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बाईबल का मैंने यथाथर् अभ्यास िकया है | उसमें जो िदव्यज्ञान िलखा है वह केवल गीता
के उ रण के रूप में है | मैं ईसाई होते हए
ु भी गीता के ूित इतना सारा आदरभाव इसिलए
रखता हँू िक िजन गूढ़ ू ों का समाधान पा ात्य लोग अभी तक नहीं खोज पाये हैं , उनका
समाधान गीता मंथ ने शु और सरल रीित से िदया है | उसमें कई सूऽ अलौिकक उपदे शों से
भरूपूर लगे इसीिलए गीता जी मेरे िलए साक्षात ् योगे री माता बन रही हैं | वह तो िव के
तमाम धन से भी नहीं खरीदा जा सके ऐसा भारतवषर् का अमूल्य खजाना है |
एफ.एच.मोलेम (इं ग्लैन्ड)
भगवदगीता ऐसे िदव्य ज्ञान से भरपूर है िक उसके अमृतपान से मनुंय के जीवन में
साहस, िहम्मत, समता, सहजता, ःनेह, शािन्त और धमर् आिद दै वी गुण िवकिसत हो उठते हैं ,
अधमर् और शोषण का मुकाबला करने का सामथ्यर् आ जाता है | अतः ूत्येक युवक-युवती को
गीता के ोक कण्ठःथ करने चािहए और उनके अथर् में गोता लगा कर अपने जीवन को तेजःवी
बनाना चािहए |
पूज्यपाद संत ौी आसारामजी बापू
ौी गणेशाय नमः
(अनुबम)
ौीिवंणुरुवाच
ूारब्धं भुज्यमानो िह गीताभ्यासरतः सदा ।
स मु ः स सुखी लोके कमर्णा नोपिलप्यते ।।2।।
ौी िवंणु भगवान बोलेः
ूारब्ध को भोगता हआ
ु जो मनुंय सदा ौीगीता के अभ्यास में आस हो वही इस लोक
में मु और सुखी होता है तथा कमर् में लेपायमान नहीं होता |(2)
(और वहाँ) गीता का पुनः अभ्यास करके उ म मुि को पाता है | 'गीता' ऐसे उच्चार के
साथ जो मरता है वह सदगित को पाता है |
गीता का आौय करके जनक आिद कई राजा पाप रिहत होकर लोक में यशःवी बने हैं
और परम पद को ूा हए
ु हैं |(20)
ौीगीता का पाठ करके जो माहात्म्य का पाठ नहीं करता है उसका पाठ िनंफल होता है
और ऐसे पाठ को ौमरूप कहा है |(21)
सूत उवाच
माहात्म्यमेतद् गीताया मया ूो ं सनातनम।्
गीतान्ते पठे ःतु यद ु ं तत्फलं लभेत।।
् 23।।
सूत जी बोलेः
गीता का यह सनातन माहात्म्य मैंने कहा | गीता पाठ के अन्त में जो इसका पाठ करता
है वह उपयुर् फल ूा करता है |(23)
ौीगीतामाहात्म्य का अनुसंधान
शौनक उवाच
गीताया व
ै माहात्म्यं यथावत्सूत मे वद।
पुराणमुिनना ूो ं व्यासेन ौुितनोिदतम।।
् 1।।
सूत उवाच
पृ ं वै भवता य न्महद् गोप्यं पुरातनम।्
न केन शक्यते व ुं गीतामाहात्म्यमु मम।।
् 2।।
सूत जी बोलेः आपने जो पुरातन और उ म गीतामाहात्म्य पूछा, वह अितशय गु है |
अतः वह कहने के िलए कोई समथर् नहीं है |(2)
दसरे
ू लोग कण पकणर् सुनकर लोक में वणर्न करते हैं | अतः ौीव्यासजी के मुख से मैंने
जो कुछ सुना है वह आज कहता हँू |(4)
जो पुरुष इस पिवऽ गीताशा को सावधान होकर पढ़ता है वह भय, शोक आिद से रिहत
होकर ौीिवंणुपद को ूा होता है |(8)
िजसने सदै व अभ्यासयोग से गीता का ज्ञान सुना नहीं है िफर भी जो मोक्ष की इच्छा
करता है वह मूढात्मा, बालक की तरह हँ सी का पाऽ होता है |(9)
जो रात-िदन गीताशा पढ़ते हैं अथवा इसका पाठ करते हैं या सुनते हैं उन्हें मनुंय नहीं
अिपतु िनःसन्दे ह दे व ही जानें |(10)
हर रोज जल से िकया हआ
ु ःनान मनुंयों का मैल दरू करता है िकन्तु गीतारूपी जल में
एक बार िकया हआ
ु ःनान भी संसाररूपी मैल का नाश करता है |(11)
गीताशा ःय जानाित पठनं नैव पाठनम।्
परःमान्न ौुतं ज्ञानं ौ ा न भावना।।12।।
स एव मानुषे लोके पुरुषो िवड्वराहकः।
यःमाद् गीतां न जानाित नाधमःतत्परो जनः।।13।।
जो गीता के अथर् का पठन नहीं करता उसके ज्ञान को, आचार को, ोत को, चे ा को, तप
को और यश को िधक्कार है | उससे अधम और कोई मनुंय नहीं है |(14)
जो ज्ञान गीता में नहीं गाया गया है वह वेद और वेदान्त में िनिन्दत होने के कारण उसे
िनंफल, धमर्रिहत और आसुरी जानें |
योिगयों के ःथान में, िस ों के ःथान में, ौे पुरुषों के आगे, संतसभा में, यज्ञःथान में
और िवंणुभ ोंके आगे गीता का पाठ करने वाला मनुंय परम गित को ूा होता है |(17)
जो गीता का पाठ और ौवण हर रोज करता है उसने दिक्षणा के साथ अ मेध आिद यज्ञ
िकये ऐसा माना जाता है |(18)
िजस घर में गीता का पूजन होता है वहाँ (आध्याित्मक, आिधदै िवक और आिधभौितक)
तीन ताप से उत्पन्न होने वाली पीड़ा तथा व्यािधयों का भय नहीं आता है | (21)
भगवत्परमेशाने भि रव्यिभचािरणी।
जायते सततं तऽ यऽ गीतािभनन्दनम।।
् 23।।
जहाँ िनरन्तर गीता का अिभनंदन होता है वहाँ ौी भगवान परमे र में एकिन भि
उत्पन्न होती है | (23)
ःनातो वा यिद वाऽःनातः शुिचवार् यिद वाऽशुिचः।
िवभूितं िव रूपं च संःमरन्सवर्दा शुिचः।।24।।
सब जगह भोजन करने वाला और सवर् ूकार का दान लेने वाला भी अगर गीता पाठ
करता हो तो कभी लेपायमान नहीं होता | (25)
िजसका िच सदा गीता में ही रमण करता है वह संपूणर् अिग्नहोऽी, सदा जप करनेवाला,
िबयावान तथा पिण्डत है | (26)
वह दशर्न करने योग्य, धनवान, योगी, ज्ञानी, यािज्ञक, ध्यानी तथा सवर् वेद के अथर् को
जानने वाला है | (27)
जहाँ गीता की पुःतक का िनत्य पाठ होता रहता है वहाँ पृथ्वी पर के ूयागािद सवर् तीथर्
िनवास करते हैं | (28)
मनुंय जो-जो कमर् करे उसमें अगर गीतापाठ चालू रखता है तो वह सब कमर् िनद षता
से संपूणर् करके उसका फल ूा करता है | (33)
जो मनुंय ौा में िपतरों को लआय करके गीता का पाठ करता है उसके िपतृ सन्तु
होते हैं और नकर् से सदगित पाते हैं | (34)
दे हं मानुषमािौत्य चातुवण्
र् य तु भारते।
न ौृणोित पठत्येव ताममृतःवरूिपणीम।।
् 37।।
हःता या वाऽमृतं ूा ं क ात्आवेडं सम ुते
पीत्वा गीतामृतं लोके लब्ध्वा मोक्षं सुखी भवेत।।
् 38।।
भरतखण्ड में चार वण में मनुंय दे ह ूा करके भी जो अमृतःवरूप गीता नहीं पढ़ता है
या नहीं सुनता है वह हाथ में आया हआ
ु अमृत छोड़कर क से िवष खाता है | िकन्तु जो मनुंय
गीता सुनता है , पढ़ता तो वह इस लोक में गीतारूपी अमृत का पान करके मोक्ष ूा कर सुखी
होता है | (37, 38)
जनैः संसारदःखातग
ु ताज्ञानं च यैः ौुतम।्
संूा ममृतं तै गताःते सदनं हरे ः।।39।।
संसार के दःखों
ु से पीिड़त िजन मनुंयों ने गीता का ज्ञान सुना है उन्होंने अमृत ूा
िकया है और वे ौी हिर के धाम को ूा हो चुके हैं | (39)
इस लोक में जनकािद की तरह कई राजा गीता का आौय लेकर पापरिहत होकर परम
पद को ूा हए
ु हैं | (40)
गीता में उच्च और नीच मनुंय िवषयक भेद ही नहीं हैं , क्योंिक गीता ॄ ःवरूप है अतः
उसका ज्ञान सबके िलए समान है | (41)
गीता का पाठ करे जो माहात्म्य का पाठ नहीं करता है उसके पाठ का फल व्यथर् होता है
और पाठ केवल ौमरूप ही रह जाता है |
गीता का सनातन माहात्म्य मैंने कहा है | गीता पाठ के अन्त में जो इसका पाठ करता है
वह उपयुर् फल को ूा होता है | (45)
इित ौीवाराहपुराणो तं
ृ ौीमदगीतामाहात्म्यानुसंधानं समा म ् |
इित ौीवाराहपुराणान्तगर्त ौीमदगीतामाहात्म्यानुंसध
ं ान समा |
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
(अनुबम)
अजुन
र् के नामों के अथर्
अनघः पापरिहत, िनंपाप |
किपध्वजः िजसके ध्वज पर किप माने हनुमान जी हैं वह |
कुरुौे ः कुरुकुल में उत्पन्न होने वालों में ौे |
कुरुनन्दनः कुरुवंश के राजा के पुऽ |
कुरुूवीरः कुरुकुल में जन्मे हए
ु पुरुषों में िवशेष तेजःवी |
कौन्तेयः कुंती का पुऽ |
गुडाकेशः िनिा को जीतने वाला, िनिा का ःवामी अथवा गुडाक माने िशव िजसके ःवामी हैं वह |
धनंजयः िदिग्वजय में सवर् राजाओं को जीतने वाला |
धनुधरर् ः धनुष को धारण करने वाला |
परं तपः परम तपःवी अथवा शऽुओं को बहत
ु तपाने वाला |
पाथर्ः पृथा माने कुंती का पुऽ |
पुरुषव्यायः पुरुषों में व्याय जैसा |
पुरुषषर्भः पुरुषों में ऋषभ माने ौे |
पाण्डवः पाण्डु का पुऽ |
भरतौे ः भरत के वंशजों में ौे |
भरतस मः भरतवंिशयों में ौे |
भरतषर्भः भरतवंिशयों में ौे |
भारतः भा माने ॄ िव ा में अित ूेमवाला अथवा भरत का वंशज |
महाबाहःु बड़े हाथों वाला |
सव्यसािचन ् बायें हाथ से भी सरसन्धान करने वाला |
(अनुबम)
ौीमद् भगवदगीता
(अनुबम)
पहला अध्यायःअजुन
र् िवषादयोग
भगवान ौीकृ ंण ने अजुन
र् को िनिम बना कर समःत िव को गीता के रूप में जो
महान ् उपदे श िदया है , यह अध्याय उसकी ूःतावना रूप है | उसमें दोनों पक्ष के ूमुख यो ाओं
र् को कुटंु बनाश की आशंका से उत्पन्न हए
के नाम िगनाने के बाद मुख्यरूप से अजुन ु मोहजिनत
िवषाद का वणर्न है |
।। अथ ूथमोऽध्यायः ।।
धृतरा उवाच
धमर्क्षेऽे कुरुक्षेऽे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवा व
ै िकमकुवर्त संजय।।1।।
धृतरा बोलेः हे संजय ! धमर्भिू म कुरुक्षेऽ में एकिऽत, यु की इच्छावाले मेरे पाण्डु के
पुऽों ने क्या िकया? (1)
संजय उवाच
दृ वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दय
ु धनःतदा।
आचायर्मप
ु संङगम्य राजा वचनमॄवीत।।
् 2।।
इस सेना में बड़े -बड़े धनुषों वाले तथा यु में भीम और अजुन
र् के समान शूरवीर सात्यिक
और िवराट तथा महारथी राजा िपद
ु , धृ केतु और चेिकतान तथा बलवान काशीराज, पुरुिजत,
कुिन्तभोज और मनुंयों में ौे शैब्य, पराबमी, युधामन्यु तथा बलवान उ मौजा, सुभिापुऽ
अिभमन्यु और िौपदी के पाँचों पुऽ ये सभी महारथी हैं | (4,5,6)
हे ॄा णौे ! अपने पक्ष में भी जो ूधान हैं , उनको आप समझ लीिजए | आपकी
जानकारी के िलए मेरी सेना के जो-जो सेनापित हैं , उनको बतलाता हँू |
आप, िोणाचायर् और िपतामह भींम तथा कणर् और संमामिवजयी कृ पाचायर् तथा वैसे ही
अ त्थामा, िवकणर् और सोमद का पुऽ भूिरौवा | (8)
भींम िपतामह ारा रिक्षत हमारी वह सेना सब ूकार से अजेय है और भीम ारा रिक्षत
इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है | (10)
संजय उवाच
तःय संञ्जनयन्हष कुरुवृ ः िपतामहः।
िसंहनादं िवन ोच्चैः शंख्ङं दध्मौ ूतापवान।।
् 12।।
इसके प ात शंख और नगारे तथा ढोल, मृदंग और नरिसंघे आिद बाजे एक साथ ही बज
उठे | उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हआ
ु | (13)
ततः ेतैहर्यय
ै ुर् े महित ःयन्दने िःथतौ।
माधवः पाण्डव व
ै िदव्यौ शंख्ङौ ूदध्मतुः।।14।।
दबु
ु िर् दय
ु धन का यु में िहत चाहने वाले जो-जो ये राजा लोग इस सेना में आये हैं ,
इन यु करने वालों को मैं दे खूँगा | (23)
संजयउवाच
एवमु ो हृिषकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोमर्ध्ये ःथापियत्वा रथो मम।।
् 24।।
भींमिोणूमुखतः सवषां च महीिक्षताम।्
उवाच पाथर् पँयैतान ् समवेतान ् कुरुिनित।।25।।
अजुन
र् उवाच
दृंट्वेमं ःवजनं कृ ंण युयुत्सुं समुपिःथतम।।
् 28।
सीदिन्त मम गाऽािण मुखं च पिरशुंयित।
वेपथु शरीरे मे रोमहषर् जायते।।29।।
अजुन
र् बोलेः हे कृ ंण ! यु क्षेऽ में डटे हए
ु यु के अिभलाषी इस ःवजन-समुदाय को
दे खकर मेरे अंग िशिथल हए
ु जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कम्प और
रोमांच हो रहा है |
गाण्डीवं स
ं ते हःता वक्चैव पिरद ते।
न च शक्नोम्यवःथातुं ॅमतीव च मे मनः।।30।।
हे केशव ! मैं लआणों को भी िवपरीत दे ख रहा हँू तथा यु में ःवजन-समुदाय को मारकर
कल्याण भी नहीं दे खता | (31)
हे मधुसद
ू न ! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के िलए भी मैं इन सबको
मारना नहीं चाहता, िफर पृथ्वी के िलए तो कहना ही क्या? (35)
अतएव हे माधव ! अपने ही बान्धव धृतरा के पुऽों को मारने के िलए हम योग्य नहीं
ु
हैं , क्योंिक अपने ही कुटम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे? (37)
य िप लोभ से ॅ िच हए
ु ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और िमऽों से
िवरोध करने में पाप को नहीं दे खते, तो भी हे जनादर् न ! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को
जाननेवाले हम लोगों को इस पाप से हटने के िलए क्यों नहीं िवचार करना चािहए?
कुल के नाश से सनातन कुलधमर् न हो जाते हैं , धमर् के नाश हो जाने पर सम्पूणर् कुल
में पाप भी बहत
ु फैल जाता है |(40)
अधमार्िभभवात्कृ ंण ूदंयिन्त
ु कुलि यः।
ीषु द ु ासु वांणय जायते वणर्सक
ं रः।।41।।
हे कृ ंण ! पाप के अिधक बढ़ जाने से कुल की ि याँ अत्यन्त दिषत
ू हो जाती हैं और हे
वांणय ! ि यों के दिषत
ू हो जाने पर वणर्सक
ं र उत्पन्न होता है |(41)
वणर्सक
ं र कुलघाितयों को और कुल को नरक में ले जाने के िलए ही होता है | लु हई
ु
िपण्ड और जल की िबयावाले अथार्त ् ौा और तपर्ण से वंिचत इनके िपतर लोग भी अधोगित
को ूा होते हैं |(42)
इन वणर्सक
ं रकारक दोषों से कुलघाितयों के सनातन कुल धमर् और जाित धमर् न हो
जाते हैं | (43)
हा ! शोक ! हम लोग बुि मान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गये हैं , जो
राज्य और सुख के लोभ से ःवजनों को मारने के िलए उ त हो गये हैं | (45)
संजय उवाच
एवमु वाजुन
र् ः संख्ये रथोपःथ उपािवशत।्
िवसृज्य सशरं चापं शोकसंिवग्नमानसः।।47।।
संजय बोलेः रणभूिम में शोक से उि ग्न मन वाले अजुन
र् इस ूकार कहकर, बाणसिहत
धनुष को त्यागकर रथ के िपछले भाग में बैठ गये |(47 |
ॐ तत्सिदित ौीमदभगवदगीतासूपिनषत्सु ॄ िव ायां योगशा े
ौीकृ ंणाजुन
र् संवादे अजुन
र् िवषादयोगो नाम ूथमोऽध्यायः | |1 | |
इस ूकार उपिनषद, ॄ िव ा तथा योगशा रूप ौीमदभगवदगीता के
ौीकृ ंण-अजुन
र् संवाद में 'अजुन
र् िवषादयोग' नामक ूथम अध्याय संपूणर् हआ
ु |
(अनुबम)
दसरे
ू अध्याय का माहात्म्य
ौी भगवान कहते हैं - लआमी ! ूथम अध्याय के माहात्म्य का उपाख्यान मैंने सुना िदया |
अब अन्य अध्यायों के माहात्मय ौवण करो | दिक्षण िदशा में वेदवे ा ॄा णों के पुरन्दरपुर
नामक नगर में ौीमान दे वशमार् नामक एक िव ान ॄा ण रहते थे | वे अितिथयों के पूजक
ःवाध्यायशील, वेद-शा ों के िवशेषज्ञ, यज्ञों का अनु ान करने वाले और तपिःवयों के सदा ही
िूय थे | उन्होंने उ म िव्यों के ारा अिग्न में हवन करके दीघर्काल तक दे वताओं को तृ िकया,
िकंतु उन धमार्त्मा ॄा ण को कभी सदा रहने वाली शािन्त न िमली | वे परम कल्याणमय त व
का ज्ञान ूा करने की इच्छा से ूितिदन ूचुर सामिमयों के ारा सत्य संकल्पवाले तपिःवयों
की सेवा करने लगे | इस ूकार शुभ आचरण करते हए
ु उनके समक्ष एक त्यागी महात्मा ूकट
हए
ु | वे पूणर् अनुभवी, शान्तिच थे | िनरन्तर परमात्मा के िचन्तन में संलग्न हो वे सदा आनन्द
िवभोर रहते थे | दे वशमार् ने उन िनत्य सन्तु तपःवी को शु भाव से ूणाम िकया और पूछाः
'महात्मन ! मुझे शािन्तमयी िःथती कैसे ूा होगी?' तब उन आत्मज्ञानी संत ने दे वशमार् को
सौपुर माम के िनवासी िमऽवान का, जो बकिरयों का चरवाहा था, पिरचय िदया और कहाः 'वही
तुम्हें उपदे श दे गा |'
यह सुनकर दे वशमार् ने महात्मा के चरणों की वन्दना की और समृ शाली सौपुर माम में
पहँु चकर उसके उ र भाग में एक िवशाल वन दे खा | उसी वन में नदी के िकनारे एक िशला पर
िमऽवान बैठा था | उसके नेऽ आनन्दाितरे क से िन ल हो रहे थे, वह अपलक दृि से दे ख रहा
था | वह ःथान आपस का ःवाभािवक वैर छोड़कर एकिऽत हए
ु परःपर िवरोधी जन्तुओं से िघरा
था | जहाँ उ ान में मन्द-मन्द वायु चल रही थी | मृगों के झुण्ड शान्तभाव से बैठे थे और
िमऽवान दया से भरी हई
ु आनन्दमयी मनोहािरणी दृि से पृथ्वी पर मानो अमृत िछड़क रहा था |
इस रूप में उसे दे खकर दे वशमार् का मन ूसन्न हो गया | वे उत्सुक होकर बड़ी िवनय के साथ
िमऽवान के पास गये | िमऽवान ने भी अपने मःतक को िकंिचत ् नवाकर दे वशमार् का सत्कार
िकया | तदनन्तर िव ान दे वशमार् अनन्य िच से िमऽवान के समीप गये और जब उसके ध्यान
का समय समा हो गया, उस समय उन्होंने अपने मन की बात पूछीः 'महाभाग ! मैं आत्मा का
ज्ञान ूा करना चाहता हँू | मेरे इस मनोरथ की पूितर् के िलए मुझे िकसी उपाय का उपदे श
कीिजए, िजसके ारा िसि ूा हो चुकी हो |'
दे वशमार् की बात सुनकरक िमऽवान ने एक क्षण तक कुछ िवचार िकया | उसके बाद इस
ूकार कहाः 'िव न ! एक समय की बात है | मैं वन के भीतर बकिरयों की रक्षा कर रहा था |
इतने में ही एक भयंकर व्याय पर मेरी दृि पड़ी, जो मानो सब को मास लेना चाहता था | मैं
मृत्यु से डरता था, इसिलए व्याय को आते दे ख बकिरयों के झुड
ं को आगे करके वहाँ से भाग
चला, िकंतु एक बकरी तुरन्त ही सारा भय छोड़कर नदी के िकनारे उस बाघ के पास बेरोकटोक
चली गयी | िफर तो व्याय भी े ष छोड़कर चुपचाप खड़ा हो गया | उसे इस अवःथा में दे खकर
बकरी बोलीः 'व्याय ! तुम्हें तो अभी भोजन ूा हआ
ु है | मेरे शरीर से मांस िनकालकर
ूेमपूवक
र् खाओ न ! तुम इतनी दे र से खड़े क्यों हो? तुम्हारे मन में मुझे खाने का िवचार क्यों
नहीं हो रहा है ?'
