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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

अनुक्रमणिका

प्रस्तावना ................................... 2
1. प्रततपदार्थमय जगत् ...................... 3
2. ग्रहमालाओ ं की तवतिन्ताएँ ........... 31
लेखक – परिचय ............................85

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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

प्रस्तावना
एक जीवात्मा को, प्रमख ु तः सभ्यजन को, शाश्वत सख ु में जीने की स्वािातवक इच्छा होती है। यह तिल्कुल नैसतगथक
है क्योंतक अपनी मौतलक दशा में प्राणीमात्र शाश्वत िी है औि सख ु ी िी। तिि िी वतथमान िद्धजीवन में वह िाि-िाि होने
वाले जन्म औि मृत्यु से जझू ने में व्यस्त है। इसीतलए उसने न तो सख ु ही प्राप्त तकया है औि न अमृतत्व।
अिी हाल ही में मानव में दसू िे ग्रहों में यात्रा किने की रुतच तवकतसत हुई है। यह िी पणू थतः स्वािातवक है क्योंतक
संवैधातनक रूप से उसे िौततक या आध्यातत्मक आकाश के तकसी िी िाग में जाने का अतधकाि हैं ऐसी यात्रा अत्यन्त
लिु ावनी औि उत्साहवधथक है क्योंतक यह आकाश तवतिन्न गणु ों से तमतित असीतमत ग्रहों से परिपणू थ है औि ये सि प्रकाि
के जीवधारियों द्वािा तनवातसत हैं। वहाँ यात्रा किने की इच्छा को योगाभ्यास द्वािा पणू थ तकया जा सकता है तजस साधन के
माध्यम से मनष्ु य अपनी इच्छा के अनसु ाि तकसी ग्रह में स्र्ानान्तरित हो सकता है-सम्िवतः उन ग्रहों में जहाँ जीवन मात्र
शाश्वत या सख ु द ही नहीं है तकन्तु जहाँ पि तवतिन्न प्रकाि के िोग्य पदार्थ िी उपलब्ध हैं। जो कोई िी आध्यातत्मक ग्रहों
का स्वातंत्र्य प्राप्त कि लेता है, उसे इस जन्म, मृत्य,ु जिा औि व्यातध से ग्रतसत दःु खद लोक में लौटने की िंचमात्र िी
आवश्यकता नहीं है।
कोई िी व्यति अपने वैयतिक प्रयास द्वािा इस पणू ाथवस्र्ा को िहुत सगु मता से प्राप्त कि सकता है। वह अपने घि
में ही िति योग के इस तनतदथष्ट उपाय का साधािणतः अनश ु ीलन कि सकता है। उतचत मागथ तनदेशन में, यह उपाय सिल व
आनन्ददायक है। यहाँ साधािण लोगों को औि तवतशष्टतः दाशथतनकों व धमाथचायों को यह सतू चत किने का प्रयास तकया गया
है तक योगों में सवथिेष्ठ ितियोग द्वािा कै से अपने को अन्य ग्रहों में स्र्ानान्तरित कि सकता है।

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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

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प्रणतपदार्थमय जगत्
िौततक तवज्ञान अन्ततोगत्वा एक तदन उस शाश्वत प्रततपदार्थमय (एन्टी-मतटरियल) संसाि की खोज कि लेगा, जो
स्र्लू िौततकतावाद के तववादकों के तलए अिी तक अपरितचत है। प्रततपदार्थ (ऍन्टी- मतटरियल) के िािे में वैज्ञातनकों की
वतथमान संकल्पना के सम्िन्ध में तदनांक 27 अक्टूिि 1959 के टाईम्स ऑि इतडिया ने तनम्नतलतखत समाचाि प्रकातशत
तकया-
स्टाकहोम, अक्टूिि 296, 1959- दो अमरिकन आणतवक वैज्ञातनकों को आज प्रततप्रोटॉन (ऍतन्ट-प्रोटॉन) के
आतवष्काि के तलए 1959 का िौततकशास्त्र का नोतिल पिु स्काि प्रदान तकया गया। इस आतवष्काि से तसद्ध हो गया तक
पदार्थ दो रूपों में तवद्यमान िहता है-कण तर्ा प्रततकण (पातटथकल औि ऍतन्ट-पातटथकल)। ये वैज्ञातनक हैं इटली में जन्में िा.
एतमलों सेगि 69, औि िॉ ओवन चेम्ििजीन जो सॅन फ्ातं सस्को में पैदा हुए.... इस नवीन तसद्धान्त की एक मल ू ितू धािण
के अनसु ाि एक ऐसा अन्य जगत या प्रततजगत (ऍतन्ट-वल्िथ) होना चातहए जो तक प्रततपदार्थ (ऍतन्ट-मॅटि) से तनतमथत हो। यह
प्रततपदार्थमय जगत् उन आणवीय औि पिमाणवीय कणों से िना होगा जो तक अपनी कक्षा में हमािे इस जगत के पिमाणओ ु ं
की तवरुद्ध तदशा में धमू िहे होंगे। यतद ये दो जगत किी आपस में टकिा जाएँ, तो एक चकाचौन्ध किने वाली चकम में वे
दोनों पणू थतया तवनष्ट हो जाएँगे।
इस कर्न में तनम्नतलतखत प्रस्ताव प्रस्ततु तकए गए हैं-
1. एक प्रततपदार्थमय अणु या कण होता है जो तक पदार्थमय (िौततक अर्वा मतटरियल) अणओ ु ं के गणु ों के
तवपिीत गणु ों से तनतमथत है।
2. इस पदार्थमय संसाि के अततरिि एक औि संसाि है तजसका हमें के वल सीतमत अनिु व है।
3. प्रततपदार्थमय औि पदार्थमय ससं ाि तकसी तनतित तकसी तनतित समय में एक दसू िे से टकिा सकते हैं औि
एक दसू िे को तवनष्ट कि सकते हैं।
4. इन तीनों प्रस्तावों में से हम आतस्तक तवज्ञान के तवद्यार्ी क्र. 1 औि क्र. 2 से पणू थतः सहमत हैं तकन्तु तीसिे
प्रस्ताव का समर्थन हम के वल प्रततपदार्थ की सीतमत वैज्ञातनक परििाषा के अन्तगथत ही कि सकते हैं। कतिनाई इस िात में
है तक प्रततपदार्थ से सम्ितन्धत वैज्ञातनकों का दृतष्टकोण मात्र िौततक ऊजाथ के एक अन्य प्रकाि तक ही तवस्तृत है, जितक
वास्तवतक प्रततपदार्थ पणू थतः अिौततक होना चातहए। पदार्थ अपनी िनावट में तवनाशगत है, तकन्तु प्रततपदार्थ-यतद वास्तव
में वह समस्त िौततक लक्षणों से मि ु है-तो उसे स्विावतः तवनाश से िी मि ु होना चातहए। यतद पदार्थ तवनाशमय औि

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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

