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प्रमाण मीमाांसा

3/8/21
प्रमाणनयैरधिगमः अर्ाात् -प्रमाण और नय के द्वारा पदार्ों का ज्ञान होता है।
प्रश्न है धक प्रमाण को जानने की अपेक्षा कयूँय है? (प्रार्धमक प्रश्न )
हर प्राणी/ जीव सुखी होना चाहता है । यद्यधप सुख प्राधि की इच्छा रखने वाले सभी जीव पुरुषार्ा
करते है पर कोई धवरला ही ऐसा सुखी होता हुआ धदखाई देता है । ऐसा कयों ?
ऐसा इसीधलए – सुख प्राधि की इच्छा करना एक बात ।
सुख प्राधि के धलए पुरुषार्ा करना दसय री बात ।
और सख
ु प्राधि के धलए वास्तधवक परुु षार्ा करना तीसरी बात ।
प्रर्म दो धबांदु सभी के धलए समान धकांतु अधततम धबांदु धवशेष है ।
उदाहरण – धदल्ली से मुम्बई जाने के धलए उस धदशा में जाने वाली ट्रैन में बैठना होता है न धक धवपरीत
धदशा वाली ट्रैन में धकतनी भी तेज चले व्यधि मुम्बई नहीं पहुांचेगा । बधल्क मुम्बई से उतना ही दरय हो
जाएगा ।
दार्शनिक की 2 धाराएं :-
एक कहती है “ध्यान करो – सख
ु ी हो जाओगे”
एक दसय री िारा कहती है – “ ध्यान करने से पहले जो ध्यान का ध्येय है उसका धनणाय करो । ध्येय का
धनणाय नहीं होगा तो –
ध्यान की धसधि नहीं होती । ध्यान धकसका करोगे?
ध्यान की धसधि के अभाव में आप सुखी नहीं हो पाओगे ।
ऐसी 2 िाराएां आनाधदकाल से चली आ रही हैं । जैसे सच्चा मागा अनाधदकाल से है वैसे ही धमथ्या
मागा भी अनाधदकाल से है । काल की अपेक्षा से धकसी भी एक मागा या दशान को हम अनाधद नहीं
कह सकते । यधद ज्ञान का प्रकाश अनाधदकाल से है तो अांिकार भी अनाधदकाल से है । आगे जाकर
इन दो िाराओ ां में भी भेद-प्रभेद धदखाई देंगे ।
प्रश्न होता है धक कब तक तका करें , कब तक भेद-प्रभेद करें ?
जब तक अभेद की प्राधि न हो तब तक। अर्ाात् जब तक इष्ट की प्राधि न हो तब तक ये प्रधिया
चलेगी ।
कुछ अतय प्रार्धमक चचााएां –
भाषा – प्रधतपादन, धशक्षा, धशक्षण, सांवाद आधद के क्षेत्र में भाषा की प्रार्धमक होती है । विा जो
प्रधतपाधदत करता है उसकी भाषा नहीं समझ आये तो उसका भावार्ा ग्रहण नहीं हो सके गा । पढ़ने-
पढाने वाले के मध्य भाषा सम्बिां ी ताल-मेल अधनवाया होता है ।
“सख ु ी चोट एरि पर” – लोहार जब लोहे को पीटता है तब एरन पर उस लोहे को रख हर्ौड़ी /घन
से पीटता है । यहाूँ लोहा चोट सहन करता है , यधद लोहा र्ोड़ा हट जाय तो भार एरन सहन करती है ।
कभी – कभी सारा भार एरन पर पड़ता है ।
हमेशा मयखा बने रहने धक जगह –र्ोड़ी देर मुखा बने रहना श्रेष्ठ है। (सीख)
स्वाध्याय के 5 अगां
वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय, िमोपदेश
वाचिा – धनदोष ग्रांर् (अक्षर) और अर्ा दोनों को प्रदान करना वाचना स्वाध्याय है ।
पढ़ने का सवोत्कृ ष्ट तरीका पढ़ाना । अपने आप को गुरु मान कर नहीं धवद्यार्ी मान कर ।
अच्छा अध्यापक उसे नहीं कहते जो धकसी अध्यायी को धकसी अध्याय का अध्ययन करा दे अधपतु
धकसी अध्यायी को अध्ययन करने का अध्यासी बना दे ।
विा का गणु –
धकसी का प्रश्न – विा उत्तर दे तो विा को सामातय खुशी ।
श्रोता का प्रश्न –विा उत्तर न दे सके तो विा को धवशेष खुशी ।
ऐसा कयों ? धजतना भी अनुसांिान हो उसकी आिारधशला होती है प्रश्न।
प्रश्न श्रोता कक्ष से आये तो कया हुआ पर अनुसिां ान की सामग्री धमली ये उत्कृ ष्ट बात है ।
“अज्ञान की खोज ही ज्ञान की वास्तधवक खोज है ।“
पृच्छना – सांशय को दरय करने के धलए अर्वा जाने हुए पदार्ा को दृढ़ करने के धलए पयछना, सो
पृच्छना है । परीक्षा के धलए या अपना ज्ञान बताने के धलए पृच्छना नहीं है, वह तो पढ़ाने वाले का
उपहास करना या अपने को ज्ञानी बतलाना हैं ।
अनुसांिान,तपासना का आिार है प्रश्न ।
प्रश्न धकसे कहते हैं? धकतने प्रकार के होते हैं ।
दाशाधनक शैली में कहे तो – सांशय, धवपयाय, अनध्यवसाय ।

• सशां य – जो मागा खुलेगा वह सश ां य से खुलेगा । मागा माने धनश्चय/ धनणाय तत्त्वार्ा सयत्र की
भाषा में कहें तो जो अवाय ज्ञान होगा वह ईहापवय ाक होगा।
जो धनश्चय का काया होगा वो धबना (सांशय) ईहा के नहीं होता ।
सुखी होने का धनयामक हेतु- धवचार शधि का धवकास है न धक स्मरण शधि का धवकास
। यधद लौधकक पढाई मे वरीयता प्राि है तो आध्याधत्मक पढाई मे भी होगी।कयोंधक वहाूँ
धवचार शधि का धवकास हुआ है।
अिपु ेक्षा – जाने हुए पदार्ा का बारम्बार धचतां न करना अनप्रु ेक्षा है । जैसा धक धकसी ने कहा है बाटी
जली कयों, पान सड़ा कयों, घोड़ा अड़ा कयों, धवद्या भुली कयों ? उत्तर एक ही- “पलटा नहीं र्ा ।“

आम्िाय – शुि उच्चारण पयवाक पाठ को पुन: पुन: दोहराना आम्नाय स्वाध्याय है और पाठ को याद
करना भी आम्नाय है । णमोकार, भिामर आधद ।

धर्मोपदेर् – आत्मकल्याण के धलए, धमथ्यामागा व सदां ेह दरय करने के धलए पदार्ा का स्वरुप, श्रोताओ ां
में रत्नत्रय की प्राधि के धलए िमा का उपदेश देना िमोपदेश है ।

धवकास सर द्वारा—
प्रश्न और सश ां य मे फका – दोनो मे िारणा ज्ञान सही होगा पर-
सश ां य मे एक से अधिक धवकल्प होंगे।धजनमें से एक सही धवकल्प होगा।
प्रश्न मे धवकल्प नहीं होंगे।
प्रश्नाभास और सांशया भास
दोनों िारण ज्ञान सही नहीं होगा इनका आिार धमथ्या ज्ञान होगा।
सांशयाभास मे जो धवकल्प होगें कोई भी सही नहीं होंगे।
प्रश्नाभास-आदमी बैठा है ,रात मे धिनर कर रहा है और हम पछ य े कहाूँ जा रहे हो?
4/8/21
Lecture-2

सही पुरुषार्ा कया है ?


स्वयां का ध्यान ।
स्वानभु धय त, आत्मानभु धय त, सम्यक्दशान ।
ध्यान करने का वही जीव पात्र है धजसको अपने ध्येय का धनणाय हुआ हो। व धनणाय करने के धलए जो
कायाकारी है वो है – नय प्रमाण
ध्येय का जो धनणाय होगा वो नय प्रमाण के द्वारा होगा । इसधलए नय प्रमाण को जानना आवश्यक है ।
प्रमाण की बात तो बहुत सारे दाशाधनक करते हैं, धकांतु नय प्रमाण पर बात करने वाला एकमात्र जैन
दशान है । सम्पयणा लोक में । अतय कोई दशान नय पर बात नहीं करता । जैसे – बौि दशान तो मानता ही
नहीं धक ध्यान के धलए प्रमाण की आवश्यकता भी है । बि ु के अनुयाधययों ने जरुर चचाा की है प्रमाण
की । पर बुि ने ऐसा कोई उपदेश नहीं धदया । उतहोंने सीिे-2 ध्यान की बात की।
कुछ और दाशाधनक भी हैं जो धबना प्रमाण ध्यान की बात करते हैं । जैसे – ओशो, जे. सी. कृ ष्ण्मधय ता
आधद ।
प्रमाणवाद दशानों में भी प्रमाण के सार् नय को मानने वाला जैन दशान है ।
प्रश्न है – नय प्रमाण के सार् , अधिगम के उपाय ( जानने के उपाय) हैं उनके सार् वस्तु को हम जान
लेंगे , काया धसधि कर लेंगे, काया धसि कर लेंगे तो बात पयरी हो जाएगी कया ?
नहीं । एक बात और है जो मयल है नय प्रमाण का । उसके धबना नय प्रमाण का जतम नहीं होता । उसका
नाम है धनक्षेप ।
निक्षेप नकसे कहते है ?
स्र्ापना – धजसमें चार बातें होती है । िवलाकार कहते हैं ।
• अप्रकृ त का धनराकरण (अस्वाभाधवक को अलग करना ) धनषेि ।
• प्रकृ त का धनरुपण (स्वाभाधवक का धववेचन) धविेय (धवधि करने के योग्य ।
• सांशय का नाश ।
• यर्ार्ा का धनश्चय (तत्त्वार्ा का धनश्चय)।
अप्रकृ त धकसे कहें व प्रकृ त धकसे कहें ?
स्वभाधवक -प्रकृ त – अस्वभाधवक -अप्रकृ त
प्रकृत –जो वस्तु धजस रुप होती है उस वस्तु की अपेक्षा प्रकृ त।
अप्रकृत – जो वस्तु धजस रुप नहीं होती है उसकी अपेक्षा अप्रकृ त ।
प्रश्न है – वस्तुत: धनषेि के योग्य कया है और धविेय के योग्य कया है ?
धनराकरण और धनरुपण करने के योग्य कया है, कौन हैं?
ध्यातव्य धबांदु है धक यह मुख्य और गौण नहीं । धविेय और धनषेि है ।
ये दोनों बातें अलग – 2 है ।

गौण निषेध
वस्तगु त होता है । धनषेि अवस्तगु त होता है।
गौण कर रहे हैं कयोंधक दोनों अधस्त-नाधस्त का अवस्तुगत कया? जो भी हम कहें वो अवस्तुगत
कर्न एक सार् नहीं कह पा रहे । कहीं अधस्त कभी नहीं होगा ।
को मख्ु य व नाधस्त को गौण व कहीं नाधस्त को जैन दशान में अभाव धजसको धजस रुप में कहा
मुख्य व अधस्त को गौण धकया जाता है । यहाूँ जा रहा है वह उस रुप में नहीं है । (अतय
अधस्त-नाधस्त दोनों वस्तुगत भाव हैं । दाशाधनक कहता है धक धजसका अभाव है वो
धकसी भी रुप में नहीं है। जैन दशान सवार्ा असत्
का सवार्ा धनषेि नहीं करता ।
हेय
हेय भी वस्तुगत है त्यागने योग्य । अवस्तु नहीं
होता । जैसे अशभु भाव ।

अवस्तुगत – इस सांदभा में देवागम स्त्रोत में एक बात आती है।


आचाया समांतभद्र के माध्यम से धक – धनषेि कौन है ? धनषेि के योग्य असत् नहीं सत् है । अर्ाात् जो
कहा जा रहा है वो नहीं है ऐसा नहीं है । अधपतु जो कहा जा रहा है वो धजस रुप में कहा जा रहा है, उस
रूप में नहीं है ।
जैसे अगर कहा जाये धक – वस्तु पर चतुष्टय (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव) से अधस्त रूप है । तो कया वस्तु
पर चतुष्टय से अधस्त रुप है? तो उत्तर होगा -नहीं वस्तु स्व चतुष्टय से अधस्तरूप है पर चतुष्टय से नहीं ।
अर्ाात् वस्तु अधस्त रुप है स्व चतुष्टय से । कहने का अधभप्राय है धजसका धनषेि धकया जा रहा है वह
सवार्ा नहीं है ऐसा नहीं है अधपतु उसे धजस रुप में कहा जा रहा है वहाां उस रुप में न होकर अतय रुप में
है । जैन दशान की महानता यही तो है धक पणय ा असत् कुछ होता ही नहीं है । आप कुछ भी कहें उसमें
कुछ सत् होगा ।
उदाहरण – आकाश कुसुम – आकाश की सत्ता है कुसुम की सत्ता भी है पर आकाश कुसुम नहीं है ।
गिा है – सींग है पर गिा का सींग नहीं हैं ।
जैन दशान के सारे अभाव वस्तुगत अभाव हैं बाकी सब दशानों के अभाव तुच्छाभाव हैं। प्राग् भाव,
अत्यांताभाव आधद की चचाा अतय दाशाधनक भी करते हैं धकांतु उनके अभाव तुच्छाभाव धसि होते हैं
और जैन दशान के वस्तुगत भाव धसि होते है ।
कयोंधक वे एकाधां तक हैं व जैन दशान अनेकाधां तक है।
तच्ु छाभाव – माने सवार्ा अभाव । तुच्छ अर्ाात् धजसका कोई अधस्तत्व ही नहीं है सवार्ा असत् का
धनषेि ।
हम कभी धकसी को यह नहीं कह सकते की वह गलत बोल रहा है । हो सकता है एक व्यधि सही
समझता हो पर कह नहीं पाता हो । कहने में भाषा वगाणा मदद करेगी तो अगर उस जाधत का पु्य
उदय में न हो तो कै से सही यर्ार्ा बोलेगा ।
कभी – कभी सही बोलने वाला भी गलत समझने वाला हो सकता है ।
आचाया उमास्वाधत जी तत्त्वार्ा सयत्र में कहते हैं –
तत्त्वार्श श्रदािं सम्यकदर्शिं – तत्त्वार्ा का ज्ञान कै से होवें ? वहाां तक पहुूँचने के धलए जो प्रधिया
सम्पतन होती है उस प्रधिया को यहाूँ दशााया गया हैं ।
“जैन दशान खिां न करने वालों का ख्िन करता है ।“
(बाकी मत ऐकाधततक है। वस्तु का स्वरूप अनैकाधततक है। ऐकाधततक होने के कारण वो वस्तु स्वभाव
का खांिन कर रहे है, और हमें वस्तु स्वभाव को धसि करने करने के धलए उनका ख्िन करना पड़ता
है।
इसको इस तरह भी कह सकते हैं धक हम ख्िन नहीं करते, हम तो वस्तु स्वभाव का म्िन करते है,
धजसे उनको अपना ख्िन लगता है।) - By vikas sir
“धजसका धनराकरण धकया जाना चाधहए उसका सवार्ा धनराकरण नहीं होता ।“
धनवारण – धनवारण के योग्य कया ?
सांशय -
5/8/21
Lecture 3
नाधस्त एवां धनषेि में कया फका है । दृष्टातां में समझें ।
धपछली चचाा में तीन बातें सामने आई र्ी –
1. मुख्य- गौण
2. धविेय-धनषेि (धवधि-धनषेि) (धवधि के योग्य-धनषेि के योग्य)
3. हेय-याधन त्याज्य (हेय, ज्ञेय, उपादेय)
दृष्टातां – एक र्ाली में मयूँग, गेहूँ, राजमा, चना आधद िान है । उसमें कांकर भी है । अब सवा प्रर्म हम
इसमें से कांकर को हटा देंगे कयोंधक उसका कोई उपयोग नहीं । धफर एक एक िान को मख्ु य कर अतय
को गौण कर उनको उपयोधगता अनुसार छाूँट लेंगे ।
यहाूँ समझने योग्य है धक जब धजस वस्तु को मुख्य धकया व अतय को गौण, वह वस्तु रुप हैं ।
जैन दशान कहता है धक धनषेि भी सत् ही है । धविेय तो सत् है ही धकांतु धनषेि भी सत् है धजसका
धनषेि धकया जा रहा है एकाांती के द्वारा (जैन दशान तो धकसी का खांिन नहीं करता) वो नहीं है ऐसा
नहीं है अधपतु उसे धजस रुप में कहा गया है उसका उस रुप में नहीं होना यही धनषेि की धवषय वस्तु है
व वह अवस्तुरुप है । अवस्तुरुप अर्ाात् धजस रुप में कहा गया उस रुप में नहीं होना ।
गौण इसधलए धकया गया कयुांधक भाषा वगाणा की मजबयरी है, अविव्य है, एक सार् कहा नहीं जा
सकता ।
यहाूँ इस दृष्टाांत में कांकर का धनषेि सवार्ा धनषेि नहीं है । धकसी एक धववक्षा से धनषेि है और धकसी
दसय री धववक्षा से गौण भी बन सके गा । और जो ग़ौण है वह धकसी एक धववक्षा से धनषेि हो जाएगा
अलग समय पर । यही जैन दशान का अनेकातां वाद है।
जैसे: वस्तु का अधस्तपना धविेय है स्व चतुष्टय की अपेक्षा से और धनषेि है पर चतुष्टय की अपेक्षा से

उदाहरण- जड़ का चेतन में अभाव है इसधलए (यहाूँ जड़ धनषेि...)
जड़ में चेतन की नाधस्त है व जड़ रूप की अधस्त ।
हेय:- त्याज्य – त्याग को यहाूँ अभाव के रुप में ग्रहण करना ।
(एक स्र्ान से दसय रे स्र्ान ले जाना वैसा त्याग नहीं )
उदाहरण – आस्रव और बांि त्यागने /अभाव करने योग्य है ।
महावीर की देशना का पात्र कौन ? - सयक्ष्म तत्व का लोभी।
सक्ष्य म तत्त्व का लोभी होना ये अनेकाांती के पास ही धमलेगा कयुांधक अतयमधत को सश
ां य होता ही नहीं है

धदगम्बर आम्नाय में “आचाया जयसेन” द्वारा पांचाधस्तकाय नामक ग्रांर् धलखा है – ग़ार्ा न. 14 –
स्यात्कार, एवकार दोनों का प्रयोग होगा नय वाकय में व प्रमाण वाकय में अके ले स्यात्कार का प्रयोग
होगा । यह बात जयसेनाचाया ने आचाया कुांदक ् ुां द के पांचाधस्तकाय की टीका में धलखी हैं ।
(यह बात सर को नहीं जची व उतहें आचाया अकलांक का एक उदाहरण प्राि हुआ ।
आचाया अकलांक ने तत्त्वार्ा सयत्रजी के ऊपर जो राजवाधताक नाम की टीका धलखी है वहाूँ पर चौर्े
अध्याय में 42 नम्बर की काररका में आचाया अकलक ां जी ने प्रमाण सिभगां ी की बात उठाई व सात में
से तीन भगां ो में स्यात्कार, एवकार दोनों का प्रयोग धकया । बाधक की चार भगां ों में ऐसा मानना चाधहए
धक यह प्रयोग (एवकार और स्यात्कार) दोनों (नय और प्रमाण वाकय रचना में होगा । ऐसा न मानें तो
एवकार का िमा कौन धनभाएगा ? स्यात्कार और एवकार दोनों कर्न के िमा है एवां िमा अके ला नहीं
होता, युगल में ही होता है । यधद प्रमाणत्मक वाकय की रचना में एवकार का प्रयोग नहीं मानें तो ऐसी
धस्र्धत में ‘अन-उभय एकाांत’ नामक दोष आएगा।
Continuation of प्रमाण चचाा –
यधद प्रमाण का स्वरुप नहीं जानेंगे तो ‘प्रमेय’ की धसि नहीं होगा।
प्रमेय- अर्ाात् ध्यान का ध्येय। ध्यान का ध्येय धसि नहीं होगा , उसका धनणाय नहीं होगा प्रमाण के
अभाव में तो ध्यान कै से करेंगे व ध्यान नहीं करेंगे तो कल्याण कै से होगा ? सभी दाशाधनक मानते है धक
ध्यान के धबना कल्याण नहीं हो सकता । (कुछ को छोड़कर)
ध्याि करिे का पात्र कौि ?
ध्यान करने का पात्र वो जीव है धजसे वस्तु स्वरुप के सदां भा में धवकल्पात्मक धनणाय हो चक
ु ा है । वही
ध्यान करने का पात्र है यद्यधप वो करता है के नहीं वो अलग बात है । करना सफल होता है या नहीं ये
अलग धवषय है । धकांतु पात्र वह जीव हैं धजसके धवकल्पात्मक ज्ञान में धनणाय हुआ है वस्तु स्वरुप का ।
अर्ाात् उसके ज्ञान में प्रमाण धसि हुआ है। जब तक ज्ञान में प्रमाण की धसधि नहीं होगी, ज्ञान में प्रमाण
प्रकट नहीं होगा तब तक स्वभाव प्रकट नहीं होगा । आत्मानुभयधत नहीं होगी ।
प्रमाण की मधहमा आनी चाधहए । कया हमारा काया इसके धबना रुक जायेगा और रुके गा तो कयों ?
जहाूँ भी अनुसांिान होता है वहाूँ एक प्रश्न बनता है – भेद धवज्ञान का प्रश्न है – भेद धवज्ञान की धविा
कया?
भेद धवज्ञान की धविा के धलए सवाप्रर्म दो सामग्री चाधहए । तब तक इसकी प्रधिया प्रारम्भ नहीं हो
सकती ।
उन दोनों सामधग्रयों में समानता ढुढां ते हुए असमानता ढयूँढे । A और B दो सामधग्रयाूँ हैं – उनमें
समानता ढ़ूँढते हुए असमानता बताओ ।
यहाूँ हमारी दो वस्तु कौनसी हैं ?
धसि धकसको करना है – प्रमाण को धसि करना है ।
दसय री वस्तु कहाूँ से लावे ? इसके धलए एक बात का धनणाय और करना होगा ।
एक वस्तु होती है धवजातीय और एक होती है सजातीय । भेद धवज्ञान के सांदभा में एक होता है
सजातीय तत्त्व व एक होता है धवजातीय तत्त्व । अगर हम प्रमाण के सदां भा में एक सजातीय ढयूँढ ले और
एक धवजातीय ढयूँढ लें तो काया हो सके गा ।
प्रश्न – प्रमाण की सजातीय और धवजातीय वस्तु कया है?
प्रमाण का धवजातीय तत्त्व है सांशय, धवपयाय, अनध्यवसाय । अगर हमें प्रमाण को धसि करना है तो
इनसे धभतन धदखाना होगा। जब तक इनसे धभतन नहीं धदखाएांगे प्रमाण की धसधि नहीं होगी । धनक्षेप
और नय प्रमाण के सजातीय तत्त्व हैं ।
1 स्टेप -अब प्रश्न बनाते हैं –
2 Parties
1 Party – नय / प्रमाण – पक्ष
2 Party – धनक्षेप – धवपक्ष
यहाूँ हम नय /प्रमाण को धसि कर रहे हैं धनक्षेप के प्रकाश में ।
धमली हुई अनेक वस्तओ
ु ां में से वस्तु धवशेष को धभतन करने वाले धचह्न को लक्षण कहते है”आचाया
अकांलक द्वारा।
हम धकसी भी वस्तु का लक्षण बाांि लें धफर उसको धकसी भी अतय वस्तु से धभतन धदखाया जा सकता
है ।
लक्षण की अनेक पररभाषाएां धमलती है पर उनमें कुछ न कुछ दोष धमलता है । अतय दाशाधनक द्वारा
कहा गया ‘वस्तु के असािारण िमा को वस्तु का लक्षण कहते हैं ।“
आचाया ने इस बात को धसि धकया धक अगर वस्तु के असािारण िमा को लक्षण मानेंगे तो ऐसी
धस्र्धत में अव्याधि. अधतव्याधि व असांभव नाम के दोष खड़े हो जायेंगे । तो ये लक्षण का लक्षण
घधटत नहीं हो सकता ।
2 स्टेप
नय/ प्रमाण और धनक्षेप – इन दोनों मे समानता बताते हुए असामनता धसि
करें ।
उदाहरण - A और B दोनों चलते हैं – समानता
A कम खाता है और B ज्यादा – असमानता
यहाां धजस समानता की स्र्ापना की र्ी, असमानता को उसके आिार पर नहीं बताया पर अलग से
खड़ा धकया । धकांतु
अगर हम कहें – A िीरे चलता है और B तेज चलता है ।
यहाूँ जो समानता स्र्ाधपत की गई र्ी प्रर्म वाकय में, उसके आिार पर ही धद्वतीय वाकय की
असमानता बताई
गई ।
धकसी भी दो वस्तुओ ां में अनेक समानताएां हो सकती है धकांतु हम धजस समानता को स्र्ाधपत करेंगे –
असमानता को उसी के आिार पर घटाया जाए तो सही प्राधि होगी ।
अब पहले समानता स्र्ाधपत करेंगे – नय/ प्रमाण – पक्ष ...... धनक्षेप – धवपक्ष
पढ़े धलखे की जवाबदारी – सही भाव ग्रहण करना अर्ाात् प्रधतपादन करना ।
धबना पढ़े धलखे की – सही भाव ग्रहण करना ।
धवकास सर – समानता – दोनों ही भेद िालने की प्रधिया है ।
एक प्रकृ त और अप्रकृ त में भेद िालता है ।
दसय रा प्रकृ त और प्रकृ त में ही भेद िालता है । असमानता ।
6/8/21
Lecture-4

धनक्षेप – प्रकृ त और अप्रकृ त में भेद िालता है ।


नय/प्रमाण – प्रकृ त और प्रकृ त में भेद िालते है ।
प्रधतप्रश्न – नय/प्रमाण दोनों का एक काया धदखाया गया धक प्रकृ त और प्रकृ त के मध्य भेद िालते हैं –
अब अगर नय को प्रमाण से धभतन करें तो नय का काया कया व प्रमाण का काया कया? या
नय की भेद िालने की धवषय वस्तु कया है? वो दो साम्रग्री कया है ?
प्रमाण की भेद िालने की धवषय वस्तु कया है?
प्रमाण दो धभतन धभतन वस्तुओ ां के मध्य भेद िालता हैं ।
नय एक वस्तु के दो िमों के मध्य भेद िालता है जो परस्पर धवरोिी है । जैसे वस्तु वाच्य – अवाच्य/
धनत्य-अधनत्य/ सामातय – धवशेष आधद धवरोिी िमों वाली होती है ।
यहाूँ जैसे एक नय ने वस्तु के अधस्त िमा को मुख्य धकया तो वहाूँ नाधस्त िमा गौण होगा । ‘अधस्त नय’
ने अधस्त और नाधस्त के मध्य भेद िाला ।
पहले चरण में नय को धभतन धकया धनक्षेप से ।
दसय रे चरण में नय को धभतन धकया प्रमाण से ।
प्रश्न – धनक्षेप प्रकृ त और अप्रकृ त के मध्य भेद िालता है । स्पष्ट करें ।
पारमाधर्ाक दृधष्ट से यद्यधप न कोई वस्तु प्रकृ त है न अप्रकृ त है । धववक्षा बदलने से एक ही वस्तु जो
प्रकृ त है वो अप्रकृ त हो जाती है व जो अप्रकृ त है वो प्रकृ त हो जाती है ।

जैसे – वस्तु अधस्त रूप है के नहीं ? उत्तर – है ।


प्र. ये अधस्तपना वस्तु का प्रकृ त भाव है या अप्रकृ त भाव ?
उ. प्रकृ त भाव है ।
प्र. सवार्ा के कर्ांधचत्
उ. कर्ांधचत्
इससे ये फधलत हुआ धक वस्तु का अधस्तपना प्रकृ त भाव भी व कर्धां चत् अप्रकृ त भी । धसि करो –
स्व चतष्टु य से वस्तु को अधस्तरुप कहें तो यहाूँ प्रकृ त भाव कहलाएगा । और पर चतष्टु य से अधस्तपना
अप्रकृ त हो जाएगा ।

प्रश्न – स्व और पर चतुष्टय कया?


