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Praman Mimansa Lec 1 To 14
Praman Mimansa Lec 1 To 14
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प्रमाणनयैरधिगमः अर्ाात् -प्रमाण और नय के द्वारा पदार्ों का ज्ञान होता है।
प्रश्न है धक प्रमाण को जानने की अपेक्षा कयूँय है? (प्रार्धमक प्रश्न )
हर प्राणी/ जीव सुखी होना चाहता है । यद्यधप सुख प्राधि की इच्छा रखने वाले सभी जीव पुरुषार्ा
करते है पर कोई धवरला ही ऐसा सुखी होता हुआ धदखाई देता है । ऐसा कयों ?
ऐसा इसीधलए – सुख प्राधि की इच्छा करना एक बात ।
सुख प्राधि के धलए पुरुषार्ा करना दसय री बात ।
और सख
ु प्राधि के धलए वास्तधवक परुु षार्ा करना तीसरी बात ।
प्रर्म दो धबांदु सभी के धलए समान धकांतु अधततम धबांदु धवशेष है ।
उदाहरण – धदल्ली से मुम्बई जाने के धलए उस धदशा में जाने वाली ट्रैन में बैठना होता है न धक धवपरीत
धदशा वाली ट्रैन में धकतनी भी तेज चले व्यधि मुम्बई नहीं पहुांचेगा । बधल्क मुम्बई से उतना ही दरय हो
जाएगा ।
दार्शनिक की 2 धाराएं :-
एक कहती है “ध्यान करो – सख
ु ी हो जाओगे”
एक दसय री िारा कहती है – “ ध्यान करने से पहले जो ध्यान का ध्येय है उसका धनणाय करो । ध्येय का
धनणाय नहीं होगा तो –
ध्यान की धसधि नहीं होती । ध्यान धकसका करोगे?
ध्यान की धसधि के अभाव में आप सुखी नहीं हो पाओगे ।
ऐसी 2 िाराएां आनाधदकाल से चली आ रही हैं । जैसे सच्चा मागा अनाधदकाल से है वैसे ही धमथ्या
मागा भी अनाधदकाल से है । काल की अपेक्षा से धकसी भी एक मागा या दशान को हम अनाधद नहीं
कह सकते । यधद ज्ञान का प्रकाश अनाधदकाल से है तो अांिकार भी अनाधदकाल से है । आगे जाकर
इन दो िाराओ ां में भी भेद-प्रभेद धदखाई देंगे ।
प्रश्न होता है धक कब तक तका करें , कब तक भेद-प्रभेद करें ?
जब तक अभेद की प्राधि न हो तब तक। अर्ाात् जब तक इष्ट की प्राधि न हो तब तक ये प्रधिया
चलेगी ।
कुछ अतय प्रार्धमक चचााएां –
भाषा – प्रधतपादन, धशक्षा, धशक्षण, सांवाद आधद के क्षेत्र में भाषा की प्रार्धमक होती है । विा जो
प्रधतपाधदत करता है उसकी भाषा नहीं समझ आये तो उसका भावार्ा ग्रहण नहीं हो सके गा । पढ़ने-
पढाने वाले के मध्य भाषा सम्बिां ी ताल-मेल अधनवाया होता है ।
“सख ु ी चोट एरि पर” – लोहार जब लोहे को पीटता है तब एरन पर उस लोहे को रख हर्ौड़ी /घन
से पीटता है । यहाूँ लोहा चोट सहन करता है , यधद लोहा र्ोड़ा हट जाय तो भार एरन सहन करती है ।
कभी – कभी सारा भार एरन पर पड़ता है ।
हमेशा मयखा बने रहने धक जगह –र्ोड़ी देर मुखा बने रहना श्रेष्ठ है। (सीख)
स्वाध्याय के 5 अगां
वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय, िमोपदेश
वाचिा – धनदोष ग्रांर् (अक्षर) और अर्ा दोनों को प्रदान करना वाचना स्वाध्याय है ।
पढ़ने का सवोत्कृ ष्ट तरीका पढ़ाना । अपने आप को गुरु मान कर नहीं धवद्यार्ी मान कर ।
अच्छा अध्यापक उसे नहीं कहते जो धकसी अध्यायी को धकसी अध्याय का अध्ययन करा दे अधपतु
धकसी अध्यायी को अध्ययन करने का अध्यासी बना दे ।
विा का गणु –
धकसी का प्रश्न – विा उत्तर दे तो विा को सामातय खुशी ।
श्रोता का प्रश्न –विा उत्तर न दे सके तो विा को धवशेष खुशी ।
ऐसा कयों ? धजतना भी अनुसांिान हो उसकी आिारधशला होती है प्रश्न।
प्रश्न श्रोता कक्ष से आये तो कया हुआ पर अनुसिां ान की सामग्री धमली ये उत्कृ ष्ट बात है ।
“अज्ञान की खोज ही ज्ञान की वास्तधवक खोज है ।“
पृच्छना – सांशय को दरय करने के धलए अर्वा जाने हुए पदार्ा को दृढ़ करने के धलए पयछना, सो
पृच्छना है । परीक्षा के धलए या अपना ज्ञान बताने के धलए पृच्छना नहीं है, वह तो पढ़ाने वाले का
उपहास करना या अपने को ज्ञानी बतलाना हैं ।
अनुसांिान,तपासना का आिार है प्रश्न ।
प्रश्न धकसे कहते हैं? धकतने प्रकार के होते हैं ।
दाशाधनक शैली में कहे तो – सांशय, धवपयाय, अनध्यवसाय ।
• सशां य – जो मागा खुलेगा वह सश ां य से खुलेगा । मागा माने धनश्चय/ धनणाय तत्त्वार्ा सयत्र की
भाषा में कहें तो जो अवाय ज्ञान होगा वह ईहापवय ाक होगा।
जो धनश्चय का काया होगा वो धबना (सांशय) ईहा के नहीं होता ।
सुखी होने का धनयामक हेतु- धवचार शधि का धवकास है न धक स्मरण शधि का धवकास
। यधद लौधकक पढाई मे वरीयता प्राि है तो आध्याधत्मक पढाई मे भी होगी।कयोंधक वहाूँ
धवचार शधि का धवकास हुआ है।
अिपु ेक्षा – जाने हुए पदार्ा का बारम्बार धचतां न करना अनप्रु ेक्षा है । जैसा धक धकसी ने कहा है बाटी
जली कयों, पान सड़ा कयों, घोड़ा अड़ा कयों, धवद्या भुली कयों ? उत्तर एक ही- “पलटा नहीं र्ा ।“
आम्िाय – शुि उच्चारण पयवाक पाठ को पुन: पुन: दोहराना आम्नाय स्वाध्याय है और पाठ को याद
करना भी आम्नाय है । णमोकार, भिामर आधद ।
धर्मोपदेर् – आत्मकल्याण के धलए, धमथ्यामागा व सदां ेह दरय करने के धलए पदार्ा का स्वरुप, श्रोताओ ां
में रत्नत्रय की प्राधि के धलए िमा का उपदेश देना िमोपदेश है ।
धवकास सर द्वारा—
प्रश्न और सश ां य मे फका – दोनो मे िारणा ज्ञान सही होगा पर-
सश ां य मे एक से अधिक धवकल्प होंगे।धजनमें से एक सही धवकल्प होगा।
प्रश्न मे धवकल्प नहीं होंगे।
प्रश्नाभास और सांशया भास
दोनों िारण ज्ञान सही नहीं होगा इनका आिार धमथ्या ज्ञान होगा।
सांशयाभास मे जो धवकल्प होगें कोई भी सही नहीं होंगे।
प्रश्नाभास-आदमी बैठा है ,रात मे धिनर कर रहा है और हम पछ य े कहाूँ जा रहे हो?
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Lecture-2
गौण निषेध
वस्तगु त होता है । धनषेि अवस्तगु त होता है।
गौण कर रहे हैं कयोंधक दोनों अधस्त-नाधस्त का अवस्तुगत कया? जो भी हम कहें वो अवस्तुगत
कर्न एक सार् नहीं कह पा रहे । कहीं अधस्त कभी नहीं होगा ।
को मख्ु य व नाधस्त को गौण व कहीं नाधस्त को जैन दशान में अभाव धजसको धजस रुप में कहा
मुख्य व अधस्त को गौण धकया जाता है । यहाूँ जा रहा है वह उस रुप में नहीं है । (अतय
अधस्त-नाधस्त दोनों वस्तुगत भाव हैं । दाशाधनक कहता है धक धजसका अभाव है वो
धकसी भी रुप में नहीं है। जैन दशान सवार्ा असत्
का सवार्ा धनषेि नहीं करता ।
हेय
हेय भी वस्तुगत है त्यागने योग्य । अवस्तु नहीं
होता । जैसे अशभु भाव ।
प्रश्न – प्रमाण को धसि करने के धलए नय और धनक्षेप की चचाा की अपेक्षा कयों है? सश
ां य आधद को
कयों जानें ?
उदाहरण – कया जीव को जानने के धलए अजीव को जानना आवश्यक हैं?
उत्तर - 1 पक्ष को जानें व धवपक्ष को न जानें तो पक्ष का यर्ार्ा ज्ञान नहीं होगा।
2 जीव – अजीव सांयोग में है तो अगर अजीव को नहीं जानेंगे तो जीव के स्र्ान पर अजीव को ग्रहण
कर लेंगे । धमथ्यादृधष्ट स्व को छोड़ पर को ही तो ग्रहण कर बैठा है ।
तीि प्रकार की र्ैनियााँ होती है –
1. दार्शनिक (2) आगनर्मक (3) अध्यानमर्मक
दाशाधनक शैली से जब धकसी वस्तु को धसि धकया जाता है तब वहाूँ पक्ष धवपक्ष की स्र्ापना करते हैं ।
यहाूँ वस्तु के सार् ज्ञान भी प्रिान होता है । ज्ञान माने – ज्ञात से अज्ञात की ओर अग्रसर होना । ज्ञान
से अज्ञात की ओर अग्रसर होना – ये सवा मातय धसिाांत है । ये अनुसांिान का एक प्रिान अांग है । (
अनसु िां ान/ अतवेषण/तपास/Investigation ) जब भी अनसु िां ान की बात चलती है वहाूँ ज्ञात को
रखा जाता है । ज्ञात के आिार पर अज्ञात को धसि धकया जाता है । दाशाधनक शैली में वस्तु की धसधि
होती है उसमें पक्ष-धवपक्ष की स्र्ापना करते हुए हेतु को खड़ा धकया जाता है और हेतु के माध्यम से
वस्तु की धसधि होती है । हेतु सािन है यहाूँ साध्य की धसधि के धलए । 4 तरह के हेत्वाभाषों का
धनराकरण कर हेतु को खड़ा धकया जाता है ।
आगनर्मक र्ैिी – में लक्ष्य – अलक्ष्य की स्र्ापना के धबना वस्तु की धसधि नहीं हो सकती ।
आगधमक शैली में अके ली वस्तु प्रिान होती है । यहाूँ लक्ष्य- अलक्ष्य की स्र्ापना करते हुए लक्षण
को खड़ा धकया जाता है । लक्षण के आिार पर लक्ष्य की धसधि होती है । आगम शैली में पहले हम
सामग्री को दो भागों में बाूँटते हैं – ‘लक्ष्य- अलक्ष्य’ के रुप में और सािन खड़ा होगा लक्षण । आ.
