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यह सूत्र बहुत अनूठा है इसलिए कि संतों के संबंध में हमारी शोधाधार उसके बिल्कु ल प्रतिकू ल संत के संबंध में जैसे हम सोचते लौं नहीं सोचते लाॅकर
ज्यादा समग्र व्यक्ति है, हमारा अधूरा है । हम जिसे संत कहते हैं आम तौर से उसे संत ना करके सज्जन कहे तो उचित हो दुर्जन सज्जन हमारी बुद्धि की
पकड के भीतर होते हैं । जो बुरा कर रहा है वो दुर्जन है और जो भला कर रहा है वो साजन साजन में हम जो भी शुभ है उसे जोड देते हैं । और
जो दुर्जन में जो भी अशुभ लेकिन लाल का संत समग्र व्यक्ति है इंटिग्रेटिड वो दुर्जन के खिलाफ नहीं और मात्र सज्जन नहीं । वो दोनों और दोनों के बाहर
वो एक दोनों हैं । इसलिए दोनों के पास होने में समर्थ इस सूत्र को समझने में दो तीन बातें हम पहले समझने और फिर सूत्र के मौलिक मौलिक आत्मा
प्रवेश करें । एक महत्वपूर्ण बात से कहता है, प्राचीन समय में प्रतिष्ठित एवं मिश्रा संतजन सूक्ष्मा और अति संवेदनशील अंतर्दृष्टि से उसके रहस्यों को समझने
में सफल हुए और वो इतने गहरे थे कि मनुष्य की समझ के परे । पहली बार विज्ञान में नए सदस्यों का उद्घाटन निरंतर होता है । इसलिए विज्ञान के
जगत में मौलिक चिंतक होते हैं जो नई खोज करते हैं । धर्म के जगत में मौलिक चिंतन का कोई अर्थ नहीं होता । धर्म के जगत में नए सत्य की कोई
खोज नहीं होती है । धर्म के जगत में सकते ना तो नया है ना पुराना सनातन । उसी सत्य का उन्हें उन्हें उद्घाटन होता है । व्यक्ति के लिए नया हो
क्योंकि उसमें पहली बार जाना लेकिन वो सत्य नया नहीं सत्य सदा से । इसीलिए विज्ञान के सत्य आज नए होते हैं । कल पुराने पड जाते हैं । जो भी
नया है वो पुराना पडेगा । धर्म के सत्य तो नए होते और ना पुराने पडते हैं । क्योंकि जो नया नहीं है उसके पुराने पढने का कोई उपाय भी नहीं । धर्म
निजी खोज है उस शक्ति की जो सादा है । इसलिए चाहे कृ ष्ण चाहे प्राइस चाहे महावीर । पहला से वो सभी उन ऋषियों की बात करते हैं जिन्होंने पहले
भी इस सत्य को पाया है । ये थोडा विचार नहीं है । वैज्ञानिक जब भी किसी सत्य की बात करेगा तो वो कहेगा कि पहले इसे किसी ने भी नहीं पाया
। अगर पहले भी इसे किसी ने पा लिया है तो वैज्ञानिक की खोज व्यस्त हो जाती है । अगर नु को प्रसिद्ध करना है तो वो कहेगा कि पहले से किसी
ने भी नहीं पाया । विज्ञान में ये अनिवार्य है । अगर पहले किसी ने उपाय दिया है तो के होने का कोई अर्थ नहीं । इसलिए विज्ञान में हर चिंता को
सिद्ध करना पडता है कि मैं नया हूं, मौलिक हूँ । ओरिजिनल धर्म की स्थिति बिल्कु ल उल्टी है । यहाँ अगर कोई चिंता की सिद्ध करने की कोशिश करे
कि नया है तो उसका अर्थ होगा कि वो गलत है । क्योंकि धर्म के सत्य बासी नहीं होते, उधार नहीं होते, मृत नहीं होते, झूठे नहीं होते और जब भी
कोई व्यक्ति उन्हें जानता है तो पाँच छे और नए होते हैं । लेकिन इसका ये अर्थ नहीं होता की उसके पहले नहीं जाने गए । हजारों लोग इसके पहले भी
जान चुके होते हैं । सब से तो वही है । इसलिए विज्ञान का सत्य आज सत्य कल असत्य हो जायेगा । इसलिए तो नया हो सकता है इस से हम ऐसा
समझे कि असत्य ही नया हो सकता है । सत्य नया नहीं हो सकता और असत्य को खोज सकते हैं । आप दूसरों से बिन क्योंकि असत्य निजी हो सकते
हैं । हर आदमी का अपना असत्य हो सकता है लेकिन हर आदमी का अपना सत्य नहीं हो सकता है । सत्य तो एक ही होगा और जब भी कोई व्यक्ति
अपने हृदय को खोलेगा तो सत्य को उपलब्ध हो जाए । विज्ञान में ऐसा लगता है कि आदमी सत्य का दरवाजा खोलता है और धर्म अपने हृदय को सत्य
के लिए खोलता है और हृदय की अंतिम गहराई में जो छिपा है वो एक ही है । इसलिए कृ ष्ण भी कहते हैं कि मुझ से पहले भी ऋषियों ने यही कहा ।
महावीर भी कहते हैं । मुझ से पहले तीर्थंकरों ने यही जाना भी कहते हैं कि मुझ से पहले जो पैगंबर हुए, उन्होंने भी यही कहा, मोहम्मद भी यही कहते
हैं । कोई उनमें से दावा नहीं करता कि जो मैं कह रहा हूँ वो नया है । लाओ से भी कहता है कि प्राचीन समय में तावों में प्रतिष्ठित संतजनों ने अति
संवेदनशील अंतर्दृष्टि से जीवन के परम रहस्य में प्रवेश किया । लेकिन लॉस उनमें से किसी का भी नाम नहीं लिया है । ये भी बिचारा नहीं लास्य का
ख्याल है कि इस जगत में जो लोग जितने गहरे सत्य में प्रविष्ट हुए, इतिहास उनका स्मरण रखने में असमर्थ रहा । क्योंकि इतिहास के वल उन्हीं लोगों का
स्मरण रख सकता है जो उस समय के आदमियों की समझ में आए । इस जगह में बहुत से ऐसे लोग हुए हैं, जिन्होंने उस परम रहस्य को जाना ।
लेकिन वो परमहंस इतना गुड था कि जब उन्होंने उसे कहा और जया तो लोग उसे समझ नहीं सके । इसलिए उन पर मरहम दर्शियों का नाम भी विस्मृत
होता चला गया । बहुतों के वचन हमारे पास हो, लेकिन नाम खो गए बहुतों के नाम । हमारे पास तो वचन खो गए और बहुतों के नाम और वचन दोनों
ही खो गए । लाल से उन संतों की बात कर रहा है जिनका इतिहास में कोई उल्लेख नहीं, क्योंकि वे इतने गहन थे कि मनुष्य की समझ के परे मनुष्य
की समझ बडा छोटा दायरा बनाती है । मनुष्य की समझ में जो आप आता है वो अतिफ छु द्र जितना विराट हो, जितना महान हो, मनुष्य की समझ से
उतनी ही कठिनाई हो जाती है । कई बार तो ऐसा होता है कि जैसे बहुत प्रकाश हो तो आंखें बंद हो जाती है । सूरज के सामने आँखें हो तो पालक
जब जाती है, ठीक वैसा ही बहुत बार जिन्होंने परमसत्य को अनुभव किया, उनके सामने हमारी समझ जाती है, बंद हो जाएगा । हम कु छ भी नहीं
समझ पाते । क्या कारण है? इस संबंध में भी विज्ञान और धर्म के भेद को समझ लेना जरूरी है । अगर विज्ञान को समझना हो तो आपकी समझ को
बढाने की जरूरत नहीं है । आपकी समझ में और जानकारी देने की जरूरत है । अगर मैं दस तक गिनती जानता हूँ तो बीस तक गिनती जानने के लिए
मेरी समझ को बदलने की कोई जरूरत नहीं है । मुझे बीस तक की गिनती से परिचित हो जाना मेरी समझ वही रहेगी । मैं अभी तक की गिनती जान
लूँगा । हजार तक जान सकता हूँ, जोड बढता जाएगा । मेरी समझ वही रहेगी । मेरा संग्रह बढता चला जाएगा । इसलिए मनुष्य कहते हैं कि आम तौर
से बच्चे की समझ अठारह साल के बाद ही नहीं अठारह साल पर समझ तो रह जाती है लेकिन संग्रह बढता चला जाता है इसका ये मतलब नहीं ।
अठारह साल के बच्चे और अस्सी साल के बूढे में फर्क नहीं होगा । फर्क होगा लेकिन फर्क समझता नहीं संग्रह का होगा । बूढे के पास ज्यादा संख्या होगा
। जानकारी ज्यादा होगी । अठारह साल के लडके के पास जानकारी कम होगी । लेकिन वैज्ञानिक कहते हैं समझ में कोई फर्क नहीं पडता है । समझ तो
ठहर जाती है । अठारह साल अठारह भी आखिरी आंकडा है । समझ और भी पहले अधिक लोगों की ठहर जाती पिछले महायुद्ध में अमेरिका में उन्होंने
जिन सैनिकों की भर्ती की उनकी समझ का अंक निकालने की कोशिश की तो बहुत हैरान हुए । लाखों लोगों के बुद्धि अंक खोजे गए तो साढे तेरह वर्ष
औसत उम्र मिली । उम्र मन की साढे तेरह वर्ष औसत उम्र पाई गई । आदमी साढे तेरह वर्ष पर उसकी समझ शुरू हो जाती है । फिर पंद्रह बढता चला
जाता है । समझ के लिहाज से साढे तेरह वर्ष के आदमी में और अस्सी साल के बूढे आदमी में फर्क नहीं होता । संग्रह के हिसाब से बहुत फर्क होता
है । विज्ञान में हम आदमी का संग्रह पर बढाए चले जाते इसलिए हमारी सारी शिक्षा समझ पर निर्भर नहीं करती । संग्रह पर निर्भर करती है और हमारी
सारी शिक्षा बुद्धि को नहीं बढाती । के वल स्मृति को बढा । इसलिए हमारी सारी परीक्षाएं स्मर्ति की परीक्षाएं बुद्धि की नहीं लेकिन धर्म की स्थिति बिलकु ल
दूसरी है । धर्म आपके संग्रह के बढने से समझ में नहीं आता है । आपकी समझ बढनी चाहिए । आप की समझ विकसित होनी चाहिए । आपकी समझ
जितनी हो उतना ही ज्यादा धर्म को समझना आसान हो जाएगा । मैंने कहा कि हमारी औसत उम्र साढे तेरह वर्ष रुक जाती है । बुद्धि की उम्र के संबंध
में बडी मीठी कहानी है कि वो बूढा ही पैदा हुआ । ये बहुत प्रतीकात्मक थे क्योंकि लॅास बचपन से वैसी समझ थी जैसे सौ साल के बूढे आदमी के पास
हो । अगर उसकी समझ बढती चली जाये । संघ हो, समझ पडती चली जाये, समझ और संग्रह ही नां । लिज और सिस्टम का फर्क है तो ज्ञान तो
बुद्धि को बिना बढाए भी बढ सकता है लेकिन बुद्धिमत्ता बुद्धि को बदले बिना नहीं पढ सकती । और धर्म एक ऐसे लोग की बात करता है कि जब तक
हमारी बुद्धि का समस्त रूपांतरण ना हो तब तक वो हमारी समझ के बाहर फॅ से कहता है कि उन सूक्ष्मदर्शी संवेदनशील संतों ने उस परम रहस्य में प्रवेश
किया लेकिन वेतन कहते थे कि मनुष्य की समझ के परे आज भी धर्म मनुष्य की समझते परे और धर्म ही मनुष्य की समझ के परे रहेगा क्योंकि मनुष्य
