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II ॐ II

I I वासद
ु े वः सववम ् I I
II ॐ II

आप के अंदर विराजमान परमवपता परमेश्वर जो जगन्नाथ, जगतगुरु, पालनहार, तारनहIर है उनको


मेरा सiदर प्रणाम,

इस वकताब में नया कुछ भी नहीं है, बस एक नोट बनाई जो श्रीमद भगित गीता को जानने और
समझने में कुछ हद तक सहाय रूप हो सकती है , मैं परम कृपालु परमात्मा का अभारी हू की मुझे
प्रेरणा दी , प्रभु आपको प्रणाम। आभार , जय श्री कृष्णा ।

ये नोट आप को श्रीमद भगित गीता के हरेक अध्याय के सारांश-मुख्य श्लोक (पेज 03-75),
भारतीय दशशन (पेज 76-84), कुछ अनमोल िाक्य (पेज 85-92) और भक्ति दोहे (पेज 93-129)
क्तलए गए हैं, जो हमIरे विचार और अiचार बदल सकते हैं, सही जीने की रiह बता सकते हैं। मैं कोई
साधु, संत या महात्मा नहीं हू पर हमेंशा कोक्तशश वक है अच्छे और सच्चे मानि बनने की और इसी
जन्म मैं परम ज्ञान / मुक्ति को पा सकु , यदी आप को ऐसा लगे वक नोट कुछ कiम दे गई तो आप से
प्राथशना है वक वकसी ज़रुरतमंद दो लोगो को स्नेह पूिशक भोजन दे दे ना।

सप्रेम प्रणाम,
आपका स्नेह और आशीिाशद का अभभलाषी ,
पंकज .पटे ल .
Zadeshwar (Bharuch) Gujrat -India.
pankaj2461969@yahoo.co.in
pankaj2461969@gmail.com

II वासुदेवः सववम ् II
II श्री कृष्णा शरणं मम II
II अप्प दीपो भवः II
II ध्यान है तो सबकुछ है , ध्यान नहीं तो कुछ भी नहीं II

PANKAJ. PATEL
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II ॐ II

PANKAJ. PATEL
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II ॐ II

II शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं


विश्वाधारं गगनसदृशं मेघिर्ण शुभाङ् गम्
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योवगभभर्धयाणनगम्यम्
िन्दे विषर्ुं भिभयहरं सिणलोकैकनाथम् II
जजनका स्वरूप अतिशय शाांि है,जो जगि के आधार व दे विाओं के भी ईश्वर है, जो शेषनाग की शैया पर तवश्राम तकए हुए हैं, जजनकी नाभभ
में कमल है और जजनका वर्ण श्याम रांग का है, जजनके अतिशय सद ां र रूप का योगीजन ध्यान करिे हैं, जो गगन के समान सभी जगहों पर
छाए हुए हैं, जो जन्म-मरर् के भय का नाश करने वाले हैं, जो सम्पूर्ण लोकों के स्वामी हैं, जजनकी भक्तजन बन्दना करिे हैं, ऐसे लक्ष्मीपति
कमलनेत्र भगवान श्रीतवष्र् को अनेक प्रकार से तवनिी कर प्रर्ाम करिा हूँ । ब्रह्मा, शशव, वरुर्, इन्र, मरुद्गर् जजनकी ददव्य स्िोत्रों से स्िति
गाकर ररझािे है, सामवेद के गाने वाले अांग, पद, क्रम और उपतनषदों के सतहि वेदों द्वारा जजनका गान करिे हैं, योगीजन ध्यान में स्स्िि
प्रसन्न हुए मन से जजनका दशणन करिे हैं, दे विा और असर जजनके अांि को नही पािे, उन नारायर् को नमस्कार करिा हूँ ॥

गीिा महाभारि के भीष्म पवण का भाग है ,जजसमें 18 अध्याय ििा 700 श्लोक हैं. पाांच हजार साल बीि गये
मगर आज भी श्रीमद्भगवि गीिा न केवल धमण का ज्ञान करािी है, बस्कक जीवन जीने का ढां ग भी बिािी है।

हररयार्ा के करुक्षेत्र में जब यह ज्ञान ददया गया िब तिशि एकादशी िी। कशलयग के प्रारांभ होने के मात्र िीस
वषण पहले इस ज्ञान को ददया गया िा और सांभवि: उस ददन रतववार िा। कहिे हैं तक उन्होंने यह ज्ञान लगभग
45 ममनट िक ददया िा। उपदे श प्राि: 8 से 9 बजे के बीच हुआ िा।

गीिा शब्द का अिण है गीि और भगवद शब्द का अिण है भगवान, अक्सर भगवद गीिा को भगवान का गीि
कहा जािा है। यह भगवान का गीि है इसशलए गीिा का नाम गीिा ही पडा। श्रीमद भागित गीता धमश शब्द से
शुरू होती है और म शब्द पर पूरी होती है, मतलब पहला और आखिरी अक्षर ममल्कर धमश हो जाता है, यही
धमश है I
श्रीमद्भगवद्गीिा ' में मख्यिः दो प्रकार के छन्द प्रयक्त हुए हैं - अनष्टप् और तत्रष्टप् । अनष्टप् छन्द के चार चरर्ों
में से प्रत्येक में आठ - आठ अक्षर होिे हैं । चार चरर्ोंवाले तत्रष्टप् छन्द के प्रत्येक चरर् में ग्यारह - ग्यारह
अक्षर होिे हैं । ' श्रीमद्भगवद्गीिा ' के ६४५ श्लोक अनष्टप् छन्द से और ५५ श्लोक तत्रष्टप् छन्द से बूँधे हुए हैं ।

श्रीमद्भगवद्गीिा ' में धृिराष्ट्र और सांजय के सांवाद के बीच श्रीकृष्र् और अजणन का सांवाद है । '
श्रीमद्भगवद्गीिा ' के ७०० श्लोकों में एक श्लोक धृिराष्ट्र का , ४१ सांजय के , ८४ अजणन के और ५७४ श्लोक
भगवान् के हैं । इसी प्रकार इसमें ' श्रीभगवानवाच ' २८ बार , ' अजणन उवाच ' २१ बार , ' सांजय उवच ' ९
बार और ' धृिराष्ट्र उवाच ' १ बार आया है ।

श्रीमद्भगवद्गीिा ' को सांक्षेप में ' भगवद्गीिा ' और ' गीिा ' भी कहिे हैं । श्रीमद्भगवद्गीिा ' का अिण है -
भगवान् श्रीकृष्र् के द्वारा गायी गयी उपतनषद् । ' उपतनषद् ' सांस्कृि में स्त्रीललिंग है ; परन्ि तहन्दी में स्त्रीललिंग
पूँस्कलांग - दोनों है ।

गीिा में समस्ि उपतनषदों का सार आ गया है , इसीशलए इसे ' गीिोपतनषद् ' भी कहिे हैं

गीिा ' का अिण है- पद्य में कही गयी बाि । भारि में बहुि - सी गीिाएूँ हैं । उनमें कछ इतिहास - परार्ों से
सांबांमधि हैं और कछ अपना स्विांत्र अस्स्ित्व रखिी हैं ; जैसे पराशर - गीिा , हांसगीिा , अवधूिगीिा ,
अष्टावक्रगीिा , अनगीिा , उत्तरगीिा , कतपलगीिा , पाांडवगीिा , शशवगीिा , व्यासगीिा , भभक्षगीिा ,
सूयणगीिा आदद । इन सारी गीिाओं में श्रीमद्भगवद्गीिा ' ही श्रेष्ठ है ।

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II ॐ II

श्रीमद्भगवद्गीिा ' हमें जीवन - भर कमणशील बने रहने की शशक्षा दे िी है , कमण का त्याग करना वह कभी नहीं
शसखािी । कहिी है तक कमण तकये तबना प्रार्ी एक क्षर् भी नहीं रह सकिा । कमण का त्याग कर दे ने पर हमारे
शरीर का तनवाणह होना भी कदठन हो जाएगा । अकिणव्य कमण का िो त्याग हमें अवश्य करना चातहए ; परन्ि
किणव्य कमण का त्याग कभी नहीं करना चातहए । किणव्य कमण करिे रहने पर हमें मचत्त की शजि प्राप्ि होिी है ।
यह मचत्त की शजि आत्म-साक्षात्कार कराने में सहायक बनिी है । किणव्य कमण भी हमें फल की आसशक्त का
त्याग करके करना चातहए । हम जो भी किणव्य कमण करें , ईश्वर की प्रसन्निा के शलए करें , सब कमों ििा
उनके फलों को ईश्वर को समर्पिंि करिे जाएूँ और मन में किाणपन का अभभमान नहीं रखें ।

गीिा कहिी है तक आत्मसाक्षात्कार करने के शलए ज्ञानयोग , भशक्तयोग , ध्यानयोग और कमणयोग - इन सभी
साधनों का सहारा लेना चातहए । ये सभी साधन एक - दूसरे से अलग अलग नहीं , एक-दूसरे से सांबध
ां / पूरक
हैं ।

गीिा धमणशास्त्र , कमणयोगशास्त्र , अर्धयात्मशास्त्र , दशणनशास्त्र , योगशास्त्र , मोक्षशास्त्र और


भक्तिशास्त्र भी है ।

गीिा की मख्य शशक्षाएूँ दूसरे - िीसरे अध्यायों में दे खने को ममलिी हैं । दूसरे अध्याय के ३८ वें श्लोक में गीिा
का प्रधान उपदे श आ गया है , वह श्लोक इस प्रकार है

सुखदुःखे समे कृत्िा लाभालाभौ जयाजयौ ।


ततो युद्धाय युज्यस्त्ि नैिं पापमिाप्सस्त्यक्तस ॥
जय-पराजय, लाभ-हातन और सख-दःखको समान समज़कर, यिके शलए िैयार हो जा; इस प्रकार यि करनेसे िू पापको प्राप्ि नहीं होगा

गीिा का बारहवाूँ अध्याय सबसे छोटा है । इसमें भक्त के जो लक्षर् बिलाये गये हैं , उन्हें भक्त बनने की इच्छा
रखनेवाले व्यशक्तयों को सदै व स्मरर् में रखना चातहए । अठारहवाूँ अध्याय सबसे बडा है । इसमें ७८ श्लोक हैं ।
इन श्लोकों में गीिा का सार आ गया है ।

कहा गया है तक सब धमणग्रांिों का सार है वेद । वेद का सार है उपतनषद् । उपतनषद् का सार है ' श्रीमद्भगवद्गीिा
' और ' श्रीमद्भगवद्गीिा ' का सार अठारहवें अध्याय के तनम्नशलखखि दो श्लोकों में आ गया है

मन्मना भि मद्भिो मद्याजी मां नमस्त्कुरु ।


मामेिषै यक्तस सत्यं ते प्रवतजाने वप्रयोऽक्तस मे ॥६५ ॥
(िू) मेरा भक्त हो जा, मझ में मनवाला (हो जा), मेरा पूजन करनेवाला (हो जा और) मझे नमस्कार कर । (ऐसा करने से िू) मझे ही
प्राप्ि हो जायेगा (यह में) िेरे सामने सत्य प्रतिज्ञा करिा हूँ; (क्यों तक िू) मेरा अत्यन्ि तप्रय है ।

सिणधमाणन्पररत्यज्य मामेकं शरर्ं व्रज ।


अहं त्िा सिणपापेभ्यो मोक्षययषयायम मा शुचुः ॥६६ ॥
सम्पूर्ण धमों का आश्रय छोडकर (िू) केवल मेरी शरर् में आ जा । मैं िझे सम्पूर्ण पापों से मक्त कर दूूँ गा, मचन्िा मि कर ।

महाभारि ' के भीष्मपवण के एक श्लोक में गीिा की महत्ता बिलािे हुए कहा गया है तक एकमात्र गीिा का ही
पाठ तकया जाना चातहए , अन्य अनेक शास्त्रों के पाठ से क्या प्रयोजन ! यह गीिा स्वयां भगवान् श्रीकृष्र्
के मखकमल से तनःसृि हुई है

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II ॐ II

गीता सुगीता कतणव्या वकमन्यैुः शास्त्रविस्त्तरैुः ।


या स्त्ियं पद्मनाभस्त्य मुखपद्माद् विवनुःसृता ।।
जो अपने आप श्रीतवष्र् भगवान के मखकमल से तनकली हुई है वह गीिा अच्छी िरह कण्ठस्ि करना चातहए । अन्य शास्त्रों के तवस्िार से
क्या लाभ ? - महर्षिं व्यास

गीता मे हृदयं पाथण गीता मे सारमुत्तमम्।


गीता मे ज्ञानमत्युग्रं गीता मे ज्ञानमव्ययम्।।
गीता मे चोत्तमं स्त्थानं गीता मे परमं पदम्।
गीता मे परमं गुह्यं गीता मे परमो गुरुुः।।
गीिा मेरा हृदय है। गीिा मेरा उत्तम सार है। गीिा मेरा अति उग्र ज्ञान है। गीिा मेरा अतवनाशी ज्ञान है। गीिा
मेरा श्रेष्ठ तनवासस्िान है। गीिा मेरा परम पद है। गीिा मेरा परम रहस्य है। गीिा मेरा परम गरु है। -
भगिान श्री कृषर्
ॐ नमो भगिते िासुदेिाय नम:
तवष्र् सहस्त्रनाम भगवान श्री हरर तवष्र् अिाणि भगवान नारायर् के 1000 नामों है जजसे जपने मात्र से मानव
के समस्ि दख और कष्ट दूर हो जािे हैं और भगवान तवष्र् की अगाध कृपा प्राप्ि होिी है।
तवष्र् सहस्त्रनाम का जाप करने में कोई ज्यादा तनयम तवमध नहीं है परांि मन में श्रिा और तवश्वास अटू ट होना
चातहए। जो भी श्रीहरर भगवान तवष्र् के नामों का स्मरर् करिा है उसकी आय, तवद्या, यश, बल बढ़ने के
साि साि वह सांपन्निा, सफलिा, आरोग्य और सौभाग्य प्राप्ि करिा है। उसकी समस्ि मनोकामनाएां पूर्ण
होिी हैं और वह दै वीय सख, ऐश्वयण, सांपदा के साि-साि सांपन्निा का स्वामी बनिा है। कम से कम 108 ददन,
पूणश ब्रह्मचयश के साथ, नॉनिेज, मददरा, धूम्रपान त्याग करके वबना एक ददन टू टे करने का प्रण करें , कम से
कम साल में एक बार वनयम से 108 ददन, बाद में रोज एक बार कर कर सकते हैं(आप अपने क्तलए 24 घंटे में
15 ममनट नहीं वनकाल सकते), आप िुद भगिान से ममले और प्राथशना करें , वकसी को भी वबच िाला पसंद
नहीं होता तो आप अपने क्तलए िुद प्राथशना करें, वकसी से ना करिाएं, आपकी प्राथशना में ददश , एहसास होगा जो
दूसरे में नहीं होगा

बौि दशणन का एक सूत्र वाक्य है ‘अप्सप दीपो भि’ अिाणि अपना प्रकाश स्वयां बनो। गौिम बि के कहने का
मिलब यह है तक तकसी दसरे से उम्मीद लगाने की बजाये अपना प्रकाश (प्रेरर्ा) खद बनो।

“अप्सप दीपो भि” अिाणि अपना दीपक स्वयां बनो कोई भी तकसी के पि के शलए सदे व मागण प्रशस्ि नहीं कर
सकिा केवल आत्मज्ञान और अांिरात्मा के प्रकाश से ही हम सत्य के मागण /लक्ष पर आगे बढ़ सकिे हैं।
बि ने कहा, िम मझे अपनी बैसाखी मि बनाना। िम अगर लांगडे हो, और मेरी बैसाखी के सहारे चल शलए-
तकिनी दूर चलोगे?मांजजल िक न पहुांच पाओगे। आज मैं साि हां, कल मैं साि न रहांगा, तफर िम्हें अपने ही
पैरों पर चलना है। मेरी साि की रोशनी से मि चलना, क्योंतक िोडी दे र को सांग-साि हो गया है अांधेरे जांगल
में। िम मेरी रोशनी में िोडी दे र रोशन हो लोगे; तफर हमारे रा स्िेअलग हो जाएांगे। मेरी रोशनी मेरे साि होगी,
िम्हारा अांधेरा िम्हारे साि होगा। अपनी रोशनी पैदा करो। अप्प दीपो भव!

PANKAJ. PATEL
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II ॐ II

- अप्सप दीपो भि :
जजसने दे खा, उसने जाना ।
जजसने जाना, वो पा गया ।
जजसने पाया, वो बदल गया,
अगर नहीं बदला िो समझो तक
उसके जानने में ही कोई खोट िा ।

बिा ने जाना िो बिा पहुचेंगे िम नहीं , िम बिा की पूजा करने से नहीं पहुचोगे न ही तकसी अन्य की पूजा
करने से या चेला बनने से|िम खद जानोगे िभी िम पहुचोगे

जैसे छोटी छोटी बात पर झूठ बोलना (एक तरह से िाणी का अपमान है) , सत्यमेि जयते -भारि का राष्ट्रीय
आदशण वाक्य है। इसका अिण है : सत्य ही जीििा है / सत्य की ही जीि होिी है। यह भारि के राष्ट्रीय प्रिीक
के नीचे दे वनागरी शलतप में अांतकि है। 'सत्यमेव जयिे' मूलिः मण्डक-उपतनषद का सवणज्ञाि मांत्र ३.१.६ है।पूर्ण
मांत्र इस प्रकार है:
सत्यमेव जयिे नानृिां सत्येन पन्िा तवििो दे वयानः।
येनाक्रमांत्यृषयो ह्याप्िकामो यत्र ित्सत्यस्य परमां तनधानम्॥
अांििः सत्य की ही जय होिी है न तक असत्य की। यही वह मागण है जजससे होकर आप्िकाम (जजनकी
कामनाएां पूर्ण हो चकी हों) ऋषीगर् जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्ि करिे हैं

PANKAJ. PATEL
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गीता का पहला अर्धयाय अजुणन-विषाद योग है। इसमें 47 श्लोक हैं।

सारांश : करुक्षेत्र के यिक्षेत्र में सेनाओं का अवलोकन ,


गलि सोच तह जीवन में एकमात्र समस्या है। मोह ही सारे िनाव व तवषादों का कारर् होिा है।

करुक्षेत्र के यिक्षेत्र में पाांडवों और कौरवों की दो सेनाएां आमने-सामने हैं। कई सांकेि पाांडवों की जीि के
सांकेि दे िे हैं। पाांडवों के चाचा और कौरवों के तपिा धृिराष्ट्र, अपने पत्रों की जीि की सांभावना पर सांदेह करिे
हैं और अपने समचव सांजय से यि के मैदान के दृश्य का वर्णन करने के शलए कहिे हैं।

पाांच पाांडव भाइयों में से एक, अजणन लडाई से ठीक पहले एक सांकट से गज़रिा है। वह अपने पररवार के
सदस्यों और शशक्षकों के शलए करुर्ा से अभभभूि है, जजन्हें वह मारने वाला है। मैं इनकी हत्या कैसे कर सकिा
हूँ यह सोचकर अजणन शोक और ग्लातन से भर उठिा है। कृष्र् के सामने कई महान और नैतिक कारर् प्रस्िि
करने के बाद तक वह यि क्यों नहीं करना चाहिे हैं, अजणन ने दःख से अभभभूि होकर अपने हशियार एक ओर
रख ददए। लडने के शलए अजणन की अतनच्छा उनके दयाल हृदय को इांतगि करिी है; ऐसा व्यशक्त पारलौतकक
ज्ञान प्राप्ि करने के योग्य होिा है।

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गीता के दूसरे अर्धयाय "सांख्य-योग" में कुल 72 श्लोक हैं।

सारांश : गीता की सामग्री का सारांश


सही ज्ञान तह हमारी समस्याओं का अांतिम समाधान है I शरीर नही आत्मा को समझों और आत्मा
अजन्मा - अमर है।

श्री कृष्र् अजणन से कहिे हैं तक क्यों व्यिण चचिंिा करिे हो। आत्मा िो अजर -अमर है। वह कभी नहीं मरिी।
शसफण यह शरीर मरिा है।

यह सांसार और इसके लोग िम्हारे बनाये हुए नहीं है। इनके मोह में क्यों बूँध रहे हो ! इनके खो जाने का क्यों
शोक कर रहे हो। ये सब िो पहले ही मर चके हैं। और कई बार पैदा भी हो चके हैं।

िम्हे शसफण धमण की रक्षा के शलए यह यि करना है। यही कमण है। यह सनकर अजणन श्री कृष्र् से कहिा है तक
अभी भी उसके मन में बहुि से सांशय हैं। और उसे सब कछ तवस्िार से बिायें।

कृष्र् को अजणन के िकों से सहानभूति नहीं है। बस्कक, वह अजणन को याद ददलािे हैं तक उसका किणव्य लडना
है और उसे अपने ददल की कमजोरी पर काबू पाने का आदे श दे िे हैं। अजणन अपने ररश्िेदारों को मारने के प्रति
घृर्ा और कृष्र् की इच्छा तक वह यि करे, के बीच फटा हुआ है। व्यशिि और भ्रममि, अजणन ने कृष्र् से
मागणदशणन माांगा और उनका शशष्य बन गया।

कृष्र् अजणन के आध्यास्त्मक गरु की भूममका तनभािे हैं और उसे शसखािे हैं तक आत्मा शाश्वि है और उसे मारा
नहीं जा सकिा। यि में मरना एक योिा को स्वगीय ग्रहों में बढ़ावा दे िा है, इसशलए अजणन को आनजन्दि होना
चातहए तक जजन लोगों को वह मारने वाला है, वे श्रेष्ठ जन्म प्राप्ि करेंगे। एक व्यशक्त शाश्वि रूप से एक व्यशक्त
है। केवल उसका शरीर नष्ट होिा है। इस प्रकार, शोक करने के शलए कछ भी नहीं है।

यि न करने का अजणन का तनर्णय ज्ञान और किणव्य की कीमि पर भी, अपने ररश्िेदारों के साि जीवन का
आनांद लेने की इच्छा पर आधाररि है। ऐसी मानशसकिा व्यशक्त को भौतिक सांसार से बाांधे रखिी है। कृष्र्
अजणन को सलाह दे िे हैं तक वह बजि-योग में सांलग्न रहे, फल की आसशक्त से रतहि कमण करे। इस प्रकार यि
करके अजणन स्वयां को जन्म-मरर् के चक्र से मक्त कर लेगा और ईश्वर में प्रवेश करने के योग्य हो जाएगा।

नैनं क्तिद्रन्न्त शस्त्राभर् नैनं दहवत पािक: ।


न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयवत मारुत ॥ (तद्विीय अध्याय, श्लोक 23)
आत्मा को न शस्त्र काट सकिे हैं, न आग उसे जला सकिी है। न पानी उसे भभगो सकिा है, न हवा उसे सखा
सकिी है।

हतो िा प्राप्सयक्तस स्त्िगणम्, जजत्िा िा भोक्ष्यसे मवहम्।


तस्त्मात् उक्तत्तष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतवनश्चय:॥ (तद्विीय अध्याय, श्लोक 37)
यदद िम यि में वीरगति को प्राप्ि होिे हो िो िम्हें स्वगण ममलेगा और यदद तवजयी होिे हो िो धरिी का सख को
भोगोगे.. इसशलए उठो, हे कौन्िेय , और तनश्चय करके यि करो।

PANKAJ. PATEL
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कमणण्येिायधकारस्त्ते मा फलेषु कदाचन।


मा कमणफलहेतुभम भण ाण ते सङ् गोऽस्त्त्िकमणभर्॥ (तद्विीय अध्याय, श्लोक 47)
कमण पर ही िम्हारा अमधकार है, लेतकन कमण के फलों में कभी नहीं… इसशलए कमण को फल के शलए मि करो
और न ही काम करने में िम्हारी आसशक्त हो।

योग: कमणसु कौशलम’’ (गीता 2/50)


अिाणि् कमों में कशलिा ही योग है। कमणयोग साधना में मनष्य तबना कमण बांधन में बांधे कमण करिा है ििा वह
साांसाररक कमों को करिे हुए भी मशक्त प्राप्ि कर लेिा है।
कमणयोग का गूढ़ रहस्य अजणन को बिािे हुए श्रीकृष्र् कहिे हैं तक हे अजणन ! शास्त्रों के द्वारा तनयि तकये गये
कमों को भी आसशक्त त्यागकर ही करना चातहए क्योंतक फलासशक्त को त्यागकर तकये गये कमों में मनष्य नहीं
बांधिा। इसीशलए इस प्रकार वे कायण मशक्तदायक होिे हैं। कछ लोगों का मानना है तक फल की इच्छा का त्याग
करने पर कमों की प्रवृशत्त नहीं रहेगी, जबतक ऐसा नहीं है क्योंतक कमण िो किणव्य की भावना से तकये जािे हैं
ििा यही कमणयोग भी सीखािा है।
कमणयोग की साधना में अभ्यासरि साधक धीरे-धीरे सभी कमों को भगवान को अर्पिंि करने लगिा है, और
साधक में भशक्त भाव उत्पन्न हो जािा है। इस अवस्िा में साधक जो भी कमण करिा है वह परमात्मा को अर्पिंि
करिे हुए करिा है। साधक परमात्मा में अपनी श्रिा बनाए रखिे हुए उत्साह के साि कमण करिा है। इस
सम्बन्ध में गीिा में कहा गया है-

र्धयायतो विषयान्पुंसुः सङ् गस्त्तेषभपजायते।


सङ् गात्संजायते कामुः कामात्रोधोऽभभजायते॥ (तद्विीय अध्याय, श्लोक 62)
तवषयों वस्िओं के बारे में सोचिे रहने से मनष्य को उनसे आसशक्त हो जािी है। इससे उनमें कामना यानी इच्छा
पैदा होिी है और कामनाओं में तवघ्न आने से क्रोध की उत्पशत्त होिी है।

रोधाद्भिवत संमोह: संमोहात्स्त्मृवतविभ्रम:।


स्त्मृवतभ्रंशाद्बुजद्धनाशो बुजद्धनाशात्प्रर्श्यवत॥ (वितीय अर्धयाय, श्लोक 63)
क्रोध से मनष्य की मति मारी जािी है यानी मूढ़ हो जािी है जजससे स्मृति भ्रममि हो जािी है। स्मृति-भ्रम हो
जाने से मनष्य की बजि नष्ट हो जािी है और बजि का नाश हो जाने पर मनष्य खद का अपना ही नाश कर
बैठिा है।

PANKAJ. PATEL
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गीता का तीसरा अर्धयाय कमणयोग है, इसमें 43 श्लोक हैं।

सारांश : कमण - योग


प्रगति और समृजि का एकमात्र िरीका तनःस्वािणिा है। किाणपन और कमणफल के तवचार को ही छोडना है, कमण
को कभी नही।

श्री कृष्र् कहिे हैं तक हे अजणन हर तकसी को इस सांसार में अपना कमण करना चातहए। लेतकन फल की इच्छा
नहीं करनी चातहए। तकसी भी चीज में आसक्त हुए तबना कमण करना चातहए। और वह कमण, धमण के अनसार
तकया जाना चातहए।

सारे कमों को ईश्वर को समर्पिंि तकया जाना चातहए।

यदद िम यि नहीं भी करिे हो िो वह भी एक कमण ही होगा। लेतकन इससे धरिी पर बरे लोगों की सांख्या बढ़
जाएगी। जजसकी वजह से पाप फ़ैल जायेगा। इसशलए िम मोह त्याग कर यि करो। यही िम्हारा कमण है।

अजणन अब भी असमांजस में है। वह सोचिा है तक बजि-योग का अिण है तक व्यशक्त को सतक्रय जीवन से तनवृत्त
होना चातहए और िपस्या करनी चातहए। लेतकन कृष्र् कहिे हैं, झगडा नहीं करना! लेतकन इसे त्याग की
भावना से करें और सभी पररर्ामों को सवोच्च को अर्पिंि करें। यह सवोत्तम शजि है। तबना आसशक्त के काम
करने से, व्यशक्त परम को प्राप्ि करिा है।

भगवान की प्रसन्निा के शलए यज्ञ करना भौतिक समृजि और पाप कमों से मशक्त की गारांटी दे िा
है। आत्मज्ञानी व्यशक्त भी अपने किणव्य से कभी नहीं हटिा। वह दूसरों को शशभक्षि करने के शलए कायण करिा
है।

अजणन िब भगवान से पूछिा है तक ऐसा क्या है जो तकसी को पाप कमों में सांलग्न करिा है। कृष्र् उत्तर दे िे हैं
तक यह वासना है जो तकसी को पाप करने के शलए प्रेररि करिी है। यह वासना व्यशक्त को मोतहि कर दे िी है
और भौतिक जगि में उलझा दे िी है। वासना खद को इांदरयों, मन और बजि में प्रस्िि करिी है, लेतकन आत्म-
तनयांत्रर् से इसका प्रतिकार तकया जा सकिा है।

नवह कभश्चत्क्षर्मवप जातु वतष्ठत्यकमणकृत


कायणते ह्यिश: कमण सिण: प्रकृवतजैगुणर्ै:।। (गीिा 3/5)
अिाणि् इस तवषय में तकसी भी प्रकार का सांदेह नहीं तकया जा सकिा तक मनष्य तकसी भी काल में क्षर्मात्र
भी तबना कमण तकये नहीं रह सकिा, क्योंतक सभी मानव प्रकृतिजतनि गर्ों के कारर् कमण करने के शलए बाध्य
होिे हैं। मनष्य को न चाहिे हुए भी कछ न कछ कमण करने होिे हैं और ये कमण ही बन्धन के कारर् होिे हैं।
साधारर् अवस्िा में तकये गये कमों में आसशक्त बनी रहिी है, जजससे कई प्रकार के सांस्कार उत्पन्न होिे हैं।
इन्हीं सांस्कारों के कारर् मनष्य जीवन-मरर् के चक्र में फांसा रहिा है। जबतक ये कमण यदद अनासक्त भाव से
तकये जािे हैं िो यह मोक्ष प्राप्प्ि का मागण बन जािे हैं।

यद्यदाचरवत श्रेष्ठस्त्तत्तदे िेतरो जन:।


स यत्प्रमार्ं कुरुते लोकस्त्तदनुितणते॥ (तृतीय अर्धयाय, श्लोक 21)

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II ॐ II

श्रेष्ठ परुष जो-जो आचरर् यानी जो-जो काम करिे हैं, दूसरे मनष्य (आम इांसान) भी वैसा ही आचरर्, वैसा
ही काम करिे हैं। वह (श्रेष्ठ परुष) जो प्रमार् या उदाहरर् प्रस्िि करिा है, समस्ि मानव-समदाय उसी का
अनसरर् करने लग जािे हैं।

कमण योग क्या है


कमण शब्द कृ धाि से बनिा है। कृ धाि में ‘मन’ प्रत्यय लगने से कमण शब्द की उत्पशत्त होिी है। कमण योग एक
ऐसा रास्िा है, जो कमण के माध्यम से मोक्ष की ओर ले जािा है। मोक्ष चेिना की अांतिम अवस्िा होिी है।
भगवि गीिा के अनसार, वैराग्य भाव रखिे हुए अपने कमण करने चातहए। ददनभर दासों की िरह काम करने से
एक ओर स्वािण का भाव पैदा होिा है, िो दूसरी ओर अपने ददमाग को तनयांतत्रि रखिे हुए कमण करने से
अनासशक्त और आनांद की प्राप्प्ि होिी है ।

भगिदगीता में तीन प्रकार के कमण बताये है जो इस प्रकार है -


1. कमण - शास्त्र के अनकूल, वेदों के अनकूल तकये गये कमण।
2. अकमण - अकमण का अिण है कमण का अभाव यातन िष्र्ी अभाव।
3. विकमण - अिाणि जो तनशशि (पाप) कमण है वह तवकमण है।

कमण योग के दो प्रकार होिे हैं, जजनमें पहला सकाम कमण और दूसरा तनष्काम कमण है। सकाम कमण और
तनष्काम कमण क्या है, इसके बारे में नीचे तवस्िार से जानें।
1. सकाम कमण – जब कोई भी व्यशक्त खद के लाभ के शलए काम करिा है, िो वह सकाम कमण में आिा है।
यह व्यशक्त के सामाजजक और व्यापाररक दोनों िरह के काम पर लागू होिा है। इस िरह के कमण में व्यशक्त के
मन में स्वािण भाव रहिा है, जो उन्हें लोभी बनिा है। सकाम कमण व्यशक्त के जन्म व मृत्य चक्र में अहम भूममका
तनभािा है।
2. वनषकाम कमण – जब कोई व्यशक्त तकसी काम को स्वािणहीनिा भाव से करिा है, िो उसे ही तनष्काम कमण
कहिे है। ऐसे व्यशक्त के मन में तकसी िरह की लालसा और अहांकार की भावना नहीं होिी है। इस कमण को
करने वाला व्यशक्त सभी को एक समान समझिा है। साि ही एकिा और दूसरों की मदद करने में भरोसा
रखिा है। तनष्काम कमण व्यशक्त को मोक्ष की ओर ले जािा है, जो व्यशक्त को असीम शाांति दे िा है।

योग जगत में कमण तीन प्रकार के होते हैं।


✓ संयचत
वे सांमचि कायण जजन्हें आपने अिीि में पूरा तकया है। इन्हें बदला नहीं जा सकिा है, लेतकन केवल अमल में
आने की प्रिीक्षा कर सकिे हैं। यह कमण का तवशाल सांचय है जजसमें हमारे अनतगनि तपछले जन्म शाममल
हैं। इसमें वे सभी कायण शाममल हैं जो आपने अपने तपछले और विणमान जीवन में तकए हैं।

✓ प्रारब्ध
प्रारब्ध तपछले कमण का वह तहस्सा है जो विणमान के शलए जजम्मेदार है। ये पररपक्व और फलदायी तक्रयाएां
और प्रतितक्रयाएां हैं। जो चीजें आपने अिीि में कीं, वे आपको वह बनािी हैं जो आप आज हैं। इसे टाला
या बदला नहीं जा सकिा है, लेतकन केवल अनभव करके समाप्ि तकया जा सकिा है।

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II ॐ II

✓ वरयमार्
तक्रयमार् कमण वह कमण है जजसे हम विणमान क्षर् में यहीं अपने शलए बना रहे हैं। यह वह तक्रया है जजसे हम
बनािे हैं और जो चनाव हम अभी करिे हैं, क्योंतक हम इस विणमान जीवन को जीिे है।

कमण के ये िीनों पहलू एक दूसरे में तवलीन हो जािे हैं। "जैसा आप सोचते हैं िैसा ही आप होंगे" ितणमान
क्षर् के हमारे विकल्प और कायण भविषय में हमारे कमण बन जाएंगे।

कमण को समझने का लाभ यह है तक यह व्यशक्त को अतहिकर कायों को करने से हिोत्सातहि करिा है क्योंतक
यह दख लाएगा। इसके बजाय, यह खशी को उनके फल के रूप में लाने के शलए अच्छाई और दया करने के
शलए प्रोत्सातहि करिा है।

अभी हम जो कछ भी सोचिे हैं या करिे हैं वह उस िरह के भतवष्य का तनमाणर् करिा है जो उन तवचारों और
कायों से सांबांमधि होिा है।

कमणयोग की साधना में रि व्यशक्त में उच्च अवस्िा की स्स्िति आने पर स्वयां किाण की भावना समाप्ि हो जािी
है। इस अवस्िा में साधक अनभव करिा है तक मेरे द्वारा जो भी कमण तकये जा रहे हैं, उन सबको करने वाले
ईश्वर ही हैं। इस प्रकार से साधक कमण करिा हुआ भी बांधन से मक्त रहिा है। उसके द्वारा तकये गये कमण से
तकसी भी प्रकार के सांस्कार उत्पन्न नहीं होिे। इस प्रकार के कमण मशक्त को ददलाने वाले होिे हैं।
कमणयोग की साधना से साधक के लौतकक व पारमार्ििंक दोनों पक्षों का उत्िान होिा है। कमणयोग के मागण से ही
साधक गृहस्ि जीवनयापन करिे हुए भी साधना कर सकिा है ििा मशक्त प्राप्ि कर सकिा है।
कमण के भेद मुख्य रूप से दो प्रकार के होते है -
1. तवतहि कमण
2. तनशशि कमण

1. विवहत कमण -

तवतहि कमण अिाणि अच्छे कमण, सकृि कमण। तवतहि कमण के भी चार भेद है -
✓ वनत्य कमण - तनत्य कमण कमण का अिण है, प्रतिददन तकये जाने वाला कमण जैसे सन्ध्या पूजा, अचणना,
वन्दना इत्यादद।
✓ नैयमक्तत्तक कमण - जो कमण तकसी प्रयोजन के शलए तकये जािे है उदाहरर्ािण, तकसी त्योहार या पवण आ
जाने पर अनष्ठान तकसी की मृत्य हो जाने पर श्राि, िपणर् इत्यादद, जैसे पूत्र के जन्म होने पर जािकमण,
बडे होने पर यज्ञोपवीि इत्यादद।
✓ 3.काम्य कमण - ऐसे कमण जो तकसी कामना या तकसी प्रयोजन के शलए तकये जािे है। जैसे नौकरी
प्राप्प्ि के शलए, पूत्र की प्राप्प्ि के शलए, स्वगण की प्राप्प्ि के शलए यज्ञ, वषाण को रोकने के शलए, अकाल
पडने पर वषाण करने के शलए हवन या अनष्ठान, पुण्यफल की प्राप्प्ि की इच्छा के शलए दान इत्यादद ये
काम्य कमण है।
✓ प्रायभश्चत कमण - प्रायभश्चि कमण जैसा तक नाम से स्पष्ट होिा है तक अगर व्यरशक्त से कोई अनैतिक काम
या पाप हो जाये िो उसके प्रायभश्चि के शलए वो जो कमण करिा है उसके प्रायभश्चि कमण कहिे है ििा
जन्म -जन्मान्िरों के पापों का क्षय करने के शलए िपचयाणदद इत्यादद प्रायभश्चि कमण कहलािे है।

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II ॐ II

2. वनवषद्ध कमण -
तनशशि कमण अिाणि जो कमण शास्त्र के अनकूल नहीं है, चोरी, हहिंसा, झूठ, व्याभभचार इत्यादद कमण तनशशिकमण
है। हम जो भी कमण करिे है हमारा मन (आत्म, ित्व) उसे करने या न करने के शलए प्रेररि करिा है कोई व्यशक्त
उस आत्मा की आवाज के अनसार कमण करिा है और कोई अनसना करिा है। अगर आत्मा की आवाज
अिाणि परमेश्वर का भय न करिे हुए हम जो कमण करिे है वह तनतषि कमण है।

कमण योग करने के फायदे


कमण योग से व्यशक्त को कई प्रकार के लाभ हो सकिे हैं। ये फायदे व्यशक्त के जीवन को खशहाल बनाने और
शाांति से जीवन व्यिीि करने में मदद करिे हैं।
कमण योग करने के फायदे कुि इस प्रकार नजर आ सकते हैं।

✓ मन को शांत रखता है
कमण योग करने के फायदे में सबसे पहला मन को शाांि रखना है। दरअसल, इस योग को जीवन में लागू
करने वालों के मन में कभी भी दूसरों के प्रति बरे ख्याल नहीं आिे हैं और न ही उनका मन अपने काम को
लेकर तवचशलि होिा है। इस योग से मन की शाांति में सधार हो सकिा है, जजससे मानशसक समस्याओं को
भी दूर रखने में मदद ममल सकिी है।

✓ धयण को बढ़ता है
कमण योग व्यशक्त के धयण को बढ़ावा दे िा है। इस योग के दौरान व्यशक्त को कई ऐसे काम करने होिे हैं,
जजसके शलए उन्हें ज्यादा धयण रखना पडिा है। साि ही इस योग के दौरान क्रोध और अहांकार को भी
त्यागना होिा है, जो व्यशक्त के धयण भाव को खद-ब-खद बढ़ाने का काम करिे हैं।

✓ एकाग्रता को बढ़ता है
व्यशक्त के जीवन में एकाग्रिा की महत्वपूर्ण भूममका होिी है। अगर तकसी भी काम में आगे बढ़ना है, िो उस
काम को पूरी एकाग्रिा के साि करना होिा है। कमण योग यही शसखािा है तक अपने कमण को अच्छे से
करना चातहए। तकसी भी कायण को सही से करने के शलए उस पर पूरी िरह ध्यान दे ना होिा है। जब भी हम
तकसी कायण पर सही से ध्यान दे ने की कोशशश करिे हैं, िो एकाग्रिा को बढ़ावा ममलिा है। कमण योग से
परानी बािों को भूलने और आने वाली चीजों पर ध्यान केंदरि करने की भी सीख ममलिी है ।

✓ कायण क्षमता में सुधार


कमण योग करने के फायदे में कायण क्षमिा में सधार भी शाममल है। कमण योग करने वाले अपने और दूसरों के
कायण में मदद करने की भावना रखिे हैं, जजससे तक वो न शसफण अपना काम सही िरीके से करिे हैं, बस्कक
अपने सािी की भी मदद करिे हैं। इससे व्यशक्त के कायण करने की क्षमिा बढ़ सकिी है।

✓ नकारात्मकता दूर करे


कमण योगी का अपने काम के प्रति सकारात्मक तवचार होिा है, जो उनके मन से हर िरह की नकारात्मकिा
को दूर कर सकिा है। इससे व्यशक्त को जीवन में सफलिi की प्राप्प्ि होिी है, क्योंतक कमण योगी अपनी
तवफलिा को भी सकारत्मक िरीके से लेिे हैं और उस काम के शलए दोगनी मेहनि करिे हैं ।

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कमण योग के क्तसद्धांत सकाम कमण और तनष्काम कमणयोग क्या है जानने के बाद इसके शसिाांिों को
समझना भी जरूरी है।
कमण योग के मागण को अपनाने िालों को इन क्तसद्धांतों का पालन करना होता है।
✓ अच्िी सोच – कमण योगी को अच्छी सोच रखने की जरूरि होिी है, उन्हें हर व्यशक्त और काम के प्रति
अच्छा तवचार रखना होिा है। व्यशक्त को अपना काम करिे समय प्रेम भाव और अच्छा रवैया रखना
चातहए। तकसी भी व्यशक्त के जीवन, पररवार या तकसी अन्य काम के प्रति खराब सोच नहीं रखनी
चातहए।
✓ सही उद्दे श्य – तकसी भी काम को लालच और बरे उद्दे श्य से नहीं करना चातहए। हर काम के प्रति मन
में साफ ख्याल होने चातहए। साि ही उस काम से तकसी िरह के लाभ का तवचार मन में नहीं आना
चातहए। अगर कोई तकसी की मदद करिा है, िो बदले में तकसी िोहफा की इच्छा न रखें।
✓ कतणव्य का पालन – कमण योग को जो भी अपनाना चाहिा है, उन्हें अपने हर किणव्य का तनवाणह करना
चातहए। वह तकसी भी काम को बहाना बनाकर नहीं छोड सकिे। कमण योगी को हर काम के प्रति लगन
और तनष्ठा रखनी होगी और उसे उसके मकाम िक पहुांचाना होगा।
✓ हर काम में अच्िा प्रदशणन – एक कमण योगी को अपने हर काम में पूरी मेहनि और लग्न ददखानी
होगी। तकसी भी कायण में कोिाही कमण योगी के शसिाांि के खखलाफ है। इससे काम का अच्छा पररर्ाम
ममलने में मदद ममलिी है।
✓ पररर्ाम की चचिंता न करना – तनष्काम कमण योग करने वाले अपने कायण के फल और पररर्ाम दोनों
के बारे में नहीं सोचिे हैं। वो शसफण कमण करने की भावना रखिे हैं, उन्हें फल की लालसा नहीं होिी है।
ऐसे में अगर कोई कमण योग को अपना चाह रहा है, िो उन्हें अपने कIम से ममलने वाले पररर्ाम की
चचिंिा करना छोडना होगा।
✓ सेिा भाि – कमण योगी को व्यशक्त ही नहीं, बस्कक पश-पक्षी आदद की भी सेवा करनी होिा है। वो
तकसी भी व्यशक्त और जीव-जन्ि में भेदभाव नहीं करिे और सभी के प्रति सम्मान और प्रेम भाव रखिे
हैं।
✓ अनुशाक्तसत रहना – कमण योग का सबसे महत्वपूर्ण शसिाांि अनशाशसि रहना है, जो भी व्यशक्त इसे
अपनािा है, उन्हें अनशासन का पालन करना होगा। उन्हें सरकारी कानून हो या घर के तनयम तकसी को
भी भांग नहीं करना होगा। इन सभी शसिाांिों का सही से पालन करने वाला ही सच्चा कमण योगी
कहलािा है।
✓ व्यशक्त को इसी जीवन में स्वगण और नरक दोनों का अनभव होिा है, जो व्यशक्त जैसा कायण करिा है,
वैसा ही फल पािा है। अपने जीवन को अच्छा और महान बनाने के शलए कमण योग को अपना सकिे हैं।

योग सभर के अनुसार कमण


महर्षिं पतंजक्तल ने कैिल्यपाद के सातिें सभर में कमण के भेद बताये है। कमण के चार भेद है -
✓ शुक्लकमण - जो कमण श्रेष्ठ है अिाणि वेदों में बिाई गई तवद्याओं के आधार पर जो कमण तकये जािे है।
इस शक्ल कमण से स्वगण लोक की प्राप्प्ि होिी है।
✓ कृषर् कमण - जो कमण पाप कमण है उन्हे कृष्र् कमण कहा है। अिाणि शास्त्र तवरूि पापकमो को
कृष्र्कमण कहा गया है। इन कृष्र् कमो से दख ििा नरक की प्राप्प्ि होिी है ििा इन कमो के फलों
को जन्म जन्मान्िर िक भोगना पडिा है।
✓ शुक्लकृषर्कमण - ऐसे कमण जो पाप व पण्य के ममश्रर् हो। कहा गया है तक शक्ल कृष्र्कमण से पन:
मनष्य को जन्म की प्राप्प्ि होिी है।

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✓ अशुक्लकृषर्कमण - जो न िो पाप कमण हो न पण्य कमण और न पाप-पण्य ममभश्रि कमण हो इन सब से


भभन्न ये कमण तनष्काम कमण है क्योंतक ये कमण तकसी भी कामना के नहीं तकये जािे है। इन कमो को
करने से अन्ि:करर् की शजि होिी है। अन्ि:करर् शि पतवत्र ििा दपणर् की भॉंति स्वच्छ छतव वाला
तनमणल बन जािा है। शीघ्र ही ऐसे साधक को वास्ितवक ित्व ज्ञान (आत्मा के ज्ञान) की प्राप्प्ि होिी है
या अन्ि में तनभश्चि उसे कैवकय की प्राप्प्ि होिी है।

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ज्ञान कमण संन्यास योग गीता का चौथा अर्धयाय है, जजसमें 42 श्लोक हैं।

सारांश : पारलौवकक ज्ञान -प्रत्येक कायण प्रािणना का कायण हो सकिा है। सारे कमों को ईश्वर को
अपणर् करके करना ही कमण सन्यास है।
इस अध्याय में भगवान श्री कृष्र् ने गीता का पौराभर्क इतिहास बिाया है।
भगवान कहिे हैं तक जब -जब धमण का नाश होिा है वे अविार लेिे हैं। पातपयों को दस्ण्डि करिे हैं। लेतकन
जो उन्हें सम्पर्पिंि हो जािा है उसकी रक्षा करिे हैं। यह यि उनके द्वारा ही रचा गया है। िातक पातपयों को
दस्ण्डि तकया जा सके।

भगवद गीिा का तवज्ञान सबसे पहले कृष्र् ने सूयदण े व तववस्वान को बिाया िा। तववस्वान ने अपने वांशजों को
तवज्ञान पढ़ाया, जजन्होंने इसे मानविा को शसखाया। ज्ञान के सांचारर् की इस प्रर्ाली को शशष्य उत्तरामधकार
कहा जािा है।

जब कभी और जहाूँ भी धमण का ह्रास होिा है और अधमण का उदय होिा है, कृष्र् भौतिक प्रकृति से अछू िे
अपने मूल ददव्य रूप में प्रकट होिे हैं। जो भगवान के पारलौतकक स्वभाव को समझिा है वह मृत्य के समय
भगवान के शाश्वि तनवास को प्राप्ि करिा है।

हर कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृष्र् को आत्मसमपणर् करिा है, और कृष्र् तकसी के समपणर् के अनसार
प्रतिफल दे िे हैं। कमण के फल को परमेश्वर को अपणर् करके, लोग धीरे-धीरे पारलौतकक ज्ञान के स्िर िक ऊपर
उठ जािे हैं। अज्ञानी और तवश्वासहीन लोग जो शास्त्रों के प्रकट ज्ञान पर सांदेह करिे हैं, वे न िो कभी सखी हो
सकिे हैं और न ही भगवद्भावनामृि प्राप्ि कर सकिे हैं।

यदा यदा वह धमणस्त्य ग्लावनभणिवत भारत:।


अभ्युत्थानमधमणस्त्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥ (चििण अध्याय, श्लोक 7)
हे भारि, जब-जब धमण का लोप होिा है और अधमण में वृजि होिी है, िब-िब मैं धमण के अभ्यत्िान के शलए
स्वयम् की रचना करिा हां अिाणि अविार लेिा हां।

परररार्ाय साधभनाम् विनाशाय च दषकृताम्।


धमणसंस्त्थापनाथाणय सम्भिायम युगे-युगे॥ (चििण अध्याय, श्लोक 8)
सज्जन परुषों के ककयार् के शलए और दष्कर्मिंयों के तवनाश के शलए… और धमण की स्िापना के शलए मैं यगों-
यगों से प्रत्येक यग में जन्म लेिा आया हां।

श्रद्धािान्ल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेजन्द्रय:।


ज्ञानं लब्र्धिा परां शान्न्तमयचरेर्ायधगच्िवत॥ (चििण अध्याय, श्लोक 39)
श्रिा रखने वाले मनष्य, अपनी इजन्रयों पर सांयम रखने वाले मनष्य, साधनपारायर् हो अपनी ित्परिा से ज्ञान
प्राप्ि करिे हैं, तफर ज्ञान ममल जाने पर जकद ही भगवत्प्राप्प्िरूप परम शाप्न्ि को प्राप्ि होिे हैं।

✓ कमण योग- मनष्य शरीर कमण योतन में आिा है ।यह मनष्य शरीर ही कमण प्रधान शरीर है । हमें कमण योगी
होना चातहए । तबना कछ कमण तकए बाकी के सारे योग हम कैसे शसि करेंगे, । िो सबसे अहम योग

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यही है। इसमें मनष्य कमण फल और आसशक्त(लगाव) का त्याग कर जीवन मक्त अवस्िा का अनभव
करिा है I

✓ ज्ञान योग के माध्यम से हम ईश्वर ित्त्व को समझिे हैं । जजससे तक हम ईशवर की महानिा को जानने
का प्रयास कर सकिे हैं । और उसे पाने के साधनों का पिा लगाने की कोशशश करिे हैं । लाभ-हातन,
जय-पराजय ,सख-दख, आदद में समान दृतष्ट रखना ज्ञान योग कहलािा है इसमें मन को इस प्रकार
ढाला जािा हैं तक तकसी भी अवस्िा में मन तवचशलि न हो और हर अवस्िा को एक समान मानकर
मनष्य जीवन मक्त अवस्िा का अनभव करिा है

✓ भक्ति योग के माध्यम से ईश्वर को प्राप्ि तकया जा सकिा है। तकसी सद्गुरु की शरर् में जाकर वह हमें
ईश्वर िक पहुांचने का रास्िा ददखािा है । इसमें मनष्य अपने आप को सम्पूर्ण रूप से ईश्वर को समर्पिंि
कर जीवन मक्त अवस्िा का अनभव करिा है

राजयोग ही भक्ति योग का नाम है , जो सभी योग तक्रयाओं में सवोच्च है अिाणि सभी योग साधनाओं का
राजा है । इसशलए इसे राजयोग कहिे हैं । ईश्वर को प्राप्ि करने के शलए यही एकमात्र ऐसा साधन है , जजस से
हम भगवद् प्राप्प्ि कर सकिे हैं ।इसमें मनष्य करिा भाव त्याग दे िा है स्वयां को तनममि यानी माध्यम मान
प्रकृति को करिा जान और ईश्वर को कारर् जानकर जीवन मक्त अवस्िा का अनभव करिा है

भक्ति का अथण परमात्मा, या इष्ट के प्रवत अनन्य प्रेम।

ऐसी लागी लगन, मीरा होगई मगन, वो िो गली गली हरर गर् गाने लगी।ये हररगर् गाना ही भशक्त है। अब
जजसे हरर की जानकारी हो ,जजसे हरर के गर् पिा हो वही िो हररगर् गा पायेगा ना। ससरदासजी और नृलसिंह
मेहिा िो श्रीकृष्र् को पत्रवि जाने लगे िे। प्रहलाद जी श्रीहरर तपिा समान प्रेम करिे िे। हनमानजी स्वामी
भाव से जानिे िे। िो अजणन ममत्रभाव से। िात्पयण सभी भक्तों का इष्ट उनके अपने अन्िरङ् ग के समान अत्यन्ि
तनकट होने से वे अपनें इष्ट को बहुि अच्छे से जानिे िे।

जो योगी है वही भक्त है वही ज्ञातन है। जो भक्त है वही योगी है। वही ज्ञातन है। और जो ज्ञातन है वही योगी है,
वही भक्त है।

भशक्त, योग और ज्ञान िीनों मागण अलग अलग न होिे हुए एक ही है। परस्पर परक है। अिः िीनों में से तकसी
तवशेष को अच्छा नही कहा जा सकिा। सब समान ही है।

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कमण संन्यास योग गीता का पांचिां अर्धयाय है, जजसमें 29 श्लोक हैं।

सारांश : कमणयोग - कृषर्भािनामृत में कमण -व्यशक्तत्व अपने अहांकार को त्यागें और अनांििा के
आनांद में गोिा लगायें। मैं किाण हूँ- यह भाव ही अहांकार है, जजसे त्यागना और सम रहना ही ज्ञान मागण है।
श्री कृष्र् कहिे हैं तक सन्यास का मिलब है साांसाररक वस्िओं से तवरक्त होकर ईश्वर की उपासना करना।
लेतकन सन्यास लेने के शलए हर तकसी को वन – गमन की जरुरि नहीं है।
अपना कमण करिे हुए यदद भौतिक सखों से मोह – भांग कर शलया जाये िो भी मनष्य ईश्वर को प्राप्ि कर
सकिा है।

अजणन अभी भी असमांजस में है तक क्या बेहिर है: काम का त्याग या भशक्त में काम। कृष्र् बिािे हैं तक भशक्त
सेवा बेहिर है। चूूँतक सब कछ कृष्र् का है, त्याग करने के शलए कछ भी अपना नहीं है। इस प्रकार जजसके
पास जो कछ भी हो उसे कृष्र् की सेवा में उपयोग करना चातहए। ऐसी चेिना में काम करने वाला व्यशक्त
त्यागी है। यह प्रतक्रया, जजसे कमण योग कहा जािा है, व्यशक्त को सकाम कमण के पररर्ाम से बचने में मदद
करिी है - पनजणन्म में फूँसना।

जो अपने मन और इांदरयों को तनयांतत्रि करके भशक्त में काम करिा है, वह ददव्य चेिना में है। यद्यतप उसकी
इजन्रयाूँ इजन्रयतवषयों में लगी हुई हैं, वह पृिक है, शाप्न्ि और सख में स्स्िि है।

‘ब्रह्मण्याधाय कमाणभर् संगं त्यक्त्िा करोवत य:।


क्तलप्सयते न स पापेन पद्मपर यमिाम्भसा।। गीिा 5/10
अिाणि् ब्रह्म को अर्पिंि करके अनासशक्त पूवणक कमण करने वाला उसके फल से वैसे ही अलग रहिा है जैसे जल
में कमल का पत्ता।

योग - योग का अिण केवल शरीर को िोडना मरोडना नही बस्कक यह एक प्रकार की साधना है,जो जीवन मे
आन्िररक खशहाली लाने के अलावा मचत्त को शान्ि रखिी है। योग मानशसक अवसाद को कम करने के साि-
साि कई िरह की बीमाररयों को खत्म करने मे भी कारगर है। तनयममि योग अभ्यास से व्यशक्त की ऊजाण एवां
आन्िररक चेिना स्स्िर रहिी है। तनयममि योग साधना करने वाले व्यशक्तयो की मानशसक शशक्त अन्य लोगो की
िलना मे बेहिर होिी है। यौतगक परांपरा मे भशक्त, ज्ञान और कमणयोग का तवशेष महत्व है।
भशक्तयोग, कमणयोग ,राजयोग ,ज्ञानयोग ,हठयोग ,अष्टाांगयोग ,कडशलनीयोग ,मांत्रयोग ,जपयोग आदद योग के
प्रकार है ।

भािनायोग / प्रार्संयमयोग योग के दो प्रमुख भेद बताये जाते है ।


✓ भावनायोग के प्रकार है भशक्तयोग , ज्ञानयोग , कमणयोग इनका अभ्यास भावना , श्रध्दा या तवश्वासपर
अवलांतबि होिा है , इसशलए इसे भावनायोग कहिे है ।
✓ प्रार्सांयम के प्रकार हठयोग , अष्टाांगयोग , कां डशलनीयोग , मांत्रयोग इ . इनमें श्वासोश्वास को तनयांतत्रि
तकया जािा है । जैसे आसन , प्रार्ायाम , ओंकारजप ,सोहम् जजसका अिण है "मैं वह हां "।

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आत्मसंयम योग गीता का िठा अर्धयाय है, जजसमें 47 श्लोक हैं।

सारांश : र्धयानयोग - साक्षीभाि दृढ करे । आत्मसांयम के तबना मन को नही जीिा जा सकिा है और
तबना मन जीिे योग नही हो सकिा।

ध्यान करने से मनष्य अपनी इजन्रयों पर काबू पा सकिा है। बाहर की चीजों से ध्यान हटाकर शसफण परमात्मा
का ध्यान करना चातहए।

तनरांिर अभ्यास करिे रहने से, ध्यान करने वाला योगी बन जािा है। उसे सच्चे सख प्राप्ि होने लगिे हैं। उसे
तकसी भी चीज की चचिंिा और डर नहीं रहिा।

ध्यान की आखखरी अवस्िा समामध होिी है। इस अवस्िा में पहुूँचकर योगी को ईश्वर के दशणन होिे हैं।

रहस्यवादी योग की प्रतक्रया भौतिक गतितवमधयों की समाप्प्ि पर जोर दे िी है। तफर भी सच्चा रहस्यवादी वह
नहीं है जो कोई किणव्य नहीं करिा। एक वास्ितवक योगी फल के प्रति आसशक्त या इजन्रयिृप्प्ि की इच्छा के
तबना किणव्य के अनसार कायण करिा है। वास्ितवक योग में हृदय के भीिर परमात्मा से ममलना और उनकी
आज्ञा का पालन करना शाममल है। यह एक तनयांतत्रि ददमाग की मदद से हाशसल तकया जािा है। ज्ञान और बोध
के माध्यम से, व्यशक्त भौतिक अस्स्ित्व (गमी और सदी, सम्मान और अपमान, आदद) के द्वै ि से अप्रभातवि हो
जािा है। खाने, सोने, काम करने और मनोरांजन के तनयमन से योगी अपने शरीर, मन और गतितवमधयों पर
तनयांत्रर् हाशसल कर लेिा है और पारलौतकक आत्म पर अपने ध्यान में स्स्िर हो जािा है। अांििः, वह समामध
को प्राप्ि करिा है, जो पारलौतकक अिों के माध्यम से पारलौतकक आनांद का आनांद लेने की क्षमिा की
तवशेषिा है।

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमिसादयेत्।
आत्मैि ह्रात्मनो बन्धुरात्मैि ररपुरात्मन:॥ (षष्ठ अध्याय, श्लोक 5)
अपने द्वारा अपना उिार करे और अपने को अधोगति में न डाले, क्योंतक यह मनष्य आप ही िो अपना ममत्र है
और आप ही अपना शत्र है । अप्सप दीपो भि’ अिाणि अपना प्रकाश स्वयां बनो

✓ मानि शरीर अस्त्थायी और आत्मा स्त्थायी है:


भगवान श्री कृष्र् ने मनष्य के शरीर को महज एक कपडे का टकडा बिाया है। अिाणि एक ऐसा कपडा जजसे
आत्मा हर जन्म में बदलिी है। अिाणि मानव शरीर, आत्मा का अस्िायी वस्त्र है, जजसे हर जन्म में बदला जािा
है। इसका आशय यह है तक हमें शरीर से नहीं उसकी आत्मा से व्यशक्त की पहचान करनी चातहए। जो लोग
मनष्य के शरीर से आकणतषि होिे हैं या तफर मनष्य के भीिरी मन को नहीं समझिे हैं ऐसे लोगों के शलए गीिा
का यह उपदे श बडी सीख दे ने वाला है।

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✓ जीिन का एक मार सत्य है िो है मृत्यु:


श्री कृष्र् ने कहा है तक हर इांसान के द्वारा जन्म-मरर् के चक्र को जान लेना बेहद आवश्यक है, क्योंतक
मनष्य के जीवन का मात्र एक ही सत्य है और वो है मृत्य। क्योंतक जजस इांसान ने इस दतनया में जन्म शलया
है। उसे एक ददन इस सांसार को छोड कर जाना ही है और यही इस दतनया का अटल सत्य है।

✓ गुस्त्से पर काबभ करना चावहए क्योंवक रोध से व्यक्ति का नाश हो जाता है:
गीिा के उपदे श में कहा है तक ‘क्रोध से भ्रम पैदा होिा है और भ्रम से बजि का तवनाश होिा है। वहीं जब
बजि काम नहीं करिी है िब िकण नष्ट हो जािा है और व्यशक्त का नाश हो जािा है।इस िरह हर व्यशक्त को
अपने गस्से पर काबू करना चातहए, क्योंतक क्रोध भी भ्रम पैदा करिा है। इांसान गस्से में कई बार ऐसे काम
करिे हैं जजससे उन्हें काफी हातन पहुांचिी है।वहीं अगर क्रोध पर काबू नहीं तकया गया िो इांसान कई गलि
कदम उठा लेिा है। वहीं जब क्रोध की भावना इांसान के मन में पैदा होिी है िो हमारा मस्स्िष्क भी सही
और गलि के बीच अांिर करना छोड दे िा है, इसशलए इांसान को हमेशा क्रोध के हालािों से बचकर हमेशा
शाांि रहना चातहए। क्योंतक गस्से में शलया गया फैसला इांसान को गहरी क्षति पहुांचािा है।

✓ व्यक्ति अपने कमों को नहीं िोड़ सकता है:


