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2.

1 प्रमाणविज्ञान की समस्याएँ
मनुष्य स्वभाव से ही जिज्ञासु है। वह किसी भी विषय से अनभिज्ञ नहीं
रहना चाहता । उसमें जानने की इच्छा जन्मजात है। जब वह विषयों का
ज्ञान प्राप्त करता है, तब उसका मस्तिष्क परिपक्व होता जाता है।
मस्तिष्क के परिपक्व होने से व्यक्ति अपने ज्ञान के विषय में भी
चिंतन प्रारंभ कर देता है। सभी प्रकार के ज्ञान सत्य नहीं होते। कु छ
ज्ञान सत्य होते हैं, तो कु छ मिथ्या । हमारा ज्ञान मिथ्या तभी होता है,
जब हम ज्ञान-सबंधी विषयों से अनभिज्ञ रहते हैं। इसलिए, दर्शन में
ज्ञानमीमांसा (Epistemology) की आवश्यकता होती है। ज्ञानमीमांसा दर्शन
की वह शाखा है, जिसमें ज्ञान संबंधी विषयों का विवेचन होता है। इसे
प्रमाणविज्ञान भी कहते हैं। इसमें ज्ञान के विषय में उसका स्वरूप, लक्ष्य,
उसकी प्रामाणिकता, उत्पत्ति, सीमा तथा ज्ञाता और ज्ञेय का संबंध आदि
का अध्ययन होता है।
दर्शन का ऐतिहासिक अवलोकन करने से पता चलता है कि प्राचीन
दार्शनिक ज्ञानमीमांसा को अधिक महत्त्व नहीं देते थे। ग्रीक विचारक
थेल्स (Thales) से लॉक (Locke) के पहले तक के सभी विचारकों ने
ज्ञानमीमांसा को तत्त्वमीमांसा (Ontology) से गौण समझा था । वे ज्ञान
की अपेक्षा परमतत्त्व (Ultimate Reality) के विवेचन में अधिक अभिरुचि
दिखाते थे। दर्शन में ज्ञानमीमांसा को प्रमुख स्थान दिलाने का श्रेय लॉक
को है। अब तो दर्शन का अध्ययन ज्ञानमीमांसा से ही आरंभ किया जाता
है।
ज्ञानमीमांसा की समस्याएँ - ज्ञान संबंधी कई समस्याएँ हैं, जिनमें प्रमुख
ये हैं-
(a) लक्ष्य-संबंधी समस्या - ज्ञान के लक्ष्य के विषय में यह समस्या उठ
खड़ी होती है कि ज्ञान स्वयं साध्य है या एक साधक है ? इस समस्या
के निदानस्वरूप दो उत्तर दिए जाते है। पाश्चात्य दार्शनिकों का मत है
कि ज्ञान स्वयं साध्य (End) है। ज्ञान ज्ञान के लिए प्राप्त किया जाता है।
यह किसी अन्य वस्तु की सिद्धि का साधन नहीं हो सकता। दूसरा मतं
भारतीय विचारकों का है, जिनके अनुसार ज्ञान मोक्ष (Liberation) का
साधन है। पाश्चात्य दर्शन में भी उपयोगितावादी विचारक (Pragmatic
Thinkers) ज्ञान को सफल जीवन का एक साधन मानते हैं।
2.4. बुद्धिवाद तथा अनुभववाद में अंतर
अनुभववाद और बुद्धिवाद ज्ञानप्राप्ति संबंधी दो परस्परविरोधी सिद्धांत है।
दोनों में
निम्नलिखित अंतर है-
(a) अनुभववाद के अनुसार के वल अनुभव ज्ञानप्राप्ति का साधन है।
बुद्धिवाद के अनुसार बुद्धि ही ज्ञानप्राप्ति का एकमात्र साधन है। प्रथम
सिद्धांत अनुभव को अपनाकर बुद्धि की अवहेलना करता है, तो द्वितीय
सिद्धांत बुद्धि को ग्रहण करके अनुभव का बहिष्कार करता है। इस प्रकार,
ज्ञान की उत्पत्ति के विषय में दोनों के विरोधी मत हैं।
(b) अनुभववाद के अनुसार सभी ज्ञान अर्जित (Acquired) हैं, किं तु बुद्धिवाद
ज्ञान के आधारभूत प्रत्ययों को जन्मजात मानता है। अनुभववादी लॉक