व्याय बोलाः बकरी ! इस ःथान पर आते ही मेरे मन से े ष का भाव िनकल गया | भूख
प्यास भी िमट गयी | इसिलए पास आने पर भी अब मैं तुझे खाना नहीं चाहता |
व्याय के यों कहने पर बकरी बोलीः 'न जाने मैं कैसे िनभर्य हो गयी हँू | इसका क्या
कारण हो सकता है ? यिद तुम जानते हो तो बताओ |' यह सुनकर व्याय ने कहाः 'मैं भी नहीं
जानता | चलो सामने खड़े हए
ु इन महापुरुष से पुछें |' ऐसा िन य करके वे दोनों वहाँ से चल
िदये | उन दोनों के ःवभाव में यह िविचऽ पिरवतर्न दे खकर मैं बहत
ु िवःमय में पड़ा था | इतने
में उन्होंने मुझसे ही आकर ू िकया | वहाँ वृक्ष की शाखा पर एक वानरराज था | उन दोनों
साथ मैंने भी वानरराज से पूछा | िवूवर ! मेरे पूछने पर वानरराज ने आदरपूवक
र् कहाः
'अजापाल! सुनो, इस िवषय में मैं तुम्हें ूाचीन वृ ान्त सुनाता हँू | यह सामने वन के भीतर जो
बहत
ु बड़ा मिन्दर है , उसकी ओर दे खो इसमें ॄ ाजी का ःथािपत िकया हआ
ु एक िशविलंग है |
पूवक
र् ाल में यहाँ सुकमार् नामक एक बुि मान महात्मा रहते थे, जो तपःया में संलग्न होकर इस
मिन्दर में उपासना करते थे | वे वन में से फूलों का संमह कर लाते और नदी के जल से
पूजनीय भगवान शंकर को ःनान कराकर उन्हीं से उनकी पूजा िकया करते थे | इस ूकार
आराधना का कायर् करते हए
ु सुकमार् यहाँ िनवास करते थे | बहत
ु समय के बाद उनके समीप
िकसी अितिथ का आगमन हआ
ु | सुकमार् ने भोजन के िलए फल लाकर अितिथ को अपर्ण िकया
और कहाः 'िव न ! मैं केवल त वज्ञान की इच्छा से भगवान शंकर की आराधना करता हँू | आज
इस आराधना का फल पिरपक्व होकर मुझे िमल गया क्योंिक इस समय आप जैसे महापुरुष ने
मुझ पर अनुमह िकया है |
सुकमार् के ये मधुर वचन सुनकर तपःया के धनी महात्मा अितिथ को बड़ी ूसन्नता हई
ु |
उन्होंने एक िशलाखण्ड पर गीता का दसरा
ू अध्याय िलख िदया और ॄा ण को उसके पाठ और
अभ्यास के िलए आज्ञा दे ते हए
ु कहाः 'ॄ न ् ! इससे तुम्हारा आत्मज्ञान-सम्बन्धी मनोरथ अपने-
आप सफल हो जायेगा |' यह कहकर वे बुि मान तपःवी सुकमार् के सामने ही उनके दे खते-दे खते
अन्तधार्न हो गये | सुकमार् िविःमत होकर उनके आदे श के अनुसार िनरन्तर गीता के ि तीय
अध्याय का अभ्यास करने लगे | तदनन्तर दीघर्काल के प ात ् अन्तःकरण शु होकर उन्हें
आत्मज्ञान की ूाि हई
ु िफर वे जहाँ-जहाँ गये, वहाँ-वहाँ का तपोवन शान्त हो गया | उनमें
शीत-उंण और राग- े ष आिद की बाधाएँ दरू हो गयीं | इतना ही नहीं, उन ःथानों में भूख-प्यास
का क भी जाता रहा तथा भय का सवर्था अभाव हो गया | यह सब ि तीय अध्याय का जप
करने वाले सुकमार् ॄा ण की तपःया का ही ूभाव समझो |
िमऽवान कहता है ः वानरराज के यों कहने पर मैं ूसन्नता पूवक
र् बकरी और व्याय के
साथ उस मिन्दर की ओर गया | वहाँ जाकर िशलाखण्ड पर िलखे हए
ु गीता के ि तीय अध्याय
को मैंने दे खा और पढ़ा | उसी की आवृि करने से मैंने तपःया का पार पा िलया है | अतः
भिपुरुष ! तुम भी सदा ि तीय अध्याय की ही आवृि िकया करो | ऐसा करने पर मुि तुमसे
दरू नहीं रहे गी |
ौीभगवान कहते हैं - िूये ! िमऽवान के इस ूकार आदे श दे ने पर दे वशमार् ने उसका
पूजन िकया और उसे ूणाम करके पुरन्दरपुर की राह ली | वहाँ िकसी दे वालय में पूव
आत्मज्ञानी महात्मा को पाकर उन्होंने यह सारा वृ ान्त िनवेदन िकया और सबसे पहले उन्हीं से
ि तीय अध्याय को पढ़ा | उनसे उपदे श पाकर शु अन्तःकरण वाले दे वशमार् ूितिदन बड़ी ौ ा
के साथ ि तीय अध्याय का पाठ करने लगे | तबसे उन्होंने अनव (ूशंसा के योग्य) परम पद
को ूा कर िलया | लआमी ! यह ि तीय अध्याय का उपाख्यान कहा गया |
(अनुबम)
दसरा
ू अध्यायः सांख्ययोग
पहले अध्याय में गीता में कहे हए
ु उपदे श की ूःतावना रूप दोनों सेनाओं के महारिथयों
की तथा शंखध्विनपूवक
र् अजुन
र् का रथ दोनों सेनाओं के बीच खड़ा रखने की बात कही गयी | बाद
ु
में दोनों सेनाओं में खड़े अपने कुटम्बी और ःवजनों को दे खकर, शोक और मोह के कारण अजुन
र्
यु करने से रुक गया और अ -श छोड़कर िवषाद करने बैठ गया | यह बात कहकर उस
अध्याय की समाि की | बाद में भगवान ौीकृ ंण ने उन्हें िकस ूकार िफर से यु के िलए
तैयार िकया, यह सब बताना आवँयक होने से संजय अजुन
र् की िःथित का वणर्न करते हए
ु
दसरा
ू अध्याय ूारं भ करता है |
।। अथ ि तीयोऽध्यायः ।।
संजय उवाच
तं तथा कृ पयािव मौुपूणार्कुलेक्षणम।्
िवषीदन्तिमदं वाक्यमुवाच मधुसद
ू नः।।1।।
ौीभगवानुवाच
कुतःत्वा कँमलिमदं िवषमे समुपिःथतम।्
अनायर्जु मःवग्यर्मकीितर्करमजुन
र् ।।2।।
क्लैब्यं मा ःम गमः पाथर् नैत वय्युपप ते।
क्षुिं हृदयदौबर्ल्यं त्य वोि परं तप।।3।।
अजुन
र् उवाच
कथं भींममहं संख्ये िोणं च मधुसद
ू न।
इषुिभः ूितयोत्ःयािम पूजाहार्विरसूदन।।4।।
अजुन
र् बोलेः हे मधुसद
ू न ! मैं रणभूिम में िकस ूकार बाणों से भींम िपतामह और
िोणाचायर् के िवरु लड़ू ँ गा? क्योंिक हे अिरसूदन ! वे दोनों ही पूजनीय हैं |(4)
गुरुनहत्वा िह महानुभावा-
ञ्ले यो भो ुं भैआयमपीह लोके।
हत्वाथर्कामांःतु गुरुिनहै व
भुंजीय भोगान ् रुिधरूिदग्धान।।
् 5।।
इसिलए इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में िभक्षा का अन्न भी खाना
कल्याणकारक समझता हँू , क्योंिक गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुिधर से सने हए
ु अथर्
और कामरूप भोगों को ही तो भोगूग
ँ ा |(5)
कापर्ण्दोषोपहतःवभावः
पृच्छािम त्वां धमर्सम्मूढचेताः।
यच्ले यः ःयािन्नि तं ॄूिह तन्मे
िशंयःतेऽहं शािध मां त्वां ूपन्नम।।
् 7।।
न िह ूपँयािम ममापनु ा-
च्छोकमुच्छोषणिमिन्ियाणाम।्
अवाप्य भूमावसप मृ ं -
राज्यं सुराणामिप चािधपत्यम।।
् 8।।
संजय उवाच
एवमु वा हृिषकेशं गुडाकेशः परन्तप।
न योत्ःय इित गोिवन्दमु वा तूंणीं बभूव ह।।9।।
हे भरतवंशी धृतरा ! अन्तयार्मी ौीकृ ंण महाराज ने दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते
हए
ु उस अजुन
र् को हँ सते हए
ु से यह वचन बोले |(10)
ौी भगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचःत्वं ूज्ञावादां भाषसे।
गतासूनगतासूं नानुशोचिन्त पिण्डताः।।11।।
हे पृथापुऽ अजुन
र् ! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरिहत िनत्य, अजन्मा और अव्यय
जानता है , वह पुरुष कैसे िकसको मरवाता है और कैसे िकसको मारता है ? (21)
इस आत्मा को श काट नहीं सकते, इसको आग जला नहीं सकती, इसको जल गला
नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकती |
िकन्तु यिद तू इस आत्मा को सदा जन्मनेवाला तथा सदा मरने वाला मानता है , तो भी
हे महाबाहो ! तू इस ूकार शोक करने को योग्य नहीं है | (26)
हे अजुन
र् ! सम्पूणर् ूाणी जन्म से पहले अूकट थे और मरने के बाद भी अूकट हो
जाने वाले हैं , केवल बीच में ही ूकट है िफर ऐसी िःथित में क्या शोक करना है ? (28)
आ यर्वत्पँयित कि दे न-
मा यर्व दित तथैव चान्यः।
आ यर्वच्चैनमन्यः ौुणोित
ौुत्वाप्येनं वेद न चैव कि त।।
् 29।।
हे अजुन
र् ! यह आत्मा सबके शरीरों में सदा ही अवध्य है | इस कारण सम्पूणर् ूािणयों के
िलए तू शोक करने के योग्य नहीं है | (30)
तथा अपने धमर् को दे खकर भी तू भय करने योग्य नहीं है अथार्त ् तुझे भय नहीं करना
चािहए क्योंिक क्षिऽय के िलए धमर्यु यु से बढ़कर दसरा
ू कोई कल्याणकारी कतर्व्य नहीं है |
(31)
हे पाथर् ! अपने आप ूा हए
ु और खुले हए
ु ःवगर् के ाररूप इस ूकार के यु को
भाग्यवान क्षिऽय लोग ही पाते हैं | (32)
भयािणादपरतं
ु मंःयन्ते त्वां महारथाः।
येषां च त्वं बहमतो
ु ् 35।.
भूत्वा याःयिस लाघवम।।
या तो तू यु में मारा जाकर ःवगर् को ूा होगा अथवा संमाम में जीतकर पृथ्वी का
राज्य भोगेगा | इस कारण हे अजुन
र् ! तू यु के िलए िन य करके खड़ा हो जा |(37)
सुखदःखे
ु समे कृ त्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो यु ाय युज्यःव नैवं पापमवाप्ःयिस।।38।।
हे पाथर् ! यह बुि तेरे िलए ज्ञानयोग के िवषय में कही गयी और अब तू इसको कमर्योग
के िवषय में सुन, िजस बुि से यु हआ
ु तू कम के बन्धन को भलीभाँित त्याग दे गा अथार्त ्
सवर्था न कर डालेगा |(39)
इस कमर्योग में आरम्भ का अथार्त ् बीज का नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी
नहीं है , बिल्क इस कमर्योगरूप धमर् का थोड़ा सा भी साधन जन्म मृत्युरूप महान भय से रक्षा
कर लेता है | (40)
हे अजुन
र् ! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं , जो कमर्फल के ूशंसक वेदवाक्यों में ही ूीित
रखते हैं , िजनकी बुि में ःवगर् ही परम ूाप्य वःतु है और जो ःवगर् से बढ़कर दसरी
ू कोई वःतु
ही नहीं है - ऐसा कहने वाले हैं , वे अिववेकी जन इस ूकार की िजस पुिंपत अथार्त ् िदखाऊ
शोभायु वाणी को कहा करते हैं जो िक जन्मरूप कमर्फल दे ने वाली और भोग तथा ऐ यर् की
ूाि के िलए नाना ूकार की बहत
ु सी िबयाओं का वणर्न करने वाली है , उस वाणी ारा िजनका
िच हर िलया गया है , जो भोग और ऐ यर् में अत्यन्त आस हैं , उन पुरुषों की परमात्मा में
िन याित्मका बुि नहीं होती | (42, 43, 44)
हे अजुन
र् ! वेद उपयुर् ूकार से तीनों गुणों के कायर्रूप समःत भोगों और उनके साधनों
का ूितपादन करने वाले हैं , इसिलए तू उन भोगों और उनके साधनों में आसि हीन, हषर्-शोकािद
न् ों से रिहत, िनत्यवःतु परमात्मा में िःथत योग-क्षेम को न चाहने वाला और ःवाधीन
अन्तःकरण वाला हो |(45)
तेरा कमर् करने में ही अिधकार है , उनके फलों में कभी नहीं | इसिलए तू कम के फल का
हे तु मत हो तथा तेरी कमर् न करने में भी आसि न हो |(47)
हे धनंजय ! तू आसि को त्याग कर तथा िसि और अिसि में समान बुि वाला होकर
योग में िःथत हआ
ु कतर्व्यकम को कर, समत्वभाव ही योग कहलाता है | (48)
इस समत्व बुि योग से सकाम कमर् अत्यन्त ही िनम्न ौेणी का है | इसिलए हे धनंजय !
तू समबुि में ही रक्षा का उपाय ढँू ढ अथार्त ् बुि योग का ही आौय महण कर, क्योंिक फल के
हे तु बनने वाले अत्यन्त दीन हैं |(49)
समबुि यु पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग दे ता है अथार्त ् उनसे मु
हो जाता है | इससे तू समत्वरूप योग में लग जा | यह समत्वरूप योग ही कम में कुशलता है
ू
अथार्त ् कमर्बन्धन से छटने का उपाय है |(50)
अजुन
र् उवाच
िःथतूज्ञःय का भाषा समािधःथःय केशव।
िःथतधीः िकं ूभाषेत िकमासीत ोजेत िकम।।
् 54।।
अजुन
र् बोले हे केशव ! समािध में िःथत परमात्मा को ूा हए
ु िःथरबुि पुरुष का क्या
लक्षण है ? वह िःथरबुि पुरुष कैसे बोलता है , कैसे बैठता है और कैसे चलता है ?(54)
ौीभगवानुवाच
ूजहाित यदा कामान्सवार्न्पाथर् मनोगतान।्
आत्मन्येवात्मना तु ः िःथतूज्ञःतदोच्यते।।55।।
दःखे
ु ंवनुि ग्नमनाः सुखेषु िवगतःपृहः।
वीतरागभयबोधः िःथतधीमुिर् नरुच्यते।।56।।
दःखों
ु की ूाि होने पर िजसके मन पर उ े ग नहीं होता, सुखों की ूाि में जो सवर्था
िनःःपृह है तथा िजसके राग, भय और बोध न हो गये हैं , ऐसा मुिन िःथरबुि कहा जाता है |
ु
और जैसे कछवा सब ओर से अपने अंगों को समेट लेता है , वैसे ही जब यह पुरुष
इिन्ियों के िवषयों से इिन्ियों के सब ूकार से हटा लेता है , तब उसकी बुि िःथर है | (ऐसा
समझना चािहए) |
इिन्ियों के ारा िवषयों को महण न करने वाले पुरुष के भी केवल िवषय तो िनवृ ् हो
जाते हैं , परन्तु उनमें रहने वाली आसि िनवृ नहीं होती | इस िःथतूज्ञ पुरुष की तो आसि
भी परमात्मा का साक्षात्कार करके िनवृ हो जाती है | (59)
हे अजुन
र् ! आसि का नाश न होने के कारण ये ूमथन ःवभाव वाली इिन्ियाँ य
करते हए
ु बुि मान पुरुष के मन को भी बलात ् हर लेती हैं |(60)
ूसादे सवर्दःखानां
ु हािनरःयोपजायते।
ूसन्नचेतसो ाशु बुि ः पयर्वित ते।।65।।
न जीते हए
ु मन और इिन्ियों वाले पुरुष में िन याित्मका बुि नहीं होती और उस
अयु मनुंय के अन्तःकरण में भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुंय को शािन्त नहीं
िमलती और शािन्तरिहत मनुंय को सुख कैसे िमल सकता है ?(66)
या िनशा सवर्भत
ू ानां तःयां जागितर् संयमी।
यःयां जामित भूतािन सा िनशा पँयतो मुनेः।।69।।
आपूयम
र् ाणमचलूित ं
समुिमापः ूिवशिन्त य त।्
त त्कामा यं ूिवशिन्त सव
स शािन्तमाप्नोित न कामकामी।।70।।
जैसे नाना निदयों के जल सब ओर से पिरपूणर् अचल ूित ावाले समुि में उसको
िवचिलत न करते हए
ु ही समा जाते हैं , वैसे ही सब भोग िजस िःथतूज्ञ पुरुष में िकसी ूकार
का िवकार उत्पन्न िकये िबना ही समा जाते हैं , वही पुरुष परम शािन्त को ूा होता है , भोगों
को चाहने वाला नहीं | (70)
जो पुरुष सम्पूणर् कामनाओं को त्यागकर ममतारिहत, अहं कार रिहत और ःपृहा रिहत
हआ
ु िवचरता है , वही शािन्त को ूा होता है अथार्त ् वह शािन्त को ूा है |(71)
एषा ॄा ी िःथितः पाथर् नैनां ूाप्य िवमु ित।
िःथत्वाःयामन्तकालेऽिप ॄ िनवार्णमृच्छित।।72।।
हे अजुन
र् ! यह ॄ को ूा हए
ु पुरुष की िःथित है | इसको ूा होकर योगी कभी
मोिहत नहीं होता और अन्तकाल में भी इस ॄा ी िःथित में िःथत होकर ॄ ानन्द को ूा हो
जाता है |
ॐ तत्सिदित ौीमदभगवदगीतासूपिनषत्सु ॄ िव ायां योगशा े
ौीकृ ंणाजुन
र् संवादे सांख्ययोगो नाम ि तीयोऽध्यायः | |2 | |
इस ूकार उपिनषद, ॄ िव ा तथा योगशा रूप ौीमद् भगवदगीता के
ौीकृ ंण-अजुन
र् संवाद में 'सांख्ययोग' नामक ि तीय अध्याय सम्पूणर् हआ
ु |
(अनुबम)
।। अथ तृतीयोऽध्यायः ।।
अजुन
र् उवाच
ज्यायसी चेत्कमर्णःते मता बुि जर्नादर् न।
तित्कं कमर्िण घोरे मां िनयोजयिस केशव।।1।।
अजुन
र् बोलेः हे जनादर् न ! यिद आपको कमर् की अपेक्षा ज्ञान ौे मान्य है तो िफर हे
केशव ! मुझे भयंकर कमर् में क्यों लगाते हैं ?