श्री कृष्र् ने बिाया है तक कोई भी व्यशक्त अपने कमण को नहीं छोड सकिा है अिाणि् जो साधारर् समझ के
लोग कमण में लगे रहिे हैं उन्हें उस मागण से हटाना ठीक नहीं है Iवहीं अगर उनका कमण भी छू ट गया िो वे
दोनों िरफ से भटक जाएांगे। प्रकृति व्यशक्त को कमण करने के शलए बाध्य करिी है। जो व्यशक्त कमण से बचना
चाहिा है वह ऊपर से िो कमण छोड दे िा है लेतकन मन ही मन उसमे डू बा रहिा है। अिाणि जजस िरह
व्यशक्त का स्वभाव होिा है वह उसी के अनूरुप अपने कमण करिा है।

✓ मनुषय को दे खने का नजररया:


मनष्य को दे खने के नजररए पर भी सांदेश ददया गया है, इसमें शलखा गया है जो ज्ञानी व्यशक्त ज्ञान और कमण
को एक रूप में दे खिा है, उसी का नजररया सही है। और जो अज्ञानी परुष होिा है, उसे ज्ञान नहीं होने की
वजह से वह हर तकसी चीज को गलि नजररए से दे खिा है।

✓ इंसान को अपने मन को काबभ में रखना चावहए:


गीिा में उन लोगों के शलए सांदेश ददया गया है जो लोग अपने मन को काबू में नहीं रखिे हैं क्योंतक ऐसे
लोगों का मन इधऱ-उधर भटकिा रहिा है और उनके शलए वह शत्र के समान काम करिा है। मन, व्यशक्त के
मस्स्िक पर भी गहरा प्रभाव डालिा है जब व्यशक्त का मन सही होिा है िो उसका मस्स्िक भी सही िरीके
से काम करिा है।

✓ खुद का आकलन करें:


गीिा में यह भी उपदे श ददया गया है तक मनष्य को पहले खद का आकलन करना चातहए और खद की
क्षमिा को जानना चातहए क्योंतक मनष्य को अपने ‘आत्म-ज्ञान की िलवार से काटकर अपने ह्रदय से
अज्ञान के सांदेह को अलग कर दे ना चातहए। जब िक मनष्य खद के बारे में नहीं जानेगा िब िक उसका
उिार नहीं हो सकिा है।

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✓ मनुषय को खुद पर विश्वास करना चावहए:


श्री कृष्र् ने उपदे श ददया है तक हर मनष्य को खद पर पूरा भरोसा रखना चातहए क्योंतक जो लोग खद पर
भरोसा करिे हैं वह तनश्चय ही सफलिा हाशसल करिे हैं। वहीं इांसान जैसा तवश्वास करिा है वह वैसा ही बन
जािा है।

✓ अच्िे कमण करें और फल की इच्िा ना करें:


जो लोग कमण नहीं करिे और पहले से ही पररर्ाम के बारे में सोचिे हैं ऐसे लोगों के शलए गीिा सार का यह
उपदे श बडी सीख दे ने वाला है।इसमें श्री कृष्र् ने कहा है तक इांसान को अपने अच्छे कमण करिे रहना
चातहए और यह नहीं सोचना चातहए तक इसका क्या पररर्ाम होगा क्योंतक कमण का फल हर इांसान को
ममलिा है। इसशलए इांसान को इस िरह की चचिंिा को अपने मन में जगह नहीं दे नी चातहए तक उसके कमण
का फल क्या होगा या तफर तकसी काम को करने के बाद वह खश रहेंगे या नहीं।अिाणि कमण करने के दौरान
इांसान को इसके पररर्ाम के बारे में तबककल भी चचिंिा नहीं करना चातहए और तकसी भी काम को चचिंिा
मक्त होकर शरु करना चातहए।

✓ मनुषय की इंद्रद्रयों का संयम ही कमण और ज्ञान का वनचोड़ है:


जातहर है तक मनष्य के सख और दख में मन की स्स्िति एक जैसी नहीं रहिी है। सख में मनष्य ज्यादा
उत्सातहि हो जािा है और दख में वह बेकाबू हो जािा है। इसशलए सख और दख दोनों में ही मनष्य के मन
की समान स्स्िति हो इसे योग ही कहा जािा है।वहीं जब मनष्य सभी साांसाररक इच्छाओं का त्याग करके
तबना फल की इच्छा के कोई काम करिा है िो उस समय वह मनष्य योग मे स्स्िि कहलािा है। और जो
मनष्य मन को वश में कर लेिा है, उसका मन ही उसका सबसे अच्छा ममत्र बन जािा है, लेतकन जो मनष्य
अपने मन को वश में नहीं कर पािा है, उसके शलए वह मन ही उसका सबसे बडा दश्मन बन जािा है।वहीं
जो मनष्य अपने अशाांि मन को वश में कर लेिे हैं, उनको परमात्मा की प्राप्प्ि होिी है और जजस मनष्य
को ज्ञान की प्राप्प्ि हो जािी है उसके शलए सख-दःख, सदी-गमी और मान-अपमान सब एक समान हो
जािे हैं।ऐसा मनष्य स्स्िर मचत्त और इजन्रयों को वश में करके ज्ञान द्वारा परमात्मा को प्राप्ि करके हमेशा
सन्िष्ट रहिा है।

✓ खुद पर पभरा भरोसा रखे और अपने लक्ष्य को पाने के क्तलए लगातर प्रयास करें:
गीिा के इस उपदे श को अगर कोई भी व्यशक्त अपने जीवन में पालन करे िो तनश्चय ही वह एक सफल
व्यशक्त बन सकिा है। जो लोग पूरे तवश्वास के साि अपने लक्ष्य को पाने का प्रयास करिे हैं। वह तनश्चय ही
अपने लक्ष्य को पा लेिे हैं, लेतकन मनष्य को अपने लक्ष्य को हाशसल करने के शलए लगािार चचिंिन / कमण
करिे रहना चातहए।

✓ तनाि से दूर रहने का संदेश:


भगवान श्री कृष्र् ने कहा है तक लोगों को िनाव से दूर रहना चातहए क्योंतक िनाव इांसान को सफल होने से
रोकिा है।

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✓ अपना काम को प्राथयमकता दें और इसे पहले करें:


अपने काम को पहले प्रािममकिा दें और पहले अपने काम को पूरा करने की कोशशश करें िभी दूसरे का
काम करें क्योंतक जो लोग पहले अपने काम को नहीं करिे और दूसरें का काम करिे रहिे हैं। वे लोग
अक्सर परेशान रहिे हैं।

✓ लोक में जजतने दे िता हैं, सब एक ही भगिान की विभभवतयां हैं:


सब एक ही भगवान की तवभूतियाां हैं। जो लोग भगवान के अलग-अलग रुपों की पूजा करिे हैं और उनकी
अलग-अलग शशक्तयों में भरोसा रखिे हैं। ऐसे लोगों के शलए यह जान लेना बेहद जरूरी है तक सभी एक ही
भगवान की तवभूतियाां हैं। मनष्य के अच्छे गर् और अवगर् भगवान की शशक्त के ही रूप हैं। इसका सार
यह है तक लोक में जजिने दे विा हैं, सभी एक ही भगवान, की तवभूतियाां हैं। वहीं कोई पीपल को पूज रहा
है। िो कोई पहाड को कोई नदी या समर को। असांख्य दे विा हैं जजनका कोई अांि नहीं है। लोग अपनी-
अपनी आस्िा के मिातबक दे वी-दे विाओं के अलग-अलग स्वरूपों की पूजा करिे हैं लेतकन सभी एक ही
भगवान की तवभूतियाां हैं। िासुदेिुः सिणम् I

✓ जो लोग भगिान का सच्चे मन से र्धयान लगाते हैं िह पभर्ण क्तसद्ध योगी माने जाते हैं
जो लोग सच्चे मन से भगवान की आराधना करिे हैं और अपना पूरा ध्यान भगवान की भशक्त में लगािे हैं वे
लोग पूर्ण शसि योगी माने जािे हैं।वहीं जो मनष्य परमात्मा के सवणव्यापी, अककपनीय, तनराकार,
अतवनाशी, अचल स्स्िि स्वरूप की उपासना करिा है और अपनी सभी इजन्रयों को वश में करके, सभी
पररस्स्ितियों में समान भाव से रहिे हुए सभी प्रार्ीयों के तहि में लगा रहिा है उस पर ईश्वर की कृपा जरूर
बरसिी है।गीिा सार में महाभारि के यि में भगवान श्री कृष्र् ने अजणन से कहा तक हे अजणन अपने मन
को मझमें ही स्स्िर कर और अपनी बजि को मझमें ही लगा। इस िरह िू तनभश्चि रूप से मझमें ही हमेशा
तनवास करेगा। वहीं अगर िू ऐसा नहीं कर सकिा है, िो भशक्त-योग के अभ्यास द्वारा मझे प्राप्ि करने की
इच्छा पैदा कर सकिा है। इस िरह िू मेरे शलये कमों को करिा हुआ मेरी प्राप्प्ि रूपी परम-शसजि को प्राप्ि
करेगा।

✓ अपने काम को मन लगाकर करें और अपने काम में खुशी खोजें:


जो लोग अपने काम को मन लगाकर करिे हैं और अपने काम में खशी ढूां ढ लेिे हैं वे लोग तनश्चि ही
सफलिा प्राप्ि करिे हैं। वहीं दूसरी िरफ कई लोग ऐसे भी होिे हैं जो तकसी काम को बोजझल समझकर
उस काम को शसफण तनपटाने की कोशशश करिे हैं। ऐसे लोग तकसी काम को ढ़ां ग से नहीं कर पािे हैं और
अपने जीवन में पीछे / दुिी रह जािे हैं।

✓ ‘वकसी भी तरह की अयधकता इंसान के क्तलए बन सकती है बड़ा खतरा:


इांसान के शलए तकसी भी िरह की अमधकिा घािक सातबि हो सकिी है। जजस िरह सांबांधों में कडवाहट
हो या तफर मधरिा, खशी हो या गम, हमें कभी भी “अति” नहीं करनी चातहए।जीवन में सांिलन बनाए
रखना बहुि जरूरी है। जब िक मनष्य के जीवन में सांिलन नहीं रहेगा वह सख से अपना जीवन व्यिीि
नहीं कर सकेगा अिाणि मनष्य को जरूरि से ज्यादा कोई भी चीज करने से बचना चातहए और अपनी
जजिंदगी में सांिलन बनाकर रखना चातहए।

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✓ स्त्िाथी नहीं बनें:


जो लोग दूसरी की भलाई पर ध्यान नहीं दे िे और शसफण अपना मिलब साधने में लगे रहिे हैं उन लोगों का
कभी भला नहीं होिा।आपको बिा दें तक इांसान का स्वािण उसे अन्य लोगों से दूर ले जाकर नकारात्मक
हालािों की िरफ धकेलिा है। जजसके चलिे व्यशक्त अकेला रह जािा है। वहीं अगर आप चाहिे हैं तक
आप भी अपना जीवन खशीपूवणक व्यिीि करें िो इसके शलए यह जरूरी है तक, आप अपने स्वािण को कभी
अपने पास नहीं आने दें क्योंतक स्वािी मनष्य दोस्िी भी शसफण अपना स्वािण तनकालने के शलए करिे हैं।

✓ ईश्वर हमेशा मनुषय का साथ दे ता है:आपने अक्सर यह सुना होगा वक जजसका कोई नहीं
होता उसका भगिान होता है। गीिा सार में भी यह कहा भी गया है तक ईश्वर हमेशा मनष्यों का साि
दे िा है। वहीं जब व्यशक्त इस प्रभावशाली सत्य को मान लेिा है िो उसका जीवन पूरी िरह बदल जािा
है। सृतष्ट तनमाणिा ईश्वर ही है जो सम्पूर्ण जगि को चला रहा है।
वहीं इांसान िो बस ईश्वर की हाि की एक कठपिली है, इसशलए इांसान को कभी अपने भतवष्य या तफर
अिीि की चचिंिा नहीं करनी चातहए। क्योंतक हर तवकट परस्स्िति में ईश्वर इांसान का साि दे िा है और
उसे मस्श्कल से बाहर तनकालिा है इसशलए हम सभी को ईश्वर पर भरोसा रखना चातहए।

✓ संदेह की आदत इंसान के दख का कारर् बनती है:


जजन लोगों में शक या सांदेह की आदि होिी है या तफर जो लोग जरूरि से ज्यादा शक करिे हैं। ऐसे लोगों
के शलए श्री कृष्र् ने गीिा में कहा है तक पूर्ण सत्य की खोज या तफर सांदेह की आदि इांसान के दख का
कारर् बनिी है। क्योंतक शक करना एक ऐसी आदि है जो तक मजबूि से मजबूि ररश्िे को भी खोखला
कर दे िी है। वहीं जजज्ञासा होना भी लाजमी है लेतकन पूरी िरह सत्य की खोज या तफर सांदेह ही इांसान के
दख का कारर् बनिी है और शक करने वाले इांसान बाद में इसका पाश्चातIप करिे हैं।

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ज्ञानविज्ञान योग गीता का सातिां अर्धयाय है, जजसमें 30 श्लोक हैं।

सारांश : वनरपेक्ष का ज्ञान - अमल करें / कमण करें जो आप सीखिे हैं - जIनिे हैं। तत्रकालज्ञ ईश्वर को
जानना ही भशक्त का कारर् होना चातहए, यही ज्ञानयोग है।
श्री कृष्र् कहिे हैं तक ब्रह्माण्ड की हर चीज उनकी ही बनायी हुई है। हर चीज में वे तविमान हैं। सूयण, धरिी,
ग्रह , नक्षत्र, िारामांडल, ज्ञान , तवज्ञान, इजन्रयाां, सख -दःख, पाप -पण्य आदद सब उनके बनाये हुए हैं। जो
मनष्य इस बाि को ज्ञान के द्वारा समझ जािे हैं वे ईश्वर को समर्पिंि हो जािे हैं। जबतक जो सांदेह करिे हैं वे
सांसार की भौतिक वस्िओं को समर्पिंि हो जािे हैं। और यही उनके दखों का कारर् बना रहिा है। उन्हें कभी
बैकां ठ (मोक्ष) प्राप्ि नहीं होिा और बार -बार मृत्य लोक में जन्म लेना पडिा है। ििा साांसाररक दःख भोगने
पडिे हैं। िासुदेिुः सिणम् I

कृष्र् स्वयां को सभी भौतिक और आध्यास्त्मक ऊजाणओं के मूल के रूप में प्रकट करिे हैं। यद्यतप उनकी ऊजाण
भौतिक प्रकृति को प्रकट करिी है, िीन अवस्िाओं (अच्छाई, जनून और अज्ञानिा) के साि, कृष्र् भौतिक
तनयांत्रर् में नहीं हैं। लेतकन बाकी सभी हैं, शसवाय उनके जजन्होंने उनके सामने आत्मसमपणर् कर ददया है।

कृष्र् हर चीज का सार हैं; पानी का स्वाद, अप्ग्न में गमी, आकाश में ध्वतन, सूयण और चांरमा का प्रकाश, मनष्य
में क्षमिा, पृथ्वी की मूल सगांध, बजिमानों की बजि और सभी जीवों का जीवन।

चार प्रकार के परुष कृष्र् को समपणर् करिे हैं, और चार प्रकार के नहीं करिे। जो लोग समपणर् नहीं करिे हैं वे
कृष्र् की अस्िायी, मायावी शशक्त से आच्छाददि रहिे हैं और उन्हें कभी नहीं जान सकिे, लेतकन पतवत्र लोग
भशक्त सेवा के शलए आत्मसमपणर् करने के पात्र बन जािे हैं। उनमें से, जो यह समझिे हैं तक कृष्र् सभी
कारर्ों के कारर् हैं, भशक्त सेवा में बडे दृढ़ सांककप के साि सांलग्न होिे हैं और कृष्र् के तप्रय हो जािे हैं। ये
दलणभ आत्माएां उन्हें अवश्य प्राप्ि करेंगी।

ज्ञानयोग क्या है
ज्ञानयोग से िात्पयण है – ‘तवशि आत्मस्वरूप का ज्ञान’ या ‘आत्मचैिन्य की अनभूति’ है। इसे उपतनषदों में
ब्रह्मानभूति भी कहा गया है। और यह भी कहा गया है की –
“ऋते ज्ञानन्न मुक्तिुः” ज्ञान के तवना मशक्त सांभव नहीं है –
ज्ञानयोग के सातहत्य में उपतनषि्, गीिा, ििा आचायण शांकर के अद्वै ि ग्रन्ि ििा उन पर भाष्यपरक ग्रन्ि हैं।
इन्हीं से ज्ञान योग की परम्परा दृढ़ होिी है। आधतनक यग में तववेकानन्द ,ओशो आदद तवचारकों के तवचार भी
इसमें समातहि होिे हैं।

ज्ञानयोग का स्त्िरूप
ज्ञानयोग दो शब्दों से ममलकर बना है – “ज्ञान” ििा “योग”। ज्ञान शब्द के कई अिण तकये जािे हैं –
• लौतकक ज्ञान – वैददक ज्ञान,
• साधारर् ज्ञान एवां असाधारर् ज्ञान
• प्रत्यक्ष ज्ञान – परोक्ष ज्ञान

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तकन्ि ज्ञानयोग में उपरोक्त मन्िव्यों से हटकर अिण सन्न्नतहि तकया गया है। ज्ञान शब्द की उत्पशत्त “ज्ञ” धाि से
हुयी है, जजससे िात्पयण है – जानना। इस जानने में केवल वस्ि (Object) के आकार प्रकार का ज्ञान समातहि
नहीं है, वरन् उसके वास्ितवक स्वरूप की अनभूति भी समातहि है। इस प्रकार ज्ञानयोग में यही अिण मख्य रूप
से शलया गया है।
ज्ञानयोग में ज्ञान से आशय अधोशलखखि तकये जािे हैं –
• आत्मस्वरूप की अनभूति
• ब्रह्म की अनूभूति
• सस्च्चदानन्द की अनभूति
• तवशि चैिन्य की अवस्िा

• ज्ञानयोग के दाशणवनक आधार


ज्ञानयोग जजस दाशणतनक आधार को अपने में समातहि करिा है, वह है ब्रह्म (चैिन्य) ही मूल ित्त्व है उसी की
अभभव्यशक्त समस्ि सृतष्ट है। इस प्रकार मूल स्वरूप का बोध होना अिाणि् ब्रह्म की अनूभूति होना ही वास्ितवक
अनभूति या वास्ितवक ज्ञान है। एवां इस अनभूति को कराने वाला ज्ञानयोग है।
व्यशक्त परमात्मा को ज्ञान मागण से पाना चाहिा है । वह इस सांसार की छोटी-छोटी वस्िओं से सन्िष्ट होने वाला
नहीं है । अनेक ग्रन्िों के अवलोकन से भी उसे सन्ितष्ट नहीं ममलिी । उसकी आत्मा सत्य को उसके प्रकृि रूप
में दे खना चाहिी है और उस सत्य-स्वरूप का अनभव करके, िरूप होकर, उस सवणव्यापी परमात्मा के साि
एक होकर सत्ता के अन्िराल में समा जाना चाहिी है । ऐसे दाशणतनक के शलए िो ईश्वर उसके जीवन का जीवन
है, उसकी आत्मा की आत्मा है । ईश्वर स्वयां उसी की आत्मा है । ऐसी कोई अन्य वस्ि शेष ही नहीं रह जािी,
जो ईश्वर न हो , िासुदेिुः सिणम् I

ज्ञानयोग की वियध
तववेकानन्द के अनसार ज्ञानयोग के अन्िगणि सबसे पहले तनषेधात्मक रूप से उन सभी वस्िओं से ध्यान हटाना
है जो वास्ितवक नहीं हैं, तफर उस पर ध्यान लगाना है जो हमारा वास्ितवक स्वरूप है –
अिाणि् सि् मचि् आनन्द।
उपतनषदों में इसे ब्रह्म वाक्य कहा गया है। इसके अन्िगणि ब्रह्मवाक्यों श्रवर्, मनन ििा तनददध्यासन को कहा
गया है।
✓ श्रवर् (उपतनषदों में कही गयी बािों को सनना या पढ़ना)
✓ मनन (श्रवर् तकये गये मन्िव्य पर मचन्िन करना)
✓ तनददध्यासन (सभी वस्िओं से अपना ध्यान हटाकर साक्षी पक्षी की िरह बन जाना, स्वयां को ििा
सांसार को ब्रह्ममय समझने से ब्रह्म से एकत्व स्िातपि हो जािा है)

ब्रह्म िाक्य प्रधान रूप से चार माने गये हैं –


कृष्र् यजवेदीय उपतनषद "शकरहस्योपतनषद " में महर्षिं व्यास के आग्रह पर भगवान शशव उनके
पत्र शकदे व को चार महावाक्यों का उपदे श 'ब्रह्म रहस्य' के रूप में दे िे हैं। वे चार महावाक्य ये हैं-

✓ ॐ प्रज्ञानां ब्रह्म,
✓ ॐ अहां ब्रह्मास्स्म,
✓ ॐ ित्त्वमशस,
✓ ॐ अयमात्मा ब्रह्म

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✓ प्रज्ञानं ब्रह्म
इस महावाक्य का अिण है- 'प्रकट ज्ञान ब्रह्म है।' वह ज्ञान-स्वरूप ब्रह्म जानने योग्य है । वह तवशि-रूप,
बजि-रूप, मक्त-रूप और अतवनाशी रूप है। वही सत्य, ज्ञान और सस्च्चदानन्द-स्वरूप ध्यान करने योग्य
है। उस महािेजस्वी दे व का ध्यान करके ही हम 'मोक्ष' को प्राप्ि कर सकिे हैं। वह परमात्मा सभी प्राभर्यों
में जीव-रूप में तवद्यमान है। वह सवणत्र अखण्ड तवग्रह-रूप है। वह हमारे मचि और अहांकार पर सदै व
तनयन्त्रर् करने वाला है। जजसके द्वारा प्रार्ी दे खिा, सनिा, सूांघिा, बोलिा और स्वाद-अस्वाद का अनभव
करिा है, वह प्रज्ञान है। वह सभी में समाया हुआ है। वही 'ब्रह्म' है। िासुदेिुः सिणम् I

✓ अहं ब्रह्माऽस्स्त्म
इस महावाक्य का अिण है- 'मैं ब्रह्म हां।' यहाूँ 'अस्स्म' शब्द से ब्रह्म और जीव की एकिा का बोध होिा है।
जब जीव परमात्मा का अनभव कर लेिा है, िब वह उसी का रूप हो जािा है। दोनों के मध्य का द्वै ि भाव
नष्ट हो जािा है। उसी समय वह 'अहां ब्रह्मास्स्म' कह उठिा है।

✓ तत्त्िमक्तस
इस महावाक्य का अिण है-'वह ब्रह्म िम्हीं हो।' सृतष्ट के जन्म से पूवण, द्वै ि के अस्स्ित्त्व से रतहि, नाम और
रूप से रतहि, एक मात्र सत्य-स्वरूप, अतद्विीय 'ब्रह्म' ही िा। वही ब्रह्म आज भी तवद्यमान है। उसी ब्रह्म
को 'ित्त्वमशस' कहा गया है। वह शरीर और इजन्रयों में रहिे हुए भी, उनसे परे है। आत्मा में उसका अांश
मात्र है। उसी से उसका अनभव होिा है, तकन्ि वह अांश परमात्मा नहीं है। वह उससे दूर है। वह सम्पूर्ण
जगि में प्रतिभाशसि होिे हुए भी उससे दूर है।

✓ अयमात्मा ब्रह्म
इस महावाक्य का अिण है- 'यह आत्मा ब्रह्म है।' उस स्वप्रकाशशि परोक्ष (प्रत्यक्ष शरीर से परे) ित्त्व को
'अयां' पद के द्वारा प्रतिपाददि तकया गया है। अहांकार से लेकर शरीर िक को जीतवि रखने वाली अप्रत्यक्ष
शशक्त ही 'आत्मा' है। वह आत्मा ही परब्रह्म के रूप में समस्ि प्राभर्यों में तवद्यमान है। सम्पूर्ण चर-अचर
जगि में ित्त्व-रूप में वह सांव्याप्ि है। वही ब्रह्म है। वही आत्मित्त्व के रूप में स्वयां प्रकाशशि 'आत्मित्त्व'
है।अन्ि में भगवान शशव शकदे व से कहिे हैं- 'हे शकदे व ! इस सस्च्चदानन्द- स्वरूप 'ब्रह्म' को, जो िप
और ध्यान द्वारा प्राप्ि करिा है, वह जीवन-मरर् के बन्धन से मक्त हो जािा है।'गरु मख से इनके श्रवर् के
वास्ितवक अिण की अनभूति ही ज्ञानयोग की प्राप्प्ि कही गयी है।

गीता के अनुसार ज्ञान के प्रकार –


o तार्किंक ज्ञान :
वस्िओं के बाह्य रूप को दे खकर उनके स्वरूप की चचाण बजि के द्वारा करिा है। बौजिक अिवा िार्किंक ज्ञान
को ‘तवज्ञान’ कहा जािा है। िार्किंक ज्ञान में ज्ञािा और ज्ञेय का द्वै ि तवद्यमान रहिा है
o आर्धयास्त्मक ज्ञान :
वस्िओं के आभास में व्याप्ि सत्यिा का तनरूपर् करने का प्रयास करिा है। जबतक आध्यास्त्मक ज्ञान को
ज्ञान कहा जािा है। । आध्यास्त्मक ज्ञान में ज्ञािा और ज्ञेय का द्वै ि नष्ट हो जािा है। ज्ञान शास्त्रों के अध्ययन से
होने वाला आत्मा का ज्ञान है जो व्यशक्त ज्ञान प्राप्ि कर लेिा है व सब भूिों में आत्मा को और आत्मा में सब
भूिों को दे खिा है। वह तवषयों में ईश्वर को और ईश्वर में सब को दे खिा है। ज्ञान की प्राप्प्ि के शलये मानव को
अभ्यास करना पडिा है।

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श्रीमद भगित गीता के अनुसार ज्ञान प्राप्सत करने की वियध


✓ जो व्यशक्त ज्ञान चाहिा है उसे शरीर, मन और इजन्रयों को शि रखना पडिा है।
✓ इजन्रयाूँ और मन स्वभाविः चांचल होिे हैं जजसके फलस्वरूप वे तवषयों के प्रति आसक्त हो जािे हैं।
इसका पररर्ाम यह होिा है तक मन दूतषि होिा है, कमों के कारर् अशि हो जािा है। यदद मन और
इजन्रयों को शि नहीं तकया जाये िो साधक ईश्वर /लक्ष से ममलने से वांमचि हो जािा है। क्योंतक ईश्वर
/लक्ष अशि वस्िओं को नहीं स्वीकार करिा है।
✓ मन और इजन्रयों को उनके तवषयों से हटाकर ईश्वर पर केन्रीभूि कर दे ना भी आवश्यक माना जािा हैं
इस तक्रया का फल यह होिा है तक मन की चांचलिा नष्ट हो जािी है और वह ईश्वर के अनशीलन में
व्यस्ि हो जािा है।
✓ जब साधक को ज्ञान हो जािा है िब आत्मा और ईश्वर में िादात्म्य का सम्बन्ध हो जािा है। वह समझने
लगिा है तक आत्मा ईश्वर का अांग है। इस प्रकार की िादात्म्यिा का ज्ञान इस प्रर्ाली का िीसरा अांग
है।

आत्मा अतवनाशी है , अमर है , सवणव्यापी है , ऐसा अनभव मचत्तशखध्द के बाद ही आिा है । अतवद्या , अस्स्मिा
, अज्ञान इनकी वजहसे मनष्यको दःख सहना पडिा है । उनसे मशक्त पाने के शलये ज्ञानयोग मदद करिा है ।

ज्ञानयोग साधना के दो प्रकार है : १) बवहरंग साधना २) अन्तरंग साधना


१)बवहरंग साधना:
वनत्यावनत्य िस्त्तभ वििेक: सत्य और असत्य , तनत्य और अतनत्य का फरक जानना । तनत्य वस्िू को
तनत्य और अतनत्य वस्िूओको अतनत्य समझ ही तनत्यातनत्य वस्िू तववेक है ।
िैराग्य: भोग तवलास और कमण फलोंसे सवणिा तवमख हो जाना ही वैराग्य है ।
शमाद्रद: इनमें शम , दम , तितिक्षा , उपरति , समाधान और श्रध्दा यह छ : बािें आिी है । जजसे
षट् सांपशत्त कहिे है । इनका वर्णन आगे ददया है।
✓ शम: इांदरयोंके तवषयोंको सांयममि करके आत्मा में मचत्त को लगानेका नाम शम है ।
✓ दम: तवषयोंसे इांदरयोंको हटाकर उन्हें स्स्िर रखनेको दम कहिे है ।
✓ उपरवत: फलेच्छा शून्य होकर समस्ि कमों को भगवानमे केंदरि करना ही उपरति है ।
✓ वततीक्षा: मानापमान , सख-दःख , शीि-उष्र् आदद को सहन करके उनके शलये पश्चािाप
न करना ही तितिक्षा है ।
✓ समाधान: परब्रम्ह में ित्पर होना ििा गरू शश्रूषा करना ही समाधान है ।
✓ श्रद्धा: गरू वाक्य और शास्त्र वाक्य में तवश्वास करना ही श्रध्दा है ।
✓ मुमक्ष
ु ुत्ि: अज्ञान कस्कपि बांधन से मक्त हो जाने की इच्छा को ममक्षत्व कहिे है ।

२) अंतरंग साधना: श्रवर् , मनन , तनददध्यासन और समामध ये चार अांिरांग साधन है।
✓ श्रिर्: ईश्वर की तवशेषिाओं को सनना ।
✓ मनन: ईश्वर के बारे में जो सना है , उसका चचिंिन करना यह मनन है ।
✓ वनद्रदर्धयासन: भभन्नत्व भावना को हटाकर सबमें ब्रम्ह का अस्स्ित्व है यह मानना तनददध्यासन है ।
✓ समायध: ध्यान , ध्यािा और ध्येय का भेद हटाकर एकही ब्रम्ह में मचत्त की वृत्तीयों को एकाकार करना
समामध है ।

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✓ ज्ञान की प्रान्प्सत के साधन के रुप में ज्ञान की सात भभयमकाए महत्िपभर्ण मानी जाती है।
1. शुभेच्िा : इस भूममका में साधक साांसररक तवषयों से तवरक्त होकर मशक्त की इच्छा से ज्ञान प्राप्ि
करने के शलये गरू के पास जािा है ।
2. विचारर्ा : इस भूममका में वैराग्य सांपन्न सदाचरर्शील साधक गरू के पास बैठकर आत्मित्व
तवषयक रहस्योंको जानने का प्रयास करिा है ।
3. तनुमानसा : इस भूममका में साांसाररक तवषयोंके प्रति अनासक्त भाव से दे खकर मन की सूक्षिम
अवस्िा पाना है । जजससे ददव्यानांद की प्राप्प्ि होिी है।
4. सत्िापक्तत्त : इस भूममका में साधक सांशय - भ्रम से रतहि होकर ब्रम्ह ििा जीवात्मा के ऐक्य का
साक्षात्कार करिा है I
5. असंसक्ति : इस में साधक सतवककप समामध कें अभ्यास से सांसाररक तवषयोंको कछ समय के
शलये तवस्मृि कर मनोतनग्रह के व्दारा तनर्विंककप समामध की अवस्िा में प्रतवष्ठ होिा है इसे
सप्पप्त्प अवस्िा कहिे है ।
6. पदाथाणभािनी : इस में साधक सतवककप समामध के तनरांिर अभ्यास से सांसाररक तवषयों को
दीघणकाल िक तवस्मृि कर मनोतनग्रह से तनर्विंककप समामध की अवस्िा को प्राप्ि करिा है , इसे
प्रगाढ सषप्प्ि अवस्िा कहिे है ।
7. तुयणभा : इस भूममका में साधक प्रप्रांचक तवषयों को सदा के शलए सविाण तवस्मृि कर तनिन्िर
ब्रम्ह का ध्यान करिा है । यह ब्रह्मीभूि अवस्िा होिी है । दे ह का भी भान नहीं होिा ।

श्रीमद भगित गीता के अनुसार ज्ञानयोग का सार


गीिा में ज्ञान को पष्ट करने के शलए योगाभ्यास का आदे श ददया जािा है। यद्यतप गीिा योग का आदे श दे िी है
,ज्ञान को अपनाने के शलये इजन्रयों के उन्मूलन का आदे श नहीं ददया गया है। ज्ञान से अमृि की प्राप्प्ि होिी है।
कमों की अपतवत्रिा का नाश होिा है और व्यशक्त सदा के शलये ईश्वरमय हो जािा है, ज्ञानयोग की महत्ता बिािे
हुए गीिा में कहा गया है, ‘‘जो ज्ञािा है वह हमारे सभी भक्तों में श्रेष्ठ है, जो हमें जानिा है वह हमारी आराधना
भी करिा है।“ आसशक्त से रतहि ज्ञान में स्स्िर हुए मचत्त वाले यज्ञ के शलये आचरर् करिे हुए सम्पूर्ण कमण नष्ट
हो जािे हैं। इस सांसार में ज्ञान के समान पतवत्र करने वाला तनःसन्दे ह कछ भी नहीं है।

पंचतत्ि क्या है, पंचतत्ि वकसे कहते हैं तथा पंचतत्ि के नाम और महत्ि क्या है
पंच तत्िों का ज्ञान ि महत्ि
हहिंदू धमण में प्रकृति की हर एक सजीव व तनजीव वस्ि की उत्पशत्त मख्यिया केवल 5 ित्वों से ममलकर बनी
होिी है जजन्हें प्रकृति के पाांच ित्व कहिे हैं। अांि में सभी वस्िएां इन्हीं पांच ित्वों में समा जािी है तफर चाहे वह
मानव शरीर हो या तकसी जानवर का या तफर कोई तनजीव वस्ि या पेड-पौधे।

पंचतत्ि के नाम –
पाांच ित्वों के नाम हैं: आकाश, पृथ्वी, जल, वाय व अप्ग्न। इन्ही पाांच ित्वों से ममलकर ही हर चीज़ का तनमाणर्
होिा है हकिंि तवभभन्न वस्िओं में इनकी मात्रा भभन्न-भभन्न होिी है। इनके ममलने से एक तनजीव वस्ि का
तनमाणर् होिा है जजसमें प्रार् नही होिे है।

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तकसी वस्ि को सजीव बनाने के शलए इसमें परमात्मा का स्वरुप अिाणि आत्मा का होना आवश्यक है। कहने
का अिण यह हुआ तक पांचित्व ममलकर एक तनजीव वस्ि का तनमाणर् कर सकिे है या सरल शब्दों में कहे िो
एक दे ह का तनमाणर्। जब इस दे ह में आत्मा का प्रवेश होिा है िो इसमें प्रार् आिे है और वह वस्ि सजीव बन
जािी है। जब आत्मा उस दे ह को त्याग दे िी है िब वह तनजीव हो जािी हैं और तफर से इन्ही पांचित्वो में ममल
जािी है।

पांचो तत्ि भभन्न-भभन्न चीजों का प्रवतवनयधत्ि करते है।

आकाश तत्ि के बारे में जानकारी


आकाश का िात्पयण अनांि से है जो हमारा शारीररक सांिलन बनाए रखिा है। इसी के द्वारा हमारे शरीर में शब्दों
व वार्ी का तनमाणर् होिा है। इसका वर्ण काला रांग है। शरीर की स्स्िति में इसे मस्िक नाम ददया गया है।
हमारी वासना व सांवेग का आधार आकाश ित्व ही है। मूल रूप से आकाश ित्व का िात्पयण हमारे शरीर के
ररक्त स्िान और मन से हैं। मन को ही आकाश ित्व की सांज्ञा दी गयी हैं।

आकाश तत्ि का गुर्


इसका महत्व समझने के शलए हमे मन को समझना होगा। मन हमारे शरीर में तवचारों का एक समूह हैं लेतकन
कछ लोग इसे आत्मा का पयाणयवाची समझ लेिे हैं जबतक आत्मा परमात्मा का एक अांश हैं। आत्मा को
तनयांतत्रि नही तकया जा सकिा जबतक मन को तकया जा सकिा हैं।
जजस प्रकार आकाश के अांि की कोई सीमा नही ठीक उसी प्रकार मन भी एक पल में कहीं से कहीं भी पहुूँच
सकिा हैं। आकाश अपने आप में अनांि शशक्तयों को समेटे हुए हैं ठीक उसी प्रकार मन भी अिाह ऊजाण का
सागर है। जैसे आकाश में कभी बादल आ जािे हैं िो कभी धूल िो कभी वह साफ नजर आिा हैं ठीक उसी
प्रकार हमारा मन भी पररस्स्ितियों के अनसार कभी खश िो कभी दखी िो कभी सामान्य रहिा हैं।

पृथ्िी तत्ि के बारे में जानकारी


पृथ्वी का िात्पयण हमारे शरीर की त्वचा व कोशशकाओं से है जजससे हमारे शरीर का बाहरी तनमाणर् होिा है।
इसी रूप में बातक हमे दे खिे है और हम उन्हें दे खिे है। यह हमारे शरीर का भार भी दशाणिा है। इसका वर्ण
पीला होिा है। हमारे शरीर की गांध पृथ्वी ित्व से तनधाणररि होिी है व यह हमारे अांदर अहांकार का भी पररचारक
है।
पृथ्िी तत्ि का गुर्
हमारे शरीर के हाड, मास, माांसपेशशयाां, कोशशकाएां, त्वचा इत्यादद पृथ्वी ित्व के अांिगणि ही आिे हैं। कहने का
िात्पयण यह हुआ तक हमारे शरीर की ददखने और महसूस होने वाली ज्यादािर चीज़ों का तनमाणर् पृथ्वी ित्व से
ही हुआ हैं। गरुत्वाकषणर् बल और चम्बकीय गर् भी पृथ्वी ित्व की तवशेषिा हैं जो हमें पृथ्वी पर दटकाये
रखिी हैं और हमे अपना भार महसूस करवािी हैं।

जल तत्ि के बारे में जानकारी


जल का िात्पयण हमारे शरीर में तवद्यमान हर एक दृव्य पदािण से है जो शीिलिा को दशाणिा है। इससे हमारे
शरीर में सांकचन आिी है। इसका वर्ण सफेद है। हमारे शरीर में तकसी भी चीज़ का स्वाद जानने की शशक्त जल
ित्व से ही आिी है। यह हमारे अांदर बजि का पररचायक है।

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जल तत्ि के गुर्
हमारे शरीर के सभी िरल पदािण तफर चाहे वह पानी हो, रक्त हो, रस हो, या अन्य कोई िरल पदािण, सभी जल
ित्व के अांिगणि ही आिे है। जैसा तक हम सभी जानिे हैं तक शरीर में खून नसों के द्वारा पूरे शरीर में दौडिा हैं
और उसका सांचालन करिा हैं। इस प्रकार जल ित्व शरीर के सांचालन, सभी पोषक ित्वों और ऊजाण के
तविरर् में महत्वपूर्ण भूममका तनभािा है।

िायु तत्ि के के बारे में जानकारी


वाय हमारे शरीर में गतिशीलिा की पररचायक होिी है जजससे हमारे शरीर में वेग या गति का तनमाणर् होिा है।
शरीर में इसकी स्स्िति नाभभ से होिी है व इसका वर्ण नीला या भूरा होिा है। वाय की प्रकृति अतनभश्चि होिी
है। हमारे शरीर में स्पशण करने की शशक्त व उसकी अनभूति वाय ित्व से ही होिी है।

िायु तत्ि का गुर्


जजस भी जीव में प्रार् हैं उसमें वाय ित्व पाया जािा हैं। जब भी तकसी की मृत्य हो जािी हैं िब हम सबसे
पहले यही दे खिे हैं तक उसकी साांसे चल रही हैं या नही, यदद उसकी साांसे बांद हो गयी अिाणि शरीर में वाय
ित्व नही रहा, इसका अिण वह मनष्य जीतवि नही रहा। वाय ित्व हमारे शरीर में प्रार्वाय अिाणि ऑक्सीजन
के रूप में तवद्यमान हैं।

सांसार के सारे जीवों (चल और स्िावर [पेड-पौधे इत्यादद]) का जीवनचक्र एवां जीवन का तनवाणह तवश्वव्यापी
जैतवक शशक्त (प्रार्) पर तनभणर है (वाइटल फोसण, वॉयोकॉस्स्मक एनजी) ।

यह प्रार् मानव-शरीर में तवभभन्न कोष्टकों में तवभभन्न कायण करने के कारर् इन्हें अलग-अलग नाम ददए गए हैं ।
इन्हें पाूँच प्रकार के प्रार्ों का नाम ददया गया है । ये पाूँच हैं - उदान, प्रार्, समान, अपान और व्यान।

✓ उदान :यह स्वरयन्त्र (लेररन्क्स) से शसर िक के भाग का (ऊपर के भाग का) तनयन्त्रर् करिा है । यह
हमारी इजन्रयों को स्वस्ि रखिा है । हमारे शरीर के इस शशरोदे श के (शसफेशलक- पोशणन) के स्वैस्च्छक
स्नाय सांस्िान द्वारा स्विः तनयन्न्त्रि होने वाले सब कायण इसी प्रार्शशक्त द्वारा सांचाशलि हैं ।

इन सारे कायों पर जो तक अनकम्पी स्नाय सांस्िान के द्वारा उत्तेजजि तकए जािे हैं और अपचय
(कैटाबॉशलज़्म) का कारर् बनिे हैं तकन्ि शशक्तयों के द्वारा प्रतिविण चाप (ररफ्लैक्स-एक्शन) के माध्यम
से तनयन्त्रर् तकया जािा है ये शशक्तयाूँ परानकम्पी स्नाय सांस्िान के माध्यम से शरीर को ििा उसके
कायणरि अांगों को उपचय (एनाबॉशलज़्म) के शलए प्रेररि करिी हैं । जब इस स्वचाशलि व्यवस्िा में
तवक्षोभ आ जािा है (मडस्टरवैन्स) िब प्रतिविण के उच्च केन्रों िक सूचना पहुूँचिी है जो मस्स्िष्क में

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और भी उच्च केन्रों को सूमचि करिा है । प्रमस्स्िष्क िो सांवेदों को ग्रहर् भी करिा है और प्रेरक


आज्ञाएूँ भी भेजिा है (ररसीहविंग सैन्सरी इम्पकसेस एण्ड सेंचडिंग मोटर इम्पकसेस) ।

परन्ि सबसे उच्च केन्र (प्रमस्स्िष्क, सेरीब्रम) के अन्िगणि कायण करनेवाले िो उपकेन्र है । एक िो
चेिक और दूसरा 'कारपस-स्रीयेटम'।

चेिक िो सांवेदनाओं को तनयन्न्त्रि करनेवाला उपकेन्र हैं (िैलेमस) जबतक कॉरपस-प्स्रयेटम प्रेरक
तक्रयाओं का तनयन्त्रर् करनेवाला उपकेन्र है (मोटर एक्टीतवटी) । परन्ि प्रेरक केन्रों पर (मोटर सेन्टसण)
बलविी दृढ़ इच्छाशशक्त के द्वारा तनयन्त्रर् तकया जा सकिा है, जजसके शलए साधक को आत्मसांयम
ििा 'यम', 'तनयम' का पालन करने से काफ़ी सहायिा ममलिी है । परन्ि साधक को चेिक (िैलेमस)
पर तनयन्त्रर् करने में कदठनाई का सामना करना पडिा है क्योंतक वहाूँ पर अवचेिन मन पूरे जोर पर
उछलिा रहिा है और वासनाओं एवां अनचाही इच्छाओं को जन्म दे िा रहिा है ।

चेिक (िैलेमस) सारे सांवद े ों को ग्रहर् करने का स्िान है । सषम्र्ा से सारे सांदेश ऊपर पहुूँचने से पहले
चेिक (िैलेमस) के द्वारा ही पनप्रेषर् (ररले) तकये जािे हैं और अन्ििः प्रमस्स्िष्क (सेरीब्रम) को
पहुूँचिे हैं, क्योंतक चेिक (िैलेमस) सबसे मख्य पनप्रेषर् केन्र (ररले-स्टे शन) है। इसशलए इसको
'उदान-प्रार्' कहा गया है क्योंतक यह सषम्र्ा के सबसे ऊपरी शसरे से सांवद े नाएूँ इकट्ठी करिा है जो
नाक के मूल स्िान के स्िर पर है । यह 'उदान-प्रार्' का कायण क्षेत्र 'स्वर यन्त्र से शशरोदे श' माना गया
है। इस 'उदान-प्रार्' पर साधक का तनयन्त्रर् करना मख्य कायण है । िब इसके अन्दर से होकर
जानेवाली सारी सांवेदनाएूँ व प्रेरक आज्ञाओं पर (सैन्सरी व मोटर एक्टीतवटीज) साधक का ऐस्च्छक
तनयन्त्रर् हो जािा हैI

'पािांजल योगदशणन' में शलखा है (तवभूतिपाद-3, श्लोक सांख्या 39) यह प्रार् ऊपर की ओर गमन करने
वाला है; कण्ठ में रहने वाला और शसर िक गमन करने वाला है । मृत्य के समय इसी के सहारे सूक्ष्म
शरीर का गमन होिा है । जब योगी उक्त उदान वाय पर तवजय प्राप्ि कर लेिा है, िब उसका शरीर धनी
हुई रुई की भाूँति अत्यन्ि हकका हो जािा है, अि: पानी या कीचड पर चलिे हुए भी उसके पैर अन्दर
नहीं जािे, काूँटे आदद भी उसके शरीर में प्रतवष्ट नहीं हो सकिे । इसके शसवा, मरर्काल में उसके प्रार्
ब्रह्मरन्र द्वारा तनकलिे हैं । इस कारर् ऐसे योगी की शक्ल मागण से गति होिी है । उपतनषदों में भी
ऊध्वणगति का वर्णन आया है ।

✓ प्रार् :यह स्वरयन्त्र से लेकर हृदय के क्षेत्र िक के सारे स्िान का तनयन्त्रर् करिा है । यह वार्ी को
शशक्त प्रदान करिा है । आमाशय से ऊपर की भोजन नली (इसोफेगस), श्वसन सांस्िान व उससे
सम्बस्न्धि शारीररक सांरचनाएूँ सब इसके द्वारा तनयन्न्त्रि है । यह स्वैस्च्छक स्नाय सांस्िान के ग्रीवा वाले
अांश के अन्िगणि है ।

यह मज्जका (मेड्यला-ऑब्लाांगेटा) में स्स्िि प्रतिविण केन्र है । यह शरीर के अन्दर से व बाहर से सारे
सांवेदों को ग्रहर् करिा है और अनकम्पी स्नाय िन्त्र पर तनयन्त्रर् करिा है । यह श्वसन व हृदय के
केन्रों पर जो मज्जका में स्स्िि है, तनयन्त्रर् करिा है । क्योंतक सबसे दूरस्ि भाग इसके कायणक्षेत्र का

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हृदय का सबसे नीचे के शसरे का है (एपेक्स ऑफ दी हाटण ) िो यह कण्ठ से लेकर हृदय िक के इस शसरे
िक के भाग का तनयन्त्रर् करिा है I

✓ समान :यह हृदय चक्र से लेकर नाभभ िक के क्षेत्र का तनयन्त्रर् करिा है । वास्िव में यह चयापचय
(मेटाबॉशलज़्म) से सम्बस्न्धि अांगों पर तनयन्त्रर् करिा है और इस िरह से जीवन का धारक है जैसे
आमाशय के पाचक रस, यकृि, अग्न्याशय एवां अूँत्रभर्याूँ, रक्त सांचारर् हृदय में एवां धमतनयों व
शशराओं में । यह स्वैस्च्छक स्नाय सांस्िान के वक्षीय भाग अनकम्पी िांतत्रका के द्वारा आशतयक
िांतत्रकाओं (स्पलैंस्क्नक नवणज़ू) के माध्यम से तनयन्त्रर् करिा है जो तक अनकम्पी वक्षीय गस्ण्डकाओं से
तनकलिी हैं ।पाचन सांस्िान की उत्तेजनात्मक स्स्िति पर तनयन्त्रर् करिा है और स्स्िति को सामान्य
बनाने की कोशशश करिा है ।
✓ अपान :यह नाभभ से नीचे के अांगों पर तनयन्त्रर् करिा है । इस िरह यह वृक्क, वृहद् आांत्र, मलाशय,
मूत्राशय, जनेजन्रयों पर तनयन्त्रर् करिा है । इस प्रकार से उत्सजणन सांस्िान (एक्सक्रीटरी-शसस्टम) पर
तनयन्त्रर् करिा है । यह स्वैस्च्छक स्नाय सांस्िान के कदटपरक अांश भाग के द्वारा तनयन्त्रर् करिा है ।
यह उत्सजणन िन्त्र पर (एक्सक्रीटरी-आगणन) कायण करिा है । इसका काम अवरोधनी, सांवरर्ी
(न्स्फक्टसण) पर तनयन्त्रर् ढीला करके उत्सजणन से सम्बस्न्धि माूँसपेशशयों का सांकचन कराना होिा है ।

✓ व्यान :यह प्रार् पूरे शरीर पर एक साि तनयन्त्रर् करिा है और पूरे शरीर में व्याप्ि हैं । यह ऐस्च्छक
माूँसपेशशयों के कायण पर तनयन्त्रर् करिा है । यह अनैस्च्छक माूँसपेशशयों पर भी तनयन्त्रर् करिा है ।
यह हमियों के सस्न्ध स्िानों का भी तनयन्त्रर् करिा है । यह मानव को सीधा खडा करने के शलए
स्स्िरिा प्रदान करिा है । यह कायण सषम्र्ा-रज्ज के प्रतिविण चाप पर आधाररि है । यह स्वैस्च्छक स्नाय
सांस्िान की गस्ण्डकाओं पर भी आधाररि है , यह अनमस्स्िष्क को जानेवाले (सेरीबेलम और प्रघार्
(वेस्टीवलर-फाइवर) के सांवेदों पर तनयन्त्रर् करिा है, िातक मनष्य स्स्िर खडा रह सके और
गतिशीलिा में शरीर का सांिलन बना रह सके ।

✓ प्रार् िायु क्या है | प्रार् िायु का स्त्थान है | प्रार् िायु वकतने होते हैं |

यह भी पाूँच हैं। और नाम भी वही हैं जो पांच प्रार्ों के है, जैसे प्रार्, अपान, उदान, व्यान और समान ।
परन्ि कायणक्षेत्र में अन्िर होने के कारर् इनका पाूँच प्रार्ों से भेद है ।

वाय को यौतगक भाषा में 'स्नाय का सांवेग' कहा गया है (नवण-इम्पकस) । ये 'प्रार् वाय' अनकम्पी स्नाय
सांस्िान के छह चक्रों से सम्बस्न्धि हैं जहाूँ पर इसके स्नाय-केन्र हैं जो सांवद
े ों को ग्रहर् भी कर सकिे
है और आदे श भी दे सकिे हैं ।

✓ प्रार् िायु :प्रार्ायाम की तक्रया में जब श्वास अन्दर ली जािी है िो यह प्रार्-वाय बाह्य वािावरर् से
अन्दर आकर एक सांवेग पैदा करिी है जो तक मस्स्िष्क व मज्जका के श्वसन केन्रों पर पहुूँचिा है िो
यह अभभवाही सांदेश है (एफ्रैंट-इम्पकस)।
✓ अपान िायु :प्रार्ायाम में बाह्य श्वसन (एक्सपीरेशन) में यह वाय पैदा होिी है (स्नाय सांवेग) और यह
मस्स्िष्क के केन्रों से आदे श को दूर माूँसपेशशयों िक ले जानेवाला होिा है। यह अपवाही (इफ्रैंट
इम्पकस) है।

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✓ व्यान िायु 'प्रार् वाय' और 'अपानवाय' के सस्न्धस्िल पर 'व्यान वाय' उपस्स्िि होिी है। व्यान वाय
का कायण, प्रार् वाय को अपान वाय में पररवर्ििंि करना (अिाणि् प्रार्ों के सांवेग को अपान रूपी सांवेगों
में पररवर्ििंि कर दे ना)। इसका अिण यह है तक व्यान वाय प्रतिविण सांवेग है । और यह सांवग े या िो
मस्स्िष्क द्वारा शरू तकया जािा है या तफर सषम्र्ा के द्वारा उत्सर्जिंि तकया जािा है या तफर अनकम्पी
स्नाय केन्रों के द्वारा उत्पन्न तकया जािा है ।

जब यह सांवग े मस्स्िष्क के द्वारा पैदा तकया जािा है िब यह सांवेग प्रार्ों से अपान वाय में पररवर्ििंि
होकर वक्ष की श्वसन में सहायक माूँसपेशशयों को सांवेदना भेजिा है और शरीर की दूसरी ऐस्च्छक
माूँसपेशशयों को प्रेरक सूचनाएूँ व आदे श भेजिा है और इन सारी तक्रयाओं का मनष्य को पूर्ण ज्ञान
रहिा है अिाणि् यह सारी तक्रयाएूँ चेिनिा में ऐस्च्छक रूप से होिी है, जैसे भागने रूपी ऐस्च्छक तक्रया
के समय गहरी व िेज श्वास का चलना ।

अगर यह प्रतिविण-सांवेग (ररफ्लैक्स-इम्पकस) अनकम्पी स्नाय सांस्िान के चक्रों से (शसम्पेिेदटक


प्लैक्सस) शरु होिा है िो यह प्रार् वाय के और अपान वाय के त्वरर् प्रभाव (एस्क्सलरेटटिंग ऐफेक्ट)
को तनयन्न्त्रि करिा है जजससे सम्बस्न्धि अांग अपनी सामान्य अवस्िा में कायण करे और जजसका जीव
को पिा भी न चले (तवद आउट प्रोड्यूलसिंग कॉनशसयस सेंसश े न) ।

ऊपर शलखे सब िथ्यों से यह तनष्कषण तनकलिा है तक यद्यतप स्वैस्च्छक स्नाय िन्त्र के द्वारा हमारे शरीर
के सारे अांि:कायों का स्वचाशलि रूप से तनयन्त्रर् हो ही रहा है । परन्ि, तफर भी उन तक्रयाओं को
चेिनिा में लाया जा सकिा है और ऐस्च्छक स्नाय सांस्िान (सोमेदटक-नवणस-शसस्टम) के सांज्ञान में उन्हें
इच्छानसार तनयन्न्त्रि तकया जा सकिा है ।

इसीशलए प्राचीन ऋतष-मतनयों ने सषम्र्ा रज्ज को 'चन्र-सूयण-अप्ग्न' रूतपर्ी तत्रगर्मयी सषम्र्ा कहा
िा । उन्होंने कहा िा तक भ्रूमध्य के ऊपर जहाूँ पर इडा, हपिंगला है वहाूँ पर मेरुमध्य सषम्र्ा भी जा
ममलिी है ।

इसशलए यह स्िान 'तत्रवेर्ी' कहलािा है । शास्त्रों में इन िीनों नामडयों को गांगा, यमना और सरस्विी
कहा गया है । यह भी कहा गया है तक इस तत्रवेर्ी में योगबल से जो योगी अपनी आत्मा को स्नान करा
सकिा है । उसको 'मोक्ष' की प्राप्प्ि होिी है ।

अन्ग्न तत्ि के के बारे में जानकारी


अप्ग्न का िात्पयण हमारे शरीर की ऊजाण से है जो शरीर को सचारू रूप से चलाने में सहायक है। शरीर में इसकी
स्स्िति कांधो से है व इसका वर्ण लाल रांग होिा है। दे खने की शशक्त का तवकास अप्ग्न ित्व से ही होिा है व
हमारे तववेक के तनमाणर् में भी इसी की भूममका होिी है।

अन्ग्न तत्ि का गुर्


हमारे शरीर को जीतवि रखने के शलए भोजन की आवश्यकिा होिी हैं लेतकन जरा सोमचये यदद शरीर उस
भोजन को पचायेगा नही िो उसे ऊजाण कैसे ममलेगी। ऐसे में भोजन ग्रहर् करना तनरिणक हो जाएगा। अप्ग्न
ित्व का कायण शरीर में भोजन को पचाकर उसे ऊजाणवान बनाए रखना होिा हैं। इसी से हमे शशक्त, बल ििा
ऊजाण की प्राप्प्ि होिी हैं।

PANKAJ. PATEL
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II ॐ II

भगिान शब्द का अथण क्या है?


हहिंदू धमण में ईश्वर को भगवान नाम की सांज्ञा दी गयी है जो इन्ही पांचित्वो को दशाणिा हैं। यदद भगवान शब्द को
िोडा जाये िो यही पांचित्व तनकल कर आिे है।
भगिान: भ+ग+ि+अ+न इसमें……
“भ” का अिण भूमम से है अिाणि पृथ्वी।
“ग” का अिण गगन अिाणि आकाश।
“व” का अि वाय से है अिाणि हवा।
“अ” का अिण अप्ग्न से है अिाणि आग।
“न” का अिण नीर से है अिाणि जल।
इसी प्रकार इन पाांचो ित्वों के सांगम से भगवान शब्द की रचना की गयी जो हमारे शलए पूजनीय है। इसका अिण
यह हुआ तक हहिंदू धमण में भगवान के स्वरुप में हमारे तनमाणर् के शलए उत्तरदायी ित्वों को पूजनीय बिाया गया है
व उनकी सरक्षा करने का दातयत्व भी हमे सौंपा गया है। इसी के साि इन पञ्च ित्वों के ममलने के बाद इसमें
प्रार् डालने वाली आत्मा को स्वयां परमात्मा का स्वरुप बिाया गया है जो नश्वर होिी है।

पंचतत्ि का महत्ि
जैसा तक पहले ही बिाया तक सांपूर्ण प्रकृति का तनमाणर् इन्हीं पांचित्वों के कारर् हुआ हैं जजसमे मानव शरीर
भी एक हैं। हकिंि साि ही यह बाि भी ध्यान दे ने योग्य हैं तक इन पांच ित्वों की मात्रा हर चीज़ में अलग-अलग
होिी हैं, साि ही यह भी आवश्यक नही तक हर चीज़ में यह पाूँचों ित्व उपस्स्िि हो। अिाणि तकसी चीज़ में
कोई ित्व नही होगा िो तकसी में कोई, तकसी चीज़ में तकसी ित्व की मात्रा कम होगी िो तकसी में ज्यादा।
इन्हीं पाूँचों ित्वों की तवभभन्न मात्राओं और योग से ही तवभभन्न वस्िएां के तवभभन्न रूप और गर् तनधाणररि होिे
हैं जैसे तक मानव शरीर। हमारे मानव शरीर में इन पाूँचों ित्वों का समावेश होिा हैं जजनकी मात्रा भी तनभश्चि हैं।
यदद मानव शरीर में इनमे से तकसी एक की भी मात्रा ऊपर या नीचे होिी है या कोई एक ित्व सही से काम नहीं
कर रहा होिा है िब रोग की उत्पशत्त होिी है जजसके फलस्वरूप मनष्य तबमार पड जािा है। तफर हम तवभभन्न
माध्यमों चाहे वह योग हो या आयवेद या दवाइयाां, उनकी सहायिा से उस ित्व को ठीक करने का काम करिे
हैं िातक शरीर का सांचालन सचारू रूप से हो सके।

पंचतत्ि में विलीन


जैसा तक आपको ऊपर बिाया तक पांचित्वों में इिनी शशक्त नही तक वह एक सजीव चीज़ का तनमाणर् कर सके
क्योंतक यह शशक्त केवल परमात्मा अिाणि ईश्वर में हैं। ठीक उसी प्रकार पांच ित्व ममलकर एक मानव की दे ह
का तनमाणर् कर सकिे हैं लेतकन उसमे प्रार् नही ला सकिे। उसके शलए परमात्मा के अांश आत्मा की
आवश्यकिा होिी हैं जो पांच ित्वों से बने उस मानव शरीर में प्रार् लेकर आिी हैं। उसी प्रकार परमात्मा की
आज्ञा से जब आत्मा उस शरीर का त्याग कर दे िी हैं िब वह शरीर पनः तनजीव अवस्िा में आ जािा हैं जजसमें
पनः आत्मा का प्रवेश नही हो सकिा। इसशलए हहिंदू धमण में दाह सांस्कार की प्रिा शरू की गयी िी जजसके
अनसार एक शरीर का अांतिम सांस्कार करके उसे पनः इन पांचित्वों में ममला ददया जाए।
हमारा शरीर पांच ित्व पृथ्वी, आकाश, पवन, अग्नी और जल से बना है। इनमें से यदद एक भी ित्व की शरीर में
अमधकिा या कमी हो या यूां कहें तक इनमें से कोई भी ित्व असांिशलि हो िो स्वस्थ्य पर बरा प्रभाव पडिा है।
तनरोगी काया या रोग को दूर करने के शलए प्राकृतिक मचतकत्सा बहुि कारगर होिी है।

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II ॐ II

प्रकृति ने हमें आकाश (उपवास), वाय (श्वसन तक्रया, व्यायाम), अग्नी (सूयण, रांग, भाप), जल (पानी पीने से
लेकर पानी से सांबांमधि अन्य तक्रयाएां) और पृथ्वी (ममट्टी का उपयोग) यह पाांच मचतकत्सक ददए हैं जजनके जररए
हम स्वस्ि रह सकिे हैं। वास्िव में प्राकृतिक मचतकत्सा में इन पाांच ित्वों के जररए शरीर में नीतहि पांच ित्वों को
सांिशलि तकया जािा है। प्राकृतिक मचतकत्सा के शसिाांि के अनसार स्वस्ि रहने के शलए सप्िाह में एक ददन
उपवास करना चातहए जजसमें फलों का सेवन करें और भरपूर पानी तपएां , हेकदी रहने के शलए ददन में 3-4
लीटर पानी जरूर तपएां. साि ही पानी को बहुि जकदी नहीं बस्कक आराम से पीने की आदि डालें. पानी को
बहुि िेज गमण या ठां डे की बजाय गनगना या नॉमणल टे म्परेचर पर ही तपएां. । ददन में कम से कम 15 से 20
ममनट धूप में जरूर बैठें। इससे तवटाममन डी की कमी नहीं होगी। अहार में अांकररि अनाज, स्िानीय और
मौसमी फल-सब्जी का अमधक इस्िेमाल करें। कोशशश करें तक इन्हें कच्चा ही खाएां। यदद पकाएां भी िो अमधक
नहीं पकाएां क्योंतक जजिना ज्यादा पकाया जािा है, उिने पोषक ित्व कम होिे हैं। ममचण, मसाला के अलावा
कछ सफेद खाद्य पदािों से भी बचें जजसमें दूध और दूध से बने पदािण, शकर, नमक और मैदा शाममल हैं।
मनष्य का शरीर िांतत्रकाओं पर खडा है। शरीरिांत्र में मख्य चार अवयव हैं- मस्स्िष्क, प्रमस्स्िष्क, मेरुदां ड और
िांतत्रकाओं का पांज। इसके अलावा कई और िांत्र हैं जैसे श्वसन िांत्र, पाचन िांत्र, ज्ञानेंदरयाां, प्रजनन िांत्र आदद।
हम जानिे हैं तक हाि की पाांच उांगशलयाां इन्हीं पाांच ित्वों का प्रतितनधत्व करिी हैं। अांगूठा अप्ग्न का, िजणनी
वाय का, मध्यमा आकाश का, अनाममका पृथ्वी का और कतनष्का जल का प्रमधतनमधत्व करिी हैं। इन उांगशलयों
में तवद्यि धारा प्रवातहि होिी रहिी है।

मानव शरीर प्रकृति द्वारा िैयार की गई एक मशीन है जजसके सूक्ष्म सांसाधनों व िांत्रों और ित्वों के प्रयोग की
सटीक सहज तक्रया के जररए हम अपनी ऊजाण को तनरांिर गति दे सकिे हैं।

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II ॐ II

गीता का आठिां अर्धयाय अक्षरब्रह्मयोग है, जजसमें 28 श्लोक हैं

सारांश : सिोच्च को प्राप्सत करना -अपने आप को कभी हारने न दें । हमेशा याद रिे की आप के
अंदर परमात्मा रहते हैं , उनका अपमान ना होने दे I ईश्वर ही ज्ञान और ज्ञेय हैं- ज्ञेय को ध्येय बनाना
योगमागण का द्वार है।
इस अध्याय में श्री कृष्र्, अजणन को ब्रह्म और आत्मा आदद के बारे में बिािे हैं। कृष्र् कहिे हैं तक अहम
ब्रह्मास्स्म। अिाणि मैं ही ब्रह्मा है। और चूूँतक मनष्य की आत्मा भी ईश्वर का ही भाग है इसशलए मनष्य भी ब्रह्मा
ही है। मनष्य इन बािों को नहीं जान पािा क्यूँतक उसकी बजि पर मोहमाया का पदाण पडा रहिा है। साि ही
कृष्र् बिािे हैं तक बाकी सारे दे वी -दे विा भी कृष्र् द्वारा ही बनाये गए हैं। उनकी पूजा करना भी परम-ब्रह्म
यातन श्री कृष्र् की पूजा करना ही है। िासुदेिुः सिणम् I

अजणन ने कृष्र् से साि प्रश्न पूछे: ब्रह्म क्या है? स्वयां क्या है? सकाम गतितवमधयाूँ क्या हैं? भौतिक अभभव्यशक्त
क्या है? दे विा कौन हैं ? बशलदान का दे विा कौन है? और भशक्त सेवा में लगे लोग मृत्य के समय कृष्र् को
कैसे जान सकिे हैं?