चतुष्टय – द्रव्य क्षेत्र-काल- भाव
जब दाशाधनक शैली में वस्तु की धसधि की जाती है तो इन चारों के आिार पर वस्तु को धसि धकया
जाता है ।
दृष्टाांत = एक सभा में सुिाांशु जी बैठे हुए है व एक दसय रा व्यधि गेट पर खड़ा है और कहता है “सुिाश
ां ु
जी आपको बुला रहे हैं ।
सुिाांशु जी का प्रधत प्रश्न – “ मुझे कौन बुला रहे हैं?
व्यधि – महेंद्र जी बल
ु ा रहे हैं।
सुिाांशु जी – “कहाूँ बुला रहे है?
व्यधि – अमुक-अमुक जगह बुला रहे है ।
सुिाांशु जी – कब बुला रहे है ?
व्यधि – इतनी ताररख को इतने बजे बुला रहे हैं ।
सिु ाश
ां ु जी – कयों बल
ु ा रहे हैं ?
व्यधि – अमुक मसले पर मीधटांग में बुला रहे है
तो कौन, कहाूँ, कब, कयों बुला रहे है।
इस दृष्टाांत से द्रव्य- क्षेत्र-काल-भाव की धसधि होती है ।
इसको दसय रे शब्दों में सवा, सवात्र, सवादा, सवार्ा ।
सवा – द्रव्य का द्योतक है – सामातय धवशेषात्मक िमा
सवात्र - क्ष्रेत्र का द्योतक है – भेद- अभेद रुप है ।
सवादा – काल का द्योतक है – धनत्य- अधनत्य रुप है ।
सवार्ा – भाव का द्योतक है – एक – अनेक रुप है ।

प्रश्न – प्रमाण को धसि करने के धलए नय और धनक्षेप की चचाा की अपेक्षा कयों है? सश
ां य आधद को
कयों जानें ?
उदाहरण – कया जीव को जानने के धलए अजीव को जानना आवश्यक हैं?
उत्तर - 1 पक्ष को जानें व धवपक्ष को न जानें तो पक्ष का यर्ार्ा ज्ञान नहीं होगा।
2 जीव – अजीव सांयोग में है तो अगर अजीव को नहीं जानेंगे तो जीव के स्र्ान पर अजीव को ग्रहण
कर लेंगे । धमथ्यादृधष्ट स्व को छोड़ पर को ही तो ग्रहण कर बैठा है ।
तीि प्रकार की र्ैनियााँ होती है –
1. दार्शनिक (2) आगनर्मक (3) अध्यानमर्मक
दाशाधनक शैली से जब धकसी वस्तु को धसि धकया जाता है तब वहाूँ पक्ष धवपक्ष की स्र्ापना करते हैं ।
यहाूँ वस्तु के सार् ज्ञान भी प्रिान होता है । ज्ञान माने – ज्ञात से अज्ञात की ओर अग्रसर होना । ज्ञान
से अज्ञात की ओर अग्रसर होना – ये सवा मातय धसिाांत है । ये अनुसांिान का एक प्रिान अांग है । (
अनसु िां ान/ अतवेषण/तपास/Investigation ) जब भी अनसु िां ान की बात चलती है वहाूँ ज्ञात को
रखा जाता है । ज्ञात के आिार पर अज्ञात को धसि धकया जाता है । दाशाधनक शैली में वस्तु की धसधि
होती है उसमें पक्ष-धवपक्ष की स्र्ापना करते हुए हेतु को खड़ा धकया जाता है और हेतु के माध्यम से
वस्तु की धसधि होती है । हेतु सािन है यहाूँ साध्य की धसधि के धलए । 4 तरह के हेत्वाभाषों का
धनराकरण कर हेतु को खड़ा धकया जाता है ।
आगनर्मक र्ैिी – में लक्ष्य – अलक्ष्य की स्र्ापना के धबना वस्तु की धसधि नहीं हो सकती ।
आगधमक शैली में अके ली वस्तु प्रिान होती है । यहाूँ लक्ष्य- अलक्ष्य की स्र्ापना करते हुए लक्षण
को खड़ा धकया जाता है । लक्षण के आिार पर लक्ष्य की धसधि होती है । आगम शैली में पहले हम
सामग्री को दो भागों में बाूँटते हैं – ‘लक्ष्य- अलक्ष्य’ के रुप में और सािन खड़ा होगा लक्षण । आ.
शै. में धजस सािन से साध्य की धसधि की जाती है वो सािन होता है लक्षण के रुप में । लक्षण
स्र्ाधपत करते वि लक्षण के तीन दोषों का ( अधतव्याि, अव्याि व असभां व) धनराकरण धकया जाता
है ।
आध्यानमर्मक र्ैिी में जब तक प्रयोजन – अप्रयोजन भयत की स्र्ापना न हो तब तक वस्तु की धसधि
नहीं हो पाती । यहाूँ प्रयोजन की प्रिानता होती है । यहाूँ वस्तु स्वात्मा ही होती है प्रयोजन भयत में ।
उसी की धसधि की जाती है । जैसे – जीव कया चाहता है – सुख जो जीव चाहता है वह जीव के धलए
प्रयोजन भतय होगा । इस तयाय से सख ु प्राधि के धजतने सािन हैं वो भी सब प्रयोजन भतय कहलाएगां े ।
जो सख ु प्राधि में बािा बने वह अप्रयोजन भतय ।
प्रर्माण के नवजातीय तत्त्व –
1. संर्य (2) नवपयशय (3) अिध्यवसाय
इन तीनों का एक नाम है – सर्मारोप
आचाया समततभद्र ने समारोप में ये तीन चीजें पढ़ाई धकांतु आचाया अकलक ां ने अज्ञान को भी जोड़ा
उसमें । अज्ञान में हमें औदधयक अज्ञान लेना है । कयोंधक सश
ां य, धवपयाय, अनध्यवसाय ये क्षयोपशम
रुप अज्ञान है व आचाया अकलांक धजसकी बात करते है वो औदधयक अज्ञान है ।

सांशय –“ नवरूद्धािेक कोनट – स्पर्ी ज्ञािं संर्य:”


धवरुि में कौनसा धवरोि लेना ? धकस अर्ा में लेना धवरोिों के नाम –
• सहानवस्र्ान – सह+अन्+अवस्र्ान- वे-ऐसी अनेक अवस्र्ाएां धजनका एक वस्तु में एक
सार् रहना शकय न हो उसे सहानवस्र्ान धवरोि कहते है ।
• तुल्यबल धवरोि
• वध्यघातक धवरोि
• प्रधतबांि – प्रधतबांिक धवरोि
• परस्पर पररहार लक्षण धवरोि
• स्ववचन बाधित धवरोि
• पयवाापर धवरोि

अनेक – अन+एक – एक नहीं सो अनेक । यहाूँ अनेक मतलब दो समझें ।


कोधट-पक्ष – (प्रकार नहीं) (करोड़ नहीं) यहाूँ कोधट का अर्ा पक्ष (पक्ष-धवपक्ष वाला)
स्पशा – (छुना नहीं तो कया?) जानना, ग्रहण करना ज्ञान में
ज्ञानां – ज्ञान
धवरुि – धवरुि पद में हमें सहानवस्र्ान धवरोि ग्रहण करना चाधहए । सह – अन् - अवस्र्ान – वे
ऐसी अनेक अवस्र्ाएां धजनका एक वस्तु में एक सार् रहना शकय न हो उसे सहानवस्र्ान धवरोि कहते
हैं । यहाूँ पक्ष ऐसे खड़े हैं धजनमें सहानवस्र्ान धवरोि है । सांशय का स्वरुप जानेंगे तो प्रमाण को सश
ां य
से धभतन ग्रहण कर पाएांगे ।
प्रमाण ज्ञान में पहुूँचने के धलए जब तक सांशय को नहीं समझेंगे तब तक सांशय का नाश नहीं होगा
और तब तक धनश्चय नहीं होगा व प्रमाण का जतम नहीं
होगा ।
धवरोि के सात प्रकार – “अिपु िम््साध्यो नह नवरोध:”
इह नवरोध: कल्प्यर्माि: नत्रधा व्यवनतष्ठते-बध्यघातकभावेि वा सहािवस्र्ामर्मक वा
प्रनतबन्धध्यप्रनतबन्धधकरुपेण वा ।
अनुपलम्भ अर्ाात् अभाव के साध्य को धवरोि कहते हैं । धवरोि धनम्न प्रकार के –
1) वध्यघातकनवरोध – “तत्र बध्यघातकभाव: अधहनकुलाग्तयुदकाधदधवषय:। ...त्वेकधस्मन् काले
धवद्यमानयो: सधत सयां ोगे भवधत, सयां ोगस्यानेकाश्रयत्वात् धद्वत्ववत् नासयां ि
ु मदु कमधग्नां धवध्यापयधत
सवात्राग्नभाव प्रसांगात् । तत: सधत सांयोगे बलीयसोत्तरकालधमतरद् बाध्यते । -
बध्याघातक भाव धवरोि सपा और नेवेले या अधग्न और जल में होता है । सांयोग के बाद जो बलवान
होता है वह धनबाल को बाधित करता है । अधग्न से असांयुि जल अधग्न को नहीं बुझा सकता है ।
2)सहािवस्र्ाि नवरोध – सहानवस्र्ानलक्षणों धवरोि: । स हययुगपत्कालयोभावधत यर्ा आम्रफल
श्यामतापीतयो: पीततोत्पद्यमाना पवय ाकाल भाधवनी श्यामताूँ धनरुणधि ।“
दसय रा सहानवस्र्ान धवरोि एक वस्तु की िम से होने वाली दो पयाायों में होता है । नयी पयााय उत्पतन
होती है तो पयवा पयााय नष्ट हो जाती है, जैसे आम का हरा रुप नष्ट होता है और पीत रुप उत्पतन होता है

3) प्रनतबंध- प्रनतबंधक भाव नवरोध – प्रधतबतध्य – प्रधतबांिक भाव धवरोि ऐसे है जैसे – आम का
फल जब तक िाल में लगा हुआ है तब तक फल और िांठल नीचे नहीं धगराता । जब सांयोग टयट जाता
है तब गुरुत्व फल को नीचे धगरा व जैसे दाह के प्रधतबिां क चद्रां कातां मधण के धवद्यमान रहते अधग्न से
दाह धिया नहीं उत्पतन होती इसधलए मणी तर्ा दाह के प्रधतबध्ां य -प्रधतबिां क भाव यि ु है ।
4) परस्पर पररहारिक्षण नवरोध – एक वस्तु में जो गुण शधियाूँ होती है – िमा रूप होती है । उनमें
जो परस्पर धवरोि होता है वह परस्पर -पररहार लक्षण धवरोि है । गुणों में परस्पर पररहारलक्षण धवरोि
इष्ट ही है । कयोंधक यधद गुणों का एक दसय रे का पररहार करके अधस्तत्व नहीं माना जावे तो उनके स्वरुप
की हाधन का प्रसांग आता है । जैसे – आत्मा नामक वस्तु में ज्ञान भी है दशान भी है । कभी उपयोग में
ज्ञान है कभी दशान भी है । पद्गु ल में स्पशा -रस या रस-स्पशा नहीं होता । दोनों एक सार् उपधस्र्त हैं ।
ज्ञान-दशान का आपस का परस्पर पररहार लक्षण धवरोि है ।
5) तुल्पयबि नवरोध – ज्ञान को मान लेने पर सब पदार्ों का शुतयपना नहीं बन पाता है और सबका
शुतयपना मान लेने पर स्वसांवेदन की सत्ता नहीं ठहरती है । यह तुल्यबल धवरोि होता है । जैसे अधस्त-
नाधस्त िमों का आपस में धवरोि । अधस्त, नाधस्त का अधतिमण करे तो स्वयां खो जाएगा कयोंधक इन
दोनों का बल बराबर है ।
6) पवू ाशपर नवरोध – पवय ा में जो बात कही गई है यधद आगे उसका ख्िन हो तो वह पवय ाापर धवरोि ।
आगम में पयवाापर धवरोि नहीं होना चाधहए ।
7) स्व-वचि बाधा नवरोध – स्व के वचन में बािा आ जाए । जैसे – मेरी माता बांध्या है ।
संर्य /नवपयशय/अिध्यवसाय
धवरुिानेककोधटस्पधशा ज्ञानां सशां य: – धवरुि अनेक पक्षों का अवगाहन करने वाले ज्ञान को सश
ां य
कहते हैं । जैसे – यह स्र्ाणु है या परुु ष ?
धवपरीत्तैककोधटधनश्चयोधवपयाय – धवपरीत एक पक्ष का धनणाय करने वाले ज्ञान को धवपयाय कहते हैं ।
जैसे – सीप को देखकर यह चाूँदी है इस प्रकार का ज्ञान होना धवपयाय है ।
धकधमत्यालोचनमात्रमनध्यवसाय: - यह कया है – इस प्रकार के अधनश्चयात्मक ज्ञान को अनध्यवसाय
कहते हैं । जैसे मागा में चलते हुए पुरुष को तृणस्पशााधद के धवषय में होने वाला अधनश्चयात्मक ज्ञान ।

प्रमाण
Lecture-5
9/8/21
प्रश्न – प्रमाण के लक्षणों की शृखांला में एक आचाया ने लक्षण बाांिा “यर्ार्ा ज्ञान को प्रमाण कहते
हैं” अब अगर इसको प्रमाण का लक्षण बनाए तो नय और धनक्षेप का ज्ञान भी यर्ार्ा है – ऐसी धस्र्धत
में जो लक्षण बािां ा उसमें अधतव्याधि दोष खड़ा हो गया । यहाूँ हम कया ग्रहण करें ?

यर्ार्ा ज्ञान प्रमाण है – यहाूँ यर्ार्ा का कया अर्ा ग्रहण करें ? कयोंधक जो धनक्षेप और नयरुप ज्ञान होते
है वो यर्ार्ा तो होते हैं पर सांपयणा नहीं और प्रमाण ज्ञान यर्ार्ा ज्ञान है और पयणा भी है । ध्यातव्य है धक
यर्ार्ाता और पयणाता ये दो लक्षण एक सार् ग्रहण हों तब वह पररभाषा सही बैठती है धक ‘यर्ार्ा ज्ञान
प्रमाण है ।‘ अतयर्ा अधतव्याधि का दोष आएगा ।

प्रधत प्रश्न – धफर जो छद्मस्र् का ज्ञान है उसमें कभी प्रमाण होगा ही नहीं, कयोंधक वस्तु अनांत
िमाात्मक है और हमेशा नयात्मक ही जानेंगे । इस तयाय से छद्मस्र् को प्रमाण ज्ञान प्रकट होगा ही
नहीं । (धवकास सर)
के वल ज्ञानी का ज्ञान ही पयणा ज्ञान होता है । ऐसी धस्र्धत में छद्मस्र् का प्रमाण ज्ञान की उत्पधत्त का
भाव कै से ठहरे ? कया ग्रहण करें । हमें ये ग्रहण करना है धक स्वरुप जो प्रयोजन भतय है अर्ाात्
आत्मानभु धय त होने के पहले वस्तु का जो स्वरुप है वह जीव को ख्याल में आ जावे अर्ाता जो वस्तु
का अनेकाांतमय स्वरुप है वो ख्याल में आना पयणाता की श्रेणी में धलया जाएगा । के वल ज्ञान में जो
युगपत् तीन काल, तीन लोक जो के वल ज्ञानी के ज्ञान में झलकते हैं उस पयणाता को यहाूँ ग्रहण नहीं
करना
चाधहए ।

प्रश्न – वस्तु पर चतुष्टय से अधस्तरुप है – यह अप्रकृ त भाव है असत् है और धनराकरण के योग्य है


दसय री और हम कह रहे हैं धक सत् का धनषेि होता है असत् का नहीं । इन दोनों को कै से
समझें ।
यहाूँ कर्ांधचत् शब्द ग्रहण करना अधनवाया होता है । यहाूँ स्याद्वाद को स्मृधत में रखना है । सत् का अर्ा
कर्धां चत् सत् लेना, सवार्ा सत् नहीं लेना । सवार्ा सत् ग्रहण नहीं करना । ‘कर्धां चत् सत् लेना’ से कया
तात्पया ?
हमने धजस प्रकार लक्षण बाांिा है धनषेि वस्तु का, धजसका धनषेि धकया जा रहा है अर्वा धजसका
धनषेि धकया गया है या धकया जाना है वो नहीं ऐसा नहीं है अधपतु उसे धजस रुप में कहा जा रहा है वो
उस रुप में नहीं है तो उस रुप में उसका धनषेि धकया जा रहा है, ऐसी धस्र्धत में, उस रुप की तरफ से
जैसे – वस्तु अधस्त रुप है। यह धविेय है या धनषेि है । तो स्व-चतष्टु य से धविेय व पर चतष्टु य से
धनषेि तो यहाूँ वस्तु में अधस्त का धनषेि नहीं धकया जा रहा है, पर चतष्टु य से अधस्तपने का धनषेि नहीं
धकया जा रहा है। इसधलए धजसका धनषेि धकया जा रहा है वो भी सत् है । जैसे – गिा भी है, सींग भी
है पर गिे के सींग नहीं है । तो जोड़ने वाला अांश झठय ा है बाधक सच्चा है, इस तयाय से यहाूँ कहा गया
धक धनषेि भी सत् है । आचाया समांतभद्र ने देवागम स्तोत्र में कही है । जैधनयों का अभाव वस्तुगत भाव
है ।
एक होता है भाव का अभाव
एक होता है अभाव का अभाव
पर चतुष्टय का स्व चतुष्टय में अभाव है । - ये भाव का अभाव
स्व चतुष्टय का अभाव नहीं है तो उसके अभाव का अभाव सो सदभाव ् ।

धकसी ने कहा – सदभाव ् – वतामान कालवती सत्


धकसी ने कहा – अभाव का अभाव सो सदभाव ् – धत्रकालवती सत् वतामान
अांतर कया ? काल की अपेक्षा
उदाहरण – वस्तु धत्रकालवती सत् भी है और क्षणवती भी ।
जैसे धमट्टी से घड़ा बना – घड़े की तरफ से क्षणवती का वतामान ।
धमट्टी की तरफ से धत्रकालवती का वतामान ।
उत्पाद व्यय ध्रोव्य – अभेद धववक्षा
उत्पाद/व्यय/ध्रवु – भेद धववक्षा
अगर धकसी व्यधि में मधत श्रुत ज्ञान व के वल ज्ञान दोनों प्रकट रुप से हो तो सहानवस्र्ान नामक दोष
हो ।
विरुद्ध अनेककोटी स्पर्शी ज्ञानं संर्शय – एक वस्तु में दो िमों का /दो धवकल्प (या ज्यादा भी हो
सकते हैं ) का ज्ञान होता है । दृष्टातां सीप – दो इधां द्रय कीड़े का कलेवर व चाूँदी एक इधां द्रय का कलेवर ।
प्रश्न है – कया ऐसा हो सकता है धक एक जीव को एक इधां द्रय व बेइधां द्रय नाम कमा का उदय एक सार्
हो? नहीं धवरोि आता है सहानवस्र्ान वस्तुत: सांशय धकसे कहें?
धजनवाणी में ये सांशय चार रुपों में प्राि होता है-
• समारोप का भेद सश ां य
• ईहा का भेद सांशय
• गृहीत धमथ्यात्व का भेद सांशय – (1) धवनय, (2) अज्ञान (अतध्यवसाय), (3) सश ां य, (4)
एकातां , (5) धवपयाय
• सांकर आधद 9 प्रकार के दोष ( इसमें एक सांशय नामक दोष
धवरुि अनेककोटी स्पशी ज्ञानां सश ां य– यहाूँ ‘सांशय’ शब्द में कौन सा सांशय धलया गया है? समारोप
का भेद सांशय, यह उसका लक्षण है ।
धनणाय शयतय धवकल्प को सांशय कहते हैं।
समारोप का भेद सश ां य – समारोप का अर्ा यहाूँ अयर्ार्ा ज्ञान ग्रहण करना ( यह धमथ्या ज्ञान नहीं है )
इसके तीन भेद होते है ।
सश ां य. धवपयाय. अनध्यवसाय
स्टेप –
सबां ि होते ही ।
1) इसमें सबसे पहले दशान– कुछ है का आभास, इधां द्रय और पदार्ा का अनध्यवसाय (अगर
ध्यान देना बांद कर धदया तो अनध्यवसाय में चला
जाएगा )
2) अवग्रह – दशान के अनततर जो पदार्ा का प्रर्म ग्रहण हो ।
3) सांशय – धफर धवकल्प खड़े होते हैं धजसमें एक वस्तुगत धवकल्प होता हैं। दोनों वस्तुगत और
अवस्तगु त धवकल्प में बराबर बल धगरता है वह सश ां य है ।
4) ईहा – अगर वस्तुगत धवकल्प की तरफ ज्यादा बल हो तो वह ईहा हैं ।
5) अवाय – धवशेष के धनणाय द्वारा जो यर्ार्ा ज्ञान होता है ।
6) िारणा –जानी हुई वस्तु को कालाांतर में न भयलना ।

यहााँ कुछ ध्याि देिे योग्य बातें –


• अगर सांशय के बाद वस्तुगत भाव ग्रहण हो जाता है तका पयवाक तो ईहा होती है ।
• जो बल अगर अवस्तुगत धस्र्धत की तरफ ले जाता है तो वह समारोप की तरफ ले जाता है ।
उसके तीन भेद हैं – सश
ां य/धवपयाय/अनध्यवसाय ।
• कुछ आचाया ईहा को प्रमाण नहीं मानते इसधलए ईहा में भी सांशयात्मक मानते है जबधक कुछ
आचाया ईहा को प्रमाण की श्रेणी में ही रखते हैं ।
• चाहे समारोप हो या ईहा – उन दोनों में एक घटक तत्त्व समान है धक दोनों में धजतने धवकल्प
खड़े हैं उसमें एक सही धवकल्प होता है । अगर सारे धवकल्प झठय े होंगे तो धफर सश
ां याभास या
सांशयदोष होगा ।
9 प्रकार के दोष –
सांकर
व्यधतकर
वैयाधिकरण
परस्पर आश्रय
अनवस्र्ा
सांशय
धवरोि
अप्रधतपधत्त
अभाव
ये कयों उत्पतन होते हैं?
अगर कोई वस्तु को एकातां से ग्रहण करें , अनेकातत से न करें तो ये दोष उत्पतन होते हैं ।

गृहीत धमथ्यात्व का भेद सांशय – 5 प्रकार के

सश ां य दोष व ग्रहीत (ग्रहण धकया हुआ) धमथ्यात्व के भेद सांशय में फका ?
अगर धजतने भी धवकल्प हैं उनमें से एक भी धवकल्प सही /वस्तुगत नहीं है तो समारोप/ ईहा का भेद
सश ां य नहीं होगा । उस धस्र्धत में सामातय रुप से कर्न करें तो सश
ां य दोष होगा और धवशेष रुप से
कर्न करें तो 5 प्रकार के गृहीत धमथ्या दशान है उनमें से सांशय नामक धमथ्यादशान होगा । ये
प्रयोगात्मक है ।

सामातय में – शांकर आधद 9 दोषों वाला सांशय दोष होगा ।


प्रयोगात्मक में – 5 प्रकार के धम. द. वाला सश
ां य दोष होगा ।

दृष्टाांत – A और B से पयछा “वस्तु अधस्त रुप है या नाधस्त रुप है?


यहाूँ प्रश्न में कया गलती है? वस्तु अधस्त-नाधस्त दोनों रुप है इसधलए प्रश्न ही गलत है । कयोंधक A की
िारण ज्ञान में यह चल रहा है धक या तो वस्तु दोलायमान धस्र्धत है व सांशय नामक गृहीत धमथ्यादशान
हैं । यहाूँ वह वस्तु के दोपने को नकार रहा है और इस बात को सश ां य के रुप में पयछ रहा है । जबधक
ज्ञानी जानता है धक वह सश ां य नहीं सश
ां य दोष है ।

अब अगर वह पकका कर ले धक वस्तु अधस्त रुप ही है तो ये एकाांत नामक गृहीत धमथ्यात्व बन


जाएगा ।

10/8/21
Lecture-6
प्रश्न – समारोप का भेद सांशय और ईहा का भेद सांशय में कया अांतर धगर सकता है?