आप िमले हए
ु वचनों से मेरी बुि को मानो मोिहत कर रहे हैं | इसिलए उस एक बात
को िनि त करके किहए िजससे मैं कल्याण को ूा हो जाऊँ |(2)
ौीभगवानुवाच
लोकेऽिःमिन् िवधा िन ा पुरा ूो ा मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कमर्योगेन योिगनाम।।
् 3।।
ौी भगवनान बोलेः हे िनंपाप ! इस लोक में दो ूकार की िन ा मेरे ारा पहले कही
गयी है | उनमें से सांख्ययोिगयों की िन ा तो ज्ञानयोग से और योिगयों की िन ा कमर्योग से
होती है |(3)
िनःसंदेह कोई भी मनुंय िकसी काल में क्षणमाऽ भी िबना कमर् िकये नहीं रहता, क्योंिक
सारा मनुंय समुदाय ूकृ ित जिनत गुणों ारा परवश हआ
ु कमर् करने के िलए बाध्य िकया जाता
है |
िकन्तु हे अजुन
र् ! जो पुरुष मन से इिन्ियों को वश में करके अनास हआ
ु समःत
इिन्ियों ारा कमर्योग का आचरण करता है , वही ौे है |(7)
तू शा िविहत कतर्व्य कमर् कर, क्योंिक कमर् न करने की अपेक्षा कमर् करना ौे है तथा
कमर् न करने से तेरा शरीर िनवार्ह भी िस नहीं होगा |(8)
ूजापित ॄ ा ने कल्प के आिद में यज्ञ सिहत ूजाओं को रचकर उनसे कहा िक तुम
लोग इस यज्ञ के ारा वृि को ूा होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इिच्छत भोग ूदान करने
वाला हो |(10)
यज्ञ से बचे हए
ु अन्न को खाने वाले ौे पुरुष सब पापों से मु हो जाते हैं और पापी
लोग अपना शरीर-पोषण करने के िलये ही अन्न पकाते हैं , वे तो पाप को ही खाते हैं |(13)
सम्पूणर् ूाणी अन्न से उत्पन्न होते हैं , अन्न की उत्पि वृि से होती है , वृि यज्ञ से
होती है और यज्ञ िविहत कम से उत्पन्न होने वाला है | कमर्समुदाय को तू वेद से उत्पन्न और
वेद को अिवनाशी परमात्मा से उत्पन्न हआ
ु जान | इससे िस होता है िक सवर्व्यापी परम अक्षर
परमात्मा सदा ही यज्ञ में ूिति त है |
हे पाथर् ! जो पुरुष इस लोक में इस ूकार परम्परा से ूचिलत सृि चब के अनुकूल नहीं
बरतता अथार्त ् अपने कतर्व्य का पालन नहीं करता, वह इिन्ियों के ारा भोगों में रमण करने
वाला पापायु पुरुष व्यथर् ही जीता है |(16)
यःत्वात्मरितरे व ःयादात्मतृ मानवः।
आत्मन्येव च सन्तु ःतःय काय न िव ते।।17।।
परन्तु जो मनुंय आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृ तथा आत्मा में
ही सन्तु है , उसके िलए कोई कतर्व्य नहीं है |(17)
इसिलए तू िनरन्तर आसि से रिहत होकर सदा कतर्व्यकमर् को भली भाँित करता रह
क्योंिक आसि से रिहत होकर कमर् करता हआ
ु मनुंय परमात्मा को ूा हो जाता है |(19)
कमर्णव
ै िह संिसि मािःथता जनकादयः।
लोकसंमहमेवािप सम्पँयन्कतुम
र् हर् िस।।20।।
ौे पुरुष जो-जो आचरण करता है , अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं | वह
जो कुछ ूमाण कर दे ता है , समःत मनुंय-समुदाय उसके अनुसार बरतने लग जाता है |(21)
क्योंिक हे पाथर् ! यिद कदािचत ् मैं सावधान होकर कम में न बरतूँ तो बड़ी हािन हो
जाए, क्योंिक मनुंय सब ूकार से मेरे ही मागर् का अनुसरण करते हैं |(23)
वाःतव में सम्पूणर् कमर् सब ूकार से ूकृ ित के गुणों ारा िकये जाते हैं तो भी िजसका
अन्तःकरण अहं कार से मोिहत हो रहा, ऐसा अज्ञानी 'मैं कतार् हँू ' ऐसा मानता है |(27)
ूकृ तेगण
ुर् सम्मूढाः सज्जन्ते गुणकमर्स।ु
तानकृ त्ःन्निवदो मन्दान्कृ त्ःन्निवन्न िवचालयेत।।
् 29।।
इिन्िय-इिन्िय के अथर् में अथार्त ् ूत्येक इिन्िय के िवषय में राग और े ष िछपे हए
ु
िःथत हैं | मनुंय को उन दोनों के वश में नहीं होना चािहए, क्योंिक वे दोनों ही इसके कल्याण
मागर् में िवघ्न करने वाले महान शऽु हैं |(34)
ौेयान्ःवधम िवगुण परधमार्त्ःवनुि तात।्
ःवधम िनधनं ौेयः परधम भयावहः।।35।।
अच्छी ूकार आचरण में लाये हए
ु दसरे
ू के धमर् से गुण रिहत भी अपना धमर् अित उ म
है | अपने धमर् में तो मरना भी कल्याणकारक है और दसरे
ू का धमर् भय को दे ने वाला है |(35)
अजुन
र् उवाच
अथ केन ूयु ोऽयं पापं चरित पुरुषः।
अिनच्छन्निप वांणय बलािदव िनयोिजतः।।36।।
अजुन
र् बोलेः हे कृ ंण ! तो िफर यह मनुंय ःवयं न चाहता हआ
ु भी बलात ् लगाये हए
ु
की भाँित िकससे ूेिरत होकर पाप का आचरण करता है ? (36)
ौीभगवानुवाच
काम एष बोध एष रजोगुणसमुद् भवः
महाशनो महापाप्मा िव े यनिमह वैिरणम।।
् 37।।
ौी भगवान बोलेः रजोगुण से उत्पन्न हआ
ु यह काम ही बोध है , यह बहत
ु खाने वाला
अथार्त ् भोगों से कभी न अघाने वाला और बड़ा पापी है , इसको ही तू इस िवषय में वैरी
जान |(37)
धूमेनािोयते वि यर्थादश मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गभर्ःतथा तेनेदमावृतम।।
् 38।।
िजस ूकार धुएँ से अिग्न और मैल से दपर्ण ढका जाता है तथा िजस ूकार जेर से गभर्
ढका रहता है , वैसे ही उस काम के ारा यह ज्ञान ढका रहता है |(38)
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञािननो िनत्यवैिरणा
कामरूपेण कौन्तेय दंु पूरेणानलेन च।।39।।
और हे अजुन
र् ! इस अिग्न के समान कभी न पूणर् होने वाले कामरूप ज्ञािनयों के िनत्य
वैरी के ारा मनुंय का ज्ञान ढका हआ
ु है |(39) (अनुबम)
इिन्ियािण मनो बुि रःयािध ानमुच्यते।
एतैिवर्मोहयत्येष ज्ञानमावृत्य दे िहनम।।
् 40।।
इिन्ियाँ, मन और बुि Ð ये सब वास ःथान कहे जाते हैं | यह काम इन मन, बुि और
इिन्ियों के ारा ही ज्ञान को आच्छािदत करके जीवात्मा को मोिहत करता है |(40)
तःमा विमिन्ियाण्यादौ िनयम्य भरतषर्भ।
पाप्मान ूजिह ेनं ज्ञानिवज्ञाननाशनम।।
् 41।।
इसिलए हे अजुन
र् ! तू पहले इिन्ियों को वश में करके इस ज्ञान और िवज्ञान का नाश
करने वाले महान पापी काम को अवँय ही बलपूवक
र् मार डाल |(41)
इिन्ियािण पराण्याहिरिन्िये
ु भ्यः परं मनः।
मनसःतु परा बुि य बु े ः परतःतु सः।।42।।
इिन्ियों को ःथूल शरीर से पर यािन ौे , बलवान और सूआम कहते हैं | इन इिन्ियों से
पर मन है , मन से भी पर बुि है और जो बुि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है |(42)
एवं बु े ः परं बुद् ध्वा संःतभ्यात्मानमात्मना।
जिह शऽुं महाबाहो कामरूपं दरासदम।।
ु ् 43।।
इस ूकार बुि से पर अथार्त ् सूआम, बलवान और अत्यन्त ौे आत्मा को जानकर और
बुि के ारा मन को वश में करके हे महाबाहो ! तू इस कामरूप दजर्
ु य शऽु को मार डाल |(43)
ॐ तत्सिदित ौीमद् भगवद् गीतासूपिनषत्सु ॄ ेिव ायां योगशा े
ौीकृ ंणाजुन
र् संवादे कमर्योगो नाम तृतीयोऽध्यायः | |3 | |
इस ूकार उपिनषद, ॄ िव ा तथा योगशा रूप ौीमद् भगवद् गीता के
ौीकृ ंण-अजुन
र् संवाद में 'कमर्योग' नामक तृतीय अध्याय संपूणर् हआ
ु |
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
(अनुबम)
अनुबम
(अनुबम)
।। अथ चतुथ ऽध्यायः ।।
ौी भगवानुवाच
इमं िववःवते योगं ूो वानहमव्ययम।्
िववःवान्मनवे ूाह मनुिरआवाकवेऽॄवीत।।
् 1।।
ौी भगवान बोलेः मैंने इन अिवनाशी योग को सूयर् से कहा था | सूयर् ने अपने पुऽ
वैवःवत मनु से कहा और मनु ने अपने पुऽ राजा इआवाकु से कहा |(1)
हे परं तप अजुन
र् ! इस ूकार परम्परा से ूा इस योग को राजिषर्यों ने जाना, िकन्तु
उसके बाद वह योग बहत
ु काल से इस पृथ्वी लोक में लु ूाय हो गया |(2)
तू मेरा भ और िूय सखा है , इसिलए यह पुरातन योग आज मैंने तुझे कहा है , क्योंिक
यह बड़ा ही उ म रहःय है अथार्त ् गु रखने योग्य िवषय है |(3)
अजुन
र् उवाच
अपरं भवतो जन्म परं जन्म िववःवतः।
कथमेति जानीयां त्वमादौ ूो वािनित।।4।।
अजुन
र् बोलेः आपका जन्म तो अवार्चीन Ð अभी हाल ही का है और सूयर् का जन्म बहत
ु
पुराना है अथार्त ् कल्प के आिद में हो चुका था | तब मैं इस बात को कैसे समझूँ िक आप ही ने
कल्प के आिद में यह योग कहा था?(4)
ौी भगवानुवाच
बहिन
ू मे व्यतीतािन जन्मािन तव चाजुन
र् ।
तान्यहं वेद सवार्िण न त्वं वेत्थ परं तप।।5।।
ौी भगवान बोलेः हे परं तप अजुन
र् ! मेरे और तेरे बहत
ु से जन्म हो चुके हैं | उन सबको
तू नहीं जानता, िकन्तु मैं जानता हँू |
हे भारत ! जब-जब धमर् की हािन और अधमर् की वृि होती है , तब-तब ही मैं अपने रूप
को रचता हँू अथार्त ् साकार रूप से लोगों के सम्मुख ूकट होता हँू |(7)
साधु पुरुषों का उ ार करने के िलए, पाप कमर् करने वालों का िवनाश करने के िलए और
धमर् की अच्छी तरह से ःथापना करने के िलए मैं युग-युग में ूकट हआ
ु करता हँू |(8)
हे अजुन
र् ! मेरे जन्म और कमर् िदव्य अथार्त ् िनमर्ल और अलौिकक हैं Ð इस ूकार जो
मनुंय त व से जान लेता है , वह शरीर को त्याग कर िफर जन्म को ूा नहीं होता, िकन्तु
मुझे ही ूा होता है |(9)
हे अजुन
र् ! जो भ मुझे िजस ूकार भजते हैं , मैं भी उनको उसी ूकार भजता हँू ,
क्योंिक सभी मनुंय सब ूकार से मेरे ही मागर् का अनुसरण करते हैं |(11)
इस मनुंय लोक में कम के फल को चाहने वाले लोग दे वताओं का पूजन िकया करते हैं ,
क्योंिक उनको कम से उत्पन्न होने वाली िसि शीय िमल जाती है |(12)
चातुवण्
र् य मया सृ ं गुणकमर्िवभागशः।
तःय कतार्रमिप मां िव यकतार्रमव्ययम।।
् 13।।
कम के फल में मेरी ःपृहा नहीं है , इसिलए मुझे कमर् िल नहीं करते Ð इस ूकार जो
मुझे त व से जान लेता है , वह भी कम से नहीं बँधता |(14)
पूवक
र् ाल में मुमक्ष
ु ओ ु ं ने भी इस ूकार जानकर ही कमर् िकये हैं इसिलए तू भी पूवज
र् ों
ारा सदा से िकये जाने वाले कम को ही कर |(15)
कमर् का ःवरूप भी जानना चािहए और अकमर् का ःवरूप भी जानना चािहए तथा िवकमर्
का ःवरूप भी जानना चािहए, क्योंिक कमर् की गित गहन है |(17)
जो मनुंय कमर् में अकमर् दे खता और जो अकमर् में कमर् दे खता है , वह मनुंयों में
बुि मान है और वह योगी समःत कम को करने वाला है |(18)
िजसके सम्पूणर् शा -सम्मत कमर् िबना कामना और संकल्प के होते हैं तथा िजसके
समःत कमर् ज्ञानरूप अिग्न के ारा भःम हो गये हैं , उस महापुरुष को ज्ञानीजन भी पिण्डत
कहते हैं |(19)
जो पुरुष समःत कम में और उनके फल में आसि का सवर्था त्याग करके संसार के
आौय से रिहत हो गया है और परमात्मा में िनत्य तृ है , वह कम में भली भाँित बरतता हआ
ु
भी वाःतव में कुछ भी नहीं करता |(20)
गतसङ्गःय मु ःय ज्ञानाविःथतचेतसः।
यज्ञायाचरतः कमर् सममं ूिवलीयते।।23।।
िजस यज्ञ में अपर्ण अथार्त ् ॐुवा आिद भी ॄ है और हवन िकये जाने योग्य िव्य भी
ॄ है तथा ॄ रूप कतार् के ारा ॄ रूप अिग्न में आहित
ु दे नारूप िबया भी ॄ है Ð उस
ॄ कमर् में िःथत रहने वाले योगी ारा ूा िकये जाने वाले योग्य फल भी ॄ ही है |
दसरे
ू योगीजन दे वताओं के पूजनरूप परॄ ा परमात्मारूप अिग्न में अभेददशर्नरूप यज्ञ के
ारा ही आत्मरूप यज्ञ का हवन िकया करते हैं |(25)
दसरे
ू योगीजन इिन्ियों की सम्पूणर् िबयाओं को और ूाण की समःत िबयाओं को ज्ञान
से ूकािशत आत्मसंयम योगरूप अिग्न में हवन िकया करते हैं |(27)
िव्ययज्ञाःतपोयज्ञा योगयज्ञाःतथापरे ।
ःवाध्यायज्ञानयज्ञा यतयः संिशतोताः।।28।।
कई पुरुष िव्य-सम्बन्धी यज्ञ करने वाले हैं , िकतने ही तपःयारूप यज्ञ करने वाले हैं तथा
दसरे
ू िकतने ही योगरूप यज्ञ करने वाले हैं , िकतने ही अिहं सािद तीआण ोतों से यु य शील
पुरुष ःवाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ करने वाले हैं |(28)
दसरे
ू िकतने ही योगीजन अपानवायु में ूाणवायु को हवन करते हैं , वैसे ही अन्य
योगीजन ूाणवायु में अपानवायु को हवन करते हैं तथा अन्य िकतने ही िनयिमत आहार करने
वालो ूाणायाम-परायण पुरुष ूाण और अपान की गित को रोक कर ूाणों को ूाणों में ही हवन
िकया करते हैं | ये सभी साधक यज्ञों ारा पापों का नाश कर दे ने वाले और यज्ञों को जानने वाले
हैं |(29,30)
हे कुरुौे अजुन
र् ! यज्ञ से बचे हए
ु अमृतरूप अन्न का भोजन करने वाले योगीजन
सनातन परॄ परमात्मा को ूा होते हैं और यज्ञ न करने वाले पुरुष के िलए तो यह
मनुंयलोक भी सुखदायक नहीं है , िफर परलोक कैसे सुखदायक हो सकता है ?(31)
एवं बहिवधा
ु यज्ञा िवतता ॄ णो मुखे।
कमर्जािन्वि तान्सवार्नेवं ज्ञात्वा िवमोआयसे।।32।।
इसी ूकार और भी बहत
ु तरह के यज्ञ वेद की वाणी में िवःतार से कहे गये हैं | उन
सबको तू मन इिन्िय और शरीर की िबया ारा सम्पन्न होने वाला जान | इस ूकार त व से
जानकर उनके अनु ान ारा तू कमर्बन्धन से सवर्था मु हो जाएगा |(32)
हे परं तप अजुन
र् ! िव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ अत्यन्त ौे है , तथा यावन्माऽ
सम्पूणर् कमर् ज्ञान में समा हो जाते हैं |
उस ज्ञान को तू त वदश ज्ञािनयों के पास जाकर समझ, उनको भली भाँित दण्डवत
ूणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूवक
र् ू करने से वे
परमात्म-त व को भली भाँित जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस त वज्ञान का उपदे श
करें गे |(34)
यज्ज्ञात्वा न पुनम हमेवं याःयिस पाण्डव।
येन भूतान्यशेषेण िआयःयात्मन्यथो मिय।।35।।
योगसंन्यःतकमार्णं ज्ञानसंिछन्नसंशयम।्
आत्मवन्तं न कमार्िण िनबध्निन्त धनंजय।।41।।
तःमादज्ञानसंभत
ू ं हृत्ःथं ज्ञानािसनात्मनः।
िछ वैनं संशयं योगमाित ोि भारत।।42।।
इसिलए हे भरतवंशी अजर्न ! तू हृदय में िःथत इस अज्ञानजिनत अपने संशय का
िववेकज्ञानरूप तलवार ारा छे दन करके समत्वरूप कमर्योग में िःथत हो जा और यु के िलए
खड़ा हो जा | (42)
।। अथ पंचमोऽध्यायः ।।
अजुन
र् उवाच
संन्यासं कमर्णां कृ ंण पुनय गं च शंसिस।
यच्ले य एतयोरे कं तन्मे ॄूिह सुिन तम।।
् 1।।
अजुन
र् बोलेः हे कृ ंण ! आप कम के संन्यास की और िफर कमर्योग की ूशंसा करते हैं |
इसिलए इन दोनों साधनों में से जो एक मेरे िलए भली भाँित िनि त कल्याणकारक साधन हो,
उसको किहये |(1)
ौीभगवानुवाच
संन्यासः कमर्योग िनःौेयसकरावुभौ।
तयोःतु कमर्संन्यासात्कमर्योगो िविशंयते।।2।।
हे अजुन
र् ! जो पुरुष िकसी से े ष नहीं करता है और न िकसी की आकांक्षा करता है , वह
कमर्योगी सदा संन्यासी ही समझने योग्य है , क्योंिक राग- े षािद न् ों से रिहत पुरुष सुखपूवक
र्
संसारबन्धन से मु हो जाता है |(3)
ज्ञानयोिगयों ारा जो परम धाम ूा िकया जाता है , कमर्योिगयों ारा भी वही ूा िकया
जाता है इसिलए जो पुरुष ज्ञानयोग और कमर्योग को फलरूप में एक दे खता है , वही यथाथर्
दे खता है |(5)
संन्यासःतु महाबाहो दःखमा
ु म
ु योगतः।
योगयु ो मुिनॄर् निचरे णािधगच्छित।।6।।
परन्तु हे अजुन
