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[8:06 pm, 03/09/2022] vkachintya: अचिंत्य

[8:06 pm, 03/09/2022] vkachintya: मेरे तो गिरघर गोपाल दूसरो ना कोई।

जाके सिर मोर मुकु ट मेरौ पति सोई॥(मीरा बाई)

" सतसंग "

सच्चा प्रेम जब सधता है, तो नकली प्रेमों को गिरना पड़ता है--प्रेम तो एक है, लेकिन वही प्रेम, जब परमात्मा में पड़ता है, तो स्वाद बदल जाता है , असीम का प्रेम सीमाओं के प्रेम
से अलग होता है !--सीमाओं का प्रेम जल्दि ही बदबू देने लगता है, असीम का प्रेम बहती नदी की धार है, जो सागर तक जाती है, किसी सीमा में बंधे गड्डे का पानी वहीं सड़ता है,
कोई दिशा नहीं खोज पाता !- इस पद्ध में मीरा बाई कहना चाहती हैं, कि जब से मेरा प्रेम परमात्मा के लिये सधा है, तब से जगत का प्रेम, धोखा और दिखावा लगने लगा है...तो
मीरा कहती है प्रभु! जब मुझे जगत का सब साफ दिखाई दे गया, तो में उस गंदगी में दोबारा नहीं गिरना चाहती, अब आपके प्रेम के सिबा मुझे सब झूंठा लगता है, इसलिये अब मुझे
के वल आपका ही सहारा है, किसी दूसरे का नहीं--उजाला आता है तो अंधेरे को जाना पड़ता है, असली के सामने नकली नहीं टिक पाता है।--इस पद्ध में मीरा कृ ष्ण को अपना
पति मानती है--मीरा कहना चाहती है कि प्रभु ! मेरे प्रेम में कोई दूरी नहीं है, इसलिये वह कृ ष्ण को पति कहकर प्रेम की एकरूपता को बताना चाहती है! क्योंकि पति सबसे निकट
का रिश्ता माना जाता है, कोई और रिश्ता इससे निकट का लगता तो मीरा, उस रिश्ते का उदाहरण दे देती ! संसार में आध्यात्म के लिये शब्दों की कमजोरी है, इसलिये वह इस
एकरूप प्रेम को पति का उदाहरण देकर बता रही है।-अचिंत्य

[8:06 pm, 03/09/2022] vkachintya: कृ ष्ण गीता में अर्जुन को कोई ज्ञान नहीं दे रहे हैं, ज्ञान तो हमें लगता है, क्योंकि उन बातों को हम एक पुस्तक में पढ़ रहे
हैं,जिसका नाम गीता है, शब्द जब लिखावट में आ जाते हैं तो खास बन जाते हैं... कृ ष्ण जीवित हैं, वे तो साधारण सी बातें कर रहे हैं, अर्जुन को कु छ इशारा दे रहे हैं, इशारे से
उसे कु छ समझाना चाहते हैं, खास चीजें इशारे से ही समझ पड़ती हैं, बताने से नहीं, बताने से तो अहंकार पकड़ता है ! अर्जुन जो जानता था, वह पुस्तकों का था, ज्ञानी तो वह
पहले से ही था...पुस्तकों का ज्ञान आदमी को अहंकार में ले जाता है, कृ ष्ण के शब्द, उसे अहंकार से बाहर निकाल रहे थे, अर्जुन को निर्भार कर रहे थे, उसकी स्मृति को सामान्य
बना रहे थे...साधारण बातें ही जीवन के लिये उपयोगी हो जाती हैं, ज्ञान की बातें जानकर आजतक किसी ने जीवन के रहस्यों को नही जाना, साधारण बातें जीवन में बदलाव लाती
हैं, ज्ञान नहीं !-अचिंत्य

[8:06 pm, 03/09/2022] vkachintya: विवेकहीन और श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है। ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिए न यह
लोक है, न परलोक है और न सुख ही है।(गीता4/40)

" सतसंग "