शै. में धजस सािन से साध्य की धसधि की जाती है वो सािन होता है लक्षण के रुप में । लक्षण
स्र्ाधपत करते वि लक्षण के तीन दोषों का ( अधतव्याि, अव्याि व असभां व) धनराकरण धकया जाता
है ।
आध्यानमर्मक र्ैिी में जब तक प्रयोजन – अप्रयोजन भयत की स्र्ापना न हो तब तक वस्तु की धसधि
नहीं हो पाती । यहाूँ प्रयोजन की प्रिानता होती है । यहाूँ वस्तु स्वात्मा ही होती है प्रयोजन भयत में ।
उसी की धसधि की जाती है । जैसे – जीव कया चाहता है – सुख जो जीव चाहता है वह जीव के धलए
प्रयोजन भतय होगा । इस तयाय से सख ु प्राधि के धजतने सािन हैं वो भी सब प्रयोजन भतय कहलाएगां े ।
जो सख ु प्राधि में बािा बने वह अप्रयोजन भतय ।
प्रर्माण के नवजातीय तत्त्व –
1. संर्य (2) नवपयशय (3) अिध्यवसाय
इन तीनों का एक नाम है – सर्मारोप
आचाया समततभद्र ने समारोप में ये तीन चीजें पढ़ाई धकांतु आचाया अकलक ां ने अज्ञान को भी जोड़ा
उसमें । अज्ञान में हमें औदधयक अज्ञान लेना है । कयोंधक सश
ां य, धवपयाय, अनध्यवसाय ये क्षयोपशम
रुप अज्ञान है व आचाया अकलांक धजसकी बात करते है वो औदधयक अज्ञान है ।
प्रमाण
Lecture-5
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प्रश्न – प्रमाण के लक्षणों की शृखांला में एक आचाया ने लक्षण बाांिा “यर्ार्ा ज्ञान को प्रमाण कहते
हैं” अब अगर इसको प्रमाण का लक्षण बनाए तो नय और धनक्षेप का ज्ञान भी यर्ार्ा है – ऐसी धस्र्धत
में जो लक्षण बािां ा उसमें अधतव्याधि दोष खड़ा हो गया । यहाूँ हम कया ग्रहण करें ?
यर्ार्ा ज्ञान प्रमाण है – यहाूँ यर्ार्ा का कया अर्ा ग्रहण करें ? कयोंधक जो धनक्षेप और नयरुप ज्ञान होते
है वो यर्ार्ा तो होते हैं पर सांपयणा नहीं और प्रमाण ज्ञान यर्ार्ा ज्ञान है और पयणा भी है । ध्यातव्य है धक
यर्ार्ाता और पयणाता ये दो लक्षण एक सार् ग्रहण हों तब वह पररभाषा सही बैठती है धक ‘यर्ार्ा ज्ञान
प्रमाण है ।‘ अतयर्ा अधतव्याधि का दोष आएगा ।
प्रधत प्रश्न – धफर जो छद्मस्र् का ज्ञान है उसमें कभी प्रमाण होगा ही नहीं, कयोंधक वस्तु अनांत
िमाात्मक है और हमेशा नयात्मक ही जानेंगे । इस तयाय से छद्मस्र् को प्रमाण ज्ञान प्रकट होगा ही
नहीं । (धवकास सर)
के वल ज्ञानी का ज्ञान ही पयणा ज्ञान होता है । ऐसी धस्र्धत में छद्मस्र् का प्रमाण ज्ञान की उत्पधत्त का
भाव कै से ठहरे ? कया ग्रहण करें । हमें ये ग्रहण करना है धक स्वरुप जो प्रयोजन भतय है अर्ाात्
आत्मानभु धय त होने के पहले वस्तु का जो स्वरुप है वह जीव को ख्याल में आ जावे अर्ाता जो वस्तु
का अनेकाांतमय स्वरुप है वो ख्याल में आना पयणाता की श्रेणी में धलया जाएगा । के वल ज्ञान में जो
युगपत् तीन काल, तीन लोक जो के वल ज्ञानी के ज्ञान में झलकते हैं उस पयणाता को यहाूँ ग्रहण नहीं
करना
चाधहए ।
सश ां य दोष व ग्रहीत (ग्रहण धकया हुआ) धमथ्यात्व के भेद सांशय में फका ?
अगर धजतने भी धवकल्प हैं उनमें से एक भी धवकल्प सही /वस्तुगत नहीं है तो समारोप/ ईहा का भेद
सश ां य नहीं होगा । उस धस्र्धत में सामातय रुप से कर्न करें तो सश
ां य दोष होगा और धवशेष रुप से
कर्न करें तो 5 प्रकार के गृहीत धमथ्या दशान है उनमें से सांशय नामक धमथ्यादशान होगा । ये
प्रयोगात्मक है ।
10/8/21
Lecture-6
प्रश्न – समारोप का भेद सांशय और ईहा का भेद सांशय में कया अांतर धगर सकता है?
समारोप सश ां य ईहा सश ां य
समारोप के भेद सांशय में जो धवकल्प ईहा ज्ञान के भेद सांशय में जो धवकल्प खड़े है
खड़े है उनमें बराबरी की धस्र्धत रहती है} एक से अधिक उसमें वस्तुगत धवकल्प की ओर
दोनों का बल समान होता है । वस्तुगत – प्रकाश/बल धवशेष रहता है व यधद वह बल
अवस्तुगत पर समान बल । कायम रहे तो ऐसी धस्र्धत में अवाय पहुूँच
जाएगा व बल अगर हीन हो जाए तो पुन: जो
अवस्तुगत पर बल आ जाए तो धवपयाय में पहुूँच
जाएगा ।
इस सांशय में धजतने भी धवकल्प खड़े हुए ईहा ज्ञान में तो ज्ञान का धवकास धदखाया जा रहा
है जैसे सीप और चाूँदी-उसमें पयवाकाल में है । इसधलए यहाूँ पयवा से उसको ज्ञान र्ा ऐसा
दोनों धवकल्पों को जानता है । दोनों का कहना नहीं बनता हैं ।
सामातय भाव तो पकका है धकांतु धवशेष व्यधि को धकसी ने आवाज दी । वह सोया हुआ
भाव है तो उसको कच्चास है । सामातय है । शब्द पद्गु लों से श्रोत्रेंधद्रय के आपरय रत होने पर
ज्ञान पकका है उसे 1 पयवाकाल में उसने उसे असांख्य समय लगा और उसने हूँ कहा ।
सीप चाूँदी दोनों का जाना र्ा । दोनों यहाूँ इधां द्रय और शब्द का प्रार्धमक सांबांधित
वस्तु उसके ज्ञानगम्य है धकांतु वतामान में व्यांजनावग्रह । धफर अव्यि शब्द का ग्रहण
उसके धवशेष ज्ञान में कमजोरी पकका है । अर्ाावग्रह । तत्त्पश्चात् समारोप के भेद सांशय से
जैसे – उसे ध्यान है धक दोनों वस्तएु ां ऊपर उठकर हेत/ु यधु ि आधद के द्वारा सदभ् तय
िवल होती है । इतना ही उसे ध्यान रहा अर्ा ग्रहण की चेष्टा है वह ईहा है उसने इसमें
और दोनों के आकार अलग – 2 होते हैं सोचा शब्द होना चाधहए । शब्द ही है ईधहत अर्ा
इस बात की उसे धवस्मृधत हो गई । इस का यह धनश्चय अवाय है और उसकी अवधस्र्धत
तयाय से उसकी सांशयात्मक धस्र्धत बनी िारणा है ।
।
अवग्रह ईहा अवाय िारणा रूपी जो धिया होती है वह प्रत्यक्ष भयत के बारे में ही होती है या परोक्ष भयत
के बारे में भी होती है?
दोनों के बारे में होती है । ये प्रमेय रत्न माला टीका है । .....के ऊपर -उसमें खल
ु ासा धकया गया है धक
ये परोक्ष ज्ञान में भी होता है । जैसे सांशय में हमने चचाा की र्ी धक यधद सांशय की धवषयभयत वस्तु
अके ले प्रत्यक्षभयत होवे, परोक्ष नहीं होवे तो ऐसी धस्र्धत में जो परोक्ष भयत सामग्री है उसके बारे में तो
कुछ प्रधिया आगे बढेग़ी नहीं, उसका धनणाय तो हो ही नहीं पाएगा । ये सांशय वाली बात प्रधिया को
आगे बढाने के धलए है और जो अवग्रह ईहा, अवाय रूप है वो इस प्रधिया से गुजरकर होता है ।
धनयम से ।
• अनुभव से भी यह बात धसि होती है । परोक्षभयत वस्तु के सांबि में सार् – 2 ही प्रधिया
चलती है । प्रत्यक्ष में सामने देखते हैं तो धवकास हो जाता है, परोक्ष में तो सामने देखते ही नहीं
धफर धवकास कै से होता है?
