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नवरात्रि के ज्ञान मोती

2022
आपका अपना आत्मा, जो सब देवी देवताओं का निवास स्थान है,
मौन से लिपटा हुआ है। जब आप गहरा प्रेम और कृ तज्ञता अनुभव
करते हैं, तो शब्द नहीं रहते।
श्रद्धा और भक्ति कई लोगों के लिए मन और भावनाओं को सांत्वना देने का माध्यम
है। कु छ अन्य लोगों के लिए, अपनी इच्छाओं और सपनों की आशा बनाए रखने का
माध्यम है। बहुत काम लोग हैं जो कठिन समय में भी अपनी श्रद्धा और भक्ति बनाए
रखते हैं, क्योंकि ये उनके जीवन का आधार है। और वो लोग सफलता पाते हैं।
एक अच्छा संगीतकार परेशान नहीं होता यदि संगीत वाद्य बेसुरा हो जाए। वह बस
वाद्य को वापस सुर में ले आता है। ये समय है अपने शरीर, मन और आत्मा को सुर में
लाने का। हमारी बात पर विश्वास रखो, तुम एक अच्छे संगीतकार हो।
तुम्हारी सारी महत्त्वाकांक्षाएं और उपलब्धियां दूसरों से जुड़ी हुई हैं - चाहे कु छ दिखावा करने के लिए,
या कु छ सिद्ध करने के लिए या दूसरों को कु छ देने के लिए। बस एक क्षण के लिए सोचो, तुम्हारी
उपलब्धियों की सराहना करने के लिए कोई नहीं है, महत्त्वाकांक्षाओं को सहारा देने के लिए कोई नहीं
है। तुम अपने आप को एकदम शांत और मुक्त पाओगे।
परिस्थिति को बदलने की, खुद को या दुनिया को बदलने की तुम्हारी चेष्टा ऐसी है जैसे एक
मच्छर लोहे की छड़ी को काटने की कोशिश करे। अपनी सब आशाएं छोड़कर विश्राम
करो, प्रसन्नता तुम्हें कभी छोड़ेगी ही नहीं। गुरु तुममें वैराग्य दृढ़ कर तुम्हारा पात्र बड़ा करते
हैं, फिर उसे प्रसाद से भरते हैं।
कु ण्ठा भीतर से शुरू होती है और हर कर्म या गतिविधि में रहती ही है। उसे पहचानो और
वहीँ कु चल दो। नहीं तो, वो बाहर के किसी न किसी तर्क का सहारा लेकर तुमपर सवार हो
जाएगी। कु ण्ठा से मुक्त होने की एकमात्र युक्ति है - स्थिरता।
त्रिपुरा रहस्य

सर्वकारण ब्रह्मानंद ही जिनका स्वरूप है, जो शुद्ध चैतन्य स्वरूप हैं और जो इस जगत रूप चित्र को
प्रतिबिंबित करने वाले चिन्मय दर्पणरूप से विराजमान हैं, उन त्रिपुरा देवी को नमस्कार है|
त्रिपुरा रहस्य भगवान् परशुराम और भगवान् दत्तात्रेय के बीच हुए संवाद पर आधारित है| जब परशुराम जी
अपने गुरु दत्तात्रेय महाराज से मिलते हैं, तो उनका रोम रोम खिल उठता है और उन्हें प्रणाम कर, वे गदगद हुई
वाणी में कहते हैं..

