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(अनुबम)

पूज्य बापू का पावन सन्दे श


हम धनवान होंगे या नहीं, यशःवी होंगे या नहीं, चुनाव जीतेंगे या नहीं इसमें शंका हो
सकती है परन्तु भैया ! हम मरें गे या नहीं इसमें कोई शंका है ? िवमान उड़ने का समय िनि त

होता है , बस चलने का समय िनि त होता है , गाड़ी छटने का समय िनि त होता है परन्तु इस

जीवन की गाड़ी के छटने का कोई िनि त समय है ?
आज तक आपने जगत का जो कुछ जाना है , जो कुछ ूा िकया है .... आज के बाद जो
जानोगे और ूा ू जायेगा, जाना
करोगे, प्यारे भैया ! वह सब मृत्यु के एक ही झटके में छट
अनजाना हो जायेगा, ूाि अूाि में बदल जायेगी |
अतः सावधान हो जाओ | अन्तमुख
र् होकर अपने अिवचल आत्मा को, िनजःवरूप के
अगाध आनन्द को, शा त शांित को ूा कर लो | िफर तो आप ही अिवनाशी आत्मा हो |
जागो.... उठो..... अपने भीतर सोये हए
ु िन यबल को जगाओ | सवर्देश, सवर्काल में
सव म आत्मबल को अिजर्त करो | आत्मा में अथाह सामथ्यर् है | अपने को दीन-हीन मान बैठे
तो िव में ऐसी कोई स ा नहीं जो तुम्हे ऊपर उठा सके | अपने आत्मःवरूप में ूिति त हो
गये तो िऽलोकी में ऐसी कोई हःती नहीं जो तुम्हे दबा सके |
सदा ःमरण रहे िक इधर-उधर वृि यों के साथ तुम्हारी शि भी िबखरती रहती है | अतः
वृि यों को बहकाओ नहीं | तमाम वृि यों को एकिऽत करके साधना-काल में आत्मिचन्तन में
लगाओ और व्यवहार काल में जो कायर् करते हो उसमें लगाओ | द िच होकर हर कोई कायर्
करो | सदा शान्त वृि धारण करने का अभ्यास करो | िवचारवन्त और ूसन्न रहो | जीवमाऽ को
अपना ःवरूप समझो | सबसे ःनेह रखो | िदल को व्यापक रखो | आत्मिन ा में जगे हए

महापुरुषों के सत्संग तथा सत्सािहत्य से जीवन की भि और वेदान्त से पु तथा पुलिकत करो
|
(अनुबम)
अनुबम
पूज्य बापू का पावन सन्दे श ................................................................................................................ 2
ौीमद् भगवदगीता के िवषय में जानने योग्य िवचार ............................................................................ 5
ौीमद् भगवदगीता माहात्म्य ............................................................................................................. 7
गीता में ौीकृ ंण भगवान के नामों के अथर् ......................................................................................... 18
अजुन
र् के नामों के अथर्...................................................................................................................... 19
ौीमद् भगवदगीता .......................................................................................................................... 20
पहले अध्याय का माहात्म्य.......................................................................................................... 20
पहला अध्यायःअजुन
र् िवषादयोग ................................................................................................... 23
दसरे
ू अध्याय का माहात्म्य .......................................................................................................... 31
दसरा
ू अध्यायः सांख्ययोग ........................................................................................................... 33
तीसरे अध्याय का माहात्म्य......................................................................................................... 48
तीसरा अध्यायः कमर्योग ............................................................................................................. 51
चौथे अध्याय का माहात्म्य........................................................................................................... 59
अध्याय चौथाः ज्ञानकमर्सन्यासयोग............................................................................................. 61
पाँचवें अध्याय का माहात्म्य......................................................................................................... 70
पाँचवाँ अध्यायः कमर्सन्
ं यासयोग ................................................................................................. 71
छठे अध्याय का माहात्म्य............................................................................................................ 77
छठा अध्यायः आत्मसंयमयोग..................................................................................................... 80
सातवें अध्याय का माहात्म्य ........................................................................................................ 89
सातवाँ अध्यायःज्ञानिवज्ञानयोग .................................................................................................. 90
आठवें अध्याय का माहात्म्य ........................................................................................................ 96
आठवाँ अध्यायः अक्षरॄ योग ..................................................................................................... 98
नौवें अध्याय का माहात्म्य ......................................................................................................... 104
दसवें अध्याय का माहात्म्य........................................................................................................ 111
दसवाँ अध्यायः िवभूितयोग........................................................................................................ 114
बारहवें अध्याय का माहात्म्य ..................................................................................................... 137
बारहवाँ अध्यायः भि योग......................................................................................................... 140
तेरहवें अध्याय का माहात्म्य ...................................................................................................... 144
तेरहवाँ अध्यायः क्षेऽक्षऽज्ञिवभागयोग ........................................................................................ 145
चौदहवें अध्याय का माहात्म्य..................................................................................................... 152
चौदहवाँ अध्यायः गुणऽयिवभागयोग.......................................................................................... 153
पंिहवें अध्याय का माहात्म्य ...................................................................................................... 159
पंिहवाँ अध्यायः पुरुषो मयोग ................................................................................................... 160
सोलहवें अध्याय का माहात्म्य.................................................................................................... 164
सोलहवाँ अध्यायः दै वासुरसंपि भागयोग .................................................................................... 166
सऽहवें अध्याय का माहात्म्य ..................................................................................................... 170
सऽहवाँ अध्यायः ौ ाऽयिवभागयोग .......................................................................................... 170
अठारहवें अध्याय का माहात्म्य .................................................................................................. 175
अठारहवाँ अध्यायः मोक्षसंन्यासयोग .......................................................................................... 176
ौीमद् भगवदगीता के िवषय में जानने योग्य िवचार

गीता मे हृदयं पाथर् गीता मे सारमु मम।्


गीता मे ज्ञानमत्युमं गीता मे ज्ञानमव्ययम।।

गीता मे चो मं ःथानं गीता मे परमं पदम।्
गीता मे परमं गु ं गीता मे परमो गुरुः।।
गीता मेरा हृदय है | गीता मेरा उ म सार है | गीता मेरा अित उम ज्ञान है | गीता मेरा
अिवनाशी ज्ञान है | गीता मेरा ौे िनवासःथान है | गीता मेरा परम पद है | गीता मेरा परम
रहःय है | गीता मेरा परम गुरु है |
भगवान ौी कृ ंण
गीता सुगीता कतर्व्या िकमन्यैः शा िवःतरै ः।
या ःवयं प नाभःय मुखप ाि िनःसृता।।
जो अपने आप ौीिवंणु भगवान के मुखकमल से िनकली हई
ु है वह गीता अच्छी तरह
कण्ठःथ करना चािहए | अन्य शा ों के िवःतार से क्या लाभ?
महिषर् व्यास
गेयं गीतानामसहॐं ध्येयं ौीपितरूपमजॐम ् ।
नेयं सज्जनसंगे िच ं दे यं दीनजनाय च िव म ।।
गाने योग्य गीता तो ौी गीता का और ौी िवंणुसहॐनाम का गान है | धरने योग्य तो
ौी िवंणु भगवान का ध्यान है | िच तो सज्जनों के संग िपरोने योग्य है और िव तो दीन-
दिख
ु यों को दे ने योग्य है |
ौीमद् आ शंकराचायर्
गीता में वेदों के तीनों काण्ड ःप िकये गये हैं अतः वह मूितर्मान वेदरूप हैं और उदारता
में तो वह वेद से भी अिधक है | अगर कोई दसरों
ू को गीतामंथ दे ता है तो जानो िक उसने लोगों
के िलए मोक्षसुख का सदाोत खोला है | गीतारूपी माता से मनुंयरूपी बच्चे िवयु होकर भटक
रहे हैं | अतः उनका िमलन कराना यह तो सवर् सज्जनों का मुख्य धमर् है |
संत ज्ञाने र
'ौीमद् भगवदगीता' उपिनषदरूपी बगीचों में से चुने हए
ु आध्याित्मक सत्यरूपी पुंपों से
गुथ
ँ ा हआ
ु पुंपगुच्छ है |
ःवामी िववेकानन्द
इस अदभुत मन्थ के 18 छोटे अध्यायों में इतना सारा सत्य, इतना सारा ज्ञान और इतने
सारे उच्च, गम्भीर और साि वक िवचार भरे हए
ु हैं िक वे मनुंय को िनम्न-से-िनम्न दशा में से
उठा कर दे वता के ःथान पर िबठाने की शि रखते हैं | वे पुरुष तथा ि याँ बहत
ु भाग्यशाली हैं
िजनको इस संसार के अन्धकार से भरे हए
ु सँकरे माग में ूकाश दे ने वाला यह छोटा-सा लेिकन
अखूट तेल से भरा हआ
ु धमर्ूदीप ूा हआ
ु है |
महामना मालवीय जी
एक बार मैंने अपना अंितम समय नजदीक आया हआ
ु महसूस िकया तब गीता मेरे िलए
अत्यन्त आ ासनरूप बनी थी | मैं जब-जब बहत
ु भारी मुसीबतों से िघर जाता हँू तब-तब मैं
गीता माता के पास दौड़कर पहँु च जाता हँू और गीता माता में से मुझे समाधान न िमला हो ऐसा
कभी नहीं हआ
ु है |
महात्मा गाँधी
जीवन के सवागीण िवकास के िलए गीता मंथ अदभुत है | िव की 578 भाषाओं में
गीता का अनुवाद हो चुका है | हर भाषा में कई िचन्तकों, िव ानों और भ ों ने मीमांसाएँ की हैं
और अभी भी हो रही हैं , होती रहें गी | क्योंिक इस मन्थ में सब दे शों, जाितयों, पंथों के तमाम
मनुंयों के कल्याण की अलौिकक साममी भरी हई
ु है | अतः हम सबको गीताज्ञान में अवगाहन
करना चािहए | भोग, मोक्ष, िनलपता, िनभर्यता आिद तमाम िदव्य गुणों का िवकास करने वाला
यह गीता मन्थ िव में अि ितय है |
पूज्यपाद ःवामी ौी लीलाशाहजी महाराज
ूाचीन युग की सवर् रमणीय वःतुओं में गीता से ौे कोई वःतु नहीं है | गीता में ऐसा
उ म और सवर्व्यापी ज्ञान है िक उसके रचियता दे वता को असंख्य वषर् हो गये िफर भी ऐसा
दसरा
ू एक भी मन्थ नहीं िलखा गया है |
अमेिरकन महात्मा थॉरो
थॉरो के िशंय, अमेिरका के सुूिस सािहत्यकार एमसर्न को भी गीता के िलए, अदभुत
आदर था | 'सवर्भत
ु ेषु चात्मानं सवर्भत
ू ािन चात्मिन' यह ोक पढ़ते समय वह नाच उठता था |

बाईबल का मैंने यथाथर् अभ्यास िकया है | उसमें जो िदव्यज्ञान िलखा है वह केवल गीता
के उ रण के रूप में है | मैं ईसाई होते हए
ु भी गीता के ूित इतना सारा आदरभाव इसिलए
रखता हँू िक िजन गूढ़ ू ों का समाधान पा ात्य लोग अभी तक नहीं खोज पाये हैं , उनका
समाधान गीता मंथ ने शु और सरल रीित से िदया है | उसमें कई सूऽ अलौिकक उपदे शों से
भरूपूर लगे इसीिलए गीता जी मेरे िलए साक्षात ् योगे री माता बन रही हैं | वह तो िव के
तमाम धन से भी नहीं खरीदा जा सके ऐसा भारतवषर् का अमूल्य खजाना है |
एफ.एच.मोलेम (इं ग्लैन्ड)
भगवदगीता ऐसे िदव्य ज्ञान से भरपूर है िक उसके अमृतपान से मनुंय के जीवन में
साहस, िहम्मत, समता, सहजता, ःनेह, शािन्त और धमर् आिद दै वी गुण िवकिसत हो उठते हैं ,
अधमर् और शोषण का मुकाबला करने का सामथ्यर् आ जाता है | अतः ूत्येक युवक-युवती को
गीता के ोक कण्ठःथ करने चािहए और उनके अथर् में गोता लगा कर अपने जीवन को तेजःवी
बनाना चािहए |
पूज्यपाद संत ौी आसारामजी बापू
ौी गणेशाय नमः
(अनुबम)

ौीमद् भगवदगीता माहात्म्य


धरोवाच
भगवन्परमेशान भि रव्यिभचािरणी ।
ूारब्धं भुज्यमानःय कथं भवित हे ूभो ।।1।।
ौी पृथ्वी दे वी ने पूछाः
हे भगवन ! हे परमे र ! हे ूभो ! ूारब्धकमर् को भोगते हए
ु मनुंय को एकिन भि
कैसे ूा हो सकती है ?(1)

ौीिवंणुरुवाच
ूारब्धं भुज्यमानो िह गीताभ्यासरतः सदा ।
स मु ः स सुखी लोके कमर्णा नोपिलप्यते ।।2।।
ौी िवंणु भगवान बोलेः
ूारब्ध को भोगता हआ
ु जो मनुंय सदा ौीगीता के अभ्यास में आस हो वही इस लोक
में मु और सुखी होता है तथा कमर् में लेपायमान नहीं होता |(2)

महापापािदपापािन गीताध्यानं करोित चेत ् ।


क्विचत्ःपश न कुवर्िन्त निलनीदलमम्बुवत ् ।।3।।
िजस ूकार कमल के प े को जल ःपशर् नहीं करता उसी ूकार जो मनुंय ौीगीता का
ध्यान करता है उसे महापापािद पाप कभी ःपशर् नहीं करते |(3)

गीतायाः पुःतकं यऽ पाठः ूवतर्ते।


तऽ सवार्िण तीथार्िन ूयागादीिन तऽ वै।।4।।
जहाँ ौीगीता की पुःतक होती है और जहाँ ौीगीता का पाठ होता है वहाँ ूयागािद सवर्
तीथर् िनवास करते हैं |(4)

सव दे वा ऋषयो योिगनः पन्नगा ये।


गोपालबालकृ ंणोsिप नारदीुवपाषर्दैः ।।
सहायो जायते शीयं यऽ गीता ूवतर्ते ।।5।।
जहाँ ौीगीता ूवतर्मान है वहाँ सभी दे वों, ऋिषयों, योिगयों, नागों और गोपालबाल
ौीकृ ंण भी नारद, ीुव आिद सभी पाषर्दों सिहत जल्दी ही सहायक होते हैं |(5)

यऽगीतािवचार पठनं पाठनं ौुतम ् ।


तऽाहं िनि तं पृिथ्व िनवसािम सदै व िह ।।6।।
जहाँ ौी गीता का िवचार, पठन, पाठन तथा ौवण होता है वहाँ हे पृथ्वी ! मैं अवँय
िनवास करता हँू | (6)
गीताौयेऽहं ित ािम गीता मे चो मं गृहम।्
गीताज्ञानमुपािौत्य ऽींल्लोकान्पालयाम्यहं म।।
् 7।।
मैं ौीगीता के आौय में रहता हँू , ौीगीता मेरा उ म घर है और ौीगीता के ज्ञान का
आौय करके मैं तीनों लोकों का पालन करता हँू |(7)
गीता मे परमा िव ा ॄ रूपा न संशयः।
अधर्माऽाक्षरा िनत्या ःविनवार्च्यपदाित्मका।।8।।
ौीगीता अित अवणर्नीय पदोंवाली, अिवनाशी, अधर्माऽा तथा अक्षरःवरूप, िनत्य,
ॄ रूिपणी और परम ौे मेरी िव ा है इसमें सन्दे ह नहीं है |(8)
िचदानन्दे न कृ ंणेन ूो ा ःवमुखतोऽजुन
र् म।्
वेदऽयी परानन्दा त वाथर्ज्ञानसंयुता।।9।।
वह ौीगीता िचदानन्द ौीकृ ंण ने अपने मुख से अजुन
र् को कही हई
ु तथा तीनों वेदःवरूप,
परमानन्दःवरूप तथा त वरूप पदाथर् के ज्ञान से यु है |(9)
योऽ ादशजपो िनत्यं नरो िन लमानसः।
ज्ञानिसि ं स लभते ततो याित परं पदम।।
् 10।।
जो मनुंय िःथर मन वाला होकर िनत्य ौी गीता के 18 अध्यायों का जप-पाठ करता है
वह ज्ञानःथ िसि को ूा होता है और िफर परम पद को पाता है |(10)
पाठे ऽसमथर्ः संपूण ततोऽध पाठमाचरे त।्
तदा गोदानजं पुण्यं लभते नाऽ संशयः।।11।।
संपूणर् पाठ करने में असमथर् हो तो आधा पाठ करे , तो भी गाय के दान से होने वाले
पुण्य को ूा करता है , इसमें सन्दे ह नहीं |(11)
िऽभागं पठमानःतु गंगाःनानफलं लभेत।्
षडं शं जपमानःतु सोमयागफलं लभेत।।
् 12।।
तीसरे भाग का पाठ करे तो गंगाःनान का फल ूा करता है और छठवें भाग का पाठ
करे तो सोमयाग का फल पाता है |(12)

एकाध्यायं तु यो िनत्यं पठते भि संयुतः।


रूिलोकमवाप्नोित गणो भूत्वा वसेिच्चरम।।13।।

जो मनुंय भि यु होकर िनत्य एक अध्याय का भी पाठ करता है , वह रुिलोक को


ूा होता है और वहाँ िशवजी का गण बनकर िचरकाल तक िनवास करता है |(13)

अध्याये ोकपादं वा िनत्यं यः पठते नरः।


स याित नरतां यावन्मन्वन्तरं वसुन्धरे ।।14।।

हे पृथ्वी ! जो मनुंय िनत्य एक अध्याय एक ोक अथवा ोक के एक चरण का पाठ


करता है वह मन्वंतर तक मनुंयता को ूा करता है |(14)

गीताया ोकदशकं स पंच चतु यम।्


ौ ऽीनेकं तदध वा ोकानां यः पठे न्नरः।।15।।
चन्िलोकमवाप्नोित वषार्णामयुतं ीुवम।्
गीतापाठसमायु ो मृतो मानुषतां ोजेत।।
् 16।।
जो मनुंय गीता के दस, सात, पाँच, चार, तीन, दो, एक या आधे ोक का पाठ करता है
वह अवँय दस हजार वषर् तक चन्िलोक को ूा होता है | गीता के पाठ में लगे हए
ु मनुंय की
अगर मृत्यु होती है तो वह (पशु आिद की अधम योिनयों में न जाकर) पुनः मनुंय जन्म पाता
है |(15,16)

गीताभ्यासं पुनः कृ त्वा लभते मुि मु माम।्


गीतेत्युच्चारसंयु ो िॆयमाणो गितं लभेत।।
् 17।।

(और वहाँ) गीता का पुनः अभ्यास करके उ म मुि को पाता है | 'गीता' ऐसे उच्चार के
साथ जो मरता है वह सदगित को पाता है |

गीताथर्ौवणास ो महापापयुतोऽिप वा।


वैकुण्ठं समवाप्नोित िवंणुना सह मोदते।।18।।
गीता का अथर् तत्पर सुनने में तत्पर बना हआ
ु मनुंय महापापी हो तो भी वह वैकुण्ठ
को ूा होता है और िवंणु के साथ आनन्द करता है |(18)
गीताथ ध्यायते िनत्यं कृ त्वा कमार्िण भूिरशः।
जीवन्मु ः स िवज्ञेयो दे हांते परमं पदम।।
् 19।।
अनेक कमर् करके िनत्य ौी गीता के अथर् का जो िवचार करता है उसे जीवन्मु जानो |
मृत्यु के बाद वह परम पद को पाता है |(19)

गीतामािौत्य बहवो भूभज


ु ो जनकादयः।
िनधूत
र् कल्मषा लोके गीता याताः परं पदम।।
् 20।।

गीता का आौय करके जनक आिद कई राजा पाप रिहत होकर लोक में यशःवी बने हैं
और परम पद को ूा हए
ु हैं |(20)

गीतायाः पठनं कृ त्वा माहात्म्यं नैव यः पठे त।्


वृथा पाठो भवे ःय ौम एव द
ु ाहृतः।।21।।

ौीगीता का पाठ करके जो माहात्म्य का पाठ नहीं करता है उसका पाठ िनंफल होता है
और ऐसे पाठ को ौमरूप कहा है |(21)

एतन्माहात्म्यसंयु ं गीताभ्यासं करोित यः।


स तत्फलमवाप्नोित दलर्
ु भां गितमाप्नुयात।।
् 22।।

इस माहात्म्यसिहत ौीगीता का जो अभ्यास करता है वह उसका फल पाता है और दलर्


ु भ
गित को ूा होता है |(22)

सूत उवाच
माहात्म्यमेतद् गीताया मया ूो ं सनातनम।्
गीतान्ते पठे ःतु यद ु ं तत्फलं लभेत।।
् 23।।

सूत जी बोलेः
गीता का यह सनातन माहात्म्य मैंने कहा | गीता पाठ के अन्त में जो इसका पाठ करता
है वह उपयुर् फल ूा करता है |(23)

इित ौीवाराहपुराणे ौीमद् गीतामाहात्म्यं संपूणम


र् ।्
इित ौीवाराहपुराण में ौीमद् गीता माहात्म्य संपूण।र् ।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
(अनुबम)

ौीगीतामाहात्म्य का अनुसंधान
शौनक उवाच
गीताया व
ै माहात्म्यं यथावत्सूत मे वद।
पुराणमुिनना ूो ं व्यासेन ौुितनोिदतम।।
् 1।।

शौनक ऋिष बोलेः हे सूत जी ! अित पूवक


र् ाल के मुिन ौी व्यासजी के ारा कहा हआ

तथा ौुितयों में विणर्त ौीगीताजी का माहात्म्य मुझे भली ूकार किहए |(1)

सूत उवाच
पृ ं वै भवता य न्महद् गोप्यं पुरातनम।्
न केन शक्यते व ुं गीतामाहात्म्यमु मम।।
् 2।।
सूत जी बोलेः आपने जो पुरातन और उ म गीतामाहात्म्य पूछा, वह अितशय गु है |
अतः वह कहने के िलए कोई समथर् नहीं है |(2)

कृ ंणो जानाित वै सम्यक् क्विचत्कौन्तेय एव च।


व्यासो वा व्यासपुऽो वा याज्ञवल्क्योऽथ मैिथलः।।3।।

गीता माहात्म्य को ौीकृ ंण ही भली ूकार जानते हैं , कुछ अजुन


र् जानते हैं तथा व्यास,
शुकदे व, याज्ञवल्क्य और जनक आिद थोड़ा-बहत
ु जानते हैं |(3)

अन्ये ौवणतः ौृत्वा लोके संकीतर्यिन्त च।


तःमाित्कंिच दाम्य व्यासःयाःयान्मया ौुतम।।
् 4।।

दसरे
ू लोग कण पकणर् सुनकर लोक में वणर्न करते हैं | अतः ौीव्यासजी के मुख से मैंने
जो कुछ सुना है वह आज कहता हँू |(4)

गीता सुगीता कतर्व्या िकमन्यैः शा संमहै ः।


या ःवयं प नाभःय मुखप ाि िनःसृता।।5।।

जो अपने आप ौीिवंणु भगवान के मुखकमल से िनकली हई


ु है गीता अच्छी तरह
कण्ठःथ करना चािहए | अन्य शा ों के संमह से क्या लाभ?(5)
यःमा मर्मयी गीता सवर्ज्ञानूयोिजका।
सवर्शा मयी गीता तःमाद् गीता िविशंयते।।6।।

गीता धमर्मय, सवर्ज्ञान की ूयोजक तथा सवर् शा मय है , अतः गीता ौे है |(6)

संसारसागरं घोरं ततुिर् मच्छित यो जनः।


गीतानावं समारू पारं यातु सुखेन सः।।7।।

जो मनुंय घोर संसार-सागर को तैरना चाहता है उसे गीतारूपी नौका पर चढ़कर


सुखपूवक
र् पार होना चािहए |(7)

गीताशा िमदं पुण्यं यः पठे त ् ूयतः पुमान।्


िवंणोः पदमवाप्नोित भयशोकािदविजर्तः।।8।।

जो पुरुष इस पिवऽ गीताशा को सावधान होकर पढ़ता है वह भय, शोक आिद से रिहत
होकर ौीिवंणुपद को ूा होता है |(8)

गीताज्ञानं ौुतं नैव सदै वाभ्यासयोगतः।


मोक्षिमच्छित मूढात्मा याित बालकहाःयताम।।
् 9।।

िजसने सदै व अभ्यासयोग से गीता का ज्ञान सुना नहीं है िफर भी जो मोक्ष की इच्छा
करता है वह मूढात्मा, बालक की तरह हँ सी का पाऽ होता है |(9)

ये ौृण्विन्त पठन्त्येव गीताशा महिनर्शम।्


न ते वै मानुषा ज्ञेया दे वा एव न संशयः।।10।।

जो रात-िदन गीताशा पढ़ते हैं अथवा इसका पाठ करते हैं या सुनते हैं उन्हें मनुंय नहीं
अिपतु िनःसन्दे ह दे व ही जानें |(10)

मलिनम चनं पुंसां जलःनानं िदने िदने।


सकृ द् गीताम्भिस ःनानं संसारमलनाशनम।।
् 11।।

हर रोज जल से िकया हआ
ु ःनान मनुंयों का मैल दरू करता है िकन्तु गीतारूपी जल में
एक बार िकया हआ
ु ःनान भी संसाररूपी मैल का नाश करता है |(11)
गीताशा ःय जानाित पठनं नैव पाठनम।्
परःमान्न ौुतं ज्ञानं ौ ा न भावना।।12।।
स एव मानुषे लोके पुरुषो िवड्वराहकः।
यःमाद् गीतां न जानाित नाधमःतत्परो जनः।।13।।

जो मनुंय ःवयं गीता शा का पठन-पाठन नहीं जानता है , िजसने अन्य लोगों से वह


नहीं सुना है , ःवयं को उसका ज्ञान नहीं है , िजसको उस पर ौ ा नहीं है , भावना भी नहीं है , वह
मनुंय लोक में भटकते हए
ु शूकर जैसा ही है | उससे अिधक नीच दसरा
ू कोई मनुंय नहीं है ,
क्योंिक वह गीता को नहीं जानता है |

िधक् तःय ज्ञानमाचारं ोतं चे ां तपो यशः।


गीताथर्पठनं नािःत नाधमःतत्परो जन।।14।।

जो गीता के अथर् का पठन नहीं करता उसके ज्ञान को, आचार को, ोत को, चे ा को, तप
को और यश को िधक्कार है | उससे अधम और कोई मनुंय नहीं है |(14)

गीतागीतं न यज्ज्ञानं ति यासुरसंज्ञकम।्


तन्मोघं धमर्रिहतं वेदवेदान्तगिहर् तम।।
् 15।।

जो ज्ञान गीता में नहीं गाया गया है वह वेद और वेदान्त में िनिन्दत होने के कारण उसे
िनंफल, धमर्रिहत और आसुरी जानें |

योऽधीते सततं गीतां िदवाराऽौ यथाथर्तः।


ःवपन्गच्छन्वदं िःत ञ्छा तं मोक्षमाप्नुयात।।
् 16।।

जो मनुंय रात-िदन, सोते, चलते, बोलते और खड़े रहते हए


ु गीता का यथाथर्तः सतत
अध्ययन करता है वह सनातन मोक्ष को ूा होता है |(16)

योिगःथाने िस पीठे िश ामे सत्सभासु च।


यज्ञे च िवंणुभ ामे पठन्याित परां गितम।।
् 17।।

योिगयों के ःथान में, िस ों के ःथान में, ौे पुरुषों के आगे, संतसभा में, यज्ञःथान में
और िवंणुभ ोंके आगे गीता का पाठ करने वाला मनुंय परम गित को ूा होता है |(17)

गीतापाठं च ौवणं यः करोित िदने िदने।


बतवो वािजमेधा ाः कृ ताःतेन सदिक्षणाः।।18।।

जो गीता का पाठ और ौवण हर रोज करता है उसने दिक्षणा के साथ अ मेध आिद यज्ञ
िकये ऐसा माना जाता है |(18)

गीताऽधीता च येनािप भि भावेन चेतसा।


तेन वेदा शा ािण पुराणािन च सवर्शः।।19।।

िजसने भि भाव से एकाम, िच से गीता का अध्ययन िकया है उसने सवर् वेदों, शा ों


तथा पुराणों का अभ्यास िकया है ऐसा माना जाता है |(19)

यः ौृणोित च गीताथ कीतर्येच्च ःवयं पुमान।्


ौावयेच्च पराथ वै स ूयाित परं पदम।।
् 20।।

जो मनुंय ःवयं गीता का अथर् सुनता है , गाता है और परोपकार हे तु सुनाता है वह परम


पद को ूा होता है |(20)

नोपसपर्िन्त तऽैव यऽ गीताचर्नं गृहे।


तापऽयो वाः पीडा नैव व्यािधभयं तथा।।21।।

िजस घर में गीता का पूजन होता है वहाँ (आध्याित्मक, आिधदै िवक और आिधभौितक)
तीन ताप से उत्पन्न होने वाली पीड़ा तथा व्यािधयों का भय नहीं आता है | (21)

न शापो नैव पापं च दगर्


ु ितनं च िकंचन।
दे हेऽरयः षडे ते वै न बाधन्ते कदाचन।।22।।

उसको शाप या पाप नहीं लगता, जरा भी दगर्


ु ित नहीं होती और छः शऽु (काम, बोध,
लोभ, मोह, मद और मत्सर) दे ह में पीड़ा नहीं करते | (22)

भगवत्परमेशाने भि रव्यिभचािरणी।
जायते सततं तऽ यऽ गीतािभनन्दनम।।
् 23।।

जहाँ िनरन्तर गीता का अिभनंदन होता है वहाँ ौी भगवान परमे र में एकिन भि
उत्पन्न होती है | (23)
ःनातो वा यिद वाऽःनातः शुिचवार् यिद वाऽशुिचः।
िवभूितं िव रूपं च संःमरन्सवर्दा शुिचः।।24।।

ःनान िकया हो या न िकया हो, पिवऽ हो या अपिवऽ हो िफर भी जो परमात्म-िवभूित


का और िव रूप का ःमरण करता है वह सदा पिवऽ है | (24)

सवर्ऽ ूितभो ा च ूितमाही च सवर्शः।


गीतापाठं ूकुवार्णो न िलप्येत कदाचन।।25।।

सब जगह भोजन करने वाला और सवर् ूकार का दान लेने वाला भी अगर गीता पाठ
करता हो तो कभी लेपायमान नहीं होता | (25)

यःयान्तःकरणं िनत्यं गीतायां रमते सदा।


सवार्िग्नकः सदाजापी िबयावान्स च पिण्डतः।।26।।

िजसका िच सदा गीता में ही रमण करता है वह संपूणर् अिग्नहोऽी, सदा जप करनेवाला,
िबयावान तथा पिण्डत है | (26)

दशर्नीयः स धनवान्स योगी ज्ञानवानिप।


स एव यािज्ञको ध्यानी सवर्वेदाथर्दशर्कः।।27।।

वह दशर्न करने योग्य, धनवान, योगी, ज्ञानी, यािज्ञक, ध्यानी तथा सवर् वेद के अथर् को
जानने वाला है | (27)

गीतायाः पुःतकं यऽ िनत्यं पाठे ूवतर्ते।


तऽ सवार्िण तीथार्िन ूयागादीिन भूतले।।28।।

जहाँ गीता की पुःतक का िनत्य पाठ होता रहता है वहाँ पृथ्वी पर के ूयागािद सवर् तीथर्
िनवास करते हैं | (28)

िनवसिन्त सदा गेहे दे हेदेशे सदै व िह।


सव दे वा ऋषयो योिगनः पन्नगा ये।।29।।

उस घर में और दे हरूपी दे श में सभी दे वों, ऋिषयों, योिगयों और सप का सदा िनवास


होता है |(29)
गीता गंगा च गायऽी सीता सत्या सरःवती।
ॄ िव ा ॄ वल्ली िऽसंध्या मु गेिहनी।।30।।
अधर्माऽा िचदानन्दा भवघ्नी भयनािशनी।
वेदऽयी पराऽनन्ता त वाथर्ज्ञानमंजरी।।31।।
इत्येतािन जपेिन्नत्यं नरो िन लमानसः।
ज्ञानिसि ं लभेच्छीयं तथान्ते परमं पदम।।
् 32।।

गीता, गंगा, गायऽी, सीता, सत्या, सरःवती, ॄ िव ा, ॄ वल्ली, िऽसंध्या, मु गेिहनी,


अधर्माऽा, िचदानन्दा, भवघ्नी, भयनािशनी, वेदऽयी, परा, अनन्ता और त वाथर्ज्ञानमंजरी
(त वरूपी अथर् के ज्ञान का भंडार) इस ूकार (गीता के) अठारह नामों का िःथर मन से जो
मनुंय िनत्य जप करता है वह शीय ज्ञानिसि और अंत में परम पद को ूा होता है |
(30,31,32)

य त्कमर् च सवर्ऽ गीतापाठं करोित वै।


त त्कमर् च िनद षं कृ त्वा पूणम
र् वाप्नुयात।।
् 33।।

मनुंय जो-जो कमर् करे उसमें अगर गीतापाठ चालू रखता है तो वह सब कमर् िनद षता
से संपूणर् करके उसका फल ूा करता है | (33)

िपतृनु ँय यः ौा े गीतापाठं करोित वै।


संतु ा िपतरःतःय िनरया ािन्त सदगितम।।
् 34।।

जो मनुंय ौा में िपतरों को लआय करके गीता का पाठ करता है उसके िपतृ सन्तु
होते हैं और नकर् से सदगित पाते हैं | (34)

गीतापाठे न संतु ाः िपतरः ौा तिपर्ताः।


िपतृलोकं ूयान्त्येव पुऽाशीवार्दतत्पराः।।35।।

गीतापाठ से ूसन्न बने हए


ु तथा ौा से तृ िकये हए
ु िपतृगण पुऽ को आशीवार्द दे ने
के िलए तत्पर होकर िपतृलोक में जाते हैं | (35)

िलिखत्वा धारयेत्कण्ठे बाहदण्डे


ु च मःतके।
नँयन्त्युपिवाः सव िवघ्नरूपा दारूणाः।।36।।
जो मनुंय गीता को िलखकर गले में, हाथ में या मःतक पर धारण करता है उसके सवर्
िवघ्नरूप दारूण उपिवों का नाश होता है | (36)

दे हं मानुषमािौत्य चातुवण्
र् य तु भारते।
न ौृणोित पठत्येव ताममृतःवरूिपणीम।।
् 37।।
हःता या वाऽमृतं ूा ं क ात्आवेडं सम ुते
पीत्वा गीतामृतं लोके लब्ध्वा मोक्षं सुखी भवेत।।
् 38।।

भरतखण्ड में चार वण में मनुंय दे ह ूा करके भी जो अमृतःवरूप गीता नहीं पढ़ता है
या नहीं सुनता है वह हाथ में आया हआ
ु अमृत छोड़कर क से िवष खाता है | िकन्तु जो मनुंय
गीता सुनता है , पढ़ता तो वह इस लोक में गीतारूपी अमृत का पान करके मोक्ष ूा कर सुखी
होता है | (37, 38)

जनैः संसारदःखातग
ु ताज्ञानं च यैः ौुतम।्
संूा ममृतं तै गताःते सदनं हरे ः।।39।।

संसार के दःखों
ु से पीिड़त िजन मनुंयों ने गीता का ज्ञान सुना है उन्होंने अमृत ूा
िकया है और वे ौी हिर के धाम को ूा हो चुके हैं | (39)

गीतामािौत्य बहवो भूभज


ु ो जनकादयः।
िनधूत
र् कल्मषा लोके गताःते परमं पदम।।
् 40।।

इस लोक में जनकािद की तरह कई राजा गीता का आौय लेकर पापरिहत होकर परम
पद को ूा हए
ु हैं | (40)

गीतासु न िवशेषोऽिःत जनेषूच्चावचेषु च।


ज्ञानेंवेव सममेषु समा ॄ ःवरूिपणी।।41।।

गीता में उच्च और नीच मनुंय िवषयक भेद ही नहीं हैं , क्योंिक गीता ॄ ःवरूप है अतः
उसका ज्ञान सबके िलए समान है | (41)

यः ौुत्वा नैव गीताथ मोदते परमादरात।्


नैवाप्नोित फलं लोके ूमादाच्च वृथा ौमम।।
् 42।।
गीता के अथर् को परम आदर से सुनकर जो आनन्दवान नहीं होता वह मनुंय ूमाद के
कारण इस लोक में फल नहीं ूा करता है िकन्तु व्यथर् ौम ही ूा करता है | (42)

गीतायाः पठनं कृ त्वा माहात्म्यं नैव यः पठे त।्


वृथा पाठफलं तःय ौम एव ही केवलम।।
् 43।।

गीता का पाठ करे जो माहात्म्य का पाठ नहीं करता है उसके पाठ का फल व्यथर् होता है
और पाठ केवल ौमरूप ही रह जाता है |

एतन्माहात्म्यसंयु ं गीतापाठं करोित यः।


ौ या यः ौृणोत्येव दलर्
ु भां गितमाप्नुयात।।
् 44।।

इस माहात्म्य के साथ जो गीता पाठ करता है तथा जो ौ ा से सुनता है वह दलर्


ु भ गित
को ूा होता है |(44)

माहात्म्यमेतद् गीताया मया ूो ं सनातनम।्


गीतान्ते च पठे ःतु यद ु ं तत्फलं लभेत।।
् 45।।

गीता का सनातन माहात्म्य मैंने कहा है | गीता पाठ के अन्त में जो इसका पाठ करता है
वह उपयुर् फल को ूा होता है | (45)
इित ौीवाराहपुराणो तं
ृ ौीमदगीतामाहात्म्यानुसंधानं समा म ् |
इित ौीवाराहपुराणान्तगर्त ौीमदगीतामाहात्म्यानुंसध
ं ान समा |
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

(अनुबम)

गीता में ौीकृ ंण भगवान के नामों के अथर्


अनन्तरूपः िजनके अनन्त रूप हैं वह |
अच्युतः िजनका कभी क्षय नहीं होता, कभी अधोगित नहीं होती वह |
अिरसूदनः ूय के िबना ही शऽु का नाश करने वाले |
कृ ंणः 'कृ ष ्' स ावाचक है | 'ण' आनन्दवाचक है | इन दोनों के एकत्व का सूचक परॄ भी कृ ंण
कहलाता है |
केशवः क माने ॄ को और ईश Ð िशव को वश में रखने वाले |
केिशिनषूदनः घोड़े का आकार वाले केिश नामक दै त्य का नाश करने वाले |
कमलपऽाक्षः कमल के प े जैसी सुन्दर िवशाल आँखों वाले |
गोिवन्दः गो माने वेदान्त वाक्यों के ारा जो जाने जा सकते हैं |
जगत्पितः जगत के पित |
जगिन्नवासः िजनमें जगत का िनवास है अथवा जो जगत में सवर्ऽ बसे हए
ु है |
जनादर् नः द ु जनों को, भ ों के शऽुओं को पीिड़त करने वाले |
दे वदे वः दे वताओं के पूज्य |
दे ववरः दे वताओं में ौे |
पुरुषो मः क्षर और अक्षर दोनों पुरुषों से उ म अथवा शरीररूपी पुरों में रहने वाले पुरुषों यानी
जीवों से जो अित उ म, परे और िवलक्षण हैं वह |
भगवानः ऐ यर्, धमर्, यश, लआमी, वैराग्य और मोक्ष... ये छः पदाथर् दे ने वाले अथवा सवर् भूतों
की उत्पि , ूलय, जन्म, मरण तथा िव ा और अिव ा को जानने वाले |
भूतभावनः सवर्भत
ू ों को उत्पन्न करने वाले |
भूतेशः भूतों के ई र, पित |
मधुसद
ू नः मधु नामक दै त्य को मारने वाले |
महाबाहःू िनमह और अनुमह करने में िजनके हाथ समथर् हैं वह |
माधवः माया के, लआमी के पित |
यादवः यदक
ु ु ल में जन्मे हए
ु |
योगिव मः योग जानने वालों में ौे |
वासुदेवः वासुदेव के पुऽ |
वांणयः वृिंण के ईश, ःवामी |
हिरः संसाररूपी दःख
ु हरने वाले |
(अनुबम)

अजुन
र् के नामों के अथर्
अनघः पापरिहत, िनंपाप |
किपध्वजः िजसके ध्वज पर किप माने हनुमान जी हैं वह |
कुरुौे ः कुरुकुल में उत्पन्न होने वालों में ौे |
कुरुनन्दनः कुरुवंश के राजा के पुऽ |
कुरुूवीरः कुरुकुल में जन्मे हए
ु पुरुषों में िवशेष तेजःवी |
कौन्तेयः कुंती का पुऽ |
गुडाकेशः िनिा को जीतने वाला, िनिा का ःवामी अथवा गुडाक माने िशव िजसके ःवामी हैं वह |
धनंजयः िदिग्वजय में सवर् राजाओं को जीतने वाला |
धनुधरर् ः धनुष को धारण करने वाला |
परं तपः परम तपःवी अथवा शऽुओं को बहत
ु तपाने वाला |
पाथर्ः पृथा माने कुंती का पुऽ |
पुरुषव्यायः पुरुषों में व्याय जैसा |
पुरुषषर्भः पुरुषों में ऋषभ माने ौे |
पाण्डवः पाण्डु का पुऽ |
भरतौे ः भरत के वंशजों में ौे |
भरतस मः भरतवंिशयों में ौे |
भरतषर्भः भरतवंिशयों में ौे |
भारतः भा माने ॄ िव ा में अित ूेमवाला अथवा भरत का वंशज |
महाबाहःु बड़े हाथों वाला |
सव्यसािचन ् बायें हाथ से भी सरसन्धान करने वाला |
(अनुबम)

ौीमद् भगवदगीता

पहले अध्याय का माहात्म्य


ौी पावर्ती जी ने कहाः भगवन ् ! आप सब त वों के ज्ञाता हैं | आपकी कृ पा से मुझे
ौीिवंणु-सम्बन्धी नाना ूकार के धमर् सुनने को िमले, जो समःत लोक का उ ार करने वाले हैं |
दे वेश ! अब मैं गीता का माहात्म्य सुनना चाहती हँू , िजसका ौवण करने से ौीहिर की भि
बढ़ती है |
ौी महादे वजी बोलेः िजनका ौीिवमह अलसी के फूल की भाँित ँयाम वणर् का है , पिक्षराज
गरूड़ ही िजनके वाहन हैं , जो अपनी मिहमा से कभी च्युत नहीं होते तथा शेषनाग की शय्या पर
शयन करते हैं , उन भगवान महािवंणु की हम उपासना करते हैं |
एक समय की बात है | मुर दै त्य के नाशक भगवान िवंणु शेषनाग के रमणीय आसन
पर सुखपूवक
र् िवराजमान थे | उस समय समःत लोकों को आनन्द दे ने वाली भगवती लआमी ने
आदरपूवक
र् ू िकया |
ौीलआमीजी ने पूछाः भगवन ! आप सम्पूणर् जगत का पालन करते हए
ु भी अपने ऐ यर्
के ूित उदासीन से होकर जो इस क्षीरसागर में नींद ले रहे हैं , इसका क्या कारण है ?
ौीभगवान बोलेः सुमिु ख ! मैं नींद नहीं लेता हँू , अिपतु त व का अनुसरण करने वाली
अन्तदृर् ि के ारा अपने ही माहे र तेज का साक्षात्कार कर रहा हँू | यह वही तेज है , िजसका
योगी पुरुष कुशाम बुि के ारा अपने अन्तःकरण में दशर्न करते हैं तथा िजसे मीमांसक िव ान
वेदों का सार-त व िनि चत करते हैं | वह माहे र तेज एक, अजर, ूकाशःवरूप, आत्मरूप, रोग-
शोक से रिहत, अखण्ड आनन्द का पुंज, िनंपन्द तथा ै तरिहत है | इस जगत का जीवन उसी
के अधीन है | मैं उसी का अनुभव करता हँू | दे वे िर ! यही कारण है िक मैं तुम्हें नींद लेता सा
ूतीत हो रहा हँू |
ौीलआमीजी ने कहाः हृिषकेश ! आप ही योगी पुरुषों के ध्येय हैं | आपके अितिर भी
कोई ध्यान करने योग्य त व है , यह जानकर मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है | इस चराचर जगत
की सृि और संहार करने वाले ःवयं आप ही हैं | आप सवर्समथर् हैं | इस ूकार की िःथित में
होकर भी यिद आप उस परम त व से िभन्न हैं तो मुझे उसका बोध कराइये |
ौी भगवान बोलेः िूये ! आत्मा का ःवरूप ै त और अ ै त से पृथक, भाव और अभाव से
मु तथा आिद और अन्त से रिहत है | शु ज्ञान के ूकाश से उपलब्ध होने वाला तथा
परमानन्द ःवरूप होने के कारण एकमाऽ सुन्दर है | वही मेरा ई रीय रूप है | आत्मा का एकत्व
ही सबके ारा जानने योग्य है | गीताशा में इसी का ूितपादन हआ
ु है | अिमत तेजःवी
भगवान िवंणु के ये वचन सुनकर लआमी दे वी ने शंका उपिःथत करे हए
ु कहाः भगवन ! यिद
आपका ःवरूप ःवयं परमानंदमय और मन-वाणी की पहँु च के बाहर है तो गीता कैसे उसका बोध
कराती है ? मेरे इस संदेह का िनवारण कीिजए |
ौी भगवान बोलेः सुन्दरी ! सुनो, मैं गीता में अपनी िःथित का वणर्न करता हँू | बमश
पाँच अध्यायों को तुम पाँच मुख जानो, दस अध्यायों को दस भुजाएँ समझो तथा एक अध्याय
को उदर और दो अध्यायों को दोनों चरणकमल जानो | इस ूकार यह अठारह अध्यायों की
वाङमयी ई रीय मूितर् ही समझनी चािहए | यह ज्ञानमाऽ से ही महान पातकों का नाश करने
वाली है | जो उ म बुि वाला पुरुष गीता के एक या आधे अध्याय का अथवा एक, आधे या
चौथाई ोक का भी ूितिदन अभ्यास करता है , वह सुशमार् के समान मु हो जाता है |
ौी लआमीजी ने पूछाः दे व ! सुशमार् कौन था? िकस जाित का था और िकस कारण से
उसकी मुि हई
ु ?
ौीभगवान बोलेः िूय ! सुशमार् बड़ी खोटी बुि का मनुंय था | पािपयों का तो वह
िशरोमिण ही था | उसका जन्म वैिदक ज्ञान से शून्य और बूरतापूणर् कमर् करने वाले ॄा णों के
कुल में हआ
ु था | वह न ध्यान करता था, न जप, न होम करता था न अितिथयों का सत्कार |
वह लम्पट होने के कारण सदा िवषयों के सेवन में ही लगा रहता था | हल जोतता और प े
बेचकर जीिवका चलाता था | उसे मिदरा पीने का व्यसन था तथा वह मांस भी खाया करता था |
इस ूकार उसने अपने जीवन का दीघर्काल व्यतीत कर िदया | एकिदन मूढ़बुि सुशमार् प े लाने
के िलए िकसी ऋिष की वािटका में घूम रहा था | इसी बीच मे कालरूपधारी काले साँप ने उसे
डँ स िलया | सुशमार् की मृत्यु हो गयी | तदनन्तर वह अनेक नरकों में जा वहाँ की यातनाएँ
भोगकर मृत्युलोक में लौट आया और वहाँ बोझ ढोने वाला बैल हआ
ु | उस समय िकसी पंगु ने
अपने जीवन को आराम से व्यतीत करने के िलए उसे खरीद िलया | बैल ने अपनी पीठ पर पंगु
का भार ढोते हए
ु बड़े क से सात-आठ वषर् िबताए | एक िदन पंगु ने िकसी ऊँचे ःथान पर बहत

दे र तक बड़ी तेजी के साथ उस बैल को घुमाया | इससे वह थककर बड़े वेग से पृथ्वी पर िगरा
और मूिच्छर् त हो गया | उस समय वहाँ कुतूहलवश आकृ हो बहत
ु से लोग एकिऽत हो गये | उस
जनसमुदाय में से िकसी पुण्यात्मा व्यि ने उस बैल का कल्याण करने के िलए उसे अपना
पुण्य दान िकया | तत्प ात ् कुछ दसरे
ू लोगों ने भी अपने-अपने पुण्यों को याद करके उन्हें उसके
िलए दान िकया | उस भीड़ में एक वेँया भी खड़ी थी | उसे अपने पुण्य का पता नहीं था तो भी
उसने लोगों की दे खा-दे खी उस बैल के िलए कुछ त्याग िकया |
तदनन्तर यमराज के दत
ू उस मरे हए
ु ूाणी को पहले यमपुरी में ले गये | वहाँ यह
िवचारकर िक यह वेँया के िदये हए
ु पुण्य से पुण्यवान हो गया है , उसे छोड़ िदया गया िफर वह
भूलोक में आकर उ म कुल और शील वाले ॄा णों के घर में उत्पन्न हआ
ु | उस समय भी उसे
अपने पूवज
र् न्म की बातों का ःमरण बना रहा | बहत
ु िदनों के बाद अपने अज्ञान को दरू करने
वाले कल्याण-त व का िजज्ञासु होकर वह उस वेँया के पास गया और उसके दान की बात
बतलाते हए
ु उसने पूछाः 'तुमने कौन सा पुण्य दान िकया था?' वेँया ने उ र िदयाः 'वह िपंजरे
में बैठा हआ
ु तोता ूितिदन कुछ पढ़ता है | उससे मेरा अन्तःकरण पिवऽ हो गया है | उसी का
पुण्य मैंने तुम्हारे िलए दान िकया था |' इसके बाद उन दोनों ने तोते से पूछा | तब उस तोते ने
अपने पूवज
र् न्म का ःमरण करके ूाचीन इितहास कहना आरम्भ िकया |
शुक बोलाः पूवज
र् न्म में मैं िव ान होकर भी िव ता के अिभमान से मोिहत रहता था |
मेरा राग- े ष इतना बढ़ गया था िक मैं गुणवान िव ानों के ूित भी ईंयार् भाव रखने लगा |
िफर समयानुसार मेरी मृत्यु हो गयी और मैं अनेकों घृिणत लोकों में भटकता िफरा | उसके बाद
इस लोक में आया | सदगुरु की अत्यन्त िनन्दा करने के कारण तोते के कुल में मेरा जन्म हआ

| पापी होने के कारण छोटी अवःथा में ही मेरा माता-िपता से िवयोग हो गया | एक िदन मैं
मींम ऋतु में तपे मागर् पर पड़ा था | वहाँ से कुछ ौे मुिन मुझे उठा लाये और महात्माओं के
आौय में आौम के भीतर एक िपंजरे में उन्होंने मुझे डाल िदया | वहीं मुझे पढ़ाया गया | ऋिषयों
के बालक बड़े आदर के साथ गीता के ूथम अध्याय की आवृि करते थे | उन्हीं से सुनकर मैं
भी बारं बार पाठ करने लगा | इसी बीच में एक चोरी करने वाले बहे िलये ने मुझे वहाँ से चुरा
िलया | तत्प ात ् इस दे वी ने मुझे खरीद िलया | पूवक
र् ाल में मैंने इस ूथम अध्याय का अभ्यास
िकया था, िजससे मैंने अपने पापों को दरू िकया है | िफर उसी से इस वेँया का भी अन्तःकरण
शु हआ
ु है और उसी के पुण्य से ये ि जौे सुशमार् भी पापमु हए
ु हैं |
इस ूकार परःपर वातार्लाप और गीता के ूथम अध्याय के माहात्म्य की ूशंसा करके वे
तीनों िनरन्तर अपने-अपने घर पर गीता का अभ्यास करने लगे, िफर ज्ञान ूा करके वे मु
हो गये | इसिलए जो गीता के ूथम अध्याय को पढ़ता, सुनता तथा अभ्यास करता है , उसे इस
भवसागर को पार करने में कोई किठनाई नहीं होती |

(अनुबम)

पहला अध्यायःअजुन
र् िवषादयोग
भगवान ौीकृ ंण ने अजुन
र् को िनिम बना कर समःत िव को गीता के रूप में जो
महान ् उपदे श िदया है , यह अध्याय उसकी ूःतावना रूप है | उसमें दोनों पक्ष के ूमुख यो ाओं
र् को कुटंु बनाश की आशंका से उत्पन्न हए
के नाम िगनाने के बाद मुख्यरूप से अजुन ु मोहजिनत
िवषाद का वणर्न है |
।। अथ ूथमोऽध्यायः ।।
धृतरा उवाच
धमर्क्षेऽे कुरुक्षेऽे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवा व
ै िकमकुवर्त संजय।।1।।

धृतरा बोलेः हे संजय ! धमर्भिू म कुरुक्षेऽ में एकिऽत, यु की इच्छावाले मेरे पाण्डु के
पुऽों ने क्या िकया? (1)

संजय उवाच
दृ वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दय
ु धनःतदा।
आचायर्मप
ु संङगम्य राजा वचनमॄवीत।।
् 2।।

संजय बोलेः उस समय राजा दय


ु धन ने व्यूहरचनायु पाण्डवों की सेना को दे खकर और
िोणाचायर् के पास जाकर यह वचन कहाः (2)

पँयैतां पाण्डु पुऽाणामाचायर् महतीं चमूम।्


व्यूढां िपदपु
ु ऽेण तव िशंयेण धीमता।।3।।
हे आचायर् ! आपके बुि मान िशंय िपदपु
ु ऽ धृ म्
ु न के ारा व्यूहाकार खड़ी की हई

पाण्डु पुऽों की इस बड़ी भारी सेना को दे िखये |(3)

अऽ शूरा महे ंवासा भीमाजुन


र् समा युिध।
युयुधानो िवराट िपद
ु महारथः।।4।।
धृ केतु ेिकतानः कािशराज वीयर्वान।्
पुरुिजत्कुिन्तभोज शैब्य नरपुंङगवः।।5।।
युधामन्यु िवबान्त उ मौजा वीयर्वान।्
सौभिो िौपदे या सवर् एव महारथाः।।6।।

इस सेना में बड़े -बड़े धनुषों वाले तथा यु में भीम और अजुन
र् के समान शूरवीर सात्यिक
और िवराट तथा महारथी राजा िपद
ु , धृ केतु और चेिकतान तथा बलवान काशीराज, पुरुिजत,
कुिन्तभोज और मनुंयों में ौे शैब्य, पराबमी, युधामन्यु तथा बलवान उ मौजा, सुभिापुऽ
अिभमन्यु और िौपदी के पाँचों पुऽ ये सभी महारथी हैं | (4,5,6)

अःमाकं तु िविश ा ये तािन्नबोध ि जो म।


नायका मम सैन्यःय संञ्ज्ञाथ तान्ॄवीिम ते।।7।।

हे ॄा णौे ! अपने पक्ष में भी जो ूधान हैं , उनको आप समझ लीिजए | आपकी
जानकारी के िलए मेरी सेना के जो-जो सेनापित हैं , उनको बतलाता हँू |

भवान्भींम कणर् कृ प सिमितंञ्जयः।


अ त्थामा िवकणर् सौमदि ःतथैव च।।8।।

आप, िोणाचायर् और िपतामह भींम तथा कणर् और संमामिवजयी कृ पाचायर् तथा वैसे ही
अ त्थामा, िवकणर् और सोमद का पुऽ भूिरौवा | (8)

अन्ये च बहवः शूरा मदथ त्य जीिवताः।


नानाश ूहरणाः सव यु िवशारदाः।।9।।

और भी मेरे िलए जीवन की आशा त्याग दे ने वाले बहत


ु से शूरवीर अनेक ूकार के
अ ों-श ों से सुसिज्जत और सब के सब यु में चतुर हैं | (9)

अपयार् ं तदःमाकं बलं भींमािभरिक्षतम।्


पयार् ं ित्वदमेतेषां बलं भीमािभरिक्षतम।।
् 10।।

भींम िपतामह ारा रिक्षत हमारी वह सेना सब ूकार से अजेय है और भीम ारा रिक्षत
इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है | (10)

अयनेषु च सवषु यथाभागमविःथताः।


भींममेवािभरक्षन्तु भवन्तः सवर् एव िह।।11।।

इसिलए सब मोच पर अपनी-अपनी जगह िःथत रहते हए


ु आप लोग सभी िनःसंदेह
भींम िपतामह की ही सब ओर से रक्षा करें | (11)

संजय उवाच
तःय संञ्जनयन्हष कुरुवृ ः िपतामहः।
िसंहनादं िवन ोच्चैः शंख्ङं दध्मौ ूतापवान।।
् 12।।

कौरवों में वृ बड़े ूतापी िपतामह भींम ने उस दय


ु धन के हृदय में हषर् उत्पन्न करते
हए
ु उच्च ःवर से िसंह की दहाड़ के समान गरजकर शंख बजाया | (12)

ततः शंख्ङा भेयर् पणवानकगोमुखाः।


सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दःतुमल
ु ोऽभवत।।
् 13।।

इसके प ात शंख और नगारे तथा ढोल, मृदंग और नरिसंघे आिद बाजे एक साथ ही बज
उठे | उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हआ
ु | (13)

ततः ेतैहर्यय
ै ुर् े महित ःयन्दने िःथतौ।
माधवः पाण्डव व
ै िदव्यौ शंख्ङौ ूदध्मतुः।।14।।

इसके अनन्तर सफेद घोड़ों से यु उ म रथ में बैठे हए


ु ौीकृ ंण महाराज और अजुन
र् ने
भी अलौिकक शंख बजाये |(14)

पाञ्चजन्यं हृिषकेशो दे वद ं धनञ्जयः।


पौण्सं दध्मौ महाशंख्ङं भीमकमार् वृकोदरः।।15।।

ौीकृ ंण महाराज ने पाञ्चजन्य नामक, अजुन


र् ने दे वद नामक और भयानक कमर्वाले
भीमसेन ने पौण्स नामक महाशंख बजाया | (15)
अनन्तिवजयं राजा कुन्तीपुऽो युिधि रः।
नकुलः सहदे व सुघोषमिणपुंपकौ।।16।।

कुन्तीपुऽ राजा युिधि र ने अनन्तिवजय नामक और नकुल तथा सहदे व ने सुघोष और


मिणपुंपकनामक शंख बजाये | (16)

काँय परमेंवासः िशखण्डी च महारथः।


धृ म्
ु नो िवराट साित्यक ापरािजतः।।17।।
िपदो
ु िौपदे या सवर्शः पृिथवीपते।
सौभि महाबाहःु शंख्ङान्दध्मुः पृथक् पृथक् ।।18।।

ौे धनुष वाले कािशराज और महारथी िशखण्डी और धृ म्


ु न तथा राजा िवराट और
अजेय सात्यिक, राजा िपद
ु और िौपदी के पाँचों पुऽ और बड़ी भुजावाले सुभिापुऽ अिभमन्यु-इन
सभी ने, हे राजन ! सब ओर से अलग-अलग शंख बजाये |

स घोषो धातर्रा ाणां हृदयािन व्यदारयत।्


नभ पृिथवीं चैव तुमल
ु ो व्यनुनादयन।।
् 19।।

और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुंजाते हए


ु धातर्रा ों के अथार्त ्
आपके पक्ष वालों के हृदय िवदीणर् कर िदये | (19)

अथ व्यविःथतान्दृंट्वा धातर्रा ान ् किपध्वजः।


ूवृ े श सम्पाते धनुरु म्य पाण्डवः।।20।।
हृिषकेशं तदा वाक्यिमदमाह महीपते।
अजुन
र् उवाच
सेनयोरुभयोमर्ध्ये रथं ःथापय मेऽच्युत।।21।।

हे राजन ! इसके बाद किपध्वज अजुन


र् ने मोचार् बाँधकर डटे हए धृतरा सम्बिन्धयों को
दे खकर, उस श चलाने की तैयारी के समय धनुष उठाकर हृिषकेश ौीकृ ंण महाराज से यह
वचन कहाः हे अच्युत ! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीिजए |

यावदे तािन्नरीक्षेऽहं योद्ीुकामानविःथतान।्


कैमर्या सह यो व्यमिःमन ् रणसमु मे।।22।।
और जब तक िक मैं यु क्षेऽ में डटे हए
ु यु के अिभलाषी इन िवपक्षी यो ाओं को भली
ूकार दे ख न लूँ िक इस यु रुप व्यापार में मुझे िकन-िकन के साथ यु करना योग्य है , तब
तक उसे खड़ा रिखये | (22)

योत्ःयमानानवेक्षेऽहं य एतेऽऽ समागताः।


धातर्रा ःय दबु
ु र् े युर् े िूयिचकीषर्वः।।23।।

दबु
ु िर् दय
ु धन का यु में िहत चाहने वाले जो-जो ये राजा लोग इस सेना में आये हैं ,
इन यु करने वालों को मैं दे खूँगा | (23)

संजयउवाच
एवमु ो हृिषकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोमर्ध्ये ःथापियत्वा रथो मम।।
् 24।।
भींमिोणूमुखतः सवषां च महीिक्षताम।्
उवाच पाथर् पँयैतान ् समवेतान ् कुरुिनित।।25।।

संजय बोलेः हे धृतरा ! अजुन


र् ारा इस ूकार कहे हए
ु महाराज ौीकृ ंणचन्ि ने दोनों
सेनाओं के बीच में भींम और िोणाचायर् के सामने तथा सम्पूणर् राजाओं के सामने उ म रथ को
खड़ा करके इस ूकार कहा िक हे पाथर् ! यु के िलए जुटे हए
ु इन कौरवों को दे ख | (24,25)

तऽापँयित्ःथतान ् पाथर्ः िपतृनथ िपतामहान।्


आचायार्न्मातुलान्ॅातृन्पुऽान्पौऽान्सखींःतथा।।26।।
शुरान ् सुहृद व
ै सेनयोरूभयोरिप।
तान्समीआय स कौन्तेय़ः सवार्न्बन्धूनविःथतान।।
् 27।।
कृ पया परयािव ो िवषीदिन्नमॄवीत।्

इसके बाद पृथापुऽ अजुन


र् ने उन दोनों सेनाओं में िःथत ताऊ-चाचों को, दादों-परदादों को,
गुरुओं को, मामाओं को, भाइयों को, पुऽों को, पौऽों को तथा िमऽों को, ससुरों को और सुहृदों को
भी दे खा | उन उपिःथत सम्पूणर् बन्धुओं को दे खकर वे कुन्तीपुऽ अजुन
र् अत्यन्त करूणा से यु
होकर शोक करते हए
ु यह वचन बोले |(26,27)

अजुन
र् उवाच
दृंट्वेमं ःवजनं कृ ंण युयुत्सुं समुपिःथतम।।
् 28।
सीदिन्त मम गाऽािण मुखं च पिरशुंयित।
वेपथु शरीरे मे रोमहषर् जायते।।29।।

अजुन
र् बोलेः हे कृ ंण ! यु क्षेऽ में डटे हए
ु यु के अिभलाषी इस ःवजन-समुदाय को
दे खकर मेरे अंग िशिथल हए
ु जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कम्प और
रोमांच हो रहा है |

गाण्डीवं स
ं ते हःता वक्चैव पिरद ते।
न च शक्नोम्यवःथातुं ॅमतीव च मे मनः।।30।।

हाथ से गाण्डीव धनुष िगर रहा है और त्वचा भी बहत


ु जल रही है तथा मेरा मन ॅिमत
हो रहा है , इसिलए मैं खड़ा रहने को भी समथर् नहीं हँू |(30)

िनिम ािन च पँयािम िवपरीतािन केशव।


न च ौेयोऽनुपँयािम हत्वा ःवजनमाहवे।।31।।

हे केशव ! मैं लआणों को भी िवपरीत दे ख रहा हँू तथा यु में ःवजन-समुदाय को मारकर
कल्याण भी नहीं दे खता | (31)

न कांक्षे िवजयं कृ ंण न च राज्यं सुखािन च।


िकं नो राज्येन गोिवन्द िकं भोगैज िवतेन वा।।32।।
हे कृ ंण ! मैं न तो िवजय चाहता हँू और न राज्य तथा सुखों को ही | हे गोिवन्द ! हमें
ऐसे राज्य से क्या ूयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है ? (32)

येषामथ कांिक्षतं नो राज्यं भोगाः सुखािन च।


त इमेऽविःथता यु े ूाणांःत्य वा धनािन च।।33।।

हमें िजनके िलए राज्य, भोग और सुखािद अभी हैं , वे ही ये सब धन और जीवन की


आशा को त्यागकर यु में खड़े हैं | (33)

आचायार्ः िपतरः पुऽाःतथैव च िपतामहाः।


मातुलाः शुराः पौऽाः ँयालाः सम्बिन्धनःतथा।।34।।
गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी ूकार दादे , मामे, ससुर, पौऽ, साले तथा और भी
सम्बन्धी लोग हैं | (34)

एतान्न हन्तुिमच्छािम घ्नतोऽिप मधुसद


ू न।
अिप ऽैलोक्यराज्यःय हे तोः िकं नु महीकृ ते।।35।।

हे मधुसद
ू न ! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के िलए भी मैं इन सबको
मारना नहीं चाहता, िफर पृथ्वी के िलए तो कहना ही क्या? (35)

िनहत्य धातर्रा ान्नः का ूीितः ःयाज्जनादर् न।


पापमेवाौयेदःमान ् हत्वैतानातताियनः।।36।।

हे जनादर् न ! धृतरा के पुऽों को मारकर हमें क्या ूसन्नता होगी? इन आततािययों को


मारकर तो हमें पाप ही लगेगा | (36)

तःमान्नाहार् वयं हन्तुं धातर्रा ान ् ःवबान्धवान।्


ःवजनं िह कथं हत्वा सुिखनः ःयाम माधव।।37।।

अतएव हे माधव ! अपने ही बान्धव धृतरा के पुऽों को मारने के िलए हम योग्य नहीं

हैं , क्योंिक अपने ही कुटम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे? (37)

य प्येते न पँयिन्त लोभोपहतचेतसः।


कुलक्षयकृ तं दोषं िमऽिोहे च पातकम।।
् 38।।
कथं न ज्ञेयमःमािभः पापादःमािन्नवितर्तुम।्
कुलक्षयकृ तं दोषं ूपँयि जर्नादर् न।।39।।

य िप लोभ से ॅ िच हए
ु ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और िमऽों से
िवरोध करने में पाप को नहीं दे खते, तो भी हे जनादर् न ! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को
जाननेवाले हम लोगों को इस पाप से हटने के िलए क्यों नहीं िवचार करना चािहए?

