन्य चररतामृत, मध्य 19.53)
रूप गोस्िामी ने चैतन्य महाप्रभु को सिायिधक उदार एिुं परिहतकारी व्यिित्ि कहा
था क्योंकक िे सबसे मूकयिान िस्तु -कृ ष्ण प्रेम -को बहुत सस्ते में बााँट रहे थे। हम सब
कृ ष्ण को चाहते हैं और उनके िलए लालाियत हैं। कृ ष्ण सबसे ज्यादा आकषयक हैं ,
सबसे अिधक सुन्दर हैं , सबसे ज्यादा ऐश्वययिान है , सबसे ज्यादा शििशाली है और
सबसे अिधक ज्ञानी है। हमारी अनुरिि के पात्र िे ही है। हम सुन्दर , शििशाल,
ज्ञानी और धनिान को ढ़ूाँढ़ रहे हैं। कृ ष्ण इन सभी के सरोिर हैं , इसिलए हमें अपने
ध्यान को के िल उनकी ओर ले जाने की आिश्यकता है और हमें हर चीज िमल
जाएगी। हर चीज-िजसकी भी हमें इच्छा है। कृ ष्णभािनाम्त की इस िििध से हमारी
हृदय की सभी इच्छाओं की पूर्वत हो जाएगी।
िजसकी मृत्यु कृ ष्णभािनाभािित रहते हुए होती है , जैसाकक पहले कहा गया है ,
उसके िलए परम धाम अथायत् कृ ष्णलोक में जाना िनिश्चत हैं , जहााँ भगिान् कृ ष्ण
िनिास करते हैं। इस बात पर कोई प्रश्न पूछ सकता है कक उस लोक में जाने से क्या
लाभ है? इसका उत्तर कृ ष्ण ने स्ियुं की कदया हैः
मुझे प्राप्त करके महापुरुष, जो भिियोगी हैं , कभी भी दुखों से पूणं इस अिनत्य जगत
में नहीं लौटते, क्योंकक उन्हें परम िसिद्ध प्राप्त हो चुकी होती हैं। (भगिद्गीता 8.15)
सृिष्टकताय भगिान् श्रीकृ ष्ण ने इस भौितक सुंसार को दुखालयम् अथायत दुखों से भरा
स्थान बताया हैं। किर हम इसे सुखदायी कै से बना सकते हैं ? क्या ििज्ञान की
तथाकिथत प्रगित से इस सुंसार को सुखी बनाना सम्भि हैं ? नहीं, यह सम्भि नहीं
है। इसके पररणामस्िरूप , हम यह भी नही जानना चाहते हैं कक से दुख है क्या।
जैसाकक पहले बताया गया है ये दुख जन्म , मृत्यु, िृद्धािस्था और बीमारी के हैं और
क्योंकक हम इसे हल नहीं कर पाते हैं , हम इन्हें टालने का प्रयास करते हैं। ििज्ञान के
पास हमें सदैि कष्ट देने िाली इन समस्याओं को हल करने की कोई शिि नहीं है।
इसके ििपरीत, िे हमारे ध्यान को अुंतररक्षयान या अणु बम बनाने की ओर ले जाते
हैं इन समस्याओं का हल यहााँ भगिद्गीता में कदया गया हैः यकद कोई भगिान् कृ ष्ण
के धाम को प्राप्त कर लेता है , तो उसे जन्म और मृत्यु िाली इस धरती में किर से
िापस नहीं आना होता है। हमें यह समझने का प्रयत्न करना चािहए कक यह जगह
दुखों से पूणय है।इसको समझने के िलए कु छ ििकिसत चेतना चािहए। कु त्ते , िबिकलयााँ
और सूअर समझ नहीं सकते कक िे दुख पा रहे हैं। मनुष्य को तकय सुंगत पशु कहा गया
है परन्तु उसकी इस ििचारशीलता का उपयोग दुखमय िस्थित से मुिि पाने का हल
ढ़ूाँढ़ने के बजाए, पाशििक मनोिृित्त को बढ़ाने में लगाया जा रहा है। , िह दुख पाने के