र् ! कमर्योग के िबना होने वाले संन्यास अथार्त ् मन, इिन्िय और शरीर
ारा होने वाले सम्पूणर् कम में कतार्पन का त्याग ूा होना किठन है और भगवत्ःवरूप को
मनन करने वाला कमर्योगी परॄ परमात्मा को शीय ही ूा हो जाता है |(6)
अन्तःकरण िजसके वश में है ऐसा सांख्ययोग का आचरण करने वाला पुरुष न करता
हआ
ु और न करवाता हआ
ु ही नव ारों वाले शरीर रूपी घर में सब कम का मन से त्याग कर
आनन्दपूवक
र् सिच्चदानंदघन परमात्मा के ःवरूप में िःथत रहता है |(13)
िजनका मन तिप
ू हो रहा है , िजनकी बुि तिप
ू हो रही है और सिच्चदानन्दघन
परमात्मा में ही िजनकी िनरन्तर एकीभाव से िःथित है , ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञान के ारा
पापरिहत होकर अपुनरावृि को अथार्त ् परम गित को ूा होते हैं |(17)
िजनका मन समभाव में िःथत है , उनके ारा इस जीिवत अवःथा में ही सम्पूणर् संसार
जीत िलया गया है , क्योंिक सिच्चदानन्दघन परमात्मा िनद ष और सम है , इससे वे
सिच्चदानन्दघन परमात्मा में ही िःथत है |(19)
बाहर के िवषयों में आसि रिहत अन्तःकरण वाला साधक आत्मा में िःथत जो
ध्यानजिनत साि वक आनन्द है , उसको ूा होता है | तदनन्तर वह सिच्चदानंदघन परॄ
परमात्मा के ध्यानरूप योग में अिभन्नभाव से िःथत पुरुष अक्षय आनन्द का अनुभव करता है
|(21)
ये िह संःपशर्जा भोगा दःखयोनय
ु एव ते।
आ न्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।22।।
जो ये इिन्िय तथा िवषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं , य िप िवषयी
पुरुषों को सुखरूप भासते हैं तो भी दःख
ु के ही हे तु हैं और आिद-अन्तवाले अथार्त ् अिनत्य हैं |
इसिलए हे अजुन
र् ! बुि मान िववेकी पुरुष उनमें नहीं रमता |(22)
जो पुरुष अन्तरात्मा में ही सुख वाला है , आत्मा में ही रमण करने वाला है तथा जो
आत्मा में ही ज्ञानवाला है , वह सिच्चदानन्दघन परॄ परमात्मा के साथ एकीभाव को ूा
सांख्योगी शान्त ॄ को ूा होता है |(24)
िजनके सब पाप न हो गये हैं , िजनके सब संशय ज्ञान के ारा िनवृ हो गये हैं , जो
सम्पूणर् ूािणयों के िहत में रत हैं और िजनका जीता हआ
ु मन िन लभाव से परमात्मा में
िःथत हैं , वे ॄ वे ा पुरुष शान्त ॄ को ूा होते हैं |(25)
।। अथ ष ोऽध्यायः ।।
ौीभगवानुवाच
अनािौतः कमर्फलं काय कमर् करोित यः।
स संन्यासी च योगी च न िनरिग्ननर् चािबयः।।1।।
ौी भगवान बोलेः जो पुरुष कमर्फल का आौय न लेकर करने योग्य कमर् करता है , वह
संन्यासी तथा योगी है और केवल अिग्न का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं है तथा केवल
िबयाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है |(1)
यं संन्यासिमित ूाहय
ु गं तं िवि पाण्डव।
न संन्यःतसंकल्पो योगी भवित क न।।2।।
हे अजुन
र् ! िजसको संन्यास ऐसा कहते हैं , उसी को तू योग जान, क्योंिक संकल्पों का
त्याग न करने वाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता |(2)
आरुरुक्षोमुन
र् ेय गं कमर् कारणमुच्यते।
योगारूढःय तःयैव शमः कारणमुच्यते।।3।।
योग में आरूढ़ होने की इच्छावाले मननशील पुरुष के िलए योग की ूाि में िनंकामभाव
से कमर् करना ही हे तु कहा जाता है और योगारूढ़ हो जाने पर उस योगारूढ़ पुरुष का जो
सवर्सक
ं ल्पों का अभाव है , वही कल्याण में हे तु कहा जाता है |(3)
उ रे दात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत।्
आत्मैव ात्मनो बन्धुरात्मैव िरपुरात्मनः।।5।।
अपने ारा अपना संसार-समुि से उ ार करें और अपने को अधोगित में न डालें, क्योंिक
यह मनुंय, आप ही तो अपना िमऽ है और आप ही अपना शऽु है |(5)
सद -गम और सुख-दःख
ु आिद में तथा मान और अपमान में िजसके अन्तःकरण की
वृि याँ भली भाँित शांत हैं , ऐसे ःवाधीन आत्मावाले पुरुष के ज्ञान में सिच्चदानन्दघन परमात्मा,
सम्यक् ूकार से ही िःथत है अथार्त ् उसके ज्ञान में परमात्मा के िसवा अन्य कुछ है ही नहीं
|(7)
सुहृिन्मऽायुद
र् ासीनमध्यःथ े ंयबन्धुषु।
साधुंविप च पापेषु समबुि िवर्िशंयते।।9।।
सुहृद्, िमऽ, वैरी उदासीन, मध्यःथ, े ंय और बन्धुगणों में, धमार्त्माओं में और पािपयों
में भी समान भाव रखने वाला अत्यन्त ौे है |(9)
शु भूिम में, िजसके ऊपर बमशः कुशा, मृगछाला और व िबछे हैं , जो न बहत
ु ऊँचा है
न बहत
ु नीचा, ऐसे अपने आसन को िःथर ःथापन करके उस आसन पर बैठकर िच और
इिन्ियों की िबयाओं को वश में रखते हए
ु मन को एकाम करके अन्तःकरण की शुि के िलए
योग का अभ्यास करे |(11,12)
काया, िसर और गले को समान एवं अचल धारण करके और िःथर होकर, अपनी
नािसका के अमभाग पर दृि जमाकर, अन्य िदशाओं को न दे खता हआ
ु ॄ चारी के ोत में
िःथत, भयरिहत तथा भली भाँित शान्त अन्तःकरण वाला सावधान योगी मन को रोककर मुझमें
िच वाला और मेरे परायण होकर िःथत होवे |(13,14)
वश में िकये हए
ु मनवाला योगी इस ूकार आत्मा को िनरन्तर मुझ परमे र के ःवरूप
में लगाता हआ
ु मुझमें रहने वाली परमानन्द की पराका ारूप शािन्त को ूा होता है |(15)
हे अजुन
र् ! यह योग न तो बहत
ु खाने वाले का, न िबल्कुल न खाने वाले का, न बहत
ु
शयन करने के ःवभाववाले का और न सदा ही जागने वाले का ही िस होता है |(16)
यु ाहारिवहारःय यु चे ःय कमर्स।ु
यु ःवप्नावबोधःय योगो भवित दःखहा।।
ु 17।।
दःखों
ु का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार-िवहार करने वाले का, कम में यथा
योग्य चे ा करने वाले का और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का ही िस होता है |(17)
योग के अभ्यास से िनरु िच िजस अवःथा में उपराम हो जाता है और िजस अवःथा
में परमात्मा के ध्यान से शु हई
ु सूआम बुि ारा परमात्मा को साक्षात ् करता हआ
ु
सिच्चदानन्दघन परमात्मा में ही सन्तु रहता है | इिन्ियों से अतीत, केवल शु हई
ु सूआम बुि
ारा महण करने योग्य जो अनन्त आनन्द है , उसको िजस अवःथा में अनुभव करता है और
िजस अवःथा में िःथत यह योगी परमात्मा के ःवरूप से िवचिलत होता ही नहीं | परमात्मा की
ूाि रूप िजस लाभ को ूा होकर उससे अिधक दसरा
ू कुछ भी लाभ नहीं मानता और
परमात्मूाि रूप िजस अवःथा में िःथत योगी बड़े भारी दःख
ु से भी चलायमान नहीं होता | जो
दःखरूप
ु संसार के संयोग से रिहत है तथा िजसका नाम योग है , उसको जानना चािहए | वह योग
न उकताए हए
ु अथार्त ् धैयर् और उत्साहयु िच से िन यपूवक
र् करना कतर्व्य है |
संकल्पूभवान्कामांःत्य वा सवार्नशेषतः।
मनसैवेिन्ियमामं िविनयम्य समन्ततः।।24।।
शनैः शनैरुपरमेद् बु या धृितगृहीतया।
आत्मसंःथं मनः कृ त्वा न िकंिचदिप िचन्तयेत।।
् 25।।
सवर्भत
ू ःथमात्मानं सवर्भत
ू ािन चात्मिन।
ईक्षते योगयु ात्मा सवर्ऽ समदशर्नः।।29।।
सवर्व्यापी अनन्त चेतन में एकीभाव से िःथितरूप योग से यु आत्मावाला तथा सबमें
समभाव से दे खने वाला योगी आत्मा को सम्पूणर् भूतों में िःथत और सम्पूणर् भूतों को आत्मा में
किल्पत दे खता है |(29)
जो पुरुष सम्पूणर् भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक दे खता है और
सम्पूणर् भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तगर्त दे खता है , उसके िलए मैं अदृँय नहीं होता और वह
मेरे िलए अदृँय नहीं होता |(30)
सवर्भत
ू िःथतं यो मां भजत्येकत्वमािःथतः।
सवर्था वतर्मानोऽिप स योगी मिय वतर्ते।।31।।
जो पुरुष एकीभाव में िःथत होकर सम्पूणर् भूतों में आत्मरूप से िःथत मुझ
सिच्चदानन्दघन वासुदेव को भजता है , वह योगी सब ूकार से बरतता हआ
ु भी मुझ में ही
बरतता है |(31)
हे अजुन
र् ! जो योगी अपनी भाँित सम्पूणर् भूतों में सम दे खता है और सुख अथवा दःख
ु
को भी सबमें सम दे खता है , वह योगी परम ौे माना गया है |(32)
अजुन
र् उवाच
योऽयं योगःत्वया ूो ः साम्येन मधुसद
ू न।
एतःयाहं न पँयािम चंचलत्वाित्ःथितं िःथराम।।
् 33।।
अजुन
र् बोलेः हे मधुसद
ू न ! जो यह योग आपने समभाव से कहा है , मन के चंचल होने से
मैं इसकी िनत्य िःथित को नहीं दे खता हँू |(33)
ौीभगवानुवाच
असंशयं महाबाहो मनो दिनर्
ु महं चलम।्
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृ ते।।35।।
अजुन
र् बोलेः हे ौीकृ ंण ! जो योग में ौ ा रखने वाला है , िकंतु संयमी नहीं है , इस
कारण िजसका मन अन्तकाल में योग से िवचिलत हो गया है , ऐसा साधक योग की िसि को
अथार्त ् भगवत्साक्षात्कार को न ूा होकर िकस गित को ूा होता है |(37)
एतन्मे संशयं कृ ंण छे म
ु हर् ःयशेषतः।
त्वदन्यः संशयःयाःय छे ा न प
ु प ते।।39।।
ौीभगवानुवाच
पाथर् नैवेह नामुऽ िवनाशःतःय िव ते।
न िह कल्याणकृ त्कि द् दगर्
ु ितं तात गच्छित।।40।।
योगॅ पुरुष पुण्यवानों लोकों को अथार्त ् ःवगार्िद उ म लोकों को ूा होकर, उनमें बहत
ु
वष तक िनवास करके िफर शु आचरणवाले ौीमान पुरुषों के घर में जन्म लेता है |(41)
अथवा योिगनामेव कुले भवित धीमताम।्
एति दलर्
ु भतरं लोके जन्म यदीदृशम।।
् 42।।
अथवा वैराग्यवान पुरुष उन लोकों में न जाकर ज्ञानवान योिगयों के ही कुल में जन्म
लेता है | परन्तु इस ूकार का जो यह जन्म है , सो संसार में िनःसंदेह अत्यन्त दलर्
ु भ है |(42)
परन्तु ूय पूवक
र् अभ्यास करने वाला योगी तो िपछले अनेक जन्मों के संःकारबल से
इसी जन्म में संिस होकर सम्पूणर् पापों से रिहत हो िफर तत्काल ही परम गित को ूा हो
जाता है |(45)
(अनुबम)
सातवाँ अध्यायःज्ञानिवज्ञानयोग
।। अथ स मोऽध्यायः।।
ौी भगवानुवाच
मय्यास मनाः पाथर् योगं युंजन्मदाौयः ।
ृ
असंशयं सममं मां यथा ज्ञाःयिस तच्छणु ।।1।।
हजारों मनुंयों में कोई एक मेरी ूाि के िलए य करता है और उन य करने वाले
योिगयों में भी कोई ही पुरुष मेरे परायण हआ
ु मुझको त व से जानता है । (3)
पृथ्वी, जल, तेज, वायु तथा आकाश और मन, बुि एवं अहं कार... ऐसे यह आठ ूकार से
िवभ हई
ु मेरी ूकृ ित है । यह (आठ ूकार के भेदों वाली) तो अपरा है अथार्त मेरी जड़ ूकृ ित
है और हे महाबाहो ! इससे दसरी
ू को मेरी जीवरूपा परा अथार्त चेतन ूकृ ित जान िक िजससे
यह संपूणर् जगत धारण िकया जाता है । (4,5)
हे अजुन
र् ! तू ऐसा समझ िक संपूणर् भूत इन दोनों ूकृ ितयों(परा-अपरा) से उत्पन्न होने
वाले हैं और मैं संपूणर् जगत की उत्पि तथा ूलयरूप हँू अथार्त ् संपूणर् जगत का मूल कारण हँू
। हे धनंजय ! मुझसे िभन्न दसरा
ू कोई भी परम कारण नहीं है । यह सम्पूणर् सूऽ में मिणयों के
सदृश मुझमें गुथ
ँ ा हआ
ु है । (6,7)
हे अजुन
र् ! तू संपूणर् भूतों का सनातन बीज यािन कारण मुझे ही जान । मैं बुि मानों की
बुि और तेजिःवयों का तेज हँू । (10)
िऽिभगुण
र् मयैभार्वैरेिभः सवर्िमदं जगत ् ।
मोिहतं नािभजानाित मामेभ्यः परमव्ययम ् ।।13।।
गुणों के कायर्रूप (साि वक, राजिसक और तामिसक) इन तीनों ूकार के भावों से यह
सारा संसार मोिहत हो रहा है इसिलए इन तीनों गुणों से परे मुझ अिवनाशी को वह त व से नहीं
जानता । (13)
ये सभी उदार हैं अथार्त ् ौ ासिहत मेरे भजन के िलए समय लगाने वाले होने से उ म हैं
परन्तु ज्ञानी तो साक्षात ् मेरा ःवरूप ही हैं ऐसा मेरा मत है । क्योंिक वह मदगत मन-बुि वाला
ज्ञानी भ अित उ म गितःवरूप मुझमें ही अच्छी ूकार िःथत है । (18)
बहनां
ू जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां ूप ते ।
वासुदेवः सवर्िमित स महात्मा सुदलर्
ु भः ।।19।।
बहत
ु जन्मों के अन्त के जन्म में त वज्ञान को ूा हआ
ु ज्ञानी सब कुछ वासुदेव ही है -
इस ूकार मुझे भजता है , वह महात्मा अित दलर्
ु भ है । (19)
कामैःतैःतैहृर्तज्ञानाः ूप न्तेऽन्यदे वताः ।
तं तं िनयममाःथाय ूकृ त्या िनयताः ःवया ।।20।।
उन-उन भोगों की कामना ारा िजनका ज्ञान हरा जा चुका है वे लोग अपने ःवभाव से
ूेिरत होकर उस-उस िनयम को धारण करके अन्य दे वताओं को भजते हैं अथार्त ् पूजते हैं ।
(20)
स तया ौ या यु ःतःयाराधनमीहते ।
लभते च ततः कामान्मयैव िविहतािन्ह तान ् ।।22।।
हे अजुन
र् ! पूवर् में व्यतीत हए
ु और वतर्मान में िःथत तथा आगे होनेवाले सब भूतों को मैं
जानता हँू , परन्तु मुझको कोई भी ौ ा-भि रिहत पुरुष नहीं जानता | (26)
हे भरतवंशी अजुन
र् ! संसार में इच्छा और े ष से उत्पन्न हए
ु सुख-दःखािद
ु न् रूप मोह
से संपूणर् ूाणी अित अज्ञानता को ूा हो रहे हैं । (27)
(िनंकाम भाव से) ौे कम का आचरण करने वाला िजन पुरुषों का पाप न हो गया
है , वे राग- े षािदजिनत न् रूप मोह से मु और दृढ़ िन यवाले पुरुष मुझको भजते हैं । (28)
ू
जो मेरे शरण होकर जरा और मरण से छटने के िलए य करते हैं , वे पुरुष उस ॄ को
तथा संपूणर् अध्यात्म को और संपूणर् कमर् को जानते हैं । (29)
अनुबम
(अनुबम)
।। अथा मोऽध्यायः ।।
अजुन
र् उवाच
िकं तद् ॄ िकमध्यात्मं िकं कमर् पुरुषो म।
अिधभूतं च िकं ूो मिधदै वं िकमुच्यते।।1।।
अजुन
र् ने कहाः हे पुरुषो म ! वह ॄ क्या है ? अध्यात्म क्या है ? कमर् क्या है ? अिधभूत
नाम से क्या कहा गया है और अिधदै व िकसको कहते हैं ?(1)
हे मधुसद
ू न ! यहाँ अिधयज्ञ कौन है ? और वह इस शरीर में कैसे हैं ? तथा यु िच वाले
पुरुषों ारा अन्त समय में आप िकस ूकार जानने में आते हैं ? (2)
ौीभगवानुवाच
अक्षरं ॄ परमं ःवभावोऽध्यातममुच्यते।
भूतभावोद् भवकरो िवसगर्ः कमर्सिं ज्ञतः।।3।।
ौीमान भगवान ने कहाः परम अक्षर 'ॄ ' है , अपना ःवरूप अथार्त ् जीवात्मा 'अध्यात्म'
नाम से कहा जाता है तथा भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला जो त्याग है , वह 'कमर्' नाम से
कहा गया है |(3)
अिधभूतं क्षरो भावः पुरुष ािधदै वतम।्
अिधयज्ञोऽहमेवाऽ दे हे दे हभृतां वर।।4।।
उत्पि िवनाश धमर्वाले सब पदाथर् अिधभूत हैं , िहरण्यमय पुरुष अिधदै व हैं ओर हे
दे हधािरयों में ौे अजुन
र् ! इस शरीर में मैं वासुदेव ही अन्तयार्मी रूप से अिधयज्ञ हँू |(4)
हे कुन्तीपुऽ अजुन
र् ! यह मनुंय अन्तकाल में िजस-िजस भी भाव को ःमरण करता हआ
ु
शरीर का त्याग करता है , उस उसको ही ूा होता है , क्योंिक वह सदा उसी भाव से भािवत रहा
है |(6)
इसिलए हे अजुन
र् ! तू सब समय में िनरन्तर मेरा ःमरण कर और यु भी कर | इस
ूकार मुझमें अपर्ण िकये हए
ु मन-बुि से यु होकर तू िनःसंदेह मुझको ही ूा होगा |(7)
किवं पुराणमनुशािसतार-
मणोरणीयांसमनुःमरे ः।
