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वास्तविकता : एक पहे ली

प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में जगत ् में दृश्यमान घटनाओं एवं वस्तुओं के पीछे क्या
वास्तविकता है यह जानना चाहता है | विज्ञान एवं मनोविज्ञान की भाँति इसी ‘वास्तविकता’ को
जानने का एक गम्भीर प्रयास परिणामी अवधारणा के साथ भारतीय दर्शन में भी रहा है |
वास्तविकता को जानने की पष्ठ
ृ भमि
ू एवं सामर्थ्य ही प्रायः जानकारी के स्तर का निर्धारण
करती है | उदाहरण के लिए एक नन्हे शिशु के लिए एक अपरिचित सी दनि
ु या के प्रति यह मात्र
कौतूहल है जिसे वह सामान्य परिचय एवं अपने तात्कालिक उपयोग की दृष्टि से जानना चाहता
है , जबकि एक विकसित व्यक्ति के लिए परिचय से कहीं आगे वही वस्तु या घटना भावी
उपभोग, लाभ-हानि आदि से गंभीरता से जुडी होती है |
सामान्य व्यक्ति से आगे जाकर जगत ् (Universe ) की दृश्यमान वस्तओ
ु ं एवं घटनाओं
की वास्तविकता को गंभीरता से समझने के लिए मुख्य रूप से तीन दृष्टियाँ हैं-(१) वैज्ञानिक,
(२) मनोवैज्ञानिक तथा (३) दार्शनिक । ये तीनों ऐसे मार्ग हैं जिनसे विज्ञान, मनोविज्ञान तथा
दर्शन एक ऐसे तिराहे पर पहुँचते हैं जिससे जगत ् की दृश्यमान वस्तुओं एवं घटनाओं का
सम्पर्ण
ू तो नही किन्तु समग्र व्यावहारिक चित्र समझा जा सकता है । वैज्ञानिक जगत ् को
सीमित खण्डों में ग्रहण करके, उनका विश्लेषण करके, प्रकृति के नियमों से घटनाओं की एवं
वस्तुओं के विश्लेषण एवं संघटन से पदार्थों की व्याख्या करता है । मनोवैज्ञानिक व्यष्टि की
विषयीनिष्ठ चेतना के स्तर से जगत ् के प्रभावों का तथा उनकी चेतना की प्रक्रियाओं से
सम्बन्धों का निरूपण करता है तथा बोध के विभिन्न आयामों को एवं उनकी जटिलताओं को
स्पष्ट करता है । जबकि दार्शनिक समष्टि की सामंजस्यपर्ण
ू दृष्टि से जगत ् के व्यापारों तथा
स्वरूप को तार्कि क एवं आनुभविक रूप से निरूपित तो करता ही है , साथ ही उससे परे जाकर
परामनोवैज्ञानिक दृष्टि रखते हुए व्यापक चेतना के स्तर पर दृश्यमान जगत ् की वस्तुओं एवं
घटनाओं आध्यात्मिक पष्ृ ठभमि
ू के परिप्रेक्ष्य में जीवन की समस्याओं का लौकिक एवं
परालौकिक समाधान प्रस्तुत करता है ।
‘वास्तविकता ‘ (Reality ) शब्द का प्रयोग भी व्यवहार में आने वाले अनेक शब्दों की
भांति प्रसंग एवं प्रयोजन भेद से कुछ अलग अर्थों में व्यवहृत किया जाता है जो उसके तात्त्विक
और मौलिक अर्थों से हटकर होते है | ‘वास्तविकता ‘ (Reality ) का भी प्रयोग भी इसी प्रकार
यथार्थता , सत्यता , तात्त्विकता आदि अनेक रूपों में किया जाता है , वह चाहे दर्शन हो , विज्ञान
हो या प्रायोगिक जीवन हो | विषय एवं प्रसंग-भेद के साथ वास्तविकता की जानकारी का प्रयोजन
तथा अर्थ भी बदलता रहता है | अधिकांशतः व्यक्ति या समुदाय के मन-बुद्धि के लिए उत्पन्न
विसंगति का किचित स्थायी समाधान हो जाने पर उसे ही वास्तविकता मान लिया जाता है |
अनेक बार यह समाधान केवल तात्कालिक एवं परिस्थिति- सापेक्ष होता है जिसे आगे चलकर
