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ी ईशोपिनषद्
वह ान जो मनु य को
कृ ण कृ पा मू त
भि वेदांत बुक ट
3
भि वेदा त बुक ट
हरे कृ ण धाम
जु , मुब
ं ई ४०० ०४९
ई -मेल: bbtadmin@pamho.net
वेब : www.indiabbt.com
सवािधकार सुरि त
िवषय सूची
भूिमका "वेद क िश ाएँ"…………………………………………………….१
ईश- तुित………………………………………………………………… १४
मं १…………………………………………………………………….. १८
मं २………………………………………………………………………२५
मं ३…………………………………………………………………….. ३१
मं ४…………………………………………………………………….. ३६
मं ५………………………………………………………………………४१
मं ६……………………………....................................................... ४८
मं ७…………………………………………………………………….. ५३
मं ८…………………………………………………………………….. ५८
मं ९………………………………………………………………………६६
मं १०…………………………………………………………………….७२
मं ११…………………………………………………………………... ७९
मं १२………………………………………………………………….,. ८८
मं १३…………………………………………………………………….९६
मं १४…………………………………………………………………..१०७
मं १५…………………………………………………………………..११५
मं १६……………………………………………………………… ….१२४
मं १७…………………………………………………………………...१३१
मं १८……………………………………………………………….…..१४२
लेखक प रचय ………………………………………………….……….. १४८
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भूिमका
"वेद क िश ाएं"
तीसरा दोष है धोखा देने क वृि । येक ि म दूसर को ठगने क वृि पाई
जाती है। कोई ि पहले दज का मूख य न हो, क तु वह भी अ य त बुि मान होने का
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आप वेद को 'िह दू' कह सकते ह ले कन 'िह दू' नाम िवदेशी है। हम 'िह दू' नह ह।
हमारी असली पहचान वणा म है। वणा म वेद के उन अनुयाियय का सूचक है, जो मानव
समाज म वण तथा आ म के आठ िवभाग को मानते ह। चार िवभाग समाज के ह और चार
िवभाग आ याि मक जीवन के ह। यह वणा म कहलाता है। भगव ीता म (४.१३) म कहा
गया है, "ये िवभाग सव पाए जाते ह य क ये ई र ारा सृिजत ह।" समाज के िवभाग
ह- ा ण, ि य, वै य तथा शू । ा ण अ य त बुि मान वग के उन मनु य का सूचक है,
जो यह जानते ह क या है। इसी कार ि य या शासक वग बुि मान मनु य का
अगला वग है। तब वै य अथात् ापारी वग आता है। यह ाकृ ितक वग करण सव पाया
जाता है। यही वै दक िस ा त है और हम इसे वीकार करते ह । वै दक िस ांत वयं-िस
स य के प म वीकार कए जाते ह य क उनम कोई ु ट नह हो सकती। यह वीकृ ित
है। उदाहरणाथ, भारत म गोबर को शु माना जाता है; फर गोबर पशु का मल है। एक
थान पर आप यह वै दक आदेश पाएंगे क य द आप मल को छू लेते ह, तो आपको तुर त
ान करना होगा। ले कन दूसरे थान पर यह कहा गया है क गाय का मल (गोबर) शु
होता है। य द आप कसी अशु थान को गोबर से लीप द तो वह शु हो जाता है। हम
अपनी सामा य इि य से तक कर सकते ह, "यह िवरोधाभास है।" वा तव म सामा य दृि
म यह िवरोधाभास लगता है ले कन यह िम या नह है। यह त य है। कलक ा के एक मुख
वै ािनक तथा डॉ टर ने गोबर का िव ेषण करके यह पता लगाया है क इसम सम त
रोगाणुनाशक गुण पाए जाते ह।
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ईश- तुित
ॐ पूणमदः पूणिमदं पूणात् पूणमुद यते।
पूण य पूणमादाय पूणमेवाविश यते॥
ॐ-पूण; पूणम्-सभी तरह से पूण; अदः-वह; पूणम् -पूण; इदम्-- यह वहार (दृ य)
जगत; पूणात्- पूण से; पूणम् - पूण इकाई; उद यते- उ प होता है; पूण य-पूण का; पूणम् -
पूणत:, सब ; आदाय- लेने पर; पूणम् -पूण संतल
ु न; एव-ही; अविश यते-बचा रहता है।
अनुवाद
भगवान पूण ह और चूँ क वे पूरी तरह प रपूण ह, अतएव उनके सारे उ व तथा यह
वहार जगत, पूण के प म प रपूण ह। पूण से जो कु छ उ प होता है, वह भी अपने म
पूण होता है । चूँ क वे स पूण ह, अतएव उनसे य िप न जाने कतनी पूण इकाइयाँ उ भूत
होती ह, तो भी वे पूण रहते ह।
ता पय
मं १
ईशावा यिमदं सव यि क जग यां जगत।
तेन य े न भु ीथा मा गृधः क य ि वद् धनम्॥१॥
ता पय
मं २
कु व व
े ेह कमािण िजजीिवषे छता: समाः।
एवं विय ना यथेतोऽि त न कम िल यते नरे ॥२॥
अनुवाद
ता पय
कोई भी मरना नह चाहता। येक ि जब तक ख च सकता है तब तक जीना
चाहता है। यह वृि के वल ि क प से ही नह देखी जाती अिपतु सामूिहक प से
जाित, समाज और रा म भी देखी जाती है। सम त जीव म िवकट जीवन-संघष चल रहा
होता है और वेद का कहना है क यह िब कु ल वाभािवक है। जीवा मा वभावत: शा त
है, ले कन भौितक जगत म अपने बंधन के कारण उसे बार बार अपना शरीर बदलना पड़ता
है। यह या आ मा का देहा तरण अथवा कमब धन कहलाती है। जीव को अपनी
आजीिवका के िलए काय करना पड़ता है य क यह कृ ित का िनयम है और य द वह अपने
िनयत कत के अनुसार काय नह करता तो वह कृ ित के िनयम का उ लंघन करता है
और अपने आपको अनेक योिनय म ज म-मृ यु के च म आिधकािधक बाँधता जाता है।
अ य योिनय म भी ज म-मृ यु का च चलता है, ले कन जब जीव को मनु य-योिन
ा होती है, तो वह कम के बंधन से मु होने का अवसर ा करता है। भगव ीता म
कम, अकम तथा िवकम का अ य त प वणन आ है। जो काय कसी के िनयत कत के
प म शा म उि लिखत िविध से स प कए जाते ह, वे कम कहलाते ह। जो कम मनु य
को ज म-मृ यु के च से मु करते ह, वे अकम कहलाते ह। क तु जो काय अपनी वतं ता
का दु पयोग करके स प कये जाते ह और िजससे अधम योिनय म जाना पड़ता है वे
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िवकम कहलाते ह। इन तीन कार के कम म से बुि मान मनु य उसे ही अ छा समझता है,
जो उसे कम के ब धन से मु कर दे। सामा य लोग मा यता ा करने के उ े य से तथा इस
संसार म या वग म उ तर जीवन तर ा करने के उ े य से अ छा काय करते ह ले कन
अिधक बुि मान लोग कम तथा कम के फल से सवथा मु होना चाहते ह। बुि मान पु ष
यह भलीभाँित जानते ह क अ छे से या बुरे काय समान प मनु य के भौितक क से
बाँधने वाले ह। अतएव वे ऐसा काय खोजते ह, जो उ ह अ छे या बुरे दोन ही कार के
काय के फल से मु कर दे। ी ईशोपिनषद् के पृ म इसी मुि दान करने वाले काय
का वणन आ है।
ी ईशोपिनषद् के उपदेश भगव ीता म िवशद् रीित से ा याियत कये गये ह,
अतएव भगव ीता को कभी-कभी गीतोपिनषद् या सभी उपिनषद का नवनीत कहा जाता
है। भगव ीता म (३.९-१६) भगवान् कहते ह क मनु य को तब तक नै क य या अकम
अव था ा नह होती जब तक वह वै दक सािह य म व णत िनयत कत ( वधम) का
आचरण नह करता। वेद मनु य क कायशि को इस कार िनयिमत कर सकते ह क वह