की समझ वस्तुओं को समझने के लिए योग लेकिन अनुभूतियों को समझने के योग नहीं । मनुष्य की समझ दुसरे को समझने में समर्थ स्वयं को समझने में
अभी भी दूसरे को समझना बहुत आसान । खुद को समझना बहुत मुश्किल है क्योंकि हमारे पास वो समझ ही नहीं जो खुद को समझ ले । ऐसे हम ऐसा
समझे की अगर मेरी आँखें हो जाए और मैं दूर ही देख सकूँ और पास में देख सकूँ उसका अर्थ होता है की आँखें दूरी पर फिक्स हो गई । अब मुझे
ॅ देखना हो तो चश्मे की जरूरत पडे और दूर देखना हो तो चश्मे की कोई जरूरत नहीं है । पांच । देखना मुश्किल दूर देखना आसान करीब करीब
मनुष्य की समझ दूर पर फिक्स हो गयी । ठहर गई दूसरे को देखना आसान, दुसरे को समझना जितने दूर की बात वो अपने से उतने हम बुद्धिमान होते
हैं और जितनी पास आने लगे उतनी ही हम बुद्धिहीन होने लगते हैं । और जब हमारा ही सवाल हो तो हम बिलकु ल ही मूड होते । इसलिए बहुत मजे
की घटना घटती है कि हम में से सभी लोग दूसरों को सलाह देने में जितने कु शल होते हैं खुद को उतनी सलाह देने में कु शल नहीं होता है । और
अगर किसी आदमी को हम देखे जब वो दूसरे को सलाह दे रहा हूँ तो बहुत बुद्धिमान मालूम पडेगा और ठीक उसी स्थिति में वही आदमी जो करेगा वो
बिल्कु ल मुफ्त होगा । क्या बात किया है दूसरा दूरी पर दूरी पर हमारी समझ फोकस हो जाती है फॅ स हमारी समझ धुंधली होने लगती है डगमगाने लगती
है । जितने हम पास आते हैं उतना कम्पित होने लगती है । हाँ और बिलकु ल पास जब कें द्र पर खडे होते हैं तो सब अंधेरा होता है । एक और तरह
चाहिए जो स्वयं पर कें द्रित होना जानती हो । धर्म का अर्थ है स्वयं पर कें द्रित खोने की क्षमता । एक गहरी ऍम आपने पर खडे हो जाने और अपने को
ऐसे देखने की क्षमता जैसे दूसरे को देख रहे हैं । अपने को इतने अनासक्त भाव से देखने की क्षमता जैसे दूसरे को देख रहे हैं जैसे दुसरे को सलाह देते
हो । ऐसा अपने को दूरी से देखने की क्षमता अपने पास होकर अपने से होकर अपने से होकर इस पर स्थित होकर दर्शक की तरह स्वयं को देखने की
क्षमता धर्म के गुड रहस्य में प्रवेश करवाते हैं । हम सब समझदार है । जहाँ तक व्यर्थ की चीजों का संबंध हो, हमारी समझ उतनी ही ज्यादा होती है ।
जितनी हो बात हम उतने ज्यादा समझदार होते हैं जितनी हो सार्थक बाद उतनी हमारी बुद्धि खोने लगती है । कचरा हो तो हम जैसे जोहरी खोजना
मुश्किल है । हीरा है तो हम मंदिर हो जाते हैं । फिर से कहता है कि प्रवेश तो क्या बहुत लोगों ने लेकिन आदमी की समझ के विपरित क्यों थे? परे
उसके कु छ कारण भी कहता है और क्योंकि वे परे थे मनुष्य की समझ के उनके संबंध में बडी भ्रांतियां पैदा होती है और जब ऍसे उनके लक्षण निर्देश
करेगा तब हमें भी समझ में आएगा की हमारी भी भ्रांतियां कितनी बहन और क्योंकि वे मनुष्य के ज्ञान के परे थे इसलिए उनके संबंध में इस प्रकार कु छ
कहने का प्रयास किया जा सकता है । ठीक ठीक कहा नहीं जा सकता । उनके संबंध में ठीक ठीक कहा नहीं जा सकता है क्योंकि जिस समझ में हम
जीते हैं उसकी तो भाषा है और जिस समझ में उनको भी जिए नहीं उस की कोई भाषा नहीं को प्रकट करना हो । हमारे पास बडी कु शल भाता है,
कभी आपने साल किया है । अगर आपको क्रोध करना हो और गालियां नहीं हो तो आप इतने मुखर हो जाते हैं जिसका एहसास और
अगर प्रेम करना हो और प्रार्थना करनी हो तो आप एकदम मुँह हो जाते हैं । क्रोध की भाषा है हमारे पास प्रेम की हमारे पास भाषा नहीं क्योंकि प्रेम
की भाषा तो तभी हो सकती है जब निकट की समझ को क्रोध की भाषा तो आसान हो क्योंकि ग्रोथ दूर के लिए, पढाई के लिए और के लिए तो
गाली हम दे सकते हैं और गाली हमारी जितनी अभिव्यक्ति देती है उतना हमारा प्रेम अभिव्यक्ति नहीं देता । प्रेमी अक्सर पाते है कि बोलने को कु छ भी
नहीं । क्या कहे कै से कहे लेकिन वही प्रेमी जब क्रॉस से भरेंगे और घृणा से तो कभी नहीं पाएंगे कि क्या कहें क्या ना कहें । कहने को बहुत होगा ।
भाषा हमारे पास नहीं है, उस निकट को प्रकट करने के लिए रहता है । इसलिए उनके संबंध में इस प्रकार कु छ कहने का प्रयास किया जा सकता है ।
ठीक ठीक कहना कठिन है । प्रयास हो सकता है, टटोल सकते है । अंधेरे में थोडे इशारे कर सकते हैं । लेकिन ध्यान रखें कोई भी इशारा बहुत
मजबूती से पकडने जैसा नहीं है । जगत इतना सूक्ष्म है अभी तक और इतना कोमल है । नाजुक है कि जोर से मुट्ठी बांधी तो उसके प्राण निकल जाते
हैं । रहस्य को पकडना हो तो खुली मुट्ठी चाहिए । बहुत जोर से पकडने जाउं नहीं चाहिए वे अत्यंत सतर्क वा सजग है जैसे कोई सी तीर्थ में किसी नाले
को पार करते समय हो । बहुत धुंधला चित्र से देना चाहेगा धुंधला जानकर ताकि हमारी समझ उस उस धुंधलके में प्रवेश करने के लिए ऊपर उठे । बहुत
बंधे हुए शब्द नहीं देता, इशारे करता है । फॅ से कहता है जैसे सर्दी के दिन हो, बर्फीला नाला हो पैर दांते खून जमता हो उस नाले को कोई पार करे
तो जैसा सजग हो, वैसे भी इस जीवन को पार करते समय उनकी सजगता ऐसी है जैसे बर्फीले नानी को कोई पार करते बहुत हो । थोडा ख्याल करें ।
अगर बर्फीले नाले को पार करना पड रहा है आपको तो फॅ स कहीं नाले में गिर ना पडे । एक एक पैर उठाएँगे तो उस पैर पर पूरा ध्यान होगा । अतीत
भूल जाएगा, भविष्य भूल जाएगा । एक पैर वर्तमान में ही महत्वपूर्ण हो जाएगा । ऐसा समझे कि किसी खंदक खाई के ऊपर से बहुत रास्ते से गुजरते ।
जहाँ जरा पैर चुके तो अटल खाई में गिर जाए और प्राण खो जाए वहाँ आपको याद रहेंगी अतीत की बातें । वहाँ आपको ख्याल आएगा बीता हुआ या
वहाँ सपने आपके मन को घेरेंगे या वहाँ भविष्य की योजनाएं आपको पकडेंगे असंभव क्योंकि मन जरा सा भी छू ट गया । वर्तमान से तो नीचे अतल खाई
नहीं । वहाँ आप अत्यंत सजग होकर जगकर शायद जीवन में पहली बार जाकर चलेंगे । एक एक कदम आपकी चेतना से भरा होगा । इस स्मृति पूर्वक
होगा । इसलिए जापान में मुँह में जिन पर नौ सौ का भारी प्रभाव है, अनेक अनेक उपाय खोजे । आदमी को सजकता सिखाने के उनमें तलवार चलाने
की कला भी सोचा भी नहीं जा सकता कि ध्यान से तलवार चलाने का क्या संबंध होगा । लेकिन आवश्यका ये सूत्र ही कारण भूत जापान के अनुभव
किया कि आदमी को बिठा दो की शांत हो जाओ तो शांत नहीं होता बल्कि हालत में जितना शांत मालूम पडता था, उतना ध्यान के लिए बैठ के उतना
भी शांत नहीं रह जाता है और हो जाता है जो लोग भी ध्यान पर बैठने का कभी प्रयास किए सभी को होगा कि मान और आसान हो जाता है । मन
और दौडने लगता है मन और व्यस्त हो जाता है । जो बातें साधना का ख्याल नहीं आती, वे भी ख्याल आने लगती है । और जो विचार कभी नहीं
उठे, वे भी मन परछा जाते हैं । न मालूम भीतर जैसे सब पागलपन प्रकट होना शुरू हो जाएगा । कभी आधा घंटा शांत बैठने की कोशिश करें तो आधा
घंटा पागलपन का हो जाए । भला बाहर के लोग समझते हो कि आप ध्यान कर रहे हैं । आप भली बात समझते हैं कि आप बिल्कु ल पागल हो गए
क्या? कारण लाल से कहता है वो सजगता तभी अनुभव हो सकती है जब जीवन में खतरा हो । पल पल खतरा है । जीवन पल पल खतरा हमें उसका
पता नहीं । इसलिए हम बेहोश चलते हैं । जैसे किसी आदमी की आँखों पर पट्टी बंधी हो और उसे पता ना हो कि वो खाई के किनारे से गुजर रहा है
और अगर एक पैर चुप जाए तो जीवन समाप्त हो जाए । हाँ पत्ती बंधा हुआ आदमी खाई के किनारे चलते समय भी अपने विचारों में खोया रहेगा ।
आपकी पट्टी खोलने विचार बंद हो जाएगा । खतरा दिखाई पडेगा तो जैन कहते हैं की तलवार चलाओ और तलवार चलाने में उस जगह आ जाओ जहाँ
तलवार ही रह जाए और खतरा इतना तीव्र हो कि तुम्हारे मन को पीछे और आगे जाने का उपाय रहे । इस इच्छा जाए इसलिए फकीरों के मंदिरों के
सामने तलवारों के चिन्ह बने हुए हैं और जहाँ तलवार दिखाई जाती है उन कक्षों का नाम ध्यान कक्ष से फॅ से कहता है वे पुरुष वे संतजन सजग हो गए
थे । ये पहली लक्षण अगर हम से कोई पूछे कि कौन आदमी संत है तो हम कहेंगे शराब नहीं पीता, मांस नहीं खाता रात्रिभोजन नहीं करता, झोपडे में
रहता है ना रहता है । हम कु छ ऐसी परिभाषा करेंगे जिसका संतप्त से कोई भी संबंध ले । लॉस से कहता है सजता और सजगता वो सब आ गया जो
हम कहते हैं । लेकिन हम जो कहते हैं उसमें सजकता नहीं । एक आदमी मूर्च्छित मांसाहार कर सकता है । मूर्छित रिस्ता का कर सकता है । एक बच्चा
मांसाहारी के घर में पैदा होता है । मांसाहार करता रहता है । एक बच्चा शाकाहारी के घर में पैदा होता है । शाकाहार करता रहता दोनों मोर्चे ना तो
शाकाहारी, सजग है और न मांसाहारी । ये दोनों बच्चों को हम बचपन में बदल लेते हैं तो जो मांसाहारी है वो सरकारी हो गया होता । जो सहकारी है
