You are on page 1of 42

ििषय-सूची

भूिमका
अध्याय एक - हम ये शरीर नहीं हैं
अध्यायदो -मृत्यु के समय उन्नित
अध्यायतीन -भौितक ग्रहों से मुिि
अध्यायचार -ब्रह्माण्ड के परे आकाश- िैकुुंठलोक
अध्यायपााँच -कृ ष्ण का सुंग करना
अध्यायछह -हम ये शरीर नहीं हैं
हे भरतिुंशी, शरीर में रहने िाला देही (आत्मा) सनातन है और उसका कभी भी िध
नहीं ककया जा सकता। अतः तुम्हें ककसी भी जीि के िलए शोक करने की आिश्यकता
नहीं है। (भगिद्गीता 2.30)
आत्म-साक्षात्कार का पहला कदम अपने को शरीर से िभन्न समझना हैं। मैं यह शरीर
नहीं हू ,ुं बिकक आत्मा हू ुं यह अनुभि करना उन मनुष्यों के िलए अिनिायय हैं , जो मृत्यु
को लााँघकर इस लोक से परे िैकुण्ठलोक में प्रिेश करना चाहते हैं। यह के िल कहने
की बात नहीं हैं कक, मैं यह शरीर नहीं हू ुं , बिकक िास्ति में अनुभि करने की बात है।
यह इतना सरल नहीं है, िजतना शुरू में लगता है। यद्यिप हम ये शरीर नहीं हैं , ककन्तु
एक ििशुद्ध चेतना हैं , किर भी हम ककसी न ककसी तरह शरीर रूपी िेश में बाँध गये
हैं। यकद हम िास्ति में ऐसा सुख और स्ितुंत्रता चाहते हैं जो मृत्यु से परे हो , तो हमें
ििशुद्ध चेतना की अपनी िैधािनक िस्थित में अपने आपको स्थािपत करना होगा और
उसमें बने रहना होगा।
देहात्म-बुिद्ध में रह कर सुख के बारे में हमारी जो सोच है , िह एक िििक्षप्त व्यिि की
सोच जैसे हैं। कु छ दाशयिनक ऐसा दािा करते हैं कक शारीररक पहचान की इस
िििक्षप्त िस्थित की िचककत्सा कोई भी कमय न करके करनी चािहए। क्योंकक िे
साुंसाररक कियाएुं ही हमारे दुःखों की जड़ हें , इसिलए िे दािा करते हैं कक हमें ये
सभी कियाएुं िास्ति में बन्द कर देनी चािहए। उनकी पूणयता का चरम बबदु बौद्ध
िनिायण जैसा है , िजसमें कोई काययकलाप नहीं ककया जाता। बुद्ध ने सदैि यही कहा
कक भौितक तत्त्िों के सुंयोग कसे यह शरीर उत्पन्न हुआ है और यकद ककसी न ककसी
तरह हम इन भौितक तत्त्िों को िभन्न कर दें या ििखिण्डत कर दें , तो सभी दुखों का
कारण दूर हो जाएगा। यकद कर -अिधकारी हमारा बड़ा घर होने के कारण हमें बहुत
परे शान करे , तो इस समस्या का एक सीधा सादा हल यह है कक उस मकान को ही
नष्ट कर कदया जाये। परन्तु भगिद्गीता बताती है कक यह भौितक शरीर ही सब कु छ
नहीं है। इन भौितक तत्त्िों के सुंयोग के परे आत्मा है और उस आत्मा का लक्षण है
चेतना।
चेतना को नकारा नहीं जा सकता है। िबना चेतना का शरीर मुरदा है। जैसे ही शरीर
से चेतना बाहर िनकल जाती है , मुाँह बोल नहीं सकता है , आाँख देख नहीं सकती है
और कान सुन नहीं सकते हैं। इस बात को एक बच्चा भी समझ सकता है। यह एक
सत्य है कक शरीर के जीिित रहने के िलए चेतना िनतान्त रूप से अिनिायय है। यह
चेतना क्या है ? जैसे ताप अथिा धुआाँ अिि का लक्षण है , िैसे ही चेतना आत्मा का
लक्षण है। आत्मा की शिि चेतना के रूप में व्यि होती है। िस्तुतः चेतना िसद्ध
करती है कक आत्मा ििद्यमान है। यह के िल भगिद्गीता का दशयन नहीं , बिकक सारे
िैकदक सािहत्य का िनष्कषय है।
शुंकराचायय के सुंप्रदाय के िनर्विशेषिादी अनुयायी और भगिान् श्रीकृ ष्ण से चली आ
रही िशष्य-परम्परा के िैष्णि लोग आत्मा के िास्तििक अिस्तत्ि का स्िीकार करते
हैं, परन्तु बौद्ध मत के दाशयिनक इसे नहीं मानते। बौ 0 मत िाले तकय करते है कक
भौितक पदाथो के िमश्रण की ककसी ििशेष अिस्था में चतेना उत्पन्न होती हैं परन्तु
इस तकय का खण्डन इस तथ्य से हो जाता है कक भौितक पदाथय के सभी अियि हमारे
पास होने पर भी हम उनसे चेतना उत्पन्न नहीं कर सकते हैं। मरे हुए व्यिि के शरीर
में सभी भौितक तत्त्ि उपिस्थत हो सकते हैं , परन्तु हम उस व्यिि में चेतना पुनः
जागृत नहीं कर सकते हैं। यह शरीर एक युंत्र की भााँित नहीं है। जब युंत्र का कोई
पुरजा काम करना बुंद कर देता है , तो हम उसे बदल सकते हैं , और युंत्र किर से काम
करने लगता है , परन्तु जब शरीर काम करना बुंद कर देता है और चेतना शरीर छोड़
देती है , तब टू टे हुए भाग को बदलकर चेतना को पुनः जागृत करने की कोई
सम्भािना नहीं रहती। आत्मा शरीर से िभन्न है और जब तक आत्मा है , तब तक
शरीर जीिन्त है। परन्तु आत्मा की अनुपिस्थित में शरीर को जीिित रखने की कोई
सम्भािना नहीं है।
चूाँकक हम आत्मा को अपनी स्थूल इिन्ियों से अनुभि नहीं कर पाते हैं , इसिलए हम
उसके अिस्तत्ि को नकारते है। परन्तु िास्ति में ऐसी अनेक चीजें हैं , िजन्हें हम देख
नहीं सकते हैं। हम हिा को नहीं देख सकते हैं , रे िडयो की तरुं गे या ध्ििन को भी नहीं
देख सकते हैं और न ही हम अपनी कुुं द आाँखों से बहुत छोटे जीिाणुओं को देख सकते
हैं, परन्तु इस का अथय यह नहीं है कक िे होते ही नहीं। सूक्ष्मदशी युंत्र तथा अन्य युंत्रो
की सहायता से हम ऐसी बहुत सारी चीजें देख सकते है , िजन्हें पहले हम अपनी
अपूणय इिन्ियों से न देख सकने के कारण नकारते थे। चूुंकक आत्मा आकार में अणु
समान है और उसे हम अपनी इिन्ियों और युंत्रो से अभी तक नहीं देख पाए हैं , के िल
इसी कारण से हमें यह िनष्कषय नहीं िनकाल लेना चािहए कक आत्मा होता ही नहीं
है। किर भी इसके लक्षणों और प्रभाि से हम उसकी अनुभूित कर सकते हैं।
भगिद्गीता में भगिान् कृ ष्ण कहते है कक हमारे सभी दुःख शरीर के साथ हमारी
गलत पहचान के कारण हैं।
हे कु न्तीपुन, गमी और सदी एिुं सुख तथा दुख का अस्थायी तौर पर प्रकट होना तथा
कालिम में उनका अदृश्य होना शीत तथा ग्रीष्म ॠतुओं के आने -जाने के समान है। हे
भरतिुंशी, िे इिन्ियबोध से उत्पन्न होते हैं और मनुष्य को चािहए कक िह अििचल
भाि से सहन करना सीखे। (भगिद्गीता 2.14)
ग्रीष्म ॠतु में पानी के स्पशय से हमें आनन्द आता है , ककन्तु शीत ॠतु में इसी पानी
को हम छू ना नहीं चाहते , क्योंकक िह बहुत ठण्डा होता है। दोनो िस्थितयों में पानी
िही है, परन्तु शरीर के सम्पकय से िह आनन्दमयी या दुखदायी लगता है।
सुख और दुख के सारे अनुभि शरीर के कारण होते हैं। शरीर और मन ककन्ही ििशेष
पररिस्थितयों में सुख तथा दुख का अनुभि करते हैं। िास्ति में , हम सुख के िलए
लालाियत रहते हैं , क्योंकक सुख ही आत्मा का मूल स्िरूप है। आत्मा उन्हीं परमेश्वर
का अिभन्न अुंश है , जो कक सिच्चदानन्द ििग्रह हैं -जो सनातन हैं , िजन्हें पूणय ज्ञान है
और जो सदैि आनन्दमय हैं। िास्ति में कृ ष्ण नाम , जो कक साुंप्रदाियक नहीं है ,
उसका अथय है , सबसे बड़ा आनन्द। कृ ष् का अथय है , सबसे बड़ा और ण का अथय है ,
आनन्द। कृ ष्ण भगिान् आनन्द के सार हैं और उनके अुंश होने के कारण हम भी
आनन्द के िलए लालाियत रहते हैं। समुि के जल की एक बूाँद में समुि के सभी गुण
होते है। इसिलए पूणय परमेश्वर के लघु अुंश होते हुए भी हममें परमेश्वर के िही
शििशाली गुण हैं।
आत्मा अणु के समान छोटा होने पर भी हमारे सम्पूणय शरीर को अनेक आश्चययजनक
िििधयों से कायय करने के िलए चलायमान रखता है। इस सुंसार में हम इतने शहर ,
सड़कें , पुल, इमारतें, स्मारक और इतनी महान सभ्यताएाँ देखते हैं , ककन्त्ाााु उन्हें
ककसने बनाया है ? ये सब िस्तुएाँ सूक्ष्म बचगारी , आत्मा ने बनाई हैं , जो शरीर में
रहता है। यकद ऐसी आश्चययजनक चीजें छोटी सी आध्याित्मक बचगारी से बन सकती
हैं, जो हम ककपना भी नहीं कर सकते कक सिोच्च पूणय आत्मा , अथायत् परमेश्वर क्या
क्या बना सकते हैं। सूक्ष्म आित्मक बचगारी का स्िाभाििक लगाि उन्हीं गुणों से है ,
जो पूणय परमेश्वर में है -ज्ञान, आनन्द और शाश्वतता -परन्तु भौितक शरीर के कारण
आत्मा की ये इच्छाएाँ पूरी नहीं होतीं और उसे िनराशा प्राप्त होती है। आत्मा की
इच्छा को पूरा करने की िििध के बारे में जानकारी भगिद्गीता में दी गई है।
ितयमान काल में हम एक अपूणय साधन के द्वारा ज्ञान , आनन्द और शाश्वतता प्राप्त
करने की चेष्टा कर रहे हैं। िास्ति में , इन उद्ाेश्यों की ओर हमारी प्रगित भौितक
शरीर के कारण अिरूद्ध हो रही हैं , इसिलए हमें शरीर से परे अपने अिस्तत्ि
साक्षात्कार पर पहुाँचना है। सैद्धािन्तक ज्ञान कक हम ये शरीर नहीं हैं , कु छ काम नहीं
आएगा। हमें अपने आपको शरीर से अलग , उसके स्िामी के रूप में रखना होगा ,
सेिक के रूप में नहीं। यकद हम भलीभााँित जानते हैं कक कार कै से चलाई जाती है , तो
िह हमें अच्छी सेिा देगी लेककन यकद हम नहीं जानते , तो यह हमारे िलए खतरनाक
िस्थित होगी।
शरीर इिन्ियों से बना है और इिन्ियााँ सदैि अपने ििषयों की भूखी रहती हैं। जब
आाँख ककसी सुन्दर व्यिि को देखती है तो िह हमसे कहती है , अरे िहााँ एक सुन्दर
लड़की है , सुन्दर लड़का है , िहााँ चलकर देखो। कान हमसे कहते हैं , अरे िहााँ बहुत
अच्छा सुंगीत हो रहा है , उसे सुनने चलो। जीभ कहती है , अरे , िहााँ स्िाकदष्ट भोजन
का अच्छा भोजनालय हैं , िहााँ चलो। इस प्रकार इिन्ियााँ हमें एक स्थान से दूसरे
स्थान की ओर घसीट रही हैं और इसके कारण हम परे शान हैं।
िजस प्रकार पानी में तैरती नाि को प्रचण्ड िायु दूर बहा ले जाती है उसी प्रकार
ििचरणशील इिन्ियों में से कोई एक िजस पर मन िनरन्तर लगा रहता हैं , मनुष्य की
बुिद्ध को हर लेती हैाैाुं। (भगिद्गीता 2.67)
हम अपनी इिन्ियों को कै से िनयुंित्रत करें , यह सीखना अिनिायय है। गोस्िामी उपािध
उसे दी जाती है , िजसने यह सीख िलया हो कक इिन्ियों के स्िामी कै से बनें। गो का
अथय है इिन्ियााँ और स्िामी का अथय है िश में करने िाला ; इसिलए जो इिन्ियााँ को
िश में कर सकता है , िही गोस्िामी माना जाता है। कृ ष्ण भगिान् कहते हैं कक जो
अपनी पहचान भ्रामक भौितक शरीर से रखता है , िह अपने सही स्िरूप , आत्मा में
िस्थत नहीं हो सकता है। शारीररक आनन्द चुंचल और प्रमादी है और इसके क्षिणक
स्िभाि के कारण हम िास्ति में इसका आनन्द नहीं ले सकते हैं। िास्तििक आनन्द
आत्मा का है , शरीर का नहीं है। हमें अपने जीिन को इस तरह मोड़ना है कक हम
शारीररक आनन्द के कारण पथभ्रष्ट न हो जाएाँ। यकद ककसी प्रकार हम पथ से
ििचिलत हो गये , तो हमारे िलए अपनी चेतना को शरीर से परे िास्तििक स्िरूप में
स्थािपत करना सम्भि नहीं है।
जो लोग इिन्ियभोग तथा भौितक ऐश्वयय के प्रित अत्यिधक आसि होने से ऐसी
िस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाते हैं , उनके मनों में भगिान् के प्रित भिि का दृढ़ िनश्चय
नहीं होता। िेदों में मुख्यतया प्रकृ ित के तीनों गुणों का िणयन हुआ हैं। हे अजुयन ! इन
तीनों गुणों से ऊपर उठों। समस्त द्वैतों और लाभ तथा सुरक्षा की सारी िचन्ताओं से
मुि होकर आत्म-परायण बनों। (भगिद्गीता 2.44-45)
िेद शब्द का अथय है , ज्ञान की पुस्तक। ज्ञान की अनेक पुस्तकें हैं जो कक देश ,
जनमानस, िातािरण आकद के अनुसार बदलती रहती हैं। भारत में ज्ञान की पुस्तकों
को तात्पयय िेदों से होता है। पाश्चात्य देशों में िे पुस्तकें ओकड टेस्टामेन्ट तथा न्यू
टेस्टामेन्ट कहलाती हैं। मुसलमान लोग कु रान को स्िीकार करते है। ज्ञान की इन सब
पुस्तकों का उदेश्् य क्या है ? ये हमें शुद्ध आत्मा के रूप में अपनी िस्थित को समझने में
प्रिशिक्षत करने के िलए हैं। इनका उदेश्् य कु छ िनयमों और िििधयााँ से शारीररक
कियाओं को िनयुंित्रत करना है और ये िििधयााँ और िनगम नैितकता के िसद्धान्त