तविातजत होने लायक है, तो प्रततपदार्थ अतवनाशी व अटूट होना चातहए। हम इन प्रस्तावों की चचाथ प्रमाणितू शास्त्रों के
दृतष्टकोण से किने का प्रयास किें गे।
समस्त तवश्व में सवाथतधक मान्य शास्त्र वेद हैं। वेद चाि िागों में तविि हैं- वेद चाि िागों में तविि हैं ॠग,् साम,
यज:ु औि अर्वथ। सामान्य ितु द्ध वाले व्यति के तलए वेदों का तवषय िहुत कतिन है। व्याख्यार्थ, चाि वेदों का स्पष्टीकिण
ऐततहातसक महाकाव्य महािाित में तर्ा अिािह पिु ाणों में कहा गया है। िामायण िी एक ऐततहातसक महाकाव्य है तजसमें
वेदों की समस्त आवश्यक जानकािी समातवष्ट है। अतः चािों वेद, वाल्मीतककृ त िामायण, महािाित औि पिु ाण वैतदक
सातहत्य के अन्तगथत आते हैं। उपतनषद् चािों वेदों के ही िाग हैं औि वेदान्त सत्रू वेदों का नवनीत है। समस्त वैतदक सातहत्य
के संतक्षप्तीकिण हेत,ु िगवद्गीता को समस्त उपतनषदों का साि एवं वेदान्त सत्रू ों की प्रार्तमक व्याख्या के रूप में स्वीकाि
तकया जाता है। परिणाम-स्वरूप कोई इस तनष्कषथ पि पहुचँ सकता है तक के वल िगवद्गीता से ही वाणी है, जो पणू थ परुु षोत्तम
िगवान् हैं, औि जो उस प्रततपदार्थमय जगत् से इस पदार्थमय जगत् में िेष्ठ शति का संपणू थ ज्ञान प्रदान किने के तलए
अवतरित होते हैं।
िगवद्गीता में िगवान् की उत्कृ ष्ट शति को पिा प्रकृ तत कहा गया है। अिी हाल ही में वैज्ञातनकों ने खोज की हैं तक
नाशवान पदार्थ दो प्रकाि के होते हैं, तकन्तु गीता पणू थ रूप से पदार्थ व प्रततपदार्थ की संकल्पना, शति के दो रूपों में वतणथत
किती है। पदार्थ एक शति है जो पदार्थमय संसाि िनाती है औि वही शति अपने उच्चति रूप में प्रततपदार्थमय (तदव्य)
जगत का िी तनमाथण किती है। जीवात्माएँ उच्चति शति की िेणी में आती हैं। तनम्नति शति अर्वा िौततक शति अपिा
प्रकृ तत कहलाती है। िगवद्गीता में िचनात्मक शति को इस प्रकाि अपिा एवं पिा प्रकृ तत के रूपों में प्रस्ततु तकया गया है।
पदार्थ में स्वतः कोई सृजनात्मक शति नहीं होती है। जि यह जीवशति द्वािा संचातलत होता है तो िौततक पदार्ो
का तनमाथण होता है। अतः अपने अपरिपक्व रूप में पदार्थ पिमेश्वि की ही सप्तु शति है। जि किी हम शति के तवषय में
सोचते हैं, तो शति स्रोत के तवषय में सोचना िी स्वािातवक हैं उदाहिणार्थ, जि हम तवद्यतु ् शति के िािे में सोचते हैं, तो
हम उसी समय उस तवद्यतु -् उत्पादन-के न्र (पावि हाऊस) के तवषय में िी सोचते हैं जहाँ वह उत्पन्न की जाती है। शति
आत्मतनिथि नहीं है। वह तकसी िेष्ठ व्यति से तनयंतत्रत है। उदाहिण-स्वरूप, अतग्न दो अन्य शतियों, प्रकाश व ऊजाथ का
स्रोत है। प्रकाश व ऊजाथ का अतग्न से िाहि कोई स्वतंत्र अतस्तत्व नहीं है। इसी प्रकाि, तनम्न व उच्च शतियाँ उस स्रोत से
उत्पन्न होती हैं तजसे कुछ िी नाम तदया जा सकता है। शति का वह स्रोत ऐसा व्यति होना चातहए तजसे प्रत्येक वस्तु का
ज्ञान हो। वह उच्चतम व्यति परुु षोत्तम िीकृ ष्ण ही हैं जो तक सवाथतधक आकषथक व्यति है।
वेदों में परुु षोत्तम अर्वा पिम सत्य को िगवान् कहा गया हैः- अर्ाथत् वह ऐश्वयथमय व्यति जो समस्त शतियों का
उद्गम है। आधतु नक वैज्ञातनकों द्वािा दो प्रकाि की सीतमत शतियों की खोज तो के वल तवज्ञान की प्रगतत का शिु ािम्ि मात्र

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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

है। अि उन्हें उन दो कणों अर्वा अणओ ु ं के उद्गम-स्रोत के ढॅूंढ़ने के तलए आगे िढ़ना चातहए तजन्हें वे पदार्थमय (मतटरियल)
तर्ा प्रततपदार्थमय (एतन्ट-मतटरियल) कहते हैं।
प्रततपदार्थमय कण का वणथन कै से तकया जा सकता है? हमें पदार्थमय कणों या अणओ ु ं का तो अनिु व है तकन्तु हमें
प्रततपदार्थमय अणओ ु ं का कोई अनिु व नहीं है। तिि िी िगवद्गीता प्रततपदार्थमय कण का तनम्नवत् स्पष्ट वणथन किती है :
यह प्रततपदार्थमय कण इस पदार्थमय शिीि में ही िहता है। इस प्रततपदार्थमय कण की उपतस्र्तत के कािण यह
पदार्थमय शिीि तवकास के क्रम में िाल्यकाल से तकशोिावस्र्ा, तकशोिावस्र्ा से यवु ावस्र्ा व उसके िाद वृद्धावस्र्ा तक
िदलता िहता है। इसके पिात् प्रततपदार्थमय कण वृद्ध एवं व्यर्थ शिीि का त्याग कि देता है औि दसू िे पदार्थमय शिीि को
धािण किता है।
जीतवत शिीि की यह व्याख्या शति के दो रूपों के अतस्तत्व के वैज्ञातनक आतवष्काि को सम्पष्टु किती है। जि उनमें
से पहला रूप, प्रततपदार्थमय कण, पदार्थमय शिीि से अलग होता है, तो दसू िा रूप (याने पदार्थमय शिीि) सवथधा व्यर्थ हो
जाता है। इस प्रकाि प्रततपदार्थमय कण तनःसन्देह पदार्थमय शति से िेष्ठ है।
अतः तकसी को िी पदार्थमय शति के तवनाश पि िोना नहीं चातहए। सि प्रकाि के इतन्रय अनिु व-गमथ औि िडिे,
सख ु औि दःु ख-मात्र पदार्थमय शति के ही पिस्पि कायथ हैं जो तक ॠत-ु परिवतथन की िाँतत आते हैं औि चले जाते हैं। ऐसे
िौततक अन्तकायथ के क्षतणक प्राकट्य या लप्तु होने से यह तसद्ध होता है तक यह पदार्थमय शिीि उस पदार्थमय शति से
तनतमथत है जो जीव शति से तनम्न हैं। कोई िी ितु द्धमान् परुु ष, जो सख ु औि दःु ख से तचतन्तत नहीं है, यह जानकि तक ये
(दोनों) तनम्न शति के ही तवतिन्न िौततक रूप हैं, औि तनम्नति शति की पिस्पि तक्रया से ही उत्पन्न हुए है, वह उस
प्रततपदार्थमय ससं ाि को पनु ः प्राप्त किने में समर्थ होता है, जहाँ जीवन तनत्य है औि शाश्वत ज्ञान व शाश्वत सख ु से परिपणू थ
है।
यहाँ प्रततपदार्थमय जगत् की चचाथ की गई है-इसके अततरिि यह िी िताया गया है तक प्रततपदार्थमय जगत् में कोई
मौसमी उताि चढ़ाव नहीं है। वहाँ प्रत्येक वस्तु शाश्वत, आनन्ददायक एवं ज्ञानपणू थ है। तकन्तु जि हम इसे “जगत”् कहते हैं
तो हमें स्मिण िहना चातहए तक इस जगत के रूप औि तवतिन्न प्रकाि की तनजी सामग्री हमािे िौततक अनिु व से पिे है।
पदार्थमय शिीि नाशवान है औि इसतलए यह परिवतथनशील व क्षणिंगिु है-इसी प्रकाि पदार्थमय संसाि िी। तकन्तु
प्रततपदार्थमय जीवशति अतवनाशी है औि इसतलए यह तचिस्र्ायी है। कुशल वैज्ञातनकों ने पदार्थमय व प्रततपदार्थमय कणों
के तवतिन्न गणु ों को क्रमशः अतनत्य व तनत्य कहा है।
पदार्थ के दो प्रकािों के आतवष्कािकों को प्रततपदार्थ के गणु ों को अिी ढॅूंढ़ना है। तकन्तु िगवद्गीता में तनम्नरूपेण
इसका एक स्पष्ट वणथन पवू थतः उपलब्ध है। वैज्ञातनक, इस मल्ू यवान सचू ना के आधाि पि, आगे खोज कि सकते हैंः

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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

