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तो ताऊ पंथी के गुण धर्म श्रेष्ठ चरित्र घाटी की तरह खाली प्रतीत होता है । निपट उजाला धुंधलके की तरह दिखता है । महा चरित्र और पर्याप्त मालूम
पडता है । ठोस चरित्र दुर्बल देखता है । शुद्ध योग्यता दूषित मालूम है । महान अंतरिक्ष के कोने नहीं होते । महा प्रतिभा फ्रॉड होने में समय लेती है ।
महा संगीत धीमा सुनाई देता है । महारूफ की रूपरेखा नहीं होती और ताओ अनाम छिपा है । और ये वही ताऊ है जो दूसरों को शक्ति देने और आप
काम करने में पटु है । दरअसल दृष्टि पर निर्भर हम वही देख पाते हैं जो हम देख सकते हैं । जो हमें दिखाई पडता है उसमें हमारी आँखों का दान हम
जैसे हैं वैसा ही हमें दिखाई पडता है और हम जैसे नहीं है । उस से हमारा कोई भी संबंध नहीं जुटा पाता, यह स्वाभाविक है लेकिन इसका हमें स्मरण
नहीं । इसलिए जो हम देखते हैं, हम सोचते हैं वह सत्य बहुत संभावना यही कि वो हमारी आँखों का ही प्रतिबिंब है । सत्य को तो वही देख पाता है
जो सभी तरह की दृष्टियों से सभी तरह की आँखों से मुक्त हो जाता है । आँख पर रंगीन चश्मा हो तो जगत रंगीन दिखाई पडने लगता है और अगर
चश्मा भूल जाये तो हम सोचेंगे की जगत इसी रंग का है । अंधे को प्रकाश दिखाई नहीं पडता तो अंधे के लिए यही सत्य है कि प्रकाश नहीं लेकिन अंधे
को न दिखाई पढने से प्रकाश का न होना सिद्ध नहीं होता । हर प्राणी के पास भिन्न तरह की आँखें वैज्ञानिक निरंतर विचार करते हैं कि जगत विभिन्न
शरीरों से कै सा दिखाई पडता होगा । मनुष्य जैसा जगत को देखता है वैसा जगत है या वैसा इसलिए दिखाई पडता है कि मनुष्य कृ पा से तरह की आँख
मनुष्य के पास से और पशुओं की लंबी कतार उन पशुओं को भी जगह दिखाई पडता है लेकिन उन्हें ऐसा दिखाई नहीं पड सकता जैसा मनुष्य को दिखाई
पाता है । उन की आँखें बिन उन के देखने का ढंग भिन्न, उनकी वासनाएं भिन, उनके व्यक्तित्व का ढांचा भिन्न । उस पूरी बिंता के बीच से जगत
बिल्कु ल अलग ही दिखाई पडता होगा । लेकिन हमारे पास कोई उपाय भी नहीं कि हम जान सके कि पशु पक्षी या पौधे जगत को कै सा जानते हैं । हम
अपने भीतर बंदे हर आदमी अपने शरीर के यंत्र के भीतर बंद है । हर पशु, हर पक्षी, हर पौधा और जगह से हमारा उतना ही संबंध होता है जितनी
हमारे पास, इंद्रिय और जैसी इन्द्रियाँ । यह बात ठीक से समझना आ जाए तो हमारा आग्रह छीन हो जाए तो फिर अपनी दृष्टि को ही सत्य करने की
कोशिश छोड दे । फिर हम ऐसा ही कहें कि ऐसा मुझे दिखाई पडता है । मुझे पता नहीं ऐसा है भी या नहीं । जिस व्यक्ति को ये ख्याल में आ जाए
उसका आग्रह मतांधता अंधता कम हो जाएगी और एक ऐसी घडी भी आ जाएगी जब धीरे धीरे वो सभी दृष्टियों को छोड देगा । सभी पक्षपातों को सभी
धारणाओं और जब कोई व्यक्ति, सारी धारणाएं, सारे पक्षपात सारी दृष्टियों को छोड के देखने में समर्थ हो पाता है तब उसे वह दिखाई पडता है जो है
दृष्टियों से मुक्त होकर जो दर्शन होता है वही सत्य का । दर्शन के ये सूत्र सामान्य तृतीय श्रेणी के मनुष्य को जैसा दिखाई पडता है उस की खबर देते हैं
। श्रेष्ठ चरित्र घाटी की तरह खाली प्रतीत होता है । वो जो सामान्य बुद्धि है वो जो हम सबकी बुद्धि उस बुड्ढी के अनुसार हमें श्रेष्ठ चरित्र खाली मालूम
पडेगा क्योंकि हम जिससे चरित्र कहते हैं वो तो चरित्र है ही नहीं । हम जिसे चरित्र कहते हैं उसे ही हम एक शिखर की भांति देखने के आती हो गए
तावों का जो चरित्र है वस्तुतः निर्मल धर्म का जो चरित है वो तो हमें घाटी की तरह दिखाई पडेगा क्योंकि हम उल्टे खडे वो जो शिखर की भांति है हमें
गांठी की तरह दिखाई पडेगा । ऐसे ही जैसे आप उल्टे खडे हो, शीर्षासन करते हो और सारा जगत आपको उल्टा चलता हुआ मालूम बडे अगर आप भूल
जाये आप शीर्षासन कर रहे तो सारा जगत उल्टा चलता हुआ मालूम पडे । स्मरण आ जाए कि मैं शीर्षासन कर रहा हूँ और आप सीधे खडे हो जाए तो
सारा जगत आपके साथ एक क्षण में सीधा हो जाता है । आप कै से खडे हैं इस पर निर्भर है । क्यों शुद्ध चरित्र, निर्मल चरित्र, श्रेष् चरित्र घाटी की
भांति खाली दिखाई थोडा सूक्ष्म समझना जरूरी है । अगर एक व्यक्ति प्रेम का ऊपर से आचरण कर रहा हो, उसके हृदय में प्रेम का अविर्भाव ना हुआ ।
जैसा की सभी आम व्यक्तियों के जीवन में होता है, वे के वल प्रेम का आचरण करते हुए मालूम होते हैं । प्रेम का अंत उनके पास नहीं होता है तो जो
व्यक्ति प्रेम का आचरण करता है उसका प्रेम हमें शिखर की भांति मालूम पडेगा क्योंकि वो अपने प्रेम को सब भांति प्रकट करेगा । प्रेम अगर भीतर हो तो
प्रकट करने की जरूरत भी नहीं है । प्रेम भीतर ना हो तो प्रकट किए बिना उसके होने का कोई उपाय नहीं रह जाता है । तो जिस व्यक्ति के भीतर प्रेम
नहीं है वो प्रेम का बहुत ज्यादा व्यवहार करेगा । शब्दों से विचार से सब भांती जतलाए गा की उसे प्रेम है और इस जतलाने वाले व्यक्ति का प्रेम हमें
दिखाई भी पडेगा क्योंकि हम आचरण को ही देख सकते हैं । जो ऊपर प्रकट होता है उस तक ही हमारी पहुँच है । जो भीतर गहरे में छु पा होता है
उस तक हमारी पहुँच नहीं । हम बीच को नहीं देख सकते । हम तो के वल फू ल को ही देख सकते हैं । जो प्रकट हो गए फिर चाहे वो फू ल नकली ही
क्यों ना हो, कागज का ही क्यों ना हो । चाहे उस फु ल पर सुगंध ऊपर से क्यों ना छिडकी गई हो लेकिन हमें बीज में छिपा फू ल दिखाई नहीं पड
सकता । उसके लिए बडी गहरी आँख में चाहिए । उतनी गहरी आँख तृतीय कोटि के मनुष्य के पास नहीं ऊपर ऊपर देख सकता है । आपको भी अंदाज
होगा कि जब आपका किसी से प्रेम नहीं होता है और आप प्रेम जतलाना चाहते हैं, प्रेम जतना की कोई उठाना चाहते हैं तब आप प्रेम में बहुत ही मुखर
हो जाते हैं तब आप प्रेम की अभिव्यक्ति में बडी तीव्रता दिखलाते, भीतर की कमी को छु पाने के लिए बाहर की अभिव्यक्ति करते हैं । जिस दिन आपको
डर होता है क्या आपने कु छ ऐसा काम किया है कि आपकी पत्नी अगर जान जाए तो उपद्रव होगा । उस दिन आप भेंट लेके घर पहुँचते है, फू ल ले
जाते, आइसक्रीम ले जाते हैं । उस दिन आप प्रेम को प्रकट करते हैं, कु छ है जिसे छिपाना हैं भीतर कोई जगह खाली है । जहाँ प्रेम नहीं है उसे
बाहर के किसी आवरण से भरना ये जो ऊपर की अभिव्यक्ति है इस पर बहुत जोर बढता जा रहा है । पश्चिम में तो रोज किताबें लिखी जाती है । कै से
प्रेम करें उसमें सभी किताबों अनिवार्यता एक बात होती है कि प्रेम को छिपाया मत रखे, प्रकट करे क्योंकि जो छिपा है उसे कोई भी नहीं जानता । उसे
बोल के कहे, उसे आचरण से जतलाए उसे व्यवहार से दिखाए । आप अपनी पत्नी को प्रेम करते हैं । पश्चिम में लिखी जाने वाली किताबें कहती है,
इतना नहीं है आप इसे कहीं भी की मैं प्रेम करता हूँ । इससे आप रोज दोहराएं भी और इससे आप किसी ना किसी भांति व्यवहार से भी जाहिर करें ।
ये किताब है इस बात की खबर देती है कि आदमी के भीतर से प्रेम मर चूका है या आदमी समर्थ ही नहीं रहा । प्रेम को समझने में जब प्रेम होता है
तो जतलाने की कोई भी जरूरत नहीं होती । जब प्रेम होता है तो ये कहना कि मैं प्रेम करता हूँ, बेहूदा मालूम पडेगा तो अच्छा मालूम पडेगा । छु द्र
मालूम पडेगा व्यर्थ मालूम पडेगा इससे उठाना इसकी चर्चा भी उठानी नीचे गिर ना मालूम पडेगा । व्यवहार से भी प्रकट करने की आवश्यकता तभी है जब
प्रेम गहरा ना हो । अगर प्रेम गहरा हो तो मौन में भी प्रकट अगर प्रेम हो तो व्यवहार में भी ना तो भी प्रकट है लेकिन तब दूसरी तरफ भी आंखें
चाहिए जो उतना गहरा देख सके । इसलिए लाओ से कहता है श्रृष्टि चरित्र खाली मालूम पडेगा क्योंकि सृष्ट चरित्र प्रकट करने की चेष्टा ही नहीं करता ।