वो मांसाहारी हो गया । कोई अडचन, ना कोई अर्चन ना । जितने मजे से एक आदमी दूध पी लेता है, उतनी ही मजे से दूसरा आदमी दूसरी व्यवस्था
में खून पी लेता है । दूध पीने में भी उतनी ही बेहोशी बनी रहती है जितना खून पीने दूध पीने वाला सोचता होगा । हम बहुत सजकता पी रहे तो
गलती सोचता है । मांसाहारी सोचता हूँ कि बहुत सजकता से मांसाहार कर रहा है । वो भी सोचता है । हमारे जीवन की जो व्यवस्था है वो बिल्कु ल
मूर्छित । हम कु छ भी कर सकते हैं । उस मोर्चा, उस मूर्छा में हमें कु छ भी करने के लिए निशाना प्रशिक्षित किया जा सकता है । अगर गैर मांसाहारी के
सामने मांस रख दे तो उसे उल्टी हो जाए । इसलिए नहीं तो उसके पास बहुत बडी आत्मा है बल्कि सिर्फ इसलिए उसके पिछले संस्कार मांसाहार के
विपरीत है और कु छ भी नहीं अभ्यास नहीं है उसका मूर्छा उसकी उतनी ही है । अभ्यास दिन ऐसे लोग हैं जो दूध को भी पीने में मांसाहार ही समझते
हैं तो उनके सामने दूध रखे तो भी वो हो जाएगा । आपको दूध देख के कभी भी वो नहीं है होगी है । दूध तो शुद्ध बाहर लेकिन ऐसे पाँच जो मानते
हैं कि दूध भी रक्त का हिस्सा है । फॅ स लिए दूध देने से इतना रक्त बढ जाता है । रक्त में दो तरह के कण सफे द और लाल सफे द कांड इकट्ठा होकर
दूध बन जाते हैं इसलिए दूध पूर्ण आहार है क्योंकि पूरा आपके शरीर को मिल जाता है । जिसको ये ख्याल है और जिसका इसके लिए प्रशिक्षण हुआ वो
दूध को देख के भी घबरा जाए । ऐसे लोग है जो अंडे को शाकाहार समझते हैं क्योंकि वे कहते हैं जब तक जीवन प्रकट नहीं हुआ तब तक साग सब्जी
भी है । उन को अंदर से कोई तकलीफ नहीं होगी । आपकी सजगता पर ये निर्भर नहीं आपके आस पास की व्यवस्था और संस्कार पर निर्भर है । क्या
आपको क्या सिखाया गया है । इसलिए लॉस से जैसे व्यक्ति आपकी व्यवस्था पर जोर नहीं देंगे आप क्या खाते हैं, क्या पीते हैं, कब सोते, कब उठते
हैं? ज्यादा गहरी बात पर उनका जोर है कि आप कु छ भी करते हो । आप जीवन में ऐसे चलते हैं जैसे ऋतु में सर्द नाले में बर्फीले नाले में से गुजरता
हुआ कोई आदमी सजग चलता है । जो भी आप करते हुए सजग करते हैं और बडे मजे की बात है । अगर कोई भी व्यक्ति अपने संस्कारों में सजग हो
जाए तो उसका जीवन रूपांतरित हो जाता है । फिर आप क्या खाते हैं ये महत्वपूर्ण नहीं है । खाते आप सजग होते हैं या नहीं? यह महत्वपूर्ण और जो
सजग है, निश्चित ही जो व्यक्त है उससे छू ट जाएगा, जो सजग है, उससे जो गलत है वो अपने आप छू ट जाएगा । जो सजग है उसके साथ सही ही
बचेगा । गलत से बचने का उपाय नहीं । सही और गलत की परिभाषा ही यही है कि जो सजग होकर भी बच जाए वो सही और जो सजग होते ही
गिरने लगे वो गलत सजग होकर भी मैं जो कर सकूँ , वही पुण्य और जिस से करने के लिए मुझे मुर्छित होना अनिवार्य हो, वही पापा मुरझा पाप है
और सजगता पूर्ण । इसलिए पहला संतत्व की परिभाषा में नाव से कहता है वे अत्यंत सतर्क सजग जैसे सी तृत्व में कोई नाले को पार करता हूँ । यहाँ
मुँह पर है आचरण पर नहीं । यह जोर भीतरी बोध पर है, बाहरी व्यवहार पर नहीं । कल्पना में भी सोचे आप पार कर रहे हैं । हाँ, हर आदमी अपने
ढंग से पार कर सकता है । कोई दौड के करेगा, कोई धीमे करेगा, अपना अपना ढंग होगा । कोई गीत गाकर करेगा, कोई चुप रहके करेगा । लेकिन
भीतरी एक सजकता कौन कै से करेगा ये गौर सजग रहकर करेगा । बस इतना काफी है । फॅ से के समय में बहुत प्रसिद्ध था, वो था नहीं । सम्राट के
घर पशुओं को काटने का बजट का काम करता है । पूरे तीस वर्ष । उसने सम्राट के भोजन गृह के लिए पशुओं को काटा था । बडा सम्राट का भोजन
ग्रह था । अनेक पशु रोज करते थे । लाॅन एक बार अपने शिष्यों को कहा कि अगर कभी तुम्हें सजक आदमी देखना हो तो उस को जाकर लोग चौक
चाहते थे कि वधिक और सजक जैसे कि मान के कभी उस वजह के पास कोई गया । उस वजह को पशुओं को काट के एक बात को सुनिश्चित मालूम
पडी कि पशुओं को काटने में उसकी कु शलता अनूठी थी और जो देखने गया था उसने पूछा उस को कि तुम इतने पशु काटते हो । ये तुम जिस खंजर
से काटते हो, कितने दिन में हो जाता है तो उस वधिक ने कहा, मेरे पिता भी इसी से काटते थे । उनके पिता भी इसी से काटते थे । मैं किसी से
काट रहा हूँ लेकिन हम इतनी सजगता से काटते हैं । इसकी धार मरती नहीं, रोज नहीं हो जाता । हम कोशिश नहीं काटते की हड्डी पे पड जाए । हम
इतनी सजगता से काटते हैं कि जहाँ दो हड्डियाँ मिलती है उनके बीस से ये सत्र गुजर जाता है और ये दोनों हड्डियाँ इसपे धार रखने के काम आ जाते
हैं । उस आदमी ने उस वजह से पूछा कि तुम्हें कभी तकलीफ नहीं होती, इनको काटते हैं तो उस वधिक ने कहा जो कट सकता है, वही कटता है ।
जो नहीं काट सकता, उसके कटने का कोई उपाय नहीं है । मैं जिसे काटता हूँ वो मरा ही हुआ है और जो जीवन थे उसको किसी अस्त्रशस्त्र से काटने
का कोई भी उपाय नहीं । उसने वही कहा जो कृ ष्ण ने गीता ने कहा लेकिन कृ ष्ण के शब्द हमारी समझ में आ सकते हैं । एक वैदिक शब्द हमारे समझ
में आना मुश्किल होता है । वो आदमी लोहा । उसने कहा की बात तो बहुत ज्ञान करता है लेकिन आचरण ज्ञानी का नहीं मालूम पडता है । पता नहीं
बात ही करता हूँ । तो मैंने कहा कि तू जाए तलवार लेकर उस वक्त कहाँ फाडते? वो आदमी गया तलवार उठाई तो अपना हाथ उसके सामने कर दिया
और कहा कि जो पर मारना तो तलवार की धार तुझे अंदाज भी नहीं । नया नया तो ठीक जोड उस आदमी की हिम्मत नहीं पडी, वो वापस लौट
आया लेकिन ये जो आदमी है ये पशुओं को काटते ही सजग । वो ऐसा नहीं अपने को कटाते वक्त भी उतना ही सजकता पर जोर देता । आचरण पर
नहीं सजकता है अंतस का गुड भीतर की घटना, होश, बोल आचरण में बाहर की व्यवस्था, आचरण भिन्न भिन्न हो सकते हैं । दो संतों के आचरण भी
भिन्न भिन्न हो सकते हैं, होंगे ही । दो बुद्धियों के आचरण एक जैसे हो सकते हैं । दो संतों के आचरण होंगे ही, लेकिन हजार संतोकी भी जागरूकता
बंद नहीं होगी होगी और हजार मूल भी इकट्ठे हो तो उनकी जागरूकता एक सी नहीं होगी । उनके आचरण एक जैसे हो सकते हैं । इसे हम ऐसा समझे,
एक मिलिट्री की पंक्तिबद्ध कतार खडी उनका आचरण बिल्कु ल एक जैसा होगा । बाएं घूमो तो लाख लोग बाये घूम जाएँगे । दाएं घूमो तो लाख लोग दाने
घूम जाएंगे । उनका आचरण हम बाहर से व्यवस्थित कर सकते है, यूनिफॉर्म कर सकते हैं और मजे की बात है कि सैनिक के शिक्षण में हमें उसके
आचरण को इतना यूनिफॉर्म करना पडता है तो उसका व्यक्तित्व बिल्कु ल मिल जाए और जिस मात्रा में आचरण यूनिफॉर्म हो जाता है उसी अर्थ में बुद्धि हो
जाती होगी । सैनिक के पास बुद्धि की जरूरत भी
नहीं है । अगर हो तो दुनिया में युद्ध नहीं हो सकते हैं । इसलिए कोई नहीं चाहता की सैनिक के पास बुड्ढी हो । सैनिक जितना निर बुड्ढी हो, उतना
कु शल होगा । उतना आज्ञाकारी होगा । उतना सामान आचरण धर्मा होगा । एक तरफ सैनिक लाख सैनिकों की पंक्ति है जो एक व्यक्ति की तरह व्यवहार
करेगी । दो संतों को भी एक साथ रखें तो एक साथ व्यवहार नहीं होगा । बुद्ध और महावीर को एक साथ बिठा दे । एक साथ व्यवहार जरा भी नहीं
होगा । लेकिन भीतर सजगता बिल्कु ल एक सी हो । संत निर्णित होते हैं । सजकता से साधारण जान निर्णित होते हैं आचरण से क्योंकि हम सब आचरण
से निर्णित होते हैं । हम संतों को भी आचरण से ही सोचते हैं इसलिए समझ मुश्किल हो जाता है । ये दुनिया में जो इतना विवाद है, संतों के संबंध
में उसका कु ल कारण इतना महावीर को जिन्होंने संत मान लिया वो बुद्ध को कै से संत माने? उनके आचरण दिन जिन्होंने बुद्ध को संत मान लिया वो
कृ ष्ण को कै से संत माने । उनके आचरण दिन जिन्होंने कृ ष्णा को संत मान लिया, उन्हें क्राइस्ट कै से संत मालूम पडेंगे उनके आचरण महावीर मोहम्मद को
कै से साथ रखिएगा? कोई उपाय नहीं और आचरण ही हम देख पाते हैं इसलिए हमारी तकलीफ है । फिर हम सब के आचरण के भी बंदी हुई धारणाएँ
अगर मैं जैन घर में पैदा हुआ तो महावीर का आचरण मेरे चित्र पर भारी हो जाए । फिर मैं सारे जगत में घूमेगा उसी आचरण के को लेकर जिस उसमें
नहीं बैठेंगे तो मैं समझूंगा जीसस ज्ञानी नहीं । जैन नहीं मानते कि बुद्ध को परमज्ञान हुआ क्योंकि परमज्ञान होता तो आचरण महावीर जैसा हो जाना चाहिए
। एक बहुत विचार । जैन एक किताब लिखी, बहुत सद्भाव से बिकी और ये सिद्ध करने की कोशिश की कि महावीरो दोनों ही एक ही संदेश दुनिया को
देते हैं । लेकिन किताब का नाम रखा भगवान महावीर और महात्मा पुत्र । मैंने उनसे पूछा कि ये इतना ये फर्क था । उन्होंने कहा और सब तो ठीक है,
लेकिन बुद्ध उस स्थिति में नहीं पहुँचा तो ज्यादा हाँ, महावीर के साथ भगवान की हैसियत में हम उन्हें नहीं पता । मैंने उनसे पूछा कि यह जान के आप
