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इसका क्या अर्थ है कि सम्मान और अपमान दोनों ही स्वयं के भीतर हैं । हम इस कारण भयभीत होते हैं क्योंकि हमने अहंकार को ही अपना होना समझ
लिया है । जब हम अहंकार को ही अपनी आत्म नहीं मानते तो डर किस बात का होगा । इसलिए जो व्यक्ति संसार को उतना ही सम्मान दे जितना कि
स्वयं को तो ऐसे व्यक्ति के हाथ में संसार का शासन सौंपा जा सकता है और जो संसार को उतना ही प्रेम करे जितना स्वयं को तो उसके हाथों में
संसार की सुरक्षा सौंपी जा सकती है । कल के सूत्र के संबंध में एक प्रश्न प्रश्न महत्वपूर्ण है । मात्र जिज्ञासा के कारण नहीं बल्कि साधना की दृष्टि से
भी पूछा है । सुख की कामना का त्याग ही दुखों से निवृत्ति है । सुख का सम्मान का, जीवन का चुनाव हमारे हाथ में दुख, अपमान तथा मृत्यु परिणाम
मात्र है । उनसे बचना हमारे बस की बात नहीं है । जीवन का चुनाव हमारे हाथ में है । यह कै से संभव है यह जानना चाहता हूँ । मुझे इतना ही जानना
है कि मेरा पुनर्जन्म ना हो । यह मेरे हाथ में कै से इस संबंध में दो तीन बातें ख्याल में ले लेनी चाहिए । पहली तो बात ये है सुख की कामना का
त्याग ऐसा मैंने नहीं कहा । कल के सूत्र को समझाते समय आपकी बहुतों की समझ में ऐसा ही आया होगा कि मैंने कहा है सुख की कामना का त्याग
ऐसा मैंने नहीं कहा, ऐसा लाओ का प्रयोजन भी नहीं । ऐसा बुद्ध और महावीर का भी अर्थ नहीं, ऐसा क्राइस्ट का भी अभिप्राय नहीं । लेकिन क्राइस्ट
हो के बुद्ध के लाओ से जब भी वे इस तरह की बात कहते हैं तो हमारी समझ में यही आता है । तो पहली बात तो ये समझ ले कि बुद्ध क्या कहते
हैं वो अक्सर हमारी समझ में नहीं आता और जो हमारी समझ में आता है वो अक्सर बुद्ध का कहा हुआ नहीं होता । सुख की कामना का त्याग ऐसा
अभिप्राय नहीं है । सुख को दुःख की तरह जान लेना ऐसा लाओ । शिष्य का अभिप्राय इन दोनों में फर्क है क्योंकि त्याग भी आदमी तभी करता है जब
कु छ मिलने का प्रयोजन हो । क्या भी एक सौदा हैं और त्याग के गहरे में भी लोग छिपा एक आदमी संसार का त्याग कर सकता है मोक्ष पाने के लिए
। लेकिन उस आदमी से कहो मोक्ष है ही नहीं, मोक्ष मिलेगा नहीं । फिर संसार का त्याग फिर संसार का त्याग का संभव है । एक आदमी सुख का
त्याग कर सकता है आनंद पाने के लिए । लेकिन सुख का त्याग आनंद पाने के लिए सुख का त्याग ही नहीं है क्योंकि आनंद में हमारी समस्त वासना
पुनः शेष रह गई । सिर्फ और नए या आयाम में प्रवेश कर गई । सुख का त्याग नहीं, सुख दुख है । ऐसा जानलेना और जब कोई ऐसा जान लेता है
कि सुख दुख है तो त्याग करना नहीं पडता, त्याग हो जाता है त्याग करना और त्याग हो जाना । बुनियादी रूप से भिन्न बातें जो करता है वो तो लोभ
के कारण ही करता है । किसी और सुख की कामना में ही करता है इसलिए कर ही नहीं पाता लेकिन हो जाए तब फिर बिना कामना के हो जाता है ।
मेरे हाथ में पत्थर कं कड पत्थर रखे हुए होंगे । अगर कोई मुझसे कहे की इनका त्याग करो तो मैं जरूर पूछूँगा किस लिए क्योंकि त्याग का कोई अर्थ ही
नहीं है । अगर किस लिए का उत्तर न दिया जा सके । इसलिए तथाकथित धार्मिक, साधु संन्यासी संत लोगों को समझाते रहते है छोडो और तत्काल
बताते रहते हैं किस लिए से ये नहीं कह रहा है मेरा भी अभिप्राय या नहीं हाथ में कं कड पत्थर है लव से कहता है जानो की ये कं कड पत्थर है
पहचानो की ये पत्थर लाओ से नहीं कहता कि त्यागो क्योंकि त्याग की बात उठाते ही प्रश्न उठेगा क्यों? लेकिन हाथ में कनका पत्थर है उन्हें में हीरे
जवाहरात समझ रहा हूँ । हीरे जवाहरात समझ रहा हूँ इसलिए पकडे हुए हो अगर काम का पत्थर दिख जाए तो उन्हें मुझे छोडना नहीं पडेगा । मेरी मुट्ठी
खुल जाएगी उन्हें छोडने के लिए मुझे रंच मात्र भी चेस्ट था नहीं करनी पडेगी उनके छोडने की नई वासना भी नहीं बनानी पडेगी कि इन्हें छोडू त्याग करूँ
नहीं कोई प्रश्न नहीं होगा । अब प्रयास फॅ मिली निष् प्रश्न पत्थर पत्थर दिखाई पड जाए तो मुठ्ठी खुल जाएगी । पत्थर नीचे गिर जायेगा और अगर पत्थर
इस भांति नीचे गिरा हो तो क्या मैं पीछे किसी से कह सकूँ गा कि मैंने पत्थरों का त्याग कर दिया । अगर पत्थर ही थे तो त्याग का कोई सवाल ना रहा
और अगर मैं पीछे कहता हूँ कि मैंने त्याग कर दिया तो मुझे पत्थर अभी भी स्वर्ण ही थे । हीरे सब आ रहे थे । भोगी और त्यागी की दृष्टि में बहुत
फर्क होता नहीं । भोगी और त्यागी एक दूसरे की तरफ पीठ करके खडे रहते हैं । उनकी दृष्टि में कोई फर्क नहीं होता भोगी भी मानता है कि हीरे
जवाहरात है इसलिए पकडे हुए हो । त्यागी भी मानता है कि हीरे जवाहरात है इसलिए छोड रहा हूँ । अगर हीरे जवाहरात नहीं है तो छोडने का कोई
मूल्य नहीं रह गया । लेकिन त्यागी भी कहता फिरता है कि मैंने कितना त्याग किया । त्यागी भी हिसाब रखता है । उतना ही जितना बोगी रखते । बोगी
हिसाब रखता है । कितने लाख मेरे पास है । त्यागी हिसाब रखता है कितने लाख मैंने छोटे लेकिन वे लाख अभी लाख है । इसमें कोई भेद नहीं,
मूल्यवान है । इसमें भी कोई भेद नहीं । बल्कि सच तो यह है कि भोगी कभी भी वस्तुओं को उतना मूल्य नहीं देता जितना त्यागी देता तथा कथित
त्यागी क्यों? क्योंकि भोगी तो पीडित भी रहता है । मन में की वस्तुओं को पकडे हो, भोग रहा हूँ, अज्ञानी हो पाती हूँ । त्यागी भी वस्तुओं को ही
भौंकता है । त्याग के नाम से क्या? क्या उसने छोटा है वो उसके अहंकार का हिस्सा हो जाता है । लेकिन अब पाप का अब अब अहंकार को चोट
पहुँचने का भी कोई कारण नहीं । त्यागी के पास जो सिख के है वो और भी चमकदार हो जाते हैं । भोगी के सिक्के तो चोर भी चुरा ले । त्यागी के
सिख के कोई भी चुरा नहीं सकता । भोगी की संपदा में तो कोई भागीदार भी बन जाए । त्यागी की संपदा में कोई भागीदार नहीं बन सकता । त्यागी की
संपदा बहुत सुरक्षित नहीं । लाओ से का यह अर्थ नहीं है कि सुख की कामना का त्याग करें । लाओ से कह रहा है कि सुख क्या है? इसे जाने
