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कृ ण कृ पा मू त ी ीमद् ए.सी. भि वेदा त वामी भुपाद ारा िवरिचत


वै दक थ ं र :

ीम गव ीता यथा प जीवन का ोत जीवन


ीम ागवतम् (१८ भाग म) ज म-मृ यु से परे
ी चैत य-च रतामृत (७ भाग म) कमयोग
पूण पु षो म भगवान् ीकृ ण रसराज ीकृ ण
भि रसामृतिस धु लाद महाराज के द उपदेश
भगवान् ी चैत य महा भु का िश ामृत कृ ण क ओर
ी उपदेशामृत कृ णभावनामृत क ाि
ी ईशोपिनषद् गीतार गान (बंगला)
अ य ह क सुगम या ा भगव शन पि का (सं थापक)
भागवत का काश
आ म-सा ा कार का िव ान
कृ णभावनामृत : सव म योगप ित
पूण पूण उ र
देव ित नंदन भगवान किपल का िश ामृत
महारानी कु ती क िश ाएँ
राज िव ा - ान का राजा

कृ ण कृ पा मू त ी ीमद् ए.सी.भि वेदा त वामी भुपाद के जीवनकाल के


प ात् उनके उपदेश से संकिलत कये ए थ ं :
मृ यु क पराजय ान क तलवार
आ मा का वास अ या म और २१ व सदी
कृ ित के िनयम हरे कृ ण चुनौती

अिधक जानकारी तथा सूचीप के िलए िलख :

भि वेदांत बुक ट हरे कृ ण धाम, जु , मुंबई ४०० ०४९.


ये पु तक हरे कृ ण के पर भी उपल ध है । कृ पया अपने िनकट थ के से स पक कर।
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॥ ी ीगु -गौरांग जयत: ।।

ी ईशोपिनषद्
वह ान जो मनु य को

पूण पु षो म भगवान् ीकृ ण के िनकट लाता है

भूिमका, श दाथ, अनुवाद एवं ामािणक ता पय सिहत

कृ ण कृ पा मू त

ी ीमद् ए.सी.भि वेदा त वामी भुपाद

सं थापकाचाय : अंतरा ीय कृ णभावनामृत संघ

भि वेदांत बुक ट
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इस ंथ क िवषयव तु म िज ासा पाठक अपने िनकट थ कसी भी इ कॉन के से अथवा


िन िलिखत पते पर प - वहार करने के िलए आमंि त ह :

भि वेदा त बुक ट

हरे कृ ण धाम

जु , मुब
ं ई ४०० ०४९

ई -मेल: bbtadmin@pamho.net

वेब : www.indiabbt.com

Sri Isopanisad (Hindi)

अनुवादक : डॉ. िशवगोपाल िम

पहला मु ण : ५,००० ितयाँ

दूसरे से यारहव मु ण तक : १,१५,००० ितयाँ

बारहवाँ मु ण, िसत बर २००७ : ३०,००० ितयाँ

©१९७५ भि वेदा त बुक ट

सवािधकार सुरि त

काशक क अनुमित के िबना इस पु तक के कसी भी अंश को पुन पा दत, ितिलिपत


नह कया जा सकता। कसी ा य णाली म सं िहत नह कया जा सकता अथवा अ य
कसी भी कार से चाहे इले ॉिनक, मैकेिनक, फोटोकॉपी, रकॉ डग से संिचत नह कया
जा सकता। इस शत का भंग करने वाले पर उिचत कायवाही क जाएगी।
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िवषय सूची
भूिमका "वेद क िश ाएँ"…………………………………………………….१
ईश- तुित………………………………………………………………… १४
मं १…………………………………………………………………….. १८
मं २………………………………………………………………………२५
मं ३…………………………………………………………………….. ३१
मं ४…………………………………………………………………….. ३६
मं ५………………………………………………………………………४१
मं ६……………………………....................................................... ४८
मं ७…………………………………………………………………….. ५३
मं ८…………………………………………………………………….. ५८
मं ९………………………………………………………………………६६
मं १०…………………………………………………………………….७२
मं ११…………………………………………………………………... ७९
मं १२………………………………………………………………….,. ८८
मं १३…………………………………………………………………….९६
मं १४…………………………………………………………………..१०७
मं १५…………………………………………………………………..११५
मं १६……………………………………………………………… ….१२४
मं १७…………………………………………………………………...१३१
मं १८……………………………………………………………….…..१४२
लेखक प रचय ………………………………………………….……….. १४८
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भूिमका
"वेद क िश ाएं"

(कृ ण कृ पा मू त ी ीमद् ए.सी. भि वेदा त

वामी भुपाद ारा ६ अ टू बर १९६९ को कॉ वे

हॉल, ल दन, इं गलड म दया गया एक वचन)

देिवय तथा स न , आज के वचन का िवषय है "वेद क िश ाएं।" वेद या है ?


सं कृ त म वेद क मूल धातु िवद् क ा या कई कार से क जा सकती है ले कन अ तत:
उ े य एक ही है। वेद का अथ है ' ान'। कोई भी ान िजसे आप वीकार करते ह-वेद है,
य क वेद क िश ाएँ मूल ान ह। ब अव था म हमारे ान म अनेक अपूणताएँ रहती
ह। | ब आ मा तथा मु आ मा म यही अंतर है क ब आ मा म चार कार के दोष पाए
जाते ह। पहला दोष यह है क वह ु टयाँ करता ही है। उदाहरणाथ, हमारे देश म महा मा
गांधी अ यंत महान् पु ष माने जाते थे ले कन उ ह ने अनेक ु टयाँ क । यहाँ तक क अपने
जीवन क अि तम अव था म उनके सहायक ने उ ह सावधान कया था, "गांधीजी! आप नई
द ली क सभा म न जाँए। मेरे कु छ िम ह और मने उनसे सुना है क वहाँ खतरा है ।"
क तु उ ह ने एक न सुनी। उ ह ने जाने का हठ कया और वे मारे गए। महा मा गांधी तथा
रा पित के नेडी जैसे महान् ि भी न जाने कतने ऐसे लोग ह- ु टय करते ह। ु ट करना
मनु य का वभाव है। यह ब आ मा का एक दोष है।
दूसरा दोष है िमत होना। म का अथ है, जो नह उसे वीकार करना अथात्
माया। माया का अथ है "जो नह है।'' येक ि शरीर को ' व’ मान बैठता है। य द म
आपसे पूछूँ क आप या ह तो आप कहगे, "म िम टर जॉन ;ँ म धनी ि ;ँ म यह ;ँ म
वह ।ँ " ये सब देह से संबंिधत प रचय है। क तु आप यह शरीर नह ह। यह माया है।

तीसरा दोष है धोखा देने क वृि । येक ि म दूसर को ठगने क वृि पाई
जाती है। कोई ि पहले दज का मूख य न हो, क तु वह भी अ य त बुि मान होने का
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दखावा करता है। य िप यह पहले कहा जा चुका है क वह माया म रहता है और ु टयाँ


करता है ले कन वह तक करता है, "म सोचता ँ क यह ऐसा है, वह वैसा है। ले कन उसे
अपनी ही ि थित का भी ान नह होता। वह दशन पर पु तक िलखता है, य िप वह वयं
दोषी रहता है । यही उसका रोग है। यही धोखाधड़ी है।

अि तम बात यह है क हमारी इि यां अपूण ह। हम अपनी आँख पर बड़ा गव


होता है । ायः कोई ि ललकारेगा, " या तुम मुझे ई र दखा सकते हो?" ले कन या
आपके पास ई र का दशन करने के िलए आँख ह भी? य द आपके पास आँख नह ह, तो
आप उनके दशन कभी नह कर सकोगे। य द एकाएक कमरे म अँधेरा हो जाए तो आप अपने
हाथ को भी नह देख सकते अतएव आपके पास दशन करने क शि ही या है ? अत: हम
अपनी इन अपूण इि य से ान (वेद) ा करने क अपे ा नह कर सकते। ब जीवन म
इन दोष के होते ए हम कसी को पूण ान दान नह कर सकते। न ही हम वयं पूण ह।
अतएव हम वेद को यथा प म वीकार करते ह।

आप वेद को 'िह दू' कह सकते ह ले कन 'िह दू' नाम िवदेशी है। हम 'िह दू' नह ह।
हमारी असली पहचान वणा म है। वणा म वेद के उन अनुयाियय का सूचक है, जो मानव
समाज म वण तथा आ म के आठ िवभाग को मानते ह। चार िवभाग समाज के ह और चार
िवभाग आ याि मक जीवन के ह। यह वणा म कहलाता है। भगव ीता म (४.१३) म कहा
गया है, "ये िवभाग सव पाए जाते ह य क ये ई र ारा सृिजत ह।" समाज के िवभाग
ह- ा ण, ि य, वै य तथा शू । ा ण अ य त बुि मान वग के उन मनु य का सूचक है,
जो यह जानते ह क या है। इसी कार ि य या शासक वग बुि मान मनु य का
अगला वग है। तब वै य अथात् ापारी वग आता है। यह ाकृ ितक वग करण सव पाया
जाता है। यही वै दक िस ा त है और हम इसे वीकार करते ह । वै दक िस ांत वयं-िस
स य के प म वीकार कए जाते ह य क उनम कोई ु ट नह हो सकती। यह वीकृ ित
है। उदाहरणाथ, भारत म गोबर को शु माना जाता है; फर गोबर पशु का मल है। एक
थान पर आप यह वै दक आदेश पाएंगे क य द आप मल को छू लेते ह, तो आपको तुर त
ान करना होगा। ले कन दूसरे थान पर यह कहा गया है क गाय का मल (गोबर) शु
होता है। य द आप कसी अशु थान को गोबर से लीप द तो वह शु हो जाता है। हम
अपनी सामा य इि य से तक कर सकते ह, "यह िवरोधाभास है।" वा तव म सामा य दृि
म यह िवरोधाभास लगता है ले कन यह िम या नह है। यह त य है। कलक ा के एक मुख
वै ािनक तथा डॉ टर ने गोबर का िव ेषण करके यह पता लगाया है क इसम सम त
रोगाणुनाशक गुण पाए जाते ह।
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भारत म य द कोई ि कसी दूसरे ि से कहता है 'तु ह यह करना चािहए" तो


दूसरा ि यह कह सकता है, “तुम या कहना चाहते हो? या यह कोई वै दक आदेश है,
जो म िबना तक के तु हारा कहना मान लू?
ँ " वै दक आदेश क ा या नह क जा सकती।
ले कन अंततः य द आप यानपूवक अ ययन कर क ये आदेश य ह, तो आप पाएँगे क ये
सभी सही ह।

वेद मानवीय ान के संकलन नह ह। वै दक ान आ याि मक जगत से अथात


भगवान कृ ण से आता है। वेद का अ य नाम ुित है। ुित उस ान क सूचक है िजसे
सुनकर अ जत कया जाता है। यह ायोिगक ान नह है। ुित माता के तु य मानी जाती
है । ब त सारा ान हम अपनी माता से ही ा होता है। उदाहरणाथ, य द आप जानना
चाहे क आपका िपता कौन है, तो इसका उ र कौन दे सकता है? आपक माता । य द माता
कहती है, "ये रहे तु हारे िपता'" तो तु ह वीकार करना पड़ता है। योग करके यह ात कर
पाना क वह आपको पता है क नह , संभव नह है इसी तरह य द आप अपने अनुभव से
परे , अपने ायोिगक ान से परे, अपनी इि य के काय से परे , कु छ जानना चाहते ह, तो
आपको वेद को वीकार करना होगा। इसम योग करने का ही नह उठता। इसका
योग पहले ही हो चुका है। यह िनि त हो चुका है। उदाहरणाथ, माता के कथन को स य
मानना होता है। इसके िलए कोई अ य उपाय नह है।

वेद को माता माना जाता है और ाजी िपतामह कहलाते ह य क सव थम उ ह


ही वै दक ान क िश ा दी गई थी। ार भ म थम जीव ाजी ही थे। उ ह ने यह
वै दक ान ा कया और इसे नारद तथा अ य िश य और पु को दान कया िज ह ने
इसे अपने अपने िश य म िवत रत कया। इस कार वै दक ान गु -िश य पर परा ारा
आगे चलता आता है। भगव ीता म भी इसक पुि क गई है क वै दक ान इसी िविध से
समझा जाता है। य द आप योगा मक यास कर तो भी आप इसी िन कष पर प च ँ गे
ले कन समय क बचत करने क दृि से आपको इसे वीकार कर लेना चािहए। य द आप
यह जानना चाहते ह क आपके िपता कौन ह और य द आप अपनी माता को माण व प
मान लेते ह, तो वे जो कु छ कहती ह उसे आप िबना कसी तक के वीकार कर सकते ह।
सा य ( माण) के तीन कार ह- य , अनुमान तथा श द। य का अथ है सीधा माण।
य माण अ यु म नह होता य क हमारी इि याँ पूण नह ह। हम िन य ही सूय को
देखते ह और हम यह एक छोटी सी थाली सा लगता है, क तु यह अनेक लोक क अपे ा
कह अिधक िवशाल है। तो ऐसे देखना कस काम का है ? अतएव हम पु तक पढ़नी होती ह;
तब हम सूय के िवषय म समझ सकते ह। अतः य अनुभव पूण नह होता। तब आता है
अनुमान-अनुमािनत ान-िजसक क पना है, "यह ऐसा हो सकता है।" उदाहरणाथ, डा वन
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का िस ांत बताता है क यह ऐसा हो सकता है, यह वैसा हो सकता है ले कन यह कोई


िव ान नह है। यह एक सुझाव है और पूण भी नह है। क तु य द आप ामािणक ोत से
ान ा करते ह, तो वह पूण है। य द आपको रे िडयो टेशन के अिधका रय से कोई
काय म-िनदिशका ा हो, तो आप उसे वीकार कर लेते ह। आप उसे अ वीकार नह
करते। इसके िलए आपको कोई योग नह करना होता य क यह ान ामािणक ोत से
ा आ है।

वै दक ान को श द- माण कहा जाता है। इसका दूसरा नाम ुित है। िु त का अथ


है क इस ान को मा वण िविध ारा ा करना होता है। वेद का आदेश है क द
ान को समझने के िलए हम अिधकारी ( ामािणक ि ) से सुनना होता है। द ान
वह ान है, जो इस ा ड से परे है। इस ा ड के भीतर तो भौितक ान है और इसके
परे द ान है। हम ा ड के अि तम छोर तक भी नह जा सकते तो भला आ याि मक
जगत तक कै से जा सकते ह? इस तरह पूण ान अ जत कर पाना असंभव है।

एक आ याि मक आकाश है। एक अ य कृ ित है, जो तथा अ के परे है।


ले कन आप यह कै से जानगे क एक ऐसा भी आकाश है जहाँ के लोक तथा िनवासी शा त
ह? यह सारा ान उपल ध है ले कन आप योग कै से करगे? यह स भव नह है। अतएव
आपको वेद क सहायता लेनी होगी। यह वै दक ान कहलाता है। अपने कृ णभावनामृत
आ दोलन म हम ान को सव माण अथात् कृ ण से हण करते ह। कृ ण को सभी वग के
लोग सव माण के प म वीकार करते ह।

म सव थम दो कार के अ या मवा दय के िवषय म बात क ँ गा। अ या म वा दय


का एक वग िन वशेषवादी या मायावादी कहलाता है। ये सामा यतया वेदा ती कहलाते ह,
िजनम शंकराचाय मुख ह। दूसरे कार के अ या मवादी वै णव कहलाते ह - यथा
रामानुजाचाय, म वाचाय, िव णु वामी। शंकर स दाय तथा वै णव स दाय दोन ने ही
कृ ण को पूण पु षो म भगवान के प म वीकार कया है। शंकराचाय को िन वशेषवादी
माना जाता है य क उ ह ने िन वशेषवाद या िनराकार का उपदेश दया ले कन यह
त य है क वे छ साकारवादी थे | उ ह ने भगव ीता पर अपने भा य म िलखा है, "पूण
पु षो म भगवान् नारायण इस दृ य जगत से परे ह।" और आगे फर इसक पुि करते ह,
"वे पूण पु षो म भगवान नारायण वयं कृ ण ह। उ ह ने देवक तथा वसुदव
े के पु - प म
ज म िलया है।" उ ह ने उनके माता-िपता के नाम का िवशेष प से उ लेख कया है। इस
तरह सभी अ या मवादी कृ ण को पूण पु षो म भगवान के प म वीकार करते ह। इसके
िवषय म कोई स देह नह है। कृ णभावनामृत म हमारे ान का ोत य तः भगव ीता
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है, जो सीधे कृ ण से आई है। हमने भगव ीता यथा प कािशत क है य क हमने कृ ण


िजस प म बोलते ह उसी प म उ ह िबना अपनी कसी ा या के वीकार कया है।
यही वै दक ान है । चूँ क वै दक ान शु होता है अतएव हम उसे वीकार करते ह। कृ ण
जो भी कहते ह, हम वीकार करते ह। यही कृ णभावनामृत है। इससे समय क काफ बचत
होती है। य द आप सही माण या ान- ोत को वीकार करते ह, तो आपके समय क
अ यिधक बचत होती है। उदाहरणाथ, भौितक जगत म ान क दो प ितयाँ ह-िनगमिनक
तथा आगमिनक। िनगमिनक िविध म आप मनु य को म य वीकार करते ह । आपके िपता
कहते ह क मनु य म य ाणी है; आपक बहन कहती है, मनु य म य ाणी है; हर कोई
कहता है क मनु य म य है ले कन आप कोई योग नह करते। आप इस त य प म
वीकार कर लेते ह क मनु य म य है। य द आप यह ात करने के िलए शोध करना चाह
क या मनु य म य है, तो आपको हर मनु य का अ ययन करना होगा और तब आप यह
सोच सकते ह क हो सकता है क कोई ऐसा मनु य हो जो न मरे ले कन आपने उसे अभी
तक देखा न हो। इस तरह आपका शोध काय कभी समा नह होगा। सं कृ त भाषा म यह
िविध आरोह अथात् ऊपर जाने क िविध कहलाती है। य द आप अपनी अपूण इि य के
ारा अपने कसी िनजी यास से ान ा करना चाहते ह, तो आप कभी भी सही िन कष
तक नह प च
ँ गे ऐसा अस भव है।

-संिहता म एक कथन है :आप ऐसे वायुयान पर सवार हो जाइए जो मन क


गित से उड़ रहा हो। हमारे भौितक वायुयान २,००० मील ित घ टे क गित से उड़ सकते
ह ले कन मन क या गित है ? आप अपने घर म बैठे बैठे भारत के िवषय म सोच, जो मान
लीिजए १०,००० मील दूर है, तो तुर त ही यह मन आपके घर म प च
ँ जाता है। आपका
मन वहाँ प च
ँ गया है। मन का वेग इतना तेज है। अतएव यह कहा गया है, "य द आप
लाख वष तक इस गित से या ा कर तो आप पाएँगे क आ याि मक आकाश असीम है। उस
तक प च
ँ ना भी स भव नह है। अतएव वै दक आदेश है क मनु य को ामािणक
आ याि मक गु के पास अिनवायतः जाना ही चािहए। यहाँ पर 'अिनवाय' श द का योग
कया गया है। और आ याि मक गु क यो यता या होनी चािहए? उसे वै दक स देश को
सही ोत से और सही ढंग से सुने ए होना चािहए । उसे म दृढ़ता से थािपत होना
चािहए । ये ही दो गुण ह। अ यथा वह माण नह है ।

यह कृ णभावनामृत आ दोलन वै दक िस ांत के ारा पूणतः: मािणक है। भगवत


गीता म कृ ण कहते ह, " वै दक शोध का वा तिवक उ े य कृ ण क खोज करना है।" -
संिहता म भी कहा गया है, "कृ ण अथात् गोिव द के अनिगनत प ह ले कन वे सब एक ह।"
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वे हमारे जैसे प नह ह, जो िवनाशशील ह। उनका व प अ युत है | मेरे व प का आ द


है ले कन उनके व प का कोई आ द नह है। वे अन त ह और उनका प, उनके अनेक प
भी अन त ह। मेरा व प तो यहाँ बैठा है; वह मेरे घर म नह है। आप यहाँ बैठे ह और अपने
घर म नह ह। ले कन कृ ण एक ही समय येक थान पर हो सकते ह। वे गोलोक वृ दावन
म बैठे रह सकते ह और उसी समय वे सव , सव ापी ह। वे आ द, अथात् सबसे ाचीन ह
ले कन जब भी आप कृ ण के िच को देखते ह, तो वे प ह-बीस वष के त ण दखते ह।
आप कभी भी उ ह वृ नह पाएँगे। आपने भगव ीता म सारथी प म कृ ण का िच देखा
है। उस समय वे सौ वष से कम के नह थे। उनके पौ थे ले कन तब भी वे बालक जैसे
लगते थे। कृ ण अथात ई र कभी बूढ़े नह होते। यह उनक परम शि है। और य द आप
वै दक सािह य का अ ययन करके कृ ण क खोज करना चाहते ह, तो आप िमत हो जाएँग।े
ऐसा करना स भव हो सकता है ले कन है अ यंत क ठन। ले कन आप उनके भ से उनके
िवषय म आसानी से जान सकते है। उनका भ उ ह आपको दे सकता है, "ये रहे वे, उ ह
हण करो।" यह है कृ ण के भ क शि ।

ार भ म के वल एक वेद था और उसके पढ़ने क आव यकता नह थी। लोग इतने


बुि मान होते थे एवं उनक मरण शि इतनी ती होती थी क एक बार आ याि मक गु
के मुख से सुनकर ही वे इसे समझ लेते थे। वे स पूण ता पय को तुर त ही हण कर सकते थे।
ले कन पाँच हजार वष पूव ासदेव ने इस किलयुग के लोग के िलए वेद का िलिखत प
दान कया। उ ह पता था क अ ततोग वा लोग अ पायु ह गे, उनक मरण शि ीण
होगी और उनक बुि इतनी ती नह होगी। "अतएव मुझे इस वै दक ान को िलिखत प
देकर िश ा देनी चािहए ।" उ ह ने वेद के चार िवभाग कए-ऋक् , साम, अथव तथा यजुः ।
तब उ ह ने इन वेद का कायभार अपने िविभ िश य को स प दया तब उ ह मनु य क
अ प ेणी- ी, शू तथा ि जब धु – का यान आया। उ ह ने ी जाित, शू जाित
( िमक) तथा ि जब धु पर िवचार कया। ि जब धु वे ह, जो उ कु ल म उ प तो होते ह
ले कन स यक् प से िशि त नह होते। ा ण प रवार म उ प मनु य को य द ा ण
के प म यो यता ा नह है, तो वह ि जब धु कहलाता है। ऐसे लोग के िलए उ ह ने
महाभारत का, िजसे भारत का इितहास कहते ह तथा अठारह पुराण का संकलन कया। इस
तरह सारे पुराण, महाभारत, चार वेद तथा अनेक उपिनषद्-ये सब वै दक सािह य के अंश
ह। उपिनषद् वेद के अंश ह। त प ात् ासदेव ने िव ान तथा दाशिनक के िलए सम त
वै दक ान का सार वेदांत सू के पम तुत कया। यह वेद का अि तम वचन है।
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ासदेव ने अपने गु महाराज नारद जी के आदेश से वेदा त सू क रचना क


ले कन फर भी वे स तु नह ए। यह एक ल बी गाथा है, िजसका वणन ीम ागवत म
आ है। ासदेव अनेक पुराण तथा उपिनषद का संकलन कर लेने के बाद और यहाँ तक
क वेदा त सू िलखने के बाद भी पूणतया स तु नह थे। तब उनके गु नारद जी ने आदेश
दया, "तुम वेदा त क ा या करो।" वेदा त का अथ है चरम ान और चरम ान कृ ण है।
कृ ण कहते ह क सम त वेद म मनु य को कृ ण को ही जानना चािहए। वेदा त-कृ द् वेद
िवद् एव चाहम् । कृ ण कहते ह, "म वेदा त का संकलनकता ँ और वेद का ाता भी म ही
।ँ " अतएव चरम ल य तो कृ ण ह। वेदा त दशन के सम त वै णव भा य म इसक ा या
क गई है। हम गौड़ीय वै णव का वेदा त-दशन पर हमारा अपना भा य है, जो गोिव द
भा य कहलाता है और बलदेव िव ाभूषण ारा णीत है। इसी कार रामानुजाचाय कृ त
भा य है और म वाचाय का भी भा य है। शंकराचाय का भा य ही एकमा भा य नह है।
वैसे तो वेदा त के अनेक भा य ह ले कन चूँ क वै णव ने वेदा त भा य थम तुत नह
कया अतएव लोग म यह म बना आ है क शंकराचाय ारा िलिखत वेदा त भा य ही
एकमा भा य है। इसके अित र वयं वेद ास ने पूण वेदा त भा य ीम ागवत-िलखा
है। ीम ागवत भी वेदा त सू के थम वा य से ार भ होता है-ज मा य य यत: । इस
ज मा य य यतः क पूण िववेचना ीम ागवत म ई है। वेदा त सू के वल इतना ही
इं िगत करता है क परम स य या या है, "परम स य वह है, िजससे येक व तु उ भूत
है। यह सारांश है, क तु ीम ागवत म इसक िवशद् ा या है। य द येक व तु परम
स य से उ भूत है, तो उस परम स य क कृ ित या है ? इसक ा या ीम ागवत म
क ई है। परम स य को चेतना (भावनामृत) व प होना चािहए। वे वराट् ( वतः
तेजमान) ह | हम अ य से ान ा करके अपनी चेतना तथा ान को िवकिसत करते ह
ले कन भगवान के िलए कहा गया है क वे वराट् ह । वै दक ान का स पूण सार वेदा त
सू है और इस वेदा त सू क ा या लेखक ने वयं ही ीम ागवत म क है। अ त म
हमारा िनवेदन है क जो लोग वै दक ान क ा या समझना चाहते ह, वे उसे ीमद्
भागवत तथा भगव ीता से समझने का यास कर। ■
12

ईश- तुित
ॐ पूणमदः पूणिमदं पूणात् पूणमुद यते।
पूण य पूणमादाय पूणमेवाविश यते॥

ॐ-पूण; पूणम्-सभी तरह से पूण; अदः-वह; पूणम् -पूण; इदम्-- यह वहार (दृ य)
जगत; पूणात्- पूण से; पूणम् - पूण इकाई; उद यते- उ प होता है; पूण य-पूण का; पूणम् -
पूणत:, सब ; आदाय- लेने पर; पूणम् -पूण संतल
ु न; एव-ही; अविश यते-बचा रहता है।

अनुवाद

भगवान पूण ह और चूँ क वे पूरी तरह प रपूण ह, अतएव उनके सारे उ व तथा यह
वहार जगत, पूण के प म प रपूण ह। पूण से जो कु छ उ प होता है, वह भी अपने म
पूण होता है । चूँ क वे स पूण ह, अतएव उनसे य िप न जाने कतनी पूण इकाइयाँ उ भूत
होती ह, तो भी वे पूण रहते ह।

ता पय

पूण या परम स य पूण पु षो म भगवान ह। 'िन वशेष ' या परमा मा' क


अनुभूित परम पूण क अधूरी अनुभूित है। पूण परमे र भगवान तो सि दान द िव ह ह
और 'िन वशेष ' क अनुभूित उनके सत् व प या उनके शा त व प क अनुभूित है
तथा ‘परमा मा' क अनुभूित उनके सत् तथा िचत् व प क अनुभूित है। क तु भगवान् क
अनुभूित सारे द व प -सत्, िचत तथा आन द क अनुभूित है। जब कसी को परम
पु ष क अनुभूित हो जाती है, तो वह परम स य के इन व प को पूण प म अनुभव
करता है। िव ह का अथ है प। इस कार परम स य (पूण) पिवहीन (िनराकार) नह है।
य द वह पिवहीन होता या वह अपनी सृि क अपे ा कसी भी तरह कम होता, तो वह
पूण नह हो सकता था। परम पूण म हमारे अनुभव के भीतर तथा बाहर क येक व तु
होनी चािहए अ यथा वह पूण नह हो सकता।
परम पूण भगवान म अन त शि याँ होती ह और वे सब क सब उ ह के समान पूण
ह। इस तरह यह दृ य भौितक जगत भी अपने म पूण है। ये चौबीस त व िजनका यह
भौितक ा ड अ थायी ाक है, इस तरह वि थत ह क इस ा ड के पालन तथा
भरण के िलए आव यक येक व तु उ प कर सक। ा ड का पालन करने के िलए
13