• कयोधक परोक्ष के बारे मे अवग्रह, ईहा, अवाय, िारणा की प्रधिया हर एक में नहीं चलती है ।
धसफा सांज्ञी में चलेगी । सांज्ञी में भी धजसकी धवचार शधि प्रबल है उसको ज्यादा चलेगी । स्वयां
को पता चलना चाधहए धक यहाूँ परोक्ष भयत के बारे में अवग्रह ईहा अवाय िारणा सपां तन हुई है
। अतयर्ा होता तो है पर अनभु व में नहीं आता । मनष्णु य, नारकी, देवता. धतयंच कोई भी सज्ञां ी
जीव भेद धवज्ञान कर सकता है ।
• धवचार करने का सामथ्या धकसी अांश में असांज्ञी में भी है । नहीं तो उसके धलए भेद धवज्ञान
धबल्कुल धसि नहीं होगा । जैसे – वृक्ष एकें धद्रय होता है । उसकी जड़े उसी धदशा में अग्रसर
होती है जहाूँ जल होता है । चींटी अच्छी कारीगरी से अपना घर बनाती है । तो धफर कया फका
हुआ सांज्ञी और असांज्ञी भेद धवज्ञान में?
• स्वपर भेद धवज्ञान अके ले सांज्ञी को ही चलता है । असांज्ञी जो भेद धवज्ञान करेगा वो के वल पर-
पर में होगा ।
• स्व-पर के भेद धवज्ञान की प्रधिया के वल सांज्ञी को धमलती है इस तयाय से जो सांज्ञीपना हमें
धमलता है उसकी सार्ाकता इसमें है धक हम स्व पर का भेद करें ।
• स्व पर का अर्ा यहाूँ पर – पहले 7/9 तत्त्वों का हेय ज्ञेय उपादेय जानें ।
7/9 समझने का रुपक – जब जीव अांदर जाता है तब 9 का नहीं 7 का धचांतन करता है और उसको
समेटता हुआ अांदर चला जाता है और जब बाहर धनकलता है तब 9 का धचांतन करता है और अशुभ
से बचते हुए शुभ में प्रवृधत्त करता है ।
(यहाूँ अनुभव में चयकने वाली बात नहीं है, व्याकरण में. छांद में, अलांकार आधद में चयक जाऊूँ तो भी
गलत ग्रहण मत करना । मैंनें अपने धनज वैभव से उस शुि आत्मा को, उस ज्ञान ज्योधत को, उस
एकत्व धवभि आत्मा को प्रकाधशत धकया है ।)
असज्ञां ी में भी धकसी न धकसी अर्ा में धवचार शधि धसि होती है। धफर भी यहाूँ उसको नग्य कर धदया
है, कोई स्र्ान नहीं धदया है । और सधतन को ही धवचारवान कहा है । असधतन को अधवचारवान कहा है
वो प्रयोजनभतय की अपेक्षा कर्न लेना । असधतन धकतना भी कुछ भी करे वह अपने प्रयोजन की धसधि
नहीं कर सकता । कया प्रयोजन है उसका?
सभी जीवों का प्रयोजन सुखी होना है । इस तयाय से उसमें जो आधां शक धवचार करने की तकत है धजसे
सांस्कार बल कहा है । यहाूँ स्व पर वाली धवचार शधि के वल सांज्ञी में ही पाई जाती है । इस तयाय से
मोक्ष मागा में सम्यग् दशान के मागा में स्मरण शधि की महत्ता नहीं है धकांतु धवचार शधि की महत्ता है,
साक्षात्कार में स्मरण शधि नहीं अधपतु धवचार शधि काया करती है ।
नवपयशय – (धवरुद)् धवपरीत्तैककोटी धनश्चयो धवपयाय– धवपयाय में वस्तु एक है और धवरोि एक कोटी
वाला है तो धवरोि धकस धकस के बीच धदखाएांगे ?
जो धवरोि यहाूँ है वह वस्तुगत और अवस्तुगत के बीच है । जो धवपयाय ज्ञान प्रगट हुआ उसका उस
वस्तु और उस वस्तु के यर्ार्ा दोनों से धवरोि है धवकल्प एक तो धवपयाय ज्ञान प्रगट हुआ उसका उस
वस्तु और उस वस्तु के यर्ार्ा दोनों से धवरोि है । धवकल्प एक तो धवपयाय ज्ञान का धवरोि यर्ार्ा से
भी है और वस्तुओ ां से भी।
अिध्यवसाय – धकधमत्यालोचनमात्रमनध्यवसाय: - दृष्टातां – चलते हुए राही को चलते हुए तृण मात्र
का स्पशा हुआ तो कहा धक “ यहाूँ कुछ है ।“
प्रर्मेय के दो भेद –
बाह्य प्रमेय
भाव प्रमेय
तो बाह्य प्रमेय की अपेक्षा सांशय / धव. अन. अप्रमाण है धकांतु भाव प्रमेय की अपेक्षा प्रमाण है । तीनों
खड़े कहाूँ हुए – आत्मा से तो आत्मा की प्रधसधि तो कर रहा है न वो ।
िय
नय का लक्षण – प्रमाण द्वारा प्रधसि वस्तु के एक अांग को ग्रहण करने वाले ज्ञान को नय कहते हैं ।
विा के अधभप्राय को नय कहते हैं । यहाूँ अधभप्राय प्रमाण ज्ञान होता है यह भी एक अधभप्राय है ।
इसमें नय प्रमाण की...... धववक्षा ग्रहण करना । कयोंधक प्रमाण ज्ञान भी एक अधभप्राय है और
अधभप्राय को नय कहेंगे तो प्रमाण और नय अभेद हो जाएगा ।
अनपशत – अिनपशत
अनपशतािनपशतनसद्धे:
अनपशत – वस्तु अनांत िमाात्मक है । कह सकते हैं अनांत धवरोिी िमा वस्तु में एक सार् रहते हैं । जैसे
एकत्व – अनेकत्व, धनत्यत्व – अधनयत्व । अब इस अनेक िमाात्मक वस्तु के अनेक िमों की धववक्षा
होती है उस व्याख्याधयत िमा को प्रिानता प्राि होती है और वह अधपात कहलाता है ।
अिनपशत – इसके धवपरीत धजन िमों की धवद्यमानता रहने पर भी यधद धववक्षा न की हो तो उसे
अनधपात कहते है स्पष्ट है उस समय अनधपात गौण होता है ।
नय के आिार पर –
विा के अधभप्राय को नय कहते हैं ।
विा के अनाधभप्राय को अनय कहते हैं ।
11/8/21
Lecture – 7
Continuation of प्रमाण
व्याधि और अधवनाभाव में फका ?
यद्यधप धजनवाणी में ज्यादा मात्रा में कर्न व्यवहार प्रिान होते हैं. व्यवहार में भी उपचार की प्रिानता
धलए होते हैं । तो ऐसा कहने में कोई दोष नहीं है धक व्याधि, अधवनाभाव एक ही है धकांतु यह उपचार
का कर्न होगा।
अगर पारमाधर्ाक रुप से धवचार करें तो यह दोनों अलग-2 धसि होतें हैं ।
व्याधि अधवनाभाव
व्याधि तका प्रमाण की साम्रगी है । अधवनाभाव अनमु ान प्रमाण की सामग्री ।
व्याधि कारण है । अधवनाभाव काया है ।
व्याधि साध्य से सािन की तरफ चलती है । अधवनाभाव सािन से साध्य की तरफ चलता है
।
व्याधि धिया का भेद है । अधवनाभाव सांबांि का भेद है ।
व्याधि बात में साध्य िमा होता है । अनुमान काल में िमा से युि िमी साध्य होता
है। अधवनाभाव हेतु का प्राण है और हेतु
अनमु ान का प्राण है । इस तयाय से अधवनाभाव
की सांगती यहाूँ घधटत होती है ।
ये सवादेश – सवाकाधलक है ।
व्याधि के दो िमा – अतवय व्यधतरेक ।
व्याधि दो तरह की होती है – सम और धवषम जो धजसके धबना न हो उसे अधवनाभाव कहते हैं
व्याधि एक और अतय – वधहव्यााधि अांतव्यााधि । ।
अतय दशान व्याधि काल में भी पक्ष – धवपक्ष की चचाा करते हैं । पर पक्ष – धवपक्ष की चचाा तो एक
देश की चचाा और व्याधि सवादेश-सवाकाधलक होती है ।
व्याधि से तका का धनमााण होगा, तका से अधवनाभाव बनेगा । अधवनाभाव के धनश्चय से हेतु बनेगा और
हेतु अनुमान प्रमाण की सामग्री है । धफर अनुमान से साध्य (िमा युि िमी) धसि होगा ।
हेतु
साध्य के सार् अधवनाभाव सांबांि होने के कारण हेतु धनधश्चत होता है । ‘साध्य अधवनाभाधव त्वेन
धनधश्चतो हेतु’ – जैन दशान हेतु का लक्षण जो बनाता है वो एक ही धवशेषण वाला बनाता है यद्यधप उस
धवशेषण में धवशेषण है । यहाूँ जैन दशान दो बात रखता है –
सािन का साध्य के सार् अधवनाभाव घधटत होना चाधहए ।
इस प्रकार का धनश्चय प्रधतवाधद के ज्ञान में होना चाधहए ।
दो Conditions यहाूँ रखी गई है । पहली वस्तु की अपेक्षा और दसय री ज्ञान की अपेक्षा ।
• सािन - - जो धनधश्चत रुप से साध्य का अधवनाभावी (साध्य के धबना नहीं रहने वाला) होता
है, उसे सािन कहते हैं । साध्य के धबना धजसका न होना धनधश्चत है वह सािन है ।
• सािन के प्रस्तुधतकरण का नाम हेतु हैं ।
• पक्ष में साध्य को धसि करने के धलए धजस वाकय का प्रयोग ।
• पक्ष में साध्य को धसि करने करने के धलए धजस वाकय का प्रयोग धकया जाता है वह हेतु है ।
• सािन को हेतु का पयाायवाची मानते है, लेधकन सािन जो वस्तु रुप होता है, उसे ही जब
परार्ानमु ान में वचनरुप में कह धदया जाता है वही हेतु बन जाता हैं ।
• हेतु अनुमान प्रमाण की सामग्री है । अनमु ान में पक्ष, धवपक्ष, िमी, िमा सािन, साध्य सभी
होते हैं ।
• साध्य – धजसे धसि करना हो, वह साध्य कहलाता है ।
• साध्य प्रधतवादी के धलए अधसि होना चाधहए तर्ा वादी को इष्ट और प्रत्यक्ष आधद प्रमाणों से
अबाधित होना चाधहए ।
• सािन प्रधतवाधद को धसि होना चाधहए ।
• यह पवात अधग्नमान है, कयोंधक वहाूँ िांुआ है ।
• पक्ष (िमी) – धजसमें साध्य आधश्रत हो । (अधग्नमान पवात)
• अनुमान काल में िमा से युि िमी साध्य होता है ।
• धवपक्ष – धजसमें साध्य का अभाव हो ( जहाूँ अधग्न का अभाव है – जल राधश )
• िमा -व्याधि काल में िमा साध्य होता है । (अधग्न)
• सपक्ष – साध्य – पक्ष के अलावा जहाूँ रहता है ।
• एक होता है लक्षण और एक होता है धवशेषण । एक लक्षण में एक से अधिक धवशेषण हो
सकते हैं । एक धवशेषण वाला लक्षण भी हो सकता है ।
धवशेषण का काया – धनराकरण पयवाक धनरुपण करना । दसय रे पदार्ों से उसे अलग करना । यहाूँ
अनेकातां से धसधि कर रहे हैं ।
प्रश्न – जहाूँ एक से अधिक धवशेषणों का प्रयोग होता है वहाूँ धवशेष्णय का क्षेत्र घटेगा या बढ़ेगा ?
