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माण (भारतीय दशन)

भारतीय दशन म माण उसे कहते ह जो स य ान


करने म सहायता करे। अथात् वह बात जससे कसी
सरी बात का यथाथ ान हो। माण याय का मु य
वषय है। ' मा' नाम है यथाथ ान का। यथाथ ान का
जो करण हो अथात् जसके ारा यथाथ ान हो उसे
माण कहते ह। गौतम ने चार माण माने ह- य ,
अनुमान, उपमान और श द।

प रचय

माण का ल ण …

'यथाथ अनुभव' को ' मा' कहते ह। ' मृ त' तथा 'संशय'


आ द को ' मा' नह मानते। अतएव अ ात त व के
अथ ान को ' मा' कहा है। इस अन धगत अथ के ान
के उ प करने वाला करण ' माण' है। इसी को
शा द पका म कहा है--
कारणदोषबाधक ानर हतम् अगृहीत ा ह ानं
माणम् ।
अथात जस ान म अ ात व तु का अनुभव हो,
अ य ान से वा धत न हो एवं दोष र हत हो, वही
' माण' है।

माण के भेद …

इं य के साथ संबंध होने से कसी व तु का जो ान


होता है वह य है। लग (ल ण) और लगी दोन के
य ान से उ प ान को अनुमान कहते ह। कसी
जानी ई व तु के सा य ारा सरी व तु का ान
जस माण से होता है वह उपमान कहलाता है। जैस,े
गाय के स श ही नील गाय होती है। आ त या
व ासपा पु ष क बात को श द माण कहते ह।

इन चार माण के अ त र मीमांसक, वेदांती और


पौरा णक चार कार के और माण मानते ह—ऐ त ,
अथाप , संभव और अनुपल ध या अभाव। जो
बात केवल परंपरा से स चली आती है वह जस
माण से मानी जाती है उसको ऐ त माण कहते ह।
जस बात से बना कसी दे खी या सुनी बात के अथ म
आप आती हो उसके लये अथाप माण ह। जैस,े
मोटा दे वद दन को नह खाता, यह जानकर यह
मानना पड़ता है क दे वद रात को खाता है य क
बना खाए कोई मोटा हो नह सकता। ापक के भीतर
ा य—अंगी के भीतर अंग—का होना जस माण से
स होता है उसे संभव माण कहते ह। जैस,े सेर के
भीतर छटाँक का होना। कसी व तु का न होना जससे
स होता है वह अभाव माण है। जैसे चूहे नकलकर
बैठे ए ह इससे ब ली यहाँ नह है। पर नैया यक इन
चार को अलग माण नह मानते, अपने चार माण के
अंतगत मानते ह।

भारतीय दशन के व भ स दाय म माण क सं या


भ - भ है। कन- कन दशन म कौन-कौन माण
गृहीत ए ह यह नीचे दया जाता है-

चावाक - केवल य माण


बौ - य और अनुमान
सां य - य , अनुमान और आगम (शा द)
पातंजल - य , अनुमान और आगम (शा द)
वैशे षक - य और अनुमान
रामानुज पूण - य , अनुमान और आगम
(शा द)
भा मत म ' माण' के छः भेद ह-- य , अनुमान,
उपमान, श द, अथातप तथा अनुपल ध या
अभाव।


इनम से आ मा, मन और इं य का संयोग प जो ान
का करण वा माण है वही य है। व तु के साथ
इं य- संयोग होने से जो उसका ान होता है उसी को
' य ' कहते ह। यह माण सबसे े माना जाता है।

गौतम ने यायसू म कहा है क इं य के ारा कसी


पदाथ का जो ान होता है, वही य है। जैस,े य द
हम सामने आग जलती ई दखाई दे अथवा हम उसके
ताप का अनुभव कर तो यह इस बात का य माण
है क 'आग जल रही है'। इस ान म पदाथ और इं य
का य संबंध होना चा हए। य द कोई यह कहे क
'वह कताब पुरानी है' तो यह य माण नह है;
य क इसम जो ान होता है, वह केवल श द के ारा
होता है, पदाथ के ारा नह , इ स लये यह श द माण के
अंतगत चला जायगा। पर य द वही कताब हमारे सामने
आ जाय और मैली कुचैली या फट ई दखाई दे तो हम
इस बात का अव य य ान हो जायगा क 'यह
कताब पुरानी है'।