कहलात हैं। उदाहरण के िलए , हमारे जीिन को िनयिमत करने के िलए बाइबल में
दस िनदेश कदए गए हैं। सिोच्च िसिद्ध पाने के िलए शरीर को सुंयम में रखना
अिनिायय हे; िबना िनयामक िसद्धान्तों के जीिन में िसिद्ध पाना सम्भि नहीं है। िभन्न
िभन्न देशों अथिा िभन्न िभन्न शास्त्रों में िनयामक िसद्धान्तों में भेद हो सकते है , ककन्तु
इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता क्योंकक िे देश , काल और जनता की रुिचयों के
अनुसार ही बनाये जाते है। परन्तु िनयमन लागू करने का िसद्धान्त िही रहता हैं।
इसी प्रकार सरकार भी नागररकों द्वारा पालन ककए जाने के िलए कु छ ििशेष िनयम
बनाती है। िबना िनयामक िसद्धान्त के , सरकार या समाज की प्रगित की कोई
सम्भािना नहीं है। उपरोि श्लोक में भगिान् श्रीकृ ष्ण अजुयन से कहते हैं कक िेदों के
िनयामक िसद्धान्त भौितक प्रकृ ित के तीनों गुणों सत्त्ि , रज और तम को िनयुंित्रत
करने के िलए हैं (त्रैगुण्य ििषया िेदा)। तथािप भगिान् कृ ष्ण अजुयन को परामशय देते
हैं कक िह अपने आप शुद्ध आत्मा के रूप में अपनी स्िाभाििक िस्थित में स्थािपत
करें , जो कक भौितक प्रकृ ित के द्वन्द्वों से परे हैं।
जैसे हमने पहले भी इुं िगत ककया है , ये द्वन्द्व जैसे जाड़ा और गमी , सुख और दुख ,
इिन्ियों के उनके ििषयों के साथ सम्पकय से उत्पन्न होते हैं। दूसरे शब्दों में , ये शरीर के
साथ हमारी पहचान के कारण उत्पन्न होते हैं। भगिान् कृ ष्ण बतलाते हैं कक जो लोग
भौितक सुख और शिि में िलप्त होते हैं , िे िेदों की उिियों के धोखे में आ जाते हैं ,
िजनमें यज्ञों और िनयिमत कमों से स्िगयलोक के आनन्द का प्रलोभन कदया गया है।
आनन्द लेना हमारा जन्मिसद्ध अिधकार है , क्योंकक यह आत्मा का गुण है , ककन्तु
आत्मा साुंसाररक चीजों को भोगने का प्रयास करता है और यही गलती है।
हर कोई आनन्द उठाने के िलए भौितक ििषयों की तरि मुड़ जाता है और िजतना
सम्भि हो सकता है उतना ज्ञान एकित्रत करता है। कोई रसायन शास्त्री , भौितक
शास्त्री, राजिनतीज्ञ या कलाकार इत्याकद बन रहा है। हर कोई व्यिि हर चीज के
ििषय में कु छ न कु छ तो जानता है अथिा कु छ चाजों के बारे में सब कु छ जानता है
और सामान्य रूप में इसी को ज्ञान कहा जाता है। परन्तु जैसे ही हम यह शरीर को
छोड़ते हैं , हमारा यह सभी ज्ञान नष्ट हो जाता है। िपछले जन्म में कोई व्यिि महान
ज्ञानी हुआ होगा , परन्तु इस जीिन में उसे किर से ििद्यालय जाकर शुरुआत करनी
पड़ती है और प्रारम्भ से पढ़ना -सीखना पड़ता है। िपछले जन्म में हमने जो भी ज्ञान
प्राप्त ककया था , उसे हम इस जन्म में भूल जाते हैं। िस्थित यह है कक हम िास्ति में
शाश्वत ज्ञान खोज रहे हैं , परन्तु िह इस भौितक शरीर से प्राप्त नहीं ककया जा सकता
है। हम सब इन शरीरों के माध्यम से आनन्द खोज रहे हैं , परन्तु शारीररक आनन्द
हमारा िास्तिकक आनन्द नहीं है। यह कृ ित्रम है। हमें यह समझना होगा कक यकद हम
इस कृ ित्रम आनन्द में लगे रहना चाहते हैं , तो हम अपने सनातन आनन्द की िस्थित
को नहीं पा सकें गे।
इस शरीर को बीमारी की िस्थित समझना चािहए। बीमार व्यिि ठीक से आनन्द
नहीं उठा सकता है। उदाहरण के िलए , पीिलया से पीिड़त व्यिि को चीनी कड़िी
लगेगी, परन्तु स्िस्थ व्यिि उसके मीठे पन का स्िाद ले सकता है। दोनों िस्थितयों में
चीनी तो िही है , लेककन हमें अपनी िस्थित के अनुसार इसके स्िाद अलग लगते हैं।
जब तक हम इस देहात्मभाि की बीमार अिस्था को ठीक नहीं हो जाते , हम
आध्याित्मक जीिन के मीठे पन का आस्िाद नहीं ले सकते। िास्ति में , िह हमें स्िाद
में कड़िा लगेगा और साथ ही साथ इस भौितक जीिन के आनन्द को बढ़ानके से हम
अपनी बीमार िस्थित को और भी जरटल बनाते जाएाँगे। टाइिाइड का रोगी ठोस
भोजन नहीं खा सकता है और यकद कोई उसके आनन्द के िलए उसे ऐसा भोजन दे
और िह उसे खा ले , तो िह अपनी बीमारी और अिधक जरटल बना रहा है और
अपने अिस्तत्ि के दुखों से मुिि पाना चाहते हैं , तो हमें शरीर की आिश्यकताएाँ और
उसके सुख कम करने होंगे।
िास्ति में , भौितक आनन्द तो रुं च मात्र भी आनन्द नहीं है। िास्तििक आनन्द कभी
समाप्त नहीं होता है। महाभारत में एक श्लोक है - रमन्ते योिगनोऽनन्ते -अथायत
योगीजन (योिगनो) जो आत्मज्ञान के स्तर तक प्रगित करने की चेष्टा कर रहे हैं ,
िास्ति में आनन्द ले रहे हैं (रमन्ते), ककन्तु उनका िह आनुंद अनुंत है (अनन्ते)-कभी
अन्त न होने िाला। ऐसा इसिलए है कक उनका आनन्द परम भोिा (राम) कृ ष्ण के
सम्बन्ध में है। भगिान् श्रीकृ श्ण िास्तििक भोिा हैं और भगिद्गीता इसकी पुिष्ट
करती है ाः

मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परम भोिा , समस्त लोकों तथा देिताओं का
परमेश्वर एिुं समस्त जीिों का उपकारी एिुं िहतैषी जानकर सुंत -महात्मा भौितक
दुखों की पीड़ा से शािन्त प्राप्त करते हैं। (भगिद्गीता 5.21)
भोग का अथय है आनन्द और हमारा आनन्द अपनी िस्थित को भोग्य के रूप में
समझने से आता हैाै। िास्तििक भोिा परम भगिान् हैं और हम उनके द्वारा भोगे
जाते है।
इस सम्बन्ध का एक उदाहरण भौितक सुंसार में पित और पत्नी के बीच पाया जा
सकता है -पित भोिा है अथायत पुरुष है और पत्नी भोग्य अथायत प्रकृ ित है। प्री शब्द
का अथय है स्त्री। पुरुष या आत्मा भोिा है , और प्रकृ ित भोग का ििषय है। ककन्तु
आनन्द पित और पत्नी दोनों की लेते हैं। जब िास्ति में आनन्द होता है , तब ऐसी
कोई िभन्नता नहीं रहती कक पित अिधक आनन्द ले रहा है या पत्नी कम आनन्द ले
रही है। यद्यिप पुरुष भोगने िाला है और स्त्री भोग्या है , परन्तु जब आनन्द आता है
तब कोई िभन्नता नहीं रहती है। व्यापक दृिष्ट से देखने से कोई भी जीि भोिा नहीं
है।
भगिान् अनेक अुंशो में ििस्ताररत हुए और हम उन्हीं में से एक अुंश हैं। भगिान् एक
और अिद्वत्तीय हैं , परन्तु उन्होंने आनन्द की अनुभूित के िलए अनेक रूपों में
ििस्ताररत होने की इच्छा की। हमें अनुभि है कक एक कमरे में अके ले बैठे , अपने आप
से बाते है करने से बहुत कम या कु छ भी आनन्द नहीं िमलता। लेककन , यकद कमरे में
पााँच व्यिि उपिस्थत हों , तो हमारा आनन्द बढ़ जाता है और यकद हम अनेक
व्यिियों के समक्ष भगिान् कृ ष्ण की चचाय कर सकें , तो हमारा आनन्द और भी बढ़
जाता है। आनन्द का अथय है ििििधता । भगिान् अपने आनन्द के िलए अनेक
ििस्ताररत हुए और इस प्रकार हमारी िस्थित उन्हें आनन्द देने की है। यही हमारा
िैधािनक स्िरूप है और यही हमारे सृजन होने का उदेश्् य है। आनन्द का भोिा और
भोग्य दोनों ही चेतनायुि हैं , परन्तु भोग्य की चेतना भोिा की चेतना के अधीनस्थ
है। यद्यिप कृ ष्ण भोिा हैं और हम भोग्य है , तथािप इस आनन्द में प्रत्येक व्यिि
बराबरी से सहभागी बन सकता है। हमारा आनन्द तब पूणय बन सकता है , जब हम
भगिान् के आनन्द में सहयोग दें। हमारे िलए शारीररक स्तर पर अलग से आनन्द
लेने की कोई सम्भािना नहीं है।
हे कु न्तीपुत्र ! सुख तथा दुख का क्षिणक उदय तथा कालिम में उनका अन्तधायन होना
सदी तथा गमी की ॠतुओं के आने जाने के समान हैं। हे भारतिुंशी ! िे इिन्ियबोध से
उत्पन्न होता हैं और मनुष्य को चािहए कक अििचल भाि से उनको सहन करना
सीखे। (भगिद्गीता 2.14)
इस प्रकृ ित के तीन गुणों की प्रितिया से यह स्थूल भौितक शरीर उत्पन्न हुआ है और
इसका ििनाश िनिश्चत है।
अििनाशी, अप्रमेय तथा शाश्वत जीि के भौितक शरीर का अन्त अिश्यम्भािी हैं।
अतः हे भरतिुंशी! युद्ध करों। (भगिद्गीता 2.18)
इसिलए भगिान् कृ ष्ण हमें देहात्मबुिद्ध से ऊपर उठकर अपना िास्तििक
आध्याित्मक जीिन प्राप्त करने के िलए प्रोत्सािहत करते हैं।
जब देहधारी जीि भौितक शरीर से सम्बद्ध इन तीनों गुणों को लााँघने में समथय होता
हैं तो िह जन्म , मृत्यु, बुढ़ापा तथा उनके कष्टों से मुि हो सकता है और इसी जीिन
में अमृत भोग सकता हैं। (भगिद्गीता 14.20)
हमें अपने आप को तीनों गुणों से ऊपर शुद्ध ब्रह्मभूत आध्याित्मक स्तर में िस्थत करने
के िलए कृ ष्णभािनामृत की िििध स्िीकार करनी होगी। श्रीचैतन्य महाप्रभु का
उपहार, यह महामुंत्र , हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण , कृ ष्ण कृ ष्ण, हरे हरे , हरे राम, हरे राम,
राम राम, हरे हरे का कीतयन इस िििध को सुगम बना देता है। यह िििध भिियोग
या मुंत्रयोग कहलाती है और सियश्रेष्ठ योगी इस िििध का उपयोग करते है।
अध्यात्मिादी ककस प्रकार जन्म-मृत्यु से परे , भौितक शरीर से परे अपनी पहचान का
अनुभि करते हैं और अपने आपको इस भौितक ब्रह्माण्ड से आध्याित्मक लोकों में
स्थानान्तररत करते हैं, िह अगले प्रकरणों का ििषय है।

मृत्यु के समय उन्नित


अध्यात्मिादी अनेक प्रकार के होते हैं , िजन को योगी कहा जाता है -हठयोगी,
ज्ञानयोगी, ध्यानयोगी और भिियोगी -ये सब आध्याित्मक जगत में स्थानान्तररक
होने के िलए योग्य होते हैं। योग शब्द का अथय है , जुड़ना और योग िििधयााँ हमारा
सम्बन्ध आध्याित्मक जगत से स्थािपत करने के िलए िनर्वमत है। जैसाकक िपछले
प्रकरण में बताया गया है , मौिलक रूप से हम सब भगिान् से जुड़े हुए हैं , परन्तु
अभी हम भौितक मिलनता से प्रभािित हो चुके हैं। प्रकिया यह है कक हमें
आध्याित्मक जगत में िापस जाना है और जोडने की यही प्रकिया योग कहलाती है।
योगशब्द का दूसरा अथय धन िचह्न (+) है। ितयमान काल में हम भगिान् या परम
सत्य से रिहत (-)हैं। परन्तु जब हम कृ ष्ण अथायत परमेश्वर को अपने जीिन से जोड़
लेते हैं, तब हमारा यह मनुष्य जीिन पूणय हो जाता है।
मृत्यु के समय हमें पूणयता की उस प्रकिया को पूरा करना होता है। अपने जीिनकाल
के दौरान हमें पूणयता की ओर अग्रसर होने की िििध का अभ्यास करना होता है ,
िजससे कक मृत्यु के समय जब हमें यह भौितक शरीर छोड़ना पड़े , तब उस पूणयता को
हम प्राप्त कर सकें ।
मृत्यु के समय जो व्यिि अपने प्राण को भौहों के मध्य िस्थर कर लेता है और
अििचिलत मन से पूणयभिि के साथ परमेश्वर के स्मरण में अपने को लगाता है , िह
िनिश्चत रूप से भगिान् को प्राप्त होता हैं। (भगिद्गीता 8.10)
िजस प्रकार ििद्याथी ककसी ििषय को चार या पॉच साल तक पढ़ता है और किर
परीक्षा में बैठता है और अन्त में उपािध प्राप्त करता है , उसी प्रकार, जीिन के ििषय
में यकद हम मृत्यु काल की परीक्षा के िलए अपने जीिनकाल में ही अभ्यास करें और
हम परीक्षा में सिल हो जाएाँ , तो हमें आध्याित्मक जगत में भेज कदया जाता है।
हमारे सम्पूणय जीिन की परीक्षा मृत्यु के समय होती है।
हे कु न्तीपुत्र ! शरीर त्यागते समय मनुष्य िजस -िजस भाि का स्मरण करता हैं , िह
उस-उस भाि को िनिश्चत रूप से प्राप्त होता हैं। (भगिद्गीता 8.6)
बुंगाली में एक कहाित है कक पूणयता के िलए मनुष्य जो कु छ करता है , उसकी परीक्षा
मृत्यु के समय होती है। भगिद्गीता में भगिान् कृ ष्ण बतलाते हैं कक शरीर छोड़ते
समय हमको क्या करना चािहए। ध्यानयोगी के िलए भगिान् कृ ष्ण िनम्निलिखत
श्लोक बताते हैः
िजसे िेदान्ती अप्रकट तथा अििनाशी बताते हैं , जो परम गन्तव्य हैं , िजसे प्राप्त कर
लेने पर कोई िापस नहीं आता , िही मेरा परमधाम हैं। भगिान् , जो सबसे महान हैं ,
अनन्य भिि द्वारा ही प्राप्त ककये जा सकते हैं। यद्यिप िे अपने धाम में ििराजमान
