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कर्मयोग

।।श्री श्रीगरुु -गौराङ्गौ जयतः।।

कर्मयोग

कृष्णकृपामूर्ति
श्री श्रीमद् ए.सी. भाक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
संस्थापकाचार्य : अन्तर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ

§   

भक्तिवेदान्त बुक ट्रस्ट


विषय-सच
ू ी
भूमिका

अध्याय एक - दिव्य ज्ञान 

अध्याय दो - कर्मयोग : दिव्य फल से युक्त कर्म

हरे कृ ष्ण मंत्र का जप 

भूमिका
सम्प्रति हम मख्ु यत: दो विषयों को लेकर चिन्तित हैं-एक तो स्वयं के बारे में तथा दसू रे उस स्थान के बारे में
जहाँ हम रहते हैं। दसू रे शब्दों में, हमें दो विषयों की चिन्ता है-(1) उन सभी वस्तओ
ु ं की जो हमारे स्थल
ू तथा सक्ष्ू म
शरीरों से सम्बद्ध हैं; तथा (2) अपनी समस्त सामग्री सहित इस ससं ार की। किन्तु हमसे भी ऊपर कुछ लोग हैं-ये हैं
अध्यात्मवादी-जो न के वल अपने शरीरों, मनों तथा इस संसार के प्रति चिन्तित रहते हैं, अपितु उस दिव्य विषय के
प्रति भी जो शरीर, मन तथा संसार से ऊपर है। ये अध्यात्मवादी परम सत्य के बारे में अत्यधिक चिन्तित हैं जबकि
सापेक्ष सत्य के प्रति बहुत ही कम।

ये अध्यात्मवादी (जो सामान्यतया सन्त, दार्शनिक, सधु ारक, ईशदतू आदि कहलाते हैं) विभिन्न समयों पर
ससं ार के विभिन्न स्थानों में प्रकट होते रहते हैं। ये परम सत्य की दिव्य सेवा करते हैं और दिव्य जगत् के सन्देश का
प्रचार करके मानवता की भी सेवा करते हैं। इन अध्यात्मवादियों के अनसु ार मनष्ु यों को कुत्तों तथा बिल्लियों जैसे
निम्न पशओ
ु ं की अपेक्षा अधिक चिन्ता करनी चाहिए क्योंकि ये पशु भी मख्ु यत: दो बातों के प्रति ही चिन्तित रहते हैं-
एक तो स्वयं और दसू रा यह संसार। मनष्ु यों के अलावा अन्य जीवों में दिव्य विषयों को समझने की क्षमता नहीं होती।
इसलिए मनष्ु य को समस्त प्राणियों में सर्वोच्च माना जाता है और हमें इस उच्चतर पद की प्रकृ ति को समझना चाहिए।

उत्पन्न हुए समस्त जीवों में सर्वोच्च जीव, मनष्ु य, की चेतना जब पर्णू तया विकसित होती है, तो वह स्वयं से
तथा उस जगत् से भी, जिसमें वह रह रहा है, उच्चतर विषयों के बारे में सोचने लगता है अर्थात् वह परम सत्य को
समझने का प्रयास करता है। यह परम सत्य मनष्ु य तथा संसार दोनों को ही नियमित करता है और उसे जानकर
अध्यात्मवादी अपनी गतिविधियों का नियमन सही मार्ग पर करता है। नियमन की यह विधि सामान्यतया श्रद्धा या धर्म
की विधि कहलाती है। सारे सभ्य जगत् में हमें धर्म का कोई न कोई रूप मिलता है। निस्सन्देह, जब मनष्ु य धर्मविहीन
होता है, तो वह पशतु ल्ु य बन जाता है। धर्म को चाहे विभिन्न देशों, कालों तथा लोगों के अनसु ार वर्णित किया जाए,
लेकिन सभी किस्सों में इसका लक्ष्य न्यनू ाधिक परम सत्य ही होता है।

परम सत्य अद्वय है, किन्तु विभिन्न परिस्थितियों के अन्तर्गत विभिन्न धर्माचार्य या अध्यात्मवादी उन्हें भिन्न-
भिन्न दृष्टिकोण से देखते हैं। कुछ अध्यात्मवादी परम सत्य को निर्विशेष शक्ति के रूप में देखते हैं , जिसे प्राय: निराकार
ब्रह्म कहा जाता है, जबकि अन्य लोग उन्हें ईश्वर के सर्वव्यापक रूप में देखते हैं, जो समस्त जीवों के भीतर निवास
करते हैं और सामान्यतया परमात्मा कहलाते हैं। किन्तु अध्यात्मवादियों का एक दसू रा महत्वपर्णू वर्ग है, जो उस परम
सत्य को पर्णू परुु षोत्तम भगवान् के रूप में समझता है, जो एक साथ निर्विशेष तथा सर्वव्यापी गणु से यक्त
ु परम परुु ष हैं।
वर्तमान समय में भौतिकतावादी प्रवृत्तियों की वेदी पर धर्म शब्द की बलि दी जा रही है। मनष्ु य जाति अब
निम्नतर पशओ
ु ं की भाँति खाने, सोने, रक्षा करने तथा अपनी इन्द्रियों को तृप्त करने से सम्बद्ध नियमों के प्रति अधिक
चिन्तित है। सामान्य प्रवृत्ति यह है कि जहाँ तक हो सके दिव्य विषयों की यथासंभव उपेक्षा की जाए या किसी भी
स्थिति में उसकी गहराई में न जाया जाये; यहाँ तक कि बड़े से बड़े राजनीतिक नेता भी यह कहते सनु े गए हैं कि भख
ू े
परुु ष या स्त्री को ईश्वर तथा धर्म में कोई सार्थकता प्रतीत नहीं होती। सामान्यजन ऐसे ही भौतिकतावादी लोगों के नेतत्ृ व
में शनै: शनै: निम्नतर पशओ
ु ं के स्तर की ओर गिरते जा रहे हैं, जो समस्त दिव्य अनभु ति
ू से रहित है और जो अपने
भौतिक शरीरों तथा भौतिक जगत् से परे कुछ भी नहीं जानते।

इस तरह मानव-जाति उन कुत्तों के स्तर तक नीचे गिर चक


ु ी है, जो किसी अन्य क्षेत्र से आये हुए अन्य कुत्तों के
समहू को देखते ही भौंकने के आदी हैं। हम इससे बढ़कर मनष्ु य के पतन की कल्पना नहीं कर सकते जब वह अपने
क्षेत्र या अपनी धार्मिक उपाधि से सम्बद्ध न होने वाले अन्य व्यक्ति को देखकर शोर मचाने लगता है। वह इस तरह शोर
मचाता है जैसे उसका किसी शेर या भेड़िये से सामना हुआ हो। दिव्य ज्ञान के बिना मानव जाति वस्ततु : शेरों तथा
भेड़ियों के तल्ु य बन गई है।

इसलिए वर्तमान समय में यदि हम मानव जाति को पनु : स्वस्थचितता में वापस ले जाना चाहते हैं, तो परम
ज्ञान के विषय में कुछ न कुछ समझना आवश्यक है। इसलिए बद्धि
ु मान् जननेताओ ं को अपनी शक्ति के वल खाने,
सोने, रक्षा करने तथा भौतिक इन्द्रियतृप्ति करने की सांसारिक उन्नति में ही नहीं लगानी चाहिए। ऐसे नेताओ ं को, जो
यह सोचते हैं कि भख
ू े परुु ष या स्त्री के लिए ईश्वर तथा धर्म का कोई प्रयोजन नहीं है, यह सस्ु पष्ट रूप से बता दिया जाना
चाहिए कि इस संसार में ऐसा कोई भी परुु ष या स्त्री नहीं है जो आध्यात्मिकता का भख
ू ा न हो और यह कि वस्ततु :
आध्यात्मिकता के लिए भख
ू े इन्हीं परुु षों तथा स्त्रियों को इसी समय ईश्वर तथा धर्म का अर्थ समझने की आवश्यकता
पहले की अपेक्षा कहीं अधिक है।

इस प्रसंग में हम पेरिस में यनू स्े को की हाल ही की एक बैठक में भारत के प र्वू राष्ट्रपति डॉ. राधाकृ ष्णन द्वारा
दिये गये भाषण का सारांश उद्धतृ करना चाहेंगे। उन्होंने कहा, "जब कोई राष्ट्र गर्व के कारण ईश्वर से विमख
ु हो जाता है
और सांसारिक सफलता तथा वैभव पर ध्यान के न्द्रित करता है, तो उसका सर्वनाश हो जाता है। आज जिस बात की
सर्वाधिक आवश्यकता है वह स्कूलों और वाचनालयों या दक
ु ानों और फै क्टरियों का इतना पनु र्वास नहीं जितना
मनष्ु य का पनु र्वास है। यदि हमें नवीन विश्व समदु ाय का सृजन करना है, तो हमें मनष्ु य का पनु ः सृजन करना होगा।"

अतः यदि हम मानव जाति का पनु र्वास (सधु ार) करना चाहते हैं, जो इस समय इतनी छिन्नभिन्न है जितनी कि
पहले कभी नहीं थी, तो ईश्वर के साथ मनष्ु य के अति महत्वपर्णू सम्बन्ध को समझना पहले की अपेक्षा कहीं अधिक
आवश्यक है।

प्रयोगाश्रयी दार्शनिकों तथा तर्क वादियों ने अनेक कल्पनाओ ं तथा विधियों के द्वारा अपनी ससं ारी शिक्षा तथा
अपने पाडि
ं त्यपर्णू अन्वेषण के बल पर परम सत्य के साथ जीवों के अन्तर्निहित सम्बन्ध को समझने का प्रयास किया
है। किन्तु परम सत्य सदैव इन दार्शनिकों तथा इनके उपार्जित ज्ञान के परे रहता है। परम सत्य की संकल्पना कभी भी
हमारी अपर्णू भौतिक इन्द्रियों से उत्पन्न ऐसी आरोही विधि से परू ी तरह प्राप्त नहीं की जाती। ये प्रयोगाश्रयी दार्शनिक
तथा तर्क शास्त्री भौतिक ज्ञान से उत्पन्न अहक
ं ार के कारण अपनी अपर्णू ता का अनभु व नहीं कर सकते , फलत: वे जिस
चरम निष्कर्ष पर पहुचँ ते हैं वह नास्तिकतावाद होता है। वे उन परम परुु ष ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानते जो अन्य
समस्त परुु षों से भिन्न हैं। नास्तिकता के ऐसे अस्पष्ट ख्याल के वशीभतू ऐसे भौतिकतावादी दार्शनिक पहले की भाँति
ही अधं कार में पड़े रहते हैं। वे अपने ही विचारों के अनसु ार कल्पित परम सत्य की संकल्पना से तष्टु रहते हैं और हमारे
साथ ईश्वर का जो वास्तविक सम्बन्ध है, उसे जान नहीं पाते।

वास्तविक अध्यात्मवादी साधारणीकरण की ऐसी विधि को मान्यता नहीं देते। वे इन्द्रिय-बोध को महत्व न दे
कर उन अधिकारी जनों से वास्तविक ज्ञान को उसकी विभिन्न श्रेणियों में प्राप्त करते हैं, जिनको दिव्य ज्ञान का
वास्तविक बोध है। यह बोध मानवीय व्यक्तित्व के आन्तरिक गहनतर पक्ष से ही सम्भव हो पाता है। पर्णू परुु षोत्तम
भगवान् तथा हमारे साथ उनके सम्बन्ध के विषय में यथार्थ ज्ञान तो के वल इसी दिव्य विधि से प्रकट हो सकता है।
चकि
ँू पर्णू परुु षोत्तम भगवान् परम हैं, इसलिए वे भौतिकतावादी जनों के समक्ष प्रकट होने अथवा न होने के अधिकार
को अपने पास सरु क्षित रखते हैं। वे एक परम विधि से ही जाने जा सकते हैं और इन्द्रिय अनभु ति
ू की सापेक्ष विधि उन
तक कभी नहीं पहुचँ सकती। यदि ईश्वर हमारी सापेक्ष इन्द्रिय अनभु ति
ू के अधीन प्रकट हो सकते , तब तो ईश्वर नहीं,
बल्कि हमारी इन्द्रिय-अनभु ति
ू ही परम होती। इसलिए अपनी समस्त अनेकानेक अवस्थाओ ं में यह इन्द्रिय-अनभु ति

ईश ज्ञान प्राप्त करने में भ्रान्ति उत्पन्न करने वाली है।
हम अपने अपर्णू ज्ञान से परम सत्य तक नहीं पहुचँ सकते किन्तु परम सत्य अपनी दया से स्वयं प्रकट होते हैं।
रात्रि के अधं कार में हम, उच्चतम औद्योगिकी के बल से भी, सर्यू को प्रकट होने के लिए बाध्य नहीं कर सकते। किन्तु
प्रात:काल सर्यू स्वयमेव, बिना हमारे किसी भौतिकतावादी प्रयास के , अपनी इच्छा से प्रकट होता है। जब सर्यू उदय
होता है, तो रात्रि का अधं कार स्वयं ही लप्तु हो जाता है। इसी तरह से पर्णू परुु षोत्तम भगवान् या उनके अन्तरंग सेवक
किसी प्रकार की भौतिक शक्ति की सहायता के बिना अपनी निजी शक्ति से स्वयं प्रकट होते हैं। वे अपनी अहैतक
ु ी
कृ पा से के वल उन पतितात्माओ ं को लाभ पहुचँ ाने के लिए अवतरित होते हैं, जिन में ईश्वर की भौतिक शक्ति द्वारा,
जिसे प्रकृ ति के गणु कहते हैं, विमोहित होने की प्रवृत्ति हो।

किन्तु यदि हम प्रात:काल जब सर्यू उदय होता है उस समय अपने दरवाजे तथा खिड़कियाँ बन्द रखें, तो
निश्चित रूप से सर्यू की किरणें हमारे अन्धकारमय कमरे में प्रविष्ट नहीं हो सकतीं। इसी तरह, जब भगवान् या उनके
अन्तरंग सेवक स्वयं को प्रकट करते हैं और ईश्वर के सन्देश का प्रचार करते हैं, तो हमें अपने शरीर और मन के
दरवाजों तथा खिड़कियों को बन्द नहीं कर लेना चाहिए अन्यथा भगवान् तथा उनके सेवकों से निकलने वाला प्रकाश
हमारे भीतर प्रविष्ट नहीं करे गा। सामान्यतया ऐसे दिव्य स्रोतों से निकलने वाला प्रकाश हमारी श्रवणेन्द्रियों से हमारे
भीतर प्रविष्ट होता है। अत: यदि हम श्रीभगवान् के सन्देश का विनीत भाव से श्रवण करने के लिए तैयार हों, तो हम
भगवान् को उनके यथार्थ रूप में तथा उनके साथ अपने सम्बन्ध को तत्व से जान सकते हैं। उसी दिव्य भावना से हमने
सामान्य जनों तथा विशेष रूप से सत्यान्वेषियों के लाभ हेतु इस पस्ु तक "कर्मयोग" को प्रस्ततु किया है। हम नहीं
जानते कि हम अपने इस अल्प प्रयास में कहाँ तक सफल होंगे। यदि इसमें कुछ दोष दिखें तो हम उनके लिए क्षमा
प्रार्थी हैं।

-लेखक
दिव्य ज्ञान

हम उन सर्वकरुणामय गरुु कृ ष्णकृ पामर्ति


ू श्री श्रीमद् भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभपु ाद को सादर तथा
विनीत रूप से नमस्कार करते हैं, जो पतितों के उद्धारक हैं। उन्होंने दिव्य ज्ञान की शलाका से हमारी आँखें खोल कर
अज्ञान के अन्धकार को दरू किया है। यह ज्ञान उन्होंने सारे लोगों के लाभार्थ प्रकट किया है।

सामान्यतया हम अपने दो छोटे नेत्रों पर गर्वित रहते हैं और अभिमानपर्वू क उनसे प्रत्येक वस्तु को देखने के
लिए सदैव उत्साहित रहते हैं। किन्तु हम यह नहीं जानते कि इस क्षण हम जो भी देख रहे हैं, वह अज्ञान के अधं कार से
आच्छादित है। अत: उसे या तो हम गलत देख रहे हैं या आशि
ं क रूप से देख पा रहे हैं। यह तथ्य नहीं है कि हम
प्रत्येक वस्तु को उसके सही रूप में मात्र अपनी नेत्रशक्ति लगाकर देख सकते हैं। हर प्रात:काल जब सर्यू उदय होता है,
तो हम उसके विशाल पिंड को एक लघु चक्र के रूप में ही देखते हैं। निस्सन्देह, सर्यू पृथ्वी से भी बहुत बड़ा है जिस पर
हम रह रहे हैं। इस तरह प्रतिदिन प्रात:काल हमारे आत्मविश्वास की मिथ्याभिमानपर्णू दृष्टि की परीक्षा होती है और वह
विसंगत हो जाती है। हमारे नेत्र के वल कुछ ही अनक
ु ू ल दशाओ ं में ज्ञान का संचय कर सकते हैं। हम न तो उन वस्तओ
ु ं
को देख सकते हैं जो हमसे बहुत दरू हैं, न ही हम अन्धकार को छिन्न-भिन्न कर सकते हैं, या अपने अति निकट की
वस्तओ
ु ं को देख पाते हैं जैसे कि हमारी अपनी ही पलकें । इस तरह भौतिक प्रकृ ति द्वारा उत्पन्न कतिपय अनक
ु ूल
परिस्थितियों में ही हम अपने नेत्रों पर गर्व कर सकते हैं। अन्यथा अद्भुत नेत्रों के होते हुए भी हम वस्तओ
ु ं को उनके
सही परिप्रेक्ष्य में देख नहीं सकते। जो नेत्रों के लिए सत्य है, वही अन्य इन्द्रियों पर भी लागू होता है जिनका उपयोग हम
ज्ञानसंचय हेतु करते हैं।

2 कर्म योग
ऐसी परिस्थितियों में हम इस क्षण जो भी अनभु व कर रहे अपर्णू ताएँ रहती हैं। इन भ्रमपर्णू धारणाओ ं को न तो
स्वयं त्रटि
ु कर्ता, न ही ऐसी ही त्रटि
ु करने वाले अन्य व्यक्ति कभी भी सधु ार सकते हैं।
यदि हम अँधेरे में किसी वस्तु को देखना चाहते हैं, तो हम के वल अपने नेत्रों का ही उपयोग नहीं कर सकते ;
हमें देखने में सहायता करने वाले किसी अन्य साधन पर निर्भर रहना होगा। अत: अधं ेरे में कोई वस्तु अपने पर्णू रूप में
हमें ज्ञात नहीं हो पाती। ऐसी स्थिति में यदि हम स्पर्श से या अन्य किसी साधन से कुछ ज्ञान प्राप्त कर भी लें, तो वह
के वल भ्रमपर्णू अथवा अपर्णू होता है। यह स्थिति वैसी ही है जैसी कि अधं ों के उस दल की होती है जो किसी हाथी
को पाकर एक दसू रे से इस विचित्र नये प्राणी का वर्णन करने का प्रयास करते हैं। इनमें से एक अधं ा संडू को छूता है
और कहता है, "यह प्राणी तो एक विशाल सर्प है।" दसू रा अधं ा उसके पाँव छूकर कहता है, "नहीं, यह तो एक विशाल
खम्भा है, इत्यादि।"

किन्तु घनान्धकार में वस्तओ


ु ं को देखने का के वल एक ही उपाय है। यदि कोई व्यक्ति अधं ेरे में प्रकाश का कोई
स्रोत ले आये, तो वस्तओ
ु ं को उनके यथार्थ रूप में देख पाना परू ी तरह सम्भव है। इसी तरह से हमारे उपदेशकों द्वारा
ज्ञान का दीपक प्रज्वलित किया जाता है और हम वस्तओ
ु ं को यथार्थ रूप में के वल अपने उपदेशक की कृ पा से देख
सकते हैं। हमें अपने जन्म से ही अपने उपदेशकों की कृ पा से ज्ञान सचि
ं त करने का अभ्यास है-यह उपदेशक चाहे पिता
हो, माता हो या कि शिक्षक। हम ऐसे ही उपदेशकों की सहायता से प्रगतिशील ज्ञान के मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं
जिनसे हम विनयपर्वू क श्रवण करके अनभु व एकत्र करते हैं।

हम अपने उपदेशकों की कृ पा से ही ज्ञान के पथ पर अग्रसर होते हैं -वर्णमाला सीखने से लेकर अपने
विश्वविद्यालयीन स्तर तक। यदि हम और भी आगे चल कर दिव्य ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं, तो सर्वप्रथम हमें योग्य
दिव्य उपदेशक ढूँढ़ना चाहिए जो हमारा मार्गदर्शन कर सके । हम अपने स्कूलों तथा कालेजों में शिक्षा के द्वारा जो ज्ञान
संचित करते हैं, वह हमें वर्तमान जीवनकाल में किसी एक विशेष विषय के अध्ययन में थोड़े समय के लिए सहायता
कर सकता है। किन्तु यह शिक्षा उस दिव्य ज्ञान की हमारी सनातन आवश्यकता को परू ा नहीं कर सकती, जिसके लिए
हम जन्म-जन्मान्तर, दिन प्रतिदिन, घंटा प्रति घंटा लालायित रहते हैं।

दिव्य ज्ञान 3
किसी विषय में सफलता पाने के लिए यह आवश्यक है कि उस विषय के अध्यापक से सम्बन्ध स्थापित
किया जाये और उस विशेष दिशा में अनक
ु ू ल रीति से कार्य किया जाये। किसी शैक्षिक विश्वविद्यालय में रहकर उपाधि
प्राप्त करने के लिए हमें सर्वप्रथम उस सस्ं थान से सम्बन्ध स्थापित करना होता है। वहाँ पर हमें अपने शिक्षकों के निर्देशों
का पालन करना होता है और उनके निर्देशानसु ार कार्य करना होता है। वांछित सफलता पाने के लिए यह अत्यावश्यक
है। इसी तरह यदि हम नित्य जीवन के सिद्धान्तों को जानने के लिए वास्तव में लालायित हैं और वस्तओ
ु ं को सही
परिप्रेक्ष्य में देखना चाहते हैं, तो हमें ऐसे उपदेशक से सम्बन्ध स्थापित करने की आवश्यकता होती है जो यथार्थ रूप से
हमारी आँखें खोल सके और अज्ञान के चगं ल
ु से हमें बचा सके । गरुु का आश्रय लेने की यह विधि शाश्वत यथार्थता है।
कोई भी इस शाश्वत नियम का उल्लघं न नहीं कर सकता ।

दीक्षा की प्रक्रिया उस तिथि से आरम्भ होती है, जब हम गरुु के साथ अपना दिव्य सम्बन्ध स्थापित कर लेते
हैं। उपनिषदों तथा सम्बद्ध शास्त्रों का आदेश है कि व्यक्ति को चाहिए कि अत्यन्त आदरपर्वू क उन गरुु के चरणों का
आश्रय लें जो सभी शास्त्रों में पारंगत हों तथा जिन्होंने दिव्य ज्ञान में सिद्धि प्राप्त कर ली हो। दिव्य ज्ञान में सिद्धि प्राप्त
करने के लिए मनष्ु य को गरुु शिष्य परम्परा को, जो एक आध्यात्मिक परम्परा है, अनश
ु ीलन एवं अभ्यास के साथ
स्वीकार करना चाहिए तथा उसमें शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए। प्राय: विभिन्न आध्यात्मिक सघं ों या समदु ायों के
व्यावसायिक अध्यक्षों में इस आध्यात्मिक पर्णू ता के स्तर का अभाव रहता है अत: उनमें आध्यात्मिक गरुु बनने की
योग्यताएँ नहीं होतीं। अतः औपचारिकता या प्रथा के अनसु ार ऐसे व्यावसायिक गरुु ओ ं की शरण लेने से कोई लाभ
नहीं होता। जब तक आध्यात्मिक अनश
ु ासन का पालन न किया जाये, तब तक आध्यात्मिक पर्णू ता प्राप्त करना
सम्भव नहीं है।