जानते ही सुख छू ट जाता है, त्याग हो जाता है । जो त्याग करते हैं वो अज्ञानी जिनसे त्याग हो जाता है वो ज्ञानी ज्ञानियों ने कभी भी कोई त्याग नहीं
किया है । ये सुन के थोडी कठिनाई होगी मन को क्योंकि हमारे सोचने का ढंग ये हो गया है कि हम सोचते है त्याग करने से आदमी ज्ञानी होता है ।
बात उल्टी है । ज्ञानी होने से त्याग गठित होता है । ज्ञानियों ने त्याग कभी नहीं किया । ज्ञानियों से त्याग होता है सहज इसलिए उसकी कोई पीछे
रूपरेखा भी नहीं छू ट जाती । कोई घाव भी नहीं छू ट जाता । जैसे सूखा पत्ता वृक्ष से गिरता है । ऐसा ज्ञानी के पास जो व्यर्थ है वो गिर जाता है ।
सूखे पत्ते की गिरने की खबर वृक्ष को होती ही नहीं, क्योंकि गाँव कोई छू टता नहीं । पता ही नहीं चलता । कब पत्ता गिर गया लेकिन कच्चा पत्ता तोडे
बृक्ष थे । तो वृक्ष को भी चोट पता चलती है । जिसको भी त्याग का पता चलता हो जान लेना कि अभी वो त्याग की स्थिति में पहुँचा नहीं था जिससे
ख्याल भी आता हो कि मैंने त्याग क्या समझ लेना अभी भूख के वर्तुल से बाहर वो नहीं हुआ । लाओ से कहता है सुख में देख लेना, दुख को जन्म
में देख लेना, मृत्यु को सम्मान में अपमान को विपरीत की झलक को खोजना मिल जाएगी । वहीं मौजूद है छिपी है जरा आँख गडा के देखने की बात है
। जरा ध्यानपूर्वक खोजने की बात है । सुख दुःख हो जाएगा । फू ल के पीछे कांटा निकल आएगा फिर छोडना नहीं पडेगा । छोडने की बात ही लाओ
उससे नहीं करता । छोडने की भी कोई बात करनी । अगर फू ल में काटा निकल आए तो छू ट गया । इसलिए पहली बात तो ये समझने की सुख की
कामना का प्यार ही दुखों से निवृत्ति है । ऐसा नहीं सुख को दुःख जान लेना ही दुखों से निवृत्ति है । ऐसा नहीं सुख दुख दोनों से निवृत्ति है । हमारा
मन बहुत अद्भुत है । हम सुख को भी छोडने को तैयार हो सकते हैं । अगर दुख से निवृत्ति मिलती हो लेकिन ध्यान रखें दुख से निवृत्ति अके ली नहीं
होती । सुख और दुःख दोनों से निवृत्ति होती है । दुख को छोडने को तो कोई भी तैयार है । दुख को छोडने के लिए कोई कोई प्रश्न ही नहीं । हम
सुख को भी छोडने को तैयार हो जाते हैं । कभी अगर दुख से निवृत्ति मिलती हो लेकिन वो भी दुःख को ही छोडने की चेष्टा, सुख और दुःख एक ही
सिक्के के दो पहलु है । ऐसा जो जानेगा वो ये भी जान लेगा या तो दोनों बचेंगे या दोनों छू ट जाएँगे । निवृत्ति होगी तो दोनों से और प्रवृत्ति रहेगी । तो
दोनों की तीसरी बात मुझे तो इतना ही जानना है कि मेरा पुनर्जन्म ना हो लेकिन क्यों? पुनर्जन् क्यों ना हो? क्योंकि जीवन में दुख है । जीवन में पीडा
और संताप है इसलिए पुनर्जन्म ना हो । सुक्की सुख की मुँह ही बनी रहती है और पुनर्जन्म हो ये भविष्य की आकांक्षा हो गई । वासना सादा ही भविष्य
होती । किसी भी तरह की वासना हो सादा भविष्य में होती है कल मुझे कु छ हो । वासना सादा कल के बाबत होती है । कभी आपने सोचा की वासना
वर्तमान में हो नहीं सकती । वासना का वर्तमान में होने का उपाय नहीं है क्योंकि वासना को जगह चाहिए स्पेस चाहिए । वर्तमान में कोई जगह तो नहीं
होती । एक क्षण आपके हाथ में होता है वो इतना काम होता है और वासना आपके पास इतनी होती उसमें नहीं फै ल सकती । इसलिए वासना भविष्य
खोजती कल परसों आने वाले वर्ष लेकिन ये तो हद हो गयी वासना की आने वाला जन्म तो बहुत भविष्य का विस्तार ना आने वाला जन्म हो ये भी
वासना है और जब तक वासना है तब तक जन्म होता ही रहेगा यही दुविधा है । धर्म की धर्म की गहरी से गहरी दुविधा यही है कि हम जब भी धर्म
को समझते हैं तब तत्काल अपनी वासनाओं की भाषा में रूपांतरित कर लेते हैं । धर्म ऐसा नहीं कहता कि पुनर्जन्म ना हो इस की कोशिश करो । धर्म
ऐसा कहता है कि जीवन क्या है । ऐसे समझ लो तो पुनर्जन्म नहीं होगा । वो कं स अक्यूट परिणाम फल नहीं । परिणाम फल की तो कामना करनी होती
है । परिणाम की कामना नहीं करनी होती । कु छ और करना होता है, परिणामों गठित हो जाता है । बुद्ध का पुनर्जन्म नहीं होता इसलिए नहीं कि बुद्ध
जीवन भर ये चेष्ठा करते रहे कि मेरा पुनर्जन्म ना हो । अगर ये चेष्ठा होती तो बुद्ध का पुनर्जन्म होता ही क्योंकि जिसका मन भविष्य में दौड रहा है
उसका मन वासना में दौड रहा है । अगर ठीक से समझे तो भविष्य का कोई अस्तित्व जगत में नहीं सिवाय मनुष्य की वासना । भविष्य समय का हिस्सा
नहीं है । मनुष्य की वासना का हिस्सा है । इसलिए जब भी कोई व्यक्ति वासना शून्य हो जाता है उसके लिए भविष्य मिट जाता है । भविष्य नहीं इस
समय ही मिट जाता है जी सबसे कोई पूछता है तुम्हारे स्वर्ग में सबसे खास बात क्या होगी फॅार वहाँ समय नहीं होगा जिसने पूछा था वो पूछ रहा था,
कल्पवृक्ष होंगे । वो पूछ रहा था अब सुनाई होंगी । वो पूछ रहा था सुखी सुख होगा शराब के झरने चश्मे होंगे कु छ ऐसी बात पूछ रहा था की क्या होगी
बात जिसके लिए ये सब छोडने का उपद्रव मुझे करना पडे उसको जिस इसकी बात बिल्कु ल नहीं होगी । दरअसल बी टाइम नो लंगर समय नहीं होगा ना
के वल नहीं रुचि होगी बल्कि बहुत भयभीत भी कर गई होगी । क्योंकि जहाँ समय नहीं होगा वहाँ कोई वासना नहीं हो सकती । कोई कल्परक्षित नहीं हो
सकते । हम तो स्वर्ग भी बनाते हैं तो हमारे वासना का ही विस्तार । हम तो जो भी करते हैं हमारा धर्म, हमारा मोक्ष, हमारा स्वर्ग, हमारी वासना का
विस्तार, वे सब हमारे संसार के ही परिशिष्ट, उनमें बहुत भेद नहीं । मित्र पोस्टिंग मेरा पुनर्जन्म ना हो । क्यों क्यों ना हो यही कारण ना कि जीवन में
दुख है । अगर जीवन में दुख है तो पुनर्जन्म की छोटे जीवन के पूरे दुख को समझ ले । जीवन के दुःख को जो समझेगा उसके भीतर धीरे धीरे वासना
छीन होने लगेगी क्योंकि सब और दुख है । चाहूँ भी तो क्या, चाहूँ चाहने योग्य कु छ भी नहीं । सब चाहे दुख में ले जाती है । सब चाहे दुख की ही
चाहे जिस दिन मालूम पडने लगे । जिस दिन कहीं से भी यात्रा करूँ और दुःख में पहुँच जाऊँ , कु छ भी सोचो और दुःख में गिर जाऊँ , कु छ भी चाहूँ
और दुःख में पहुँच जाऊं । जिस