गुरुदेव आपके कृ पाप्रसाद से मैं धन्य हूँ, कृ तकृ त्य हूँ| साक्षात शिवस्वरूप करुणासागर गुरुदेव मुझपर प्रसन्न हो
गए| जिनकी कृ पा प्राप्त होने पर ब्रह्मपद भी तुच्छ लगता है और मृत्यु भी अपना आत्मा ही हो जाता है, आज वे
मेरे शिवस्वरूप गुरुदेव अकारण ही मुझपर प्रसन्न हैं|
दत्तात्रेय महाराज ने अपने शिष्य परशुराम को देवी त्रिपुरा की उपासना करने का साधन बताया। परशुराम ने 12
वर्ष देवी की उपासना की। एक दिन, उनके मन में एक संशय उठा। उसका निवारण करने वे अपने गुरु के पास
वापस गए। गुरुदेव ने उन्हें देखा और पूछा, “तुम खुश तो हो?” परशुराम जी ने कहा, “आपको देख के हो गया।
फिर भी मन में एक संशय है। मुझे ये जगत बड़ा विचित्र लगता है, ये कहाँ से आया और कै से बना हुआ है?
बाकी लोगों को भी ये ज्ञात नहीं पर सब आपस में अपने काम में व्यस्त हैं, जैसे अँधा अंधे का सहारा लेकर चल
रहा हो। सब लोग कोई न कोई अपेक्षा रखकर काम करते हैं, पर क्या उन्हें सच में प्रसन्नता प्राप्त होती है? मैंने
भी अपने जीवन में बहुत से काम किये हैं, इतने वर्षों से मैं देवी की उपासना कर रहा हूँ। अब ये सब काम बच्चों
के खेल जैसा लगता है। इन सब कर्मों का फल क्या है? यदि कोई फल है भी, तो मैंने सुना है कि वो टिकने
वाला नहीं है। ये सब कर्म काण्ड कब तक करना चाहिए। कु छ समय पहले, मैं एक ऋषि से मिला। वो हर
प्रकार से शांत और संतुष्ट थे। उन्हें न कु छ करने की आवश्यकता थी, न किसी प्रकार का डर था। जंगल में जब
आग लगी हो, तो वो हाथी जो सरोवर के पानी में बिना भयभीत हुए खड़ा है, उनका हाव भाव कु छ ऐसा था।
उन्हें ये अवस्था कै से प्राप्त हुई? मैंने जब उनसे पुछा, तो उन्होंने जो उत्तर दिया वो मुझे समझ में नहीं आया।
तब उन्होंने मुझे आपके पास भेज दिया। मैं उनके जैसे भीतर से मुक्त कै से हो सकता हूँ?” दत्तात्रेय महाराज
मुस्कु राए और अपनी कोमल वाणी में बोले, “बहुत अच्छा प्रश्न है। तुम बड़े भाग्यशाली हो जो ये प्रश्न किया।
अब ज्ञान पाने योग्य हो।”
अविचार या असजगता मृत्यु के समान है और सब लोग इसीसे मारे जाते हैं। जो विचार और सजगता के साथ
चलता है, अपना लक्ष्य प्राप्त कर विजयी होता है। विचाररुपी सूर्य अज्ञानरूप अंधकार को नष्ट करने वाला है
और इसका मूल भक्तिभाव से देवी की आराधना करना ही है| आराधिता होने पर महादेवी त्रिपुरा प्रसन्न होकर
ज्ञान की इच्छा के रूप में भक्त के ह्रदय में सूर्य की भांति प्रकट हो जाती हैं।

इसलिए उन भगवती त्रिपुरा की, जो अपनी आत्मस्वरूपा, सबमें वास करने वाली, महान ऐश्वर्यशालिनी,
चिन्मयी और कल्याणस्वरूपिणी हैं - गुरुदेव से दीक्षा प्राप्त कर निश्छल भाव से उन देवी की आराधना करनी
चाहिए| उनकी आराधना के मूल में भी निर्मल श्रद्धा और भक्ति ही प्रधान हैं|

परमार्थरूप फल की प्राप्ति में सत्संग ही बीज कहा जाता है। तुम्हें भी उन संत का संग होने पर ही ज्ञान प्राप्त
करने की इच्छा हुई। संतजन ही अपने सान्निध्य से परम सुख प्रदान करते हैं। सत्संग का प्रभाव समझाने के
लिए दत्तात्रेय महाराज ने एक कथा सुनाई।
जिनकी अपनी चेतना में नित्य तीनों जगत प्रतिबिंबित होते हैं, जो तीनों जगत और तीनों अवस्थाओं से
परे हैं, जो स्वयं अपनी हैं आत्मा हैं, ऐसी त्रिपुरा देवी की मैं वंदना करता हूँ|
एक बार एक राजकु मार ने एक ऋषि कन्या के मोह में पड़कर उससे विवाह कर लिया। वह कन्या, हेमलेखा
बहुत ज्ञानवती थी और वन से आकर अब राजमहल में रहने लगी। एक दिन राजकु मार ने अपनी पत्नी से पूछा,
“मैं तुमसे प्रेम करता हूँ पर तुम मुझसे प्रेम क्यों नहीं करती? तुम कु छ अपनी दुनिया में खोई रहती हो, मैं हूँ या
नहीं, आ रहा हूँ या जा रहा हूँ, तुम्हें आभास ही नहीं रहता। यहां राजमहल के इतने सारे भोग पदार्थ हैं, तुम्हें
इनमें रूचि क्यों नहीं है? यदि तुम प्रसन्न नहीं हो, तो मैं प्रसन्न कै से रह सकता हूँ?”