श्रेष्ठ चरित्र होने के ख्याल में होता है । प्रकट करने के ख्याल में नहीं परस्तिश चरित्र फिर हमें दिखाई नहीं पड सकता । हमें तो जो शोरगुल करे काफी
उपद्रव मचा है, सब तरफ से दिख लाये, वही दिखाई पडता है । ठीक प्रेमी को हम पहचान ही नहीं पाएंगे । हम के वल अभिनेता को पहचान सकते हैं
और ठीक प्रेमी अभिनय नहीं करेगा । अभिनय जैसी क्षुद्रता ठीक प्रेमी नहीं करेगा । अभिनय तो वही करेगा । जिसके पास प्रेम नहीं, अभिनय उसका
सब्स्टिटू ट है उसका परिपूरक तो जिस प्रेमी ने आपसे कभी कहा ही नहीं की मैं प्रेम करता हूँ । जिसने कभी आपके आपके पास प्रेम की कोई भेंट नहीं
भेजी, जिसने प्रेम को पार्थिव नहीं बनाया । पार्थिव प्रेम ऍम इसलिए प्रेमी भेज देते हैं ताकि पता चल जाए कि प्रेम है, उसे पदार्थ तक लाना पडता है
क्योंकि पदार्थ हमें दिखाई पडता है । भेंट का अर्थ है पदार्थ में ले आना । लेकिन प्रेम अगर चुप रहे ना पदार्थ थक लाया जाए, ना व्यवहार से प्रकट
करने की कोशिश की जाए । सहज जो बहाव हो होने दिया जाए तो इस जगत में कितने लोग उस तरह के प्रेम को पहचान पाएँगे । प्रेम का भी प्रचार
करना होता है, उसके लिए भी विज्ञापन करना होता है । उसके लिए भी सब भांति सोर गुल और आवाज पैदा करनी होती, क्योंकि मून के संगीत को
कोई सुन ही नहीं पाता । कान इतने बैरे हो गए, जब तक बहुत उपद्रव मचाया जाए, तब तक पता ही नहीं चलता कि कु छ हो रहा है जैसा प्रेम है ।
वैसे जीवन के सारे चरित्र की दिशाएँ अगर कोई आदमी सत्यवादी है अगर कोई आदमी सिलवाना है, अगर कोई आदमी ब्रह्मचर्य को उपलब्ध है तो भी हमें
तभी पता चलेगा जब इसका प्रचार किया जाए । मैंने सुना था दिल करने की अपने संस्मरणों में कहीं लिखा है की वो एक विज्ञापन कं पनी का काम करता
था और एक धनपति के पास गया और धनपति से उसने कहा कि आप कभी अपने सामान की जो आप बेचते हैं और बनाते हैं उसका कोई विज्ञापन नहीं
करते हैं । आप बहुत पुराने ढंग से चल रहे हैं । दुनिया बदल गई । अब बिना विज्ञापन के कोई खबर नहीं हो सकती । उस धनपति ने कहा कि हमारा
काम सौ वर्ष पुराना और हमें किसी विज्ञापन की जरूरत नहीं है । लोग जानते लोग भलीभांति जानते हैं और लोग सृष्टी चीज को पहचानते हैं इस लिए
क्षमा करें । हमारी कोई उत्सुकता विज्ञापन में नहीं है । तभी सांस हो गई और पहाडी के ऊपर बने चर्च की घंटियां बचने लगे तो देर कार्नेगी ने कहा उस
धनपति से आप चर्च की घंटियां सुनते । ये चर्च कितना पुराना है? उस धनपति ने कहा कम से कम पाँच सौ वर्ष पुराना तो बेल खालने इनका अभी
तक ये घंटियां बजाता है । तभी लोगों को पता चलता है कि चर्च ये घंटियां बजाना बंद कर दे, लोग भूल जाएंगे । नहीं वो लिखा उस धनपति ने
तत्काल अपने विज्ञापन का ऑर्डर लिख के दिया । कितने पुराने है इससे कोई सवाल नहीं । प्रचार तो करना ही होगा लेकिन अक्सर लोग भूल जाते हैं ।
इसलिए पति पत्नी को धीरे धीरे लगता है कि उनके बीच प्रेम नहीं रहा क्योंकि वो प्रचार कम कर देते हैं जो प्रचार शुरू में क्या ये सोच के की अब तो
तीस साल पुराना हो गया । प्रेम अब क्या रोज रोज सुबह सुबह उठ के कहना है कि तुझ जैसी कोई स्त्री जगत में नहीं, तेरे सौंदर्य की कोई तुलना
नहीं । तू मुझे मिल गई तो सब कु छ मिल गया । अभी रोज रोज क्या कहना है लेकिन हमारी आँखें इतना गहरा नहीं देख पाती । ना हमारा इतना प्रेम
गहरा है ना इतनी आँखें गहरी है कि बिना प्रचार के चल जाए । इसलिए पश्चिम के मनोवैज्ञानिक सलाह देते हैं कि चाहे तीस साल हो, चाहे तीन सौ
साल हो जाए तो भी रोज सुबह उठ के घंटियां बजाना, प्रचार करना क्योंकि सिर्फ प्रचार ही दिखाई पडता है और प्रचार करते करते ही असत्य भी सत्य
हो जाते हैं । ऍम फिडलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि सत्य का कोई और अर्थ नहीं । ऐसा असत्य जिसका काफी दिनों से प्रचार किया गया है,
सत्य हो जाता है और अडोल्फ हिटलर ने अपने जीवन से ही सिद्ध कर दिया कि असत्य को दोहराए चले जाओ मत करो दोहराए चले जाओ आज नहीं
कल वो सत्य हो जाये । दोहराने वाले की क्षमता पर निर्भर है कि असत्य सत्य होगा या नहीं । कान पे पडता ही रहे पडता ही रहे तो सुनते सुनते,
सुनते सुनते भरोसा आ जाता है । आप हिन्दू है, आपने कभी की है कि हिंदू होने में क्या या आप मुसलमान है । क्या कभी आपने की है कि
मुसलमान होने का क्या अर्थ है? नहीं सिर्फ प्रचार
है, लम्बा प्रचार है और प्रचार इतना लम्बा है की पीढी दर पीढी चला आया है । आपके खून और हड्डी में प्रवेश कर गया और जब आप पैदा होते
तब से प्रचार शुरू हो जाता है । जब आप हो संभालते हैं तब तक प्रचार भीतर प्रवेश कर गया होता है और आपको खुद ही लगने लगता है कि मैं हिंदू
हूं । अगर हिन्दू धर्म खतरे में है तो मैं जान दे दूँगा, प्रचार सत्य हो जाता है । हम जी ही रहे हैं वह से और बाहर से जो हमारे भीतर डाल दिया
जाता है वही हमें दिखाई पडता है । भीतर को देखने की क्षमता हमारी ना के बराबर । इसलिए लाओ से कहता है श्रेष्ठ चरित्र घाटी की तरह खाली प्रतीत
होता है क्योंकि हम अ श्रेष्ठ चरित्र से परिचित है जो कि शिखर की तरह अपना प्रचार करता है और हम शब्दों से जीते और श्रेष्ठ मौन होता है और हम
बाहर को देखते हैं वो श्रृष्टि भीतर होता है । इसलिए सृष्ट हमें दिखाई ही नहीं पडता । इसलिए अगर हम रोज धोखा खाते हैं तो किसी और का कसूर
नहीं । हम खुद ही धोखा खाने को तैयार है क्योंकि हम जहाँ से देखते हैं वहाँ धोखा ही होगा । उससे गहरी हमारी आँख प्रवेश नहीं करती । निपट
उजाला धुंधलके की तरह दिखता है क्योंकि हमारी आँखें जब तक उत्तेजना तीव्र हो तब तक देख नहीं पाती । सुबह जब सूरज नहीं निकलता तब जो
उजाला होता है वो निपट उजाला उसमें चकाचौंद नहीं, उसमें उत्तेजना नहीं, उसमें तीव्रता नहीं है । उसमें चोट और आक्रमण नहीं अनाक्रमण अहिंसक
उजाला है लेकिन वो हमें धुंधलके की तरह दिखता है । जब सूरज उग आता है और उसकी प्रखर किरणें हमारी आँखों को भेदने लगती है तब हमें लगता
है कि उजाला हुआ हमारी सभी संवेदनशीलताएं छीन हो गई है । मंद हो गई जैसा हमारा स्वाद बंद हो गया तो तब तक मिर्च जाके हमारी जीप कु छ
झकझोरना दे । तब तक हमें पता नहीं चलता कि कोई स्वाद है और जो आदमी मिर्च खाने का आदी हो गया उसके सब स्वाद खो जाते हैं । क्योंकि
इतने तीव्र स्वाद के बाद फिर जो मंदिर स्वाद है भद्रा स्वाद फिर ख्याल में नहीं आते । हमारी जी फिर उनसे संबंधित ही नहीं हो पाती । हम हिंसा के
इतने आदी हो गए कि कु छ भी अहिंसक घटना हमें दिखाई नहीं पडती । उत्तेजना, ॅ एशिन जितना तेज हो, देखते हैं आप संगीत रोज तेज होता चला
जाता है । युवकों का जो संगीत है, जब तक बिलकु ल पागल करने वाला ना हो, इतने जोर शोर से ना हो कि आप की सभी इंद्रियां चोट खा के
अस्त व्यस्त हो जाए । तब तक युवकों को लगता है ये कोई संगीत ही नहीं, धीमे श्वर, भद्रा स्वर शांत स्वर सुनाई ही नहीं पडेंगे । कान भी हमारे
उत्तेजना मांगते हैं । वस्त्र भी जब तक की रंग ऐसे ना हो की जो आँखों को भेज दे, ऐसे ना हो की तिलमिलाहट पैदा कर दे, तब तक रंग नहीं
मालूम पडते हैं । हमारा पूरा जीवन ही गहरी उत्तेजना, तेज स्वाद, चोट पहुँचाने वाले इस्वर चोट पहुंचाने वाली घटनाएं इनकी मांग करते हैं । सुबह उठ
के आप देखते हैं उसमें आप नजर डालते हैं कहाँ कितने लोग मारे कहाँ युद्ध शुरू हुआ, कहाँ आगजनी हुई, कहाँ उपद्रव हुआ, कहाँ हत्याएं, बलात्कार
कितनी स्त्रियां भगाई गई और अगर में ऐसी कोई खबर ना हो तो आप कहेंगे आज कु छ हुआ ही नहीं । आप को नीचे रख देंगे । उदास चित्र की आज