धीरे धीरे भगवान् क स ा का अनुभव करने लगता है। जब वह भगवान्–वासुदेव अथवा
कृ ण-क स ा का अनुभव कर लेता है, तो यह समझना चािहए क उसने सकारा मक ान
क अव था ा कर ली है | इस शु अव था म कृ ित के गुण-सतो, रजो तथा तमो गुण-
काय नह कर पाते और उसम नै क य के आधार पर कम करने क मता आ जाती है। ऐसा
कम मनु य को ज म तथा मृ यु के च से नह बाँधता।
वा तव म कसी को भी भगवान् क भि से अिधक कु छ नह करना होता। पर तु
जीवन के िन तर पर कोई भी ि भि के कायकलाप तुर त नह अपना सकता, न ही
वह सकाम कम को पूरी तरह रोक सकता है। ब जीव इि यतृि के िलए अपने वाथ के
िलए, चाहे वह ता कािलक हो या ापाक-कम करने का आदी होता है। सामा य ि
अपने िनजी इि यभोग के िलए काय करता है और जब इि यभोग का यह िस ा त
समाज, रा या मानवता तक िव ता रत हो जाता है, तो यह अनेक आकषक नाम धारण कर
लेता है, यथा परोपकार, समाजवाद, सा यवाद, रा वाद, मानवतावाद इ या द। ये 'वाद'
िन य ही कम-ब धन के अ य त आकषक प ह, ले कन ईशोपिनषद् क वै दक िश ा है क
य द कोई सचमुच इनम से कसी 'वाद' के िलए जीिवत रहना चाहता है, तो उसे चािहए क
वह उ ह ईश-के ि त कर दे। गृह थ बनने या परोपकारी, समाजवादी, सा यवादी, रा वादी
या मानवतावादी बनने म कोई हािन नह है, बशत क वह अपने काय को ईशावा य या
भगवत्-के ि त भावना से स प करे।
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मं ३
असुया नाम ते लोका अ धेन तमसाssवृताः ।
ताँ ते े यािभग छि त ये के आ महनो जनाः ॥३॥
अनुवाद
आ मा का हनन करने वाला, चाहे वह कोई भी हो, उन लोक म अव य वेश करता
है, जो अ ा के जगत के नाम से िव यात है और अंधकार तथा अ ान से पूण है।
ता पय
मनु य-जीवन अपने भारी उ रदािय व के कारण पशु जीवन से िभ होता है। जो
लोग इन दािय व से अवगत ह और उसी भाव से काय करते ह, वे सुर कहलाते ह और जो
इन दािय व क अवहेलना करते ह या िज ह इनक जानकारी नह रहती वे असुर कहलाते
ह। सारे िव म यही दो कार के मनु य पाए जाते ह। ऋ वेद म कहा गया है क सुर लोग
सदैव भगवान् िव णु के चरणकमल को ल य बनाते ह और तदनुसार कम करते ह। उनका
माग सूय के पथ के ही समान देदी यमान रहता है।
बुि मान मनु य को सदैव मरण रखना चािहए क आ मा को मानव शरीर
देहा तरण के च म लाख वष के िवकास के प ात् ा होता है। कभी-कभी इस भौितक
जगत क तुलना एक समु से क जाती है और इस मानव शरीर क तुलना एक सुदढ़ृ नाव से
क जाती है, जो इस समु को पार करने के िलए िवशेष प से िन मत क गई है। वै दक
शा तथा आचाय क तुलना पटु नािवक से क जाती है और मानव शरीर क सुिवधा
क तुलना अनुकूल म द समीर से क जाती है, जो नाव को सरलता से इि छत ल य तक ले
जाने म सहायक होती है। य द इन सम त सुिवधा के होते ए भी कोई मनु य अपने
जीवन का पूण उपयोग आ म-सा ा कार के िलए नह कर पाता तो उसे आ महा अथात्
आ मा का हनन करने वाला समझना चािहए। ी ईशोपिनषद् प प से चेतावनी देती है
क आ मा का ह यारा सदा दुख भोगने के िलए िव ान के गहनतम अंधकार म वेश करना
िनि त है।
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मं ४
अनेजदेकं मनसो जवीयो नैन व े ा आ व ु पूवमषत्।
त ावतोऽ यान येित ित ि म पो मात र वा दधाित ॥४॥
अनुवाद
अपने धाम म ि थत रहते ए भी भगवान् मन से अिधक वेगवान ह और अ य सम त
दौड़ने वाल को पछाड़ सकते ह। शि शाली देवता उन तक नह प च ँ पाते। एक थान पर
रहकर वे वायु तथा वषा क पू त करने वाले देवता को वश म रखते ह। वे े ता म सबसे
आगे ह।
ता पय
बडा से बड़ा दाशिनक भी मानिसक िच तन ारा परमे र अथात पूण पु षो म
भगवान् को नह जान पाता। वे तो अपने भ ारा अपनी कृ पा से ही जाने जा सकते ह।
-संिहता म (५.३४) कहा गया है क य द कोई अभ दाशिनक भी वायु या मन के वेग
से लाख वष तक या ा करता रहे तो भी वह परम स य को अपने से अित दूर पाएगा।
-संिहता (५.३७) म आगे वणन है क भगवान् का अपना द धाम है, िजसे गोलोक
कहते ह जहाँ वे अपनी लीला म त रहते ह। फर भी अपनी अिच य शि य से वे
एक ही समय अपनी सृजना मक शि के येक भाग म प च ँ सकते ह। िव णु पुराण म
उनक शि य क तुलना अि से उ भूत ताप तथा काश से क गई है। य िप अि एक
थान पर बनी रहती है तथािप वह अपने काश तथा ताप को कु छ दूरी तक िवत रत कर
सकती है। इसी कार पूण पु षो म भगवान् अपने द धाम म ि थर रहते ए भी अपनी
िविभ शि य को सव िबखेर सकते ह।
य िप उनक शि याँ असं य ह, तथािप उ ह तीन मुख ेिणय म िवभािजत
कया जा सकता है-अ तरंगा शि , तट था शि तथा बिहरं गा शि । इन ेिणय म से
येक के हजार -लाख उपभेद ह। वायु, काश, वषा इ या द ाकृ ितक घटना को
िनयंि त करने वाले शि स प मुख देवता, परम पु ष क तट था शि के अ तगत
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मं ५
तदेजित त ैजित तद् दूरे त ि तके ।
तद तर य सव य तदु सव या य बा तः ॥५॥
अनुवाद
परमे र चलता है और नह भी चलता। वह ब त दूर है ले कन अ यंत िनकट भी है।
वह सबके भीतर है, फर भी वह सबके बाहर है।
ता पय
यहाँ पर भगवान् के उन द कायकलाप का वणन कया गया है, जो उनक
अिच य शि य ारा स प होते ह। यहाँ पर दए गए िवरोधाभासी कथन भगवान् क
अिच य शि याँ िस करते ह। वह चलता है और नह भी चलता। साधारणतया य द कोई
चल सकता है, तो यह कहना क वह नह चल सकता, तक-िव होगा। क तु भगवान् के
संदभ म ऐसा िवरोधी कथन मा उनक अिच य शि य को इ गंत करने का काय करता
है। अपने सीिमत ान से हम ऐसे िवरोधी कथन म सहमित नह कर सकते; हम तो
अपने ान क सीिमत शि के आधार पर भगवान् क के वल धारणा बना सकते ह।
उदाहरण के तौर पर मायावादी दाशिनक भगवान् के के वल िनराकार कायकलाप को
वीकार करते ह और उनके साकार प को ठु करा देते ह। क तु भागवत स दाय
भगवान् क पूण धारणा को अपनाते ए उनक अिच य शि य को वीकार करते ह और
इस कार मानते ह क वे साकार तथा िनराकार दोन ह। भागवतगण जानते ह क उनक
अिच य शि य के िबना " परमे र" श द का कोई अथ नह रहता।
हम यह नह मान बैठना चािहए क चूँ क हम ई र को अपनी आँख से नह देख
सकते अतएव भगवान् साकार नह ह। ी ईशोपिनषद् इस तक का ख डन करता है और यह
घोषणा करता है क भगवान् ब त दूर ह ले कन अ य त िनकट भी ह। भगवान् का धाम
भौितक आकाश से परे है और हमारे पास इस भौितक आकाश को भी मापने के साधन
उपल ध नह ह। य द भौितक आकाश ही इतना दूर तक िव तृत है, तो फर आ याि मक
आकाश के िवषय म या कहा जा सकता है, जो इससे सवथा परे है ? आ याि मक आकाश