मस्तिष्क को प्रारंभिक अवस्था में सफे द कागज या स्वच्छ स्लेट कहते
हैं (Mind is a blank tablet, sabula rasa, dark chamber. empty cabinet,
white paper etc. ")। अनुभव के साथ-ही-साथ मस्तिष्क में प्रत्ययों का
समावेश होता है। इस प्रकार सभी प्रकार के ज्ञान अनुभव से प्राप्त होते
हैं। इसलिए कहा जाता है कि सभी ज्ञान अर्जित हैं।

ठीक इसके विपरीत बुद्धिवाद मानता है कि ज्ञान के निर्णायक तत्त्व


जन्मजात प्रत्यय है। इन्हीं जन्मजात प्रत्ययों से बुद्धि हमें सार्वभौम एवं
अनिवार्य ज्ञान देती है।
(c) अनुभववाद किसी भी प्रत्यय को जन्मजात नहीं मानता, किं तु बुद्धिवाद
जन्मजात प्रत्ययों में अटू ट विश्वास रखता है। बुद्धिवाद के अनुसार ईश्वर
मनुष्य के जन्म के समय ही उसके मस्तिष्क में कु छ प्रत्ययों को रख
छोड़ता है, जिन्हें जन्मजात प्रत्यय ( Innate Ideas ) कहते हैं। उदाहरणार्थ
आत्मा, ईश्वर, कार्य-कारण-नियम आदि के प्रत्यय जन्मजात हैं।
अनुभववादी सहज या जन्मजात प्रत्ययों का खंडन करते हैं। विशेषकर
लॉक ने कई युक्तियों के आधार पर यह प्रमाणित किया है कि कोई भी
प्रत्यय जन्मजात नहीं है। सभी प्रत्यय अनुभव-सापेक्ष हैं। अनुभव के पूर्व
मस्तिष्क रिक्त रहता है। इस प्रकार, सहज प्रत्ययों के विषय में
अनुभववाद और बुद्धिवाद में घोर विरोध पाया जाता है।
(d) अनुभववाद के अनुसार बुद्धि निष्क्रिय है, किं तु बुद्धिवाद बुद्धि या मन
को सदैव सक्रिय मानता है। अनुभववाद के अनुसार ज्ञान के निर्णायक
तत्त्व प्रत्यय ( Ideas) हैं। बुद्धि प्रत्ययों को उत्पन्न नहीं कर सकती। यह
निष्क्रिय होकर बाह्य संवेदनों को ग्रहण करती है। बाद में चलकर यह
बुद्धि भले ही सक्रिय हो जाए, पर आरंभ में यह निष्क्रिय (Passive) रहती
है। ठीक इसके विपरीत बुद्धिवाद मन या बुद्धि को छोटी से छोटी क्रिया
में भी क्रियाशील बताता है। बुद्धि को अपने अंदर निहित जन्मजात
प्रत्ययों से ही ज्ञान का निर्माण करना पड़ता है, इसलिए उसकी सजगता
और क्रियाशीलता अनिवार्य है।
(e) अनुभववाद आगमनात्मक विधि को अपनाता है, तो बुद्धिवाद
निगमनात्मक विधि) को आगमन-विधि में विशेष उदाहरणों के निरीक्षण
के आधार पर सामान्य निष्कर्ष प्राप्त होते हैं। अनुभव हमें के वल विशेषों
का होता है। विशेषों के ज्ञान के आधार पर सामान्य
: बुद्धिवाद बौद्धिक ज्ञान की प्रामाणिकता सिद्ध नहीं कर पाता वस्तुजगत
की घटनाएँ सदा बौद्धिक ज्ञान के अनुकू ल नहीं होतीं। उदाहरण-वाद का
कहना है कि 22 4, यथार्थ ज्ञान का सुंदर उदाहरण है। परंतु हम अनुभव
में पाते हैं कि दो और दो का योग सदा चार नहीं होता। दो और दो का
योग कभी-कभी एक होता है। पानी की दो बूँदे पानी की अन्य दो बूँदों
के साथ मिलकर एक बड़ी बूँद बनाती है। इसलिए, बौद्धिक ज्ञान को सदैव
वस्तुसंवादी कहना उचित नहीं है। -
उपर्युक्त दोष से बचने के लिए प्लेटो (Plato) यह तर्क देते हैं कि प्रत्यय-
जगत ही एकमात्र वास्तविक है और अनुभव-जगत मिथ्या है। अनुभव-