प्रततपदार्थमय कण सक्ष्ू मतम पदार्थमय कणों से अतधक सक्ष्ू म हैं। यह जीवशति इतनी अतधक शतिशाली है तक वह पिू े
पदार्थमय शिीि के ऊपि अपना प्रिाव िालती है। पदार्थमय कणों की तल ु ना में प्रततपदार्थमय कण िहुत शति से परिपणू थ है,
औि परिणाम स्वरूप वह नष्ट नहीं हो सकता हैं
िगवद्गीता में प्रततपदार्थमय कण के वणथन का यह के वल शिु ािम्ि मात्र है। उसे आगे औि तवस्तृत तकया गया हैः
प्रततपदार्थमय कण का सवोत्तम रूप स्र्ल ू औि सक्ष्ू म पदार्थमय शिीिों से िन्द है। यद्यतप स्र्ल
ू व सक्ष्ू म दोनों प्रकाि
के पदार्थमय शिीि नाशवान् हैं, सक्ष्ू म प्रततपदार्थमय कण शाश्वत है। अतः व्यति की रुतच इस अमि तसद्धान्त में होनी चातहए।
तवज्ञान की संतसतद्ध तिी होगी जि िौततक वैज्ञातनकों के तलए प्रततपदार्थमय कण के गणु ों को जानना तर्ा उसे नश्वि
िौततक कणों के सम्पकथ से मि ु किाना सम्िव होगा। ऐसी तवमतु ि ही वैज्ञातनक उन्नतत की चिम सीमा होगी।
वैज्ञातनकों के इस सझु ाव में आंतशक सत्य है तक प्रततपदार्थमय अणओ ु ं से तनतमथत एक अन्य संसाि िी हो सकता है
औि पदार्थमय एवं प्रततपदार्थमय संसािों का टकिाव दोनों के सवथनाश में प्रततितलत होगा। एक प्रकाि का टकिाव तो तनिन्ति
जािी है; पदार्थमय कणों का तवनाश तो प्रततक्षण हो िहा है औि प्रततपदार्थमय कण मतु ि के तलए प्रयत्न कि िहा है। गीता में
तनम्नवत् वतणथत है :
प्रततपदार्थमय कण जो तक जीवात्मा है, िौततक पदार्थ को कायथ के तलए प्रेरित किता है। यह जीवात्मा सदैव
अतवनाशी है। जि तक यह प्रततपदार्थमय कण पदार्थमय शति के तपडि में िहता है तजसे स्र्ल ू व सक्ष्ू म शिीि के नामों से
जाना जाता है, ति तक वह सत्ता एक जीतवत इकाई के रूप में तवद्यमान िहती है। दो कणों के तनिन्ति टकिाव में, प्रततपदार्थमय
कण का किी तवनाश नहीं होता है। कोई िी व्यति तकसी िी समय-ितू , वतथमान या ितवष्य काल में-इस प्रततपदार्थमय
कण का तवनाश नहीं कि सकता।
अतः हम सोचते हैं तक वह तसद्धान्त, जो यह स्र्ातपत किता है तक पदार्थमय औि प्रततपदार्थमय संसािों के टकिाव
पि दोनों लोकों का तवनाश होगा, के वल वैज्ञातनकों की प्रततपदार्थ सम्िन्धी सीतमत परििाषा के परिपेक्ष में ही उतचत है।
िगवद्गीता अतवनाशी प्रततपदार्थमय कण के स्विाव को इस प्रकाि वतणथत किती है-
सक्ष्ू म एवं अपरिमेय प्रततपदार्थमय कण सदैव अतवनाशी, तनत्य एवं शाश्वत है। कालोपिान्त, यह पदार्थमय कणों के
िन्धन से मि ु हो जाता है। यही तसद्धान्त पदार्थमय व प्रततपदार्थमय ससं ािों पि िी लागू होता है। प्रततपदार्थमय कण के
तवनाश का िय तकसी को नहीं होना चातहए क्योंतक वह पदार्थमय जगतों के तवनाशोपिान्त िी तस्र्त िहता है।
प्रत्येक तनतमथत वस्तु एक तिन्दु पि तवनष्ट हो जाती है-िौततक शिीि एवं िौततक संसाि दोनों का ही सृजन तकया गया
है, अतः वे तवनाशी हैं जितक प्रततपदार्थमय कण का कदातप तनमाथण नहीं होता औि परिणाम स्वरूप उसका किी तवनाश
िी नहीं होता। यह िी िगवद्गीता में प्रततपातदत तकया गया हैः

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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

प्रततपदार्थमय कण, जो तक जीवशति है, किी उत्पन्न औि तनतमथत नहीं होता। वह तचिस्र्ायी है। उसके तलए न तो
जन्मतदन है औि न मृत्यतु दन। वह न तो िाि-िाि तनतमथत होता है औि न ही िाि-िाि नष्ट होता है। यह सदैव तवद्यमान है, अतः
वह सिसे पिु ातन है, तिि िी वह सदैव ताजा औि नवीन िहता है। यद्यतप पदार्थमय कण तवनष्ट हो जाता है, तकन्तु
प्रततपदार्थमय कण किी-िी प्रिातवत नहीं होता।
यही तसद्धान्त प्रततपदार्थमय तवश्व तर्ा प्रततपदार्थमय कण-दोनों के लागू होता है। जि तक पदार्थमय तवश्व नष्ट हो
जाता है, प्रततपदार्थमय तवश्व सिी परितस्र्ततयों में तवद्यमान िहता है। इसे औि तवस्ताि से आगे समझाया जाएगा।
वैज्ञातनक गीता से यह िी सीख सकते हैं :
यह तवद्वान व्यति जो िलीिाँतत जानता है तक प्रततपदार्थमय कण अतवनाशी है, यह िी जानता है तक इसे तकसी िी
साधन से नष्ट नहीं तकया जा सकता।
आणतवक वैज्ञातनक पिमाणु अस्त्रों द्वािा पदार्थमय जगत् का तवनाश किने के तवषय में सोच सकते हैं, तकन्तु उसके
अस्त्र प्रततपदार्थमय जगत् का नाश नहीं कि सकते। प्रततपदार्थमय कण का तनम्न पंतियों में अतधक स्पष्ट वणथन है :
तकसी पदार्थमय शस्त्र के द्वािा इस के टुकड़े तकए नहीं जा सकते तर्ा इसे अतग्न में जलाया नहीं जा सकता। यह जल
में गीला नहीं होता औि न यह मिु झा सकता है। न इसे शष्ु क तकया जा सकता है औि न हवा में इसका वाष्पीकिण ही तकया
जा सकता है। यह अतवच्छे द, अदाह्य, तर्ा अतवलेय है। शाश्वत होने के कािण यह तकसी िी प्रकाि के शिीि में प्रवेश कि
सकता है औि छोड़ सकता है। संवैधातनक रूप से तनत्य होने के कािण, इसके गणु सदा तस्र्ि है। यह अतनवथचनीय है क्योंतक
यह समस्त िौततक गणु ों के तवपिीत है। सामान्य मतस्तष्क के द्वािा इसका तचन्तन नहीं तकया जा सकता। यह अपरिवतथनीय
है। इसतलए ऐसे शाश्वत, प्रततपदार्थमय तत्त्व के तलए तकसी को कदातप शोक नहीं किना चातहए।
इस प्रकाि, िगवद्गीता तर्ा अन्य वैतदक सातहत्य में, उच्चति शति (प्रततपदार्थमय तत्त्व) को जीवशति के नाम से
स्वीकाि तकया गया है। इस जीवन तत्त्व को तकन्हीं िी िौततक तत्त्वों को कतनष्ठ शतियों के रूप में िताया गया है औि वे
इस प्रकाि है : 1 पृथ्वी, 2 जल, 3 अतग्न, 4 वाय,ु 5 आकाश, 6 मन, 7 ितु द्ध तर्ा 8 अहक ं ाि। इनके अततरिि जीवशति
अर्वा प्रततपदार्थमय तत्त्व है, तजसे िेष्ठ शति के नाम से सम्िोतधत तकया गया है। इन्हें “शति” कहा गया है क्योंतक वे पिम
व्यति परुु षोत्तम कृ ष्ण द्वािा तनयंतत्रत व संचातलत होती है।
तचि काल तक िौततकतावादी उपयथि ु आि िौततक अर्वा पदार्थमय तसद्धान्तों की सीमा में सीतमत िहा। तकन्तु
अि िड़े उत्साह का तवषय है तक उसे प्रततपदार्थमय तत्त्व व प्रततपदार्थमय तवश्व का प्राितम्िक ज्ञान प्राप्त हो गया है। हम
आशा किते हैं तक समय के क्रम में िौततकतावादी उस प्रततपदार्थमय जगत् का मल्ू याक ं न कि सके गा तजसमें िौततक तत्त्वों
का िंचमात्र िी तचह्न नहीं है। “प्रततपदार्थमय” शब्द यही सतू चत किता है तक यह तत्त्व समग्र िौततक गणु ों के तविोध में है।

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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