(पर ोम) के भौितक ा ड से अित दूर ि थत होने क पुि भगव ीता म (१५.६) ई है।
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मं ६
य तु सवािण भूता या म येवानुप यित।
सवभूतेषु चा मानं ततो न िवजुगु सते॥६॥
अनुवाद
जो येक व तु को परमे र के स दभ म देखता है, जो सम त जीव को उनके अंश-
प म देखता है तथा जो परमे र को येक व तु के भीतर देखता है, वह कभी भी कसी
व तु से या कसी जीव से घृणा नह करता।
ता पय
यह महाभागवत अथात् उस महापु ष का िववरण है, जो हर व तु को भगवान के
स दभ म देखता है। परमे र क उपि थित क अनुभूित क तीन अव थाएँ ह। किन
अिधकारी अनुभूित क िन तर अव था म होता है। वह अपनी धा मक आ था के अनुसार
कसी पूजा थल यथा मि दर, िगरजाघर या मि जद म जाता है और वहाँ पर शा के
आदेशानसार पूजा करता है। ऐसी अव था के भ भगवान को पूजा थल पर ही उपि थत
मानते ह, अ य कह नह । वे न तो यह िनि त कर पाते ह क भि म कौन कस पद पर
है, न ही वे यह बता सकते ह क कसे भगवान क अनुभूित हो चुक है। ऐसे भ िन य कम
करते ह और कभी-कभी पर पर लड-झगड भी पड़ते ह क अमुक कार क भि दूसरे से
े है। वा तव म ये किन अिधकारी भौितकतावादी भ होते ह, जो आ याि मक तर
तक प च
ँ ने के िलए भौितक सीमा को लाँघने का मा य करते रहते ह।
िज ह अनुभूित क दूसरी अव था ा हो चुक होती है वे म यम अिधकारी कहलाते
ह। ये भ चार ेिणय के बीच के अ तर को मानने वाले होते ह- (१) परमे र; (२)
भगव ; (३) वे अबोध िज ह भगवान का कोई ान नह है; और (४) नाि तक, जो
भगवान पर ा नह रखते और भि करने वाल से घृणा करते ह। म यम अिधकारी इन
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चार ेिणय के मनु य के ित पृथक् -पृथक् कार से वताव करता है। वह भगवान को म
े
का उपादान मानकर उनक पूजा करता है और भि करने वाल से मै ी थािपत करता है।
वह अबोध के दय म स भगव ेम जगाने का यास करता है, क तु वह उन नाि तक के
पास नह जाता जो भगवान के नाम से ही घृणा करते ह।
म यम अिधकारी के ऊपर उ म अिधकारी होता है, जो येक व तु को भगवान से
स बि धत देखता है। ऐसा भ नाि तक तथा आि तक म भेदभाव नह करता अिपतु हर
एक को ई र का अंश मानता है। वह जानता है क एक िव ान ा ण तथा गली के कु े म
कोई अ तर नह होता य क दोन ही भगवान के अंश ह, य िप वे अपने िवगत जीवन के
कम के िभ िभ गुण के अनुसार िभ -िभ देह धारण कए ह। वह देखता है क
परमे र के अंश प ा ण ने भगवान ारा द अपनी व प वतं ता का दु पयोग नह
कया है और कु ा अपनी वतं ता का दु पयोग करके कृ ित के िनयम ारा दि डत होकर
कु े के शरीर म ब है। ा ण तथा कु े के अपने-अपने काय का िवचार कए िबना उ म
अिधकारी दोन का क याण करना चाहता है। ऐसा िव ान भ भौितक शरीर ारा ा त
नह होता अिपतु उन जीव के आ त रक आ याि मक फु लंग से आकृ होता है।
जो लोग एक पता या िम ता के भाव का अित मण करके उ म अिधकारी का
अनुकरण तो करते ह, क तु देहा मबुि के तर पर आचरण करते ह, वे वा तव म झूठे
परोपकारी ह। िव ब धु व क धारणा उ म अिधकारी से सीखनी चािहए न क कसी मूख
ि से जो आ मा या परमा मा के िव तार-अंश को भी-जो सव िनवास करता है-ठीक से
नह जानता।
इस छठे मं म यह प : उि लिखत है क मनु य को चािहए क वह ठीक तरह से
"देख"े । इसका अथ यह आ क वह पूववत आचाय का अनुसरण करे जो िस िश क है|
इस संग म " अनुप यि त" अ यंत उपयु सं कृ त श द है।" अनु" का अथ है अनुसरण करना
और "प यित" का अथ है देखना। इस कार “अनुप यित" श द का अथ यह आ क वह
व तु को उस प म न देखे िजस तरह वह अपनी खुली आँख से देखता है, युत
पूववत आचाय का अनुसरण करे। भौितक दोष के कारण आँखे कसी भी व तु को ठीक से
नह देख पाती। कोई तब तक ठीक से नह देख सकता जब तक उसने कसी े ोत से
"सुन" न रखा हो और सव ोत वै दक ान है, िजसक चचा वयं भगवान ने क है।
वै दक स य िश य-पर परा ारा भगवान से ा, ा से नारद, नारद से ास और ास
से उनके कई िश य तक आता है। पहले वेद के स देश को अिभिलिखत करने क
आव यकता नह थी य क तब लोग अिधक बुि मान तथा खर मरणशि वाले होते
थे। वे ामािणक गु के मुख से मा एक बार सुनकर उपदेश का अनुसरण कर सकते थे।
इस समय शा क अनेक टीकाएँ ा ह, क तु उनम से अिधकांश उस िश य-
पर परा से मेल नह खाती ह, जो ील ासदेव से ार भ होती है, िज ह ने पहले-पहल
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मं ७
यि मन् सवािण भूता या मैवाभूद ् िवजानतः।
त को मोहः कः शोक एक वमनुप यतः॥७॥
अनुवाद
जो सदैव सम त जीव को आ याि मक फु लंग के प म भगवान के ही समान गुण
वाला देखता है, वही व तु का असली ाता हो जाता है। तो फर उसके िलए मोह या
िच ता कै सी ?
ता पय
जैसा क ऊपर कहा जा चुका है म यम अिधकारी तथा उ म अिधकारी के अित र
अ य कोई भी ि जीव क आ याि मक ि थित को सही-सही नह देख पाता। गुणा मक
दृि से जीव परमे र से अिभ ह िजस कार अि के फु लंग और अि गुण क दृि से
एक ह। फर भी मा ा के अनुसार ये फु लंग अि नह है य क फु लंग म ताप तथा
काश क जो मा ा रहती है, वह अि के ताप तथा काश क मा ा के तु य नह होती।
महाभागवत को इनम एक व इसिलए दखता है य क वह येक व तु को परमे र क
शि के प म देखता है। चूँ क शि तथा शि मान म कोई अंतर नह रहता अतएव उसम
एक व का भाव होता है। य िप िव ेषणा मक दृि से ताप तथा काश अि से िभ ह
तथािप ताप तथा काश के िबना 'अि ' श द का कोई अथ नह होता। ले कन सामािसक
प म ताप, काश तथा अि सभी एक ह।
इस मं म "एक वं अनुप यतः" श द सूिचत करते ह क मनु य को चािहए क वह
शा क दृि से सम त जीव के एक व को देख।े परम पूण के पृथक् -पृथक् फु लंग म पूण
के लगभग अ सी ितशत ात गुण पाए जाते ह ले कन मा ा म वे परमे र के तु य नह
होते। ये गुण सू म मा ा म उपि थत रहते ह य क जीव उस परम पूण का ु अंश ही
होता है। य द हम दूसरी उपमा योग म लाएँ तो कह सकते ह क एक बूदं म िजतनी मा ा
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मं ८
स पयगा छु मकायम ण-
म ािवरँ शु मपापिव म्।
किवर् मनीषी प रभूः वय भूर्
याथात यतोऽथान् दधा छा वती यः समा यः॥८॥
अनुवाद
ऐसे पु ष को सही-सही जानना चािहए क वह सब से महान् पूण पु षो म भगवान
कौन है जो अदेहधारी, सव , अिन य, िशरा से िवहीन, शु , अदूिषत, आ मिनभर
दाशिनक है और जो अना दकाल से हर एक क इ छापू त करता आया है।
ता पय
यह पूण पु षो म भगवान के द एवं शा त व प का वणन है। परमे र
