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Chapter 24

1. स्वयं भू किसे और क्यों कहा जाता है 9


ब्रह्मा को स्वयम्भू कहा जाता है , क्योंकि वे भौतिक रूप से किसी माता पिता के बिना ही सृ जित हैं । वे प्रथम जीव, हैं , जो
भगवान् गर्भोदकशायी विष्णु के नाभि-कमल से उत्पन्न हैं । इसीलिए उन्हें स्वयं भू अर्थात् स्वत: जन्मा कहा जाता है ।

2. ब्रह्म को कभी कभी स्वराट और अज क्यों कहा जाता है 10


इस ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा के आदि जीव होने के कारण उनका कोई शिक्षक नहीं है ; उनके शिक्षक स्वयं पूर्ण पु रुषोत्तम भगवान् हैं , जो
प्रत्ये क प्राणी के ह्रदय में आसीन हैं । ब्रह्मा ने हृदय के भीतर स्थित परमे श्वर से प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किया। इसीलिए वे
कभी-कभी स्वराट् तथा अज कहलाते हैं ।

3 कला तथा अं श में अं तर स्पष्ट करें 10


ईश्वर ‘कला’ अथवा ‘अं श’ रूप में विस्तार करते हैं । अं श का अर्थ प्रत्यक्ष विस्तार है और कला का अर्थ है विस्तार का भी
विस्तार।
ू रे
विस्तार, विस्तार के भी विस्तार तथा पूर्ण पु रुषोत्तम भगवान् में उसी प्रकार से कोई अन्तर नहीं है जै से एक दीपक तथा दस
दीपक में कोई भे द नहीं हैं , तो भी जिस दीपक से सब जलते हैं वह आदि दीपक कहलाता है ।

4. चार दोषों को कैसे दरू किया जा सकता है 12


भौतिक जगत में बद्धजीव का सबसे बड़ा दुर्गुण है ठगना। उसमें चार दुर्गुण होते हैं —वह त्रुटि करता है , मोहग्रस्त होता है ,
उसमें अन्यों को ठगने की प्रवृ त्ति होती है और उसकी इन्द्रियाँ अपूर्ण होती हैं ।
किन्तु यदि कोई परम्परा प्रणाली से गु रु की आज्ञा का पालन करता है , तो वह इन दु र्गु णों पर विजय प्राप्त कर ले ता है । अत:
प्रामाणिक गु रु से प्राप्त ज्ञान ठगी नहीं है ।

5 पु तर् या शिष्य को अपने पिता या गु रु की बात कैसे माननी चाहिए? 13


प्रत्ये क अवस्था में पिता या गु रु की आज्ञा का तु रन्त हाँ करते हुए पालन होना चाहिए। उसमें किसी प्रकार का तर्क नहीं करना
चाहिए। यही गु रु तथा पिता की असली से वा है ।
विश्वनाथ चक् रवर्ती ठाकुर ने कहा है कि गु रु की आज्ञा शिष्यों के लिए जीवन और आत्मा तु ल्य है । जिस प्रकार मनु ष्य शरीर से
आत्मा को पृ थक् नहीं कर सकता उसी प्रकार शिष्य अपने जीवन से गु रु आज्ञा को दरू नहीं कर सकता। यदि शिष्य इस प्रकार
से गु रु उपदे श का पालन करता है , तो वह अवश्य सिद्ध बने गा।

6 भगवतम इस कलियु ग में विवाहित जीवन् की भविष्यवाणी कैसे करता है 15


भागवत के बारहवें स्कंध में यह भविष्यवाणी की गई है कि इस कलियु ग में कामवासना के आधार पर विवाह होंगे । जब लडक़े
तथा लडक़ी की कामवासना से आनन्द ले ते हैं , तो वे ब्याह करते हैं और यदि उसमें कोई कमी रह जाती है , तो वे विलग हो जाते
हैं । ऐसा ब्याह कोई ब्याह नहीं, यह तो कुत्तों तथा बिल्लियों का सा नर तथा मादा का मिलन है ।

7. श्लोक सं ख्या 29 के तात्पर्य के मु ख्य बिं दुओं को सारं शित कीजिए


1. श्रीभगवान् को भक्त इतने प्रिय हैं कि भले ही वे एकान्त स्थान में अने काने क जन्मों से अभ्यास करने में रत योगियों के समक्ष
न प्रकट हों, किन्तु वे गृ हस्थों के घर में प्रकट होना स्वीकार करते हैं जहाँ भक्त भौतिक योग किये बिना ही भगवान् की भक्ति में
लगे रहते हैं
2. भक्तियोग ऐसी शक्तिमान दिव्य विधि है , जो दिव्य साक्षात्कार की अन्य सभी विधियों से श्रेष्ठ है ।
इसीलिए भगवान् कहते हैं कि वे न तो वै कुण्ठ में रहते हैं , न योगी के हृदय में वरन् वे वहाँ वास करते हैं जहाँ शु द्ध भक्त निरन्तर
उनका जप और गु णगान करते रहते हैं ।
3. श्रीभगवान् भक्तवत्सल कहे जाते हैं , उन्हें कभी भी ज्ञानी-वत्सल या योगी-वत्सल नहीं कहा जाता। वे सदै व भक्तवत्सल
इसलिए कहे जाते हैं , क्योंकि अन्य दिव्य ज्ञानियों को अपे क्षा भक्तों के प्रति उनका अधिक झुकाव रहता है ।
4. भगवद्गीता में इसकी पु ष्टि हुई है कि केवल भक्त ही भगवान् को यथा रूप समझ सकते हैं । भक्त्या माम् अभिजानाति —
मनु ष्य मु झे केवल भक्तियोग से जान सकता है , अन्यथा नहीं। ऐसा जानना ही वास्तविक है , क्योंकि ज्ञानी लोग भगवान् के
ऐश्वर्य या शारीरिक कान्ति को ही जान सकते हैं और योगी आं शिक रूप से श्रीभगवान् को प्राप्त कर पाते हैं , किन्तु भक्त को न
केवल पूर्ण पु रुषोत्तम भगवान् का बोध होता है , वरन् उनकी प्रत्यक्ष सं गति भी प्राप्त होती है ।

8 श्लोक सं ख्या 34 के तात्पर्य में उल्ले खित दो प्रकार के भक्तो की सूची बनाएं और सं क्षेप में बताएं ।
गोष्ठ्य आनन्दी आत्मानन्दी अथवा आत्म-तु ष्ट
धर्मोंपदे श का कार्य करते हैं जो धर्मोंपदे श का कार्य नहीं करते ।
भगवान् की महिमा का उपदे श दे ने के लिए वे ईश्वर के साथ एकान्त में रहते हैं ।
उनके अने क अनु यायी होते हैं ।
9. क्योंकि भगवान स्वयं करदम मु नि के घर में मौजूद थे उन्हें क्यों जाना चाहिए 35
वै दिक प्रमाण के अनु सार पचासवें वर्ष में गृ हस्थ को गृ हत्याग कर दे ना चाहिए। पं चाशोर्ध्व वनं व्रजे त—मनु ष्य को पचास वर्ष
की आयु प्राप्त करने के बाद गृ हस्थ जीवन त्यागकर वन में प्रवे श करना चाहिए। यह वे दों का प्रामाणिक कथन है , जो
सामाजिक जीवन के कर्मानु सार चार विभागों—ब्रह्मचर्य, गृ हस्थ, वानप्रस्थ तथा सं न्यास पर आश्रित है ।
यद्यपि उन्हें पु तर् रूप में पूर्ण पु रुषोत्तम भगवान् मिल गये थे , तो भी उन्हें वे दों के प्रमाण का आदर करना था। यह अत्यन्त
महत्त्वपूर्ण शिक्षा है । भले ही क्यों न किसी को अपने घर में पु त्र रूप में भगवान् प्राप्त हों, फिर भी उसे वै दिक आदे शों का
पालन करना चाहिए। कहा गया है —महाजनो ये न गत: स पन्था: —मनु ष्यों को चाहिए कि महापु रुषों द्वारा ग्रहण किये गये पथ
का अनु सरण करे ।