बदलना पड़ता है |
यहाँ हम आधनि
ु क विज्ञान , मनोविज्ञान तथा परामनोविज्ञान को नज़रन्दाज़ नहीं कर
सकते | किन्तु इन आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टियों को परिप्रेक्ष्य में रखते हुए संक्षेप की दृष्टि से
प्रमुख भारतीय दार्शनिक मतों का सार रखते हुए किंचित आधुनिक परिप्रेक्ष्य में वास्तविकता के
स्वरूप विचार करते हैं |
विषय की गहराई में जाने से पूर्व हम कुछ सामान्य उदाहरण लेते हैं :---
(1) जब हम गहरी नींद में नहीं होते हैं तो प्रायः सपने दे खते हैं | सपने में स्थान ,समय,
वस्तु , व्यक्ति एवं उससे जुडी घटनाओं की विसंगति,उनमे तार्कि कता एवं क्रम का
अभाव सब स्वाभाविक होता है |
स्वप्नों के बारे में भारत तथा विदे शों में अनेक शास्त्र /ग्रन्थ उनकी उत्पत्ति ,स्वरूप
तथा प्रभावों के सम्बन्ध में हैं साथ ही विज्ञान ,मनोविज्ञान तथा परामनोविज्ञान में भी
इनका विवेचन एवं अध्ययन हो चक
ु ा है |उसके विस्तार में जाना प्रयोजन नही है |
यहाँ केवल सपने की ३ विशेषताओं पर ध्यान दे ने योग्य है :--
(i)सपने में हमें कोई भी विसंगति नहीं प्रतीत होती , सारी घटनाएँ, वस्तुएं निस्सन्दे ह शत
प्रतिशत सत्य लगती हैं |उनसे होने वाले सुख -दःु ख आदि जागत
ृ अवस्था की ही तरह हमे
प्रभावित करते हैं |
(ii) कुछ मिनटों के सपने में हम कई घंटों , दिनों और कभी २ तो वर्षों की घटनाएँ दे ख जाते हैं
अर्थात ् समय का मापक ही बदल जाता है |
(iii)यह जागत
ृ अवस्था से अलग दनि
ु यां होती है जिससे जाग जाने पर कुछ धुंधली यादों के
सिवा कुछ नहीं शेष रह जाता |
(2) अपने जागत
ृ के अनभ
ु व में आभास , भ्रम , मग
ृ मरीचिका (तपते रे गिस्तान में गर्म
वायु के तरं गों से जल जैसा अनभ
ु व ) आदि जिसमे हम वास्तविकता के स्थान पर
कुछ भिन्न दे ख रहे होते हैं |
(3) अलातचक्र (आग की लौ को चक्राकृत घुमाने पर सतत गोले का अनुभव ) या
सिनेमा के पर्दे पर चलती फिरती आकृतियों का हमारा रोजमर्रा का अनुभव जो
हमारी दृष्टि में निरन्तरता के अभाव से होता है |
(4) खुले आसमान में जब आँखों या टे लिस्कोप की सहायता से तारों दे खते हैं तो एक
जगह दिखने वाले तारे भी सैकड़ों अरबों किमी दरू होते हैं | हमारी दृष्टि में एक समय
में दिखने वाले ये तारे अलग २ समय के होते है जैसे हम २० जून की मध्य रात्रि में
जिन तारों को एक साथ दे ख रहे हैं उनमे कोई १५ मिनट पहले , कोई १ घंटे पहले ,
कोई कई दिनों पहले और कोई २ तो वर्षों पहले का होगा क्योंकि उसे हम तभी दे ख
पाते हैं जब उसका प्रकाश अपनी गति से हमारे टे लिस्कोप तक पहुचता है |जैसे 5
प्रकाश वर्ष दरू तारा हमे आज 5 वर्ष पर्व
ू की स्थिति में जैसा रहा होगा दिखेगा |
सैकड़ों प्रकाश-वर्ष पूर्व का दिखने वाला कोई प्रकाश पुंज आज वहां नहीं होगा या नष्ट
भी हो गया हो तो भी वहीं दिखेगा |
इससे स्पष्ट है कि उपकरणों की सहायता से भी हम जिस वस्तु को जैसा और जहाँ दे ख रहे हैं
जरुरी नहीं वह वहीँ या वैसी ही हो |आज के वैज्ञानिक यग
ु में भी हमारे पास प्रकाश की गति से