जगत को वे के वल मिथ्या कहते हैं, इसे प्रमाणित नहीं कर पाते। इसी
प्रकार डेकार्ट, स्पीनोजा और लाइबनीज बौद्धिक ज्ञान की प्रामाणिकता
ईश्वर के आधार पर सिद्ध करना चाहते हैं, किं तु ईश्वर का अस्तित्व स्वयं
विवादास्पद है।
(g) बौद्धिक ज्ञान को सार्वभौम एवं अनिवार्य नहीं कहा जा सकता। यह
ज्ञान वस्तु-जगत की घटनाओं के अनुकू ल सदा नहीं होता। कभी-कभी
बौद्धिक ज्ञान और वास्तविक घटनाओं के बीच प्रतिकू लता पाई जाती है।
उदाहरणार्थ, दो और दो का योग सदा चार नहीं होता, इसलिए बुद्धिवाद का
यह दावा कि बौद्धिक ज्ञान सार्वभौम और अनिवार्य होता है, गलत है। इस
प्रकार, बुद्धिवाद की आधारशिला ही नष्ट हो जाती है।

(h) बुद्धिवादी यथार्थ ज्ञान की अपूर्ण परिभाषा देते हैं। इनके अनुसार
यथार्थ ज्ञान सार्वभौम और अनिवार्य होता है। ज्ञान की यह परिभाषा
सर्वमान्य नहीं है। महान विचारक कांट (Kant) के अनुसार यथार्थ ज्ञान
वही है, जिसमें सार्वभौमता अनिवार्यता और नवीनता के गुण
विद्यमान हो। बुद्धि द्वारा ज्ञान में सार्वभौमता और अनिवार्यता के गुण
आते हैं, पर नवीनता का गुण अनुभव द्वारा ही प्राप्त होता है। इसलिए,
कांट महोदय का कहना है कि बुद्धि और अनुभव दोनों के संयोग से
यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति होती है। अनुभव के अभाव में ज्ञान में नवीनता
नहीं आ सकती और न इसका विकास ही हो सकता है।
2.3. अनुभववाद
अनुभववाद बुद्धिवाद का पूर्ण विरोधी सिद्धांत है। अनुभववाद के अनुसार
ज्ञानप्राप्ति का एकमात्र साधन अनुभव है। अनुभव के अतिरिक्त ज्ञान
का कोई अन्य साधन नहीं है।
अनुभव के अनुसार संपूर्ण ज्ञान अनुभवजन्य है। ज्ञान का कोई भी अंश
अनुभवनिरपेक्ष नहीं है। ज्ञान अनुभव द्वारा प्राप्त होता है, इसलिए कोई
भी ज्ञान जन्मजात नहीं है। बुद्धिवादियों ने कु छ प्रत्ययों को जन्मजात
कहा है, किं तु अनुभववादी जन्मजात नाम की कोई वस्तु नहीं मानते।
इनलोगों ने मनुष्य के मस्तिष्क को प्रारंभिक अवस्था में साफ कागज
(Blank Paper ) या कोरी पटरी कहा है। अनुभव के पूर्व मस्तिष्क रिक्त
रहता है। अनुभव द्वारा ही मस्तिष्क में विचार अंकित होते हैं।
अनुभववादी लॉक ने जन्मजात प्रत्ययों का जोरदार खंडन किया है।
जन्मजात प्रत्ययों की चेतना सबको होनी चाहिए, किं तु ऐसा देखा जाता
है कि पागलों, बच्चों एवं अशिक्षितों को इन प्रत्ययों (जैसे ईश्वर, कार्य-
कारण-नियम, आत्मा आदि) की चेतना नहीं रहती। अतः इन्हें जन्मजात
नहीं कहा जा सकता। दूसरी बात यह है कि यदि कु छ प्रत्यय जन्मजात
हैं, तो उनके विषय में ज्ञानोपार्जन की कोई जरूरत नहीं होती, किं तु
आत्मा, ईश्वर आदि के विषय में ज्ञानोपार्जन की आवश्यकता रहती है,
इसलिए इन्हें जन्मजात नहीं कहा जा सकता। तीसरी बात यह है कि
जन्मजात प्रत्ययों को सभी मनुष्यों, सभी स्थानों और सभी कालों में
समान रूप से ग्राह्य होना चाहिए। किं तु इनके विषय में धारणाएँ देश-