रहते हैं, तो भी िे सियव्यापी हैं औश्र उनमें सब कु छ िस्थत हैं। (भगिद्गीता 8.21-22)
योग िििध में इस अभ्यास को प्रत्याहार कहते हैं िजस का अथय है , पूणयतया ििपरीत।
यद्यिप जीिनकाल में आाँखे साुंसाररक सौन्दयय देखने में लगी रहती हैं , परन्तु मनुष्य
को मृत्युकाल में इिन्ियों को उनके ििषयों से हटाकर आन्तररक सौंन्दयय देखना होता
है। इसी प्रकार कान भी इस सुंसार में अनेक प्रकार की ध्ििनयााँ सुनने के आदी होते
हैं, परन्तु मृत्यु के समय मनुष्य को अन्दर से परम शब्द ॎकार को सुनना होता है।
इस योगाभ्यास में िस्थत होकर तथा अक्षरों के परम सुंयोग यानी ॎकार का उच्चारण
करते हुए यकद कोई पूणय पुरुषोत्तम भगिान् का िचन्तन करता है और अपने शरीर का
त्याग करता हैं , तो िह िनिश्चत रूप से आध्याित्मक लोकों को जाता है। (भगिद्गीता
8.13)
इस प्रकार सभी इिन्ियों को बाहरी कियाओं से रोकना होता है और भगिान् के
ििष्णुमूर्वत रूप पर के िन्ित करना होता है। मन बहुत चुंचल है परन्तु इसको अपने
हृदय में िस्थत भगिान् पर िस्थर करना होता है। जब मन हृदय के अन्दर िस्थर हो
जाता है और प्राणिायु िसर के उच्चस्थ भाग पर स्थानान्तररत हो जाती है , तब मनुष्य
योग में िसिद्ध पा सकता है।
इस िबन्दु पर योगी िनिश्चत करता है कक उसे कहााँ जाना है। इस भौितक ब्रह्माण्ड में
अनिगनत ग्रह हैं और इस ब्रह्माण्ड के परे आध्याित्मक ििश्व है। योिगयों को िैकदक
सािहत्य से इस सभी स्थानों की जानकारी होती है। िजस प्रकार कोई अमरीका जाने
से पहले पुस्तकें पढ़कर कु छ जानकारी पा सकता है कक अमरीका ककस प्रकार का देश
है, इसी प्रकार मनुष्य को आध्याित्मक ग्रहों पर ज्ञान की िैकदक सािहत्य पढ़कर िमल
सकता है। योगी इन सब स्थानों के ििषय में जानते हैं और िबना ककसी अुंतररक्ष यान
की सहायता के िे िजस ग्रह पर जाना चाहें , जा सकते हैं। याुंित्रक साधनों द्वारा
अन्तररक्ष यात्रा, दूसरे ग्रहों में उत्थान के िलए मान्य िििध नही है। शायद बहुत समय
तक प्रयत्न करने और बहुत सारा धन व्यय करने के बाद , अुंतररक्ष यानों या अन्तररक्ष
पोशाक जैसे इन भौितक साधनों से भले ही कु छ व्यिि अन्य ग्रहों में जा सकें , परन्तु
यह बहुत ही करठन और अव्यािहाररक िििध है। ककसी भी दशा में , इस भौितक
ब्रह्माण्ड के उस पार याुंित्रक साधनों की सहायता से जा पाना सम्भि नहीं है।
उच्च लोकों में जाने की सामान्य स्िीकृ त िििध ध्यानयोग या ज्ञानयोग का अभ्यास है।
तथािप भिियोगी पद्धित का अभ्यास ककसी भी भौितक ग्रह में जाने के िलए नहीं
होता है, क्योंकक जो परम भगिान् कृ ष्ण के सेिक हैं , िे इस भौितक ब्रह्माण्ड के ककसी
भी ग्रह पर जाने की इच्छा नहीं रखते हैं िे जानते है कक िे यकद भौितक आकाश के
ककसी भी लोक में प्रिेश करें गे तो जन्म , मृत्यु, जरा तथा व्यािध के चार िसद्धान्त िे
िहााँ भी पाएाँगे। उच्च लोकों में जीिन की अििध इस पृथ्िी की अििध से लम्बी हो
सकती है , परन्तु मृत्यु िहााँ पर भी है। भौितक ब्रह्माण्ड से हमारा तात्पयय उन ग्रहों से
है जहााँ जन्म , मृत्यु, जरा और व्यािध होते है और आध्याित्मक ब्रह्माण्ड से हमारा
तात्पयय उन ग्रहों से है जहााँ जन्म , मृत्यु, जरा और व्यािध नहीं होते हैं। जो बुिद्धमान
हैं, िे स्ियुं को इस भौितक ब्रह्माण्ड के ककसी भी ग्रह में ले जाने की चेष्टा नहीं करते।
यकद कोई उच्च लोकों में याुंित्रक िििध में प्रिेश करने का प्रयत्न करता है , तो उसकी
तत्काल मृत्यु िनिश्चत है , क्योंकक यह शरीर िातािरण के इतने बड़े उग्र पररितयन को
सह नहीं सकता है। परन्तु यकद कोई योग िििध से उच्च लोकों में प्रिेश करने का
प्रयास करे , तो उसे प्रिेश करने के िलए उपयुि शरीर प्राप्त हो जाएगा। इस पृथ्िी
पर भी हम ऐसा प्रदर्वशत होते देख सकते हैं , क्योंकक हमें पता है कक हमारे िलए समुि
में जलमय िातािरण में रहना सम्भि नहीं है और न ही जलचरों के िलए धरती पर
रहना सम्भि है। इस प्रकार हम समझते हैं कक जैसे इस पृथ्िी पर भी जि को ककसी
स्थान ििशेष पर रहने के िलए एक ििशेष प्रकार का शरीर चािहए , िैसे ही अन्य
ग्रहों में रहने के िलए भी ककसी िििशष्ट प्रकार का शरीर चािहए। उच्चतर ग्रहों में
पृथ्िी की अपेक्षा शरीर अिधक समय तक जीिित रहता है , क्योंकक उच्चतर ग्रहों का
एक कदन पृथ्िी के छः महीनों के बराबर होता है। इस प्रकार का िणयन िेदों में है कक
जो लोग उच्च लोकों में रहते हैं , िे इस पृथ्िी के दस हजार िषों से भी अिधक समय
तक जीिित रहते है। तथािप इतनी लम्बी आयु के बाद भी मृत्यु हर एक की प्रतीक्षा
करती है। चाहे कोई बीस हजार या पचास हजार या लाखों िषय जीिित रहे , किर भी
इस भौितक सुंसार में िषों की िगनती होती रहती है और मृत्यु आती ही है। मृत्यु के
इस चुंगुल से हम कै से बच सकते हैं? यह िशक्षा भगिद्गीता में दी गई है।
आत्मा के िलए ककसी भी काल में न तो जन्म है न मृत्यु ! िह न तो कभी जन्मा हैं , न
जन्म लेता है और न जन्म लेगा। िह अजन्मा , िनत्य, शाश्वत तथा पुरातन हैं। शरीर
के मारे जाने पर िह मारा नहीं जाता। (भगिद्गीता 2.20)
हम आत्मा हैं और इसिलए सनातन हैं। तो किर हम अपने आप को जन्म और मृत्यु के
अधीन क्यों होने देते हैं ? जो यह प्रश्न पूछता है , उसे बुिद्धमान माना जाना चािहए।
जो लोग कृ ष्णभािनाभािित हैं , िे बहुत बुिद्धमान है , क्योंकक िे उन ग्रहों में जाने के
इच्छु क नहीं है , जहााँ मृत्यु होती है। िे भगिान् के समान शरीर पाने के िलए लम्बी
अििध िाला जीिन भी स्िीकार नहीं करें गे। ईश्वरः परमः कृ श्णः सत् -िचत्-आनन्द-
ििग्रहः। सत् का अथय है सनातन , िचत् का अथय है ज्ञानसे पररपूणय और आनन्द का अथय
है सुख से पररपूणय। कृ ष्ण सम्पूणय आनन्द के सागर हैं। यकद हम अपने आपको इस
शरीर से आध्याित्मक लोक -कृ ष्णलोक (कृ ष्ण का ग्रह ) या ककसी और आध्याित्मक
ग्रह-में स्थानान्तररक करें , तो हमें उसी प्रकार का सत् -िचत्-आनन्द शरीर िमलेगा।
इसिलए जो कृ ष्णभािनाभािित हैं , उनका उदेश्् य उनसे िभन्न है , जो इस भौितक
सुंसार के उच्च ग्रहों में उन्नित करने का प्रयास कर रहे हैं।
मनुष्य का आत्मा सूक्ष्म आध्याित्मक बचगारी है। योग की िसिद्ध इस बातर पर िनभयर
करती है कक इस आध्याित्मक बचगारी को िसर के ऊपरी भाग में ले जाया जाए। इस
स्तर को प्राप्त करने के बाद योगी अपने आपको अपनी इच्छा के अनुसार इस भौितक
सुंसार के ककसी भी लोक में ले जा सकता है। यकद योगी की िजज्ञासा यह जानने की
है कक चन्िमा ककस प्रकार का है , तो िह िहााँ जा सकता है ; यकद िह उच्चतर लोकों में
जाने का इच्छु क हो , तो िह हिााँ भी उसी प्रकार जा सकता है जैसे यात्री न्यूयॉकय ,
कै नाडा या इस पृथ्िी के अन्य नगरो को जाते हैं। इस पृथ्िी पर कहीं भी जाने के िलए
प्रिेश पत्र और आयात -कर की समान िििध लागू िमलेगी। इसी प्रकार सभी भौितक
ग्रहों में भी जन्म, मृत्यु, िृद्धािस्था और बीमारी के िसद्धान्त काययशील िमलेंगे।
ओम् इत्येकाक्षरुं ब्रह्म - मृत्यु के समय योगी ॎ शब्द का उच्चारण कर सकता है। ओम्
कदव्य शब्द ध्ििन ॎकार का सुंिक्षप्त रूप है। यकद योगी इस ध्ििन का उच्चारण कर
सकता है और साथ ही उसी समय कृ ष्ण या ििष्णु भगिान् का स्मरण (मामनुस्मरन्)
कर सकता है , तो िह सबसे ऊाँचा लक्ष्य प्राप्त करता है। योग की प्रकिया मन को
ििष्णु के ध्यान में के िन्ित करना है। िनर्विशेषिादी भगिान् के ककसी रूप की ककपना
करते हैं परन्तु िैष्णिजन इसकी ककपना नहीं करते हैं बिकक िास्ति में देखते हैं।
चाहे कोई भगिान् की ककपना करे या िास्ति में उन्हें देखे , हर ककसी को कृ ष्ण के
साकार रूप पर मन को के िन्ित करना होता है।
हे अजुयन ! जो अनन्य भाि से िनरन्तर मेरा स्मरण करता है उसके िलए मैं सुलभ हाँ ,
क्योंकक िह मेरी भिि में प्रिृत्त रहता हैं। (भगिद्गीता 8.14)
जो अस्थायी जीिन , अस्थायी सुख और अस्थायी सुििधाओं से सन्तुष्ट हैं , उन्हें
बुिद्धमान नहीं माना जा सकता है , कम से कम भगिद्गीता के मतानुसार तो नहीं।
भगिद्गीता के अनुसार िजनकी बुिद्ध बहुत छोटी है , िे अस्थाई चीजोाेाुं में रुिच
रखते हैं। हम सनातन हैं , तो हम अस्थाई चीजों में रुिच क्यों रखें ? कोई भी व्यिि
अस्थाई िस्थित नहीं चाहता हैं। यकद हम ककसी ककराये के मकान में रहते हैं और
मकान मािलक खाली करने को कहे , तो हमें दुख होता है परन्तु यकद हम उससे अच्छे
मकान में चले जाते हैं , तो हमें शोक नहीं होता है। यह हमारा स्िभाि है , क्योंकक
हम सनातन हैं , इसिलए हम सनातन िनिासस्थान चाहते हैं। हम मरना नहीं चाहते
हैं क्योंकक िास्ति में हम सनातन हैं। हम िृद्ध और बीमार होना भी नहीं चाहते हैं ,
क्योंकक ये सब बाहरी और अस्थाई िस्थितयााँ हैं। यद्यिप हम ज्िर से पीिड़त होने के
िलए नहीं बने हैं , किर भी कभी कभी ज्िर आ जाता है और हमें ठीक होने के िलए
सािधािनयााँ अपनानी पड़ती हें और िचककत्सा करिानी पड़ती हैं चारो प्रकार के दुख
ज्िर जैसे ही हैं और ये सब इस भौितक शरीर के कारण हैं। यकद ककसी प्रकार हम इस
भौितक शरीर से बाहर िनकल पाएाँ , तो हम सभी दुखों से छु टकारा पा सकते हैं , जो
इस शरीर के साथ जुड़े हुए हैं।
िनर्विशेषिाकदयों को इस अस्थायी शरीर से छु टकारा पाने के िलए भगिान् कृ ष्ण
उन्हें ॎकार का उच्चारण करने की सलाह दे रहे हैं। इस प्रकार उनका आध्याित्मक
जगत में स्थानाुंतरण िनिश्चत हो जाता है। किर भी , यकद िे आध्याित्मक जगत में
प्रिेश पा भी जाएाँ , तो भी िे िहााँ के ककसी भी ग्रह में प्रिेश नहीं पा सकते हैं। िे
बाहर ब्रह्मज्योित में रहते है। ब्रह्मज्योित की तुलना सूयय के प्रकाश से की जा सकती है
और आध्याित्मक ग्रहों की तुलना स्ियुं सूयय ग्रह से की जा सकती है और आध्याित्मक
आकाश में भगिान् की प्रभा, ब्रह्मजयोित में रहते हैं। िनर्विशेषिाकदयों को ब्रह्मज्योंित
में आध्याित्मक बचगारी के रूप में स्थान िमलता है और इस प्रकार ब्रह्मज्योित इन
आध्याित्मक बचगाररयों से भर जाती है। यही ब्रह्म में लीन हो जाना कहा जाता है।
ककसी को यह नही समझ लेना चािहए कक ब्रह्मज्योित में लीन होने का अथय
ब्रह्मज्योित से एकाकार हो जाना है ; हर आध्याित्मक बचगारी अपने िनजी व्यिित्ि
को बनाये रखती है , परन्तु क्योंकक िनर्विशेषिादी व्यैयििक रूप लेना नहीं चाहते हैं ,
इसिलए िे ब्रह्मज्योित में बचगाररयों के रूप में पाये जाते है। जैसे सूयय का प्रकाश
अनेक अणु जैसे सूक्ष्म कणों से बना है , िैसे ही ब्रह्मज्योित भी अनेक आध्याित्मक
बचगाररयों से बनी है।
कु छ भी हो , जीि होने के कारण हम आनन्द लेना चाहते हैं। अिस्तत्ि होना अपने
आप में पयायप्त नहीं है। हम आनन्द चाहते हैं और साथ अिस्तत्ि भी। अपनी पूणयता में
जीि तीन गुणों से बने होते हैं -शाश्वतता, ज्ञान और आनन्द। जो जीि ब्रह्मज्योित में
िनर्विशेष रूप से प्रिेश करते हैं , िे कु छ समय तक पूरे ज्ञान के साथ िहााँ रह सकते हैं
कक िे अब पूरी तरह से ब्रह्म ज्ञान से िमल गए हैं , परन्तु िहााँ उन्हें शाश्वत आनन्द
नहीं िमल सकता है , क्योंकक िह चीज िहााँ नहीं है। कोई व्यिि एक कमरे में अके ला
कु छ समय तक रह सकता है और कोई पुस्तक पढ़ कर या ककसी ििचार में मि रह
कर आनन्द ले सकता है , परन्तु यह सम्भि नहीं हैं कक िह उस कमरे में लगातार िषों