परमार्थ का अर्थ है, "इतना हो जाना, कि देना ना पड़े, निकलने लगे !" देने में तो मांग बनती है, इधर देना होता है, तो उधर खाली जगह बनने लगती है, भराव पूरा हो जाय,
तो अधिक स्वतः वहने लगता है !..खाली व्यक्ति भरने की कोशिश में लगता है, उसकी अपेक्षाऐं और इच्छाएं कभी खतम नहीं होती ! वह जीवन भर कभी आश्वस्त नहीं हो पाता,
संशय बना ही रहता है। संशययुक्त व्यक्ति को कभी कोई सत्य की प्रभा मिल भी जाय तो सुख नहीं पहुंचा पाती ! वह तनाव और चिंताओं में घिरा रहता है।...संशय आत्मा की सीमा
में प्रवेश नहीं पाने देता, इसलिये विवेक की जाग्रति नहीं हो पाती, विवेक आत्मा की जानकारी के साथ आता है, विवेकहीन व्यक्ति श्रद्धा तक भी नहीं पहुंच पाता, ऐसे व्यक्ति से
परमार्थ नहीं हो पाता और पथ भ्रष्ट हो जाता है !! श्रद्धा सत्य तक पहुंचने का मार्ग है।-अचिंत्य

[8:06 pm, 03/09/2022] vkachintya: जो तुम तोड़ो पिया, मै ना हीं तोडूं रे।

तोरी प्रीत तोड़ी कृ ष्णा, कौन संग जोडूं रे॥(मीरा बाई)

" सतसंग "

परमात्मा से प्रेम एक तरफा होता है, एक तरफा प्रेम अटूट होता है, एक बार हो गया, फिर कभी नहीं टूटता, टू टने का खतरा तो दोतरफा प्रेमों में होता है, दोतरफा प्रेम जरा सा
विपरीत आते ही, खतरे में पड़ जाते हैं, ऐसे प्रेम घरती पर कभी एक नहीं हो पाते, चरम स्थिति में भी दो का बोध कराते रहते हैं !!..मीरा का परमात्मा से एकतरफा प्रेम है,
इसलिये उसे अपने प्रेम पर पूर्ण विस्वास है। वह कहती है, प्रभु ! आपके लिये तो बहुत प्रेमी हैं, मै भूलने में आ सकती हूं, लेकिन मालिक ! मेरे लिये तो के वल आप हैं! फिर ऐसा
कै से हो सकता है, कि मै आपको भूल पाउं ! जिसके प्रेम ने जीवन से विपरीत को गिरा दिया हो, उस प्रेम को भूलना प्रेमी के लिये असंभव होता है।...भगवान के प्रेम में भगवान
सामने ना हो तब भी प्रेम निभता है, प्रत्येक स्थिति में जो निभे, वह प्रेम से ऊपर की अवस्था होती है, उसे ही भक्ति कहते हैं।..मीरा आगे कहती है, प्रभु! मानो ऐसा हो भी जाता
है, कि मेरी आपसे टूट जाये, तो फिर आपके जैसा कोई दूसरा पुरुष भी तो होना चाहिये, जो प्रेम दे सके !! मै यदि जगत की तरफ देखूं भी, तो सारा जगत तो प्रेम लेने के लिये ही
प्यासा है ! वे तो खुद ही प्रेम के प्यासे हैं ! कोई भी प्रेम से संतुष्ठ नहीं ! तो प्रभु ! फिर प्यासा प्यासे के पास जाकर कै से अपनी प्यास, बुझा सकता है? !..भक्त की प्रार्थना भी
अनौखी होती है-अचिंत्य

[8:06 pm, 03/09/2022] vkachintya: मोहन आवो तो सही, गिरधर आवो तो सही,

माधव रे मंदिर में मीराबाई ऐकली खड़ी।( मीरा बाई)

" सतसंग "