सवर्ःय धातारमिचन्तयरूप-
मािदत्यवण तमसः परःतात।।
् 9।।
ूयाणकाले मनसाचलेन
भ या यु ो योगबलेन चैव।
ॅूवोमर्ध्ये ूाणमावेँय सम्यक्
स तं परं पुरुषमुपैित िदव्यम।।
् 10।।
जो पुरुष सवर्ज्ञ, अनािद, सबके िनयन्ता, सूआम से भी अित सूआम, सबके धारण-पोषण
करने वाले, अिचन्तयःवरूप, सूयर् के सदृश िनत्य चेतन ूकाशरूप और अिव ा से अित परे , शु
सिच्चदानन्दघन परमे र का ःमरण करता है , वह भि यु पुरुष अन्तकाल में भी योग बल से
भृकुटी के मध्य में ूाण को अच्छी ूकार ःथािपत करके, िफर िन ल मन से ःमरण करता
हआ
ु उस िदव्यरूप परम पुरुष परमात्मा को ही ूा होता है |(9,10)
सब इिन्ियों के ारों को रोक कर तथा मन को हृदयदे श में िःथर करके, िफर उस जीते
हए
ु मन के ारा ूाण को मःतक में ःथािपत करके, परमात्मसम्बन्धी योगधारणा में िःथत
होकर जो पुरुष ॐ इस एक अक्षररूप ॄ को उच्चारण करता हआ
ु और उसके अथर्ःवरूप मुझ
िनगुण
र् ॄ का िचन्तन करता हआ
ु शरीर को त्याग कर जाता है , वह पुरुष परम गित को ूा
होता है |(12,13)
हे अजुन
र् ! जो पुरुष मुझमें अनन्यिच होकर सदा ही िनरन्तर मुझ पुरुषो म को ःमरण
करता है , उस िनत्य-िनरन्तर मुझमें यु हए
ु योगी के िलए मैं सुलभ हँू , अथार्त ् मैं उसे सहज ही
ूा हो जाता हँू |(14)
आॄ भुवनाल्लोकाः पुनरावितर्नोऽजुन
र् ।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनजर्न्म न िव ते।।16।।
हे अजुन
र् ! ॄ लोक सब लोक पुनरावत हैं , परन्तु हे कुन्तीपुऽ ! मुझको ूा होकर
पुनजर्न्म नहीं होता, क्योंिक मैं कालातीत हँू और ये सब ॄ ािद के लोक काल के ारा सीिमत
होने से अिनत्य हैं |(16)
सहॐयुगपयर्न्तमहयर्द्ॄ णो िवदः।
ु
रािऽं युगसह ान्तां तेऽहोराऽिवदो जनाः।।17।।
जो अव्य 'अक्षर' इस नाम से कहा गया है , उसी अक्षर नामक अव्य भाव को परम
गित कहते हैं तथा िजस सनातन अव्य भाव को ूा होकर मनुंय वापस नहीं आते, वह मेरा
परम धाम है |(21)
हे अजुन
र् ! िजस काल में शरीर त्याग कर गये हए
ु योगीजन तो वापस न लौटनेवाली
गित को और िजस काल में गये हए
ु वापस लौटनेवाली गित को ही ूा होते हैं , उस काल को
अथार्त ् दोनों माग को कहँू गा |(23)
िजस मागर् में धूमािभमानी दे वता है , रािऽ अिभमानी दे वता है तथा कृ ंणपक्ष का
अिभमानी दे वता है और दिक्षणायन के छः महीनों का अिभमानी दे वता है , उस मागर् में मरकर
गया हआ
ु सकाम कमर् करनेवाला योगी उपयुर् दे वताओं ारा बम से ले जाया हआ
ु चन्िमा की
ज्योित को ूा होकर ःवगर् में अपने शुभ कम का फल भोगकर वापस आता है |(25)
हे पाथर् ! इस ूकार इन दोनों माग को त व से जानकर कोई भी योगी मोिहत नहीं होता
| इस कारण हे अजुन
र् ! तू सब काल में समबुि रूप योग से यु हो अथार्त ् िनरन्तर मेरी ूाि
के िलए साधन करने वाला हो |(27)
।। अथ नवमोऽध्यायः ।।
ौीभगवानुवाच
इदं तु ते गु तमं ूवआयाम्यनसूयवे।
ज्ञानं िवज्ञानसिहतं यज्ज्ञात्वा मोआयसेऽशुभात।।
् 1।।
ौीभगवान बोलेः तुझ दोष दृि रिहत भ के िलए इस परम गोपनीय िवज्ञानसिहत ज्ञान
को पुनः भली भाँित कहँू गा, िजसको जानकर तू दःखरूप
ु संसार से मु हो जाएगा।(1)
राजिव ा राजगु ं पिवऽिमदमु मम।्
ूत्यक्षावगमं धम्य सुसख
ु ं कतुम
र् व्ययम।।
् 2।।
यह िवज्ञानसिहत ज्ञान सब िव ाओं का राजा, सब रहःयों का राजा, अित पिवऽ, अित
उ म, ूत्यक्ष फलवाला, धमर्यु साधन करने में बड़ा सुगम और अिवनाशी है ।(2)
अौ धानाः पुरुषा धमर्ःयाःय परं तप।
अूाप्य मां िनवतर्न्ते मृत्युसस
ं ारवत्मर्िन।।3।।
हे परं तप ! इस उपयुर् धमर् में ौ ारिहत पुरुष मुझको न ूा होकर मृत्युरूप संसारचब
में ॅमण करते रहते हैं ।
मया ततिमदं सव जगदव्य मूितर्ना।
मत्ःथािन सवर्भत
ू ािन न चाहं तेंवविःथतः।।4।।
मुझ िनराकार परमात्मा से यह सब जगत जल से बफर् से सदृश पिरपूणर् है और सब भूत
मेरे अन्तगर्त संकल्प के आधार िःथत हैं , िकन्तु वाःतव में मैं उनमें िःथत नहीं हँू ।(4)
न च मत्ःथािन भूतािन पँय मे योगमै रम।्
भूतभृन्न च भूतःथो ममात्मा भूतभावनः।।5।।
वे सब भूत मुझमें िःथत नहीं हैं , िकन्तु मेरी ई रीय योगशि को दे ख िक भूतों को
धारण-पोषण करने वाला और भूतों को उत्पन्न करने वाला भी मेरा आत्मा वाःतव में भूतों में
िःथत नहीं है ।(5)
यथाकाशिःथतो िनत्यं वायुः सवर्ऽगो महान।्
तथा सवार्िण भूतािन मत्ःथानीत्युपधारय।।6।।
जैसे आकाश से उत्पन्न सवर्ऽ िवचरने वाला महान वायु सदा आकाश में ही िःथत है ,
वैसे ही मेरे संकल्प ारा उत्पन्न होने से सम्पूणर् भूत मुझमें िःथत हैं , ऐसा जान।(6)
सवर्भत
ू ािन कौन्तेय ूकृ ितं यािन्त मािमकाम।्
कल्पक्षये पुनःतािन कल्पादौ िवसृजाम्यहम।।
् 7।।
हे अजुन
र् ! कल्पों के अन्त में सब भूत मेरी ूकृ ित को ूा होते हैं अथार्त ् ूकृ ित में
लीन होते हैं और कल्पों के आिद में उनको मैं िफर रचता हँू ।(7)
ूकृ ितं ःवामव भ्य िवसृजािम पुनः पुनः।
भूतमामिममं कृ त्ःनमवशं ूकृ तेवश
र् ात।।
्
अपनी ूकृ ित को अंगीकार करके ःवभाव के बल से परतन्ऽ हए
ु इस सम्पूणर् भूतसमुदाय
को बार-बार उनके कम के अनुसार रचता हँू ।(8)
न च मां तािन कमार्िण िनबध्निन्त धनंजय।
उदासीनवदासीनमस ं तेषु कमर्सु।।9।।
हे अजुन
र् ! उन कम में आसि रिहत और उदासीन के सदृश िःथत मुझ परमात्मा को
वे कमर् नहीं बाँधते।(9)
मयाध्यक्षेण ूकृ ितः सूयते सचराचरम।्
हे तुनानेन कौन्तेय जगि पिरवतर्ते।।10।।
हे अजुन
र् ! मुझ अिध ाता के सकाश से ूकृ ित चराचर सिहत सवर् जगत को रचती है
और इस हे तु से ही यह संसारचब घूम रहा है ।(10)
अवजानिन्त मां मूढा मानुषीं तनुमािौतम।्
परं भावमजानन्तो मम भूतमहे रम।।
् 11।।
मेरे परम भाव को न जानने वाले मूढ़ लोग मनुंय का शरीर धारण करने वाले मुझ
सम्पूणर् भूतों के महान ई र को तुच्छ समझते हैं अथार्त ् अपनी योगमाया से संसार के उ ार के
िलए मनुंयरूप में िवचरते हए
ु मुझ परमे र को साधारण मनुंय मानते हैं ।(11)
मोघाशा मोघकमार्णो मोघज्ञाना िवचेतसः।
राक्षसीमासुरीं चैव ूकृ ितं मोिहनीं िौताः।।12।।
वे व्यथर् आशा, व्यथर् कमर् और व्यथर् ज्ञानवाले िविक्ष िच अज्ञानीजन राक्षसी, आसुरी
और मोिहनी ूकृ ित को ही धारण िकये रहते हैं ।(12)
महात्मानःतु मां पाथर् दै वीं ूकृ ितमािौताः।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतािदमव्ययम।।
् 13।।
परन्तु हे कुन्तीपुऽ ! दै वी ूकृ ित के आिौत महात्माजन मुझको सब भूतों का सनातन
कारण और नाशरिहत अक्षरःवरूप जानकर अनन्य मन से यु होकर िनरन्तर भजते हैं ।(13)
(अनुबम)
(अनुबम)
।। अथ दशमोऽध्यायः ।।
ौीभगवानुवाच
भूय एव महाबाहो ौृणु मे परमं वचः।
य ेऽहं ूीयमाणाय वआयािम िहतकाम्यया।।1।।
ौी भगवान बोलेः हे महाबाहो ! िफर भी मेरे परम रहःय और ूभावयु वचन को सुन,
िजसे मैं तुझ अितशय ूेम रखनेवाले के िलए िहत की इच्छा से कहँू गा।(1)
मेरी उत्पि को अथार्त ् लीला से ूकट होने को न दे वता लोग जानते हैं और न महिषर्जन
ही जानते हैं , क्योंिक मैं सब ूकार से दे वताओं का और महिषर्यों का भी आिदकरण हँू ।(2)
सात महिषर्जन, चार उनसे भी पूवर् में होने वाले सनकािद तथा ःवायम्भुव आिद चौदह
मनु Ð ये मुझमें भाव वाले सब के सब मेरे संकल्प से उत्पन्न हए
ु हैं , िजनकी संसार में यह
सम्पूणर् ूजा है ।(6)
िनरन्तर मुझ में मन लगाने वाले और मुझमे ही ूाणों को अपर्ण करने वाले भ जन
मेरी भि की चचार् के ारा आपस में मेरे ूभाव को जानते हए
ु तथा गुण और ूभावसिहत मेरा
कथन करते हए
ु ही िनरन्तर सन्तु होते हैं , और मुझ वासुदेव मे ही िनरन्तर रमण करते हैं ।(9)
तेषामेवानुकम्पाथर्महमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावःथो ज्ञानदीपेन भाःवता।।11।।
हे अजुन
र् ! उनके ऊपर अनुमह करने के िलए उनके अन्तःकरण में िःथत हआ
ु मैं ःवयं
ही उनके अज्ञान जिनत अन्धकार को ूकाशमय त वज्ञानरूप दीपक के ारा न कर दे ता
हँू ।(11)
अजुन
र् उवाच
परं ॄ परं धाम पिवऽं परमं भवान।्
पुरुषं शा तं िदव्यमािददे वमजं िवभुम।।
् 12।।
आहःत्वामृ
ु षयः सव दे विषर्नार्रदःतथा।
अिसतो दे वलो व्यासः ःवयं चैव ॄवीिष मे।।13।।
अजुन
र् बोलेः आप परम ॄ , परम धाम और परम पिवऽ हैं , क्योंिक आपको सब ऋिषगण
सनातन, िदव्य पुरुष और दे वों का भी आिददे व, अजन्मा और सवर्व्यापी कहते हैं । वैसे ही दे विषर्
नारद तथा अिसत और दे वल ऋिष तथा महिषर् व्यास भी कहते हैं और आप भी मेरे ूित कहते
हैं ।(12,13)
हे केशव ! जो कुछ भी मेरे ूित आप कहते हैं , इस सबको मैं सत्य मानता हँू । हे
भगवान ! आपके लीलामय ःवरूप को न तो दानव जानते हैं और न दे वता ही।(14)
ौीभगवानुवाच
हन्त ते कथियंयािम िदव्या ात्मिवभूतयः।
ूाधान्यतः कुरुौे नाःत्यन्तो िवःतरःय मे।।19।।
ौी भगवान बोलेः हे कुरुौे ! अब मैं जो मेरी िवभूितयाँ हैं , उनको तेरे िलए ूधानता से
कहँू गा, क्योंिक मेरे िवःतार का अन्त नहीं है ।(19)
हे अजुन
र् ! मैं सब भूतों के हृदय में िःथत सबका आत्मा हँू तथा सम्पूणर् भूतों का आिद,
मध्य और अन्त भी मैं ही हँू ।(20)
मैं अिदित के बारह पुऽों में िवंणु और ज्योितयों में िकरणों वाला सूयर् हँू तथा उनचास
वायुदेवताओं का तेज और नक्षऽों का अिधपित चन्िमा हँू ।(21)
मैं वेदों में सामवेद हँू , दे वों में इन्ि हँू , इिन्ियों में मन हँू और भूतूािणयों की चेतना
अथार्त ् जीवन-शि हँू ।(22)
मैं एकादश रूिों में शंकर हँू और यक्ष तथा राक्षसों में धन का ःवामी कुबेर हँू । मैं आठ
वसुओं में अिग्न हँू और िशखरवाले पवर्तों में सुमेरू पवर्त हँू ।(23)
पुरोिहतों में मुिखया बृहःपित मुझको जान। हे पाथर् ! मैं सेनापितयों में ःकन्द और
जलाशयों में समुि हँू ।(24)
मैं महिषर्यों में भृगु और शब्दों में एक अक्षर अथार्त ् ओंकार हँू । सब ूकार के यज्ञों में
जपयज्ञ और िःथर रहने वालों में िहमालय पवर्त हँू ।(25)
अ त्थः सवर्वक्ष
ृ ाणां दे वष णां च नारदः।
गन्धवार्णां िचऽरथः िस ानां किपलो मुिनः।।26।।
मैं सब वृक्षों में पीपल का वृक्ष, दे विषर्यों में नारद मुिन, गन्धव में िचऽरथ और िस ों में
किपल मुिन हँू ।(26)
घोड़ों में अमृत के साथ उत्पन्न होने वाला उच्चैःौवा नामक घोड़ा, ौे हािथयों में ऐरावत
नामक हाथी और मनुंयों में राजा मुझको जान।(27)
मैं नागों में शेषनाग और जलचरों का अिधपित वरुण दे वता हँू और िपंजरों में अयर्मा
नामक िपतर तथा शासन करने वालों में यमराज मैं हँू ।(29)
ू ाद ािःम दै त्यानां कालः कलयतामहम।्
मृगाणां च मृगेन्िोऽहं वैनतेय पिक्षणाम।।
् 30।।
मैं दै त्यों में ू ाद और गणना करने वालों का समय हँू तथा पशुओं में मृगराज िसंह और
पिक्षयों में मैं गरुड़ हँू ।(30)
पवनः पवतामिःम रामः श भृतामहम।्
झषाणां मकर ािःम ॐोतसामिःम जा वी।।31।।
मैं पिवऽ करने वालों में वायु और श धािरयों में ौीराम हँू तथा मछिलयों में मगर हँू
और निदयों में ौीभागीरथी गंगाजी हँू ।(31)
हे अजुन
र् ! सृि यों का आिद और अन्त तथा मध्य भी मैं ही हँू । मैं िव ाओं में
अध्यात्मिव ा अथार्त ् ॄ िव ा और परःपर िववाद करने वालों का त व-िनणर्य के िलए िकया
जाने वाला वाद हँू ।(32)
अक्षराणामकारोऽिःम न् ः सामािसकःय च।
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं िव तोमुखः।।33।।
मैं अक्षरों में अकार हँू और समासों में न् नामक समास हँू । अक्षयकाल अथार्त ् काल का
भी महाकाल तथा सब ओर मुखवाला, िवराटःवरूप, सबका धारण-पोषण करने वाला भी मैं ही
हँू ।(33)
मैं सबका नाश करने वाला मृत्यु और उत्पन्न होने वालों का उत्पि हे तु हँू तथा ि यों
में कीितर्, ौी, वाक् , ःमृित, मेधा, धृित और क्षमा हँू ।(34)
तथा गायन करने योग्य ौुितयों में मैं बृहत्साम और छन्दों में गायऽी छन्द हँू तथा
महीनों में मागर्शीषर् और ऋतुओं में वसन्त मैं हँू ।(36)
त
ू ं छलयतामिःम तेजःतेजिःवनामहम।्
जयोऽिःम व्यवसायोऽिःम स वं स ववतामहम।।
् 36।।
मैं छल करने वालों में जुआ और ूभावशाली पुरुषों का ूभाव हँू । मैं जीतने वालों का
िवजय हँू , िन य करने वालों का िन य और साि वक पुरुषों का साि वक भाव हँू ।(36)
वृिंणवंिशयों में वासुदेव अथार्त ् मैं ःवयं तेरा सखा, पाण्डवों में धनंजय अथार्त ् तू, मुिनयों
में वेदव्यास और किवयों में शुबाचायर् किव भी मैं ही हँू ।(37)
मैं दमन करने वालों का दण्ड अथार्त ् दमन करने की शि हँू , जीतने की इच्छावालों की
नीित हँू , गु रखने योग्य भावों का रक्षक मौन हँू और ज्ञानवानों का त वज्ञान मैं ही हँू ।(38)
यच्चािप सवर्भत
ू ानां बीजं तदहमजुन
र् ।
न तदिःत िवना यत्ःयान्मया भूतं चराचरम।।
् 39।।
और हे अजुन
र् ! जो सब भूतों की उत्पि का कारण है , वह भी मैं ही हँू , क्योंिक ऐसा चर
और अचर कोई भी भूत नहीं है , जो मुझसे रिहत हो।(39)
हे परं तप ! मेरी िदव्य िवभूितयों का अन्त नहीं है , मैंने अपनी िवभूितयों का यह िवःतार
तो तेरे िलए एकदे श से अथार्त ् संक्षेप से कहा है ।(40)
य ि भूितमत्स वं ौीमदिजर्
ू तमेव वा।
त दे वावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम।।
् 41।।
अथवा हे अजुन
र् ! इस बहत
ु जानने से तेरा क्या ूयोजन है ? मैं इस सम्पूणर् जगत को
अपनी योगशि के एक अंशमाऽ से धारण करके िःथत हँू ।(42)
ॐ तत्सिदित ौीमद् भगवद् गीतासूपिनषत्सु ॄ िव ायां योगशा े
ौीकृ ंणाजुन
र् संवादे िवभूितयोगो नाम दशमोऽध्यायः।।10।।
इस ूकार उपिनषद, ॄ िव ा तथा योगशा रूप ौीमद् भगवद् गीता के
ौीकृ ंण-अजुन
र् संवाद में 'िवभूितयोग' नामक दसवाँ अध्याय संपूणर् हआ।
ु
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
(अनुबम)
।। अथैकादशोऽध्यायः ।।
अजुन
र् उवाच
मदनुमहाय परमं गु मध्यात्मसंिज्ञतम।्
य वयो ं वचःतेन मोहोऽयं िवगतो मम।।1।।
अजुन
र् बोलेः मुझ पर अनुमह करने के िलए आपने जो परम गोपनीय अध्यात्मिवषयक
वचन अथार्त ् उपदे श कहा, उससे मेरा यह अज्ञान न हो गया है ।(1)
भवाप्ययौ िह भूतानां ौुतौ िवःतरशो मया।
त्व ः कमलपऽाक्ष माहात्म्यमिप चाव्ययम।।
् 2।।
क्योंिक हे कमलनेऽ ! मैंने आपसे भूतों की उत्पि और ूलय िवःतारपूवक
र् सुने हैं तथा
आपकी अिवनाशी मिहमा भी सुनी है ।
एवमेत थात्थ त्वमात्मानं परमे र।
ि ु िमच्छािम ते रूपमै रं पुरुषो म।।3।।
हे परमे र ! आप अपने को जैसा कहते हैं , यह ठीक ऐसा ही है परन्तु हे पुरुषो म !
