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अध्याय का शीर्षक है ना होने अन अस्तित्व की उपयोगिता । सूत्र इस प्रकार है कि तीसों तिलियों ईलियर उसके मध्यभाग में आकर जुड जाती है किं तु
पहिए की उपयोगिता धुरी के लिए छोडी गई खाली जगह पर निर्भर होती है । मिट्टी से खडे का निर्माण होता है किं तु उसकी उपयोगिता उसके शून्य
खालीपन में निहित है । दरवाजे और खिडकियों को दिवालों में काटकर प्रकोष्ठ बनाए जाते हैं किं तु कमरे की उपयोगिता उसके भीतर के शून्य पर अवलंबित
होती है । इसलिए वस्तुओं का विधायक अस्तित्व तो लाभकारी सुविधा देता है परंतु उनके अन अस्तित्व में ही उनकी वास्तविक उपयोगिता है । जो व्यक्ति
जीवन को ऊपर से ही देख लेते हैं और जीवन की सतह को ही सब कु छ समझ लेते हैं, उन्हें सुनने का उपयोग दिखाई नहीं पडेगा । जो तर्क तक ही
अपने को सीमित रखते हैं और सोच विचार से ज्यादा गहराई में कभी नहीं उतरते उन्हें भी जो उपस्थित नहीं है वह भी जीवन का आधार है । ऐसा कभी
दिखाई नहीं पडेगा । जो गणित की भाषा में सोचते हैं उन्हें जीवन विधायक मालूम होगा । पुँछ मालूम होगा लेकिन जीवन की विधायक ता निगेटिव के
अभाव में नकारात्मक के अभाव में एक क्षण भी नहीं टिक सकती । ये उन्हें दिखाई नहीं पडेगा । इसे हम थोडे उदाहरण से समझें तो ख्याल में आ सके
। लाॅ मौलिक सूत्रों में से एक है । मौलिक सूत्र यह है कि जीवन द्वंद पर आधारित है और जीवन अपने विपरीत का विरोध नहीं करता, विपरीत के
सहयोग से ही चलता है । साधारणता देखने में ऐसा लगता है कि अगर आपका शत्रु मर जाए तो आप ज्यादा सुख में होंगे । लेकिन शायद आपको पता न
हो कि आपके शत्रु के मारते ही आपके भीतर भी कु छ मर जायेगा जो आपके शत्रु के कारण ही आपके भीतर था । इसलिए बहुत बार ऐसा होता है कि
मित्र के मरने पर इतनी हानि नहीं होती जितने शत्रु के मरने पर हो जाती है । क्योंकि वो जो विरोध कर रहा था वही आपके भीतर चुनौती भी जग रहा
था । वो जिसके विरोध और संघर्ष में आप सत्तरह थे, वही आप का निर्माण भी कर रहा था । इसलिए लाओत्से ने कहा है कि मित्र तो कोई भी चल
जाएँगे लेकिन शत्रु सोचकर चुनना क्योंकि मित्र इतने प्रभावित नहीं करते हैं । जीवन को जितना शत्रु प्रभावित करता है क्योंकि मित्र की तो उपेक्षा भी की
जा सकती है, शत्रु की उपेक्षा नहीं की जा सकती है और मित्र को भूला भी जा सकता है । शत्रु को कोई कभी नहीं बोलता है । लेकिन क्या शत्रु भी
जीवन को इतना प्रभावित करता है ये हमारे साधारण विचार में नहीं आता । भारत में अंग्रेजी राज्य ना हो और महात्मा गांधी को पैदा करें तो समझ में
आएगा । महात्मा गांधी में कु छ भी बचेगा नहीं या जो भी बचेगा वो महात्मा गाँधी की तरह पहचाना ना जा सके गा । वो जो ब्रिटिश का विरोध है वो जो
शत्रुता है वो निन्यानवे प्रतिशत उन्हें पैदा करती है । इसलिए जब कोई देश संकट में होता है तब वहाँ महापुरुष अपने आप पैदा हो जाते हैं । इसलिए
नहीं कि संकट में महापुरुष को पैदा होना पडता है । संकट महापुरुष को पैदा करता है । संकट की घडी तनाव की घडी महापुरुष को पैदा करती है ।
हिटन ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि बिना किसी बडे युद्ध के कोई बडा नेता नहीं हो सकता । इसलिए बडा नेता हो ना हो तो युद्ध बहुत जरूरी है
। एक दम जरूरी है । आप ऐसा एक भी बडे नेता का नाम नहीं बता सकते जिसे शांति के समय में पैदा किया हो । सभी बडे नेता युद्ध की वजह पैदा
होते हैं इसलिए जिसको बडा नेता बनना हो उसे युद्ध का इंतजाम करना पडता है । बिना युद्ध का इंतजाम किये कोई बडा नहीं हो सकता । जीवन विपरीत
के सहयोग से चलता है । विपरीत के विरोध से दिखाई पडता है लेकिन सहयोग से चलता है । इससे हम और पहलुओं से भी समझे तो ख्याल में आ
जाएगा । अगर हम रावण को हटा दे रामायण से तो अके ले राम से खता निर्मित नहीं होती । ऐसा तो हो भी सकता है कि रावण होराम पैदा हो लेकिन
राम का कहीं भी पता नहीं चलेगा । क्योंकि राम के व्यक्तित्व का सारा निखार रावण के विरोध से उभरता । राम जितने महिमा साली दिखाई पडते हैं उस
महिमा में रावण का बडा कं ट्रीब्यूशन, बडा दान राम अके ले निर्मित नहीं हो सकते । रावण के बिना रावण भी निर्मित नहीं हो सकता है । राम के दिन वो
एक दूसरे के सहारे बडे होते हैं । सत्य तो यही है लेकिन ऊपर से जो देखता है वो देखता है । वो एक दूसरे की शत्रुता में है, एक दूसरे के विरोध
में है लेकिन जीवन का गहन सत्य ही है कि वे साझेदार है, उन्हें भी पता ना हो । जरुरी नहीं है कि उन्हें पता हो कि एक बहुत सूक्ष्म तल पर एक
साझेदारी है, एक मित्री है, एक सहयोग है, जीवन निर्मित ही नहीं होता । विकसित ही नहीं होता जब तक विपरीत ना हो विपरीत अनिवार्य है फॅ सने
इस सदी में एक बहुमूल् सत्य की खोज की और वो ये कि हम जिसको भी प्रेम करते हैं उसे हम घृणा भी करते हैं । बहुत चौंकाने वाली बात थी,
खुद फ्लाइट को भी चौंकाने वाली थी और लोगों को बहुत सदमा लगा । खासकर प्रेमियों को बहुत सदमा लगा क्योंकि प्रेमी कभी मान नहीं सकता कि हम
जिसे प्रेम करते हैं उसे घृणा भी करते हैं । लेकिन सभी प्रेमी जानते हैं मानते भला ना हो इसलिए फ्रॉड कोई इनकार बहुत किया गया लेकिन इंकार किया
नहीं जा सका और धीरे धीरे सत्य को स्वीकार करना पडा । हम जिसे प्रेम करते हैं उसे हम घृणा भी करते हैं क्योंकि प्रेम बिना घृणा के खडा नहीं रह
सकता । इसलिए अगर आपने किसी को प्रेम क्या है और अगर आप ईमानदार हो और विश्लेषण करें, आप पाएंगे सुबह घृणा की है । दोपहर प्रेम क्या
है? सांझ घृणा की है । रात प्रेम क्या है? घृणा और प्रेम प्री मेडिकल बदलते रहे जिससे सुबह कलर की है और सोचा है इसके साथ क्षण भर जीना
असंभव है । सांझ उससे सुलह की है और सोचा है इसके बिना क्षण भर भी जीना असंभव पुराने प्रेम के जानकारों ने कहा था कि प्रेमपूर्ण तभी होता है
जब उसमें कल हो ना हो और फॅ मिली जीतना पूर्ण प्रेम होगा, उतनी ही पूर्ण उसमें कलर होगी । अगर दो प्रेमियों में झगडा नहीं हो रहा है तो उसका
कु ल मतलब इतना है कि दो प्रेमी से धोखा दे रहे हैं । प्रेम नहीं फॅ र अगर आप और आपकी पत्नी में कोई कलह नहीं हो रही तो इसका मतलब ये है
कि पति और पत्नी होना बहुत पहले समाप्त हो गया । आप कलह की भी कोई जरूरत नहीं रह गई । जितना गहन प्रेम होगा तथा जिसे हम प्रेम कहते
हैं, किसी आध्यात्मिक प्रेम की बात फॅ र जिसे हम प्रेम कहते हैं और जिसे हम जानते हैं । आध्यात्मिक प्रेम को हम जानते भी नहीं । जिस प्रेम को हम
जानते हैं उस प्रेम में कल है कनफ्लिक्ट अनिवार्य हिस्सा है लेकिन प्रेमी भी चाहेगा, प्रेसी भी चाहेगी, पति भी चाहेगा । पत्नी भी चाहेगी की कलह बंद हो