तिि िी कुछ ऐसे मानतसक तकथ वादी है जो प्रततपदार्थमय तत्त्व पि अपना मत व्यि किते हैं। ये मख्ु यतः दो प्रकाि
के हैं औि ये दो तवतवध त्रतु टपणू थ तनष्कषों पि पहुचँ ते हैं। प्रर्म दल (घोि िौततकतावादी लोगों का) या तो प्रततपदार्थमय तत्त्व
को अस्वीकाि किता है अर्वा मात्र इतना स्वीकाि किता है तक तवतशष्ट अवस्र्ा में (मृत्यु के समय पि) पदार्थमय शिीि का
नाश होता है। दसू िा दल के वल इतना स्वीकाि किता है तक प्रततपदार्थमय तत्त्व चौिीस वगीय िौततक तत्त्व के सीधे तविोध
में है। इस वगथ को साख्ं यवादी कहते हैं औि वे िौततक तत्त्वों का सक्ष्ू म पिीक्षण औि तवश्ले षण किते हैं। अन्वेषण के अन्त में
साख्ं यवादी अन्ततोगत्वा के वल एक तदव्य (प्रततपदार्थमय) तनतष्क्रय तत्त्व का स्वीकाि किते हैं। तर्ातप इन मानतसक
तकथ वातदयों के तलए समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं क्योंतक वे तनम्न िेणीय शति की सहायता नहीं किते। प्रततपदार्थमय तत्त्व
की वास्ततवक तस्र्तत जानने के तलए िेष्ठ शति के तदव्य स्ति तक उन्नत होना होगा। ितियेाग उस िेष्ठ शति की ही तकया
है।
पदार्थमय संसाि के मंच से प्रततपदार्थमय संसाि की वास्ततवक तस्र्तत का मल्ू यांकन संिव नहीं है। तकन्तु पिम
िगवान् जो तक पदार्थमय औि प्रततपदार्थमय दोनों शतियों के तनयंत्रक हैं, अपनी अहैतक ु ी कृ पावश अवतरित होकि हमें
प्रततपदार्थमय जगत् का पणू थ ज्ञान देते हैं। इस प्रकाि हम जान सकते हैं तक प्रततपदार्थमय जगत् क्या है। पिम िगवान् औि
जीवात्माएँ दोनों ही अपने गणु ों में प्रततपदार्थमय हैं, ऐसा ज्ञान तदया गया है। इस प्रकाि जीवात्माओ ं का तवशद अध्ययन
किने पि हम पिम िगवान् के तवषय में जान सकते हैं। प्रत्येक जीवात्मा एक स्वतंत्र व्यति है। अतः पिमिेष्ठ चेतना आत्मा
िी पिमिेष्ठ व्यति होना चातहए। वैतदक सातहत्य में पिमिेष्ठ व्यति को “कृ ष्ण” की सज्ञं ा दी गई है जो तक उतचत ही है। पिम
िगवान् को सतू चत किने वाला यह “कृ ष्ण” नाम सवोच्च िेणी का एकमात्र सिु ोध नाम है। वे (कृ ष्ण) पदार्थमय औि
प्रततपदार्थमय दोनों शतियों के तनयन्ता है औि “कृ ष्ण” नाम का यही अर्थ है तक वे पिम तनयन्ता हैं। गीता में िगवान् इसकी
सम्पतु ष्ट इस प्रकाि किते है :
पदार्थमय तर्ा प्रततपदार्थमय नामक दो संसाि हैं। पदार्थमय संसाि आि िौततक तत्त्वों में तविि तनम्न गणु ात्मक
शति से तनतमथत है। प्रततपदार्थमय संसाि उच्च गणु ात्मक शति से तनतमथत है।
चँतू क पदार्थमय एवं प्रततपदार्थमय दोनों प्रकाि की शतियाँ पिम तदव्य प्रिु से ही उत्पन्न हुए हैं, अतः यह तनष्कषथ
उतचत है तक मैं (िगवान् कृ ष्ण) समस्त सृतष्ट एवं प्रलय का अतन्तम कािण हॅ।ूं
चँतू क िगवान् की दो शतियाँ (तनम्न औि िेष्ठ) पदार्थमय एवं प्रततपदार्थमय ससं ािों को प्रकट किती हैं, उन्हें ‘सवोच्च
पिम सत्य’ कहा गया है। िगवान् कृ ष्ण इसी का िगवद्गीता में इस प्रकाि वणथन किते हैंः
हे अजथनु ! मैं ही तदव्यता का सवोच्च तत्त्व हॅूं औि मझु से िढ़कि अन्य कुछ िी नहीं है। सत्रू में िँधी हुई मतणयों के
समान प्रत्येक वस्तु मेिी शतियों पि आधारित है।

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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

पदार्थमय एवं प्रततपदार्थमय ससं ािों के तसद्धान्त सम्िन्धी खोज से िहुत काल पवू थ िगवद्गीता में यह तवषय पहले से
वतणथत हो चक ु ा र्ा। गीता स्वयम् िताती है तक यह दशथन पवू थकाल में सयू थ के अतधष्ठाता देवता को तसखाया गया र्ा, तजसका
अर्थ है तक गीता का उपदेश कुरुक्षेत्र यद्ध ु से िहुत समय पवू थ-कम से कम 12,00,00,000 (िािह किोड़) वषथ पवू थ-पवू थ
परुु षोत्तम िगवान् िीकृ ष्ण द्वािा तदया गया र्ा। अि आधतु नक तवज्ञान ने गीता में उपलब्ध सत्य-ज्ञान के के वल एक अश ं मात्र
का पता लगाया है।
प्रततपदार्थमय तवश्व की धािणा िी गीता में पाई जाती हैं सिी प्राप्य आकंड़ों से तिना तकसी शंका के यह माना जा
सकता है तक प्रततपदार्थमय जगत् प्रततपदार्थमय आकाश में तस्र्त है-वह आकाश तजसे गीता में सनातन धाम या शाश्वत
प्रकृ तत कहा जाता है।
िीक तजस प्रकाि पदार्थमय अणु पदार्थमय जगत् का तनमाथण किते हैं, उसी प्रकाि प्रततपदार्थमय अणु अपनी समस्त
सामग्री सतहत प्रततपदार्थमय जगत् का तनमाथण किते हैं। प्रततपदार्थमय जगत् में प्रततपदार्थमय जीव िहते हैं प्रततपदार्थमय
जगत् में कोई िी जड़ पदार्थ नहीं है। वहाँ प्रत्येक वस्तु एक जीतवत तत्त्व है औि वहाँ िगवान् स्वयम् पिम परुु षोत्तम हैं।
प्रततपदार्थमय जगत् के तनवातसयों के पास शाश्वत जीवन, शाश्वत ज्ञान व शाश्वत आनन्द हैं। दसू िे शब्दों में उनके पास िगवान्
के समस्त गणु है।
पदार्थमय जगत् में सवोच्च ग्रह सत्यलोक या ब्रह्मलोक कहलाता है। सवोत्कृ ष्ट तनपणु व्यति इस ग्रह में तनवास
किते हैं। ब्रह्मलोक के अतधष्ठाता देवता ब्रह्मा हैं जो तक इस पदार्थमय जगत् के प्रर्म सृतजत व्यति हैं। ब्रह्मा हम लोगों की
िाँतत ही एक जीवात्मा हैं तकन्तु ब्रह्माडि में वे सवाथतधक तनपणु व्यति हैं। यद्यतप वे इतने तनपणु नहीं तक उन्हें िगवान् की
िेणी में िखा जाएँ, तकन्तु वे तनिय ही सीधे िगवान् द्वािा अनश ु ातसत जीवात्माओ ं की िेणी में है। िगवान् औि जीवात्माएँ
दोनों ही प्रततपदार्थमय जगत् के हैं। अतः वैज्ञातनक वास्तव में सिी लोगों की सेवा किें गे यतद वे प्रततपदार्थमय जगत् की
िचना की शोध किें गे तक उसका संचालन कै से तकया जा िहा है, वहाँ वस्तओ ु ं का आकाि तकस तिह का है, वहाँ पि
अतधष्ठाता व्यति कौन है, इत्यातद। वैतदक सातहत्य में िीमद्भागवतम् इन तथ्यों पि तवशद् रूपेण प्रकाश िालता है। िगवद्गीता
िीमद्भागवतम् का प्रार्तमक अध्ययन है। समस्त वैज्ञातनकों को ज्ञान की इन दो महान् पस्ु तकों का पणू थरूपेण अध्ययन किना
चातहए। ये पस्ु तकें वैज्ञातनक प्रगतत के तलए अनेक तवचािसत्रू प्रदान किें गी औि अनेक नये आतवष्कािों की ओि संकेत
किें गी।
अध्यात्मवादी औि िौततकतावादी, ये मनष्ु यों के दो स्पष्ट वगथ हैं। अध्यात्मवादी वेद जैसे अतधकृ त शास्त्रों से ज्ञान
प्राप्त किते हैं। वैतदक सातहत्य उन प्रमातणत स्रोतों से ग्रहण तकया जाता है जो तक तदव्य तशष्य पिम्पिा में होते हैं। यह तशष्य
पिम्पिा गीता में िी वतणथत हैं कृ ष्ण गीता में कहते हैं तक यह ज्ञान लाखों वषथ पवू थ सयू थ के अतधष्ठाता देवता से कहा गया र्ा
तजन्होंने यह ज्ञान अपने पत्रु मनु को तदया तजनसे वतथमान मानव की सृतष्ट हुई है। मनु ने उसी क्रम में यह तदव्य ज्ञान अपने पत्रु
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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