दिन सब से सब यात्रा पत्र दुख में ही ले जाने मालूम दिखाई पढने लगे उस दिन क्या मैं चाहूँगा कि पुनर्जन्म ना हो फिर वो भी एक चाहे होगी और
सभी चाहे दुख में ले जाती है । क्या मैं चाहूँगा कि परमात्मा मुझे मिल जाए वो भी एक चाहे होगी और सभी चाहे दुख में ले जाती नहीं, तब मैं चाहूँगा
ही नहीं । बस इतना ही होगा कि मैं कु छ भी ना चाहूँगा । जिस कोई भी चाहे नहीं उसी समय समय मिट जाता है । भविष्य टू ट जाता है । अतीत
बिखर जाता है । ये वर्तमान का क्षण ही रह जाता है । सब कु छ उस क्षण में अस्तित्व तो है, जीवन नहीं इससे थोडा समझ ले । उस क्षण में अस्तित्व
तो है जीवन नहीं और जिस व्यक्ति ने जीवन में छिपे अस्तित्व को जान लिया उसका फिर कोई पुनर्जन्म नहीं । क्योंकि पुनर्जन्म जीवन का है । इसे हम
ऐसा समझे कि जीवन है समस्त वासनाओं का जोर अस्तित्व के ऊपर के ऊपर जो वासनाओं का जोड है वही जीवन पुनर्जन्म आपके इसी जीवन का
सिलसिला है । वो कोई नई बात नहीं है । शरीर नया है, आपकी वासना, पुरानी और वासना इतनी तीव्र है अभी भी कि उसे नए शरीर की जरूरत
पडती है इसलिए नया शरीफ मिल जाता है । जिस कोई भी वस्तु रही उसके नए शरीर की जरूरत ना रहे तो पुर्नजन् असंभव हो जाता है । लेकिन
पुनर्जन्म ना हो ऐसी चाहे मत बनाए अन्यथा वो कभी भी असंभव ना होगा । चाहो को समझे चाहे के तथ्य को पहचानने और चाहे के तथ्य में गहरे होते
तो पाएंगे कि चाहे ही दुख है । इसलिए मैंने कहा कि जीवन का चुनाव हमारे हाथ में पुनर्जन् हमारे हाथ में नहीं है । अगर हम जीवन में चुनाव करते
चले जाते हैं, वासना को जगाते चले जाते हैं तो पुनर्जन्म होगा ही, उसका कोई उपाय नहीं । अगर मैं सुख को पकडे चला जाता हूँ तो दुःख आएगा
ही । अगर मैं सम्मान मांगे चला जाता हूँ तो अपमान निष्पत्ति बनेगी ही । दूसरी बात के संबंध में सोचना व्यर्थ है । पहली ही बात मेरे हाथ में उसका
अर्थ हुआ कि अगर मैंने चाहे की तो मैं दुख पाउँगा ही । अगर मैंने चाय ही ना कि । लेकिन ध्यान रखना बारी बात है, थोडी सी वही भूल हो जाती
है तो हम सोचते हैं चलो अब हम ऐसा करे चाहे ना करें । तब हम हमारी यही चाह बन जाती है । तो चलो अब हम चाहे उस स्थिति को जहाँ कोई
चाह नहीं होती, इच्छा रहित हो जाऊँ , यही चार बन जाती है । तब हम पुनः चक्कर के भीतर खडे हो गए । नहीं, सिर्फ समझे सर पहचाने अपनी एक
एक चाह के पीछे चल के देख ले, दुख उठाएं, अनुभव करें किसी दिन जब ये अनुभव गहरा उतर जाएगा और सब चाहे व्यर्थ हो जाएंगे, उस चाँद नई
चाहे पैदा नहीं होगी कि मैं अच्छा है, कै से हो जाऊँ । उस दिन कोई चाहे ना होगी । अच्छा चाहों का अभाव है, नई चाहे नहीं मुक्ति नया बंधन नहीं
है, समस्त बंधना का व्यर्थ हो जाना चार है जीवन अच्छा है मुक्ति और ये हमारे हाथ में यह जान जाना हमारे हाथ में है । ये जब भी कोई चाहे तब
जा सकता है । मजे की बात है की चाहे तो हमें बहुत दुख देती है फिर भी हम नहीं चाहते इसलिए नहीं चाहते चाहे बहुत दुख देती है, सब सुख दुख
देते हैं और सभी फु ल कांटे की तरह छाती में चिप जाते हैं और गाँव बन जाते हैं । लेकिन हम उनकी तरफ देखती भी नहीं । हम नए फू लों की तलाश
में लग जाते हैं । उनको भूलने के लिए एक जगह से दुख मिलता है तो हम सुख का दूसरा दरवाजा खोलने लगते हैं । एक दरवाजे से नरक खुलता है
तो हम दूसरा दरवाजा स्वर्ग का खोजने लगते हैं । हम ही नहीं करते की जहाँ नरक का दरवाजा खोला एक रुके और सोचे कि कल इस दरवाजे को भी
स्वर्ग का समझ के ही खोला था । नर्क हो गया । और भी पहले जो जो दरवाजे स्वर्ग के समझ के खोले थे वो नर्क हो गए । अब मैं फिर नए स्वर्ग
के दरवाजे को खोलने चला अगर ये मुझे दिखाई पड जाए ये मेरे कहने से नहीं दिखाई पड सकता । आपको कहने से आपको दिखाई नहीं पड सकता है
। ये आपके ही जीवन का निरंतर दुख का अनुभव ही गहन हो तो दिखाई पड सकता है । लेकिन हमारे मन की तरक्की भी है कि हम दुख को भुलाना
चाहते हैं और सुख को याद रखना चाहते हैं । हम लोग को भुलाना चाहते हैं । लोग शराब पी रहे हैं । सेना मगरों में बैठे हुए हैं, संगीत सुन रहे है,
नाच देख रहे हैं । पूछे क्या तो कह रहे हैं कि बुला रहे हैं, कु छ बुला रहे, दुख बुला रहे हैं । दुख बुलाने योग नहीं है । दुख ठीक से जानने योग है
। जो दुःख को ठीक से जान लेता है वो सुख से छू ट जाता है । जो दुःख को ठीक से जान लेता है वो चाह से छू ट जाता है । जिसकी कोई चाह
नहीं उसका फिर कोई जन्म नहीं, अस्तित्व होगा उसका शुद्धतम वही शुद्धतम अस्तित्व आनंद है लेकिन भूल मत करना, उस आनंद का आपके सुख कोई
भी संबंध नहीं । उस आनंद में दुःख तो खो ही जाते है, सुख भी खो जाता है । इसलिए बुद्ध ने तो उस शब्द का प्रयोग करना भी पसंद नहीं क्या
आनंद शब्द का? क्योंकि आनंद से सुख का आभास मिलता है । अगर शब्द को उसमें जाएँगे खोजने तो आनंद का कु छ भी अर्थ किया जाए उसमें सुख
रहेगा ही । पारलौकिक सुख होगा, आनंद सुख होगा, सास्वत सुख होगा लेकिन सुख होगा ही । तो शब्द को ज्यादा से ज्यादा इतना ही वेट कर सकता
है कि क्षणभंगुर सुख है वो सांस पत होगा लेकिन होगा सुख । बुद्ध ने शब्द ही छोड दिया । बुद्ध कहते थे शांति सुख नहीं आनंद नहीं वो कहते थे सब
हो जायेगा हो जाए उस शांत क्षण को । आप जो भी चाहें कहें उस शांत छडने कोई भविष्य नहीं कोई कोई यात्रा नहीं अस्तित्व के कें द्र बिंदु से मिलन ये
हाथ में है ये हाथ में इसलिए है कि समझ आपके पास है ये हाथ में इसलिए है की ये समझ कीधारा को आप चाहे तो अभी दुख पर कें द्रित कर सकते
हैं । उसी का नाम ध्यान है समझ कीधारा को दुःख पर फोकस करने का नाम ध्यान है और जो भी व्यक्ति अपने जीवन के अनुभवों पर अपनी समझ
कीधारा को नियोजित कर लेता है वो त्याग को उपलब्ध हो जाता है और उस स्थिति को जहाँ फिर कोई पुनर आगमन नहीं । आज का इसका क्या अर्थ
है कि सम्मान और अपमान दोनों ही स्वयं के भीतर हमेश कारण भयभीत होते हैं क्योंकि हमने अहंकार को ही अपना होना समझ लिया है । जब हम
अहंकार को ही अपनी आत्म नहीं मानते तो फिर डर क्या यह सूत्र थोडा कठिन इससे थोडी दो तीन मुँह से समझना पडे से किसी व्यक्तिगत आत्मा में
