You are on page 1of 88

श्रीराम-गीता

जीवोंके परमाचायय श्रीलक्ष्मणजीने प्रश्न िकया और मयायदा


परुु षोत्तम प्रभनु े ईत्तर िदया। श्रीरामचररत मानसके ऄरण्यकाण्डका
यह प्रसगं श्रीरामगीताके नामसे प्रिसद्ध है।
राम-गीता की श्रीसदु र्यनिसहं 'चक्र' जी की व्याख्यासे
मानसके प्रेिमयोंको लाभ एवं प्रसन्नता होगी।
-प्रकार्क
श्रीराम-गीता
उपक्रम
एक बार प्रभु सख
ु असीना।
लिछमन बचन कहे छलहीना।।
सरु नर मिु न सचराचर साइ।ं
मैं पछ
ू ईँ िनज प्रभु की नाइ।।
मोिह समझु ाआ कहहु सोआ देवा।
सब तिज करौं चरन रज सेवा।।
कहहु ग्यान िबराग ऄरु माया।
कहहु सो भगित करहु जेिहं दाया।।
इस्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समझु ाआ।
जातें होआ चरन रित सोक मोह भ्रम जाआ।।
थोरे िह महँ सब कहईँ बझु ाइ।
सनु हु तात मित मन िचत लाइ।।
ऄर.१३/५-१४/१

2
एक बार प्रभु (श्रीराघवेन्र) सखु पवू यक बैठे हुए थे। (ईस
समय) श्रीलक्ष्मणजीने छल हीन भावसे (सरलता से) यह बात
कही- 'प्रभो! अप ही देवता, मनष्ु य, मिु नजन तथा सम्पणू य जड़-
चेतन जगतके स्वामी हैं; िकन्तु ऄपने िनजी स्वामीकी भािं त मैं
अपसे पछ ू रहा ह।ं हे देव! मझु े समझा कर अप वह िर्क्षा दें
िजससे सब कुछ छोडकर मैं अपके श्रीचरणोंकी रज की सेवा
करं। ज्ञान, वैराग्य और मायाका अप वणयन करें तथा ईस
भििका भी वणयन करें , िजससे अप दया करते हैं। हे नाथ! इश्वर
और जीवका भेद अिद सब बातें समझाकर वतावें, िजससे
अपके चरणोंमें मेरी प्रीित हो तथा र्ोक, मोह एवं भ्रमका नार्
हो।'
श्रीलक्ष्मणजीकी बात सनु कर मयायदा परुु षोत्तमने कहा-
'भाइ! थोड़े में ही सब बातें बतलाता ह।ँ तमु मन, बिु द्ध और
िचत्तको लगाकर (एकाग्र करके ) सनु ो!'
श्रीरामचररतमानसके ऄरण्यकाण्डकी यह श्रीराम-गीता बहुत
प्रिसद्ध हैं। आसके विा-ईपदेष्टा हैं स्वयं मयायदा परुु षोत्तम
श्रीराघवेन्र और प्रश्न कताय-श्रोता हैं जीवोंके परमाचायय
श्रीलक्ष्मणजी। िचत्रकूटसे श्री राघव दण्डकारण्य चले गये थे। वहां
3
पञ्चवटी में पणयकुटी बनाकर ये पयायप्त समय िनवास करते रहे।
ईस पञ्चवटी िनवासके समय िकसी िदन जब प्रभु सख ु पवू यक बैठे
थे, ये प्रश्न श्रीलक्ष्मणजी ने िकये।
'नापष्टृ ः कस्यिचद् ब्रयू ात् न चान्येन पच्ृ छतः।'
िबना पछ ू े िकसीको कुछ न बताये और जो ऄन्यायपवू यक
पछू ते है ईन्हें भी कुछ न बतायें। यह विाके िलये र्ास्त्रीय अदेर्
है। कोइ कहीं जा रहा है, िकसी काम में व्यस्त है, िचिन्तत या
ईत्तेिजत है, ईत्तर देनेकी मन: िस्थितमें नहीं है, ऐसे समय ईससे
कुछ पछ ू ा जाय- यह ऄन्यायपवू यक पछ ू ना हुअ। पछ ू ने में धष्टृ ता
हो, व्यंग्य हो, रुक्षता हो, ऄकड़ हो, यह भी ऄन्यायपवू यक पवू यक
पछ ू ना हुअ। ऐसे प्रश्नकतायओ ं को ईत्तर नहीं देना चािहये। ईत्तर
देनेवाला िकसी के सम्मख ु परीक्षा देने, वाद-िववादको िववर्
नहीं है। जो परीक्षा लेने, वाद-िववादके िलये पछ ू ते हैं- वे तो
ऄन्यायपवू यक पछ ू ने वाले हैं, ईनके प्रश्न का भी ईत्तर नहीं देना
चािहये। लेिकन जो सचमचु िजज्ञासु हैं, ईनमें भी पछ ू ने के
समयका ज्ञान और प्रश्न करनेकी नम्रता होनी चािहये। ऄकड़,
रुक्षता, व्यंग्य, कठोरता पवू यक या ऄनवसर के प्रश्न हों तो ईनके
पछ ू ने पर भी प्रश्नका ईत्तर नहीं देना चािहये। प्रभु सख ु पवू यक बैठे
4
थे, िकसी कायय में नहीं लगे थे, न कुछ सोच रहे थे। वे ईत्तर देनेकी
िस्थितमें थे यह 'प्रभु सख
ु असीना' से सिू चत िकया गया।
श्रीलक्ष्मणजी कभी श्रीरामसे छलपवू यक कोइ बात कहेंगे यह
कल्पना करना ही ऄपराध होगा ऐसी दर्ा में 'लिछमन वचन कहे
छलहीना' का तात्पयय समझने योग्य है। श्रीलक्ष्मणजी जीवोंके
परमाचायय हैं, ज्ञािनयोंके परम गरुु हैं, ऐसी कोइ बात, कोइ ज्ञान,
कोइ तत्व नहीं जो ईन्हें ज्ञात न हो। ईन्होंने र्गंृ वेरपरु में िनषादराज
गहु को तत्वज्ञान एवं भििका ईपदेर् भी िकया है। जो सब कुछ
जानता-समझता हुअ भी पछ ू े ईसके िवषय में यह र्क ं ा
स्वाभािवक होती है िक वह के वल पछ ू नेका छलकर रहा है। आसी
र्ंकाके िनवारणके िलये 'छलहीना' अया है। श्रीलक्ष्मणजीके
वचनों में-प्रश्न में कोइ छल नहीं था। वे वाद-िववादके िलये,
परीक्षाके िलये रुक्षतासे या कठोरतासे नहीं पछ ू रहे हैं। वे आसे अगे
ही स्पष्ट कर दे देते हैं िक 'मैं भले जीवोंका अचायय होउं; िकन्तु
मझु े ऄपने िलये, ऄपने ऄिधकार के ऄनर ु प ईपदेर् ऄपेिक्षत है
और मेरे स्वामीको छोड़कर वह मझु े कौन देगा?' जैसे 'सख ु
असीना' से यह सिू चत होता है िक प्रभु ईत्तर देने की िस्थित में हैं,

5
वैसे ही 'छल हीना वचन' यह सिू चत करता है िक श्रीलक्ष्मणजी
ईिचत िजज्ञासु हैं, ईत्तर पानेको ईिचत रीितसे पछ
ू रहे हैं।
श्रीलक्ष्मणजीने कहा- 'प्रभो! अप देवता, मनष्ु य एवं जड़
चेतन समस्त जगतके स्वामी हैं। आसका तात्पयय स्पष्ट है िक समस्त
जड़-चेतन जगतमें, िवर्ेषतः देवता, मनष्ु य और ऊिष-मिु नयों में
िजतने साधक हैं वे िभन्न-िभन्न रुिचके हैं। सबके िलये अपने
ऄपनी वेद-र्ास्त्र रपी वाणी के द्रारा िभन्न-िभन्न साधन-मागों का
िनदेर् िकया है। रुिच और ऄिधकार भेदसे िभन्न-िभन्न िनष्ठाएँ हैं।
ईन िनष्ठाओकं ी दृढ़ताके िलये िभन्न-िभन्न िसद्धान्त हैं। वे सब
सत्य हैं, क्योंिक ईनका िवधान अपके द्रारा हुअ है। अपकी
वाणी र्ास्त्रके द्रारा हुअ है और ईन सबके परम प्राप्य अप ही
हैं; क्योंिक अप ही सबके स्वामी हैं। मझु े यह सब पता है; क्योंिक
अपने मझु े जीवोंका मागयदर्यक 'परमाचायय' बना रखा है; िकन्तु मैं
अपको ऄपना सवेश्वर मानकर कुछ नहीं पछ ू रहा ह,ँ मैं तो
अपको ऄपना िनज नाथ मानकर ऄपने िनजी प्रभु की भांित पछ ू
रहा ह,ँ ऄत: अप मेरे िलए मेरे ऄिधकारके ऄनर ु प ईपदेर् करें ।
मझु े बतायें िक आन नाना िसद्धान्तों, नाना िनष्ठाओ ं में से स्वयं मैं
ऄपने िलये िकसका अलम्बन करं?'
6
लेिकन आस प्रश्नमें भी एक अग्रह है- 'हे देव, मझु े समझाकर
वही मागय बतायें िजससे सब कुछ छोड़कर अपके चरणोंकी
धिू लकी सेवा करं।' तात्पयय स्पष्ट है- 'अप मझु े योग, िसिद्ध,
ऄथय-धमय, काम या मोक्ष का साधन बतलाने की कृपा न करें ।
कै वल्य ज्ञान से िनवायण मोक्ष मझु े नहीं पाना। भले मैं अपके
चरणोंकी सेवाका ऄिधकारी न होउं पर अप तो सवयसमथय हैं न!
मेरे ऄिधकारको मत देिखये। कहीं मेरी असिि हो भी तो ऐसा
ईपदेर् कीिजये िक वह असिि दरू हो जाय। सबको छोड़कर
अपके चरण-रजकी सेवामें लगं-ू मझु े वही मागय बताआये।' आस
प्राथयनामें 'सब तिज' के द्रारा पणू य वैराग्य तथा चरण-रज-सेवा के
द्रारा पणू य िवनम्रताकी याचना की गयी है।
आतनी प्राथयना करके , ऄपना ईद्देश्य स्पष्ट सिू चत करके तब
लक्षमणजी ६ प्रश्न करते हैं १-ज्ञान क्या है? २- वैराग्य क्या है? ३-
माया क्या है? ४- वह भिि कौन-सी है िजससे अप दया करते
है? ५- इश्वर और जीवमें क्या भेद है ? ६- र्ोक, मोह और भ्रम
नष्ट हो सके और चरणोंमें प्रीित हो वह साधन कौन सा है?
श्रीलक्षमणजीने ऄपने प्रश्नमें दो बार समझाकर कहने का
अग्रह- ‘मोिह समझु ाआ कहहु सोआ देवा।' और 'सकल कहहु
7
समझु ाआ’। ऄब ईत्तर देने के पवू य श्रीरघनु ाथजी कहते हैं 'थोरे िह महं
सब कहहुं बझु ाइ, ऄथायत् मैं गप्तु रपसे ही सब प्रश्नोंका ईत्तर दे
रहा ह;ँ िकन्तु बझु ाइ, ऄथायत् समझाकर ईत्तर दे रहा ह।ँ ईत्तर थोड़े
में तो आसिलये िदया जा रहा है िक श्रोता ईत्तम ऄिधकारी हैं ऄतः
ईनके िलये िवस्तार ऄनावश्यक है। बहुत िवस्तार तो िनकृष्ट
ऄिधकारीके िलये ऄपेिक्षत होता है, लेिकन थोड़ेमें सब बातें
समझाकर-स्पष्ट रपमें कही जा रही है। कोइ बात ऄस्पष्ट नहीं
रखी गइ है। अगे प्रसगं ानसु ार स्पष्ट िकया जा सके गा िक कहाँ
िकस प्रकार बात थोड़ेमें सत्रू रपसे कही गयी और कहाँ
समझाकर कही गयी।
लेिकन श्रीलक्ष्मणजी जैसे ऄिधकारीको भी प्रभनु े सावधान
िकया! मन, बिु द्ध और िचत्त लगाकर सनु ो।' यहाँ प्रभु कहते हैं -
'तमु मेरे भाइ हो, जीवोंके परमाचायय हो, ज्ञान स्वरप हो, यह सब
होकर भी मन, बिु द्ध, िचत्त लगाकर सनु ो। क्योंिक एक तो जीवोंके
परमाचायय होने से तमु िजज्ञासु हो, सनु ना कै से चािहए, यह जीव
तमु से सीखेंगे दसू रे यह तत्त्व ऐसा है िक श्रवण, मनन, िनिदध्यासन
िबना आसका लाभ नहीं होता।

8
श्रवण मनका धमय है। अपका मन िकसी बोलने वालेकी
ओर न हो, और अप कुछ दसू री बात सोचते हों तो बोलनेवाला
चाहे जो बोले, अप सनु नहीं सकें गे। ऄनेक बार बातचीतमें यह
होता है िक एक व्यिि दसू रे से कहता है- ‘अपने क्या कहा? मैंने
सनु ा नहीं, मेरा मन दसू री ओर चला गया था।’ िकसी भी बातको
हम सनु लें आसके िलये मनका रहना, मनका ईसमें लगना
अवश्यक है। आसीसे मन लगानेकी बात कही गयी।
श्रवणके बाद अवश्यक है मनन और यह बिु द्ध काम है।
हमने जो सनु ा ईसपर िवचार न िकया जाय तो वह तत्काल भल ू
जायेगा। पल्ले झाड़ कथा-श्रोता आसीिलये सनु ता है िक मन लगता
भी हो सनु ता भी हो, तो भी वह िवचार नहीं करता। हमने जो सनु ा
वह ठीक है या नहीं, ठीक है तो कै से ठीक है? ऄपनी बुिद्धसे,
ऄपने तकों से ईसपर िवचार करना, आसे मनन कहते हैं। यही
बिु द्धको लगना है। मनन करने से सनु ी बात स्मरण होती है और
ईसकी ईपयोिगता समझ में अ जाती है। आसिलये 'मित' लगानेको
कहा गया।
कोइ बात सनु ली और समझ भी ली; िकन्तु जब तक वह
िचत्त में बैठ न जाय, ईसके ऄनसु ार ऄपने िवचार न बन जाय, तब
9
तक ईससे क्या लाभ? श्रवण और मननकी सफलता है
िनिदध्यासन। सनु ी सोची बात िचत्तके द्रारा ग्रहण कर ली जाय आसे
िनिदध्यासन कहते है । िकसी वस्तक ु ो मख ु में िलया जाय, गलेसे
नीचे ईतारा जाय और पचा िलया जाय तब र्रीरमें ईसका रस
बनता है। तब वह हमारे र्रीर का ऄगं बनते है; आसी प्रकार कोइ
बात सनु ली जाय यह तो पदाथय को मख ु में लेने के समान है।
पेटमें पहुचँ ा दी जाय यह मनन-समझ लेने के समान है, िकन्तु पचे
नहीं तो ईससे कोइ लाभ नहीं। िनिदध्यासन- िचत्त में ईसे बैठा
लेना, ऄपने भाव वैसे बना लेना ही ईसका पचना है। तभी वह
जीवन में अती है। ऄतः सबसे ऄन्तमें िचत्तको लगाने का अदेर्
प्रभनु े िदया।
(२)
मैं ऄरु मोर तोर तें माया।
जेिहं बस कीन्हे जीव िनकाया ॥
ऄर०२४/२
मैं और मेरा, तू और तेरा, यही माया है, िजसने समस्त जीवों
को ऄपने वर्में कर रखा है।
10
लगता ऐसा है िक श्रीरघनु ाथजी ईस क्रमसे ईत्तर नहीं दे रहे
है। िजस क्रमसे श्रीलक्ष्मणजीने प्रश्न िकया। श्रीलक्ष्मणजी का
पहला प्रश्न है, ‘कहहु ज्ञान’ और ईत्तर में पिहले ‘मैं’ का स्वरुप
बताया जा रहा है। लेिकन तिनक गभं ीरता से िवचार करे तो पता
लगेगा िक बात ऐसी नहीं है। िजस क्रमसे प्रश्न िकये गये, ईत्तर भी
ईसी क्रमसे िदया जा रहा है। ऄपने ६ प्रश्न करनेसे पिहले
श्रीलक्ष्मणजीने कहा-
मोिह समझु ाआ कहहु सोआ देवा। ।
सब तिज करौं चरन रज सेवा ॥
ऄर० १३/७
आसिलये पिहले प्रभु यही बात समझा रहे हैं िक 'सब तिज' में
िकस का त्याग अवश्यक है। ऄन्ततः भोजन, जल पीना तथा
जीवन धारणके ऄन्य अवश्यक कायय तो छोड़े नहीं जायेंगे। न
सन्ध्या-तपयण अिद वणायश्रम िविहत र्ास्त्रीय कमय ही छोड़े
जायेंगे। माता-िपता स्वजन सम्बन्धी तथा आनके साथका व्यवहार
भी छोड़ना कुछ अवश्यक नहीं है। वनसे लौटने पर

11
श्रीलक्ष्मणजीने आन सब व्यवहारोंका यथावत् पालन िकया ही है।
तब ‘सब तिज' में िकस सबको छोड़ना है?
जब श्रीरघनु ाथजी ऄयोध्यासे वन जानेको ईद्यत हुए थे, तब
ईनसे श्रीलक्ष्मणजीने ही कहा था-
गरु िपतु मातु न जानईँ काह।
कहईँ सभु ाई नाथ पितअह।।
ऄयो० ७१।४
X X X
धरम नीित ईपदेिसऄ ताही।
कीरित भिू त सगु ित िप्रय जाही।।
ऄयो ७१/७
आस प्रकार गरुु , माता, िपतािद संबंिधयों तथा धमायचरण एवं
नीित िनवायहसे वे ऄपनी िनरपेक्षता प्रगट कर चक ु े हैं। कहीं 'सब
तिज' में आन सबके सवयथा त्यागका भाव ईनके मनमें रह जाय और
संसारके लोग यह न समझ लें िक घर-द्रार, स्वजन-सम्बन्धी छोड़
कर बाबाजी हुये िबना भगवान की चरणरज की सेवा नहीं होती,
12
कहीं घर एवं स्वजनोंके त्याग के साथ धमायचरण तथा नीित-
व्यवहारका भी त्याग करके स्वेच्छाचारी, औघड़ होना ऄिनवायय
न मान िलया जाय, आसिलये भी स्वयं प्रभु ही सबसे पिहले यही
बतलाते हैं िक 'सब तिज’ का तात्पयय क्या है। वस्ततु ः िकसे
त्यागना है ?
‘मैं ऄरु 'मोर' ऄथायत् ‘ऄहम् और मम' तथा ‘तोर ते’ ऄथायत्
'त्वं और तव' - यही माया है। माया तो और भी है और ईस
मायाका का वणयन ऄगली ही ऄधायली में होगा, िकन्तु िजसने
समस्त जीवों को ऄपने वर् में कर रखा है, िजसके द्रारा जीव
जन्म-मरण के चक्र में ऄनन्त कालसे पड़ा है वह बस यही माया
है।
‘जीव िनकाया’ जीवों का समहू - यहाँ स्पष्ट है िक जीव
ऄसंख्य हैं। 'जीव ऄनेक एक श्रीकंता।’ यह ‘मानस’ में ऄन्यत्र भी
कहा गया है। िसद्धांत कोइ भी माना जाय, िकन्तु जहाँ तक जन्म-
मरण हैं; जहाँ तक मम और तव का भेद है- यहाँ तक जीवोंकी
ऄनेकता तो सभी मानते हैं। ऄनेक जीव है, आसीिलये ईनके
िविभन्न कमय हैं और कमायनसु ार पनु जयन्म होता है। जहां तक
मायाकी वश्यता है वहां तक जीवका ऄनेकत्व सवय स्वीकृत है।
13
चेतन तत्वका िचत्तमें जो प्रितिबम्ब पड़ रहा है, ईसे
िचदाभास कहा जाता है। सक्ष्ू म तथा कारण र्रीरमें ऄहं भाव
सम्पन्न यह िचदाभास ही जीव है। आसका पिहला माियक भाव है
ऄहक ं ार- ‘मैं'। ऄहक
ं ार को मायाका प्रथम कायय कहा जाता है।
हम सभी यह प्रत्यक्ष देखते है िक घोर िनरामें कोइ स्मिृ त हमें नहीं
रहती। लेिकन कोइ हमारा नाम लेकर पक ु ारे तो हम जाग जाते है!
आसका ऄथय ही है िक िनरामें भी हमारा ऄहक ं ार जागतृ था। दसू रे
सबसे पथृ क हम ऄमक ु हैं- यह बोध घोर िनरामें भी हमें था,
आसीिलये ऄपना नाम लेकर पक ु ारे जाने पर हम जागतृ हुए।
दसू रे सब लोगोंसे पथृ क हमारी सत्ता है। आस प्रकार
ऄहक ं ारके द्रारा सबसे ऄलग ऄपनी सत्ताका भाव अया तब यह
भी स्वाभािवक ही भाव अया िक कुछ मेरा है और कुछ मेरा नहीं
है। र्रीर, वस्त्र, भवन, पररवार, सम्पित्त, जाित, धमय, देर् अिद
ममत्व की सीमामें ही हैं। मेरापन-ममत्व बहुत सक ं ु िचत सीमामें हो
सकता है बहुत बड़ी भी सीमा भी ईसकी हो सकती है। कोइ
ऄपने र्रीरको ही मेरा मानता है और कोइ परू ी जाित या राष्रको
मेरा मानता है।