ने रखा । उन्होंने कहा कि आपने पूछा तो मुझे क्या लाया? ये अंजान ही हुआ हो । साथ मेरे मन में ख्याल नहीं । हाँ एक ढांचा है बुद्ध कपडे पहने
हुए महावीर नगर है । यहाँ पर तो महावीर को मानने वाला सोचेगा । बुद्ध का अभी कपडे से मोहनी छु ट्टी और जब कपडे से मुँह नहीं छु टा तो फिर और
क्या मोह छू टा होगा । तो मान सकते हैं कि अच्छे आदमी है महात्मा है संत लेकिन महावीर के साथ नहीं रख सकते हैं । क्राइसिस को कै से रखियेगा
महावीर बुद्ध के कृ ष्ण के साथ क्राइस्ट को मानने वाले की भी पीडा यही है उसका भी आचरण स्पष्ट क्राइस्ट को मानने वाला जानता है कि क्राइस्ट की
हैसियत का आदमी अपने को कु र्बान कर देता है । सबके लिए महावीर किस के लिए अपने को कु र्बान किया किसी के लिए तो महावीर इतने ही अच्छे
हो, स्वार्थी है । अपने लिए ध्यान अपने लिए मोक्ष है । अपने लिए सब कु छ है, क्राइस्ट की बात है और अपने जीवन को आहुति दे दी । सब के
लिए सब सुखी हो सके इसलिए अपने को सूली पर लटकवा दिया । इसलिए जिसको मानने वालों को महावीर बहुत पीछे मालूम पडते हैं । किस की सेवा
की किसी की कोई सेवा नहीं, अपनी ही सेवा की होगी तो की अपने ही लिए सब कु छ किया है तो ये तो बहुत गहन स्वार्थ है और जो अभी अपने
स्वार्थ से मत ने हुए वो अहंकार से कै से मुक्त होंगे । इसलिए जिसको मानने वाला जानता है कि अहंकार से तो वही मुक्त होगा जिसने अपने स्वार्थ को
छोडा सबके स्वार्थ के लिए ही देगी । लेकिन अगर महावीर के वक्त को पूछे तो वो कहेगा सूली तो कर्मों के फल से लगती है जरूर पिछले जन्म में कु छ
पाप किया हो । महावीर के पैर में कांटा तो चुप जाए सुनी तो बात और तो जैन मानते हैं कि महावीर जब रास्ते पे चलते हैं तो सीधा कांटा भी पडा
हो तो तत्काल उल्टा हो जाता है क्योंकि महावीर जहाँ से गुजरते हुए पुण्य धर्म उनको एक कांटे का दुख भी तो ये जगह क्यों देगा । उन्होंने किसी को
कभी कोई दुख नहीं दिया । ये हमारे आचरण के ढांचे फिर इसमें कठिनाई शुरू हो जाएगा और सबके पास आचरण का ढांचा है क्योंकि सब एक संत के
आस पास अपनी पूरी रूपरेखा निर्मित कर देते हैं । फिर उस रूपरेखा लेकर चलते वो किसी पर लागू नहीं होगा । कभी किसी पर कभी लागू नहीं होगा ।
दूसरा संत खोजना मुश्किल है जो उस से तालमेल खा जाए । फिर हम दिन दरिद्र हो जाते हैं । फिर सबके अपने चुनाव हो जाए और सब वर्जित हो
जाता है । लाल से इसलिए ऊपरी गुणों की चर्चा नहीं करता से कहता है भीतरी बात अगर महावीर नगर और अगर बुद्ध वस्त्र पहने हुए हैं, इससे कोई
अंतर नहीं पडता । महावीर अपनी नग्नता में जितने सजग बुद्ध अपने वस्त्र पहने हुए उतने ही और अगर महावीर अपने ध्यान में लीन ही और जिस समस्त
के ध्यान में तो महावीर आपने ध्यान में जितने सजग है, जिस सबके ध्यान में उतने ही वो सजगता का आंतरिक गुण ही मूल्यवान । अगर वो आंतरिक
गुण नहीं तो स्वार्थ भी और परार्थ भी दोनों अंधे और अगर वो आंतरिक वो मौजूद है सजकता का तो स्वार्थ भी और परार्थ भी दोनों एक से पुण्यवान ।
अगर मैं और अगर दुसरे की सेवा में लगा हूँ तो ये अंधापन उतना ही बुरा है जितना अंधा होकर अपने स्वास्थ्य में लगाओ । स्वार्थ बुरा नहीं परार्थ भला
नहीं । अंधापन बुरा है, सजकता बनी है । इससे थोडा ठीक से समझने क्योंकि इस पर बहुत कु छ निर्भर करता है हमारे सोचने की जी ने अनुप्रेरित होने
की सारी प्रक्रिया इसपे निर्भर करती । अंतर मूल्यवान है, आचरण नहीं और अचरण अंदर की छाया है और छाया अलग अलग होगी क्योंकि व्यक्तित्व अलग
अलग है मीरा नाचे भी बुद्ध नाच नहीं सकते महावीर के साथ नाचना जोडिये बहुत बेहूदा लगेगा लेकिन महावीर मौन खडे होकर जितने सजग मीरा नाश्ते
उनसे जरा भी कम नहीं है । अगर मुँह रखियेगा तो मीरा का भक्त रहेगा महावीर भी क्या रूप है सूखे खडे छू ट वृक्ष की एक हरा पत्ता नहीं के जीवन में
कोई पक्षी गीत नहीं गाता कोई भूल नहीं खेलते कोई सुगंध नहीं मृतक खडे कहाँ मेरा कहाँ उसके पायल की जिनका कहाँ उसका कहाँ उसकी जीना यहाँ
जीवन अपनी पूरी प्रफु ल्लता में प्रकट हुआ है तो महावीर रुख सूखे लगेंगे लेकिन अगर महावीर को मानने वाला है तो मेरा वो रहेगा तो सब राग आ सकती
है । ये कृ ष्ण की हाय है ये तो दुखी चित्र का लक्ष्य ये कृ ष्ण की पिपासा ये हाँ ये तो मुँह है । अच्छा है वास्तव में मीरा का कहना कि कब आओगे
मेरी स्टेज पर सोने ये सब क्या है ये तो अपना ही है । दमित वे यहाँ वहाँ से फू टकर बह रहा है । ये प्रार्थना बन रही है बात आचरण को अगर हमने
मूल्यवान समझा और प्राथमिक समझा तो हम एक संत के साथ तो न्याय कर पाएंगे । जगत के सभी संतों के साथ अन्याय हो जाए और ये रोज हो रहा
है । जब तक हम अंतस को मूल्यवान ना माने तब तक हम जगत के विभिन्न विभिन्न रूपों में प्रगति में संतों को समझ नहीं पा सकते । इसलिए सारे गुण
लाओ सेना भीतरी कहे वे अत्यंत सतर्क वास्तव जैसे सर्दी की ऋतु में किसी नाले को पार करते समय कोई हो भीतर झगडा हुआ दिया हो सतर्क वे
सतक, अनिर्णीत और चौकन्ने जैसे कोई व्यक्ति जोकि सब और से खतरों से घिरा होगा । ये बडा कीमती सूत्र वैसे सतक अनिर्णीत वह चौकन्ने फॅ स लाइक
वन फीलिंग डेंजर ऑलराउंड आम तौर से हम समझेंगे कि संत तो ॅ होगा । सुनिश्चित होगा हम हमारी सभी की धारणा कहेगी कि संत तो दृढ निश्चय
वाला होगा । फॅ स अनिश्चित माना पूरी उल्टी बात इससे थोडा समझना कठिन पडेगा । कठिन इसलिए पडेगा कि हमें जीवन की गहरी समझ नहीं समझे ।
जैसे एक आदमी कहता है कि मैंने निश्चय किया कि अब मैं झूठ नहीं बोलूँगा, ये दृढ निश्चय वो किसके खिलाफ करता है । अपने ही खिलाफ और
रहता की इतनी जरूरत क्यों कि उसको पक्का पता है कि भीतर झूठ बोलने वाला इससे भी ज्यादा अगर उसके खिलाफ हमने रखी तो झूठ हमसे बोला ही
जाए । तो कहता है मैं निश्चय कर लिया हूँ और जितना ग्रहण निश्चय करता हूँ उतनी जल्दी टू ट जाता है । जितना टू टता है फिर उतना ज्यादा दृढ
निश्चय करता है । लेकिन डरता किसके खिलाफ? जिसके भीतर विपरीत स्वर्ण रहा हो उसके भीतर निश्चय जैसी कोई बात नहीं निश्चय करते हैं हम अपने
ही भीतर छु पे हुए विपरीत के प्रति मैं करता हूँ । निश्चित ही क्रोध नहीं करूँ गा क्योंकि मैं जानता हूँ कि मेरे भीतर क्रोध करने वाला छिपाये मैं तय करता
हूँ कि काम वासना में नहीं उतरूँ गा क्योंकि कामवासना मेरे भीतर छिपी बैठी है । मैं कसम खाता हूँ ब्रह्मचारी की क्योंकि मुझे मालूम है भीतर ब्रह्मचारी को
छोड कर और सब कु छ मेरे भीतर विपरीत स्वर । इसलिए विपरीत को दबाने के लिए मुझे बडी तरह से निश्चय कर ना पहुँच होना पडता है । संकल्पवान
होना पडता है दबा दबा के मैं अपने को किसी तरह चलता हूँ लेकिन जिनके भीतर विपरीत ना रहा हो वो किस के प्रति निश्चय करेंगे । वो निश्चय शून्य
इसका मतलब आप ये मत समझ लेना कि वो डगमगाने वाले होंगे । इसका मतलब आप ये भी मत समझ लेना क्यों उन्हें साथ नहीं है इसलिए अनिश्चित
उन्हें इतना है कि निश्चित होने की कोई जरूरत नहीं है । महावीर सुबह उठ के कसम नहीं लेते हैं कि आज मैं अहिंसा का व्यवहार करूँ गा । अहिंसा
इतनी सहज है कि इस निश्चय की कोई जरूरत नहीं है । अनंत होगी महावीर को कोई नींद से उठा ले तो भी अहिंसा होगी । इसके लिए किसी निश्चय
की कोई जरूरत नहीं है । बुद्ध कोई निश्चित नहीं करते कि तुम यह पूछो गे तो मैं यही उत्तर दूँगा । ये तो वही लोग निश्चित करते हैं जिनके पास
उत्तर देने की क्षमता नहीं है तो पहले से तय करना पडता है । उत्तर ते होना चाहिए, होना चाहिए । कोई पूछेगा ऐसा तो ऐसा मैं कहूँगा । लेकिन
जिनकी चेतना सच है उनके पास कोई निश्चय नहीं होता । पूछा जाता है कु छ उत्तर आता है, उत्तर आता है । इसके लिए पूर्व निश्चय नहीं होता है
इसलिए पूर्वनिश्चित होने की कोई जरूरत नहीं है । बजट सा से किसी ने पूछा है बजट सब बोलने जा रहा है किसी सभा में और कोई पूछता है कि
क्या बोलिएगा कु छ तय कर रखा है । बट साहब ने कहा कि जब मुझे ही तय करना और मुझे को बोलना तो वही बोलेंगे और वही तय कर लेंगे । अगर
किसी और को करना हो और बोलना मुझे हो तो पहले से तैयारी करवानी पडेगी । जब मुझे ये काम करना है तो वही ठीक समझ कर देंगे । उस आदमी
ने कहा लेकिन निश्चित हो ना पहले से ठीक हो, कु छ भी हो जाए वो आदमी ठीक कह रहा है । अगर उसको बोलना हो तो वो तय करेगा तो ही
बोल सकता है । और मजे की बात यह है कि तय करने वाले अक्सर बोलने में भूल करते हैं । नहीं तय करने वाले से भूल हो नहीं सकती क्योंकि जो
भी निकाले वही बोलना सलूट । अनिश्चित का अर्थ यही है कि क्षण जो भी लाएगा उसमें मैं पूरी तरह जो भी मुझसे हो सके गा, उसके लिए राज्य उसके