िाजा इक्ष्वाकु को तदया, जो तक पणू थ परुु षोत्तम िगवान् िीिाम के वश ं के पवू थज हैं। तशष्य पिम्पिा की यह लम्िी कड़ी िगवान्
कृ ष्ण के आतविाथव काल में (5000 वषथ पहले) टूट गई र्ी औि इसी हेतु कृ ष्ण ने अजथनु को पनु ः गीता सनु ाई औि इस प्रकाि
इस यगु में उसे इस ज्ञान का प्रर्म तशष्य िनाया। अतः इस यगु के अध्यात्मवादी उस तशष्य पिम्पिा में हैं जो तक अजथनु से
आिम्ि होती है। िौततक तवज्ञान का सश ं ोधन किने की तचन्ता न किके , अध्यात्मवादी पदार्थ औि प्रततपदार्थ का ज्ञान
सवोत्तम तिीके से (इस तशष्य पिम्पिा के द्वािा) प्राप्त कि लेता है औि इस प्रकाि अपने आप को घोि कष्ट से िचा लेता है।
तर्ातप, प्रगाढ़ िौततकतावादी पणू थ परुु षोत्तम िगवान् के प्रततपदार्थमय जगतों में तवश्वास नहीं किते। अतः वे िड़े
अिागे हैं, यद्यतप किी-किी दसू िे प्रकाि से वे भ्रतमत हुए हैं औि उन्हें प्रततपदार्थमय वस्तओ ु ं का कोई ज्ञान नहीं है। अतः
यह शिु तचह्न है तक िौततक वैज्ञातनक प्रततपदार्थमय जगत् के क्षेत्र की ओि धीिे -धीिे आगे िढ़ िहे हैं। हो सकता है तक
कदातचत् वे इतनी प्रगतत किें गे तक प्रततपदार्थमय जगत् का तवविण वे पिू ी तिह जान लेंगे, जहाँ िगवान् प्रधान रूप से
तविाजमान हैं औि जहाँ जीवात्माएँ प्रिु के सातन्नध्य में िहती हैं औि उनकी सेवा किती हैं। िगवान् की सेवा किने वाली
जीवात्माएँ गणु ात्मक रूप से उनके समान होती हैं तकन्तु सार् ही वे सेवकों की िाँतत अनश ु ातसत िहती हैं। प्रततपदार्थमय
जगत् में शातसत औि शासक में कोई अन्ति नहीं होता है-उनका सम्िन्ध परिपणू थ होता है औि उसमें िौततकता की कोई
छटा नहीं िहती।
पदार्थमय संसाि का स्विाव तवनाशी है। गीता के अनसु ाि िौततक वैज्ञातनकों की इस धािणा में आंतशक सत्य है तक
टकिाव होने की संिावना में पदार्थमय औि प्रततपदार्थमय जगतों का नाश होगा। पदार्थमय संसाि प्रकृ तत के परिवतथनशील
गणु ों की संिचना है। इन गणु ों को सत्त्व, िजस् व तमस् की संज्ञा दी गई है। िौततक संसाि का तनमाथण िजोगणु से होता है,
उसका पालन सत्त्वगणु से होता है औि उसका तवनाश तमोगणु से होता है। ये गणु पदार्थमय जगत् में सवथत्र तवद्यमान हैं औि
इसीतलए सम्पणू थ िौततक तवश्व में प्रत्येक घडटे, प्रत्येक तमनट, प्रत्येक क्षण में सृतष्ट, पोषण औि तवनाश की तक्रया हो हिी है।
पदार्थमय तवश्व का सवोच्च ग्रह ब्रह्मलोक िी प्रकृ तत के इन्हीं गणु ों से यि ु है, यद्यतप उस ग्रह में सत्त्वगणु के आतधक्य के
कािण जीवनावतध 43,00,000X1,000X2X30X12X100 औि सौि वषथ कही जाती है। इतना लम्िा जीवन काल होने
पि िी ब्रह्मलोक का नाश होता है। यद्यतप पृथ्वी के जीवन की तुलना में ब्रह्मलोक का जीवन िहुत अतधक लम्िा होता है
तकन्तु प्रततपदार्थमय संसािों के शाश्वत जीवन की तुलना में यह के वल एक क्षतणक तचंगािी है। परिणामस्वरूप िगवद्गीता के
विा, िगवान् िीकृ ष्ण, प्रततपदार्थमय तवश्व का महत्व िताते हैं, जो उनका अपना धाम है।
िीकृ ष्ण उपदेश देते हैं तक 43,00,000X1,000X2X30X12X100 सौि वषों के अन्त में पदार्थमय तवश्व के सिी
ग्रह नष्ट हो जाते हैं औि इन पदार्थमय ग्रहों पि िहने वाले सिी जीव िी इन पदार्थमय ग्रहों के तवनाश के सार्-सार् िौततक
दृतष्ट से नष्ट हो जाते हैं। तकन्तु जीवात्मा संवैधातनक दृतष्ट से एक प्रततपदार्थमय कण है। तिि िी, यतद वह प्रततपदार्थमय कायों
के अनश ु ीलन द्वािा स्वयं को प्रततपदार्थमय संसािों के क्षेत्र तक उन्नत नहीं किता, तो पदार्थमय संसािों के तवनाश के समय
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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

उसका िौततक दृतष्ट से तवनाश होता है औि नवीन पदार्थमय ससं ाि के पनु जथन्म के सार् उसे पदार्थमय रूप में पनु ः जन्म लेना
पड़ता है। दसू िे शब्दों में, उसे िाि-िाि होने वाले जन्म औि मृत्यु की वेदनाओ ं को सहन किना पड़ता है। के वल वे ही
जीवात्माएँ जो पदार्थमय जीवन की प्रकट अवस्र्ा में पणू थ परुु षोत्तम िगवान् की प्रेममय सेवा में लग जाती हैं, पदार्थमय
शिीि छोड़ देने के िाद तनःसन्देह प्रततपदार्थमय ससं ािों में चली जाती है। अमित्व के वल उन्हीं को प्राप्त होता है जो
प्रततपदार्थमय कायों के अभ्यास से िगवान् के पास लौटते हैं।
ये प्रततपदार्थमय कायथ क्या हैं? ये औषतधयाँ हैं। उदाहिण स्वरूप, जि कोई व्यति िीमाि हो जाता है, वह िॉक्टि के
पास जाता है-िॉक्टि उसे दवाई का नस्ु खा देता है, जो अन्त में उसे िोगमि ु किती है। उसी प्रकाि, िौततकतावादी एक िीमाि
व्यति है-उसे तकसी कुशल अध्यात्मवादी िॉक्टि के पास सलाह के तलए जाना चातहए। उसका िोग क्या है? वह िाि-िाि
होने वाले जन्म,मृत्य,ु िोग औि जिा के कष्टों से पीतड़त है। यतद एक िाि वह “िगवद्धाम-वापसी” के उपचाि को (“िैक टु
गॉिहेि” ट्रीटमेंट को) को स्वीकाि कि लेता है, तो वह उस प्रततपदार्थमय संसाि में प्रवेश कि सकता है, जहाँ जन्म औि
मृत्यु के स्र्ान पि शाश्वत जीवन है।
पदार्थमय संसाि का प्रलय दो प्रकाि से होता है। आंतशक प्रलय प्रत्येक 43,00,000X1000 सौि-वषों के अन्त में
अर्वा ब्रह्मलोक के प्रत्येक तदन के अन्त में होता है, जो तक िौततक जगत् में सवोच्च ग्रह है। उस आंतशक प्रलय के समय,
ब्रह्मलोक जैसे सवोच्च ग्रह तवनष्ट नहीं होते हैं तकन्तु प्रत्येक 43,00,000X1000X2X30X12X100 सौि-वषों के अन्त
में समस्त वैतश्वक आतवष्काि उस प्रततपदार्थमय शिीि में तवलीन हो जाता है तजससे पदार्थमय तत्व उत्पन्न होते हैं औि
तजसमें प्रलय के िाद समा जाते हैं। प्रततपदार्थमय जगत् का, जो पदार्थमय आकाश में िहुत दिू है, किी तवनाश नहीं होता
है। वह पदार्थमय संसाि को अपने में समा लेता है। कदातचत, जैसा तक वैज्ञातनक कहते हैं, पदार्थमय व प्रततपदार्थमय संसािों
का “टकिाव” होता है, औि उसमें पदार्थमय संसािों का तवनाश होता है, तकन्तु प्रततपदार्थमय संसािों का नाश नहीं होता।
तनत्य तवद्यमान िहनेवाला प्रततपदार्थमय जगत् िौततक तवज्ञानी के तलए दृतष्टगोचि नहीं है। उसे प्रततपदार्थमय जगत् के िािे
में के वल इतनी जानकािी हो सकती है तक उसके अतस्तत्व के तसद्धान्त पदार्थमय जगत् के गणु ों के पणू थतया तवपिीत हैं।
प्रततपदार्थमय तवश्व का पणू थ तवविण के वल उन्हीं मि ु अतधकािी व्यतियों के अच्यतु स्रोत से प्राप्त तकया जा सकता है,
तजन्होंने प्रततपदार्थमय तत्त्व की संिचना का संपणू थ साक्षात्काि कि तलया है। पणू थ परुु षोत्तम िगवान् के एक तवनम्र तशष्य को
यह जानकािी िवण-माध्यम से प्राप्त होती है।
इस प्रकाि यह वैतदक ज्ञान ब्रह्मा के हृदय में प्रदान तकया गया, जो पदार्थमय सृतष्ट के प्रर्म जीव है। ब्रह्मा ने ही इस
ज्ञान को नािद मतु न से कहा। उसी प्रकाि पणू थ परुु षोत्तम िगवान् िीकृ ष्ण द्वािा िगवद्गीता का ज्ञान सयू थ के अतधष्ठाता-देव
तववस्वान् को तदया गया औि जि गरुु -तशष्य िवण की पिम्पिा टूट गई, ति िगवान् िीकृ ष्ण ने िगवद्गीता को कुरुक्षेत्र की
िणितू म पि अजथनु के समक्ष दोहिाया। उस समय िीकृ ष्ण से तदव्य ज्ञान को प्राप्त किने के तलए अजथनु ने एक तशष्य तर्ा
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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