बढ़कर गति नहीं है और हम किसी वस्तु को तभी दे ख सकते हैं जब उसका प्रकाश हम तक
पहुंचता है |
यही कारण है की अधिकांश दार्शनिक जगत ् ही नहीं इसकी वस्तुओं को नश्वर या
क्षणभंगुर तो मानते ही हैं साथ ही जागतिक वस्तुओं और घटनाओं को पूरी या ठोस वास्तविकता
नहीं मानते |वैदिक दर्शन या उपनिषदों में इसे ‘माया ‘ कहा गया है |
जागतिक अनुभवों की विभिन्न श्रेणियों चाहे वह ठोस सत्ता के रूप में हों चाहे आभास ,
भ्रम , मरीचिका , वस्तुओं या उनके सम्मिश्रों के विकार या विवर्त के रूप में अथवा स्वप्न , जाद ू
या कल्पना के रूप में ही क्यों न हो , दिक्काल की क्षणावधि में ही सही एक अनुभूत विषय ही
है | उसे कम से कम उस क्षण के लिए झुठलाया नही जा सकता | किन्तु आगे के व्यवहारों के
लिए उसके प्रभाव या स्थायित्व के बारे में कम से कम मनष्ु य जैसे विचारशील प्राणी के जानना
आवश्यक होता है |
तार्कि क दृष्टि से सत्ता के इन विभिन्न रूपों की व्याख्या तभी सम्भव है , जब
हम एक दस
ू रे के सापेक्ष अनेक भूमियों की कल्पना करें । अन्यथा एक ही स्तर पर रं ग-बिरं गे
जगत ् की सत्ता की स्वीकृति फिर ब्रह्म की रिजन सत्ता से उसका अभेद एक तार्कि क असंगति
हो जायगी। वस्तुतः ये श्रेणियाँ हमारी अपूर्णता की ही श्रेणियाँ हैं, पूर्णता की तो कोई श्रेणी
पाणियाँ गम्भव ही नहीं। हमारे बोध की अपर्ण
ू ता के कारण जो उनमें पातिद पाया जाता है वही
सत्ता को विभिन्न कोटियों के कारण है और गह पाक्ति हमेशा किसी गति जो कि प्राण का

फलन है की ओर सङ्केतित करती है । (१. स्टडीज इन उपनिषद् गोविन्द गोपाल मख
ु ोपाध्याय,
प०ृ ५७ )

इसी (माया) शक्ति के (विभेदों के) कारण सामञ्जस्यपूर्ण शाश्वत अपरिवर्तित सत्ता अपने को
स्थिति की अंशांकित (Graded ) श्रेणियों में अभिव्यक्त करती है । इन सभी श्रेणियों को एक स्तर
पर दे खना बौद्धिक अन्याय है इसी से सारी असंगतियाँ दृष्टि में आती हैं। स्तर-वभिन्य के कारण
सबको एक समान यथार्थ या अयथार्थ कुछ भी करना ठीक नहीं है । यही कारण है कि जगत ् को
निरपेक्ष रूप से यथार्थ या अपदार्थ कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
स्पष्ट है कि 'माया' का अर्थ 'भ्रान्ति' कदापि नहीं। यह तो उपनिषदों के अद्वैत सिद्धान्त
की तार्कि क रक्षा के लिये बनाई गई मजबत
ू बाड़ है । यह वह शक्ति हैं जिसे अद्वैत की
द्वैतभानता या अभिव्यक्ति होने लगती है । शासक (ईश्वर) और शासित (जीव) विषय (प्रमेय) और
विषयी (प्रमाता) के विभेद 'माया' के ही गर्भ से उत्पन्न हुए हैं और इसके पार है अविभक्त एकता
का अखण्ड साम्राज्य । हमारी कल्पनाओं के दायरे से भी बर्द्ध मान ब्रह्म का यह अनुभाविक
जगत ् के रूप में मापन करती है (मीपते अनया सा)।
अनभ
ु व की इन विभिन्न श्रेणियों की सापेक्षता ही तार्कि क व्याख्या कर सकती है । यह
सोचना भ्रमपर्ण
ू है कि जगत ् की वस्तओ
ु ं या घटनाओं की सापेक्ष स्थिति का निषेध कर दे ने पर
परमसत्ता की निरपेक्षता तथा अद्वैतता अधिक सल
ु झे रूप में सिद्ध की जा सकती है । ऐसा