पर्णू परुु षोत्तम भगवान् श्रीकृ ष्ण ने, जो आदर्श आध्यात्मिक गरुु हैं, अपने शिष्य महान् योद्धा अर्जुन से
भगवद्गीता के दर्शन का कथन किया। आध्यात्मिक गरुु तथा शिष्य के बीच के सम्बन्ध का यह एक सम्यक्र उदाहरण
है। अर्जुन श्रीकृ ष्ण के अन्तरंग सखा थे; इसीलिए श्रीकृ ष्ण ने उससे समस्त शास्त्रों के सार, भगवद्गीता की व्याख्या की।

चकि
ँू हम अपने सांसारिक कार्यों को परू ा करने में सदैव अत्यन्त व्यस्त रहते हैं अत: हम उदरपोषण और उससे
सम्बद्ध विषयों के सांसारिक दर्शन के अतिरिक्त किसी भी दर्शन को नहीं समझना चाहते। हमने उदरपोषण के इस दर्शन

4 कर्म योग
की अनेक शाखाओ-ं उपशाखाओ ं को विभिन्न दिशाओ ं में विस्तृत कर रखा है; अतएव नित्यजीवन प्राप्त करने
के दर्शन को समझने के लिए-जिसके लिए हम जन्म-जन्मान्तर संघर्ष करते हैं-हमें शायद ही कोई समय मिलता हो।

अर्जुन ने कृ ष्ण को कुरुक्षेत्र के यद्ध


ु स्थल में, दो विरोधी सेनाओ ं के बीच में रथ स्थापित करने के लिए कहा।
तत्पश्चात् उन्होंने यद्ध
ु करने से इनकार कर दिया। ऐसा करते समय अर्जुन एक सामान्य व्यक्ति के समान व्यवहार कर रहे
थे, जो दार्शनिक अज्ञानता तथा दर्बु लता से अभिभतू रहता है। तब कृ ष्ण ने उन्हें भगवद्गीता के ज्ञान से प्रकाशित किया।

इस तरह यगु ों यगु ों से पर्णू परुु षोत्तम भगवान् तथा उनके प्रिय विश्वस्त भक्तजन ससं ार के लोगों का अज्ञान-
अधं कार दरू करके अपनी असीम दया प्रदान करते रहे हैं। यदि वे हमें ऐसी दया प्रदान न करते तो हम कभी भी दिव्य
ज्ञान प्राप्त न कर सके होते।

कभी-कभी पर्णू परुु षोत्तम भगवान् स्वयं अवतरित होते हैं और दिव्य ज्ञान की शिक्षा देते हैं। अन्य अवसरों पर
वे इस दयापर्णू कार्य करने के लिए अपने विश्वस्त सेवकों को नियक्त
ु करते हैं। सारे मसीहा अर्थात् सन्त जो भगवद्धाम
के दिव्य सन्देश का प्रचार करने पर्वू काल में आ चक
ु े हैं या भविष्य में आएँगे , उन्हें पर्णू परुु षोत्तम भगवान् के परम
विश्वस्त सेवकों के रूप में ही समझना होगा। जीसस क्राइस्ट ईश्वर के प त्रु रूप में प्रकट हुए। महु म्मद साहब ने अपने को
ईश्वर का दास कहा तथा भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने को ईश्वर के भक्त के रूप में प्रस्ततु किया। किन्तु इनकी
पहचान चाहे जो भी रही हो, ये सारे मसीहा एक विषय पर एकमत थे कि इस मत्र्यलोक में स्थायी शान्ति और
सम्पन्नता नहीं हो सकती। वे सभी एकमत हैं कि हमें किसी भिन्न लोक में जाना पड़ेगा, जहाँ पर शान्ति तथा सम्पन्नता
अपने वास्तविक स्वरूप में विद्यमान हैं। हमें उस भगवद्धाम में अपनी शाश्वत शान्ति और सम्पन्नता की खोज करनी
होगी, जो इस मत्र्य लोक से परे है। भगवान् बद्ध
ु तथा शंकराचार्य जैसे मसीहों तथा सधु ारकों तक ने भी, जिन्होंने पर्णू
परुु षोत्तम भगवान् को स्वीकार नहीं किया, कभी इसका उपदेश नहीं दिया कि इस भौतिक जगत् में शाश्वत शान्ति और
सम्पन्नता प्राप्त करने की कोई सम्भावना है।

किन्तु वर्तमान विचारकों ने सामान्य लोगों को गमु राह करके यह विश्वास दिला दिया है कि जिस संसार में हम
रह रहे हैं, उसके अतिरिक्त कोई अन्य ससं ार नहीं है और यहीं पर सारी शान्ति और समृद्धि उपलब्ध है। ऐसे नेताओ ं के
अनसु ार भौतिक शरीर ही वास्तविक आत्म है, इस शरीर से सम्बद्ध हर वस्तु को समझना ही आत्म-साक्षात्कार है और

दिव्य ज्ञान 5
शरीर की इन्द्रियों की सर्वथा तष्टि
ु और उनका परिपालन ही हमारा सबसे बड़ा कर्तव्य है। इन नेताओ ं के
मतानसु ार ईश्वर तथा उन तक पहुचँ ने के सारे दार्शनिक साधन मात्र मस्तिष्क को व्यायाम देने के लिए अवकाश या
वार्तालाप-कक्ष के खेल हैं। किन्तु इस प्रकार की समझ से ससं ार को कोई भी ठोस लाभ नहीं मिलता।

इसलिए अर्जुन ने अपने आपको उन सामान्य व्यक्तियों की श्रेणी में रखते हुए निर्बलता प्रदर्शित करने का स्वाँग
किया जो इस भौतिक जगत् में मोहग्रस्त हैं। और अपने इस कार्य से अर्जुन भगवान् के दिव्य अधरों से भगवद्गीता के
प्रकट होने में सहायक बने। जब भी पर्णू परुु षोत्तम भगवान् इस मत्र्य लोक में अवतरित होते हैं, उनके विश्वस्त सेवक
उनके संग आते हैं।

अर्जुन पर्णू परुु षोत्तम भगवान् श्रीकृ ष्ण के ऐसे ही नित्य विश्वस्त सेवक हैं। इस तरह सामान्य लोगों के लाभार्थ
भगवद्गीता के दर्शन की शिक्षा प्रत्यक्ष रूप से उन्हें दी गई।

पर्णू परुु षोत्तम भगवान् के विशद्ध


ु भक्त होने के कारण अर्जुन कुरुक्षेत्र के यद्ध
ु स्थल में भी भगवद्गीता के दिव्य
दर्शन की विवेचना कर सके । हम आधनि
ु क व्यक्तियों को अपने सामान्य दैनिक कार्यों के बीच ऐसा लगता है कि
हमारे पास भगवद्गीता के दर्शन को विस्तार से समझने का समय ही नहीं है । किन्तु हमें शिक्षा देने के लिए ही अर्जुन ने
ऐसे समय में भगवद्गीता के दर्शन पर चितं न-मनन किया जिस समय एक क्षण का भी निकाल पाना असम्भव था । यह
सब उन्होंने हम जैसे लोगों के लिए ही किया और भगवद्गीता का दर्शन समझ लेने के बाद उन्होंने परू े शौर्य से यद्ध

किया ।

अर्जुन बाह्य रूप से जिस प्रकार से स्वजनों के प्रति अभिभतू प्रतीत होते थे, वह दिव्य ज्ञान के अभाव का
सचू क है । किन्तु दिव्य ज्ञान प्राप्त करने का अर्थ यह नहीं होता कि हम अपने सामान्य जीवन के कर्तव्यों का परित्याग
कर दें ।

अर्जुन द्वारा भगवद्गीता का दर्शन समझ लिए जाने के बाद, पर्णू परुु षोत्तम भगवान् श्रीकृ ष्ण ने उन्हें सामान्य प्रतीत होने
वाले कार्यकलापों को त्यागने का परामर्श कभी नहीं दिया । इसके विपरीत, अर्जुन ने श्रीकृ ष्ण से दिव्य ज्ञान प्राप्त कर
लेने के पश्चात् और अधिक पराक्रम से यद्ध
ु किया । हम दिव्य ज्ञान से जो असली प्रेरणा प्राप्त करते हैं, वह पर्णू
परुु षोत्तम भगवान् के प्रति आत्मसमर्पण तथा उनकी दिव्य सेवा करने के प्रति दृढ़ सक
ं ल्प होती है । भगवद्गीता का
तात्पर्य यही है; इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है ।
6 कर्म योग

जब अर्जुन कुरुक्षेत्र के यद्ध


ु से उत्पन्न आसन्न समस्या को हल करने में अक्षम रहे, तो उन्होंने अपनी समस्या
का समाधान प्राप्त करने के लिए श्रीकृ ष्ण के समक्ष उनके शिष्यरूप में पर्णू तया विनीत भाव से आत्मसमर्पण कर दिया।
प्रारम्भ में पर्णू परुु षोत्तम भगवान् ने अर्जुन से उसी तरह बातें कीं जिस तरह एक मित्र दसू रे से करता है। किन्तु ऐसी
मैत्रीपर्णू चर्चाएँ व्यर्थ के वादविवाद का रूप धारण कर लेती हैं। अतः अर्जुन ने श्रीकृ ष्ण के समक्ष शिष्य-रूप में
आत्मसमर्पण किया क्योंकि शिष्य कभी भी आध्यात्मिक गरुु की आज्ञाओ ं का उल्लघं न नहीं कर सकता। शिष्य तथा
उसके स्वामी (गरुु ) के मध्य यही सम्बन्ध होता है।

पर्णू परुु षोत्तम भगवान् श्रीकृ ष्ण ने भगवद्गीता की अत्यन्त महत्वपर्णू शिक्षाएँ अर्जुन को तभी दीं जब उन्होंने
देख लिया कि अपने निजी पाण्डित्य से गर्वित हुए बिना तथा नि:संकोच भाव से अर्जुन ने उनकी शरण ग्रहण कर ली
है। आत्मसर्मपण के पर्वू अर्जुन ने जैसा किया, हम साधारणतया उसी तरह अपनी समस्याओ ं को अपनी ही यक्ति
ु यों से
अपने संसारी अनभु व के आधार पर हल करने का प्रयास करते हैं। किन्तु अपनी दैनिक शारीरिक एवं मानसिक
कठिनाइयों को क्षणभंगरु साधनों द्वारा दरू करने का यह प्रयास सदैव गलत दिशा में होता है। जब तक मनष्ु य अपने
नित्य जीवन को पनु ः प्राप्त करने की समस्या का हल निकालने का प्रयत्न नहीं करता, तब तक उसे न तो इस जीवन में
और न ही मृत्यु के बाद वाले जीवन में किसी प्रकार की शान्ति मिल सकती है। भगवद्गीता की सर्वोच्च शिक्षा यही है।

हमारी सबसे महती आवश्यकता यह है कि हम भौतिक शरीर तथा मन की लालसाओ ं से परे के कार्यकलापों
से सम्बन्धित विषय को समझें। जब तक हम कार्यकलापों के इस दिव्य स्तर को प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक हमें
वास्तविक शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती। यह आध्यात्मिक दिव्य स्तर ही शाश्वत जीवन का स्तर है जिसके बिना भौतिक
शरीर तथा मन का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता। यद्यपि सम्प्रति हमारे पास ऐसे शाश्वत जीवन के विषय में कोई
सचू ना नहीं है, तथापि हम अपने भौतिक ज्ञान के विषय में अत्यधिक गर्वित हैं।

हम न्यनू ाधिक उन बाह्य भौतिक उपाधियों को अगं ीकार किए हुए हैं, जिन्होंने सम्प्रति शाश्वत जीवात्मा को
आच्छादित किया हुआ है। और चकि
ँू हमने इन बाह्य उपाधियों को अगं ीकार किया हुआ है इसलिए हमें इतने कष्टों
और संघर्षों का सामना करना पड़ रहा है। जब हम ऐसी उपाधियों से मक्त
ु हो जाएँगेजब हमारी वास्तविक प्रकृ ति
उद्घाटित होगी-तभी हम वास्तविक सख
ु और शान्ति के अपने सपनों को साकार कर पाएँगे। भौतिक जगत् की
कठिनाइयों को

दिव्य ज्ञान 7

अपने विद्वान् वैज्ञानिकों, महान् राजनीतिज्ञों एवं तथाकथित महात्माओ ं के माध्यम से दरू करने के हमारे
वर्तमान प्रयास आध्यात्मिक दिव्य स्तर पर नहीं पहुचँ पाते हैं। वे मात्र आत्मा को विभिन्न शारीरिक और मानसिक
उपाधियों की रंगबिरंगी वेशभषू ाओ ं से सजित करते हैं। भगवद्गीता में कृ ष्ण ने कहा है कि ऐसे प्रयास सदा निराशाजनक
होंगे।

जब अर्जुन ने शिष्य के रूप में श्रीकृ ष्ण की शरण ग्रहण की, तो एक तरह से उन्होंने अर्जुन की भर्त्सना की।
भगवान् कृ ष्ण ने कहा, "हे अर्जुन, मैं देख रहा हूँ कि तमु एक विद्वान् की भाँति बातें कर रहे हो, किन्तु वास्तव में तमु
अल्पज्ञ हो क्योंकि तमु ऐसे विषय पर पश्चाताप कर रहे हो जिस पर कोई वास्तविक विद्वान् पश्चाताप नहीं करता।"

विद्वान् व्यक्ति कभी ऐसी वस्तु के लिए पश्चाताप नहीं करता जो समयानसु ार प्रकट और लप्तु होती रहती है। यह
भौतिक शरीर, जो हमें अपनी माता के गर्भ से प्राप्त होता है कुछ समय के बाद क्रमश: राख, मिट्टी या मल में परिवर्तित
हो जाता है। और हमारा सक्ष्ू म भौतिक शरीर, जो मिथ्या अहक
ं ार, बद्धि
ु तथा मन से निर्मित है, आत्मा के मक्त
ु होते ही
उसी तरह विलप्तु हो जाता है। इसलिए जो वास्तव में विद्वान् हैं, वे भौतिक शरीर तथा मन को या भौतिक शरीर तथा
मन से ही सम्बन्धित सख
ु -दःु ख को अधिक महत्व नहीं देते।
इसके विपरीत ऐसे विद्वान् आत्माविशेष के सख
ु -द:ु ख को ही अत्यधिक महत्व देते हैं क्योंकि आत्मा दिव्य
होने के कारण शरीर तथा मन से परे है। इस विषय का ज्ञान दिव्य ज्ञान कहलाता है। हमारे समान शत-प्रतिशत
भौतिकतावादी मख
ू ों को शिक्षा देने के लिए ही अर्जुन ने स्वयं को दिव्य ज्ञान से रहित भौतिकतावादी मर्ख
ू के रूप में
प्रस्ततु किया। पर्णू परुु षोत्तम भगवान् ने अपनी ओर से भगवद्गीता का दिव्य ज्ञान प्रदान किया क्योंकि उन्होंने अर्जुन को
इस ज्ञान को सनु ने के लिए एकमात्र सयु ोग्य पात्र समझा।

बंगाल के नवाब हुसैन शाह के प्रधानमन्त्री श्री साकर मल्लिक ने भी, जो श्री चैतन्य महाप्रभु के मख्ु य शिष्यों में
से एक थे, और जो बाद में सनातन गोस्वामी के नाम से विख्यात हुए, अर्जुन की ही भाँति स्वयं को श्री चैतन्य महाप्रभु
के समक्ष बनारस में उनसे भेंट के समय एक भौतिकतावादी मर्ख
ू के रूप में प्रस्ततु किया। उन्होंने श्रीचैतन्य महाप्रभु के
समक्ष अपनी बात इस प्रकार रखी, "सामान्य जन, जिन्हें अध्यात्म का ज्ञान नहीं है, मझु े महान् नेता, महान् पंडित,
महात्मा, परमहसं आदि कहकर पक
ु ारते हैं। किन्तु मझु े सन्देह है कि क्या सचमचु मैं ऐसा हूँ, हो सकता है कि वे मझु े
इस तरह संबोधित करके परोक्ष रूप में मेरा अपमान करते हों। मैं इतना अवश्य जानता हूँ कि मझु े अपने विषय में
यथारूप

8 कर्म योग

कोई ज्ञान नहीं है फिर भी भौतिकतावादी मर्ख


ू मझु े विद्वान् कहकर पक
ु ारते हैं। यह निस्सन्देह मेरा उपहास तथा
अपमान है ।

श्रील सनातन गोस्वामी ने इन शब्दों द्वारा अपनी बात रखी। वस्ततु : उस समय वे दिव्य ज्ञान में पारंगत थे,
किन्तु वे हमारी तरह भौतिकतावादी मर्ख
ू होने का स्वाँग रच रहे थे। दिव्य ज्ञान का अभाव होने पर भी अन्यों द्वारा स्वयं
को प्रकाण्ड पण्डित अथवा महान् नेता सम्बोधित किए जाने के कारण, श्रील सनातन गोस्वामी ने स्वयं अपनी निन्दा
की। परोक्ष रूप से उन्होंने इस बात पर बल दिया कि उस व्यक्ति से बढ़कर और कोई दार्शनिक, महात्मा या परमहसं के
रूप में प्रसिद्धि पाने के लिए आत्म-विज्ञापन करता है और अपने जैसे मख
ू ों के सस्ते मत एकत्र करता है जबकि उसे
स्वयं का, आत्मा विशेष का, कोई ज्ञान नहीं होता। वह आत्मा को कोई लाभ नहीं पहुचँ ाता और अनित्य भौतिक
शरीर तथा मन के सख
ु -द:ु ख को लेकर ही अपना समय नष्ट करता है। सनातन का अर्थ है नित्य, शाश्वत। सनातन
गोस्वामी जीवों के नित्य सख
ु में रुचि रखते थे, उनके क्षणभगं रु शरीर तथा मन के क्षणिक सख
ु में नहीं। इस प्रकार जब
कोई व्यक्ति स्थायी आत्मा के स्थायी सख
ु में रुचि लेता है, तो वह सनातन गोस्वामी का शिष्य या वास्तविक
'सनातनी", अर्थात् एक अध्यात्मवादी बन जाता है।

इस समय परू े विश्व में, लगभग सारे नेता, पंडित तथा 'महात्मा' न्यनू ाधिक भौतिकतावादी हैं, उन्हें दिव्य ज्ञान में
कोई रुचि नहीं है। इसलिए पर्णू परुु षोत्तम भगवान् श्रीकृ ष्ण ने सर्वप्रथम अर्जुन की भत्सना की और उसे पंडित स्वीकार
नहीं किया, जिससे वे उन तथाकथित पडि
ं तों तथा नेताओ ं को, जो वास्तव में भौतिकतावादी मर्ख
ू हैं, शिक्षा दे सकें ।
आज के लगभग सारे नेताओ ं ने धार्मिकता के उन विविध प्रकारों को लोकप्रियता प्रदान कर रखी है जिनका
सम्बन्ध मात्र भौतिक शरीर तथा मन से है। किन्तु उनमें से कुछ ही व्यक्ति यह जानते हैं कि शरीर तथा मन कोट और
कमीज की भाँति आत्मा के के वल बाह्य वस्त्र हैं। के वल बाह्य कोट तथा कमीज की ही देख -रे ख करने से स्वयं को
अर्थात् आत्मा को कोई लाभ नहीं है। वस्ततु : आत्मा ही प्रमख
ु लक्ष्य है। कोई भी विवेकवान् व्यक्ति अपना मख्ु य
लक्ष्य, अर्थात् स्वयं की उपेक्षा करके बाह्य साजसामग्री में रुचि लेना नहीं चाहेगा। यदि वह अपनी प्रमख
ु तथा मन से
हमारी पहचान नहीं है। इस तरह दिव्य ज्ञान प्राप्त रुचि की आवश्यकताओ ं पर ध्यान देता है , तो उसकी गौण रुचियाँ-
उसका भौतिक

दिव्य ज्ञान 9

शरीर तथा मन-स्वत: पोषित जाएँगीं। किन्तु के वल अधीनस्थों की सेवा करके प्रमख
ु की सेवा नहीं की जा
सकती। दसू रे शब्दों में, अपनी बाह्य वेशभषू ा की संभाल करके अपनी आन्तरिक भख
ू को तृप्त कर पाना सम्भव नहीं
है।

अत: जब हम जीव की बात करते हैं तो हमें चाहिए कि शरीर तथा मन को, दो बाह्य आवरणों को,
साजसामग्री के दो स्तरों के रूप में देखें और सजीव शक्ति अर्थात् आत्मा को उनके के न्द्र के रूप में देखें। बाह्य आवरण
क्षणिक व्यवस्थाएँ हैं, अत: बाह्य आवरण पर आश्रित प्रत्येक वस्तु भी क्षणिक व्यवस्था है। शरीर तथा मन की क्षणिक
व्यवस्था के सम्बन्ध में अनभु व किए जाने वाले सख
ु या दु:ख भी क्षणिक हैं। भगवद्गीता में पर्णू परुु षोत्तम भगवान्
श्रीकृ ष्ण कहते हैं, "हे कुन्तीपत्रु ! सभी प्रकार के सख
ु -द:ु ख यथा शीत या ग्रीष्मकालीन ताप हमारी भौतिक इन्द्रिय-
अनभु ति
ू के कारण ही हैं। वे प्रकृ ति के नियमानसु ार आते जाते रहते हैं, अत: हमें चाहिए कि हम विचलित हुए बिना
इनको सहें। जो व्यक्ति क्षणिक सख
ु -द:ु ख के ऐसे आवागमन से विचलित नहीं होता, वही शाश्वत जीवन प्राप्त करने के
लिए उपयक्त
ु व्यक्ति होता है।"
किन्तु जीवन की वर्तमान अवस्था में शरीर तथा मन से सम्बन्धित क्षणिक सख
ु तथा दु:ख से अप्रभावित रह
पाना कठिन है। न ही इस बात को बलपर्वू क कह पाना सम्भव है कि शरीर तथा मन से हमारी पहचान नहीं है। इस तरह
दिव्य ज्ञान प्राप्त करने का अर्थ यह नहीं है कि हम अपने वर्तमान कार्यकलापों हो के प्रति उदासीन हो जाएँ। इसका अर्थ
यही है कि हमें सख
ु द:ु ख के आने जाने से अत्यधिक अभिभतू नहीं होना चाहिए।
भौतिक सख
ु तथा द:ु ख की उन क्षणिक स्थितियों की प्रकृ ति से हमें अवगत होना चाहिए। इनकी उपेक्षा करना
नितान्त मढ़ू ता होगी, इसी प्रकार यदि हम उस आत्मा के विषय में तटस्थ हैं, जिसके आधार पर भौतिक शरीर तथा मन
का अस्तित्व होता है, तो वह भी मर्ख
ू ता होगी। इतने पर भी, यदि कोई व्यक्ति इतना भाग्यशाली है कि वह आत्मा को
समझता हो और दिव्य ज्ञान के प्रति रुचि रखता हो, तब वह शरीर तथा मन से सम्बन्धित सांसारिक सख
ु -द:ु ख के होते
हुए भी उदासीन रहेगा और दिव्य शान्ति का रसास्वादन करे गा। वास्तविक शान्ति के वल जीवन की ऐसी ही दिव्य
अवस्था में प्राप्त की जा सकती है। वास्तविक सन्तोष की अवस्था यही है। दीर्घकाल तक घर से दरू रहने के पश्चात् यदि
कोई व्यक्ति घर लौटने के लिए यात्रा करे तो यात्रा से होने वाले कष्ट घर लौटने के आनन्द के समक्ष कम हो जाते हैं।
यात्रा

10 कर्म योग

से उत्पन्न असवि
ु धाएँ घर जाने के आनन्द के समक्ष गौण बन जाती हैं। इसी तरह यदि कोई व्यक्ति दिव्य ज्ञान
के बल पर भगवद्धाम की दिशा में अग्रसर हो, तो शरीर तथा मन के भौतिक क्लेश नगण्य हो जाते हैं।