जाए तो प्रेम में बडा आनंद आए । उन्हें जीवन के सत्य का पता नहीं । जिस दिन कल पूरी तरह बंद होगी उस दिन प्रेम पूरी तरह समाप्त हो चुका होगा
। असल में कलह बंद हो ही नहीं सकती उससे जिससे हमारा प्रेम चल रहा है । कलह का मतलब ही यही है की अपेक्षा है बडी अपेक्षा है और जितना
बडा प्रेम है उतनी बडी अपेक्षा है और जितनी बडी अपेक्षा है उतनी ही विफलता लगती है । उतना फ्रस्ट्रेशन होता है । हाथ में कु छ लगता नहीं फिर
कलह होती है । अगर कोई अपेक्षा ना रह जाए, कोई ॅ हो, कोई मांग ना हो, कोई आसान ना बच्चे । किसी सपने के पूरे होने का कोई ध्यान ना हो
तो कल बंद हो जाती है । तब हम जीवन जैसा है उसे स्वीकार कर लेते तो फॅ मिली बडे प्रेमी शांति से रह ही नहीं सकते । एक बहुत अनूठे आदमी
दिशा देने अपने वक्तव्य में कहा है कि प्रेम एक तरह की बीमारी है और बीमारी इसलिए कहा है कि प्रेम को तो हम निमंत्रण देते हैं और घृणा हाथ आती
है । वो दोनों एक ही चीज के दो पहलू हैं । एक ही सिक्के के दो पहलू हैं तो जिससे भी प्रेम होगा उससे घृणा का खेल चलेगा, अके ली घृणा भी नहीं
टिक सकती । इसलिए अगर आप सोचते हो कि व्यक्ति से मेरी घृणा है, आप भूल में है क्योंकि अके ली घृणा नहीं टिक सकती । जिस व्यक्ति से आपका
प्रेम सेट हो, अभी उससे घृणा टिक सकती अन्यथा घृणा भी नहीं टिक सकती । अगर आप की किसी से दुश्मनी गहरी है और घृणा भरी है तो आप
खोजबीन करना भीतर । अभी भी प्रेम का सूत्र कहीं ना कहीं बंदा है । अगर प्रेम का सूत्र बिलकु ल टू ट गया हो तो गृह का सूत्र भी टू ट जाता है ।
इसलिए मित्र और शत्रु दोनों से हम बंदे होते हैं, मित्र से ऊपर से प्रेम होता है, नीचे से घृणा होती है, शत्रु से ऊपर से घृणा होती है, नीचे से प्रेम
होता है लेकिन बंधन दोनों से बराबर होते हैं । ये थोडा कठिन लग सकता है क्योंकि प्रेम के संबंध हमारी बडी अपेक्षाएं होती है । लेकिन हम और जीवन
के दूसरे पहलू से समझे दिनभर एक आदमी श्रम करता है तो होना तो यह चाहिए जिस आदमी ने दिनभर श्रम क्या है वो रात विश्राम ना कर सके
क्योंकि जिसका दिनभर का श्रम का अभ्यास है उसे रात में नींद नहीं आनी चाहिए । लेकिन जिसका जितने श्रम का अभ्यास है वो उतनी गहरी नींद में
उतर जाता है । जिस आदमी ने दिनभर विश्राम किया है होना तो यह चाहिए कि रात उसे गहरा विश्राम मिले, गहरी नींद आ जाए क्योंकि दिनभर विश्राम
का अभ्यास है उसका । लेकिन जिसने दिनभर विश्राम किया है वो रात सो ही नहीं पाता । असल में जिसने श्रम क्या है उसने श्रम का जो दूसरा
विपरीत पहलू है, विश्राम वो अर्जित कर लिया और जिसने विश्राम किया है उसने जो विश्राम का दूसरा पहलू है श्रम वो अर्जित कर लिया । इसलिए
जिसने दिनभर विश्राम किया है वो रात भर करवटें बाल के श्रम करेगा । वो रात सो नहीं सके गा । वो जो विपरीत है उससे हम बच नहीं सकते । वो
विपरीत सादा वहाँ खडा हुआ है । अगर रात विश्राम चाहिए तो हम दिन में श्रम करना पडेगा और जितना ज्यादा होगा श्रम उतना विश्राम होगा । ज्यादा
इसलिए मजे की बात है जो बहुत श्रम में जीते हैं । जिन्हें विश्राम की फु र्सत नहीं मिलती वे गहरे विश्राम को उपलब्ध होते हैं और जिन्हें विश्राम की पूरी
सुविधा है उन्हें विश्राम ही एक समस्या हो जाती है क्योंकि विश्राम उपलब्ध होता नहीं है, हम जीते हैं । ऊपरी तर्क के सहारे हम कहते हैं अगर रात
विश्राम चाहिए तो दिन भर विश्राम करो । ये सीधा तर्क है लेकिन जीवन का इससे कोई संबंध नहीं । ये वही तर्क है कि अगर हम चाहते हैं किसी से
प्रेम करो तो कल है, बिल्कु ल मत करो । वही तर्क है ये भी लेकिन उल्टा है जीवन ठीक वैसा ही उल्टा है । जैसे कि बिजली के नॅान छोर होते हैं,
ऋणात्मक और धनात्मक विद्युत के छोर होते हैं । उन दोनों के होने से ही विद्युत की गति है और जीवन इसमें से एक को हम काट दे तो दूसरा भी
खो जाता है । लेकिन विपरीत को स्वीकार करना बडा कठिन है और जो विपरीत को स्वीकार कर लेता है उसे मैं सन्यासी कहता हूँ । उसे लव से ज्ञानी
कहता है जो विपरीत को स्वीकार कर लेता है । विपरीत को स्वीकार करने का मतलब ये है की अगर आज आप मुझे सम्मान देने आए हैं तो मुझे
स्वीकार कर लेना चाहिए । किसी तल पर की आपके भीतर मेरे लिए अपमान भी इकट्ठा होगा ही, इससे बचा नहीं जा सकता है । और अगर मैं आपका
सम्मान स्वीकार कर रहा हूँ तो मुझे तैयारी कर लेनी चाहिए कि आज नहीं कल मुझे आपका अपमान भी सहना पडेगा । अगर इस जानकारी के साथ में
आपके सम्मान को स्वीकार करता हूँ तो आपका सम्मान मुझे सुखना दे पाएगा और आपका अपमान मुझे दुख नहीं दे पाएगा क्योंकि मैं आपके सम्मान के
भीतर गहरे में देख लूँगा की वो भी अपमान है और आपके अपमान में भी गहरे में देख लूँगा की वो भी सम्मान क्योंकि एक आदमी अगर मेरे ऊपर जूता
फें क जाए तो यह भी अकारण वो क्यों करेगा? इतना गरम उठाता है तो मुझे कु छ लगाओ तो है ही । मुझ से कु छ संबंध तो है ही और एक माला जो
डाल जाता है शायद माला सस्ती भी होती जूता उससे थोडा महंगा ही है लगाओ उसका भरी है बेचेनी उसकी तीव्र है वो मेरे लिए कु छ ना कु छ करेगा
ही । अगर मैं उसके अपमान में उसके सम्मान को भी देख लूँ की वो मेरे लिए कु छ कर रहा है, श्रम उठा रहा है तो उसके अपमान का दंश हो जाता
है । और अगर मैं सम्मान में भी देख लूँ कि आज नहीं कल दूसरा पहलू भी प्रकट
होगा तो सम्मान का जो लुशिन है जो भ्रम है, जो स्वप्न है वो तिरोहित हो जाता है । और तब सम्मान और अपमान एक ही सिक्के के दो पहलू हो
जाते हैं । और जिस व्यक्ति को सम्मान और असम्मान एक ही सिक्के के दो पहलु दिखाई पडते हैं वो दोनों के बाहर हो गया । जीवन सब दिशाओं से
बिक्री से बंधा हुआ है लेकिन जब हम एक पहलू को देखते हैं तो दूसरे को बिल्कु ल भूल जाते हैं । वही भूल हमारे जीवन का सबसे बडा दुर्भाग्य जब हम
एक को देखते हैं तो दूसरे को बिलकु ल विस्मृत कर जाते हैं । जब हम कांटे देखते हैं तो हम फु ल नहीं देखते हैं । जब हम फू ल देखते हैं तो हम कांटे
नहीं देखते और फू ल और कांटे एक ही वृक्ष पर लगे और फू ल और कांटे के भीतर जो रस बह रहा है वो एक ही रस । वो एक ही शाखा दोनों को
प्राण दे रही है और एक ही जगह दोनों को जीवन दान कर रही है और एक ही सूरज दोनों पर किरणे बरसा रहा है और एक ही माली ने दोनों को
फू ल दिया है और एक ही अस्तित्व से दोनों का आगमन हुआ । वे दोनों एक है गहरे में लेकिन जब हमें फू ल दिखाई पडते हैं तो फू ल हमारी आँखों को
इस बुरी तरह छाप देते हैं कि कांटो को हम भूल जाते हैं और जितने ज्यादा आप भूलेंगे उतनी जल्दी कांटे चुप जाएंगे । देर नहीं लगेगी लेकिन जब कांटे