व पिवहीन (िनराकार) नह ह। उनका अपना ही द प है, जो इस भौितक जगत के
प से तिनक भी मेल नह खाता। इस जगत के जीव के प भौितक कृ ित म सि िहत ह
और वे एक भौितक मशीन (यं ) के समान काय करते ह। भौितक शरीर क संरचना र
वािहिनय इ या द के साथ एक यांि क बनावट होती है। ले कन परमे र के द शरीर म
िशरा जैसा कु छ नह होता। यहाँ यह प कहा गया है क वे अदेहधारी ह िजसका अथ है
क उनके शरीर तथा आ मा म कोई अ तर नह है। न ही वे कृ ित के िनयम के अनुसार
शरीर हण करने के िलए बा य होते ह जैसा क हम होते ह। देहा मबुि म आ मा थूल देह
तथा सू म मन से िभ है। उनक देह, मन तथा उनम कोई अ तर नह है। वे परम पूण ह
और उनका मन, शरीर तथा वयं वे सभी एक ही ह।
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मं ९
अ धं तमः िवशि त येऽिव ामुपासते
ततो भूय इव ते तमो य उ िव ायां रताः ॥९॥
अनुवाद
जो लोग अिव ापूण कायकलाप के अनुशीलन म लगे ए ह, वे अ ान के गहनतम
े म वेश करगे। इनसे भी िनकृ वे ह, जो तथाकिथत ान के अनुशीलन म लगे ए ह।
ता पय
इस मं म िव ा तथा अिव ा का तुलना मक अ ययन कया गया है। अिव ा
िन स देह घातक है ले कन िव ा उससे भी अिधक घातक होती है य द वह द िमत हो।
ी ईशोपिनषद् का यह मं िवगतकाल क अपे ा आज अ यिधक लागू होता है। आधुिनक
स यता जन-िश ा के े म काफ आगे बढ़ गई है ले कन प रणाम यह है क लोग पहले से
अिधक दुखी ह य क जीवन के सवािधक मह वपूण अंग अथात् आ याि मक पहलू को छोड़
कर, भौितक गित पर बल दया जा रहा है |
जहाँ तक िव ा का स ब ध है, पहले मं से प है क भगवान येक व तु के
वामी ह और इस त य को भुलाना ही अिव ा है। मनु य िजतना ही जीवन के इस त य को
भूलता है, उतना ही अिधक वह अंधकार म रहता है। इस दृि से तथाकिथत िश ा क
गित क ओर उ मुख ई र िवहीन िव ा अिधक घातक है अपे ाकृ त उस स यता के िजसम
सामा य जनता कम "िशि त" है ।
मनु य के िविभ वग ह-कम , ानी तथा योगी। इनम से कम वे ह, जो इि यतृि
के काय म त रहते ह। आधुिनक स यता म ाय: ९९.९ ितशत लोग उ ोगवाद,
आ थक िवकास, परोपकार, राजनैितक स यतावाद इ या द के नाम पर इि यतृि के
काय म लगे ए ह। ये सभी काय ब त कु छ इि यतृि पर आधा रत है िजनम, थम मं
म व णत ईश-चेतना सि मिलत नह है।
42
भगव ीता के मत म (७.१५) ऐसे लोग जो िनपट इि यतृि म लगे रहते ह, मूढ़ या
गधे ह। गधा मूढ़ता का तीक है। जो लोग इि यतृि क थ खोज म लगे रहते ह, वे
ीईशोपिनषद् के अनुसार अिव ा क पूजा कर रहे ह। जो लोग िश ा के िवकास के नाम
पर इस कार क स यता क सहायता कर रहे ह, वे वा तव म उन लोग क अपे ा अिधक
हािन प च
ँ ा रहे ह, जो िनपट इि यतृि के पद पर आसीन ह। ईश-िवहीन लोग के ारा
िव ा क गित उतनी ही भयावह है िजतनी क सप के फन क ब मू य मिण होती है।
मिण से िवभूिषत सप मिणिवहीन सप से अिधक घातक होता है। ह रभि सुधोदय
(३.११.१२) म ई र िवहीन लोग ारा िश ा क उ ित क तुलना शव के ृंगार से क
गई है। भारत म अनेक अ य देश के ही समान कु छ लोग शोकसंत स बि धय को स
करने के िलए शव को सजाकर शवया ा िनकालने क था का अनुसरण करते ह। इसी
कार आधुिनक स यता के कायकलाप भौितक जगत के िन य दुख को ढकने के िलए पैबद
ं
लगाने के समान है। ऐसे सभी काय इि यतृि को ल य बनाकर कए जाते ह ले कन
इि य के ऊपर मन है और मन के ऊपर बुि और बुि के ऊपर आ मा है । इस तरह
असली िश ा का उ े य आ म-सा ा कार अथात् आ मा के आ याि मक मू य क अनुभूित
करना होना चािहए। कोई भी िश ा जो ऐसी अनुभूित को ा नह करवा पाती, अिव ा
मानी जानी चािहए। ऐसी िव ा के प लवन का अथ अ ान के गहन गत म जाना है।
भगव ीता (२.४२, ७.२५) के अनुसार ा त संसारी िश क, वेदवादरत तथा
माययाप त- ान के प म जान जाते ह। वे नाि तक असुर-नराधम- भी हो सकते है।
वेदवादरत अपने को वै दक सािह य म का ड िव ान मानते ह ले कन दुभा यवश वे वेद
के ल य से पूणतया िवपथ रहते ह। भगव ीता म (१५.१५) कहा गया है क वै दक ल य तो
भगवान को जानना है। ले कन वेदवादरत लोग भगवान् म िब कु ल िच नह लेते। उ टे वे
वग क ाि जैसे सकाम कम के ित मोिहत रहते ह।
जैसा क मं १ म कहा जा चुका है, हम यह जानना चािहए क ी भगवान हर व तु
के वामी ह और हम जीवन क आव यकता के िलए ा िनयत अंश से तु होना
चािहए। सम त वै दक सािह य का उ े य भुल ड़ जीव म इस ईश चेतना को जा त करना
है और यही ल य िविवध कार से संसार के िविभ शा म मूख मानव के समझने के िलए
तुत कया जाता है। इन सारे पंथ का चरम ल य है मनु य को भगव ाम वापस ले
जाना।
क तु वेदवादरत लोग वेद के ता पय को जो क भुल ड़ जीव के भगवान् से िव मृत
स ब ध को पुनः जा त करना है, न समझ कर यह मान कर चलते ह क ऐसे गौण िवषय
वेद के अि तम ल य ह-यथा इि य क तृि के िलए व गक आन द क ाि -यही
कामभावना सव थम भौितक बंधन का कारण बनती है। ऐसे लोग वै दक सािह य क गलत
ा या करके अ य लोग को ा त करते ह। कभी-कभी वे पुराण क भी भ सना करते ह
जब क सामा य लोग के िलए ये पुराण ामािणक वै दक ा याएँ ह। वेदवादरत लोग
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मं १०
अ यदेवा व या यदा रिव या ।
इित शु म
ु धीराणां ये न तद् िवचचि रे ॥१०॥
अनुवाद
मनीिषय ने बताया है क ान के सेवन से जो फल ा होता है, वह अ ान के
सेवन से ा फल से िभ होता है।
ता पय
जैसा क भगव ीता के तेरहव अ याय म (१३.८-१२) उपदेश दया गया है मनु य
को िन िलिखत िविध से ान का सेवन करना चािहए :
(१) वयं भ पु ष बन कर अ य का समुिचत स मान करना सीखना चािहए।
(२) के वल नाम तथा यश के िलए कभी धमा मा का वांग नह करना चािहए।
(३) अपने शरीर के काय , अपने मन के िवचार या अपने वचन से कभी दूसर क
परे शािनय का कारण नह बनना चािहए।
(४) अ य के ारा उकसाये जाने पर भी धैय बनाये रखना सीखना चािहए।
(५) अ य के साथ वहार म छल करने से बचना सीखना चािहए।
(६) ऐसा ामािणक गु खोजना चािहए जो मश: आ याि मक अनुभूित क
अव था तक ले जा सके । ऐसे गु का शरणागत बनकर, उसक सेवा करनी चािहए और
यथाव यक पूछने चािहए।
(७) आ म-सा ा कार के पद तक प च
ँ ने के िलए शा ारा आ द िविधिवधान
का पालन करना चािहए।
(८) शा के िस ा त म दृढ़ रहना चािहए।
(९) आ म-सा ा कार म बाधक आदत को पूणतया छोड़ देना चािहए।
45
मं ११
िव ां चािव ां च य तद् वेदोभयं सह।
अिव या मृ युं ती वा िव यामृतम ुते॥११॥
िव ाम् -असली ान को; च-और; अिव ाम् - अिव ा को; च-तथा; य:- जो ि ;