हेमलेखा ने बड़ी युक्तिपूर्वक कहा, “राजकु मार, ऐसा नहीं है कि मेरा आपके प्रति प्रेम नहीं। पर मैं ये निर्णय नहीं
ले पा रही हूँ कि जगत में प्रिय क्या है और अप्रिय क्या। आप कृ पा करके मुझे समझा दीजिए।”

राजकु मार बोला, “बस, इतनी सी बात? इसमें इतना क्या सोचना? जिससे सुख हो वह प्रिय और जिससे दुःख
हो वह अप्रिय होता है।”
हेमलेखा बोली, “आप तो बहुत बुद्धिमान हैं। पर जब एक ही वस्तु अलग अलग समय पर सुख और दुःख दोनों
दे, तब उसके विषय में क्या निर्णय है? जैसे अग्नि सर्दी में प्रिय होती है और गर्मी में अप्रिय। अपने पिता
महाराज को देखिये। वे स्त्री, पुत्र, धन सबसे संपन्न हैं पर नित्य चिंता में रहते हैं। और जिनके पास ये सब भोग
सामग्री नहीं, वो सब भी अलग चिंता में रहते हैं। ये सुख और दुःख भोग पदार्थों में उत्पन्न नहीं होते, मन में हैं।
अब बताईये, संसार में क्या प्रिय है और क्या अप्रिय?”

राजकु मार ने अपनी पत्नी की बातें सुनकर सोच में पड़ गया। उसने इन बातों पर विचार किया और उसे परम
वैराग्य हो गया। उससे उसके छोटे भाई ने ज्ञान प्राप्त किया, फिर राजा ने, फिर रानी, फिर मंत्री और फिर सभी
नगर वासी ज्ञानी हो गए, उस नगर में कोई भी अज्ञानी नहीं रहा।
ये कथा सुनकर परशुराम जी बोले, “ये तो ठीक है कि सत्संग कल्याण का मुख्य कारण है। हेमलेखा के संग से
सभी को महान फल प्राप्त हुआ। पर पत्नी ने एक बार कहा और पति ने ज्ञान पा लिया? ऐसा कै से संभव है?
मुझे सब कु छ विस्तार से बताईये।”

दत्तात्रेय जी ने कहा, “अच्छा, सब बताता हूँ। अपनी पत्नी की बातें सुनकर पहले तो राजकु मार दुखी रहने
लगा। उसे ऐसा देखकर हेमलेखा ने पूछा, “राजकु मार, आप आजकल पहले जैसे प्रसन्न नहीं लगते। क्या बात
है?” राजकु मार बोला, “पहले जो थोड़ा बहुत सुख मुझे भोग करने से मिलता था, तुम्हारी बातें सुनकर वो भी
नष्ट हो गया है। अब मैं भोग पदार्थों की वास्तविकता जानकार न तो उनका भोग कर पा रहा हूँ, और पुरानी
वासनाओं के कारण न उन्हें छोड़ पा रहा हूँ। अब कु छ दीखता ही नहीं जिससे मुझे सुख मिल पाएगा।”
हेमलेखा ने सोचा, “राजकु मार की ये अवस्था भी देवी त्रिपुरा के आशीर्वाद से ही है। जिनके ह्रदय में विराजमान
देवी त्रिपुरा प्रसन्न होती हैं, उन्ही में ऐसी स्थिति पाई जाती है।” तब उसने राजकु मार को श्रद्धा का महत्त्व
बताया।
श्रद्धा साक्षात् माता है। जो उसकी शरण लेता है, वह स्नेहमयी अपने बच्चे की तरह सर्वदा उसकी बड़ी से बड़ी
आपत्तियों से रक्षा करती है - इसमें संदेह नहीं। श्रद्धा सम्पूर्ण संसार का पालन करने वाली है, श्रद्धा ही सबका
जीवन है। बताईये, यदि माता पर विशवास न हो तो बालक कै से जीवित रहे। इतना है, कि श्रद्धा के साथ सही
तर्क और पुरुषार्थ भी आवश्यक है।