10. इस कलियु ग में सन्यास क्यों वर्जित है ? 35


कलियु ग में यह आदे श है कि कोई सं न्यास न ग्रहण करे । निस्सन्दे ह, जो विधि-विधानों का ठीक से पालन कर सकते हैं , वे
सं न्यासी बन सकते हैं । किन्तु सामान्यत: लोग सं न्यास जीवन स्वीकार करने में अक्षम रहते हैं इसीलिए चै तन्य महाप्रभु ने
बलपूर्वक कहा है —कलौ नास्त्ये व नास्त्ये व नास्त्ये व गतिरन्यथा। इस यु ग में भगवान् के पवित्र नाम—हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण
कृष्ण हरे हरे —उच्चारण के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है , कोई विकल्प नहीं है , कोई विकल्प नहीं है ।

11. सन्यास का मु ख्य उद्दे श्य क्या है ? 35


सं न्यास जीवन का मु ख्य उद्दे श्य है :
चाहे हृदय में भगवान् का मनन करे या कानों से श्रवण करके परमे श्वर का निरन्तर साहचर्य प्राप्त करे ।
इस यु ग में मनन की अपे क्षा श्रवण करना अधिक महत्त्वपूर्ण है , क्योंकि मानसिक विक्षोभ के कारण मनन में बाधा पहुँच सकती
है , किन्तु यदि सु नने में ध्यान केन्द्रित रहे तो उसे बाध्य होकर‘कृष्ण-कृष्ण’ की ध्वनि से साहचर्य स्थापित करना पड़े गा। श्रीकृष्ण
तथा ‘कृष्ण’ की ध्वनि का उच्चारण अभिन्न हैं अत: यदि कोई जोर से हरे कृष्ण का उच्चारण करता है , तो वह तु रन्त श्रीकृष्ण का
मनन कर सकेगा

12 उस स्त्री की क्या स्थिति होती है जिसे उसका पति सन्यास ले ने के कारण छोड़ दे ता है 40
वह पु त्र को सौंप दी जाती है और पु तर् वचन दे ता है कि वह उसे बन्धन से मु क्त करे गा।
स्त्री सं न्यास ग्रहण नहीं करती। आधु निक यु ग में अने क बनावटी तथाकथित आध्यात्मिक सं स्थाएँ तथा समितियाँ स्त्रियों को
भी सं न्यास प्रदान करती हैं , यद्यपि वै दिक साहित्य में स्त्रियों द्वारा सं न्यास ग्रहण करने का कोई उल्ले ख नहीं है । अन्यथा
विधान होने पर कर्दम मु नि अपनी पत्नी को साथ ले जाकर उसे भी सं न्यास दिला दे ते। किन्तु स्त्री को तो घर पर ही रहना
चाहिए। उसके जीवन की तीन अवस्थाएँ होती हैं —बालपन में पिता पर निर्भर रहना; यु वावस्था में अपने पति पर आश्रित रहना
और वृ द्धावस्था में सयाने पु तर् , यथा कपिल पर आश्रित रहना। वृ द्धावस्था में स्त्री की प्रगति उसके सयाने पु त्र पर निर्भर
करती है ।

13 वन में जाने का क्या अर्थ है 41


जं गल जाने का अर्थ होता है शत-प्रतिशत भगवान् की शरण में जाना, जै साकि प्रह्लाद महाराज ने अपने पिता को बातोंबात में
समझाया था—सदा समु दवि ् ग्नधियाम् (भागवत ७.५.५)। मनु ष्य क्षणिक भौतिक दे ह धारण करने के कारण चिन्ताओं से यु क्त
रहता है । अत: मनु ष्य को चाहिए कि वह शरीर के प्रति अधिक मोह न करे , उसे चाहिए कि वह मु क्त हो। मु क्त होने की
प्रारम्भिक प्रक्रिया है जं गल जाना अर्थात् पारिवारिक सम्बन्धों का परित्याग करके पूर्णरूप से कृष्णभावनामृ त में लग जाना।
जं गल जाने का यही प्रयोजन है । अन्यथा जं गल केवल बन्दरों तथा पशु ओं का स्थान रह जाएगा। जं गल जाने का यह अर्थ
कदापि नहीं कि बं दर या हिं सर् पशु बना जाय। इसका अभिप्राय यह हुआ कि एकमात्र पूर्ण पु रुषोत्तम भगवान् की शरण ग्रहण
की जाय और पूरी तरह से वा में लगा जाय।

14. एक सं न्यासी को अग्नि यज्ञ करने के उत्तरदायित्व से मु क्त क्यों किया जाता है ?42
गृ हस्थ को अग्नि की आवश्यकता यज्ञ करने या भोजन पकाने के लिए होती है , किन्तु सं न्यासी को इन दोनों कार्यों से छुट् टी मिल
जाती है । कृष्णभावनामृ त में लगे रहने के कारण सं न्यासी को न तो भोजन पकाना पड़ता है , न ही यज्ञ करना होता है , क्योंकि वह
पहले ही समस्त धार्मिक अनु ष्ठान पूरा कर चु का होता है ।

15 समझाएं की माया का आखरी फंदा क्या है 45


जब बद्ध-आत्मा को यह बोध हो जाता है कि वह परम-आत्मा के अधीन है , तो उसकी यह स्थिति लब्धात्मा, आत्म-साक्षात्कार
अथवा मु क्तबन्धन अर्थात् भौतिक कल्मष से मु क्ति कहलाती है ।
भौतिक कल्पष तब तक बना रहता है जब तक वह अपने को परमे श्वर के समान मानता रहता है । यह अवस्था माया का अन्तिम
जाल है । माया सदै व बद्धजीव को प्रभावित करती है । यदि पर्याप्त चिन्तन तथा मनन के बाद भी कोई अपने को परमे श्वर से
अभिन्न मानता है , तो यही समझना चाहिए कि वह माया के जाल में है ।
चै प्टर 25
1 तीन अवस्थाओं में चे तना के स्तरों का सं क्षेप वर्णन करें 1
वै दिक ज्ञान के अनु सार इतनी भौतिक सु विधाएँ प्राप्य हैं कि अच्छी तरह जीवनयापन करके सतोगु ण पद तक उठा जा सके।
1. सतोगु णी होने पर मनु ष्य का ज्ञान व्यापक होता है । र
2. जोगु णी होने पर कोई ज्ञान नहीं हो पाता, क्योंकि रजस का अर्थ है भौतिक भोगों की वाञ्छा।
3. तमोगु णी होने पर न तो ज्ञान होता है और न किसी प्रकार का सु ख (भोग) ही होता है , क्योंकि यह जीवन पशु तुल्य बन
जाता है ।

2 दे वहति
ू को दिव्य सं देश सु नने में रुचि क्यों थी 7
जब तक कोई इन्द्रियतृ प्ति से ऊब नहीं जाता, तब तक उसे कपिल-जै से व्यक्ति से दिव्य सन्दे श सु नने का सु योग प्राप्त नहीं
होता। दे वहति
ू ने कहा कि वे ऊब गई हैं । चूँकि अब उनके पति ने गृ ह-त्याग कर दिया है , अत: वे भगवान् कपिल के उपदे शों को
सु नकर विश्राम प्राप्त कर सकती हैं ।