सभी प्रकार के सख
ु ों तथा द:ु खों की अनभु ति
ू का कारण इन्द्रियबोध है। रूप, स्वाद, गंध, शब्द तथा स्पर्श
विभिन्न इन्द्रियबोध हैं जो मन के साथ मिल कर सख
ु या द:ु ख उत्पन्न करते हैं।
शीतकाल में ठंडे पानी से नहाने पर हमें कष्ट होता है किन्तु ग्रीष्मकाल में वही ठंडा जल हमें आनन्द प्रदान
करता है। शीतकाल में अग्नि हमें आनन्द तथा ऊष्मा देती है, किन्तु ग्रीष्मकाल में वही अग्नि कष्टदायक बन जाती है।
अत: न तो अग्नि में, न ही जल में ऐसी आन्तरिक शक्ति है, जो हमें सख
ु या द:ु ख प्रदान कर सके । किन्तु वे विभिन्न
परिस्थितियों में हमारी इन्द्रिय-अनभु ति
ू के अनसु ार हमें सख
ु या द:ु ख प्रदान करने वाले साधन प्रतीत होते हैं। इसलिए
इस जगत् में जो कुछ भी है, वह न तो सख
ु दायी है, न ही द:ु खदायी, प्रत्यतु सख
ु तथा द:ु ख मात्र हमारी इन्द्रिय-
अनभु ति
ू यों पर आश्रित हैं क्योंकि ये अनभु ति
ू याँ हमारे सोचने, अनभु व करने तथा चाहने की आन्तरिक प्रक्रियाओ ं से
सम्बन्धित होती हैं।
किन्तु मिथ्या अहक
ं ार के अधीन होकर सोचने, अनभु व करने तथा चाहने के कार्यों से सम्बद्ध सख
ु तथा द:ु ख
की ऐसी अस्थायी अनभु ति
ू याँ आत्मा से सर्वदा भिन्न विद्यमान हैं, अतएव ये 'अवास्तविक वास्तविकता" हैं। अतएव
सासं ारिक पडि
ं तों ने ज्ञान में जो भी प्रगति की है, चाहे वह कला के क्षेत्र में हो, या विज्ञान के क्षेत्र में हो, यदि वह ज्ञान
शाश्वत आत्मा से सम्बद्ध नहीं है, तो निश्चित रूप से यह प्रकृ ति के भ्रामक गणु ों का प्राकटय है जो भौतिक शरीर तथा
मन को घेर कर परिसीमित कर देते हैं।

वास्तविक शान्ति तथा सख ु कभी भी ऐसे भौतिकतावादी ज्ञान की प्रगति से नहीं लाये जा सकते। प्रत्यतु जैसा
कि पर्णू परुु षोत्तम भगवान् श्रीकृ ष्ण भगवद्गीता में पष्टि
ु करते हैं, वे लोग ही जो अस्थायी सखु तथा द:ु ख से विचलित
हुए बिना शाश्वत आत्मा से सम्बन्धित दिव्य ज्ञान का अनश ु ीलन करते हैं, अपने नित्य आध्यात्मिक जीवन को दोबारा
पाकर जन्म, मृत्य,ु जरा तथा व्याधि के क्रूर हाथों से बचकर निकल सकें गे।
इसलिए हमारा सझु ाव है कि जिन्होंने अन्यों के हित में कार्य करने का भरसक प्रयास किया है, किन्तु अपने
समस्त निश्छल प्रयासों के बावजदू विफल रहे हैं, उन्हें चाहिए कि अर्जुन के पदचिह्नों का अनसु रण करते हुए श्रीकृष्ण
या उनके प्रामाणिक सेवकों की शरण ग्रहण करें । मनष्ु य को चाहिए कि अन्यों का हित करने का प्रयास करे , किन्तु
इसके पर्वू उसे पर्णू रूपेण यह जान लेना चाहिए कि अन्यों का हित कै से किया जाये।अन्यथा यदि कोई व्यक्ति परोपकार
की मिथ्या भावना से अन्यों का हित करता है, तो उसे लाभ, पजू ा या प्रतिष्ठा के रूप में क्षणिक लाभ ही मिल सकता
है।
दिव्य ज्ञान 11

हिटलर, मसु ोलिनी के समान भौतिकतावादी प्रवृत्ति वालाकोई भी अन्य नेता अपने अनयु ायियों को एक साथ
हिसं क अथवा अहिसं क कार्यक्रमों द्वारा परोपकार करने की मनोकल्पना प्रदान कर सकता है, और ऐसे तथाकथित
परोपकारी कृ त्यों से वह कुछ काल के लिए अपने अनयु ायियों से सम्मान प्राप्त कर सकता है। किन्तु इन अनयु ायिओ ं
को, जिनके लिए इस तरह कानेता परोपकार करने का प्रयास करता है, ऐसे क्षणिक लाभप्रद कार्य से कभी कोई स्थायी
लाभ प्राप्त नहीं हो पाते। ऐसे समस्त"परोपकारी" कार्यकलापों की प्रगति में सदैव रिक्तता काअनभु व होता रहेगा।
वस्ततु : इस तरह के तथाकथित नेता द्वारानियोजित मार्ग का अनसु रण करने पर अनयु ायियों को अधिकाधिक कष्ट
उठाने पड़ेंगे। यदि कोई अन्धा व्यक्ति दसू रे अन्धे को सड़क पार करने में सहायता करने का स्वाँग करे , तो अधं ा नेता
तथा अन्धा अनयु ायी दोनों ही किसी अदृश्य गर्त के गहरे अधं रे े में जा गिरें गे। दिव्य ज्ञान से विहीन व्यक्ति अन्धे व्यक्ति
के समान है। ऐसे अन्धे व्यक्ति को चाहिए कि अन्यों को प्रकाश में ले जाने का प्रयास करने के प र्वू अपना अन्धापन दरू
कर ले।
भारत में जन्म लेने वाला प्रत्येक व्यक्ति दसू रों के लिए सम्भाव्य परोपकारी हो सकता है क्योंकि भारत भमि
ू में
ही प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक दिव्य ज्ञान की सस्ं कृ ति का अत्यधिक विस्तार किया जाता रहा है। वर्तमान
भारत के , जो बहुत समय पर्वू तक भारतवर्ष के नाम से प्रसिद्ध था, सन्तमहात्माओ ं ने कभी भी के वल शरीर तथा मन
की आवश्यकताओ ं को परू ा करने का प्रयास नहीं किया। उन्होंने सदैव उस आत्मा के ज्ञान का अनश
ु ीलन किया, जो
भौतिक शरीर तथा मन से परे है। अनेक कठिनाइयों के बावजदू आज भी सन्त-महात्मा ऐसा ही कर रहे हैं। किन्तु यह
नितान्त मर्ख
ू ता होगी यदि भारत के लोग स्वयं दिव्य ज्ञान प्राप्त किये बिना अन्यों की भलाई करने का प्रयास करें ।
यदि हम दिव्य ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमारा सर्वप्रथम कर्तव्य यह होगा कि हम समझे कि आत्मा
शाश्वत सत्य है। आत्मा के चतर्दि
ु क् विकास करने वाले शरीर तथा मन, जो बाह्य अवयव हैं, सापेक्ष या आशि
ं क सत्य
हैं। पर्णू परुु षोत्तम भगवान् श्रीकृ ष्ण ने भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय में इस तथ्य की विस्तार से विवेचना की है :

“इस शरीर में व्याप्त आत्मा नित्य है, अत: यह समझ लेना चाहिए कि अविनाशी आत्मा को कोई नष्ट नहीं कर
सकता। यद्यपि भौतिक शरीर नाशवान् है तथापि शरीर का स्वामी, आत्मा, शाश्वत है। इसलिए हे भरतवंशी, इस शाश्वत
सत्य को जानते हुए तम्ु हें यद्ध
ु करना चाहिए।
“जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसे मारा जाने वाला समझता है, वे दोनों इस तथ्य के
बारे में अज्ञानी हैं कि आत्मा कभी भी न तो हन्ता है, न ही हन्य है। आत्मा न तो कभी जन्म लेता है, न ही वह कभी
मृत्यु को प्राप्त होता है। चकि
ँू वह शाश्वत है, अत: उसका न तो भतू है, न वर्तमान है, न भविष्य। यद्यपि वह अत्यन्त
परु ातन है, फिर

12 कर्म योग

भी सदैव नवीन रहता है और शरीर के विनष्ट होने के बाद भी वह कभी विनष्ट नहीं होता। जो यह समझता है
कि आत्मा शाश्वत तथा अविनाशी है-भला वह किस तरह किसी को चोट पहुचँ ा सकता है या मार सकता है ? के वल
बाह्य शरीर तथा मन ही विनष्ट किये जा सकते हैं।

"शरीर तथा मन मनष्ु य के बाह्य वस्त्रों के तल्ु य हैं। जब उसके वस्त्र परु ाने हो जाते हैं, तो व्यक्ति उन्हें त्याग कर
नये वस्त्र धारण कर लेता है। इसी तरह मृत्यु के समय जब आत्मा वृद्ध शरीर को त्यागता है , तब वह नवीन शरीर धारण
कर लेता है।
"आत्मा को न तो तेज तलवार से काटा जा सकता है, अग्नि से जलाया जा सकता है, न ही जल या वायु का
उस पर कोई प्रभाव पड़ता है। इस तरह आत्मा शाश्वत अविनाशी, अदाह्य, अवाष्पशील तथा अक्षर है। वह स्थायी,
सर्वव्यापी तथा शाश्वत है। उसे न तो किसी मानवीय भाषा द्वारा व्यक्त किया जा सकता है, न ही किसी मानवीय
मस्तिष्क द्वारा उसकी सही सही कल्पना की जा सकती है। वह सदा अपरिवर्तित रहता है। इन सब बातों को जानते हुए
मनष्ु य को शरीर की मृत्यु पर शोक नहीं करना चाहिए।’’

भगवद्गीता की भाषा में आत्मा को क्षेत्रज्ञ अर्थात् क्षेत्र को जानने वाला और शरीर तथा मन को, जो कि आत्मा
के आवरण हैं, क्षेत्र कहा गया है। पर्णू परू
ु षोत्तम भगवान् श्रीकृ ष्ण ने भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय में क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ
की विषय-वस्तु की विवेचना की है। उन्होंने प्रकृ ति (यह परिवर्तनशील जगत् जो भोग्य है) तथा परू
ु ष (इस जगत् के
भोक्ता) की भी विवेचना की है। भगवान् कृ ष्ण समझाते हैं कि इस परिवर्तनशील संसार में जितने भी कर्म तथा कर्मफल
घटित होते हैं, वे सब क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ या प्रकृ ति के भोक्ता के मेल से उत्पन्न होते हैं। उदाहरणार्थ, धान की पैदावार खेत
तथा जोतने वाले (किसान) की क्रिया-प्रतिक्रिया से होती है। या शिशु का जन्म प्रकृ ति अर्थात् भोग्या तथा परू
ु ष
अर्थात् भोक्ता के सयं ोग से होता है। इसी प्रकार इस परिवर्तनशील ससं ार में हम जो कुछ भी देखते हैं , वह क्षेत्र तथा
क्षेत्रज्ञ के ऐसे ही संयोग से उत्पन्न होता है।

क्षेत्रज्ञ सजीव आत्मा है जबकि क्षेत्र वह जड़ पदार्थ है जिसका जीव दोहन करता है। भौतिकविज्ञान,
रसायनशास्त्र, खगोलशास्त्र, भेषजगणु -विज्ञान, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र, इत्यादि अन्य भौतिक विज्ञान क्षेत्र के पदार्थों से
सम्बद्ध हैं। परन्तु

दिव्य ज्ञान 13

जो ज्ञान आत्मतत्त्व से संबधि


ं त है अर्थात् क्षेत्रज्ञ से संबंधित है, वह दिव्य ज्ञान को प्रकाशित करता है। अतः
ज्ञान का वास्तविक अनश
ु ीलन क्षेत्रज्ञ से सम्बधि
ं त है क्षेत्र से नहीं। हम इन सभी विषयों पर विस्तृत विवेचना करें गे
किन्तु सम्प्रति इतना जानकर ही हमें सन्तष्टु होना चाहिए कि क्षेत्रज्ञ (परू
ु ष, भोक्ता) सभी ज्ञान का के न्द्र है, क्योंकि
क्षेत्रज्ञ ही वह व्यक्ति है, जो भौतिक देह, मन तथा अन्य सम्बद्ध भौतिक घटकों से सभी वस्तओ
ु ं का सृजन करता है।
क्षेत्रज्ञ ही शाश्वत आत्मा है जबकि क्षेत्र जड़ पदार्थ है, जो क्षणभंगरु तथा स्वल्पायु है। इस शाश्वत सत्य का
सारांश वेदों में ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या सक्ति
ू में दिया हुआ है जिसका अर्थ है ‘‘ब्रह्म ही तथ्य है और जगत् मिथ्या छाया
है।’’ मिथ्या छाया’ से यह समझना चाहिए कि ससं ार क्षणिक है, अर्थात् कुछ काल तक ही वि़द्यमान रहने वाला है।
किन्तु सोचने में यह भल
ू नहीं की जानी चाहिए कि संसार का अस्तित्व ही नहीं है। हम वास्तव में अपने अस्थायी
भौतिक शरीर तथा मन मन के स्वामी हैं और हमें अपने शरीरों तथा मनों के अस्तित्व को नकार कर उपहास के पात्र
नहीं बनना चाहिए। साथ ही, हमें यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि शरीर तथा मन अस्थायी व्यवस्थाएँ हैं। किन्तु इस
शरीर तथा मन के भीतर बद्ध आत्मा शाश्वत तथा अविनाषी सत्य है। नित्य आत्मा को कोई भी नष्ट नहीं कर सकता -
सम्प्रति हमें इतना ही समझने की आवष्कता है। इस तरह अविनाषी आत्मा हिसं ा तथा अहिसं ा के सिद्धातं से ऊपर है।

आज सम्पर्णू संसार स्थल


ू भौतिक देह तथा सक्ष्ू म भौतिक मन के लिए अस्थायी व्यवस्थाओ ं से सम्बद्ध ज्ञान
के अनश
ु ीलन की ओर पागल हो गया है। किन्तु शरीर तथा मन से कहीं अधिक महत्वपर्णू है आत्मा, जिसे ज्ञान के
समचि
ु त अनश
ु ीलन के बिना उपेक्षित कर दिया गया है। फलस्वरूप, अज्ञान के अधं कार ने संसार को घेर लिया है
और अत्यधिक अशान्ति, उत्पात तथा बात स्वीकार करनी चाहिए कि सजीव स्फुलिगं को भौतिक द:ु खों को जन्म दे
रखा है। भला कोई कितने समय तक बाह्य विज्ञान से द्विरूपित नहीं किया जा सकता। भले ही वे परमाणु सख
ु का भोग
कर सकता है? यह तो वैसा ही है जैसे पेट को पोषण पहुचँ ाये बिना बाह्य वस्त्रों को धोया जाये। असली पोषण तो उस
नित्य सत्य अर्थात् अविनाशी आत्मा का ज्ञान प्राप्त करने से प्राप्त होता है जो प्रत्येक शरीर में जीव के रूप में विद्यमान
है।

जीवात्मा अत्यन्त सक्ष्ू म है-सक्ष्ू मतम अणु से भी सक्ष्ू मतर। विद्वान् विशेषज्ञों का मत है कि आत्मा का आकार
के श के अग्र भाग के लगभग दस हजारवें अश
ं के तल्ु य है। आत्मा उस प्रभावशाली औषधि के तल्ु य है , जो अल्प
मात्रा

14 कर्म योग

में सेवन करने पर भी सम्पर्णू शरीर में फै ल जाती है। अतः हमें समझना चाहिए कि यदि कोई हमारे शरीर के
किसी भाग का किंचित् स्पर्श करता है, तो हम उसका अनभु व सजीव आत्मा के परू े शरीर में उपस्थित होने के कारण
ही करते हैं। किन्तु जब यह सक्ष्ू म सजीव स्फुलिंग शरीर से निकल जाता है , तो शरीर मृत हो जाता है और उसे
कुल्हाड़ी से काटने पर भी रैं च भर पीड़ा नहीं होती।

यह सक्ष्ू म सजीव स्फुलिंग अर्थात् आत्मा कोई भौतिक वस्तु नहीं है-इसका प्रमाण इस बात से होता है कि कोई
भी वैज्ञानिक भौतिक वस्तओ
ु ं के किसी भी प्रकार के सयं ोजन से इस सजीव स्फुलिगं को उत्पन करने में कभी भी
सक्षम नहीं हो सका है।

जड़ पदार्थों के विभिन्न सम्मिश्रणों से जो कुछ उत्पन्न किया जा सकता है, वह विनाशशील है और क्षणिक है,
किन्तु चकि
ँू यह सजीव स्फुलिंग अविनाशी है, अत: भौतिक वैज्ञानिकों को यह बम बना लें, किन्तु वे जीवन के
आध्यात्मिक स्फुलिंग का सृजन नहीं कर सकते।
भौतिक वैज्ञानिकों ने समचू े विश्व में अत्यधिक उन्नति की है किन्तु खेद है कि इन महान् वैज्ञानिकों ने इस
सजीव स्फुलिंग अर्थात् आत्मा को समझने का कोई प्रयास नहीं किया, यद्यपि आत्मा सदैव ही सर्वाधिक महत्वपर्णू
विषय रहा है। यह उनकी कोरी अज्ञानता है। यह उनकी असमर्थता है।
श्री जगदीशचन्द्र बोस, सर आइजक न्यटू न, बेंजामिन फ्रैंकलिन के प्रखर मस्तिष्कों ने, उनके शरीरों से इस
सजीव पदार्थ के अणु स्फुलिंग के पृथक् होते ही काम करना बन्द कर दिया। यदि जड़ पदार्थ के रासायनिक या भौतिक
सयं ोग से इस सजीव पदार्थ को उत्पन्न करना सम्भव होता, तो निश्चित रूप से इन विज्ञानियों के किसी न किसी शिष्य
ने उन्हें पनु ः जीवित कर दिया होता और इस तरह विश्व में उनके वैज्ञानिक योगदान में अभिवृद्धि हुई होती। किन्तु कोई
भी भौतिक किसी भी भौतिक व्यवस्था से सजीव स्फुलिंग को उत्पन नहीं कर सकता। वैज्ञानिकऔर जो यह कहते हैं
कि भविष्य में वे ऐसा कर दिखाएँगे, वे सजीवसबसे बड़े मर्खू और पाखण्डी हैं। आत्मा नित्य है-न तो इसका आदि है,
न अन्त। अतः इसे किसी भी विधि से उत्पन नहीं किया जा सकता। कुछ भी हो, यह हमारे अनभु व की बात है कि
प्रत्येक सृजित वस्तु का विनाश होता है। आत्मा की शाश्वतत भौतिक साधनों से इसकी असृजनशीलता द्वारा सिद्ध
होती है।
इस तरह जो व्यक्ति यह सोचता है कि वह सजीव स्फुलि।ं को विनष्ट कर सकता है, वह भी इसके विषय में कुछ
नहं जानता। इसीलिए पर्णू परुु षोत्तम भगवान् श्रीकृ ष्ण यह बलपर्वू घोषित करते हैं कि जीव या जीवात्मा कभी जन्म
नहीं लेता। जी शाश्वत विद्यमान रहता है और इसका न कोई भतू है, न वर्तमान या भविष्य। आत्मा भौतिक शरीर के
विनष्ट होने के बाद भी कभ विनष्ट नहीं होता। न ही, शरीर के बारम्बार भौतिक जन्म तथ मृत्यु पाने से उसमें वृद्धि या
ह्रास होता

दिव्य ज्ञान 15
है। आत्मा सदैव ताजे तथा नवीन बना रहता है, यद्यपि वह सर्वाधिक परु ातन है। व सदैव भौतिक शरीर तथा
मन से भिन्न है, क्योंकि ये दोनों सदै। मृत्यु तथा विनाश के अधीन रहते हैं। |
कोई यह पछू सकता है कि श्रीकृ ष्ण ने यह सारा दिव्य ज्ञा अर्जुन को कुरुक्षेत्र के यद्ध
ु स्थल में क्यों दिया? इसका
उत्तर बहु ही सीधा सादा है, सेना के कर्तव्य पालन हेतु जो यद्ध ु किया जा है वह के वल शरीर को स्पर्श करता है;
आत्मा को नहीं-जिा तरह भव्य दावत के वल पेट की भख ू को स्पर्श करती है, मन व नहीं। इनमें से कोई भी भौतिक
प्रभाव नित्य जीव अर्थात् आत को स्पर्श नहीं कर पाता क्योंकि सजीव आत्मा अजेय, अदाह्न न भीगने वाला तथा न
सख ू ने वाला है। के वल ऐसी वस्तएु ँ तू जो भौतिक हैं, खण्डित की जा सकती हैं, जलाई, भिगोई या वा में सख ु ाई जा
सकती हैं। अत: अर्जुन को यद्ध
ु के लिए प्रोत्साहित करने हेतु ही श्रीकृ ष्ण ने कई प्रकर से समझाया कि आत्मा नितान्त
आध्यात्मिक है।
भारत में, जिसे सनातन धर्म कहा जाता है, वह इसी नित्य, सर्वव्यापक, अपरिवर्तनशील, अविनाशी सजीव
आत्मा के निमित है अर्थात् वास्तविक धर्म उन विभिन्न धार्मिक श्रद्धा से परे है, जो स्थलू भौतिक शरीर तथा सक्ष्ू म
भौतिक मन पर ध्यान के न्द्रित करते हैं। सनातन धर्म किसी एक स्थान या काल के लिए नहीं है प्रत्यतु यह नित्य तथा
सर्वव्यापक है। सनातन धर्म के अतिरिक्त सारे धर्म भौतिक या मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों के अनशु ीलन हेतु हैं।
विभिन्न जातियों, स्थानों तथा कालों के प्रभाव के कारण हम अपने को हिन्द,ू मसु लमान, ईसाई, बौद्ध,
समाजवादी,बोल्शेविक आदि उपाधियों से जानना सीख गए हैं। विशेषतयाधर्म के क्षेत्र में हमने विभिन्न जातियों,
स्थानों तथा कालों के अनसु ार अनेक प्रकार की भौतिक और मानसिक अस्थायी व्यवस्थाओ,ं अनेक प्रकार की
उपाधियों को स्थापित करने का प्रयास किया है। इसी विशेष कारण से हम अपने आपको 'धर्म परिवर्तन" करते हुए पा
सकते हैं। आज जो हिन्दू है, वह कल मसु लमान बन सकता है या आज जो मसु लमान है, वह कल ईसाई बन सकता
है, इत्यादि। किन्तु जब हम दिव्य ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं और सनातन धर्म में स्थापित हो लेते हैं , जो कि जीव अर्थात्
आत्मा का वास्तविक शाश्वत धर्म है, तभी हम जगत् में वास्तविक अखण्ड शान्ति, समृद्धि तथा सख ु प्राप्त कर सकते
हैं।
अत्यन्त सक्ष्ू म होने के कारण तथा भौतिक नेत्रों द्वारा न देख सकने के कारण आत्मा को अव्याख्येय,
अकल्पनीय इत्यादि कहा जाता है। फिर भी आत्मा को नित्य समझा जाता है, क्योंकि उसे जन्म, मृत्य,ु जरा तथा
व्याधि या कोई अन्य शारीरिक परिवर्तन नहीं सहन करना पड़ता। अत: यदि हम इन भौतिक परिवर्तनों से मक्त ु होना
चाहते हैं और नित्य शान्ति तथा सख ु प्राप्त करना चाहते हैं तो आत्मा के नित्य धर्म का तीव्र वेग से प्रचार होना चाहिए।
किन्तु हमें सदैव स्मरण रखना होगा कि आत्मा का यह नित्य धर्म जाति, स्थान या काल की किसी सीमा से बद्ध नहीं
है।
2

