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1 प्रमाणविज्ञान की समस्याएँ
मनुष्य स्वभाव से ही जिज्ञासु है। वह किसी भी विषय से अनभिज्ञ नहीं
रहना चाहता । उसमें जानने की इच्छा जन्मजात है। जब वह विषयों का
ज्ञान प्राप्त करता है, तब उसका मस्तिष्क परिपक्व होता जाता है।
मस्तिष्क के परिपक्व होने से व्यक्ति अपने ज्ञान के विषय में भी
चिंतन प्रारंभ कर देता है। सभी प्रकार के ज्ञान सत्य नहीं होते। कु छ
ज्ञान सत्य होते हैं, तो कु छ मिथ्या । हमारा ज्ञान मिथ्या तभी होता है,
जब हम ज्ञान-सबंधी विषयों से अनभिज्ञ रहते हैं। इसलिए, दर्शन में
ज्ञानमीमांसा (Epistemology) की आवश्यकता होती है। ज्ञानमीमांसा दर्शन
की वह शाखा है, जिसमें ज्ञान संबंधी विषयों का विवेचन होता है। इसे
प्रमाणविज्ञान भी कहते हैं। इसमें ज्ञान के विषय में उसका स्वरूप, लक्ष्य,
उसकी प्रामाणिकता, उत्पत्ति, सीमा तथा ज्ञाता और ज्ञेय का संबंध आदि
का अध्ययन होता है।
दर्शन का ऐतिहासिक अवलोकन करने से पता चलता है कि प्राचीन
दार्शनिक ज्ञानमीमांसा को अधिक महत्त्व नहीं देते थे। ग्रीक विचारक
थेल्स (Thales) से लॉक (Locke) के पहले तक के सभी विचारकों ने
ज्ञानमीमांसा को तत्त्वमीमांसा (Ontology) से गौण समझा था । वे ज्ञान
की अपेक्षा परमतत्त्व (Ultimate Reality) के विवेचन में अधिक अभिरुचि
दिखाते थे। दर्शन में ज्ञानमीमांसा को प्रमुख स्थान दिलाने का श्रेय लॉक
को है। अब तो दर्शन का अध्ययन ज्ञानमीमांसा से ही आरंभ किया जाता
है।
ज्ञानमीमांसा की समस्याएँ - ज्ञान संबंधी कई समस्याएँ हैं, जिनमें प्रमुख
ये हैं-
(a) लक्ष्य-संबंधी समस्या - ज्ञान के लक्ष्य के विषय में यह समस्या उठ
खड़ी होती है कि ज्ञान स्वयं साध्य है या एक साधक है ? इस समस्या
के निदानस्वरूप दो उत्तर दिए जाते है। पाश्चात्य दार्शनिकों का मत है
कि ज्ञान स्वयं साध्य (End) है। ज्ञान ज्ञान के लिए प्राप्त किया जाता है।
यह किसी अन्य वस्तु की सिद्धि का साधन नहीं हो सकता। दूसरा मतं
भारतीय विचारकों का है, जिनके अनुसार ज्ञान मोक्ष (Liberation) का
साधन है। पाश्चात्य दर्शन में भी उपयोगितावादी विचारक (Pragmatic
Thinkers) ज्ञान को सफल जीवन का एक साधन मानते हैं।
2.4. बुद्धिवाद तथा अनुभववाद में अंतर
अनुभववाद और बुद्धिवाद ज्ञानप्राप्ति संबंधी दो परस्परविरोधी सिद्धांत है।
दोनों में
निम्नलिखित अंतर है-
(a) अनुभववाद के अनुसार के वल अनुभव ज्ञानप्राप्ति का साधन है।
बुद्धिवाद के अनुसार बुद्धि ही ज्ञानप्राप्ति का एकमात्र साधन है। प्रथम
सिद्धांत अनुभव को अपनाकर बुद्धि की अवहेलना करता है, तो द्वितीय
सिद्धांत बुद्धि को ग्रहण करके अनुभव का बहिष्कार करता है। इस प्रकार,
ज्ञान की उत्पत्ति के विषय में दोनों के विरोधी मत हैं।
(b) अनुभववाद के अनुसार सभी ज्ञान अर्जित (Acquired) हैं, किं तु बुद्धिवाद
ज्ञान के आधारभूत प्रत्ययों को जन्मजात मानता है। अनुभववादी लॉक
मस्तिष्क को प्रारंभिक अवस्था में सफे द कागज या स्वच्छ स्लेट कहते
हैं (Mind is a blank tablet, sabula rasa, dark chamber. empty cabinet,
white paper etc. ")। अनुभव के साथ-ही-साथ मस्तिष्क में प्रत्ययों का
समावेश होता है। इस प्रकार सभी प्रकार के ज्ञान अनुभव से प्राप्त होते
हैं। इसलिए कहा जाता है कि सभी ज्ञान अर्जित हैं।
(h) बुद्धिवादी यथार्थ ज्ञान की अपूर्ण परिभाषा देते हैं। इनके अनुसार
यथार्थ ज्ञान सार्वभौम और अनिवार्य होता है। ज्ञान की यह परिभाषा
