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8 श्लोक सं ख्या 34 के तात्पर्य में उल्ले खित दो प्रकार के भक्तो की सूची बनाएं और सं क्षेप में बताएं ।
गोष्ठ्य आनन्दी आत्मानन्दी अथवा आत्म-तु ष्ट
धर्मोंपदे श का कार्य करते हैं जो धर्मोंपदे श का कार्य नहीं करते ।
भगवान् की महिमा का उपदे श दे ने के लिए वे ईश्वर के साथ एकान्त में रहते हैं ।
उनके अने क अनु यायी होते हैं ।
9. क्योंकि भगवान स्वयं करदम मु नि के घर में मौजूद थे उन्हें क्यों जाना चाहिए 35
वै दिक प्रमाण के अनु सार पचासवें वर्ष में गृ हस्थ को गृ हत्याग कर दे ना चाहिए। पं चाशोर्ध्व वनं व्रजे त—मनु ष्य को पचास वर्ष
की आयु प्राप्त करने के बाद गृ हस्थ जीवन त्यागकर वन में प्रवे श करना चाहिए। यह वे दों का प्रामाणिक कथन है , जो
सामाजिक जीवन के कर्मानु सार चार विभागों—ब्रह्मचर्य, गृ हस्थ, वानप्रस्थ तथा सं न्यास पर आश्रित है ।
यद्यपि उन्हें पु तर् रूप में पूर्ण पु रुषोत्तम भगवान् मिल गये थे , तो भी उन्हें वे दों के प्रमाण का आदर करना था। यह अत्यन्त
महत्त्वपूर्ण शिक्षा है । भले ही क्यों न किसी को अपने घर में पु त्र रूप में भगवान् प्राप्त हों, फिर भी उसे वै दिक आदे शों का
पालन करना चाहिए। कहा गया है —महाजनो ये न गत: स पन्था: —मनु ष्यों को चाहिए कि महापु रुषों द्वारा ग्रहण किये गये पथ
का अनु सरण करे ।
12 उस स्त्री की क्या स्थिति होती है जिसे उसका पति सन्यास ले ने के कारण छोड़ दे ता है 40
वह पु त्र को सौंप दी जाती है और पु तर् वचन दे ता है कि वह उसे बन्धन से मु क्त करे गा।
स्त्री सं न्यास ग्रहण नहीं करती। आधु निक यु ग में अने क बनावटी तथाकथित आध्यात्मिक सं स्थाएँ तथा समितियाँ स्त्रियों को
भी सं न्यास प्रदान करती हैं , यद्यपि वै दिक साहित्य में स्त्रियों द्वारा सं न्यास ग्रहण करने का कोई उल्ले ख नहीं है । अन्यथा
विधान होने पर कर्दम मु नि अपनी पत्नी को साथ ले जाकर उसे भी सं न्यास दिला दे ते। किन्तु स्त्री को तो घर पर ही रहना
चाहिए। उसके जीवन की तीन अवस्थाएँ होती हैं —बालपन में पिता पर निर्भर रहना; यु वावस्था में अपने पति पर आश्रित रहना
और वृ द्धावस्था में सयाने पु तर् , यथा कपिल पर आश्रित रहना। वृ द्धावस्था में स्त्री की प्रगति उसके सयाने पु त्र पर निर्भर
करती है ।
14. एक सं न्यासी को अग्नि यज्ञ करने के उत्तरदायित्व से मु क्त क्यों किया जाता है ?42
गृ हस्थ को अग्नि की आवश्यकता यज्ञ करने या भोजन पकाने के लिए होती है , किन्तु सं न्यासी को इन दोनों कार्यों से छुट् टी मिल
जाती है । कृष्णभावनामृ त में लगे रहने के कारण सं न्यासी को न तो भोजन पकाना पड़ता है , न ही यज्ञ करना होता है , क्योंकि वह
पहले ही समस्त धार्मिक अनु ष्ठान पूरा कर चु का होता है ।
2 दे वहति
ू को दिव्य सं देश सु नने में रुचि क्यों थी 7