मीरा बाई सारी सीड़िया चढ़ कर, मंदिर की चौखट पर पहुंच गई है, वह देखती है, जिसके लिये सीड़िया चढ़ी, वह मंदिर तो खाली पड़ा है, वहां तो कोई नहीं है !! अब मीरा की
तड़फ जाती है, उसका रोंआ रोआ, परमात्मा की पुकार बन जाता है...वह कहती है, प्रभु! अब नहीं सहा जाता, आप मिलो तो प्राण बचें, मालिक ! मीरा अपने प्रेमी कृ ष्ण को
अलग-अलग नामों से पुकार कर, गुहार लगाती है, वह कहती है प्रभु ! मेरे सभी भय निकल गये है,..भयभीत व्यक्ति दूसरे का साथ पकड़ता है, चाहे धन का साथ हो, चाहे प्रतिष्ठा
का, चाहे रिश्तों का साथ हो!!! मीरा कहती है, अब मेरे साथ कु छ नहीं रह गया है, मै बिल्कु ल अके ली हूं...मीरा का अके ला कहना, व्यक्तियों से छु टकारा पा लेना नहीं था, वह
कहना चाहती थी, कि अब मेरे पास कोई एक विचार भी नहीं रह गया है , अब मेरी निर्विचार की अवस्था है..विचार ही तो आदमी को दूसरों से जोड़ते हैं ! मीरा कहती है, अब में
उठाऊँ तब भी विचार नहीं उठ पाते ! यह अवस्था परमात्मा के मिलने की ही अवस्था हो सकती है। मीरा इस स्थिति को मंदिर कहती है, और वह वहां पुकारती है प्रभु ! आप आ
जाओ, मेरे साथ और कोई नहीं है, मै अके ली खड़ी आपकी राह तकती हूं।-अचिंत्य

[8:06 pm, 03/09/2022] vkachintya: जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और जो अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह योगी समस्त
कर्मों को करने वाला है।(गीता 4/18)

" सतसंग "

जिस मनुष्य की दृष्टि इतनी प्रखर हो जाय कि वह कण -कण में भगवान को देख ले, वह योगी कहलाता है, फिर योगी का प्रत्येक कर्म परमात्मा को समर्पित होता है--कार्य जब
किसी कारण से किया जाता है, वह कर्म होता है, और ये ही कर्म जब अकारण होने लगे तो अकर्म भी बन जाता है, अकर्म कारण रहित होता है, इसे शरीर की जरूरत करवाती
है।--तो कृ ष्ण कहते हैं, जिस मनुष्य की दृष्टि इतनी प्रखर हो जाये, कि उसके कर्म, अकर्म बनने लगें, वह मनुष्य ही बुद्धिमान है...बुद्धिमान का मतलब ये नहीं होता कि, आप
समस्याओं के हल निकालना सीख लें, वस्तुओं को छोटा-बड़ा करके देख लें, कृ ष्ण का बुद्धिमानी से कोई और अभिप्राय है ! वे बुद्धिमान उसे ही कहते हैं, जो समस्त में एक को ही
देखने की नजर बना ले, उस व्यक्ति के लिये, फिर पृथ्वी, आकाश, जल, मनुष्य, पेड़, पर्वत सभी में एक का ही विस्तार दिखाई देता है। ऐसा व्यक्ति अकर्म में कर्म और कर्म में
अकर्म देख लेता है, वही योगी है।-अचिंत्य

[8:06 pm, 03/09/2022] vkachintya: श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा
आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है।(गीता 2/2)

