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फॅ स टीम में कहाँ है जो कहा जा सकता है वो थोडे महीने कहा जा सकता है जो नहीं कहा जा सकता है उसे विस्तार में भी कहने का कोई उपाय
नहीं है । लेकिन संत और भी गहरी बात करते रहेंगे । वे कहते रहे हैं जो कहा जा सकता है वो मौन में भी कहा जा सकता है और जो नहीं कहा जा
सकता है उसे कितने ही विस्तार में कहा जाए तो भी अनकहा रह जाता है । जो कहा जा सकता है वो बिन कहे भी कहा जा सकता है जो नहीं कहा
जा सकता । कितने ही हम कहें वो अछू ता आयस प्रसिद्ध रह जाता है । फॅ से बहुत स्वल्प भाषी है । सच तो यह है कि वो थोडा सा जो उस ने कहा
है वो भी बडी मजबूरी में अधिकतर नाव से चुप रहा है या कहे कि उसने अपनी चुप्पी से ही अधिकतर कहा कहाँ तो बहुत है, कहाँ तो बहुत गहरा है
लेकिन जीवन भर अपने शिष्यों के पास वो अधिकतर मौन था । उसके साथ बैठते, उठते चलते यात्रा करते, सोते खाते पीते बोलो अधिक व्यवस्थाएँ था
उस मौहल्ले के उठने में, बैठने में, उसकी आँखों में, उसके हाथ के इशारों में, उसकी भावभंगिमा ने उसकी मुद्राओं में उसकी क्रियाओं प्रतिक्रियाओं, जो
सूचन मिल जाता वही उसका संदेश लॅा जीवन भर कु छ नहीं कहा है । जीवन के अंत में ये तावडे टेकिं ग किताब अति छोटी सी छोटी किताब है ये उसने
कही है । लाॅक कभी कोई पूछता कि कु छ कहो से कहता जो समझ सकते हैं वो बिना कहे भी समझ लेंगे और जो नहीं समझ सकते हैं उनके साथ
कहकर भी समझाने का कोई उपाय नहीं । अगर दृष्टि हो और गहराई हो, भाव हो, प्रेम हो तो मोन भी समझा जा सकता है । दृष्टि न हो, गहराई ना
हो, भावना हो, प्रेम ना हो तो शब्द भी बहरे कानों पर पढते हैं और बिखर जाती है । सुनकर भी सुना हो ये जरूरी नहीं देखकर भी देखा हो यह
अनिवार्य नहीं । हम देख कर भी अनदेखा छोड सकते । हम सुन कर भी अनसुनी हालत में रह सकते हैं क्योंकि सुनना अगर सिर्फ कान का ही काम
होता तो बडा आसान हो जाता है । कान के साथ भीतर प्राणों का तादाद में भी चाहिए अन्यथा कम सुन लेंगे । यंत्रवत और प्राणों का कोई तालमेल
भीतर ना हो तो बात कहीं भी उतरेगी नहीं । हाँ अगर देख लेती तो काफी था । हम परमात्मा को कभी का देख लेते हैं । अगर आंख अके ली देखने में
समर्थ होती, आप के साथ प्राणों का तालमेल चाहिए । जब आँखों के पीछे से प्राण झांकते हैं तब कहीं भी देखे तो परमात्मा दिखाई पड जाए और जब
आँखों के पीछे से प्राण नहीं झांकते आँखों से ही बाहर की वस्तुएं भीतर झांकती है तो सभी जगह पदार्थ का अनुभव होता है । पदार्थ का अनुभव ये
खबर देता है कि हमने अभी प्राणों से देखना नहीं सीखा । अभी सिर्फ आँख देख रही है । अगर कान ही सुनते हो तो सब सुनाई पडते हैं । अगर प्राण
कानों के भीतर से सुनने लगे तो सबके सुनाई पढना शुरू हो जाता है और जिसके प्राण कानों से झांक रहे हो उसे वृक्षों की हवा में हिलती पत्तियों के
स्वर में भी सत्य का अनुभव होगा और जिसके प्राण कानों से न झांक रहे हो, बुद्ध कहते हो उसके सामने खडे होकर कु छ की कृ ष्ण कहते हो कि
लाओ से कहता हो शब्द सुनाई पढेंगे और ऐसे ही बिखर जाएंगे जैसे हवा में पत्तियाँ हिली हो और बिखर गई । कही भीतर कु छ स्पंदित नहीं होगा । कही
भीतर गहरे में कोई हलचल ना मचेगी । कही भीतर कें द्र तक कोई किरण प्रवेश ना करेगी । एक गहरा सहयोग चाहिए प्राणों का इंद्रियों के साथ सन्तो मौन
से बहुत कु छ कहा है लेकिन सभी से मौन से नहीं कहा जा सकता है । उनसे ही कहा जा सकता है जो अपनी समस्त इन्द्रियों के पीछे अपने प्राणों को
एकजुट करने को तैयार । शिष्य का इतना ही अर्थ है शिष्य का इतना ही अर्थ है कि जो अपनी इन्द्रियों पीछे अपने प्राणों को सीखने को तैयार ।
डिसिप्लिन का इतना ही अर्थ है आप अनुशासित थे । इसका इतना ही अर्थ है कि आपकी इंद्री और आपके प्राण टू टे हुए अलग अलग नहीं । संयुक्त जुडे
और जब देखती है तो आँख ही नहीं देखती, आत्मा देखती आँख द्वार बन जाती है । और जब कान सुनते हैं तो काम ही नहीं सुनते । आत्मा सुनती
है, कान द्वार बन जाती है । तब आप अपनी इंद्रियों के द्वारा बाहर आते हैं । साधारणता आप कें द्रीय के द्वारा जगत भीतर आता है । जब जगह भीतर
आता है तो कोई गहरी अनुगूंज नहीं होती । और जब आप फै लते हैं बाहर तो गहनतम अनुगूंज होती है । शिष्य का अर्थ है जो तैयार है इस भीतरी अल
कमी के लिए, इस भीतरी रसायन के लिए कि प्राणों को साथ छोड देगा हुआ जो एक सद्गुरु एक व्यक्ति उसके पास आया और उसने हुआ ऐसा कहा की
मैं सत्य सीखने आया हूँ तो हुआ नहीं । कहा रुको और सीखो । बहुत दिन बीते सिस्टम का अब तक आप ने सिखाया नहीं हुआ नहीं कहा की अगर
मेरे होने से ही तुम्हें शिक्षा नहीं मिल सकती तो मेरे कहने से नहीं मिल सकती । कहना बहुत कमजोर है । होना बहुत सारी । अगर मेरा समग्र अस्तित्व
और मेरी मौजूदगी तुम्हें कु छ नहीं सिखा सकती तो मेरे सब मेरे हाथों का कम्पन, मेरी आवाज तुम्हें क्या सिखा सके ? बहुत की है आवाज मेरा होना तो
बहुत विराट स्वर है सीखो । फिर और कु छ महीने बीते । किसने कहा कि मैं कब तक ऐसा रुका रहा हूँ । आप कु छ सिखाते नहीं हुआ? नहीं कहा जो
सीखने को तैयार है, उसे सिखाने की जरूरत नहीं पडती और जो सीखने को तैयार नहीं है उसे अब तक जगत में कोई सद्गुरु सिखा भी नहीं सकता ।
ये काम मेरा नहीं ये काम तुम्हारा है कि तुम सीखो । वर्ष बीता । किसने कहा अब क्या मैं चला जाऊँ ? मैं थक भी गया, वो भी गया ना बोलते हैं
ना कु छ कहते हैं । हुआ ने कहा तुम्हारी मर्जी लेकिन अगर मेरे होने का आघात भी तुम्हारे ऊपर नहीं पडता है तो मेरी शिक्षाएं व्यर्थ ही होंगे । फिर तुम
ये मत कहना किसी से जाकर के मैंने सिखाया नहीं । सुबह जब तुमने मुझे नमस्कार क्या है तब क्या मैंने तुम्हें नमस्कार का उत्तर नहीं दिया और सुबह
जब तुम मेरे लिए चाय लेकर आए हो तो क्या मैंने चाय तुमसे स्वीकार नहीं? काश तुम देखते । जब मैंने तुम्हारे नमस्कार का उत्तर दिया है तब तुम मुझे
देखते । जब मैंने तुम्हारी चाय स्वीकार की है तब तुम मुझे देखते और जब तुम मेरे चरणों परसिद्ध रखा है और मैंने तुम्हारे सिर पर हाथ रखा है । काश
तब तुम अनुभव करते तो मैं तुम्हें प्रतिपल सिखा रहा हूँ । लेकिन इस तरह की शिक्षा तो के वल सिस्टम को दी जा सकती है । गाँव से नंबर ने के पूर्व
ये किताब लिखने की रजामंदी जाहिर की । उसका कु ल कारण इतना है कि जो शिष्य नहीं है जिनसे लाओ से सीधा नहीं मिल सके गा, जिनको लाओ के
पास होने का अब कोई उपाय नहीं रहेगा । जिनको लाओस लेके अस्तित्व का संस्पर्श अब मिलना असंभव है, उनके लिए शब्द जा रहे हैं । शायद कोई
उनमें से इन शब्दों के सूत्र को पकड के भी लाओ के अस्तित्व तक प्रवेश कर जाए । कोई करना चाहे तो कर सकता है । लाल से सूत्र में कहता है
निसर्ग है स्वल्प भाषी नहीं ज्यादा नहीं बोलती प्रकृ ति लेकिन पर्याप्त बोलती है ज्यादा नहीं बोलती अल्प बोलती है लेकिन सब बोल देती है । जो बोलने
योग एक फू ल खिलता है सुबह सांज गिर जाते हैं । जो कहना था वो कह दिया गया जो सुबह छोडनी थी वो छोड दिया सूरज निकलता है महासूर्य सुबह
सांझी जो खबर देनी थी वो दे दी गई । प्रकृ ति बहुत सूक्ष्म इशारे करती है, बहुत स्वर्ण से रहता है । यही कारण है कि सुबह भर भी नहीं चल पाता
उठता है लेकिन पूरी सुबह भी नहीं चल पाता । आंधी पानी पूरे दिन जारी नहीं रहता है । कहाँ से आते हैं ये और कहाँ चले जाते हैं, क्या है ये?