जब तक कोई इन्द्रियतृ प्ति से ऊब नहीं जाता, तब तक उसे कपिल-जै से व्यक्ति से दिव्य सन्दे श सु नने का सु योग प्राप्त नहीं
होता। दे वहति
ू ने कहा कि वे ऊब गई हैं । चूँकि अब उनके पति ने गृ ह-त्याग कर दिया है , अत: वे भगवान् कपिल के उपदे शों को
सु नकर विश्राम प्राप्त कर सकती हैं ।
3 दे वहति
ू ने क्यों कहा इं द्रिय तृ प्ति से मे री सगाई भी आपके कारण ही थी 10
ज्योंही जीव भगवान् के प्रति अपनी वास्तविक स्वाभाविक दासता की स्थिति भूल जाता है और इन्द्रियतृ प्ति के माध्यम से
भोग करना चाहता है , तो वह माया द्वारा बन्दी बना लिया जाता है । माया द्वारा यह बन्धन शरीर तथा शारीरिक वस्तु ओं के प्रति
आसक्ति के साथ झठ ू ी पहचान की चे तना है । ये माया के कार्य हैं और चूँ कि माया भी भगवान् की एक एजे न्ट है , अत: परोक्षत:
यह भगवान् का कार्य है । भगवान् दयालु हैं । यदि कोई उन्हें भु लाकर इस भौतिक जगत का सु खोपभोग करना चाहता है , तो उसे
इसकी पूरी छट ू प्रत्यक्ष रूपसे नहीं, अपितु उनकी भौतिक शक्ति (माया) के माध्यम से मिलती है । चूँ कि यह भौतिक शक्ति
भगवान् की शक्ति होती है , अत: प्रत्यक्ष रूप से विस्मृ त करने की सु विधा प्रदान करने वाले भगवान् ही होते हैं । अत: दे वहतिू ने
कहा, “इन्द्रियतृ प्ति में मे री व्यस्तता का कारण आप ही थे । अब मु झे इस बन्धन से मु क्त करें ।”
भक्तों की तीन श्रेणियाँ हैं —उत्तम, मध्यम तथा कनिष्ठ। कनिष्ठ श्रेणी तक के भक्त मु क्त हो जाते हैं । इस श्लोक में बताया
गया है कि ज्ञान न होने पर भी मन्दिर में विग्रह का अलं करण दे खकर भक्त उसी के ध्यान में तल्लीन होकर अन्य समस्त चे तना
खो दे ता है । इस तरह मात्र कृष्णचे तना में अपने को स्थिर करते हुए और इन्द्रियों को भगवान् की से वा में लगाकर मनु ष्य
अनजाने ही मु क्त हो जाता है
यहाँ तक कि शु कदे व गोस्वामी तथा चारों कुमारों जै से निर्विशे षवादी भी मन्दिर में विग्रहों के सौन्दर्य से , भगवान् पर चढ़ी
तु लसी की सु गंधि से मोहित होकर भक्त बन गये । यद्यपि वे मु क्त अवस्था में थे , किन्तु निर्विशे षवादी बने रहने की अपे क्षा वे
भगवान् के सौंदर्य पर मोहित होकर भक्त बन गये ।
परमे श्वर का शु द्ध भक्त बने बिना जन्म-मृ त्यु के चक् र से छुटकारा नहीं मिल पाता। कहा गया है —हरिं बिना न सृ तिं तरन्ति।
जन्म-मृ त्यु के चक् र को तब तक पार नहीं किया जा सकता जब तक श्रीभगवान् अनु कूल न हों। इसी विचारधारा की पु ष्टि यहाँ
हुई है । कोई चाहे तो अपने अपूर्ण मानसिक चिन्तन से परम सत्य को जानने की पद्धति अपनावे या योगक्रिया द्वारा स्व का बोध
करने का यत्न करे । किन्तु चाहे वह जो भी करे , जब तक वह श्रीभगवान् को पूरी तरह आत्मसमर्पण नहीं कर दे ता, तब तक कोई
भी विधि उसे मु क्ति नहीं दिला सकती