कोई नहीं जहाँ भद्र शांत छोटा ही नहीं अभद्र और अशांत ही छोटा है । अगर आप फिल्म देखते हैं तो हत्या चाहिए, जासूसी चाहिए, युद्ध चाहिए, खून
चाहिए तब आपकी रीड थोडी कु र्सी पर सीधी हो के बैठ गई । जब कु छ होने लगता है । कु छ होने का मतलब ये होता है कि कु छ उपद्रव होने लगता है
। अगर सब ठीक ठीक चलता हो, जैसा चलना चाहिए तो वो फिल्म चल नहीं सकती । फिल्म तभी चल सकते हैं जब एक्साइट मिंट हो । जब आपका
खून खोलने लगे और आपको पता नहीं अभी मनोवैज्ञानिक एक प्रयोग हारवर्ड विश्वविद्यालय में कर रहे थे तो उन्होंने चूहों का एक समूह बारह चूहे दो
हिस्सों में बांट दिया । छह चूहों को चूहों की एक फिल्म दिखाई गई जिसमें चूहे लडते हैं, खून करते हैं, एक दूसरे की चमडी फाड देते हड्डियाँ खींच
लेते हैं । दूसरे छह चूहों को एक साधारण फिल्म दिखाई गई जिसमें सामान्य चूहे आपने खोलो में जाते हैं, बाहर निकलते हैं, दाना चुनते हैं । सामान्य
जीवन, कहीं कोई खून हत्या नहीं । जिन छह चूहों, खून और हत्या की फिल्म देखी, उनका ब्लड प्रेशर बढ गए और वो लडने मारने को उतारू हो
गए । जिन छह चूहों सामान्य फिल्म देखी उनमें से अधिक सो गए । देखते देखते उसमें कु छ सार नहीं था । उसमें कोई समाचार नहीं, उनका ब्लॅक
सामान्य रहा । रात दिन छह चूहों ने शांत फिल्म देखी थी । वो निश्चिंत भाव से सोये । उनकी नींद में कोई व्याघात ना था । उन्होंने कोई खतरनाक
सपने नहीं देखे क्योंकि अब तो चूहों के भी मस्त इसको रात में जांचने का उपाय है । क्योंकि जब सपना देखा जाता तो मस्तिष्क में तनाव आ जाता ।
नसे फु ल जाती । खून तेजी से बेहतर और तरंगे ज्वर ग्रस्त हो जाती है । उनका ग्राॅस बन जाता है । जिन छह चूहों ने फिल्म देखी है उपद्रव की,
खून की हत्या की, उनकी रात देख रही उन्होंने ज्यादा करवटें बदली । अनेक बार उनकी नींद टू टी और उन्होंने सपने देखे और सपने सब तीव्र थे,
भयभीत करने वाले थे । दुख स्वप्न नाइटमेयर थे । आप जब एक तेज फिल्म देख के आते हैं तो ऐसा मत सोचना कि चूहे से भिन्न आप व्यवहार करेंगे
। आप देखने ही इसलिए गए कि खून ठंडा ठंडा मालूम पडता है, उसमें चाल नहीं मालूम पडती है । उसमें थोडी चाल आ जाए, खून में थोडी गति आ
जाए, थोडा खून का व्यायाम हो जाए । थोडा मस्ती झगझोर उठे । आप करीब करीब सो गए हैं । वही दफ्तर, वही पत्नी, वही बच्चे, वही मकान जो
फिल्म आपके चारों तरफ चल रही है उससे आप बिल्कु ल ऊब गए । इस में से कोई झगझोर के बाहर निकाल ले । तो अगर जीवन जैसा की बुद्धे अलग
से कहते हैं वैसा हो तो आपको बडा उबाने वाला होगा । जैसा जीवन हिटलर, चंगेज खान और तैमूरलंग चाहते हैं वैसा हो तो ही आपको रस्म होगा ।
फिर भी आप बुद्ध की पूजा करते हैं और तैमूर को गाली दिए जाते हैं । लेकिन आप अन्याय, तैमुर हिटलर, नेपोलियन के बुद्ध महावीर, कृ ष्ण क्राइस् से
आपका कु छ लेना देना नहीं । ये भी आपकी तरकीब है अपने को धोखा देने की की चलते है पीछे हिटलर के और पूजा करते हैं बुद्धा के मंदिर । इससे
आपको भरोसा बना रहता है कि हम भी बुद्ध के पीछे चलने वाले लेकिन बुद्ध के जीवन में आपको क्या रस होगा? एक मित्र अभी मेरे पास आए जैन है
बडे उद्योगपति है धनपति । उन्होंने मुझसे कहा कि महावीर की पच्चीस सौवीं वर्षगाठ आ रही चौहत्तर तो आप कु छ सुझाव दे कि हम महावीर के लिए क्या
करें? तो मैंने उन्हें कहा कि महावीर के जीवन पर एक फिल्म बनाए । उन्होंने कहा उसको कौन देखेगा? उनके जीवन में ऐसा कु छ है ही नहीं हूँ ।
उन्होंने ठीक कहा वो बिल्कु ल होगा । उनको देखेगा कौन? वो चलेगी कै से? क्योंकि महावीर बैठे आँख बंद के इसको कितनी देर तक दिखाइए इसमें कोई
हत्या? इसमें कोई प्रेम का उपद्रव कोई ट्राइंगल कु छ भी नहीं है कि दो स्त्रियां लड रही हो उनके लिए खींचतान हो रही हो । कु छ उपद्रव हो कु छ भी
नहीं है । जीवन बिल्कु ल शांत तो शांत धारको । कौन देखेगा वो ठीक कहते हैं जब महावीर की फिल्म को कोई देखने को राजी नहीं है तो महावीर के
जीवन को कौन स्वीकार करेगा और लोग अगर महावीर जैसा जीवन जीने लगे तो हम सब जायेंगे । बुरी तरह जाएंगे रस उत्तेजना से । लेकिन उत्तेजना में
इतना रस क्यों है इससे थोडा समझना जरूरी है । इसका अर्थ है कि हमारी संवेदनशीलता, काॅस्ट टिविटी, काम और संवेदनशीलता जितनी कम हो जीवन
उतना ही कम होता है । मृत्यु का नाम है संवेदनशीलता का खो जाना तो जितना आपकी संवेदनशीलता कम होती चली जाती उतनी उत्तेजना की मांग
बढती है । और जितनी उत्तेजना की मांग बढती हो इस बात की सूचक है । आप उतने ही मर चुके हैं । मुर्दा आदमी को आप कितनी उत्तेजना दे तो
भी उत्तेजित नहीं होगा । कितना ही बैंड बाजा बजाएं, कितना ही सोर गुल करें तो भी वो चौके गाने उसका अर्थ यह है की संवेदनशीलता बिलकु ल ही
समाप्त हो गई । मृत्यु का अर्थ है संवेदना । बिल्कु ल खो गई आपको जब बहुत उत्तेजना मिलती तब कभी आप थोडा सा चौंकते । इसका अर्थ है कि आप
भी दूर तक मर चुके हैं । डॅा हो गए आपके तंतु भी अब हिलते नहीं साधारण जब तक की कोई झकझोरना दे तब थोडा सा कम्पन होता है । आपके
तंतु भी सुख गए । जितना ज्यादा जीवित व्यक्ति होगा उतनी कम उत्तेजना की जरूरत होगी । और जब व्यक्ति परिपूर्ण जीवित होता है जैसा महावीर या बुद्ध
तो किसी उत्तेजना की जरूरत नहीं होती । जीवन का होना ही आनंदपूर्ण होता है, उसमें फिर किसी उत्तेजना की कोई जरूरत नहीं है । आखिर बुद्ध और
महावीर अगर आपने वृक्षों के नीचे ऐसा दिनों बैठे रहते हैं तो क्या आप सोचते हैं अगर आपको बैठना पडे तो क्या गति हो? क्या आप सोचते हैं कि बुद्ध
और महावीर बडे उब गए होंगे? बैठे बैठे उनके चेहरे पर उप कभी नहीं देखी गई । वो जीवन में इतने रस लीन है और स्वाद उनका इतना सूक्ष्म है की
हवा की थोडी सा कं पन भी उनके लिए आनंदपूर्ण स्वास्थ का थोडा सा चलना भी उनके लिए जीवन है । होना अपने आप में इतनी बडी घटना है कि
अब किसी और घटना की कोई जरूरत नहीं । जस्ट ऍम सिर्फ होना आप के लिए सिर्फ होना तो कोई अर्थ ही नहीं रखता है जब तक की आपके होने
पर कोई उपद्रव और होता रहेगा । लाउं का कहना बहुत विचार नहीं है । लाओ से कह रहा है निपट उजाला धुंधलके की तरह दिखता है क्योंकि हमारी
आँखें लपटों की आदि हो गई । मन प्रकाश, सौम्या, प्रकाश हमें धुंधलका मालूम होता है । महा चरित्र अपर्याप्त मालूम होता है क्योंकि छु द्र चरित्र के हम
आदी हो गए और जितना छु द्र चरित्रों उतना हमारी समझ में आता है क्योंकि हमारे समझ के बिल्कु ल समानांतर होता है । जितना श्रेष्ठ होता चला जाए,
उतनी हमारे समझ के बाहर होता जाता है और जो हमारी समझ के बाहर है वो हमें दिखाई भी नहीं पडता । श्री अरविंद को किसी ने एक बार पूछा कि
आप भारत की स्वतंत्रता के संघर्ष में भारत की आजादी के युद्ध में अग्रणी सेनानी थे लड रहे थे फिर अचानक आप पलायनवादी कै से हो गए कि सब
छोड के आप पांडु चेरी में बैठ गए । आँख बंद करके वर्ष में एक बार आप निकलते हैं दर्सन देने आप जैसा संघर्षशील तेजस्वी व्यक्ति जो जीवन के घने
पन में खडा था और जीवन को रूपांतरित कर रहा था वो अचानक इस भांति पलायनवादी होके अंधेरे में क्यों छिप गया? आप कु छ करते क्यों नहीं?
क्या आप सोचते हैं कि करने को कु छ नहीं बचा? या करने योग्य कु छ नहीं या समाज की और मनुष्य की समस्याएं हल हो गई कि आप विश्राम कर
सकते । समस्याएँ तो बढती चली जाती है । आदमी कष्ट में है, दुख में है, गुलाम है, भूखा है, बीमार है, कु छ करिए यही लाइन से कह रहा है ।
श्री अरविंद ने कहा कि मैं कु छ कर रहा हूँ और जो पहले मैं कर रहा था वो अपर्याप्त था । अब जो कर रहा हूँ वो पर्याप्त वो आदमी क्यों का होगा?