12/10/21
Lecture-8
अधवनाभाव और व्याधि के ऊपर पवय ा में जो चचाा हुई उसे आगे बढ़ाते हुए –
सामातयतया व्याधि और अधवनाभाव को एकार्ी ग्रहण कर धलया जाता है पर वह बात उधचत
नहीं है । अधवनाभाव और व्याधि में जो फका है उसकी पुष्टी में पररक्षामुख के सयत्र हैं ।
Continuation –
तकाशन्धतनन्धिणशयः – तका से धनणाय होता है तो व्याधि का धनणाय करेंगे तो दोष आयेगा कयोंधक जहाूँ
तका उत्पतन ही नहीं हुआ कयोंधक व्याधि का धनणाय होने के पहले तका होता ही नहीं है, अब जब वो है
ही नहीं तो वह व्याधि का धनणाय कै से करेगा ? और जब हो जाएगा तो धनणाय करने की जरुरत नहीं
पिेगी ।
जहाूँ व्याधि का धनणाय हुआ ही नहीं वहाूँ तका का जतम हुआ ही नहीं ।
और जब तका का जतम हुआ ही नहीं वह अजतमा धकसी का धनणाय कै से करेगा ? और जहाूँ तका का
जतम हो गया है अर्ाात् व्याधि का धनणाय हो गया है तो धनणाय करने की जरुरत ही नहीं है ।
तो धफर धकसका धनणाय होता है तका के द्वारा ?
अधवनाभाव का धनणाय होता है कयोंधक जो व्याधि है वो कारण है और अधवनाभाव काया है । ऐसी
धस्र्धत में तका के द्वारा अधवनाभाव का धनणाय है, होता है ऐसा मानना योग्य है ।
13/10/2021
Lecture -9
यहाूँ आज हम हेतु के लक्षण के सांदभा में अतय दाशाधनकों द्वारा कही जानेवाली पाूँच धवशेषताओ ां पर
चचाा करेंगे धक बौि और नैयाधयक दशान कया कहते हैं। यहाूँ पर वही चचाा धलखी गई है lecture 7
की व आगे 18/10/21 में इसी चचाा को आगे बढ़ाया गया की जैन उसका खांिन धकस प्रकार करता
है। दोनों को एक सार् धमला कर धलखा गया है ।
* हेतु कया है ?
From lec 7
बौि दशान - कहता है धक उसका लक्षण त्रीलक्षणा लक्षण है।
1 पक्ष-िमात्व- पक्ष के अदां र हेतु के रहने को पक्ष िमात्व कहते हैं |
2 सपक्ष सत्व- धजस उदाहरण में साध्य सािन दोनों उपलब्ि हो उस िमी को सपक्ष कहते हैं। उस
सपक्ष के एकदेश में अर्वा सांपयणा देश में हेतु के रहने को सपक्षसत्व कहते हैं।
3 धवपक्ष व्यावृधत्त - साध्य के धवरुि िमा वाले स्र्ल को धवपक्ष कहते हैं। ऐसे सांपयणा धवपक्षों से हेतु के
सवार्ा अलग रहने को धवपक्ष व्यावृधत्त कहते हैं। (सािन का धवपक्ष में नहीं पाया जाना) नैयाधयक ऊपर
के तीन और 2 कुल 5 लक्षण बताते हैं ।
4 अबाधित धवष्णयत्व - साध्य से धवपरीतपने को धनश्चय कराने वाला प्रबल प्रमाण धजसमे सांभव न हो
उसे अबाधित धवषयत्व कहते हैं। सािन-साध्य के बीच कोई बािा न हो।
5 असत प्रधतपक्ष- समान बल के िारक ऐसे साध्य धवपरीत धनश्चायक धकसी धवरुि प्रमाण का सम्भव
न होना उसे असत्प्रधतपक्षत्व कहते हैं।
इसके अनसु िां ान के धलए कुछ सामग्री- नैयाधयकों के द्वारा
• पक्ष िमात्व के द्वारा - अधसि नामक हेत्वाभास का धनराकरण करता है।
• सपक्ष सत्व के द्वारा – धवरुि नामक हेत्वाभास का धनराकरण करता है।
• धवपक्ष व्यावृधत्त के द्वारा - अनेकाांधतक नामक हेत्वाभास का धनराकरण करता है।
• अबाधित धवषयत्व के द्वारा- कालात्यापधदष्ट नामक हेत्वाभास का धनराकरण करता है।
● असत प्रधतपक्ष के द्वारा-प्रकरणसम नामक हेत्वाभास का धनराकरण करता है।
ये नैयाधयक दशान की बात है धजसमें बौि दशान की भी बात गधभात है।
जैन दशान इनके धवरुि खड़ा है। ( by Vikas sir )
हेतु के सांदभा मे मैत्री तनय का दृष्टाांत
मैत्री तनय के दृष्टातां के माध्यम से आचाया ने एक ओर जहाूँ बौि दशान का खिां न धकया वहीं दसय री
तरफ नैयाधयक दशान का भी खांिन धकया है।
इस दृष्टाांत में नैयाधयकों द्वारा मातय जो पाांच प्रकार के धवशेषण हैं हेतय के सांदभा में वे पाांचों धवशेषण
धकस प्रकार लागय होते हैं और लाग होते हुए भी हेत्वाभास होता है। और कयों होता है? जैन दशान
कहता है धक 5 धवशेषणों के बाद भी हेत्वाभास खड़ा हो जाता है।
5 नवर्ेषण
1 पक्ष िमात्व- सािन का िमी /पक्ष के आश्रय से पाया जाना पक्ष िमात्व है।
2 सपक्ष सत्व- धकसी उदाहरण में साध्य-सािन दोनों का पाया जाना।
3 धवपक्ष व्यावृधत्त- सािन का धवपक्ष में नहीं पाया जाना।
4 अबाधित धवषयत्व- साध्ां य-सािन के बीच कोई बािा बाधित नहीं करती।
5 असत प्रधतपक्ष- साध्य के धवरुि कोई प्रमाण नहीं होता।
"र्मैत्री का गभशस्र् नर्र्ु श्यार्म वणश का होगा क्योंनक उसके अन्धय पुत्र श्यार्म वणीय हैं।
"“बौि हेतु का लक्षण बताने के धलए पहले तीन धवशेषण रखते हैं। नैयाधयक और दो धवशेषणों को
जोड़ कर कुल पाूँच धवशेषण रखते हैं। जैन दशान कहता है धक पाूँच धवशेषणों की आवश्यकता नहीं है
कयोंधक पाूँच धवशेषण रखने के बाद भी हेत्वाभास खड़ा हो जाता है,ऐसा अवसर हो धनयम नहीं
इसधलए जैन द. धसफा अधवनाभाव को ही हेतु का लक्षण मानता है और अधवनाभाव को हेतु का
लक्षण मानने से ये पाूँचों धवशेषण उसमें ही समाधहत हो जाते हैं और जो पाूँच हेत्वाभास है उनका भी
धनराकरण हो जाता है ।। R. Vikas Sir
हेत्वाभास के भेद: लक्षण एवां उदाहरण
1 अधसि हेत्वाभास- अधनधश्चतपक्षवृधत्तरधसिाः ।।
धजस पक्ष का हेतु में रहना धनधश्चत न हो उसे अधसि कहते हैं।
अधसि शब्द अधनत्य है कयोंधक चक्षु इधतद्रय का धवषय है। यह हेतु पक्ष िमा में न रहने से हेत्वाभास है।
पहला धवशेषण पक्ष िमात्व बताकर बौि और नैयाधयक अधसि हेत्वाभास का धनराकरण करते हैं।
2 धवरुि हेत्वाभास साध्यधवपरीतव्याम्तो धवरुिः॥ धजस हेतु की साध्य से धवपरीत के सार् व्याधि हो
उसे धवरुि हेत्वाभास कहते हैं।
जैसे:-शब्द धनत्य है कयोंधक धकया हुआ है।
यहाूँ पर 'धकया हुआ' यह हेतु अधनत्य के सार् व्याि है इसधलए यह धवरुि हेल्वाभास है।
दसय रा धवशेषण सपक्ष सत्व बताकर धवरुि हेत्वाभास का धनराकरण धकया जाता है।
3 अनेकाधततक हेत्वाभास –सव्यधवचारोऽनैकाधततकः।।
व्यधभचार सधहत हेतु को अनैकाधततक हेत्वाभास कहते हैं। शब्द अधनत्य है कयोंधक प्रमेय है। यह
प्रमेयत्व हेतु साध्यभयत अधनत्य में और धवपक्षभयत आकाश आधद धनत्य में भी है अतः धवपक्ष से
व्यावृत्त न होने से अनेकाधततक हेत्वाभास है।
तीसरा धवशेषण धवपक्ष व्यावृधत्त बताकर अनैकाधततक हेत्वाभास का धनराकरण धकया जाता है।
4 कालात्यापधदष्ट हेत्वाभास -
धजस हेतु का धवषय धकसी प्रमाण से बाधित हो उसे कालात्यापधदष्ट हेत्वाभास कहते हैं।
जैसे : अधग्न ठांिी है कयोंधक वह पदार्ा है।
चौर्ा धवशेषण अबाधित धवषयत्व बताकर नैयाधयक कालात्यापधदष्ट हेत्वाभास कात्रधनराकरण करता
है।
5. प्रकरण सम हेत्वाभास - धजसका धवरोिी सािन मौजयद हो उस हेतु को प्रकरण सम हेत्वाभास कहते
हैं जैसे : शब्द अधनत्य है कयोंधक वह धनत्य िमा से रधहत है।
पाूँचवा धवशेषण असत प्रधतपक्ष बताकर प्रकरण सम हेत्वाभास का धनराकरण करता है।
• जैन दशान की मातयता है धक पाूँच धवशेषणों की आवश्यकता नहीं है। धसफा एक की है
'अधवनाभाव'- यधद सािन का साध्य के सार् अधवनाभाव घधटत हो जाता है ऐसी धस्र्धत में
हमारा हेतु का लक्षण बाूँिने का काया धसि हो जाता है।
• जैन आचाया ने मैत्री तनय के दृष्टाांत में पाांचों को लागय कर के धदखाया है।
• "मैत्री का गभास्र् धशशु श्याम वणा का होगा कयोंधक उसके अतय पुत्र श्याम वणीय है।"