प्राप्त करने योग्य वही वस्तु है जिसे पाकर किसी प्रकार का शोक न हो। यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो इस संसार में
सभी ओर शोक ही दिखाई देता है। पर “मुझे धन प्राप्त हो जाए, या कु छ और मिल जाए”, ऐसा जो भ्रम है वह
मोह से होता है। और मोह में डालने वाले स्वयं महेश्वर हैं। उन्होंने ही सम्पूर्ण जगत की रचना की है, इसलिए
सब लोग मोह में पड़े हैं। जादूगर अपने खेल से सबको विस्मय में डाल देता है, पर उसे नहीं जो जादू का रहस्य
जानता हो। और जादू का रहस्य तभी जाना जाता है, जब जादूगर खुद बताए। इसी प्रकार, इस माया के पार
जाने के लिए महेश्वर का आश्रय लेकर, उन्हें प्रसन्न कर उनकी कृ पा प्राप्त करनी चाहिए। इसके लिए प्राणायाम
और अन्य प्रकार के योग बताए गए हैं, पर ईश्वर की कृ पा के बिना वे कोई फल नहीं देते। उपासना कभी दुःख
से छू टने के लिए की जाती है, और कभी किसी इच्छा के लिए, निष्काम उपासना तो विरलों की ही होती है| पर
सच्ची उपासना है वही|
हेमलेखा ने आगे कहा: इस सृष्टि को देखिये - ये अनंत है और मन की कल्पना से परे है। इसके सृष्टिकर्ता भी
अनंत शक्तिशाली और कल्पना से परे हैं। और वे आपकी रक्षा और उद्धार करने में पूर्ण रूप से सक्षम हैं।
उनकी शरण लीजिये। इस विश्व में थोड़े बहुत ऐश्वर्य वाले स्वामी भी अपने सेवक की निष्ठा देखकर उसे इनाम
देते हैं, भले ही वो इनाम अधिक देर टिकने वाला न हो। ईश्वर तो सब लोकों के स्वामी हैं। प्रसन्न होने पर वो
आपको क्या नहीं दे सकते ? और प्रभु की कृ पा मिल जाए तो उसका कभी क्षय नहीं होता।

प्रारब्ध और नियति परमात्मा की संकल्प शक्ति है। ईश्वर सत्य रूप हैं इसलिए नियति का उल्लंघन संभव नहीं।
पर ऐसा के वल उनके लिए है जो पुरुषार्थ नहीं करते। प्राणायाम के द्वारा प्रारब्ध पर विजय प्राप्त हो जाती है।
प्रारब्ध योगियों को दुखों के चंगुल में नहीं फं सा सकता। भक्ति से भाग्य भी बदल जाता है। इसलिए, भक्ति भाव
से परमात्मा में शरण लीजिये। ये परम आनंद प्राप्त करने की पहली सीढ़ी है।
अपनी पत्नी के ये वचन सुनकर राजकु मार बहुत प्रसन्न होकर बोला, “जिन परमात्मा में मुझे शरण लेनी चाहिए,
उनके स्वरूप का वर्णन करो। कोई उन्हें विष्णु कहते हैं, कोई शिव या गणेश। उनके विषय में मुझे सब कु छ
बताओ।”