कृष्र् जवाब दे िे हैं "ब्राह्मर्" अतवनाशी जीतवि इकाई (जीव) को सांदर्भिंि करिा है: "स्व" सेवा की आत्मा
की आांिररक प्रकृति को सांदर्भिंि करिा है; और "सकारात्मक गतितवमधयों" का अिण है ऐसे कायण जो भौतिक
शरीरों को तवकशसि करिे हैं। भौतिक अभभव्यशक्त सदै व पररविणनशील भौतिक प्रकृति है; दे विा और उनके ग्रह
परमेश्वर के तवश्वरूप के अांग हैं; और बशलदान के भगवान कृष्र् स्वयां सपर आत्मा के रूप में हैं।

जहाूँ िक मृत्य के समय कृष्र् को जानने की बाि है, यह व्यशक्त की चेिना पर तनभणर करिा है। शसिाांि यह है:
"जब कोई शरीर छोडिा है िो जजस स्स्िति का स्मरर् करिा है, वह तनभश्चि रूप से उस स्स्िति को प्राप्ि
करेगा।"

कृष्र् कहिे हैं, "जो कोई भी, जीवन के अांि में, केवल मझे याद करिे हुए अपने शरीर को छोड दे िा है, वह
िरांि मेरे स्वभाव को तनःसांदेह प्राप्ि करिा है।“ इसशलए, मेरे तप्रय अजणन, िम्हें हमेशा मझे कृष्र् के रूप में
सोचना चातहए और साि ही यि के अपने तनधाणररि किणव्य को पूरा करना चातहए। अपने कमों को मेरे प्रति
समर्पिंि करके और अपने मन और बजि को मझमें एकाग्र करके, िम तनःसांदेह मझे प्राप्ि करोगे।

ब्रह्मा के प्रत्येक ददन के दौरान, सभी जीव प्रकट हो जािे हैं, और उनकी राि के दौरान वे अव्यक्त प्रकृति में
तवलीन हो जािे हैं। यद्यतप तकसी के शरीर छोडने के शलए शभ और अशभ समय होिे हैं, कृष्र् के भक्त उनकी
परवाह नहीं करिे हैं, क्योंतक कृष्र् की शि भशक्त सेवा में सांलग्न होने से वे वेदों का अध्ययन करने या यज्ञ,
दान, दाशणतनक अटकलों में सांलग्न होने से प्राप्ि होने वाले सभी पररर्ामों को स्वचाशलि रूप से प्राप्ि करिे हैं।
, और इसी िरह। ऐसे शि भक्त भगवान के परम शाश्वि धाम में पहुूँचिे हैं।

नयचकेता और यम का संिाद
हमारे धमण ग्रांिो में मृत्य के दे व यमराज से जडे दो ऐसे प्रसांग आिे है जब यमराज को इांसान के हठ के आगे
मजबूर होना पडा िा। पहला प्रसांग सातवत्री से सम्बांमधि है, जहाूँ यमराज को सातवत्री के हठ पर मजबूर होकर

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II ॐ II

उसके पति सत्यवान को पनः जीतवि करना पडा। जबतक दूसरा प्रसांग एक बालक नमचकेिा से सम्बांमधि है,
जहाूँ यमराज को एक बालक की जजद के आगे मजबूर होकर उसे मृत्य से जडे गूढ़ रहस्य बिाने पढ़े ।
वकस तरह शरीर से होता है ब्रह्म का ज्ञान ि दशणन?
मनष्य शरीर दो आांखां, दो कान, दो नाक के मछर, एक मांह, ब्रह्मरन्र, नाभभ, गदा और शशश्न के रूप में 11
दरवाजों वाले नगर की िरह है, जो ब्रह्म की नगरी ही है। वे मनष्य के हृदय में रहिे हैं। इस रहस्य को समझकर
जो मनष्य ध्यान और चचिंिन करिा है, उसे तकसी प्रकार का दख नहीं होिा है। ऐसा ध्यान और चचिंिन करने
वाले लोग मृत्य के बाद जन्म-मृत्य के बांधन से भी मक्त हो जािा है।
क्या आत्मा मरती या मारती है?
जो लोग आत्मा को मारने वाला या मरने वाला मानिे हैं, वे असल में आत्मा को नहीं जानिे और भटके हुए हैं।
उनकी बािों को नजरअांदाज करना चातहए, क्योंतक आत्मा न मरिी है, न तकसी को मार सकिी है।
कैसे हृदय में माना जाता है परमात्मा का िास?
मनष्य का हृदय ब्रह्म को पाने का स्िान माना जािा है। यमदे व ने बिाया मनष्य ही परमात्मा को पाने का
अमधकारी माना गया है। उसका हृदय अांगूठे की माप का होिा है। इसशलए इसके अनसार ही ब्रह्म को अांगूठे के
आकार का पकारा गया है और अपने हृदय में भगवान का वास मानने वाला व्यशक्त यह मानिा है तक दूसरों के
हृदय में भी ब्रह्म इसी िरह तवराजमान है। इसशलए दूसरों की बराई या घृर्ा से दूर रहना चातहए।
क्या है आत्मा का स्त्िरूप?
यमदे व के अनसार शरीर के नाश होने के साि जीवात्मा का नाश नहीं होिा। आत्मा का भोग-तवलास,
नाशवान, अतनत्य और जड शरीर से इसका कोई लेना-दे ना नहीं है। यह अनन्ि, अनादद और दोष रतहि है।
इसका कोई कारर् है, न कोई कायण यानी इसका न जन्म होिा है, न मरिी है।
यद्रद कोई व्यक्ति आत्मापरमात्मा के ज्ञान को नहीं जानता है तो उसे कैसे फल भोगना पड़ते हैं?
जजस िरह बाररश का पानी एक ही होिा है, लेतकन ऊांचे पहाडों पर बरसने से वह एक जगह नहीं रुकिा और
नीचे की ओर बहिा है, कई प्रकार के रांग-रूप और गांध में बदलिा है। उसी प्रकार एक ही परमात्मा से जन्म
लेने वाले दे व, असर और मनष्य भी भगवान को अलग-अलग मानिे हैं और अलग मानकर ही पूजा करिे हैं।
बाररश के जल की िरह ही सर-असर कई योतनयों में भटकिे रहिे हैं।
कैसा है ब्रह्म का स्त्िरूप और िे कहां और कैसे प्रकट होते हैं?
ब्रह्म प्राकृतिक गर्ों से एकदम अलग हैं, वे स्वयां प्रकट होने वाले दे विा हैं। इनका नाम वस है। वे ही मेहमान
बनकर हमारे घरों में आिे हैं। यज्ञ में पतवत्र अतग्र और उसमें आहुति दे ने वाले भी वस दे विा ही होिे हैं। इसी
िरह सभी मनष्यों, श्रेष्ठ दे विाओं, तपिरों, आकाश और सत्य में स्स्िि होिे हैं। जल में मछली हो या शांख, पृथ्वी
पर पेड-पौधे, अांकर, अनाज, औषमध हो या पवणिों में नदी, झरने और यज्ञ फल के िौर पर भी ब्रह्म ही प्रकट
होिे हैं। इस प्रकार ब्रह्म प्रत्यक्ष दे व हैं। िासुदेिुः सिणम् I
आत्मा वनकलने के बाद शरीर में क्या रह जाता है?
जब आत्मा शरीर से तनकल जािी है िो उसके साि प्रार् और इजन्रय ज्ञान भी तनकल जािा है। मृि शरीर में
क्या बाकी रहिा है, यह नजर िो कछ नहीं आिा, लेतकन वह परब्रह्म उस शरीर में रह जािा है, जो हर चेिन
और जड प्रार्ी में तवद्यमान हैं।
मृत्यु के बाद आत्मा को क्यों और कौन सी योवनयां यमलती हैं?
यमदे व के अनसार अच्छे और बरे कामों और शास्त्र, गरु, सांगति, शशक्षा और व्यापार के माध्यम से दे खी-सनी
बािों के आधार पर पाप-पण्य होिे हैं। इनके आधार पर ही आत्मा मनष्य या पश के रूप में नया जन्म प्राप्ि
करिी है। जो लोग बहुि ज्यादा पाप करिे हैं, वे मनष्य और पशओं के अतिररक्त अन्य योतनयों में जन्म पािे हैं।
अन्य योतनयाां जैसे पेड-पौध, पहाड, तिनके आदद।

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क्या है आत्मज्ञान और परमात्मा का स्त्िरूप?


मृत्य से जडे रहस्यों को जानने की शरुआि बालक नमचकेिा ने यमदे व से धमण-अधमण से सांबांध रतहि, कायण-
कारर् रूप प्रकृति, भूि, भतवष्य और विणमान से परे परमात्म ित्व के बारे में जजज्ञासा कर की। यमदे व ने
नमचकेिा को ‘ऊूँ’ को प्रिीक रूप में परब्रह्म का स्वरूप बिाया। उन्होंने बिाया तक अतवनाशी प्रर्व यानी
ऊांकार ही परमात्मा का स्वरूप है। ऊांकार ही परमात्मा को पाने के सभी आश्रयों में सबसे सवणश्रेष्ठ और अांतिम
माध्यम है। सारे वेद कई िरह के छन्दों व मांत्रों में यही रहस्य बिाए गए हैं। जगि में परमात्मा के इस नाम व
स्वरूप की शरर् लेना ही सबसे बेहिर उपाय है।

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राजविद्याराजगुह्य योग गीता का निां अर्धयाय है, जजसमें 34 श्लोक हैं।

सारांश : सबसे गोपनीय ज्ञान -अपने पण्यों का मूकयाांकन करें। जीव का लक्ष्य स्वगण नही ईश्वर से
ममलन होना चातहए।
इस अध्याय में श्री कृष्र् बिािे हैं तक सबसे बडा राज यही है तक – कृष्र् ही ईश्वर हैं। उन्होंने ही सृतष्ट का
तनमाणर् तकया है। वे ही कर् -कर् में तवद्ध्यमान हैं। उन्हें समझ पाना मनष्य के वश में नहीं है। लेतकन उनकी
भशक्त से मनष्य उन्हें पा सकिा है। परन्ि यह भशक्त तबना सांदेह और सांशय के होनी चातहए। और इसमें भगवान
श्री कृष्र् के प्रति शसफण प्रेम ही प्रेम हो। िासुदेिुः सिणम् I

भगवान कृष्र् के अनसार, सबसे गोपनीय ज्ञान, भशक्त सेवा का ज्ञान, सबसे शि ज्ञान और सवोच्च शशक्षा
है। यह बोध द्वारा स्वयां का प्रत्यक्ष बोध करािा है और यही धमण की पूर्णिा है। यह मचरस्िायी और आनांदपूवणक
तकया जािा है।

कृष्र् का अव्यक्त रूप सब कछ व्याप्ि है, लेतकन कृष्र् स्वयां पदािण से अलग रहिे हैं। भौतिक प्रकृति, उनके
तनदे शन में काम करिे हुए, सभी चर और अचर प्राभर्यों को उत्पन्न करिी है।

अलग-अलग उपासक अलग-अलग लक्ष्यों िक पहुूँचिे हैं। जो परुष स्वगणलोक को प्राप्ि करना चाहिे हैं वे
दे विाओं की पूजा करिे हैं और तफर उनके बीच जन्म लेकर ईश्वरीय प्रसन्निा का आनांद लेिे हैं; लेतकन ऐसे
परुष, अपने पतवत्र ऋर्ों को समाप्ि करने के बाद, पृथ्वी पर लौट आिे हैं। जो परुष तपिरों की पूजा करिे हैं
वे तपिरों के ग्रहों में जािे हैं और जो भूिों की पूजा करिे हैं वे भूि बनिे हैं। लेतकन जो अनन्य भशक्त के साि
कृष्र् की पूजा करिा है वह हमेशा के शलए उनके पास जािा है।

कृष्र् का भक्त जो कछ भी करिा है, खािा है, अर्पिंि करिा है, या दान में दे िा है, वह भगवान को अपणर् के
रूप में करिा है। कृष्र् अपने भक्त की कमी को पूरा करके और जो उसके पास है उसे सांरभक्षि करके प्रतिफल
दे िे हैं। कृष्र् का आश्रय लेकर नीच लोग भी परम गति को प्राप्ि कर सकिे हैं।

परं पुषपं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्िवत।


तदहं भक्त्युपहृतमश्नायम प्रयतात्मन:॥ (नवम अध्याय, श्लोक 26)
जो कोई भक्त मेरे शलये प्रेम से पत्र , पष्प, फल, जल आदद अपणर् करिा है, उस शि बजि तनष्काम प्रेमी भक्त
का प्रेमपूवणक अपणर् तकया हुआ वह पत्र-पष्पादद मैं सगर् रूप से प्रकट होकर प्रीति सतहि खािा हूँ।

यत्करोवष यदश्नाक्तस यज्जुहोवष ददाक्तस यत्।


यत्तपस्त्यक्तस कौन्तेय तत्कुरुषि मदपणर्म्।। (गीिा 9/27)
हे अजणन! िू जो भी कमण करिा है, जो खािा है, जो हवन करिा है, जो दानादद दे िा है, जो िप करिा है, वह
सब मझको अपणर् कर। ईश्वर के प्रति समर्पिंि कमण व उसके फल सम्बन्ध को बिािे हुए कहा गया है

राज योग
योग के अलग-अलग सन्दभों में अलग-अलग अथश हैं - आध्यात्त्मक पद्धवत, आध्यात्त्मक प्रवकया। ऐवतहाक्तसक
रूप में, कमश योग की अन्न्तम अिस्था समामध' को ही 'राजयोग' कहते थे।

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आधुवनक सन्दभश में, वहन्दुओं के छः दशशनों में से एक का नाम 'राजयोग' (या केिल योग) है। महर्षि
पतंजक्तल का योगसूत्र इसका मुख्य ग्रन्थ है। १९िीं शताब्दी में स्िामी वििेकानन्द ने 'राजयोग' का आधुवनक
अथश में प्रयोग आरम्भ वकया था।
राजयोग सभी योगों का राजा कहलाता है क्योंवक इसमें प्रत्येक प्रकार के योग की कुछ न कुछ सामग्री अिश्य
ममल जाती है। राजयोग महर्षि पतंजक्तल द्वारा रमचत अष्ांग योग का िणशन आता है। राजयोग का विषय
मचत्तिृक्तत्तयों का वनरोध करना है। महर्षि पतंजक्तल ने समावहत मचत्त िालों के क्तलए अभ्यास और िैराग्य तथा
विभक्षप्त मचत्त िालों के क्तलए वियायोग का सहारा लेकर आगे बढ़ने का रास्ता सुझाया है। इन साधनों का
उपयोग करके साधक के क्लेषों का नाश होता है, मचत्तप्रसन्न होकर ज्ञान का प्रकाश फैलता है और
वििेकख्यावत प्राप्त होती है।
योगांगानुष्ठानाद् अशुजद्धक्षये ज्ञानदीन्प्तरा वििेकख्यातेः। (1/28)
प्रत्येक व्यक्ति में अनन्त ज्ञान और शक्ति का आिास है। राजयोग उन्हें जाग्रत करने का मागश प्रदर्शित करता है-
मनुष्य के मन को एकाग्र कर उसे समामध नाम िाली पूणश एकाग्रता की अिस्था में पंहुचा दे ना। स्िभाि से ही
मानि मन चंचल है। िह एक क्षण भी वकसी िस्तु पर ठहर नहीं सकता। इस मन की चंचलता को नष् कर उसे
वकसी प्रकार अपने काबू में लाना,वकसी प्रकार उसकी वबिरी हुई शक्तियो को समेटकर सिोच्च ध्येय में एकाग्र
कर दे ना-यही राजयोग का विषय है। जो साधक प्राण का संयम कर,प्रत्याहार,धारणा द्वारा इस समामध अिस्था
की प्रान्प्त करना चाहते हे। उनके क्तलए राजयोग बहुत उपयोगी ग्रन्थ है।
“प्रत्येक आत्मा अव्यि ब्रह्म है। बाह्य एिं अन्तःप्रकृवत को िशीभूत कर आत्मा के इस ब्रह्म भाि को व्यि
करना ही जीिन का चरम लक्ष्य है।“
कमश,उपासना,मनसंयम अथिा ज्ञान,इनमे से एक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपना ब्रह्म भाि व्यि करो
और मुि हो जाओ। बस यही धमश का सिशस्ि है। मत,अनुष्ठान,शास्त्र,मंददर अथिा अन्य बाह्य विया कलाप तो
गौण अंग प्रत्यंग मात्र है।"
योग का अर्थ है चित्तवृत्तत्त का निरोध। चित्तभूचि या िाित्तिक अवस्र्ा के पााँि रूप हैं
(१) भक्षप्त (२) मूढ़ (३) विभक्षप्त (४) एकाग्र और (५) वनरुद्ध। प्रत्येक अिस्था में कुछ न कुछ मानक्तसक िृक्तत्तयों
का वनरोध होता है।
✓ भक्षप्त अिस्था में मचत्त एक विषय से दूसरे विषय पर दौड़ता रहता है।
✓ मूढ़ अिस्था में वनद्रा, आलस्य आदद का प्रादुभाशि होता है।
✓ विभक्षप्तािस्था में मन थोड़ी दे र के क्तलए एक विषय में लगता है पर तुरन्त ही अन्य विषय की ओर चला
जाता है। यह मचत्त की आंक्तशक स्स्थरता की अिस्था है जजसे योग नहीं कह सकते।
✓ एकाग्र अिस्था में मचत्त दे र तक एक विषय पर लगा रहता है। यह वकसी िस्तु पर मानक्तसक केन्द्रीकरण
की अिस्था है। यह योग की पहली सीढ़ी है।
✓ वनरुद्ध अिस्था में मचत्त की सभी िृक्तत्तयों का (ध्येय विषय तक का भी) लोप हो जाता है और मचत्त
अपनी स्िाभाविक स्स्थर, शान्त अिस्था में आ जाता है। इसी वनरुद्ध अिस्था को ‘असंप्रज्ञात समामध’
या ‘असंप्रज्ञात योग’ कहते हैं। यही समामध की अिस्था है। जब तक मनुष्य के मचत्त में विकार भरा
रहता है और उसकी बुजद्ध दूवषत रहती है, तब तक तत्त्िज्ञान नहीं हो सकता।

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✓ राजयोग के अन्तगथत िनहर्थ पतंजत्ति िे अष्ांग को इि प्रकार बताया है-


यम , वनयम , आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा , ध्यान , समामध
उपयुशि प्रथम पााँच 'योग के बवहरंग साधन' हैं। धारणा, ध्यान और समामध ये तीन योग के अंतरंग साधन हैं।
ध्येय विषय ईश्वर होने पर मुक्ति ममल जाती है। यह परमात्मा से संयोग प्राप्त करने का मनोिैज्ञावनक मागश है
जजसमें मन की सभी शक्तियों को एकाग्र कर एक केन्द्र या ध्येय िस्तु की ओर लाया जाता है।
योगदशणन छः आस्स्िक दशणनों (षड् दशणन) में से एक है। इसके प्रर्ेिा पिञ्जशल मतन हैं। यह दशणन साांख्य
दशणन के 'पूरक दशणन' के नाम से प्रशसि है। इस दशणन का प्रमख लक्ष्य मनष्य को वह मागण ददखाना है जजस पर
चलकर वह जीवन के परम लक्ष्य (मोक्ष) की प्राप्प्ि कर सके। अन्य दशणनों की भाांति योगदशणन ित्त्वमीमाांसा के
प्रश्नों (जगि क्या है, जीव क्या है?, आदद..) में न उलझकर मख्यिः मोक्षप्राप्प्ि के उपाय बिाने वाले दशणन की
प्रस्िति करिा है। तकन्ि मोक्ष पर चचाण करने वाले प्रत्येक दशणन की कोई न कोई िाप्त्वक पृष्टभूमम होनी
आवश्यक है। अिः इस हेि योगदशणन, साांख्यदशणन का सहारा लेिा है और उसके द्वारा प्रतिपाददि ित्त्वमीमाांसा
को स्वीकार कर लेिा है। इसशलये प्रारम्भ से ही योगदशणन, साांख्यदशणन से जडा हुआ है।
प्रकृति, परुष के स्वरूप के साि ईश्वर के अस्स्ित्व को ममलाकर मनष्य जीवन की आध्यास्त्मक, मानशसक और
शारीररक उन्नति के शलये दशणन का एक बडा व्यावहाररक और मनोवैज्ञातनक रूप योगदशणन में प्रस्िि तकया
गया है। इसमें बिाया गया है तक तकस प्रकार मनष्य अपने मन (मचि) की वृशत्तयों पर तनयन्त्रर् रखकर जीवन
में सफल हो सकिा है और अपने अप्न्िम लक्ष्य तनवाणर् को प्राप्ि कर सकिा है।
योगदशणन, साांख्य की िरह द्वै िवादी है। साांख्य के ित्त्वमीमाांसा को पूर्ण रूप से स्वीकारिे हुए उसमें केवल
'ईश्वर' को जोड दे िा है। इसशलये योगदशणन को 'सेश्वर साांख्य' (स + ईश्वर साांख्य) कहिे हैं और साांख्य को
'तनरीश्वर साांख्य' कहा जािा है।
✓ यम-वनयम
तवद्या और अतवद्या, बन्धन और उससे छटकारा, सख और द:ख सब मचत्त में हैं। अि: जो कोई अपने स्वरूप में
स्स्िति पाने का इच्छक है उसको अपने मचत्त को उन वस्िओं से हटाने का प्रयत्न करना होगा, जो हठाि् प्रधान
और उसके तवकारों की ओर खींचिी हैं और सख द:ख की अनभूति उत्पन्न करिी हैं। इस िरह मचत्त को हटाने
ििा मचत्त के ऐसी वस्िओं से हट जाने का नाम वैराग्य है। यह योग की पहली सीढ़ी है। पूर्ण वैराग्य एकदम नहीं
हुआ करिा। ज्यों ज्यों व्यशक्त योग की साधना में प्रवृत्त होिा है त्यों त्यों वैराग्य भी बढ़िा है और ज्यों ज्यों
वेराग्य बढ़िा है त्यों त्यों साधना में प्रवृशत्त बढ़िी है। जेसा पिांजशल ने कहा है: दृष्ट और अनश्रतवक दोनों प्रकार
के तवषयों में तवरशक्त, अनासशक्त होनी चातहए। स्वगण आदद, जजनका ज्ञान हमको अनश्रति अिाणि् महात्माओं के
वचनों और धमणग्रन्िों से होिा है, अनश्रतवक कहलािे हैं। योग की साधना को अभ्यास कहिे हैं।
मचत्त जब िक इजन्रयों के तवषयों की ओर बढ़िा रहेगा, चांचल रहेगा। इजन्रयाूँ उसका एक के बाद दूसरी भोग्य
वस्ि से सम्पकण करािी रहेंगी। तकिनों से तवयोग भी करािी रहेंगी। काम, क्रोध, लोभ, आदद के उद्दीप्ि होने के
सैकडों अवसर आिे रहेंग।े सख द:ख की तनरन्िर अनभूति होिी रहेगी। इस प्रकार प्रधान ओर उसके तवकारों
के साि जो बांधन अनेक जन्मों से चले आ रहे हैं वे दृढ़ से दृढ़िर होिे चले जाएूँगे। अि: मचत्त को इजन्रयों के
तवषयों से खींचकर अन्िमणखी करना होगा। साधारर् मनष्य के मचत्त की अवस्िा भक्षप्ि कहलािी है। वह एक
तवषय से दूसरे तवषय की ओर फेंका तफरिा है। जब उसको प्रयत्न करके तकसी एक तवषय पर लाया जािा है
िब भी वह जकदी से तवषयांिर की ओर चला जािा है। इस अवस्िा को तवभक्षप्ि कहिे हैं। दीधण प्रयत्न के बाद
साधक उसे तकसी एक तवषय पर दे र िक रख सकिा है। इस अवस्िा का नाम एकाग्र है। मचत्त को वशीभूि
करना बहुि कदठन काम है। श्रीकृष्र् ने इसे प्रमाशि बलवि्-मस्ि हािी के समान बलवान्-बिाया है।

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✓ आसन
मचत्त को वश में करने में एक चीज से सहायिा ममलिी है। यह साधारर् अनभव की बाि है तक जब िक शरीर
चांचल रहिा है, मचत्त चांचल रहिा है और मचत्त की चांचलिा शरीर को चांचल बनाए रहिी है। शरीर की चांचलिा
नाडीसांस्िान की चांचलिा पर तनभणर करिी है। जब िक नाडीसांस्िान सांक्षब्ध रहेगा, शरीर पर इांदरय ग्राह्य
तवषयों के आधाि होिे रहेंगे। उन आधािों का प्रभाव मस्स्िष्क पर पडेगा जजसके फलस्वरूप मचत्त और शरीर
दोनों में ही चांचलिा बनी रहेगी। मचत्त को तनश्चल बनाने के शलये योगी वैसा ही उपाय करिा है जैसा कभी-कभी
यि में करना पडिा है। तकसी प्रबल शत्र से लडने में यदद उसके ममत्रों को परास्ि तकया जा सके िो सफलिा
की सांभावना बढ़ जािी है। योगी मचत्त पर अमधकार पाने के शलए शरीर और उसमें भी मख्यि: नाडीसांस्िान,
को वश में करने का प्रयत्न करिा है। शरीर भौतिक है, नामडयाूँ भी भौतिक हैं। इसशलये इनसे तनपटना सहज
है। जजस प्रतक्रया से यह बाि शसि होिी है उसके दो अांग हैं: आसन और प्रार्ायाम। आसन से शरीर तनश्चल
बनिा है। बहुि से आसनों का अभ्यास िो स्वास्थ्य की दृतष्ट से तकया जािा है। पिांजशल ने इिना ही कहा
है: स्स्िर सखमासनम् : जजसपर दे र िक तबना कष्ट के बैठा जा सके वही आसन श्रेष्ठ है। यही सही है तक
आसनशसजि के शलये स्वास्थ्य सांबांधी कछ तनयमों का पालन आवश्यक है। जैसा श्रीकृष्र् ने गीिा में कहा है-
युिाहार वबहारस्त्य, युि चेष्टस्त्य कमणसु।
युिस्त्िप्नािबोधस्त्य, योगो भिवत दुःखहा॥
खाने, पीने, सोने, जागने सभी का तनयन्त्रर् करना होिा है।
✓ प्रार्ायाम
प्रार्ायाम शब्द के सांबध
ां में बहुि भ्रम फैला हुआ है। इस भ्रम का कारर् यह है तक आज लोग प्रार् शब्द के
अिण को प्राय: भूल गए हैं। योगी को इस बाि का प्रयत्न करना होिा है तक वह अपने प्रार् को सषम्ना में ले
जाय। सषम्ना वह नाडी है जो मेरुदण्ड की नली में स्स्िि है और मस्स्त्तष्क के नीचे िक पहुूँचिी है। यह कोई
गप्ि चीज नहीं है। आूँखों से दे खी जा सकिी है। करीब-करीब कनष्ठाि उूँगली के बराबर मोटी होिी है, ठोस
है, इसमें कोई छे द नहीं है। प्रार् का और साूँस या हवा करनेवालों को इस बाि का पिा नहीं है तक इस नाडी में
हवा के घसने के शलये और ऊपर चढ़ने के शलये कोई मागण नहीं है। प्रार् को हवा का समानािणक मानकर ही
ऐसी बािें कही जािी हैं तक अमक महात्मा ने अपनी साूँस को ब्रह्माांड में चढ़ा शलया। साूँस पर तनयांत्रर् रखने से
नाडीसांस्िान को स्स्िर करने में तनश्चय ही सहायिा ममलिी है, परांि योगी का मख्य उद्दे श्य प्रार् का तनयांत्रर् है,
साूँस का नहीं। प्रार् वह शशक्त है जो नाडीसांस्िान में सांचार करिी है। शरीर के सभी अवयवों को और सभी
धािओं को प्रार् से ही जीवन और सतक्रयिा ममलिी है। जब शरीर के स्स्िर होने से ओर प्रार्ायाम की तक्रया
से, प्रार् सषम्ना की ओर प्रवृत्त होिा है िो उसका प्रवाह नीचे की नामडयों में से खखिंच जािा है। अि: ये नामडयाूँ
बाहर के आधािों की ओर से एक प्रकार से शून्यवि् हो जािी हैं।

कुण्डक्तलनी योग :
हमारे शरीर में कण्डशलनी शशक्त होिी है। यह शशक्त कण्डली मारे हुए साांप की िरह हर इांसान के शरीर
में रहिी है। इसीशलए इसका नाम कण्डशलनी शशक्त पडा। जब यह जागिी है, िो इांसान की साांसाररक
चेिना चली जािी है। और जब यह सोिी है, िो इांसान तफर सांसार के प्रति चेिन हो जािा है।
कण्डशलनी योग के िहि कण्डशलनी शशक्त शरीर के छह आध्यास्त्मक ऊजाण चक्रों को सतक्रय करिे हुए
शसर के शीषण पर मौजूद सहस्रार चक्र को जगािी है। आत्मा का परमात्मा से ममलन करािी है। उसे
ब्रह्मलीन करिी है। इस अवस्िा को ही पूर्ण समामध कहा गया है।
कण्डशलनी योग तक्रया के सबसे ज़रूरी तहस्से हैं चक्र, नामडयाां और प्रार् (वाय)।

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शरीर में हैं सात चर : हमारे शरीर में साि चक्र हैं। मूलाधार, स्वामधष्ठान, मभर्पूर, अनाहि, तवशि, आज्ञा
चक्र, सहस्रार चक्र। ये प्रार्शशक्त के केंर हैं।
मभलाधार चर :यह सबसे नीचे है। रीढ़ की हिी के शरू यानी गदा द्वार के पास। सबसे पहले ध्यान को
यहीं लाया जािा है। यह तत्रकोर् रूप में है और कण्डशलनी शशक्त यहीं बैठिी है। इसमें चार योग नामडयाां हैं,
जजन्हें कमल की पांखमडयों की िरह ददखाया है। यहाां पीले रांग में पृथ्वी ित्व है, जो गांध का काम करिा है।
यहाां दे व रूप में गर्ेश तवराजमान हैं। इसकी दे वी हैं डातकनी। इस चक्र में ब्रह्मग्रांिी है। यह भू-लोक को
इांतगि करिा है। सब चक्रों के बीज अक्षर होिे हैं। इस चक्र का बीज अक्षर 'लां' है। मूलाधार चक्र का भेदन
करने वाला पृथ्वी ित्व पर तवजय पा लेिा है।

स्त्िायधष्ठान चर :यह जननेंदरयों के पास है। इसमें छह योग नामडयाां हैं। सफेद रांग में जल ित्व है, जो रस
या स्वाद का काम करिा है।
यहाां दे व रूप में ब्रह्मा तवराजमान हैं। इसकी दे वी हैं रातकनी। यह भूव्र लोक को इांतगि करिा है। बीज अक्षर
'वां' है। इस चक्र पर ध्यान करने वाले को जल से तकसी िरह का भय नहीं रहिा। उसे कई शसजियाां और
इांदरयों पर तनयांत्रर् प्राप्ि हो जािा है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, ईष्याण और अन्य दगणर् दूर हो जािे हैं।

मभर्पभर चर : यह नाभभ में है। इसमें 10 योग नामडयाां हैं। लाल रांग में अप्ग्न ित्व है, जजसका काम है रूप
यानी दृतष्ट। यहाां तवष्र् तवराजमान हैं।
इसकी दे वी हैं लातकनी। यह स्व: यानी स्वगण लोक को दशाणिा है। इस चक्र का बीज अक्षर है 'रां'। इस पर
जो ध्यान करिा है, उसे पािाल शसजि प्राप्ि होिी है। वह सभी रोगों से मक्त रहिा है। आग का भय नहीं
रहिा। घेरांड सांतहिा में शलखा है तक उसे आग में फेंक ददया जाए िो भी मौि उसे छू नहीं सकिी।

अनाहत चर : यह ददल के पास है। इसमें 12 योग नामडयाां हैं। धांध रूप में वाय ित्व है, जो स्पशण का काम
करिा है। यहाां दे व रूप में शशव तवराजिे हैं। इसकी दे वी हैं कातकनी।
यह महालोक को इांतगि करिा है। बीज अक्षर 'यां' है। इसमें तवष्र् ग्रांशि है। इससे ददल पर तनयांत्रर् होिा है।
इस चक्र पर ध्यान करने से आनांद महसूस होगा और ईष्ट दे वों के दशणन होंगे।

विशुद्ध चर : यह चक्र कण्ठ यानी गदण न में है। इसमें 16 योग नामडयाां हैं। नीले रांग में आकाश ित्व है।
इसका काम है शब्द यानी सनना। यहाां दे व रूप में महेश्वर सदाशशव हैं और इसकी दे वी हैं शातकनी।

यह जनह लोक को इांतगि करिा है। इसका बीज अक्षर है 'हां' है। मन के और शि होने से, ध्यान और
लगन गहरी होने से साधक तवशि चक्र को खोल सकिा है। इससे और अमधक शशक्त और आनांद का
आभास होगा। इिनी शशक्त ममलेगी तक प्रलय भी उसका कछ नहीं तबगाड सकिी। साधक तत्रकाल ज्ञानी हो
जािा है। उसे चारों वेदों का ज्ञान हो जािा है। लेतकन सांभव है तक यहाां िक पहुांचकर भी प्रार् शशक्त नीचे
आ जाए।

ज्ञान चर : दोनों आांखों के बीच यानी भृकटी में ज्ञान चक्र है। इसमें योग नामडयाां केवल दो हैं। तबना तकसी
रांग में यहाां मानस ित्व होिा है। सांककप और तवककप इसी से जन्म लेिे हैं। यहाां दे व रूप में सदाशशव
शांभूनाि हैं और इसकी दे वी हातकनी हैं।

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यह िपो लोक को इांतगि करिा है। इसमें रुर ग्रांशि है। इस चक्र का बीज अक्षर 'ऊां' है। जब साधक यहाां
पहुांचिा है, िो वह समामध की अवस्िा में चला जािा है। इससे उसे ब्रह्म यानी परमात्मा की अनभूति होिी
है। वह अपने पूवणजन्मों के सब कमण यहाां नष्ट कर सकिा है। उसे सभी 8 प्रमख और 32 सूक्ष्म शसजियों की
प्राप्प्ि हो जािी है।

सहस्रार चर : कण्डशलनी योग में यह चक्र ही सांपूर्ण समामध ददलािा है। यह शसर के शीषण पर है। इसमें
1000 योग नामडयाां हैं। सषम्ना नाडी ही यहाां िक पहुांचिी है। वह एक-एक चक्र को जगािे हुए सबसे
आखखर में इस चक्र को जगािी है।
यहाां पहुांचकर जो अनभव होिा है, वह वर्णन से परे है। यहीं तनर्विंककप समाामध यानी सपरकॉन्सेसनेस
ममलिी है। कण्डशलनी परमात्मा से ममल जािी है।

नायड़यां :नाडी शब्द नड से बना है, जजसका मिलब है प्रवाह। इनसे ही शरीर में प्रार् का प्रवाह होिा
है। योग नामडयाां वैद्य या मचतकत्सा शास्त्र में बिाई गई नसों से अलग हैं। तकसी ने इनकी सांख्या 72
हजार बिाई हैं, िो तकसी ने साढ़े िीन लाख।
जब कण्डशलनी जागिी है िो सषम्ना नाडी के ज़ररए जागिी है। सभी नामडयाां मूलाधार चक्र के जररए
सषम्ना से जडिी हैं। इन अनतगतनि नामडयों में 14 प्रमख हैं। सषम्ना, ईडा, हपिंगला, गाांधारी,
हस्िजीह्वा, कूहु, सरस्विी, पषा, सांतकनी, पायस्स्वनी, वरुर्ी, अलम्बूशा, तवश्वोरा और यशस्स्वनी। इनमें
भी पहली िीन यानी सषम्ना, ईडा और हपिंगला कण्डशलनी योग की सबसे अहम नामडयाां हैं।

सुषुम्ना : यह स्पाइनल कॉडण से गज़रिी है। यही एक मात्र नाडी है, जो सहस्रार चक्र िक पहुांचिी है।
मेमडकल साइांस मानिी है तक स्पाइनल कॉडण के भीिर सफ़ेद और ग्रे ब्रेन मैटर है। इससे ददमाग िक
सांदेश जािे हैं।
सषम्ना में भी एक के अांदर एक िीन नामडयाां हैं। सबसे भीिर ब्रह्मनाडी है। मूलाधार चक्र से जब
कण्डशलनी जागिी है, िो इसी के ज़ररए सभी चक्रों से गज़रिी हुए सहस्रार चक्र िक पहुांचिी है। लेतकन
अगर यह अशि हो िो प्रार् वाय इसमें से नहीं गज़र पािी। इसकी शजि के शलए प्रार्ायाम और दूसरी
योग तक्रयाओं को जरूरी बिाया गया है।

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ईडा और पपिंगला : ये दोनों नामडयाां सषम्ना के दाईं और बाईं ओर से तनकलिी हैं। ईडा दाएां अांडकोष
से और हपिंगला बाएां अांडकोष से शरू होिी है। मूलाधार चक्र में ये सषम्ना से ममलिी हैं। इसे मक्त
तत्रवेर्ी कहा गया है। यानी गांगा, यमना और सरस्विी। जहाां ये ममलिी है, उसे ब्रह्म ग्रांिी कहिे हैं।
इसके बाद ये अनाहि और ज्ञान चक्र में ममलिी हैं। तफर से प्रयाग की तत्रवेर्ी।
ईडा बाईं नाशसका और हपिंगला दाईं नाशसका से प्रार् वाय लेिी हैं। ईडा (चांर) ठां डी और हपिंगला (सूयण)
गमण है। कहिे हैं तक इन्हीं से एक योगी अपनी मृत्य का समय जान सकिा है।
नामडयों में वाय का प्रवाह बदलने के शलए कई योग अभ्यास हैं। कछ इच्छा से यह प्रवाह बदल सकिे हैं
िो कछ नौली तक्रया, खेचरी मरा जैसे अभ्यास से। लेतकन इन सबमें बहुि सावधातनयाां बरिनी पडिी
हैं। गलि साधना से बीमाररयाां हो सकिी हैं।

प्रत्याहार
प्रार्ायाम का अभ्यास करना और प्रार्ायाम में सफलिा पा जाना दो अलग अलग बािें हैं। परांि वैराग्य और
िीव्र सांवेग के बल से सफलिा का मागण प्रशस्ि हो जािा है। ज्यों-ज्यों अभ्यास दृढ़ होिा है, त्यों-त्यों साधक के
आत्मतवश्वास में वृजि होिी है। एक और बाि होिी है। वह जजिना ही अपने मचत्त को इांदरयों और उनके तवषयों
से दूर खींचिा है उिना ही उसकी ऐंदरय शशक्त भी बढ़िी है अिाणि् इांदरयों की तवषयों के भोग की शशक्त भी
बढ़िी है। इसीशलये प्रार्ायाम के बाद प्रत्याहार का नाम शलया जािा है। प्रत्याहार का अिण है इांदरयों को उनके
तवषयों से खींचना। वैराग्य के प्रसांग में यह उपदे श ददया जा चका है परांि प्रार्ायम िक पहूँचकर इसकों तवशेष
रूप से दहराने की आवश्यकिा है। आसन, प्रार्ायाम और प्रत्याहार के ही समच्चय का नाम हठयोग है।

धारर्ा, र्धयान, समायध


जो लोग आगे बढ़िे हैं उनके मागण को िीन तवभागों में बाूँटा जािा है: धारर्ा, ध्यान और समामध। इन िीनों को
एक दूसरे से तबककल पृिक करना असांभव है। धारर् पष्ट होकर ध्यान का रूप धारर् करिी है और उन्नि
ध्यान ही समामध कहलािा है। पिांजशल ने िीनों को सन्म्मशलि रूप से सांयम कहा है। धारर्ा वह उपाय है
जजससे मचत्त को एकाग्र करने में सहायिा ममलिी है। यहाूँ उपाय शब्द का एकवचन में प्रयोग हुआ है परांि
वस्िि: इस काम के अनेक उपाय हैं। इनमें से कछ का चचाण उपतनषदों में आया है। वैददक वाड् मय में तवद्या
शब्द का प्रयोग तकया गया है। तकसी मांत्र के जप, तकसी दे व, दे वी या महात्मा के तवग्रह या सूयण, अप्ग्न,
दीपशशखा आदद को शरीर के तकसी स्िानतवशेष जेसे हृदय, मूघाण, तिल अिाणि दोनों आूँखों के बीच के हबिंद,
इनमें से तकसी जगह ककपना में स्स्िर करना, इस प्रकार के जो भी उपाय तकए जायूँ वे सभी धारर्ा के अांिगणि
हैं। जैसा तक कछ उपायों को बिलाने के बाद पिांजशल ने यह शलख ददया है - यिाभभमि ध्यानाद्वा-जो वस्ि
अपने को अच्छी लगे उसपर ही मचत्त को एकाग्र करने से काम चल सकिा है।
धारर्ा की सबसे उत्तम पिति वह है जजसे पराने शब्दों में नादानसांधान कहिे हैं। कबीर और उनके परविी
सांिों ने इसे सरि शब्द योग की सांज्ञा दी है। जजस प्रकार चांचल मृग वीर्ा के स्वरों से मग्ध होकर चौकडी भरना
भूल जािा है, उसी प्रकार साधक का मचत्त नाद के प्रभाव से चांचलिा छोडकर स्स्िर हो जािा है। वह नाद कौन
सा है जजसमें मचत्त की वृशत्तयों को लय करने का प्रयास तकया जािा है और यह प्रयास कैसे तकया जािा है, ये
बािें िो गरुमख से ही जानी जािी हैं। अांिनाणद के सूक्ष्मत्तम रूप को प्रवल, ॐ -ओंकार, कहिे हैं। प्रर्व
वस्िि: अनच्चार्ययण है। उसका अनभव तकया जा सकिा है, वार्ी में व्यांजना नहीं, नादहविंदूपतनषद् के शब्दों में:

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ब्रह्म प्रर्ि संयानं, नादो ज्योवतमणय: क्तशि:।


स्त्ियमाविभणिेदात्मा मेयापायेऽशुमावनि॥
ॐ प्रर्व के अनसांधान से, ज्योतिमणय और ककयार्कारी नाद उददि होिा है। तफर आत्मा स्वयां उसी प्रकार
प्रकट होिा है, जेसे तक बादल के हटने पर चांरमा प्रकट होिा है। आदद शब्द ॐ आांकार को परमात्मा का
प्रिीक कहा जािा है। योतगयों में सवणत्र ही इसकी मतहमा गाई गई है। बाइतबल में , पहला ही वाक्य इस प्रकार
हैं, आरांभ में शब्द िा। वह शब्द परमात्मा के साि िा। वह शब्द परमात्मा िा। सूफी सांि कहिे हैं हैफ़ दर बांदे
जजस्म दरमानी, न शनवी सौिे पाके रहमानी द:ख की बाि है तक िू शरीर के बांधन में पडा रहिा है और पतवत्र
ददव्य नाद को नहीं सनिा।
मचत्त की एकाग्रिा ज्यों ज्यों बढ़िी है त्यों त्यों साधकर को अनेक प्रकार के अनभव होिे हैं। मनष्य अपनी
इांदरयों की शशक्त से पररमचि नहीं है। उनसे न िो काम लेिा है और न लेना चाहिा है। यह बाि सनने में आश्चयण
की प्रिीि होिी है, पर सच है। मान लीजजए, हमारी चक्ष या श्रोत्र इांदरया की शशक्त कल आज से कई गना बढ़
जाय। िब न जाने ऐसी तकिनी वस्िएूँ दृतष्टगोचर होने लगेंगी जजनको दे खकर हम काूँप उठें गे। एक दूसरे के
भीिर की रासायतनक तक्रया यदद एक बार दे ख पड जाय िो अपने तप्रय से तप्रय व्यशक्त की ओर से घृर्ा हो
जायगी। हमारे परम ममत्र पास की कोठरी में बैठे हमारे सांबांध में क्या कहिे हैं, यदद यह बाि सनने में आ जाय
िो जीना दूभर हो जाय। हम कछ वासनाओं के पिले हैं। अपनी इांरयों से वहीं िक काम लेिे हैं जहाूँ िक
वासनाओं की िृप्प्ि हो। इसशलये इांदरयों की शशक्त प्रसप्ि रहिी है परांि जब योगाभ्यास के द्वारा वासनाओं का
न्यूनामधक शमन होिा है िब इांदरयाूँ तनबाणध रूप से काम कर सकिी हैं और हमको जगि् के स्वरूप के
वास्ितवक रूप का कछ पररचय ददलािी हैं। इस तवश्व में स्पशण, रूप, रस और गांध का अपार भांडार भरा पडा है
जजसकी सत्ता का हमको अनभव नहीं हैं। अांिणमणख होने पर तबना हमारे प्रयास के ही इांदरयाूँ इस भांडार का द्वार
हमारे सामने खोल दे िी हैं। सषम्ना में नामडयों की कई ग्रांशियाूँ हैं, जजनमें कई जगहों से आई हुई नामडयाूँ ममलिी
हैं। इन स्िानों को चक्र कहिे हैं। इनमें से तवशेष रूप से छह चक्रों का चचाण योग के ग्रांिों में आिा है। सबसे
नीचे मलाधार है जो प्राय: उस जगह पर है जहाूँ सषम्ना का आरांभ होिा है। और सबसे ऊपर आज्ञा चक्र है जो
तिल के स्िान पर है। इसे िृिीय नेत्र भी कहिे हैं। िोडा और ऊपर चलकर सषम्ना मस्स्िष्क के नामडसांस्िान से
ममल जािी है। मस्स्िष्क के उस सबसे ऊपर के स्िान पर जजसे शरीर तवज्ञान में सेरेब्रम कहिे हैं, सहस्रारचक्र
है। जैसा तक एक महात्मा ने कहा है:
मभलमंर करबंद विचारी सात चर नि शोधै नारी।।
योगी के प्रारांभभक अनभवों में से कछ की ओर ऊपर सांकेि तकया गया है। ऐसे कछ अनभवों का उकलेख
श्वेिाश्वर उपतनषद् में भी तकया गया है। वहाूँ उन्होंने कहा है तक अनल, अतनल, सूयण, चांर, खद्योि, धूम, स्फललिंग,
िारे अभभव्यशक्तकरातन योगे हैं, यह सब योग में अभभव्यक्त करानेवाले मचह्न हैं अिाणि् इनके द्वारा योगी को यह
तवश्वास हो सकिा है तक मैं ठीक मागण पर चल रहा हूँ। इसके ऊपर समामध िक पहुूँचिे पहुूँचिे योगी को जो
अनभव होिे हैं उनका वर्णन करना असांभव है। कारर् यह है तक उनका वर्णन करने के शलये साधारर् मनष्य
को साधारर् भाषा में कोई प्रिीक या शब्द नहीं ममलिा। अच्छे योतगयों ने उनके वर्णन के सांबांध में कहा है तक
यह काम वैसा ही है जैसे गूूँगा गड खाय। पूर्ाांग मनष्य भी तकसी वस्ि के स्वाद का शब्दों में वर्णन नहीं कर
सकिा, तफर गूूँगा बेचारा िो असमिण है ही। गड के स्वाद का कछ पररचय फलों के स्वाद से या तकसी अन्य
मीठी चीज़ के सादृश्य के आधार पर ददया भी जा सकिा है, पर जैसा अनभव हमको साधारर्ि: होिा ही नहीं,
वह िो सचमच वार्ी के परे हैं।

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II ॐ II

समामध की सवोच्च भूममका के कछ नीचे िक अस्स्मिा रह जािी है। अपनी पृिक सत्ता अहम् अस्स्म (मैं हूँ)
यह प्रिीति रहिी है। अहम् अस्स्म = मैं हूँ की सांिान अिाणि तनरांिर इस भावना के कारर् वहाूँ िक काल की
सत्ता है। इसके बाद झीनी अतवद्या मात्र रह जािी है। उसके शय होने की अवस्िा का नाम असांप्रज्ञाि समामध है
जजसमें अतवद्या का भी क्षय हो जािा है और प्रधान से कस्कपि सांबांध का तवच्छे द हो जािा है। यह योग की
पराकाष्ठा है। इसके आगे तफर शास्त्रािण का द्वार खल जािा है। साांख्य के आचायण कहिे हैं तक जो योगी परुष
यहाूँ िक पहुूँचा, उसके शलये तफर िो प्रकृति का खेल बांद हो जािा है। दूसरे लोगों के शलये जारी रहिा है। वह
इस बाि को यों समझािे हैं। तकसी जगह नृत्य हो रहा है। कई व्यशक्त उसे दे ख रहे हैं। एक व्यशक्त उनमें ऐसा भी
है जजसको उस नृत्य में कोई अभभरुमच नहीं है। वह निणकी की ओर से आूँख फेर लेिा है। उसके शलये नृत्य नहीं
के बराबर है। दूसरे के शलये वह रोचक है। उन्होंने कहा है तक उस अजा के साि अिाणि तनत्या के साि अज
एकोऽनशेिे = एक अज शयन करिा है और जहात्येनाम् भक्तभोगाम् ििान्य:-उसके भोग से िृप्ि होकर दूसरा
त्याग दे िा है।
अद्वै ि वेदान्ि के आचायण साांख्यसांमि परुषों की अनेकिा को स्वीकार नहीं करिे। उनके अतिररक्त और भी कई
दार्श्निंक सांप्रदाय हैं जजनके अपने अलग अलग शसिाांि हैं। जहाां िक योग के व्यवहाररक रूप की बाि है उसमें
तकसी को तवरोध नहीं है। वेदाांि के आचायण भी तनर्दिंध्यासन की उपयोतगिा को स्वीकार करिे हैं और वेदाांि
दशणन में व्यास ने भी असकृदभ्यासाि् ओर आसीन: सांभवाि् जैसे सूत्रों में इसका समिणन तकया है। इिना ही
हमारे शलये पयाणप्ि है।
साधारर्ि: योग को अष्टाांग कहा जािा है परांि यहाूँ अब िक आसन से लेकर समामध िक छह अांगों का ही
उकलेख तकया गया है। शेष दो अांगों को इसशलये नहीं छोडा तक वे अनावश्यक हैं वरन् इसशलए तक वह योगी ही
नहीं प्रत्यि मनष्य मात्र के शलए परम उपयोगी हैं। उनमें प्रिम स्िान यम का है। इनके सांबांध में कहा गया है तक
यह दे श काल, समय से अनवस्च्छन्न ओर सावणभौम महाब्रि हैं अिाणि् प्रत्येक मनष्य को प्रत्येक स्िान पर
प्रत्येक समय और प्रत्येक अवस्िा में प्रत्येक व्यशक्त के साि इनका पालन करना चातहए। दूसरा अांग तनयम
कहलािा है। जो लोग ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करिे उनके शलये ईश्वर पर तनष्ठा रखने का कोई और नहीं
है। परांि वह लोग भी प्राय: तकसी न तकसी ऐसे व्यशक्त पर श्रिा रखिे हैं जो उनके शलये ईश्वर िकय है। बौि को
बिदे व के प्रति जो तनष्ठा है वह उससे कम नहीं है जो तकसी भी ईश्वरवादी को ईश्वर पर होिी होगी। एक और
बाि है। तकसी को ईश्वर पर श्रिा हो या न हो, योग मागण के उपदे ष्टा गरु पर िो अनन्य श्रिा होनी ही चातहए।
योगाभ्यासी के शलये गरु का स्िान तकसी भी दृतष्ट से ईश्वर से कम नहीं। ईश्वर हो या न हो परांि गरु के होने पर
िो कोई सांदेह हो ही नहीं सकिा। एक साधक चरर्ादास जी की शशष्या सहजोबाई ने कहा है:
गुरुचरनन पर तन-मन िारूूँ, गुरु न तजभूँ हरर को तज डारूूँ।
आज कल यह बाि सनने में आिी है तक परम परुषािण प्राप्ि करने के शलये ज्ञान पयाणप्ि है। योग की
आवश्यकिा नहीं है। जो लोग ऐसा कहिे हैं, वह ज्ञान शब्द के अिण पर गांभीरिा से तवचार नहीं करिे। ज्ञान दो
प्रकार का होिा है-िज्ज्ञान और ितद्वषयक ज्ञान। दोनों में अांिर है। कोई व्यशक्त अपना सारा जीवन रसायन
आदद शास्त्रों के अध्ययन में तबिाकर शक्कर के सांबांध में जानकारी प्राप्ि कर सकिा है। शक्कर के अर् में
तकन तकन रासायतनक ित्वों के तकिने तकिने परमार् होिे हैं? शक्कर कैसे बनाई जािी है? उसपर कौन कौन
सी रासातनक तक्रया और प्रतितक्रयाएूँ होिी हैं? इत्यादद। यह सब शक्कर तवषयक ज्ञान है। यह भी उपयोगी हो
सकिा है परांि शक्कर का वास्ितवक ज्ञान िो उसी समय होिा है जब एक चटकी शक्कर मूँह में रखी जािी है।
यह शक्कर का ित्वज्ञान है। शास्त्रों के अध्ययन से जो ज्ञान प्राप्ि होिा है वह सच्चा आध्यास्त्मक ज्ञान है और
उसके प्रकाश में ितद्वषयक ज्ञान भी पूरी िरह समझ में आ सकिा हैं। इसीशलये उपतनषद् के अनसार जब यम
ने नमचकेिा को अध्यात्म ज्ञान का उपदे श ददया िो उसके साि में योगतवमध च कृत्स्नम् की भी दीक्षा दी, नहीं
िो नमचकेिा का बोध अधूरा ही रह जािा। जो लोग भशक्त आदद की साधना रूप से प्रशांसा करिे हैं उनकोश् भी

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II ॐ II

यह ध्यान में रखना चातहए तक यदद उनके मागण में तवत्त को एकाग्र करने का कोई उपाय है िो वह वस्िि: योग
की धारर्ा अांग के अांिगणि है। यह उनकी मजी है तक सनािन योग शब्द को छोडकर नये शब्दों का व्यवहार
करिे हैं।
योग के अभ्यास से उस प्रकार की शशक्तयों का उदय होिा है जजनको तवभूति या शसजि कहिे हैं। यदद पयाणप्ि
समय िक अभ्यास करने के बाद भी तकसी मनष्य में ऐसी असाधारर् शशक्तयों का आगम नहीं हुआ िो यह
मानना चातहए तक वह ठीक मागण पर नहीं चल रहा है। परन्ि शसजियों में कोई जादू की बाि नहीं है। इांदरयों की
शशक्त बहुि अमधक है परांि साधारर्ि: हमको उसका ज्ञान नहीं होिा और न हम उससे काम लेिे हैं। अभयासी
को उस शशक्त का पररचय ममलिा है, उसको जगि् के स्वरूप के सांबांध में ऐसे अनभव होिे हैं जो दूसरों को
प्राप्ि नहीं हैं। दूर की या मछपी हुई वस्ि को दे ख लेना, व्यवहृि बािों को सन लेना इत्यादद इांदरयों की सहज
शशक्त की सीमा के भीिर की बािे हैं परांि साधारर् मनष्य के शलये यह आश्चयणश् का तवषय हैं, इनकों शसजि
कहा जायगा। इसी प्रकार मनष्य में और भी बहुि सी शशक्तयाूँ हें जो साधारर् अवस्िा में प्रसप्ि रहिी हैं। योग
के अभ्यास से जाग उठिी हैं। यदद हम तकसी सडक पर कहीं जा रहे हो िो अपने लक्ष्य की ओर बढ़िे हुए भी
अनायास ही दातहने बाएूँ उपस्स्िि तवषयों को दे ख लेंगे। सच िो यह है तक जो कोई इन तवषयों को दे खने के
शलये रुकेगा वह गन्िव्य स्िान िक पहुूँचेगा ही नहीं ओर बीच में ही रह जायगा। इसीशलये कहा गया है तक जो
कोई शसजियों के शलये प्रयत्न करिा है वह अपने को समामध से वांमचि करिा है। पिांजशल ने कहा है:
ते समाधािुपसगाणव्युत्थाने क्तसद्धयुः ।
अिाणि् ये तवभूतियाूँ समामध में बाधक हैं परांि समामध से उठने की अवस्िा में शसजि कहलािी हैं।

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II ॐ II

हमारा अिचेतन (sub conscious mind)मन एक मछपे हुए खजाने के समान है, कस्िूरी मृग की
िरह जो अपने भीिर कस्िूरी की खोज करिा है। इसी प्रकार, हम अक्सर अपनी समस्याओं के
समाधान के शलए स्वयां के बाहर दे खिे हैं, जब वे हमारे भीिर पहले से मौजूद हो सकिे हैं। हमारे
अवचेिन मन की क्षमिा अपार है और हम इसके उपयोग में महारि हाशसल करके इसके साि कछ
भी हाशसल कर सकिे हैं। हालाूँतक, हमारा अवचेिन मन सही और गलि के बीच अांिर नहीं करिा है,
और बस हमारे तवचारों पर कायण करिा है। इसशलए, हमें इसका सकारात्मक िरीके से उपयोग
करना सीखना चातहए और नकारात्मक प्रभावों से बचना चातहए। अपने अवचेिन मन
को एक बगीचे की िरह पोतषि करके हम सकारात्मक तवचारों और तवश्वासों को लगा सकिे हैं
और खरपिवारों को दूर रख सकिे हैं। हमारे जीिन को बदलने के क्तलए हमारे अिचेतन मन का
उपयोग करने के कई तरीके हैं, जैसे सकारात्मक सोच, नकारात्मक आत्म-चचाण से बचना, अपने मन
सकारात्मक सझाव दे ना, अच्छे तवचारों केसाि सोना, अपनी इच्छाओं को शलखना और स्वयां के शलए
सकारात्मक पतष्ट दोहराना। धैयण और दृढ़िा के साि, हम असांभव को प्राप्ि कर सकिे
हैं, क्योंतक हमारा अवचेिन मन सत्य और ककपना के बीच अांिर नहीं करिा है और जो कछ भी
हम इसे कहिे हैं, उस पर कायण करेंगे।
1. हमेशा सकारात्मक रहें - हमेशा सकारात्मक सोचें। यदद आप अपने जीवन में कछ नहीं चाहिे हैं, िो यह
मि सोमचए तक मझे यह नहीं चातहए, इस बारे में सोचें तक आप क्या चाहिे हैं।
2. कोई नकारात्मक शब्द नहीं - कभी मि कहो तक मेरा ददमाग िेज नहीं है। मेरे पास िाकि नहीं है।
इसके बजाय, सोचें: मेरा ददमाग िेज है और िेज हो रहा है। मेरे पास अद्भुि गतिशीलिा है। मेरा बल बढ़िा है।
3. अपने मन को सकारात्मक सझाव दें - आपने शायद दे खा होगा तक कभी-कभी जब आपको सबह जकदी
उठने की जरूरि होिी है, िो आप राि को अलामण घडी लगा दे िे हैं और सोचिे हैं तक सबह जकदी उठने का
समय कब है, और तफर आपके साि ऐसा होिा है तक आप अलामण घडी बजने से पहले सो ही खलिा है। यह
अवचेिन की शशक्त है।
4. हमेशा राि को अच्छे तवचारों के साि सोएां - जब आप राि को सोने जाएां िो उन चीजों के बारे में सोचें जो
आप अपने जीवन में चाहिे हैं। लेतकन याद रखें तक यह नकारात्मक नहीं होना चातहए।
5. शलखने की आदि डालें - अपनी सभी इच्छाओं को सकारात्मक िरीके से शलखना सबसे अच्छा है और राि
को पूरी श्रिा से पढ़कर सो गए।
6. चमत्कार कब होगा? आपकी वषों की नकारात्मक सोच की धूल आपकी सकारात्मक सोच
की झाडू से धीरे-धीरे हट रही है। इसमें िोडा वक्त लगेगा। लेतकन अगर आप अपनी खोज में धैयण रखिे हैं िो
यह चमत्कार जकद ही होगा और आपके सपने सच होंगे।
7. तकसी चीज को दोहराने से वह अवचेिन का तहस्सा बन जािा है। इसका मिलब यह है तक आप अपने
जीवन में जजस िरह का सधार या बदलाव चाहिे हैं, आप जजस स्िर की सहजिा हाशसल करना चाहिे हैं,
और जजस िरह की िाकि और क्षमिा आप अपने आप में चाहिे हैं, उसे
अपने ददमाग में दोहराएां और ध्यान करें। याद रखें तक केवल एक शशक्तशाली तवचार ही अवचेिन
में अपना स्िान ले सकिा है, इसशलए यह बहुि महत्वपूर्ण है तक तवचार मजबूि हो और स्पष्ट रूप से
दृढ़ तवश्वास के साि, तनभश्चि रूप से सत्य का रूप ले, ऐसा कछ भी नहीं है जो
अवचेिन िक पहुांच सके। आप मन की शशक्त से परे हैं। साि ही इन तवचारों को विणमान काल
में दोहराना भी आवश्यक है।

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II ॐ II

8. अवचेिन मन सत्य और ककपना के बीच का अांिर नहीं जानिा है, आपका शशक्तशाली अवचेिन मन ,
जैसा आप उसे कहेंग,े वह वैसा ही करेगा। इसके शलए अपने तवचारों को सकारात्मक रूप
से व्यक्त करना महत्वपूर्ण है क्योंतक अवचेिन मन नकारात्मक तवचारों को नहीं समझ सकिा।

योग के माध्यम से हम अपने अशाांि मन को तनयांतत्रि कर सकिे हैं और अपनी श्वास और तवचारों पर
ध्यान केंदरि करने के शलए ध्यान कर सकिे हैं। ध्यान में तवभभन्न मराएां और त्राटक भी शाममल हो सकिे
हैं। हमें अपने लक्ष्यों को प्राप्ि करने के शलए उन्हें स्पष्ट और सकारात्मक रूप से दे खना चातहए और
नकारात्मक तवचारों से बचना चातहए। 17 सेकांड के शलए लगािार एक तवचार पर ध्यान केंदरि करके, हमारे
अवचेिन मन की शशक्त से एक वास्ितवकिा बन सकिा है। हमारा अवचेिन
मन उवणर भूमम की िरह है, जहाां हमारे तवचार बीज हैं जो फलदार वृक्षों में तवकशसि हो सकिे
हैं। इसशलए हमें सकारात्मक रूप से सोचना चातहए और अपने अवचेिन मन की अनांि शशक्त
का उपयोग अपने सपनों को प्राप्ि करने और ईश्वर के करीब होने के शलए करना चातहए। शशक्तशाली अवचेिन
मन हमेशा सतक्रय रहिा है, जबतक आप सोए हुए होिे हैं। यदद आप सकारात्मक तवचार बोिे हैं, िो आप
सकारात्मक पररर्ाम प्राप्ि करेंगे, लेतकन यदद आप नकारात्मक तवचार बोिे हैं, िो
आप नकारात्मक पररर्ाम अनभव करेंगे। आप अपने अवचेिन मन को तनयांतत्रि नहीं कर सकिे, लेतकन आप
इसे सकारात्मक पररर्ामों की ओर तनदे शशि कर सकिे हैं। आपका चेिन मन
आपके तवचारों और कायों को तनयांतत्रि करिा है, लेतकन आपका अवचेिन मन आपके जीवन
की घटनाओं और पररस्स्ितियों को प्रभातवि करिा है। अपने अवचेिन मन िक पहुूँचने के शलए, आपको अपने
चेिन मन को कमजोर करना होगा , जब आप सो रहे होिे हैं िो आपका अवचेिन मन सबसे कमजोर
होिा है, और आप सही दृतष्टकोर् से इसके दरवाजे को िोड सकिे हैं। यदद आप अपने अवचेिन मन
में प्रचरिा के सकारात्मक तवचारों पर ध्यान केंदरि करिे हैं, िो आप अपने जीवन
में समृजि को आकर्षिंि करेंगे। इसके तवपरीि, यदद आप गरीबी
के नकारात्मक तवचारों पर ध्यान केजन्रि करिे हैं, िो
आप अमधक कमी को आकर्षिंि करेंगे। ज्ञानी सांिों ने हमेशा सकारात्मक सोच के महत्व पर बल ददया है।
अवचेिन मन हमारी मानशसक क्षमिा के 95% के शलए जजम्मेदार है, और इसमें ईश्वर
के समान अनांि शशक्तयाूँ हैं। आपका चेिन मन, जो आपके मस्स्िष्क का केवल
5% तहस्सा बनािा है, तनर्णय लेने और तवचार प्रतक्रयाओं के शलए जजम्मेदार होिा है। हालाूँतक, आपका
अवचेिन मन आपकी बाहरी पररस्स्ितियों, जैसे धन, खशी और सफलिा को आकार दे ने के शलए जज़म्मेदार है।
जब आप सो रहे होिे हैं िब भी यह 24/7 सांचाशलि होिा है। प्रश्न यह है तक आपका
चेिन मन सबसे अमधक सांवेदनशील कब होिा है? जब आप सोिे हैं िो आपका चेिन
मन काम करना बांद कर दे िा है और केवल अवचेिन मन सतक्रय रहिा है। अपने अवचेिन
में तवचारों को डालने का यह सबसे अच्छा समय
है क्योंतक यह उन्हें वास्ितवकिा बनाने की शशक्त रखिा है। जब आप जाग रहे होिे हैं, िो आपका चेिन मन
इस प्रतक्रया में बाधा डालिा है। आपको दोनों के बीच एक जगह जाना होगा जहाां आप जागे रहोगे लेतकन
आपका चेिन मन सो जाएगा और आपका अवचेिन मन जागा रहेगा. जब आप चेिन मन को सला दें गे, उस
समय आप आसानी से अवचेिन मन में अपना कोई भी प्रभाव डाल सकिे हैं. सोने से पहले आत्म-शाांति करें.
अपने शरीर को स्वस्ि रखें. जागृि और नींद में रहे. आपका शरीर सो जाएगा और आपको आधी नींद आ
जाएगी, तफर भी आप कछ जागृि हैं. जब आप आधी नींद में आ जािे हैं, आपका चेिन मन कमजोर हो जािा
है. और आप सीधे अपने अवचेिन को दरगर कर सकिे हैं ,महसूस करें और आधी नींद की अवस्िा में आकर
उसी घटना को सोचें जो आप अपने जीवन में दे खना चाहिे हैं. सबह उठने पर भी यही काय करना चातहए. उठे

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हुए चेिन मन अचानक जागृि नहीं होिा. धीरे-धीरे उठिा है. िो उस समय भी यह बजिमान मन कमजोर है.
इसशलए सबह उठिे ही अपना लक्ष्य सोचें. आप इस प्रकार 21 ददन िक यह करेंगे िो पररविणन या बदलाव हो
सकिा है. 22वें ददन में आपको अपने जीवन में ऐसे अनभव ममलने लगेंगे जब आप अपने लक्ष्य को पूरा करने
में सक्षम होंगे.