कर्मयोग : दिव्य फल से युक्त कर्म

विद्वान् सन्त हमें यह बताते हैं कि 84,00,000 योनियों में घमू ता हुआ जीव, विकास की क्रमिक प्रक्रिया के
पश्चात् भारतवर्ष की पवित्र भमि
ू में जन्म लेता है। इन में से 9,00,000 योनियाँ जलचरों की हैं, 20,00,000 अचरों की
यथा वनस्पतियाँ, 11,00,000 सरीसृप तथा कीटों की, 10,00,000 पक्षियों की, 30,00,000 जंगली पशओ
ु ं की तथा
`&, 00,000 मनष्ु यों की हैं। जीवात्मा एक योनि से दसू री में देहान्तरण करता रहता है और इस विराट् ब्रह्माण्ड के
भीतर वह इस प्रकार करोड़ों वर्षों तक चकर काटता है। इसी कारण आत्मा को सर्वव्यापक कहा गया है।

जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चक


ु ा है, श्री चैतन्य चरितामृत में कहा गया है कि जिस किसी ने अन्तत:
भारतवर्ष की पवित्र भमि
ू में जन्म लिया है, उसे चाहिए कि सर्वप्रथम आत्म-साक्षात्कार द्वारा स्वयं प्रबद्ध
ु हो, और
तत्पश्चात् अन्यों को परम लाभ पहुचँ ाए। महान् सन्तों ने आत्म-साक्षात्कार के लिए किसी अन्य देश में इतना अधिक
प्रयास नहीं किया है। यह स्वीकार किया जाता है कि पाश्चात्य देशों में लोगों ने उस भौतिक विज्ञान की संस्कृ ति को
अग्रसर करने के लिए भरसक प्रयास किया है, जो भौतिक शरीर तथा मन पर के न्द्रित है। किन्तु पाश्चात्य देशों में
भौतिक ज्ञान की इतनी सारी उन्नति होते हुए भी सामान्य लोग वहाँ भौतिकतावाद के विषाक्त प्रभावों से कष्ट उठा रहे
हैं, क्योंकि उन्होंने आध्यात्मिक विज्ञान के अनश
ु ीलन पर बहुत ही कम ध्यान दिया है। इसलिए पाश्चात्य देशों के महान्
विचारकों
16
17 कर्म योग

को चाहिए कि यदि वे ईश्वर के सन्देश को सनु ना चाहते हैं, तो भारतवर्ष की ओर ध्यान के न्द्रित करें । परम परुु ष
भगवान् श्रीकृ ष्ण ने भौतिकता की अग्नि को शमित करने तथा मानवजाति के भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए
भगवद्गीता में कर्मयोग अर्थात् दिव्य फल वाले कार्य की विस्तार से विवेचना की है। कम अर्थात् भौतिक लाभ के लिए
कार्य तथा कर्मयोग अर्थात् दिव्य फल वाले कार्य में बहुत अन्तर है। पर्णू परुु षोत्तम भगवान् ने भगवद्गीता में अनेक
स्थलों पर 'बद्धि
ु योग' शब्द का उल्लेख किया है, जिसका अर्थ है दिव्य फल वाला बद्धि
ु मत्तापर्णू कर्म। हम बद्धि
ु योग
का अर्थ "दिव्य भक्तिमय कार्यकलाप" भी कर सकते हैं। क्यों? क्योंकि पर्णू परुु षोत्तम भगवान् श्रीकृ ष्ण कहते हैं कि वे
अपने भक्तों को भक्तिमय कार्यकलाप करने के लिए सदैव बद्धि
ु प्रदान करने के पक्ष में हैं, जिससे वे अन्तत: उन्हें प्राप्त
कर सकें । अन्य स्थलों पर भी यह कहा गया है कि ईश्वर के वल भक्तिमय कार्यकलापों से प्राप्त हो सकते हैं। निष्कर्ष यह
निकलता है कि हम बद्धि
ु योग या कमयोग अर्थात् दिव्य फल प्रदान करने वाले बद्धि
ु मत्तापर्णू कार्य में ही संलग्न रहकर
अपने कर्मफलों से मक्त
ु हो सकते हैं।
भगवद्गीता के दसू रे अध्याय में परम परुु ष भगवान् श्रीकृ ष्ण ने यह परामर्श दिया है, "यहाँ तक मैंने तम्ु हें दिव्य
ज्ञान के विषय में सचि
ू त किया है। अब मैं दिव्य फल प्रदान करनेवाले कार्यों की विवेचना करूंगा। इस विधि से कार्य
करने से तमु सामान्य कर्म से उत्पन्न बन्धन से छूट सकोगे। इस विधि में कोई हानि या लघतु ा नहीं है। यदि इस तरह का
थोड़ा भी कार्य हो जाता है, तो यह मनष्ु य को बड़े से बड़े कष्ट से बचा सकता है।"

दिव्य फल प्रदान करने वाले कार्य का अर्थ है, भगवान् कृ ष्ण की भक्तिमय सेवा के कार्यकलाप में सल
ं ग्न हो
जाना। हम किस प्रकार इन भक्तिमय कार्यकलापो को अपने दैनिक सक्रिय जीवन में समन्वित कर सकते हैं, इसकी
व्याख्या भगवद्गीता में की गई है। यह समन्वय कर्मयोग कहलाता है। जब इसमें ज्ञान का अनश
ु ीलन मिला दिया जाता
है, तो वही भक्तिमय कार्यकलाप पारिभाषिक शब्दों में ज्ञानयोग कहलाते हैं। किन्तु जब ऐसे समस्त भक्तिमय
कार्यकलाप कर्म और ज्ञान की सीमा को पार कर जाते हैं, तो वे विशद्ध
ु दिव्य भक्ति अथवा भक्तियोग कहलाते हैं।
इस ससं ार में हम नाना प्रकार के जो भी कार्य करते हैं, उनसे विशिष्ट प्रतिफल या परिणाम उत्पन्न होते हैं। जब
हम इन परिणामों—अर्थात् अपने कर्मफलों-का भोग करना शरू
ु कर देते हैं, तो इन भोगे गए कर्मों से स्वतः आगे भी
फल उत्पन्न होते हैं। इस तरह कर्मों तथा इन कर्मफलों का विशाल वृक्ष विकसित हो जाता है। और इन फलों के भोक्ता
कर्मयोग : दिव्य फल से यक्त
ु कर्म 18

के रूप में हम कर्म तथा इसके फल के वृक्षजाल में बद्ध हो जाते हैं। जन्म-जन्मान्तरों तक ऐसे फलों को उत्पन्न
करने और उनका भोग करने की प्रक्रिया में आत्मा बद्ध रहता है।

कर्म तथा कर्मफल के इस बन्धन से छूटने का अवसर नगण्य है। सारे कर्मों को त्याग देने तथा संन्यासी का
जीवन स्वीकार करने पर भी, मनष्ु य को कर्म करना ही पड़ता है, चाहे वह उदरपर्ति
ू के लिए ही क्यों न हो। अत: कर्म
करने से बच पाने का कोई मार्ग नहीं है।

अतः पर्णंू परुु षोत्तम भगवान् श्रीकृ ष्ण अर्जुन को परमार्श देते हैं, "हे अर्जुन, तम्ु हें सदैव अपना कर्तव्य करना
चाहिए। कुछ न करने की अपेक्षा, कुछ न कुछ करते रहना अधिक श्रेयस्कर है। नहीं कर सकते।”

कर्तव्य का अर्थ है शास्त्रों तथा पवित्र विधि-ग्रन्थों में संस्ततु कार्य। ऐसा कार्य योगी या संन्यासी का बहाना
करके आलसी बने रहने से कहीं श्रेष्ठ है। मात्र पेट भरने के लिए अपनी वेशभषू ा बदल कर संन्यासी का गेरुवा वस्त्र
धारण करने की अपेक्षा जीविकोपार्जन के लिए सड़क साफ करने का पेशा अधिक श्रेयस्कर है। ऐसा आदेश है महान्
ब्रह्मवादी दार्शनिक तथा धार्मिक सधु ारक शक
ं राचार्य का। कलह तथा स्वागं के वर्तमान
यगु (कलियगु ) में मनष्ु य को चाहिए कि सन्ं यासी का जीवन स्वीकार करने के स्थान पर सामान्य सस्ं ततु
कर्तव्यों का पालन करे । जो वास्तविक रूप में संन्यस्त हैं, वे समझते हैं कि सामाजिक वर्गीकरण में सस्ं ततु नैत्यिक
कर्तव्य को उन्हें त्यागना नहीं चाहिए । यदि ऐसा किया गया तो इससे सक
ं ट उत्पन्न हो जाएगा- यह सीधी सी बात है ।
जब हम कोई कार्य किए बिना दैनिक जीविकोपार्जन भी नहीं कर सकते, तब सस्ं ततु कर्तव्यों को त्याग पाना कै से
सम्भव है? इतने पर भी हमें यह नहीं भल
ू ना चाहिए कि कर्म तथा कर्म-फल के जाल में फें सने से हमारी स्थिति कितनी
विषम हो जाती है, जिसके कारण आत्मा इस भौतिक जगत् में बद्ध रहता है।

अत: इस उलझन का हल ढूढ़ने के लिए भगवान् श्रीकृ ष्ण हमें इस प्रकार सझु ाव देते हैं, “कर्म करने की
सर्वोत्तम नीति यही है कि सारे कर्तव्य यज्ञ या विष्णु, जो परम परुु ष तथा परम सत्य हैं, उनकी तष्टि
ु के लिए किये जाएँ।
अन्यथा सारे कर्मों के जो प्रतिफल होंगे उनसे बन्धन उत्पन्न होगा। यदि यज्ञ के निमित्त कार्य किया जाता है , तो मनष्ु य
समस्त बन्धनों से मक्त
ु हो जाएगा ।”
19 कर्म योग

कर्म करने यह विधि कर्मयोग कहलाती है, जिससे कोई बन्धन उत्पन्न नहीं होता तथा यह दिव्य फल प्रदान
करने वाली है। इस विधि से कार्य करने से मनष्ु य न के वल कर्म के बन्धन से प्रतिरक्षित हो जाता है , अपितु वह अद्वय
पर्णंू परुु षोत्तम भगवान् के प्रति दिव्य भक्त भी विकसित कर लेता है। मनष्ु य को चाहिए कि अपने कर्म के फल स्वयं न
भोग कर उन्हें भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति-सेवा में अर्पित कर दे। भक्तिमयसेवा के सोपान पर यह पहला कदम है।
भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने भक्तिमय सेवा की इस विधि की शिक्षा प्रयाग में दशाश्वमेध घाट पर श्रील रूप गोस्वामी
को दी थी। वहाँ श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि पर्णू परुु षोत्तम भगवान् श्रीकृ ष्ण की कृ पा तथा गरुु की कृ पा से ही कोई
भाग्यशाली जीव दिव्य प्रेमाभक्ति-सेवा का बीज प्राप्त कर सकता है। कर्मयोग इस शद्ध
ु भक्तिमय सेवा की पहली
अवस्था है। इस विज्ञान की शिक्षा या तो स्वयं श्रीकृ ष्ण या उनके प्रामाणिक विश्वस्त सेवक देते हैं। जब तक ऐसे साधनों
से शिक्षा ग्रहण नहीं की जाती, तब तक व्यक्ति कर्मयोग के आशय को निश्चित रूप से गलत समझता है, जिस तरह कि
सामान्य संसारी व्यक्ति प्राय: अपने आपको कर्मयोग के विशेषज्ञ के रूप में विज्ञापित करते हैं।

हमें अपना भौतिक जीवन बिताने के लिए कुछ सम्पति अर्जित करनी पड़ती है। इस सम्पति के विनिमय से हम
जीवन की आवश्यक वस्तओ
ु ं को प्राप्त करते हैं, जो मख्ु यत: हमारे भख
ू े पेट के तोषण के लिए होती हैं। जब हम भोजन
करते हैं, तो हमारा शरीर स्वस्थ रहता है और स्वस्थ शरीर होने से हम अपना जीविकोपार्जन करते हैं। यह कर्म का चक्र
है जिस पर चढ़कर हम सम्पर्णू ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करते हैं। इसका कोई अनमु ान नहीं लगाया जा सकता कि कितनी
दरू और कितने समय से हम इस तरह परिक्रमा करते रहे हैं, और जन्म-जन्मान्तर मोहमय भौतिक सख
ु के लिए संघर्ष से
उत्पन्न कष्टों को भोगते आ रहे हैं, जो मृगतृष्णा के समान हैं। छद्म भोक्ता के रूप में परम शक्तिमान् भगवान् की आज्ञा
का पालन किये बिना, आत्मा जन्म-जन्मान्तर तक स्थायी सख
ु की खोज करता है। किन्तु वह यह नहीं जानता कि
असली सख
ु कहाँ है। जैसा कि प्रह्लाद महाराज कहते हैं "कोई भी यह नहीं जानता कि उसका परम स्वार्थ सर्वशक्तिमान्
ईश्वर विष्णु के पास पहुचँ ना है।"

हम अपने वास्तविक स्वार्थ को जाने बिना, भवसागर में जन्म-जन्मान्तर निरुद्देश्य यात्रा कर रहे हैं। हमें कर्म
तथा फल की लहरों से उछाले जाकर ऐसी अशभु यात्रा करने में कितने कष्ट सहने पड़ सकते हैं, इसका निश्चित रूप से
पता नहीं लगाया जा सकता। हमें यह जानना होगा कि हमारी इस यात्रा का लक्ष्य परम सत्य, सर्वव्यापक भगवान्
विष्णु के

कर्मयोग : दिव्य फल से यक्त


ु कर्म 20

पास पहुचँ ना है। इसकी पष्टि


ु श्रीकृ ष्ण यह कह कर करते हैं कि हर कार्य को विष्णु या यज्ञ की तष्टि
ु के लिए
सम्पन्न किया जाना चाहिए। ऋग्वेद में इसी सत्य का उल्लेख है, "विष्णु परम आराध्य देव हैं अत: सारे अधीनस्थ
देवता विष्णु तथा उनके चरणकमलों की ओर देखते हैं।" वेदों के रचयिता स्वयं भगवान् हैं; फलत: उनकी भगवद्गीता
वेदों के समस्त उपदेशों का सर्वोत्तम सार है। इसमें कोई सन्देह नहीं है। अतएव श्रीकृ ष्ण का आदेश है कि यदि हम कर्म
रूपी चक्र के बन्धन से मक्त
ु होना चाहते हैं, तो हमें हर कार्य विष्णु और के वल विष्णु के सन्तोष के लिए ही करना
चाहिए।

प्राचीन काल में भारत के लोग (जो सम्प्रति 'हिन्द'ू नामक मिथ्या नाम से संबोधित किये जाते हैं) वर्णाश्रमधर्म
या सनातन धर्म का पालन करते थे। यह ऐसी प्रणाली थी, जो मनष्ु यों के कार्यकलापों को चार सामाजिक तथा चार
आध्यात्मिक क्रमों में व्यवस्थित करती थी। इनमें से जो व्यक्ति तीन उच्चतर क्रमों यथा ब्राह्मण (शिक्षकवर्ग), क्षत्रिय
(प्रशासक वर्ग) तथा वैश्य (उत्पादक वर्ग) में आते थे, वे सभी वैष्णव धर्म का पालन करते थे और अपने समस्त कर्म
परमदेव विष्णु को के न्द्र में रखकर करते थे। चारों आध्यात्मिक क्रमों अर्थात् छात्रों, गृहस्थों, वानप्रस्थों तथा संन्यासियों
द्वारा विष्णु की पजू ा की जाती थी, विशेषरूप से गृहस्थों द्वारा। ब्राह्मण गृहस्थ तो अनिवार्यत: विष्णु की पजू ा करते थे
और आज भी उन ब्राह्मणों के वश
ं ज नित्य ही विष्णु की पजू ा अपने पारिवारिक इष्टदेव के रूप में करते हैं।
आध्यात्मिक रूप से ससु स्ं कृ त ये लोग विष्णु के लिए प्रत्येक कार्य करते थे। वे अपनी क्षमता के अनसु ार खाद्य
सामग्री खरीद कर विष्णु के पजू न हेतु पकवान तैयार करते थे। तब वह भोजन, जिसे वे विष्णु को तष्टु करने के लिए
अर्पित करते थे, प्रसाद अर्थात् भगवान् की कृ पा या उनके भोजन का उच्छिष्ट बन जाता था, फिर वे उसे ग्रहण करते थे।
उन दिनों जो कुछ सम्भव था और आज भी यत्रतत्र किया जा सकता है, उसे देश, काल तथा पात्र के अनसु ार अल्प
समजं न द्वारा जीवन के हर क्षेत्र में पनु : स्थापित किया जा सकता है। इस तरह हर व्यक्ति कर्म तथा उसके फलों के
बन्धन से मक्त
ु हो सकता है।
विद्वान् सन्तों का कहना है कि भगवान् विष्णु के चरणकमलों को प्राप्त करने का अर्थ है, मोक्ष प्राप्त करना। हम
अपनी सामान्य इच्छाओ ं की पर्ति
ू कर्मयोग के चरमलक्ष्य विष्णु की दिव्य इन्द्रियों को तष्टु करके कर सकते हैं। यदि हम
इस प्रकार से अपना कर्तव्य नहीं करते, तो निश्चित रूप से हम जो भी या जितना भी कार्य करें गे, उससे विषाक्त भौतिक
परिणाम प्राप्त होंगे और अन्तत: इस संसार में संकट छा जाएगा। किन्तु हर कार्य को विष्णु के लिए करने से तथा विष्णु

21 कर्म योग

को अर्पित वस्तु के उच्छिष्ट को ग्रहण करने से सस्ं ततु कर्तव्यों को सम्पन्न करते समय जो भी पाप तथा
पापफल संचित होते हैं, हम उनसे छुटकारा पा सकते हैं।

भले ही हम इन बरु ाइयों तथा पापफलों के प्रति अनेकानेक सावधानियाँ क्यों न बरतें , फिर भी सामान्य
व्यवहारों तथा व्यापारों में हमें अनेक पाप करने पड़ते हैं। उदाहरणार्थ, व्यापारिक लेन-देन में झठू बोलना आवश्यक
तथा अपरिहार्य हो जाता है-वकीली के पेशे में तो न जाने कितना झठू बोलना पड़ता है। वकीलों को अपने फैं से हुए
मवु किलों को मक्त
ु कराने के लिए काननू की किसी भी धारा को ढूँढ़ने हेतु सभी प्रकार का कपट करना पड़ता है। यही
नहीं अन्य पेशों के लोगों तथा उन्हें जो दसू रों के यहाँ नौकरी करते हैं, इसी तरह का कार्य करना पड़ता है। जानबझू कर
या अनजाने में लोगों को निस्सन्देह ऐसे पाप करने पड़ते हैं और पापफल भोगने पड़ते हैं।

यद्यपि हम किसी प्रकार का पाप करने से अपने को बचाने के लिए सारी सावधानियाँ बरतते हैं-और वैष्णव
अर्थात् विष्णु के भक्त तो ऐसी सावधानियाँ बरतते ही हैं-फिर भी हम अपने अतिसामान्य कार्यों के दौरान, यथा एक
स्थान से दसू रे स्थान को जाते समय-कई चींटियाँ तथा अन्य कीड़ों को मारते हैं; यहाँ तक कि जब हम मात्र पानी पीते
हैं तो अनेक छोटे छोटे जलजीवी प्राणियों का वध करते हैं। इसी तरह हम अपना घर साफ करते समय, भोजन करते या
सोते समय भी अनेक जीवों का वध कर देते हैं। कहने का आशय यह है कि हम सभी पापों को करने से नहीं बच
सकते, चाहे वे सामान्य जीवन के कार्यकलापों को सम्पन्न करने के लिए, अनजाने में ही क्यों न किये गए हों।

मनष्ु य के नियमों के अनसु ार यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति का वध कर देता है, तो उसे फाँसी दी जा
सकती है, किन्तु जब वह निम्न पशओ
ु ं को मारता है, तो उसे फाँसी नहीं दी जाती। किन्तु ईश्वर के नियमों के अनसु ार
निम्न पशओ
ु ं का वध करने पर भी मनष्ु य पाप करता है। ऐसे किसी भी कार्य के लिए ईश्वर के नियमों द्वारा हम दण्डित
किये जाते हैं। जो लोग ईश्वर के नियमों या उनके अस्तित्व में विश्वास नहीं करते, वे ऐसे पाप करते रह सकते हैं और
ऐसे पापों के करने के लिए भले ही उन्हें असंख्य कष्ट मिलें, किन्तु वे होश में नहीं आते। परन्तु इससे ईश्वर के अस्तित्व
या उनके शाश्वत नियमों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

स्मृतियाँ जो विधिग्रन्थों के नाम से प्रसिद्ध हैं, प्रत्येक व्यक्ति द्वारा अपरिहार्य रूप से, अनिच्छा होने पर भी किये
जाने वाले पापों के पाँच प्रकार बताती हैं। ये हैं-(1) कुरे दने के फलस्वरूप किया गया पाप (2) रगड़ने के फलस्वरूप
होने

कर्मयोग : दिव्य फल से यक्त


ु कर्म 22

वाला पाप (3) अग्नि जलाने के फलस्वरूप होने वाला पाप (4) घड़े से जल गिराने के कारण होने वाला पाप
तथा (5) अपना घर साफ करने से होने वाला पाप। यद्यपि हम जानबझू कर कोई पाप न करें , किन्तु इसमें लेशमात्र भी
संदहे नहीं है कि उपर्युक्त पाँच प्रकार के पापों को हम करें गे ही। अत: यह अत्यावश्यक है कि हम विष्णु को अर्पित
खाद्य वस्तु के उच्छिष्ट को ग्रहण करें क्योंकि इससे हम उन समस्त पाप-फलों से बच सकें गे, जिन्हें हमने जाने-अनजाने
में किया है। इसी कारण से भगवान् विष्णु की पजू ा सनातन धर्मियों और विशेषरूप से ब्राह्मणों के घरों में सम्प्रति भी
की जाती है। दर्भा
ु ग्यवश, जो लोग अपनी इन्द्रियों को तष्टु करने के लिए ही भोजन पकाते हैं, पर विष्णु को अर्पित करने
के लिए नहीं, उन्हें उन समस्त पापों का दडं भोगना होगा, जिन्हें उन्होंने अपने संस्ततु कर्तव्यों को परू ा करते समय
जानकर या अनजाने में किया है।

इसलिए समस्त देशों तथा समदु ायों के नेताओ ं को अपने लाभार्थ तथा अपने अनयु ायियों के लाभार्थ सर्वप्रथम
विष्णु को सतं ष्टु करना सनि
ु श्चित करना चाहिए। पर्णू परुु षोत्तम भगवान् श्रीकृ ष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया है, 'नेता जो
भी करता है, उसका अनगु मन सामान्य मनष्ु य करते हैं। नेता जिस बात को सत्य रूप में स्थापित करता है, उसे
अनगु ामी निस्संकोच ग्रहण करते हैं।” इस प्रकार समस्त नेताओ ं को चाहिए कि वे अपने कर्तव्यों का पालन इस प्रकार
से करें कि विष्णु की दिव्य इन्द्रियाँ तष्टु हो सकें , जिससे वे अपने अनयु ायियों के लिए उत्तम आदर्श प्रस्ततु कर सकें ।

किन्तु हाय! ऐसा समय आ चक


ु ा है कि जिन नेताओ ं को सामान्य जन आदर्श समझते हैं, वे अपने हृदयों के
भीतर से अधिकांशतया नास्तिक हैं और ईश्वर द्वारा बनाए गये नियमों के विरुद्ध हैं। ऐसी स्थिति में, भला वे विष्णु की
दिव्य इन्द्रियों की तष्टि
ु के लिए कर ही क्या सकते हैं? और यदि वे प्रत्येक कार्य को विष्णु की दिव्य इन्द्रियों की तष्टि