कुलक्षये ूणँयिन्त कुलधमार्ः सनातनाः।


धम न े कुलं कृ त्ःनमधम ऽिभभवत्युत।।40।।

कुल के नाश से सनातन कुलधमर् न हो जाते हैं , धमर् के नाश हो जाने पर सम्पूणर् कुल
में पाप भी बहत
ु फैल जाता है |(40)

अधमार्िभभवात्कृ ंण ूदंयिन्त
ु कुलि यः।
ीषु द ु ासु वांणय जायते वणर्सक
ं रः।।41।।
हे कृ ंण ! पाप के अिधक बढ़ जाने से कुल की ि याँ अत्यन्त दिषत
ू हो जाती हैं और हे
वांणय ! ि यों के दिषत
ू हो जाने पर वणर्सक
ं र उत्पन्न होता है |(41)

संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलःय च।


पतिन्त िपतरो ेषां लु िपण्डोदकिबयाः।।42।।

वणर्सक
ं र कुलघाितयों को और कुल को नरक में ले जाने के िलए ही होता है | लु हई

िपण्ड और जल की िबयावाले अथार्त ् ौा और तपर्ण से वंिचत इनके िपतर लोग भी अधोगित
को ूा होते हैं |(42)

दोषैरेतैः कुलघ्नानां वणर्सक


ं रकारकैः।
उत्सा न्ते जाितधमार्ः कुलधमार् शा ताः।।43।।

इन वणर्सक
ं रकारक दोषों से कुलघाितयों के सनातन कुल धमर् और जाित धमर् न हो
जाते हैं | (43)

उत्सन्कुलधमार्णां मनुंयाणां जनादर् न।


नरकेऽिनयतं वासो भवतीत्यनुशुौम
ु ।।44।।

हे जनादर् न ! िजनका कुलधमर् न हो गया है , ऐसे मनुंयों का अिनि त काल तक नरक


में वास होता है , ऐसा हम सुनते आये हैं |

अहो बत महत्पापं कतु व्यविसता वयम।्


यिाज्यसुखलोभेन हन्तुं ःवजनमु ताः।।45।।

हा ! शोक ! हम लोग बुि मान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गये हैं , जो
राज्य और सुख के लोभ से ःवजनों को मारने के िलए उ त हो गये हैं | (45)

यिद मामूतीकारमश ं श पाणयः।


धातर्रा ा रणे हन्युःतन्मे क्षेमतरं भवेत।।
् 46।।

यिद मुझ श रिहत और सामना न करने वाले को श हाथ में िलए हए


ु धृतरा के पुऽ
रण में मार डालें तो वह मारना भी मेरे िलए अिधक कल्याणकारक होगा | (46)

संजय उवाच
एवमु वाजुन
र् ः संख्ये रथोपःथ उपािवशत।्
िवसृज्य सशरं चापं शोकसंिवग्नमानसः।।47।।
संजय बोलेः रणभूिम में शोक से उि ग्न मन वाले अजुन
र् इस ूकार कहकर, बाणसिहत
धनुष को त्यागकर रथ के िपछले भाग में बैठ गये |(47 |
ॐ तत्सिदित ौीमदभगवदगीतासूपिनषत्सु ॄ िव ायां योगशा े
ौीकृ ंणाजुन
र् संवादे अजुन
र् िवषादयोगो नाम ूथमोऽध्यायः | |1 | |
इस ूकार उपिनषद, ॄ िव ा तथा योगशा रूप ौीमदभगवदगीता के
ौीकृ ंण-अजुन
र् संवाद में 'अजुन
र् िवषादयोग' नामक ूथम अध्याय संपूणर् हआ
ु |
(अनुबम)

दसरे
ू अध्याय का माहात्म्य
ौी भगवान कहते हैं - लआमी ! ूथम अध्याय के माहात्म्य का उपाख्यान मैंने सुना िदया |
अब अन्य अध्यायों के माहात्मय ौवण करो | दिक्षण िदशा में वेदवे ा ॄा णों के पुरन्दरपुर
नामक नगर में ौीमान दे वशमार् नामक एक िव ान ॄा ण रहते थे | वे अितिथयों के पूजक
ःवाध्यायशील, वेद-शा ों के िवशेषज्ञ, यज्ञों का अनु ान करने वाले और तपिःवयों के सदा ही
िूय थे | उन्होंने उ म िव्यों के ारा अिग्न में हवन करके दीघर्काल तक दे वताओं को तृ िकया,
िकंतु उन धमार्त्मा ॄा ण को कभी सदा रहने वाली शािन्त न िमली | वे परम कल्याणमय त व
का ज्ञान ूा करने की इच्छा से ूितिदन ूचुर सामिमयों के ारा सत्य संकल्पवाले तपिःवयों
की सेवा करने लगे | इस ूकार शुभ आचरण करते हए
ु उनके समक्ष एक त्यागी महात्मा ूकट
हए
ु | वे पूणर् अनुभवी, शान्तिच थे | िनरन्तर परमात्मा के िचन्तन में संलग्न हो वे सदा आनन्द
िवभोर रहते थे | दे वशमार् ने उन िनत्य सन्तु तपःवी को शु भाव से ूणाम िकया और पूछाः
'महात्मन ! मुझे शािन्तमयी िःथती कैसे ूा होगी?' तब उन आत्मज्ञानी संत ने दे वशमार् को
सौपुर माम के िनवासी िमऽवान का, जो बकिरयों का चरवाहा था, पिरचय िदया और कहाः 'वही
तुम्हें उपदे श दे गा |'
यह सुनकर दे वशमार् ने महात्मा के चरणों की वन्दना की और समृ शाली सौपुर माम में
पहँु चकर उसके उ र भाग में एक िवशाल वन दे खा | उसी वन में नदी के िकनारे एक िशला पर
िमऽवान बैठा था | उसके नेऽ आनन्दाितरे क से िन ल हो रहे थे, वह अपलक दृि से दे ख रहा
था | वह ःथान आपस का ःवाभािवक वैर छोड़कर एकिऽत हए
ु परःपर िवरोधी जन्तुओं से िघरा
था | जहाँ उ ान में मन्द-मन्द वायु चल रही थी | मृगों के झुण्ड शान्तभाव से बैठे थे और
िमऽवान दया से भरी हई
ु आनन्दमयी मनोहािरणी दृि से पृथ्वी पर मानो अमृत िछड़क रहा था |
इस रूप में उसे दे खकर दे वशमार् का मन ूसन्न हो गया | वे उत्सुक होकर बड़ी िवनय के साथ
िमऽवान के पास गये | िमऽवान ने भी अपने मःतक को िकंिचत ् नवाकर दे वशमार् का सत्कार
िकया | तदनन्तर िव ान दे वशमार् अनन्य िच से िमऽवान के समीप गये और जब उसके ध्यान
का समय समा हो गया, उस समय उन्होंने अपने मन की बात पूछीः 'महाभाग ! मैं आत्मा का
ज्ञान ूा करना चाहता हँू | मेरे इस मनोरथ की पूितर् के िलए मुझे िकसी उपाय का उपदे श
कीिजए, िजसके ारा िसि ूा हो चुकी हो |'
दे वशमार् की बात सुनकरक िमऽवान ने एक क्षण तक कुछ िवचार िकया | उसके बाद इस
ूकार कहाः 'िव न ! एक समय की बात है | मैं वन के भीतर बकिरयों की रक्षा कर रहा था |
इतने में ही एक भयंकर व्याय पर मेरी दृि पड़ी, जो मानो सब को मास लेना चाहता था | मैं
मृत्यु से डरता था, इसिलए व्याय को आते दे ख बकिरयों के झुड
ं को आगे करके वहाँ से भाग
चला, िकंतु एक बकरी तुरन्त ही सारा भय छोड़कर नदी के िकनारे उस बाघ के पास बेरोकटोक
चली गयी | िफर तो व्याय भी े ष छोड़कर चुपचाप खड़ा हो गया | उसे इस अवःथा में दे खकर
बकरी बोलीः 'व्याय ! तुम्हें तो अभी भोजन ूा हआ
ु है | मेरे शरीर से मांस िनकालकर
ूेमपूवक
र् खाओ न ! तुम इतनी दे र से खड़े क्यों हो? तुम्हारे मन में मुझे खाने का िवचार क्यों
नहीं हो रहा है ?'
व्याय बोलाः बकरी ! इस ःथान पर आते ही मेरे मन से े ष का भाव िनकल गया | भूख
प्यास भी िमट गयी | इसिलए पास आने पर भी अब मैं तुझे खाना नहीं चाहता |
व्याय के यों कहने पर बकरी बोलीः 'न जाने मैं कैसे िनभर्य हो गयी हँू | इसका क्या
कारण हो सकता है ? यिद तुम जानते हो तो बताओ |' यह सुनकर व्याय ने कहाः 'मैं भी नहीं
जानता | चलो सामने खड़े हए
ु इन महापुरुष से पुछें |' ऐसा िन य करके वे दोनों वहाँ से चल
िदये | उन दोनों के ःवभाव में यह िविचऽ पिरवतर्न दे खकर मैं बहत
ु िवःमय में पड़ा था | इतने
में उन्होंने मुझसे ही आकर ू िकया | वहाँ वृक्ष की शाखा पर एक वानरराज था | उन दोनों
साथ मैंने भी वानरराज से पूछा | िवूवर ! मेरे पूछने पर वानरराज ने आदरपूवक
र् कहाः
'अजापाल! सुनो, इस िवषय में मैं तुम्हें ूाचीन वृ ान्त सुनाता हँू | यह सामने वन के भीतर जो
बहत
ु बड़ा मिन्दर है , उसकी ओर दे खो इसमें ॄ ाजी का ःथािपत िकया हआ
ु एक िशविलंग है |
पूवक
र् ाल में यहाँ सुकमार् नामक एक बुि मान महात्मा रहते थे, जो तपःया में संलग्न होकर इस
मिन्दर में उपासना करते थे | वे वन में से फूलों का संमह कर लाते और नदी के जल से
पूजनीय भगवान शंकर को ःनान कराकर उन्हीं से उनकी पूजा िकया करते थे | इस ूकार
आराधना का कायर् करते हए
ु सुकमार् यहाँ िनवास करते थे | बहत
ु समय के बाद उनके समीप
िकसी अितिथ का आगमन हआ
ु | सुकमार् ने भोजन के िलए फल लाकर अितिथ को अपर्ण िकया
और कहाः 'िव न ! मैं केवल त वज्ञान की इच्छा से भगवान शंकर की आराधना करता हँू | आज
इस आराधना का फल पिरपक्व होकर मुझे िमल गया क्योंिक इस समय आप जैसे महापुरुष ने
मुझ पर अनुमह िकया है |
सुकमार् के ये मधुर वचन सुनकर तपःया के धनी महात्मा अितिथ को बड़ी ूसन्नता हई
ु |
उन्होंने एक िशलाखण्ड पर गीता का दसरा
ू अध्याय िलख िदया और ॄा ण को उसके पाठ और
अभ्यास के िलए आज्ञा दे ते हए
ु कहाः 'ॄ न ् ! इससे तुम्हारा आत्मज्ञान-सम्बन्धी मनोरथ अपने-
आप सफल हो जायेगा |' यह कहकर वे बुि मान तपःवी सुकमार् के सामने ही उनके दे खते-दे खते
अन्तधार्न हो गये | सुकमार् िविःमत होकर उनके आदे श के अनुसार िनरन्तर गीता के ि तीय
अध्याय का अभ्यास करने लगे | तदनन्तर दीघर्काल के प ात ् अन्तःकरण शु होकर उन्हें
आत्मज्ञान की ूाि हई
ु िफर वे जहाँ-जहाँ गये, वहाँ-वहाँ का तपोवन शान्त हो गया | उनमें
शीत-उंण और राग- े ष आिद की बाधाएँ दरू हो गयीं | इतना ही नहीं, उन ःथानों में भूख-प्यास
का क भी जाता रहा तथा भय का सवर्था अभाव हो गया | यह सब ि तीय अध्याय का जप
करने वाले सुकमार् ॄा ण की तपःया का ही ूभाव समझो |
िमऽवान कहता है ः वानरराज के यों कहने पर मैं ूसन्नता पूवक
र् बकरी और व्याय के
साथ उस मिन्दर की ओर गया | वहाँ जाकर िशलाखण्ड पर िलखे हए
ु गीता के ि तीय अध्याय
को मैंने दे खा और पढ़ा | उसी की आवृि करने से मैंने तपःया का पार पा िलया है | अतः
भिपुरुष ! तुम भी सदा ि तीय अध्याय की ही आवृि िकया करो | ऐसा करने पर मुि तुमसे
दरू नहीं रहे गी |
ौीभगवान कहते हैं - िूये ! िमऽवान के इस ूकार आदे श दे ने पर दे वशमार् ने उसका
पूजन िकया और उसे ूणाम करके पुरन्दरपुर की राह ली | वहाँ िकसी दे वालय में पूव
आत्मज्ञानी महात्मा को पाकर उन्होंने यह सारा वृ ान्त िनवेदन िकया और सबसे पहले उन्हीं से
ि तीय अध्याय को पढ़ा | उनसे उपदे श पाकर शु अन्तःकरण वाले दे वशमार् ूितिदन बड़ी ौ ा
के साथ ि तीय अध्याय का पाठ करने लगे | तबसे उन्होंने अनव (ूशंसा के योग्य) परम पद
को ूा कर िलया | लआमी ! यह ि तीय अध्याय का उपाख्यान कहा गया |

(अनुबम)

दसरा
ू अध्यायः सांख्ययोग
पहले अध्याय में गीता में कहे हए
ु उपदे श की ूःतावना रूप दोनों सेनाओं के महारिथयों
की तथा शंखध्विनपूवक
र् अजुन
र् का रथ दोनों सेनाओं के बीच खड़ा रखने की बात कही गयी | बाद

में दोनों सेनाओं में खड़े अपने कुटम्बी और ःवजनों को दे खकर, शोक और मोह के कारण अजुन
र्
यु करने से रुक गया और अ -श छोड़कर िवषाद करने बैठ गया | यह बात कहकर उस
अध्याय की समाि की | बाद में भगवान ौीकृ ंण ने उन्हें िकस ूकार िफर से यु के िलए
तैयार िकया, यह सब बताना आवँयक होने से संजय अजुन
र् की िःथित का वणर्न करते हए

दसरा
ू अध्याय ूारं भ करता है |
।। अथ ि तीयोऽध्यायः ।।
संजय उवाच
तं तथा कृ पयािव मौुपूणार्कुलेक्षणम।्
िवषीदन्तिमदं वाक्यमुवाच मधुसद
ू नः।।1।।

संजय बोलेः उस ूकार करुणा से व्या और आँसओ


ू ं से पूणर् तथा व्याकुल नेऽों वाले
शोकयु उस अजुन
र् के ूित भगवान मधुसद
ू न ने ये वचन कहा |(1)

ौीभगवानुवाच
कुतःत्वा कँमलिमदं िवषमे समुपिःथतम।्
अनायर्जु मःवग्यर्मकीितर्करमजुन
र् ।।2।।
क्लैब्यं मा ःम गमः पाथर् नैत वय्युपप ते।
क्षुिं हृदयदौबर्ल्यं त्य वोि परं तप।।3।।

ौी भगवान बोलेः हे अजुन


र् ! तुझे इस असमय में यह मोह िकस हे तु से ूा हआ
ु ?
क्योंिक न तो यह ौे पुरुषों ारा आचिरत है , न ःवगर् को दे ने वाला है और न कीितर् को करने
वाला ही है | इसिलए हे अजुन
र् ! नपुस
ं कता को मत ूा हो, तुझमें यह उिचत नहीं जान पड़ती |
हे परं तप ! हृदय की तुच्छ दबर्
ु लता को त्यागकर यु के िलए खड़ा हो जा | (2,3)

अजुन
र् उवाच
कथं भींममहं संख्ये िोणं च मधुसद
ू न।
इषुिभः ूितयोत्ःयािम पूजाहार्विरसूदन।।4।।

अजुन
र् बोलेः हे मधुसद
ू न ! मैं रणभूिम में िकस ूकार बाणों से भींम िपतामह और
िोणाचायर् के िवरु लड़ू ँ गा? क्योंिक हे अिरसूदन ! वे दोनों ही पूजनीय हैं |(4)

गुरुनहत्वा िह महानुभावा-
ञ्ले यो भो ुं भैआयमपीह लोके।
हत्वाथर्कामांःतु गुरुिनहै व
भुंजीय भोगान ् रुिधरूिदग्धान।।
् 5।।
इसिलए इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में िभक्षा का अन्न भी खाना
कल्याणकारक समझता हँू , क्योंिक गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुिधर से सने हए
ु अथर्
और कामरूप भोगों को ही तो भोगूग
ँ ा |(5)

न चैति ः कतरन्नो गरीयो-


य ा जयेम यिद वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न िजजीिवषाम-
ःतेऽविःथताः ूमुखे धातर्रा ाः।।6।।

हम यह भी नहीं जानते िक हमारे िलए यु करना और न करना Ð इन दोनों में से


कौन-सा ौे है , अथवा यह भी नहीं जानते िक उन्हे हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे और
िजनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतरा के पुऽ हमारे मुकाबले में
खड़े हैं |(6)

कापर्ण्दोषोपहतःवभावः
पृच्छािम त्वां धमर्सम्मूढचेताः।
यच्ले यः ःयािन्नि तं ॄूिह तन्मे
िशंयःतेऽहं शािध मां त्वां ूपन्नम।।
् 7।।

इसिलए कायरतारूप दोष से उपहत हए


ु ःवभाववाला तथा धमर् के िवषय में मोिहत िच
हआ
ु मैं आपसे पूछता हँू िक जो साधन िनि त कल्याणकारक हो, वह मेरे िलए किहए क्योंिक मैं
आपका िशंय हँू , इसिलए आपके शरण हए
ु मुझको िशक्षा दीिजए |

न िह ूपँयािम ममापनु ा-
च्छोकमुच्छोषणिमिन्ियाणाम।्
अवाप्य भूमावसप मृ ं -
राज्यं सुराणामिप चािधपत्यम।।
् 8।।

क्योंिक भूिम में िनंकण्टक, धन-धान्यसम्पन्न राज्य को और दे वताओं के ःवामीपने को


ूा होकर भी मैं उस उपाय को नहीं दे खता हँू , जो मेरी इिन्ियों को सुखाने वाले शोक को दरू
कर सके |

संजय उवाच
एवमु वा हृिषकेशं गुडाकेशः परन्तप।
न योत्ःय इित गोिवन्दमु वा तूंणीं बभूव ह।।9।।

संजय बोलेः हे राजन ! िनिा को जीतने वाले अजुन


र् अन्तयार्मी ौीकृ ंण महाराज के ूित
इस ूकार कहकर िफर ौी गोिवन्द भगवान से 'यु नहीं करूँगा' यह ःप कहकर चुप हो गये
|(9)

तमुवाच हृिषकेशः ूहसिन्नव भारत।


सेनयोरुभयोमर्ध्ये िवषीदन्तिमदं वचः।।10।।

हे भरतवंशी धृतरा ! अन्तयार्मी ौीकृ ंण महाराज ने दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते
हए
ु उस अजुन
र् को हँ सते हए
ु से यह वचन बोले |(10)

ौी भगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचःत्वं ूज्ञावादां भाषसे।
गतासूनगतासूं नानुशोचिन्त पिण्डताः।।11।।

ौी भगवान बोलेः हे अजुन


र् ! तू न शोक करने योग्य मनुंयों के िलए शोक करता है और
पिण्डतों के जैसे वचनों को कहता है , परन्तु िजनके ूाण चले गये हैं , उनके िलए और िजनके
ूाण नहीं गये हैं उनके िलए भी पिण्डतजन शोक नहीं करते | (11)

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनािधपाः।


न चैव न भिवंयामः सव वयमतः परम।।
् 12।।
न तो ऐसा ही है िक मैं िकसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे
और न ऐसा ही है िक इससे आगे हम सब नहीं रहें गे |(12)

दे िहनोऽिःमन्यथा दे हे कौमारं यौवनं जरा।


तथा दे हान्तरूाि ध रःतऽ न मु ित।।13।।

जैसे जीवात्मा की इस दे ह में बालकपन, जवानी और वृ ावःथा होती है , वैसे ही अन्य


शरीर की ूाि होती है , उस िवषय में धीर पुरुष मोिहत नहीं होता |

माऽाःपशार्ःतु कौन्तेय शीतोंणसुखदःखदाः।



आगमापाियनोऽिनत्याःतांिःतितक्षःव भारत।।14।।
हे कुन्तीपुऽ ! सद -गम और सुख-दःख
ु दे ने वाले इिन्िय और िवषयों के संयोग तो
उत्पि -िवनाशशील और अिनत्य हैं , इसिलए हे भारत ! उसको तू सहन कर |(14)

यं िह न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषषर्भ।


समदःखसु
ु खं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।15।।

क्योंिक हे पुरुषौे ! दःख


ु -सुख को समान समझने वाले िजस धीर पुरुष को ये इिन्िय
और िवषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है |(15)

नासतो िव ते भावो नाभावो िव ते सतः।


उभयोरिप दृ ोऽन्तःत्वनयोःत वदिशर्िभः।।16।।

असत ् वःतु की स ा नहीं है और सत ् का अभाव नहीं है | इस ूकार त वज्ञानी पुरुषों


ारा इन दोनों का ही त व दे खा गया है | (16)

अिवनािश तु ति ि येन सवर्िमदं ततम।्


िवनाशमव्ययःयाःय न कि त्कतुम
र् हर् ित।।17।।

नाशरिहत तो तू उसको जान, िजससे यह सम्पूणर् जगत दृँयवगर् व्या है | इस अिवनाशी


का िवनाश करने में भी कोई समथर् नहीं है | (17)

अन्तवन्त इमे दे हा िनत्यःयो ाः शरीिरणः।


अनािशनोऽूमेयःय तःमा ध्
ु यःव भारत।।18।।

इस नाशरिहत, अूमेय, िनत्यःवरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गये हैं |


इसिलए हे भरतवंशी अजुन
र् ! तू यु कर | (18)

य एनं वेि हन्तारं य न


ै ं मन्यते हतम।्
उभौ तौ न िवजानीतो नायं हिन्त न हन्यते।।19।।

जो उस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है , वे दोनों ही


नहीं जानते, क्योंिक यह आत्मा वाःतव में न तो िकसी को मारता है और न िकसी के ारा
मारा जाता है |

न जायते िॆयते वा कदािच-


न्नायं भूत्वा भिवता वा न भूयः।
अजो िनत्यः शा तोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।20।।

यह आत्मा िकसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न


होकर िफर होने वाला ही है क्योंिक यह अजन्मा, िनत्य, सनातन और पुरातन है | शरीर के मारे
जाने पर भी यह नहीं मारा जाता है |

वेदािवनािशनं िनत्यं य एनमजमव्ययम।्


कथं स पुरुषः पाथर् कं घातयित हिन्त कम।।
् 21।।

हे पृथापुऽ अजुन
र् ! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरिहत िनत्य, अजन्मा और अव्यय
जानता है , वह पुरुष कैसे िकसको मरवाता है और कैसे िकसको मारता है ? (21)

वासांिस जीणार्िन यथा िवहाय


नवािन गृहणाित नरोऽपरािण।
तथा शरीरािण िवहाय जीणार्-
न्यन्यािन संयाित नवािन दे ही।।22।।

जैसे मनुंय पुराने व ों को त्यागकर दसरे


ू नये व ों को महण करता है , वैसे ही
जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दसरे
ू नये शरीरों को ूा होता है | (22)

नैनं िछदिन्त श ािण नैनं दहित पावकः


न चैनं क्लेयन्तयापो न शोषयित मारुतः।।23।।

इस आत्मा को श काट नहीं सकते, इसको आग जला नहीं सकती, इसको जल गला
नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकती |

अच्छे ोऽयमदा ोऽयमक्ले ोऽशोंय एव च।


िनत्यः सवर्गतः ःथानुरचलोऽयं सनातनः।।24।।

क्योंिक यह आत्मा अच्छे है , यह आत्मा अदा ा, अक्ले और िनःसंदेह अशोंय है तथा


यह आत्मा िनत्य, सवर्व्यािप, अचल िःथर रहने वाला और सनातन है | (24)
अव्य ोऽयमिचन्तयोऽयमिवकाय ऽयमुच्यते।
तःमादे वं िविदत्वैनं नानुशोिचतुमहर् िस।।25।।

यह आत्मा अव्य है , यह आत्मा अिचन्त्य है और यह आत्मा िवकाररिहत कहा जाता है


| इससे हे अजुन
र् ! इस आत्मा को उपयुर् ूकार से जानकर तू शोक करने के योग्य नहीं है
अथार्त ् तुझे शोक करना उिचत नहीं है | (25)

अथ चैनं िनत्यजातं िनत्यं वा मन्यसे मृतम।्


तथािप त्वं महाबाहो नैवं शोिचतुमहर् िस।।26।।

िकन्तु यिद तू इस आत्मा को सदा जन्मनेवाला तथा सदा मरने वाला मानता है , तो भी
हे महाबाहो ! तू इस ूकार शोक करने को योग्य नहीं है | (26)

जातःय िह ीुवो मृत्युीव


ुर् ं जन्म मृतःय च।
तःमादपिरहायऽथ न त्वं शोिचतुमहर् िस।।27।।

क्योंिक इस मान्यता के अनुसार जन्मे हए


ु की मृत्यु िनि त है और मरे हए
ु का जन्म
िनि त है | इससे भी इस िबना उपाय वाले िवषम में तू शोक करने के योग्य नहीं है | (27)

अव्य ादीिन भूतािन व्य मध्यािन भारत।


अव्य िनधनान्येव तऽ का पिरदे वना।।28।।

हे अजुन
र् ! सम्पूणर् ूाणी जन्म से पहले अूकट थे और मरने के बाद भी अूकट हो
जाने वाले हैं , केवल बीच में ही ूकट है िफर ऐसी िःथित में क्या शोक करना है ? (28)

आ यर्वत्पँयित कि दे न-
मा यर्व दित तथैव चान्यः।
आ यर्वच्चैनमन्यः ौुणोित
ौुत्वाप्येनं वेद न चैव कि त।।
् 29।।

कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आ यर् की भाँित दे खता है और वैसे ही दसरा


ू कोई
महापुरुष ही इसके त व का आ यर् की भाँित वणर्न करता है तथा दसरा
ू कोई अिधकारी पुरुष ही
इसे आ यर् की भाँित सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता | (29)

दे ही िनत्यमवध्योऽयं दे हे सवर्ःय भारत।


तःमात्सवार्िण भूतािन न त्वं शोिचतुमहर् िस।।30।।

हे अजुन
र् ! यह आत्मा सबके शरीरों में सदा ही अवध्य है | इस कारण सम्पूणर् ूािणयों के
िलए तू शोक करने के योग्य नहीं है | (30)

ःवधमर्मिप चावेआय न िवकिम्पतुमहर् िस।


धम ् यार्ि यु ाच्ले योऽन्यत्क्षिऽयःय न िव ते।।31।।

तथा अपने धमर् को दे खकर भी तू भय करने योग्य नहीं है अथार्त ् तुझे भय नहीं करना
चािहए क्योंिक क्षिऽय के िलए धमर्यु यु से बढ़कर दसरा
ू कोई कल्याणकारी कतर्व्य नहीं है |
(31)

यदृच्छया चोपपन्नं ःवगर् ारमपावृतम।्


सुिखनः क्षिऽयाः पाथर् लभन्ते यु मीदृशम।।
् 32।।

हे पाथर् ! अपने आप ूा हए
ु और खुले हए
ु ःवगर् के ाररूप इस ूकार के यु को
भाग्यवान क्षिऽय लोग ही पाते हैं | (32)

अथ चे विममं धम ् य संमामं न किरंयिस।


ततः ःवधम कीित च िहत्वा पापमवाप्ःयिस।।33।।
िकन्तु यिद तू इस धमर्यु यु को नहीं करे गा तो ःवधमर् और कीितर् को खोकर पाप को
ूा होगा |(33)

अकीित चािप भूतािन कथियंयिन्त तेऽव्ययाम।्


सम्भािवतःय चाकीितर्मरर् णादितिरच्यते।।34।।

तथा सब लोग तेरी बहत


ु काल तक रहने वाली अपकीितर् भी कथन करें गे और माननीय
पुरुष के िलए अपकीितर् मरण से भी बढ़कर है |(34)

भयािणादपरतं
ु मंःयन्ते त्वां महारथाः।
येषां च त्वं बहमतो
ु ् 35।.
भूत्वा याःयिस लाघवम।।

और िजनकी दृि में तू पहले बहत


ु सम्मािनत होकर अब लघुता को ूा होगा, वे
महारथी लोग तुझे भय के कारण यु में हटा हआ
ु मानेंगे |(35)
अवाच्यवादां ू ् विदंयिन्त तवािहताः।
बहन
िनन्दन्तःतव सामथ्य ततो दःखतरं
ु नु िकम।।
् 36।।

तेरे वैरी लोग तेरे सामथ्यर् की िनन्दा करते हए


ु तुझे बहत
ु से न कहने योग्य वचन भी
कहें गे | उससे अिधक दःख
ु और क्या होगा?(36)

हतो व ूाप्ःयिस ःवग िजत्वा वा भोआयसे महीम।्


तःमादिु कौन्तेय यु ाय कृ तिन यः।।37।।

या तो तू यु में मारा जाकर ःवगर् को ूा होगा अथवा संमाम में जीतकर पृथ्वी का
राज्य भोगेगा | इस कारण हे अजुन
र् ! तू यु के िलए िन य करके खड़ा हो जा |(37)

सुखदःखे
ु समे कृ त्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो यु ाय युज्यःव नैवं पापमवाप्ःयिस।।38।।

जय-पराजय, लाभ-हािन और सुख-दःख


ु को समान समझकर, उसके बाद यु के िलए
तैयार हो जा | इस ूकार यु करने से तू पाप को नहीं ूा होगा |(38)

एषा तेऽिभिहता सांख्ये बुि य गे ित्वमां ौृण।ु


बु या यु ो यया पाथर् कमर्बन्धं ूहाःयिस।।39।।

हे पाथर् ! यह बुि तेरे िलए ज्ञानयोग के िवषय में कही गयी और अब तू इसको कमर्योग
के िवषय में सुन, िजस बुि से यु हआ
ु तू कम के बन्धन को भलीभाँित त्याग दे गा अथार्त ्
सवर्था न कर डालेगा |(39)

नेहािभबमनाशोऽिःत ूत्यवायो न िव ते।


ःवल्पमप्यःय धमर्ःय ऽायते महतो भयात।।
् 40।।

इस कमर्योग में आरम्भ का अथार्त ् बीज का नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी
नहीं है , बिल्क इस कमर्योगरूप धमर् का थोड़ा सा भी साधन जन्म मृत्युरूप महान भय से रक्षा
कर लेता है | (40)

व्यवसायाित्मका बुि रे केह कुरुनन्दन।


बहशाखा
ु नन्ता ् 41।।
बु योऽव्यवसाियनाम।।
हे अजुन
र् ! इस कमर्योग में िन याित्मका बुि एक ही होती है , िकन्तु अिःथर िवचार
वाले िववेकहीन सकाम मनुंयों की बुि याँ िन य ही बहत
ु भेदोंवाली और अनन्त होती हैं |(41)

यािममां पुिंपतां वाचं ूवदन्त्यिवपि तः।


वेदवादरताः पाथर् नान्यदःतीित वािदनः।।42।।
कामात्मानः ःवगर्परा जन्मकमर्फलूदाम।्
िबयािवशेषबहलां
ु भोगै यर्गितं ूित।।43।।
भोगै यर्ूस ानां तयापहृतचेतसाम।्
व्यवसायाित्मका बुि ः समाधौ न िवधीयते।।44।।

हे अजुन
र् ! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं , जो कमर्फल के ूशंसक वेदवाक्यों में ही ूीित
रखते हैं , िजनकी बुि में ःवगर् ही परम ूाप्य वःतु है और जो ःवगर् से बढ़कर दसरी
ू कोई वःतु
ही नहीं है - ऐसा कहने वाले हैं , वे अिववेकी जन इस ूकार की िजस पुिंपत अथार्त ् िदखाऊ
शोभायु वाणी को कहा करते हैं जो िक जन्मरूप कमर्फल दे ने वाली और भोग तथा ऐ यर् की
ूाि के िलए नाना ूकार की बहत
ु सी िबयाओं का वणर्न करने वाली है , उस वाणी ारा िजनका
िच हर िलया गया है , जो भोग और ऐ यर् में अत्यन्त आस हैं , उन पुरुषों की परमात्मा में
िन याित्मका बुि नहीं होती | (42, 43, 44)

ऽैगुण्यिवषया वेदा िन ैगण्


ु यो भवाजुन
र् ।
िन र् न् ो िनत्यस वःथो िनय गक्षेम आत्मवान।।
् 45।।

हे अजुन
र् ! वेद उपयुर् ूकार से तीनों गुणों के कायर्रूप समःत भोगों और उनके साधनों
का ूितपादन करने वाले हैं , इसिलए तू उन भोगों और उनके साधनों में आसि हीन, हषर्-शोकािद
न् ों से रिहत, िनत्यवःतु परमात्मा में िःथत योग-क्षेम को न चाहने वाला और ःवाधीन
अन्तःकरण वाला हो |(45)

यावारनथर् उदपाने सवर्तः सम्प्लुतोदके।


तावान ् सवषु वेदेषु ॄा णःय िवजानतः।।46।।

सब ओर से पिरपूणर् जलाशय के ूा हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुंय का िजतना


ूयोजन रहता है , ॄ को त व से जानने वाले ॄा ण का समःत वेदों में उतना ही ूयोजन रह
जाता है |(46)

कमर्ण्येवािधकारःते मा फलेषु कदाचन।


मा कमर्फलहे तूभम
ूर् ार्ते सङ्गोऽःत्वकमर्िण।।47।।

तेरा कमर् करने में ही अिधकार है , उनके फलों में कभी नहीं | इसिलए तू कम के फल का
हे तु मत हो तथा तेरी कमर् न करने में भी आसि न हो |(47)

योगःथः कुरु कमार्िण सङ्गं त्य वा धनंजय।


िस यिस योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।48।।

हे धनंजय ! तू आसि को त्याग कर तथा िसि और अिसि में समान बुि वाला होकर
योग में िःथत हआ
ु कतर्व्यकम को कर, समत्वभाव ही योग कहलाता है | (48)

दरेू ण वरं कमर् बुि योगा नंजय।


बु ौ शरणमिन्वच्छ कृ पणाः फलहे तवः।।49।।

इस समत्व बुि योग से सकाम कमर् अत्यन्त ही िनम्न ौेणी का है | इसिलए हे धनंजय !
तू समबुि में ही रक्षा का उपाय ढँू ढ अथार्त ् बुि योग का ही आौय महण कर, क्योंिक फल के
हे तु बनने वाले अत्यन्त दीन हैं |(49)

बुि यु ो जहातीह उभे सुकृतदंकृ


ु ते।
तःमा ोगाय युज्यःव योगः कमर्सु कौशलम।।
् 50।।

समबुि यु पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग दे ता है अथार्त ् उनसे मु
हो जाता है | इससे तू समत्वरूप योग में लग जा | यह समत्वरूप योग ही कम में कुशलता है

अथार्त ् कमर्बन्धन से छटने का उपाय है |(50)

कमर्जं बुि यु ा िह फलं त्य वा मनीिषणः।


जन्मबन्धिविनमुर् ाः पदं गच्छन्त्यनामयम।।
् 51।।

क्योंिक समबुि से यु ज्ञानीजन कम से उत्पन्न होने वाले फल को त्यागकर जन्मरूप


बन्धन से मु हो िनिवर्कार परम पद को ूा हो जाते हैं |(51)

यदा ते मोहकिललं बुि व्यर्िततिरंयित।


तदा गन्तािस िनवदं ौोतव्यःय ौुतःय च।।52।।
िजस काल में तेरी बुि मोहरूप दलदल को भली भाँित पार कर जायेगी, उस समय तू
सुने हए
ु और सुनने में आने वाले इस लोक और परलोकसम्बन्धी सभी भोगों से वैराग्य को ूा
हो जायेगा |(52)

ौुितिवूितपन्ना ते यदा ःथाःयित िन ला।


समाधावचला बुि ःतदा योगमवाप्ःयिस।।53।।

भाँित-भाँित के वचनों को सुनने से िवचिलत हई


ु तेरी बुि जब परमात्मा में अचल और
िःथर ठहर जायेगी, तब तू योग को ूा हो जायेगा अथार्त ् तेरा परमात्मा से िनत्य संयोग हो
जायेगा |

अजुन
र् उवाच
िःथतूज्ञःय का भाषा समािधःथःय केशव।
िःथतधीः िकं ूभाषेत िकमासीत ोजेत िकम।।
् 54।।

अजुन
र् बोले हे केशव ! समािध में िःथत परमात्मा को ूा हए
ु िःथरबुि पुरुष का क्या
लक्षण है ? वह िःथरबुि पुरुष कैसे बोलता है , कैसे बैठता है और कैसे चलता है ?(54)

ौीभगवानुवाच
ूजहाित यदा कामान्सवार्न्पाथर् मनोगतान।्
आत्मन्येवात्मना तु ः िःथतूज्ञःतदोच्यते।।55।।

ौी भगवान बोलेः हे अजुन


र् ! िजस काल में यह पुरुष मन में िःथत सम्पूणर् कामनाओं
को भली भाँित त्याग दे ता है और आत्मा से आत्मा में ही संतु रहता है , उस काल में वह
िःथतूज्ञ कहा जाता है |(55)

दःखे
ु ंवनुि ग्नमनाः सुखेषु िवगतःपृहः।
वीतरागभयबोधः िःथतधीमुिर् नरुच्यते।।56।।

दःखों
ु की ूाि होने पर िजसके मन पर उ े ग नहीं होता, सुखों की ूाि में जो सवर्था
िनःःपृह है तथा िजसके राग, भय और बोध न हो गये हैं , ऐसा मुिन िःथरबुि कहा जाता है |

यः सवर्ऽानिभःनेहःत त्ूाप्य शुभाशुभम।्


नािभनन्दित न ेि तःय ूज्ञा ूिति ता।।57।।
जो पुरुष सवर्ऽ ःनेह रिहत हआ
ु उस-उस शुभ या अशुभ वःतु को ूा होकर न ूसन्न
होता है और न े ष करता है उसकी बुि िःथर है | (57)

यदा संहरते चायं कूम ऽङ्गनीव सवर्शः।


इिन्ियाणीिन्ियाथभ्यःतःय ूज्ञा ूिति ता।।58।।


और जैसे कछवा सब ओर से अपने अंगों को समेट लेता है , वैसे ही जब यह पुरुष
इिन्ियों के िवषयों से इिन्ियों के सब ूकार से हटा लेता है , तब उसकी बुि िःथर है | (ऐसा
समझना चािहए) |

िवषया िविनवतर्न्ते िनराहारःय दे िहनः।


रसवज रसोऽप्यःय परं दृंट्वा िनवतर्ते।।59।।

इिन्ियों के ारा िवषयों को महण न करने वाले पुरुष के भी केवल िवषय तो िनवृ ् हो
जाते हैं , परन्तु उनमें रहने वाली आसि िनवृ नहीं होती | इस िःथतूज्ञ पुरुष की तो आसि
भी परमात्मा का साक्षात्कार करके िनवृ हो जाती है | (59)

यततो िप कौन्तेय पुरुषःय िवपि तः।


इिन्ियािण ूमाथीिन हरिन्त ूसभं मनः।।60।।

हे अजुन
र् ! आसि का नाश न होने के कारण ये ूमथन ःवभाव वाली इिन्ियाँ य
करते हए
ु बुि मान पुरुष के मन को भी बलात ् हर लेती हैं |(60)

तािन सवार्िण संयम्य यु आसीत मत्परः।


वशे िह यःयेिन्ियािण तःय ूज्ञा ूिति ता।।61।।

इसिलए साधक को चािहए िक वह उन सम्पूणर् इिन्ियों को वश में करके समािहतिच


हआ
ु मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे, क्योंिक िजस पुरुष की इिन्ियाँ वश में होती हैं , उसी की
बुि िःथर हो जाती है | (61)

ध्यायतो िवषयान्पुंसः सङ्गःतेषूपजायते।


सङ्गात्संजायते कामः कामात्बोधोऽिभजायते।।62।।
िवषयों का िचन्तन करने वाले पुरुष की उन िवषयों में आसि हो जाती है , आसि से
उन िवषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में िवघ्न पड़ने से बोध उत्पन्न होता
है |(62)

बोधाद् भवित सम्मोहः सम्मोहात्ःमृितिवॅमः।


ःमृितॅंशाद् बुि नाशो बुि नाशात्ूणँयित।।63।।

बोध से अत्यन्त मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है , मूढ़भाव से ःमृित में ॅम हो जाता है ,


ःमृित में ॅम हो जाने से बुि अथार्त ् ज्ञानशि का नाश हो जाता है और बुि का नाश हो
जाने से यह पुरुष अपनी िःथित से िगर जाता है |(63)

राग े षिवयु ै ःतु िवषयािनिन्ियै रन।्


आत्मवँयैिवर्धेयात्मा ूसादमिधगच्छित।।64।।

परन्तु अपने अधीन िकये हए


ु अन्तः करणवाला साधक अपने वश में की हई
ु , राग- े ष से
रिहत इिन्ियों ारा िवषयों में िवचरण करता हआ
ु अन्तःकरण की ूसन्नता को ूा होता
है |(64)

ूसादे सवर्दःखानां
ु हािनरःयोपजायते।
ूसन्नचेतसो ाशु बुि ः पयर्वित ते।।65।।

अन्तःकरण की ूसन्नता होने पर इसके सम्पूणर् दःखों


ु का अभाव हो जाता है और उस
ूसन्न िच वाले कमर्योगी की बुि शीय ही सब ओर से हटकर परमात्मा में ही भली भाँित
िःथर हो जाती है |(65)

नािःत बुि रयु ःय न चायु ःय भावना।


न चाभावयतः शािन्तरशान्तःय कुतः सुखम।।
् 66।।

न जीते हए
ु मन और इिन्ियों वाले पुरुष में िन याित्मका बुि नहीं होती और उस
अयु मनुंय के अन्तःकरण में भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुंय को शािन्त नहीं
िमलती और शािन्तरिहत मनुंय को सुख कैसे िमल सकता है ?(66)

इिन्ियाणां िह चरतां यन्मनोऽनुिवधीयते।


तदःय हरित ूज्ञां वायुनार्विमवाम्भिस।।67।।
क्योंिक जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है , वैसे ही िवषयों में िवचरती हई

इिन्ियों में से मन िजस इिन्िय के साथ रहता है वह एक ही इिन्िय इस अयु पुरुष की बुि
को हर लेती है |(67)

तःमा ःय महाबाहो िनगृहीतािन सवर्शः।


इिन्ियाणीिन्ियाथभ्यःतःय ूज्ञा ूिति ता।।68।।

इसिलए हे महाबाहो ! िजस पुरुष की इिन्ियाँ इिन्ियों के िवषयों से सब ूकार िनमह की


हुई हैं , उसी की बुि िःथर है |(68)

या िनशा सवर्भत
ू ानां तःयां जागितर् संयमी।
यःयां जामित भूतािन सा िनशा पँयतो मुनेः।।69।।

सम्पूणर् ूािणयों के िलए जो रािऽ के समान है , उस िनत्य ज्ञानःवरूप परमानन्द की


ूाि में िःथतूज्ञ योगी जागता है और िजस नाशवान सांसािरक सुख की ूाि में सब ूाणी
जागते हैं , परमात्मा के त व को जानने वाले मुिन के िलए वह रािऽ के समान है |

आपूयम
र् ाणमचलूित ं
समुिमापः ूिवशिन्त य त।्
त त्कामा यं ूिवशिन्त सव
स शािन्तमाप्नोित न कामकामी।।70।।

जैसे नाना निदयों के जल सब ओर से पिरपूणर् अचल ूित ावाले समुि में उसको
िवचिलत न करते हए
ु ही समा जाते हैं , वैसे ही सब भोग िजस िःथतूज्ञ पुरुष में िकसी ूकार
का िवकार उत्पन्न िकये िबना ही समा जाते हैं , वही पुरुष परम शािन्त को ूा होता है , भोगों
को चाहने वाला नहीं | (70)

िवहाय कामान्यः सवार्न्पुमां रित िनःःपृहः।


िनमर्मो िनरहं कारः स शािन्तमिधगच्छित।।71।।

जो पुरुष सम्पूणर् कामनाओं को त्यागकर ममतारिहत, अहं कार रिहत और ःपृहा रिहत
हआ
ु िवचरता है , वही शािन्त को ूा होता है अथार्त ् वह शािन्त को ूा है |(71)
एषा ॄा ी िःथितः पाथर् नैनां ूाप्य िवमु ित।
िःथत्वाःयामन्तकालेऽिप ॄ िनवार्णमृच्छित।।72।।

हे अजुन
र् ! यह ॄ को ूा हए
ु पुरुष की िःथित है | इसको ूा होकर योगी कभी
मोिहत नहीं होता और अन्तकाल में भी इस ॄा ी िःथित में िःथत होकर ॄ ानन्द को ूा हो
जाता है |
ॐ तत्सिदित ौीमदभगवदगीतासूपिनषत्सु ॄ िव ायां योगशा े
ौीकृ ंणाजुन
र् संवादे सांख्ययोगो नाम ि तीयोऽध्यायः | |2 | |
इस ूकार उपिनषद, ॄ िव ा तथा योगशा रूप ौीमद् भगवदगीता के
ौीकृ ंण-अजुन
र् संवाद में 'सांख्ययोग' नामक ि तीय अध्याय सम्पूणर् हआ
ु |
(अनुबम)

तीसरे अध्याय का माहात्म्य


ौी भगवान कहते हैं - िूये ! जनःथान में एक जड़ नामक ॄा ण था, जो कौिशक वंश में
उत्पन्न हआ
ु था | उसने अपना जातीय धमर् छोड़कर बिनये की वृि में मन लगाया | उसे परायी
ि यों के साथ व्यिभचार करने का व्यसन पड़ गया था | वह सदा जुआ खेलता, शराब पीता और
िशकार खेलकर जीवों की िहं सा िकया करता था | इसी ूकार उसका समय बीतता था | धन न
हो जाने पर वह व्यापार के िलए बहत
ु दरू उ र िदशा में चला गया | वहाँ से धन कमाकर घर
की ओर लौटा | बहत
ु दरू तक का राःता उसने तय कर िलया था | एक िदन सूयार्ःत हो जाने पर
जब दसों िदशाओं में अन्धकार फैल गया, तब एक वृक्ष के नीचे उसे लुटेरों ने धर दबाया और
शीय ही उसके ूाण ले िलए | उसके धमर् का लोप हो गया था, इसिलए वह बड़ा भयानक ूेत
हआ
ु |
उसका पुऽ बड़ा ही धमार्त्मा और वेदों का िव ान था | उसने अब तक िपता के लौट आने
की राह दे खी | जब वे नहीं आये, तब उनका पता लगाने के िलए वह ःवयं भी घर छोड़कर चल
िदया | वह ूितिदन खोज करता, मगर राहगीरों से पूछने पर भी उसे उनका कुछ समाचार नहीं
िमलता था | तदनन्तर एक िदन एक मनुंय से उसकी भेंट हई
ु , जो उसके िपता का सहायक था,
उससे सारा हाल जानकर उसने िपता की मृत्यु पर बहत
ु शोक िकया | वह बड़ा बुि मान था |
बहत
ु कुछ सोच-िवचार कर िपता का पारलौिकक कमर् करने की इच्छा से आवँयक साममी साथ
ले उसने काशी जाने का िवचार िकया | मागर् में सात-आठ मुकाम डाल कर वह नौवें िदन उसी
वृक्ष के नीचे आ पहँु चा जहाँ उसके िपता मारे गये थे | उस ःथान पर उसने संध्योपासना की और
गीता के तीसरे अध्याय का पाठ िकया | इसी समय आकाश में बड़ी भयानक आवाज हई
ु | उसने
िपता को भयंकर आकार में दे खा िफर तुरन्त ही अपने सामने आकाश में उसे एक सुन्दर िवमान
िदखाई िदया, जो तेज से व्या था | उसमें अनेकों क्षुि घंिटकाएँ लगी थीं | उसके तेज से समःत
िदशाएँ आलोिकत हो रही थीं | यह दृँय दे खकर उसके िच की व्यमता दरू हो गयी | उसने
िवमान पर अपने िपता को िदव्य रूप धारण िकये िवराजमान दे खा | उनके शरीर पर पीताम्बर
शोभा पा रहा था और मुिनजन उनकी ःतुित कर रहे थे | उन्हें दे खते ही पुऽ ने ूणाम िकया,
तब िपता ने भी उसे आशीवार्द िदया |
तत्प ात ् उसने िपता से यह सारा वृ ान्त पूछा | उसके उ र में िपता ने सब बातें बताकर
इस ूकार कहना आरम्भ िकयाः 'बेटा ! दै ववश मेरे िनकट गीता के तृतीय अध्याय का पाठ
करके तुमने इस शरीर के ारा िकए हए
ु दःत्यज
ु ु
कमर्बन्धन से मुझे छड़ा िदया | अतः अब घर
लौट जाओ क्योंिक िजसके िलए तुम काशी जा रहे थे, वह ूयोजन इस समय तृतीय अध्याय के
पाठ से ही िस हो गया है |' िपता के यों कहने पर पुऽ ने पूछाः 'तात ! मेरे िहत का उपदे श
दीिजए तथा और कोई कायर् जो मेरे िलए करने योग्य हो बतलाइये |' तब िपता ने कहाः 'अनघ !
तुम्हे यही कायर् िफर करना है | मैंने जो कमर् िकये हैं , वही मेरे भाई ने भी िकये थे | इससे वे
घोर नरक में पड़े हैं | उनका भी तुम्हे उ ार करना चािहए तथा मेरे कुल के और भी िजतने लोग
नरक में पड़े हैं , उन सबका भी तुम्हारे ारा उ ार हो जाना चािहए | यही मेरा मनोरथ है | बेटा !
िजस साधन के ु
ारा तुमने मुझे संकट से छड़ाया है , उसी का अनु ान औरों के िलए भी करना
उिचत है | उसका अनु ान करके उससे होने वाला पुण्य उन नारकी जीवों को संकल्प करक दे
दो | इससे वे समःत पूवज
र् मेरी ही तरह यातना से मु हो ःवल्पकाल में ही ौीिवंणु के परम
पद को ूा हो जायेंगे |'
िपता का यह संदेश सुनकर पुऽ ने कहाः 'तात ! यिद ऐसी बात है और आपकी भी ऐसी
रूिच है तो मैं समःत नारकी जीवों का नरक से उ ार कर दँ ग
ू ा |' यह सुनकर उसके िपता बोलेः
'बेटा ! एवमःतु | तुम्हारा कल्याण हो | मेरा अत्यन्त िूय कायर् सम्पन्न हो गया |' इस ूकार पुऽ
को आ ासन दे कर उसके िपता भगवान िवंणु के परम धाम को चले गये | तत्प ात ् वह भी
लौटकर जनःथान में आया और परम सुन्दर भगवान ौीकृ ंण के मिन्दर में उनके समक्ष बैठकर
िपता के आदे शानुसार गीता के तीसरे अध्याय का पाठ करने लगा | उसने नारकी जीवों का उ ार
करने की इच्छा से गीतापाठजिनत सारा पुण्य संकल्प करके दे िदया |
इसी बीच में भगवान िवंणु के दत ु
ू यातना भोगने वाले नरक की जीवों को छड़ाने के
िलए यमराज के पास गये | यमराज ने नाना ूकार के सत्कारों से उनका पूजन िकया और
कुशलता पूछी | वे बोलेः 'धमर्राज ! हम लोगों के िलए सब ओर आनन्द ही आनन्द है |' इस
ूकार सत्कार करके िपतृलोक के सॆाट परम बुि मान यम ने िवंणुदतों
ू से यमलोक में आने
का कारण पूछा |
तब िवंणुदतों
ू ने कहाः यमराज ! शेषशय्या पर शयन करने वाले भगवान िवंणु ने हम
लोगों को आपके पास कुछ संदेश दे ने के िलए भेजा है | भगवान हम लोगों के मुख से आपकी
कुशल पूछते हैं और यह आज्ञा दे ते हैं िक 'आप नरक में पड़े हए
ु समःत ूािणयों को छोड़ दें |'
अिमत तेजःवी भगवान िवंणु का यह आदे श सुनकर यम ने मःतक झुकाकर उसे
ःवीकार िकया और मन ही मन कुछ सोचा | तत्प ात ् मदोन्म नारकी जीवों को नरक से मु
दे खकर उनके साथ ही वे भगवान िवंणु के वास ःथान को चले | यमराज ौे िवमान के ारा
जहाँ क्षीरसागर हैं , वहाँ जा पहँु चे | उसके भीतर कोिट-कोिट सूय के समान कािन्तमान नील
कमल दल के समान ँयामसुन्दर लोकनाथ जगदगुरु ौी हिर का उन्होंने दशर्न िकया | भगवान
का तेज उनकी शय्या बने हए
ु शेषनाग के फणों की मिणयों के ूकाश से दगना
ु हो रहा था | वे
आनन्दयु िदखाई दे रहे थे | उनका हृदय ूसन्नता से पिरपूणर् था |
भगवती लआमी अपनी सरल िचतवन से ूेमपूवक
र् उन्हें बार-बार िनहार रहीं थीं | चारों ओर
योगीजन भगवान की सेवा में खड़े थे | ध्यानःथ होने के कारण उन योिगयों की आँखों के तारे
िन ल ूतीत होते थे | दे वराज इन्ि अपने िवरोिधयों को पराःत करने के उ े ँय से भगवान की
ःतुित कर रहे थे | ॄ ाजी के मुख से िनकले हए
ु वेदान्त-वाक्य मूितर्मान होकर भगवान के गुणों
का गान कर रहे थे | भगवान पूणत
र् ः संतु होने के साथ ही समःत योिनयों की ओर से उदासीन
ूतीत होते थे | जीवों में से िजन्होंने योग-साधन के ारा अिधक पुण्य संचय िकया था, उन
सबको एक ही साथ वे कृ पादृि से िनहार रहे थे | भगवान अपने ःवरूप भूत अिखल चराचर
जगत को आनन्दपूणर् दृि से आमोिदत कर रहे थे | शेषनाग की ूभा से उ ािसत और सवर्ऽ
व्यापक िदव्य िवमह धारण िकये नील कमल के सदृश ँयाम वणर्वाले ौीहिर ऐसे जान पड़ते थे,
मानो चाँदनी से िघरा हआ
ु आकाश सुशोिभत हो रहा हो | इस ूकार भगवान की झाँकी के दशर्न
करके यमराज अपनी िवशाल बुि के ारा उनकी ःतुित करने लगे |
यमराज बोलेः सम्पूणर् जगत का िनमार्ण करने वाले परमे र ! आपका अन्तःकरण
अत्यन्त िनमर्ल है | आपके मुख से ही वेदों का ूादभार्
ु व हआ
ु है | आप ही िव ःवरूप और इसके
िवधायक ॄ ा हैं | आपको नमःकार है | अपने बल और वेग के कारण जो अत्यन्त दधर्
ु षर् ूतीत
होते हैं , ऐसे दानवेन्िों का अिभमान चूणर् करने वाले भगवान िवंणु को नमःकार है | पालन के
समय स वमय शरीर धारण करने वाले, िव के आधारभूत, सवर्व्यापी ौीहिर को नमःकार है |
समःत दे हधािरयों की पातक-रािश को दरू करने वाले परमात्मा को ूणाम है | िजनके ललाटवत
नेऽ के तिनक-सा खुलने पर भी आग की लपटें िनकलने लगती हैं , उन रूिरूपधारी आप परमे र
को नमःकार है | आप सम्पूणर् िव के गुरु, आत्मा और महे र हैं , अतः समःत वै वजनों को
संकट से मु करके उन पर अनुमह करते हैं | आप माया से िवःतार को ूा हए
ु अिखल िव
में व्या होकर भी कभी माया अथवा उससे उत्पन्न होने वाले गुणों से मोिहत नहीं होते | माया
तथा मायाजिनत गुणों के बीच में िःथत होने पर भी आप पर उनमें से िकसी का ूभाव नहीं
पड़ता | आपकी मिहमा का अन्त नहीं है , क्योंिक आप असीम हैं िफर आप वाणी के िवषय कैसे
हो सकते हैं ? अतः मेरा मौन रहना ही उिचत है |
इस ूकार ःतुित करके यमराज ने हाथ जोड़कर कहाः 'जगदगुरो ! आपके आदे श से इन
जीवों को गुणरिहत होने पर भी मैंने छोड़ िदया है | अब मेरे योग्य और जो कायर् हो, उसे
बताइये |' उनके यों कहने पर भगवान मधुसद
ू न मेघ के समान गम्भीर वाणी ारा मानो अमृतरस
से सींचते हए
ु बोलेः 'धमर्राज ! तुम सबके ूित समान भाव रखते हए
ु लोकों का पाप से उ ार
कर रहे हो | तुम पर दे हधािरयों का भार रखकर मैं िनि न्त हँू | अतः तुम अपना काम करो और
अपने लोक को लौट जाओ |'
यों कहकर भगवान अन्तधार्न हो गये | यमराज भी अपनी पुरी को लौट आये | तब वह
ॄा ण अपनी जाित के और समःत नारकी जीवों का नरक से उ ार करके ःवयं भी ौे िवमान
ारा ौी िवंणुधाम को चला गया |
(अनुबम)

तीसरा अध्यायः कमर्योग


दसरे
ू अध्याय में भगवान ौीकृ ंण ने ोक 11 से ोक 30 तक आत्मत व समझाकर
सांख्ययोग का ूितपादन िकया | बाद में ोक 31 से ोक 53 तक समःत बुि रूप कमर्योग के
ारा परमे र को पाये हए
ु िःथतूज्ञ िस पुरुष के लक्षण, आचरण और महत्व का ूितपादन
िकया | इसमें कमर्योग की मिहमा बताते हए
ु भगवान ने 47 तथा 48वें ोक में कमर्योग का
ःवरूप बताकर अजुन
र् को कमर् करने को कहा | 49वें ोक में समत्व बुि रूप कमर्योग की अपेक्षा
सकाम कमर् का ःथान बहत
ु नीचा बताया | 50वें ोक में समत्व बुि यु पुरुष की ूशंसा करके
अजुन
र् को कमर्योग में जुड़ जाने के िलए कहा और 51 वे ोक में बताया िक समत्व बुि यु
ज्ञानी पुरुष को परम पद की ूाि होती है | यह ूसंग सुनकर अजुन
र् ठीक से तय नहीं कर
पाया | इसिलए भगवान से उसका और ःप ीकरण कराने तथा अपना िनि त कल्याण जानने की
इच्छा से अजुन
र् पूछता है ः
(अनुबम)

।। अथ तृतीयोऽध्यायः ।।

अजुन
र् उवाच
ज्यायसी चेत्कमर्णःते मता बुि जर्नादर् न।
तित्कं कमर्िण घोरे मां िनयोजयिस केशव।।1।।
अजुन
र् बोलेः हे जनादर् न ! यिद आपको कमर् की अपेक्षा ज्ञान ौे मान्य है तो िफर हे
केशव ! मुझे भयंकर कमर् में क्यों लगाते हैं ?