जिसने पूछा उसने कहा ये किस प्रकार का करना है? क्या आप अपने कमरे में आँख बंद किए बैठे इससे क्या होगा? अरविंद कहते हैं कि जब मैं करने
में लगा था तब मुझे पता नहीं था कि कर्म तो बहुत ऊपर ऊपर है उससे दूसरों को नहीं बदला जा सकता । दूसरों को बदलना हो तो इतने स्वयं के
भीतर प्रवेश कर जाना जरूरी है । जहाँ से की सूक्ष्म तरंगे उठती जहाँ से कि जीवन का अविर्भाव होता है और अगर वहाँ से मैं तिरंगों को बदल दूँ तो
वे तरंगे जहाँ तक जाएगी और तरंग अंत तक फै लती चली जाती है । रेडियो की ये आवाज नहीं घूम रही है । पृथ्वी के चारों ओर ऍम के चित्र ही
हजारों मील तक नहीं जा रहे हैं । सभी तरंग अनंत की यात्रा पर निकल जाती है । जब आप गहरे में शांत होते हैं तो आपकी झील से शांत करने उठने
लगते हैं । स्थान तरंग फै लती चली जाती है । वे पृथ्वी को छु एंगे, जान तारों को छु एंगे, वो सारे ब्रह्मांड में व्याप्त हो जाएगी और जितनी सूक्ष्म तरंग का
कोई मालिक हो जाए उतना ही दूसरों में प्रवेश की क्षमता आ जाती है । अरविंद ने कहा कि अब मैं महाकाली में लगाओ तब मैं छु द्र कारी में लगा था
। अब मैं उस महाकाली में लगा हूँ जिसमें मनुष्य से बदलने को कहना ना पडे और बदलाहट हो जाए क्योंकि मैं उसके हृदय में सीधा प्रवेश कर सकूँ गा
। अगर मैं सफल होता हूँ सफलता बहुत कठिन बात है । अगर मैं सफल होता हूँ तो एक नए मनुष्य का एक महामानव का जन्म निश्चित लेकिन जो
व्यक्ति पूछने गया था वो असंतुष्टि लौटा होगा । ये सब बातचीत मालूम पडती है । ये सब पलायन वादियों के ढंग और रुख मालूम पडते हैं । खाली बैठे
रहना पर्याप्त नहीं अपर्याप्त इसलिए लाओ से कहता है महा चरित्र अपर्याप्त मालूम पडता है इसलिए हम पूजा जारी रखेंगे । गाँधी के अरविंद को हम धीरे धीरे
छोडते जाएंगे लेकिन भारत की आजादी में अरविंद का जितना हाथ है उतना किसी का भी नहीं पर वो चरित्र दिखाई नहीं पड सकता । आकस्मिक नहीं है
कि पंद्रह अगस्त को भारत को आजादी मिली । वो अरविंद का जन्मदिन पर उसे देखना कठिन और उसे सिद्ध करना तो बिल्कु ल असंभव है क्योंकि उसको
सिद्ध करने का क्या हो पाए । जो प्रकट इस स्कू ल में नहीं दिखाई पडता है उससे सुक्ष्म सिद्ध करने का भी कोई उपाय नहीं । भारत की आजादी में
अरविंद का कोई योगदान है । इसे भी लिखने की कोई जरूरत नहीं मालूम होता है । कोई दिखता भी नहीं और जिन्होंने स्टोर गलोर उपद्रव मचाया, जो
जेल गए हैं, लाठी खाई है । गोली खाई जिनके पास ताम्रपत्र वे इतिहास के निर्माता है । इतिहास अगर वह घटना ही होती तो ठीक है । लेकिन इतिहास
की एक आंतरिक खता भी है तो समय की परिधि पर जिनका सोर गुल दिखाई पडता है, एक इतिहास है उनका भी और एक समय की परिधि के पार
। कालातीत सुक्ष्म में जो काम करते हैं उनकी खता है लेकिन उनकी कथा सभी को ज्ञात नहीं हो सकती हैं और उनकी कथा से संबंधित होना भी सभी
के लिए संभव नहीं क्योंकि वे दिखाई ही नहीं पढते मैं वहाँ तक आते ही नहीं । जहाँ चीजें दिखाई पडनी शुरू होती है वो उस स्थूल तक पार्थिव तक
उतरते ही नहीं । जहाँ हमारी आँख पकड पाए तो जब तक हमारे पास हृदय की आँख ना हो, उन से कोई संबंध नहीं चल पाता । इतिहास हमारा झूठा
है, अधूरा है और छु द्र हम सोच भी नहीं सकते कि बुद्ध ने इतिहास में क्या क्या हम सोच भी नहीं सकते कि क्राइस्ट ने इतिहास में क्या क्या? लेकिन
हिटलर ने क्या किया वो हमेशा माओ ने क्या किया? वो हमें गांधी ने क्या किया? वो हमें है जो परिधि पर घटता है वो हमें दिख जाता है । इसलिए
से कहता है महा चरित्र अपर्याप्त मालूम पडता है । ठोस चरित्र दुर्बल दिखता है । गहरी दृष्टि चाहिए । ठोस चरित्र दुर्बल दिखता है । दुर्बल चरित्र बडा ठोस
दिखता है । इस मनोविज्ञान को थोडा ख्याल में ले ले । असल में दुर्बल चरित्र का व्यक्ति हमेशा ठोस दिवाले अपने आस पास खडी करता है । ठोस
चरित का व्यक्ति दीवान खडी नहीं करता उस की कोई जरूरत नहीं है । पर्याप्त है वो स्वयं जिससे देखिए कमजोर चरित्र का व्यक्ति हो तो नियम लेता है,
व्रत लेता है, संकल्प लेता है । ठोस चरित्र का व्यक्ति संकल्प नहीं लेता लेकिन जो व्यक्ति संकल्प लेता है वो हमें ठोस मालूम पडेगा । एक आदमी तय
करता है इसमें तीन महीने तक जल पर ही जियूंगा अन्य नहीं लूँगा और अपने संकल्प को पूरा कर लेता है । हम कहेंगे बडे ठोस चरित्र का व्यक्ति स्वभाव
ता दिखाई पडता है । इसमें कु छ कहने की बात भी नहीं । कोई प्रमाण खोजने की जरूरत नहीं । तीन महीने तक नब्बे दिन तक जो आदमी बिना अन्य
के जल पे रह जाता है, हम जानते हैं कि इसके पास चरित है । संकल्प बल लगता है । लेकिन मनुस्मृति से पूछे यहाँ आदमी भीतर बहुत दुर्बल ।
इसको अपने पे भरोसा नहीं है । भरोसा लाने के लिए सब तरह के उपाय कर रहा है ये तीन महीने तक संकल्प को पूरा करना भी स्वयं में भरोसा पैदा
करने की चेष्टा । ये आदमी निर्बल हो तो संकल्प ही नहीं लेगा । संकल्प ही निर्मलता को मिटाने की, छिपाने की दबाने की चेष्टा । अगर इससे भोजन
नहीं लेना है तो नहीं लेगा । तीन महीने नहीं तीन साल नहीं लेना है तो नहीं लेगा लेकिन इसका संकल्प नहीं लेगा । भोजन नहीं लेना है तो इससे अपने
पर भरोसा है । संकल्प खडा करने की जरूरत नहीं है । संकल्प का मतलब ये है कि मुझे अपने पे भरोसा तो है नहीं तो मैं संकल्प खडा करता हूँ ।
मैं दांव लगाता हूँ । मैं संकल्प की घोषणा कर देता हूँ । अब दूसरे लोग भी मेरे लिए सहारा होंगे । अगर मैं भोजन करने की तीन दिन बाद विचार करने
लगे तो मुझे खुद ही गिलानी लगेगी । अब ये तो बडी मुश्किल बात हो गयी । इज्जत का भी सवाल है । अहंकार का सवाल है । संकल्प अहंकार का
सवाल है, अब लोग क्या कहेंगे? इसलिए संकल्प लेने वाले जाहिर में संकल्प लेते हैं, एकांत में नहीं क्योंकि एकांत में तो उन्हें डर है, टू ट जायेगा ।
जैन उपवास करते हैं । उनके परिश्रम के दिन करीब आ रहे हैं तब तब वो करीब करीब दिन मंदिर में गुजार देते हैं क्योंकि मंदिर में कितना ही विचार
आये भूख का भोजन का तो भी कोई उपाय नहीं है । और फिर चारों तरफ उन्ही जैसे लोग इकट्ठे जो एक दूसरे से सहारा मांग रहे हैं । फिर उनके
मुनि और उनके साथ बैठे हुए हैं जो उन पे दृष्टि रखे हुए हैं और वो उन पे दृष्टि रखे हुए हैं कि कोई चूक ना जाए । पद से चुकने का सवाल किया
है अगर आदमी सबल है अगर आदमी सच में ही सबल है तो चूकने का सवाल किया है और किसके सहारे की जरूरत है ये सारे संकल्प निर्बलता के
लक्षण लेकिन इन संकल्पों को पूरा किया जा सकता है क्योंकि निर्बल आदमी का भी अहंकार है । सच तो यह है कि निर्बल आदमी का ही अहंकार होता
है । सफल आदमी को अहंकार की कोई जरूरत नहीं होती । वो अपने में इतना आश्वस्त होता है कि अब और किसी अहंकार की जरूरत नहीं होती ।
अहंकार की जरूरत का अर्थ है कि मैं अपने में आश्वस्त नहीं हूँ । तुम मुझे आश्वस्त करो, तुम कहो कि तुम महान हो । लोग कहे कि तुम चरित्रवान
हो, लोग कहे कि अद्भुत है तुम्हारा संकल्प । लोग स्वागत समारंभ करें उसके बाल से मैं जी सकता हूँ उसके बाल से मैं हो सकता हूँ । मेरी दृढता
दूसरों के हाथों से मुझे मिलती है । दूसरों की आँखों से मुझे मिलती है । लेकिन जो आदमी सच में संकल्पवान है, सच में सबल है वो हमें दुर्बल
दिखाई पडेगा । दुर्बल इसलिए दिखाई पडेगा कि कभी वो अपनी शक्ति को प्रदर्शित करने की चेष्टा नहीं करेगा । कभी अपनी शक्ति के लिए वह आयोजन
नहीं करेगा और कभी अपनी शक्ति के लिए हम से सहारा नहीं मांगेगा । कठिन है क्योंकि जहाँ हम जीते हैं वहां हम सभी निर्बल और हम सभी इंसान
करके जीते इंसान हमारी सफलता होती है और अक्सर आपको पता होगा अपने ही अनुभव की दुर्बलता के क्षण में आप बाहर से बडे सबल दिखलाई पढने
की कोशिश करते हैं । जब लगता है कि भीतर कहीं टू टना जाऊँ तब आप बाहर से बिल्कु ल हिम्मत जुटाकर खडे रहते हैं । लेकिन जब आप भीतर