॥ सतसंग ॥

एक समय होता है, समझ का, सावधानी का और एक समय होता है, नासमझी का, और बेपरवाही का !..शत्रु जब सामने खड़ा हो, उस समय बेपरवाह होना, समझ से काम नहीं
लेना, एक वीर को पराजय दिलवा देता है, वीर पुरुष का धर्म है, जीत की चाह रखना !...इस समय अर्जुन के सामने खड़े, शत्रु ही नहीं थे, परिवार के लोग और सगे-संबंधी थे,
अपनो को सामने देख अर्जुन का मोह जाग गया था, मोहवस वह उनसे युद्ध नहीं करना चाहता, और वह अपना धनुष नीचे रख देता है, ऐसी नासमझी और बेपरवाही को देख कृ ष्ण
अर्जुन से कहते हैं कि इस असमय में तुझे मोह कै से प्राप्त हो गया ?.. असमय का मतलब होता है, जिस समय में उत्साह, सावधानी और समझ होनी चाहिये, उस समय में
शिथिलता, बेपरवाही और नासमझी पैदा हो जाये !...अर्जुन को ऐसी अवस्था में देख कर कष्ण कहना चाह रहे हैं कि जिस समय आदमी की पूर्ण समझ काम करती है, उस समय
भावनाओं का स्थान नहीं रहता ! यदि भावनाओं का मोह है तो, कृ ष्ण उस अवस्था को धर्म से गिरना कहते हैं। वीर का धर्म होता है, जो है, उसे स्वीकार करना, उससे पीठ नहीं
मोड़ना।...कृ ष्ण कहना चाह रहे हैं, जो व्यक्ति समय रहते असमय के कार्य करता है, वह संसार में अपयश को प्राप्त तो होता ही है तथा अपनी निजता से भी दूर हो जाता है। वीर
पुरुष वही है, जिसे ठीक समय की समझ हो, यही समझ उसे परम की प्राप्ति करवाता है।-अचिंत्य

[8:06 pm, 03/09/2022] vkachintya: - दोहा -

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान।


मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान॥(कबीर)

॥ सतसंग ॥

ज्ञान खास बात होती है, यह मिलता कहां से है, यह बात महत्व नहीं रखती!--पत्थर भी ज्ञान दे देता है, मूर्ख से भी ज्ञान मिल जाता है ! ज्ञान देने वाला स्वतः गुरु बनता है,
बनाने से गुरु नहीं बनता ! बनाने से ही गुरु बन जायें, तो क्या वे गुरु हो सकते हैं ! ? बनाने से तो परम्परागत गुरु बनाये जाते हैं, वे गुरू तो ढपोलशंख भी चल जाते हैं, ऐसे
गुरुओं से आपकी कॉलम पूर्ती होती है, जीवन की कमी पूर्ती नहीं होती ! ऐसे गुरु आपको जीवन की जानकारी के प्रति सुलाते हैं, जागाते नहीं!...ये गुरु, जो आपने सीखा है, उसे
ही अच्छे ढंग से सजा कर आपको बताते हैं, जीवन के अधूरे बचे रास्ते को नहीं खोलते ! ये गुरु ऊपरी जानकारी से बनाये जाते हैं।..जो यथार्थ गुरू होते हैं, वे अनजानी राह पर
चलाते हैं, अज्ञात का रास्ता खोलते हैं, ऐसे संतों की जाति, कपडे, जटाजूट, त्याग बगैरा नहीं देखे जाते, उनकी वजह से तो उम्मीदें जागती है! नये के प्रति उत्सुकता बनती है! वे
गुरु बनाये नहीं जाते, स्वतः बन जाते है!! नारियल-फू ल तो उन्हें बाद में चढ़ाये जाते हैं ! और जो गुरु बनाये जाते हैं, उन्हें नारियल फू ल पहले चढ़ाने पड़ते हैं..तो कबीर साहब
कहते हैं, सच्चे संतो की जाति नहीं पूछी जाती, ज्ञान देखा जाता है, तलवार खरीदते समय म्यान का भाव नहीं पूछते !-अचिंत्य

[8:06 pm, 03/09/2022] vkachintya: यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥

-अर्थ-

जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदल को भलीभाँति पार कर जाएगी, उस समय तू सुने हुए और सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक संबंधी सभी भोगों से वैराग्य को प्राप्त
हो जाएगा।( गीता2/52)