तत्-वह; वेद- जानता है; उभयम्-दोन ; सह-एक ही समय; अिव या-अ ान के सेवन से;
मृ युम् -बार बार आने वाली मृ यु को; ती वा-पार करके ; िव या- ान से; अमृतम् अमरता;
अ ुते-भोगता है।
अनुवाद
जो अिव ा क काय या तथा द ान (िव ा) को साथ-साथ सीख सकता है
के वल वही बार बार ज म मृ यु के भाव को पार कर सकता है और अमरता के पूण वरदान
का भोग कर सकता है।
ता पय
भौितक जगत क सृि के समय से ही येक जीव थायी जीवन ा करने का
यास करता रहा है, ले कन कृ ित के िनयम इतने ू र ह क कोई भी मृ यु से बच नह सका
है। कोई मरना नह चाहता, न ही कोई बूढ़ा होना या बीमार रहना चाहता है क तु कृ ित
का िनयम कसी को मृ यु, बुढ़ापे या रोग से छू ट दान नह करता। न ही भौितक ान क
कृ ित ने इन सम या को हल कया है। भले ही भौितक िव ान मृ यु क या को
व रत करने के िलए परमाणु बम खोज िनकाले ले कन वह रोग, बुढ़ापे तथा मृ यु के ूर
हाथ से मनु य क र ा करने के िलए कु छ भी नह खोज सकता।
पुराण से हम िहर यकिशपु के कायकलाप के िवषय म जानते ह. जो भौितक दृि से
अ य त समु त राजा था। अपनी भौितक उपलि धय तथा अपनी अिव ा क शि के बल
पर ू र मृ यु को जीतने क इ छा से उसने एक कार के यान योग को संप कया जो
इतना क ठन था क उसक योगशि से सारे लोक के िनवासी िवचिलत हो उठे । उसने
ा ड के ा ाजी को अपने पास पृ वी पर नीचे उतरने के िलए बा य कर दया। तब
उसने ा से अमर होने का वरदान माँगा, िजससे कोई कभी नह मरता है। ाजी ने
कहा क वे उसे यह वरदान नह दे सकते य क य िप वे वयं ा ह और सम त लोक
पर शासन करने वाले ह, क तु वे अमर नह ह। जैसी क भगव ीता से (८.१७) पुि होती
है, ाजी दीघकाल तक जीिवत रहते ह, ले कन इसका यह अथ नह है क वे अमर ह।
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दलाते रहते ह। बुि मान जीव सामा यतया इन चेताविनय पर यान देकर िव ा या द
ान के सेवन म लग जाते ह। आ याि मक ान के सेवन के िलए मनु य-जीवन सव े
अवसर है और जो मनु य इस सुअवसर का लाभ नह उठाता वह नराधम कहलाता है।
इि यतृि के िलए भौितक िव ान क गित अथात् अिव ा का माग बार बार
ज म तथा मृ यु का माग है। आ याि मक अि त व म जीव क ज म या मृ यु नह होती।
ज म तथा मृ यु तो आ मा के बाहरी आवरण अथात् शरीर पर लागू होते ह। मृ यु तो बाहरी
व के उतारने के समान है और ज म बाहरी व को धारण करने के समान है। मूख
मनु य अिव ा के सेवन म बुरी तरह लीन रहने के कारण इस ू र िविध क िच ता नह
करते । माया के स दय से मोिहत होकर वे बार बार उ ह क का िशकार होते रहते ह और
कृ ित के िनयम से कोई िश ा हण नह कर पाते।
अत: िव ा अथात् द ान क सं कृ ित मनु य के िलए अिनवाय है। ण भौितक
दशा म इि यभोग को जहाँ तक संभव हो िनयंि त रखना चािहए। इस शारी रक अव था
म अबाध इि यतृि ान तथा मृ यु का माग है। जीव आ याि मक इि य से िवहीन नह
है; येक जीव अपने आ द आ याि मक प म इन सम त इि य से यु होता है, जो
शरीर तथा मन से आ छा दत होने के कारण अब भौितक हो गई ह। भौितक इं य के
कायकलाप मौिलक आ याि मक लीला के िवकृ त ितिब ब है। आ मा अपनी ण दशा म
भौितक आवरण के भीतर भौितक काय म लगा रहता है। असली इि यभोग तभी स भव है
जब भौितकतावाद का रोग दूर हो जाता है। हमारे असली आ याि मक प म जो सम त
भौितक क मष से मु है, इि य का शु भोग कर पाना स भव है। वा तव म इि य-भोग
कर पाने से पहले रोगी का वा य उपल ध करना आव यक है। अत: मनु य- जीवन का
उ े य िवकृ त इि यभोग नह है; मनु य को भौितक रोग ठीक करने के िलए उ सुक होना
चािहए। भौितक रोग को बढ़ाना ान का संकेत नह है अिपतु अिव ा या अ ान का सूचक
है। अ छे वा य के िलए मनु य को अपने शरीर का ताप १०५ से १०७ अंश (िड ी) तक
नह बढ़ाना चािहए अिपतु सामा य ताप ९८.६ अंश तक रखना चािहए। मनु य जीवन का
यही ल य होना चािहए।
भौितक स यता क आधुिनक वृि वर त भौितक दशा के ताप को बढ़ाना है, जो
परमाणु शि के प म १०७ अंश तक प च ँ ा आ है। इसी बीच मूख राजनीित िच ला
रहे ह क यह संसार कसी भी समय नरक को जा सकता है। यह भौितक िव ान क गित
तथा अ यिधक मह वपूण कार के जीवन अथात् आ याि मक ान क उपे ा का प रणाम
है। ी ईशोपिनषद् यहां पर सचेत करता है क हम इस घातक पथ पर नह चलना चािहए
जो हम मृ यु तक ले जाता है। इसके िवपरीत, हम आ याि मक ान क सं कृ ित का िवकास
करना चािहए िजससे हम मृ यु के र हाथ से पूणतया मु हो सके ।
इसका अथ यह भी नह है क शरीर के पालन के सारे काय को रोक दया जाये।
कायकलाप को रोकने का ही नह उठता, िजस कार क रोग ठीक होने के य का
अथ यह नह होता क अपने ताप को पूणतया िमटा दया जाये। "बुरे सौदे का सव म
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मं १२
अ धं तमः िवशि त येऽस भूितमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ स भू यां रताः ॥१२॥
अनुवाद
जो देवता क पूजा म लगे ह, वे अ ान के गहनतम े म वेश करते ह और इनसे
भी बढ़कर वे जो िनराकार के पूजक है।
ता पय
सं कृ त का श द 'अस भूित' उन ि य का सूचक है िजनका वतं अि त व नह
है। 'स भूित' तो पूण पु षो म भगवान है, जो पूणतया वतं है। भगव ीता म (१०.२)
पूण पु षो म भगवान ीकृ ण कहते ह :
न मे िवदुः सुरगणा: भवं न महषयः ।
अहमा द ह देवानां महष णां च सवशः:॥
"न तो देवगण, न ही मह षजन मेरी उ पि अथवा िवभूितय को जानते ह य क म
देवता और मुिनय का सभी कार से उ म ।ँ "
इस कार कृ ण उन शि य के मूल ह, जो देवता , मह षय तथा योिगय को
दान क गई ह। य िप उ ह महान् शि याँ दान क गई ह, तथािप ये शि याँ सीिमत ह;
अतः उनके िलए यह समझ पाना क ठन है क कृ ण कस कार अपनी अ तरंगा शि से
मनु य के प म कट होते ह।
अनेक दाशिनक तथा बड़े-बड़े ऋिष या योगी अपनी अ पबुि से परम को सापे
(स य) से िवभे दत करने का य करते ह। इससे उ ह परम का कोई िनि त िच न तो
िमलता नह , मा सापे ता से परम क नकारा मक क पना तक प च
ँ ने म सहायता िमल
सकती है। नकारा म बोध के ारा क प रभाषा पूण नह हो सकती। ऐसी िनषेधा मक
प रभाषा से िनजी धारणा को उ प करने के िलए बल िमलता है; इस तरह मनु य
क पना करता है क परम अव य ही पिवहीन (िनराकार) तथा गुणरिहत (िनगुण)
होगा। ऐसे िनषेधा मक गुण सापे सकारा मक गुण के सवथा िवलोम ह अतएव वे सापे
54
मं १३
अ यदेवा ः स भवाद यदा रस भवात्।
इित शु म
ु धीराणां ये न ति चचि रे ॥१३॥
अनुवाद
कहा जाता है क सम त कारण के कारण व प परमे र क पूजा करने से एक तरह