1.काल का प्रभाव नहीं रहता भौतिक लोक में कल तत्व का प्रभाव रहता है किंतु वै कुंठ लोक में काल तत्त्व—भूत, वर्तमान या
भविष्य—नहीं रहता तो हर वस्तु शाश्वत होती है ।
2. दे वताओं का प्रभाव नहीं रहता इस लोक में हमारे कार्यों का सं चालन विभिन्न दे वताओं द्वारा होता है , यहाँ तक कि जब हम
अपने हाथ तथा पाँ व हिलाते हैं , तो इनकी क्रिया दे वताओं द्वारा सं चालित होती है । किन्तु वै कुण्ठ लोक में न तो दे वताओं का
कोई प्रभाव है , न काल का। अत: विनाश का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।
3. भगवान् सनातन हैं , अत: उनसे जो कोई सम्बन्ध बनाता है , वह भी सनातन होता है । यहाँ इसकी पु ष्टि की गई है कि ऐसे
सम्बन्धों को विनष्ट नहीं किया जा सकता, फलत: उन सम्बन्धों के ऐश्वर्य को भी नष्ट नहीं किया जा सकता।
Chapter 26
4. मायावादी दर्शन कि "जीवात्मा का बद्ध भौतिक जीवन उसकी लीला है " का खं डन kis prakar kiya ja सकता है 7 8
मायावादी इस शब्द का गलत प्रयोग करते हैं क्योंकि
1. बद्धजीवन में जीव भौतिक शक्ति के हाथों में बन्दी जैसा बना रहता है । भौतिक शक्ति जो भी कराती है , बद्धजीव करता है ।
उसका अपना कोई उत्तरदायित्व नहीं रहता, वह कर्म का साक्षी मात्र रहता है । किन्तु उसे कृष्ण के साथ अपने शाश्वत सम्बन्ध
को न समझने के अपराध में ऐसा करने के लिए बाध्य किया जाता है ।
2. बद्धजीव को प्रकृति के तीन गु णों के अधीन किसी विशे षप्रकार का शरीर तथा इन्द्रियाँ धारण करने के लिए बाध्य किया
जाता है । उसे यह शरीर अपनी रुचि के अनु सार प्राप्त नहीं होता। दस ू रे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि बद्धजीव को
स्वतन्त्र चु नाव करने की छटू नहीं होती; उसे अपने कर्म के अनु स ार कोई-न- कोई शरीर स्वीकार करना पड़ता है
3. लीला’ शब्द भोग की स्वे च्छ स्वीकृति के लिए प्रयु क्त होता है । अत: यह व्याख्या अत्यन्त भ्रामक है । जब दुख को बाध्य
होकर स्वीकार करना पड़े तो वह ‘लीला’ नहीं है । भगवान् की लीलाएँ तथा बद्धजीव द्वारा कर्मफल की स्वीकृति समान धरातल पर
नहीं होतीं।
13. आयु र्वे द के अनु सार निम्नलिखित बीमारियों का इलाज किस प्रकार किया जाना चाहिए
तं त्रिका अस्थिरता तथा भूख और प्यास में अनियमितता 59-60
आयु र्वे दिक चिकित्सा में ‘तन्त्रिका अस्थिरता’ रोग से पीडि़त व्यक्ति को बहती नदी में डु बकी लगाकर स्नान करने की सं स्तु ति
की जाती है ।
समु दर् को पे ट का अधिष्ठाता दे व माना गया है , जहाँ से भूख तथा प्यास की अनु भति
ू उत्पन्न होती है । जब किसी को ठीक से
भूख प्यास नहीं लगती तो आयु र्वेदिक उपचार में उस मनु ष्य को समु दर् में स्नान करने की सलाह दी जाती है ।
Chapter 27
1. "यदृच्छयोपलब्धे न सन्तु ष्टो" के व्यवहारिक उपयोग की व्याख्या करें
1. भक्त को उतनी आय के लिए ही कार्य करना चाहिए जितनी नितान्त आवश्यकता हो। उसे इतनी ही आय से सं तुष्ट रहना