भरोसा नहीं रखता है तो ठीक बुद्ध जैसा है और ये मजे की बात है इसीलिए बुद्ध के पैर हिंदुस्तान में ना जम सके लेकिन लाओ चीन में जम गए बुद्ध
के पैर हिंदुस्तान में ना चने बुद्ध ने गहरी से गहरी बात कही जो किसी मनुष्य कभी कहीं हो लेकिन बात इतनी गहरी हो गई कि हम किनारे खडे लोगों
को बिल्कु ल भी समझने ना वो इतनी गहरी आवाज हो गयी । वो आवाज हमारे पास तक पहुंची और पहुँची तो बिल्कु ल विकृ त हो गई और हमने जो अर्थ
निकाले वो हमारे अर्थ थे । बुद्ध ने कहा कि ये आत्मा की बातचीत भी बंद करो क्योंकि ये ख्याल भी की मैं आत्मा हूँ, मुझे अस्तित्व से तोड देता है
और अलग कर देता है । कठिन हुआ क्योंकि अगर आत्मा भी नहीं है तो हमें तो लगा कि सब खो गया । बुद्ध से लोग जाके पूछते थे कि अगर आत्मा
भी नहीं है तो फिर किस लिए सील और किस लिए समाधि और किस लिए साधना और ये इतना उपाय किस लिए? अगर आत्मा है तो समझ में आता
है की आत्मा को पाने के लिए वही लोग की भाषा हमारी काम करती । आत्मा को पाने के लिए एक आदमी त्याग कर रहा है, तपश्चर्या कर रहा है,
समझ में आता है बुद्ध लोग पूछते हैं कि आत्मा भी नहीं है तो फिर क्या किस लिए तपश्चर्या किस लिए? बुद्ध से लोग पूछते हैं अगर आत्मा भी नहीं है
तो मोक्ष किसका होगा और अगर मुक्त भी हो गए और आत्मा ही नहीं है तो बचेगा क्या? लोगों का पूछना भी ठीक है क्योंकि लोग लोग की भाषा के
अतिरिक्त और कु छ भी नहीं समझ सकते । बुद्ध ने कहा है तुम्हारा होना ही तुम्हारा दुख तुम हो तब तक तुम दुखी रहोगे । ये बहुत कठिन हो गया चाहे
छोड देना भी समझ में आ सकता है । कम से कम मैं तो बचूंगा चाहे भी छोड दूँ मैं तो बचूंगा चाहने वाला तो बचेगा सब छोड दूँ लेकिन कम से कम
मैं तो बचूंगा और बुद्ध कहते हैं कि तुम अगर बच्चे तो सब बच गया क्योंकि तुम्हारे होने में ही सारा संसार तुम हो ही चाहो का एक जो कभी सोचा
आपने की अगर आप अपनी सब चाहे निकाल के अलग अलग रख दें तो क्या आप की हालत वैसी हो जाएगी जिससे प्याज के छिलके कोई छीलता चला
जाए । अपनी सब चाहे अलग रख दे, आप बचेंगे पीछे एक बात पक्की है कि आप जो भी अपने को समझते हैं वो तो नहीं बचेगा और जो बचेगा उसका
आपको कोई भी पता नहीं । आपकी तरफ से तो ही बचेगा । आप तो खो जाएंगे । इसलिए भारत में भी बुद्ध की बात की गहराई में जडे नहीं पकड पाई
क्योंकि जब बुद्ध आत्मा को ही इंकार कर दिया और कह दिया की आत्मा भी नहीं है । तुम ही नहीं यही जानलेना ज्ञान है । खुद ने कहा तो कठिन हो
गया । चीन में लॉस से के कारण ही बुद्ध की बात जब पहुंची लाओ से के बाद तो चीन पकड पाया क्योंकि लाओ बीज बोये थे जिसमें लाओ से ने
कहा था हम इस कारण ही वैध थे । इस कारण ही लोग से भरे हैं कि हमने अहंकार को ही अपना होना समझ लिया है । ये जो मेरे भीतर मैं का
भाव है हूँ । यही हमारे दुख, लोभ, भय का कारण वस्तुत मैं नहीं हूँ, सब है उसमें मैं भी हूँ, मैं की तरह नहीं जिसे एक लहर सागर में है । उस
तरह लहर है । सागर में अलग नहीं, भिन्न नहीं । फिर विभिन्न दिखाई पडती है । फिर विभिन्न है । लहर जुडी है सागर से भीतर फिर भी बाहर से
आकृ ति अलग मालूम पडती है । ये जानते हुए भी की लहर सागर है । फिर भी लहर को हम अलग ही जानते हैं । मैं लहर हूँ, लेकिन अगर कोई
लहर समझने की मैं अलग हूं तो कष्टों की यात्रा शुरू हो गई । अगर लहर समझ ले कि मैं अलग हूं तो फिर लहर का जन्म महत्वपूर्ण हो गया । फिर
लहर की मृत्यु महत्वपूर्ण हो गई और अब लहर के सिवाय कौन बचाएगा । उसे मृत्यु के भय से लहर देखेगी । चारों तरफ लहरें गिर रही है, मिट रही
है, समाप्त हो रही कब्रें बनती जा रही है । उसके चारों तरफ वो भी जानती है कि मेरी कब्र करीब है । मैं भी मिटने के करीब हूँ । जब लहर आकाश
को छू ने से भरी तब भी उसे पता है कि पैर किसके जा रहे । जमीन मिट्टी जा रही जल्दी ही कब्र मेरी बन जाएगी । चारों तरफ खबरें बनती चली जा
रही है । अभी जो लहर आकाश छू ती मालूम पडती थी वो खो गई और मिट गई । मैं भी मिलूँगी ये लहर को मिटने का जो डर है ये मौत का जो
भाय है ये किस कारण ये इस कारण नहीं है की लहर मिटेगी । ये इस कारण है की लहर ने अपने को सागर से अलग जाना । अगर लहर अपने को
सागर से एक जाने तो फिर कै सा मिटना फिर तो जब लहर नहीं थी तब भी थी और जब नहीं रहेगी तब भी होगी । फिर तो ये बीच का जो खेल है
ये खेल ही हो गया । इसे गंभीरता से लेने की कोई जरूरत ना रहे । लहर सागर है अगर ऐसा जाने तो फिर कोई भय नहीं । भय तो एक ही बात का
है कि मैं अलग हूं तो फिर मुझे बचाना पडेगा । इंतजाम करना पडेगा लडना पडेगा मृत्यु से और लड लड कर भी तो आदमी मीठी जाएगा । बचने का तो
कोई उपाय नहीं फॅ से कहता है इसका क्या अर्थ है कि सम्मान और अपमान दोनों ही स्वयं के भीतर हम इस कारण भयभीत होते हैं क्योंकि हमने अहंकार
को ही अपना होना समझ लिया । अच्छा होके हम इसको कहें । अंग्रेजी का वाक के ज्यादा बेहतर है वी ऍफ मुँह मुँह ॅ हम भयभीत होते हैं क्योंकि हमें
लगता है कि हम आत्मा फॅ स और जब हम आत्मा को आत्म नहीं मानते । जब मेरे को मैं नहीं मानता हॅू फीर और तब भय कहाँ फिर भयभीत होने की
क्या जगह रही? मैं हूँ यही हमारे का आधार क्यों? क्योंकि अगर मैं हूँ तो मुझे मेरे मिटने का डर समा ही जाएगा । अगर मैं हूँ तो नहीं हो सकता हूँ ।
ये बात मौजूद हो गई । इससे थोडा समझे अगर मैं हूँ तो मैं नहीं भी हो सकता हूँ । फिर मैं पकडेगा । बुद्ध कहते हैं कि तुम नहीं हो ऐसा जान लो ।
फिर जगत में कोई भय नहीं क्योंकि मिटने का ही भय, एकमात्र भय और सारे भय उससे ही पैदा होते हैं । उसकी ही उप उत् पत्तियाँ उसके ही शाखा
पल्लव बुद्ध कहते हैं कि तुम हो ही नहीं इससे जान लो । फिर कै सा भय से भी यही कहता है आत्मा है, अस्मिता है, अहम है । हूँ तो भय और
अगर तुम नहीं
हो तो फिर कै सा है यहाँ फिर एक बात ख्याल में ले ले ये क्या हम मान ले कि मैं नहीं हूँ । मानने से कु छ भी नहीं होगा । कौन मानेगा, जो