लिए पूर्वधारणा । मैं आज तक नहीं करता कि कल कै से जाऊँ गा और जिस आदमी ने आज तय किया कि कल जैसे कै से जिएगा, उसका कल आज ही
मर गए । उसका भविष्य आज ही अतीत हो गया । अगर मैंने तय किया कि इस शब्द के बाद कौन सा शब्द मैं बोलूँगा तो मैं ये हो गया । आदमी
जिस आदमी को अपने पर जितना कम भरोसा है उतना पूर्व निश्चय करके जियेगा । कम भरोसा के लोग सब कु छ तय कर लेंगे तभी चल सकें गे । जिनका
भरोसा पूर्ण है वो बिल्कु ल अनिश्चित से चलेंगे । उनका हर कदम तय करने वाला होगा । उनका हर कदम तय करने वाला होगा जिससे उनके सिस्टर
पूछते हैं । उस रात जब वो पकडे गए और दूसरे दिन सुबह जब सूली लगाएगी तो उनका ॅ पूछता है कि जब सूली लग जाएगी तो आप क्या करियेगा
जिस का कम से कम सूली तो लगने देंगे । सूली लगने दे मुझे पता नहीं है जैसे तू देखेगा कु छ हो रहा है । ऐसे ही मैं देखूँगा कि कु छ और फिर अभी
से निश्चय कै से किया जा सकता है । हमारा कमजोर मान सब निश्चय करके चलता है । ध्यान रखना, निश्चय करना, कमजोर मन का लक्ष्य हम और
सम्मान निश्चय करने वाला बहुत मजबूत मनवाला ठीक है । कमजोर मन निश्चय करें तो उन कमजोर मनो से मजबूत हो जाएगा जो निश्चय ना करें ।
कमजोर मान निश्चित करें
तो उन मांओं से मजबूत हो जाएगा जो कमजोर है और निश्चित ना करें । लेकिन नाव से उन संतों की बात कर रहा है जिनका मान ही नहीं रहा ।
कमजोर मन की तो बात ही अलग मान ही नहीं रहा और मान जब तक रहेगा कमजोरी रहेगी । मन कमजोरी है, वे क्या निश्चय करें, समय आता है
और वे जीते पल पल मोमिन तो मूवी दुसरे पाल की कोई आयोजना नहीं जिस इसकी प्रार्थनाओं में प्रसिद्ध प्रार्थना होती है । परमात्मा मुझे आज की रोटी
दे । कल की चिंता ना करूँ आज काफी है । आज का मतलब अभी यही पर्याप्त, वे शतक अनिर्णीत । उनके पास कोई भी निर्णय नहीं क्योंकि उनके
पास स्वयं जिनके पास स्वयं होना नहीं है वे निर्णय के आधार पर जिएंगे । बुद्ध के पास कोई आता है बुद्ध एक जवाब देते वही प्रश्न लेकर दूसरा आदमी
आता है । बुद्ध दूसरा जवाब देते हैं । आनंद बहुत बार बुद्ध से कहता है की आपको ऐसा नहीं लगता कि आप असंगत इन कं सिस्टेंट क्षण भर पहले
आपने एक आदमी से ये कहा था और छन बर्बादी आपने दुसरे आदमी से ये कहा और उन दोनों के प्रशन सामान बुद्ध कहते हैं उन दोनों के प्रशन
सामान लेकिन वे दोनों व्यक्ति अलग थे और एक सुबह पूछा था और एक ने तो फिर सुबह से दोपहर तक गंगा का कितना जल्दी हो जाता है । मैं बंधा
हुआ नहीं हूँ । दोपहर हो गयी अब दोपहर का ही उत्तर होगा । सांझ होगी । सांझ का ही उत्तर होगा । इसलिए अगर बुद्ध में कोई संगति खोजने जाए
तो बहुत गहरी खोज करनी पडे । तब संगती मिलेगी ऊपर तो असंगति मिलेगी । वक्तव्य एक वक्त दूसरे वक्तव्य को खंडित करता हुआ मालूम पडेगा । छु द्र
बुद्धि के लोग मीडिया कर लोग कं सिस्टेंट होते हैं । उनकी जिंदगी भर खोज जाओ तो जो उन्होंने चम्मच जब उनके मुँह में थी दूध की जब तक कहा
था, जब वो मर रहे होंगे तब भी वही कह रहे हो । एकदम कं सिस्टेंट हो । संगत हो उसका मतलब ये है कि झूले के बाद वो जिये ही नहीं । झूला
ही उनकी कब्र हो गए । जो जियेगा वो छु द्र अर्थों में संगत नहीं हो सकता है । एक आंतरिक संगती होगी । उसे खोजना मुश्किल है । उसे वही खोज
सकता है जो आंतरिक संगती पर ध्यान रखें । बुद्ध एक आदमी से कहते हैं, इस पर नहीं । एक से कहते है ईश्वर है, तीसरे के संबंध में चुप रह
जाते हैं । अब इतना असंगत ईश्वर है । ईश्वर नहीं दोनों लेकिन भीतर एक संगती गहरी आनंद रात में पूछता है कि मैं सोना पाउँगा । मैं मुश्किल में पड
गया । मैंने तुम्हारे तीनों उत्तर सुन लिए तो बुद्ध कहते हैं पहली तो बात ये आनंद की जो तुझे नहीं कहा गया था वो तुझे सुनना नहीं नहीं तूने पूछा था
ना, मेरा सवाल था तो तूने जवाब क्यों लिया? ऐसे अगर तू हर जवाब इकट्ठे करेगा तो कै से सो पायेगा? और जब मैं देने वाला सो रहा हूँ मुझे तुझे
चिंता क्या? आनंद कहता है कि नहीं आपकी आप जाने बाकी मैं बडी मुश्किल में पढा हूँ । ये सब बातें एक साथ कै से हो सके सुबह आपने कहा इस
पर नहीं दोपहर का है । चुप रह गए । जब किसी ने पूछा असंगति दिखाई पडती है मुझे थोडा शांति दे दे, थोडा बता दे तो मैं सो जाऊं तो बुद्ध
कहते हे असंगत में हो कै से सकता हूँ । असंगत तो वो आज भी हो सकता है जिसका सिद्धांत तय हो । सुबह जो आदमी आया था मैं तो दर्पण की
तरह हूँ । उसकी जो शकल थी वो मुझे बन गई । दोपहर जो आदमी आया वो दूसरा । मैं तो दर्पण की तरह मेरा अपना कोई सिद्धांत बांधकर नहीं बैठा
हूँ । उसकी जो शकल थी वो मुझे बन गई । क्या तुम दर्पण से कहोगे की बातें असंगत हो? सुबह एक शकल दिखाई दोपहर दूसरी तीसरी जो आदमी
सुबह आया था पूछते कि ईश्वर है वो नास्तिक । वो मानता था कि इस पर नहीं वो मुझसे पूछने आया था ताकि मैं भी गवाह बन जाऊँ और कहूँ कि
नहीं वो भी था । उसने बिना खोजे मान लिया कि इस पर नहीं तो मुझे उसे तोडना पडा और मुझे कहना पडा बलपूर्वक की इस पर है मैंने उसे हिला
दिया । अब उसे खोज में लगना पडेगा । अब मैं उसका पीछा करूँ गा । जिंदगी भर जब भी उसको ख्याल आएगा इस पर नहीं तब बुद्ध की शकल उसे
याद आएगी । उस आदमी ने कहा था अम्मा उसका पीछा करूँ गा । जो आदमी दोपहर आया था वो आस्तिक है । उसी तरह आस्तिक जैसे सुबह वाला
नास्तिक खोजा नहीं मान लिया की है उसका उसकी आस्तिकता उतनी ही अभियान पूर्ण थी जितनी सुबह वाले की नागरिकता मुझे उसे भी हिलाना पडा ।
मुझे उसे भी यात्रा पर भेजना पडा । मैंने कहा बिल्कु ल नहीं । अभी आदमी जब मंदिर में थाली का साल से जाके खडा होगा तो कहीं ना कहीं मैं इसे
दिखाई पडता ही रहूँ । बुद्ध ने कहा मुझसे पूछने इसलिए आया था कि बुद्ध का बजनी सबूत हो जाए । बुद्ध भी कहते है तो अपनी पूजा में वो और
बहन उतर जाए लेकिन उसकी पूजा झूठी क्योंकि अब उसे होने का वो भी उसका असर नहीं । अभी उसे कु छ भी पता नहीं बिना जाने मना है । बिना
जाने माना कि नहीं है ये दोनों एक जैसे आनंद ये तुझे लगता है कि विपरीत और इसलिए मुझे इनको विपरीत उत्तर देने पडे । लेकिन दोनों उत्तरों में एक
संगती है । मैं दोनों को उनकी अज्ञान की स्थिति से हिलाना चाहता था । शान जो आदमी आया था वो ना आस्ते कहना नाचते उसकी जिज्ञासा गवाह को
खोजने की जिज्ञासा नहीं वो मुझ से कु छ अपने को सिद्ध करवाने नहीं आया । उस की जिज्ञासा बडी सरल और निर्दोष थी । उसने पूछा था इस पर है
उसकी कोई मान्यता नहीं । बिना मान्यता के उसने पूछा था इस पर है ऐसे आदमी से अगर मैं कहूँ तो शायद वो मेरे है के कारण मान ले कि है ऐसे
आदमी से मैं कहूं की नहीं तो शायद मेरे नहीं के कारण मान ले कि नहीं इतना निर्दोष उसके सामने शब्द का उपयोग करना । इसलिए मैं मौन रह गए
और मेरे मौन ने ही उसको भी ही लाया और वो उत्तर ले के गया है कि अगर ईश्वर को जानना है तो मत पूछो है या नहीं । मौन हो जाओ ये
असंगत बातें ऊपर से देखने पर भीतर एक संगती का वो घुल वो छिपाए शब्द में नहीं पकडने आएगा । ऐसे व्यक्ति आंदोलन मुँह, अनिश्चित कोई सिद्धांत
नहीं । उनका कोई गठबंधन नहीं, उनका कोई बंधन नहीं । जैसे आकाश में उडने को सदा तत्पर और चौकन्ने ध्यान रहे । जो जितना निर्णित होगा उतना
मूर्छित हो जायेगा । जितना अनिर्णित होगा उतना चौकन्ना होगा । आप निर्णय होते ही इसीलिए इसीलिए होना चाहते हैं ताकि शांति से सोच सके । चौकन्ना
बनना रहे । चौबीस घंटे मेरे पास लोग आते हैं । वो कहते हैं कि आप पक्का कहते ईश्वर है । मैं उनसे कहता हूँ मैं कितना ही पक्का कहूँ इससे तुम्हें
क्या होगा । वो कहते हैं हमें भरोसा हो जायेगा, निर्णय हो जायेगा, ईश्वर है ये किस लिए कह रहे है । इसलिए नहीं कि इस पर को खोजना चाहते हैं
इसलिए की है ऐसा पक्का हो जाए तो इनको चौकन्ने होने की जरुरत ना रहे । खोजना ना पडे खोजने में खतरा है खोजने मेशरम खोजने में सकती लगेगी
। साहस की जरूरत होगी चुकाना पडेगा मूल्य वो सब झंझट ना हो कु छ करना ना पडे कोई कहते हैं वो कहते है मुझसे कि आप कह भर दे आप क्यों
संकोच करते हैं । पक्का कहने की है तो हम निश्चिंत हो जाएगी । निश्चिंत आदमी किस लिए होना चाहते हैं ताकि मूर्छित हो जाये सो जाए कु छ करना
पडे । जितना अनिर्णित होगा व्यक्ति उतना सजग होगा कभी आपने क्या एक आदमी आपके पडोस में अजनबी आके बैठ जाता है । आपके ऍम कु र्सी को
छोडकर चौकन्नी हो जाता । एक अजनबी आदमी बगल में बैठा है तो आप चौकन्ने हो जाते । फिर आप सिलसिला शुरू करते हैं । नाम धाम कितनी
तनख्वाह मिलती है कु छ ऊपर भी मिल जाता है या नहीं । थोडी देर में आप अपनी कु र्सी से टिका लेते हैं । ठीक है जान दिया अब आप निश्चिंत हो