समारोप सश ां य ईहा सश ां य
समारोप के भेद सांशय में जो धवकल्प ईहा ज्ञान के भेद सांशय में जो धवकल्प खड़े है
खड़े है उनमें बराबरी की धस्र्धत रहती है} एक से अधिक उसमें वस्तुगत धवकल्प की ओर
दोनों का बल समान होता है । वस्तुगत – प्रकाश/बल धवशेष रहता है व यधद वह बल
अवस्तुगत पर समान बल । कायम रहे तो ऐसी धस्र्धत में अवाय पहुूँच
जाएगा व बल अगर हीन हो जाए तो पुन: जो
अवस्तुगत पर बल आ जाए तो धवपयाय में पहुूँच
जाएगा ।
इस सांशय में धजतने भी धवकल्प खड़े हुए ईहा ज्ञान में तो ज्ञान का धवकास धदखाया जा रहा
है जैसे सीप और चाूँदी-उसमें पयवाकाल में है । इसधलए यहाूँ पयवा से उसको ज्ञान र्ा ऐसा
दोनों धवकल्पों को जानता है । दोनों का कहना नहीं बनता हैं ।
सामातय भाव तो पकका है धकांतु धवशेष व्यधि को धकसी ने आवाज दी । वह सोया हुआ
भाव है तो उसको कच्चास है । सामातय है । शब्द पद्गु लों से श्रोत्रेंधद्रय के आपरय रत होने पर
ज्ञान पकका है उसे 1 पयवाकाल में उसने उसे असांख्य समय लगा और उसने हूँ कहा ।
सीप चाूँदी दोनों का जाना र्ा । दोनों यहाूँ इधां द्रय और शब्द का प्रार्धमक सांबांधित
वस्तु उसके ज्ञानगम्य है धकांतु वतामान में व्यांजनावग्रह । धफर अव्यि शब्द का ग्रहण
उसके धवशेष ज्ञान में कमजोरी पकका है । अर्ाावग्रह । तत्त्पश्चात् समारोप के भेद सांशय से
जैसे – उसे ध्यान है धक दोनों वस्तएु ां ऊपर उठकर हेत/ु यधु ि आधद के द्वारा सदभ् तय
िवल होती है । इतना ही उसे ध्यान रहा अर्ा ग्रहण की चेष्टा है वह ईहा है उसने इसमें
और दोनों के आकार अलग – 2 होते हैं सोचा शब्द होना चाधहए । शब्द ही है ईधहत अर्ा
इस बात की उसे धवस्मृधत हो गई । इस का यह धनश्चय अवाय है और उसकी अवधस्र्धत
तयाय से उसकी सांशयात्मक धस्र्धत बनी िारणा है ।

अवग्रह ईहा अवाय िारणा रूपी जो धिया होती है वह प्रत्यक्ष भयत के बारे में ही होती है या परोक्ष भयत
के बारे में भी होती है?
दोनों के बारे में होती है । ये प्रमेय रत्न माला टीका है । .....के ऊपर -उसमें खल
ु ासा धकया गया है धक
ये परोक्ष ज्ञान में भी होता है । जैसे सांशय में हमने चचाा की र्ी धक यधद सांशय की धवषयभयत वस्तु
अके ले प्रत्यक्षभयत होवे, परोक्ष नहीं होवे तो ऐसी धस्र्धत में जो परोक्ष भयत सामग्री है उसके बारे में तो
कुछ प्रधिया आगे बढेग़ी नहीं, उसका धनणाय तो हो ही नहीं पाएगा । ये सांशय वाली बात प्रधिया को
आगे बढाने के धलए है और जो अवग्रह ईहा, अवाय रूप है वो इस प्रधिया से गुजरकर होता है ।
धनयम से ।
• अनुभव से भी यह बात धसि होती है । परोक्षभयत वस्तु के सांबि में सार् – 2 ही प्रधिया
चलती है । प्रत्यक्ष में सामने देखते हैं तो धवकास हो जाता है, परोक्ष में तो सामने देखते ही नहीं
धफर धवकास कै से होता है?
• कयोधक परोक्ष के बारे मे अवग्रह, ईहा, अवाय, िारणा की प्रधिया हर एक में नहीं चलती है ।
धसफा सांज्ञी में चलेगी । सांज्ञी में भी धजसकी धवचार शधि प्रबल है उसको ज्यादा चलेगी । स्वयां
को पता चलना चाधहए धक यहाूँ परोक्ष भयत के बारे में अवग्रह ईहा अवाय िारणा सपां तन हुई है
। अतयर्ा होता तो है पर अनभु व में नहीं आता । मनष्णु य, नारकी, देवता. धतयंच कोई भी सज्ञां ी
जीव भेद धवज्ञान कर सकता है ।
• धवचार करने का सामथ्या धकसी अांश में असांज्ञी में भी है । नहीं तो उसके धलए भेद धवज्ञान
धबल्कुल धसि नहीं होगा । जैसे – वृक्ष एकें धद्रय होता है । उसकी जड़े उसी धदशा में अग्रसर
होती है जहाूँ जल होता है । चींटी अच्छी कारीगरी से अपना घर बनाती है । तो धफर कया फका
हुआ सांज्ञी और असांज्ञी भेद धवज्ञान में?
• स्वपर भेद धवज्ञान अके ले सांज्ञी को ही चलता है । असांज्ञी जो भेद धवज्ञान करेगा वो के वल पर-
पर में होगा ।
• स्व-पर के भेद धवज्ञान की प्रधिया के वल सांज्ञी को धमलती है इस तयाय से जो सांज्ञीपना हमें
धमलता है उसकी सार्ाकता इसमें है धक हम स्व पर का भेद करें ।
• स्व पर का अर्ा यहाूँ पर – पहले 7/9 तत्त्वों का हेय ज्ञेय उपादेय जानें ।

7/9 समझने का रुपक – जब जीव अांदर जाता है तब 9 का नहीं 7 का धचांतन करता है और उसको
समेटता हुआ अांदर चला जाता है और जब बाहर धनकलता है तब 9 का धचांतन करता है और अशुभ
से बचते हुए शुभ में प्रवृधत्त करता है ।

समयसार जी ग्रर्ां में – कुांदकुांदाचाया ने कहा है –


नव तत्त्वों में छुपी हुई है ज्ञान ज्योधत
उसको मैं धदखलाऊूँ गा
मैंने अपने धनज वैभव से
उस ज्ञान ज्योधत को प्रकाधशत धकया है, प्रधसि धकया है और तुम भी उसको प्रकाधशत करना, प्रधसि
करना और यधद मैं कहीं चयक जाऊूँ तो छल ग्रहण मत करना.....

(यहाूँ अनुभव में चयकने वाली बात नहीं है, व्याकरण में. छांद में, अलांकार आधद में चयक जाऊूँ तो भी
गलत ग्रहण मत करना । मैंनें अपने धनज वैभव से उस शुि आत्मा को, उस ज्ञान ज्योधत को, उस
एकत्व धवभि आत्मा को प्रकाधशत धकया है ।)
असज्ञां ी में भी धकसी न धकसी अर्ा में धवचार शधि धसि होती है। धफर भी यहाूँ उसको नग्य कर धदया
है, कोई स्र्ान नहीं धदया है । और सधतन को ही धवचारवान कहा है । असधतन को अधवचारवान कहा है
वो प्रयोजनभतय की अपेक्षा कर्न लेना । असधतन धकतना भी कुछ भी करे वह अपने प्रयोजन की धसधि
नहीं कर सकता । कया प्रयोजन है उसका?
सभी जीवों का प्रयोजन सुखी होना है । इस तयाय से उसमें जो आधां शक धवचार करने की तकत है धजसे
सांस्कार बल कहा है । यहाूँ स्व पर वाली धवचार शधि के वल सांज्ञी में ही पाई जाती है । इस तयाय से
मोक्ष मागा में सम्यग् दशान के मागा में स्मरण शधि की महत्ता नहीं है धकांतु धवचार शधि की महत्ता है,
साक्षात्कार में स्मरण शधि नहीं अधपतु धवचार शधि काया करती है ।

नवपयशय – (धवरुद)् धवपरीत्तैककोटी धनश्चयो धवपयाय– धवपयाय में वस्तु एक है और धवरोि एक कोटी
वाला है तो धवरोि धकस धकस के बीच धदखाएांगे ?
जो धवरोि यहाूँ है वह वस्तुगत और अवस्तुगत के बीच है । जो धवपयाय ज्ञान प्रगट हुआ उसका उस
वस्तु और उस वस्तु के यर्ार्ा दोनों से धवरोि है धवकल्प एक तो धवपयाय ज्ञान प्रगट हुआ उसका उस
वस्तु और उस वस्तु के यर्ार्ा दोनों से धवरोि है । धवकल्प एक तो धवपयाय ज्ञान का धवरोि यर्ार्ा से
भी है और वस्तुओ ां से भी।

अिध्यवसाय – धकधमत्यालोचनमात्रमनध्यवसाय: - दृष्टातां – चलते हुए राही को चलते हुए तृण मात्र
का स्पशा हुआ तो कहा धक “ यहाूँ कुछ है ।“

सश ां य धवपयाय अनध्यवसाय प्रमाण है धक अप्रमाण ? – अप्रमाण


सवार्ा धक कर्ांधचत् ? कर्ांधचत्
अगर कर्ांधचत् अप्रमाण है तो कर्ांधचत् प्रमाण भी है । तो प्रमाण कै से धसि करो।
जो अवस्तु का ज्ञान हो रहा है उस अपेक्षा से प्रमाण यानी के आत्मा की प्रधतधत हो रही है ।
जैसे – चाूँदी और सीप का ज्ञान अप्रमाण कयोंधक उस वस्तु का धनश्चय उसने नहीं धकया ।
प्रमाण इसधलए कयोधक धजस ज्ञान अप्रमाण कयोंधक उस वस्तु का धनश्चय उसने नहीं धकया ।
प्रमाण इधस्लए कयोधक धजस ज्ञान में वह सांशय खड़ा हुआ उस ज्ञान / आत्मा की प्रधसधि तो कर रहा है
वहाूँ वो ।

प्रर्मेय के दो भेद –
बाह्य प्रमेय
भाव प्रमेय
तो बाह्य प्रमेय की अपेक्षा सांशय / धव. अन. अप्रमाण है धकांतु भाव प्रमेय की अपेक्षा प्रमाण है । तीनों
खड़े कहाूँ हुए – आत्मा से तो आत्मा की प्रधसधि तो कर रहा है न वो ।

िय
नय का लक्षण – प्रमाण द्वारा प्रधसि वस्तु के एक अांग को ग्रहण करने वाले ज्ञान को नय कहते हैं ।

विा के अधभप्राय को नय कहते हैं । यहाूँ अधभप्राय प्रमाण ज्ञान होता है यह भी एक अधभप्राय है ।
इसमें नय प्रमाण की...... धववक्षा ग्रहण करना । कयोंधक प्रमाण ज्ञान भी एक अधभप्राय है और
अधभप्राय को नय कहेंगे तो प्रमाण और नय अभेद हो जाएगा ।

अनपशत – अिनपशत
अनपशतािनपशतनसद्धे:
अनपशत – वस्तु अनांत िमाात्मक है । कह सकते हैं अनांत धवरोिी िमा वस्तु में एक सार् रहते हैं । जैसे
एकत्व – अनेकत्व, धनत्यत्व – अधनयत्व । अब इस अनेक िमाात्मक वस्तु के अनेक िमों की धववक्षा
होती है उस व्याख्याधयत िमा को प्रिानता प्राि होती है और वह अधपात कहलाता है ।
अिनपशत – इसके धवपरीत धजन िमों की धवद्यमानता रहने पर भी यधद धववक्षा न की हो तो उसे
अनधपात कहते है स्पष्ट है उस समय अनधपात गौण होता है ।

अधपात – अनधपात – मुख्य में जो गौण छुपा हुआ है उसे धनकालना ।


अधपात – अनधपात बनाते हुए सगां धत बराबर है या नहीं ये ध्यान रखना, अर्ाात् तल
ु यबल धवरोि होना
चाधहए ।

कया ये धनम्नोि वाकय सर के द्वारा बताये गये है??


स्र्ापना वाकय – विा के अधभप्राय को नय कहते हैं । (अगर यह वाकय आपमें तो) उपयुाि का
अनधपात अविा के अधभप्राय को नय नहीं कहते है । (अगर अधपात है तो )
उपयुाि का अनधपात अविा के अधभप्राय को नयाभास कहते हैं । (अगर अधपात है तो)
उपयुाि का अनधपात विा के अधभप्राय को नयाभास नहीं कहते हैं । (अगर अधपात है तो)
उपयुाि का अनधपात -विा के अधभप्राय को नय कहते हैं यह धनषेि पयवाक धसधि हुई ।

यहाूँ अधभप्राय की सत्त को challenge नहीं धकया, अधभप्राय के स्वामी को धकया ।


विा के अधभप्राय को नय कहते हैं ।
नय के लक्षण “विा का अधभप्राय’ में अलक्ष्य ‘अनय’ है ।
नय का प्रधतयोगी तो प्रमाण है, तो यहाूँ अनय कयों धलया गया है?
कयोंधक – यहाूँ नय -प्रमाण की भेद धववक्षा करते हुए अनय अर्ाात् अज्ञानी (अविा) के अधभप्राय को
धभतन धदखाया जा रहा है ।

नय के आिार पर –
विा के अधभप्राय को नय कहते हैं ।
विा के अनाधभप्राय को अनय कहते हैं ।

11/8/21
Lecture – 7

अधपात और नय में कया अांतर है ?


प्रश्न में सुिार की आवश्यकता है –
अधपात – अनधपात एवां नय प्रमाण में समानता बताते हुए उस समानता के आिार से असमानता धसि
करो ।

Continuation of प्रमाण
व्याधि और अधवनाभाव में फका ?
यद्यधप धजनवाणी में ज्यादा मात्रा में कर्न व्यवहार प्रिान होते हैं. व्यवहार में भी उपचार की प्रिानता
धलए होते हैं । तो ऐसा कहने में कोई दोष नहीं है धक व्याधि, अधवनाभाव एक ही है धकांतु यह उपचार
का कर्न होगा।
अगर पारमाधर्ाक रुप से धवचार करें तो यह दोनों अलग-2 धसि होतें हैं ।

व्याधि अधवनाभाव
व्याधि तका प्रमाण की साम्रगी है । अधवनाभाव अनमु ान प्रमाण की सामग्री ।
व्याधि कारण है । अधवनाभाव काया है ।
व्याधि साध्य से सािन की तरफ चलती है । अधवनाभाव सािन से साध्य की तरफ चलता है

व्याधि धिया का भेद है । अधवनाभाव सांबांि का भेद है ।
व्याधि बात में साध्य िमा होता है । अनुमान काल में िमा से युि िमी साध्य होता
है। अधवनाभाव हेतु का प्राण है और हेतु
अनमु ान का प्राण है । इस तयाय से अधवनाभाव
की सांगती यहाूँ घधटत होती है ।
ये सवादेश – सवाकाधलक है ।
व्याधि के दो िमा – अतवय व्यधतरेक ।
व्याधि दो तरह की होती है – सम और धवषम जो धजसके धबना न हो उसे अधवनाभाव कहते हैं
व्याधि एक और अतय – वधहव्यााधि अांतव्यााधि । ।

अतय दशान व्याधि काल में भी पक्ष – धवपक्ष की चचाा करते हैं । पर पक्ष – धवपक्ष की चचाा तो एक
देश की चचाा और व्याधि सवादेश-सवाकाधलक होती है ।
व्याधि से तका का धनमााण होगा, तका से अधवनाभाव बनेगा । अधवनाभाव के धनश्चय से हेतु बनेगा और
हेतु अनुमान प्रमाण की सामग्री है । धफर अनुमान से साध्य (िमा युि िमी) धसि होगा ।

अनविाभाव – जो धजसके धबना न हो उसे अधवनाभाव कहते हैं ।

हेतु
साध्य के सार् अधवनाभाव सांबांि होने के कारण हेतु धनधश्चत होता है । ‘साध्य अधवनाभाधव त्वेन
धनधश्चतो हेतु’ – जैन दशान हेतु का लक्षण जो बनाता है वो एक ही धवशेषण वाला बनाता है यद्यधप उस
धवशेषण में धवशेषण है । यहाूँ जैन दशान दो बात रखता है –
सािन का साध्य के सार् अधवनाभाव घधटत होना चाधहए ।
इस प्रकार का धनश्चय प्रधतवाधद के ज्ञान में होना चाधहए ।
दो Conditions यहाूँ रखी गई है । पहली वस्तु की अपेक्षा और दसय री ज्ञान की अपेक्षा ।

• सािन - - जो धनधश्चत रुप से साध्य का अधवनाभावी (साध्य के धबना नहीं रहने वाला) होता
है, उसे सािन कहते हैं । साध्य के धबना धजसका न होना धनधश्चत है वह सािन है ।
• सािन के प्रस्तुधतकरण का नाम हेतु हैं ।
• पक्ष में साध्य को धसि करने के धलए धजस वाकय का प्रयोग ।
• पक्ष में साध्य को धसि करने करने के धलए धजस वाकय का प्रयोग धकया जाता है वह हेतु है ।
• सािन को हेतु का पयाायवाची मानते है, लेधकन सािन जो वस्तु रुप होता है, उसे ही जब
परार्ानमु ान में वचनरुप में कह धदया जाता है वही हेतु बन जाता हैं ।
• हेतु अनुमान प्रमाण की सामग्री है । अनमु ान में पक्ष, धवपक्ष, िमी, िमा सािन, साध्य सभी
होते हैं ।
• साध्य – धजसे धसि करना हो, वह साध्य कहलाता है ।
• साध्य प्रधतवादी के धलए अधसि होना चाधहए तर्ा वादी को इष्ट और प्रत्यक्ष आधद प्रमाणों से
अबाधित होना चाधहए ।
• सािन प्रधतवाधद को धसि होना चाधहए ।
• यह पवात अधग्नमान है, कयोंधक वहाूँ िांुआ है ।
• पक्ष (िमी) – धजसमें साध्य आधश्रत हो । (अधग्नमान पवात)
• अनुमान काल में िमा से युि िमी साध्य होता है ।
• धवपक्ष – धजसमें साध्य का अभाव हो ( जहाूँ अधग्न का अभाव है – जल राधश )
• िमा -व्याधि काल में िमा साध्य होता है । (अधग्न)
• सपक्ष – साध्य – पक्ष के अलावा जहाूँ रहता है ।
• एक होता है लक्षण और एक होता है धवशेषण । एक लक्षण में एक से अधिक धवशेषण हो
सकते हैं । एक धवशेषण वाला लक्षण भी हो सकता है ।

लक्षण धकसे कहते हैं?


वस्तु के असािारण िमा को लक्षण कहते हैं । इस पररभाषा में भी अधतव्याधि /अव्याि/
अत्यतां ाभाव दोष होगा । कै से ? (शेष) यहाूँ जो लक्षण का लक्षण बािां ा है उसमें तीन प्रकार के
दोष हैं ।

धवशेषण का काया – धनराकरण पयवाक धनरुपण करना । दसय रे पदार्ों से उसे अलग करना । यहाूँ
अनेकातां से धसधि कर रहे हैं ।

प्रश्न – जहाूँ एक से अधिक धवशेषणों का प्रयोग होता है वहाूँ धवशेष्णय का क्षेत्र घटेगा या बढ़ेगा ?

घटेगा – यद्यधप यह कर्न ज्ञान की अपेक्षा से है ।


प्रश्न होता है धक ज्ञान में घटना कया?
ध्यातव्य है वस्तु सीधमत क्षेत्र में है । जब उसके धवशेषणों का प्रयोग हुआ तब उसका वास्तधवक क्षेत्र
सामने आ गया । उसमें पहले बहुत कुछ शाधमल र्ा । अब बहुत कुछ अलग हटा धदया इस तयाय से
धवशेष्णय का क्षेत्र घटेगा ।
दाशाधनक दृष्टाांत = हम अभेद से भेद की ओर जा रहे हैं । इसधलए क्षेत्र घटेगा ।
धवशेष्णय का क्षेत्र घटेगा पर ज्ञान का क्षेत्र बढ़ेगा कययांधक उतने धवशेषण मेरे ध्यान में होंगे । इस तयाय से
ज्ञान का तो धवकास होगा ।
दृष्ातं – एक मन: पयावज्ञानी कौन होगा ?
o मनुष्णय
o उसमें भी सािु आधद- आधद धवशेषण बढ़ेंगे तो धवशेष्णय का क्षेत्र घटेगा ।
अतवय / व्यधतरे क कया है ?

12/10/21
Lecture-8
अधवनाभाव और व्याधि के ऊपर पवय ा में जो चचाा हुई उसे आगे बढ़ाते हुए –
सामातयतया व्याधि और अधवनाभाव को एकार्ी ग्रहण कर धलया जाता है पर वह बात उधचत
नहीं है । अधवनाभाव और व्याधि में जो फका है उसकी पुष्टी में पररक्षामुख के सयत्र हैं ।

‘साध्यानविाभानवमवेि निनितो हेतु: ॥‘ सूत्र 11 ॥ - पररक्षामुखम् - पररच्छे द 3 धजसका साध्य के


सार् अधवनाभाव सबां िां पाया जाता है उसे हेतु कहते है । यहाूँ आचाया मधणकयनदी ने जो हेतु का
लक्षण धदया है उसके प्रकाश में ये बात धसि होती है धक – जो अधवनाभाव है वह सािन का साध्य के
सार् घधटत होता है }
प्रश्न होता है –
धफर व्याधि का कया स्वरुप ? व्याधि और अधवनाभाव को कै से धभतन माने हम?
इसकी पष्टु ी में पररक्षामख
ु म् - पररच्छे द 3 का (15) पद्रां ह नम्बर का सत्रय है ।
तकाशन्धतनन्धिणशय:’ ॥ पररच्छे द -3
“तका से धनणाय होता है”। प्रश्न होता है धकसका धनणाय होता है । कहीं धलखा गया तका से व्याधि का
धिणाय होता है और कहीं धलखा गया तका से अधवनाभाव का धनणाय होता है । हमें उसमें से
वास्तधवकता का धनणाय करना है ।
यधद हम ग्रहण करें धक ‘तका से व्याधि का धनणाय होता है’ तो इसमें कया दोष आता हैं?
दोष इसधलए होगा कयोंधक जब तक व्याधि का धनणाय नहीं होता तब तक तका का धनमााण नहीं होता ।
(और जब तका का धनमााण हो गया धफर उसके द्वारा व्याधि का धनणाय करने वाली बात यहाूँ योग्य नहीं
धदखाई देती ।)
तकाशन्धतनन्धिणशय: – अर्ाात् तका से धनणाय होता है तो तका उत्पतन होने के बाद धनणाय करेगा धक पहले
धनणाय कर लेगा ? वो उत्पतन होगा तभी तो अपना काया धसि करेगा । जब वो (तका उत्पतन हो ही गया
तो व्याधि का धनणाय स्वत: हो ही गया । कयोंधक व्याधि का जब तक धनणाय नहीं होता तब तक तका का
धनमााण नहीं होता ।
‘उपिम्भािपु िम्भ निनर्मत्तं व्यानिज्ञािर्मूह:’ ॥7॥ पररच्छे द 3
उपलम्भ अनुपलम्भ के धनधमत्त से जो व्याधि का धनणाय होता है उसे तका कहते है ।
इससे ये फधलत हुआ धक जब तक व्याधि का धनणाय नहीं होगा तब तक तका का जतम नहीं होगा और
जब तका का धनणाय हो गया तब व्याधि का धनणाय हो ही गया । इस तयाय से यहाूँ अगर हम कहें धक
तका से व्याधि का धनणाय होता है तो परस्पर आश्रय दोष घधटत होता है ।
परस्पर आश्रय / परस्पराश्रय दोष और अनवस्र्ा दोष में समानता बताते हुए उस समानता के आिार
पर असमानता धसि करो ।
• समानता – दोनों में एक एक घटक तत्त्व अधसि होते हैं ।
• असमानता – परस्पर आश्रय/ परस्पराश्रय – सािन अधसि होता है।
• अनवस्र्ा – िमी अप्रधसि होता है।

Continuation –
तकाशन्धतनन्धिणशयः – तका से धनणाय होता है तो व्याधि का धनणाय करेंगे तो दोष आयेगा कयोंधक जहाूँ
तका उत्पतन ही नहीं हुआ कयोंधक व्याधि का धनणाय होने के पहले तका होता ही नहीं है, अब जब वो है
ही नहीं तो वह व्याधि का धनणाय कै से करेगा ? और जब हो जाएगा तो धनणाय करने की जरुरत नहीं
पिेगी ।
जहाूँ व्याधि का धनणाय हुआ ही नहीं वहाूँ तका का जतम हुआ ही नहीं ।
और जब तका का जतम हुआ ही नहीं वह अजतमा धकसी का धनणाय कै से करेगा ? और जहाूँ तका का
जतम हो गया है अर्ाात् व्याधि का धनणाय हो गया है तो धनणाय करने की जरुरत ही नहीं है ।
तो धफर धकसका धनणाय होता है तका के द्वारा ?
अधवनाभाव का धनणाय होता है कयोंधक जो व्याधि है वो कारण है और अधवनाभाव काया है । ऐसी
धस्र्धत में तका के द्वारा अधवनाभाव का धनणाय है, होता है ऐसा मानना योग्य है ।

साध्यव्यािं साधिं यंत्र प्रदर्यशते सोSन्धवयदृष्ान्धत:’ ॥44॥ तृतीय परीच्छे द


यह अतवय दृष्टाांत का प्रकरण है । उसका स्वरुप इस सयत्र में बताया जा रहा है ।
वस्तुत: अतवय धकिर से लागु होगा इस सदां भा में जो पढ़ाई वतामान में चल रही है उसमें सभां वतया
ऐसा देखने में आता है धक वो अतवय सािन का साध्य के सार् घधटत होता है । इस प्रकार की बात
योग्य नहीं है । हमें धनष्णपक्ष होकर इसका धवश्लेषण करना है व आिार में धकसी व्यधि और धवचार को
न रख कर व धकसी आम्नाय को न रख कर वस्तु को रखें ।
साध्यव्यािां सािनां - व्यापक – फै लने वाला – धत्रकालवती की बात जैसे-अांतर मुखी दशा मे जीव
स्वभाव का अवलम्बन लेता है तब धत्रकाली का नहीं, धत्रकाली के वतामान का अवलम्बन लेता है।
धत्रकाली के वतामान का अवलम्बन लेने से जो प्रगट हुआ वो क्षणवती का वतामान है।यहाूँ पररणमन
के दो भेद धकए गए है। 1-वस्तु का सामातय पररणमन है वह धत्रकाली का वतामान है। 2-वस्तु का
धवशेष पररणमन है वो क्षणवती का वतामान है।
मुख्य, ध्रौव्य/ वस्तु का सामातय पररणमन – व्याि – फै ला हुआ – धत्रकाली के वतामान की बात ।
मख्ु य उत्पाद /व्यय रुप – घट – वस्तु का धवशेष पररणमन – व्याप्य – धजस रुप में फै ला – क्षणवती
का वतामान
व्याधि – व्यापक की अर्ाधिया ।

काि के प्रकार – 4 दाशाधनक शैली में


अनाधद – अनतां – अभवी जीव की मलीन पयााय
अनाधद – साांत – धनकट भव्य जीव की मलीन पयााय
साधद – साांत – सांवर – धनजारा के जो भाव है,
साधद – अनांत – मोक्ष पयााय

अनाधद – अनतां / अनाधद – धनिन

(अनाधद-िन और अनाधद धनिन और अधनिन)