य ान कसी के कहे ए श द ारा नह होता,


इसी से उसे 'अ पदे य' कहते ह। य को
अ भचारी इस लये कहते ह क उसके ारा जो व तु
जैसी होती है उसका वैसा ही ान होता है। कुछ
नैया यक इस ान के करण को ही माण मानते ह।
उनके मत से ' य माण' इं य है, इं य से उ प
ान ' य ान' है। पर अ पदे य पद से सू कार का
अ भ ाय प है क व तु का जो न वक पक ान है
वही य माण है।

नवीन ंथकार दोन मत को मलाकर कहते ह क


य ान के करण (अथात य माण) तीन ह

(१) इं य,
(२) इं य का संबंध और
(३) इं यसंबंध से उ प ान

पहली अव था म जब केवल इं य ही करण हो तो


उसका फल वह य ान होगा जो कसी पदाथ के
पहले पहल सामने आने से होता है। जैस,े वह सामने
कोई चीज दखाई दे ती है। इस ान को ' न वक पक
ान' कहते ह। सरी अव था म यह जान पड़ता है क
जो चीज सामने है, वह पु तक है। यह 'स वक पक ान'
आ। इस ान का कारण इं य का संबंध है। जब इं य
के संबंध से उ प ान करण होता है, तब यह ान क
यह कताब अ छ है अथवा बुरी है, य ान आ।
यह य ान ६ कार का होता है -

(१) चा ुष य , जो कसी पदाथ के सामने आने


पर होता है। जैस,े यह पु तक नई है।
(२) ावण य , जैस,े आँख बंद रहने पर भी घंटे
का श द सुनाई पड़ने पर यह ान होता है क घंटा
बजा
(३) पश य , जैसे बरफ हाथ म लेने से ान होता
है क वह ब त ठं ढ है।
(४) रसायन य , जैस,े फल खाने पर जान पड़ता
है क वह मीठा है अथवा ख ा है।
(५) ाणज य , जैस,े फूल सूँघने पर पता लगता
है क वह सुगं धत है। और
(६) मानस य जैस,े सुख, ःख, दया आ द का
अनुभव।

अनुमान
य को लेकर जो ान (तथा ान के कारण) को
अनुमान कहते ह। जैस,े हमने बराबर दे खा है क जहाँ
धुआँ रहता है वहाँ आग रहती है। इसी को नैया यक
' ा त ान' कहते ह जो अनुमान क पहली सीढ ़ है।
हमने कह धूआँ दे खा जो आग क जस धूएँ के साथ
सदा हमने आग दे खी है वह यहाँ ह। इसके अनंतर हम
यह ान या अनुमान उ प आ क 'यहाँ आग है'।
अपने समझने के लये तो उपयु तीन खंड काफ है पर
नैया यक का काय है सरे के मन म ान कराना, इससे
वे अनुमान के पाँच खंड करते ह जो 'अवयव' कहलाते
ह।

(१) तरा—सा य का नदश करनेवाला अथात्


अनुमान से जो बात स करना है उसका वणन
करनेवाला वा य, जैस,े यहाँ पर आग है।
(२) हेत—
ु जस ल ण या च से बात मा णत क
जाती है, जैस,े य क यहाँ धुआँ है।
(३) उदाहरण— स क जानेवाली व तु बतलाए
ए च के साथ जहाँ दे खी गई है उसा बतानेवाला
वा य। जैस,े — जहाँ जहाँ धूआँ रहता है वहाँ वहाँ
आग रहती है, जैसे 'रसोईघर म'।
(४) उपनय—जो वा य बतलाए ए च या लग
का होना कट करे, जैस,े 'यहाँ पर धूआँ है'।
(५) नगमन— स क जानेवाली बात स हो गई
यह कथन।

अतः अनुमान का पूरा पय आ— यहाँ पर आग है


( त ा)। यो क यहाँ धूआँ है (हेतु)। जहाँ जहाँ धूआँ
रहता है वहाँ वहाँ आग रहती है, 'जैसे रसोई घर म'
(उदारहण)। यहाँ पर धूआँ है (उपनय)। इसी लये यहाँ
पर आग है ( नगमन)। साधारणतः इन पाँच अवयव से
यु वा य को याय कहते ह।