िलए किर कभी जन्म नहीं लेगा। उनके पास जाने िाले महान् आत्माओं को जीिन
की सबसे बड़ी िसिद्ध िमल चुकी हैं , जो जीिात्मा को बद्ध जीिन से छु टकारा कदलाती
हैं।
भगिान् कृ ष्ण और सामान्य जीि में एक अन्तर यह है कक सामान्य व्यिि एक समय
में के िल एक स्थान परही उपिस्थत रह सकता है परन्तु भगिान् कृ ष्ण सारे ब्रह्माण्ड
में हर जगह उपिस्थत हो सकते हैं और साथ साथ अपने धाम में थी। आध्याित्मक
जगत में कृ ष्ण भगिान् का धाम गोलोक िृन्दािन कहलाता है। भारत में िस्थत
िृन्दािन िही गोलोक िृन्दािन है , जो पृथ्िी पर उतर आया है। जब भगिान् कृ ष्ण
अपनी अुंतरुं गा शिि से अितररत होते हैं , तो उनका धाम भी पृथ्िी पर उतर आता
है। दूसरे शब्दों में , जब भगिान् कृ ष्ण इस पृथ्िी पर अितररत होते हैं , तब िे उस
स्थान ििशेष पर ही प्रकट होते हैं। इसके बािजूद भी भगिान् कृ ष्ण का धाम सदैि
िैकुण्ठ में आता है , उसे इस भौितक सुंसार में किर कभी भी जन्म नहीं लेना होता है।
ऐसे व्यिि को महात्मा कहते है। पाश्चात्य देश में महात्मा शब्द साधारणतया
महात्मा गााँधी के सम्बन्ध में सुना जाता है , परन्तु हमें समझ लेना चािहए कक
महात्मा ककसी राजनीितक नेता की उपािध नहीं है। बिकक महात्मा से तात्पयय प्रथम
श्रेणी के कृ ष्णभािनाभािित व्यिि से है , जो कक कृ ष्णलोक जाने के योग्य है। महातम
की पूणयता यह है कक िह मनुष्य योिन के जीिन और प्रकृ ित के स्रोतों का उपयोग
जन्म और मृत्यु के चि से अपने आप का मुि करने के िलए करे ।
एक बुिद्धमान व्यिि जानता है कक िह दुख नहीं चाहता , परन्तु दुख उस पर
बलपूियक थोपे जाते हैं। जैसाकक पहले बताया गया हैं , हम सदैि मन , शरीर,
प्राकृ ितक उपििों अथिा अन्य जीिों के कारण दुखमय िस्थित में रहते है ककसी न
ककसी प्रकार का दुख सदैि हमारे ऊपर थोपा जाता है। यह भौितक सुंसार दुख के
िलए ही बना है। जब तक दुख नहीं होता है , तब तक हम कृ ष्णभािनाभािित नहीं
हो सकते हैं दुख तो िास्ति में िह प्रेरणा है , जो हमें कृ ष्णभािनामृत तक ऊपर उठने
में सहायता देती है। बुिद्धमान व्यिि प्रश्न करता है कक ये दुख उसके ऊपर बलपूियक
क्यों थोपे जाते है लेककन आधुिनक सुंस्कृ ित का दृिष्टकोण है , मुझे दुख सहने दो।
मादक िस्तुओं का सेिन करके मुझे दुखों को ढकने दो बस यही। परन्तु जैसे ही
मादकता का प्रभाि समाप्त हो जाता है , दुख िापस आ जाते हैं। कृ ित्रम मादकता से
जीिन के दुखों का हल नही ककया जा सकता है। समाधान तो कृ ष्ण भािनामृत से
होता है।
कोई यह कह सकता है कक यद्यिप कृ ष्ण के भि कृ ष्णलोक में प्रिेश करने का प्रयत्न
कर रहे हैं , ककन्तु अन्य सब की रुिच तो चन्िमा तक जाने की है। क्या चन्िमा पर