व्यािमौेणेव वाक्येन बुि ं मोहयसीव मे।


तदे कं वद िनि त्य येन ौेयोऽहमाप्नुयाम।।
् 2।।

आप िमले हए
ु वचनों से मेरी बुि को मानो मोिहत कर रहे हैं | इसिलए उस एक बात
को िनि त करके किहए िजससे मैं कल्याण को ूा हो जाऊँ |(2)

ौीभगवानुवाच
लोकेऽिःमिन् िवधा िन ा पुरा ूो ा मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कमर्योगेन योिगनाम।।
् 3।।

ौी भगवनान बोलेः हे िनंपाप ! इस लोक में दो ूकार की िन ा मेरे ारा पहले कही
गयी है | उनमें से सांख्ययोिगयों की िन ा तो ज्ञानयोग से और योिगयों की िन ा कमर्योग से
होती है |(3)

न कमर्णामनारम्भान्नैंकम्य पुरुषोऽ ुते।


न च संन्यसनादे व िसि ं समिधगच्छित।।4।।

मनुंय न तो कम का आरम्भ िकये िबना िनंकमर्ता को यािन योगिन ा को ूा होता


है और न कम के केवल त्यागमाऽ से िसि यानी सांख्यिन ा को ही ूा होता है |(4)

न िह कि त्क्षणमिप जातु ित त्यकमर्कृत।्


कायर्ते वशः कमर् सवर्ः ूकृ ितजैगण
ुर् ःै ।।5।।

िनःसंदेह कोई भी मनुंय िकसी काल में क्षणमाऽ भी िबना कमर् िकये नहीं रहता, क्योंिक
सारा मनुंय समुदाय ूकृ ित जिनत गुणों ारा परवश हआ
ु कमर् करने के िलए बाध्य िकया जाता
है |

कमिन्ियािण संयम्य य आःते मनसा ःमरन।्


इिन्ियाथार्िन्वमूढात्मा िमथ्याचारः स उच्यते।।6।।
जो मूढबुि मनुंय समःत इिन्ियों को हठपूवक
र् ऊपर से रोककर मन से उन इिन्ियों के
िवषयों का िचन्तन करता रहता है , वह िमथ्याचारी अथार्त ् दम्भी कहा जाता है |(6)

यिःत्विन्ियाणी मनसा िनयम्यारभतेऽजुन


र् ।
कमिन्ियैः कमर्योगमस ः स िविशंयते।।7।।

िकन्तु हे अजुन
र् ! जो पुरुष मन से इिन्ियों को वश में करके अनास हआ
ु समःत
इिन्ियों ारा कमर्योग का आचरण करता है , वही ौे है |(7)

िनयतं कुरु कमर् त्वं कमर् ज्यायो कमर्णः।


शरीरयाऽािप च ते न ूिस येदकमर्णः।।8।।

तू शा िविहत कतर्व्य कमर् कर, क्योंिक कमर् न करने की अपेक्षा कमर् करना ौे है तथा
कमर् न करने से तेरा शरीर िनवार्ह भी िस नहीं होगा |(8)

यज्ञाथार्त्कमर्णोऽन्यऽ लोकोऽयं कमर्बन्धनः।


तदथ कमर् कौन्तेय मु सङ्गः समाचर।।9।।

यज्ञ के िनिम िकये जाने कम के अितिर दसरे


ू कम में लगा हआ
ु ही यह मनुंय
समुदाय कम से बँधता है | इसिलए हे अजुन
र् ! तू आसि से रिहत होकर उस यज्ञ के िनिम
ही भलीभाँित कतर्व्य कमर् कर |(9)

सहयज्ञाः ूजाः सृंट्वा पुरोवाच ूजापितः।


अनेन ूसिवंयध्वमेष वोऽिःतव कामधुक् ।।10।।

ूजापित ॄ ा ने कल्प के आिद में यज्ञ सिहत ूजाओं को रचकर उनसे कहा िक तुम
लोग इस यज्ञ के ारा वृि को ूा होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इिच्छत भोग ूदान करने
वाला हो |(10)

दे वान्भावयतानेन ते दे वा भावयन्तु वः।


परःपरं भावयन्तः ौेयः परमवाप्ःयथ।।11।।
तुम लोग इस यज्ञ के ारा दे वताओं को उन्नत करो और वे दे वता तुम लोगों को उन्नत
करें | इस ूकार िनःःवाथर्भाव से एक-दसरे
ू को उन्नत करते हए
ु तुम लोग परम कल्याण को ूा
हो जाओगे |(11)

इ ान्भोगािन्ह वो दे वा दाःयन्ते यज्ञभािवताः।


तैदर् ानूदायैभ्यो यो भुं े ःतेन एव सः।।12।।

यज्ञ के ारा बढ़ाये हए


ु दे वता तुम लोगों को िबना माँगे ही इिच्छत भोग िन य ही दे ते
रहें गे | इस ूकार उन दे वताओं के ारा िदये हए
ु भोगों को जो पुरुष उनको िबना िदये ःवयं
भोगता है , वह चोर ही है |(12)

यज्ञिश ािशनः सन्तो मुच्यन्ते सवर्िकिल्बषैः।


भुंजते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात।।
् 13।।

यज्ञ से बचे हए
ु अन्न को खाने वाले ौे पुरुष सब पापों से मु हो जाते हैं और पापी
लोग अपना शरीर-पोषण करने के िलये ही अन्न पकाते हैं , वे तो पाप को ही खाते हैं |(13)

अन्नाद् भविन्त भूतािन पजर्न्यादन्नसंभवः।


यज्ञाद् भवित पजर्न्यो यज्ञः कमर्समुद् भवः।।14।।
कमर् ॄ ोद् भवं िवि ॄ ाक्षरसमुदभवम।्
तःमात्सवर्गतं ॄ िनत्यं यज्ञे ूिति तम।।
् 15।।

सम्पूणर् ूाणी अन्न से उत्पन्न होते हैं , अन्न की उत्पि वृि से होती है , वृि यज्ञ से
होती है और यज्ञ िविहत कम से उत्पन्न होने वाला है | कमर्समुदाय को तू वेद से उत्पन्न और
वेद को अिवनाशी परमात्मा से उत्पन्न हआ
ु जान | इससे िस होता है िक सवर्व्यापी परम अक्षर
परमात्मा सदा ही यज्ञ में ूिति त है |

एवं ूवितर्तं चबं नानुवतर्यतीह यः।


अघायुिरिन्ियारामो मोघं पाथर् स जीवित।।16।।

हे पाथर् ! जो पुरुष इस लोक में इस ूकार परम्परा से ूचिलत सृि चब के अनुकूल नहीं
बरतता अथार्त ् अपने कतर्व्य का पालन नहीं करता, वह इिन्ियों के ारा भोगों में रमण करने
वाला पापायु पुरुष व्यथर् ही जीता है |(16)
यःत्वात्मरितरे व ःयादात्मतृ मानवः।
आत्मन्येव च सन्तु ःतःय काय न िव ते।।17।।

परन्तु जो मनुंय आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृ तथा आत्मा में
ही सन्तु है , उसके िलए कोई कतर्व्य नहीं है |(17)

नैव तःय कृ तेनाथ नाकृ तेनेह क न।


न चाःय सवर्भत
ू ेषु कि दथर्व्यपाौयः।।18।।

उस महापुरुष का इस िव में न तो कमर् करने से कोई ूयोजन रहता है और न कम के


न करने से ही कोई ूयोजन रहता है तथा सम्पूणर् ूािणयों में भी इसका िकंिचन्माऽ भी ःवाथर्
का सम्बन्ध नहीं रहता |(18)

तःमादस ः सततं काय कमर् समाचर।


अस ो ाचरन्कमर् परमाप्नोित पूरुषः।।19।।

इसिलए तू िनरन्तर आसि से रिहत होकर सदा कतर्व्यकमर् को भली भाँित करता रह
क्योंिक आसि से रिहत होकर कमर् करता हआ
ु मनुंय परमात्मा को ूा हो जाता है |(19)

कमर्णव
ै िह संिसि मािःथता जनकादयः।
लोकसंमहमेवािप सम्पँयन्कतुम
र् हर् िस।।20।।

जनकािद ज्ञानीजन भी आसि रिहत कमर् ारा ही परम िसि को ूा हए


ु थे | इसिलए
तथा लोकसंमह को दे खते हए
ु भी तू कमर् करने को ही योग्य है अथार्त ् तुझे कमर् करना ही उिचत
है |(20)

य दाचरित ौे ःत दे वेतरो जनः।


स यत्ूमाणं कुरुते लोकःतदनुवतर्ते।।21।।

ौे पुरुष जो-जो आचरण करता है , अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं | वह
जो कुछ ूमाण कर दे ता है , समःत मनुंय-समुदाय उसके अनुसार बरतने लग जाता है |(21)

न मे पाथार्िःत कतर्व्यं िऽषु लोकेषु िकंचन।


नानवा मवा व्यं वतर् एव च कमर्िण।।22।।
हे अजुन
र् ! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कतर्व्य है न ही कोई भी ूा करने योग्य
वःतु अूा है , तो भी मैं कमर् में ही बरतता हँू |(22)

यिद हं न वतयं जातु कमर्ण्यिन्ितः।


मम वत्मार्नव
ु तर्न्ते मनुंयाः पाथर् सवर्शः।।23।।

क्योंिक हे पाथर् ! यिद कदािचत ् मैं सावधान होकर कम में न बरतूँ तो बड़ी हािन हो
जाए, क्योंिक मनुंय सब ूकार से मेरे ही मागर् का अनुसरण करते हैं |(23)

उत्सीदे युिरमे लोका न कुया कमर् चेदहम।्


संकरःय च कतार् ःयामुपहन्यािममाः ूजाः।।24।।

इसिलए यिद मैं कमर् न करूँ तो ये सब मनुंय न -ॅ हो जायें और मैं संकरता का


करने वाला होऊँ तथा इस समःत ूजा को न करने वाला बनूँ |(24)

स ाः कमर्ण्यिव ांसो यथा कुवर्िन्त भारत।


कुयार्ि ांःतथास ि कीषुल
र् कसंमहम।।
् 25।।

हे भारत ! कमर् में आस हए


ु अज्ञानीजन िजस ूकार कमर् करते हैं , आसि रिहत
िव ान भी लोकसंमह करना चाहता हआ
ु उसी ूकार कमर् करे |(25)

न बुि भेदं जनयेदज्ञानां कमर्सिङ्गनाम।्


जोषयेत्सवर्कमार्िण िव ान्यु ः समाचरन।।
् 26।।

परमात्मा के ःवरूप में अटल िःथत हए


ु ज्ञानी पुरुष को चािहए िक वह शा िविहत कम
में आसि वाले अज्ञािनयों की बुि में ॅम अथार्त ् कम में अौ ा उन्पन्न न करे , िकन्तु ःवयं
शा िविहत समःत कमर् भलीभाँित करता हआ
ु उनसे भी वैसे ही करवावे |(26)

ूकृ तेः िबयमाणािन गुणःै कमार्िण सवर्शः।


अहं कारिवमूढात्मा कतार्हिमित मन्यते।।27।।

वाःतव में सम्पूणर् कमर् सब ूकार से ूकृ ित के गुणों ारा िकये जाते हैं तो भी िजसका
अन्तःकरण अहं कार से मोिहत हो रहा, ऐसा अज्ञानी 'मैं कतार् हँू ' ऐसा मानता है |(27)

त विव ु महाबाहो गुणकमर्िवभागयोः।


गुणा गुणेषु वतर्न्त इित मत्वा न सज्जते।।28।।

परन्तु हे महाबाहो ! गुणिवभाग और कमर्िवभाग के त व को जाननेवाला ज्ञानयोगी


सम्पूणर् गुण-ही-गुणों में बरत रहे हैं , ऐसा समझकर उनमें आस नहीं होता |(28)

ूकृ तेगण
ुर् सम्मूढाः सज्जन्ते गुणकमर्स।ु
तानकृ त्ःन्निवदो मन्दान्कृ त्ःन्निवन्न िवचालयेत।।
् 29।।

ूकृ ित के गुणों से अत्यन्त मोिहत हए


ु मनुंय गुणों में और कम में आस रहते हैं , उन
पूणत
र् या न समझने वाले मन्दबुि अज्ञािनयों को पूणत
र् या जाननेवाला ज्ञानी िवचिलत न
करे |(29)

मिय सवार्िण कमार्िण संन्यःयाध्यात्मचेतसा।


िनराशीिनर्मम
र् ो भूत्वा युध्यःव िवगतज्वरः।।30।।

मुझ अन्तयार्मी परमात्मा में लगे हए


ु िच ारा सम्पूणर् कम को मुझमें अपर्ण करके
आशारिहत, ममतारिहत और सन्तापरिहत होकर यु कर |(30)

ये मे मतिमदं िनत्यमनुित िन्त मानवाः।


ौ ावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽिप कमर्िभः।।31।।

जो कोई मनुंय दोषदृि से रिहत और ौ ायु होकर मेरे इस मत का सदा अनुसरण


ू जाते हैं |(31)
करते हैं , वे भी सम्पूणर् कम से छट

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुित िन्त मे मतम।्


सवर्ज्ञानिनमूढांःतािन्वि न ानचेतसः।।32।।

परन्तु जो मनुंय मुझमें दोषारोपण करते हए


ु मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं , उन
मूख को तू सम्पूणर् ज्ञानों में मोिहत और न हए
ु ही समझ |(32)

सदृशं चे ते ःवःयाः ूकृ तेज्ञार्नवानिप।


ूकृ ितं यािन्त भूतािन िनमहः िकं किरंयित।।33।।

सभी ूाणी ूकृ ित को ूा होते हैं अथार्त ् अपने ःवभाव के परवश हए


ु कमर् करते हैं |
ज्ञानवान भी अपनी ूकृ ित के अनुसार चे ा करते है | िफर इसमें िकसी का हठ क्या करे गा |(33)
इिन्ियःयेिन्ियःयाथ राग े षौ व्यविःथतौ।
तयोनर् वशमागच्छे तौ ःय पिरपिन्थनौ।।34।।

इिन्िय-इिन्िय के अथर् में अथार्त ् ूत्येक इिन्िय के िवषय में राग और े ष िछपे हए

िःथत हैं | मनुंय को उन दोनों के वश में नहीं होना चािहए, क्योंिक वे दोनों ही इसके कल्याण
मागर् में िवघ्न करने वाले महान शऽु हैं |(34)
ौेयान्ःवधम िवगुण परधमार्त्ःवनुि तात।्
ःवधम िनधनं ौेयः परधम भयावहः।।35।।
अच्छी ूकार आचरण में लाये हए
ु दसरे
ू के धमर् से गुण रिहत भी अपना धमर् अित उ म
है | अपने धमर् में तो मरना भी कल्याणकारक है और दसरे
ू का धमर् भय को दे ने वाला है |(35)
अजुन
र् उवाच
अथ केन ूयु ोऽयं पापं चरित पुरुषः।
अिनच्छन्निप वांणय बलािदव िनयोिजतः।।36।।
अजुन
र् बोलेः हे कृ ंण ! तो िफर यह मनुंय ःवयं न चाहता हआ
ु भी बलात ् लगाये हए

की भाँित िकससे ूेिरत होकर पाप का आचरण करता है ? (36)
ौीभगवानुवाच
काम एष बोध एष रजोगुणसमुद् भवः
महाशनो महापाप्मा िव े यनिमह वैिरणम।।
् 37।।
ौी भगवान बोलेः रजोगुण से उत्पन्न हआ
ु यह काम ही बोध है , यह बहत
ु खाने वाला
अथार्त ् भोगों से कभी न अघाने वाला और बड़ा पापी है , इसको ही तू इस िवषय में वैरी
जान |(37)
धूमेनािोयते वि यर्थादश मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गभर्ःतथा तेनेदमावृतम।।
् 38।।
िजस ूकार धुएँ से अिग्न और मैल से दपर्ण ढका जाता है तथा िजस ूकार जेर से गभर्
ढका रहता है , वैसे ही उस काम के ारा यह ज्ञान ढका रहता है |(38)
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञािननो िनत्यवैिरणा
कामरूपेण कौन्तेय दंु पूरेणानलेन च।।39।।
और हे अजुन
र् ! इस अिग्न के समान कभी न पूणर् होने वाले कामरूप ज्ञािनयों के िनत्य
वैरी के ारा मनुंय का ज्ञान ढका हआ
ु है |(39) (अनुबम)
इिन्ियािण मनो बुि रःयािध ानमुच्यते।
एतैिवर्मोहयत्येष ज्ञानमावृत्य दे िहनम।।
् 40।।
इिन्ियाँ, मन और बुि Ð ये सब वास ःथान कहे जाते हैं | यह काम इन मन, बुि और
इिन्ियों के ारा ही ज्ञान को आच्छािदत करके जीवात्मा को मोिहत करता है |(40)
तःमा विमिन्ियाण्यादौ िनयम्य भरतषर्भ।
पाप्मान ूजिह ेनं ज्ञानिवज्ञाननाशनम।।
् 41।।
इसिलए हे अजुन
र् ! तू पहले इिन्ियों को वश में करके इस ज्ञान और िवज्ञान का नाश
करने वाले महान पापी काम को अवँय ही बलपूवक
र् मार डाल |(41)
इिन्ियािण पराण्याहिरिन्िये
ु भ्यः परं मनः।
मनसःतु परा बुि य बु े ः परतःतु सः।।42।।
इिन्ियों को ःथूल शरीर से पर यािन ौे , बलवान और सूआम कहते हैं | इन इिन्ियों से
पर मन है , मन से भी पर बुि है और जो बुि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है |(42)
एवं बु े ः परं बुद् ध्वा संःतभ्यात्मानमात्मना।
जिह शऽुं महाबाहो कामरूपं दरासदम।।
ु ् 43।।
इस ूकार बुि से पर अथार्त ् सूआम, बलवान और अत्यन्त ौे आत्मा को जानकर और
बुि के ारा मन को वश में करके हे महाबाहो ! तू इस कामरूप दजर्
ु य शऽु को मार डाल |(43)
ॐ तत्सिदित ौीमद् भगवद् गीतासूपिनषत्सु ॄ ेिव ायां योगशा े
ौीकृ ंणाजुन
र् संवादे कमर्योगो नाम तृतीयोऽध्यायः | |3 | |
इस ूकार उपिनषद, ॄ िव ा तथा योगशा रूप ौीमद् भगवद् गीता के
ौीकृ ंण-अजुन
र् संवाद में 'कमर्योग' नामक तृतीय अध्याय संपूणर् हआ
ु |
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
(अनुबम)

चौथे अध्याय का माहात्म्य


ौीभगवान कहते हैं - िूये ! अब मैं चौथे अध्याय का माहात्म्य बतलाता हँू , सुनो |
भागीरथी के तट पर वाराणसी(बनारस) नाम की एक पुरी है | वहाँ िव नाथजी के मिन्दर में
भरत नाम के एक योगिन महात्मा रहते थे, जो ूितिदन आत्मिचन्तन में तत्पर हो आदरपूवक
र्
गीता के चतुथर् अध्याय का पाठ िकया करते थे | उसके अभ्यास से उनका अन्तःकरण िनमर्ल हो
गया था | वे शीत-उंण आिद न् ों से कभी व्यिथत नहीं होते थे |
एक समय की बात है | वे तपोधन नगर की सीमा में िःथत दे वताओं का दशर्न करने की
इच्छा से ॅमण करते हए
ु नगर से बाहर िनकल गये | वहाँ बेर के दो वृक्ष थे | उन्हीं की जड़ में
वे िवौाम करने लगे | एक वृक्ष की जड़ मे उन्होंने अपना मःतक रखा था और दसरे
ू वृक्ष के मूल
में उनका पैर िटका हआ
ु था | थोड़ी दे र बाद जब वे तपःवी चले गये, तब बेर के वे दोनों वृक्ष
पाँच-छः िदनों के भीतर ही सूख गये | उनमें प े और डािलयाँ भी नहीं रह गयीं | तत्प ात ् वे
दोनों वृक्ष कहीं ॄा ण के पिवऽ गृह में दो कन्याओं के रूप में उत्पन्न हए
ु |
वे दोनों कन्याएँ जब बढ़कर सात वषर् की हो गयीं, तब एक िदन उन्होंने दरू दे शों से
घूमकर आते हए
ु भरतमुिन को दे खा | उन्हें दे खते ही वे दोनों उनके चरणों में पड़ गयी और मीठी
वाणी में बोलीं- 'मुने ! आपकी ही कृ पा से हम दोनों का उ ार हआ
ु है | हमने बेर की योिन
त्यागकर मानव-शरीर ूा िकया है |' उनके इस ूकार कहने पर मुिन को बड़ा िवःमय हआ
ु |
उन्होंने पूछाः 'पुिऽयो ! मैंने कब और िकस साधन से तुम्हें मु िकया था? साथ ही यह भी
बताओ िक तुम्हारे बेर होने के क्या कारण था? क्योंिक इस िवषय में मुझे कुछ भी ज्ञान नहीं
है |'
तब वे कन्याएँ पहले उन्हे अपने बेर हो जाने का कारण बतलाती हई
ु बोलीं- 'मुने !
गोदावरी नदी के तट पर िछन्नपाप नाम का एक उ म तीथर् है , जो मनुंयों को पुण्य ूदान
करने वाला है | वह पावनता की चरम सीमा पर पहँु चा हआ
ु है | उस तीथर् में सत्यतपा नामक
एक तपःवी बड़ी कठोर तपःया कर रहे थे | वे मींम ऋतु में ूज्जविलत अिग्नयों के बीच में
बैठते थे, वषार्काल में जल की धाराओं से उनके मःतक के बाल सदा भीगे ही रहते थे तथा जाड़े
के समय में जल में िनवास करने के कारण उनके शरीर में हमेशा रोंगटे खड़े रहते थे | वे बाहर
भीतर से सदा शु रहते, समय पर तपःया करते तथा मन और इिन्ियों को संयम में रखते हए

परम शािन्त ूा करके आत्मा में ही रमण करते थे | वे अपनी िव ा के ारा जैसा व्याख्यान
करते थे, उसे सुनने के िलए साक्षात ् ॄ ा जी भी ूितिदन उनके पास उपिःथत होते और ू
करते थे | ॄ ाजी के साथ उनका संकोच नहीं रह गया था, अतः उनके आने पर भी वे सदा
तपःया में मग्न रहते थे |
परमात्मा के ध्यान में िनरन्तर संलग्न रहने के कारण उनकी तपःया सदा बढ़ती रहती
था | सत्यतपा को जीवन्मु के समान मानकर इन्ि को अपने समृि शाली पद के सम्बन्ध में
कुछ भय हआ
ु , तब उन्होंने उनकी तपःया में सैंकड़ों िवघ्न डालने आरम्भ िकये | अप्सराओं के
समुदाय से हम दोनों को बुलाकर इन्ि ने इस ूकार आदे श िदयाः 'तुम दोनों उस तपःवी की
तपःया में िवघ्न डालो, जो मुझे इन्िपद से हटाकर ःवयं ःवगर् का राज्य भोगना चाहता है |'
"इन्ि का यह आदे श पाकर हम दोनों उनके सामने से चलकर गोदावरी के तीर पर, जहाँ
वे मुिन तपःया करते थे, आयीं | वहाँ मन्द और गम्भीर ःवर से बजते हए
ु मृदंग तथा मधुर
ु ाद के साथ हम दोनों ने अन्य अप्सराओं सिहत मधुर ःवर में गाना आरम्भ िकया | इतना
वेणन
ही नहीं उन योगी महात्मा को वश में करने के िलए हम लोग ःवर, ताल और लय के साथ
नृत्य भी करने लगीं | बीच-बीच में जरा-जरा सा अंचल िखसकने पर उन्हें हमारी छाती भी िदख
जाती थी | हम दोनों की उन्म गित कामभाव का उ ीपन करनेवाली थी, िकंतु उसने उन
िनिवर्कार िच वाले महात्मा के मन में बोध का संचार कर िदया | तब उन्होंने हाथ से जल
छोड़कर हमें बोधपूवक
र् शाप िदयाः 'अरी ! तुम दोनों गंगाजी के तट पर बेर के वृक्ष हो जाओ |'
यह सुनकर हम लोगों ने बड़ी िवनय के साथ कहाः 'महात्मन ् ! हम दोनों पराधीन थीं,
अतः हमारे ारा जो दंकमर्
ु बन गया है उसे आप क्षमा करें |' यों कह कर हमने मुिन को ूसन्न
कर िलया | तब उन पिवऽ िच वाले मुिन ने हमारे शापो ार की अविध िनि त करते हए
ु कहाः
'भरतमुिन के आने तक ही तुम पर यह शाप लागू होगा | उसके बाद तुम लोगों का मृत्युलोक में
जन्म होगा और पूवज
र् न्म की ःमृित बनी रहे गी |1
"मुने ! िजस समय हम दोनों बेर-वृक्ष के रूप में खड़ी थीं, उस समय आपने हमारे समीप
आकर गीता के चौथे अध्याय का जप करते हए
ु हमारा उ ार िकया था, अतः हम आपको ूणाम
करती हैं | आपने केवल शाप ही से नहीं, इस भयानक संसार से भी गीता के चतुथर् अध्याय के
पाठ ारा हमें मु कर िदया |"
ौीभगवान कहते हैं - उन दोनों के इस ूकार कहने पर मुिन बहत
ु ही ूसन्न हए
ु और
उनसे पूिजत हो िवदा लेकर जैसे आये थे, वैसे ही चले गये तथा वे कन्याएँ भी बड़े आदर के
साथ ूितिदन गीता के चतुथर् अध्याय का पाठ करने लगीं, िजससे उनका उ ार हो गया |

अनुबम

अध्याय चौथाः ज्ञानकमर्सन्यासयोग


तीसरे अध्याय के ोक 4 से 21 तक में भगवान ने कई ूकार के िनयत कम के
आचरण की आवँयकता बतायी, िफर 30वें ोक में भि ूधान कमर्योग की िविध से ममता,
आसि और कामनाओं का सवर्था त्याग करके ूभुूीत्यथर् कमर् करने की आज्ञा दी | उसके बाद
31 से 35 वे ोक तक उस िस ान्त के अनुसार कमर् करने वालों की ूशंसा और नहीं करने
वालों की िनन्दा की है तथा राग और े ष के वश में न होकर ःवधमर्पालन के िलए जोर िदया
गया है | िफर 36वें ोक में अजुन
र् के पूछने से 37वें ोक से अध्याय पूरा होने तक काम को
सवर् अनथ का कारण बताया गया है और बुि के ारा इिन्ियों और मन को वश करके उसका
नाश करने की आज्ञा दी गयी है , लेिकन कमर्योग का मह व बड़ा गहन है | इसिलए भगवान िफर
से उसके िवषय में कई बातें अब बताते हैं | उसका आरं भ करते हए
ु पहले तीन ोकों में उस
कमर्योग की परं परा बताकर उसकी मिहमा िस करके ूशंसा करते हैं |

(अनुबम)
।। अथ चतुथ ऽध्यायः ।।

ौी भगवानुवाच
इमं िववःवते योगं ूो वानहमव्ययम।्
िववःवान्मनवे ूाह मनुिरआवाकवेऽॄवीत।।
् 1।।

ौी भगवान बोलेः मैंने इन अिवनाशी योग को सूयर् से कहा था | सूयर् ने अपने पुऽ
वैवःवत मनु से कहा और मनु ने अपने पुऽ राजा इआवाकु से कहा |(1)

एवं परम्पराूा िममं राजषर्यो िवदः।



स कालेनेह महता योगो न ः परं तप।।2।।

हे परं तप अजुन
र् ! इस ूकार परम्परा से ूा इस योग को राजिषर्यों ने जाना, िकन्तु
उसके बाद वह योग बहत
ु काल से इस पृथ्वी लोक में लु ूाय हो गया |(2)

स एवायं मया तेऽ योगः ूो ः पुरातनः


भ ोऽिस मे सखा चेित रहःयं ेतद ु मम।।
् 3।।

तू मेरा भ और िूय सखा है , इसिलए यह पुरातन योग आज मैंने तुझे कहा है , क्योंिक
यह बड़ा ही उ म रहःय है अथार्त ् गु रखने योग्य िवषय है |(3)

अजुन
र् उवाच
अपरं भवतो जन्म परं जन्म िववःवतः।
कथमेति जानीयां त्वमादौ ूो वािनित।।4।।

अजुन
र् बोलेः आपका जन्म तो अवार्चीन Ð अभी हाल ही का है और सूयर् का जन्म बहत

पुराना है अथार्त ् कल्प के आिद में हो चुका था | तब मैं इस बात को कैसे समझूँ िक आप ही ने
कल्प के आिद में यह योग कहा था?(4)

ौी भगवानुवाच
बहिन
ू मे व्यतीतािन जन्मािन तव चाजुन
र् ।
तान्यहं वेद सवार्िण न त्वं वेत्थ परं तप।।5।।
ौी भगवान बोलेः हे परं तप अजुन
र् ! मेरे और तेरे बहत
ु से जन्म हो चुके हैं | उन सबको
तू नहीं जानता, िकन्तु मैं जानता हँू |

अजोऽिप सन्नव्ययात्मा भूतानामी रोऽिप सन।्


ूकृ ितं ःवामिध ाय संभवाम्यात्ममायया।।6।।

मैं अजन्मा और अिवनाशीःवरूप होते हए


ु भी तथा समःत ूािणयों का ई र होते हए
ु भी
अपनी ूकृ ित को आधीन करके अपनी योगमाया से ूकट होता हँू |(6)

यदा यदा िह धमर्ःय ग्लािनभर्वित भारत।


अभ्युत्थानमधमर्ःय तदात्मानं सृजाम्यहम।।
् 7।।

हे भारत ! जब-जब धमर् की हािन और अधमर् की वृि होती है , तब-तब ही मैं अपने रूप
को रचता हँू अथार्त ् साकार रूप से लोगों के सम्मुख ूकट होता हँू |(7)

पिरऽाणाय साधूनां िवनाशाय च दंकृ


ु ताम।्
धमर्सः
ं थापनाथार्य सम्भवािम युगे युगे।।8।।

साधु पुरुषों का उ ार करने के िलए, पाप कमर् करने वालों का िवनाश करने के िलए और
धमर् की अच्छी तरह से ःथापना करने के िलए मैं युग-युग में ूकट हआ
ु करता हँू |(8)

जन्म कमर् च मे िदव्यमेवं यो वेि त वतः।


त्यक्त्वा दे हं पुनजर्न्म नैित मामेित सोऽजुन
र् ।।9।।

हे अजुन
र् ! मेरे जन्म और कमर् िदव्य अथार्त ् िनमर्ल और अलौिकक हैं Ð इस ूकार जो
मनुंय त व से जान लेता है , वह शरीर को त्याग कर िफर जन्म को ूा नहीं होता, िकन्तु
मुझे ही ूा होता है |(9)

वीतरागभयबोधा मन्मया मामुपािौताः।


बहवो ज्ञानतपसा पूता मद् भावमागताः।।10।।

पहले भी िजनके राग, भय और बोध सवर्था न हो गये थे और जो मुझमें अनन्य


ूेमपूवक
र् िःथर रहते थे, ऐसे मेरे आिौत रहने वाले बहत
ु से भ उपयुर् ज्ञानरूप तप से पिवऽ
होकर मेरे ःवरूप को ूा हो चुके हैं |(10)
ये यथा मां ूप न्ते तांःतथैव भजाम्यहम।्
मम वत्मार्नव
ु तर्न्ते मनुंयाः पाथर् सवर्शः।।11।।

हे अजुन
र् ! जो भ मुझे िजस ूकार भजते हैं , मैं भी उनको उसी ूकार भजता हँू ,
क्योंिक सभी मनुंय सब ूकार से मेरे ही मागर् का अनुसरण करते हैं |(11)

कांक्षन्तः कमर्णां िसि ं यजन्त इह दे वताः।


िक्षूं िह मानुषे लोके िसि भर्वित कमर्जा।।12।।

इस मनुंय लोक में कम के फल को चाहने वाले लोग दे वताओं का पूजन िकया करते हैं ,
क्योंिक उनको कम से उत्पन्न होने वाली िसि शीय िमल जाती है |(12)

चातुवण्
र् य मया सृ ं गुणकमर्िवभागशः।
तःय कतार्रमिप मां िव यकतार्रमव्ययम।।
् 13।।

ॄा ण, क्षिऽय, वैँय और शूि Ð इन चार वण का समूह, गुण और कम के िवभागपूवक


र्
मेरे ारा रचा गया है | इस ूकार उस सृि Ð रचनािद कमर् का कतार् होने पर भी मुझ अिवनाशी
परमे र को तू वाःतव में अकतार् ही जान |(13)

न मां कमार्िण िलम्पिन्त न मे कमर्फले ःपृहा।


इित मां योऽिभजानाित कमर्िभनर् स बध्यते।।14।।

कम के फल में मेरी ःपृहा नहीं है , इसिलए मुझे कमर् िल नहीं करते Ð इस ूकार जो
मुझे त व से जान लेता है , वह भी कम से नहीं बँधता |(14)

एवं ज्ञात्वा कृ तं कमर् पूवरिप मुमक्ष


ु िु भः।
कुरु कमव तःमा वं पूवः पूवत
र् रं कृ तम।।
् 15।।

पूवक
र् ाल में मुमक्ष
ु ओ ु ं ने भी इस ूकार जानकर ही कमर् िकये हैं इसिलए तू भी पूवज
र् ों
ारा सदा से िकये जाने वाले कम को ही कर |(15)

िकं कमर् िकमकमित कवयोऽप्यऽ मोिहताः।


त े कमर् ूवआयािम यज्ज्ञात्वा मोआयसेऽशुभात।।
् 16।।
कमर् क्या है ? और अकमर् क्या है ? Ð इस ूकार इसका िनणर्य करने में बुि मान पुरुष भी
मोिहत हो जाते हैं | इसिलए वह कमर्त व मैं तुझे भली भाँित समझाकर कहँू गा, िजसे जानकर तू
अशुभ से अथार्त ् कमर्बन्धन से मु हो जाएगा |(16)

कमर्णो िप बो व्यं बो व्यं य िवकमर्णः।


अकमर्ण बो व्यं गहना कमर्णो गितः।।17।।

कमर् का ःवरूप भी जानना चािहए और अकमर् का ःवरूप भी जानना चािहए तथा िवकमर्
का ःवरूप भी जानना चािहए, क्योंिक कमर् की गित गहन है |(17)

कमर्ण्यकमर् यः पँयेदकमर्िण च कमर् यः।


स बुि मान्मनुंयेषु स यु ः कृ त्ःनकमर्कृत।।
् 18।।

जो मनुंय कमर् में अकमर् दे खता और जो अकमर् में कमर् दे खता है , वह मनुंयों में
बुि मान है और वह योगी समःत कम को करने वाला है |(18)

यःय सव समारम्भाः कामसंकल्पविजर्ताः।


ज्ञानािग्नदग्धकमार्णं तमाहःु पिण्डतं बुधाः।।19।।

िजसके सम्पूणर् शा -सम्मत कमर् िबना कामना और संकल्प के होते हैं तथा िजसके
समःत कमर् ज्ञानरूप अिग्न के ारा भःम हो गये हैं , उस महापुरुष को ज्ञानीजन भी पिण्डत
कहते हैं |(19)

त्य वा कमर्फलासङ्गं िनत्यतृ ो िनराौयः।


कमर्ण्यिभूवृ ोऽिप नैव िकंिचत्करोित सः।।20।।

जो पुरुष समःत कम में और उनके फल में आसि का सवर्था त्याग करके संसार के
आौय से रिहत हो गया है और परमात्मा में िनत्य तृ है , वह कम में भली भाँित बरतता हआ

भी वाःतव में कुछ भी नहीं करता |(20)

िनराशीयर्तिच ात्मा त्य सवर्पिरमहः।


शारीरं केवलं कमर् कुवर्न्नाप्नोित िकिल्बषम।।
् 21।।
िजसका अन्तःकरण और इिन्ियों के सिहत शरीर जीता हआ
ु है और िजसने समःत भोगों
की साममी का पिरत्याग कर िदया है , ऐसा आशारिहत पुरुष केवल शरीर-सम्बन्धी कमर् करता
हआ
ु भी पापों को नहीं ूा होता |(21)

यदृच्छालाभसंतु ो न् ातीतो िवमत्सरः।


समः िस ाविस ौ च कृ त्वािप न िनबध्यते।।22।।

जो िबना इच्छा के अपने-आप ूा हए


ु पदाथर् में सदा सन्तु रहता है , िजसमें ईंयार् का
सवर्था अभाव हो गया है , जो हषर्-शोक आिद न् ों में सवर्था अतीत हो गया है Ð ऐसा िसि
और अिसि में सम रहने वाला कमर्योगी कमर् करता हआ
ु भी उनसे नहीं बँधता |

गतसङ्गःय मु ःय ज्ञानाविःथतचेतसः।
यज्ञायाचरतः कमर् सममं ूिवलीयते।।23।।

िजसकी आसि सवर्था न हो गयी है , जो दे हािभमान और ममतारिहत हो गया है ,


िजसका िच िनरन्तर परमात्मा के ज्ञान में िःथत रहता है Ð ऐसा केवल यज्ञसम्पादन के िलए
कमर् करने वाले मनुंय के सम्पूणर् कमर् भली भाँित िवलीन हो जाते हैं |(23)

ॄ ापर्णं ॄ हिवॄर् ाग्नौ ॄ णा हतम।


ु ्
ॄ व
ै तेन गन्तव्यं ॄ कमर्समािधना।।24।।

िजस यज्ञ में अपर्ण अथार्त ् ॐुवा आिद भी ॄ है और हवन िकये जाने योग्य िव्य भी
ॄ है तथा ॄ रूप कतार् के ारा ॄ रूप अिग्न में आहित
ु दे नारूप िबया भी ॄ है Ð उस
ॄ कमर् में िःथत रहने वाले योगी ारा ूा िकये जाने वाले योग्य फल भी ॄ ही है |

दै वमेवापरे यज्ञं योिगनः पयुप


र् ासते।
ॄ ाग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजु ित।।25।।

दसरे
ू योगीजन दे वताओं के पूजनरूप परॄ ा परमात्मारूप अिग्न में अभेददशर्नरूप यज्ञ के
ारा ही आत्मरूप यज्ञ का हवन िकया करते हैं |(25)

ौोऽादीनीिन्ियाण्यन्ये संयमािग्नषु जु ित।


शब्दादीिन्वषयानन्य इिन्ियािग्नषु जु ित।।26।।
अन्य योगीजन ौोऽ आिद समःत इिन्ियों को संयमरूप अिग्नयों में हवन िकया करते हैं
और दसरे
ू लोग शब्दािद समःत िवषयों को इिन्ियरूप अिग्नयों में हवन िकया करते हैं |(26)

सवार्णीिन्ियकमार्िण ूाणकमार्िण चापरे ।


आत्मसंयमयोगाग्नौ जु ित ज्ञानदीिपते।।27।।

दसरे
ू योगीजन इिन्ियों की सम्पूणर् िबयाओं को और ूाण की समःत िबयाओं को ज्ञान
से ूकािशत आत्मसंयम योगरूप अिग्न में हवन िकया करते हैं |(27)

िव्ययज्ञाःतपोयज्ञा योगयज्ञाःतथापरे ।
ःवाध्यायज्ञानयज्ञा यतयः संिशतोताः।।28।।

कई पुरुष िव्य-सम्बन्धी यज्ञ करने वाले हैं , िकतने ही तपःयारूप यज्ञ करने वाले हैं तथा
दसरे
ू िकतने ही योगरूप यज्ञ करने वाले हैं , िकतने ही अिहं सािद तीआण ोतों से यु य शील
पुरुष ःवाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ करने वाले हैं |(28)

अपाने जु ित ूाणं ूाणेऽपानं तथापरे ।


ूाणापानगती रुद्ध्वा ूाणायामपरायणाः।।29।।
अपरे िनयतहाराः ूाणान्ूाणेषु जु ित।
सवऽप्येते यज्ञिवदो यज्ञक्षिपतकल्मषाः।।30।।

दसरे
ू िकतने ही योगीजन अपानवायु में ूाणवायु को हवन करते हैं , वैसे ही अन्य
योगीजन ूाणवायु में अपानवायु को हवन करते हैं तथा अन्य िकतने ही िनयिमत आहार करने
वालो ूाणायाम-परायण पुरुष ूाण और अपान की गित को रोक कर ूाणों को ूाणों में ही हवन
िकया करते हैं | ये सभी साधक यज्ञों ारा पापों का नाश कर दे ने वाले और यज्ञों को जानने वाले
हैं |(29,30)

यज्ञिश ामृतभुजो यािन्त ॄ सनातम।्


नायं लोकोऽःत्यज्ञःय कुतोऽन्यः कुरुस म।्31।।

हे कुरुौे अजुन
र् ! यज्ञ से बचे हए
ु अमृतरूप अन्न का भोजन करने वाले योगीजन
सनातन परॄ परमात्मा को ूा होते हैं और यज्ञ न करने वाले पुरुष के िलए तो यह
मनुंयलोक भी सुखदायक नहीं है , िफर परलोक कैसे सुखदायक हो सकता है ?(31)
एवं बहिवधा
ु यज्ञा िवतता ॄ णो मुखे।
कमर्जािन्वि तान्सवार्नेवं ज्ञात्वा िवमोआयसे।।32।।
इसी ूकार और भी बहत
ु तरह के यज्ञ वेद की वाणी में िवःतार से कहे गये हैं | उन
सबको तू मन इिन्िय और शरीर की िबया ारा सम्पन्न होने वाला जान | इस ूकार त व से
जानकर उनके अनु ान ारा तू कमर्बन्धन से सवर्था मु हो जाएगा |(32)

ौेयान्िव्यमया ज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परं तप।


सव कमार्िखलं पाथर् ज्ञाने पिरसमाप्यते।।33।।

हे परं तप अजुन
र् ! िव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ अत्यन्त ौे है , तथा यावन्माऽ
सम्पूणर् कमर् ज्ञान में समा हो जाते हैं |

ति ि ूिणपातेन पिरू ेन सेवया।


उपदे आयिन्त ते ज्ञानं ज्ञािननःत वदिशर्नः।।34।।

उस ज्ञान को तू त वदश ज्ञािनयों के पास जाकर समझ, उनको भली भाँित दण्डवत
ूणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूवक
र् ू करने से वे
परमात्म-त व को भली भाँित जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस त वज्ञान का उपदे श
करें गे |(34)
यज्ज्ञात्वा न पुनम हमेवं याःयिस पाण्डव।
येन भूतान्यशेषेण िआयःयात्मन्यथो मिय।।35।।

िजसको जानकर िफर तू इस ूकार मोह को ूा नहीं होगा तथा हे अजुन


र् ! िजस ज्ञान
के ारा तू सम्पूणर् भूतों को िनःशेषभाव से पहले अपने में और पीछे मुझे सिच्चदानन्दघन
परमात्मा में दे खेगा |(35)

अिप चेदिस पापेभ्य सवभ्यः पापकृ मः।


सव ज्ञानप्लवेनैव वृिजनं संतिरंयिस।।36।।

यिद तू अन्य सब पािपयों से भी अिधक पाप करने वाला है , तो भी तू ज्ञानरूप नौका


ारा िनःसन्दे ह सम्पूणर् पाप-समुि से भलीभाँित तर जायेगा |(36)

यथैधांिस सिम ोऽिग्नभर्ःमसात्कुरुतेऽजुन


र् ।
ज्ञानािग्नः सवर्कमार्िण भःमसात्कुरुते तथा।।37।।
क्योंिक हे अजुन
र् ! जैसे ूज्विलत अिग्न धनों को भःममय कर दे ती है , वैसे ही ज्ञानरूप
अिग्न सम्पूणर् कम को भःममय कर दे ती है |(37)

न िह ज्ञानेन सदृशं पिवऽिमह िव ते।


तत्ःवयं योगसंिस ः कालेनात्मिन िवन्दित।।38।।
इस संसार में ज्ञान के समान पिवऽ करने वाला िनःसंदेह कुछ भी नहीं है | उस ज्ञान को
िकतने ही काल से कमर्योग के ारा शु ान्तःकरण हआ
ु मनुंय अपने आप ही आत्मा में पा लेता
है |(38)

ौ ावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेिन्ियः


ज्ञानं लब्ध्वा परां शािन्तमिचरे णािधगच्छित।।39।।

िजतेिन्िय, साधनपरायण और ौ ावान मनुंय ज्ञान को ूा होता है तथा ज्ञान को ूा


होकर वह िबना िवलम्ब के, तत्काल ही भगवत्ूाि रूप परम शािन्त को ूा हो जाता है |(39)

अज्ञ ाौ धान संशयात्मा िवनँयित।


नायं लोकोऽिःत न परो न सुखं संशयात्मनः।।40।।

िववेकहीन और ौ ारिहत संशययु मनुंय परमाथर् से अवँय ॅ हो जाता है | ऐसे


संशययु मनुंय के िलए न यह लोक है , न परलोक है और न सुख ही है |(40)

योगसंन्यःतकमार्णं ज्ञानसंिछन्नसंशयम।्
आत्मवन्तं न कमार्िण िनबध्निन्त धनंजय।।41।।

हे धनंजय ! िजसने कमर्योग की िविध से समःत कम को परमात्मा में अपर्ण कर िदया


है और िजसने िववेक ारा समःत संशयों का नाश कर िदया है , ऐसे वश में िकये हए

अन्तःकरण वाले पुरुष को कमर् नहीं बाँधते |(41)

तःमादज्ञानसंभत
ू ं हृत्ःथं ज्ञानािसनात्मनः।
िछ वैनं संशयं योगमाित ोि भारत।।42।।
इसिलए हे भरतवंशी अजर्न ! तू हृदय में िःथत इस अज्ञानजिनत अपने संशय का
िववेकज्ञानरूप तलवार ारा छे दन करके समत्वरूप कमर्योग में िःथत हो जा और यु के िलए
खड़ा हो जा | (42)

ॐ तत्सिदित ौीमद् भगवद् गीतासूपिनषत्सु ॄ िव ायां योगशा े


ौीकृ ंणाजुन
र् संवादे ज्ञानकमर्सन्यासयोगो नाम चतुथ ऽध्यायः | |3 | |
इस ूकार उपिनषद, ॄ िव ा तथा योगशा रूप ौीमद् भगवद् गीता के
ौीकृ ंण-अजुन
र् संवाद में ज्ञानकमर्सन्यासयोग नामक तृतीय अध्याय संपूणर् हआ
ु |
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
(अनुबम)

पाँचवें अध्याय का माहात्म्य


ौी भगवान कहते हैं हे दे वी! अब सब लोगों ारा सम्मािनत पाँचवें अध्याय का माहात्म्य
संक्षेप में बतलाता हँू , सावधान होकर सुनो | मि दे श में पुरुकुत्सपुर नामक एक नगर है | उसमें
िपंगल नामक एक ॄा ण रहता था | वह वेदपाठी ॄा णों के िवख्यात वंश में, जो सवर्दा
िनंकलंक था, उत्पन्न हआ
ु था, िकंतु अपने कुल के िलए उिचत वेद-शा ों के ःवाध्याय को
छोड़कर ढोल बजाते हए
ु उसने नाच-गान में मन लगाया | गीत, नृत्य और बाजा बजाने की कला
में पिरौम करके िपंगल ने बड़ी ूिस ी ूा कर ली और उसी से उसका राज भवन में भी ूवेश
हो गया | अब वह राजा के साथ रहने लगा | ि यों के िसवा और कहीं उसका मन नहीं लगता
था | धीरे -धीरे अिभमान बढ़ जाने से उच्लं खल होकर वह एकान्त में राजा से दसरों
ू के दोष
बतलाने लगा | िपंगल की एक ी थी, िजसका नाम था अरुणा | वह नीच कुल में उत्पन्न हई

थी और कामी पुरुषों के साथ िवहार करने की इच्छा से सदा उन्हीं की खोज में घूमा करती थी |
उसने पित को अपने मागर् का कण्टक समझकर एक िदन आधी रात में घर के भीतर ही उसका
िसर काटकर मार डाला और उसकी लाश को जमीन में गाड़ िदया | इस ूकार ूाणों से िवयु
होने पर वह यमलोक पहँु चा और भीषण नरकों का उपभोग करके िनजर्न वन में िग हआ
ु |
अरुणा भी भगन्दर रोग से अपने सुन्दर शरीर को त्याग कर घोर नरक भोगने के प ात
उसी वन में शुकी हई
ु | एक िदन वह दाना चुगने की इच्छा से इधर उधर फुदक रही थी, इतने में
ही उस िग ने पूवज
र् न्म के वैर का ःमरण करके उसे अपने तीखे नखों से फाड़ डाला | शुकी
घायल होकर पानी से भरी हई
ु मनुंय की खोपड़ी में िगरी | िग पुनः उसकी ओर झपटा | इतने
में ही जाल फैलाने वाले बहे िलयों ने उसे भी बाणों का िनशाना बनाया | उसकी पूवज
र् न्म की प ी
शुकी उस खोपड़ी के जल में डू बकर ूाण त्याग चुकी थी | िफर वह बूर पक्षी भी उसी में िगर
कर डू ब गया | तब यमराज के दत
ू उन दोनों को यमराज के लोक में ले गये | वहाँ अपने पूवक
र् ृ त
पापकमर् को याद करके दोनों ही भयभीत हो रहे थे | तदनन्तर यमराज ने जब उनके घृिणत
कम पर दृि पात िकया, तब उन्हें मालूम हआ
ु िक मृत्यु के समय अकःमात ् खोपड़ी के जल में
ःनान करने से इन दोनों का पाप न हो चुका है | तब उन्होंने उन दोनों को मनोवांिछत लोक में
जाने की आज्ञा दी | यह सुनकर अपने पाप को याद करते हए
ु वे दोनों बड़े िवःमय में पड़े और
पास जाकर धमर्राज के चरणों में ूणाम करके पूछने लगेः "भगवन ! हम दोनों ने पूवज
र् न्म में
अत्यन्त घृिणत पाप का संचय िकया है , िफर हमें मनोवािञ्छत लोकों में भेजने का क्या कारण
है ? बताइये |"
यमराज ने कहाः गंगा के िकनारे वट नामक एक उ म ॄ ज्ञानी रहते थे | वे
एकान्तवासी, ममतारिहत, शान्त, िवर और िकसी से भी े ष न रखने वाले थे | ूितिदन गीता
के पाँचवें अध्याय का जप करना उनका सदा िनयम था | पाँचवें अध्याय को ौवण कर लेने पर
महापापी पुरुष भी सनातन ॄ का ज्ञान ूा कर लेता है | उसी पुण्य के ूभाव से शु िच
होकर उन्होंने अपने शरीर का पिरत्याग िकया था | गीता के पाठ से िजनका शरीर िनमर्ल हो
गया था, जो आत्मज्ञान ूा कर चुके थे, उन्ही महात्मा की खोपड़ी का जल पाकर तुम दोनों
पिवऽ हो गये | अतः अब तुम दोनों मनोवािञ्छत लोकों को जाओ, क्योंिक गीता के पाँचवें
अध्याय के माहात्म्य से तुम दोनों शु हो गये हो |
ौी भगवान कहते हैं सबके ूित समान भाव रखने वाले धमर्राज के ारा इस ूकार
समझाये जाने पर दोनों बहत
ु ूसन्न हए
ु और िवमान पर बैठकर वैकुण्ठधाम को चले गये |
(अनुबम)

पाँचवाँ अध्यायः कमर्संन्यासयोग


तीसरे और चौथे अध्याय में अजुन
र् ने भगवान ौीकृ ण्ण के मुख से कमर् की अनेक ूकार
से ूशंसा सुनकर और उसके अनुसार बरतने की ूेरणा और आज्ञा पाकर साथ-साथ में यह भी
जाना िक कमर्योग के ारा भगवत्ःवरूप का त वज्ञान अपने-आप ही हो जाता है | चौथे अध्याय
के अंत में भी भगवान ने उन्हें कमर्योग ूा करने को आज्ञा दी है , परं तु बीच-बीच में
ॄ ाग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजु ित। ति ि ूािणपातेन.... आिद वचनों के ारा ज्ञानयोग की (कमर्
संन्यास की) ूशंसा सुनी | इससे अजुन
र् इन दोनों में अपने िलए कौन-सा साधन ौे है उसका
िन य न कर सका | इसिलए उसका िनणर्य अब भगवान के ौीमुख से ही हो इस उ े ँय से
अजुन
र् पूछते हैं -

।। अथ पंचमोऽध्यायः ।।
अजुन
र् उवाच
संन्यासं कमर्णां कृ ंण पुनय गं च शंसिस।
यच्ले य एतयोरे कं तन्मे ॄूिह सुिन तम।।
् 1।।

अजुन
र् बोलेः हे कृ ंण ! आप कम के संन्यास की और िफर कमर्योग की ूशंसा करते हैं |
इसिलए इन दोनों साधनों में से जो एक मेरे िलए भली भाँित िनि त कल्याणकारक साधन हो,
उसको किहये |(1)

ौीभगवानुवाच
संन्यासः कमर्योग िनःौेयसकरावुभौ।
तयोःतु कमर्संन्यासात्कमर्योगो िविशंयते।।2।।

ौी भगवान बोलेः कमर्सन्


ं यास और कमर्योग Ð ये दोनों ही परम कल्याण के करने वाले
हैं , परन्तु उन दोनों में भी कमर्सन्
ं यास से कमर्योग साधन में सुगम होने से ौे है |(2)

ज्ञेयः स िनत्यसंन्यासी यो न ेि न कांक्षित।


िन र् न् ो िह महाबाहो सुखं बंधात्ूमुच्यते।।3।।

हे अजुन
र् ! जो पुरुष िकसी से े ष नहीं करता है और न िकसी की आकांक्षा करता है , वह
कमर्योगी सदा संन्यासी ही समझने योग्य है , क्योंिक राग- े षािद न् ों से रिहत पुरुष सुखपूवक
र्
संसारबन्धन से मु हो जाता है |(3)

सांख्योगौ पृथग्बालाः ूवदिन्त न पिण्डताः।


एकमप्यािःथतः सम्यगुभयोिवर्न्दते फलम।।
् 4।।

उपयुर् संन्यास और कमर्योग को मूखर् लोग पृथक-पृथक फल दे ने वाले कहते हैं न िक


पिण्डतजन, क्योंिक दोनों में से एक में भी सम्यक ूकार से िःथत पुरुष दोनों के फलःवरूप
परमात्मा को ूा होता है |(4)

यत्सांख्यैः ूाप्यते ःथानं त ोगैरिप गम्यते।


एकं सांख्यं य योगं च यः पँयित स पँयित।।5।।

ज्ञानयोिगयों ारा जो परम धाम ूा िकया जाता है , कमर्योिगयों ारा भी वही ूा िकया
जाता है इसिलए जो पुरुष ज्ञानयोग और कमर्योग को फलरूप में एक दे खता है , वही यथाथर्
दे खता है |(5)
संन्यासःतु महाबाहो दःखमा
ु म
ु योगतः।
योगयु ो मुिनॄर् निचरे णािधगच्छित।।6।।

परन्तु हे अजुन
र् ! कमर्योग के िबना होने वाले संन्यास अथार्त ् मन, इिन्िय और शरीर
ारा होने वाले सम्पूणर् कम में कतार्पन का त्याग ूा होना किठन है और भगवत्ःवरूप को
मनन करने वाला कमर्योगी परॄ परमात्मा को शीय ही ूा हो जाता है |(6)

योगयु ो िवशु ात्मा िविजतात्मा िजतेिन्ियः।


सवर्भत
ू ात्मभूतात्मा कुवर्न्निप न िलप्यते।।7।।

िजसका मन अपने वश में है , जो िजतेिन्िय और िवशु अन्तःकरण वाला तथा सम्पूणर्


ूािणयों का आत्मरूप परमात्म ही िजसका आत्मा है , ऐसा कमर्योगी कमर् करता हआ
ु भी िल
नहीं होता |(7)

नैव िकंिचत्करोमीित यु ो मन्येत त विवत।्


पँयञ्शृण्वन्ःपृशिञ्जयन्न न्गच्छन्ःवपञ् सन।।
् 8।।
ूलयपिन्वसृजन्गृहणन्नुिन्मषिन्निमषन्निप।
इिन्ियाणीिन्ियाथषु वतर्न्त इित धारयन।।
् 9।।

त व को जानने वाला सांख्ययोगी तो दे खता हआ


ु , सुनता हआ
ु , ःपशर् करता हआ
ु , सूघ
ँ ता
हआ
ु , भोजन करता हआ
ु , गमन करता हआ
ु , सोता हआ
ु , ास लेता हआ
ु , बोलता हआ
ु , त्यागता
हआ
ु , महण करता हआ
ु तथा आँखों को खोलता और मूद
ँ ता हआ
ु भी, सब इिन्ियाँ अपने-अपने
अथ में बरत रहीं हैं Ð इस ूकार समझकर िनःसंदेह ऐसा माने िक मैं कुछ भी नहीं करता हँू |

ॄ ण्याधाय कमार्िण सङ्गं त्य वा करोित यः।


िलप्यते न स पापेन प पऽ िमवाम्भसा।।10।।

जो पुरुष सब कम को परमात्मा में अपर्ण करके और आसि को त्यागकर कमर् करता


है , वह पुरुष जल से कमल के प े की भाँित पाप से िल नहीं होता |(10)

कायेन मनसा बु या केवलैिरिन्ियैरिप।


योिगनः कमर् कुवर्िन्त सङ्गं त्य वात्मशु ये।।11।।
कमर्योगी ममत्वबुि रिहत केवल इिन्िय, मन, बुि और शरीर ारा भी आसि को
त्यागकर अन्तःकरण की शुि के िलए कमर् करते हैं |(11)

यु ः कमर्फलं त्य वा शािन्तमाप्नोित नैि कीम।्


अयु ः कामकारे ण फले स ो िनबध्यते।।12।।

कमर्योगी कम के फल का त्याग करके भगवत्ूाि रूप शािन्त को ूा होता है और


सकाम पुरुष कामना की ूेरणा से फल में आस होकर बँधता है |

सवर्कमार्िण मनसा संन्यःयाःते सुखं वशी।


नव ारे पुरे दे ही नैव कुवर्न्न कारयन।।
् 13।।

अन्तःकरण िजसके वश में है ऐसा सांख्ययोग का आचरण करने वाला पुरुष न करता
हआ
ु और न करवाता हआ
ु ही नव ारों वाले शरीर रूपी घर में सब कम का मन से त्याग कर
आनन्दपूवक
र् सिच्चदानंदघन परमात्मा के ःवरूप में िःथत रहता है |(13)

न कतृत्र् वं न कमार्िण लोकःय सृजित ूभुः।


न कमर्फलसंयोगं ःवभावःतु ूवतर्ते।।14।।

परमे र मनुंयों के न तो कतार्पन की, न कम की और न कमर्फल के संयोग की रचना


करते हैं , िकन्तु ःवभाव ही बरत रहा है |(14)

नाद े कःयिचत्पापं न चैव सुकृतं िवभुः।


अज्ञानेनावृ ं ज्ञानं तेन मु िन्त जन्तवः।।15।।

सवर्व्यापी परमे र भी न िकसी के पापकमर् को और न िकसी के शुभ कमर् को ही महण


करता है , िकन्तु अज्ञान के ारा ज्ञान ढका हआ
ु है , उसी से सब अज्ञानी मनुंय मोिहत हो रहे हैं
|(15)

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नािशतमात्मनः।


तेषामािदत्यवज्ज्ञानं ूकाशयित तत्परम।।
् 16।।

परन्तु िजनका वह अज्ञान परमात्मा के त वज्ञान ारा न कर िदया गया है , उनका वह


ज्ञान सूयर् के सदृश उस सिच्चदानंदघन परमात्मा को ूकािशत कर दे ता है |(16)
तद् बु यःतदात्मानःतिन्न ाःतत्परायणाः।
गच्छन्त्यपुनरावृि ं ज्ञानिनधूत
र् कल्मषाः।।17।।

िजनका मन तिप
ू हो रहा है , िजनकी बुि तिप
ू हो रही है और सिच्चदानन्दघन
परमात्मा में ही िजनकी िनरन्तर एकीभाव से िःथित है , ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञान के ारा
पापरिहत होकर अपुनरावृि को अथार्त ् परम गित को ूा होते हैं |(17)

िव ािवनयसंपन्ने ॄा णे गिव हिःतनी।


शुिन चैव पाके च पिण्डताः समदिशर्नः।।18।।

वे ज्ञानीजन िव ा और िवनययु ॄा ण में तथा गौ, हाथी, कु े और चाण्डाल में भी


समदश होते हैं |(18)

इहै व तैिजर्तः सग येषां साम्ये िःथतं मनः।


िनद षं िह समं ॄ तःमाद् ॄ िण ते िःथताः।।19।।

िजनका मन समभाव में िःथत है , उनके ारा इस जीिवत अवःथा में ही सम्पूणर् संसार
जीत िलया गया है , क्योंिक सिच्चदानन्दघन परमात्मा िनद ष और सम है , इससे वे
सिच्चदानन्दघन परमात्मा में ही िःथत है |(19)

न ूहृंयेित्ूयं ूाप्य नोि जेत्ूाप्य चािूयम।्


िःथरबुि रसंमढ
ू ो ॄ िवद् ॄ िण िःथतः।।20।।

जो पुरुष िूय को ूा होकर हिषर्त नहीं हो और अिूय को ूा होकर उि ग्न न हो, वह


िःथरबुि , संशय रिहत, ॄ वे ा पुरुष सिच्चदानन्दघन परॄ परमात्मा में एकीभाव से िनत्य
िःथत है |(20)

बा ःपशंवस ात्मा िवन्दत्यात्मिन यत्सुखम।्


स ॄ योगयु ात्मा सुखमक्षयम ुते।।21।।

बाहर के िवषयों में आसि रिहत अन्तःकरण वाला साधक आत्मा में िःथत जो
ध्यानजिनत साि वक आनन्द है , उसको ूा होता है | तदनन्तर वह सिच्चदानंदघन परॄ
परमात्मा के ध्यानरूप योग में अिभन्नभाव से िःथत पुरुष अक्षय आनन्द का अनुभव करता है
|(21)
ये िह संःपशर्जा भोगा दःखयोनय
ु एव ते।
आ न्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।22।।

जो ये इिन्िय तथा िवषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं , य िप िवषयी
पुरुषों को सुखरूप भासते हैं तो भी दःख
ु के ही हे तु हैं और आिद-अन्तवाले अथार्त ् अिनत्य हैं |
इसिलए हे अजुन
र् ! बुि मान िववेकी पुरुष उनमें नहीं रमता |(22)

शक्नोतीहै व यः सोढंु ूाक्शरीरिवमोक्षणात।्


कामबोधोद् भवं वेगं स यु ः स सुखी नरः।।23।।

जो साधक इस मनुंय शरीर में, शरीर का नाश होने से पहले-पहले ही काम-बोध से


उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समथर् हो जाता है , वही पुरुष योगी है और वही सुखी
है |(23)

योऽन्तःसुखोऽन्तरारामःतथान्तज्य ितरे व यः।


स योगी ॄ िनवार्णं ॄ भूतोऽिधगच्छित।।24।।

जो पुरुष अन्तरात्मा में ही सुख वाला है , आत्मा में ही रमण करने वाला है तथा जो
आत्मा में ही ज्ञानवाला है , वह सिच्चदानन्दघन परॄ परमात्मा के साथ एकीभाव को ूा
सांख्योगी शान्त ॄ को ूा होता है |(24)

लभन्ते ॄ िनवार्णमृषयः क्षीणकल्मषाः।


िछन्न ै धा यतात्मानः सवर्भत
ू िहते रताः।।25।।

िजनके सब पाप न हो गये हैं , िजनके सब संशय ज्ञान के ारा िनवृ हो गये हैं , जो
सम्पूणर् ूािणयों के िहत में रत हैं और िजनका जीता हआ
ु मन िन लभाव से परमात्मा में
िःथत हैं , वे ॄ वे ा पुरुष शान्त ॄ को ूा होते हैं |(25)

कामबोधिवयु ानां यतीनां यतचेतसाम।्


अिभतो ॄ िनवार्णं वतर्ते िविदतात्मनाम।।
् 26।।

काम बोध से रिहत, जीते हए


ु िच वाले, परॄ परमात्मा का साक्षात्कार िकये हुए ज्ञानी
पुरुषों के िलए सब ओर से शान्त परॄ परमात्मा ही पिरपूणर् हैं |(26)

ःपशार्न्कृ त्वा बिहबार् ां क्षु व


ै ान्तरे ॅुवोः।
ूाणापानौ समौ कृ त्वा नासाभ्यन्तरचािरणौ।।27।।
यतेिन्ियमनोबुि मुिर् नम क्षपरायणः।
िवगतेच्छाभयबोधो यः सदा मु एव सः।।28।।

बाहर के िवषय भोगों को न िचन्तन करता हआ


ु बाहर ही िनकालकर और नेऽों की दृि
को भृकुटी के बीच में िःथत करके तथा नािसका में िवचरने वाले ूाण और अपान वायु को सम
करके, िजसकी इिन्ियाँ, मन और बुि जीती हई
ु हैं , ऐसा जो मोक्षपरायण मुिन इच्छा, भय और
बोध से रिहत हो गया है , वह सदा मु ही है |(27,28)

भो ारं यज्ञतपसां सवर्लोकमहे रम।्


सुहृदं सवर्भत
ू ानां ज्ञात्वा मां शािन्तमृच्छित।।29।।

मेरा भ मुझको सब यज्ञ और तपों का भोगने वाला, सम्पूणर् लोकों के ई रों का भी


ई र तथा सम्पूणर् भूत-ूािणयों का सुहृद् अथार्त ् ःवाथर्रिहत दयालु और ूेमी, ऐसा त व से
जानकर शािन्त को ूा होता है |(29)
ॐ तत्सिदित ौीमद् भागवद् गीतासूपिनषत्सु ॄ िव ायां योगशा े
ौीकृ ंणाजुन
र् संवादे कमर्संन्यासयोगो नाम पंचमोऽध्यायः | |5 | |
इस ूकार उपिनषद, ॄ िव ा तथा योगशा रूप ौीमद् भगवद् गीता के
ौीकृ ंण-अजुन
र् संवाद में 'कमर्संन्यास योग' नामक पाँचवाँ अध्याय संपण
ू र्
हआ
ु |
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
(अनुबम)