14
जब हम दसू रोंसे पथृ क हैं तो दसू रे भी हमसे पथृ क हैं। 'ते'
ऄथायत् ‘तमु ’। आसका तात्पयय िद्रतीय या मध्यम परुु ष मात्र नहीं है।
आसका तात्पयय है मैं से िभन्न र्ेष सब लोग। आसी प्रकार 'तोर’ का
ऄथय है 'मम' से िभन्न र्ेष पदाथय। कुछ पदाथय हमारे हैं, तब र्ेष
औरों के भी होंगे ही।
ऄन्योंसे िभन्न मैं हँ और मझु से िभन्न ऄन्य लोग हैं, कुछ
वस्तएु ँ मेरी हैं और ऄन्य दसू रोंकी- बस, यह भाव ही वह माया है
िजसके वर्में समस्त जीव पड़े है।
मायाका ऄथय ही है ऄसत्य, छल, झठू । िवचार कीिजये िक
हम या हमारा क्या है? र्रीर और संसार के सारे पदाथय ऄनािद
कालसे ज्यों के त्यों हैं। अपने कुछ इट-पत्थर
ं एकत्र करके एक
मकान बनवाया या एक मकान अपका ध्वस्त हो गया, सिृ ष्ट में
एक परमाणु भी न घटा और न बढ़ा। मकान तो दरू , अपके र्रीर
में भी क्या एक कण भी ऐसा है जो अपका है? क्या स्वत्व है
ईसपर अपका? अपने ईसे बनाया है? अप ईसे िमटा या बदल
सकते हैं? कुछ भी तो नहीं है। के वल ऄहक ं ार िक यह मैं ह,ँ यह
मेरा है। एक िबंदु कहीं रखकर बताआये तो िक कौन हैं अप? जैसे

15
'मैं' या 'मेरा' कुछ नहीं के वल मनष्ु यका भ्रम है, वैसे ही 'तू और
तेरा' भी कुछ नहीं है।
कुछ हो चाहे न हो पर यह सत्य है न िक परू े जगत में प्रत्येक
व्यिि ‘मैं ह’ं - यह ऄनभु व करता है और तब यह 'मेरा' है- यह
भी ऄनभु व करता है। 'मैं' और 'मेरा' का भेद हो गया तो 'त'ू और
'तेरा' तो ऄपने अप हो गया। यह माया है, यही जीवकी माया है
आसी मायाने सारे जीवोंको वर्में कर रखा है।
ऄन्तत: जीवका बन्धन क्या है? िकसी का पनु जयन्म क्यों
होता है? ईत्तर बड़ा स्पष्ट है- राग और द्रेष, यही दो रिस्सयाँ हैं
िजनसे जीव बंधा है। कोइ कुछ कहे या कुछ करे स्पष्ट र्ब्दों में
यह िक कोइ िसद्धान्त माने या कोइ साधन करे , जब तक ससं ारमें
कहीं ईसका राग या द्रेष है तब तक ईसे जन्म लेना ही होगा। वह
मायासे मिु नहीं होगा। यहाँ एक ईदाहरण देना ऄनपु यि ु नहीं
होगा – जड़ भरत का। परम ज्ञानी जड़ भरतजी ने न तो कोइ
ऄध्ययन िकया था, न साधन िकया था। ऄपने ऄिन्तम जन्ममें तो
वे जड़ पागल बने रहते थे। राजा रहगणको ईन्होंने जो ईपदेर्
िकया, वह ज्ञान ईनके आस जन्मका ज्ञान नहीं था, वह ज्ञान था
तबका जब वह राजा भरत थे। राजा भरत रहते समय ईनको वह
16
ज्ञान प्राप्त था और चक्रवती सम्राट पद-छोड़ कर ये वनमें भगवान
की ईपासना करने अये थे। ईनका वह ज्ञान, वह वैराग्य और वह
ईपासना िजनकी अज कल्पना भी नहीं की जा सकती, ईन्हें मि ु
नहीं कर सकी। एक मगृ र्ावक में असि रहने से ईन्हें दो जन्म
लेने पडे। भगवानकी अराधना व्यथय नहीं जाती। मगृ योिनमें और
िफर जड भरतके रप में भी जन्म लेने पर भी भरतको पवू य जन्म
का स्मरण ईस अराधनाके प्रभावसे ही रहा, िजससे वे ऄन्त में
मि ु हुए: िकन्तु ध्यान देने की बात यहाँ यह है िक तिनक सी
असिि र्ेष रहनेसे ऐसे श्रेष्ठतम ज्ञानी एवं ईच्च-भिको भी दो
जन्म लेने पड़े।
'मैं और 'मेरा' ये रागके कारण होते हैं और 'त'ू तथा 'तेरा' ये
'मैं' एवं 'मेरा' का प्रितद्रन्दी होने से द्रेषके कारण। आस राग-द्रेष के
बन्धनसे ही जीव बंधा है। जीवकी माया आतनी ही है और जीवको
आसीसे पार भी होना है।
यह सारा ससं ार तो भगवानकी रचना है। संसार और संसारके
पदाथय िकसीको बांधते नहीं। कोइ ज्ञानी या मि ु हो जाय तो भी
संसार जैसा है, वैसा ही रहेगा। संसारमें ऄसंख्य वस्तएु ँ हैं िजनसे
हमारा कोइ सम्बन्ध नहीं, िजन्हें हम जानते तक नहीं, ईनके द्रारा
17
हमपर कोइ प्रभाव नहीं पड़ता। वे रहें या नष्ट हो जायँ, हमारा ईनसे
कोइ बन्धन नहीं। हमारे बदलने से संसार बदलेगा भी नहीं और न
संसारको बदलनेकी अवश्यकता है।
भगवान् यहाँ सत्रू रपसे- 'थोरे िह मह'ं बता रहे हैं िक भजन
करने के िलये न संसारको छोड़नेको अवश्यकता है, न संसारके
व्यवहार तथा सम्बन्ध को। ईन्हें तो र्ास्त्राज्ञाके ऄनसु ार, स्वधमय
एवं कतयव्यका िनवायह करते हुए चलाना ही चािहये। भजनके िलये
बस सब कहीं से 'मैं' 'मेरा' और 'त'ू 'तेरा' का ही त्याग अवश्यक
है। 'मेरा कुछ नहीं है, जो कुछ है सब प्रभक ु ा है’। जब सब प्रभक ु ा
है तो िफर 'त'ू और 'तेरा' कै सा? सब प्रभकु े ही रप हैं। सब प्रभक
ु ी
ही प्रभतु ाका िवस्तार है। मेरा ऄपना भी कोइ स्वतन्त्र ऄिस्तत्व
नहीं। मैं ईनका सेवक, ईनकी आच्छा का यन्त्र मात्र ह।ँ ' आस भावसे
जो 'मैं' 'मेरा' और 'त'ू 'तेरा' रप मायाको छोड़ चक ु ा ईसने सब
कुछ छोड़ िदया। वही मन लगाकर भजन कर सकता है। ऄत:
श्रीरघनु ाथजीने सवयप्रथम जीवकी माया, जीवके बन्धनका कारण,
'सब तिज' में त्यागके भावमय स्वरपको सत्रू रपसे समझा िदया।
बाहरी त्याग भजनके िलये अवश्यक नहीं हैं, भजनके िलये
अवश्यक है ऄहतं ा और ममताका त्याग, क्योंिक यही जीवकी
18
माया है। सब जीव आसीके वर्में हो रहे हैं, यह बात आस ऄधायली
में कही गयी है।
(३)
गो गोचर जहँ लिग मन जाइ।
सो सब माया जानेहु भाइ।।
ऄर०१४/३
आिन्रयाँ, आिन्रयोंके िवषय, तथा मन जहाँ तक जाय, हे भाइ!
ईस सबको तमु माया समझना ।
लक्ष्मणजीका प्रश्न 'कहहुं ग्यान' यहाँसे प्रारम्भ हुअ, िकन्तु
ज्ञानका स्वरप न बतला कर प्रभु तो मायाका स्वरप बता रहे हैं।
ईत्तरमें यह िवपययय क्यों? आसके दो कारण हैं, एक तो यह िक 'सब
तिज भजं न करईँ,' को समझाने के िलये पररत्याज्य िवषयके रपमें
जीवको माया का स्वरप बताना है। ऄहतं ा और ममताका वणयन
जब प्रारम्भ हो गया, तब जीवकी मायाके साथ इश्वरीय मायाका
वणयन भी करके , एक िवषयको परू ा करके तब दसू रे को प्रारम्भ
करना ठीक है। मायाके रपको बता कर िवषयको ऄधरू ा छोड़कर
दसू रा िवषय ईठाना ठीक नहीं। दसू रे ज्ञानका वणयन िविधमख ु से
19
'यह ज्ञान है' आस प्रकार तो हो नहीं सकता। ‘नेित–नेित’ 'यह नहीं,
यह नहीं' आस प्रकार िनषेधके द्रारा ही ज्ञानका वणयन र्क्य है।
ज्ञानके वणयनका रप तो यही होगा िक मायाका वणयन करके कह
िदया जाय िक िजसमें यह माया न हो वह ज्ञान है। आसिलये ईत्तरमें
कोइ िवपययय नहीं हुअ है। माया और ज्ञान िवषयक दोनों प्रश्नोंका
ईत्तर एक साथ देनेके िलये प्रसंग प्राप्त िवषयके ऄनसु ार ही प्रभु
समझा रहे हैं।
जहाँ तक आिन्रयां जाती हैं या जा सकती हैं, िकन्तु आिन्रयां
कहाँ तक जा सकती हैं? हम नेत्रोंसे िकतनी दरू को वस्तु देख
सकते हैं? कानों से िकतनी दरू का र्ब्द सनु सकते हैं? नेत्र और
कान छोड़ दें तो नािसका की र्िि और कम है, त्वचा और रसना
तो तभी कोइ ऄनभु व करते हैं, जब पदाथयका ईनसे स्पर्य हो। कोइ
यन्त्र, कोइ साधन हमें ऄनेक दगु यम पवयतों में, घोर वन या ऄगम्य
मरुस्थलमें, ऄतल समरु गभय में या पथ्ृ वी के भीतर नहीं ले जा
पाता, िकन्तु आन सब स्थानोंमें ऄसंख्य माियक पदाथय हैं, ऐसे
पदाथय हैं िक ईनका आिन्रयोंके द्रारा ज्ञान हो सकता है। आसिलये
जहाँ तक आिन्रयाँ जायं वहीं तक माया है- यह पयायप्त पररभाषा
नहीं।
20
जहाँ तक आिन्रयाँ जाये और जहाँ तक आिन्रयोंके िवषय हों –
‘गो और गोचर' लेिकन यह भी मायाकी ठीक सीमा नहीं हुइ।
स्वगय-नकय को अप गोचर ऄथायत् आिन्रयोंसे ऄनभु व हो सके ऐसा
लोक मान भी ले तो भी र्ास्त्रोंमें ऄनेक ऄतीिन्रय लोकोंका
वणयन है। भौितक आिन्रयाँ वहाँ नहीं पहुचँ तीं। वहाँ कोइ भौितक
िवषय नहीं है। आसीिलये पररभाषा को परू ी करते हुये 'मन जाइ' भी
कहा गया है।
श्रीरघनु ाथजी लक्ष्मणजीको यहां 'भाइ' सम्बोधन देते हैं।
आसका तात्पयय है- 'भाइ! तमु तो मेरे ही ऄर्ं हो, मझु से ऄिभन्न
हो, तमु से िछपा क्या है। ऐसी कोइ बात नहीं जो तमु से िछपी हो
या जो िछपानेकी हो। यद्यिप यह बात और िकसीसे कहनेकी नहीं,
आसे सनु कर सामान्य जीवके मन में बड़ा भ्रम ईत्पन्न हो सकता है,
िकन्तु तमु तो मेरे भाइ हो। तमु में भ्रम होना सम्भव नहीं है।
आसीिलये तमु से बता रहा हँ िक जहाँ तक आिन्रयाँ जाती हैं, जहाँ
तक आिन्रयोंके िवषय हैं और जहाँ तक मन जाता है, वह सब
माया समझो ।
'न तत्र चक्षगु यच्छित न वाग्गच्छित न मनो गच्छित ।'

21
श्रिु तकी यह बात श्रीरामचररतमानसमें भी 'राम ऄतक्यय बिु द्ध
मन बानी' अिदके द्रारा बार-बार कही गयी है। लेिकन यहाँ प्रश्न
तो यह ईठता है िक भगवान् का सगणु स्वरप, भगवान् के िनत्य
िदव्य धाम भी क्या माियक हैं? आन तक मन तो जाता है। मन न
जा सके तो र्ास्त्र नाम, रप, लीला और धामके िचन्तनका
िवधान ही क्यों करें ।
यह स्थल ू जगत 'गो' ऄथायत् आिन्रयोंका िवषय है। ससं ारमें
जो कुछ है आिन्रयोंसे जाना जा सकता है। आिन्रयाँ वहाँ तक अज
भले न पहुचँ ती हों, पहुचँ तो सकती ही हैं। स्वगय-नरक अिद
'गोचर' के िवषय हैं। वहाँ भी आिन्रयोंके ही सख ु -दःु ख भोग हैं।
जीिवत व्यििकी आिन्रयाँ वहाँ भले न पहुचँ सके , िकन्तु ईनका
ऄनभु व तो जीवको आिन्रयों के द्रारा ही प्राप्त होता है। लेिकन
साके त, गोलोक, बैकंु ठ अिद ऄतीिन्रय लोक हैं। वहाँ प्राकृत
आिन्रयोंको गित नहीं है। जीव वहाँ जब पाषयद देहसे पहुचँ ता है तो
ईसका र्रीर िचन्मय होता है, ईसकी आिन्रयाँ िचन्मय होती हैं।
भौितक (माियक) कारण तथा सक्ष्ू म देह ईसके यहीं छूट चक ु े होते
हैं। लेिकन पवू य जीिवत व्यिि भी तो मनसे ईन ऄतीिन्रय लोकोंके
िवषयमें कुछ सोचता ही है। भले ईसका सोचना ऄपणू य हो, िकन्तु
22
ईसका मन वहाँ तक जाता तो है। आसीिलये यह प्रश्न ईठता है िक
क्या वे लोक भी माियक ही हैं।
दसू रे ढगं से आस चौपाइ (ऄधायली) का ऄथय करें तो यह
ऄटपटा प्रश्न रोड़े नहीं ऄटकावेगा। जो कुछ आिन्रयोंसे हम ऄनभु व
करते हैं, ईस ऄनभु वके जो िवषय हैं और ईन िवषयोंमें मन जो
कुछ सोचता है वह सब माया समझो। 'गो' ऄथायत् आिन्रयाँ, गोचर
ऄथायत् आिन्रयों के िवषय और आन आिन्रयों तथा आिन्रयोंके िवषयमें
मन जहाँ तक जाता-जो कुछ सोचता है, वह सब माया है। यह
ऄथय करने में 'जहं लिग जाइ' का ऄन्वय के वल 'मन' के साथ है।
आिन्रयां माया हैं, आिन्रयों के िवषय माया हैं और आिन्रयों के
िवषयमें जो कुछ सोचें, वह सब माया है। मन आिन्रयों तथा आिन्रयों
के िवषयको छोड़ कर कुछ सोचे तो वह माया नहीं कही जायगी।
लेिकन आस नवीन ऄथयको न मानकर पिहले ऄथयको ही मानें
तो भी कोइ दोष नहीं है। माया र्ब्दसे ही चौंकनेकी कोइ बात
नहीं है। मायाका ऄथय के वल ऄज्ञान नहीं है। भगवान् की
योगमाया भी ऄन्ततः एक प्रकार की माया ही है। ऄतीिन्रय
िदव्यलोक भी मायाकी, ऄथायत् योग मायाकी िवभिू त हैं। वे
र्ाश्वत हैं, िचन्मय हैं, िनत्य हैं, िकन्तु ईनका सम्पणू य गठन एवं
23
सच
ं ालन भगवान् की योगमाया द्रारा ही होता है। ऄतः ईन िदव्य
लोकों को भी माया कहने में कोइ दोष नहीं अता।
यह भी स्मरण रखने की बात है िक जीवकी मायाका वणयन
पिहले ही कर चक ु े । यह इश्वरकी मायाका वणयन है। दोनों ही ईसी
परमतत्त्वकी िवभिू त हैं। यह सम्पणू य जगत जो गोचर है आिन्रयों का
िवषय है आसको जानने की साधनभतू ा आिन्रयाँ और आससे परे जो
के वल मनके द्रारा िचन्तनकी वस्तु हैं- िनत्य िदव्य धाम, ये सब
ईसी परमपरुु षकी माया हैं। इश्वर की मायाके भी दो भेद हैं-
सामान्य माया और योग माया। जगत सामान्य मायाका कायय है,
ऄद्रैतवादी आसी माया को माया कहते हैं। योगमायाका वैभव
िनत्य िदव्यलोकों में है। वे मगवानकी ऄिभन्न र्िि हैं। अगे के
प्रसंगमें माया-योगमाया के आन भेदोंको प्रभु स्वयं स्पष्ट कर देंगे ।
(४)
तेिह कर भेद सनु हु तम्ु ह सोउ।
िबद्या ऄपर ऄिबद्या दोउ।।
एक दष्टु ऄितसय दखु रपा।