चाहिए और अनावश्यक रूप से सं चित करने के लिए तथा अधिक के लिए प्रयास नहीं करना चाहिए।
2. इस प्रसं ग में प्रयु क्त सही शब्द है यदृच्छया जिसका अर्थ है कि प्रत्ये क जीव को इस शरीर में पूर्वनिर्धारित सु ख तथा दुख
मिलते हैं , यह कर्म का सिद्धान्त कहलाता है । ऐसा सम्भव नहीं कि अधिकाधिक धन सं गर् ह के प्रयासों से ही मनु ष्य ऐसा कर
सकेगा अन्यथा प्राय: सारे व्यक्ति अपने पूर्वनिर्धारित कर्म के अनु सार कमाते तथा प्राप्त करते हैं ।
3 मनु ष्य को अपनी सहज अवस्था से सन्तु ष्ट रहना चाहिए। यदि प्रारब्धवश कोई ऐसी परिस्थिति में पड़ जाय जिसमें दस ू रे की
तु लना में वह अधिक वै भवसम्पन्न न हो तो उसे विचलित नहीं होना चाहिए। उसे चाहिए कि वह अपना समय कृष्णभक्ति बढ़ाने
में लगावे ।
4. कृष्णभक्ति में उन्नति किसी सम्पन्न या विपन्न अवस्था पर निर्भर नहीं करती, यह भौतिक जीवन द्वारा लगाये जाने वाले
प्रतिबन्धों से मु क्त है । एक अत्यन्त निर्धन व्यक्ति अत्यन्त धनी व्यक्ति के ही समान कृष्णभक्ति कर सकता है । अत: उसे
भगवान् द्वारा प्रदत्त अपनी स्थिति से सन्तु ष्ट रहना चाहिए।
3. सत्यद्रक को समझाए
विशु द्ध आत्मा को, जिसे सत्यदृक् कहा गया है , जान ले ने से मनु ष्य हर वस्तु को परमे श्वर के प्रतिबिम्ब रूप में दे खता है ।
भक्ति-रसामृ त-सिं धु में कहा गया है कि जिसने अपना सब कुछ—अपनी प्राणशक्ति, सम्पत्ति, बु द्धि तथा वाणी—भगवान् की
से वा में लगा दिया है या जो इन्हें उनकी से वा में लगाना चाहता है उसे मु क्त आत्मा या सत्यदृक् मानना चाहिए भले ही वह कैसी
ही स्थिति क्यों न हो। इस सम्बन्ध में एक ठोस उदाहरण दिया जा सकता है ।
बद्धजीव एक अत्यन्त सु न्दर गु लाब दे खता है और सोचता है कि इस सु गन्धित पु ष्प का उपयोग अपनी इन्द्रियतृ प्ति के लिए
क्यों न करूँ। यह एक प्रकार की दृष्टि है । किन्तु एक मु क्त आत्मा इसी फू ल को परमे श्वर के प्रतिबिम्ब के रूप में दे खता है और
सोचता है , “यह फू ल परमे श्वर की श्रेष्ठ शक्ति से सम्भव हो सका, अत: यह उनका है और इसका उपयोग उनकी से वा में होना
चाहिए।” ये दो प्रकार की दृष्टियाँ हैं ।
5. कोई अपनी कृष्ण भावना अमृ त के विकास का अनु मान कैसे लगा सकता है 22
हम दिव्य ज्ञान का विकास करके परम सत्य के विषय में समझ सकते हैं और ऐसे दिव्य ज्ञान का परिणाम वै राग्य द्वारा ही प्रकट
होगा।
यह वै राग्य न तो क्षणिक है , न कृत्रिम, अपितु अत्यन्त प्रबल है । कहा जाता है कि वै राग्य के द्वारा कृष्णचे तना का विकास
दृष्टिगत होता है । यदि कोई अपने आपको भौतिक भोग से पृ थक् नहीं कर सकता तो यह समझना चाहिए कि वह कृष्णचे तना
(भक्ति) में अग्रसर नहीं हो रहा है । कृष्णचे तना में वै राग्य इतना प्रबल होता है कि इसे किसी आकर्षण के द्वारा विपथ नहीं किया
जा सकता।