विपश्यना (Vipassana) र्धयान (Meditation) वियध :


भगवान शांकर ने माां पावणिी को ध्यान की 112 तवमधयाां बिाई िी जो 'तवज्ञान भैरव िांत्र' में सांग्रतहि हैं। ओशो
रजनीश ने ध्यान की 100 से अमधक तवमधयों का वर्णन अपने प्रवचनों में तकया हैं। तवपश्यना (Vipassana)
एक प्राचीन ध्यान (Meditation) तवमध है, Vipassana इसे सांस्कृि में तवपश्यना ििा पाशल में तवपस्सना
कहिे हैं। यह िीन शब्दों से ममलकर बना है वि+ पश्य+ ना जजसका अिण है विशेष प्रकार से दे खना। दूसरों
शब्दों में कहां िो साक्षी होकर दे खना। ,दे खकर लौटना. इसे आत्म तनरीक्षर् और आत्म शजि की सबसे
बेहिरीन पिति माना गया है. 2500 साल पहले भगवान बि ने इसी ध्यान तवमध के जररए बित्व हाशसल
तकया िा. भगवान बि ने इसे सरलिम रूप में लोगों के सामने रखा िा.यह ध्यान तवमध खद को जानने
(Know Yourself) में आपकी मदद करिी है. तवपश्यना एक आत्मदशणन की तवद्या है। जजसका अभ्यास
करिे –करिे धीरे-धीरे हमारे नये सांस्कार बनना बन्द हो जािे है और तफर पराने सांस्कार भी धीरे-धीरे क्षीर् हो
जािे है। और इस िरह समिा में स्स्िि होकर आप मशक्त( तनवाणर्) को प्राप्ि कर लेिे हैं।

यह प्रार्ायाम और साक्षीभाव का ममलाजला योग है.इस तवमध में खद की साांस को महसूस करना यातन तक
साांस के आवागमन को महसूस करना औेर उसके प्रति सजग रहना अभ्यास तकया जािा है. तवपश्यना ध्यान के
पाांच शसिाांि माने गए हैं. जीव हहिंसा की पूर्ण मनाही, चोरी ना करना, बह्मचयण का पालन, अपशब्दों का प्रयोग
ना करना, नशे से दूर रहना इसके मूल पाांच शसिाांि है.

तवपश्यना बडा सीधा-सरल प्रयोग है। अपनी आिी-जािी श्वास के प्रति साक्षीभाव। प्रारांभभक अभ्यास में उठिे-
बैठिे, सोिे-जागिे, बाि करिे या मौन रहिे तकसी भी स्स्िति में बस श्वास के आने-जाने को नाक के मछरों में
महसूस करें। जैसे अब िक आप अपनी श्वासों पर ध्यान नहीं दे िे िे लेतकन अब स्वाभातवक रूप से उसके
आवागमन को साक्षी भाव से दे खें या महसूस करें तक ये श्वास छोडी और ये ली। श्वास लेने और छोडने के
बीच जो गैप है, उस पर भी सहजिा से ध्यान दें । जबरन यह कायण नहीं करना है। बस, जब भी ध्यान आ जाए
िो सब कछ बांद करके इसी पर ध्यान दे ना ही तवपश्यना है।

श्वास के अलावा दूसरी स्टे प में आप बीच बीच में यह भी दे खें तक यह एक तवचार आया और गया, दूसरा
आया। यह क्रोध आया और गया। तकसी भी कीमि पर इन्वॉकव नहीं होना है। बस चपचाप दे खना है तक
आपके मन, मस्स्िष्क और शरीर में तकसी िरह की तक्रया और प्रतितक्रयाएां होिी रहिी है।
शरीर और आत्मा के बीच श्वास ही एक ऐसा सेि है, जो हमारे तवचार और भावों को ही सांचाशलि नहीं करिा
है बस्कक हमारे शरीर को भी जजिंदा बनाए रखिा है। श्वास जीवन है। ओशो कहिे हैं तक यदद िम श्वास को ठीक
से दे खिे रहो, िो अतनवायण रूपेर्, अपररहायण रूप से, शरीर से िम भभन्न अपने को जानने लगोगे। जो श्वास को
दे खेगा, वह श्वास से भभन्न हो गया, और जो श्वास से भभन्न हो गया वह शरीर से िो भभन्न हो ही गया। शरीर से
छू टो, श्वास से छू टो, िो शाश्वि का दशणन होिा है। उस दशणन में ही उडान है, ऊांचाई है, उसकी ही गहराई है।
बाकी न िो कोई ऊांचाइयाां हैं जगि में, न कोई गहराइयाां हैं जगि में। बाकी िो व्यिण की आपाधापी है।

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II ॐ II

तवपस्सना के साि सबसे अच्छी बाि यह है तक आप इसे कहीं भी कर सकिे हैं। आपके आसपास बैठे लोगों
को भी इस बाि का पिा नहीं चलेगा तक आप क्या कर रहे हैं। यह प्रतक्रया बाहर से दे खने में जजिनी सरल है,
इसमें उिनी ही अमधक गहराई है, जजसे अपनाने के बाद ही महसूस तकया जा सकिा है। इस ध्यान तवमध को
आप सबह एक घांटा या शाम को एक घांटा कर सकिे हैं. अगर आप दोनों वक्ि करिे हैं िो यह काफी
लाभकारी सातबि होगा.

✓ अपनी आिी जािी स्वाभातवक साूँस पर ध्यान दे ना। ( आनापाना साधना)


✓ नाक के तकस सर से साूँस अन्दर आ रही दाूँये से बाूँये से या तफर दोनो से। इस पर ध्यान दें गे। नाक के
अन्दर साूँस कहाूँ-कहाूँ टकरा रही है, इस पर ध्यान दें गे। सम्पर्ण नाक मे होने सांवेदनाओ पर ध्यान दें गे।(
आनापाना साधना)
✓ अपनी मूछ वाली जगह पर होने वाली सांवेदनाओ पर सारा ध्यान दे ना।( आनापाना साधना)
✓ अपने शसर से लेकर पैर िक शरीर के प्रत्येक अांग मे से एक-एक करके अपना मन गजारना और उसमें
होने वाली सांवेदनओ पर ध्यान दे ना।(तवपश्यना साधना)
✓ अपने शसर से लेकर पैर िक और अपने पैर से लेकर शसर िक शरीर के प्रत्येक अांग मे से अपना मन
गजारना और उसमें होने वाली सांवेदनओ पर ध्यान दे ना।(तवपश्यना साधना)
✓ अपने सारे शरीर में एक साि एक जैसी सांवेदनाओ की धारा प्रवाह का अनभव करना।
✓ अपने शरीर के भीिरी अांगो में से भी अपने मन को गजारिे हुए होने वाली सांवेदनाओ पर ध्यान दे ना।
अपनी रीढ की हिी में से अपना मन नीचे से ऊपर गजारिे हुए होने वाली सांवेदनाओ पर ध्यान दे ना।
(तवपश्यना साधना)
✓ सांवेदनाये अच्छी भी होंगी और बरी भी। आपको न िो अच्छी को साि राग करना है और न बरी के
साि द्वे श। आपको समिा बनाये रखनी है। और जानना है तक ये सारी सांवेदनायें अतनत्य है।
.

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II ॐ II

विभभवत योग गीता का दसिां अर्धयाय है जजसमें 42 श्लोक हैं।

सारांश : वनरपेक्षता का ऐश्वयण - चारों ओर श्री कृष्र् ददव्यिा को दे खें। परम कृपाल सवोत्तम नही
बस्कक अतद्विीय हैं।
इस सांसार में जो भी अच्छे -बरे गर् हैं जैसे – ज्ञान, सांदरिा , शशक्त, डर, साहस, हहिंसा, आदद उन सबका
तनमाणर् श्री कृष्र् ने ही तकया है। जो लोग कृष्र् पर तवश्वास रखिे हैं वे अच्छे गर्ों को प्राप्ि करिे हैं। और जो
ऐसा नहीं करिे हैं वे बरे गर्ों को प्राप्ि करिे हैं। दोनों को ही ईश्वर उनके कमों के अनसार उमचि फल अिवा
दां ड दे िे हैं।

भक्त कृष्र् को अजन्मा, अनादद, सभी लोकों के सवोच्च भगवान, उन तपिृपरुषों के तनमाणिा के रूप में जानिे
हैं जजनसे सभी जीव अविररि होिे हैं, हर चीज का मूल। बजिमत्ता, ज्ञान, सत्यवाददिा, मानशसक और इजन्रय
तनयांत्रर्, अभय, अहहिंसा, िपस्या, जन्म, मृत्य, भय, सांकट, अपकीर्ििं - अच्छे और बरे सभी गर्, कृष्र् द्वारा
बनाए गए हैं। भशक्त सेवा व्यशक्त को सभी अच्छे गर्ों को तवकशसि करने में मदद करिी है।

जो भक्त प्रेमपूवणक भशक्त सेवा में सांलग्न होिे हैं, उन्हें कृष्र् के ऐश्वयण, रहस्यमय शशक्त और सवोच्चिा पर पूर्ण
तवश्वास होिा है। ऐसे भक्तों के तवचार कृष्र् में बसिे हैं। उनका जीवन उनकी सेवा के शलए समर्पिंि है, और वे
एक दूसरे को प्रबि करके और उसके बारे में बािचीि करके महान आनांद और सांितष्ट प्राप्ि करिे हैं।

शि भशक्त सेवा में लगे भक्तों को, भले ही शशक्षा या वैददक शसिाांिों के ज्ञान की कमी हो, कृष्र् द्वारा भीिर से
मदद की जािी है, जो व्यशक्तगि रूप से अज्ञान से पैदा हुए अांधेरे को नष्ट कर दे िे हैं।
अजणन ने कृष्र् की स्स्िति को भगवान के सवोच्च व्यशक्तत्व, परम तनवास और पूर्ण सत्य, शििम, पारलौतकक
और मूल व्यशक्त, अजन्मा, महानिम, मूल और सभी के भगवान के रूप में महसूस तकया है। अब अजणन और
जानना चाहिा है। भगवान कृष्र् अमधक बिािे हैं, और तफर तनष्कषण तनकालिे हैं: "सभी ऐश्वयणपूर्ण, सांदर और
गौरवशाली रचनाएूँ मेरे वैभव की एक चचिंगारी से तनकलिी हैं।"

यस्त्मान्नोविजते लोको लोकान्नोविजते च य: ।


हषाणमषणभयोिे गैमुणिो य: स च मे वप्रय:॥ (द्वादश अध्याय, श्लोक 15)
जजससे तकसी को कष्ट नहीं पहुूँचिा ििा जो अन्य तकसी के द्वारा तवचशलि नहीं होिा, जो सख-दख में, भय
ििा मचन्िा में समभाव रहिा है, वह मझे अत्यन्ि तप्रय है।

II वासुदेव सववम ् II

PANKAJ. PATEL
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II ॐ II

विश्वरूपदशणन योग गीता का ग्यारहिां अर्धयाय है जजसमें 55 श्लोक है।

सारांश : सािणभौम रूप - सत्य को दे खने के शलए आत्मसमपणर् करें। यह सांसार भी ईश्वर का
स्वरूप है, मचन्िाएां ममटाने का प्रभमचन्िन ही श्रेष्ठ और एक मात्र उपाय है।
इस अध्याय में श्री कृष्र् अजणन को अपने तवराट रूप के दशणन करवािे हैं। अजणन दे खिा है तक उनका स्वरुप
िीनों लोकों में फैला हुआ है। समस्ि ब्रह्माण्ड में उनकी ही छतव है।उनके चार हाि हैं। और असांख्य शसर हैं।
कछ शसर बेहद डरावने हैं और कछ बेहद सौम्य। कछ मखों से आग, जल आदद तनकल रहे हैं। उनके एक िरफ
से जीव -जांि जन्म लेकर पृथ्वी की िरफ आ रहे हैं। और दूसरी िरफ वे मौि के गाल में समा रहे हैं। जन्म और
मृत्य सब श्री कृष्र् के द्वारा ही हैं। यह सब दे खकर अजणन तवस्स्मि हो जािा है और श्रदा – पूवणक प्रभ के चरर्ों
में नमन करिा है।

तनदोष लोगों को ढोंतगयों से बचाने के शलए, अजणन ने कृष्र् से अपने सावणभौममक रूप का प्रदशणन करके अपनी
ददव्यिा को सातबि करने के शलए कहा - एक ऐसा रूप जो कोई भी जो भगवान होने का दावा करिा है उसे
ददखाने के शलए िैयार रहना चातहए। कृष्र् अजणन को ददव्य दृतष्ट प्रदान करिे हैं जजसके द्वारा चमकदार,
चमकदार, असीममि सावणभौममक रूप को दे खने के शलए, जो एक स्िान पर प्रकट करिा है, वह सब कछ जो
कभी िा या अब है या होगा।

अजणन हाि जोडकर प्रर्ाम करिा है और भगवान की स्िति करिा है। िब कृष्र् ने खलासा तकया तक पाांचों
पाांडवों को छोडकर, यि के मैदान में इकट्ठे हुए सभी सैतनकों को मार ददया जाएगा। इसशलए कृष्र् अजणन को
अपने साधन के रूप में लडने के शलए प्रोत्सातहि करिे हैं और उसे जीि और एक फलिे-फूलिे राज्य की
गारांटी दे िे हैं।

अजणन ने कृष्र् से अपना भयानक रूप वापस लेने और अपना मूल रूप ददखाने का अनरोध तकया। िब
भगवान अपने चिभणज रूप और अांि में अपने मूल तद्वभज रूप को प्रदर्शिंि करिे हैं। भगवान के सांदर
मानवीय रूप को दे खकर अजणन शाांि हो जािा है। जो शि भशक्त सेवा में रि है, वह ऐसा रूप दे ख सकिा है

वनराकार, साकार और अितार ये हैं मनुषय की पभजा, उपासना और ध्याि के तीन भगिान ,
वनगु ण र् और सगु र् भक्ति में अं त र

वनराकार ईश्वर
हम लोग सददयों से यह बाि कहिे और सनिे आ रहे तक परमेश्वर तनराकार है प्रकाश स्वरूप हैं,
तनराकार का मिलब जो सृतष्ट के कर्-कर् में व्यापि हैं, शसि परुष सवणदा सवणव्यापक, सवाणन्ियाणमी
न्यायकारी परमात्मा को सवणत्र जानिा और मानिा है वह परुष सवणदा परमेश्वर को सबके बरे-भले कमों
का रष्टा जानकर एक क्षर्मात्र भी परमात्मा से अपने को अलग न मानिे हुए ककमण करना िो बडी दूर
का बाि रही वह मन में भी कचेष्टा नहीं कर सकिा । क्योंतक वह जानिा है जो मैं मन, वचन, कमण से
भी बरा काम करूांगा िो इस अन्ियाणमी तनराकार ब्रह्म के न्याय से तबना दण्ड पाए कदातप नही बचूांगा।
इसशलए ईश्वर को तनराकार रूप में भजने वाले उपासक साधक कर् कर् में तवराजमान मानिे हुए
शि, पतवत्र जीवन जीिे हुए सबकों श्रेष्ठ मागण पर चलने की प्रेरर्ा दे िे रहिे हैं। भगवान एक अनांि
अगाध समर की भाूँिी है, जजस साधक ने जजिनी डबकी लगाई उसने परमात्मा का उिना ही बखान
तकया।

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II ॐ II

श्रीराम चररत्र मानस में भी ऐसा उकलेख आिा है तक राम तनराकार हैं या राजा दशरि के पत्र (साकार)
जजसका तनराकरर् स्वयां भगवान शांकर जी ने बालकाण्ड में तकया हैं।

जेही इयम गािपहिं बेद बुध जावह धरपहिं मुवन र्धयान ।


सोई दसरथ सुत भगत वहत कोसलपवत बगिान ।।

साकार ईश्वर
कहा जािा हैं तक इस अखखल तवश्व ब्रह्माांड व जीव मात्र को सांचाशलि करने वाली सूक्ष्म शक्ति हैं जो
ददखाई िो नहीं दे िी पर उसके होने का अनभव बराबर होिा रहिा हैं। लेतकन परमात्मा का साकार रूप
दे खना हो िो यह तवश्व ही परमेश्वर माना जा सकिा है। साकार रूप में ईश्वर के दशणन करना बडा ही
सहज और सरल हैं, साकार अिाणि प्रार्ी मात्र और कहा जािा है तक प्रार्ी मात्र में भी ईश्वर बालक,
दःखी जन में ईश्वर का वास होिा हैं इसशलए साकार ब्रह्म के उपासक पीमडि मानविा की सेवा को ही
पमाणत्मा की पूजा, जप, िप ध्यान आदद मानिे हैं। भगवि गीिा में योगेश्वर श्रीकृष्र् ने सािवें अध्याय से
ग्यारहवें अध्याय िक िो तवशेष रूप से सगर् भगवान की उपासना का महत्त्व ददखलाया है। ग्याहरवें
अध्याय के अांि में सगर्-साकार भगवान की अनन्य भशक्त का फल भगवत्प्राप्प्ि बिलाकर
‘मत्कमणकृि्’ से आरम्भ होने वाले इस अांतिम श्लोक में सगर्-साकार-स्वरूप भगवान के भक्त की
तवशेष-रूप से बडाई की। समग्र ब्रह्म का दशणन न सम्भव है न आवश्यक न उपयोगी। ईश्वर दशणन मानव-
प्रार्ी की-अन्य प्रार्धाररयों की सत्प्रवृशत्तयों के रूप में करना चातहए। उस ददव्य प्रेरर्ा से सम्पन्न
प्रकाश को ही परमेश्वर का साकार स्वरूप कह सकिे हैं। वेदमांत्रः गायत्री मांत्रः- में उसी सतविा दे विा
को वरेण्य-वन्दनीय कहा गया है। ॐ भूभणवः स्वः ित्सतविवणरण्े यां भगो दे वस्य धीमतह मधयो यो नः
प्रचोदयाि्।

अितार ईश्वर
इस सृतष्ट में जब धमण की हातन हातन होिी है, पापाचार, अधमण, अनाचार जैसे दष्टों का बोलबाला बढ़िा
है एवां साध सन्िों, ऋतषयों , सज्जनों के उिार शलए उन पर हो रहे अत्याचारों को खत्म करने के शलए
िब-िब ईश्वर धमण की स्िापना करने और धरिी से दष्टों का सांहार करने के शलए चाहे श्रीराम हो,
श्रीकृष्र् हो, श्री वानम, नरलसिंह, वराह या कश्यप अविार हो के रूप में अविार लेिे हैं, इस धरा धाम
को पातपयों से मक्त कर धमण की स्िापना करिे हैं।
राम चररत्र मानस में िलसीदास शलखिे हैं तक-
जब-जब होई धरम के हातन....!
बढहहिं अधम असर अममभानी...!!
िब-िब प्रभ धर तवतवध शरीरा...!
हरहहिं कृपातनमध सज्जन पीरा......!!
और इसी अविार परांपरा के बारे स्वयां गीिाकार योगेश्वर ने गीिा में कहा तक-
पररत्रार्ाय साधूनाां तवनाशाय च दष्कृिाम् ।
धमणसांस्िापनािाणय सम्भवामम यगे यगे ॥
भावािण : साध परुषों का उिार करने के शलए, पाप कमण करने वालों का तवनाश करने के शलए और धमण
की अच्छी िरह से स्िापना करने के शलए मैं यग-यग में प्रकट हुआ करिा हूँ।
इससे स्पष्ट होिा है तक ईश्वर धरिी पूत्र बनकर हर यग में लेिे रहे हैं और कहा जािा है तक इस कलयग
में भी अपने सज्जन भक्तों का उिार करने के शलए लेंगे।

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II ॐ II

वनगु ण र् और सगु र् भक्ति में अं त र :


निगगथण भत्ति िगगण भत्ति
वनगुशण भक्ति में ईश्वर के वनगुशण रूप की सगुण भक्ति में ईश्वर के सगुण रूप की
1.
आराधना की जाती है। उपासना की जाती है।
2. वनगुशण में ईश्वर की रूप, रंग, गुण, जावत नहींसगुण भक्ति में ईश्वर की रूप, गुण, जावत
होती है। होती है।
3. वनगुशण भक्ति में गुरु को ज्ञान के नेत्रों को िोलने
सगुण भक्ति में गुरू की मवहमा को अनंत
िाला बताया है। बताया है।
सगुण भक्ति में मूर्ति
वनगुशण भक्ति में
4. पूजा, वनत्यध्मान, संकीतशन
तीथशमाला, मंददर, मस्स्ज़द, रोजा, नमाज, वतलक
वतलक, तीथशयात्रा आदद को आिश्यक
जपमाला आदद का विरोध वकया गया है।
बताया है।
सगुण भक्ति में ईश्वर के अलग-अलग रूपों
5. वनगुशण भक्ति में ईश्वर में को वनराकार मानकर
को बताकर अनेकता ि अितारों का िणशन
मानक एक बताया है।
हुआ है।

कबीर, िृद
ं , रहीम आदद । तुलसी, सूर, मीरा ,रसिान आदद ।
उदाहरण

क्लेशोऽमधकिरस्िेषामव्यक्तासक्तचेिसाम्।
अव्यक्ता तह गतिदण ःखां दे हवजद्भरवाप्यिे।।
अव्यक्तमें आसक्त मचत्तवाले-- इस तवशेषर्से यहाूँ उन साधकोंकी बाि कही गयी है, जो तनगणर्-उपासनाको
श्रेष्ठ िो मानिे हैं, पर जजनका मचत्त तनगणर्ित्त्वमें आतवष्ट नहीं हुआ है। ित्त्वमें आतवष्ट होनेके शलये साधकमें
िीन बािोंकी आवश्यकिा होिी है - रुमच, तवश्वास और योग्यिा। शास्त्रों और गरुजनोंके द्वारा तनगणर्-ित्त्वकी
मतहमा सननेसे जजनकी (तनराकारमें आसक्त मचत्तवाला होने और तनगणर्-उपासनाको श्रेष्ठ माननेके कारर्)
उसमें कछ रुमच िौ पैदा हो जािी है और वे तवश्वासपूवणक साधन आरम्भ भी कर दे िे हैं; परन्ि वैराग्यकी कमी
और दे हाभभमानके कारर् जजनका मचत्त ित्त्वमें प्रतवष्ट नहीं होिा-- ऐसे साधकोंके शलये
यहाूँ 'अव्यिासिचेतसाम्' पदका प्रयोग हुआ है।
भगवान्ने छठे अध्यायके सत्ताईसवें-अट्ठाईसवें श्लोकोंमें बिाया है तक 'ब्रह्मभूि' अिाणि् ब्रह्ममें अभभन्नभावसे
स्स्िि साधकको सखपूवक ण ब्रह्मकी प्राप्प्ि होिी है। परन्ि यहाूँ इस श्लोकमें 'क्लेशुः अयधकतरुः' पदोंसे यह
स्पष्ट तकया है तक इन साधकोंका मचत्त ब्रह्मभूि साधकोंकी िरह तनगणर्-ित्त्वमें सवणिा िकलीन नहीं हो पाया है।
अिः उन्हें अव्यक्तमें 'आतवष्ट' मचत्तवाला न कहकर आसक्त मचत्तवाला कहा गया है। िात्पयण यह है तक इन
साधकोंकी आसशक्त िो दे हमें होिी है पर अव्यक्तकी मतहमा सनकर वे तनगणर्ोपासनाको ही श्रेष्ठ मानकर उसमें
आसक्त हो जािे हैं; जबतक आसशक्त दे हमें ही हुआ करिी है, अव्यक्तमें नहीं।
िेरहवें अध्यायके पाूँचवें श्लोकमें 'अव्यिम्' पद प्रकृतिके अिणमें आया है ििा और भी कई जगह वह
प्रकतिके शलये ही प्रयक्त हुआ है; परन्ि यहाूँ 'अव्यिासिचेतसाम्' पदमें 'अव्यि' का अिण प्रकृति नहीं,
प्रत्यि तनगर्ण -तनराकार ब्रह्म है। कारर् यह है तक इसी अध्यायके पहले श्लोकमें अजणनने 'त्िाम्' पदसे सगर्-
साकार स्वरूपके और 'अव्यिम्' पदसे तनगणर्-तनराकार स्वरूपके तवषयमें ही प्रश्न तकया है। उपासनाका
तवषय भी परमात्मा ही है, न तक प्रकृति; क्योंतक प्रकृति और प्रकृतिका कायण िो त्याज्य है। इसशलये उसी प्रश्नके

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II ॐ II

उत्तरमें भगवान्ने 'अव्यक्त' पदका (व्यक्तरूपके तवपरीि) तनगणर्-तनराकार स्वरूपके अिणमें ही प्रयोग तकया है।
अिः यहाूँ प्रकृतिका प्रसङ् ग न होनेके कारर् 'अव्यक्त' पदका अिण प्रकृति नहीं शलया जा सकिा।
नवें अध्यायके चौिे श्लोकमें 'अव्यिमभर्तिंना' पद सगर्-तनराकार स्वरूपके शलये आया है। ऐसी दशामें यह
प्रश्न हो सकिा है तक यहाूँ भी 'अव्यिासिचेतसाम्' पदका अिण 'सगर्-तनराकार' में आसक्त मचत्तवाले
परुष ही क्यों न ले शलया जाय? परन्ि ऐसा अिण भी नहीं शलया जा सकिा; क्योंतक इसी अध्यायके पहले
श्लोकमें अजणनके प्रश्नमें 'त्िाम्' पद सगर्-साकारके शलये और 'अव्यिम्' पदके साि 'अक्षरम्' पद तनगणर्-
तनराकारके शलये आया है। ब्रह्म क्या है? -- अजन ण के इस प्रश्नके उत्तरमें आठवें अध्यायके िीसरे श्लोकमें
भगवान् बिा चके हैं तक परम् अक्षर ब्रह्म है अिाणि् वहाूँ भी 'अक्षरम्'पद तनगणर्-तनराकारके शलये ही आया है।
इसशलये अजणनने 'अव्यिम् अक्षरम्' पदोंसे जजस तनगणर्-ब्रह्मके तवषयमें प्रश्न तकया िा, उसीके उत्तरमें यहाूँ
('अक्षर' तवशेषर् होनेसे) अव्यक्त पदसे तनगणर्-तनराकार ब्रह्म ही लेना चातहये, सगर्-तनराकार नहीं।

'क्लेशोऽयधकतरुः' पदका भाव यह है तक जजन साधकोंका मचत्त तनगणर्-ित्त्वमें िकलीन नहीं होिा, ऐसे
तनगणर्-उपासकोंको दे हाभभमानके कारर् अपनी साधनामें तवशेष कष्ट अिाणि् कदठनाई होिी है । गौर्रूपसे
इस पदका भाव यह है तक साधनाकी प्रारस्म्भक अवस्िासे लेकर अप्न्िम अवस्िािकके सभी तनगणर्-
उपासकोंको सगर्-उपासकोंसे अमधक कदठनाई होिी है।'विशेष बात अब सगर्उपासनाकी सगमिाओं और
तनगणर्उपासनाकी कदठनिाओंका तववेचन तकया जािा है –

'सगुर्उपासनाकी सुगमताएूँ'
✓ सगर्उपासनामें उपास्यित्त्वके सगर्साकार होनेके कारर् साधकके मनइजन्रयोंके शलये भगवान्के
स्वरूप? नाम? लीला? किा आददका आधार रहिा है। भगवान्के परायर् होनेसे उसके मनइजन्रयाूँ
भगवान्के स्वरूप एवां लीलाओंके मचन्िन? किाश्रवर्? भगवत्सेवा और पूजनमें अपेक्षाकृि सरलिासे
लग जािे हैं (गीिा 8। 14)। इसशलये उसके द्वारा साांसाररक तवषयमचन्िनकी सम्भावना कम रहिी है।
✓ साांसाररक आसशक्त ही साधनमें क्लेश दे िी है। परन्ि सगर्ोपासक इसको दूर करनेके शलये भगवान्के ही
आभश्रि रहिा है। वह अपनेमें भगवान्का ही बल मानिा है। तबकलीका बच्चा जैसे माूँपर तनभणर रहिा है?
ऐसे ही यह साधक भी भगवान्पर तनभणर रहिा है। भगवान् ही उसकी सूँभाल करिे हैं (गीिा 9। 22)।
सुनु मुवन तोवह कहउूँ सहरोसा।
भजपहिं जे मोवह तजज सकल भरोसा।।
करउूँ सदा वतन कै रखिारी।
जजयम बालक राखइ महतारी।।(मानस 3।) अिः उसकी साांसाररक आसशक्त सगमिासे ममट जािी है।
✓ ऐसे उपासकोंके शलये गीिामें भगवान्ने नयचरात् आदद पदोंसे शीघ्र ही अपनी प्राप्प्ि बिायी है (गीिा
12। 7)।
✓ सगर्-उपासकोंके अज्ञानरूप अन्धकारको भगवान् ही ममटा दे िे हैं (गीिा 10। 11)।
✓ उनका उिार भगवान् करिे हैं (गीिा 12। 7)।
✓ ऐसे उपासकोंमें यदद कोई सूक्ष्म दोष रह जािा है, िो (भगवान्पर तनभणर होनेसे) सवणज्ञ भगवान् कृपा
करके उसको दूर कर दे िे हैं (गीिा 18। 58? 66)।
✓ ऐसे उपासकोंकी उपासना भगवान्की ही उपासना है। भगवान् सदा-सवणदा पूर्ण हैं ही। अिः भगवान्की
पूर्णिामें तकस्ञ्चन्मात्र भी सांदेह न रहनेके कारर् उनमें सगमिासे श्रिा हो जािी है। श्रिा होनेसे वे
तनत्य-तनरन्िर भगवत्परायर् हो जािे हैं। अिः भगवान् ही उन उपासकोंको बजियोग प्रदान करिे हैं,
जजससे उन्हें भगवत्प्राप्प्ि हो जािी है (गीिा 10। 10)।

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II ॐ II

✓ ऐसे उपासक भगवान्को परम कृपाल मानिे हैं। अिः उनकी कृपाके आश्रयसे वे सब कदठनाइयोंको
पार कर जािे हैं। यही कारर् है तक उनका साधन सगम हो जािा है और भगवत्कृपाके बलसे वे शीघ्र
ही भगवत्प्राप्प्ि कर लेिे हैं (गीिा 18। 56 58)।
✓ मनष्यमें कमण करनेका अभ्यास िो रहिा ही है (गीिा 3। 5), इसशलये भक्तको अपने कमण भगवान्के
प्रति करनेमें केवल भाव ही बदलना पडिा है कमण िो वे ही रहिे हैं। अिः भगवान्के शलये कमण करनेसे
भक्त कमणबन्धनसे सगमिापूवणक मक्त हो जािा है (गीिा 18। 46)।
✓ हृदयमें पदािोंका आदर रहिे हुए भी यदद वे प्राभर्योंकी सेवामें लग जािे हैं िो उन्हें पदािोंका त्याग
करनेमें कदठनाई नहीं होिी। सत्पात्रोंके शलये पदािोंके त्यागमें िो और भी सगमिा है। तफर भगवान्के
शलये िो पदािोंका त्याग बहुि ही सगमिासे हो सकिा है।
✓ 11 इस साधनमें तववेक और वैराग्यकी उिनी आवश्यकिा नहीं है, जजिनी प्रेम और तवश्वासकी है।
जैसे, कौरवोंके प्रति द्वे षवृशत्त रहिे हुए भी रौपदीके पकारनेमात्रसे भगवान् प्रकट हो जािे िे क्योंतक
वह भगवान्को अपना मानिी िी। भगवान् िो अपने साि भक्तके प्रेम और तवश्वासको ही दे खिे हैं,
उसके दोषोंको नहीं। भगवान्के साि अपनापनका सम्बन्ध जोो़डना उिना कदठन नहीं (क्योंतक
भगवान्की ओरसे अपनापन स्विःशसि है), जजिना तक पात्र बनना कदठन है।

'वनगुणर्उपासनाकी कद्रठनताएूँ'
✓ तनगणर्उपासनामें उपास्यित्त्वके तनगणर्तनराकार होनेके कारर् साधकके मनइजन्रयोंके शलये कोई
आधार नहीं रहिा। आधार न होने ििा वैराग्यकी कमीके कारर् इजन्रयोंके द्वारा तवषयमचन्िनकी
अमधक सम्भावना रहिी है।
✓ दे हमें जजिनी अमधक आसशक्त होिी है, साधनमें उिना ही अमधक क्लेश मालूम दे िा है।
तनगणर्ोपासक उसे तववेकके द्वारा हटानेकी चेष्टा करिा है। तववेकका आश्रय लेकर साधन करिे हुए
वह अपने ही साधनबलको महत्त्व दे िा है। बूँदरीका छोटा बच्चा जैसे (अपने बलपर तनभणर होनेसे)
अपनी माूँको पकडे रहिा है और अपनी पकडसे ही अपनी रक्षा मानिा है? ऐसे ही यह साधक
अपने साधनके बलपर अपनी उन्नति मानिा है (गीिा 18। 51 -- 53)। इसीशलये
श्रीरामचररिमानसमें भगवान्ने इसको अपने समझदार पत्रकी उपमा दी है --
मोरें प्रौढ़ तनय सम ग्यानी।
'बालक सुत सम दास अमानी।।' (3। 43। 4)
✓ ज्ञानयोतगयोंके द्वारा लक्ष्यप्राप्प्िके प्रसङ् गमें चौिे अध्यायके उनिालीसवें श्लोकमें 'अयचरेर्' पद
ित्त्वज्ञानके अनन्िर शाप्न्िकी प्राप्प्िके शलये आया है, न तक ित्त्वज्ञानकी प्राप्प्िके शलये।
✓ तनगणर्-उपासक ित्त्वज्ञानकी प्राप्प्ि स्वयां करिे हैं (गीिा 13। 34)।
✓ ये अपना उिार (तनगणर्-ित्त्वकी प्राप्प्ि) स्वयां करिे हैं (गीिा 5। 24)।
✓ ऐसे उपासकोंमें यदद कोई कमी रह जािी है, िो उस कमीका अनभव उनको तवलम्बसे होिा है और
कमीको ठीक-ठीक पहचाननेमें भी कदठनाई होिी है। हाूँ, कमीको ठीक-ठीक पहचान लेनेपर ये भी
उसे दूर कर सकिे हैं।
✓ चौिे अध्यायके चौंिीसवें और िेरहवें अध्यायके सािवें श्लोकमें भगवान्ने ज्ञानयोतगयोंको ज्ञान-प्राप्प्िके
शलये गरुकी उपासनाकी आज्ञा दी है। अिः तनग-ण उपासनामें गरुकी आवश्यकिा भी है; हकिंि गरुकी
पूर्णिाका तनभश्चि पिा न होनेपर अिवा गरुके पूर्ण न होनेपर स्स्िर श्रिा होनेमें कदठनाई होिी है ििा
साधनकी सफलिामें भी तवलम्बकी सम्भावना रहिी है।

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II ॐ II

✓ ऐसे उपासक उपास्य-ित्त्वको तनगणर्, तनराकार और उदासीन मानिे हैं। अिः उन्हें भगवान्की कृपाका
वैसा अनभव नहीं होिा। वे ित्त्वप्राप्प्िमें आनेवाले तवघ्नोंको अपनी साधनाके बलपर ही दूर करनेमें
कदठनाईका अनभव करिे हैं। फलस्वरूप ित्त्वकी प्राप्प्िमें भी उन्हें तवलम्ब हो सकिा है।
✓ ज्ञानयोगी अपनी तक्रयाआँको शसिान्ििः प्रकृतिके अपणर् करिा है; तकन्ि पूर्ण तववेक जाग्रि् होनेपर
ही उसकी तक्रयाएूँ प्रकृतिके अपणर् हो सकिी हैं। यदद तववेककी तकस्ञ्चन्मात्र भी कमी रही िो तक्रयाएूँ
प्रकृतिके अपणर् नहीं होंगी और साधक किृणत्वाभभमान रहनेसे कमणबन्धनमें बूँध जायगा।
✓ जबिक साधकके मचत्तमें पदािोंका तकस्ञ्चन्मात्र भी आदर ििा अपने कहलानेवाले शरीर और नाममें
अहांिाममिा है, िबिक उसके शलये पदािोंको मायामय समझकर उनका त्याग करना कदठन होिा है।
✓ यह साधक पात्र बननेपर ही ित्त्वको प्राप्ि कर सकेगा। पात्र बननेके शलये तववेक और िीव्र वैराग्यकी
आवश्यकिा होगी, जजनको आसशक्त रहिे हुए प्राप्ि करना कदठन है।

'अव्यिा वह गवतदण ुःखं दे हिजद्भरिाप्सयते' - 'दे ही' 'दे हभृि्' आदद पदोंका अिण साधारर्िया 'दे हधारी परुष'
शलया जािा है। प्रसङ् गानसार इनका अिण 'जीव' और 'आत्मा 'भी शलया जािा है। यहाूँ 'दे हिजद्भुः' पदका
अिण 'दे हाभभमानी मनष्य' लेना चातहये; क्योंतक तनगणर्उपासकोंके शलये इसी श्लोकके
पूवाणधणमें 'अव्यिासिचेतसाम्' पद आया है, जजससे यह प्रिीि होिा है तक वे तनगणर्-उपासनाको श्रेष्ठ िो
मानिे हैं; परन्ि उनका मचत्त दे हाभभमानके कारर् तनगणर्-ित्त्वमें आतवष्ट नहीं, हुआ है। दे हाभभमानके कारर् ही
उन्हें साधनमें अमधक क्लेश होिा है।तनगणर्-उपासनामें दे हाभभमान ही मख्य बाधा है -- 'दे हाभभमावनवन सिे
दोषाुः प्रादभणिन्न्त' -- इस बाधाकी ओर ध्यान ददलानेके शलये ही भगवान्ने 'दे हिजद्भुः' पद ददया है। इस
दे हाभभमानको दूर करनेके शलये ही (अजणनके पूछे तबना ही) भगवान्ने िेरहवाूँ और चौदहवाूँ अध्याय कहा है।
उनमें भी िेरहवें अध्यायका प्रिम श्लोक दे हाभभमान ममटानेके शलये ही कहा गया है।ब्रह्मके तनगणर्तनराकार
स्वरूपकी प्राप्प्िको यहाूँ 'अव्यिाुः गवतुः' कहा गया है। साधारर् मनष्योंकी स्स्िति व्यक्त अिाणि् दे हमें होिी
है। इसशलये उन्हें अव्यक्तमें स्स्िि होनेमें कदठनाईका अनभव होिा है। यदद साधक अपनेको दे हवाला न माने,
िो उसकी अव्यक्तमें सगमिा और शीघ्रिापूवणक स्स्िति हो सकिी है।

त्िमेि माता च वपता त्िमेि त्िमेि बन्धुश्च सखा त्िमेि ।


त्िमेि विद्या द्रविर्म् त्िमेि त्िमेि सिणम् मम दे ि दे ि ॥

हे शशक्तशाली भगवान! िम मेरे मािा और तपिा हो, िम मेरे भाई और ममत्र हो। आप मेरी शशक्षा और धन हैं,
आप मेरे सब कछ हैं और मैं आप में मशक्त चाहिा हां।

II ॐ नमो भगवते वासुदेवाय II

मैं भगवान को नमन करिा हां जो सभी के ददलों में रहिे हैं"

II वासुदेव सववम ् II

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II ॐ II

भक्ति योग गीता का बारहिां अर्धयाय है जजसमें 20 श्लोक हैं।

सारांश : भक्ति सेवा -सवोच्च भगवान में अपने ददमाग और ददल को अवशोतषि करें। अनन्यिा और
तबना पूर्ण समपर्ण भशक्त नही हो सकिी और तबना भशक्त भगवान नही ममल सकिे।
श्री कृष्र् कहिे हैं तक सबसे बडा योग भशक्त योग ही है। यदद कोई बडे -बडे वेद -परार् नहीं पढ़ सकिा, यज्ञ -
हवन- िप आदद नहीं कर सकिा िो उसे भशक्त योग का सहारा लेना चातहए। मनष्य को ईश्वर के प्रेम में लीन
होकर उसकी भशक्त करनी चातहए। उसके भजन गाने चातहये। उसका मनन -चचिंिन -और गर्गान करना
चातहये। स्वयां को पूरी िरह से श्री कृष्र् के चरर्ों में समतप्रि कर दे ना चातहए। ऐसे भक्त श्री कृष्र् को परम -
तप्रय होिे हैं। और वे खद उनके भक्त हो जािे हैं।

कौन अमधक पूर्ण है," अजणन पूछिा है, "भगवान के साकार रूप की पूजा और सेवा करने वाला भक्त या
तनराकार ब्रह्म का ध्यान करने वाला अध्यात्मवादी?"

कृष्र् उत्तर दे िे हैं, "जो भक्त अपने मन को मेरे साकार रूप में स्स्िर करिा है, वह सवाणमधक शसि है।"

क्योंतक भशक्त सेवा मन और इांदरयों को तनयोजजि करिी है, यह एक दे हधारी आत्मा के शलए सवोच्च गांिव्य
िक पहुूँचने का आसान, स्वाभातवक िरीका है। अवैयशक्तक मागण अप्राकृतिक और कदठनाइयों से भरा है। कृष्र्
इसकी अनशांसा नहीं करिे हैं।

भशक्त सेवा की सवोच्च अवस्िा में, व्यशक्त की चेिना पूरी िरह से कृष्र् पर स्स्िर होिी है। एक कदम नीचे
तनयामक भशक्त सेवा का अभ्यास है। उससे भी नीचे कमणयोग है, कमण के फल का त्याग। सवोच्च प्राप्ि करने के
शलए अप्रत्यक्ष प्रतक्रयाओं में ध्यान और ज्ञान की खेिी शाममल है।

एक भक्त जो शि, तवशेषज्ञ, सतहष्र्, आत्मसांयमी, साम्य, ईष्याणरतहि, ममथ्या अहांकार से मक्त, सभी जीवों के
प्रति ममत्रवि, और ममत्रों और शत्रओं के समान है, वह भगवान को तप्रय है।

मीरा और सूरदास सच्चे भक्तों का उदाहरर् हैं। ऐसे भक्तों को प्रभ मोक्ष प्रदान करिे हैं।

भक्तियोग – जाने भक्ति योग क्या है, वकतने प्रकार की होती है / संभक्षप्सत सार

भशक्त सांस्कृि के मूल शब्द “भज” से तनकला है – जजसका अिण है प्रेममयी सेवा और सांस्कृि में योग का अिण
है “जोडना”।
भशक्त योग का अिण है परमेश्वर से प्रेममयी सेवा के द्वारा जडना। प्रेम में स्वािण नहीं होिा है । प्रेम में लोग
बशलदान दे िे हैं । प्रेम में लोग त्याग करिे हैं । प्रेम में उपहार उस वस्ि को दे िे हैं जो अनमोल हो । अिाणि वह
प्रेम जो अनमोल हो, जजसमें स्वािण नहीं हो उस तनःस्वािण सेवा द्वारा परमेश्वर से जडने का नाम भशक्त योग है ।
पराभशक्त ही भशक्तयोग के अन्िगणि आिी है जजसमें मशक्त को छोडकर अन्य कोई अभभलाषा नहीं होिी। गीिा
के अनसार पराभशक्त ित्व ज्ञान की वह पराकाष्ठा है जजसको प्राप्ि होकर और कछ भी जानना बाांकी नहीं रह
जािा ।
भशक्तयोग में ईश्वर के तकसी रूप की आराधना भी सन्म्मशलि है। ईश्वर सब जगह है। ईश्वर हमारे भीिर और
हमारे चारों ओर तनवास करिा है। यह ऐसा है जैसे हम ईश्वर से एक उत्तम धागे से जडे हों – प्रेम का धागा।
ईश्वर तवश्व प्रेम है। प्रेम और दै वी अनकम्पा हमारे चारों ओर है और हमारे माध्यम से बहिी है, तकन्ि हम इसके

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II ॐ II

प्रति सचेि नहीं हैं। जजस क्षर् यह चेिनिा, यह दै वीय प्रेम अनभव कर शलया जािा है उसी क्षर् से व्यशक्त
तकसी अन्य वस्ि की चाहना ही नहीं करिा। िब हम ईश्वर प्रेम का सच्चा अिण समझ जािे हैं।
भशक्तहीन व्यशक्त एक जलहीन मछली के समान, तबना पांख के पक्षी, तबना चन्रमा और िारों के रातत्र के समान
है। सभी को प्रेम चातहये। इसके माध्यम से हम वैसे ही सरभक्षि और सखी अनभव करिे हैं जैसे एक बच्चा
अपनी माूँ की बाहों में या एक यात्री एक लम्बी कष्टदायी यात्रा की समाप्प्ि पर अनभव करिा है।
भक्ति के प्रकार
✓ अपरा भशक्त– अहम् भावपूर्ण प्रेम
✓ परा भशक्त– तवश्व प्रेम
भक्त उसके साि जो भी घदटि होिा है, उसे वह ईश्वर के उपहार के रूप में स्वीकार करिा है। कोई इच्छा या
अपेक्षा नहीं होिी, ईश्वर की इच्छा के समक्ष केवल पूर्ण समपणर् ही होिा है। यह भक्त जीवनभर स्स्िति को
प्रारब्ध द्वारा उसके समक्ष प्रस्िि वस्ि के रूप में ही स्वीकार करिा है। इसमें कोई ना नकर नहीं, उसकी एक
मेव प्रािणना है ‘ईश्वर िेरी इच्छा’।
सामान्य जीवन में भी आप जो कछ कायण करिे हैं वह अगर इस भावना से तकए जाएूँ तक वे सब परमेश्वर की
प्रसन्निा के शलए हैं एवां उनके फलस्वरूप जो भी प्राप्ि होगा वो उनको ही अर्पिंि करें िो यह भी भशक्त योग ही
है ।
यदद कोई व्यशक्त मृत्य से डरिा है िो इसका अिण यह हुआ तक उसे अपने जीवन से प्रेम है । यदद कोई व्यशक्त
अमधक स्वािी है िो इसका िात्पयण यह है तक उसे स्वािण से प्रेम है । तकसी व्यशक्त को अपनी पत्नी या पत्र आदद
से तवशेष प्रेम हो सकिा है । इस प्रकार के प्रेम से भय, घृर्ा अिवा शोक उत्पन्न होिा है ।
यदद यही प्रेम परमात्मा से हो जाय िो वह मशक्तदािा बन जािा है । ज्यों-ज्यों ईश्वर से लगाव बढ़िा है, नश्वर
साांसाररक वस्िओं से लगाव कम होने लगिा है । जब िक मनष्य स्वािणयक्त उद्दे श्य लेकर ईश्वर का ध्यान करिा
है िब िक वह भशक्तयोग की पररमध में नहीं आिा । पराभशक्त ही भशक्तयोग के अन्िगणि आिी है जजसमें मशक्त
को छोडकर अन्य कोई अभभलाषा नहीं होिी । भशक्तयोग शशक्षा दे िा है तक ईश्वर से, शभ से प्रेम इसशलए करना
चातहए तक ऐसा करना अच्छी बाि है, न तक स्वगण पाने के शलए अिवा सन्िति, सम्पशत्त या अन्य तकसी कामना
की पूर्ििं के शलए । वह यह शसखािा है तक प्रेम का सबसे बढ़ कर परस्कार प्रेम ही है, और स्वयां ईश्वर प्रेम
स्वरूप है ।

भशक्त योग तवष्र् परार् के अनसार


या प्रीवतरवििेकानां विषयेषिनपाययनी ।
त्िामनुस्त्मरत: सा मे हृदयान्मापसमपणतु ।
‘‘हे ईश्वर! अज्ञानी जनों की जैसी गाढ़ी प्रीति इजन्रयों के भोग के नाशवान् पदािों पर रहिी है, उसी प्रकार की
प्रीति मेरी िझमें हो और िेरा स्मरर् करिे हुए मेरे हृदय से वह कभी दूर न होवे ’’ भशक्तयोग सभी प्रकार के
सांबोधनों द्वारा ईश्वर को अपने हृदय का भशक्त-अघ्यण प्रदान करना शसखािा है- जैसे, सृतष्टकिाण, पालनकिाण,
सवणशशक्तमान्, सवणव्यापी आदद । सबसे बढ़कर वाक्याांश जो ईश्वर का वर्णन कर सकिा है, सबसे बढ़कर
ककपना जजसे मनष्य का मन ईश्वर के बारे में ग्रहर् कर सकिा है, वह यह है तक ‘ईश्वर प्रेम स्वरूप है’ । जहाूँ
कहीं प्रेम है, वह परमेश्वर ही है । जब पति पत्नी का चम्बन करिा है, िो वहाूँ उस चम्बन में वह ईश्वर है । जब
मािा बच्चे को दूध तपलािी है िो इस वात्सकय में वह ईश्वर ही है । जब दो ममत्र हाि ममलािे हैं, िब वहाूँ वह
परमात्मा ही प्रेममय ईश्वर के रूप में तवद्यमान है । मानव जाति की सहायिा करने में भी ईश्वर के प्रति प्रेम
प्रकट होिा है । यही भशक्तयोग की शशक्षा है ।
भशक्तयोग भी आत्मसांयम, अहहिंसा, ईमानदारी, तनश्छलिा आदद गर्ों की अपेक्षा भक्त से करिा है क्योंतक मचत्त
की तनमणलिा के तबना तन:स्वािण प्रेम सम्भव ही नहीं है । प्रारस्म्भक भशक्त के शलए ईश्वर के तकसी स्वरूप की

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II ॐ II

कस्कपि प्रतिमा या मूर्ििं (जैसे दगाण की मूर्ििं, शशव की मूर्ििं, राम की मूर्ििं, कृष्र् की मूर्ििं, गर्ेश की मूर्ििं आदद)
को श्रिा का आधार बनाया जािा है । साधारर् स्िर के लोगों को ही इसकी आवश्यकिा पडिी है ।

भक्ति योग कैसे करे | भक्ति सभरों में नारद मुवन (ऋवष) ने भक्तियोग के नौ तत्िों का िर्णन
वकया है:
श्रिर्ं वकतणनं विषर्ो: स्त्मरर्मं पादसेिनम् । अचणनं िन्दनं दास्त्यं सरव्यआत्मवनिेदनम् ॥
1. सत्सांग-अच्छा आध्यास्त्मक साि
2. हरर किा-ईश्वर के बारे में सनना और पढऩा
3. श्रिा-तवश्वास
4. ईश्वर भजन-ईश्वर के गर्गान करना
5. मांत्र जप-ईश्वर के नामों का स्मरर्
6. शम दम-साांसाररक वस्िओं के सांबांध में इजन्रयों पर तनयांत्रर्
7. सांिों का आदर-ईश्वर को समर्पिंि जीवन वाले व्यशक्तयों के समक्ष सम्मान प्रगट करना।
8. सांिोष-सांितष्ट
9. ईश्वर प्रभर्धान-ईश्वर की शरर्
भशक्त के तबना कोई आध्यास्त्मक मागण नहीं है। यदद तवद्यालय का एक छात्र अध्ययन के तकसी तवषय को
नापसांद करिा है, िो वह पाठ्यक्रम को मस्श्कल से पूरा कर पािा है। इसी प्रकार हमारे अभ्यास के शलए जब
प्रेम और तनष्ठा है, हमारे मागण पर चलिे रहने का दृढ़तनश्चय और हमारे उद्दे श्य के सांबांध में सदै व मान्यिा हो िभी
हम सभी समस्याओं का समाधान करने के योग्य हो सकिे हैं। हम सभी जीवधाररयों के प्रति प्रेम और ईश्वर के
प्रति तनष्ठा के तबना ईश्वर का साहचयण प्राप्ि नहीं कर सकिे।

भक्ति योग गीता के अनुसार


हम सभी में प्रेम और भशक्त है, परन्ि सप्ि अवस्िा में। और इस अवस्िा से तनकल कर परम परुषोत्तम भगवन
की सेवा में लगने का एक सरल उपाय है। यह उपाय स्वयां भगवान श्री कृष्र् द्वारा ही भगवद-गीिा में बिाया
गया है, इस सप्िावस्िा से पनः प्रेम जागृि करने की प्रतक्रया न केवल शजिकरर् ही करिी है अतपि
आत्मसांितष्ट भी प्रदान करिी है। जप या कीिणन, नृत्य और प्रसाद सेवन ये िीन तक्रयाएूँ इस प्रतक्रया के मख्य
अांग हैं ।
भगवान के शि नामों का जप या तनत्य कीिणन – “हरे कृष्र् हरे कृष्र्, कृष्र् कृष्र् हरे हरे । हरे राम हरे राम,
राम राम हरे हरे ॥”, ॐ का उच्चारर् द्वारा तकया जा सकिा है । जप – सामान्यिया जपमाला पर तनधाणररि
सांख्या में तकया जािा है, जबतक कीिणन – कछ लोगों के सांग एकसाि ममलकर वाद्य-यांत्रो को बजाकर तकया
जािा है। हररनाम जप एवां कीिणन से हम, अपने दपणर् रूपी चेिना पर जमी कई जन्मों की धूल को साफ़
कर सकिे हैं (तनयमपूवणक छः महीने साधना को चलाइये।)
नृत्य भी हमारे प्रेममयी सेवा को प्राप्ि करने एवां शजिकरर् का एक प्रमख अांग है। यह बहुि ही अनग्रतहि भाव
में भगवान के समक्ष तकया जािा है। नृत्य हमारे सम्पूर्ण शरीर को भगवान के गर्गान में लगािा है।
प्रसाद-सेवन अिाणि भोजन जो शसफण भगवान के शलए पकाया और प्रेमपूवणक अर्पिंि गया, उसे पाना। ऐसे
भोजन को “प्रसाद” कहा जािा है और यह कमण-रतहि होने के कारर् हमें जन्म-मृत्य के पनरावृत्त चक्र से
बाहर तनकालिा है।
इन सब के अतिररक्त सामान्य जीवन में भी हम कछ कायण करिे हैं । परन्ि अगर इस भावना से कायण तकये जाएूँ
तक वे सब श्री भगवान की प्रसन्निा के शलए हैं एवां उनके फलस्वरूप जो भी प्राप्ि होगा वो उनको ही अर्पिंि
करें िो ही भशक्त योग पूर्णिया सम्पूर्ण है | सांि ज्ञानेश्वर , सांि िकाराम , कबीर , एकनाि , नामदे व ,

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II ॐ II

गोराकां भार , मीराबाई , गरूनानक , नरसी मेहिा ििा अनेक सांिोने भशक्त आांदोलन के व्दारा समाज उन्निी
का कायण तकया ।

माण्डभ क्योपवनषद : उपतनषद में कहा गया है तक तवश्व में एवां भूि, भतवष्यि् और विणमान कालों में
ििा इनके परे भी जो तनत्य ित्त्व सवणत्र व्याप्ि है वह ॐ है। यह सब ब्रह्म है और यह आत्मा भी ब्रह्म
है।
माांडूक्योपतनषद अिवणवेद के ब्राह्मर् भाग से शलया गया है
शांकराचायण जी ने इस पर भाष्य शलखा है और गौड पादाचायण जी ने काररकाऐं शलखी हैं
आत्मा चिष्पाद है अिाणि् उसकी अभभव्यशक्त की चार अवस्िाएूँ हैं जाग्रि, स्वप्न, सषप्प्ि और िरीय।

✓ जाग्रि अवस्िा की आत्मा को वैश्वानर कहिे हैं, इसशलये तक इस रूप में सब नर एक योतन से दूसरी में
जािे रहिे हैं। इस अवस्िा का जीवात्मा बतहमणखी होकर "सप्िाांगों" ििा इांदरयादद 19 मखों से स्िूल
अिाणि् इांदरयग्राह्य तवषयों का रस लेिा है। अि: वह बतहष्प्रज्ञ है।
✓ दूसरी िेजस नामक स्वप्नावस्िा है जजसमें जीव अांि:प्रज्ञ होकर सप्िाांगों और 19 मखी से जाग्रि
अवस्िा की अनभूतियों का मन के स्फरर् द्वारा बजि पर पडे हुए तवभभन्न सांस्कारों का शरीर के भीिर
भोग करिा है।
✓ िीसरी अवस्िा सषप्प्ि अिाणि् प्रगाढ़ तनरा का लय हो जािा है और जीवात्मा क स्स्िति आनांदमय ज्ञान
स्वरूप हो जािी है। इस कारर् अवस्स्िति में वह सवेश्वर, सवणज्ञ और अांियाणमी एवां समस्ि प्राभर्यों की
उत्पशत्त और लय का कारर् है।
✓ परांि इन िीनों अवस्िाओं के परे आत्मा का चििण पाद अिाणि् िरीय अवस्िा ही उसक सच्चा और
अांतिम स्वरूप है जजसमें वह ने अांि: प्रज्ञ है, न बतहष्प्रज्ञ और न इन दोनों क सांघाि है, न प्रज्ञानघन है,
न प्रज्ञ और न अप्रज्ञ, वरन अदृष्ट, अव्यवहायण, अग्राह्य, अलक्षर्, अचचिंत्य, अव्यपदे श्य,
एकात्मप्रत्ययसार, शाांि, शशव और अद्वै ि है जहाूँ जगि्, जीव और ब्रह्म के भेद रूपी प्रपांच का अस्स्ित्व
नहीं है
ओंकार रूपी आत्मा का जो स्वरूप उसके चिष्पाद की दृतष्ट से इस प्रकार तनष्पन्न होिा है उसे ही ऊूँकार की
मात्राओं के तवचार से इस प्रकार व्यक्त तकया गया है तक ऊूँ की अकार मात्रा से वार्ी का आरांभ होिा है और