पक्ष- गभास्र् धशशु मत्रां ी का (िमी)
धवपक्ष- जैन दशान या अनेकाांती के धलए दो धवपक्ष हो सकते हैं
1 मैत्री के गभास्र् धशशु का गौर वणा से युि होना।
2 अतय चैत्री आधद धस्त्रयों के पत्रु ों का गौरवणा से यि
ु होना।
अनेकाांती से धभतन एकाांती धसफा अतयधस्त्रयों के पुत्रों का गौर वणा से युि होना ही धवपक्ष में ग्रहण
करेंगे।
सािन- मैत्री तनयत्व होना
साध्य - मैत्री के गभास्र् धशशु का श्याम वणा से युि होना
सपक्ष- मैत्री के चार पत्रु ों का श्याम वणा।
पक्ष िमात्व- मैत्री का गभास्र् धशशय यहाूँ िमी है एवां उसमें मैत्री तनयत्व का होना, ये सािन है। तो मैत्री
के गभा में जो धशशु धवद्यमान है उसके आश्रय से मैत्री तनयत्व वहाूँ धवद्यमान है, इसमें कोई शांका की
गजुां ाइश नहीं है। ऐसी धस्र्धत में पक्ष िमात्व धसि हो जाता है।
सपक्ष सत्व- मैत्री के जो अतय पुत्र हैं उतहें यहाूँ सपक्ष में लेना है। उन पुत्रों में श्याम वणा भी धसि है और
मैत्री तनयत्व भी धसि है। इस तरह सािन और साध्य दोनों ही धवद्यमान है। ऐसी धस्र्धत में सपक्ष सत्व
वाली बात यहाूँ घधटत हो जाती है।
धवपक्ष व्यावृधत्त - मैत्री के अलावा चैत्री आधद धस्त्रयों के पुत्रों में मैत्री तनयत्व (सािन) का नहीं होना |
मैत्री तनयत्व तो मैत्री के पुत्रों पर ही लागय होगा। अतय पर कै से होगा ? (धवपक्ष को पृर्क करना।)
धवपक्ष व्यावृधत्त वाली बात भी यहाूँ घधटत हो जाती है।
अबाधित धवषयत्व- मैत्री का जो गभास्र् धशशु है उसका श्याम वणा होने में धकसी प्रकार की बािा नहीं
आती।
पाूँच प्रकार की बािाएां - 1. प्रत्यक्ष, 2.अनमु ान,
3. आगम,4.लोक, 5. स्व-वचन।
इनमें से कोई भी बािा यहाूँ बाधित नहीं करती। ऐसी धस्र्धत में अबाधित धवषयत्व वाली बात भी
यहाूँ लागय हो जाती है।
असत प्रधतपक्ष - साध्य के धवरुि (श्यामपना) कोई प्रमाण अर्ाात् गौर वणा होवे इसकी भी कोई धस्र्धत
नहीं। ऐसी धस्र्धत में असत प्रधतपक्ष वाली बात भी लागु हो जाती है।
ये पाूँचों बातें यहाूँ लागय हो गई धफर भी यहाूँ सधां दग्ि अनेकाधततक नाम का हेत्वाभास है।
→ सांधदग्ि अनेकाधततक से यहाूँ तात्पया है धक वह पुत्र गौर वणा का भी हो सकता है और श्याम वणा
का भी हो सकता है।
कयोंधक दानों में (श्याम /गौर वणा में) सािन के सार् दोनों के होने का अवसर है धनयम नही। ऐसी
धस्र्धत में यहाूँ पर - सांधदग्ि अनेकाांधतक नामक हेत्वाभास घधटत हो जाता है कयोंधक मैत्री के गभा में जो
धशशु धवद्यमान है उसकी व्याधि यहाूँ मैत्री तनयत्व के सार् याधन श्यामपने की व्याधि मैत्री तनयत्व के
सार् नहीं है इसधलए मैत्री तनयत्व का अधवनाभाव श्यामपने के सार् घधटत नहीं होता है।
आचाया कहते हैं- तमु धजन पाूँच धवशेषणों की बात करते हो वह पाूँचों यहाूँ घधटत हो रहे हैं धफर भी
यहाूँ सांधदग्ि अनेकाांधतक नामक हेत्वाभास घधटत हुआ । इस धस्र्धत में आपके द्वारा मातय पाूँचों
धवशेषण योग्य नहीं है और अधवनाभाव ही हेतु का एकमात्र लक्षण है धजसमें से पाूँचों समाधहत हैं।
धचांतन- एक तरफ तो आप धवपक्ष व्यावृधत्त की बात करते हो और एक तरफ सांधदग्ि अनेकाांधतक
हेत्वाभास की बात करते हो तो दोनों बातें "एक सार् कै से लागय होगी कयोंधक जहाूँ धवपक्ष व्यावृधत्त
धसि हो जाती है वहाूँ अनेकाधततक हेत्वाभास लागय नहीं पड़ता है और जहाां अनेकाधततक हेत्वाभास
लागय पड़ता है वहाूँ धवपक्ष व्यावृधत्त घधटत नहीं होती है। दानों बातें एक सार् उधचत नहीं धदखाई पड़ती।
कै से समझे ?
नैयाधयक दशान के द्वारा व्याधि के सांबांि में जो मानी गई बात है उसमें गलती है - इस गलती का खांिन
यहाूँ जैन दशान कर रहा है। यद्यधप नैयाधयक दशान भी जैन दशान की तरह उपलम्भ और अनुपलांभ की
बात करता है। उपिम्भअिपु िंभनिनर्मत्त ज्ञािं
उपलांभ एवां अनुपलांभ के धनधमत्त से होने वाले व्याधि ज्ञान को तका कहते है। ऐसा हम भी अर्ाात जैन
द. भी कह रहा है और नैयाधयक भी धकांतु अव्यवस्र्ा यहाूँ है धक वह उपलम्भ में अके ले प्रत्यक्ष प्रमाण
को ग्रहण करता है।
उपलतभ- अनुपलम्भ /भाव- अभाव - दोनों अलग-अलग बात है।
भाव-अभाव-1वस्तु सामातय का अनेकातां / 2वस्तु की तरफ से कहा।
उपलम्भ- अनुपलांभ -1वस्तु धवशेष का अनेकाांत /2 ज्ञान की तरफ से कहा।
★ परमाणु आधद का ग्रहण नहीं हो रहा इसका अर्ा यह नहीं की वह अनुपलब्ि है। वह उपलब्ि के
योग्य है ही नहीं।
उपलम्भ - उपलधब्ि के योग्य होने पर ज्ञान में ग्रहण होना उपलभां है। वह उपलधब्ि के योग्य भी होना
चाधहए | (जैस-े भयत-धपशाच, परमाणु आधद ग्रहण होने के योग्य नहीं।
अनुपलम्भ - उपलधब्ि के योग्य होने पर भी ज्ञान में ग्रहण नहीं होना"" अनुपलब्ि वाली बात लागय
वही होगी जहाूँ वह उपलधब्ि के योग्य हो पर उसका अभाव हो ।
जैसे- इस भयतल पर घट का अभाव है। कयों ? - इसधलए धक घट नामक जो वस्तु है वह इधतद्रय गोचर
पदार्ा है, उपलब्ि होने के योग्य है और उपलब्ि होने के योग्य होने पर भी वह घट यहाूँ उपलब्ि नहीं
हो रहा है अर्ाात उसकी अनुपलधब्ि है इससे इस बात की धसधि होती है धक इस भयतल पर घट का
अभाव है। यहाूँ घट की अनुपलधब्ि हेतु है व घट का अभाव साध्य है। यहाूँ अनुपलधब्ि नामक हेतु से
वस्तु का अभाव धसि धकया जा रहा है। ध्यातव्य है जहाूँ कोई वस्तु उपलधब्ि के योग्य होती है और
उपलधब्ि के योग्य होने पर भी उपलधब्ि न होते तो वहाूँ अनुपलधब्ि नामक हेतु बनता है।
नैयाधयक दशान- उपलम्भ में अके ले प्रत्यक्ष प्रमाण की वस्तु को लेता है- परोक्ष प्रमाण की वस्तु को
नहीं लेता है। जैन दशान इस बात का खिां न करते हुए सयया का दृष्टातां देता है। इस बात को धसि करता
है धक उपलम्भ में परोक्ष भयत को भी ग्रहण करना चाधहए अतयर्ा काया की धसधि नहीं होगी।
सयय ा नाम का दृष्टातां धदया है धजसमें दो अनमु ान प्रस्ततु धकए हैं।
पहला दृष्टात
साध्य - सयया गमन करता है।
सािन/हेतु - कयोंधक वह देश से देशाततर को प्राि होता है।
जैन दशान कहता है - जो साध्य धसि हो गया है उस साध्य को सािन बनाया जा सकता है और उस
सािन से नये साध्य को सािा जा सकता है। इस अनमु ान में साध्य- परोक्ष है। सािन- प्रत्यक्ष है, जैस-े
बाण एक धदशा से दसय री धदशा में चलता है।
दसय रा दृष्टाांत
साध्य - सयया में गमनत्व नाम की शधि पाई जाती है।
सािन- कयोंधक वह गमन करता है।
इस अनमु ान में साध्य- परोक्ष है / सािन- परोक्ष हैं
जैन दशान में अनुमान माला घधटत करता है - जो जो साध्य बनता जाता है उस उसको सािन बना के
आगे नये नये साध्य बना सकते हैं।
नैयाधयक दशान कहता है- जो प्रत्यक्ष है उसी को सािन बनाया जाएगा, जो परोक्ष भयत है उसको सािन
नहीं बनाया जायेगा ।
जैन दशान यहाूँ इस बात की धसधि करता है धक यधद उपलम्भ में अके ले प्रत्यक्ष भयत को ग्रहण करेंगे,
परोक्ष भतय को नहीं करेंगे तो हमारे अनसु िां ान की प्रधिया अपणय ा रहेगी। इसधलए प्रत्यक्ष भतय के सार्
परोक्ष भयत को भी ग्रहण करना चाधहए ।
मैत्री तनय के दृष्टाांत और इसमें कै से सामांजस्य बैठता है? इसे कै से समझे ?
