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10. उत्तम रस के अनुभव होने पर ही भक्ति में स्थिर हुआ जा सकता है (BG 2.56- 2.63)
10. उत्तम रस के अनुभव होने पर ही भक्ति में स्थिर हुआ जा सकता है (BG 2.56- 2.63)
उत्तम रस के अनुभव
होने पर ही भक्ति में
स्थिर हुआ जा सकता है
ग्रप
ु 1
• शरीर/मन, दस ु रे व्यक्ति या प्रकृति द्वारा आपको कौन-कौन से कष्ट
प्राप्त होते है , इन कष्टों के कारणों का विश्लेषण करे और उन
समय सीमा – 10 परिस्थितियों में आप समान्यत: कैसे व्यहवहार करते है
ग्रप
ु 4
• क्या भक्ति स्वीकार करने से आपको मिलने वाले सुखो और दख
ु ो में
कोई अंतर आता है , कारण सहित समझाये
ग्रप
ु 5
• क्या भौतिक जगत में होने वाली उथल-पुथल को आप रोक सकते है
आप तकलीफ के समय क्या करते है
आपके लिए सख
ु की परिभाषा क्या है
• ऐसा कृ ष्णभावनाभावित व्यक्ति तीनों तापों के संघात से तनिक भी विचलित नहीं होता
• क्योंकि वह इन कष्टों (तापों) को भगवत्कृ पा के रूप में लेता है और
• पूर्व पापों के कारण अपने को अधिक कष्ट के लिए योग्य मानता है और
• वह देखता है कि उसके सारे दुख भगवत्कृ पा से रंचमात्र रह जाते हैं।
• भौतिक जगत् में सदा ही कु छ न कु छ उथल-पुथल होती रहती है-उसका परिणाम अच्छा
हो चाहे बुरा।
• जो ऐसी उथल-पुथल से विचलित नहीं होता, जो अच्छे (शुभ) या बुरे (अशुभ) से
अप्रभावित रहता है उसे कृ ष्णभावनामृत में स्थिर समझना चाहिए।
• उसका सरोकार कृ ष्ण से रहता है जो सर्वमंगलमय हैं।
• ऐसे कृ ष्णभावनामृत से मनुष्य पूर्ण ज्ञान की स्थिति प्राप्त कर लेता है, जिसे समाधि कहते
हैं।
• अनेक विद्वान्, ऋषि, दार्शनिक तथा अध्यात्मवादी इन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न
करते हैं, किन्तु उनमें से बड़े से बड़ा भी कभी-कभी विचलित मन के कारण इन्द्रियभोग
का लक्ष्य बन जाता है।
• यहाँ तक कि विश्वामित्र जैसे महर्षि तथा पूर्ण योगी को भी मेनका के साथ विषयभोग में
प्रवृत्त होना पड़ा, यद्यपि वे इन्द्रियनिग्रह के लिए कठिन तपस्या तथा योग कर रहे थे।
• विश्व इतिहास में इसी तरह के अनेक दृष्टान्त हैं।
• अतः पूर्णतया कृ ष्णभावनाभावित हुए बिना मन तथा इन्द्रियों को वश में कर सकना
अत्यन्त कठिन है।
• इन्द्रियों को किसी न किसी कार्य में लगे रहना चाहिए और यदि वे भगवान् की दिव्य
प्रेमाभक्ति में नहीं लगी रहेंगी तो वे निश्चय ही भौतिकतावाद में लगना चाहेंगी।
• यामुनाचार्य के उपर्युक्त श्लोक में बताया जा चुका है, भगवान् का एकनिष्ठ भक्त भगवान्
की संगति के आध्यात्मिक सुख का आस्वादन करने के कारण समस्त भौतिक इन्द्रियसुख
को त्याग देता है।
• अतः जो कृ ष्णभावनाभावित नहीं है वह कृ त्रिम दमन के द्वारा अपनी इन्द्रियों को वश में
करने में कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, अन्त में अवश्य असफल होगा, क्योंकि विषय
सुख का रंचमात्र विचार भी उसे इन्द्रियतृप्ति के लिए उत्तेजित कर देगा।