इसक कसी अ य इकाई को बा यास करने क आव यकता नह है। ा ड अपने


िनजी काल-माप के अनुसार काय करता है जो पूण क शि ारा वि थत कया गया है
और जब वह कालाविध पूरी हो जाती है, तो यह अि थर अिभ ि स पूण क पूण
व था से िवन हो जाती है।
छोटी पूण इकाइय (जीव ) को सारी सुिवधाएँ दान को जाती ह िजससे वे उस
स पूण क अनुभूित कर सक। स पूण के अधूरे ान के कारण ही अपूणता के सारे प का
अनुभव होता है। मनु य जीवन जीव क चेतना का पूण ाक है और यह चेतना ज म और
मृ यु के च म चौरासी लाख योिनय से िवकिसत होने के बाद िमलती है। य द जीव अपनी
पूण चेतना यु इस मानव जीवन म, स पूण से स बि धत अपनी पूणता क अनुभूित नह
करता तो वह पूणता क अनुभूित करने का अवसर खो देता है और भौितक कृ ित के िनयम
ारा पुन: िवकास-च म डाल दया जाता है।
चूँ क हम यह नह जानते क हमारे पालन के िलए कृ ित म पूण व था है अतएव
हम इि यभोग के तथाकिथत पूण जीवन क सृि करने के िलए कृ ित के साधन का
उपयोग करने का यास करते ह। चूँ क जीव स पूण से स ब ए िबना इि य-जीवन का
भोग नह कर सकता, अतएव इि यभोग का मयु जीवन मोह माना जाता है। शरीर का
हाथ तभी तक पूण इकाई है जब तक वह स पूण शरीर से संल रहता है। जब हाथ को
शरीर से काटकर अलग कर दया जाता है, तो वह हाथ क तरह तीत तो होता है ले कन
व तुत: उसम हाथ क एक भी शि नह रहती। इसी कार सारे जीव स पूण के अंश ह
और य द उ ह उस स पूण से पृथक् कर दया जाए तो पूणता क ामक अिभ ि उ ह
पूणतया तु नह कर सकती।
मनु य जीवन को पूणता क अनुभूित तभी हो सकती है जब वह उस स पूण क सेवा
म लग जाए। इस संसार क सारी सेवाएँ, चाहे वे सामािजक, राजनैितक, सा दाियक,
अ तरा ीय ह या अ त हीय भी ह , तब तक अपूण बनी रहगी जब तक उ ह स पूण के
साथ संबंध न कर दया जाए। जब येक व तु स पूण से जुड़ जाती है, तो उससे संल सारे
अंश भी अपने म पूण हो जाते ह। ■
14

मं १
ईशावा यिमदं सव यि क जग यां जगत।
तेन य े न भु ीथा मा गृधः क य ि वद् धनम्॥१॥

ईश-भगवान्; आवा यम्-िनयंि त; इदम्-यह; सवम्-स पूण; यत् क -जो भी;


जग याम्- ा ड के भीतर; जगत्-जड़-चेतन, सब कु छ; तेन-उसके ारा; य े न-पृथक् रखा
गया भाग; भु ीथाः—तु ह वीकार करना चािहए; मा-नह ; गृधः- ा करने का यास;
क य ि वद्-अ य कसी क ; धनम्- स पि को।
अनुवाद

इस ा ड के भीतर क येक जड़ अथवा चेतन व तु भगवान् ारा िनयंि त है


और उ ह क स पि है। अतएव मनु य को चािहए क अपने िलए के वल उ ह व तु को
अपनाये जो उसके िलए आव यक ह और जो उसके भाग के प म िनयत कर दी गई ह।
मनु य को यह भलीभाँित जानते ए क अ य व तुएँ कसक ह, उ ह वीकार नह करना
चािहए।

ता पय

वै दक ान अमोघ है य क यह सा ात भगवान् से ार भ होने वाली गु -िश य


क पूण पर परा से होकर आगे चलता आता है। चूँ क वै दक ान का पहला श द भगवान्
ारा उ ा रत आ था अत: इस ान का ोत द है। भगवान् ारा उ ा रत श द
अपौ षेय कहलाते ह, जो इस बात का संकेत है क ये श द कसी संसारी पु ष ारा नह
कहे गये । भौितक संसार म रहने वाले जीव म चार दोष होते ह- (१) वह िनि त प से
ु ट करता है; (२) वह मोह त होता है; (३) उसम दूसर को धोखा देने क वृि पाई
जाती है; तथा (४) उसक इि याँ अपूण ह। इन चार अपूणता से यु मनु य पूण ान
क जानकारी नह दे सकता। वेद ऐसे अपूण ाणी ारा तैयार नह ए थे। वै दक ान
सव थम भगवान् ारा आ द-जीव ा के दय म दान कया गया और ा ने इस ान
को आगे अपने पु तथा िश य म सा रत कया जो इस ान को अना द काल से
ह ता त रत करते चले आ रहे ह।
15

चूँ क भगवान् पूणम्-सब कार से पूण ह, अतएव उन पर भौितक कृ ित के िनयम


लागू होने क संभावना नह है य क वे उनके िनयं ण म रहते ह; ले कन जीव तथा जड
पदाथ कृ ित के िनयम ारा और अनि तम प से भगवान् क शि ारा िनयंि त होते
ह। यह ईशोपिनषद् यजुवद का अंश है; फल व प इसम इस ा ड म ि थत सम त
व तु के वािम व के िवषय म जानकारी िमलती है ।
इस ा डक येक व तु पर भगवान् के वािम व क पुि भगव ीता के सातव
अ याय म ई है, िजसम परा तथा अपरा कृ ित क िववेचना क गई है (७.४-५)। कृ ित के
सब त व-पृ वी, अि , जल, वायु, आकाश, मन, बुि तथा अहंकार- भगवान् क अपरा
अथात् भौितक कृ ित से स बि धत ह जब क जीव अथात् चेतन शि परा कृ ित है। ये
दोन ही कृ ितयाँ या शि यां भगवान् से उ भूत ह। अ ततोग वा, जो कु छ िव मान है उस
सब के िनयंता भगवान् ही ह। ा ड म ऐसी कोई व तु नह िजसका स ब ध परा या
अपरा कृ ित से न हो; इसिलए येक व तु उस परम पु ष क स पि है।
परम पु ष अथात भगवान् एक पूण पु ष ह; उनके पास अपनी िविभ शि य के
ारा हर व तु को सि मिलत करने क पूण बुि है। परम पु ष क तुलना ब धा अि से क
जाती है और येक जड़ तथा चेतन व तु क तुलना अि के ताप तथा काश से क जाती
है। अि िजस कार ताप तथा काश के प म अपनी शि का िवतरण करती है उसी
कार भगवान् भी िविभ कार से अपनी शि का दशन करते ह। इस कार के
अनि तम िनय ता, सभी व तु के पालक तथा आदेशक ह। वे सभी शि य के वामी,
येक व तु के परम ाता तथा हर एक का उपकार करने वाले ह। वे अिच य ऐ य, बल,
यश, स दय, ान तथा वैरा य से प रपूण ह।
अतएव मनु य को इतना तो बुि मान होना ही चािहए क वह यह जान ले क
भगवान् के अित र अ य कोई कसी व तु का वामी नह है। मनु य को के वल वे ही व तुएँ
अपनानी चािहए जो भगवान् ने उसके िलए िनयत कर दी है। उदाहरणाथ, गाय दूध तो देती
है, क तु वह उस दूध को पीती नह ; वह घास तथा भूसा खाती है और उसका दूध मनु य
का भोजन कहलाता है। ऐसी है व था भगवान् क । अत: हम उ ह व तु से संतु रहना
चािहए िज ह उ ह ने हमारे िलए िनयत कर दया है और हम सदैव मरण रखना चािहए
क हमारे पास जो व तुएँ ह, वे वा तव म कसक है। उदाहरणाथ, हमारा घर िम ी,
लकड़ी, प थर, लोहा, सीमट तथा अ य अनेक भौितक व तु से बना होता है और य द हम
ी ईशोपिनषद् के अनुसार िवचार कर तो हम यह जान लेना चािहए क हम इन िनमाणाथ
पदाथ म से कसी एक को भी उ प नह कर सकते। हम उ ह के वल इक ा कर सकते ह
और अपने म से उ ह िविभ पाकार दे सकते ह। कोई िमक अपने को कसी व तु का
16

वामी के वल इसिलए नह कह सकता य क उसने उसे तैयार करने म क ठन म कया


है।
आधुिनक समाज म िमक तथा पूज ँ ीपितय म सदैव एक बड़ा झगड़ा चलता रहता
है। इस झगड़े ने अ तरा ीय प धारण कर िलया है और िव संकट म है। मनु य एक दूसरे
से श ुता बरतते ह और कु -े िबि लय क तरह गुराते ह। ी ईशोपिनषद् कु -े िबि लय को
उपदेश नह दे सकती, ले कन यह मनु य को ामािणक आचाय के मा यम से ई र का
स देश दान कर सकती है। मानव जाित को चािहए क ीईशोपिनषद के इस वै दक ान
को हण कर और भौितक वािम व के िलए न झगड़े। मनु य को भगवान् क कृ पा से जो भी
सुिवधाएँ ा ई ह उ ह से स तु रहना चािहए। य द सा यवादी या पूज
ँ ीपित या कोई
अ य दल ाकृ ितक संसाधन पर वािम व जताता है, तो शाि त थािपत नह हो सकती
य क ये सब भगवान् क स पि ह। न तो पूँजीपित सा यवा दय को के वल राजनीितक
चाल से दबा सकते ह न ही सा यवादी पूँजीपितय को के वल चुराई ई रोटी के िलए
लड़कर उ ह हरा सकते ह। य द पूंजीपित भगवान् के वािम व को मा यता दान नह करते
तो वह सारी स पि िजसे वे अपनी होने का दावा करते ह, चुराई ई है; फल व प उ ह
कृ ित के िनयम के अनुसार दि डत होना पड़ेगा। नािभक य बम सा यवा दय तथा
पूँजीपितय दोन के ही पास ह। और य द ये दोन परमे र के वािम व को नह मानते तो
यह िनि त है क ये बम अ ततोग वा दोन प का िवनाश कर दगे। अतएव अपने आपको
बचाने तथा िव म शाि त लाने के िलए दोन प को ी ईशोपिनषद् के उपदेश का
अनुसरण करना चािहए।
मनु य कु -े िबि लय क तरह लड़ने-झगड़ने के िनिम नह बने ह। उसे मानव
जीवन क मह ा एवं उ े य का समझने के िलए तो बुि मान होना ही चािहए। वै दक
सािह य मानवता के िलए है, न क कु े-िबि लय के िलए। कु े िबि लयाँ अपने भोजन के
िलए कसी पाप के भागी बने िबना अ य पशु का वध कर सकते ह, क तु य द कोई
मनु य अपने अिनयंि त वाद क तुि के िलए कसी पशु का वध करता है, तो वह कृ ित
के िनयम को तोड़ने के िलए उ रदायी होता है। फल व प उसे दंिडत होना पड़ेगा।
मनु य का जीवन मानक पशु पर लागू नह कये जा सकते। बाघ न तो चावल या
गे ँ खाता है, न गाय का दूध पीता है य क उसे पशु मांस के प म भोजन दान कया
गया है। अनेक पशु तथा पि य म से कु छ तो शाकाहारी ह और अ य मांसाहारी, ले कन
इनम से कोई एक भी कृ ित के िनयम का उ लंघन नह करता, य क ये िनयम भगवान्
क इ छानुसार बने ह। पशु, प ी, सरीसृप तथा अ य िन योिन वाले जीव कृ ित के
िनयम का कड़ाई से पालन करते ह; अतएव न तो उनके िलए पाप का उठता है, न ही
वैधािनक उपदेश उनके िलए बने ह। एकमा मानव जीवन ही उ रदािय व का जीवन है।
17

यह मानना गलत है क के वल शाकाहारी बनकर कोई कृ ित के िनयम के उ लंघन


से अपने को बचा सकता है। शाक (वन पित) म भी जीवन होता है। यह कृ ित का िनयम है
क एक जीव दूसरे के खाने के िलए है। अतएव मनु य को क र शाकाहारी बनने का गव नह
होना चािहए। बात तो परमे र को मा यता दान करने क है। पशु के पास इतनी
िवकिसत बुि नह होती िजससे वे भगवान् को पहचान सक, क तु मनु य इतना बुि मान
तो होता ही है क वह वै दक ंथ से िश ा हण कर सके और उनसे यह जान सके क
कृ ित िनयम कस तरह काय करते ह और इस तरह ऐसे ान से लाभ उठा सके । य द मनु य
वै दक ंथ के उपदेश क उपे ा करता है, तो उसका जीवन अ य त संकटपूण हो जाता है।
अतएव मनु य को परमे र क स ा को पहचानने और भगवान् का भ हो जाने क
आव यकता है। उसे हर व तु भगवान् क सेवा म अ पत कर देनी चािहए और अ पत कए
गए भोजन का बचा आ भाग ही हण करना चािहए। इससे वह अपने कत को
भलीभाँित िनबाह सके गा। भगव ीता म (९.२६) भगवान् य प से कहते ह क वे शु
भ के हाथ से शाकाहारी भोजन हण करते ह। अतएव मनु य को न के वल क र
शाकाहारी बनना चािहए अिपतु भगव भी होना चािहए और सारा भोजन भगवान् को
अ पत कर देना चािहए। त प ात् के वल साद अथवा भगवान् क कृ पा हण करनी
चािहए। के वल वही लोग जो इस तरह से काय करते ह मनु य जीवन के कत को
भलीभाँित िनबाह सकते ह। जो लोग भगवान् को अपना भोजन अ पत नह करते, वे व तुत:
पाप खाते ह और िविभ कार के दुख भोगते ह, जो पाप के फल होते ह। ( भगवद् गीता
(३.१३)
भगवान् के वािम व क अवमानना करके कृ ित के िनयम का जानबूझ कर
उ लंघन करना ही पाप क जड़ है। कृ ित के िनयम या भगवान् के आदेश का उ लंघन
करने से मानव का िवनाश होता है। इसके िवपरीत जो मनु य सौ य है, कृ ित के िनयम को
जानता है और थ के राग या ष
े से भािवत नह होता, उसे अव य ही भगवान् अपनाते
ह और वह इस तरह भगव ाम अथात शा त धाम जाने का अिधकारी हो जाता है। ■
18

मं २
कु व व
े ेह कमािण िजजीिवषे छता: समाः।
एवं विय ना यथेतोऽि त न कम िल यते नरे ॥२॥

कु वन्-िनरंतर करते ए; एव-इस कार; इह-इस जीवन काल म; कमािण-कम;


िजजीिवषेत्-जीने क इ छा करे ; शतम्-एक सौ; समा:-वष; एवम्-इस तरह रहते ए; विय-
तुमको; न-नह ; अ यथा-दूसरा, वैकि पक; इत:-इस पथ से; अि त-है; न-नह ; कम- कम;
िल यते-बाँधता है; नरे –मनु य को।

अनुवाद

य द मनु य इस कार िनर तर काय करता रहे तो वह सौ वष तक जीने क


आकां ा कर सकता है य क इस कार का कम उसे कम के िनयम से नह बाँधग
े ा। मनु य
के िलए इसके अित र कोई दूसरा माग नह है।

ता पय
कोई भी मरना नह चाहता। येक ि जब तक ख च सकता है तब तक जीना
चाहता है। यह वृि के वल ि क प से ही नह देखी जाती अिपतु सामूिहक प से
जाित, समाज और रा म भी देखी जाती है। सम त जीव म िवकट जीवन-संघष चल रहा
होता है और वेद का कहना है क यह िब कु ल वाभािवक है। जीवा मा वभावत: शा त
है, ले कन भौितक जगत म अपने बंधन के कारण उसे बार बार अपना शरीर बदलना पड़ता
है। यह या आ मा का देहा तरण अथवा कमब धन कहलाती है। जीव को अपनी
आजीिवका के िलए काय करना पड़ता है य क यह कृ ित का िनयम है और य द वह अपने
िनयत कत के अनुसार काय नह करता तो वह कृ ित के िनयम का उ लंघन करता है
और अपने आपको अनेक योिनय म ज म-मृ यु के च म आिधकािधक बाँधता जाता है।
अ य योिनय म भी ज म-मृ यु का च चलता है, ले कन जब जीव को मनु य-योिन
ा होती है, तो वह कम के बंधन से मु होने का अवसर ा करता है। भगव ीता म
कम, अकम तथा िवकम का अ य त प वणन आ है। जो काय कसी के िनयत कत के
प म शा म उि लिखत िविध से स प कए जाते ह, वे कम कहलाते ह। जो कम मनु य
को ज म-मृ यु के च से मु करते ह, वे अकम कहलाते ह। क तु जो काय अपनी वतं ता
का दु पयोग करके स प कये जाते ह और िजससे अधम योिनय म जाना पड़ता है वे
19

िवकम कहलाते ह। इन तीन कार के कम म से बुि मान मनु य उसे ही अ छा समझता है,
जो उसे कम के ब धन से मु कर दे। सामा य लोग मा यता ा करने के उ े य से तथा इस
संसार म या वग म उ तर जीवन तर ा करने के उ े य से अ छा काय करते ह ले कन
अिधक बुि मान लोग कम तथा कम के फल से सवथा मु होना चाहते ह। बुि मान पु ष
यह भलीभाँित जानते ह क अ छे से या बुरे काय समान प मनु य के भौितक क से
बाँधने वाले ह। अतएव वे ऐसा काय खोजते ह, जो उ ह अ छे या बुरे दोन ही कार के
काय के फल से मु कर दे। ी ईशोपिनषद् के पृ म इसी मुि दान करने वाले काय
का वणन आ है।
ी ईशोपिनषद् के उपदेश भगव ीता म िवशद् रीित से ा याियत कये गये ह,
अतएव भगव ीता को कभी-कभी गीतोपिनषद् या सभी उपिनषद का नवनीत कहा जाता
है। भगव ीता म (३.९-१६) भगवान् कहते ह क मनु य को तब तक नै क य या अकम
अव था ा नह होती जब तक वह वै दक सािह य म व णत िनयत कत ( वधम) का
आचरण नह करता। वेद मनु य क कायशि को इस कार िनयिमत कर सकते ह क वह
धीरे धीरे भगवान् क स ा का अनुभव करने लगता है। जब वह भगवान्–वासुदेव अथवा
कृ ण-क स ा का अनुभव कर लेता है, तो यह समझना चािहए क उसने सकारा मक ान
क अव था ा कर ली है | इस शु अव था म कृ ित के गुण-सतो, रजो तथा तमो गुण-
काय नह कर पाते और उसम नै क य के आधार पर कम करने क मता आ जाती है। ऐसा
कम मनु य को ज म तथा मृ यु के च से नह बाँधता।
वा तव म कसी को भी भगवान् क भि से अिधक कु छ नह करना होता। पर तु
जीवन के िन तर पर कोई भी ि भि के कायकलाप तुर त नह अपना सकता, न ही
वह सकाम कम को पूरी तरह रोक सकता है। ब जीव इि यतृि के िलए अपने वाथ के
िलए, चाहे वह ता कािलक हो या ापाक-कम करने का आदी होता है। सामा य ि
अपने िनजी इि यभोग के िलए काय करता है और जब इि यभोग का यह िस ा त
समाज, रा या मानवता तक िव ता रत हो जाता है, तो यह अनेक आकषक नाम धारण कर
लेता है, यथा परोपकार, समाजवाद, सा यवाद, रा वाद, मानवतावाद इ या द। ये 'वाद'
िन य ही कम-ब धन के अ य त आकषक प ह, ले कन ईशोपिनषद् क वै दक िश ा है क
य द कोई सचमुच इनम से कसी 'वाद' के िलए जीिवत रहना चाहता है, तो उसे चािहए क
वह उ ह ईश-के ि त कर दे। गृह थ बनने या परोपकारी, समाजवादी, सा यवादी, रा वादी
या मानवतावादी बनने म कोई हािन नह है, बशत क वह अपने काय को ईशावा य या
भगवत्-के ि त भावना से स प करे।
20

भगव ीता (२.४०) म भगवान् कृ ण का कथन है क भगवत्-के ि त काय इतने


मह वपूण ह क उनम से कु छेक भी मनु य को बड़े से बड़े भय से बचा सकते ह। जीवन का
सबसे बड़ा भय यही है क वह ८४,००,००० योिनय म ज म-मृ यु के िवकास-च के खतरे
म पुन: न िगर जाए। य द कसी भी तरह मनु य अपने इस मानव योिन ारा द
आ याि मक अवसर को खो देता है और पुन: िवकास-च म िगर जाता है, तो इसे उसका
महान् दुभा य समझना चािहए। मुख मनु य अपनी दोषपूण इि य से यह नह देख पाता
क ऐसा हो रहा है फल व प ी ईशोपिनषद् हम सलाह देती है क हम अपनी शि
ईशावा य पी भावना म लगाएँ। इस भावना म लगकर हम अनेकानेक वष तक जीिवत
रहने क आकां ा कर सकते ह; अ यथा दीघ जीवन का अपने आप म कोई मह व नह है
एक वृ कई सौ वष तक जीिवत रहता है, ले कन वृ क तरह दीघकाल तक जीिवत
रहकर धौकं नी क तरह साँस लेते रहने या कु और सूअर क तरह स तान उ प करने
या ऊँट क तरह खाते रहने म कोई तुक नह है। िवनीत भगवद्-के ि त जीवन ई र-रिहत
परोपकार या समाजवाद से यु िवचार पाख ड से कह अ छा है।
जब ी ईशोपिनषद् क भावना से परोपकारी काय कए जाते ह, तो वे एक कार के
कम योग बन जाते ह। ऐसे कम क सं तुित भगवत गीता म (१८.५-९) क गई है य क
उनसे उनके कता को ज म-मृ यु के िवकास च म िगरने के भय से सुर ा क गारं टी ा
होती है। इस कार के भगवद् के ि त कायकलाप अधूरे रहने पर भी कता के िलए शुभ होते
ह य क इससे अगले ज म म उसे मनु य-योिन का िमलना सुिनि त हो जाता है। इस
कार मनु य को मुि -माग पर अपनी ि थित सुधारने का एक और अवसर ा हो जाता
है।
मनु य ईश-क त काय कस कार कर सकता है। इसका िववरण ील प
गो वामी कृ त 'भि रसामृतिस धु' म िव तृत प से दया गया है। यह थ हमने अं ज
े ी
भाषा म ने टर ऑफ िडवोशन शीषक से कािशत कया है। ी ईशोपिनषद् क भावना के
अनुसार काय करने के इ छु क सब को हम इस अमू य थ का लाभ उठाने का परामश देते
ह। ■
21

मं ३
असुया नाम ते लोका अ धेन तमसाssवृताः ।
ताँ ते े यािभग छि त ये के आ महनो जनाः ॥३॥

असुया-असुर के िनिम ; नाम-नाम से िस ; ते-वे; लोका:-लोक; अ धेन-अ ान


से; तमसा - अंधकार से; आवृता:-ढके ए; तान्-उन लोक को; ते-वे; े य-मृ यु के बाद;
अिभग छि त- वेश करते ह; ये-जो कोई; के - हर एक; च-तथा; आ महन:-आ मा का हनन
करने वाले; जना:- ि ।

अनुवाद
आ मा का हनन करने वाला, चाहे वह कोई भी हो, उन लोक म अव य वेश करता
है, जो अ ा के जगत के नाम से िव यात है और अंधकार तथा अ ान से पूण है।

ता पय
मनु य-जीवन अपने भारी उ रदािय व के कारण पशु जीवन से िभ होता है। जो
लोग इन दािय व से अवगत ह और उसी भाव से काय करते ह, वे सुर कहलाते ह और जो
इन दािय व क अवहेलना करते ह या िज ह इनक जानकारी नह रहती वे असुर कहलाते
ह। सारे िव म यही दो कार के मनु य पाए जाते ह। ऋ वेद म कहा गया है क सुर लोग
सदैव भगवान् िव णु के चरणकमल को ल य बनाते ह और तदनुसार कम करते ह। उनका
माग सूय के पथ के ही समान देदी यमान रहता है।
बुि मान मनु य को सदैव मरण रखना चािहए क आ मा को मानव शरीर
देहा तरण के च म लाख वष के िवकास के प ात् ा होता है। कभी-कभी इस भौितक
जगत क तुलना एक समु से क जाती है और इस मानव शरीर क तुलना एक सुदढ़ृ नाव से
क जाती है, जो इस समु को पार करने के िलए िवशेष प से िन मत क गई है। वै दक
शा तथा आचाय क तुलना पटु नािवक से क जाती है और मानव शरीर क सुिवधा
क तुलना अनुकूल म द समीर से क जाती है, जो नाव को सरलता से इि छत ल य तक ले
जाने म सहायक होती है। य द इन सम त सुिवधा के होते ए भी कोई मनु य अपने
जीवन का पूण उपयोग आ म-सा ा कार के िलए नह कर पाता तो उसे आ महा अथात्
आ मा का हनन करने वाला समझना चािहए। ी ईशोपिनषद् प प से चेतावनी देती है
क आ मा का ह यारा सदा दुख भोगने के िलए िव ान के गहनतम अंधकार म वेश करना
िनि त है।
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य िप शूकर, कू कर, ऊँट, गधा इ या द क आ थक आव यकताएँ हमारी


आव यकता जैसी ही मह वपूण ह, ले कन इन पशु क आ थक सम याएँ अ यंत िनकृ
तथा अ िचकर प रि थितय म हल क जाती है। मनु य को कृ ित के िनयम ारा
सुखपूवक जीवन-यापन के िलए सारी सुिवधाएँ दान क जाती ह य क मानव जीवन
पशु-जीवन क तुलना म अिधक मह वपूण तथा मू यवान है। तो मनु य को शूकर तथा अ य
पशु क अपे ा े तर जीवन य ा है ? एक उ पद वाले सरकारी क मक को एक
सामा य लक क अपे ा बेहतर सुिवधाएँ य ा ह ? इसका उ र यह है क उ
पदािधकारी को उ को ट के कत िनबाहने होते ह। इसी कार मनु य को पशु क
अपे ा उ तर कत का पालन करना होता है, जब क पशु सदैव अपना भूखा पेट भरने
मा ा म लगे रहते ह। ितस पर भी आधुिनक आ माघाितनी स यता से भूखे लोग क
सम या म वृि ही ई है। जब हम कसी आधुिनक स य मनु य पी सजे धजे पशु के
पास प च
ँ ते ह और उससे आ म-सा ा कार म िच लेने के िलए कहते ह, तो वह इतना ही
कहना चाहेगा क वह अपने पेट क ुधा-शाि त के िलए काम करना चाहता है और एक
भूखे मनु य को आ म-सा ा कार क कोई आव यकता नह है। क तु कृ ित के िनयम इतने
ू र है क पेट-पालन के िलए कठोर म करने के िलए उ सुक रहने पर और आ म-
सा ा कार क आव यकता क भ सना करने पर भी उसे बेरोजगारी का सदैव भयभीत
कये रहता है।
हम यह मनु य-शरीर गध , शूकर तथा कु के समान कठोर म करने के िलए नह
िमला अिपतु जीवन क सव िसि ा करने के िनिम िमला है। य द हम आ मा
सा ा कार क परवाह नह करते तो भी कृ ित के िनयम हम अ य त कठोर म करने के
िलए बा य करते ह, भले ही हम ऐसा न करना चाह। इस युग म मनु य को गध और गाडी
खचने वाले बैल क तरह कठोर म करने के िलए बा य कया गया है। िजन भू-भाग म
इन असुर को काम करने के िलए भेज दया जाता है उनका उ ाटन ी ईशोपिनषद् के इस
मं म कया गया है। य द मनु य अपना कत िनबाहने म असफल रहता है, तो उसे असुय
लोक म भेज दया जाता है जहाँ उसे िन योिनय म ज म लेकर अ ान तथा अंधकार म
क ठन म करने के िलए बा य कया जाता है।
भगव ीता म (६.४१-४३) कहा गया है क जो मनु य आ म-सा ा कार के पथ
पर चलकर भगवान् के साथ अपने स ब ध को समझने का भरसक य करके भी उसे पूरा
नह समझ पाता उसे शुिच या ीमत् प रवार म ज म लेने का अवसर दया जाता है। शुिच
श द आ याि मक दृि से उ त ा ण का सूचक है और ीमत् वै य या ापारी जाित का
सूचक है। इससे सूिचत होता है क जो ि आ म सा ा कार पाने म सफल नह होता,
उसे इस ज म म कए गए स य यास के कारण अगले ज म म अवसर दान कया जाता
है। य द पितत ि को स मािनत तथा उ कु ल म ज म लेने का अवसर दान कया
23

जाता है, तो सफल ि है को कौन-सा पद िमलेगा, इसक क पना करना क ठन है ।


भगवत सा ा कार करने के यास मा से मनु य को धनी या उ प रवार म ज म िमलने
का आ ासन ा हो जाता है। क तु जो यास ही नह करता, जो मोह से छ बना
रहना चाहता है, जो अ यिधक भौितकवादी है और भौितक भोग म आस है उसे नरक के
गहनतम भाग म वेश करना पड़ता है, जैसी क सारे वै दक सािह य म पुि क गई है।
ऐसे भौितकवादी असुर कभी-कभी धम का वाँग करते ह, क तु उनका चरम ल य भौितक
समृि रहता है। भगव ीता (१६.१७-१८) ऐसे ि य को आ म-संभािवत कह कर
िध ारती है, िजसका अथ है क वे कपट के बल पर बड़े समझे जाते ह और अ ािनय के
मत तथा अपनी भौितक स पि ारा शि स प बने रहते ह। ऐसे असुर, जो आ मा
सा ा कार तथा ईशावा य या भगवान् के सव ापक वािम व के ान से िवहीन ह, िन य
ही गहनतम अंधकारपूण े म वेश करगे।
िन कष यह िनकला क मनु य होने के नाते हम आ थक सम या को डावाँडोल
धरातल पर हल करने के िलए नह बने ह अिपतु कृ ित के िनयम ारा िजस भौितक जीवन
म हम ला पटके गए ह, उसक सारी सम या को हल करने के िलए ह। ■
24