24
जा बस जीव परा भवकूपा।।
एक रचआ जग गनु बस जाकें ।
प्रभु प्रेररत निहं िनज बल ताकें ।।
ऄर० १५/४-६
ईस (माया) के जो भेद हैं, ईन्हें भी तमु सनु लो। ईनमें एक
िवद्या है और दसू री ऄिवद्या है जो दो प्रकार की है। ईनमें एक तो
दष्टु है और ऄत्यन्त दःु ख रप है, िजसके वर्में पड़कर जीव
संसार रपी कुएमं ें पड़ा है, िकन्तु दसू री िजसके वर् में गणु हैं (जो
ित्रगणु ाित्मका है) और संसारकी रचना करती है, वह भगवान से
प्रेररत होती है, ईसमें ऄपना कोइ बल नहीं है।
'तेिहकर' ऄथायत् ईस मायाका भेद प्रभु बतला रहे हैं। 'िवद्या
और ऄिवद्या' ये दो भेद ईसके हैं, यह ऄथय आसिलए ईपयि ु नहीं
लगता िक अगे जो वणयन है, वह आस क्रमसे नहीं है। 'एक दष्टु
ऄितसय दख ु रपा' यह वणयन ऄिवद्याका है, आसमें तो कुछ कहना
नहीं है। 'िवद्या-ऄिवद्या' ये दो भेद बतला कर पिहले क्रम प्राप्त
ढंगसे िवद्याका वणयन होना चािहये था। दसू री बात यह है िक
जगतकी रचना करनेवाली ित्रगणु ाित्मका मायाको कहीं भी िवद्या'

25
नहीं कहा गया है। ईसे 'िवद्या' कहने पर मानना होगा िक
श्रीरामचररतमानस में यह 'िवद्या' र्ब्द सवयथा ऄप्रचिलत ऄथयमें
प्रयिु हुअ। आसिलए ईपयि ु यही लगता है िक प्रभु िवद्याको
ऄलग बतलाते हैं और ऄिवद्याके िफर दो भेद बतलाते हैं।
एक दष्टु ऄितसय दख
ु रपा ।
जा बस जीव परा भवकूपा ॥
यह ऄिवद्याका एक भेद है। आसका िववेचन पहले हो चक ु ा
है। प्रभु पिहले ही 'मैं ऄरु मोर-तोर ते मायामें' आसका वणयन कर
चक ु े हैं और यह भी बता चक ु े हैं। 'जेिह बस कीन्हें जीव िनकाया।'
यही जीवकी माया ऄत्यन्त दःु ख रप है। आसने समस्त जीवोंको
ऄपने वर्में कर रखा है। आसके वर् में होकर जीव भवकूप में पड़ा
है। यहाँ 'भव' को 'कूप' बता कर ईसमें पड़े जीवोंको कूप-मंडूक
बताया गया है और बात ऐसी ही है भी। िकसीसे पिू छये- 'अप
ज्ञानी हैं?' वह ऄस्वीकार करे गा। ईसे ऄपने को ऄज्ञानी मानने में
कोइ अपित्त नहीं; िकन्तु ईसे तिनक मख ू य कह देिखये। जैसे
ऄज्ञानी और मख ू य में बड़ा ऄन्तर हो; लेिकन यह िवचारहीनता ही
तो जीवका ऄज्ञान है। िजस घरको हम-अप ऄपना मानते हैं, कइ
िछपकिलयां, कुछ दजयन मकिड़याँ, सैकड़ों मक्खी-मच्छर भी ईसे
26
ऄपना ही मानते हैं- ईतना ही ऄपना। िजस र्रीरको हम ऄपना
कहते हैं, ऄनेक जएु ँ ईसे ऄपना घर मानते हैं, सहस्त्रर्: कीड़े ईसे
ऄपना समझते हैं। एक नारीके पेटसे पत्रु होता है, ईसे वह ऄपना
लड़का कहती है; िकन्तु ईसी के पेटसे र्ौच या वमन मागयसे
रोगके कारण जो कें चएु िनकले- ईन्हें ईसके पत्रु किहये तो अप
को गाली देगी। यह िवचारहीनता, यह ऄज्ञान ही तो कूप-
मण्डूकपना है। आस ऄज्ञानके कारण ही जीव संसार में ईलझा है।
कोइ िवचार करने लगे, िकसीकी िवचारर्िि प्रबद्ध ु हो जाय तो
वह संसारमें और संसारके भोगोंमें ‘मैं-मेरा' और 'त-ू तेरा’ की
मायामें पड़ा रह नहीं सकता।
ऄिवद्या के आस एक भेदको दार्यिनक र्ब्दों में अवरण-
र्िि कहते हैं। यह जीवकी िवचार-र्ििको ढके रहती है। 'ऄहं
और मम' में िलप्त प्राणी ईन्मि
ु िवचार कर नहीं पाता। आसीसे प्रभु
आसे आसे दष्टु कहते हैं और यह ऄितर्य दःु खरप तो है ही। जन्म-
मरण, रोग-र्ोक, ऄभाव अिद सभी दख ु और तीनों ताप आसी
मायाके कारण जीवको भोग भोगने पड़ते हैं।
दसू री ऄिवद्या वह है िजसके वर्में सत्व, रज और और तम
ये तीनों गणु हैं। यह इश्वरकी माया है। आसमें ऄपना कोइ बल नहीं,
27
यह प्रभु प्रेररत होकर जगतकी रचना, िस्थित और प्रलय करती है।
आसी का नाम प्रकृित है।
"मायां तु प्रकृितं िविद्ध"
श्वेतश्वतरोपिनषद्
गीतामें भी भगवान ने कहा है-
"मयाध्यक्षेण प्रकृितः सयू ते सचराचरम् ।"
९/१०
दार्यिनक आस प्रकृितको ही मायाकी िवक्षेप-र्िि मानते हैं।
प्रकृित ित्रगणु ाित्मका है। ईसमें यह िवक्षेप चेतनके सािन्नध्य से ही
अता है। प्रभु प्रेररत होने पर ही वह जगतकी सिृ ष्ट करती है।
यहाँ यह प्रश्न ईठे गा िक ऄिवद्याके दोनों भेदोंकी तो व्याख्या
की गयी, िकन्तु िवद्याका नाम लेकर ही छोड़ िदया गया, ऐसा
क्यों? आसका स्पष्ट ईत्तर तो यही है िक िवद्याका वणयन सम्भव नहीं
है। िवद्या माया ऄथायत् प्रभक ु ी ऄिभनय लीला-र्िि, योग-माया।
भला ईनका वणयन कै से िकया जा सकता है। ईनका तो नाम लेना
ही पयायप्त है।

28
यिद िवद्या और ऄिवद्या यही दो भेद मायाके मानें और ऐसा
ऄथय करें िक प्रभनु े आस ऄधायलीमें 'िवद्या ऄपर ऄिवद्या दोउ'
आसके द्रारा िवद्या और दसू री ऄिवद्या यही कहा है तो यह मानना
पड़ेगा और सभी सन्त िवद्रान मानते भी हैं िक एक दष्टु ऄितसय
द:ु ख रपाके द्रारा ऄिवद्याका वणयन हुअ है और 'एक रचआ जग
गनु बस जाकें ' के द्रारा िवद्याका वणयन।
ऐसा मानने पर यह भी मानना होगा िक यह िवद्या
दर्यनर्ास्त्रकी ित्रगणु ाित्मका प्रकृित नहीं है। ित्रगणु आसके रप नहीं
हैं, वे आसके वर्में है। यह प्रभु प्रेररत होकर जगतकी रचना करती
है। यही योगमाया-र्िि जगज्जननी सीता है। आनकी वन्दनामें
ग्रन्थकारने कहा है-
'ईद्भविस्थितसंहारकाररणी क्लेर्हाररणीम् ।
सवयश्रये स्करीं सीतां नतोऽहरं ामवल्लभाम् ॥'
श्रीजानकीजीको िवद्या माया या योगमाया - मैं ऄपनी ओरसे
नहीं कह रहा ह।ँ श्री राम चररतमानसके बालकाडं में मनु र्तरपा
प्रसंग में यह बात स्पष्ट कर दी गइ है- जब मनु र्तरपा के सम्मख

प्रभु प्रगट हए हैं, तब-

29
बाम भाग सोभित ऄनक
ु ू ला।
अिदसिि छिबिनिध जगमल
ू ा।।
जासु ऄसं ईपजिहं गनु खानी।
ऄगिनत लिच्छ ईमा ब्रह्मानी।।
भक
ृ ु िट िबलास जासु जग होइ।
राम बाम िदिस सीता सोइ।।
बाल०१४७/२-४
और ईन अिदर्िि श्री सीता के सम्बन्धमें वे परात्पर प्रभु
स्वयं वहां कहते हैं-
अिदसिि जेिहं जग ईपजाया।
सोई ऄवतररिह मोरर यह माया।।
बाल० १५१।४
यहाँ ईन अिदर्िि योगमायाको स्पष्ट रप से जगतको
ईत्पन्न करने वाली कहा गया है। श्रीराम-गीताके आस प्रसगं में वही
प्रभु जगत को ईत्पन्न करने वाले ईसी मायाको 'िवद्या' कहकर

30
वणयन कर रहे हैं और यह स्पष्ट िकये दे रहे है िक वे ित्रगणु ाित्मका
नहीं है, ित्रगणु ईनके वर् में हैं। आस प्रकार सत्रू रपसे 'थोरे िह मह'ं
प्रभनु े ऄिवद्या और योगमाया-िवद्या मायाका वणयन कर िदया।
(५)
ग्यान मान जहँ एकई नाहीं।
देख ब्रह्म समान सब माहीं॥
ऄर० १४/७
ज्ञान वह है िजसमें एक भी ऄिभमान न हो। सबमें एक
समान ब्रह्मको देख।ें
(ऄथवा)
ज्ञानवान वह है िजसमें एक भी (माया) न हो और जो सबमें
समान रपसे ब्रह्म को देख।े
ऄथवा करके यह दसू रा ऄथय करने की क्या अवश्यकता?
प्रायः सभी प्रितयों में 'ग्यान' और 'मान' ये र्ब्द ऄलग-ऄलग
छपे हैं और टीकाकारों ने ईन्हें ऄलग-ऄलग ही मानकर वही ऄथय
िकया है जो पिहला ऄथय उपर िदया गया है। परम्परा प्राप्त होनेसे

31
मैंने भी वही ऄथय पिहले िदया हैं। िकन्तु दसू रा ऄथय जो ऄथवा
करके िदया है, वह मझु े ऄिधक ईपयि ु लगता है।
प्रश्न यह है िक 'देख ब्रह्म समान सब माहीं' आसमें ज्ञानका
वणयन है या ज्ञानी का। 'िजस विृ त्तके द्रारा (ज्ञानी) सबमें समान
रपसे ब्रह्म को देखता है, ऐसा ऄथय करें तब तो आसमें ज्ञानका
वणयन है, यह कहा जा सके गा, लेिकन ऐसा ऄथय बहुत
खींचतानका ऄथय माना जायगा। िकसीने ऐसा ऄथय िकया भी नहीं
है। सब वही ऄथय करते हैं िक 'जो सबमें समान रपसे ब्रह्मको
देख।े यह ‘जो’ व्यिि होगा ईस व्यििका वणयन तो ज्ञानीका वणयन
है। जब अधेमें ज्ञानीका वणयन है, तब ईसी ऄधायलीके अधे में
ज्ञानका वणयन है, यह मानना कुछ ऄटपटा लगता है। परू ी ऄधायली
में ही ज्ञानीका वणयन है, यह मानकर ऄथय करने में ईलटा-सीधा
ऄन्वय नहीं करना पड़ता, के वल 'ग्यान मान' आस र्ब्दको एक
मानकर ईसका र्द्ध ु रप 'ज्ञानवान' मान लेनेसे काम चल जाता
है।
लक्ष्मणजीने ज्ञानीका लक्षण नहीं पछ
ू ा है, ज्ञानका लक्षण
पछ
ू ा है, यह र्ंका ईठायी जा सकती है। लेिकन ज्ञान बोधात्मक
विृ त्तका नाम है और विृ त्तका वणयन हो नहीं सकता। जैसे 'क्रोध'
32
क्या? यह समझाना हो तो कहना पड़ेगा िक मारने या गाली देनेपर
अपके िचत्तकी जो ईत्तेजनात्मक विृ त्त है ईसे क्रोध कहते हैं। यहां
के वल क्रोधीके द्रारा क्रोधका लक्षण बतलाया गया। क्रोध रपी
विृ त्तका सीधे लक्षण कर पाना र्क्य नहीं। आसी प्रकार बोधात्मक
विृ त्तको सीधे तो कै से बतलाया जा सकता है, प्रभु ज्ञानीका वणयन
करके ज्ञानको लिक्षत करा रहे हैं।
'ग्यान मान' को एक र्ब्द ज्ञानवान मानने का एक कारण
और भी है। पिहले कहा जा चक ु ा है िक माया का वणयन प्रभु
आसिलये कर रहे है िक मायाका िनषेध कर कर देना ही ज्ञान का
लक्षण है। ज्ञान का लक्षण पथृ क नहीं बतलाया जा सकता।
आसिलये जब आस ऄधायली में ज्ञान का लक्षण कहा जा रहा है तो
यह लक्षण मायाका िनषेध रप लक्षण ही होना चािहए। ‘जहाँ
एक भी मान नहीं’, यह तो मायाका िनषेध हुअ नहीं। यह िनषेध
तभी साथयक होता है, जब ग्यान मान' को एक र्ब्द ‘ज्ञानवान’
माना जाय। आन्हीं कारणों से ऄथवा करके दसू रा ऄथय करने की
मैंने धष्टृ ठता की है ।
ऄथय चाहे पिहला माना जाय या दसू रा- तात्पयय में कोइ
ऄन्तर नहीं पड़ता। दोनों का तात्पयय एक ही है। ऄथयका भेद तो
33
के वल ग्यान मान' र्ब्दको एक मानकर या ऄलग-ऄलग मानकर
है। दोनों ऄथोका तात्पयय एक ही है, यही ऄब समझ लेना है।
‘देख ब्रह्म समान सब माहीं।' आस ऄर् ं के ऄथयमें तो कोइ
ऄन्तर है नहीं। ‘ग्यान मान जहां एकई नाहीं' आसका ऄथय जब
िकया जाता है 'ज्ञान वह िजसमें एक भी मान नहीं है’, तब 'मान'
र्ब्दका ऄथय है- 'मैं ऄरु मोर तोर ते माया' िजसमें मैं-मेरा, त-ू तेरा,
आस प्रकार का एक भी ऄिभमान नहीं और जो सब कहीं समान
रपसे ब्रह्मकों देखता है, वह ज्ञान (ऄथवा ज्ञान सम्पन्न) है।
ग्यान मान जह एकई नाहीं' आसमें जब ‘ग्यान मान' को एक
र्ब्द मान कर ऄथय िकया जाता है िक 'ज्ञानवान, वह िजसमें एक
भी माया न हो’, तब यह प्रश्न ईठता है िक 'एक भी माया का क्या
ऄथय? क्या ईसमें िवद्या माया और ऄिवद्या माया दोनों नहीं
होतीं? लेिकन यह कै से सम्भव है! ज्ञानीके भी र्रीर होता है,
ईसके भी आिन्रयाँ होती हैं, ईसे भी चीनी मीठी और नीम कड़वी
लगती है। ‘गो गोचर' जगतमें भले वह सवयत्र ब्रह्मको देखें िकन्तु
व्यवहार तो ईसे जगतमें करना ही है। ईसे भख ू , प्यास, लघर्ु ंका
तथा मल-िवसजयनकी अवश्यकता होगी ही। वह भले ऄघोरी
बनकर गोबर तथा गन्दगी खा लें, भले योगी बनकर ऄिग्नके
34
ऄगं ारे मखु में ले लें; िकन्तु ऄन्धा-बिहरा, लल
ू ा-लंगड़ा तो है नहीं।
जगत तथा जगतके पदाथों के भेद ईसे दीखते है, समझ पड़ते है।
आनमें भेदके ऄनसु ार ही वह व्यवहार करता है, तब ईसमें िवद्या-
माया नहीं है, यह कै से कहा जा रहा है? यह प्रश्न िबना सोचे-समझे
ही िकया जायगा, क्यँिू क तिनक िवचार करनेपर ही जान पड़ेगा
िक प्रश्न ही िनराधार है। िवद्या-माया जीवकी माया नहीं है। जीव
ईसको बनाने, नष्ट करने, त्यागने में स्वतन्त्र नहीं और न जीवका
ईससे बन्धन ही है। वह तो इश्वरकी माया- ईनकी लीला-र्िि है।
वह ज्ञानी नहीं है, या है, यह प्रश्न ही ठीक नहीं। जो जीवकी चीज
नहीं, वह न रहे, यह काम जीव कै से करे गा? ऄतः ज्ञानीके
सम्बन्धमें ईस िवद्या-मायाके िनषेध की कोइ बात ही नहीं है। ‘जहँ
एकई नाहीं’ िजसमें एक भी माया न हो- यहाँ ऄिवद्या मायाके ही
न होनेकी बात है। िजसमें मैं-मेरा, त,ू तेरा आस प्रकार की एक भी
ऄिवद्या नहीं, और जो सबमें समान रपसे एक ब्रह्म को ही देखता
है, वह ज्ञानी है। यही आस ऄथयका भी तात्पयय है। आस प्रकार दोनों
ऄथों से तात्पयय एक ही िनकालता है।
‘मैं मेरा और तू तेरा' यह एक भी जहां नहीं है, वह ज्ञानी है।
यह पररभाषा ऄधरू ी है और ‘जो सब में समान रप से ब्रह्म देखता
35
है वह ज्ञानी है’ यह पररभाषा भी ऄधरू ी है। आसीिलये प्रभनु े दोनों
लक्षण एक साथ बताये हैं। िजसमें मैं-मेरा, त-ू तेराका ऄहक ं ार न
हो और जो सब कहीं समान रप समान रप से ब्रह्म व्यापक चेतन
सत्ता को देखे वह ज्ञानी है।
घोर िनरा में मेरा-तू और तेरा-मेरा भाव नहीं रहते, िकन्तु ‘मैं’
का बोध रहता है, िकन्तु मछ ू ाय में चाहे वह अपात जन्य मछ ू ाय हो,
औषिधजन्य मछ ू ाय हो या मेस्मराआज्म अिदसे प्राप्त मछ ू ाय हो- ईसमें
मैं का भाव भी नहीं रहता । पत्थर, वक्ष ृ ािदमें भी यह 'ऄह'ं की
बोध विृ त्त प्रसप्तु रहती है। लेिकन तमोगणु के प्रभाव की यह दर्ा
तो ज्ञान नहीं है। ज्ञानीमें तो बोधविृ त्त जागतृ रहती है।
सबमें समान रपसे ब्रह्म देखना भी ज्ञान नहीं है। बिु द्ध-
िवचारसे यह समझ िलया िक सबमें एक समान ही चेतनासत्ता
व्यापक है, तो के वल यह बौिद्धक ज्ञान ज्ञान नहीं कहा जायगा
और न यह मिु ि दे सके गा। यिद ऄहक ं ार बना है, यिद र्रीरमें,
नाममें, र्रीरसे सम्बिन्धत पदाथों एवं व्यिियों में असिि बनी
है, यिद ऄहतं ा और ममता है तो िकतना भी बौिद्धक ज्ञान हो, है
वह ऄज्ञानी ही। क्यँिू क ‘मैं ऄरु तोर तें माया’ के वर्में ही वह है।
ईलटे ऐसा बौिद्धक ज्ञान ‘मैं मन नहीं, मैं र्रीर नहीं, र्रीर एवं मन
36
के कायय मेरे नहीं, आस कुतकय में ईलझकर पापाचरण ऄसद्
व्यवहार में लगा देता है और नरकका हेतु बन जाता है। ऐसे
बौिद्धक ज्ञान के िलये ही श्री कागभर्
ु िु ण्ड जी ने कहा-
ब्रह्म ग्यान िबनु नारर नर कहिहं न दसू रर बात।
कौड़ी लािग लोभ बस करिहं िबप्र गरु घात।।
-ईत्तर० ९९
ज्ञानी वह है िजसके मन में, हृदय में और बिु द्ध में भी सवयत्र
एक िनिवयकार चेतन सत्ता प्रितिष्ठत हो। आस प्रितष्ठा का पहला
लक्षण यह है िक ‘मैं ऄरु तोर तें’ यह माया-यह ऄिभमान नहीं है।
दसू रा लक्षण यह है िक वह सबमें सवयत्र एकही चेतन सत्ता को
व्यापक देखता है।
बिु द्धमें िनिवयकार एक रस चेतन सत्ताकी प्रितष्ठा, सबमें सवयत्र
ईसे एक रस व्याप्त देखना और हृदयमें सवयथा ऄहतं ा, ममताका
सवयथा ऄभाव-यही ज्ञान का स्वरप है।
[६]
किहऄ तात सो परम िवरागी।
तनृ सम िसिद्ध तीिन गनु त्यागी॥
ऄर० १४/८
37
भाइ! ईसे परम िवरि कहना चािहये जो िसिद्धयों और तीनों
गणु ोंको तणृ के समान त्याग चक ु ा हो।
जैसे ज्ञानका सीधे िनदेर् सम्भव न होनेसे प्रभनु े ज्ञानीके
लक्षण बतलाकर ज्ञानका िनदेर् िकया, वैसे ही वैराग्य भी विृ त्त-
रप होनेसे ईसका सीधे िनदेर् र्क्य नहीं है। आसीिलये 'िबरागी'
का वणयन करके वैराग्य सिू चत कर रहे हैं। श्रीलक्ष्मणजीने प्रश्नमें तो
'कहहुँ ज्ञान िबराग' यही पछ ू ा था! लेिकन प्रभनु े ज्ञानी और
वैराग्यवानका वणयन करके ज्ञान तथा वैराग्यको समझाया है।
िजनको आससे पिहली ज्ञान मान जहँ एकई नाहीं।' ऄधायली में
ज्ञानी वणयन िनकलना खटकता है, ईन्हें ईसके बाद की ही आस
ऄधायली को देखकर ऄपना सन्तोष कर लेने में बाधा नहीं होनी
चािहये।
प्रभु ने ईसे परम वैराग्यवान कहने योग्य बताया जो िसिद्धयों
और तीनों गणु ोंको तणृ के समान छोड़ चक ु ा है। यह परम वैराग्य
ही समझने योग्य है।
वैराग्यकी िनम्न श्रेिणयाँ हो सकती हैं-
१-लौिकक भोगों की प्रािप्त के िलये त्याग तथा तप अिद
ऄपनाना ।
२-िसिद्धयों तथा स्वगायिद लोकों की प्रािप्त के िलये त्याग
करना।