छठे अध्याय का माहात्म्य


ौी भगवान कहते हैं – सुमिु ख ! अब मैं छठे अध्याय का माहात्म्य बतलाता हँू , िजसे
सुनने वाले मनुंयों के िलए मुि करतलगत हो जाती है | गोदावरी नदी के तट पर ूित ानपुर
(पैठण) नामक एक िवशाल नगर है , जहाँ मैं िपप्लेश के नाम से िवख्यात होकर रहता हँू | उस
नगर में जानौुित नामक एक राजा रहते थे, जो भूमण्डल की ूजा को अत्यन्त िूये थे | उनका
ूताप मातर्ण्ड-मण्डल के ूचण्ड तेज के समान जान पड़ता था | ूितिदन होने वाले उनके यज्ञ के
धुएँ से नन्दनवन के कल्पवृक्ष इस ूकार काले पड़ गये थे, मानो राजा की असाधारण दानशीलता
दे खकर वे लिज्जत हो गये हों | उनके यज्ञ में ूा पुरोडाश के रसाःवादन में सदा आस होने
के कारण दे वता लोग कभी ूित ानपुर को छोड़कर बाहर नहीं जाते थे | उनके दान के समय
छोड़े हए
ु जल की धारा, ूतापरूपी तेज और यज्ञ के धूमों से पु होकर मेघ ठीक समय पर वषार्
करते थे | उस राजा के शासन काल में ईितयों (खेती में होने वाले छः ूकार के उपिवों) के िलए
कहीं थोड़ा भी ःथान नहीं िमलता था और अच्छी नीितयों का सवर्ऽ ूसार होता था | वे बावली,
कुएँ और पोखरे खुदवाने के बहाने मानो ूितिदन पृथ्वी के भीतर की िनिधयों का अवलोकन
करते थे | एक समय राजा के दान, तप, यज्ञ और ूजापालन से संतु होकर ःवगर् के दे वता
उन्हें वर दे ने के िलए आये | वे कमलनाल के समान उज्जवल हं सों का रूप धारण कर अपनी
पँख िहलाते हए
ु आकाशमागर् से चलने लगे | बड़ी उतावली के साथ उड़ते हए
ु वे सभी हं स परःपर
बातचीत भी करते जाते थे | उनमें से भिा आिद दो-तीन हं स वेग से उड़कर आगे िनकल गये |
तब पीछे वाले हं सों ने आगे जाने वालों को सम्बोिधत करके कहाः "अरे भाई भिा ! तुमलोग
वेग से चलकर आगे क्यों हो गये? यह मागर् बड़ा दगर्
ु म है | इसमें हम सबको साथ िमलकर
चलना चािहए | क्या तुम्हे िदखाई नहीं दे ता, यह सामने ही पुण्यमूितर् महाराज जानौुित का
तेजपुंज अत्यन्त ःप रूप से ूकाशमान हो रहा है ? (उस तेज से भःम होने की आशंका है ,
अतः सावधान होकर चलना चािहए |)"
पीछे वाले हं सों के ये वचन सुनकर आगेवाले हं स हँ स पड़े और उच्च ःवर से उनकी बातों
की अवहे लना करते हए
ु बोलेः "अरे भाई ! क्या इस राजा जानौुित का तेज ॄ वादी महात्मा
रै क्व के तेज से भी अिधक तीो है ?"
हं सों की ये बातें सुनकर राजा जानौुित अपने ऊँचे महल की छत से उतर गये और
सुखपूवक
र् आसन पर िवराजमान हो अपने सारिथ को बुलाकर बोलेः "जाओ, महात्मा रै क्व को
यहाँ ले आओ |" राजा का यह अमृत के समान वचन सुनकर मह नामक सारिथ ूसन्नता ूकट
करता हआ
ु नगर से बाहर िनकला | सबसे पहले उसने मुि दाियनी काशीपुरी की याऽा की, जहाँ
जगत के ःवामी भगवान िव नाथ मनुंयों को उपदे श िदया करते हैं | उसके बाद वह गया क्षेऽ
में पहँु चा, जहाँ ूफुल्ल नेऽोंवाले भगवान गदाधर सम्पूणर् लोकों का उ ार करने के िलए िनवास
करते हैं | तदनन्तर नाना तीथ में ॅमण करता हआ
ु सारिथ पापनािशनी मथुरापुरी में गया | यह
भगवान ौी कृ ंण का आिद ःथान है , जो परम महान तथा मोक्ष ूदान कराने वाला है | वेद और
शा ों में वह तीथर् िऽभुवनपित भगवान गोिवन्द के अवतारःथान के नाम से ूिस है | नाना
दे वता और ॄ िषर् उसका सेवन करते हैं | मथुरा नगर कािलन्दी (यमुना) के िकनारे शोभा पाता है
| उसकी आकृ ित अ र् चन्ि के समान ूतीत होती है | वह सब तीथ के िनवास से पिरपूणर् है |
परम आनन्द ूदान करने के कारण सुन्दर ूतीत होता है | गोवधर्न पवर्त होने से मथुरामण्डल
की शोभा और भी बढ़ गयी है | वह पिवऽ वृक्षों और लताओं से आवृ है | उसमें बारह वन हैं |
वह परम पुण्यमय था सबको िवौाम दे ने वाले ौुितयों के सारभूत भगवान ौीकृ ंण की
आधारभूिम है |
तत्प ात मथुरा से पि म और उ र िदशा की ओर बहत
ु दरू तक जाने पर सारिथ को
काँमीर नामक नगर िदखाई िदया, जहाँ शंख के समान उज्जवल गगनचुम्बी महलों की पंि याँ
भगवान शंकर के अट्टहास की शोभा पाती हैं , जहाँ ॄा णों के शा ीय आलाप सुनकर मूक
मनुंय भी सुन्दर वाणी और पद का उच्चारण करते हए
ु दे वता के समान हो जाते हैं , जहाँ
िनरन्तर होने वाले यज्ञधूम से व्या होने के कारण आकाश-मंडल मेघों से धुलते रहने पर भी
अपनी कािलमा नहीं छोड़ते, जहाँ उपाध्याय के पास आकर छाऽ जन्मकालीन अभ्यास से ही
सम्पूणर् कलाएँ ःवतः पढ़ लेते हैं तथा जहाँ मिणके र नाम से ूिस भगवान चन्िशेखर
दे हधािरयों को वरदान दे ने के िलए िनत्य िनवास करते हैं | काँमीर के राजा मिणके र ने
िदिग्वजय में समःत राजाओं को जीतकर भगवान िशव का पूजन िकया था, तभी से उनका नाम
मिणके र हो गया था | उन्हीं के मिन्दर के दरवाजे पर महात्मा रै क्व एक छोटी सी गाड़ी पर
बैठे अपने अंगों को खुजलाते हए
ु वृक्ष की छाया का सेवन कर रहे थे | इसी अवःथा में सारिथ ने
उन्हें दे खा | राजा के बताये हए
ु िभन्न-िभन्न िच ों से उसने शीय ही रै क्व को पहचान िलया और
उनके चरणों में ूणाम करके कहाः "ॄ ण ! आप िकस ःथान पर रहते हैं ? आपका पूरा नाम
क्या है ? आप तो सदा ःवच्छं द िवचरने वाले हैं , िफर यहाँ िकसिलए ठहरे हैं ? इस समय आपका
क्या करने का िवचार है ?"
सारिथ के ये वचन सुनकर परमानन्द में िनमग्न महात्मा रै क्व ने कुछ सोचकर उससे
कहाः "य िप हम पूणक
र् ाम हैं Ð हमें िकसी वःतु की आवँयकता नहीं है , तथािप कोई भी हमारी
मनोवृि के अनुसार पिरचयार् कर सकता है |" रै क्व के हािदर् क अिभूाय को आदपपूवक
र् महण
करके सारिथ धीरे -से राजा के पास चल िदया | वहाँ पहँु चकर राजा को ूणाम करके उसने हाथ
जोड़कर सारा समाचार िनवदे न िकया | उस समय ःवामी के दशर्न से उसके मन में बड़ी ूसन्नता
थी | सारिथ के वचन सुनकर राजा के नेऽ आ यर् से चिकत हो उठे | उनके हृदय में रै क्व का
सत्कार करने की ौ ा जागृत हई
ु | उन्होंने दो खच्चिरयों से जुती हई
ु गाड़ी लेकर याऽा की | साथ
ही मोती के हार, अच्छे -अच्छे व और एक सहॐ गौएँ भी ले लीं | काँमीर-मण्डल में महात्मा
रै क्व जहाँ रहते थे उस ःथान पर पहँु च कर राजा ने सारी वःतुएँ उनके आगे िनवेदन कर दीं
और पृथ्वी पर पड़कर सा ांग ूणाम िकया | महात्मा रै क्व अत्यन्त भि के साथ चरणों में पड़े
हए
ु राजा जानौुित पर कुिपत हो उठे और बोलेः "रे शूि ! तू द ु राजा है | क्या तू मेरा वृ ान्त
नहीं जानता? यह खच्चिरयों से जुती हई
ु अपनी ऊँची गाड़ी ले जा | ये व , ये मोितयों के हार
और ये दध
ू दे ने वाली गौएँ भी ःवयं ही ले जा |" इस तरह आज्ञा दे कर रै क्व ने राजा के मन में
भय उत्पन्न कर िदया | तब राजा ने शाप के भय से महात्मा रै क्व के दोनों चरण पकड़ िलए
और भि पूवक
र् कहाः "ॄ ण ! मुझ पर ूसन्न होइये | भगवन ! आपमें यह अदभत माहात्म्य
कैसे आया? ूसन्न होकर मुझे ठीक-ठीक बताइये |"
रै क्व ने कहाः राजन ! मैं ूितिदन गीता के छठे अध्याय का जप करता हँू , इसी से मेरी
तेजोरािश दे वताओं के िलए भी दःसह
ु है |
तदनन्तर परम बुि मान राजा जानौुित ने य पूवक
र् महात्मा रै क्व से गीता के छठे
अध्याय का अभ्यास िकया | इससे उन्हें मोक्ष की ूाि हई
ु | रै क्व पूवव
र् त ् मोक्षदायक गीता के
छठे अध्याय का जप जारी रखते हए
ु भगवान मिणके र के समीप आनन्दमग्न हो रहने लगे |
हं स का रूप धारण करके वरदान दे ने के िलए आये हए
ु दे वता भी िविःमत होकर ःवेच्छानुसार
चले गये | जो मनुंय सदा इस एक ही अध्याय का जप करता है , वह भी भगवान िवंणु के
ःवरूप को ूा होता है Ð इसमें तिनक भी सन्दे ह नहीं है |
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
(अनुबम)

छठा अध्यायः आत्मसंयमयोग


पाँचवें अध्याय के आरम्भ में अजुन
र् ने भगवान से "कमर्सन्
ं यास" (सांख्य योग) तथा
कमर्योग इन दोनों में से कौन सा साधन िनि तरूप से कल्याणकारी है यह जानने की ूाथर्ना
की | तब भगवान ने दोनों साधनों को कल्याणकारी बताया और फल में दोनों समान हैं िफर भी
साधन में सुगमता होने से कमर्सन्
ं यास की अपेक्षा कमर्योग की ौे ता िस की है | बाद में उन
दोनों साधनों का ःवरूप, उनकी िविध और उनका फल अच्छी तरह से समझाया | इसके उपरांत
उन दोनों के िलए अित उपयोगी और मुख्य उपाय समझकर संक्षेप में ध्यानयोग का भी वणर्न
िकया, लेिकन उन दोनों में से कौन-सा साधन करना यह बात अजुन
र् ःप रूप से नहीं समझ
पाया और ध्यानयोग का अंगसिहत िवःतृत वणर्न करने के िलए छठे अध्याय का आरम्भ करते
हैं | ूथम भि यु कमर्योग में ूवृ करने के िलए भगवान ौीकृ ंण कमर्योग की ूशंसा करते हैं
|

।। अथ ष ोऽध्यायः ।।
ौीभगवानुवाच
अनािौतः कमर्फलं काय कमर् करोित यः।
स संन्यासी च योगी च न िनरिग्ननर् चािबयः।।1।।

ौी भगवान बोलेः जो पुरुष कमर्फल का आौय न लेकर करने योग्य कमर् करता है , वह
संन्यासी तथा योगी है और केवल अिग्न का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं है तथा केवल
िबयाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है |(1)

यं संन्यासिमित ूाहय
ु गं तं िवि पाण्डव।
न संन्यःतसंकल्पो योगी भवित क न।।2।।
हे अजुन
र् ! िजसको संन्यास ऐसा कहते हैं , उसी को तू योग जान, क्योंिक संकल्पों का
त्याग न करने वाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता |(2)

आरुरुक्षोमुन
र् ेय गं कमर् कारणमुच्यते।
योगारूढःय तःयैव शमः कारणमुच्यते।।3।।

योग में आरूढ़ होने की इच्छावाले मननशील पुरुष के िलए योग की ूाि में िनंकामभाव
से कमर् करना ही हे तु कहा जाता है और योगारूढ़ हो जाने पर उस योगारूढ़ पुरुष का जो
सवर्सक
ं ल्पों का अभाव है , वही कल्याण में हे तु कहा जाता है |(3)

यदा िह नेिन्ियाथषु न कमर्ःवनुषज्जते।


सवर्संकल्पसंन्यासी योगारूढःतदोच्यते।।4।।

िजस काल में न तो इिन्ियों के भोगों में और न कम में ही आस होता है , उस काल


में सवर्सक
ं ल्पों का त्यागी पुरुष योगारूढ़ कहा जाता है |(4)

उ रे दात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत।्
आत्मैव ात्मनो बन्धुरात्मैव िरपुरात्मनः।।5।।

अपने ारा अपना संसार-समुि से उ ार करें और अपने को अधोगित में न डालें, क्योंिक
यह मनुंय, आप ही तो अपना िमऽ है और आप ही अपना शऽु है |(5)

बन्धुरात्मात्मनःतःय येनात्मैवात्मना िजतः।


अनात्मनःतु शऽुत्वे वततात्मैव शऽुवत।।
् 6।।

िजस जीवात्मा ारा मन और इिन्ियों सिहत शरीर जीता हआ


ु है , उस जीवात्मा का तो
वह आप ही िमऽ है और िजसके ारा मन तथा इिन्ियों सिहत शरीर नहीं जीता गया है , उसके
िलए वह आप ही शऽु के सदृश शऽुता में बरतता है |(6)

िजतात्मनः ूशान्तःय परमात्मा समािहतः।


शीतोंणसुखदःखे
ु षु तथा मानापमानयोः।।7।।

सद -गम और सुख-दःख
ु आिद में तथा मान और अपमान में िजसके अन्तःकरण की
वृि याँ भली भाँित शांत हैं , ऐसे ःवाधीन आत्मावाले पुरुष के ज्ञान में सिच्चदानन्दघन परमात्मा,
सम्यक् ूकार से ही िःथत है अथार्त ् उसके ज्ञान में परमात्मा के िसवा अन्य कुछ है ही नहीं
|(7)

ज्ञानिवज्ञानतृ ात्मा कूटःथो िविजतेिन्ियः।


यु इत्युच्यते योगी समलो ाँमकांचनः।।8।।

िजसका अन्तःकरण ज्ञान िवज्ञान से तृ है , िजसकी िःथित िवकार रिहत है , िजसकी


इिन्ियाँ भली भाँित जीती हई
ु हैं और िजसके िलए िमट्टी, पत्थर और सुवणर् समान हैं , वह योगी
यु अथार्त ् भगवत्ूा है , ऐसा कहा जाता है |(8)

सुहृिन्मऽायुद
र् ासीनमध्यःथ े ंयबन्धुषु।
साधुंविप च पापेषु समबुि िवर्िशंयते।।9।।

सुहृद्, िमऽ, वैरी उदासीन, मध्यःथ, े ंय और बन्धुगणों में, धमार्त्माओं में और पािपयों
में भी समान भाव रखने वाला अत्यन्त ौे है |(9)

योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहिस िःथतः।


एकाकी यतिच ात्मा िनराशीरपिरमहः।।10।।

मन और इिन्ियों सिहत शरीर को वश में रखने वाला, आशारिहत और संमहरिहत योगी


अकेला ही एकान्त ःथान में िःथत होकर आत्मा को िनरन्तर परमात्मा लगावे |(10)

शुचौ दे शे ूित ाप्य िःथरमासनमात्मनः।


नात्युिच्लतं नाितनीचं चैलाजिनकुशो रम।।
् 11।।
तऽैकामं मनः कृ त्वा यतिच ेिन्ियिबयः।
उपिवँयासने युंज्या ोगमात्मिवशु ये।।12।।

शु भूिम में, िजसके ऊपर बमशः कुशा, मृगछाला और व िबछे हैं , जो न बहत
ु ऊँचा है
न बहत
ु नीचा, ऐसे अपने आसन को िःथर ःथापन करके उस आसन पर बैठकर िच और
इिन्ियों की िबयाओं को वश में रखते हए
ु मन को एकाम करके अन्तःकरण की शुि के िलए
योग का अभ्यास करे |(11,12)

समं कायिशरोमीवं धारयन्नचलं िःथरः।


संूेआयनािसकामं ःवं िदश ानवलोकयन।।
् 13।।
ूशान्तात्मा िवगतभीॄर् चािरोते िःथतः।
मनः संयम्य मिच्च ो यु आसीत मत्परः।।14।।

काया, िसर और गले को समान एवं अचल धारण करके और िःथर होकर, अपनी
नािसका के अमभाग पर दृि जमाकर, अन्य िदशाओं को न दे खता हआ
ु ॄ चारी के ोत में
िःथत, भयरिहत तथा भली भाँित शान्त अन्तःकरण वाला सावधान योगी मन को रोककर मुझमें
िच वाला और मेरे परायण होकर िःथत होवे |(13,14)

युंजन्नेवं सदात्मानं योगी िनयतमानसः।


शािन्तं िनवार्णपरमां मत्संःथामिधगच्छित।।15।।

वश में िकये हए
ु मनवाला योगी इस ूकार आत्मा को िनरन्तर मुझ परमे र के ःवरूप
में लगाता हआ
ु मुझमें रहने वाली परमानन्द की पराका ारूप शािन्त को ूा होता है |(15)

नात्या तःतु योगोऽिःत न चैकान्तमन तः।


न चाित ःवप्नशीलःय जामतो नैव चाजुन
र् ।।16।।

हे अजुन
र् ! यह योग न तो बहत
ु खाने वाले का, न िबल्कुल न खाने वाले का, न बहत

शयन करने के ःवभाववाले का और न सदा ही जागने वाले का ही िस होता है |(16)

यु ाहारिवहारःय यु चे ःय कमर्स।ु
यु ःवप्नावबोधःय योगो भवित दःखहा।।
ु 17।।

दःखों
ु का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार-िवहार करने वाले का, कम में यथा
योग्य चे ा करने वाले का और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का ही िस होता है |(17)

यदा िविनयतं िच मात्मन्येवावित ते।


िनःःपृहः सवर्कामेभ्यो यु इत्युच्यते तदा।।18।।

अत्यन्त वश में िकया हआ


ु िच िजस काल में परमात्मा में ही भली भाँित िःथत हो
जाता है , उस काल में सम्पूणर् भोगों से ःपृहारिहत पुरुष योगयु है , ऐसा कहा जाता है |(18)

यथा दीपो िनवातःथो नेङ्गते सोपमा ःमृता।


योिगनो यतिच ःय युंजतो योगमात्मनः।।19।।
िजस ूकार वायुरिहत ःथान में िःथत दीपक चलायमान नहीं होता, वैसी ही उपमा
परमात्मा के ध्यान में लगे हए
ु योगी के जीते हए
ु िच की कही गयी है |(19)

यऽोपरमते िच ं िनरु ं योगसेवया।


यऽ चैवात्मनात्मानं पँयन्नात्मिन तुंयित।।20।।
सुखमात्यिन्तकं य द् बुि मा मतीिन्ियम।्
वेि यऽ न चैवायं िःथत लित त वतः।।21।।
यं लब्धवा चापरं लाभं मन्यते नािधकं ततः।
ु न गुरुणािप िवचाल्यते।।22।।
यिःमन ् िःथतो न दःखे
तं िव ाद् दःखसं
ु योगिवयोगं योगसंिज्ञतम।्
स िन येन यो व्यो योगोऽिनिवर्ण्णचेतसा।।23।।

योग के अभ्यास से िनरु िच िजस अवःथा में उपराम हो जाता है और िजस अवःथा
में परमात्मा के ध्यान से शु हई
ु सूआम बुि ारा परमात्मा को साक्षात ् करता हआ

सिच्चदानन्दघन परमात्मा में ही सन्तु रहता है | इिन्ियों से अतीत, केवल शु हई
ु सूआम बुि
ारा महण करने योग्य जो अनन्त आनन्द है , उसको िजस अवःथा में अनुभव करता है और
िजस अवःथा में िःथत यह योगी परमात्मा के ःवरूप से िवचिलत होता ही नहीं | परमात्मा की
ूाि रूप िजस लाभ को ूा होकर उससे अिधक दसरा
ू कुछ भी लाभ नहीं मानता और
परमात्मूाि रूप िजस अवःथा में िःथत योगी बड़े भारी दःख
ु से भी चलायमान नहीं होता | जो
दःखरूप
ु संसार के संयोग से रिहत है तथा िजसका नाम योग है , उसको जानना चािहए | वह योग
न उकताए हए
ु अथार्त ् धैयर् और उत्साहयु िच से िन यपूवक
र् करना कतर्व्य है |

संकल्पूभवान्कामांःत्य वा सवार्नशेषतः।
मनसैवेिन्ियमामं िविनयम्य समन्ततः।।24।।
शनैः शनैरुपरमेद् बु या धृितगृहीतया।
आत्मसंःथं मनः कृ त्वा न िकंिचदिप िचन्तयेत।।
् 25।।

संकल्प से उत्पन्न होने वाली सम्पूणर् कामनाओं को िनःशेषरूप से त्यागकर और मन के


ारा इिन्ियों के समुदाय को सभी ओर से भलीभाँित रोककर बम-बम से अभ्यास करता हआ

उपरित को ूा हो तथा धैयय
र् ु बुि के ारा मन को परमात्मा में िःथत करके परमात्मा के
िसवा और कुछ भी िचन्तन न करे |(24,25)

यतो यतो िन रित मन च


ं लमिःथरम।्
ततःततो िनयम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत।।
् 26।।

यह िःथर न रहने वाला और चञ्चल मन िजस-िजस शब्दािद िवषय के िनिम से संसार


में िवचरता है , उस-उस िवषय से रोककर यानी हटाकर इसे बार-बार परमात्मा में ही िनरु करे |

ूशान्तमनसं ेनं योिगनं सुखमु मम।्


उपैित शान्तरजसं ॄ भूतमकल्मंम।।27।।

क्योंिक िजसका मन भली ूकार शान्त है , जो पाप से रिहत है और िजसका रजोगुण


शान्त हो गया है , ऐसे इस सिच्चदानन्दघन ॄ के साथ एकीभाव हए
ु योगी को उ म आनन्द
ूा होता है |(27)

युंजन्नेवं सदात्मानं योगी िवगतकल्मषः।


सुखेन ॄ संःपशर्मत्यन्तं सुखम ुते।।28।।

वह पापरिहत योगी इस ूकार िनरन्तर आत्मा को परमात्मा में लगाता हआ


ु सुखपूवक
र्
परॄ परमात्मा की ूाि रूप अनन्त आनन्द का अनुभव करता है |(28)

सवर्भत
ू ःथमात्मानं सवर्भत
ू ािन चात्मिन।
ईक्षते योगयु ात्मा सवर्ऽ समदशर्नः।।29।।

सवर्व्यापी अनन्त चेतन में एकीभाव से िःथितरूप योग से यु आत्मावाला तथा सबमें
समभाव से दे खने वाला योगी आत्मा को सम्पूणर् भूतों में िःथत और सम्पूणर् भूतों को आत्मा में
किल्पत दे खता है |(29)

यो मां पँयित सवर्ऽ सव च मिय पँयित।


तःयाहं न ूणँयािम स च मे न ूणँयित।।30।।

जो पुरुष सम्पूणर् भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक दे खता है और
सम्पूणर् भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तगर्त दे खता है , उसके िलए मैं अदृँय नहीं होता और वह
मेरे िलए अदृँय नहीं होता |(30)

सवर्भत
ू िःथतं यो मां भजत्येकत्वमािःथतः।
सवर्था वतर्मानोऽिप स योगी मिय वतर्ते।।31।।
जो पुरुष एकीभाव में िःथत होकर सम्पूणर् भूतों में आत्मरूप से िःथत मुझ
सिच्चदानन्दघन वासुदेव को भजता है , वह योगी सब ूकार से बरतता हआ
ु भी मुझ में ही
बरतता है |(31)

आत्मौपम्येन सवर्ऽ समं पँयित योऽजुन


र् ।
सुखं वा यिद वा दःखं
ु स योगी परमो मतः।।32।।

हे अजुन
र् ! जो योगी अपनी भाँित सम्पूणर् भूतों में सम दे खता है और सुख अथवा दःख

को भी सबमें सम दे खता है , वह योगी परम ौे माना गया है |(32)

अजुन
र् उवाच
योऽयं योगःत्वया ूो ः साम्येन मधुसद
ू न।
एतःयाहं न पँयािम चंचलत्वाित्ःथितं िःथराम।।
् 33।।

अजुन
र् बोलेः हे मधुसद
ू न ! जो यह योग आपने समभाव से कहा है , मन के चंचल होने से
मैं इसकी िनत्य िःथित को नहीं दे खता हँू |(33)

चंचलं िह मनः कृ ंण ूमािथ बलवद् दृढम।्


तःयाहं िनमहं मन्ये वायोिरव सुदंकरम।।
ु ् 34।।

क्योंिक हे ौी कृ ंण ! यह मन बड़ा चंचल, ूमथन ःवभाव वाला, बड़ा दृढ़ और बलवान


है | इसिलए उसका वश में करना मैं वायु को रोकने की भाँित अत्यन्त दंकर
ु मानता हँू |

ौीभगवानुवाच
असंशयं महाबाहो मनो दिनर्
ु महं चलम।्
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृ ते।।35।।

ौी भगवान बोलेः हे महाबाहो ! िनःसंदेह मन चंचल और किठनता से वश में होने वाला


है परन्तु हे कुन्तीपुऽ अजुन
र् ! यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है |(35)

असंयतात्मना योगो दंूाप


ु इित मे मितः।
वँयात्मना तु यतता शक्योऽवा म
ु प
ु ायतः।।36।।

िजसका मन वश में िकया हआ


ु नहीं है , ऐसे पुरुष ारा योग दंूाप्य
ु है और वश में िकये
हए
ु मनवाले ूय शील पुरुष ारा साधन से उसका ूा होना सहज है Ð यह मेरा मत है |(36)
अजुन
र् उवाच
अयितः ौ योपेतो योगाच्चिलतमानसः।
अूाप्य योगसंिसि ं कां गितं कृ ंण गच्छित।।37।।

अजुन
र् बोलेः हे ौीकृ ंण ! जो योग में ौ ा रखने वाला है , िकंतु संयमी नहीं है , इस
कारण िजसका मन अन्तकाल में योग से िवचिलत हो गया है , ऐसा साधक योग की िसि को
अथार्त ् भगवत्साक्षात्कार को न ूा होकर िकस गित को ूा होता है |(37)

किच्चन्नोभयिवॅ िँछन्नाॅिमव नँयित।


अूित ो महाबाहो िवमूढो ॄ णः पिथ।।38।।

हे महाबाहो ! क्या वह भगवत्ूाि के मागर् में मोिहत और आौयरिहत पुरुष िछन्न-


िभन्न बादल की भाँित दोनों ओर से ॅ होकर न तो नहीं हो जाता?(38)

एतन्मे संशयं कृ ंण छे म
ु हर् ःयशेषतः।
त्वदन्यः संशयःयाःय छे ा न प
ु प ते।।39।।

हे ौीकृ ंण ! मेरे इस संशय को सम्पूणर् रूप से छे दन करने के िलए आप ही योग्य हैं ,


क्योंिक आपके िसवा दसरा
ू इस संशय का छे दन करने वाला िमलना संभव नहीं है |(39)

ौीभगवानुवाच
पाथर् नैवेह नामुऽ िवनाशःतःय िव ते।
न िह कल्याणकृ त्कि द् दगर्
ु ितं तात गच्छित।।40।।

ौीमान ् भगवान बोलेः हे पाथर् ! उस पुरुष का न तो इस लोक में नाश होता है और न


परलोक में ही क्योंिक हे प्यारे ! आत्मो ार के िलए अथार्त ् भगवत्ूाि के िलए कमर् करने वाला
कोई भी मनुंय दगर्
ु ित को ूा नहीं होता |(40)

ूाप्य पुण्यकृ तां लोकानुिषत्वा शा तीः समाः।


शुचीनां ौीमतां गेहे योगॅ ोऽिभजायते।।41।।

योगॅ पुरुष पुण्यवानों लोकों को अथार्त ् ःवगार्िद उ म लोकों को ूा होकर, उनमें बहत

वष तक िनवास करके िफर शु आचरणवाले ौीमान पुरुषों के घर में जन्म लेता है |(41)
अथवा योिगनामेव कुले भवित धीमताम।्
एति दलर्
ु भतरं लोके जन्म यदीदृशम।।
् 42।।

अथवा वैराग्यवान पुरुष उन लोकों में न जाकर ज्ञानवान योिगयों के ही कुल में जन्म
लेता है | परन्तु इस ूकार का जो यह जन्म है , सो संसार में िनःसंदेह अत्यन्त दलर्
ु भ है |(42)

तऽ तं बुि संयोगं लभते पौवर्देिहकम।्


यतते च ततो भूयः संिस ौ कुरुनन्दन।।43।।

वहाँ उस पहले शरीर में संमह िकये हए


ु बुि -संयोग को अथार्त ् रामबुि रूप योग के
संःकारों को अनायास ही ूा हो जाता है और हे कुरुनन्दन ! उसके ूभाव से वह िफर
परमात्मा की ूाि रूप िसि के िलए पहले से भी बढ़कर ूय करता है |(43)

पूवार्भ्यासेन तेनैव ि॑यते वशोऽिप सः।


िजज्ञासुरिप योगःय शब्दॄ ाितवतर्ते।।44।।

वह ौीमानों के घर जन्म लेने वाला योगॅ पराधीन हआ


ु भी उस पहले के अभ्यास से
ही िनःसंदेह भगवान की ओर आकिषर्त िकया जाता है तथा समबुि रूप योग का िजज्ञासु भी वेद
में कहे हए
ु सकाम कम के फल को उल्लंघन कर जाता है |(44)

ूय ा ातमानःतु योगी संशु िकिल्बषः।


अनेकजन्मसंिस ःततो याित परां गितम।।
् 45।।

परन्तु ूय पूवक
र् अभ्यास करने वाला योगी तो िपछले अनेक जन्मों के संःकारबल से
इसी जन्म में संिस होकर सम्पूणर् पापों से रिहत हो िफर तत्काल ही परम गित को ूा हो
जाता है |(45)

तपिःवभ्योऽिधको योगी ज्ञािनभ्योऽिप मतोऽिधकः।


किमर्भ्य ािधको योगी तःमा ोगी भवाजुन
र् ।।46।।

योगी तपिःवयों से ौे है , शा ज्ञािनयों से भी ौे माना गया है और सकाम कमर् करने


वालों से भी योगी ौे है इससे हे अजुन
र् तू योगी हो |(46)

योिगनामिप सवषां मद् गतेनान्तरात्मना।


ौ ावान्भजते यो मां स मे यु तमो मतः।।47।।
सम्पूणर् योिगयों में भी जो ौ ावान योगी मुझमें लगे हए
ु अन्तरात्मा से मुझको िनरन्तर
भजता है , वह योगी मुझे परम ौे मान्य है |(47)
ॐ तत्सिदित ौीमद् भगवद् गीतासूपिनषत्सु ॄ िव ायां योगशा े
ौीकृ ंणाजुन
र् संवादे आत्मसंयमयोगो नाम ष ोऽध्यायः | |6 | |
इस ूकार उपिनषद्, ॄ िव ा तथा योगशा रूप ौीमद् भगवद् गीता के
ौी कृ ंण-अजुन
र् संवाद में 'आत्मसंयमयोग नामक छठा अध्याय संपण
ू र् हआ
ु |
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

(अनुबम)

सातवें अध्याय का माहात्म्य


भगवान िशव कहते हैं - "हे पावर्ती ! अब मैं सातवें अध्याय का माहात्म्य बतलाता हँू ,
िजसे सुनकर कानों में अमृत-रािश भर जाती है ।
पाटिलपुऽ नामक एक दगर्
ु म नगर है िजसका गोपुर ( ार) बहत
ु ही ऊँचा है । उस नगर में
शंकुकणर् नामक एक ॄा ण रहता था। उसने वैँय वृि का आौय लेकर बहत
ु धन कमाया
िकन्तु न तो कभी िपतरों का तपर्ण िकया और न दे वताओं का पूजन ही। वह धनोपाजर्न में
तत्पर होकर राजाओं को ही भोज िदया करता था।
एक समय की बात है । उस ॄा ण ने अपना चौथा िववाह करने के िलए पुऽों और
बन्धुओं के साथ याऽा की। मागर् में आधी रात के समय जब वह सो रहा था, तब एक सपर् ने
कहीं से आकर उसकी बाँह में काट िलया। उसके काटते ही ऐसी अवःथा हो गई िक मिण, मंऽ
और औषिध आिद से भी उसके शरीर की रक्षा असाध्य जान पड़ी। तत्प ात कुछ ही क्षणों में
उसके ूाण पखेरु उड़ गये और वह ूेत बना। िफर बहत
ु समय के बाद वह ूेत सपर्योिन में
उत्पन्न हआ।
ु उसका िव धन की वासना में बँधा था। उसने पूवर् वृ ान्त को ःमरण करके
सोचाः
'मैंने घर के बाहर करोड़ों की संख्या में अपना जो धन गाड़ रखा है उससे इन पुऽों को
वंिचत करके ःवयं ही उसकी रक्षा करूँगा।'
साँप की योिन से पीिड़त होकर िपता ने एक िदन ःवप्न में अपने पुऽों के समक्ष आकर
अपना मनोभाव बताया। तब उसके पुऽों ने सवेरे उठकर बड़े िवःमय के साथ एक-दसरे
ू से ःवप्न
की बातें कही। उनमें से मंझला पुऽ कुदाल हाथ में िलए घर से िनकला और जहाँ उसके िपता
सपर्योिन धारण करके रहते थे, उस ःथान पर गया। य िप उसे धन के ःथान का ठीक-ठीक पता
नहीं था तो भी उसने िच ों से उसका ठीक िन य कर िलया और लोभबुि से वहाँ पहँु चकर बाँबी
को खोदना आरम्भ िकया। तब उस बाँबी से बड़ा भयानक साँप ूकट हआ
ु और बोलाः
'ओ मूढ़ ! तू कौन है ? िकसिलए आया है ? यह िबल क्यों खोद रहा है ? िकसने तुझे भेजा
है ? ये सारी बातें मेरे सामने बता।'
पुऽः "मैं आपका पुऽ हँू । मेरा नाम िशव है । मैं रािऽ में दे खे हए
ु ःवप्न से िविःमत होकर
यहाँ का सुवणर् लेने के कौतूहल से आया हँू ।"
पुऽ की यह वाणी सुनकर वह साँप हँ सता हआ
ु उच्च ःवर से इस ूकार ःप वचन
बोलाः "यिद तू मेरा पुऽ है तो मुझे शीय ही बन्धन से मु कर। मैं अपने पूवज
र् न्म के गाड़े हए

धन के ही िलए सपर्योिन में उत्पन्न हआ
ु हँू ।"
पुऽः "िपता जी! आपकी मुि कैसे होगी? इसका उपाय मुझे बताईये, क्योंिक मैं इस रात
में सब लोगों को छोड़कर आपके पास आया हँू ।"
िपताः "बेटा ! गीता के अमृतमय स म अध्याय को छोड़कर मुझे मु करने में तीथर्,
दान, तप और यज्ञ भी सवर्था समथर् नहीं हैं । केवल गीता का सातवाँ अध्याय ही ूािणयों के जरा
मृत्यु आिद दःखों
ु को दरू करने वाला है । पुऽ ! मेरे ौा के िदन गीता के स म अध्याय का
पाठ करने वाले ॄा ण को ौ ापूवक
र् भोजन कराओ। इससे िनःसन्दे ह मेरी मुि हो जायेगी।
वत्स ! अपनी शि के अनुसार पूणर् ौ ा के साथ िनव्यर्सी और वेदिव ा में ूवीण अन्य ॄा णों
को भी भोजन कराना।"
सपर्योिन में पड़े हए
ु िपता के ये वचन सुनकर सभी पुऽों ने उसकी आज्ञानुसार तथा उससे
भी अिधक िकया। तब शंकुकणर् ने अपने सपर्शरीर को त्यागकर िदव्य दे ह धारण िकया और सारा
धन पुऽों के अधीन कर िदया। िपता ने करोड़ों की संख्या में जो धन उनमें बाँट िदया था, उससे
वे पुऽ बहत
ु ूसन्न हए।
ु उनकी बुि धमर् में लगी हई
ु थी, इसिलए उन्होंने बावली, कुआँ, पोखरा,
यज्ञ तथा दे वमंिदर के िलए उस धन का उपयोग िकया और अन्नशाला भी बनवायी। तत्प ात
सातवें अध्याय का सदा जप करते हए
ु उन्होंने मोक्ष ूा िकया।
हे पावर्ती ! यह तुम्हें सातवें अध्याय का माहात्म्य बतलाया, िजसके ौवणमाऽ से मानव
सब पातकों से मु हो जाता है ।"
(अनुबम)

सातवाँ अध्यायःज्ञानिवज्ञानयोग
।। अथ स मोऽध्यायः।।
ौी भगवानुवाच
मय्यास मनाः पाथर् योगं युंजन्मदाौयः ।

असंशयं सममं मां यथा ज्ञाःयिस तच्छणु ।।1।।

ौी भगवान बोलेः हे पाथर् ! मुझमें अनन्य ूेम से आस हए


ु मनवाला और अनन्य भाव
से मेरे परायण होकर, योग में लगा हआ
ु मुझको संपूणर् िवभूित, बल ऐ यार्िद गुणों से यु सबका
आत्मरूप िजस ूकार संशयरिहत जानेगा उसको सुन । (1)

ज्ञानं तेऽहं सिवज्ञानिमदं वआयाम्यशेषतः ।


यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमविशंयते ।।2।।
मैं तेरे िलए इस िवज्ञान सिहत त वज्ञान को संपूणत
र् ा से कहँू गा िक िजसको जानकर
संसार में िफर कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रहता है । (2)

मनुंयाणां सहॐेषु कि तित िस ये ।


यततामिप िस ानां कि न्मां वेि त वतः ।।3।।

हजारों मनुंयों में कोई एक मेरी ूाि के िलए य करता है और उन य करने वाले
योिगयों में भी कोई ही पुरुष मेरे परायण हआ
ु मुझको त व से जानता है । (3)

भूिमरापोऽनलो वायुः खं मनो बुि रे व च ।


अहं कार इतीयं मे िभन्ना ूकृ ितर धा ।।4।।
अपरे यिमतःत्वन्यां ूकृ ितं िवि मे पराम ् ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धायर्ते जगत ् ।।5।।

पृथ्वी, जल, तेज, वायु तथा आकाश और मन, बुि एवं अहं कार... ऐसे यह आठ ूकार से
िवभ हई
ु मेरी ूकृ ित है । यह (आठ ूकार के भेदों वाली) तो अपरा है अथार्त मेरी जड़ ूकृ ित
है और हे महाबाहो ! इससे दसरी
ू को मेरी जीवरूपा परा अथार्त चेतन ूकृ ित जान िक िजससे
यह संपूणर् जगत धारण िकया जाता है । (4,5)

एत ोनीिन भूतािन सवार्णीत्युपधारय ।


अहं कृ त्ःनःय जगतः ूभवः ूलयःतथा ।।6।।
म ः परतरं नान्यित्कंिचदिःत धनंजय ।
मिय सवर्िमदं ूोतं सूऽे मिणगणा इव ।।7।।

हे अजुन
र् ! तू ऐसा समझ िक संपूणर् भूत इन दोनों ूकृ ितयों(परा-अपरा) से उत्पन्न होने
वाले हैं और मैं संपूणर् जगत की उत्पि तथा ूलयरूप हँू अथार्त ् संपूणर् जगत का मूल कारण हँू
। हे धनंजय ! मुझसे िभन्न दसरा
ू कोई भी परम कारण नहीं है । यह सम्पूणर् सूऽ में मिणयों के
सदृश मुझमें गुथ
ँ ा हआ
ु है । (6,7)

रसोऽहमप्सु कौन्तेय ूभािःम शिशसूयय


र् ोः ।
ूणवः सवर्वेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ।।8।।
पुण्यो गन्धः पृिथव्यां च तेज ािःम िवभावसौ ।
जीवनं सवभूतेषु तप ािःम तपिःवषु ।।9।।
हे अजुन
र् ! जल में मैं रस हँू । चंिमा और सूयर् में मैं ूकाश हँू । संपूणर् वेदों में
ूणव(ॐ) मैं हँू । आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व मैं हँू । पृथ्वी में पिवऽ गंध और
अिग्न में मैं तेज हँू । संपूणर् भूतों में मैं जीवन हँू अथार्त ् िजससे वे जीते हैं वह त व मैं हँू तथा
तपिःवयों में तप मैं हँू । (8,9)

बीजं मां सवर्भत


ू ानां िवि पाथर् सनातनम ् ।
बुि बुिर् मतामिःम तेजःतेजिःवनामहम ् ।।10।।

हे अजुन
र् ! तू संपूणर् भूतों का सनातन बीज यािन कारण मुझे ही जान । मैं बुि मानों की
बुि और तेजिःवयों का तेज हँू । (10)

बलं बलवतां चाहं कामरागिवविजर्तम ् ।


धमार्िवरु ो भूतेषु कामोऽिःम भरतषर्भ ।।11।।

हे भरत ौे ! आसि और कामनाओ से रिहत बलवानों का बल अथार्त ् सामथ्यर् मैं हँू


और सब भूतों में धमर् के अनुकूल अथार्त ् शा के अनुकूल काम मैं हँू । (11)

ये चैव साि वका भावा राजसाःतामसा ये ।


म एवेित तािन्वि न त्वहं तेषु ते मिय ।।12।।

और जो भी स वगुण से उत्पन्न होने वाले भाव हैं और जो रजोगुण से तथा तमोगुण से


उत्पन्न होने वाले भाव हैं , उन सबको तू मेरे से ही होने वाले हैं ऐसा जान । परन्तु वाःतव में
उनमें मैं और वे मुझमे नहीं हैं । (12)

िऽिभगुण
र् मयैभार्वैरेिभः सवर्िमदं जगत ् ।
मोिहतं नािभजानाित मामेभ्यः परमव्ययम ् ।।13।।
गुणों के कायर्रूप (साि वक, राजिसक और तामिसक) इन तीनों ूकार के भावों से यह
सारा संसार मोिहत हो रहा है इसिलए इन तीनों गुणों से परे मुझ अिवनाशी को वह त व से नहीं
जानता । (13)

दै वी ेषा गुणमयी मम माया दरत्यया।



मामेव ये ूप न्ते मायामेतां तरिन्त ते।।14।।
यह अलौिकक अथार्त ् अित अदभुत िऽगुणमयी मेरी माया बड़ी दःतर
ु है परन्तु जो पुरुष
केवल मुझको ही िनरं तर भजते हैं वे इस माया को उल्लंघन कर जाते हैं अथार्त ् संसार से तर
जाते हैं । (14)
न मां दंकृ
ु ितनो मूढाः ूप न्ते नराधमाः ।
माययापहृतज्ञानां आसुरं भावमािौताः ।।15।।

माया के ारा हरे हए


ु ज्ञानवाले और आसुरी ःवभाव को धारण िकये हए
ु तथा मनुंयों में
नीच और दिषत
ू कमर् करनेवाले मूढ़ लोग मुझे नहीं भजते हैं । (15)

चतुिवर्धा भजन्ते मां जनाः सुकृितनोऽजुन


र् ।
आत िजज्ञासुरथार्थीं ज्ञानी च भरतषर्भ ।।16।।

हे भरतवंिशयो में ौे अजुन


र् ! उ म कमर्वाले अथार्थ , आतर्, िजज्ञासु और ज्ञानी – ऐसे चार
ूकार के भ जन मुझे भजते हैं । (16)

तेषां ज्ञानी िनत्ययु एकभि िवर्िशंयते ।


िूयो िह ज्ञािननोऽत्यथर्महं स च मम िूयः ।।17।।

उनमें भी िनत्य मुझमें एकीभाव से िःथत हआ


ु , अनन्य ूेम-भि वाला ज्ञानी भ अित
उ म है क्योंिक मुझे त व से जानने वाले ज्ञानी को मैं अत्यन्त िूय हँू और वह ज्ञानी मुझे
अत्यंत िूय है । (17)

उदाराः सवर् एवैते ज्ञानी त्वातमैव मे मतम ् ।


आिःथतः स िह यु ात्मा मामेवानु मां गितम ् ।।18।।

ये सभी उदार हैं अथार्त ् ौ ासिहत मेरे भजन के िलए समय लगाने वाले होने से उ म हैं
परन्तु ज्ञानी तो साक्षात ् मेरा ःवरूप ही हैं ऐसा मेरा मत है । क्योंिक वह मदगत मन-बुि वाला
ज्ञानी भ अित उ म गितःवरूप मुझमें ही अच्छी ूकार िःथत है । (18)
बहनां
ू जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां ूप ते ।
वासुदेवः सवर्िमित स महात्मा सुदलर्
ु भः ।।19।।

बहत
ु जन्मों के अन्त के जन्म में त वज्ञान को ूा हआ
ु ज्ञानी सब कुछ वासुदेव ही है -
इस ूकार मुझे भजता है , वह महात्मा अित दलर्
ु भ है । (19)
कामैःतैःतैहृर्तज्ञानाः ूप न्तेऽन्यदे वताः ।
तं तं िनयममाःथाय ूकृ त्या िनयताः ःवया ।।20।।

उन-उन भोगों की कामना ारा िजनका ज्ञान हरा जा चुका है वे लोग अपने ःवभाव से
ूेिरत होकर उस-उस िनयम को धारण करके अन्य दे वताओं को भजते हैं अथार्त ् पूजते हैं ।
(20)

यो यो यां यां तनुं भ ः ौ यािचर्तुिमच्छित ।


तःय तःयाचलां ौ ां तामेव िवदधाम्यहम ् ।।21।।

जो-जो सकाम भ िजस-िजस दे वता के ःवरूप को ौ ा से पूजना चाहता है , उस-उस


भ की ौ ा को मैं उसी दे वता के ूित िःथर करता हँू । (21)

स तया ौ या यु ःतःयाराधनमीहते ।
लभते च ततः कामान्मयैव िविहतािन्ह तान ् ।।22।।

वह पुरुष उस ौ ा से यु होकर उस दे वता का पूजन करता है और उस दे वता से मेरे


ारा ही िवधान िकये हए
ु उन इिच्छत भोगों को िनःसन्दे ह ूा करता है । (22)

अन्तव ु फलं तेषां त वत्यल्पमेधसाम ् ।


दे वान्दे वयजो यािन्त म ा यािन्त मामिप ।।23।।

परन्तु उन अल्प बुि वालों का वह फल नाशवान है तथा वे दे वताओं को पूजने वाले


दे वताओं को ूा होते हैं और मेरे भ चाहे जैसे ही भजें, अंत में मुझे ही ूा होते हैं । (23)

अव्य ं व्यि मापन्नं मन्यन्ते मामबु यः ।


परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनु मम ् ।।24।।
बुि हीन पुरुष मेरे अनु म, अिवनाशी, परम भाव को न जानते हए
ु , मन-इन्ियों से परे मुझ
सिच्चदानंदघन परमात्मा को मनुंय की भाँित जानकर व्यि के भाव को ूा हआ
ु मानते हैं ।
(24)

नाहं ूकाशः सवर्ःय योगमायासमावृतः |


मूढोऽयं नािभजानाित लोको मामजमव्ययम ् ।।25।।
अपनी योगमाया से िछपा हआ
ु मैं सबके ूत्यक्ष नहीं होता इसिलए यह अज्ञानी जन
समुदाय मुझ जन्मरिहत, अिवनाशी परमात्मा को त व से नहीं जानता है अथार्त ् मुझको जन्मने-
मरनेवाला समझता है । (25)

वेदाहं समतीतािन वतर्मानािन चाजुन


र् |
भिवंयािण च भूतािन मां तु वेद न क न ||26||

हे अजुन
र् ! पूवर् में व्यतीत हए
ु और वतर्मान में िःथत तथा आगे होनेवाले सब भूतों को मैं
जानता हँू , परन्तु मुझको कोई भी ौ ा-भि रिहत पुरुष नहीं जानता | (26)

इच्छा े षसमुत्थेन न् मोहे न भारत ।


सवर्भत
ू ािन संमोहं सग यािन्त परं तप ।।27।।

हे भरतवंशी अजुन
र् ! संसार में इच्छा और े ष से उत्पन्न हए
ु सुख-दःखािद
ु न् रूप मोह
से संपूणर् ूाणी अित अज्ञानता को ूा हो रहे हैं । (27)

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकमर्णाम ् ।


ते न् मोहिनमुर् ा भजन्ते मां दृढोताः ।।28।।

(िनंकाम भाव से) ौे कम का आचरण करने वाला िजन पुरुषों का पाप न हो गया
है , वे राग- े षािदजिनत न् रूप मोह से मु और दृढ़ िन यवाले पुरुष मुझको भजते हैं । (28)

जरामरणमोक्षाय मामािौत्य यतिन्त ये ।


ते ॄ ति दःु कृ त्ःनमध्यात्मं कमर् चािखलम ् ।।29।।


जो मेरे शरण होकर जरा और मरण से छटने के िलए य करते हैं , वे पुरुष उस ॄ को
तथा संपूणर् अध्यात्म को और संपूणर् कमर् को जानते हैं । (29)

सािधभूतािधदै वं मां सािधयज्ञं च ये िवदःु ।


ूयाणकालेऽिप च मां ते िवदयु
ु र् चेतसः ।।30।।

जो पुरुष अिधभूत और अिधदै व के सिहत तथा अिधयज्ञ के सिहत (सबका आत्मरूप)


मुझे अंतकाल में भी जानते हैं , वे यु िच वाले पुरुष मुझको ही जानते हैं अथार्त ् मुझको ही ूा
होते हैं । (30)
ॐ तत्सिदित ौीमद् भगवदगीतासूपिनषत्सु ॄ िव ायां योगशा े
ौीकृ ंणाजुन
र् संवादे ज्ञानिवज्ञानयोगे नाम स मोऽध्यायः।।7।।
इस ूकार उपिनषद्, ॄ िव ा तथा योगशा ःवरूप ौीमद् भगवदगीता में
ौीकृ ंण तथा अजुन
र् के संवाद में 'ज्ञानिवयोग नामक' सातवाँ अध्याय संपण
ू ।र्
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

अनुबम

आठवें अध्याय का माहात्म्य


भगवान िशव कहते हैं – दे िव ! अब आठवें अध्याय का माहात्म्य सुनो | उसके सुनने से
तुम्हें बड़ी ूसन्नता होगी | लआमीजी के पूछने पर भगवान िवंणु ने उन्हें इस ूकार अ म ्
अध्याय का माहात्म्य बतलाया था |
दिक्षण में आमदर् कपुर नामक एक ूिस नगर है | वहाँ भावशमार् नामक एक ॄा ण रहता
था, िजसने वेँया को प ी बना कर रखा था | वह मांस खाता था, मिदरा पीता, ौे पुरुषों का
धन चुराता, परायी ी से व्यिभचार करता और िशकार खेलने में िदलचःपी रखता था | वह बड़े
भयानक ःवभाव का था और और मन में बड़े -बड़े ह सले रखता था | एक िदन मिदरा पीने वालों
का समाज जुटा था | उसमें भावशमार् ने भरपेट ताड़ी पी, खूब गले तक उसे चढ़ाया | अतः अजीणर्
से अत्यन्त पीिड़त होकर वह पापात्मा कालवश मर गया और बहत
ु बड़ा ताड़ का वृक्ष हआ
ु |
उसकी घनी और ठं डी छाया का आौय लेकर ॄ राक्षस भाव को ूा हए
ु कोई पित-प ी वहाँ
रहा करते थे |
उनके पूवर् जन्म की घटना इस ूकार है | एक कुशीबल नामक ॄा ण था, जो वेद-वेदांग
के त वों का ज्ञाता, सम्पूणर् शा ों के अथर् का िवशेषज्ञ और सदाचारी था | उसकी ी का नाम
कुमित था | वह बड़े खोटे िवचार की थी | वह ॄा ण िव ान होने पर भी अत्यन्त लोभवश अपनी
ी के साथ ूितिदन भैंस, कालपुरुष और घोड़े आिद दानों को महण िकया करते था, परन्तु
दसरे
ू ॄा णों को दान में िमली हई
ु कौड़ी भी नहीं दे ता था | वे ही दोनों पित-प ी कालवश मृत्यु
को ूा होकर ॄ राक्षस हए
ु | वे भूख और प्यास से पीिड़त हो इस पृथ्वी पर घूमते हए
ु उसी
ताड वृक्ष के पास आये और उसके मूल भाग में िवौाम करने लगे | इसके बाद प ी ने पित से
पूछाः 'नाथ ! हम लोगों का यह महान दःख
ु कैसे दरू होगा? ॄ राक्षस-योिन से िकस ूकार हम
दोनों की मुि होगी? तब उस ॄा ण ने कहाः "ॄ िव ा के उपदे श, आध्यात्मतत्व के िवचार

और कमर्िविध के ज्ञान िबना िकस ूकार संकट से छटकारा िमल सकता है ?
यह सुनकर प ी ने पूछाः "िकं तद् ॄ िकमध्यात्मं िकं कमर् पुरुषो म" (पुरुषो म ! वह
ॄ क्या है ? अध्यात्म क्या है और कमर् कौन सा है ?) उसकी प ी इतना कहते ही जो आ यर्
की घटना घिटत हई
ु , उसको सुनो | उपयुर् वाक्य गीता के आठवें अध्याय का आधा ोक था |
उसके ौवण से वह वृक्ष उस समय ताड के रूप को त्यागकर भावशमार् नामक ॄा ण हो गया |
तत्काल ज्ञान होने से िवशु िच होकर वह पाप के चोले से मु हो गया तथा उस आधे ोक
के ही माहात्म्य से वे पित-प ी भी मु हो गये | उनके मुख से दै वात ् ही आठवें अध्याय का
आधा ोक िनकल पड़ा था | तदनन्तर आकाश से एक िदव्य िवमान आया और वे दोनों पित-
प ी उस िवमान पर आरूढ़ होकर ःवगर्लोक को चले गये | वहाँ का यह सारा वृ ान्त अत्यन्त
आ यर्जनक था |
उसके बाद उस बुि मान ॄा ण भावशमार् ने आदरपूवक
र् उस आधे ोक को िलखा और
दे वदे व जनादर् न की आराधना करने की इच्छा से वह मुि दाियनी काशीपुरी में चला गया | वहाँ
उस उदार बुि वाले ॄा ण ने भारी तपःया आरम्भ की | उसी समय क्षीरसागर की कन्या भगवती
लआमी ने हाथ जोड़कर दे वताओं के भी दे वता जगत्पित जनादर् न से पूछाः "नाथ ! आप सहसा
नींद त्याग कर खड़े क्यों हो गये?"
ौी भगवान बोलेः दे िव ! काशीपुरी में भागीरथी के तट पर बुि मान ॄा ण भावशमार् मेरे
भि रस से पिरपूणर् होकर अत्यन्त कठोर तपःया कर रहा है | वह अपनी इिन्ियों के वश में
करके गीता के आठवें अध्याय के आधे ोक का जप करता है | मैं उसकी तपःया से बहत
ु संतु
ु दे र से उसकी तपःया के अनुरूप फल का िवचार का रहा था | िूये ! इस समय वह
हँू | बहत
फल दे ने को मैं उत्कण्ठित हँू |
पावर्ती जी ने पूछाः भगवन ! ौीहिर सदा ूसन्न होने पर भी िजसके िलए िचिन्तत हो
उठे थे, उस भगवद् भ भावशमार् ने कौन-सा फल ूा िकया?
ौी महादे वजी बोलेः दे िव ! ि जौे भावशमार् ूसन्न हए
ु भगवान िवंणु के ूसाद को
पाकर आत्यिन्तक सुख (मोक्ष) को ूा हआ
ु तथा उसके अन्य वंशज भी, जो नरक यातना में
पड़े थे, उसी के शु कमर् से भगव ाम को ूा हए
ु | पावर्ती ! यह आठवें अध्याय का माहात्म्य
थोड़े में ही तुम्हे बताया है | इस पर सदा िवचार करना चािहए |
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
(अनुबम)
आठवाँ अध्यायः अक्षरॄ योग
सातवें अध्याय में 1 से 3 ोक तक भगवान ने अजुन
र् को सत्यःवरुप का तत्व सुनने के
िलए सावधान कर उसे कहने की ूितज्ञा की | िफर उसे जानने वालों की ूशंसा करके 27वें ोक
तक उस त व को िविभन्न तरह से समझाकर उसे जानने के कारणों को भी अच्छी तरह से
समझाया और आिखर में ॄ , अध्यात्म, कमर्, अिधभूत, अिधदै व और अिधयज्ञसिहत भगवान के
समम ःवरूप को जानने वाले भ ों की मिहमा का वणर्न करके वह अध्याय समा िकया |
लेिकन ॄ , अध्यात्म, कमर्, अिधभूत, अिधदै व और अिधयज्ञ इन छः बातों का और मरण काल
में भगवान को जानने की बात का रहःय समझ में नहीं आया, इसिलए अजुन
र् पूछते हैं Ð

(अनुबम)

।। अथा मोऽध्यायः ।।
अजुन
र् उवाच
िकं तद् ॄ िकमध्यात्मं िकं कमर् पुरुषो म।
अिधभूतं च िकं ूो मिधदै वं िकमुच्यते।।1।।

अजुन
र् ने कहाः हे पुरुषो म ! वह ॄ क्या है ? अध्यात्म क्या है ? कमर् क्या है ? अिधभूत
नाम से क्या कहा गया है और अिधदै व िकसको कहते हैं ?(1)

अिधयज्ञ कथं कोऽऽ दे हेऽिःमन्मधुसद


ू न।
ूयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽिस िनयतात्मिभः।।2।।

हे मधुसद
ू न ! यहाँ अिधयज्ञ कौन है ? और वह इस शरीर में कैसे हैं ? तथा यु िच वाले
पुरुषों ारा अन्त समय में आप िकस ूकार जानने में आते हैं ? (2)

ौीभगवानुवाच
अक्षरं ॄ परमं ःवभावोऽध्यातममुच्यते।
भूतभावोद् भवकरो िवसगर्ः कमर्सिं ज्ञतः।।3।।

ौीमान भगवान ने कहाः परम अक्षर 'ॄ ' है , अपना ःवरूप अथार्त ् जीवात्मा 'अध्यात्म'
नाम से कहा जाता है तथा भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला जो त्याग है , वह 'कमर्' नाम से
कहा गया है |(3)
अिधभूतं क्षरो भावः पुरुष ािधदै वतम।्
अिधयज्ञोऽहमेवाऽ दे हे दे हभृतां वर।।4।।

उत्पि िवनाश धमर्वाले सब पदाथर् अिधभूत हैं , िहरण्यमय पुरुष अिधदै व हैं ओर हे
दे हधािरयों में ौे अजुन
र् ! इस शरीर में मैं वासुदेव ही अन्तयार्मी रूप से अिधयज्ञ हँू |(4)

अन्तकाले च मामेव ःमरन्मु वा कलेवरम।्


यः ूयाित सं मद् भावं याित नाःत्यऽ संशयः।।5।।

जो पुरुष अन्तकाल में भी मुझको ही ःमरण करता हआ


ु शरीर को त्याग कर जाता है ,
वह मेरे साक्षात ् ःवरूप को ूा होता है Ð इसमें कुछ भी संशय नहीं है |(5)

यं यं वािप ःमरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम।्


तं तमेवैित कौन्तेय सदा तद् भावभािवतः।।6।।

हे कुन्तीपुऽ अजुन
र् ! यह मनुंय अन्तकाल में िजस-िजस भी भाव को ःमरण करता हआ

शरीर का त्याग करता है , उस उसको ही ूा होता है , क्योंिक वह सदा उसी भाव से भािवत रहा
है |(6)

तःमात्सवषु कालेषु मामनुःमर युध्य च।


मय्यिपर्तमनोबुि मार्मेवैंयःयसंशयम।।
् 7।।

इसिलए हे अजुन
र् ! तू सब समय में िनरन्तर मेरा ःमरण कर और यु भी कर | इस
ूकार मुझमें अपर्ण िकये हए
ु मन-बुि से यु होकर तू िनःसंदेह मुझको ही ूा होगा |(7)

अभ्यासयोगयु े न चेतसा नान्यगािमना।


परमं पुरुषं िदव्यं याित पाथार्नुिचन्तयन।।
् 8।।

हे पाथर् ! यह िनयम है िक परमे र के ध्यान के अभ्यासरूप योग से यु , दसरी


ू ओर न
जाने वाले िच से िनरन्तर िचन्तन करता हआ
ु मनुंय परम ूकाशरूप िदव्य पुरुष को अथार्त ्
परमे र को ही ूा होता है |(8)

किवं पुराणमनुशािसतार-
मणोरणीयांसमनुःमरे ः।
सवर्ःय धातारमिचन्तयरूप-
मािदत्यवण तमसः परःतात।।
् 9।।
ूयाणकाले मनसाचलेन
भ या यु ो योगबलेन चैव।
ॅूवोमर्ध्ये ूाणमावेँय सम्यक्
स तं परं पुरुषमुपैित िदव्यम।।
् 10।।

जो पुरुष सवर्ज्ञ, अनािद, सबके िनयन्ता, सूआम से भी अित सूआम, सबके धारण-पोषण
करने वाले, अिचन्तयःवरूप, सूयर् के सदृश िनत्य चेतन ूकाशरूप और अिव ा से अित परे , शु
सिच्चदानन्दघन परमे र का ःमरण करता है , वह भि यु पुरुष अन्तकाल में भी योग बल से
भृकुटी के मध्य में ूाण को अच्छी ूकार ःथािपत करके, िफर िन ल मन से ःमरण करता
हआ
ु उस िदव्यरूप परम पुरुष परमात्मा को ही ूा होता है |(9,10)

यदक्षरं वेदिवदो वदिन्त


िवशिन्त य तयो वीतरागाः।
यिदच्छन्तो ॄ चय चरिन्त
त े पदं संमहे ण ूवआये।।11।।

वेद के जानने वाले िव ान िजस सिच्चदानन्दघनरूप परम पद को अिवनाशी कहते हैं ,


आसि रिहत संन्यासी महात्माजन िजसमें ूवेश करते हैं और िजस परम पद को चाहने वाले
ॄ चारी लोग ॄ चयर् का आचरण करते हैं , उस परम पद को मैं तेरे िलए संक्षेप में कहँू गा |(11)

सवर् ारािण संयम्य मनो हृिद िनरुध्य च।


मूध्न्यार्धायात्मनः ूाणमािःथतो योगधारणाम।।
् 12।।
ओिमत्येकाक्षरं ॄ व्याहरन्मामनुःमरन।्
यः ूयाित त्यजन्दे हं स याित परमां गितम।।
् 13।।

सब इिन्ियों के ारों को रोक कर तथा मन को हृदयदे श में िःथर करके, िफर उस जीते
हए
ु मन के ारा ूाण को मःतक में ःथािपत करके, परमात्मसम्बन्धी योगधारणा में िःथत
होकर जो पुरुष ॐ इस एक अक्षररूप ॄ को उच्चारण करता हआ
ु और उसके अथर्ःवरूप मुझ
िनगुण
र् ॄ का िचन्तन करता हआ
ु शरीर को त्याग कर जाता है , वह पुरुष परम गित को ूा
होता है |(12,13)

अनन्यचेताः सततं यो मां ःमरित िनत्यशः।


तःयाहं सुलभः पाथर् िनत्यु ःय योिगनः।।14।।

हे अजुन
र् ! जो पुरुष मुझमें अनन्यिच होकर सदा ही िनरन्तर मुझ पुरुषो म को ःमरण
करता है , उस िनत्य-िनरन्तर मुझमें यु हए
ु योगी के िलए मैं सुलभ हँू , अथार्त ् मैं उसे सहज ही
ूा हो जाता हँू |(14)

मामुपेत्य पुनजर्न्म दःखालयमशा


ु तम।्
नाप्नुविन्त महात्मानः संिसि ं परमां गताः।।15।।

परम िसि को ूा महात्माजन मुझको ूा होकर दःखों


ु के घर तथा क्षणभंगरु पुनजर्न्म
को नहीं ूा होते |(15)

आॄ भुवनाल्लोकाः पुनरावितर्नोऽजुन
र् ।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनजर्न्म न िव ते।।16।।

हे अजुन
र् ! ॄ लोक सब लोक पुनरावत हैं , परन्तु हे कुन्तीपुऽ ! मुझको ूा होकर
पुनजर्न्म नहीं होता, क्योंिक मैं कालातीत हँू और ये सब ॄ ािद के लोक काल के ारा सीिमत
होने से अिनत्य हैं |(16)

सहॐयुगपयर्न्तमहयर्द्ॄ णो िवदः।

रािऽं युगसह ान्तां तेऽहोराऽिवदो जनाः।।17।।

ॄ ा का जो एक िदन है , उसको एक हजार चतुयग


ुर् ी तक की अविधवाला और रािऽ को
भी एक हजार चतुयग
ुर् ी तक की अविधवाला जो पुरुष त व से जानते हैं , वे योगीजन काल के
तत्व को जानने वाले हैं (17)

अव्य ाद्व्य यः सवार्ः ूभवन्त्यहरागमे।


रा यागमे ूलीयन्ते तऽैवाव्य संज्ञके।।18।।

सम्पूणर् चराचर भूतगण ॄ ा के िदन के ूवेशकाल में अव्य से अथार्त ् ॄ ा के सूआम


शरीर से उत्पन्न होते हैं और ॄ ा की रािऽ के ूवेशकाल में उस अव्य नामक ॄ ा के सूआम
शरीर में लीन हो जाते हैं |(18)

भूतमामः स एवायं भूत्वा भूत्वा ूलीयते।


रा यागमेऽवशः पाथर् ूभवत्यहरागमे।।19।।
हे पाथर् ! वही यह भूतसमुदाय उत्पन्न हो-होकर ूकृ ित के वश में हआ
ु रािऽ के
ूवेशकाल में लीन होता है और िदन के ूवेशकाल में िफर उत्पन्न होता है |

परःतःमा ु भावोऽव्य ोऽव्य ात्सनातनः।


यः स सवषु भूतेषु नँयत्सु न िवनँयित।।20।।

उस अव्य से भी अित परे दसरा


ू अथार्त ् िवलक्षण जो सनातन अव्य भाव है , वह परम
िदव्य पुरुष सब भूतों के न होने पर भी न नहीं होता |(20)

अव्य ोऽक्षर इत्यु ःतमाहःु परमां गितम।्


यं ूाप्य न िनवतर्न्ते त ाम परमं मम।।21।।

जो अव्य 'अक्षर' इस नाम से कहा गया है , उसी अक्षर नामक अव्य भाव को परम
गित कहते हैं तथा िजस सनातन अव्य भाव को ूा होकर मनुंय वापस नहीं आते, वह मेरा
परम धाम है |(21)

पुरुषः स परः पाथर् भ या लभ्यःतवनन्यया।


यःयान्तःःथािन भूतािन येन सवर्िमदं ततम।।
् 22।।

हे पाथर् ! िजस परमात्मा के अन्तगर्त सवर्भत


ू हैं और िजस सिच्चदानन्दघन परमात्मा से
यह समःत जगत पिरपूणर् है , वह सनातन अव्य परम पुरुष तो अनन्य भि से ही ूा होने
योग्य है |(22)