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II ॐ II

अकार वार्ी में व्याप्ि भी है। सषप्प्ि स्िानीय प्राज्ञ ऊऊ ऊऊऊ की मकार मात्रा है जजसमें तवश्व और िेजस के
प्राज्ञ में लय होने की िरह अकार और उकार का लय होिा है, एवां ऊूँ का उच्चारर् दहरािे समय मकार के
अकार उकार तनकलिे से प्रिीि होिे है। िात्पयण यह तक ऊूँकार जगि् की उत्पशत्त और लय का कारर् है।
वैश्वानर, िेजस और प्राज्ञ अवस्िाओं के सदृश त्रैमातत्रक ओंकार प्रपांच ििा पनजणन्म से आबि है हकिंि िरीय
की िरह अ मात्र ऊूँ अव्यवहायण आत्मा है जहाूँ जीव, जगि् और आत्मा (ब्रह्म) के भेद का प्रपांच नहीं है और
केवल अद्वै ि शशव ही शशव रह जािा है।

ओम् ईश्वर का सिणश्रेष्ठ नाम है।


जगि का प्रत्येक पदािण उस ईश्वर की रचना है। ओम् जो यह अक्षर है, यह सब उस ओम् का तवस्िार है जजसे
ब्रह्माांड कहिे हैं।

ॐ शब्द इस दतनया में तकसी ना तकसी रूप में सभी मख्य सांस्कृतियों का प्रमख भाग है|
ॐ के उच्चारर् से ही शरीर के अलग अलग भागों मे कांपन शरू हो जािी है जैसे की
‘अ’:- शरीर के तनचले तहस्से में (पेट के करीब) कांपन करिा है|
‘उ’:– शरीर के मध्य भाग में कांपन होिी है जो की (छािी के करीब) .
‘म’:- से शरीर के ऊपरी भाग में यानी (मस्स्िक) कांपन होिी है |
ॐ शब्द के उच्चारर् से कई शारीररक, मानशसक, और आस्त्मक लाभ ममलिे हैं|

भूि, विणमान और भतवष्य में सब ओंकार ही है और जो इसके अतिररक्त िीन काल से बाहर है, वह भी ओंकार
है। समय और काल में भेद है। समय सादद और सान्ि होिा है परन्ि काल, अनादद और अनांि होिा है।
समय की उत्पशत्त सभयण की उत्पक्तत्त से आरांभ होिी है।

वषण, महीने, ददन, भूि, विणमान और भतवष्य आदद ये तवभाग समय के हैं जबतक काल इससे भी पहले रहिा
है। प्रकृति का तवकृि रूप िीन काल के अांदर समझा जािा है। प्रकृति िीन कालों से परे की अवस्िा है, अि:
उसे तत्रकालािीि कहा गया है।

वह यह आत्मा अक्षर में अमधमष्ठि है और वह अक्षर है ओंकार है और वह ओंकार मात्राओं में अमधमष्ठि है।
हमारे ऋतष-मतनयों ने ध्यान और मोक्ष की गहरी अवस्िा में ब्रह्म, ब्रह्माांड और आत्मा के रहस्य को जानकर
उसे स्पष्ट िौर पर व्यक्त तकया िा। वेदों में ही सवणप्रिम ब्रह्म और ब्रह्माांड के रहस्य पर से पदाण
हटाकर ‘मोक्ष’ की धारर्ा को प्रतिपाददि कर उसके महत्व को समझाया गया िा। मोक्ष के बगैर आत्मा की
कोई गति नहीं इसीशलए ऋतषयों ने मोक्ष के मागण को ही सनािन मागण माना है।

ओम का यह मचह्न ‘ॐ’ अद्भुि है। यह परे ब्रह्माांड को प्रदर्शिंि करिी है। बहुि सारी आकाश गांगाएूँ ऐसे ही
फैली हुई है। ब्रह्म का मिलब होिा है तवस्िार, फैलाव और बढ़ना । ओंकार ध्वतन ‘ॐ’ को दतनया में जजिने
भी मांत्र है उन सबका केंर कहा गया है।

ॐ शब्द के उच्चारर् मात्र से शरीर में एक सकारात्मक उजाण आिी है | हमारे शास्त्र में ओंकार ध्वतन के 100
से भी ज्यादा मिलब समझाई गयी है |

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II ॐ II

ॐ को ओम कहा जािा है। उसमें भी बोलिे वक्त ‘ओ’ पर ज्यादा जोर होिा है। इसे प्रर्व मांत्र भी कहिे हैं।

इस मांत्र का प्रारांभ है अांि नहीं। यह ब्रह्माांड की अनाहि ध्वतन है। अनाहि अिाणि तकसी भी प्रकार की टकराहट
या दो चीजों या हािों के सांयोग के उत्पन्न ध्वतन नहीं। इसे अनहद भी कहिे हैं। सांपूर्ण ब्रह्माांड में यह अनवरि
जारी है। िपस्वी और ध्यातनयों ने जब ध्यान की गहरी अवस्िा में सना की कोई एक ऐसी ध्वतन है जो लगािार
सनाई दे िी रहिी है |शरीर के भीिर भी और बाहर भी। हर कहीं, वही ध्वतन तनरांिर जारी है और उसे सनिे
रहने से मन और आत्मा शाांिी महसूस करिी है िो उन्होंने उस ध्वतन को नाम ददया ओम।साधारर् मनष्य उस
ध्वतन को सन नहीं सकिा, लेतकन जो भी ओम का उच्चारर् करिा रहिा है उसके आसपास सकारात्मक
ऊजाण का तवकास होने लगिा है। तफर भी उस ध्वतन को सनने के शलए िो पूर्णि: मौन और ध्यान में होना
जरूरी है। जो भी उस ध्वतन को सनने लगिा है वह परमात्मा से सीधा जडने लगिा है।

परमात्मा से जडने का साधारर् िरीका है ॐ का उच्चारर् करिे रहना। ओम् (ॐ)-OM परमतपिा परमात्मा
का वेदोक्त एवां शास्त्रोक्त नाम है। समस्ि वेद-शास्त्र ओम् की ही उपासना करिे हैं।

ओम् का ज्ञान ही सवोत्कृष्ट ज्ञान है। ईश्वर के सभी स्वरूपों की उपासना के मंर ओम से ही प्रारांभ होिे हैं।
ईश्वर के इस नाम को ओंकार एवां प्रर्व आदद नामों से ही सांबोमधि तकया जािा है।

‘‘ॐ पभर्णमद: पभर्णयमदं पभर्ाणत् पभर्णमुदच्यते।


पभर्णस्त्य पभर्णमादाय पभर्ण मेिा: क्तशषयते॥’’
ओंकार स्वरूप परमात्मा पूर्ण हैं। पूर्ण से पूर्ण उत्पन्न होिा है और पूर्ण में से पूर्ण तनकल जाने पर पूर्ण ही शेष
रह जािा है। ॐ िि् सि्-ऐसे यह िीन प्रकार के सस्च्िदानांदघन ब्रह्म का नाम है। उसी से दृतष्ट के आददकाल में
ब्राह्मर् वेद ििा यज्ञादद रचे गए।

‘अक्षरं ब्रह्म परमं स्त्िभािोज्र्धयात्मुच्यते।’


परम अक्षर अिाणि ॐ ब्रह्म है, अपना स्वरूप अिाणि् जीवात्मा अध्यात्म नाम से कहा जािा है।
श्रीमद भगवद् गीिा में वर्र्िंि है तक ‘ओयमत्येकाक्षरं ब्रह्म ॐ इवत एकाक्षरं (एक अक्षर)ब्रह्म’ अिाणि एक
अक्षर शब्द ही ब्रह्म है।िीन अक्षरों अ+उ+म का यह शब्द सम्पूर्ण जगि एवां सभी के हृदय में वास करिा है।
हृदय-आकाश में बसा यह शब्द “अ” से आदद किाण ब्रह्म, “उ” से तवष्र् एवां “म” से महेश का बोध करा दे िा
है। यह उस अतवनाशी का शाश्वि स्वरूप है जजसमें सभी दे विा वास करिे हैं।
ओम् का नाद सम्पूर्ण जगि में उस समय दसों ददशाओं में व्याप्ि हुआ िा जब यगों-पूवण इस सृतष्ट का प्रारांभ
हुआ िा। उस समय इस सृतष्ट की रचना हुई िी।
‘प्रजा पवत समितणताग्रे, भभतस्त्य जातस्त्य पवतरेकासीत’
अिाणि सृतष्ट के प्रारांभ होने के समय यह एक ब्रह्मनाद िा। मनष्य शरीर पाांच ित्वों से बना है।
पृथ्वी, जल, अतग्र, वाय ििा आकाश। यही आकाश ित्व ही जीवों में शब्द के रूप में तवद्यमान है।
‘ओंकारों यस्त्य मभलम’ वेदों का मूल भी यही ओम् है।

ऋग्वेद पत्र है, सामवेद पष्प है और यजवेद इसका इस्च्छि फल है। िभी इसे प्रर्व नाम ददया गया है जजसे
बीज मांत्र माना गया है। इस ओम् के उच्चारर् में केवल पांरह सैकांड का समय लगिा है जजसका आधार 8, 4,
3 सैकेंड के अनपाि पर माना गया है। अक्षर ‘अ’ का उच्चारर् स्िान कांठ है और ‘उ’ एवां ‘म’ का उच्चारर्
स्िान ओष्ठ माना गया है। नाभभ के समान प्रार्वाय से एक ही क्रम में श्वास प्रारांभ करके ओष्ठों िक आट सैकांड

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II ॐ II

का समय और तफर मस्िक िक उ एवां म् का उच्चारर् करके 4, 3 के अनपाि का समय लगिा है और यह


प्रतक्रया केवल 15 सैकांड में समाप्ि होिी है।

ओइमकारं पबिंद संयुिं वनत्यं र्धयायन्न्त योवगन :।


कामदं मोक्षदं चैि ओंकाराय नमो नम:॥

योगी परुष ओंकार का नाद हबिंदू सतहि सदा ध्यान करिे हैं और इसका स्मरर् करने से सभी प्रकार की कामनाएां
पूर्ण होिी है। इससे मोक्ष की प्राप्प्ि होिी है। उपरोक्त मांत्र से ओंकार पूजा की जािी है। प्रर्व का मन में स्मरर्
करके भक्त भगवान के तकसी भी रूप में भगवद्मय में हो जािा है।

ॐ की ध्वतन से तवकृि शारीररक-मानशसक तवचार तनरस्ि हो जािे हैं।


भगिान श्रीकृष्ण कहते हैं-‘‘प्रर्ि: सिणिेदषु”
सम्पूर्ण वेदों में ओंकार मैं हां। ओम् की इसी मतहमा को दृतष्ट में रखिे हुए हमारे धमण ग्रांिों में इसकी अत्यामधक
उत्कृष्टिा स्वीकार की गई है। जाप-पूजा पाठ करने से पूवण ओम् का उच्चारर् जीवन में अत्यांि लाभदायक
है। सभी वेदों का तनष्कषण, िपस्स्वयों का िप एवां ज्ञातनयों का ज्ञान इस एकाक्षर स्वरूप ओंकार में समातहि
है।

वरदे ि और रेलोक्य का प्रतीक :


ॐ शब्द िीन ध्वतनयों से बना हुआ है- अ, उ, म इन िीनों ध्वतनयों का अिण उपतनषद में भी आिा है।
यह ब्रह्मा, विषर्ु और महेश का प्रिीक भी है और यह भभ: लोक, भभि: लोक और स्त्िगण लोग का प्रिीक है।

बीमारी दूर भगाएूँ :


सभी मंर का उच्चारर् जीभ, होंठ, िालू, दाूँि, कांठ और फेफडों से तनकलने वाली वाय के सन्म्मशलि प्रभाव से
सांभव होिा है। इससे तनकलने वाली ध्वतन शरीर के सभी चक्रों और हारमोन स्राव करने वाली ग्रांशियों से
टकरािी है। इन ग्रांलििंयों के स्राव को तनयांतत्रि करके बीमाररयों को दूर भगाया जा सकिा है।

उच्चारर् की वियध
प्रािः उठकर पतवत्र होकर ओंकार ध्वतन का उच्चारर् करें। ॐ का उच्चारर् पद्मासन, अधणपद्मासन, सखासन,
वज्रासन में बैठकर कर सकिे हैं।
इसका उच्चारर् 5, 7, 10, 21 बार अपने समयानसार कर सकिे हैं। ॐ जोर से बोल सकिे हैं, धीरे-धीरे बोल
सकिे हैं।
ॐ जप माला से भी कर सकिे हैं। इससे शरीर और मन को एकाग्र करने में मदद ममलेगी। ददल की धडकन
और रक्तसांचार व्यवस्स्िि होगा। इससे मानशसक बीमाररयाूँ दूर होिी हैं। काम करने की शशक्त बढ़ जािी
है। इसका उच्चारर् करने वाला और इसे सनने वाला दोनों ही लाभाांतवि होिे हैं। इसके उच्चारर् में पतवत्रिा
का ध्यान रखा जािा है।

शरीर में आिेगों का उतार-चढ़ाि : तप्रय या अतप्रय शब्दों की ध्वतन से श्रोिा और वक्ता दोनों हषण, तवषाद,
क्रोध, घृर्ा, भय ििा कामेच्छा के आवेगों को महसूस करिे हैं।अतप्रय शब्दों से तनकलने वाली ध्वतन से
मस्स्िष्क में उत्पन्न काम, क्रोध, मोह, भय लोभ आदद की भावना से ददल की धडकन िेज हो जािी है जजससे
रक्त में ‘टॉस्क्सक’ पदािण पैदा होने लगिे हैं। इसी िरह तप्रय और मंगलमय शब्दों की ध्वतन मस्स्िष्क, हृदय

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II ॐ II

और रक्त पर अमृि की िरह आल्हादकारी रसायन की वषाण करिी है। कहिे हैं तबना ओम (ॐ) सृतष्ट की
ककपना भी नहीं हो सकिी है।

माना जािा है तक सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड से सदा ॐ की ध्वनी तनकलिी है। ॐ (OM) शब्द िीन अक्षरों से ममलकर
बना है- अ उ म। अ का मिलब होिा है उत्पन्न होना, उ का मिलब होिा है उठना यानी तवकास और म का
मिलब होिा है मौन हो जाना यानी तक ब्रह्मलीन हो जाना।

ओम (ॐ) शब्द से इांसान से शारीररक लाभ भी होिे हैं |


ॐ और थायरॉयड: ॐ का उच्चारर् करने से गले में कांपन पैदा होिी है जो तक िायरायड ग्रांशि पर
सकारात्मक प्रभाव डालिी है।
ॐ और घबराहट: अगर आपको घबराहट महसूस होिी है िो आप आांखें बांद करके 5 बार गहरी साांसे लेिे
हुए ॐ का उच्चारर् करें।
ॐ और तनाि: यह शरीर के तवषैले ित्वों को दूर करिा है इसशलए िनाव को दूर करिा है।
▪ ओंकार जगि की परम शाांति में गूांजने वाले सांगीि का नाम है।
▪ ओंकार का अिण है – “द्रद बेक्तसक ररयक्तलटी” वह जो मूलभूि सत्य है, जो सदा रहिा है।
▪ जब िक हम शोरगल से भरे है, वह सूक्ष्मिम् ध्वतन नहीं सन सकिे।

गुरु नानक दे ि जी भी कहिे हैं –


॥ इक्क ओन्कार सि नाम,करिा परख,तनरभऊ, तनरवैर,अकाल मूरि,अजूनी सैभां गर प्रसाद ॥
ईश्वर एक है जजसका नाम ओम है । अिः ओम शब्द का वास्ितवक अिण जानने – समझने की जजज्ञासा बहुि
पहले से पाल रखी िी।
“प्रर्ि बोध”, “ओमकार वनर्णय “ऐसी पस्िकें जो ओम पर शलखी गई है

ऊं – या सही ममश्रर् में इन िीन ध्वतनयों का उच्चारर्, आपको वहाां ले जािा है। यह आपको उसके परे नहीं ले
जािा, मगर भौतिक प्रकृति की कगार िक ले जािा है। जब आप शारीररक योग करिे हैं, िो कछ चीजें घदटि
होिी हैं, मगर एक अलग रूप में। मगर जब आप ऊां का उच्चारर् करिे हैं, िो आपका शरीर एक खास िरह से
सीध में, िालमेल में आ जािा है।
ॐ ईश्वर के तनगणर् ित्त्व से सांबांमधि है । ईश्वर के तनगणर् ित्त्व से ही पूरे सगर् ब्रह्माांड की तनर्मिंि हुई है ।
इस कारर् जब कोई ॐ का जप करिा है, िब अत्यमधक शशक्त तनर्मिंि होिी है । यह ॐ का रहस्य है।
यदद व्यशक्त का आध्यास्त्मक स्िर कतनष्ठ हो, िो केवल ॐ का जप करने से दष्प्रभाव हो सकिा है; क्योंतक उसमें
इस जप से तनर्मिंि आध्यास्त्मक शशक्त को सहन करने की क्षमिा नहीं होिी ।
ॐ के उच्चारर् से ममलिा है लाभ – यह ब्रह्मा, तवष्र् और महेश का प्रिीक भी है और यह भू: लोक,और स्वगण
लोग का प्रिीक भी माना जािा है।

इसके लाभ :
✓ इससे शरीर और मन को एकाग्र करने में मदद ममलेगी।
✓ ददल की धडकन और रक्तसांचार व्यवस्स्िि होगा।
✓ इससे मानशसक बीमाररयाूँ दूर होिी हैं।
✓ काम करने की शशक्त बढ़ जािी है।
✓ इसका उच्चारर् करने वाला और इसे सनने वाला दोनों ही लाभाांतवि होिे हैं।

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II ॐ II

✓ इसके उच्चारर् में पतवत्रिा का ध्यान रखा जािा है।

उच्चारर् की वियध :
प्रािः उठकर पतवत्र होकर ओंकार ध्वतन का उच्चारर् करें। कम से कम 40-से 60 ममनट तक
✓ ॐ का उच्चारर् पद्मासन, अधणपद्मासन, सखासन, वज्रासन में बैठकर कर सकिे हैं।
✓ ॐ शब्द को जोर से बोल सकिे हैं,या तफर धीरे-धीरे भी बोल सकिे हैं।
✓ ॐ जप माला से भी कर सकिे हैं या तबना माला के भी ।
ये है ॐ शब्द की ददव्यिा –ॐ के जाप तबना तकसी स्वािण के तनरांिर करिे रहें।

ईश्वर का जप करना तीन प्रकार से वकया जाता है ।


१) िांयचक जप - दसरों को सनाई दे या उचे स्वर में ईश्वर नाम स्मरर् में करना ।
२) उपाशु जप - धीमे स्वर से नाम स्मरर् करना । इसमें केवल ओंठोंकी हलचल ददखाई दे िी है ।
३) मानक्तसक जप - ओंठ न तहलािे मन में ही ईश्वर का नाम स्मरर् करना ।

भक्तियोग में मुख्य दो तत्ि है । मन को िृष्र्ा से मक्त एवां शध्द करना । मन को ईश्वर में लगाना ।

भक्ति के भेद- भक्ति के मुख्य दो भेद होते है ।


१) सगुर्ा या गौभर् या साधन भक्ति - यह प्रारांभभक अवस्िा की तनम्न स्िर की भशक्त कही जािी है ।
२) वनगुणर्ा , रागास्त्मका , परा या सार्धय भक्ति - यह उच्च स्िर की भशक्त कही जािी है और इससे
साांसाररक समस्ि दःखो का नाश होकर परम सख की प्राप्प्ि होिी है ।

भिो के प्रकार भगिद्गीता में भिों के चार प्रकार बताये है ।


१) अथाणथी - भोग ; सख ; अिण की लालसा से भशक्त करने वाले।
२) आतण - व्यामध तनवारर् हेि भशक्त करने वाले ।
३) जजज्ञासु - मशक्त की अभभलाषा से परमित्व को समझलेने के शलये भशक्त करने वाले ।
४) ज्ञानी - तनष्काम बखध्द से यक्त ििा सदा भशक्त मे मग्न रहने वाले ।

भक्तियोग का संदेश एिं महत्ि


• मन को िृष्र्ा से मक्त एवां शध्द करना ।
• अहांकार को तनयांतत्रि करके समपणन के भाव को बढाना ।
• समस्ि प्राभर्यों के प्रति करुर्ा , ममत्रिा , प्रेम , आदर का भाव रखना ।
• सख - दःख , मानापमान , यश - अपयश के प्रति समभाव होना ।
• मन को वश में रखकर दृढ तनश्चयी होना ।

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II ॐ II

क्षेरक्षरज्ञविभाग योग गीता तेरहिां अर्धयाय है इसमें 34 श्लोक हैं।

सारांश : प्रकृवत, भोिा और चेतना


माया से अलग करें और ददव्यिा से जडे। हर िन में जीवात्मा परमात्मा का अांश है- जजसे परमात्मा का
प्रकृतिरूप भरमािा है, यही ित्व ज्ञान है।

जो व्यशक्त शरीर, आत्मा, परमात्मा और ज्ञान के रहस्यों को समझ जािा है वह इस सांसार के बांधनों से मक्त हो
जािा है।

आत्मा में ही परमात्मा का वास होिा है। क्यूँतक वह उसकी का भाग है। लेतकन अज्ञानवश मनष्य उसे समझ
नहीं पािा। इसशलए पहले ज्ञान हाशसल करना चातहए।

ज्ञान का मकसद उस परमात्मा को समझना है। लेतकन इसके शलए मनष्य को सदाचारी बनना चातहए। अन्यिा
उसमें अहांकार हो जायेगा। तफर वह इस रहस्य को समझा नहीं पायेगा। और परमात्मा को अपने भीिर खोज
भी नहीं पायेगा।

अजणन प्रकृति (प्रकृति), परुष (भोक्ता), क्षेत्र (क्षेत्र), क्षेत्र-ज्ञान (क्षेत्र का ज्ञािा), ज्ञान (ज्ञान), और ज्ञान (ज्ञान की
वस्ि) के बारे में जानना चाहिा है।

कृष्र् बिािे हैं तक क्षेत्र वािानकूशलि आत्मा की गतितवमध का क्षेत्र शरीर है। इसके भीिर जीव और परम
भगवान दोनों तनवास करिे हैं, जजन्हें क्षेत्रज्ञ कहा जािा है, जो क्षेत्र के ज्ञािा हैं। ज्ञान, ज्ञान, का अिण है शरीर
और उसके जानने वालों की समझ। ज्ञान में तवनम्रिा, अहहिंसा, सहनशीलिा, स्वच्छिा, आत्म-सांयम, ममथ्या
अहांकार की अनपस्स्िति और सखद और अतप्रय घटनाओं के बीच सममचत्तिा जैसे गर् शाममल हैं।

ज्ञान का तवषय, ज्ञान, परमात्मा है। प्रकृति, प्रकृति, सभी भौतिक कारर्ों और प्रभावों का कारर् है। दो परुष,
या भोक्ता, जीव और परमात्मा हैं। एक व्यशक्त जो यह दे ख सकिा है तक व्यशक्तगि आत्मा और परमात्मा
तवभभन्न प्रकार के भौतिक शरीरों में अपररवर्ििंि रहिे हैं, वे सफलिापूवणक तनवास करिे हैं और कहा जािा है
तक उनके पास अनांि काल की दृतष्ट है। शरीर और शरीर के ज्ञािा के बीच के अांिर को समझकर और भौतिक
बांधन से मशक्त की प्रतक्रया को समझकर, व्यशक्त परम लक्ष्य िक पहुूँच जािा है।

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II ॐ II

गीता का चौदहिां अर्धयाय गुर्रयविभाग योग है इसमें 27 श्लोक हैं।

सारांश : भौवतक प्रकृवत के तीन रूप -जीवनशैली जीएां जो आपकी दृतष्ट से मेल खािी है। प्रकृति
प्रदत्त िीनों गर् बांधन दे िे है, इनसे पार पाकर ही मोक्ष सांभव है।
इस अध्याय में श्री कृष्र् ने िीन गर्ों के बारे में बिाया है। ये िीन गर् हैं – साप्त्वक, िामशसक और
राजस्स्वक।

सांपूर्ण भौतिक पदािण भौतिक प्रकृति के िीन गर्ों का स्रोि है: अच्छाई, जनून और अज्ञान। ये गर् बि
आत्मा पर अपना प्रभाव डालने में प्रतिस्पधाण करिे हैं। काम पर मोड दे खकर, हम समझ सकिे हैं तक वे
सतक्रय हैं, हम नहीं, और हम अलग हैं। इस िरह, भौतिक प्रकृति का प्रभाव धीरे-धीरे कम होिा जािा है
और हम कृष्र् की आध्यास्त्मक प्रकृति को प्राप्ि करिे हैं।

✓ सिोगर् प्रकाशशि होिा है। यह एक व्यशक्त को सभी पापपूर्ण प्रतितक्रयाओं से मक्त करिा है लेतकन
उसे खशी और ज्ञान की भावना की स्स्िति दे िा है। जो सिोगर् में मरिा है वह उच्च ग्रहों को प्राप्ि
करिा है। साप्त्वक लोग शाकाहारी भोजन करिे हैं, सादे वस्त्र धारर् करिे हैं , बािों से मृदल होिे हैं व्
ईश्वर की भशक्त करिे हैं। मृत्य के बाद ये मोक्ष प्राप्ि करिे हैं।

✓ रजोगर् से प्रभातवि व्यशक्त असीममि भौतिक आनांद, तवशेष रूप से यौन सख के शलए असीममि
इच्छाओं से ग्रस्ि होिा है। उन इच्छाओं को पूरा करने के शलए, उसे हमेशा कडी मेहनि में सांलग्न होने
के शलए मजबूर तकया जािा है जो उसे पापमय प्रतितक्रयाओं से बाांधिा है, जजसके पररर्ामस्वरूप दख
होिा है। रजोगर्ी व्यशक्त कभी भी उस पद से सांिष्ट नहीं होिा जो उसने पहले ही प्राप्ि कर शलया
है। मृत्य के बाद, वह तफर से पृथ्वी पर सकाम गतितवमधयों में लगे व्यशक्तयों के बीच जन्म लेिा है।

✓ िामशसक प्रवृति वाले लोग माांसाहारी भोजन करिे हैं, गांदे वस्त्र पहनिे हैं , हहिंसक होिे हैं व् कभी भी
ईश्वर की स्िति नहीं करिे। मृत्य के बाद ये नरक भोगिे हैं। िमोगर् का अिण है भ्रम। यह पागलपन,
आलस्य, आलस्य और मूखणिा को बढ़ावा दे िा है। यदद कोई िमोगर् में मरिा है, िो उसे पश साम्राज्य
या नारकीय दतनया में जन्म लेना पडिा है। राजस्स्वक लोग भोग -तवलास में रूमच लेिे हैं , इनमें दोनों
के गर् होिे हैं। मृत्य के बाद इन्हे कमाणनसार स्वगण व् नरक दोनों ममल सकिे हैं।

✓ एक व्यशक्त जो िीन गर्ों को पार करिा है, वह अपने व्यवहार में स्स्िर होिा है, अस्िायी भौतिक शरीर
से अलग होिा है, और ममत्रों और शत्रओं के प्रति समान रूप से इच्छक होिा है। ऐसे ददव्य गर्ों को
भशक्त सेवा में पूर्ण सांलग्निा से प्राप्ि तकया जा सकिा है।

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II ॐ II

गीता का पंद्रहिां अर्धयाय पुरुषोत्तम योग है, इसमें 20 श्लोक हैं।

सारांश : परम पुरुष का योग -ददव्यिा को प्रािममकिा दें । काया ििा जीवात्मा दोनों से उत्तम
परुषोत्तम ही जीव का लक्ष्य है।
वेदों के सारे ज्ञान का यही तनचोड है तक मनष्य को मोह -माया का त्याग कर खद को ईश्वर के चरर्ों में समर्पिंि
कर दे ना चातहए। यही सबसे बडा योग है।

मोह -माया के कारर् मनष्य ईश्वर को प्राप्ि नहीं कर पािा है। क्यूँतक उसका मन, धन व अन्य भौतिक चीजों से
प्रेम करने लगिा है। इससे वह ईश्वर प्राप्प्ि के मागण से दूर हो जािा है।

उत्तम परुष वही है जो मोह का त्याग करके खद को ईश्वर की भशक्त में समर्पिंि कर दे ।

इस भौतिक सांसार का "वृक्ष" वास्ितवक "वृक्ष", आध्यास्त्मक सांसार का प्रतिहबिंब है। जजस प्रकार एक वृक्ष का
प्रतितबम्ब जल पर स्स्िि होिा है, उसी प्रकार आध्यास्त्मक सांसार का भौतिक प्रतितबम्ब इच्छा पर स्स्िि होिा
है, और कोई नहीं जानिा तक यह कहाूँ से शरू या समाप्ि होिा है। यह प्रतितबन्म्बि वृक्ष भौतिक प्रकृति के
िीन गर्ों द्वारा पोतषि होिा है। इसकी पशत्तयाूँ वैददक मन्त्र हैं और इसकी टहतनयाूँ इजन्रयों की वस्िएूँ हैं। जो
इस वृक्ष से स्वयां को अलग करना चाहिा है उसे वैराग्य के शस्त्र से इसे काट दे ना चातहए और सवोच्च भगवान
की शरर् लेनी चातहए।

इस दतनया में हर कोई च्यि है, लेतकन आध्यास्त्मक दतनया में हर कोई अचूक है। और अन्य सभी से परे
सवोच्च व्यशक्त, कृष्र् हैं।

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II ॐ II

दै िासुरसंपविभाग योग गीता का सोलहिां अर्धयाय है, इसमें 24 श्लोक हैं।

सारांश : दै िी और आसुरी प्रकृवत -अच्छा होना अपने आप में एक इनाम है। काम - क्रोध-लोभ से
छटकारा पाए तबना जन्म-मृत्य के चक्कर से छटकारा नही ममल सकिा।
मनष्यों में दो िरह की प्रवृति पायी जािी है : दे व व् दानव।

✓ सृजजि प्राभर्यों के दो वगण, दै वीय और आसरी, तवभभन्न गर्ों से सांपन्न हैं। अजणन जैसे ईश्वरीय परुषों में
ईश्वरीय गर् होिे हैं: दान, आत्म-सांयम, सज्जनिा, तवनय, क्षमा, स्वच्छिा, िपस्या, सरलिा, अहहिंसा,
सत्यवाददिा, शाांति, तनभणयिा, क्रोध से मशक्त, आध्यास्त्मक ज्ञान की खेिी, दोष से घृर्ा- खोज, सभी
जीतवि प्राभर्यों के शलए करुर्ा, लोभ से मशक्त, और दृढ़ सांककप। दे व वृशत्त वालों में बहुि से अच्छे गर्
होिे हैं। जैसे सेवा भाव, सांयम, सच्चाई, ईमानदारी, स्वच्छत्ता, शाांति, आदद। ये मोक्ष के पात्र होिे हैं।

✓ इसके तवपरीि दानव वृशत्त वाले लोगों में बरे गर् होिे हैं जैसे – घमांड, ईष्याण, क्रोध , काम -वासना,
हहिंसा आदद। ये नरक के पात्र होिे हैं। क्रोध, ईष्याण, कठोरिा, अहांकार, अज्ञानिा, दस्साहस, अस्वच्छिा
और अनमचि व्यवहार जैसे आसरी गर् लोगों को भ्रम के जाल में बाांधिे हैं जो उन्हें जीवन की राक्षसी
योतन में बार-बार जन्म दे िा है। कृष्र् के पास जाने में असमिण, आसरी धीरे-धीरे नरक में डू ब जािी है।

✓ दो प्रकार की तक्रया - तवतनयममि और अतनयममि - अलग-अलग पररर्ाम दे िी है। जो मनष्य शास्त्रों के


आदे शों का त्याग करिा है, वह न िो शसजि को प्राप्ि होिा है, न सख को, न परम गति को। शास्त्र द्वारा
तवतनयममि लोग समझिे हैं तक किणव्य क्या है और क्या नहीं है। वे आत्म-साक्षात्कार के अनकूल कमण
करके धीरे-धीरे परम गति को प्राप्ि करिे हैं।

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II ॐ II

श्रद्धारयविभाग योग गीता का सरहिां अर्धयाय है, इसमें 28 श्लोक हैं।

सारांश : आस्त्था का विभाजन -सख पर अमधकार चनना शशक्त का सांकेि है। तत्रगर्ी जगि को
दे खकर दखी नही होना चातहए, बस स्वभाव को सकारात्मक बनाने का प्रयास करना चातहए।

अजणन ने पूछा – जो लोग वेद -परार्ों से अलग, अपनी मजी से भशक्त करना चाहिे हैं उन्हें क्या करना चातहए।
श्री कृष्र् कहिे हैं – उन्हें ॐ िि सि का पालन करना चातहए।
ॐ का मिलब है ईश्वर , िि का मिलब है मोहमाया से दूर रहना, सि का मिलब है सच्चाई। अिाणि मनष्य को
मोह माया से दूर होकर, सच्चे मागण पर चलिे रहना चातहए। ऐसे मनष्य को ईश्वर अपनी शरर् में ले लेिे हैं और
मोक्ष प्रदान करिे हैं।

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II ॐ II

मोक्ष-संन्यास योग गीता का अठारहिाूँ अर्धयाय है, इसमें 78 श्लोक हैं।

सारांश : संन्यास की क्तसजद्ध - आइए भगवान के साि ममलकर चलें। शरर्ागति / समपर्ण ही जीव का
धमण है और यही है गीिा का सार।
इस अध्याय में भगवान कृष्र् अजणन को मोक्ष प्राप्प्ि के मागण के बारे में बिािे हैं। वे कहिे हैं तक मोक्ष प्राप्प्ि के
शलए सब चीजों का मोह त्याग कर मनष्य को पूरी िरह से ईश्वर को समर्पिंि हो जाना चातहए।

अपने जीवन के हर कमण को कृष्र् को ही समर्पिंि कर दे ना चातहए। उनसे अिाह प्रेम करना चातहए। उन पर
पूरी श्रिा रखनी चातहए। उन्हें भजिे रहना चातहए। और सन्यासी की भाांति तकसी भी चीज से मोह नहीं करना
चातहए। इस प्रकार जीवन तबिाने के बाद मनष्य मोक्ष को प्राप्ि कर सकिा है। अांि में कृष्र् अजणन से कहिे हैं
तक अगर वह अब भी यि नहीं करना चाहिा है िो वहाूँ से जा सकिा है। लेतकन तवमध का तवधान हमेशा होकर
रहिा है। कोई न कोई उसके बदले यि कर ही लेगा। लेतकन अब िक अजणन का सारा सांशय खत्म हो चका
िा। वह भगवान श्री कृष्र् को प्रर्ाम करिा है। और धमण यि के शलए िैयार हो जािा है।

अजणन कृष्र् से त्याग (त्याग) और सांन्यास (जीवन का त्याग आदे श) के उद्दे श्य के बारे में पूछिे हैं। कृष्र् इन्हें
और कमण के पाांच कारर्ों, कमण को प्रेररि करने वाले िीन कारकों और कमण के िीन घटकों की व्याख्या करिे
हैं। वह भौतिक प्रकृति के िीन गर्ों में से प्रत्येक के अनसार तक्रया, समझ, दृढ़ सांककप, सख और कायण का भी
वर्णन करिा है।

व्यशक्त अपना कमण करने से ही शसजि प्राप्ि करिा है, दूसरे का नहीं, क्योंतक तनधाणररि किणव्य कभी भी पाप
कमों से प्रभातवि नहीं होिे। इस प्रकार व्यशक्त को तबना तकसी आसशक्त या फल की अपेक्षा के किणव्य के रूप
में कायण करना चातहए। व्यशक्त को अपना किणव्य कभी नहीं छोडना चातहए।

आत्म-साक्षात्कार का सवोच्च मांच कृष्र् की शि भशक्त सेवा है। िदनसार, कृष्र् अजणन को हमेशा उन पर
तनभणर रहने, उनके सांरक्षर् में काम करने और उनके प्रति सचेि रहने की सलाह दे िे हैं। यदद अजणन कृष्र् के
शलए लडने से इांकार करिा है, िो भी उसे यि में घसीटा जाएगा क्योंतक एक क्षतत्रय के रूप में लडना उसका
स्वभाव है। बहरहाल, वह यह िय करने के शलए स्विांत्र है तक वह क्या करना चाहिा है।

सिणधमाणन्पररत्यज्य मामेकं शरर्ं व्रज।


अहं त्िां सिणपापेभ्यो मोक्षययषयायम मा शुच:॥ (अष्टादश अध्याय, श्लोक 66)
सभी धमो को छोडकर मेरी शरर् में आ जाओ. में िम्हे सभी पापो से मक्त कर दूां गा, इसमें कोई सांदेह नहीं
हैं।

✓ क्यों व्यिण की चचिंिा करिे हो? तकससे व्यिण डरिे हो? कौन िम्हें मार सकिा है? आत्मा ना पैदा
होिी है, न मरिी है।
✓ जो हुआ, वह अच्छा हुआ, जो हो रहा है, वह अच्छा हो रहा है, जो होगा, वह भी अच्छा ही
होगा। िम भूि का पश्चािाप न करो। भतवष्य की मचन्िा न करो। विणमान चल रहा है।
✓ िम्हारा क्या गया, जो िम रोिे हो? िम क्या लाए िे, जो िमने खो ददया? िमने क्या पैदा तकया
िा, जो नाश हो गया? न िम कछ लेकर आए, जो शलया यहीं से शलया। जो ददया, यहीं पर
ददया। जो शलया, इसी (भगवान) से शलया। जो ददया, इसी को ददया।

PANKAJ. PATEL
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II ॐ II

✓ पररविणन सांसार का तनयम है। जजसे िम मृत्य समझिे हो, वही िो जीवन है।
✓ न यह शरीर िम्हारा है, न िम शरीर के हो। यह अप्ग्न, जल, वाय, पृथ्वी, आकाश से बना है और
इसी में ममल जायेगा। परन्ि आत्मा स्स्िर है
✓ िम अपने आपको भगवान को अर्पिंि करो। यही सबसे उत्तम सहारा है। जो इसके सहारे को
जानिा है वह भय, मचन्िा, शोक से सवणदा मक्त है।
✓ जो कछ भी िू करिा है, उसे भगवान को अपणर् करिा चल। ऐसा करने से सदा जीवन-मक्त का
आनांन्द अनभव करेगा।

यर योगेश्वरुः कृषर्ो यर पाथो धनुधणरुः ।


तर श्रीर्ििंजयो भभवतर्ध्ुणिा नीवतमणवतमणम ॥
हे राजन! जहाूँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्र् हैं और जहाूँ गाण्डीव-धनषधारी अजणन है, वहीं पर श्री, तवजय,
तवभूति और अचल नीति है- ऐसा मेरा मि है I

II तत्त्वमसस II

PANKAJ. PATEL
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II ॐ II

॥ हरर: ॐ तत् सत् ॥


भारतीय दशणन
भारत में 'दशशन' उस विद्या को कहा जाता है जजसके द्वारा तत्ि का ज्ञान हो सके। 'तत्ि दशशन' या 'दशशन' का
अथश है तत्ि का ज्ञान। मानि के दुिों की वनिृवत के क्तलए और/या तत्ि ज्ञान कराने के क्तलए ही भारत में दशशन
का जन्म हुआ है। हृदय की गााँठ तभी िुलती है और शोक तथा संशय तभी दूर होते हैं जब एक सत्य का दशशन
होता है। मनु का कथन है वक सम्यक दशशन प्राप्त होने पर कमश मनुष्य को बन्धन में नहीं डाल सकता तथा
जजनको सम्यक दृवष् नहीं है िे ही संसार के महामोह और जाल में फंस जाते हैं। भारतीय ऋवषओं ने जगत के
रहस्य को अनेक कोणों से समझने की कोक्तशश की है। दशशन ग्रन्थों को दर्थिर्ास्र भी कहते हैं।
यह शास्त्र शब्द ‘शासु अनुक्तशष्ौ’ से वनष्पन्न है।
भारतीय दर्थि वकस प्रकार और वकन पररस्स्थवतयों में अत्स्तत्ि में आया, कुछ भी प्रामाभणक रूप से नहीं कहा
जा सकता। वकन्तु इतना स्पष् है वक उपवनषद काल में दशशन एक पृथक शास्त्र के रूप में विकक्तसत होने लगा
था।
तत्त्िों के अन्िेषण की प्रिृक्तत्त भारतिषश में उस सुदूर काल से है, जजसे हम 'िैददक युग' के नाम से पुकारते
हैं। ऋग्िेद के अत्यन्त प्राचीन युग से ही भारतीय विचारों में वद्वविध प्रिृक्तत्त और वद्वविध लक्ष्य के दशशन हमें होते
हैं। प्रथम प्रिृक्तत्त प्रवतभा या प्रज्ञामूलक है तथा वद्वतीय प्रिृक्तत्त तकशमूलक है। प्रज्ञा के बल से ही पहली प्रिृक्तत्त
तत्त्िों के वििेचन में कृतकायश होती है और दूसरी प्रिृक्तत्त तकश के सहारे तत्त्िों के समीक्षण में समथश होती है।
अंग्रेजी शब्दों में पहली को हम ‘इन्यूशवनन्स्टक’ कह सकते हैं और दूसरी को रैशनक्तलन्स्टक। लक्ष्य भी आरम्भ
से ही दो प्रकार के थे - धन का उपाजशन तथा ब्रह्म का साक्षात्कार।
प्रज्ञामूलक और तकश-मूलक प्रिृक्तत्तयों के परस्पर सम्म्मलन से आत्मा के औपवनषददष्ठ तत्त्िज्ञान का स्फुट
आविभाशि हुआ। उपवनषदों के ज्ञान का पयशिसान आत्मा और परमात्मा के एकीकरण को क्तसद्ध करने िाले
प्रवतभामूलक िेदान्त में हुआ।
भारतीय मनीवषयों के उिशर मत्स्तष्क से जजस कमश, ज्ञान और भक्तिमय वत्रपथगा का प्रिाह उद्भूत हुआ, उसने
दूर-दूर के मानिों के आध्यात्त्मक कल्मष को धोकर उन्हेंने पवित्र, वनत्य-शुद्ध-बुद्ध और सदा स्िच्छ बनाकर
मानिता के विकास में योगदान ददया है। इसी पवततपािनी धारा को लोग दर्थि के नाम से पुकारते हैं।
अन्िेषकों का विचार है वक इस शब्द का ितशमान अथश में सबसे पहला प्रयोग िैशेवषक दशशन में हुआ।

‘दर्थि’ र्ब्द का अर्थ


पाभणनीय व्याकरण के अनुसार 'दशशन' शब्द, 'दृक्तशर् प्रेक्षणे' धातु से ल्युट् प्रत्यय करने से वनष्पन्न होता है।
अतएि दशशन शब्द का अथश दृवष् या दे िना, ‘जजसके द्वारा दे िा जाय’ या ‘जजसमें दे िा जाय’ होगा। दशशन
शब्द का शब्दाथश केिल दे िना या सामान्य दे िना ही नहीं है। इसीक्तलए पाभणवन ने धात्िथश में ‘प्रेक्षण’ शब्द का
प्रयोग वकया है। प्रकृष् ईक्षण, जजसमें अन्तश्चक्षुओं द्वारा दे िना या मनन करके सोपपक्तत्तक वनष्कषश वनकालना
ही दशशन का अभभधेय है। इस प्रकार के प्रकृष् ईक्षण के साधन और फल दोनों का नाम दशशन है। जहााँ पर इन
क्तसद्धान्तों का संकलन हो, उन ग्रन्थों का भी नाम दशशन ही होगा, जैसे-न्याय दशशन, िैशेवषक दशशन, मीमांसा
दशशन आदद-आदद।

भारतीय दर्थि का प्रनतपाद्य नवर्य


दशशनों का उपदे श िैयक्तिक जीिन के सम्माजशन और पररष्करण के क्तलए ही अमधक उपयोगी है। वबना दशशनों के
आध्यात्त्मक पवित्रता एिं उन्नयन होना दुलशभ है। दशशन-शास्त्र ही हमें प्रमाण और तकश के सहारे अन्धकार में

PANKAJ. PATEL
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II ॐ II

दीपज्योवत प्रदान करके हमारा मागश-दशशन करने में समथश होता है। गीता के अनुसार ककिं किथ नकिकिेनत
कवयोऽप्यर िोनहतााः (संसार में करणीय क्या है और अकरणीय क्या है, इस विषय में विद्वान भी अच्छी तरह
नहीं जान पाते।) परम लक्ष्य एिं पुरुषाथश की प्रान्प्त दाशशवनक ज्ञान से ही संभि है, अन्यथा नहीं।
दशशन द्वारा विषयों को हम संक्षेप में दो िगों में रि सकते हैं- लौवकक और अलौवकक अथिा मानिी(सापेक्ष)
और आध्यात्त्मक(वनरपेक्ष)। दशशन या तो विस्तृत सृवष् प्रपंच के विषय में क्तसद्धान्त या आत्मा के विषय में हमसे
चचाश करता है। इस प्रकार दशशन के विषय जड़ और चेतन दोनों ही हैं। प्राचीन ऋग्िैददक काल से ही दशशनों के
मूल तत्त्िों के विषय में कुछ न कुछ संकेत हमारे आषश सावहत्य में ममलते हैं।
✓ िीिे प्रिगख दर्थिर्ास्रों के प्रर्ि िूर ददये गये हैं जो िोटे तौर पर उि दर्थि की नवर्यवस्तग का
पररिय दे ते हैं-
✓ अथातो धमशजजज्ञासा - अब धमण (करने योग्य कमण) के जानने की लालसा है ( पूिशमीमांसा)
✓ अथातो ब्रह्मजजज्ञासा। - आओ, अब हम परम सत्य की जजज्ञासा करें।" ( िेदान्तसूत्र )
✓ अथातो धमं व्याख्यास्यामः। अव, यहाां से, हम धमण का व्याख्यान करेंगे ( िैशेवषकसूत्र )
✓ अथ योगानुशासनम्।- योग एक अनशासन है, जजससे मनष्य अपने आत्मस्वरूप में स्स्िि होिा है। ( योगसूत्र )
✓ अथ वत्रविधदुःिात्यन्तवनिृक्तत्तरत्यन्तपुरुषाथशः। िीन प्रकार के दखों की अतिशय तनवृशत्त मोक्ष कहलािी है ।
( सांख्यसूत्र )
✓ प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्ान्तक्तसद्धान्ताियितकशवनणशयिादजल्पवितण्डाहेत्िाभासच्छलजावतवनग्रह
स्थानानाम्तत्त्िज्ञानाम्त्नःश्रेयसामधगमः । प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्ान्त, क्तसद्धान्त, अियि, तकश, वनणशय, िाद,
जल्प, वितण्डा, हेत्िाभास, छल, जावत और वनग्रहस्थान का तत्िज्ञान वनःश्रेयस या परम कल्याण का विधायक है। ( न्यायसूत्र )

भारतीय दर्थि की नवकाि यारा


िेदों में जो आधार तत्त्ि बीज रूप में वबिरे ददिाई पड़ते थे, िे ब्राह्मणों में आकर कुछ उभरे ; परन्तु िहााँ
कमशकाण्ड की लताओं के प्रतानों में फाँसकर बहुत अमधक नहीं बढ़ पाये। आरण्यकों में ये अंकुररत
होकर उपवनषदों में िूब पल्लवित हुए। दशशनों का विकास जो हमें उपवनषदों में हमें दृवष्गोचर होता है,
आलोचकों ने उसका श्रीगणेश लगभग दौ सौ िषश ईसा पूिश स्स्थर वकया है। महात्मा बुद्ध से यह प्राचीन हैं।
इतना ही नहीं विद्वानों ने सांख्य, योग और मीमांसा को भी बुद्ध से प्राचीन माना है। संभि है वक ये दशशन
ितशमान रूप में उस समय न हों, तथावप िे वकसी रूप में अिश्य विद्यमान थे। िैशेवषकदशशन भी शायद बुद्ध से
प्राचीन ही है; क्योंवक जैसा आज के युग में न्याय और िैशेवषक समान तन्त्र समझे जाते हैं, उसी प्रकार पहले
पूिश मीमांसा और िैशेवषक समझे जाते थे। बौद्धदशशन पद्धवत का आविभाशि ईसा से पूिश दो सौ िषश माना जाता
है, परन्तु जैन दशशन, बौद्ध दशशन से भी प्राचीन ठहरता है। इसकी पुवष् में यह प्रमाण ददया जाता है वक प्राचीन
जैन दशशनों में न तो बुद्ध दशशन और न वकसी वहन्दू दशशन का ही िण्डन उपलब्ध होता है। महािीर स्िामी, जो
जैन सम्प्रदाय के प्रितशक माने जाते हैं, िे भी बुद्ध से प्राचीन थे। अतएि जैन दशशन का बुद्ध दशशन से प्राचीन
होना युक्तियुि अनुमान है।
भारतीय दशशनों का ऐवतहाक्तसक िम वनभश्चत करना कदठन है। इन सब भभन्न-भभन्न दशशनों का लगभग साथ ही
साथ समान रूप से प्रादुभाशि एिं विकास हुआ है। इधर-उधर तथा बीच में भी कई कमड़यााँ मछन्न-भभन्न हो गई
हैं। अतः जो कुछ शेष है, उसी का आधार लेकर चलना है। इस िम में शुद्ध ऐवतहाक्तसकता न होने पर भी
िममक विकास की श्रृंिला आदद से अन्त तक चलती रही है। इसक्तलए प्रायः विद्वानों ने इसी िम का अनुसरण
वकया है।

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II ॐ II

भारतीय दर्थि का स्रोत


भारतीय दशशन का आरम्भ िेदों से होता है। "िेद" भारतीय धमश, दशशन, संस्कृवत, सावहत्य आदद सभी के मूल
स्रोत हैं। आज भी धार्मिक और सांस्कृवतक कृत्यों के अिसर पर िेद-मंत्रों का गायन होता है। अनेक दशशन-
संप्रदाय िेदों को अपना आधार और प्रमाण मानते हैं। आधुवनक अथश में िेदों को हम दशशन के ग्रंथ नहीं कह
सकते। िे प्राचीन भारतिाक्तसयों के संगीतमय काव्य के संकलन है। उनमें उस समय के भारतीय जीिन के
अनेक विषयों का समािेश है। िेदों के इन गीतों में अनेक प्रकार के दाशशवनक विचार भी ममलते हैं। मचन्तन के
इन्हीं बीजों से उत्तरकालीन दशशनों की िनराजजयााँ विकक्तसत हुई हैं। अमधकांश भारतीय दशशन िेदों को अपना
आददस्त्रोत मानते हैं। ये "आत्स्तक दशशन" कहलाते हैं। प्रक्तसद्ध षड् दशशन इन्हीं के अंतगशत हैं। जो दशशनसंप्रदाय
अपने को िैददक परंपरा से स्ितंत्र मानते हैं िे भी कुछ सीमा तक िैददक विचारधाराओं से प्रभावित हैं।
िेदों का रचनाकाल बहुत वििादग्रस्त है। प्रायः पभश्चमी विद्वानों ने ऋग्िेद का रचनाकाल 1500 ई.पू. से लेकर
2500 ई.पू. तक माना है। इसके विपरीत भारतीय विद्वान् ज्योवतष आदद के प्रमाणों द्वारा ऋग्िेद का समय
3000 ई.पू. से लेकर 75000 िषश ई.पू. तक मानते हैं। इवतहास की विददत गवतयों के आधार पर इन प्राचीन
रचनाओं के समय का अनुमान करना कदठन है। प्राचीन काल में इतने विशाल और समृद्ध सावहत्य के विकास
में हजारों िषश लगे होंगे, इसमें कोई संदेह नहीं। उपलब्ध िैददक सावहत्य संपण ू श िैददक सावहत्य का एक छोटा सा
अंश है। प्राचीन युग में रमचत समस्त सावहत्य संकक्तलत भी नहीं हो सका होगा और संकक्तलत सावहत्य का बहुत
सा भाग आिमणकाररयों ने नष् कर ददया होगा। बहुत से ग्रन्थ प्राकृवतक आपदाओं (बाढ़, अकाल, महामारी
आदद) में नष् हो गये होंगे। िास्तविक िैददक सावहत्य का विस्तार इतना अमधक था वक उसके रचनाकाल की
कल्पना करना कदठन है। वनस्संदेह िह बहुत प्राचीन रहा होगा। िेदों के संबंध में यह स्पष् करना आिश्यक है
वक कुरान और बाइवबल की भााँवत "िेद" वकसी एक ग्रंथ का नाम नहीं है और न िे वकसी एक मनुष्य की
रचनाएाँ हैं। "िेद" एक संपूणश सावहत्य है जजसकी विशाल परंपरा है और जजसमें अनेक ग्रंथ सम्म्मक्तलत हैं।
धार्मिक परंपरा में िेदों को वनत्य, अपौरुषेय और ईश्वरीय माना जाता है। ऐवतहाक्तसक दृवष्कोण से हम उन्हें
ऋवषयों की रचना मान सकते हैं। िेदमंत्रों के रचनेिाले ऋवष अनेक हैं।
िैददक सावहत्य का विकास चार चरणों में हुआ है। ये संवहता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपवनषद् कहलाते हैं।
मंत्रों और स्तुवतयों के संग्रह को "संवहता" कहते हैं। ऋग्िेद, यजुिेद, सामिेद और अथिशिेद मंत्रों की संवहताएाँ
ही हैं। इनकी भी अनेक शािाएाँ हैं। इन संवहताओं के मंत्र यज्ञ के अिसर पर दे िताओं की स्तुवत के क्तलए गाए
जाते थे। आज भी धार्मिक और सांस्कृवतक कृत्यों के अिसर पर इनका गायन होता है। इन िेदमंत्रों में इंद्र,
अन्ग्न, िरुण, सूयश, सोम, उषा आदद दे िताओं की संगीतमय स्तुवतयााँ हैं। यज्ञ और दे िोपासना ही िैददक धमश
का मूल रूप था। िेदों की भािना उत्तरकालीन दशशनों के समान सन्यासप्रधन नहीं है। िेदमंत्रों में जीिन के प्रवत
आस्था तथा जीिन का उल्लास ओतप्रोत है। जगत् की असत्यता का िेदमंत्रों में आभास नहीं है। ऋग्िेद में
लौवकक मूल्यों का पयाशप्त मान है। िैददक ऋवष दे िताओं से अन्न, धन, संतान, स्िास््य, दीघाशयु, विजय आदद
की अभ्यथशना करते हैं।
िेदों के मंत्र प्राचीन भारतीयों के संगीतमय लोककाव्य के उत्तम उदाहरण हैं। ब्राह्मण, आरण्यक और उपवनषद्
ग्रंथों में गद्य की प्रधानता है, यद्यवप उनका यह गद्य भी लययुि है। ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञों की विमध, उनके
प्रयोजन, फल आदद का वििेचन है। आरण्यकग्रंथों में आध्यात्त्मकता की ओर झुकाि ददिाई दे ता है। जैसा वक
इस नाम से ही विददत होता है, ये िानप्रस्थों के उपयोग के ग्रंथ हैं। उपवनषदों में आध्यात्त्मक चचितन की
प्रधानता है। चारों िेदों की मंत्रसंवहताओं के ब्राह्मण, आरण्यक और उपवनषद् अलग अलग ममलते हैं। शतपथ,
तांडय आदद ब्राह्मण प्रक्तसद्ध और महत्िपूणश हैं। ऐतरेय, तैक्तत्तरीय आदद के नाम से आरण्यक और उपवनषद् दोनों
ममलते हैं। इनके अवतररि ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक, मांडूक्य आदद प्राचीन उपवनषद् भारतीय चचितन के
आददस्त्रोत हैं।

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II ॐ II

उपवनषदों का दशशन आध्यात्त्मक है। ब्रह्म की साधना ही उपवनषदों का मुख्य लक्ष्य है। ब्रह्म को आत्मा भी
कहते हैं। "आत्मा" विषयजगत्, शरीर, इंदद्रयों, मन, बुजद्ध आदद सभी अिगम्य तत्िों स परे एक अवनिशचनीय
और अतींदद्रय तत्ि है, जो मचत्स्िरूप, अनन्त और आनन्दमय है। सभी पररच्छे दों से परे होने के कारण िह
अनन्त है। अपररच्छन्न और एक होने के कारण आत्मा भेदमूलक जगत् में मनुष्यों के बीच आंतररक अभेद
और अद्वै त का आधार बन सकता है। आत्मा ही मनुष्य का िास्तविक स्िरूप है। उसका साक्षात्कार करके
मनुष्य मन के समस्त बंधनों से मुि हो जाता है। अद्वै तभाि की पूणशता के क्तलए आत्मा अथिा ब्रह्म से जड़
जगत् की उत्पक्तत्त कैसे होती है, इसकी व्याख्या के क्तलए माया की अवनिशचनीय शक्ति की कल्पना की गई है।
ककितु सृवष्िाद की अपेक्षा आत्त्मक अद्वै तभाि उपवनषदों के िेदांत का अमधक महत्िपूणश पक्ष है। यही
अद्वै तभाि भारतीय संस्कृवत में ओतप्रोत है। दशशन के क्षेत्र में उपवनषदों का यह
ब्रह्मिाद आददशंकराचायश, रामानुजाचायश आदद के उत्तरकालीन िेदान्त मतों का आधार बना। िेदों का अंवतम
भाग होने के कारण उपवनषदों को "िेदान्त" भी कहते हैं। उपवनषदों का अभभमत ही आगे चलकर िेदांत का
क्तसद्धांत और संप्रदायों का आधार बन गया। उपवनषदों की शैली सरल और गंभीर है। अनुभि के गंभीर तत्ि
अत्यंत सरल भाषा में उपवनषदों में व्यि हुए हैं। उनको समझने के क्तलए अनुभि का प्रकाश अपेभक्षत है। ब्रह्म
का अनुभि ही उपवनषदों का लक्ष्य है। िह अपनी साधना से ही प्राप्त होता है। गुरु का संपकश उसमें अमधक
सहायक होता है। तप, आचार आदद साधना की भूममका बनाते हैं। कमश आत्त्मक अनुभि का साधक नहीं है।
कमश प्रधान िैददक धमश से उपवनषदों का यह मतभेद है। सन्यास, िैराग्य, योग, तप, त्याग आदद को उपवनषदों में
बहुत महत्ि ददया गया है। इनमें श्रमण परंपरा के कठोर सन्यासिाद की प्रेरणा का स्रोत ददिाई दे ता है।
तपोिादी जैन और बौद्ध मत तथा गीता का कमशयोग उपवनषदों की आध्यात्त्मक भूमम में ही अंकुररत हुए हैं।

नहन्ू दर्थि-परम्परा
वहन्दू धमश में दशशन अत्यन्त प्राचीन परम्परा रही है। िैददक दशशनों में र्ड् दर्थि (छः दशशन) अमधक प्रक्तसद्ध और
प्राचीन हैं। ये छः दशशन ये हैं- न्याय, िैशेवषक, सांख्य, योग, मीमांसा और िेदान्त। गीता का कमशिाद भी इनके
समकालीन है। षडदशशनों को 'आत्स्तक दशशन' कहा जाता है। िे िेद की सत्ता को मानते हैं। वहन्दू दाशशवनक
परम्परा में विभभन्न प्रकार के आत्स्तक दशशनों के अलािा अनीश्वरिादी और भौवतकिादी दाशशवनक परम्पराएाँ
भी विद्यमान रहीं हैं।
न्याय दर्थि
महर्षि गौतम रमचत इस दशशन में पदाथों के तत्िज्ञान से मोक्ष प्रान्प्त का िणशन है। पदाथों के तत्िज्ञान से मम्या
ज्ञान की वनिृक्तत्त होती है। वफर अशुभ कमो में प्रिृत्त न होना, मोह से मुक्ति एिं दुिों से वनिृक्तत्त होती है। इसमें
परमात्मा को सृवष्कताश, वनराकार, सिशव्यापक और जीिात्मा को शरीर से अलग एिं प्रकृवत को अचेतन तथा
सृवष् का उपादान कारण माना गया है और स्पष् रूप से त्रैतिाद का प्रवतपादन वकया गया है। इसके अलािा
इसमें न्याय की पररभाषा के अनुसार न्याय करने की पद्धवत तथा उसमें जय-पराजय के कारणों का स्पष् वनदे श
ददया गया है।
वैर्ेनर्क दर्थि
महर्षि कणाद रमचत इस दशशन में धमश के सच्चे स्िरूप का िणशन वकया गया है। इसमें सांसाररक उन्नवत तथा
वनश्श्रेय क्तसजद्ध के साधन को धमश माना गया है। अत: मानि के कल्याण हेतु धमश का अनुष्ठान करना
परमािश्यक होता है। इस दशशन में द्रव्य, गुण, कमश, सामान्य, विशेष और समिाय इन छ: पदाथों के साधम्यश
तथा िैधम्यश के तत्िाधान से मोक्ष प्रान्प्त मानी जाती है। साधम्यश तथा िैधम्यश ज्ञान की एक विशेष पद्धवत है,
जजसको जाने वबना भ्ांवतयों का वनराकरण करना संभि नहीं है। इसके अनुसार चार पैर होने से गाय-भैंस एक