नवीन नैया यक इन पाँच अवयव का मानना आव यक


नह समझते। वे माण के लये त ा, हेतु और ांत
इ ह तीन को काफ समझते ह। मीमांसक और वेदांती
भी इ ह तीन को मानते ह। बौ नैया यक दो ही मानते
ह, त ा और हेतु। ' हेतु' को हे वाभास कहते ह पर
इसका माण गौतम ने माण के अंतगत न कर इसे
अलग पदाथ ( वषय) मानकर कया है। इसी कार छल,
जा त, न ह थान इ या द भी वा तव म हेतुदोष ही कहे
जा सकते ह। केवल हेतु का अ छ तरह वचार करने से
अनुमान के सब दोष पकडे़ जा सकते ह और यह मालूम
हो सकता है क अनुमान ठ क है या नह ।

उपमान
गौतम का तीसरा माण 'उपमान' है। कसी जानी ई
व तु के सा य से न जानी ई व तु का ान जस
माण से होता है वही उपमान है। जैस,े नीलगाय गाय के
स श होती है। कसी के मुँह से यह सुनकर जब हम
जंगल म नीलगाय दे खते ह तब चट हम ान हो जाता है
क 'यह नीलगाय है'। इससे तीत आ क कसी व तु
का उसके नाम के साथ संबंध ही उप म त ान का
वषय है। वैशे षक और बौ नैया यक उपमान को
अलग माण नह मानते, य और श द माण के ही
अंतगत मानते ह। वे कहते ह क 'गो के स श गवय होता
है' यह श द या आगम ान है य क यह आ त या
व ासपा मनु य कै कहे ए श द ारा आ फर
इसके उपरांत यह ान 'यह जंतु जो हम दे खते ह गो
के स श है' यह य ान आ। इसका उ र
नैया यक यह दे ते ह क यहाँ तक का ान तो श द और
य ही आ पर इसके अनंतर जो यह ान होता है
क 'इसी जंतु का नाम गवय है' वह न य है, न
अनुमान, न श द, वह उपमान ही है। उपमान को कई नए
दाश नक ने इस कार अनुमान कै अंतगत कया है। वे
कहते ह क 'इस जंतु का नाम गवय ह', ' य क यह गो
के स श है' जो जो जंतु गो के स श होते है उनका नाम
गवय होता है। पर इसका उ र यह है क 'जो जो जंतु गो
के स य होते ह वे गवय ह' यह बात मन म नह आती,
मन म केवल इतना ही आता ह क 'मने अ छे आदमी के
मुँह से सुना है क गवय गाय के स श होता है ?'

शद
चौथा माण है - श द। सू म लखा है क आ तोपदे श
अथात आ त पु ष का वा य श द माण है। भा यकार
ने आ तपु ष का ल ण यह बतलाया है क जो
सा ा कृतधमा हो, जैसा दे खा सुना (अनुभव कया) हो
ठ क ठ क वैसा ही कहनेवाला हो, वही आ त है, चाहे
वह आय हो या ले छ। गौतम ने आ तोपदे श के दो भेद
कए ह— ाथ और अ ाथ। य जानी ई बात
को बतानेवाला ाथ और केवल अनुमान से जानी
जानेवाली बात (जैसे वग, अपवग, पुनज इ या द)
को बतानेवाला अ ाथ कहलाता है। इसपर भा य करते
ए वा यान ने कहा है क इस कार लौ कक और
ऋ ष— वा य (वै दक) का वभाग हो जाता है अथात्
अ ाथ मे केवल वेदवा य ही माण को ट म माना जा
सकता है। नैया यक के मत से वेद ई रकृत है इससे
उसके वा य सदा स य और व सनीय ह पर लौ कक
वा य तभी स य माने जा सकते ह। जब उनका
कहनेवाला ामा णक माना जाय। सू म वेद के
ामा य के वषय म कई शंकाएँ उठाकर उनका
समाधान कया गया है। मीमांसक ई र को नह मानते
पर वे भी वेद को अपौ षेय और न य मानते ह। न य
तो मीमांसक श द मा को मानते ह और श द और अथ
का न य संबंध बतलाते ह। पर नैया यक श द का अथ
के साथ कोई न य संबंध नह मानते। वा य का अथ
या है, इस वषय म ब त मतभेद है। मीमांसक के मत
से नयोग या ेरणा ही वा याथ है—अथात् 'ऐसा करो',
'ऐसा न करो' यही बात सब वा य से कही जाती है चाहे
साफ साफ चाहे ऐसे अथवाले सरे वा य से संबंध
ारा। पर नैया यक के मत से कई पद के संबंध से
नकलनेवाला अथ ही वा याथ है। परंतु वा य म जो पद
होते ह वा याथ के मूल कारण वे ही ह। यायमंजरी म
पद म दो कार क श मानी गई है— थम
अ भधा ी श जससे एक एक पद अपने अपने अथ
का बोध कराता है और सरी ता पय श जससे कई
पद के संबंध का अथ सू चत होता है। श के
अतर ल णा भी नैया यक ने मानी है। आलंका रक
ने तीसरी वृ ंजना भी मानी है पर नैया यक उसे
पृथक् वृ नह मानते। सू के अनुसार जन कई अ र
के अंत म वभ हो वे ही पद ह और वभ याँ दो
कार क होती ह—नाम वभ और आ यात
वभ । इस कार नैया यक नाम और आ यात दो ही
कार के पद मानते ह। अ य पद को भा यकार ने नाम
के ही अंतगत स कया है। याय म ऊपर लखे चार
ही माण माने गए ह। मीमांसक और वेदांती अथाप ,
ऐ त , संभव और अभाव ये चार और माण कहते ह।
नैया यक इन चार को अपने चार माण के अंतगत
मानते ह।