किस बात के प्रति खेल कौन सा संदेश आते हैं, ना से विलीन हो जाते हैं ना की भाषा है ये अगर कोई इनमें झांकना सीख जाए । निसर्ग भी प्रतिपल
अनंत अनंत सन्देश भेज रहा है लेकिन बडे स्वल्प है । संदेश क्षण भर भी चुके तो चुप जायेंगे । वही निसर्ग के संदेश ग्रहण कर सकता है जो प्रतिपल
सजक कोई निसर्ग स्कू ल के शिक्षक की भांग, सिर पे डंडा लेकर चौबीस घंटे से खाता नहीं रहेगा और अच्छा ही है की मिसाल लम्बी शिक्षाएं नहीं देता
क्योंकि लंबी शिक्षाएं अक्सर लोगों को बधिर बना देती है । लम्बी शिक्षाएं अक्सर लोगों को उबाल देती है । लम्बी शिक्षाओं से लोग सीखते कम ही सुनने
के आदी हो जाते हैं, शब्दों से परिचित हो जाते हैं आदि हो जाते हैं । फिर कोई चोट नहीं होती । सत्य का प्रथम संस्पर्श अगर प्रवेश ना कर पाए तो
उसकी पुनरुक्ति प्रवेश नहीं करती है । सत्य का पहला संस्पर्श ही अगर प्रवेश कर जाए तो ही आसान है । बात अगर हम सत्य को सुनने के भी आदी
हो जाए तो जितना हम सुनते हैं उतना ही हमारे आस पास दीवाल मजबूत हो जाती । द्वार बंद हो जाता है । इसलिए अक्सर ये होता है कि जिन मुल्कों
में धर्म की बहुत चर्चा होती है, वहाँ लोग धार्मिक हो जाते हैं । हमारा ही मुल्क जितनी धर्म की चर्चा हमने की है, उतनी पृथ्वी पर कभी किसी ने नहीं
और शायद कभी कोई अब करेगा भी नहीं । इस भूल को दोहराना उचित भी नहीं । जितने तीर्थंकरों, जितने अवतारों को हमने इस पृथ्वी के खंड पर
मौका दिया है, उतना पृथ्वी के किसी दूसरे खंड पर मौका नहीं मिला । लेकिन परिणाम बहुत विपरीत है । परिणाम यह है कि हम महावीर और बुद्ध और
कृ ष्ण के भी आदी हो गए । अगर कृ ष्ण भी अचानक खडे हो जाए तो हमारे भीतर कोई तूफान और आंधी नहीं उठेगी । हम कहेंगे जानते पहचानते हैं ।
परचित परिचय अंधा कर देता है । निकटता बहरा बना देती है । महावीर भी अचानक खडे हो जाए तो हमारे भीतर कोई हलचल, कोई आंदोलन नहीं हो
जायेगा । हम कहेंगे ठीक पहले भी होते रहे । महावीर जैसी महा घटना भी हमारे बीच एक साधारण घटना हो हम आदि हो गए । सूर्य भी रोज सुबह
निकलता है तो हमें कोई हमें कोई पता नहीं चलता आदि हो गए । हम सारी चीजें जो पुनरुत् होती रहती है हमारे चारों उनसे आदि हो जाती है । थोडा
सोचे आदम ने जिस दिन पहली बार सूरज को निकलते देखा होगा उसका आनंद, उसकी पुलक, उसका आल्हाद आदमी जिस दिन पहली बार रात में
आकाश के तारे देखे होंगे उसके अंदर वो नाच उठा होगा । उस रात सोना मुश्किल हुआ । तारे अब भी वही है और हमारे भीतर का आदम आदमी भी
वही है लेकिन हम आदि हो गए, सब ठहर गया । हमें सब पता है कि ठीक है रात तारे होते जरुरी नहीं कि हमने जाना हो सकता हमने सुना हो या
हमने फिल्म के पर्दे पर देखा फॅ र स्वल्प संदेश देता है । प्रत्यक्ष भी नहीं । परोक्ष छु पे हुए इशारा करता है, बोलता भी नहीं । धीमी सी पुलक धीमी सी
सिहरन पैदा करता है । अगर हम संवेदनशील हो तो ही समझ पाएंगे । कोई बिना पर हथौडी नहीं पटक देता है । पीने से इशारा करता है और तार
झनझना जाते हैं । लेकिन लोहार जो दिनभर हथोडा पटकता रहता है उसको अगर ऐसे तार झनझना तो वो कहेगी कै सी आवाज आ रही सुनाई भी नहीं
पडती । काम आदि हो गए । संवेदना खो गई, स्पर्श की क्षमता छीन हो गई । स्वाद मंदा पड गया । सब कु छ हो गया है तो हमें कु छ भी पता नहीं
चलता । हवा हमारे पास से गुजर जाती है पूरे परमात्मा को बहती हुई हमारे रॉय में खबर भी नहीं उठती । आपको पता है क्या आप स्वास्थ से ही सांस
नहीं लेते । रोते रोते से सांस लेते हैं । लेकिन आपको पता चलता है वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर आपकी नाक खुली रहने दी जाए और सारे रोये बंद
कर दिए जाए, आप तीन घंटे में मर जायेंगे । सांस आप कितने लेते रहे? अगर सब रोये बंद कर दिए जाएं । सिर्फ नाक खुली और मुँह खुला छोड
दिया जाए कि मजे से सांस लो । आप तीन घंटे से ज्यादा जिंदा नहीं रह सकें गे क्योंकि एक एक रोना स्वास् ले रहा है । पूरे शरीर में करोडो रूपये
स्वास् ले रहे हैं लेकिन आपको पता है सिर्फ छोटे बच्चों को अनुभव होता है या लव से जैसे बोलों को अनुभव होता है । लाओत्से ने कहा है कहाँ से
लेता हूँ स्वास्थ सब तरफ से सब रोते रोते हमें तो इसकी पुनर खोज करनी तांव परंपरा में ये एक गहन प्रयोग है संवेदनशीलता को जगाने का । कभी
इस पर प्रयोग करें कभी दिन में पंद्रह मिनट लेट जाएं और अनुभव करें कि स्वास्थ से ही नहीं शरीर के रोते रोते से साँस ले रहे हैं । इसकी पुनर
खोज करनी पडे जरूर कु छ दिन प्रयोग करने पर अनुभव होना शुरू हो जाएगा कि स्वास्थ रोने रोने से आ रही पूरा शरीर तब जीवंत मालूम होगा ।
अभी पूरा शरीर जीवंत नहीं मालूम होता । सिर के आसपास थोडी सी जीवंतता है । बाकी पूरा शरीर हो गया पूरे शरीर में । आप नहीं खोपडी के पास
थोडी सी जगह में सीमित हो गई । बाकी सब शरीर तो आप धोते उसमें जीते नहीं । जिस दिन स्वास्थ पास का अनुभव होगा रोये से उस दिन पता
चलेगा पूरा शरीर और उस दिन आपकी आत्मा खोपडी में मालूम नहीं पडेगी तत्काल नाभि पर सरक जाएगी उस दिन आपको ऐसा नहीं लगेगा कि मेरा कें द्र
सिर के भीतर कें द्र नाभि के पास क्योंकि जब सब तरफ से स्वास्थ आती है सब तरफ से स्वास्थ का वर्तन बनता है और सब तरफ की स्वास्थ आती
तब आपको पता चलेगा मैं ना भी से जी रहा हूँ तब ना भी कें द्र बन जाएगी ना भी ही कें द्र है । लेकिन जो पूरे शरीर से स्वास्थ्य के अनुभव को
उपलब्ध होता है वही ना भी कें द्र है । इसको अनुभव को उपलब्ध होता है । जिस दिन आप पूरे शरीर से स्वास्थ लेने में सक्षम हो जाएंगे उस दिन जब
हवा का झोका आपके पास से निकलेगा तो सिर्फ हवा का झोका नहीं होगा, परमात्मा का झोखा भी होगा और जब आपकी आँखों के सामने फू ल खिलेगा