आनाधद – िन अधनिन ये दो िमा हैं – इनका जो िमी है वह ध्रुव है ।
अनाधद – िन अनांत – ये दो िमा है - इनका जो िमी है वह धनत्य है ।
अनाधद धनिन में हीन – अधिक का धनषेि धकया जाता है ।
अनाधद अनतां में कभी होने और कभी न होने का धनषेि धकया जाता है ।
पहले पररच्छे द में धसफा प्रमाण का लक्षण बाांिा है – उसके 5 धवशेषण धदए है --
धकसी भी धवशेषण का मयल भाव जब हमें पकिना हो तो हमारा पहला धवचार इस तथ्य धबांदु पर
चलना चाधहए धक इस पद में धनराकरण धकसका धकया कयोंधक हरेक धवशेषण की धनराकरण की धवषय
वस्तु कभी आवृधत में दोबारा नहीं आती, हमेशा बदलती है । एक धवशेषण ने धजसका धनराकरण
धकया, दसय रा धवशेषण उसका कभी धनराकरण नहीं करेगा । कयोंधक धनराकरण पवय ाक धनरुपण होता है ।
यद्यधप धनरुपण करने में प्रमाण मीमाांसा में हम धजतने धवशेषण खड़े करें गे वे धनराकरण तो अलग -2
बात का करेंगे, धकांतु धनरुपण एक बात का करेंगे प्रमाण मीमाांसा में । नय मीमाांसा में हर एक धवशेषण
धनराकरण तो अलग-2 बात का करें गे ही धकांतु धनरुपण भी अलग -2 बात का करेंगे । कभी कभी एक
ही धवशेषण अलग प्रसांग में अलग बात का धनराकरण करता है और धभतन प्रसांग में अलग ।

13/10/2021
Lecture -9
यहाूँ आज हम हेतु के लक्षण के सांदभा में अतय दाशाधनकों द्वारा कही जानेवाली पाूँच धवशेषताओ ां पर
चचाा करेंगे धक बौि और नैयाधयक दशान कया कहते हैं। यहाूँ पर वही चचाा धलखी गई है lecture 7
की व आगे 18/10/21 में इसी चचाा को आगे बढ़ाया गया की जैन उसका खांिन धकस प्रकार करता
है। दोनों को एक सार् धमला कर धलखा गया है ।
* हेतु कया है ?
From lec 7
बौि दशान - कहता है धक उसका लक्षण त्रीलक्षणा लक्षण है।
1 पक्ष-िमात्व- पक्ष के अदां र हेतु के रहने को पक्ष िमात्व कहते हैं |
2 सपक्ष सत्व- धजस उदाहरण में साध्य सािन दोनों उपलब्ि हो उस िमी को सपक्ष कहते हैं। उस
सपक्ष के एकदेश में अर्वा सांपयणा देश में हेतु के रहने को सपक्षसत्व कहते हैं।
3 धवपक्ष व्यावृधत्त - साध्य के धवरुि िमा वाले स्र्ल को धवपक्ष कहते हैं। ऐसे सांपयणा धवपक्षों से हेतु के
सवार्ा अलग रहने को धवपक्ष व्यावृधत्त कहते हैं। (सािन का धवपक्ष में नहीं पाया जाना) नैयाधयक ऊपर
के तीन और 2 कुल 5 लक्षण बताते हैं ।
4 अबाधित धवष्णयत्व - साध्य से धवपरीतपने को धनश्चय कराने वाला प्रबल प्रमाण धजसमे सांभव न हो
उसे अबाधित धवषयत्व कहते हैं। सािन-साध्य के बीच कोई बािा न हो।
5 असत प्रधतपक्ष- समान बल के िारक ऐसे साध्य धवपरीत धनश्चायक धकसी धवरुि प्रमाण का सम्भव
न होना उसे असत्प्रधतपक्षत्व कहते हैं।
इसके अनसु िां ान के धलए कुछ सामग्री- नैयाधयकों के द्वारा
• पक्ष िमात्व के द्वारा - अधसि नामक हेत्वाभास का धनराकरण करता है।
• सपक्ष सत्व के द्वारा – धवरुि नामक हेत्वाभास का धनराकरण करता है।
• धवपक्ष व्यावृधत्त के द्वारा - अनेकाांधतक नामक हेत्वाभास का धनराकरण करता है।
• अबाधित धवषयत्व के द्वारा- कालात्यापधदष्ट नामक हेत्वाभास का धनराकरण करता है।
● असत प्रधतपक्ष के द्वारा-प्रकरणसम नामक हेत्वाभास का धनराकरण करता है।
ये नैयाधयक दशान की बात है धजसमें बौि दशान की भी बात गधभात है।
जैन दशान इनके धवरुि खड़ा है। ( by Vikas sir )
हेतु के सांदभा मे मैत्री तनय का दृष्टाांत
मैत्री तनय के दृष्टातां के माध्यम से आचाया ने एक ओर जहाूँ बौि दशान का खिां न धकया वहीं दसय री
तरफ नैयाधयक दशान का भी खांिन धकया है।
इस दृष्टाांत में नैयाधयकों द्वारा मातय जो पाांच प्रकार के धवशेषण हैं हेतय के सांदभा में वे पाांचों धवशेषण
धकस प्रकार लागय होते हैं और लाग होते हुए भी हेत्वाभास होता है। और कयों होता है? जैन दशान
कहता है धक 5 धवशेषणों के बाद भी हेत्वाभास खड़ा हो जाता है।
5 नवर्ेषण
1 पक्ष िमात्व- सािन का िमी /पक्ष के आश्रय से पाया जाना पक्ष िमात्व है।
2 सपक्ष सत्व- धकसी उदाहरण में साध्य-सािन दोनों का पाया जाना।
3 धवपक्ष व्यावृधत्त- सािन का धवपक्ष में नहीं पाया जाना।
4 अबाधित धवषयत्व- साध्ां य-सािन के बीच कोई बािा बाधित नहीं करती।
5 असत प्रधतपक्ष- साध्य के धवरुि कोई प्रमाण नहीं होता।
"र्मैत्री का गभशस्र् नर्र्ु श्यार्म वणश का होगा क्योंनक उसके अन्धय पुत्र श्यार्म वणीय हैं।
"“बौि हेतु का लक्षण बताने के धलए पहले तीन धवशेषण रखते हैं। नैयाधयक और दो धवशेषणों को
जोड़ कर कुल पाूँच धवशेषण रखते हैं। जैन दशान कहता है धक पाूँच धवशेषणों की आवश्यकता नहीं है
कयोंधक पाूँच धवशेषण रखने के बाद भी हेत्वाभास खड़ा हो जाता है,ऐसा अवसर हो धनयम नहीं
इसधलए जैन द. धसफा अधवनाभाव को ही हेतु का लक्षण मानता है और अधवनाभाव को हेतु का
लक्षण मानने से ये पाूँचों धवशेषण उसमें ही समाधहत हो जाते हैं और जो पाूँच हेत्वाभास है उनका भी
धनराकरण हो जाता है ।। R. Vikas Sir
हेत्वाभास के भेद: लक्षण एवां उदाहरण
1 अधसि हेत्वाभास- अधनधश्चतपक्षवृधत्तरधसिाः ।।
धजस पक्ष का हेतु में रहना धनधश्चत न हो उसे अधसि कहते हैं।
अधसि शब्द अधनत्य है कयोंधक चक्षु इधतद्रय का धवषय है। यह हेतु पक्ष िमा में न रहने से हेत्वाभास है।
पहला धवशेषण पक्ष िमात्व बताकर बौि और नैयाधयक अधसि हेत्वाभास का धनराकरण करते हैं।
2 धवरुि हेत्वाभास साध्यधवपरीतव्याम्तो धवरुिः॥ धजस हेतु की साध्य से धवपरीत के सार् व्याधि हो
उसे धवरुि हेत्वाभास कहते हैं।
जैसे:-शब्द धनत्य है कयोंधक धकया हुआ है।
यहाूँ पर 'धकया हुआ' यह हेतु अधनत्य के सार् व्याि है इसधलए यह धवरुि हेल्वाभास है।
दसय रा धवशेषण सपक्ष सत्व बताकर धवरुि हेत्वाभास का धनराकरण धकया जाता है।
3 अनेकाधततक हेत्वाभास –सव्यधवचारोऽनैकाधततकः।।
व्यधभचार सधहत हेतु को अनैकाधततक हेत्वाभास कहते हैं। शब्द अधनत्य है कयोंधक प्रमेय है। यह
प्रमेयत्व हेतु साध्यभयत अधनत्य में और धवपक्षभयत आकाश आधद धनत्य में भी है अतः धवपक्ष से
व्यावृत्त न होने से अनेकाधततक हेत्वाभास है।
तीसरा धवशेषण धवपक्ष व्यावृधत्त बताकर अनैकाधततक हेत्वाभास का धनराकरण धकया जाता है।
4 कालात्यापधदष्ट हेत्वाभास -
धजस हेतु का धवषय धकसी प्रमाण से बाधित हो उसे कालात्यापधदष्ट हेत्वाभास कहते हैं।
जैसे : अधग्न ठांिी है कयोंधक वह पदार्ा है।
चौर्ा धवशेषण अबाधित धवषयत्व बताकर नैयाधयक कालात्यापधदष्ट हेत्वाभास कात्रधनराकरण करता
है।
5. प्रकरण सम हेत्वाभास - धजसका धवरोिी सािन मौजयद हो उस हेतु को प्रकरण सम हेत्वाभास कहते
हैं जैसे : शब्द अधनत्य है कयोंधक वह धनत्य िमा से रधहत है।
पाूँचवा धवशेषण असत प्रधतपक्ष बताकर प्रकरण सम हेत्वाभास का धनराकरण करता है।
• जैन दशान की मातयता है धक पाूँच धवशेषणों की आवश्यकता नहीं है। धसफा एक की है
'अधवनाभाव'- यधद सािन का साध्य के सार् अधवनाभाव घधटत हो जाता है ऐसी धस्र्धत में
हमारा हेतु का लक्षण बाूँिने का काया धसि हो जाता है।
• जैन आचाया ने मैत्री तनय के दृष्टाांत में पाांचों को लागय कर के धदखाया है।
• "मैत्री का गभास्र् धशशु श्याम वणा का होगा कयोंधक उसके अतय पुत्र श्याम वणीय है।"
पक्ष- गभास्र् धशशु मत्रां ी का (िमी)
धवपक्ष- जैन दशान या अनेकाांती के धलए दो धवपक्ष हो सकते हैं
1 मैत्री के गभास्र् धशशु का गौर वणा से युि होना।
2 अतय चैत्री आधद धस्त्रयों के पत्रु ों का गौरवणा से यि
ु होना।
अनेकाांती से धभतन एकाांती धसफा अतयधस्त्रयों के पुत्रों का गौर वणा से युि होना ही धवपक्ष में ग्रहण
करेंगे।
सािन- मैत्री तनयत्व होना
साध्य - मैत्री के गभास्र् धशशु का श्याम वणा से युि होना
सपक्ष- मैत्री के चार पत्रु ों का श्याम वणा।
पक्ष िमात्व- मैत्री का गभास्र् धशशय यहाूँ िमी है एवां उसमें मैत्री तनयत्व का होना, ये सािन है। तो मैत्री
के गभा में जो धशशु धवद्यमान है उसके आश्रय से मैत्री तनयत्व वहाूँ धवद्यमान है, इसमें कोई शांका की
गजुां ाइश नहीं है। ऐसी धस्र्धत में पक्ष िमात्व धसि हो जाता है।
सपक्ष सत्व- मैत्री के जो अतय पुत्र हैं उतहें यहाूँ सपक्ष में लेना है। उन पुत्रों में श्याम वणा भी धसि है और
मैत्री तनयत्व भी धसि है। इस तरह सािन और साध्य दोनों ही धवद्यमान है। ऐसी धस्र्धत में सपक्ष सत्व
वाली बात यहाूँ घधटत हो जाती है।
धवपक्ष व्यावृधत्त - मैत्री के अलावा चैत्री आधद धस्त्रयों के पुत्रों में मैत्री तनयत्व (सािन) का नहीं होना |
मैत्री तनयत्व तो मैत्री के पुत्रों पर ही लागय होगा। अतय पर कै से होगा ? (धवपक्ष को पृर्क करना।)
धवपक्ष व्यावृधत्त वाली बात भी यहाूँ घधटत हो जाती है।
अबाधित धवषयत्व- मैत्री का जो गभास्र् धशशु है उसका श्याम वणा होने में धकसी प्रकार की बािा नहीं
आती।
पाूँच प्रकार की बािाएां - 1. प्रत्यक्ष, 2.अनमु ान,
3. आगम,4.लोक, 5. स्व-वचन।
इनमें से कोई भी बािा यहाूँ बाधित नहीं करती। ऐसी धस्र्धत में अबाधित धवषयत्व वाली बात भी
यहाूँ लागय हो जाती है।
असत प्रधतपक्ष - साध्य के धवरुि (श्यामपना) कोई प्रमाण अर्ाात् गौर वणा होवे इसकी भी कोई धस्र्धत
नहीं। ऐसी धस्र्धत में असत प्रधतपक्ष वाली बात भी लागु हो जाती है।
ये पाूँचों बातें यहाूँ लागय हो गई धफर भी यहाूँ सधां दग्ि अनेकाधततक नाम का हेत्वाभास है।
→ सांधदग्ि अनेकाधततक से यहाूँ तात्पया है धक वह पुत्र गौर वणा का भी हो सकता है और श्याम वणा
का भी हो सकता है।
कयोंधक दानों में (श्याम /गौर वणा में) सािन के सार् दोनों के होने का अवसर है धनयम नही। ऐसी
धस्र्धत में यहाूँ पर - सांधदग्ि अनेकाांधतक नामक हेत्वाभास घधटत हो जाता है कयोंधक मैत्री के गभा में जो
धशशु धवद्यमान है उसकी व्याधि यहाूँ मैत्री तनयत्व के सार् याधन श्यामपने की व्याधि मैत्री तनयत्व के
सार् नहीं है इसधलए मैत्री तनयत्व का अधवनाभाव श्यामपने के सार् घधटत नहीं होता है।
आचाया कहते हैं- तमु धजन पाूँच धवशेषणों की बात करते हो वह पाूँचों यहाूँ घधटत हो रहे हैं धफर भी
यहाूँ सांधदग्ि अनेकाांधतक नामक हेत्वाभास घधटत हुआ । इस धस्र्धत में आपके द्वारा मातय पाूँचों
धवशेषण योग्य नहीं है और अधवनाभाव ही हेतु का एकमात्र लक्षण है धजसमें से पाूँचों समाधहत हैं।
धचांतन- एक तरफ तो आप धवपक्ष व्यावृधत्त की बात करते हो और एक तरफ सांधदग्ि अनेकाांधतक
हेत्वाभास की बात करते हो तो दोनों बातें "एक सार् कै से लागय होगी कयोंधक जहाूँ धवपक्ष व्यावृधत्त
धसि हो जाती है वहाूँ अनेकाधततक हेत्वाभास लागय नहीं पड़ता है और जहाां अनेकाधततक हेत्वाभास
लागय पड़ता है वहाूँ धवपक्ष व्यावृधत्त घधटत नहीं होती है। दानों बातें एक सार् उधचत नहीं धदखाई पड़ती।
कै से समझे ?
नैयाधयक दशान के द्वारा व्याधि के सांबांि में जो मानी गई बात है उसमें गलती है - इस गलती का खांिन
यहाूँ जैन दशान कर रहा है। यद्यधप नैयाधयक दशान भी जैन दशान की तरह उपलम्भ और अनुपलांभ की
बात करता है। उपिम्भअिपु िंभनिनर्मत्त ज्ञािं
उपलांभ एवां अनुपलांभ के धनधमत्त से होने वाले व्याधि ज्ञान को तका कहते है। ऐसा हम भी अर्ाात जैन
द. भी कह रहा है और नैयाधयक भी धकांतु अव्यवस्र्ा यहाूँ है धक वह उपलम्भ में अके ले प्रत्यक्ष प्रमाण
को ग्रहण करता है।
उपलतभ- अनुपलम्भ /भाव- अभाव - दोनों अलग-अलग बात है।
भाव-अभाव-1वस्तु सामातय का अनेकातां / 2वस्तु की तरफ से कहा।
उपलम्भ- अनुपलांभ -1वस्तु धवशेष का अनेकाांत /2 ज्ञान की तरफ से कहा।