यधद सामने वाला आपधत्त करता है - एक गाूँव की मैत्री नाम की स्त्री है। उसके अतय पुत्र श्याम वणा के
हैं। उसके आिार से उसके गभास्र् धशशु के श्याम वणीय धसि करने वाली बात तो ठीक है धकांतु कया
सभी काल की सभी देश की मैत्री नामक जो धस्त्रयाूँ हैं उनके पत्रु श्याम वणीय ही हो ऐसा तो कोई
धनयम नहीं है। आप जो बात बता रहे हो वो तो एक देश, एक काल में लागय हो सकती है। सवा देश:
सवा काल में कै से लागय होगी?
यही बात कहलवाने के धलए ही तो जैन दशान के द्वारा ये दृष्टातां धदया गया। जब उसने उपयुि आपधत्त
रखी तब हम उसे यह कहेंगे धक आप उपलम्भ में अके ले प्रत्यक्ष को ग्रहण करते हो तो एक ओर तो
आप उपलब्ि में के वल प्रत्यक्ष को ग्रहण करने वाली बात करते हो और दसय री और आप परोक्ष भतय
को ग्रहण करने की बात इस दृष्टाांत में कहते हो ये उधचत नहीं है।
अगर ये आपधत्त आपको करनी है तो आप वहाूँ सुिार कीधजए उपलांभ में परोक्ष भयत को भी ग्रहण
कररए। ऐसी धस्र्धत में व्याधि में जो गलती है वो सुिर जाएगी। और अधवनाभाव की स्वीकृ धत हो
जाएगी। धफर आपके द्वारा कहे गए पाूँच धवशेषणों की बात नहीं कहीं जाएगी।
धाँआ
ु अनग्ि का दृष्ातं
2.अधग्न के होने पर ही िुआां होता है - तो अधग्न के होने पर िुएां के होने का अवसर है या धनयम ?
अवसर ऐसा कह कर हमने धनियाम अधग्न की सत्ता को स्वीकार कर धलया। धनषेि नहीं होने धदया ।
2.उस अवसर का अवसर है धक धनयम? धनयम- इससे हेतु में जो अनेकाधततक नामक हेत्वाभास है
उसका धनराकरण धकया गया है।
3.उस अवसर का अवसर होवे, धनयम न होवे तो कया दोष आयेगा? यधद उस अवसर का धनयम नहीं
मानेंगे तो िआ
ु ूँ अधग्न को छोड़ दसय री जगह पर चला जायेगा। जल भाग में भी िमय हो जाएगा। वो
धनयम ही तो िएु ां को अधग्न के सार् बाांिता है। िुआां स्वच्छांद धवचरण करेगा। यहाूँ अनेकाधततक
हेत्वाभास हो जाएगा। अगर लक्षण की दृधष्ट से देखें तो अधतव्याधि दोष भी खड़ा हो जाएगा।
अधग्न के होने पर िुएां के होने का धनयम मानने से, ऐसी धस्र्धत में धनिमया अधन का अभाव ठहरेगा।
यहाूँ अधवनाभाव और व्याधि के पाठ में अधग्न और घमय के दृष्टातां से समझाया गया है।
व्याि
प्रश्न- आपने व्याि को 'धत्रकाल के वतामान' की सज्ञां ा दी र्ी। व्याि शब्द तो भतय काल का है। धफर
धकस अपेक्षा से?
→ व्याि अर्ाात काया सांपतन हो गया धकांतु वह वतामान में खड़ा है। व्याि माने फै ला हुआ लेधकन
वह वतामान में है न ?
जैसे:- धमट्टीं घट रूप में व्याि है। - फै ला हुआ (at Phant) / ( धमट्टी घट में व्याि है ऐसा नहीं कहेंगे ।)
ये वतामान का अनेकातां है।
जैन दशान की चचाा अनेकातत की चचाा है। एकाांत की चचाा अतय दाशाधनकों की चचाा है। यद्यधप
अनेकाांत को भी अनेकाांतमय कहा है। पहले कहा वस्तु अनेकाांतमय है धफर - कहा अनेकाांत भी
अनेकाांतमय है।
प्रश्न- जहाूँ एक से अधिक धवशेषण खड़े हैं वहाूँ कौन से धवशेषण से कया भाव ग्रहण करें ?
यहाूँ देखना होगा धक धकसने धकसका धनराकरण धकया ? कयोंधक धनशकृ ष्णण पवय ाक धनरुपण होता है।
धनषेि पयवाक धवधि होती है। तो कया धवधिपयवाक धनषेि नहीं होता ?
- जहाूँ धवधि पयवाक धनषेि- की बात चलती है उसको स्र्ापना के रूप में ग्रहण करना चाधहए। धनषेि
तो उसीका होगा धजसकी पहले धवधि होगी। जहाूँ धनषेि पवय ाक धवधि- की बात उसी का होगा धजसकी
धनणाय के अर्ा में ग्रहण करना चाधहए। (धनराकरण पयवाक धनरूपण धनणाय के अर्ा में)
प्रश्न - सरलतम दशान का नाम जैन दशान तो कधठनता कयों ?
कौनसी बात सरल और कौनसी कधठन यह व्यधि के ज्ञान पर आिाररत होगा | कोई बात अपने आप
में सरल या कधठन नहीं होती | वो कर्न ज्ञान की अपेक्षा कर्न है, वस्तु की अपेक्षा नहीं है। वस्तु तो
वस्तु है और उसका वाच्य तो वचन है | वचन सरल है. या कधठन यह बात तो ज्ञान की अपेक्षा से
कही जा रही है। जैन दशान वस्तु का प्रधतपादक है इसधलए सरलतम है
प्रश्न
1. अधपात अनधपात एक भाग में दसय रे भाग में प्रमाण और नय को रखा। दोनों में समानता बताते हुए
असमानता बताएां।
2. वस्तु के असािारण िमा को लक्षण कहते हैं- इस पररभाषा - को मानने पर लक्षण के तीनों दोष
खड़े हो जाते हैं, धसि करें।
पररक्षामुखम्
Lecture 10
प्रमाणादर्ासांधसधि - स्तदाभासाधद्वपयायः
इधत वक्ष्ये तयो-लाक्ष्म, धसिमल्पां लघीयसः ॥
यहाूँ मगां लाचरण के माध्यम से आचाया ने द्रव्य की धवषय वस्तु को रखा है। इस ग्रर्ां में उतहें कया
बताना है ये बात यहाूँ मांगलाचरण के माध्यम से कही जा रही है। बात प्रारांभ होती है- प्रमाण से अर्ा
की धसधि होती है। इसके (प्रमाण) धवरुि जो प्रमाणाभास है उससे धवपयाय होगा अर्ाात उल्टा होगा
अर्ाात जो ज्ञान प्रमाण के रूप में पररणमन नहीं करेगा, वो धनयम से समारोप के रूप में पररणमन
करेगा। सांशय, धवपयाय, एवां अनध्यवसाय एवां अज्ञान के रूप में पररणमन करेगा। ये बात मांगलाचरण
की प्रर्म लाइन में कही गई है। तत् पश्चात् इधत माने उसी प्रकार धजस प्रकार पयवााचायों द्वारा जो कहा
गया है, मैं उसी प्रकार कहूँगा | वक्ष्ये - माने प्रगट करने के अर्ा में, कहने के अर्ा में। मैं उसी प्रकार
प्रगट करूूँगा धजस प्रकार पवय ााचायों ने कहा है। ऐसी यहाूँ प्रधतज्ञा कर रहे हैं आचाया। तत् पश्चात,् तयो-
लाक्ष्म- तयोर् माने दोनों - दोनों के लक्ष्य से, कौन दोनों के लक्ष्य से ? जो बात चलेगी अके ले, न प्रमाण
की चलेगी न प्रामाणाभास की चलेगी आगे बात चलती है जब तक दोनों बात को नहीं करेंगे तब तक
अनेकातां की धसधि कै से होगी ? तो अनेकातां की धसधि करने के धलए तयोलाक्ष्म' याधन दानों के लक्ष्य
से।,
आगे बात चलती है धसिमल्पां लघीयसः
मैं धसि करूूँगा, धकनके धलए ? धकसके आिार से करूूँगा मे बात पयवा में कही जा चुकी है पयवााचाया के
कहे अनुसार कहूँगा । अब ये बात सुना धकसको रहे हैं, तो उसके धलए कह रहे हैं - जो मांद बुधि है
उसके धलए कहूँगा। लघुपना तीन प्रकार का होता है – वयकृ त, शरीरकृ त, ज्ञानकृ त
यहाूँ जो लघुपना है वो शरीरकृ त नहीं लेना, वय याधन आयुकृत नहीं लेना अधपतु ज्ञानकृ त लेना। तो जो
ज्ञान में हीन बधु ि वाले हैं, कम ज्ञान वाले हैं, उनके धलए कहूँगा । इस प्रकार की अपनी भावना
आचाया ने यहाूँ पर व्यि की है। अब एक प्रश्न यह खड़ा होता है - यहाूँ अर्ा की धसधि प्रमाण से कही
जा रही है, इससे हटकर तत्वार्ा सयत्र जी में अर्ा की धसधि अधपात अनधपात से कही जा रही है -
अधपातानधपाता धसिे । अधपात और अनधपात से अर्ा की धसधि होती है ऐसा तत्वार्ा सयत्र में कहा है और
यहाूँ कह रहे हैं धक प्रमाण से अर्ा की धसधि होगी। तो आधखर अर्ा की धसधि प्रमाण से होगी अर्वा
अधपात-अनधपात से होगी अर्वा दोनों से होगी? यधद दोनों से होगी तो उसका कया रूप रहेगा ? कया
स्वरूप रहेगा? सांयोगवश कल ही हमारा प्रश्न बना र्ा " अधपात - अनधपात एवां नय प्रमाण में समानता
बताते हुए उस समानता के आिार पर असमानता धसि करो ?