तवद्यार्ी की ितू मका तनिाई। स्र्ल ू िौततकतावातदयों की समस्त भ्रान्त धािणाओ ं का तनिाकिण किने के तलए अजथनु ने
प्रासतं गक प्रश्न पछू े औि िीकृ ष्ण ने ऐसे उत्ति तदए तक कोई िी साधािण व्यति उन्हें समझ सके । मात्र वे ही व्यति जो तक
पदार्थमय ससं ाि की िँ गीतनयों से प्रिातवत हुए हैं, िगवान् िीकृ ष्ण के अतधकाि को स्वीकाि नहीं कि सकते। प्रततपदार्थमय
जगत् का तवविण समझने से पहले व्यति को अपनी आदतों में औि हृदय में िहुत तनमथल होना चातहए। ितियोग एक
तवस्तृत वैज्ञातनक तदव्य कायथ है तजसे नवीन साधक औि पणू थ योगी दोनों ही कि सकते हैं।
पदार्थमय संसाि प्रततपदार्थमय संसाि का छाया रूप मात्र है औि ितु द्धमान व्यति, जो तक हृदय औि आदतों में
तनमथल हैं, िगवद्गीता से प्रततपदार्थमय संसाि का सािा तवविण संतक्षप्त रूप से सीख सकें गे औि ये तवविण पदार्थमय जगत्
के तवविण से अतधक तवस्तृत है। इसका आधािितू तवविण इस प्रकाि है :
प्रततपदार्थमय जगत् के अतधष्ठाता तवग्रह िीकृ ष्ण हैं जो तक अपने मलू व्यतित्व में एवं अपने अनेक पणू ाांशों तवस्तािों
में वहाँ तनवास किते हैं। इस व्यतित्व को तर्ा उनके पणू ाांशों के तवस्तािों को के वल प्रततपदार्थमय तक्रयाओ ं के आचिण से
ही जाना जा सकता है, तजन्हें साधािणतः ितियोग अर्वा ितिमय सेवा कहते हैं। पणू थ परुु षोत्तम िगवान् ही पिम सत्य हैं
औि वे ही समग्र प्रततपदार्थमय तत्त्व हैं। पदार्थमय तत्त्व एवं प्रततपदार्थमय तत्त्व दोनों ही उन्हीं के व्यतित्व में से तनमाथण हुए
हैं। वे पणू थ वृक्ष की जड़ के समान हैं। जि तकसी वृक्ष की जड़ में पानी तदया जाता है, तो शाखाएँ औि पतत्तयाँ अपने आप
पोतषत हो जाती हैं। उसी प्रकाि अि पणू थ परुु षोत्तम िगवान् िीकृ ष्ण की पजू ा होती है, ति पदार्थमय संसािों के समस्त
तवविण प्रकातशत हो जाते हैं औि िि का हृदय तिना िौततक रूप से कायथ तकए हुए घोतषत हो जाता है। िगवद्गीता का
यही िहस्य है।
प्रततपदार्थमय संसािों में प्रवेश किने की तवतध िौततक तवतधयों से तिन्न है। कोई िी जीवात्मा पदार्थमय जगत् में
िहते हुए, प्रततपदार्थमय कायों का अभ्यास किके , िहुत आसानी से प्रततपदार्थमय जगत् में प्रवेश प्राप्त कि सकता है। तकन्तु
जो वास्तव में घोि िौततकतावादी है, जो प्रयोगात्मक तवचाि, मानतसक तचन्तन औि िौततकतावादी तवज्ञान की सीतमत
शति पि तनिथि िहते हैं, वे प्रततपदार्थमय संसािों में प्रवेश में महान् कतिनाई का सामना किते है। स्र्ल ू िौततकतावादी िाहिी
अन्तरिक्ष में अपने द्वािा िें के गए अन्तरिक्ष यान, उपग्रह, अतग्नवाण आतद के द्वािा प्रततपदार्थमय संसािों में जाने का प्रयास
कि सकता है, तकन्तु इन साधनों से वह पदार्थमय आकाश के उच्च क्षेत्रों में तस्र्त क्षेत्रों में तस्र्त पदार्थमय ग्रहों में िी नहीं
पहुचँ सकता, तो प्रततपदार्थमय आकाश में तस्र्त उन ग्रहों के तवषय में क्या कहना जो पदार्थमय तवश्व से िहुत दिू ी पि हैं।
यहाँ तक तक वे योगी िी, तजन्होंने गढ़ू शतियों को पिू ी तिह तनयंतत्रत कि तलया है, उस लोक में प्रवेश पाने में महान् कतिनाई
का सामना किते है। प्रततपदार्थमय कण को तनयंतत्रत किते हैं, वे तकसी तवतशष्ट लािदायक क्षण पि स्वेच्छा से अपने
पदार्थमय शिीिों को छोड़ सकते हैं औि पदार्थमय-प्रततपदार्थमय संसािों को जोड़ने वाले तवतशष्ट िाजमागथ से प्रततपदार्थमय
संसािों में प्रवेश कि सकते हैं। यतद वे िी समर्थ हैं, तो वे िगवद्गीता में िताई गई तवतध के अनसु ाि ही कायथ किते हैं :
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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