काल के अनुसार बदलती रहती हैं। अतः, लॉक इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं
कि कोई भी प्रत्यय जन्मजात (Innate) नहीं है। सब कु छ अर्जि है। ऐसी
कोई वस्तु नहीं है, जो पहले इंद्रियों में विद्यमान न थी इस प्रकार, सभी
प्रकार के ज्ञान अनुभवजन्य होते हैं।
(p) निग्रहस्थान (Point of Defeat ) — 'निग्रहस्थान' का शाब्दिक अर्थ है
'पराजय या तिरस्कार का स्थान'। साधारणतः, अज्ञान या असंगत ज्ञान
के कारण यह दोष होता है।
7.2. ज्ञान की परिभाषा तथा इसका वर्गीकरण
वस्तुओं की अभिव्यक्ति को ज्ञान या बुद्धि कहते हैं। जिस प्रकार दीपक
सारी वस्तुओं को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार ज्ञान भी अपनी वस्तुओं
को प्रकाशित करता है। ज्ञान कई तरह क होता है। पहले ज्ञान के दो
भेद होते हैं-प्रमा और अप्रमा। प्रमा वास्तविक ज्ञान को कहते है " तद्वति
तत्प्रकारकं ज्ञानं प्रमा। फिर, प्रमा के चार भेद होते हैं—प्रत्यक्ष, अनुमान,
उपमान तथा शब्द। अप्रमा अवास्तविक ज्ञान (मिध्या ज्ञान) को कहते हैं।
अप्रमा भी चार प्रकार की होती है— स्मृति, संशय, भ्रम और तर्क प्रमा में
संदेह का स्थान नहीं रहता है। जैसे, हमारे हाथ में जो कलम है, उसका
प्रत्यक्ष हमें हो रहा है। इसपर संदेह नहीं किया जा सकता। यह यथार्थ
ज्ञान है।"

स्मृति को यथार्थ ज्ञान नहीं कह सकते; क्योंकि स्मृति किसी बीती हुई
वस्तु या घटना की होती है। स्मृति द्वारा उस घटना का प्रत्यक्षीकरण
नहीं होता। मन में हम सिर्फ याद करते हैं। संशयात्मक ज्ञान को प्रमा
नहीं कह सकते; क्योंकि यह ज्ञान संदेहरहित नहीं रहता। यद्यपि भ्रम में
कोई संशय नहीं है और वह प्रत्यक्ष भी हो सकता है, तथापि वह विषय
का यथार्थ रूप प्रकाशित नहीं करता। तर्क भी प्रमा नहीं है; क्योंकि इसके
द्वारा वस्तुओं का कु छ ज्ञान नहीं मिलता । तर्क का स्पष्टीकरण इस
प्रकार किया जा सकता है—मान लें, आप अपने कमरे की खिड़की के पास
बैठे हैं। वहीं से आपको बाहर कहीं धुआँ दीखता है। आप उसे देखकर
कहते हैं कि वहाँ आग है, पर आपके पास बैठा मित्र कहता है कि वहाँ
आग नहीं हो सकती। तब आप कहते हैं कि जब वहाँ आग नहीं है, तब
धुआँ भी नहीं हो सकता। यदि ऐसा न हो, तो ऐसा नहीं हो सकता ऐसा
तर्क कर आप अपने मित्र के कथन का खंडन करना चाहते हैं और अपने
तर्क की पुष्टि भी करना चाहते हैं। इसे ही तर्क कहते हैं। इसे हम प्रमा
नहीं कह सकते; क्योंकि ऊपर के उदाहरण में हमें प्रत्यक्ष रूप में आग का
अनुभव नहीं होता, बल्कि धुएँ को देखकर हम आग के होने का अनुभव
करते हैं।
7.3. न्याय के अनुसार प्रत्यक्ष और इसके प्रकार
प्रत्यक्ष— न्यायदर्शन में प्रत्यक्ष को व्यापक अर्थ में प्रयुक्त किया गया है,
प्रत्यक्ष से 'प्रमा' और 'प्रमाण' दोनों का बोध होता है। 'प्रत्यक्ष' का शाब्दिक
अर्थ है- 'प्रति + अक्ष', अर्थात आँख के सम्मुख होना। यहाँ 'आँख' से सभी
ज्ञानेंद्रियों का बोध होता है। इस प्रकार, "इंद्रिय और वस्तु के सन्निकर्ष से