★ परमाणु आधद का ग्रहण नहीं हो रहा इसका अर्ा यह नहीं की वह अनुपलब्ि है। वह उपलब्ि के
योग्य है ही नहीं।
उपलम्भ - उपलधब्ि के योग्य होने पर ज्ञान में ग्रहण होना उपलभां है। वह उपलधब्ि के योग्य भी होना
चाधहए | (जैस-े भयत-धपशाच, परमाणु आधद ग्रहण होने के योग्य नहीं।
अनुपलम्भ - उपलधब्ि के योग्य होने पर भी ज्ञान में ग्रहण नहीं होना"" अनुपलब्ि वाली बात लागय
वही होगी जहाूँ वह उपलधब्ि के योग्य हो पर उसका अभाव हो ।
जैसे- इस भयतल पर घट का अभाव है। कयों ? - इसधलए धक घट नामक जो वस्तु है वह इधतद्रय गोचर
पदार्ा है, उपलब्ि होने के योग्य है और उपलब्ि होने के योग्य होने पर भी वह घट यहाूँ उपलब्ि नहीं
हो रहा है अर्ाात उसकी अनुपलधब्ि है इससे इस बात की धसधि होती है धक इस भयतल पर घट का
अभाव है। यहाूँ घट की अनुपलधब्ि हेतु है व घट का अभाव साध्य है। यहाूँ अनुपलधब्ि नामक हेतु से
वस्तु का अभाव धसि धकया जा रहा है। ध्यातव्य है जहाूँ कोई वस्तु उपलधब्ि के योग्य होती है और
उपलधब्ि के योग्य होने पर भी उपलधब्ि न होते तो वहाूँ अनुपलधब्ि नामक हेतु बनता है।
नैयाधयक दशान- उपलम्भ में अके ले प्रत्यक्ष प्रमाण की वस्तु को लेता है- परोक्ष प्रमाण की वस्तु को
नहीं लेता है। जैन दशान इस बात का खिां न करते हुए सयया का दृष्टातां देता है। इस बात को धसि करता
है धक उपलम्भ में परोक्ष भयत को भी ग्रहण करना चाधहए अतयर्ा काया की धसधि नहीं होगी।
सयय ा नाम का दृष्टातां धदया है धजसमें दो अनमु ान प्रस्ततु धकए हैं।
पहला दृष्टात
साध्य - सयया गमन करता है।
सािन/हेतु - कयोंधक वह देश से देशाततर को प्राि होता है।
जैन दशान कहता है - जो साध्य धसि हो गया है उस साध्य को सािन बनाया जा सकता है और उस
सािन से नये साध्य को सािा जा सकता है। इस अनमु ान में साध्य- परोक्ष है। सािन- प्रत्यक्ष है, जैस-े
बाण एक धदशा से दसय री धदशा में चलता है।
दसय रा दृष्टाांत
साध्य - सयया में गमनत्व नाम की शधि पाई जाती है।
सािन- कयोंधक वह गमन करता है।
इस अनमु ान में साध्य- परोक्ष है / सािन- परोक्ष हैं
जैन दशान में अनुमान माला घधटत करता है - जो जो साध्य बनता जाता है उस उसको सािन बना के
आगे नये नये साध्य बना सकते हैं।
नैयाधयक दशान कहता है- जो प्रत्यक्ष है उसी को सािन बनाया जाएगा, जो परोक्ष भयत है उसको सािन
नहीं बनाया जायेगा ।
जैन दशान यहाूँ इस बात की धसधि करता है धक यधद उपलम्भ में अके ले प्रत्यक्ष भयत को ग्रहण करेंगे,
परोक्ष भतय को नहीं करेंगे तो हमारे अनसु िां ान की प्रधिया अपणय ा रहेगी। इसधलए प्रत्यक्ष भतय के सार्
परोक्ष भयत को भी ग्रहण करना चाधहए ।
मैत्री तनय के दृष्टाांत और इसमें कै से सामांजस्य बैठता है? इसे कै से समझे ?
यधद सामने वाला आपधत्त करता है - एक गाूँव की मैत्री नाम की स्त्री है। उसके अतय पुत्र श्याम वणा के
हैं। उसके आिार से उसके गभास्र् धशशु के श्याम वणीय धसि करने वाली बात तो ठीक है धकांतु कया
सभी काल की सभी देश की मैत्री नामक जो धस्त्रयाूँ हैं उनके पत्रु श्याम वणीय ही हो ऐसा तो कोई
धनयम नहीं है। आप जो बात बता रहे हो वो तो एक देश, एक काल में लागय हो सकती है। सवा देश:
सवा काल में कै से लागय होगी?
यही बात कहलवाने के धलए ही तो जैन दशान के द्वारा ये दृष्टातां धदया गया। जब उसने उपयुि आपधत्त
रखी तब हम उसे यह कहेंगे धक आप उपलम्भ में अके ले प्रत्यक्ष को ग्रहण करते हो तो एक ओर तो
आप उपलब्ि में के वल प्रत्यक्ष को ग्रहण करने वाली बात करते हो और दसय री और आप परोक्ष भतय
को ग्रहण करने की बात इस दृष्टाांत में कहते हो ये उधचत नहीं है।
अगर ये आपधत्त आपको करनी है तो आप वहाूँ सुिार कीधजए उपलांभ में परोक्ष भयत को भी ग्रहण
कररए। ऐसी धस्र्धत में व्याधि में जो गलती है वो सुिर जाएगी। और अधवनाभाव की स्वीकृ धत हो
जाएगी। धफर आपके द्वारा कहे गए पाूँच धवशेषणों की बात नहीं कहीं जाएगी।
धाँआ
ु अनग्ि का दृष्ातं
2.अधग्न के होने पर ही िुआां होता है - तो अधग्न के होने पर िुएां के होने का अवसर है या धनयम ?
अवसर ऐसा कह कर हमने धनियाम अधग्न की सत्ता को स्वीकार कर धलया। धनषेि नहीं होने धदया ।
2.उस अवसर का अवसर है धक धनयम? धनयम- इससे हेतु में जो अनेकाधततक नामक हेत्वाभास है
उसका धनराकरण धकया गया है।
3.उस अवसर का अवसर होवे, धनयम न होवे तो कया दोष आयेगा? यधद उस अवसर का धनयम नहीं
मानेंगे तो िआ
ु ूँ अधग्न को छोड़ दसय री जगह पर चला जायेगा। जल भाग में भी िमय हो जाएगा। वो
धनयम ही तो िएु ां को अधग्न के सार् बाांिता है। िुआां स्वच्छांद धवचरण करेगा। यहाूँ अनेकाधततक
हेत्वाभास हो जाएगा। अगर लक्षण की दृधष्ट से देखें तो अधतव्याधि दोष भी खड़ा हो जाएगा।
अधग्न के होने पर िुएां के होने का धनयम मानने से, ऐसी धस्र्धत में धनिमया अधन का अभाव ठहरेगा।
यहाूँ अधवनाभाव और व्याधि के पाठ में अधग्न और घमय के दृष्टातां से समझाया गया है।
व्याि
प्रश्न- आपने व्याि को 'धत्रकाल के वतामान' की सज्ञां ा दी र्ी। व्याि शब्द तो भतय काल का है। धफर
धकस अपेक्षा से?
→ व्याि अर्ाात काया सांपतन हो गया धकांतु वह वतामान में खड़ा है। व्याि माने फै ला हुआ लेधकन
वह वतामान में है न ?
जैसे:- धमट्टीं घट रूप में व्याि है। - फै ला हुआ (at Phant) / ( धमट्टी घट में व्याि है ऐसा नहीं कहेंगे ।)
ये वतामान का अनेकातां है।
जैन दशान की चचाा अनेकातत की चचाा है। एकाांत की चचाा अतय दाशाधनकों की चचाा है। यद्यधप
अनेकाांत को भी अनेकाांतमय कहा है। पहले कहा वस्तु अनेकाांतमय है धफर - कहा अनेकाांत भी
अनेकाांतमय है।
प्रश्न- जहाूँ एक से अधिक धवशेषण खड़े हैं वहाूँ कौन से धवशेषण से कया भाव ग्रहण करें ?
यहाूँ देखना होगा धक धकसने धकसका धनराकरण धकया ? कयोंधक धनशकृ ष्णण पवय ाक धनरुपण होता है।
धनषेि पयवाक धवधि होती है। तो कया धवधिपयवाक धनषेि नहीं होता ?
- जहाूँ धवधि पयवाक धनषेि- की बात चलती है उसको स्र्ापना के रूप में ग्रहण करना चाधहए। धनषेि
तो उसीका होगा धजसकी पहले धवधि होगी। जहाूँ धनषेि पवय ाक धवधि- की बात उसी का होगा धजसकी
धनणाय के अर्ा में ग्रहण करना चाधहए। (धनराकरण पयवाक धनरूपण धनणाय के अर्ा में)
प्रश्न - सरलतम दशान का नाम जैन दशान तो कधठनता कयों ?
कौनसी बात सरल और कौनसी कधठन यह व्यधि के ज्ञान पर आिाररत होगा | कोई बात अपने आप
में सरल या कधठन नहीं होती | वो कर्न ज्ञान की अपेक्षा कर्न है, वस्तु की अपेक्षा नहीं है। वस्तु तो
वस्तु है और उसका वाच्य तो वचन है | वचन सरल है. या कधठन यह बात तो ज्ञान की अपेक्षा से
कही जा रही है। जैन दशान वस्तु का प्रधतपादक है इसधलए सरलतम है
प्रश्न
1. अधपात अनधपात एक भाग में दसय रे भाग में प्रमाण और नय को रखा। दोनों में समानता बताते हुए
असमानता बताएां।
2. वस्तु के असािारण िमा को लक्षण कहते हैं- इस पररभाषा - को मानने पर लक्षण के तीनों दोष
खड़े हो जाते हैं, धसि करें।
पररक्षामुखम्
Lecture 10
प्रमाणादर्ासांधसधि - स्तदाभासाधद्वपयायः
इधत वक्ष्ये तयो-लाक्ष्म, धसिमल्पां लघीयसः ॥
यहाूँ मगां लाचरण के माध्यम से आचाया ने द्रव्य की धवषय वस्तु को रखा है। इस ग्रर्ां में उतहें कया
बताना है ये बात यहाूँ मांगलाचरण के माध्यम से कही जा रही है। बात प्रारांभ होती है- प्रमाण से अर्ा
की धसधि होती है। इसके (प्रमाण) धवरुि जो प्रमाणाभास है उससे धवपयाय होगा अर्ाात उल्टा होगा
अर्ाात जो ज्ञान प्रमाण के रूप में पररणमन नहीं करेगा, वो धनयम से समारोप के रूप में पररणमन
करेगा। सांशय, धवपयाय, एवां अनध्यवसाय एवां अज्ञान के रूप में पररणमन करेगा। ये बात मांगलाचरण
की प्रर्म लाइन में कही गई है। तत् पश्चात् इधत माने उसी प्रकार धजस प्रकार पयवााचायों द्वारा जो कहा
गया है, मैं उसी प्रकार कहूँगा | वक्ष्ये - माने प्रगट करने के अर्ा में, कहने के अर्ा में। मैं उसी प्रकार
प्रगट करूूँगा धजस प्रकार पवय ााचायों ने कहा है। ऐसी यहाूँ प्रधतज्ञा कर रहे हैं आचाया। तत् पश्चात,् तयो-
लाक्ष्म- तयोर् माने दोनों - दोनों के लक्ष्य से, कौन दोनों के लक्ष्य से ? जो बात चलेगी अके ले, न प्रमाण
की चलेगी न प्रामाणाभास की चलेगी आगे बात चलती है जब तक दोनों बात को नहीं करेंगे तब तक
अनेकातां की धसधि कै से होगी ? तो अनेकातां की धसधि करने के धलए तयोलाक्ष्म' याधन दानों के लक्ष्य
से।,
आगे बात चलती है धसिमल्पां लघीयसः
मैं धसि करूूँगा, धकनके धलए ? धकसके आिार से करूूँगा मे बात पयवा में कही जा चुकी है पयवााचाया के
कहे अनुसार कहूँगा । अब ये बात सुना धकसको रहे हैं, तो उसके धलए कह रहे हैं - जो मांद बुधि है
उसके धलए कहूँगा। लघुपना तीन प्रकार का होता है – वयकृ त, शरीरकृ त, ज्ञानकृ त
यहाूँ जो लघुपना है वो शरीरकृ त नहीं लेना, वय याधन आयुकृत नहीं लेना अधपतु ज्ञानकृ त लेना। तो जो
ज्ञान में हीन बधु ि वाले हैं, कम ज्ञान वाले हैं, उनके धलए कहूँगा । इस प्रकार की अपनी भावना
आचाया ने यहाूँ पर व्यि की है। अब एक प्रश्न यह खड़ा होता है - यहाूँ अर्ा की धसधि प्रमाण से कही
जा रही है, इससे हटकर तत्वार्ा सयत्र जी में अर्ा की धसधि अधपात अनधपात से कही जा रही है -
अधपातानधपाता धसिे । अधपात और अनधपात से अर्ा की धसधि होती है ऐसा तत्वार्ा सयत्र में कहा है और
यहाूँ कह रहे हैं धक प्रमाण से अर्ा की धसधि होगी। तो आधखर अर्ा की धसधि प्रमाण से होगी अर्वा
अधपात-अनधपात से होगी अर्वा दोनों से होगी? यधद दोनों से होगी तो उसका कया रूप रहेगा ? कया
स्वरूप रहेगा? सांयोगवश कल ही हमारा प्रश्न बना र्ा " अधपात - अनधपात एवां नय प्रमाण में समानता
बताते हुए उस समानता के आिार पर असमानता धसि करो ?
एक बात पर हमेशा दृधष्टपात करें, जब भी कोई बात आती है तो या तो ज्ञान की तरफ से होगी या वस्तु
की तरफ से होगी या वचन की तरफ से होगी। ये तीन हमेशा स्मृधत में रहें। अब यहाूँ हमारा जो प्रसांग
चल रहा है उसमें नये-प्रमाण को हमने ज्ञान की तरफ से घटाया और अधपात- अनधपात को धकिर से
घटावे ? धनधश्चत रूप से इतहें वचन की तरफ से घटाना चाधहए। एक बात ज्ञान की तरफ से, एक बात
वचन की तरफ से और दोनों जा रही हैं एक ही धदशा में कयोंधक धसधि की बात चल रही है ना। अधपात-
अनधपात से भी धसधि हो रही है, नम-प्रमाण से भी धसधि हो रही है, वस्तुतः दो बातें है ही नहीं। एक ही
बात है, धववक्षा का भेद है। वस्तु का भेद नहीं है। एक ही बात को धसि करता है धकततु एक बात की
धसधि में दो तरफ से बात लागु होती है। इस प्रकार यहाूँ समानता में यह लेना है यहाां के दोनों ही वस्तु
की धसधि के सािन है धकततु एक बात ज्ञान की ओर से घटाना, और दसय री बात वचन की ओर से
घटाना। इस प्रकरण को हमें इस प्रकार समझना चाधहए।
प्रश्न By R. Vikas ji Sir.
मुझे ऐसा लग रहा र्ा धक अधपात-अनधपात है वो प्रधिया है और नय और प्रमाण हैं वो फल हैं उस
प्रधिया के । जब ऐसा धचतां न धकया तो धनक्षेप और अधपात-अनधपात में अतां र समझ नहीं आया। आप
कुछ इस पर प्रकाश िालें ।
+ वस्ततु ः अधपात- अनधपात की जब प्रधतपादन की बात करते हैं तो वहाूँ कर्न के माध्यम से ही कोई
ज्ञान करेगा और जो ज्ञान करेगा वो भी कर्न के माध्यम से ही ज्ञान करवाएगा | नय-प्रमाण भी जानने
के सािन भी हैं और जनाने के सािन भी हैं। नय और प्रमाण को अधिगम (जानने) का उपाय बताया
तो जानने और जनवाने दोनों का सािन है। ये खुद विा के धलए भी लागय पड़ेगा और श्रोता के धलए
भी। तो बात एक ही है मयल मे। प्रश्न है, धफर अांतर कया ? दोनों में धववक्षा का भेद है। एक बात ज्ञान की
तरफ से है और एक बात वचन की तरफ से है। मख्ु य- गौण और अधपात-अनधपात एक ही है,यह नय
की धिया है एवां प्रकृ त-अप्रकृ त धनक्षेप की धिया है।
स्वापूवाशर्शव्यवसायामर्मकं ज्ञािं प्रर्माणर्म् ।।1।।
इस सयत्र के माध्यम से प्रमाण का लक्षण बािां ा जा रहा है और उस लक्षण में पाूँच धवशेषणों को
शाधमल धकया है।
यहाूँ पाूँच धवशेषण हैं
1.ज्ञान पद, 2. व्यवसाय पद, 3. अर्ा पद, 4. अपयवा पद 5. स्व पद।
प्रमाण के लक्षण को घधटत करने के धलए यहाूँ कौन से धवशेषण से धकस बात का धनराकरण धकया जा
रहा है उस पर अब धवचार करेंगे।
1.ज्ञान- ज्ञान पद तो नैयाधयकों के सधतनकषा और वैशधे षकों के कारक साकल्यवाद का ख्िन करता
है।
2.व्यवसाय - व्यवसायात्मक बौिों के धनधवाकल्प वाद का ख्िन करता है।
3.अर्ा पद - धवज्ञान अद्वैतवाद व धचत्र अद्वैतवाद का ख्िन करता है।
4 अपवय ा पद- िारावाही ज्ञान का ख्िन करता है।
5. स्व पद- से ज्ञान को सवार्ा परोक्ष मानने वाले मीमाांसक तर्ा अतय ज्ञान से उसे ग्राहक मानने वाले
नैयाधयकों के कारक साकल्य व सधतनकषा वाद का ख्िन करता है?
सधतनकषावाद- सधतनकषावादी मानते हैं जब इधतद्रयाूँ अपने धवषय से धभड़ती है तब ज्ञान की उत्पधत्त
होती है, प्रमाण की उत्पधत्त होती है । इधतद्रयों के अपने धवषय से सधतनकषा होने पर ही यहाूँ ज्ञान की
उत्पधत्त धदखाई गई है। प्रमाण की उत्पधत्त धदखाई गई है। जैन दशान कहता है धक आप जो बात कह रहे
हैं उसमें इधतद्रय भी जड़ है और उसका धवषय भी जड़ है। दो जड़ धमलकर प्रमाण की उत्पधत्त नहीं कर
सकते इसधलए ऐसी धस्र्धत में इधतद्रय के द्वारा अपने धवषय में जो प्रवृधत्त है उसको प्रमाण मानने वाली
बात गलत है।
साकल्यवाद - साकल्यवाधद कहता है इधतद्रय, प्रकाश और पदार्ा में तीन सामग्री(चीज़ ) जब धमलती
है तब प्रमाण का जतम होता है । साकल्य का अर्ा है सामग्री। सधतनकषावाद से साकल्यवाद र्ोिा
धभतन है। यद्यधप समानता यह है धक यहाूँ भी तीनों ही चीजे जड़ हैं। इधतद्रय जि है ही, प्रकाश भी जड़ है
कयोंधक पुदगल की पयााय है और पदार्ा जो धवषय बनेगा वो भी जड़ ही बनेगा इसधलए तीनों ही जड़ हैं
और जड़ कभी प्रमाण की उत्पधत्त नहीं कर सकता। प्रमाण की उत्पधत्त करने का जो सामथ्या है वो एक
मात्र चेतन को ही है इसीधलए कहा है ज्ञान ही प्रमाण हैं तो यहाूँ यह सधतनकषा वाद का ख्िन धकया,
साकल्यवाद का ख्िन धकया ।
कौनसे धवशेषण के द्वारा? 'ज्ञान' नामक धवशेषण के द्वारा सधतनकषावाद और साकल्यवाद का ख्िन
धकया है ।
* धनधवाकल्प वाद- बौि दशान धनधवाकल्प ज्ञान को प्रमाण मानता है। धनधवाचार वाले ज्ञान को प्रमाण
मानता है। जैन दशान इस बात का खांिन करता है। वह कहता है धक धनधवाकल्प ज्ञान प्रमाण नहीं हो
सकता कयोंधक धनधवाकल्प ज्ञान में धनश्चय नहीं होता और धजस ज्ञान में धनश्चय नहीं होता वो प्रमाण नहीं
होता । यद्यधप बौि दशान जड़ से हटकर चेतन मे तो आ गया धकततु चेतन में आने के उपरातत भी
धनधवाकल्प ज्ञान को प्रमाण मानता है। जैन दशान कहता है यधद हम धनधवाकल्प ज्ञान को प्रमाण मानेंगे तो
वह प्रमाण धबना धनश्चय वाला ठहरेगा ,यह शकय नहीं है। कयोंधक धनश्चय के धबना प्रमाण धसि नहीं
होगा। इससे व्यवसाय पद से धनधवाकल्प वाद का खांिन धकया गया है। (बुधि का व्यापार)
धवज्ञान / धचत्र-अद्वैतवाद - दोनों में र्ोड़ा ही अततर है। उसकी बात यर्ा समय की जाएगी। दानों ही
एक बात को मानते हैं धक ज्ञान में ही घटाते है जो कुछ भी है, बाह्य जगत की सत्ता स्वीकार नहीं करते।
एक मात्र ज्ञान को ही स्वीकार करते हैं। बाहर का जो अर्ा जगत है उसकी सत्ता स्वीकार नहीं करते।
उनको समझाने के धलए आचाया ने अर्ा पद धदया है। वे कहते हैं जैसा हम जान रहे है वैसा वस्तु जगत
होना भी चाधहए। काल्पधनक नहीं और अगर ऐसा वस्तु जगत है तो ही वो ज्ञान प्रमाण होगा अतयर्ा
नहीं । जो भी कुछ है ज्ञान में ही घटाते हैं।
िारावाही ज्ञान - तत् पश्चात अपयवा धवशेषण भी बौिों का है कयोंधक बौि दशान िारावाही ज्ञान को
प्रमाण मानते हैं यह ज्ञान भी प्रमाण घधटत नहीं होता है कयोंधक उसमें कोई बदलाव नहीं है और प्रमाण
में बदलाव आवश्यक है। बदलाव के धबना प्रमाण धसि नहीं होता। इस प्रकार यहाूँ पर एक व्यवसाय
और एक अपयवा दो पदों का प्रयोग धकया है। जैन दशान ने वैदों की दो प्रकार की मातयताओ ां का ख्िन
धकया है।
प्रश्न - ज्ञान पयवा कयों नहीं होगा ? कुछ चीजें ऐसी होती है ना, जो पहले र्ी वो वैसी ही रहेगी, उसमें
बदलाव कयों होगा हर बार ? धकस आिार पर बदलाव की बात ?
उत्तर- इस प्रश्न पर बहुत ऊहापोह हुई है और तका रखे गये है। जैसे हमने पहली बार में जाना यह घट है।
दसय री बार में जाना की यह घट है। तीसरी बार भी जाना यह घट है। सो कया गलती हो रही है जो घट
को घट जान रहे है ना ? अब घट को जान रहे हैं आप धफर भी उसे अप्रमाण कह रहे हैं, ऐसे कयों
आधखर ? तो इस प्रकार से अनेक तका रखे गये हैं। यद्यधप उन तकों का ख्िन भी धकया गया है
कयोंधक यहाूँ धकसी न धकसी अर्ा में बौि दशान छल ग्रहण कर रहा है इस बात की आड़ में। तो इस
प्रकार के मानने वालों को सही सदां ेश देने के धलए ये 'अपवय ा धवशेषण रखा गया है जैन दशान के द्वारा।
के वलज्ञानी के ज्ञान में अपयवाता काल की अपेक्षा से घटता है। एक समय में धजसे भधवष्णयवती जान रहा
र्ा, दसय रे समय में उसे वतामानवती जानेगा और तीसरे समय मे भयतवती जानेगा । कोई एक धिया,
कोई एक काल है वो अभी सम्पतन नहीं हुआ है आगामी काल में सम्पतन होना है, के वलज्ञानी ने जाना
उसको तो धकस रूप में जाना ? भधवष्णय में होने वाला है, इस रूप में जाना । अगले समय में वो घटना
घट गई धफर वतामानवती रूप में जाना और तीसरे समय में वो उत्पतन हो के धवनष्ट हो गया तो उसे
भयतवती रूप में जाना ।
यहाूँ प्रिानता इस बात की है धक छदमस्र् के ज्ञान को प्रमाण कै से माने ? यहाूँ प्रिानता के वलज्ञानी के
ज्ञान की नहीं। आगे प्रमाण की प्राम्यता पर प्रकरण चलेगा वहाूँ इसकी बात करेंगे।
मीमाांसक यहाूँ स्व' नामक धवशेषण है, इसके द्वारा मीमाांसकों को समझाया जा रहा है कयोंधक वह ऐसा
मानते हैं धक ज्ञान अके ला अर्ा प्रकाशक है अर्ाात स्वप्रकाशक नहीं है, यद्यधप स्व का प्रकाशन तो
होता है लेधकन स्व के द्वारा नहीं पर के द्वारा होता है। इस एकाधततक मातयता जो मीमासां कों की है
उसको समझाने के धलए यहाूँ पर स्व नामक धवशेषण रखा गया है। कहा गया की ज्ञान ‘स्वपर प्रकाशक
' है।
धजस प्रकार ज्ञान अर्ा का प्रकाशन करता है उसी प्रकार ये स्व का प्रकाशन भी करता है। यधद स्व का
प्रकाशन हम नहीं मानेंगे तो ऐसी धस्र्धत में दोष खड़ा होगा ? कौन सा दोष खड़ा होगा • अनवस्र्ा
दोष खड़ा होगा | हर एक अनवस्र्ा, अनवस्र्ा दोष के रूप में घधटत नहीं होती। वो ही अनवस्र्ा,
अनवस्र्ा दोष के रूप में घधटत होती है जो अपने मयल का नाश करने वाली हो ।
1 मल
य का अर्ा कया ? धकसका मल
य ?
दाशाधनक शैली के मयल की बात चल रही है। दाशाधनक शैली का मयल है पक्ष-धवपक्ष।
आगम शैली का मयल है लक्ष- अलक्ष |
अध्याधत्मक शैली का मयल है प्रयोजनभयत-अप्रयोजनभयत।
यधद ज्ञान, अके ला अर्ा प्रकाशक है मानोगे, स्व प्रकाशक नहीं तो ऐसी धस्र्धत में उसका जो अर्ा
प्रकाशन है वो धकसके आिार पर धसि करोगे । स्व प्रकाशन के अभाव में अर्ाात िमा के अभाव में
आपका जो सािन है वो कै से धटके गा । उसको कोई आशय नहीं धमलेगा व आश्रय अधसि नामक
हेत्वाभास खड़ा होगा।
4 प्रकार के अधसि हेत्वाभास होते हैं
• अज्ञात अधसि
•सश
ां य अधसि
• स्वारोप अधसि
• आश्रय अधसि
अर्ाात वो हेतु जहाूँ खड़ा है, उसका आश्रय यधद धसि न हो तो आश्रय अधसि नाम का हेत्वाभास हो
जायेगा। इस प्रकार मीमासां क की बात का धक ज्ञान के वल अर्ा प्रकाशक है इसका खिां न जैन दशान
द्वारा धदखाया गया |
प्रश्न- सयत्र में के वल 'स्व' ही आ रहा है, स्व-पर दोनों आना चाधहए नान?
उत्तर- जो अर्ा पद धलया है वो 'पर' के अर्ा में ग्रहण करता है यहाूँ पर।
प्रश्न- िारावाधहक ज्ञान का कया अर्ा लेंगे ?
उत्तर-िारावाधहक ज्ञान मतलब-एक जैसा जानता है। पररवतान नहीं मानता। बौि दशान की कुछ
मातयताएूँ हैं - सवाप्रर्म वह वस्तु को क्षधणक मानता है। दसय रा जो ज्ञान उत्पतन होता है उसमें तीन बाते
करता है प्रिान रूप से –
तदोत्पधत- ज्ञान ज्ञेय से उत्पतन होता है।
तदाकार ज्ञान – ज्ञान ज्ञेयकार होता है। तदध्् यवसाय- वह उसी को ही जानता है।