तक रहे; और िनश्चय ही िह अनुंत काल तक तो िहााँ नहीं रह सकता है। इसिलए जो
अव्यि रूप से परम सत्य में िमल जाते है , उनके िलए कु छ सुंगित पाने के िलए इस
भौितक सुंसार में किर से िगरने की बहुत सम्भािना रहती है। यह श्रीमद्भागितम् का
िनणयय है। अुंतररक्ष यात्री हजारों

कृ ष्णकृ पामूर्वत
श्री श्रीमद् ए.सी. भिििेदान्त स्िामी प्रभुपाद
सुंस्थापकाचायय ाः अन्तरायष्ट्रीय कृ ष्णभािनामृत सुंघ
िजस प्रकार पानी में तैरता नाि को प्रचण्ड िायु दूर बहा ले जाती है , उसी प्रकार
इिन्ियों में से कोई एक िजस पर मन के िन्ित रहता है , मनुष्य की बुिद्ध को हर लेती
है। (पृष्ठ 7)
भगिान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने किलयुग की पित मानि जाित के उद्धार के िलए हरे
कृ ष्ण महामुंत्र प्रदान ककया है ाः हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण , कृ ष्ण कृ ष्ण, हरे हरे , हरे राम,
हरे राम, राम राम, हरे हरे ॥ (पृष्ठ 15)
भगिान् कृ ष्ण के भि भििमय सेिा के कायो द्वारा िास्तििक आनन्द का अनुभि
करते हैं , जब कक आधुिनक सभ्यता में भौितकतािादी मनुष्य नशा इत्याकद के द्वारा
कृ ित्रम रूप से आनन्द लेने का प्रयास करते हैं। (पृष्ठ 38)
हजारों मी तक यात्रा कर सकते हैं , परनतु यकद उन्हें ककसी ग्रह पर ििश्राम नहीं
िमलता, तो उन्हें इस पृथ्िी पर िापस आना पड़ता है। कु छ भी हो , ििश्राम की
आिश्यकता तो होती ही है। अव्यि रूप में ििश्राम अिनिश्चत है। इसिलए
श्रीमद्भागितम् कहता है कक इतने पररश्रम के बाद भी यकद िनर्विशेषिादी
आध्याित्मक ििश्व में प्रिेश करता है और अव्यि रूप पाता है , तब भी िह इस
भौितक सुंसार में िापस आता हैं क्योंकक उसने प्रेम तथा भिि के साथ भगिान् की
सेिा करने की उपेक्षा की है। इसिलए जब तक हम इस पृथ्िी पर हैं , हमें परम
भगिान् कृ ष्ण की सेिा और उन्हें प्रेम करने की अभ्यास करना सीखना चािहए। यकद
हम इसे सीख लें , तो हम उन आध्याित्मक लोकों को प्रिेश कर सकते है।
िनर्विशेषिाकदयों की परव्योम में िस्थित अस्थाई होती है , क्योंकक अके लेपन के कारण
िे कु छ सुंग पाने का प्रयास करें गे। चूुंकक िे व्यििगत रूप से भगिान् की सुंगित प्राप्त
नहीं करते हैं , इसिलए उन्हें इस सुंसार में किर से आकर बद्धजीिों के सुंग में रहना
पड़ता है।
इसिलए यह बहुत ही महत्त्िपूणय बात है कक हम अपने िैधािनक स्िरूप को समझें।
हम शाश्वतता , पूणय ज्ञान और साथ ही साथ आनन्द भी कहते है , अतः हम इस
भौितक सुंसार से िमलने िाले आनन्द को स्िीकार करते हैं। ककन्तु कृ ष्णभािनामृत में
िास्तििक आनन्द का आस्िादन ककया जाता है। भौितक जगत में साधारणतया मैथुन
ही सबसे ऊाँचा आनन्द माना जाता है। यह आनन्द आध्याित्मक जगत में पाये जाने
िाले सुंभोग -आनन्द अथायत् कृ ष्ण भगिान् के सािन्नध्य से िमलने िाले आनन्द की
ििकृ त परछाई है। परन्तु हमें यह नीं सोचना चािहए कक िह आनन्द इस भौितक
सुंसार के मैथुन के आनन्द जैसा है। नहीं , िह िभन्न है। परन्तु जब तक आध्याित्मक
जगत मेाेाुं यौन जीिन नहीं है , जब तक उसकी परछाई यहााँ नहीं आ सकती है।
यहााँ तो यह के िल ििकृ त परछाई है , परन्तु िास्तििक जीिन िहााँ भगिान् कृ ष्ण में
है, जो कक सभी आनन्दों से पूणय हैं। इसिलए सबसे उत्तम िििध अपने आप को अभी से
प्रिशिक्षत करना है , िजससे मृत्यु के समय हम िहााँ कृ ष्ण की सुंगित करें । ब्रह्मसुंिहता
(5.21) में भगिान् कृ ष्ण और उनके धाम का िणयन इस प्रकार ककया गया हैं ाः
मैं उन आकदपुरुष भगिान् गोििन्द का भजन करता हू ुं जो लाखो ककपिृक्षों से िघरे
हुए बचतामिणसमूह से िनर्वमत भिनों में कामधेनु गायों का पालन करते हैं एिुं जो
असुंख्य लिक्ष्मयों अथ्िा गोिपयों द्वारा सदैि प्रगाढ़ आदर और प्रेम सिहत सेिित है।
यह कृ ष्णलोक का एक िणयन है। िहााँ के घर िचन्तामिण रत्न से बने हुए हैं।
िचन्तामिण पत्थर िजसे भी छू ता है , िह तुरन्त सोना बन जाता है। िहााँ के िृक्ष
इच्छा की पूर्वत करने िाले ककपिृक्ष हैं। उनसे व्यिि जो कु छ चाहे , पा सकता हैं इस
सुंसार में हमें आम के िृक्ष से आम िमलता है और सेब के िृक्ष से सेब िमलता है , परन्तु
िहााँ ककसी भी िृक्ष से व्यिि जो चाहे िह पा सकता है। इसी प्रकार िहााँ गाएाँ सुरिभ
कहलाती है , जो असीिमत दूध देती है। यह िैकुण्ठ लोक का िणयन है , जो िैकदक
सािहत्य में पाया जाता हैं।
इस भौितक सुंसार में हम जन्म , मृत्यु और अनेक प्रकार के दुखों के अभ्यस्त हो गये
हैं। भौितक िैज्ञािनकों ने इिन्ियों के आनन्द के िलए और ििनाश के िलए अनेक
सुििधाओं का आििश्कार कर िलया है , परन्तु उन्होंने िृद्धािस्था , बीमारी और मृत्यु
जैसी समस्याओं का कोई भी हल नहीं ढ़ुंढ़ ू ा है। िे ककस ऐसे युंत्र का आििषकर नहीं
कर सकते हैं जो कक िृद्धािस्था, मृत्यु और बीमारी को रोक सके । हम ऐसी कोई चीज
का िनमायण कर सकते हैं , जो कक मृत्यु की गित को और तेज कर दे , परन्तु ऐसी ककसी
चीज का नहीं जो कक मृत्यु को रोक दे। ककन्तु जो बुिद्धमान हैं , िे इस साुंसाररक
जीिन के चार प्रकार के दुखों से मतलब नहीं रखते हैं , बिकक आध्याित्मक लोकों में
उन्नित करने से मतलब रखते हैं। जो सदैि उपािध (िनत्य युिस्य योिगनः ) में रहता
है, िह अपना ध्यान ककसी अन्य चीज में नहीं मोड़ता है। िह सदैि समािध में िस्थर
रहता है। उसका मन सदैि कृ ष्ण के िचन्तन में , ककसी प्रकार से ििचिलत हुए िबना
(अनन्य-चेताःसततम्) लगा रहता है। सततम् से तात्पयय ककसी भी जगह , ककसी भी
समय से हैं।
मैं भारत में िृन्दािन में रहता था और अब मैं अमरीका में हू ुं परन्तु इसका अथय यह
नहीं है कक मैं िृन्दािन में हू ुं , परन्तु इसका अथय यह नहीं है कक मैं िृन्दािन के बाहर
हू ;ुं क्योंकक यकद मैं सदैि कृ ष्ण के ििषय में सोचूुं , तो मैंाुं भौितक उपािधयों ले जुड़े
होने के बािजूद भी िृन्दािन में हू ।ुं कृ ष्णभािना का अथय यह है कक मनुष्य सदैि
भगिान् कृ ष्ण के साथ िैकुण्ठ में , गोलोक िृन्दािन में रहता है और िह इस भौितक
शरीर को छोड़ने मात्र की प्रतीक्षा करता रहता है स्मरित िनत्यशः का अथय है ,
िनरन्तर याद करना और जो कृ ष्ण का लगातार स्मरण करता है , उसके िलए कृ ष्ण
सरलता से खरीदे जा सकते हैं -तस्याहम् सुलभः। कृ ष्ण स्ियुं कहते हैं कक िे इस
भिियोग की प्रकिया के द्वारा िे सरलता से खरीदे जा सकते है। तो हम ककसी अन्य
िििध को क्यों अपनाएाँ ? हम प्रित चौबीसो घुंटे हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण , कृ ष्ण कृ ष्ण, हरे
हरे / हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे ॥ का कीतयन कर सकते है। इसके िलए कोई
िनयम या िििध नहीं है। हम सड़क पर , रे लगाडी में , अपने घर में या कायायलय में
कीतयन कर सकते है। इसमें कोई कर नहीं लगता या कोई खचय नहीं होता। तो हम
क्यों न इसे अपनाएुं?
भौितक ग्रहो से मुिि
ज्ञानी और योगी साधारण रूप से िनर्विशेषिादी होते हैं और यद्यिप िे अव्यि
ब्रह्मज्योित अथायत् आध्याित्मक आकाश में लीन होकर अस्थाई रूप से मुिि को प्राप्त
कर लेते हैं , परन्तु श्रीमद्भागितम् के अनुसार उनका ज्ञान शुद्ध नहीं माना जाता है।
तपस्या, सुंयम और यान के द्वारा िे परम सत्य के स्तर तक उन्नित कर सकते हैं ,
परन्तु जैसाकक पहले बताया गया है , िे किर से इस भौितक सुंसार में िगर जाते हैं ,
क्योंकक उन्होंने भगिान् कृ ष्ण के साकार रूप को गम्भीरता से नहीं िलया है। जब तक
कोई भगिान् कृ ष्ण के चरणारििन्द की पूजा नहीं करता है , तब तक उसे किर से
भौितक स्तर पर उतरना पड़ता है। इसिलए सबसे आदशय दृिष्टकोण यह होगा कक मैं
आपका सनातन सेिक हू ।ुं कृ ाृपा करके मुझे ककसी न ककसी प्रकार से अपनी सेिा में
लगाइए। कृ ष्ण भगिान् अिजतः कहलाते हैं अथायत् िे जीते नहीं जा सकते हैं , क्योंकक
कोई भी भगिान् को नहीं जीत सकता है परन्तु श्रीमद्भागितम् के अनुसार िजसने
ऐसा स्िभाि बना िलया हैं , िह भगिान् पर सरलता से ििजय पा सकता है।
श्रीमद्भागितम् में इस बात की सुंस्तुित भी की गई है कक हमें भगिान् को नापने की
व्यथय की प्रकिया को छोड़ देना चािहए। हम इस आकाश की सीमाओं को भी नहीं
नाप सकते हैं , तो परमेश्वर का क्या कहना। भगिान् कृ ष्ण की लम्बाई और चौड़ाई
को अपने अकप ज्ञान से नाप लेना सम्भि नहीं है और जो इस िनष्कषय पर पहुाँचता हैं।
हर एक को बहुत ही नम्र भाि से यह समझना चािहए कक िह इस ब्रह्माण्ड का बहुत
ही नगण्य अुंश है। परमेश्वर को अपने सीिमत ज्ञान से या अपनी मानिसक ककपनाओं
से समझने की चेष्टाओं का त्याग करके हमे नम्र बनना चािहए और परमेश्वर के ििषय
में प्रमािणत शास्त्रों, जैसे भगिद्गीता अथिा ककसी आत्मदशी व्यिि के मुख से सुनना
चािहए।
भगिद्गीता में अजुयन भगिान् के ििषय में स्ियुं कृ ष्ण के श्रीमुख से ही सुन रहा है।
इस प्रकार अजुयन ने िििनत भाि से सुनकर परमेश्वर को समझने की िििध का
मापदण्ड स्थािपत ककया हैं। यही हमारी िस्थित है कक हम भगिद्गीता को अजुयन के
मुख से या उनके अिधकृ त प्रितिनिध अथायत आध्याित्मक गुरु से सुनें। सुनने के पश्चात ,
इस उपार्वजत ज्ञान का अभ्यास दैिनक जीिन में करना आिश्यक है। भि प्राथयना
करता हैं मेरे िप्रय भगिान् , आप अजेय हैं , परन्तु सुनने की इस िििध से आप जीत
िलए गए हैं। भगिान् अजेय हैं परन्तु िे उन भिों द्वारा जीत िलए जाते है , िजन्होंने
मानिसक ककपनाओं को छोड़ कदया है और अिधकृ त स्रोतों से सुनना शुरु ककया है।
ब्रह्म-सुंिहता के अनुसार ज्ञान प्राप्त करने के दो मागय हैं -आरोह मागय या चढ़ाि की
िििध और अिरोह मागय अथायत उतार की िििध। आरोह मागय में मनुष्य अपने खुद के
द्वारा प्राप्त ककये गये ज्ञान से प्रगित करता है। इसमें िह इस प्रकार सोचता है , मैं
ककसी शास्त्र या महात्माओं की परिाह नहीं करता हू ।ुं मैं ज्ञान की प्रािप्त अपने आप
ध्यान से या तत्त्िज्ञान नहीं करता हाँ। मैं ज्ञान की प्रािप्त अपने आप ध्यान से या
तत्त्िज्ञान इत्याकद से कर लूुंगा , इत्याकद। इस प्रकार मैं भगिान् को समझ जाऊाँगा।
दूसरी िििध अथायत अिरोही िििध से ज्ञान उच्च अिधकाररयों से प्राप्त ककया जाता है।
ब्रह्म-सुंिहता बताती है कक यकद कोई आरोह िििध से हिा या मन की गित से लाखों
िषो तक यात्रा करे , तब भी िह ज्ञान नही पा सके गा। उसके िलए यह ििषय सदैि
दुग्रायह्य तथा अिचन्तनीय रहेगा। परन्तु यह ििषयिस्तु भगिद्गीता में दी गई है -
अनन्यचेताः-कृ ष्ण कहते हैं कक ििनीत भाि से की जाने िाली भििमय सेिा के माय से
ििचिलत हुए िबना उनका ध्यान करो। जो इस प्रकार उनकी पूजा करता है -तस्याहम्
सुलभः- उसके िलए मैं बहुत सरलता से उपलब्ध हो जाता हू ।ुं िििध यह हैः यकद कोई
कदन में चौबीसों घुंटे भगिान् कृ ष्ण के िलए कायय करता है , तो कृ ष्ण उसे भूल नहीं
सकते हैं। ििनम्र होकर िह भगिान् का ध्यान आकर्वषत कर सकता है। जैसा हमारे
गुरु महाराज भिििसद्धान्त सरस्िती कहा करते थे , भगिान् को देखने का प्रयत्न मत
करे ा। क्या िे नौकर की तरह हमारे सामने आकर खड़े जो जाएाँ , के िल इसिलए कक
हम उन्हें देखना चाहते हैं ? यह नम्रता की िििध नहीं हैं। हमें उन्हें अपने प्रेम और
अपनी सेिा के द्वारा अनुग्रहीत करना है।
मानि जाित को कृ ष्ण तक पहुाँचने की सही िििध चैतन्य महाप्रभु ने दी थी और