मं ४
अनेजदेकं मनसो जवीयो नैन व े ा आ व ु पूवमषत्।
त ावतोऽ यान येित ित ि म पो मात र वा दधाित ॥४॥

अनेजत्-ि थर; एकम्-एक; मनसः-मन क अपे ा; जवीयो-अिधक तेज; न-नह ;


एनत्-यह परमे र; देवा:-इ जैसे देवता; आ ुवन्-प च ँ सकते ह; पूवम्- सम ;
अषत्-तेजी से चलते ए; तत्- वह; धावत:- दौड़ने वाल को; अ यान्-दूसरे; अ येित-
अित मण कर जाता है; ित त्-एक थान पर रहते ए; ति मन्-उसम; अपः-वषा;
मात र वा-वायु तथा जल के देवता; दधाित -पू त करते ह।

अनुवाद
अपने धाम म ि थत रहते ए भी भगवान् मन से अिधक वेगवान ह और अ य सम त
दौड़ने वाल को पछाड़ सकते ह। शि शाली देवता उन तक नह प च ँ पाते। एक थान पर
रहकर वे वायु तथा वषा क पू त करने वाले देवता को वश म रखते ह। वे े ता म सबसे
आगे ह।
ता पय
बडा से बड़ा दाशिनक भी मानिसक िच तन ारा परमे र अथात पूण पु षो म
भगवान् को नह जान पाता। वे तो अपने भ ारा अपनी कृ पा से ही जाने जा सकते ह।
-संिहता म (५.३४) कहा गया है क य द कोई अभ दाशिनक भी वायु या मन के वेग
से लाख वष तक या ा करता रहे तो भी वह परम स य को अपने से अित दूर पाएगा।
-संिहता (५.३७) म आगे वणन है क भगवान् का अपना द धाम है, िजसे गोलोक
कहते ह जहाँ वे अपनी लीला म त रहते ह। फर भी अपनी अिच य शि य से वे
एक ही समय अपनी सृजना मक शि के येक भाग म प च ँ सकते ह। िव णु पुराण म
उनक शि य क तुलना अि से उ भूत ताप तथा काश से क गई है। य िप अि एक
थान पर बनी रहती है तथािप वह अपने काश तथा ताप को कु छ दूरी तक िवत रत कर
सकती है। इसी कार पूण पु षो म भगवान् अपने द धाम म ि थर रहते ए भी अपनी
िविभ शि य को सव िबखेर सकते ह।
य िप उनक शि याँ असं य ह, तथािप उ ह तीन मुख ेिणय म िवभािजत
कया जा सकता है-अ तरंगा शि , तट था शि तथा बिहरं गा शि । इन ेिणय म से
येक के हजार -लाख उपभेद ह। वायु, काश, वषा इ या द ाकृ ितक घटना को
िनयंि त करने वाले शि स प मुख देवता, परम पु ष क तट था शि के अ तगत
25

आते ह। मनु य समेत सारे िन जीव भी भगवान् क तट था शि के अंतगत आते ह। यह


भौितक जगत भगवान् क बिहरं गा शि क सृि है और पर ोम या ई र का धाम उनक
अ तरंगा शि का ाक है।
इस कार भगवान् क िविभ शि याँ सव िव मान है य िप भगवान् तथा
उनक शि य म कोई अंतर नह है ले कन कसी को भी गलती से यह नह मान लेना
चािहए क ये शि याँ ही परम स य ह और परमे र के वल िनराकार प से सव ा ह
या क उनका साकार प नह होता। लोग अपनी समझ क मता के अनुसार िविभ
िन कष तक प च
ँ ने के आदी ह, क तु परमे र हमारी समझ क सीिमत मता के अ तगत
नह होते। इसीिलए उपिनषद् चेतावनी देते ह क कोई भी अपनी सीिमत शि से भगवान्
तक नह प च
ँ सकता।
भगव ीता म (१०.२) भगवान् कहते ह क उ ह बड़े बड़े ऋिष तथा सुरगण भी नह
जान पाते। तो फर उन असुर के िवषय म या कहा जाए िजनके िलए भगवान् क
गितिविधय को समझने का ही नह उठता। यह चौथा मं प कर देता है क परम
स य अ ततः परम पु ष ह अ यथा उनके साकार प के समथन म इतनी िविवधता का
उ लेख करने क कोई आव यकता न होती।
य िप भगवान् क शि य के येक अंश म सा ात् भगवान् के सारे ल ण रहते ह
ले कन उनका काय े सीिमत रहता है; अतएव वे सभी तरह से सीिमत होते ह। अंश कभी
भी पूण के समक नह होता, अतएव ये अंश भगवान् क पूरी शि को समझ नह सकते।
भौितक कृ ित के वशीभूत होकर, मूख तथा अ ानी जीव, जो भगवान् के अंश व प ह
भगवान् क द ि थित के िवषय म अटकल लगाते ह। ी ईशोपिनषद् मानिसक िच तन
ारा भगवान् क पहचान थािपत करने के यास क थता के ित चेतावनी देता है।
मनु य को वेद जैसे सव कृ ोत से भगवान् के अ या म त व को सीखने का य करना
चािहए, य क द ता का पूण ान के वल भगवान् को ही है।
परम पूण का येक अंश कसी िवशेष शि से स प होता है, िजससे वह परमे र
क इ छानुसार कम करता है। जब वह जीव- पी अंश-िवशेष भगवान् क इ छा ारा
िन द अपने िविश कायकलाप को भूल जाता है, तो वह माया म ि थत समझा जाता है।
इस कार ीईशोपिनषद् हम ार भ से ही सचेत करती है क भगवान् ारा हमारे िलए
जो काय िनयत है हम उसे ही कर । क तु इसका अथ यह नह होता क जीवा मा म अपनी
ेरणा नह होती। चूँ क जीव भगवान् का अंश है उसम भगवान् क रे णा मक शि भी
होनी चािहए। जब कोई अपनी ेरणा या स य कृ ित का उपयोग बुि के ारा भलीभाँित
यह समझते ए करता है, क हर काय म भगवान् क शि है, तो वह अपनी पूण चेतना
पुनः ा कर सकता है, जो माया या बिहरंगा शि के साि य के कारण समा हो गई
थी।
26

चूँ क सारी शि भगवान् से ा होती है अतएव येक िवशेष शि का उपयोग


भगवान् क इ छा पूरी करने म करना चािहए, अ य कसी काय के िलए नह । भगवान् ऐसी
िवनीत सेवा क मनोवृि वाले ि ारा जाने जा सकते ह। पूण ान का अथ भगवान् के
सभी ल ण को जानना, उनक शि य को जानना और यह जानना क ये शि याँ उनक
इ छा से कस कार काय करती ह। ये बात भगवान् के ारा भगव ीता म व णत ह, जो
सम त उपिनषद का सार है। ■
27

मं ५
तदेजित त ैजित तद् दूरे त ि तके ।
तद तर य सव य तदु सव या य बा तः ॥५॥

तत्-यह परमे र; एजित-चलता है; तत्-वह ;न- नह ; दूरे-काफ दूर: तत्-


वह; ऊँ-भी; अि तके -अ य त िनकट; तत्-वह; अ तः-भीतर; अ य-इसका; सव य सबका;
तत्-वह; उ-भी; सव य-सबका; अ य- इसका; बा त: - बाहर ।

अनुवाद
परमे र चलता है और नह भी चलता। वह ब त दूर है ले कन अ यंत िनकट भी है।
वह सबके भीतर है, फर भी वह सबके बाहर है।

ता पय
यहाँ पर भगवान् के उन द कायकलाप का वणन कया गया है, जो उनक
अिच य शि य ारा स प होते ह। यहाँ पर दए गए िवरोधाभासी कथन भगवान् क
अिच य शि याँ िस करते ह। वह चलता है और नह भी चलता। साधारणतया य द कोई
चल सकता है, तो यह कहना क वह नह चल सकता, तक-िव होगा। क तु भगवान् के
संदभ म ऐसा िवरोधी कथन मा उनक अिच य शि य को इ गंत करने का काय करता
है। अपने सीिमत ान से हम ऐसे िवरोधी कथन म सहमित नह कर सकते; हम तो
अपने ान क सीिमत शि के आधार पर भगवान् क के वल धारणा बना सकते ह।
उदाहरण के तौर पर मायावादी दाशिनक भगवान् के के वल िनराकार कायकलाप को
वीकार करते ह और उनके साकार प को ठु करा देते ह। क तु भागवत स दाय
भगवान् क पूण धारणा को अपनाते ए उनक अिच य शि य को वीकार करते ह और
इस कार मानते ह क वे साकार तथा िनराकार दोन ह। भागवतगण जानते ह क उनक
अिच य शि य के िबना " परमे र" श द का कोई अथ नह रहता।
हम यह नह मान बैठना चािहए क चूँ क हम ई र को अपनी आँख से नह देख
सकते अतएव भगवान् साकार नह ह। ी ईशोपिनषद् इस तक का ख डन करता है और यह
घोषणा करता है क भगवान् ब त दूर ह ले कन अ य त िनकट भी ह। भगवान् का धाम
भौितक आकाश से परे है और हमारे पास इस भौितक आकाश को भी मापने के साधन
उपल ध नह ह। य द भौितक आकाश ही इतना दूर तक िव तृत है, तो फर आ याि मक
आकाश के िवषय म या कहा जा सकता है, जो इससे सवथा परे है ? आ याि मक आकाश
(पर ोम) के भौितक ा ड से अित दूर ि थत होने क पुि भगव ीता म (१५.६) ई है।
28

ले कन इतनी दूरी पर रहते ए भी भगवान् एक पल से भी कम समय म मन या वायु से भी


तेज गित से हमारे सम तुर त अवत रत हो सकते ह। वे इतनी तेजी से दौड़ भी सकते ह क
कोई उनसे आगे नह िनकल सकता। इसका वणन िपछले ोक म कया जा चुका है।
फर भी जब भगवान् हमारे सम आते ह, तो हम उनक अनदेखी करते ह। ऐसी
मूखतापूण उपे ा क भ सना भगवान् ारा भगव ीता म (९.११) क गई है जहाँ वे कहते
ह क मूख मुझे म य ाणी मानकर मेरा उपहास करते ह। वे न तो म य ाणी ह, न ही हमारे
सम भौितक कृ ित ारा उ प शरीर लेकर आते ह। ऐसे अनेक तथाकिथत िव ान ह
िजनका तक है क भगवान् सामा य जीव क भाँित पदाथ-िन मत शरीर लेकर अवत रत
होते ह। उनक अिच य शि को न जानते ए ऐसे मूख लोग भगवान् को सामा य ि
जैसा मान बैठते ह।
अिच य शि य से पूण होने के कारण भगवान् कसी भी मा यम से हमारी सेवा
वीकार कर सकते ह और वे अपनी िविभ शि य को अपनी इ छानुसार पा त रत कर
सकते ह। नाि तक का तक है क भगवान् या तो अपने आप अवत रत हो ही नह सकते और
य द वे ऐसा करते ह, तो भौितक शि के प म अवत रत होते ह। य द हम भगवान् क
अिच य शि य के अि त व को मान ल तो यह तक िनर त हो जाता है। तब हम समझगे
क य द भगवान् हमारे सम त भौितक शि के प म कट होते भी ह, तो ब त स भावना
है क वे इस भौितक शि को आ याि मक शि म पा त रत कर ल। चूँ क शि य का
ोत एक ही है। अतएव शि य को उनके ोत क इ छानुसार ही काम म लाया जा सकता
है। उदाहरणाथ, भगवान् अचािव ह म अथात िम ी, प थर या लकड़ी के बने देवता के
व प म कट हो सकते ह। लकड़ी, प थर या अ य पदाथ के बने ये अचािव ह मू तयाँ नह
ह जैसा क मू तभंजक तक करते ह।
भौितक जगत क हमारी वतमान अपूण अव था म हम अपूण दृि के कारण
परमे र को नह देख पाते। क तु जो भ उ ह भौितक दृि के ारा देखना चाहते ह उन
पर अनु ह करके भगवान् अपने तथाकिथत भौितक प म कट होकर अपने भ क सेवा
वीकार करते ह । हम यह नह समझना चािहए क ऐसे भ , जो भि क िन तम
अव था म ह, कसी मू त क पूजा करते ह। व तुतः वे भगवान् क पूजा करते ह, जो उनके
सम ऐसे उपग य प म कट होने के िलए सहमत हो गए ह िजस तक सबक प च
ँ हो
सके । न ही अचा- व प को पूजक क सनक के अनुसार गढ़ा जाता है | यह व प अपने
साज-सामान के साथ शा त तौर पर िव मान रहने वाला है। इसक वा तिवक अनुभूित
िन ावान भ को ही हो सकती है, नाि तक को नह ।
भगव ीता म (४.११) भगवान् इं िगत करते ह क वे भ क शरणागित को कस
कार लेते ह: यह उसक शरणागित क मा ा पर िनभर करता है। यह अिधकार उनके हाथ
29

म है क वे शरणागत के अित र कसी और के सम कट हो या न ह । प (शरणागत)


जीव को वे सदैव ल य ह पर तु शरण म न गए जीव के िलए वे अित दूर तथा अग य ह।
इस स दभ म शा म ायः यु होने वाले दो श द सगुण (गुण से यु ) तथा
िनगुण (गुण से रिहत)-अ य त मह वपूण ह। सगुण श द यह नह कहता क जब वे
दृि गोचर गुण सिहत कट होते ह, तो वे भौितक प लेकर आते ह और कृ ित के िनयम
के अधीन रहते ह। उनके िलए भौितक तथा आ याि मक शि य म अ तर नह होता य क
वे सम त शि य के ोत ह। सम त शि य के िनयं क के प म वे हमारी तरह कभी भी
उनके वश म नह हो सकते। भौितक शि उनक अ य ता म काय करती है अतएव वे उस
शि को अपने काय के िलए उस शि के कसी भी गुण से भािवत ए िबना योग कर
सकते ह। (इस संदभ म, वे िनगुण ह)। न ही भगवान् कभी िनराकार हो जाते ह य क
अ ततोग वा वे शा त प आ द भगवान् ह। उनका िनराकार व प या तेज उनक
ि गत करण क चमक मा है, िजस कार सूय क करण सूय देव क चमक ह।
जब बालक-संत हलाद महाराज अपने नाि तक िपता के सम थे तो उनके िपता ने
उनसे पूछा, "कहाँ है तु हारा ई र ?" तब लाद ने उ र दया क ई र सव िनवास
करता है, तो िपता ने ु होकर पूछा क या तु हारा ई र इस महल के कसी ख भे म भी
है ? तो बालक ने कह दया "हाँ।" उस नाि तक राजा ने उस ख भे को तुर त उसी के सामने
ख ड-ख ड कर डाला और नर संह के प म भगवान् उसी समय कट हो गए और उ ह ने
उस नाि तक राजा को मार डाला। इस कार ई र सभी व तु के भीतर ह और वे अपनी
िविभ शि य से हर व तु क सृि करते ह। वे अपनी अिच य शि य से अपने िन ावान
भ पर कृ पा दखाने के िलए कसी भी थान पर कट हो सकते ह। भगवान् नृ संह उस
ख भे के भीतर से नाि तक राजा के आदेश से नह कट ए थे अिपतु अपने भ लाद क
इ छा से कट ए थे। कोई नाि तक भगवान् को कट होने का आदेश नह दे सकता ले कन
भगवान् अपने भ पर कृ पा दखाने के िलए कह भी कट हो जाएंगे। इसी कार
भगव ीता (४.८) का कथन है क भगवान् नाि तक का नाश करने तथा आि तक क र ा
करने के िलए कट होते ह। िन स देह. भगवान् के पास पया शि याँ तथा कायवाहक ह.
जो नाि तक का सफाया कर सकते ह ले कन भ पर वयं कृ पा करने म उ ह हष होता है।
अतएव वे अवतार के प म कट होते ह। वा तव म वे अपने भ पर अनु ह करने के
िलए ही अवत रत होते ह, कसी अ य योजन से नह ।
-संिहता (५.३५) म कहा गया है क आ द भगवान् गोिव द अपने पूण अंश ारा
येक व तु म वेश करते ह। वे ा ड तथा ा ड के सारे परमाणु तक म वेश करते
ह। वे िवराट् पम येक व तु से बाहर रहते ह, क तु अपने अ तयामी प म वे येक
व तु के भीतर रहते ह। अ तयामी प म वे घ टत होने वाली येक घटना के सा ी ह और
हम अपने कम का फल दान करते ह। भले ही हम भूल जाँए क हमने पूवज म म या या
30

कया था ले कन चूँ क भगवान् हमारे काय के सा ी व प ह, अतएव हमारे कम के फल


सदैव िमलते ही ह और हम उन फल को भोगना होता है।
त य तो यह है क भीतर तथा बाहर ई र के अित र कु छ भी नह है। येक व तु
उनक िविभ शि य का ाक है, िजस तरह अि से ताप तथा काश उ भूत होते ह।
इस तरह उनक िविभ शि य म एक पता है। इस एक पता के होने पर भी भगवान्
अपने साकार प म उन सब व तु को पूण- पेण भोगते ह, जो उनके अंश प सू म
जीव क इि य ारा पूरी तरह भो य ह । ■
31

मं ६
य तु सवािण भूता या म येवानुप यित।
सवभूतेषु चा मानं ततो न िवजुगु सते॥६॥

यः-जो; तु-ले कन; सवािण-सम त; भूतािन- जीव को; आ मिन-परमे र के स ब ध


म; एव- के वल; अनुप यित-िनयिमत ढंग से देखता है; सवभूतेषु-सम त जीव म; च-तथा;
आ मानम्-परमा मा को; ततः त प ात : न-नह ; िवजुगु सते- कसी से घृणा करता है।

अनुवाद
जो येक व तु को परमे र के स दभ म देखता है, जो सम त जीव को उनके अंश-
प म देखता है तथा जो परमे र को येक व तु के भीतर देखता है, वह कभी भी कसी
व तु से या कसी जीव से घृणा नह करता।

ता पय
यह महाभागवत अथात् उस महापु ष का िववरण है, जो हर व तु को भगवान के
स दभ म देखता है। परमे र क उपि थित क अनुभूित क तीन अव थाएँ ह। किन
अिधकारी अनुभूित क िन तर अव था म होता है। वह अपनी धा मक आ था के अनुसार
कसी पूजा थल यथा मि दर, िगरजाघर या मि जद म जाता है और वहाँ पर शा के
आदेशानसार पूजा करता है। ऐसी अव था के भ भगवान को पूजा थल पर ही उपि थत
मानते ह, अ य कह नह । वे न तो यह िनि त कर पाते ह क भि म कौन कस पद पर
है, न ही वे यह बता सकते ह क कसे भगवान क अनुभूित हो चुक है। ऐसे भ िन य कम
करते ह और कभी-कभी पर पर लड-झगड भी पड़ते ह क अमुक कार क भि दूसरे से
े है। वा तव म ये किन अिधकारी भौितकतावादी भ होते ह, जो आ याि मक तर
तक प च
ँ ने के िलए भौितक सीमा को लाँघने का मा य करते रहते ह।
िज ह अनुभूित क दूसरी अव था ा हो चुक होती है वे म यम अिधकारी कहलाते
ह। ये भ चार ेिणय के बीच के अ तर को मानने वाले होते ह- (१) परमे र; (२)
भगव ; (३) वे अबोध िज ह भगवान का कोई ान नह है; और (४) नाि तक, जो
भगवान पर ा नह रखते और भि करने वाल से घृणा करते ह। म यम अिधकारी इन
32

चार ेिणय के मनु य के ित पृथक् -पृथक् कार से वताव करता है। वह भगवान को म

का उपादान मानकर उनक पूजा करता है और भि करने वाल से मै ी थािपत करता है।
वह अबोध के दय म स भगव ेम जगाने का यास करता है, क तु वह उन नाि तक के
पास नह जाता जो भगवान के नाम से ही घृणा करते ह।
म यम अिधकारी के ऊपर उ म अिधकारी होता है, जो येक व तु को भगवान से
स बि धत देखता है। ऐसा भ नाि तक तथा आि तक म भेदभाव नह करता अिपतु हर
एक को ई र का अंश मानता है। वह जानता है क एक िव ान ा ण तथा गली के कु े म
कोई अ तर नह होता य क दोन ही भगवान के अंश ह, य िप वे अपने िवगत जीवन के
कम के िभ िभ गुण के अनुसार िभ -िभ देह धारण कए ह। वह देखता है क
परमे र के अंश प ा ण ने भगवान ारा द अपनी व प वतं ता का दु पयोग नह
कया है और कु ा अपनी वतं ता का दु पयोग करके कृ ित के िनयम ारा दि डत होकर
कु े के शरीर म ब है। ा ण तथा कु े के अपने-अपने काय का िवचार कए िबना उ म
अिधकारी दोन का क याण करना चाहता है। ऐसा िव ान भ भौितक शरीर ारा ा त
नह होता अिपतु उन जीव के आ त रक आ याि मक फु लंग से आकृ होता है।
जो लोग एक पता या िम ता के भाव का अित मण करके उ म अिधकारी का
अनुकरण तो करते ह, क तु देहा मबुि के तर पर आचरण करते ह, वे वा तव म झूठे
परोपकारी ह। िव ब धु व क धारणा उ म अिधकारी से सीखनी चािहए न क कसी मूख
ि से जो आ मा या परमा मा के िव तार-अंश को भी-जो सव िनवास करता है-ठीक से
नह जानता।
इस छठे मं म यह प : उि लिखत है क मनु य को चािहए क वह ठीक तरह से
"देख"े । इसका अथ यह आ क वह पूववत आचाय का अनुसरण करे जो िस िश क है|
इस संग म " अनुप यि त" अ यंत उपयु सं कृ त श द है।" अनु" का अथ है अनुसरण करना
और "प यित" का अथ है देखना। इस कार “अनुप यित" श द का अथ यह आ क वह
व तु को उस प म न देखे िजस तरह वह अपनी खुली आँख से देखता है, युत
पूववत आचाय का अनुसरण करे। भौितक दोष के कारण आँखे कसी भी व तु को ठीक से
नह देख पाती। कोई तब तक ठीक से नह देख सकता जब तक उसने कसी े ोत से
"सुन" न रखा हो और सव ोत वै दक ान है, िजसक चचा वयं भगवान ने क है।
वै दक स य िश य-पर परा ारा भगवान से ा, ा से नारद, नारद से ास और ास
से उनके कई िश य तक आता है। पहले वेद के स देश को अिभिलिखत करने क
आव यकता नह थी य क तब लोग अिधक बुि मान तथा खर मरणशि वाले होते
थे। वे ामािणक गु के मुख से मा एक बार सुनकर उपदेश का अनुसरण कर सकते थे।
इस समय शा क अनेक टीकाएँ ा ह, क तु उनम से अिधकांश उस िश य-
पर परा से मेल नह खाती ह, जो ील ासदेव से ार भ होती है, िज ह ने पहले-पहल
33

वै दक वा य का संकलन कया। ील ासदेव क अि तम, परम पूण तथा भ कृ ित


ीम ागवत है, जो वेदा त-सू क सहज टीका है। भगव ीता भी एक कृ ित है, िजसका
वचन वयं भगवान ने कया और ासदेव ने उसको िलिपब कया। ये अ य त मह वपूण
शा ह और ऐसी कोई भी टीका जा भगव ीता या ीम ागवत के िस ा त के िवपरीत
है, अवैध है। उपिनषद , वेद , वेदांत सू , भगव ीता तथा ीम ागवत के म य पूण सा य
है और कसी को वेद के स ब ध म तब तक कसी भी िनणय तक प च
ँ ने का यास नह
करना चािहए जब तक उसे ासदेव क िश य-पर परा के सद य से आदेश न ा हो
जाँय, जो भगवान तथा उनक िविभ शि य पर िव ास करते ह, जैसे क ीईशोपिनषद्
म ा या ई है।
भगव ीता के अनुसार (१८.५४), जो पहले से मु पद ( भूत) पर आसीन है और
येक जीव को अपना ही भाई मानता है, वही उ म-अिधकारी भ बन सकता है। ऐसी
दृि राजनीित को नह ा हो सकती, जो सदैव कसी न कसी भौितक लाभ के पीछे
पड़े रहते ह। जो ि उ म अिधकारी के ल ण का अनुकरण करता है, वह भले ही कसी
दूसरे के बाहरी शरीर का उपयोग यश या भौितक लाभ के िलए करता हो, ले कन वह आ मा
क सेवा नह करता। ऐसे अनुकरणकता (नकलची) को आ याि मक जगत क कोई जानकारी
नह िमल सकती । उ म अिधकारी भौितक शरीर म ही जीवा मा का दशन करता है और
आ मा के प म उसक सेवा करता है। इस कार भौितक प क वत: सेवा होती रहती
है। ■
34

मं ७
यि मन् सवािण भूता या मैवाभूद ् िवजानतः।
त को मोहः कः शोक एक वमनुप यतः॥७॥

यि मन्-िजस ि थित म; सवािण-सभी; भूतािन - जीव; आ मा-आ याि मक फु लंग;


एव-के वल; अभूत-् क तरह िव मान; िवजानत:- जानने वाले का; त -वहाँ पर; कः- या;
मोह:-मोह; कः- या; शोक: -शोक; एक वम्-गुण क एकता; अनुप यतः माण के मा यम से
देखने वाले का या उस तरह िनर तर देखने वाले का।

अनुवाद
जो सदैव सम त जीव को आ याि मक फु लंग के प म भगवान के ही समान गुण
वाला देखता है, वही व तु का असली ाता हो जाता है। तो फर उसके िलए मोह या
िच ता कै सी ?