38
३-िसिद्ध तथा स्वगायिद लोकों की कामना भी न करके के वल
मिु ि के िलये त्याग करना।
४-भोग और मोक्ष दोनोंसे िनरपेक्ष हो जाना।
आनमेंसे प्रथम नम्बरका त्याग तो त्याग ही नहीं है। वह तो
व्यापार है। िकसान भी ऄिधक ऄन्न ईत्पन्न होनेकी अर्ामें
खेतमें बीज डाल देता है यह कोइ त्याग नहीं है। जहां ऄिधक
लौिकक भोग पाने के िलये त्याग िकया जाता है, वहाँ हृदय में
असिि होती है। असिि बनी है तो त्याग कै सा।
दसू रे नम्बरका त्याग भी त्याग नहीं है। िहरण्यकिर्पनु े आतनी
ईग्र तपस्या की िक ईसके र्रीरमें हड्िडयोंको छोड़कर चमड़ा
और स्नायु भी नहीं बचे। रावणने ऄपने मस्तक काट कर ही हवन
कर िदये िकन्तु ये त्यागी नहीं कहलाये। असिि लौिकक हो या
पारलौिकक-है वह असिि ही।
मिु िकी कामना कामना नहीं है। क्योंिक समस्त
कामनाओकं ा समल ू नार् करनेवाली ही वह है। कामनाका ऄथय
है कुछ चाहना- र्रीर या मनकी तिृ प्तमे िलये कोइ आच्छा करना
िकन्तु र्रीर एवं मनको ही समाप्त कर देनेकी आच्छा तो सामान्य
आच्छासे सवयथा िभन्न है। ईसे आच्छा-कामना नहीं कहा जाता।
आसिलए मोक्षकी आच्छासे आस लोक तथा परलोक दोनोंमें भोगोंसे
सवयथा िनस्पहृ हो जाना वैराग्य कहा जाता है।

39
भोगाथी और मोक्षाथी दोनों ही संसारमें िमलते हैं िकन्तु भोग
एवं मोक्षसे सवयथा िनस्पहृ व्यिि िमलना किठन है। ऐसे िनस्पहृ
तो भगवद् भि ही हो सकते हैं। 'सरग नरक ऄपवरग समाना ।
जहं तहं दीख घरे धनबु ाना' ऐसे स्वगय, नकय तथा ऄपवगयको समान
माननेवाले महाभाग ही 'परम िबरागी' कहे जा सकते हैं।
मख्ु य िसिद्धयां ऄठारह हैं और ईनमें भी अठ प्रधान हैं । वे
अठ हैं। १-ऄिणमा, २-मिहमा ३-मिू तय ४-लिघमा ५-प्रािप्त ६-
प्राकाम्य ७-इिर्त्व और ८-विर्त्व । र्ेष दस ये हैं-१-वाघयव्य
िवजय २-दरू श्रवण एवं दरू दर्यन ३-मनके ऄनसु ार गित ४-काम
रपता ५-परकाय प्रवेर् ६-आच्छा मत्ृ यु ७-देवताओकं ी क्रीड़ा
देखना ८-संकल्प िसिद्ध ९- ऄप्रितहत अज्ञा १०-ित्रकालज्ञान ।
आनके ऄितररि भी कुछ सामान्य िसिद्धयाँ मानी गइ हैं, जैसे
१- द्रन्दानभु व न होना २-परिचत्तज्ञान ३-ऄिग्न, सयू य, जल, िवष
अिदका स्तम्भन और ईनपर िवजय पाना । आन िसिद्धयोंकी
व्याख्या करने का यह स्थान नहीं है। जन्मसे, औषिधसे, तपस्यासे
या मन्त्रसे ये िसिद्धयाँ प्राप्त होती हैं।
जो वैराग्यवान है, ईसमें त्याग तो है ही, आसिलये तपस्या
ईसका स्वभाव है। वह तपस्या करता नहीं, ईससे सहज ही तप
होता है। आसिलये ईसे िसिद्धयों के िमलने की सम्भावना तो है ही।
आसीसे प्रभु यहाँ कहते हैं िक 'परमिबरागी' वह है िजसने
िसिद्धयोंको तणृ के समान त्याग िदया हो । त्याग वही सकता है
40
जो पा चक ु ा हो या पा सकता हो । जब कोइ थोड़े-से धन, थोड़ी-
सी भिू म या सयु र्के िलये लालाियत रहते हए प्रयत्न र्ील रहते
हुए कहता है 'मझु े िसिद्धयों या स्वगयकी कामना नहीं है' तो यह
ईसका त्याग नहीं होता । ईसका मन ऄभी आस योग्य नहीं िक
िसिद्ध या स्वगय के वैभवका स्वप्न देख सके । ईसकी बात तो ईस
िभखारी की बातके समान है जो मागय में पैसा-पैसा मांगता है और
कहता है- 'मझु े राज्य नहीं लेना, मझु े लाख-दो लाख नहीं
चािहये।' राज्य या लाख दो लाख िमलनेकी सम्भावना ही ईसके
मनमें नहीं जगी, वह तो मनका भी कंगाल है और कंगालका
त्याग त्याग नहीं है। त्याग तो सम्पन्नके द्रारा होता है। जो िसिद्ध
पा सकता हो और िफर भी ईसे तणृ के समान तच्ु छ मान त्याग दे-
ईसने िसिद्धका त्याग िकया।
िसिद्धयोंके त्यागकी बात तो ठीक िकन्तु ‘तीिन गनु त्यागी’
कै सा? तमोगणु का कायय है स्थल ू त्व । सत्ता मात्र तमोगणु के
अधार पर है। तमोगणु न हो तो र्रीरका एक ऄणु भी नहीं
रहेगा।िनरा तो तमोगणु धमय है ही। रजोगणु का धमय है गित ।
र्रीरमें रिकी, श्वास की और स्वयं र्रीरकी िक्रया भी रजोगणु से
प्रेररत है । सत्वगणु का कायय है प्रकार् । ज्ञान एवं अनन्द ईसके
धमय हैं। कोइ र्रीरधारी र्रीर रहते गणु ोंको कै से त्याग देगा । र्रीर
ही ित्रगणु ात्मक है और परू ा िवश्व ित्रगणु मय है । आनका त्याग तो
सम्भव नहीं है।
41
प्रकार्ं च प्रविृ त्तं च मोहमेव च पाण्डव।
न द्रेिष्ट सम्प्रवत्तृ ािन न िनवत्तृ ािन काङ्क्षित।
-गीता १४/२२
गीतामें भगवान ने ित्रगणु ों के त्यागका यह रप बतलाया है।
प्रकार् ज्ञान और अनन्द-सत्वगणु के कायय, प्रविृ त्त-रजोगणु के
कायय और मोह तमोगणु का कायय- ये अवे तो आनसे द्रेष नहीं
करता और चले जाये तो आनकी आच्छा नहीं करता । आस प्रकार
तीनों गणु ोंके काययसे ज्ञानी या िवरि िनरपेक्ष रहता है ।
तमोगणु के सख ु -भोग जो िनरा, अलस्य, प्रमाद तथा
तामिसक पदाथों के सेवनसे प्राप्त होते हैं, रजोगणु के भोग जो
कमयके द्रारा आस लोक या स्वगायिदमें िमलते हैं, सत्वगणु के
सख ु भोग जो आस लोकमें धमायचरणसे अन्तररक तष्टु के रपमें तथा
स्वगय एवं ब्रह्मािद लोकोंमें प्राप्त होते हैं- आन सबको तणृ के समान
तच्ु छ मानकर िजसने त्याग िदया, जो आनसे सवयथा िनरपेक्ष हो
गया, वही परम वैराग्यवान है। आस प्रकार तीनों गणु ोंके स्वरपतः
त्याग ऄसम्भव होनेके कारण ईनके भोगोंके त्यागकी बात कही
गयी- यह समझना चािहये।
[७]
माया इस न अपु कहु,ँ जान किहऄ सो जीव ।
बंध मोच्छ प्रद सवयपर, माया प्रेरक सीव ॥
ऄर० १५
42
जो मायाको, इश्वरको और ऄपने अपको भी न जानता हो,
ईसे जीव कहा जाता है। और जो बन्धन तथा मोक्षका देनेवाला,
सबसे परे तथा मायाका का प्रेरक है, वह इश्वर है।
ऄथवा जो ऄपने को मायाका स्वामी न समझे वह जीव है
और जो मायाका प्रेरक (होनेके कारण) बन्धन तथा मोक्षका दाता
है (और यह होते हुए भी) सबसे परे है, वह इश्वर है।
ऄथवा जो मायाके स्वामीको, और ऄपने को न जाने वह
जीव कहलाता है और बन्धन तथा मोक्ष देनेवाला, सबसे परे तथा
मायाका प्रेरक इश्वर है।
पिहला ऄथय िविर्ष्टाद्रैत मतके ऄनसु ार है, दसू रा ऄद्रैत
मतके ऄनसु ार । एक दोहेमें ही सम्पणू य दर्यनर्ास्त्र बता देने का यह
ऄद्भुत नमनू ा है। आतनी सिं क्षप्त रीितसे समस्त दर्यनों को एक साथ
कदािचत ही कहीं कहा गया हो। ईपरोि तीन ऄथोके ऄितररि
और भी कइ प्रकारके ऄथय ऄपने-ऄपने मतके ऄनसु ार आस दोहे
के िकये जाते हैं।
मायाको, इश्वरको और ऄपने अपको जो न जानता हो ईसे
जीव कहना चािहये। आस पररभाषामें यह प्रश्न ईठे गा िक जो
मायाको, इश्वरको और ऄपने अपको जान ले- िविर्ष्टाद्रैत
सम्प्रदायके दार्यिनक ग्रंथों का ऄध्ययन करके यह समझ ले िक
'इश्वर ऄसं जीव ऄिबनासी' ऄथवा जीव ऄनेक एक श्रीकंता'
और माया भी जगदीश्वरकी माया है, वह क्या जीव नहीं रह
43
जायगा? आस ज्ञानके द्रारा ही ईसका जीवत्व समाप्त हो जायगा?
लेिकन िविर्ष्टाद्रैत सम्प्रदाय तो जीवको िनत्य मानता है। जीवका
जीवत्व आस मतमें कभी समाप्त नहीं होता। वह भगवद् भिि करके
भगवद्धाम पा सकता है। आस मतमें भी जीवको ज्ञान तो होता है।
ज्ञानी जीव ऄपने स्वरप, मायाके स्वरप तथा अराध्यके
स्वरपको जानता है। श्री रामानजु ाचायय ऄथय पञ्चकका ज्ञान
अवश्यक बतलाते हैं। ऄथय पञ्चक है १-परस्वरप (अराध्य
स्वरप) ज्ञान, २-स्वस्वरप (जीवके ऄपने स्वरप ऄथायत् प्रभु
ऄर् ं ी है और हम ऄर् ं , यह ज्ञान, ३-िवरोधी (माया) स्वरप ज्ञान,
४-ईपाय (साधन) स्वरप ज्ञान, ५-फल (भगवत सािनध्य प्रािप्त)
स्वरप ज्ञान । आस ऄथय पंचकके ज्ञानसे जीव ईपासनामें लगकर
भगवद्धाम प्राप्त करता है। लेिकन ईसका जीवत्व तो िनत्य है। यहाँ
श्रीराघवेन्र कह रहे हैं िक ऄज्ञान ही जीवका जीवत्व है। आसिलये
िविर्ष्टाद्रैत मतके ऄनसु ार आस दोहेका ऄथय करना ईपयि ु नहीं
लगता।
जो मायाके स्वामी और ऄपने को न जाने ईसे जीव कहना
चािहये। यह जो द्रैत मतके ऄनसु ार तीसरा ऄथय है, ईसमें भी यही
बाधा है िक द्रैतमत भी जीवको िनत्य मानता है, िकन्तु जीवके
ऄज्ञानको िनत्य नहीं मानता। ऄपने स्वरप (जीव भगवानका दास
है, आस रप) तथा मायाके स्वामी परमात्माके ज्ञानसे ही यह मत
भी ईपासनाका प्रारम्भ मानता है। लेिकन दोहेमें तो जीवका
44
जीवत्व ही ऄज्ञानमय बताया गया है। आसिलये द्रैतमतके ऄनसु ार
भी आस दोहेका ऄथय करना ईपयि ु नहीं लगता।
जो ऄपने को मायाका स्वामी न समझे ईसे जीव कहना
चािहये। यह दसू रे नम्बरका ऄद्रैतवादके ऄनसु ार है। ऄद्रैत मत में
तो जीवका जीवत्व ऄज्ञानमय ही मानते हैं। जीव जब समझ लेता
है िक वह र्रीरमें ही पररच्छन्न नहीं है वह व्यापक चेतन है, माया
ऄज्ञान रिपणी है, जडात्मक है और वह ईसे बांधे है, यह के वल
भ्रम है, तब जीव जीव नहीं रह जाता । वह तो व्यापक चेतनमें
परमतत्व में एक हो जाता है श्रीरामचररतमानसमें यह बात स्पष्ट
अइ है- जानत तम्ु हिह तम्ु हआ होआ जाइ । जो भगवत्स्वरपका ज्ञान
प्राप्त कर लेता है वह ईनसे एक हो जाता है।
'न जान किहऄ सो जीव' यह बात बहुत ध्यान देने की है।
‘माया इस न अपु कहु’ँ का अप कोइ ऄन्वय करें िकन्तु यह तो
मानना पड़ेगा िक कभी न कभी ईनका ज्ञान होता है और जब
ईनका ज्ञान होगा जीव जीव नहीं रहेगा क्योंिक ईनको न जाननेसे
ही जीव-जीव कहलाता है यह बात प्रभु कह रहे हैं। िजन दार्यिनक
मतों में जीव िनत्य है ईनके ऄनसु ार आस दोहेका ऄथय करना कहाँ
तक ठीक है यह बात िवचारणीय है।
'इस्वर ऄसं जीव ऄिबनासी' ‘जीव ऄनेक एक श्रीकंता’ जैसे
ऄनेक वाक्य श्रीरामचररतमानसमें हैं और वे जीव के ऄनेकत्वके
प्रितपादक हैं आसे ऄस्वीकार नहीं िकया जा सकता। आसी प्रकार
45
'मधु ा भेद जद्यिप कृत माया। जानत तम्ु हिह तम्ु हही होआ जाइ’
अिद वाक्य भी हैं जो यह भी स्पष्ट करते हैं िक जीवका ऄनेकत्व
िनत्य नहीं है यह ऄनेकत्व-भेद माियक है। लेिकन वह 'मधु ा भेद'
को मायाकृत मानता है। िबनु हरर जाआन कौिट ईपाया।' 'सो माया
भगवानकी समझु े िमथ्या सोिप' का ऄद्रैत िसद्धान्त मानकर भी
मानसका कहना है – ‘छूट न राम कृपा िबनु ।'
र्ास्त्रोंको सम्प्रदाय िनरपेक्ष होकर देखें तो यह जान पड़ता है
- जीवका जीवत्व िनत्य नहीं है िकन्तु िनत्य हो सकता है । ऄद्रैत
मत तो कै वल्य मिु ि मानता है और 'सो कै वल्य परमपद लहइ'
आससे मानस को भी वह स्वीकार है परन्तु भिि-मागय के अचायय
भी चार प्रकारके मोक्ष में एक सायज्ु य मानते हैं । सायज्ु यमें जीव
अराध्य में एक हो जाता है ईसकी पथृ क सत्ता नहीं रह जाती। आस
प्रकारसे जीवका जीवत्व िनत्य नहीं रहता । लेिकन ईपासनाके
द्रारा जीव जब सालोक्य, सारप्य या सामीप्य मोक्ष पाता है तो
भगवत्कृपासे ईसका जीवत्व एवं ईसका पररकर िनत्य हो जाता
है। र्ास्त्रोंमें तथा श्रीरामचररतमानसमें भी सालोक्य अिद
मिु ियोंका ईल्लेख है ही। जीवका जीवत्व दो प्रकार समाप्त होता
है- एक तो ऄहं ब्रह्मािस्म अिद ऄपरोक्षानभु वसे और दसू रे
भगवत्कृपा से।
‘ऊतैज्ञानान्न मिु िः' ज्ञानके िबना मिु ि नहीं होती यह
श्रिु तकी घोषणा है । लेिकन ज्ञानके भी दो रप हैं और श्रिु त यह
46
नहीं मना करता िक ईनमेंसे एक ही ज्ञान मिु िका हेतु है, दसू रा
नहीं है। 'ऄहं ब्रह्मािस्म’ के ऄनसु ार यह ज्ञान ऄथायत् मैं देह,
आिन्रय, मन, बिु द्ध, िचत्त ऄहक ं ार, प्रकृित अिदसे परे व्यापक
चेतन ह,ँ 'नेह नानािस्त िकंचन' यह कोइ कुछ भी नानात्व नहीं है,
मैं ही सवय स्वरप ह-ँ मझु से िभन्न कुछ नहीं है- यह के वल
बौिद्धक नहीं, ऄपरोक्षानभु व रपमें प्राप्तज्ञान कै वल्य मोक्ष का
कारण है। दसू रा ज्ञान है स्वल्प ज्ञान । ऄथायत् जीवके ऄपने
'स्वस्वरप का ऄपरोक्षानभु व और यह ऄनभु व सायज्ु य मोक्ष देता
है।
जीवका स्वस्वरप ज्ञान क्या? ऄद्रैत वेदान्तीको तो
'स्वस्वरप' र्ब्द सनु ते ही ब्रह्मके स्वप्न दीखने लगते हैं, िकन्तु
भिि-मागयके ऄनगु ामी भी कदािचत आस र्ब्दसे चौंके । बात यह
है िक जगत और जगतका यह ऄपार नानात्व कहाँसे अया? आस
प्रश्नका ईत्तर तो देना ही चािहये। नानात्वकी प्रतीित ऄज्ञानसे है,
यह कह देना तो सरल है, िकन्तु यह सोचने की बात है िक एक ही
ज्ञान स्वरप िनत्य ब्रह्म जब सत्य है तो ऄज्ञान िकसे? दसू री बात
यह िक ऄज्ञान ऄन्धकारधमाय है, ईसका स्वभाव ऄभेद
िदखलाना है, भेद िदखलाना नहीं है। जो ऄनपढ़ है ईसके िलये
ऄक्षर एकसे, जो स्वरोंका ज्ञाता नहीं, ईसके िलये सब राग समान
। रागोंके भेदका ज्ञान ईनके जानकारको ही होता है । राित्रका
ऄधं कार सारे रप भेदको एकाकार कर देता है, भेदका ज्ञान तो
47
प्रकार् का आसिलये जगतके आन नाना रपों, ऄसख्ं य भेदोंको
ऄज्ञान कहना ठीक नहीं है । ये नानात्व यद्यिप आस रपमें िमथ्या
हैं, भ्रम हैं, िकन्तु एक सत्य अधार है। वह अधार है भगवान का
िनत्यधाम । भगवान् के िनत्यधाममें तरु हैं, लताएं हैं, सरोवर हैं,
सररताएँ हैं, पर्ु हैं, पक्षी नारी पाषयद हैं । वे िचन्मय हैं, िनत्य हैं।
ईनकी ही प्रितच्छाया माियक जगतमें आन नाना रपोंमें प्रितभािसत
है। प्रितिबम्ब या छाया सत्य नहीं, वह तो िमथ्या है ही, ऄतः
र्ास्त्र जगतको िमथ्या कहता है तो चौंकनेकी कोइ बात नहीं।
लेिकन आस िमथ्याका एक अधार है और वह सत्य है, र्ाश्वत है,
िचन्मय है।
आतनी बात समझमें ना जाय तो यह भी समझमें अ जायगा
िक जगतके प्रत्येक पदाथय एवं प्राणीका िनत्य भगवद्धामके िकसी
पदाथय या प्राणीसे सम्बन्ध है। जगतका प्राणी या पदाथय
िनत्यधामके प्राणी या पदाथयकी छायामात्र है। ऄतः आस छायाका
स्वस्वरप वह है जो िनत्य भगवद्धाममें है। ऄपने ईस
स्वस्वरपका ज्ञान होनेपर जीव ईस िनत्य स्वरपमें एक हो जाता
है।
कोइ ऄपनेको मान ले मैं ऄमक ु सखी, ऄमक ु ऄली या
ऄमक ु पाषयद ह-ँ यह मानना ज्ञान नहीं है। वैसे तो अज ऄपनेको
श्रीजानकीजी और श्रीराधाकी सिखयाँ माननेवालोंकी संख्या
बहुत बड़ी है। लोग तो ऄपनेको श्रीजानकी और श्रीराधाका ही
48
ऄवतार मानते हैं। आससे भी अगे बढ़कर दजयनों ऐसे भी हैं जो
ऄपने को-किल्क ऄवतार या श्रीकृष्ण का ऄवतार घोिषत करते
हैं। यह सब या तो दम्भ है या बिु द्धका ईन्माद । यिद ये दोनों बातें
हों तो ऐसी मान्यता ईपासनाका एक साधन होती है; िकन्तु
मान्यता तो मान्यता है, वह न सत्य है, न ज्ञान ।
स्कन्दपरु ाणमें श्रीमद्भागवतका माहात्म्य है। ईसमें यह कथा
है िक श्रीकृष्णचन्रके परमधाम चले जानेपर व्रजनाभ बची-खचु ी
श्रीकृष्णचन्रकी रािनयों के साथ हिस्तनापरु ऄजयनु द्रारा पहुचँ ाये
गये और पाण्डवों के महाप्रस्थान कर जाने पर परीिक्षतके साथ
मथरु ा अये । वहां ईन्हें ईद्धवके दर्यन हुए। ईद्धवजीने ईनको
श्रीमद्भागवत सनु ाया। ऄतं में भगवान श्रीकृष्ण प्रगट हुए।
व्रजनाभने देख िलया िक श्रीनन्दनन्दनके दािहने जो व्रजका िनह्न है
वही ईनका 'स्वस्वरप है। रािनयों को भी स्वस्वरप' के दर्यन हुए।
आसके बाद सासं ाररक लोगोंके िलये तो तरु न्त व्रजनाभ तथा वे
रािनयाँ ऄदृश्य हो गइ । क्योंिक 'स्वस्वरप" का दर्यन और ईससे
सायज्ु यएकत्व यह दोनों िक्रया साथ-साथ सम्पन्न हो गइ।
स्वस्वरप' का ऄपरोक्ष साक्षात्कारका ऄथय है भगवत्कृपासे
भगवद दर्यन कर के यह प्रत्यक्ष देख लेना िक भगवान के
िनत्यधाम में ऄपना क्या रप है । आस 'स्वस्वरप दर्यन' के बाद
व्रजनाभकी भांित सभी तत्काल ऄदृश्य हो जाय, यह अवश्यक
नहीं है। प्रारब्धर्ेष हो तो वे संसारमें रह सकते हैं । व्रजनाभ तो थे
49
ही भगवत्पाषयद । लेिकन भिि-मागयका सच्चा ज्ञान यही है। और
आस ज्ञानके िबना जीव मायाके बन्धनसे मि ु नहीं होता ।
'ऊतैज्ञानान्न मिु िः' समझने के िलये यह समझ लेना बहुत
अवश्यक है ।
आसिलए दोहेका ऄथय दोनों प्रकारसे करना ईपयि ु प्रतीत
होता है-'ऄपनेको जो मायाका स्वामी न समझे ईसे जीव कहना
चािहये' यह ऄथय के वल ज्ञानसे जीवके जीवत्वकी समािप्त मानकर
मोक्ष सिू चत करता है और 'मायाको, इश्वरको तथा ऄपनेको न
जाने ईसे जीव कहना चािहये।' यह ऄथय भगवान को , भगवान
की िनत्य लीलाको और ईस िनत्य लीलामें ऄपने िनत्य रपके
ज्ञानको जानकर जीवके जीवत्वकी समािप्त सायज्ु य मोक्षके रप में
सिू चत करता है। तीसरा ऄथय या और जो भी ऄथय भिि
परम्पराको मानकर िकये जायेंगे, सभी आस सायज्ु य मोक्षके सचू क
ही बनेंगे। लेिकन जीवकी िनत्य सत्ता मानकर कोइ िसद्धान्त आस
दोहेसे सम्मत हो, यह किठन ही है।
दोहेके दसू रे चरणके ऄथय सभी एक ही प्रकारसे करते हैं-
'बन्धन और मोक्षका दाता, सबसे परे और मायाका प्रेरक इश्वर है।
इश्वर माया का प्रेरक है ऄतः बन्धन तथा मोक्ष दोनोंका दाता है
और यह करते हुए भी वह सबसे परे है। िकसीसे िलप्त या
पररिछन्न नहीं है।
'जेिह बाँध्यो सरु ऄसरु नाग नर, प्रबल कमयकी डोरी।'
50
इश्वर बन्धन-प्रद है, ईसीने समस्त सरु , ऄसरु , नाग-नरको
कमय की प्रबल डोरीसे बाधं ा है यह बात िवचारणीय है। क्योंिक
श्रिु त-र्ास्त्र सिृ ष्ट को, मायाको ऄनािद कहते हैं। जीवका बन्धन
ऄनािद है। भगवान् िकसी को बन्धनमें डालते नहीं। तब ईन्हें
बन्धन-प्रद कहा क्यों गया? के वल आसिलए िक जीवको कमयफल
पानेका िवधान करते हैं । ‚जो जस करआ सो तस फल चाखा।' यह
िवधान ईनके ऄनर् ु ासनमें चलता रहा है। कमय चक्रके वे ही परम
संचालक है।
इश्वर मोक्षप्रद हैं- यह तो सोचने समझने की बात ही नहीं।
ऄद्रैतवादके अद्याचायय श्रीर्ंकराचाययजी भी मानते हैं िक
'इश्वरानग्रु हादेव पमु ान द्रैत वासना।' व्यििमें ऄद्रैतका िनश्चय
भगवदनक ु म्पासे ही होता है।
'सो जानआ जेिह देिह जनाइ।'
'मधु ा भेद जद्यिप कृत माया।'
िबनु हरर जाआ न कोिट ईपाया ।।'
'रामचन्र के भजन िबनु जो चह पद िनबायन ।
ग्यानवतं ऄिप सो नर पसु िबनु पछ ू िबखान ।।
श्रीरामचररतमानसकी यह घोषणा तो गीतामें भी भगवान
दहु रा रहे हैं-
'मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरिन्त ते।'
७।१४
51
ईन सवायधार प्रभु की र्रणागितके िबना मोक्ष िमलता नहीं।
क्योंिक वे मायाके प्रेरक हैं। वे ही मायाका सच ं ालन करते हैं-
'जासु सत्यता ते जड़ माया । भास सत्य आव.........।।
लेिकन मायाके प्रेरक होकर और बन्धनके िनयन्ता तथा
मोक्ष के दाता होकर भी वे 'सवयपर' सबसे परे -सबसे श्रेष्ठ है। वे
'प्रकृित पार प्रभ'ु हैं।
आस प्रकार यहाँ तक 'थोरे िह महँ'-सत्रू रपसे प्रभनु े माया, ज्ञान
और वैराग्यका िनरपण कर िदया। जीव तथा इश्वरका स्वरप
समझा कर ज्ञानके िद्रिवध स्वरपका भी ऄद्भुत ढंगसे संकेत कर
िदया।
(८)
धमय तें िबरित जोग ते ग्याना।
ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना ।।
ऄर०१५/९
धमायचरणसे वैराग्य होता है और योगसे ज्ञान होता है । ज्ञान
मोक्ष दाता है, यह वेदोंने वणयन िकया है।
धमयसे वैराग्य कै से होता है, आस िवषयमें ईत्तरकाण्ड ज्ञान
दीपक ये पिं ियाँ देखना चािहये-
साित्त्वक श्रद्धा धेनु सहु ाइ। जौं हरर कृपाँ हृदयँ बस अइ।।
जप तप ब्रत जम िनयम ऄपारा। जे श्रिु त कह सभु धमय ऄचारा।।
तेआ तनृ हररत चरै जब गाइ। भाव बच्छ िससु पाआ पेन्हाइ।।
52
नोआ िनबिृ त्त पात्र िबस्वासा। िनमयल मन ऄहीर िनज दासा।।
परम धमयमय पय दिु ह भाइ। ऄवटै ऄनल ऄकाम िबहाइ।।
तोष मरुत तब छमाँ जड़ु ावै। धिृ त सम जावनु देआ जमावै।।
मिु दताँ मथैं िबचार मथानी। दम ऄधार रजु सत्य सबु ानी।।
तब मिथ कािढ़ लेआ नवनीता। िबमल िबराग सभु ग सपु नु ीता।।
ईत्तर-११६/९-१६
योगसे ज्ञान कै से होता है, आस िवषयमें भी ज्ञान दीपकका
यही प्रसंग अगे देखना चािहये-
जोग ऄिगिन करर प्रगट तब कमय सभु ासभु लाआ।
बिु द्ध िसरावैं ग्यान घतृ ममता मल जरर जाआ।।
तब िबग्यानरिपिन बिु द्ध िबसद घतृ पाआ।
िचत्त िदअ भरर धरै दृढ़ समता िदऄिट बनाआ।।
तीिन ऄवस्था तीिन गनु तेिह कपास तें कािढ़।
तल ू तरु ीय सँवारर पिु न बाती करै सगु ािढ़।।
एिह िबिध लेसै दीप तेज रािस िबग्यानमय।
जातिहं जासु समीप जरिहं मदािदक सलभ सब।।
(ईत्तर० ११७ क-घ)