आपके ज्ञान, ऐ यर्, शि , बल, वीयर् और तेज से यु ऐ यर्मय-रूप को मैं ूत्यक्ष दे खना
चाहता हँू ।(3)
मन्यसे यिद तच्छक्यं मया ि ु िमित ूभो।
योगे र ततो मे त्वं दशर्यात्मानमव्ययम।।
् 4।।
हे ूभो ! यिद मेरे ारा आपका वह रूप दे खा जाना शक्य है Ð ऐसा आप मानते हैं , तो
हे योगे र ! उस अिवनाशी ःवरूप का मुझे दशर्न कराइये।(4)
ौीभगवानुवाच
पँय मे पाथर् रूपािण शतशोऽथ सहॐशः।
नानािवधािन िदव्यािन नानावणार्कृतीिन च।।5।।
ौी भगवान बोलेः हे पाथर् ! अब तू मेरे सैंकड़ों-हजारों नाना ूकार के और नाना वणर् तथा
नाना आकृ ित वाले अलौिकक रूपों को दे ख।(5)
पँयिदत्यान्वसून ् रुिानि नौ मरुतःतथा।
बहन्यदृ
ू पूवार्िण पँया यार्िण भारत।।6।।
हे भरतवंशी अजुन
र् ! तू मुझमें आिदत्यों को अथार्त ् अिदित के ादश पुऽों को, आठ
वसुओं को, एकादश रुिों को, दोनों अि नीकुमारों को और उनचास मरुदगणों को दे ख तथा और
भी बहत
ु से पहले न दे खे हए
ु आ यर्मय रूपों को दे ख।(6)
इहै कःथं जगत्कृ त्ःनं पँया सचराचरम।्
मम दे हे गुडाकेश यच्चान्यद्ि ु िमच्छिस।।7।।
हे अजुन
र् ! अब इस मेरे शरीर में एक जगह िःथत चराचरसिहत सम्पूणर् जगत को दे ख
तथा और भी जो कुछ दे खना चाहता है सो दे ख।(7)
न तु मां शक्यसे ि ु मनेनैव ःवचक्षुषा।
िदव्यं ददािम ते चक्षुः पँय मे योगमै रम।।
् 8।।
परन्तु मुझको तू इन अपने ूाकृ त नेऽों ारा दे खने में िनःसंदेह समथर् नहीं है । इसी से मैं
तुझे िदव्य अथार्त ् अलौिकक चक्षु दे ता हँू । इससे तू मेरी ई रीय योगशि को दे ख।(8)
संजय उवाच
एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगे रो हिरः।
दशर्यामास पाथार्य परमं रूपमै रम।।
् 9।।
अनेकवक्ऽनयनमनेका तदशर्
ु नम।्
अनेकिदव्याभरणं िदव्यानेको तायुधम।।
् 10।।
िदव्यमाल्याम्बरधरं िदव्यगन्धानुलेपनम।्
सवार् यर्मयं दे वमनन्तं िव तोमुखम।।
् 11।।
संजय बोलेः हे राजन ! महायोगे र और सब पापों के नाश करने वाले भगवान ने इस
ूकार कहकर उसके प ात ् अजुन
र् को परम ऐ यर्यु िदव्य ःवरूप िदखलाया। अनेक मुख और
नेऽों से यु , अनेक अदभुत दशर्नोंवाले, बहत
ु से िदव्य भूषणों से यु और बहत
ु से िदव्य श ों
को हाथों में उठाये हए
ु , िदव्य माला और व ों को धारण िकये हए
ु और िदव्य गन्ध का सारे
शरीर में लेप िकये हए
ु , सब ूकार के आ य से यु , सीमारिहत और सब ओर मुख िकये हए
ु
िवराटःवरूप परमदे व परमे र को अजुन
र् ने दे खा। (9,10,11)
िदिव सूयस
र् हॐःय भवे ग
ु पदित्थता।
ु
यिद भाः सदृशी सा ःयाद् भासःतःय महात्मनः।।12।।
आकाश में हजार सूय के एक साथ उदय होने से उत्पन्न जो ूकाश हो, वह भी उस
िव रूप परमात्मा के ूकाश के सदृश कदािचत ् ही हो।(12)
तऽैकःथं जगत्कृ त्ःनं ूिवभ मनेकधा।
अपशय े वदे वःय शरीरे पाण्डवःतदा।।13।।
पाण्डु पुऽ अजुन
र् ने उस समय अनेक ूकार से िवभ अथार्त ् पृथक-पृथक, सम्पूणर् जगत
को दे वों के दे व ौीकृ ंण भगवान के उस शरीर में एक जगह िःथत दे खा।(13)
ततः स िवःमयािव ो हृ रोमा धनंजयः।
ूणम्य िशरसा दे वं कृ तांजिलरभाषत।।14।।
उसके अनन्तर वे आ यर् से चिकत और पुलिकत शरीर अजुन
र् ूकाशमय िव रूप
परमात्मा को ौ ा-भि सिहत िसर से ूणाम करके हाथ जोड़कर बोलेः।(14)
अजुन
र् उवाच
पँयािम दे वांःतव दे व दे हे
सवार्ःतथा भूतिवशेषसंघान।्
ॄ ाणमीशं कमलासनःथ-
मृषीं सवार्नुरगां िदव्यान।।
् 15।।
अजुन
र् बोलेः हे दे व ! मैं आपके शरीर में सम्पूणर् दे वों को तथा अनेक भूतों के समुदायों
को कमल के आसन पर िवरािजत ॄ ा को, महादे व को और सम्पूणर् ऋिषयो को तथा िदव्य सप
को दे खता हँू ।(15)
अनेकबाहदरवक्ऽने
ू ऽं
पँयािम त्वां सवर्तोऽनन्तरूपम।्
नान्तं न मध्यं न पुनःतवािदं
पँयािम िव े र िव रूप।।16।।
हे सम्पूणर् िव के ःवािमन ् ! आपको अनेक भुजा, पेट, मुख और नेऽों से यु तथा सब
ओर से अनन्त रूपों वाला दे खता हँू । हे िव रूप ! मैं आपके न तो अन्त को दे खता हँू , न मध्य
को और न आिद को ही।(16)
िकरीिटनं गिदनं चिबणं च
तेजोरािशं सवर्तो दीि मन्तम।्
पँयािम त्वां दिनर्
ु रीआयं समन्ता-
ी ानलाकर् िु तमूमेयम।।
् 17।।
आपको मैं मुकुटयु , गदायु और चबयु तथा सब ओर से ूकाशमान तेज के पुंज,
ूज्विलत अिग्न और सूयर् के सदृश ज्योितयु , किठनता से दे खे जाने योग्य और सब ओर से
अूमेयःवरूप दे खता हँू ।(17)
त्वमक्षरं परमं वेिदतव्यं
त्वमःय िव ःय परं िनधानम।्
त्वमव्ययः शा तधमर्गो ा
सनातनःत्वं पुरुषो मतो मे।।18।।
आप ही जानने योग्य परम अक्षर अथार्त ् परॄ परमात्मा हैं , आप ही इस जगत के परम
आौय हैं , आप ही अनािद धमर् के रक्षक हैं और आप ही अिवनाशी सनातन पुरुष हैं । ऐसा मेरा
मत है ।(18)
अनािदमध्यान्तमनन्तवीयर्-
मनन्तबाहंु शिशसूयन
र् ेऽम।्
पँयािम त्वां दी हताशवक्ऽं
ु
ःवतेजसा िव िमदं तपन्तम।।
् 19।।
आपको आिद, अन्त और मध्य से रिहत, अनन्त सामथ्यर् से यु , अनन्त भुजावाले,
चन्ि-सूयरू
र् प नेऽोंवाले, ूज्जविलत अिग्नरूप मुखवाले और अपने तेज से इस जगत को संत
करते हए
ु दे खता हँू ।(19)
ावापृिथव्योिरदमन्तरं िह
व्या ं त्वयैकेन िदश सवार्ः।
दृंट्वादभुतं रूपमुमं तवेदं
लोकऽयं ूव्यिथतं महात्मन।।
् 20।।
हे महात्मन ् ! यह ःवगर् और पृथ्वी के बीच का सम्पूणर् आकाश तथा सब िदशाएँ एक
आपसे ही पिरपूणर् हैं तथा आपके इस अलौिकक और भयंकर रूप को दे खकर तीनों लोक अित
व्यथा को ूा हो रहे हैं ।(20)
ौीभगवानुवाच
मया ूसन्नेन तवाजुन
र् ेदं
रूपं परं दिशर्तमात्मयोगात।्
तेजोमयं िव मनन्तमा ं
यन्मे त्वदन्येन न दृ पूवम
र् ।।
् 47।।
ौीभगवान बोलेः हे अजुन
र् ! अनुमहपूवक
र् मैंने अपनी योगशि के ूभाव से यह मेरा
परम तेजोमय, सबका आिद और सीमारिहत िवराट रूप तुझको िदखलाया है , िजसे तेरे अितिर
दसरे
ू िकसी ने नहीं दे खा था।(47)
न वेदयज्ञाध्ययनैनर् दानै-
नर् च िबयािभनर् तपोिभरुमैः।
एवंरूपः शक्य अहं नृलोके
ि ु ं त्वदन्येन कुरुूवीर।।48।।
हे अजुन
र् ! मनुंयलोक में इस ूकार िव रूपवाला मैं न वेद और यज्ञों के अध्ययन से,
न दान से, न िबयाओं से और न उम तपों से ही तेरे अितर दसरे
ू के ारा दे खा जा सकता
हँू ।(48)
मा ते व्यथा मा च िवमूढभावो
दृंट्वा रूपं घोरमीदृङममेदम।्
व्यपेतभीः ूीतमनाः पुनःत्वं
तदे व मे रूपिमदं ूपँय।।49।।
मेरे इस ूकार के इस िवकराल रूप को दे खकर तुझको व्याकुलता नहीं होनी चािहए और
मूढ़भाव भी नहीं होना चािहए। तू भयरिहत और ूीितयु मनवाला होकर उसी मेरे शंख-चब-
गदा-प यु चतुभज
ुर् रूप को िफर दे ख।(49)
संजय उवाच
इत्यजुन
र् ं वासुदेवःतथोक्त्वा
ःवकं रूपं दशर्यामास भूयः।
आ ासयामास च भीतमेनं
भूत्वा पुनः सौम्यवपुमह
र् ात्मा।।50।।
संजय बोलेः वासुदेव भगवान ने अजुन
र् के ूित इस ूकार कहकर िफर वैसे ही अपने
चतुभज
ुर् रूप को िदखलाया और िफर महात्मा ौीकृ ंण ने सौम्यमूितर् होकर इस भयभीत अजुन
र्
को धीरज बंधाया।(50)
अजुन
र् उवाच
दृंट्वेदं मानुषं रूपं सौम्यं जनादर् न।
इदानीमिःम संव ृ ः सचेताः ूकृ ितं गतः।।51।।
अजुन
र् बोलेः हे जनादर् न ! आपके इस अित शान्त मनुंयरूप को दे खकर अब मैं िःथरिच
हो गया हँू और अपनी ःवाभािवक िःथित को ूा हो गया हँू ।(51)
ौीभगवानुवाच
सुददर्ु शिर् मदं रूपं दृ वानिस यन्मम।
दे वा अप्यःय रूपःय िनत्यं दशर्नकांिक्षणः।।52।।
ौी भगवान बोलेः मेरा जो चतुभज
ुर् रूप तुमने दे खा है , यह सुदद
ु र् शर् है अथार्त ् इसके दशर्न
बड़े ही दलर्
ु भ हैं । दे वता भी सदा इस रूप के दशर्न की आकांक्षा करते रहते हैं ।(52)
नाहं वेदैनर् तपसा न दानेन न चेज्यया।
शक्य एवंिवधो ि ु ं दृ वानिस मां यथा।।53।।
िजस ूकार तुमने मुझे दे खा है Ð इस ूकार चतुभज
ुर् रूपवाला मैं न तो वेदों से, न तप से,
न दान से, और न यज्ञ से ही दे खा जा सकता हँू ।(53)
भ या त्वनन्यया शक्य अहमेवंिवधोऽजुन
र् ।
ज्ञातुं ि ु ं च त वेन ूवे ु ं च परं तप।।54।।
परन्तु हे परं तप अजुन
र् ! अनन्य भि के ारा इस ूकार चतुभज
ुर् रूपवाला मैं ूत्यक्ष
दे खने के िलए त व से जानने के िलए तथा ूवेश करने के िलए अथार्त ् एकीभाव से ूा होने के
िलए भी शक्य हँू ।(54)
मत्कमर्कृन्मत्परमो म : संगविजर्तः।
िनवरः सवर्भत
ू ेषु यः स मामेित पाण्डव।।55।।
हे अजुन
र् ! जो पुरुष केवल मेरे ही िलए सम्पूणर् कतर्व्यकम को करने वाला है , मेरे
परायण है , मेरा भ है , आसि रिहत है और सम्पूणर् भूतूािणयों में वैरभाव से रिहत है , वह
अनन्य भि यु पुरुष मुझको ही ूा होता है ।(55)
ॐ तत्सिदित ौीमद् भगवद् गीतासूपिनषत्सु ॄ िव ायां योगशा े
ौीकृ ंणाजुन
र् संवादे िव रूपदशर्नयोगो नाम एकादशोऽध्यायः ।।11।।
इस ूकार उपिनषद, ॄ िव ा तथा योगशा रूप ौीमद् भगवद् गीता के
ौीकृ ंण-अजुन
र् संवाद में िव रूपदशर्नयोग नामक ग्यारहवाँ अध्याय संपण
ू र् हआ।
ु
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
(अनुबम)
।। अथ ादशोऽध्यायः ।।
अजुन
र् उवाच
एवं सततयु ा ये भ ाःत्वां पयुप
र् ासते।
ये चाप्यक्षरमव्य ं तेषां के योगिव माः।।1।।
अजुन
र् बोलेः जो अनन्य ूेमी भ जन पूव ूकार िनरन्तर आपके भजन ध्यान में लगे
रहकर आप सगुणरूप परमे र को और दसरे
ू जो केवल अिवनाशी सिच्चदानन्दघन िनराकार ॄ
को ही अित ौे भाव से भजते हैं Ð उन दोनों ूकार के उपासकों में अित उ म योगवे ा कौन
हैं ?
ौीभगवानुवाच
मय्यावेँय मनो ये मां िनत्ययु ा उपासते।
ौ या परयोपेताःते मे यु तमा मताः।।2।।
ौी भगवान बोलेः मुझमें मन को एकाम करके िनरन्तर मेरे भजन-ध्यान में लगे हए
ु जो
भ जन अितशय ौे ौ ा से यु होकर मुझ सगुणरूप परमे र को भजते हैं , वे मुझको
योिगयों में अित उ म योगी मान्य हैं ।(2)
ये त्वक्षरमिनदँयमव्य ं पयुप
र् ासते।
सवर्ऽगमिचन्त्यं च कूटःथमचलं ीुवम।।
् 3।।
संिनयम्येिन्िमामं सवर्ऽ समबु यः
ते ूाप्नुविन्त मामेव सवर्भत
ू िहते रताः।।4।।
क्लेशोऽिधकतरःतेषामव्य ास चेतसाम।्
अव्य ा िह गितदर् ःु खं दे हवि रवाप्यते।।5।।
परन्तु जो पुरुष इिन्ियों के समुदाय को भली ूकार वश में करके मन बुि से परे
सवर्व्यापी, अकथीनयःवरूप और सदा एकरस रहने वाले, िनत्य, अचल, िनराकार, अिवनाशी,
सिच्चदानन्दघन ॄ को िनरन्तर एकीभाव से ध्यान करते हए
ु भजते हैं , वे सम्पूणर् भूतों के िहत
में रत और सब में समान भाववाले योगी मुझको ही ूा होते हैं । उन सिच्चदानन्दघन िनराकार
ॄ में आस िच वाले पुरुषों के साधन में पिरौम िवशेष है , क्योंिक दे हािभमािनयों के ारा
अव्य -िवषयक गित दःखपू
ु वक
र् ूा की जाित है ।(3,4,5)
परन्तु जो मेरे परायण रहने वाले भ जन सम्पूणर् कम को मुझे अपर्ण करके मुझ
सगुणरूप परमे र को ही अनन्य भि योग से िनरन्तर िचन्तन करते हए
ु भजते हैं । हे अजुन
र् !