चुभते हैं तो हमें फिर चुभ नहीं । याद रह जाती फू ल हमें बिल्कु ल भूल जाते हैं । हम ये भी भूल जाते हैं कि फू लों के लगाव में ही ये चुभन हमने
कमाई फू लों में रस लिया था इसलिए फल भी भोगा है । लेकिन जब कांटा दिखाई पडता है तो फू ल तिरोहित हो जाता है । हमारी दृष्टि सादा आंशिक
है, पार्शल है । मानसिक दृष्टि ही अज्ञान आंशिक दृष्टि गलत नहीं है । वो भी सत्य को तो देखती है लेकिन अधूरे सत्य को देखते हैं और शेष जो दूसरा
हिस्सा है वो इतना विपरीत मालूम पडता है कि हम दोनों में कोई संगती भी नहीं जोड पाते । कै से संगती जोडे जो आदमी आज गले आके लग गया है
और जिस ने कहा है कि कि तुम्हारे सिवाय मेरा कोई भी नहीं और तुम ही मेरी तुम्ही मेरे गीत हो । हम कै से कल्पना करें कि यही आदमी कल छाती
में छु रा भी भूख सकता है? संगती नहीं, कं सिस्टेंट नहीं मालूम होता है । तर्क कन्सिस्टेन्सी चाहता है, संगती चाहिए इसमें कोई संगति नहीं मालूम है ये
आदमी कै से छु रा भोंक सकता है । यही आदमी छु रा भौंक सकता है । जीवन की जो गहराई है वो यही जीवन की जो गहराई है वो यही क्योंकि जिससे
इतना संबंध हुआ है वो छाती में छु रा भोंकने भी कभी नहीं आता । क्या आप किसी आदमी को बिना मित्र बनाए शत्रु बना सकते हैं और क्या ऐसा हो
सकता है कि मित्र तो वो छोटा रहा हूँ और शत्रु बडा हो जाए? नहीं ये नहीं हो सकता । अनुपात जितना मित्र रहा हो उतना ही सत्र हो सकता है ।
रखती भर ज्यादा सत्रह नहीं हो सकता मैं कै वेली ने अपनी सलाह में डी प्रिंस में सम्राटों के लिए लिखा है कि जितने घनिष्ठ तुम्हारे मित्र हो उतने ही
उनसे सावधान रहना । ये सलाह तो चालाकी की है लेकिन उसमें सत्य हैं । जितनी घनिष्ठ मित्रता उतने ही सावधान रहना क्योंकि उतना ही बडा खतरा
भी निकट है । मैं के वल ली ने लिखा है कि अगर चाहते हो कि शत्रुओं को सत्य का पता ना चले तो मित्रों को पता मत चलने देना । शत्रुओं को पता
ना चले । सत्य का तो मित्रों को पता मत चलने देना और ये भी लिखा है कि किसी भी सत्र के साथ ऐसा व्यवहार मत करना कि किसी दिन वो मित्र
हो जाए तो पछतावा हो क्योंकि कोई भी शत्रु किसी भी दिन मित्र हो सकता है और जीवन प्रतिपल बदलता रहता है । यहाँ कु छ भी फिर नहीं एक अति
से दूसरी अति पर जीवन डु लता रहता है । जीवन की गहराई में विरोध संयुक्त थे और जीवन की सतह पर विरोध नियुक्त है । अलग अलग जो सतह को
देखता है वो लाओ उससे को नहीं समझ पाएगा क्योंकि लाओ से जो अल्ट अमिट पोल रिटी है, जो आखरी दुरवित ता है जीवन की उसकी बात कर
रहा है । वो कहता है पहिए की तीस तिलियां उसके मध्यभाग में आकर जुड जाती है किं तु पहिए की उपयोगिता धुरी के लिए छोडी गई खाली जगह पर
निर्भर है चाप देखे बैलगाडी का आरे किलिया जुडी है कें द्र से लेकिन बडी अद्भुत बात है की चाक चलता है किलिया घूमती है लेकिन चाक के बीच में
खाली जगह फॅ स है उसी खाली जगह पर ये सारा चाक का घूमना है । उस खाली जगह में क्यूल है और एक मजे की बात है कि चाप तो चलता है
और किल खडी रहती है । खडी हुई किम पर चक्के का चलना घूमता है । अगर किल भी चल जाए तो चाक ना चल पाए चल सकता है क्योंकि किल
नहीं चलती अचल है किल अचल किल पर चलता हुआ चाक घूमता है और जितनी अचल हो किलचा उतना ही कु शलता से घूम सकता है । ये विपरीत
का नियम है और खाली जगह है चाक के बीच में खाली जगह उसी में तो किल आकर बैठेगी वो जो खाली जगह है चाक के लाओ से कहता है शायद
तुम्हें दिखाई भी ना पडे की वही खाली जगह चाक का असली राज है क्योंकि वही सेंटर वही कें द्र उस खाली जगह के बिना चाक नहीं हो सकता है ।
इसका मतलब ये हुआ कि जहाँ जहाँ भर आपन दिखाई पडता हो, वहाँ गहरे में खालीपन भी मौजूद होगा । इसे हम थोडा समझ ले । अगर आपको
रास्ते पे चलते हुए भिक्षापात्र हुए बुद्ध मिल जाए तो एकदम खाली आदमी मालूम पडेंगे । उनके पास कु छ भी नहीं । एक भिक्षापात्र कु छ भी नहीं, कोई धन
नहीं, कोई पद नहीं, कोई प्रतिष्ठा नहीं, कोई महल नहीं । एक दिन था । अगर उस दिन आपको बुद्ध मिले होते तो उनके पास सब कु छ था, धन
था, महल था, राज्य था, साम्राज्य था, बडी शक्ति थी, बडी प्रतिष्ठा थी, वो सब था उनके चारों तरफ एक दिन उनके पास सब था लेकिन बुद्ध को
लगा कि मैं भीतर खाली हूँ । बाहर सब भर आपन था और बुद्ध को लगा कि भीतर में खाली हूँ । चाक पूरा भरा था और खेल बिल्कु ल खाली थी ।
बुद्ध को लगा बाहर ये सब बना हुआ रहा है । इससे क्या मिलेगा । जब तक मैं भीतर खानी तो बुद्ध ने वो सब छोड दिया । फिर एक दिन वो भिखारी
की तरह सडक पर जा रहे हैं । अब आप अगर उनको देखेंगे तो बाहर सब खालीपन लेकिन भीतर वो आदमी बिल्कु ल भरा हुआ है । त्याग की तपश्चर्या
की सारी धारणाएं इसलिए पैदा हुई क्योंकि इस रहस्य को समझ लिया गया । अगर आप बाहर भरने में लगे रहेंगे तो भीतर खाली रह जायेंगे क्योंकि हर
भरे पन के भीतर खाली अनिवार्य और अगर आप भीतर भरना शुरू करते हैं तो बाहर आपको खाली होने के लिए राजी होना पडेगा क्योंकि दोनों बातें एक
साथ नहीं संभाली जा सकती है । आप चाहे की बाहर भी भरा हो, भीतर भी भरा हो ये संभव नहीं क्योंकि जीवन विपरीत के नियम को मानकर चलता
है तो आपको पोल र्इटी को समझना पडेगा । अगर आपको भीतर भरे हुए मनुष्य होना है, चाहते हैं कि भीतर परमात्मा भर जाए तो बाहर संसार के
भरा वट को आपको चिंता छोड देनी पडेगी, बाहर की पक्का छोड देनी पडेगी । एक लिंकिं ग छोड देनी पडेगी तो भीतर की पकड उपलब्ध होगी लेकिन
बाहर बाहर खालीपन फै ल जायेगा । बुद्ध से मिलने एक सम्राट आया और उसने बुद्ध से कहा है कि तुम्हारे पास सब था और तुम छोडकर क्यों चले
आए? अभी भी कु छ नहीं बिगडा है । किसी दुख में किसी चिंता में कभी ऐसी भूल हो जाती है । तुम्हारे पिता मेरे मित्र है । मैं उन्हें समझा ले सकता
हूँ तुम्हारे घर तुम्हें वापस लौटा दे सकता हूँ । अगर तुम्हारा पिता से ऐसा कु छ विरोध हो गया हो की तुम घर जाना ही ना चाहो तो मैं भी कोई पराया
नहीं । तुम्हारे पिता जैसा ही तुम मेरे घर आ जाओ । फिर तुम सोचते हो कि किसी का एहसान लेना ठीक नहीं । तो मेरी एक ही लडकी है मेरा कोई
पुत्र नहीं, मैं तुम्हारा विवाह किये देता हूँ । मेरी सारी संपत्ति सारे साम्राज्य के तुम मालिक हो जाओ । इस बीच जब वो ये सारे प्रौं ये सारे प्रस्ताव दे
रहा है तब उसने एक बार भी बुद्ध की तरफ नहीं देखा की वो हंस रहे हैं । जब वो अपनी पूरी बात कह चुका और उसने कहा कि क्या इरादे कहाँ
तुम मुझे सोचते हो कि मेरे पास कु छ नहीं और मैं सोचता हूँ कि तुम्हारे पास कु छ नहीं ऐसे तुम भी ठीक सोचते हो । मैं भी ठीक सोचता हूँ । सिर्फ