और हँसेगा तो सिर्फ फू ल नहीं खिलेगा । फू ल से सारी प्रकृ ति खिलेगी और हँसेगा और तब तब वो जो स्वल्प भाषी प्रकृ ति है । निसर्ग है उसकी भाषा,
उसकी कोड लैंग्वेज आपको समझ में आनी शुरु हो गई । हम आदमी की भाषा समझते हैं वो भी ठीक से नहीं समझते । मतलब सादा हमारे होते हैं ।
प्रकृ ति की भाषा तो वही समझ सकता है जो सीखे या आदमी की भाषा जो सीख ली है उसे भूल इन दोनों का एक ही मतलब है अन लर्न करें ।
आदमी की भाषा भूले ताकि इस तरह की भाषा सीख सकें । मिश्र की भाषा तो प्रतीक भाषा है और प्रतीक परोक्ष सीधे स्पष्ट नहीं सिर पर चोट की तरह
नहीं पढते हैं । बहुत हल्की सी संवेदना हल्का संस्पर्श करते हैं और विदा हो जाती है । द्वार पर इतनी हल्की दस तक की के वल वही सुन पाएंगे जिनका
पूरा रोना रोना सुनता है । नहीं तो नहीं सुन पाएंगे । परमात्मा के पैरों की जो ध्वनि है के वल वही सुन पाएंगे जो इतने मौन है । इतने शाम थे की अगर
अद्रश्य का पैर भी जमीन पे तो उसकी ध्वनि उन्हें सुनाई पड सके हमें तो तुम उन नाद हो तब थोडा बहुत सुनाई पडता है । आदमी की भाषा भी हम
ठीक से नहीं समझते । हमारे अपने अपने अर्थ होते हैं । मैं जो बोलता हूँ वही आप समझते हैं । इस भूल में कभी भी मत पर जाना सुनाई तो वही
पडता है जो मैं बोलता हूँ लेकिन समझ में वही पडता है जो आप समझ सकते हैं समझ में वही नहीं पड सकता है जो मैं समझाना चाहता हूँ । अर्थ
भीतर हमारे और हमारे अपने प्रयोजन है । यहाँ इतने लोग है तो इतने ही हो जाते हैं और फिर अपना अपना स्वार्थ है । अपना अपना लाभ है । अपनी
अपनी उपयोगिता है मुल्ला नसरुद्दीन एक नदी के किनारे बैठ और दस अंधे आए । वे नदी पार करना चाहते हैं । मुल्ला ने उन के साथ सौदा किया और
कहा एक एक पैसा एक एक आदमी को नदी के पार करने का मैं लूँगा । ज्यादा नहीं मानता हूँ । अंधेरा जी हो गए । कोई महंगी बात ना थी । मुल्ला ने
एक एक अंधे को नदी के पार किया । नौ बन्दों को पार कर चुका थक भी गया । जबदस्त को पार कर रहा था तो दस में हाथ से छू ट गया । दुबकी
खाया तेज थी । धार नदी की अंधा बह गया । नौ अंधेरे में हलचल मची । शक हुआ आवाज आई दुख की, खाने की, किसी के गिरने की । उन्होंने
पूछा क्या हुआ नसरुद्दीन नसरुद्दीन का कु छ भी नहीं हुआ । तुम्हारे लाभ में एक पैसा कम देना पडेगा । नसरुद्दीन के लिए तो प्रयोजन दस पैसे से ।
उसने कहा कु छ भी नहीं हुआ । तुम्हारे लाभ है । एक पैसा कम देना पडेगा । नौ को ही पार करवा पाए वो जो एक आदमी का मर जाना है, खो
जाना है वो नसरुद्दीन का के प्रयोजन में नहीं, एक पैसा प्रयोजन में । डॉक्टर अक्सर एक दूसरे से कहते सुने जाते हैं । मरीज तो मर गया और हाँ
परेशां । बडा सफल हुआ । हाँ परेश इनकी सफलता अलग ही बात है । उसका मरीज के जिंदा रहने, मर जाने से कोई सवाल नहीं फॅ स डॉक्टर के
लिए मरीज गौर है । हाँ एक कु सल था, बात ही अलग है । अंग्रेज था ऍम बडा सचिन था । लंदन के बडे से बडे सर्जन में सुधार फिर पीछे वो
गुरजीत कामयाबी हो गया । सब साधना में लग गए । उसने अपने संस्मरणों में कहीं कहा है की पहली दफा ऐसा मरीज आया जिसके बाबत सर्जरी को
कु छ भी पता नहीं था । मैं ही पहला आदमी था । उसका ऑपरेशन करने वाला मरीज तो मर गया लेकिन हाँ परेशां बिल्कु ल सफल और जो शब्द मेरे मुँह
से निकले थे पहली दफा जब मैं उसके पेट को चीर फाड करके बीमारी की ग्रंथि को बाहर निकाल लिया । वो जो बीमारी की ग्रंथि उसको देखकर जो
मेरे मुँह से शब्द निकले थे वो थे पहले ब्यूटीफल सुंदर मैं ही पहला आदमी था । उस ग्रंथि को देखने वाला मनुष्यजाति और वह अनुभव अनूठा । वो जो
मरीज मरा पडा है टेबल पर वो ठीक वैसे है जैसा मुल्ला नसरुद्दीन का अंदर डू ब गए । एक पैसा कम देना पडेगा । हमारे प्रयोजन ही हमारे अर्थ बन जाते
हैं । अगर आंधी जोर से चल रही है तो आप आंधी को नहीं देखते । आप अगर एक दिया जला के बैठे हैं तो आपको ये हो जाती है कि ये दिया
बुझना चाहिए । अगर आकाश में बादल गिरे है तो और अपने कपडे आप बाहर सूखने तंग आए हैं तो बादल नहीं दिखाई पडते रस्सी पे टंगे हुए कपडे
दिखाई पडते हैं की कहीं वो भीगना घर चले आ रहे हैं । वर्षा की बूंदें गिरने लगी तो आपको वर्षा की बूंद नहीं दिखाई पडती कपडे की सब कुँ आ रही
है वही दिखाई एक पैसा कम देना पडेगा । हमारे प्रयोजन ही हमारे अनुभव बनते हैं । इतनी महान घटना घट रही है कि वर्ष सारा आकाश आप पर बूंदें
बरसा रहा है उससे कोई लेना देना नहीं वो कहीं पता ही नहीं चलता । आदमी भागने लगता है की कपडे ना बिक जाए कपडे दिख भी जायेंगे तो कितना
महंगा है ये करते हम देखते हैं वही जो हमारे छु द्र स्वार्थों से बंदा है । इसलिए प्रकृ ति का जो विराट निहित अर्थ है जो रस है जो संके त है, जो संदर्भ
है वो सब खो जाता है । हम सब अपने आस पास एक दुनिया बना के जीते अपने संदर्भ उसमें सभी कु छ हमारे हिसाब से होता है । खाली जिब्रान ने
कहानी लिखी है । एक रात ऍम में बहुत से लोग आए । बहुत उन्होंने खाया क्या बहुत आनंदित हुए । रात आधी रात हो गई । जब वे विदा होने लगे
तो होटल के मालिक ने अपनी पत्नी से कहा कि ऐसे मेहमान रो जाए तो हमारे भाग्य जिसने पैसे चुकाए थे । उसने कहा कि दुआ करो परमात्मा से
हमारा धंधा ठीक से चले तो हम रोज आये । उसने तो हम दुआ करेंगे लेकिन अचानक उसे ख्याल आया पूछा लेकिन तुम्हारा धंधा किया है । उसने कहा
मरघट पर लकडी बेचने का काम करते, दुआ करो हमारा धंधा ठीक चले तो हम रोज आएंगे । धंधा ठीक कभी चल सकता है । जब बस्ती में रोज लोग
मारे, वो लकडी बेचने का काम है मरघट पर लेकिन सभी धंधे ऐसे कोई मरघट पर बेचने वाला धंधा ही ऐसा है, ऐसा मत सोचना । सभी धंधे ऐसे
लेकिन अपना अपना धंधा है । अपना अपना स्वार्थ है । उसी के भीतर हम जीते हैं । इसलिए वो जो प्रकृ ति की स्वल्प भाषा है, अति मृदु मोल जस्ट