3 दे वहति
ू ने क्यों कहा इं द्रिय तृ प्ति से मे री सगाई भी आपके कारण ही थी 10
ज्योंही जीव भगवान् के प्रति अपनी वास्तविक स्वाभाविक दासता की स्थिति भूल जाता है और इन्द्रियतृ प्ति के माध्यम से
भोग करना चाहता है , तो वह माया द्वारा बन्दी बना लिया जाता है । माया द्वारा यह बन्धन शरीर तथा शारीरिक वस्तु ओं के प्रति
आसक्ति के साथ झठ ू ी पहचान की चे तना है । ये माया के कार्य हैं और चूँ कि माया भी भगवान् की एक एजे न्ट है , अत: परोक्षत:
यह भगवान् का कार्य है । भगवान् दयालु हैं । यदि कोई उन्हें भु लाकर इस भौतिक जगत का सु खोपभोग करना चाहता है , तो उसे
इसकी पूरी छट ू प्रत्यक्ष रूपसे नहीं, अपितु उनकी भौतिक शक्ति (माया) के माध्यम से मिलती है । चूँ कि यह भौतिक शक्ति
भगवान् की शक्ति होती है , अत: प्रत्यक्ष रूप से विस्मृ त करने की सु विधा प्रदान करने वाले भगवान् ही होते हैं । अत: दे वहतिू ने
कहा, “इन्द्रियतृ प्ति में मे री व्यस्तता का कारण आप ही थे । अब मु झे इस बन्धन से मु क्त करें ।”

4. पु रुष प्रकृति और सं सार को परिभाषित करें 11


श्रीभगवान् या भोक्ता के रूप में जो कोई पूर्ण पु रुषोत्तम भगवान् का अनु करण करता है , वह पु रुष है
और प्रकृति का अभिप्राय प्रकृति से है ।
इस भौतिक जगत में पु रुषों या जीवों के द्वारा प्रकृति का उपभोग होता है । इस सं सार में प्रकृति तथा पु रुष अथवा भोग्य तथा
भोक्ता के सम्बन्ध की जटिलताएँ सं सार अथवा भौतिक बन्धन कहलाती हैं ।

5.दध ू पीने और गाय पालने का उदाहरण क्या दर्शाता है ? 13


इस भौतिक जगत में व्यक्ति कुछ-न-कुछ सु ख प्राप्त करने का प्रयास करता है , किन्तु जै से ही हमें थोड़ा सु ख-लाभ होता है कि
भौतिक दुख भी पड़ता है । इस सं सार में किसी को एकान्तिक सु ख प्राप्त नहीं हो सकता। किसी भी प्रकार का सु ख दुख से
कलु षित हो जाता है ।
उदाहरणार्थ, यदि हम दध ू पीना चाहें तो हमें गाय पालना होगा और उसे दध ू दे ने लायक बनाए रखना होगा। दध ू पीना तो अच्छा
ू पीने के लिए मनु ष्य को इतनी सारी झं झटें उठानी पड़ती हैं ।
है । और आनन्द भी है , किन्तु दध

6. ब्रह्मसिद्धि का क्या अर्थ है 19


ब्रह्मसिद्धये शब्द का अर्थ है अपने को पदार्थ से भिन्न समझना, अपने आपको ब्रह्म समझना। वै दिक शब्द है अहं ब्रह्मास्मि।
ब्रह्मसिद्धि का अर्थ है कि मनु ष्य समझे कि वह पदार्थ नहीं है —वह शु द्ध आत्मा है । योगी कई प्रकार के होते हैं , किन्तु प्रत्ये क
योगी आत्म-साक्षात्कार या ब्रह्म-साक्षात्कार करने में लगा रहता है । यहाँ यह स्पष्ट उल्ले ख है कि जब तक पूर्ण पु रुषोत्तम
भगवान् की भक्ति में प्रवृ त्त नहीं हुआ जाता, तब तक मनु ष्य ब्रह्मसिद्धि के मार्ग तक नहीं पहुँच सकता।

7 मतकृते त्यक्त कर्मणास वाक्य का क्या अर्थ है 2


—जो व्यक्ति गम्भीरतापूर्वक भगवान् की से वा में लगा रहता है और सं न्यास आश्रम में रहता है , वह साधु है । साधु वह है ,
जिसने एकमात्र भगवान् की से वा के लिए समाज, परिवार तथा सांसारिक मानवतावाद को तिलांजलि दे दी हो। मनु ष्य जै से ही
इस सं सार में जन्म ले ता है , उसे जनता के प्रति, दे वों के प्रति, ऋषियों के प्रति, अपने माता-पिता के प्रति, पूर्वजों तथा अन्य
लोगों के प्रति अने क प्रकार की जिम्मे दारियाँ घे र ले ती हैं । जब वह परमे श्वर के निमित्त इन समस्त जिम्मे दारियों को त्याग दे ता
है , तो उसे ऐसे परित्याग के लिए दण्ड नहीं मिलता है , किन्तु यदि इन्द्रियतृ प्ति के लिए कोई व्यक्ति ऐसे कर्तव्यों का परित्याग
करता है , तो प्रकृति के नियमों द्वारा उसे दण्डित किया जाता है ।

8 बिल्ली , बिल्ली के बच्चे और चूहे का उदाहरण स्पष्ट करें 24


बिल्ली अपने बच्चों को अपने मुँ ह में दबाकर ले जाती है और जब वह चूहों को मारती है , तो उस सौगात को भी मुँ ह में ही ले
जाती है । इस प्रकार दोनों ही बिल्ली के मुँ ह से ले जाये जाते हैं , किन्तु उनकी अवस्थाएँ भिन्न-भिन्न होती हैं । बिल्ली के बच्चे
बिल्ली के मुँ ह में सु ख का अनु भव करते हैं , किन्तु जब वह चूहे को ले जाती है , तो चूहे को मृ त्यु के भय का अनु भव होता है । इसी
प्रकार जो साधु हैं अथवा जो भगवान् की दिव्य से वा में कृष्णभक्ति में सं लग्न रहते हैं उन्हें भौतिक क्ले शों के कल्मष का अनु भव
नहीं होता, किन्तु जो कृष्णभक्त नहीं होते उन्हें वास्तव में सांसारिक क्ले शों का अनु भव होता है ।