हमारे सोचने के क्षेत्र अलग अलग है । तुम्हारे पास बाहर सब कु छ है मेरे पास बाहर कु छ भी नहीं इसलिए स्वभाव ता तुम्हें दिखाई पडता है । बेचारा
गरीब इससे किसी तरह वापस समृद्धि में लौटा दो । मैं भी देखता हूँ मेरे भीतर सब कु छ है तुम्हारे भीतर कु छ नहीं मेरा मन होता है बेचारा गरीब इसे
भीतर किसी तरह भर दो तो बुद्ध ने उस सम्राट से कहा की मैं दोनों जन चुका हूँ जो तुम मुझे दे सकते हो, सब मेरे पास था जो तुम मुझे आश्वासन
दे सकते हो उस से बहुत ज्यादा मेरे पास था । उसे मैं छोड कर आया हूँ और मैं तुमसे कहता हूँ कि मेरे पास अब सब कु छ है और तब मेरे पास
कु छ भी नहीं था और तुम्हें एक ही अनुभव है सब कु छ होने का जिससे तुम सब कु छ समझ रहे हो तुम मेरी मानो और ये भिक्षापात्र हाथ में लो और
सन्यास में दीक्षित हो जाओ । एक विपरीतता है कहीं भी से कहता है बैल गाडी का चाक चलता है छाप की किले भरी हुई लेकिन चाक अपने कें द्र पर
शून्य उसी शून्य पर चलता है लेकिन वो शून्य हमें दिखाई नहीं पडता । शून्य का मतलब ये होता है की जो दिखाई नहीं पडता । दृश्य सादा अद्रश्य के
ऊपर निर्भर होता है । ये ऍम अभी तरफ रहेगी । दृश्य अदृश्य पर निर्भर होगा । शब्द मोहन से पैदा होता है । जीवन मृत्यु के साथ टिका हुआ है
लेकिन वो दूसरा दिखाई नहीं पडता से उसे समझाने के लिए फिर कहता है मिटटी से घडे का निर्माण होता है किं तु उसकी उपयोगिता उसके शून्य खालीपन
में निहित है । एक घडा हम बनाते हैं मिट्टी का लेकिन अगर ठीक से पूछे तो घडा कहाँ है उस मिट्टी में या मिट्टी के भीतर जो खालीपन है उसमें जब
आप बाजार से घडा खरीद कर लाते हैं आप घडे के लिए खडा खरीद कर लाते हैं कि वो जो खालीपन है भीतर उसके लिए खडे को खरीद कर लाते
हैं क्योंकि पानी घडे में नहीं भरा जा सके गा । खालीपन में भरा जा सके गा खाली जितना होगा घडा उतना ही उपयोगी है । बाहर की मिट्टी की दिवाल की
उपयोगिता है क्योंकि वो खालीपन को घेरती और सीमा बना देती है । बस लेकिन असली खडा तो खालीपन है लेकिन दिखाई तो हमें पडता है गडा
खालीपन तो कोई देखता नहीं और आप बाजार में खालीपन खरीदने नहीं जाते । घडा खरीदने जाते । आप दम खालीपन के नहीं चुकाते घडे की मिट्टी के
चुकाते है । बडा खडा होगा तो ज्यादा दाम चुकाएंगे, छोटा खडा होगा, थोडे दाम चुकाएंगे । मिट्टी पर निर्भर करेगा कि दम कितने मिट्टी पर निर्भर करेगा
कि दम कितने खालीपन पर निर्भर नहीं करेगा । यद्यपि घडे की परम उपयोगिता उसके खालीपन मैं घर जाके पता चलेगा कि मिट्टी कितनी ही प्यारी रही
हो लेकिन अगर भीतर का खालीपन नहीं तो घडा बेकार हो गया । मिट्टी कितनी ही सुंदर रही हो लेकिन अगर भीतर घडा बंद है और उसमें खालीपन
नहीं, मिट्टी ही भरी है तो खडा बेकार हो गया । लाना व्यर्थ हो गया । खालीपन की उपयोगिता है । लव से कहता है हम एक मकान बनाते हैं हम यहाँ
बैठे हुए हम कहते हैं हम मकान में बैठे हुए हैं लेकिन अगर लावा से पूछे तो वो कहेगा हम खालीपन में बैठे हुए हैं । मकान तो ये दीवाने है जो चारों
तरफ खडी है । इन दीवारों में कोई भी बैठा हुआ नहीं । ये दीवाने के वल बाहर के खालीपन को भीतर के खालीपन से अलग करती है । बस इनका
उपयोग सीमांत का है । बाहर के आकाश को भीतर के आकाश से विभक्त कर देती है । इस की सुविधाएं इसकी जरुरत है । बस दीवाल का उपयोग
इतना है लेकिन दीवाल में कोई बैठता नहीं बैठते तो हम खाली आकाश में । इस इस भवन के भीतर उपयोग हम वसुधा किसका करते हैं । खालीपन का
तो जितना खालीपन हो उतना ये उपयोगी हो जाता है । जितना खालीपन हो उतना उपयोगी हो जाता है । मकान की उपयोगिता उसके खालीपन पर है ।
दरवाजे और खिडकियों को दीवारों में काट कर हम प्रकोष्ट बनाते हैं, कमरे बनाते हैं किं तु कमरे की उपयोगिता उसके भीतर के शून्य पर अवलंबित होती है
। फॅ से ये कह रहा है कि जहाँ उपयोगिता दिखाई पडती है वहाँ नहीं उससे विपरीत में निर्भर होती है । जब आप मकान बनाते है तो आपने कभी सोचा
कि आप एक शून्य बना रहे हैं, खालीपन बना रहे हैं । नहीं आप जब मकान बनाते हैं तो दीवाल का नक्शा
तैयार करते हैं, दरवाजों के तैयार करते हैं सुनने का तो आप कोई नक्शा तैयार नहीं करते लेकिन ठीक देखा जाए तो दरवाजे और दीवारों के द्वारा
शून्य का ही तैयार करते हैं । वो जो शून्य है उसको आकार देते हैं । लेकिन आकार ऊपर से दिखाई पडता है । मूल्यवान भीतर तो मूल्यवान शून्य ही
है । और इसलिए कभी भी ये भी हो सकता है कि एक झोपडा भी बडा हो । एक महल से इसपे निर्भर करता है भीतर कितना शून्य कितनी स्पेस
अक्सर अक्सर मैंने पाया है कि अगर एक गरीब आदमी से कहो कि एक मित्र आये हैं उन्हें अपने घर में ठहरा लो तो वो कहता है ठीक है ठहरा लेंगे ।
अगर मैं किसी बडे आदमी को कहता हूँ कि एक मित्र आये, उन्हें ठहरा लोग । वो कहते हैं कि स्थान नहीं उनके पास स्थान ज्यादा है । लेकिन वो
कहते हैं, स्थान नहीं क्या हुआ क्या है? गरीब के पास वस्तुत नापने जाए तो स्थान कम है । आमिर के पास स्थान ज्यादा है, लेकिन आमिर का
स्थान इतनी चीजों से भरा हुआ है, भरे हुआ है । स्थान नहीं के बराबर है । मैं करोडपति के घर में ठहरा हुआ था । उन की बैठक देखकर मुझे लगा
कि वो बैठक नहीं कही जा सकती कि उसमें बैठने की जगह ही नहीं थी । वो कोई मुँह मालूम होता है । उन्होंने ना मालूम कितने ढंग का फर्निश शर्मा
इकट्ठा कर रखा था । वो फर्निचर ऐसा नहीं था कि बैठने के लिए हो । फर्निचर ऐसा था, देखने के लिए था । सदियों पुराना कहते थे कि तीन सौ
साल पुराना फ्रें च फर्निचर । ये इतने सौ साल पुराना वाला फर्निचर है । मैंने कहा कि ये सब ठीक है, लेकिन इसमें बैठक कहाँ है? फर्नीचर ही था ।
उसमें बैठ नहीं सकते नहीं थे । जगह भी वहाँ मूव करने की जगह भी नहीं थी । कु छ कमरे में से निकलना होता । आपको बच के निकलना पडे । वो
उसमें भरते चले गए थे । जो भी उन्हें पसंद आता था वो लाते चले गए थे । जब मैंने उनसे कहा कि इसमें बैठक कहाँ तो बहुत चौके । उन्होंने कहा
ये तो मुझे खुद भी ख्याल नहीं रहा । जब शुरू किया था तो बैठक की तरह ही इसको शुरू किया था । फिर धीरे धीरे सब भरता चला गया । अब तो
ये कोई आता है मेहमान तो उसे हम दिखा देते हैं । उसमें बैठक नहीं बची है । ऐसा बाहर तो बहुत आसानी से घट जाता है । भीतर भी इतनी ही
आसानी से घट जाता है । जब आप एक आदमी के शरीर को प्रेम करते हैं तब आप भूल जाते हैं कि वो भीतर जो स्पेस है जिसे हम आत्मा कहते हैं
वो भीतर जो जगह है वो भी है या नहीं तो जैसे एक आदमी खडे को खरीद लेता है । ऊपर की हालत देखकर कारीगरी देखकर ये भूल ही जाता है