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नहीं हो सकते। उसी प्रकार जीि और ब्रह्म दोनों ही चेतन हैं। ककितु इस साधम्यश से दोनों एक नहीं हो सकते।
साथ ही यह दशशन िेदों को, ईश्वरोि होने को परम प्रमाण मानता है।
िांख्य दर्थि
इस दशशन के रचवयता महर्षि कवपल हैं। इसमें सत्कायशिाद के आधार पर इस सृवष् का उपादान कारण प्रकृवत
को माना गया है। इसका प्रमुि क्तसद्धांत है वक अभाि से भाि या असत से सत की उत्पक्तत्त कदावप संभि नहीं
है। सत कारणों से ही सत कायो की उत्पक्तत्त हो सकती है। सांख्य दशशन प्रकृवत से सृवष् रचना और संहार के
िम को विशेष रूप से मानता है। साथ ही इसमें प्रकृवत के परम सूक्ष्म कारण तथा उसके सवहत २४ कायश
पदाथों का स्पष् िणशन वकया गया है। पुरुष २५ िां तत्ि माना गया है, जो प्रकृवत का विकार नहीं है। इस प्रकार
प्रकृवत समस्त कायश पदाथो का कारण तो है, परंतु प्रकृवत का कारण कोई नहीं है, क्योंवक उसकी शाश्वत सत्ता
है। पुरुष चेतन तत्ि है, तो प्रकृवत अचेतन। पुरुष प्रकृवत का भोिा है, जबवक प्रकृवत स्ियं भोिी नहीं है।
योग दर्थि
इस दशशन के रचवयता महर्षि पतंजक्तल हैं। इसमें ईश्वर, जीिात्मा और प्रकृवत का स्पष् रूप से िणशन वकया गया
है। इसके अलािा योग क्या है, जीि के बंधन का कारण क्या है? मचत्त की िृक्तत्तयां कौन सी हैं? इसके वनयंत्रण
के क्या उपाय हैं इत्यादद यौवगक वियाओं का विस्तृत िणशन वकया गया है। इस क्तसद्धांत के अनुसार परमात्मा
का ध्यान आंतररक होता है। जब तक हमारी इंदद्रयां बवहगाशमी हैं, तब तक ध्यान कदावप संभि नहीं है। इसके
अनुसार परमात्मा के मुख्य नाम ओ३म् का जाप न करके अन्य नामों से परमात्मा की स्तुवत और उपासना
अपूणश ही है।
िीिांिा दर्थि
मीमांसासूत्र इस दशशन का मूल ग्रन्थ है जजसके रचवयता महर्षि जैममवन हैं। इस दशशन में िैददक यज्ञों में मंत्रों का
विवनयोग तथा यज्ञों की प्रवियाओं का िणशन वकया गया है। यदद योग दशशन अंतःकरण शुजद्ध का उपाय बताता
है, तो मीमांसा दशशन मानि के पाररिाररक जीिन से राष्ट्रीय जीिन तक के कतशव्यों और अकतशव्यों का िणशन
करता है, जजससे समस्त राष्ट्र की उन्नवत हो सके। जजस प्रकार संपूणश कमशकांड मंत्रों के विवनयोग पर आधाररत
हैं, उसी प्रकार मीमांसा दशशन भी मंत्रों के विवनयोग और उसके विधान का समथशन करता है। धमश के क्तलए महर्षि
जैममवन ने िेद को भी परम प्रमाण माना है। उनके अनुसार यज्ञों में मंत्रों के विवनयोग, श्रुवत, िाक्य, प्रकरण,
स्थान एिं समाख्या को मौक्तलक आधार माना जाता है।
वेदान्त दर्थि
िेदान्त का अथश है िेदों का अन्न्तम क्तसद्धान्त। महर्षि व्यास द्वारा रमचत ब्रह्मिूर इस दशशन का मूल ग्रन्थ है। इस
दशशन को उत्तर िीिांिा भी कहते हैं। इस दशशन के अनुसार ब्रह्म जगत का कताश-धताश ि संहारकताश होने से
जगत का वनममत्त कारण है। उपादान अथिा अभभन्न कारण नहीं। ब्रह्म सिशज्ञ, सिशशक्तिमान, आनंदमय, वनत्य,
अनादद, अनंतादद गुण विक्तशष् शाश्वत सत्ता है। साथ ही जन्म मरण आदद क्लेशों से रवहत और वनराकार भी है।
इस दशशन के प्रथम सूत्र `अथातो ब्रह्म जजज्ञासा´ से ही स्पष् होता है वक जजसे जानने की इच्छा है, िह ब्रह्म से
भभन्न है, अन्यथा स्ियं को ही जानने की इच्छा कैसे हो सकती है। और यह सिशविददत है वक जीिात्मा हमेशा से
ही अपने दुिों से मुक्ति का उपाय करती रही है। परंतु ब्रह्म का गुण इससे भभन्न है।
आगे चलकर िेदान्त के अनेकानेक सम्प्रदाय (अद्वै त, द्वै त, द्वै ताद्वै त, विक्तशष्ाद्वै त आदद) बने।
अन्य नहन्ू दर्थि
षड दशशनों के अलािा लोकायत तथा शैि एिं शाि दशशन भी वहन्दू दशशन के अभभन्न अंग हैं।

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िावाथक दर्थि
िेदविरोधी होने के कारण नात्स्तक संप्रदायों में चािाशक मत का भी नाम क्तलया जाता है। भौवतकिादी होने के
कारण यह आदर न पा सका। इसका इवतहास और सावहत्य भी उपलब्ध नहीं है। "बृहस्पवत सूत्र" के नाम से
एक चािाशक ग्रंथ के उद्धरण अन्य दशशन ग्रंथों में ममलते हैं। चािाशक मत एक प्रकार का यथाथशिाद और
भौवतकिाद है। इसके अनुसार केिल प्रत्यक्ष ही प्रमाण है। अनुमान और आगम संददग्ध होते हैं। प्रत्यक्ष पर
आभश्रत भौवतक जगत् ही सत्य है। आत्मा, ईश्वर, स्िगश आदद सब कस्ल्पत हैं। भूतों के संयोग से दे ह में चेतना
उत्पन्न होती है। दे ह के साथ मरण में उसका अंत हो जाता है। आत्मा वनत्य नहीं है। उसका पुनजशन्म नहीं
होता। जीिनकाल में यथासंभि सुि की साधना करना ही जीिन का लक्ष्य होना चावहए।

अवैददक दर्थिों का नवकाि


उपवनषदों के अध्यात्मिाद तथा तपोिाद में ही िैददक कमशकांड के विरुद्ध एक प्रकट िांवत का रूप ग्रहण कर
क्तलया। उपवनषद काल में एक ओर बौद्ध और जैन धमों की अिैददक परंपराओं का आविभाशि हुआ तथा दूसरी
ओर िैददक दशशनों का उदय हुआ। ईसा के जन्म के पूिश और बाद की एक दो शताखब्दयों में अनेक दशशनों की
समानांतर धाराएाँ भारतीय विचारभूमम पर प्रिावहत होने लगीं। बौद्ध और जैन दशशनों की धाराएाँ भी इनमें
सम्म्मक्तलत हैं।
जैन धमश का बौद्ध धमश का आरम्भ एक साथ हुआ। महािीर स्िामी के पूिश 23 जैन तीथशकर हो चुके थे। महािीर
स्िIमी ने जैन धमश का प्रचार वकया। भगिान गौतम बुद्ध उनके समकालीन थे। दोनों का समय ई.पू. छठी
शताब्दी माना जाता है। इन्होंने िेदों से स्ितंत्र एक निीन धार्मिक परम्परा का प्रितशन वकया। िेदों को न मानने
के कारण जैन और बौद्ध दशशनों को "नात्स्तक दशशन" भी कहते हैं। इनका मौक्तलक सावहत्य िमश: महािीर
और बुद्ध के उपदे शों के रूप में है जो िमशः प्राकृत और पाक्तल की लोकभाषाओं में ममलता है तथा जजसका
संग्रह इन महापुरुषों के वनिाशण के बाद कई संगीवतयों में उनके अनुयावययों के परामशश के द्वारा हुआ। बुद्ध और
महािीर दोनों वहमालय प्रदे श के राजकुमार थे। युिािय में ही सन्यास लेकर उन्होने अपने धमो का उपदे श और
प्रचार वकया। उनका यह सन्यास उपवनषदों की परम्परा से प्रेररत है। जैन और बौद्ध धमों में तप और त्याग की
मवहमा भी उपवनषदों के दशनश के अनुकूल है। अकहिसा और आचार की महत्ता तथा जावतभेद का िण्डन इन
धमों की विशेषता है। अकहिसा के बीज भी उपवनषदों में विद्यमान हैं। वफर भी अकहिसा की ध्िजा को धमश के
आकाश में फहराने का श्रेय जैन और बौद्ध सम्प्रदायों को दे ना होगा।
जैि दर्थि
महािीर स्िामी के उपदे शों से लेकर जैन धमश की परंपरा आज तक चल रही है। महािीर स्िामी के उपदे श 41
सूत्रों में संकक्तलत हैं, जो जैनागमों में ममलते हैं। उमास्िामी का "तत्िाथश सूत्र" (300 ई.) जैन दशशन का प्राचीन
और प्रामाभणक शास्त्र है। क्तसद्धसेन ददिाकर (500 ई.), हररभद्र (900 ई.), मेरुतुंग (14िीं शताब्दी), आदद जैन
दशशन के प्रक्तसद्ध आचायश हैं। क्तसद्धांत की दृवष् से जैन दशशन एक ओर अध्यात्मिादी तथा दूसरी ओर
भौवतकिादी है। िह आत्मा और पुद्गल (भौवतक तत्ि) दोनों को मानता है। जैन मत में आत्मा प्रकाश के समान
व्यापक और विस्तारशील है। पुनजशन्म में निीन शरीर के अनुसार आत्मा का संकोच और विस्तार होता है।
स्िरूप से िह चैतन्य स्िरूप और आनंदमय है। िह मन और इंदद्रयों के माध्यम के वबना परोक्ष विषयों के ज्ञान
में समथश है। इस अलौवकक ज्ञान के तीन रूप हैं - अिमधज्ञान, मन:पयाशय और केिलज्ञान। पूणश ज्ञान को
केिलज्ञान कहते हैं। यह वनिाशण की अिस्था में प्राप्त हाता है। यह सब प्रकार से िस्तुओं के समस्त धमों का
ज्ञान है। यही ज्ञान "प्रमाण" है। वकसी अपेक्षा से िस्तु के एक धमश का ज्ञान "नय" कहलाता है। "नय" कई
प्रकार के होते हैं। ज्ञान की सापेक्षता जैन दशशन का क्तसद्धांत है। यह सापेक्षता मानिीय विचारों में उदारता और
सवहष्णुता को संभि बनाती है। सभी विचार और विश्वास आंक्तशक सत्य के अमधकारी बन जाते हैं। पूणश सत्य

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का आग्रह अनुमचत है। िह वनिाशण में ही प्राप्त हो सकता है। वनिाशण आत्मा का कैिल्य है। कमश के प्रभाि से
पुद्गल की गवत आत्मा के प्रकाश को आच्छाददत करती है। यह "आस्रि" कहलाता है। यही आत्मा का बंधन
है। तप, त्याग और सदाचार से इस गवत का अिरोध "संिर" तथा संमचत कमशपुद्गल का क्षय "वनजशरा"
कहलाता है। इसका अंत "वनिाशण" में होता है। वनिाशण में आत्मा का अनंत ज्ञान और अनंत आनंद प्रकाक्तशत
होता है। वनश्चय नय की अपेक्षा स्िभाि से प्रत्येक जीि परमात्मा,कमश मल रवहत है।जजस प्रकार जल को
वकतना ही तपा दो िह एक ना एक ददन शीतल अिश्य होगा क्योंवक शीतलता उसका स्िभाि है ठीक उसी
प्रकार कमश मल से तपा जीिात्मा का स्िभाि वनरंजन है,वनद्वं द है िह कभी न कभी उसे प्राप्त करेगा ही। जैन
दशशन परमात्मा को कताश धताश नहीं मानता िह मानता है जैसे शुभाशुभ कमश वकए हैं उसका फल अिश्य ही
ममलेगा।परमात्मा शुभ ि अशुभ दोनों से सिशथा भभन्न सिशशुद्ध है।
बौद्ध दर्थि
बुद्ध के उपदे श तीन वपटकों में संकक्तलत हैं। ये सुत्त वपटक, विनय वपटक और अभभधम्म वपटक कहलाते हैं। ये
वपटक बौद्ध धमश के आगम हैं। वियाशील सत्य की धारणा बौद्ध मत की मौक्तलक विशेषता
है। उपवनषदों का ब्रह्म अचल और अपररितशनशील है। बुद्ध के अनुसार पररितशन ही सत्य है। पभश्चमी दशशन में
हैराक्लाइटस और बगशसााँ ने भी पररितशन को सत्य माना। इस पररितशन का कोई अपररितशनीय आधार भी नहीं
है। बाह्य और आंतररक जगत् में कोई ध्रुि सत्य नहीं है। बाह्य पदाथश "स्िलक्षणों" के संघात हैं। आत्मा भी
मनोभािों और विज्ञानों की धारा है। इस प्रकार बौद्धमत में उपवनषदों के आत्मिाद का िण्डन करके
"अनात्मिाद" की स्थापना की गई है। वफर भी बौद्धमत में कमश और पुनजशन्म मान्य हैं। आत्मा का न मानने पर
भी बौद्धधमश करुणा से ओतप्रोत हैं। दुःि से द्रवित होकर ही बुद्ध ने संन्यास क्तलया और दुःि के वनरोध का
उपाय िोजा। अविद्या, तृष्णा आदद में दुःि का कारण िोजकर उन्होंने इनके उच्छे द को वनिाशण का मागश
बताया।
अनात्मिादी होने के कारण बौद्ध धमश का िेदान्त दशशन से विरोध हुआ। इस विरोध का फल यह हुआ वक बौद्ध
धमश को भारत से वनिाशक्तसत होना पड़ा। वकन्तु एक्तशया के पूिी दे शों में उसका प्रचार हुआ। बुद्ध के अनुयावययों
में मतभेद के कारण कई संप्रदाय बन गए।
क्तसद्धांतभेद के अनुसार बौद्ध परंपरा में चार दशशन प्रक्तसद्ध हैं। इनमें िैभावषक और सौत्रांवतक मत हीनयान
परम्परा में हैं। यह दभक्षणी बौद्धमत हैं। इसका प्रचार भी लंका में है। योगाचार और माध्यममक मत महायान
परम्परा में हैं। यह उत्तरी बौद्धमत है। इन चारों दशशनों का उदय ईसा की आरंभभक शब्ताखब्दयों में हुआ। इसी
समय िैददक परम्परा में षड् दशशनों का उदय हुआ। इस प्रकार भारतीय परम्परा में दशशन संप्रदायों का आविभाशि
लगभग एक ही साथ हुआ है तथा उनका विकास परस्पर विरोध के द्वारा हुआ है। पभश्चमी दशशनों की भााँवत ये
दशशन पूिाशपर िम में उददत नहीं हुए हैं।
िसुबंधु (400 ई.), कुमारलात (200 ई.) मैत्रेय (300 ई.) और नागाजुशन (200 ई.) इन दशशनों के प्रमुि
आचायश थे। वैभानर्क ित बाह्य िस्तुओं की सत्ता तथा स्िलक्षणों के रूप में उनका प्रत्यक्ष मानता है। अत:
उसे बाह्य प्रत्यक्षिाद अथिा "सिाशत्स्तत्ििाद" कहते हैं। िैरांनतक ित के अनुसार पदाथों का प्रत्यक्ष नहीं,
अनुमान होता है। अतः उसे बाह्यानुमेयिाद कहते हैं। योगािार ित के अनुसार बाह्य पदाथों की सत्ता नहीं।
हमे जो कुछ ददिाई दे ता है िह विज्ञान मात्र है। योगाचार मत विज्ञानिाद कहलाता है। िाध्यचिक ित के
अनुसार विज्ञान भी सत्य नहीं है। सब कुछ शून्य है। शून्य का अथश वनरस्िभाि, वनःस्िरूप अथिा अवनिशचनीय
है। शून्यिाद का यह शून्य िेदान्त के ब्रह्म के बहुत वनकट आ जाता है।

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✓ भारतीय एवं पाश्चात्य दर्थि िें भेद :


भारतीय एिं पाश्चात्य दशशन में प्रमुि अन्तर वनम्नक्तलखित हैं-
(१) भारतीय दशशन की उत्पक्तत्त ‘दृश्’ धातु से हुई है जजसका अथश है 'दे िना' है। इसका भारतीय परम्परा में
बहुत व्यापक अथश में प्रयोग वकया जाता है। भारतीय दशशन के प्रणेताओं ने संकुमचत जीिन-दशशन का सदै ि
वनषेध वकया है तथा अवतविस्तृत मानिीय दशशन के सृजन पर बल ददया है। पाश्चात्य दशशन में वफलॉसफी
(Philosophy) ग्रीक भाषा का शब्द है। जजसका शाखब्दक अथश ‘ज्ञान के प्रवत अनुराग' है। पाश्चात्य दृवष्कोण
के अनुसार ‘दशशन’ शुद्ध बौजद्धक विषय है और यह ज्ञान की िोज मात्र है। जीिन से इसका कोई सम्बन्ध नहीं
। इस प्रकार पाश्चात्य दशशन बौजद्धक अमधक है, जीिन को स्पशश करने िाले तत्त्ि उसमें कम हैं जबवक भारतीय
(पूिी) दशशन जीिन ि जगत् को स्पशश करता है।
(२) पाश्चात्य दशशन ऊध्िाशधर विकास का अनुसरण करता है।इसे प्लेटो, सुकरात ि अरस्तू की क्तशक्षाओं से
लेकर इमानुएल काण्ट की क्तशक्षाओं तक समझा जा सकता है।
भारतीय दशशन समानान्तर क्षैवतजीय विकास का अनुसरण करता है। इस दशशन के विभभन्न सम्प्रदायों का एक-
दूसरे से स्ितन्त्र विकास हुआ है और िे स्ियं में पूणश हैं। बौद्ध दशशन, जैन दशशन, सांख्य दशशन ि योग दशशन
अपने-अपने विचारों के आधार पर विकक्तसत हुए हैं और एक-दूसरे से अलग भी हैं।
(३) भारतीय दशशन में हमें आत्मा का दशशन प्राप्त हुआ जबवक पाश्चात्य दशशन में सामान्यतः मानििाद पाया
जाता है। पाश्चात्य दशशन तकश पर आधाररत है तथा भारतीय दशशन भी तत्त्ि मीमांसा को तकश के आधार पर ही
दे िता है।
(४) पाश्चात्य दशशन में मूल्यमीमांसा या तत्त्िमीमांसा के पहलुओं के प्रवत बौजद्धक उत्सुकता ददिायी दे ती है।
इसके विपरीत पूिी दशशन का मुख्य उद्दे श्य व्यक्ति की स्ितन्त्रता पर ध्यान दे ना ि उसके कष्ों की मुक्ति हेतु
वनिाशण प्रदान करना है। चािाशक के अवतररि सभी भारतीय दाशशवनक सम्प्रदाय स्ितन्त्रता पर विशेष बल दे ते हैं
और पूिी दशशन के समथशक स्ितन्त्रता को अपने तरीके से प्राप्त करना चाहते हैं, वफर चाहे िे बुद्ध हों, महािीर
हों या शंकराचायश हों, परन्तु इसके विपरीत वकसी भी पाश्चात्य दाशशवनक ने स्ितन्त्रता प्राप्त करने का दािा नहीं
वकया है।
(५) पाश्चात्य दशशन का उद्भि 'स्ियं’ को जानो' (Know thy self) से हुआ है। इस त्य का उल्लेि हमें
अपोलो के मजन्दर में क्तलिे गये लेि में प्राप्त होता है। सुकरात ने भी प्राचीन यूनान के प्रमुितः इसका आभास
वकया तथा उसके दशशन में भी स्ियं की दे िभाल के रूप में स्ियं ि संसार के अत्स्तत्ि के परीक्षण के रूप में
ममलता है। १८िीं शताब्दी में इस दशशन के स्िरूप में भी पररितशन आया और यह प्रयोगात्मक, व्यक्तिगत ि
हस्तान्तरण के प्रयोग से मुि हुआ। अब पाश्चात्य दशशन का उद्दे श्य केिल िैज्ञावनक सत्यता के प्रमाण िोजना
एिं मनुष्य के द्वारा इसे जानने की योग्यता की सीमाओं को तलाशता है।
(६) भारतीय ि पाश्चात्य दशशनों के दृवष्कोण में भी अन्तर है। भारतीय दशशन का दृवष्कोण अध्यात्मिादी है। यह
जीिन ि विश्व की विसमता को समझ लेने के बाद वनराशािादी हो जाता है, परन्तु जीिन की िास्तविकता को
समझने िाले महात्मा, ऋवष, मनीषी, दाशशवनक आदद इनमें विरि हो जायें तो इसमें कोई वनराशािाद नहीं है।
भारतीय दृवष्कोण अमधकांशतः भौवतकिादी भी है लेवकन भौवतकता जीिन को समृद्ध तथा सम्पन्न बना
सकती है पर िास्तविक सुि, शान्न्त तथा सन्तोष का दशशन नहीं करा सकते। इसके विपरीत
पभश्चम िान्न्त तथा संघषों की जड़ है अतः उनका दृवष्कोण घोर भौवतकिादी रहा है।
दतनया के प्रमख नास्स्िक दशणन या धमण में चवाणक, जैन और बौि का प्रमख स्िान और महत्व है। सभी िरह
की नास्स्िक तवचारधारा का उद्गम यही िीन धमण हैं। नास्स्िक कहने से यह आभासीि होिा है तक ये धमण ईश्वर

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को नहीं मानिे हैं, जबतक चवाणक को छोड दें िो बाकी दोनों धमण का दृतष्टकोर् इस सांबांध में तबलकल अलग है।

बौद्ध धमण ईश्वर के होने या नहीं होने पर चचाण नहीं करिा, क्योंतक यह बजिजाल से ज्यादा कछ नहीं है। उनका
मानना है तक इस प्रश्न को आप िकण या अन्य तकसी भी िरह से हल नहीं कर सकिे। ईश्वर के होने या नहीं होने
की बहस का कोई अांि नहीं। ठीक उसी िरह तक स्वगण-नरक है या नहीं। मूल प्रश्न यह है तक व्यशक्त है और वह
दःख ििा बांधन में है। उसके दःख व बांधन का मूल कारर् खोजो और मक्त हो जाओ। आष्टाांतगक मागण पर
चलकर दःख व बांधन से मक्त हुआ जा सकिा है। यही आयण सत्य है।

जैन दशणन अनसार अस्स्ित्व या सत्ता के दो ित्व हैं- जीव और अजीव। जीव है चेिना या जजसमें चेिना है और
अजीव है जड अिाणि जजसमें चेिना या गति का अभाव है। जीव दो िरह के होिे हैं एक वे जो मक्त हो गए और
दूसरे वे जो बांधन में हैं। इस बांधन से मशक्त का मागण ही कैवकय का मागण है। स्वयां की इांदरयों को जीिने वाले को
जजनेंर या जजिेंदरय कहिे हैं। सांस्कृि के 'जजन' धाि से बने 'जैन' शब्द का अिण ही यही होिा है, स्वयां को
जीिना। यही अररहांिो का मागण है। जजिेंदरय बनकर जीओ और जीने दो यही जजन सत्य है।

चिाणक या लोकायि दशणन स्पष्ट िौर पर 'ईश्वर' के अस्स्ित्व को नकारिे हुए कहिा है तक यह काकपतनक ज्ञान
है। ित्व भी पाूँच नहीं चार ही हैं। आकाश के होने का शसफण अनमान है और अनमान ज्ञान नहीं होिा। जो
प्रत्यक्ष हो रहा है वही ज्ञान है अिाणि ददखाई दे ने वाले जगि से परे कोई और दूसरा जगि नहीं है। आत्मा
अजर-अमर नहीं है। वेदों का ज्ञान प्रामाभर्क नहीं है। यिािण और विणमान में जीयो। ईश्वर, आत्मा, स्वगण-नरक,
नैतिकिा-अनैतिकिा और िमाम िरह की िार्किंक और दाशणतनक बािें व्यशक्त को जीवन से दूर करिी हैं।
इसीशलए खाओ, तपयो और मौज करो। इस जीवन का भरपूर मजा लो यही चवाणक सत्य है।
अांिि: जैन और बौि दशणन की शशक्षा 'मशक्त' की शशक्षा है। स्वयां को जानने की शशक्षा है। सत्य और अहहिंसा
की शशक्षा है हकिंि चवाणक दशणन पूरी िरह से भौतिकवादी दशणन होने के कारर् इसका भारिीय दशणन, धमण और
समाज में कोई महत्व नहीं रहा, क्योंतक यह दशणन आत्मा के अस्स्ित्व को भी नकारिा है। उसकी नजर में दे ह
ही आत्मा है और मृत्य ही मोक्ष है। शायद यही कारर् रहा तक छठी शिाब्दी आिे-आिे इस दशणन के मूलग्रांि
और मान्यिाएूँ अपना अस्स्ित्व खो बैठीं। इस दशणन को भी वैददक दशणन जजिना पराना ही माना जािा है।
कछ लोग यह कहिे और शलखिे भी हैं तक बौि धमण भी आत्मा के अस्स्ित्व को नहीं मानिा, जबतक यह गलि
है। तनवाणर् आत्मा को ही प्राप्ि होिा है तकसी और को नहीं। इांदरयतवहीन 'शि चैिन्य' इस िरह से होिा है
जैसे तक है ही नहीं। भगवान बि ने कहा िा तक 'अपने ददए खद बनो।' दूसरों के दीपक से िम्हारा दीपक
कभी नहीं जल पाएगा।

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अनमोल रत्न
✓ दूसरों की गलतियों से सीखना चातहए। क्यूँतक आपकी उम्र इिनी लम्बी नहीं है तक आप सारी गलतियाां
खद करें और तफर सीखें।
✓ एक शशक्तशाली ददमाग को कोई नहीं जीि सकिा।
✓ अपना भेद तकसी को न बिायें।
✓ एक आदमी को बहुि ज्यादा सीधा नहीं होना चातहए। क्यूँतक जांगल में सबसे पहले सीधे पेड ही काटे
जािे हैं।
✓ मनष्य कमण से महान होिा है न तक जन्म से। कभी भी बदनामी वाले कमण न करें। इसके बाद कोई आप
पर तवश्वास नहीं करेगा।
✓ कोई भी काम करने से पहले िीन प्रश्न पूछें – मैं यह क्यों कर रहा हूँ ? इसका क्या निीजा होगा ? क्या
मझे इसमें सफलिा ममलेगी?
✓ शशक्षा आपकी सच्ची दोस्ि है। शशभक्षि व्यशक्त हर कहीं सम्मान पािा है।
✓ ईश्वर मांददर -मस्स्जद या मूर्ििंयों में नहीं रहिे हैं। बस्कक वे हमारी भावनाओं और तवश्वास में रहिे हैं।
✓ अपने से नीचे के स्िर के व्यशक्त से कभी दोस्िी न करें। इससे आपको कभी ख़शी नहीं ममलेगी।
✓ पहले 5 साल िक अपने बच्चे को लाड -प्यार करें, अगले पाांच साल िक उसे टोंकें और गलि बािों के
शलए डाांटें, लेतकन जब वह 16 से ऊपर हो जाये िो उसे अपना दोस्ि बना लें।
✓ मोह और प्यार दोनों एक नहीं होिे। मोह प्यार को भी खत्म कर सकिा है।
✓ जब िक कोई काम खत्म न हो जाये उसके बारे में सबको नहीं बिाना चातहए।
✓ अपमातनि होकर जीने से बेहिर मरना होिा है। क्यूँतक मौि िो एक बार आिी है लेतकन अपमातनि
रोज मरिा है।
✓ अगर आपमें एक भी कला (Skill) नहीं है िो आप कभी सफल नहीं हो सकिे। इसशलए तकसी चीज में
जरूर expert बतनए।
✓ काूँटों और दष्ट आदमी से तनपटने के दो ही िरीके हैं। या िो उन्हें अपने जूिों िले कचल दो या हमेशा
उनसे दूर रहो।
✓ अत्यमधक सांदरिा की वजह से सीिा को रावर् चरा कर ले गया ,अत्यमधक Ego (घमांड) की वजह से
रावर् मारा गया, अत्यमधक दान से राजा बशल को परेशानी हुई, इसशलए तकसी भी चीज की अति बरी
होिी है।
✓ आलसी आदमी का न िो विणमान अच्छा होिा है न भतवष्य।
✓ आप एक लालची आदमी को पैसे दे कर जीि सकिे हो, अहांकारी को सम्मान दे कर जीि सकिे हो,
मूखण को सहमति से जीि सकिे हो लेतकन एक तवद्वान को केवल सच्चे िकण से ही जीि सकिे हो।
✓ मनष्य अकेला ही पैदा होिा है और अकेला ही यहाूँ से चला जािा है। केवल उसके कमण ही उसके साि
जािे हैं। और उनके अनसार ही उसे स्वगण और नरक ममलिे हैं।
✓ हमारी मानशसकिा पर ही तनभणर होिा है तक हम गलाम बनेंगे या स्विांत्र।
✓ जब िक आप स्वस्ि हैं, अपनी आत्मा को पतवत्र कर लीजजये। क्यूँतक मौि के नजदीक आप ऐसा नहीं
कर पाएांगे।
✓ जो गरु हमें सफल होने का रास्िा ददखािे हैं उनका ऋर् हम कभी चका नहीं सकिे। केवल उनका
सम्मान कर सकिे हैं।
✓ जजसके ददल में सब प्राभर्यों के शलए दया और प्रेम है वही वास्िव में धार्मिंक है। धार्मिंक होने के शलए
आपको पूजा – पाठ, और कमण – काण्ड करने की जरुरि नहीं होिी।

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✓ जो भी आपकी बीमारी में, दभाणग्य में, बरे वक़्ि में और तवपशत्त में सहायिा करिा है, वह दोस्ि आपका
असली भाई होिा है।
✓ अपनी दौलि केवल उसे दीजजये जो योग्य हो। समर का पानी जब बादल को ममलिा है िो वह मीठा हो
जािा है।
✓ तकसी के भतवष्य को उसके विणमान से judge मि कररये । क्यूँतक कोयला आगे चलकर हीरा भी बन
सकिा है।
✓ वासना से बडी कोई बीमारी नहीं है। यह दीमक की िरह आपके शरीर को खा जािी है।
✓ अगर तकसी से कोई favor चातहए िो उसकी िारीफ ही कीजजये
✓ जो हमारे ददल में रहिा है वह दूर रहकर भी दूर नहीं होिा।
✓ मूखण को सलाह दे ना, बरे चररत्र वाली औरि की प्रशांशा करना, और तनराशावादी आदमी की सांगि में
रहना बेवकूफी है।
✓ आप आदमी के बिाणव से बिा सकिे हैं तक उसकी परवररश कैसे माहौल में हुई होगी। और उसके पेट
से बिा सकिे हो तक वह तकिना खािा होगा।
✓ कभी भी अतिशि बनकर ज्यादा ददन िक तकसी के घर पर न रहें। आपका सम्मान जािा रहेगा।
✓ आपके आस -पास कीचड होने पर भी आप कमल की िरह तनमणल रह सकिे हैं। इसके शलए शसफण
दूसरों की मदद करने की सोचें न तक प्रतिशोध के बारे में।
✓ न्यायोमचि बाि से हम अपने शत्र की सोच भी बदल सकिे हैं।
✓ कभी भी ऋर् न लें। यह एक दश्मन की िरह है और यह आपके दोस्िों को भी दूर कर दे िा है।
✓ अपने आस -पास के लोगों को बदलने की कोशशश न करें। बस्कक एक example स्िातपि करके उन्हें
प्रेररि करें।
✓ हमेसा expert का सम्मान करें और उनसे कछ नया सीखें।
✓ उपलस्ब्ध पाने और जीि हाशसल करने पर भी उन्माददि न हों बस्कक धरिी की िरह शाूँि रहें।
✓ अगर पवणि को रास्िे से हटाना है िो उसके पत्िरों को हटाना शरू कर दें । रोज बेशक एक पत्िर ही
हटाएूँ। ऐसे एक ददन आप पवणि को भी हटा दें गे।
✓ एक बाि बोलू -जजिंदगी में ऐसा इांसान का होना बहुि ज़रूरी है, जजसका ददल का हाल बिाने के शलए
लफ़्ज़ों की ज़रूरि ना पडे।
✓ कभी पीठ पीछे आपकी बाि चले िो घबराना मि, क्योंतक बाि िो उन्हीं की होिी है,
जजनमें कोई बाि होिी है।
✓ अगर आप उस वक्त मस्करा सकिे हो,जब िम पूरी िरह टू ट चके हो,
िो यकीन कर लो तक दतनया में िम्हें कभी कोई िोड नहीं सकिा।
✓ िूफान का भी आना जरूरी है जजिंदगी में, िब जा कर पिा चलिा है,
”कौन” हाि छडा कर भागिा है,और “कौन” हाि पकड कर।
✓ जीवन ना िो भतवष्य में है और ना ही अिीि में है ,जीवन िो केवल विणमान में है।
✓ जजिंदगी में कभी भी मस्श्कलें आई िो शशकायि मि करना,,क्योंतक भगवान मस्श्कलें उसी को दे िा है,
जो मस्श्कलों से कभी हार नहीं मानिा और वह इांसान भगवान का तप्रय इांसान होिा है l
✓ दतनया की सबसे अच्छी तकिाब, हम स्वयां हैं खद को समझ लीजजए,
सब समस्याओं का समाधान हो जाएगा।
✓ कछ ममनट में जजिंदगी नहीं बदलिी, पर कछ ममनट में सोच कर शलया हुआ फैसला,
पूरी जजिंदगी बदल दे िा है, इसशलए फैसलों को अहममयि दीजजये।

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II ॐ II

✓ जज़िंदगी में इांसान तकसी चीज की सच्ची कीमि, केवल दो ही हालािों में समझ पािा है,
उसको पाने से पहले और उसको खोने के बाद।
✓ हम कभी भी यह फैसला नहीं ले सकिे तक कब हमें जन्म लेना है और कब हमें मरना है, पर हम यह
जरूर फैसला ले सकिे हैं, तक हमें जजिंदगी को तकस िरह से जीना है l
✓ जीवन में आपसे कौन ममलेगा,ये समय िय करेगा,जीवन में आप तकस से ममलेंगे,
ये आपका ददल िय करेगा,परांि जीवन में आप तकस-तकस के ददल में बने रहेंगे,
यह आपका व्यवहार िय करेगा।
✓ एक खूबसूरि सोच : अगर कोई पूछे जजिंदगी में क्या खोया और क्या पाया, िो कहना जो कछ खोया वो
मेरी नादानी िी और जो भी पाया वो प्रभू की मेहेरबानी िी .
✓ खबसूरि ररश्िा है मेरा और भगवान के बीच में, ज्यादा मैं माांगिा नहीं और कम वो दे िा नहीं?
✓ जजिंदगी में तकसी इांसान को अस्वीकार मि करना, क्योंतक अगर अच्छा होगा िो आपको खश रखेगा, या
बरा हुआ िो आपको अनभव दे गा, दोनों ही आपके शलए अच्छा है l
✓ गलिी कबूल करने और गनाह छोडने में कभी दे र ना करें, क्योंतक सफर जजिना लम्बा होगा, वापसी
उिनी ही मस्श्कल हो जायेगी।
✓ जजिंदगी में जो कायण मस्श्कल लगे, उसे बार-बार ररपीट करने से, कायण आसान हो जािा है
✓ गीिा में स्पष्ट शब्दों में शलखा है, तनराश न होना कमजोर िेरा वक्त है, िू नहीं।
✓ जब आप अपने दोस्ि को बोलो मै ठीक हूँ और वह दोस्ि आपकी िरफ दे ख कर बोले हो गया, चल
अब बिा प्रॉब्लम क्या है।
✓ यह सोच कर दखी ना हो तक लोग आपको नहीं समझिे, क्योंतक िराजू से वजन को मापा जा सकिा
है, गर्वत्ता को नहीं।
✓ जो होने वाला है वह होकर ही रहिा है और जो नहीं होने वाला वह कभी नहीं होिा,
ऐसा तनश्चय जजनकी बजि में होिा है, उन्हें चचिंिा कभी नहीं सिािी।
✓ भगवान शसफण वहीं नहीं है जहाूँ हम प्रािणना करिे हैं,भगवान वहाूँ भी है जहाूँ हम पाप करिे हैं।
✓ कछ बोलने और िोडने में केवल एक पल ही लगिा है, जबतक बनाने और मनाने में पूरा जीवन लग
जािा है,
✓ प्रेम सदा माफ़ी माूँगना पसांद करिा है, और अहांकार सदा माफ़ी सनना पसांद करिा है।
✓ दतनया में रहने की सबसे अच्छी दो जगह है,एक तकसी के ददल में और दूसरे तकसी की दआओं में।
✓ उस शशक्षा का कोई मिलब नहीं है, जो इांसातनयि न शसखािी हो।
✓ जरूरि के मिातबक जजिंदगी जजओ, ख्वातहशों के मिातबक नहीं, क्योंतक जरुरि िो फकीरों की भी पूरी
हो जािी है और ख्वातहशें बादशाहों की भी अधूरी रह जािी है।
✓ बरी आदिें अगर वक़्ि पे ना बदलीं जायें, िो वो आदिें आपका वक़्ि बदल दे िी हैं।
✓ जज़न्दगी एक अध्यापक से ज़्यादा सख्ि होिी है, अध्यापक सबक़ दे कर इप्म्िहान लेिा है और जज़न्दगी
इप्म्िहान लेकर सबक़ दे िी है।
✓ अपने अांदर का बचपना हमेशा जजिंदा रखो क्योंतक ज्यादा समझदारी Life को Boring बना दे िी है।
✓ जज़िंदगी में मस्श्कलों का आना Part of life है, और उनमें से हांसकर बाहर आना Art of life है.
✓ अांधेरे को हटाने में वक्त बबाणद मि कररए बस्कक ददये को जलाने में वक्त लगाइए,
दूसरों को नीचा ददखाने में नही, खद को ऊांचा उठाने में वक्त लगाइए..
✓ आप इिने छोटे बतनए तक हर व्यशक्त आपके साि बैठ सके और इिने बडे बतनए की आप जब उठे िो
कोई बैठा ना रहे।
✓ “लफ्जों” का इस्िेमाल तहफाज़ि से कररए, ये “परवररश” का बेहिरीन सबूि होिे हैं..!

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II ॐ II

✓ दतनया आपको तगरा सकिी है, लेतकन जब िक आप ना चाहो िब िक हरा नही सकिी।
✓ Life में कौन आिा है ये Important नही, आखखर िक कौन रहिा है ये Important है।
✓ जीवन में हमेशा एक दूसरे को समझने का प्रयत्न कररए, परखने का नही।
✓ अगर कोई आपसे उम्मीद करिा है िो ये उसकी मजबूरी नही, आपसे लगाव और तवश्वास है।
✓ गलिी करना बरा नही है गलिी से सीख ना लेना बरा है…
✓ हम जज़न्दगी में बहुि सी चीजें खो दे िे हैं। “नही” जकदी बोलकर और “हाां” दे र से बोलकर!!
✓ िकलीफें आधी हो जािी हैं, जब कोई अपना आकर बोलिा है, चचिंिा मि कर मै हां ना…,बािें उन्हीं से करो
जजन्हे आपकी बािें सनना पसांद हो। जज़न्दगी में उस इांसान को मि खोना जो, गस्सा करके तफर भी िम्हारे
पास आए। जो आपके साि ददल से बाि करिा हो, उसको कभी ददमाग से जवाब मि दे ना। जजिंदगी में
बेशक हर मौके का फायदा उठाओ, मगर तकसी के प्रेम और तवश्वास का नही!!
✓ प्रेम वो नही जो एक गलिी पर साि छोड दे …प्रेम िो वो है जो सौ गलतियों को सधार कर साि दे …
✓ जो चीज वक़्ि पर ना ममले वो बाद में ममले ना ममले, कोई फकण नही पडिा।
✓ अच्छा ददखने के शलए नही अच्छा बनने के शलए जजओ।
✓ तकसी का सरल स्वभाव उसकी कमजोरी नही होिी, उसके सांस्कार होिे हैं।
✓ गस्से में कभी गलि मि बोलो, मूड िो ठीक हो ही जािा है, पर बोली हुई बािें वापस नही आिीं..
✓ हमारी जज़न्दगी में हर फैसला हमारा नही होिा….कछ फैसले वक़्ि और हालाि भी करिे हैं।
✓ तकसी को force मि करो तक वो आपको टाइम दे , अगर वो सच में आपकी Care करिे हैं िो खद टाइम
तनकाल लेंगे।
✓ जजिंदगी जीने के शलए कोई perfect इांसान नही चातहए होिा है बस्कक एक ऐसा इांसान चातहए होिा है जो
आपकी Respect और Care करे..
✓ जजिना हो सके खामोश रहना ही अच्छा है, क्योंतक सबसे ज्यादा गनाह इांसान की ‘जबान’ ही करवािी है।
✓ बाि करने का िरीका ही बिा दे िा है तक ररश्िों में तकिनी गहराई और तकिना अपनापन है।
✓ कौन, कब, तकसका और तकिना अपना है…यह शसफ़ण वक्त बिािा है।
✓ इांसान हांसिा िो सबके सामने है, लेतकन रोिा उसी के सामने है, जजस पर उसे खद से ज्यादा भरोसा होिा
है।
✓ जरूरी नही की इांसान हर बाि लफ़्ज़ों से ही बयाां करे, कभी कभार उसकी खामोशी भी बहुि कछ बयाां कर
दे िी है।
✓ तकसी की बेज्जिी हमेशा नाप िौल कर करना क्योंतक, ये वो उधार है जो हर कोई ब्याज के साि चकाने
की सोचिा है।
✓ जजिना बडा सपना होगा, उिनी ही बडी िकलीफें होंगी,और जजिनी बडी िकलीफें होंगी उिनी बडी
कामयाबी होगी।
✓ ख़द का माइनस point जान लेना, जज़िंदगी का सबसे बडा प्लस point है।
✓ हारे हुए की सलाह, जीिे हुए का अनभव और खद का ददमाग इांसान को कभी हारने नही दे िा है।
✓ Life एक खेल है अब ये आप पर depend करिा है की आपको खखलाडी बनना है या खखलौना।
✓ ईश्वर के हर फैसले पर खश रहो,
“क्योंतक ईश्वर वो नही दे िा, जो आपको अच्छा लगिा है”
बस्कक, “ईश्वर वो दे िा है, जो आपके शलए अच्छा होिा है।”
✓ मेहनि ही ऐसी करो की तकस्मि भी, िम्हारा साि दे ने पर मजबूर हो जाए।
✓ जो अपना ना हुआ उस पर कभी हक ना जिाना और जो समझ ना सके उसे कभी दःख ना बिाना।।

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II ॐ II

✓ कामयाब होने के शलए अकेले ही आगे बढ़ना पडिा है ,लोग िो पीछे िब आिे हैं जब आप कामयाब होने
लगिे हैं!
✓ दतनया को छोडो, पहले उसे खश रखो! जजसको िम रोजाना आइने में दे खिे हो!!
✓ कभी सनी सनाई बाि पर यकीन मि कीजजए क्योंतक एक बाि के िीन पहलू होिे हैं
आपका, उनका और सच का…
✓ कभी कछ नया पाने के शलए वो मि खो दे ना जो पहले से ही आपका है।
✓ कभी कभी जवाब न दे ना ही…सबसे बडा जवाब होिा है..!
✓ ररश्िे िोडने िो नही चातहए, लेतकन जहाां कदर न हो वहाां तनभाने भी नही चातहए।।
✓ जज़िंदगी में कीमि दोनों की चकानी पडिी है, बोलने के भी और चप रहने की भी.!!
✓ जब कोई आपकी क़दर न करें ! िब आपका उसकी जज़न्दगी से दूर चले जाना बेहिर है !
✓ बाि िो शसफण जज़्बािो की होिी है वरना ! मोहब्बि िो साि फेरों के बाद भी नहीं होिी
✓ अपनी जज़न्दगी ऐसे जजयो तक अगर कोई आपकी बराई करें ! िो लोग उस पर तवश्वास न करें !
✓ "यहाूँ लोग अपनी गलिी नहीं मानिे ! तकसी को अपना कैसे मानेंगे !!"
✓ "जज़न्दगी लम्बी होने की बजाय ! महान होनी ज़रूरी है !!"
✓ "इांसान को बोलना शसखने में दो साल लग जािे हैं ! लेतकन क्या बोलना है ये शसखने में पूरी
जज़न्दगी तनकल जािी !!"
✓ "मोर नाचिे हुए भी रोिा है और हांस मरिे हुए भी गािा है !
ये जज़न्दगी को फलसफा है दःख वाली राि नींद नहीं आिी और ख़शी वाली राि कौन सोिा है !!"
✓ "जब िक यह जान पािे है तक जज़न्दगी क्या है ! िब िक यह आधी ख़त्म हो चकी होिी है !!"
✓ "अपना जज़न्दगी पर कभी घमांड हो िो एक चक्कर क़तब्रस्िान का लगाकर आ जाना !न जाने िम जैसे
तकिनो को खदा ने ममट्टी से बनाकर ममट्टी में ममला ददया !!"
✓ "ज़रूरि से ज़्यादा अच्छे बनोंगे िो ! लोग नींबू समझकर तनचोड दें गे !!"
✓ "अगर आप सही हो िो कछ भी सातबि करने की कोशशश मि करो !
बस सही बने रहो गवाही वक़्ि खद दे गा !!"
✓ "हमेशा समझौिा करना सीखो, क्योंतक िोडा सा झक जाना ! तकसी ररश्िे का हमेशा के शलए खो दे ने
से बेहिर है !!"
✓ "एक बाि जज़न्दगी भर याद रखखये ! आपका ख़श रहना ही आपका बरा चाहने वालो
के शलए सबसे बडी सज़ा है !!"
✓ जकदी सोना और जकदी उठना इांसान को स्वस्ि ,समृि और बजिमान बनािा है.
✓ कभी भी जो काम आप आज कर सकिे हैं उसे कल पर मि टाशलए.
✓ ज्ञान शशक्त है.
✓ भगवान उसकी मदद करिा है जो खद अपनी मदद करिा है.
✓ आपकी इज़ाज़ि के तबना कोई आपको नीचा नहीं ददखा सकिा है.
✓ यदद आप सच बोलिे हैं िो आपको कछ याद रखने की ज़रुरि नहीं रहिी.
✓ उस काम का चयन कीजजये जजसे आप पसांद करिे हों, तफर आप पूरी जज़न्दगी एक ददन भी काम नहीं
करांगे.
✓ िीन चीजें अमधक समय िक नहीं छप सकिी, सूरज, चांरमा और सत्य.
✓ जीवन की लम्बाई नहीं , गहराई मायने रखिी है.
✓ जीिने वाले अलग चीजें नहीं करिे, वो चीजों को अलग िरह से करिे हैं.

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✓ एक जलिे हुए दीपक से हजारों दीपक रौशन तकए जा सकिे है, तफर भी उस दीपक की रौशनी कम
नहीं होिी हैं। उसी िरह खशशयाूँ भी बाूँटने से बढ़िी है, कम नहीं होिी
✓ इांसान के भीिर ही शाांति का वास होिा है, इसे बाहर ना खोजे।
✓ शरीर को स्वस्ि रखना हमारा कत्तणव्य है, नहीं िो हम अपने ददमाग को स्वस्ि और मजबूि नहीं रख
पाएांगे I “स्वास्थ्य के तबना जीवन जीवन नहीं होिा, बस िकान और पीडा होिी है- जो मृत्य के समान
है।”
✓ इस पूरी दतनया में इिना अन्धकार नहीं है तक वो एक छोटे से दीपक के प्रकाश को ममटा सके।
✓ नफरि से नफरि कभी खत्म नहीं हो सकिी। नफरि को केवल प्यार द्वारा ही समाप्ि तकया जा सकिा
है। यह एक प्राकृतिक सत्य है। अगर आप वाकई में अपने आप से प्यार करिे है, िो आप कभी भी
दूसरों को दःख नहीं पहुांचा सकिे।
✓ क्रोमधि रहना, जलिे कोयले को तकसी दूसरे पर फेंकने की इच्छा से पकडे रहने के समान है। यह सबसे
पहले खद को ही जलािा है।
✓ मांजजल िक पहुूँचने से ज्यादा महत्वपूर्ण, मांजजल िक की यात्रा अच्छे से करना होिा है।
✓ आप चाहें जजिनी तकिाबें पढ़ लें, तकिने भी अच्छे प्रवचन सन लें उनका कोई फायदा नहीं होगा, जब
िक तक आप उनको अपने जीवन में नहीं अपनािे। हजारों शब्दों से अच्छा वो एक शब्द होिा हैं जो
शाांति लािा है।
✓ न अिीि की स्मृतियों में अटके रहें, न भतवष्य की ककपना में। मन को िो बस विणमान पर एकाग्र रखना
चातहए I
✓ हजारों लडाइयाूँ जीिने से अच्छा होगा तक िम स्वयां पर तवजय हाशसल कर लो। तफर जीि हमेशा
िम्हारी होगी। इसे िमसे कोई नहीं छीन सकिा, न दे विा और न दानव।
✓ सत्यवार्ी ही अमिवार्ी है, सत्यवार्ी ही सनािन धमण है।
✓ सांिोष सबसे बडा धन है, वफादारी सबसे बडा सांबध ां है और स्वास्थ्य सबसे बडा उपहार है।
✓ इच्छाओं का कभी अांि नहीं होिा। आपकी एक इच्छा पूरी हुई नहीं तक दूसरी इच्छा जन्म ले लेिी है।
✓ तकसी बाि पर इसशलए तवश्वास मि कर लेना तक उसे िमने तकिाब में पढ़ी है। न इसशलए तवश्वास करना
तक ऐसा तकसीने या मैंने कहा है। केवल िब तवश्वास करना जब यह िम्हारे िकण और सहज बजि से
प्रमाभर्ि हो जाए।
✓ ज्ञान की प्राप्प्ि खद से प्रयास से ही सांभव है, दूसरों पर तनभणरिा व्यिण है।
✓ मनष्य जैसा सोचिा है वैसा ही बन जािा है। मनष्य जैसा महसूस करिा है वैसी ही चीजों को वह
अपनी िरफ आकर्षिंि करिा है, और वह जैसी ककपना करिा है वैसी ही चीजों को तनर्मिंि करिा है।
✓ सत्य के मागण पर मनष्य दो ही गलतियाां करिा है- पहली यह, तक वह मागण पर आखखर िक चला नहीं;
दूसरी यह, तक उसने चलने की शरुआि नहीं की।
✓ ध्यान से ज्ञान प्रकट होिा है। ध्यान का अभाव ही अज्ञान का कारर् है।
✓ प्रत्येक कायण को इन चरर्ों से गजरना पडिा है – उपहास, तवरोध और तफर स्वीकृति। जो लोग अपने
समय से पहले सोचिे हैं, उन्हें गलि समझा जािा है।
✓ ब्रह्माांड में सभी शशक्तयाां पहले से ही हमारी हैं। यह हम हैं जजन्होंने हमारी आांखों के सामने हाि रखा है
और रोिे हुए कहा तक यह अांधेरा है। भगवान ने मझे वह सब कछ नहीं ददया जो मैं चाहिा िा। लेतकन,
उसने मझे वह सब कछ ददया जजसकी मझे जरूरि िी!
✓ एकमात्र धमण जजसे शसखाया जाना चातहए वह तनभणयिा का धमण है। या िो इस दतनया में या धमण की
दतनया में, यह सच है तक डर पिन और पाप का तनभश्चि कारर् है। यह भय है जो दख लािा है, भय जो

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मृत्य लािा है, भय जो बराई को जन्म दे िा है। और क्या डर का कारर् बनिा है? हमारे अपने स्वभाव
की अनदे खी।
✓ अपने जीवन में जोखखम लो। यदद आप जीििे हैं, िो आप नेिृत्व कर सकिे हैं! यदद आप हारिे हैं, िो
आप मागणदशणन कर सकिे हैं!
✓ मानव मन की शशक्त की कोई सीमा नहीं है। जजिना अमधक ध्यान केंदरि तकया जािा है उिना ही
अमधक शशक्त को एक हबिंद पर सहन करने के शलए लाया जािा है Iदतनया ने जो भी ज्ञान प्राप्ि तकया है
वह सभी ज्ञान मन से आिा है। ब्रह्माांड का अनांि पस्िकालय हमारे अपने ददमाग में है। कस्िूरी मृग उस
गांध के स्रोि को खोजिा रहिा है, जबतक वो गांध स्वयां उसमें से आिी हैं।
✓ एक तवचार लो। उस एक तवचार को अपना जीवन बना लो, उसका सपना दे खो, उसके बारे में सोचो,
उस तवचार पर जजयो। मस्स्िष्क, शरीर, माांसपेशशयों, नसों, आपके शरीर के प्रत्येक भाग को उस तवचार
से भर जाने दें . और बस हर अन्य तवचार को अकेला छोड दें । यह सफलिा का मागण है, और इस िरह
महान ददग्गज बनिे हैं। सारी शशक्त िम्हारे भीिर है। आप कछ भी और सब कछ कर सकिे हैं। उस पर
तवश्वास करो, यह मि मानो तक िम कमजोर हो। तवश्वास न करें तक आप आधे पागल हैं I हम वही हैं
जो हमारे तवचारों ने हमें बनाया है। इसशलए आप जो सोचिे हैं उसका ख्याल रखें। शब्द गौर् हैं। तवचार
रहिे हैं, वे दूर िक यात्रा करिे हैं।
✓ आपको अांदर से बाहर की िरफ बढ़ना होगा। आपको कोई नहीं शसखा सकिा,
कोई भी आपको आध्यास्त्मक नहीं बना सकिा है। कोई दूसरा शशक्षक नहीं है, बस्कक आपकी अपनी
आत्मा है। उठो, जागो, िब िक नहीं रुकें जब िक लक्ष्य पूरा न हो जाए। एक समय में एक काम करो।
और इसे करिे समय, अपनी पूरी आत्मा को इसमें शाममल करने के शलए सभी को छोड दें ।
✓ ददल और ददमाग के बीच सांघषण में, अपने ददल का पालन करें।
✓ आप ईश्वर में िब िक तवश्वास नहीं कर सकिे जब िक आप खद पर तवश्वास नहीं करिे।
✓ वह नास्स्िक है जो खद पर तवश्वास नहीं करिा है। पराने धमों ने कहा तक वह एक नास्स्िक िा जो ईश्वर
में तवश्वास नहीं करिा िा। नया धमण कहिा है तक वह एक नास्स्िक है जो खद पर तवश्वास नहीं करिा
है।
✓ मन की शशक्तयाूँ सूयण की तकरर्ों के समान हैं। जब वे केंदरि होिे हैं, िो वे रोशनी करिे हैं।
✓ मांददर वही पहुांचिा है जो धन्यवाद दे ने जािा हैं, माांगने नहीं।
✓ िीिण करने के शलए कहीं जाने की जरूरि नहीं है। सबसे अच्छा और बडा िीिण आपका अपना मन है,
जजसे तवशेष रूप से शि तकया गया हो।
✓ एक सच यह भी है की लोग आपको उसी वक़्ि िक याद करिे है जब िक साांसें चलिी हैं । साांसों के
रुकिे ही सबसे क़रीबी ररश्िेदार, दोस्ि, यहाां िक की पत्नी भी दूर चली जािी है।
✓ सभी धमण समान है। महत्वपूर्ण बाि यह है तक छि पर पहुांचने के शलए आप पत्िर की सीदढ़यों से, लकडी
की सीदढ़यों से, बाांस की सीदढ़यों से या रस्सी से पहुांचा सकिे हैं। आप बाांस के खांभे से भी चढ़ सकिे हैं।
ईश्वर को सभी रास्िों से महसूस तकया जा सकिा है।
✓ हम महानिा के करीब िभी आ सकिे हैं जब हम तवनम्रिा में महान हों।
✓ अकेले फूल को कई काूँटों से ईष्याण करने की जरूरि नहीं होिी
✓ चांरमा अपना प्रकाश सांपूर्ण आकाश में फैलािा है परांि अपना कलांक अपने पास ही रखिा है।
✓ मैं यह कभी नहीं दे खिा तक क्या तकया गया है; मैं केवल दे खिा हां तक क्या तकया जाना बाकी है।
✓ शास्त्र अनसार हनिंदा सनाने वाला भी उिना ही दोषी है, जजिना की हनिंदा करने वाला।

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✓ आप जो भी करें लेतकन होिा वही है जो ईश्वर चाहिे हैं। इसशलए आप वो करें जो ईश्वर चाहिे हैं, तफर
वही ममलेगा जो आप चाहिे हैं।
✓ आप जो करना चाहिे हैं वो जरूर कररये, यह मि सोमचये की लोग क्या कहेंगे, क्योंतक लोग िो िब भी
कहेंगे जब आप कछ नहीं करेगें।
✓ माफी माांगने का यह अिण नहीं की आप गलि है और सामने वाला सही ! इसका अिण है की आप ररश्िों
की कीमि जानिे हैं और तनभाने की काबीशलयि रखिे हैं।
✓ कहा जािा है तक धमण के तबना इांसान लगाम के तबना घोडे की िरह है।
✓ वृक्षों को दे खो, पभक्षयों को दे खो, बादलों में दे खो, शसिारों को दे खो …और अगर आपके पास आूँखें है िो
आप यह दे खने में सक्षम होगे तक पूरा अस्स्ित्व आनांदमय है। सब कछ बस खश है। पेड तबना तकसी
कारर् के खश हैं ; वे प्रधानमांत्री या राष्ट्रपति बनने नहीं जा रहे हैं और वे अमीर भी नहीं बनने जा रहे हैं
और ना ही कभी उनके पास बैंक बैलेंस होगा…फूलों को दे खखये – तबना तकसी कारर् के तकिने खश
और अतवश्वसनीय है।
✓ अगर आप तबना प्यार के काम करिे हैं, िो आप गलाम की िरह काम कर रहे हैं। जब आप प्यार से काम
करिे हैं, िो आप एक सम्राट की िरह काम करिे हैं। िम्हारा काम ही िम्हारी ख़शी हैं, िम्हारा काम ही
िम्हारा नृत्य है। अपने छोटे -छोटे कामों में भी ददल, ददमाग और आत्मा सब कछ लगा दो। यही सफलिा
का राज है।
✓ उस रास्िे पर मि चलो, जजस पर डर िम्हे ले जाये, बस्कक उस रास्िे पर चलो, जजस पर प्रेम ले जाये,
उस रास्िे पर चलो, जजस पर ख़शी िम्हे ले जाये

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II श्री कृष्णा शरणम ममः II


संत कबीर के प्रक्तसद्द दोहे और उनके अथण

गुरु गोपििंद दोउ खड़े, काके लागभं पाूँय ।


बक्तलहारी गुरु आपने, गोपििंद द्रदयो यमलाय॥
भावािण: कबीर दास जी इस दोहे में कहिे हैं तक अगर हमारे सामने गरु और भगवान दोनों एक साि खडे हों
िो आप तकसके चरर् स्पशण करेंग? े गरु ने अपने ज्ञान से ही हमें भगवान से ममलने का रास्िा बिाया है इसशलए
गरु की मतहमा भगवान से भी ऊपर है और हमें गरु के चरर् स्पशण करने चातहए।

ऐसी िार्ी बोक्तलए मन का आप खोये ।


औरन को शीतल करे, आपहं शीतल होए ।
भावािण: कबीर दास जी कहिे हैं तक इांसान को ऐसी भाषा बोलनी चातहए जो सनने वाले के मन को बहुि
अच्छी लगे। ऐसी भाषा दूसरे लोगों को िो सख पहुूँचािी ही है, इसके साि खद को भी बडे आनांद का अनभव
होिा है।

बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजभर


पंथी को िाया नहीं फल लागे अवत दूर ।
भावािण: कबीर दास जी कहिे हैं तक खजूर का पेड बेशक बहुि बडा होिा है लेतकन ना िो वो तकसी को छाया
दे िा है और फल भी बहुि दूरऊूँचाई पे लगिा है। इसी िरह अगर आप तकसी का भला नहीं कर पा रहे िो ऐसे
बडे होने से भी कोई फायदा नहीं है।

बुरा जो दे खन मैं चला, बुरा न यमक्तलया कोय ।


जो मन दे खा आपना, मुझ से बुरा न कोय ।
भावािण: कबीर दास जी कहिे हैं तक मैं सारा जीवन दूसरों की बराइयाां दे खने में लगा रहा लेतकन जब मैंने खद
अपने मन में झाूँक कर दे खा िो पाया तक मझसे बरा कोई इांसान नहीं है। मैं ही सबसे स्वािी और बरा हूँ

दुःख में सुयमरन सब करे, सुख में करे न कोय ।


जो सुख में सुयमरन करे, तो दुःख काहे को होय ।
भावािण: दःख में हर इांसान ईश्वर को याद करिा है लेतकन सख में सब ईश्वर को भूल जािे हैं। अगर सख में भी
ईश्वर को याद करो िो दःख कभी आएगा ही नहीं।

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।


पल में परलय होएगी, बहरर करेगा कब ।
भावािण: कबीर दास जी कहिे हैं तक हमारे पास समय बहुि कम है, जो काम कल करना है वो आज करो, और
जो आज करना है वो अभी करो, क्यूांतक पलभर में प्रलय जो जाएगी तफर आप अपने काम कब करेंगे।

ज्यों वतल मावह तेल है, ज्यों चकमक में आग ।


तेरा साईं तुझ ही में है, जाग सके तो जाग ।

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II ॐ II

भावािण: कबीर दास जी कहिे हैं जैसे तिल के अांदर िेल होिा है, और आग के अांदर रौशनी होिी है ठीक वैसे
ही हमारा ईश्वर हमारे अांदर ही तविमान है, अगर ढूां ढ सको िो ढू ढ लो।

जहाूँ दया तहा धमण है, जहाूँ लोभ िहां पाप ।


जहाूँ रोध तहा काल है, जहाूँ क्षमा िहां आप ।
भावािण: कबीर दास जी कहिे हैं तक जहाूँ दया है वहीँ धमण है और जहाूँ लोभ है वहाां पाप है, और जहाूँ क्रोध है
वहाां सवणनाश है और जहाूँ क्षमा है वहाूँ ईश्वर का वास होिा है।

जजन घर साधभ न पुजजये, घर की सेिा नाही ।


ते घर मरघट जावनए, भुत बसे वतन माही ।
भावािण: कबीर दास जी कहिे हैं तक जजस घर में साध और सत्य की पूजा नहीं होिी, उस घर में पाप बसिा है।
ऐसा घर िो मरघट के समान है जहाूँ ददन में ही भूि प्रेि बसिे हैं।

साधु ऐसा चावहए जैसा सभप सुभाय।


सार-सार को गवह रहै थोथा दे ई उडाय।
भावािण: कबीर दास जी कहिे हैं तक एक सज्जन परुष में सूप जैसा गर् होना चातहए। जैसे सूप में अनाज के
दानों को अलग कर ददया जािा है वैसे ही सज्जन परुष को अनावश्यक चीज़ों को छोडकर केवल अच्छी बािें
ही ग्रहर् करनी चातहए।

पािे द्रदन पािे गए हरी से वकया न हेत ।


अब पिताए होत क्या, यचयडया चुग गई खेत ।
भावािण: कबीर दास जी कहिे हैं तक बीिा समय तनकल गया, आपने ना ही कोई परोपकार तकया और नाही
ईश्वर का ध्यान तकया। अब पछिाने से क्या होिा है, जब मचमडया चग गयी खेि।

जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही ।


सब अूँयधयारा यमट गया, दीपक दे खा माही ।
भावािण: कबीर दास जी कहिे हैं तक जब मेरे अांदर अहांकारमैं िा, िब मेरे ह्रदय में हरीईश्वर का वास नहीं िा।
और अब मेरे ह्रदय में हरीईश्वर का वास है िो मैंअहांकार नहीं है। जब से मैंने गरु रूपी दीपक को पाया है िब से
मेरे अांदर का अांधकार खत्म हो गया है।

नहाये धोये क्या हआ, जो मन मैल न जाए ।


मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए ।
भावािण: कबीर दास जी कहिे हैं तक आप तकिना भी नहा धो लीजजए, लेतकन अगर मन साफ़ नहीं हुआ िो
उसे नहाने का क्या फायदा, जैसे मछली हमेशा पानी में रहिी है लेतकन तफर भी वो साफ़ नहीं होिी, मछली में
िेज बदबू आिी है।

कबीरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर ।


जो पर पीर न जानही, सो का पीर में पीर ।
भावािण: कबीर दास जी कहिे हैं तक जो इांसान दूसरे की पीडा और दःख को समझिा है वही सज्जन परुष है
और जो दूसरे की पीडा ही ना समझ सके ऐसे इांसान होने से क्या फायदा।

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II ॐ II

कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी ।


एक द्रदन तभ भी सोिेगा, लम्बे पाूँि पसारी ।
भावािण: कबीर दास जी कहिे हैं तक िू क्यों हमेशा सोया रहिा है, जाग कर ईश्वर की भशक्त कर, नहीं िो एक
ददन िू लम्बे पैर पसार कर हमेशा के शलए सो जायेगा।

पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंयडत भया न कोय ।


ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंयडत होय ।
भावािण: कबीर दास जी कहिे हैं तक लोग बडी से बडी पढाई करिे हैं लेतकन कोई पढ़कर पांमडि या तवद्वान
नहीं बन पािा। जो इांसान प्रेम का ढाई अक्षर पढ़ लेिा है वही सबसे तवद्वान् है।

शीलिंत सबसे बड़ा सब रतनन की खान ।


तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ।
भावािण: शाांि और शीलिा सबसे बडा गर् है और ये दतनया के सभी रत्नों से महांगा रत्न है। जजसके पास
शीलिा है उसके पास मानों िीनों लोकों की सांपशत्त है।

साईं इतना दीजजये, जामे कुटुं ब समाये ।


मैं भी भभखा न रहूँ, साधभ न भभखा जाए ।
भावािण: कबीर दास जी कहिे हैं तक हे प्रभ मझे ज्यादा धन और सांपशत्त नहीं चातहए, मझे केवल इिना चातहए
जजसमें मेरा पररवार अच्छे से खा सके। मैं भी भूखा ना रहां और मेरे घर से कोई भूखा ना जाये।

माखी गुड में गडी रहे, पंख रहे क्तलपटाए ।


हाथ मेल और सर धुन,ें लालच बुरी बलाय ।
भावािण: कबीर दास जी कहिे हैं तक मक्खी पहले िो गड से शलपटी रहिी है। अपने सारे पांख और मांह गड से
मचपका लेिी है लेतकन जब उडने प्रयास करिी है िो उड नहीं पािी िब उसे अफ़सोस होिा है। ठीक वैसे ही
इांसान भी साांसाररक सखों में शलपटा रहिा है और अांि समय में अफ़सोस होिा है।

ऊूँचे कुल का जनयमया, करनी ऊूँची न होय ।


सुिर्ण कलश सुरा भरा, साधभ पनिंदा होय ।
भावािण: कबीर दास जी कहिे हैं तक ऊूँचे कल में जन्म िो ले शलया लेतकन अगर कमण ऊूँचे नहीं है िो ये िो वही
बाि हुई जैसे सोने के लोटे में जहर भरा हो, इसकी चारों ओर हनिंदा ही होिी है।

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुि होय ।


माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ।
भावािण: कबीर दास जी मन को समझािे हुए कहिे हैं तक हे मन! दतनया का हर काम धीरे धीरे ही होिा है।
इसशलए सब्र करो। जैसे माली चाहे तकिने भी पानी से बगीचे को सींच ले लेतकन वसांि ऋिू आने पर ही फूल
खखलिे हैं।

माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।


आशा तृषर्ा न मरी, कह गए दास कबीर ।

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II ॐ II

भावािण: कबीर दास जी कहिे हैं तक मायाधन और इांसान का मन कभी नहीं मरा, इांसान मरिा है शरीर बदलिा
है लेतकन इांसान की इच्छा और ईष्याण कभी नहीं मरिी।

मांगन मरर् समान है, मत मांगो कोई भीख,


मांगन से मरना भला, ये सतगुरु की सीख
भावािण: कबीर दास जी कहिे हैं तक माांगना िो मृत्य के समान है, कभी तकसी से भीख मि माांगो। माांगने से
भला िो मरना है।

कबीरा जब हम पैदा हए, जग हूँसे हम रोये,


ऐसी करनी कर चलो, हम हूँसे जग रोये
भावािण: कबीर दास जी कहिे हैं तक जब हम पैदा हुए िे उस समय सारी दतनया खश िी और हम रो रहे िे।
जीवन में कछ ऐसा काम करके जाओ तक जब हम मरें िो दतनयाां रोये और हम हूँसे।

जजन खोजा वतन पाइया, गहरे पानी पैठ,


मैं बपुरा बभडन डरा, रहा वकनारे बैठ
भावािण: जो लोग लगािार प्रयत्न करिे हैं, मेहनि करिे हैं वह कछ ना कछ पाने में जरूर सफल हो जािे हैं।
जैसे कोई गोिाखोर जब गहरे पानी में डबकी लगािा है िो कछ ना कछ लेकर जरूर आिा है लेतकन जो लोग
डू बने के भय से तकनारे पर ही बैठे रहे हैं उनको जीवन पयणन्ि कछ नहीं ममलिा।

अवत का भला न बोलना, अवत की भली न चभप,


अवत का भला न बरसना, अवत की भली न धभप
भावािण: कबीरदास जी कहिे हैं तक ज्यादा बोलना अच्छा नहीं है और ना ही ज्यादा चप रहना भी अच्छा है जैसे
ज्यादा बाररश अच्छी नहीं होिी लेतकन बहुि ज्यादा धूप भी अच्छी नहीं है।

संत ना िाडै संतई, जो कोद्रटक यमले असंत ।


चन्दन भुिंगा बैद्रठया, तऊ सीतलता न तजंत ।
भावािण: सज्जन परुष तकसी भी पररस्स्िति में अपनी सज्जनिा नहीं छोडिे चाहे तकिने भी दष्ट परुषों से क्यों
ना मघरे हों। ठीक वैसे ही जैसे चन्दन के वृक्ष से हजारों सपण शलपटे रहिे हैं लेतकन वह कभी अपनी शीिलिा
नहीं छोडिा।

माला फेरत जुग भया, वफरा न मन का फेर,


कर का मनका डार दे , मन का मनका फेर।
भावािण: कोई व्यशक्त लम्बे समय िक हाि में लेकर मोिी की माला िो घमािा है, पर उसके मन का भाव नहीं
बदलिा, उसके मन की हलचल शाांि नहीं होिी। कबीर की ऐसे व्यशक्त को सलाह है तक हाि की इस माला को
फेरना छोड कर मन के मोतियों को बदलो या फेरो।

कबीरा खड़ा बाजार में, मांगे सबकी खैर,


ना काह से दोस्त्ती,न काह से बैर।
भावािण: इस सांसार में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहिे हैं तक सबका भला हो और सांसार में यदद
तकसी से दोस्िी नहीं िो दश्मनी भी न हो !