9. योग और मु क्ति से भक्ति कैसे श्रेष्ठ है कारणों की सूची बनाएं 32 34,36,41


इस तरह भक्ति मु क्ति के बाद की अवस्था है । बिना मु क्त हुए कोई मनु ष्य अपनी इन्द्रियों को भगवान् की से वा में प्रवृ त्त नहीं
कर सकता।
मु क्ति की अपे क्षा भक्ति उच्चतर स्थिति में होती है , क्योंकि भक्ति द्वारा भवबन्धन से मु क्ति पाने के मानवी प्रयास की स्वत: पूर्ति
हो जाती है ।
श्री बिल्वमं गल ठाकुर ने इस स्थिति की अच्छे ढं ग से व्याख्या की है । वे कहते हैं , “यदि परमे श्वर के चरणकमलों के प्रति हमारी
अटू ट भक्ति है , तो मु क्ति मे री दासी है । यह मु क्ति रूपी दासी वह सब करने के लिए सदा सन्नद्ध रहती है , जो जो मैं कहता हँ ।ू ”
भक्त के लिए मु क्ति कोई समस्या ही नहीं है । उसे किसी पृ थक् प्रयास के बिना ही मु क्ति मिल जाती है । अत: भक्ति मु क्ति
अर्थात् निर्विशे षवादी स्थिति से श्रेयस्कर है । निर्विशे षवादी मु क्ति प्राप्त करने के लिए कठिन तपस्या करते हैं , किन्तु भक्त
मात्र भक्तियोग में , विशे ष रूप से हरे कृष्ण .............हरे राम हरे हरे , महामन्त्र के कीर्तन में लगकर तथा श्रीभगवान् को अर्पित
भोग के बचे हुए भाग से भोजन ग्रहण करके अपनी जीभ पर तु रंत नियं तर् ण पाकर इसे प्राप्त कर ले ता है । जीभ पर नियन्त्रण
होते ही अन्य सारी इन्द्रियों पर स्वत: ही नियन्त्रण प्राप्त हो जाता है । इन्द्रियों का नियन्त्रण (निग्रह) ही योग की पूर्णता है
और ज्योंही मनु ष्य अपने आपको भगवान् की से वा में लगा दे ता है उसकी मु क्ति तु रन्त हो जाती है । कपिल दे व इसकी पु ष्टि कर
रहे हैं कि भक्ति सिद्धि (मु क्ति) से श्रेयष्कर है ।
वस्तु त: निर्विशे षवादी परम पु रुष में नहीं, अपितु उनकी शारीरिक ज्योति, ब्रह्मज्योति, में समाहित होते हैं । यद्यपि यह
ब्रह्मज्योति उनके शरीर से भिन्न नहीं है , किन्तु शु द्ध भक्त इस प्रकार के एकाकार (एकात्मता) को स्वीकार नहीं करते , क्योंकि
भक्तगण भगवान् में तदाकार होने के तथाकथित आनन्द से अधिक बड़े आनन्द में लीन होना चाहते हैं । सबसे बड़ा आनन्द
भगवान् की से वा करना है । भक्त निरन्तर यही सोचते रहते हैं कि भगवान् की किस प्रकार से वा की जाय, वे सं सार की बड़ी से
बड़ी बाधाओं के होते हुए भी ऐसे साधन जु टाते रहते हैं जिससे भगवान् की से वा की जा सके।
कपिल मु नि ने स्पष्ट कहा है कि भक्ति के कार्यकलाप मु क्ति से बढक़र हैं । इसे पञ्चम पु रुषार्थ कहा जाता है । सामान्यतया लोग
धर्म, आर्थिक विकास तथा इन्द्रियतृ प्ति के कार्यों में प्रवृ त्त होते हैं और वे इस विचार से कर्म करते हैं कि वे परमे श्वर से एकाकार
होने जा रहे हैं (मु क्ति)। किन्तु भक्ति तो इन समस्त कार्यकलापों से बढ़ कर है । फलत: श्रीमद्भागवत का प्रारम्भ ही इसी
कथन से होता है कि भागवत में सभी प्रकार की छद्म धार्मिकता का उन्मूलन किया गया है । भागवत में उन समस्त अनु ष्ठानों
का बहिष्कार हुआ है , जो आर्थिक विकास तथा इन्द्रियतृ प्ति के लिए या कि इन्द्रियतृ प्ति से हताश होकर परमे श्वर से तादात्म्य
से सम्बन्धित हैं । भागवत विशे षत: उन भक्तों के लिए है , जो निरन्तर कृष्णभक्ति में या भगवान् के कार्यकलापों में लगे रहते हैं
और नित्य ही इन दिव्य कार्यकलापों का गु णागन करते रहते हैं

भक्तों की तीन श्रेणियाँ हैं —उत्तम, मध्यम तथा कनिष्ठ। कनिष्ठ श्रेणी तक के भक्त मु क्त हो जाते हैं । इस श्लोक में बताया
गया है कि ज्ञान न होने पर भी मन्दिर में विग्रह का अलं करण दे खकर भक्त उसी के ध्यान में तल्लीन होकर अन्य समस्त चे तना
खो दे ता है । इस तरह मात्र कृष्णचे तना में अपने को स्थिर करते हुए और इन्द्रियों को भगवान् की से वा में लगाकर मनु ष्य
अनजाने ही मु क्त हो जाता है

यहाँ तक कि शु कदे व गोस्वामी तथा चारों कुमारों जै से निर्विशे षवादी भी मन्दिर में विग्रहों के सौन्दर्य से , भगवान् पर चढ़ी
तु लसी की सु गंधि से मोहित होकर भक्त बन गये । यद्यपि वे मु क्त अवस्था में थे , किन्तु निर्विशे षवादी बने रहने की अपे क्षा वे
भगवान् के सौंदर्य पर मोहित होकर भक्त बन गये ।
परमे श्वर का शु द्ध भक्त बने बिना जन्म-मृ त्यु के चक् र से छुटकारा नहीं मिल पाता। कहा गया है —हरिं बिना न सृ तिं तरन्ति।
जन्म-मृ त्यु के चक् र को तब तक पार नहीं किया जा सकता जब तक श्रीभगवान् अनु कूल न हों। इसी विचारधारा की पु ष्टि यहाँ
हुई है । कोई चाहे तो अपने अपूर्ण मानसिक चिन्तन से परम सत्य को जानने की पद्धति अपनावे या योगक्रिया द्वारा स्व का बोध
करने का यत्न करे । किन्तु चाहे वह जो भी करे , जब तक वह श्रीभगवान् को पूरी तरह आत्मसमर्पण नहीं कर दे ता, तब तक कोई
भी विधि उसे मु क्ति नहीं दिला सकती

10. भगवान अर्चविग्राह रूप को क्यों स्वीकार करते हैं 35


वस्तु त: वर्तमान अवस्था में ईश्वर को उनके आध्यात्मिक रूप में दे ख पाना सम्भव नहीं है , क्योंकि हमारे ने तर् तथा इन्द्रियाँ
आध्यात्मिक रूप की कल्पना नहीं कर सकतीं। यहाँ तक कि हम आत्मा के आध्यात्मिक रूप को भी नहीं दे ख सकते । जब मनु ष्य
मरता है , तो हम यह नहीं दे ख पाते कि आध्यात्मिक रूप किस तरह शरीर को त्यागता है । यह हमारी इन्द्रियों का दोष है । हम
अपनी इन्द्रियों से दे ख पाएँ , इस हे तु भगवान् उपयु क्त रूप ग्रहण करते हैं जिसे अर्चा-विग्रह कहते हैं । कभी-कभी अर्चा-
विग्रह अर्चा-अवतार कहलाता है , जो भगवान् से भिन्न नहीं है । जिस प्रकार पूर्ण पु रुषोत्तम भगवान् अने क अवतार ग्रहण
करते हैं उसी तरह वह मिट् टी, लकड़ी, धातु , रत्न जै से पदार्थ के रूपों को ग्रहण करते है

11 विलास शब्द के महत्व की व्याख्या करें 36


यहाँ पर विलास शब्द उल्ले खनीय है । विलास से भगवान् के कार्यकलाप या लीलाओं का द्योतन होता है । मन्दिर पूजा के कार्यों में
यह निश्चित है कि मनु ष्य को मन्दिर में भगवान् को सजाधजा दे खने ही नहीं जाना चाहिए, अपितु उसे श्रीमद्भागवत,
भगवद्गीता या ऐसे ही साहित्य का पाठ सु नना चाहिए जिनका मन्दिर में नियमित पाठ होता है ।