जरा सा छू ती है और गुजर जाती है । उस से हम वंचित रह जाते हैं । उस संवेदनशीलता के लिए हमारा जो स्वार्थ का घेरा है वो टू ट जाए और हम
विराट अनंत का जो प्रयोजन है उसके साथ तादात्म्य हो तो ही हम समझ पाएंगे से कहता है जब निसर्ग का स्वर भी वीर जी भी नहीं तो मनुष्य के
स्वर का क्या पूछना? वो कहता है जब निसर्ग भी बोलता है और इतना इतनी परम ऊर्जा और इतनी स्वल्प भाषा तो मनुष्य के संदेश का क्या? इसलिए
नाव सेंस जो सूत्र लिखे हैं वेाट इस अंक शिप है, संक्षिप्त कम है और इसी कारण से की किताब समझी नहीं जा सके । लव की किताब अभी भी
अनसुलझी पडी है । लोग उसे पढ भी लेते हैं तो घंटे भर में पढ सकते हैं । आधा घंटे में पढ सकते हैं छोटी सी तो किताब ऐसा जितनी देर अखबार
पढते हैं सुबह तो उतनी देर में पढके फें कते क्यों स्वल्प है इतना छोटा छोटा क्यों इतने अन खुले और रहस्यपूर्ण वचन क्यों से कहता है । इसलिए संक्षिप्त
में जो मुझे कहना है वो इतना है इसलिए ऐसा कहा जा सकता है । इन तीन वचनों में लाओ से की पूरी किताब का सार तावों का जो करता है
अनुगमन होता वो के साथ एक हो जाता है । आचार सूत्रों पर चलता है जो वो आचार सूत्रों के साथ एक आप हो जाता है और जो करता है पर क्या
आप ताओं का वो ताओ के अभाव से एक आप हो जाता है जो ताव से एकात्म है । ताओ भी उसका स्वागत करने में प्रसन्न है । जो नीति से है एक
नीति उसका स्वागत करने में और जो ताव के प्रत्याक्ष से एक होता है ना वो का आभाव भी उसका स्वागत करता है । ये बडी अनूठी बात और एकदम
से ख्याल में ना ऐसी बात इसके बडे अंतर नहीं दो तीन आयाम से हम समझने की कोशिश करेंगे । पहला लव से कहता है तुम जिसका करोगे अनुगमन
वैसे ही हो जाओगे । तुम चलोगे जिसके पीछे उसकी ही छाया बन जाओगे तुम भाव से जिसके साथ जो लोगे अपने को वही हो जाओगे अगर तुमने पदार्थ
के साथ जोड लिया अपने को भाव से तो तुम पदार्थ हो जाओगे । हम सब पदार्थ हो गए क्योंकि पदार्थ के अतिरिक्त हम और किसी का अनुगमन नहीं
करते । कोई मकान का अनुगमन करता है, कोई कार का, कोई धन का, कोई पद का, पदार्थ का हम अनुगमन करते हैं, हम सब अनुयायी है,
पदार्थ के दिखाई नहीं पडता । ऐसा कोई दिखाई पडता है । महावीर अन्याय कोई बुद्ध का कोई कृ ष्ण का लेकिन ये सब ऊपरी बकवास है । भीतर आदमी
को हम खोजने जाए तो सब पदार्थ के अनुगामी वो जो महावीर अनुगामी है वो भी रुपए के पीछे जा रहा है । वो जो बुद्ध का वो भी रुपए के पीछे जा
रहा है वो जो ऍफ का वो भी रुपए के पीछे चीन का सम्राट खाना है आपने महल पर और उसके साथ खडा है सोंग लव से कासिफ और चाँद समझा
पूछता है इतने जहाज आ रहे पानी कोई पूरब से कोई पश्चिम से कोई पूरब जा रहा है पश्चिम कोई दक्षिण कोई उत्तर कितनी दिशाओं से कितने जहाज
आ जा रहे चांग कै से कहता है महाराज देखने के भ्रम में मत पडे । ये सब जहाज एक ही दिशा से आते हैं और एक ही दिशा हो जाते सम्राट का क्या
कहते हो? चौंकसी ने का रुपये के लिए आते और रुपये के लिए जाते हैं बाकी सब दिशाएँ बाकी सब दिशाएं ऊपरी है । उनका कोई बहुत मूल्य नहीं जो
जा रहा है वो भी जो आ रहा है वो भी अगर हम लोगों के धर्मों के नीचे देखें तो धन का धर्म मिलेगा । सब भेद हिंदू और मुसलमान और इसाई के
टू ट जाते हैं । वहाँ बाकी सब भेद ऊपरी और जब तक ये भीतरी धर्म नहीं बदलता है तब तक जीवन नहीं बदलता कोई सही हो जाये हिंदू हो जाये
मुसलमान हो जाये उससे कोई फर्क नहीं पडता वो जो भीतरी धर्म है वो जो एक दिशा में संसार चलता पदार्थ की दिशा में लाओ से कहता है जिसका
करोगे अनुगमन वैसे हो जाओगे । तीन सूत्रों उसने दिए ताओ का जो अनुगमन करेगा मूल् ऊर्जा का, प्रकृ ति का, निसर्ग का स्वभाव का वो सृष्टं अनुगमन
है और वो श्रृष्टि व्यक्ति की संभावना जो अपने स्वभाव के साथ चलेगा । चाहे कु छ भी अडचन झेलनी पडे चाहे कु छ भी परिणाम हो, चाहे कोई भी फल
आए जो अपनी अपने स्वभाव के अनुकू ल चलेगा । जिससे कृ ष्ण ने कहा है स्वधर्म वही है गाँव । श्रीकृ ष्ण ने कहा है कि परधर्म भयाभय स्वधर्मे निधनं
श्रेया अपने स्वभाव में मर जाना श्रेयस्कर है बजाय दूसरे के सभाओं जीकर जी ना उससे अपने में मर जाना । लेकिन अक्सर लोग समझते हैं कि शायद
ये कहा है कि हिन्दू धर्म में पैदा हुए तो हिन्दू धर्म में ही मर जाना श्रेयस्कर मुस्लमान धर्म में पैदा हुए तो मुस्लमान धर्म में मर जाना प्रयास नहीं स्व
और पर का इन से कोई संबंध नहीं । स्वधर्म का अर्थ है पाव स्वधर्म का अर्थ है मेरा निज स्वभाव । उसके लिए चाहे कु छ भी हो, चाहे मारना पडे तो
उसका ही अनुगमन करूँ क्योंकि वही मुझे अमृत की तरफ ले जायेगा । जो करता है अनुगमन ताओ का वो ताव के साथ एक हो जाता है । जो अपनी
निजी प्रकृ ति का अनुगमन करता है । वो इस महा प्रकृ ति के साथ एक हो जाता है । प्रकृ ति का अनुगमन प्रकृ ति के साथ तादात में करवा देता है । ये
सृष्टं अनुगमन है अपना ही अनुगमन, अपने ही पीछे चलना । अपने ही स्वभाव की लकीर को पकडकर सब दांव पर लगा देना दूसरा उससे नीचे का सूत्र
आचार
सूत्रों पर जो चलता है वो उनके साथ एक आप हो जाता है । महावीर चलते है स्वधर्म पर कृ ष्ण चलते है स्वधर्म पर बुद्ध से चलते हैं स्वधर्म लेकिन
बुद्ध का अनुयायी बुद्ध के वचन पर चलता है वो आचार सूत्र कम होगा । मैंने बुद्ध चलते हैं स्वभाव पर अपना ही स्वभाव बुद्ध को जो मानकर चलता है
उसके लिए दो संभावनाएं अगर वो सच में बुद्ध को मान कर चले तो उसे भी अपने स्वभाव पर चलना चाहिए । अगर वो ना समझ पाए और बुद्ध से
मोहित हो जाए और बुद्ध की बात उसे अच्छी लगे । लेकिन इस रहस्य को ना समझ पाए कि जैसा बुद्ध चलते हैं अपने स्वभाव पर । ऐसे ही मैं भी
चलूँगा अपने स्वभाव पर यही असली रहस्य समझने का । तो फिर बुद्ध जैसा चलते हैं वैसा मैं चलूँ, ये दूसरा परिणाम होगा । ये विकृ ति है तो बुद्ध जैसा