आश्वस्त होते हैं तो बाहर आपको हिम्मत जुटाने की जरूरत नहीं होती । आप निश्चिंत विश्राम कर सकते हैं । एक महिला को मेरे पास लाया गया ।
यूनिवर्सिटी में प्रोफे सर है । पति की मृत्यु हो गई तो वो कोई नहीं । लोगों ने कहा बडी सवाल है । शिक्षित सुसंस्कृ त जैसे जैसे लोगों ने उसकी तारीफ
की, वैसे वैसे वो आकर के पत्थर हो गई । आंसुओं को उसने रोक लिया जो बिल्कु ल स्वाभाविक था । आंसू बहने चाहिए जब प्रेम किया है और जब
प्रेम स्वाभाविक था तो जब फ्री जिनकी मृत्यु हो जाए तो आंसुओं का बहना स्वाभाविक, उसका ही अनिवार्य हिस्सा । लेकिन लोगों ने तारीफ की और
लोगों ने कहा स्त्री हो तो ऐसी इतना प्रेम था, प्रेम विवाह था, माँ बाप के विपरीत विवाह किया था । फिर भी पति की मृत्यु पर अपने को कै सा संयत
रखा । संयमी रखा संकल्पवान द्रह आत्मा है इस स्त्री के पास । इन सब बकवास की बातों ने उस स्त्री को और अपना दिया । तीन महीने बाद उसे
हिस्टीरिया शुरू हो गया, फिट आने लगे, लेकिन किसी ने भी नहीं सोचा कि इस स्थितियां के जिम्मेवार वे लोग जिन्होंने कहा इसके पास आत्मा सकती
है, चढता है वही लोग क्योंकि भीतर तो रोना चाहती थी, लेकिन कमजोरी प्रकट ना हो जाए तो अपने को रोक के रखा । ये रोकना उस सीमा तक
पहुँच गया जहाँ रोकना फिट बन जाता है । ये सीमा उस जगह आगे जहाँ की फिर अपने आप काम पैदा होंगे । सारा शरीर अपने लगता है और वो
बेहोश हो जाती है । ये बेहोशी भी मन की एक व्यवस्था है क्योंकि होश में जिससे वो प्रकट नहीं कर सकती । फिर उसे बेहोशी में प्रकट करने के
अतिरिक्त कोई उपाय नहीं रह गया । शरीर तो प्रकट करेगा हिस्टीरिया की हालत में लौट की । पोट्टी चीखती चिल्लाती लेकिन उसका जिम्मा उसपे नहीं था
और कोई उससे ये नहीं कह सकता कि तेरी कमजोरी है तो बीमारी है और हो तो खो गया । इसलिए जिम्मेदारी उसकी नहीं । होस्ट में तो वो सख्त
रहती है । जब मुझे मेरे पास उस से लाए तो मैंने कहा कि उसे ना कोई बीमारी है, ना कोई हिस्टीरिया है । तुम हो उसकी बीमारी । तुम जब उसके
चारों तरफ गिरे हो तुम कृ पा करके उसके अहंकार को पोषण मत दो, उसे रोल लेने दो । वो जो बेहोशी में कर रही है, उसे होश में कर लेने दो ।
उसे छाती पीट नी है, पीटने दो, उसे गिरना है, लौटना है । जमीन पर लौटने दो स्वाभाविक है । जब किसी के प्रेम में सुख पाया हो तो उसकी
मृत्यु में दुख पाना भी जरूरी । सुख तुम पाओ । दुख कोई और थोडी पाएगा तो मैं उस को कहा कि तू सुख पाए तो दुख मैं हूँ या कौन पाए मैं उस
से पूछा कि तूने अपने पति से सुख पाया, उसने बहुत सुख पाया । मेरा प्रेम था गहरा तो फिर मैंने कहा छाती पीट लोट जो बेहोशी में जो जो हो रहा
है वो संके त है । तो हिस्टीरिया में जो जो हो रहा है नोट करवाले दूसरों से और वही तो होशपूर्वक कर हिस्टीरिया विदा हो जाएगा । एक सप्ताह में
हिस्टीरिया विदा हो गया । इस तरी स्वस्थ है और अब उसके चेहरे पर सच्चा बाल है । प्रेम का पीडा का अब एक सहजता है । इसके पहले उसके पास
जो चेहरा था वो फौलादी मालूम बात लोहे का बनाओ लेकिन वो निर्बलता का सूचक है क्योंकि चेहरे को फौलाद का होने की जरूरत भी नहीं । फौलाद
का चेहरा उन्हीं के पास होता है जिनको अपने असली चेहरे को प्रकट करने में भय तो वो एक चेहरा लेते हैं । उस चेहरे के पीछे से वो ताकतवर मालूम
होते हैं । आप भी लोहे का एक चेहरा पहन के लगा ले तो दूसरों को डराने के काम आ जाएगा । लोग कहेंगे आदमी है ये लेकिन भीतर भीतर आप जो
कपडे बहुत से घबरा रहे हैं उसी के कारण तो चेहरा उठा हुआ वो लोहे की फौलाद तो गिर गई । उसके साथ हिस्टरी अभी गिर गया आंसुओं के साथ
वो झूठा था । बह गए रुदन में वो सब जो कृ तिम था, जल गया समाप्त हो गया । अब उस स्त्री का अपना चेहरा प्रकट हुआ लेकिन इसके पहले जो
उसे शक्तिशाली कहते थे अब कहते हैं साधारण जैसी सभी स्त्रियां होती है । निर्बल वो जो उसे शक्ति शाली कहते थे, अब उसे शक्तिशाली नहीं कहते,
लेकिन उनके शक्तिशाली कहने से हिस्टीरिया पैदा हुआ था । इसका उन्हें कोई भी बोध नहीं लाओ से कहता है ठोस चरित्र दुर बन देखता है क्योंकि ठोस
सहज होता है । ठोस चरित्र इतना आश्वस्त होता है, अपने प्रति की सहज स्फू र्त होता है । स्पॉन्टेनियस होता है, कृ तिम नहीं होता, कोई सुरक्षा का
उपाय नहीं होता, सहज धारा होती है । देखिए हम किनको शक्तिशाली कहते हैं । लोकमान्य तिलक के जीवन में मैंने पढा है । पत्नी मर गई तो अपने
दफ्तर में काम करते थे । के सरी के दफ्तर में काम करते थे तो जब खबर पहुंची की पत्नी की मृत्यु हो गई तो उन्होंने लौट के घडी की तरफ देखा
और उन का अभी तो मेरे दफ्तर सोचने का समय नहीं हुआ । तो जिस व्यक्ति ने ये घटना लिखी है उसने लिखा है कि इसको कहते हैं ठोस चरित्र
फौलाद । मगर मेरे सोचने के ढंग उल्टे ये फौलाद नहीं ये कृ तिम चेहरा है जो खतरनाक क्योंकि जो आदमी घडी को ज्यादा मूल्य दे रहा है प्रेम से दफ्तर
को ज्यादा मूल्य दे रहा है पत्नी इस आदमी ने अपने व्यक्तित्व की जो सहजता है उसको दबा लिया है । जब कर्तव्य बडा हो जाये प्रेम से तो समझना
की असली आदमी दब गया और नकली आदमी ऊपर आ गए । लेकिन ये बात कोई और नहीं कहेगा क्योंकि सारी दुनिया में ड्यूटी कर्तव्य,
महान चीज और जो आदमी प्रेम की भी कु र्बानी दे दे कर्तव्य के लिए उसको हम कहेंगे । शाहिद इसको कहते हैं कर्तव्य सेवा राष्ट्र लेकिन जिसके हृदय में
प्रेम की सहज इस पूर्णा ना हो उसका सारा व्यक्तित्व जब हो जाए, सुख जाए और जिस के मन में प्रेम की सुरु हो उसके मन में बाकि कोई स्फु रण
नहीं हो सकती । हम सैनिक को तैयार करते हैं इस तरह से कि वो बिल्कु ल लोहे का आदमी हो जाए और जरूरत है सैनिक की । वो लोहे का आदमी
हो क्योंकि उसे जो काम करने वो अगर उसके पास हृदय हो तो वो नहीं कर पाए । इसलिए सैनिक को हम कर्तव्य सिखाते हैं, सेवा सिखाते हैं, आज्ञा
सिखाते हैं और हमने सैनिक को लक्ष्य बना लिया है । बहुत जीवन के हिस्सों में हमारा आदमी को चाहते हैं कि वो सैनिक जैसा हो, सहज ना हो
क्योंकि सारा जीवन संघर्ष और युद्ध लोकमान्य के जीवन में अगर ऐसी घटना घटी हो तो उसका मतलब ये है कि जो लोग प्रशंसा कर रहे हैं वो
लोकमान्य के सैनिक की प्रशंसा कर रहे हैं । उनका कु छ लक्ष्य क्योंकि उनको लोकमान्य को और लोकमान्य जैसे लोगों को इस घटना के आधार पर ऐसी
दिशा में ले जाना है जहाँ लोग हृदय को छोड संलग्न हो जाए । फिर वो चाहे राष्ट्र भक्ति का नाम हो, चाहे कोई और नाम हो । इससे कोई फर्क नहीं
पडता । लेकिन नजर यह है कि आदमी सहजता को खोडे असहज हो जाए । ये जो असहजता है बडी शक्तिशाली मालूम पडेगी । अगर लोकमान् रोने लगते
हैं और आंसू बहने लगते हैं और भूल जाते । दफ्तर और के सरी को भूलने जैसा था और उसके दौड गए होते । पत्नी की तरफ तो हमको लगता । अरे
शायद हम उनको लोकमान्य भी कहना बंद कर देते हैं कि आखिर साधारण आदमी ही सिद्धू रिसाई जापान में एक हुआ उसका गुरु मर गया । अच्छा गुरु
मर गया तो रन झाई की बडी ख्याति थी । इतनी ख्याति थी जितनी गुरु की भी नहीं थी । गुरु की भी ख्याति रिंज आई की वजह से थी वो रन
जाईका गुरु रिझाएं को लोग समझते थे कि वो निर्माण को उपलब्ध हो गया । परम ज्ञान उसे हो गया वो बुद्ध हो गया । लाखों लोग इकट्ठे हुए जो जो
रन झाई के बहुत निकट थे बडे चिंतित हो गए क्योंकि रन झाई की आँखों से आंसू बह रहे । वो सीढियों पे बैठा रो रहा है । छोटे बच्चे की तरह तो
निकट के लोगों ने कहा रिझाएगी ये तुम क्या कर रहे हो? तुम्हारी प्रतिष्ठा को बडा धक्का लगेगा क्योंकि लोग ये सोच ही नहीं सकते की तुम और रो तुम
तो परमज्ञान को उपलब्ध हो गए और तुमने तो हमें समझाया है कि आत्मा अमर है तो कै सी मौत तो तुम किस लिए रो रहे हो रन झाई ने कहा कि