उनके प्रथम िशष्य रूप गोस्िामी ने इसकी प्रशुंसा की थी। रूप गोस्िामी मुसलमान
सरकार में मुंत्री थे , लेककन चैतन्य महाप्रभु के िशष्य बनने के िलए उन्होंने सरकारी
पदिी छोड़ दी थी। जब िे सियप्रथम महाप्रभु को िमलने के िलए गए थे , तब िे
िनम्निलिखत श्लोका उच्चारण करते हुए उनके समीप पहुाँचे थेः
मैं परम ईश्वर , श्रीकृ ष्ण चैतन्य के चरणो में सादर प्रणाम करता हू ुं , जो अन्य ककसी
भी अितार से -स्ियुं कृ ष्ण से भी-अिधक उदार हैं , क्योंकक िे िबना ककसी भेद के कृ ष्ण
के शुद्ध प्रेम का मुि भाि से िितरण कर रहे हैं , जैसा और ककसी ने नहीं ककया है।
(चैतन्य चररतामृत, मध्य 19.53)
रूप गोस्िामी ने चैतन्य महाप्रभु को सिायिधक उदार एिुं परिहतकारी व्यिित्ि कहा
था क्योंकक िे सबसे मूकयिान िस्तु -कृ ष्ण प्रेम -को बहुत सस्ते में बााँट रहे थे। हम सब
कृ ष्ण को चाहते हैं और उनके िलए लालाियत हैं। कृ ष्ण सबसे ज्यादा आकषयक हैं ,
सबसे अिधक सुन्दर हैं , सबसे ज्यादा ऐश्वययिान है , सबसे ज्यादा शििशाली है और
सबसे अिधक ज्ञानी है। हमारी अनुरिि के पात्र िे ही है। हम सुन्दर , शििशाल,
ज्ञानी और धनिान को ढ़ूाँढ़ रहे हैं। कृ ष्ण इन सभी के सरोिर हैं , इसिलए हमें अपने
ध्यान को के िल उनकी ओर ले जाने की आिश्यकता है और हमें हर चीज िमल
जाएगी। हर चीज-िजसकी भी हमें इच्छा है। कृ ष्णभािनाम्त की इस िििध से हमारी
हृदय की सभी इच्छाओं की पूर्वत हो जाएगी।
िजसकी मृत्यु कृ ष्णभािनाभािित रहते हुए होती है , जैसाकक पहले कहा गया है ,
उसके िलए परम धाम अथायत् कृ ष्णलोक में जाना िनिश्चत हैं , जहााँ भगिान् कृ ष्ण
िनिास करते हैं। इस बात पर कोई प्रश्न पूछ सकता है कक उस लोक में जाने से क्या
लाभ है? इसका उत्तर कृ ष्ण ने स्ियुं की कदया हैः
मुझे प्राप्त करके महापुरुष, जो भिियोगी हैं , कभी भी दुखों से पूणं इस अिनत्य जगत
में नहीं लौटते, क्योंकक उन्हें परम िसिद्ध प्राप्त हो चुकी होती हैं। (भगिद्गीता 8.15)
सृिष्टकताय भगिान् श्रीकृ ष्ण ने इस भौितक सुंसार को दुखालयम् अथायत दुखों से भरा
स्थान बताया हैं। किर हम इसे सुखदायी कै से बना सकते हैं ? क्या ििज्ञान की
तथाकिथत प्रगित से इस सुंसार को सुखी बनाना सम्भि हैं ? नहीं, यह सम्भि नहीं
है। इसके पररणामस्िरूप , हम यह भी नही जानना चाहते हैं कक से दुख है क्या।
जैसाकक पहले बताया गया है ये दुख जन्म , मृत्यु, िृद्धािस्था और बीमारी के हैं और
क्योंकक हम इसे हल नहीं कर पाते हैं , हम इन्हें टालने का प्रयास करते हैं। ििज्ञान के
पास हमें सदैि कष्ट देने िाली इन समस्याओं को हल करने की कोई शिि नहीं है।
इसके ििपरीत, िे हमारे ध्यान को अुंतररक्षयान या अणु बम बनाने की ओर ले जाते
हैं इन समस्याओं का हल यहााँ भगिद्गीता में कदया गया हैः यकद कोई भगिान् कृ ष्ण
के धाम को प्राप्त कर लेता है , तो उसे जन्म और मृत्यु िाली इस धरती में किर से
िापस नहीं आना होता है। हमें यह समझने का प्रयत्न करना चािहए कक यह जगह
दुखों से पूणय है।इसको समझने के िलए कु छ ििकिसत चेतना चािहए। कु त्ते , िबिकलयााँ
और सूअर समझ नहीं सकते कक िे दुख पा रहे हैं। मनुष्य को तकय सुंगत पशु कहा गया
है परन्तु उसकी इस ििचारशीलता का उपयोग दुखमय िस्थित से मुिि पाने का हल
ढ़ूाँढ़ने के बजाए, पाशििक मनोिृित्त को बढ़ाने में लगाया जा रहा है। , िह दुख पाने के
िलए किर कभी जन्म नहीं लेगा। उनके पास जाने िाले महान् आत्माओं को जीिन
की सबसे बड़ी िसिद्ध िमल चुकी हैं , जो जीिात्मा को बद्ध जीिन से छु टकारा कदलाती
हैं।
भगिान् कृ ष्ण और सामान्य जीि में एक अन्तर यह है कक सामान्य व्यिि एक समय
में के िल एक स्थान परही उपिस्थत रह सकता है परन्तु भगिान् कृ ष्ण सारे ब्रह्माण्ड
में हर जगह उपिस्थत हो सकते हैं और साथ साथ अपने धाम में थी। आध्याित्मक
जगत में कृ ष्ण भगिान् का धाम गोलोक िृन्दािन कहलाता है। भारत में िस्थत
िृन्दािन िही गोलोक िृन्दािन है , जो पृथ्िी पर उतर आया है। जब भगिान् कृ ष्ण
अपनी अुंतरुं गा शिि से अितररत होते हैं , तो उनका धाम भी पृथ्िी पर उतर आता
है। दूसरे शब्दों में , जब भगिान् कृ ष्ण इस पृथ्िी पर अितररत होते हैं , तब िे उस
स्थान ििशेष पर ही प्रकट होते हैं। इसके बािजूद भी भगिान् कृ ष्ण का धाम सदैि
िैकुण्ठ में आता है , उसे इस भौितक सुंसार में किर कभी भी जन्म नहीं लेना होता है।
ऐसे व्यिि को महात्मा कहते है। पाश्चात्य देश में महात्मा शब्द साधारणतया
महात्मा गााँधी के सम्बन्ध में सुना जाता है , परन्तु हमें समझ लेना चािहए कक
महात्मा ककसी राजनीितक नेता की उपािध नहीं है। बिकक महात्मा से तात्पयय प्रथम
श्रेणी के कृ ष्णभािनाभािित व्यिि से है , जो कक कृ ष्णलोक जाने के योग्य है। महातम
की पूणयता यह है कक िह मनुष्य योिन के जीिन और प्रकृ ित के स्रोतों का उपयोग
जन्म और मृत्यु के चि से अपने आप का मुि करने के िलए करे ।
एक बुिद्धमान व्यिि जानता है कक िह दुख नहीं चाहता , परन्तु दुख उस पर
बलपूियक थोपे जाते हैं। जैसाकक पहले बताया गया हैं , हम सदैि मन , शरीर,
प्राकृ ितक उपििों अथिा अन्य जीिों के कारण दुखमय िस्थित में रहते है ककसी न
ककसी प्रकार का दुख सदैि हमारे ऊपर थोपा जाता है। यह भौितक सुंसार दुख के
िलए ही बना है। जब तक दुख नहीं होता है , तब तक हम कृ ष्णभािनाभािित नहीं
हो सकते हैं दुख तो िास्ति में िह प्रेरणा है , जो हमें कृ ष्णभािनामृत तक ऊपर उठने
में सहायता देती है। बुिद्धमान व्यिि प्रश्न करता है कक ये दुख उसके ऊपर बलपूियक
क्यों थोपे जाते है लेककन आधुिनक सुंस्कृ ित का दृिष्टकोण है , मुझे दुख सहने दो।
मादक िस्तुओं का सेिन करके मुझे दुखों को ढकने दो बस यही। परन्तु जैसे ही
मादकता का प्रभाि समाप्त हो जाता है , दुख िापस आ जाते हैं। कृ ित्रम मादकता से
जीिन के दुखों का हल नही ककया जा सकता है। समाधान तो कृ ष्ण भािनामृत से
होता है।
कोई यह कह सकता है कक यद्यिप कृ ष्ण के भि कृ ष्णलोक में प्रिेश करने का प्रयत्न
कर रहे हैं , ककन्तु अन्य सब की रुिच तो चन्िमा तक जाने की है। क्या चन्िमा पर
जाना भी पूणयता नहीं है ? अन्य ग्रहों की यात्रा करने की मनोिृित्त जीिों में सदैि ही
रही है। जीि का एक नाम सियग है िजसका अथय है िह जो हर जगह यात्रा करना
चाहता हैं। यात्रा करना जीिों के स्िभाि का एक भाग है। चन्िमा पर जाने की इच्दा
कोई निीन इच्छा नहीं है योगी भी उच्च ग्रहों में जाने के इच्छु क हैं , परन्तु भगिद्गीता
(8.16) कृ ष्ण बतलाते हैं कक इससे कोई लाभ नही होगा

इस जगत में सिोंच्च लोक से लेकर िनम्नतम सारे लोक दुखों के घर पर हैं , जहााँ जन्म
तथा मरण का चक्कर लगा रहता हैं। ककन्तु हे कु न्तीपुत्र ! जो मेर धाम को प्राप्त कर
लेता हैं, िह किर कभी जन्म नहीं लेता।
इस ब्रह्माण्ड का ििभाजन उच्च , मध्यम और िनम्न ग्रहमुंडलो में ककया जाता है। पृथ्िी
को माध्यम ग्रहमुंडल का सदस्य माना जाता है। भगिान् कृ ष्ण कहते हैं कक यकद कोई
सबसे ऊाँचे ग्रह कहे जाने िाले ब्रह्मलोक में भी पहुाँच जाए , िहााँ भी जन्म और मृत्यु
का चि पाया जाता है। ब्रह्माण्ड के अन्य लोक जीिों से भरे है। हमें यह नहीं सोचना
चािहए कक हम ही यहााँ है और अन्य सभी ग्रह खाली है। अपने अनुभि से हम देख
सकते हैं कक इस पृथ्िी में कोई स्थान जीिों से खाली नहीं है।अपने अनुभि से हम देख
सकते हैं कक इस पृथ्िी में कोई स्थान जीिों से खाली नहीं है। यकद हम भूिम को गहरा
खोदें, तो हम कीड़े पाएाँगे ; यकद हम आकाश में जाएाँ , तो हमें बहुत सारे पक्षी िमलेंगे।
तो यह िनष्कषय िनकालना कै से सम्भि है कक अन्य ग्रहों में पहुाँच भी जाएाँ , जहााँ महान
देिता िास करते हैं, िहााँ भी हम मृत्यु के अधीन होंगे। पुनः भगिान् कृ ष्ण दोहराते हैं
कक जो उनके लोक में पहुाँच जाता है , उसे किर से जन्म लेना नहीं पड़ता।
हमें आनन्द और ज्ञान से पूणय अपने सनातन जीिन को पाने के िलए अत्यन्त गम्भीर
होना चािहए। हम भूल गये हैं कक यही िास्ति में हमारे जीिन का उदेश्् य है और
यही हमारी िास्तििक स्िाथय है। हम क्यों भूल गए हैं ? हम के िल भौितक चमक-ऊाँचे
भिनों, बड़े कारखानों, राजनैितक िीड़ाओं-से बुंदी बनाए गये हैं , यद्यिप हम समझते
हैं कक हम ककतनी ही बड़ी इमारतें क्यों न बना लें , हम िहााँ आनन्द समय तक नहीं
रह पाएाँगे। हमें अपनी शिि को बड़े बड़े कारखाने या शहर बनाने में नष्ट नहीं करना
चािहए, क्योंकक ये हमें भौितक प्रकृ ित के बन्धन में और बााँध देंगे। हमें तो अपनी
शिि का उपयोग कृ ष्णभािनामृत को ििकिसत करके कदव्य शरीर प्राप्त करने के िलए
करना चािहए , िजससे हम कृ ष्णलोक में प्रिेश पा सकें । कृ ष्णभािनामृत मात्र एक
धार्वमक सूत्र या आध्याित्मक मनोरुं जन नहीं है , बिकक यह जीि का अत्यन्त आिश्यक
अुंग है।

ब्रह्माण्ड के परे आकाश-िैकुण्ठलोक


यकद इस ब्रह्माण्ड के उच्च ग्रहों में भी जन्म और मृत्यु होते हैं , तो महान योगी उन्नित
करके िहााँ तक पहु च ुं ने की चेष्टा क्यों करते हैं ? यद्यिप योिगयों के पास अनेक
िसिद्धयााँ होती हैं , किर भी उन में भौितक जीिन की सुििधाओं का आनन्द लेने की
मनोिृित्त होती है। उच्च ग्रहों में अििश्वसनीय रूप की लम्बी अििध का जीिन सम्भि
है। इन ग्रहों के समय की गणना भगिान् कृ ष्ण ने बतलायी है
मानिीय गणना के अनुसार एक हजार युग िमलकर ब्रह्मा का एक कदन बनता हैं और
इतनी ही बड़ी ब्रह्मा की राित्र भी होती हैं। (भगिद्गीता 8.17)
एक युग 43 लाख िषय का होता है। इस सुंख्या को एक हजार से गुणा करके ब्रह्मलोक
में ब्रह्मा के बारह घुंटे होते है। इसी प्रकार के अगले बारह घुंटों की अििध ब्रह्मा की
राित्र होती है। ऐसे तीस कदनों का एक महीना होता है और बारह महीनों का एक
िषय होता है और ब्रह्मा ऐसे सौ िषय तक जीिित रहते हैं। िास्ति में ऐसे ग्रहों में
जीिन बहुत लम्बा होता है , परन्तु अरबों िषो के उपरान्त भी ब्रह्मलोक के जीिन को
मृत्यु का सामना तो करना ही पड़ता है। जब तक हम आध्याित्मक लोकों में नहीं चले
जाते हैं, तब तक मृत्यु से कोई बचाि नहीं है।
ब्रह्मा के कदन के शुभारम्भ में सारे जीि अव्यि अिस्था से व्यि होते हैं और किर
जब राित्र आती है तो िे पुनः अव्यि में ििलीन हो जाते हैं। (भगिद्गीता 8.18)
ब्रह्मा के कदन के अन्त में सभी िनम्न लोक पानी में डू ब जाते हैं और उन पर रहने िाले
सभी जीिों का ििनाश हो जाता है। इस प्रलय के बाद ब्रह्मा की राित्र समाप्त होने पर
प्रातः काल जब ब्रह्मा जागते है , तब किर से सृिष्ट होती है और ये सभी जीि प्रकट हो
जाते हैं। इस प्रकार सृिष्ट और प्रलय के अधीन होना इस भौितक सुंसार की सहज
िृित्त है।
हे पाथय ! जब-जब ब्रह्मा का कदन आता है तो सारे जीि प्रकट होते हैं और ब्रह्मा की
राित्र होते ही िे असहायित् ििलीन हो जाते हैं। (भगिद्गीता 8.19)
यद्यिप जीि सियनाश नहीं चाहते हैं , किर भी प्रलय आएगा और सभी लोकों को
जलािाुंत कर लेगा और उन लोकों के सभी जीि ब्रह्मा की राित्र भर पानी में डू बे
रहते है। परन्तु जैसे ही कदन आता है, पानी धीरे धीरे अदृष्य हो जाता हैं।
इसके अितररि एक अन्य अव्यि प्रकृ ित हैं , जो शाश्वत है और इस व्यि तथा
अव्यि पदाथय से परे है। यह परा (श्रेष्ठ) और कभी नाश न होने िाली है। जब इस