उत्पन्न ज्ञान ही प्रत्यक्ष है।""
प्रत्यक्ष की उपर्युक्त परिभाषा का विश्लेषण करने पर इसमें तीन तत्त्व
पाए जाते हैं-
(क) वस्तु और इंद्रिय में सन्निकर्ष प्रत्यक्ष के लिए 'इंद्रिय-वस्तु सन्निकर्ष'
आवश्यक है। उदाहरणार्थ, आँख से गुलाब का सन्निकर्ष होने पर ही
लालिमा का प्रत्यक्ष होता है।
(ख) प्रत्यक्ष भ्रम नहीं है— कभी-कभी इंद्रिय और वस्तु के संपर्क से भ्रम
या मिथ्या ज्ञान भी मिलता है। इसे प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता। प्रत्यक्ष
के लिए आवश्यक है कि इंद्रिय-वस्तु-सन्निकर्ष के साथ-साथ ज्ञान में भ्रम
का पूर्णतया निराकरण (elimination) हो। यदि साँप को रस्सी समझ
लिया जाए, तो इसे प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता। (ग) प्रत्यक्ष अनिश्चित
नहीं होता—किसी वस्तु के प्रत्यक्ष से अनिश्चित ज्ञान नहीं होना
चाहिए। यदि किसी व्यक्ति का प्रत्यक्ष करने पर कहें कि वह या तो राम
है या मोहन है, तो
इसे प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता। प्रत्यक्ष सदैव निश्चित होता है।
घ) प्रत्यक्ष भाषा पर आश्रित नहीं है— किसी विषय का प्रत्यक्ष होने पर
उसे भाषा के माध्यम से प्रकट करना कोई आवश्यक नहीं है। इसे भाषा
में व्यक्त भी कर सकते हैं और नहीं भी व्यक्त कर सकते। यह प्रत्यक्ष
करनेवाले की स्वेच्छा पर निर्भर है।
प्रत्यक्ष की उपर्युक्त परिभाषा अत्यंत प्राचीन है। अधिकांश भारतीय
विचारक एवं पाश्चात्य विद्वान इसे संतोषप्रद परिभाषा मानते हैं। किं तु,
नव्यनैयायिक, वेदांती एवं कई अन्य विद्वानों ने इसे दोषपूर्ण बताया है।
गंगेश उपाध्याय (नव्यन्याय के प्रणेता) इस परिभाषा में तीन प्रकार के
दोष बताते हैं। वे दोष इस प्रकार हैं— (क) अतिव्याप्त परिभाषा का दोष
definition) I (ख) अव्याप्तिदोष और (ग) चक्रकदोष

प्रत्यक्ष की प्राचीन परिभाषा को दोषपूर्ण बताकर गंगेश उपाध्याय एक


आधुनिक परिभाषा देते हैं। "बिना किसी माध्यम के प्राप्त ज्ञान को ही
प्रत्यक्ष कहते हैं।" 'तत्त्वचिन्तामणि' में 'साक्षात् प्रतीति' को ही प्रत्यक्ष की
मुख्य पहचान कहा गया है।' प्रत्यक्ष का यह सामान्य लक्षण इसे अन्य
प्रमाणों से सर्वथा पृथक कर देता है। अनुमान, उपमान, शब्द इत्यादि
किसी प्रमाण से साक्षात ज्ञान नहीं होता ।
1. प्रत्यक्ष के प्रकार — प्रत्यक्ष के दो प्रकार हैं—लौकिक प्रत्यक्ष और
अलौकिक प्रत्यक्ष जब इंद्रिय का वस्तु के साथ साधारण रूप से संयोग
होता है, तब इसे लौकिक प्रत्यक्ष कहते है। उदाहरणार्थ, जिह्वा से आम
का साधारण संयोग होने से आम की मिठास का लौकिक प्रत्यक्ष होता
है। जब किसी इंद्रिय का संपर्क किसी वस्तु के साथ असाधारण ढंग से
होता है, तब इसे अलौकिक प्रत्यक्ष कहते हैं; जैसे, जब आँखों से देखकर
हरी घास के मुलायम होने का ज्ञान होता है, तब इसे अलौकिक प्रत्यक्ष
कहेंगे।
लौकिक प्रत्यक्ष \ — लौकिक प्रत्यक्ष साधारण प्रत्यक्ष है। इस प्रकार के