ता पय
जैसा क ऊपर कहा जा चुका है म यम अिधकारी तथा उ म अिधकारी के अित र
अ य कोई भी ि जीव क आ याि मक ि थित को सही-सही नह देख पाता। गुणा मक
दृि से जीव परमे र से अिभ ह िजस कार अि के फु लंग और अि गुण क दृि से
एक ह। फर भी मा ा के अनुसार ये फु लंग अि नह है य क फु लंग म ताप तथा
काश क जो मा ा रहती है, वह अि के ताप तथा काश क मा ा के तु य नह होती।
महाभागवत को इनम एक व इसिलए दखता है य क वह येक व तु को परमे र क
शि के प म देखता है। चूँ क शि तथा शि मान म कोई अंतर नह रहता अतएव उसम
एक व का भाव होता है। य िप िव ेषणा मक दृि से ताप तथा काश अि से िभ ह
तथािप ताप तथा काश के िबना 'अि ' श द का कोई अथ नह होता। ले कन सामािसक
प म ताप, काश तथा अि सभी एक ह।
इस मं म "एक वं अनुप यतः" श द सूिचत करते ह क मनु य को चािहए क वह
शा क दृि से सम त जीव के एक व को देख।े परम पूण के पृथक् -पृथक् फु लंग म पूण
के लगभग अ सी ितशत ात गुण पाए जाते ह ले कन मा ा म वे परमे र के तु य नह
होते। ये गुण सू म मा ा म उपि थत रहते ह य क जीव उस परम पूण का ु अंश ही
होता है। य द हम दूसरी उपमा योग म लाएँ तो कह सकते ह क एक बूदं म िजतनी मा ा
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म नमक होता है, वह कभी भी पूण समु उपि थत नमक क मा ा के तु य नह होता।


ले कन एक बूद
ँ म उपि थत नमक अपने रासायिनक संघटन म सारे समु म उपि थत नमक
के ही समान होता है। य द गुण तथा मा ा दोन क दृि से जीव परमे र के तु य होता तो
उसके कृ ित के वश म होने का ही न उठता। िपछले मं म बताया जा चुका है क कोई
भी जीव-यहाँ तक क बलशाली देवता भी-परम पु ष से कसी भी कार से बढ़कर नह हो
सकता; अतएव एक वम् का अथ यह नह है क जीव सभी कार से परमे र के समान है।
इतना संकेत अव य है क ापक अथ म दोन का एक अभी योजन है, िजस कार
प रवार के सभी सद य का एक ही वाथ रहता है या क रा म रा ीय वाथ एक ही
होता है भले ही नाग रक कतने िविभ ि य न ह । चूँ क सारे जीव एक ही परम
प रवार के अंश ह परम पु ष तथा इन अंश का वाथ िभ नह है। येक जीव परम पु ष
का पु है। जैसा क भगव ीता म (७.५) कहा गया है, ा ड भर के सभी जीव िजनम
प ी, सरीसृप, च टयाँ, जलचर, वृ इ या द सि मिलत ह, परमे र क तट था शि से
उ भूत ह। अतएव ये सभी परम पु ष के प रवार से स बि धत ह। इन म वाथ का टकराव
नह है।
आ याि मक जीव भोग के िनिम ह जैसा क वेदा त सू (१.१.१२) म व णत है-
आन दमयोऽ यासात् । कृ ित एवं संरचना दोन क दृि से येक जीव, िजसम परमे र
तथा उनका येक अंश सि मिलत ह, शा त भोग के िलए है। जो जीव शरीर के बंधन से
जकड़े ए ह, वे िनर तर भोग क तलाश म रहते ह ले कन वे उसक खोज गलत तर पर
करते ह। इस भौितक जगत के अित र एक आ याि मक तर भी है जहाँ परम पु ष अपने
असं य पाषद सिहत रमण करता है। वहाँ पर भौितक गुण का लेश मा भी नह रहता,
अतएव यह तर िनगुण कहलाता है। िनगुण तर पर भोग क व तु को लेकर कभी कोई
झगड़ा नह होता ले कन इस भौितक जगत म िविभ जीव के बीच िनर तर टकराव होता
रहता है य क यहाँ पर भोग का उपयु के उपेि त है। भोग का असली के तो
परमे र ह, जो भ तथा आ याि मक रास नृ य के के ह। हम सब उनके साथ रहने तथा
द िच तथा िवरोध रिहत जीवन िबताने के िलए ह । आ याि मक िच का यह उ तर
है और य ही कोई एक व के इस पूण प को पा लेता है य ही मोह या शोक का कोई
ही नह रह जाता।
ई रिवहीन स यता का उदय माया से होता है और ऐसी स यता का प रणाम
प रताप या शोक होता है। आधुिनक राजनीित ने िजस कार क ई रिवहीन स यता का
ितपादन कया है, वह सदा चंता से ओत ोत रहती है य क यह कसी भी समय
व त क जा सकती है-यह कृ ित का िनयम है। जैसा क भगव ीता म (७.१४) कहा गया है
क िजन लोग ने भगवान के चरणकमल म आ मसमपण कर रखा है उनके िसवाय कोई भी
कृ ित के कड़े िनयम को नह लांघ सकता है। इस तरह य द हम सभी कार के मोह तथा
36

िच ता से मु होना चाहते ह और अपने िविभ वाथ म एक व लाना चाहते ह, तो हम


अपने सारे कायकलाप के म य ई र को लाना होगा।
हमारे कायकलाप के फल का उपयोग के वल भगवान के िहत म होना चािहए, अ य
कसी योजन के िलए नह । भगवान का िहत यान म रखकर ही हम यहाँ पर व णत
आ म-भूत श द तथा भगव ीता म (१८.५४) व णत भूत श द को समझ सकते ह
िजनका अिभ ाय एक ही है। परम आ मा तो सा ात भगवान ह और सू म आ मा जीव है।
परमा मा अके ले ही सारे ि सू मजीव का पालन करता है य क परमा मा उनके ेह
से आन द ा करना चाहता है। िपता पु के मा यम से अपना िव तार करता है और
आन द ा करने के िलए उनका पालन करता है। य द पु िपता क इ छा के ित
आ ाकारी होते ह, तो प रवार के सारे काय सु िच-पूण तथा सुखमय वातावरण म सुचा
प से चलते रहते ह। ठीक यही ि थित पर के प रवार म द प से िनयोिजत रहती
है।
पर जीवा मा के समान एक ि है। न तो भगवान िनराकार है, न ही जीव।
ऐसे द पु ष सि दान द व प ह। आ याि मक जगत क यही असली ि थित है और
य ही मनु य को इस आ याि मक पद का बोध हो जाता है य ही वह परम पु ष ी कृ ण
के चरणकमल म सम पत हो जाता है। ले कन ऐसे महा मा का दशन िवरले ही होता है
य क ऐसी द अनुभिू त अनेकानेक ज म के बाद ही ा होती है ( भगव ीता ७.१९) ।
क तु एक बार ा हो जाने पर कसी तरह का मोह या शोक या संसार के दुख, ज म तथा
मृ यु नह रह जाते जो हमारे वतमान जीवन म अनुभव कए जाते ह। ी ईशोपिनषद् के इस
मं से हम यह जानकारी ा होती है। ■
37

मं ८
स पयगा छु मकायम ण-
म ािवरँ शु मपापिव म्।
किवर् मनीषी प रभूः वय भूर्
याथात यतोऽथान् दधा छा वती यः समा यः॥८॥

सः-वह ि ; पयगात्-वा तव म जानना चािहए; शु म्-सवशि मान; अकायम्-


अदेहधारी; अ णम् अिन य; अ ािवरम्-नस (िशरा ) से रिहत; शु म् पूितरोधी; अपाप-
िव म् - रोगिनरोधी; किव:- सव ; मनीषी-दाशिनक; प रभूः-सबसे बड़ा; वय भूः-आ म
िनभर, आ माराम; याथात यत:- के अनुसार; अथान् इि छत; दधात्-पुर कार देता है;
शा ती यः-अना द; समा य:-काल से।

अनुवाद
ऐसे पु ष को सही-सही जानना चािहए क वह सब से महान् पूण पु षो म भगवान
कौन है जो अदेहधारी, सव , अिन य, िशरा से िवहीन, शु , अदूिषत, आ मिनभर
दाशिनक है और जो अना दकाल से हर एक क इ छापू त करता आया है।

ता पय
यह पूण पु षो म भगवान के द एवं शा त व प का वणन है। परमे र
व पिवहीन (िनराकार) नह ह। उनका अपना ही द प है, जो इस भौितक जगत के
प से तिनक भी मेल नह खाता। इस जगत के जीव के प भौितक कृ ित म सि िहत ह
और वे एक भौितक मशीन (यं ) के समान काय करते ह। भौितक शरीर क संरचना र
वािहिनय इ या द के साथ एक यांि क बनावट होती है। ले कन परमे र के द शरीर म
िशरा जैसा कु छ नह होता। यहाँ यह प कहा गया है क वे अदेहधारी ह िजसका अथ है
क उनके शरीर तथा आ मा म कोई अ तर नह है। न ही वे कृ ित के िनयम के अनुसार
शरीर हण करने के िलए बा य होते ह जैसा क हम होते ह। देहा मबुि म आ मा थूल देह
तथा सू म मन से िभ है। उनक देह, मन तथा उनम कोई अ तर नह है। वे परम पूण ह
और उनका मन, शरीर तथा वयं वे सभी एक ही ह।
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-संिहता (५.१) म परमे र का ऐसा ही वणन िमलता है। उसम उ ह सि दान द


िव ह कहा गया है, िजसका अथ है क वे द अि त व, ान तथा आनंद का पूण
ितिनिध व करने वाले शा त व प ह। अत: उ ह पृथक् शरीर अथवा मन क
आव यकता नह होती जैसे हम भौितक अि त व म होती है। वै दक थ ं म प कथन है
क उनका द शरीर हमारे शरीर से सवथा िभ होता है। इस कार उ ह कभी कभी
िनराकार कहा जाता है। इसका अथ है क उनका व प हमारे समान नह होता और वे ऐसे
व प से िवहीन ह िजसक हम क पना कर सके । -संिहता (५.३२) म आगे यह भी
कहा गया है क भगवान अपने शरीर के कसी अंग से दूसरी इि य का काम भी कर सकते
ह। इसका अथ यह आ क वे अपने हाथ से चल सकते ह, अपने पाँव से व तुएँ पकड़ सकते
ह, अपने हाथ तथा पैर से देख सकते ह, अपनी आँख से खा सकते ह इ या द इ या द।
ुितमं ो म यह भी कहा गया है क य िप भगवान के हमारे जैसे हाथ, पाँव नह होते,
उनके िभ कार के हाथ एवं पैर होते ह िजनसे वे हमारे ारा अ पत हर व तु हण कर
सकते ह और कसी क भी अपे ा अिधक तेज दौड सकते ह। इस आठव मं म इन सारे
िब दु क शु म (सवशि मान) जैसे श द के उपयोग से पुि होती ह।
भगवान का पू य व प (अचािव ह) भी िजसक थापना ऐसे ामािणक आचाय
ारा मि दर म क जाती है िज ह ने सातव मं के अनुसार भगवान का सा ा कार कया
है, भगवान के मूल व प से अिभ है। भगवान का मूल व प ी कृ ण का है और
ीकृ ण अपना िव तार असं य प म यथा बलदेव, राम, नृ संह, वराह आ द म करते ह।
ये सारे के सारे व प एक ही भगवान ह।
इसी तरह जो अचािव ह मि दर म पूजा जाता है, वह भी भगवान का िव ता रत
प है। अचािव ह क पूजा करके मनु य तुर त उन भगवान के िनकट प च
ँ सकता है, जो
अपनी सव ापक शि से भ क सेवा वीकार करते ह । भगवान का अचािव ह आचाय
के अनुरोध पर अवत रत होता है और वह उनक सवशि म ा के बल पर अपने मूल प
क तरह ही काय करता है। िजन मूख लोग को ी ईशोपिनषद् का या कसी भी अ य ुित
मं का ान नह है वे शु भ ारा पूिजत अचािव ह को भौितक त व िन मत मानते
ह। यह व प मूख लोग या किन अिधका रय को उनक अपूण दृि से भौितक दखता है
ले कन ऐसे लोग यह नह जानते क भगवान सवशि मान तथा सव होने के कारण
इ छानुसार जड़ को चेतन और चेतन को जड़ म बदल सकते ह।
भगव ीता म (९.११-१२) भगवान उन अ प ि य क अधोगित पर खेद कट
करते ह, जो भगवान के शरीर का इसिलए उपहास करते ह क वे मनु य क भाँित इस जगत
म अवत रत होते ह। ऐसे अ प ि भगवान क सवशि म ा को नह जानते। इस
कार मानिसक िच तक ( ािनय ) के िलए भगवान कभी पूण प से कट नह होते। वे
उनके ित ि क शरणागित क गुणिविश ता के अनुसार ही जाने सकते ह। जीव क
अधोगित का एकमा कारण ई र के साथ अपने स ब ध क िव मृित ही है।
39

इस मं म तथा अ य अनेक वै दक मं म यह प कहा गया है क भगवान अना द


काल से जीव को सारी व तुएँ दान करते रहे ह। जीव जो व तु चाहता है भगवान् उस जीव
क यो यता के अनुपात से उसे दान करते ह। य द कोई मनु य उ यायालय का
यायाधीश बनना चाहता है, तो उसे न के वल आव यक यो यताएँ अ जत करनी होगी
अिपतु उसे उस अिधकारी क सहमित भी ा करनी होगी जो यायालय के यायाधीश क
पदवी दान कर सकता है। पद- ाि के िलए मा यो यताएँ ही पया नह ह गी। यह पद
कसी े अिधकारी ारा दान कया जाना चािहए। इसी कार भगवान् जीव को उनक
यो यता के अनुसार भोग दान करते ह। दूसरे श द म, उ ह कम-िनयम के अनुसार
पुर कृ त कया जाता है। क तु मा यो यताएँ ही पुर कार पाने के िलए पया नह होत ।
भगवान क कृ पा क भी आव यकता होती है।
सामा यतः जीव यह नह जानता क भगवान से या माँगा जाए तो उनसे कस पद
के िलए याचना क जाए ? जब जीव को अपनी वाभािवक ि थित का पता चल जाता है,
तो वह याचना करता है क उसे भगवान अपनी द संगित के िलए वीकार कर िजससे
वह उनक द ेममयी सेवा कर सके । दुभा यवश सारे जीव भौितक माया के वशीभूत
होकर अनेक अ य व तुएँ माँगते ह। उनक इस मनोवृि का वणन भगव ीता म (२.४१)
िबखरी या िवभ बुि के प म कया गया है। आ याि मक बुि एक है ले कन सांसा रक
बुि िविवध कार क है। ीम ागवत (७.५.३०-३१) म कहा गया है क जो लोग
बिहरंगा शि के िणक सौ दय से मोिहत हो जाते ह, वे जीवन के असली उ े य को भूल
जाते ह, जो क भगव ाम को वापस जाना होता है। इसे भूल कर मनु य अनेक योजना
तथा काय म ारा संतुलन लाना चाहता है ले कन यह तो च वत-चवण क भाँित है। फर
भी भगवान इतने कृ पालु ह क वे भुल ड़ जीव को िबना कसी अवरोध के इसी तरह आगे
चलने देते ह। अतः ईशोपिनषद् का यह मं अ य त उिचत श द याथात यत: का उपयोग
करता है, िजससे यह संकेत होता है क भगवान जीव को उनक इ छा के अनुसार
पुर कृ त करते ह। य द कोई जीव नरक जाना चाहता है, तो भगवान िबना रोक टोक के उसे
ऐसा करने देते ह और य द वह घर वापस जाना चाहता है अथात् भगव ाम वापस जाना
चाहता है, तो वे उसक सहायता करते ह।
यहाँ पर ई र को प रभू: अथात् सबसे बड़ा कहा गया है। कोई भी उनसे बड़ा या
उनके बराबर नह है। अ य जीव को िभ ुक प म बताया गया है, जो भगवान से व तु
क भीख माँगते ह। भगवान् जीव को उनक इि छत व तुएँ दान करते ह। जीव य द शि
म भगवान के समान होते अथवा य द वे सवशि मान तथा सव होते, तो भगवान के
सम याचना करने का, यहाँ तक क तथाकिथत मुि मांगने का भी, न उठता।
वा तिवक मुि का अथ है भगव ाम को वापस जाना। िन वशेषवादी ारा प रकि पत
मुि मा कपोलक पना है और इि यतृि के िलए याचना तो तब तक चलती रहेगी जब
40

तक िभ क ु (यािचका) को अपनी आ याि मक तथा वाभािवक ि थित क अनुभूित न हो


जाए।
के वल परमे र ही आ मिनभर (आ माराम) ह। ५००० वष पूव जब भगवान कृ ण
इस धराधाम पर कट ए तो उ ह ने अपने िविभ कायकलाप ारा भगवान क पूण
अिभ ि द शत क । बचपन म उ ह ने अघासुर, बकासुर तथा शकटासुर जैसे अनेक
शि शाली असुर का वध कया । कसी बाहरी यास से उनम इतनी शि आ जाने का
ही नह उठता। उ ह ने भारो ोलन का कोई अ यास कए िबना, गोवधन पवत उठा
िलया। उ ह ने कसी सामािजक ब धन तथा िन दा का िवचार कए िबना गोिपय के साथ
रास रचाई। य िप गोिपयाँ उनके पास काम-भाव से प च
ँ , तथािप गोिपय तथा ीकृ ण
के स ब ध क पूजा भगवान चैत य तक ने क जो कठोर सं यासी थे तथा अनुशासन के
िनयम के क र पालक थे। ी ईशोपिनषद् म भी इस बात क पुि करने के िलए क
भगवान सदैव शु और अदूिषत ह, उ ह शु म् तथा अपापिव म् कह कर वणन कया गया
है। वे इस दृि से शु ह क य द कोई अशु व तु भी उनका पश कर ले तो वह शु हो
जाती है। अपापिव म् श द उनके संसग क शि को बताने वाला है। जैसा क भगव ीता
म (९.३०-३१) कहा गया है क भ ार भ म सुदरु ाचार अथात् उ म आचार से रिहत
तीत हो सकता है ले कन उसे शु मानना होगा य क वह सही माग पर है। यह भगवान
क संगित क अपापिव म् कृ ित के कारण है। भगवान अपापिव म् ह य क पाप उ ह छू
भी नह सकता। य द वे इस तरह के काय करते भी ह जो पापपूण लग तो उनके ऐसे कम
भी शुभ होते ह य क पाप ारा उनके भािवत होने का ही नह उठता । चूँ क वे सभी
प रि थितय म शु म् ह अतएव उनक तुलना ब धा सूय से क जाती है। सूय पृ वी के
अनेक अ पृ य थान से आ ता िनकालता है फर भी वह शु बना रहता है। िन स देह,
वह अपनी क टाणुनाशक शि से दुगध वाली व तु को शु करता है। य द सूय, जो क
भौितक व तु है, इतना शि मान हो सकता है, तो हम सवशि मान भगवान क शु करने
क शि क क पना भी नह कर सकते। ■
41

मं ९
अ धं तमः िवशि त येऽिव ामुपासते
ततो भूय इव ते तमो य उ िव ायां रताः ॥९॥

अ धम्-िनपट अ ान; तमः-अँधेरा; िवशि त- वेश करते ह; ये-जो; अिव ाम्-


अिव ा क ; उपासते- पूजा करते ह; ततः-उससे; भूयः-और अिधक; इव-सदृश; ते-वे; तमः-
अंधकार; ये-जो; उ-भी; िव ायाम्- ान अनुशीलन म; रता:-लगे ए।

अनुवाद
जो लोग अिव ापूण कायकलाप के अनुशीलन म लगे ए ह, वे अ ान के गहनतम
े म वेश करगे। इनसे भी िनकृ वे ह, जो तथाकिथत ान के अनुशीलन म लगे ए ह।

ता पय
इस मं म िव ा तथा अिव ा का तुलना मक अ ययन कया गया है। अिव ा
िन स देह घातक है ले कन िव ा उससे भी अिधक घातक होती है य द वह द िमत हो।
ी ईशोपिनषद् का यह मं िवगतकाल क अपे ा आज अ यिधक लागू होता है। आधुिनक
स यता जन-िश ा के े म काफ आगे बढ़ गई है ले कन प रणाम यह है क लोग पहले से
अिधक दुखी ह य क जीवन के सवािधक मह वपूण अंग अथात् आ याि मक पहलू को छोड़
कर, भौितक गित पर बल दया जा रहा है |
जहाँ तक िव ा का स ब ध है, पहले मं से प है क भगवान येक व तु के
वामी ह और इस त य को भुलाना ही अिव ा है। मनु य िजतना ही जीवन के इस त य को
भूलता है, उतना ही अिधक वह अंधकार म रहता है। इस दृि से तथाकिथत िश ा क
गित क ओर उ मुख ई र िवहीन िव ा अिधक घातक है अपे ाकृ त उस स यता के िजसम
सामा य जनता कम "िशि त" है ।
मनु य के िविभ वग ह-कम , ानी तथा योगी। इनम से कम वे ह, जो इि यतृि
के काय म त रहते ह। आधुिनक स यता म ाय: ९९.९ ितशत लोग उ ोगवाद,
आ थक िवकास, परोपकार, राजनैितक स यतावाद इ या द के नाम पर इि यतृि के
काय म लगे ए ह। ये सभी काय ब त कु छ इि यतृि पर आधा रत है िजनम, थम मं
म व णत ईश-चेतना सि मिलत नह है।
42

भगव ीता के मत म (७.१५) ऐसे लोग जो िनपट इि यतृि म लगे रहते ह, मूढ़ या
गधे ह। गधा मूढ़ता का तीक है। जो लोग इि यतृि क थ खोज म लगे रहते ह, वे
ीईशोपिनषद् के अनुसार अिव ा क पूजा कर रहे ह। जो लोग िश ा के िवकास के नाम
पर इस कार क स यता क सहायता कर रहे ह, वे वा तव म उन लोग क अपे ा अिधक
हािन प च
ँ ा रहे ह, जो िनपट इि यतृि के पद पर आसीन ह। ईश-िवहीन लोग के ारा
िव ा क गित उतनी ही भयावह है िजतनी क सप के फन क ब मू य मिण होती है।
मिण से िवभूिषत सप मिणिवहीन सप से अिधक घातक होता है। ह रभि सुधोदय
(३.११.१२) म ई र िवहीन लोग ारा िश ा क उ ित क तुलना शव के ृंगार से क
गई है। भारत म अनेक अ य देश के ही समान कु छ लोग शोकसंत स बि धय को स
करने के िलए शव को सजाकर शवया ा िनकालने क था का अनुसरण करते ह। इसी
कार आधुिनक स यता के कायकलाप भौितक जगत के िन य दुख को ढकने के िलए पैबद

लगाने के समान है। ऐसे सभी काय इि यतृि को ल य बनाकर कए जाते ह ले कन
इि य के ऊपर मन है और मन के ऊपर बुि और बुि के ऊपर आ मा है । इस तरह
असली िश ा का उ े य आ म-सा ा कार अथात् आ मा के आ याि मक मू य क अनुभूित
करना होना चािहए। कोई भी िश ा जो ऐसी अनुभूित को ा नह करवा पाती, अिव ा
मानी जानी चािहए। ऐसी िव ा के प लवन का अथ अ ान के गहन गत म जाना है।
भगव ीता (२.४२, ७.२५) के अनुसार ा त संसारी िश क, वेदवादरत तथा
माययाप त- ान के प म जान जाते ह। वे नाि तक असुर-नराधम- भी हो सकते है।
वेदवादरत अपने को वै दक सािह य म का ड िव ान मानते ह ले कन दुभा यवश वे वेद
के ल य से पूणतया िवपथ रहते ह। भगव ीता म (१५.१५) कहा गया है क वै दक ल य तो
भगवान को जानना है। ले कन वेदवादरत लोग भगवान् म िब कु ल िच नह लेते। उ टे वे
वग क ाि जैसे सकाम कम के ित मोिहत रहते ह।
जैसा क मं १ म कहा जा चुका है, हम यह जानना चािहए क ी भगवान हर व तु
के वामी ह और हम जीवन क आव यकता के िलए ा िनयत अंश से तु होना
चािहए। सम त वै दक सािह य का उ े य भुल ड़ जीव म इस ईश चेतना को जा त करना
है और यही ल य िविवध कार से संसार के िविभ शा म मूख मानव के समझने के िलए
तुत कया जाता है। इन सारे पंथ का चरम ल य है मनु य को भगव ाम वापस ले
जाना।
क तु वेदवादरत लोग वेद के ता पय को जो क भुल ड़ जीव के भगवान् से िव मृत
स ब ध को पुनः जा त करना है, न समझ कर यह मान कर चलते ह क ऐसे गौण िवषय
वेद के अि तम ल य ह-यथा इि य क तृि के िलए व गक आन द क ाि -यही
कामभावना सव थम भौितक बंधन का कारण बनती है। ऐसे लोग वै दक सािह य क गलत
ा या करके अ य लोग को ा त करते ह। कभी-कभी वे पुराण क भी भ सना करते ह
जब क सामा य लोग के िलए ये पुराण ामािणक वै दक ा याएँ ह। वेदवादरत लोग
43

वेद क अपनी ा या करते ह और आचाय के माण को उपे ा करते ह। वे अपने ही बीच


म से कसी कपटी ि को ऊपर उठाकर उसे वै दक ान का अ णी बताकर चार करते
ह। ऐसे लोग क भ सना इस मं म िव ायां रताः जैसे उपयु सं कृ त श द के ारा
िवशेष तौर पर क गई है । िव ायां का अथ है वेदा ययन य क वेद ही ान के मूल ह
तथा रता: का अथ है लगे ए । इस कार िव ायां रता: का अथ आ वेद के अ ययन म
लगे ए। यहाँ पर वेद के तथाकिथत िव ा थय क भ सना क गई है य क वे आचाय
क आ ा का उ लघंन करने के कारण वेद के वा तिवक योजन को नह जानते। ऐसे
वेदवादरत वेद के येक श द का ऐसा अथ ढू ढँते ह, जो उनके योजन के अनुकूल हो । वे
यह नह जानते क वै दक सािह य साधारण थ का सं ह है िज ह िश य-पर परा क
ंखला ारा ही समझा जा सकता है।
वेद के द स देश को समझने िलए ामािणक गु के पास जाना होता है। यह
मु डक उपिनषद् ( १.२.१२) का िनदश है। ले कन इन वेदवादरत के अपने ही आचाय होते
ह, जो द पर परा क ंखला म नह होते। इस कार वे वै दक सािह य क मनमानी
ा या करके अ ान गहनतम े क ओर चले जाते ह। वे उन लोग से भी अिधक गहरे
अ ान म िगरते ह, िज ह वेद का तिनक भी ान नह है।
माययाप त ान ेणी के लोग विन मत ई र (देवता) होते ह। ऐसे लोग अपने
आपको ई र मानते ह और उनके अनुसार कसी अ य ई र को पूजने क आव यकता नह
होती। य द कोई धनी ि आ तो वे उसके सामा य पु ष होने पर उसक पूजा करना
वीकार कर लेते ह ले कन कभी ई र क पूजा नह करगे। ऐसे लोग अपनी मूखता को न
पहचान पाने के कारण कभी नह सोचते क भला ई र कह माया से बँधता है। य द ई र
कभी माया से बँधा होता तो माया ई र से अिधक शि शाली ई होती। ऐसे लोग कहते ह
क ई र सवशि मान है। ले कन वे यह नह सोचते क य द ई र सवशि मान है, तो
माया से उसके परा त होने क कोई संभावना नह है। ये विन मत भगवान इन सारे
का प उ र नह दे पाते; वे के वल ई र बने रहने म स रहते ह। ■
44

मं १०
अ यदेवा व या यदा रिव या ।
इित शु म
ु धीराणां ये न तद् िवचचि रे ॥१०॥

अ यत्-िभ ; एव-िन य ही; आ :- कहा; िव या- ान के सेवन से; अ यत्-िभ ;


आ ः-कहा; अिव या-अ ान के सेवन से; इित-इस कार; शु ुम मने सुना; धीराणाम्-धीर
ि य से; ये-जो; न:-हमसे; तत्-वह; िवचचि रे -वणन कया।

अनुवाद
मनीिषय ने बताया है क ान के सेवन से जो फल ा होता है, वह अ ान के
सेवन से ा फल से िभ होता है।

ता पय
जैसा क भगव ीता के तेरहव अ याय म (१३.८-१२) उपदेश दया गया है मनु य
को िन िलिखत िविध से ान का सेवन करना चािहए :
(१) वयं भ पु ष बन कर अ य का समुिचत स मान करना सीखना चािहए।
(२) के वल नाम तथा यश के िलए कभी धमा मा का वांग नह करना चािहए।
(३) अपने शरीर के काय , अपने मन के िवचार या अपने वचन से कभी दूसर क
परे शािनय का कारण नह बनना चािहए।
(४) अ य के ारा उकसाये जाने पर भी धैय बनाये रखना सीखना चािहए।
(५) अ य के साथ वहार म छल करने से बचना सीखना चािहए।
(६) ऐसा ामािणक गु खोजना चािहए जो मश: आ याि मक अनुभूित क
अव था तक ले जा सके । ऐसे गु का शरणागत बनकर, उसक सेवा करनी चािहए और
यथाव यक पूछने चािहए।
(७) आ म-सा ा कार के पद तक प च
ँ ने के िलए शा ारा आ द िविधिवधान
का पालन करना चािहए।
(८) शा के िस ा त म दृढ़ रहना चािहए।
(९) आ म-सा ा कार म बाधक आदत को पूणतया छोड़ देना चािहए।
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(१०) शरीर के पालन के िलए आव यकता से अिधक हण नह करना चािहए।


(११) न तो थूल देह को अपना व मानना चािहए, न ही इस शरीर से स बि धत
लोग को अपना मानना चािहए।
(१२) सदैव मरण रखना चािहए क जब तक भौितक शरीर है तब तक ज म, जरा,
मृ यु तथा ािध को भोगना पड़ेगा। देह के इन क से छु टकारा पाने के िलए योजना बनाने
से कोई लाभ नह है। सव म माग यही है क उस साधन क खोज क जाये िजससे
आ याि मक व प पुनः ा हो सके ।
(१३) आ याि मक उ ित के िलए जीवन क िजतनी आव यकताएँ ह उनसे अिधक के
ित आसि नह होनी चािहए।
(१४) ी, स तान तथा घर के ित शा क आ ा से अिधक आस नह होना
चािहए।
(१५) मन ारा उ प इ व अिन क भावना से सुखी या दुखी नह होना
चािहए।
(१६) भगवान् ीकृ ण का अन य भ बनना चािहए तथा पूण मनोयोग से उनक
सेवा करनी चािहए।
(१७) शा त वातावरण म कसी ऐसे िनजन थान म रहने क िच उ प करना
चािहए जो आ याि मक सं कृ ित के अनुकूल हो। जहाँ अभ का ाधा य हो उन थान से
बचना चािहए।
(१८) वै ािनक या दाशिनक बन कर आ याि मक ान के िवषय म शोध करनी
चािहए और यह मानना चािहए क आ याि मक ान थायी है जब क भौितक िव ान
शरीर क मृ यु के साथ ही समा हो जाता है।
ये अठारह बात िमलकर एक िमक या का िनमाण करती ह िजसके ारा असली
ान िवकिसत कया जा सकता है। ले कन इससे िभ अ य सारी िविधयाँ अिव ा क को ट
म मानी जाती ह। महान् आचाय ील भि िवनोद ठाकु र का मत कया है क भौितक
ान के सारे भेद माया के बा व प मा ह और इनके सेवन से कोई भी ि एक गधे
से बेहतर नह बन पाता। यही िस ांत ी ईशोपिनषद् म भी पाया जाता है। भौितक
िव ान क गित से आधुिनक पु ष गधा बनता जा रहा है। कितपय भौितकतावादी
राजनीित अ या म के बहाने स यता क वतमान प ित को आसुरी बताकर उसक िन दा
करते ह। ले कन दुभा यवश वे वा तिवक ान के अनुशीलन के िवषय म परवाह नह करते
जैसा क भगव ीता म वणन आ है। इस कार वे आसुरी प रि थित को नह बदल सकते।
आधुिनक समाज म एक बालक भी अपने को आ मिनभर समझता है और अपने
गु जन का तिनक भी स मान नह करता। हमारे िव िव ालय म ु टपूण िश ा दान
कये जाने से िव भर के लड़के गु जन के िलए िसरदद बने ए ह। इस कार
ीईशोपिनषद् दृढ़-भाव से चेतावनी देती है क िव ा क सं कृ ित िव ा ( ान) से िभ है।
46