12 व्याख्या कीजिए कि दिव्य से वा की स्थिति किस प्रकार नष्ट नहीं की जा सकती 38


भक्तों का ऐश्वर्य स्थिर है , क्योंकि भक्तगण वै कुण्ठलोक में निरन्तर स्थित हैं जिसे शान्तरूप कहते हैं । निम्नलिखित कारण हैं

1.काल का प्रभाव नहीं रहता भौतिक लोक में कल तत्व का प्रभाव रहता है किंतु वै कुंठ लोक में काल तत्त्व—भूत, वर्तमान या
भविष्य—नहीं रहता तो हर वस्तु शाश्वत होती है ।
2. दे वताओं का प्रभाव नहीं रहता इस लोक में हमारे कार्यों का सं चालन विभिन्न दे वताओं द्वारा होता है , यहाँ तक कि जब हम
अपने हाथ तथा पाँ व हिलाते हैं , तो इनकी क्रिया दे वताओं द्वारा सं चालित होती है । किन्तु वै कुण्ठ लोक में न तो दे वताओं का
कोई प्रभाव है , न काल का। अत: विनाश का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।
3. भगवान् सनातन हैं , अत: उनसे जो कोई सम्बन्ध बनाता है , वह भी सनातन होता है । यहाँ इसकी पु ष्टि की गई है कि ऐसे
सम्बन्धों को विनष्ट नहीं किया जा सकता, फलत: उन सम्बन्धों के ऐश्वर्य को भी नष्ट नहीं किया जा सकता।

13 अस्थाई घरे लू या सामाजिक जीवन के प्रति एक भक्त का दृष्टिकोण का है 39 40


1. भक्त को न तो इस जीवन की और न अगले जीवन की कोई परवाह रहती है , क्योंकि वह किसी भी जीवन में न तो भौतिक
सम्पत्ति की कामना करता है न जीवन की उच्च या निम्न अवस्था की। वह तो भगवान् से प्रार्थना करता है , “हे भगवान्, मु झे
इसकी परवाह नहीं कि मैं कहाँ जन्म लूँ, किन्तु मु झे एक भक्त के घर में चींटी के रूप में ही सही जन्म ले ने दें ।”
2. शु द्ध भक्त भगवान् से कभी भी इस भौतिक बं धन से मु क्ति कि प्रार्थना नहीं करता है । शु द्ध भक्त अपने को मु क्ति के योग्य
समझता ही नहीं। अपने विगत जीवन तथा दुष्ट कर्मों को ध्यान में रखते हुए वह सोचता है कि वह नरक के निम्नतम भाग में भे जे
जाने के योग्य है । यदि मैं इस जन्म में भक्त बनना चाह रहा हँ ू तो इसका यह अर्थ नहीं है कि पूर्वजन्मों में मैं शत प्रतिशत शु द्ध
(पवित्र) था। ऐसा सम्भव नहीं। इसलिए भक्त हमे शा अपनी स्वाभाविक स्थिति के प्रति सचे त रहता है ।
3. भगवान् के प्रति पूर्ण समर्पण से ही कष्ट कम हो सकते हैं । जै साकि भगवद्गीता में कहा गया है , “मे री शरण में आ जाओ, मैं
समस्त पापकर्मों से तु म्हारी रक्षा करूँगा।” यह उनकी कृपा है । ले किन इसका यह अभिप्राय नहीं है कि जिसने भगवान् के
चरणकमलों की शरण ग्रहण की है उसने पूर्वजन्म में बु रे कर्म नहीं किये । भक्त सदै व प्रार्थना करता है , “अपने बु रे कर्मों के लिए
मैं बारम्बार जन्म लूँ, किन्तु मे री एकमात्र प्रार्थना है कि मैं आपकी से वा करना न भूलँ ।ू ” भक्त में इतना मनोबल होता है और वह
भगवान् से निवदे न करता है , “मैं बार-बार जन्म ग्रहण करता रहँ ,ू किन्तु मैं शु द्ध भक्त के घर में जन्म लूँ जिससे मैं अपने को
सु धारने का अवसर पा सकूँ ।”
3. भक्त को कुछ भी पाने की अभिलाषा नहीं रहती। उसे भगवत्कृपा से जो भी प्राप्त हो सकता है उसी से सन्तु ष्ट रहता है । वह
न तो अपनी सामाजिक स्थिति को सु धारने या अपने बच्चों की शिक्षा सु धारने के लिए रं चमात्र भी मोह रखता है ।
4 वह निकम्मा नहीं होता, वह आज्ञाकारी होता है , किन्तु वह क्षणिक घरे लू या सामाजिक जीवन के उत्थान में अधिक समय व्यय
नहीं करता। वह पूर्णतया भगवान् की से वा में लगा रहता है और अन्य कार्यों में उतना ही समय लगाता है जितना कि अनिवार्य
होता है (यथार्थम् उपयु ञ्जत:)।

Chapter 26

1 सां ख्य दर्शन को समझने का क्या परिणाम है 1


सां ख्य दर्शन विशे षत: उन लोगों के लिए है , जो इस जगत में बद्ध हैं । सां ख्य दर्शन में भक्ति के विज्ञान (भक्ति तत्त्व) को जान
ले ने से मनु ष्य प्रकृति के गु णों से मु क्त हो जाता है । प्रकृति के जाद ू से मु क्त होकर शाश्वत आत्मा भगवद्धाम में प्रविष्ट करने
का अधिकारी बन जाता है ।

2. उपदे श के लिए "अनादिरात्मा पु रुषो" वाक्यां श कैसे प्रासं गिक है 3


श्रीभगवान् को आदिरहित (अनादि) बताया गया है । वह पु रुष अर्थात् परम आत्मा है । पु रुष का अर्थ है “व्यक्ति।” जब हम
अपने वर्तमान अनु भव से किसी व्यक्ति के विषय में सोचते हैं , तो उसका आदि होता है । इसका भाव यह है कि उसने जन्म लिया
होगा और उसके जीवन के प्रारम्भ से ले कर अब तक का इतिहास होगा।
किन्तु यहाँ पर भगवान् को अनादि अर्थात् आरम्भ से रहित कहा गया है । यदि हम सभी व्यक्तियों का परीक्षण करें तो प्रत्ये क का
आदि होता है , किन्तु जब हम ऐसे व्यक्ति तक पहुँच जाते हैं जिसका कोई आदि ही नहीं हो तो वह परम पु रुष होता है ।
ब्रह्म-सं हिता में यही परिभाषा दी हुई है ईश्वर: परम: कृष्ण: परमे श्वर परम नियन्ता कृष्ण है ; वह आदिरहित है और हर एक का
उद्गम है । यह परिभाषा समस्त वै दिक साहित्य में उपलब्ध है ।

3 नित्यबद्ध (शाश्वत बद्ध) के उपयोग की व्याख्या करें 5


जो नित्यबद्ध हैं अर्थात् निरन्तर बद्ध रहते हैं । हम कहते हैं कि वे अनादि काल से बद्ध रहे हैं , क्योंकि कोई यह नहीं पता लगा
सकता कि जीव, जो परमे श्वर का भिन्नां श है , कब भगवान् की श्रेष्ठता के प्रति विद्रोही बन गया।
वस्तु त: मनु ष्यों की दो श्रेणियाँ हैं , वे जो भगवान् के नियमों के पालक हैं और वे जो नास्तिक हैं तथा ईश्वर के अस्तित्व को न
मानते हुए अपने नियम बनाना चाहते हैं । वे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि हर व्यक्ति अपने नियम या अपना धर्म-पं थ बना सकता
है । इन दोनों श्रेणियों के अस्तित्व के प्रारम्भ को जाने बिना हम यह निश्चित रूप से मान सकते हैं कि कुछ जीवों ने भगवान् के
नियमों के विरुद्ध विद्रोह किया होगा। ऐसे जीव बद्धजीव कहलाते हैं ,