तजन्होंने तदव्यता का साक्षात्काि कि तलया है, वे व्यति उत्तिायण के समय में-अर्ाथत् जि सयू थ अपनी उत्तिी यात्रा
पि होता है-या उन शिु क्षणों में जि अतग्न एवं प्रकाश के देवता वाताविण को तनयतन्त्रत किते हैं, अपने पदार्थमय शिीिों
को छोड़कि प्रततपदार्थमय जगत् में पहुचँ सकते हैं ।
तवतिन्न देवता अर्वा शतिमान तनदेशक अतधकािी, ब्रह्माडि के संचालन कायथ हेतु तनयि ु तकए जाते हैं । मख
ू थ
लोग जो तक तवश्विचना तनयन्त्रण की िािीतकयों को देखने में असमर्थ हैं, वे इस कल्पना पि हँसते हैं तक अतग्न, हवा, तवद्यतु ,
तदन, िात आतद का देवताओ ं द्वािा व्यतिगत तनयंत्रण तकया जाता है। तकन्तु तसद्ध योगी जानते हैं तक पदार्थमय तक्रयाओ ं के
इन अदृश्य शासकों को कै से सन्तष्टु तकया जाएँ, औि इन शासकों की अनक ु ू लता का लाि उिाकि वे उन लािदायक क्षणों
पि स्वेच्छा से अपने पदार्थमय शिीि को छोड़ते हैं, जो प्रततपदार्थमय तवश्व में, अर्वा उच्चति पदार्थमय ग्रहों में प्रवेश पाने
के तलए तनयि ु तकए गए होते हैं। पदार्थमय जगत् के उच्चति ग्रहों में योगीजन अतधक सतु वधापणू थ व अतधक सख ु द जीवन
लाखों वषों तक िोग सकते हैं तकन्तु उन ग्रहों का जीवन शाश्वत नहीं है। तजन्हें शाश्वत जीवन की इच्छा है, वे तवश्वकायथ के
प्रशासक देवताओ ं द्वािा तनमाथण की गई तवतशष्ट शिु क्षणों में, गढू शतियों “पृथ्वी” नामक इस सप्तम् िेणी के ग्रह पि िहने
वाले स्र्ल ू िौततकतावातदयों को ये शासक तदखाई नहीं देते।
जो लोग योगी नहीं हैं, तकन्तु जो यज्ञ, दान, तपस्या आतद पडु य कायों के कािण लािदायक क्षणों पि शिीि छोड़ते
हैं, वे मृत्यु के िाद उच्चति ग्रहों तक उन्नत हो सकते हैं, तकन्तु उन्हें पृथ्वी नामक इस ग्रह पि पनु ः आना पड़ता है। उनका
प्रयाण अंधकािमय (चंरहीन) कृ ष्ण पक्ष में धमू काल में होता है अर्वा ति, जि सयू थ अपनी दतक्षणी यात्रा पि (दतक्षणायन
में) होते हैं।
सािांश में, िगवद्गीता यह सलाह देती है तक यतद व्यति को प्रततपदार्थमय जगत् में प्रवेश किने की इच्छा है, तो उसे
ितिमय सेवा के साधनों को अर्वा प्रततपदार्थमय तक्रयाओ ं को अपनाना चातहए। कुशल अध्यात्म वातदयों द्वािा तनधाथरित
तकए गए मागथ के अनसु ाि, जो ितिमय सेवा के साधनों को अपनाते हैं, वे प्रततपदार्थमय जगत् में प्रवेश किने के अपने
प्रयास में किी तनिाश नहीं होतें। यद्यतप िाधाएँ अनेक हैं, तिि िी तदव्य ििों के द्वािा िे खांतकत मागथ का दृढ़तापवू थक पालन
किके िगवान् िीकृ ष्ण के िि सिलता से उन िाधाओ ं को पाि किते हैं ऐसे िि, जो िगवान् के प्रततपदार्थमय िाज्य की
तिि िढ़ने वाली जीवनयात्रा के यात्री है, किी भ्रतमत नहीं होते। प्रततपदार्थमय तवश्व में प्रवेश पाने के इस आश्वासनप्रदायक
ितिमागथ में तकसी को िी धोखा या तनिाशा नहीं होती। ितिमय सेवा के के वल इस एकतिी आचिण के द्वािा, तजसे
पारििातषक रूप में ितियोग कहते हैं, वेदों का अध्ययन, यज्ञतक्रया, तपस्या, दान, इत्यातद से प्राप्त होने वाले सिी परिणाम
सिलता से प्राप्त हो सकते हैं।
इसतलए, ितियोग सिी के तलए सवथिेष्ठ संजीवनी है औि खास किके इस लोहयगु (कतलयगु ) के तलए िगवान्
कृ ष्ण के द्वािा इसे िहुत आसान िना तदया गया है, जो अपने महान,् दानशिू औि मि ु हृदय अवताि िी चैतन्य महाप्रिु
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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

(1486-1534) के रूप में िगं ाल में प्रकट हुए र्े, तजन्होंने ने सम्पणू थ िाित में सक ं ीतथन आन्दोलन का अर्ाथत् गायन, नृत्य
औि िगवन्नाम कीतथन का प्रचाि तकया। चैतन्य महाप्रिु की कृ पा से कोई िी व्यति ितियोग के तत्त्वों की शीघ्रतापवू थक
ग्रहण कि सकता है। इस प्रकाि हृदय की समस्त आशंकाएँ दिू हो जाएँगी, िौततक क्लेश का अतग्न तमट जाएगा औि जीवन
में तदव्य आनन्द उति जाएगा।
ब्रह्मसंतहता के पाँचवे अध्याय में, पदार्थमय जगत् के िीति िहने वाली तवतवधतापणू थ ग्रहमाला का वणथन है।
िगवद्गीता में िी यह सतू चत तकया गया है तक, लाखों पदार्थमय ब्रह्माडिों में अनेक िहुिंगी ग्रहमालाएँ हैं औि कुल तमलाकि
ये सािे ब्रह्माडि िगवान् की सृजनात्मक शति का के वल एक अंशमात्र (एक चौर्ाई) हैं। िगवान् की सृजनात्मक शति का
अतधकांश िाग (तीन चौर्ाई) आध्यातत्मक आकाश में प्रकट होता है, तजसे पिव्योम अर्वा वैकुडिलोक कहते हैं। जैसे ही
िौततक वैज्ञातनक प्रततपदार्थमय जगत् के अतस्तत्व की खोज किता जाएगा, वैसे ही अन्त में वह ब्रह्मसंतहता औि िगवद्गीता
के इन उपदेशों को सम्पष्टु कि सके गा।
इसके अततरिि, 21 ििविी 1960 को मॉस्को की एक समाचाि तवमोचन ने तनम्नतलतखत वृत्तान्त तदया :
रूस (ितशया) के सप्रु तसद्ध खगोलतवज्ञान के अध्यापक िोरिस वोिान्त्सोव वेल्यातमनोव ने िताया तक ब्रह्माडि में
अनतगनत ग्रह होने चातहए, तजन पि ितु द्धमान जीव िहते हैं।
रूसी खगोलवैज्ञातनक का यह कर्न ब्रह्मसतं हता में वतणथत तनम्नतलतखत जानकािी की पतु ष्ट किता है :
यस्य प्रभा प्रभवतो जगदण्डकोणि-
कोणिष्वशेषवसध ु ाणद णवभूणत-णभन्नम।्
तद् ब्रह्म णनष्कलमनन्तमशेषभूतं,
गोणवन्दमाणदपरुु षं तमहं भजाणम॥
ब्रह्मसतं हता के इस उद्धिण के अनसु ाि रूसी खगोलवैज्ञातनक द्वािा कहे गए अनन्त ग्रह ही नहीं तकन्तु अनन्त ब्रह्माडि
िी हैं। ये समस्त अनन्त ब्रह्माडि, अपने िीति के अनन्त ग्रहों के सार् महातवष्णु के तदव्य शिीि से तनकले ब्रह्मतेज से तनमाथण
हुए हैं औि उसी मे तैि िहे हैं। उन्हीं महातवष्णु की पजू ा ब्रह्माजी किते हैं, जो हमािे इस ब्रह्माडि के अतधष्ठाता देव है।
रूसी खगोलवेत्ता यह िी िताता है तक सिी ग्रहों पि, तजनकी संख्या दस किोड़ से कम अनमु ातनत नहीं है, जीव
िसे हुए हैं। ब्रह्मसतं हता में यह सतू चत तकया गया है तक अनन्त ब्रह्माडिों में से प्रत्येक ब्रह्माडि में, अनन्त तवतवधतापणू थ ग्रह
हैं।

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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