अथाप
या ुत वषय क उपप जस अथ के बना न हो,
उस अथ के ान को 'अथाप ' कहते ह। जैस-े -दे वद
दन म कुछ भी नह खाता, फर भी खूब मोटा है'। इस
वा य म 'न खाना तथा प मोटा होना' इन दोन कथन म
सम वय क उपप नह होती। अत: उपप के लए
'रा म भोजन करता है' यह क पना क जाती है। इस
कथन से यह प हो गया क 'य प दन म वह नह
खाता, पर तु रा म खाता है'। अतएव दे वद मोटा है।
यहाँ पर थम वा य म उपप लाने के लए, 'रा म
खाता है' यह क पना वयं क जाती है। इसी को
'अथाप ' कहते ह।

अथाप के भेद …

यह दो कार क है--' ाथाप ', जैसे --ऊपर के


उदाहरण म, तथा ' ुताथाप ' । जैस-े सुनने म आता है
क दे वद जो जी वत है, घर म नह ह। इस से 'दे वद
कह और थान म है' इसक क पना करना 'अथाप '
है। अ यथा 'जी वत होकर घर म नह रहना' इन दोन
बात म सम वय नह हो सकता।

भाकर का मत है क कसी भी माण से ात वषय


क उपप के लए 'अथाप ' हो सकती है, केवल
और ुत ही से नह । यह बात साधारण प से य
आ द माण से स नह होता, त मात् 'अथाप ' का
नाम का एक भ ' माण' मीमांसक मानते ह।

अनुपल ध या अभाव
अभाव माण -- य आ द माण के ारा जब
कसी व तु का ान नह होता, तब 'वह व तु नह है' इस
कार उस व तु के 'अभाव' का ान हम होता है। इस
'अभाव' का ान इ यस कष आ द के ारा तो हो
नह सकता, य क इ यस कष 'भाव' पदाथ के
साथ होता है। अतएव 'अनुपल ध', या 'अभाव' नाम के
एक ऐसे वत माण को मीमांसक मानते ह, जसके
ारा कसी व तु के 'अभाव' का ान हो। यह तो
मीमांसक का एक साधारण मत है। क तु भाकर इसे
नह वीकार करते। उनका कथन है क जतने ' माण'
है, सब के अपने-अपने वत ' मेय' ह, क तु 'अभाव'
माण का कोई भी अपना ' वषय' नह है। जैस-े -'इस
भू म पर घट नह है', इस ान म य द वहाँ घट होता, तो
भूतल के समान उसका भी ान होता, क तु ऐसा नह
है। फर हम दे खते ह 'केवल भू म', जस का ान हम
य से होता है। व तुत: 'अभाव' का अपना व प तो
कुछ भी नही है। वह तो जहाँ रहता है, उसी आधार के
साथ कहा जाता है। इस लए यथाथ म भूतल के ान के
अतर 'घट नह है' इस कार का ान होता ही नह ।
अतएव 'अभाव' अ धकरण व प ही है। इस का पृथक्
अ त व नह है।