नहतानहत प्रानि पररहारसर्मर्ं नहं प्रर्माण ततो ज्ञािर्मेव तत् ।।2।।


इस पयरे पररच्छे द में प्रमाण के लक्षण की चचाा की है। पहले सयत्र में प्रमाण का लक्षण बाांिा | दसय रे सयत्र
में प्रमाण के लक्षणों में जो ज्ञान नामक धवशेषण है उसकी सार्ाकता धसि कर रहे हैं धक प्रमाण के
लक्षणों में हमें ज्ञान पद रखना कयों जरूरी है। '
धहत की प्राधि और अधहत को पररहार करने में प्रमाण ही समर्ा है और जो प्रमाण है वह ज्ञान ही है वह
प्रमाण स्वरूप में स्वीकाया वस्तु ज्ञान ही है। इसका अनधपात धनकाधलए-
1-धहत की प्राधि और अधहत का पररहार करने में प्रमाण ही समर्ा है और जो प्रमाण है वह ज्ञान ही है।
(स्र्ापना) अगर अधपात है तो इसका अनधपात है
2-अधहत की प्राधि और धहत का पररहार करने में प्रमाण समर्ा नहीं है और जो 'प्रमाणाभास है वह
ज्ञान नहीं है। अगर अधपात है तो इसका अनधपात है।
3. अधहत की प्राधि और धहत का पररहार करने में प्रमाणाभास समर्ा हैं और जो प्रमाणाभास है वह
अज्ञान है। अगर अधपात है तो इसका अनधपात है
4. धहत की प्राधि और अधहत का पररहार करने में प्रमाणाभास समर्ा नहीं है और जो प्रमाण है वह
अज्ञान नहीं है। अगर अधपात है तो इसका अनधपात है।
5. धहत की प्राधि और अधहत का पररहार करने में प्रमाण ही समर्ा है और जो प्रमाण है वह ज्ञान ही है।
ज्ञान ही प्रमाण है माने सधतनकषा प्रमाण नहीं है, साकल्य प्रमाण नहीं है। ज्ञान ही प्रमाण है माने अज्ञान
प्रमाण नहीं है। सधबकषा, साकल्य प्रमाण नहीं है। इसका अनधपात धनकाधलए। अर्ाात सधतनकषा,
साकल्य अप्रमाण है अर्ाात् ज्ञान अप्रमाण नहीं है अर्ाात् ज्ञान प्रमाण है।
यहाूँ दो वाकय लेते हैं ज्ञान ही प्रमाण है।-ज्ञान प्रमाण ही है।
अगर ज्ञान प्रमाण ही है कहेंगे तो कया दोष आयेगा?
अर्ाात ज्ञान अप्रमाण नहीं है - ये गलत हो जाएगा कयोंधक ज्ञान का पररणमन है वो प्रमाण अप्रमाण
दोनों रूप है । सांशय, अध्यवसाय, धवपयाय जो पररणमन धकया वो ज्ञान ने ही तो धकया।
प्रश्न- ज्ञान प्रमाण ही तो है, जो ज्ञान प्रमाण नहीं है वो ते अज्ञान हो जायेगा ?
उत्तर- धजस ज्ञान को प्रमाण ठहरा रहे हैं वो ज्ञान कौनसा लेना, कयधयूँ क ज्ञान का पररणमन दोनों प्रकार
का है। ज्ञान प्रमाण ही है ऐसा कहेंगे तो पररणमन रूप का धनषेि हो जायेगा। ज्ञान दोनों प्रकार का है
प्रमाण रूप भी और अप्रमाण रूप भी।
प्रश्न - अज्ञान अप्रमाण ही है'- कया ये भी गलत होगा ?
उत्तर- हाूँ वो भी गलत होगा, धफर उसकी धववक्षा बदल जाएगी कयोंधक कर्ांधचत अज्ञान भी प्रमाण है।
जो हम उसे अप्रमाण कह रहे हैं वह प्रमेय की अपेक्षा से कह रहे हैं। भाव प्रमेय की अपेक्षा से तो
सांशय, धवपयाय अनध्यवसाय भी प्रमाण है। जब ज्ञान की धसधि कर रहे हैं, जहाूँ सांशय हुआ है वो ज्ञान
में ही हुआ है, चेतन में ही हुआ है। सश
ां य जड़ में नहीं हुआ है इसधलए वहाूँ भी कर्धां चत लगेगा।
अनधपात धनकालने में यही तो बड़ी बात है धक अनधपात धनकालने में हम यही मयाादा तो नहीं तोड़ रहे,
उस मयाादा का हमें ख्याल करना है।
प्रश्न- वस्तु के असािारण गुण िमा को लक्षण मानने से तीनों प्रकार के दोष कै से धसि होंगे?- वस्तु के
असािारण िमा को वस्तु का लक्षण कहते हैं इस प्रकार की मातयता चलती है। अब इसमें कया दोष है
यह धदखाना है। यहाूँ पर अव्याधि, अधतव्याधि व असभां व में तीनों प्रकार के दोष लगते हैं सो कै से
धसि करें ?
To be answered later... in later classes,
16/08/21
Lectare 11
दसय रे सयत्र के सांदभा में चचाा हमारी चली –
धहत की प्राधि और अधहत का पररहार करने में कौन समर्ा है उत्तर धमलता है धक प्रमाण समर्ा है और
वह प्रमाण ज्ञान ही होने योग्य है, अज्ञान नहीं अर्ाात सधतनकषा आधद नहीं।
अब यहाूँ धहत में कया लेना ? अधहत में कया लेना?सुख और सुख के जो सािन हैं वो धहत रूप है ।
दःु ख दःु ख रूप के जो सािन है वो अधहत रूप हैं। यहाूँ धहत की प्राधि व अधहत का पररहार कै से होवे,
इस सांदभा में सयत्र धलखा गया है। और इसके माध्यम से प्रमाण के लक्षण में ज्ञान की जो सार्ाकता है
उसको धसि धकया गया है। अब तीसरे no. का सत्रय -
तनन्धिियामर्मक सर्मारोपनवरुद्ध मवादिुर्मािवत् ॥ ३॥
यहाूँ ज्ञान नामक धवशेषण के बाद, "व्यवसाय नामक
धवशेषण पर धवचार कर उसको धसि धकया जा रहा है।
तत्त् माने वह । वह माने कौन ?
प्रमाण।
कौनसा प्रमाण ?
वह प्रमाण पदार्ा का धनश्चायक है धजस प्रमाण के लक्षण के पाांच धवशेषण बताए गए हैं। कयों ? हेतु
धदया गया - समारोप का धवरोिी होने से वह प्रमाण पदार्ा का धनश्चायक है। समारोप का धवरोिी होने
से धनश्चायक कै से ठहरा ?
यधद इस बात की गहराई में जाते हैं तो हमें एक बात सामने धमलती है, वो इस प्रकार है - "समारोप
प्रमाण नहीं है अर्ाात सांशय,धवपयाय, अनध्यवसाय प्रमाण नहीं है, धकततु कयों ? कयोंधक, वह साध्य
अर्ा का धनश्चायक नहीं है।धकततु कै से उत्तर खोजा धक सांशय, धवपयाय, अनध्यवसाय मे अपने साध्य
अर्ा का धनश्चय नहीं होता इसधलए उतहें अप्रमाण कहा है कयोंधक प्रमाण समारोप का धवरोिी है तो ये
प्रमाण भी अगर अपने साध्य अर्ा का धनश्चय न करे धवरोिी होने के नाते तो धफर ये प्रमाण समारोप का
धवरोिी कै से कहलाएगा?और ये प्रमाण कै से कहलाएगा?
अब इसके आगे की बात हम करते हैं- समारोप में सश ां य, धवपयाय व अनध्यवसाय ऐसे तीन रूप होते
हैं, उसमें जो धवपयाय ज्ञान होता है. उसमें तो धनश्चय होता है, धफर भी उसे अप्रमाण कययूँ कहा? ध्यातव्य
है धनश्चय तो होता है पर वो धनश्चय अपने साध्य अर्ा का नहीं होता है। तो धकसका धनश्चय होता है ?
धवपयाय का लक्षण बाूँिा र्ा
- नवपरीत एक कोनट निियो नवपयशय
धनश्चय तो होता है पर साध्य के धवरुि धनश्चय होता है। धवरुि का धनश्चय हो रहा है और धनश्चय धकसमें
हो रहा है ?
सारी प्रधिया ज्ञान में ही होती है पर हमें एक स्र्ापना करनी पड़ेगी)
धवपयाय ज्ञान में धनश्चय होता है - सवाल है धकसका धनश्चय और धकसमें होता है ?
धनश्चय तो साांध्य में हो रहा है धकततु धकसका हो रहा है - असाध्य का (जो साध्य नहीं है, जो साध्य का
धवरोिी है उसका) धनश्चय हो रहा है - धकांतु धनश्चय साध्य में हो रहा है। तो धजसका धनश्चय हो रहा है वह
असाध्य पर, धजसमें हो रहा है वह साध्य है। ये धमलावट हुई न इसधलए तो धवपयाय कहा इसे।
हम कहते हैं समारोप में धनश्चय नहीं होता धकांतु समारोप में जो धवपयाय ज्ञान है उसमें तो धनश्चय होता है।
पर धनश्चय होते हुए भी उस धनश्चय को धनश्चय की श्रेणी में नहीं धलया । कयों नहीं धलया, कयोंधक धवपयाय
ज्ञान में असाध्य का धनश्चय होता है। हमें इष्ट है साध्य का धनणाय हो साध्य में धकांतु धवपयाय धनश्चायक
होते हुए भी असाध्य अर्ा का धनश्चायक है साध्य अर्ा का नहीं। धजसका धजसमें धनणाय होना चाधहए
वैसा नहीं है। धमलावट नहीं चलती इसधलए इसे धनश्चय की श्रेणी में नहीं रखा ।
साध्य में धजसका धनश्चय करना है वो वस्तु हो, धवचार हो या कुछ भी लेधकन वो होगा हमारे ज्ञान में ही
कयोंधक जो साध्य है वो भी हमारे ज्ञान में ही है तो जो साध्य का साध्य में धनश्चय हुआ र्ा जो अधनश्चय
हुआ, दोनो बात घधटत तो ज्ञान में ही हो रहा है न । सारी प्रधिया ज्ञान में ही हो रही है, अततर धसफा
इतना है धक जो प्रमाण ज्ञान है उसमें जो जैसा है वैसा का वैसा ही जानने में आ रहा है और अप्रमाण
ज्ञान याधन धवपयाय ज्ञान में जो जैसा है वैसा नहीं जानकर उसको अतय रूप में ग्रहण धकया जा रहा है।
दोनों धनश्चय ज्ञान में हो रहे हैं तो ऐसा कययां धक साध्य का साध्य में धनणाय हो तो प्रमाण ज्ञान और
असाध्य का साध्य में धनणाय हो तो अप्रमाण ज्ञान ? अततर कया हुआ?
इसको दसय री भाषा में समझेंगे - जो जैसा है उसको वैसा ही जानना सो तो यर्ार्ा /प्रमाण ज्ञान और
धवपयाय ज्ञान में जो रूप ग्रहण धकया जा रहा है या असाध्य कर जो ग्रहण धकया जा रहा है वह नहीं है
ऐसा नहीं है, वह रूप नहीं है ऐसा नहीं है, वह रूप तो है धकततु उसको धजस रूप में कहा जा रहा है वह
उस रूप में नहीं है। आकाश कुसुम - यहाूँ आकाश या कुसुम नहीं है ऐसा नहीं *धकांतु आकाश के फयल
नहीं है। दोनो अलग-अलग है। हमने जोड़ धदया उनको।
बतध्या का सुत - बतध्या भी है और सुत भी है। मृग-मरीधचका - मृग भी हैं और मरीधचका भी है । गिे
के सींग गिा भी है और सींग भी है।
तो जो जोड़ा ना वो गलती हुई यहाूँ पर | यह सारी प्रधिया समझने और समझाने के धलए की जाती है।
हम कहते हैं धक सारी प्रधिया ज्ञान में हो रही है और इसी एकातत को लेकर खड़ा है धवज्ञान-
अद्वैतवादी। धवज्ञान- अद्वैतवादी यही गलती कर रहा है धक वो ज्ञान को तो मान रहा है, ज्ञेय को नहीं
मान रहा है। बात समझने की यह है धक जैसे ज्ञान की सत्ता है वैसे वस्तु जगत की भी सत्ता है। यधद
वस्तु जगत न होवे तो उस ज्ञान को प्रमाण कौन कहेगा ? प्रमाण में जैसा ज्ञान हो रहा है वैसा वस्तु
जगत भी है। धकसी भी ज्ञान में जो प्रमाणता धमल रही है उसका द्वार है वस्तु।
यहाूँ भी ज्ञान के भी दो धवशेषण है एक यर्ार्ा ज्ञान और एक सम्यक ज्ञान | कया फका है ज्ञान को
यर्ार्ा सांज्ञा धमली वो कौन सी और ज्ञान को सम्यक सांज्ञा धमली वो धदशा कौन सी है ज्ञान को यर्ार्ा
सांज्ञा धमलती है वस्तु की तरफ से(ज्ञानावरणीय कमा की तरफ से) और सम्यक सांज्ञा धमलती है श्रिा
की तरफ से।(मोहनीय की तरफ से)
प्रश्न- जो ज्ञान यर्ार्ा हो वो सम्यक भी हो, ये आवश्यक है धक नहीं?
उत्तर- नहीं है। धमथ्यात्व दशा में भी यर्ार्ा ज्ञान प्रकट हो ही जाता है। जो ज्ञान यर्ार्ा हो वह सम्यक
हो, आवश्यक नहीं धकततु जो ज्ञान सम्यक होता वो यर्ार्ा होगा, कया ऐसा धनयम है?
उत्तर- चौर्े गुणस्र्ान का व्यधि है उसे सम्यक ज्ञान है और वो साूँप को रस्सी समझ ले तो उसका
ज्ञान तो सम्यक र्ा पर यर्ार्ा नहीं हुआ। By Vikas sir
यहाूँ ज्ञान सम्यक तो है कययांधक तत्व में मयल नहीं है उसको पर जहाूँ रस्सी पड़ी है और सॉप के रूप में
ग्रहण धकया तो वो ज्ञान अयर्ार्ा हुआ धकततु अयर्ार्ा होते हुए भी वो ज्ञान सम्यक है। ज्ञान इसधलए
सम्यक है कयोंधक उसके प्रयोजन भयत तत्त्वों में भयल नहीं है कयोंधक शरीर को शरीर ग्रहण धकया है। चाहे
साूँप का हो या रस्सी का दोनों है तो शरीर ना | तत्व की मल य नहीं की। शरीर को शरीर ही ग्रहण धकया।
रस्सी का शरीर र्ा, सॉप का शरीर ग्रहण धकया तो ज्ञान अयर्ार्ा र्ा पर तत्त्व के बारे में भयल नहीं र्ी
इसधलए ज्ञान सम्यक है। सम्यक दृधष्ट का सारा ज्ञान सम्यक है पर धफर भी अयर्ार्ा हो सकता है।
By Vikas Str तत्त्व की जो बात हो रही है, वो वस्तु की तरफ से न होकर, यहाूँ पर सात/नौ तत्त्वों की
तरफ से हो रही है। उस तरफ से उस व्यधि के मोहनीय कमा का जो क्षयोपशम है, उस तरफ से उसका
ज्ञान सम्यक ही रहा भले ही वस्तु की तरफ से यर्ार्ा न रहा हो तो भी। वस्तु तो शरीर ही रहेगी चाहे
रस्सी हो या साूँप | या तो जीव उस शरीर का उपयोग कर रहा है या उस शरीर को छोड़ चुका है। तो जो
सम्यक सांज्ञा पा रहे हैं वो धमथ्यात्व के क्षयोपशम से पा रहे हैं और जो अयर्ार्ा सांज्ञा पा रहे हैं वो
कयोंधक उस व्यधि के उस समय साूँप ज्ञानावरणीय का क्षयोपशम है और रस्सी ज्ञानावरणीय का
क्षयोपशम नहीं है, उसक उदय है, तो उसने साांप ग्रहण कर धलया रस्सी को ।
धबलकुल बराबर बात है। धकततु उसमें एक बात का ध्यान देना होगा की जो सम्यकपना घटाएांगे और
उस सम्यकपने को वस्तु की तरफ से लागय करेंगे तो वहाूँ एक बात यह ज़रूर आएगी धक उसने शरीर
को शरीर के रूप में ग्रहण धकया उसमें वो भयल नहीं कर रहा है इसधलए उसका ज्ञान सम्यक है। यहाूँ
तत्व की भयल नहीं है धकांतु उसका लोक व्यवहार भ्रष्ट हुआ है अगर वह रस्सी समझ कर सूँप पर पैर
रख दे। उसके तत्त्व ज्ञान में कोई बदलाव नहीं हुआ। उसका 7/9 तत्त्वों के बारे में श्रिान है वो बराबर
है। उसमें चयक नहीं है कोई भी। लोक व्यवहार में चयक हुई। उसको उसका दांि भी धमलेगा।
प्रश्न- षट् जीवधनकाय को जीव न समझे तो धमथ्यात्व होगा न जैसे पानी के जीव को जीव न समझे ?
उत्तर - प्रयोजन भयत, अप्रयोजनभयत तत्त्व (धपछले सत्र में चचाा हुई र्ी। " यहाूँ सम्यक दशान की प्राधि
की जो condition रखी है जो प्रयोजनभयत रखी है। कयोंधक जीव के धवशेष बहुत है तो सारे धवशेषों
को कोई छद्मस्र् अवस्र्ा में जान ले ये तो शकय नहीं है। लोक व्यवहार चलाने के धलए इतना तो
जानना पड़ेगा आपको लेधकन धफर भी सारे के सारे धवशेषों को कोई जान ले ऐसा तो धनयम नहीं है।
मतलब सामथ्या नहीं है। दसय री बात यह है धक एक प्रमादवश गलती होती है और एक अज्ञानवश
गलती होती है। यहाूँ पर अज्ञानवश गलती हो रही है।
दृष्टाांत को सीधमत रखें धक खाली उसने साूँप को रस्सी या रस्सी को साूँप जाना और सौंप जानकर वो
भय से भागा और एक दृष्टातां यह धक वह रस्सी पर पैर रख दे तो प्रश्न होगा धक कोई साफ सुर्री जगह
पर चलेगा तो रस्सी पर भी पैर कययां रखेगा ? वो भी तो उसकी गलती मानी जाएगी। साूँप पर पैर नहीं
रखना चाधहए पर रस्सी पर भी पैर कयूँय रखें कोई। यह तो जानने की अपेक्षा कर्न है। तो उसको उसमें,
उस काल में जो रस्सी पड़ी र्ी उसको उस रस्सी का ज्ञान नहीं हुआ। कयों नहीं हुआ - कयोंधक रस्सी
आवरण कमा का उसे उदय चल रहा र्ा। अब सपा आवरण ज्ञान का उसको क्षयोपशम चल रहा र्ा,
तो जो क्षयोपशम चलेगा वही तो जानेगा ना ज्ञाि का कारण क्या?
बौि दशान तीन बातें कहता है
तदोत्पधत्त
तदाकार
तदध्यवसाय
जैन दशान में बात नहीं कहता है। जैन दशान कहता है जानने का कारण आत्मा का स्वयां गुण है। स्वयां
गुण तो है ही, स्वावरण (स्व आवरण) का क्षयोपशम लक्षण भी है। उस व्यधि के जानने में जो धनयम
बनेगा वह उसका स्वआवरण कमा का क्षयोपशम है माने धकस व्यधि को धकस वि/समय कया जानना
है, वो उस जीव का ज्ञानावरण कमा का जो क्षयोपशम है उसपर धनभार होगा। यहाूँ जो जानने में आ रहा
है वो क्षयोपशम ज्ञान व जो नहीं जानने में आ रहा है वह आवरण कमा का उदय |
अर्ा यह हुआ यर्ार्ा ज्ञान सम्यक भी हो सकता है और धमथ्या भी। अयर्ार्ा ज्ञान भी सम्यक भी हो
सकता है और धमथ्या भी हो सकता है।
तीसरे सयत्र को चचाा हम कर रहे हैं। इस बात को समझने के धलए एक और लौधकक उदाहरण उपयोग
में लाया जा सकता है।
* शत्रु का शत्रु धमत्र" अब यहाूँ जो प्रमाण है उस प्रमाण का शत्रु कौन है - समारोप अब समारोप का
शत्रु कौन है ? प्रमाण इसका शत्रु है ये तो हम जानते है पर यहाूँ पर अर्ाात प्रमाण में जो धनश्चायकपना
है (प्रमाण का धमत्र) ये ही धवरोिी है न समारोप का माने सांशय, धवपयाय, अनध्यवसाय का कारण
कयोंधक समारोप अपने धवषय का धनश्चय नहीं करता । धवपयाय में जो धनश्चय हो रहा है वो धवरुि कोधट
का धनश्चय हो रहा है और यहाूँ जो धनश्चय की बात है वो साध्य अर्ा की बात है। साध्य अर्ा का जो
धनश्चय है वो समारोप का धवरोिी हुआ। यहाूँ पर साध्य अर्ा का धनश्चय, वो प्रमाण का धमत्र हुआ ना !
एक लोक रीधत , लोक तयाय है ये इस लोक तयाय के माध्यम से यहाूँ जो हमारी बात चल रही है - जो
प्रमाण है वह वस्तु का धनश्चायक है और कयोंधक वस्तु का धनश्चायकपना समारोप का धवरोिी है वह
प्रमाण का भी धवरोिी है।
यह बात धकसको समझाई जा रही है? बौि मधत को समझाई जा रही है। वह अपने प्रमाण में
धनधवाकल्प ज्ञान को प्रमाण मानता है। जबधक जैन दशान कहता है यधद आप धनधवाकल्प ज्ञान को प्रमाण
मानोगे तो ऐसी धस्र्धत में आपके प्रमाण में धनश्चय तो होगा ही नहीं | अब जब धनश्चय नहीं होगा तो
धनश्चय साध्य अर्ा का तो समारोप में भी नहीं होगा तो धफर समारोप और प्रमाण में अांतर कया हुआ ?
इस प्रकार यहाूँ बौि दशान को समझाया जा रहा है।
बौि दशान प्रमाण का लक्षण धकस रूप में मानता है ?
अधवसवां ादी ज्ञान को प्रमाण कहता है । धवसवां ादी का अर्ा- अनक
ु य ल नहीं By R.Manju Aunty जो
सत्य को ख्याधपत करता है वो अधवसांवादी
मयल शब्द वाद" – कर्न
'सवां ाद' वस्तु के अनुसार कर्न
धवसांवाद' वस्तय स्वरूप के धवरुि कर्न
'अधवसवां ाद- वस्तय स्वरूप के धवरुि जो कर्न है उन कर्नों का धनराकरण करने के धलए जो कर्न
धकए जाने वो कर्न । धनराकरण करते हुए, वस्तु धस्र्धत का धनरूपण करना, उसका नाम है अधवसवां ाद
| वह कर्न है अधवसांवाद।
ये बौि दशान ने जो लक्षण बनाया है, उसमें पयरा अनेकातत धसि होता है। लक्षण में अनेकातत धसि
होने के उपरातत भी बौि दशान अनेकातत को नहीं मानता है। अनेकातत को नहीं मानता है, वस्तु को
अके ले धवशेष रूप मानता है, सामातय रूप नहीं मानता है। जैन दशान प्रश्न करता है धक आप अनुमान
प्रमाण की धसधि करते हो और सामातय धवशेष के धबना तो अनमु ान प्रमाण बनता नहीं है तो ये सगां धत
नहीं बैठेगी। यहाूँ वो उत्तर देता है धक हम सामातय को खाली स्र्ापना के रूप में मानते हैं, उपचार से
मानते हैं। सामातय वस्तु तत्त्व नहीं है। बौि दशान आगे कहता है धक वस्तु तत्त्व तो अके ला धवशेष है।
धफर जैन दशान खिां न करता है धक तुम अवस्तुगत धस्र्धत के आिार से प्रमाण को खड़ा करते हो तो
प्रमाण तुम्हारा सच्चा कै से होगा ? जो प्रमाण अवस्तुगत धस्र्धत के आिार से खड़ा होगा उस प्रमाण
को सच्चा कै से माने?
प्रश्न- प्रमाण और समारोप में कौनसा धवरोि है ? उत्तर- सहानवस्र्ान धवरोि है। ByR. Vikas Sir
पहली बात तो यह धक प्रमाण और समारोप दोनों ही ज्ञान के पररणमन हैं। दसय री बात दोनों कभी एक
सार् नहीं होते। जब प्रमाण रूप पररणमन करेगा ज्ञान तो समारोप रूप नहीं करेगा और जब समारोप
रूप करेगा तो प्रमाण रूप नहीं करेगा | इन दोनों में जो धवरोि है वो सहानवस्र्ान नामक धवरोि घधटत
होता है।
प्रश्न- प्रयोजनभयत के बारे में धकसी जीव को प्रमाण ज्ञान है और अप्रयोजन भयत के बारे में उसे अप्रमाण
ज्ञान हो सकता है धक नहीं? धबलकुल हो सकता है। प्रयोजन भयत के बारे में वास्तधवक धनणाय हो और
अप्रयोजन भयत के बारे में कोई सश ां य हो ऐसा हो सकता । एक तरफ प्रमाण ज्ञान भी चल रहा है और
एक तरफ सांशय भी चल रहा है। यद्यधप उपयोग में एक ही होगा। दोनों नहीं चलेंगे। हाूँ लधब्ि की बात
करें तो लधब्ि में दोनों एक सार् रह सकते हैं धकततु समझने वाली बात यह है धक प्रयोजन भतय के बारे
में बराबर धनणाय होने पर भी अप्रयोजन भयत को धकतना जानेगा, कहीं न कहीं जाकर तो सांशय आधद
उसे रहेगा ही।
प्रश्न होता है लोक व्यवहार को जब हम पयरा जान नहीं सकते तो इसमें झगड़े में कयों पड़े ?
→ ऐसा नहीं है, इसको भी जानना जरूरी है कयोंधक उसके धबना आपका लोक व्यवहार नहीं चलेगा।
यधद हमें यही धववेक नहीं धक जीव कया, अजीव कया तो हमारा लोक व्यवहार कै से चलेगा। हम भ्रष्ट
हो जाएांगे लोक व्यवहार से तो भ्रष्टाचार से बचने के धलए हमें इतना जानना जरूरी है।
प्रश्न- यहाूँ परस्पर पररहार लक्षण धवरोि नहीं हो सकता ?
उत्तर : यह धवरोि आचायों ने वस्तु के गणु ों पर घटाया है। जैसे ज्ञान व दशान | ज्ञान का पररणमने रूप
ज्ञान रूप होगा व दशान का दशान, ज्ञान नहीं होगा। यद्यधप िमा युगलों में भी ये लागय पड़ता है धकततु
लागु पड़ते हुए भी यह लक्षण नहीं बनता। िमा युगलों का अनेकातत का लक्षण नहीं बनता। धसि करने
के धलए तो धफर हमें तुल्य बल धवरोि का ही सहारा लेना पड़ेगा।
Lecture 12
17/08/21
तत्त्व के सम्बति में यद्यधप सम्यकपना धमथ्यापना, इसमें तत्व की ही मुख्यता है तत्त्व की दृधष्ट से । दसय रे
शब्दों में कहें धक धजसका श्रिान सम्यक है उसका ज्ञान यर्ार्ा है या होगा ही होगा यह धनयम नहीं ।
यद्यधप अप्रयोजनभयत के सदां भा में उसका ज्ञान अयर्ार्ा भी हो सकता है, वो प्रकरण धभतन है धकततु
प्रयोजन भयत के सांदभा में, वस्तु स्वरूप के सांदभा में, तत्त्व के सांबांि में जहाूँ ज्ञान को सम्यक सांज्ञा धमल
जाती है, वो ज्ञान धनयम से यर्ार्ा होता ही है कयधयां क यर्ार्ापवय ाक सम्यक होता है। जब तक यर्ार्ा नहीं
होगा, तब तक सम्यक कै से होगा ? " यर्ार्ापना' जो सांज्ञा धमली ज्ञान को वह वस्तु की ओर से धमली।
जैसा वस्तु का स्वरूप है वैसा ही जाना तो उसे ज्ञान को यर्ार्ा कहा और जब श्रिा पलट हो गई तो,
श्रिा सम्यक हो गई तो उस ज्ञान को श्रिा के प्रकाश में उस ज्ञान को सम्यक सज्ञां ा धमली।
प्रश्न- साूँप को रस्सी ग्रहण करने पर भी तत्त्व की भयल नहीं मानी गई कयोंधक शरीर को शरीर ग्रहण
धकया तो धफर तत्त्व की मल य धकस तरह घधटत हो सकती है इसी उदाहरण से समझाएूँ।
उत्तर- सम्यक दृधष्ट िमाात्मा जीव हैं और रस्सी के स्र्ान पर साूँप ग्रहण कर रहा है तो भयल
अप्रयोजनभयत में हुई है माने जो मोक्ष मागा से सांबधतित नहीं है उसमें । शरीर को शरीर अर्ाात जड़ को
जड़ ही ग्रहण धकया इसधलए तत्त्व की भयल नहीं है। अगर उस जड़ शरीर को चेतन के रूप में ग्रहण करें
मने ये ही सब कुछ है, इसके अलावा आत्मा का कोई अधस्तत्व नहीं है। शरीर आत्मा दोनों को धमला
के ग्रहण करे और ग्रहण करे कया करता ही है धमथ्या दृधष्ट । धमथ्या दृधष्ट जीव खदु के ऊपर घटावे तो
वो आत्मा को शरीर को अलग कहाूँ मानता है, दानों को एक रूप मानता है तो ये तत्व की भयल मानी
जाएगी। इस उदाहरण में सम्यक दृधष्ट होने के आत्मा को आत्मा के रूप ग्रहण कर रहा है और शरीर
को शरीर के रूप में। अब अततर इतना है धक वो शरीर रस्सी का र्ा और उसने ग्रहण धकया साूँप तो
उसने शरीर और आत्मा को धमलाया कहाूँ । यहाूँ धभतन ही रखा। धभतन ही ग्रहण धकया। उसने जब
रस्सी को सौंप ग्रहण धकया तो भी इसके ज्ञान श्रिान में तो यही चल रहा है ना धक आत्मा अलग
होती है और शरीर अलग होता है। अगर उसमें वो धमलावे तो तत्व की भयल होवे।
अनिनितोऽपूवाशर्शः ॥4॥
सत्रय ार्ा - धजस पदार्ा का पहले धकसी प्रमाण से धनश्चय नहीं धकया गया हो, उसे अपवय ाार्ा कहते हैं ।
अपवय ार्ापना काल के प्रकाश में दो रुप से घधटत होता है। एक तो अनाधदकाल से धजसको नहीं जाना
और धफर जाना वो अपयवाार्ा कहलाया। दसय रा अपयवाार्ा पहले हमने जान धलया र्ा और कालाततर में
उस सदां भा में सश
ां य, धवपयाय, अनध्यवसाय में से कोई दोष उत्पतन हो जावे तो पुनः वह जानता हुआ
भी धबना जाने हुए के समान हो जाता है। इस तयाय से एक तो अनाधद और एक साधद । एक तीसरा
प्रकार वह हो सकता है धजसमें पहले सामातय रूप से जाना और बाद में धवशेष रूप से जाना तो उसे
भी अपयवाार्ा कहा है। जैसे अवग्रह, ईहा, अवाय, िारणा की जो प्रधिया चलती है उस प्रधिया में पहले
अवग्रह से जाना धफर बाद में ईहा रूप में जाना। वस्तु वो ही है, वस्तु नहीं बदल रही है। एक ही वस्तु
का अवग्रह, ईहा, अवाय, िारणा। तो यहाूँ अवग्रह के बाद ईहा से जाना तो अपयवाािा हो गया। इस
प्रकार यहाूँ काल के भेद से दो प्रकार धदखाई धदये व एक सामातय धवशेष के आिार पर एक भेद ।
तत्पश्चात इसके मल
य की बात करें धक अपवय ाार्ा कहें धकसे, तो यहाूँ चौर्े सत्रय में लक्षण बािां ा
'अधनधश्चतो'- जो अधनधश्चत है वह। अपयवाार्ा है, इस प्रकार का लक्षण कयों बाांिा, इस सांदभा में हमें
र्ोड़ा पीछे जाना चाधहए, जहाूँ हमें यह बात धमलती है धक सांशय, धवपयाय, अनध्यवसाय प्रमाण नहीं
है कयोंधक वे अपने धनश्चय के धनश्चायक नहीं हैं, तो ये धनश्चायकपना प्रमाण का मुख्य घटक तत्त्व है
इसधलए उस धनश्चायकपने को सामने रखते हुए यहाूँ इसका (अपयवाार्ाक लक्षण बाांिा है जो धक योग्य
है। ( अभी-2 धनश्चय हुआ है, पहले नहीं र्ा।
ये बात हुई हमारी लक्षण के सांदभा में और भेदों के के सांदभा में। तत्पश्चात एक बात और धवशेष है इस
सांदभा में समझने योग्य | उस पर हम धवचार करते हैं। पाूँचवे सयत्र के प्रकाश मै एक बात आती है
सवाार्ा अपयवााग्राही मानने पर धदचतद्र आधद का ज्ञान भी सत्य हो जाएगा, प्रमाण हो जाएगा | मीमासां क
दशान प्रमाण के सांदभा में अपयवाार्ापना तो ग्रहण करता है धकांतु उसे सवार्ा अपयवाार्ा मानता है। उसके
ख्िन में आचाया ने यहाूँ पर अपनी यह बात रखी है धक यधद कोई अपवय ापना सवार्ा माने तो ऐसी
धस्र्धत में धदचतद्र आधद का ज्ञान सम्यक हो जाएगा यर्ार्ा हो जाएगा।
प्रश्न- धद्वचतद्र का ज्ञान भी प्रमाण रूप हो जाएगा माने कया ?
उत्तर- दृष्टातत है - धकसी ने एक चतद्र के स्र्ान पर दो चतद्र ग्रहण धकये धक यह दो चतद्र है। अब प्रश्न है
धक वो ज्ञान प्रमाण है धक अप्रमाण ?
इस सदां भा में एक धवशेष बात है जो हमें समझना है। यधद धजसने एक चतद्र के स्र्ान पर दो चतद्र को
ग्रहण धकया है यधद वह चतद्र के स्वरूप का धनणाय करने के धलए बैठा हुआ है, ऐसी धस्र्धत में एक
चतद्र के स्र्ान पर दो चतद्र को ग्रहण करने पर भी उसका वह ज्ञान प्रमाण रूप ही होगा। ये खास बात
कर रहे हैं हम ध्यान देना- एक चतद्र की जगह दो चतद्र का ज्ञान होने पर भी उस ज्ञान को प्रमाण कहा
धकस अर्ा में ? धक ग्रहण करने वाले को चतद्र के स्वरूप का धनणाय करना है इसधलए एक की जगह दो
भी ग्रहण करेगा तो भी उसका ज्ञान प्रमाण ही होगा अप्रमाण नहीं। अगर यहाूँ सांख्या का धनणाय, चतद्र
की सख्ां या का धनणाय इष्ट हो धक मैं देखता हूँ धक यहाूँ धकतने चतद्र है ऐसा इष्ट हो तो ऐसी धस्र्धत में एक
के जगह दो चतद्र ग्रहण करेगा तो उसका वो ज्ञान अप्रमाण हो जाएगा धकांतु कयों
यधद सवार्ा अपवय ाार्ाग्राही मानेंगे तो धफर ऐसी धस्र्धत में पहले हमने सही जान धलया उसे प्रमाण माना
धफर बाद में सांशय खड़ा हो गया और धफर सांशय की धनवृधत्त होकर पहले गया तो धफर वह प्रमाण नहीं
ठहरेगा| जैसे पहले हमने सही जाना बाद में तो जो बाद में पुन: सही जाना उसको प्रमाण सांज्ञा नहीं
धमलेगी। वह अप्रमाण हो जाएगा। सवार्ा अपयवाग्राही मानेंगे तो दोष खड़ा होगा धक सश ां य अपने ज्ञान
को जो सही धकया वो अप्रमाण ठहरेगा |
इस सवार्ा अपवय ाग्राही के सबां िां में एक बात और छुपी है। यहाूँ सवार्ा अपवय ाार्ापना लेना है ज्ञान की
तरफ से, वस्तु की तरफ से नहीं। यधद वस्तु की तरफ से भी अपयवाार्ा मानेंगे तो धकसी नवीन वस्तु का
उत्पाद हुआ ऐसा भी धसि हो जाएगा।
जैसे धक दृष्टातत धदया धद्वचद्रां का। अब धद्वचतद्र तो एक ही है, धकसी ने दो ग्रहण कर धलए एक की जगह
तो अपयवार्ा पना तो हुआ ना कयोंधक पहले एक चतद्र को ग्रहण धकया बाद में दो को ग्रहण धकया तो
अपवय ाार्ापना तो हो गया।
अपवय ाार्ा होते हुए भी वहाूँ अर्ा तो है ही नहीं, वो तो झठय ा ज्ञान है। उसका तो झठय भी प्रमाण ठहरेगा।
सवार्ा अपयवाार्ापना माने तो ज्ञान के अलावा वो बात अपयवा वाली वस्तु पर भी घटेंगी धफर और वस्तु
पर भी घटेगी तो धफर यधद धकसी ने नवीन वस्तु का उत्पाद जान धलया, मान धलया तो उसका वो ज्ञान
भी प्रमाण हो जाएगा, इस तयाय से जबधक वो उसका काल्पधनक ज्ञान है। जैसे धद्वचांद्र का ज्ञान हुआ
धकसी को अब वो ज्ञान तो झठय ा है कयोंधक अर्ा वैसा है ही नहीं। मौके पर तो ऐसी धस्र्धत में उसका वह
ज्ञान भी प्रमाण हो जाएगी जो धक योग्य नहीं है।
By. R. Vikas sir
प्रश्न कुछ ऐसी पररभाषाएां धमलती हैं जैसे 'यर्ार्ा ज्ञान प्रमाण"ां , सम्यक धनणाय ज्ञानां प्रमाणां | उसमें
यर्ार्ा ज्ञान या सम्यक धनणाय हो रहा है वो तो जो पयवा में जानी हुई वस्तु है उसका भी हो रहा है। उस
तयाय से तो दोनों धवरािाभासी पररभाषाएां होगी धक एक तरफ से तो अपवय ा को ही प्रमाण मान रहे हैं
और एक उसी घट के द्वारा उसी घट को दबु ारा घट माना वो भी यर्ार्ा ज्ञान, वो प्रमाण कययां नहीं है।
उत्तर- आचायों में बहुत ऊहापोह हुई है इसको लेकर और उसमें अपयवाार्ा वाली बात कहने वाले मुख्य
रूप से आचाया अकलांक हैं। अकलांक के बारे में ऐसा कहा जाता है धक एक स्र्ान पर उतहोंने इसे
स्वीकार कर धलया है धक ये शता कोई आवश्यक नहीं है, ऐसा भी चलता है। दोनों मत हैं उनके । पहले
तो ये धक ये धनयामक है और बाद में कहीं जाकर एक स्र्ान पर उतहोंने ऐसा भी स्वीकार धकया धक ये
धनयामक नहीं है।
बिी बात तो यह है धक आधखर ये बात कही कयों जा रही हैं। तो बात िारावाधहक ज्ञान के खिां न के
धलए कही जा रही है। कया दोष है िारावाधहक ज्ञान में ? उसमें प्रमाण का जतम हमेशा नवीन ही होगा
अप्रमाण का अभाव होकर प्रमाण ज्ञान प्रकट होता है। अप्रमाण ज्ञान, धमथ्याज्ञान, झठय ा ज्ञान जो है,
उसका अभाव होकर प्रमाण ज्ञान उत्पतन होता है। ये एक खास तत्त्व की बात है समझने की इसमें ।
अब यहाूँ जब िारावाधहक को िारावाधहक माने तो कया अर्ा ग्रहण करें? वह जो अखांि है, आधद
अनाधद एक रूप है। जब आधद अनाधद एक रूप धफर उसमें नवीनता तो कुछ हुई नही मने वो तो
अनाधद काल से चला आ रहा है और अनतत काल अनाधद एक रूप है। िारावाधहक मने- अनाधद
अनतत एक रूप है तो एक रूप होने के नाते अनाधदकाल से प्रमाण ज्ञान चल रहा है ऐसा घधटत होवेगा
जो की योग्य नहीं है और इसी बात को हटाने के धलए, बौि मत का खांिन करने के धलए अकलांक ने
अपनी बात रखी है बाकी इस बात को गौण करें हम तो यह बात कमजोर हो जाती है। अपयवापना
धवशेषण आवश्यक नहीं रहता। यहाूँ अपयवापना । मुख्य रूप से वो जो प्रमाण है उस प्रमाण को साधद
धसि करने के धलए रखा गया है। यधद अपयवापना नहीं रखोगे तो उसके साधदपने की धसधि कै से होगी।
जबकी यहाूँ प्रमाण जो उत्पतन होता है वह अवग्रह ईहा अवाय पवय ाक उत्पतन होता है। अब ऐसी
धस्र्धत में तो उत्पतन होता है, साधद रूप होता है। उसका जो साधदपना है वो महत्वपयणा अांग है,
महत्वपयणा घटक तत्त्व है। उसकी धसधि होना आवश्यक है। इसी बात पर बल देने के धलए आचाया
अकलक ां देव ने यहाूँ पर बौि दशान का ख्िन धकया है। अतय मतावलधम्बयों व हमारे सािधमाक को
समझाने के धलए अपयवापने की धसधि की आवश्यकता नहीं है।
"कयोंधक पहले समय जाना धक यह घट है, धफर दसय रे तीसरे समय में भी जाना यह घट है, अब कया
गलत हुआ उसमें ? यर्ार्ा ज्ञान होता है वो प्रमाण ज्ञान होता है। यर्ार्ापना तो धसि हो ही रहा है तो
बैि दशान का खांिन करने के धलए ही इस धवशेषण की आवश्यकता अधनवायाता है।
यहाूँ धजतने धवशेषण आये, ज्ञान आधद वे धकसी न धकसी दशान की मातयता है उसको सामने रखकर ही
धवशेषण बनाया है। इस प्रकार इन पाूँच धवशेषणों से पयरे धवषय को समेटने का प्रयास यहाूँ पर आचाया
ने धकया है जो हमें सफल होता हुआ धदखाई दे रहा है।
पााँच नवर्ेषण
ज्ञान, व्यवसाय और अपयवा नाम के तीन धवशेषणों पर चचाा के बाद दो धवशेषण और बचते हैं, एक
अर्ा और एक स्व |
अब ये जो अर्ा नाम का जो धवशेषण है वो धवज्ञान अद्वैतवादी और धचत्त अद्वैतवादी, उनके खांिन के
धलए धलखा है कयोंधक धवज्ञान अद्वैत वादी अके ले ज्ञान की सत्ता स्वीकार करता है। वह ज्ञान का जो
ज्ञेय है उसकी सत्ता स्वीकार नहीं करता। इसी बात का खिां न करने के धलए अर्ा नामक धवशेषण धलया
गया है अर्ाात वैसा अर्ा जगत होना भी चाधहए जैसा ज्ञान प्रकट हुआ है। यधद नहीं होगा तो ज्ञान
प्रमाण नहीं होगा तत् पश्चात एक स्व नामक धवशेषण रखा है। वह मीमासां क को समझने के धलए रखा
है। कयोंधक वह अके ले ज्ञान को धसफा अर्ा प्रकाशक मानता है स्व प्रकाशक नहीं मानता है तो उसके
खांिन में स्व नामक धवशेषण रखा है कययूँधक यधद ज्ञान स्व प्रकाशक नहीं होगा तो ऐसी धस्र्धत में तो जो
ज्ञान अर्ा को प्रकाश रहा है, कयोंधक वह ज्ञेय है। वहाूँ हेतु कया धदया उसने कयोंधक वह ज्ञेय है। ज्ञान ज्ञेय
है इसधलए। जैन दशान कहता है धक ऐसा ग्रहण करोगे तो वहाूँ हेतु नहीं हेत्वाभास हो जाएगा कयोंधक
ज्ञान में ज्ञेयपना धसि करने के धलए, कयोधक ज्ञान ज्ञेय है तो ऐसी धस्र्धत में जो ज्ञान है वो िमी हुआ
यहाूँ। और इस ज्ञान में जो ज्ञेय बना है वो हेतु हुआ और अके ला अर्ा प्रकाशक होना साध्य हुआ।
ध्यान देना यहाूँ- साध्य ज्ञान का अके ला अर्ा प्रकाशक होना।
सािन - ज्ञान का ज्ञेय रूप होना।
िमी - ज्ञान है।
इस प्रकार की स्र्ापना करता है ये दशान। जैन दशान कहता है धक आपका जो हेतु है 'ज्ञान में ज्ञेयपना'
तो ये ज्ञेयपना ज्ञान के आश्रय से खड़ा है
और जब आपका ज्ञान ही धसि नहीं है, अप्रधसि है अर्ाात आपका िमी अप्रधसि है और िमी के
अप्रधसि रहते हुए आपने जो हेतु खड़ा धकया है, वो धबना आश्रय का है। उसको धकसी का आश्रय
नहीं है। ऐसी धस्र्धत में आश्रयाधसि नाम का हेत्वाभास खड़ा होता है।
प्रश्न- हमने तीन तीन बातें घटायी आश्रय अधसि नामक हेत्वाभास घटाया | उसमें सािन, साध्य और
िमी धकसको माना और उसके द्वारा धदया गया आश्रयाधसि नामक हेत्वाभास है धकततु कयों ? उत्तर-
यहाूँ ज्ञान को िमी ज्ञान के ज्ञेयपने को हेतय व ज्ञान का अके ला अर्ाप्रकाशकपना इसको वह साध्य
मानता है। जैन दशान कहता है जब आपका ज्ञान ही धसि नहीं है, आपका िमी धसि नहीं कयधयां क िमी
आपका ज्ञान है यहाूँ पर और जब वो िमी ही धसि नहीं है तो ऐसी धस्र्धत में उसके आश्रय से जो
आपने हेतु खड़ा धकया है, वह धनराधश्रत हुआ। ऐसी धस्र्धत में आश्रय अधसि नाम का हेत्वाभास
हुआ।
एक बात और समझ ले यहाूँ पर आश्रय अधसि नामक हेत्वाभास जैधनयों का नहीं हैं धकततु मीमाांसक
मानता है इसधलए उसकी मातयता के आिार से उसकी मातयता का खिां न कर रहे हैं हम कयोंधक जैन
दशान के धहसाब से ते अनेकाधततक धवरुि अधकांधचतकर और अधसि है। यद्यधप उस अधसि में ही इसे
धवराम धदया है। तीन प्रकार के अधसि है जैन दशान में स्वरूप अज्ञात और सांशय अधसि । आश्रय
अधसि यहाूँ पररक्षामुख में धदया नहीं गया है पर उसकी ही मातयता के आिार पर यहाूँ ख्िन धकया
जा रहा है।
धकसी भी बात के ख्िन करने के तरीके दो हैं। एक तो वस्तगु त धस्र्धत के आिार से ख्िन करना
और एक सामने वाले की मातयता के आिार से उसकी बात को खध्ित करना । भले ही वह झठय ी हो
वो तो मानता है वो बात | झठय ी बात के आिार से भी उसकी झयठी बात को काटा जा सकता है। सच्ची
बात के आिार पर तो झठय ी बात को काटा ही जाता है, उसमें कोई समस्या नहीं है धकततु यहाूँ तयाय के
क्षेत्र में, ये भी एक बड़ी बात है धक कोई बात भले ही झयठी है, अगर उसको सामाने वाला मानता है तो
उसकी झठय ी मातयता के आिार से उसकी उस दसय री झठय ी मातयता को खत्म धकया जा सकता है झठय
के आिार पर झठय कै से खत्म होगा? अगर सामने वाले की झठय ी मातयता को ही हेतु बनायें और
उसकी दसय री मातयता को खत्म करें और यधद वहाूँ वह यह आपधत्त लेता है धक आपने जो हेतु बनाया
है मेरी एक मातयता का वो तो मेरी झठय ी मातयता है तो धफर उसका खुद का महल धगर जाएगा। यहाूँ
ज्ञानी का प्रयोजन के वल सामने वाले का अज्ञान दरय करना है। अगर प्रयोजन सही है तो उसकी धसधि
के धलए जो भी प्रयत्न हम करते हैं ना, वो सब सही माना जाता है। ज्ञानी का प्रयोजन के वल अज्ञान दरय
करना धकस प्रकार उसका अज्ञान दरय होवे व वह अनेकातत को ग्रहण करे, एकातत को छोड़े |
इससे ये घधटत हुआ धक ख्िन एक वस्तु के आिार से होता है। जैन दशान की मातयता के अनुसार
ख्िन मने वस्तु के अनुसार ख्िन । इसमें कोई अतां र ग्रहण नहीं करना वस्तु के अनुसार खतिन
करना धकसी बात का या जैन दशान की मातयता के आिार से खध्ित करना, इनको दो बात नहीं
मानना है कयोंधक जैन दशान की मातयता का मतलब ही यही होता है धक वस्तु के अनसु ार जो
वस्तुस्वरूप के धवरुि बनता है वो जैन दशान की मातयता नहीं हो सकती। जैन दशान की मातयता तो
वही है जैसा धक वस्तु का स्वरूप है।
तो यहाूँ वस्तु के प्रकाश में ख्िन धकया जाता है। दसय रा सामने वस्तु वाले की मातयता के आिार पर
भी ख्िन धकया जाता है। कयोंधक वह एकातती है इसधलए कभी उसकी बात अगर सही भी है तो
उसका सही भी गलत है। और अनेकाधतत होने के नाते हम जो भी कहेंगे वो हमारा सही ही होगा
कयोंधक हमारे पास अपेक्षा है इसधलए गलत होने का कोई अवसर नहीं है।
प्रश्न- जब हमने कहा धक ज्ञान ही धसि नहीं है उसका तो िमी अप्रधसि हुआ लेधकन उसका तो ज्ञान
धसि है अपना | वो तो हमें धसि नहीं हुआ।वो तो कह रहा है - मेरा ज्ञान ज्ञेय है। उसके धलए तो धसि
है ज्ञान / उसको कया धदककत है ज्ञान धसि न होने में ? By Vikas sir-57:27
उत्तर- उसके धलए अधसि ऐसे है धक वो ज्ञान को स्वप्रकाशक नहीं मानता है तो उसको एक ज्ञान ही
दसय रा ज्ञान धसि करेगा ना । उसकी मातयता यह है धक ज्ञान धसि है पर दसय रे से धसि है खुद से नहीं |
वो ज्ञान को पयरा अधसि मानता है ऐसा नहीं। वो धसि मानता है पर दसय रे ज्ञान से मानता है इसधलए तो
अनवस्र्ा दोष भी खड़ा हो रहा है ना वहाूँ पर A नाम का व्यधि है, उसके ज्ञान को उसके ज्ञान ने नहीं
जाना? B के ज्ञान ने जाना B के ज्ञान को C के ज्ञान ने जाना तो वहीं अनवस्र्ा चल पड़ी ना | उसकी
मातयता में अनवस्र्ा नाम का दोष भी खड़ा होता है और आश्रय अधसि नाम का दोष भी खड़ा होता
है ।