हेतु नहीं करते, तो भला वे स्वयं को या अपने अनयु ायियों को पापों के उस दलदल से कै से बाहर निकाल सकते हैं, जो
संस्ततु कर्तव्यों को सम्पन्न करते समय उन्होंने किये हैं? यदि ये नेता उन सर्वशक्तिमान् विष्णु के अस्तित्व को मान्यता
प्रदान नहीं करते, जो कि एक ही साथ परम दिव्य परुु ष तथा सर्वत्र विद्यमान निर्विशेष आत्मा हैं, तो सामान्य जन उनके
विषय में क्या समझेंगे ? वे हर वस्तु के परम भोक्ता हैं, अत: हममें से कोई भी, चाहे वह कितना महान् क्यों न हो,
ब्रह्माण्ड तथा इसके साजसामान का भोक्ता नहीं हो सकता। चकि
ँू हमारा पद उन परमेश्वर तथा परम नियन्ता परम
शक्तिमान् विष्णु से निम्न है, अत: हम उतना ही भोग सकते हैं, जो हमें उनकी कृ पा-स्वरूप उनसे प्राप्त होता है। हमें उस
किसी वस्तु का

23 कर्म योग

भोग नहीं करना चाहिए जो उनके द्वारा प्रदत्त न की गई हो। जो वस्तु उनकी या अन्यों की हो, उसे प्राप्त करने के
लिए हमें अतिरिक्त प्रयास नहीं करना चाहिए। यही वैष्णवता की भावना है।

ईशोपनिषद् में इसी भाव को इस प्रकार वर्णित किया गया है, "सम्पर्णू ब्रह्माण्ड में हम जो कुछ भी विद्यमान
देखते हैं, वह मल
ू त: परम भोक्ता की सम्पति है और व्यक्ति के वल उन्हीं वस्तओ
ु ं को भोग सकता है जो उनके द्वारा
कृ पापर्वू क प्रदान की जाती हैं, किन्तु उसे दसू रों की सम्पत्ति को स्पर्श भी नहीं करनाचाहिए।"

इसलिए प्रजा के नेताओ ं तथा अन्य लोकप्रिय नेताओ ं को चाहिए कि वे अपने कार्यकलाप विष्णु पर के न्द्रित
करें और इस दिव्य कार्य के फलस्वरूप वे स्वयं तो लाभान्वित होंगे ही, साथ ही वे अपने अनयु ायियों का भी कल्याण
कर सकें गे। यदि ये नेता, प्रचारकों तथा राज्यों के अध्यक्षों सहित, वैष्णवता के इस कार्य को नहीं करते और इसके
विपरीत परम भोक्ता विष्णु के उच्च स्थान पर बनावटी ढंग से स्वयं को स्थापित करते हैं , तो वे भले ही क्षणिक लाभ,
प्रशसं ा तथा सोसारिक ख्याति का आनन्द उठा सकें और त्याग का झठू ा दिखावा करके अपने अभागे अनयु ायियों को
सही मार्ग से विमख
ु कर सकें , किन्तु ऐसे भौतिकतावादी नास्तिक नेता कभी भी उन अज्ञानी व्यक्तियों का जो उनके
पीछे कसाईघर की ओर जाने वाली भेड़ों के झंडु के समान चलते हैं, कोई भला नहीं कर सकें गे। ऐसे नेतत्ृ व से नेता
अल्पकाल के लिए स्वयं लाभान्वित होते हैं, किन्तु उनके अनयु ायी निकृ ष्टतम स्थिति को प्राप्त होते हैं। ये नेता उन्हें
दिखावटी लाभ के प्रति उकसाते हैं और उन्हें नाना प्रकार के पापकर्मों में लगाते हैं। ऐसे नेता क्षणिक निजी लाभ के
लिए अपने अनयु ायियों के असली हितों की बलि देते हैं और उनका सर्वनाश कर देते हैं।
ऐसे नेता यह नहीं जानते कि उनके नाशवान् शरीर के विनाश के साथ ही उनके क्षणिक लाभ भी समाप्त हो
जाएँगे। किन्तु अपने नेतत्ृ व काल में वे जो अच्छाई-बरु ाई करते हैं वह अत्यन्त सक्ष्ू म रूप में उनके मन, बद्धि
ु तथा
मिथ्या अहक
ं ार के मानसिक पाश में विद्यमान रहेगी और आत्मा की देहान्तरण प्रक्रिया के द्वारा अन्य उपयक्त
ु शरीर में
सक्ष्ू म मानसिक जीवन फिर से विकसित होगा। इस तरह उनके पर्वू कर्म उन्हें कर्म-कर्मफल के विविध चक्रों की अग्नि
परीक्षा से गजु ारें गे और अनेकानेक वर्षों तक उन्हें एक शरीर से दसू रे में देहान्तरण करने के लिए बाध्य करें गे। और
जनसामान्य वही करें गे जो अज्ञानी नेता उनसे कहेंगे।

कर्मयोग : दिव्य फल से यक्त


ु कर्म 24

अत: नेताओ ं को यह जानना चाहिए कि सभी लोगों के लाभ के लिए किस तरह कर्म किया जाए। सर्वप्रथम
उन्हें कर्मयोग अर्थात् अपने कर्मो के फल को विष्णु को अर्पित करने की वास्तविक विधि को समझना चाहिए और
उसका अभ्यास करना चाहिए। तभी वे अपने अनयु ायियों का वास्तविक हित कर सकते हैं। यदि वैद्य स्वयं बीमार हो
तो वह अन्यों को किस तरह स्वस्थ बना सकता है ? वैद्य को सामान्य जनों की व्याधियों का उपचार करने के पर्वू स्वयं
को स्वस्थ करना होगा। रोगी की इन्द्रियों की तष्टि
ु असली वैद्य का कार्य नहीं है। एक उत्तम सपु ात्र वैद्य रोगी की सनकों
को तष्टु करने में अपने को नहीं लगा सकता। वैद्य का कार्य है कि वह असली दवा दे चाहे उससे रोगी की इन्द्रियाँ तष्टु
हों या नहीं।

इसलिए नेताओ ं को यह जानना आवश्यक है कि सामान्य जनता का असली रोग सर्वशक्तिमान् विष्णु की सेवा
करने में उनकी अरुचि है। किन्तु यदि लोगों के मल
ू रोग-नास्तिकता का उपचार न करके नेतागण रोग के लक्षणों पर
ऊपरी संवेदना जताते हैं, तो इससे कष्ट भोग रही मानवता को कोई भी लाभ नहीं होगा। इस रोग की असली दवा तो
ईश्वर को अर्पित वस्तओ
ु ं के उच्छिष्ठों को ग्रहण करना है। रोगी के लिए यह आदर्श आहार है। औषधियों में ईश्वर की
महिमा का श्रवण, कीर्तन तथा स्मरण करना, ईश्वर के दिव्य रूप की पजू ा करना, उनकी दिव्य सेवा करना, उन्हें अपना
परम मित्र मानना तथा अततं ः सभी परिस्थितियों में उनकी शरण में जाना सम्मिलित है। यदि नेतागण वास्तव में
मानवता के कष्टों को दरू करना चाहते हैं, तो उन्हें इस आहार तथा इन दवाओ ं का प्रबन्ध करना होगा।
यह देखकर प्रसन्नता होती है कि अनभु वी नेता महात्मा गांधी सम्पर्णू विश्व में ईश्वरमय वातावरण लाने की
विधि का आविष्कार करने में अति व्यस्त हैं। वे संयम, सहिष्णतु ा, नैतिक सिद्धान्तों आदि का प्रचार कर रहे हैं। किन्तु
किसी भी आविष्कृ त विधि से आविष्कृ त विधि सदैव ही सीमित होती है। इसीलिए पर्णू परुु षोत्तम भगवान् श्रीकृ ष्ण ने
भगवद्गीता में कहा है कि अनेकानेक जन्मों के पश्चात् कोई विद्वान् सन्त ही मेरी शरण में आता है और ऐसा महात्मा तो
विरला ही होता है, जो प्रत्येक वस्तु को वासदु वे (विष्णु के स्वाँश) से जोड़ सके । आशय यह है कि तथाकथित महात्मा
तो सर्वत्र मिल जाएँगे, किन्तु असली महात्मा वही है जो ईश्वर तथा इस दृश्य जगत् के सम्बन्ध को जानता है।

ऐसा महात्मा खदु की आविष्कृ त किसी विधि से-खदु के तर्क से बनाई हुई आरोही पद्धति से ईश्वर तक पहुचँ ने
का प्रयास कभी भी नहीं करता। प्रत्यतु वह निगमनात्मक अवरोही विधि को स्वीकार करता है-ऐसी विधि जो सीधे

25 कर्म योग

साक्षात् भगवान् से अथवा उनके प्रामाणिक प्रतिनिधियों से होकर नीचे की ओर आती है। कोई भी व्यक्ति
आरोही विधि से भगवान् तक नहीं पहुचँ सकता, चाहे वह अनेकों वर्षों तक प्रयत्न क्यों न करता रहे। इस आरोही
विधि से जो कुछ प्राप्त किया जाता है, वह अपर्णू , आशि
ं क, निर्विशेष ज्ञान है, जो व्यक्ति को परम सत्य से दरू ले जाता
है।

हम ऐसी अपर्णू ता के चिह्न गांधी जी द्वारा अपनाई गई प्रचार विधि में देखते हैं। यद्यपि वे रामनाम का जप करते
हैं, किन्तु वे नाम के दिव्य विज्ञान से अवगत नहीं हैं। वे निर्विशेष भगवान् के पजू क हैं अर्थात् उनके भगवान् दिव्य
कार्यकलापों से रहित हैं। दसू रे शब्दों में, उनके भगवान् न तो खा सकते हैं, न देख सकते हैं, न ही सनु सकते हैं। जब
इन्द्रिय-अनभु ववादी दार्शनिक परम सत्य तक पहुचँ ना चाहता है, तब वह ईश्वर के निर्विशेष रूप के स्तर तक ही पहुचँ
पाता है, किन्तु वह भगवान् की दिव्य लीलाओ ं के बारे में कुछ भी नहीं जानता। जब परम सत्य में कोई दिव्य इन्द्रिय या
इन्द्रिय-कार्यकलाप नहीं देखा जाता, तो निश्चित रूप से उसे शक्तिहीन समझा जाता है। निस्सन्देह, शक्तिहीन ईश्वर न तो
अपने भक्तों की प्रार्थनाएँ सनु सकता है, न ही वह ब्रह्माण्ड के कष्टों को कम कर सकता है।

दार्शनिक शोध की आनभु विक विधि से शायद भौतिक पदार्थों और अतिलौकिक पदार्थों में अन्तर बताया जा
सकता है, किन्तु जब तक सत्य का अन्वेषक परम सत्य के साकार रूप तक नहीं पहुचँ जाता, तब तक उसे के वल
उनका शष्ु क निर्विशेष ज्ञान ही प्राप्त होता है तथा उससे कोई वास्तविक दिव्य लाभ नहीं मिलता। इसलिए यह
आवश्यक है कि महात्मा गांधी जैसे नेता सर्वव्यापी ईश्वर, परम सत्य विष्णु के साकार रूप के दिव्य आधार पर स्वयं
को स्थापित करें और कर्मयोग के माध्यम से उनकी दिव्य सेवा की व्यवस्था करें । इस तरह से वे जनसामान्य का
कल्याण कर सकते हैं।

अधिकाश
ं लोग भौतिक शरीर तथा मन के कार्यकलापों में अत्यधिक व्यस्त रहते हैं। जो लोग ऐसे ससं ारी
कार्यकलापों की निम्नतम अवस्था में हैं, उनमें से विरले ही आध्यात्मिक स्तर के कार्यकलापों को समझ सकते हैं। ये
लोग सामान्यतया भ्रान्त रहते हैं, क्योंकि उनके पाप तथा पण्ु य के विविध कार्य खाने, सोने, रक्षा करने तथा इन्द्रियतृप्ति
के आचरण के माध्यम से मात्र कष्टों को दरू करने और नश्वर शरीर के सख
ु की वृद्धि करने में के न्द्रित किये जाते हैं।
भौतिक विज्ञानी अर्थात् आधनि
ु क तथाकथित अर्धपरु ोहित जो ऐसे भौतिक कार्यकलापों का आह्वान करते हैं, भौतिक
इन्द्रियों को जिनमें आँख, नाक, कान, त्वचा, जीभ तथा मन सम्मिलित हैं, तष्टु करने के लिए अनेक विषयों को खोज
निकालते हैं। इस तरह ये वैज्ञानिक भौतिक सख
ु के वर्धन के लिए अनावश्यक स्पर्धा का क्षेत्र तैयार कर देते हैं, जिससे
सारा विश्व

कर्मयोग : दिव्य फल से यक्त


ु कर्म 26

अनावश्यक क्लेश के भेंवर में फंस जाता है। इसका परिणाम होता है विश्वभर में अभाव, यहाँ तक कि जीवन
की सामान्य आवश्यकताएँ-रोटी, कपड़ा तथा मकान-भी विवाद तथा नियन्त्रण की वस्तएु ँ बन जाती हैं। इस तरह ईश्वर
प्रदत्त, सादा जीवन एवं उच्च विचार की परम्परागत जीवन शैली में सभी प्रकार के व्यवधान आ जाते हैं।

जो व्यक्ति ऐसे स्थल


ू भौतिकतावादियों से कुछ ऊपर हैं, वे मृत्यु के बाद के जीवन होने में दृढ़ विश्वास रखते हैं
और फलस्वरूप वे स्थल
ू इन्द्रिय-भोग के इस जीवन स्तर से कुछ ऊपर उठने का प्रयास करते हैं। वे पण्ु यकर्म करके
अगले जीवन के लिए कुछ पण्ु य संचित करने का प्रयास करते हैं, जिस तरह कोई व्यक्ति भावी सख
ु के लिए बैंकों में
कुछ धन जमा करता है। किन्तु ये लोग यह नहीं समझ पाते कि पण्ु य कर्मों को करने से भी कोई व्यक्ति कर्म के बन्धन से
छूट नहीं सकता, जैसा कि इसके पर्वू हमने समझाया है। उल्टे, पण्ु य तथा पापकर्म दोनों मनष्ु य को कर्म तथा कर्मफल के
चक्र से बाँध देते हैं।

न तो पापी, न ही पण्ु यात्मा भौतिकतावादी यह समझता है कि सदैव प्रतिकूल कर्म-बन्धन से मक्ति


ु पाने के लिए
कर्मयोग ही एकमात्र साधन है। इसलिए दक्ष कर्मयोगी आसक्त भौतिकतावादी जैसा ही आचरण करता है, किन्तु साथ
ही साथ अपने कर्मफल विष्णु को अर्पित करता रहता है, जिससे सामान्य लोगों को यह शिक्षा मिले कि सामान्य कार्य
को करते हुए भी कर्म तथा कर्मफल के बंधन से किस तरह निकला जाये। इस प्रकार स्वयं कर्मयोगी को तथा सम्पर्णू
जगत् को एक साथ लाभ होता है। भगवद्गीता (3.26) में पर्णू परुु षोत्तम भगवान् कहते हैं, "हे भरतवश
ं ी, अच्छा हो कि
तमु उस आसक्त भौतिकतावादी की तरह कर्म करते रहो जो दिव्य ज्ञान से अनभिज्ञ है। इस प्रकार तमु लोगों को
कर्मयोग के पथ पर प्रवृत्त कर सकते हो।"

अत: जो लोग दिव्य ज्ञान से अवगत हैं और जो इस प्रकार वास्तव में विद्वान् हैं, वे शरीर तथा मन का
परिपालन करने के लिए आवश्यक सारे कर्म तो करते हैं, किन्तु वे परम भगवान् विष्णु की दिव्य इन्द्रियों को तष्टु करने
के उद्देश्य से ऐसा करते हैं। सामान्य लोग इन विद्वान् अध्यात्मवादियों को सामान्य कर्मी मानते हैं किन्तु तथ्य यह है कि
ये अध्यात्मवादी सासं ारिक लाभ के लिए कर्म नहीं करते-ये कर्मयोगी दिव्य फलों के लिए कार्य करने वाले होते हैं।
और ऐसे दिव्य कर्म में किसी पृथक् प्रयास के बिना ही स्वत: भौतिक फल प्राप्त हो जाते हैं।

27 कर्म योग

वर्तमान यगु में हम भौतिक क्रियाकलापों में अत्यधिक विस्तार देख रहे हैं-मिलों तथा फै क्ट्रियों के साथ साथ
अस्पताल तथा अन्य संस्थानों की बहुतायत है। प्राचीन काल में भौतिक क्रियाकलापों का इतना अधिक विस्तार नहीं
था। उन दिनों जीवन शैली सरल थी, किन्तु विचार उच्च थे। अत: अब कर्म-योगियों के लिए अत्यन्त उत्तम क्षेत्र
उपलब्ध है, क्योंकि वे सारे विभिन्न आधनि
ु क सस्ं थानों को भगवान् विष्णु की दिव्य इन्द्रियों की तष्टि
ु हेतु उनकी दिव्य
सेवा में लगा सकते हैं।

अत: यह अनिवार्य है कि इन पर्वो


ू ल्लिखित समस्त सस्ं थानों में तथा घर घर में कर्मयोग की उसी भावना से
परमेश्वर की पजू ा हेतु विष्णु मन्दिर स्थापित किये जाएँ जैसा कि प्राचीन काल में सन्त महात्मा करते थे। यद्यपि
सर्वव्यापक परम परुु ष भगवान् अपने विविध दिव्य नित्यरूपों में-अवतारों या स्वाँशों या विविध अश
ं -रूपों में-प्रकट
होते हैं फिर भी सन्तजन श्री श्रीलक्ष्मी-नारायण, श्री श्रीसीता-राम तथा श्री श्रीराधा-कृ ष्ण के शाश्वत यगु ल रूपों की पजू ा
करने की सस्ं तति
ु करते हैं। इसलिए यह सच्चे भाव से अपेक्षित है कि बड़ी बड़ी मिलों, फै क्ट्रियों, अस्पतालों,
विश्वविद्यालयों, होटलों तथा अन्य विविध संस्थानों के स्वामी तथा प्रबन्धक विष्णु के इन दिव्य रूपों में से किसी एक
की पजू ा करने के लिए मन्दिर की स्थापना करें । इससे इन संस्थानों के सारे कर्मचारी कर्मयोगी बन जाएँगे।

सामान्यतया ऐसा अनभु व किया जाता है कि बड़ी बड़ी मिलों तथा फै क्ट्रियों के कर्मचारी अनेक दव्र्ु यसनों के
आदी होते हैं और इस तरह वे धीरे -धीरे उस निम्नतम अधोगति को प्राप्त हो जाते हैं, जहाँ तक कि मानव गिर सकता
है। किन्तु यदि उन्हें विष्णु को अर्पित किये भोग का उच्छिष्ट प्राप्त करने का अवसर कृ पापर्वू क प्रदान किया जाता है , तो
वे धीरे -धीरे आध्यात्मिकता का दिव्य भाव विकसित कर सकें गे और अध्यात्म में उन्नत व्यक्तियों जैसे ही पद तक उठ
सकें गे। किन्तु के वल हरिजन'भगवान् के लोग" की मोहर लग जाने से ये व्यक्ति इस उच्चपद को प्राप्त नहीं कर सकते।
यदि उनमें विष्णु की दिव्य सेवा के अतिरिक्त कोई अन्य इच्छा उत्पन्न हो जाए, तो उन्हें उनके निम्न पद से ऊपर उठाने
का हर प्रयास विपत्ति लाने वाला तथा सामाजिक व्यवस्था की शान्ति में उपद्रवकारी सिद्ध होगा। जो नेतागण ऐसे
दलित श्रमिकों को व्यर्थ ही क्षणिक लाभ हेतु उकसाते हैं, वे कभी भी श्रमिकों का हित नहीं कर सकते। न ही ऐसे
कुविचारित कर्मों से नेतागण स्वयं लाभान्वित हो सकते हैं। उल्टे, श्रमिक तथा पँजू ीपति दोनों ही ऐसे भौतिक
कार्यकलापों से अवश्यमेव हानिप्रद झगड़े में लिप्त हो जाते हैं और सामाजिक व्यवस्था में भारी गड़बड़ी फै लाते हैं। इस
समस्या को

कर्मयोग : दिव्य फल से यक्त


ु कर्म 28

कर्मयोग की दृढ़ योजना के द्वारा ही हल किया जा सकता है। यदि कर्मयोग को निश्चित रूप से सम्पन्न किया
जाता है, तो हम बृहद् सामाजिक व्यवस्था द्वारा हो या श्रमसगं ठनवादियों द्वारा हो या इस धरती पर एक ऐसे भौतिक
स्वर्ग की स्थापना द्वारा जिसमें सम्पत्ति की प्राप्ति में श्रमिकजन पँजू ीपतियों से आगे रहते हैं।

मानव समाज में भाईचारा धीरे -धीरे विकसित होता है-जो आत्मप्रेम से परिवार के प्रति प्रेम, परिवार के प्रति
प्रेम से समदु ाय के प्रति प्रेम, समदु ाय के प्रति प्रेम से राष्ट्र के प्रति प्रेम और राष्ट्र के प्रति प्रेम से अन्तर्राष्ट्रीय समदु ाय के
प्रति प्रेम से हो सकता है। इस क्रमिक विधि में सदैव एक आकर्षण का के न्द्र होता है, जो हमारे प्रेम को प्रगति देने और
एक अवस्था से दसू री अवस्था में विकास करने में सहायक होता है। किन्तु हम यह नहीं जानते कि भाईचारे के विकास
हेतु इस निरन्तर संघर्ष में आकर्षण का चरम के न्द्र न तो परिवार है, न समदु ाय है, न राष्ट्र, न ही अन्तर्राष्ट्रीय समदु ाय
अपितु सर्वव्यापक भगवान् विष्णु हैं। यह अज्ञान भौतिक पर्दै अर्थात् परम सत्य की मोहक शक्ति के कारण है। महान्
भक्त प्रह्वाद महाराज इसकी पष्टि
ु करते हैं कि सामान्यजन यह नहीं जानते कि उनके आकर्षण का चरम के न्द्र पर्णू
परुु षोत्तम भगवान् विष्णु हैं और विष्णु श्रेणी में श्रीकृ ष्ण परम आकर्षण हैं।

वस्ततु : कृ ष्ण शब्द कृ ष् धातु से व्यत्ु पन्न है जिसका अर्थ है "जो आकर्षित करे वह।" अतः परम सत्य का नाम
कृ ष्ण अर्थात् "सर्वाकर्षक" के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। इस सम्बन्ध में विद्वान् मनि
ु यों ने विस्तृत शोध
की है और वे इस अटल निष्कर्ष पर पहुचँ े हैं कि कृ ष्ण परमेश्वर हैं। नैमिषारण्य (आजकल उत्तर प्रदेश के सीतापरु
जनपद का नीमसार) के मनि
ु यों ने, जो सतू गोस्वामी की अध्यक्षता में एकत्र हुए थे, परम सत्य के सभी अवतारों की
विस्तार से चर्चा की। वे इस निष्कर्ष पर पहुचँ े कि कृ ष्ण ही पर्णू परुु षोत्तम भगवान् हैं और अन्य सारे अवतार या तो
उनके स्वाश
ं हैं या स्वाश
ं के भी अश
ं रूप हैं। भगवान् या पर्णू परुु षोत्तम परमेश्वर तो श्रीकृ ष्ण हैं। यह अध्यात्मवादियों के
भागवत सम्प्रदाय का निष्कर्ष है। इस निष्कर्ष की पष्टि
ु ब्रह्मसहि
ं ता में हुई है जिसका सक
ं लन इस ब्रह्माण्ड के स्रष्टा
ब्रह्माजी द्वारा किया गया था, "श्रीकृ ष्ण पर्णू परुु षोत्तम भगवान् हैं, जिनका रूप शाश्वत, आनन्दमय तथा दिव्य है। वे
आदि परुु ष हैं और गोविन्द के रूप में विख्यात हैं। उनका कोई आदि नहीं है और वे अन्य समस्त कारणों के कारण हैं। "
यदि हम समस्त कारणों के आदि कारण श्रीकृ ष्ण के के न्द्रीय आकर्षण के आधार पर एक दसू रे के साथ अपने सम्बन्ध
स्थापित कर लें, तो हम वास्तव में भाईचारे तथा समानता के भावों को स्थायी शान्ति के व्यावहारिक साधनों में बदल
सकें गे।