श्रीरामचररतमानसके द्रारा ही उपर दी हुइ ऄधायलीकी


सम्पणू य व्याख्या हो जाती है।

53
मनष्ु यके चार परुु षाथय र्ास्त्र ने बताये है, ऄथायत् व्यिि ऄपने
परू े श्रमसे चार में से ही िकसी न िकसी बातको पाना चाहता है।
ऄथय, धमय, काम और मोक्ष आन चारों में भी ऄथय िजनके परुु षाथय
हो ऐसे थोड़े ही लोग होते हैं । धन एकत्र करने के िलये ही जो
कमाते हैं, ऐसे कृपण और जो धमायचरणके िलये ही धमायचरण
करते हैं, ऐसे ईदार परुु ष य नहीं होते। धनका ईपाजयन होता है धमय
करने या सख ु ोपभोगके िलये। आस प्रकार ऄथय स्वयं परुु षाथय न
रहकर धमय या काम- परुु षाथय का साधन बन जाता है । धमायचरण
भी या तो आस लोक या परलोकमें (स्वगायिदमें) सख ु पानेके िलये
िकया जाता है या मोक्ष के िलये । ऐसी ऄवस्था में धमय भी स्वयं
परुु षाथय न रहकर काम-परुु षाथय या मोक्ष-परुु षाथयका साधन बन
जाता है।
'धमय तें िबरित' आसमें यह नहीं कहा जा रहा है िक कोइ
लौिकक सख ु या स्वगायिद पानेके िलये धमायचरण करे गा तो ईसे
वैराग्य प्राप्त होगा। ईसका धमायचरण तो स्वतन्त्र धमायचरण ही नहीं
है। ईसने तो धमयको कामना पिू तयका साधन माना-बनाया है।
'यतोऽभ्यदु य िनःश्रेयस िसिद्ध सधमयः' िजससे ऄभ्यदु य और
िनःश्रेयस (मोक्ष) की प्रािप्त हो, वह धमय है । आसिलये सकाम
भावसे धमायचरण करनेवालेका ईद्देश्य तो परू ा होगा, िकन्तु वह
धमयपरुु षाथय मान कर चलने वाला नहीं है।

54
‘धमय तें िवरित’ आसमें धमायचरणको स्वतन्त्र महत्ता है। जो
कतयव्य समझकर धमायचरण करता है धमय ही िजसका परुु षाथय-परम
प्राप्तव्य है, िजसे ऄपने धमायचरणके बदले में लोक या परलोकमें
कुछ चािहये नहीं, धमायचरणमें िजसको स्वाभािवक रुिच है,
ईसका िचत्त धमयका अचरण करते-करते िनमयल हो जाता है।
ईसमें रही-सही कामनाएँ भी नष्ट हो जाती है। आस लोक तथा
स्वगायिद लोकोंमें िजतने भोग हैं, ईन सबसे ईसे वैराग्य हो जाता
है। ‘वट ऄनल ऄकाम बनाइ’ में यही िनष्काम धमायचरण सिू चत
िकया गया है।
योग ते ज्ञाना' आसमें योगका क्या ऄथय? भिियोग तो यहां
योग का ऄथय नहीं, क्योंिक प्रभु अगे ही भििका िवस्तारसे वणयन
करें गे और वहां भी कहेंगे िक भिि स्वतन्त्र है। हठयोग, लययोग
अिद के द्रारा समािधकी प्रािप्त तो होती है, िकन्तु ईन्हें ज्ञान का
साधन कहा नहीं जाता। आसिलये यहां 'योग' र्ब्द राजयोग-
तत्त्विवचारका ग्रहण ही ईपयि ु है।
'योग िचत्तविृ त्त िनरोधः' - योगदर्यन
िचत्त की विृ त्तयोंका सम्यक् िनरोध योग है। महिषय
पतञ्जिलने ऄनेक साधन योगदर्यन में आसके िलये बतलाये हैं ।
बात यह है िक प्रत्येक अध्याित्मक भावाित्मक साधन
ऄतं रमख ु ता का सन्देर् देता है। हृदय के ऄन्तरतम देर् में ही जीव
सवयव्यापी सिच्चदानन्द स्वरप व्यापक सत्ताका ऄनभु व कर
55
सकता है। जीवात्मा और परमात्मा का यह िमलन ही योग है।
लेिकन संसार के बाहरी िवषयों में असि होने के कारण िचत्त में
तीन दोष अ गये है -१-मल २-िवक्षेप और ३-अवरण । जन्म-
जन्मान्तर के पाप कमोंके ऄर्भु सस्ं कारोंके कारण िचत्त भगवान
की ओर प्रवत्तृ नहीं होता। र्ास्त्रमें श्रद्धा, भगवान की चचाय में रुिच
न होना तथा सांसाररक िवषयोंको पानेकी कामना होना-यही
िचत्तका मल है। धमायचरणसे यह मल नष्ट होता है, तब िवषयोंसे
वैराग्य हो जाता है। िचत्तका एक स्थानपर िस्थर न रहना, क्षण-
क्षणपर मनका आधर-ईधर घमू ते रहना-यही चंचलता िवक्षेप दोष
है। आस चंचलताको दरू करने-िचत्त-विृ त्तके िनरोधको ही योग
कहते हैं। ध्यानसे तथा तत्त्व िचन्तनसे-श्रवण, मनन, िनिदध्यासन
से यह चचं लता दरू होती है। जब िचत्त िनमयल होता है और एकाग्र
हो जाता है, तब ऄन्तयायमी परमात्माका प्रकार् ईसमें
प्रितिबिम्बत होता है। आसीको कहते हैं अवरण दोषका नार् ।
यही ज्ञान या ऄपरोक्षानभु िू त है। आस प्रकार िचत्तकी एकाग्रता रप
योगकी प्रािप्त होनेपर ज्ञान होता है ।
मयायदा परुु षोत्तमसे लक्ष्मण जी ने के वल ज्ञान और वैराग्यका
स्वरप पछ ू ा था, िकन्तु प्रभनु े स्वयं कृपा करके ‘थोरे िह महँ'
ईनकी प्रािप्तके साधन भी बतला िदये।
(९)
जातें बेिग रवईँ मैं भाइ।
56
सो मम भगित भगत सख ु दाइ।।
सो सतु त्रं ऄवलंब न अना।
तेिह अधीन ग्यान िबग्याना।।
ऄर०१५/२-३
हे भाइ िजससे मैं र्ीघ्र रिवत होता हँ वह (साधन) तो मेरे
भिों को सख ु देनेवाली भिि है। वह (भिि) स्वतन्त्र है, ईसे
िकसी दसू रे का सहारा नहीं (दसू रे साधनोंसे वह साध्य नहीं होती)
ज्ञान और िवज्ञान ईसीके अधीन हैं।
श्रीलक्ष्मणजीने पछ ू ा था 'कहहु सो भगित करहु जेिह दाया।
आसका ईत्तर श्रीराघवेन्र समझा कर िवस्तारसे दे रहे हैं। 'बझु ाइ'
कहने की जो बात ईन्होंने प्रारम्भमें कहा था ईसे ऄब साथयक कर
रहे हैं। भाइ सम्बोधन देकर प्रभु यह तो सिू चत ही करते हैं िक 'तमु
मझु े िप्रय हो आसिलये यह बात कह रहा ह'ँ साथ ही यह भी सिू चत
करते हैं िक 'यह मझु े बहुत िप्रय है, ऄत: आसे सावधानीसे सनु ो।
आस भििसे मैं र्ीघ्र रिवत होता ह।ँ '
'बेिग रवईँ’ में िकतना र्ीघ्र? यह अप पछ ू ते हों तो ईसका
ईतर है तत्काल-ईसी क्षण । प्रभनु े स्वयं कहा है-
'सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीित च याचते।'
ऄभयं सवयभतू ेभ्यो ददाम्येतद्रतं मम ॥