प्रत्यक्ष से वस्तु के उसी गुण का ज्ञान होता है, जो इंद्रियविशेष से मिल
सकता है। आँख से रंग का, कान से ध्वनि का एवं जिह्वा से स्वाद का
बोध होना लौकिक प्रत्यक्ष के ही उदाहरण हैं।
लौकिक प्रत्यक्ष के दो प्रकार हैं- बाह्य (external) और आंतरिक या मानस
(internal)। बाह्य इंद्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान ही बाह्य लौकिक प्रत्यक्ष है।
बाह्य इंद्रियाँ पाँच हैं। इसीलिए बाह्य लौकिक प्रत्यक्ष के भी पाँच प्रकार
है— (1) चाक्षुष (visual) — जिससे रंग का प्रत्यक्ष होता है; (2) श्रोत
(auditory) - जिससे ध्वनि या आवाज का प्रत्यक्ष होता है; (3) स्पर्शन
(tactual) जिससे वस्तु के कड़ापन, कोमलता, ठं डक, गर्मी इत्यादि का ज्ञान
होता है, (4) रसन (gustatory ) — जिससे रस या स्वाद का ज्ञान होता है,
और (5) घ्राणज (olfactory ) — जिससे गंध का बोध होता है। न्यायदर्शन
में मन (mind) या मनस् एक आंतरिक इंद्रिय माना गया है। मन द्वारा
आंतरिक अवस्थाओं का प्रत्यक्ष ही आंतरिक या मानस प्रत्यक्ष है। मन
द्वारा हमें सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, क्रोध आदि मानसिक अवस्थाओं का
प्रत्यक्ष होता है।
दूसरे दृष्टिकोण से लौकिक प्रत्यक्ष के तीन प्रकार हो जाते हैं-
(क) निर्विकल्पक प्रत्यक्ष (indeterminate perception),
(ख) सविकल्पक प्रत्यक्ष (determinate perception), और (ग) प्रत्यभिज्ञा \
(क) निर्विकल्पक प्रत्यक्ष- किसी वस्तु का अनिश्चित प्रत्यक्ष ही
निर्विकल्पक प्रत्यक्ष है। इसमें वस्तु के अस्तित्व का आभासमात्र मिलता
है। यहाँ वस्तु का पूर्ण ज्ञान नहीं होता । उदाहरण – गहरी नींद में सोए
रहने पर कभी-कभी खटखट की आवाज का ज्ञान होता है, किं तु
\: इस पर्वत पर धुआँ है, अतः इस पर्वत पर आग है।" इस उदाहरण में
'धुआं' लिंग या हेतु हे, 'आग' साध्य है और 'पर्वत' पक्ष है। 'साध्य' उसे
कहते है, जिसे सिद्ध किया जाता है। साध्य को जिसमें सिद्ध किया जाता
है, उसे 'पक्ष' कहते हैं जिसके द्वारा पक्ष और साध्य में संबंध स्थापित
किया जाए, उसे 'लिंग' या 'हेतु' कहते हैं। नैयायिकों के तीनों पद 'साध्य',
'पक्ष' और 'हेतु' पाश्चात्य न्याय में क्रमशः बृहतपद (major term ), लघुपद
(minor term ) और मध्यवर्ती पद (middle term ) के नाम से पुकारे जाते
हैं।
7.6. प्रत्यक्ष तथा अनुमान में अंतर

न्यायदर्शन में प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों ही ज्ञानप्राप्ति के महत्त्वपूर्ण


साधन है। अनुमान प्रत्यक्ष पर आधृत है। बिना प्रत्यक्ष के अनुमान
असंभव है। फिर भी, दोनों में कई अंतर है। यहाँ प्रमुख अंतर
निम्नलिखित हैं-
(a) न्यायदर्शन में प्रत्यक्ष को सर्वप्रथम प्रमाण माना गया है और अनुमान
को प्रमाण के
रूप में द्वितीय स्थान प्राप्त है। प्रत्यक्ष एक मौलिक प्रमाण है। (b)
प्रत्यक्ष स्वयंमूलक है। यह अपनी उत्पत्ति के लिए किसी अन्य साधन