यऽ काले त्वनावृि मावृि ं चैव योिगनः


ूयाता यािन्त तं कालं वआयािम भरतषर्भ।।23।।

हे अजुन
र् ! िजस काल में शरीर त्याग कर गये हए
ु योगीजन तो वापस न लौटनेवाली
गित को और िजस काल में गये हए
ु वापस लौटनेवाली गित को ही ूा होते हैं , उस काल को
अथार्त ् दोनों माग को कहँू गा |(23)

अिग्नज्य ितरहः शुक्लः षण्मासा उ रायणम।्


तऽ ूयाता गच्छिन्त ॄ ॄ िवदो जनाः।।24।।
िजस मागर् में ज्योितमर्य अिग्न-अिभमानी दे वता है , िदन का अिभमानी दे वता है ,
शुक्लपक्ष का अिभमानी दे वता है और उ रायण के छः महीनों का अिभमानी दे वता है , उस मागर्
में मरकर गये हए
ु ॄ वे ा योगीजन उपयुर् दे वताओं ारा बम से ले जाये जाकर ॄ को ूा
होते हैं |(24)

धूमो रािऽःतथा कृ ंणः षण्मासा दिक्षणायनम।्


तऽ चान्िमसं ज्योितय गी ूाप्य िनवतर्ते।।25।।

िजस मागर् में धूमािभमानी दे वता है , रािऽ अिभमानी दे वता है तथा कृ ंणपक्ष का
अिभमानी दे वता है और दिक्षणायन के छः महीनों का अिभमानी दे वता है , उस मागर् में मरकर
गया हआ
ु सकाम कमर् करनेवाला योगी उपयुर् दे वताओं ारा बम से ले जाया हआ
ु चन्िमा की
ज्योित को ूा होकर ःवगर् में अपने शुभ कम का फल भोगकर वापस आता है |(25)

शुक्लकृ ंणे गती ेते जगतः शा ते मते।


एकया यात्यनावृि मन्ययावतर्ते पुनः।।26।।

क्योंिक जगत के ये दो ूकार के Ð शुक्ल और कृ ंण अथार्त ् दे वयान और िपतृयान मागर्


सनातन माने गये हैं | इनमें एक के ारा गया हआ
ु Ð िजससे वापस नहीं लौटना पड़ता, उस
परम गित को ूा होता है और दसरे
ू के ारा गया हआ
ु िफर वापस आता है अथार्त ् जन्म-मृत्यु
को ूा होता है |(26)

नैते सृती पाथर् जानन्योगी मु ित क न।


तःमात्सवषु कालेषु योगयु ो भवाजुन
र् ।।27।।

हे पाथर् ! इस ूकार इन दोनों माग को त व से जानकर कोई भी योगी मोिहत नहीं होता
| इस कारण हे अजुन
र् ! तू सब काल में समबुि रूप योग से यु हो अथार्त ् िनरन्तर मेरी ूाि
के िलए साधन करने वाला हो |(27)

वेदेषु यज्ञेषु तपुःसु चैव


दानेषु यत्पुण्यफलं ूिद म।्
अत्येित तत्सवर्िमदं िविदत्वा
योगी परं ःथानमुपैित चा म।।
् 28।।
योगी पुरुष इस रहःय को त व से जानकर वेदों के पढ़ने में तथा यज्ञ, तप और दानािद
के करने में जो पुण्यफल कहा है , उन सबको िनःसंदेह उल्लंघन कर जाता है और सनातन परम
पद को ूा होता है |(28)
ॐ तत्सिदित ौीमद् भगवद् गीतासूपिनषत्सु ॄ िव ायां योगशा े
ौीकृ ंणाजुन
र् संवादे अक्षरॄ योगो नामाऽ मोऽध्याय | |8 | |
इस ूकार उपिनषद, ॄ िव ा तथा योगशा रूप ौीमद् भगवद् गीता के
ौीकृ ंण-अजुन
र् संवाद में 'अक्षरॄ योग' नामक आठवाँ अध्याय संपण
ू र् हआ
ु |
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
(अनुबम)

नौवें अध्याय का माहात्म्य


महादे वजी कहते हैं – पावर्ती अब मैं आदरपूवक
र् नौवें अध्याय के माहात्म्य का वणर्न
करुँ गा, तुम िःथर होकर सुनो। नमर्दा के तट पर मािहंमती नाम की एक नगरी है । वहाँ माधव
नाम के एक ॄा ण रहते थे, जो वेद-वेदांगों के तत्वज्ञ और समय-समय पर आने वाले
अितिथयों के ूेमी थे। उन्होंने िव ा के ारा बहत
ु धन कमाकर एक महान यज्ञ का अनु ान
आरम्भ िकया। उस यज्ञ में बिल दे ने के िलए एक बकरा मंगाया गया। जब उसके शरीर की पूजा
हो गयी, तब सबको आ यर् में डालते हए
ु उस बकरे ने हँ सकर उच्च ःवर से कहाः "ॄा ण ! इन
बहत
ु से यज्ञों ारा क्या लाभ है ? इनका फल तो न हो जाने वाला तथा ये जन्म, जरा और
मृत्यु के भी कारण हैं । यह सब करने पर भी मेरी जो वतर्मान दशा है इसे दे ख लो।" बकरे के
इस अत्यन्त कौतूहलजनक वचन को सुनकर यज्ञमण्डप में रहने वाले सभी लोग बहत
ु ही
िविःमत हए।
ु तब वे यजमान ॄा ण हाथ जोड़ अपलक नेऽों से दे खते हए
ु बकरे को ूणाम करके
यज्ञ और आदर के साथ पूछने लगे।
ॄा ण बोलेः आप िकस जाित के थे? आपका ःवभाव और आचरण कैसा था? तथा िजस
कमर् से आपको बकरे की योिन ूा हई
ु ? यह सब मुझे बताइये।
बकरा बोलाः ॄा ण ! मैं पूवर् जन्म में ॄा णों के अत्यन्त िनमर्ल कुल में उत्पन्न हआ

था। समःत यज्ञों का अनु ान करने वाला और वेद-िव ा में ूवीण था। एक िदन मेरी ी ने
भगवती दगार्
ु की भि से िवनॆ होकर अपने बालक के रोग की शािन्त के िलए बिल दे ने के
िनिम मुझसे एक बकरा माँगा। तत्प ात ् जब चिण्डका के मिन्दर में वह बकरा मारा जाने
लगा, उस समय उसकी माता ने मुझे शाप िदयाः "ओ ॄा णों में नीच, पापी! तू मेरे बच्चे का
वध करना चाहता है , इसिलए तू भी बकरे की योिन में जन्म लेगा।" ि जौे ! तब कालवश
मृत्यु को ूा होकर मैं बकरा हआ।
ु य िप मैं पशु योिन में पड़ा हँू , तो भी मुझे अपने पूवज
र् न्मों
का ःमरण बना हआ
ु है । ॄ ण ! यिद आपको सुनने की उत्कण्ठा हो तो मैं एक और भी आ यर्
की बात बताता हँू । कुरुक्षेऽ नामक एक नगर है , जो मोक्ष ूदान करने वाला है । वहाँ चन्िशमार्
नामक एक सूयव
र् ंशी राजा राज्य करते थे। एक समय जब सूयम
र् हण लगा था, राजा ने बड़ी ौ ा
के साथ कालपुरुष का दान करने की तैयारी की। उन्होंने वेद-वेदांगो के पारगामी एक िव ान
ॄा ण को बुलवाया और पुरोिहत के साथ वे तीथर् के पावन जल से ःनान करने को चले और दो
व धारण िकये। िफर पिवऽ और ूसन्निच होकर उन्होंने ेत चन्दन लगाया और बगल में
खड़े हए
ु पुरोिहत का हाथ पकड़कर तत्कालोिचत मनुंयों से िघरे हए
ु अपने ःथान पर लौट आये।
आने पर राजा ने यथोिच िविध से भि पूवक
र् ॄा ण को कालपुरुष का दान िकया।
तब कालपुरुष का हृदय चीरकर उसमें से एक पापात्मा चाण्डाल ूकट हआ
ु िफर थोड़ी दे र
के बाद िनन्दा भी चाण्डाली का रूप धारण करके कालपुरुष के शरीर से िनकली और ॄा ण के
पास आ गयी। इस ूकार चाण्डालों की वह जोड़ी आँखें लाल िकये िनकली और ॄा ण के शरीर
में हठात ूवेश करने लगी। ॄा ण मन ही मन गीता के नौवें अध्याय का जप करते थे और
राजा चुपचाप यह सब कौतुक दे खने लगे। ॄा ण के अन्तःकरण में भगवान गोिवन्द शयन करते
थे। वे उन्हीं का ध्यान करने लगे। ॄा ण ने जब गीता के नौवें अध्याय का जप करते हए
ु अपने
आौयभूत भगवान का ध्यान िकया, उस समय गीता के अक्षरों से ूकट हए
ु िवंणुदतों
ू ारा
पीिड़त होकर वे दोनों चाण्डाल भाग चले। उनका उ ोग िनंफल हो गया। इस ूकार इस घटना
को ूत्यक्ष दे खकर राजा के नेऽ आ यर् से चिकत हो उठे । उन्होंने ॄा ण से पूछाः "िवूवर !
इस भयंकर आपि को आपने कैसे पार िकया? आप िकस मन्ऽ का जप तथा िकस दे वता का
ःमरण कर रहे थे? वह पुरुष तथा ी कौन थी? वे दोनों कैसे उपिःथत हए
ु ? िफर वे शान्त
कैसे हो गये? यह सब मुझे बताइये।
ॄा ण ने कहाः राजन ! चाण्डाल का रूप धारण करके भयंकर पाप ही ूकट हआ
ु था
तथा वह ी िनन्दा की साक्षात मूितर् थी। मैं इन दोनों को ऐसा ही समझता हँू । उस समय मैं
गीता के नवें अध्याय के मन्ऽों की माला जपता था। उसी का माहात्म्य है िक सारा संकट दरू हो
गया। महीपते ! मैं िनत्य ही गीता के नौवें अध्याय का जप करता हँू । उसी के ूभाव से
ूितमहजिनत आपि यों के पार हो सका हँू ।
यह सुनकर राजा ने उसी ॄा ण से गीता के नवम अध्याय का अभ्यास िकया, िफर वे
दोनों ही परम शािन्त (मोक्ष) को ूा हो गये।
(यह कथा सुनकर ॄा ण ने बकरे को बन्धन से मु कर िदया और गीता के नौवें
अध्याय के अभ्यास से परम गित को ूा िकया।)
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
(अनुबम)

नौवाँ अध्यायः राजिव ाराजगु योग


सातवें अध्याय के आरम्भ में भगवान ने िवज्ञानसिहत ज्ञान का वणर्न करने की ूितज्ञा
की थी। उस अनुसार उस िवषय का वणर्न करते हए
ु आिखर में ॄ , अध्यात्म, कमर्, अिधभूत,
अिधदै व और अिधयज्ञसिहत भगवान को जानने की और अतंकाल में भगवान के िचंतन की बात
कही है िफर आठवें अध्याय में िवषय को समझने के िलए सात ू िकये। उनमें से छः ू ों के
उ र तो भगवान ौीकृ ंण ने संिक्ष में तीसरे और चौथे ोक में िदये, लेिकन सातवें ू के
उ र में उन्होंने िजस उपदे श का आरं भ िकया उसमें ही आठवाँ अध्याय पूणर् हआ।
ु इस तरह
सातवें अध्याय में शुरु िकये गये िवज्ञानसिहत ज्ञान का सांगोपांग वणर्न नहीं हो पाने से उस
िवषय को बराबर समझाने के िलए भगवान इस नौवें अध्याय का आरम्भ करते हैं । सातवें
अध्याय में वणर्न िकये गये उपदे श से इसका ूगाढ़ सम्बन्ध बताने के िलए भगवान पहले ोक
में िफर से वही िवज्ञानसिहत ज्ञान का वणर्न करने की ूितज्ञा करते हैं ।

।। अथ नवमोऽध्यायः ।।
ौीभगवानुवाच
इदं तु ते गु तमं ूवआयाम्यनसूयवे।
ज्ञानं िवज्ञानसिहतं यज्ज्ञात्वा मोआयसेऽशुभात।।
् 1।।
ौीभगवान बोलेः तुझ दोष दृि रिहत भ के िलए इस परम गोपनीय िवज्ञानसिहत ज्ञान
को पुनः भली भाँित कहँू गा, िजसको जानकर तू दःखरूप
ु संसार से मु हो जाएगा।(1)
राजिव ा राजगु ं पिवऽिमदमु मम।्
ूत्यक्षावगमं धम्य सुसख
ु ं कतुम
र् व्ययम।।
् 2।।
यह िवज्ञानसिहत ज्ञान सब िव ाओं का राजा, सब रहःयों का राजा, अित पिवऽ, अित
उ म, ूत्यक्ष फलवाला, धमर्यु साधन करने में बड़ा सुगम और अिवनाशी है ।(2)
अौ धानाः पुरुषा धमर्ःयाःय परं तप।
अूाप्य मां िनवतर्न्ते मृत्युसस
ं ारवत्मर्िन।।3।।
हे परं तप ! इस उपयुर् धमर् में ौ ारिहत पुरुष मुझको न ूा होकर मृत्युरूप संसारचब
में ॅमण करते रहते हैं ।
मया ततिमदं सव जगदव्य मूितर्ना।
मत्ःथािन सवर्भत
ू ािन न चाहं तेंवविःथतः।।4।।
मुझ िनराकार परमात्मा से यह सब जगत जल से बफर् से सदृश पिरपूणर् है और सब भूत
मेरे अन्तगर्त संकल्प के आधार िःथत हैं , िकन्तु वाःतव में मैं उनमें िःथत नहीं हँू ।(4)
न च मत्ःथािन भूतािन पँय मे योगमै रम।्
भूतभृन्न च भूतःथो ममात्मा भूतभावनः।।5।।
वे सब भूत मुझमें िःथत नहीं हैं , िकन्तु मेरी ई रीय योगशि को दे ख िक भूतों को
धारण-पोषण करने वाला और भूतों को उत्पन्न करने वाला भी मेरा आत्मा वाःतव में भूतों में
िःथत नहीं है ।(5)
यथाकाशिःथतो िनत्यं वायुः सवर्ऽगो महान।्
तथा सवार्िण भूतािन मत्ःथानीत्युपधारय।।6।।
जैसे आकाश से उत्पन्न सवर्ऽ िवचरने वाला महान वायु सदा आकाश में ही िःथत है ,
वैसे ही मेरे संकल्प ारा उत्पन्न होने से सम्पूणर् भूत मुझमें िःथत हैं , ऐसा जान।(6)

सवर्भत
ू ािन कौन्तेय ूकृ ितं यािन्त मािमकाम।्
कल्पक्षये पुनःतािन कल्पादौ िवसृजाम्यहम।।
् 7।।
हे अजुन
र् ! कल्पों के अन्त में सब भूत मेरी ूकृ ित को ूा होते हैं अथार्त ् ूकृ ित में
लीन होते हैं और कल्पों के आिद में उनको मैं िफर रचता हँू ।(7)
ूकृ ितं ःवामव भ्य िवसृजािम पुनः पुनः।
भूतमामिममं कृ त्ःनमवशं ूकृ तेवश
र् ात।।

अपनी ूकृ ित को अंगीकार करके ःवभाव के बल से परतन्ऽ हए
ु इस सम्पूणर् भूतसमुदाय
को बार-बार उनके कम के अनुसार रचता हँू ।(8)
न च मां तािन कमार्िण िनबध्निन्त धनंजय।
उदासीनवदासीनमस ं तेषु कमर्सु।।9।।
हे अजुन
र् ! उन कम में आसि रिहत और उदासीन के सदृश िःथत मुझ परमात्मा को
वे कमर् नहीं बाँधते।(9)
मयाध्यक्षेण ूकृ ितः सूयते सचराचरम।्
हे तुनानेन कौन्तेय जगि पिरवतर्ते।।10।।
हे अजुन
र् ! मुझ अिध ाता के सकाश से ूकृ ित चराचर सिहत सवर् जगत को रचती है
और इस हे तु से ही यह संसारचब घूम रहा है ।(10)
अवजानिन्त मां मूढा मानुषीं तनुमािौतम।्
परं भावमजानन्तो मम भूतमहे रम।।
् 11।।
मेरे परम भाव को न जानने वाले मूढ़ लोग मनुंय का शरीर धारण करने वाले मुझ
सम्पूणर् भूतों के महान ई र को तुच्छ समझते हैं अथार्त ् अपनी योगमाया से संसार के उ ार के
िलए मनुंयरूप में िवचरते हए
ु मुझ परमे र को साधारण मनुंय मानते हैं ।(11)
मोघाशा मोघकमार्णो मोघज्ञाना िवचेतसः।
राक्षसीमासुरीं चैव ूकृ ितं मोिहनीं िौताः।।12।।
वे व्यथर् आशा, व्यथर् कमर् और व्यथर् ज्ञानवाले िविक्ष िच अज्ञानीजन राक्षसी, आसुरी
और मोिहनी ूकृ ित को ही धारण िकये रहते हैं ।(12)
महात्मानःतु मां पाथर् दै वीं ूकृ ितमािौताः।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतािदमव्ययम।।
् 13।।
परन्तु हे कुन्तीपुऽ ! दै वी ूकृ ित के आिौत महात्माजन मुझको सब भूतों का सनातन
कारण और नाशरिहत अक्षरःवरूप जानकर अनन्य मन से यु होकर िनरन्तर भजते हैं ।(13)

सततं कीतर्यन्तो मां यतन्त दृढोताः।


नमःयन्त मां भ या िनत्ययु ा उपासते।।14।।
वे दृढ़ िन य वाले भ जन िनरन्तर मेरे नाम और गुणों का कीतर्न करते हए
ु तथा मेरी
ूाि के िलए य करते हए
ु और मुझको बार-बार ूणाम करते हए
ु सदा मेरे ध्यान में यु
होकर अनन्य ूेम से मेरी उपासना करते हैं ।(14)
ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।
एकत्वेन पृथ वेन बहधा
ु ् 15।।
िव तोमुखम।।
दसरे
ू ज्ञानयोगी मुझ िनगुण
र् -िनराकार ॄ का ज्ञानयज्ञ के ारा अिभन्नभाव से पूजन
करते हए
ु भी मेरी उपासना करते हैं और दसरे
ू मनुंय बहत
ु ूकार से िःथत मुझ िवराटःवरूप
परमे र की पृथक भाव से उपासना करते हैं ।(15)
अहं बतुरहं यज्ञः ःधाहमहमौषधम।्
मंऽोऽहमहमेवाज्यमहमिग्नरहं हतम।।
ु ् 16।।
बतु मैं हँू , यज्ञ मैं हँू , ःवधा मैं हँू , औषिध मैं हँू , मंऽ मैं हँू , घृत मैं हँू , अिग्न मैं हँू और
हवनरूप िबया भी मैं ही हँू ।(16)
िपताहमःय जगतो माता धाता िपतामहः।
वे ं पिवऽमोंकार ऋक्साम यजुरेव च।।17।।
इस सम्पूणर् जगत का धाता अथार्त ् धारण करने वाला और कम के फल को दे ने वाला,
िपता माता, िपतामह, जानने योग्य, पिवऽ ओंकार तथा ऋग्वेद, सामवेद और यजुवद भी मैं ही
हँू ।(17)
गितभर्तार् ूभुः साक्षी िनवासः शरणं सुहृत।्
ूभवः ूलयः ःथानं िनधानं बीजमव्ययम।।
् 18।।
ूा होने योग्य परम धाम, भरण-पोषण करने वाला, सबका ःवामी, शुभाशुभ का दे खने
वाला, सब का वासःथान, शरण लेने योग्य, ूत्युपकार न चाहकर िहत करने वाला, सबकी
उत्पि -ूलय का हे तु, िःथित का आधार, िनधान और अिवनाशी कारण भी मैं ही हँू ।(18)
तपाम्यहमहं वष िनगृ ाम्युत्सृजािम च।
अमृतं चैव मृत्यु सदसच्चाहमजुन
र् ।।19।।
मैं ही सूयरू
र् प से तपता हँू , वषार् का आकषर्ण करता हँू और उसे बरसाता हँू । हे अजुन
र् !
मैं ही अमृत और मृत्यु हँू और सत ् असत ् भी मैं ही हँू ।(19)
ऽैिव ा मां सोमपाः पूतपापा
यज्ञैिरंट्वा ःवगर्ितं ूाथर्यन्ते।
ते पुण्यमासा सुरेन्िलोक-
म िन्त िदव्यािन्दिव दे वभोगान।।
् 20।।
तीनों वेदों में िवधान िकये हए
ु सकाम कम को करने वाले, सोम रस को पीने वाले, पाप
रिहत पुरुष मुझको यज्ञों के ारा पूजकर ःवगर् की ूाि चाहते हैं , वे पुरुष अपने पुण्यों के
फलरूप ःवगर्लोक को ूा होकर ःवगर् में िदव्य दे वताओं के भोगों को भोगते हैं ।
ते तं भु वा ःवगर्लोकं िवशालं
क्षीणे पुण्ये मत्यर्लोकं िवशिन्त।
एवं ऽयीधमर्मनुूपन्ना
गतागतं कामकामा लभन्ते।।21।।
वे उस िवशाल ःवगर्लोक को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक को ूा होते है । इस
ूकार ःवगर् के साधनरूप तीनों वेदों में कहे हए
ु सकाम कमर् का आौय लेने वाले और भोगों की
कामना वाले पुरुष बार-बार आवागमन को ूा होते हैं , अथार्त ् पुण्य के ूभाव से ःवगर् में जाते
हैं और पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक में आते हैं ।(21)
अनन्याि न्तयन्तो मां ये जनाः पयुप
र् ासते।
तेषां िनत्यािभयु ानां योगक्षेमं वहाम्यहम।।
् 22।।
जो अनन्य ूेम भ जन मुझ परमे र को िनरन्तर िचन्तन करते हए
ु िनंकाम भाव से
भजते हैं , उन िनत्य-िनरन्तर मेरा िचन्तन करने वाले पुरुषों को योगक्षेम मैं ःवयं ूा कर दे ता
हँू ।(22)
येऽप्यन्यदे वता भ ा यजन्ते ौ यािन्वताः।
तेऽिप मामेव कौन्तेय यजन्त्यिविधपूवक
र् म।।
् 23।।
हे अजुन
र् य िप ौ ा से यु जो सकाम भ दसरे
ू दे वताओं को पूजते हैं , वे भी मुझको
ही पूजते हैं , िकन्तु उनका पूजन अिविधपूवक
र् अथार्त ् अज्ञानपूवक
र् है ।(23)
अहं िह सवर्यज्ञानां भो ा च ूभुरेव च।
न तु मामिभजानिन्त त वेनात यविन्त ते।।24।।
क्योंिक सम्पूणर् यज्ञों का भो ा और ःवामी मैं ही हँू , परन्तु वे मुझ परमे र को त व से
नहीं जानते, इसी से िगरते हैं अथार्त ् पुनजर्न्म को ूा होते हैं ।(25)
यािन्त दे वोता दे वािन्पतृन्यािन्त िपतृोताः।
भूतािन यािन्त भूतेज्या यािन्त म ािजनोऽिप माम।।
् 25।।
दे वताओं को पूजने वाले दे वताओं को ूा होते हैं , िपतरों को पूजने वाले िपतरों को ूा
होते हैं , भूतों को पूजने वाले भूतों को ूा होते हैं और मेरा पूजन करने वाले भ मुझको ूा
होते हैं । इसिलए मेरे भ ों का पुनजर्न्म नहीं होता।(25)

पऽं पुंपं फलं तोयं यो मे भ या ूयच्छित।


तदहं भक्त्युपहृतम ािम ूयतात्मनः।।26।।
जो कोई भ मेरे िलए ूेम से पऽ, पुंप, फल, जल आिद अपर्ण करता है , उस शु बुि
िनंकाम ूेमी भ का ूेमपूवक
र् अपर्ण िकया हआ
ु वह पऽ-पुंपािद मैं सगुणरूप से ूकट होकर
ूीितसिहत खाता हँू ।(26)
यत्करोिष यद ािस यज्जुहोिष ददािस यत।्
य पःयिस कौन्तेय तत्कुरुंव मदपर्णम।।
् 27।।
हे अजुन
र् ! तू जो कमर् करता है , जो खाता है , जो हवन करता है , जो दान दे ता है और
जो तप करता है वह सब मुझे अपर्ण कर।(27)
शुभाशुभफलैरेवं मोआयसे कमर्बन्धनैः।
संन्यासयोगयु ात्मा िवमु ो मामपैंयिस।।28।।
इस ूकार िजसमें समःत कमर् मुझ भगवान के अपर्ण होते हैं Ð ऐसे सन्यासयोग से यु
िच वाला तू शुभाशुभ फलरूप कमर्बन्धन से मु हो जाएगा और उनसे मु होकर मुझको ही
ूा होगा(28)
समोऽहं सवर्भत
ू ेष न मे े ंयोऽिःत न िूयः।
ये भजिन्त तु मां भक्त्या मिय ते तेषु चाप्यहम।।
् 29।।
मैं सब भूतों में समभाव से व्यापक हँू । न कोई मेरा अिूय है ओर न िूय है परन्तु जो
भ मुझको ूेम से भजते हैं , वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें ूत्यक्ष ूकट हँू ।(29)
अिप चेत्सुदराचारो
ु भजते मामनन्यभाक।्
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यविसतो िह सः।।30।।
यिद कोई अितशय दराचारी
ु भी अनन्यभाव से मेरा भ होकर मुझे भजता है तो वह
साधु ही मानने योग्य है , क्योंिक वह यथाथर् िन यवाला है अथार्त ् उसने भली भाँित िन य कर
िलया है िक परमे र के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है ।(30)
िक्षूं भवित धमार्त्मा श च्छािन्तं िनगच्छित।
कौन्तेय ूित जानीिह न मे भ ः ूणँयित।।31।।
वह शीय ही धमार्त्मा हो जाता है और सदा रहने वाली परम शािन्त को ूा होता है । हे
अजुन
र् ! तू िन यपूवक
र् सत्य जान िक मेरा भ न नहीं होता।(31)
मां िह पाथर् व्यापािौत्य येऽिप ःयुः पापयोनयः।
ि यो वैँयाःतथा शूिाःतेऽिप यािन्त परां गितम।।
् 32।।
हे अजुन
र् ! ी, वैँय, शूि तथा पापयोिन-चाण्डालािद जो कोई भी हों, वे भी मेरे शरण
होकर परम गित को ूा होते हैं ।(32)
िकं पुनॄार् णाः पुण्या भ ा राजषर्यःतथा।
अिनत्यमसुखं लोकिममं ूाप्य भजःव माम।।
् 33।।
िफर इसमें तो कहना ही क्या है , जो पुण्यशील ॄा ण तथा राजिषर् भगवान मेरी शरण
होकर परम गित को ूा होते हैं । इसिलए तू सुखरिहत और क्षणभंगरु इस मनुंय शरीर को ूा
होकर िनरन्तर मेरा ही भजन कर।(33)
मन्मना भव मद् भ ो म ाजी मां नमःकुरु।
मामेवैंयिस युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।।34।।
मुझमें मनवाला हो, मेरा भ बन, मेरा पूजनकरने वाला हो, मुझको ूणाम कर। इस
ूकार आत्मा को मुझमें िनयु करके मेरे परायण होकर तू मुझको ही ूा होगा।(34)
ॐ तत्सिदित ौीमद् भगवद् गीतासूपिनषत्सु ॄ िव ायां योगशा े
ौीकृ ंणाजुन
र् संवादे राजिव ाराजगु योगो नाम नवमोऽध्यायः।।9।।
इस ूकार उपिनषद, ॄ िव ा तथा योगशा रूप ौीमद् भगवद् गीता के
ौीकृ ंण-अजुन
र् संवाद में 'राजिव ाराजगु योग' नामक नौवाँ अध्याय संपूणर् हआ।।
ु 9।।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

(अनुबम)

दसवें अध्याय का माहात्म्य


भगवान िशव कहते हैं – सुन्दरी ! अब तुम दशम अध्याय के माहात्म्य की परम पावन
कथा सुनो, जो ःवगर्रूपी दगर्
ु में जाने के िलए सुन्दर सोपान और ूभाव की चरम सीमा है ।
काशीपुरी में धीरबुि नाम से िवख्यात एक ॄा ण था, जो मुझमें िूय नन्दी के समान भि
रखता था। वह पावन कीितर् के अजर्न में तत्पर रहने वाला, शान्तिच और िहं सा, कठोरता और
दःसाहस
ु से दरू रहने वाला था। िजतेिन्िय होने के कारण वह िनवृि मागर् में िःथत रहता था।
उसने वेदरूपी समुि का पार पा िलया था। वह सम्पूणर् शा ों के तात्पयर् का ज्ञाता था। उसका
िच सदा मेरे ध्यान में संलग्न रहता था। वह मन को अन्तरात्मा में लगाकर सदा आत्मत व
का साक्षात्कार िकया करता था, अतः जब वह चलने लगता, तब मैं ूेमवश उसके पीछे दौड़-
दौड़कर उसे हाथ का सहारा दे ता रहता था।
यह दे ख मेरे पाषर्द भृिं गिरिट ने पूछाः भगवन ! इस ूकार भला, िकसने आपका दशर्न
िकया होगा? इस महात्मा ने कौन-सा तप, होम अथवा जप िकया है िक ःवयं आप ही पग-पग
पर इसे हाथ का सहारा दे ते रहते हैं ?
भृिं गिरिट का यह ू सुनकर मैंने इस ूकार उ र दे ना आरम्भ िकया। एक समय की
बात है Ð कैलास पवर्त के पा भ
र् ागम में पुन्नाग वन के भीतर चन्िमा की अमृतमयी िकरणों से
धुली हई
ु भूिम में एक वेदी का आौय लेकर मैं बैठा हु आ था। मेरे बैठने के क्षण भर बाद ही
सहसा बड़े जोर की आँधी उठी वहाँ के वृक्षों की शाखाएँ नीचे-ऊपर होकर आपस में टकराने लगीं,
ू -टटकर
िकतनी ही टहिनयाँ टट ू िबखर गयीं। पवर्त की अिवचल छाया भी िहलने लगी। इसके बाद
वहाँ महान भयंकर शब्द हआ
ु , िजससे पवर्त की कन्दराएँ ूितध्विनत हो उठीं। तदनन्तर आकाश
से कोई िवशाल पक्षी उतरा, िजसकी कािन्त काले मेघ के समान थी। वह कज्जल की रािश,
अन्धकार के समूह अथवा पंख कटे हए
ु काले पवर्त-सा जान पड़ता था। पैरों से पृथ्वी का सहारा
लेकर उस पक्षी ने मुझे ूणाम िकया और एक सुन्दर नवीन कमल मेरे चरणों में रखकर ःप
वाणी में ःतुित करनी आरम्भ की।
पक्षी बोलाः दे व ! आपकी जय हो। आप िचदानन्दमयी सुधा के सागर तथा जगत के
पालक हैं । सदा सदभावना से यु और अनासि की लहरों से उल्लिसत हैं । आपके वैभव का
कहीं अन्त नहीं है । आपकी जय हो। अ ै तवासना से पिरपूणर् बुि के ारा आप िऽिवध मलों से
रिहत हैं । आप िजतेिन्िय भ ों को अधीन अिव ामय उपािध से रिहत, िनत्यमु , िनराकार,
िनरामय, असीम, अहं कारशून्य, आवरणरिहत और िनगुण
र् हैं । आपके भयंकर ललाटरूपी महासपर्
की िवषज्वाला से आपने कामदे व को भःम िकया। आपकी जय हो। आप ूत्यक्ष आिद ूमाणों से
दरू होते हए
ु भी ूामाण्यःवरूप हैं । आपको बार-बार नमःकार है । चैतन्य के ःवामी तथा
िऽभुवनरूपधारी आपको ूणाम है । मैं ौे योिगयों ारा चुिम्बत आपके उन चरण-कमलों की
वन्दना करता हँू , जो अपार भव-पाप के समुि से पार उतरने में अदभुत शि शाली हैं । महादे व !
साक्षात बृहःपित भी आपकी ःतुित करने की धृ ता नहीं कर सकते। सहॐ मुखोंवाले नागराज
शेष में भी इतना चातुयर् नहीं है िक वे आपके गुणों का वणर्न कर सकें, िफर मेरे जैसे छोटी
बुि वाले पक्षी की तो िबसात ही क्या है ?
उस पक्षी के ारा िकये हए
ु इस ःतोऽ को सुनकर मैंने उससे पूछाः "िवहं गम ! तुम कौन
हो और कहाँ से आये हो? तुम्हारी आकृ ित तो हं स जैसी है , मगर रं ग कौए का िमला है । तुम
िजस ूयोजन को लेकर यहाँ आये हो, उसे बताओ।"
पक्षी बोलाः दे वेश ! मुझे ॄ ा जी का हं स जािनये। धूजट
र् े ! िजस कमर् से मेरे शरीर में
इस समय कािलमा आ गयी है , उसे सुिनये। ूभो ! य िप आप सवर्ज्ञ हैं , अतः आप से कोई भी
बात िछपी नहीं है तथािप यिद आप पूछते हैं तो बतलाता हँू । सौरा (सूरत) नगर के पास एक

सुन्दर सरोवर है , िजसमें कमल लहलहाते रहते हैं । उसी में से बालचन्िमा के टकड़े जैसे ेत
मृणालों के मास लेकर मैं तीो गित से आकाश में उड़ रहा था। उड़ते-उड़ते सहसा वहाँ से पृथ्वी
पर िगर पड़ा। जब होश में आया और अपने िगरने का कोई कारण न दे ख सका तो मन ही मन
सोचने लगाः 'अहो ! यह मुझ पर क्या आ पड़ा? आज मेरा पतन कैसे हो गया?' पके हए
ु कपूर
के समान मेरे ेत शरीर में यह कािलमा कैसे आ गयी? इस ूकार िविःमत होकर मैं अभी
िवचार ही कर रहा था िक उस पोखरे के कमलों में से मुझे ऐसी वाणी सुनाई दीः 'हं स ! उठो, मैं
तुम्हारे िगरने और काले होने का कारण बताती हँू ।' तब मैं उठकर सरोवर के बीच गया और वहाँ
पाँच कमलों से यु एक सुन्दर कमिलनी को दे खा। उसको ूणाम करके मैंने ूदिक्षणा की और
अपने पतन का कारण पूछा।
कमिलनी बोलीः कलहं स ! तुम आकाशमागर् से मुझे लाँघकर गये हो, उसी पातक के
पिरणामवश तुम्हें पृथ्वी पर िगरना पड़ा है तथा उसी के कारण तुम्हारे शरीर में कािलमा िदखाई
दे ती है । तुम्हें िगरा दे ख मेरे हृदय में दया भर आयी और जब मैं इस मध्यम कमल के ारा
बोलने लगी हँू , उस समय मेरे मुख से िनकली हई
ु सुगन्ध को सूघ
ँ कर साठ हजार भँवरे
ःवगर्लोक को ूा हो गये हैं । पिक्षराज ! िजस कारण मुझमें इतना वैभव Ð ऐसा ूभाव आया
है , उसे बतलाती हँू , सुनो। इस जन्म से पहले तीसरे जन्म में मैं इस पृथ्वी पर एक ॄा ण की
कन्या के रूप में उत्पन्न हई
ु थी। उस समय मेरा नाम सरोजवदना था। मैं गुरुजनों की सेवा
करती हई
ु सदा एकमाऽ पितोत के पालन में तत्पर रहती थी। एक िदन की बात है , मैं एक
मैना को पढ़ा रही थी। इससे पितसेवा में कुछ िवलम्ब हो गया। इससे पितदे वता कुिपत हो गये
और उन्होंने शाप िदयाः 'पािपनी ! तू मैना हो जा।' मरने के बाद य िप मैं मैना ही हई
ु , तथािप
पाितोत्य के ूसाद से मुिनयों के ही घर में मुझे आौय िमला। िकसी मुिनकन्या ने मेरा पालन-
पोषण िकया। मैं िजनके घर में थी, वे ॄा ण ूितिदन िवभूित योग के नाम से ूिस गीता के
दसवें अध्याय का पाठ करते थे और मैं उस पापहारी अध्याय को सुना करती थी। िवहं गम !
काल आने पर मैं मैना का शरीर छोड़ कर दशम अध्याय के माहात्म्य से ःवगर् लोक में अप्सरा
हई।
ु मेरा नाम प ावती हआ
ु और मैं प ा की प्यारी सखी हो गयी।
एक िदन मैं िवमान से आकाश में िवचर रही थी। उस समय सुन्दर कमलों से सुशोिभत
इस रमणीय सरोवर पर मेरी दृि पड़ी और इसमें उतर कर ज्यों हीं मैंने जलबीड़ा आरम्भ की,
त्यों ही दवार्
ु सा मुिन आ धमके। उन्होंने व हीन अवःथा में मुझे दे ख िलया। उनके भय से मैंने
ःवयं ही कमिलनी का रूप धारण कर िलया। मेरे दोनों पैर दो कमल हए।
ु दोनों हाथ भी दो
कमल हो गये और शेष अंगों के साथ मेरा मुख भी कमल का हो गया। इस ूकार मैं पाँच
कमलों से यु हई।
ु मुिनवर दवार्
ु सा ने मुझे दे खा उनके नेऽ बोधािग्न से जल रहे थे। वे बोलेः
'पािपनी ! तू इसी रूप में सौ वष तक पड़ी रह।' यह शाप दे कर वे क्षणभर में अन्तधार्न हो गये
कमिलनी होने पर भी िवभूितयोगाध्याय के माहात्म्य से मेरी वाणी लु नहीं हई
ु है । मुझे लाँघने
माऽ के अपराध से तुम पृथ्वी पर िगरे हो। पक्षीराज ! यहाँ खड़े हए
ु तुम्हारे सामने ही आज मेरे
शाप की िनवृि हो रही है , क्योंिक आज सौ वषर् पूरे हो गये। मेरे ारा गाये जाते हए
ु , उस उ म
अध्याय को तुम भी सुन लो। उसके ौवणमाऽ से तुम भी आज मु हो जाओगे।
यह कहकर पि नी ने ःप तथा सुन्दर वाणी में दसवें अध्याय का पाठ िकया और वह
मु हो गयी। उसे सुनने के बाद उसी के िदये हए
ु इस कमल को लाकर मैंने आपको अपर्ण
िकया है ।
इतनी कथा सुनाकर उस पक्षी ने अपना शरीर त्याग िदया। यह एक अदभुत-सी घटना
हई।
ु वही पक्षी अब दसवें अध्याय के ूभाव से ॄा ण कुल में उत्पन्न हआ
ु है । जन्म से ही
अभ्यास होने के कारण शैशवावःथा से ही इसके मुख से सदा गीता के दसवें अध्याय का
उच्चारण हआ
ु करता है । दसवें अध्याय के अथर्-िचन्तन का यह पिरणाम हआ
ु है िक यह सब
भूतों में िःथत शंख-चबधारी भगवान िवंणु का सदा ही दशर्न करता रहता है । इसकी ःनेहपूणर्
दृि जब कभी िकसी दे हधारी क शरीर पर पड़ जाती है , तब वह चाहे शराबी और ॄ हत्यारा ही
क्यों न हो, मु हो जाता है तथा पूवज
र् न्म में अभ्यास िकये हए
ु दसवें अध्याय के माहात्म्य से
इसको दलर्
ु भ त वज्ञान ूा हआ
ु तथा इसने जीवन्मुि भी पा ली है । अतः जब यह राःता
चलने लगता है तो मैं इसे हाथ का सहारा िदये रहता हँू । भृिं गिरटी ! यह सब दसवें अध्याय की
ही महामिहमा है ।
पावर्ती ! इस ूकार मैंने भृिं गिरिट के सामने जो पापनाशक कथा कही थी, वही तुमसे भी
कही है । नर हो या नारी, अथवा कोई भी क्यों न हो, इस दसवें अध्याय के ौवण माऽ से उसे
सब आौमों के पालन का फल ूा होता है ।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

(अनुबम)

दसवाँ अध्यायः िवभूितयोग


सात से लेकर नौवें अध्याय तक िवज्ञानसिहत ज्ञान का जो वणर्न िकया है वह बहत

गंभीर होने से िफर से उस िवषय को ःप रूप से समझाने के िलए इस अध्याय का अब आरम्भ
करते हैं । यहाँ पर पहले ोक में भगवान पूव िवषय का िफर से वणर्न करने की ूितज्ञा करते
हैं -

।। अथ दशमोऽध्यायः ।।
ौीभगवानुवाच
भूय एव महाबाहो ौृणु मे परमं वचः।
य ेऽहं ूीयमाणाय वआयािम िहतकाम्यया।।1।।
ौी भगवान बोलेः हे महाबाहो ! िफर भी मेरे परम रहःय और ूभावयु वचन को सुन,
िजसे मैं तुझ अितशय ूेम रखनेवाले के िलए िहत की इच्छा से कहँू गा।(1)

न मे िवदःु सुरगणाः ूभवं न महषर्यः।


अहमािदिहर् दे वानां महष णां च सवर्शः।।2।।

मेरी उत्पि को अथार्त ् लीला से ूकट होने को न दे वता लोग जानते हैं और न महिषर्जन
ही जानते हैं , क्योंिक मैं सब ूकार से दे वताओं का और महिषर्यों का भी आिदकरण हँू ।(2)

यो मामजमनािदं च वेि लोकमहे रम।्


असंमढ
ू ः स मत्यषु सवर्पापैः ूमुच्यते।।3।।

जो मुझको अजन्मा अथार्त ् वाःतव में जन्मरिहत, अनािद और लोकों का महान ई र,


त व से जानता है , वह मनुंयों में ज्ञानवान पुरुष सम्पूणर् पापों से मु हो जाता है ।(3)

बुि ज्ञार्नमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः।


सुखं दःखं
ु भवोऽभावो भयं चाभयमेव च।।4।।
अिहं सा समता तुि ःतपो दानं यशोऽयशः।
भविन्त भावा भूतानां म एव पृथिग्वधाः।।5।।

िन य करने की शि , यथाथर् ज्ञान, असम्मूढता, क्षमा, सत्य, इिन्ियों का वश में करना,


मन का िनमह तथा सुख-दःख
ु , उत्पि -ूलय और भय-अभय तथा अिहं सा, समता, संतोष, तप,
दान, कीितर् और अपकीितर् Ð ऐसे ये ूािणयों के नाना ूकार के भाव मुझसे ही होते हैं ।(4,5)

महषर्यः स पूव चत्वारो मनवःतथा।


मद् भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः ूजाः।।6।।

सात महिषर्जन, चार उनसे भी पूवर् में होने वाले सनकािद तथा ःवायम्भुव आिद चौदह
मनु Ð ये मुझमें भाव वाले सब के सब मेरे संकल्प से उत्पन्न हए
ु हैं , िजनकी संसार में यह
सम्पूणर् ूजा है ।(6)

एतां िवभूितं योगं च मम यो वेि त वतः।


सोऽिवकम्पेन योगेन युज्यते नाऽ संशयः।।7।।
जो पुरुष मेरी इस परमै यर्रूप िवभूित को और योगशि को त व से जानता है , वह
िन ल भि योग से यु हो जाता है Ð इसमें कुछ भी संशय नहीं है ।(7)

अहं सवर्ःय ूभवो म ः सव ूवतर्ते।


इित मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमिन्वताः।।8।।

मैं वासुदेव ही सम्पूणर् जगत की उत्पि का कारण हँू और मुझसे ही सब जगत चे ा


करता है , इस ूकार समझकर ौ ा और भि से यु बुि मान भ जन मुझ परमे र को ही
िनरन्तर भजते हैं ।(8)

मिच्च ा मद् गतूाणा बोधयन्तः परःपरम।्


कथयन्त मां िनत्यं तुंयिन्त च रमिन्त च ।।9।।

िनरन्तर मुझ में मन लगाने वाले और मुझमे ही ूाणों को अपर्ण करने वाले भ जन
मेरी भि की चचार् के ारा आपस में मेरे ूभाव को जानते हए
ु तथा गुण और ूभावसिहत मेरा
कथन करते हए
ु ही िनरन्तर सन्तु होते हैं , और मुझ वासुदेव मे ही िनरन्तर रमण करते हैं ।(9)

तेषां सततयु ानां भजतां – ूीतीपूवक


र् म ्।
ददािम बुि योगं तं येन मामुपयािन्त ते।।10।।

उन िनरन्तर मेरे ध्यान आिद में लगे हए


ु और ूेमपूवक
र् भजने वाले भ ों को मैं वह
त वज्ञानरूप योग दे ता हँू , िजससे वे मुझको ही ूा होते हैं ।(10)

तेषामेवानुकम्पाथर्महमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावःथो ज्ञानदीपेन भाःवता।।11।।

हे अजुन
र् ! उनके ऊपर अनुमह करने के िलए उनके अन्तःकरण में िःथत हआ
ु मैं ःवयं
ही उनके अज्ञान जिनत अन्धकार को ूकाशमय त वज्ञानरूप दीपक के ारा न कर दे ता
हँू ।(11)

अजुन
र् उवाच
परं ॄ परं धाम पिवऽं परमं भवान।्
पुरुषं शा तं िदव्यमािददे वमजं िवभुम।।
् 12।।
आहःत्वामृ
ु षयः सव दे विषर्नार्रदःतथा।
अिसतो दे वलो व्यासः ःवयं चैव ॄवीिष मे।।13।।

अजुन
र् बोलेः आप परम ॄ , परम धाम और परम पिवऽ हैं , क्योंिक आपको सब ऋिषगण
सनातन, िदव्य पुरुष और दे वों का भी आिददे व, अजन्मा और सवर्व्यापी कहते हैं । वैसे ही दे विषर्
नारद तथा अिसत और दे वल ऋिष तथा महिषर् व्यास भी कहते हैं और आप भी मेरे ूित कहते
हैं ।(12,13)

सवर्मेतदृतं मन्ये यन्मां वदिस केशव।


न िह ते भगवन्व्यि ं िवददवा
ु न दानवाः।।14।।

हे केशव ! जो कुछ भी मेरे ूित आप कहते हैं , इस सबको मैं सत्य मानता हँू । हे
भगवान ! आपके लीलामय ःवरूप को न तो दानव जानते हैं और न दे वता ही।(14)

ःवयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषो म।


भूतभावन भूतेश दे वदे व जगत्पते।।15।।

हे भूतों को उत्पन्न करने वाले ! हे भूतों के ई र ! हे दे वों के दे व ! हे जगत के ःवामी!


हे पुरुषो म ! आप ःवयं ही अपने-से-अपने को जानते हैं ।(15)

व ु महर् ःयशेषेण िदव्या ात्मिवभूतयः।


यािभिवर्भिू तिभल कािनमांःत्वं व्याप्य ित िस।।16।।

इसिलए आप ही उन अपनी िदव्य िवभूितयों को सम्पूणत


र् ा से कहने में समथर् हैं , िजन
िवभूितयों के ारा आप इन सब लोकों को व्या करके िःथत हैं ।(16)

कथं िव ामहं योिगंःत्वां सदा पिरिचन्तयन।्


केषु केषु च भावेषु िचन्त्योऽिस भगवन्मया।।17।।

हे योगे र ! मैं िकस ूकार िनरन्तर िचन्तन करता हआ


ु आपको जानूँ और हे भगवन !
आप िकन-िकन भावों से मेरे ारा िचन्तन करने योग्य हैं ?(17)

िवःतेणात्मनो योगं िवभूितं च जनादर् न।


भूयः कथय तृि िहर् ौृण्वतो नािःत मेऽमृतम।।
् 18।।
हे जनादर् न ! अपनी योगशि को और िवभूित को िफर भी िवःतारपूवकर् किहए, क्योंिक
आपके अमृतमय वचनों को सुनते हए
ु मेरी तृि नहीं होती अथार्त ् सुनने की उत्कण्ठा बनी ही
रहती है ।(18)

ौीभगवानुवाच
हन्त ते कथियंयािम िदव्या ात्मिवभूतयः।
ूाधान्यतः कुरुौे नाःत्यन्तो िवःतरःय मे।।19।।
ौी भगवान बोलेः हे कुरुौे ! अब मैं जो मेरी िवभूितयाँ हैं , उनको तेरे िलए ूधानता से
कहँू गा, क्योंिक मेरे िवःतार का अन्त नहीं है ।(19)

अहमात्मा गुडाकेश सवर्भत


ू ाशयिःथतः।
अहमािद मध्यं च भूतानामन्त एव च।।20।।

हे अजुन
र् ! मैं सब भूतों के हृदय में िःथत सबका आत्मा हँू तथा सम्पूणर् भूतों का आिद,
मध्य और अन्त भी मैं ही हँू ।(20)

आिदत्यानामहं िवंणुज्य ितषां रिवरं शुमान।्


मरीिचमर्रुतामिःम नक्षऽाणामहं शशी।।21।।

मैं अिदित के बारह पुऽों में िवंणु और ज्योितयों में िकरणों वाला सूयर् हँू तथा उनचास
वायुदेवताओं का तेज और नक्षऽों का अिधपित चन्िमा हँू ।(21)

वेदानां सामवेदोऽिःम दे वानामिःम वासवः।


इिन्ियाणां मन ािःम भूतानामिःम चेतना।।22।।

मैं वेदों में सामवेद हँू , दे वों में इन्ि हँू , इिन्ियों में मन हँू और भूतूािणयों की चेतना
अथार्त ् जीवन-शि हँू ।(22)

रुिाणां शंकर ािःम िव ेशो यक्षरक्षसाम।्


वसूनां पावक ािःम मेरूः िशखिरणामहम।।
् 23।।

मैं एकादश रूिों में शंकर हँू और यक्ष तथा राक्षसों में धन का ःवामी कुबेर हँू । मैं आठ
वसुओं में अिग्न हँू और िशखरवाले पवर्तों में सुमेरू पवर्त हँू ।(23)

पुरोधसां च मुख्यं मां िवि पाथर् बृहःपितम।्


सेनानीनामहं ःकन्दः सरसामिःम सागरः।।24।।

पुरोिहतों में मुिखया बृहःपित मुझको जान। हे पाथर् ! मैं सेनापितयों में ःकन्द और
जलाशयों में समुि हँू ।(24)

महष णां भृगरु हं िगरामःम्येकमक्षरम।्


यज्ञानां जपयज्ञोऽिःम ःथावराणां िहमालयः।।25।।

मैं महिषर्यों में भृगु और शब्दों में एक अक्षर अथार्त ् ओंकार हँू । सब ूकार के यज्ञों में
जपयज्ञ और िःथर रहने वालों में िहमालय पवर्त हँू ।(25)

अ त्थः सवर्वक्ष
ृ ाणां दे वष णां च नारदः।
गन्धवार्णां िचऽरथः िस ानां किपलो मुिनः।।26।।

मैं सब वृक्षों में पीपल का वृक्ष, दे विषर्यों में नारद मुिन, गन्धव में िचऽरथ और िस ों में
किपल मुिन हँू ।(26)

उच्चैःौवसम ानां िवि माममृतोद् भवम।्


ऐरावतं गजेन्िाणां नराणां च नरािधपम।।
् 27।।

घोड़ों में अमृत के साथ उत्पन्न होने वाला उच्चैःौवा नामक घोड़ा, ौे हािथयों में ऐरावत
नामक हाथी और मनुंयों में राजा मुझको जान।(27)

आयुधानामहं वळं धेनूनामिःम कामधुक् ।


ूजन ािःम कन्दपर्ः सपार्णािःम वासुिकः।।28।।

मैं श ों में वळ और गौओं में कामधेनु हँू । शा ो रीित से सन्तान की उत्पि का हे तु


कामदे व हँू और सप में सपर्राज वासुिक हँू ।(28)

अनन्त ािःम नागानां वरुणो यादसामहम।्


िपतृणामयर्मा चािःम यमः संयमतामहम।।
् 29।।

मैं नागों में शेषनाग और जलचरों का अिधपित वरुण दे वता हँू और िपंजरों में अयर्मा
नामक िपतर तथा शासन करने वालों में यमराज मैं हँू ।(29)
ू ाद ािःम दै त्यानां कालः कलयतामहम।्
मृगाणां च मृगेन्िोऽहं वैनतेय पिक्षणाम।।
् 30।।
मैं दै त्यों में ू ाद और गणना करने वालों का समय हँू तथा पशुओं में मृगराज िसंह और
पिक्षयों में मैं गरुड़ हँू ।(30)
पवनः पवतामिःम रामः श भृतामहम।्
झषाणां मकर ािःम ॐोतसामिःम जा वी।।31।।
मैं पिवऽ करने वालों में वायु और श धािरयों में ौीराम हँू तथा मछिलयों में मगर हँू
और निदयों में ौीभागीरथी गंगाजी हँू ।(31)

सगार्णामािदरन्त मध्यं चैवाहमजुन


र् ।
अध्यात्मिव ा िव ानां वादः ूवदतामहम।।
् 32।।

हे अजुन
र् ! सृि यों का आिद और अन्त तथा मध्य भी मैं ही हँू । मैं िव ाओं में
अध्यात्मिव ा अथार्त ् ॄ िव ा और परःपर िववाद करने वालों का त व-िनणर्य के िलए िकया
जाने वाला वाद हँू ।(32)

अक्षराणामकारोऽिःम न् ः सामािसकःय च।
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं िव तोमुखः।।33।।

मैं अक्षरों में अकार हँू और समासों में न् नामक समास हँू । अक्षयकाल अथार्त ् काल का
भी महाकाल तथा सब ओर मुखवाला, िवराटःवरूप, सबका धारण-पोषण करने वाला भी मैं ही
हँू ।(33)

मृत्युः सवर्हर ाहमुद् भव भिवंयताम।्


कीितर्ः ौीवार्क्च नारीणां ःमृितमधा धृितः क्षमा।।34।।

मैं सबका नाश करने वाला मृत्यु और उत्पन्न होने वालों का उत्पि हे तु हँू तथा ि यों
में कीितर्, ौी, वाक् , ःमृित, मेधा, धृित और क्षमा हँू ।(34)

बृहत्साम तथा साम्नां गायऽी छन्दसामहम।्


मासानां मागर्शीष ऽहमृतूनां कुसुमाकरः।।35।।

तथा गायन करने योग्य ौुितयों में मैं बृहत्साम और छन्दों में गायऽी छन्द हँू तथा
महीनों में मागर्शीषर् और ऋतुओं में वसन्त मैं हँू ।(36)

ू ं छलयतामिःम तेजःतेजिःवनामहम।्
जयोऽिःम व्यवसायोऽिःम स वं स ववतामहम।।
् 36।।

मैं छल करने वालों में जुआ और ूभावशाली पुरुषों का ूभाव हँू । मैं जीतने वालों का
िवजय हँू , िन य करने वालों का िन य और साि वक पुरुषों का साि वक भाव हँू ।(36)

वृंणीनां वासुदेवोऽिःम पाण्डवानां धनंजयः।


मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना किवः।।37।।

वृिंणवंिशयों में वासुदेव अथार्त ् मैं ःवयं तेरा सखा, पाण्डवों में धनंजय अथार्त ् तू, मुिनयों
में वेदव्यास और किवयों में शुबाचायर् किव भी मैं ही हँू ।(37)

दण्डो दमयतामिःम नीितरिःम िजगीषताम।्


मौनं चैवािःम गु ानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम।।
् 38।।

मैं दमन करने वालों का दण्ड अथार्त ् दमन करने की शि हँू , जीतने की इच्छावालों की
नीित हँू , गु रखने योग्य भावों का रक्षक मौन हँू और ज्ञानवानों का त वज्ञान मैं ही हँू ।(38)

यच्चािप सवर्भत
ू ानां बीजं तदहमजुन
र् ।
न तदिःत िवना यत्ःयान्मया भूतं चराचरम।।
् 39।।

और हे अजुन
र् ! जो सब भूतों की उत्पि का कारण है , वह भी मैं ही हँू , क्योंिक ऐसा चर
और अचर कोई भी भूत नहीं है , जो मुझसे रिहत हो।(39)

नान्तोऽिःत मम िदव्यानां िवभूतीनां परं तप।


एष तू े शतः ूो ो िवभूतेिवर्ःतरो मया।।40।।

हे परं तप ! मेरी िदव्य िवभूितयों का अन्त नहीं है , मैंने अपनी िवभूितयों का यह िवःतार
तो तेरे िलए एकदे श से अथार्त ् संक्षेप से कहा है ।(40)

य ि भूितमत्स वं ौीमदिजर्
ू तमेव वा।
त दे वावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम।।
् 41।।

जो-जो भी िवभूितयु अथार्त ् ऐ यर्यु , कािन्तयु और शि यु वःतु है , उस उसको तू


मेरे तेज के अंश की ही अिभव्यि जान(41)
अथवा बहनै
ु तेन िकं ज्ञातेन तवाजुन
र् ।
िव भ्याहिमदं कृ त्ःनमेकांशेन िःथतो जगत।।
् 42।।

अथवा हे अजुन
र् ! इस बहत
ु जानने से तेरा क्या ूयोजन है ? मैं इस सम्पूणर् जगत को
अपनी योगशि के एक अंशमाऽ से धारण करके िःथत हँू ।(42)
ॐ तत्सिदित ौीमद् भगवद् गीतासूपिनषत्सु ॄ िव ायां योगशा े
ौीकृ ंणाजुन
र् संवादे िवभूितयोगो नाम दशमोऽध्यायः।।10।।
इस ूकार उपिनषद, ॄ िव ा तथा योगशा रूप ौीमद् भगवद् गीता के
ौीकृ ंण-अजुन
र् संवाद में 'िवभूितयोग' नामक दसवाँ अध्याय संपूणर् हआ।

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
(अनुबम)

ग्यारहवें अध्याय का माहात्म्य


ौी महादे वजी कहते हैं – िूये ! गीता के वणर्न से सम्बन्ध रखने वाली कथा और
िव रूप अध्याय के पावन माहात्म्य को ौवण करो। िवशाल नेऽों वाली पावर्ती ! इस अध्याय के
माहात्म्य का पूरा-पूरा वणर्न नहीं िकया जा सकता। इसके सम्बन्ध में सहॐों कथाएँ हैं । उनमें से
एक यहाँ कही जाती है । ूणीता नदी के तट पर मेघंकर नाम से िवख्यात एक बहत
ु बड़ा नगर
है । उसके ूाकार (चारदीवारी) और गोपुर ( ार) बहत
ु ऊँचे हैं । वहाँ बड़ी-बड़ी िवौामशालाएँ हैं ,
िजनमें सोने के खम्भे शोभा दे रहे हैं । उस नगर में ौीमान, सुखी, शान्त, सदाचारी तथा
िजतेिन्िय मनुंयों का िनवास है । वहाँ हाथ में शारं ग नामक धनुष धारण करने वाले जगदी र
भगवान िवंणु िवराजमान हैं । वे परॄ के साकार ःवरूप हैं , संसार के नेऽों को जीवन ूदान
करने वाले हैं । उनका गौरवपूणर् ौीिवमह भगवती लआमी के नेऽ-कमलों ारा पूिजत होता है ।
भगवान की वह झाँकी वामन-अवतार की है । मेघ के समान उनका ँयामवणर् तथा कोमल
आकृ ित है । वक्षःथल पर ौीवत्स का िच शोभा पाता है । वे कमल और वनमाला से सुशोिभत
हैं । अनेक ूकार के आभूषणों से सुशोिभत हो भगवान वामन र यु समुि के सदृश जान पड़ते
हैं । पीताम्बर से उनके ँयाम िवमह की कािन्त ऐसी ूतीत होती है , मानो चमकती हई
ु िबजली से
िघरा हआ
ु िःनग्ध मेघ शोभा पा रहा हो। उन भगवान वामन का दशर्न करके जीव जन्म और
संसार के बन्धन से मु हो जाता है । उस नगर में मेखला नामक महान तीथर् है , िजसमें ःनान
करके मनुंय शा त वैकुण्ठधाम को ूा होता है । वहाँ जगत के ःवामी करुणासागर भगवान
नृिसंह का दशर्न करने से मनुंय के सात जन्मों के िकये हए ु
ु घोर पाप से छटकारा पा जाता है ।
जो मनुंय मेखला में गणेशजी का दशर्न करता है , वह सदा दःतर
ु िवघ्नों से पार हो जाता है ।
उसी मेघंकर नगर में कोई ौे ॄा ण थे, जो ॄ चयर्परायण, ममता और अहं कार से
रिहत, वेद शा ों में ूवीण, िजतेिन्िय तथा भगवान वासुदेव के शरणागत थे। उनका नाम
सुनन्द था। िूये ! वे शारं ग धनुष धारण करने वाले भगवान के पास गीता के ग्यारहवें अध्याय-
िव रूपदशर्नयोग का पाठ िकया करते थे। उस अध्याय के ूभाव से उन्हें ॄ ज्ञान की ूाि हो
गयी थी। परमानन्द-संदोह से पूणर् उ म ज्ञानमयी समाधी के ारा इिन्ियों के अन्तमुख
र् हो जाने
के कारण वे िन ल िःथित को ूा हो गये थे और सदा जीवन्मु योगी की िःथित में रहते
थे। एक समय जब बृहःपित िसंह रािश पर िःथत थे, महायोगी सुनन्द ने गोदावरी तीथर् की
याऽा आरम्भ की। वे बमशः िवरजतीथर्, तारातीथर्, किपलासंगम, अ तीथर्, किपला ार, नृिसंहवन,
अिम्बकापुरी तथा करःथानपुर आिद क्षेऽों में ःनान और दशर्न करते हए
ु िववादमण्डप नामक
नगर में आये। वहाँ उन्होंने ूत्येक घर में जाकर अपने ठहरने के िलए ःथान माँगा, परन्तु कहीं
भी उन्हें ःथान नहीं िमला। अन्त में गाँव के मुिखया ने उन्हें बहत
ु बड़ी धमर्शाला िदखा दी।
ॄा ण ने सािथयों सिहत उसके भीतर जाकर रात में िनवास िकया। सबेरा होने पर उन्होंने अपने
को तो धमर्शाला के बाहर पाया, िकंतु उनके और साथी नहीं िदखाई िदये। वे उन्हें खोजने के
िलए चले, इतने में ही मामपाल (मुिखये) से उनकी भेंट हो गयी। मामपाल ने कहाः "मुिनौे !
तुम सब ूकार से दीघार्यु जान पड़ते हो। सौभाग्यशाली तथा पुण्यवान पुरुषों में तुम सबसे पिवऽ
हो। तुम्हारे भीतर कोई लोको र ूभाव िव मान है । तुम्हारे साथी कहाँ गये? कैसे इस भवन से
बाहर हए
ु ? इसका पता लगाओ। मैं तुम्हारे सामने इतना ही कहता हँू िक तुम्हारे जैसा तपःवी
मुझे दसरा
ू कोई िदखाई नहीं दे ता। िवूवर ! तुम्हें िकस महामन्ऽ का ज्ञान है ? िकस िव ा का
आौय लेते हो तथा िकस दे वता की दया से तुम्हे अलौिकक शि ूा हो गयी हैं ? भगवन !
कृ पा करके इस गाँव में रहो। मैं तुम्हारी सब ूकार से सेवा-सुौष
ू ा करूँगा।
यह कहकर मामपाल ने मुनी र सुनन्द को अपने गाँव में ठहरा िलया। वह िदन रात बड़ी
भि से उसकी सेवा टहल करने लगा। जब सात-आठ िदन बीत गये, तब एक िदन ूातःकाल
आकर वह बहत
ु दःखी
ु हो महात्मा के सामने रोने लगा और बोलाः "हाय ! आज रात में राक्षस
ने मुझ भाग्यहीन को बेटे को चबा िलया है । मेरा पुऽ बड़ा ही गुणवान और भि मान था।"
मामपाल के इस ूकार कहने पर योगी सुनन्द ने पूछाः "कहाँ है वह राक्षस? और िकस ूकार
उसने तुम्हारे पुऽ का भक्षण िकया है ?"
मामपाल बोलाः ॄ ण ! इस नगर में एक बड़ा भयंकर नरभक्षी राक्षस रहता है । वह
ूितिदन आकर इस नगर में मनुंयों को खा िलया करता था। तब एक िदन समःत नगरवािसयों
ने िमलकर उससे ूाथर्ना कीः "राक्षस ! तुम हम सब लोगों की रक्षा करो। हम तुम्हारे िलए
भोजन की व्यवःथा िकये दे ते हैं । यहाँ बाहर के जो पिथक रात में आकर नींद लेंगे, उनको खा
जाना।" इस ूकार नागिरक मनुंयों ने गाँव के (मुझ) मुिखया ारा इस धमर्शाला में भेजे हए