एक बात पर हमेशा दृधष्टपात करें, जब भी कोई बात आती है तो या तो ज्ञान की तरफ से होगी या वस्तु
की तरफ से होगी या वचन की तरफ से होगी। ये तीन हमेशा स्मृधत में रहें। अब यहाूँ हमारा जो प्रसांग
चल रहा है उसमें नये-प्रमाण को हमने ज्ञान की तरफ से घटाया और अधपात- अनधपात को धकिर से
घटावे ? धनधश्चत रूप से इतहें वचन की तरफ से घटाना चाधहए। एक बात ज्ञान की तरफ से, एक बात
वचन की तरफ से और दोनों जा रही हैं एक ही धदशा में कयोंधक धसधि की बात चल रही है ना। अधपात-
अनधपात से भी धसधि हो रही है, नम-प्रमाण से भी धसधि हो रही है, वस्तुतः दो बातें है ही नहीं। एक ही
बात है, धववक्षा का भेद है। वस्तु का भेद नहीं है। एक ही बात को धसि करता है धकततु एक बात की
धसधि में दो तरफ से बात लागु होती है। इस प्रकार यहाूँ समानता में यह लेना है यहाां के दोनों ही वस्तु
की धसधि के सािन है धकततु एक बात ज्ञान की ओर से घटाना, और दसय री बात वचन की ओर से
घटाना। इस प्रकरण को हमें इस प्रकार समझना चाधहए।
प्रश्न By R. Vikas ji Sir.
मुझे ऐसा लग रहा र्ा धक अधपात-अनधपात है वो प्रधिया है और नय और प्रमाण हैं वो फल हैं उस
प्रधिया के । जब ऐसा धचतां न धकया तो धनक्षेप और अधपात-अनधपात में अतां र समझ नहीं आया। आप
कुछ इस पर प्रकाश िालें ।
+ वस्ततु ः अधपात- अनधपात की जब प्रधतपादन की बात करते हैं तो वहाूँ कर्न के माध्यम से ही कोई
ज्ञान करेगा और जो ज्ञान करेगा वो भी कर्न के माध्यम से ही ज्ञान करवाएगा | नय-प्रमाण भी जानने
के सािन भी हैं और जनाने के सािन भी हैं। नय और प्रमाण को अधिगम (जानने) का उपाय बताया
तो जानने और जनवाने दोनों का सािन है। ये खुद विा के धलए भी लागय पड़ेगा और श्रोता के धलए
भी। तो बात एक ही है मयल मे। प्रश्न है, धफर अांतर कया ? दोनों में धववक्षा का भेद है। एक बात ज्ञान की
तरफ से है और एक बात वचन की तरफ से है। मख्ु य- गौण और अधपात-अनधपात एक ही है,यह नय
की धिया है एवां प्रकृ त-अप्रकृ त धनक्षेप की धिया है।
स्वापूवाशर्शव्यवसायामर्मकं ज्ञािं प्रर्माणर्म् ।।1।।
इस सयत्र के माध्यम से प्रमाण का लक्षण बािां ा जा रहा है और उस लक्षण में पाूँच धवशेषणों को
शाधमल धकया है।
यहाूँ पाूँच धवशेषण हैं
1.ज्ञान पद, 2. व्यवसाय पद, 3. अर्ा पद, 4. अपयवा पद 5. स्व पद।
प्रमाण के लक्षण को घधटत करने के धलए यहाूँ कौन से धवशेषण से धकस बात का धनराकरण धकया जा
रहा है उस पर अब धवचार करेंगे।
1.ज्ञान- ज्ञान पद तो नैयाधयकों के सधतनकषा और वैशधे षकों के कारक साकल्यवाद का ख्िन करता
है।
2.व्यवसाय - व्यवसायात्मक बौिों के धनधवाकल्प वाद का ख्िन करता है।
3.अर्ा पद - धवज्ञान अद्वैतवाद व धचत्र अद्वैतवाद का ख्िन करता है।
4 अपवय ा पद- िारावाही ज्ञान का ख्िन करता है।
5. स्व पद- से ज्ञान को सवार्ा परोक्ष मानने वाले मीमाांसक तर्ा अतय ज्ञान से उसे ग्राहक मानने वाले
नैयाधयकों के कारक साकल्य व सधतनकषा वाद का ख्िन करता है?
सधतनकषावाद- सधतनकषावादी मानते हैं जब इधतद्रयाूँ अपने धवषय से धभड़ती है तब ज्ञान की उत्पधत्त
होती है, प्रमाण की उत्पधत्त होती है । इधतद्रयों के अपने धवषय से सधतनकषा होने पर ही यहाूँ ज्ञान की
उत्पधत्त धदखाई गई है। प्रमाण की उत्पधत्त धदखाई गई है। जैन दशान कहता है धक आप जो बात कह रहे
हैं उसमें इधतद्रय भी जड़ है और उसका धवषय भी जड़ है। दो जड़ धमलकर प्रमाण की उत्पधत्त नहीं कर
सकते इसधलए ऐसी धस्र्धत में इधतद्रय के द्वारा अपने धवषय में जो प्रवृधत्त है उसको प्रमाण मानने वाली
बात गलत है।
साकल्यवाद - साकल्यवाधद कहता है इधतद्रय, प्रकाश और पदार्ा में तीन सामग्री(चीज़ ) जब धमलती
है तब प्रमाण का जतम होता है । साकल्य का अर्ा है सामग्री। सधतनकषावाद से साकल्यवाद र्ोिा
धभतन है। यद्यधप समानता यह है धक यहाूँ भी तीनों ही चीजे जड़ हैं। इधतद्रय जि है ही, प्रकाश भी जड़ है
कयोंधक पुदगल की पयााय है और पदार्ा जो धवषय बनेगा वो भी जड़ ही बनेगा इसधलए तीनों ही जड़ हैं
और जड़ कभी प्रमाण की उत्पधत्त नहीं कर सकता। प्रमाण की उत्पधत्त करने का जो सामथ्या है वो एक
मात्र चेतन को ही है इसीधलए कहा है ज्ञान ही प्रमाण हैं तो यहाूँ यह सधतनकषा वाद का ख्िन धकया,
साकल्यवाद का ख्िन धकया ।
कौनसे धवशेषण के द्वारा? 'ज्ञान' नामक धवशेषण के द्वारा सधतनकषावाद और साकल्यवाद का ख्िन
धकया है ।
* धनधवाकल्प वाद- बौि दशान धनधवाकल्प ज्ञान को प्रमाण मानता है। धनधवाचार वाले ज्ञान को प्रमाण
मानता है। जैन दशान इस बात का खांिन करता है। वह कहता है धक धनधवाकल्प ज्ञान प्रमाण नहीं हो
सकता कयोंधक धनधवाकल्प ज्ञान में धनश्चय नहीं होता और धजस ज्ञान में धनश्चय नहीं होता वो प्रमाण नहीं
होता । यद्यधप बौि दशान जड़ से हटकर चेतन मे तो आ गया धकततु चेतन में आने के उपरातत भी
धनधवाकल्प ज्ञान को प्रमाण मानता है। जैन दशान कहता है यधद हम धनधवाकल्प ज्ञान को प्रमाण मानेंगे तो
वह प्रमाण धबना धनश्चय वाला ठहरेगा ,यह शकय नहीं है। कयोंधक धनश्चय के धबना प्रमाण धसि नहीं
होगा। इससे व्यवसाय पद से धनधवाकल्प वाद का खांिन धकया गया है। (बुधि का व्यापार)
धवज्ञान / धचत्र-अद्वैतवाद - दोनों में र्ोड़ा ही अततर है। उसकी बात यर्ा समय की जाएगी। दानों ही
एक बात को मानते हैं धक ज्ञान में ही घटाते है जो कुछ भी है, बाह्य जगत की सत्ता स्वीकार नहीं करते।
एक मात्र ज्ञान को ही स्वीकार करते हैं। बाहर का जो अर्ा जगत है उसकी सत्ता स्वीकार नहीं करते।
उनको समझाने के धलए आचाया ने अर्ा पद धदया है। वे कहते हैं जैसा हम जान रहे है वैसा वस्तु जगत
होना भी चाधहए। काल्पधनक नहीं और अगर ऐसा वस्तु जगत है तो ही वो ज्ञान प्रमाण होगा अतयर्ा
नहीं । जो भी कुछ है ज्ञान में ही घटाते हैं।
िारावाही ज्ञान - तत् पश्चात अपयवा धवशेषण भी बौिों का है कयोंधक बौि दशान िारावाही ज्ञान को
प्रमाण मानते हैं यह ज्ञान भी प्रमाण घधटत नहीं होता है कयोंधक उसमें कोई बदलाव नहीं है और प्रमाण
में बदलाव आवश्यक है। बदलाव के धबना प्रमाण धसि नहीं होता। इस प्रकार यहाूँ पर एक व्यवसाय
और एक अपयवा दो पदों का प्रयोग धकया है। जैन दशान ने वैदों की दो प्रकार की मातयताओ ां का ख्िन
धकया है।
प्रश्न - ज्ञान पयवा कयों नहीं होगा ? कुछ चीजें ऐसी होती है ना, जो पहले र्ी वो वैसी ही रहेगी, उसमें
बदलाव कयों होगा हर बार ? धकस आिार पर बदलाव की बात ?