रोने के लिए भी किस लिए का सवाल क्या मैं किसी के लिए उत्तरदायी हूँ क्या मैं रोने के लिए भी स्वतंत्र नहीं हूँ । निश्चित ही आत्मा अमर मैं आत्मा
के लिए रो भी नहीं रहा । मेरे गुरु का शरीर भी इतना प्यारा था । मैं उसके लिए रो रहा हूँ । आत्मा के लिए रुक कौन रहा है । मैं तो शरीर हो
रहा हूँ अब वो कभी भी नहीं होगा । अब वैसा शरीर कभी भी नहीं होगा और अगर मेरी प्रतिष्ठा को धक्का लगता हो तो लगने दो क्योंकि इस ऐसी प्रतिष्ठा
का क्या मूल्य जो गुलामी बन जाए कि मैं भी ना सकू और रन । झाई ने कहा कि मैं तो वही करता हूँ जो होता है अपनी तरफ से तो मैं कु छ करता
नहीं । अभी रोना हो रहा है तो मैं उसे रोकूं गा नहीं । रुक जाए तो मैं इसे चलाऊं गा नहीं । हम बडे अजीब लोग हम ऐसे अजीब लोग है कि जब रोना
चल रहा हो तब उसे रोक ले और जब चल रहा हो तब रोके भी दिखा दे । मेरे परिवार की एक महिला की मृत्यु हो गई थी तो उनके अके ले पति बच्चे
ना उनके घर था तो मैं था उनके पति थे और तीन चार महिलाएं और जो उनकी मृत्यु की वजह से कु छ दिन रहने के लिए आ गई थी । उन को देख
के मैं बडा चिकित् होता है । वो आप सब कर रही है, बातचीत कर रही है, हस रही और कोई बैठने आ जाता है । एकदम घूंघट कान के एकदम
रोना शुरू कर देती है । इसमें छत भर की देर लगता । वो आदमी गया, उनके घूंघट उठ जाते हैं आंसू पहुँच जाते फिर वो कब सब जहाँ टू ट गई शुरू
हो जाता है मैंने उन महिलाओं को कहा कि तुम्हारी कु शलता हो तो तुम धन्नो पर हम ये कर रहे हैं जहाँ रोना हो वहां हम रोक सकते हैं जहाँ नरोना
हो वहां हम रो सकते हम झूठे लेकिन ये हमारी शक्ति मालूम पडती है । संयम को हम सकती कहते हैं और श्रेष् चरित सहज होता है । संयम ही नहीं
उसकी सहजता ही अगर संयम बन जाए तो बात अलग है । लेकिन सहज उसका मूल आधार है संयम हमारा मूलाधार कं ट्रोल नियंत्रण तो जो आदमी
जितना नियंत्रण कर सकता है, उसको हम उतना उतना बंसाली । शक्तिशाली सृष्ट मानते हैं । लेकिन वास्तविक लौट के अनुसार ताव के अनुसार जो अंतिम
जीवन का लक्ष्य वो इतनी सहजता है कि जहाँ न कोई नियंत्रण है, ना कोई नियंत्रण करने वाला है, जो हो रहा है उससे होने दिया जा रहा है क्योंकि
उसके विपरीत कोई भी नहीं है । जब तक विपरीत भीतर है तब तक आप बातें हुए कु छ हो रहा है और कु छ रोकने वाला भी खडा है तो आप खंड,
खंड, खंड, खंड, व्यक्ति कितना ही मालूम पडे, खंडित व्यक्ति कमजोर है, इंटिग्रेशन नहीं है । अभी एक अखंडता पैदा नहीं हुई । अखंडता ही सकती
और दृढता है । लेकिन अखंडता तो तभी पैदा होगी कि जो मेरे भीतर हो उसको रोकने वाला कोई भी ना हो । अहंकार बचे ही ना मैं बच्चे की तरह हो
जाऊँ । जो हो वो हो, बडा कठिन है क्योंकि हमें खुद ही अर्चन मालूम पडेगी ये बात तो ठीक नहीं । चार आदमियों के सामने कै से रोना लोग कहेंगे?
क्या मर्द होकर स्त्रियों जैसा व्यवहार कर रहे हैं तो आदमी पुरुषों ने तो रोना ही बंद कर दिया लेकिन प्रकृ ति बडी जिद्दी है । वो आँसू की ग्रंथि बनाए
चली जाती है । आप रोज चाहे ना आँसू की ग्रंथि बनाए चली जाती है, आपकी आँखें रोने को सादा आती है । चाहे आप पुरुष हो चाहे स्त्री लेकिन
बच्चों को हम सिखा रहे हैं । छोटे से बच्चे को क्या लडकियों जैसा रो रहा है वो रुक जाता है । मैं लडकी नहीं रोक लेता है लेकिन हमने उस बच्चे को
विकृ त करना शुरू कर दिया । उसके आँसू जहर बन जाएँगे क्योंकि रुके हुए आंसू जहर हो जाने वाले इसलिए आप जान के हैरान होंगे । स्त्रियों की बजाय
पुरुष मानसिक रूप से ज्यादा पीडित होते हैं । आम तौर से होना चाहिए स्त्रियां क्योंकि वो ज्यादा कमजोर मालूम पडती है, लेकिन पुरुष ज्यादा मानसिक
रूप से बीमार होते हैं । स्त्रियों के बजाय पागल खानों में पुरुषों की संख्या ज्यादा है । कारण क्या होगा? पुरुष को ज्यादा नियंत्रण सिखाया जा रहा है ।
स्त्री को छम्मा मानते हम समझते हैं, कमजोर है, रोती है । रोने तो स्त्री ही है । स्वीकृ त है पुरुष जैसे रोने लगे वैसे ही अर्चन शुरू हो जाती है ।
हमने पुरुष को कृ तिम नियंत्रण सैनिक बनाने की कोशिश की है । उसमें वो झूठा हो गया । उसके आस पास एक आर्मर, एक झूठा कवच हमने खडा कर
दिया है । वो उस कवच के भीतर खडा है । कोई मर जाए तो भी उसे खडे रहना है । कु छ भी हो जाए उसे अपने को सम्भाले रखना । ये संभालने
वाला कौन है? यही हमारा अहंकार है । इसलिए जितना बडा अहंकारी हो उतना हमें दृढ मालूम होगा और जितना निरहंकारी हो उतना ही हमें लगेगा कि
आदमी दृढ नहीं निरहंकारी । व्यक्ति सरल होगा, सहज होगा जिससे पानी बहता है । हवा चलती है, इस तरह होगा ठोस चरित्र दुर्बल देखता है । योग्यता
दूषित मालूम पडती है । सुद्ध योग्यता का तो हमें ख्याल ही नहीं है कि क्या है हमें तो सिर्फ सीमित योग्यता का अशुद्ध योग्यता का पता है । ऐसा समझे
एक आदमी वो इंजिनियर हैं । कु शल इंजिनियर है तो हम कहते हैं योग्य क्योंकि कु शल इंजिनियर है । एक दिशा में बहुत आगे चला गया । हम कहते हैं
योग मनुष्य लेकिन क्या यह उचित है? कहना? क्योंकि इंजिनियर होने से मनुष्यता का क्या संबंध है? इंजिनियरिंग कु छ लता है, उससे मनुष्य योग्य नहीं
होता है । उससे मनुष्य उपयोगी होता है । एक आदमी डॉक्टर है और कु शल डॉक्टर है । मैं एक डॉक्टर को जानता हूँ । बडे सर जिनको उनकी ख्याति
थी दूर दूर देश के कोने कोने से लोग उनके पास परेश इनके लिए आते थे और वहाँ परेश इनकी टेबल पे आदमी को रख लेते हैं, शुरू कर देते हैं
और तब उसके रिश्तेदारों को कहते कि पचास हजार रुपया नहीं तो आदमी बच्चे खाना वो आदमी हाँ । परेश इनकी टेबल पर रखा हुआ बेहोश पडा फिर
शुरू कर दी गई । तब वो कहते हैं तो कु शल सर्जन थे पर आदमी की योग्यता का क्या संबंध है? और कु शल इतने थे कि ये लोग जानते थे । फिर
भी लोग जाते हैं हाथ उनका अद्भुत जब वो बूढे हो गए सत्तर वर्ष के तब भी उनका हाथ कप्ता नहीं था । जरा सा नहीं लगता था । वही उनकी
कु शलता थी । लेकिन मनुष्य की कौशलता उससे कोई संबंध नहीं । मनुष्य वो बडे थे, बिल्कु ल योग्य नहीं थे । मनुष्य वो ऐसे थे कि चोर डाकू होना था
। भूल चूक से वो सर्जन हो गए । अगर वो डाकू होते तो हमें पता नहीं चलता । हम कभी ना कहते कि योग है । लेकिन उनका निशाना तब भी अचूक
होता क्योंकि हाथ उनका हिलता नहीं । वो जो डाकू की योग्यता थी, सर्जन की योग्यता बन गई । लेकिन आदमी का क्या संबंध है? आदमी तो आदमी
तो वहीं का वहीं खडा है । आदमी की योग्यता शुद्ध योग्यता है । बंकी कु शलताएं आप अच्छे सर्जन हो सकते हैं । अच्छे शिक्षक हो सकते हैं, अच्छे
राज्य हो सकते हैं । अच्छे चित्रकार अच्छे कवि हो सकते हैं । साहित्यकार हो सकते हैं, राजनीतिक हो सकते हैं । ये सब योग्यताएं नहीं है । ये
उपयोगिता आएँ । कु शलताएं इफिशियंसी है । शुद्ध योग्यता क्या है? शुद्ध अयोग्ता शुद्ध मनुष्य होना है, बडा कठिन है लेकिन हम शुद्ध अयोग्ता को पहचान
ही नहीं सकते । अगर एक आदमी ऐसा है जिसमें कोई सामाजिक उपयोगिता नहीं । आप उसको कहेंगे बेकार ना सर्जन है, ना चित्रकार है, ना मूर्तिकार
है ना राजनीतिज्ञ कु छ भी नहीं है, कभी तक नहीं है । कम से कम तुकबंदी करता है वो भी नहीं कर सकता । खाली बैठा है बुद्ध बोधिवृक्ष के नीचे
बैठे हुए कौन सी योग्यता है? उन्होंने बताई क्या कर सकते हैं, कु छ भी नहीं कर सकते । साइकिल का पंचर नहीं छोड सकते । किस मतलब कीजिये
बुद्ध बोधि वृक्ष के नीचे बैठे हुए शुद्ध योग्यता में जहाँ योग्यता किसी दिशा में नहीं जाती, जहाँ योग्यता का कोई व्यवहार नहीं है, जहाँ योग्यता की सिर्फ
उपस्थिति और जब सभी दिशाओं से योग्यता हट के भीतर बैठ जाती है तो शुद्धता का जन्म होता है । शुद्ध मनुष्य का जन्म होता है । भीतर की