स भव माण
कुमा रल ने 'स भव' क चचा क है। जैस-े -'एक सेर ध
म आधा सेर ध तो अव य है'; अथात् एक सेर होने म
स दे ह हो सकता है, क तु उसके आधा सेर होने म तो
कोई भी स दे ह नह हो सकता। इसे ही 'स भव' का नाम
का माण 'पौरा णक ' ने माना है। कुमा रल ने इस
'अनुमान' के अ तगत माना है।

ऐत माण
'ए त ' का भी उ लेख कुमा रल ने कया है। जैसे 'इस
वट के वृ पर भूत रहता है'। यह वृ लोग कहते आये
ह। अत: यह भी एक वत माण है। पर तु इस कथन
क स यता का नणय नह हो सकता, अतएव यह
माण नह है। य द माण है तो यह 'आगम' के
अ तभूत है। क तु इन दोन को अ य मीमांसक क
तरह कुमा रल ने भी वीकार नह कया।

तभा माण
' तभा' अथात् ' ा तभ ान' सदै व स य नह होता,
अतएव इसे भी मीमांसक लोग माण के प म नह
वीकार करते।

ऊपर के ववरण से प हो गया होगा क माण ही


यायशा का मु य वषय है। इसी से ' माण वीण',
' माणकुशल' आ द श द का वहार नैया यक या
ता कक के लये होता है।

मेय
माण का वषय ( जसे मा णत कया जाय) मेय
कहलाता है। ऐसे वषय याय के अ तगत बारह गनाए
गए ह—

(१) आ मा—सब व तु का दे खनेवाला, भोग


करनेवाला, जाननेवाला और अनुभव करनेवाला।
(२) शरीर—भोगो का आयतन या आधार।
(३) इं याँ—भोग के साधन।
(४) अथ—व तु जसका भोग होता है।
(५) बु —भोग।
(६) मन—अंतःकरण अथात् वह भीतरी इं य
जसके ारा सब व तु का ान होता है।
(७) वृ —वचन, मनऔर शरीर का ापार।
(८) दोष— जसके कारण अ छे या बुरे काम म
वृ होती है।
(९) े यभाव—पुनज म।
(१०) फल—सुख ःख का संवेदन या अनुभव।
(११) ःख—पीडा़, लेश।
(१२) अपवग— ःख से अ यंत नवृ या मु ।
इस सूची से यह न समझना चा हए क इन व तु के
अतर और मेय ( माण के वषय) हो ही नह
सकते। माण के ारा ब त सी बात स क जाती ह।
पर गौतम ने अपने सू म उ ह बात पर वचार कया है
जनके ान से अपवग या मो क ा त हो। याय म
इ छा, े ष, य न, सुख ःख और ान ये आ मा के
लग (अनुमान के साधन च या हेतु) कहे गए ह, य प
शरीर, इं य और मन से आ मा पृथक् मानी गई है।
वैशे षक म भी इ छा, े ष सुख, ःख आ द को आ मा
का लग कहा है। शरीर, इं य और मन से आ मा के
पृथक् होने के हेतु गौतम ने दए ह। वेदां तय के समान
नैया यक एक ही आ मा नह मानते, अनेक मानते ह।
सां यवाले भी अनेक पु ष मानते ह पर वे पु ष को
अकता और अभो ा, सा ी वा ा मा मानते ह।
नैया यक आ मा को कता, भो ा आ द मानते ह। संसार
को रचनेवाली आ मा ही ई र है। याय म आ मा के
समान ही ई र म भी सं या, प रमाण, पृथ व, संयोग,
वभाग, इ छा, बु य न ये गुण माने गए ह पर न य
करके। यायमंजरी म लखा है क ःख, े ष और
सं कार को छोड़ और सब आ मा के गुण ई र म ह।