कि भीतर पानी भरने की जगह भी है । वैसे ही आदमी एक शरीर को देख के प्रेम में पड जाता है । ये भूल ही जाता है कि भीतर आत्मा स्पेस जैसी
कोई चीज भी है । भीतर कोई जगह है जहाँ मैं प्रवेश कर सकूँ गा नहीं । चमडी को देखकर शरीर को देखकर हड्डियों के उतार को देखकर एक आदमी प्रेम
में पड जाता । फिर पीछे बहुत पछताता है । फिर वो पीछे कहता है कि मैं कै से भूल में पड गया लेकिन कोई भूल नहीं । भूल इतनी ही है के वल कि
आदमी भी शरीर से महत्वपूर्ण नहीं होता । शरीर जरूरी है । आदमी भी भीतर जितना आकाश होता है, उसके जितनी रिक्तता होती है, जितना खालीपन
विस्तार होता है, जितनी स्पेस होती है उससे महत्वपूर्ण होता है । उसी स्पेस का नाम आत्मा है । जब हम कहते हैं कि कितनी आत्मा है आपके भीतर
तो इसका मतलब है कि कितना समझ सकते हो । भीतर कितनी जगह अगर एक कोई जरा सी गाली दे देता है तो भीतर नहीं समझा सकते तो आत्मा
बहुत कम, जरा सी गाली । अगर भवन भीतर बडा होता तो शायद गूंज भी ना पहुँचती । पता भी नहीं चलता है कि कोई गाली दी गई । एक जरा सा
कोई पत्थर मार देता है तो भीतर कोई जगह नहीं तो उस पत्थर को भी विश्राम मिल जाए । नहीं, तत्काल भीतर से पत्थर दो गुना बडा होकर वापस
लौट आता है । अगर हम एक खालीपन में पत्थर फें के तो खालीपन पत्थर को वापस नहीं भेजेगा । अगर हम एक दीवार में पत्थर फें के तो दीवाल पत्थर
को वापिस भेज देगी । जो आदमी प्रतिक्रियाओं में जीता है, रॅाव है भीतर खाली नहीं । इधर हमने फें का, वहाँ से वापस लौट आया । वहाँ कोई चीज
समझ नहीं सकती । वहाँ कोई स्थान नहीं लेकिन प्रेम का वास्तविक फू ल तो इसी स्थान में खेलता है । फॅारेन की बात नहीं कर रहा हूँ । अब उस प्रेम
की बात कर रहा हूँ जिसे हम जानते ही नहीं । अब उस प्रेम की बात कर रहा हूँ जिसमें हमारा प्रेम भी नहीं होता और हमारी घृणा भी नहीं होती ।
अब उस प्रेम की बात कर रहा हूँ जहाँ फू ल और कांटे दोनों ही नहीं होते । जहाँ तो के वल फू ल और कांटे के नीचे रहने वाली रस की धार ही रह
जाती है । लेकिन वो भीतर का रिक्त अपन कहाँ हम देखते हैं भीतर हम नहीं देखते के पास अगर कोई नमस्कार भी करता था तो कभी कभी ऐसा होता
था कि उसने नमस्कार की और घंटे बर्बाद लाओ से जवाब देगा कि नमस्कार वो आदमी अब तक भूल ही चुका था कि नमस्कार भी उसने की थी । अब
तक वो ना मालूम कितनी बातें लाओ के खिलाफ सोच चूका था कि आदमी ठीक नहीं, मैं नमस्कार कर रहा हूँ । कब तक जवाब भी नहीं दिया । एक
मित्र ने एक दिन लाओ को कहा कि ये भी कोई ढंग है । ये भी कोई शिष्टाचार है कि एक आदमी नमस्कार करता है और तुम घंटे बर्बाद जवाब देते हो
। लव सेना का कम से कम उसके नमस्कार मुझ तक तो पहुँच जाए । मेरे हृदय में मैं उसे से लूँ, मेरे हृदय में वो विश्राम कर ले, इतनी जल्दी लौटा
देना अशिष्टता होगी इतनी जल्दी लौटा देना इतना इंप्रेशंस इतना अधैर्य की किसी ने कहा नमस्कार! हमने कहा नमस्कार ना हमें कोई प्रयोजन है, ना उसे
कोई प्रयोजन । ये सिर्फ निपटारा है । बात समाप्त हो गयी, झंझट हुई । ऊपर से देखने पर लगेगा कि लव से कै सी बात कर रहा है । लेकिन नमस्कार
करने वाला भूल चुका है और लव से भी नमस्कार का जवाब दे रहा है । तो इस घंटे भर वो नमस्कार के साथ रहा । इस घंटे भरे नमस्कार उसके
प्राणों में गूंजी । ये प्रतिक्रिया नहीं, ये बटन दब आई और पंखा चल गया । ऐसी आंतरिक घटना नहीं, ये जीवन रिस्पाॅन्स है । रीएक्शन नहीं री ऍम
तत्काल हो जाता है । प्रतिक्रिया का मतलब होता है वो यांत्रिक है । यहाँ हमने बटन दबाया, बिजली जाली बटन बुझाया, बिजली बुझ गई । बिजली ये
नहीं कह सकते की तुम दबाते रहो बट मैं थोडी देर से बोलती हूँ वो यांत्रिक है । एक आदमी ने गाली दी । आपके भीतर क्रोध की लपट जाग गयी,
वो उतनी यांत्रिक है । एक आदमी ने प्रेम की बात कही । आप गदगद हो गए, आपकी छाती फू ल गयी वो उतनी ही यांत्रिक है । बटन कोई दबा रहा
है और आप फू ल रहे हैं, सिकु ड रहे हैं इसलिए चौबीस घंटे आपको कितनी मुसीबत से गुजरना पडता है । इसका हिसाब नहीं कि हर कोई बटन दबा
रहा और वही आपको होना पड रहा है । एक आदमी ने गाली दी और आप गए एक आदमी ने मुस्कु राकर देखा और आपकी जिंदगी में बाहर आ गई
और एक आदमी ने आपकी तरफ नहीं देखा और आपके दिए बुझ गए और सब अमावस की रात हो गई । चौबीस घंटे आपको गिरगिट की तरह पूरे समय
ऍम करना पड रहा । आपके पास कोई आत्मा नहीं, भीतर कोई जगह नहीं है इसलिए सतह से सब चीजें लौट जाती है । भीतर जगह का अर्थ होता है
धैर्य । भीतर जगह का अर्थ होता है एक प्रति संवेदन । भीतर की जगह का अर्थ होता है कि कोई बात मेरे भीतर जाएगी तो समय लेगी । यात्रा करना
पडेगी, उसे मुझ तक पहुँचने को से कहता है । मुझ तक पहुँचे उसका नमस्कार मेरे प्राणों में गूंजे फिर उसका प्रतिउत्तर निर्मित हो । फिर मैं प्रेम से
उसके प्रति उत्तर को वापस निवेदन करूँ । समय लग जाएगा । जब हम किसी व्यक्ति के शरीर के प्रेम में पढते हैं तो हमें ख्याल में नहीं होता कि भीतर
की स्पेस भीतर के आकाश के भी पता कर ले कर ले । हम गडे को खरीद लाते हैं । भीतर की खाली जगह को भूल जाते हैं । रविनाथ में एक
बौद्धभिक्षु पर एक गीत लिखा है एक बहुत विश्व गुजरता है एक रह से नगर की जो नगरवधु है जो कि वैश्या है । वैश्य शब्द बहुत अच्छा नहीं है । पुराने
लोग बहुत समझदार थे । उन्होंने सब दिया था नगरवधू पूरे गाँव की पत्नी अब तो हालत बिल्कु ल बदल गई है । हालत बिल्कु ल बदल गई । अब तो जो
आपकी पत्नी है वो भी निजी वॅार है । व्यक्तिगत अब हालत बिल्कु ल बदल गई है क्योंकि अगर आज आप पश्चिम के मनोवैज्ञानिक से पूछो तो वो कहता
है कोई फर्क नहीं है वैश्य आप पत्नी में वो सामूहिक है और स्थिर नहीं है । कोई स्थायी लाइसेंस नहीं है । उसके साथ समय का फर्क है । रात भर
के लिए उसे खरीदते । पत्नी के साथ जीवन भर का सौदा हैं, जीवन भर के लिए खरीदते हैं लेकिन पूरा किलो उसे कहते थे नगरवधू नगरवधू झाँककर
उसने देखा है नीचे और इस भिक्षु को देखा है । अस्वाभाविकता सन्यासी के पास एक और तरह का सौंदर्य पैदा होना शुरू हो जाता है । जिस से ग्रस्त
कभी नहीं जान पाता उसके कारण है क्योंकि सन्यासी के साथ पैदा होती है एक स्वतंत्रता, एक बंधन मुक्त अवस्था । उस बंधन मुक्तता में एक अनूठा
सौंदर्य पैदा होने लगता है । सन्यासी के साथ पैदा होता है भीतर का रिक्त आकाश एक आत्मा वो प्रतिक्रियाओं से अब नहीं जीता । वो अपने ढंग से
जीना शुरू करता है । दुसरे उसे जलाने के लिए मजबूर नहीं करते । वो अपना ही मार्ग चुनता है । वो अपना ही जीवन चुनता है । वो अपने जीवन का