57
यह मेरा व्रत है िक जो एक बार भी र्रणमें अकर कह देता
है ‘प्रभो मैं तम्ु हारा ह’ँ ईसे मैं सम्पणू य प्रािणयोंसे ऄभय कर देता
ह।ँ '
'सनमख ु होआ जीव मोिह जबहीं।
जन्म कोिट ऄघ नासिहं तबहीं ॥'
-सन्ु दर० ४३।२
'रवई' यह स्पष्ट कह रहा है िक प्रभु यहाँ सगणु -साकार
भगवद् रपकी ईपासनाकी बात कह रहे हैं। िनगयणु -िनराकारमें
रिवत होने का गणु तो सम्भव नहीं है। वे िकस पर रिवत होते हैं?
जो भी भिि करे ईसीपर । जाित-पांित की तो बात पछ ू ना व्यथय
है-
'हररको भजे सो हररका होइ।
जाित पांित पछ
ू े निहं कोइ ॥’
साथ ही िकसी सद्गणु -सदाचारकी पवू य मांग भी नहीं है । गीता
स्पष्ट कहा गया है
ऄिप चेत्सदु रु ाचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधरु े व स मन्तव्यः सम्यग्व्यविसतो िह सः
९/३०
वह भिि भिोंको सख ु देनेवाली है, आसमें तो कुछ कहना
नहीं है। वे तो ऄभागे हैं जो ईस भििसे विञ्चत हैं क्योंिक
सिृ ष्टकतायने ईनके प्रारब्धमें सखु िलखा नहीं।
58
'श्रिु त परु ान सब ऄन्य कहाहीं।
रघपु ित भगित िबना सख ु नाहीं ॥'
ईत्तर० १२१।१४
भगवद्भििके िबना सख ु िमल नहीं सकता। िवषयोंके द्रारा
िमलने वाले सांसाररक सख ु को कोइ सख ु मानले तो यह मान्यता
वैसी ही है; जैसे बच्चे खेलमें िमट्टी के डलों को िमठाआयाँ,
पकवान अिद मानते हैं । कण्डूकरयोररव दःु खम् दरुको
खजु लानेके समान ये सांसाररक सख ु तो के वल देखने में सख
ु जान
पड़ते हैं, पररणाममें तो ये महादख ु रप ही हैं । सच्चा सख ु तो
अत्मसख ु ऄथवा भगवत्स्मरण का सख ु है जो भगवद्भििसे ही
िमल सकता है।
'सो सतु न्त्र ऄवलम्ब न अना' वह भिि स्वतन्त्र है, ईसे
दसू रे िकसी साधनका सहारा नहीं है। 'धमय ते िबरित जोग ते ज्ञाना'
आसमें जैसे बता िदया िक धमायचरणसे वैराग्य और योग-िचत्त विृ त्त
िनरोधसे ज्ञान होता है, वैसे ही भिि भी िकसी साधनसे होती
होगी, यह भ्रम नहीं करना चािहये । भिि तो स्वतंत्र है। भििके
जो साधन हैं, वे भी भिि के स्वरप ही हैं। सत्संग, नाम स्मरण,
कीतयन, पजू न, ध्यान अिद साधन रपा भिि के ऄगं हैं और आस
साधन भििसे साध्य भिि ऄथायत् प्रेम रपा भिि का अिवभायव
होता है! आसीिलये अगे प्रभु ‘भगित के साधन कहउं। बखानी’
कहकर भििके साधनों का वणयन करें गे, िकन्तु यहां बताये दे रहे
59
हैं िक भििके साधन भी भिि-भजन रप ही है, वह स्वयं साधन
एवं साध्य रप भी है । लेिकन ज्ञान और िवज्ञान ईसके वर्में है।
िबना भििके न ज्ञान हो सकता, न वैराग्य।
'वासदु वे े भगवित भिियोगः प्रयोिजतः ।
जनयत्यार्ु वैराग्यं ज्ञानं च यदहेतक ु म् ॥'
भागवत १।२/७
भगवान वासदु वे में भिि-योग करने पर वह वैराग्य तथा
ऄहैतक ु ज्ञानको ईत्पन्न करता है।
‘भििः परे र्ानभु वो िवरििरन्यत्र चैष ित्रक एककालः ।
प्रपद्यमानस्य यथाश्नतः स्यस्ु तिु ष्टः पिु ष्टः क्षदु पायोऽनघु ासम’्
-भागवत ११/२/४२
जैसे भोजन करते समय भोजनके प्रत्येक ग्रासके साथ
सन्तोष, र्रीरका पोषण और भख ू की िनविृ त्त, ये तीनों काम
तत्काल होते हैं, वैसे ही भगवानकी र्रण लेनेपर भगवानकी
भिि, परमात्मतत्त्वका ज्ञान तथा सासं ाररक िवषयोंसे वैराग्य ये
तीनों बातें साथ ही होती हैं।
भिि स्वयं स्वतन्त्र है, िकन्तु ज्ञान तथा वैराग्यका वह
ऄिनवायय साधन है। ईसके िबना न िवषयोंसे पणू य वैराग्य हो
सकता, न अत्मज्ञान ही होगा। आसीिलये पद्मपरु ाणमें जो
श्रीमद्भागवतका माहात्म्य है, ईस ज्ञान और वैराग्य को भििका
पत्रु बताया गया है।
60
भगवद्भििके िबना िचत्तकी पणू तय ः र्िु द्ध होती नहीं है और
िचत्त र्द्ध
ु हुए िबना िवषयोंसे पणू य वैराग्य तथा अत्मतत्त्वका
ऄपरोक्ष साक्षात्कार नहीं होता।
‘तैस्तान्यघािन पयू न्ते तपोदानजपािदिभः ।
नाधमयजं तद्धदृ यं तदपीर्ाङ्िघ्रसेवया ॥’
-भागवत ६।२।१७
तप, दान, जप अिदसे वे पाप (िजनके प्रायिश्चतके िलये
तपािद िकये गये हों) दरू हो जाते हैं-ईन पापोंसे व्यिि पिवत्र हो
जाता है, िकन्तु ऄधमयको जन्म देनेवाला ईसका हृदय ईनसे नहीं
पिवत्र होता, िकन्तु भगवानके चरण-कमलोंकी सेवासे वे पाप तो
दरू होते ही हैं, ईसका हृदय भी पिवत्र हो जाता है।
यहां बस आतनी बात ध्यान में रखनेकी है िक प्रभनु े ज्ञान तथा
िवज्ञान दोनोंको भिि के अधीन बतलाया है। ज्ञान-अत्मतत्त्वका
सामान्य बौिद्धक ज्ञान तथा िवज्ञान-ऄपरोक्षानभु व, ये दोनों
भििके वर् में हैं । भििके िबना ऄपरोक्षानभु व तो होगा ही नहीं,
परोक्षज्ञान भी नहीं होगा। क्योंिक ईसके िलये भी बिु द्ध में धारणा
र्िि ऄपेिक्षत है जो ईपासनासे ही ईपलब्ध होती है।
[१०]
भगित तात ऄनपु म सख ु मल ू ा।
िमलआ जो संत होइ ऄनक ु ू ला ॥
ऄर० १५/४
61
हे भाइ! भिि ऄनपु म सख ु की मल ू है । यिद सतं ऄनक ु ू ल हों
तो वह प्राप्त होती है।
भिि ऄनपु म सख ु -मलू है। क्योंिक िकसी भी प्राणीको
िजतने भी प्रकार के सख ु का ऄनभु व है वे सब सासं ाररक सख ु हैं।
ईनमें न पणू तय ा है, न िस्थरता, न िनभययता है। ईन सख ु ोंकी प्रािप्तमें
पररश्रम है, दसू रोंसे संघषय है, र्ंका है। ईनके प्राप्त होने पर ईनकी
रक्षाका ईद्योग तथा ईनके नष्ट होने का भय लगा रहता है, आससे
ईनका परू ा ईपभोग हो नहीं पाता। कुछ ही समय में वे नष्ट हो जाते
हैं या नीरस हो जाते हैं। अपको कोइ िमठाइ बहुत िप्रय है-अपने
ईसे पा िलया िकतनी देर का है ईसका सख ु ? जब तक पेट न भर
जाय, लेिकन यह तो भख ू िमटानेकी तिृ प्त हैं। िमठाइको मख ु में
कुछ देर रिखये देिखये िक वह िकतनी देर मीठी रह पाती है । आसी
प्रकार एक सन्ु दर िचत्र है, अपको बड़ा अकषयक लगता है। ईसे
ऄपने कमरे में लगानेपर कुछ िदनोंमें ही परु ाना पड़ जायगा,
ऄनाकषयक हो जायगा । यही दर्ा ऄन्य सासं ाररक सख ु ोंकी है।
लेिकन भिि तो भगवानको देनेवाली है। ईस भगवदीय
अनन्दको वह देती है जो िनत्य नवीन रहता है, िजसमें कोइ भय
नहीं, जो प्राप्त होने के बाद न घटता न नष्ट ही होता है।
वह भिि िमलती है- पायी नहीं जाती। 'िमलआ' यह स्पष्ट कर
रहा है िक भिि साधना साध्य नहीं है, कृपा साध्य है। प्रेम जब
संसारमें होता है तो ईसका नाम काम पड़ जाता है और वह
62
पतनकारी होता है, िकन्तु वही प्रेम भगवान में होनेपर भिि कहा
जाता है और परम पद देने वाला होता है । यह हमारा अपका
प्रित िदनका ऄनभु व है िक प्रेम होता है-हो जाता है, ईसे िकसी
साधनसे ईत्पन्न नहीं िकया जा सकता। हमने ऄपने भगवानको
देखा नहीं। ईनसे चाहे िजतना सम्बन्ध हो िकन्तु ईस सम्बन्धकी
हमें कोइ ऄनभु िू त नहीं। ऐसी दर्ामें एक ऄनदेख,े ऄनजाने,
ऄपररिचत ऄपनेसे सवयथा ऄसम्बिन्धतसे लगतेके साथ प्रेम हो
कै से? यिद साधनासे प्रेम या भिि प्राप्त हो सकती तो बात दसू री
थी। भगवान् महान हैं, सबके स्वामी हैं, सवयसमथय हैं, दयामय हैं,
अनन्द स्वरप हैं, आसिलये ईनसे प्रेम करना ईत्तम है, ईनसे प्रेम
करने में परम लाभ है, यह बात तो समझमें अती है। प्रेम करना
ऄपने वर् में होता, िकसी साधनासे प्रेम ईत्पन्न हो सकता तो
ईसके िलए प्रयत्न कदािचत िकया जाता । लेिकन प्रेम तो
साधनोंसे ईत्पन्न नहीं होता । वह तो हृदय की एक रागात्मक विृ त्त
है जो िकसीके प्रित स्वतः प्रगट हो जाती है। ऄनजाने,
ऄपररिचतके प्रित वह कै से ईत्पन्न होगी?
ऄस िबचारर जोआ कर सतसगं ा।
राम भगित तेिह सल
ु भ िबहगं ा ।।
-ईत्तर० ११९/१९
वह प्रेम या भिि तो सत्संगसे प्राप्त होती है । संतकी कृपासे
ही वह प्राप्त हो सकती है, ईसके पाने का दसू रा ईपाय नहीं है ।
63
सब कर फल हरर भगित सहु ाइ।
सो िबनु सन्त न काहं पाइ।
सतं की कृपाके िबना ईसे िकसीने नहीं पाया है । 'प्रभु प्रसाद
कोई पाव' यह बात 'मानस' में अइ तो है, िकन्तु आसे 'कोई पाव'
कहकर ऄपवाद भी बता िदया गया है और 'भगित भगत भगवंत
गरुु चतरु नाम वपु एक' के द्रारा संत और भगवान में ऄभेद भी
'मानस' ने बताया ही है ।
क्यों कहा जा रहा है िक भिि पानेका एक मात्र ईपाय
संतकृपा या सत्संग है ? यह समझनेके िलये देखना होगा िक कहीं
भी प्रेम िकतने प्रकारसे होता है। प्रेम होने में आतने कारण होते हैं
१-जन्म, २-सम्बंध ३-साहचयय,४-स्वाथय,५–संस्कार । माताका
पत्रु से, पत्रु का माता से, भाइ-भाइ और भाइ-बिहनका प्रेम जन्मसे
होता है। यह प्रिसद्ध कहावत है िक ऄपना काना लड़का भी सन्ु दर
लगता है सम्बन्धसे प्रेम होने की बात तो समाजमें प्रत्यक्ष है। पता
नहीं िकसका पत्रु और िकसकी कन्या, दोनों सवयथा ऄपररिचत;
िकन्तु सगाइ होते ही दोनों में परस्पर प्रेम जाता है। िववाहका
सस्ं कार मात्र होते ही कन्याका पितसे आतना प्रेम जाता है िक
िपता-माता भी ईतने िप्रय नहीं रह जाते । साहचययसे प्रेम होना
िमत्रता है। बहुत िदनों तक या कुछ काल तक साथ रहने से यिद
परस्पर स्वभाव िमलता हो तो एक दसू रे में ऄनरु ाग हो जाया करता
हैं । ऄनेक बार हमारा िकसीसे स्वाथय रहता है, ईस स्वाथयके
64
कारण ही ईसे चाहते हैं । वस्ततु : तो वह चाह प्रेम नहीं है; िकन्तु
ऄनेक बार स्वाथय िसद्ध हो जानेपर भी प्रेम बना रहता है। पिहले
भले स्वाथयवर् प्रेम चाह हुइ हो, परन्तु अगे चलकर वह हृदयमें
अ जाती है। ईसमें सचाइ अ जाती है। ये सब कारण न हों तो भी
संस्कारवर् भी प्रेम हो जाता है। िकसीके सम्बन्धमें बार-बार
ऄनक ु ू ल बात सनु ी जाय । ईसीको सोचा जाय तो धीरे -धीरे मन
ईसके ऄनक ु ू ल बन जाता है। ईसे चाहने लगता है।
भगवान से हमारा जन्मका सम्बन्ध है। ईनके िबना सिृ ष्ट
संभव नहीं है। ईनसे हमारा सम्बन्ध भी है। ईन ऄंर्ीके ही सब
जीव ऄर् ं है। ईनसे साहचयय तो आतना प्रगाढ़ है िक वे हृदयके
भीतर ही िनत्य िस्थत है। हमारा ऐसा कोइ स्वाथय नहीं िक जो
ईनकी कृपाके िबना िसद्ध हो सके । लेिकन माया मोिहत जीवको
आनमें से एकका भी ऄनभु व नहीं होता । जब तक ऄनभु व न हो,
ऄनरु ाग हो नहीं सकता। ऄबोधावस्था में जो िर्र्ु माता-िपतासे
पथृ क हो गया, माता-िपता पीछे िमले भी तो िबना पिहचान हुए
ईसका ईनसे प्रेम कै से हो सकता है। िजस बािलकाका िववाह
बहुत छोटी वयमें हुअ, ऄनजान पितसे भेंट हो भी तो पररचयके
िबना ऄनरु ाग कै से र्क्य है। हमारे साथ रे ल में, यात्रामें तथा बडे
नगरों में तो एक मकान में ही बहुतसे लोग पयायप्त समय साथ रहे है
। लेिकन िकन ईनसे पररचय ही नहीं हुअ तो प्रेम कै सा। स्वाथयकी
भी बात ऐसी ही है, देर्की सेना, पिु लस, रे लके ड्राआवर, िबजली
65
कम्पनी और पानी-कलके चालकों पर हमारा स्वाथय िनभयर है।
लेिकन ईस स्वाथयका तथा ईसे परू ा करने वालों का ठीक -ठीक
पररचय न होनेसे ईनके प्रित हमारे मन में कोइ राग नहीं होता।
भगवान में हमारा प्रेम नहीं, आसका मख्ु य कारण यही िक हम
ईनसे तथा ईनके साथ ऄपने सम्बन्धसे ऄपररिचत हैं। सन्त यही
करते हैं िक हमें प्रभसु े, प्रभक
ु े साथ ऄपने सम्बन्धसे पररिचत करा
देते है। यह पररचय चाहे प्रत्यक्ष न हो; िकन्तु सत्संगमें बार-बार
आसकी अविृ त्त होती है। मनपर ईनके संस्कार पड़ते रहते हैं और
आससे मन में भागवत प्रेमकी कामना ईत्पन्न होती है। भगवान के
प्रित राग ईत्पन्न होता है । भागवत प्रेम या भिि सत्संगसे सन्त
कृपासे ही िमल सकती है। दसू रा कोइ ईपाय ईसे पानेका नहीं है।
[११]
भगित िक साधन कहईँ बखानी।
सगु म पथं मोिह पाविहं प्रानी।।
प्रथमिहं िबप्र चरन ऄित प्रीती।
िनज िनज कमय िनरत श्रिु त रीती।।
एिह कर फल पिु न िबषय िबरागा।
तब मम धमय ईपज ऄनरु ागा।।
-ऄर०१५।५-७
भििके साधनोंका िवस्तारसे वणयन करता ह,ँ क्योंिक आस
सगु म मागय से प्राणी मझु े पा लेते हैं। पिहले ब्राह्मणोंके चरणों में
66
ऄत्यन्त प्रेम होना चािहये और वैिदक-रीितसे ऄपने-ऄपने कमोमें
लगे रहना चािहये। आसका यह फल होता है िक िवषयोंसे वैराग्य
हो जाता है, तब मेरे धमय भििमें प्रेम ईत्पन्न होता है।
'प्रथम भगित सतं न्ह कर सगं ा।'
-ऄर० ३४/८
यह बात प्रभनु े ही र्बरीजीको नवधा-भििका ईपदेर् करते
समय कहा था। यहाँ भी कह िदया िक-
'िमलआ जो संत होइ ऄनक ु ू ला।'
यह तो मान िलया िक संत दयामय होते हैं, सदा सब पर
सानकु ू ल ही रहते हैं, स्वयं ईनके ऄनक ु ू ल होकर ईनकी सेवामें
लग कर, िवनम्र भाव से ईनसे िमला जाय तो भिि िमलेगी। वे
चाहे सदा सानक ु ू ल रहें, िकन्तु जो ईनके ऄनक ु ू ल नहीं रहेगा, जो
ईनका िवरोध करे गा, ईनको ईत्पीिड़त करने या ईनकी िनन्दामें
लगा रहेगा, वह भिि नहीं पा सके गा, यह भी कोइ ऐसी बात नहीं
िक िकसी को समझानी पड़े, िकन्तु प्रश्न तो है िक सतं िमलें कै से?
"पन्ु य पजंु िबनु िमलिह न सतं ा।
सतसगं ित संसिृ त कर ऄतं ा ॥"
ईत्तर० ४४/६
देविषय नारदजीने भी ऄपने भििसत्रू में ये सत्रू िदये हैं-
महत्संगस्तु दल ु यभोऽगम्योऽमोघश्च ॥३६॥
लभ्यतेऽिप तत्कृपयेव ॥४०॥
67
तिस्मस्तज्जने भेदाभावात् ॥४१॥
ऄित महापरुु षका सगं -सतं का िमलना दल ु यभ है, िमलने पर
भी ‘ये सतं हैं’ ऐसी पिहचान होना किठन है। पिहचान हो जाय तो
वह व्यथय नहीं जाती, लेिकन सतं ढूढं ने से नहीं िमलते, वे तो
भगवान की कृपा होने पर ऄिधकारी परुु षको स्वयं िमल जाते हैं,
क्योंिक भगवान् तथा ईनके भिों में भेद नहीं है। जैसे ढूंढकर
भगवान को नहीं पाया जा सकता- वैसे ही संतको भी नहीं पाया
जा सकता।
यहाँ यह प्रश्न ईठता है िक भगवान की कृपा तो सबपर समान
है। वे तो ऄनन्त कृपा सागर हैं । तब ईनकी कृपाका क्या ऄथय?
भगवानकी कृपा तो सबपर है, िकन्तु ईसका लाभ ऄिधकारी परुु ष
ही ईठा पाते हैं। जैसे सयू य का प्रकार् सब पत्थरों पर समान रपसे
पड़ता है, िकन्तु ऄिग्न तो ऄग्नेय र्ीर्ेसे ही ईस प्रकार्से प्रगट
होती है।
आसी प्रकार जो ऄिधकारी है, भगवत्कृपासे ईसे संत िमल
जाते हैं। यह ऄिधकार कै से िमलता है। आसका ईत्तर तो 'मानस' में
ही है-
पन्ु य पंजु िबनु िमलिहं न संता।
और-पन्ु य एक जग महुँ निहं दजू ा।
मन क्रम बचन िबप्र पद पजू ा।।
68
-ईत्तर० ४४/७
आस िलए यहाँ श्रीरघनु ाथजी भिि के साधनोंका वणयन करते
हुए सबसे पिहला साधन-‘प्रथमिह’ सबसे पिहला कायय ‚िवप्र
चरन ऄित प्रीती।" बतलाते हैं। 'ऄित प्रीती' अत्यिन्तक प्रेम होना
चािहये ब्राह्मणोंके चरणों में । के वल मयायदा जिनत नम्रता,
लौिकक िर्ष्टाचार या सामान्य सत्कार की बात नहीं है।
पिू जऄ िवप्र सील गनु हीना।
सरू न गनु गन ग्यान प्रबीना ॥
ऄर०।३३।२
श्रीरामचररतमानसकी आस ऄधायलीपर पयायप्त अक्षेप िकया
जाता है । लेिकन अक्षेप तथा र्ंका करनेवाले पजू ा तथा अदर
जैसे र्ब्दोंका ऄथय तक नहीं समझना चाहते। पजू ा और अदर
एक बात नहीं है। गणु वान, िवद्रान र्ीलवान र्रू का अदर न
िकया जाय और र्ील तथा गणु रिहत ब्राह्मणका अदर िकया
जाय यह ऄथय करना तो ऄनथय ही करना है । समाजमें अदर तो
र्ीलवान, गणु वान, िवद्रान का ही होना चािहये चाहे वह िजस
जाितका हो। लेिकन यहां बात है पजू ाकी।
जो यह नहीं समझता िक िहन्द-ू धमय व्यिि पजू ाका समथयक
नहीं वह ऄपनी नासमझीसे ऄटपटे तकय करता है। र्ील, गणु ,
िवद्या अिद होना या न होना ये व्यिित्वके धमय हैं। गौ की ऄपेक्षा
ऄिधक सीधा ईपयोगी पर्ु हो सकता है पर वह ऄपिवत्र माना
69
जाता है और गौ दधू न दे, मारनेवाली हो, तब भी पज्ू य और
पिवत्र है। आसी प्रकार ब्राह्मण या र्रू का न तो व्यिित्व पज्ू य है न
ऄपज्ू य । पजू ा तो होती है ईसके साित्वक देहको प्रतीक बनाकर
परमात्मा की। पजू ा साित्वक पदाथय, साित्वक देहके माध्यमसे
होनी चािहये-आसपर िहन्द-ू धमयने बहुत ऄिधक ध्यान िदया है।
पाषाणोंमें र्ािलग्राम और नमयदश्वे रसे भी मल्ू यवान, गणु वान,
सन्ु दर पाषाण िमल सकते हैं पर वे पज्ू य नहीं, क्योंिक ईनमें वह
िदव्य भाव नहीं । वक्ष ृ तो बहुत है, बहुत ईपयोगी हैं, िकन्तु तलु सी
और पीपल ऄपनी साित्वकतासे ही पज्ू य हैं। आसी प्रकार
ब्राह्मणका र्रीर पज्ू य है, क्योंिक पवू य जन्मके पिवत्र कमों के
कारण ईसे वह साित्वक ब्राह्मण देह िमला है। र्रू के या आतर
वणों के देह में वह साित्वकता नहीं है। ब्राह्मण या र्रू ऄपने
वतयमान कमोंका स्वयं ईत्तरदायी है, ईसका फल वह भोगेगा । हमें
ईसके कमोंके िववेचन में नहीं पड़ना है ।
कुछ सतं ोंने एक ईदाहरण िदया है-एक वकील वकालत पास
कर चक ु ा और काननू भल ू गया, िकन्तु न्यायालयमें तो ईसीको
वकील बनकर खड़े होनेका ऄिधकार है। वकालतकी तैयारी
करनेवाला छात्र चाहे काननू का िजतना बड़ा ज्ञाता हो, परीक्षासे
पवू य न्यायालय ईसे वकील बनकर खड़े नहीं होने देगा। आसी प्रकार
ब्राह्मणने पवू य जन्ममें ईत्तम कमय िकये थे-आससे ईसे ब्राह्मण देह
िमला । यह देह ही पिवत्र होनेसे पज्ू य है। ऄब वह िनन्द्य-कमय
70
करे गा तो ऄगले जन्म में िनन्द्य-गित पावेगा। र्रू ईत्तम कमय करता
है तो अगे ईत्तम देह पावेगा, िकन्तु ईसका वतयमान देह तो
वतयमान कमोंसे नहीं बना है, यह देह तो पवू य जन्मके ऄपिवत्र
कमोसे िनिमयत है, ऄत: पज्ू य नहीं हो सकता । यह प्राचीन
मान्यता है।
पिहले ब्राह्मणों के चरणों में प्रेम होना चािहये-ऄत्यन्त प्रेम,
सच्चा प्रेम होना चािहये। लेिकन ब्राह्मण भी र्ास्त्र िवरोधी कायय
बतावें तो नहीं करना चािहये । 'िनज िनज धमय िनरत श्रिु त रीित'
िजसका जो वणय, जो अश्रम है और ईसके ऄनसु ार जो र्ास्त्रीय
धमय है ईसमें भली प्रकार लगना चािहये । गीतामें भगवान ने कहा
है
स्वधमे िनधनं श्रेयः परधमो भयावहः
३/३५
ऄपने वणायश्रम धमयका पालन करते हुए मत्ृ यु पाना भी
श्रेयस्करहै, िकन्तु ऄन्य धमयका ऄवलम्बन तो भयावह है।
यः र्ास्त्रिविधमत्ु सज्ृ य वतयते कामकारतः।
न स िसिद्धमवाप्नोित न सख
ु ं न परां गितम।् ।
-गीता १६।२३