करना तो परमार्थता की समस्याओं को सल
ु झाने के बजाय अनभ
ु व की समस्या, जो एक तथ्य है
और जिसका निषेध एक हठधर्मिता या जबरदस्ती है , को उलझा दे ता है । जगत ् को एकदम
अभावरूप तथा शन्
ू यात्मक कह कर अनभ
ु व को झठ
ु लाया नहीं जा सकता क्योकि जगत ् ब्रहम
रूप में सत्ता स्वीकृत है । ऐसी स्थिति तो ब्रहम की नित्यरूपता के विरोध में चली जायगी। यही
कारण है कि उपनिषदें सापेक्ष सत्ता पर बल दे ती हैं। जगत को भ्रांति मानने पर सापेक्षता के
सिद्धांतों का इतनी गम्भीरता से प्रतिपादन अनावश्यक प्रयत्न मात्र था।( भारतीय दर्शन, भाग १,
डा० राधाकृष्णन ्, प०ृ १७५ )। परमार्थ सत ् (बहम) की अपेक्षा जगत ् न्यूनतर वास्तविक सत ् है ।
परम सत्ता से अलग इसकी सत्ता अलग रूप में दे खना एक पूर्वाग्रह है । न्यूनतम सत्ता से
तात्पर्य 'अभाव' या 'भ्रांतिरूपता' कदापि नहीं है ।दर्पण की भांति वस्तुओं एवं घटनाओं की विभिन्न
भमि
ू याँ ही माया की दे न हैं |वस्तुतः वेदों/उपनिषदों में वर्णित माया एक भावात्मक सत्ता है , यह
अन्धकार नही दर्पण है जिसमे परमार्थ या निरपेक्ष सत्ता विभिन्न स्तरों में /रूपों में अनुभवों में
आती है |
जैन दर्शन सारे अनभ
ु वों को सापेक्ष बताता है , तथा वास्तविकता को इन सभी सापेक्ष रूप
से सत्य अनभ
ु वों से निर्मित मानता है । जिस प्रकार आधनि
ु क विज्ञान की दार्शनिक चिन्तनधारा
में डारविन के विकासवाद तथा आइंस्टीन का सापेक्ष्यवाद महत्त्वपर्ण
ू मोड़ हैं तथा एक संक्रान्ति
का परिचय दे ते हैं, उसी प्रकार भारतीय दार्शनिक पद्धति में 'जैनियों का अनेकान्तवादी
यथार्थवाद' मील का पत्थर है । जैसा कि हम पहले ही कह चक
ु े हैं भारतीय दर्शनशास्त्र मात्र
दिमागी कसरत नहीं, अपितु तर्क शास्त्र के साथ वैज्ञानिक अनुभवों में वद्धि
ृ तथा चिन्तन का
व्यावहारिक उपयोग ये दोनों ही उसके विषय थे। जिस प्रकार 'सापेक्षवाद' ने जगत ् और उसकी
वस्तुओं के प्रति सारी पूर्वधारणाओं को आन्दोलित कर दिया, ठीक उसी प्रकार स्याद्वाद ने जीवन
और उसकी समस्याओं के प्रति एक नई दृष्टि दी। वैसे सापेक्षवाद अपनी आधुनिक विकसित
वैज्ञानिक पष्ृ ठभूमि के कारण स्याद्वाद की तुलना में कहीं आगे है । पर अपनी परिस्थितियों तथा
उपलब्धियों के परिप्रेक्ष्य में स्याद्वाद का भी महत्त्व जरा भी न्यून नहीं।
वस्तु के स्वरूप को प्रसंभाव्यता के रूप में व्यक्त करना वस्तु की संदिग्ध अवस्था
का उतना द्योतक नहीं, जितना कि मानवज्ञान की सामान्य अपूर्णता का। प्रकृति चाहे कितनी भी
मावधानी क्यों न बरती जाय, कुछ न कुछ त्रटि
ु के बिना अपना ज्ञान होने ही नहीं दे ती। वह
निरपेक्ष रूप से दरु
ु स्त नाप तो जानती ही नहीं।(. द मिस्टीरियस यूनिवर्स, जेम्स जीन्स, प०ृ 41 )
प्लैंक के अचर द्वारा प्रकृति का यही झटकों के साथ चलना द्योतित होता है । प्रकाश को तरं गों
तथा कणिकाओं के द्वैतरूप में स्वीकार करके हम प्रकृति के उर्मिल स्वरूप को मान लेने ही में
अब सही व्याख्या पा सकते हैं। एलेक्ट्रान तथा प्रोटान का यह ऊर्मिल स्वरूप उन्हें तरङ्गों के