उन मुझमें िच लगाने वाले ूेमी भ ों का मैं शीय ही मृत्युरूप संसार-समुि से उ ार करने
वाला होता हँू ।(6,7)
यिद तू उपयुर् अभ्यास में भी असमथर् है तो केवल मेरे िलए कमर् करने के ही परायण
हो जा। इस ूकार मेरे िनिम कम को करता हआ
ु भी मेरी ूाि रूप िसि को ही ूा
होगा।(10)
यिद मेरी ूाि रूप योग के आिौत होकर उपयुर् साधन को करने में भी तू असमथर् है
तो मन बुि आिद पर िवजय ूा करने वाला होकर सब कम के फल का त्याग कर।(11)
अ े ा सवर्भत
ू ानां मैऽः करुण एव च।
िनमर्मो िनरहं कारः समदःखसु
ु खः क्षमी।।13।।
संतु ः सततं योगी यतात्मा दृढिन यः।
मय्यिपर्तमनोबुि य मद् भ ः स मे िूयः।।14।।
जो पुरुष सब भूतों में े षभाव से रिहत, ःवाथर्रिहत, सबका ूेमी और हे तुरिहत दयालु है
तथा ममता से रिहत, अहं कार से रिहत, सुख-दःखों
ु की ूाि में सम और क्षमावान है अथार्त ्
अपराध करने वाले को भी अभय दे ने वाला है , तथा जो योगी िनरन्तर सन्तु है , मन इिन्ियों
सिहत शरीर को वश में िकये हए
ु हैं और मुझमें दृढ़ िन यवाला है Ð वह मुझमें अपर्ण िकये हए
ु
मन -बुि वाला मेरा भ मुझको िूय है ।(13,14)
ये तु धम्यार्मत
ृ िमदं यथो ं पयुप
र् ासते।
ौ धाना मत्परमा भ ाःतेऽतीव मे िूयाः।।20।।
अनुबम
।। अथ ऽयोदशोऽध्यायः ।।
ौीभगवानुवाच
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेऽिमत्यिभधीयते।
एत ो वेि तं ूाहःु क्षेऽज्ञ इित ति दः।।1।।
हे अजुन
र् ! तू सब क्षेऽों में क्षेऽज्ञ अथार्त ् जीवात्मा भी मुझे ही जान और क्षेऽ-क्षेऽज्ञ को
अथार्त ् िवकारसिहत ूकित का और पुरुष का जो त व से जानना है , वह ज्ञान है Ð ऐसा मेरा
मत है ।(2)
पाँच महाभूत, अहं कार, बुि और मूल ूकृ ित भी तथा दस इिन्ियाँ, एक मन और पाँच
इिन्ियों के िवषय अथार्त ् शब्द, ःपशर्, रूप, रस और गन्ध तथा इच्छा, े ष, सुख-दःख
ु , ःथूल दे ह
का िपण्ड, चेतना और धृित Ð इस ूकार िवकारों के सिहत यह क्षेऽ संक्षेप से कहा गया।(5,6)
अमािनत्वदिम्भत्वमिहं सा क्षािन्तराजर्वम।्
आचाय पासनं शौचं ःथैयम
र् ात्मिविनमहः।।7।।
इिन्ियाथषु वैराग्यमनहं कार एव च।
जन्ममृत्युजराव्यािधदःखदोषानु
ु दशर्नम।।
् 8।।
असि रनिभंवंगः पुऽदारगृहािदषु।
िनत्यं च समिच त्विम ािन ोपपि षु।।9।।
मिय चानन्ययोगेन भि रव्यिभचािरणी।
िविव दे शसेिवत्वमरितजर्नसंसिद।।10।।
अध्यात्मज्ञानिनत्यत्वं त वज्ञानाथर्दशर्नम।्
एतज्ज्ञानिमित ूो मज्ञानं यदतोऽन्यथा।।11।।
जो जानने योग्य हैं तथा िजसको जानकर मनुंय परमानन्द को ूा होता है , उसको
भलीभाँित कहँू गा। वह अनािद वाला परॄ न सत ् ही कहा जाता है , न असत ् ही।(12)
सविन्ियगुणाभासं सविन्ियिवविजर्तम।्
अस ं सवर्भच्
ृ चैव िनगुण
र् ं गुणभो ृ च।।14।।
इस ूकार क्षेऽ तथा ज्ञान और जानने योग्य परमात्मा का ःवरूप संक्षेप से कहा गया।
मेरा भ इसको त व से जानकर मेरे ःवरूप को ूा होता है ।(18)
कायर् और करण को उत्पन्न करने में हे तु ूकृ ित कही जाती है और जीवात्मा सुख-दःखों
ु
के भो ापन में अथार्त ् भोगने में हे तु कहा जाता है ।(20)
इस दे ह में िःथत वह आत्मा वाःतव में परमात्मा ही है । वही साक्षी होने से उपि ा और
यथाथर् सम्मित दे ने वाला होने से अनुमन्ता, सबका धारण-पोषण करने वाला होने से भतार्,
जीवरूप से भो ा, ॄ ा आिद का भी ःवामी होने से महे र और शु सिच्चदानन्दघन होने से
परमात्मा-ऐसा कहा गया है ।(22)
य एवं वेि पुरुषं ूकृ ितं च गुणःै सह।
सवर्था वतर्मानोऽिप न स भूयोऽिभजायते।।23।।
हे अजुन
र् ! यावन्माऽ िजतने भी ःथावर-जंगम ूाणी उत्पन्न होते हैं , उन सबको तू क्षेऽ
और क्षेऽज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न जान।(26)
जो पुरुष न होते हए
ु सब चराचर भूतों में परमे र को नाशरिहत और समभाव से िःथत
दे खता है , वही यथाथर् दे खता है ।(27)
यदा भूतपृथग्भावमेकःथमनुपँयित।
तत एव च िवःतारं ॄ सम्प ते तदा।।30।।
िजस क्षण यह पुरुष भूतों पृथक-पृथक भाव को एक परमात्मा में ही िःथत तथा उस
परमात्मा से ही सम्पूणर् भूतों का िवःतार दे खता है , उसी क्षण वह सिच्चदानन्दघन ॄ को ूा
हो जाता है ।(30)
अनािदत्वािन्नगुण
र् त्वात्परमात्मायमव्ययः।
शरीरःथोऽिप कौन्तेय न करोित न िलप्यते।।31।।
हे अजुन
र् ! अनािद होने से और िनगुण
र् होने से यह अिवनाशी परमात्मा शरीर में िःथत
होने पर भी वाःतव में न तो कुछ करता है और न िल ही होता है ।(31)
िजस ूकार सवर्ऽ व्या आकाश सूआम होने के कारण िल नहीं होता, वैसे ही दे ह में
सवर्ऽ िःथत आत्मा िनगुण
र् होने के कारण दे ह के गुणों से िल नहीं होता।(32)
हे अजुन
र् ! िजस ूकार एक ही सूयर् इस सम्पूणर् ॄ ाण्ड को ूकािशत करता है , उसी
ूकार एक ही आत्मा सम्पूणर् क्षेऽ को ूकािशत करता है ।(33)
क्षेऽक्षेऽज्ञयोरे वमन्तरं ज्ञानचक्षुषा।
भूतूकृ ितमोक्षं च ये िवदयार्
ु िन्त ते परम।।
् 34।।
(अनुबम)
।। अथ चतुदर्शोऽध्यायः ।।
ौीभगवानुवाच
परं भूयः ूवआयािम ज्ञानानां ज्ञानमु मम।्
यज्ज्ञात्वा मुनयः सव परां िसि िमतो गताः।।1।।
ौी भगवान बोलेः ज्ञानों में भी अित उ म उस परम ज्ञान को मैं िफर कहँू गा, िजसको
जानकर सब मुिनजन इस संसार से मु होकर परम िसि को ूा हो गये हैं ।(1)
हे अजुन
र् ! मेरी महत ्-ॄ रूप मूल ूकृ ित सम्पूणर् भूतों की योिन है अथार्त ् गभार्धान का
ःथान है और मैं उस योिन में चेतन समुदायरूप को ःथापन करता हँू । उस जड़-चेतन के संयोग
से सब भूतों की उत्पि होती है ।(3)
हे अजुन
र् ! नाना ूकार की सब योिनयों में िजतनी मूितर्याँ अथार्त ् शरीरधारी ूाणी
उत्पन्न होते हैं , ूकृ ित तो उन सबकी गभर् धारण करने वाली माता है और मैं बीज का ःथापन
करने वाला िपता हँू ।(4)
हे अजुन
र् ! स वगुण, रजोगुण और तमोगुण Ð ये ूकृ ित से उत्पन्न तीनों गुण अिवनाशी
जीवात्मा को शरीर में बाँधते हैं ।(5)
तऽ स वं िनमर्लत्वात्ूकाशकमनामयम।्
सुखसंगेन बध्नाित ज्ञानसंगेन चानघ।।6।।
हे िनंपाप ! उन तीनों गुणों में स वगुण तो िनमर्ल होने के कारण ूकाश करने वाला
और िवकार रिहत है , वह सुख के सम्बन्ध से और ज्ञान के सम्बन्ध से अथार्त ् अिभमान से
बाँधता है ।(6)
हे अजुन
र् ! रागरूप रजोगुण को कामना और आसि से उत्पन्न जान। वह इस जीवात्मा
को कम के और उनके फल के सम्बन्ध से बाँधता है । सब दे हािभमािनयों को मोिहत करने वाले
तमोगुण को तो अज्ञान से उत्पन्न जान। वह इस जीवात्मा को ूमाद, आलःय और िनिा के
ारा बाँधता है ।(7,8)
हे अजुन
र् ! स व गुण सुख में लगाता है और रजोगुण कमर् में तथा तमोगुण तो ज्ञान को
ढककर ूमाद में लगाता है ।(9)
हे अजुन
र् ! रजोगुण और तमोगुण को दबाकर स वगुण, स वगुण और तमोगुण को
दबाकर रजोगुण, वैसे ही स वगुण और रजोगुण को दबाकर तमोगुण होता है अथार्त ् बढ़ता
है ।(10)
सवर् ारे षु दे हेऽिःमन्ूकाश उपजायते।
ज्ञानं यदा तदा िव ाि वृ ं स विमत्युत।।11।।
हे अजुन
र् ! रजोगुण के बढ़ने पर लोभ, ूवृि , ःवाथर्बुि से कम का सकामभाव से
आरम्भ, अशािन्त और िवषयभोगों की लालसा Ð ये सब उत्पन्न होते हैं ।(12)
हे अजुन
र् ! तमोगुण के बढ़ने पर अन्तःकरण व इिन्ियों में अूकाश, कतर्व्य-कम में
अूवृि और ूमाद अथार्त ् वयथर् चे ा और िनिािद अन्तःकरण की मोिहनी वृि याँ Ð ये सभी
उत्पन्न होते हैं ।(13)
स वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है और रजोगुण से िनःसंदेह लोभ तथा तमोगुण से ूमाद
और मोह उत्पन्न होते हैं और अज्ञान भी होता है ।(17)
स वगुण में िःथत पुरुष ःवगार्िद उच्च लोकों को जाते हैं , रजोगुण में िःथत राजस पुरुष
मध्य में अथार्त ् मनुंयलोक में ही रहते हैं और तमोगुण के कायर्रूप िनिा, ूमाद और
आलःयािद में िःथत तामस पुरुष अधोगित को अथार्त ् कीट, पशु आिद नीच योिनयों को तथा
नरकों को ूा होते हैं ।(18)
िजस समय ि ा तीनो गुणों के अितिर अन्य िकसी को कतार् नहीं दे खता और तीनों
गुणों से अत्यन्त परे सिच्चदानन्दघनःवरूप मुझ परमात्मा को त व से जानता है , उस समय
वह मेरे ःवरूप को ूा होता है ।(19)
अजुन
र् उवाच
कैिलर्गै ीन्गुणानेतानतीतो भवित ूभो।
िकमाचारः कथं चैतां ीन्गुणानितवतर्ते।।21।।
अजुन
र् बोलेः इन तीनों गुणों से अतीत पुरुष िकन-िकन लक्षणों से यु होता है और िकस
ूकार के आचरणों वाला होता है तथा हे ूभो ! मनुंय िकस उपाय से इन तीनों गुणों से अतीत
होता है ।
ौीभगवानुवाच
ूकाशं च ूवृि ं च मोहमेव च पाण्डव।
न ेि संूवृ ािन न िनवृ ािन कांक्षित।।22।।
उदासीनवदासीनो गुणय
ै न िवचाल्यते।
गुणा वतर्न्त इत्ये योऽवित ित नेंगते।।23।।
समदःखसु
ु खः ःवःथः समलो ाँमकांचनः।
तुल्यिूयािूयो धीरःतुल्यिनन्दात्मसंःतुित:।24।।
मानापमानयोःतुल्यःतुल्यो िमऽािरपक्षयोः।
सवार्रम्भपिरत्यागी गुणातीतः स उच्यते।।25।।
ॄ णो िह ूित ाहममृतःयाव्ययःय च।
शा तःय च धमर्ःय सुखःयैकािन्तकःय च।।27।।
।। अथ पंचदशोऽध्यायः ।।
ौीभगवानुवाच
ऊध्वर्मल
ू मधःशाखम त्थं ूाहरव्ययम।
ु ्
छन्दांिस यःय पणार्िन यःतं वेद स वेदिवत।।
् 1।।
ौी भगवान बोलेः आिदपुरुष परमे ररूप मूलवाले और ॄ ारूप मुख्य शाखावाले िजस
संसाररूप पीपल के वृक्ष को अिवनाशी कहते हैं , तथा वेद िजसके प े कहे गये हैं Ð उस संसाररूप
वृक्ष को जो पुरुष मूलसिहत त व से जानता है , वह वेद के तात्पयर् को जानने वाला है ।(1)
।। अथ षोडशोऽध्यायः ।।
ौीभगवानुवाच
अभयं स वसंशुि ज्ञार्नयोगव्यविःथितः।
दानं दम यज्ञ ःवाध्यायःतप आजर्वम।।
् 1।।
अिहं सा सत्यम्बोधःत्यागः शािन्तरपैशुनम।्
दया भूतेंवलोलु वं मादर् वं ीरचापलम।।
् 2।।
तेजः क्षमा धृितः शौचमिोहो नाितमािनता।
भविन्त सम्पदं दै वीमिभजातःय भारत।।3।।
ौी भगवान बोलेः भय का सवर्था अभाव, अन्तःकरण की पूणर् िनमर्लता, त वज्ञान के
िलए ध्यानयोग में िनरन्तर दृढ़ िःथित और साि वक दान, इिन्ियों का दमन, भगवान, दे वता
और गुरुजनों की पूजा तथा अिग्नहोऽ आिद उ म कम का आचरण और वेद-शा ों का पठन-
पाठन तथा भगवान के नाम और गुणों का कीतर्न, ःवधमर्पालन के िलए क सहन और शरीर
तथा इिन्ियों के सिहत अन्तःकरण की सरलता। मन, वाणी और शरीर में िकसी ूकार भी िकसी
को क न दे ना, यथाथर् और िूय भाषण, अपना अपकार करने वाले पर भी बोध का न होना,
कम में कतार्पन के अिभमान का त्याग, अन्तःकरण की उपरित अथार्त ् िच की चंचलता का
अभाव, िकसी की िनन्दा न करना, सब भूत ूािणयों में हे तरु िहत दया, इिन्ियों का िवषयों के
साथ संयोग होने पर भी उनमें आसि का न होना, कोमलता, लोक और शा से िवरू
आचरण में लज्जा और व्यथर् चे ाओं का अभाव। तेज, क्षमा, धैय,र् बाहर की शुि तथा िकसी में
भी शऽुभाव का न होना और अपने में पूज्यता के अिभमान का अभाव Ð ये सब तो हे अजुन
र् !