मानेगा वो तो पीछे बचा रहेगा । अगर मैं भी लोगों की मैं नहीं हूँ तो भी तो भी मैं हूँ । कौन मानता है ये भी मेरी मान्यता है इसलिए बुद्ध ने कहा
मानने की की बात नहीं है । इससे खोजो कि सच में तुम हो इसे खोजो कहाँ हो? तुम शरीर में हो तो शरीर खोजो, विचार में हो तो विचार में खो
जो भाव में हो तो भाव में खोजो । खोजो भीतर अथक कहाँ हो तुम और बुद्ध कहते हैं तुम खोज खोज कर पाओगे कि तुम खो गए, तुम नहीं हो ये
ना होना, मान्यता और विश्वास और सिद्धांत नहीं । यही भूल हुई । भारत के पंडित को बुद्ध को समझने में भूल हुई क्योंकि भारत के पंडित ने कहा ये
सिद्धांत है बुद्ध का की आत्मा नहीं तो भारत के पंडित ने कहा कि हम सिद्ध कर सकते हैं की आत्मा है । बुद्ध के लिए ये सिद्धांत नहीं था । ये गहन
अनुभूति थी । अगर ये सिद्धांत है तो ये गलत है । नागार्जुन ने बुद्ध ऍम मूल माध्यमिक कारी का नाम का अपना स्वास्थ्य लिखा । अनूठा है संभवता
पृथ्वी पर वैसी दूसरी कोई किताब नहीं नागर्जुन जैसा आदमी भी खोजना पृथ्वी पर दुबारा मुश्किल है । नागार्जुन ने उसमें सिद्ध किया है की कु छ भी नहीं
है । ना मैं हूँ, ना तुम हो ना संसार है, कु छ भी नहीं है । स्वभाव था नागार्जुन बडी दिक्कत में पड गया क्योंकि उसको गलत करना तो बहुत आसान
है । कोई भी आ के गलत कर देता कि अगर कु छ भी नहीं है तो ये किताब किसके लिए लिखे । अगर तुम भी नहीं हो तो कौन लिखता है । ये बात
है कौन विवाद करता है और ये सुनने वाला भी नहीं है तो तुम किसको समझा रहे हो? नागार्जुन की कठिनाई है । नागार्जुन जो कह रहा है वो गहन
अनुभव है । वो असल में ये कह रहा है कि व्यक्ति सा कोई भी नहीं । इंडिविजुअल नथिंग ऍम व्यक्ति कु छ भी नहीं लगा की भांति कु छ भी नहीं सागर है
। लेकिन जब हम कहते है सागर है तब सागर की भी सीमा बन जाती है । इसलिए नागर्जुन कहता है जो है उसके लिए कोई भी शब्द हम उपयोग करेंगे
तो उसकी सीमा बन जाएगी । तो नागर्जुन कहता है कि हम जो जो नहीं है वो बता देंगे और जो है उसे छोड देंगे तो नहीं । नहीं नहीं को जान लेना,
पहचान लेना और जब नहीं की पूरी यात्रा समाप्त हो जाए तो जो बच रहे जो बच रहे री मेनिंग वही है बाकी कु छ भी नहीं । ऍसे कहता है हमारा भय
क्या है? हमें निंदा अप्रीति कर क्यों लगती और प्रशंसा प्रीति कर क्यों लगती है? प्रशंसा का मतलब कोई कह रहा है कि तुम बडी लहर हो? निंदा कार
थे, कोई कह रहा है छु द्र सी लहर से कह रहा है कि तुम हो ही नहीं । लहर तुम हो ही नहीं । जब तक तुम लहर मानोगे अपने को तब तक प्रशंसा
सुख स्थिति थी, मालूम पडेगी, निंदा दुख देगी, मित्र होंगे जो तुम्हारी लहर को बचाए शत्रु होंगे जो तुम्हारी लहर को मिटाएं । बुद्ध को भूल से अंतिम
जीवन के क्षणों में किसी ने जहर दे दिया । भूल से किसी गरीब आदमी ने निमंत्रण किया था और बिहार में कु कु रमुत्ते को लोग बरसात में इकट्ठा कर लेते
हैं । लकडी पर गिली लकडी पर जो फू ल उगाते हैं, उनको इकट्ठा कर लेते हैं, सुखा लेते हैं । कभी कभी वो हो जाता है । गरीब आदमी उन्हें निमंत्रण
दिया था । विषाक्त फू ल है । बुद्ध खाली जहर था । कडवा लौट कर आए तो खून में जहर फै ल गया । फुँ सी बुद्ध की मृत्यु हुई । मित्रों ने कहा कि
आप कह तो देते हैं कि कडवा है । बुद्ध ने का कडवा तो था लेकिन कहता कौन? लोगों ने कहा ये बातें मत करिए । ये जीवन और मृत्यु का सवाल
है । बुद्ध ने का अगर मैं होता तो मर भी सकता था । मैं हूँ ही नहीं, मैं हूँ ही नहीं । इसलिए मृत्यु का कोई सवाल नहीं । अगर है तो मारेंगे । मगर
क्या इसे हम मान लें? यही सारी कठिनाई है । मान भी सकता है । कोई आदमी करोडो करोडों बौद्ध बुद्ध को मान कर ही चल रहे हैं कि नहीं, इससे
कोई फर्क नहीं पडता है । इससे कोई बुद्धत्व उपलब्ध नहीं होता । कितने करोड करोडो बौद्ध है जमीन पर वे मान कर ही चल रहे है की नहीं । वो ऐसे
ही मानकर चल रहे है की नहीं है जिससे कोई मान के चल रहा है कि है ये नहीं है और है । दोनों मान्यताएं हैं । इनका कोई मूल्य नहीं जानना है ।
प्रवेश करे भीतर हाँ जी मैं हूँ जिससे जैसे खोज गहरी होगी सतह पर तो लगता है मैं शरीर हूँ । आत्मवादी लोगों को समझाते हैं कि अपने को शरीर मत
मानो समझो कि तुम आत्मा हो । एक कदम ले जाते हैं । मनस्विद या मान तक मानने वाले लोग हैं । वो कहते हैं आत्मा तो कु छ पता नहीं चलती
शरीर नहीं है, यह ठीक है । मैं मान हूँ यहाँ तक बात जाती मालूम पडती है । बुद्ध आखिरी कदम उठाते लाओ से भी आखिरी कदम उठा था । ये
मनुष्य जाति के अत्यधिक हिम्मतवर लोग हैं । सब्र का आदमी मानता है मैं शरीर हूँ उसको हम नास्तिक कहते हैं जो मानता है मैं शरीर नहीं हूँ, आत्मा
हूँ उसको हम आर्थिक कहते हैं । बुद्ध कहते हैं जो मानता है कि मैं हूँ उसे अभी कु छ पता ही नहीं । चाहे शरीर चाहे आत्मा जो जानता है कि मैं हूँ
ही नहीं । फिर भी होना तो है । जब मैं कहता हूँ मैं नहीं हूँ तब भी होना तो है पर उस होने का मैं से कोई जोड नहीं । जब मैं कहता हूँ लहर
नहीं है तब भी लहर तो है लेकिन उस लहर का लहर होने का कोई आग्रह नहीं । वो सागर है । अगर एक लहर खोज में निकले अपने भीतर जाए और
पता लगाए की मैं हूँ तो जल्दी ही पाएगी की लहर तो खो गई अगर मिल गया । जब भी कोई अपने भीतर प्रवेश करता है तो बहुत जल्दी पाता है कि
व्यक्ति तो खो गया और परमात्मा मिल गया । ऍसे उसे परमात्मा का नाम भी नहीं देता क्योंकि वो नाम भी आदमी की भाषा में बहुत झूठा हो गया है
और हमने इतने इतने ओठों से परमात्मा का नाम लिया है और इतनी इतनी ना समझो से उस नाम को जोडा है और उस नाम के लिए हमने इतने
उपद्रव किए हैं, लव से चुप ही रह जाता है । परमात्मा का नाम नहीं लेता । वो कहता है इतना ही जान लोगे तुम नहीं हो तो फिर तुम्हें प्रशंसा भी
नहीं छु एगी क्योंकि किसकी प्रशंसा फिर तुम्हें निंदा भी नहीं छु एगी क्योंकि किस की निंदा फिर तुम्हें जीवन भी नहीं छु एगा । किसका जीवन तुम अछू ते सागर
के साथ एक हो जा सकोगे । जब हम अहंकार को ही अपनी आत्म नहीं मानते हैं तो फिर किस बात का भय का अर्थ हुआ अपने को आत्म अहंकार,