एक अर्थ में स्वयं नियंता और मालिक तो एक अनूठा सौंदर्य, एक इंटिग्रेशन, एक समग्रता उसके भीतर पैदा होने शुरू हो जाती है । एक और ही गरिमा
और गौरव एक और ही सुंदर वैश्या ने देखा है और वो मोहित हो गई । उसने नीचे आके भिक्षु को कहा कि मेरे घर आज की रात मेहमान हो जाओ ।
भिक्षु ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा और उसने कहा अभी तो तेरे चाहने वाले और भी बहुत होंगे । सुंदर है तो युवा है । अभी मैं ना भी हूँ तो तेरी
रात खाली नहीं जाएगी । किसी दिन जब तेरा कोई चाहने वाला ना हो और किसी दिन जब ये गाँव तुझे बाहर फें क दे और ये गाँव फें क ही देगा और
किसी दिन जब तू चिल्लाती हो और कोई आवाज का उत्तर भी देने वाला ना हो तब मैं आ जाऊँ गा । वैश्या को दुःख हुआ, अपमानित हुई । ये पहला
मौका था । लोग उसके द्वार पर खटखटाते थे और वो इंकार करती थी । आज पहला मौका था कि उसने किसी के द्वार पर खटखटाया और इन्कार हो
गया । पीना भरी थी वो लौट गई कोई बीस वर्ष बाद एक अँधेरी रात रास्ते के किनारे कोई चिल्ला रहा है चोर रह से गुजरता भिक्षु उसके पास जाके रुका
है । हाथ उसके चेहरे पर फे रा है । पूछा है वो प्यास उसे लगी है और पानी चाहिए वो पास के गाँव से जाके पानी लेकर एक दिया लेकर आया फट
गया है पूरे शरीर पर उस वैश्य के वही वैश्य है गांवों से बाहर फें क दिया है कोई को भीतर रखने का कोई उपाय नहीं । आज उसे कोई पानी देने को
भी राजी नहीं है । उस भिक्षु ने कहा की आँख खोल और देख प्रभु की कृ पा की मैं अपना वचन पूरा कर सकता हूँ । मैं आ गया बीस साल पहले तूने
जो निमंत्रण दिया था वो अब मुझ तक पहुँच गया । मैं आ गया हूँ और समय भी आ गया । वैश्यानाथ आँख खोली और उसने कहा कि नहीं अब तुम
नहीं आते तो अच्छा था । वहाँ से प्रयोजन भी किया है । उस दिन ही आना था । उस दिन में युवा थी, सुंदर थी । उस भिक्षु ने कहा लेकिन आज
आज तुम ज्यादा अनुभवी हो । आज तुम ज्यादा ज्ञानी हो । जीवन को तुमने देखा उसकी पीडा, उसके अनुभव, उसके दुःख, उसका विशाद और आज
मैं समझता हूँ तुम्हारे पास शरीर तो नहीं है लेकिन थोडी आत्मा है । शरीर तो चला गया लेकिन आज आत्मा है उस दिन आत्मा बिल्कु ल नहीं । उस
दिन शरीर शरीर था, भीतर भी कु छ है जो हमारे शरीर से विपरीत है और फिर भी संयुक्त है शरीर की वो जो भीतर विपरीतता है उसे अगर हम ध्यान
में रख सकें तो हमारे ख्याल में आ जाए । घडे की तो बात है समझाने के लिए लेकिन गहरे में तो आदमी की ही बात है । अस्तित्व के संबंध में वो
कहता है इसलिए वस्तुओं का विधायक अस्तित्व तो लाभकारी सुविधा देता ही है परंतु उनके अस्तित्व में ही उनकी वास्तविक उपयोगिता है । जब चीजें होती
हैं तब तो उनसे सुविधा मिलती ही है लेकिन उनके ना होने की भी एक एक और गहरी उपयोगिता है । जैसे जब जवानी होती है तो जवानी का एक
उपयोग है लेकिन जब जवानी
खो जाती है तब उसके खो जाने का और भी गहरा उपयोग उसके शून्य हो जाने का और भी गहरा उपयोग । लेकिन उस उपयोग को हम जान नहीं
पाते क्योंकि हम में से बहुत से लोग सिर्फ शरीर से बूढे हो जाते हैं । उनकी चेतना में प्राण नहीं उपलब्ध हो पाती । चेतना से वो बचकाने ही बने रहते
हैं । इसलिए बुरा आदमी भी चेतना से बचकाना ही बना रहता है । एक मजे की बात है । बूढे से बुरा आदमी भी जब सपना देखता तो सपने में सादा
अपने कोई जवान देखता है । सादा हजारों सपनों के अध्ययन किये गए हैं । लेकिन अब तक ऐसा सपना नहीं पकडा जा सका की किसी बूढे आदमी ने
अपने को सपने में बुरा देखा । उसका मतलब वासना उसकी अभी भी जवान ही अपने को मानती है । मजबूरी है कि शरीर साथ नहीं देता । मजबूरी है
कि शरीर धोखा दिया जाता है । मजबूरी है कि शरीर जरा जीन हो गया लेकिन भीतर भीतर वो जो मन है वो अभी भी अपने को जवान माने चला जाता
है । सपने में तो वो जब भीतर मन मानता है वही प्रकट होता है । यदि कोई व्यक्ति जवानी को ही उपयोगी समझे और जब जवानी खो जाए और उसको
उपयोगिता ना दिखे तो उसे निषेध का मूल्य पता नहीं चल पाया । और अगर उसमें का मूल्य पता चल जाए तो बडा पाव जवानी से बहुत ज्यादा सुन्दर
हो जाता है । क्योंकि जवानी के सौंदर्य में भी उत्तेजना तो रहेगी और जहाँ उत्तेजना रहेगी वहाँ सौंदर्य में गहराई नहीं हो सकती । डाॅट नहीं हो सकती,
तेजी हो सकती है, त्वरा हो सकती है, गति हो सकती है, लेकिन गहराई नहीं हो सकती । इसलिए जवानी का सौंदर्य उथला होगा । अच्छा होगा अगर
जवानी जब खो जाती है, उसके खोने में भी कोई समझ पाए उपयोगिता तो बुढापे को एक सौंदर्य मिलता है जो जवान को कभी भी नहीं मिल सकता
और ठीक भी है, क्योंकि बुढापा जवानी से आगे ठीक भी है, ज्यादा विकासमान है । तब बुढापे में एक गरिमा, एक एक गहराई, एक अनंत गहराई
उपलब्ध हो जाती है । लेकिन वो जवानी के अभाव का उपयोग जीवन में तो है ही रहस्य लेकिन जिसने जीवन में ही रहस्य को पकडा और मृत्यु के
रहस्य को नहीं जाना । वो पूरे रहस्य को नहीं जान पाया । जीवन में मृत्यु के सामने कु छ भी नहीं है । मृत्यु के समक्ष कु छ भी नहीं है । मृत्यु अभाव
है । अस्तित्व से कहता है विधायक अस्तित्व पुँछ की उपयोगिता है लेकिन नाॅट इंस् की तो बात ही और वो महा उपयोगिता है । उसका अर्थ ही और है
लेकिन हम जीवन में तो देख पाते है । अर्थ मृत्यु में हमें कोई अर्थ नहीं दिखाई पडता । मृत्यु हमारे लिए एक अंत है । समाप्त हो जाना प्रारंभ नहीं,
एक नया उद्घाटन नहीं । एक नए द्वारका खुलना नहीं सिर्फ पुराने द्वारों का अचानक बंद हो जाना खुलना नहीं है । कु छ भी तो हमें मृत्यु का कोई पता
नहीं । इस सबका कारण एक ही है कि हम पाॅजिटिव से बंधे हुए हैं । वो जो विधायक हैं वो हमें परेशान किया जा रहा है । नॅान हमने कभी कोई खबर
नहीं ले । इस निगेटिव को हम थोडी तरफ से समझे तो फ्री अस्तित्व हमारे ख्याल में आ जाए । दिन में जाते हैं तो हम जागने का हिसाब रखते हैं
और आदमी की चेष्टा होती है की जितनी कम नींद से काम चल जाए बेहतर तो पश्चिम में बहुत से वैज्ञानिक विचार करते हैं । कि आज नहीं कल हमें
कोई इंतजाम करना चाहिए कि आदमी को सोना ना पडे क्योंकि न सोना पडे तो उसकी जिंदगी में बीस साल और बढ जाए । अगर आप साठ साल
जियेंगे तो बीस साल सोने में खो जाएंगे तो बजाय इसके क्या आपकी जिंदगी को बीस साल लंबा करके अस्सी साल किया जाए । क्या यह उचित ना
होगा कि आपके बीस साल के सोने जो व्यर्थ जाते मालूम पडते हैं दिन उनको हम बचा ले और अस्सी साल साठ साल । पूरा जिले तो वैज्ञानिक सोचते
हैं कि कभी ऐसा उपाय हो जाएगा कि आदमी को सोने की जरुरत ना रह जाए लेकिन उन्हें पता नहीं है ये विधायक पर अति जोर का परिणाम । जो