यह कहा जा सकता है क िव िव ालय अिव ा के ही के ह: फल व प िव ानीजन


अ य देश का नामोिनशान िमटा देने के िलए घातक अ क खोज करने म त ह। इस
समय िव िव ालय के छा को न तो चय के अनु ान क िश ा दी जाती है न ही
शा ीय आदेश म उनक ा रह गई है। धम क िश ा के वल नाम तथा यश के िलए दी
जाती है, वहार म लाने के िलए नह । इस कार न के वल सामािजक तथा राजनीितक
े म अिपतु धम के े म भी मनोमािल य ा है।
जनसामा य ारा अिव ा के अनुशीलन के फल व प संसार के िविभ भाग म
रा ीयता का िवकास आ है। कोई भी यह नह सोचता क यह छोटी सी पृ वी पदाथ का
एक पंड है, जो अ य अनेक पंड के साथ-साथ असीम अ त र म तैर रहा है। अ त र क
ापकता क तुलना म ये भौितक पंड वायु म धूलकण के समान है। चूँ क ई र ने
कृ पापूवक इन पदाथ-िप ड को अपने म पूण बनाया है क वे अ त र म तैरते रहने के िलए
सम त आव यकता से पूरी तरह यु ह। हमारे अ त र यान के चालक अपनी
उपलि धय पर भले ही इतरा ल ले कन वे लोक कहलाने वाले इन िवशाल, अ यिधक िवराट
अ त र यान के परम चालक के िवषय म िवचार नह करते।
सूय असं य ह और लोक म डल भी असं य ह। परमे र के सू मतर अंश के प म
हम ु ाणी इन असीम लोक पर अपना आिधप य जमाना चाहते ह। इस कार हम
बार बार ज म लेते ह और मरते ह। और सामा यतया हम बुढ़ापे तथा रोग से िनराश हो
जाते ह। मनु य क आयु लगभग सौ वष िनि त है य िप यह धीरे -धीरे घट कर बीस-तीस
वष तक प च
ँ रही है। भला हो अिव ा क सं कृ ित का, मूख लोग ने इन लोक के भीतर
अपने-अपने रा बना रखे ह ता क वे इन कु छ वष तक अिधक भावी ढंग से इि यभोग
कर सक। ऐसे मूख लोग अ छी तरह रा ीय हदब दी तैयार करने क िविवध योजनाएँ बना
रहे ह, जो काय पूण- पेण अस भव है। । इस काय के िलए येक रा अ य रा के िलए
सरदद बना आ है। कसी रा क पचास ितशत से अिधक शि सुर ा साधन म लगी
होने के कारण थ चली जाती है। वा तिवक ान के अनुशीलन क कोई परवाह नह
करता। फर भी लोग को भौितक तथा आ याि मक ान म उ ित करने का झूठा गव है।
ी ईशोपिनषद् इस कार क दोषपूण िश ा से हम सचेत करती है और भगव ीता
असली ान के िवकास हेतु उपदेश देती है। इस मं म इस बात का संकेत है क िव ा का
उपदेश कसी धीर ि से लेना चािहए। धीर वह है, जो भौितक मोह से िवचिलत नह
होता। पूण पेण आ याि मक सा ा कार कए िबना कोई भी ि अिवचल नह रह
सकता। सा ा कार होने पर वह न तो कसी व तु के िलए आकाँ ा करता है, न शोक करता
है। धीर ि अनुभव करता है क भौितक संपक से भा यवश उसने जो भौितक देह तथा
मन ा कए ह, वे सब बाहरी त व ह; अतएव वह मा इस बुरे सौदे का अ छा उपयोग
करता है।
47

आ याि मक जीवा मा के िलए भौितक शरीर तथा मन बुरे सौदे ह। जीव का


वा तिवक काय तो चेतन आ याि मक जगत म है, क तु यह भौितक जगत मृत (जड़) है।
जब तक सजीव आ याि मक फु लंग पदाथ के िनज व पंड को अपने अनु प ढालते रहते
ह, तब तक यह जड़ जगत सजीव (चेतन) जान पड़ता है। वा तव म परम पु ष क अंश प
जीवा माएँ ही जगत को गितमान बनाती ह। धीर ि य ने अपने े आचाय से सुनकर
इन त य को जान िलया है और िनयम का पालन करके इस ान को अनुभव कर िलया है।
िविध-िवधान के पालन के िलए मनु य को ामािणक गु क शरण हण करनी
चािहए। द संदश
े तथा िविध िवधान िश य को गु से ा होते ह। ऐसा ान
अिव ामयी िश ा के संकटपूण माग से नह आता है। भगवान के स देश को ामािणक गु
से िवनीत भाव से सुनकर ही कोई धीर बन सकता है। उदाहरणाथ भगवान कृ ण से िवनीत
भाव से सुनकर ही अजुन धीर बना। पूण िश य को अजुन क तरह होना चािहए और गु को
सा ात भगवान के समान होना चािहए। यही है धीर से िव ा सीखने क िविध।
अधीर (िजसने धीर का िश ण नह िलया) कभी िश ा देने वाला अगुवा नह बन
सकता। आधुिनक राजनीित , जो अपने को धीर दखाने का वाँग भरते ह, वा तव म
अधीर ह और उनसे पूण ान क आशा नह क जा सकती। वे तो पये-पैस के प म
अपना पा र िमक तय करने म ही त रहते ह। तो वे जनता को आ म-सा ा कार के सही
पथ तक कस कार ले जा सकते ह ? अतएव वा तिवक िश ा ा करने के िलए मनु य
को धीर के मुख से िवनीत भाव से सुनना चािहए। ■
48

मं ११
िव ां चािव ां च य तद् वेदोभयं सह।
अिव या मृ युं ती वा िव यामृतम ुते॥११॥

िव ाम् -असली ान को; च-और; अिव ाम् - अिव ा को; च-तथा; य:- जो ि ;
तत्-वह; वेद- जानता है; उभयम्-दोन ; सह-एक ही समय; अिव या-अ ान के सेवन से;
मृ युम् -बार बार आने वाली मृ यु को; ती वा-पार करके ; िव या- ान से; अमृतम् अमरता;
अ ुते-भोगता है।
अनुवाद
जो अिव ा क काय या तथा द ान (िव ा) को साथ-साथ सीख सकता है
के वल वही बार बार ज म मृ यु के भाव को पार कर सकता है और अमरता के पूण वरदान
का भोग कर सकता है।
ता पय
भौितक जगत क सृि के समय से ही येक जीव थायी जीवन ा करने का
यास करता रहा है, ले कन कृ ित के िनयम इतने ू र ह क कोई भी मृ यु से बच नह सका
है। कोई मरना नह चाहता, न ही कोई बूढ़ा होना या बीमार रहना चाहता है क तु कृ ित
का िनयम कसी को मृ यु, बुढ़ापे या रोग से छू ट दान नह करता। न ही भौितक ान क
कृ ित ने इन सम या को हल कया है। भले ही भौितक िव ान मृ यु क या को
व रत करने के िलए परमाणु बम खोज िनकाले ले कन वह रोग, बुढ़ापे तथा मृ यु के ूर
हाथ से मनु य क र ा करने के िलए कु छ भी नह खोज सकता।
पुराण से हम िहर यकिशपु के कायकलाप के िवषय म जानते ह. जो भौितक दृि से
अ य त समु त राजा था। अपनी भौितक उपलि धय तथा अपनी अिव ा क शि के बल
पर ू र मृ यु को जीतने क इ छा से उसने एक कार के यान योग को संप कया जो
इतना क ठन था क उसक योगशि से सारे लोक के िनवासी िवचिलत हो उठे । उसने
ा ड के ा ाजी को अपने पास पृ वी पर नीचे उतरने के िलए बा य कर दया। तब
उसने ा से अमर होने का वरदान माँगा, िजससे कोई कभी नह मरता है। ाजी ने
कहा क वे उसे यह वरदान नह दे सकते य क य िप वे वयं ा ह और सम त लोक
पर शासन करने वाले ह, क तु वे अमर नह ह। जैसी क भगव ीता से (८.१७) पुि होती
है, ाजी दीघकाल तक जीिवत रहते ह, ले कन इसका यह अथ नह है क वे अमर ह।
49

िहर य का अथ है सोना तथा किशपु का अथ है मुलायम िब तर। ये धूत महाशय


िहर यकिशपु धन तथा ी इ ह दो व तु म िच रखते थे और अमर होकर इ ह का
भोग करना चाहते थे। उसने अमर होने क अ य प से इ छापू त क आशा म ाजी
से कई वरदान माँगे। चूँ क ाजी ने उससे कह दया क वे उसे अमरता का वरदान नह दे
सकते, अतएव िहर यकिशपु ने उनसे ाथना क क म कसी मनु य, पशु, देवता या
चौरासी लाख योिनय के अ तगत कसी जीव के ारा न मारा जाऊँ। उसने यह भी ाथना
क क म न तो पृ वी पर, न जल म, न ही कसी हिथयार से म ँ इस तरह मूखतावश
िहर यकिशपु ने सोचा क इन आ ासन से वह मृ यु से बच जाएगा। क तु ा ारा ये
सारे वरदान दए जाने पर भी अ ततोग वा भगवान ने नृ संह (अध-मानव, अध- संह) के
प म उसका वध कर दया। उ ह ने उसे मारने के िलए कसी हिथयार का उपयोग नह
कया; के वल अपने नाखून से उसे मार डाला। उसक मृ यु न तो पृ वी पर ई, न वायु म, न
जल म य क वह ऐसे अ भुत जीव क गोद म मारा गया जो उसक क पना के परे था।
कु ल िमलाकर यहाँ पर यही बात कहनी है क िहर यकिशपु जैसा अ य त शि शाली
भौितकतावादी भी अपनी िविवध योजना से मृ यु रिहत नह बन सका। तो फर आज के
ु िहर यकिशपु भला या कर सकते ह िजनक योजना का ित ण गला घुटता रहता
है ?
ी ईशोपिनषद् जीवन संघष को जीतने के िलए एकांगी यास न करने क िश ा
देता है। येक ि अपने अि त व के िलए कठोर संघष कर रहा है ले कन कृ ित के िनयम
इतने कड़े और सटीक होते ह क वे कसी को उनका उ लंघन नह करने देते। थायी जीवन
ा करने के िलए मनु य को भगवदधाम वापस जाने के िलए तैयार रहना चािहए।
िजस िविध से भगवान के पास वापस जाया जाता है, वह ान क एक अलग शाखा
है और इसे उपिनषद , वेदांत सू , भगवद गीता, ीम ागवत जैसे वै दक शा से सीखना
पड़ता है। इस जीवन म सुखी रहने तथा इस भौितक शरीर को यागने के बाद थायी
आन दमय जीवन ा करने के िलए मनु य को यह पिव सािह य पढ़ना चािहए और द
ान ा करना चािहए। ब जीव ई र के साथ अपने िन य स ब ध को भूल चुका है और
उसने गलती से अपने अ थायी ज म थान को ही सव व मान िलया है। भगवान ने कृ पा
करके भारत म उपयु शा तथा अ य देश म अ य शा दान कए ह िजससे भुल ड़
मानव को मरण दलाया जा सके क उसका घर इस भौितक जगत म नह है। जीव एक
आ याि मक ाणी है और वह अपने आ याि मक घर को लौट कर ही सुखी हो सकता है।
भगवान अपने ामािणक दास को अपने धाम से अपने इस स देश का सार करने के
िलए भेजते ह, िजससे मनु य भगवान् के पास लौट सके और कभी-कभी तो भगवान् यह
काय करने के िलए वयं आते ह। चूँ क सारे जीव उनक ि य संतान ह, उनके अंश प है.
अतएव इस संसार म हम लगातार िमलने वाले क को देखकर हमारी अपे ा ई र अिधक
दुखी होते ह। इस संसार के क हम अ य प से जड पदाथ से हमारी असंगतता क याद
50

दलाते रहते ह। बुि मान जीव सामा यतया इन चेताविनय पर यान देकर िव ा या द
ान के सेवन म लग जाते ह। आ याि मक ान के सेवन के िलए मनु य-जीवन सव े
अवसर है और जो मनु य इस सुअवसर का लाभ नह उठाता वह नराधम कहलाता है।
इि यतृि के िलए भौितक िव ान क गित अथात् अिव ा का माग बार बार
ज म तथा मृ यु का माग है। आ याि मक अि त व म जीव क ज म या मृ यु नह होती।
ज म तथा मृ यु तो आ मा के बाहरी आवरण अथात् शरीर पर लागू होते ह। मृ यु तो बाहरी
व के उतारने के समान है और ज म बाहरी व को धारण करने के समान है। मूख
मनु य अिव ा के सेवन म बुरी तरह लीन रहने के कारण इस ू र िविध क िच ता नह
करते । माया के स दय से मोिहत होकर वे बार बार उ ह क का िशकार होते रहते ह और
कृ ित के िनयम से कोई िश ा हण नह कर पाते।
अत: िव ा अथात् द ान क सं कृ ित मनु य के िलए अिनवाय है। ण भौितक
दशा म इि यभोग को जहाँ तक संभव हो िनयंि त रखना चािहए। इस शारी रक अव था
म अबाध इि यतृि ान तथा मृ यु का माग है। जीव आ याि मक इि य से िवहीन नह
है; येक जीव अपने आ द आ याि मक प म इन सम त इि य से यु होता है, जो
शरीर तथा मन से आ छा दत होने के कारण अब भौितक हो गई ह। भौितक इं य के
कायकलाप मौिलक आ याि मक लीला के िवकृ त ितिब ब है। आ मा अपनी ण दशा म
भौितक आवरण के भीतर भौितक काय म लगा रहता है। असली इि यभोग तभी स भव है
जब भौितकतावाद का रोग दूर हो जाता है। हमारे असली आ याि मक प म जो सम त
भौितक क मष से मु है, इि य का शु भोग कर पाना स भव है। वा तव म इि य-भोग
कर पाने से पहले रोगी का वा य उपल ध करना आव यक है। अत: मनु य- जीवन का
उ े य िवकृ त इि यभोग नह है; मनु य को भौितक रोग ठीक करने के िलए उ सुक होना
चािहए। भौितक रोग को बढ़ाना ान का संकेत नह है अिपतु अिव ा या अ ान का सूचक
है। अ छे वा य के िलए मनु य को अपने शरीर का ताप १०५ से १०७ अंश (िड ी) तक
नह बढ़ाना चािहए अिपतु सामा य ताप ९८.६ अंश तक रखना चािहए। मनु य जीवन का
यही ल य होना चािहए।
भौितक स यता क आधुिनक वृि वर त भौितक दशा के ताप को बढ़ाना है, जो
परमाणु शि के प म १०७ अंश तक प च ँ ा आ है। इसी बीच मूख राजनीित िच ला
रहे ह क यह संसार कसी भी समय नरक को जा सकता है। यह भौितक िव ान क गित
तथा अ यिधक मह वपूण कार के जीवन अथात् आ याि मक ान क उपे ा का प रणाम
है। ी ईशोपिनषद् यहां पर सचेत करता है क हम इस घातक पथ पर नह चलना चािहए
जो हम मृ यु तक ले जाता है। इसके िवपरीत, हम आ याि मक ान क सं कृ ित का िवकास
करना चािहए िजससे हम मृ यु के र हाथ से पूणतया मु हो सके ।
इसका अथ यह भी नह है क शरीर के पालन के सारे काय को रोक दया जाये।
कायकलाप को रोकने का ही नह उठता, िजस कार क रोग ठीक होने के य का
अथ यह नह होता क अपने ताप को पूणतया िमटा दया जाये। "बुरे सौदे का सव म
51

उपयोग करना," सही कथन है। आ याि मक ान क सं कृ ित को इस शरीर तथा मन क


सहायता क आव यकता होती है, अतः अपने ल य पर प च
ँ ने के िलए शरीर और मन को
बनाए रखना आव यक है। सामा य ताप को ९८.६ अंश पर रखना चािहए। भारत के साधु-
स त ने इसे आ याि मक तथा भौितक िव ान के संतुिलत काय म ारा स प करने का
यास कया है। वे कसी भी ण इि यतृि के िलए मानवी बुि के दु पयोग क अनुमित
नह देते।
इि यतृि क ओर उ मुख वृि के ारा कये जा रहे ण मानवीय कायकलाप
का िनयमन वेद म मो के िस ांत के अ तगत कया गया है। इस प ित म धम, आ थक
िवकास, इि यतृि तथा मो का उपयोग होता है, ले कन आज के समय लोग म धम या
मो के ित िब कु ल िच नह है। जीवन म उनका एक ही ल य है- इि यतृि -और इस
ल य क पू त के िलए वे आ थक िवकास क योजना बनाते ह। पथ लोग सोचते ह क
धम को बनाए रखना चािहए य क आ थक िवकास म इसका योगदान है, िजसक
आव यकता इि यतृि म पड़ती है। इस कार मृ यु के प ात् वग म भी इि यतृि को
सुिनि त बनाये रखने के िलए कोई न कोई धा मक कमकांड प ित रहती है क तु धम का
योजन यह नह है। धम का माग वा तव म आ म-सा ा कार के िलए है और आ थक
िवकास शरीर को सुचा एवं व थ बनाए रखने के िलए है। मनु य को िव ा या वा तिवक
ान क अनुभूित के िलए जो क मनु य जीवन का ल य है व थ मन से व थ जीवन
िबताना चािहए। यह जीवन गधे क तरह काम म जुटे रहने या इि यतृि के िलए अिव ा
का अनुशीलन करने के िलए नह िमला है।
िव ा का माग पूरी तरह से ीमद् भागवत म तुत कया गया है, जो मनु य का
परम स य क खोज म अपने जीवन का सदुपयोग करने का आदेश देता है। परम स य क
अनुभूित मश: ' ', 'परमा मा' तथा अंत म ‘भगवान्' अथात् पूण पु षो म भगवान के
प म होती है परम स य क अनुभूित ऐसे िवशाल- दय ि को होती है, िजसने उपयु
दसव मं के ता पय म व णत भगव ीता के अठारह िस ा त का पालन करते ए ान
तथा वैरा य को ा कर िलया है। इन अठारह िस ा त का मु य सार पूण पु षो म
भगवान क द भि ा करना है। अतएव सभी वग के ि य को भगवान क
भि मय सेवा क कला सीखने के िलए ो सािहत कया जाता है।
िव ा के ल य का िनि त माग ील प गो वामी ारा अपनी पु तक
भि रसामृतिस धु म व णत है. िजसे हमन अं ेजी म The Nectar of Devotion के
शीषक से कािशत कया है। ीम ागवत (१.२.१४) म िव ा क सं कृ ित को िन िलिखत
श द म संि प म दया गया है।
त मादेकेन मनसा भगवान् सा वतां पितः।
ोत ः क तत येयः: पू य िन यदा।।
52

"अतएव मनु य को उन पु षो म भगवान का िनर तर वण, यशोगान, मरण तथा


पूजन करना चािहए, जो भ के र क ह।"
जब तक धम, आ थक िवकास तथा इि यतृि का ल य भगव ि क ाि नह
होता, तब तक वे अिव ा के ही िविभ प होते ह, जैसा क ी ईशोपिनषद् के अगले मं
से सूिचत होता है । ■
53

मं १२
अ धं तमः िवशि त येऽस भूितमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ स भू यां रताः ॥१२॥

अ धं-अ ान; तमः-अंधकार; िवशि त- वेश करते ह; ये-जो; अस भूितम्-देवता


क ; उपासते पूजा करते ह; तत:- उसक अपे ा; भूयः-और अिधक इव-उसके सदृश; ते-वे;
तमः-अंधकार म; ये-जो; उ-भी; स भू याम्- म; रताः-लगे ए।

अनुवाद
जो देवता क पूजा म लगे ह, वे अ ान के गहनतम े म वेश करते ह और इनसे
भी बढ़कर वे जो िनराकार के पूजक है।

ता पय
सं कृ त का श द 'अस भूित' उन ि य का सूचक है िजनका वतं अि त व नह
है। 'स भूित' तो पूण पु षो म भगवान है, जो पूणतया वतं है। भगव ीता म (१०.२)
पूण पु षो म भगवान ीकृ ण कहते ह :
न मे िवदुः सुरगणा: भवं न महषयः ।
अहमा द ह देवानां महष णां च सवशः:॥
"न तो देवगण, न ही मह षजन मेरी उ पि अथवा िवभूितय को जानते ह य क म
देवता और मुिनय का सभी कार से उ म ।ँ "
इस कार कृ ण उन शि य के मूल ह, जो देवता , मह षय तथा योिगय को
दान क गई ह। य िप उ ह महान् शि याँ दान क गई ह, तथािप ये शि याँ सीिमत ह;
अतः उनके िलए यह समझ पाना क ठन है क कृ ण कस कार अपनी अ तरंगा शि से
मनु य के प म कट होते ह।
अनेक दाशिनक तथा बड़े-बड़े ऋिष या योगी अपनी अ पबुि से परम को सापे
(स य) से िवभे दत करने का य करते ह। इससे उ ह परम का कोई िनि त िच न तो
िमलता नह , मा सापे ता से परम क नकारा मक क पना तक प च
ँ ने म सहायता िमल
सकती है। नकारा म बोध के ारा क प रभाषा पूण नह हो सकती। ऐसी िनषेधा मक
प रभाषा से िनजी धारणा को उ प करने के िलए बल िमलता है; इस तरह मनु य
क पना करता है क परम अव य ही पिवहीन (िनराकार) तथा गुणरिहत (िनगुण)
होगा। ऐसे िनषेधा मक गुण सापे सकारा मक गुण के सवथा िवलोम ह अतएव वे सापे
54

भी ह। को इस कार कि पत करने पर कोई, अिधक से अिधक, ई र के िन वशेष तेज


तक प च
ँ सकता है, िजसे ' ' कहते ह, ले कन वह परम पु षो म 'भगवान' तक नह
प च
ँ सकता।
ऐसे मनोधम ( ानी) यह नह जानते क ीकृ ण ही पूण पु षो म भगवान ह और
िनिवशेष ' उनके द शरीर का देदी यमान तेज है तथा ‘परमा मा' उनक पूण
सव ापी अिभ ि है। न ही वे यह जानते ह क कृ ण का व प सि दान द व प है।
आि त देवता तथा मह ष उ ह एक शि शाली देवता के प म मानते ह और तेज को
ही परम स य मानते ह; यह उनक अपूण िवचारधारा है, क तु कृ ण भ अपनी अन य
भि वंश और उनक शरण म जाने के कारण जान सकते ह क कृ ण परम पु ष है और हर
व तु उ ह से उ भूत होती है। ऐसे भ येक व तु के उ म कृ ण क िनर तर ेमाभि
करते ह।
भगवद गीता (७.२०,२३) म कहा गया है क के वल बुि हीन, मोह त मनु य जो
इि यतृि क बल इ छा से भािवत हो जाते ह, वे ही िणक सम या से अ थायी
राहत के िलए देवता क पूजा करते ह। चूँ क मनु य संसार से भौितक प से बँधा है
अतएव उसे भवब धन से पूणतया मु होना है, िजससे वह आ याि मक धरातल पर थायी
राहत ा कर सके , जहाँ शा त आन द, जीवन तथा ान का अि त व है। अत:
ीईशोपिनषद् यह उपदेश देती है क हम परतं देवता क पूजा करके जो मा अ थायी
लाभ ही दे सकते ह, अपनी सम या क िणक राहत लेने का यास नह करना चािहए।
युत हम पूण पु षो म भगवान कृ ण क पूजा करनी चािहए जो सवाकषक ह और हम
भगव ाम वापस ले जाकर भवबंधन से पूण मुि दे सकते है। भगव ीता म (७.२३) यह
कहा गया है क देवता क पूजा करने वाले देवलोक को जा सकते ह। च मा क पूजा
करने वाले च लोक को जा सकते ह, सूय के पूजक सूयलोक को जा सकते ह, इ या द,
इ या द । आधुिनक िव ानीजन अब रॉके ट क सहायता से च मा तक प च
ँ ने का दु साहस
कर रहे ह, ले कन यह कोई नया यास नह है। मनु य अपनी गत चेतना से वभावत:
बा अंत र म या ा करने और अ य लोक म प च
ँ ने क वृि रखता है- चाहे यह
अ त र यान के ारा हो, योगशि से हो या देव पूजा से हो। वै दक शा म कहा गया है
क मनु य इन तीन साधन म से कसी एक के ारा अ य लोक तक प च
ँ सकता है, ले कन
सवसामा य िविध उस देव क पूजा है, जो उस लोक िवशेष का अिध ाता देव हो। इस
कार मनु य च लोक, सूयलोक या लोक तक भी जो इस ा ड म सबसे उ लोक है
प च
ँ सकता है। क तु इस भौितक ा ड म सारे लोक णभंगरु िनवास- थल ह; एकमा
थायी लोक वैकु ठ लोक ह और ये आ याि मक आकाश म ि थत ह और भगवान् वयं उनके
अिध ाता ह। जैसा क भगव ीता म (८.१६) भगवान कृ ण ारा कहा गया है :
55

आ भुवना लोकाः पुनराव तनोऽजुन ।


मामुपे य तु कौ तेय पुनज म न िव ते॥
“भौितक जगत म सव लोक से लेकर िन तम लोक तक सारे के सारे लोक दुख के
थान ह, जहाँ बार बार ज म तथा मृ यु होती है। क तु हे कुं तीपु ! जो ि मेरे धाम को
ा कर लेता है, वह फर से ज म नह लेता।"
ीईशोपिनषद् पु तक इंिगत करती है क जो मनु य देवता क पूजा करता है तथा
उनके भौितक लोक को ा कर लेता है, तो भी वह ा ड के अंधकारमय भाग म ही रह
जाता है। स पूण िव िवशाल भौितक त व से ढका आ है ठीक वैस,े जैसे ना रयल खपड़े
से ढका है और उसका आधा भाग जल से भरा है। चूँ क इसका बाहरी आवरण वायु है
और इसके अ दर घना अंधकार है इसिलए इसे कािशत करने के िलए सूय और च मा क
आव यकता है। ा ड के बाहर ापक तथा असीम योित का सार है, जो वैकु ठ
लोक से भरा पड़ा है । योित म सबसे बड़ा तथा ऊँचा लोक कृ ण लोक या गोलोक
वृ दावन है, जहाँ पूण पु षो म भगवान् ीकृ ण वयं िनवास करते ह। वे कभी इस
कृ णलोक को छोड़ते नह । य िप वे वहाँ अपने िन य पाषद के साथ िनवास करते ह,
तथािप वे स पूण भौितक तथा आ याि मक िवराट सृि य म सव ापी ह। इसक ा या
चौथे मं म पहले ही क जा चुक है। भगवान् उसी तरह सव िव मान ह, िजस तरह सूय
है; फर भी वे एक थान पर ि थत ह, िजस तरह सूय अपनी अिवचल क ा म ि थत रहता
है।
जीवन क सम याएँ मा च मा पर या इसके ऊपर या नीचे के कसी दूसरे लोक
पर जाने से हल होने वाली नह है। अत: ी ईशोपिनषद् हम सलाह देता है क इस
अंधकारपूण भौितक ा ड म कसी भी गंत क परवाह न करके इससे बाहर िनकलने
और ई र के योितमय सा ा य म प च ँ ने का यास करना चािहए। ऐसे अनेक छ -पूजक
ह, जो नाम तथा यश कमाने के उ े य से धम वजी बनते ह। ऐसे छ धम वजी इस ा ड
से िनकल कर वैकु ठलोक म नह जाना चाहते। वे ई र पूजक के छ वेश म इस जगत म
अपनी ि थित पूववत् बनाए रखना चाहते ह। नाि तक तथा िन वशेषवादी ऐसे छ -
धम विजय को नाि तकतावादी िवचारधारा का उपदेश देकर गहनतम अंधकार म ढके ल
देते ह। नाि तक पूण पु षो म भगवान के अि त व को सीधे-सीधे नकारता है और
िन वशेषवादी परमे र के िनराकार प पर ऐसे नाि तक के समथन को बल देता है। अभी
तक हम ीईशोपिनषद् म कोई ऐसा मं नह िमला िजसम पूण पु षो म भगवान के
अि त व को नकारा गया हो। कहा गया है क वे कसी से भी अिधक तेज दौड़ सकते ह। अ य
ह के पीछे दौड़ने वाले िन य ही आकारवान मनु य ह और य द भगवान उन सबसे तेज
दौड़ सकते ह, तो फर उ ह कस तरह िनराकार कहा जा सकता है। परमे र क िनराकार
धारणा अ ान का दूसरा प है, जो परम स य क अपूण धारणा से उ प होती है।
56