दै वी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हए
ु पुरुष के लक्षण हैं (1,2,3)
दम्भो दप ऽिभमान बोधः पारुंयमेव च।
अज्ञानं चािभजातःय पाथर् सम्पदमासुरीम।।
् 4।।
हे पाथर् ! दम्भ, घमण्ड और अिभमान तथा बोध, कठोरता और अज्ञान भी- ये सब
आसुरी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हए
ु पुरुष के लक्षण हैं ।(4)
दै वी सम्पि मोक्षाय िनबन्धायसुरी मता।
मा शुचः सम्पदं दै वीमिभजातोऽिस पाण्डव।।5।।
दै वी-सम्पदा मुि के िलए और आसुरी सम्पदा बाँधने के िलए मानी गयी है । इसिलए हे
अजुन
र् ! तू शोक मत कर, क्योंिक तू दै वी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हआ
ु है ।(5)
ौ भूतसग लोकेऽिःमन्दै व आसुर एव च।
दै वो िवःतरशः ूो आसुरं पाथर् मे ौृणु।।6।।
हे अजुन
र् ! इस लोक में भूतों की सृि यानी मनुंयसमुदाय दो ही ूकार का है ः एक तो
दै वी ूकृ ित वाला और दसरा
ू आसुरी ूकृ ित वाला। उनमें से दै वी ूकृ ितवाला तो िवःतारपूवक
र्
कहा गया, अब तू आसुरी ूकृ ितवाले मनुंय-समुदाय को भी िवःतारपूवक
र् मुझसे सुन(6)
ूवृि ं च िनवृि ं च जना न िवदरासु
ु राः।
न शौचं नािप चाचारो न सत्यं तेषु िव ते।।7।।
आसुर ःवभाव वाले मनुंय ूवृि और िनवृि - इन दोनों को ही नहीं जानते। इसिलए
उनमें न तो बाहर-भीतर की शुि है , न ौे आचरण है और न सत्यभाषण ही है ।(7)
असत्यमूित ं ते जगदाहरनी
ु रम।्
अपरःपरसम्भूतं िकमन्यत्कामहै तुकम।।
् 8।।
वे आसुरी ूकृ ितवाले मनुंय कहा करते हैं िक जगत आौयरिहत, सवर्था असत्य और
िबना ई र के, अपने-आप केवल ी पुरुष के संयोग से उत्पन्न है , अतएव केवल काम ही
इसका कारण है । इसके िसवा और क्या है ?(8)
एतां दृि मव भ्य न ात्मानोऽल्पबु यः।
ूभवन्त्युमकमार्णः क्षयाय जगतोऽिहताः।।9।।
इस िमथ्या ज्ञान को अवलम्बन करके िजनका ःवभाव न हो गया है तथा िजनकी बुि
मन्द है , वे सबका अपकार करने वाले बूरकम मनुंय केवल जगत के नाश के िलए ही समथर्
होते हैं ।(9)
काममािौत्य दंपू
ु रं दम्भमानमदािन्वताः।
मोहाद् गृहीत्वासद्माहान्ूवतर्न्तेऽशुिचोताः।।10।।
वे दम्भ, मान और मद से यु मनुंय िकसी ूकार भी पूणर् न होने वाली कामनाओं का
आौय लेकर, अज्ञान से िमथ्या िस ान्तों को महण करके और ॅ आचरणों को धारण करके
संसार में िवचरते हैं ।(10)
िचन्तामपिरमेयां च ूलयान्तामुपािौताः।
कामोपभोगपरमा एताविदित िनि ताः।11।।
आशापाशशतैबर् ाः कामबोधपरायणाः।
ईहन्ते कामभोगाथर्मन्यायेनाथर्सच
ं यान।।
् 12।।
तथा वे मृत्यु पयर्न्त रहने वाली असंख्य िचन्ताओं का आौय लेने वाले, िवषयभोगों के
भोगने में तत्पर रहने वाले और 'इतना ही सुख है ' इस ूकार मानने वाले होते हैं । वे आशा की
सैंकड़ों फाँिसयों में बँधे हए
ु मनुंय काम-बोध के परायण होकर िवषय भोगों के िलए
अन्यायपूवक
र् धनािद पदाथ का संमह करने की चे ा करते हैं ।(11,12)
इसिलए वेद-मन्ऽों का उच्चारण करने वाले ौे पुरुषों की शा िविध से िनयत यज्ञ, दान और
तपरूप िबयाएँ सदा 'ॐ' इस परमात्मा के नाम को उच्चारण करके ही आरम्भ होती है ।
तत ् अथार्त ् 'तत ्' नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का ही यह सब है – इस भाव से फल को न चाह
कर नाना ूकार की यज्ञ, तपरूप िबयाएँ तथा दानरूप िबयाएँ कल्याण की इच्छावाले पुरुषों ारा की जाती
हैं ।(25)
'सत ्' – इस ूकार यह परमात्मा का नाम सत्यभाव में और ौे भाव में ूयोग िकया जाता है तथा हे
पाथर् ! उ म कमर् में भी 'सत ्' शब्द का ूयोग िकया जाता है ।(26)
तथा यज्ञ, तप और दान में जो िःथित है , वह भी 'सत ्' इस ूकार कही जाती है और उस परमात्मा के
िलए िकया हआ
ु कमर् िन यपूवक
र् सत ् – ऐसे कहा जाता है ।(27)
अौ या हतं
ु द ं तपःत ं कृ तं च यत।्
असिदत्युच्यते पाथर् न च तत्ूेत्य नो इह।।28।।
हे अजुन
र् ! िबना ौ ा के िकया हआ
ु हवन, िदया हआ
ु दान व तपा हआ
ु तप और जो कुछ भी िकया
हआ
ु शुभ कमर् है – वह समःत 'असत ्' – इस ूकार कहा जाता है , इसिलए वह न तो इस लोक में लाभदायक
है और न मरने के बाद ही।(28)
ॐ तत्सिदित ौीमद् भगवद् गीतासूपिनषत्सु ॄ िव ायां योगशा े
ौीकृ ंणाजुन
र् संवादे ौ ाऽयिवभागयोगो नाम स दशोऽध्यायः ।।17।।
इस ूकार उपिनषद, ॄ िव ा तथा योगशा रूप ौीमद् भगवद् गीता के
ौीकृ ंण-अजुन
र् संवाद में ौ ाऽयिवभागयोग नामक सऽहवाँ अध्याय संपूणर् हआ।
ु
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
(अनुबम)
।। अथा ादशोऽध्यायः ।।
अजुन
र् उवाच
संन्यासःय महाबाहो त विमच्छािम वेिदतुम।्
त्यागःय च हृषीकेश पृथक्केिशिनषूदन।।1।।
अजुन
र् बोलेः हे महाबाहो ! हे अन्तयार्िमन ् ! हे वासुदेव ! मैं संन्यास और त्याग के त व को पृथक-
पृथक जानना चाहता हँू ।
ौीभगवानुवाच
काम्यानां कमर्णां न्यासं कवयो िवदः।
ु
सवर्कमर्फलत्यागं ूाहःत्यागं
ु िवचक्षणाः।।2।।
ौी भगवान बोलेः िकतने ही पिण्डतजन तो काम्य कम के त्याग को संन्यास समझते हैं तथा दसरे
ू
िवचारकुशल पुरुष सब कम के फल के त्याग को त्याग कहते हैं ।(2)
कुछे क िव ान ऐसा कहते हैं िक कमर्माऽ दोषयु हैं , इसिलए त्यागने के योग्य हैं और दसरे
ू िव ान
यह कहते हैं िक यज्ञ, दान और तपरूप कमर् त्यागने योग्य नहीं हैं ।(3)
हे पुरुषौे अजुन
र् ! संन्यास और त्याग, इन दोनों में से पहले त्याग के िवषय में तू मेरा िन य सुन।
क्योंिक त्याग साि वक, राजस और तामस भेद से तीन ूकार का कहा गया है ।(4)
यज्ञ, दान और तपरूप कमर् त्याग करने के योग्य नहीं हैं , बिल्क वह तो अवँय कतर्व्य है , क्योंिक
यज्ञ, दान और तप – ये तीनों ही कमर् बुि मान पुरुषों को पिवऽ करने वाले हैं ।(5)
एतान्यिप तु कमार्िण सङ्गं त्यक्त्वा फलािन च।
कतर्व्यानीित मे पाथर् िन तं मतमु मम।।
् 6।।
(िनिष और काम्य कम का तो ःवरूप से त्याग करना उिचत ही है ।) परन्तु िनयत कमर् का ःवरूप
से त्याग उिचत नहीं है । इसिलए मोह के कारण उसका त्याग कर दे ना तामस त्याग कहा गया है ।(7)
दःखिमत्ये
ु व यत्कमर् कायक्लेशभया यजेत।्
स कृ त्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत।।
्
हे अजुन
र् ! जो शा िविहत कमर् करना कतर्व्य है – इसी भाव से आसि और फल का त्याग करके
िकया जाता है वही साि वक त्याग माना गया है ।(9)
जो मनुंय अकुशल कमर् से े ष नहीं करता और कुशल कमर् में आस नहीं होता – वह शु स वगुण
से यु पुरुष संशयरिहत, बुि मान और सच्चा त्यागी है ।(10)
न िह दे हभृता शक्यं त्य ुं कमार्ण्यशेषतः।
यःतु कमर्फलत्यागी स त्यागीत्यिभधीयते।।11।।
क्योंिक शरीरधारी िकसी भी मनुंय के ारा सम्पूणत
र् ा से सब कम का त्याग िकया जाना शक्य नहीं
है इसिलए जो कमर्फल का त्यागी है , वही त्यागी है – यह कहा जाता है ।(11)
अिन िम ं िमौं च िऽिवधं कमर्णः फलम।्
भवत्यत्यािगनां ूेत्य न तु संन्यािसनां क्विचत।।
् 12।।
कमर्फल का त्याग न करने वाले मनुंयों के कम का तो अच्छा-बुरा और िमला हआ
ु – ऐसे तीन
ूकार का फल मरने के प ात ् अवँय होता है , िकन्तु कमर्फल का त्याग कर दे ने वाले मनुंयों के कम का
फल िकसी काल में भी नहीं होता।(12)
पंचैतािन महाबाहो कारणािन िनबोध मे।
सांख्ये कृ तान्ते ूो ािन िस ये सवर्कमर्णाम।।
् 13।।
हे महाबाहो ! सम्पूणर् कम की िसि के ये पाँच हे तु कम का अन्त करने के िलए उपाय बतलाने वाले
साख्यशा में कहे गये हैं , उनको तू मुझसे भली भाँित जान।(13)
अिध ानं तथा कतार् करणं च पृथिग्वधम।्
िविवधा पृथक्चे ा दै वं चैवाऽ पंचमम।।
् 14।।
इस िवषय में अथार्त ् कम की िसि में अिध ान और कतार् तथा िभन्न-िभन्न ूकार के करण और
नाना ूकार की अलग-अलग चे ाएँ और वैसे ही पाँचवाँ हे तु दै व है ।(14)
शरीरवाङ् मनोिभयर्त्कमर् ूारभते नरः।
न्याय्यं वा िवपरीतं वा पंचैते तःय हे तवः।।15।।
मनुंय मन, वाणी और शरीर से शा ानुकूल अथवा िवपरीत जो कुछ भी कमर् करता है – उसके ये
पाँचों कारण हैं ।(15)
परन्तु ऐसा होने पर भी जो मनुंय अशु बुि होने के कारण उस िवषय में यानी कम के होने में
केवल शु ःवरूप आत्मा को कतार् समझता है , वह मिलन बुि वाला अज्ञानी यथाथर् नहीं समझता।(16)
िजस पुरुष के अन्तःकरण में 'मैं कतार् हँू ' ऐसा भाव नहीं है तथा िजसकी बुि सांसािरक पदाथ में
और कम में लेपायमान नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वाःतव में न तो मरता है और न
पाप से बँधता है ।(17)
ज्ञानं ज्ञेयं पिरज्ञाता िऽिवधा कमर्चोदना।
करणं कमर् कतित िऽिवधः कमर्कंमहः।।18।।
ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय – ये तीन ूकार की कमर्-ूेरणा हैं और कतार्, करण तथा िबया ये तीन ूकार
का कमर् संमह है ।(18)
गुणों की संख्या करने वाले शा में ज्ञान और कमर् तथा कतार् गुणों के भेद से तीन-तीन ूकार के ही
कहे गये हैं , उनको भी तू मुझसे भली भाँित सुन।(19)
सवर्भत
ू ेष येनैकं भावमव्ययमीक्षते।
अिवभ ं िवभ े षु तज्ज्ञानं िवि साि वकम।।
् 20।।
िकन्तु जो ज्ञान अथार्त ् िजस ज्ञान के ारा मनुंय सम्पूणर् भूतों में िभन्न-िभन्न ूकार के नाना भावों
को अलग-अलग जानता है , उस ज्ञान को तू राजस जान।(21)
य ु कृ त्ःनवदे किःमन्काय स महै तुकम।्
अत वाथर्वदल्पं च त ामसमुदाहृतम।।
् 22।।
परन्तु जो ज्ञान एक कायर्रूप शरीर में ही सम्पूणर् के सदृश आस है तथा जो िबना युि वाला,
ताि वक अथर् से रिहत और तुच्छ है – वह तामस कहा गया है ।(22)
िनयतं संगरिहतमराग े षतः कृ तम।्
अफलूेप्सुना कमर् य त्साि वकमुच्यते।।23।।
जो कमर् शा िविध से िनयत िकया हआ
ु और कतार्पन के अिभमान से रिहत हो तथा फल न चाहने
वाले पुरुष ारा िबना राग- े ष के िकया गया हो – वह साि वक कहा जाता है । (23)
य ु कामेप्सुना कमर् साहं कारे ण वा पुनः।
िबयते बहलायासं
ु तिजासमुदाहृतम।।
् 24।।
परन्तु जो कमर् बहत
ु पिरौम से यु होता है तथा भोगों को चाहने वाले पुरुष ारा या अहं कारयु
पुरुष ारा िकया जाता है , वह कमर् राजस कहा गया है ।(24)
अनुबन्धं क्षयं िहं सामनपेआय च पौरुषम।्
मोहादारभ्यते कमर् य ामसमुच्यते।।25।।
जो कमर् पिरणाम, हािन, िहं सा और सामथ्यर् को न िवचार कर केवल अज्ञान से आरम्भ िकया जाता
है , वह तामस कहा जाता है ।(25)
मु ं संगोऽनहं वादी धृत्युत्साहसमिन्वतः।
िस यिस योिनर्िवर्कारः कतार् साि वक उच्यते।।26।।
जो कतार् संगरिहत, अहं कार के वचन न बोलने वाला, धैयर् और उत्साह से यु तथा कायर् के िस
होने और न होने में हषर्-शोकािद िवकारों से रिहत है – वह साि वक कहा जाता है ।(26)
रागी कमर्फलूेप्सुलब्ुर् धो िहं सात्मकोऽशुिचः।
हषर्शोकािन्वतः कतार् राजसः पिरकीितर्तः।।27।।
जो कतार् आसि से यु , कम के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दसरों
ू को क दे ने के
ःवभाववाला, अशु ाचारी और हषर्-शोक से िल है – वह राजस कहा गया है ।(27)
अयु ः ूाकृ तः ःतब्धः शठो नैंकृ ितकोऽलसः।
िवषादी दीघर्सऽ
ू ी च कतार् तामस उच्यते।।
जो कतार् अयु , िशक्षा से रिहत, घमंडी, धूतर् और दसरों
ू की जीिवका का नाश करने वाला तथा शोक
करने वाला, आलसी और दीघर्सऽ
ू ी है – वह तामस कहा जाता है ।(28)
बु े भदं धृते ैव गुणति िवधं ौृणु।
ूोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनंजय।।29।।
हे धनंजय ! अब तू बुि का और धृित का भी गुणों के अनुसार तीन ूकार का भेद मेरे ारा
सम्पूणत
र् ा से िवभागपूवक
र् कहा जाने वाला सुन।(29)
ूवृि ं च िनवृि ं च कायार्काय भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेि बुि ः सा पाथर् साि वकी।।30।।
हे पाथर् ! जो बुि ूवृि मागर् और िनवृि मागर् को, कतर्व्य और अकतर्व्य को, भय और अभय को
तथा बन्धन और मोक्ष को यथाथर् जानती है – वह बुि साि वकी है ।(30)
िवषयेिन्ियसंयोगा दमेऽमृतोपमम।्
पिरणामे िवषिमव तत्सुखं राजसं ःमृतम।।
् 38।।
जो सुख िवषय और इिन्ियों के संयोग से होता है , वह पहले भोगकाल में अमृत के तुल्य ूतीत होने
पर भी पिरणाम में िवष के तुल्य है , इसिलए वह सुख राजस कहा गया है ।(38)
यदमे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
िनिालःयूमादोत्थं त ामसमुदाहृतम।।
् 39।।
जो सुख भोगकाल में तथा पिरणाम में भी आत्मा को मोिहत करने वाला है – वह िनिा, आलःय
और ूमाद से उत्पन्न सुख तामस कहा गया है ।(39)
न तदिःत पृिथव्यां व िदिव दे वेषु वा पुनः
स वं ूकृ ितजैमुर् ं यदे िभःःयाित्ऽिभगुण
र् ःै ।।40।।
पृथ्वी में या आकाश में अथवा दे वताओं में तथा इनके िसवा और कहीं भी वह ऐसा कोई भी स व नहीं
है , जो ूकृ ित से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रिहत हो।(40)
ॄा णक्षिऽयिवशां शूिाणां च परं तप।
कमार्िण ूिवभ ािन ःवभावूभवैगण
ुर् ःै ।।41।।
हे परं तप ! ॄा ण, क्षिऽय और वैँयों के तथा शूिों के कमर् ःवभाव उत्पन्न गुणों ारा िवभ िकये
गये हैं ।(41)
शमो दमःतपः शौचं क्षािन्तराजर्वमेव च।
ज्ञानं िवज्ञानमािःतक्यं ॄ कमर् ःवभावजम।।
् 42।।
अन्तःकरण का िनमह करना, इिन्ियों का दमन करना, धमर्पालन के िलए क सहना, बाहर-भीतर
से शु रहना, दसरों
ू के अपराधों को क्षमा करना, मन, इिन्िय और शरीर को सरल रखना, वेद,-शा , ई र
और परलोक आिद में ौ ा रखना, वेद-शा ों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के त व का
अनुभव करना – ये सब-के-सब ही ॄा ण के ःवाभािवक कमर् हैं ।(42)
शौय तेजो धृितदार्आयं यु े चाप्यपलायनम।्
दानमी रभाव क्षाऽं कमर् ःवभावजम।।
् 43।।
शूरवीरता, तेज, धैय,र् चतुरता और यु में न भागना, दान दे ना और ःवामीभाव – ये सब-के-सब ही
क्षिऽय के ःवाभािवक कमर् हैं ।(43)
कृ िषगौरआयवािणज्यं वैँयकमर् ःवभावजम।्
पिरचयार्त्मकं कमर् शूिःयािप ःवभावजम।।
् 44।।
खेती, गौपालन और बय-िवबयरूप सत्य व्यवहार – ये वैँय के ःवाभािवक कमर् हैं तथा सब वण
की सेवा करना शूि का भी ःवाभािवक कमर् है ।(44)
ःवे ःवे कमर्ण्यिभरतः संिसि ं लभते नरः।
ृ ।।45।।
ःवकमर्िनरतः िसि ं यथा िवन्दित तच्छणु
अपने-अपने ःवाभािवक कम में तत्परता से लगा हआ
ु मनुंय भगवत्ूाि रूप परम िसि को ूा
हो जाता है । अपने ःवाभािवक कमर् में लगा हआ
ु मनुंय िजस ूकार से कमर् करके परम िसि को ूा
होता, उस िविध को तू सुन।(45)
यतः ूवृि भूत
र् ानां येन सवर्िमदं ततम।्
ःवकमर्णा तमभ्यच्यर् िसि ं िवन्दित मानवः।।46।।
िजस परमे र से सम्पूणर् ूािणयों की उत्पि हई
ु है और िजससे यह समःत जगत व्या है , उस
परमे र की अपने ःवाभािवक कम ारा पूजा करके मनुंय परम िसि को ूा हो जाता है ।(46)
ौेयान्ःवधम िवगुणः परधमार्त्ःवनुि तात।्
ःवभाविनयतं कमर् कुवर्न्नाप्नोित िकिल्बषम।।
् 47।।
अच्छी ूकार आचरण िकये हए
ु दसरे
ू के धमर् से गुणरिहत भी अपना धमर् ौे है , क्योंिक ःवभाव से
िनयत िकये हए
ु ःवधमर् कमर् को करता हआ
ु मनुंय पाप को नहीं ूा होता।(47)
सहजं कमर् कौन्तेय सदोषमिप न त्यजेत ्।
सवार्रम्भा िह दोषेण धूमेनािग्निरवावृताः।।48।।
अतएव हे कुन्तीपुऽ ! दोषयु होने पर भी सहज कमर् को नहीं त्यागना चािहए, क्योंिक धुएँ से अिग्न
की भाँित सभी कमर् िकसी-न-िकसी दोष से यु हैं ।(48)
अस बुि ः सवर्ऽ िजतात्मा िवगतःपृहः।
नैंकम्यर्िसि ं परमां संन्यासेनािधगच्छित।।49।।
सवर्ऽ आसि रिहत बुि वाला, ःपृहारिहत और जीते हए
ु अन्तःकरणवाला पुरुष सांख्ययोग के ारा
उस परम नैंकम्यर्िसि को ूा होता है ।(49)
िसि ं ूा ो यथा ॄ तथाप्नोित िनबोध मे।
समासेनैव कौन्तेय िन ा ज्ञानःय या परा।।50।।
जो िक ज्ञानयोग की परािन ा है , उस नैंकम्यर् िसि को िजस ूकार से ूा होकर मनुंय ॄ को
ूा होता है , उस ूकार हे कुन्तीपुऽ ! तू संक्षेप में ही मुझसे समझ।(50)
संजय उवाच
इत्यहं वासुदेवःय पाथर्ःय च महात्मनः।
संवादिमममौौषम तं
ु रोमहषर्णम।।
् 74।।
संजय बोलेः इस ूकार मैंने ौीवासुदेव के और महात्मा अजुन
र् के इस अदभुत रहःययु ,
रोमांचकारक संवाद को सुना।(74)
व्यासूासादाच् तवानेतद् गु महं परम।्
योगं योगे रात्कृ ंणात्साक्षात्कथयतः ःवयम।।
् 75।।
ौी व्यासजी की कृ पा से िदव्य दृि पाकर मैंने इस परम गोपनीय योग को अजुन
र् के ूित कहते हए
ु
ःवयं योगे र भगवान ौीकृ ंण से ूत्यक्ष सुना है ।(75)
राजन्संःमृत्य संःमृत्य संवादिमममद् भुतम।्
केशवाजुन
र् योः पुण्यं हृंयािम च मुहु मुह
र् ु ः।।76।।
हे राजन ! भगवान ौीकृ ंण और अजुन
र् के इस रहःययु कल्याणकारक और अदभुत संवाद को
पुनः-पुनः ःमरण करके मैं बार-बार हिषर्त हो रहा हँू ।(76)
तच्च संःमृत्य संःमृत्य रूपमत्य तं
ु हरे ः।
िवःमयो मे महान ् राजन्हृंयािम च पुनः पुनः।।77।।
हे राजन ! ौी हिर के उस अत्यन्त िवलक्षण रूप को भी पुनः-पुनः ःमरण करके मेरे िच में महान
आ यर् होता है और मैं बार-बार हिषर्त हो रहा हँू ।(77)
यऽ योगे रः कृ ंणो यऽ पाथ धनुधरर् ः
तऽ ौीिवर्जयो भूितीुव
र् ा नीितमर्ितमर्म।।78।।
हे राजन ! जहाँ योगेव र भगवान ौीकृ ंण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अजुन
र् हैं , वहीं पर ौी,
िवजय, िवभूित और अचल नीित है – ऐसा मेरा मत है ।(78)
ॐ तत्सिदित ौीमद् भगवद् गीतासूपिनषत्सु ॄ िव ायां योगशा े
ौीकृ ंणाजुन
र् संवादे मोक्षसंन्यासयोगो नाम अ ादशोऽध्यायः ।।18।।
इस ूकार उपिनषद, ॄ िव ा तथा योगशा रूप ौीमद् भगवद् गीता के
ौीकृ ंण-अजुन
र् संवाद में मोक्षसंन्यासयोग नामक अठारहवाँ अध्याय संपूणर् हआ।
ु
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
(अनुबम)