आदमी सोना भूल जाएगा उसका जागना बिल्कु ल उदास और अर्थ इन हो जाएगा कभी आपने ख्याल क्या है? किसान जब आप बिस्तर सोने जाते हैं तो
आपकी बुझ चुकी होती है और सुबह जब उठते हैं तो आँखों के दिए फिर से जगमगा जाते । रात सिर्फ व्यर्थ नहीं गुजर जाती रात अन अस्तित्व के द्वारा
सकती को पाने का उपाय निद्रा का अर्थ है निगेटिव में नकार में शून्य में डू ब जाना ताकि शून्य में पुनः शक्ति दे दे । इसलिए चिकित्सक कहते है कि
आदमी की बीमारी ठीक नहीं हो सकती । कोई भी बीमारी ठीक नहीं हो सकती । अगर साथी नींद असंभव हो तो फिर बीमारी ठीक नहीं हो सकती ।
कोई इलाज ठीक नहीं कर पाएगा, क्योंकि आदमी अगर अपने भीतर से सकती, पानी की समस्त संभावनाएं बंद कर दे तो ऊपर से दी गई दवाएं कु छ
करना पाएगी । चिकित्सक अब स्वीकार करते हैं कि हम के वल बीमारी के ठीक होने में सहयोगी हो सकते हैं । सिर्फ सहयोगी मूल रूप से तो बीमार स्वयं
ही अपने को ठीक करता है, लेकिन वो ठीक कर सकता है तभी जब सारी विधायक ता को छोडकर रात के अंधेरे में शून्य में खो जाए । शून्य में खुद
ही हम प्राणों के गहरे तल पर पहुँच जाते हैं । जहाँ जीवन का आधार जहाँ जीवन का मूल स्रोत है, वहाँ से हम सकती को वापस पा लेते हैं, वही
सकती । सुबह हमारी आँखों में ताजगी बनकर दिखाई पडती है । वही सुबह पक्षियों का गीत बन जाती है । वही सुबह फू लों का खिलना हो जाती है,
वहीं सकती है रात वृक्ष भी सो जाते, पक्षी भी सो जाते, प्राणी भी सो जाते, आदमी भी सो जाता । लेकिन कु छ आदमी है जो अब नहीं सो पाते
और धीरे धीरे ऐसा लगता है कि शायद पूरी आदमियत नहीं सो पाएगी । जिस दिन आदमी नहीं हो पाएगी उसी दिन समझना की पूरी आदमियत पागल हो
गई । फिर हम कभी स्वस्थ नहीं हो सकते क्योंकि हमने निषेध को छोड दिया । लव से कहता है सोना प्रथम है जागना धति क्योंकि निषेध पहले विश्राम
पहले है, श्रम पीछे और जितना गहरा होगा विश्राम उतना गहरा आश्रम में उतर जाओगे । इस निषेध को इस अन अस्तित्व को समझना पडेगा । इससे हम
कई तरफ से समझे जैसे मैंने कहा कि नींद है वो अस्तित्व है और जागरण हमारा विधायक है । नींद हमारा निषेद्ध जागने में हम सक्रिय होते है । नींद में
हम शून्य हो जाते हैं । इसलिए जो आदमी रात भर सपने देखते रहता है वो आदमी सुबह अनुभव करता है कि नींद नहीं हो पाई । क्योंकि स्वप्न निषेध
और विजय के बीच का बीच का हिस्सा सोये भी है और सो भी नहीं पा रहे है । ऐसी स्थिति है, जागे भी है और जागे नहीं है । ऐसी स्थिति है तो
बीच में बोलता है । मन तो क्रिया जारी रहती है । कई बार तो लोग सुबह उठ के जितने थके उठते हैं उतने सांझ थके नहीं सोते हैं । मैंने सुना है
कि ग्रामीण अपने मित्र के घर देश की राजधानी में आया । जब वो राजधानी से वापस लौट आया तो उसके मित्रों ने गाँव के लोगों ने पूछा कि गाँव और
शहर में तुमने क्या फर्क पाया तो उसने कहा मैंने फर्क पाया गाँव में लोग सांस थके हुए होते हैं और सुबह ताजे उठते हैं और शहर में लोग सांस ताजे
मालूम पडते हैं और सुबह थके उठते हैं । रात सांझ शहर जगह हुआ मालूम पडता है ताजा क्लब है, हट ले है सिनेमा गए सब आदमी ताजे मालूम पडते
हैं । सुबह जरा उठे जाएँ एक काल्पनिक आँख बंद करके यात्रा करें । लोगों के सयन कक्षों की बेडरूम मुँह गुड से है, मुर्दा नहीं उठाना चाहते हैं ।
किसी तरह उठ रहे है, मजबूरी है इसलिए उठ रहे दफ्तर है इसलिए उठ रहे है । दुकान है इसलिए उठ रहे लेकिन जैसे खींचे जा रहे हैं कोई भीतर से
प्राण नहीं है । जो उठ रहा हो मुरदे की भांति उठाए जा रहे हैं उठ जाएँगे बिना रीड के खडे हो जायेंगे । चल पडेंगे क्या हुआ क्या है नींद का जो
निषेध है वो खो गया नींद का जो नकार है अस्तित्व खो गया है सुबह से शाम तक हम बात कर रहे हैं रात भी सपने में बात कर रहे हैं । रात भी
लोग बढाते रहते हैं । रात भी बोलते रहते हैं । भीतर नहीं तो बाहर भी बोलते रहते हैं । चौबीस घंटे बोल रहे है मौन अस्तित्व है । शब्द अस्तित्व शब्द
विधायक है, साइंस शून्य है लेकिन जो व्यक्ति शब्दों में खो जाएगा और जिसके भीतर कभी भी शून्य घटित नहीं होता और जिसको कभी भीतर शून्य का
पता नहीं चलता और जिस से कभी भीतर मौन की एक एक संधि नहीं मिलती । सब भी शब्द, शब्द भी शब्द वो आदमी वो आदमी धीरे धीरे जीवन की
गहराइयों से वंचित हो जाता है । शब्द उपयोगी है लेकिन शब्द काफी नहीं । शब्द जरूरी है लेकिन बस सत्य ही पर्याप्त नहीं है । शब्द चाहिए लेकिन
उससे भी ज्यादा निशब्द चाहिए । उससे भी ज्यादा मौन चाहिए । इसलिए ध्यान रखें जिन लोगों के शब्दों में वजन होता है और जिन शब्दों जिन लोगों के
शब्दों में प्राण होते हैं, वे वही लोग होते हैं जिनके पास मौन की क्षमता होती है । इस जगत में जो विराट शब्द पैदा हुए हैं, जो महा शब्द पैदा हुए,
वे उन लोगों से पैदा हुए हैं जो शून्य होने की कला जानते हैं । कोई बुद्ध जब बोलता है, उसके बोलने में एक एक शब्द का जादू और है । कोई
महावीर जब बोलता है तो ऐसे ही नहीं बोलता, जैसे हम बोल देते हैं । उसके एक एक शब्द में सघन मौन समाया हुआ है । जब मोहम्मद बोलते हैं तो
वर्षों के मौन के बाद जब जीसस बोलते हैं तो तीस साल का लंबा पत्ती नहीं की । तीस साल जीसस क्या करते रहे? महावीर बारह वर्षों तक जंगल में
चुपचाप खडे रहे । बारह वर्ष तक नहीं बोले । इसलिए जब जो बोले उसका गुण ही और उसकी खूबी ही और उसकी शक्ति ही और है । तब एक एक
शब्द प्रगाण हो गया मौन के अर्थ से । तब मौन से ये जो शब्द पैदा हुआ, इस शब्द का भजन, इसकी इसकी कीमत, इसका मूल्य और शब्द वही
आप भी बोल सकते हैं । कोई अर्चन नहीं, क्योंकि महावीर कोई नए शब्द नहीं बोले । बुद्धया क्राइस् नया कृ ष्ण ने कोई नए शब्द नहीं बोले । कृ ष्ण ने
जो भी गीता में बोला है, ये सभी शब्द अर्जुन भलीभांति समझता था । उसने एक भी जगह ऐसा नहीं कहा कि आपके शब्द मेरी समझ में नहीं आती ।
सब शब्द वो समझता था । वही शब्द वो भी बोल सकता था । लेकिन कृ ष्ण जब उसी शब्द को बोलते हैं तो उसका मूल्य और हो जाता है । अर्जुन
उसी शब्द को बोले । उसका मूल्य वही नहीं रह जाता है । तो शब्द का अर्थ एक तो भाषा को उसमें लिखा हुआ है । डिक्शनरी में लिखा हुआ है वो
एक अर्थ है और एक और अर्थ है जो भीतर के मौन से शब्द में प्रवेश करता है । इसलिए कोई व्यक्ति है कि वो कु छ भी बोले तो उसके बोलने में
काव्या हो जाता है और कोई व्यक्ति है वो कविता भी पढे तो अभी सब बेरौनक सब भाषा । उसके ओठ में आके ही शब्द जैसे मर जाते हैं । किसी के
वोट पर आते ही शब्द अमृत हो जाते हैं । यात्रा पर निकल जाते है विराट की ये वही आठ है जिनके भीतर सघन मौन की क्षमता है । उसी मौन में