अ ानी छ -धम वजी एवं तथाकिथत अवतार का िनमाण करने वाले जो वै दक


आदेश का य उ लंघन करते है, ा ड के अंधकारमय भाग म वेश करते ह य क वे
अपने अनुयाियय को पथ करते ह। ये िन वशेषवादी सामा यतया मूख के म य अपने को
ई र का अवतार घोिषत करते ह य क उ ह वै दक वा य का कोई ान नह होता । य द
ऐसे मुख पु ष के हाथ तिनक भी ान लग जाता है तो वह ान उनके हाथ म ान क
अपे ा अिधक घातक है। ऐसे िन वशेषवादी शा ारा बताई गई िविध से देवता क भी
पूजा नह करते। शा म कितपय प रि थितय के अ तगत देवता क पूजा करने क
सं तुितयाँ ह, ले कन उसके साथ-साथ ये शा यह भी कहते ह क सामा यतया ऐसा करने
क कोई आव यकता नह है।
भगव ीता म (७.२३) प कहा गया है क देवता क पूजा करने से जो फल ा
होते ह, वे थायी नह होते। चूँ क यह सारा भौितक ा ड ही थायी नह है, अतएव
भौितक जगत के अंधकार म जो कु छ भी उपल ध हो पाता है, वह भी न र है। यह है
क स ा तथा थायी जीवन कस तरह ा कया जाए ?
भगवान् कहते ह क य ही कोई भि के ारा उन तक प च ँ जाता है-जो भगवान
तक प च
ँ ने का एकमा माग है- य ही वह ज म तथा मृ यु के ब धन से पूण मुि पा जाता
है। दूसरे श द म, भवब धन से मो का माग भगव ि के ारा ा ान तथा वैरा य के
िस ांत पर पूरी तरह िनभर रहता है। इन छ -धम विजय म न तो ान होता है न
भौितक मामल से िवरि य क उनम से अिधकांश लोग भवब धन क व णम जंजीर म
बँध कर धा मक िस ा त के वेश म छु पे परोपकारी एवं क याणकारी कायकलाप क छाया
के तले जीिवत रहना चाहते ह। धा मक भावना के झूठे दशन ारा वे भि का व प
तुत करते ह जब क वे सभी कार के दुराचार करते रहते ह। इस कार वे गु तथा ई र
के भ के प म बने रहते ह। धम के िनयम का उ लंघन करने वाले ऐसे लोग ामािणक
आचाय के ित कोई स मान नह दखाते। वे वै दक आदेश आचाय पासना (आचाय क
पूजा) तथा भगव ीता (४.२) म कृ ण के कथन--एवं पर परा ा म्--का भी उ लंघन करते
ह। वे सामा य जनता को ा त करने के िलए वयं तथाकिथत आचाय बन बैठते ह, ले कन
वे आचाय के िस ा त का पालन तक नह करते।
ऐसे धूत मानव समाज के सबसे घातक त व ह। चूँ क कोई धम-आधा रत सरकार
िव मान नह है, अतएव वे रा य के िनयम ारा द ड पाने से बच जाते ह। क तु वे
परमे र के िनयम से नह बच सकते िज ह ने भगव ीता म (१६.१९-२०) घोिषत कया है
क धम चारक के वेश म ई यालु असुर को नरक के गहनतम भाग म डाल दया जाएगा।
ीईशोपिनषद् पुि करती है क ये छ धम वजी के वल अपनी इि यतृि के िलए चलाए
जाने वाले गु के ापार के पूरा होने पर ा ड के सबसे घृिणत थान क ओर बढ़
जाएँगे। ■
57

मं १३
अ यदेवा ः स भवाद यदा रस भवात्।
इित शु म
ु धीराणां ये न ति चचि रे ॥१३॥

अ यत्-िभ ; एव-िन य ही; आ ः-कहा जाता है; स भवात्-सम त कारण के कारण


परमे र क पूजा ारा; अ यत्-िभ ; आ :-कहा जाता है; अस भवात्-जो परमे र नह है
उसक पूजा से; इित-इस कार; शु ुम- मने यह सुना; धीराणां-धीर पु ष से; ये-जो ; न:
हमको; तत्-उस िवषयव तु के बारे म; िवचचि रे -पूणतया बताया गया।

अनुवाद
कहा जाता है क सम त कारण के कारण व प परमे र क पूजा करने से एक तरह
का फल िमलता है और जो परम स य नह है उसक पूजा करने से दूसरी तरह का फल
िमलता है। यह सब उन धीर पु ष से सुना गया है िज ह ने इसका प प से वणन कया
है।

ता पय
इस मं से धीर पु ष से वण करने क प ित मािणत होती है। जब तक ऐसे
ामािणक आचाय से वण नह कया जाता, जो भौितक जगत म होने वाले प रवतन से
तिनक भी िवचिलत नह होता, तब तक द ान क असली कुं जी ा नह हो पाती।
िजस भी ामािणक गु ने अपने धीर आचाय से ुित मं या वै दक ान को सुना है, वह
कभी भी कोई ऐसी बात तुत नह करता जो वै दक थ म उि लिखत न हो। भगव ीता
म (९.२५) प कहा गया है क जो िपतर क पूजा करते ह, वे िपतृलोक ा करते ह; वे
िनपट भौितकतावादी जो यह बने रहने क योजना बनाते ह इसी लोक म रहते ह और
भगव , जो सम त कारण के परम कारण भगवान कृ ण के अित र कसी और क
पूजा नह करते वैकु ठ म भगवान के धाम प च
ँ ते ह।
यहाँ पर ीईशोपिनषद् म भी पुि क गई है क िविभ कार क पूजा से िभ
कार के फल ा होते ह। य द हम परमे र क पूजा करते ह, तो हम अव य ही उनके
िन य धाम म उनके पास प च
ँ गे, ले कन य द हम सूयदेव अथवा च जैसे देवता क पूजा
कर तो हम िन स देह, उनके लोक म प च
ँ जाएँगे। क तु य द हम अपने योजना आयोग
58

तथा अपनी कामचलाऊ राजनीितक जोड़तोड़ से इसी मन स लोक म बने रहना चाहते ह,
तो िनि त प से हम वह भी कर सकते ह।
ामािणक शा म कह भी यह नह कहा गया क मनु य कु छ भी करके या कसी
क भी पूजा करके अ ततोग वा एक ही ल य पर प चं ेगा । ऐसे मूखतापूण िस ा त वतः
िन मत गु ारा तुत कए जाते ह िजनका पर परा से कोई स ब ध नह होता। कोई
भी ामािणक गु यह नह कह सकता क सारे माग एक ही ल य को जाते ह और कोई भी
मनु य इस ल य को अपनी िविध से क गई देवता क या परमे र क या कसी क भी
पूजा से ा कर सकता है। कसी भी सामा य ि के िलए यह समझना आसान है क
मनु य अपने गंत तक तभी प च ँ सकता है जब उसने वहाँ का टकट खरीदा हो। िजस
ि ने कलक ा का टकट खरीदा है, वह कलक ा प च
ँ सकता है, मुंबई नह । फर भी,
तथाकिथत गु कहते ह क कोई भी पथ तथा सारे माग कसी को परम ग त तक ले जा
सकते ह। ऐसे सांसा रक तथा समझौतावादी लोग अनेक मूख ािणय को आक षत करते ह,
जो उनके ारा िन मत आ याि मक सा ा कार क िविधय से ग वत हो उठते ह। ले कन
वै दक आदेश उनका समथन नह करते। जब तक कोई ामािणक गु से ान न ा करे,
जो िश य-पर परा ारा मा य ेणी म है, तब तक उसे असली व तु यथा प म ा नह हो
सकती। कृ ण भगव ीता म (४.२) अजुन से कहते ह :
एवं पर परा ा िममं राजषयो िवदुः।
स कालेनेह महता योगो न ः पर तप॥
"यह परम िव ान इस कार पर परा से ा आ था और राज षय ने इसे इसी
कार से समझा। ले कन काला तर म यह पर परा टू ट गई और अब यह िव ान अपने
यथा प म लु ाय हो गया तीत होता है।"
जब भगवान ीकृ ण इस धराधाम म उपि थत थे तो भि योग के िस ा त,
िजनक प रभाषा भगव ीता म दी गई है, िव िपत हो चुके थे। अतएव भगवान को अजुन
से ार भ करके यह पर परा पुन: थािपत करनी पड़ी जो भगवान का अ य त िव ासपा
िम तथा भ था। भगवान ने अजुन से प कह दया था ( भगवतगीता ४.३) क चूँ क
तुम मेरे भ तथा िम हो अतएव भगव ीता के िस ा त तुम समझ सकते हो। दूसरे श द
म, जो ि भगवान का भ तथा िम है, वह गीता को समझ सकता है। इसका यह भी
अथ होता है क जो कोई अजुन के पथ का अनुगमन करता है, वही भगव ीता को समझ
सकता है।
वतमान समय म इस भ संवाद के अनेक ा याकार तथा अनुवादक ह, जो
भगवान कृ ण तथा अजुन क तिनक भी परवाह नह करते। ऐसे ा याकार भगव ीता के
ोक क ा या अपने ढंग से करते ह और गीता के नाम पर सभी कार के कू ड़े-करकट क
59

प रक पना करते ह। ऐसे ा याकार न तो ी कृ ण म िव ास करते ह न ही उनके िन य


धाम म। तो फर, वे भगवतगीता क ा या कस तरह कर सकते ह?
कृ ण प कहते ह ( भगवतगीता ७.२०,२३) क िजन लोग क बुि मारी गई है वे
ही तु छ फल के िलए देवता का पूजा करते ह। अ ततोग वा कृ ण उपदेश देते ह
(भगवदगीता १८.६६) क मनु य पूजा के अपने सारे िवधान का याग कर मा उ ह क
शरण हण करे । जो लोग सारे पाप कम के फल से शु हो चुके ह के वल वे ही भगवान म
अटू ट ा रख सकते ह। अ य लोग अपनी तु छ पूजा िविधय को लेकर भौितक रं गमंच म
मँडराते रहगे और असली पथ से इस म के कारण िवपथ हो जाएँगे क सारे पथ एक ही
ल य को ले जाते ह।
ी ईशोपिनषद के इस मं म स भवात् श द अ य त मह वपूण है। इसका अथ है
परम कारण क पूजा से। भगवान् कृ ण आ द पु ष ह और यहाँ िजतनी व तु का अि त व
है, वे सब उ ह से उ भूत ह। भगव ीता म (१०.८) भगवान बताते ह
अहं सव य भवो म ः सव वतते।
इित म वा भज ते मां बुधा भावसमि वता:॥
“म ही सभी आ याि मक तथा भौितक जगत का ोत ।ँ सबकु छ मुझ से ही उ भूत
है। बुि मान ि जो इसे पूण पेण जानते ह.मेरी भि म लगते ह और दय से मेरी पूजा
करते ह।“
यह है वयं परमे र ारा दया गया भगवान का शु वणन। सव य भव: श द
बताते ह क कृ ण ही ा, िव णु तथा िशव समेत सम त ािणय के ा ह। चूँ क भौितक
जगत के ये तीन मुख देवता भगवान ारा उ प कए गए ह, अतएव भौितक तथा
आ याि मक जगत म जो कु छ भी िव मान है, उसके सृ ा भगवान ह। अथववेद
(गोपालतापना उपिनषद् १.२४) म भी इसी कार कहा गया है " ा क सृि के पूव जो
िव मान था तथा िजसने ा को वै दक ान दया वे भगवान् ीकृ ण ही ह। इसी कार
नारायण उपिनषद् (१) बताती है, "परम पु ष ने जीव क उ पि करनी चाही। नारायण
से ा उप ए। नारायण ने सारे जापितय को उ प कया। नारायण ने इ को
बनाया। नारायण ने आठ वसु बनाए। नारायण ने यारह बनाए। नारायण ने बारह
आ द य क सृि क ।" चूँ क नारायण भगवान कृ ण के पूण अंश ह, अतएव नारायण तथा
कृ ण एक ही ह। नारायण उपिनषद् (४) यह भी कहती है क देवक के पु कृ ण परम ई र
ह । नारायण को परम कारण के प म ीपाद शंकराचाय ने भी वीकार कया है और पुि
क है, य िप शंकराचाय न तो वै णव थे न ही सगुणवादी स दाय के थे। अथववेद (महा
उपिनषद्) का भी यह कथन है, "जब न ा, न िशव, न अि , न जल, न तारे , न सूय, न ही
च मा थे तब ार भ म के वल नारायण ही थे। भगवान् कभी अके ले नह रहते; वे
60

इ छानुसार सृि कर लेते ह।" कृ ण ने मो धम म वयं कहा है, "मैने जापितय तथा
क सृि क । उ ह मेरा पूण ान नह है य क वे मेरी ामक शि ारा छ ह।" वराह
पुराण म भी कहा गया है, "नारायण परम पु ष भगवान ह और उ ह से चतुमुख ा तथा
भी कट ए जो बाद म सव बन गए।"
इस कार सारा वै दक सािह य इसक पुि करता है क नारायण या कृ ण ही
सम त कारण के कारण है। -संिहता (५.१) म भी कह गया है क परमे र तो ीकृ ण,
गोिव द, ह, जो येक जीव को स करने वाले तथा सम त कारण के आ द कारण ह।
असली िव ान पु ष इसे मह षय तथा वेद ारा दए गए माण से जानते ह। इस तरह
िव ान मनु य कृ ण को सवसवा मानकर पूजा करने का िनणय लेता है। ऐसे लोग बु या
वा तिवक िव ान कहलाते ह।
यह दृढ़ िन ा क कृ ण सवसवा ह तब थािपत होती है जब मनु य अिवचल (धीर)
आचाय से ापूवक तथा ेमपूवक द स देश का वण करता है। िजस ि क
भगवान कृ ण म ा या उनके ित ेम नह होता उसे इस सरल स य के ित िव त
नह कया जा सकता। भगव ीता म (९.११) अ ालु को मूढ़, मूख या गधा कहा गया
है। यह कहा गया है क मूढ़ लोग पूण पु षो म भगवान का उपहास करते ह य क उ ह
अिवचल आचाय से पूण ान ा नह आ रहता। जो ि भौितक शि के भँवर ारा
िवचिलत होता हो वह आचाय बनने के यो य नह है।
भगव ीता सुनने के पूव अजुन अपने प रवार, समाज तथा जाित के ित ेह के
कारण भौितक भँवर ारा िवचिलत था। अतएव अजुन परोपकारी तथा िव का अ हंसक
ि बनना चाहता था। क तु जब वह परम पु ष से भगव ीता का वै दक ान सुनकर
बुध बन गया तो उसने अपना िनणय बदल दया और वह भगवान कृ ण का उपासक बन
गया, िज ह ने वयं कु े यु क योजना बनाई थी। अजुन ने अपने तथाकिथत
स बि धय से यु करके भगवान क पूजा क । इस कार वह भगवान का शु भ बन
गया और ऐसी िसि याँ तभी िमल सकती ह जब कोई असली कृ ण को पूज,े कसी बनावटी
कृ ण को नह जो भगव ीता तथा ीम ागवत म व णत कृ ण िव ान क बारी कय से
अनिभ मूख ारा आिव कृ त हो।
वेदांतसू के अनुसार स भूत ज म तथा पालन का ोत होने के साथ-साथ लय के
बाद जो कु छ बचता है उसका आगार होता है। (ज मा य यत:) ीम ागवत जो
वेदा तसू पर, उसके रचियता क ही टीका है, यह कहती है क सम त उ व का ोत
कोई जड़ प थर जैसा नह होता अिपतु वह पूण अिभ या पूणतया चेतन होता है।
भगव ीता म (७.२६) आ द भगवान् ीकृ ण भी यह कहते ह क वे भूत, वतमान तथा
भिव य से पूणतया अिभ ह, क तु िशव तथा ा जैसे देवता भी उ ह पूरी तरह नह
जानते । िन य ही अधिशि त गु जो भवसागर के उतार-चढ़ाव से िव ु ध रहते ह पूरी
61

तरह से उ ह नह जान सकते। वे मानव समाज को पूजा का ल य (आरा य) मान कर कु छ


समझौता करने का यास करना चाहते ले कन वे यह नह समझते क ऐसी पूजा मा एक
क पना है य क जनता अपूण है। इन तथाकिथत गु का यास वृ क जड़ को न
स चकर पि य पर पानी डालने के तु य है। वा तिवक िविध तो जड़ म पानी डालने क है,
ले कन ऐसे िव ु ध नेता तो जड़ के बजाय पि य से अिधक आक षत होते ह । फलत:
पि य को िनर तर स चते रहने पर भी पोषण के अभाव म सब कु छ सूख जाता है।
ीईशोपिनषद् हम िश ा देता है क जड़ को स चो, जो अंकुरण का ोत है।
शारी रक सेवा करके मानव समाज क पूजा कभी भी पूण नह हो सकती और वह आ मा
क सेवा से कम मह वपूण है। आ मा वह जड़ है जो कम के िनयम के अनुसार िविभ कार
के शरीर को ज म देती है। उपचार सहायता, सामािजक सहायता तथा िश ा स ब धी
सुिवधाएँ दान करके मनु य क सेवा करने के साथ ही साथ कसाइघर म दीन पशु के
गले काटना जीव अथात् आ मा क कोई सेवा नह है।
जीव िनर तर िविभ कार के शरीर म ज म, जरा, रोग तथा मृ यु के भौितक क
भोगता रहता है। मानव जीवन ऐसा अवसर है, िजसम जीव तथा परमे र के बीच खोए
स ब ध को पुन: थािपत करके इस बंधन से छू टा जा सकता है। भगवान स भूत के ित
शरणागित के दशन क िश ा देने के िलए वयं आते ह। मानवता क वा तिवक सेवा तो तब
होती है जब मनु य पूण ेम तथा शि सिहत परमे र क शरण हण करने तथा पूजा
करने क िश ा देता है। इस मं म ी ईशोपिनषद् का यही उपदेश है।
अशाि त के इस युग म परमे र क पूजा करने क सरल िविध है--उनके महान्
कायकलाप के िवषय म वण तथा क तन करना। क तु मनाधम सोचते ह क भगवान के
कायकलाप का पिनक ह; अतएव वे उ ह सुनने से कतराते ह और िनद ष जनता का यान
मोडने के िलए िनरथक वा जाल का आिव कार करते रहते ह। भगवान् ीकृ ण के
कायकलाप का वण करने के बजाय ऐसे ढ गी गु अपने अनुयाियय को उनका गुणगान
करने के िलए फु सलाकर आ म िव ापन कराते ह। आधुिनक युग म ऐसे पाखंिडय क सं या
म काफ वृि ई है और भगवान के शु भ के िलए यह सम या बन गई है क वे जनता
को इन पाखंिडय तथा छ अवतार के अपिव चार से कस कार बचाएँ।
उपिनषद अ य प से हमारा यान आ द भगवान ीकृ ण क ओर आक षत
कराती ह, ले कन सम त उपिनषद का सार भगव ीता सीधे कृ ण को लि त करती है।
ीकृ ण िजस तरह है उसी प म उ ह भगव ीता या ीम ागवत से सुनने से, मनु य का
मन मशः सम त दूिषत व तु से व छ हो जाता है। ीम ागवत (१.२.१७) का
कथन है, "भगवान् के कायकलाप के वण ारा भ भगवान् का यान अपनी ओर
ख चता है। इस कार जन-जन के दय म वास करने वाले भगवान भ को समुिचत दशा
62

दान करके उसक सहायता करते ह ।" भगव ीता भी (१०.१०) इसी क पुि करती है।
ददािम बुि योगं तं येन मामुपयाि त ते।
भगवान के आ त रक िनदश ारा भ के दय का वह सारा क मष दूर हो जाता है,
जो रजो और तमो गुण ारा उ प होता है। अभ गण रजो तथा तमो गुण के वश म रहते
ह। जो रजोगुणी है, वह भौितक लालसा से िवर नह हो सकता और जो तमोगुणी है, वह
न तो यह जान सकता है क वह या है, न यह क भगवान या ह। अतएव रजोगुणी या
तमोगुणी के िलए आ म-सा ा कार क कोई स भावना नह रहती, चाहे वह कतना ही
धमा मा बनने का यास य न करे । भ के िलए रजो तथा तमोगुण भगव कृ पा दूर हो
जाते ह। इस तरह भ सतोगुण को ा होता है, जो पूण ा ण का ल ण है। कोई भी
ि य द वह ामािणक गु के िनदशन म भि पथ का अनुगमन करे तो ा ण बन
सकता है। ीम ागवत का भी (२.४.१८) कथन है :
करात णा पुिल दपु कसा
आभीरक का यवना: खसादयः ।
येऽ ये च पापा यदुपा या याः
शु यि त त मै भिव णवे नमः
“कोई भी िन ज मा ि भगवान के शु भ के माग िनदशन म शु हो सकता
है य क भगवान अि तीय प से शि मान है।“
ा ण गुण को ा कर लेने पर मनु य सुखी हो जाता है और भगवान क भि
करने के िलए उ सािहत रहता है। उसके सम भगवदिव ान वतः कट हो जाता है।
भगवदिव ान जानने से मनु य धीरे धीरे भौितक आसि य से मु होता जाता है और
उसका संशय त मन भगव कृ पा से िवमल हो जाता है। जब उसे यह अव था ा हो जाती
है, तो वह मु ा मा बन जाता है और जीवन के येक पग म भगवान का दशन कर सकता
है। यह स भव क िसि है, जैसा क ी ईशोपिनषद के इस मं म कहा गया है। ■
63

मं १४
स भू तं च िवनाशं च य तद् वेदोभयं सह ।
िवनाशेन मृ यु ती वा स भू यामृतम तु े ॥१४॥

स भूितम्-शा त भगवान को, उनके द नाम, प, लीला तथा गुण को, साज-
सामान को, उनके काम क िविवधता आ द को; च-तथा; िवनाशम् -देवता , मनु य ,
पशु इ या द क िणक भौितक अिभ ि तथा उनके िम या नाम , यश इ या द को; च-
भी; यः-जो; तत्-वह; वेद-जानता है; उभयम्-दोन को; सह-सिहत; िवनाशेन-िवनाशशील
से; मृ युम् -मृ यु को; ती वा- पार करके ; स भू या-भगवान के शा त रा य म; अमृतम्
अमरता; अ ुते-भोगता है।

अनुवाद
मनु य को चािहए क पूण पु षो म भगवान तथा उनके द नाम प, गुण तथा
लीला के साथ ही साथ अ थायी देवता , मनु य तथा पशु से यु न र भौितक सृि
को भलीभाँित जान ले। जब मनु य इ ह जान लेता है, तो वह मृ यु एवं अिन य दृ य जगत
को पार कर लेता है और भगवान के शा त रा य म आनंद तथा ान का शा त जीवन
भोगता है।

ता पय
ान क तथाकिथत गित के ारा मानव स यता ने अनेक भौितक व तु को ज म
दया है िजनम अ त र यान तथा परमाणु शि भी सि मिलत ह। फर भी वह ज म, जरा,
रोग तथा मृ यु से मुि दलाने म िवफल रही है। जब भी बुि मान मनु य तथाकिथत
वै ािनक के सम इन क के को उठाता है, तो वह अ य त चतुराई से उ र देता है क
भौितक िव ान गित कर रहा है और अ ततः मनु य को मृ युरिहत बनाकर और वृ ाव था
से छु टकारा दलाकर अमर बनाया जा सके गा। ऐसे उ र भौितक कृ ित के िवषय म
वै ािनक के िनपट अ ान को बताने वाले ह। भौितक कृ ित के अ तगत येक जीव कठोर
भौितक िनयम के अधीन है और उसे अि त व क छः अव था म से गुजरना होता है, ये है
ज म, वृि , पालन, उपो पादन, य तथा अ ततोग वा मृ यु। कृ ित के स पक म आने वाला
64

कोई भी ि इन छह िनयम से परे नह रह सकता; अतएव चाहे देवता, मनु य, पशु या


वृ कोई भी हो, वह भौितक जगत म सदा जीिवत नह रह सकता।
जीवन क अविध (आयु) योिनय के अनुसार िभ -िभ होती है। इस भौितक
ा ड म जीव म धान ाजी लाख वष तक जीिवत रहते ह, जब क एक सू म क टाणु
के वल कु छ ही घ टे िज दा रहता है। इस जगत म कोई शा त नह है। इस जगत म व तुएँ
िवशेष ि थितय म उ प होती ह या पैदा क जाती ह; वे कु छ काल तक रहती ह और य द
वे बनी रहती ह, तो बढ़ती ह, उ पि करती ह, मश: ीण होती ह और अ त म लु हो
जाती ह। इन िनयम के अनुसार िविभ ा ड के लाख ा भी आज या कल मृ यु को
ा ह गे। इसिलए सारा भौितक ा ड मृ युलोक कहलाता है।
भौितक िव ानी तथा राजनीित इस थान को मृ यु िवहीन बनाने का यास कर रहे
ह य क उ ह मृ यु िवहीन आ याि मक कृ ित का कोई ान नह है। यह तो उस वै दक
सािह य के ित उनका अ ान है, जो ौढ़ द अनुभव के आधार पर पु ान से पूण है।
दुभा यवश आधुिनक मनु य वेद , पुराण तथा अ य शा से ान ा करने म िच नह
रखता है।
िव णु पुराण (६.७.६१) से हम िन िलिखत जानकारी िमलती ह :
िव णु शि परा ो ा े ा या तथा परा।
अिव ा-कम-सं ा या ि तीया शि र यते॥
पूण पु षो म भगवान िव णु क िविभ शि याँ ह। ये परा तथा अपरा कहलाती
ह। जीव परा शि म आते ह। भौितक शि िजसम हम अधुना फँ से ए ह वह अपरा शि
है। इसी शि से भौितक सृि स भव होती है। यह शि जीव को अिव ा से आ छा दत
कर लेती है और उ ह सकाम कम करने के िलए े रत करती है। फर भी भगवान क परा
शि का एक और भाग है, जो इस भौितक अपरा शि तथा जीव से िभ है। इस परा
शि से भगवान का शा त या अमर िनवास बना है। इसक पुि भगव ीता (८.२०) म
ई है :
पर त मा ु भावोऽ योऽ ोऽ ा सनातन:।
यः स सवषु भूतेषु न य सु न िवन यित॥
सारे भौितक लोक-ऊ व, अधः तथा म यलोक, िजनम सूय, च तथा शु सि मिलत
ह, ा ड भर म िबखरे हए ह। ये सारे लोक ' ा' के जीवन काल तक ही रहते ह। ले कन
कु छ अधोलोक तो ' ा' के एक दन क समाि पर न हो जाते ह और दूसरे दन पुनः
उप होते ह। ऊ व लोक म समय क गणना िभ रीित से होती है। अनेक उ तर लोक
म हमारा एक वष एक दन तथा एक राि अथात् चौबीस घंटे के बराबर होता है। इन
लोक क काल माप के अनुसार पृ वी के चार युग (स य, ेता. ापर तथा किलयुग) के वल
65

१२,००० वष तक रहते ह । य द इस काल को एक हजार से गुणा कया जाए तो यह ा


के एक दन के तु य होगा और ा क एक रात भी इतनी ही होती है। ऐसे दन-रात
िमलकर मास तथा वष क सृि करते ह और ा ऐसे एक सौ वष तक जीिवत रहता है।
ा के जीवन का अ त होने पर स पूण भौितक सृि िवन हो जाती है।
वे जीव जो सूय तथा च मा जैसे उ लोक म वास करते ह तथा वे जो मृ यलोक म
िजसम यह पृ वी तथा नीचे के अनेक लोक सि मिलत ह वास करते ह, सभी ा क राि
के समय लय के सागर म डू ब जाते ह। इस काल म कोई भी जीव या योिन जीिवत नह
रहती य िप आ याि मक दृि से ये बने रहते ह। यह अ कट अव था अ कहलाती है।
पुन: जब ा क आयु के अ त म सारा ा डन होता है, तो एक अ य अ अव था
आती है। क तु इन दो अ अव था से परे एक और अ अव था है आ याि मक
आकाश या कृ ित। इस आकाश म अनेक आ याि मक लोक ह और वे शा त ह, जब क इस
भौितक ा ड के सारे लोक ा के जीवन क समाि पर न हो जाते ह। सारे ा
के अिधकार म अनेक भौितक ा ड है - येक ा के े ािधकार म एक-और िविभ
ा ड के अधीन िजतना दृ य जगत है, वह परमे र क मा एक चौथाई शि का
दशन है (एकपाद िवभूित)। यह अपरा शि है। आ याि मक कृ ित ा के अिधकार े
के बाहर है, जो ि पाद-िवभूित भगवान क शि का तीन चौथाई भाग कहलाती है। यह
परा कृ ित है।
आ याि मक कृ ित म िनवास करने वाले अिध ाता परम पु ष भगवान् ीकृ ण ह।
जैसा क भगव ीता म (८.२२) पुि क गई है, के वल अन य भि ारा ही भगवान तक
प च
ँ ा जा सकता है- ान, योग या कम क िविधय ारा नह । कम लोग वगलोक तक
िजनम सूय तथा च सि मिलत ह, उठ सकते ह। ानी तथा योगी इससे भी उ लोक यथा
महरलोक, तपोलोक तथा लोक तक प च
ँ सकते ह। क तु भि ारा जब वे और अिधक
यो य हो जाते ह, तो उ ह अपनी-अपनी यो यता के अनुसार आ याि मक कृ ित म या तो
आ याि मक आकाश के दी िव -प रवेश म ( ) या वैकु ठ लोक म वेश करने दया
जाता है। ले कन इतना तो िनि त है क भि म िशि त ए िबना कसी को भी वैकु ठ
लोक म िव नह होने दया जाता।
भौितक लोक म ा से लेकर च टी तक सारे ाणी भौितक कृ ित पर भु व
जमाने का यास करते ह और यही भवरोग है। जब तक यह भवरोग रहता है तब तक येक
जीव को शरीर-प रवतन क या म से गुजरना पड़ता है। चाहे वह मनु य का प ा
करे या देवता अथवा पशु का, उसे दो लय - ा क राि क लय तथा ा के जीवन
के अ त क लय-के बीच क अ अव था सहन करनी पड़ती है। य द हम ज म तथा
मृ यु के बार बार के च को समा करना चाहते ह तथा साथ ही साथ बुढ़ापे तथा रोग को
भी दूर करना चाहते ह, तो हम आ याि मक लोक म िव करने का यास करना चािहए
66