पर निर्भर नहीं है। इसके विपरीत, अनुमान अपनी उत्पत्ति के लिए
प्रत्यक्ष पर आधृत है। इसी कारण गौतम अनुमान को 'तत्पूर्वकम्'
(प्रत्यक्षमूलक) कहते हैं ।
(c) प्रत्यक्ष आत्मनिर्भर होने के कारण साक्षात ज्ञान ( immediate
knowledge) है; किं तु अनुमान प्रत्यक्ष पर आश्रित होने के कारण परोक्ष
(mediate) कहा जाता है। (d) प्रत्यक्ष ज्ञान इंद्रियों द्वारा उत्पन्न है। इसमें
इंद्रियगोचर पदार्थों का और के वल वर्तमानकाल
के विषयों का ज्ञान प्राप्त हो सकता है। प्रत्यक्ष द्वारा भूत, भविष्य के
विषय में कु छ भी नहीं
जाना जा सकता। इसके विपरीत अनुमान द्वारा भूत, वर्तमान और
भविष्य के पदार्थों का ज्ञान
संभव है। इंद्रियेतर पदार्थों का ज्ञान भी अनुमान द्वारा प्राप्त किया जा
सकता है। इस प्रकार,
प्रत्यक्ष की अपेक्षा अनुमान का क्षेत्र अधिक व्यापक है।
(c) जहाँ प्रत्यक्ष ज्ञान संभव है, वहाँ अनुमान की कोई आवश्यकता नहीं
पड़ती। अनुमान की आवश्यकता तभी होती है, जब प्रत्यक्ष से काम नहीं
चलता और एक प्रकार का अनिश्चित ★ एवं संदेहयुक्त वातावरण
उपस्थित होता है। किं तु, प्रत्यक्ष के साथ यह बात लागू नहीं होती ।
(f) प्रत्यक्ष स्वप्रमाणित ( self-evident) है। इसे सिद्ध करने के लिए किसी
अन्य साधन की आवश्यकता नहीं पड़ती। कहा भी गया है- "प्रत्यक्षे किं
प्रमाणम् ?" इसके विपरीत अनुमानजन्य ज्ञान संदिग्ध एवं अनिश्चित
होता है। इसे प्रमाणित करने की आवश्यकता रह ही जाती है। इसे
प्रत्यक्ष के आधार पर सिद्ध या परिपुष्ट किया जाता है। इस प्रकार,
प्रत्यक्ष अनुमान का आरंभ और अंत दोनों ही है। इसीलिए प्रत्यक्ष को
अनुमान की अंतिम कसौटी (final touchstone) कहते हैं।
(g) प्रत्यक्ष में साक्षात्कारित्व का लक्षण पाया जाता है। विषय का
साक्षात्कार होने से व्यक्ति संतुष्ट हो जाता है। उसे अन्य किसी बात की
चाह नहीं रह जाती। इसके विपरीत, अनुमानजन्य ज्ञान में साक्षात्कारित्व
का अभाव रहने के कारण इससे संतुष्टि नहीं मिलती।
(h) प्रत्यक्ष ज्ञान का आरंभ है। ज्ञान का विकास एवं विस्तार अनुमान
द्वारा ही संभव है। जहाँ प्रत्यक्ष का अंत है, वहीं अनुमान का श्रीगणेश
होता है। मानवीय ज्ञान भांडार को परिपूर्ण बनाने का श्रेय अनुमान को
दिया जा सकता है। मनुष्य ने पहले चंद्रलोक के विषय में अनुमान
किया था और आज इसी अनुमान को उसने सचमुच कार्यान्वित कर
लिया है। वैज्ञानिक अनुसंधान के मूल में भी अनुमान का महत्त्वपूर्ण
स्थान है।
7.7. अनुमान के विभिन्न प्रकार
न्यायदर्शन में तीन दृष्टिकोणों से अनुमान का वर्गीकरण किया गया है-
(i) प्रयोजन (purpose) के अनुसार, (ii) प्राचीन न्याय या गौतम के
अनुसार, नव्यन्याय (new nyaya) के अनुसार । और (iii)

(i) प्रयोजन के अनुसार अनुमान के प्रकार- -प्रयोजन के अनुसार अनुमान


के दो - प्रकार होते हैं— (क) स्वार्थानुमान और (ख) परार्थानुमान अनुमान
दो उद्देश्यों से किया जा सकता है—अपनी शंका के समाधान के लिए या