18/ 08/21
Lec-13
दृष्टोऽधप समारोपात्तादृक ॥५॥
स्वोतमुखतमा प्रधतभासनां स्वस्य व्यवसायः ॥६॥
यह दोनों सयत्र पयवा के lecture में ही आ गये हैं। अब आगे-
अर्ास्येव तदतु मख
ु तया ॥७॥
घटमहमात्मना वेधि ॥८॥
कमावत्कतृाकरणधिया प्रतीतेः ॥९॥

सत्रय 6,7,8,9 सयत्र एक धवशेष सांदेश दे रहे हैं हमें| यहाूँ प्रश्न यह खड़ा हुआ स्व का व्यवसाय कै से होता
है? अर्ाात् स्व का धनश्चय कै से होता है? इसके उत्तर में कहा जा रहा है धजस प्रकार अर्ा व्यवसाय होता
है। उसी प्रकार एवां व्यवसाय होता है। उसी प्रकार अर्ा व्यवसाय वाली बात इसधलए कही जा रही है
कयोंधक यहाां वादी प्रधतवादी दोनों ही अर्ा व्यवसायवाली बात को तो स्वीकार धकए हुए हैं इसधलए
उसको हेतु बनाकर स्वव्यवसाय को धसि धकया जा रहा है। यद्यधप एक प्रश्न यहाूँ खड़ा होता है अर्ा के
सम्मुख होना मने कया ? सतमुख होना अर्ाात् धजस प्रकार पदार्ा के प्रधत सतमुख होने से पदार्ा का
धनश्चय होता है अर्ाात धनश्चय होता है, उसी प्रकार स्व की ओर उतमुख होने पर स्व का धनश्चय होता है।
'उतमखु ' पद का प्रयोग धकया है। हाूँ जो बात उठाई जा रही है वह जीव की जो अततमाख ु ी दशा होती
है,शुिोपयोग रूपी दशा होती है कया, उस बात को सामने रखते हुए बात कर रहे हैं अर्वा ज्ञान का
जो स्वपरप्रकाशक प्रभाव है उसको सामने रखकर बात कर रहे है-यह एक अहम प्रश्न है। ये कक्ष रहे हैं
जैसे अर्ा है उसी प्रकार स्वव्यवसाय होता है जब उपयोग की मुख्यता से बात करेंगे तो जो उपयोग है
या तो पर में रहेगा या स्व में रहेगा। दोनों मे एक सार् उपयोग रह नहीं सकता। इसके उपरात दसय री
चचाा है ज्ञान स्वपर प्रकाशक है। अब यहाूँ स्व प्रकाशक को अर्ा प्रकाशक के प्रकाश में धसि धकया
जा रहा है। उसमें भी उतमुख शब्द को रखा। यद्यधप जानने के धलए धजस को जाना जा रहा है उसकी
उपधस्र्धत आवश्यक नहीं मानता है जैन दशान और आवश्यक नहीं मानता है उसकी उपधस्र्धत धफर
भी उतमुख वाली बात कही जा रही है। इसका कया अर्ा ग्रहण करेंगे?
कारक में जैन दशान षट कारक को मानता है। व्याकरण की दृधष्ट से और भी आगे माने गये है।अब यहाूँ
षट्कारक सबां िां में व्यवहार षट् कारक और धनश्चय षट्कारक वाली जो चचाा है वह अपेधक्षत है।
षट्कारक के दो प्रकार है :-
व्यवहार षट्कारक
धनश्चय षट्कारक
दोनों के नाम, लक्षण बताए
षट्कारक - िक्षण- -
• कताा- जो स्वतत्रां ता पयवाक पररणमन करें।
• कमा- कताा को जो इष्ट होता हैं।
• करण- काया के प्रधत जो सािकतम होताहै।
• सांप्रदान-धजसके धलए काया धकया जाए।
• अपादान-धजसमें से कमा धकया जाए या उत्पधत्त हो।
• अधिकरण-वह कमा जहाूँ धकया जाए
व्यवहार षट्कारक
जहाूँ पर पर के धनधमत्त से काया की धसधि हो
• कताा-कुम्हार
• कमा-घट
• करण-दांि आधद
• -सांप्रदान-पानी पीनेवाला
• अपादान-पात्र
• अधिकरण -चाक पर
उदाहरण:-कुम्हार ने घट को दांि आधद करण से पानी पीनेवाले के धलए पात्र मे से धमट्टी लेकर चाक पर
घट बनाया।
नििय षट्कारक
• कताा -धमट्टी- कयोंधक यहाूँ धमट्टी ने स्वतांत्रता से पररणमन धकया है।
• कमा- घट-धमट्टी व घट अभेद इसधलए कमा धमट्टी
• करण-धमट्टी का पररणमन स्वभाव कयोंधक वह काया के प्रधत सािकतम है।
• सप्रां दान- स्वयां धमट्टी कयोंधक उस घट को धमट्टी ने ही प्राि धकया है।
• अपादान- धमट्टी ने स्व मे से धपिां रूप अवस्र्ा को व्यय करके घट को उत्पतन धकया है व स्वयां
ध्रुव है।
• अधिकरण – यह सारी कायावाही धमट्टी की सत्ता मे हुई तो अधिकरण।