का फल िमलता है और जो परम स य नह है उसक पूजा करने से दूसरी तरह का फल
िमलता है। यह सब उन धीर पु ष से सुना गया है िज ह ने इसका प प से वणन कया
है।
ता पय
इस मं से धीर पु ष से वण करने क प ित मािणत होती है। जब तक ऐसे
ामािणक आचाय से वण नह कया जाता, जो भौितक जगत म होने वाले प रवतन से
तिनक भी िवचिलत नह होता, तब तक द ान क असली कुं जी ा नह हो पाती।
िजस भी ामािणक गु ने अपने धीर आचाय से ुित मं या वै दक ान को सुना है, वह
कभी भी कोई ऐसी बात तुत नह करता जो वै दक थ म उि लिखत न हो। भगव ीता
म (९.२५) प कहा गया है क जो िपतर क पूजा करते ह, वे िपतृलोक ा करते ह; वे
िनपट भौितकतावादी जो यह बने रहने क योजना बनाते ह इसी लोक म रहते ह और
भगव , जो सम त कारण के परम कारण भगवान कृ ण के अित र कसी और क
पूजा नह करते वैकु ठ म भगवान के धाम प च
ँ ते ह।
यहाँ पर ीईशोपिनषद् म भी पुि क गई है क िविभ कार क पूजा से िभ
कार के फल ा होते ह। य द हम परमे र क पूजा करते ह, तो हम अव य ही उनके
िन य धाम म उनके पास प च
ँ गे, ले कन य द हम सूयदेव अथवा च जैसे देवता क पूजा
कर तो हम िन स देह, उनके लोक म प च
ँ जाएँगे। क तु य द हम अपने योजना आयोग
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तथा अपनी कामचलाऊ राजनीितक जोड़तोड़ से इसी मन स लोक म बने रहना चाहते ह,
तो िनि त प से हम वह भी कर सकते ह।
ामािणक शा म कह भी यह नह कहा गया क मनु य कु छ भी करके या कसी
क भी पूजा करके अ ततोग वा एक ही ल य पर प चं ेगा । ऐसे मूखतापूण िस ा त वतः
िन मत गु ारा तुत कए जाते ह िजनका पर परा से कोई स ब ध नह होता। कोई
भी ामािणक गु यह नह कह सकता क सारे माग एक ही ल य को जाते ह और कोई भी
मनु य इस ल य को अपनी िविध से क गई देवता क या परमे र क या कसी क भी
पूजा से ा कर सकता है। कसी भी सामा य ि के िलए यह समझना आसान है क
मनु य अपने गंत तक तभी प च ँ सकता है जब उसने वहाँ का टकट खरीदा हो। िजस
ि ने कलक ा का टकट खरीदा है, वह कलक ा प च
ँ सकता है, मुंबई नह । फर भी,
तथाकिथत गु कहते ह क कोई भी पथ तथा सारे माग कसी को परम ग त तक ले जा
सकते ह। ऐसे सांसा रक तथा समझौतावादी लोग अनेक मूख ािणय को आक षत करते ह,
जो उनके ारा िन मत आ याि मक सा ा कार क िविधय से ग वत हो उठते ह। ले कन
वै दक आदेश उनका समथन नह करते। जब तक कोई ामािणक गु से ान न ा करे,
जो िश य-पर परा ारा मा य ेणी म है, तब तक उसे असली व तु यथा प म ा नह हो
सकती। कृ ण भगव ीता म (४.२) अजुन से कहते ह :
एवं पर परा ा िममं राजषयो िवदुः।
स कालेनेह महता योगो न ः पर तप॥
"यह परम िव ान इस कार पर परा से ा आ था और राज षय ने इसे इसी
कार से समझा। ले कन काला तर म यह पर परा टू ट गई और अब यह िव ान अपने
यथा प म लु ाय हो गया तीत होता है।"
जब भगवान ीकृ ण इस धराधाम म उपि थत थे तो भि योग के िस ा त,
िजनक प रभाषा भगव ीता म दी गई है, िव िपत हो चुके थे। अतएव भगवान को अजुन
से ार भ करके यह पर परा पुन: थािपत करनी पड़ी जो भगवान का अ य त िव ासपा
िम तथा भ था। भगवान ने अजुन से प कह दया था ( भगवतगीता ४.३) क चूँ क
तुम मेरे भ तथा िम हो अतएव भगव ीता के िस ा त तुम समझ सकते हो। दूसरे श द
म, जो ि भगवान का भ तथा िम है, वह गीता को समझ सकता है। इसका यह भी
अथ होता है क जो कोई अजुन के पथ का अनुगमन करता है, वही भगव ीता को समझ
सकता है।
वतमान समय म इस भ संवाद के अनेक ा याकार तथा अनुवादक ह, जो
भगवान कृ ण तथा अजुन क तिनक भी परवाह नह करते। ऐसे ा याकार भगव ीता के
ोक क ा या अपने ढंग से करते ह और गीता के नाम पर सभी कार के कू ड़े-करकट क
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इ छानुसार सृि कर लेते ह।" कृ ण ने मो धम म वयं कहा है, "मैने जापितय तथा
क सृि क । उ ह मेरा पूण ान नह है य क वे मेरी ामक शि ारा छ ह।" वराह
पुराण म भी कहा गया है, "नारायण परम पु ष भगवान ह और उ ह से चतुमुख ा तथा
भी कट ए जो बाद म सव बन गए।"
इस कार सारा वै दक सािह य इसक पुि करता है क नारायण या कृ ण ही
सम त कारण के कारण है। -संिहता (५.१) म भी कह गया है क परमे र तो ीकृ ण,
गोिव द, ह, जो येक जीव को स करने वाले तथा सम त कारण के आ द कारण ह।
असली िव ान पु ष इसे मह षय तथा वेद ारा दए गए माण से जानते ह। इस तरह
िव ान मनु य कृ ण को सवसवा मानकर पूजा करने का िनणय लेता है। ऐसे लोग बु या
वा तिवक िव ान कहलाते ह।
यह दृढ़ िन ा क कृ ण सवसवा ह तब थािपत होती है जब मनु य अिवचल (धीर)
आचाय से ापूवक तथा ेमपूवक द स देश का वण करता है। िजस ि क
भगवान कृ ण म ा या उनके ित ेम नह होता उसे इस सरल स य के ित िव त
नह कया जा सकता। भगव ीता म (९.११) अ ालु को मूढ़, मूख या गधा कहा गया
है। यह कहा गया है क मूढ़ लोग पूण पु षो म भगवान का उपहास करते ह य क उ ह
अिवचल आचाय से पूण ान ा नह आ रहता। जो ि भौितक शि के भँवर ारा
िवचिलत होता हो वह आचाय बनने के यो य नह है।
भगव ीता सुनने के पूव अजुन अपने प रवार, समाज तथा जाित के ित ेह के
कारण भौितक भँवर ारा िवचिलत था। अतएव अजुन परोपकारी तथा िव का अ हंसक
ि बनना चाहता था। क तु जब वह परम पु ष से भगव ीता का वै दक ान सुनकर
बुध बन गया तो उसने अपना िनणय बदल दया और वह भगवान कृ ण का उपासक बन
गया, िज ह ने वयं कु े यु क योजना बनाई थी। अजुन ने अपने तथाकिथत
स बि धय से यु करके भगवान क पूजा क । इस कार वह भगवान का शु भ बन
गया और ऐसी िसि याँ तभी िमल सकती ह जब कोई असली कृ ण को पूज,े कसी बनावटी
कृ ण को नह जो भगव ीता तथा ीम ागवत म व णत कृ ण िव ान क बारी कय से
अनिभ मूख ारा आिव कृ त हो।
वेदांतसू के अनुसार स भूत ज म तथा पालन का ोत होने के साथ-साथ लय के
बाद जो कु छ बचता है उसका आगार होता है। (ज मा य यत:) ीम ागवत जो
वेदा तसू पर, उसके रचियता क ही टीका है, यह कहती है क सम त उ व का ोत
कोई जड़ प थर जैसा नह होता अिपतु वह पूण अिभ या पूणतया चेतन होता है।
भगव ीता म (७.२६) आ द भगवान् ीकृ ण भी यह कहते ह क वे भूत, वतमान तथा
भिव य से पूणतया अिभ ह, क तु िशव तथा ा जैसे देवता भी उ ह पूरी तरह नह
जानते । िन य ही अधिशि त गु जो भवसागर के उतार-चढ़ाव से िव ु ध रहते ह पूरी
61
दान करके उसक सहायता करते ह ।" भगव ीता भी (१०.१०) इसी क पुि करती है।
ददािम बुि योगं तं येन मामुपयाि त ते।