॥ सतसंग ॥

मोह का मतलब है, बस्तुओं से जुड़ाव, जब ये जुड़ाव सत्य को नहीं देखने देता, तब आंखें अंधी हो जाती हैं। सत्य सामने होता है और हम नीचे नजरें जमाये रहते हैं, तब दलदल
में फं स जाते हैं ! दलदल से निकलना साधारण नहीं होता, जी जान एक हो जाती है, किसी सहारे के बिना दलदल पार करना, मुश्किल हो जाता है।...तो इस स्थिति के लिये कृ ष्ण
कहना चाहते हैं कि मोहरूपी दलदल को पार करने के लिये किसी ज्ञानी पुरुष की सहायता की जरूरत पड़ती है,बिना उसके मोह की समझ पैदा नहीं होती, मोह की समझ पैदा होते
ही बिना प्रयास दलदल पार हो जाती है, एक होती है, विचारों की समझ और एक समझ आत्मा के अनुभव से आती है ! वही समझ बुद्धि को अच्छी तरह से साफ करती है, एक
बार स्पष्ट दिखाई दे जाता है तो फिर जानबूझ कर कोई गड्डों में नहीं गिरता ! फिर बुद्धि की रोशनी में अच्छी तरह दिखाई दे जाता है कि यहां चीजें स्थाई नहीं हैं, सब परिवर्तनशील
है ! एक नया बच्चा 80-100 साल में जरजर बन जाता है, यहां समय बीतने पर पहाड़ कं कड बन जाते हैं, चमकता सूरज भी एक समय आने पर बुझ जाता है, आज मन कु छ
होता है, कल की गारन्टी नहीं, कु छ और हो जाता है ! तो कृ ष्ण कहना चाहते हैं कि एक बार समझ पैदा होते ही, संसार समझ पड़ जाता है ! फिर आकर्षण और प्रेम के भेद गिर
जाते हैं, एक बार दृष्टि साफ हो जाय, फिर विवाद नहीं रहते ! सारे विवाद अंधेपन के होते हैं ! कृ ष्ण कहना चाहते हैं कि आँखें जब मन के पार उठकर देख लेती हैं, तब असली
सुख का राज खुलता है, वही सुख परम सुख है, बाकि तो सभी सुख, दुख के ही निकास हैं !-अचिंत्य

[8:06 pm, 03/09/2022] vkachintya: श्री भगवान बोले,

हे अर्जुन! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है और पण्डितों के से वचनों को कहता है, परन्तु जिनके प्राण चले गए हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैं
उनके लिए भी पण्डितजन शोक नहीं करते।(गीता2/11)

॥ सतसंग ॥
कृ ष्ण कहते हैं, हे अर्जुन ! तू उन लोगों के लिये चिंता करता है, जिन्होंने कभी रिश्तों को नहीं माना, जिन्होंने सड़यंत्र करके तुम्हें मारने की कोशिशें की, तुम्हें धोखा दिया, तुम्हारे
साथ जगह-जगह अन्याय किया, भरी सभा में तुम्हारी पत्नि की इज्जत उतार दी !!! इन अधर्मी लोगों के लिये तू बेचैन है, और युद्ध नहीं करना चाहता !! कृ ष्ण आगे कहते हैं, तू
जिन लोगों के जीवन की सोच रहा है, वे सभी यहां तुझे मारने खड़े हैं, किसी बारात में नहीं आये हैं ! वे तेरे बारे में ऐसा शुभ नहीं सोचते, जैसा तू सोच रहा है ! वे तेरी तरह
हथियार नीचे नहीं डाल रहे हैं ! उन सभी के निशाने पर तू है ! इसलिये हे अर्जुन! तू उन्हें नहीं मारेगा तो वे तुझे मार देंगे !.. तू कहता है कि मेरे प्रिय जन ही मर गये, तो मै राज्य
सुख का क्या करूं गा, मै इन्हें मारूं गा तो पाप लगेगा !?..कृ ष्ण कहते हैं, अर्जुन ! जो तू अलग-अलग तरह से पंडित और ज्ञानियों की सी बात करता है, माना तू ज्ञानी है! तो जरा
सोच ! ज्ञानी जन, उन लोगों के लिये शोक नहीं करते, जो मर गये हैं,ना हीं उन लोगों के लिए जो जिन्दा हैं, क्योंकि ज्ञानी जानता है, आत्मा अमर है, वह शरीर के मरने के बाद
भी जीवित है।...कृ ष्ण अलग -अलग ढंग से अर्जुन को वही समझा रहे हैं, जो उसके करने योग्य है।-अचिंत्य

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