4. मायावादी दर्शन कि "जीवात्मा का बद्ध भौतिक जीवन उसकी लीला है " का खं डन kis prakar kiya ja सकता है 7 8
मायावादी इस शब्द का गलत प्रयोग करते हैं क्योंकि
1. बद्धजीवन में जीव भौतिक शक्ति के हाथों में बन्दी जैसा बना रहता है । भौतिक शक्ति जो भी कराती है , बद्धजीव करता है ।
उसका अपना कोई उत्तरदायित्व नहीं रहता, वह कर्म का साक्षी मात्र रहता है । किन्तु उसे कृष्ण के साथ अपने शाश्वत सम्बन्ध
को न समझने के अपराध में ऐसा करने के लिए बाध्य किया जाता है ।
2. बद्धजीव को प्रकृति के तीन गु णों के अधीन किसी विशे षप्रकार का शरीर तथा इन्द्रियाँ धारण करने के लिए बाध्य किया
जाता है । उसे यह शरीर अपनी रुचि के अनु सार प्राप्त नहीं होता। दस ू रे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि बद्धजीव को
स्वतन्त्र चु नाव करने की छटू नहीं होती; उसे अपने कर्म के अनु स ार कोई-न- कोई शरीर स्वीकार करना पड़ता है
3. लीला’ शब्द भोग की स्वे च्छ स्वीकृति के लिए प्रयु क्त होता है । अत: यह व्याख्या अत्यन्त भ्रामक है । जब दुख को बाध्य
होकर स्वीकार करना पड़े तो वह ‘लीला’ नहीं है । भगवान् की लीलाएँ तथा बद्धजीव द्वारा कर्मफल की स्वीकृति समान धरातल पर
नहीं होतीं।

5. व्यख्या करें कि कैसे जीव अपने स्वयं के दुख का कारण है 8


जीव ही अपने कष्टों का कारण है , किन्तु वह अपने शाश्वत सु ख का भी कारण हो सकता है । जब वह कृष्णभक्ति में प्रवृ त्त होना
चाहता है , तो भगवान् की आध्यात्मिक शक्ति द्वारा उसे उपयु क्त शरीर प्रदान किया जाता है और जब वह अपनी इन्द्रियों को
तु ष्ट करना चाहता है , तो उसे भौतिक शरीर प्रदान किया जाता है । अत: आध्यात्मिक शरीर या भौतिक शरीर स्वीकार करना
जीव के मनचाहे चु नाव पर निर्भर करता है , किन्तु एक बार शरीर स्वीकार कर ले ने पर सु ख या दुख उठाना पड़ता है

6. प्रधान और प्रकृति के बीच अं तर स्पष्ट करें 10


प्रधान प्रकृति
ती तीनों गु णों का अप्रकट शाश्वत सं योग ही प्रकट अवस्था प्रकट अवस्था
का कारण है

सूक्ष्म अवस्था Sthool Avastha


समस्त भौतिक तत्त्वों का निर्विशे ष सार तीनों गु णों के द्वारा समस्त भौतिक तत्त्व प्रकट होते हैं

7. भगवान हर् बद्ध आत्मा से कैसे बात करते हैं 16


ू रे शब्दों में , काल विध्वं सक है । काल भगवान् का
मृ त्यु -भय काल का प्रभाव है , जो परमे श्वर के प्रभाव का द्योतक है । दस
प्रतिनिधित्व करता है और यह हमें इसका भी स्मरण कराता है कि हम ईश्वर की शरण ग्रहण करें ।
ईश्वर हर बद्धजीव से काल के रूप में बातें करते हैं । भगवान् भगवद्गीता में कहते हैं कि यदि कोई मे री शरण में आ जाता है , तो
फिर जन्म तथा मृ त्यु की कोई समस्या नहीं रह जाती। अत: हमें काल को अपने समक्ष खड़े हुए भगवान् के रूप में मानना चाहिए

् में सं देह की भूमिका की जांच करें 30


8. बु दधि
् के प्रमु ख कार्यों में से सन्दे ह एक है । किसी बात को आँ ख मूँ दकर स्वीकार करना बु दधि
बु दधि ् का परिचायक नहीं है । अत: सं शय
शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । बु द्धि का अनु शीलन करने के लिए मनु ष्य को प्रारम्भ में सन्दे हयु क्त रहना चाहिए, किन्तु जब
उचित साधन से सूचना प्राप्त हो रही हो तो सन्दे ह करना अनु कूल नहीं होता। भगवद्गीता में भगवान् कहते हैं कि अधिकारी के
शब्दों में सन्दे ह करना विनाश का कारण है ।

9. बं धन और मु क्ति के सं बंध में ध्वनि की शक्ति का वर्णन करें 32


वे दान्त-सूतर् में भी कहा गया है कि शब्द ही समस्त भौतिक पदार्थों का मूल (उत्स) है और शब्द से ही इस जगत का विलय हो
सकता है । अनावृ त्ति: शब्दात् का अर्थ है , “शब्द से मु क्ति।” शब्द से ही समग्र जगत का प्रारं भ हुआ और यदि शब्द में विशिष्ट
शक्ति हो तो यह सारे भवबं धन को समाप्त कर सकता है । ऐसा कर सकने वाला विशिष्ट शब्द हरे कृष्ण की दिव्य ध्वनि ही है ।
भौतिक मामलों में हमारे बन्धन का सूतर् पात शब्द से ही हुआ। अब हमें इस शब्द को शु द्ध करके आध्यात्मिक ज्ञान में परिणत
करना है । आध्यात्मिक जगत में भी शब्द है । यदि हम उस शब्द को पा लें तो हमारा आध्यात्मिक जीवन प्रारम्भ हो जाता है
और आध्यात्मिक प्रगति की अन्य आवश्यकताएँ पूरी हो सकती हैं । हमें भली भाँ ति समझ ले ना चाहिए कि हमारी
इन्द्रियतृ प्ति के लिए जितने पदार्थ चाहिए उन सबकी उत्पत्ति ध्वनि से हुई। इसी प्रकार यदि शब्द शु द्ध कर लिया जाता है , तो
हमारी आध्यात्मिक आवश्यकताएँ ध्वनि से ही उत्पन्न होती हैं ।
10. हवा की गति के कारण होने वाली कुछ गतिविधियों की सूची बनाएं 37 38
पे ड़ पौधों का हिलना
इसी प्रकार वायु की क्रिया से ही शरीर गतिमान होता है और जब वायु अवरुद्ध हो जाती है , तो तमाम रोग फैलते हैं ।
हम वायु -सं चार के ही कारण ध्वनि सु नते हैं
गन्ध की पहचान
दै व, स्पर्श-अनु भति
ू , वायु की अन्त: क्रियाएँ तथा आकाश तत्त्व से उत्पन्न मन की स्थिति के कारण अपने पूर्वकर्मों के अनु सार
मनु ष्य को शरीर प्राप्त होता है ।