सर्वमान्य नहीं है। महान विचारक कांट (Kant) के अनुसार यथार्थ ज्ञान
वही है, जिसमें सार्वभौमता अनिवार्यता और नवीनता के गुण
विद्यमान हो। बुद्धि द्वारा ज्ञान में सार्वभौमता और अनिवार्यता के गुण
आते हैं, पर नवीनता का गुण अनुभव द्वारा ही प्राप्त होता है। इसलिए,
कांट महोदय का कहना है कि बुद्धि और अनुभव दोनों के संयोग से
यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति होती है। अनुभव के अभाव में ज्ञान में नवीनता
नहीं आ सकती और न इसका विकास ही हो सकता है।
2.3. अनुभववाद
अनुभववाद बुद्धिवाद का पूर्ण विरोधी सिद्धांत है। अनुभववाद के अनुसार
ज्ञानप्राप्ति का एकमात्र साधन अनुभव है। अनुभव के अतिरिक्त ज्ञान
का कोई अन्य साधन नहीं है।
अनुभव के अनुसार संपूर्ण ज्ञान अनुभवजन्य है। ज्ञान का कोई भी अंश
अनुभवनिरपेक्ष नहीं है। ज्ञान अनुभव द्वारा प्राप्त होता है, इसलिए कोई
भी ज्ञान जन्मजात नहीं है। बुद्धिवादियों ने कु छ प्रत्ययों को जन्मजात
कहा है, किं तु अनुभववादी जन्मजात नाम की कोई वस्तु नहीं मानते।
इनलोगों ने मनुष्य के मस्तिष्क को प्रारंभिक अवस्था में साफ कागज
(Blank Paper ) या कोरी पटरी कहा है। अनुभव के पूर्व मस्तिष्क रिक्त
रहता है। अनुभव द्वारा ही मस्तिष्क में विचार अंकित होते हैं।
अनुभववादी लॉक ने जन्मजात प्रत्ययों का जोरदार खंडन किया है।
जन्मजात प्रत्ययों की चेतना सबको होनी चाहिए, किं तु ऐसा देखा जाता
है कि पागलों, बच्चों एवं अशिक्षितों को इन प्रत्ययों (जैसे ईश्वर, कार्य-
कारण-नियम, आत्मा आदि) की चेतना नहीं रहती। अतः इन्हें जन्मजात
नहीं कहा जा सकता। दूसरी बात यह है कि यदि कु छ प्रत्यय जन्मजात
हैं, तो उनके विषय में ज्ञानोपार्जन की कोई जरूरत नहीं होती, किं तु
आत्मा, ईश्वर आदि के विषय में ज्ञानोपार्जन की आवश्यकता रहती है,
इसलिए इन्हें जन्मजात नहीं कहा जा सकता। तीसरी बात यह है कि
जन्मजात प्रत्ययों को सभी मनुष्यों, सभी स्थानों और सभी कालों में
समान रूप से ग्राह्य होना चाहिए। किं तु इनके विषय में धारणाएँ देश-
काल के अनुसार बदलती रहती हैं। अतः, लॉक इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं
कि कोई भी प्रत्यय जन्मजात (Innate) नहीं है। सब कु छ अर्जि है। ऐसी
कोई वस्तु नहीं है, जो पहले इंद्रियों में विद्यमान न थी इस प्रकार, सभी
प्रकार के ज्ञान अनुभवजन्य होते हैं।
(p) निग्रहस्थान (Point of Defeat ) — 'निग्रहस्थान' का शाब्दिक अर्थ है
'पराजय या तिरस्कार का स्थान'। साधारणतः, अज्ञान या असंगत ज्ञान
के कारण यह दोष होता है।
7.2. ज्ञान की परिभाषा तथा इसका वर्गीकरण
वस्तुओं की अभिव्यक्ति को ज्ञान या बुद्धि कहते हैं। जिस प्रकार दीपक
सारी वस्तुओं को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार ज्ञान भी अपनी वस्तुओं
को प्रकाशित करता है। ज्ञान कई तरह क होता है। पहले ज्ञान के दो
भेद होते हैं-प्रमा और अप्रमा। प्रमा वास्तविक ज्ञान को कहते है " तद्वति
तत्प्रकारकं ज्ञानं प्रमा। फिर, प्रमा के चार भेद होते हैं—प्रत्यक्ष, अनुमान,
उपमान तथा शब्द। अप्रमा अवास्तविक ज्ञान (मिध्या ज्ञान) को कहते हैं।
अप्रमा भी चार प्रकार की होती है— स्मृति, संशय, भ्रम और तर्क प्रमा में
संदेह का स्थान नहीं रहता है। जैसे, हमारे हाथ में जो कलम है, उसका
प्रत्यक्ष हमें हो रहा है। इसपर संदेह नहीं किया जा सकता। यह यथार्थ
ज्ञान है।"
स्मृति को यथार्थ ज्ञान नहीं कह सकते; क्योंकि स्मृति किसी बीती हुई