जहाँ हम भगवान कृ ण या उनके वांश िव तार अथात् नारायण प क संगित म िन य


रह सकते ह। भगवान कृ ण या उनके पूणाश इन असं य लोक म से येक म भु व बनाए
ए ह, जो एक त य है, िजसक पुि ुित मं म होती है। एको वशी सवगः कृ णऽई ः
एकोऽिप स ब धा योऽवभाित । (गोपालतापनी उपिनषद् १.३.२१)
कृ ण के ऊपर कोई भु व नह जमा सकता। यह तो ब जीव है, जो भौितक कृ ित
पर भु व जमाना चाहता है और उ टे, कृ ित के िनयम को तथा बार बार ज म-मृ यु के
क को भोगता है। भगवान यहाँ पर धम क पुन थापना करने के िलए आते ह और मूल
िस ा त तो यह है क उनक शरण म जाने के िलए मनोभाव को िवकिसत करना होता है।
भगवत गीता म (१८.६६) भगवान का यही अि तम आदेश है, सवधमान् प र य य माम्
एकं शरणं ज। ‘‘अ य सभी धम को याग कर मा मेरी शरण म आओ" ले कन मूख ने इस
मूल िश ा क गलत ा या करके जनता को िविभ कार से पथ कया है। लोग को
अ पताल खोलने के िलए तो े रत कया गया है, क तु भि ारा वैकु ठ जाने के िलए
अपने आपको िशि त करने के िलए नह बताया गया। उ ह अ थाई राहत काय म ही िच
लेने क िश ा दी गई है, िजससे जीव को कभी भी वा तिवक सुख नह िमल सकता। वे
कृ ित क िवनाशकारी शि को वश म करने के िलए अनेक कार क सावजिनक तथा अध
सरकारी सं था चलाते ह, ले कन वे दुजय कृ ित को शा त करना नह जानते। अनेक लोग
को भगव ीता का महान् पंिडत चा रत कया जाता है ले कन वे गीता के उस स देश पर
यान नह देते ह िजससे भौितक कृ ित को शा त कया जा सकता है। शि शाली कृ ित को
भगवद् चेतना जागृत करके ही शा त कया जा सकता है,जैसा क भगव ीता म (७.१४)
प इंिगत आ है।
इस मं ारा ी ईशोपिनषद् िसखाता है क मनु य को स भूित (परम पु ष
भगवान) तथा िवनाश ( िणक भौितक ाक ) दोन को ही साथ-साथ भलीभाँित जानना
चािहए। के वल भौितक सृि को जानकर कोई कसी को नह बचा सकता य क कृ ित म
ित ण िवनाशलीला चलती रहती है। अह यहिन भूतािन ग छ तीह यमालयम्-- न ही
अ पताल खोलकर कसी को इस िवनाशलीला से बचाया जा सकता है। के वल आन द तथा
सतकतापूण शा त जीवन के पूण ान से कसी को बचाया जा सकता है। स पूण वै दक
योजना मनु य को शा त जीवन क उपलि ध क इस कला म िशि त बनाना है। लोग
ायः इि यतृि पर आधा रत िणक आकषक व तु ारा िमत हो जाते ह, ले कन
इि य िवषय के ित क जाने वाली सेवा पथ करने वाली तथा नीचे िगराने वाली है।
अतएव हम अपने आपको तथा अपने संगी को सही ढंग से बचाना चािहए। स य को चाहने
या न चाहने का नह है। वह तो है ही। य द हम बार बार होने वाले ज म-मृ यु के च
से बचना चाहते ह, तो हम भगवान क भि हण करनी चािहए। इसम कोई समझौता
नह हो सकता य क यह तो अिनवायता का िवषय है। ■
67

मं १५
िहर यमयेन पा णे स य यािपिहतं मुखम्।
तत् वं पूष पावृणु स यधमाय दृ ये ॥१५॥

िहर मयेन- व णम तेज वाले: पा ेण-दी आवरण से; स य य-परम स य


के ; अिपिहतम्- छ ; मुखम्- चेहरा, मुँह को; तत-वह आवरण; वं-तुम; पूषन् – हे पालक;
अपावृणु-कृ पया हटा लीिजए; स य- शु ; धमाय-भ के िलए; दृ ये- दशन हेतु।

अनुवाद
हे भगवन् ! हे सम त जीव के पालक! आपका असली मुखमंडल तो आपके चमचमाते
तेज से ढका आ है। कृ पा करके इस आवरण को हटा लीिजए और अपने श भ को अपना
दशन दीिजए।

ता पय
भगव ीता म (१४.२७) अपने साकार व प के देदी यमान तेज ( योित) का
वणन भगवान इस कार करते ह :
णो िह ित ाहममृत या य य च।
शा त य च धम य सुख यैकाि तक य च॥

"म िनराकार का आधार ँ जो परम सुख का वाभािवक पद है और जो अमर,


अिवनाशी तथा शा त है।"
‘ ', 'परमा मा' तथा 'भगवान’ एक ही परम स य के तीन व प ह। आर भकता के
िलए ' " व प सहजग य है।'परमा मा' व प उनके ारा अनुभवग य होता है िज ह ने
और आगे गित कर ली है और 'भगवान-सा ा कार' तो परम स य क चरम अनुभूित है।
इसक पुि भगव ीता (७.७) म ई है जहाँ पर भगवान यह कहते ह क वे परम स य क
चरम धारणा ह; म ः परतरं ना यत्। अतः कृ ण ' योित' तथा सव ापी 'परमा मा'
दोन के ोत ह। भगव ीता म (१०.४२) कृ ण आगे कहते ह ---
अथवा ब नैतेन कं ातेन तवाजुन।
िव याहिमदं कृ मेकांशेन ि थतो जगत ॥
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"ले कन हे अजुन! इस सारे िवशद् ान क या आव यकता है ? म अपने एक अंश


मा से इस सम ा डम ा ँ और इसका पालन करता ।ँ " ( भगव ीता १०.४२) ।
इस तरह अपने एक पूण अंश सव ापी 'परमा मा' व प से भगवान स पूण भौितक िवराट
सृि का पालन करते ह। साथ ही वे आ याि मक जगत म भी जो कु छ है, उसके
पालनकता ह। अतएव ी ईशोपिनषद् के इस ुित-मं म भगवान को पूषन् अथात् चरम
पालक के प म अिभिहत कया गया है।
पूण पु षो म भगवान ी कृ ण सतत द आन द से पू रत ह
(आन दमयोऽ यासात्) । आज से ५,००० वष पूव जब वे भारत म वृ दावन म िव मान थे
तो वे सदैव द आन दमय रहे, यहाँ तक क अपनी बाल लीला के ार भ से ही वे वैसे
थे। अघ, बक, पूतना तथा ल ब जैसे अनेक असुर का वध उनके िलए आन ददायक ड़ा
थी वृ दावन के ाम म उ ह ने अपनी माता, ाता तथा िम के साथ आन दपूण लीलाएँ
क और जब वे चपल माखन चोर क भूिमका िनभा रहे थे, तो उनके सारे संगी उनक इस
चोरी का द आनंद उठा रहे थे। माखन चोर के प म भगवान का यश उपाल भ के यो य
नह य क माखन चुराकर भगवान अपने शु भ को आनंद दान कर रहे थे भगवान ने
वृ दावन म जो कु छ भी कया वह सब उ ह ने अपने संिगय को आनंद दान करने के िलए
कया था। भगवान ने ये लीलाएँ उन शु क िच तक एवं तथाकिथत हठयोग के उन
कलाबाज को आकृ करने के िलए क जो परम स य क खोज करना चाहते ह।
भगवान तथा वाल बाल के म य बालपन के खेल के िवषय म शुकदेव गो वामी ने
ीम ागवत म (१०.१२.११) कहा है :
इ थं सतां सुखानुभू या
दा यं गतानां परदैवतेन।
मायाि तानां नरदारके ण
साकं िवज : कृ तपु यपु ाः ॥
"िनराकार, आन दमय के प म अनुभवग य पूण पु षो म भगवान िजनक
पूजा परमे र प म भ के ारा दा य भाव म क जाती है और संसारी लोग िज ह
सामाय ि मानते ह, उन वाल बाल के साथ खेले िज ह ने अनेक पु य कम के संचय के
फल व प अपना यह पद ा कया था।"
इस कार भगवान अपने आ याि मक संिगय के साथ द शा त, दा य, स य,
वा स य तथा माधुय स ब ध म ेमपूण कायकलाप म लगे रहते ह।
चूँ क यह कहा जाता है क भगवान कभी वृ दावन धाम नह छोड़ते तो यह
कया जा सकता है क वे सृि का काय कस तरह सँभालते ह ? इसका उ र भगव ीता म
69

(१३.१४-१८) इस कार दया आ है- ‘’भगवान अपने अंश पु ष अवतार परमा मा प


ारा सारी भौितक सृि म ा रहते ह । य िप भगवान को सृि , पालन तथा संहार से
कसी कार का सरोकार नह रहता, ले कन वे इन सारी व तु को अपने अंश परमा मा
ारा कराते ह। येक जीव आ मा कहलाता है और मुख आ मा जो इन सबको वश म
रखता है, परमा मा कहलाता है।"
ई र-सा ा कार क यह प ित एक महान् िव ान है। भौितकतावादी सां य-योगी
इस भौितक सृि के चौबीस त व का िव ेषण तथा िच तन ही कर सकते ह, य क उ ह
पु ष अथात भगवान के िवषय म कोई जानकारी नह रहती। िन वशेष अ या मवादी
योित क चकाच ध मा से ही मोिहत हो जाते ह। य द कोई सचमुच परम स य को पूरी
तरह जानना चाहता है, तो उसे चौबीस भौितक त व एवं दी मान तेज को वेध कर उनके
परे जाना होगा। ीईशोपिनषद् िहर यमयपा या भगवान दी मान आवरण को हटाने के
िलए ाथना करते ए इसी ओर संकेत करती है। जब तक यह आवरण हटा नह दया
जाता, िजससे क मनु य भगवान के असली चेहरे का दशन कर सके तब तक परम स य
का वा तिवक सा ा कार नह कया जा सकता।
पूण पु षो म भगवान का ‘परमा मा व प' िव णु त व पु ष-अवतार कहलाने
वाले तीन मूल अंश म से एक है। ा ड के भीतर ही इन िव णु त व म से एक
' ीरोदकशायी िव णु' नाम से जाना जाता है। वह तीन मुख देव ( ा, िव णु तथा िशव)
म िव णु है और येक जीव म सव ापी परमा मा है। ा ड म दूसरा िव णु त व
'गभ दकशायी' िव णु सम त जीव के भीतर का सामूिहक परमा मा है। इन दोन के परे
कारणोदकशायी िव णु है जो कारण सागर म शयन करता है। वह सम त ा ड का ा
है। योग प ित िश ा देती है क गंभीर िज ासु िवराट सृि के चौबीस त व को लाँघकर
िव णु त व से भट करे। ान योग के अ यास से िन वशेष योित क अनुभूित करने म
सहायता िमलती है, जो भगवान कृ ण के द शरीर का देदी यमान तेज है। इसक पुि
भगव ीता (१४.२७) तथा -संिहता (५.४०) दोन से होती है :
य य भा भवतो जगद डको ट
को ट वशेषवसुधा दिवभूितिभ म्।
त िन कलमन तमशेषभूतं
गोिव दमा दपु षं तमहं भजािम॥
"लाख ा ड म असं य लोक ह और इनम से येक लोक अपनी िवराट संरचना
के कारण एक दूसरे से िभ है। ये सारे लोक योित के एक कोने म ि थत ह। यह
योित उन पूण पु षो म भगवान गो वंद क के वल शारी रक करण मा है, िजनक म
पूजा करता ।ँ " संिहता का यह मं परम स य के वा तिवक सा ा कार के आधार पर
70

कहा गया है और ीईशोपिनषद् का ुितमं इस मं क पुि सा ा कार क िविध के प


म करता है। यह ईशोपिनषद् मं तो भगवान से योित हटाने के िलए सरल ाथना है,
िजससे उनके वा तिवक मुख का दशन कया जा सके । इस योित के तेज का वणन
मु डक उपिनषद् (२.२.१०-१२) के अनेक मं म िव तारपूवक कया गया है।

िहर मये परे कोशे


िवरजं िन कलम्।
त छु ं योितषां
योित त दा मिवदो िवदुः॥
न त सूय भाित न च तारकं
नेमा िव ुतो भाि त कु तोऽयमि ः ।
तमेव भा तमनुभाित सव
त य भासा सविमदं िवभाित॥
ैवेदममृतं पुर ता
प ाद दि णत ो रेण।
अध ो व च सृतं ै
वेदं िव िमदं व र म्॥
“भौितक आवरण के उस पार के द े म अनंत योित है, जो भौितक क मष
से रिहत है। उस तेज वी ेत काश को अ या मवे ा सभी काशो म सव म काश के
प म जानते ह। उस े म काश के िलए सूय, च , अि या िव ुत क ज रत नह
होती। िन:संदह
े , भौितक जगत म जो भी काश हमको देखने को िमलता है, वह उसी
सव प र काश का परावतन मा है। वह आगे भी है और पीछे भी है, उ र, दि ण,
पूव और पि म म भी है एवं ऊपर तथा नीचे भी है। दूसरे श द म, वह सव प र योित
भौितक जगत एवं आ याि मक जगत म सव ा है।"
पूण ान का अथ है कृ ण को -तेज के मूल के प म जानना। ीकृ ण के
मूल ह और ीम ागवत जैसे शा से जहाँ कृ ण-िव ान का िवशद् िववेचन आ है यह
ान ा कया जा सकता है। ीम ागवत म इसके रचियता ील ासदेव ने जोर दया
है क येक ि अपनी अपनी अनुभूित के अनुसार परम स य का वणन ' ', 'परमा मा'
या 'भगवान' के प म करता है। ील ासदेव यह कभी नह कहते क परम स य एक
सामा य जीव है। जीव को कभी भी सवशि मान परम स य नह मानना चािहए। य द वह
ऐसा होता तो फर उसे भगवान से यह ाथना करने क आव यकता न पड़ती क आप
अपना देदी यमान आवरण हटा लीिजए िजससे हम आपके असली प का दशन कर सक।
71

िन कष यह है क परम स य क आ याि मक शि मान अिभ ि य के अभाव म


िनराकार क अनुभूित होती है। इसी कार जब कसी को भगवान क भौितक शि य
क अनुभूित होती है, क तु उनक आ याि मक शि य का ान नह रहता या अ प ान
रहता है, तो उसे 'परमा मा' का सा ा कार होता है। इस कार परम स य क ' ' तथा
'परमा मा' दोन ही अनुभूितयाँ आिशक ह । क तु जब कोई िहर मयपा को हटाकर पूण
पु षो म भगवान ीकृ ण क पूण शि का अनुभव करता है, तो उसे वासुदव
े ः सवम् इित
अथात् वासुदव
े भगवान ी कृ ण ही सब कु छ- , परमा मा तथा भगवान्-ह, क अनुभूित
होती है। वे मूल
प भगवान् ह और तथा परमा मा उनक शाखाएँ ह।
भगव ीता (६.४६-४७) म तीन कार के अ या म वा दय (योिगय ) का
तुलना मक िववेचन कया गया है -- ये ह 'िनराकार ' के उपासक( ानी), 'परमा मा'
व प के उपासक (योगी) तथा भगवान् ीकृ ण' के भ (भ )। वहाँ कहा गया है क
सम त कार के योिगय म, जो ानी ह अथात् िज ह ने वै दक ान का अनुशीलन कया है,
सामा य सकाम क मय से े है। ले कन योगी इनसे भी े ह। इन योिगय म से जो पूरी
शि से भगवान क िनर तर सेवा करते ह, वे सव ह। सं प
े म हम यह कह सकते ह क
एक दाशिनक (िवचारक) एक िमक से े है और एक योगी एक िवचारक से े है। और
सभी योिगय म से वह योगी, जो भि योग का पालन करता है और िनरंतर भगवान क
सेवा म लगा रहता है, सव े है। ीईशोपिनषद् हम इसी पूणता क ओर िनदश करती है।

72

मं १६
पूष ेकष यम सूय ाजाप य
ूह र मीन् समूह तेजो ।
यत् ते पं क याणतमं तत् ते प यािम
योऽसावसौ पु षः सोऽहमि म ॥१६॥

पूषन्-हे पालक; एकष-आ द िवचारक; यम - िनयामक, िस ा त; सूय-सू रय


(महाभ ) के ल य; ाजाप य- जापितय (मानव के जनक) के शुभिच तक; ूह-कृ पया
हटा द; र मीन्- करण; समूह-कृ पया वापस ले ल, ख च ल; तेज:-तेज; यत्-िजससे; ते-
तु हारा; पम्- व प; क याणतमम्-सवािधक क याणकारी; तत-वह; ते-तु हारा;
प यािम- देख सकूँ ; य:-जो है; असौ-सूय के समान; असौ-वह; पु ष:- परम पु ष भगवान्;
सः-वह (म); अहम्-म; अि म- ।ँ

अनुवाद
हे भगवन्, हे आ द िवचारक, हे ा ड के पालक, हे िनयामक, शु भ के ल य,
जापितय के शुभ चंतक! कृ पा करके आप अपनी द करण के तेज को हटा ल िजससे म
आपके आन दमय व प का दशन कर सकूँ । आप सूय के समान शा त परम पु ष भगवान
है, िजस तरह क म ।ं
ता पय
सूय तथा उसक करण गुण क दृि से एक ह। इसी कार भगवान तथा जीव भी
गुण म एक समान ह। सूय एक है ले कन सूय क करण के अणु असं य ह । सूय क करण
सूय के अंश ह और सूय तथा उसक करण िमलकर पूण सूय क रचना करती ह। सूय के ही
भीतर सूयदेव का िनवास है, उसी तरह परम आ याि मक लोक, गोलोक वृ दावन, के भीतर
िजससे योितष का तेज उ भूत होता है, भगवान अपनी िन य लीला का आन द लेते
ह। इसक पुि -संिहता (५.२९) म होती है :
िच तामिण करस सु क पवृ -
ल ावृतष
े ु सुरभीरिभपालय तम्।
ल मी सह शतस मसे मानं
गोिव दमा दपु षं तमहं भजािम॥
73

‘’म उन आ द भगवान, थम जनक गोिव द क पूजा करता ँ जो िच तामिण से


पू रत तथा लाख क पवृ से िघरे ए धाम म सुरिभ गाय चराते ह एवं लाख लि मय
ारा अ य त आदर तथा ेम से सदैव सेिवत ह।"
योित का वणन भी -संिहता ही म िमलता है जहाँ यह कहा गया है क धम
आ याि मक लोक गोलोक वृ दावन से िनकलने वाली योित क करण सूयलोक से
िनकलने वाली सूय क करण क तरह होती ह जब तक कोई योित क चकाच ध को
पार नह कर लेता तब तक उसे भगवान के धाम क कोई जानकारी ा नह हो पाती।
िन वशेषवादी चंतक योित क जगमगाहट से अ धे होकर न तो भगवान के वा तिवक
धाम क , न ही उनके द व प क अनुभूित कर पाते ह। ऐसे िन वशेषवादी िच तक
अपने अ प ान के कारण भगवान कृ ण के परम क याणकारी द व प को समझ नह
पाते। अतएव ीईशोपिनषद् क इस ाथना म भगवान से याचना क गई है क वे
योित क तेजोमय करण हटा ल िजससे क शु भ उनके परम क याणकारी द
व प का दशन कर सके ।
िन वशेष योित क अनुभूित होने से मनु य को के क याणकारी व प का
अनुभव होता है और परमा मा क अथवा परम को सव ापक गुण क अनुभूित होने से उसे
इससे भी अिधक क याणकारी काश का अनुभव होता है। ले कन सा ात भगवान से भट
करके भ को के सवािधक क याणकारी व प क अनुभिू त होती है । चूँ क उ ह आ द
िवचारक तथा ा ड का पालक एवं शुभिच तक के नाम से स बोिधत कया गया है,
अतएव परम स य िनराकार नह हो सकता। यह ीईशोपिनषद् का िनणय है। पूषन् श द
िवशेष प से मह वपूण है य क य िप भगवान सारे जीव का पालन करते ह ले कन वे
अपने भ का िवशेष यान रखते ह। िन वशेष योित को पार कर लेने और भगवान
के सा ात् व प का एवं उनके सवािधक क याणकारी िन य व प का दशन कर लेने के
बाद भ को परम स य क पूण पेण अनुभूित हो जाती है।
ील जीव गो वामी अपनी पु तक "भगवत् संदभ" म कहते ह, "पूण पु षो म
भगवान म परम स य क पूण अवधारणा क अनुभूित होती है य क वे सवशि मान ह
और सम त द शि य से यु ह। चूँ क योित म परम स य क पूण शि क
अनुभूित नह हो पाती अतएव ' -सा ा कार' पूण पु षो म भगवान का आंिशक
सा ा कार है। हे िव ान ऋिषय ! 'भगवान' श द के थम अ र (भ) के दो अथ ह- पहला
"जो पूरी तरह भरण करता है" तथा दूसरा "अिभभावक।'' दूसरे अ र (ग) का अथ है
पथ दशक या सृ ा। वान का अथ है क उनम सभी ाणी िनवास करते ह और वे भी सब म
ह। कहने का ता पय यह है क द श द 'भगवान' अनंत ान, शि , ऐ य, बल तथा
भाव को बताता है िजसम भौितक उ माद का लेशमा भी नह होता।"
भगवान अपने अन य भ को पूरी तरह पालन करते ह और भि क पूणता के
माग पर उ ह अ सर होने के िलए मागदशन करते ह। वे अपने भ के नायक के प म
74

अ ततोग वा उ ह को अपने आपको स प करके उनक भि मय सेवा क सम त आकां ा


को पूरा करते ह। परमे र के सारे भ भगवान क अहैतुक कृ पा से भगवान को आमने
सामने देखते ह और इस तरह भगवान अपने भ को सव आ याि मक लोक, गोलोक
वृ दावन, प च
ँ ने म सहायक बनते ह। सृ ा होने से वे अपने भ को सम त यो यताएँ
दान कर सकते ह, िजससे वे अ ततः उनके पास प च
ँ सकते ह। भगवान सम त कारण के
कारण ह। दूसरे श द म चूँ क उनका कोई कारण नह है, अतएव वे ही आ द कारण ह।
प रणाम- व प वे अपनी अ तरंगा शि को कट करके अपना भोग वयं (आ मर ण)
करते ह। बिहरंगा शि उनके ारा पूरी तरह से कट नह क जाती य क वे अपना पु ष
के प म िव तार करते ह और इ ही प से वे भौितक जगत के व प का पालन करते ह।
ऐसे िव तार के ारा वे िवराट जगत का सृजन, पालन तथा संहार करते ह।
सारे जीव भी भगवान के ही िविभ अंश (िव तार) ह और चूँ क इनम से कु छ ई र
बनने तथा परमे र क नकल करना चाहते ह, अतएव वे उ ह इस िवराट सृि म वेश
करने क अनुमित इस छू ट के साथ देते ह क वे कृ ित के ऊपर भु व जमाने क अपनी
वृि का पूण उपयोग कर ल। भगवान के अंश प जीव क उपि थित से स पूण वहार
जगत या ित या से आलोिडत हो जाता है। इस तरह जीव को भौितक कृ ित पर
भु व जमाने क पूरी सुिवधाएँ दान क जाती ह, ले कन परम िनय ता तो अपने वांश
'परमा मा' प म जो पु ष म से एक है, वयं भगवान् ही ह।
इस कार जीव (आ मा) तथा िनयामक भगवान (परमा मा) म जमीन आसमान का
अ तर है। परमा मा िनय ता ह और आ मा िनयंि त है; अतएव वे िविभ तर पर ह। चूँ क
परमा मा आ मा से पूण सहयोग करता है अतएव वह जीव का िचर संगी माना जाता है।
भगवान का सव ापी प कहा जाता है, जो सोने, जगने तथा संभािवत
या मक ि थितय म िव मान है तथा िजससे ब एवं मु जीव के प म जीव-शि
उप होती है। चूँ क भगवान परमा मा तथा दोन के ही मूल ोत ह, अतएव वे
सम त जीव तथा अ य जो कु छ है उन सबके उ स ह। जो यह जान जाता है, वह तुरंत
भगवान क भि म लग जाता है। भगवान का ऐसा शु एवं जाग क भ तन-मन से
भगवान के ित आस रहता है और जब भी ऐसा भ अपने जैसे भ के साथ एक
होता है, तो उन सबके पास भगवान के द कायकलाप के मिहमा-गायन के अित र और
कोई काय नह रहता। जो लोग शु भ के समान पूण नह ह अथात उ ह ने भगवान के
के वल या परमा मा व प का सा ा कार कया है वे पूण भ के कायकलाप के
मह व को नह समझ सकते। भगवान अपने शु भ के दय के भीतर आव यक ान
दान करके सदैव उनक सहायता करते ह और इस तरह अपनी िवशेष कृ पा से अ ान-
अंधकार दूर कर देते ह। ानी तथा योगी इसक क पना तक नह कर सकते य क वे
75

यूनािधक अपनी शि पर आि त रहते ह। जैसा क कठोपिनषद् (१.२.२३) म कहा गया है


भगवान उ ह के ारा ेय ह िजन पर उनक कृ पा होती है, अ य क के ारा नह । ऐसी
िवशेष कृ पा उनके शु भ को ही दान क जाती है। इस तरह ीईशोपिनषद् भगवान
क कृ पा का संकेत करती है, जो योित के काय े के परे है। ■
76

मं १७
वायुरिनलममृतमथेदं भ मा तं शरीरम् ।
ॐ तो मर कृ तं मर तो मर कृ तं मर ॥१७॥

वायुः- ाणवायु; अिनलम्- वायु का पूणकोष; अमृतम्-अिवनाशी; अथ-अब; इदम्-


यह; भ मा तं भ म हो जाने पर; शरीरम्-शरीर; ॐ-हे भगवान; तो- सम त य के
भो ा; मर-कृ पया मरण कर; कृ तम्-मने जो कु छ कया है; मर-कृ पया मरण कर; तो-
परम भो ा; मर-कृ पया मरण कर; कृ तम्- आपके िलए मेरे ारा कया गया; मर-कृ पया
मरण कर।

अनुवाद
इस णभंगुर शरीर को भ म हो जाने द और ाणवायु को वायु के पूणकोष म िमल
जाने द । अब हे भगवन्! मेरे सम त य को मरण कर और चूँ क आप चरम भो ा ह
अतएव मने आपके िलए जो कु छ कया है उसे मरण कर।

ता पय
यह णभंगरु शरीर िन य ही पराया व है। भगव ीता म (२.२०) प कहा गया
है क इस भौितक शरीर के िवनाश हो जाने पर जीवा मा न नह होता, न ही वह अपनी
पहचान खोता है। जीवा मा का प कभी िनराकार या िन वशेष नह होता, युत
भौितकवेश जो है, वह आकारहीन होता है और वह अिवनाशी पु ष के प के अनुसार
आकार हण करता है। कोई भी जीव मूलत: िनराकार नह है, जैसा क अ प ानी गलती से
मानते ह। यह मं इस त य क पुि करता है क भौितक शरीर के िवन होने के बाद भी
जीव का अि त व बना रहता है।
इस भौितक जगत म कृ ित जीव को उनक इि यतृि क वृि य के अनुसार
िविभ कार के शरीर दान करके िविच कायकु शलता का दशन करती है। जो जीव
मल का वाद लेना चाहता है उसे ऐसा शरीर दान कया जाता है, जो मल खाने के सवथा
उपयु हो-जैसे क शूकर का। इसी तरह जो दूसरे पशु का मांस खाना और र पीना
चाहता है उसे उपयु दांत और पंज से यु ा का शरीर दान कया जाता है।
मनु य न ही मांस खाने के िनिम बना है, न ही वह मल का वाद लेना चाहता है, चाहे वह
अपनी िनपट आ दम अव था म ही य न हो। मनु य के दाँत इस तरह बने ह क वे फल
77