तीन उपाधियाूँ धमलती है पयााय को - धिया, कमा और काया।


कौन सी उपाधि धकस अपेक्षा से धमलती है। तीनों पयााय के नाम हैं।
कमा जो उपाधि धमली है वो कताा की अपेक्षा से धमली।
काया जो उपाधि धमली है वो कारण की अपेक्षा से धमली, चाहे वो उपादान कारण हो या चाहे धनधमत्त
कारण हो।
- धिया जो उपाधि धमली वो घटकारक की अपेक्षा से धमली।
एक ही पयााय है, पयााय तीन नहीं है। एक ही पयााय है। पयााय को कताा की तरफ से कमा, कारण की
तरफ से काया और कारक की तरफ से उसे धिया कहा जाता है। ये तीनों िमा उसके धभतन-2 हैं। कयोंधक
तीनों की अपनी अपनी अपेक्षाएां हैं।
21:15
इस सदां भा में तीसरा Point
ये प्रत्यक्ष परोक्ष की बात चलती है। ये प्रत्यक्षपना, परोक्षपना प्रमाण के तो भेद हैं और ज्ञान के िमा हैं।
परमार्ा का कर्न तो यही है धकांतु हम कहने में कहते हैं धक यह पुस्तक प्रत्यक्ष है, यह टेबल प्रत्यक्ष है
आधद आधद अर्ाात् जो ज्ञेय पदार्ा है उनमें प्रत्यक्षपना, परोक्षपना कहते हैं।
मैंने घट को प्रत्यक्ष जाना, अधग्न को परोक्ष जाना िएु ां के माध्यम से। यहाूँ घट को प्रत्यक्ष कहा, अधग्न
को परोक्ष जो अपने आप में उपचार का कर्न है। प्रत्यक्ष - परोक्ष पना वस्तु के िमा नहीं है, अर्ा के
िमा नहीं हैं, ज्ञान के िमा हैं धकततु यहाूँ ज्ञान का ज्ञेय पर उपचार करते हुए ज्ञेय पदार्ा को प्रत्यक्ष व
परोक्ष कहा जाता है सो योग्य है। मीमाांसक अर्ा को तो प्रत्यक्ष बोलता है धकततु ज्ञान को प्रत्यक्ष नहीं
मानता है। ज्ञान जानने में तो आता है ऐसा तो मानता है पर एक ज्ञान दसय रे ज्ञान के द्वारा जानने में आता
है ऐसा मानता है। उसका प्रत्यक्षपना स्वीकार नहीं करता है। इस पर जैनाचाया कहते है धक धजस ज्ञान
पर ज्ञेय प्रत्यक्ष हुआ उस ज्ञेय को तो प्रत्यक्ष कह रहे हो और उस ज्ञान धजसके कारण ज्ञेय प्रत्यक्ष हुआ
है उस ज्ञान को परोक्ष कह रहा है, यह बात कुछ अटपटी है। कयोंधक कोई स्वयां परोक्ष रहते हुए धकसी
अतय वस्तु को प्रत्यक्ष कै से करे गा। यधद उसमें प्रत्यक्षपना िमा है ही नहीं तो वो धकसी अतय वस्तु को
प्रत्यक्ष कै से करेगा और प्रत्यक्षपना अगर उसका िमा है तो वह छुपा हुआ कै से रहेगा धफर ?
दृष्ातं - एक सास रात 12 बजे धदयासलाई जलाकर के ढयांढ रही र्ी कमरे में |बेटे ने कहा माूँ
धदयासलाई जलाकर कया ढयढां रही हो ? माूँ ने उत्तर धदया बेटा देख रही हूँ धक बहु ने कहीं दीपक जलता
हुआ तो नहीं छोड़ धदया। तो कया एक दीपक को प्रकाधशत करने के धलए दसय रे दीपक की जरूरत
पड़ेगी? नहीं पड़ेगी | अगर पड़ रही है तो वो दीपक है ही नहीं। एक तरफ तो हम उसे दीपक भी माने
और दसय री ओर खोजने के धलए दीपक भी जलाए, ये बात समझा से बाहर है।
कोई वस्तु स्वयां तो परोक्ष रहे और पर वस्तु को प्रकाधशत करे ये कै से होगा जैसे दीपक के प्रकाश में
वस्तएु ां प्रत्यक्ष होती है और स्वयां दीपक परोक्ष रहे ऐसा कै से होगा। स्वयां प्रकाधशत होगा तो ही दसय रे
को प्रकाधशत करेगा | स्वयां प्रकट नहीं होगा तो दसय रे को कै से प्रकट करेगा ? ये मीमाांसकों को समझ
नहीं आता। यहाां जैनाचाया दीपक के दृष्टाांत के माध्यम से ज्ञान को धसि करते हैं। ज्ञान पर के सार् स्व
प्रकाशक भी हैं।
मीमाांसक कहता है ज्ञान के वल अर्ा को ग्रहण करने वाला है कयोंधक वह ज्ञेय है जैसे घट-पट आधद।
जैन दशान इसका ख्िन करता है धक आपका हेतु ही धसि नहीं है, प्रधसि नहीं है अर्ाात् ज्ञान का ज्ञेय
पना ही अप्रधसि है तो आपका हेतु धनराश्रय माना जाएगा। ऐसी धस्र्धत में आश्रय अधसि नाम का
हेत्वाभास खड़ा होगा एक ओर, वहीं दसय री ओर चधयूँ क ज्ञान स्वप्रकाशक नहीं है, धकसी अतय ज्ञान से
प्रकाधशत हैं, इस प्रकार एक परांपरा चल पड़ेगी। ऐसी धस्र्धत में अनवस्र्ा दोष आएगा। इस प्रकार
आश्रय अधसि नाम का हेत्वाभास व अनवस्र्ा दोष लगता है ।
प्रत्यक्षपना ज्ञान का िमा है ऐसी धस्र्धत में उसके धलए दसय रे शरण में जाना स्व प्रकाशन के धलए, यह
बात समझ में नहीं आती जैसे कोई नगर सेठ होवे और आजीधवका चलाने के धलए वह धकसी अतय से
मागां े, यह बात कै से समझ आवे | नगरसेठ पना और धभखारीपना एक सार् नहीं घटेगा। दोनों में धवरोि
है- सहानवस्र्ान धवरोि। दोनों अवस्र्ाएां एक सार् नहीं घधटत होंगी ज्ञान एक ही काल में स्व पर
प्रकाशक है। धभतन-2 काल में नहीं।
8,9वें सयत्र में घट को मैं (आत्मा) अपने (ज्ञान) द्वारा जानता है। कौन जानता है? ज्ञान जानता है।
धकसको ? घट को। धकससे? (ज्ञान) आत्मा ज्ञान से जानता है। तो यहाूँ ज्ञान का कताा जो आत्मा है वो
भी प्रत्यक्ष है और धजसको जाना अर्ाात् घट वो भी प्रत्यक्ष है और धजसके द्वारा जाना अर्ाात् ज्ञान के
द्वारा वो भी प्रत्यक्ष है। अर्ाात् कताा, कमा और करण। चौर्ी चीज धिया (जानने की धिया भी प्रत्यक्ष
है। इस प्रकार षट्कारक के प्रकाश में "मैं आत्मा अपने ज्ञान द्वारा जानता हूँ। यहाूँ 'घट' -पदार्ा रूप कमा
का प्रत्यक्ष । कताा- आत्मा, करण-ज्ञान और जानने रूप धिया इन तीनों का प्रधतधत रूप प्रत्यक्ष है।
- मीमाांसक के अनुसार अगर ज्ञान को प्रत्यक्ष रूप माने तो वह कमा रूप हो जाएगा। जैसे पदार्ा प्रत्यक्ष
होता है कयोंधक वह कमा रूप होता है। इस तरह ज्ञान भी कमा रूप होकर तीसरे ज्ञान रूप करण की
आवश्यकता महसयस करेगा | जैन द. ज्ञान को कमा और करण रूप दोनों मानता है। तो यह उधचत नहीं
है, कयोंधक एक ही ज्ञान परस्पर धवरुि दो िमा रूप नहीं हो सकता। मीमासां क आपधत्त कर रहा है। स्वां
कमा भी होवे कताा भी होवे, दोनों बात एक सार् कै से चलेगी | एकाांती होने के नाते उसको ये बात
समझ में नहीं आती धक एक ही आत्मा माने यहाूँ पर स्वयां, उसकी कया आपधत्त है यधद अर्ा प्रकाशन
के काल में स्व को भी प्रकाधशत करेगा तो स्वयां कमा बन जाएगा तो कताा भी वही। मीमासां क जो
धवरोि को ग्रहण कर रहा है, वह धवरोि नहीं है। वह इसे सहानवस्र्ान वाला धवरोि ग्रहण करता है जो
की सहानवस्र्ान वाला धवरोि नहीं है । ये तो भाव का भेद रूपी धवरोि है इसमें कोई समस्या नहीं है।
मीमाांसकों की उपयुाि मातयता के धनराकरण के धलए ही सयत्रकार ने उपयुाि दो सयत्रों की रचना की है।
मीमाांसक कताारूप आत्मा की प्रधतती तो प्रत्यक्ष मानते हैं, परततु वे यधद भावमन और भावेधतद्रय को
परोक्ष मानना चाहते हैं तो इसमें जैनों को कोई आपधत्त नहीं, कयोंधक हम छदमस्यों् को इनका प्रत्यक्ष
नहीं होता। यह एक अध्यात्म का प्रश्न है। छद्मस्र् अवस्र्ा में जीव के जो असांख्यात प्रदेश हैं वे
असख्ां यात प्रदेश प्रत्यक्ष नहीं होते हैं यद्यधप जो अतीधतद्रय आनतद प्रकट होता है वो तो प्रत्यक्ष ही होता
है तो वो वाली बात यधद तुम कर लो तो हमें स्वीकार है धकततु तुम सवाधर् ही आत्मा को परोक्ष मानो
तो ये वाली बात हमे स्वीकार नहीं है। इस प्रकार एक अध्यात्म की तरफ भी सांकेत धदया और जो
दशान की बात चल रही है, तयाय की हमारी बात चल रही है वो अपने आप में महत्वपणय ा है ही।
प्रश्न- षट्कारक घटाते समय सम्बति कारक कयों नहीं धलया गया। उत्तर- इसके धलए ऐसा हेतु धदया
जाता है धक जैन दशान काया की धसधि एक द्रव्य में ही मानता है। एक द्रव्य दसय रे द्रव्य में कुछ करे ऐसा
जैन दशान नहीं मानता। वह मानता है वस्तु स्वतत्रां है और उसका पररणमन भी स्वतत्रां है। यद्यधप उसमें
जो साधद काया होता है उसको धनधमत्त की तरफ से धसि धकया जाता है, ये बात अलग है।
काया दो प्रकार के - अनाधद और साधद- अनाधद काया धनहेतक ु होता है। व साधद काया सहेतक ु | धजतने
भी साधद काया हैं उनके धलए हम धनधमत को खिा करते है वह एक बात अलग है धकांतु वह धनधमत्त
उसमें कुछ फे र बदल करता हो ऐसा नहीं है। यधद ऐसा होवे तो वस्तु की स्वतांत्रता नष्ट हो जावे! और
वस्तु ही धसि न होवे कयोंधक स्वतत्रां ता के बल पर ही वस्तु की धसधि होती है। ऐसी धस्र्धत में जो
सांबांि कारक है वह जैन दशान ने स्वीकार नहीं धकया है। प्रश्न -ये व्यवहार दृधष्ट से नहीं, धनश्चय से कहा
जा रहा है ना ?
उत्तर- धबलकुल उसी दृधष्ट से। कयोंके व्यवहार दृधष्ट से तो धनधमत्त को मानते ही है। काया की उत्पादक
सामग्री को कारण कहते हैं। वो कारण दो प्रकार के होते हैं। एक धनधमत्त और एक उपादान जैसे :-जो
घट और धमट्टी का दृष्टातां बनाया तो उसको हमने स्वीकार धकया हो। यधद कोई काया धवशेष की उत्पधत्त
(साधद काया में अके ले उपादान को माने और धनधमत्त का धनषेि करे तो ऐसी धस्र्धत में अनवस्र्ा
नामक दोष आवे और यधद अके ले धनधमत्त को माने उपादान का धनषेि करे तो परस्पर आश्रय दोष
आवे धनधमत्त उपादान की चचाा में अत्यतत महत्वपयणा पाठ है यह। धनधमत्त को कययूँ माने ? धकस रूप में
माने ? अगर धनधमत्त की उपधस्र्धत से अनवस्र्ा नामक दोष टलता है सो कै से?
as By vikas Sir - अनवस्र्ा नामक दोष कब आता है? जब िमी अप्रधसि होता है। िमी माने पक्ष
। धनधमत्त पक्ष की स्र्ापना करता है धजससे वह दोष टल जाता है।
|Now Continue by Panwar sir जो धनधमत्त है वह जो नैधमधत्तक है उस नैधमधत्तक भाव की तत्
समय की योग्यता को पयवोत्तरवती योग्यताओ ां से धभतन करता हुआ यहाूँ पक्ष की स्र्ापना करता है,
धवपक्ष से धभतन करता है। यहाूँ जो तत् समय की योग्यता है वह पक्ष है और पयवाात्तरवती योग्यता धवपक्ष
की श्रेणी में है, ऐसी धस्र्त में धनधमत्त पक्ष को धवपक्ष से धभतन धदखते हुए पक्ष की स्र्ापना करता है
और इसके फल स्वरूप अनवस्र्ा नामक दोष टल जाता है सो योग्य है ।
उदाहरण - एक जीव को सम्यक दशान प्रकट हुआ। अब जो सम्यक दशान रूपी पयााय प्रगट हुई उससे
धनधमत्त कौन है? मोह कमा में जो उपशमना हुई वो धनधमत्त है। बाहर के जो धनधमत्त हैं देव गुरु शास्त्र हैं वो
सम्यक दशान के धलए धनयामक धनधमत्त नहीं है, अधनयामक धनधमत्त हैं, यद्यधप उनके होने पर भी काया
नहीं होता है धकांतु उनके नहीं होने पर भी काया होगा ऐसा भी धनयम नहीं है। यहाूँ जो धनयामकता है वो
मोह कमा की उपशमना है अर्ाात उस काल में उदयमान नहीं है। अब इस उपशमना में अनवस्र्ा
नामक दोष को कै से दरय धकया वो हमें धदखाना है। - उस मोह कमा की उपशमना ने मेधसि धकया की वो
जो सम्यकदशान प्रगट हुआ। उसकी जो तत् समय की योग्यता है उस जीव की उस तत् समय की
योग्यता को पयवोत्तर (पयवा और उत्तर) वती योग्य से धभतन धदखाते हुए यहाूँ पक्ष की स्र्ापना करता है।
अर्ाात तत् समय की योग्यता को पयवोत्तरवती योग्यताओ ां से धभतन धदखाते हुए तत् समय की योग्यता
को पक्ष के रूप में एवां पवय ोत्तरवती योग्यताओ ां के धवपक्ष के रूप में धदखाते हुए वह धनधमत्त अनवस्र्ा
नामक दोष को टालता है।
प्रश्न - By Vikas Sir - 54:00 Min. मोह कमा की उपशमना और तत् समय की योग्यता दोनों एक
ही लगते हैं कभी कभी ज्ञान में ।
उत्तर - एक इसधलए लगते हैं कयोंधक दोनों एक ही degree को धलए हुए हैं। Degree to degree
दोनों में समानता है धफर फका कया है। एक पदु गल का पररणाम है, एक जीव का पररणाम है। जो कमा में
उपशमना हुई ये पुद्गलगत धस्र्धत हुई और उसका धनधमत्त पाकर जीव में जो तत् समय की योग्यता प्रगट
हुई इस रूप में की वो सम्यकदशान को प्रगट करे वो जीव की पयााय है और वो कमा की पयााय है इस
तयास से दोनों में भेद धसि होता है।
यहाूँ एक बड़ा प्रश्न उठता है यधद जीव अपने स्वभाव में लग जाए तो कमा उसका कया धबगाड़ ले ! ये
जो बात है ये अघाधतया की अपेक्षा से है। यहाूँ जो घाधतया है उसका यधद अनभु ाग नहीं आए जीव में
तो घाधतया सांज्ञा नहीं धमले उसे। धफर एक प्रश्न धफर मोक्ष मागा कै से खुलेगा ? मोक्ष मागा उदयकाल में
कभी नहीं खुलता है। मोक्ष मागा जो खुलता है, उदय में आने के पहले ही उस धमथ्यात्व, उस कमा का
क्षय,उपक्षम,क्षयोपशम,होता है, यद्यधप जीव का पररणाम ही धनधमत्त होता है उसको क्षय,उपक्षम,
क्षयोपशम करने मे अर्ाात् उसके धस्र्धत, अनुभाग है उनको हीन करने में जीव का पररणाम धनधमत्त
होता है। तो इस प्रकार जीव के पररणामों का धनधमत्त पाकर कमों में हीन पना होना, ये उदय काल में
नहीं होता है कभी भी धकांतु अध्यात्म के जोर में ऐसा पढ़ा धदया जाता है की कया कर लेगा कमा अगर
हम अपने स्वभाव में लग जाएां तो। ये बस एक प्रेरणा की बात है, वस्तुगत धस्र्धत नहीं है। वस्तुगत
धस्र्धत यही है की िाधतया में deoree to depres बात लागय पड़ेगी और समानता वाली बात भी इसी
तयाय से है। धफर भी एक पुद्गल का पररणाम है, एक जीव का पररणाम है। दोनों में सत्ता का भेद है।
प्रश्न- अगर धनधमत्त को नहीं माना तो अनवस्र्ा नामक दोष कै से आयेगा
उत्तर -सम्यगदशान वाला ही उदाहरण लेंगे- हमने धनधमत्त का धनषेि कर धदया वहाूँ पर तो जो
सम्यगदशान हुआ वो उसी समय कययूँ प्रगट हुआ | उदाहरण के रूप में एक जीव की हम एक पयााय
बनाएां। अब 100 पयााय में 20 नांबर. की पयााय में सम्यक दशान प्रगट हुआ तो 100 में से 20.नांबर की
पयााय में ही कयों प्रगट हुआ। एक लगायत 19 में कयों नहीं और 21लगायत जो 100 है उसमें कयों
नहीं? इसका कोई 'उत्तर नहीं' बनेगा हमारे पास | उसका धवभागीकरण नहीं कर पाएांगे |काया इसी पयााय
में कयों सांपतन हुआ, अतय पयााय में कयों नहीं? ये धनणाय नहीं होगा। वो जीव में जो पुरुषार्ा हुआ वो
उसी 20na की पयााय में हुआ। उसके पहले 1 से 19 व 21 से 100 तक में भी नहीं। इस तरह पयरी
धभतनता को लेकर धसि होगा वह | इस तरह यहाूँ धनधमत्त को स्वीकार करने से अनवस्र्ा नामक दोष
दरय होगा। यहाूँ साधद काया ही लेना अनाधद नहीं।
जैसे: सुमेरू पवात एक व्यांजन पयााय है पुद्गल की। ये अनाधद है। इसपर अगर कोई प्रश्न करे की इस
पयााय के प्रकट होने का धनधमत्त कया? ये तयाय है वो धनहेतुक होगा। तो साधद लेना। अब इसके आगे
की बात की साधद लेना तो अके ला साधद मत लेना,परांपरा की अपेक्षा अनाधद भी लेना। साधद अके ला
अनाधद के धबना धसि नहीं होगा। जैसे-: जीव के धकसी एक धवकार भाव को धसि करना है हमें तो हम
बाहर से जो मोह कमा है उसके आिार पर उस धवकार भाव को धसि करते है। अब धवशेष समय में
धवशेष जीव को धवशेष धवकार उत्पतन हुआ यह उसका साधदपना है धकांतु वो परांपरा तो अनाधद है ना।
तो साधद को समझने के धलए अनाधद को भी समझना। जब जीव और कमा के बांिन की बात चलती है
एक प्रश्न खड़ा होता है धक जीव और कमा का बिां न अनाधद के साधद तो वहाूँ कर्नधचात साधदपना भी
घटता है कर्नधचत् अनाधद पना भी घटता है।
Lecture 14 18 08, 21
वस्तु का असािारण िमा वस्तु का लक्षण है। इस प्रकार की मातयता के सम्बति में अव्यि अधतव्याधि
एवां असांभव तीनों प्रकार के दोष आते हैं सो धकस प्रकार ?
उत्तर- सवाप्रर्म अव्याधि दोष के सदां भा में - लक्षण के दो प्रकार जैन दशान की मातयतानुसार माने गये
हैं- आत्मभयत, अनात्मभयत । यहाूँ यधद हम वस्तु के असािारण िमा को वस्तु के लक्षण के रूप में
स्वीकार करें तो ऐसी धस्र्धत में यहाूँ जो अनात्मभतय लक्षण है, यह लक्षण की श्रेणी में नहीं आएगा
कयोंधक वह यधद वस्तु का िमा ही नहीं है तो असािारण िमा कै से होवे। इस प्रकार आत्मभयत और
अनात्मभयत कै से दो लक्षण के भेदों के प्रकाश में यहाूँ अव्याधि दोष घधटत होता है। अब प्रश्न है
अव्याधि तो घधटत हो गया, अधतव्याधि और असभां व कै से घटां ेगा ? कयोंधक जहाूँ पहला घट रहा है
वहाूँ दसय रा तीसरा भी कै से घटेगा ? कयोंधक जब वह अव्याि है तब कुछ धहस्से में है कुछ धहस्से में नहीं
है तो ऐसी धस्र्धत में असभां व वाली बात अपने-आप खत्म हो जाती है। दसय रा जब हम असािारण िमा
को लक्षण के रूप में ग्रहण कर रहे हैं तो ऐसी धस्र्धत में अधतव्याधि कै से घांटेगा ? कयोंक असािारण
कहते उसको हैं, हम धजसका लक्षण बाांि रहे हैं वो उसी का िमा, भाव, गुण हो । उसको छोड़कर अतय
में न होवे तभी तो असािारण नाम पावे और जब हम इसी भाव को असािारण िमा के रूप में ग्रहण
कर रहे हैं, धफर वहीं दसय री ओर उसके आिार पर अधतव्याधि कै से घटेगी?
आप कै से कहते हो यहाूँ तीनों घधटत होते हैं ?
धवचारणीय बात यह है धक अधतव्याधि वहाूँ घटता है जहाूँ लक्ष्य और अलक्ष्य दोनों में िमा पाया जावे।
अब हमारे इस प्रकरण में लक्ष्य कया है और अलक्ष्य कया है? जो लक्षण है वह लक्ष्य है। जो अलक्ष्य है
वह लक्षणाभास है। लक्षण के धवरुि लक्षणा भास।
असािारण िमा में जो अव्याधि दोष घधटत धकया तो ये होने से जो लक्षण का लक्षण बनाया गया है
वो एक ओर यहाूँ लक्ष्य पे जाता है अर्ाात कहीं लागय होता है और अलक्ष्य पे भी जाता है। अर्ाात्
कही लक्षणाभास के रूप में भी घधटत होता है। वस्तु का जो असािारण िमा है वह लक्ष्य, अलक्ष्य
दोनों में धदखाई दे रहा है| लक्षणाभास यहाूँ पर अव्याधि है अर्ाात् लक्षण का अनात्मभयत में नहीं जाने
के कारण अव्याधि घधटत हो रही है। और अधतव्याधि दोष कहते ही उसे हैं जो लक्ष्य- अलक्ष्य दोनों में
पाया जाये इस प्रकार जो लक्षण का लक्षण बनाया उसमें अव्याधि के सार् अधतव्याधि भी घधटत हो
रही है।
पहली बात - धकसका लक्षण - लक्षण का लक्षण = पहली स्र्ापना।
दसय री बात - लक्षण का लक्षण - वस्तु का असािारण िमा ।
तीसरी बात-जै.द. के अनुसार- लक्षण के दो प्रकार आत्मभयत , अनात्म भयत।
आमर्मभतू -जो वस्तु में समाया हो ।
अिामर्मभतू -जो वस्तु मे समाया हुआ न हो बाहर हो। जैसे- द्िी द्ि को िारण धकए हुए एक पुरुष ।
मद्यधप द्ि, उस पुरुष से धभतन वस्तु है। धफर भी अनात्मभयत लक्षण है। त्रैकाधनक लक्षण नहीं। काल
उस धवशेष में ही घधटत होता है। पहले भी उस पुरुष के पास द्ि नहीं र्ा और बाद में भी अगर त्याग
दे तो नहीं होगा। काल धवशेष, क्षेत्र धवशेष, पुरुष धवशेष का लक्षण को लक्षण बनाया जा रहा है जो
अनात्मभतय है।
चौर्ी बात- आत्मभयत और अनात्मभयत दोनों में असािारण िमा व्यापक नहीं होने के कारण यहाूँ
अव्याधि दोष खड़ा होता है। अगर वस्तु के असािारण िमा को अगर लक्षण बनाएांगे तो अनात्मभयत
लक्षण है वो लक्षण श्रेणी से बाहर हो जाएगा।
आत्मभतय लक्षण का उदाहरण- जैसे ज्ञान आत्मा का लक्षण है। जीव का लक्षण उपयोग बनावें तो ये
उपयोग नाम का लक्षण आत्मभतय लक्षण है कयूँधय क से आत्मा में समाया हुआ है। उपयोग का आत्मा
के सार् तादात्मय सांबांि है। द्ि का पुरुष के सार् तादात्मय सांबांि नहीं सांयोग सांबांि हैं इसधलए उसे
अनात्मभयत श्रेणी में लेंगे।
→आत्मभतय और अनात्मभयत दोनों में असािारण िमा व्यापक नहीं होने के कारण अव्याधि दोष
खड़ा होता है।
प्रश्न- यहाूँ अधतव्याधि कै से घांटेगी ? असम्भव कै से घटेगा ? धजस असािारण िमा को हमने लक्षण का
लक्षण बनाया वह नहीं तो लक्षण के रूप में घधटत होता है और कहीं अव्याधि होती धदखाई दे रही है।
जैसे - असािारण िमा चेतना जीव का लक्षण भी है। यहाूँ तो वह लक्षण के रूप में धदखाई दे रहा है,
असािारण िमा परततु कही उसकी अव्याधि भी हो रही है। अव्याधि होने के कारण कहीं तो
लक्षणाभास में चला गया और कही लक्ष्य की श्रेणी में। ऐसी धस्र्धत में लक्ष्य और अलक्ष्य दोनों में
पाये जाने के कारण अधतव्याधि दोष घधटत होता है । यहाूँ पर तक्ष्य कया?- लक्षण
अलक्ष्य कया" ? लक्षणाभास
तो असािारण िमा लक्षण और लक्षणाभास दोनों रूपों में पाया जा रहा है इसधलए अधतव्याधि दोष
घधटत होता है।
असािारण िमा कहीं तो लक्षण रूप में घधटत हो रहा है और कहीं लक्षणाभास के रूप में घधटत हो रहा
है और इस प्रकार जो लक्षण लक्ष्य अलक्ष्य दोनों में पाया जावे उसे अधत व्याधि दोष कहते हैं। धसि
हुआ। अव्याधि के आिार से ही अधतव्याधि घटाना है। असािारण िमा कहीं लक्षण में भी घधटत हो
रहा है और कहीं लक्षणाभास के रूप में भी। लक्ष्य-अलक्ष्य दोनों में गया यही तो अधतव्याधि है।
[" in some places 'असािारण िमा is going in अव्याधि and some places not going in
अव्याधि and this is the अधतव्याधि)
उदाहरण- गाय का साूँवलापन उसका असािारण िमा हुआ कयोंधक अतय पशुओ ां में नहीं है उसे
छोड़कर धकांतु कुछ गायों में है सब में नहीं इसधलए अव्याधि। अब जो वस्तु का असािारण िमा होगा
उसकी अधतव्याधि होने का सवाल ही नहीं। धकांतु कही तो असािरण िमा की अव्याधि हैं और कहीं
नहीं अर्ाात कही तो, असािारण िमा कहीं तो लक्षण के रूप में पाया जाता है कहीं लक्षणाभास के
रूप में। दोनों जगह पाया जाने के कारण अधतव्याधि दोष घधटत होता है।
प्रश्न जो वस्तु के एक देश में रहे अतय देश में न रहे, तो कया वह वस्तु का असािारण िमा हो सकता है
?
उत्तर: आप जो असािारण िमा बना रहे हो वो वस्तु सामातय को बना रहे हो या वस्तु धवशेष का।
अगर कोई असािारण िमा बताया तो वो परय ी जाधत में होगा या वस्तु धवशेष में इस पर ही धनभार करेगा
की यह असािारण िमा उसका लक्षण होगा के नहीं।
जो लक्षण का लक्षण बनाने की बात हम कर रहे हैं इसमें ताधत्वक बात कया है?
प्रश्न- कौनसी वस्तु का कौनसा भाव है जो लक्षण है कयोंधक प्रत्येक वस्तु में अनतत गुण, िमा और
शधियाूँ हैं। अब इसमें से वस्तु के कौनसे भाव को लक्षण के रूप में ग्रहण करें हम?
उत्तर: ऐसी धस्र्धत में एक बात धनयामक है पयरे प्रकरण में।
प्रत्येक वस्तु में ऐसे अनेक भाव भरे पड़े हैं धजनको लक्षण के रूप में घधटत धकया जा सकता है धकांतु
उन अनततों में धकसको लें हम ?
इसके धलए पहले हम यह तय करे धक धजसका भी लक्षण हम बना रहे है उसमें हमने प्रधतयोगी में
धकसको रखा।
उदाहरण- जीवाधस्तकाय का लक्षण बनाइये ।
अब जीवाधस्तकाय का लक्षण धभतन होगा अगर उसके सामने पुद्गलाधस्तकाय को रखते हैं । धभतन होगा
यधद काल को रखते हैं। सामने की वस्तु बदलती चली जाएगी उसी प्रकार लक्षण भी बदलता चला
जाएगा। एक प्रिान बात जो हमें समझनी है वह यह धक धकसी भी वस्तु का लक्षण बनाते समय जब
तक हम सामने दसय री वस्तु को नहीं रखेंगे तब तक हम उसका लक्षण बनाने में सफल नहीं हो पाएगे।
लक्षण सामातय की बात करें तो जो लक्षण का लक्षण है 'वस्तु को अतय वस्तओ
ु ां से धभतन धदखाने
वाले धचह्न को लक्षण कहते हैं” असािारण िमा की बात करें तो लक्षण धवशेष याधन के आत्मभयत
लक्षण की पररभाषा अगर असािारण िमा के रूप में बाांिे
कोई बािा नहीं लग रही है।
- यह धबलकुल धनदोष बात है धक सामातय की बात कर रहे हैं धक धवशेष की।
जो असािारण िमा है वो लक्षण हो यह भी धनयम नहीं और जो सक्षम है वह असािारण िमा है यह
भी धनयम नहीं है।
ध्यातव्य है असािारण िमा अगर सवांग वाला लेंगे तो अव्याधि नहीं घटेगी और एक देश वाला लेंगे
तो अधतव्याधि नहीं घटां ेगी प्रयोजन मुख्य होना चाधहए। प्रयोजन तो यह है धक लक्षण का जो लक्षण है
उसका धनदोषपना कया है? जो अव्याधि, अधतव्याधि और असांभव इन तीनों प्रकार के दोषों से जो
रधहत है वह ही धनदोष लक्षण है।
धजस वस्तु का लक्षण बाांिने जा रहे हैं उसके सामने धकसको रखा यह भी प्रिान है।
असभां व दोष- साब्द सामातय अधिकरण का अभाव होने से ये धवशेष रूप से वैशेधषक दशान के ख्िन
के धलए असभां व दोष धदखाया गया है। कयोंधक वैशेधषक दशान गुण-गुणी में सत्ता भेद मानता है। ऐसी
धस्र्धत में वो यह असािारण िमावाली बात भी करता है।यहाूँ जो गुण-गुणी मे सत्ता भेद मानता है
उसके ख्िन के धलए ये बात कही गई है धक यहाूँ िमा वचन और िमी वचन है,इन दोनों के
अधिकरत अलग-अलग धदशा मे जाते है कयों?
ध्यातव्य है-यहाूँ तयाय वैशधे षक के ख्िन के धलए ये बात कही जा रही है।कयोंधक गुण-गुणी मे सत्ता
भेद मानोगे तो साब्द सामातय अधिकरण धसि नहीं होगा. ऐसे असभां व दोष आएगा।
कौन कया बात कह रहा है यह अलग धवषय है-वस्तु कया कह रही है इसको मुख्य करना है इसधलए
लक्षण का लक्षण कया बनाएगां े इसका धनणाय करना है।

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