मनुष्यता का कोई भी उपयोग एक अर्थ में अशुद्धि है क्योंकि उपयोग में अशुद्ध होना ही पडेगा, पदार्थ में उतरना पडेगा । तलाव से कहता है शुद्ध योग्यता
दूषित मालूम हम कितनी ही पूजा बुद्धि की तरह भी तरह में लगता ही है कि आदमी कु छ कर नहीं रहा, किसी काम का नहीं । मेरे घर में ऐसा हुआ
की मुझे धीरे धीरे घर के लोग ही समझने लगे कि मैं किसी काम का नहीं है । ऐसा भी हो जाता कभी कि मैं घर में बैठा हूँ और मेरी माँ मेरे सामने
कहती कि यहाँ कोई दिखाई नहीं पडता । सब्जी लेने किसी को भेजना मैं सामने बैठा हूँ । कहते हैं यहाँ कोई दिखाई नहीं पडता । किसी को सब्जी लेने
बाजार देश मैं सुन रहा हूँ । मतलब उसका कहना ठीक है । सच में कोई नहीं सब्जी लेने की मुझे कोई योग्यता नहीं । एक भेज के वो भूलना पड गई
। फिर उसने दोबारा मुझे एक बार उसने मुझे भेजा । सब्जी लेने आम का मौसम था । मुझे कम ले आओ । मैं गया । मैं दुकानदार से पूछा कि सबसे
श्रेष्ठ आम कौन सा है? मेरी शकल देख के वो समझ गया और मेरे पूछने के ढंग को देखके समझ गया है कि इस आदमी ने आम कभी खरीदे नहीं ।
जो रद्दी सर्दी आम था । उसने कहा कि ये सबसे ॅ हूँ और दम उसने सबसे ज्यादा उसके बताए तो मुझे लगा कि ठीक है जब दम इसके सबसे ज्यादा
है तो सबसे श्रेष्ठ होनी चाहिए । सब तो मुझे होता था की वो सडा गला दिखता था । लेकिन मैंने सोचा कि जब मैं खुद उससे पूछ ही लिया हूँ और
जितने दाम मांगता उतना देने को राज्य तो धोखा देने का लेकिन आम मैं घर आ गए । मेरी माँ ने तो देख के आँख बंद कर ले पडोस में एक बूढी
भिखारन रहती थी । मुझसे कहा ये जाके उसको देख उस बूढी बेकार ने मुझसे कहा कि कचरे घर पे फें क दो, बस फिर मेरी बाजार जाने की यात्रा बंद
हो । कु शलता पहचानी जाती दिखाई पडती है उसका उपयोग है शुद्धता का क्या उपयोग हो सकता है? निरुपयोगी है उसका आर्थिक जगत में कोई मूल्य
उसकी कोई कीमत नहीं । और ध्यान रहे जिस चीज में हमें कोई कीमत न दिखाई पडे, उसमें मूल्य भी कै से दिखाई पडे । जब कीमत ही नहीं है तो
मूल्य भी हमारे लिए नहीं रह जाता । शुद्धता, निरुपयोगी तत्व, निरुपयोगी इस अर्थ में की व्यवहार बाजार की दुनिया में उसका हम कु छ भी नहीं कर
सकते । लेकिन परमानंद का स्रोत है और जिसको मिलती है उसको तो परमानंद हेगी । अगर आपको भी दिखाई पडनी शुरू हो जाए तो आप भी उसके
आनंद में सहभागी हो । अगर बुद्ध बैठे हैं बोधीवृक्ष के नीचे और आप वहाँ से निकले सोचेंगे बेकार तो आपका संबंध टू ट गया । अगर आप सोचेंगे कु छ
जरूर घट रहा है, कु छ परम घट रहा है जो दिखाई नहीं पडता जो जगत तक नहीं आता, जो किसी मूल स्रोत में घट रहा है, बीच में घट रहा है
और आप बुद्ध के पास बैठ जाए और एक दीवार खडी ना करें कि ये बेकार बैठा हुआ है । आदमी आप सोचे की कु छ घट रहा है और आप ॅ हो
जाये । ग्राहक हो जाए तो आप पाएंगे कि बुद्ध की आनंद किरण आपको भी हिलाने लगी । आप पाएंगे कि बुद्ध की वो शून्यता आपके भीतर भी छाने लगे
। आप पाएंगे कि बुद्ध के भीतर जो अमृत बरस रहा है उसकी कु छ अंतर भी आने का आप खुले हो, आपका पात्र खुला हो । लेकिन आप ने कहा कि
बेकार आपका पात्र बंद हो गया, फिर निश्चित ही बिल्कु ल बेकार है क्योंकि आप कै से उपयोगिता जान सकते हैं । ये उपयोगिता किसी और ही ढंग की है
। किसी और ही आयाम में एक नया ही डाॅन है । इसका जहाँ बाजार का मूल्य कम नहीं आ सकता है, जहाँ के वल आत्मा की ग्राहकता हो तो हम
समझ सकते हैं क्या घट रहा है? शुद्धता आनंद है, सुविधा नहीं है, उपयोगिता नहीं है, कु शलता नहीं है सिर्फ मनुष्य का होना अपनी शुद्धता में ।
इसका अर्थ हुआ कि जहाँ कोई वासना नहीं, जहाँ कोई दौर, कोई तनाव, कोई अशांति नहीं । ऐसी चेतना की दशा का नाम शुद्धता है । वो है
सिक्युरिटी इन इस इंस् वहाँ निर्दोष होना मात्र पर इस की हमें प्रतिदि तभी हो सकती है जब हम कभी ऐसे होने की घटना जहाँ घट रही हो, ऐसे व्यक्ति
के पास ग्राहक हो के बैठ जाए । शायद एक छल में आपको पता भी ना चले । वर्षों भी लग सकते हैं । लेकिन अगर आप ग्राहक बने बैठे रहे बुद्ध से
कोई एक दिन पूछता है कि दस हजार भिक्षु आपके आसपास इकट्ठे रहते हैं, ये क्या करते हैं? तो बुद्ध कहते हैं ये कु छ करते नहीं । ये सिर्फ मेरे पास
होते हैं, ये मुझे पीते । ये मेरे प्रति खुलते हैं जैसे सुबह कमल खिलता है, सूरज के लिए उन्मुख हो जाता है । खोल देता अपनी पखुंडियां ऐसा ये
खुलते हैं कु छ मेरे भीतर घाटा है । कु छ ऐसा जो जगत के बाहर है । ये भी उसके साझीदार होने की कोशिश में लगे । एक बार इन्हें स्वाद आ जाए
तो इनके भीतर भी घटना शुरू हो जायेगा । बुद्धत्व संक्रामक इन फॅ से अगर आप तैयार हो तो बुद्धत्व के किटाणु आपके भीतर प्रवेश कर सकते हैं । आप
ऍम होता है, दुःख ही संक्रामक नहीं होता, महासुख भी संक्रामक होता है । लेकिन हम बडे अद्भुत लोग हम दुख के लिए तो बिल्कु ल खुले और आनंद
के लिए बिल्कु ल बंद । कहीं दुख मिल रहा हो तो हम जल्दी से खुल जाते । तैयार दुख को लेने को हम बिल्कु ल प्यार से तत्पर आनंद कहीं मिल रहा
हो तो हम इनकार करने की सब उपाय करते हैं । असल में हमें भरोसा ही नहीं रहा है कि आनंद संभव है । इसलिए हम मान ही नहीं पाते कि बुद्धत्व
संभव है या क्राइस्ट होना संभव है । हम मान ही नहीं पाते । और जब हम कहते हैं कह रहे हैं कि मान नहीं सकते कि यह हो सकते हैं क्योंकि हम
इतने दुख में है और सुख की हमें कोई किरण नहीं मिले । हमें अपने पे भरोसा खो गया है । शुद्ध योग्यता हमें दूसरी मालूम पडती है । महान अंतरिक्ष
के कोने नहीं होते । आकाश का कोई कौन है लेकिन हम अपने घरों में रहने की आती है और हमारे कमरे का कोना होता है । कोलों के कारण ही हम
कह पाते हैं ये हमारा कमरा है । अगर कोने न हो तो हमारा कमरा खो जाए । लेकिन महाआकाश का कोई कोना नहीं । पिता का कोई कोना नहीं होता
महा इसलिए शुद्धता हमें दिखाई नहीं पडती । जब तक आकाश दीवानों में बंद ना हो जाए तब तक हमें उपयोगी नहीं मालूम पडता है । ये कमरे में हम
बैठे हैं । दीवाल में तो हम नहीं बैठे बैठे तो हम आकाश नहीं है । जो खाली जगह है उसी में बैठे लाल से बार बार कहता है मकान का उपयोग दीवाल
में नहीं खाली जगह में है । दिवाल के वल खाली जगह को घेरती लेकिन जब दीवाल खाली जगह को घेरती हम आश्वस्त हो जाते हैं । हम कहते हैं भवन
निर्मित हो गए बैठते खाली जगह में ही है । सीमा है तो हमें दिखाई पडता हैं । दिवाले खो जाए अभी यहाँ बैठे बैठे ऐसा चमत्कार हो की दिवाली खो
जाए तो आप जहाँ बैठे वहीं बैठे रहेंगे । कोई भी फर्क आपको नहीं पडेगा लेकिन आप बडी मुश्किल पड जायेंगे । बेचनी शुरू हो जाएगी । खुले आकाश के
नीचे आ गए । अज्ञात के नीचे आ गए । जहां सीमाएँ नहीं और कोने नहीं वहाँ हमारी पकड नहीं बैठते । वहाँ हम भयभीत हो जाते हैं । आदमी ने
मकान इसलिए ही नहीं बना लिया है कि शरीर के लिए सुरक्षा है वो तो है ही । बडी तो मानसिक सुरक्षा है क्योंकि जो हमें दिखाई पडता है उसकी हम
मालिक मालूम पडते हैं । मालिक हुआ हुआ मालूम पडता है वहाँ भेज शुरू हो जाता है । महा अंतरिक्ष के कोने नहीं होते । महा प्रतिभा होने में समय
लेती है । लोग मुझसे पूछते आके ध्यान कितने समय में हो जाए । महीना दो महीना तीन महीना वो जो भी योग्यताएं जानते हैं सभी बहुत थोडा समय
लेती किसी आदमी को इंजिनियर होना है । कु छ वर्ष में हो जाए किसी को डॉक्टर होना है, कु छ वर्ष में हो जाए वो पूछते हैं ध्यान समय कितना जनरल
आप प्रयास ही ना करेंगे जाने का आप प्रयास ही ना करेंगे । एक बार बुद्धे गाँव से गुजर रहे हैं रास्ता भटक गया संगी साथी भिक्षु भूखे प्यासे घनी
दोपहर हो गयी जंगल से रास्ता निकलता हुआ मालूम नहीं पडता जिस गाँव पहुँचना है वो कितनी दूर है कु छ पता नहीं राह में एक आदमी मिलता है बुद्ध
का शिष्य आनंद उस आदमी से पूछता है गाँव कितनी दूर है वो आदमी कहता बस दो मेरी पूछता हूँ कितनी दूर है वो आदमी कहता बस एक दो में