भगवान के आ त रक िनदश ारा भ के दय का वह सारा क मष दूर हो जाता है,
जो रजो और तमो गुण ारा उ प होता है। अभ गण रजो तथा तमो गुण के वश म रहते
ह। जो रजोगुणी है, वह भौितक लालसा से िवर नह हो सकता और जो तमोगुणी है, वह
न तो यह जान सकता है क वह या है, न यह क भगवान या ह। अतएव रजोगुणी या
तमोगुणी के िलए आ म-सा ा कार क कोई स भावना नह रहती, चाहे वह कतना ही
धमा मा बनने का यास य न करे । भ के िलए रजो तथा तमोगुण भगव कृ पा दूर हो
जाते ह। इस तरह भ सतोगुण को ा होता है, जो पूण ा ण का ल ण है। कोई भी
ि य द वह ामािणक गु के िनदशन म भि पथ का अनुगमन करे तो ा ण बन
सकता है। ीम ागवत का भी (२.४.१८) कथन है :
करात णा पुिल दपु कसा
आभीरक का यवना: खसादयः ।
येऽ ये च पापा यदुपा या याः
शु यि त त मै भिव णवे नमः
“कोई भी िन ज मा ि भगवान के शु भ के माग िनदशन म शु हो सकता
है य क भगवान अि तीय प से शि मान है।“
ा ण गुण को ा कर लेने पर मनु य सुखी हो जाता है और भगवान क भि
करने के िलए उ सािहत रहता है। उसके सम भगवदिव ान वतः कट हो जाता है।
भगवदिव ान जानने से मनु य धीरे धीरे भौितक आसि य से मु होता जाता है और
उसका संशय त मन भगव कृ पा से िवमल हो जाता है। जब उसे यह अव था ा हो जाती
है, तो वह मु ा मा बन जाता है और जीवन के येक पग म भगवान का दशन कर सकता
है। यह स भव क िसि है, जैसा क ी ईशोपिनषद के इस मं म कहा गया है। ■
63
मं १४
स भू तं च िवनाशं च य तद् वेदोभयं सह ।
िवनाशेन मृ यु ती वा स भू यामृतम तु े ॥१४॥
स भूितम्-शा त भगवान को, उनके द नाम, प, लीला तथा गुण को, साज-
सामान को, उनके काम क िविवधता आ द को; च-तथा; िवनाशम् -देवता , मनु य ,
पशु इ या द क िणक भौितक अिभ ि तथा उनके िम या नाम , यश इ या द को; च-
भी; यः-जो; तत्-वह; वेद-जानता है; उभयम्-दोन को; सह-सिहत; िवनाशेन-िवनाशशील
से; मृ युम् -मृ यु को; ती वा- पार करके ; स भू या-भगवान के शा त रा य म; अमृतम्
अमरता; अ ुते-भोगता है।
अनुवाद
मनु य को चािहए क पूण पु षो म भगवान तथा उनके द नाम प, गुण तथा
लीला के साथ ही साथ अ थायी देवता , मनु य तथा पशु से यु न र भौितक सृि
को भलीभाँित जान ले। जब मनु य इ ह जान लेता है, तो वह मृ यु एवं अिन य दृ य जगत
को पार कर लेता है और भगवान के शा त रा य म आनंद तथा ान का शा त जीवन
भोगता है।
ता पय
ान क तथाकिथत गित के ारा मानव स यता ने अनेक भौितक व तु को ज म
दया है िजनम अ त र यान तथा परमाणु शि भी सि मिलत ह। फर भी वह ज म, जरा,
रोग तथा मृ यु से मुि दलाने म िवफल रही है। जब भी बुि मान मनु य तथाकिथत
वै ािनक के सम इन क के को उठाता है, तो वह अ य त चतुराई से उ र देता है क
भौितक िव ान गित कर रहा है और अ ततः मनु य को मृ युरिहत बनाकर और वृ ाव था
से छु टकारा दलाकर अमर बनाया जा सके गा। ऐसे उ र भौितक कृ ित के िवषय म
वै ािनक के िनपट अ ान को बताने वाले ह। भौितक कृ ित के अ तगत येक जीव कठोर
भौितक िनयम के अधीन है और उसे अि त व क छः अव था म से गुजरना होता है, ये है
ज म, वृि , पालन, उपो पादन, य तथा अ ततोग वा मृ यु। कृ ित के स पक म आने वाला
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मं १५
िहर यमयेन पा णे स य यािपिहतं मुखम्।
तत् वं पूष पावृणु स यधमाय दृ ये ॥१५॥
अनुवाद
हे भगवन् ! हे सम त जीव के पालक! आपका असली मुखमंडल तो आपके चमचमाते
तेज से ढका आ है। कृ पा करके इस आवरण को हटा लीिजए और अपने श भ को अपना
दशन दीिजए।
ता पय
भगव ीता म (१४.२७) अपने साकार व प के देदी यमान तेज ( योित) का
वणन भगवान इस कार करते ह :
णो िह ित ाहममृत या य य च।
शा त य च धम य सुख यैकाि तक य च॥
मं १६
पूष ेकष यम सूय ाजाप य
ूह र मीन् समूह तेजो ।
यत् ते पं क याणतमं तत् ते प यािम
योऽसावसौ पु षः सोऽहमि म ॥१६॥
अनुवाद
हे भगवन्, हे आ द िवचारक, हे ा ड के पालक, हे िनयामक, शु भ के ल य,
जापितय के शुभ चंतक! कृ पा करके आप अपनी द करण के तेज को हटा ल िजससे म
आपके आन दमय व प का दशन कर सकूँ । आप सूय के समान शा त परम पु ष भगवान
है, िजस तरह क म ।ं
ता पय
सूय तथा उसक करण गुण क दृि से एक ह। इसी कार भगवान तथा जीव भी
गुण म एक समान ह। सूय एक है ले कन सूय क करण के अणु असं य ह । सूय क करण
सूय के अंश ह और सूय तथा उसक करण िमलकर पूण सूय क रचना करती ह। सूय के ही
भीतर सूयदेव का िनवास है, उसी तरह परम आ याि मक लोक, गोलोक वृ दावन, के भीतर
िजससे योितष का तेज उ भूत होता है, भगवान अपनी िन य लीला का आन द लेते
ह। इसक पुि -संिहता (५.२९) म होती है :
िच तामिण करस सु क पवृ -
ल ावृतष
े ु सुरभीरिभपालय तम्।
ल मी सह शतस मसे मानं
गोिव दमा दपु षं तमहं भजािम॥
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मं १७
वायुरिनलममृतमथेदं भ मा तं शरीरम् ।
ॐ तो मर कृ तं मर तो मर कृ तं मर ॥१७॥
अनुवाद
इस णभंगुर शरीर को भ म हो जाने द और ाणवायु को वायु के पूणकोष म िमल
जाने द । अब हे भगवन्! मेरे सम त य को मरण कर और चूँ क आप चरम भो ा ह
अतएव मने आपके िलए जो कु छ कया है उसे मरण कर।
ता पय
यह णभंगरु शरीर िन य ही पराया व है। भगव ीता म (२.२०) प कहा गया
है क इस भौितक शरीर के िवनाश हो जाने पर जीवा मा न नह होता, न ही वह अपनी
पहचान खोता है। जीवा मा का प कभी िनराकार या िन वशेष नह होता, युत
भौितकवेश जो है, वह आकारहीन होता है और वह अिवनाशी पु ष के प के अनुसार
आकार हण करता है। कोई भी जीव मूलत: िनराकार नह है, जैसा क अ प ानी गलती से
मानते ह। यह मं इस त य क पुि करता है क भौितक शरीर के िवन होने के बाद भी
जीव का अि त व बना रहता है।
इस भौितक जगत म कृ ित जीव को उनक इि यतृि क वृि य के अनुसार
िविभ कार के शरीर दान करके िविच कायकु शलता का दशन करती है। जो जीव
मल का वाद लेना चाहता है उसे ऐसा शरीर दान कया जाता है, जो मल खाने के सवथा
उपयु हो-जैसे क शूकर का। इसी तरह जो दूसरे पशु का मांस खाना और र पीना
चाहता है उसे उपयु दांत और पंज से यु ा का शरीर दान कया जाता है।
मनु य न ही मांस खाने के िनिम बना है, न ही वह मल का वाद लेना चाहता है, चाहे वह
अपनी िनपट आ दम अव था म ही य न हो। मनु य के दाँत इस तरह बने ह क वे फल
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रहे तो भी उसे साधु सदृश माना जाना चािहए य क वह अपने संक प म ठीक तरह दृढ़
बना आ है। वह तुर त सदाचारी बन जाता है और िचरशाि त ा करता है। हे कु तीपु !