ब त से लोग शरीर को पाँच भूत से बना मानते ह पर


याय म शरीर केवल पृ वी के परमाणु से घ टत माना
गया है। चे ा, इं य और अथ के आ य को शरीर कहते
ह। जस पदाथ से सुख हो उसके पाने और जससे ःख
हो उसे र करने का ापार चे ा है। अतः शरीर का जो
ल ण कया गया है उसके अंतगत वृ का शरीर भी
आ जाता है। पर वाच प त म ने कहा है क यह
ल ण वृ शरीर म नह घटता, इससे केवल मनु यशरीर
का ही अ भ ाय समझना चा हए। शंकर म ने
वैशे षक सू ोप कार म कहा है क वृ को शरीर है पर
उसम चे ा और इं याँ प नह दखाई पड़त इससे
उसे शरीर नह कह सकते। पूवज म म कए कम के
अनुसार शरीर उ प होता है। पाँच भूत से पाँच इं य
क उप कही गई है। ाण य से गंध का हण होता
है, इससे वह पृ वी से बनी है। रसना जल से बनी है
यो क रस जल का ही गुण है। च ु तेज से बना ह
यो क प तेज का ही गुण है। वक् वायु से बना है
य क पश वायु का गुण है। ो आकाश से बना है
य क श द आकाश का गुण है। बौ के मत से शरीर
म इं य के जो य गोलक दे खे जाते ह उ ह को
इं याँ कहते ह। (जैस,े आँख क पुतली, जीभ इ या द);
पर नैया यक के मत से जो अंग दखाई पड़ते ह वे
इं य के अ ध ान मा ह, इं याँ नह ह। इं य का
ान इँ य ारा नह हो सकता। कुछ लोग एक ही वग्
इं य मानते ह। याय म उनके मत का खंडन करके
इं य का नाना व था पत कया गया है। सां य म पाँच
कम याँ और मन लेकर यारह इं याँ मानी गई ह।
याय म कम याँ नह मानी गई ह पर मन एक करण
और अणु प माना गया है। य द मन सू म न होकर
ापक होता तो युगपद ान संभव होता, अथात् अनेक
इं य का एक ण म एक साथ संयोग होने से उन
सबके वषय का एक साथ ान होता। पर नैया यक
ऐसा नह मानते। गंध, रस, प, पश और श द ये पाँच
भूत के गुण और इं य के अथ या वषय़ ह।

याय म बु को ान या उपल ध का ही सरा नाम


कहा है। सां य म बु न य कही गई है पर याय म
अ न य। वैशे षक के समान याय भी परमाणुवाद है
अथात् परमाणु के योग से सृ मानता है।
मेय के संबंध म याय और वैशे षक के मत ायः एक
ही ह इससे दशन म दोन के मत याय मत कहे जाते ह।
वा यायन ने भी भा य म कह दया है क जन बात को
व तार-भय से गौतम ने सू म नह कहा है उ ह
वैशे षक से हण करना चा हए।

ऊपर जो कुछ लखा गया है उससे कट हो गया होगा


क गौतम का याय केवल वचार या तक के नयम
नधा रत करनेवाला शा नह है ब क मेय का भी
वचार करनेवाला दशन है। पा ा य ला जक
(तकशा ) से यही इसम भेद ह। ला जक, दशन के
अंतगत नह लया जाता पर याय, दशन है। यह अव य
है क याय म माण या तक क परी ा वशेष प से
ई है।

ामा यवाद का मह व
यायशा तथा मीमांसाशा म ' ामा यवाद' सब से
क ठन वषय कहा जाता है। म थला म व म डली म
स है क १४व सद म एक समय एक ब त बड़े
व ान् और क व कसी अ य ा त से म थला के
महाराज क सभा म आये। उनक क व वश और
व ा से सभी च कत ए। वह म थला म रह कर
' ामा यवाद' का वशेष अ ययन करने लगे। कुछ दन
के प ात् महाराज ने उनसे एक दन नवीन क वता
सुनाने के लए कहा, तो ब त दे र सोचने के बाद उ होने
एक क वता क रचना क --

नम: ामा यवादाय म क व वापहा रणे'।

इसक सरी पं क पू त करने म उ ह ने अपनी


असमथता कट क । वा तव म ' ामा यवाद' ब त
क ठन है और इसके अ ययन करने वाल का यान और
कह नह जा सकता है।

इ ह भी दे ख

उपमान
अनुमान
आ त माण

बाहरी क ड़याँ
याय दशन व सां य दशन म माणमीमांसा : एक
तुलना मक अ ययन
वैशे षक दशन म माण मीमांसा : श तपादभा य
तथा उप कारभा य के वशेष स दभ म

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ना कया गया हो।

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