गए । अब कोई इसका भाव रखने की जरूरत नहीं है । अपने ही जैसा चोर है कोई अजनबी नहीं, ठीक अपने ही जैसा है । अब आप निश्चिंत पहुँच
हमारी जो इतनी आत्मीयता होती परिचय बनाने की वो इसलिए नहीं होती है । हम दूसरे में उस सुखी हमारी आतुरता इसलिए होती ताकि हम हमें निश्चिंत
करो हो जाए कि कौन हो हिंदू हो कि मुसलमान हो कि जैन हो तो हम पक्का कर ले । ॅ गोरी हमारे मन में है कि मुसलमान ऐसा होता है ना ऐसा
होता है । हिंदू ऐसा होता है तो हम जल्दी से अपने खाते में तुम्हें बिठाए और निश्चिंत हो जाए । ये तुम्हारी वजह से बेचैनी पैदा हो रही है । ये मान
पूछता है कि कौन है ये आदमी ये जो पूरे समय हम हमेशा सोने की कोशिश कर रहे हैं । हमारा धर्म हमारे शास्त्र, हमारे तथाकथित साधु सन वो सब
हमें सोने में सहायता देता । शांत वन से कहता है अनिश्चित थे, अनिर्णीत थे, चौकन्ने थे । कु छ भी निश्चित था तो चौकन्ना रहना ही पडेगा । सारा
जगह अजनबी है, किसी से कोई परिचय नहीं । सब परिचय जुटा है तो चौकन्ना रहना पडेगा । एक चल रहे हैं तो अनजान रास्ते पर चल रहे अन् चार्टर्ड
कोई नक्शा नहीं । समुद्र का कोई पता नहीं कहाँ ले जाएगा हाथ में कोई दिशा सूचक यंत्र नहीं तो चौकन्ना रहना ही पडेगा । जितना अनिर्णीत होगा,
व्यक्ति उतना ही ज्यादा चौकन्ना होगा । जितना निर्णित होगा, उतना सुरक्षित होगा, उतना मूर्छित होगा । ये भी लाओ से भीतर की ही बात कर रहा है ।
अनिर्णित और चौकन्ने चौकन्ने का मतलब है अल्लाह जैसे कि सब और से खतरा गिरा हो । कभी आपने किसी हिरण को देखा, जंगल जरा सी आवाज
होती है, कहीं पत्थर रखता है, किरण जैसा अलग चौकन्ना होकर खडा हो जाता है, उसका मुँह सुनने लगता है । कहाँ क्या हो रहा है, उसका पूरा
व्यक्तित्व एक जागरूकता बन जाता है । खतरा चारों तरफ है । एक छोटा सा खरगोश भी जरा आवाज सुनकर कभी उसे देख कै सा चौकन्ना हो जाता है ।
बिल्ली सो रही हो आप के घर में जरा सी आवाज हो एकदम चौकन्नी हो जाती । नींद से एकदम छलांग जागरूकता में लग जाता है । आदमी सबसे
सुरक्षित जानवर और आदमी ने इतनी सुरक्षा कर ली है कि जानवर जैसा चौकन्नापन दी उसके पास नहीं सुरक्षित मकान है । दरवाजा है, ताला है, सब
सुरक्षा है । घर में पैसा था वो भी बैंक में हैं । सब सुरक्षित है । कहीं कोई खतरा नहीं । मार भी जाए तो लाइफ इन्शुरन्स है । मर भी जाए तुम्हें
कोई खतरा नहीं, कोई खतरा नहीं । मरने में भी कोई डर नहीं क्योंकि पैसा तो मिलने ही वाला है । ये सारी सुरक्षा भीतर के चौकन्नेपन को कर दिया ।
हमसे पशु भी ज्यादा चौकन्ने लॉर्ड्स से कहता है संत ऐसा ही चौकन्ना होता है । भीतर से कोई सुरक्षा नहीं बनाना कोइंजाम नहीं बना चारों तरफ जैसे
खतरा हो प्रिन्सिपल उस खतरे में जीता है । खतरा है भी । हम कितना ही इंसान करें, खतरा मिटता नहीं खतरा जाएगी । मौत तो चारों मौजूद है ।
चारों तरफ मौजूद हैं किसी भी अच्छा लेकिन हम उसे डालते रहते हैं, स्थगित करते रहते है । हम मानते रहते है मन में की मारते होंगे दुसरे लोग ये
कोई अपना काम नहीं । ये सब मौत हमेशा दूसरे की होती है । इतना तो पक्का ही है । अपनी कभी नहीं होता । जब भी देखते हैं कोई और मारता है
। निश्चिन्त रहते हैं की हमेशा और कोई मरता है । हम तो कभी नहीं मारते हैं लेकिन वो जो मर रहे हैं वो भी इतने ही निश्चिंत थे । मौत है चारों
तरफ किसी भी सब खो जा सकता है । ध्यान करें एक आदमी आपकी छाती छोडा रहते हैं और कहती बस एक्सॅन जो भी सोचना हो सोचने सोचना बंद
हो जाए । एक्सॅन भी बच्चा तो सोचना क्या है? सोचना एकदम बंद हो जाए । सब सुरक्षा टू ट गयी । सोच विचार कु छ रहा ये अच्छा सब कु छ हो गया
है क्योंकि मौत चौकन्ने हो जाएगा । बुद्ध तो अपने को मार्कि ट भेजते थे कि तुम तब तक ध्यान में ना जा सकोगे जब तक तुम मौत की निकटता अनुभव
ना करो तो जाओ मार्कि ट पे बैठो, जल्दी में लोगों को देखो लाश गलती हुई देखो जानवर लाशों को तोड रहे खींच ले जा रहे है वो देखो हड्डियाँ
खोपडियां बिखरी हुई देखो रहो मरघट पर जब तुम्हें मौत ऐसा मालूम पडने लगे कि चारों तरफ से सुबह उठते हो और लास्ट चल रही दोपहर उठते हो ।
लाश चल रही रात उठते हो लपटे उठ रही । जहाँ भी जाते हो हड्डियाँ जहाँ भी हिलते हो खोपडियां तुम्हें मौत चारों तरफ मालूम होने लगे । मुगलाना
जब बुद्ध के पास पहले गया तो बुद्ध ने कहा तू मरघट जमा वही तो चिंतन कर का आप मौजूद है तो आपके पास ही चिंतन करूँ । मरघट से क्या
होगा? बुद्ध का तू अभी चिंतन ना कर सके गा क्योंकि मैं भी तेरे लिए एक सुरक्षा
हूँ । बुद्ध के पास क्या डर? पहले तू जा । पहले मौत को अपने पास देखो । जिस दिन मौत तेरे पास होगी, उसी दिन मैं मेरे पास हो सकता हूँ ।
उसके पहले नहीं ने कहा कि मरघट पे तो बहुत डर लगता है । मैं तो आपके पास ही ठीक है । हम संतों के पास भी जाते हैं तो सुरक्षा के लिए
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे में जाते हैं, सुरक्षा के लिए इंतजाम कर रहे हैं और आगे तक का इंतजाम कर रहे हैं । कहीं कोई खतरा ना हो, सब तरह
व्यवस्था बैठा ले रहे हैं । लोग आते हैं वो पूछते आत्मा तो निश्चित अमर निश्चित ही अनिश्चय के भीतर है, डरते हैं वो भी कहने में की आत्मा है ।
एक महिला मेरे पास आई थी, वो कु छ अनुसंधान करती है, आत्मा की अमरता के संबंध में पुनः जन्म के संबंध में और मैं थोडा हैरान हुआ क्योंकि वो
पुनर्जन्म और आत्मा की अमरता के सिद्धांतों की बात करती है । लेकिन बहुत वैदिक हाथ पर उसके कपडे । जब वो आत्मा की अमरता की बात भी
करती है तब भी हाथ कब तक मेरे पास आई थी । तो मैंने उसे कहा कि हाथ ऊँ चा करो फिर बात करता है की मैं तेरे हाथ को देखता हूँ, उसमें
क्या मतलब? मैं कागज पढा था, मैंने उसे कागज दे दिया की कागज तो हाथ में पकड ले ताकि तेरे हाथ पर मुझे कागज में साथ दिखाई पडे । फिर
तुझे जो बात करनी है उसने हाथ तो मेरे कपडे और पसीना भी बहुत आता । नर्वसनेस मुझे बहुत है लेकिन आत्मा शरीर ही मारता है, आपको कभी
नहीं । मैंने कहा तुझे अनुसंधान की ये प्रेरणा कै से मिली? तूने कु छ अध्ययन किया, कु छ ध्यान क्या आत्मा की तुझे कोई झलक मिली? उसने कहा कि
नहीं बचपन में मेरी माँ मर गई । फिर मेरे पिता मर गए और मेरे ऊपर भारी हो गई नहीं लेकिन मृत्यु तो सब शरीर की आत्मा तो हमारी भय मृत्यु का
है । आत्मा की अमरता की पकड है ये भय से सुरक्षा के लिए कोई भरोसा दिला देता हूँ । वो अनुसंधान में लगी इसलिए नहीं कि आत्मा अमर है । इस
से किसी को कु छ लाभ होगा । अगर सिद्ध हो जाए तो वो जब मृत्यु का पीछा कर रहा है वो छू ट जाए । बुद्ध मौलाना से कहा कि पहले तो मौत को
अनुभव तभी तो चौकन्ना हो सके और चौकन्ना हो सके तो ध्यान में जा सके तो ध्यान में कभी नहीं जा सके गा । ध्यान का अर्थ ही है एक चौकन्नापन
एक की सतत जागरूकता । एक क्षण को भी भीतर मोर्चा नहीं । जैसे शांकर व्यक्ति खतरों से घिरा ऐसे चौकन्ने और अनिर्णित वे जीवन में जैसे कि अतिथि
हो ऐसे गंभीर अभिनय रख थे । अतिथि आपके घर आते मेहमान आपके घर आता है । आप मेजवान होते अतिथि होते होते हैं । अतिथि घर में आता है
। नया हो तो गंभीर अभिनय उसे करना पडता है । जैसे जैसे पुराना होने लगता है वैसा हम भी गंभीर अभिनय छोडने लगता है । भी नया होता है तो
पहले गंभीर अभिनय करता है । कु र्सियाँ पडोस के उठा लाता है । घडी दीवार पर टांग देता है । किसी की मांग के रेडियो ला के रख देता है ।
टेलीफोन जिसमें कोई कनेक्शन नहीं उसे जमा देता है । फिर मेहमान परिचित होने लगता है की सामान धीरे धीरे हटा दिए जाते हैं । और जब मेहमान
बहुत परिचित हो जाता तो मेहमान को हटाने की कोशिश । अपरिचय में एक अभिनय अपरिचित आदमी से जब हम मिलते हैं तो हम नहीं मिलते । हमारे
बनाम चेहरे मिलते हैं । इससे बडी भ्रांति होती है । अगर दो व्यक्ति मित्र बन जाते हैं तो पहले से ही मुलाकात होती है । वो उन दोनों की नहीं होती ।
वो झूठे चेहरों की होती है । दो चार घंटे में वो चेहरे कब तक चल सकते हैं, वो सरक जाते है, असली चेहरा बाहर आ जाता है । तब हमें ऐसा
लगता है । बडा धोखा हुआ क्या समझाता इस आदमी को और क्या निकला? कोई धोखा नहीं हुआ है, कोई धोखा नहीं हुआ है । जीवन में अपरिचय
हो तो लोग एक दूसरे के प्रति गंभीर भाव रखते हैं ताकि वही प्रकट हो । जो होना चाहिए । श्रमपूर्वक अनुशासित, फिर जब निकट तब बढती जाती तो
अनुशासन छू ट जाता है । दो । मित्रों गहरी मित्रता का मतलब ये होता है । तब मुँह से एक दूसरे को गाली देते हैं और बुरा नहीं मानते । गंभीरता चली
गई । ऍसे कहता है कि वे जीवन में ऐसे जीते हैं जैसे अतिथि हो । पूरा जीवन पूरा जीवन हर स्थिति वो इस जगत में एक आउटसाइडर अतिथि इस