11. भगवान ब्रह्मा के 4 सिरों का क्या महत्व है 52


वास्तव में माना जाता है कि यह ब्रह्माण्ड सबसे छोटा है , फलत: इसके प्रबन्ध के लिए प्रमु ख अधिष्ठाता अथवा ब्रह्मा के
केवल चार सिर हैं । अन्य ब्रह्माण्डों में जो इससे बहुत बड़े हैं ब्रह्मा के और अधिक सिर होते हैं । चै तन्य-चरितामृ त में कहा गया
है कि एक दिन ये सारे ब्रह्मा भगवान् कृष्ण द्वारा बु लाये गये और जब लघु ब्रह्मा ने बृ हद् ब्रह्मा को दे खा तो मानो उस पर
वज्रपात हो गया। ऐसी है भगवान् की अचिन्त्य शक्ति

12. वीर्य के स्त्राव और मृ त्यु के बीच सं बंध की जांच करें 57


यहाँ यह समझना होगा कि वीर्य-स्खलन की क्षमता ही मृ त्यु का कारण है । अत: योगी तथा अध्यात्मवादी, जो अधिक काल तक
जीवित रहना चाहते हैं , वे स्वे च्छा से वीर्य-स्खलन रोकते हैं । जो जितना ही वीर्य-स्खलन रोक सकता है , वह उतना ही मृ त्यु से
दरू रह सकता है । ऐसे अने क योगी हैं , जो इस विधि से तीन सौ या सात सौ वर्षों तक जीवित रहते हैं । भागवत में यह स्पष्ट रूप
से कहा गया है कि वीर्यपात ही भयावह मृ त्यु का कारण है । जो जितना ही विषयी होता है उतनी ही जल्दी उसकी मृ त्यु होती है

13. आयु र्वे द के अनु सार निम्नलिखित बीमारियों का इलाज किस प्रकार किया जाना चाहिए
तं त्रिका अस्थिरता तथा भूख और प्यास में अनियमितता 59-60
आयु र्वे दिक चिकित्सा में ‘तन्त्रिका अस्थिरता’ रोग से पीडि़त व्यक्ति को बहती नदी में डु बकी लगाकर स्नान करने की सं स्तु ति
की जाती है ।
समु दर् को पे ट का अधिष्ठाता दे व माना गया है , जहाँ से भूख तथा प्यास की अनु भति
ू उत्पन्न होती है । जब किसी को ठीक से
भूख प्यास नहीं लगती तो आयु र्वेदिक उपचार में उस मनु ष्य को समु दर् में स्नान करने की सलाह दी जाती है ।

14. सां ख्य दर्शन के सारां श की व्याख्या करें 72


प्रकृति के तत्त्वों का विश्ले षणात्मक अध्ययन तथा परमात्मा में मन को केन्द्रित करना यही सां ख्य दर्शन का सार है । इस
सां ख्ययोग की सिद्धि परम सत्य की भक्ति के साथ पूर्ण होती है ।

Chapter 27
1. "यद‍ृच्छयोपलब्धे न सन्तु ष्टो" के व्यवहारिक उपयोग की व्याख्या करें
1. भक्त को उतनी आय के लिए ही कार्य करना चाहिए जितनी नितान्त आवश्यकता हो। उसे इतनी ही आय से सं तुष्ट रहना
चाहिए और अनावश्यक रूप से सं चित करने के लिए तथा अधिक के लिए प्रयास नहीं करना चाहिए।
2. इस प्रसं ग में प्रयु क्त सही शब्द है यदृच्छया जिसका अर्थ है कि प्रत्ये क जीव को इस शरीर में पूर्वनिर्धारित सु ख तथा दुख
मिलते हैं , यह कर्म का सिद्धान्त कहलाता है । ऐसा सम्भव नहीं कि अधिकाधिक धन सं गर् ह के प्रयासों से ही मनु ष्य ऐसा कर
सकेगा अन्यथा प्राय: सारे व्यक्ति अपने पूर्वनिर्धारित कर्म के अनु सार कमाते तथा प्राप्त करते हैं ।
3 मनु ष्य को अपनी सहज अवस्था से सन्तु ष्ट रहना चाहिए। यदि प्रारब्धवश कोई ऐसी परिस्थिति में पड़ जाय जिसमें दस ू रे की
तु लना में वह अधिक वै भवसम्पन्न न हो तो उसे विचलित नहीं होना चाहिए। उसे चाहिए कि वह अपना समय कृष्णभक्ति बढ़ाने
में लगावे ।
4. कृष्णभक्ति में उन्नति किसी सम्पन्न या विपन्न अवस्था पर निर्भर नहीं करती, यह भौतिक जीवन द्वारा लगाये जाने वाले
प्रतिबन्धों से मु क्त है । एक अत्यन्त निर्धन व्यक्ति अत्यन्त धनी व्यक्ति के ही समान कृष्णभक्ति कर सकता है । अत: उसे
भगवान् द्वारा प्रदत्त अपनी स्थिति से सन्तु ष्ट रहना चाहिए।

2. एक भक्तों को अपना निवास स्थान कहां बनाना चाहिए 8


अगली सं स्तु ति-यह है कि भक्त को एकान्त स्थान में रहना चाहिए। सामान्य रूप से मनु ष्य पौंड-शिलिं ग-पें स अर्थात् भौतिक
उन्नति में रुचि रखता है , जो भक्त के लिए अनावश्यक है ।
भक्त को ऐसा वास-स्थान चु नना चाहिए जहाँ प्रत्ये क व्यक्ति भक्ति में रुचि रखता हो। अत: सामान्य रूप से भक्त किसी
पवित्र तीर्थस्थल में चला जाता है जहाँ भक्तगण रहते हैं । यह सं स्तु ति की गई है कि भक्त ऐसे स्थान में रहे जहाँ बड़ी सं ख्या में
सामान्य व्यक्ति न रहते हों। एकान्त स्थान में वास करना अत्यावश्यक है (विविक्त-शरण)।

3. सत्यद्रक को समझाए
विशु द्ध आत्मा को, जिसे सत्यदृक् कहा गया है , जान ले ने से मनु ष्य हर वस्तु को परमे श्वर के प्रतिबिम्ब रूप में दे खता है ।
भक्ति-रसामृ त-सिं धु में कहा गया है कि जिसने अपना सब कुछ—अपनी प्राणशक्ति, सम्पत्ति, बु द्धि तथा वाणी—भगवान् की
से वा में लगा दिया है या जो इन्हें उनकी से वा में लगाना चाहता है उसे मु क्त आत्मा या सत्यदृक् मानना चाहिए भले ही वह कैसी
ही स्थिति क्यों न हो। इस सम्बन्ध में एक ठोस उदाहरण दिया जा सकता है ।
बद्धजीव एक अत्यन्त सु न्दर गु लाब दे खता है और सोचता है कि इस सु गन्धित पु ष्प का उपयोग अपनी इन्द्रियतृ प्ति के लिए
क्यों न करूँ। यह एक प्रकार की दृष्टि है । किन्तु एक मु क्त आत्मा इसी फू ल को परमे श्वर के प्रतिबिम्ब के रूप में दे खता है और
सोचता है , “यह फू ल परमे श्वर की श्रेष्ठ शक्ति से सम्भव हो सका, अत: यह उनका है और इसका उपयोग उनकी से वा में होना
चाहिए।” ये दो प्रकार की दृष्टियाँ हैं ।