निकट पहुँचा दे ता है ।

जहाँ पहले हम अपने को एक ऐसे विश्व में पाते थे जो द्रव्य के ठोस किन्तु सक्ष्
ू म टुकड़ों
से भरा है वही अब हमें अपने चारों ओर दिखाई पड़ती हैं तरं गें-और केवल तरं गें। हाइजनबर्ग का
'अनिश्चितता का सिद्धान्त' वस्तुओं के द्वैत रूपों की युगपत्ता का संकेतक है उनमें आभासी
विरोध बस्तुभूत सत्य नहीं। 'तरं ग यान्त्रिकी' में श्रोडिजर ने प्रायोगिक तौर पर दिखला दिया है कि
एलेक्ट्रान तथा प्रमात्रा [फोटान्स] को इन्हीं परस्पर विरोधी प्रतीयमान रूपों में व्यक्त करना होगा

और वैज्ञानिक इस दोहरे अनुप्रयोग से बचकर जा नहीं सकता। (. द फिलासाफी आव ् मैटर इन दि
एटामिक एरा, रूथ रे यणा, प०ृ २१-२२) परिणाम की प्रायिकता इस अनिश्चितता के कारण है । जहाँ
व्यक्तिगत प्रसंभाव्यता हमारे मस्तिष्क में रहनेवाली त्रटि
ु की मनोवैज्ञानिक आशंका को व्यक्त
करती है , वहीं वस्तुगत प्रायिकता वस्तुगत परीक्षण के समय ज्ञात किन्तु अनिवार्य त्रटि
ु जो कि
प्रकृति में स्वरूपतः अवश्यम्भावी है , उसे व्यक्त करती है । हमारा ज्ञान जैसे जैसे बढ़ता जाता है
वैसे हमें अपने अज्ञान का आभास और तीव्रता के साथ होने लगता है । यह एक विरोधाभास पर्ण

सत्य है कि जैसे जैसे हमारा ज्ञान हमारी परम्परागत समझवाली निश्चितता से दरू हटता है वैसे
वैसे ही वह हमारे लिए अधिक फलप्रद होता जाता है । वस्तत
ु ः यह हमारी दृष्टि में त्रटि
ु यों का
ज्ञान का अवबोधक है । इस सन्दर्भ में यदि जैनियों के स्याद्वाद को दे खें तो हमें आश्चर्यचकित
हो जाना पड़ता है ।
बौद्ध दर्शन के अनस
ु ार जगत ् की वस्तओ
ु ं में क्षणाधिक अस्तित्व की जो प्रतीति होती है ,
वह वस्तु के निरन्तर उत्पाद तथा विनाश क्रम के प्रवाह के कारण है । यह ठीक उसी प्रकार है
जिस प्रकार सिनेमा के पर्दे पर कुछ दे र के लिए स्थिर प्रतीत होता हुआ दृश्य भी हर क्षण बदल
रहा है और जिस प्रकार दीपक की लौ निरन्तर बदलती रहने पर स्थिर सी प्रतीत होती है । इस
प्रकार जगत ् में क्षणिकत्व के नियम का उल्लंघन भी अपवाद नहीं अपितु प्रतीति मात्र है ।
इसी प्रकार यदि हम संसार में घटित होने वाली घटनाओं की श्रंख
ृ ला को दे खें तो हम
पाते हैं वे एक दस
ू रे से जुडी हुई हैं |इसे हम कारण और कार्य के रूप में दे खते हैं विशेषकर
यदि एक घटना के बाद दस ू री की प्रायः अनिवार्यता हो | गणितीय तर्क में यदि पूर्व की
अनिवार्यता होती है तो इसे अनिवार्य प्रतिबन्ध और यदि बाद की अनिवार्यता हो जाती तो इसे
पर्याप्त शर्त या प्रतिबन्ध कहते हैं |बौद्ध दर्शन के अनुसार यह वस्तुतः कारण और कार्य एक ही
प्रवाह की निकटतम कड़ियाँ हैं। सारा का सारा संसार इसी प्रकार के कारण-कार्य, प्रवाह की
परम्परा मात्र है । प्रत्येक क्षण की घटना परवर्ती क्षणों की घटना का कारण बन जाती है । कारण
के हो जाने पर परवर्ती कार्य का होना ही कारणता का रूप है । बौद्ध दर्शनशास्त्र इसी हे तुफल
नियम को 'प्रतीत्यसमत्ु पाद' (परित्तसमुप्पाद) कहते हैं। यह न 'उच्छे दवाद' है और न 'शाश्वतवाद'