29 कर्म योग

इसमें निहित सिद्धान्तों को अधिक स्पष्टता से समझने के लिए हम अपने चारों ओर ससं ारी सम्बन्धों का
अवलोकन कर सकते हैं। उदाहरणार्थ, हमारी बहन का पति, जो उसके साथ विवाह करने के पर्वू भले ही हम से अज्ञात
रहा हो, फिर भी हमारा बहनोई बन जाता है-बहन के साथ सहभागी के न्द्रीय सम्बन्ध होने के कारण। इसी सहभागी
के न्द्रीय सम्बन्ध के कारण पहले के इस अज्ञात परुु ष के पत्रु तथा पत्रि
ु याँ हमारे भाँजे तथा भाँजियाँ बन जाते हैं। पनु : ये
सारे प्रेममय सम्बन्ध हमारी बहन पर के न्द्रित हैं। इस मामले में हमारी बहन आकर्षण का के न्द्र बन चक
ु ी होती है।
इसी प्रकार, यदि हम अपने देश को आकर्षण का के न्द्र बनाते हैं, तो हम अपने आपको सीमित तथा भिन्न-
भिन्न राष्ट्रीय नाम देते हैं-यथा बंगाली, पंजाबी या अग्रं ेजी। अथवा जब हम किसी विशेष मत या धर्म को आकर्षण का
के न्द्र बना लेते हैं, तो पनु : हम अपने आपको किसी पंथ के नामकरण से यथा हिन्द,ू मसु लमान या ईसाई उपाधि देते हैं।
इस तरह हमने आकर्षण का सकते-क्योंकि उनके लिए हमारे आकर्षण का के न्द्र सर्वाकर्षक नहीं होता।

एक दसू रे के साथ हमारे सम्बन्ध तभी पर्णू बन सकते हैं, जब हम सर्वाकर्षक भगवान् श्रीकृ ष्ण को अपने
आकर्षण का के न्द्र बनाते हैं। स्वाभाविक रूप से हम सभी लोग उन कृ ष्ण से नित्यरूप से सम्बन्धित हैं, जो आदि परुु ष
हैं और फलस्वरूप समस्त आकर्षणों का के न्द्र हैं। अत: हमें जिस कार्य को करने की आवश्यकता है वह है इस
सम्बन्ध को पनु : जीवित करना, जो माया के आच्छादक प्रभाव से अस्थायी रूप से विस्मृत हो गया है। अत: कृ ष्ण के
साथ अपने नित्य सम्बन्ध को पनु : स्थापित करने के लिए हमें कमप्योग को अपनाना चाहिए, जो कि ऐसी दिव्य
अनभु ति
ू के लिए प्रथम सोपान है।
कर्मयोगी प्रत्येक व्यक्ति को कृ ष्ण के साथ नित्य सेवक के रूप में अपना दिव्य सम्बन्ध पनु : जागृत करने में
उसकी सहायता कर सकता है। कर्मयोगी, पर्णू तया ससं ारी कार्यों में मग्न सामान्य जीवों को यह महान् लाभ उनके
सामान्य कार्यकलापों से उनको विचलित किये बिना पहुचँ ाता है। वस्ततु : जैसा कि हम कह चक
ु े हैं, भगवद्गीता में कृ ष्ण
उपदेश देते हैं कि यह संसारी कर्मियों के हित में होगा कि उन्हें उनके सामान्य कार्यकलापों से रोका न जाये, प्रत्यतु उन्हें
कर्मयोग विधि के अन्तर्गत इसी प्रकार व्यस्त रहने के लिए प्रोत्साहित किया जाये।

सामान्यतया ये संसारी व्यक्ति कृ ष्ण के साथ अपने नित्य सम्बन्ध को आसानी से समझ नहीं पाते। उल्टे , वे
माया के बहकावे में आकर स्वयं को कृ ष्ण मानने लगते हैं। जब वे प्रकृ ति की शक्तियों को अपने अधीन करना चाहते
हैं, तो

कर्मयोग : दिव्य फल से यक्त


ु कर्म 30

परम भोक्ता की यह मिथ्या स्थिति उन्हें अत्यधिक कष्ट पहुचँ ाती है, किन्तु ये ससं ारी तब भी प्रभत्ु व जमाने की
अपनी मनोवृत्ति को छोड़ नहीं सकते। जब वे निराशा और हताशा के दबाव के कारण भोग करने के भाव को त्यागने
का दिखावा करते हैं, तो और भी अधिक भोग करने की भावना के साथ वे प्राय: छद्म त्याग की शरण ग्रहण करते हैं।
संसारी कर्मी, जो अपने संसारी कार्यों का फल भोगने के सदैव इच्छुक रहते हैं, ऐसे कार्यों की असवि
ु धाओ ं से
अत्यधिक कष्ट पाते हैं मानो वे कोल्हू में मजबतू ी से बँधे बेचारे बैल हों। किन्तु माया द्वारा निर्देशित मोह के अधीन वे
सोचते हैं कि हम सचमचु ही आनन्द ले रहे हैं। इसलिए विद्वान् कर्मयोगी ऐसे मर्ख
ू संसारियों को उनके सामान्य
कार्यकलापों से विरत किये बिना चालाकी से उन्हें उन कार्यों में लगाये रखते हैं, जिनके प्रति उनका विशेष लगाव होता
है। किन्तु यह सब कृ ष्ण के सम्बन्ध में होता है। इसी अभिप्राय से कृ ष्ण के विद्वान् नित्य के मध्य में रहते हैं जिससे वे
कर्मयोग की विधि के प्रति मर्ख
ू ससं ारियों को आकृ ष्ट कर सकें ।
ये मर्ख
ू ससं ारी मर्ख
ू तापर्णू कार्यकलापों के अधं कार में सदैव स्थित रहते, यदि पर्णू परुु षोत्तम भगवान् श्रीकृ ष्ण
या अर्जुन जैसे उनके नित्य संगी अपने निजी उदाहरण की प्रत्यक्ष विधि से उन्हें कर्मयोग में दीक्षित करने का कष्ट न
उठाते। मर्ख
ू संसारी उन असीम कठिनाइयों को नहीं समझ सकते , जो उन्हें अपने संसारी कार्यकलापों को संपन्न करते
रहने में सहन करनी पड़ती हैं। वे अपने द्वारा सम्पन्न विविध कमाँ के ऊपर स्वामित्व के भाव से कितना ही मोहित क्यों
न हों, वे प्रकृ ति के गणु ों द्वारा सदैव सचं ालित होते हैं- भगवद्गीता में पर्णू परुु षोत्तम श्रीकृ ष्ण का यही सस्ु पष्ट निर्णय है। वे
कहते हैं कि मिथ्या अहक
ं ारवश मर्ख
ू ससं ारी व्यक्ति यह जाने बिना कि प्रकृ ति के गणु ही उसे हर कार्य को करने के
लिए प्रेरित करते हैं, अपने को समस्त कार्यों का कर्ता मान बैठता है। वह मर्ख
ू यह नहीं समझ पाता कि वह भगवान्
कृ ष्ण की भ्रामिक शक्ति, मायादेवी के वशीभतू है, जो अपनी इच्छानसु ार उसे कर्म करने के लिए बाध्य करती है।
फलस्वरूप, वह अपने कर्मों का क्षणिक फल ही अनभु व करता है, जिसे हम क्षणिक संसारी सख
ु या द:ु ख कह सकते
हैं, जबकि वह प्रकृ ति के गणु ों द्वारा अनश
ु ासित दासता के कठोर दडं को भोगता है।
भगवद्गीता में भगवान् कृ ष्ण पष्टि
ु करते हैं कि प्रत्येक जीव उनका अश
ं है, फलत: प्रत्येक जीव उनका नित्य
दिव्य सेवक है। जो अश
ं होता है उसकी स्वाभाविक स्थिति यह है कि वह पर्णू की सेवा करे । 'हितोपदेश' नामक
प्राचीन कथाओ ं के वैदिक ग्रन्थ में उद्देश हृद्रियाणासनू ामक सव्ु यक्त उदाहरण है, जो सम्पर्णू शरीर के साथ उसके
विभिन्न अगं ों

31 कर्म योग

के सम्बन्ध को बताता है। हाथ, पाँव, आँखें, नाक आदि सब अगं उस सम्पर्णू के अश
ं हैं, जो शरीर कहलाता
है। यदि हाथ, पाँव, आँखें, नाक आदि उदर (पेट) के लिए भोजन जटु ाने का प्रयास न करके अपने द्वारा संग्रहीत खाद्यों
का भोग स्वयं करने का प्रयास करें , तो परू े शरीर में कुव्यवस्था फै ल जाएगी। और शरीर के ये अगं सम्पर्णू शरीर के
विरुद्ध कार्य करने लगेंगे। ऐसे मर्ख
ू तापर्णू कार्यों से हाथ, पाँव आदि कभी भी अपनी स्थिति को सधु ार नहीं सकें गे।
उल्टे, पेट के माध्यम से सारे शरीर को पर्याप्त पोषण न मिलने के कारण सम्पर्णू शारीरिक तन्त्र तथा कार्य निर्बल और
रुग्ण हो जाएगा। इसी तरह, अश
ं मात्र जीव यदि प्रत्येक वस्तु को परमपर्णू कृ ष्ण की प्रसन्नता हेतु अर्पित करना बंद कर
दें, तो वे जीव स्वयं ही कष्ट भोगेंगे।

भगवद्गीता का कथन है कि पर्णू परुु षोत्तम भगवान् श्रीकृ ष्ण समस्त कारणों के आदि कारण हैं और सम्पर्णू सृष्टि
रूपी वृक्ष के मल
ू हैं। भगवद्गीता में यह भी कहा गया है कि भगवान् श्रीकृ ष्ण से बढ़कर और कोई परुु ष नहीं है। वे
समस्त यज्ञों तथा कर्मों के परम भोता हैं। इतने पर भी, जो परम पापी हैं वे उनकी शरण में नहीं जाते , क्योंकि वे यह
स्वीकार नहीं करते कि श्रीकृ ष्ण पर्णू परुु षोत्तम भगवान् हैं और अन्य सारे जीव उनके दिव्य नित्य सेवक हैं।

जीव तथा पर्णू परुु षोत्तम भगवान् के बीच के इस दिव्य सम्बन्ध की विस्मृति ने ही हर व्यक्ति में यह झठू ा भाव
उत्पन्न किया है कि वह लघु कृ ष्ण है। हर व्यक्ति परमपर्णू तथा सभी के उद्गम, परम सत्य पर्णू परुु षोत्तम भगवान् की
दिव्य सेवा की अवहेलना करते हुए यथाशक्ति संसार का भोग करना चाह रहा है। इस प्रकार का सकाम कर्म भौतिक
प्रकृ ति के गणु ों अर्थात् माया के मोहमन्त्र के अधीन किया जाता है। वास्तव में जीव में प्रकृ ति की शक्तियों पर स्वामित्व
जताने की क्षमता नहीं है। जैसे ही जीव परम भोक्ता श्रीकृ ष्ण के पद पर अपने को स्थापित करने का प्रयास करता है,
वैसे ही वह प्रकृ ति के गणु ों द्वारा नियंत्रित कर लिया जाता है। मिथ्या अहक
ं ार भाव के अधीन कार्य करते हुए जीव परम
भोक्ता के रूप में कार्य करने के लिए अत्यधिक कठोर परिश्रम करता है, किन्तु स्वभावत: वह ऐसा करने में अक्षम
रहता है, उसी तरह जिस तरह कि हाथ, पाँव, आँखें, नाक आदि सम्पर्णू शरीर के रूप में कार्य नहीं कर सकते। इस तरह
जीव भोता होने के बहाने नाना प्रकार के कष्ट पाता है। अत: इन सभी कष्टों से छुटकारा पाने के लिए, जो हमारे द्वारा
मोहग्रस्त स्थिति में कार्य करने से उत्पन्न होते हैं, हमें कर्मयोग की विधि अपनानी होती है।

कर्मयोग : दिव्य फल से यक्त


ु कर्म 32

सामान्य व्यक्तियों के विपरीत, अध्यात्मवादी अर्थात् कर्मयोगी वास्तव में विद्वान् होते हैं, अतएव वे सामान्य
संसारी व्यक्ति की तरह कर्म नहीं करते। वे जानते हैं कि प्रकृ ति के गणु ों के अधीन सम्पन्न किये जाने वाले संसारी कार्य
भगवान् कृ ष्ण की दिव्य भक्तिमयी सेवा हेतु किये जाने वाले कार्यों से सर्वथा भिन्न हैं। कर्मयोगी अपने आपको भौतिक
शरीर तथा मन से भिन्न जानकर कृ ष्ण के साथ अपने सवं ैधानिक सम्बन्ध में कर्म करने का प्रयास करता है। वह जानता
है कि भले ही इस संसार में वह अस्थायी रूप से है, फिर भी वह सनातन आत्मा है, और परमात्मा का अश
ं रूप है। इस
प्रकार वह संसारियों से सदैव पृथक् रहता है, यद्यपि उसकी भौतिक इन्द्रियाँ-हाथ, पाँव, आँखें, आदि-अनेकानेक कार्यों
में लगी रहती हैं। श्रीकृ ष्ण की दिव्य सेवा के ये कार्य उसे कर्म के बन्धन से मक्त
ु कर देते हैं। परम परुु ष भगवान् श्रीकृ ष्ण
अर्जुन से कहते हैं-"हे अर्जुन! तमु अपने समस्त ससं ारी कार्यों के भोग का विचार त्याग दो और इस चेतना के माध्यम
से अध्यात्मवादी बनो। तमु परिस्थितिवश उत्पन्न अपने यद्ध
ु कार्य को अपना सकते हो जो तम्ु हारा कर्तव्य है, किन्तु
तमु इसे मेरी सेवा की भावना से करो। इस तरह तमु कर्म के बन्धन से मक्त
ु रहोगे। और जो कोई भी अपने प्रत्येक कार्य
को इस दिव्य चेतना से-मेरे निर्देशानसु ार तथा मझु से किसी प्रकार का द्वेष रखे बिना-सम्पन्न करता है, वह भी कर्म के
बन्धन से छूट जाता है।"

देहात्मबद्धि
ु की प्रक्रिया अर्थात् यह भ्रान्ति कि मैं यह भौतिक शरीर तथा मन हूँ और इसलिए मैं इस भौतिक
जगत् का अश
ं हूँ और इस भौतिक जगत् की हर वस्तु मेरे उपभोग के लिए है, हमें दिव्य ज्ञान प्राप्त करने से रोकती है।
इस दिव्य ज्ञान के आधार पर पर्णू परु षोत्तम भगवान् श्रीकृ ष्ण हमें मौलिक वास्तविक अध्यात्म के प्रति उन्मख
ु होने
और अध्यात्मवादी बनने का उपदेश देते हैं। तभी हम यह समझ सकते हैं कि हम इस भौतिक जगत् में कुछ भी नहीं हैं
और हम नित्य आध्यात्मिक जीव हैं। ऐसी आत्म-अनभु ति
ू से हमारी भौतिक आसक्ति स्वाभाविक रूप से विखंडित
होने लगती है। और हम जितना अधिक आध्यात्मिक रूप से विकसित होते हैं, उतना ही अधिक हम भौतिक ससं र्ग से
सम्बद्ध इन्द्रिय-अनभु व द्वारा उत्पन्न सख
ु तथा द:ु ख से अप्रभावित होते जाते हैं। तब भौतिक सम्पर्क से उत्पन्न मिथ्या
अहक
ं ार धीरे धीरे समाप्त होने लगता है और इस मिथ्या अहक
ं ार का विनाश होने से समस्त भौतिक उपाधियों से
छुटकारा मिलने लगता है। इससे परम सत्य के साथ हमारे सम्बन्ध के बारे में पनु : नवीकृ त जागरूकता उत्पन्न हो जाती
है। इसे जीवन में मक्ति
ु कहा जाता है।
33 कर्म योग

पर्णू परुु षोत्तम भगवान् श्रीकृ ष्ण परम सत्य हैं। समस्त प्रामाणिक शास्त्रों से इसकी पष्टि
ु होती है। जैसे ही श्रीकृ ष्ण
के साथ हमारा सम्बन्ध पनु : जागृत होता है, वैसे ही हमारे आध्यात्मिक जीवन का विकास प्रारम्भ हो जाता है।
श्रीकृ ष्ण सर्यू तल्ु य हैं और अज्ञान अधं कार के तल्ु य है। इस तरह श्रीकृ ष्ण के साथ हमारा सम्बन्ध स्थापित होते ही
अज्ञान का अन्धकार विलप्तु हो जाता है। हमारे हृदय के भीतर श्रीकृ ष्ण के प्रकट होते ही भौतिक संसर्ग से उत्पन्न हमारे
सारे मल दरू हो जाते हैं, जिस तरह सर्यू के उदय होते ही प्रभात नया तथा ताजा प्रतीत होता है। यह कोई बाल
मनोकल्पना नहीं अपितु आध्यात्मिक अनभु ति
ू का वास्तविक अनभु व है। जो कोई भी श्रीकृ ष्ण या उनके प्रामाणिक
सेवकों के चरण चिह्नों का परू ी तरह अनगु मन करता है, वह भी इस सरल सत्य की अनभु ति
ू करता है।
किन्तु जो मर्ख
ू कृ ष्ण से ईष्र्या-द्वेष रखता है और स्वयं को उनका प्रतियोगी मान लेता है, वह इस तथ्य को
स्वीकार नहीं करता। इस तरह कर्मयोग की प्रधानता को समझे बिना मर्ख
ू ससं ारी लोग बिना रोकटोक के भौतिक कार्यों
में लगे रहते हैं जिसका परिणाम होता है बन्धन। उनका कर्म ही उन्हें जन्म-मृत्यु वाले इस भौतिक जीवन में निरन्तर
बाँधे रखता है। ऐसे मर्ख
ू संसारी वास्तव में श्रीकृ ष्ण से ईष्र्या करते हैं और उन्हें अपने में से एक कहकर उपहास करते हैं।
ऐसे संसारियों की दर्बुु द्धि में श्रीकृ ष्ण के विषय के ऐसे तथ्य आसानी से प्रवेश नहीं कर पाते क्योंकि वे दर्शन की इन्द्रिय-
अनभु वगम्य विधि का पालन करने से दषि
ू त रहते हैं। किन्तु भगवद्भक्त निष्ठापर्वू क यह समझता है कि भगवद्गीता में
वास्तव में क्या कहा गया है और कल्पना का अथवा "आध्यात्मिक विवेचना" अर्थात् इन्द्रिय-अनभु वगम्य दार्शनिक
सोच का आश्रय नहीं लेता। के वल ऐसा भत ही श्रीकृ ष्ण के प्रति पर्णू समर्पण के तर्क को स्वीकार कर सकता है और
कर्म के घातक बन्धन से छूटने के लिए कर्मयोग की विधि को ग्रहण कर सकता है।

श्रीकृ ष्ण द्वारा कहे गये शब्दों में ऐसा कुछ नहीं है जिससे यह नियत किया जा सके कि ये भक्तगण किसी विशेष
जाति, पन्थ, रंग या देश की सीमाओ ं के अन्तर्गत ही प्रकट होंगे। प्रत्यतु वे जाति, पन्थ, रंग या देश के किसी प्रकार के
प्रतिबन्ध के बिना ही प्रकट हो सकते हैं और होते हैं। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह जहाँ भी हो और जो भी हो,
श्रीकृ ष्ण का भक्त बनने के योग्य है। इस तथ्य की पष्टि
ु के लिए परम परुु ष भगवान् भगवद्गीता में कहते हैं, "हे पृथापत्रु ,
यहाँ तक कि जो श्रद्धाविहीन हैं और नीच कुल में उत्पन्न हुए हैं, जिनमें पतित स्त्रियाँ या पेशेवर वेश्याएँ, अज्ञानी मजदरू
या व्यापारी तक सम्मिलित हैं, यदि वे भक्तिमय सेवा द्वारा मेरी शरण में आते हैं, तो सिद्धि प्राप्त करें गे और भगवद्धाम

कर्मयोग : दिव्य फल से यक्त


ु कर्म 34

पहुचँ गें े।" दसू रे शब्दों में, श्रद्धाविहीनों के समाज में इस समय जो अशास्त्रसम्मत जातिप्रथा की प्रमख
ु ता है, वह
अद्वय पर्णू परुु षोत्तम भगवान् श्रीकृ ष्ण के पास पहुचँ ने में अवरोध नहीं है।

श्रीकृ ष्ण ने स्वयं उस जातिप्रथा के मल


ू भतू सिद्धान्तों का वर्णन किया है, जो वास्तविक और सर्वग्राही है। चारों
सामाजिक वर्ग—ब्राह्मण (परु ोहित तथा बद्धि
ु जीवी), क्षत्रिय (प्रशासक तथा सैनिक), वैश्य (व्यापारी तथा कृ षक) एवं
शद्रू (श्रमिकजन)- के स्थानों का निर्धारण श्रीकृ ष्ण के द्वारा किया गया है। ये वर्ग उन व्यक्तियों द्वारा भौतिक प्रकृ ति के
गणु ों के अधीन सम्पन्न कार्यों की गणु वत्ता के आधार पर निर्धारित किये गये हैं। इस तरह यद्यपि एक दृष्टिकोण से कृ ष्ण
परू े विश्व में इस जातिप्रथा के सर्जक हैं फिर भी अन्य संदर्भ में, वे इसके निर्माता नहीं हैं। अर्थात् वे ऐसी उत्पीड़क तथा
अप्राकृ तिक जाति, प्रथा के निर्माता नहीं हैं, जिसमें निष्ठाहीन लोग अपने जन्म के अनसु ार अपनी स्थिति का निर्धारण
करते हैं। वे तो उस जातिप्रथा के सृजक हैं जो परू े विश्व में लागू होती है, जो स्वैच्छिक और प्राकृ तिक है और मनष्ु य के
अपने गणु ों और अपनी क्षमताओ ं पर आधारित है।

चार वर्णों की प्रणाली का उद्देश्य कभी भी यह नहीं था कि यह जन्म के आधार पर चलने वाली जाति प्रथा बन
जाए। यह प्रणाली लोगों की संसारी व्यावहारिक योग्यताओ ं तथा कार्य के आधार पर विश्वभर में लागू है। ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य या शद्रू का वर्गीकरण कभी भी किसी के जन्म के आधार पर नहीं किया जाता-जिस प्रकार किसी
विख्यात चिकित्सक का पत्रु होने मात्र से कोई चिकित्सक नहीं बन जाता। चिकित्सक की वास्तविक योग्यता तो लम्बे
समय तक चिकित्सा विज्ञान का अध्ययन करने के बाद प्राप्त की जा सकती है तथा अध्ययन समाप्त करने के बाद ही
वह चिकित्सक की वृत्ति ग्रहण कर सकता है। स्वाभाविक है कि जब कोई रोगी किसी चिकित्सक के पास जाता है, तो
वह चिकित्सक का जन्म-प्रमाण पत्र नहीं देखता, अपितु उसकी चिकित्सा विषयक योग्यताओ ं को देखता है। जिस
तरह से सभी देशों में सभी कालों में चिकित्सक विद्यमान रहते हैं उसी तरह ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि भी अपनी निजी तथा
व्यावहारिक योग्यताओ ं के बल पर पृथ्वी के हर कोने में पाये जाते हैं।

भारत की वर्तमान जातिप्रथा, जिसे हम लोगों ने विश्व के एक विशेष भाग में और एक विशिष्ट सम्प्रदाय तक
सीमित कर रखा है, निश्चय ही त्रटि
ु पर्णू है और प्राकृ तिक, सार्वजनिक जातिप्रथा का विकृ त रूप है। यदि कोई व्यक्ति
किसी चिकित्सक का पत्रु होने से ही, चिकित्सा विज्ञान का कोई ज्ञान प्राप्त किये बिना तथा किसी चिकित्साविद्यालय
में