तथा शाक को काटकर चबा सक य िप उसे दो कु करदाढ़ दान क गई है िजससे आ दम


अव था के मनु य, य द चाह, तो मांस खा सक।
क तु कु छ भी हो, सम त पशु तथा मनु य के भौितक शरीर जीव के िलए
अ वाभािवक है । वे जीव क इि यतृि क इ छा के अनुसार बदलते रहते ह। िवकास- म
म जीव एक शरीर बदल कर दूसरा शरीर हण करता है। जब यह संसार जल से पूण था तो
जीव ने जलीय प (जलचर योिन) धारण कया। फर वह शाक-जीवन म गया और उसे
पार करके क ट-जीवाणु म आया; फर क ट से प ी जीवन म, प ी से पशु जीवन म और
पशु जीवन से मनु य जीवन म आया। यह मनु य प जब आ याि मक ान क चेतना से
पूण हो जाता है, तो यह उसका सवािधक िवकिसत प होता है। इस मं म मनु य क इस
आ याि मक चेतना का सवािधक िवकिसत प व णत है। मनु य को इस शरीर का याग
करना चािहए जो जल कर राख हो जाएगा और ाणवायु को शा त वायु-कोश म िमल
जाने देना चािहए। जीवन के सारे कायकलाप शरीर के भीतर िविवध कार क वायु के
प र मण से, िज ह संि प म ाणवायु कहते ह, स प होते ह। योगीजन सामा यतः:
शरीर म वायु को वश म करने का अ ययन करते ह। ऐसा माना जाता है क आ मा एक वायु
च से उठ कर एक अ य वायु च तक उठता जाता है जब तक क वह सव च र
म नह प चँ जाता । इस िब दु से पूण योगी अपने आपको अ य कसी इि छत लोक तक ले
जा सकता है। इसक िविध यह है क एक भौितक शरीर याग कर दूसरे म वेश कया
जाए, ले कन ऐसे पा तर क पूणता तभी स भव है जब जीव अपने इस भौितक शरीर का
सवथा प र याग कर सके और, जैसा क इस मं म सुझाव दया गया है, आ याि मक
आकाश म वेश कर सके जहाँ वह सवथा िभ कार का शरीर िवकिसत कर सकता है-एक
आ याि मक शरीर िजसक न तो कभी मृ यु होती है,न कोई प रवतन।
भौितक जगत म कृ ित जीव को उसक इि यतृि क िविभ इ छा क पू त के
िलए शरीर बदलने के िलए बा य करती है। ये इ छाएँ िविभ योिनय के प म कट
होती ह-एक क ड़े से लेकर सवािधक े देहधारी ा तथा देवता के शरीर के प म।
इन सभी जीव के शरीर िविभ शरीर के प म पदाथ से बने होते ह। बुि मान मनु य
इन शरीर क िविवधता म नह अिपतु इनके आ याि मक व प म एक व देखता है। वह
आ याि मक फु लंग, जो परमे र का अंश है, एक ही है चाहे वह शूकर के शरीर म हो या
देवता के शरीर म। जीव अपने पाप से पु य कम के अनुसार िविभ शरीर धारण करता है।
मनु य शरीर सवािधक िवकिसत है और पूण चेतना से यु है। भगव ीता (७.१९) के
अनुसार अनेकानेक ज म तक ान का अनुशीलन करने के बाद सवािधक े मनु य
भगवान क शरण हण करता है। ान का अनुशीलन अपनी पूणता को तब ा होता है
जब ाता परमे र वासुदव
े क शरण म आने के बाद तक प च
ँ जाता है। अ यथा, अपने
आ याि मक व प का पूण ान ा कर लेने पर भी य द वह यह नह जान पाता क सारे
जीव उस पूण के शा त अंश ह और वे कभी पूण नह बन सकते तो वह इस भौितक संसार
78

म पुन: आ िगरता है । उसे सचमुच िगरना ही पड़ेगा भले ही वह योित से एकाकार


य न हो चुका हो।
जैसा क हमने िपछले मं से जाना है, भगवान के द शरीर से उ भूत होने वाली
योित आ याि मक फु लंग से प रपूण है, जो अि त व क पूण चेतना से यु ि
जीव है। कभी-कभी ये जीव इि य का भोग करना चाहते ह; अतएव उ ह भौितक जगत म
रख दया जाता है, िजससे वे अपनी इि य के आदेशानुसार िम या वामी बन सक। वामी
बनने क इ छा जीव का भवरोग है य क जीव इि यभोग के वशीभूत होकर इस जगत
म िविभ शरीर म देहा तर करता रहता है। योित से एकाकार होना प रप ान
का तीक नह है। भगवान के ित पूण आ मसमपण करने तथा आ याि मक सेवाभाव
िवकिसत करने पर ही कोई सव िसि ा कर सकता है।
इस मं म जीव अपने भौितक शरीर तथा भौितक वायु को याग कर ई र के
आ याि मक सा ा य म वेश करने के िलए ाथना करता है। भ भगवान से ाथना
करता है क वे उसके उन कायकलाप तथा य को मरण कर िज ह उसने अपने भौितक
शरीर के भ म होने के पूव स प कया था। यह ाथना वह मृ यु के समय अपने िवगत कम
तथा अपने चरम ल य क पूण चेतना रहते ए करता है। जो ि भौितक कृ ित के वश म
पूण पेण रहता है, वह अपने भौितक शरीर के अि त व-काल के सारे जघ य काय का
मरण करता है और उसके फल व प मृ यु के बाद दूसरा शरीर पाता है। भगव ीता म
(८.६) इस स य क पुि ई है :
यं यं वािप मर भावं यज य ते कलेवरम्।
तं तमैविे त कौ तेय सदा त ावभािवतः ॥
"हे कु तीपु ! जब मनु य शरीर याग करता है, तो वह अपने अि त व क िजस दशा
का मरण करता है, वह उसे िन य ही ा होती है।" इस तरह मन मरने वाले जीव क
वृि य को अगले जीवन म ले जाता है।
िवकिसत मन से रिहत सीधे सादे पशु के िवपरीत मरते समय मनु य अपने जीवन
के कायकलाप को राि के व क तरह मरण कर सकता है; फल: उसका मन भौितक
इ छा से अिधभा रत रहता है; अतएव वह आ याि मक शरीर ा करके आ याि मक
जगत म वेश नह कर सकता। क तु भगव ि के अ यास से भ गण ई र के ित
ेमभाव िवकिसत कर लेते ह। य द भ को अपनी मृ यु के समय ई र क सेवा का मरण
नह भी हो पाता तो भी भगवान् उसे नह भूलते। यह ाथना भगवान् को भ के य का
मरण कराने के िलए क जाती है, क तु य द इस कार से मरण न भी कराया जाए तो
भी भगवान अपने शु भ क भि को नह भूलते।
भगवान ने भगव ीता म (९.३०-३४) अपने भ के साथ अपने घिन स ब ध का
प वणन कया है, "य द कोई अ यिधक घृिणत कम भी करे, क तु य द वह भि म वृ
79

रहे तो भी उसे साधु सदृश माना जाना चािहए य क वह अपने संक प म ठीक तरह दृढ़
बना आ है। वह तुर त सदाचारी बन जाता है और िचरशाि त ा करता है। हे कु तीपु !
िनभ क होकर घोिषत कर दो क मेरा भ कभी न नह होता। हे पृथापु । जो मेरी शरण
म आते ह चाहे वे िन -ज मा- ी, वै य तथा शू ( िमक)- य न हो, परम ग त को
ा कर सकते ह फर पु या मा ा ण , भ तथा राज षय का या कहना? तुम अपना
मन सदैव मेरी ेमाभि म लगाओ, मेरे भ बनो, मुझे नम कार करो और मेरी पूजा करो।
मुझम लीन रहने पर तुम िनि त प से मेरे पास आओगे।"
ील भि िवनोद ठाकु र इन ोक क ा या इस कार करते ह-"कृ ण भ को
स त के स ाग पर समझना चािहए भले ही वह दु र य न हो। मनु य को चािहए क
'दु र ' का अथ ठीक से समझे । ब जीव को दो कार के काय करने होते ह-एक तो शरीर
के पालन के िलए तथा दूसरे आ म-सा ा कार के िलए। सामािजक पद, मानिसक िवकास,
व छता, तप या, भोजन तथा जीवन-संघष-ये सब शरीर के पालन के िलए ह। आ म-
सा ा कार का काय भगव होने पर स प होता है और इसम भी काय करना होता है।
ये दो िविभ काय समाना तर चलते ह य क ब जीव शरीर का पालन नह याग सकता
है ले कन य - य भि म वृि होती है य - य शरीर पालन के िलए कए जाने वाले
काय घटने लगते ह। जब तक भि का अनुपात सही िब दु तक नह प च ँ जाता तब तक
यदा-कदा सांसा रकता का दशन हो ही जाता है, ले कन इस बात को यान म रखना
चािहए क ऐसी सांसा रकता अिधक काल तक नह चल पाती य क भगव कृ पा से ऐसी
अपूणताएँ शी ही समा हो जाती ह। अतएव भि का माग ही एकमा सही माग है।
य द मनु य सही माग पर रहे तो यदा-कदा सांसा रकता के आ जाने से आ म-सा ा कार क
गित म कावट नह आती।"
भि क सुिवधाएँ िन वशेषवा दय को नह िमल पाती य क वे भगवान के
योित व प के ित अनुर रहते ह। जैसा क िपछले मं म सुझाया गया है वे योित
को बेध नह पाते य क वे भगवान के ि व म िव ास नह करते। उनका वसाय
अिधकतर श द क जादूगरी है तथा वह काय मानिसक क पना से स बि धत होता है।
फल व प िन वशेषवादी िनरथक म करते ह जैसा क भगव ीता के बारहव अ याय
(१२.५) म पुि क गयी है।
इस मं म तािवत सारी सुिवधाएँ परम स य के साकार व प के िनर तर
साि य ारा आसानी से ा क जा सकती ह। भगव ि अिनवायतः भ ारा स प
नौ द या से यु होती है।
(१) भगवान् के िवषय म वण, (२) भगवान् का गुणगान, (३) भगवान् का मरण,
(४) भगवान् के चरणकमल क सेवा, (५) भगवान् क पूजा, (६) भगवान् क ाथना, (७)
भगवान् क सेवा, (८) भगवान् के साथ सा य भाव का आनंद लेना तथा, (९) भगवान को
80

सव व समपण करना। भि के ये नौ िस ा त, चाहे एक एक करके िलए जाँय या सभी


इक े िलए जाँए, भ को ई र के िन य स पक म बने रहने म सहायक बनते ह। इस कार
जीवन के अ त म भ भगवान का मरण आसानी से कर सकता है। इन नौ िस ा त म से
कसी एक को हण करके िन िलिखत सुिव यात भ ने सव िसि ा क थी ---
(१) महाराज परीि त ने, जो ीम ागवत के नायक ह, वण ारा वांिछत फल ा
कया। (२) ीम ागवत के व ा शुकदेव गो वामी ने भगवान के गुणगान ारा िसि ा
क । (३) अ ू र जी ने ाथना करके वांिछत फल पाया । (४) लाद महाराज ने मरण
ारा मनोवांिछत फल पाया । (५) पृथु महाराज ने पूजा ारा िसि ा क । (६) ल मी
जी ने भगवान के चरणकमल क सेवा करके िसि पाई। (७) हनुमान जी ने सा ात
भगवान क सेवा करके वांिछत फल ा कया। (८) अजुन ने भगवान क िम ता ारा
वांिछत फल पाया। (९) महाराज बिल ने भगवान को अपना सव व अ पत करके वांिछत
फल ा कया।
इस मं क तथा एक तरह से वै दक तो के सम त मं क ा या वेदा त सू
म सारब है और ीम ागवत म समुिचत ढंग से िववेिचत है। ीम ागवत वै दक ान
पी वृ का प फल है। ीम ागवत म यह मं िवशेष महाराज परीि त तथा शुकदेव
गो वामी क भट के ार भ म ही पार प रक ो र म िववेिचत आ है। भगवत िव ान
का वण तथा क तन भि का मूल िस ा त है। महाराज परीि त ने स पूण भागवत सुनी
और शुकदेव गो वामी ने सुनाई। महाराज परीि त ने शुकदेव से पूछा था य क वे अपने
समय के कसी भी महान् योगी या अ या मवादी से बड़े गु थे। महाराज परीि त का मु य
था---
" येक मनु य का, िवशेषतया मृ यु के समय, या कत है?"
शुकदेव गो वामी ने इसका उ र इन श द म दया :
त माद् भारत सवा मा भगवानी रो ह रः।
ोत ः क तत मत े छताभयम् ॥
" येक ि को, जो सम त िच ता से मु होने का इ छु क है, चािहए क वह
पूण पु षो म भगवान के िवषय म सुन,े उनका गुणगान करे और उनका मरण करे य क
भगवान सभी व तु के परम िनदशक सम त क को हरने वाले तथा सम त जीव के
परमा मा ह।" (भागवत २.१.५)
तथाकिथत मानव समाज सामा यतः: राि म सोने तथा संभोग करने म और दन म
यथासंभव अिधकािधक धन कमाने या प रवार के पालनाथ व तुएँ खरीदने म लगा रहता है।
लोग के पास पूण पु षो म भगवान के िवषय म बात करने या उनके िवषय म िज ासा
करने के िलए ब त कम समय रहता है। उ ह ने ई र के अि त व को कई कार से नकार
रखा है िजनम मु य है --- उ ह िन वशेष घोिषत करना अथात् उ ह इि यबोध रिहत
81

बताना। क तु वै दक सािह य म, चाहे वह उपिनषद्, वेदा तसू हो या भगव ीता तथा


ीम ागवत हो, यह घोिषत कया गया है क भगवान सचेतन ह और अ य सभी जीव से
े है। उनके मिहमामय कायकलाप उनसे अिभ ह। अतएव मनु य को संसारी
राजनीित एवं समाज के तथाकिथत बड़े-बड़े लोग क अनुिचत ग दी बात सुनने तथा
बोलने म िल नह होना चािहए अिपतु जीवन को इस तरह ढालना चािहए क एक पल भी
थ गँवाये िबना वह दैवी कायकलाप म लग सके । ी ईशोपिनषद् हम ऐसे दैवी
कायकलाप क ओर िनदिशत करता है। य द कोई भि का अ य त नह हो जाता, तो वह
मृ यु के समय या मरण रख पाएगा जब शरीर िछ -िभ आ रहता है और वह कस
तरह परम शि शाली भगवान से अपने य का मरण करने के िलए ाथना कर सके गा ?
य का अथ है इि य को उनके वाथ से रोकना। अपने जीवन काल म इि य को भगवान
क सेवा म लगातार इस कला को सीखना होता है। मृ यु के समय ऐसे अ यास के फल का
सदुपयोग कया जा सकता है। ■
82

मं १८
अ े नय सुपथा राये अ मान् िव ािन देव वयुनािन िव ान्।
युयो य म जु राणमेनो भूिय ां ते नम उ ं िवधेम ॥१८॥

अ े-अि के समान शि शाली भगवान्; नय - कृ पया ले चल; सुपथा- सही माग से;
राऐ-अपने पास तक प च
ँ ने के िलए; अ मान्- हम; िव ािन --सम त; देव-हे भगवान;
वयुनािन-कम को; िव ान्-जानने वाला, ाता; युयोिध-कृ पया हटाइए; अ मत्-हमसे;
जु राणम्-माग के सारे अवरोध को; एन:-सारी बुराइयाँ; भूिय ां- अ यिधक; ते-आपको;
नमः उि म्-नम कार के वचन; िवधेम-म करता ।ँ

अनुवाद
हे अि के समान शि शाली भगवान, हे सवशि मान! अब म आपको नम कार
करता ँ और आपके चरण पर द डवत णाम करता ।ँ हे भगवन्! आप अपने तक प च ँ ने
के िलए मुझे सही माग पर ले चल और चूँ क आप मेरे ारा भूतकाल म कया गया सब कु छ
जानते ह अतएव मुझे िवगत पाप के फल से मु कर द िजससे मेरी गित म कोई अवरोध
न आए।

ता पय
भगवान क शरण हण करने तथा अहैतुक कृ पा के िलए ाथना करने से भ पूण
आ म सा ा कार के पथ पर गित कर सकता है । भगवान को अि के प म स बोिधत
कया गया है य क वे कसी भी व तु को भ म कर सकते ह िजसम शरणागत ि के
पाप भी सि मिलत ह। जैसा क िपछले मं म वणन आ है, उस परम का वा तिवक या
चरम व प पूण पु षो म भगवान ह और उनका िन वशेष योित का व प उनके
मुख के ऊपर दीि मान् आवरण है। इस यास म आ म-सा ा कार का कमका ड पथ सबसे
िन है। ऐसे कम वेद के अनु ान से लेशमा भी िवचिलत होने पर िवकम म प रणत हो
जाते ह, अथात् ऐसे कम म जो कता के िहत म नह होते। ऐसे िवकम िमत जीव ारा
मा इि यतृि के िलए कए जाते ह; अतएव ऐसे कम आ म- सा ा कार के माग म बाधक
बनते ह।
83

आ म-सा ा कार मनु य योिन म ही स भव है, अ य प म नह । कु ल िमलाकर


८४,००,००० योिनयाँ या ािणय के व प ह िजनम से मनु य का व प ा ण सं कृ ित
से यु होने के कारण अ या म ान ा करने का एकमा अवसर दान करता है। ा ण
सं कृ ित म स य, इि य संयम, सिह णुता, सफलता, पूण ान तथा ई र म पूण ा
सि मिलत ह। ऐसा नह है क कोई यूं ही अपने उ कु ल का गव करे । ा ण का पु होना
ा ण बनने का एक सुअवसर है, िजस कार कसी बड़े आदमी का पु होने से बड़ा आदमी
बनने का एक अवसर िमलता है। क तु ऐसा ज म-अिधकार सब कु छ नह होता य क
मनु य को तब भी अपने िलए ा ण क यो यता ा करनी होती ह । य ही मनु य
ा ण का पु होने के कारण अपने ज म पर गव करता है क तु वा तिवक ा ण के गुण
को ा करने क उपे ा करता है य ही वह िवपथ हो जाता है और आ म-सा ा कार के
माग से िडग जाता है। इस कार मनु य के प म उसका जीवन-उ े य िवफल हो जाता है।
भगव ीता म (६.४१-४२) हम भगवान आ त करते ह क आ म-सा ा कार के
पथ से पितत अथात् योग लोग को या तो अ छे ा ण प रवार म या धनी ापा रय
के प रवार म ज म लेकर अपना सुधार करने का अवसर दान कया जाता है। ऐसे ज म
से आ म-सा ा कार के उ अवसर दान कए जाते ह। य द मोहवश इन अवसर का
दु पयोग कया जाता है, तो मनु य परम शि मान भगवान् ारा द जीवन के सुनहरे
अवसर को खो देता है।
िविध िवधान ऐसे ह क जो इनका पालन करता है, वह सकाम कम के पद से उठ
कर द ान के पद को ा करता है। अनेकानेक ज म तक द ान का पद ा कर
लेने पर जब मनु य भगवान क शरण हण करता है तभी वह पूण बनता है। यह सामा य
काय है। क तु य द कोई ार भ म ही शरण हण कर लेता है जैसी क इस मं म सं तुित
क गई है, तो वह भि मयी वृि हण करते ही सम त ारंिभक अव था को पार कर
लेता है। जैसा क भगवदगीता म (१८.६६) कहा गया है, भगवान तुरंत उसे शरणागत का
भार अपने ऊपर ले लेते ह और उसे उसके सभी पाप कम के फल से मु कर देते ह।
कमका ड म अनेक पाप िनिहत ह जब क ानका ड म ऐसे पाप कम क सं या कम है,
क तु भगव ि या भि -पथ म कसी कार के पाप होने क स भावना नह रहती।
भगव भगवान के सारे गुण को ा कर लेता है, तो ा ण के गुण के िवषय म या
कहा जाए ? भ वतः एक द ा ण के गुण ा करके य स प करने का अिधकारी
हो जाता है, भले ही उसका ज म ा ण कु ल म न आ हो। ऐसी है भगवान् क
सवशि म ा। वे ा ण कु ल म उ प ि को िन कु ल ज मा चांडाल बना सकते ह
और चांडाल को भि के बल पर यो य ा ण से भी े बना सकते ह।
चूँ क सवशि मान भगवान सबके दय के भीतर ि थत ह, अत: वे अपने िन ावान
भ को िनदश दे सकते ह, िजससे वे सही माग पा सकते ह। ऐसे िनदश िवशेषतः भ के
84

अ यथा चाहने पर भी दए जाते ह। जहाँ तक अ य का स ब ध है, ई र कसी कता को


उसके ही अपने उ रदािय व पर वीकृ ित देते ह क तु भ को भगवान इस तरह िनदश देते
ह क वह कभी ु ट नह करता। ीम ागवत म (११.५.४२) कहा गया है :
वपादमूलं भजत: ि य य
य ा यभाव य ह रः परे श:।
िवकम य ो पिततं कथंिचद्
धुनोित सव द सि िव ः॥
‘’भगवान अपने पूणशरणागत भ के ित इतने दयालु ह क य िप भ कभी-कभी
िवकम अथात् वै दक आदेश के िव कम के बंधन म आ िगरता है, तो भी वे भ के दय
के भीतर से ु टय को ठीक कर देते ह। इसका कारण यह है क भ भगवान को अ यिधक
ि य है।"
ी ईशोपिनषद के इस मं म भ भगवान से ाथना करता है क वे उसके दय के
भीतर से उसे सुधार। ु ट करना मनु य का सहज गुण है। ब जीव ाय: ु ट करता रहता
है और ऐसे अनचाहे पाप का एकमा उपचार यही है क भगवान के चरण म सम पत आ
जाए िजससे वे इनसे बचने का मागदशन करते रह । भगवान पूण-शरणागित का भार अपने
ऊपर लेते ह। इस तरह सारी सम याएँ भगवान क शरण हण करने एवं उनके
िनदशानुसार काय करने मा से ही हल हो जाती ह। ऐसे िनदश िन ावान भ को दो
कार से दए जाते ह। पहला स त , शा तथा गु के ारा तथा दूसरा वयं भगवान ारा
जो हर एक के दय म वास करते ह। इस तरह वै दक ान से बु भ सभी कार से
सुरि त रहता है।
वै दक ान द है, अतः संसारी शैि क प ितय से नह समझा जा सकता। के वल
भगवान तथा गु क कृ पा से ही मनु य वै दक मं को समझ पाता है। य य देवे परा
भि यथा देवे तथा गुरौ। य द वह ामािणक गु क शरण हण कर लेता है, तो समझना
चािहए क उसे भगव कृ पा ा हो गई है। भगवान भ के िलए गु प म कट होते ह।
इस तरह गु , वै दक आदेश तथा भीतर से वयं भगवान् भ का पूरे साम य से मागदशन
करते ह। इससे भ के भौितक मोह क माया म पुन: िगरने क कोई संभावना नह रहती।
इस तरह चार ओर से संरि त भ पूण िसि के चरम ल य तक िनि त प से प च ँ ता
है। इस मं म इस स पूण िविध का संकेत है और ीम ागवत म (१.२.१७-२०) इसक
आगे क ा या ई है।
भगवान के यश का वण तथा क तन वयं ही एक पु य काय है। भगवान चाहते ह
क येक ि वण तथा क तन कर य क वे सम त जीव के िहतैषी ह। भगवान के
यश के वण तथा क तन से मनु य सम त अवांिछत व तु से शु हो जाता है और तब
ई र के ित उसक भि ि थर हो जाती है। इस अव था म भ म ा ण गुण आ जाते ह
और कृ ित के अधम गुण (रजो तथा तमो) के फल पूणतया लु हो जाते ह। भ अपनी
85

भि के बल पर पूणतया बु हो उठता है और वह भगवान के पथ को तथा उनको ा


करने क प ित को जान लेता है। य - य सारे संशय घटते जाते ह य - य वह शु भ
बनता जाता है।
इस कार पूण पु षो म भगवान ी कृ ण के िनकट लाने वाले ान ी ईशोपिनषद्
के भि वेदा त ता पय पूण ए। ■
86

लेखक प रचय

कृ ण कृ पा मू त ी ीमद् ए.सी. भि वेदा त वामी भुपाद का आिवभाव १८९६


ई. म भारत के कलक ा नगर म आ था। अपने गु महाराज ील भि िस ांत सर वती
गो वामी से १९२२ म कलक ा म उनक थम बार भट ई। एक सु िस धम त ववेता,
अनुपम चारक, िव ान-भ , आचाय एवं चौसठ गौड़ीय मठ के सं थापक ील
भि िस ा त सर वती को ये सुिशि त नवयुवक ि य लगे और उ ह ने वै दक ान के
चार के िलए अपना जीवन सम पत करने क इनको ेरणा दी। ील भुपाद उनके छा
बने और यारह वष बाद (१९३३ ई.) याग (इलाहाबाद) म िविधवत् उनके दी ा- ा
िश य हो गए।
अपनी थम भट म ही ील भि िस ांत सर वती ठाकु र ने ील भुपाद से
िनवेदन कया था क वे अं ेजी भाषा के मा यम से वै दक ान का सार कर। आगामी वष
म ील भुपाद ने भगव ीता पर एक टीका िलखी, गौड़ीय मठ के काय म सहयोग दया
तथा १९४४ ई.म िबना कसी क सहायता के एक अं ज
े ी पाि क पि का आर भ क ।
उसका स पादन, पा डु िलिप का टकण और मु त साम ी के फ
ू शोधन का सारा काय वे
वयं करते थे। अब यह पि का उनके िश य ारा चलाई जा रही है और तीस से अिधक
भाषा म छप रही है।
ील भुपाद के दाशिनक ान एवं भि क मह ा पहचान कर गौड़ीय वै णव
समाज ने १९४७ ई. म उ ह भि वेदान उपािध से स मािनत कया। १९५० ई. म ील
87

भुपाद ने गृह थ जीवन से अवकाश लेकर वान थ ले िलया, िजससे वे अपने अ ययन और
लेखन के िलए अिधक समय दे सक। तदन तर ील भुपाद ने ी वृ दावन धाम क या ा
क , जहाँ वे अ य त साधारण प रि थितय म म यकालीन ऐितहािसक ीराम दामोदर
मं दर म रहे। वहाँ वे अनेक वष तक ग भीर अ ययन एवं लेखन म संल रहे। १९५९ ई. म
उ ह ने सं यास हण कर िलया। ी राधा-दामोदर मं दर म ही ील भुपाद ने अपने
जीवन के सबसे े और मह वपूण काय को ार भ कया था। यह काय था अठारह हजार
ोक सं या वाले ीम ागवत पुराण का अनेक ख ड म अं ेजी म अनुवाद और ा या।
वह उ ह ने अ य लोक क सुगम या ा नामक पुि तका भी िलखी थी।
ीम ागवतम् के ार भ के तीन ख ड कािशत करने के बाद ील भुपाद
िसत बर १९६५ ई. म अपने गु देव के आदेश का पालन करने के िलए संयु रा य
अमे रका गए। त प चात् ील भुपाद ने भारतवष के े दाशिनक और धा मक थ के
ामािणक अनुवाद, टीकाएँ एवं संि अ ययन-सार के प म साठ से अिधक थ- तुत
कए।
जब ील भुपाद एक मालवाहक जलयान ारा थम बार यूयाक नगर म आये,
तो उनके पास एक पैसा भी नह था। अ य त क ठनाई भरे लगभग एक वष के बाद जुलाई
१९६६ ई. म उ ह ने अंतरा ीय कृ णभावनामृत संघ क थापना क । १४ नव बर १९७७
ई. को, कृ ण-बलराम मं दर, ीवृ दावन म अ कट होने के पूव ील भुपाद ने अपने कु शल
माग िनदशन से संघ को िव भर म सौ से अिधक आ म , िव ालय , मि दर , स था
और कृ िष-समुदाय का बृहद् संगठन बना दया।
ील भुपाद ने ीधाम-मायापुर, पि म बंगाल म एक िवशाल अ तरा ीय के के
िनमाण क ेरणा दी। यह पर वै दक सािह य के अ ययनाथ सुिनयोिजत सं थान क
योजना है, जो अगले दस वष तक पूण हो जाएगा। इसी कार ीवृ दावन धाम म भ
कृ ण-बलराम मं दर और अंतरा ीय अितिथ भवन तथा ील भुपाद- मृित सं हालय का
िनमाण आ है। ये वे के है जहाँ पा ा य लोग वै दक सं कृ ित के मूल प का य
अनुभव ा कर सकते ह। मुंबई म भी ीराधारासिबहारीजी मि दर के प म एक िवशाल
सां कृ ितक एवं शै िणक के का िवकास हो चुका है। इसके अित र भारत म द ली,
बगलूर, अहमदाबाद, बड़ौदा तथा अ य थान पर सु दर मि दर है।
क तु ील भुपाद का सबसे बड़ा योगदान उनके थ ह। ये थ िव ान ारा
इनक ामािणकता, गंभीरता और प ता के कारण सवािधक वीकाय ह और अनेक
महािव ालय म उ तरीय पा ंथ के प म यु होते ह। ील भुपाद क रचनाएँ
५० से अिधक भाषा म अनू दत ह। १९७२ ई. म के वल ील भुपाद के थ के काशन
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के िलए थािपत भि वेदा त बुक ट, भारतीय धम और दशन के े म िव का सबसे


बड़ा काशक बन गया है। इस ट का एक अ यिधक आकषक काशन ील भुपाद ारा
के वल अठारह मास म पूण क गई उनक एक अिभनव कृ ित है, जो बंगाली धा मक महा थ
ी चैत य च रतामृत का स ह ख ड म अनुवाद और टीका है।
बारह वष म, अपनी वृ ाव था क िच ता न करते ए ील भुपाद ने िव के
छह महा ीप क चौदह प र माएँ क । इतने त काय म के रहते ए भी ील
भुपाद क उवरा लेखनी अिवरत चलती रहती थी। उनक रचना से वै दक दशन, धम,
सािह य और सं कृ ित का एक यथाथ थागार थािपत आ है। ■
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