बल्कि दोनों से मुक्त है । पूर्वसत्ता परसत्ता की कारण है । कारण की सत्तामात्र अपेक्षित होती है ,
उसका कार्य के प्रति अन्य प्रकार योगदान बिल्कुल ही नहीं अपेक्षित है क्योंकि वह तो पर्व
ू क्षण में
स्वभावतः नष्ट ही हो जाता है । बीज की सत्ता का नाश ही पौधे के उत्पाद का कारण है ।
बौद्ध दृष्टि में संसार की सारी वस्तुएँ संघातस्वरूप ही है और संघात का विनाश अत्यन्त
ही प्रसम्भावी होता है । यही कारण है कि बुद्ध धर्म सभी पदार्थों के अस्थायित्व पर इतना बल
दे ता है क्योंकि संघात के अवयवों के अलगाव से पदार्थ में परिवर्तन (या वस्तत
ु ः विनाश) सहज
होता है , क्योंकि बुद्ध के अनुसार अवयवी की सत्ता अवयवों के अतिरिक्त और कुछ नहीं है ।
प्राचीन बौद्धमत में वास्तविक दष्टि में संयक्
ु त पदार्थों का विलय होकर केवल मौलिक तत्व ही
बचते हैं।दस
ू री ओर बौद्ध मत की एक विशेष शाखा विज्ञानवादी की दृष्टि में सारा जगत ् विषयी
विज्ञान सापेक्ष है और संसार की सारी वस्तए
ु ँ कल्पित प्रतीकमात्र हैं । आधनि
ु क विज्ञान भी अब
इस सापेक्षता को स्वीकार करने लगा है । हमारे परितः वर्तमान सारा वातावरण जो दिक, काल
तथा भत
ू द्रव्यों से विनिर्मित हैं और साथ ही साथ प्रकाश, सर्य
ू तथा अन्य मर्त
ू वस्तए
ु ँ जो इसमें
अवस्थित तथा गतिमान दिखाई पड़ती हैं और जो हमें पूरी स्पष्टता के साथ वास्तविक प्रतीत
होती हैं, इनमें हमने भौतिक विज्ञान की सहायता से अपने भरसक प्रयत्न तथा सम्पर्ण
ू यक्ति
ु यों
से बड़ी गहरी पैठ लगाई है , परन्तु गहराई के तल में हम पाते हैं प्रतीक और केवल प्रतीक । .
(साइन्स एण्ड द अनसीन वर्ल्ड, ए० एस० इडिंगटन, प०ृ २४ ।)
अपने आरम्भिक काल में विज्ञान ने यह मान रखा था कि संसार की सभी घटनाएँ एक
वास्तविक सातत्यक (continuam ) में घटित होती है और उनका अस्तित्व हम विषयी द्रष्टा से
स्वतन्त्र है ।बौद्ध दर्शन के एक विशेष योगाचार मत का मानना विज्ञान की एक नई धारणा के
निकट है | इस दृष्टि से अपने परितः फैले हुए इस सार्वात्रिक आयाम जिसे हम दिक् (Space)
कहते हैं , में घटित घटनाओं एवं पदार्थों के बारे में हम उन प्रभावों से अतिरिक्त और कुछ भी
नहीं जान सकते, जिन्हें वे हमारी ज्ञानेन्द्रियों पर छोड़ती हैं। ये प्रभाव सीधे भी हो सकते हैं या
दरू दर्शी (टे लिस्कोप), वर्णक्रमदर्शी (स्पेक्ट्रास्कोप) आदि यन्त्रों के माध्यम से भी। प्रत्येक युग के
विज्ञान का कार्य है अपने समय के अनुभव में आये इन्हीं प्रभावों की व्याख्या । ( द युनिवर्स
एराउन्ड अस, जेम्स जीन्स, प०ृ ८८ ) इसी व्याख्या के लिए वह विश्व की एक ऐसी योजना या
ढाँचा तैयार करता है जो तथाकथित प्रभावों का कारण स्पष्ट कर सके। विज्ञान विश्व का ढाँचा
जो खींचता है वह केवल अनुबन्धों से प्रतिबन्धित होता है -प्रथम, प्रतिरूप का तथा एकरूप मानव
की सामान्य बुद्धि से ग्राह्य होना चाहिए, तथा द्वितीय उसे संसार की उन प्रायः सभी या
सम्भवतः अधिकतम घटनाओं के कारणता की तर्क संगत व्याख्या करने में समर्थ होना चाहिए |
विषय के विस्तार को दे खते हुए संक्षप