35 कर्म योग

गये बिना अपने को चिकित्सक कहता है और यदि जनता के एक वर्ग द्वारा इसे चिकित्सक के रूप में स्वीकार
कर लिया जाता है, तो यह चिकित्सक तथा उसके अन्धे अनयु ायी, वचं कों तथा वचि
ं तों के समाज के सदस्यों से
अधिक कुछ नहीं हैं। अत: पर्णू परुु षोत्तम श्रीकृ ष्ण द्वारा निर्मित जातिप्रथा जो भगवद्गीता में उल्लिखित है, वंचकों तथा
वंचितों के समाज की जातिप्रथा के समान नहीं है। श्रीकृ ष्ण की जातिप्रथा सभी कालों में तथा विश्व के सभी भागों में ,
और वस्ततु : सम्पर्णू ब्रह्माण्ड में, एक सर्वव्यापी सत्य है।

जातिप्रथा के विभिन्न वर्णों की योग्यताओ ं का भगवद्गीता में वर्णन किया गया है, अत: यहाँ हम उनका सक्षि
ं प्त
विवरण देंगे। ब्राह्मण सर्वोच्च वर्ण है, वे सत्वगणु ी होते हैं, वे समानता, सयं म तथा क्षमा का अभ्यास करते हैं। द्वितीय
वर्ण क्षत्रियों का है, जो सृजनोन्मख
ु ी रजोगणु में होते हैं। वे विभिन्न राजनीतिक तथा सामाजिक सस्ं थाओ ं के प्रशासकों
के रूप में जनता का नेतत्ृ व करने में संलग्न रहते हैं। तृतीय वर्ण वैश्यों का है, जो सृजनोन्मख
ु ी रजोगणु तथा
अन्धकारमय तमोगणु से समन्वित होते हैं और सामान्यतया व्यापारी तथा कृ षक का कार्य करते हैं। शद्रू सबसे निम्न
वर्ग के होते हैं, जो तमोगणु ी होते हैं और साधारणतया अन्य तीनों वर्णों की सेवा का कार्य करते हैं। वर्ग के रूप में, शद्रू
समस्त भौतिक समाज के सेवक होते हैं। अधं कार के इस वर्तमान यगु , कलियगु में जो कलह, पाखण्ड तथा अज्ञान का
यगु है, एक तरह से हर व्यक्ति शद्रू के रूप में जन्म लेता है।

यदि हम परम परुु ष भगवान् द्वारा निर्मित जातिप्रथा के प्रकाश में मानवीय कार्यों का परीक्षण करें , तो हम
निश्चय ही संसार के प्रत्येक भाग में चारों वर्णों को कार्यशील देख सकते हैं। पृथ्वी के प्रत्येक भाग में , जहाँ भी मनष्ु य
का निवेश है, कुछ लोगों में ब्राह्मणों के गणु हैं, तो अन्यों में क्षत्रियों, वैश्यों या शद्रू ों के हैं।

प्रकृ ति के विभिन्न गणु ब्रह्माण्ड के कोने कोने में विद्यमान हैं और चकि
ँू ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि प्रकृ ति के गणु ों
की उपज मात्र हैं, तो फिर यह कै से कहा जा सकता है कि विश्व के किसी विशेष भाग में चारों वर्णों का अस्तित्व नहीं
है? यह अर्थहीन है। प्रत्येक देश में तथा सभी कालों में चारों वर्ण रहे हैं, अब भी हैं और आगे भी रहेंगे। इसलिए जो
लोग इस सिद्धान्त पर बल देते हैं कि चारों वर्ण जिसे जातिप्रथा कहते हैं, के वल भारत में विद्यमान हैं, वे सर्वथा भ्रमित
हैं।

भगवद्भक्त बनने का अवसर जातिप्रथा द्वारा नियन्त्रित नहीं है। यहाँ तक कि जो लोग चतर्थु वर्ण अर्थात् शद्रू के
गणु ों से भी बहुत निम्न गणु ों वाले हैं, वे भी पर्णू परुु षोत्तम भगवान् श्रीकृ ष्ण की दिव्य सेवा करने के लिए सयु ोग्य हैं।
योग्य

कर्मयोग : दिव्य फल से यक्त


ु कर्म 36
ब्राह्मण सर्वाकर्षक एवं परम सत्य भगवान् श्रीकृ ष्ण की दिव्य सेवा करके जो आध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त करता है
उसे कोई भी, यहाँ तक शद्रू से भी निम्न स्तर का व्यक्ति, प्राप्त कर सकता है, यदि वह श्रीकृ ष्ण की दिव्य सेवा की इसी
विधि का पालन करे । परु ाणों के अनसु ार, एक चण्डाल तक (जो पचं म वर्ण का है और शद्रू से भी निम्न है) अपनी
दिव्य भक्तिमय सेवा के बल पर प्रथम वर्ण (ब्राह्मण) से भी उन्नत स्तर पर आ सकता है। भगवद्गीता जो कि इस
ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत सर्वोच्च शास्त्र है, के गोपनीय उपदेश मानव जीवन की सर्वोच्च सिद्धि-श्रीकृ ष्ण की दिव्य
भक्तिमय सेवा-प्राप्त करने के लिए हैं।

अत: प्रत्येक व्यक्ति को जाति, पन्थ या रंग का भेदभाव भल


ु ाकर भक्तिमय सेवा की विधि अपनानी चाहिए, जो
अपनी प्रारम्भिक अवस्था में कर्मयोग कहलाती है क्योंकि ऐसा करने से हर व्यक्ति ससं ार के सारे कार्यों के
अध्यात्मीकरण में सहायक बन सके गा। ऐसे कार्यों से कर्ता तथा किया गया कर्म दोनों ही आध्यात्मिकता से आविष्ट हो
जाते हैं और वे प्रकृ ति के गणु ों को लांघ जाते हैं। जैसे ही कर्ता के कर्म अध्यात्मीकृ त हो जाते हैं, वह स्वत: सर्वोच्च
वर्ण ब्राह्मण की योग्यताएँ प्राप्त कर लेता है। वस्ततु ः जो व्यक्ति भक्तिमय सेवा के द्वारा पर्णू तया अध्यात्मीकृ त हो जाता
है, वह प्रकृ ति के गणु ों के परे हो जाता है और इस तरह ब्राह्मण से श्रेष्ठ हो जाता है। यद्यपि ब्राह्मण सर्वोच्च भौतिक वर्ण
है, किन्तु वह दिव्य नहीं है। कोई व्यक्ति मात्र भगवान् की दिव्य सेवा करके किस तरह सर्वोच्च दिव्य ज्ञान प्राप्त कर
सकता है, इसकी व्याख्या भगवद्गीता के चौथे अध्याय के चौबीसवें श्लोक में की गई है जहाँ श्रीकृ ष्ण समझाते हैं कि
कर्मयोग सम्पन्न करने से हर वस्तु अध्यात्मीकृ त हो जाती है। आचार्य शंकर के सर्वेश्वरवाद दर्शन का, जिसने वेदान्त
की इस सति
ू की कि परमात्मा सर्वव्यापक है, विकृ त व्याख्या का प्रचार किया, फिर भी उपर्युक्त श्लोक में व्यावहारिक
प्रभाव है।

यज्ञ अनेक प्रकार के हैं किन्तु हमें यह समझना चाहिए कि समस्त यज्ञों का चरम लक्ष्य भगवान् विष्णु को
सन्तष्टु करना है। इस भौतिक ससं ार में यदि हमें के वल शरीर तथा आत्मा दोनों को साथ में बनाये रखना है, तो भौतिक
पदार्थों से सम्बन्ध अनिवार्य है। किन्तु ऐसे समस्त भौतिक कार्यों में वेदान्त के इस सत्य के द्वारा कि परमात्मा
सर्वव्यापक है, हम आध्यात्मिक वातावरण का आह्वान कर सकते हैं। इस सत्य की अपर्णू व्याख्या सर्वेश्वरवाद के
अनयु ायियों ने की है। उनकी भ्रान्त धारणा यह है कि परमात्मा सर्वव्यापक है इसलिए हर वस्तु परमात्मा है। यदि एक
बार इस भ्रान्त धारणा को दरू कर दिया जाये और हम यह स्मरण रखें कि परमात्मा निस्सन्देह सर्वव्यापक हैं, तो हम
अपने सारे कार्यों को परमात्मा
37 कर्म योग

से सम्बन्धित करके आध्यात्मिक वातावरण उत्पन्न कर सकते हैं, जिसमें प्रत्येक वस्तु आत्म-साक्षात्कारकृ त
व्यक्ति द्वारा निर्देशित हो। तब सम्पर्णू वस्तएु ँ आध्यात्मिक हो जाती हैं।

उपर्युक्त अध्यात्मीकरण की विधि की व्याख्या प्रस्ततु करने के लिए एक उदाहरण दिया जा सकता है। जब
लोहे की छड़ आग में रखी जाती है, तो वह तप्त होने पर लाल हो जाती है और यह छड़ लोहे की छड़ जैसा कार्य
करना बन्द कर देती है तथा आग के गणु विकसित कर लेती है। इसी तरह जब हमारे सारे कार्य कृ ष्ण से हमारे सम्बन्ध
के परिप्रेक्ष्य में किये जाते हैं, तो प्रत्येक वस्तु अध्यात्म से आविष्ट हो जाती है। चकि
ँू हमारा चरम लक्ष्य कृ ष्ण को
प्रसन्न करना हो जाता है, इसलिए हमारे सारे कार्य आध्यात्मिक बन जाते हैं। यज्ञ में पाँच मख्ु य घटक होते हैं (1)
अर्पण करने की विधि (2) अर्पित वस्तु स्वयं (3) अग्नि (4) यज्ञ तथा (5) यज्ञ-फल। जब ये सारे घटक परमात्मा से
सम्बन्धित होते हैं, तो वे सभी आध्यात्मिक बन जाते हैं और तब सब कुछ वास्तव में यज्ञ बन जाता है। दसू रे शब्दों में,
जब दिव्य सेवा द्वारा उपर्युक्त पाँचों घटक श्रीकृ ष्ण को अर्पित किये जाते हैं, तो वे उनसे परस्पर सम्बन्धित हो जाते हैं
और इस प्रकार वे पर्णू तया आध्यात्मिक बन जाते हैं।

इसीलिए पंडितजन अपने सारे कार्यों को भगवान् की दिव्य सेवा के प्रति निर्देशित करते हैं। वास्तव में विशद्ध

हुए ये महात्माजन अपने सारे इन्द्रियकायों को अपने वश में रखते हैं और अपनी वास्तविक आध्यात्मिक आत्मा पर
भी स्वामित्व रखते हैं। ऐसे अध्यात्मीकृ त व्यक्ति ही पतितात्माओ ं पर देश, काल तथा पात्र के अनसु ार उचित
सहानभु ति
ू दर्शा सकते हैं। यद्यपि वे ऊपर से सारे भौतिक कार्य करते रहते हैं, किन्तु ऐसे व्यक्ति कर्म के बन्धन से मक्त

रहते हैं। यह प्रक्रिया भगवद्गीता के पाँचवें अध्याय के सातवें श्लोक में बतलाई गई है, जिसमें कृ ष्ण कहते हैं कि जो
लोग दिव्य फल प्राप्त करने की दृष्टि से अपना कर्म करते हैं, वे ही अन्यों पर करुणा दर्शाने के लिए वास्तव में जन-नेता
बनने के योग्य हैं।

कर्मयोगियों के शत्र-ु वे जो आत्मतष्टि


ु या इन्द्रियतृप्ति के लिए कर्म करते हैं और परमात्मा की दिव्य सेवा के
माध्यम से उनके सम्पर्क में नहीं रहते-कभी कभी ऐसा दिखावा करते हैं कि वे परम की इच्छा के अनसु ार कार्य कर रहे
हैं। वस्ततु ः वे सर्वेश्वरवादी वंचक हैं, जो अपने स्वार्थ को ईश्वर की दिव्य सेवा के नाम से ढँकना चाहते हैं। किन्तु जिनके
हृदय शद्ध
ु हैं अर्थात् जिन्होंने हर वस्तु को पर्णू परुु षोत्तम भगवान् के चरणकमलों पर अर्पित कर दिया है, वे ऐसे छद्म
अध्यात्मवादियों से दरू रहते हैं। ऐसे विशद्ध
ु हृदय वाले अध्यात्मवादी जानते हैं कि यद्यपि जीव अत्यन्त लघु है, किन्तु
कर्मयोग : दिव्य फल से यक्त
ु कर्म 38

वह परम सत्य का अश
ं है, अतएव उसे उतनी ही लघु मात्रा में स्वतन्त्रता प्राप्त है। यद्यपि भगवान् सर्वशक्तिमान्
हैं, किन्तु वे जीवों द्वारा भोग्य इस स्वल्प स्वतन्त्रता में कोई बाधा नहीं डालते। इस तरह जीव अपनी स्वल्प स्वतन्त्रता
का दरुु पयोग करने के लिए मक्त
ु होता है और वह प्रकृ ति के गणु ों से बद्ध हो जाता है। जब वह प्रकृ ति के सत्व, रज
तथा तमो गणु ों से बद्ध हो जाता है, तो वह क्रमश: उन्हीं सत्व, रज तथा तम के विशिष्ट गणु ों को विकसित कर लेता है।
जब तक जीव भौतिक प्रकृ ति द्वारा बद्ध रहता है, तब तक उसे प्रकृ ति के अपने उसी विशेष गणु के अनसु ार कर्म करना
पड़ता है। यदि ये गणु कार्यशील न होते, तो हमें इस दृश्य जगत् में इतनी विभिन्नता से परिपर्णू कार्य न दिखते।

यदि हम प्रकृ ति के सक्ष्ू म नियमों के प्रति अपनी अज्ञानता के कारण अपने संसारी कृ त्यों को उचित प्रमाणित
करने का प्रयास, यह कह कर करना चाहें कि वे भगवान् की इच्छा से सम्पन्न किये जा रहे हैं, तब तो हम सर्व-
कल्याणकारी भगवान् के कार्यों में पक्षपात, उन्माद तथा भ्रष्टता ला देंगे। ऐसी कल्पना कभी नहीं करनी चाहिए कि
विभिन्न सांसारिक विषमताएँ भगवान् की इच्छा से उत्पन्न होती हैं-जिससे उनकी इच्छा से कुछ लोग सख
ु ी हैं और
उनकी इच्छा से कुछ लोग द:ु खी हैं। भौतिक जगत् में ऐसे अन्तरो का कारण हर जीव द्वारा स्वतन्त्र इच्छा का उचित या
अनचि
ु त उपयोग है। पर्णू परुु षोत्तम भगवान् कृ ष्ण प्रत्येक व्यक्ति को प्रकृ ति के विभिन्न गणु ों द्वारा निर्देशित ऐसे समस्त
परिस्थितिजन्य कार्यों को त्यागने का आदेश देते हैं। ऐसे कार्य प्रकृ ति के गणु ों द्वारा उत्पन्न अज्ञानता के कारण ही उदय
होते हैं, भगवान् की इच्छा से नहीं।

भगवद्गीता (5.13) में भगवान् कहते हैं कि वे किसी के द्वारा किए गए किसी विशेष कर्म के कारण नहीं हैं, न
ही ऐसे कर्म-फल के कारण हैं बल्कि ये सब प्रकृ ति के विभिन्न गणु ों के कारण घटित होते हैं। इसलिए कर्मयोग के
कार्यों को छोड़कर जीव द्वारा किये गये सारे कर्म स्वतन्त्र इच्छा के दरुु पयोग से सम्पन्न स्वत: उत्पन्न कार्य हैं। इसलिए
व्यक्ति को यह कभी नहीं सोचना चाहिए कि ऐसे कर्म-फल किसी न किसी प्रकार सर्वशक्तिमान् ईश्वर द्वारा निर्धारित हैं।
ऐसे सारे कर्म भौतिक होते हैं और इसलिए परिस्थितिजन्य होते हैं और प्रकृ ति के गणु ों द्वारा निर्देशित हैं। पर्णू परुु षोत्तम
भगवान् का ऐसे कर्मों से कोई सम्बन्ध नहीं है।
इसी तरह कर्मयोगी प्रकृ ति के गणु ों के बन्धन से बहुत परे दिव्य पद पर सदैव विद्यमान रहता है, क्योंकि उसके
सारे कर्म ब्रह्म पद को प्राप्त करने वाले हैं। जब व्यक्ति प्रकृ ति के गणु ों से मक्त
ु होता है, तो दृश्य जगत् अपना
आध्यात्मिक

39 कर्म योग

स्वरूप प्रकट करता है। जब जगत् इस तरह आध्यात्मिक रूप में प्रकट हो जाता है , तो प्रकृ ति के गणु उसकी
आध्यात्मिक उन्नति में कोई बाधा उत्पन्न नहीं कर सकते। जब ऐसी बाधाओ ं को लाँघ लिया जाता है, तो व्यक्ति को
परम दृष्टि प्राप्त होती है।

भगवद्गीता (5.18) आगे भी स्पष्ट करती है कि जब कोई विद्वान् व्यक्ति परम दृष्टि प्राप्त कर लेता है, तो वह हर
जीव को समदृष्टि से देख सकता है चाहे वह विद्वान् तथा भद्र ब्राह्मण हो, अथवा गाय, हाथी या कुत्ता या चण्डाल हो।
मनष्ु यों में विद्वान् तथा भद्र ब्राह्मण सत्वगणु की प्रतिमर्ति
ू होता है, जबकि पशओ
ु ं में गाय सत्वगणु की प्रतिमर्ति
ू होती
है। हाथी तथा शेर रजोगणु ी प्रतिमर्ति
ू होते हैं, जबकि कुत्ता तथा चण्डाल (कुत्ते का भक्षक) तमोगणु ी प्रतिमर्ति
ू होते हैं।
किन्तु एक कर्मयोगी इन जीवों को प्रकृ ति के गणु ों द्वारा प्रदत्त विभिन्न बाह्य अस्थायी आवरणों पर ध्यान न
देकर, उन सभी को अपनी परम दृष्टि से देखता है और उनकी अतं : स्थित आत्मा तक प्रवेश करता है। चकि
ँू यह सक्ष्ू म
आत्मा असीम परमात्मा से उत्सर्जित होती है, अत: कर्मयोगी सर्वोच्च स्थिति में प्रत्येक जीव तथा प्रत्येक वस्तु को
समदृष्टि से देख सकता है। चकि
ँू ऐसा कर्मयोगी प्रत्येक वस्तु को परम सत्य के संदर्भ में देखता है, इसलिए वह हर वस्तु
को परम सत्य की दिव्य सेवा में लगाता है। वह सारे जीवों को पर्णू परुु षोत्तम भगवान् श्रीकृ ष्ण के अनेकानेक दिव्य
सेवकों के रूप में देखता है। उसकी पर्णू आध्यात्मिक दृष्टि प्रत्येक भौतिक शरीर के बन्धन में उसी तरह प्रविष्ट कर
सकती है, जिस तरह तपाया हुआ लोहा अपने सम्पर्क में आने वाली हर वस्तु को जलाये बगैर नहीं रह सकता है। इस
प्रकार कर्मयोगी हर जीव तथा हर वस्तु को पर्णू परुु षोत्तम भगवान् की दिव्य सेवा में लगा कर दिव्य चरित्र का उदाहरण
प्रस्ततु करता है।

कर्मयोगी यह भलीभाँति जानता है कि पर्णू परुु षोत्तम भगवान् श्रीकृ ष्ण प्रत्येक वस्तु के भोक्ता और सभी जीवों
के स्वामी हैं। वह उस मिथ्या प्रतिष्ठा को महत्वहीन समझता है, जिससे लोग अपने को भोक्ता या त्यागी मान बैठते हैं।
विद्वान् साधओ
ु ं को ऐसी झठू ी प्रतिष्ठा से घृणा होती है। वे इसे भवबन्धन का प्रमख
ु रोग मानते हैं। समस्त सत्कार्यों, ज्ञान
का अनश
ु ीलन, ध्यान, तपस्या तथा यज्ञ का ध्येय इस भवरोग से मक्ति
ु पाना है। इसलिए भगवद्गीता (5.29) में पर्णू
परुु षोत्तम भगवान् श्रीकृ ष्ण कहते हैं कि व्यक्ति यह जानकर परम शान्ति पा सकता है कि वे ही सभी यज्ञों तथा
तपस्याओ ं के भोता हैं, सभी ब्रह्माण्डों के स्वामी तथा सभी जीवों के परम मित्र हैं।

कर्मयोग : दिव्य फल से यक्त


ु कर्म 40

हम पहले ही यज्ञ के लिए या विष्णु की दिव्य इन्द्रियों को प्रसन्न करने के लिए कार्य करने की आवश्यकता के
विषय में विवेचना कर चक
ु े हैं। भगवद्गीता का उपर्युक्त कथन यह स्पष्ट कर देता है कि एकमात्र पर्णू परुु षोत्तम भगवान्
कृ ष्ण ही समस्त यज्ञों के फल को भोगने में सक्षम हैं; सामान्य कर्मियों के यज्ञ तथा दार्शनिकों के ध्यान तथा तप
भगवान् श्रीकृ ष्ण द्वारा निर्दिष्ट और पालित हैं और परमात्मा जो कि विष्णु के स्थानीकृ त स्वरूप हैं और जो योगियों के
ध्यान के लक्ष्य हैं, पर्णू परुु षोत्तम भगवान् श्रीकृ ष्ण के स्वांश हैं।

इस प्रकार श्रीकृ ष्ण हर एक के मित्र हैं, चाहे वह एक साधारण श्रमिक हो अथवा इन्द्रिय-अनभु ववादी दार्शनिक
या योगी ही क्यों न हो-भक्तों का तो कहना ही क्या, क्योंकि वे तो भगवान् के शतप्रतिशत सेवक हैं। पर्णू परुु षोत्तम
भगवान् सदैव ही अपने भक्तों को सर्वत्र विशिष्ट देश, काल तथा पात्र के अनसु ार ईश-भक्ति की दिव्य प्रक्रिया का
प्रचार एवं प्रसार करने की शक्ति प्रदान करके सब का भला करते हैं। इस तरह ईश्वर समस्त आशीर्वादों के आगार हैं।
और जब सामान्य जन कर्मयोग से प्रारम्भ करके भक्तिमय सेवा की विधि द्वारा उन्हें जान लेते हैं, तो वे पर्णू शान्ति तथा
सख
ु प्राप्त कर सकते हैं।
जो लोग पर्णू परुु षोत्तम भगवान् श्रीकृ ष्ण की दिव्य सेवा के लिए ही प्रत्येक कार्य करते हैं, उन्हें ऐसे किसी यज्ञ,
तप या ध्यान को करने की आवश्यकता नहीं रहती जिनका ईश-सेवा से कोई सम्बन्ध नहीं है। हम पहले ही कह चक
ु े हैं
कि सत्वगणु , जो कि ब्राह्मणों का लक्षण है, ऐसे भगवद्भक्तों के गणु ों में निहित होता है। इसी प्रकार से निष्ठावान् कर्मी
का त्याग तथा दक्षता, संन्यासी का वैराग्य तथा ज्ञान, योगी की निश्चलता तथा ईश्वर पर गहन एकाग्रता-ये सारे गणु तथा
भगवदप्र् ेम, भक्त के गणु ों में सम्मिलित हैं।
तथ्य तो यह है कि श्रीकृ ष्ण स्वयं ही भक्तों द्वारा सम्पन्न कर्म के फलों के भोक्ता बन जाते हैं। इस तरह भत का
अपने कर्मफलों के लिए कोई उत्तरदायित्व नहीं रहता, चाहे वे फल सांसारिक लोगों की दृष्टि में अच्छे हों या बरु े । भक्त
प्रत्येक कार्य को श्रीकृ ष्ण के लिए ही सम्पन्न करने की बाध्यता की प्रेरणा से कार्य करता है। वह कभी अपने लिए कोई
कर्म नहीं करता। इसके विपरीत, वह संन्यासी जो ईश-भत नहीं है, सर्वव्यापी परमात्मा विषयक ज्ञान प्राप्त करने के लिए
समस्त सांसारिक उत्तरदायित्वों से अपने को विलग कर लेता है। योगी भी ऐसे ही कदम उठाता है जिससे वह ध्यान
करने में वृद्धि कर सके और उसी परमात्मा के स्थानीकृ त स्वरूप को अपने भीतर और अच्छी तरह से देख सके । किन्तु
भक्त

41 कर्म योग

एकमात्र परम परुु ष की तष्टि


ु के लिए कर्म करता है, वह आत्मतष्टि
ु की भावना से कभी प्रेरित नहीं होता। इस
तरह वह समस्त सासं ारिक कार्यों से मक्त
ु रहता हैउसे अलग से प्रयास नहीं करना पड़ता जैसा कि सन्ं यासियों तथा
योगियों को करना पड़ता है। संन्यासियों द्वारा अर्जित आध्यात्मिक ज्ञान तथा योगियों द्वारा प्राप्त की हुई आठ सिद्धियाँ
भक्त के लिए सहज प्राप्य होती हैं। फिर भी भक्त कोई लाभ, पजू ा या प्रतिष्ठा प्राप्त करने की इच्छा नहीं रखता। वह
भगवान् की दिव्य सेवा में लगा रहने के अलावा अन्य कोई लाभ नहीं चाहता और के वल ऐसी सेवा से ही सबकुछ
प्राप्त कर लेता है। यदि कोई व्यक्ति परम लाभ प्राप्त कर लेता है, जिसमें अन्य सारे लाभ निहित हैं, तो फिर उसके लिए
और प्राप्त करने के लिए बचता ही क्या है?