सुंसार का सब कु छ लय हो जाता हैं , तब भी उसका नाश नहीं होता। (भगिद्गीता
8.20)
इस भौितक ब्रह्माण्उ की सीमाओं की हम गणन नहीं कर सकते हैं , परन्तु हमारे पास
िैकदक ज्ञान है िजससे मालूम होता है कक सम्पूणय सृिष्ट में करोड़ोाेाुं ब्रह्माण्ड हैं और
इन भौितक ब्रह्माण्डों के परे एक दूसरे आकाश है , जो आध्याित्मक है। िहााँ के सभी
ग्रह सनातन हैं और उन पर सभी जीिों का जीिन सनातन है। इस श्लोक में भािः
शब्द का अथय प्रकृ ित है और यहााँ एक दूसरी प्रकृ ित की ओर सुंकेत ककया गया है। इस
सुंसार में भी हमें दो प्रकृ ितयों का अनुभि होता है। जीि आत्मा है और जब तक िह
(आत्मा) इस भौितक पदाथय के अन्दर है , पदाथय गितशील रहता है और जैसे ही यह
जीि अथायत आध्याित्मक बचगारी शरीर छोड़ देती है , शरीर गितहीन (िनजीि) हो
जाता है। आध्याित्मक प्रकृ ित को कृ ष्ण की अन्तरुं गा प्रकृ ित कहते हैं और भौितक
प्रकृ ित को बिहरुं गा प्रकृ ित कहते हैं। इस भौितक प्रकृ ित के परे अन्तरुं गा प्रकृ ित है , जो
सियथा आध्याित्मक है। इसको प्रायोगात्मक ज्ञान से समझना सम्भि नहीं है। हम
दूरदशी युंत्र से करोडों तारे देख सकते हैं , परन्तु हम उनके समीप नहीं पहुाँच सकते।
हमें अपनी अक्षमताओं को समझना होगा। यकद हम इस भौितक ििश्व को भी अपने
प्रायोगात्मक ज्ञान से नहीं समझ सकते हैं , तो भगिान् और उनके साम्राज्य को
समझने की क्या सम्भािना है ? इसे प्रायोगात्मक रूप से समझना असम्भि है। हमें
भगिद्गीता को सुनकर ही समझना होगा। हम प्रायोगात्मक िििध से नहीं समझ
सकते हैं कक हमारे िपता कौन हैं ; हमें अपनी मााँ के कथन को सुनना होगा और उस
पर ििश्वास करना होगा। यकद हम अपनी मााँ पर ििश्वास नहीं करते हैं , तो जानने
की अन्य कोई िििध नहीं है। इसी प्रकार , यकद हम कृ ष्णभािनामृत की िििध मात्र में
लगे रहें, तो कृ ष्ण और उनके साम्राज्य की सभी जानकारी प्रकट हो जाएगी।
परस् तु भािः का अथय है , श्रेष्ठ प्रकृ ित और व्यिः का अथय है , िजसे हम प्रकट रूप में
देखते हैं। हम देख सकते हैं कक यह भौितक ब्रह्माण्ड पृथ्िी , सूयय, तारों और अन्य
लोकों के माध्यम से व्यि होता है। और इस ब्रह्माण्ड के परे एक दूसरी प्रकृ ित है , जो
सनातन है। अव्यिात् सनातनः । इस भौितक प्रकृ ित का प्रारम्भ भी है और अन्त भी
है, परन्तु िह आध्याित्मक प्रकृ ित सनातन है। न तो उसका प्रारम्भ है और न ही अन्त।
यह कै से सम्भि है ? जब बादल आकाश में आता है , तो ऐसा लगता है कक उसने
आकाश का एक बड़ा भाग ढक कदया है , परन्तु िास्ति में िह बादल बहुत छोटा सा
िबन्दु होता है और उसने सम्पूणय आकाश के के िल एक नगण्य अुंश को ढका होता है।
क्योंकक हम इतने छोटे है , इसिलए बादल द्वारा कु छ सौ मील तक के भाग को ढक
िलए जाने पर हमें प्रतीत होता है कक सम्पूणय आकाश ढक गया है। इसी प्रकार यह
सारा भौितक ब्रह्माण्ड अनन्त आध्याित्मक आकाश में एक छोटे से महत्त्िहीन बादल
के टु कड़े जैसा है। यह भौितक ििश्व महत्तत्त्ि-पदाथय के अन्दर बाँधा है। जैसे बादलों का
प्रारम्भ और अुंत होता है , उसी प्रकार इस भौितक प्रकृ ित का भी प्रारम्भ और अुंत
होता है। जब बादल छाँट जाते हैं और आकाश साि हो जाता है , तब हम हर चीज को
साि साि देख सकते हैं। इसी प्रकार शरीर आत्मा पर से गुजरते हुए बादलों की तरह
है। िह कु छ समय तक िहााँ ठहरता है , कु छ गौण उत्पादन करता है , घटता है और
अन्त में लुप्त हो जाता है। ककसी भी भौितक किया िजसे हम देखते है , उसमे भौितक
प्रकृ ित के ये छः पररितयन होते हैं -िह उत्पन्न होती है , बढ़ती है , कु छ समय तक िहााँ
रहती है , कु छ गौण चीजे उत्पन्न करती है , क्षीण होती है और लुप्त हो जाती है।
भगिान् कृ ष्ण बतलाते हैं कक बादल जैसी पररितयन शील इस प्रकृ ित के परे एक
आध्याित्मक प्रकृ ित हैं , जो सनातन हैं इसके अितररि जब िह भौितक प्रकृ ित लुप्त हो
जाएगी, तब भी िह अव्यिात् सनातन ििद्यमान रहेगी।
िैकदक सािहत्य में इस भौितक आकाश और आध्याित्क आकाश के ििषय में बहुत
सारी जानकारी हैं। श्रीमद्भागितम् के दूसरे स्कन्ध में आध्याित्मक आकाश और उसके
िनिािसयों का िणयन हैं इसमें तो यह जानकारी भी दी गई है कक आध्याित्मक व्योम
में कदव्य ििमान होते हैं और मुि जीि इन कदव्य ििमानों में िबजली की तरह यात्रा
करते है। जो भी चीज हम यहााँ देखते है , िह िास्तिकक रूप में िहााँ भी पाई जा
सकती है। इस भौितक आकाश में हर चीज आध्याित्मक व्योम में कदव्य ििमान होते
हैं और मुि जीि इन कदव्य ििमानों में िबजली की तरह यात्रा करते हैं जो भी जीच
हम यहााँ देखते हैं , िह िास्तििक रूप में िहााँ भी पाई जा सकती है। इस भौितक
आकाश में हर चीज आध्याित्मक आकाश में पाई जाने िाली चीज की ििकृ त परछाई
या नकल हैं जैसे िसनेमा में हम के िल िास्तििक चीज की परछाई या छिि देखते हैं ,
िैसे ही श्रीमद्भागितम् में कहा गया है कक यह भौितक जगत िव्यों का सुंयोग मात्र
है, जो िास्तििकता के आधार पर उसी तरह बनाया गया है , िजस प्रकार दुकान की
िखड़की की मूर्वत िास्तििक लड़की की तरह ही बनायी जाती हैं। हर समझदार
व्यिि जानता है कक मूर्वत एक नकल मात्र है। श्रीधर स्िामी कहते हैं कक चूुंकक
आध्याित्मक जगत सत्य हैं , इसिलए यह भौितक सुंसार जो उसकी नकल है ,
िास्तििक लगता है। हमें िास्तििकता का अथय जानना होगा -िास्तििकता का अथय है
िह अिस्तत्ि िजसे नष्ट नहीं ककया जा सकता है ; िास्तििकता का अथय है, शाश्वतताः
तत्त्िदर्वशयों ने यह िनष्कषय िनकाला है कक असत् (भौितक शरीर ) का तो कोई
िचरस्थाियत्ि नहीं हैं, ककन्तु सत् (आत्मा) अपररिर्वतत रहता हैं। उन्होंने इन दोनों की
प्रकृ ित के अध्ययन द्वारा यह िनष्कषय िनकाला हैं। (भगिद्गीता 2.16)
िास्तििक आनन्द भगिान् कृ ष्ण हैं और यह भौितक आनन्द जो अस्थाई है ,
िास्तििकता नहीं है जो व्यिि चीजों को यथारूप देख सकते हैं , िे परछाई के आनन्द
के भाग नहीं लेते हैं। मनुष्य जीिन का िास्तििक उदेश्् य आध्याित्मक आकाश में प्राप्त
करता है , परन्तु जैसाकक श्रीमद्भागितम् बताता है , अिधकाुंश लोग इस ििषय में
नहीं जानते हैं। मनुष्य जीिन सत्य को समझने के िनिमत्त है और उसमें स्थानान्तररत
होने के िलए है। सभी िैकदक सािहत्य हमें यही िशक्षा देते हैं कक इस अुंधकार में मत
रहो। इस भौितक सुंसार का स्िभाि अुंधकारमय हैं , परन्तु आध्याित्मक लोक सदैि
प्रकाशमान हैं , यद्यिप िह िबजली या अिि से प्रकािशत नहीं है। भगिद्गीता के
पन्िहिें अध्याय (15.6) में कृ ष्ण भगिान् इसका सुंकेत करते हैः
िह मेरा परम धाम न तो सूयय या चन्ि के द्वारा प्रकािशत होता है और न अिि या
िबजली से। जो लोग िहााँ पहुाँच जाते हैं , िे इस भौितक जगत् में किर से लौट कर
नहीं आते।
आध्याित्मक लोक को अव्यि कहा जाता है , क्योंकक भौितक इिन्ियों से इसी प्रतीित
नहीं की जा सकती हैं।
िजसे िेदान्ती अप्रकट तथा अििनाशी बताते हैं , जो परम गन्तव्य हैं , िजसे प्राप्त कर
लेने पर कोई िापस नहीं आता, िही मेरा परमधाम हैं। (भगिद्गीता 8.21)
इस श्लोक में महान यात्रा की ओर सुंकेत ककया गया है। हमें बाहरी आकाश को बेध
कर, इस भौितक ब्रह्माण्ड को पार करते हुए , उसके आिरणों में छेद करके
आध्याित्मक आकाश में प्रिेश करने में सक्षम होना पड़ता है। परमाुं गितम् -िह यात्रा
परम है। इस पृथ्िी से कु छ हजार मील दूर जानक किर िापस आने का कोई प्रश्न ही
नहीं उठता। ऐसी यात्रा कोई िीरतापूणय कायय नहीं हैं। हमें सुंपूणय भौितक ब्रह्माण्ड के
पार जाना होता हैं ऐसा हम अुंतररक्षयानों के द्वारा नहीं , बिकक कृ ष्णभािनामृत के
द्वारा कर सकते हैं। जो मनुष्य कृ ष्ण -भािनामृत के द्वारा कर सकते हैं। जो मनुष्य
कृ ष्ण-भािनामृत में िनमि हैं और जो मृत्यु के समय भगिान् कृ ष्ण का ध्यान करता
है, िह तुरन्त िहााँ स्थानान्तररत हो जाता है। यकद हम सचमुच में आध्याित्मक
आकाश में जाना चाहते है। तो हमें अभी से सत् -िचट् -आनन्द शरीर बनाने का प्रयत्न
आरम्भ करना होगा। कहा जाता है कक कृ ष्ण का शरीर सत् -िचट् -आनन्द है -ईश्वरः
परमः कृ ष्णः सत् -िचट् -आनन्द-ििग्रहः- और हमारे पास भी ऐसा ही शाश्वतता , ज्ञान
और आनन्द से पररपूणय शरीर है , परन्तु िह बहुत छोटा है और पदाथय के आिरण से
ढका हुआ है। यकद ककसी भी तरह से हम इस असत् आिरण को त्याग सकें , तो हम
उस आध्याित्मक ििश्व में पहुाँच सकते हैं। यकद एक बार हम उस आध्याित्मक जगत
को प्राप्त कर ले, तो िापस आना जरूरी नहीं हैं (युं प्रात्य न िनितयन्ते)
तब हर एक को उस परम धाम , कृ ष्ण के सिोच्च धाम , कृ ष्ण के सिोच्च धाम में जाने
का प्रयास करना चािहए। कृ ष्ण स्ियुं हमें बुलाने के िलए आते हैं और िे हमें
मागयदशयन के िलए सािहत्य देते हैं एिुं अपने अिधकृ त प्रितिनिधयों को भेजते हैं। हमें
मनुष्य जीिन में दी गई इस सुििधा का लाभ उठाना चािहए। जो उस परम धाम में
पहुाँच जाता है , उसके िलए किर सुंयम , तपस्या, योग-ध्यान इत्याकद का आिश्यकता
नहीं रहती और जो िहााँ नहीं पहुाँच पाते हैं , उनकी सभी तपस्याएाँ ि सुंयम व्यथय में
समय की बरबादी मात्र ही है। मनुष्य योिन इस िरदान का लाभ उठाने का सुअिसर
है और ककसी राष्ट्र , माता-िपता, गुरु तथा पररपालक का यह कतयव्य है कक िजन्होंने
यह मनुष्य योिन पा ली है , उन्हें जीिन की इस पूणयता को प्राप्त करने के िलए उन्नत
बनाएुं। के िल कु त्ते -िबिकलयों की भााँित खाना , सोना, मैथुन करना और लड़ना
सभ्यता नहीं है। हमें इस मनुष्य योिन का सदुपयोग करना चािहए और इस ज्ञान का
लाभ खुद को कृ ष्णभािना के िलए तैयार करने के िलए उठाना चािहए , ताकक हम
कदन के चौबीसों घुंटे कृ ष्ण भगिान् के स्मरण में तकलीन रहें और मृत्यु के समय तुरन्त
आध्याित्मक आकाश में जा सकें ।
पूणय पुरुषोत्तम परमेश्वर , जो सबसे महान हैं , अनन्य भिि द्वारा ही प्राप्त ककये जा
सकते हैं। यद्यिप िे अपने धाम में ििराजमान रहते हैं , तो भी िे सियव्यापी हैं और
उनमें सब कु छ िस्थत हैं। (भगिद्गीता 8.22)
यकद हम सचमुच उस परम धाम को जाने के इच्छु क हैं , तो भिि ही उसकी िििध है ,
जो यहााँ दी गई है। भक्त्या का अथय है , भििमय सेिा -परमेश्वर की शरणागित।
भक्त्या की मूल धातु भज् है िजसका अथय है , सेिा करना। नारद पञ्चरात्र में भिि की
पररभाषा, उपािधयों से मुिि बताई गई है। यकद मनुष्य शुद्ध आत्मा के साथ जुड़ी
सभी उपािधयों से मुिि पाने का िनश्चय करता है , जो कक शरीर के कारण उत्पन्न
होती हैं और शरीर के बदलने पर सदैि बदल जाती हैं , तो िह भिि प्राप्त कर सकता
है। भिि का अथय यह अनुभि करता हैं , तो िह भिि प्राप्त कर सकता है। भिि का
अथय यह अनुभि करता है कक व्यिि पिित्र आत्मा है , पदाथय िबककु ल नहीं। हमारी
िास्तििक पहचान यह शरीर नहीं है , जो आत्मा का आिरण मात्र है , परन्तु हमारा
िास्तििक स्िरूप दास का है -भगिान् कृ ष्ण का सेिक। जब कोई अपनी िास्तििक
पहचान में िस्थत होता है और कृ ष्ण की सेिा में लगा रहता है , तो उसे भि कहते हैं।
हृषीके श हृषीके श सेिनम् (चैतन्य चररतामृत , मध्य 11.170)-जब हमारी इिन्ियााँ
साुंसाररक उपािधयों से मुि हों , तब हम उनका उपयोग इिन्ियों के स्िामी हृषीके श
या कृ ष्ण की सेिा में करें गे।