पिथकों को ही राक्षस का आहार िनि त िकया। अपने ूाणों की रक्षा करने के िलए उन्हें ऐसा
करना पड़ा। आप भी अन्य राहगीरों के साथ इस घर में आकर सोये थे, िकंतु राक्षस ने उन सब
को तो खा िलया, केवल तुम्हें छोड़ िदया है । ि जोतम ! तुममें ऐसा क्या ूभाव है , इस बात को
तुम्हीं जानते हो। इस समय मेरे पुऽ का एक िमऽ आया था, िकंतु मैं उसे पहचान न सका। वह
मेरे पुऽ को बहत
ु ही िूय था, िकंतु अन्य राहगीरों के साथ उसे भी मैंने उसी धमर्शाला में भेज
िदया। मेरे पुऽ ने जब सुना िक मेरा िमऽ भी उसमें ूवेश कर गया है , तब वह उसे वहाँ से ले
आने के िलए गया, परन्तु राक्षस ने उसे भी खा िलया। आज सवेरे मैंने बहत
ु दःखी
ु होकर उस
िपशाच से पूछाः "ओ द ु ात्मन ् ! तूने रात में मेरे पुऽ को भी खा िलया। तेरे पेट में पड़ा हआ

मेरा पुऽ िजससे जीिवत हो सके, ऐसा कोई उपाय यिद हो तो बता।"
राक्षस ने कहाः मामपाल ! धमर्शाला के भीतर घुसे हए
ु तुम्हारे पुऽ को न जानने के
कारण मैंने भक्षण िकया है । अन्य पिथकों के साथ तुम्हारा पुऽ भी अनजाने में ही मेरा मास
बन गया है । वह मेरे उदर में िजस ूकार जीिवत और रिक्षत रह सकता है , वह उपाय ःवयं
िवधाता ने ही कर िदया है । जो ॄा ण सदा गीता के ग्यारहवें अध्याय का पाठ करता हो, उसके
ूभाव से मेरी मुि होगी और मरे हओं
ु को पुनः जीवन ूा होगा। यहाँ कोई ॄा ण रहते हैं ,
िजनको मैंने एक िदन धमर्शाला से बाहर कर िदया था। वे िनरन्तर गीता के ग्यारहवें अध्याय
का जप िकया करते हैं । इस अध्याय के मंऽ से सात बार अिभमिन्ऽत करके यिद वे मेरे ऊपर
जल का छींटा दें तो िनःसंदेह मेरा शाप से उ ार हो जाएगा। इस ूकार उस राक्षस का संदेश
पाकर मैं तुम्हारे िनकट आया हँू ।
मामपाल बोलाः ॄ ण ! पहले इस गाँव में कोई िकसान ॄा ण रहता था। एक िदन वह
अगहनी के खेत की क्यािरयों की रक्षा करने में लगा था। वहाँ से थोड़ी ही दरू पर एक बहत
ु बड़ा
िग िकसी राही को मार कर खा रहा था। उसी समय एक तपःवी कहीं से आ िनकले, जो उस
राही को िलए दरू से ही दया िदखाते आ रहे थे। िग उस राही को खाकर आकाश में उड़ गया।
तब उस तपःवी ने उस िकसान से कहाः "ओ द ु हलवाहे ! तुझे िधक्कार है ! तू बड़ा ही कठोर
और िनदर् यी है । दसरे
ू की रक्षा से मुह
ँ मोड़कर केवल पेट पालने के धंधे में लगा है । तेरा जीवन
न ूाय है । अरे ! शि होते हए
ु भी जो चोर, दाढ़वाले जीव, सपर्, शऽु, अिग्न, िवष, जल, गीध,
राक्षस, भूत तथा बेताल आिद के ारा घायल हए
ु मनुंयों की उपेक्षा करता है , वह उनके वध का
फल पाता है । जो शि शाली होकर भी चोर आिद के चंगल
ु में फँसे हए ु
ु ॄा ण को छड़ाने की
चे ा नहीं करता, वह घोर नरक में पड़ता है और पुनः भेिड़ये की योिन में जन्म लेता है । जो वन
में मारे जाते हए
ु तथा िग और व्याय की दृि में पड़े हए
ु जीव की रक्षा के िलए
'छोड़ो....छोड़ो...' की पुकार करता है , वह परम गित को ूा होता है । जो मनुंय गौओं की रक्षा
के िलए व्याय, भील तथा द ु राजाओं के हाथ से मारे जाते हैं , वे भगवान िवंणु के परम पद
को ूा होते हैं जो योिगयों के िलए भी दलर्
ु भ है । सहॐ अ मेध और सौ वाजपेय यज्ञ िमलकर
शरणागत-रक्षा की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हो सकते। दीन तथा भयभीत जीव की
उपेक्षा करने से पुण्यवान पुरुष भी समय आने पर कुम्भीपाक नामक नरक में पकाया जाता है ।
तूने द ु िग के ारा खाये जाते हए
ु राही को दे खकर उसे बचाने में समथर् होते हए
ु भी जो
उसकी रक्षा नहीं की, इससे तू िनदर् यी जान पड़ता है , अतः तू राक्षस हो जा।
हलवाहा बोलाः महात्मन ् ! मैं यहाँ उपिःथत अवँय था, िकंतु मेरे नेऽ बहत
ु दे र से खेत
की रक्षा में लगे थे, अतः पास होने पर भी िग के ारा मारे जाते हए
ु इस मनुंय को मैं नहीं
जान सका। अतः मुझ दीन पर आपको अनुमह करना चािहए।
तपःवी ॄा ण ने कहाः जो ूितिदन गीता के ग्यारहवें अध्याय का जप करता है , उस
मनुंय के ारा अिभमिन्ऽत जल जब तुम्हारे मःतक पर पड़े गा, उस समय तुम्हे शाप से

छटकारा िमल जायेगा।
यह कहकर तपःवी ॄा ण चले गये और वह हलवाहा राक्षस हो गया। अतः ि जौे !
तुम चलो और ग्यारहवें अध्याय से तीथर् के जल को अिभमिन्ऽत करो िफल अपने ही हाथ से
उस राक्षस के मःतक पर उसे िछड़क दो।
मामपाल की यह सारी ूाथर्ना सुनकर ॄा ण के हृदय में करुणा भर आयी। वे 'बहत

अच्छा' कहकर उसके साथ राक्षस के िनकट गये। वे ॄा ण योगी थे। उन्होंने िव रूपदशर्न
नामक ग्यारहवें अध्याय से जल अिभमिन्ऽत करके उस राक्षस के मःतक पर डाला। गीता के
ग्यारहवें अध्याय के ूभाव से वह शाप से मु हो गया। उसने राक्षस-दे ह का पिरत्याग करके
चतुभज
ुर् रूप धारण कर िलया तथा उसने िजन सहॐों ूािणयों का भक्षण िकया था, वे भी शंख,
चब और गदा धारण िकये हए
ु चतुभज
ुर् रूप हो गये। तत्प ात ् वे सभी िवमान पर आरूढ़ हए।

इतने में ही मामपाल ने राक्षस से कहाः "िनशाचर ! मेरा पुऽ कौन है ? उसे िदखाओ।" उसके यों
कहने पर िदव्य बुि वाले राक्षस ने कहाः 'ये जो तमाल के समान ँयाम, चार भुजाधारी,
मािणक्यमय मुकुट से सुशोिभत तथा िदव्य मिणयों के बने हए
ु कुण्डलों से अलंकृत हैं , हार
पहनने के कारण िजनके कन्धे मनोहर ूतीत होते हैं , जो सोने के भुजबंदों से िवभूिषत, कमल
के समान नेऽवाले, िःनग्धरूप तथा हाथ में कमल िलए हए
ु हैं और िदव्य िवमान पर बैठकर
दे वत्व के ूा हो चुके हैं , इन्हीं को अपना पुऽ समझो।' यह सुनकर मामपाल ने उसी रूप में
अपने पुऽ को दे खा और उसे अपने घर ले जाना चाहा। यह दे ख उसका पुऽ हँ स पड़ा और इस
ूकार कहने लगा।
पुऽ बोलाः मामपाल ! कई बार तुम भी मेरे पुऽ हो चुके हो। पहले मैं तुम्हारा पुऽ था,
िकंतु अब दे वता हो गया हँू । इन ॄा ण दे वता के ूसाद से वैकुण्ठधाम को जाऊँगा। दे खो, यह
िनशाचर भी चतुभज
ुर् रूप को ूा हो गया। ग्यारहवें अध्याय के माहात्म्य से यह सब लोगों के
साथ ौीिवंणुधाम को जा रहा है । अतः तुम भी इन ॄा णदे व से गीता के ग्यारहवें अध्याय का
अध्ययन करो और िनरन्तर उसका जप करते रहो। इसमें सन्दे ह नहीं िक तुम्हारी भी ऐसी ही
उ म गित होगी। तात ! मनुंयों के िलए साधु पुरुषों का संग सवर्था दलर्
ु भ है । वह भी इस समय
तुम्हें ूा है । अतः अपना अभी िस करो। धन, भोग, दान, यज्ञ, तपःया और पूवक
र् म से
क्या लेना है ? िव रूपाध्याय के पाठ से ही परम कल्याण की ूा हो जाती है ।
पूणार्नन्दसंदोहःवरूप ौीकृ ंण नामक ॄ के मुख से कुरुक्षेऽ में अपने िमऽ अजुन
र् के
ूित जो अमृतमय उपदे श िनकला था, वही ौीिवंणु का परम ताि वक रूप है । तुम उसी का
िचन्तन करो। वह मोक्ष के िलए ूिस रसायन। संसार-भय से डरे हए
ु मनुंयों की आिध-व्यािध
का िवनाशक तथा अनेक जन्म के दःखों
ु का नाश करने वाला है । मैं उसके िसवा दसरे
ू िकसी
साधन को ऐसा नहीं दे खता, अतः उसी का अभ्यास करो।
ौी महादे व कहते हैं – यह कहकर वह सबके साथ ौीिवंणु के परम धाम को चला गया।
तब मामपाल ने ॄा ण के मुख से उस अध्याय को पढ़ा िफर वे दोनों ही उसके माहात्म्य से
िवंणुधाम को चले गये। पावर्ती ! इस ूकार तुम्हें ग्यारहवें अध्याय की माहात्म्य की कथा
सुनायी है । इसके ौवणमाऽ से महान पातकों का नाश हो जाता है ।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
(अनुबम)

ग्यारहवाँ अध्यायः िव रूपदशर्नयोग


दसवें अध्याय के सातवें ोक तक भगवान ौीकृ ंण ने अपनी िवभूित, योगशि तथा उसे
जानने के माहात्म्य का संक्षेप में वणर्न िकया है । िफर ग्यारहवें ोक तक भि योग तथा उसका
फल बताया। इस िवषय पर ोक 12 से 18 तक अजुन
र् ने भगवान की ःतुित करके िदव्य
िवभूितयों का तथा योगशि का िवःतृत वणर्न करने के िलए ूाथर्ना की है , इसिलए भगवान ौी
कृ ंण का िवःतृत वणर्न करने के िलए ूाथर्ना की है , इसिलए भगवान ौी कृ ंण ने 40वें ोक
तक अपनी िवभूितयों का वणर्न समा करके आिखर में योगशि का ूभाव बताया और समःत
ॄ ांड को अपने एक अंश से धारण िकया हआ
ु बताकर अध्याय समा िकया। यह सुनकर अजुन
र्
के मन में उस महान ःवरूप को ूत्यक्ष दे खने की इच्छा हई।
ु इस ग्यारहवें अध्याय के आरम्भ
में पहले चार ोक में भगवान की तथा उनके उपदे श की बहत
ु ूशंसा करते हए
ु अजुन
र् अपने को
िव रूप का दशर्न कराने के िलए भगवान ौीकृ ंण से ूाथर्ना करते हैं Ð

।। अथैकादशोऽध्यायः ।।
अजुन
र् उवाच
मदनुमहाय परमं गु मध्यात्मसंिज्ञतम।्
य वयो ं वचःतेन मोहोऽयं िवगतो मम।।1।।
अजुन
र् बोलेः मुझ पर अनुमह करने के िलए आपने जो परम गोपनीय अध्यात्मिवषयक
वचन अथार्त ् उपदे श कहा, उससे मेरा यह अज्ञान न हो गया है ।(1)
भवाप्ययौ िह भूतानां ौुतौ िवःतरशो मया।
त्व ः कमलपऽाक्ष माहात्म्यमिप चाव्ययम।।
् 2।।
क्योंिक हे कमलनेऽ ! मैंने आपसे भूतों की उत्पि और ूलय िवःतारपूवक
र् सुने हैं तथा
आपकी अिवनाशी मिहमा भी सुनी है ।
एवमेत थात्थ त्वमात्मानं परमे र।
ि ु िमच्छािम ते रूपमै रं पुरुषो म।।3।।
हे परमे र ! आप अपने को जैसा कहते हैं , यह ठीक ऐसा ही है परन्तु हे पुरुषो म !
आपके ज्ञान, ऐ यर्, शि , बल, वीयर् और तेज से यु ऐ यर्मय-रूप को मैं ूत्यक्ष दे खना
चाहता हँू ।(3)
मन्यसे यिद तच्छक्यं मया ि ु िमित ूभो।
योगे र ततो मे त्वं दशर्यात्मानमव्ययम।।
् 4।।
हे ूभो ! यिद मेरे ारा आपका वह रूप दे खा जाना शक्य है Ð ऐसा आप मानते हैं , तो
हे योगे र ! उस अिवनाशी ःवरूप का मुझे दशर्न कराइये।(4)
ौीभगवानुवाच
पँय मे पाथर् रूपािण शतशोऽथ सहॐशः।
नानािवधािन िदव्यािन नानावणार्कृतीिन च।।5।।
ौी भगवान बोलेः हे पाथर् ! अब तू मेरे सैंकड़ों-हजारों नाना ूकार के और नाना वणर् तथा
नाना आकृ ित वाले अलौिकक रूपों को दे ख।(5)
पँयिदत्यान्वसून ् रुिानि नौ मरुतःतथा।
बहन्यदृ
ू पूवार्िण पँया यार्िण भारत।।6।।
हे भरतवंशी अजुन
र् ! तू मुझमें आिदत्यों को अथार्त ् अिदित के ादश पुऽों को, आठ
वसुओं को, एकादश रुिों को, दोनों अि नीकुमारों को और उनचास मरुदगणों को दे ख तथा और
भी बहत
ु से पहले न दे खे हए
ु आ यर्मय रूपों को दे ख।(6)
इहै कःथं जगत्कृ त्ःनं पँया सचराचरम।्
मम दे हे गुडाकेश यच्चान्यद्ि ु िमच्छिस।।7।।
हे अजुन
र् ! अब इस मेरे शरीर में एक जगह िःथत चराचरसिहत सम्पूणर् जगत को दे ख
तथा और भी जो कुछ दे खना चाहता है सो दे ख।(7)
न तु मां शक्यसे ि ु मनेनैव ःवचक्षुषा।
िदव्यं ददािम ते चक्षुः पँय मे योगमै रम।।
् 8।।
परन्तु मुझको तू इन अपने ूाकृ त नेऽों ारा दे खने में िनःसंदेह समथर् नहीं है । इसी से मैं
तुझे िदव्य अथार्त ् अलौिकक चक्षु दे ता हँू । इससे तू मेरी ई रीय योगशि को दे ख।(8)

संजय उवाच
एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगे रो हिरः।
दशर्यामास पाथार्य परमं रूपमै रम।।
् 9।।
अनेकवक्ऽनयनमनेका तदशर्
ु नम।्
अनेकिदव्याभरणं िदव्यानेको तायुधम।।
् 10।।
िदव्यमाल्याम्बरधरं िदव्यगन्धानुलेपनम।्
सवार् यर्मयं दे वमनन्तं िव तोमुखम।।
् 11।।
संजय बोलेः हे राजन ! महायोगे र और सब पापों के नाश करने वाले भगवान ने इस
ूकार कहकर उसके प ात ् अजुन
र् को परम ऐ यर्यु िदव्य ःवरूप िदखलाया। अनेक मुख और
नेऽों से यु , अनेक अदभुत दशर्नोंवाले, बहत
ु से िदव्य भूषणों से यु और बहत
ु से िदव्य श ों
को हाथों में उठाये हए
ु , िदव्य माला और व ों को धारण िकये हए
ु और िदव्य गन्ध का सारे
शरीर में लेप िकये हए
ु , सब ूकार के आ य से यु , सीमारिहत और सब ओर मुख िकये हए

िवराटःवरूप परमदे व परमे र को अजुन
र् ने दे खा। (9,10,11)
िदिव सूयस
र् हॐःय भवे ग
ु पदित्थता।

यिद भाः सदृशी सा ःयाद् भासःतःय महात्मनः।।12।।
आकाश में हजार सूय के एक साथ उदय होने से उत्पन्न जो ूकाश हो, वह भी उस
िव रूप परमात्मा के ूकाश के सदृश कदािचत ् ही हो।(12)
तऽैकःथं जगत्कृ त्ःनं ूिवभ मनेकधा।
अपशय े वदे वःय शरीरे पाण्डवःतदा।।13।।
पाण्डु पुऽ अजुन
र् ने उस समय अनेक ूकार से िवभ अथार्त ् पृथक-पृथक, सम्पूणर् जगत
को दे वों के दे व ौीकृ ंण भगवान के उस शरीर में एक जगह िःथत दे खा।(13)
ततः स िवःमयािव ो हृ रोमा धनंजयः।
ूणम्य िशरसा दे वं कृ तांजिलरभाषत।।14।।
उसके अनन्तर वे आ यर् से चिकत और पुलिकत शरीर अजुन
र् ूकाशमय िव रूप
परमात्मा को ौ ा-भि सिहत िसर से ूणाम करके हाथ जोड़कर बोलेः।(14)
अजुन
र् उवाच
पँयािम दे वांःतव दे व दे हे
सवार्ःतथा भूतिवशेषसंघान।्
ॄ ाणमीशं कमलासनःथ-
मृषीं सवार्नुरगां िदव्यान।।
् 15।।
अजुन
र् बोलेः हे दे व ! मैं आपके शरीर में सम्पूणर् दे वों को तथा अनेक भूतों के समुदायों
को कमल के आसन पर िवरािजत ॄ ा को, महादे व को और सम्पूणर् ऋिषयो को तथा िदव्य सप
को दे खता हँू ।(15)
अनेकबाहदरवक्ऽने
ू ऽं
पँयािम त्वां सवर्तोऽनन्तरूपम।्
नान्तं न मध्यं न पुनःतवािदं
पँयािम िव े र िव रूप।।16।।
हे सम्पूणर् िव के ःवािमन ् ! आपको अनेक भुजा, पेट, मुख और नेऽों से यु तथा सब
ओर से अनन्त रूपों वाला दे खता हँू । हे िव रूप ! मैं आपके न तो अन्त को दे खता हँू , न मध्य
को और न आिद को ही।(16)
िकरीिटनं गिदनं चिबणं च
तेजोरािशं सवर्तो दीि मन्तम।्
पँयािम त्वां दिनर्
ु रीआयं समन्ता-
ी ानलाकर् िु तमूमेयम।।
् 17।।
आपको मैं मुकुटयु , गदायु और चबयु तथा सब ओर से ूकाशमान तेज के पुंज,
ूज्विलत अिग्न और सूयर् के सदृश ज्योितयु , किठनता से दे खे जाने योग्य और सब ओर से
अूमेयःवरूप दे खता हँू ।(17)
त्वमक्षरं परमं वेिदतव्यं
त्वमःय िव ःय परं िनधानम।्
त्वमव्ययः शा तधमर्गो ा
सनातनःत्वं पुरुषो मतो मे।।18।।
आप ही जानने योग्य परम अक्षर अथार्त ् परॄ परमात्मा हैं , आप ही इस जगत के परम
आौय हैं , आप ही अनािद धमर् के रक्षक हैं और आप ही अिवनाशी सनातन पुरुष हैं । ऐसा मेरा
मत है ।(18)
अनािदमध्यान्तमनन्तवीयर्-
मनन्तबाहंु शिशसूयन
र् ेऽम।्
पँयािम त्वां दी हताशवक्ऽं

ःवतेजसा िव िमदं तपन्तम।।
् 19।।
आपको आिद, अन्त और मध्य से रिहत, अनन्त सामथ्यर् से यु , अनन्त भुजावाले,
चन्ि-सूयरू
र् प नेऽोंवाले, ूज्जविलत अिग्नरूप मुखवाले और अपने तेज से इस जगत को संत
करते हए
ु दे खता हँू ।(19)
ावापृिथव्योिरदमन्तरं िह
व्या ं त्वयैकेन िदश सवार्ः।
दृंट्वादभुतं रूपमुमं तवेदं
लोकऽयं ूव्यिथतं महात्मन।।
् 20।।
हे महात्मन ् ! यह ःवगर् और पृथ्वी के बीच का सम्पूणर् आकाश तथा सब िदशाएँ एक
आपसे ही पिरपूणर् हैं तथा आपके इस अलौिकक और भयंकर रूप को दे खकर तीनों लोक अित
व्यथा को ूा हो रहे हैं ।(20)

अमी िह त्वां सुरसंघा िवशिन्त


केिचद् भीताः ूांजलयो गृणिन्त।
ःवःतीत्युक्त्वा महिषर्िस संघाः
ःतुविन्त त्वां ःतुितभीः पुंकलािभः।।
वे ही दे वताओं के समूह आपमें ूवेश करते है और कुछ भयभीत होकर हाथ जोड़े आपके
नाम और गुणों का उच्चारण करते हैं तथा महिषर् और िस ों के समुदाय 'कल्याण हो' ऐसा
कहकर उ म ःतोऽों ारा आपकी ःतुित करते हैं ।(21)
रूिािदत्या वसवो ये च साध्या
िव ेऽि नौ मरुत ोंमपा ।
गन्धवर्यक्षासुरिस संघा
वीक्षन्ते त्वां िविःमता व
ै सव।।22।।
जो ग्यारह रुि और बारह आिदत्य तथा आठ वसु, साध्यगण, िव ेदेव, अि नीकुमार तथा
मरुदगण और िपतरों का समुदाय तथा गन्धवर्, यक्ष, राक्षस और िस ों के समुदाय हैं Ð वे सब
ही िविःमत होकर आपको दे खते हैं ।(22)
रूपं मह े बहवक्ऽने
ु ऽं
महाबाहो बहबाहरुपादम।
ु ू ्
बहदरं
ू बहदं
ु ाकरालं
दृंट्वा लोकाः ूव्यिथताःतथाहम।।
् 23।।
हे महाबाहो ! आपके बहत
ु मुख और नेऽों वाले, बहत
ु हाथ, जंघा और पैरों वाले, बहत

उदरों वाले और बहत
ु -सी दाढ़ों के कारण अत्यन्त िवकराल महान रूप को दे खकर सब लोग
व्याकुल हो रहे हैं तथा मैं भी व्याकुल हो रहा हँू ।(23)
नभःःपृशं दी मनेकवणर्
व्या ाननं दी िवशालनेऽम।्
दृंट्वा िह त्वां ूव्यिथतान्तरात्मा
धृितं न िवन्दािम शमं च िवंणो।।24।।
क्योंिक हे िवंणो ! आकाश को ःपशर् करने वाले, दे दीप्यमान, अनेक वण यु तथा
फैलाये हए
ु मुख और ूकाशमान िवशाल नेऽों से यु आपको दे खकर भयभीत अन्तःकरणवाला मैं
धीरज और शािन्त नहीं पाता हँू ।(24)
दं ाकरालािन च ते मुखािन
दृंट्वैव कालानलसिन्नभािन।
िदशो न जाने न लभे च शमर्
ूसीद दे वेश जगिन्नवास।।25।।
दाढ़ों के कारण िवकराल और ूलयकाल की अिग्न के समान ूज्विलत आपके मुखों को
दे खकर मैं िदशाओं को नहीं जानता हँू और सुख भी नहीं पाता हँू । इसिलए हे दे वेश ! हे
जगिन्नवास ! आप ूसन्न हों।(25)
अमी च त्वां धृतरा ःय पुऽाः
सव सहै वाविनपालसंघैः।
भींमो िोणः सूतपुऽःतथासौ
सहाःमदीयैरिप योधमुख्यैः।।26।।
वक्ऽािण ते त्वरमाणा िवशिन्त
दं ाकरालािन भयानकािन
केिचि लग्ना दशनान्तरे षु
संदृँयन्ते चूिणर्तैरु माङ्गैः।।27।।
वे सभी धृतरा के पुऽ राजाओं के समुदायसिहत आपमें ूवेश कर रहे हैं और भींम
िपतामह, िोणाचायर् तथा वह कणर् और हमारे पक्ष के भी ूधान यो ाओं सिहत सब के सब
आपके दाढ़ों के कारण िवकराल भयानक मुखों में बड़े वेग से दौड़ते हए
ु ूवेश कर रहे हैं और कई
एक चूणर् हए
ु िसरों सिहत आपके दाँतों के बीच में लगे हए
ु िदख रहे हैं ।(26,27)
यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः
समुिमेवािभमुखा िविन्त।
तथा तवामी नरलोकवीरा
िवशिन्त वक्ऽाण्यिभिवज्वलिन्त।।28।।
जैसे निदयों के बहत
ु - से जल के ूवाह ःवाभािवक ही समुि के सम्मुख दौड़ते हैं अथार्त ्
समुि में ूवेश करते हैं , वैसे ही वे नरलोक के वीर भी आपके ूज्विलत मुखों में ूवेश कर रहे
हैं ।
यथा ूदी ं ज्वलनं पतङ्गा
िवशिन्त नाशाय समृ वेगाः।
तथैव नाशाय िवशिन्त लोका-
ःतवािप वक्ऽािण समृ वेगाः।।29।।
जैसे पतंग मोहवश न होने के िलए ूज्विलत अिग्न में अित वेग से दौड़ते हए
ु ूवेश
करते हैं , वैसे ही ये सब लोग भी अपने नाश के िलए आपके मुखों में अित वेग से दौड़ते हए

ूवेश कर रहे हैं । (29)
लेिल से मसमानः समन्ता-
ल्लोकान्सममान्वदनैज्वर्लि ः।
तेजोिभरापूयर् जगत्सममं
भासःतवोमाः ूतपिन्त िवंणो।।30।।
आप उन सम्पूणर् लोकों को ूज्जविलत मुखों ारा मास करते हए
ु सब ओर से बार-बार
चाट रहे हैं । हे िवंणो ! आपका उम ूकाश सम्पूणर् जगत को तेज के ारा पिरपूणर् करके तपा
रहा है ।(30)
आख्यािह मे को भवानुमरूपो
नमोऽःतु ते दे ववर ूसीद।
िवज्ञातुिमच्छािम भवन्तमा ं
न िह ूजानािम तव ूवृि म।।
् 31।।
मुझे बतलाइये िक आप उम रूप वाले कौन हैं ? हे दे वों में ौे ! आपको नमःकार हो।
आप ूसन्न होइये। हे आिदपुरुष ! आपको मैं िवशेषरूप से जानना चाहता हँू , क्योंिक मैं आपकी
ूवृि को नहीं जानता।(31)
ौीभगवानुवाच
कालोऽिःम लोकक्षयकृ त्ूवृ ो
लोकान्समाहतुिर् मह ूवृ ः।
ऋतेऽिप त्वां न भिवंयिन्त सव
येऽविःथताः ूत्यनीकेषु योधाः।।32।।
ौी भगवान बोलेः मैं लोकों का नाश करने वाला बढ़ा हआ
ु महाकाल हँू । इस समय लोकों
को न करने के िलए ूवृ हआ
ु हँू । इसिलए जो ूितपिक्षयों की सेना में िःथत यो ा लोग है वे
सब तेरे िबना भी नहीं रहें गे अथार्त ् तेरे यु न करने पर भी इन सब का नाश हो जाएगा।(32)
तःमा वमुि यशो लभःव
िजत्वा शऽून ् भुआ
ं व राज्यं समृ म।्
मयैवैते िनहताः पूवम
र् ेव
िनिम माऽं भव सव्यसािचन।।
् 33।।
अतएव तू उठ। यश ूा कर और शऽुओं को जीतकर धन-धान्य से सम्पन्न राज्य को
भोग। ये सब शूरवीर पहले ही से मेरे ही ारा मारे हए
ु हैं । हे सव्यसािचन! तू तो केवल
िनिम माऽ बन जा।(33)
िोणं च भींमं च जयिथं च
कण तथान्यानिप योधवीरान।्
मया हतांःत्वं जिह मा व्यिथ ा
युध्यःव जेतािस रणे सपत ् नान।।
् 34।।
िोणाचायर् और भींम िपतामह तथा जयिथ और कणर् तथा और भी बहत
ु -से मेरे ारा
मारे हए
ु शूरवीर यो ाओं को तू मार। भय मत कर। िनःसन्दे ह तू यु में वैिरयों को जीतेगा।
इसिलए यु कर।(34)
संजय उवाच
एतच् त्वा वचनं केशवःय
कृ ताजिलवपमानः िकरीटी।
नमःकृ त्वा भूय एवाह कृ ंणं
सगद् गदं भीतभीतः ूणम्य।।35।।
संजय बोलेः केशव भगवान के इस वचन को सुनकर मुकुटधारी अजुन
र् हाथ जोड़कर
काँपता हआ
ु नमःकार करके, िफर भी अत्यन्त भयभीत होकर ूणाम करके भगवान ौीकृ ंण के
ूित गदगद वाणी से बोलेः।(35)
अजुन
र् उवाच
ःथाने हृिषकेश तव ूकीत्यार्
जगत्ूहृंयत्यनुरज्यते च।
रक्षांिस भीतािन िदशो िविन्त
सव नमःयिन्त च िस संघाः।।36।।
अजुन
र् बोलेः हे अन्तयार्िमन ् ! यह योग्य ही है िक आपके नाम, गुण और ूभाव के
कीतर्न से जगत अित हिषर्त हो रहा है और अनुराग को भी ूा हो रहा है तथा भयभीत राक्षस
लोग िदशाओं में भाग रहे हैं और सब िस गणों के समुदाय नमःकार कर रहे हैं ।(36)
कःमाच्च ते न नमेरन्महात्मन ्
गरीयसे ॄ णोऽप्यािदकऽ।
अनन्त दे वेश जगिन्नवास
त्वमक्षरं सदस त्परं यत।।
् 37।।
हे महात्मन ् ! ॄ ा के भी आिदकतार् और सबसे बड़े आपके िलए वे कैसे नमःकार न करें ,
क्योंिक हे अनन्त ! हे दे वेश ! हे जगिन्नवास ! जो संत ्, असत ्, और उनसे परे अक्षर अथार्त ्
सिच्चदानन्दघन ॄ हैं , वह आप ही हैं ।(37)

त्वमािददे वः पुरुषः पुराण-


ःत्वमःय िव ःय परं िनधानम।्
वे ािस वे ं परं च धाम
त्वया ततं िव मनन्तरुप।।38।।
आप आिददे व और सनातन पुरुष हैं । आप इस जगत के परम आौय और जानने वाले
तथा जानने योग्य और परम धाम हैं । हे अनन्तरूप ! आपसे यह सब जगत व्या अथार्त ्
पिरपूणर् है ।(38)
वायुयम
र् ोऽिग्नवर्रुणः शशांकः
ूजापितःत्वं ूिपतामह ।
नमो नमःतेऽःतु सहॐकृ त्वः
पुन भूयोऽिप नमो नमःते।।39।।
आप वायु, यमराज, अिग्न, वरुण, चन्िमा, ूजा के ःवामी ॄ ा और ॄ ा के भी िपता
हैं । आपके िलए हजारों बार नमःकार ! नमःकार हो ! आपके िलए िफर भी बार-बार नमःकार !
नमःकार !!
नमः पुरःतादथ पृ तःते
नमोऽःतुं ते सवर्त एव सवर्।
अनन्तवीयार्िमतिवबमःत्वं
सवर् समाप्नोिष ततोऽिस सवर्ः।।40।।
हे अनन्त सामथ्यर् वाले ! आपके िलए आगे से और पीछे से भी नमःकार ! हे सवार्त्मन ्!
आपके िलए सब ओर से नमःकार हो क्योंिक अनन्त पराबमशाली आप समःत संसार को व्या
िकये हए
ु हैं , इससे आप ही सवर्रूप हैं ।(40)
सखेित मत्वा ूसभं यद ु ं
हे कृ ंण हे यादव हे सखेित।
अजानता मिहमानं तवेदं
मया ूमादात्ूणयेन वािप।।41।।
यच्चावहासाथर्मसत्कृ तोऽिस
िवहारशय्यासनभोजनेषु।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं
तत्क्षामये त्वामहमूमेयम।।
् 42।।
आपके इस ूभाव को न जानते हए
ु , आप मेरे सखा हैं , ऐसा मानकर ूेम से अथवा
ूमाद से भी मैंने 'हे कृ ंण !', 'हे यादव !', 'हे सखे !', इस ूकार जो कुछ िबना सोचे समझे
हठात ् कहा है और हे अच्युत ! आप जो मेरे ारा िवनोद के िलए िवहार, शय्या, आसन और
भोजनािद में अकेले अथवा उन सखाओं के सामने भी अपमािनत िकये गये हैं Ð वह सब अपराध
अूमेयःवरूप अथार्त ् अिचन्त्य ूभाववाले आपसे मैं क्षमा करवाता हँू ।(41,42)
िपतािस लोकःय चराचरःय
त्वमःय पूज्य गुरुगर्रीयान।्
न त्वत्समोऽःत्यभ्यिधकः कुतोऽन्यो
लोकऽयेऽप्यूितमूभाव।।43।।
आप इस चराचर जगत के िपता और सबसे बड़े गुरु तथा अित पूजनीय हैं । हे अनुपम
ूभाव वाले ! तीनों लोकों में आपके समान भी दसरा
ू कोई नहीं है , िफर अिधक तो कैसे हो
सकता है ।(43)
तःमात्ूणम्य ूिणधाय कायं
ूसादये त्वामहमीशमीड्यम।्
िपतेव पुऽःय सखेव सख्युः
ु ् 44।।
िूयः िूयायाहर् िस दे व सोढम।।
अतएव हे ूभो ! मैं शरीर को भलीभाँित चरणों में िनवेिदत कर, ूणाम करके, ःतुित
करने योग्य आप ई र को ूसन्न होने के िलए ूाथर्ना करता हँू । हे दे व ! िपता जैसे पुऽ के,
सखा जैसे सखा के और पित जैसे िूयतमा प ी के अपराध सहन करते हैं Ð वैसे ही आप भी
मेरे अपराध सहन करने योग्य हैं ।(44)
अदृ पूव हृिषतोऽिःम दृंट्वा
भयेन च ूव्यिथतं मनो मे।
तदे व मे दशर्य दे वरूपं
ूसीद दे वेश जगिन्नवास।।45।।
मैं पहले न दे खे हए
ु आपके इस आ मर्य रूप को दे खकर हिषर्त हो रहा हँू और मेरा मन
भय से अित व्याकुल भी हो रहा है , इसिलए आप उस अपने चतुभज
ुर् िवंणुरूप को ही मुझे
िदखलाइये ! हे दे वेश ! हे जगिन्नवास ! ूसन्न होइये।(45)
िकरीिटनं गिदनं चबहःत-
िमच्छािम त्वां ि ु महं तथैव।
तेनैव रूपेण चतुभज
ुर् ेन
सहॐबाहो भव िव मूत।।46।।
मैं वैसे ही आपको मुकुट धारण िकये हए
ु तथा गदा और चब हाथ में िलए हए
ु दे खना
चाहता हँू , इसिलए हे िव ःवरूप ! हे सहॐबाहो ! आप उसी चतुभज
ुर् रूप से ूकट होइये।(46)

ौीभगवानुवाच
मया ूसन्नेन तवाजुन
र् ेदं
रूपं परं दिशर्तमात्मयोगात।्
तेजोमयं िव मनन्तमा ं
यन्मे त्वदन्येन न दृ पूवम
र् ।।
् 47।।
ौीभगवान बोलेः हे अजुन
र् ! अनुमहपूवक
र् मैंने अपनी योगशि के ूभाव से यह मेरा
परम तेजोमय, सबका आिद और सीमारिहत िवराट रूप तुझको िदखलाया है , िजसे तेरे अितिर
दसरे
ू िकसी ने नहीं दे खा था।(47)
न वेदयज्ञाध्ययनैनर् दानै-
नर् च िबयािभनर् तपोिभरुमैः।
एवंरूपः शक्य अहं नृलोके
ि ु ं त्वदन्येन कुरुूवीर।।48।।
हे अजुन
र् ! मनुंयलोक में इस ूकार िव रूपवाला मैं न वेद और यज्ञों के अध्ययन से,
न दान से, न िबयाओं से और न उम तपों से ही तेरे अितर दसरे
ू के ारा दे खा जा सकता
हँू ।(48)
मा ते व्यथा मा च िवमूढभावो
दृंट्वा रूपं घोरमीदृङममेदम।्
व्यपेतभीः ूीतमनाः पुनःत्वं
तदे व मे रूपिमदं ूपँय।।49।।
मेरे इस ूकार के इस िवकराल रूप को दे खकर तुझको व्याकुलता नहीं होनी चािहए और
मूढ़भाव भी नहीं होना चािहए। तू भयरिहत और ूीितयु मनवाला होकर उसी मेरे शंख-चब-
गदा-प यु चतुभज
ुर् रूप को िफर दे ख।(49)
संजय उवाच
इत्यजुन
र् ं वासुदेवःतथोक्त्वा
ःवकं रूपं दशर्यामास भूयः।
आ ासयामास च भीतमेनं
भूत्वा पुनः सौम्यवपुमह
र् ात्मा।।50।।
संजय बोलेः वासुदेव भगवान ने अजुन
र् के ूित इस ूकार कहकर िफर वैसे ही अपने
चतुभज
ुर् रूप को िदखलाया और िफर महात्मा ौीकृ ंण ने सौम्यमूितर् होकर इस भयभीत अजुन
र्
को धीरज बंधाया।(50)
अजुन
र् उवाच
दृंट्वेदं मानुषं रूपं सौम्यं जनादर् न।
इदानीमिःम संव ृ ः सचेताः ूकृ ितं गतः।।51।।
अजुन
र् बोलेः हे जनादर् न ! आपके इस अित शान्त मनुंयरूप को दे खकर अब मैं िःथरिच
हो गया हँू और अपनी ःवाभािवक िःथित को ूा हो गया हँू ।(51)

ौीभगवानुवाच
सुददर्ु शिर् मदं रूपं दृ वानिस यन्मम।
दे वा अप्यःय रूपःय िनत्यं दशर्नकांिक्षणः।।52।।
ौी भगवान बोलेः मेरा जो चतुभज
ुर् रूप तुमने दे खा है , यह सुदद
ु र् शर् है अथार्त ् इसके दशर्न
बड़े ही दलर्
ु भ हैं । दे वता भी सदा इस रूप के दशर्न की आकांक्षा करते रहते हैं ।(52)
नाहं वेदैनर् तपसा न दानेन न चेज्यया।
शक्य एवंिवधो ि ु ं दृ वानिस मां यथा।।53।।
िजस ूकार तुमने मुझे दे खा है Ð इस ूकार चतुभज
ुर् रूपवाला मैं न तो वेदों से, न तप से,
न दान से, और न यज्ञ से ही दे खा जा सकता हँू ।(53)
भ या त्वनन्यया शक्य अहमेवंिवधोऽजुन
र् ।
ज्ञातुं ि ु ं च त वेन ूवे ु ं च परं तप।।54।।
परन्तु हे परं तप अजुन
र् ! अनन्य भि के ारा इस ूकार चतुभज
ुर् रूपवाला मैं ूत्यक्ष
दे खने के िलए त व से जानने के िलए तथा ूवेश करने के िलए अथार्त ् एकीभाव से ूा होने के
िलए भी शक्य हँू ।(54)
मत्कमर्कृन्मत्परमो म : संगविजर्तः।
िनवरः सवर्भत
ू ेषु यः स मामेित पाण्डव।।55।।
हे अजुन
र् ! जो पुरुष केवल मेरे ही िलए सम्पूणर् कतर्व्यकम को करने वाला है , मेरे
परायण है , मेरा भ है , आसि रिहत है और सम्पूणर् भूतूािणयों में वैरभाव से रिहत है , वह
अनन्य भि यु पुरुष मुझको ही ूा होता है ।(55)
ॐ तत्सिदित ौीमद् भगवद् गीतासूपिनषत्सु ॄ िव ायां योगशा े
ौीकृ ंणाजुन
र् संवादे िव रूपदशर्नयोगो नाम एकादशोऽध्यायः ।।11।।
इस ूकार उपिनषद, ॄ िव ा तथा योगशा रूप ौीमद् भगवद् गीता के
ौीकृ ंण-अजुन
र् संवाद में िव रूपदशर्नयोग नामक ग्यारहवाँ अध्याय संपण
ू र् हआ।

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
(अनुबम)

बारहवें अध्याय का माहात्म्य


ौीमहादे वजी कहते हैं – पावर्ती ! दिक्षण िदशा में कोल्हापुर नामक एक नगर है , जो सब
ूकार के सुखों का आधार, िस -महात्माओं का िनवास ःथान तथा िसि ूाि का क्षेऽ है । वह
पराशि भगवती लआमी की ूधान पीठ है । सम्पूणर् दे वता उसका सेवन करते हैं । वह पुराणूिस
तीथर् भोग और मोक्ष ूदान करने वाला है । वहाँ करोड़ो तीथर् और िशविलंग हैं । रुिगया भी वहाँ
है । वह िवशाल नगर लोगों में बहत
ु िवख्यात है । एक िदन कोई युवक पुरुष नगर में आया। वह
कहीं का राजकुमार था। उसके शरीर का रं ग गोरा, नेऽ सुन्दर, मीवा शंख के समान, कंधे मोटे ,
छाती चौड़ी तथा भुजाएँ बड़ी-बड़ी थीं। नगर में ूवेश करके सब ओर महलों की शोभा िनहारता
हआ
ु वह दे वे री महालआमी के दशर्नाथर् उत्किण्ठत हो मिणकण्ठ तीथर् में गया और वहाँ ःनान
करके उसने िपतरों का तपर्ण िकया। िफर महामाया महालआमीजी को ूणाम करके भि पूवक
र्
ःतवन करना आरम्भ िकया।
राजकुमार बोलाः िजसके हृदय में असीम दया भरी हई
ु है , जो समःत कामनाओं को दे ती
तथा अपने कटाक्षमाऽ से सारे जगत की रचना, पालन और संहार करती है , उस जगन्माता
महालआमी की जय हो। िजस शि के सहारे उसी के आदे श के अनुसार परमे ी ॄ ा सृि रचते
हैं , भगवान अच्युत जगत का पालन करते हैं तथा भगवान रुि अिखल िव का संहार करते हैं ,
उस सृि , पालन और संहार की शि से सम्पन्न भगवती पराशि का मैं भजन करता हँू ।
कमले ! योगीजन तुम्हारे चरणकमलों का िचन्तन करते रहते हैं । कमलालये ! तुम अपनी
ःवाभािवक स ा से ही हमारे समःत इिन्ियगोचर िवषयों को जानती हो। तुम्हीं कल्पनाओं के
समूह को तथा उसका संकल्प करने वाले मन को उत्पन्न करती हो। इच्छाशि , ज्ञानशि और
िबयाशि Ð ये सब तुम्हारे ही रूप हैं । तुम परासंिचत (परमज्ञान) रूिपणी हो। तुम्हारा ःवरूप
िनंकाम, िनमर्ल, िनत्य, िनराकार, िनरं जन, अन्तरिहत, आतंकशून्य, आलम्बहीन तथा िनरामय
है । दे िव ! तुम्हारी मिहमा का वणर्न करने में कौन समथर् हो सकता है ? जो षट्चबों का भेदन
करके अन्तःकरण के बारह ःथानों में िवहार करती हैं , अनाहत, ध्विन, िबन्द,ु नाद और कला ये
िजसके ःवरूप हैं , उस माता महालआमी को मैं ूणाम करता हँू । माता ! तुम अपने मुखरूपी
पूणच
र् न्िमा से ूकट होने वाली अमृतरािश को बहाया करती हो। तुम्हीं परा, पँयन्ती, मध्यमा
और वैखरी नामक वाणी हो। मैं तुम्हें नमःकार करता हँू । दे वी! तुम जगत की रक्षा के िलए
अनेक रूप धारण िकया करती हो। अिम्बके ! तुम्हीं ॄा ी, वैंणवी, तथा माहे री शि हो।
वाराही, महालआमी, नारिसंही, ऐन्िी, कौमारी, चिण्डका, जगत को पिवऽ करने वाली लआमी,
जगन्माता सािवऽी, चन्िकला तथा रोिहणी भी तुम्हीं हो। परमे री ! तुम भ ों का मनोरथ पूणर्
करने के िलए कल्पलता के समान हो। मुझ पर ूसन्न हो जाओ।
उसके इस ूकार ःतुित करने पर भगवती महालआमी अपना साक्षात ् ःवरूप धारण करके
बोलीं - 'राजकुमार ! मैं तुमसे ूसन्न हँू । तुम कोई उ म वर माँगो।'
राजपुऽ बोलाः माँ ! मेरे िपता राजा बृहिथ अ मेध नामक महान यज्ञ का अनु ान कर
रहे थे। वे दै वयोग से रोगमःत होकर ःवगर्वासी हो गये। इसी बीच में यूप में बँधे हए
ु मेरे
यज्ञसम्बन्धी घोड़े को, जो समूची पृथ्वी की पिरबमा करके लौटा था, िकसी ने रािऽ में बँधन
काट कर कहीं अन्यऽ पहँु चा िदया। उसकी खोज में मैंने कुछ लोगों को भेजा था, िकन्तु वे कहीं
भी उसका पता न पाकर जब खाली हाथ लौट आये हैं , तब मैं ऋित्वजों से आज्ञा लेकर तुम्हारी
शरण में आया हँू । दे वी ! यिद तुम मुझ पर ूसन्न हो तो मेरे यज्ञ का घोड़ा मुझे िमल जाये,
िजससे यज्ञ पूणर् हो सके। तभी मैं अपने िपता जी का ऋण उतार सकूँगा। शरणागतों पर दया
करने वाली जगज्जननी लआमी ! िजससे मेरा यज्ञ पूणर् हो, वह उपाय करो।
भगवती लआमी ने कहाः राजकुमार ! मेरे मिन्दर के दरवाजे पर एक ॄा ण रहते हैं , जो
लोगों में िस समािध के नाम से िवख्यात हैं । वे मेरी आज्ञा से तुम्हारा सब काम पूरा कर दें गे।
महालआमी के इस ूकार कहने पर राजकुमार उस ःथान पर आये, जहाँ िस समािध रहते
थे। उनके चरणों में ूणाम करके राजकुमार चुपचाप हाथ जोड़ कर खड़े हो गये। तब ॄा ण ने
कहाः 'तुम्हें माता जी ने यहाँ भेजा है । अच्छा, दे खो। अब मैं तुम्हारा सारा अभी कायर् िस
करता हँू ।' यों कहकर मन्ऽवे ा ॄा ण ने सब दे वताओं को वही खींचा। राजकुमार ने दे खा, उस
समय सब दे वता हाथ जोड़े थर-थर काँपते हए
ु वहाँ उपिःथत हो गये। तब उन ौे ॄा ण ने
समःत दे वताओं से कहाः 'दे वगण ! इस राजकुमार का अ , जो यज्ञ के िलए िनि त हो चुका
था, रात में दे वराज इन्ि ने चुराकर अन्यऽ पहँु चा िदया है । उसे शीय ले आओ।'
तब दे वताओं ने मुिन के कहने से यज्ञ का घोड़ा लाकर दे िदया। इसके बाद उन्होंने उन्हे
जाने की आज्ञा दी। दे वताओं का आकषर्ण दे खकर तथा खोये हए
ु अ को पाकर राजकुमार ने
मुिन के चरणों में ूणाम करके कहाः 'महष ! आपका यह सामथ्यर् आ यर्जनक है । आप ही ऐसा
कायर् कर सकते हैं , दसरा
ू कोई नहीं। ॄ न ् ! मेरी ूाथर्ना सुिनये, मेरे िपता राजा बृहिथ अ मेध
यज्ञ का अनु ान आरम्भ करके दै वयोग से मृत्यु को ूा हो गये हैं । अभी तक उनका शरीर
तपाये हए
ु तेल में सुखाकर मैंने रख छोड़ा है । आप उन्हें पुनः जीिवत कर दीिजए।'
यह सुनकर महामुिन ॄा ण ने िकंिचत मुःकराकर कहाः 'चलो, वहाँ यज्ञमण्डप में तुम्हारे
िपता मौजूद हैं , चलें।' तब िस समािध ने राजकुमार के साथ वहाँ जाकर जल अिभमिन्ऽत िकया
और उसे शव के मःतक पर रखा। उसके रखते ही राजा सचेत होकर उठ बैठे िफर उन्होंने ॄा ण
को दे खकर पूछाः 'धमर्ःवरूप ! आप कौन हैं ?' तब राजकुमार ने महाराज से पहले का सारा हाल
कह सुनाया। राजा ने अपने को पुनः जीवनदान दे ने वाले ॄा ण को नमःकार करके पूछाः
''ॄा ण ! िकस पुण्य से आपको यह अलौिकक शि ूा हई
ु है ?" उनके यों कहने पर ॄा ण ने
मधुर वाणी में कहाः 'राजन ! मैं ूितिदन आलःयरिहत होकर गीता के बारहवें अध्याय का जप
करता हँू । उसी से मुझे यह शि िमली है , िजससे तुम्हें जीवन ूा हआ
ु है ।' यह सुनकर ॄा णों
सिहत राजा ने उन महिषर् से उन से गीता के बारहवें अध्याय का अध्ययन िकया। उसके
माहात्म्य से उन सबकी सदगती हो गयी। दसरे
ू -दसरे
ू जीव भी उसके पाठ से परम मोक्ष को
ूा हो चुके हैं ।
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(अनुबम)
बारहवाँ अध्यायः भि योग
दसरे
ू अध्याय से लेकर यहाँ तक भगवान ने ूत्येक ःथान पर सगुण साकार परमे र की
उपासना की ूशंसा की। सातवें अध्याय से ग्यारहवें अध्याय तक खास सगुण साकार परमात्मा
की उपासना का मह व बताया है । उसके साथ पाँचवें अध्याय में 17 से 26 ोक तक, छठवें
अध्याय में 24 से 29 ोक तक, आठवें अध्याय में 11 से 13 ोक तक इसके अलावा और कई
जगहों पर िनगुण
र् िनराकार की उपासना का मह व बताया है । अंत में ग्यारहवें अध्याय के
आिखरी ोक में सगुण-साकार भगवान की अनन्य भि का फल भगवत्ूाि बताकर
'मत्कमर्कृत ्' से शुरु हए
ु उस आिखरी ोक में सगुण-साकार ःवरूप भगवान के भ की मह ा
जोर दे कर समझाई है । इस िवषय पर अजुन
र् के मन में ऐसी पैदा हई
ु िक िनगुण
र् -िनराकार ॄ
की तथा सगुण-साकार भगवान की उपासना करने वाले दोनों उपासकों में उ म कौन? यह जानने
के िलए अजुन
र् पूछता है ः
(अनुबम)

।। अथ ादशोऽध्यायः ।।
अजुन
र् उवाच
एवं सततयु ा ये भ ाःत्वां पयुप
र् ासते।
ये चाप्यक्षरमव्य ं तेषां के योगिव माः।।1।।
अजुन
र् बोलेः जो अनन्य ूेमी भ जन पूव ूकार िनरन्तर आपके भजन ध्यान में लगे
रहकर आप सगुणरूप परमे र को और दसरे
ू जो केवल अिवनाशी सिच्चदानन्दघन िनराकार ॄ
को ही अित ौे भाव से भजते हैं Ð उन दोनों ूकार के उपासकों में अित उ म योगवे ा कौन
हैं ?

ौीभगवानुवाच
मय्यावेँय मनो ये मां िनत्ययु ा उपासते।
ौ या परयोपेताःते मे यु तमा मताः।।2।।

ौी भगवान बोलेः मुझमें मन को एकाम करके िनरन्तर मेरे भजन-ध्यान में लगे हए
ु जो
भ जन अितशय ौे ौ ा से यु होकर मुझ सगुणरूप परमे र को भजते हैं , वे मुझको
योिगयों में अित उ म योगी मान्य हैं ।(2)

ये त्वक्षरमिनदँयमव्य ं पयुप
र् ासते।
सवर्ऽगमिचन्त्यं च कूटःथमचलं ीुवम।।
् 3।।
संिनयम्येिन्िमामं सवर्ऽ समबु यः
ते ूाप्नुविन्त मामेव सवर्भत
ू िहते रताः।।4।।
क्लेशोऽिधकतरःतेषामव्य ास चेतसाम।्
अव्य ा िह गितदर् ःु खं दे हवि रवाप्यते।।5।।

परन्तु जो पुरुष इिन्ियों के समुदाय को भली ूकार वश में करके मन बुि से परे
सवर्व्यापी, अकथीनयःवरूप और सदा एकरस रहने वाले, िनत्य, अचल, िनराकार, अिवनाशी,
सिच्चदानन्दघन ॄ को िनरन्तर एकीभाव से ध्यान करते हए
ु भजते हैं , वे सम्पूणर् भूतों के िहत
में रत और सब में समान भाववाले योगी मुझको ही ूा होते हैं । उन सिच्चदानन्दघन िनराकार
ॄ में आस िच वाले पुरुषों के साधन में पिरौम िवशेष है , क्योंिक दे हािभमािनयों के ारा
अव्य -िवषयक गित दःखपू
ु वक
र् ूा की जाित है ।(3,4,5)

ये तु सवार्िण कमार्िण मिय संन्यःय मत्पराः।


अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते।।6।।
तेषामहं समु तार् मृत्युसस
ं ारसागरात।्
भवािम निचरात्पाथर् मय्यावेिशतचेतसाम।।
् 7।।

परन्तु जो मेरे परायण रहने वाले भ जन सम्पूणर् कम को मुझे अपर्ण करके मुझ
सगुणरूप परमे र को ही अनन्य भि योग से िनरन्तर िचन्तन करते हए
ु भजते हैं । हे अजुन
र् !
उन मुझमें िच लगाने वाले ूेमी भ ों का मैं शीय ही मृत्युरूप संसार-समुि से उ ार करने
वाला होता हँू ।(6,7)

मय्येव मन आधत्ःव मिय बुि ं िनवेशय।


िनविसंयिस मय्येव अत ऊध्व न संशयः।।8।।

मुझमें मन को लगा और मुझमें ही बुि को लगा। इसके उपरान्त तू मुझमें िनवास


करे गा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है । (8)

अथ िच ं समाधातुं शक्नोिष मिय िःथरम।्


अभ्यासयोगेन ततो मािमच्छा ुं धनंजय।।9।।

यिद तू मन को मुझमें अचल ःथापन करने के िलए समथर् नहीं है तो हे अजुन


र् !
अभ्यासरूप योग के ारा मुझको ूा होने के िलए इच्छा कर।(9)
अभ्यासेऽप्यसमथ ऽिस मत्कमर्परमो भव।
मदथर्मिप कमार्िण कुवर्िन्सि मवाप्ःयिस।।10।।

यिद तू उपयुर् अभ्यास में भी असमथर् है तो केवल मेरे िलए कमर् करने के ही परायण
हो जा। इस ूकार मेरे िनिम कम को करता हआ
ु भी मेरी ूाि रूप िसि को ही ूा
होगा।(10)

अथैतदप्यश ोऽिस कतु म ोगमािौतः।


सवर्कमर्फलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान।।
् 11।।

यिद मेरी ूाि रूप योग के आिौत होकर उपयुर् साधन को करने में भी तू असमथर् है
तो मन बुि आिद पर िवजय ूा करने वाला होकर सब कम के फल का त्याग कर।(11)

ौेयो िह ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं िविशंयते।


ध्यानात्कमर्फलत्यागःत्यागाच्छािन्तरनन्तरम।।
् 12।।

ममर् को न जानकर िकये हए


ु अभ्यास से ज्ञान ौे है । ज्ञान से मुझ परमे र के ःवरूप
का ध्यान ौे है और ध्यान से भी सब कम के फल का त्याग ौे है क्योंिक त्याग से तत्काल
ही परम शािन्त होती है ।(12)

अ े ा सवर्भत
ू ानां मैऽः करुण एव च।
िनमर्मो िनरहं कारः समदःखसु
ु खः क्षमी।।13।।
संतु ः सततं योगी यतात्मा दृढिन यः।
मय्यिपर्तमनोबुि य मद् भ ः स मे िूयः।।14।।

जो पुरुष सब भूतों में े षभाव से रिहत, ःवाथर्रिहत, सबका ूेमी और हे तुरिहत दयालु है
तथा ममता से रिहत, अहं कार से रिहत, सुख-दःखों
ु की ूाि में सम और क्षमावान है अथार्त ्
अपराध करने वाले को भी अभय दे ने वाला है , तथा जो योगी िनरन्तर सन्तु है , मन इिन्ियों
सिहत शरीर को वश में िकये हए
ु हैं और मुझमें दृढ़ िन यवाला है Ð वह मुझमें अपर्ण िकये हए

मन -बुि वाला मेरा भ मुझको िूय है ।(13,14)

यःमान्नोि जते लोको लोकान्नोि जते च यः।


हषार्मषर्भयो े गैमुर् ो यः स च मे िूयः।।15।।
िजससे कोई भी जीव उ े ग को ूा नहीं होता और जो ःवयं भी िकसी जीव से उ े ग को
ूा नहीं होता तथा जो हषर्, अमषर्, भय और उ े गािद से रिहत है Ð वह भ मुझको िूय है ।
(15)

अनपेक्षः शुिचदर् क्ष उदासीनो गतव्यथः।


सवार्रम्भपिरत्यागी यो मदभ ः स मे िूयः।।16।।

जो पुरुष आकांक्षा से रिहत, बाहर-भीतर से शु , चतुर, पक्षपात से रिहत और दःखों


ु से

छटा हआ
ु है Ð वह सब आरम्भों का त्यागी मेरा भ मुझको िूय है ।(16)

यो न हृंयित न ेि न शोचित न कांक्षित।


शुभाशुभपिरत्यागी भि मान्यः स मे िूयः।।17।।

जो न कभी हिषर्त होता है , न े ष करता है , न शोक करता है , न कामना करता है तथा


जो शुभ और अशुभ सम्पूणर् कम का त्यागी है Ð वह भि यु पुरुष मुझको िूय है ।(17)

समः शऽौ च िमऽे च तथा मानापमानयोः।


शीतोंणसुखदःखे
ु षु समः सङ्गिवविजर्तः।।18।।
तुल्यिनन्दाःतुितम नी संतु ो येन केनिचत।्
अिनकेतः िःथरमितभर्ि मान्मे िूयो नरः।।19।।

जो शऽु-िमऽ में और मान-अपमान में सम है तथा सद , गम और सुख-दःखािद


ु न् ों में
सम है और आसि से रिहत है । जो िनन्दा-ःतुित को समान समझने वाला, मननशील और
िजस िकसी ूकार से भी शरीर का िनवार्ह होने में सदा ही सन्तु है और रहने के ःथान में
ममता और आसि से रिहत है Ð वह िःथरबुि भि मान पुरुष मुझको िूय है ।(18,19)

ये तु धम्यार्मत
ृ िमदं यथो ं पयुप
र् ासते।
ौ धाना मत्परमा भ ाःतेऽतीव मे िूयाः।।20।।

परन्तु जो ौ ायु पुरुष मेरे परायण होकर इस ऊपर कहे हए


ु धमर्मय अमृत को
िनंकाम ूेमभाव से सेवन करते हैं , वे भ मुझको अितशय िूय हैं ।(20)
ॐ तत्सिदित ौीमद् भगवद् गीतासूपिनषत्सु ॄ िव ायां योगशा े
ौीकृ ंणाजुन
र् संवादे भि योगो नाम ादशोऽध्यायः ।।12।।
इस ूकार उपिनषद, ॄ िव ा तथा योगशा रूप ौीमद् भगवद् गीता के
ौीकृ ंण-अजुन
र् संवाद में भि योग नामक बारहवाँ अध्याय संपण
ू र् हआ।

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

अनुबम

तेरहवें अध्याय का माहात्म्य


ौीमहादे वजी कहते हैं – पावर्ती ! अब तेरहवें अध्याय की अगाध मिहमा का वणर्न सुनो।
उसको सुनने से तुम बहत
ु ूसन्न हो जाओगी। दिक्षण िदशा में तुंगभिा नाम की एक बहत
ु बड़ी
नदी है । उसके िकनारे हिरहरपुर नामक रमणीय नगर बसा हआ
ु है । वहाँ हिरहर नाम से साक्षात ्
भगवान िशवजी िवराजमान हैं , िजनके दशर्नमाऽ से परम कल्याण की ूाि होती है । हिरहरपुर
में हिरदीिक्षत नामक एक ौोिऽय ॄा ण रहते थे, जो तपःया और ःवाध्याय में संलग्न तथा वेदों
के पारगामी िव ान थे। उनकी एक ी थी, िजसे लोग दराचार
ु कहकर पुकारते थे। इस नाम के
अनुसार ही उसके कमर् भी थे। वह सदा पित को कुवाच्य कहती थी। उसने कभी भी उनके साथ
शयन नहीं िकया। पित से सम्बन्ध रखने वाले िजतने लोग घर पर आते, उन सबको डाँट बताती
और ःवयं कामोन्म होकर िनरन्तर व्यिभचािरयों के साथ रमण िकया करती थी। एक िदन
नगर को इधर-उधर आते-जाते हए
ु पुरवािसयों से भरा दे ख उसने िनजर्न तथा दगर्
ु म वन में अपने
िलए संकेत ःथान बना िलया। एक समय रात में िकसी कामी को न पाकर वह घर के िकवाड़
खोल नगर से बाहर संकेत-ःथान पर चली गयी। उस समय उसका िच काम से मोिहत हो रहा
था। वह एक-एक कुंज में तथा ूत्येक वृक्ष के नीचे जा-जाकर िकसी िूयतम की खोज करने
लगी, िकन्तु उन सभी ःथानों पर उसका पिरौम व्यथर् गया। उसे िूयतम का दशर्न नहीं हआ।

तब उस वन में नाना ूकार की बातें कहकर िवलाप करने लगी। चारों िदशाओं में घूम-घूमकर
िवयोगजिनत िवलाप करती हई
ु उस ी की आवाज सुनकर कोई सोया हआ
ु बाघ जाग उठा और
उछलकर उस ःथान पर पहँु चा, जहाँ वह रो रही थी। उधर वह भी उसे आते दे ख िकसी ूेमी
आशंका से उसके सामने खड़ी होने के िलए ओट से बाहर िनकल आयी। उस समय व्याय ने
आकर उसे नखरूपी बाणों के ूहार से पृथ्वी पर िगरा िदया। इस अवःथा में भी वह कठोर वाणी
में िचल्लाती हई
ु पूछ बैठीः 'अरे बाघ ! तू िकसिलए मुझे मारने को यहाँ आया है ? पहले इन सारी
बातों को बता दे , िफर मुझे मारना।'
उसकी यह बात सुनकर ूचण्ड पराबमी व्याय क्षणभर के िलए उसे अपना मास बनाने से
रुक गया और हँ सता हआ
ु -सा बोलाः 'दिक्षण दे श में मलापहा नामक एक नदी है । उसके तट पर
मुिनपणार् नगरी बसी हई
ु है । वहाँ पँचिलंग नाम से ूिस साक्षात ् भगवान शंकर िनवास करते हैं ।
उसी नगरी में मैं ॄा ण कुमार होकर रहता था। नदी के िकनारे अकेला बैठा रहता और जो यज्ञ
के अिधकारी नहीं हैं , उन लोगों से भी यज्ञ कराकर उनका अन्न खाया करता था। इतना ही नहीं,
धन के लोभ से मैं सदा अपने वेदपाठ के फल को बेचा करता था। मेरा लोभ यहाँ तक बढ़ गया
था िक अन्य िभक्षुओं को गािलयाँ दे कर हटा दे ता और ःवयं दसरो
ू को नहीं दे ने योग्य धन भी
िबना िदये ही हमेशा ले िलया करता था। ऋण लेने के बहाने मैं सब लोगों को छला करता था।
तदनन्तर कुछ काल व्यतीत होने पर मैं बूढ़ा हो गया। मेरे बाल सफेद हो गये, आँखों से सूझता
न था और मुह ू
ँ के सारे दाँत िगर गये। इतने पर भी मेरी दान लेने की आदत नहीं छटी। पवर्
आने पर ूितमह के लोभ से मैं हाथ में कुश िलए तीथर् के समीप चला जाया करता था।
तत्प ात ् जब मेरे सारे अंग िशिथल हो गये, तब एक बार मैं कुछ धूतर् ॄा णों के घर पर
माँगने-खाने के िलए गया। उसी समय मेरे पैर में कु े ने काट िदया। तब मैं मूिच्छर् त होकर
क्षणभर में पृथ्वी पर िगर पड़ा। मेरे ूाण िनकल गये। उसके बाद मैं इसी व्याययोिन में उत्पन्न
हआ।
ु तब से इस दगर्
ु म वन में रहता हँू तथा अपने पूवर् पापों को याद करके कभी धिमर्
महात्मा, यित, साधु पुरुष तथा सती ि यों को नहीं खाता। पापी-दराचारी
ु तथा कुलटा ि यों को
ही मैं अपना भआय बनाता हँू । अतः कुलटा होने के कारण तू अवँय ही मेरा मास बनेगी।'
ु -टकड़े
यह कहकर वह अपने कठोर नखों से उसके शरीर के टकड़े ु कर के खा गया। इसके
बाद यमराज के दत
ू उस पािपनी को संयमनीपुरी में ले गये। यहाँ यमराज की आज्ञा से उन्होंने
अनेकों बार उसे िव ा, मूऽ और र से भरे हए
ु भयानक कुण्डों में िगराया। करोड़ों कल्पों तक
उसमें रखने के बाद उसे वहाँ से ले जाकर सौ मन्वन्तरों तक रौरव नरक में रखा। िफर चारों
ओर मुह
ँ करके दीन भाव से रोती हई
ु उस पािपनी को वहाँ से खींचकर दहनानन नामक नरक में
िगराया। उस समय उसके केश खुले हए
ु थे और शरीर भयानक िदखाई दे ता था। इस ूकार घोर
नरकयातना भोग चुकने पर वह महापािपनी इस लोक में आकर चाण्डाल योिन में उत्पन्न हई।