जब कोई शब्द पलता है और बडा होता है, प्रेग्नेंट होता है । उस मौन के गर्व में ही जब कोई शब्द बडा होता है । अगर हम इस इसको इस तरह
समझ ले तो आसानी पडेगी अगर एक माँ के शरीर में गर्भ निर्मित हो, इसी छण और इसी क्षण गर्व बाहर आ जाए और नौ महीने के मौन मौन में ना
डू बा रहे तो वो गर्भपात होगा । जन्म नहीं वो होगा और उससे प्राण नहीं निकलेगा । उसे मृत घटना घटेगी । लेकिन नौ महीने के मौन में नौ महीने के
अंधकार में नौ महीने के निषेध में बच्चा बडा होता है और जीवन को उपलब्ध होता है । ठीक वैसे ही जब किसी व्यक्ति के भीतर माँ के गर्भ जैसा मौन
होता है और उसमें एक शब्द पलता है, पलता है, बडा होता है, पोषण पाता है और कभी जन्मता है तब उसमें प्राण होते हैं । हमारे शब्द, शब्द सब
गर्भपात होते हैं, अबॉर्शन होते हैं, पढा पढ के भागे की किसी को बता दे में क्या है? किताब पढी क्या बेशन हुए कि लडका कभी स्कू ल से लौटे थे
उसको शब्द को जरा भी मून में जीने की सुविधा नहीं । हम सब दिमाग में बिलकु ल तो एक दूसरे पर अपना अपना गर्भपात किए चले जाते हैं और उस
पे वो जल्दी दूसरे पे फें क रहा है । वो तीसरे पे फें क रहा है, फें के चले जा रहे हैं । मुँह के पास जब कोई आता था तो वो कहता था की अगर
शब्द से सीखना हो तो कहीं और जाओ । अगर शून्य से सीखना हो तो यहाँ रुको हम भी शब्द का उपयोग करते हैं लेकिन बस इतना ही सोने की
तरफ इशारा करने को इंगित करने को हम भी कभी कभी शब्द का उपयोग करेंगे लेकिन बस इतना
ही सुनने की तरफ इशारा करने को । लेकिन असली चीज शून्य असली चीज मोड हाँ अस्तित् है । शब्द अस्तित्व है और जीवन के हर पहलू पर वो
जो हमें दिखाई नहीं पडता वही गहन है । वो जो हमारे स्मरण में नहीं आता, हमारी प्रतिदि में नहीं पकडता, हमारे अनुभव में नहीं पकडना आता । वही
मूल्यवान जो व्यक्ति विधायक पुँछ को जो दिखाई पडता है, पकड में आता है । इन्द्रियाँ जिससे पहचान लेती है उसकी काम करता है और उसकी ज्यादा
करने लगता है । जो अस्तित् है, शून्य है, नकार है, मौन है वो व्यक्ति जीवन के परम सत्य की यात्रा पर निकल जाता है । लाल से कहता है कि
सादा खोज लेना, गहराई को सतह से मत उलझ जाना और सादा खोज लेना, उस विपरीत को जो की सब का मूल आधार है सादा उसकी कर लेना
क्योंकि उसी से जीवन का रस और उसी से जीवन का सौंदर्य और उसी से जीवन की शक्ति और उर्जा उपलब्ध होती है । कहीं भी निरंतर दूसरा भी
गहरे में मौजूद है । उस गहरे का ख्याल रखना तो जीवन की पूरी की पूरी दृष्टि दूसरी हो जाती है । जिसको प्रेम में भी घृणा दिखाई पढने लगे वो दोनों
से मुक्त हो जाता है और तब एक अनूठे ही प्रेम का जन्म होता है । वो प्रेम हमारे लिए बिल्कु ल अपरिचित और अनजान वो प्रेम एक संबंध नहीं । वो
प्रेम एक स्वभाव उसी प्रेम को क्राइस्ट कहे कि वो प्रेम ईश्वर है । उसी प्रेम को महावीर ने अहिंसा कहा । बुद्ध ने करुणा कहा लाओ से ने उसे नाम ही
नहीं दिया क्योंकि लाओ से ने कहा कि सभी नाम दूषित हो गए । प्रेम कहो तो लोग समझेंगे उनका प्रेम करुणा कहो तो लोग समझेंगे उनकी करुना कु छ
भी कहो लोगों के सभी शब्द दूषित हो गए है । विकृ त हो गए । सभी शब्द बीमार हो गए क्योंकि बीमार आदमियों ने इतना उन का उपयोग किया है ।
संक्रामक हो गए सभी शब्दों में आदमियों की बीमारियाँ प्रवेश कर गई । एक भी शब्द अनकन टर्मिनेटेड नहीं है । ऐसा शब्द खोजना मुश्किल है जिसको हम
कह सकें कि इसमें आदमियों की बीमारियों के रोगान नहीं पड गए । सभी शब्द रुग्ण हो गए । कोई शब्द शुद्ध नहीं । इतनी लाओत्से ने कहा कि मैं कोई
शब्द नहीं देता । मैं तुमसे इतना ही कहता हूँ कि जहाँ दोनों नहीं रह जाते हैं, वहाँ जो रह जाता है वही वही पानी योग्य अगर शब्द और शून्य का
ख्याल आ जाए तो शब्द के पीछे शून्य छिपा है । एक बात आपको अंत में इशारा कर दूँ शब्द और शून्य का अगर ख्याल आ जाए तो शब्द के पीछे
शून्य छिपा है । लेकिन जो शून्य शब्द के पीछे छिपा है वो भी शब्द से जुडा हुआ है । एक और शून्य है । महाशून्य है जहाँ शब्द भी नहीं और सुननी
भी नहीं । लेकिन उसके लिए कोई शब्द देना मुश्किल है । अस्तित्व द्वंद है, दो में बता है विपरीत में बता है और विपरीत के सहारे काम करता है ।
लेकिन अस्तित्व की गहराई निर्द्वंद्व है । अद्वैत वहाँ दोनों खो जाते हैं । तब ये कहना मुश्किल है कि वहाँ एक रह जाता है क्योंकि हमारी भाषा जैसा मैंने
कहा जब भी हम कहे एक तब हमें तत्काल दो का ख्याल आता है । सोचना कभी बैठकर घंटे पर की एक का ख्याल करना और दो का ख्याल ना आए
तो आप समझ पाएंगे कि की जो मैं कह रहा हूँ वो एक । लेकिन हम जब भी एक कहेंगे तत्काल दो का ख्याल आ जाए । हमारा एक दो की श्रृंखला
का हिस्सा है । फॅ स उसका अंश है । हमारे एक का कोई मतलब ही नहीं होता । इसलिए हिंदुओं ने परमात्मा को एक नहीं कहा । अद्वैत कहा निश्चित
का उपयोग किया ये नहीं कहा की वो एक है । कहा कि वो दो नहीं अद्वैत का मतलब होता है दो नहीं है । सीधी सी बात कह सकते थे कि एक है
लेकिन एक कहने में तत्काल दो का ख्याल आता है । इसलिए उन्होंने बडी होशियारी की बात कही, बडी बुद्धिमानी की कि वो दो नहीं है । जब कहाँ
की दो नहीं है तो इशारा तो क्या की एक है लेकिन एक का उपयोग नहीं किया सिर्फ ख्याल आ जाये भनक पड जाए कि वो एक है बिना शब्द का
उपयोग किए तो द्वंद को जो जान लेगा, पहचान लेगा, समझ लेगा वो द्वंद के पार हो जाता है । अस्तित्व द्वंद है जहाँ हम खडे हैं वहाँ लेकिन हमें तो
धुंध का भी एक ही हिस्सा दिखाई पडता है तो तीन बातें एक हमें द्वंद का एक ही हिस्सा दिखाई पडता है । दूसरा हिस्सा भी दिखाई नहीं पडता तो
पहला काम तो ये है कि हमें पूरा बंद दिखाई पडे । जब हमें पूरा धुंध दिखाई पडेगा तब हमें तीसरी चीज दिखाई पडेगी जो द्वंद के पार हम जहां खडे हैं
वहाँ हमें प्रेम दिखाई पडता है । घृणा दिखाई नहीं पडती । अगर घृणा दिखाई पडती है तो प्रेम दिखाई नहीं पडता । अगर ये दोनों हमें दिखाई पढने लगे
तो हमें तीसरा दिखाई पडेगा जो दोनों नहीं दोनों के पार अद्वैत सत्य की उपलब्धि द्वंद की पूरी पूरी सार्थकता को समझ लेने से संभव होती है और धुंध
की पूरी सार्थकता समझनी हो तो से कहता है कि जहाँ भी पौं हो, विधायक हो वहाँ ॅ को खोजना, नकारात्मक को खोजना और तुम पाओगे कि
नकारात्मक पर ही सारा विधायक खडा हुआ है और जब दोनों ही खो जाए तो वो उपलब्ध होता है जिससे उपलब्ध करने के बाद फिर कु छ और उपलब्ध
करने कोशिश नहीं रह जाता है । आज इतना ही पाँच मिनट रुकें गे कीर्तन में सम्मिलित हो और बैठ

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