दूसरों के सम्मुख किसी तथ्य को सिद्ध करने के लिए । जब अनुमान
अपनी शंका के समाधान के लिए किया जाता है, तब उसे स्वार्थानुमान
कहते हैं। ऐसे अनुमान में तीन वाक्य रहते हैं—निगमन, हेतु और
व्याप्तिवाक्य ।
उदाहरण- -
राम मरणशील है— निगमन
क्योंकि वह मनुष्य है - हेतु
• सभी मनुष्य मरणशील हैं—व्याप्तिवाक्य
जब अनुमान दूसरों को समझाने के लिए किया जाता है, तब इसे
'परार्थानुमान' (inference for others) कहते हैं। इसमें पाँच वाक्य होते हैं—
प्रतिज्ञा, हेतु, व्याप्तिवाक्य (या उदाहरण), उपनय और निगमन। इसे
'पंचावयव न्याय' कहते हैं। इसके द्वारा दूसरों के सम्मुख किसी तथ्य को
सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है।
उदाहरण-
1. राम मरणशील है— प्रतिज्ञा
2. क्योंकि वह एक मनुष्य है— हेतु 3. सभी मनुष्य मरणशील हैं; जैसे—
मोहन, रहीम, यदु इत्यादि - उदाहरण
4. राम भी एक मनुष्य है—उपनय
5. इसलिए राम मरणशील है-निगमन
पंचावयव न्याय की सविस्तार व्याख्या आगे स्वतंत्र प्रश्रोत्तर में दी
जाएगी। (ii) प्राचीन न्याय या गौतम के अनुसार – प्राचीन न्याय या
गौतम के अनुसार अनुमान
.के तीन प्रकार है- (a) पूर्ववत् अनुमान, (b) शेषवत् अनुमान, और (c)
सामान्यतोदृष्ट अनुमान । (a) पूर्ववत् अनुमान पूर्ववत् अनुमान में पूर्ववर्ती
(antecedent) के आधार पर अनुवर्ती (consequent) का ज्ञान प्राप्त किया
जाता है। दूसरे शब्दों में, ज्ञात कारण से अज्ञात कार्य का अनुमान करना
ही पूर्ववत् अनुमान कहलाता है; उदाहरण- -आकाश में काले बादल देखकर
वर्षा होने का अनुमान या अच्छी वर्षा के आधार पर अच्छी फसल होने
का अनुमान । (b) शेषवत् अनुमान – यहाँ अनुवर्ती के आधार पर पूर्ववर्ती
का अनुमान किया जाता है। दूसरे शब्दों में, ज्ञात कार्य से अज्ञात कारण
का अनुमान लगाया जाता है। उदाहरण – सर्वत्र - पानी की भरमार
देखकर बाढ़ होने का अनुमान या कहीं मलेरिया बुखार का प्रकोप देखकर
वहाँ एनोफिल मच्छरों की भरमार का अनुमान ।
पूर्ववत् और शेषवत् अनुमान कार्य-कारण- संबंध (causal relation) पर
निर्भर हैं। प्रथम अनुमान में कारण से कार्य का और द्वितीय अनुमान
में कार्य से कारण का पता लगाया जाता है।
(c) सामान्यतोदृष्ट अनुमान-जब दो वस्तुओं में कार्यकारण संबंध न हो,
किं तु दोनों में साहचर्य-संबंध पाया जाए, तो एक की उपस्थिति से दूसरे
की उपस्थिति का अनुमान किया जाता है। यहाँ सहचर सबंध
अपवादरहित होता है। उदाहरण- -जीभ से पानी पीनेवाले जानवर - को
हमने सदैव मांसाहारी पाया है, इसलिए किसी जानवर को जीभ से पानी
पीते देखकर उसके मांसाहारी होने का अनुमान किया जाता है। इसी
प्रकार, हम साधारणतः सींगवाले पशु का खुर फटा हुआ पाते हैं, इसलिए
सींगवाले किसी जानवर को देखकर हम उसके खुर के फटा होने का
अनुमान करते हैं यह सामान्यतोदृष्ट अनुमान के वल सामान्यतः
(साधारणतः दृष्ट (देखी गई) घटनाओं पर आधृत है।

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