उठते हैं । वैसा मैं उठूँ बुद्ध जैसा बैठते हैं, वैसा मैं बैठूं । बुद्ध जो खाते हैं वो मैं खाऊं । बुद्ध जो पीते हैं वो मैं क्यूँ बुद्ध जैसा करते हैं, जो करते
हैं कोई अनुगमन करेगा । लाओ से कहता है आचार सूत्रों का करने वाला आचार सूत्रों के साथ एक हो जायेगा । लेकिन ऐसा व्यक्ति एक छाया मात्र होगा
। ऐसे व्यक्ति के पास आत्मा नहीं होगी, सिर्फ छाया होगी । आत्मा तो उसके पास होगी जो स्वयं का मन करेगा और बडे शिक्षक जो है उनकी सारी
चेष्ठा यह है कि तुम अपना अनुगमन करो । लेकिन उनकी यह बात हमें इतनी प्रीतिकर लगती है और हम ऐसे सम्मोहित हो जाते हैं । हम कहते हैं कि
ठीक है जिस भी है बात आपकी हम आपका अनुगमन करेंगे । यहाँ बडी फासला है । उस बारीक फासले में सारा सारा उपद्रव हो जाएगा । बुद्ध आनंद
को कहते हैं तू मुझे छोड दे, मैं ही तेरे लिए बाधा हूँ । बुद्ध मर रहे आनंद छाती पीट के रोने लगता है । बुद्ध कहते हैं कि आनंद तू क्यों होता है?
आनंद कहता आपके रहते भी मैं ज्ञान को उपलब्ध ना हो सका । अब आपके जाने पर कै से उपलब्ध हो सकूँ । बुद्ध कहते हैं, मुझ से पहले जब मैं
नहीं था तब भी लोग ज्ञान को उत्पन्न हुए ज्ञान को उपलब्ध हुए । मैं खुद ही अज्ञानी था । मैं भी बिना किसी बुद्ध के ज्ञान को उपलब्ध हुआ । मैं नहीं
रहूँगा । पानी तो सोचता है जगत में फिर कोई ज्ञान को उपलब्ध नहीं होगा । सच तो है ये आनंद की तू आनंद बना क्योंकि अब मैं रहूँगा तो शायद तू
अपना अनुसरण कर सके । मेरे रहते तो अपना अनुशरण नहीं कर पाया । मरते क्षण के आखिरी शब्द जो है बुद्ध के तो पहले सूत्र के शब्द है अब दीपो
भव अपने लिए स्वयं दीपक बन जाओ । दूसरे को दिया मत मानो दिया तुम्हारे भीतर है । तुम अपने ही दीपक बन जाओ । लेकिन बुद्ध की ये बात
इतनी प्रीतिकर लगती है कि हम बुद्ध को दिया बनाने की गलती कर सकते हैं और उस गलती में हम छाया रह जाएंगे । फिर हम अनुगमन करते रहेंगे ।
लेकिन हमारा जो एकात्म है वो महा प्रकृ ति से नहीं होगा । वो महा प्रकृ ति को जिन्होंने अनुभव किया है उनके आचरण से होगा, उसमें हम छाया वट हो
जाएंगे । इसलिए वास्तविक अनुयायी वही करता है जो उसके गुरु ने अपने साथ क्या झूठा अनुयायी वही करता है जो अनुयायी को दिखाई पडता है कि
गुरु करता है । इन दोनों में फर्क है । इन दोनों में बुनियादी फर्क है । गुरु ने क्या किया वही करता है वास्तविक अन्याय गुरु क्या करता दिखाई पडता
है । अनुयायियों को झूठा अनुयायी वही करने लगता है तब नकल ऊपरी हो जाती है । अब तक अनुयायी एक कार्बन काफी हो जाता है फिर मूल प्रति
को खोजना असंभव है क्योंकि जिसने करबन काफी को समझ लिया की ये मूल हो गया तो से कहता है खतरा यह है प्रकृ ति का जीवन के परम नियम
का खतरा यह है कि तुम आचार सूत्रों के साथ एक हो जाओगे और तुम्हें पता ही नहीं चलेगा की तुमने छाया के साथ अपने को एक मान लिया । ये
एकात्म इतना हो जाएगा कि तुम समझोगे, मैं छाया हूँ । बुद्ध के बहुत बडे अनुयायी बोधिधर्म ने कहा है तो इस से पूछता है बुद्ध का नाम सुबह लेना
चाहिए या नहीं । बोधिधर्म ने कहा है जब भी बुद्ध का नाम लो तो खुल्ला करके मुँह भी कर लेना क्यों? उस आदमी ने कहा क्या कहते हैं आप बुद्ध का
पवित्र नाम उसको लेने पर खुला करके मुझे करना पडेगा । बोधिधर्म ने कहा होगा नाम पवित्रा लेकिन तुम साफ कर लेना और रास्ते में तुम्हें कभी अगर
बुद्ध मिल ही जाए तो उस रास्ते से ऐसे भागना की लौट के मत दे । न्याय तो बहुत घबरा गया । बोधिधर्मन का घबराओ मत, ये तो कु छ भी नहीं है
। अब मैं तुम्हें असली बात बता देता हूँ । जब बुद्ध के साथ मेरा भीतरी सस्ता चलता था, तब अखिर में वो हालत आई की मुझे बुद्ध को एक तलवार
से काट के टुकडे टुकडे करना पडा । तभी मैं अपने को उपलब्ध हो सका और बौद्ध धर्म के पीछे बुद्ध की प्रतिमा रखी और आज सुबह भी बौद्ध धर्म में
बुद्धू कु छ चरणों में नमस्कार क्या और आज सांझ फिर वो दिया जलाया और सुनवाई ने कहा और ये क्या हो रहा है? फू ल सुबह तुमने जो चढाए थे
अभी कु म्हलाए भी नहीं और जानता हूँ । रोज मैं देखता हूँ कि शान तुम दिया भी चलाओगे बौडी करने का । इसीलिए बुद्ध ने खुद ही समझाया था कि
तुम मुझे भी जब दोगे तभी तुम अपने को पा सकोगे वो मेरे गुरु ये जरा जटिल हो गई । गुरु को मानकर चलने का अर्थ ही यही है । एक दिन गुरु
व्यर्थ हो जाए, लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि अनुग्रह छू ट जाता है । बोधिधर्म जीवन भर अनुग्रह से भरा बुद्धू को मारे तो कई सौ साल हो गए और
बौद्ध धर्म अभी दिया चला रहा है और अभी फु ल चल रहा है । और ये भी कहने की हिम्मत रखता है कि मिले बुद्ध रास्ते में तो टुकडे टुकडे कर देना
। ये पर्व अन्यायी ये आचार सूत्रों का अनुसरण नहीं कर रहा है । नहीं तो प्राण कब जाएंगे ये कहने में हिम्मत नहीं जुटेगी । ये बुद्ध का ठीक ठीक जो
भाव है अब तो दीपों भाव का वही कर रहा है । और इसलिए अनुग्रहीत भी है । लेकिन ये अनुग्रह हमारा अनुग्रह नहीं । हमारा अनुग्रह याचना से भरा
अनुग्रह हम डरेंगे ये कहने में कि बुद्ध का नाम लो तो मुँह खुल कर लेना तो कहीं ना रचना हो जाए । जो नाराज हो जाते हैं वो बुद्ध नहीं है और जो
डरता है इतना कि कहीं नाराज हो जाये उसके संबंध अभी प्रेम के नहीं, उसके संबंध भी लेन देन के , अभी भय के और जो घबराता है इतना कि बुद्ध
के साथ लड सके अभी बुद्ध के बहुत पास नहीं आया ये बुद्ध की परंपरा में । फिर बुद्ध की परंपरा में ये संभव हो सका कि बुद्ध को रोज चरणों में
सिर्फ रखने वाला भी बुद्ध को कह सकता है कि हटा दो तो दो ये मूर्ति ये बडी आत्मीयता का परिणाम है ये । पहले सूत्र की आत्मीयता का परिणाम