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II ॐ II

जो उग्या सो अन्तबै, फभल्या सो कुमलाहीं।


जो यचवनया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।
भावािण: इस सांसार का तनयम यही है तक जो उदय हुआ है,वह अस्ि होगा। जो तवकशसि हुआ है वह मरझा
जाएगा। जो मचना गया है वह तगर पडेगा और जो आया है वह जाएगा।

जजवह घट प्रेम न प्रीवत रस, पुवन रसना नहीं नाम।


ते नर या संसार में , उपजी भए बेकाम ।
भावािण: जजनके ह्रदय में न िो प्रीति है और न प्रेम का स्वाद, जजनकी जजह्वा पर राम का नाम नहीं रहिा – वे
मनष्य इस सांसार में उत्पन्न हो कर भी व्यिण हैं। प्रेम जीवन की सािणकिा है। प्रेम रस में डू बे रहना जीवन का
सार है।

सातों सबद जभ बाजते घरर घरर होते राग ।


ते मंद्रदर खाली परे बैसन लागे काग ।
भावािण: कबीर कहिे हैं तक जजन घरों में सप्ि स्वर गूांजिे िे, पल पल उत्सव मनाए जािे िे, वे घर भी अब
खाली पडे हैं – उनपर कौए बैठने लगे हैं। हमेशा एक सा समय िो नहीं रहिा ! जहाां खशशयाूँ िी वहाां गम छा
जािा है जहाां हषण िा वहाां तवषाद डेरा डाल सकिा है – यह इस सांसार में होिा है !।

तेरा संगी कोई नहीं सब स्त्िारथ बंधी लोइ ।


मन परतीवत न उपजै, जीि बेसास न होइ ।
भावािण: िेरा सािी कोई भी नहीं है। सब मनष्य स्वािण में बांधे हुए हैं, जब िक इस बाि की प्रिीति – भरोसा –
मन में उत्पन्न नहीं होिा िब िक आत्मा के प्रति तवशवास जाग्रि नहीं होिा। भावािाणि वास्ितवकिा का ज्ञान
न होने से मनष्य सांसार में रमा रहिा है जब सांसार के सच को जान लेिा है – इस स्वािणमय सृतष्ट को समझ
लेिा है – िब ही अांिरात्मा की ओर उन्मख होिा है – भीिर झाांकिा है !

करता था तो क्यभं रहया, जब करर क्यभं पक्तिताय ।


बोये पेड़ बबभल का, अम्ब कहाूँ ते खाय ।
भावािण: यदद िू अपने को किाण समझिा िा िो चप क्यों बैठा रहा? और अब कमण करके पश्चात्ताप क्यों करिा
है? पेड िो बबूल का लगाया है – तफर आम खाने को कहाूँ से ममलें ?

मभरख संग न कीजजए ,लोहा जल न वतराई।


कदली सीप भािनग मुख, एक बभूँद वतहूँ भाई ।
भावािण: मूखण का साि मि करो।मूखण लोहे के सामान है जो जल में िैर नहीं पािा डू ब जािा है । सांगति का
प्रभाव इिना पडिा है तक आकाश से एक बूूँद केले के पत्ते पर तगर कर कपूर, सीप के अन्दर तगर कर मोिी
और साांप के मख में पडकर तवष बन जािी है।

जल में कुम्भ कुम्भ में जल है बाहर भीतर पानी ।


फभटा कुम्भ जल जलवह समाना यह तथ कह्यौ गयानी ।
भावािण: जब पानी भरने जाएां िो घडा जल में रहिा है और भरने पर जल घडे के अन्दर आ जािा है इस िरह
दे खें िो – बाहर और भीिर पानी ही रहिा है – पानी की ही सत्ता है। जब घडा फूट जाए िो उसका जल जल में
ही ममल जािा है – अलगाव नहीं रहिा – ज्ञानी जन इस िथ्य को कह गए हैं ! आत्मा-परमात्मा दो नहीं एक हैं

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– आत्मा परमात्मा में और परमात्मा आत्मा में तवराजमान है। अांिि: परमात्मा की ही सत्ता है – जब दे ह
तवलीन होिी है – वह परमात्मा का ही अांश हो जािी है – उसी में समा जािी है। एकाकार हो जािी है।

मन के हारे हार है मन के जीते जीत ।


कहे कबीर हरर पाइए मन ही की परतीत ।
भावािण: जीवन में जय पराजय केवल मन की भावनाएां हैं।यदद मनष्य मन में हार गया – तनराश हो गया
िो पराजय है और यदद उसने मन को जीि शलया िो वह तवजेिा है। ईश्वर को भी मन के तवश्वास से ही पा
सकिे हैं – यदद प्राप्प्ि का भरोसा ही नहीं िो कैसे पाएांगे?

कबीर हमारा कोई नहीं हम काह के नापहिं ।


पारै पहंचे नाि ज्यौं यमक्तलके वबिु री जापहिं ।
भावािण: इस जगि में न कोई हमारा अपना है और न ही हम तकसी के ! जैसे नाांव के नदी पार पहुूँचने पर उसमें
ममलकर बैठे हुए सब यात्री तबछड जािे हैं वैसे ही हम सब ममलकर तबछडने वाले हैं। सब साांसाररक सम्बन्ध
यहीं छू ट जाने वाले हैं

दे ह धरे का दं ड है सब काह को होय ।


ज्ञानी भुगते ज्ञान से अज्ञानी भुगते रोय।
भावािण: दे ह धारर् करने का दां ड – भोग या प्रारब्ध तनभश्चि है जो सब को भगिना होिा है। अांिर इिना ही है
तक ज्ञानी या समझदार व्यशक्त इस भोग को या दःख को समझदारी से भोगिा है तनभािा है सांिष्ट रहिा है
जबतक अज्ञानी रोिे हुए – दखी मन से सब कछ झेलिा है !

जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय।


जैसा पानी पीजजये, तैसी बानी सोय।
भावािण: ‘आहारशध्दी:’ जैसे खाय अन्न, वैसे बने मन्न लोक प्रचशलि कहावि है और मनष्य जैसी सांगि करके
जैसे उपदे श पायेगा, वैसे ही स्वयां बाि करेगा। अिएव आहातवहार एवां सांगि ठीक रखो।

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तुलसीदासजी का ये कहना हैं वक …………………

राम नाम मवनदीप धरु जीह दे हरीं िार |


तुलसी भीतर बाहेरहूँ जौं चाहक्तस उजजआर ||
अथण: िलसीदासजी का ये कहना हैं तक हे मनष्य ,यदद िम भीिर और बाहर दोनों ओर उजाला चाहिे हो िो
मखरूपी द्वार की जीभरुपी दे हलीज़ पर राम-नामरूपी मभर्दीप को रखो

तुलसी दे खख सुबेषु भभलपहिं मभढ़ न चतुर नर |


सुंदर केवकवह पेखु बचन सुधा सम असन अवह ||
अथण: गोस्वामीजी कहिे हैं तक सांदर वेष दे खकर न केवल मूखण अतपि चिर मनष्य भी धोखा खा जािे हैं
|सांदर मोर को ही दे ख लो उसका वचन िो अमृि के समान है लेतकन आहार साूँप का है

तुलसी नर का क्या बड़ा, समय बड़ा बलिान|


भीलां लभटी गोवपयाूँ, िही अजुणन िही बार्||
अथण: िलसीदास जी का कहना हैं, समय बडा बलवान होिा है, वो समय ही है जो व्यशक्त को छोटा या बडा
बनािा है| जैसे एक बार जब महान धनधणर अजणन का समय ख़राब हुआ िो वह भीलों के हमले से गोतपयों की
रक्षा नहीं कर पाए|

तुलसी मीठे बचन ते सुख उपजत चहूँ ओर |


बसीकरन इक मंर है पररहरू बचन कठोर ||
अथण: िलसीदासजी कहिे हैं तक मीठे वचन सब ओर सख फैलािे हैं |तकसी को भी वश में करने का ये एक
मन्त्र होिे हैं इसशलए मानव को चातहए तक कठोर वचन छोडकर मीठा बोलने का प्रयास करे |

काम रोध मद लोभ की, जौ लौं मन में खान|


तौ लौं पण्ण्डत मभरखौं, तुलसी एक समान||
अथण: िलसीदास जी का कहना यह है की , जब िक व्यशक्त के मन में काम, गस्सा, अहांकार, और लालच भरे
हुए होिे हैं िब िक एक ज्ञानी और मूखण व्यशक्त में कोई भेद नहीं रहिा, दोनों एक जैसे ही हो जािे हैं|

लसी पािस के समय, धरी कोवकलन मौन|


अब तो दादर बोक्तलहं, हमें पभक्तिह कौन||
अथण: गोस्वामी िलसीदासजी कहिे हैं तक, बाररश के मौसम में मेंढकों के टराणने की आवाज इिनी अमधक हो
जािी है तक कोयल की मीठी बोली उस कोलाहल में दब जािी है| इसशलए कोयल मौन धारर् कर लेिी है|
यातन जब मेंढक रुपी धूिण व कपटपूर्ण लोगों का बोलबाला हो जािा है िब समझदार व्यशक्त चप ही रहिा है
और व्यिण ही अपनी उजाण नष्ट नहीं करिा|

तुलसी इस संसार में, भांवत भांवत के लोग|


सबसे हस यमल बोक्तलए, नदी नाि संजोग||
अथण: िलसीदास जी कहिे हैं, इस दतनय में िरह-िरह के लोग रहिे हैं, यानी हर िरह के स्वभाव और व्यवहार
वाले लोग रहिे हैं, आप हर तकसी से अच्छे से ममशलए और बाि कररए| जजस प्रकार नाव नदी से ममत्रिा कर
आसानी से उसे पार कर लेिी है वैसे ही अपने अच्छे व्यवहार से आप भी इस भव सागर को पार कर लेंगे|

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तुलसी भरोसे राम के, वनभणय हो के सोए|


अनहोनी होनी नही, होनी हो सो होए||
अथण: ईश्वर पर भरोसा कररए और तबना तकसी भय के चैन की नींद सोइए| कोई अनहोनी नहीं होने वाली और
यदद कछ अतनष्ट होना ही है िो वो हो के रहेगा इसशलए व्यिण की चचिंिा छोड अपना काम कररए|

आित ही हरषै नहीं नैनन नहीं सनेह|


तुलसी तहां न जाइये कंचन बरसे मेह||
अथण: गोस्वामी िलसीदासजी कहिे हैं तक जजस जगह आपके जाने से लोग प्रसन्न नहीं होिे हों, जहाूँ लोगों की
आूँखों में आपके शलए प्रेम या स्नेह ना हो, वहाूँ हमें कभी नहीं जाना चातहए, चाहे वहाूँ धन की बाररश ही क्यों
न हो रही हो|

दया धमण का मभल है पाप मभल अभभमान |


तुलसी दया न िांयड़ए ,जब लग घट में प्रार् ||
अथण: मनष्य को दया कभी नहीं छोडनी चातहए क्योंतक दया ही धमण का मूल है और इसके तवपरीि अहांकार
समस्ि पापों की जड होिा है|

तुलसी साथी विपक्तत्त के, विद्या विनय वििेक|


साहस सुकृवत सुसत्यव्रत, राम भरोसे एक||
अथण: तकसी तवपशत्त यातन तकसी बडी परेशानी के समय आपको ये साि गर् बचायेंगे: आपका ज्ञान या शशक्षा,
आपकी तवनम्रिा, आपकी बजि, आपके भीिर का साहस, आपके अच्छे कमण, सच बोलने की आदि और ईश्वर
में तवश्वास|

करम प्रधान विस्त्ि करर राखा,


जो जस करई सो तस फलु चाखा
अथण :- िलसीदासजी का कहने का यह अिण है की ईश्वर ने इस सांसार में कमण को महत्ता दी है अिाणि जो जैसा
कमण करिा है उसे वैसा ही फल भी भोगना पडेगा

वबना तेज के पुरुष की अिक्तश अिज्ञा होय,


आवग बुझे ज्यों राख की आप िु िै सब कोय |
अथण :- िेजहीन व्यशक्त की बाि को कोई भी व्यशक्त महत्व नहीं दे िा है, उसकी आज्ञा का पालन कोई नहीं
करिा है. ठीक वैसे ही जैसे, जब राख की आग बझ जािी हैं, िो उसे हर कोई छने लगिा है |

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महान कवि सभरदास जी के दोहे भक्ति काल से ही समाज में बेहद प्रचक्तलत रहे हैं। अपने जीिन काल में
सभरदास जी ने अयधकतर भगिान श्री कृषर् के जीिन के विषय में सावहत्य की रचना की है जजनमें से
कुि प्रमुख दोहें वनम्नक्तलखखत द्रदए गए हैं –

• मो सम कौन कुद्रटल खल कामी।


जेपहिं तनु द्रदयौ तापहिं वबसरायौ, ऐसौ नोनहरामी॥
भरर भरर उदर विषय कों धािौं, जैसे सभकर ग्रामी।
हररजन िांयड़ हरी-विमुखन की वनसद्रदन करत गुलामी॥
पापी कौन बड़ो है मोतें, सब पवततन में नामी।
सभर, पवतत कों ठौर कहां है, सुवनए श्रीपवत स्त्िामी॥

अथण- प्रस्िि सूरदास के दोहे में सरदासजी अपने मन के बराइयों को उजागर करिे हुए, भगवान श्री कृष्र् से
कृपा करने की याचना करिे हैं। कतव कहिे हैं तक सांसार में मेरे जैसा कोई भी दूसरा कदटल, दष्ट और पापी नहीं
है। मोह माया के बांधन में जकडा हुआ मैं इस शरीर को ही सख समझ बैठा हां। मैं नमक हराम हां, जो अपने
आराध्य अपने रचतयिा को ही भूल गया। मैं गाांव के कचडों में रह रहे सूअरों की भाांति अपने जीवन में
वासनाओं और बरी आदिों में जकडा हुआ हां। मैं पापी हां क्योंतक सज्जनों और सांिों की सांगति छोडकर धूिों
की गलामी करिा हां। भला मझसे अमधक पापी और कौन हो सकिा है? सूरदास जी भगवान श्री कृष्र् के
समक्ष अपने बराइयों को उजागर करके उनसे आश्रय की तवनिी करिे हैं।

• जोग ठगौरी ब्रज न वबकैहै


जोग ठगौरी ब्रज न वबकैहै।
यह ब्योपार वतहारो ऊधौ, ऐसोई वफरर जैहै॥
यह जापे लाये हौ मधुकर, ताके उर न समैहै।
दाख िांयड कैं कटु क वनबौरी को अपने मुख खैहै॥
मभरी के पातन के कैना को मुकताहल दै है।
सभरदास, प्रभु गुनपहिं िांयड़कै को वनरगुन वनरबैहै॥

अथण- ज्ञान का सांदेश लेकर आए उधो को गोतपयाां कहिी हैं तक हे उधो ज्ञान का प्रचार करने के उद्दे श्य से जो
िम यहाां आए हो िम्हारा यह व्यापार यहाां नहीं चलेगा िम्हे वापस लौटना होगा। एक बाि यह जान लो तक
जजनका सौदा आप लेके आए हैं उन्हें यह तबककल भी रास नहीं आएगा। आखखर िम्ही बिाओ तक कौन मूखण
मीठे अांगूरों की जगह कडवे नीम की तनम्बौरी खाना पसांद करेगा। कौन है जो अनमोल मोिी को मूली के पत्तों
की जगह दे गा। उपरोक्त से सूरदास जी का आशय है तक कौन साकार ईश्वर (भगवान श्री कृष्र्) को छोडकर
तनराकार ब्रह्म की आराधना करेगा।

• अवबगत गवत किु कहवत न आिै।


ज्यों गुंगो मीठे फल की रस अन्तगणत ही भािै।।
परम स्त्िाद सबहीं जु वनरन्तर अयमत तोष उपजािै।
मन बानी कों अगम अगोचर सो जाने जो पािै।।
रूप रैख गुन जावत जुगवत वबनु वनरालंब मन चरत धािै।
सब वबयध अगम वबचारपहिं तातों सभर सगुन लीला पदगािै।।

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अथण – श्री कृष्र् के परम भक्त सूरदास जी इस रचना के माध्यम से यह कहिे हैं तक इस सांसार में कछ बािें
ऐसी होिी हैं जजन्हें चाह कर भी दूसरों को नहीं समझाया जा सकिा है। कछ ऐसी चीजें जजन्हें केवल महसूस
तकया जा सकिा है, इस प्रकार के आनांद को केवल हमारा मन ही समझ सकिा है। अक्सर जजन चीजों से हमें
परम आनांद की अनभूति होिी है, दूसरों के सामने वह कोई महत्व नहीं रखिा। यदद तकसी गूांगे को स्वाददष्ट
ममठाई खखला दी जाए िो, ममष्ठान का स्वाद गूांगा चाह कर भी दूसरों को नहीं समझा सकिा। उपरोक्त दोहे में
सूरदास जी का आशय यह है तक सूरदास जी ने अपने पूरे जीवन में केवल श्री कृष्र् की ही गािा गाई है।
भगवान श्री कृष्र् के बाल लीला का वर्णन करिे समय उन्हें जजस प्रकार के परम आनांद की अनभूति होिी है,
उसे दूसरा कोई नहीं समझ सकिा।

• गुरू वबनु ऐसी कौन करै।


माला-वतलक मनोहर बाना, लै क्तसर िर धरै।
भिसागर तै बभडत राखै, दीपक हाथ धरै।
सभर स्त्याम गुरू ऐसौ समरथ, क्तिन मैं ले उधरे।।

अथण – कतववर भगवान श्री कृष्र् को अपना गरु मानिे हैं और गरु की मतहमा का महत्व बिािे हुए सूरदास
जी कहिे हैं तक गरु के तबना इस अांधकार में डू बे सांसार से बाहर तनकालने वाला दूसरा और कोई भी नहीं
होिा। अपने शशष्यों पर गरु के अलावा ऐसी कृपा कौन कर सकिा है इससे वे अपने कांठ में हार ििा मस्िक
पर तिलक धारर् कर सकें। सांसार के मोह माया रूपी तवशाल समर से एक सच्चा गरु अपने शशष्य को बचािा
है। ज्ञान स्वरूप सांपशत्त को गरु अपने शशष्य को सौंपिा हैं जजससे तक मानव ककयार् हो सके। ऐसे गरु को
सूरदास जी बार-बार नमन करिे हैं। कतव कहिे हैं तक उनके गरु श्री कृष्र् ही उन्हें हर क्षर् इस सांसार सागर में
उनकी नैया पार लगािे हैं।

• हमारे वनधणन के धन राम।


चोर न लेत, घटत नवह कबहॅ, आित गढैं काम।
जल नपहिं बभडत, अवगवन न दाहत है ऐसौ हरर नाम।
बैकुंठनाम सकल सुख-दाता, सभरदास-सुख-धाम।।

अथण – सूरदास जी इस दोहे में कहिे हैं तक इस सृतष्ट में जजनका कोई नहीं होिा उनके श्रीराम हैं। राम नाम एक
ऐसा अनोखा खजाना है जजसे हर कोई प्राप्ि कर सकिा है। धन अिवा सांपशत्त को एक बार खचण करने पर वह
कम हो जािा है, लेतकन राम नाम एक ऐसा अनमोल रत्न है जजसे तकिने भी बार पकारा जाए उसका महत्व
कभी भी नहीं घटिा। ऐसा अनमोल रत्न ना िो चोरों द्वारा चराया जा सकिा है, ना ही इसके मूकय को घटाया
जा सकिा है। राम रूपी अनमोल रत्न ना िो गहरे पानी में डू बिा है और ना ही आग में जलिा है। अिाणि इस
सांसार में एक चीज सत्य है जजसे कभी भी नष्ट नहीं तकया जा सकिा वह है, राम नाम। सूरदास जी कहिे हैं की
समस्ि सांसार को सख प्रदान करने वाले सखों के भांडार अिवा राम नाम से उन्हें सख पहुांचािा है।

• हमारैं हरर हाररल की लकरी।


मन रम बचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करर पकरी।
जागत सोित स्त्िप्न द्रदिस-वनक्तस, कान्ह कान्ह जकरी।
सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी।

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II ॐ II

सु तौ ब्यायध हमकौं लै आए, दे खी सुनी न करी।


यह तौ ‘सभर’ वतनपहिं लै सौंपौ, जजनके मन चकरी।।

अथण – उधो जब गोतपयों को योग तवद्या का ज्ञान दे िे हैं िब गोतपयाां कृष्र् भशक्त के सामने योग तवद्या को
कडवी ककडी के समान बिाकर उसे अपने शलए अनावश्यक बिािी हैं। जजस प्रकार हाररल पक्षी अपने पांजों
में लकडी के लोभ के कारर् हमेशा लकडी का टकडा पकडे रहिा है, उसी प्रकार गोतपयों की स्स्िति भी
हाररल पक्षी की भाांति हो गई है जो कृष्र् नाम को अपने हृदय में सांजोए बैठी हैं। ददन-राि, सोिे-जागिे, सभी
स्िानों पर केवल कृष्र् ही नजर आिे हैं। ऐसे में उन्हें योग के ज्ञान की आवश्यकिा नहीं बस्कक वे केवल कृष्र्
भशक्त में मगन रहना चाहिी हैं।

• मुखपहिं बजाित बेनु


धवन यह बृंदािन की रेनु।
नंदवकसोर चराित गैयां मुखपहिं बजाित बेनु।।
मनमोहन को र्धयान धरै जजय अवत सुख पाित चैन।
चलत कहां मन बस पुरातन जहां किु लेन न दे नु।।
इहां रहह जहं जभठन पािह ब्रज बाक्तसवन के ऐनु।
सभरदास ह्यां की सरिरर नपहिं कल्पबृच्ि सुरधेनु।।

अथण: जजस पतवत्र भूमम पर भगवान श्री कृष्र् ने जन्म शलया, उसकी गािा गािे हुए सूरदास जी अपने इस दोहे
में में व्रजभूमम की प्रशांसा करिे हुए कहिे हैं तक जजस धरिी पर स्वयां भगवान श्रीकृष्र् गायों को चरािे हैं, जहाां
वे बाांसरी बजािे हैं ऐसे स्वगण समान ब्रजभूमम की जजिनी प्रशांसा की जाए उिना कम होगा। ब्रजभूमम में मन
समस्ि प्रकार के दखों को भूलकर शाांि हो जािा है। यहाां भगवान श्री कृष्र् के स्मरर् मात्र से मन में एक नई
ऊजाण का आगमन होिा है। अपने ही मन को समझािे हुए सूरदास जी यह भी कहिे हैं तक हे मन! िू इस माया
रुपी सांसार में यहाां वहाां क्यों भटकिा है, िू केवल वृांदावन में रहकर अपने आराध्य श्री कृष्र् की स्िति कर।
केवल ब्रजभूमम में रहकर ब्रज वाशसयों के जूठे बिणनों से जो कछ भी अन्न प्राप्ि हो उसे ग्रहर् करके सांिोष कर
ििा श्री कृष्र् की आराधना करके अपना जीवन सािणक कर। जहाां स्वयां परमात्मा ने जन्म शलया हो ऐसी
पतवत्र भूमम की बराबरी स्वयां कामधेन भी नहीं कर सकिी हैं।

• गाइ चरािन जैहौं


आजु मैं गाइ चरािन जैहौं।
बृन्दािन के भांवत भांवत फल अपने कर मैं खेहौं।।
ऐसी बात कहौ जवन बारे दे खौ अपनी भांवत।
तनक तनक पग चक्तलहौ कैसें आित ह्वै है रावत।।
प्रात जात गैया लै चारन घर आित हैं सांझ।
तुम्हारे कमल बदन कुखम्हलैहे रेंगत घामवह मांझ।।
तेरी सौं मोवह घाम न लागत भभख नहीं किु नेक।
सभरदास प्रभु कह्यो न मानत पयो अपनी टे क।।

अथण: उपरोक्त सूरदास के दोहे में भगवान श्री कृष्र् के बाल हठ का मचत्रर् तकया गया है। अन्य ग्वालो को
गायों को चरािा दे ख एक ददन श्री कृष्र् अपनी मैया के समक्ष इस बाि पर अड गए, तक उन्हें भी गायों को
चराने वन में जाना है। गायों को चराने के साि ही उन्हें वृांदावन के वनों से स्वाददष्ट फलों का सेवन भी स्वयां

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II ॐ II

अपने हािों से करना है। नन्हे कृष्र्ा के हठ के समक्ष मैया यशोदा उनसे कहिी है, तक हे कन्हैया अभी िू िो
बहुि छोटा है और अपने नन्हे नन्हे पैरों से िू इिना दूर कैसे चल पाएगा और वैसे भी पनः लौटिे समय सांध्या
हो जािी है। िझसे अमधक आय वाले अपनी गायों को चरवाकर सीधे सांध्या को घर लौटिे हैं, जब चारों िरफ
अांधेरा हो जािा है। गायों को चराने के शलए कडी धूप में पूरे वन में घूमना पडिा है। िेरा शरीर िो पष्प के
समान कोमल है, िू भला ऐसे कडे धूप को कैसे सहन कर पाएगा? यशोदा मैया के समझाने के बाद भी कृष्र्
अपनी हठ पर अडे रहे और मैया की सौगांध खािे हुए कहने लगे की िेरी कसम मैया मझे धूप ििा भूख नहीं
सिािी है। मझे गायों को चराने के शलए कृपया जाने दे ।

• चोरर माखन खात


चली ब्रज घर घरवन यह बात।
नंद सुत संग सखा लीन्हें चोरर माखन खात।।
कोउ कहवत मेरे भिन भीतर अबपहिं पैठे धाइ।
.कोउ कहवत मोपहिं दे खख िारें उतपहिं गए पराइ।।
कोउ कहवत वकवह भांवत हरर कों दे खौं अपने धाम।
हेरर माखन दे उं आिो खाइ जजतनो स्त्याम।।
कोउ कहवत मैं दे खख पाऊं भरर धरौं अंकिारर।
कोउ कहवत मैं बांयध राखों को सकैं वनरिारर।।
सभर प्रभु के यमलन कारन करवत बुजद्ध विचार।
जोरर कर वबयध को मनािपतिं पुरुष नंदकुमार।।

अथण: पूरे ब्रज में यह बाि फैल गई है, तक कृष्र् अपने ममत्रों के साि ममलकर माखन चोरी करके खािे हैं। पूरे
गाांव में इसी बाि की चचाण हो रही है तक नांद पत्र श्री कृष्र् वह दूसरों के घर से माखन चरािे हैं। सभी गोतपयाां
एक साि ममलकर यह चचाण कर रहे हैं। िभी एक सखी कहिी है, तक मैंने अभी-अभी कान्हा को अपने घर में
दे खा। दूसरी करिी है की कृष्र् मेरे घर में प्रवेश कर रहे िे लेतकन मझे द्वार पर खडे दे ख भाग गए। एक गोपी
कहिी है तक यदद श्री कृष्र् मझे ममल जाए, िो मैं जीवन भर उन्हें स्वाददष्ट माखन खखलाऊां जजिना वे सेवन कर
सकें। सभी ग्वाशलन कहिी है तक यदद कृष्र् उन्हें ममल जाए िो वह उसे कहीं जाने नहीं दे गी सदै व अपने घर में
रखेगी। अन्य सखखयाां यह भी कहिी है, तक यदद कृष्र् मेरे हाि लग जाए िो मैं उन्हें बाांधकर अपने पास रख
लूांगी। उनकी झलक पाने के शलए भी गोतपयाां व्याकल रहिी हैं। ब्रज की गोतपयाां नांद पत्र नन्हे श्रीकृष्र् को हाि
जोडकर अपने पति रूप में स्वीकार करने के शलए भी िैयार है।

• कबहं बोलत तात


खीझत जात माखन खात।
अरुन लोचन भौंह टे ढ़ी बार बार जंभात।।
कबहं रुनझुन चलत घुटुरुवन धभरर धभसर गात।
.कबहं झुवक कै अलक खैंच नैन जल भरर जात।।
कबहं तोतर बोल बोलत कबहं बोलत तात।
सभर हरर की वनरखख सोभा वनयमष तजत न मात।।

अथण- राग रामकली में रमचि इस सूरदास के दोहे में भगवान श्री कृष्र्ा के बाल कृर्ाओं का वर्णन तकया है।
एक बार कान्हा माखन खािे खािे हैं इस प्रकार रूठ गए तक रोने लगे, जजसके कारर् उनकी आांखें भी लाल हो

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II ॐ II

गई। माखन खािे हुए कभी श्री कृष्र् घटनों के बल ममट्टी में चलिे िो कभी अपने छोटे -छोटे पैरों पर खडे
होकर धीरे-धीरे चलने का प्रयास करिे, जजससे उनके पैरों की पैजतनया झनझन बजने लगिी। लीला करिे हुए
कान्हा स्वयां अपने बालों को खींचिे और आांखों से आांसू तनकालिे िो कभी अपनी िोिली मधर बोली से कछ
बोलने लगिे। कृष्र् की इन शरारिों को दे खकर यशोदा मैया उन्हें एक क्षर् के शलए भी अपने से दूर करने के
शलए िैयार नहीं। अिाणि भगवान कृष्र् के प्रत्येक लीलाओं का आनांद यशीदा उठािी हैं, जजसे सूरदास जी ने
इस दोहे के द्वारा प्रस्िि तकया है।

• अरु हलधर सों भैया


कहन लागे मोहन मैया मैया।
नंद महर सों बाबा बाबा अरु हलधर सों भैया।।
ऊंच चण्ढ चण्ढ कहवत जशोदा लै लै नाम कन्हैया।
दूरर खेलन जवन जाह लाला रे! मारैगी काह की गैया।।
गोपी ग्िाल करत कौतभहल घर घर बजवत बधैया।
सभरदास प्रभु तुम्हरे दरस कों चरनवन की बक्तल जैया।।

अथण: दे वगांधार में रमचि उपरोक्त पांशक्त जजसमें सूरदास जी ने बालकृष्र् से सांबांमधि मधर प्रवृशत्तयों का मचत्रर्
तकया है। जब नन्हे कृष्र् अपनी मािा को मैया मैया ििा नांद बाबा को बाबा बाबा कहकर पकारने लगे हैं और
अपने बडे भाई बलराम को भैया कहकर बलाने लगे हैं। इिनी छोटी उम्र में ही श्री कृष्र् अपनी िोिली बोली से
शब्दों का उच्चारर् करने लगे हैं और साि ही िोडे शरारिी भी हो गए हैं। जब नटखट कृष्र् खेलिे खेलिे दूर
चले जािे हैं, िब यशोदा मैया उन्हें ऊांची आवाज में नाम से पकार कर कहिी हैं, तक लकला दूर मि जा नहीं िो
गाय िझे मारेगी। नन्हे कृष्र् के ऐसी लीलाओं को दे खकर सभी ग्वाले – गोतपयाां आश्चयणचतकि रह गए हैं।
बृजवासी नांद बाबा और यशोदा मैया को बधाइयाां दे रहे हैं।

• भई सहज मत भोरी
जो तुम सुनह जसोदा गोरी।
नंदनंदन मेरे मंद्रदर में आजु करन गए चोरी।।
हौं भइ जाइ अचानक ठाढ़ी कह्यो भिन में कोरी।
रहे िपाइ सकुयच रंचक ह्वै भई सहज मवत भोरी।।
मोवह भयो माखन पक्तितािो रीती दे खख कमोरी।
जब गवह बांह कुलाहल कीनी तब गवह चरन वनहोरी।।
लागे लेन नैन जल भरर भरर तब मैं कावन न तोरी।
सभरदास प्रभु दे त द्रदनपहिं द्रदन ऐक्तसयै लररक सलोरी।।

अथण: भगवान श्री कृष्र् बाल रूप में बडे ही सशोभभि लगिे हैं लेतकन साि ही बडे शरारिी भी, जजससे
बृजवासी की गोतपयाां उनकी शशकायि यसोदा से कर दे िी हैं। एक बार श्री कृष्र् ने एक गोपी के घर से माखन
चोरी करके खा शलया िो, ग्वाशलन यशोदा मैया से शशकायि करने उनके घर पहुांच गई। गोपी कहने लगी की
एरर यशोदा िेरा लकला मेरे घर आया िा और मटकी से माखन चोरी करके खा रहा िा। मैंने उसे दे खा िो मैं
केवल शाांि भाव से उसके कृर्ा का आनांद उठा रही िी लेतकन जब मैंने जाकर मटकी को दे खा िो उसमें से
सारा मक्खन खत्म हो चका िा। इसके पश्चाि मझे बहुि ही पछिावा हुआ। कान्हा को जाकर मैने पकड शलया

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II ॐ II

जजसके पश्चाि वह मेरे पैरों में तगर कर शशकायि न करने की याचना करने लगा और उसकी आांखों में आांसू भर
आए, जजसके पश्चाि मेरा भी हृदय तपघल गया और मैंने उसे जाने ददया।

• हरष आनंद बढ़ाित


हरर अपनैं आंगन किु गाित।
तनक तनक चरनन सों नाच मन हीं मनपहिं ररझाित।।
बांह उठाइ कारी धौरी गैयवन टे रर बुलाित।
कबहंक बाबा नंद पुकारत कबहंक घर में आित।।
माखन तनक आपनैं कर लै तनक बदन में नाित।
कबहं यचतै प्रवतपबिंब खंभ मैं लोनी क्तलए खिाित।।
दरर दे खवत जसुमवत यह लीला हरष आनंद बढ़ाित।
सभर स्त्याम के बाल चररत वनत वनतही दे खत भाित।।

अथण: सूरदास के इस दोहे में बालकृष्र् अपने ही घर के आांगन में प्रसन्न मचत्त होकर जो मन में आए वह
गनगना रहे हैं। अपने छोटे -छोटे पैरों पर शिरकिे ििा स्वयां ही मन ही मन प्रसन्न हो रहे हैं। कभी वे अपने हािों
को उठाकर दूर खडी गायों को अपने पास बलािे, िो कभी अपने नांद बाबा को पकारिे। कभी बाहर तनकल
कर वापस घर में आ जािे हैं, िो कभी अपने नन्हे हािों में िोडा मक्खन लेकर अपने शरीर पर लगाने लगिे।
स्िांभ के नजदीक जाकर उसमे नजर आने वाले अपने ही प्रतिहबिंब को अपने हािों से मक्खन खखलाने लगिे है।
श्री कृष्र् के इन सभी शरारिों को यशोदा दूर खडी होकर छप कर दे ख मन ही मन हर्षिंि हो रही हैं।।

• कबहं बढ़ै गी चोटी


मैया कबहं बढ़ै गी चोटी।
वकती बेर मोवह दूध वपयत भइ यह अजहं है िोटी।।
तभ जो कहवत बल की बेनी ज्यों ह्वै है लांबी मोटी।
काढ़त गुहत न्हिाित जैहै नावगन-सी भुई लोटी।।
काचो दूध वपयािवत पयच पयच दे वत न माखन रोटी।
सभरदास वरभुिन मनमोहन हरर हलधर की जोटी।।

अथण: बाल श्री कृष्र् दूध पीने में आनाकानी करिे ििा मैया के बार-बार कहने पर भी दूध नहीं पीिे िे। लेतकन
एक ददन यशोदा ने लालच दे कर उनसे कहा की कान्हा िू प्रतिददन कच्चा दूध तपया कर जजससे िेरी चोटी
बलराम के भाांति लांबी और मोटी हो जाएगी। प्रलोभभि होकर श्री कृष्र् प्रतिददन तबना कोई नाटक तकए कच्चा
दूध का सेवन करने लगे। कछ समय बाद श्री कृष्र् यशोदा मैया से पूछिे हैं तक मैया िूने िो बोला िा तक कच्चा
दूध का सेवन करने से मेरी छोटी सी चदटया दाऊ भैया से भी मोटी और लांबी हो जाएगी लेतकन मेरे बाल अभी
भी उसी प्रकार है जैसे पहले िे। शायद इसीशलए मझे प्रतिददन स्नान करवाकर बालों को सांवारिी िी और चोटी
भी गूांििी िी, जजससे मेरी चोटी बढ़कर नातगन जैसी लांबी हो जाए। इसीशलए कच्चा दूध भी तपलािी िी और
माखन रोटी भी नहीं दे िी िी। मैया से इिना कहकर श्री कृष्र् रूठ जािे हैं। उपरोक्त रचना में सूरदास जी कहिे
हैं तक भगवान श्री कृष्र् और बलराम की जोडी िीनों लोकों में अद्भुि है, जो मन को आनांददि करिी है

• ऊधौ, कमणन की गवत न्यारी।


सब नद्रदयाूँ जल भरर-भरर रवहयाूँ सागर केवह वबध खारी॥

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II ॐ II

उज्ज्िल पंख द्रदये बगुला को कोयल केवह गुन कारी॥


सुन्दर नयन मृगा को दीन्हे बन-बन वफरत उजारी॥
मभरख-मभरख राजे कीन्हे पंयडत वफरत भभखारी॥
सभर श्याम यमलने की आसा क्तिन-क्तिन बीतत भारी॥

अथण- श्री कृष्र् के कहने पर जब ऊधौ मिरा जाकर तनराकार ब्रह्म के तवषय में बिाने के शलए गोतपयों से वािाण
करिे हैं, िो भशक्त भाव में डू बी हुई गोतपयाां उकटा उन्हें ही सच्चे ज्ञान की अनभूति करािी हैं, जजसका वर्णन
सूरदास जी ने उपरोक्त पांशक्त में तकया है। ऊधौ यह भाग्य और कमण का खेल बडा ही अनोखा है। जजस प्रकार
सागर नददयों के मधर जल से भरिा है, लेतकन तफर भी समर का जल खारा ही रहिा है। तबना तकसी गर् वाले
बगले को प्रकृति ने श्वेि रांग प्रदान तकया हैं लेतकन गर्ों से पररपूर्ण मधर आवाज वाली कोयल को काले रांग का
बना ददया है। तनजणन वनों में भटकने वाले मृग को प्रकृति ने सांदर नेत्र प्रदान तकया है, जजनका उसके शलए कोई
महत्व ही नहीं है। इस सृतष्ट में कई मूखण लोगों को प्रकृति ने राज लसिंहासन प्रदान तकया है, िो वही बजिशाली
लोगों को गरीब बना ददया। गोतपयाां श्री कृष्र् से ममलने की आश में प्रत्येक क्षर् बहुि ही मस्श्कल से काट रही
हैं।

• वनक्तसद्रदन बरसत नैन हमारे।


सदा रहत पािस ऋतु हम पर, जबते स्त्याम क्तसधारे।।
अंजन क्तथर न रहत अूँखखयन में, कर कपोल भये कारे।
कंचुवक-पट सभखत नपहिं कबहूँ, उर वबच बहत पनारे॥
आूँसभ सक्तलल भये पग थाके, बहे जात क्तसत तारे।
‘सभरदास’ अब डभ बत है ब्रज, काहे न लेत उबारे॥

अथण- भगवान श्री कृष्र् का सांदेश दे ने के शलए बृज गए उनके ममत्र ऊधौ ििा गोतपयों के बीच वािाण का वर्णन
करिे हुए सूरदास जी कहिे हैं, तक जब उिव ब्रज भूमम में प्रवेश करिे हैं िो उन्होंने जल की एक धारा दे खी,
वह जल नहीं बस्कक अश्र है, जो गोतपयों के श्री कृष्र् से तबछडने के दख में तनरांिर बहिे हैं। पूछने पर गोतपयाां
कहिी हैं तक जब से श्री कृष्र् ने ब्रजभूमम छोडी है िब से हमारी आांखों से तनरांिर आांसू बह रहे हैं। बृज वाशसयों
के शलए वषाण ऋि के अलावा दूसरा और कोई भी मौसम नहीं होिा। हमारी नेत्रों से अश्र बहने के कारर् काजल
स्स्िर नहीं रह पािा, आांसओं को पोछिे हुए गालों और नेत्रों के नीचे काले धब्बे पड गए हैं। अश्र बहने के
कारर् हमेशा हमारे वस्त्र गीले ही रहिे हैं। चारों िरफ केवल असरों की धाराएां बह रही हैं। हे कृष्र् हमारे
उदासी के कारर् पूरा व्रजभूमम डू बिा जा रहा है िम आकर इसकी सरक्षा क्यों नहीं करिे।

• जसुमवत दौरर क्तलये हरर कवनयां।


“आजु गयौ मेरौ गाय चरािन, हौं बक्तल जाउं वनिवनयां॥
मो कारन कचभ आन्यौ नाहीं बन फल तोरर नन्हैया।
तुमपहिं यमलैं मैं अवत सुख पायौ,मेरे कुंिर कन्हैया॥
किु क खाह जो भािै मोहन.’ दै री माखन रोटी।
सभरदास, प्रभु जीिह जुग-जुग हरर-हलधर की जोटी॥

अथण- सूरदास जी के इस दोहे में भगवान श्री कृष्र् के प्रिम बार गाय चराने जाने का वर्णन करिे हैं। जब श्री
कृष्र् पहली बार वन में गायों को चराकर वापस घर लौटे िो यशोदा मैया ने बडे ही प्रेम से उनसे पूछा तक आज
गायों को चराने के शलए पहली बार वन में गए िे, इसशलए िम पर बहुि प्रसन्न हां। वन से क्या िम मेरे शलए

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II ॐ II

कोई फल- फूल साि नहीं लाए हो? इिने दे र के पश्चाि िमसे पनः ममलकर मझे अत्यांि प्रसन्निा हो रही है। हे
कृष्र् िम्हें जो कछ खाने का मन हो मझे बिाओ। यशोदा मैया के पूछने पर कृष्र्ा माखन रोटी खाने की इच्छा
व्यक्त करिे हैं।

• संदेसो दै िकी सों कवहयौ।


`हौं तौ धाय वतहारे सुत की, मया करवत वनत रवहयौ॥
जदवप टे ि जानवत तुम उनकी, तऊ मोपहिं कवह आिे।
प्रातपहिं उठत तुम्हारे कान्हपहिं माखन-रोटी भािै॥
तेल उबटनों अरु तातो जल दे खत हीं भजज जाते।
जोइ-जोइ मांगत सोइ-सोइ दे ती, रम-रम कररकैं न्हाते॥
सभर, पक्तथक सुवन, मोपहिं रैवन-द्रदन बढ्यौ रहत उर सोच।
मेरो अलक लडैतो मोहन ह्वै है करत संकोच॥

अथण- सूरदास के इस दोहे में भगवान श्री कृष्र् मिरा वापस लौट गए िब यशोदा मैया ने दे वकी के शलए एक
सांदेश भेजा, जजसमें उन्होंने शलखा की मैं िो आपके पत्र की दाई हां! अपनी कृपा दृतष्ट सदै व मझ पर बनाए
रखना। भले ही आप मेरी सभी बािों को भलीभाांति जानिी हैं, लेतकन तफर भी मैं स्वयां अपनी िरफ से कह
रही हां की आपके कृष्र्ा को सवेरे उठकर माखन रोटी खाना बहुि अच्छा लगिा है। लेतकन उबटन, िेल और
ठां डे पानी को दे खिे ही वह दूर भाग जािा है और प्रलोभन दे ने के बाद भी नहािा नहीं। इिना ही नहीं मेरे घर
को कृष्र्ा पराया समझकर सांकोच करिा है जजसका दख मझे सदै व ही रहिा है।

• उधो, मन न भए दस बीस
उधो, मन न भए दस बीस।
एक हतो सो गयौ स्त्याम संग, को अिराधै ईस॥
क्तसक्तथल भईं सबहीं माधौ वबनु जथा दे ह वबनु सीस।
स्त्िासा अटवकरही आसा लवग, जीिपहिं कोद्रट बरीस॥
तुम तौ सखा स्त्यामसुन्दर के, सकल जोग के ईस।
सभरदास, रक्तसकन की बवतयां पुरिौ मन जगदीस॥

अथण- श्री कृष्र्ा जब अपने सखा उधो को गोतपयों के पास अपना सांदेश दे ने भेजिे हैं, िो व्रजभूमम में ब्रह्म ज्ञान
दे ने गए उिव को गोतपयों ने ही सत्य का बोध करवा ददया। गोतपयाां उधो से कहिी हैं तक हम सभी के पास दस
या बीस नहीं बस्कक एक ही मन है, जो बहुि पहले ही कृष्र् के साि जा चका है। कृष्र् के चले जाने के बाद
हम सभी का मन शसशिल हो गया है और शरीर ने काम करना बांद कर ददया है। हम केवल इसी आस में अपनी
साांसे तगन रहे हैं की श्री कृष्र् करोडों वषों िक जीतवि रहें ििा तफर से हमें अपने दशणन करवाएां। गोतपयाां उधो
से यह भी कहिी हैं तक िम िो श्री कृष्र् के सखा हो और नाना प्रकार के तवद्या के ज्ञािा भी हो। सूरदास जी
अपनी रचना में भगवान श्रीकृष्र् से प्रािणना करिे हैं की वे इन गोतपयों की इच्छाओं को जरूर पूरा करें।

• वनरगुन कौन दे श कौ बासी


वनरगुन कौन दे श कौ बासी।
मधुकर, कवह समुझाइ, सौंह दै बभझवत सांच न हांसी॥
को है जनक, जनवन को कवहयत, कौन नारर को दासी।

PANKAJ. PATEL
108
II ॐ II

कैसो बरन, भेष है कैसो, केवह रस में अभभलाषी॥


पािैगो पुवन वकयो आपुनो जो रे कहैगो गांसी।
सुनत मौन ह्वै रह्यौ ठगो-सौ सभर सबै मवत नासी॥

अथण- कृष्र् की याद में डू बी हुई गोतपयाां ज्ञान का सांदेश दे ने आए उधो से यह प्रश्न करिी हैं तक हे उधो िम िो
बहुि ज्ञानी िो, जजस ब्रम्हा का ज्ञान दे ने िम यहाां आए हो क्या िम हमे बिा सकिे हो तक यह ब्रम्हा कहा
तनवास करिे हैं? हम िमसे दठठोली नही कर रहे हैं बस्कक हम यह वास्िव में जानना चाहिे हैं तक आखखर उन
तनगणर् तनराकार ब्रह्म के मािा तपिा कौन हैं? उनका पहनावा कैसा है? और उन्हें क्या अच्छा लगिा है? हमारे
इस जजज्ञासा को िम व्यांग किई मि समझना। गोतपयों की इन बािो को सनकर उधो खद को ठगा सा महसूस
करने लगे और गोतपयों के एक भी प्रश्न का उत्तर नही दे सके।

• कहां लौं कवहए ब्रज की बात


कहां लौं कवहए ब्रज की बात।
सुनह स्त्याम, तुम वबनु उन लोगवन जैसें द्रदिस वबहात॥
गोपी गाइ ग्िाल गोसुत िै मक्तलन बदन कृसगात।
परमदीन जनु क्तसक्तसर वहमी हत अंबज ु गन वबनु पात॥
जो कहं आित दे खख दूरर तें पभंित सब कुसलात।
चलन न दे त प्रेम आतुर उर, कर चरनवन लपटात॥
वपक चातक बन बसन न पािपहिं, बायस बक्तलपहिं न खात।
सभर, स्त्याम संदेसवन के डर पक्तथक न उपहिं मग जात॥

अथण- ब्रज में जब श्री कृष्र् के सखा उधो गोतपयों की स्स्िति को दे खकर पनः भगवान श्री कृष्र् के पास लौटे
िो वहाां की स्स्िति का वर्णन करिे हुए उिव श्री कृष्र् से कहिे हैं, तक हे कृष्र्ा! िम्हरे तबना व्रजवासी तकिने
दखी हैं, जजसका मैं ठीक प्रकार से वर्णन भी नहीं कर सकिा हां। वे सभी िमसे तबछडकर तबन प्रार् के केवल
एक शरीर मात्र रह गए हैं। गाय, बछडे, ग्वाले – गोतपयाां सभी िम्हारे चले जाने के शोक में ददन राि अश्र बहािे
हैं। उन सभी का जीवन बेहद कष्टदाई हो गया है। वे दखखयारे शशशशर ऋि के तहमपाि के कारर् केवल तबन
पशत्तयों के कमल मात्र बन गए हैं। यदद तकसी यात्री को व्रज में आिा दे खिे हैं, िो शीघ्र ही िम्हारी हालचाल
पूछिे है। केवल िम्हारे नाम का सांदेश पाकर ही उत्साह से भर जािे हैं और यात्री को प्रसन्निावस जाने ही नहीं
दे िे और उनके पैरों से शलपट कर िम्हारे तवषय में और बािें पूछने लगिे है। आपके जाने के दख से केवल
मनष्य मात्र नहीं बस्कक पश-पक्षी भी दख की अांधेरी छाया में डू बे रहिे हैं। चािक, कोयल और अन्य पक्षी अब
वनों में तनवास नहीं करिे ििा िम्हारे जाने के दःख में अब कौवे बाली का अन्न भी नहीं खािे हैं। हे केशव!
आपके शलए मिरा सांदेश ले जाने के भय से अब उस मागण से गजरने वाले पशिक भी वहा नहीं जािे हैं।

• मैया मोवह मैं नवह माखन खायौ,


भोर भयो गैयन के पािे , मधुबन मोवह पठायो,
चार पहर बंसीबट भटक्यो, साूँझ परे घर आयो।।
मैं बालक बवहयन को िोटो, िीको वकही वबयध पायो,
ग्िाल बाल सब बैर पड़े है, बरबस मुख लपटायो।।
तभ जननी मन की अवत भोरी इनके कहें पवतआयो,
जजय तेरे किु भेद उपजज है, जावन परायो जायो।।

PANKAJ. PATEL
109
II ॐ II

यह लै अपनी लकुटी कमररया, बहतपहिं नाच नचायों,


सभरदास तब वबहूँक्तस जसोदा लै उर कंठ लगायो।।

अथण – भगवान कृष्र् के मनमोहक बाल लीलाओं का अद्भुि वर्णन करिे हुए सूरदास जी उपरोक्त दोहे में
कहिे हैं, तक जब गोतपयों के मटकी को श्री कृष्र् अन्य ग्वालों के साि ममलकर िोड दे िे हैं, िो गोतपयाां यशोदा
मैया से उनके घर पर आकर कान्हा की शशकायि करिी हैं, जजससे यशोदा मैया कान्हा को बहुि डाांटिी हैं।
अपने बचाव में बाल कृष्र्ा अपनी मैया से कहिे हैं तक हे मैया! मैंने माखन नहीं खाया है। आप सबह होिे ही
मझे गायों को चरवाने के शलए भेज दे िी हैं और दोपहर िक मैं यूां ही यहाां-वहाां भटकिा रहिा है और साांझ को
वापस घर लौटिा हां। मैया मैं िो एक नन्हा सा बालक हां और मेरी बाहें भी छोटी-छोटी हैं, िो मैं भला तकस
प्रकार इिने ऊांचे माखन के मटकों िक पहुांच पाऊांगा। मेरे ममत्र भी मझसे जलिे हैं, इसशलए उन सभी ने मेरे
मांह पर जबरदस्िी मक्खन शलपटा ददया है। मैया िू बहुि भोली है जो इन लोगों की बािों में आ जािी है। मझे
ऐसा प्रिीि होिा है तक िेरे ददल में मेरे शलए कोई प्रेम नहीं है, जो िू मझे अपना समझिी नहीं हमेशा पराया
समझिी है। िभी िो हर क्षर् मझ पर शांका करिी रहिी है। वातपस ले िेरी लाठी और कांबल िूने मझे बहुि ही
उदास तकया है। कान्हा के मख से इिना सनिे ही यशोदा मैया का हृदय पसीज जािा है और वह मस्करा कर
कृष्र् को गले लगा लेिी हैं।

• अब कै माधन मोपहिं उधारर।


मगन हौं भाि अम्बुवनयध में कृपाक्तसन्धु मुरारर।।
नीर अवत गंभीर माया लोभ लहरर तरंग।
क्तलयें जात अगाध जल में गहे ग्राह अनंग।।
मीन इजन्द्रय अवतवह काटवत मोत अघ क्तसर भार।
पग न इत उत धरन पाित उरजझ मोह क्तसबार।।
काम रोध समेत तृषना पिन अवत जकझोर।
नापहिं यचतित दे ह वतयसुत नाम-मौका ओर।।
थक्यौ बीच बेहाल वबह्वल सुनह करुनामभल।
श्याम भुज गवह काद्रढ डारह सभर ब्रज के कभल।।

अथण – सूरदास के इस दोहे में सूरदास जी इस समस्ि दतनया को एक मायाजाल बिािे हुए अपनी पीडा को
भगवान श्री कृष्र् के समक्ष व्यक्त करिे हैं। कतव कहिे हैं तक हे परमतपिा यह समस्ि सृतष्ट माया रूपी जल से
भरी हुई है। इस जल में लालच के रूप में ऊांची ऊांची लहरे उछाल मार रही हैं। दोष और कामवासना के रूप में
मगरमच्छ अपना कब्जा जमाए हुए हैं और जल में िैरिी हुई मछशलयाां इांदरयाां है जजन पर अब कोई भी काबू
नहीं रहा है। हे श्री कृष्र् इस पाप से भरे दतनया से मझे मक्त कीजजए, मेरे शसर पर पाप की ढे रों गठररयाां पडी है
जो मझे मोह माया से बाहर नहीं तनकलने दे रही हैं। हे प्रभ मेरे मन को क्रोध और काम रूपी हवाएां बहुि
सिािी हैं, कृपया मझ पर दया कररए मेरा उिार कररए। समर जैसे तवशाल इस बडी सी दतनया में मझे केवल
श्रीकृष्र् के नाम की नैया ही डू बने से बचा सकिी है। हे प्रभ मायाजाल के चांगल में मैं इस प्रकार फस गया हां
तक मझे अपने पत्र और पत्नी के शसवाय दूसरा कोई भी नहीं ददखाई दे िा। हे भगवान श्री कृष्र् मेरा बेडा पार
कररए मझ पर कृपा कररए।

• जसोदा हरर पालनैं झुलािै।


हलरािै दलरािै मल्हािै जोइ सोइ किु गािै॥
मेरे लाल को आउ पनिंदररया काहें न आवन सुिािै।

PANKAJ. PATEL
110
II ॐ II

तभ काहै नपहिं बेगपहिं आिै तोकौं कान्ह बुलािै॥


कबहं पलक हरर मभंद्रद लेत हैं कबहं अधर फरकािैं।
सोित जावन मौन ह्वै कै रवह करर करर सैन बतािै॥
इवह अंतर अकुलाइ उठे हरर जसुमवत मधुरैं गािै।
जो सुख सभर अमर मुवन दरलभ सो नंद भायमवन पािै॥

अथण: सूरदास के इस दोहे में श्री कृष्र् के बाल अवस्िा का अद्भुि मचत्रर् करिे हुए कतव कहिे हैं तक मैया
यशोदा कान्हा को सलाने के शलए पालने में रखकर झूला झूला रही हैं। यशोदा मैया कभी कान्हा को पालने में
झूला झलािी िो कभी उसे अपनी बाहों में उठा कर प्यार करने लगिी और कभी कान्हा का मख चूमिी।
लेतकन तफर भी श्री कृष्र्ा को नींद नहीं आई िो उन्हें सलाने के शलए मैया मधर गीि गनगनाने लगिी, लेतकन
कान्हा को तफर भी नींद नहीं आई। बार-बार प्रयास करने के पश्चाि भी जब कान्हा नहीं सोए िब यशोदा नींद
पर खीझिे हुए कहिी तक एरी हनिंददया िू मेरे लकला को सला क्यों नहीं रही है? िू मेरे लकला के पास क्यों नहीं
आिी दे ख िझे मेरा कान्हा पकार रहा है। जब यशोदा नींद को पकारिी िब धीरे से कान्हा की पलकें भी मूांद
जािी िो कभी कान्हा के होंठ कच्ची नींद में फडफडाने लगिे। मैया के मीठे लोरी से जब कान्हा ने अपनी
आांखे मूद
ां ी िो यशोदा को ऐसा लगा तक अब कृष्र् सो गए हैं। लेतकन िभी कछ गोतपयाां वहाां आिी हैं। शोरगल
सनिे ही नन्हे कन्हैया की जी नींद टू ट जािी है, जजसके पश्चाि यशोदा पनः अपने लकला को मीठी मीठी लोररयाां
गाकर सलाने का प्रयास करिी हैं। इस रचना में सूरदास जी कहिे हैं तक नांद पत्नी यशोदा वास्िव में सबसे
भाग्यशाली हैं जजन्हें स्वयां भगवान के बाल रूप का सख प्राप्ि हुआ है। ऐसे सख िो दे विाओं और ऋतष-
मतनयों को सददयों िक प्रिीक्षा करने के पश्चाि भी नहीं प्राप्ि होिे हैं।

• मुख दयध लेप वकए


सोभभत कर निनीत क्तलए।
घुटुरुवन चलत रेनु तन मंयडत मुख दयध लेप वकए।।
चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन वतलक द्रदए।
लट लटकवन मनु मत्त मधुप गन मादक मधुपहिं वपए।।
कठु ला कंठ िज्र केहरर नख राजत रुयचर वहए।
धन्य सभर एकौ पल इपहिं सुख का सत कल्प जजए।।

अथण: सूरदास जी को भक्त शशरोमभर् भी कहा जािा है, उपरोक्त दोहे में उन्होंने श्री कृष्र् के बाल रूप का अति
सांदर रूप से वर्णन तकया है जो तकसी का भी मन मोतहि कर ले। भगवान श्री कृष्र् के बाल लीला को प्रस्िि
करिे हुए सूरदास जी कहिे हैं की कान्हा अभी बहुि छोटे हैं और वह आांगन में केवल घटनों के सहारे ही चल
सकिे हैं। एक ददन यशोदा द्वारा तनकाला गया िाजा माखन अपने नन्हे हािों में लेकर श्री कृष्र्ा आांगन में धीरे
धीरे घटनों के बल चल रहे हैं। उनके पैरों में ममट्टी लगी है और मख पर मक्खन शलपटा हुआ है। कान्हा के
घांघराले बाल मख पर आ रहे हैं उनके गाल बहुि ही कोमल और सांदर हैं ििा नेत्र मनमोतहि कर लेने वाले हैं।
कान्हा के नन्हे से मस्िक पर गोरोचन का तिलक लगा हुआ है। नन्हे श्री कृष्र् अपने हािों में मक्खन शलए हुए
इिने सांदर लग रहे हैं जजसका वर्णन करना बेहद कदठन है। बाल लीला करिे हुए कान्हा को दे खकर ऐसा प्रिीि
होिा है जैसे मानो फूलों के मधर रस को पाकर भ्रमर् करिे हुए भौरे मिवाले हो गए हैं। कृष्र्ा के गले में
लटक रही सांदर माला और लसिंहनख उनकी शोभा को और भी बढ़ािे जा रहे हैं। श्री कृष्र् के इस रूप को
दे खकर कोई भी मोतहि हो जाए।

PANKAJ. PATEL
111
II ॐ II

• यमद्रट गई अंतरबाधा
खेलौ जाइ स्त्याम संग राधा।
यह सुवन कुंिरर हरष मन कीन्हों यमद्रट गई अंतरबाधा।।
जननी वनरखख चवकत रवह ठाढ़ी दं पवत रूप अगाधा।।
दे खवत भाि दहंवन को सोई जो यचत करर अिराधा।।
संग खेलत दोउ झगरन लागे सोभा बढ़ी अगाधा।।
मनहं तण्डत घन इंद तरवन ह्वै बाल करत रस साधा।।
वनरखत वबयध भ्रयम भभक्तल पयौ तब मन मन करत समाधा।।
सभरदास प्रभु और रच्यो वबयध सोच भयो तन दाधा।।

अथण: इस सूरदास के दोहे में राधा-कृष्र् के बाल लीलाओं का वर्णन करिे हुए कतव कहिे हैं तक बृज की भूमम
राधा कृष्र् के इस पतवत्र रासलीला को दे खकर धन्य हो उठी है। जब राधा रानी के मािा-तपिा वृषभान ििा
कीर्ििं रामधका को श्री कृष्र् के सांग खेलने की अनमति प्रदान करिे हैं, िो इसे सनकर राधारानी बहुि प्रसन्न
होिी हैं क्योंतक अब उन्हें कान्हा के साि खेलने के शलए कोई भी रोक टोक करने वाला नहीं िा। सारी बाधाएां
दूर हो गई िो राधा श्याम सांग खेलने चली जािी हैं। जब रामधका और श्याम खेल रहे होिे हैं िो राधा की मािा
कीर्ििं दूर खडी होकर राधा कृष्र् को खेलिे हुए दे खिी है। राधा कृष्र् की जोडी को दे खकर वे बहुि प्रसन्न
होिी हैं। सौंदयण के पराकाष्ठा को दे खकर वे मांत्रमग्ध रह जािी हैं। लेतकन िभी राधा कृष्र् खेलिे खेलिे झगडने
लगिे हैं। राधा कृष्र् के झगडे में भी इिना सौंदयण िा जजसकी िलना तकसी से भी नहीं की जा सकिी। राधा
और कृष्र् की जोडी को दे खकर ऐसा प्रिीि होिा है जैसे सूयण, चांर, मेघ और दाममनी बाल रूप में लीलाए रच
रहे हो। ऐसा मनमोहक दृश्य दे खकर िो एक समय के शलए परम ब्रह्मा भी भ्रम में पड गए तक कहीं जगिपति
श्री कृष्र् ने कोई नई सृतष्ट की रचना िो नहीं कर दी है। ऐसा तवचार करके एक समय के शलए ब्रह्मा जी भी
भगवान श्रीकृष्र् से बैर कर बैठे।

PANKAJ. PATEL
112
II ॐ II

रतहमन धागा प्रेम का, मि िोरो चटकाय, टू टे पे तफर ना जरे, जरे गाूँठ परी जाय||” इसी तरह के
Rahim Ke Dohe इन पहिंदी आपको पढ़ने के क्तलए यमलेगें । अब्दल रहीम खानखाना का जन्म
17 द्रदसंबर 1556 ईिी लाहौर में हआ था। इनके वपता का नाम बैरम खां और माता का नाम जमाल
खान था और माता का नाम सईदा बेगम था। उनकी पत्नी का नाम महाबानभ बेगम था। िह इस्त्लाम
धमण के थे। िषण 1576 में उनको गुजरात का सभबेदार वनयुि वकया गया था। 28 िषण की उम्र में
अकबर ने खानखाना की उपायध से निाजा था। उन्होंने बाबर की आत्मकथा का तुकी से फारसी में
अनुिाद वकया था। नौ रत्नों में िह अकेले ऐसे रत्न थे जजनका कलम और तलिार दोनों विधाओं
पर समान अयधकार था। उनकी मृत्यु 1 अक्टभ बर 1627 ई में हई।

रवहमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय.