4. भौतिक बं धन के सं बंध में इच्छा द्वे ष वाक्यां श की व्याख्या करें 20


भगवद्गीता (७.२७) का कथन है — इच्छाद्वे षसमु त्थे न। जीवात्मा में दो प्रकार की रुचियों का उदय होता है ।
एक है इच्छा जिसका अर्थ है प्रकृति पर अधिकार जताना अथवा परमे श्वर के समान महान् बनना। प्रत्ये क व्यक्ति इस सं सार में
महानतम व्यक्ति बनना चाहता है ।
दसू री है द्वे ष अर्थात् ईर्ष्या। जब मनु ष्य कृष्ण अथवा पूर्ण पु रुषोत्तम भगवान् से द्वे ष करता है , तो वह सोचता है कि, “कृष्ण ही
सर्वे सर्वा क्यों हैं ? मैं भी कृष्ण जै सा हँ ।ू ”
ये दो बातें —भगवान् बनने की इच्छा और भगवान् से ईर्ष्या — भवबन्धन के प्रारम्भिक कारण हैं । जब तक चिन्तक, मु क्ति का
इच्छुक या शून्यवादी महान् बनने , सब कुछ होने या ईश्वर के अस्तित्व को नकारने की कोई न कोई इच्छा रखता है तब तक
उसकी मु क्ति का प्रश्न ही नहीं उठता।

5. कोई अपनी कृष्ण भावना अमृ त के विकास का अनु मान कैसे लगा सकता है 22
हम दिव्य ज्ञान का विकास करके परम सत्य के विषय में समझ सकते हैं और ऐसे दिव्य ज्ञान का परिणाम वै राग्य द्वारा ही प्रकट
होगा।
यह वै राग्य न तो क्षणिक है , न कृत्रिम, अपितु अत्यन्त प्रबल है । कहा जाता है कि वै राग्य के द्वारा कृष्णचे तना का विकास
दृष्टिगत होता है । यदि कोई अपने आपको भौतिक भोग से पृ थक् नहीं कर सकता तो यह समझना चाहिए कि वह कृष्णचे तना
(भक्ति) में अग्रसर नहीं हो रहा है । कृष्णचे तना में वै राग्य इतना प्रबल होता है कि इसे किसी आकर्षण के द्वारा विपथ नहीं किया
जा सकता।

6 भौतिक सं दष ू ण के दो मु ख्य रोगों का विश्ले षण करें


1. वह परमे श्वर से एकाकार होना चाहता है ,: ज्ञानीजन भौतिक साधनों का भोग करते -करते निराश होकर भगवान् से एकाकार
होना या निर्गुण ते ज में लीन होना चाहते हैं
2. वह भौतिक प्रकृति का स्वामी बनना चाहता है : कर्मीजन प्रकृति के साधनों का उपयोग करने का प्रयत्न करते हैं और इस
तरह इसके स्वामी बनकर इन्द्रियतृ प्ति का भोग करना चाहते हैं ।
ये दोनों रोग भौतिक कल्मष के कारण होते हैं । भौतिक कल्मष को भक्ति द्वारा भस्मसात किया जा सकता है , क्योंकि भक्तिमय
से वा में ये दोनों रोग अर्थात् प्रकृति पर प्रभु त्व जमाने और परमे श्वर से तदाकार होने की इच्छा अनु पस्थित रहते हैं

7. जीव अपनी स्वतं तर् ता कैसे खो दे ता है 24


भौतिक सम्पर्क के कारण जीव की स्वतन्त्रता जाती रहती है । आध्यात्मिक जगत में उसे पूर्ण स्वतन्त्रता रहती है , फलत:
प्रकृति के गु णों पर आश्रित रहने का प्रश्न ही नहीं उठता। यह स्थिति भक्त द्वारा प्राप्त की जाती है , अत: जब वह इसके
दोषों को दे खता है , तो भौतिक भोग की प्रकृति को छोड़ दे ता है ।

8. योगी आमतौर पर किस की ओर आकर्षित होते हैं 30 Yog Siddhi


सामान्यत: योगीजन योगशक्ति की गौण वस्तु ओं के प्रति आकृष्ट होते रहते हैं , क्योंकि वे लघु तर से लघु तम और दीर्घ से
दीर्घतम हो सकते हैं , जो भी चाहें प्राप्त कर सकते हैं , लोक की सृ ष्टि करने की शक्ति से सम्पन्न होते हैं या किसी को अपने
अधीन कर सकते  हैं

 Ashta siddhi introduction


Ashta siddhi are the eight divine knowledge that gives one complete power over
each and everything. They are mentioned in Hindu scriptures and texts. However,
the average people may not know about the siddhis unless you are immersed in
Hindu religious knowledges. Most notably people hear about ashta siddhi is during
hearing Hanuman chalisa or Ganesh vajana, I also came to know about the term
Ashta siddhi while reciting the hanuman chalisa.
In hanuman chalisa it is said that lord hanuman not only possess ashta siddhi but
can also bestow ashta sddhi to his devotees. Hindu scriptures say that the people
who have complete control over the siddhis can gain power of demigods. As the
name itself says Ashta which means eight in sanskrit, the ashta siddhis are: Anima,
Mahima, Garima, Laghima, Prapti, Prakamya, Isitva, Vasitva. Each siddhi governs
certain character or certain aspect of nature and mastering each gives one distinct
ability unique to other siddhis.
1) Anima
Anima is the first among the ashta siddhis. Mastering this siddhi gives the
individual the ability to shrink down one’s body. This siddhi gives only the ability
shrink the body; the owner of this siddhi can shrink the body to his own will even at
the atomic scale but cannot increase the size of the body. The most notable use of
this siddhi was done by lord Hanuman while spying on Lanka in search of mother
sita. While spying lord hanuman shrunk his huge body to a very miniature form
because of which the demons were unable to spot him.
2) Mahima
Mahima one of ashta siddhi siddhi grants the user the ability to attain gigantic
forms. It is like anima or it completes Anima siddhi. Anima lets you shrink your
body while mahima lets you increase the size of the body even to the celestial level.
Lord hanuman used mahima to increase his size and lift sumeru parbat to bring
back Sanjivani booti to save Laxman’s life. Another use of mahima siddhi was
done by Bahaman avatar of lord Vishnu. In which lord turned his size celestial level
and in three steps he covered the entire existence.
3) Garima
Garima siddhi lets user to alter the weight of their body. However, like the relation
between Anima and mahima, Garima only allows the user to increase the weight
but not decrease it. By this siddhi one can increase his/her weight from little bit to
infinitely, to the point one becomes immovable.
Angat when going to ravanas court challenged the warriors in his court to move his
feet but no one was able to do so because angat used garima siddhi. Another
instance was when to control bheems arrogance lord hanuman disguised as an old
monkey asked him to lift his tail. However, lord hanuman used garima siddhi so
bheem could not lift his tail.
4) Laghima
Laghima of astha siddhi is opposite to garima, allows its user to decrease the body
weight. This siddhi decreases the weight of the user so much that the user will get
the ability to fly. The weight can decrease so much that the individual can be light
as a feather and gain levitation. Lord hanuman and various other demigods, demons
knew this siddhi and were able to fly in the sky.
5) Prapti
Prapti is very different from previous siddhis. While the previous siddhis focused
on one’s body prapti focuses on things outside of body. Prapti siddhi gives one
ability to instantly get the things they desire.
6) Prakamya
Prakamya siddhi provides wide range of abilities to its user. It allows its user to
increase their life length dramatically, teleportation, ability to live underwater. In
the general sense prakamya enabels the user to adapt to the circumstances. Various
rishimunis, chiranjivis and demigods had this ashta siddhi in the past as they could
live under water and extend their lives to exceptionally longg time.
7) Isitva
The individual obtaining this ashta siddhi gets the ability to influence the nature as
per ones will.
8) Vasitva
Vasitva the last of ashta siddhi allows the user to control other people’s minds

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