अधिकतर धर्म के अनुयायी दूसरे सूत्र के आस पास चलते हैं । आचरण का जिसने अनुगमन किया वो आचरण के साथ एक हो जाएगा । यही खतरा है ।
फिर उसे पता भी नहीं चलेगा, उसको लगेगा ये मैं ही कर रहा हूँ । आचरण इतना सघन हो जायेगा तो उससे लगेगा । ये मैं ही कर रहा हूँ । आप
बुद्ध के जैसा चलना सीख ले, अभ्यास घना हो जाए । अंतिम परिणाम ये होगा कि आपको लगेगा मैं ही चल रहा हूँ और आप नहीं चल रहे हैं । ये
अभिनय आप बुद्ध की तरह मूर्तिवत बन के बैठ जाएं । तनखा के पास लोग आते और वो कहते हैं हमें ध्यान करना है और हमें बुद्ध जैसा हो जाना है
। तो तन्खा कहता भाग जाओ यहाँ से क्योंकि मेरे मंदिर में एक हजार बुद्ध पत्थर के पहले से ही बैठे हुए हैं, वो एक हजार मंदिर बुद्धू वाले मंदिर का
पुजारी था । चीन में एक मंदिर है एक हजार बुद्ध की मूर्तियों वाला वो उसका पुजारी था । वो कहता भाग जाओ और जगह भी मत करो । एक हजार
वैसे ही पालथी मारे बैठे हुए और तुम बाल्टी मार के बैठ जाओगे । तो यहाँ जगह कहाँ है? आप बिलकु ल पालकी मार के आँख बंद करके बुद्ध बन के
बैठ सकते हैं । कई साधु सन्यासी फोटो उतरवाते वक्त बैठ जाते हैं । बिल्कु ल मुख्यमंत्री बुद्ध वक्त लेकिन बुद्ध वट होना बुद्ध होना नहीं वो सिर्फ आवरण
झूठा भीतर उबल रहा है । आंधियां चल रही हैं । भीतर सब उपद्रव मौजूद है । आचरण के सूत्र का खतरा यही है कि कोई ठीक से पालन करें तो भूल
ही जाएगा कि जो मेरे हाथ में है वो नकली प्रति वो वास्तविक नहीं । वो के वल छाया प्रतिबिंबित और जो ताव का परित्याग करता है । मजे की बात
तीसरे आखरी कि जो स्वधर्म को बिलकु ल ही छोड देता है ना स्वधर्म की दृष्टि से, ना आचार कि सब दृष्टियों से छोड देता है । जो ताव का परित्याग
करता है वो भी परित्याग के साथ एकात्म हो जाता है । लाल का ये सूत्र बहुत गहरा है । वो कहता है ये प्रकृ ति इतनी उदार है कि अगर तुम इसके
विपरीत भी चले जाते हो तो भी तुम्हें बाधा नहीं देती । अगर तुम परमात्मा की तरफ पीठ भी कर लेते हो तो परमात्मा उसमें भी तुम्हारी सहायता करता
है । साधारण धार्मिक आदमी को लगेगा ये तो बात ठीक नहीं । परमात्मा को रोकना चाहिए कि तुम क्यों गलत जा रहे हो । बाप अगर बेटा गलत जाने
लगे, रोकता है अगर परमात्मा के मन में गया है तो उससे कहना चाहिए पीठ पीठ मत करो, मेरी तरफ लौटो । किसी का आचरण खोने लगे तो
आचरण पर लाना चाहिए । लाओ शिष्य की दृष्टि स्वभाव परमात्मा की तरफ हमसे बहुत गहन है । हमारी तो उपयोगिता की दृष्टि है । लाओ से कहता है
ताऊ है परम स्वतंत्रता । इसलिए अगर तुम उसके विपरीत भी जाओ तो तुम उसी के साथ एक आप हो जाओगे । जो आदमी कहता है, इस पर नहीं
है, इस पर उसे भी बाधा नहीं देगा । वो आदमी नास्तिकता से एकात्म हो जाए । बडी खतरनाक बात है बडी महान, बडी, खतरनाक बडे दायित्व की
। क्योंकि इतनी परम स्वतंत्रता का हम दुरुपयोग कर रहे हैं जो आदमी कहता है मैं ईश्वर को नहीं मानता और जब तक इस पर मुझे मिल जाए, मिलना
जाए तब तक मैं मानूँगा नहीं वो आदमी जन्मों जन्मों तक भी ईश्वर से ना मिल पाएगा क्योंकि ईश्वर से मिलने का जो द्वार था उसकी तरफ पीठ करके
पहले से खडा हो गया और ईश्वर इतनी भी बाधा नहीं देता कि जबरदस्ती करे और सामने आके खडा हो जाए । अस्तित्व इतना उदार है इतना परम
उदार है कि तुम जो भी होना चाहो हो सकते हो, तुम अस्तित्व के विपरीत जाना चाहो विपरीत जा सकते हो तो भी कोई बाधा नहीं होगी । अगर बुराई
की स्वतंत्रता ना हो तो भलाई फिर एक मजबूरी हो जाएगी और अगर नर्क जाने की स्वतंत्र ना हो तो स्वर्ग जाना एक जबरदस्ती हो जाएगी और नरक के
द्वार पर अगर बहुत मुश्किल हो भीतर घुसने दिया जाता हो तो स्वर्ग के द्वार पर प्रवेश करने में मन बडी गिलानी अनुभव करेगा क्योंकि जबरदस्ती मिला
हुआ स्वर्ग भी नर्क जैसा हो जाता है और अपनी मौत से जो नर्क को चुनता है तो वो नरक भी स्वर्ग हो जाता है । असल में स्वतंत्रता ही स्वर्ग है ।
उससे कहता है कि जो ताव का परित्याग करता है वो ताव के अभाव से एक आत्म हो जाता है । इससे भी बडी मजे की बात आगे खता जो ताव से
एक आत्महित था, उसका स्वागत करने में पसंद है । जो नीति से एकात्म है । नीति उसका स्वागत करने में पसंद है, जो तावों के परित्याग से एक हो
गया । ताव का अभाव भी उसका स्वागत करने में प्रसन्न । ये बहुत अद्भुत बात ये लाओ से ये कह रहा है कि इस जगत में तुम कु छ भी करो, ये
जगत हर हालत में तुमसे प्रसन्न हो । हर हालत में हम कं डिशनल कोई शर्त नहीं है कि तुम ऐसा करो तो अस्तित्व प्रसन्न होगा और तुम ऐसा नहीं करोगे
तो अस्तित्व नाराज हो जाए । अस्तित्व हर हालत में पसंद है । तुम जो करो अस्तित्व तुम्हें उसी तरफ बहाने के लिए सारी शक्ति देने को तैयार है ।
तुम अस्तित्व के ही विपरीत चलो तो भी अस्तित्व तुम्हें अपनी ऊर्जा देने को तैयार । प्रसन्नता से कहीं कोई खिन्नता नहीं । इस लिहाज से लाव से अनेक
धर्म गुरुओं से बहुत गहरे उठता है । बहुत ऊपर उठ जाता है । क्या गरम और धर्म की बातों को समझे तो ऐसा लगता है कि इस पर की शर्तें ऐसा
लगता है कि तुम अगर अच्छा कर्म करोगे तो इस पर प्रसन्न होगा । बुरा कर्म करोगे तो इस पर अप्रसन्न होगा । लेकिन गाँव से कहेगा बेहूदी बात है ।
ईश्वर भी अप्रसन्न हो सके तो तुम्हें और ईश्वर में कोई भेद ना रहा और अगर ईश्वर भी शर्त रखता हो कि ये सर तुम पूरी करोगे तो मैं राजी और ये
सर तुम पूरी नहीं करोगे तो मैं नाराजी तो फिर इस चीज पर और हमारे बीच लेनदेन शुरू हो गए
। मुँह की खानी इस अर्थ में बडी महत्वपूर्ण है और इसीलिए इसाईयत अब तक उस कहानी को नहीं समझ पाए और समझ नहीं पाएगी क्योंकि लाओत्से
के बिना उस कहानी को समझना एकदम असंभव । कु छ ऐसा मजा है कि महावीर को समझना हो तो बहुत दफा महावीर को सीधा समझने वाला नहीं