हेमलेखा बोली, “ये ईश्वर ही हैं जो इस जगत जाल की उत्पत्ति और प्रलय करते हैं। वही विष्णु, शिव, ब्रह्मा, सूर्य
और चन्द्रमा हैं। सबके द्वारा सब रूपों में सब प्रकार से उन्हें दर्शाया गया है। पर वास्तव में न वो शिव हैं, न
विष्णु, न ब्रह्मा और न कोई और। मैं ये रहस्य बताती हूँ। इस जगत में कर्म करने वाले हर कर्ता जीव का शरीर
होता है। शरीर एक उपकरण है और जीवों को कर्म करने के लिए उपकरण की आवश्यकता होती है क्योंकि
उनमें सम्पूर्ण स्वातंत्र्य नहीं है। भगवान् पूर्ण स्वातंत्र्य रखने वाले हैं, उन्हें इस जगत की सृष्टि करने के लिए
किसी उपकरण की आवश्यकता नहीं। यदि ईश्वर कोई 5 मुख वाले या 4 हाथ वाले हैं तो वे भी कोई जीव ही
हुए, ईश्वर नहीं। ईश्वर हैं तो निराकार पर फिर भी भक्तों के लिए उनकी इच्छा के अनुसार अलग अलग रूप ले
लेते हैं। उनका शरीर वास्तव में चिति या चेतना स्वरूप है।

ये चितिरूपा महासत्ता ही सर्वेश्वरी भगवती त्रिपुरा हैं। ये समस्त संसार उनसे अलग टिका हुआ प्रतीत होता है
पर वास्तव में उनसे अलग नहीं। जैसे दर्पण और उसमें दीखता हुआ प्रतिबिम्ब अलग नहीं, वैसे ही देवी दर्पण हैं
और ये जगत उनमें प्रतीत होता हुआ प्रतिबिम्ब। यहाँ कु छ भी उत्तम नहीं और कु छ नीचा नहीं, क्योंकि सब
कु छ वास्तव में एक है।
ये आत्मा न तो देखा जा सकता है न ही कहा जा सकता है। अब मैं आपको कै से बताऊँ ? अपने आत्मा को
जानकर आप माता भगवती को भी जान जाएंगे। आत्मा के विषय में कोई उपदेश नहीं और न कोई उपदेश देने
वाला। शुद्ध बुद्धि का आश्रय लेकर आप आत्मा को आत्मा के द्वारा ही जान सकते हैं। कै से, कहाँ, कब और
किसके द्वारा आत्मा का वर्णन किया गया है? ये तो ऐसा कहने जैसा है, कि मुझे मेरी आँखें दिखाओ।

आप मुझे अपनी पत्नी के रूप में जानते हैं, मैं आपका स्वरूप नहीं हो सकती। सम्बन्ध होने से मैं आत्मीय तो
हूँ, पर आपकी आत्मा नहीं हूँ। ‘ये मेरा है’ ऐसा कहे जाने वाले सब पदार्थों को त्यागने पर जो बचता है, जिसका
त्याग नहीं किया जा सकता, वो आत्मा है। उसे जानकर आप परम कल्याण को प्राप्त करें।
इन शब्दों से राजकु मार को बहुत प्रेरणा मिली। उसने अपने आप को कमरे में बंद कर लिया और विचार किया,
“मैं शरीर नहीं हो सकता क्योंकि ये मेरा है। इसी तरह मैं मन या बुद्धि भी नहीं हो सकता। पर ‘मैं हूँ’ ये भाव
हमेशा बना रहता है। ऐसा कभी नहीं लगता कि मैं नहीं हूँ। मैं दृश्य को नेत्रों के द्वारा जानता हूँ। आस पास की
वस्तुओं को स्पर्श के द्वारा जानता हूँ। मन और बुद्धि को जानता हूँ क्योंकि विचार हैं। पर ये भाव मैं किसके
द्वारा जानता हूँ कि ‘मैं हूँ’| ऐसे विचार करते हुए राजकु मार गहरे ध्यान में चला गया। ध्यान से बाहर आने पर
उसे एक संशय हुआ और उसने हेमलेखा को बुलवाकर उससे पूछा, “मैं जब अपने आत्मा को खोजने अपने
भीतर गया तो मुझे बहुत आनंद प्राप्त हुआ। ऐसा आनंद जो किसी वस्तु से नहीं मिलता। मुझे पहले गहरा
अंधकार दिखा, फिर प्रचंड प्रकाश दिखा और भी कई अद्भुत दृश्य देखे। क्या यही आत्मा है?