असमिता, इगो अपने को अलग थलग मानना ही भय । इसलिए जो व्यक्ति संसार को उतना ही सम्मान दे जितना कि स्वयं को और ये कब होगा तभी
होगा जब मेरे भीतर कोई अहंकार ना हो, कोई आत्मा का भावना हो । अगर मैं हूँ तो मैं आपको उतना ही सम्मान नहीं दे सकता जितना अपने को क्यों
। निचे ने कहा है ठीक कहा है, अजीब शब्दों में कहा है लेकिन सच कहा है । निश्चय ने कहा है कि अगर कहीं भी कोई ईश्वर है तो मुझसे नंबर दो
ही हो सकता है क्योंकि मैं अपने से ऊपर किसी को कै से रख सकता हूँ । ये बहुत मजेदार बात है । आप चाहे भी तो भी नहीं रख सकते । आप चाहे
भी किसी को अपने से ऊपर रखना तो भी नहीं रख सकते । उपाय नहीं, भीतरी असुविधा है और अगर आप रख भी नहीं किसी को अपने से ऊपर तो
भी वो आपके द्वारा ही ऊपर रखा गया है और जिसके द्वारा ऊपर रखा गया है वो सदा ऊपर रह जाता है अगर मैं किसी के चरणों में जाके सिर भी
रख दूँ और कहूँ कि मैं समर्पण करता हूँ सब अपना तो भी समर्पण नहीं करता हूँ का समर्पण का मालिक मैं हूँ । समर्पण मेरा कत्य है और कल अगर
मैं चाहूँ तो अपना पूरा समर्पण वापस ले सकता हूँ । कौन रोके गा तो जिसके चरणों में मैंने अपना सिर भी रखा है वो भी मेरा ही निर्णय । अंततः मैं ही
निर्णायक हूँ और कल सिर उठा लूँ तो कोई उपाय तो नहीं है । रोकने समर्पण में भी संकल्प तो मेरा है तो मैं किसी को चरणों में सिर्फ रख के भी
अपने से ऊपर नहीं रख सकता । इसकी दुविधा भीतरी है । ये असंभावना है । लेकिन क्या इसका यह अर्थ हुआ कि कभी समर्पण इस जगत में गठित
नहीं हुआ है? समर्पण घटित हुआ है लेकिन वो तब गठित होता है जब मुझे पता चलता है कि मैं हूँ ही नहीं । जब तक मैं हूँ तब तक तो समर्पण भी
मेरा संकल्प है । बुद्ध के बडे भाई चचेरे भाई आनंद बुद्ध से दीक्षा ली तो उधर से कहा की दीक्षा के बाद तो फिर मैं नहीं बचूंगा । तुम्हारी आज्ञा मेरे
लिए अंतिम आज्ञा होगी लेकिन अभी अज्ञानी हो अभी तुम्हारा बडा भाई दीक्षा के पहले तुम से दो चार वचन ले लेता हूँ । रिक्शा के पहले बडे भाई की
हैसियत, छोटे भाई के दिए गए वचन इनका तुम पालन करना उसने तीन वचन ले लिए । बहुत से बहुत प्यारी घटना है और जिसने जिसने दीक्षा ली थी
आनंद ने उनके चचेरे भाई है । वो बहुत अद्भुत आदमियों में से एक बुद्ध ने उससे कहा इतनी भी क्या जल्दी है पीछे भी तुम कहोगे तो मैं मान लूँगा ।
लेकिन आनंद ने कहा मैं बचूंगा कहाँ कहेगा कौन अभी ही तय कर लेना उचित है । अभी मैं हूँ । वचन मांग लिए । बुद्ध ने वचन दे दिए । जीवन भर
उन तीन वचनों का बुद्ध ने पालन किया और बडे आश्चर्य की बात है । आनंद इसके बाद चालीस वर्ष तक बुद्ध के पीछे छाया की तरह रहा । बुद्ध के
सर्वाधिक निकट वही था, उतना निकट कोई दूसरा व्यक्ति कभी नहीं रहा । फिर बुद्ध की मृत्यु हो गई । फिर बुद्ध के वचन संगीत करने के लिए संघ
बैठा है तो आनंद सर्वाधिक निकट बुद्ध के रहा था । सबसे ज्यादा प्रमाणिक वक्तव्य उसका ही था कि बुद्ध कब किस से क्या था । रात बुद्ध के कमरे में
ही वो सोता था । चौबीस घंटे उनके साथ रहता था । ऐसी कोई भी घटना नहीं घटी थी । चालीस वर्षों में जो आनंद के सामने ना घटी हो और सबसे
ज्यादा प्रमाणिक आदमी वही था । लेकिन संघ ने आनंद को भवन के भीतर लेने से इंकार कर दिया । भिक्षुणी उन्होंने कहा कि अभी आनंद को ज्ञान
उपलब्ध नहीं हुआ । आनंद गिडगिडाता है दरवाजे पर लेकिन भिक्षुओं ने द्वार बंद कर दिए और अन्य भिक्षुओं ने कहा कि आनंद को ज्ञान उपलब्ध नहीं
हुआ । करन आनंद ने पूछा, कारण तो पता चला की वो जो तीन वचन तुमने बुद्ध से लिए थे वो तुम्हारे अहंकार की जरा सी देखा । चौरासी रेका
मिटने के पहले भी मिटने के पूर्व जरा सी तुमने जो रेखा खींच ली थी वो बाधा बन गई और आनंद ने स्वीकार किया कि वो बाधा है और मैं योग नहीं
के भीतर आ सकूं । जब मैं योग हो जाऊँ गा तब मैं द्वार खटखटाऊं गा । चौबीस घंटे आनंद ध्यान में बैठा रहा । भीतर सभा चलती रही । वक्तव्य संगीत
किए जाते रहे । चौबीस घंटे बाद आनंद द्वार खटखटाया । दरवाजा खोल दिया गया । पूछा भिक्षुओं ने आनंद तुम बिल्कु ल बदल कर आ रहे हो । तुम्हारे
चेहरे की आभाव, तुम्हारे पैर की भनक और तुम्हारे चलने का ढंग और चालीस साल से तुम्हें देखा है । लेकिन ये तुम आदमी दूसरे आनंद का । इस
ध्यान में मुझे पता चला कि कै सा छोटा भाई, कै सा बडा भाई, कै सा वचन कै सा आशवासन । मेरा समर्पण भी सतर्क था । उसमें जरा सी शर्त एक
कं डिशन थी । आज मैंने क्षमा मांग ली और आज मैंने वो सर छोड दी और आनंद ने कहा कि अब मैं मेरा कोई आग्रह नहीं, भीतर आने दो तो ठीक
भीतर ना आने दो तो ठीक मैं बाहर ही बैठा रहूँगा । तो संघ ने कहा कि अब तुम्हें भीतर आने में कोई बाधा ना रही । वो तुम्हारा पहले आग्रह की मुझे
भीतर लोग क्योंकि मैं ही प्रमाणिक व्यक्ति हूँ । चालीस साल नहीं निकट था तो वही उसी कारण हमें दरवाजे बंद करने पडे थे । अब तुम भीतर आ सकते
हो क्योंकि बाहर और भीतर में अब कोई फर्क नहीं है । समर्पण भी अगर शर्त से हो समर्पण में भी अगर कृ त्य हो तो मालिक तो मैं ही बना देता हूँ ।
ये जो मेरा होना है इसके द्वारा समर्पण नहीं होता । ये नहीं हो तो जो होता है उसी का नाम समर्पण लाउड से कहता है कि ये मेरा होना ही मेरे सारे
दुख की जड है लेकिन कै से इससे मिटाएं? कै से बहुत लोग इसे मिटाने की कोशिश करते मिटा तो नहीं पाते । ये और मजबूत हो जाता है । जो है ही
नहीं चीज उसे मिटाया नहीं जा सकता । एक बात पक्की समझ लें अगर हो तो मिटाया भी जा सके । जो नहीं उसे मिटाया नहीं जा सकता । जो मिटाने
चलेगा वो भूलना पडेगा, उसे जाना जा सकता हैं, खोजा जा सकता है कहाँ से मैरिज थी रमन कि ध्यान की पद्धति थी जिसमें
वो सात को को कहते थे पूछो मैं कौन हूँ हूॅं अगर हम लाओ से कि ध्यान की पद्धति बनाना चाहे तो उसमें हमें कहना पडेगा मैं कहूँ ऍम हूँ बेमानी
कौन का कोई मतलब नहीं है । अगर लाओ से कि ध्यान की पद्धति बनानी पडे तो पूछा जाएगा भीतर ॅ कहाँ मुँह में मैं कौन हूँ । इसमें ये तो मान ही