71
जो र्ास्त्रको िविधको छोड़कर कामनाके ऄनसु ार(मन माना)
अचरण करता है, वह न तो सफलता पाता, न सख ु पाता और न
सद्गित पाता है।
‘एिह कर फल पिु न िवषय िबरागा ।’
जब ब्राह्मणों के चरणोंमें सच्चा प्रेम होगा और ईनके द्रारा
िनिदयष्ट ऄपने वणायश्रम धमयके ऄनसु ार र्ास्त्रीय अचरणोंका
पालन होगा तब आसका फल यह होगा िक िचत्त र्द्ध ु हो जायगा।
िचत्त र्द्ध
ु होने से िवषयोंमें वैराग्य हो जायगा। 'धमय ते िबरित' यह
बात प्रभु आसी प्रसगं में कह भी चक ु े हैं और वहाँ आसकी व्याख्या
भी हो चक ु ी है।
'तब, ऄथायत् िवषयोंसे वैराग्य हो जानेके बाद ‘मम धमय’
ऄथायत् भगवद्भििमें 'ईपज ऄनरु ागा' प्रेम ईत्पन्न होता है।
क्योंिक-
जहाँ राम तहं काम निह,ं जहाँ काम निहं राम।
तल
ु सी कबहुिं क रिह सकिह, रिब रजनी आक ठाम ॥
भला कहीं सयू य और राित्र एक साथ रह सकती हैं? कोइ एक
ही साथ पवू य और पिश्चम दोनों ओर चलना चाहे तो यह कभी
सम्भव है? हम र्रीरका सख ु , सम्पित्त, पररवार की सिु वधा,
समाज में सम्मान, स्वास्थ्य अिद सांसाररक बातें भी चाहते रहें
और भगवान में प्रेम भी हो जाय- मन भी लगने लगे, यह तो होने
से रहा। भगवान के धमय ऄथायत् भागवत-धमयमें प्रेम तो तभी
72
ईत्पन्न होगा जब िक िवषयोंसे वैराग्य हो जायगा। वैराग्य का ऄथय
बाबाजी बनना नहीं । वैराग्यका ऄथय है ईनमें असिि का जाना।
र्रीर स्वस्थ रहे या ऄस्वस्थ, पररवार सख ु ी रहे या दःु खी, रहे या
नष्ट हो जाय, सम्पित्त रहे या कंगाली अ जाय, सब प्रर्सं ा करें या
गाली दें-आनसे िकसीकी आच्छा ऄपेक्षा न करना। सांसाररक िस्थित
प्रारब्धवर् जैसी बने, ईसे ही भगवान का मङ्गल-िवधान मानकर
संतष्टु रहना-यही वैराग्य है। ऐसा वैराग्य अता है र्ास्त्रिविहत
धमयका ठीक-ठीक अचरण करने से।
'रमा िबलासु राम ऄनरु ागी।
तजत बमन िजिम जन बड़भागी॥
ऄयो० ३२३/८
जो भाग्यवान भगवत्प्रेम चाहता है, ईसे भौितक सख ु भोगसे
स्वाभािवक ऄरुिच होती है। मैंने वह त्याग कर िदया । यह गवय या
गौरव भाव जहाँ है-वहाँ त्याग कहाँ हुअ। वहां तो त्यागका गवय
अ बैठा । हम कभी वमन कर देते हैं तो क्या मन में यह अता है
िक देखो वमन िकये हुए पदाथोंका हमने त्याग कर िदया? ऄरे ईन
पदाथोंकी ओर तो देखने की आच्छा नहीं होती-ईनके त्यागका प्रश्न
कहाँ है। कोइ ईनकी ओर देखने को कहे तो ग्लािन होती है। ऐसा
स्वाभािवक त्याग, सहज ऄरुिच िवषय भोगोंसे हो जाय, ऐसा तो
भगवत्प्रेम प्राप्त होनेपर "राम ऄनरु ागी" को ही होता है। यह तो
परम वैराग्य है, िकन्तु िवषयों में ऄनासिि तो ठीक-ठीक र्ास्त्र
73
िविहत धमायचरण करनेसे ही हो जाती है और िबना यह ऄनासिि
हुए भगवत्प्रेम-भजनमें रुिच ईत्पन्न नहीं होती।
सगु म पथं मोिह पाविहं प्रानी' िजस सगु म मागय से प्राणी
भगवान को पा लें- वह मागय प्रभु बतला रहे हैं। वे कहते हैं िक
कुछ करना िवर्ेष नहीं हैं। ब्राह्मणों के चरणों में सच्चा प्रेम होना
चािहये ऄपने वणायश्रम धमय का ठीक-ठीक र्ास्त्र द्रारा बतायी
िविध से पालन करते रहना चािहये। आसका फल यह होगा िक
ऄपने अप िवषय भोगोंसे वैराग्य हो जायगा और तब मेरे धमय-
भजनमें प्रेम ईत्पन्न होगा।
[१२]
श्रवनािदक नव भिि दृढ़ाही।
मम लीला रित ऄित मन माहीं॥
ऄर० १५/८
श्रवण अिद नवधा-भिि पष्टु होगी और मनमें मेरी लीलासे
ऄत्यन्त प्रेम होगा।
‘श्रवणं कीतयनं िवष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
ऄचयनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मिनवेदनम् ॥’
-भागवत ७।५।२३
श्रवण, कीतयन, स्मरण, पादसेवा, ऄचयन (पजू ा), वन्दन,
दास्य, सख्य और अत्मिनवेदन ये प्रिसद्ध नवधा-भिि हैं।
नवधाभिि नामसे आनके र्ास्त्र प्रिसद्ध होने के कारण आनका नाम
74
िगनाना अवश्यक नहीं था। श्रवणािद नवधा-भिि दृढ़ होती है
आतना कह देना ही पयायप्त था।
श्रवणमें भगवन्नामका श्रवण, भगवान के गणु ों का श्रवण
और भगवत्कथाका श्रवण अता है। पस्ु तक पढना श्रवण नहीं है,
वह तो पाठ या स्वाध्याय है। श्रवण तो वही है िजसमें कोइ दसू रा
कहे और स्वयं सनु ा जाय।
कीतयन भी दो प्रकारका है। एक भगवन्नाम कीतयन-आसे
नारदीय कीतयन-पद्धित कहते हैं। श्रीगौराङ्ग महाप्रभनु े वतयमान
यगु में आस कीतयन पद्धितका प्रचार-प्रसार बहुत ऄिधक िकया।
दसू री लीला या गणु -कीतयन- आसे वैयासकीय कीतयन-पद्धित कहते
हैं। महाराष्र के संत श्रीतक
ु ाराम,अिद आसी प्रकारका कीतयन करते
थे।
स्मरण भी दो प्रकारसे होते हैं-एक नामका और दसू रे गणु एवं
लीला का । स्मरण मनका धमय है। ऄत: मानिसक जपको नाम
स्मरण मान सकते हैं। वािचक या ईपार् ं ु जप एकाग्र मनसे हो तभी
वे नाम स्मरण हैं, ऄन्यथा जपकी िक्रया मात्र ही हैं ।
पाद-सेवनको ऄचयनसे पथृ क भिि क्यों माना जाता है? आस
प्रश्न का ईत्तर कुछ सतं यह देते हैं िक पाद-सेवन भििका तात्पयय
है गरुु -चरणों की सेवा। कुछ संत कहते हैं िक श्रीमद्भागवतके
श्लोक में ‘िवष्णोः’ र्ब्द स्पष्ट अया है, ऄतः सभी भिियाँ
भगवानके प्रित ही करने की बात है, गरुु या ऄन्य िकसीके प्रित
75
नहीं। कुछ भि भगवान के के वल चरणोंका ध्यान, िचन्तन और
पजू न करते हैं। वे परू े श्रीिवग्रहका ध्यान या पजू न नहीं करते ।
पाद-सेवन भिि ईन्हीं की मानी जानी चािहये।
ऄचयनका ऄथय है पजू ा। भगवान्की मिू तयका िविध-िवधानसे
श्रद्धा पवू यक पजू न करना ही ऄचयन-भिि है।
वन्दन ऄथायत प्रणाम करना भी एक स्वतन्त्र भिि है।
प्रािणमात्र जड-चेतन सचराचर जगतको भगवान का स्वरप
मानकर सबको प्रणाम करना, यह ईत्तम भिि बतायी गयी है।
श्रीमद्भागवतने अदेर् िदया है-प्रणमेद् दण्डवद् भिू म अश्व
चाण्डाल गो खरान'् चाण्डालसे लेकर कुत्ते, गाय और गधे तकको
भी पथ्ृ वीमें पड़कर दण्डवत् प्रणाम करे । "यत् िकं च भतू ं
प्रणमेदनन्यः' िजतने भी प्राणी-पदाथय हैं, सबमें ऄनन्य भगवद्भाव
रखकर सबको प्रणाम करे ।
श्रवण, कीतयन, स्मरण, पादसेवन, ऄचयन और वन्दन ये ६
साधन भिि हैं। आनका अचरण करनेसे साध्य भिि प्रेमरपा
भिि का हृदयमें प्रादभु ायव होता है।
दास्य ऄथायत् प्रभु स्वामी हैं और मैं ईनका सेवक ह-ँ यह भाव
साधन भी है और साध्य भी। सच बात यह है िक दास्य सावयभौम
भाव है। वह व्यिि की प्रत्येक दर्ा, भििके प्रत्येक ऄगं में
व्यापक है। श्रवण, कीतयनािद करते समय भी प्रभु स्वामी हैं और मैं
सेवक हँ यह भाव रहता है और सख्य तथा अत्मिनवेदनमें भी
76
अराध्यके प्रित सेवाका भाव तो रहता ही है । भरतािद भाइ जो
सख्यके अदर्य हैं ऄपनेको प्रभक ु ा सेवक ही मानते हैं। आसी प्रकार
अत्मिनवेदन-माधयु य भावकी साक्षात् मिू तय श्रीजनकनिन्दनीमें भी
प्रभक
ु ी सेवाकी लालसा, दास्यका भाव तो रहता ही है। आसीिलये
दास्यको सावयभौम भाव कहा जाता है ।
सख्यका ऄथय है िमत्रताका भाव। परु ाना सेवक भी स्वामीसे
ऄत्यन्त िनकटता होने के कारण िमत्र के समान व्यवहार करने
लगता है। ईपासना के द्रारा जब िचत्त िनमयल हो जाता है, वासनाएँ
सवयथा दरू हो जाती हैं तब कुछ चाह या कुछ नष्ट होने का भय तो
रह नहीं जाता। प्रभसु े ऄत्यन्त समीपता, अत्मीयताका भाव
जागतृ होता है। ‘वे ऄपने हैं' यह ऄनभु िू त होने लगती है। यही
सख्य भाव है।
अत्मिनवेदन ऄथायत् माधयु यभाव तो भिि की चरम सीमा
है। ऄपना कुछ नहीं रहा, सब कुछ-यहां तक िक ऄपना 'स्व' भी
ईनके चरणों में िवसिजयत हो गया और ईनको छोड़कर दसू रे की
सत्ता भी र्ेष नहीं रही। 'सपनेहु अन परुु ष जग नाहीं।' यह
सवोत्तम पितव्रताकी िस्थित प्राप्त हो गयी-यही अत्मिनवेदन है।
यहाँ यह ध्यान रहना चािहये िक सख्य या अत्मिनवेदन के
भाव िकये नहीं जाते। जब भी आन्हें िकया जायगा, के वल दम्भ
होगा और दम्भका फल तो पतन- नरक है। ये भाव तो जब स्वयं
प्रगट हों, तब अते हैं। जहां तक करने की बात है- के वल दास्य
77
भाव िकया जाता है- यही करणीय है। जीव परमात्माका दास है,
यही परम सत्य है। ईसे ऄपनेको सेवक मानकर भजन करना
चािहये ।
'श्रवनािदक नव भिि दृढ़ाहीं।' ये नव प्रकारकी भिि दृढ़
होती कब? जब िवप्र- चरणमें ऄत्यन्त प्रेम हो तथा ऄपने
वणायश्रम धमय के ऄनसु ार अचरण िकया जाय, िजसके फल से
िवषयों में वैराग्य हो जाय। 'तब मम धमय ईपज ऄनरु ागा।' यह बात
पिहले प्रभु कह ही चक ु े हैं। वह 'मम धमय' ये 'श्रवनािदक नव भिि'
हैं। लेिकन यहाँ श्रीरघनु ाथजी िवर्ेष बात बतला रहे हैं 'मम लीला
रित ऄित मन माही।’ ब्राह्मणोंके चरणों में सच्चे प्रेम तथा
स्वधमायचरण से वैराग्य ईत्पन्न होने पर भििमें प्रेम तो ईत्पन्न
होगा; िकन्तु वह प्रेम दृढ़ कै से होगा यह बात यहाँ बतायी गयी है।
वह प्रेम-श्रवणािदक नवधा-भििकी दृढ़ता तभी होगी जब
भगवानकी ऄवतार कथामें ऄत्यन्त रित-लगन हो। लीला-श्रवण,
लीला िचन्तन तथा लीलानरु ाग ही भििको दृढ़ करने के साधन
हैं।
भगवानके ऄवतार लेने, ऄवतार लेकर िविवध चररत करने
का मख्ु य प्रयोजन ही यह है िक ईन चररतोंको सनु कर, ईनका
िचन्तन कर जीवोंकी भगवान में प्रीित हो । श्रीमद्भागवत में
र्क ु देवजीने यह बताया है-
'भजते तादृर्ीः क्रीडा याः श्रत्ु वा तत्परो भवेत् ।'
78
ह वैसे ही चररत करते हैं िजनको श्रवण करके मनष्ु य ईनके
परायण हो ।
भगवान में ऄनरु ाग हो, भजन-साधनमें रुिच बढ़े ईनमें मन
लगे, आसका सगु म साधन श्रीरघनु ाथजीने यहां बताया है िक ईनके
ऄवतार चररतोंमें मनकी ऄत्यन्त प्रीित होनी चािहये । लीला-
श्रवण, तथा लीला िचन्तनमें ऄिधक समय देना चािहये।
[१३]
संत चरन पंकज ऄित प्रेमा। मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा।।
गरुु िपतु मातु बंधु पित देवा। सब मोिह कहँ जाने दृढ़ सेवा।।
मम गनु गावत पल ु क सरीरा। गदगद िगरा नयन बह नीरा।।
काम अिद मद दभं न जाकें । तात िनरंतर बस मैं ताकें ।।
-ऄर०१५।९-१२
सतं ोंके चरण-कमलोंमें ऄत्यन्त प्रेम हो मन, वचन और
कमयसे भजनका दृढ़ िनयम रहे, गरुु , िपता, माता, बन्धजु न, पित
तथा देवता अिद सब मझु को ही समझ कर दृढ़ता पवू यक मेरी
सेवा करें , मेरा गणु गान करते समय र्रीर में रोमाञ्च हो जाय,
वाणी गद-् गद् हो जाय और नेत्रोंसे अँसू बहने लगें,(आन सबके
साथ) िजसमें कामािद दोष, गवय और दभं नहीं है, भाइ लक्ष्मण !
मैं तो सदा ही ईसके वर् में ह।ँ
'तम्ु हते ऄिधक संत कर लेखा' यह भिका अदर्य है।
अराध्य की ऄपेक्षा भी संतका वह ऄिधक अदर करता है।
79
क्योंिक संत-कृपासे ही भिि प्राप्त हुइ और सत्सगं से ही भजनमें
रुिच बढ़ती है। लेिकन आसका यह ऄथय नहीं है िक सतं चरन पक ं ज
में ऄित प्रेमा होने के कारण सतं को ही अराध्य मान लें और
ऄक्षत,् चन्दन, माला लेकर ईनके नश्वर देहकी ईपासना तथा ईन
संतके ही नामके जपमें लग जाय। यह तो गरुु डम है और दभु ायग्य से
तथा किलयगु के प्रभावसे यह अजकल बहुत फै ल रहा है। लेिकन
है यह सवयथा ऄवांछनीय । संत मागय-दर्यक है प्रकार्दाता है;
िकन्तु वही लक्ष्य नहीं है। मागय िदखलाने के िलये लालटेनकी
िजतनी महत्ता कही जाय कम है; िकन्तु जो लालटेन की ही पजू ा
करने लगेगा ईसे सामने रखकर, वह तो कहीं का नहीं होगा ।
लालटेनका सारा महत्व आसमें है िक वह हमें लक्ष्य ओर ले जाती
है, लक्ष्य की ओर जाने में सहायता देती है । कोइ लालटेन जैसा
चम्ु बकीय पदाथय ऄपने पास ही हमें रोक रखे तो वह लालटेन नहीं
वह तो पटककर तोड़ देने योग्य है। आसी प्रकार जो भगवानकी
ओर जाने के बदले ऄपना ध्यान करने, ऄपने नामका जप
करनेका अदेर् करते हैं, ऄपनी सेवामें ही िर्ष्यको ऄटकाये
रहते हैं, वे सतं नहीं हैं । वे तो मायावी हैं, ईन्हें सवयथा त्याग देना
चािहये।
संतके चरणों में प्रेम होनेसे संतके द्रारा भगवान के भजनकी
प्रेरणा िमलेगी-यिद वह सचमचु संत है। लेिकन भजन तो करना