जगत को कभी अपना घर नहीं मान पाते । सर्वजन इस जगह को कभी अपना घर नहीं मान पाते । कभी ऍम इस संसार में भी अनुभव नहीं कर पाते ।
कोलिंग इंसल् ने बहुत किताब लिखी थी । आउटसाइडर उस किताब में उसने बडी मेहनत ली । इस जगत के जो भी महत्वपूर्ण लोग हैं वो सब
आउटसाइडर बुद्धों की शुक्र हो से हो, सब आउटसाइडर्स यहाँ ऐसे रहते हैं जैसे एक अपरिचित घर में अतिथि की तरह हो और ये अतिथि पन उनका
कभी नहीं टू टता क्योंकि अजनबीपन कभी नहीं टू टता । ये बडे बजे की बात है । हम अपने से जितने कम परिचित होते हैं उतना ही हमें लगता है कि
हम दूसरों से ज्यादा परिचित और जब अपने से परिचय बढता है तो दुसरे से अपरिचय बढने लगता है । इसे ऐसा समझे कि जो आदमी समझता है कि
मैं इतने लोगों को जानता हूँ । एक बात पक्की समझना की अपने को नहीं जानता हो और जो आदमी अपने को जान लेता था उसे पता चलता है कि मैं
किसी को भी नहीं जानता । अतिथि की भांति वैसा आदमी जीता है लेकिन से बहुत मजे की बात । इसमें कह रहा है कि वो वे जीवन में ऐसे होते हैं
जैसे अतिथि हो । ऐसा गंभीर अभिनय करते हैं, अतिथि की तरह होते हैं और जो कु छ भी व्यक्त करते हैं वो एक अभिनय वास्तविकता नहीं । थोडा
उदाहरण ले तो ख्याल में आ सके । बुद्ध वर्षों के बाद घर लौटे तो आनंद ने बुद्ध से एक प्रतिज्ञा ली थी । रिक्शा के पहले की मैं सादा साथ रहूँगा ।
बुद्ध राज महल में आ गए । राजधानी के द्वार पर सारे नगर में स्वागत किया । यशोधरा पत्नी नहीं आई । बुद्ध ने आनंद से कहा देखते हो आनंद
यशोधरा दिखाई नहीं पडती । आनंद को बडी चिंता हुई । बुद्ध हो और अभी भी पत्नी का ध्यान बारह वर्ष इतने परम ज्ञान को पाया । अभी भी पत्नी
का ख्याल पर आनंद धीरज रखा की देखेंगे । समय पर पूछ लेंगे । फिर बुद्ध महल पहुँचे । द्वार पर भी पत्नी नहीं । फिर महल के भीतर प्रवेश हुए तो
बुद्ध ने आनंद से कहा कि आनंद तुझे मैंने आश्वासन दिया है कि तू जहाँ भी मेरे साथ रहना चाहेगा रहेगा, अभी भी मैं अपना वचन नहीं तोडूंगा ।
लेकिन फिर भी तो उस से प्रार्थना करता हूँ की पत्नी बारह वर्ष से नाराज बैठी है । छोडकर मैं उसे भाग गया । कोई और उपाय नहीं था । कोई और
उपाय नहीं । और अब अगर पहली दफा बारह वर्ष के बाद भी मैं किसी को लेके भी भडक के मैं उस से मिलूँ तो उसकी नाराजगी नहीं टू टेगी । उसे
थोडा मौका देके वो नाराज हो ले । चिल्ला ले जो उसने बारह वर्ष में इकट्ठा किया वो निकाल ले तो अच्छा हो तो थोडा पीछे रुक जाए । मैं उससे
अके ले में ही जाके मिल लूँ । आनंद और भी घबडा पत्नी से अके ले में मिलने की क्या बुद्धू को जरूरत है लेकिन बहुत ठीक है । प्रबुद्ध का अके ला
मिलना परिणामकारी हुआ और यशोधरा ने उन को अके ला देखकर निश्चित ही क्रोध निकाला । चिल्लाई नाराज हुई सब लंच बनाएं कि तुम ने धोखा दिया
और तुमने इतना भी भरोसा नहीं किया । मेरा कि तुम मुझसे पूछ तो लेते । बुद्ध चुपचाप खडे होकर सुनते हैं । क्रोध निकल गया । नाराजगी निकल गई
। फिर वो रोने लगी । फिर बारह वर्ष की पीडा है । बारह वर्ष का दुख है । वो सब निकला फिर उसके आंसू सूखे बुद्ध चुपचाप खडे हैं । सब कहीं
चली जाए । फिर उसने आँख के ऊपर उठाई, बुद्ध की तरफ देखा और तब यह सुधारा ने कहा कि तुम अके ले आए इस बात में ही मुझे बदल दिया ।
अगर तुम मुँह का साथ लेकर आते हैं तो मैं मानती हूँ मेरे लिए तुम्हारे मन में कोई भी जगह नहीं फिर भी चुपचाप खडे हैं । पत्नी उनके पैरों पे गिर
पडी है । नाराजगी निकल गई । दुख निकल गया और क्षमा मांग रही । भूत ने उसे कहा कि मैं जो लेकर आया हूँ, एक ही आकांक्षा मेरे मन में रही
है कि तुझे भी वो कब मिल जाए । ये सब अभिनय बुद्ध के तल पर ये सब अभिनय लेकिन पत्नी दीक्षित हो गई । वो भिक्षुणी हो गई और पाँच साल
गुजर गए । ध्यान में गहरी उतर गई । तब एक दिन ये सुधारा ने बुद्ध से कहा तुमने खूब अभी नहीं किया । कितने में पुलकित हुई । उस दिन जान
करके नगर के द्वार पर आकर तुमने पूछा आनंद से कहा ये सुधरा नहीं दिखाई पडती । बारह वर्ष का दुख मेरा छू ट गए । कितनी पुल थी । उस दिन
जान करके तुम अके ले आये । आनंद को बाहर रोककर तुम्हारे बाप जितनी नाराज की थी, सब बह गई । लेकिन अब मैं जानती हूँ की तुम ने खूब अभी
नहीं किया । तुम्हारा अभी नहीं मुझे बदलने का कारण हो सका । फॅ से कहता है ऐसे व्यक्ति इस जगत के भीतरी हिस्से कभी नहीं हो पाते लेकिन निरंतर
अभिनय करते रहते हैं । किस जगत के भीतरी हिस्से ऐसे व्यक्ति जगत में कोई संबंध निर्मित नहीं कर पाते । लेकिन निरंतर अभिनय करते रहते हैं कि सब
संबंध बहुत गहरे और ये अभी ना बडा गंभीर होगा ही गंभीर अन्यथा अभिनय टिके गा नहीं । अभिनय गंभीर ना हो तो टिक नहीं सकता है तो अभिनय
और फिर गंभीर हो तो टिके गा नहीं । संत का ये भी एक भीतरी लक्षण की जगत में वो बाहरी होकर भीतरी की तरह जियेगा अतिथि की तरह जियेगा
और एक गहन अभिनय में संलग्न होगा । करता वो नहीं अब तो जो भी है वो बाहर है और खेल वो राम लीला राम का पात्र भर राम का अभिनय भर
कर रहा है । वो असली राम नहीं और अगर हम असली राम का भी पता लगाने जाए तो फिर बहुत मजा आएगा । अगर असली राम का भी हम पता
लगाने जाए तो वे भी रामलीला में एक अभिनय के पात्र से ज्यादा नहीं और वही उनकी खूबी है । इसलिए जिस सीता को खोजने के लिए जिंदगी दांव
पर लगाए, उस सीता को एक ना समझ धोबी के कु छ कहने से जंगल छोड दे । जिस राज्य को जीतने के लिए अथक श्रम ले फिर उसे ऐसा ही दान
कर दें । अगर राम के लिए ये सब वास्तविक हो तो बहुत कठिन हो जाए । ये वास्तविक नहीं, एक बडे अभिनय का हिस्सा है । राम अति गंभीर
अन्यथा एक छोटी सी बात के लिए धोबी की बात के लिए सीता को छोडने का कोई अर्थ था लेकिन अति गंभीर अभिनय को पूरा कर रहे हैं । इसलिए
हम हमने अच्छे शब्द खोजि । हम इसे कहते हैं रामलीला ये राम का अभिनय राम लो रहे है । सीता खो गई है, छाती पीट रहे है । जंगल दरख्तों से
पूछ रहे हैं कि मेरी सीता कहाँ और मजा है । एक सोने के हीरोइन के पीछे भागे हम को भी पता है कि सोने का ही नहीं होता । राम को भी पता
होगा सोने के हीरोइन के पीछे भागे हैं । वो एक बडे अभिनय का हिस्सा है । सोने के हिरण के पीछे भागे है । फिर लक्ष्मी को चिल्लाई हैं कि बचाओ
सीता ने भी बहुत मजे की बात कही । लक्ष्मण जाने को तैयार नहीं है छोड कर पहले पर उसे खडा किया और राम कह गए के हटना मत । लेकिन
राम की जिंदगी खतरे में कु छ हुआ है और चिल्ला बताती है कि मुझे बचाओ लक्ष्मी भागो लेकिन लक्ष्मण हट नहीं सकते तो सीता लक्ष्मण से कहती है कि
मुझे पता है भलीभांति की तुम चाहते हो तुम्हारा भाई मर जाए तो तुम मुझे पालो । ये बडी तीखी बात है और सीता इसे तभी कह सकती है जब ये
अभिनेता हिस्सा हो था । इसका कोई अर्थ नहीं । मगर लक्ष्मण बिचारा फस जाता है । उसे क्रोध आ जाता है कि हद हो गयी । बात मैं इसलिए नहीं
जा रहा हूँ ना मुझे कह गए पहला देना और सीधा ये कह रहे हैं कि मैं जानती हूँ पहले से कि तुम्हारी नजर मुझ पर राम बिचारा राम भूल गए ।
लक्ष्मण के ख्याल से सीता भूल गई । क्रोध बैंकर हो गया । अहंकार को भारी चोट लग गई । लक्ष्मी सीता को छोड के चला जाएगा । ये बडे अभिनय
का हिस्सा है । सीता के मुँह से ये वचन बहुत लोगों को बहुत कष्टपूर्ण हुए, बहुत कष्टपूर्ण हुए लेकिन उन्हीं को होंगे जो इस लीला पूरी व्यवस्था को ना
समझे । जो इससे बहुत वास्तविक समझ ले उन्हें सीता के सब अभद्र मालूम होंगे और व्यवहार कठोर मालूम होगा और ये बात ओछी मालूम होगी लेकिन
ये अभिनव मात्र अभिनय का हिस्सा है । लेकिन लक्ष्मण को ये स्थिति नहीं । लक्ष्मण को ये स्थिति नहीं लक्ष्मण के लिए सभी कु छ वास्तविक है । इस
पूरे खेल में तो हमने प्रमुख माना और रामलीला नाम दिया । उसका कारण है ऐसे कोई चाहे तो भारत को भी प्रमुख मान सकता था और कोई कमी नहीं
होती । वो नायक
कु छ काम नहीं है । आराम से राम को भी प्रमुख माना जा सकता था क्योंकि उसके बिना भी ये घटना नहीं घट सकती । और सीधा तो कें द्रीय ही
क्योंकि सारा जान उसके आस पास फै लता और बडा होता है । लेकिन हम ने सब का नाम छोडकर राम को नायक माना क्योंकि उस पूरे खेल खेल ही
जानने वाले अके ले ही व्यक्ति गहरे इनको ये सारा का सारा खेल, ये सारी लीला उनकी अस्मिता सतत विसर्जित होती रहती है । जैसे कि प्रतिपल बिखरता
हुआ बर्फ हो, जैसे बर्फ पिघल रहा हो । धूप में ऐसे संत की अस्मिता आत्मा होने का भाव की मैं हूँ वो निकलता चला जाता है ये थोडा सोचने जैसा
है । यही पर गहरा है संत तब तक संत कहाँ जाएगा जब तक उसकी अस्मिता का कु छ हिस्सा भी और भी बिगडने कोशिश रह गए । जिस दिन असमिता
बिल्कु ल बगल जाएगी उस दिन संत संत भी नहीं रह जायेगा । उस सिंधु परमात्मा ही हो गए । अश्मिता आत्मा का भाव अब इसे हम दो तरह से ले ले
