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साखी :
1 ऎसी बाणी ---------------------------------------------सुख होई॥
प्रस्तुत दोहे में वाणी के महत्तव को दर्ाा या गया है । कबीर के अनुसार सदा ऐसी वाणी बोलनी चाहहए हिसमें उसकी हवनम्रता हदखाई
दे । मीठी वाणी बोलने वाले के तन और मन को तो र्ाां हत दे ती ही है , दू सरोां को भी सुख पहुँ चाती है । भाव यह है हक मनुष्य को अांहकार
त्याग कर दू सरोां के प्रहत मधुर भाव रखना चाहहए। उसकी वाणी ही उसकी पहचान है । हमें अपनीवणी पर हनयांत्रण रखना चाहहए।
प्रस्तुत साखी में कबीर ने प्रेम का महत्त्व समझाते हए नई पररभाषा दी है ।बड़ी बड़ी हकताबें और ग्रांर् पढ़ लेने से कोई पांहडत या ज्ञानी
नहीां हो िाता। असली ज्ञान मानवीय प्रेम है िो आपस में िोड़ता है हिसने उसे िान हलया वही सच्चा ज्ञानी है । मोटे मोटे ग्रांर्ोां को
पढ़कर लोग मर गए पर ज्ञानी नहीां बन पाए क्ोांहक उन्हें प्रेम रूपी सच्चा ज्ञान नहीां हआ। कागिी ज्ञान का कोई लाभ नहीां है िबतक
वह मानव के स्वभाव को सरस न बना दे । प्रेम िैसा छोटा सा र्ब्द ही ज्ञान का भण्डार है । इस भण्डार को हिसने अपने िीवन में
उतार हलया वही सच्चा ज्ञानी है।
8 हम घर जाल्या ------------------------------------------------हमारे सानथ॥
कबीर साां साररक मोह माया को त्याग कर ज्ञान के मागा पर चलने के पररणामोां के बारे में बताते है । कबीर कहते हैं हक ज्ञान की खोि में
मैंने अपना घर िला हलया है अर्ाा त सांसार की मोह माया को त्याग हदया है । ज्ञान की मर्ाल लेकर साधना के पर् पर चल हनकला हुँ।
इस ज्ञान मागा पर चलने का साहस वही कर सकता है िो िो तार् रूपी घर पररवार त्यागने तैयार हो, क्ोांहक ज्ञान का मागा सरल नहीां
है । मोह माया के बांधन से मुि रह कर ही ईश्वर की सच्ची भक्ति की िा सकती है
उत्तर : हिस प्रकार कस्तूरी नामक सुगांहधत पदार्ा हहरण की नाहभ में ही होता है ,परां तु हहरण उसकी महक से व्याकुल होकर उसे पाने
के हलए पूरे वन में भटकता रहता है ठीक उसी प्रकार ईश्वर कण – कण में हवद्यमान हैं हिर भी हम उन्हें दे ख नहीां पाते क्ोांहक हमारी
आुँ खोां पर अज्ञानता और मोह और अहां कार का पदाा पड़ा होता है | हम ईश्वर को अपने भीतर , लोगोां में और परमार्ा में न दे खकर ;
मांहदर , मक्तिद और गुरुद्वारे में ढू ुँ ढते हैं |
४. सिंसार में सुखी व्यखि कौि है और दु ुः खी कौि ? यहााँ ‘सोिा’ और ‘जागिा’ नकसके प्रतीक हैं ? इसका प्रयोग यहााँ क्ोिं
नकया गया है ? स्पष्ट कीनजए |
उत्तर : सांसार में सुखी वह है िो भगवान् के प्रहत िाग्रत न होकर तन –मन से साां साररक सुखोां को भोगता हो ठाट से सोता हो | दु ुः खी
वह है िो भगवान् के प्रेम में पड़ गया हो |िो ईश्वर के प्रहत िागृत हो गया हो और ईश्वर से हमलने के हलए तड़पता हो | यहाुँ सोना का
अर्ा है – प्रभु के प्रहत अज्ञान रहना और िागना का अर्ा है – प्रभु में आस्र्ा होना | कहव ने भगवान के प्रहत अज्ञानी और उदासीन
सांसारी लोगोां के सुखोां को व्यर्ा बताया है और ईश्वर के भिोां की तड़प और दु ुः ख में भी सार्ाक िीवन है ,यह बताया है |
उत्तर : कबीर ने बताया है हक यहद अपने स्वभाव को हनमाल रखना हो तो सदा अपने हनांदक को अपने समीप (पास ) रखना चाहहए |
हनांदक ढू ुँ ढ – ढू ुँ ढकर हमारी कहमयाुँ और बुराइयाुँ हनकालता है , हिससे हमें अपने अांदर छु पी कहमयोां को दू र करने का मौका हमलता
रहता है और धीरे – धीरे हमारा स्वभाव और चररत्र दोनोां ही हनमाल हो िाते हैं |
६. ‘ ऐकै आनिर पीव का , पढ़े सु पिंनित होइ’ – इस पिंखि द्वारा कनव क्ा कहिा चाहते हैं ?
उत्तर : इन पांक्तियोां के माध्यम से सांत कबीर हमसे कहना चाहते हैं हक सांसार में एक पीव (हप्रयतम) अर्ाा त ईश्वर ही सबसे श्रेष्ठ और
िानने योग्य हैं |मनुष्य पूरा िीवन बड़े – बड़े ग्रांर् और धाहमाक पुस्तकें पढ़ने में लगा दे ता है हिर भी उसे िीवन का वास्तहवक ज्ञान
प्राप्त नहीां होता | यहद मनुष्य ईश्वर को िान ले , समझ ले और उनके हदखाए हए पर् पर चले तो उसके िैसा ज्ञानी इस दु हनया में कोई
नहीां | उससे बड़ा पांहडत इस दु हनया में कोई नहीां |
उत्तर : कबीर हिस भाषा का प्रयोग करते र्े उसे सधुक्कड़ी भाषा भी कहते हैं | कबीर को भाषा का हडक्टे टर भी कहा िाता है | |वे
भाषा के अनुसार नहीां चलते र्े बक्ति भाषा को अपने हवचारोां एवां अनुभवोां के अनुरूप ढाल लेते र्े | वे िैसा दे खते , वैसा ही बोलते
और वैसा ही हलखा िाता | उन्हें व्याकरण की हचांता नहीां रहती र्ी | हचांता रहती र्ी तो बात कह पाने की |कबीर की भाषा में अनेक
र्ब्द अमानक हैं | िैसे : नेणा , आुँ गहण , िाल्या इत्याहद |