पतजं लि द्वारा निर्दिष्ट योग विधि का पालन करते हुए योगी एक तरह से विविध शारीरिक कार्यों को बन्द कर
देता है और ध्यानपर्णू समाधि प्राप्त करने का प्रयास करता है। इस तरह वह अपने हृदय के भीतर परमात्मा के
स्थानीकृ त स्वरूप का दर्शन करने के लिए सभी प्रकार के कष्ट सहता है। दसू रे शब्दों में, वह अपने अद्वय लक्ष्य को प्राप्त
करने के लिए किसी की भी परवाह नहीं करता है, चाहे उसकी मृत्यु से ही भेंट क्यों न हो। जैसा कि परम परुु ष भगवान्
भगवद्गीता (6.22) में कहते हैं, "अपने हृदय में परमात्मा की अनभु ति
ू करने के पश्चात् योगी यह भलीभाँति समझता है
कि उस आध्यात्मिक पद की प्राप्ति से अधिक मल्ू यवान् कुछ भी नहीं हो सकता है। उस पद की प्राप्ति का अर्थ है सभी
प्रकार के कष्ट से विचलित न होना, चाहे वह कितना ही तीव्र क्यों न हो।"
पतंजलि की विधि के अनसु ार योग का लक्ष्य मानसिक स्तर पर उसकी विभिन्न चचं ल प्रवृत्तियों सहित पर्णू
नियंत्रण है। पतजं लि का कथन है कि इस दिव्य अवस्था में इन्द्रिय-कार्यों से मक्त
ु होना तथा सिद्धि–अवस्था को प्राप्त
होना, जो के वल शद्ध
ु ात्माओ ं को ही अनभु तू होती है, सम्मिलित है। ऐसी अवस्था में योगी का ध्यान कभी
आध्यात्मिक सिद्धि के पथ से विपथ नहीं होता। आठ सिद्धियाँ-अणिमा (सक्ष्ू मतम से सक्ष्ू मतर बनने की शक्ति),
लघिमा (सर्वाधिक हल्के से हल्का बनने की शक्ति), प्राप्ति (इच्छानसु ार वस्तु प्राप्ति की शक्ति), ब्लशिता (ग्रहों के
निर्माण की क्षमता), वशित। (किसी भी व्यक्ति को वश में करने की शक्ति), प्र/काम्य (आश्चर्यजनक प्राकृ तिक पराक्रम
करने की शक्ति) इत्यादि योग की सर्वोच्च अवस्था प्राप्त करने के गौण फल हैं। उपर्युक्त में से एक या दो सिद्धियाँ प्राप्त
करने के बाद योगी पनु :

कर्मयोग : दिव्य फल से यक्त


ु कर्म 42

मानसिक चचं लता के जाल में फैं स जाता है। ऐसी स्थिति में वह उस सर्वोच्च सिद्धि को प्राप्त नहीं कर पाता जो
पर्णू परुु षोत्तम भगवान् की भक्तिमय सेवा के नाम से विख्यात है।

किन्तु भक्त को इस तरह के पतन का कोई भय नहीं रहता, क्योंकि उसका ध्यान पहले से ही भगवान् की दिव्य
सेवा में स्थिर रहता है। इसलिए उसे पृथक् रूप से समाधि में प्रवेश करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। भक्त के लिए
योगसिद्धियों का मल्ू य नगण्य होता है, क्योंकि उसके ध्यान के लक्ष्य पर्णू परुु षोत्तम भगवान् हैं जिनकी नवीनता की
नित्य वृद्धि होती रहती है। एक ससं ारी व्यक्ति निश्चित रूप से यह अनभु व नहीं कर पाता कि भगवद्-सेवा में इतना
अधिक दिव्य सख
ु कै से हो सकता है।
भगवद्गीता में भगवान् कृ ष्ण हमें आश्वस्त करते हैं कि ध्यानयोगी या कर्मयोगी को अपने दिव्य कर्मों को परू ा
करने के प्रयासों में कोई हानि नहीं हो सकती, भले ही यह विधि अश
ं त: ही परू ी क्यों न की गई हो। कोई भी संसारी
वस्तु, चाहे ज्ञान हो या सम्पति, भौतिक शरीर के विनाश के साथ ही समाप्त हो जाती है, किन्तु कर्मयोगी का दिव्य
कार्य भौतिक शरीर तथा मन की सांसारिक सीमाओ ं से परे है, क्योंकि यह दिव्य आत्मा के सम्बन्ध में सम्पन्न किया
जाता है। इस प्रकार से आध्यात्मिक बन जाने से ये कार्यकलाप भौतिक विनाश की सीमाओ ं को लाँघ जाते हैं। जिस
तरह से आत्मा का विनाश भौतिक शरीर या मन के विनाश होने पर भी नहीं होता, उसी तरह ये अध्यात्मीकृ त कार्य भी
कभी विनष्ट नहीं होते।

इसकी पष्टि
ु भगवान् ने भगवद्गीता (6.40) में की है और ठाकुर भक्तिविनोद इसकी व्याख्या इस तरह करते हैं,
"आखिर मनष्ु यजाति दो अनभु ागों में विभक्त है। एक वैध है और दसू रा अवैध । जो जीवन के किसी नियम की परवाह
नहीं करते बल्कि मात्र इन्द्रियतृप्ति के सिद्धान्त पर कार्य करते हैं, वे सभी अवैध हैं। वे सभ्य भी हो सकते हैं, असभ्य
भी, शिक्षित भी और अशिक्षित भी, शक्तिमान् या निर्बल भी, किन्तु ऐसे अवैध सदा निम्न पशओ
ु ं के समान कर्म करते
हैं। ऊपरी तड़कभड़क के बावजदू उनमें कोई अच्छाई नहीं होती।"

"दसू री ओर वैध या विधि का पालन करने वाले व्यक्तियों को तीन दिव्य विभागों में विभाजित किया जा
सकता है-वैध कर्मी, इन्द्रिय-अनभु ववादी दार्शनिक तथा दिव्य भक्तगण। वैध कर्मियों को पनु : दो उपविभागों में रखा
जाता है-ये हैं ऐसे कर्मी जो अपने कर्म का फल भोगना चाहते हैं तथा दिव्य कमी जिनमें ऐसी कोई इच्छा नहीं होती।
जो कर्मी अपने

43 कर्म योग

कर्म का फल भोगना चाहता है, वह क्षणिक भौतिक सख


ु के लिए लालायित रहता है। ऐसे कर्मी को भौतिक
लोकों के ही अन्तर्गत सांसारिक या स्वर्गिक सख
ु प्रदान किया जाता है। किन्तु यह जान लेना चाहिए कि सख
ु के ये
सारे रूप क्षणिक हैं। अत: ऐसा कर्मी असली सख
ु को प्राप्त नहीं कर सकता, जो कि स्थायी तथा दिव्य होता है। यह
असली तथा दिव्य सख
ु सासं ारिक बन्धन से मक्ति
ु के बाद ही प्राप्त होता है। ऐसा कोई भी कर्म जो ऐसे दिव्य सख
ु को
लक्ष्य नहीं बनाता, सदैव क्षणिक और भ्रान्त करने वाला होता है।

जब सामान्य कार्य ऐसे दिव्य उद्देश्य को लक्ष्य बनाता है, तो यह कार्य कर्मयोग कहलाता है। कर्मयोग की इस
विधि से व्यक्ति क्रमशः आत्मशद्धि
ु , फिर दिव्य ज्ञान और तब पर्णंू ध्यान और अन्त में जाकर पर्णू परुु षोत्तम भगवान् की
दिव्य प्रेममयी भतिसेवा प्राप्त करता है। कभी कभी संसारी कर्मी को तपस्वी या महात्मा मान लिया जाता है, क्योंकि
वह अपने संसारी लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अनेक तपस्याएँ करता है। किन्तु ऐसे इन्द्रियतृप्ति के उद्देश्य से की जाती
हैं; अत: आध्यात्मिक दृष्टि से ये व्यर्थ होती हैं। कुछ असरु ों, यथा रावण तथा हिरण्यकशिपु ने भी कठोर तप किया,
किन्तु उन्हें कतिपय क्षणिक इन्द्रियसख
ु की वस्तओ
ु ं के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिला। इसलिए जब कोई व्यक्ति
इन्द्रियसख
ु की सीमाओ ं को लाँघ जाता है, तभी वह कर्मयोगी अर्थात् दिव्य फल के लिए कर्म करने वाला व्यक्ति
कहलाता है।

वास्तविक हित कमयोग के कार्यों में निहित है, चाहे वह व्यक्ति प्रारम्भिक अवस्था में ही क्यों न हो। यही नहीं,
कर्मयोगी जन्म-जन्मान्तर प्रगति करता है जिसकी पष्टि
ु भगवद्गीता (6.43) में हुई है, "पनु र्जन्म के बाद कर्मयोगी अपने
विगत जन्म में प्राप्त दिव्य सेवाभाव को पनु : जागृत करता है और अपने स्वाभाविक लगाव के कारण वह अपने दिव्य
कार्यों को पनु : पर्णू करने का प्रयत्न करता है।"

यदि ऐसा योगी किसी तरह अपने प्रगति पथ से च्यतु भी हो जाता है , तो उसे पनु : उन्नति करने के अवसर
प्रदान किए जाते हैं। भगवद्गीता (6.41) में पष्टि
ु की गई है कि उसे अगला जन्म या तो प्रामाणिक ब्राह्मण के परिवार में
या भगवान् की सेवा में अनरु क्त किसी धनी व्यापारी के परिवार में प्राप्त होता है।

किन्तु अध्यात्मवादियों में से जिन्हें कर्मयोगियों, ध्यानयोगियों, ज्ञानयोगियों, हठयोगियों तथा भक्तियोगियों में
वर्गीकृ त किया गया है, भक्तियोगी ही सर्वोपरि होते हैं, क्योंकि वे सदैव पर्णू परुु षोत्तम भगवान् की दिव्य सेवा के
विचारों

कर्मयोग : दिव्य फल से यक्त


ु कर्म 44

तथा कार्यों में लीन रहते हैं जिसकी पष्टि


ु भगवद्गीता (6.47) में हुई है। स्पष्ट है कि पर्णंू परुु षोत्तम भगवान् की
दिव्य भक्ति की प्राप्ति ही समस्त योग प्रणालियों का चरम लक्ष्य है। उपर्युक्त श्लोक का यही तात्पर्य है।

वस्ततु : योगमार्ग एक-रूप तथा एक है। यह सर्वोच्च लक्ष्य तक पहुचँ ने के लिए सोपानों की श्रृंखला के समान
है। योग के इस पथ को स्वीकार करने से व्यक्ति आध्यात्मिक सिद्धि का यात्री बन जाता है। कर्मयोग, अर्थात् दिव्य फल
यक्त
ु कार्य इस दिव्य पथ का प्रथम सोपान है। जब इन्द्रिय-अनभु ववादी दार्शनिक निगमन तथा त्याग की इच्छा इसमें
जड़ु जाते हैं, तब यह द्वितीय सोपान तक उन्नत कर जाता है जिसे ज्ञानयोग कहा जाता है। जब इसमें परम नियन्ता
अर्थात् परमेश्वर की निश्चित धारणा जड़ु जाती है और जब व्यक्ति अपने हृदय में भगवान् की उपस्थिति का अनभु व
करने का प्रयास करने लग जाता है, तो तीसरे सोपान तक उन्नति होती है जो कि ध्यानयोग है। अन्त में जब कोई पर्णू
परुु षोत्तम भगवान् की दिव्य प्रेममयी भक्ति सेवा इसमें जड़ु जाता है, तो व्यक्ति चरम अवस्था तक उन्नति कर जाता है,
जो कि भक्तियोग है। इसलिए योगमार्ग एक दिव्य विकास है, जिसमें उपर्युक्त सभी अवस्थाएँ आध्यात्मिक विकास की
क्रमिक विधि के अगं -स्वरूप हैं। अन्तिम अवस्था को समझने के लिए उपर्युक्त समस्त अवस्थाओ ं का उल्लेख
आवश्यक है। इसलिए जो व्यक्ति परम लक्ष्य प्राप्त करने का इच्छुक है, वह क्रमबद्ध योग-मार्ग को अपना सकता है।

किन्तु व्यक्ति को प्रथम, द्वितीय या तृतीय सोपान पर रुक नहीं जाना चाहिए। उसे अन्तिम सोपान तक जाना
होगा, क्योंकि वही पर्णंू परुु षोत्तम भगवान् की दिव्य प्रेममयी सेवा की पर्णू अवस्था है। जो व्यक्ति बीच की अवस्था
तक पहुचँ कर आगे नहीं बढ़ पाता और अपने विकास की इसी अवस्था से संतष्टु हो जाता है , वह उस विशेष नाम से
पक
ु ारा जाता है यथा कर्मयोगी, ज्ञानयोगी या ध्यानयोगी। अत: निष्कर्ष यह निकलता है कि दिव्य भत समस्त योगियों
से सर्वोच्च है।

यहाँ पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि दिव्य योगपथ पर उन्नति सामान्य भौतिक उन्नति के समान नहीं है।
भौतिक जगत् में अगली अवस्था तक पहुचँ ने के लिए व्यक्ति को उन्नति की किसी न किसी अवस्था से होकर गजु रना
पड़ता है और इस विधि का कोई विकल्प नहीं है। उदाहरणार्थ, यदि किसी व्यक्ति को एम.ए. की उपाधि प्राप्त करनी है,
तो उसे अनेक परीक्षाओ ं में उतीण होना होगा, यह अपरिहार्य है। कोई व्यक्ति उपयक्त
ु परीक्षा उतीर्ण किये बिना एम.ए.
की उपाधि प्राप्त नहीं कर सकता। किन्तु दिव्य योगपथ पर, यद्यपि क्रमिक विकास की विधि से निचली अवस्था से
सर्वोच्च अवस्था तक पहुचँ ने के लिए सस्ं ततु नियम हैं, किन्तु भगवत्कृ पा से व्यक्ति कोई प्रारम्भिक परीक्षा उत्तीर्ण किये

45 कर्म योग

बिना ही एम.ए. की दिव्य उपाधि प्राप्त कर सकता है। लेकिन भगवान् की यह असाधारण कृ पा भगवान् के
साथ विश्वस्त सम्बन्ध के माध्यम से ही सम्भव है। और पर्णू परुु षोत्तम के साथ यह विश्वस्त सम्बन्ध भगवान् के भक्तों
की दिव्य संगति से ही सम्भव है।

प्रत्येक जीव का पर्णू परुु षोत्तम भगवान् के साथ शक्तिशाली, विश्वस्त तथा नित्य सम्बन्ध होता है। किन्तु
भौतिक माया की दीर्घकालीन संगति के कारण हममें से हर एक ने अनन्त काल से उस सम्बन्ध को विस्मृत कर दिया
है। हम सड़क पर घमू रहे भिखारी के समान हैं, यद्यपि हम सभी सबसे धनी परुु ष परमेश्वर के दिव्य पत्रु हैं। हम शान्त
मस्तिष्क से यह बात भलीभाँति समझ सकते हैं, किन्तु अपने परम धनी पिता के प्रति तथा उनके साथ अपने सम्बन्ध
के प्रति लापरवाह होने के कारण हम सड़क के भिखारी की दरिद्रता तथा भख
ू की समस्याओ ं को नाना प्रकार से हल
करने में संघर्ष करते रहते हैं, किन्तु इसका कोई उपयक्त
ु परिणाम नहीं निकलता। सड़कों पर हमें इसी तरह से दरिद्रता से
सताये अनेक मित्र मिलते हैं। कभी कभी जो लोग हम से कुछ अच्छी अवस्था में होते हैं, हमें जीवन की कुछ
प्रगतिशील अवस्था की ओर निर्देशित करते हैं, किन्तु वस्ततु : हमें ऐसे निर्देशनों से कोई सख
ु नहीं मिल पाता। ये लोग
हमें कर्म, ज्ञान, ध्यान, योग तथा अन्य कई मार्ग भी दिखलाते हैं, किन्तु दर्भा
ु ग्य से इनमें से कोई भी हमें वह सख
ु नहीं दे
पाता जिसके लिए हम सदैव लालायित रहते हैं। इसी कारण श्रीचैतन्य महाप्रभु ने श्री रूप गोस्वामी को प्रयाग में
गंगानदी के तट पर दशाश्वमेध घाट पर यह उपदेश दिया कि जो अत्यन्त भाग्यशाली जीव हैं, वे ही भगवान् तथा उनके
प्रामाणिक प्रतिनिधि की कृ पा से भक्तिमय सेवा का बीज प्राप्त कर सकते हैं।

हम दिव्य भक्तिमय सेवा के इस बीज को स्वयं भगवान् श्रीकृ ष्ण से, भगवद्गीता में दिये गए उनके दिव्य सन्देश
से प्राप्त कर सकते हैं। जब हम यह समझ सकें गे कि भगवद्गीता में श्रीकृ ष्ण का मल
ू सन्देश उनकी भक्तिमय सेवा है तभी
हम भगवद्गीता की शिक्षाओ ं के महत्व को पर्णू तया समझ सकें गे। अन्यथा हम जन्मजन्मातर भगवद्गीता को पढ़ते रहें
और उस पर हजारों भाष्य लिख डालें लेकिन भगवद्गीता को समझने के ऐसे सारे प्रयास निष्फल सिद्ध होंगे।

भगवान् ने भगवद्गीता में अपनी व्याख्या की है। अनेकानेक सामान्य परुु षों ने अपने आत्मचरित लिखे हैं और
सामान्य लोगों ने उत्साहपर्वू क उन्हें पढ़ा और स्वीकार किया है। किन्तु जब पर्णू परुु षोत्तम भगवान् स्वयं ही अपने
विषय में बताते हैं, तो लोग उनके सन्देश को यथारूप स्वीकार नहीं करते। यही उनका दर्भा
ु ग्य है। ये मर्ख
ू ससं ारी
भाष्यकार

कर्मयोग : दिव्य फल से यक्त


ु कर्म 46

भगवान् के सन्देश को यथारूप स्वीकार न करने के बजाए भगवद्गीता के सरल श्लोकों के मनोकल्पित अर्थ
गढ़ते हैं, जिससे कोई ऐसा मानव-निर्मित विचार स्थापित किया जा सके जिसका समर्थन भगवद्गीता कभी नहीं करती।
ये मर्ख
ू भाष्यकार ऐसी बनावटी मनोकल्पना से अपने रद्दी सिद्धान्तों को प्रतिष्ठापित नहीं कर पाते , अत: अनन्तोगत्वा
अपने सिद्धान्तों की पष्टि
ु करने हेतु वे ईश्वर के स्थान पर किसी बन्दर को बिठा देते हैं।
भगवद्गीता में यह सदृु ढ़रूप से स्थापित किया गया है कि श्रीकृ ष्ण पर्णू परुु षोत्तम भगवान् हैं। यह भी स्थापित
किया गया है कि हमारा एक मात्र कर्तव्य भगवान् की दिव्य प्रेममय सेवा करना है। यदि हम भगवद्गीता के पृष्ठों से
एकबार इन दोनों तथ्यों को भलीभाँति समझ लें, तो हम आध्यात्मिक शिक्षा की प्रारम्भिक कक्षाओ ं में प्रवेश कर
सकते हैं।

हरे कृष्ण मन्त्र का जप

भक्तिमय सेवा (भक्तियोग) का पहला सिद्धान्त है हरे कृ ष्ण महामन्त्र का जप।। (महा का अर्थ है महान् तथा
मन्त्र का अर्थ है वह ध्वनि जो मन को अज्ञान से मक्त
ु करे ।)
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।

आप भगवान् के इन पवित्र नामों का जप कहीं भी और किसी भी समय कर सकते हैं, किन्तु यह अच्छा होगा
कि दिन का कोई विशेष समय नियमित जप करने के लिए निश्चित कर दिया जाये। इसके लिए प्रात:काल का समय
आदर्श है।

जप करते समय नामों का उच्चारण कृ ष्ण को प्रार्थना के भाव से सम्बोधित करते हुए स्पष्टत: तथा पृथक् पृथक्
करें । जब आपका मन भटकने लगे, तो इसे भगवान् के नामों की ध्वनि में वापस ले आएँ। जप कृ ष्ण की प्रार्थना है
जिसका अर्थ है, "हे भगवान् की शक्ति (हरे ), हे सर्वाकर्षक प्रभु (कृ ष्ण), हे परम भोक्ता (राम), कृ पया मझु े अपनी सेवा
में लगा लें।" आप भगवान् के इन नामों का जप जितनी ही एकाग्रता तथा निष्ठा से करें गे, आप उतनी ही अधिक
आध्यात्मिक उन्नति करें गे।

भगवान् ने अपने नामों का जप हमारे लिए अति सगु म बना दिया है और उन्होंने उनमें अपनी सारी शक्तियाँ भी
भर दी हैं। इसलिए भगवान् के नाम तथा स्वयं भगवान् अभिन्न हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि जब हम पवित्र नामों का
जप करते हैं, तो हम ईश्वर से प्रत्यक्ष संगति करते हैं और शद्ध
ु बनते जाते हैं। इसलिए हमें सदैव भक्ति तथा आदर के
साथ

47

हरे कृ ष्ण मन्त्र का जप 48

जप करने का प्रयास करना चाहिए। जब आप अके ले जप करें तो जपमाला पर जप करना सर्वोतम होगा। इससे
पवित्र नाम पर ध्यान को स्थिर करने में सहायता मिलती है। प्रत्येक जपमाला में 108 छोटे मनके होते हैं और एक बड़ा
मनका-प्रधान मनका-होता है। इस प्रधान मनके के बाद वाले मनके से जप करना प्रारम्भ करें और हरे कृ ष्ण मन्त्र का
जप करते हुए अपने दाहिने हाथ के आँगठु े तथा मध्य की आँगल
ु ी के बीच से इस मनके को धीरे से सरकाएँ। इसके
बाद अगले मनके को परू े हरे कृ ष्ण मन्त्र का जप करने के लिए सरकाएँ। इस तरह 108 मनकों पर हरे कृ ष्ण जप करते
हुए प्रधान मनके पर पहुचँ ।े यह जप का एक चक्र है। तब प्रधान मनके पर जप किये बिना माला को उल्टी दिशा में घमु ा
दें तथा जिस मनके पर जप समाप्त किया था, वहाँ से दसू रा चक्र चालू करें ।

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