वस्तु या घटना की होती है। स्मृति द्वारा उस घटना का प्रत्यक्षीकरण
नहीं होता। मन में हम सिर्फ याद करते हैं। संशयात्मक ज्ञान को प्रमा
नहीं कह सकते; क्योंकि यह ज्ञान संदेहरहित नहीं रहता। यद्यपि भ्रम में
कोई संशय नहीं है और वह प्रत्यक्ष भी हो सकता है, तथापि वह विषय
का यथार्थ रूप प्रकाशित नहीं करता। तर्क भी प्रमा नहीं है; क्योंकि इसके
द्वारा वस्तुओं का कु छ ज्ञान नहीं मिलता । तर्क का स्पष्टीकरण इस
प्रकार किया जा सकता है—मान लें, आप अपने कमरे की खिड़की के पास
बैठे हैं। वहीं से आपको बाहर कहीं धुआँ दीखता है। आप उसे देखकर
कहते हैं कि वहाँ आग है, पर आपके पास बैठा मित्र कहता है कि वहाँ
आग नहीं हो सकती। तब आप कहते हैं कि जब वहाँ आग नहीं है, तब
धुआँ भी नहीं हो सकता। यदि ऐसा न हो, तो ऐसा नहीं हो सकता ऐसा
तर्क कर आप अपने मित्र के कथन का खंडन करना चाहते हैं और अपने
तर्क की पुष्टि भी करना चाहते हैं। इसे ही तर्क कहते हैं। इसे हम प्रमा
नहीं कह सकते; क्योंकि ऊपर के उदाहरण में हमें प्रत्यक्ष रूप में आग का
अनुभव नहीं होता, बल्कि धुएँ को देखकर हम आग के होने का अनुभव
करते हैं।
7.3. न्याय के अनुसार प्रत्यक्ष और इसके प्रकार
प्रत्यक्ष— न्यायदर्शन में प्रत्यक्ष को व्यापक अर्थ में प्रयुक्त किया गया है,
प्रत्यक्ष से 'प्रमा' और 'प्रमाण' दोनों का बोध होता है। 'प्रत्यक्ष' का शाब्दिक
अर्थ है- 'प्रति + अक्ष', अर्थात आँख के सम्मुख होना। यहाँ 'आँख' से सभी
ज्ञानेंद्रियों का बोध होता है। इस प्रकार, "इंद्रिय और वस्तु के सन्निकर्ष से
उत्पन्न ज्ञान ही प्रत्यक्ष है।""
प्रत्यक्ष की उपर्युक्त परिभाषा का विश्लेषण करने पर इसमें तीन तत्त्व
पाए जाते हैं-
(क) वस्तु और इंद्रिय में सन्निकर्ष प्रत्यक्ष के लिए 'इंद्रिय-वस्तु सन्निकर्ष'
आवश्यक है। उदाहरणार्थ, आँख से गुलाब का सन्निकर्ष होने पर ही
लालिमा का प्रत्यक्ष होता है।
(ख) प्रत्यक्ष भ्रम नहीं है— कभी-कभी इंद्रिय और वस्तु के संपर्क से भ्रम
या मिथ्या ज्ञान भी मिलता है। इसे प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता। प्रत्यक्ष
के लिए आवश्यक है कि इंद्रिय-वस्तु-सन्निकर्ष के साथ-साथ ज्ञान में भ्रम
का पूर्णतया निराकरण (elimination) हो। यदि साँप को रस्सी समझ
लिया जाए, तो इसे प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता। (ग) प्रत्यक्ष अनिश्चित
नहीं होता—किसी वस्तु के प्रत्यक्ष से अनिश्चित ज्ञान नहीं होना
चाहिए। यदि किसी व्यक्ति का प्रत्यक्ष करने पर कहें कि वह या तो राम
है या मोहन है, तो
इसे प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता। प्रत्यक्ष सदैव निश्चित होता है।
घ) प्रत्यक्ष भाषा पर आश्रित नहीं है— किसी विषय का प्रत्यक्ष होने पर
उसे भाषा के माध्यम से प्रकट करना कोई आवश्यक नहीं है। इसे भाषा
में व्यक्त भी कर सकते हैं और नहीं भी व्यक्त कर सकते। यह प्रत्यक्ष
करनेवाले की स्वेच्छा पर निर्भर है।
प्रत्यक्ष की उपर्युक्त परिभाषा अत्यंत प्राचीन है। अधिकांश भारतीय
विचारक एवं पाश्चात्य विद्वान इसे संतोषप्रद परिभाषा मानते हैं। किं तु,
नव्यनैयायिक, वेदांती एवं कई अन्य विद्वानों ने इसे दोषपूर्ण बताया है।
गंगेश उपाध्याय (नव्यन्याय के प्रणेता) इस परिभाषा में तीन प्रकार के
दोष बताते हैं। वे दोष इस प्रकार हैं— (क) अतिव्याप्त परिभाषा का दोष
definition) I (ख) अव्याप्तिदोष और (ग) चक्रकदोष