80
ही पड़ेगा। सब कुछ सतं ऄपनी कृपासे कर देगा- आस भावसे बड़ा
कोइ धोखा नहीं है। आसीिलये भगवान् अगे कहते हैं-
मन, क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा।
मन, कमय और वाणीसे भजनका दृढ़ िनयम होना चािहये ।
ईत्तम भजन वह जो मनसे हो । मानिसक जप, मानस-पजू न,
ध्यान, भगवान के गणु ों तथा लीलाओकं ा िचन्तन मन से होता है।
नवधा-भिि में अत्म िनवेदन, सख्य, दास्य और स्मरण ये मनसे
होने वाली भिि हैं । मन वर् में नहीं है, स्मरण-िचन्तन अिदमें
लगता नहीं, बार-बार चेष्टा करनेपर भी आधर-ईधर भाग जाता है
तो कमयसे दृढ़ िनयम बनाकर भजन करना चािहये । तीथायटन,
भगवान की पजू ा अिद कमयसे भजन होता है। नवधा-भिि में से
वन्दन, ऄचयन, पाद-सेवन और श्रवण ये कमयसे होने वाली भिि
हैं। घरमें ऄचयनके िलये रव्य नहीं, तीथायटन की सिु वधा नहीं,
जीवन िनवायह एवं पररवार-पोषणके कामोंसे समय ही नहीं िमलता
िक ऄचाय, पजू ा, कथािद श्रवण िकया जा सके । ऐसी ऄवस्थामें
वाणीसे दृढ़ िनयम-पवू यक भजन करना चािहये । नवधा-भिि में
कीतयन वाणीसे होने वाली भिि है। जप और कीतयन दोनों आसके
ऄन्तगयत हैं। सब समय, सब दर्ामें, सब काम करते हुए सवयदा
मख ु से भगवन्नामका जप िकया जा सकता है। आसमें मन लगे, न
लगे का प्रश्न ही नहीं। के वल जीभसे िनरन्तर-नाम जप होता रहे-
यह ऄभ्यास हो जाना चािहये। आस प्रकार 'मन क्रम वचन' में एक
81
क्रम बतलाया प्रभु ने । मन, वाणी तथा कमय तीनोंसे भजन करना
चािहये यह बात तो मख्ु य है ही।
‘गरुु िमतु मातु बन्धु पित देवा’ गरुु ऄथायत् मन्त्रदाता गरुु एवं
दसू रे ऄपने पज्ू य वगय के लोग, िपता, माता, बन्ध-ु बान्धव, पत्नी
और देवता 'सब मोिह कह जानै' यह सब भगवान को ही समझे।
आसमें यह नहीं कहा जा रहा है िक गरुु , िपता, माता, बन्ध-ु बान्धव
पित तथा देवतािदका त्याग कर दें। कहा यह जा रहा है िक आन
सबको अराध्यका ही रप समझे, आनकी सेवा-पजू ा भी
अराध्यकी पजू ा समझ कर करे , िकन्तु प्रेम भगवान से ही करें ।
जहाँ अराध्यके प्रेम एवं सेवा में गरुु , माता, िपता, बन्ध-ु बान्धव,
पित या देवताओ ं द्रारा बाधा पड़ती हो-पड़ सकती हो, वहाँ ये
लौिकक सम्बन्ध त्याज्य हो जायेंगे। वहाँ तो भगवान- अराध्यमें
ही प्रीित होनी चािहये । प्रभु ही मेरे गरुु , माता, िपता, भाइ-बन्ध,ु
पित तथा देवता हैं, यह दृढ़ भाव मनमें होना चािहये और 'दृढ़
सेवा' से दृढ़ता पवू यक िनयम तथा िनष्ठा पवू यक सेवा होनी चािहए।
के वल मनमें मानना ही पयायप्त नहीं है, सेवा-भजन तो दृढ़ता पवू यक
होना ही चािहये।
बाहरी रहन-सहन का अदर्य बतलाकर प्रभु ऄब भिके
मनकी क्या दर्ा हो जाती है या रहती है, आसका वणयन करते हैं-
मम गनु गावत पल ु क सरीरा।
गदगद िगरा नयन बह नीरा॥
82
ऄर० १५।११
बात यह है िक हृदयमें प्रेम होनेपर र्रीर में ईसके िचह्न प्रगट
होते हैं । ईन िचह्नोंको साित्वक भाव-िवकार कहा जाता है । ये
भाव-िवकार अठ हैं-१ स्तम्भ ऄथायत् जैसेके वैसे जड़वत् रह
जाना २-ऄश्रु ३-स्वेद ऄथायत् र्रीरसे ऄकारण पसीना बहने
लगना ४-रोमाञ्च ऄथायत् र्रीरमें िसहरन होकर रोमोंका खड़े हो
जाना ५-स्वर-भेद ऄथायत् कंठ गद-् गद् हो जाना ६-कम्प
(र्रीरका काँपना) ७–वैवण्यय ऄथायत् र्रीरका रंग पीला या सफे द
हो जाना ८-प्रलय ऄथायत् मिू छय त हो जाना।
लेिकन मयायदा-परुु षोत्तम यहाँ अठों साित्वक-भावोंकी बात
नहीं कह रहे हैं । 'मम गनु गावत' की ही बात प्रभु कह रहे हैं और
बता रहे हैं िक िजसके हृदय में प्रेम है-गणु -गान करते समय ईसका
र्रीर रोमािं चत हो जाता है, वाणी गद-् गद् हो जाती है और नेत्रोंसे
ऄश्रु प्रवाह चलने लगता है।
'काम अिद मद दम्भ न जाकें ' यह पिं ि बहुत ही महत्वपणू य
और ध्यान देने योग्य है। काम, क्रोध लोभ, मद और दम्भ आनके
द्रारा भी ये सब काम होते हैं जो उपर कहे गये हैं। जप, कीतयन,
पजू न, ध्यान अिद िक्रयाओ ं में िकसी कामनावर्, िकसीसे बदला
लेने के िलये, लोभकी पिू तयके िलये तथा दम्भसे हो सकती हैं।
दम्भसे ऄश्रु बहाने, गद-् गद् स्वर हो जाने, रोमािञ्चत होनेकी बात
तो दरू मछ ू ाय तकका ऄिभनय लोग करते हैं । नाटक-िसनेमामें जैसे
83
ऄिभनेता ऄश्रु अिद िदखा लेते हैं, वैसे ही लोग कथा-कीतयनमें
भी ऄश्रु बहाते हैं, गद् गद् स्वर बना लेते हैं, रोमाच ं या कम्प
िदखलाते हैं और यह दम्भ से-ऄपनेको भि िदखलानेके िलये
होता है । यह दम्भ न भी हो तो भी मद हो जाता है िक मैं भि ह-ँ
मझु में प्रेमके आतने लक्षण हैं, दसू रे सब तो ऄभि हैं, मझु से हीन हैं,
ऄधम हैं। आस प्रकार का गवय भििके ईत्तम भावोंको भी ले डूबता
है।
मयायदा-परुु षोत्तम कहते हैं िक िजसमें काम, क्रोध, लोभ और
दम्भ न हो तो ईसके वर् में तो मैं सदा ही ह।ँ श्रीमद्भागवतमें भी
भगवानने कहा है
ऄहं भिपराधीनो ह्यस्वतन्त्र आव िद्रज ।
साधिु भग्रयस्तहृदयो भिै भयिजनिप्रयः ॥
भागवत-९/४/६३
[१४]
बचन कमय मन मोरर गित भजनु करिहं िनःकाम।।
ितन्ह के हृदय कमल महुँ करईँ सदा िबश्राम।।
-ऄर०१६
वाणी, कमय और मनसे िजनकी गित (लगन) मझु में ही है
और िनष्काम भावसे भजन करते हैं, ईनके हृदय-कमलमें मैं सदा
िवश्राम करता ह।ँ

84
पिहले 'मन क्रम वचन भजन' प्रभनु े बतलाया था। वहां भजन
करने की बात थी ऄतः मन, क्रम तथा वाणी, यह क्रम बतलाया
गया था। ऄब यहाँ वचन-कमय तथा मनका क्रम बतला रहे हैं ।
वाणीकी गित भगवान में ही हो ऄथायत् भगवान के नाम, गणु तथा
लीलाका ही वणयन वाणी करें । कमयकी गित भगवान में हो ऄथायत्
िजतने भी कमय िकये जायें, भगवत्प्रीितके िलये ही िकये जायें और
मनकी गित भगवान हो ऄथायत् मनसे भगवानके ही रप, गणु तथा
लीलाओकं ा िचन्तन हो।
मन, वाणी और कमय तीनोंकी गित भगवान में ही हो,
भगवान को छोड़कर ऄपने िलये जीवन में कुछ न बचा हो न
बोलना, न करना और न सोचना । जीवन भगवन्मय हो,
भगवानके िलये ही हो। र्रीर, मन और वाणी एक यन्त्रके समान
हो चक ु ा हो जो िक प्रभु के िलये ही प्रयि
ु हो । यह सब िकसी
ईद्देश्यसे, िकसी कामनाको लेकर न हो। "भजन करिहं िनःकाम'
सवयथा िनष्काम भावसे भजन हो।
मोर दास कहाआ नर असा।
करआ तौ कहहु कहा िबस्वासा।।
-ईत्तर ४५/५
प्रभु ने कहा है िक मेरा सेवक िकसी ऄन्य मनष्ु यकी यिद
अर्ा करता है तो बतलाओ -ईसे मझु पर िवश्वास ही कहां है।
लेिकन यहाँ तो दसू रे िकसी से अर्ा की बात ही नहीं रह
85
जाती। यहाँ तो िनष्काम भाव के भजन की बात है। यहाँ
आहलोक, परलोक और मोक्ष तक की कामना नहीं है। भजन िकसी
ऄन्य ईद्देश्य से नहीं होता-वह भजन के िलये ही होता है। भजन
करना िप्रय है आसिलये भजन िकया जाता है। भजन को छोड़कर न
कुछ बोलना ऄच्छा लगता है, न करना ऄच्छा लगता और न
देखना ही ऄच्छा लगता। भि के िलये प्रभु कहते है-
ितन्ह के हृदय कमल महुँ करईँ सदा िबश्राम
ईसके हृदय-कमलमें मैं सदा िवश्राम करता ह।ँ यहाँ घटं े दो
घटं े रहने स्थान में अने की बात नहीं है ईसका हृदय-कमल तो
भगवानका िनत्य िनवास बन पाता है। भगवान तो ऄन्तयायमी है,
वे सबके ही हृदयमें सदा रहते हैं, ऄतः वहाँ ईन्होंने िवर्ेष बात
क्या कही? आसका ईत्तर एक तो यह है िक भगवान सबके हृदयमें
रहते है, यह बात ठीक है, िकन्तु वे वहाँ रहते हैं वास व िनवास
करते है, िवश्राम नहीं करते। िवश्राम करना कहते हैं सख ु पवू यक
िनिश्चतं होकर िवराजमान होने को। िजस हृदयमें काम, क्रोध,
लोभ का सघं षय चल रहा है, िवषय-वासनाओकं ी दगु यिन्ध जहाँ
भरी है, जो हृदय नाना पाप संस्कारोंसे मिलन है, वहाँ प्रभक ु ो
िवश्राम कै से िमल सकता है। िवश्राम तो वे सवयथा िनष्काम,
भजनपर, र्द्ध ु हृदयमें ही कर सकते हैं।
दसू री बात यह है िक सबके हृदय में तो भगवान् ऄन्तयायमी
रपमें िनराकार ऄव्यि रपसे रहते है िकन्तु यहाँ
86
श्रीकौर्ल्यानन्द-वधयन स्वयं ऄपने िलये ‘करईँ सदा िबश्राम’
कहते हैं। ऄथायत् ईस िनष्काम भि के हृदय में तो ये नव-जलधर
सन्ु दर सगणु -साकार रपसे िवश्राम करते हैं।
देविषय नारदजीने िनराकार ऄन्तयायमी भगवान्से िभन्न सगणु -
साकार भगवान् के हृदयमें अनेकी बात बतलायी है। स्वयं ऄपने
ऄनभु व की बात भगवान् व्याससे कह रहे हैं-
‚प्रगायतः स्ववीयायिण तीथयपादः िप्रयश्रवाः ।
अहत आव मे र्ीघ्रं दर्यनं याित चेतिस ॥’’
- भागवत १/६/३४
देविषय कहते हैं-'जब मैं ईन िप्रयश्रवण (िजनके गणु सनु ने में
बहुत प्यारे लगते हैं) तीथय-चरण (िजनके श्रीचरण ही सब को परम
पिवत्र करने वाले हैं) का गणु गान करने लगता हं तो ऄपने गणु
पराक्रमका गान होते ही झटपट वे मेरे हृदय में प्रगट होकर आस
प्रकार दर्यन देने लगते हैं, जैसे ईन्हें बल
ु ाया गया हो।'
यहाँ स्पष्ट है िक यह हृदयमें दर्यन सगणु -साकारका होता है ।
आसी प्रकार मयायदा-परुु षोत्तम िनष्काम-भावसे मन, वाणी, कमयसे
सब प्रकार भजन करनेवाले के हदयमें सगणु साकार रपसे सदा
िवश्राम करने की बात कह रहे हैं।
उपसंहार
भगित जोग सिु न ऄित सख ु पावा।
लिछमन प्रभु चरनिन्ह िसरु नावा।।
87
ऄर० १६।१
भिियोग सनु कर लक्ष्मणजीको बड़ा सख ु हुअ, ईन्होंने
प्रभक ु े चरणोंमें मस्तक झक ु ा िदया।
'जातें होआ चरन रित' यही लक्ष्मणजी का मख्ु य प्रश्न था ।
ईन्होंने ऄपना ईद्देश्य स्पष्ट कर िदया था-'सब तिज करौं चरनरज
सेवा' ऐसी ऄवस्थामें, भिियोग सनु कर ईनको ऄत्यन्त सख ु
िमला-यह स्वाभािवक बात है । आसके बदले भला वे प्रभक ु ो क्या
दे सकते थे, ईनके पास ऐसा ऄपना रहा ही क्या था जो पिहले ही
प्रभक ु े श्रीचरणों में ऄिपयत न हो सका हो । आसिलये ईन्होंने मस्तक
झक ु ा िदया प्रभक ु े श्रीचरणोंपर । आस मस्तक झक
ु ानेका तात्पयय है-
'नाथ! मैं तो सदा से तन-मनसे आन चरणों में ऄिपयत अपका दास
ह।ँ '
***

88

You might also like