िनभ क होकर घोिषत कर दो क मेरा भ कभी न नह होता। हे पृथापु । जो मेरी शरण
म आते ह चाहे वे िन -ज मा- ी, वै य तथा शू ( िमक)- य न हो, परम ग त को
ा कर सकते ह फर पु या मा ा ण , भ तथा राज षय का या कहना? तुम अपना
मन सदैव मेरी ेमाभि म लगाओ, मेरे भ बनो, मुझे नम कार करो और मेरी पूजा करो।
मुझम लीन रहने पर तुम िनि त प से मेरे पास आओगे।"
ील भि िवनोद ठाकु र इन ोक क ा या इस कार करते ह-"कृ ण भ को
स त के स ाग पर समझना चािहए भले ही वह दु र य न हो। मनु य को चािहए क
'दु र ' का अथ ठीक से समझे । ब जीव को दो कार के काय करने होते ह-एक तो शरीर
के पालन के िलए तथा दूसरे आ म-सा ा कार के िलए। सामािजक पद, मानिसक िवकास,
व छता, तप या, भोजन तथा जीवन-संघष-ये सब शरीर के पालन के िलए ह। आ म-
सा ा कार का काय भगव होने पर स प होता है और इसम भी काय करना होता है।
ये दो िविभ काय समाना तर चलते ह य क ब जीव शरीर का पालन नह याग सकता
है ले कन य - य भि म वृि होती है य - य शरीर पालन के िलए कए जाने वाले
काय घटने लगते ह। जब तक भि का अनुपात सही िब दु तक नह प च ँ जाता तब तक
यदा-कदा सांसा रकता का दशन हो ही जाता है, ले कन इस बात को यान म रखना
चािहए क ऐसी सांसा रकता अिधक काल तक नह चल पाती य क भगव कृ पा से ऐसी
अपूणताएँ शी ही समा हो जाती ह। अतएव भि का माग ही एकमा सही माग है।
य द मनु य सही माग पर रहे तो यदा-कदा सांसा रकता के आ जाने से आ म-सा ा कार क
गित म कावट नह आती।"
भि क सुिवधाएँ िन वशेषवा दय को नह िमल पाती य क वे भगवान के
योित व प के ित अनुर रहते ह। जैसा क िपछले मं म सुझाया गया है वे योित
को बेध नह पाते य क वे भगवान के ि व म िव ास नह करते। उनका वसाय
अिधकतर श द क जादूगरी है तथा वह काय मानिसक क पना से स बि धत होता है।
फल व प िन वशेषवादी िनरथक म करते ह जैसा क भगव ीता के बारहव अ याय
(१२.५) म पुि क गयी है।
इस मं म तािवत सारी सुिवधाएँ परम स य के साकार व प के िनर तर
साि य ारा आसानी से ा क जा सकती ह। भगव ि अिनवायतः भ ारा स प
नौ द या से यु होती है।
(१) भगवान् के िवषय म वण, (२) भगवान् का गुणगान, (३) भगवान् का मरण,
(४) भगवान् के चरणकमल क सेवा, (५) भगवान् क पूजा, (६) भगवान् क ाथना, (७)
भगवान् क सेवा, (८) भगवान् के साथ सा य भाव का आनंद लेना तथा, (९) भगवान को
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मं १८
अ े नय सुपथा राये अ मान् िव ािन देव वयुनािन िव ान्।
युयो य म जु राणमेनो भूिय ां ते नम उ ं िवधेम ॥१८॥
अ े-अि के समान शि शाली भगवान्; नय - कृ पया ले चल; सुपथा- सही माग से;
राऐ-अपने पास तक प च
ँ ने के िलए; अ मान्- हम; िव ािन --सम त; देव-हे भगवान;
वयुनािन-कम को; िव ान्-जानने वाला, ाता; युयोिध-कृ पया हटाइए; अ मत्-हमसे;
जु राणम्-माग के सारे अवरोध को; एन:-सारी बुराइयाँ; भूिय ां- अ यिधक; ते-आपको;
नमः उि म्-नम कार के वचन; िवधेम-म करता ।ँ
अनुवाद
हे अि के समान शि शाली भगवान, हे सवशि मान! अब म आपको नम कार
करता ँ और आपके चरण पर द डवत णाम करता ।ँ हे भगवन्! आप अपने तक प च ँ ने
के िलए मुझे सही माग पर ले चल और चूँ क आप मेरे ारा भूतकाल म कया गया सब कु छ
जानते ह अतएव मुझे िवगत पाप के फल से मु कर द िजससे मेरी गित म कोई अवरोध
न आए।
ता पय
भगवान क शरण हण करने तथा अहैतुक कृ पा के िलए ाथना करने से भ पूण
आ म सा ा कार के पथ पर गित कर सकता है । भगवान को अि के प म स बोिधत
कया गया है य क वे कसी भी व तु को भ म कर सकते ह िजसम शरणागत ि के
पाप भी सि मिलत ह। जैसा क िपछले मं म वणन आ है, उस परम का वा तिवक या
चरम व प पूण पु षो म भगवान ह और उनका िन वशेष योित का व प उनके
मुख के ऊपर दीि मान् आवरण है। इस यास म आ म-सा ा कार का कमका ड पथ सबसे
िन है। ऐसे कम वेद के अनु ान से लेशमा भी िवचिलत होने पर िवकम म प रणत हो
जाते ह, अथात् ऐसे कम म जो कता के िहत म नह होते। ऐसे िवकम िमत जीव ारा
मा इि यतृि के िलए कए जाते ह; अतएव ऐसे कम आ म- सा ा कार के माग म बाधक
बनते ह।
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लेखक प रचय
भुपाद ने गृह थ जीवन से अवकाश लेकर वान थ ले िलया, िजससे वे अपने अ ययन और
लेखन के िलए अिधक समय दे सक। तदन तर ील भुपाद ने ी वृ दावन धाम क या ा
क , जहाँ वे अ य त साधारण प रि थितय म म यकालीन ऐितहािसक ीराम दामोदर
मं दर म रहे। वहाँ वे अनेक वष तक ग भीर अ ययन एवं लेखन म संल रहे। १९५९ ई. म
उ ह ने सं यास हण कर िलया। ी राधा-दामोदर मं दर म ही ील भुपाद ने अपने
जीवन के सबसे े और मह वपूण काय को ार भ कया था। यह काय था अठारह हजार
ोक सं या वाले ीम ागवत पुराण का अनेक ख ड म अं ेजी म अनुवाद और ा या।
वह उ ह ने अ य लोक क सुगम या ा नामक पुि तका भी िलखी थी।
ीम ागवतम् के ार भ के तीन ख ड कािशत करने के बाद ील भुपाद
िसत बर १९६५ ई. म अपने गु देव के आदेश का पालन करने के िलए संयु रा य
अमे रका गए। त प चात् ील भुपाद ने भारतवष के े दाशिनक और धा मक थ के
ामािणक अनुवाद, टीकाएँ एवं संि अ ययन-सार के प म साठ से अिधक थ- तुत
कए।
जब ील भुपाद एक मालवाहक जलयान ारा थम बार यूयाक नगर म आये,
तो उनके पास एक पैसा भी नह था। अ य त क ठनाई भरे लगभग एक वष के बाद जुलाई
१९६६ ई. म उ ह ने अंतरा ीय कृ णभावनामृत संघ क थापना क । १४ नव बर १९७७
ई. को, कृ ण-बलराम मं दर, ीवृ दावन म अ कट होने के पूव ील भुपाद ने अपने कु शल
माग िनदशन से संघ को िव भर म सौ से अिधक आ म , िव ालय , मि दर , स था
और कृ िष-समुदाय का बृहद् संगठन बना दया।
ील भुपाद ने ीधाम-मायापुर, पि म बंगाल म एक िवशाल अ तरा ीय के के
िनमाण क ेरणा दी। यह पर वै दक सािह य के अ ययनाथ सुिनयोिजत सं थान क
योजना है, जो अगले दस वष तक पूण हो जाएगा। इसी कार ीवृ दावन धाम म भ
कृ ण-बलराम मं दर और अंतरा ीय अितिथ भवन तथा ील भुपाद- मृित सं हालय का
िनमाण आ है। ये वे के है जहाँ पा ा य लोग वै दक सं कृ ित के मूल प का य
अनुभव ा कर सकते ह। मुंबई म भी ीराधारासिबहारीजी मि दर के प म एक िवशाल
सां कृ ितक एवं शै िणक के का िवकास हो चुका है। इसके अित र भारत म द ली,
बगलूर, अहमदाबाद, बड़ौदा तथा अ य थान पर सु दर मि दर है।
क तु ील भुपाद का सबसे बड़ा योगदान उनके थ ह। ये थ िव ान ारा
इनक ामािणकता, गंभीरता और प ता के कारण सवािधक वीकाय ह और अनेक
महािव ालय म उ तरीय पा ंथ के प म यु होते ह। ील भुपाद क रचनाएँ
५० से अिधक भाषा म अनू दत ह। १९७२ ई. म के वल ील भुपाद के थ के काशन
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