लिया गया कि मैं हूँ अब रह गया कि कौन ये जानना लाल से कहता है पहले ये तो खोजो की तुम हो तो खोजो कहाँ हो? एक इंच अपने भीतर प्रवेश
करो और एक एक इंच पर पूछो की कहाँ हो और मुझे की बात है वो मैं कहीं भी नहीं पाया जाता है । और जब आदमी अपने भीतर सब खोज लेता
है, शरीर, मन, प्राण, आत्मा और कहीं भी नहीं पाता कि मैं हूँ तब भी पाता तो है कु छ है, कु छ है ये तो पता है लेकिन मैं को नहीं पाता वो
जो कु छ है एक अज्ञात वो सा करें । और अगर हम पा लेते हैं कि मैं ये हूं तो वो लहर चाहे वो कितनी गहरी हो । कोई कहे मैं शरीर हूँ तो भी
नास्तिक कोई कहे मैं मान हूँ तो भी नास्तिक कोई कहे मैं आत्मा हूँ तो भी नास्तिक लाश और बुद्ध के हिसाब से एक कदम और मैं हूँ ही नहीं । सब
कट जाए ने पी नेति हो जाए कु छ भी ना बच्चे तब जो बच रहता है । बच्चे तो रहता ही है । उस कु छ अज्ञात का नाम नहीं है और उस अज्ञात में
प्रवेश करते ही फिर भय नहीं । फिर कोई प्रलोभन थी नहीं । इसलिए जो व्यक्ति संसार को उतना ही सम्मान दे जितना स्वयं को कब संसार को उतना
ही सम्मान तभी दिया जा सकता है जितना स्वयं को । जब स्वयं का होना बिल्कु ल खो गया, स्वयं के रहते हैं मैं सादा ही मूल्यवान रहूँगा । कोई
कितना ही मूल्यवान हो, मैं भी खुद कहूँ कि तुम मुझसे बहुत मूल्यवान मैं तुम्हारे चरणों की धूल तो भी मैं ही मूल्यवान रहूँ । मेरा कोई भी वक्तव्य मेरे
मूल्य का खानदान नहीं कर सकता । मेरा खुद का ही वक्तव्य की । मैं जमीन की धूल हूँ तुम्हारे चरणों की मेरे तुम से ऊपर होने के आधार को मिटा
नहीं सकता । मैं ऊपर रहूँगा । मैं कहा होना अनिवार्य ऊपर होना है । मैं तो सर्वोपरि है । वो कितनी ही घोषणाएं करे उससे कोई अंतर नहीं पडता । मैं
कीघोषणा अनिवार्य रूपये सर्वोपरि घोषणा तो किस दिन ये घटना घट सकती है जबकि मैं संसार को उतना ही सम्मान हूँ जितना स्वयं को । उसी दिन
जिस दिन मेरा मैं ना हो । उस दिन संसार और मेरे बीच फासला नारा उस दिन ऐसा कहे कि मैं ही फै ल कर सबके भीतर प्रकट होने लगा । यह सब
मेरे भीतर बढ के प्रकट होने लगे । उस दिन मेरे औरतों के बीच कोई दीवाना रही । उस दिन सबका होना ही मेरा होना दे उस दिन सम्मान हो सकता
है । सबका सम्मान उस दिन सम्मान हो सकता है उतना ही जितना अपने को । जिस आपने कहा है पडोसी को उतना ही प्रेम जितना तुम स्वयं को
करते हो । लेकिन जब तक स्वयं है तब तक पडोसी को उतना ही प्रेम नहीं हो सकता । स्वयं मिटे तो ही पडोसी को उतना ही प्रेम हो सकता है
जितना मैं स्वयं को करता हूँ । तो ऐसे व्यक्ति के हाथ में संसार का शासन सौंपा जा सकता है । बडी मुश्किल की व्यवस्था बडी कठिन से कहता है ।
ऐसे व्यक्ति के हाथ में संसार का शासन सौंपा जा सकता है । ऐसे व्यक्ति के हाथ में शक्ति खतरनाक नहीं होगी लेकिन ऐसा व्यक्ति सकती चाहता नहीं और
जैसे व्यक्ति शक्ति चाहते हैं उनके हाथ में अनिवार्य रूप से खतरनाक होती है । बहुत प्रसिद्ध उक्ति है बैगन की पवर करप्ट शक्ति । सत्ता लोगों को
व्यभिचारी बनाती है । ये अधूरी है । शक्ति व्यभिचारी इसलिए बनाती है कि सिर्फ व्यभिचारी ही सकती को खोजते । शक्ति करप्ट नहीं करती लेकिन करप्ट
िड सकती को खोजते । हाँ, अगर आप के भीतर व्यभिचार है तो सकती के बिना प्रकट नहीं हो सकता । इसलिए जब शक्ति मिल जाती है तो वे
विचार प्रकट होता है । इसलिए हम लोग लोग अक्सर चमत्कृ त होते दिखाई पडते हैं । बडी आश्चर्य की बात जो आदमी इतना बडा सेवक था वो सप्ताह में
पहुँच कर ऐसा विकृ त हो गया । सत्ता सभी को खराब कर देती है, ऐसा नहीं है । उस सेवक तभी तक था जब तक कमजोर था वो सेवक होना ।
कोई भी तरी गुण था । वो सिर्फ कमजोरी थी । सत्ता में पहुँचते ही पता चलता है कि वो आदमी असली किया था । इसलिए जिस आदमी का असली
चेहरा दिखाना हो उसे सत्ता दिए बिना नहीं पता चल सकता है । सत्ता मिलते ही उसे स्वतंत्रता मिलती है अब वही होने की जो वो होना चाहता है ।
अब उसे दिखावा करने की कोई जरूरत नहीं है । इसलिए सत्ता सत्ता नहीं करप्ट करती, किसी को भी बिचारी नहीं बनाती लेकिन सत्ता अविचारी को मुक्त
कर देती है । प्रकट होने के लिए से कहता है ऐसा व्यक्ति ही इस योग्य की संसार का शासन उसे सौंपा जा सके जिसके भीतर में विसर्जित हो गया ।
क्योंकि मैं और सत्ता का जो हो जाए तो विचार होता है । अगर भीतर में खो जाए तो सत्ता व्यभिचार पैदा नहीं कर सकते क्योंकि जो अविचारी हो
सकता है वो मैं है । वो अहंकार और जो संसार को उतना ही प्रेम करे जितना स्वयं को तो उसके हाथों में संसार की सुरक्षा सौंपी जा सकती है ।
लेकिन यही कठिनाई है । ऐसा व्यक्ति सप्ताह ना चाहे और ऐसे व्यक्ति के हाथ में सत्ता सौंपी जा सकती है से क्या कहना चाहता है लाल से ये कहना
चाहता है जो सत्ता चाहे उसके हाथ में सत्ता नहीं सौंपी जा सकती । जो आदर चाहे उसके हाथ में आदर देना खतरनाक है । जो प्रतिष्ठा चाहे उसे
प्रतिष्ठा देना, उसकी बीमारी को पानी खींचना, प्रतिष्ठा उसे देना जो प्रतिष्ठा ना चाहे और सत्ताओं से सौंप देना, जिसके भीतर सत्ता को पकडने और पीने
वाला अहंकार ना रह गया तो ही इस सूत्र के संदर्भ में दो तीन बाते ख्याल में ले लेनी जरूरी है । विगत ढाई हजार वर्षों में लाओ । उस के बाद सारी
दुनिया में सैकडों तरीके की क्रांतियां हुई और सभी क्रांतियां असफल हो जाती है । हर क्रांति दावा करती है कि सत्ता ठीक हाथों में जाएगी लेकिन सत्ता
जिन हाथों में भी जाती है वो गलत हाथ सिद्ध होते हैं । जरूर कहीं ना कहीं मामला क्रांति का नहीं, क्रांति से कोई संबंध नहीं क्योंकि सब क्रांतियां
असफल हो गई । अब तक कोई क्रांति सफल नहीं हो सके और होगी भी नहीं क्योंकि लाओत्से का सूत्र कोई भी क्रांति पूरा नहीं कर पाते । सत्ता चाहने
वाले के हाथ में ही सत्ता आती है । इसलिए कु छ लोग तो इतने पीडित और परेशान हो गए जैसे कृ पा के न्या, बाकू ने । वो कहते हैं अब सत्ता चाहिए