जाना भी पूणयता नहीं है ? अन्य ग्रहों की यात्रा करने की मनोिृित्त जीिों में सदैि ही
रही है। जीि का एक नाम सियग है िजसका अथय है िह जो हर जगह यात्रा करना
चाहता हैं। यात्रा करना जीिों के स्िभाि का एक भाग है। चन्िमा पर जाने की इच्दा
कोई निीन इच्छा नहीं है योगी भी उच्च ग्रहों में जाने के इच्छु क हैं , परन्तु भगिद्गीता
(8.16) कृ ष्ण बतलाते हैं कक इससे कोई लाभ नही होगा
इस जगत में सिोंच्च लोक से लेकर िनम्नतम सारे लोक दुखों के घर पर हैं , जहााँ जन्म
तथा मरण का चक्कर लगा रहता हैं। ककन्तु हे कु न्तीपुत्र ! जो मेर धाम को प्राप्त कर
लेता हैं, िह किर कभी जन्म नहीं लेता।
इस ब्रह्माण्ड का ििभाजन उच्च , मध्यम और िनम्न ग्रहमुंडलो में ककया जाता है। पृथ्िी
को माध्यम ग्रहमुंडल का सदस्य माना जाता है। भगिान् कृ ष्ण कहते हैं कक यकद कोई
सबसे ऊाँचे ग्रह कहे जाने िाले ब्रह्मलोक में भी पहुाँच जाए , िहााँ भी जन्म और मृत्यु
का चि पाया जाता है। ब्रह्माण्ड के अन्य लोक जीिों से भरे है। हमें यह नहीं सोचना
चािहए कक हम ही यहााँ है और अन्य सभी ग्रह खाली है। अपने अनुभि से हम देख
सकते हैं कक इस पृथ्िी में कोई स्थान जीिों से खाली नहीं है।अपने अनुभि से हम देख
सकते हैं कक इस पृथ्िी में कोई स्थान जीिों से खाली नहीं है। यकद हम भूिम को गहरा
खोदें, तो हम कीड़े पाएाँगे ; यकद हम आकाश में जाएाँ , तो हमें बहुत सारे पक्षी िमलेंगे।
तो यह िनष्कषय िनकालना कै से सम्भि है कक अन्य ग्रहों में पहुाँच भी जाएाँ , जहााँ महान
देिता िास करते हैं, िहााँ भी हम मृत्यु के अधीन होंगे। पुनः भगिान् कृ ष्ण दोहराते हैं
कक जो उनके लोक में पहुाँच जाता है , उसे किर से जन्म लेना नहीं पड़ता।
हमें आनन्द और ज्ञान से पूणय अपने सनातन जीिन को पाने के िलए अत्यन्त गम्भीर
होना चािहए। हम भूल गये हैं कक यही िास्ति में हमारे जीिन का उदेश्् य है और
यही हमारी िास्तििक स्िाथय है। हम क्यों भूल गए हैं ? हम के िल भौितक चमक-ऊाँचे
भिनों, बड़े कारखानों, राजनैितक िीड़ाओं-से बुंदी बनाए गये हैं , यद्यिप हम समझते
हैं कक हम ककतनी ही बड़ी इमारतें क्यों न बना लें , हम िहााँ आनन्द समय तक नहीं
रह पाएाँगे। हमें अपनी शिि को बड़े बड़े कारखाने या शहर बनाने में नष्ट नहीं करना
चािहए, क्योंकक ये हमें भौितक प्रकृ ित के बन्धन में और बााँध देंगे। हमें तो अपनी
शिि का उपयोग कृ ष्णभािनामृत को ििकिसत करके कदव्य शरीर प्राप्त करने के िलए
करना चािहए , िजससे हम कृ ष्णलोक में प्रिेश पा सकें । कृ ष्णभािनामृत मात्र एक
धार्वमक सूत्र या आध्याित्मक मनोरुं जन नहीं है , बिकक यह जीि का अत्यन्त आिश्यक
अुंग है।
ककताब समाप्त