आनंद हो रहा होता है । एक कोर्स पहले भी था । एक कोर्स चल चुके शायद ज्यादा ही चल चुके हैं लेकिन बुद्ध मुस्कु राते रहते हैं । फिर एक कोर्स
बीत जाता है । लेकिन गाँव का कोई पता नहीं और अब सांझ होने के करीब आने को है और भूख और प्यास और सब परेशान । और फिर एक आदमी
एक लकडहारा मिलता और उससे पूछते हैं कि गाँव कितना दूर है । वो कहता है बस दो मिल एक को आनंद खडा हो जाता है । वो कहता है किस
तरह की ये किस तरह की यात्रा हो रही है । एक को कितना लंबा बुद्ध कहते हैं तू खुश हो कम से कम एक कोर्स से ज्यादा तो नहीं बढता । गाँव
कम है क्या? ना एक कोर्स ठहरा हुआ है उससे ज्यादा नहीं हो रहा है । हमने जितना था उससे खोया नहीं । इतना पक्का हम जहाँ पे कम से कम वही
फिर वहाँ से पीछे नहीं हटे । और ये लोग भले लोग ये प्रेमबस कहते हैं एक कोर्स ताकि तुम चल सको और बुधना मेरी खुद की हालत तुम्हारे साथ यही
तुम मुझसे पूछते हो, कितनी दूर है बोध कितनी दूर है बुड्ढा तू मैं कहता हूँ एक कोर्स तो मैं कॅाल के फिर पूछते हो मैं कहता हूँ आपको से लंबी यात्रा
है । ये अनंत यात्रा है । अनंत जन्म लग जाते हैं ये भले लोग ये तुम्हारे चेहरे की थकान देख के पत्थर कठोर जितनी दूरी है उतनी ही कह देंगे । चाहे
यात्री थकते वहीं गिर पडे, घबरा जाए एक एक कोर्स करके हजार भी पूरे हो जाते हैं । लेकिन काफी समय लगता है क्योंकि जितनी महा प्रतिभा की
खोज हो उतनी ही प्रार्थना में समय लगता है । इसी तरह ऐसा समझे वैज्ञानिक इसे स्वीकार करने लगे हैं । अब एक दूसरी दिशा से आपने देखा आदमी
अके ला प्राणी है जिसको तो होने में बहुत समय लगता है । कु त्ते का बच्चा पैदा होता है । कितनी देर लगती पूरा होने में घोडे का बच्चा पैदा होता है ।
कितनी देर लगती है मुँह घोडे का बच्चा पैदा होते से चलने और दौडने लग सकता है तब भी माँ बाप जरा डरे रहते हैं । कभी चल सकता है अपने पैर
से कि नहीं इतना लम्बा समय मनुष्य को क्यों लगता है फ्रॉड होने में अगर आदमी के बच्चे को असहाय छोड दिया जाए वो मर जायेगा, बच नहीं सकता
। बाकी पशुओं के बच्चे बच जाएंगे क्योंकि वो पैदा होते ही काफी प्रॉस् हाँ आदमी भर अपरोध पैदा होता है क्योंकि आदमी के पास बडी प्रतिभा की
संभावना उस पर प्रतिभा को प्रमाण होने में समय लगता है । घोडे के बच्चे के पास प्रतिभा की बडी संभावना नहीं होने में कोई समय नहीं लगता ।
वैज्ञानिक बन भी होने लगेगा लेकिन उस लम्बे बचपन के साथ ही आदमी की प्रतिभा भी बढने लगेगी । अगर समझे कि दो सौ साल आदमी की औसत
उम्र हो जाए तो फिर इक्कीस वर्ष में बच्चा जवान नहीं होगा नहीं होगा । फिर वो पचास साठ वर्ष प्रवणता के करीब आएगा । यूनिवर्सिटी से जब निकलेगा
तो साठ वर्ष के करीब शिक्षित होके बाहर लेकिन तब मनुष्य की प्रतिभा बडे ऊँ चे शिखर छू लेगी । स्वभाव ता क्योंकि होने के लिए जितना समय मिलता
है उतना ही प्रतिभा पकती । ध्यान तो प्रतिभा की अंतिम अवस्था है । एक जन्म नहीं और कोई व्यक्ति अनंत जन्मों तक अगर सतत प्रयास करें तो ही
अन्यथा कई बार प्रयास छू ट जाता है । अंतराल आ जाते हैं । जो पाया था वो भी खो जाता है, भटक जाता है फिर फिर पाना होता है । अगर सतत
प्रयास चलता रहे तो अनंत जन्म लगाते हैं । तब समाधि उपलब्ध होती । इससे घबरा मत जाना । इससे बैठ मत जाना पत्थर के किनारे कि अब क्या
होगा? अनंत जन्मों से आप चल ही रहे हो, घबराने की कोई जरूरत नहीं हो सकता है । आ गया हो तो जब कोई कहता है एक ही कोर्स दूर तो हो
सकता है आपके लिए एक ही कोर्स बचाओ क्योंकि कोई आज की यात्रा नहीं । अनंत जन्म से आप चल रहे हैं । कु छ भी कु छ किया हो तो भी बैठ
जाने से कु छ हाल नहीं कु छ करे ताकि आगे कु छ हो सके से कहता है महा प्रतिभा प्रमाण होने में समय लेती है । महा संगीत धीमा सुनाई पडता है ।
छु द्र संगीत ही शोरगुल वाला होता है । महा संगीत धीमा होने लगता है । परम संगीत की अवस्था तो वही है जब शून्य रह जाता है । स्वर्ग बिल्कु ल
सुनने हो जाती है । जो शून्य को सुन सकता है वो महा संगीत को सुनने में समर्थ हो गया । इसलिए हम तो ओमकार को ही महा संगीत कहते हैं ।
क्योंकि जब व्यक्ति पूर्ण शून्य हो जाता है तब ओमकार की ध्वनि सुनाई पडती है और वो रिकॉर्ड लगा ले तो भी उसे रिकॉर्ड नहीं किया जा सकता है ।
वो कोई ध्वनि नहीं है । इस स्थूल अर्थों में वो महा सुनने की गूंज जब सवारी ध्वनियां खो जाती है तो उनके खो जाने से जो गूंज रह जाती है उस
गूंज का नाम ओंकार महा संगीत धीमा सुनाई पडता है । इसलिए धीमे सिद्धि में सुनने की क्षमता विकसित करनी चाहिए । धीरे धीरे धीरे धीरे जितना धीमा
सुन सके , जितना सूक्ष्म सुन सके उसकी करनी चाहिए । शोरगुल चल रहा है । बाजार का आँख बंद करके दीवार पे लगी घडी को सुनने की कोशिश
करनी चाहिए । आप हैरान होंगे जैसे टिक टिक सुनाई पडने लगी । फिर धीरे धीरे और नीचे हटना चाहिए । आँख बंद करके बाजार का शोरगुल चल रहा
है । हृदय की धडकन सुननी चाहिए अगर बाजार का शोरगुल चलता रहे और आपको अपने हृदय की धडकन सुनाई पढने लगे । आप समझना की मंजिल
बहुत करीब आ रही है । सूक्ष्म को सुनने की कोशिश बढाये जाने चाहिए । इस स्कू ल से हटाते रहना चाहिए अपने को स्कू ल घटता रहेगा लेकिन परिधि
पर और कें द्र पर सुक्ष्म की प्रतीति होने लगे । महारूफ की रूपरेखा नहीं होती । जिस रूप की रूपरेखा होती है वो सीमित थी इसलिए परमात्मा, अंडाकार
आकृ ति, अंडाकार आकृ ति, जीवन की गति का प्रतीक, सभी जीवन की गति वर्तुलाकार । अंडाकार शिवलिंग सिर्फ एक अंडाकार आकृ ति है जिसमें कोई
रूप नहीं । रूप परमात्मा का कोई रूप नहीं हो सकता है क्योंकि रूप सीमा देगा और जहाँ सीमा है वहाँ बंधन जहाँ सीमा है, वहाँ मृत्यु जहाँ सीमा है,
वहाँ अज्ञान है । अविद्या महारूफ की
रूपरेखा नहीं होती । यह वही ताव है जब दूसरों को शक्ति देने और आप काम करने में पटना ये जो छिपा हुआ मूल स्रोत है धर्म का, सत्य का,
इसी से ही सारी ऊर्जा उठती है । इसी से फू ल खिलते हैं । इसी से पक्षी आकाश, नौं इसी से तारे चलते सूर्य प्रकाशित होता है । इसी से चेतना
अविभूत होती है । इसी से चेतना समाधि तक पहुँचती है । सभी का स्रोत सभी शक्तियों का मूल उद्गम । लेकिन अन्ना छिपा हो जैसे भी जमीन में छिप
जाते हैं फिर जडे बनती और वृक्ष आकाश की तरफ उठता है । आकाश की तरह परमाना या ताव ये जो भी नाम हम देना चाहे वो हमारा अप्रकट मूल
स्रोत है । उस मूल स्रोत में ही सारी शक्ति का उद्गम और जब तक हम ऊपर ऊपर सकती को खोजते हैं, तब तक हम निर्बल बने रहते हैं । और जब
हम उतरते हैं गहरे बृक्ष की जगह तो महाशक्ति मिल जाती है, जिसका कोई अंत नहीं जो अनंत है, जो दिखाई पडता है उससे उस तरफ चले जो
दिखाई नहीं पडता, जो सुनाई पडता है उसको उस तरफ चले जो सुनाई नहीं पडता जिसका रूप है उसको उस तरफ चले जिसका कोई रूप नहीं है ।
जिसका नाम है उस से उस तरफ चले जो मंदिरों खोजता है वो व्यर्थ की भटकता है, जो उसे अपरकट के मंदिर में खोजने लगता है, उसे रह मिल
गई और उसकी मंजिल दूर नहीं । पाँच मिनट रुके । कीर्तन करें काम करने में । पट्टू ये जो छिपा हुआ मूल स्रोत है धर्म का सत्य का, इसी से ही
सारी ऊर्जा उठती है, इसी से भूल खिलाते हैं । इसी से पक्षी आकाश में उडते इसी से तारे चलते सूर्य प्रकाशित होता है । इसी से चेतना अविभूत होती
है । इसी से चेतना समाधि तक पहुँचती है । सभी का स्रोत आकाश उठता हुआ वृक्ष जमीन में छु पी हुई जगहों पर निर्भर होता है । नीचे से जब काट
दो ऊपर से वृक्ष तिरोहित हो जाए । जो भी प्रगट है वो अप्रकट में उसकी जडे होती है । सत्य, परमात्मा या ताव या जो भी नाम हम देना चाहे वो
हमारा अप्रकट मूल स्रोत है ।

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