समझ पाता । कभी कोई सूत्र से मिलेगा जो महावीर को खोलता है । कभी कोई सूत्र जिससे मिलेगा जो महावीर को खोलता है, कभी महावीर में कोई
सूत्र मिलेगा जो जिस इसकी कहानी को एकदम प्रकाशित कर देता है । असल में जीसस मोहम्मद कृ ष्णा से इस तरह के लोग उस परमात्मा की एक झलक
देते हैं । वो झलक हमेशा अधूरी होगी क्योंकि परमात्मा विराट है । लाओ से जैसा व्यक्ति भी उसकी झलक देगा तो वो एक झलक की होगी । वो झलक
अधूरी होगी । कभी किसी दूसरे की झलक उसको पूरा कर जाते हैं । कभी किसी दुसरे की झलक में उसका अधूरापन पहली दफा पूरा होकर दिखाई पडने
लगी जिससे उसकी कहानी है जो इसाइयों के लिए कठिनाई का कारण रही और जो अब तक भी उसको समझा नहीं पाए और बिना इस सूत्र के कभी
सुलझा भी नहीं पाएंगे । लेकिन धार्मिक लोग, धर्मों से बंधे लोग एक दूसरे की तरफ से कु छ भी सहायता लेने को तैयार नहीं होती । जीसस को मानने
वाला ये तो मानने को तैयार होगा ही नहीं । लाॅ जीसस होंगे वो ये मानने की कोशिश जरूर करेगा कि लाओ से और जीसस में दुश्मनी दोस्ती तो मानने
को तैयार नहीं हो सकता क्योंकि दुश्मनी पर संप्रदाय खडे होते हैं । दोस्ती पर तो संप्रदाय गिर जाएंगे, दुश्मनी पे चर्च खडे होते हैं । दोस्ती पर चर्चों का
कोई उपाय नहीं रहेगा । एक चर्च का दरवाजा दूसरे मंदिर में खुल जाए, बहुत कठिनाई हो जाएगा । जीसस ने कहानी कही है । एक गणपति ने अपने
अंगूर के बगीचे में काम करने मजदूरों को बुलाया । सुबह बहुत मजदूर आए लेकिन मजदूर कम थे । धनपति ने और लोगों को बाजार भेजा और दोपहर भी
मजदूर आए लेकिन फिर भी मजदूर कम थे । धनपति ने और लोगों को बाजार भेजा । कु छ लोग सांझ ढलते ढलते आए लेकिन तब सूरज ढलने के करीब
आ गया । कु छ तो अभी अभी आए थे । उन्होंने हाथ में सामान भी ना लिया था काम करने का । और कु छ सुबह जब सूरज उभरा था तब आए थे
और दिनभर पसीने से तरबतर हो गए थे और थक गए । फिर धनपति ने सभी को इकट्ठा किया और सभी को बराबर पुरस्कार दे दिया । जो सुबह आए
थे वो चिल्लाने लगे कि अन्याय हम सुबह से मेहनत कर रहे हैं । हमें भी उतना उतना ही जो दोपहर आए थे । आधे दिन जिन्होंने काम किया, उन्हें भी
उतना ही और जो अभी अभी आए हैं । जिन्होंने कोई काम नहीं किया, उन्हें भी उतना ही उस धनपति ने कहा । दूसरी तरह से सोचो तुमने जितना
काम किया उतना तुम्हें मिल गया या नहीं । तुमने जितना काम किया उससे तुम्हें ज्यादा मिल गया है । तुम दूसरों की चिंता छोडो उन्हें मैं उनके काम के
कारण नहीं देता । मेरे पास बहुत है इसलिए देता हूँ । मगर ये अन जस्टिफाई ये बात न्यायायुक्त नहीं । फिर भी सुबह के मजदूर दुखी लौटे । हालांकि
उन्हें काफी दिया था और अगर ये दो वर्ग के मजदूर ना आए होते दिन में तुम्हें बडे खुश लौट उन्हें बहुत मिला था । लेकिन अब तुलना खडी हो गई ।
अब जो मिला था उसका सवाल नहीं था । दूसरों को भी जो मिल गया था वो कठिनाई में डाल रहा था । थोडा सोचे कि संत भी खडे हो परमात्मा के
सामने और शराबी भी वहीं पहुंच गए । परमात्मा दोनों को बराबर बांट दे । संतोकी कै सी गति होगी, प्राण निकल जायेंगे । मर गए, लुट गए । अगर संतों
को पता चलेगी, पापी भी स्वर्ग में प्रवेश पा रहे हैं, उसी मौत से स्वर्ग का द्वार उनके लिए भी खुलता है । बैंडबाजे बचते हैं जैसा इनके लिए स्वर्ग
बिल्कु ल नर्क हो जाएगा । ये कहानी बडी खतरनाक लेकिन अगर कहीं कोई परमात्मा है तो मैं आपसे कहता हूँ के द्वार सभी के लिए एक जैसा खुलता है
और जब पाती भी आता है तो परमात्मा प्रसन्न होता है कि आ गए । जिसने और कहानी कही उसने कहा है बाप के दो बेटे थे । बडा बेटा आज्ञाकारी
था । छोटा बेटा आज्ञाकारी नहीं था । हाँ, बुरा हो गया । दोनों बेटों में कलह थी और दोनों को अलग करने की मजबूरी आ गई । संपत्ति बांट दी गई
। छोटा बेटा सारी संपत्ति को लेकर शहर चला गया क्योंकि गाँव में संपत्ति होगी तो उसका कोई उपयोग नहीं । गाँव में अमीर आदमी भी गरीब है । शहर
में गरीब आदमी भी अमीर हो जाता है, कु छ कर सकता है । छोटा शहर चला गया । पाँच सात साल उसकी कोई खबर नहीं आई । फिर अचानक खबर
आई । उसने सब बर्बाद कर दिया और वो भिखारी हो गया और सडकों पर भीख मांग रहा है । बडे बेटे ने इन पाँच सात वर्षों में जितनी संपत्ति उसे
मिली थी उससे पाँच सात गुनी कर दी । बडी मेहनत उठाई । व्यवसाय क्या? खेती बाडी की बगीचे लगाए, धन बढता चला गया । लेकिन बाप कोई
खबर मिली । उसका बेटा भिखारी हो गया । उसने संदेश वाहक भेजे अभी मैं जिंदा हूं । भिखारी होने की कोई जरुरत नहीं । तुम वापस आ जाओ ।
फिर एक दिन सांस खबर आई कि बेटा वापस लौट रहा है । तब आप के पास जो सबसे सबसे तगडी भी थी उसने कहा कि आज काटी जाएँ और
बोझ की तैयारी और जो सबसे पुरानी शराब थी तहखाने में वो निकली जाए और आज बोझ की तैयारी हो । मेरा छोटा बेटा वापस लौट रहे गाँव भर को
उत्सव में बुला लिया जाए । गाँव भर को भोज का निमंत्रण दे दिया जाए । आज की रात उत्सव की रात होगी । गाँव घर में खबर फै ल गई । उत्सव
का निमंत्रण पहुँच गया । बडा बेटा सांझ को खेल से थका मांदा लौट रहा था । पसीने की धारा उसके मुँह पे सुख गई थी । तब गाँव उत्सव होते देखा
। उसने लोगों से पूछा कि क्या बात? उन्होंने कहा अरे तुम्हें पता नहीं तुम्हारा छोटा भाई वापस लौट रहा है । तुम्हारे पिता ने उसके स्वागत का भोज
का आयोजन किया है । उसकी छाती पर पत्थर पड गया । उसने कहा कि मैं सात साल से अपने को जला रहा हूँ । इस बुड्ढे की सेवा कर रहा हूँ ।
धन इकट्ठा कर रहा हूँ और वो पुत्र सुपुत्र सब बर्बाद करके भिखमंगा होकर वापस लौट रहा है । उसकी स्वागत की तैयारी बडा बेटा नाराज कर लौटा ।
उसने अपने बाप को कहा कि ये अन्याय ऐसा मेरा कभी स्वागत नहीं हुआ । बाप ने कहा तुम मेरे पास थे सादा और जब एक गढ दिया रात सांझ को