जैसाकक रूप गोस्िामी कहते हैं , हमें भगिान् कृ ष्ण की सेिा अनुकूल रूप से करनी
चािहए। साधारणतया हम भगिान् की सेिा कु द भौितक उद्देश्य या लाभ के िलए
करना चाहते हैं। िनस्सन्देह , भगिान् के पास भौितक लाभ के िलए जो जाता है , िह
उससे कहीं अच्छा है , जो भगिान् के पास कभी जाता ही नहीं , परन्तु हमें भौितक
लाभ की इच्छा से मुि होना चािहए। कृ ष्ण को समझना हमारा उद्देश्य होना
चािहए। िनस्सुंदह
े , कृ ष्ण अनन्त हैं और उन्हें समझना सम्भि नहीं है , परन्तु हम जो
कु छ भी समझ सकते हैं , उसे हमें स्िीकार करना होता है। भगिद्गीता ििशेष रूप से
हमारे समझने के िलए प्रदान की गई है। इस प्रकार ज्ञान ग्रहण करके हमें जान लेना
चािहए कक कृ ष्ण प्रसन्न होते हैं और हमें उनकी प्रसन्नता के अनुरूप उनकी अनुकूल
सेिा करनी चािहए। कृ ष्णभािनामृत एक महान ििज्ञान है िजसमें ििपुल सािहत्य
उपलब्ध है और भिि की उपलिब्ध के िलए हमें उसका उपयोग करना चािहए।
छु रुषः स परः - कदव्य लोक में परमेश्वर परम पुरुष के रूप में ििद्यमान हैं। िहााँ
अनिगनत स्ियुं प्रकािशत ग्रह हैं और हर एक में कृ ष्ण का एक ििस्तार िनिास करता
हैं। िे चार भुजाओं िाले हैं और उनके अनिगनत नाम है। िे सभी साकार व्यिि हैं -िे
िनर्विशेष-िनराकार नहीं हैं। इन पुरुषों अथिा व्यिियों तक के िल भिि के द्वारा ही
पहुाँचा जा सकता हैं ; व्यायामों से नहीं, बिकक िनष्काम भिि से ही उनके पास जाया
जा सकता है।
ये पुरुषः अथायत परम व्यिि कै से हैं ? यस्यान्तः स्थािन भूतािन येन सिं इदुं ततम् - हर
जीिात्मा और प्रत्येक िस्तु उनके भीतर है , किर भी िे उनके बाहर हैं और सब जगह
उपिस्थत हैं। यह कै से है ? िे ठीक सूयय की भााँित हैं , जो एक स्थान पर िस्थत है परन्तु
किर भी िह अपनी ककरणों के द्वारा हर जगह उपिस्थत है। यद्यिप भगिान् अपने
परम धाम में ििद्यमान हैं , परन्तु उनकी शिियााँ सब जगह िितररत हैं। न ही िे
अपनी शिियों से िभन्न हैं , जैसे सूयय और सूयय का प्रकाश एक दूसरे से अिभन्न हैं। चूाँकक
कृ ष्ण और उनकी शिियााँ िभन्न नहीं है , इसिलए यकद हम भिियोग में प्रगित कर लें ,
तो हम कृ ष्ण को हर जगह देख सकते हैं।
मैं आकद पुरुष गोििन्द की पूजा करता हू ुं िजन्हें उनके अनन्य भि , िजनकी आाँखों में
भगिान् के प्रेम का काजल लगा होता है , सदा अपने हृदय में देखते हैं। (ब्रह्म-सुंिहता
5.38)
जो भगिान् के प्रेम से पररपूणय होते है , िे उन्हें िनरुं तर अपने समक्ष देखते हैं। ऐसा
नहीं है कक कल राित्र को हमने भगिान् को देखा था और अब िे उपिस्थित नहीं है।
नहीं, जो कृ ष्णभािनाभािित हैं उनके िलए कृ ष्ण सदैि उपिस्थित हैं और लगातार
देखे जा सकते हैं। हमें के िल उन्हें देखने के िलए अपनी आाँखें ििकिसत करनी हैं।
हमारे भौितक बन्धन के कारण अथायत् इन भौितक इिन्ियों के आिरण के कारण हम
समझ नहीं सकते हैं कक आध्याित्मक क्या है। परन्त्ाााु इस अज्ञानता को हरे कृ ष्ण के
कीतयन की इस प्रकिया से हटाया जा सकता है। यह कै से ? सोये हुए व्यिि को शब्द
की ध्ििन से जगाया जा सकता है। यद्यिप मनुष्य पूरी तरह से अचेत हो -िह न देख
सकता हो , न अनुभि कर सकता हो , न सूाँघ सकता हो , इत्याकद-परन्तु सुनने की
इिन्िय इतनी प्रभािशाली है कक सोया हुआ व्यिि के िल शब्द ध्ििन से जगाया जा
सकता है। इसी प्रकार , आत्मा जो अभी भौितक स्पशय की िनिा के िश में है , उसे हरे
कृ ष्ण हरे कृ ष्ण, कृ ष्ण कृ ष्ण, हरे हरे , हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे की कदव्य
ध्ििन से पुनः होश में लाया जा सकता है। हरे कृ ष्ण भगिान् और उनकी शिियों के
प्रित एक सम्बोधन मात्र है। हरे से तात्पयय शिि से है और कृ ष्ण भगिान् का नाम है ;
इसिलए जब हम हरे कृ ष्ण का कीतयन करते हैं तो हम कहते हैं , हे भगिान् की शिि ,
हे भगिान् , कृ पया मुझे स्िीकार कीिजए। भगिानर् द्वारा स्िीकृ त ककये जाने के िलए
हमारे पास अन्य कोई प्राथयना नहीं है। रोज की रोटी के िलए प्राथयना करने का कोई
प्रश्न ही नहीं है , क्योंकक रोटी तो सदैि होती ही है। हरे कृ ष्ण सम्बोधन भगिान् को
के िल यह प्राथयना करने के िलए हैं कक िे हमें स्िीकार करें । भगिान् श्री चैतन्य
महाप्रभु ने स्ियुं प्राथयना की थीः
हे नन्द महाराज के पुत्र ! मैं आपका सनातन दास हू ुं और ऐसा होने के बािजूद भी मैं
ककसी न ककसी तरह जन्म और मृत्यु के सागर में िगर गया हू ।ुं अतः कृ पा करके आप
मुझे इस मृत्यु के सागर से ऊपर उठाइये और मुझे आपके चरणकमलों में धूल के एक
कण के रूप में रिखये। (िशक्षाष्टक 5)
समुि के मध्य िगरे हुए व्यिि के बचने की एक मात्र आशा के िल यही होती है कक
कोई आएगा और उसे ऊपर उठाएगा। यकद कोई आता है और उसे पानी से कु छ ही
िु ट ऊपर उठाया है, तो उसे तुरन्त शािन्त िमल जाती है। इसी प्रकार, यकद हम ककसी
तरह इस जन्म और मृत्यु के सागर से कृ ष्णभािनामृत की िििध से ऊपर उठायें जाते
हैं, तो हमें तुरन्त शािन्त िमल जाती है।
यद्यिप हम भगिान् की कदव्य प्रकृ ित , उनके नाम, उनके यश और उनके काययकलापों
की अनुभूित नहीं कर सकते हैं , किर भी यकद हम अपने आपको कृ ष्णभािनामृत में
स्थािपत करें , तो भगिान् धीरे -धीरे स्ियुं हमारे समक्ष प्रकट होंगे। हम भगिान् को
अपने िनजी प्रयासे नहीं देख सकते हैं , परन्त्ाााु यकद हम इसके िलए योग्यता प्राप्त
ले, तो भगिान् स्ियुं प्रकट होंगे और तब हम उन्हें देख सकें गे। कोई भी भगिान् को
अपने सामने आने और नाचने के िलए आज्ञा नहीं दे सकता है , परन्त्ाु हमें इस प्रकार
कायय करना है कक कृ ष्ण भगिान् प्रसन्न होकर स्ियुं अपने आप को हमारे समक्ष प्रकट
करें ।
कृ ष्ण भगिद्गीता में अपने स्ियुं के ििषय में जानकारी देते हैं और इसमें सुंशय करने
को कोई प्रश्न नहीं है ; हमें के िल अनुभि करना है और समझना है। भगिद्गीता को
समझने के िलए ककसी प्रारिम्भक योग्यता की आिश्यकता नहीं है , क्येाुंकक यह परम
स्तर से परमेश्वर द्वारा बोली गई है। के िल भगिान् कृ ष्ण के नामों के कीतयन की
सीधी सादी िििध ही एक के बाद एक यह प्रकािशत करे गी कक कोई क्या है , भगिान्
क्या हैं , भौितक और आध्याित्मक ब्रह्माण्ड क्या हैं , हम बन्धन में क्यों हैं , हम इस
बन्धन से मुिि कै से पा सकते हैं , इत्याकद। िास्ति में , श्रद्धा और अनुभूित की िििध
हमारे िलए कोई ििदेशी िििध नहीं है। हर कदन हम ककसी न ककसी ऐजी चीज पर
भरोसा करते हैं िजस पर हमें ििश्वास करते हैं िजस पर हमें ििश्वास होता है कक बाद
में िह प्रकट होगी। हम भारत जाने के िलए प्रकट खरीद सकते हैं और रटकट के
आधार पर हमें ििश्वास होता हैं कक हमें िहााँ ले जाया जायेगा। हम रटकट के िलए
धन क्यों दें ? हम ककसी को भी व्यथय में धन नहीं दे देते है। कम्पनी मान्यता प्राप्त है ,
िायु-सेिा मान्यता प्राप्त है , इसिलए ििश्वास उत्पन्न होता है। हम साधारण जीिन में
भी िबना ििश्वास ककए एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते हैं। हमे ििश्वास होना
चािहए, परन्तु यह ििश्वास ककसी ऐसी िस्तु पर होना चािहए , जो प्रामािणक है।
ऐसा नहीं कक हमें अन्ध ििश्वास है , लेककन हम उसी को स्िीकार करते हैं जो मान्यता
प्राप्त है। भगिद्गीता प्रामािणक शास्त्र है और भारत में हर श्रेणी के लोग इसे शास्त्र के
रूप में स्िीकार करते है और जहााँ तक भारत के बाहर का प्रश्न है , अने ििद्वानों ने ,
धमयिेत्ताओं ने और दाशयिनकों ने भगिद्गीता का महान प्रमािणत ग्रन्थ के रूप में
स्िीकार ककया है। भगिद्गीता की प्रामािणकता के बारे में कोई प्रश्न नहीं है। प्रोिे सर
अकबटय आइन्स्टीन जैसे महान िैज्ञािनक भी िनयिमत रूप से भगिद्गीता का पाठ
करते थे।
भगिद्गीता से हमें स्िीकार करना होगा कक आध्याित्मक ब्रह्माण्ड का अिस्तत्ि है , जो
भगिान् का साम्राज्य है। यकद हमें ककसी प्रकार ऐसे देश में ले जाया जाए जहााँ हमें
सूचना दी जाती है कक हमें जन्म , मृत्यु, िृद्धािस्था और बीमारी के चि में अब और
नहीं आना पड़ेगा, तो क्या हम प्रसन्न नहीं होंगे ? यकद हम ऐसे स्थान के ििषय में सुन
लें, तो अिश्यमेि हम िहााँ पहुाँचने के िलए िजतना सम्भि हो, उतना प्रयत्न करें गे।
कोई िृद्ध होना नहीं चाहता है ; कोई मरना नहीं चाहता है। िनस्सुंदहे , जो जगह इन
दुखों से मुि हो , हमारी हार्ददक इच्छा िहााँ जाने की ही होगी। हम इसे क्यों चाहते
हैं? क्योंकक हमें अिधकार है , हमारा ििशेषाधकार है कक हम ऐसा चाहें। हम सनातन
हैं, आनन्दमय हैं और ज्ञान से पररपूणय हैं , परन्तु इस भौितक बन्धन में िाँ स जाने से
हम अपने आप को भूज गये हैं। अतः भगिद्गीता हमें अपने मूल स्िरूप को जागृत
करने का लाभ देती है।
शुंकराचायय और बौद्ध मत का अनुसरण करने िाले कहते हैं कक सुंसार के परे के िल
शून्य हैं , परन्तु भगिद्गीता हमें इस प्रकार िनराश के परे के िल शून्य है , शून्यिाद के
दशयन ने के िल नािस्तक उत्पन्न ककए हैं। हम आध्याित्मक जीि है और हम आनन्द
चाहते हैं , परन्तु जैसे ही हमें अपना भििष्य शून्य लगने लगेगा , िैसे ही हमारा
झुकाि इस भौितक जीिन में आनन्द लेने की ओर हो जाएगा। इस प्रकार
िनर्विशेषिादी लोग यथा सम्भि इस भौितक जीिन का आनन्द भोग करने का प्रयास
करते हुए शून्यिाद के दशयन पर िाद-िििाद करते हैं। इस तरह से कोई इन मानिसक
ककपनाओं में आनन्द तो ले सकता हैं , परन्तु इससे कोई आध्याित्मक लाभ नहीं होता
है।
इस प्रकार जो कदव्य पद पर िस्थत हैं , िह तुरन्त परब्रह्म का अनुभि करता हैं और
पूणयतया प्रसन्न हो जाता है। िह न तो कभी शोक करता हैं , न ककसी िस्तु की कामना
करता है। िह प्रत्येक जीि पर समभाि रखता हैं। उस अिस्था में िह मेरी शुद्ध भिि
को प्राप्त करता हैं। (भगिद्गीता 18.54)
िजसने भििमय जीिन में प्रगित कर ली है और जो कृ ष्ण भगिान् की सेिा का
आनन्द ले रहा है , िह भौितक आनन्द से स्ियुं ही ििरि हो जाएगा। भिि में ककसी
के तकलीन रहने का लक्षण यह है कक िह कृ ष्ण से पूणय रूप से सन्तुष्ट है।

कृ ष्ण का सुंग करना


यकद कोई उच्च श्रेणी की ककसी िस्तु को पा लेता है , तो यह स्िाभाििक है कक िह
िनम्न श्रेणी की सभी िस्तुओं का त्याग कर देता है। हम आनन्द चाहते हैं , परन्तु
िनर्विशेषिाद और शून्यिाद ने ऐसा िातािरण उत्पन्न कर कदया है कक हम भौितक
आनन्द के आदी बन गये हैं। आनन्द सिोच्च पुरुष के सम्बन्ध में होना चािहए (पुरुषः
स परः ) िजन्हें हम साक्षात् देख सकते हैं। आध्याित्मक आकाश में हम भगिान् से
आमने-सामने बात कर सकते हैं , उनके साथ खेल सकते हैं , उनके साथ भोजन कर
सकते हैं , इत्याकद। यह सब भिया अथायत प्रेमपूियक कदव्य सेिा करने से ही प्राप्त
ककया जा सकता है। परन्तु इस सेिा में कोई िमलािट नहीं होनी चािहए। कहने का
तात्पयय यह है कक हमे भगिान् से प्रेम िबना ककसी भौितक लाभ की आशा से करना
चािहए। भगिान् से एक होने के िलए उन्हें प्रेम करना भी एक प्रकार की िमलािट
िाली िस्थित है।
आध्याित्मक जगत और इस भौितक जगत में एक मुख्य अन्तर यह है कक आध्याित्मक
ग्रहों पर नेता या प्रमुख को कोई प्रितद्वन्द्वी नहीं होता है। हर िस्थित में आध्याित्मक
ग्रहों पर प्रमुख व्यिित्ि भगिान् कृ ष्ण का ही पूणय ििस्तार होता है। सभी िैकुण्ठ