टभ टे पे वफर ना जुरे, जुरे गाूँठ परी जाय||

अिण: रहीम कहिे हैं तक प्रेम का नािा नाज़ुक होिा है. इसे झटका दे कर िोडना उमचि नहीं होिा। यदद यह प्रेम
का धागा एक बार टू ट जािा है िो तफर इसे ममलाना कदठन होिा है और यदद ममल भी जाए िो टू टे हुए धागों के
बीच में गाूँठ पड जािी है।

दुःख में सुयमरन सब करे, सुख में करे न कोय |


जो सुख में सुयमरन करे, तो दुःख काहे होय ||

अिण : दःख में सभी लोग भगवान को याद करिे हैं. सख में कोई नहीं करिा, अगर सख में भी याद करिे िो
दःख होिा ही नही |

रवहमन दे खख बड़ेन को, लघु न दीजजए डारर.


जहां काम आिे सुई, कहा करे तरिारर||

अिण: बडों को दे खकर छोटों को भगा नहीं दे ना चातहए। क्योंतक जहाां छोटे का काम होिा है वहाां बडा कछ नहीं
कर सकिा। जैसे तक सई के काम को िलवार नहीं कर सकिी।

रवहमन अंसुिा नयन ढरर, जजय दुःख प्रगट करेइ,


जावह वनकारौ गेह ते, कस न भेद कवह दे इ||

अिण: रहीम कहिे हैं की आांसू नयनों से बहकर मन का दःख प्रकट कर दे िे हैं। सत्य ही है तक जजसे घर से
तनकाला जाएगा वह घर का भेद दूसरों से कह ही दे गा.

जैसी परे सो सवह रहे, कवह रहीम यह दे ह,


धरती ही पर परत है, सीत घाम औ मेह||

अिण: रहीम कहिे हैं तक जैसी इस दे ह पर पडिी है – सहन करनी चातहए, क्योंतक इस धरिी पर ही सदी, गमी
और वषाण पडिी है. अिाणि जैसे धरिी शीि, धूप और वषाण सहन करिी है, उसी प्रकार शरीर को सख-दःख
सहन करना चातहए|

PANKAJ. PATEL
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II ॐ II

बड़ा हआ तो क्या हआ, जैसे पेड़ खजभर,


पंथी को िाया नहीं, फल लागे अवत दूर |

अिण : बडे होने का यह मिलब नहीं हैं की उससे तकसी का भला हो। जैसे खजूर का पेड िो बहुि बडा होिा हैं
लेतकन उसका फल इिना दूर होिा है की िोडना मस्श्कल का कम है |

दोनों रवहमन एक से, जों लों बोलत नापहिं।


जान परत हैं काक वपक, ररतु बसंत के मापहिं||

अिण: कौआ और कोयल रांग में एक समान होिे हैं। जब िक ये बोलिे नहीं िब िक इनकी पहचान नहीं हो
पािी। लेतकन जब वसांि ऋि आिी है िो कोयल की मधर आवाज़ से दोनों का अांिर स्पष्ट हो जािा है|

समय पाय फल होत है, समय पाय झरी जात।


सदा रहे नपहिं एक सी, का रहीम पक्तितात||

अिण: रहीम कहिे हैं तक उपयक्त समय आने पर वृक्ष में फल लगिा है। झडने का समय आने पर वह झड जािा
है। सदा तकसी की अवस्िा एक जैसी नहीं रहिी, इसशलए दःख के समय पछिाना व्यिण है।

रूठे सुजन मनाइए, जो रूठे सौ बार,


रवहमन वफरर वफरर पोइए, टभ टे मुिा हार||

अिण: यदद आपका तप्रय सौ बार भी रूठे , िो भी रूठे हुए तप्रय को मनाना चातहए,क्योंतक यदद मोतियों की माला
टू ट जाए िो उन मोतियों को बार बार धागे में तपरो लेना चातहए।

वनज कर वरया रहीम कवह सीधी भािी के हाथ


पांसे अपने हाथ में दांि न अपने हाथ||

अिण: रहीम कहिे हैं तक अपने हाि में िो केवल कमण करना ही होिा है शसजि िो भाग्य से ही ममलिी है जैसे
चौपड खेलिे समय पाांसे िो अपने हाि में रहिे हैं पर दाांव क्या आएगा यह अपने हाि में नहीं होिा।

बानी ऐसी बोक्तलये, मन का आपा खोय |


औरन को सीतल करै, आपह सीतल होय ||

अिण : अपने अांदर के अहांकार को तनकालकर ऐसी बाि करनी चातहए जजसे सनकर दसरों को और खद को
ख़शी हो।

संपक्तत्त भरम गंिाई के हाथ रहत किु नापहिं


ज्यों रहीम सक्तस रहत है द्रदिस अकासवह मापहिं||

अिण: जजस प्रकार ददन में चन्रमा आभाहीन हो जािा है उसी प्रकार जो व्यशक्त तकसी व्यसन में फांस कर अपना
धन गूँवा दे िा है वह तनष्प्रभ हो जािा है।

माह मास लवह टे सुआ मीन परे थल और


त्यों रहीम जग जावनए, िु टे आपुने ठौर||

PANKAJ. PATEL
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II ॐ II

अिण: माघ मास आने पर टे सू का वृक्ष और पानी से बाहर पृथ्वी पर आ पडी मछली की दशा बदल जािी है।
इसी प्रकार सांसार में अपने स्िान से छू ट जाने पर सांसार की अन्य वस्िओं की दशा भी बदल जािी है. मछली
जल से बाहर आकर मर जािी है वैसे ही सांसार की अन्य वस्िओं की भी हालि होिी है।

रवहमन वनज मन की वबथा, मन ही राखो गोय।


सुनी इठलैहैं लोग सब, बांटी न लेंहैं कोय||

अिण: रहीम कहिे हैं की अपने मन के दःख को मन के भीिर मछपा कर ही रखना चातहए। दूसरे का दःख
सनकर लोग इठला भले ही लें, उसे बाूँट कर कम करने वाला कोई नहीं होिा।

िरू रहीम कानन भल्यो िास कररय फल भोग


बंधभ मर्धय धनहीन ह्वै , बक्तसबो उयचत न योग||

अिण: रहीम कहिे हैं तक तनधणन होकर बांध-बाांधवों के बीच रहना उमचि नहीं है इससे अच्छा िो यह है तक वन मैं
जाकर रहें और फलों का भोजन करें।

पािस दे खख रहीम मन, कोइल साधे मौन।


अब दादर ििा भए, हमको पभिे कौन||

अिण : बाररश के मौसम को दे खकर कोयल और रहीम के मन ने मौन साध शलया हैं। अब िो मेंढक ही बोलने
वाले हैं िो इनकी सरीली आवाज को कोई नहीं पूछिा, इसका अिण यह हैं की कछ अवसर ऐसे आिे हैं जब
गर्वान को चप रहना पडिा हैं। कोई उनका आदर नहीं करिा और गर्हीन वाचाल व्यशक्तयों का ही बोलबाला
हो जािा हैं |

रवहमन विपदा ह भली, जो थोरे द्रदन होय।


वहत अनवहत या जगत में, जान परत सब कोय||

अिण: रहीम कहिे हैं तक यदद तवपशत्त कछ समय की हो िो वह भी ठीक ही है, क्योंतक तवपशत्त में ही सबके
तवषय में जाना जा सकिा है तक सांसार में कौन हमारा तहिैषी है और कौन नहीं।

िे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग।


बांटन िारे को लगे, ज्यों मेंहदी को रंग||

अिण: रहीम कहिे हैं तक वे लोग धन्य हैं जजनका शरीर सदा सबका उपकार करिा है। जजस प्रकार मेंहदी बाांटने
वाले के अांग पर भी मेंहदी का रांग लग जािा है, उसी प्रकार परोपकारी का शरीर भी सशोभभि रहिा है.

ओिे को सतसंग रवहमन तजह अंगार ज्यों।


तातो जारै अंग सीरै पै कारौ लगै||

अिण: ओछे मनष्य का साि छोड दे ना चातहए। हर अवस्िा में उससे हातन होिी है – जैसे अांगार जब िक गमण
रहिा है िब िक शरीर को जलािा है और जब ठां डा कोयला हो जािा है िब भी शरीर को काला ही करिा है|

PANKAJ. PATEL
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II ॐ II

िृक्ष कबहूँ नहीं फल भखैं, नदी न संचै नीर


परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर।

अिण: वृक्ष कभी अपने फल नहीं खािे, नदी जल को कभी अपने शलए सांमचि नहीं करिी, उसी प्रकार सज्जन
परोपकार के शलए दे ह धारर् करिे हैं।

लोहे की न लोहार की, रवहमन कही विचार जा


हवन मारे सीस पै, ताही की तलिार||

अिण: रहीम तवचार करके कहिे हैं तक िलवार न िो लोहे की कही जाएगी न लोहार की, िलवार उस वीर की
कही जाएगी जो वीरिा से शत्र के सर पर मार कर उसके प्रार्ों का अांि कर दे िा है।

तासों ही किु पाइए, कीजे जाकी आस


रीते सरिर पर गए, कैसे बुझे वपयास||

अिण: जजससे कछ पा सकें, उससे ही तकसी वस्ि की आशा करना उमचि है, क्योंतक पानी से ररक्त िालाब से
प्यास बझाने की आशा करना व्यिण है।

रवहमन नीर पखान, बभड़े पै सीझै नहीं


तैसे मभरख ज्ञान, बभझै पै सभझै नहीं

अिण: जजस प्रकार जल में पडा होने पर भी पत्िर नरम नहीं होिा उसी प्रकार मूखण व्यशक्त की अवस्िा होिी है
ज्ञान ददए जाने पर भी उसकी समझ में कछ नहीं आिा।

साधु सराहै साधुता, जाती जोखखता जान


रवहमन सांचे सभर को बैरी कराइ बखान||

अिण: रहीम कहिे हैं तक इस बाि को जान लो तक साध सज्जन की प्रशांसा करिा है यति योगी और योग की
प्रशांसा करिा है पर सच्चे वीर के शौयण की प्रशांसा उसके शत्र भी करिे हैं।

राम न जाते हररन संग से न रािर् साथ


जो रहीम भािी कतहूँ होत आपने हाथ

अिण: रहीम कहिे हैं तक यदद होनहार अपने ही हाि में होिी, यदद जो होना है उस पर हमारा बस होिा िो ऐसा
क्यों होिा तक राम तहरन के पीछे गए और सीिा का हरर् हुआ। क्योंतक होनी को होना िा – उस पर हमारा
बस न िा न होगा, इसशलए िो राम स्वर्ण मृग के पीछे गए और सीिा को रावर् हर कर लांका ले गया।

तरुिर फल नपहिं खात है, सरिर वपयवह न पान।


कवह रहीम पर काज वहत, संपवत सूँचवह सुजान |

अिण: रहीम कहिे हैं तक वृक्ष अपने फल स्वयां नहीं खािे हैं और सरोवर भी अपना पानी स्वयां नहीं पीिा है। इसी
िरह अच्छे और सज्जन व्यशक्त वो हैं जो दूसरों के कायण के शलए सांपशत्त को सांमचि करिे हैं।

PANKAJ. PATEL
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II ॐ II

रवहमन ओिे नरन सो, बैर भली न प्रीत |


काटे चाटे स्त्िान के, दोउ भाूँती विपरीत ||

अिण : तगरे हुए लोगों से न िो दोस्िी अच्छी होिी हैं, और न िो दश्मनी। जैसे कत्ता चाहे काटे या चाटे दोनों ही
अच्छा नहीं होिा |

एकवह साधै सब सधैए, सब साधे सब जाय |


रवहमन मभलवह सींचबोए, फभलवह फलवह अघाय ||

अिण: एक को साधने से सब सधिे हैं। सब को साधने से सभी के जाने की आशांका रहिी है – वैसे ही जैसे
तकसी पौधे के जड मात्र को सींचने से फूल और फल सभी को पानी प्राप्ि हो जािा है और उन्हें अलग अलग
सींचने की जरूरि नहीं होिी है।

मथत-मथत माखन रहे, दही मही वबलगाय |


‘रवहमन’ सोई मीत है, भीर परे ठहराय ||

अिण : सच्चा ममत्र वही है, जो तवपदा में साि दे िा है। वह तकस काम का ममत्र, जो तवपशत्त के समय अलग हो
जािा है? मक्खन मििे-मििे रह जािा है, तकन्ि मट्ठा दही का साि छोड दे िा है।

रवहमन’ िहां न जाइये, जहां कपट को हेत |


हम तो ढारत ढे कुली, सींचत अपनो खेत ||

अिण : ऐसी जगह कभी नहीं जाना चातहए, जहाां छल-कपट से कोई अपना मिलब तनकालना चाहे। हम िो
बडी मेहनि से पानी खींचिे हैं कएां से ढें कली द्वारा, और कपटी आदमी तबना मेहनि के ही अपना खेि सींच
लेिे हैं।

वबगरी बात बने नहीं, लाख करो वकन कोय।


रवहमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय||

अिण: मनष्य को सोचसमझ कर व्यवहार करना चातहए, क्योंतक तकसी कारर्वश यदद बाि तबगड जािी है िो
तफर उसे बनाना कदठन होिा है, जैसे यदद एकबार दूध फट गया िो लाख कोशशश करने पर भी उसे मि कर
मक्खन नहीं तनकाला जा सकेगा।

खैर, खभन, खाूँसी, खुसी, बैर, प्रीवत, मदपान.


रवहमन दाबे न दबै, जानत सकल जहान ||

अिण : सारा सांसार जानिा हैं की खैररयि, खून, खाूँसी, ख़शी, दश्मनी, प्रेम और शराब का नशा छपाने से नहीं
छपिा हैं।

जो रहीम ओिो बढै , तौ अवत ही इतराय |


प्सयादे सों फरजी भयो, टे ढ़ों टे ढ़ों जाय ||

PANKAJ. PATEL
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II ॐ II

अिण : लोग जब प्रगति करिे हैं िो बहुि इिरािे हैं। वैसे ही जैसे शिरांज के खेल में ज्यादा फ़जी बन जािा हैं िो
वह टे ढ़ी चाल चलने लिा हैं।

चाह गई चचिंता यमटीमनुआ बेपरिाह |


जजनको कुि नहीं चावहए, िे साहन के साह ||

अिण : जजन लोगों को कछ नहीं चातहए वों लोग राजाओं के राजा हैं, क्योकी उन्हें ना िो तकसी चीज की चाह हैं,
ना ही मचन्िा और मन िो पूरा बेपरवाह हैं।

रवहमन पानी राखखये, वबन पानी सब सुन |


पानी गये न ऊबरे, मोटी मानुष चुन ||

अिण : इस दोहे में रहीम ने पानी को िीन अिों में प्रयोग तकया है, पानी का पहला अिण मनष्य के सांदभण में है
जब इसका मिलब तवनम्रिा से है। रहीम कह रहे हैं की मनष्य में हमेशा तवनम्रिा होनी चातहये | पानी का
दूसरा अिण आभा, िेज या चमक से है जजसके तबना मोटी का कोई मूकय नहीं | पानी का िीसरा अिण जल से है
जजसे आटे से जोडकर दशाणया गया हैं। रहीमदास का ये कहना है की जजस िरह आटे का अस्स्ित्व पानी के
तबना नम्र नहीं हो सकिा और मोटी का मूकय उसकी आभा के तबना नहीं हो सकिा है, उसी िरह मनष्य को भी
अपने व्यवहार में हमेशा पानी यानी तवनम्रिा रखनी चातहये जजसके तबना उसका मूकयह्रास होिा है।

जो बड़ेन को लघु कहें, नहीं रहीम घटी जापहिं।


वगरधर मुरलीधर कहें, किु दुःख मानत नापहिं||

अिण: रहीम अपने दोहें में कहिे हैं तक बडे को छोटा कहने से बडे का बडप्पन नहीं घटिा, क्योंतक तगररधर
(कृष्र्) को मरलीधर कहने से उनकी मतहमा में कमी नहीं होिी।

रवहमन चुप हो बैद्रठये, दे खख द्रदनन के फेर |


जब नाइके द्रदन आइहैं, बनत न लवगहैं दे र ||

अिण : इस दोहे में रहीम का अिण है की तकसी भी मनष्य को ख़राब समय आने पर चचिंिा नहीं करनी चातहये
क्योंतक अच्छा समय आने में दे र नहीं लगिी और जब अच्छा समय आिा हैं िो सबी काम अपने आप होने
लगिे हैं।

जो रहीम उत्तम प्रकृवत, का करी सकत कुसंग।


चन्दन विष व्यापे नहीं, क्तलपटे रहत भुजंग||

अिण: रहीम कहिे हैं तक जो अच्छे स्वभाव के मनष्य होिे हैं,उनको बरी सांगति भी तबगाड नहीं पािी. जहरीले
साांप चन्दन के वृक्ष से शलपटे रहने पर भी उस पर कोई जहरीला प्रभाव नहीं डाल पािे।

रवहमन िे नर मर गये, जे किु मांगन जावह |


उतने पावहले िे मुये, जजन मुख वनकसत नावह ||

अिण : जो इन्सान तकसी से कछ माांगने के शलये जािा हैं वो िो मरे हैं ही परन्ि उससे पहले ही वे लोग मर जािे
हैं जजनके मह से कछ भी नहीं तनकलिा हैं।

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II ॐ II

रवहमन विपदा ही भली, जो थोरे द्रदन होय |


वहत अनवहत या जगत में, जावन परत सब कोय ||

अिण : सांकट आना जरुरी होिा हैं क्योकी इसी दौरान ये पिा चलिा है की सांसार में कौन हमारा तहि और बरा
सोचिा हैं।

जे गररब पर वहत करैं, हे रहीम बड |


कहा सुदामा बापुरो, कृषर् यमताई जोग ||

अिण : जो लोग गररब का तहि करिे हैं वो बडे लोग होिे हैं। जैसे सदामा कहिे हैं कृष्र् की दोस्िी भी एक
साधना हैं।

जो रहीम गवत दीप की, कुल कपभत गवत सोय,


बारे उजजयारो लगे, बढे अूँधेरो होय ||

अिण : ददये के चररत्र जैसा ही कपत्र का भी चररत्र होिा हैं. दोनों ही पहले िो उजाला करिे हैं पर बढ़ने के साि
अांधेरा होिा जािा हैं |

धवन रहीम गवत मीन की जल वबिु रत जजय जाय


जजयत कंज तजज अनत िक्तस कहा भौरे को भाय ||

अिण :- इस Rahim Ke Dohe बिाया गया है की मछली का प्रेम धन्य है जो जल से तबछडिे हीं मर जािी
है। भौरा का प्रेम छलावा है जो एक फूल का रस ले कर िरांि दूसरे फूल पर जा बसिा है। जो केवल अपने
स्वािण के शलये प्रेम करिा है वह स्वािी है।

PANKAJ. PATEL
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II ॐ II

गुरु नानक दे ि जी क्तसख धमण के गुरु है, इनका जन्म अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार साल 1469 में हआ
था। गुरु नानक दे ि ने हमेशा अपने प्रिचनों में जावतिाद को यमटाने, सत्य के मागण पर चलने के उपदे श
द्रदए हैं।

गुरु नानक के दोहे...

• थावपआ न जाइ कीता न होइ। आपे आवप वनरंजनु सोइ।


गरु नानक दे व जी कहिे है, तक भगवान अजन्मा तनराकार मायािीि अटल शसिस्वरूप अनादद एवां
अनन्ि हैं।

• गािीऐ सुर्ीऐ मवन रखीऐ भाउ। दखु परहरर सुखु घरर लै जाइ।
जजसने प्रभ की सेवा की उसे सवोत्तम प्रतिश्ठा ममली। इसीशलये उसके गर्ों का गायन करना चातहये-
ऐसा गरू नानक का मि है।

• गुरा इक दे वह बुझाई। सभना जीआ का इकु दाता सो मैं विसरर न जाई।


नानक दे व जी कहिे है, तक उसके गर्ों का गीि गाने सनने एवां मन में भाव रखने से समस्ि दखों का
नाश एवां अनन्य सखों का भण्डार प्राप्ि होिा है।

• तीरक्तथ नािा जे वतसु भािा। विर्ु भार्े वक नाइ करी।


गरु नानक दे व जी कहिे है, तक िीिों में स्नान से प्रभ िब खश होंगें जब वह उन्हें मांजूर हो। तबना ईश्वर
के मान्यिा के िीिों का स्नान कोई अिण नहीं रखिा। उससे तकसी िरह के फायदा होने का कोई कारर्
नहीं है।

• गुरमुखख नादं गुरमुखख िेदं। गुरमुखख रवहआ समाई। गुरू ईसरू गुरू गोरखु बरमा। गुरू पारबती
माई।
गरु नानक दे व जी कहिे है, तक गरू वार्ी हीं शब्द एवां बेद है। प्रभ उन्हीं शब्दों एवां तवचारों में तनवास
करिे हैं। गरू हीं शशव तबश्न ब्रम्हा एवां पावणिी मािा हैं। सभी दे विाओं का ममलन गरू के वचनों में हीं
प्राप्ि है।

• जे हउ जार्ा आखा नाही। कहर्ा कथनु न जाई।


ईश्वर की ज्योति को जान लेने पर भी उसे शब्दों में ब्यक्त नही तकया जा सकिा है। वह किन से परे
मात्र हृदय में अनभव जन्य है।

• जेती क्तसरद्रठ उपाई िेखा विर्ु करमा वक यमलै लई।


सांसार में हमारे कमों के अनसार हीं हमें ममलिा है। कछ भी हाशसल करने के शलये हमें कमण करना
पडिा है। िब प्रभ की प्राप्प्ि तबना कमण के कैसे सांभव है। तकन्ि तकसी भौतिक वस्ि को प्राप्ि करने की
मनोकामना से तकये गये कमण ब्यिण हैं।

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II ॐ II

• कागद्रद कलम न क्तलखर्हारू। मंने काबवह करवन िीचारू।


गरु नानक दे व जी कहिे है, तक ऐसी कोई कागज और कलम नही बनी है अै ार कोई ऐसा शलखने
बाला भी नहीं है जो प्रभ के नाम की महत्ता का वर्णन कर सके।

• ऐसा नामु वनरंजनु होइ। जे को मंवन जार्ै मवन कोइ।


प्रभ नाम के सममरर् मनन करने का महत्व िो केवल वही आदमी जान समझ सकिा है। दूसरा कोई
मनश्य उसका वर्णन नही कर सकिा है।

• मंनै सुरवत होिै मवन बुयध। मंनै सगल भिर् की सुयध।


गरु नानक दे व जी कहिे है, तक नाम सममरर् करने से हीं ईश्वर के प्रति प्रेम उत्पन्न होिा है, ििा उसकी
बजि भी पतवत्र हो जािी है। िब उस ब्यशक्त को सांसार के समस्ि लोकों का ज्ञान प्राप्ि हो जािा है।

• मंनै मुवह चोटा ना खाइ। मंनै जम कै साक्तथ न जाइ।


प्रभ का चचिंिन करने बाला काल मृत्य के घाि से भी सरभक्षि रहिा है। वह मौि के म ह में नही जािा
है।वह मनस्वी अमरिा प्राप्ि करिा है। उसे मृत्य दूि नही ले जा पािे हैं।

• मंनै मारवग ठाक न पाइ। मंनै पवत क्तसउ परगटु जाइ।


प्रभ नाम के मनन चचिंिन करने बाले के सामने तकसी िरह की तवघ्न बाधा नहीं आिी है। वह ब्यशक्त
सभी जगह मान इज्जि पािा है।

• मंनै मगु न चलै पंथु। मंनै धरम सेती सनबंधु।


गरु नानक दे व जी कहिे है, तक जो ब्यशक्त प्रभ नाम की दीक्षा लेिा है, वह दूसरे लोगों के द्वारा चलाये
गये पांिों में भ्रममि नही होिा। वे कोई अन्य रास्िा नही अपनािे और सवणदा सच्चे धमण पर अमडग रहिे
हैं।

• ऐसा नामु वनरंजनु होइ। जे को मंवन जार्ै मवन कोइ।


गरू नानक दे व जी का प्रभ पर दृढ़ तवश्वास है, तक नाम की मतहमा केवल उसे मनन सममरर् करने
बाला हीं जानिा है अन्य कोई नहीं जान सकिा नानक

• मंनै पािवह मोखु दआरू। मंनै परिारै साधारू।


गरु नानक दे व जी कहिे है, तक प्रभ नाम का तनत्य स्मरर् करने बाला हीं मशक्त मोक्ष का अमधकारी
है। वह अपने सम्पूर्ण पररवार को भी ईश्वर की शरर् में लाकर िाड दे िा है।

• ऐसा नाम वनरंजनु होइ। जे को मंवन जार्ै मवन कोइ।


गरु नानक दे व जी भक्त के बारे बिािे है, तक नाम का मनन करने बाला हीं उसका महत्व जानिा है-
दूसरा कोई नहीं।

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II ॐ II

• मंनै तरै तारे गुरू क्तसख। मंनै नानक भिवह न भभख।


गरु नानक दे व जी कहिे है, तक प्रभ के नाम का तनरांिर मनन करने बाला स्वयां िो सांसार रूपी सागर
को पार कर हीं जािा है-वह अपने साि सभी गरू भाइयों को भी िार दे िा है। नानक दे व जी का
तवश्वास है तक वह 84 लाख योतनयों में नही भटकिा है। उसमें िब तकसी िरह की इच्छा भी नही रह
जािी है।

• साचा सावहबु साचु नाइ। भाखखआ भाउ अपारू। आखवह मंगवह दे वह दे वह। दावत करे दातारू।
गरु नानक दे व जी उपदे श दे िे हुए कहिे है, तक प्रभ सत्य एवां उसका नाम सत्य है। अलग अलग
तवचारों एवां भावों ििा बोशलयों में उसे भभन्न भभन्न नाम ददये गये हैं। प्रत्येक जीव उसके दया की भीख
मा गिा है ििा सब जीव उसके कृपा का अमधकारी है। और वह भी हमें अपने कमों के मिातबक
अपनी दया प्रदान करिा है।

• फेरर वक अगै रखीऐ। जजतु द्रदसै दरबारू। मुहौ वक बोलर्ु बोलीएै। जजतु सुभर् धरे वपआरू।
गरु नानक दे व जी हमें मागणदर्शिंि करिे है तक हमें यह ज्ञाि नही है तक उसे क्या अपणर् तकया जाये
जजससे वह हमें दशणन दे । हम कैसे उसे गायें-याद करें-गा र्गान करें तक वह प्रसन्न होकर हमें अपनी
कृपा से सराबोर करे और अपना प्रेम हमें सलभ कर दे ।

• अंयम्रत िेला सचु नाउ ियडआई िीचारू।


गरु नानक दे व जी समझािे हुए प्रािःकाल को अमृि बेला के नाम से सशोभभि करिे है। गरु नानक दे व
जी कहिे है, तक इस समय हृदय से प्रभ का जप स्मरर् करने से वह अपनी कृपा प्रदान करिा है। इस
समय ईश्वर में एकाग्रिा सहज होिा है। अिः प्रािःकाल में हमें प्रभ का ध्यान अवश्य करना चातहये।

• करमी आिै कपड़ा। नदरी मोखु दआरू। नानक एिै जार्ीऐ। सभु आपे सयचआरू।
गरु नानक दे व जी कहिे है, तक हमारे अच्छे और बरे कमो से यह शरीर बदल जािा है। मशक्त-मोक्ष की
प्राप्प्ि िो केवल प्रभ कृपा से ही सांभव है। हमें अपने समस्ि भ्रमों का नाश करके ईश्वर ित्व का ज्ञान
प्राप्ि करना चातहये। हमें प्रभ के सवणकत्र्िा एवां सवणब्यापी सत्ता में तवश्वास करना चातहये।

PANKAJ. PATEL
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II ॐ II

संत रैदास के दोहे

ब्राह्मर् मत पुजजये जो होिे गुर्हीन !


पुजजये चरर् चंडाल के जो होने गुर् प्रिीर् !!
अथण : इस दोहे के माध्यम से सांि रैदास जी कहिे है तक तकसी मनष्य को शसफण इसशलए नहीं पूजना चातहए तक
वह तकसी ऊूँचे कल में जन्मा है ! हमें उस व्यशक्त को नहीं पूजना चातहए जजसमे कोई गर् नहीं हो ! हमें ऐसे
व्यशक्त को पूजना चातहए जो गर्वान हो चाहे वह तकसी नीची जािी का ही क्यों न हो !

मन चंगा तो कठौती में गंगा !


अथण : रैदास जी इस दोहे में कहिे है तक जजस मनष्य का मन पतवत्र है , उसके बलाने पर माूँ गांगा एक कठौिी

करम बंधन में बन्ध रवहयो , फल की न तण्ज्जयो आस !


कमण मानुष का धमण है , सत भाखे रविदास !!
अथण : सांि रैदास जी इस दोहे में कहिे है तक मनष्य को हमेशा अपने कमण पर ध्यान दे ना चातहए कभी भी फल
की इच्छा नहीं करनी चातहए ! क्योंतक कमण करना मनष्य का धमण है िो फल पाना हमारा सौभाग्य !

मन ही पभजा मन ही धुप !
मन ही सेऊूँ सहज स्त्िरूप !!
अथण : इस दोहे के माध्यम से सांि रैदास जी हमें यह कहिे है तक एक पतवत्र मन में ही ईश्वर का वास होिा है !
यदद इस मन की तकसी के प्रति कोई भेद – भाव , लालच या द्वे ष की भावना नहीं है िो ऐसा मन ही भगवान
का मांददर है , दीपक है और धप है ! ऐसे मन में ही ईश्वर तनवास करिे है !

कृस्त्न , करीम , राम , हरर , राघि , जब लग एक न पेखा !


िेद कतेब कुरान , पुरानन , सहज एक नहीं दे खख !!
अथण : रैदास जी कहिे है तक कृष्र् , राम करीम , हरर , राघव सब एक ही परमेश्वर के अलग – अलग नाम है !
वेद , करान , परार् आदद सभी ग्रांिो में एक ही ईश्वर की बाि करिे है , और सभी ईश्वर की भशक्त के शलए
सदाचार का पाठ पढ़िे है !

रविदास जन्म के कारने , होत न कोउ नीच !


नकर कुं नीच करर डारर है , ओिे करम की कीच !!
अथण : कोई भी मनष्य तकसी जािी में जन्म लेने से तनचा या छोटा नहीं होिा है , मनष्य हमेशा अपने कमो के
कारर् पहचाना जािा है !

रैदास कहे जाकै हदै , रहे रैन द्रदन राम !


सो भगता भगिंत सम , रोध न व्यापे काम !!
अथण : इस दोहे में सांि रतवदास जी कहिे है तक भशक्त में ही शशक्त होिी है ! जजस मनष्य के ह्रदय में ददन – राि
राम के नाम का वास होिा है , वह मनष्य स्वयां राम के समान होिा है ! रतवदास जी कहिे है तक राम के नाम में
ही इिनी शशक्त है तक व्यशक्त को कभी क्रोध नहीं आिा और कभी – भी कामभावना का शशकार नहीं होिा है !

PANKAJ. PATEL
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II ॐ II

रसखान के दोहे

दे ख्यो रुप अपार मोहन सुन्दर स्त्याम को !


िह ब्रज राजकुमार वहय जजय नैनवन में बस्त्यो !!
अथण : इस दोहे में महाकतव रसखान जी कहिे है तक ब्रज के राजकमार भगवान श्री कृष्र् उनके हृदय , मन ,
ममजाज , जी , जान और आूँखों में अपना स्िान बना कर बस गए है !

मोहन िवि रसखावन लखख अब दृग अपने नावह !


ऊूँचे आबत धनुस से िु टे सर से जांवह !!
अथण : इस दोहे के माध्यम से रसखान जी कहिे है तक भगवान श्री कृष्र् की सन्दर छतव को दे खने के बाद अब
यह आांखे मेरी नहीं रह गई है जजस िरह धनष से एक बार बार् तनकल जािा है िो तफर वह वापस नहीं आिा
है !

मन लीनो प्सयारे चीते पे िटांक नहीं दे त !


यहै कहा पाटी पढ़ी दल को वपिो लेत !!
अथण : इस दोहे में कतव रसखान वर्णन करिे है तक अब उसके मन को उनके तप्रयिम श्री कृष्र् ने ले शलया है
लेतकन बदले में उन्हें कछ भी नहीं ममला है ! आगे रसखान जी कहिे है तक श्रीकृष्र् ने भी यही कहाूँ है तक
पहले अपना सवणस्व उन्हें सोप दो तफर उसे कछ ममलेगा !

मो मन मावनक ले गयो चीते चोर नंदनंद !


अब बेमन मै क्या करू परर फेर के फंद !!
अथण : इस दोहे में रसखान जी कहिे है तक भगवान श्रीकृष्र् ने उनके मन के माभर्क्य रत्न को चरा शलया है !
अब तबना मन के वह क्या करे ? वे िो भाग्य के फांदे के फेरे में पड गए है ! अब िो तबना समपणर् कोई उपाय
नहीं रह गया है ! अिाणिण जब उनका मन ही उसके तप्रयिम श्रीकृष्र् के पास है िो वे पूरी िरह से उसके प्रति
समर्पिंि हो चके है !

बंक वबलोचन हंसवन मुरर मधुर बैन रसखावन !


यमले रक्तसक रसराज दोउ हरखख वहये रसखावन !!
अिण : रसखान जी कहिे है तक उनका ह्रदय िब बहुि ज्यादा आनांददि हो जािा है जब श्रीकृष्र् तिरछी नजरो
से दे खकर मस्करािे है और मीठी भाषा बोलिे है ! अिाणिण जब रशसक और रसराज कृष्र् ममलिे है िब ह्रदय में
आनांद का प्रवाह होने लगिा है !

अरी अनोखी बाम तभ आई गौने नई !


बाहर धरक्तस न पाम है िक्तलया तुि ताक में !!
अथण : इस दोहे में रसखान जी गोतपयों से कहिे है – अरी अनपम सांदरी िम नई नवेली गौना तद्वरागमन
कराकर तब्रज में आई हो , क्या िम्हे कन्हैया का सवभाव मालूम नहीं है ! अगर िम घर से बाहर तनकली िो वह
िम्हे अपने प्रेम जाल में फांसा लेगा !

PANKAJ. PATEL
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II ॐ II

प्रीतम नन्द वकशोर जा द्रदन तै नेनवन लग्यो !


मन पािन यचतचोर परक ओट नवह सवह सकौ !!
अथण : रसखान जी कहिे है तक जब से उसकी नजर उनके तप्रयिम श्रीकृष्र् से ममली है िब से उसका मन परम
पतवत्र हो गया है और अब उसका मन और कही लगिा भी नहीं है और हमेशा श्रीकृष्र् को दे खने का उसका
मन बना रहिा है !

या िवि पे रसखान अब िारो कोद्रट मनोज !


जाकी उपमा कविन नही पाई रहे कहूँ खोज !!
अथण : रसखान जी इस दोहे में वर्णन करिे है तक श्री कृष्र् के अति सन्दर रूप पर करोडो कामदे व न्योछावर है
, वही उनकी िलना तवद्वान् कतव भी नहीं खोज पा रहे है ! कहने का िात्पयण यह है तक श्री कृष्र् के सौन्दयण
रूप की िलना करना सांभव नहीं है !

जोहन नन्द कुमार को गई नन्द के गेह !


मोवह दे खख मुक्तसकाई के बरस्त्यो मेह स्त्नह
े !!
अथण : रसखान जी कहिे है तक जब वे श्री कृष्र् से ममलने उनके घर गए यब उन्हें दे खकर श्री कृष्र् इस िरह
से मस्कराये जैसे मानो उनके स्नेह प्रेम की बाररश चारो िरफ होने लगी ! इसी के साि कृष्र् का स्नेह रस हर
िरफ से बरसने लगा !

काग के भाग बड़े सनती !


हरर हाथ सौ ले गयो माखन रोटी !!
अथण : इस दोहे में रसखान जी कहिे है तक वह कोआ बहुि भाग्यशाली है जो श्री कृष्र् के हािो से माखन रोटी
छीन कर ले गया ! प्रभ के हाि से माखन रोटी लेने का सौभाग्य उस कौए का प्राप्ि हुआ है !

काह कह रवतयाूँ की कथा बवतयाूँ कही आबत है न किु री !


आई गोपाल क्तलयो करर अंक वकयो मन कायो द्रदयो रसबुरी !!
अथण : रसखान जी कहिे है तक राि की बाि क्या कही जाए ! कोई बाि कहने में नहीं आिी है ! भगवान श्री
कृष्र् न आकर मझे अपनी गोद में भार शलया और मेरे साि खूब मनमानी करने लगे ! इससे मेरे मन एवां शरीर
में आनांद से रस का सरोबार हो गया !

प्रेम वनकेतन श्रीबनवह आई गोबधणन धाम !


लहयो सरन यचत चावह के जुगल रस ललाम !!
अथण : रसखान श्री कृष्र् के लीला धाम वृन्दावन आ गए और अपने ह्रदय एवां मानस में राधाकृष्र् को बसाकर
उनके प्रेम आनांद में डू ब गए !

PANKAJ. PATEL
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II ॐ II

प्रेम हरर को रूप है त्यों हरर प्रेमस्त्िरूप !


एक होई है यो लसे ज्यो सभरज औ धुप !!
अिण : रसखान जी श्री कृष्र् के परम भक्त िे ! वे प्रेम को हरर का रूप मानिे है और भगवान को साक्षाि् प्रेम
स्वरूप मानिे है ! प्रेम और परमात्मा में कोई अांिर नहीं होिा है जैसे की सूयण एवां धप एक ही है उनमे कोई
अांिर नहीं होिा है !

ए सजनी लीनो लला लह्यो नन्द के गेह !


यचतयो मृद मुक्तसकाई के हरर सबे सुयध गेह !!
अथण : इस दोहे में रसखान जी वर्णन करिे है तक हे तप्रय सजनी श्याम लला के दशणन का तवशेष लाभ है ! जब
हम नन्द के घर जािे है िो वे हमें मांद मस्कान से दे खिे है और हम सबकी सधबध लेिे है ! अिाणिण उनके घर
जाने से हमारी सारी परेशातनयों का हल तनकल जािा है !

सो शशिंगार िा यचर में हतो ,


तैसोई िस्त्र आभभषन अपने श्रीहस्त्त में धारर् वकये !
गाय ग्िाल सखा सब साथ ले के आप पधारे !!
अथण : इस दोहे में रसखान जी कहिे है तक मचत्र में जैसा श्रृांगार िा ठीक उसी प्रकार का श्रृांगार करके श्री कृष्र्
पीिाम्बर रूप में अपने ग्वाल बाल गोपो के साि वे रसखान से ममलने पहुूँच जािे है जहाूँ रसखान बैठकर कृष्र्
के प्रेम में आांसू बहा रहे िे !

तब बा िैषर्िन की पाग में श्री नाथ जी का यचर हते !


सो काठी के रसखान को द्रदखायो !
तब यचर दे खते ही रसखान का मन वफरर गयो !!
अथण : रसखान जी कहिे है तक उन वेष्र्वो के हािो में जो श्री कृष्र् का मचत्र िा उसे तनकालकर जब उन्होंने
रसखान को ददखाया िो उस मचत्र को दे खिे ही उनका मन और ह्रदय पररवर्ििंि हो गया और वर सांसार से
तवमख होकर भगवान श्री कृष्र् की भशक्त में लीन हो गए !

PANKAJ. PATEL
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II ॐ II

संत तुकाराम के दोहे

सांि िकाराम जी महाराष्ट्र के पर्े के दे हु गाूँव के एक छोटे कारोबारी के यहाूँ 17 वी सदी में जन्म शलया िा !
सांि िकाराम जी भगवान तवट्ठल , जजसे तवष्र् का अविार माना जािा है के परम भक्त िे ! उन्होंने ही महाराष्ट्र
में लोगो में भशक्त की नीव डाली िी ! िकाराम जी ने अपने जीवन में दो तववाह तकये िे ! उनकी पहली पत्नी
रखमाबाई िी जो तकसी बीमारी के चलिे जकदी स्वगण को प्यारी हो गई ! उनकी दूसरी पत्नी जीजाबाई िी !
इसके अलावा उनकी िीन सांिाने भी हुई िी ! सांि िकाराम जी ने अपने जीवन में कई काव्य और सातहत्यों की
रचना की ! वे महान सांि और कतव के रूप में प्रशसद्द िे !

बार-बार काहे मरत अभागी , बहरर मरन से क्या तोरे भागी !


ये ही तन करते क्या ना होय , भजन भगवत करे िैकुण्ठ जाए !!
अथण : इस दोहे में सांि िकाराम जी कहिे है तक हे मनष्य िम बार – बार क्यों मरना चाहिे हो ! क्या इस बांधन
से छटकारा पाने का कोई रास्िा नहीं है ! अरे भई ये शरीर बडा ही अद्भुि है , इससे क्या नहीं हो सकिा ! आप
भगवान की भशक्त करके ईश्वर के बैकां ठ धाम को प्राप्ि कर सकिे हो !

राम नाम मोल नपहिं बेचे किरर, िो वह सब माया िु राित !


कहे तुका मनसु यमल राखो , राम रस जजव्हा वनत्य चाखो !!
अथण : इस दोहे में सांि िकाराम जी कहिे है तक हमें राम नाम लेने के शलए कोडी भी खचण नहीं करनी पडिी है
! यह राम नाम की शशक्त ही हमें प्रपांच की माया से मशक्त ददला सकिी है ! िकाराम जी आगे कहिे है तक जब
हम परे मन से राम नाम में िकलीन होिे है िभी हमारी जजव्हा से तनकलने वाला राम नाम रूपी अमृि रस हमें
तनत्य िृप्प्ि ददला दे गा !

तुका बस्त्तर वबचारा क्यों करे रे , अंतर भगिा न होय !


भीतर मेला केि यमटे रे , मरे ऊपर धोय !!
अथण : सांि िकाराम जी कहिे है तक बेचारे वस्त्र को बार – बार धोने से अांिःकरर् शि नहीं होिा है ! अपने
आन्िररक मेल को कब ममटाओगे , केवल बाहरी सफाई करने से बचाव नहीं होगा !

कहे तुका जग भुला रे , कह्या न मानत कोय !


हात परे जब कालके , मारत फोरत डोय !!
अथण : िकाराम जी इस दोहे में मनष्यों को कहिे है तक इस मायावी सांसार को भला दो , लेतकन कोई भी
हमारी बाि मानिा ही नहीं है ! जब काल तनकट आिा है िो हाि – पैर मारने से कछ नहीं होिा !

कहे तुका भला भया , हूँ हिा संतन का दास !


क्या जानभ केते भरता , जो न यमटती मंकी आस !!
अथण : सांि िकाराम जी कहिे है तक उनका भला हुआ जजनको साधू की सांगिी ममली ! नहीं िो तबना मन के
उद्दार होने में ही मर जािा !

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II ॐ II

मीरा के दोहे

पायो जी मैंने नाम रतन धन पायो।


िस्त्तु अमोलक दई म्हारे सतगुरू, वकरपा कर अपनायो॥
जनम-जनम की पभूँजी पाई, जग में सभी खोिायो।
खरच न खभटै चोर न लभटै, द्रदन-द्रदन बढ़त सिायो।।
सत की नाूँि खेिद्रटया सतगुरू, भिसागर तर आयो।
‘मीरा’ के प्रभु वगररधर नागर, हरख-हरख जस गायो॥
अिण:- इस दोहे-पद में मीराबाई कहिी हैं तक, उन्होंने कृष्र् के नाम का रत्न धन पा शलया है। उनके सिगरु ने
उन्हें अपना कर उनपर कृपा की ििा इस नाम रूपी अमूकय धन को सौंपा। मीरा ने इस सांसार में सब कछ खो
कर इस जन्म जन्म की पूांजी को पाया। ये नाम रूपी धन ऐसा है जो न खचण करने से कम होिा है और न इसे
कोई चोर लूट पािा है, इसमे िो ददनों ददन सवा गर्ा बढ़ि होिी रहिी है। मीरा ने सत्य की नाव जजसके
खेवनहार सिगरु हैं पर बैठ कर भवसागर पार कर शलया है। मीरा कहिी हैं तक मेरे प्रभ तगररधर श्रीकृष्र् हैं,
ओर में उन्ही का यश गािी हूँ।

पग घभूँघरू बाूँध मीरा नाची रे।


मैं तो मेरे नारायर् की आपवह हो गई दासी रे।
लोग कहै मीरा भई बािरी न्यात कहै कुलनासी रे॥
विष का प्सयाला रार्ा भेज्या पीित मीरा हाूँसी रे।
‘मीरा’ के प्रभु वगररधर नागर सहज यमले अविनासी रे।।
अिण:- इस दोहे-पद में मीराबाई कहिी हैं तक, उन्होंने पैरों में घांघरू बाांध शलये हैं और वो कृष्र् भशक्त में िकलीन
हो कर नाच रही हैं। वो स्वयां ही अपने नारायर् श्रीकृष्र् की दासी हो गयी हैं, उन्होंने स्वयां को उन्हें समर्पिंि कर
ददया है। लोग कहिे हैं तक मीरा बावली हो गई है। उनके अपने नािे ररश्िेदार उन्हें कलनशशनी ििा कल
कलांतकनी कहिे हैं और उनसे नफरि करिे हैं। मीरा को प्रिामडि करने के शलए स्वयां उनके श्वसर रार्ा साांगा ने
तवष का प्याला भेजा िा, जजसे मीरा ने हांसिे हांसिे पी शलया। मीरा कहिी हैं उनके प्रभ तगररधर श्रीकृष्र्
अतवनाशी हैं अिाणि कोई उनका तवनाश नहीं कर सकिा और सहज प्राप्य हैं।

हे री मैं तो दरद-द्रदिानी मेरो दरद न जार्ै कोय।


घायल की गवत घायल जार्ै, वहबड़ो अगर् संजोय।
जौहर की गवत जौहरी जार्ै, क्या जार्े जजर् खोय।
सभली ऊपर सेज हमारी, सोिर् वकस वबध होय।
गगन मंडल पर सेज वपया की वकस वबध यमलर्ा होय।
दरद की मारी बन-बन डोलभूँ बैद यमल्या नपहिं कोय।
मीरा की प्रभु पीर यमटे गी, जद बैद सांिररया होय।
अिण:– इस दोहे-पद में मीराबाई कहिी हैं तक, में िो इसी प्रेम की पीडा की दीवानी हूँ, मेरी ये पीडा कोई नहीं
समझ सकिा। जजस प्रकार घायल की दशा का भान शसफण एक घायल ही कर सकिा है की तकस प्रकार उसके
हृदय में एक आग जल रही है। हीरे की कीमि शसफण एक जौहरी जान सकिा है वह क्या जान पाएगा जजसने
उस हीरे को खो ददया। वैसे ही ईश भशक्त की कीमि भक्त ही जान सकिा है। वे कहिी हैं तक मेरे शलए कहीं

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II ॐ II

आराम नहीं, मेरी सेज भी सूली के ऊपर ही है, अिाणि के कष्टों से मघरी हुई है। मेरे तपया की सेज उस लोक में
आसमान के पार है,न जाने कैसे, कौन सी तवमध से मैं उनसे ममल पाऊूँगी।वो िो ददण में बावली हो कर डर डर
भटक रही हैं तक उन्हें कहीं आराम ममल जाए पर उन्हें इस पीडा का कोई वैद्य नहीं ममलिा। मीरा कहिी हैं तक
उनकी यह पीडा िभी ममलटे गी जब स्वयां उनके तप्रयिम श्रीकृष्र् उनके सामने वैद्य बन कर आएांगे।

दरस वबनु दूखर् लागे नैन।


जबसे तुम वबिु ड़े प्रभु मोरे, कबहं न पायो चैन॥
सबद सुर्त मेरी िवतयां कांपे, मीठे लागे बैन।
वबरह कथा कांसभं कहं सजनी, बह गई करित ऐन॥
कल न परत पल हरर मग जोित, भई िमासी रैन।
मीरा के प्रभभ कब रे यमलोगे, दखमेटर् सुखदै न॥
अिण: इस दोहे-पद में मीराबाई कहिी हैं तक, तबना कतव के दशणन के उनके नैनों में ददण होने लगा है। जब से प्रभ
उनसे तबछडे हैं, अिाणि जब से वह सांसार में आई हैं, उन्हें कभी चैन नहीं ममल पाया है। सबद सनिे सनिे
उनकी छािी तवरह के दख में काांपने लगिी हैं, यद्यतप उन्हें सबद के बोल बफे मीठे लगिे हैं, क्योंतक वे उन्हें प्रभ
की याद ददलािे हैं। वो अपनी सखी को सम्बोमधि कर के कहिी हैं तक मैं अपनी तवरह की पीडा की कहानी
तकससे कहूँ, ऐसा लगिा है मानो आरी चल रही हो। हरर की राह तनहारिे तनहारिे मेरा पल नहीं बीििा, रािें
मानो 6 महीने जजिनी लम्बी हो जािी हैं।अपने प्रभ को सांबोमधि कर मीरा पूछिी हैं तक हे मेरे प्रभ िम मेरे दख
ममटाने ििा सख प्रदान करने को कब ममलोगे।

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II ॐ II

िेरा अिगभव :
सामान्य रूप से ऐसा होता है, जब बात समज मैं आती है तो बहुत दे र हो चुकी होती है / वबगड़ चुकी
होती है इसी क्तलए यथासम्भि मौन धारण करें, यदद आिश्यक हो तो बहुत ही कम शब्दों में हााँ या ना में
उत्तर दें I
रोजाना कम से कम 02 घंटे ध्यान या मानक्तसक / अजपा जप करें (बहुत सिेरे 01 घंटा या दे र शाम / रात
01 घंटा सोने से पहले), कृपया बहुत छोटा मंत्र ॐ या बीज मंत्र चुनें, कम से कम 40-60 ममनट लगातार
बैठने की कोक्तशश करें। हमेशा मंत्र ,विचार / सांस पे ध्यान रिें , अपने को भूल ही जाए, कम से कम 6
महीने लगातर अभ्यास करे बाद में फल दे िा जा सकता है I तुम अपने आप को ऐसा बना सकते हो वक
िुद नई गीता, बाइबल या कुरान क्तलि सकते हो , जजस ददन आपको ऐसा लगे वक ,जैसे ही फ्री हो ,
ध्यानमे या मंत्र जाप पे तुरत मन लग रहा है तो समझे की आपकी सही अथो में आध्यात्त्मक या धार्मिक
उन्नवत हो रही है I तुम्हारा ये जन्म ईश बIत का गिाह है वक वपछले जन्म में कुछ हुआ ही नहीं, हो
सकता है आप बुद्ध के सामने बेठे हो या नानक, कबीर के पास से गुजरे हो, सही चाह या इच्छा ही नहीं
थी, जो हो गया सो हो गया लेवकन इश जन्म में ऐसा करे की आने िाले 2-3 जन्म में बुद्धत्ि प्राप्त हो
जIय I जब आप िुश रहने लगो तो विश्वास करना जजिदगी सही ददशा में जा रही है या सही जी रहे हो I
ध्यान है तो सब कुछ है, नहीं तो कुछ भी नहीं I
कम से कम एक घंटा रोज , हर ददन श्रीमद्भगित गीता को पढ़ने और समझने का प्रयास करें और अपनी
नोट बनाए या गीता पर अपनी दटप्पणी करें या प्रबुद्ध व्यक्ति के िीमडयो या ऑमडयो जूरूर सुनें / दे िें I
उमचत योजना के साथ हर ददन अपना वनयममत काम / पुरी जजम्मेदारी , ईमानदारी से और समय पर करें ,
कमशयोगी की तरह , ऐसा काम करे की कुटु म्ब, समाज , मIनिता का हमेशा ध्यान रहे I
सम्मान दो और सम्मान लो , अपने काम से काम रिे I
अपना दै वनक कायश िुद करें, वकसी पर वनभशर न रहें, हर तरह से साफ-सुथरा , अनुशासन रहें I जजतना
हो सके दूसरेI को मदद करे I
जजतना हो सके हर समय सच बोलने की कोक्तशश करें , पारदशी रहें, कोई पक्षपात न करें, छोटी-छोटी
बातों में झूठ न बोलें I
चाहे कोई भी हो, वकसी को भी 3 बार मोका दे सुधरने का या समझIने का, बात में कुछ ना कहे, उसको
अपने हाल पे छोड़ दे और ईश्वर पे भरोसा रिें / भगिान पर छोड़ दो I
हर ददन कम से कम 40-60 ममनट शारीररक व्यायाम करें जो आपको पसंद हो, सप्ताह में कम से कम
5-6 ददन करने की कोक्तशश करें, ज्यादा तनाि न दें या शरीर / मांसपेक्तशयों को ददश न दें I
कम से कम हर दूसरे ददन शरीर / बालों की माक्तलश करें I
रात के िाने से बचने की कोक्तशश करें, केिल सुबह का नाश्ता, दोपहर का भोजन और यदद आिश्यक
हो तो बहुत हल्का रात का िाना शाम ढलने से पहले ले िा ले, अपने पेट को हमेशा थोड़ा िाली रिें
जो नींद ,आलस्य से बचा सकता है , आपको हमेशा ताजा / ऊजाशिान रिेगा I
लंबे समय तक अच्छे स्िास््य के क्तलए शाकाहारी रहें, हमारे िाने के क्तलए वकसी भी जानिर / पक्षी को
मत मारो , शराब / धूम्रपान से हमेशा बचें I
रात में कम से कम 6 घंटे सोएं (रात 11:00 बजे से सुबह 5:00 बजे तक)I
इस को हमेशा याद रिें - ये भी चला जाएगा , वकसी भी स्स्थवत में हर समय धैयश रिें और हमेशा हर
पररस्थवत मैं सकारात्मक रहे I नकारात्मक बोलने या सोचने से बचे I

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II ॐ II

कम से कम, साल में एक बार अपने शरीर का पंचकमश करें और एक सप्ताह का समय पूरी तरह से
प्रकृवत के साथ अकेले वबताएं / ध्यान करें I
वकसी को पैसा न दें या जब तक हो सके पैसे उधार न लें, अपने धन आिक / स्रोतों के अनुसार जीने
की कोक्तशश करें, सम्मानपूिशक नI कहेने की वहम्मत रिे , पैसे दे ने से पहले कृपया बराबर जांचें वक पैसे
लौटाने में सक्षम है या नहीं , पैसे के क्तलए कभी वकसी से संबंध ना तोड़े , मIगना या मरना एक ही बात
है , हर वकसी के सiमने मत झुके , हमेशा याद रिे की आप के अंदर परमात्मा रहते हैं , उनका अपमान
ना होने दे I वकसी से कुछ भी मत मागो, भगिान से भी नहीं क्योंवक जरूरते हर वकसी की पूरी होती है
ख्िावहश नहीं I
मेरा अनुभि कहता है वक जो होने िाला है िो हो कर ही रहता है, हमें अपनी मेहनत, ज्ञान / होक्तशयारी,
बुजद्ध से कहीं ज्यादा ही ममलता है, इसी क्तलए भगिान पे हमेशा भरोसा रिे वक जजसने इतना बड़ा संसार
संभIलI है तो मुझे भी अच्छे से संभIल लेगा , जजस ददन तुम वकसी चीज के क्तलए तैयार हो जाओगे तो
िो तुम्हें ममल ही जाएगी, पहले लायक बनो वफर इच्छा अपने आप पूरी हो जाएगी , ये संसार का िादा
/ प्रवतबद्धता है I ये संसार हमेशा बहुत कुछ दे ता ही है , उनका स्िभाि है I
बस तेरी मजी, कोई फररयाद नहीं, अगर दुिी हो मतलब ईश्वर पर भरोसा नहीं, आप िुश हो मतलब
सही जी रहे हो या सही समझ रहे हो

ज्ञान होना और ज्ञान में जीना काफी अंतर है, हमें पता सब कुछ रहता है पर धमश के वहसाब से जीते नहीं
है, िाणी, ितशन और व्यिहार में समानता होनी चावहए

ऊपर िाला ममलता नहीं या सही ज्ञान / लक्ष्य ममलता नहीं क्योंवक हमारी चाहत या प्राथममकता, या
इच्छा / लक्ष्य ही नहीं थी
काम पूरा करने के क्तलए बहुत सारे तरीके /विकल्प हैं और काम न करने के क्तलए भी बहुत सारे तरीके
/विकल्प हैं
बहार प्रेम और अन्दर/भीतरध्यान, प्रभु के पास जल्दी पहोंचने का बस यही एक रास्ता है

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II ॐ II

अपनी सोच पर नजर रिें, िे आपके शब्द बनती हैं; अपने िचनों का ध्यान रिें, िो कमश बन जाते हैं; अपने
कायों को दे िो, िे आदत बन जाती है; अपनी आदतों पर ध्यान दो, िे चररत्र बन जाती हैं; अपने चररत्र पर
ध्यान दें क्योंवक यही बनता है आपकी तकदीर।"

II हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ॥

II ॐ नमः सशवाय II

िेरी र्गभकाििाओं के िार् ,


नमायम दे िी नमणदे , नमणदे हर ! नमणदे हर !
PANKAJ……

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