े की दृष्टि से दर्शन या विज्ञान के व्यापक विस्तार
में न जाते हुए हम यह पाते हैं चाहे हम कितनी भी सतर्क ता बरतें या उपकरणों का सहयोग लें
हमारे अनुभव की कुछ सीमाएं हैं जो प्रत्येक अनुभव को दे श , काल और परिस्थितियों के साथ
बदलती जाती हैं |यह हमारे अनुभव को कभी विषयीनिष्ठ बना दे ता है कभी विषयनिष्ठ और
कभी २ दोनों के बीच में कहीं रख दे ता है | इसे वेदान्त (विशेषतः अद्वैत वेदान्त ) में विभिन्न
भमि
ू यों (levels या platforms ) के रूप में समझा जाता है |इसमें में पहले मल
ू स्तर पर जो २
भमि
ू याँ हैं वे हैं (१) परमार्थ (२) व्यवहार |यह भेद एक दस
ु रे से व्यावर्ती (exclusive ) नहीं अपितु
अन्तरवर्ती (inclusive ) और सापेक्ष है अर्थात ् परमार्थ भमि
ू में व्यवहार भूमि की सत्ता अपेक्षित
नहीं जबकि व्यवहार भूमि में भी परमार्थ भूमि तात्त्विक रूप से रहती है जैसे जागति
ृ में स्वप्न
अन्तर्विष्ट है | तुलसीदास जी ने इसे कुछ इस प्रकार स्पष्ट किया है ,
जौ सपने सर काटइ कोई | बिनु जागे दःु ख दरि
ू न होई ||
X x x x x
जेहि जाने जग जाइ हे राई | जागे जथा सपन भ्रम जाई ||
व्याहारिक भूमि के अन्तर्गत ही प्रातिभासिक भूमि है जिसमे स्वप्न , भ्रान्ति , आभास आदि हैं |
संसार की प्रतीयमान आकृतियाँ ऐसी हैं जिन्हें एक समान वास्तविक नहीं कहा जा सकता
है । हमारा जीवन इनमें से कुछ क्षणिक आकृतियों को स्थायी मानकर बाद में जीवन दःु खमय
बन जाता है तथा कुछ आकृतियों की भ्रान्तिमय प्रतीति ही उसी समय वास्तविकता सामने आने
पर दःु ख का कारण बन जाती है । हमारा सारा व्यवहार विश्वास के ऊपर ही प्रतिष्ठित है परन्तु
हमारे विश्वास भी कल्पित भावनाओं की भाँति निराधार नहीं है । विश्वासों के आधार पर हमारे
अनभ
ु व हैं और ये अनभ
ु व ही विश्वासों की अतिजीविता के लिए उनकी पष्टि
ु भी किया करते हैं
। परन्तु हमारे अनभ
ु व तथा विश्वासों के पीछे कुछ ऐसा अवश्य है जो हमारी उपलब्धियों का
आधार है ।
शंकर व्यावहारिक जगत ् के सामान्य अनुभव को अपने दार्शनिक अन्वेषण की यात्रा में
इतना महत्त्व दे ते हैं कि सारे विवादों का अन्तिम निर्णायक बिन्द ु इसी स्तर पर मानते हैं ।२
अनुभव में आने वाले जगत ् के पदार्थों का संश्लिष्ट रूप में मनोवैज्ञानिक विश्लेषण जागतिक
प्रत्यय के निरूपण के लिए मूलतः आवश्यक है । अद्वैत वेदान्त अनुभव के सम्बन्ध में कोई भी
आलोचना तभी वैध मानता है जब कि वह सामान्य अनुभव की व्याख्या कर सके।
भ्रान्ति का भी अपने काल में अस्तित्व होता है भले ही कालान्तर में यह स्वरूपतः
बाधित हो जाती है । परन्तु जगत ् को व्यावहारिक भ्रान्ति के स्तर पर तो किसी भी दशा में नहीं
माना जा सकता है । भ्रम के सारे उदाहरणों की सत्ता भ्रान्तिकाल तक ही होने के कारण उनकी
सत्ता व्यावहारिक सत्ता से न्यून मानी जाती है । इनकी सत्ता को इसलिए 'प्रातिभासिक' कहा
जाता है । ये सभी व्यवहारकाल में ही निषिद्ध हो जाते हैं तथा उनका व्यावहारिक उपयोग भी नहीं