ग्रहों में भगिान् और उनके िििभन्न अितार ही प्रधान होते हैं। उदाहरण के िलए , इस
पृथ्िी पर राष्ट्रपित या प्रधानमुंत्री के पद के िलए प्रितद्विन्द्वता रहती है , परन्तु
िैकुण्ठलोक में हर कोई पूणय पुरुषोत्तम भगिान् को ही सियश्रेष्ठ स्िीकार करता है। जो
उनको ऐसा नहीं स्िीकारते हैं या ििरोध करने का प्रयत्न करते हैं , उन्हें भौितक
ब्रह्माण्ड में डाल कदया जाता है , जो कक एक कारागार की भााँित है। िजस प्रकार ककस
शहर में कारागार होता है और कारागार सारे शहर का बहुत ही नगण्य भाग होता
है, उसी प्रकार यह भौितक ब्रह्माण्ड भी बद्ध आत्माओं के िलए एक कारागार है। यह
आध्याित्मक आकाश का एक नगण्य भाग है , लेककन यह उससे बाहर नहीं है , जैसे
कारागार शहर से बाहर नहीं होता है।
आध्याित्मक आकाश में िैकुण्ठ ग्रहों के सभी िनिासी मुि आत्माएुं है।
श्रीमद्भागितम् से हमें ज्ञात होता है कक उनके शरीर के लक्षण िबककु ल भगिान् के
शरीर जैसे होते हैं। इनमें से कु छ ग्रहों में भगिान् के साथ प्रकट होते हैं और अन्य में
चार भुजाओं के साथ। इन ग्रहों के िनिासी भी भगिान् की तरह दो या चार भुजाओं
िाले होते हैं और यह कहा जाता है कक कोई भी उनमें और भगिान् में अन्तर नहीं
देख सकता है। िैकुण्ठ जगत में पााँच प्रकार की मुिियााँ होती है। सायुज्य मुिि िह
मुिि है िजसमें कोई भगिान् का अव्यि अिस्तत्ि , िजसे ब्रह्म कहा जाता है , उसमें
िमल जाता है। दूसरे प्रकार की मुिि सारूप्य मुिि है , िजसमें ककसी को िबककु ल
भगिान् जैसा ही रूप िमलता है। और एक दूसरे प्रकार की मुिि सालोक्य मुिि
कहलाती है, िजसमें कोई भगिान् के साथ उसी लोक में रह सकता है। सार्वष्ट मुिि में
ककसी के पास िही ऐश्वयय होता है , जो भगिान् के पास होता है। एक दूसरे प्रकार की
मुिि में कोई सदैि भगिान् के साथ उनका सुंगी बन कर रह सकता है -जैसे अजुयन जो
सदैि कृ ष्णभगिान् के साथ िमत्र की तरह रहता है। मनुष्य को इन पााँचों में से ककसी
प्रकार की मुिि िमल सकती हैं , परन्तु इन पााँचों में से सायुज्य मुिि अथायत भगिान्
के अव्यि पहलू में लीन हो जाना , िैष्णि भिों को स्िीकायय नहीं हैं िैष्णि भगिान
की उनके िास्तििक रूप में पूजा करना चाहते हैं और उनकी सेिा करने के िलए
अपना अलग व्यिित्ि बनाए रखना चाहते हैं , जबकक मायािादी िनर्विशेषिादी
दाशयिनक अपने व्यिित्ि को खो कर सिोपरर के अिस्तत्ि में ििलीन होना चाहते हे।
इस प्रकार ििलीन होने की न तो भगिान् कृ ष्ण द्वारा भगिद्गीता में सुंस्तुित की गई
है और न ही िैष्णि दाशयिनकों की िशष्य -परम्परा के द्वारा। भगिान् श्री चैतन्य
महाप्रभु ने अपने िशक्षाष्टक (5) में इस ििषय पर इस प्रकार िलखा हैः
हे सियशििमान प्रभु , मुझे धन एकित्रत करने की इच्छा नहीं है , न सुन्दर युिितयों के
साथ आनन्द भोगने की ही इच्छा है , और न मुझे बहुत से अनुयायी बनाने की ही
इच्छा हैं। मैं के िल यही चाहता हाँ कक मैं आपकी अहैतुकी भििपूणय सेिा में जन्म -
जन्मान्तर लगा रहू ।ाँ
यहााँ भगिान् श्री चैतन्य महाप्रभु जन्म -जन्माुंतर शब्द का उपयोग करते है। जब बार
बार जन्म होता है , तो मुिि नहीं हो सकती। मुिि पाने पर कोई या तो कदव्य लोकों
में जाता है या परम सत्य में ििलीन हो जाता है। ककसी भी िस्थित में , इस भौितक
सुंसार में किर जन्म लेने का प्रश्न नहीं उठता। परन्तु चैतन्य महाप्रभु इस बात की
परिाह नहीं करते हैं कक मुिि िमलती है या नहीं ; उनकी एकमात्र िचन्ता कृ ष्ण -
भािनामृत में लगे रहकर भगिान् की सेिा करने की है। भि इसकी िचन्ता करता है
कक उसका जन्म पशु समाज में हो , मनुष्य समाज में हो , देि समाज में हो या और
कहीं हो; िह भगिान् से के िल यही प्राथयना करता है कक िह भगिान् को भूले नहीं।
और सदैि उनकी कदव्य सेिा में लगा रहने के योग्य बना रहे। िे शुद्ध भिि के लक्षण
हैं। िनस्सुंदह
े , भि चाहे कहीं भी रहे , इस भौितक शरीर में होते हुए भी आध्याित्म्क
साम्राज्य में रहता है। परन्तु िह अपनी िनजी उन्नित या सुख के िलए भगिान् से कु छ
नहीं मााँगता है।
यद्यिप भगिान् कृ ष्ण सुंकेत करते हैं कक जो उनकी भिि में लगे है , िे सरलता से
उनके पास पहुाँच सकते हैं , परन्तु जो योगी अन्य योग िििधयों का अभ्यास करते हैं ,
उनके िलए सदैि ही कु छ खतरा बना रहता है। उनको अपना स्थूल शरीर छोड़ने के
उिचत समय का िनदेशन भगिान् ने (भगिद्गीता 8.23) में कदया हैः
हे भरतश्रेष्ठ ! अब मैं तुम्हें उन िििभन्न कालों को बताऊाँगा , िजनमें इस सुंसार से
प्रयाण करने के बाद योगी पुनः आता है अथिा नहीं आता। (भगिद्गीता 8.23)
यहााँ कृ ष्ण बतलाते हैं कक यकद कोई मनुष्य ककसी ििशेष समय में अपना शरीर त्याग
सकें , तो िह मुिि पा सकता है और िह किर इस भौितक सुंसार में कभी िापस नहीं
आयेगा। इसके ििपरीत िे यह भी बतलाते हैं यकद कोई दूसरे समय में मरता है , तो
उसे किर िापस आना पड़ेगा। यहााँ पर अिसर की बात हैं परन्तु िे भि जो सदैि
कृ ष्णभािनाभािित हैं , उनके िलए अिसर का कोई प्रश्न नहीं है , क्योंकक भगिान् की
भिि के कारण उनके िलए कृ ष्ण के धाम में प्रिेश करना िनिश्चत है।
जो परब्रह्म के ज्ञाता हैं , िे अििदेि के प्रभाि में , प्रकाश में , कदन के शुभक्षण में
शुक्लपक्ष में या जब सूयय उत्तरायण में रहता हैं , उन छह मासों में इस सुंसार से शरीर
त्याग करने पर उस परब्रह्म को प्राप्त करते हैं। (भगिद्गीता 8.24)
सूयय छः महीने ििषुिद् रे खा के उत्तर में रहता है और छः महीने दिक्षण में रहता हैं।
श्रीमद्भागितम् में िणयन िमलता है कक जैसे सभी ग्रह चक्कर लगाते रहते है , िैसे ही
सूयय भी चक्कर लगाता है। यकद कोई उस समय मरता है , जब कक सूयय उत्तरायण में
होता है, तो िह मुिि पाता है।
जो योगी धुएाँ , राित्र, कृ ष्णपक्ष में या सूयय के दिक्षणायन में रहने के छह महीनों में
कदिुंगत होता हैं , िह चन्िलोक को जाता हैं , ककन्तु िहााँ से पुनः (पृथ्िी पर ) चला
आता हैं। िैकदक मतानुसार इस सुंसार से प्रयाण करने के दो मागय हैं -एक प्रकाश का
तथा दूसरा अुंधकार का। जब मनुष्य प्रकाश के मागय से जाता हैं तो िह िापस नहीं
आता, ककन्तु अुंधकार के मागय से जाने िाला पुनः लौटकर आता हैं। (भगिद्गीता
8.25-26)
यह सब अिसर की बात है। हम नहीं जानते हैं कक हम कब मरने िाले हैं और हम
आकिस्मक सुंयोगिश कभी कभी मर सकते हैं। ककन्तु जो भिियोगी है , जो
कृ ष्णभािनामृत में िस्थत है , उसके िलए अिसर को कोई प्रश्न नहीं है। िह सदैि
ििश्वस्त रहता है।
हे अजुयन ! यद्यिप भिगण इन दोनों मागों को जानते हैं , ककन्तु िे मोहग्रस्त नहीं होते।
अतः तुम भिि में सदैि िस्थर रहो। (भगिद्गीता 8.27)
यह पहले ही कहा जा चुका है कक यकद कोई मृत्यु के समय कृ ष्ण भगिान् के ििषय में
सोच सके , तो िह तुरन्त ही कृ ष्ण के धाम में स्थानान्तररत हो जाता है।
और जीिन के अन्त मे जो के िल मेरा स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता हैं , िह
तुरन्त मेरे स्िभाि को प्राप्त करता हैं। इसमें रुं चमात्र भी सन्देह नहीं हैं। हे पाथय ! जो
व्यिि मेरा स्मरण करने में अपना मन िनरन्तर लगाये रखकर अििचिलत भाि से
भगिान् के रूप में मेरा ध्यान करता हैं , िह मुझकों अिश्य ही प्राप्त होता हैं।
(भगिद्गीता 8.5-8.8)
कृ ष्ण भगिान् में ऐसा ध्यान लगाना करठन लगता है , परन्तु िास्ति में ऐसा नहीं है।
यकद कोई हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण , कृ ष्ण कृ ष्ण, हरे हरे , हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे
हरे - इस महामुंत्र का कीतयन करते हुए कृ ष्णभािनामृत का अभ्यास करें , तो भगिान्
तुरन्त उसकी सहायता करें गे। कृ ष्ण और उनका नाम अिभन्न है। कृ ष्ण और उनका
कदव्य धाम भी अिभन्न है। शब्द ध्ििन से हम कृ ष्ण की सुंगित में रह सकते है।
उदाहरण के िलए, यकद सड़क पर हरे कृ ष्ण का कीतयन करें , तो हम अनुभि करें गे कक
कृ ष्ण हमारे साथ चल रहे होते है , ठीक उसी तरह , जब हम ऊपर की ओर नजर
करके चन्िमा को देखते हैं , तो हमें लगता है कक चन्िमा भी हमारे साथ चल रहा है।
यकद भगिान् कृ ष्ण की िनम्न शिि हमारे साथ चलती प्रतीत होती है , तो क्या यह
सम्भि नहीं है कक जब हम उनके नामों का कीतयन करें , तो कृ ष्ण भगिान् स्ियुं हमारे
साथ रहें ? िे हमारे साथ रहेंगे , परन्तु हमें अपने आपकों उनकी सुंगित में रहने के
योग्य बनाना होगा। यकद ककसी प्रकार हम हर समय कृ ष्ण के ििचार में मि रहें , तो
हमें पूणयतया ििश्वस्त रहना चािहए कक कृ ष्ण सदैि हमारे साथ है। भगिान् श्री
चैतन्य महाप्रभु प्राथयना करते हैं,
हे मेरे भगिान् ! आपका पिित्र नाम ही हर जीि का ककयाण कर सकता है , इसिलए
आपके हजारों और करोडोंनाम हैं जैसे कृ ष्ण , गोििन्द इत्याकद। इन कदव्य नामों में
आपने अपनी सभी कदव्य शिियााँ भर दी हैं और इन पिित्र नामों का कीतयन करने के
िलए कोई कड़े िनयम भी नहीं है। हे मेरे भगिान ! आपने कृ पापूियक अपने पिित्र
नामों से आप तक पहुाँचना सरल बना कदया है , परन्तु मैं इतना अभागा हू ुं कक मुझे
इनकी ओर कोई आकषयण नहीं हैं। (िशक्षाष्टक 2)
के िल कीतयन करने से ही हम भगिान् को िनजी सुंगित के सभी लाभ ले सकते है।
भगिान् श्री चैतन्य महाप्रभु जो के िल एक महान आत्मदशी पुरुष ही नहीं बिकक
स्ियुं कृ ष्ण के अितार माने जाते हैं , उन्होंने कहा है कक यद्यिप इस किलयुग में आत्म -
साक्षात्कार की कोई िास्तििक सुििधा नहीं है , किर भी कृ ष्ण इतने इयालु हैं कक
उन्होंने इस शब्द (ध्ििन अितार ) को युगधमय अथायत इस युग में आत्मसाक्षात्कार
करने की िििध के रूप में उपयोग करने के िलए प्रदान ककया है। इस िििध के िलए
ककसी ििशेष योग्यता की आिश्यकता नहीं है , यहााँ तक कक हमें सुंस्कृ त भाषा जानने
की भी आिश्यकता नहीं होती है। हरे कृ ष्ण की ध्ििन तरुं गें इतनी शििशाली हैं कक
कोई भी मनुष्य सुंस्कृ त भाषा के तिनक भी ज्ञान िबना तुरन्त उसका कीतयन करना
प्रारम्भ कर सकता हैः
जो व्यिि , भििमागय स्िीकार करता है , िह िेदाध्ययन , तपस्या, दान, दाशयिनक
तथा सकाम कमय करने से प्राप्त होने िाले िलों से िुंिचत नहीं होता। िह मात्र भिि
सम्पन्न करके इन समस्त िलों की प्रािप्त करता है और अन्त में परम िनत्यधाम को
प्राप्त होता हैं। (भगिद्गीता 8.28)
यहााँ पर कृ ष्ण कहते हैं कक समस्त िैकदक शास्त्रों के अध्ययन का उद्देश्य जीिन के
परम लक्ष्य को प्राप्त करना है , और िह है , भगिान् के धाम िापस जाना। सभी देशों
के सभी शास्त्रों का यही उद्देश्य है। सभी धार्वमक सुधारकों और आचायों का भी यही
सन्देशरहा है। उदाहरण के िलए पाश्चात्य देशों में ईसा मसीह ने भी इसी सन्देश का
प्रचार ककया था इसी प्रकार भगिान् बुद्ध और मोहम्मद ने भी यही ककया। कोई यह
उपेदश नहीं देता है कक हम इस भौितक सुंसार में स्थायी रूप से रहने की व्यिस्था
करें । देश , काल, पररिस्थित तथा शास्त्रों के आदेशों के अनुसार थोड़ी सी िभन्नता
सुंसार के िलए नहीं , अिपतु आध्याित्मक जगत के िलए बने हैं। सभी सच्चे
अध्यात्मिाकदयों के द्वारा स्िीकार ककया जाता हैं। आत्मा की आन्तररक इच्छाओं की
सुंतुिष्ट के सभी िचन्ह जन्म -मृत्यु से परे कृ ष्ण भगिान् के लोकों की ओर सुंकेत करते
हैं।

ककताब समाप्त

You might also like