हेमलेखा ने कहा, “आपने अपनी बहरी प्रवृत्ति को रोका, बहुत बढ़िया, शाबाश। पर आत्मा कु छ करने से प्राप्त
नहीं होता क्योंकि वो तो प्राप्त ही है। यदि वो आपके पास नहीं और आपको उसे किसी तरह प्राप्त करना पड़े,
तो वो आपका आत्मा नहीं। और यदि वो आपका आत्मा है, तो उसे आप प्राप्त कै से कर सकते हैं? मानिये,
कोई किसी वस्तु को ढूंढने एक कमरे में जाए पर वह उसे अन्धकार के कारण दिखाई न दे। तब वो दिया
जलाकर, अंधकार हटाकर वस्तु को देख ले। तो क्या वो ऐसा बोलेगा कि दिया जलाने से वस्तु प्राप्त हो गई?
नहीं, वो वस्तु पहले ही वहां थी। आत्मा की प्राप्ति भी कु छ ऐसी ही है।
जैसे अपने मस्तक की परछाई दौड़कर नहीं पकड़ी जा सकती, वैसे ही आत्मा कु छ करके प्राप्त नहीं किया
जाता। एक बच्चा निर्मल दर्पण में हजारों प्रतिबिम्ब देख लेता है पर दर्पण को नहीं देख पाता। लोगों को ये
जगत दीखता है पर जिस आत्मा में ये प्रतिबिंबित हो रहा है वो नहीं दीखता क्योंकि उन्हें उसकी पहचान नहीं
है।

जाग्रत और सुषुप्ति के बीच, एक विषय को छोड़कर दुसरे विषय पर जाने के बीच, या दो विचारों के बीच सूक्ष्म
बुद्धि से आत्मा का अनुभव कीजिये। यहाँ न रूप है, न रस, और न गंध, स्पर्श या शब्द। न सुख, न दुःख, न
कु छ ग्रहण करने योग्य और न कोई ग्रहण करने वाला। ये सबका आश्रय और सर्वरूप होने पर भी सबसे रहित
है। यही सबका स्वामी तथा ब्रह्मा, विष्णु और महादेव भी है।
जगत में सब कु छ जो प्रकाशित होता है, वो किसी के द्वारा जाना जाता है - देखकर, चखकर, किसी न किसी
इन्द्रिय के द्वारा। और सारी इन्द्रियाँ चेतना से सक्रिय होती हैं। ये जगत स्वयं प्रकाशित नहीं होता, चेतना के द्वारा
प्रकाशित होता है। चेतना की बिना न जगत का अस्तित्व रहेगा न ये प्रकाशित होगा। इसलिए जगत को चिति
रुपी दर्पण में प्रतिबिम्ब कहा जाता है। और ये चिति बड़ी विचित्र है। दर्पण प्रतिबिम्ब से अलग नहीं होता पर
कोई भी प्रतिबिम्ब दर्पण पर अपनी छाप नहीं छोड़ पाता। ऐसी ही, चिति जगत से अलग नहीं है पर जगत के
अनेक भावों से रंगी होने पर भी उसका स्वरूप शुद्ध रहता है।

सत्य अपने स्वभाव का त्याग कभी नहीं करता, असत्य कर देता है। ये जगत देखो, नित्य चंचल है। अपने सारे
अनुभवों में विचार करो कि क्या सत्य है और क्या असत्य। दर्पण अचल रहता है, उसमें प्रतिबिम्ब बदलता है।
उसी प्रकार, ये जगत चलायमान है और चेतना अचल - ये बात सभी जानते हैं।
किसी भी वस्तु को जानने के लिए पहले तुम अपने मन को अन्य वस्तुओं से हटाते हो और फिर मन को उस
वस्तु पर लगाते हो। ये दोनो करना आवश्यक है, किसी वस्तु को जानने के लिए। लेकिन चिति कोई वस्तु नहीं,
उसे ऐसे नहीं जान सकते। चिति को जानने के लिए सब वस्तुओं से अपना मन हटाओ और फिर कहीं मत
लगाओ।

मोक्ष आकाश के परे, धरती पर या पाताल में नहीं मिलता। बस, संकल्प त्याग के द्वारा जो शुद्ध रूप में स्थिति
है, वही मोक्ष है। जानने योग्य पदार्थों के त्याग मात्र से चिति पूर्ण कही जाती और इस पूर्ण स्वरूप का विस्तार
ही मोक्ष कहा जाता है।

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