ु वह पूवज
चाण्डाल के घर में भी ूितिदन बढ़ती हई र् न्म के अभ्यास से पूवव
र् त ् पापों में ूवृ रही
िफर उसे कोढ़ और राजयआमा का रोग हो गया। नेऽों में पीड़ा होने लगी िफर कुछ काल के
प ात ् वह पुनः अपने िनवासःथान (हिरहरपुर) को गयी, जहाँ भगवान िशव के अन्तःपुर की
ःवािमनी जम्भकादे वी िवराजमान हैं । वहाँ उसने वासुदेव नामक एक पिवऽ ॄा ण का दशर्न
िकया, जो िनरन्तर गीता के तेरहवें अध्याय का पाठ करता रहता था। उसके मुख से गीता का
पाठ सुनते ही वह चाण्डाल शरीर से मु हो गयी और िदव्य दे ह धारण करके ःवगर्लोक में चली
गयी।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
(अनुबम)

तेरहवाँ अध्यायः क्षेऽक्षऽज्ञिवभागयोग


बारहवें अध्याय के ूारम्भ में अजुन
र् ने सगुण और िनगुण
र् के उपासकों की ौे ता के
िवषय में ू िकया था। उसका उ र दे ते हए
ु भगवान ौीकृ ंण ने दसरे
ू ोक में संिक्ष में सगुण
उपासकों की ौे ता बतायी और 3 से 5 ोक तक िनगुण
र् उपासना का ःवरूप उसका फल तथा
उसकी िक्ल ता बतायी है । उसके बाद 6 से 20 ोक तक सगुण उपासना का मह व, फल,
ूकार और भगवद् भ ों के लक्षणों का वणर्न करके अध्याय समा िकया, परन्तु िनगुण
र् का
त व, मिहमा और उसकी ूाि के साधन िवःतारपूवक
र् नहीं समझाये थे, इसिलए िनगुण
र्
(िनराकार) का त व अथार्त ् ज्ञानयोग का िवषय ठीक से समझने के िलए इस तेरहवें अध्याय का
आरम्भ करते हैं ।

।। अथ ऽयोदशोऽध्यायः ।।
ौीभगवानुवाच
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेऽिमत्यिभधीयते।
एत ो वेि तं ूाहःु क्षेऽज्ञ इित ति दः।।1।।

ौी भगवान बोलेः हे अजुन


र् ! यह शरीर 'क्षेऽ' इस नाम से कहा जाता है और इसको जो
जानता है , उसको 'क्षेऽज्ञ' इस नाम से उनके त व को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं ।(1)

क्षेऽज्ञं चािप मां िवि सवर्क्षेऽेषु भारत।


क्षेऽक्षेऽज्ञोज्ञार्नं य ज्ज्ञानं मतं मम।।2।।

हे अजुन
र् ! तू सब क्षेऽों में क्षेऽज्ञ अथार्त ् जीवात्मा भी मुझे ही जान और क्षेऽ-क्षेऽज्ञ को
अथार्त ् िवकारसिहत ूकित का और पुरुष का जो त व से जानना है , वह ज्ञान है Ð ऐसा मेरा
मत है ।(2)

तत्क्षेऽं यच्च या क्च यि कािर यत यत।्


स च यो यत्ूभाव तत्समासेन मे ौृणु।।3।।

वह क्षेऽ जो और जैसा है तथा िजन िवकारों वाला है और िजस कारण से जो हआ


ु है
तथा क्षेऽज्ञ भी जो और िजस ूभाववाला है Ð वह सब संक्षेप में मुझसे सुन।(3)

ऋिषिभबर्हु धा गीतं छन्दोिभिवर्िवधैः पृथक।



ॄ सूऽपदै व
ै हे तुमि िवर्िनि तैः।।4।।

यह क्षेऽ और क्षेऽज्ञ का त व ऋिषयों ारा बहत


ु ूकार से कहा गया है और िविवध
वेदमंऽों र् कहा गया है तथा भली भाँित िन य िकए हए
ारा भी िवभागपूवक ु युि यु ॄ सूऽ के
पदों ारा भी कहा गया है ।(4)
महाभूतान्यहं कारो बुि रव्य मेव च।
इिन्ियािण दशैकं च पंच चेिन्ियगोचराः।।5।।
इच्छा े षः सुखं दःखं
ु संघात ेतना धृितः।
एतत्क्षेऽं समासेन सिवकारमुदाहृतम।।
् 6।।

पाँच महाभूत, अहं कार, बुि और मूल ूकृ ित भी तथा दस इिन्ियाँ, एक मन और पाँच
इिन्ियों के िवषय अथार्त ् शब्द, ःपशर्, रूप, रस और गन्ध तथा इच्छा, े ष, सुख-दःख
ु , ःथूल दे ह
का िपण्ड, चेतना और धृित Ð इस ूकार िवकारों के सिहत यह क्षेऽ संक्षेप से कहा गया।(5,6)

अमािनत्वदिम्भत्वमिहं सा क्षािन्तराजर्वम।्
आचाय पासनं शौचं ःथैयम
र् ात्मिविनमहः।।7।।
इिन्ियाथषु वैराग्यमनहं कार एव च।
जन्ममृत्युजराव्यािधदःखदोषानु
ु दशर्नम।।
् 8।।
असि रनिभंवंगः पुऽदारगृहािदषु।
िनत्यं च समिच त्विम ािन ोपपि षु।।9।।
मिय चानन्ययोगेन भि रव्यिभचािरणी।
िविव दे शसेिवत्वमरितजर्नसंसिद।।10।।
अध्यात्मज्ञानिनत्यत्वं त वज्ञानाथर्दशर्नम।्
एतज्ज्ञानिमित ूो मज्ञानं यदतोऽन्यथा।।11।।

ौे ता के ज्ञान का अिभमान का अभाव, दम्भाचरण का अभाव, िकसी ूाणी को िकसी


ूकार भी न सताना, क्षमाभाव, मन-वाणी आिद की सरलता, ौ ा-भि सिहत गुरु की सेवा,
बाहर-भीतर की शुि , अन्तःकरण की िःथरता और मन-इिन्ियोंसिहत शरीर का िनमह। इस लोक
और परलोक सम्पूणर् भोगों में आसि का अभाव और अहं कार का भी अभाव, जन्म, मृत्यु, जरा
और रोग आिद में दःख
ु और दोषों का बार-बार िवचार करना। पुऽ, ी, घर और धन आिद में
आसि का अभाव, ममता का न होना तथा िूय और अिूय की ूाि में सदा ही िच का सम
रहना। मुझ परमे र में अनन्य योग के ारा अव्यिभचािरणी भि तथा एकान्त और शु दे श में
रहने का ःवभाव और िवषयास मनुंयों के समुदाय में ूेम का न होना। अध्यात्मज्ञान में
िनत्य िःथित और त वज्ञान के अथर्रूप परमात्मा को ही दे खना Ð यह सब ज्ञान है और जो
इससे िवपरीत है , वह अज्ञान है Ð ऐसा कहा है ।(7,8,9,10,11)

ज्ञेयं य त्ूवआयािम यज्ज्ञात्वामृतम ुते।


अनािदमत्परं ॄ न स न्नासदच्यते
ु ।।12।।

जो जानने योग्य हैं तथा िजसको जानकर मनुंय परमानन्द को ूा होता है , उसको
भलीभाँित कहँू गा। वह अनािद वाला परॄ न सत ् ही कहा जाता है , न असत ् ही।(12)

सवर्तः पािणपादं तत्सवर्तोऽिक्षिशरोमुखम।्


सवर्तः ौुितमल्लोके सवर्मावृत्य ित ित।।13।।

वह सब ओर हाथ पैर वाला, सब और नेऽ, िसर ओर मुख वाला तथा सब ओर कान


वाला है क्योंिक वह संसार में सबको व्या करके िःथत है ।(13)

सविन्ियगुणाभासं सविन्ियिवविजर्तम।्
अस ं सवर्भच्
ृ चैव िनगुण
र् ं गुणभो ृ च।।14।।

वह सम्पूणर् इिन्ियों के िवषयों को जानने वाला है , परन्तु वाःतव में सब इिन्ियों से


रिहत है तथा आसि रिहत होने पर भी सबका धारण-पोषण करने वाला और िनगुण
र् होने पर
भी गुणों को भोगने वाला है ।(14)

बिहरन्त भूतानामचरं चरमेव च।


सूआमत्वा दिवज्ञेयं दरःथं
ू चािन्तके च तत।।
् 15।।

वह चराचर सब भूतों के बाहर भीतर पिरपूणर् है और चर-अचर भी वही है और वह सूआम


होने से अिवज्ञेय है तथा अित समीप में और दरू में भी वही िःथत है ।(15)

अिवभ ं च भूतेषु िवभ िमव च िःथतम।्


भूतभतृर् च तज्ज्ञेयं मिसंणु ूभिवंणु च।।16।।

वह परमात्मा िवभागरिहत एक रूप से आकाश के सदृश पिरपूणर् होने पर भी चराचर


सम्पूणर् भूतों में िवभ -सा िःथत ूतीत होता है तथा वह जानने योग्य परमात्मा के िवंणुरूप से
भूतों को धारण-पोषण करने वाला और रुिरूप से संहार करने वाला तथा ॄ ारूप से सबको
उत्पन्न करने वाला है ।(16)

ज्योितषामिप तज्ज्योितःतमसः परमुच्यते।


ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृिद सवर्ःय िवि तम।।
् 17।।
वह परॄ ज्योितयों का भी ज्योित और माया से अत्यन्त परे कहा जाता है । वह
परमात्मा बोधःवरूप, जानने के योग्य तथा त वज्ञान से ूा करने योग्य है और सबके हृदय मे
िवशेषरूप से िःथत है ।(17)

इित क्षेऽं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चो ं समासतः।


म एति ज्ञाय म ावायोपप ते।।18।।

इस ूकार क्षेऽ तथा ज्ञान और जानने योग्य परमात्मा का ःवरूप संक्षेप से कहा गया।
मेरा भ इसको त व से जानकर मेरे ःवरूप को ूा होता है ।(18)

ूकृ ितं पुरुषं चैव िव यनादी उभाविप।


िवकारां गुणां व
ै िवि ूकृ ितसम्भवान।।
् 19।।

ूकृ ित और पुरुष Ð इन दोनों को ही तू अनािद जान और राग- े षािद िवकारों को तथा


िऽगुणात्मक सम्पूणर् पदाथ को भी ूकृ ित से ही उत्पन्न जान।(19)

कायर्करणकतृत्र् वे हे तुः ूकृ ितरूच्यते।


पुरुषः सुखदःखानां
ु भो ृ त्वे हे तुरुच्यते।।20।।

कायर् और करण को उत्पन्न करने में हे तु ूकृ ित कही जाती है और जीवात्मा सुख-दःखों

के भो ापन में अथार्त ् भोगने में हे तु कहा जाता है ।(20)

पुरुषः ूकृ ितःथो िह भुं े ूकृ ितजान्गुणान।्


कारणं गुणसंगोऽःय सदस ोिनजन्मसु।।21।।

ूकृ ित में िःथत ही पुरुष ूकृ ित से उत्पन्न िऽगुणात्मक पदाथ को भोगता है और इन


गुणों का संग ही इस जीवात्मा का अच्छी बुरी योिनयों में जन्म लेने का कारण है ।(21)

उपि ानुमन्ता च भतार् भो ा महे रः।


परमात्मेित चाप्यु ो दे हेऽिःमन्पुरुषः परः।।22।।

इस दे ह में िःथत वह आत्मा वाःतव में परमात्मा ही है । वही साक्षी होने से उपि ा और
यथाथर् सम्मित दे ने वाला होने से अनुमन्ता, सबका धारण-पोषण करने वाला होने से भतार्,
जीवरूप से भो ा, ॄ ा आिद का भी ःवामी होने से महे र और शु सिच्चदानन्दघन होने से
परमात्मा-ऐसा कहा गया है ।(22)
य एवं वेि पुरुषं ूकृ ितं च गुणःै सह।
सवर्था वतर्मानोऽिप न स भूयोऽिभजायते।।23।।

इस ूकार पुरुष को और गुणों के सिहत ूकृ ित को जो मनुंय त व से जानता है , वह


सब ूकार से कतर्व्यकमर् करता हआ
ु भी िफर नहीं जन्मता।(23)

ध्यानेनात्मिन पँयिन्त केिचदात्मानमात्मना।


अन्ये सांख्येन योगेन कमर्योगेन चापरे ।।24।।

उस परमात्मा को िकतने ही मनुंय तो शु हई


ु सूआम बुि से ध्यान के ारा हृदय में
दे खते हैं । अन्य िकतने ही ज्ञानयोग के ारा और दसरे
ू िकतने ही कमर्योग के ारा दे खते हैं
अथार्त ् ूा करते हैं ।(24)

अन्ये त्वेवमजानन्तः ौुत्वान्येभ्य उपासते।


तेऽिप चािततरन्त्येव मृत्युं ौुितपरायणाः।।25।।

परन्तु इनसे दसरे


ू अथार्त ् जो मन्द बुि वाले पुरुष हैं , वे इस ूकार न जानते हए
ु दसरों

से अथार्त ् त व के जानने वाले पुरुषों से सुनकर ही तदनुसार उपासना करते हैं और वे
ौवणपरायण पुरुष भी मृत्युरूप संसार सागर को िनःसंदेह तर जाते हैं ।(25)

यावत्संजायते िकंिचत्स वं ःथावरजंगमम।्


क्षेऽक्षेऽज्ञसंयोगा ि ि भरतषर्भ।।26।।

हे अजुन
र् ! यावन्माऽ िजतने भी ःथावर-जंगम ूाणी उत्पन्न होते हैं , उन सबको तू क्षेऽ
और क्षेऽज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न जान।(26)

समं सवषु भूतेषु ित न्तं परमे रम।्


िवनँयत्ःविवनँयन्तं पँयित स पँयित।।27।।

जो पुरुष न होते हए
ु सब चराचर भूतों में परमे र को नाशरिहत और समभाव से िःथत
दे खता है , वही यथाथर् दे खता है ।(27)

समं पँयिन्ह सवर्ऽ समविःथतमी रम।्


न िहनःत्यात्मनात्मानं ततो याित परां गितम।।
् 28।।
क्योंिक जो पुरुष सबमें समभाव से िःथत परमे र को समान दे खता हआ
ु अपने ारा
अपने को न नहीं करता, इससे वह परम गित को ूा होता है ।(28)

ूकृ त्यैव च कमार्िण िबयमाणािन सवर्शः।


यः पँयित तथात्मानमकतार्रं स पँयित।।29।।

और जो पुरुष सम्पूणर् कम को सब ूकार से ूकृ ित के ारा ही िकये जाते हए


ु दे खता है
और आत्मा को अकतार् दे खता है , वही यथाथर् दे खता है ।(29)

यदा भूतपृथग्भावमेकःथमनुपँयित।
तत एव च िवःतारं ॄ सम्प ते तदा।।30।।

िजस क्षण यह पुरुष भूतों पृथक-पृथक भाव को एक परमात्मा में ही िःथत तथा उस
परमात्मा से ही सम्पूणर् भूतों का िवःतार दे खता है , उसी क्षण वह सिच्चदानन्दघन ॄ को ूा
हो जाता है ।(30)

अनािदत्वािन्नगुण
र् त्वात्परमात्मायमव्ययः।
शरीरःथोऽिप कौन्तेय न करोित न िलप्यते।।31।।

हे अजुन
र् ! अनािद होने से और िनगुण
र् होने से यह अिवनाशी परमात्मा शरीर में िःथत
होने पर भी वाःतव में न तो कुछ करता है और न िल ही होता है ।(31)

यथा सवर्गतं सौआम्यादाकाशं नोपिलप्यते।


सवर्ऽाविःथतो दे हे तथात्मा नोपिलप्यते।।32।।

िजस ूकार सवर्ऽ व्या आकाश सूआम होने के कारण िल नहीं होता, वैसे ही दे ह में
सवर्ऽ िःथत आत्मा िनगुण
र् होने के कारण दे ह के गुणों से िल नहीं होता।(32)

यथा ूकाशयत्येकः कृ त्ःनं लोकिममं रिवः।


क्षेऽं क्षेऽी तथा कृ त्ःनं ूकाशयित भारत।।33।।

हे अजुन
र् ! िजस ूकार एक ही सूयर् इस सम्पूणर् ॄ ाण्ड को ूकािशत करता है , उसी
ूकार एक ही आत्मा सम्पूणर् क्षेऽ को ूकािशत करता है ।(33)
क्षेऽक्षेऽज्ञयोरे वमन्तरं ज्ञानचक्षुषा।
भूतूकृ ितमोक्षं च ये िवदयार्
ु िन्त ते परम।।
् 34।।

इस ूकार क्षेऽ और क्षेऽज्ञ के भेद को तथा कायर्सिहत ूकृ ित से मु होने का जो पुरुष


ज्ञान-नेऽों ारा त व से जानते हैं , वे महात्माजन परॄ परमात्मा को ूा होते हैं ।(34)
ॐ तत्सिदित ौीमद् भगवद् गीतासूपिनषत्सु ॄ िव ायां योगशा े
ौीकृ ंणाजुन
र् संवादे क्षेऽक्षेऽज्ञिवभागयोगो नाम ऽयोदशोऽध्यायः ।।13।।
इस ूकार उपिनषद, ॄ िव ा तथा योगशा रूप ौीमद् भगवद् गीता के
ौीकृ ंण-अजुन
र् संवाद में क्षेऽक्षेऽज्ञिवभागयोग नामक तेरहवाँ अध्याय संपण
ू र् हआ।

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(अनुबम)

चौदहवें अध्याय का माहात्म्य



ौीमहादे वजी कहते हैं – पावर्ती ! अब मैं भव-बन्धन से छटकारा पाने के साधनभूत
चौदहवें अध्याय का माहात्म्य बतलाता हँू , तुम ध्यान दे कर सुनो। िसंहल ीप में िवबम बैताल
नामक एक राजा थे, जो िसंह के समान पराबमी और कलाओं के भण्डार थे। एक िदन वे िशकार
खेलने के िलए उत्सुक होकर राजकुमारों सिहत दो कुितयों को साथ िलए वन में गये। वहाँ
पहँु चने पर उन्होंने तीो गित से भागते हए
ु खरगोश के पीछे अपनी कुितया छोड़ दी। उस समय
सब ूािणयों के दे खते-दे खते खरगोश इस ूकार भागने लगा मानो कहीं उड़ गया है । दौड़ते-दौड़ते
बहत
ु थक जाने के कारण वह एक बड़ी खंदक (गहरे गड्डे ) में िगर पड़ा। िगरने पर भी कुितया
के हाथ नहीं आया और उस ःथान पर जा पहँु चा, जहाँ का वातावरण बहत
ु ही शान्त था। वहाँ
ू कर िगरे
हिरण िनभर्य होकर सब ओर वृक्षों की छाया में बैठे रहते थे। बंदर भी अपने आप टट
हए
ु नािरयल के फलों और पके हए
ु आमों से पूणर् तृ रहते थे। वहाँ िसंह हाथी के बच्चों के साथ
खेलते और साँप िनडर होकर मोर की पाँखों में घुस जाते थे। उस ःथान पर एक आौम के
भीतर वत्स नामक मुिन रहते थे, जो िजतेिन्िय और शान्त-भाव से िनरन्तर गीता के चौदहवें
अध्याय का पाठ िकया करते थे। आौम के पास ही वत्समुिन के िकसी िशंय ने अपना पैर
धोया था, (ये भी चौदहवें अध्याय का पाठ करने वाले थे।) उसके जल से वहाँ की िमट्टी गीली
हो गयी थी। खरगोश का जीवन कुछ शेष था। वह हाँफता हआ
ु आकर उसी कीचड़ में िगर पड़ा।
उसके ःपशर्माऽ से ही खरगोश िदव्य िवमान पर बैठकर ःवगर्लोक को चला गया िफर कुितया भी
उसका पीछा करती हई
ु आयी। वहाँ उसके शरीर में भी कीचड़ के कुछ छींटे लग गये िफर भूख-
प्यास की पीड़ा से रिहत हो कुितया का रूप त्यागकर उसने िदव्यांगना का रमणीय रूप धारण
कर िलया तथा गन्धव से सुशोिभत िदव्य िवमान पर आरूढ़ हो वह भी ःवगर्लोक को चली
गयी। यह दे खकर मुिन के मेधावी िशंय ःवकन्धर हँ सने लगे। उन दोनों के पूवज
र् न्म के वैर का
कारण सोचकर उन्हें बड़ा िवःमय हआ
ु था। उस समय राजा के नेऽ भी आ यर् से चिकत हो
उठे । उन्होंने बड़ी भि के साथ ूणाम करके पूछाः
'िवूवर ! नीच योिन में पड़े हए
ु दोनों ूाणी Ð कुितया और खरगोश ज्ञानहीन होते हए
ु भी
जो ःवगर् में चले गये Ð इसका क्या कारण है ? इसकी कथा सुनाइये।'
िशंय ने कहाः भूपाल ! इस वन में वत्स नामक ॄा ण रहते हैं । वे बड़े िजतेिन्िय
महात्मा हैं । गीता के चौदहवें अध्याय का सदा जप िकया करते हैं । मैं उन्हीं का िशंय हँू , मैंने
भी ॄ िव ा में िवशेषज्ञता ूा की है । गुरुजी की ही भाँित मैं भी चौदहवें अध्याय का ूितिदन
जप करता हँू । मेरे पैर धोने के जल में लोटने के कारण यह खरगोश कुितया के साथ ःवगर्लोक
को ूा हआ
ु है । अब मैं अपने हँ सने का कारण बताता हँू ।
महारा में ूत्युदक नामक महान नगर है । वहाँ केशव नामक एक ॄा ण रहता था, जो
कपटी मनुंयों में अमगण्य था। उसकी ी का नाम िवलोभना था। वह ःवछन्द िवहार करने
वाली थी। इससे बोध में आकर जन्मभर के वैर को याद करके ॄा ण ने अपनी ी का वध कर
डाला और उसी पाप से उसको खरगोश की योिन में जन्म िमला। ॄा णी भी अपने पाप के
कारण कुितया हई।

ौीमहादे वजी कहते हैं – यह सारी कथा सुनकर ौ ालु राजा ने गीता के चौदहवें अध्याय
का पाठ आरम्भ कर िदया। उससे उन्हें परमगित की ूाि हई।

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(अनुबम)

चौदहवाँ अध्यायः गुणऽयिवभागयोग


तेरहवें अध्याय में 'क्षेऽ' और 'क्षेऽज्ञ' के लक्षण बताकर उन दोनों के ज्ञान को ही ज्ञान
कहा और क्षेऽ का ःवरूप, ःवभाव िवकार तथा उसके त वों की उत्पि का बम आिद बताया।
19वें ोक से ूकृ ित-पुरुष के ूकरण का आरं भ करके तीनों गुणों की ूकृ ित से होने वाले कहे
तथा 21वीं ोक में यह बात भी बतायी िक पुरुष का िफर-िफर से अच्छी या अधम योिनयों में
जन्म पाने का कारण गुणों का संग ही है । अब उस स व, रज और तम इन तीनों गुणों के संग

से िकस योिन में जन्म होता है , गुणों से छटने ू हए
का उपाय कौन सा है , गुणों से छटे ु पुरुष का
लक्षण तथा आचरण कैसा होता है .... इन सब बातों को जानने की ःवाभािवक ही इच्छा होती है ।
इसिलए उस िवषय को ःप करने के िलए चौदहवें अध्याय का आरम्भ करते हैं ।
तेरहवें अध्याय में वणर्न िकये गये ज्ञान को ज्यादा ःप तापूवक
र् समझाने के िलए
भगवान ौीकृ ंण चौदहवें अध्याय के पहले दो ोक में ज्ञान का महत्व बताकर िफर से उसका
वणर्न करते हैं Ð

।। अथ चतुदर्शोऽध्यायः ।।
ौीभगवानुवाच
परं भूयः ूवआयािम ज्ञानानां ज्ञानमु मम।्
यज्ज्ञात्वा मुनयः सव परां िसि िमतो गताः।।1।।

ौी भगवान बोलेः ज्ञानों में भी अित उ म उस परम ज्ञान को मैं िफर कहँू गा, िजसको
जानकर सब मुिनजन इस संसार से मु होकर परम िसि को ूा हो गये हैं ।(1)

इदं ज्ञानमुपािौत्य मम साधम्यर्मागताः।


सगऽिप नोपजायन्ते ूलये न व्यथिन्त च।।2।।

इस ज्ञान को आौय करके अथार्त ् धारण करके मेरे ःवरूप को ूा हए


ु पुरुष सृि के
आिद में पुनः उत्पन्न नहीं होते और ूलयकाल में भी व्याकुल नहीं होते।(2)

मम योिनमर्हद्ॄ तिःमन्गभ दधाम्यहम।्


संभवः सवर्भत
ू ानां ततो भवित भारत।।3।।

हे अजुन
र् ! मेरी महत ्-ॄ रूप मूल ूकृ ित सम्पूणर् भूतों की योिन है अथार्त ् गभार्धान का
ःथान है और मैं उस योिन में चेतन समुदायरूप को ःथापन करता हँू । उस जड़-चेतन के संयोग
से सब भूतों की उत्पि होती है ।(3)

सवर्योिनषु कौन्तेय मूतय


र् ः सम्भविन्त याः।
तासां ॄ मह ोिनरहं बीजूदः िपता।।4।।

हे अजुन
र् ! नाना ूकार की सब योिनयों में िजतनी मूितर्याँ अथार्त ् शरीरधारी ूाणी
उत्पन्न होते हैं , ूकृ ित तो उन सबकी गभर् धारण करने वाली माता है और मैं बीज का ःथापन
करने वाला िपता हँू ।(4)

स वं रजःतम इित गुणाः ूकृ ितसंभवाः।


िनबध्निन्त महाबाहो दे हे दे िहनमव्ययम।।
् 5।।

हे अजुन
र् ! स वगुण, रजोगुण और तमोगुण Ð ये ूकृ ित से उत्पन्न तीनों गुण अिवनाशी
जीवात्मा को शरीर में बाँधते हैं ।(5)

तऽ स वं िनमर्लत्वात्ूकाशकमनामयम।्
सुखसंगेन बध्नाित ज्ञानसंगेन चानघ।।6।।

हे िनंपाप ! उन तीनों गुणों में स वगुण तो िनमर्ल होने के कारण ूकाश करने वाला
और िवकार रिहत है , वह सुख के सम्बन्ध से और ज्ञान के सम्बन्ध से अथार्त ् अिभमान से
बाँधता है ।(6)

रजो रागात्मकं िवि तृंणासंगसमु वम।्


तिन्नबध्नाित कौन्तेय कमर्सग
ं ेन दे िहनम।।
् 7।।
तमःत्वज्ञानजं िवि मोहनं सवर्देिहनाम।्
ूमादालःयिनिािभःतिन्नबध्नाित भारत।।8।।

हे अजुन
र् ! रागरूप रजोगुण को कामना और आसि से उत्पन्न जान। वह इस जीवात्मा
को कम के और उनके फल के सम्बन्ध से बाँधता है । सब दे हािभमािनयों को मोिहत करने वाले
तमोगुण को तो अज्ञान से उत्पन्न जान। वह इस जीवात्मा को ूमाद, आलःय और िनिा के
ारा बाँधता है ।(7,8)

स वं सुखे संजयित रजः कमर्िण भारत।


ज्ञानमावृत्य तु तमः ूमादे संजयत्युत।।9।।

हे अजुन
र् ! स व गुण सुख में लगाता है और रजोगुण कमर् में तथा तमोगुण तो ज्ञान को
ढककर ूमाद में लगाता है ।(9)

रजःतमःचािभभूय स वं भवित भारत।


रजः स वं तम व
ै तमः स वं रजःतथा।।10।।

हे अजुन
र् ! रजोगुण और तमोगुण को दबाकर स वगुण, स वगुण और तमोगुण को
दबाकर रजोगुण, वैसे ही स वगुण और रजोगुण को दबाकर तमोगुण होता है अथार्त ् बढ़ता
है ।(10)
सवर् ारे षु दे हेऽिःमन्ूकाश उपजायते।
ज्ञानं यदा तदा िव ाि वृ ं स विमत्युत।।11।।

िजस समय इस दे ह में तथा अन्तःकरण और इिन्ियों में चेतनता और िववेकशि


उत्पन्न होती है , उस समय ऐसा जानना चािहए स वगुण बढ़ा है ।(11)

लोभः ूवृि रारम्भः कमर्णामशमः ःपृहा।


रजःयेतािन जायन्ते िववृ े भरतषर्भ।।12।।

हे अजुन
र् ! रजोगुण के बढ़ने पर लोभ, ूवृि , ःवाथर्बुि से कम का सकामभाव से
आरम्भ, अशािन्त और िवषयभोगों की लालसा Ð ये सब उत्पन्न होते हैं ।(12)

अूकाशोऽूवृि ूमादो मोह एव च।


तमःयेतािन जायन्ते िववृ े कुरुनन्दन।।13।।

हे अजुन
र् ! तमोगुण के बढ़ने पर अन्तःकरण व इिन्ियों में अूकाश, कतर्व्य-कम में
अूवृि और ूमाद अथार्त ् वयथर् चे ा और िनिािद अन्तःकरण की मोिहनी वृि याँ Ð ये सभी
उत्पन्न होते हैं ।(13)

यदा सत्वे ूवृ े तु ूलयं याित दे हभृत।्


तदो मिवदां लोकानमलान्ूितप ते।।14।।

जब यह मनुंय स वगुण की वृि में मृत्यु को ूा होता है , तब तो उ म कमर् करने


वालों के िनमर्ल िदव्य ःवगार्िद लोकों को ूा होता है ।(14)

रजिस ूलयं गत्वा कमर्सिं गषु जायते।


तथा ूलीनःतमिस मूढयोिनषु जायते।।15।।

रजोगुण के बढ़ने पर मृत्यु को ूा होकर कम की आसि वाले मनुंयों में उत्पन्न


होता है , तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरा हआ
ु मनुंय कीट, पशु आिद मूढ योिनयों में उत्पन्न
होता है ।(15)

कमर्णः सुकृतःयाहःु साि वकं िनमर्लं फलम।्


रजसःतु फलं दःखमज्ञानं
ु तमसः फलम।।
् 16।।
ौे कमर् का तो साि वक अथार्त ् सुख, ज्ञान और वैराग्यािद िनमर्ल फल कहा है । राजस
कमर् का फल दःख
ु तथा तामस कमर् का फल अज्ञान कहा है ।(16)

स वात्संजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च।


ूमामोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च।।17।।

स वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है और रजोगुण से िनःसंदेह लोभ तथा तमोगुण से ूमाद
और मोह उत्पन्न होते हैं और अज्ञान भी होता है ।(17)

ऊध्व गच्छिन्त स वःथा मध्ये ित िन्त राजसाः।


जघन्यगुणवृि ःथा अधो गच्छिन्त तामसाः।।18।।

स वगुण में िःथत पुरुष ःवगार्िद उच्च लोकों को जाते हैं , रजोगुण में िःथत राजस पुरुष
मध्य में अथार्त ् मनुंयलोक में ही रहते हैं और तमोगुण के कायर्रूप िनिा, ूमाद और
आलःयािद में िःथत तामस पुरुष अधोगित को अथार्त ् कीट, पशु आिद नीच योिनयों को तथा
नरकों को ूा होते हैं ।(18)

नान्यं गुणेभ्यः कतार्रं यदा ि ानुपँयित।


गुणेभ्य परं वेि म ावं सोऽिधगच्छित।।19।।

िजस समय ि ा तीनो गुणों के अितिर अन्य िकसी को कतार् नहीं दे खता और तीनों
गुणों से अत्यन्त परे सिच्चदानन्दघनःवरूप मुझ परमात्मा को त व से जानता है , उस समय
वह मेरे ःवरूप को ूा होता है ।(19)

गुणानेतानतीत्य ऽीन्दे ही दे हसमु वान।्


जन्ममृत्युजरादःखै
ु िवर्मु ोऽमृतम ुते।।20।।

यह शरीर की उत्पि के कारणरूप इन तीनों गुणों को उल्लंघन करके जन्म, मृत्यु,


वृ ावःथा और सब ूकार के दःखों
ु से मु हआ
ु परमानन्द को ूा होता है ।(20)

अजुन
र् उवाच
कैिलर्गै ीन्गुणानेतानतीतो भवित ूभो।
िकमाचारः कथं चैतां ीन्गुणानितवतर्ते।।21।।
अजुन
र् बोलेः इन तीनों गुणों से अतीत पुरुष िकन-िकन लक्षणों से यु होता है और िकस
ूकार के आचरणों वाला होता है तथा हे ूभो ! मनुंय िकस उपाय से इन तीनों गुणों से अतीत
होता है ।

ौीभगवानुवाच
ूकाशं च ूवृि ं च मोहमेव च पाण्डव।
न ेि संूवृ ािन न िनवृ ािन कांक्षित।।22।।
उदासीनवदासीनो गुणय
ै न िवचाल्यते।
गुणा वतर्न्त इत्ये योऽवित ित नेंगते।।23।।
समदःखसु
ु खः ःवःथः समलो ाँमकांचनः।
तुल्यिूयािूयो धीरःतुल्यिनन्दात्मसंःतुित:।24।।
मानापमानयोःतुल्यःतुल्यो िमऽािरपक्षयोः।
सवार्रम्भपिरत्यागी गुणातीतः स उच्यते।।25।।

ौी भगवान बोलेः हे अजुन


र् ! जो पुरुष स वगुण के कायर्रूप ूकाश को और रजोगुण के
कायर्रूप ूवृि को तथा तमोगुण के कायर्रूप मोह को भी न तो ूवृ होने पर उनसे े ष करता
है और न िनवृ होने पर उनकी आकांक्षा करता है । जो साक्षी के सदृश िःथत हआ
ु गुणों के ारा
िवचिलत नहीं िकया जा सकता और गुण ही गुणों में बरतते हैं Ð ऐसा समझता हआ
ु जो
सिच्चदानन्दघन परमात्मा में एकीभाव से िःथत रहता है और उस िःथित से कभी िवचिलत नहीं
होता। जो िनरन्तर आत्मभाव में िःथत, दःख
ु -सुख को समान समझनेवाला, िमट्टी, पत्थर और
ःवणर् में समान भाववाला, ज्ञानी, िूय तथा अिूय को एक-सा मानने वाला और अपनी िनन्दा
ःतुित में भी समान भाववाला है । जो मान और अपमान में सम है , िमऽ और वैरी के पक्ष में भी
सम है तथा सम्पूणर् आरम्भों में कतार्पन के अिभमान से रिहत है , वह पुरुष गुणातीत कहा जाता
है ।(22,23,24,25)

मां च योऽव्यिभचारे ण भि योगने सेवते।


स गुणान्समतीत्यैतान्ॄ भूयाय कल्पते।।26।।

और जो पुरुष अव्यिभचारी भि योग के ारा मुझको िनरन्तर भजता है , वह भी इन


तीनों गुणों को भली भाँित लाँघकर सिच्चदानन्दघन ॄ को ूा होने के िलए योग्य बन जाता
है ।(26)

ॄ णो िह ूित ाहममृतःयाव्ययःय च।
शा तःय च धमर्ःय सुखःयैकािन्तकःय च।।27।।

क्योंिक उस अिवनाशी परॄ का और अमृत का तथा िनत्यधमर् का और अखण्ड एकरस


आनन्द का आौय मैं हँू ।(27)
ॐ तत्सिदित ौीमद् भगवद् गीतासूपिनषत्सु ॄ िव ायां योगशा े
ौीकृ ंणाजुन
र् संवादे गुणऽयिवभागयोगो नाम चतुदर्शोऽध्यायः ।।14।।
इस ूकार उपिनषद, ॄ िव ा तथा योगशा रूप ौीमद् भगवद् गीता के
ौीकृ ंण-अजुन
र् संवाद में गुणऽयिवभागयोग नामक चौदहवाँ अध्याय संपूणर् हआ।

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
(अनुबम)

पंिहवें अध्याय का माहात्म्य


ौीमहादे वजी कहते हैं – पावर्ती ! अब गीता के पंिहवें अध्याय का माहात्म्य सुनो। गौड़
दे श में कृ पाण नामक एक राजा थे, िजनकी तलवार की धार से यु में दे वता भी पराःत हो
जाते थे। उनका बुि मान सेनापित श और शा की कलाओं का भण्डार था। उसका नाम था
सरभमेरुण्ड। उसकी भुजाओं में ूचण्ड बल था। एक समय उस पापी ने राजकुमारों सिहत
महाराज का वध करके ःवयं ही राज्य करने का िवचार िकया। इस िन य के कुछ ही िदनों बाद
वह है जे का िशकार होकर मर गया। थोड़े समय में वह पापात्मा अपने पूवक
र् मर् के कारण िसन्धु
दे श में एक तेजःवी घोड़ा हआ।
ु उसका पेट सटा हआ
ु था। घोड़े के लक्षणों का ठीक-ठाक ज्ञान
रखने वाले िकसी वैँय पुऽ ने बहत
ु सा मूल्य दे कर उस अ को खरीद िलया और य के साथ
उसे राजधानी तक ले आया। वैँयकुमार वह अ राजा को दे ने को लाया था। य िप राजा उस
वैँयकुमार से पिरिचत थे, तथािप ारपाल ने जाकर उसके आगमन की सूचना दी। राजा ने पूछाः
िकसिलए आये हो? तब उसने ःप शब्दों में उ र िदयाः 'दे व ! िसन्धु दे श में एक उ म लक्षणों
से सम्पन्न अ था, िजसे तीनों लोकों का एक र समझकर मैंने बहत
ु सा मूल्य दे कर खरीद
िलया है ।' राजा ने आज्ञा दीः 'उस अ को यहाँ ले आओ।'
वाःतव में वह घोड़ा गुणों में उच्चैःौवा के समान था। सुन्दर रूप का तो मानो घर ही
था। शुभ लक्षणों का समुि जान पड़ता था। वैँय घोड़ा ले आया और राजा ने उसे दे खा। अ का
लक्षण जानने वाले अमात्यों ने इसकी बड़ी ूशंसा की। सुनकर राजा अपार आनन्द में िनमग्न हो
गये और उन्होंने वैँय को मुह
ँ माँगा सुवणर् दे कर तुरन्त ही उस अ को खरीद िलया। कुछ िदनों
के बाद एक समय राजा िशकार खेलने के िलए उत्सुक हो उसी घोड़े पर चढ़कर वन में गये। वहाँ
मृगों के पीछे उन्होंने अपना घोड़ा बढ़ाया। पीछे -पीछे सब ओर से दौड़कर आते हए
ु समःत
ू गया। वे िहरनों
सैिनकों का साथ छट ारा आकृ होकर बहत
ु दरू िनकल गये। प्यास ने उन्हें
व्याकुल कर िदया। तब वे घोड़े से उतरकर जल की खोज करने लगे। घोड़े को तो उन्होंने वृक्ष के
तने के साथ बाँध िदया और ःवयं एक चट्टान पर चढ़ने लगे। कुछ दरू जाने पर उन्होंने दे खा

िक एक प े का टकड़ा हवा से उड़कर िशलाखण्ड पर िगरा है । उसमें गीता के पंिहवें अध्याय का
आधा ोक िलखा हआ
ु था। राजा उसे पढ़ने लगे। उनके मुख से गीता के अक्षर सुनकर घोड़ा
तुरन्त िगर पड़ा और अ शरीर को छोड़कर तुरंत ही िदव्य िवमान पर बैठकर वह ःवगर्लोक को
चला गया। तत्प ात ् राजा ने पहाड़ पर चढ़कर एक उ म आौम दे खा, जहाँ नागकेशर, केले,
आम और नािरयल के वृक्ष लहरा रहे थे। आौम के भीतर एक ॄा ण बैठे हए
ु थे, जो संसार की
वासनाओं से मु थे। राजा ने उन्हे ूणाम करके बड़े भि के साथ पूछाः 'ॄ न ् ! मेरा अ
अभी-अभी ःवगर् को चला गया है , उसमें क्या कारण है ?
राजा की बात सुनकर िऽकालदश , मंऽवे ा और महापुरुषों में ौे िवंणुशमार् नामक
ॄा ण ने कहाः 'राजन ! पूवक
र् ाल में तुम्हारे यहाँ जो सरभमेरुण्ड नामक सेनापित था, वह तुम्हें
पुऽों सिहत मारकर ःवयं राज्य हड़प लेने को तैयार था। इसी बीच में है जे का िशकार होकर वह
मृत्यु को ूा हो गया। उसके बाद वह उसी पाप से घोड़ा हआ
ु था। यहाँ कहीं गीता के पंिहवें
अध्याय का आधा ोक िलखा िमल गया था, उसे ही तुम बाँचने लगे। उसी को तुम्हारे मुख से
सुनकर वह अ ःवगर् को ूा हआ
ु है ।'
र् त सैिनक उन्हें ढँू ढते हए
तदनन्तर राजा के पा व ु वहाँ आ पहँु चे। उन सबके साथ ॄा ण
को ूणाम करके राजा ूसन्नतापूवक
र् वहाँ से चले और गीता के पंिहवें अध्याय के ोकाक्षरों से
अंिकत उसी पऽ को बाँच-बाँचकर ूसन्न होने लगे। उनके नेऽ हषर् से िखल उठे थे। घर आकर
उन्होंने मन्ऽवे ा मिन्ऽयों के साथ अपने पुऽ िसंहबल को राज्य िसंहासन पर अिभिष िकया
और ःवयं पंिहवें अध्याय के जप से िवशु िच होकर मोक्ष ूा कर िलया।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

पंिहवाँ अध्यायः पुरुषो मयोग


चौदहवें अध्याय में ोक 5 से 19 तक तीनों गुणों का ःवरूप, उनके कायर् उनका
बंधनःवरूप और बंधे हए
ु मनुंय की उ म, मध्यम आिद गितयों का िवःतारपूवक
र् वणर्न िकया।
ोक 19 तथा 20 में उन गुणों से रिहत होकर भगवद् भाव को पाने का उपाय और फल बताया।
िफर अजुन
र् के पूछने से 22वें ोक से लेकर 25वें ोक तक गुणातीत पुरुष के लक्षणों और
आचरण का वणर्न िकया। 26वें ोक में सगुण परमे र को अनन्य भि योग तथा गुणातीत
होकर ॄ ूाि का पाऽ बनने का सरल उपाय बताया।
अब वह भि योगरूप अनन्य ूेम उत्पन्न करने के उ े ँय से सगुण परमे र के गुण,
ूभाव और ःवरूप का तथा गुणातीत होने में मुख्य साधन वैराग्य और भगवद् शरण का वणर्न
करने के िलए पंिहवाँ अध्याय शुरु करते हैं । इसमें ूथम संसार से वैराग्य पैदा करने हे तु
भगवान तीन ोक ारा वृक्ष के रूप में संसार का वणर्न करके वैराग्यरूप श ारा काट डालने
को कहते हैं ।

।। अथ पंचदशोऽध्यायः ।।
ौीभगवानुवाच
ऊध्वर्मल
ू मधःशाखम त्थं ूाहरव्ययम।
ु ्
छन्दांिस यःय पणार्िन यःतं वेद स वेदिवत।।
् 1।।
ौी भगवान बोलेः आिदपुरुष परमे ररूप मूलवाले और ॄ ारूप मुख्य शाखावाले िजस
संसाररूप पीपल के वृक्ष को अिवनाशी कहते हैं , तथा वेद िजसके प े कहे गये हैं Ð उस संसाररूप
वृक्ष को जो पुरुष मूलसिहत त व से जानता है , वह वेद के तात्पयर् को जानने वाला है ।(1)

अध ोध्व ूसृताःतःय शाखा


गुणूवृ ा िवषयूवालाः।
अध मूलान्यनुसत
ं तािन
कमार्नुबन्धीिन मनुंयलोके।।2।।
उस संसार वृक्ष की तीनों गुणोंरूप जल के ारा बढ़ी हई
ु और िवषय-भोगरूप कोंपलोंवाली
दे व, मनुंय और ितयर्क् आिद योिनरूप शाखाएँ नीचे और ऊपर सवर्ऽ फैली हई
ु हैं तथा
मनुंयलोक में कम के अनुसार बाँधनेवाली अहं ता-ममता और वासनारूप जड़ें भी नीचे और ऊपर
सभी लोकों में व्या हो रही हैं ।(2)
न रूपमःयेह तथोपलभ्यते
नान्तो न चािदनर् च सम्ूित ा।
अ त्थमेनं सुिवरुढमूल-
मसङ्गश ेण दृढे न िछत्वा।।3।।
ततः पदं तत्पिरमािगर्तव्यं
यिःमन्गता न िनवतर्िन्त भूयः।
तमेव चा ं पुरुषं ूप े
यतः ूवृि ः ूसूता पुराणी।।4।।
इस संसार वृक्ष का ःवरूप जैसा कहा है वैसा यहाँ िवचारकाल में नहीं पाया जाता, क्योंिक
न तो इसका आिद है और न अन्त है तथा न इसकी अच्छी ूकार से िःथित ही है । इसिलए
इस अहं ता-ममता और वासनारूप अित दृढ़ मूलों वाले संसाररूप पीपल के वृक्ष को वैराग्यरुप श
ारा काटकर। उसके प ात ् उस परम पदरूप परमे र को भली भाँित खोजना चािहए, िजसमें
गये हए
ु पुरुष िफर लौटकर संसार में नहीं आते और िजस परमे र से इस पुरातन संसार-वृक्ष की
ूवृि िवःतार को ूा हई
ु है , उसी आिदपुरुष नारायण के मैं शरण हँू Ð इस ूकार दृढ़ िन य
करके उस परमे र का मनन और िनिदध्यासन करना चािहए।(3,4)
िनमार्नमोहा िजतसङ्गदोषा
अध्यात्मिनत्या िविनवृ कामाः।
न् ै िवर्मु ाः सुखदःखसं
ु ज्ञ-ै
गर्च्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत।।
् 5।।
िजसका मान और मोह न हो गया है , िजन्होंने आसि रूप दोष को जीत िलया है ,
िजनकी परमात्मा के ःवरुप में िनत्य िःथित है और िजनकी कामनाएँ पूणरू
र् प से न हो गयी
हैं - वे सुख-दःख
ु नामक न् ों से िवमु ज्ञानीजन उस अिवनाशी परम पद को ूा होते हैं ।(5)
न तद् भासयते सूय न शशांको न पावकः।
य त्वा न िनवतर्न्ते त ाम परमं मम।।6।।
िजस परम पद को ूा होकर मनुंय लौटकर संसार में नहीं आते, उस ःवयं ूकाश परम
पद को न सूयर् ूकािशत कर सकता है , न चन्िमा और अिग्न ही। वही मेरा परम धाम है ।(6)

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।


मनःष ानीिन्ियािण ूकृ ितःथािन कषर्ित।।7।।
शरीरं यदवाप्नोित यच्चाप्युतबामती रः।
गृहीत्वैतािन संयाित वायुगन्
र् धािनवाशयात।।
् 8।।
ौोऽं चक्षुः ःपशर्नं च रसनं याणमेव च।
अिध ाय मन ायं िवषयानुपसेवते।।9।।
इस दे ह में यह सनातन जीवात्मा मेरा अंश है और वही इस ूकृ ित में िःथत मन और
पाँचों इिन्ियों को आकिषर्त करता है ।(7)
वायु गन्ध के ःथान से गन्ध को जैसे महण करके ले जाता है , वैसे ही दे हािद का ःवामी
जीवात्मा भी िजस शरीर का त्याग करता है , उससे इस मन सिहत इिन्ियों को महण करके िफर
िजस शरीर को ूा होता है - उसमें जाता है ।(8)
यह जीवात्मा ौोऽ, चक्षु और त्वचा को तथा रसना, याण और मन को आौय करके-
अथार्त ् इन सबके सहारे से ही िवषयों का सेवन करता है ।(9)
उत्बामन्तं िःथतं वािप भुंजानं वा गुणािन्वतम।्
िवमूढा नानुपँयिन्त ज्ञानचक्षुषः।।10।।
शरीर को छोड़कर जाते हए
ु को अथवा शरीर में िःथत हए
ु को अथवा िवषयों को भोगते
हए
ु को इस ूकार तीनों गुणों से यु हए
ु को भी अज्ञानीजन नहीं जानते, केवल ज्ञानरूप
नेऽोंवाले िववेकशील ज्ञानी ही त व से जानते हैं ।(10)
यतन्तो योिगन न
ै ं पँयन्त्यात्मन्यविःथतम।्
यतन्तोऽप्यकृ तात्मानो नैनं पँयन्त्यचेतसः।।11।।
य करने वाले योगीजन भी अपने हृदय में िःथत इस आत्मा को त व से जानते हैं
िकन्तु िजन्होंने अपने अन्तःकरण को शु नहीं िकया है , ऐसे अज्ञानीजन तो य करते रहने पर
भी इस आत्मा को नहीं जानते।(11)
यदािदत्यगतं तेजो जग ासयतेऽिखलम।्
यच्चन्िमिस यच्चाग्नौ त ेजो िवि मामकम।।
् 12।।
सूयर् में िःथत जो तेज सम्पूणर् जगत को ूकािशत करता है तथा जो तेज चन्िमा में है
और जो अिग्न में है - उसको तू मेरा ही तेज जान।(12)
गामािवँय च भूतािन धारयाम्यहमोजसा।
पुंणािम चौषधीः सवार्ः सोमो भूत्वा रसात्मकः।।13।।
और मैं ही पृथ्वी में ूवेश करके अपनी शि से सब भूतों को धारण करता हँू और
रसःवरूप अथार्त ् अमृतमय चन्िमा होकर सम्पूणर् औषिधयों को अथार्त ् वनःपितयों को पु
करता हँू ।(13)
अहं वै ानरो भूत्वा ूािणना दे हमािौतः।
ूाणापानसमायु ः पचाम्यन्नं चतुिवर्धम।।
् 14।।
मैं ही सब ूािणयों के शरीर में िःथर रहने वाला ूाण और अपान से संयु वै ानर
अिग्नरूप होकर चार ूकार के अन्न को पचाता हँू ।(14)
सवर्ःय चाहं हृिद संिनिव ो
म ः ःमृितज्ञार्नमपोहनं च।
वेदै सवरहमेव वे ो
वेदान्तकृ े दिवदे व चाहम।।
् 15।।
मैं ही सब ूािणयों के हृदय में अन्तयार्मी रूप से िःथत हँू तथा मुझसे ही ःमृित, ज्ञान
और अपोहन होता है और सब वेदों ारा मैं ही जानने के योग्य हँू तथा वेदान्त का कतार् और
वेदों को जानने वाला भी मैं ही हँू ।(15)
ािवमौ पुरुषौ लोके क्षर ाक्षर एव च।
क्षरः सवार्िण भूतािन कूटःथोऽक्षर उच्यते।।16।।
इस संसार में नाशवान और अिवनाशी भी ये दो ूकार के पुरुष हैं । इनमें सम्पूणर्
भूतूािणयों के शरीर तो नाशवान और जीवात्मा अिवनाशी कहा जाता है ।(16)
उ मः पुरुषःत्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकऽयमािवँय िबभत्यर्व्यय ई रः।।17।।
इन दोनों से उ म पुरुष तो अन्य ही है , जो तीनों लोकों में ूवेश करके सबका धारण-
पोषण करता है तथा अिवनाशी परमे र और परमात्मा- इस ूकार कहा गया है ।(17)
यःमात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादिप चो मः।
अतोऽिःम लोके वेदे च ूिथतः पुरुषो मः।।18।।
क्योंिक मैं नाशवान जड़वगर् क्षेऽ से सवर्था अतीत हँू और अिवनाशी जीवात्मा से भी उ म
हँू , इसिलए लोक में और वेद में भी पुरुषो म नाम से ूिस हँू ।(18)
यो मामेवमसंमढ
ू ो जानाित पुरुषो म।्
स सवर्िव जित मां सवर्भावेन भारत।।19।।
भारत ! जो ज्ञानी पुरुष मुझको इस ूकार त व से पुरुषो म जानता है , वह सवर्ज्ञ पुरुष
सब ूकार से िनरन्तर मुझ वासुदेव परमे र को ही भजता है ।(19)
इित गु तमं शा िमदमु ं मयानघ।
एतद् बुद्ध्वा बुि मान्ःयात्कृ तकृ त्य भारत।।20।।
हे िनंपाप अजुन
र् ! इस ूकार यह अित रहःययु गोपनीय शा मेरे ारा कहा गया,
इसको त व से जानकर मनुंय ज्ञानवान और कृ ताथर् हो जाता है ।(20)
ॐ तत्सिदित ौीमद् भगवद् गीतासूपिनषत्सु ॄ िव ायां योगशा े
ौीकृ ंणाजुन
र् संवादे पुरुषो मयोगो नाम पंचदशोऽध्यायः ।।15।।
इस ूकार उपिनषद, ॄ िव ा तथा योगशा रूप ौीमद् भगवद् गीता के
ौीकृ ंण-अजुन
र् संवाद में पुरुषो मयोग नामक पंिहवाँ अध्याय संपूणर् हआ।

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
(अनुबम)

सोलहवें अध्याय का माहात्म्य


ौीमहादे वजी कहते हैं - पावर्ती ! अब मैं गीता के सोलहवें अध्याय का माहात्म्य बताऊँगा,
सुनो। गुजरात में सौरा नामक एक नगर है । वहाँ खड्गबाहु नाम के राजा राज्य करते थे, जो
दसरे
ू इन्ि के समान ूतापी थे। उनका एक हाथी था, जो मद बहाया करता था और सदा मद से
उन्म रहता था। उस हाथी का नाम अिरमदर् न था।
एक िदन रात में वह हठात साँकलों और लोहे के खम्भों को तोड़-फोड़कर बाहर िनकला।
हाथीवान उसके दोनों ओर अंकुश लेकर डरा रहे थे, िकन्तु बोधवश उन सबकी अवहे लना करके
उसने अपने रहने के ःथान- हिथसार को िगरा िदया। उस पर चारों ओर से भालों की मार पड़
रही थी िफर भी हाथीवान ही डरे हए
ु थे, हाथी को तिनक भी भय नहीं होता था। इस कौतूहलपूणर्
घटना को सुनकर राजा ःवयं हाथी को मनाने की कला में िनपुण राजकुमारों के साथ वहाँ आये।
आकर उन्होंने उस बलवान दँ तैले हाथी को दे खा। नगर के िनवासी अन्य काम धंधों की िचन्ता
छोड़ अपने बालकों को भय से बचाते हए
ु बहत
ु दरू खड़े होकर उस महाभयंकर गजराज को दे खते
रहे । इसी समय कोई ॄा ण तालाब से नहाकर उसी मागर् से लौटे । वे गीता के सोलहवें अध्याय
के 'अभयम ्' आिद कुछ ोकों का जप कर रहे थे। पुरवािसयों और पीलवानों (महावतों) ने बहत

मना िकया, िकन्तु िकसी की न मानी। उन्हें हाथी से भय नहीं था, इसिलए वे िचिन्तत नहीं हए।

उधर हाथी अपनी िचंघाड़ से चारों िदशाओं को व्या करता हआ
ु लोगों को कुचल रहा था। वे
ॄा ण उसके बहते हए ू
ु मद को हाथ से छकर कुशलपूवक
र् (िनभर्यता से) िनकल गये। इससे वहाँ
राजा तथा दे खने वाले पुरवािसयों के मन मे इतना िवःमय हआ
ु िक उसका वणर्न नहीं हो
सकता। राजा के कमलनेऽ चिकत हो उठे थे। उन्होंने ॄा ण को बुला सवारी से उतरकर उन्हें
ूणाम िकया और पूछाः 'ॄा ण ! आज आपने यह महान अलौिकक कायर् िकया है , क्योंिक इस
काल के समान भयंकर गजराज के सामने से आप सकुशल लौट आये हैं । ूभो ! आप िकस
दे वता का पूजन तथा िकस मन्ऽ का जप करते हैं ? बताइये, आपने कौन-सी िसि ूा की है ?
ॄा ण ने कहाः राजन ! मैं ूितिदन गीता के सोलहवें अध्याय के कुछ ोकों का जप
िकया करता हँू , इसी से सारी िसि याँ ूा हई
ु हैं ।
ौीमहादे वजी कहते हैं - तब हाथी का कौतूहल दे खने की इच्छा छोड़कर राजा ॄा ण दे वता
को साथ ले अपने महल में आये। वहाँ शुभ मुहू तर् दे खकर एक लाख ःवणर्मि
ु ाओं की दिक्षणा दे
उन्होंने ॄा ण को संतु िकया और उनसे गीता-मंऽ की दीक्षा ली। गीता के सोलहवें अध्याय के
'अभयम ्' आिद कुछ ोकों का अभ्यास कर लेने के बाद उनके मन में हाथी को छोड़कर उसके
कौतुक दे खने की इच्छा जागृत हई
ु , िफर तो एक िदन सैिनकों के साथ बाहर िनकलकर राजा ने
हाथीवानों से उसी म गजराज का बन्धन खुलवाया। वे िनभर्य हो गये। राज्य का सुख-िवलास
के ूित आदर का भाव नहीं रहा। वे अपना जीवन तृणवत ् समझकर हाथी के सामने चले गये।
साहसी मनुंयों में अमगण्य राजा खड्गबाहु मन्ऽ पर िव ास करके हाथी के समीप गये और मद
की अनवरत धारा बहाते हए ू
ु उसके गण्डःथल को हाथ से छकर सकुशल लौट आये। काल के
मुख से धािमर्क और खल के मुख से साधु पुरुष की भाँित राजा उस गजराज के मुख से बचकर
िनकल आये। नगर में आने पर उन्होंने अपने राजकुमार को राज्य पर अिभिष कर िदया तथा
ःवयं गीता के सोलहवें अध्याय का पाठ करके परम गित ूा की
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
(अनुबम)
सोलहवाँ अध्यायः दै वासुरसंपि भागयोग
7 वें अध्याय के 15वें ोक में तथा 9वें अध्याय के 11वें तथा 12 वें ोक में भगवान ने
कहा है ः 'आसुरी तथा राक्षसी ूकृ ित धारण करने वाले मूढ़ लोग मेरा भजन नहीं करते हैं लेिकन
मेरा ितरःकार करते हैं ।' और नौवें अध्याय के 13वें और 14वें ोक में कहाः 'दै वी ूकृ ितवाले
महात्मा पुरुष मुझे सवर्भत
ू ों का आिद और अिवनाशी समझकर अनन्य ूेमसिहत सब ूकार से
हमेशा मेरा भजन करते हैं ', लेिकन दसरे
ू ूसंग चालू होने के कारण वहाँ दै वी और आसुरी ूकृ ित
के लक्षण वणर्न नहीं िकये हैं । िफर पंिहवें अध्याय के 19 वें ोक में भगवान ने कहाः 'जो ज्ञानी
महात्मा मुझ पुरुषो म को जानते हैं वह सवर् ूकार से मेरा भजन करते हैं ।' इस िवषय पर
ःवाभािवक रीित से ही दै वी ूकृ ितवाले ज्ञानी पुरुष के तथा आसुरी ूकृ ितवाले अज्ञानी मनुंय के
लक्षण कौन-कौन से हैं यह जानने के इच्छा होती है । इसिलए भगवान अब दोनों के लक्षण और
ःवभाव का िवःतारपूवक
र् वणर्न करने के िलए यह सोलहवाँ अध्याय आरम्भ करते हैं । इसमें पहले
तीन ोकों ारा दै वी संपि वाले साि वक पुरुष के ःवाभािवक लक्षणों का िवःतारपूवक
र् वणर्न
करते हैं ।

।। अथ षोडशोऽध्यायः ।।
ौीभगवानुवाच
अभयं स वसंशुि ज्ञार्नयोगव्यविःथितः।
दानं दम यज्ञ ःवाध्यायःतप आजर्वम।।
् 1।।
अिहं सा सत्यम्बोधःत्यागः शािन्तरपैशुनम।्
दया भूतेंवलोलु वं मादर् वं ीरचापलम।।
् 2।।
तेजः क्षमा धृितः शौचमिोहो नाितमािनता।
भविन्त सम्पदं दै वीमिभजातःय भारत।।3।।
ौी भगवान बोलेः भय का सवर्था अभाव, अन्तःकरण की पूणर् िनमर्लता, त वज्ञान के
िलए ध्यानयोग में िनरन्तर दृढ़ िःथित और साि वक दान, इिन्ियों का दमन, भगवान, दे वता
और गुरुजनों की पूजा तथा अिग्नहोऽ आिद उ म कम का आचरण और वेद-शा ों का पठन-
पाठन तथा भगवान के नाम और गुणों का कीतर्न, ःवधमर्पालन के िलए क सहन और शरीर
तथा इिन्ियों के सिहत अन्तःकरण की सरलता। मन, वाणी और शरीर में िकसी ूकार भी िकसी
को क न दे ना, यथाथर् और िूय भाषण, अपना अपकार करने वाले पर भी बोध का न होना,
कम में कतार्पन के अिभमान का त्याग, अन्तःकरण की उपरित अथार्त ् िच की चंचलता का
अभाव, िकसी की िनन्दा न करना, सब भूत ूािणयों में हे तरु िहत दया, इिन्ियों का िवषयों के
साथ संयोग होने पर भी उनमें आसि का न होना, कोमलता, लोक और शा से िवरू
आचरण में लज्जा और व्यथर् चे ाओं का अभाव। तेज, क्षमा, धैय,र् बाहर की शुि तथा िकसी में
भी शऽुभाव का न होना और अपने में पूज्यता के अिभमान का अभाव Ð ये सब तो हे अजुन
र् !
दै वी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हए
ु पुरुष के लक्षण हैं (1,2,3)
दम्भो दप ऽिभमान बोधः पारुंयमेव च।
अज्ञानं चािभजातःय पाथर् सम्पदमासुरीम।।
् 4।।
हे पाथर् ! दम्भ, घमण्ड और अिभमान तथा बोध, कठोरता और अज्ञान भी- ये सब
आसुरी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हए
ु पुरुष के लक्षण हैं ।(4)
दै वी सम्पि मोक्षाय िनबन्धायसुरी मता।
मा शुचः सम्पदं दै वीमिभजातोऽिस पाण्डव।।5।।
दै वी-सम्पदा मुि के िलए और आसुरी सम्पदा बाँधने के िलए मानी गयी है । इसिलए हे
अजुन
र् ! तू शोक मत कर, क्योंिक तू दै वी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हआ
ु है ।(5)
ौ भूतसग लोकेऽिःमन्दै व आसुर एव च।
दै वो िवःतरशः ूो आसुरं पाथर् मे ौृणु।।6।।
हे अजुन
र् ! इस लोक में भूतों की सृि यानी मनुंयसमुदाय दो ही ूकार का है ः एक तो
दै वी ूकृ ित वाला और दसरा
ू आसुरी ूकृ ित वाला। उनमें से दै वी ूकृ ितवाला तो िवःतारपूवक
र्
कहा गया, अब तू आसुरी ूकृ ितवाले मनुंय-समुदाय को भी िवःतारपूवक
र् मुझसे सुन(6)
ूवृि ं च िनवृि ं च जना न िवदरासु
ु राः।
न शौचं नािप चाचारो न सत्यं तेषु िव ते।।7।।
आसुर ःवभाव वाले मनुंय ूवृि और िनवृि - इन दोनों को ही नहीं जानते। इसिलए
उनमें न तो बाहर-भीतर की शुि है , न ौे आचरण है और न सत्यभाषण ही है ।(7)
असत्यमूित ं ते जगदाहरनी
ु रम।्
अपरःपरसम्भूतं िकमन्यत्कामहै तुकम।।
् 8।।
वे आसुरी ूकृ ितवाले मनुंय कहा करते हैं िक जगत आौयरिहत, सवर्था असत्य और
िबना ई र के, अपने-आप केवल ी पुरुष के संयोग से उत्पन्न है , अतएव केवल काम ही
इसका कारण है । इसके िसवा और क्या है ?(8)
एतां दृि मव भ्य न ात्मानोऽल्पबु यः।
ूभवन्त्युमकमार्णः क्षयाय जगतोऽिहताः।।9।।
इस िमथ्या ज्ञान को अवलम्बन करके िजनका ःवभाव न हो गया है तथा िजनकी बुि
मन्द है , वे सबका अपकार करने वाले बूरकम मनुंय केवल जगत के नाश के िलए ही समथर्
होते हैं ।(9)
काममािौत्य दंपू
ु रं दम्भमानमदािन्वताः।
मोहाद् गृहीत्वासद्माहान्ूवतर्न्तेऽशुिचोताः।।10।।
वे दम्भ, मान और मद से यु मनुंय िकसी ूकार भी पूणर् न होने वाली कामनाओं का
आौय लेकर, अज्ञान से िमथ्या िस ान्तों को महण करके और ॅ आचरणों को धारण करके
संसार में िवचरते हैं ।(10)
िचन्तामपिरमेयां च ूलयान्तामुपािौताः।
कामोपभोगपरमा एताविदित िनि ताः।11।।
आशापाशशतैबर् ाः कामबोधपरायणाः।
ईहन्ते कामभोगाथर्मन्यायेनाथर्सच
ं यान।।
् 12।।
तथा वे मृत्यु पयर्न्त रहने वाली असंख्य िचन्ताओं का आौय लेने वाले, िवषयभोगों के
भोगने में तत्पर रहने वाले और 'इतना ही सुख है ' इस ूकार मानने वाले होते हैं । वे आशा की
सैंकड़ों फाँिसयों में बँधे हए
ु मनुंय काम-बोध के परायण होकर िवषय भोगों के िलए
अन्यायपूवक
र् धनािद पदाथ का संमह करने की चे ा करते हैं ।(11,12)