उत्तर- इस प्रश्न पर बहुत ऊहापोह हुई है और तका रखे गये है। जैसे हमने पहली बार में जाना यह घट है।
दसय री बार में जाना की यह घट है। तीसरी बार भी जाना यह घट है। सो कया गलती हो रही है जो घट
को घट जान रहे है ना ? अब घट को जान रहे हैं आप धफर भी उसे अप्रमाण कह रहे हैं, ऐसे कयों
आधखर ? तो इस प्रकार से अनेक तका रखे गये हैं। यद्यधप उन तकों का ख्िन भी धकया गया है
कयोंधक यहाूँ धकसी न धकसी अर्ा में बौि दशान छल ग्रहण कर रहा है इस बात की आड़ में। तो इस
प्रकार के मानने वालों को सही सदां ेश देने के धलए ये 'अपवय ा धवशेषण रखा गया है जैन दशान के द्वारा।
के वलज्ञानी के ज्ञान में अपयवाता काल की अपेक्षा से घटता है। एक समय में धजसे भधवष्णयवती जान रहा
र्ा, दसय रे समय में उसे वतामानवती जानेगा और तीसरे समय मे भयतवती जानेगा । कोई एक धिया,
कोई एक काल है वो अभी सम्पतन नहीं हुआ है आगामी काल में सम्पतन होना है, के वलज्ञानी ने जाना
उसको तो धकस रूप में जाना ? भधवष्णय में होने वाला है, इस रूप में जाना । अगले समय में वो घटना
घट गई धफर वतामानवती रूप में जाना और तीसरे समय में वो उत्पतन हो के धवनष्ट हो गया तो उसे
भयतवती रूप में जाना ।
यहाूँ प्रिानता इस बात की है धक छदमस्र् के ज्ञान को प्रमाण कै से माने ? यहाूँ प्रिानता के वलज्ञानी के
ज्ञान की नहीं। आगे प्रमाण की प्राम्यता पर प्रकरण चलेगा वहाूँ इसकी बात करेंगे।
मीमाांसक यहाूँ स्व' नामक धवशेषण है, इसके द्वारा मीमाांसकों को समझाया जा रहा है कयोंधक वह ऐसा
मानते हैं धक ज्ञान अके ला अर्ा प्रकाशक है अर्ाात स्वप्रकाशक नहीं है, यद्यधप स्व का प्रकाशन तो
होता है लेधकन स्व के द्वारा नहीं पर के द्वारा होता है। इस एकाधततक मातयता जो मीमासां कों की है
उसको समझाने के धलए यहाूँ पर स्व नामक धवशेषण रखा गया है। कहा गया की ज्ञान ‘स्वपर प्रकाशक
' है।
धजस प्रकार ज्ञान अर्ा का प्रकाशन करता है उसी प्रकार ये स्व का प्रकाशन भी करता है। यधद स्व का
प्रकाशन हम नहीं मानेंगे तो ऐसी धस्र्धत में दोष खड़ा होगा ? कौन सा दोष खड़ा होगा • अनवस्र्ा
दोष खड़ा होगा | हर एक अनवस्र्ा, अनवस्र्ा दोष के रूप में घधटत नहीं होती। वो ही अनवस्र्ा,
अनवस्र्ा दोष के रूप में घधटत होती है जो अपने मयल का नाश करने वाली हो ।
1 मल
य का अर्ा कया ? धकसका मल
य ?
दाशाधनक शैली के मयल की बात चल रही है। दाशाधनक शैली का मयल है पक्ष-धवपक्ष।
आगम शैली का मयल है लक्ष- अलक्ष |
अध्याधत्मक शैली का मयल है प्रयोजनभयत-अप्रयोजनभयत।
यधद ज्ञान, अके ला अर्ा प्रकाशक है मानोगे, स्व प्रकाशक नहीं तो ऐसी धस्र्धत में उसका जो अर्ा
प्रकाशन है वो धकसके आिार पर धसि करोगे । स्व प्रकाशन के अभाव में अर्ाात िमा के अभाव में
आपका जो सािन है वो कै से धटके गा । उसको कोई आशय नहीं धमलेगा व आश्रय अधसि नामक
हेत्वाभास खड़ा होगा।
4 प्रकार के अधसि हेत्वाभास होते हैं
• अज्ञात अधसि
•सश
ां य अधसि
• स्वारोप अधसि
• आश्रय अधसि
अर्ाात वो हेतु जहाूँ खड़ा है, उसका आश्रय यधद धसि न हो तो आश्रय अधसि नाम का हेत्वाभास हो
जायेगा। इस प्रकार मीमासां क की बात का धक ज्ञान के वल अर्ा प्रकाशक है इसका खिां न जैन दशान
द्वारा धदखाया गया |
प्रश्न- सयत्र में के वल 'स्व' ही आ रहा है, स्व-पर दोनों आना चाधहए नान?
उत्तर- जो अर्ा पद धलया है वो 'पर' के अर्ा में ग्रहण करता है यहाूँ पर।
प्रश्न- िारावाधहक ज्ञान का कया अर्ा लेंगे ?
उत्तर-िारावाधहक ज्ञान मतलब-एक जैसा जानता है। पररवतान नहीं मानता। बौि दशान की कुछ
मातयताएूँ हैं - सवाप्रर्म वह वस्तु को क्षधणक मानता है। दसय रा जो ज्ञान उत्पतन होता है उसमें तीन बाते
करता है प्रिान रूप से –
तदोत्पधत- ज्ञान ज्ञेय से उत्पतन होता है।
तदाकार ज्ञान – ज्ञान ज्ञेयकार होता है। तदध्् यवसाय- वह उसी को ही जानता है।
18/ 08/21
Lec-13
दृष्टोऽधप समारोपात्तादृक ॥५॥
स्वोतमुखतमा प्रधतभासनां स्वस्य व्यवसायः ॥६॥
यह दोनों सयत्र पयवा के lecture में ही आ गये हैं। अब आगे-
अर्ास्येव तदतु मख
ु तया ॥७॥
घटमहमात्मना वेधि ॥८॥
कमावत्कतृाकरणधिया प्रतीतेः ॥९॥
सत्रय 6,7,8,9 सयत्र एक धवशेष सांदेश दे रहे हैं हमें| यहाूँ प्रश्न यह खड़ा हुआ स्व का व्यवसाय कै से होता
है? अर्ाात् स्व का धनश्चय कै से होता है? इसके उत्तर में कहा जा रहा है धजस प्रकार अर्ा व्यवसाय होता
है। उसी प्रकार एवां व्यवसाय होता है। उसी प्रकार अर्ा व्यवसाय वाली बात इसधलए कही जा रही है
कयोंधक यहाां वादी प्रधतवादी दोनों ही अर्ा व्यवसायवाली बात को तो स्वीकार धकए हुए हैं इसधलए
उसको हेतु बनाकर स्वव्यवसाय को धसि धकया जा रहा है। यद्यधप एक प्रश्न यहाूँ खड़ा होता है अर्ा के
सम्मुख होना मने कया ? सतमुख होना अर्ाात् धजस प्रकार पदार्ा के प्रधत सतमुख होने से पदार्ा का
धनश्चय होता है अर्ाात धनश्चय होता है, उसी प्रकार स्व की ओर उतमुख होने पर स्व का धनश्चय होता है।
'उतमखु ' पद का प्रयोग धकया है। हाूँ जो बात उठाई जा रही है वह जीव की जो अततमाख ु ी दशा होती
है,शुिोपयोग रूपी दशा होती है कया, उस बात को सामने रखते हुए बात कर रहे हैं अर्वा ज्ञान का
जो स्वपरप्रकाशक प्रभाव है उसको सामने रखकर बात कर रहे है-यह एक अहम प्रश्न है। ये कक्ष रहे हैं
जैसे अर्ा है उसी प्रकार स्वव्यवसाय होता है जब उपयोग की मुख्यता से बात करेंगे तो जो उपयोग है
या तो पर में रहेगा या स्व में रहेगा। दोनों मे एक सार् उपयोग रह नहीं सकता। इसके उपरात दसय री
चचाा है ज्ञान स्वपर प्रकाशक है। अब यहाूँ स्व प्रकाशक को अर्ा प्रकाशक के प्रकाश में धसि धकया
जा रहा है। उसमें भी उतमुख शब्द को रखा। यद्यधप जानने के धलए धजस को जाना जा रहा है उसकी
उपधस्र्धत आवश्यक नहीं मानता है जैन दशान और आवश्यक नहीं मानता है उसकी उपधस्र्धत धफर
भी उतमुख वाली बात कही जा रही है। इसका कया अर्ा ग्रहण करेंगे?
कारक में जैन दशान षट कारक को मानता है। व्याकरण की दृधष्ट से और भी आगे माने गये है।अब यहाूँ
षट्कारक सबां िां में व्यवहार षट् कारक और धनश्चय षट्कारक वाली जो चचाा है वह अपेधक्षत है।
षट्कारक के दो प्रकार है :-
व्यवहार षट्कारक
धनश्चय षट्कारक
दोनों के नाम, लक्षण बताए
षट्कारक - िक्षण- -
• कताा- जो स्वतत्रां ता पयवाक पररणमन करें।
• कमा- कताा को जो इष्ट होता हैं।
• करण- काया के प्रधत जो सािकतम होताहै।
• सांप्रदान-धजसके धलए काया धकया जाए।
• अपादान-धजसमें से कमा धकया जाए या उत्पधत्त हो।
• अधिकरण-वह कमा जहाूँ धकया जाए
व्यवहार षट्कारक
जहाूँ पर पर के धनधमत्त से काया की धसधि हो
• कताा-कुम्हार
• कमा-घट
• करण-दांि आधद
• -सांप्रदान-पानी पीनेवाला
• अपादान-पात्र
• अधिकरण -चाक पर
उदाहरण:-कुम्हार ने घट को दांि आधद करण से पानी पीनेवाले के धलए पात्र मे से धमट्टी लेकर चाक पर
घट बनाया।
नििय षट्कारक
• कताा -धमट्टी- कयोंधक यहाूँ धमट्टी ने स्वतांत्रता से पररणमन धकया है।
• कमा- घट-धमट्टी व घट अभेद इसधलए कमा धमट्टी
• करण-धमट्टी का पररणमन स्वभाव कयोंधक वह काया के प्रधत सािकतम है।
• सप्रां दान- स्वयां धमट्टी कयोंधक उस घट को धमट्टी ने ही प्राि धकया है।
• अपादान- धमट्टी ने स्व मे से धपिां रूप अवस्र्ा को व्यय करके घट को उत्पतन धकया है व स्वयां
ध्रुव है।
• अधिकरण – यह सारी कायावाही धमट्टी की सत्ता मे हुई तो अधिकरण।