है । भ्रान्ति का स्तर भी जगत ् के व्यावहारिक पहल से काफी अलग (वस्तुतः नीचे) है । साम्य
केवल इस बात में है कि भ्रान्ति के समय भी पदार्थ के स्वरूप का स्पष्ट ज्ञान भले न हो किन्तु
उपादान या आधार के रूप कुछ न कुछ विषय आश्रय के रूप में रहता अवश्य है ।
आनुभविक जगत ् की वस्तुओं या घटनाओं की स्वप्न तथा भ्रान्ति से तुलना केवल यह
स्पष्ट करने के लिए की जाती है कि परमसत्ता पर यह आरोपित है । जगत मानसिक नहीं
अपितु मन ही जागतिक है । यथार्थता की दृष्टि से बाह्य जगत ् का आनभ
ु विक स्वरूप स्वप्न
जगत ् को अपेक्षा अधिक टिकाऊ है । हमारा पेड़ पौधों आदि का प्रत्यक्ष मानसिक अवस्था का
परिवर्तन मात्र नहीं है , बल्कि वह परिवर्तन एक भौतिक घटना से सम्बद्ध है जो बाह्य जगत ् में
अपनी वास्तविकता रखती है । खम्भा या दीवार केवल ज्ञान का एक रूप ही नहीं क्योंकि पदार्थ
के रूप में उससे सम्बद्ध अन्य ज्ञान है । (उपलभ्यते हि प्रतिप्रत्ययं बाह्योऽर्थः..."न
चोपलभ्यमानस्यैवाभावोभवितम
ु र्हति ॥ ब्रह्मसत्र
ू (२:२, २८) पर शांकरभाष्य ।)
यथार्थता सम्बन्धी हमारी अवधारणाएँ व्यक्तिगत दृष्टिकोण से जीवन के आयाम में तो
बदलती ही रहती हैं, अब यह अवधारणा सामान्य दृष्टिकोण से भी गत कुछ शताब्दी से तेजी के
साथ बदलती जा रही हैं। इधर के दशकों में तो कहना ही कठिन है कि यथार्थता किसे कहा जाय
? यथार्थता का घनिष्ठ सम्बन्ध पदार्थों के हमारे ज्ञान से है । हमारे अनभ
ु व तथा उसके संगत
संकेतित पदार्थ की यथानभ
ु ति स्थिति के सम्बन्ध की अधिकतम शद्ध
ु ता ही हमारा 'यथार्थता' का
प्रत्यय है । यथार्थता को 'सत्य' का रूप दे ने के लिए उसकी सत्ता का काल के निश्चित समय में
स्थायी होना आवश्यक है । दिक्काल में वस्तनि
ु ष्ठता वास्तविकता का स्वीकृत रूप है ।
जगत ् सम्बन्धी हमारा सारा ज्ञान उन प्रभावों की तार्कि क संगति है जो प्रकृति में व्याप्त
शक्तियों से हमारी ज्ञानेन्द्रियों या भौतिकोपकरण-सहयक्
ु त इन्द्रियों पर पड़ते हैं । ज्ञानसम्बन्धी
हमारी इस सफलता का मल
ू है प्रकृति की तथानभ
ु त
ू नियमित व्याख्या तथा उसके मल नियमों
को ढूंढ निकालने में हमारी तत्परता । प्रकृति की इस अचरता के प्रति सामान्य व्यक्तियों की ही
नहीं बल्कि दार्शनिकों तथा वैज्ञानिकों की भी वर्तमान शती के प्रारम्भ से पूर्व बड़ी हो गहरी
निष्ठा थी। विचारों के इस प्रवाह में आधुनिक विज्ञान के प्रमाता (क्वान्ट्रम) सिद्धान्त की
समकालीन उपलब्धियों से उत्पन्न हुए आमूलचूल परिवर्तन से विज्ञान की उक्त परम्परागत सोच
को एक गहरा धक्का लगा जिससे नई अवधारणाओं ने जन्म लिया है |इस प्रकार प्रारं भिक
अनुभव के साथ वास्तविकता की गहराई में जाने के हमारे सारे प्रयास हमें ऐसे स्थान पर पहुँचा
दे ते हैं जहां इस पहे ली का अन्त प्रकृति का एक रहस्य बन जाता है क्योंकि दृश्यमान प्रकृति
रहस्यों से ही बनी है |
(डॉ०) सच्चिदानन्द पाठक
आई.ए.एस. (से.नि.)
एम.ए.(गणित),एम.ए.(संस्कृत), डी.फिल ्.
३/४०४ विशाल खण्ड ३ ,गोमतीनगर
लखनऊ |

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