इदम मया लब्धिममं ूाप्ःये मनोरथम।्


इदमःतीदमिप मे भिवंयित पुनधर्नम।।
् 13।।
असौ मया हतः शऽुहर्िनंये चापरानािप।
ई रोऽहमहं भोगी िस ोऽहं बलनान्सुखी।।14।।
आढयोऽिभजनवानिःम कोऽन्योिःत सदृशो मया।
यआये दाःयािम मोिदंय इत्यज्ञानिवमोिहताः।।15।।
अनेकिच िवॅान्ता मोहजालसमावृता:।
ूस ाः कामभोगेषु पतिन्त नरकेऽशुचौ।।16।।
वे सोचा करते हैं िक मैंने आज यह ूा कर िलया है और अब इस मनोरथ को ूा कर
लूग
ँ ा। मेरे पास यह इतना धन है और िफर भी यह हो जायेगा। वह शऽु मेरे ारा मारा गया और
उन दसरे
ू शऽुओं को भी मैं मार डालूग
ँ ा। मैं ई र हँू , ऐ यर् को भोगने वाला हँू । मैं सब िसि यों
से यु ु
हँू और बलवान तथा सुखी हँू । मैं बड़ा धनी और बड़े कुटम्बवाला हँू । मेरे समान दसरा

कौन है ? मैं यज्ञ करूँगा, दान दँ ग
ू ा और आमोद-ूमोद करूँगा। इस ूकार अज्ञान से मोिहत रहने
वाले तथा अनेक ूकार से ॅिमत िच वाले मोहरूप जाल से समावृत और िवषयभोगों में अत्यन्त
आस आसुर लोग महान अपिवऽ नरक में िगरते हैं ।(13,14,15,16)
आत्मसंभािवताः ःतब्धा धनमान मदािन्वताः
यजन्ते नामयज्ञैःते दम्भेनािविधपूवक
र् म।।
् 17।।
वे अपने-आपको ही ौे मानने वाले घमण्डी पुरुष धन और मान के मद से यु होकर
केवल नाममाऽ के यज्ञों ारा पाखण्ड से शा िविधरिहत यजन करते हैं ।(17)
अहं कारं बलं दप कामं बोधं च संिौताः।
मामात्मपरदे हेषु ूि षन्तोऽभ्यसूयकाः।।18।।
वे अहं कार, बल, घमण्ड, कामना और बोधािद के परायण और दसरों
ू की िनन्दा करने
वाले पुरुष अपने और दसरों
ू के शरीर में िःथत मुझ अन्तयार्िम से े ष करने वाले होते हैं ।(18)
तानहं ि षतः बूरान्संसारे षु नराधमान।्
िक्षपाम्यजॐमशुभानासुरींवेव योिनषु।।19।।
उन े ष करने वाले पापाचारी और बूरकम नराधमों को मैं संसार में बार-बार आसुरी
योिनयों में डालता हँू ।(19)
आसुरीं योिनमापन्ना मूढा जन्मिन जन्मिन।
मामूाप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गितम।।
् 20।।
हे अजुन
र् ! वे मूढ़ मुझको न ूा होकर ही जन्म-जन्म में आसुरी योिन को ूा होते हैं ,
िफर उससे भी अित नीच गित को ूा होते हैं अथार्त ् घोर नरकों में पड़ते हैं ।(20)
िऽिवधं नरकःयेदं ारं नाशनमात्मनः।
कामः बोधःतथा लोभःतःमादे तत्ऽयं त्यजेत।।
् 21।।
काम, बोध तथा लोभ- ये तीन ूकार के नरक के ार आत्मा का नाश करने वाले अथार्त ्
उसको अधोगित में ले जाने वाले हैं । अतएव इन तीनों को त्याग दे ना चािहए।(21)
एतैिवर्मु ः कौन्तेय तमो ारै ि िभनर्रः।
आचरत्यात्मनः ौेयःततो याित परां गितम।।
् 22।।
हे अजुन
र् ! इन तीनों नरक के ारों से मु पुरुष अपने कल्याण का आचरण करता है ,
इससे वह परम गित को जाता है अथार्त ् मुझको ूा हो जाता है ।(22)
यः शा िविधमुत्सृज्य वतर्ते कामकारतः।
न स िसि मवाप्नोित न सुखं न परां गितम।।
् 23।।
जो पुरुष शा िविध को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है , वह न
िसि को ूा होता है , न परम गित को और न सुख को ही।(23)
तःमाचछा ं ूमाणं ते कायार्कायर्व्यविःथतौ।
ज्ञात्वा शा िवधानो ं कमर् कतुिर् महाहर् िस।।24।।
इससे तेरे िलए इस कतर्व्य और अकतर्व्य की व्यवःथा में शा ही ूमाण है । ऐसा
जानकर तू शा िविध से िनयत कमर् ही करने योग्य है ।(24)

ॐ तत्सिदित ौीमद् भगवद् गीतासूपिनषत्सु ॄ िव ायां योगशा े


ौीकृ ंणाजुन
र् संवादे दै वासुरसंपि भागयोगो नाम षोडषोऽध्यायः ।।16।।
इस ूकार उपिनषद, ॄ िव ा तथा योगशा रूप ौीमद् भगवद् गीता के
ौीकृ ंण-अजुन
र् संवाद में दै वासुरसंपि भागयोग नामक सोलहवाँ अध्याय संपूणर् हआ।

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
सऽहवें अध्याय का माहात्म्य
ौीमहादे वजी कहते हैं - पावर्ती ! सोलहवें अध्याय का माहात्म्य बतलाया गया। अब सऽहवें अध्याय की अनन्त
मिहमा ौवण करो। राजा खड्गबाहू के पुऽ का दःशासन
ु नाम का एक नौकर था। वह बहत
ु खोटी बुि का मनुंय था। एक बार
ु धन बाजी लगाकर हाथी पर चढ़ा और कुछ ही कदम आगे जाने पर लोगों के मना करने
वह माण्डलीक राजकुमारों के साथ बहत
पर भी वह मूढ हाथी के ूित जोर-जोर से कठोर शब्द करने लगा। उसकी आवाज सुनकर हाथी बोध से अंधा हो गया और
दःशासन
ु पैर िफसल जाने के कारण पृथ्वी पर िगर पड़ा। दःशासन
ु को िगरकर कुछ-कुछ उच्छवास लेते दे ख काल के समान
िनरं कुश हाथी ने बोध से भरकर उसे ऊपर फेंक िदया। ऊपर से िगरते ही उसके ूाण िनकल गये। इस ूकार कालवश मृत्यु को
ूा होने के बाद उसे हाथी की योिन िमली और िसंहल ीप के महाराज के यहाँ उसने अपना बहत
ु समय व्यतीत िकया।
िसंहल ीप के राजा की महाराज खड्गबाहु से बड़ी मैऽी थी, अतः उन्होंने जल के मागर् से उस हाथी को िमऽ की ूसन्नता
के िलए भेज िदया। एक िदन राजा ने ोक की सम्सयापूितर् से संतु होकर िकसी किव को पुरःकाररूप में वह हाथी दे िदया और
उन्होंने सौ ःवणर्मुिाएँ लेकर मालवनरे श के हाथ बेच िदया। कुछ काल व्यतीत होने पर वह हाथी य पूवक
र् पािलत होने पर भी
असाध्य ज्वर से मःत होकर मरणासन्न हो गया। हाथीवानों ने जब उसे ऐसी शोचनीय अवःथा में दे खा तो राजा के पास जाकर
हाथी के िहत के िलए शीय ही सारा हाल कह सुनायाः "महाराज ! आपका हाथी अःवःथ जान पड़ता है । उसका खाना, पीना और
ू गाया है । हमारी समझ में नहीं आता इसका क्या कारण है ।"
सोना सब छट
ु समाचार सुनकर राजा ने हाथी के रोग को पहचान वाले िचिकत्साकुशल मंिऽयों के साथ उस
हाथीवानों का बताया हआ
ःथान पर पदापर्ण िकया, जहाँ हाथी ज्वरमःत होकर पड़ा था। राजा को दे खते ही उसने ज्वरजिनत वेदना को भूलकर संसार को
आ यर् में डालने वाली वाणी में कहाः 'सम्पूणर् शा ों के ज्ञाता, राजनीित के समुि, शऽु-समुदाय को पराःत करने वाले तथा
भगवान िवंणु के चरणों में अनुराग रखनेवाले महाराज ! इन औषिधयों से क्या लेना है ? वै ों से भी कुछ लाभ होने वाला नहीं है ,
दान ओर जप स भी क्या िस होगा? आप कृ पा करके गीता के सऽहवें अध्याय का पाठ करने वाले िकसी ॄा ण को बुलवाइये।'
हाथी के कथनानुसार राजा ने सब कुछ वैसा ही िकया। तदनन्तर गीता-पाठ करने वाले ॄा ण ने जब उ म जल को
अिभमंिऽत करके उसके ऊपर डाला, तब दःशासन
ु गजयोिन का पिरत्याग करके मु हो गया। राजा ने दःुशासन को िदव्य
िवमान पर आरूढ तथा इन्ि के समान तेजःवी दे खकर पूछाः 'पूवज
र् न्म में तुम्हारी क्या जाित थी? क्या ःवरूप था? कैसे आचरण
थे? और िकस कमर् से तुम यहाँ हाथी होकर आये थे? ये सारी बातें मुझे बताओ।'
ू हए
राजा के इस ूकार पूछने पर संकट से छटे ु दःशासन
ु ने िवमान पर बैठे-ही-बैठे िःथरता के साथ अपना पूवज
र् न्म का
उपयुर् समाचार यथावत कह सुनाया। तत्प ात ् नरौे मालवनरे श ने भी गीता के सऽहवें अध्याय पाठ करने लगे। इससे थोड़े
ही समय में उनकी मुि हो गयी।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

सऽहवाँ अध्यायः ौ ाऽयिवभागयोग


सोलहवें अध्याय के आरम्भ में भगवान ौीकृ ंण ने िनंकाम भाव से आचरण करते हए
ु शा ीय
गुण तथा आचरण का वणर्न दै वी संपि के रूप में िकया। बाद में शा िवरु आसुरी संपि का वणर्न
िकया। उसके बाद आसुरी ःवभाववाले लोगों के पतन की बात कही और कहा िक काम, बोध और लोभ ही
आसुरी संपि के मुख्य अवगुण हैं और वे तीनों नरक के ार हैं । उनका त्याग करके आत्मकल्याण के िलए
जो साधन करता है वह परम गित को पाता है । उसके बाद कहा िक शा िविध का त्याग करके इच्छा और
बुि को अच्छा लगे ऐसा करने वाले को अपने उन कम का फल नहीं िमलता है । िसि की इच्छा रखकर
िकये गये कमर् से िसि नहीं िमलती है । इसिलए करने योग्य अथवा न करने योग्य कम की व्यवःथा
दशार्नेवाले शा ों के िवधान के अनुसार ही तुझे िनंकाम कमर् करने चािहए।
इस उपदे श से अजुन
र् के मन में शंका हई
ु िक जो लोग शा िविध छोड़कर इच्छानुसार कमर् करते हैं ,
उनके कमर् िनंफल हों वह तो ठीक है लेिकन ऐसे लोग भी हैं जो शा िविध न जानने से तथा दसरे
ू कारणों
से शा िविध छोड़ते हैं , िफर भी यज्ञपूजािद शुभ कमर् तो ौ ापूवक
र् करते हैं , उनकी क्या िःथित होती है ?
यह जानने की इच्छा से अजुन
र् भगवान से पूछते हैं -
।। अथ स दशोऽध्यायः ।।
अजुन
र् उवाच
ये शा िविधमुत्सृज्य यजन्ते ौ यािन्वताः।
तेषां िन ा तु का कृ ंण स वमाहो रजःतमः।।1।।
अजुन
र् बोलेः हे कृ ंण ! जो शा िविध छोड़कर (केवल) ौ ायु होकर पूजा करते हैं , उनकी िःथित
कैसी होती है ? साि वक, राजसी या तामसी?(1)
ौीभगवानुवाच
िऽिवधा भवित ौ ा दे िहनां सा ःवभावजा।
साि वकी राजसी चैव तामसी चेित तां ौृणु।।2।।
ौी भगवान बोलेः मनुंयों की वह शा ीय संःकारों से रिहत केवल ःवभाव से उत्पन्न ौ ा
साि वकी और राजसी तथा तामसी – ऐसे तीनों ूकार की ही होती है । उसको तू मुझसे सुन।
स वानुरूपा सवर्ःय ौ ा भवित भारत।
ौ ामयोऽयं पुरुषो यो यच्ल ः स एव सः।।3।।
हे भारत ! सभी मनुंयों की ौ ा उनके अन्तःकरण के अनुरूप होती है । यह पुरुष ौ ामय है ,
इसिलए जो पुरुष जैसी ौ ावाला है , वह ःवयं भी वही है ।(3)
यजन्ते साि वका दे वान्यक्षरक्षांिस राजसाः।
ूेतान्भूतगणां ान्ये यजन्ते तामसा जनाः।।4।।
साि वक पुरुष दे वों को पूजते हैं , राजस पुरुष यक्ष और राक्षसों को तथा अन्य जो तामस मनुंय हैं वे
ूेत और भूतगणों को पूजते हैं ।(4)
अशा िविहतं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।
दम्भाहं कारसंयु ाः कामरागबलािन्वताः।।5।।
कषर्यन्तः शरीरःथं भूतमाममचेतसः।
मां चैवान्तःशरीरःथं तािन्व यासुरिन यान।।
् 6।।
जो मनुंय शा िविध से रिहत केवल मनःकिल्पत घोर तप को तपते हैं तथा दम्भ और अहं कार से
यु तथा कामना, आसि और बल के अिभमान से भी यु हैं । जो शरीररूप से िःथत भूतसमुदाय को और
अन्तःकरण में िःथत मुझ परमात्मा को भी कृ श करने वाले हैं , उन अज्ञािनयों को तू आसुर-ःवभाव वाले
जान।
आहारःत्विप सवर्ःय िऽिवधो भवित िूयः।
यज्ञःतपःतथा दानं तेषां भेदिममं ौृणु।।7।।
भोजन भी सबको अपनी-अपनी ूकृ ित के अनुसार तीन ूकार का िूय होता है । और वैसे ही यज्ञ,
तप और दान बी तीन-तीन ूकार के होते हैं । उनके इस पृथक् -पृथक् भेद को तू मुझसे सुन।(7)
आयुः स वबलारोग्यसुखूीितिववधर्नाः।
रःया िःनग्धाः िःथरा हृ ा आहाराः साि वकिूयाः।।8।।
आयु, बुि , बल, आरोग्य, सुख और ूीित को बढ़ाने वाले, रसयु , िचकने और िःथर रहने वाले तथा
ःवभाव से ही मन को िूय – ऐसे आहार अथार्त ् भोजन करने के पदाथर् साि वक पुरुष को िूय होते हैं ।(8)
कट्वम्ललवणात्युंणतीआणरूक्षिवदािहनः।
आहारा राजसःये ा दःखशोकामयूदाः।।
ु 9।।
कड़वे, खट्टे , लवणयु , बहत
ु गरम, तीखे, रूखे, दाहकारक और दःख
ु , िचन्ता तथा रोगों को उत्पन्न
करने वाले आहार अथार्त ् भोजन करने के पदाथर् राजस पुरुष को िूय होते हैं ।(9)
यातयामं गतरसं पूित पयुिर् षतं च यत।्
उिच्छ मिप चामेध्यं भोजनं तामसिूयम।।
् 10।।
जो भोजन अधपका, रसरिहत, दगर्
ु न्धयु , बासी और उिच्छ है तथा जो अपिवऽ भी है वह भोजन
तामस पुरुष को िूय होता है ।(10)
अफलाकांिक्षिभयर्ज्ञो िविधि◌द ो य इज्यते।
य व्यमेवेित मनः समाधाय स साि वकः।।11।।
जो शा िविध से िनयत यज्ञ करना ही कतर्व्य है – इस ूकार मन को समाधान करके, फल न चाहने
वाले पुरुषों ारा िकया जाता है , वह साि वक है ।(11)
अिभसंधाय तु फलं दम्भाथर्मिप चैव यत।्
इज्यते भरतौे तं यज्ञं िवि राजसम।।
् 12।।
परन्तु हे अजुन
र् ! केवल दम्भाचरण के िलए अथवा फल को भी दृि में रखकर जो यज्ञ िकया जाता
है , उस यज्ञ को तू राजस जान।
िविधहीनमसृ ान्नं मंऽहीनमदिक्षणम।्
ौ ािवरिहतं यज्ञं तामसं पिरचक्षते।।13।।
शा िविध से हीन, अन्नदान से रिहत, िबना मंऽों के, िबना दिक्षणा के और िबना ौ ा के िकये जाने
वाले यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं ।(13)
दे वि जगुरुूाज्ञपूजनं शौचमाजर्वम।्
ॄ चयर्मिहं सा च शरीरं तप उच्यते।।14।।
दे वता, ॄा ण, गुरु और ज्ञानीजनों का पूजन, पिवऽता, सरलता, ॄ चयर् और अिहं सा – शरीर
सम्बन्धी तप कहा जाता है ।(14)
अनु े गकरं वाक्यं सत्यं िूयिहतं च यत।्
ःवाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ् मयं तप उच्यते।।15।।
जो उ े ग ने करने वाला, िूय और िहतकारक व यथाथर् भाषण है तथा जो वेद-शा ों के पठन का एवं
परमे र के नाम-जप का अभ्यास है - वही वाणी सम्बन्धी तप कहा जाता है ।(15)
मनःूसादः सौम्यत्वं मौनमात्मिविनमहः।
भावसंशुि िरत्येत पो मानसमुच्यते।।16।।
मन की ूसन्नता, शान्तभाव, भगवद् िचन्तन करने का ःवभाव, मन का िनमह और अन्तःकरण के
भावों को भली भाँित पिवऽता – इस ूकार यह मन-सम्बन्धी तप कहा जाता है ।(16)
ौ या परया त ं तपःतित्ऽिवधं नरै ः।
अफलाकांिक्षिभयुर् ै ः साि वकं पिरचक्षते।।17।।
फल को न चाहने वाले योगी पुरुषों ारा परम ौ ा से िकये हए
ु उस पूव तीन ूकार के तप को
साि वक कहते हैं ।(17)
सत्कारमानपूजाथर् तपो दम्भेन चैव यत।्
िबयते तिदह ूो ं राजसं चलमीुवम।।
् 18।।
जो तप सत्कार, मान और पूजा के िलए तथा अन्य िकसी ःवाथर् के िलए भी ःवभाव से या पाखण्ड
से िकया जाता है , वह अिनि त और क्षिणक फलवाला तप यहाँ राजस कहा गया है ।(18)
मूढमाहे णात्मनो यत्पीडया िबयते तपः।
परःयोत्सादनाथ वा त मसमुदाहृतम।।
् 19।।
जो तप मूढ़तापूवक
र् हठ से, मन वाणी और शरीर की पीड़ा के सिहत अथवा दसरे
ू का अिन करने के
िलए िकया जाता है वह तप तामस कहा गया है ।(19)
दातव्यिमित य ानं दीयतेऽनुपकािरणे।
दे शे काले च पाऽे च त ानं साि वकं ःमृतम।।
् 20।।
दान दे ना ही कतर्व्य है – ऐसे भाव से जो दान दे श तथा काल और पाऽ के ूा होने पर उपकार न
करने वाले के ूित िदया जाता है , वह दान साि वक कहा गया है ।(20)
य ु ूत्युपकाराथ फलमुि ँय वा पुनः।
दीयते च पिरिक्ल ं त ानं राजसं ःमृतम ्।।21।।
िकन्तु जो दान क्लेशपूवक
र् तथा ूत्युपकार के ूयोजन से अथवा फल को दृि में रखकर िफर िदया
जाता है , वह दान राजस कहा गया है ।(21)
अदे शकाले य ानमपाऽेभ्य दीयते।
असत्कृ तमवज्ञातं त ामसमुदाहृतम।।
् 22।।
जो दान िबना सत्कार के अथवा ितरःकारपूवक
र् अयोग्य दे श-काल में कुपाऽ के ूित िदया जाता है ,
वह दान तामस कहा गया है ।(22)
ॐ तत्सिदित िनदशो ॄ णि िवधः ःमृतः।
ॄा णाःतेन वेदा यज्ञा िविहताः पुरा।।23।।
ॐ, तत ्, सत ्, - ऐसे यह तीन ूकार का सिच्चदानन्दघन ॄ का नाम कहा है ः उसी से सृि के आिद
काल में ॄा ण और वेद तथा यज्ञािद रचे गये।(23)

तःमादोिमत्युदाहृत्य यज्ञदानतपः िबयाः।


ूवतर्न्ते िवधानो ाः सततं ॄ वािदनाम।।
् 24।।

इसिलए वेद-मन्ऽों का उच्चारण करने वाले ौे पुरुषों की शा िविध से िनयत यज्ञ, दान और
तपरूप िबयाएँ सदा 'ॐ' इस परमात्मा के नाम को उच्चारण करके ही आरम्भ होती है ।

तिदत्यनिभसंधाय फलं यज्ञतपः िबयाः


दानिबया िविवधाः िबयन्ते मोक्षकांिक्षिभः।।25।।

तत ् अथार्त ् 'तत ्' नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का ही यह सब है – इस भाव से फल को न चाह
कर नाना ूकार की यज्ञ, तपरूप िबयाएँ तथा दानरूप िबयाएँ कल्याण की इच्छावाले पुरुषों ारा की जाती
हैं ।(25)

स ावे साधुभावे च सिदत्येतत्ूयुज्यते।


ूशःते कमर्िण तथा सच्छब्दः पाथर् युज्यते।।26।।

'सत ्' – इस ूकार यह परमात्मा का नाम सत्यभाव में और ौे भाव में ूयोग िकया जाता है तथा हे
पाथर् ! उ म कमर् में भी 'सत ्' शब्द का ूयोग िकया जाता है ।(26)

यज्ञे तपिस दाने च िःथितः सिदित चोच्यते।


कमर् चैव तदथ यं सिदत्येवािभधीयते।।27।।

तथा यज्ञ, तप और दान में जो िःथित है , वह भी 'सत ्' इस ूकार कही जाती है और उस परमात्मा के
िलए िकया हआ
ु कमर् िन यपूवक
र् सत ् – ऐसे कहा जाता है ।(27)

अौ या हतं
ु द ं तपःत ं कृ तं च यत।्
असिदत्युच्यते पाथर् न च तत्ूेत्य नो इह।।28।।
हे अजुन
र् ! िबना ौ ा के िकया हआ
ु हवन, िदया हआ
ु दान व तपा हआ
ु तप और जो कुछ भी िकया
हआ
ु शुभ कमर् है – वह समःत 'असत ्' – इस ूकार कहा जाता है , इसिलए वह न तो इस लोक में लाभदायक
है और न मरने के बाद ही।(28)
ॐ तत्सिदित ौीमद् भगवद् गीतासूपिनषत्सु ॄ िव ायां योगशा े
ौीकृ ंणाजुन
र् संवादे ौ ाऽयिवभागयोगो नाम स दशोऽध्यायः ।।17।।
इस ूकार उपिनषद, ॄ िव ा तथा योगशा रूप ौीमद् भगवद् गीता के
ौीकृ ंण-अजुन
र् संवाद में ौ ाऽयिवभागयोग नामक सऽहवाँ अध्याय संपूणर् हआ।

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

(अनुबम)

अठारहवें अध्याय का माहात्म्य


ौीपावर्तीजी ने कहाः भगवन ् ! आपने सऽहवें अध्याय का माहात्म्य बतलाया। अब अठारहवें
अध्याय के माहात्म्य का वणर्न कीिजए।
ौीमहादे वजी न कहाः िगिरनिन्दनी ! िचन्मय आनन्द की धारा बहाने वाले अठारहवें अध्याय के
पावन माहात्म्य को जो वेद से भी उ म है , ौवण करो। वह सम्पूणर् शा ों का सवर्ःव, कानों में पड़ा हआ

रसायन के समान तथा संसार के यातना-जाल को िछन्न-िभन्न करने वाला है । िस पुरुषों के िलए यह
परम रहःय की वःतु है । इसमें अिव ा का नाश करने की पूणर् क्षमता है । यह भगवान िवंणु की चेतना
तथा सवर्ौे परम पद है । इतना ही नहीं, यह िववेकमयी लता का मूल, काम-बोध और मद को न करने
वाला, इन्ि आिद दे वताओं के िच का िवौाम-मिन्दर तथा सनक-सनन्दन आिद महायोिगयों का
मनोरं जन करने वाला है । इसके पाठमाऽ से यमदतों
ू की गजर्ना बन्द हो जाती है । पावर्ती ! इससे बढ़कर
कोई ऐसा रहःयमय उपदे श नहीं है , जो संत मानवों के िऽिवध ताप को हरने वाला और बड़े -बड़े पातकों का
नाश करने वाला हो। अठारहवें अध्याय का लोको र माहात्म्य है । इसके सम्बन्ध में जो पिवऽ उपाख्यान
है , उसे भि पूवक
र् सुनो। उसके ौवणमाऽ से जीव समःत पापों से मु हो जाता है ।
मेरुिगिर के िशखर अमरावती नामवाली एक रमणीय पुरी है । उसे पूवक
र् ाल में िव कमार् ने बनाया
था। उस पुरी में दे वताओं ारा सेिवत इन्ि शची के साथ िनवास करते थे। एक िदन वे सुखपूवक
र् बैठे हए
ु थे,
इतने ही में उन्होंने दे खा िक भगवान िवंणु के दतों
ू से सेिवत एक अन्य पुरुष वहाँ आ रहा है । इन्ि उस
नवागत पुरुष के तेज से ितरःकृ त होकर तुरन्त ही अपने मिणमय िसंहासन से मण्डप में िगर पड़े । तब
इन्ि के सेवकों ने दे वलोक के साॆाज्य का मुकुट इस नूतन इन्ि के मःतक पर रख िदया। िफर तो िदव्य
गीत गाती हई
ु दे वांगनाओं के साथ सब दे वता उनकी आरती उतारने लगे। ऋिषयों ने वेदमंऽों का उच्चारण
करके उन्हें अनेक आशीवार्द िदये। गन्धव का लिलत ःवर में मंगलमय गान होने लगा।
इस ूकार इस नवीन इन्ि का सौ यज्ञों का अनु ान िकये िबना ही नाना ूकार के उत्सवों से सेिवत
दे खकर पुराने इन्ि को बड़ा िवःमय हआ।
ु वे सोचने लगेः 'इसने तो मागर् में न कभी प सले (प्याऊ) बनवाये
हैं , न पोखरे खुदवाये है और न पिथकों को िवौाम दे ने वाले बड़े -बड़े वृक्ष ही लगवाये है । अकाल पड़ने पर
अन्न दान के ारा इसने ूािणयों का सत्कार भी नहीं िकया है । इसके ारा तीथ में सऽ और गाँवों में यज्ञ
का अनु ान भी नहीं हआ
ु है । िफर इसने यहाँ भाग्य की दी हई
ु ये सारी वःतुएँ कैसे ूा की हैं ? इस िचन्ता
से व्याकुल होकर इन्ि भगवान िवंणु से पूछने के िलए ूेमपूवक
र् क्षीरसागर के तट पर गये और वहाँ
अकःमात अपने साॆाज्य से ॅ होने का दःख
ु िनवेदन करते हए
ु बोलेः
'लआमीकान्त ! मैंने पूवक
र् ाल में आपकी ूसन्नता के िलए सौ यज्ञों का अनु ान िकया था। उसी के
पुण्य से मुझे इन्िपद की ूाि हई
ु थी, िकन्तु इस समय ःवगर् में कोई दसरा
ू ही इन्ि अिधकार जमाये बैठा
है । उसने तो न कभी धमर् का अनु ान िकया है न यज्ञों का िफर उसने मेरे िदव्य िसंहासन पर कैसे अिधकार
जमाया है ?'
ौीभगवान बोलेः इन्ि ! वह गीता के अठारहवें अध्याय में से पाँच ोकों का ूितिदन पाठ करता
है । उसी के पुण्य से उसने तुम्हारे उ म साॆाज्य को ूा कर िलया है । गीता के अठारहवें अध्याय का पाठ
सब पुण्यों का िशरोमिण है । उसी का आौय लेकर तुम भी पद पर िःथर हो सकते हो।
भगवान िवंणु के ये वचन सुनकर और उस उ म उपाय को जानकर इन्ि ॄा ण का वेष बनाये
गोदावरी के तट पर गये। वहाँ उन्होंने कािलकामाम नामक उ म और पिवऽ नगर दे खा, जहाँ काल का भी
मदर् न करने वाले भगवान काले र िवराजमान हैं । वही गोदावर तट पर एक परम धमार्त्मा ॄा ण बैठे थे,
जो बड़े ही दयालु और वेदों के पारं गत िव ान थे। वे अपने मन को वश में करके ूितिदन गीता के अठारहवें
अध्याय का ःवाध्याय िकया करते थे। उन्हें दे खकर इन्ि ने बड़ी ूसन्नता के साथ उनके दोनों चरणों में
मःतक झुकाया और उन्हीं अठारहवें अध्याय को पढ़ा। िफर उसी के पुण्य से उन्होंने ौी िवंणु का सायुज्य
ूा कर िलया। इन्ि आिद दे वताओं का पद बहत
ु ही छोटा है , यह जानकर वे परम हषर् के साथ उ म
वैकुण्ठधाम को गये। अतः यह अध्याय मुिनयों के िलए ौे परम त व है । पावर्ती ! अठारहवे अध्याय के
इस िदव्य माहात्म्य का वणर्न समा हआ।
ु ु
इसके ौवण माऽ से मनुंय सब पापों से छटकारा पा जाता है ।
इस ूकार सम्पूणर् गीता का पापनाशक माहात्म्य बतलाया गया। महाभागे ! जो पुरुष ौ ायु होकर
इसका ौवण करता है , वह समःत यज्ञों का फल पाकर अन्त में ौीिवंणु का सायुज्य ूा कर लेता है ।
(अनुबम)
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

अठारहवाँ अध्यायः मोक्षसंन्यासयोग


दस
ू रे अध्याय के 11वें ोक से ौीमद् भगवद् गीता के उपदे श का आरम्भ हआ
ु है । वहाँ से लेकर 30वें
ोक तक भगवान ने ज्ञानयोग का उपदे श िदया है और बीच में क्षाऽधमर् की दृि से यु का कतर्व्य बता
कर 39वें ोक से अध्याय पूरा हो तब तक कमर्योग का उपदे श िदया है । िफर तीसरे अध्याय से सऽहवें
अध्याय तक िकसी जगह पर ज्ञानयोग के ारा तो िकसी जगह कमर्योग के ारा परमात्मा की ूाि बतायी
गयी है । यह सब सुनकर अजुन
र् इस अठारहवें अध्याय में सवर् अध्यायों के उ े ँय का सार जानने के िलए
भगवान के समक्ष संन्यास यानी ज्ञानयोग का और त्याग यानी फलासि रिहत कमर्योग का त व अलग-
अलग से समझने की इच्छा ूकट करते हैं ।

।। अथा ादशोऽध्यायः ।।
अजुन
र् उवाच
संन्यासःय महाबाहो त विमच्छािम वेिदतुम।्
त्यागःय च हृषीकेश पृथक्केिशिनषूदन।।1।।

अजुन
र् बोलेः हे महाबाहो ! हे अन्तयार्िमन ् ! हे वासुदेव ! मैं संन्यास और त्याग के त व को पृथक-
पृथक जानना चाहता हँू ।

ौीभगवानुवाच
काम्यानां कमर्णां न्यासं कवयो िवदः।

सवर्कमर्फलत्यागं ूाहःत्यागं
ु िवचक्षणाः।।2।।

ौी भगवान बोलेः िकतने ही पिण्डतजन तो काम्य कम के त्याग को संन्यास समझते हैं तथा दसरे

िवचारकुशल पुरुष सब कम के फल के त्याग को त्याग कहते हैं ।(2)

त्याज्यं दोषविदत्येके कमर् ूाहमर्


ु नीिषणः
यज्ञदानतपःकमर् न त्याज्यिमित चापरे ।।3।।

कुछे क िव ान ऐसा कहते हैं िक कमर्माऽ दोषयु हैं , इसिलए त्यागने के योग्य हैं और दसरे
ू िव ान
यह कहते हैं िक यज्ञ, दान और तपरूप कमर् त्यागने योग्य नहीं हैं ।(3)

िन यं ौृणु मे तऽ त्यागे भरतस म।


त्यागो िह पुरुषव्याय िऽिवधः सम्ूकीितर्तः।।4।।

हे पुरुषौे अजुन
र् ! संन्यास और त्याग, इन दोनों में से पहले त्याग के िवषय में तू मेरा िन य सुन।
क्योंिक त्याग साि वक, राजस और तामस भेद से तीन ूकार का कहा गया है ।(4)

यज्ञदानतपःकमर् न त्याज्यं कायर्मेव तत।्


यज्ञो दानं तप व
ै पावनािन मनीिषणाम।।
् 5।।

यज्ञ, दान और तपरूप कमर् त्याग करने के योग्य नहीं हैं , बिल्क वह तो अवँय कतर्व्य है , क्योंिक
यज्ञ, दान और तप – ये तीनों ही कमर् बुि मान पुरुषों को पिवऽ करने वाले हैं ।(5)
एतान्यिप तु कमार्िण सङ्गं त्यक्त्वा फलािन च।
कतर्व्यानीित मे पाथर् िन तं मतमु मम।।
् 6।।

इसिलए हे पाथर् ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कम को तथा और भी सम्पूणर् कतर्व्यकम को आसि


और फलों का त्याग करके अवँय करना चािहए; यह मेरा िन य िकया हआ
ु उ म मत है ।(6)

िनयतःय तु संन्यासः कमर्णो नोपप ते।


मोहा ःय पिरत्यागःतामसः पिरकीितर्तः।।7।।

(िनिष और काम्य कम का तो ःवरूप से त्याग करना उिचत ही है ।) परन्तु िनयत कमर् का ःवरूप
से त्याग उिचत नहीं है । इसिलए मोह के कारण उसका त्याग कर दे ना तामस त्याग कहा गया है ।(7)

दःखिमत्ये
ु व यत्कमर् कायक्लेशभया यजेत।्
स कृ त्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत।।

जो कुछ कमर् है , वह सब दःखरूप


ु ही है , ऐसा समझकर यिद कोई शारीिरक क्लेश के भय से कतर्व्य-
कम का त्याग कर दे , तो वह ऐसा राजस त्याग करके त्याग के फल को िकसी ूकार भी नहीं पाता।(8)

कायर्िमत्येव यत्कमर् िनयतं िबयतेऽजुन


र् ।
सङ्गत्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः साि वको मतः।।9।।

हे अजुन
र् ! जो शा िविहत कमर् करना कतर्व्य है – इसी भाव से आसि और फल का त्याग करके
िकया जाता है वही साि वक त्याग माना गया है ।(9)

न े ंट्यकुशलं कमर् कुशले नानुषज्जते।


त्यागी स वसमािव ो मेधावी िछन्नसंशयः।।10।।

जो मनुंय अकुशल कमर् से े ष नहीं करता और कुशल कमर् में आस नहीं होता – वह शु स वगुण
से यु पुरुष संशयरिहत, बुि मान और सच्चा त्यागी है ।(10)
न िह दे हभृता शक्यं त्य ुं कमार्ण्यशेषतः।
यःतु कमर्फलत्यागी स त्यागीत्यिभधीयते।।11।।
क्योंिक शरीरधारी िकसी भी मनुंय के ारा सम्पूणत
र् ा से सब कम का त्याग िकया जाना शक्य नहीं
है इसिलए जो कमर्फल का त्यागी है , वही त्यागी है – यह कहा जाता है ।(11)
अिन िम ं िमौं च िऽिवधं कमर्णः फलम।्
भवत्यत्यािगनां ूेत्य न तु संन्यािसनां क्विचत।।
् 12।।
कमर्फल का त्याग न करने वाले मनुंयों के कम का तो अच्छा-बुरा और िमला हआ
ु – ऐसे तीन
ूकार का फल मरने के प ात ् अवँय होता है , िकन्तु कमर्फल का त्याग कर दे ने वाले मनुंयों के कम का
फल िकसी काल में भी नहीं होता।(12)
पंचैतािन महाबाहो कारणािन िनबोध मे।
सांख्ये कृ तान्ते ूो ािन िस ये सवर्कमर्णाम।।
् 13।।
हे महाबाहो ! सम्पूणर् कम की िसि के ये पाँच हे तु कम का अन्त करने के िलए उपाय बतलाने वाले
साख्यशा में कहे गये हैं , उनको तू मुझसे भली भाँित जान।(13)
अिध ानं तथा कतार् करणं च पृथिग्वधम।्
िविवधा पृथक्चे ा दै वं चैवाऽ पंचमम।।
् 14।।
इस िवषय में अथार्त ् कम की िसि में अिध ान और कतार् तथा िभन्न-िभन्न ूकार के करण और
नाना ूकार की अलग-अलग चे ाएँ और वैसे ही पाँचवाँ हे तु दै व है ।(14)
शरीरवाङ् मनोिभयर्त्कमर् ूारभते नरः।
न्याय्यं वा िवपरीतं वा पंचैते तःय हे तवः।।15।।
मनुंय मन, वाणी और शरीर से शा ानुकूल अथवा िवपरीत जो कुछ भी कमर् करता है – उसके ये
पाँचों कारण हैं ।(15)

तऽैवं सित कतार्रमात्मानं केवलं तु यः।


पँयत्यकृ तबुि त्वान्न स पँयित दमर्
ु ितः।।16।।

परन्तु ऐसा होने पर भी जो मनुंय अशु बुि होने के कारण उस िवषय में यानी कम के होने में
केवल शु ःवरूप आत्मा को कतार् समझता है , वह मिलन बुि वाला अज्ञानी यथाथर् नहीं समझता।(16)

यःय नांहकृ तो भावो बुि यर्ःय न िलप्यते।


हत्वािप स इमाँल्लोकान्न हिन्त न िनबध्यते।।17।।

िजस पुरुष के अन्तःकरण में 'मैं कतार् हँू ' ऐसा भाव नहीं है तथा िजसकी बुि सांसािरक पदाथ में
और कम में लेपायमान नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वाःतव में न तो मरता है और न
पाप से बँधता है ।(17)
ज्ञानं ज्ञेयं पिरज्ञाता िऽिवधा कमर्चोदना।
करणं कमर् कतित िऽिवधः कमर्कंमहः।।18।।
ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय – ये तीन ूकार की कमर्-ूेरणा हैं और कतार्, करण तथा िबया ये तीन ूकार
का कमर् संमह है ।(18)

ज्ञानं कमर् च कतार् च िऽधैव गुणभेदतः।



ूोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छणु तान्यिप।।19।।

गुणों की संख्या करने वाले शा में ज्ञान और कमर् तथा कतार् गुणों के भेद से तीन-तीन ूकार के ही
कहे गये हैं , उनको भी तू मुझसे भली भाँित सुन।(19)
सवर्भत
ू ेष येनैकं भावमव्ययमीक्षते।
अिवभ ं िवभ े षु तज्ज्ञानं िवि साि वकम।।
् 20।।

िजस ज्ञान से मनुंय पृथक-पृथक सब भूतों में एक अिवनाशी परमात्मभाव को िवभागरिहत


समभाव से िःथत दे खता है , उस ज्ञान को तू साि वक जान।(20)
पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथिग्वधान।्
वेि सवषु भूतेषु तज्ज्ञानं िवि राजसम।।
् 21।।

िकन्तु जो ज्ञान अथार्त ् िजस ज्ञान के ारा मनुंय सम्पूणर् भूतों में िभन्न-िभन्न ूकार के नाना भावों
को अलग-अलग जानता है , उस ज्ञान को तू राजस जान।(21)
य ु कृ त्ःनवदे किःमन्काय स महै तुकम।्
अत वाथर्वदल्पं च त ामसमुदाहृतम।।
् 22।।
परन्तु जो ज्ञान एक कायर्रूप शरीर में ही सम्पूणर् के सदृश आस है तथा जो िबना युि वाला,
ताि वक अथर् से रिहत और तुच्छ है – वह तामस कहा गया है ।(22)
िनयतं संगरिहतमराग े षतः कृ तम।्
अफलूेप्सुना कमर् य त्साि वकमुच्यते।।23।।
जो कमर् शा िविध से िनयत िकया हआ
ु और कतार्पन के अिभमान से रिहत हो तथा फल न चाहने
वाले पुरुष ारा िबना राग- े ष के िकया गया हो – वह साि वक कहा जाता है । (23)
य ु कामेप्सुना कमर् साहं कारे ण वा पुनः।
िबयते बहलायासं
ु तिजासमुदाहृतम।।
् 24।।
परन्तु जो कमर् बहत
ु पिरौम से यु होता है तथा भोगों को चाहने वाले पुरुष ारा या अहं कारयु
पुरुष ारा िकया जाता है , वह कमर् राजस कहा गया है ।(24)
अनुबन्धं क्षयं िहं सामनपेआय च पौरुषम।्
मोहादारभ्यते कमर् य ामसमुच्यते।।25।।
जो कमर् पिरणाम, हािन, िहं सा और सामथ्यर् को न िवचार कर केवल अज्ञान से आरम्भ िकया जाता
है , वह तामस कहा जाता है ।(25)
मु ं संगोऽनहं वादी धृत्युत्साहसमिन्वतः।
िस यिस योिनर्िवर्कारः कतार् साि वक उच्यते।।26।।
जो कतार् संगरिहत, अहं कार के वचन न बोलने वाला, धैयर् और उत्साह से यु तथा कायर् के िस
होने और न होने में हषर्-शोकािद िवकारों से रिहत है – वह साि वक कहा जाता है ।(26)
रागी कमर्फलूेप्सुलब्ुर् धो िहं सात्मकोऽशुिचः।
हषर्शोकािन्वतः कतार् राजसः पिरकीितर्तः।।27।।
जो कतार् आसि से यु , कम के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दसरों
ू को क दे ने के
ःवभाववाला, अशु ाचारी और हषर्-शोक से िल है – वह राजस कहा गया है ।(27)
अयु ः ूाकृ तः ःतब्धः शठो नैंकृ ितकोऽलसः।
िवषादी दीघर्सऽ
ू ी च कतार् तामस उच्यते।।
जो कतार् अयु , िशक्षा से रिहत, घमंडी, धूतर् और दसरों
ू की जीिवका का नाश करने वाला तथा शोक
करने वाला, आलसी और दीघर्सऽ
ू ी है – वह तामस कहा जाता है ।(28)
बु े भदं धृते ैव गुणति िवधं ौृणु।
ूोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनंजय।।29।।
हे धनंजय ! अब तू बुि का और धृित का भी गुणों के अनुसार तीन ूकार का भेद मेरे ारा
सम्पूणत
र् ा से िवभागपूवक
र् कहा जाने वाला सुन।(29)
ूवृि ं च िनवृि ं च कायार्काय भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेि बुि ः सा पाथर् साि वकी।।30।।
हे पाथर् ! जो बुि ूवृि मागर् और िनवृि मागर् को, कतर्व्य और अकतर्व्य को, भय और अभय को
तथा बन्धन और मोक्ष को यथाथर् जानती है – वह बुि साि वकी है ।(30)

यया धमर्मधम च काय चाकायर्मेव च।


अयथावत्ूजानाित बुि ः सा पाथर् राजसी।।31।।
हे पाथर् ! मनुंय िजस बुि के ारा धमर् और अधमर् को तथा कतर्व्य और अकतर्व्य को भी यथाथर्
नहीं जानता, वह बुि राजसी है ।
अधम धमर्िमित या मन्यते तमसावृता।
सवार्थार्िन्वपरीतां बुि ः सा पाथर् तामसी।।32।।
हे अजुन
र् ! जो तमोगुण से िघरी हई
ु बुि अधमर् को भी 'यह धमर् है ' ऐसा मान लेती है तथा इसी ूकार
अन्य सम्पूणर् पदाथ को भी िवपरीत मान लेती है , वह बुि तामसी है ।(32)
धृत्या यया धारयते मनःूाणेिन्ियिबयाः।
योगेनाव्यिभचािरण्या धृितः सा पाथर् साि वकी।।33।।
हे पाथर् ! िजस अव्यिभचािरणी धारणशि से मनुंय ध्यानयोग के ारा मन, ूाण और इिन्ियों की
िबयाओं को धारण करता है , वह धृित साि वकी है ।(33)
यया तु धमर्कामाथार्न्धृत्या धारयतेऽजुन
र् ।
ूसंगेन फलाकांक्षी धृितः सा पाथर् राजसी।।34।।
परं तु हे पृथापुऽ अजुन
र् ! फल की इच्छावाला मनुंय िजस धारणशि के ारा अत्यन्त आसि से
धमर्, अथर् और कामों को धारण करता है , वह धारणशि राजसी है । (34)
यया ःवप्नं भयं शोकं िवषादं मदमेव च।
न िवमुच
ं ित दमधा
ु धृितः सा पाथर् तामसी।।35।।
हे पाथर् ! द ु बुि वाला मनुंय िजस धारणशि के ारा िनिा, भय, िचन्ता और दःुख को तथा
उन्म ता को भी नहीं छोड़ता अथार्त ् धारण िकये रहता है – वह धारणशि तामसी है ।(35)
सुखं ित्वदानीं िऽिवधं ौृणु मे भरतषर्भ।
अभ्यसािमते यऽ दःखान्तं
ु च िनगच्छित।।36।।
य दमे िवषिमद पिरणामेऽमृतोपमम।्
तत्सुखं साि वकं ूो मात्मबुि ूसादजम।।
् 37।।
हे भरतौे ! अब तीन ूकार के सुख को भी तू मुझसे सुन। िजस सुख में साधक मनुंय भजन,
ध्यान और सेवािद के अभ्यास से रमण करता है और िजससे दःखों
ु के अन्त को ूा हो जाता है – जो ऐसा
सुख है , वह आरम्भकाल में य िप िवष के तुल्य ूतीत होता है , परं तु पिरणाम में अमृत के तुल्य है ।
इसिलए वह परमात्मिवषयक बुि के ूसाद से उत्पन्न होने वाला सुख साि वक कहा गया है ।(36, 37)

िवषयेिन्ियसंयोगा दमेऽमृतोपमम।्
पिरणामे िवषिमव तत्सुखं राजसं ःमृतम।।
् 38।।
जो सुख िवषय और इिन्ियों के संयोग से होता है , वह पहले भोगकाल में अमृत के तुल्य ूतीत होने
पर भी पिरणाम में िवष के तुल्य है , इसिलए वह सुख राजस कहा गया है ।(38)
यदमे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
िनिालःयूमादोत्थं त ामसमुदाहृतम।।
् 39।।
जो सुख भोगकाल में तथा पिरणाम में भी आत्मा को मोिहत करने वाला है – वह िनिा, आलःय
और ूमाद से उत्पन्न सुख तामस कहा गया है ।(39)
न तदिःत पृिथव्यां व िदिव दे वेषु वा पुनः
स वं ूकृ ितजैमुर् ं यदे िभःःयाित्ऽिभगुण
र् ःै ।।40।।
पृथ्वी में या आकाश में अथवा दे वताओं में तथा इनके िसवा और कहीं भी वह ऐसा कोई भी स व नहीं
है , जो ूकृ ित से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रिहत हो।(40)
ॄा णक्षिऽयिवशां शूिाणां च परं तप।
कमार्िण ूिवभ ािन ःवभावूभवैगण
ुर् ःै ।।41।।
हे परं तप ! ॄा ण, क्षिऽय और वैँयों के तथा शूिों के कमर् ःवभाव उत्पन्न गुणों ारा िवभ िकये
गये हैं ।(41)
शमो दमःतपः शौचं क्षािन्तराजर्वमेव च।
ज्ञानं िवज्ञानमािःतक्यं ॄ कमर् ःवभावजम।।
् 42।।
अन्तःकरण का िनमह करना, इिन्ियों का दमन करना, धमर्पालन के िलए क सहना, बाहर-भीतर
से शु रहना, दसरों
ू के अपराधों को क्षमा करना, मन, इिन्िय और शरीर को सरल रखना, वेद,-शा , ई र
और परलोक आिद में ौ ा रखना, वेद-शा ों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के त व का
अनुभव करना – ये सब-के-सब ही ॄा ण के ःवाभािवक कमर् हैं ।(42)
शौय तेजो धृितदार्आयं यु े चाप्यपलायनम।्
दानमी रभाव क्षाऽं कमर् ःवभावजम।।
् 43।।
शूरवीरता, तेज, धैय,र् चतुरता और यु में न भागना, दान दे ना और ःवामीभाव – ये सब-के-सब ही
क्षिऽय के ःवाभािवक कमर् हैं ।(43)
कृ िषगौरआयवािणज्यं वैँयकमर् ःवभावजम।्
पिरचयार्त्मकं कमर् शूिःयािप ःवभावजम।।
् 44।।
खेती, गौपालन और बय-िवबयरूप सत्य व्यवहार – ये वैँय के ःवाभािवक कमर् हैं तथा सब वण
की सेवा करना शूि का भी ःवाभािवक कमर् है ।(44)
ःवे ःवे कमर्ण्यिभरतः संिसि ं लभते नरः।
ृ ।।45।।
ःवकमर्िनरतः िसि ं यथा िवन्दित तच्छणु
अपने-अपने ःवाभािवक कम में तत्परता से लगा हआ
ु मनुंय भगवत्ूाि रूप परम िसि को ूा
हो जाता है । अपने ःवाभािवक कमर् में लगा हआ
ु मनुंय िजस ूकार से कमर् करके परम िसि को ूा
होता, उस िविध को तू सुन।(45)
यतः ूवृि भूत
र् ानां येन सवर्िमदं ततम।्
ःवकमर्णा तमभ्यच्यर् िसि ं िवन्दित मानवः।।46।।
िजस परमे र से सम्पूणर् ूािणयों की उत्पि हई
ु है और िजससे यह समःत जगत व्या है , उस
परमे र की अपने ःवाभािवक कम ारा पूजा करके मनुंय परम िसि को ूा हो जाता है ।(46)
ौेयान्ःवधम िवगुणः परधमार्त्ःवनुि तात।्
ःवभाविनयतं कमर् कुवर्न्नाप्नोित िकिल्बषम।।
् 47।।
अच्छी ूकार आचरण िकये हए
ु दसरे
ू के धमर् से गुणरिहत भी अपना धमर् ौे है , क्योंिक ःवभाव से
िनयत िकये हए
ु ःवधमर् कमर् को करता हआ
ु मनुंय पाप को नहीं ूा होता।(47)
सहजं कमर् कौन्तेय सदोषमिप न त्यजेत ्।
सवार्रम्भा िह दोषेण धूमेनािग्निरवावृताः।।48।।
अतएव हे कुन्तीपुऽ ! दोषयु होने पर भी सहज कमर् को नहीं त्यागना चािहए, क्योंिक धुएँ से अिग्न
की भाँित सभी कमर् िकसी-न-िकसी दोष से यु हैं ।(48)
अस बुि ः सवर्ऽ िजतात्मा िवगतःपृहः।
नैंकम्यर्िसि ं परमां संन्यासेनािधगच्छित।।49।।
सवर्ऽ आसि रिहत बुि वाला, ःपृहारिहत और जीते हए
ु अन्तःकरणवाला पुरुष सांख्ययोग के ारा
उस परम नैंकम्यर्िसि को ूा होता है ।(49)
िसि ं ूा ो यथा ॄ तथाप्नोित िनबोध मे।
समासेनैव कौन्तेय िन ा ज्ञानःय या परा।।50।।
जो िक ज्ञानयोग की परािन ा है , उस नैंकम्यर् िसि को िजस ूकार से ूा होकर मनुंय ॄ को
ूा होता है , उस ूकार हे कुन्तीपुऽ ! तू संक्षेप में ही मुझसे समझ।(50)

बु या िवशु या यु ो धृत्यात्मानं िनयम्य च।


शब्दादीिन्वषयांःत्यक्त्वा राग े षौ व्युदःय च।।511।
िविव सेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।
ध्यानयोगपरो िनत्यं वैराग्यं समुपािौतः।।52।।
अहं कारं बलं दप कामं बोधं पिरमहम।्
िवमुच्य िनमर्मः शान्तो ॄ भूयाय कल्पते।।53।।
िवशु बुि से यु तथा हलका, साि वक और िनयिमत भोजन करने वाला, शब्दािद िवषयों का
त्याग करके एकान्त और शु दे श का सेवन करने वाला, साि वक धारणशि के ारा अन्तःकरण और
इिन्ियों का संयम करके मन, वाणी और शरीर को वश में कर लेने वाला तथा अहं कार, बल, घमण्ड, काम,
बोध और पिरमह का त्याग करके िनरन्तर ध्यानयोग के परायण रहने वाला, ममता रिहत और
शािन्तयु पुरुष सिच्चदानन्दघन ॄ में अिभन्नभाव से िःथत होने का पाऽ होता है ।(51, 52, 53)
ॄ भूतः ूसन्नात्मा न शोचित न कांक्षित।
समः सवषु भूतेषु म ि ं लभते पराम।।
् 54।।
िफर वह सिच्चदानन्दघन ॄ में एकीभाव से िःथत, ूसन्न मनवाला योगी न तो िकसी के िलए
शोक करता है और न िकसी की आकांक्षा ही करता है । ऐसा समःत ूािणयों में समभावना वाला योगी मेरी
पराभि को ूा हो जाता है ।(54)
भक्त्या मामिभजानाित यावान्य ािःम त वतः।
ततो मां त वतो ज्ञात्वा िवशते तदनन्तरम।।
् 55।।
उस पराभि के ारा वह मुझ परमात्मा को, मैं जो हँू और िजतना हँू , ठीक वैसा-का-वैसा त व से
जान लेता है तथा उस भि से मुझको त व से जानकर तत्काल ही मुझमें ूिव हो जाता है ।(55)
सवर्कमार्ण्यिप सदा कुवार्णो मद् व्यापाौयः।
मत्ूसादादवाप्नोित शा तं पदमव्ययम।।
् 56।।
मेरे परायण हआ
ु कमर्योगी तो सम्पूणर् कम को सदा करता हआ
ु भी मेरी कृ पा से सनातन अिवनाशी
परम पद को ूा हो जाता है ।(56)
चेतसा सवर्कमार्िण मिय संन्यःय मत्परः।
बुि योगमुपािौत्य मिच्चतः सततं भव।।57।।
सब कम का मन से मुझमें अपर्ण करके तथा समबुि रूप योग को अवलम्बन करके मेरे परायण
और िनरन्तर मुझमें िच वाला हो।(57)
मिच्च ः सवर्दगार्
ु िण मत्ूसादा िरंयिस।
अथ चे वमहं कारान्न ौोंयिस िवनङ्आयिस।।58।।
उपयुर् ूकार से मुझमें िच वाला होकर तू मेरी कृ पा से समःत संकटों को अनायास ही पार कर
जायेगा और यिद अहं कार के कारण मेरे वचनों को न सुनेगा तो न हो जायेगा अथार्त ् परमाथर् से ॅ हो
जायेगा।(58)
यदहं कारमािौत्य न योत्ःय इित मन्यसे।
िमथ्यैष व्यवसायःते ूकृ ितःत्वां िनयोआयित।।59।।
जो तू अहं कार का आौय न लेकर यह मान रहा है िक 'मैं यु नहीं करुँ गा' तो तेरा यह िन य िमथ्या
है क्योंिक तेरा ःवभाव तुझे जबरदःती यु में लगा दे गा।(59)

ःवभावजेन कौन्तेय िनब ः ःवेन कमर्णा।


कतु नेच्छिस यन्मोहात्किरंयःयवशोऽिप तत।।
् 60।।
हे कुन्तीपुऽ ! िजस कमर् को तू मोह के कारण करना नहीं चाहता, उसको भी अपने पूवक
र् ृ त
ःवाभािवक कमर् से बँधा हआ
ु परवश होकर करे गा।(60)
ई रः सवर्भत
ू ानां हृदे शेऽजुन
र् ित ित।
ॅामयन्सवर्भत
ू ािनं यंऽारूढािन मायया।।61।।
हे अजुन
र् ! शरीररूप यंऽ में आरूढ़ हए
ु सम्पूणर् ूािणयों को अन्तयार्मी परमे र अपनी माया से उनके
कम के अनुसार ॅमण कराता हआ
ु सब ूािणयों के हृदय में िःथत है ।(61)
तमेव शरणं गच्छ सवर्भावेन भारत।
तत्ूसादात्परां शािन्तं ःथानं ूाप्ःयिस शा तम।।
् 62।।
हे भारत ! तू सब ूकार से उस परमे र की शरण में जा। उस परमात्मा की कृ पा से ही तू परम
शािन्त को तथा सनातन परम धाम को ूा होगा।(62)
इित ते ज्ञानमाख्यातं गु द् गु तरं मया।
िवमृँयैतदशेषेण यथेच्छिस तथा कुरु।।63।।
इस ूकार यह गोपनीय से भी अित गोपनीय ज्ञान मैंने तुझसे कह िदया। अब तू इस रहःययु ज्ञान
को पूणत
र् या भलीभाँित िवचारकर, जैसे चाहता है वैसे ही कर।(63)
सवर्गु तमं भूयः ौृणु मे परमं वचः।
इ ोऽिस मे दृढिमित ततो वआयािम ते िहतम।।
् 64।।
सम्पूणर् गोपिनयों से अित गोपनीय मेरे परम रहःययु वचन को तू िफर भी सुन। तू मेरा अितशय
िूय है , इससे यह परम िहतकारक वचन मैं तुझसे कहँू गा।(64)
मन्मना भव मद् भ ो म ाजी मां नमःकुरु।
मामेवैंयिस सत्यं ते ूितजाने िूयोऽिस मे।65।।
हे अजुन
र् ! तू मुझमें मनवाला हो, मेरा भ बन, मेरा पूजन करनेवाला हो और मुझको ूणाम कर।
ऐसा करने से तू मुझे ही ूा होगा, यह मैं तुझसे सत्य ूितज्ञा करता हँू क्योंिक तू मेरा अत्यन्त िूय
है ।(65)
सवर्धमार्न्पिरत्यज्य मामेकं शरणं ोज।
अहं त्वा सवर्पापेभ्यो मोक्षियंयािम मा शुचः।।66।।
सम्पूणर् धम को अथार्त ् सम्पूणर् कतर्व्य कम को मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सवर्शि मान
सवार्धार परमे र की ही शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूणर् पापों से मु कर दँ ग
ू ा, तू शोक मत कर।(66)

इदं ते नातपःकाय नाभा ाय कदाचन।


न चाशुौष
ू वे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयित।।67।।
तुझे यह गीता रूप रहःयमय उपदे श िकसी भी काल में न तो तपरिहत मनुंय से कहना चािहए, न
भि रिहत से और न िबना सुनने की इच्छावाले से ही कहना चािहए तथा जो मुझमें दोषदृि रखता है
उससे तो कभी नहीं कहना चािहए।(67)
य इमं परमं गु ं मद् भ े ंविभधाःयित।
भि ं मिय परां कृ त्वा मामेवैंयत्यसंशय़ः।।68।।
जो पुरुष मुझमें परम ूेम करके इस परम रहःययु गीताशा को मेरे भ ों से कहे गा, वह मुझको
ही ूा होगा – इसमें कोई सन्दे ह नहीं।(68)
न च तःमान्मनुंयेषु कि न्मे िूयकृ मः।
भिवता न च मे तःमादन्यः िूयतरो भुिव।।69।।
उससे बढ़कर मेरा कोई िूय कायर् करने वाला मनुंयों में कोई भी नहीं है तथा पृथ्वीभर में उससे
बढ़कर मेरा िूय दसरा
ू कोई भिवंय में होगा भी नहीं।(69)
अध्येंयते च य इमं धम्य संवादमावयोः।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहिम ः ःयािमित मे मितः।।70।।
जो पुरुष इस धमर्मय हम दोनों के संवादरूप गीताशा को पढ़े गा, उसके ारा भी मैं ज्ञानयज्ञ से
पूिजत होऊँगा – ऐसा मेरा मत है ।(70)
ौ ावाननसूय ौृणय
ु ादिप यो नरः
सोऽिप मु ःशुभ ल्लोकान्ूाप्नुयात्पुण्यकमर्णाम।।
् 71।।
जो मनुंय ौ ायु और दोषदृि से रिहत होकर इस गीताशा को ौवण भी करे गा, वह भी पापों से
मु होकर उ म कमर् करने वालों के ौे लोकों को ूा होगा।(71)
किच्चदे तच् तं पाथर् त्वयैकामेण चेतसा।
किच्चदज्ञानसंमोहः ून ःते धनंजय।।72।।
हे पाथर् ! क्या इस (गीताशा ) को तूने एकामिच से ौवण िकया? और हे धनंजय ! क्या तेरा
अज्ञानजिनत मोह न हो गया?(72)
अजुन
र् उवाच
न ो मोहः ःमृितलर्ब्धा त्वत्ूासादान्मयाच्युत।
िःथतोऽिःम गतसन्दे हः किरंये वचनं तव।।73।।
अजुन
र् बोलेः हे अच्युत ! आपकी कृ पा से मेरा मोह न हो गया और मैंने ःमृित ूा कर ली है । अब
मैं संशयरिहत होकर िःथत हँू , अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।(73)

संजय उवाच
इत्यहं वासुदेवःय पाथर्ःय च महात्मनः।
संवादिमममौौषम तं
ु रोमहषर्णम।।
् 74।।
संजय बोलेः इस ूकार मैंने ौीवासुदेव के और महात्मा अजुन
र् के इस अदभुत रहःययु ,
रोमांचकारक संवाद को सुना।(74)
व्यासूासादाच् तवानेतद् गु महं परम।्
योगं योगे रात्कृ ंणात्साक्षात्कथयतः ःवयम।।
् 75।।
ौी व्यासजी की कृ पा से िदव्य दृि पाकर मैंने इस परम गोपनीय योग को अजुन
र् के ूित कहते हए

ःवयं योगे र भगवान ौीकृ ंण से ूत्यक्ष सुना है ।(75)
राजन्संःमृत्य संःमृत्य संवादिमममद् भुतम।्
केशवाजुन
र् योः पुण्यं हृंयािम च मुहु मुह
र् ु ः।।76।।
हे राजन ! भगवान ौीकृ ंण और अजुन
र् के इस रहःययु कल्याणकारक और अदभुत संवाद को
पुनः-पुनः ःमरण करके मैं बार-बार हिषर्त हो रहा हँू ।(76)
तच्च संःमृत्य संःमृत्य रूपमत्य तं
ु हरे ः।
िवःमयो मे महान ् राजन्हृंयािम च पुनः पुनः।।77।।
हे राजन ! ौी हिर के उस अत्यन्त िवलक्षण रूप को भी पुनः-पुनः ःमरण करके मेरे िच में महान
आ यर् होता है और मैं बार-बार हिषर्त हो रहा हँू ।(77)
यऽ योगे रः कृ ंणो यऽ पाथ धनुधरर् ः
तऽ ौीिवर्जयो भूितीुव
र् ा नीितमर्ितमर्म।।78।।
हे राजन ! जहाँ योगेव र भगवान ौीकृ ंण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अजुन
र् हैं , वहीं पर ौी,
िवजय, िवभूित और अचल नीित है – ऐसा मेरा मत है ।(78)
ॐ तत्सिदित ौीमद् भगवद् गीतासूपिनषत्सु ॄ िव ायां योगशा े
ौीकृ ंणाजुन
र् संवादे मोक्षसंन्यासयोगो नाम अ ादशोऽध्यायः ।।18।।
इस ूकार उपिनषद, ॄ िव ा तथा योगशा रूप ौीमद् भगवद् गीता के
ौीकृ ंण-अजुन
र् संवाद में मोक्षसंन्यासयोग नामक अठारहवाँ अध्याय संपूणर् हआ।

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

(अनुबम)

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