। हमारे भीतर अहंकार है मैं हूँ बिल्कु ल झूठा नहीं ये निकल जाए तो संकट पैदा होगा । संकट में मैं तो नहीं रहेगा, मुँह रहेगा मैं हूँ ऍम हमारा ऍम हूँ
सिर्फ एक पूछे छाया संत का मैं गिर जायेगा तभी वो सन्त होगा लेकिन हूँ रह जाएगा अस्म िता अहंकार मैं तो ऍम असमिता सिर्फ होने का भाव लेकिन
ये भी उसका पिघलता चला जाए बर्फ की तरह । और जिस दिन ये भी बदल जाएगा, जिस दिन मैं भी नहीं बचेगा भी नहीं बचेगा उस दिन उस दिन
संत भी गया । उस दिन इस पर रहा अस्तित्व रहा । ऍसे कहता है कि उनकी अस्मिता निकलती रहती । प्रतिपल प्रतिपल जैसे बर्फ पिघल रही ये भी
भीतरी घटना है । ये भी भीतरी घटना अगर हम बुद्ध, महावीर, कृ ष्ण या क्राइस्ट को निकट से देखें तो कहीं भी होने पर नहीं मालूम । महावीर गुजर
रहे क्राॅस लोग कहते हैं वहाँ से मत जाए । वहाँ भयंकर सर थे, वहाँ से कोई जाता नहीं । ग्राहण अर्जुन हो गई है । सर बहुत भयंकर है और हमले
करता है । दूर से फु क कार मार देता है तो आदमी मर जाता है । तो महावीर कहते हैं जब वहाँ से कोई भी नहीं जाता है तो सिर्फ के भोजन का
क्या होगा? अगर आप से किसी ने कहा होता है कु छ रास्ते पर सबको छोड चूहा है उधर से मत जाए । चूहा बडा खतरनाक तो आपको जो पहला
ख्याल आता वो अपना आता कि जाना कि नहीं । महावीर को पहला ख्याल सबका आया कि भूखा तो नहीं होगा । ये असमिता गल गयी गली जा रही है
। यहाँ मैं कहा ख्याल ही नहीं आता, उसका ख्याल आ रहा है तो जाना ही पडेगा । महावीर का भला किया कि तुमने बता दिया जाना ही पडेगा ।
अगर मैं जाऊं गा तो फिर कौन जाएगा । महावीर उस सबको खोजते हुए पहुँचे, मीठी खता है उनके पैर में काट लिया तो खता है की खून नहीं निकला
। दूध निकला दूध निकल सकता नहीं पैर लेकिन ये काव्य प्रतीक है । ये काव्य प्रतीक है । दूध प्रेम का प्रतीक है । माँ का प्रतीक सिर्फ माँ के पास
संभावना है कि खून दूध हो जाए और मनुष्य कहते हैं कि अगर माँ प्रेम से बिल्कु ल छीन हो जाए तो उसके भीतर भी खून दूध ना परिवर्तित नहीं होगा ।
वो परिवर संभव है इसका आपकी ट्रेन ही उसके अपने खून को, अपने प्रेमी के लिए, अपने बच्चे के लिए दूध बना था, भोजन बना देता । प्रतीक है
कि महावीर के पैर में काटा । आपने तो दूध हो गया । इस प्रतीक को पूरा तभी समझ सकें गे जब समझेंगे । महावीर ने कहा कि सांप भूखा होगा और
मैं नहीं जाऊँ गा तो कौन जाएगा । ये ठीक माँ जैसी पीता है इसलिए ये प्रतीक है कि उनके पास दूध दूध तो रहेगा नहीं लेकिन महावीर के पैर से खून
भी बहा हो तो ठीक वैसा ही जैसा बाहर जिस माँ का प्रेम रहता हो । भूखे बच्चे के ये अपने पिता का विसर्जन नहीं का भाव नहीं । बुद्ध को खबर मिली
है कि इस रास्ते समझ जाए । वहाँ उंगली माँ लोगों को काट देता है । उसने नौ सौ निन्यानवे में उँगलियों की माला बना ली है । एक आदमी को और
मारना और वो इतना पागल है कि सुनते हैं अगर कोई नहीं मिला तो आज रात वो अपनी माँ के घर पे जाके माँ की हत्या करके उसकी अंगुली की
माला पहन लेगा । उसने एक हजार आदमियों की अंगुलियां चाहिए नौ सौ निन्यानवे पूरे हो गए । तीन महीने से कोई वहाँ से निकलता नहीं क्योंकि वो
बिल्कु ल पागल है । बुद्ध ने ये सुना और वो उस रास्ते पर चल पडे । साथियों ने संघियों ने अनुयायियों ने कहा आप क्या कर रहे हैं? वहाँ जाने की
कोई जरूरत नहीं है जो अपनी माँ को काटने तैयार है वो आपको भी छोडेगा नहीं । बुद्ध ने का माँ को छोड सके मुझे ले ले इसलिए जाता हूँ ये
असमिता कल रही है ये भीतर से अब होने का विभाव हो रहा है । मैं तो गया तब आदमी संत बनता है और जब हो भी चला जाए तब परमात्मा हो
जाता है । संत की अस्मिता गलती रहेगी वो धीरे धीरे परमात्मा में बिखर के एक हो रहा है । वे अपने बारे में किसी प्रकार की घोषणा नहीं करते जैसे
कि वो लकडी जैसे अभी कोई रूप नहीं दिया गया हो । आप एक लकडी पे बैठे हैं, वो कु र्सी है एक लकडी तखत बन गई ना कर दीजिए हम क्या
हैं? एक लकडी मूर्ति है, एक कु र्सी है, एक दरवाजा है । लास्ट में कहता है संत अपने संबंध में कोई घोषणा नहीं करते । वो उस लकडी की भांति है
जिससे अभी कोई रूप ना दिया गया हो जो कोई घोषणा ना कर सके कि मैं कौन अभी जंगल से कटी हुई लकडी है । चाची अभी कु छ बनी नहीं है ।
आरोप है बन सकती है कु छ भी लेकिन बनी कु छ भी नहीं । लाॅस कहता है कि संत जान सादा ही अन बने होते हैं, उन की कोई घोषणा नहीं की ।
हम ये ध्यान रहे । जैसे ही घोषणा हुई वैसे ही सीमा आ जाती है । अघोषित असीन होगा और असीन जो है उसे अघोषित रहना पडेगा । वो घोषणा नहीं
कर सकता कि मैं हूँ तो कहता है मैं डॉक्टर हूँ । कोई कहता है हमें नेता हूँ । कोई कहता है मैं ये हूँ । हम सब घोषणाएं करते । ढंग से पूछो कि
तुम कौन हो तो उस की कोई घोषणा नहीं हो सकती कि मैं कौन हूँ । बौद्ध धर्म से जब पूछा चीन के सम्राट तूने कि तुम कौन हो? तो बोधिधर्म ने
कहा आइ डोन्ट नो । मुझे कु छ भी पता नहीं वो तो बहुत हैरान हो गए । उसने कहा कि मैं तो सोचा था कि तुम से आत्मज्ञान की शिक्षा लूंगा ।
तुमको खुद ही पता नहीं कि तुम कौन हो । बोधिधर्म को समझना मुश्किल है । ये इलाज से कहता है कि हमारी समझ के परे । मोदी धर्म ने जब कहा
कि मुझे पता नहीं तो वो यही समझा जैसा कोई साधारण आदमी कहता है कि मुझे पता नहीं बोधिधर्म हँसने लगा और उसने कहा कि तुम थोडा उन
लोगों के पास रहो जो और तरह की भाषा बोलते हैं ताकि तुम मेरी भाषा समझ सको । बौद्ध धर्म का यही मतलब था घोषणा क्योंकि मैं क्या कहूं की
कौन कै से कहूँ और हमने कहा मुझे कु छ भी पता नहीं हम तो थे और असंत का मन बहुत घोषणाएं करना चाहेगा की मैं ये हूँ ये हूँ उसे पूरे डर बना
है अगर घोषणा ना की तो कौन कौन जाने कोई पहचान है न पहचाने संत आप स्वस्थ है जो भी है मौन घाटी की भांति है रिक् एक की भांति नहीं ऍम
के शिखर की भांति नहीं आकाश में उठे हुए नहीं घोषणा करते हुए नहीं एक घाटी की भांति छिपे हुए अंधेरे में जिसकी कोई भी घोषणा नहीं आठ में
अंधेरे में गुप्त मौन और सबसे अच्छी बात कही है मत मेले जल की भांति फॅ स संत की सोच सकते हैं आप । कल्पना मटमेले पानी की भांति बरसात में
जो पानी मटमैला होकर बहता है वैसे स्वच्छ होने तक की घोषणा नहीं पवित्रा होने तक की घोषणा नहीं होने की घोषणा नहीं लाइक मदीवाला मत मिले
जल की भांति गंगा के पवित्र जल होने की घोषणा नहीं मत मैले जल की बात नालियों में से भी बह सकते हैं । गंगा में से भी बह सकते कोई अंतर
नहीं पडता है न्यूनतम के साथ उसी तरह जी सकते हैं । जैसे सृष्टि के साथ स्वर्ग में हूँ कि नर्क में कोई भेज नहीं । आखिरी बात जापान का एक
सम्राट संत की खोज में था । लाओ से को ऐसा संत कहाँ मिले? लाइक मडी वॉटर लाइक, ऍम गहन खाई की तरह मटमेले पक्का मिले । मंदिरों में गया
जिनपर स्पैन शिखर थे वहाँ संत मिले शिखरों की भांति । लेकिन वो सम्राट पूछता की खाई की भांति घाटी की भांति मत मेले जल की भांति वो खुद
बता रहा उसे कहीं भी संत नहीं मिले । जैसे संत की वो तलाश में था जब वो अपने गाँव वापस लौट आया था । राजधानी तो गाँव के नगर द्वार पर
ही एक भिखारी भीख मांगता था । उसने चिल्ला करो सम्राट को कहा बहुत बार में घोडे पर आते जाते यहाँ से वहाँ देखता हूँ, किसकी खोज कर रहे
हो? सम्राट ने कहा मैं उसकी खोज कर रहा हूँ संत की जो खाई की भांति होता है । लाओ से ने कहा मिटटी से मिले जल की भांति तो खूब हँसने
लगा । उसने कहा कि जाओगे । सम्राट ने कहा कि तुम ने पूछा फिर कहाँ जाओगे? उस ने कहा कि तुम जाओ ही । सम्राट को बडी हैरानी हुई और
जब गौर की तरफ देखा तो उसे खाई दिखाई पडी उस की आँखों में पर उसने कहा कि तुम तो भिखारी हो और तुम्हारी आँखों में खाई दिखाई पाती है
। मैं तो इसीलिए तुम्हारी तरफ कभी ना देखा कि अधिकारी है । कु छ माँगा लगे और मैं जगह जगह खोजता । फिर तो उस ने कहा कि तुम खोजते थे
वहाँ जहाँ शिखर ही हो सकते हैं तुमने वहाँ खोजा ही नहीं लेकिन किसी को बताना मत । हम भीख मांग के किसी तरह अपने को छिपाए । किसी को
बताना मत । किसी को खबर मत करना । सम्राट तो महल आया । भागा हुआ की खबर कर दे ले गया दरबारियों को लेकिन नहीं खोजा जा सका ।
दूसरे अधिकारियों ने खबर दी को इतना कह गया है कि मैं अर्जुन समस्या घोषणा होगी । सम्राट से मैंने बात कर ली और सम्राट मेरी आँखों में झांक
लिया । मेरे गुरु ने कहा था आँख झुका के रखना कि कोई तेरी खाई को ना देख ले और मेरे गुरु ने कहा था कि भिखारी के वस्त्रों में रहना ताकि मत
मिले जल की बात लाओस लेने ये आंतरिक संके त दी है । आज इतना ही सिर्फ लेकिन पाँच

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