ही नहीं । किसी के भी हाथ में नहीं अराजकता चाहिए, अनार की चाहिए क्योंकि बहुत देख नहीं सकता है । सभी सत्ताएं महंगी पड जाती है और सभी
सत्ताओं को उलटने के लिए पुनः पुनः क्रांति करनी पडती है । क्रांति से जिन सत्ताओं को निर्मित करते हैं उन को भी मिटाने के लिए कल क्रांति करनी
पडती है । जिन्हें आज बडी मेहनत से सिंहासन पे चढाते हैं कल उतनी ही मेहनत से उन्हें सिंहासन से उतारना पडता है । और ये लोग ढाई हजार साल
से आगे का नहीं कहता है क्योंकि उसके पहले का इतिहास नहीं । ढाई हजार साल से दुनिया की जनता एक ही काम कर रही है । सही आदमियों को
चढाती है । सिंहासन तक सिंहासन पे पहुँचते पता चलता है । गलत आदमी चढ गया फिर उसमें ये वार तो चलता ही रहता है । फॅ से कहता है ये वर्तन
क्रांतियों से मिटने वाला नहीं है । ये वर्तन व्यक्तियों से मिटेगा, क्रांतियों से नहीं । लेकिन ऐसे व्यक्ति के हाथ में जिस दिन भी जगत की सत्ता हो सके ,
किसी भी दिशा के किसी भी आयाम के उसी दिन सत्ता खतरनाक और महंगी नहीं होती । ऍम परमात्मा के हाथ में सारे जगत की सत्ता इसलिए महंगी
और खतरनाक नहीं क्योंकि वो इस भांति है जैसे वो ही नहीं परमात्मा की मौजूदगी, कहीं पता चलते । गैरमौजूद होना ही उसकी मौजूदगी अनुपस्थित होकर
ही वो उपस्थित है । कितने दफे लोगों ने चिल्लाकर नहीं कहा है कि अगर हो तो एक दफा प्रकट हो के बता दो कितनी चुनौतियां नहीं लोगों ने दी है ।
लेकिन कोई चुनौती उस तक नहीं पहुंचती क्योंकि जो चुनौती सुन सके वो असमी था । वो कें द्र वहाँ नहीं इसलिए परमात्मा गैरमौजूद बना रहता है,
अनुपस्थित बना रहता है । सारा विराट उसके हाथ से संचालित होता रहता है । सिर्फ इसलिए कि वहाँ कोई संचालक नहीं, वहाँ कोई अहंकार नहीं से
जैसे लोगों की कल्पना रही है ये कि मनुष्य जाति उसी दिन उस व्यवस्था को उपलब्ध हो सके गी जिसकी सतत चेष्ठा रही है । वो व्यवस्था उस दिन हो
सकती है जिस दिन हम ऐसे व्यक्ति के हाथ में सत्ता दे । लेकिन यहाँ तो और प्रयोजनों से भी उसने कहा है बडा प्रयोजन उसने ये कहा है कि जिसके
भीतर कोई अहंकार नहीं है उसे संसार के सबसे बडे सिंहासन पर भी बैठा दे तो अंतर नहीं पडता है । वो धुल में पढा रहे तो और सिंहासन पर बैठ
जाए तो भीतर अंतर नहीं पडता है । अगर इस बात को ख्याल में ले ले तो फिर अपने भीतर अंतर को जरा देखते रहना चाहिए । कब कब पडता है
और उसे धीरे धीरे जागरूक होकर पहचान पे जाना चाहिए । एक आदमी ने गाली दी है और एक आदमी ने फू ल माला पहना दी । भीतर इतनी छलांग
ऍम अन्तर पडता है इतनी छलांग से की जिसका कोई हिसाब नहीं उसे थोडा देखना चाहिए और जिस दिन आप को फू लमाला और भेंट की गई गालियाँ
दोनों एक सी मालूम पडने लगे । लाॅस साधना सूत्रों में एक गुप्त सूत्र आपको कहता हूँ जो उसकी किताबों में उल्लिखित नहीं लेकिन कानोकान लाओ से की
परंपरा में चलता रहा है । वो सूत्र है लाओ उसी की ध्यान की पद्धति का वो सूत्र है । लाओ से कहता है कि पालथी मारकर बैठ जाए और भीतर ऐसा
अनुभव करें एक तराजू ऍप्स एक तराजू उसके दोनों पढ ले आपके दोनों छातियों के पास लटके हुए और उसका काटा ठीक आपकी दोनों आंखों के बीच
तीसरी आँख जहाँ समझी जाती है वहां उसका कांटा तराजू की डंडी आपके मस्त इसमें है । दोनों उसके पल्ले आपके दोनों छातियों के पास अटके से
कहता है चौबीस घंटे ध्यान रखें कि वो दोनों पहले बराबर रहे और कांटा सीधा रहे । लाओ से कहता है कि अगर भीतर इस तरह को साथ लिया तो
सब सब जायेगा लेकिन आप बडी मुश्किल में पढेंगे, जरा इसका प्रयोग करेंगे । तब आपको पता चलेगा जरा सी स्वस्थ बिल्ली नहीं की एक पालना नीचा
हो जाए ना ऊपर हो जाएगा । अके ले बैठे हैं और एक आदमी बाहर से निकल गया दरवाजे से उसको देख के उस ने भी कु छ किया भी नहीं । एक
पढा नीचे ऊपर हो जाए । लाॅस ने कहा है कि भीतर चेतना को एक संतुलन दोनों विपरीत धुंद एक से हो जाए और कांटा बीच में बना रहे हैं । लव
से करते सिल्ली तजु मार रहा था । मृत्यु से ही आप पर पडा था । लोग बहुत इकट्ठे थे । अंतिम विदा के लिए लेते गाँव से की परंपरा के लोगों में दो
चार लोगों में एक है । दो ही लोगों में चोंग से और उसके दो बडे उमर रहा । लोग इकट्ठे हैं, कोई सवाल पूछता है लेता जो जवाब देता है । लेकिन
बीच में आँख बंद कर लेता फिर मुस्कु राता फिर जवाब देता है । फिर किसी ने पूछा कि नहीं तो जो ये वक्त कम है समय थोडा मौत करीब मालूम
पडती है तुम बीच बीच में आँख बंद मत करो । तुम हमारी पूरी बातों का जवाब दे दो नहीं तो उन्होंने कहा कि तुम्हारी बात तो ठीक है । तुम ने
जिंदगी भर ये सवाल पूछे और जिंदगी भर मैंने जवाब दिए फिर भी तुम्हें कु छ सुनाई नहीं पडा । मारते मुझे मेरे तराजू पर तो ध्यान रखने दो तो बीच
बीच में आँख बंद करके अपना तराजू देख लेता है । वो दोनों पढ ले बराबर है या नहीं और हंस लेता है कि बिल्कु ल ठीक । फिर वो जवाब देने लगता
है । तो एक आदमी ने पूछा कि इस तुम्हारा तराजू तो सादा से थक गया है । अभी जाँच का कोई मौका भी कहाँ है? ना कोई तुम्हें गाली दे रहा है,
ना कोई सम्मान कर रहा है । मौत करीब है और हम जिज्ञासा हो ने कहा कि वही तुम्हारे चेहरे मेरे पहचाने हुए हैं । पचास साल साठ साल से कोई
मुझे सुनता है । मैं अपने तराजू को देखता हूँ । कोई हलचल तो नहीं होती कि पचास साल से जो बहरे सुन रहे हैं वो फिर पूछ रहे हैं उनको मैं फिर
जवाब दे रहा हूँ कही भीतर मेरा तराजू तो नहीं मिलता इस बात से किन्ना समझो को समझाना की नहीं समझाना तराजू नहीं मिलता है मुझे बडी हंसी
आती है । फिर मैं तुम्हें जवाब दे देता हूँ, लेकिन तुम्हारी तरफ देखता हूँ तो मुझे ख्याल आता है एक दफ्तर राज्य को, फिर देखो वो हिलता
तो नहीं । जीवन में सुख हो या दुख, सम्मान या अपमान अंधेरा या उजाला भीतर के तराजू को साधते चला जाए । कोई तो एक दिन उस परम
संतुलन पर आ जाता है जहाँ जीवन तो नहीं होता होता है जहाँ लहर नहीं होती । सागर होता है जहाँ मैं नहीं होता सब सब होता है । इतना ही आज
। लेकिन पाँच मिनट बैठे कीर्तन

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