घर लौटने लगता है । अपनी को लेकर उसके पास सौ भेडे हो और एक भी खो जाए तो निन्यानवे को वही अंधेरे में छोड वो खोई एक भी को खोजने
जंगल में चला जाता है और जो भेड खो गई है उसे कं धे पे रख के लौटते हैं । क्या तुम कहोगे निन्यानवे भेजे आवाज उठाएंगे, अन्याय हो रहा है हम
सदा तुम्हारे साथ हमें कभी कं धे पर नहीं हो और हम सदा तुम्हारे साथ और तुम कभी इतनी चिंता और व्यग्रता से ना भरे और हमें खोजने ना आए और
खोई हुई भेज को आवारा भेज को भाग गई भेज को क्योंकि भेज भागती ही तब है जब आवारा हो नहीं तो भेज भागती नहीं तो भीड में चलती है ।
शरारती हो, बगावती हो तो ही भागती है कोई भटकती नहीं तो भटकने का कोई सवाल नहीं । तो उस बात ने कहा कि वो लौट रहा है वो आवारा
भेज भटक गई । भेज उसे मैं कं धे पर लेकर लौटूं इससे तुम दुखी मत हो, तुम्हारे लिए मेरा सब है । लेकिन बाप का हृदय बडा है और तुम पर चुप
नहीं जाता और जो मेरे पास अतिरिक्त है वो उसे भी देने दो । ये अन्यायपूर्ण बातें लेकिन परम न्याय के अनुकू ल लाश से कहता है कि तुम जो भी करो
ये प्रकृ ति प्रसंद । इसके आनंद में रत्तीभर कमी नहीं पडेगी । तुम चाहो ताव से एक हो जाओ तो प्रकृ ति प्रसन्न है । तुम चाहो आचार से हो जाओ तो
प्रकृ ति प्रसन्न है । तुम चाहो विपरीत चले जाओ । धर्म के तो प्रकृ ति प्रसन्न है, लेकिन एक बात ख्याल रखना ये सूत्र अधूरा लाओ, आधी बात नहीं कही
है । सूत्र में जानकर की जो उसे समझ लेंगे, वो उसे भी समझ लेंगे । वो स्वल्प भाषी दूसरी बात मैं आपको कह दूँ क्योंकि पक्का नहीं आप समझ पाएंगे
अगर आप गाओ के साथ एकात्म हो जाए तो ताव प्रसन्न आप भी प्रसन्न होंगे अगर आप आचार सूत्रों के साथ एक हो जाये । आचार सूत्र प्रसन्न है,
आप उतने प्रसन्न नहीं होंगे । और अगर आप गाँव के विपरीत चले जाए तो ताऊ की विपरीतता में भी ताव का आभाव पसंद है । लेकिन आप दुखी हो
जाएगी वो दूसरा हिस्सा है उससे कोई ताव का लेना देना नहीं । आपसे लेना और अपने दुःख को आप बताओ के ऊपर मत डालना तो आपके नरक में
जाने से भी पसंद है । लेकिन आप प्रसन्न हो सकोगे तो आप शराब, पीके नाली में पड गए हो तो भी पसंद है लेकिन आप प्रसन्न हो सकोगे । कहे तो
आप अपनी हत्या कर रहे हो तो भी प्रसन्न है लेकिन आप प्रसन्न हो सकोगे । आपकी प्रसन्नता तो एक ही स्थिति में पूर्ण हो सकती है । क्या आप
बताओ के साथ एकात्म हो जाएगा और इसलिए जो ताव के साथ एकात्म हो गया है उसको आप पसंद नहीं कर सकते । आप कु छ भी करो वो पसंद है
। आप कु छ भी करो वो प्रसन्न है । आप उसके विपरीत चले जाओ तो प्रसन्न है आप उसके अनुकू ल आ जाओ तो पसंद है लेकिन आप उसके प्रतिकू ल
जाके प्रसन्न ना हो सकोगे । आप की सीमाएं है आपकी से की ये बात ख्याल में रख के दूसरा हिस्सा भी ख्याल में रख लेना । जो स्वयं में श्रद्धावान
नहीं है उसे दूसरों की श्रद्धा भी नहीं मिल सके गी । लेकिन ये जो महा यात्रा है गांव के साथ एकात्म की ये शुरू होती है स्वयं श्रद्धा से जो स्वयं
श्रद्धावान नहीं उसे दूसरों की श्रद्धा भी नहीं मिल सके गी । हम सब श्रद्धा पाना चाहते हैं, आदर पाना चाहते हैं । दिनेश की फिक्र किए कि हमारी खुद
की स्वयं में कोई श्रद्धा नहीं । हम खुद के प्रति भी आदरपूर्ण नहीं । सच तो यह है कि हम जितने अनादरपूर्ण अपने प्रति होते हैं, किसी के प्रति नहीं
होता । अगर हम अपने से ही पूछे कि आपने बाबत क्या ख्याल है तो वो ख्याल अच्छे नहीं है । ये महायात्रा शुरू होती है अपने में श्रद्धा से क्योंकि जो
अपने में श्रद्धा करता है वही एक दिन अपने निजी स्वभाव के साथ एक होने की हिम्मत जुटा पाएगा । हम अपने में श्रद्धा नहीं करते और इसलिए हमने
एक तरकीब निकाली । अपने में श्रद्धा के अभाव को खटकने न देने के लिए हम दूसरों में श्रद्धा करते । कोई महावीर में कोई बुद्ध में कोई कृ ष्ण में श्रद्धा
करता है । कृ ष्णा जो इसलिए श्रद्धा करता है कि अपने में तो कोई श्रद्धा है नहीं चलो उनमें श्रद्धा रख के शायद कोई रास्ता बन जाए वो दूसरे सूत्र पर
पहुँच जाएगा । आचरण कानून मन करेगा जो इस कारण के अपने में ही जब श्रद्धा नहीं तो किसी पे श्रद्धा नहीं रखेगा । क्योंकि जब अपने में नहीं तो
किसी पे क्या रखनी है वो नास्तिक हो जाए, वो तीसरे सूत्र पर पहुँच जाए । जिसकी आपने में श्रद्धा है वो कृ ष्ण से भी सीख लेगा, लाओ से भी
सीख लेगा लेकिन अपनी श्रद्धा उसकी सघन होगी । शिक्षण से इस सत्संग से उसकी स्वाती श्रद्धा बढती जाएगी । वो अगर कृ ष्ण के चरणों में भी झुकता
है तो सिर्फ इसीलिए की कृ ष्ण उसके भविष्य के प्रति कल वो भी कृ ष्ण जैसा हो पाएगा । वो जो कल हो सकता है उसके चरणों में झुक है । बुद्ध से
कोई पूछता है कि लोग आपके चरणों में झुकते हैं, आप रोकते क्यों नहीं? बुद्ध कहते हैं अगर वो मेरे चरणों में झुके तो मैं उन्हें जरूर रोकता हूँ लेकिन
वे अपने ही भविष्य के चरणों में झुकते हैं । मैं तो के वल बहाना मुझे उन्हें अपना भविष्य दिखाई पडता है । कल वे भी बुद्ध हो सकते हैं तो इसलिए
झुकते इसलिए रोकने का कोई कारण नहीं । अपने में श्रद्धा अगर हो तो हम ताव के साथ एकात्म हो सकते हैं । अपने में श्रद्धा ना हो तो दो खतरे या
तो हम दूसरे में श्रद्धा करके सब्स्टिटू ट पालेंगे तब हम आचरण का अनुगमन करेंगे या हम अपने में श्रद्धा नहीं है इसलिए किसी में भी श्रद्धा नहीं करेंगे ।
तब हम ताऊ के विपरीत चले जाएंगे । ताव हर हाल प्रसन्न आप हर हाल पसंद नहीं हो सके इसलिए अपने दुःख को देखते रहना जितना ज्यादा हो दुख
आपका समझना की तीसरे सूत्र में पडे दुःख हो बहुत ज्यादा ना हो संतोष के लायक हो समझना दूसरे में पडे दुख बिल्कु ल ना हो संतोष की भी जरूरत
ना हो तो समझना की पहले के निकट आ गए । आज इतना ही पाँच मिनट के

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