खगोल वैज्ञातनक के दृतष्टकोण का अनमु ोदन प्रो. व्लादीमीि अल्पातोव नाम के जीवशास्त्री ने िी तकया है, तजनका
कहना है तक ऊपि कहे गए ग्रहों में से कुछ ग्रहों के तवकास का स्ति पृथ्वी के तवकास के ििािि है। मॉस्को की रिपोटथ में
आगे िताया हैः
ऐसा िी हो सकता है तक पृथ्वी जैसा ही जीवन उन ग्रहों पि िी उपतस्र्त हो। िसायन क्षेत्र के तवद्वान् िॉक्टि तनकोलाय
तजिोव ने ग्रहों के वाताविण के प्रश्न की चचाथ किते हुए उदाहिण स्वरूप यह िता तदया तक मंगल ग्रह पि िहने वाला जीव
स्वयं को तनम्न शिीि-तापमान वाले सामान्य जीवन के अनक ु ू ल िलीिाँतत िना सकता है। उन्होंने कहा तक वे अनिु व कि
िहे हैं तक मंगल ग्रह की वायिु चना उन जीवों के जीवन धािण के तलए उतचत ही है, जो तक उस वाताविण के अनक ु ू ल िन
चक ु े हैं।
तवतिन्न ग्रहों ने जीवों की वहाँ के वाताविण के सार् स्वयं को अनक ु ू ल िनाने की जो क्षमता है, उसे ब्रह्मसंतहता में
तवितू ततिन्नम् कहा गया है, अर्ाथत् ब्रह्माडिों के असंख्य ग्रहों में से प्रत्येक ग्रह पि अपना तवतशष्ट प्रकाि का वाताविण है
औि उस वाताविण की िेष्ठता या तनम्नता के अनसु ाि, वहाँ के जीव, तवज्ञान, मनोतवज्ञान आतद में तवकतसत है। तवितू त याने
“तवतशष्ट शति” औि तिन्नम् का अर्थ है “तवतिन्न प्रकाि की”। जो वैज्ञातनक यांतत्रक साधनों के द्वािा दसू िे ग्रहों पि जाने के
प्रयास में िाहिी अंतरिक्ष की खेाज किने में लगे हैं, उन्हें यह समझ लेना चातहए तक तजन जीवों ने अपने आप को पृथ्वी के
वाताविण के अनक ु ू ल िना तलया हैं, वे दसू िे ग्रहों के वाताविण में तटक नहीं सकते। इसतलए चंर, सयू थ अर्वा मंगल पि
जाने के मानव के सवथ प्रयास पिू ी तिह तविल होंगे, क्योंतक उन ग्रहों का वाताविण तिन्न है। तर्ातप, व्यतिगत रूप से,
अपने द्वािा वांतछत तकसी िी ग्रह पि जाने का हम प्रयास कि सकते हैं, लेतकन यह के वल तिी संिव होगा, जि मनोवैज्ञातनक
ढंग से हम अपने मन में परिवतथन किें गे। मन पदार्थमय शिीि का के न्र है। पदार्थमय शिीि का क्रतमक तवकास मन के िीति
होने वाले मनोवैज्ञातनक परिवतथनों पि तनिथि हैं एक कीड़े के शिीि का तततली के शिीि में अर्वा आधतु नक तचतकत्सा-शास्त्र
में, परुु ष के शिीि का स्त्री के शिीि में (अर्वा उल्टा) होने वाला िदलाव, न्यनु ातधक, मनोवैज्ञातनक परिवतथन पि तनिथि किता
है।
िगवद्गीता में कहा गया है तक, यतद मनष्ु य अपनी मृत्यु के समय िगवान् िीकृ ष्ण के रूप में अपना मन एकाग्र कि
लेता है, औि ऐसा किते हुए यतद वह अपने शिीि का त्याग किता है, तो वह तत्काल प्रततपदार्थमय जगत् के आध्यातत्मक
वाताविण में प्रवेश किता है। इसका अर्थ यह हुआ तक जो कोई िी ितिमय सेवा के तनधाथरित तनयमों का पालन किके
अपने मन को जड़ पदार्थ से हटाकि िगवान् के आध्यातत्मक रूप की ओि मोड़ लेता है, वह सिलता से प्रततपदार्थमय
आकाश में तस्र्त िगवान् के धाम को प्राप्त कि सकता है। इसमें ततनक िी सन्देह नहीं है।
इसी प्रकाि यतद कोई पदार्थमय आकाश के तकसी अन्य ग्रह के प्रवेश किना चाहे, तो वह इस वतथमान शिीि को
छोड़ने के तिु न्त िाद (मृत्यपु िान्त), वहाँ जा सकता है। इस प्रकाि यतद कोई चन्रमा, सयू थ अर्वा मंगल ग्रह पि जाना चाहे,
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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

तो उस उद्देश्य के तलए आवश्यक तक्रयाएँ किके , वह ऐसा कि सकता है। िगवद्गीता इस कर्न को तनम्नतलतखत शब्दों में
पष्टु किती हैः
मृत्यु के समय व्यति तजस वस्तु का तचन्तन किता है औि तजसके तवचाि में मग्न होकि शिीि त्याग किता हे, वही
तवतशष्ट वस्तु उसे मृत्यु के िाद प्राप्त होती है।
महािाज िित का जीवन किोि तपस्याित र्ा, तिि िी अपने मृत्यु के समय उन्होंने एक तहिन के तवषय में सोचा
औि इस प्रकाि मृत्यपु िान्त वे तहिन िन गए। तर्ातप, उन्हें अपने पवू थ जीवन का स्पष्ट स्मिण िहा औि उन्होंने अपनी िल ू को
पहचाना। यह पहचानना महत्वपणू थ है तक मृत्यु समय िहने वाले तवचािों पि जीवन िि में तकए हुए वास्ततवक कमों का प्रिाव
पड़ता है।
िीमद्भागवत में (तीसिा स्कंध, अध्याय ित्तीस) में चन्रमा पि जाने की प्रतक्रया का इस प्रकाि वणथन है।
वे िौततकतावादी व्यति, तजन्हें िगवान् के धाम की कोई जानकािी नहीं है, सदैव िौततक धन, प्रतसद्धी औि सम्मान
के पीछे पागल िहते हैं। ऐसे लोगों को अपनी आत्मसंतष्टु ी के तलए अपने तवतशष्ट परिवाि के कल्याण में रुतच होती है औि
इसतलए उन्हें समाज कल्याण औि िाष्ट्र कल्याण की प्रगतत में िी रुतच होती है। इस प्रकाि के लोग िौततक कायों के द्वािा
अपनी वांतछत वस्तएु ँ प्राप्त किते हैं। तनधाथरित कमों के कमथकांिात्मक आचिण में वे यंत्रवत् लगे िहते हैं औि इस कािण वे
प्रकट शास्त्रों के तनदेशन के अनसु ाि, यज्ञो के आचिण द्वािा, तपतिों औि तनयामक देवताओ ं को सतष्टु किने में प्रवृत्त िहते हैं।
ऐसे यज्ञकमों में औि अनष्ठु ानात्मक कायों में आसि ऐसी आत्माएँ, मृत्यु के िाद चन्रमा पि जाती हैं। जि कोई इस तिह
चन्रमा तक उन्नत होता है, ति उसे स्वगीय पेय सोमिस के पान का आनदं उिाने की क्षमता तमलती है। चन्रमा वह स्र्ान
है, जहाँ चन्र नाम के देवता अतधष्ठाता तवग्रह हैं। वहीं का वाताविण व जीवन की सतु वधाएँ पृथ्वी की तल ु ना में िहुत ज्यादा
आिामदायक औि लािदायक हैं। चन्रमा पि पहुचँ ने के िाद, यतद आत्मा दसू िे उच्चति ग्रहों पि जाने के अवसि का लाि
नहीं उिाता, तो उसकी अधोगतत होती है औि जििदस्ती से उसे पनु ः पृथ्वी पि अर्वा पृथ्वी जैसे तकसी दसू िे ग्रह पि जाना
पड़ता है। तर्ातप, यद्यतप िौततकतावादी व्यति सवोच्च ग्रहमाला में िी जाता है, तिि िी वैतश्वक आतवष्काि के प्रलय के
समय तनतित ही उनका संहाि हो जाता है।
जहाँ तक आध्यातत्मक आकाश की ग्रहमाला का प्रश्न है, पिव्योम में असख्ं य वैकुडि ग्रह हैं। वैकुडि ग्रह
आध्यातत्मक ग्रह हैं जो िगवान् की आन्तरिक शति की अतिव्यति हैं ओि इन ग्रहों का िौततक ग्रहों (ितहिंगा शति) के
सार् 3:1 का अनपु ात है। तो िेचािा िौततकवादी तकसी ऐसे ग्रह पि िाजनैततक समझौते किने में व्यस्त है, जो िगवान् की
सृतष्ट में नगडय है। इस पृथ्वी ग्रह के तवषय में क्या कहना, अनेक आकाशगंगाओ ं में तिखिे हुए अगतणत ग्रहों के सार् यह
सपं णू थ ब्रह्माडि, िाई के दानों से ििे हुए र्ैले के तकसी एक िाई के दाने के समान है। तकन्तु िेचािा िौततकवादी यहाँ पि आिाम
से िहने की योजनाएँ िनाता है, औि अपनी िहुमल्ू य मानवी शति को तकसी ऐसी चीज में व्यर्थ गँवाता है, तजसकी तविलता
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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

तनतित है। व्यावसातयक तचन्तन में समय नष्ट किने के िजाय, यतद उसने सादा जीवन औि उच्च आध्यातत्मक तवचाि के
जीवन की खोज की होती, तो वह तनंिति िहने वाली िौततक अशातन्त से अपने आपको िचा सकता।
यतद कोई िौततकतावादी समृद्ध िौततक सतु वधाओ ं को िोगने का िी इच्छुक है, तो वह उन ग्रहों में अपना
स्र्ानान्तिण कि सकता है, जहाँ वह पृथ्वी ग्रह की तल ु ना में अतधक उन्नत िौततक सख ु ों का अनिु व कि सकता है। तकन्तु
सवोत्कृ ष्ट योजना तो यह है तक देहत्याग किने के िाद स्वयं को आध्यातत्मक आकाश में जाने के तलए तैयाि किें । तकन्तु
यतद कोई िौततक सतु वधा िोगने पि ही तल ु ा हुआ है, तो वह योगशति का उपयोग किके स्वयं को िौततक आकाश के
अन्य ग्रहों में स्र्ानांतरित कि सकता है। अन्तरिक्ष यातत्रयों के वे क्रीड़ामय अन्तरिक्षयान के वल िालसल ु ि मनोिंजन हैं औि
वहाँ जाने में उनका कोई उपयोग नहीं है।
अष्टांग योग प्रणाली िी िौततक है, क्योंतक वह मात्र इतना ही तसखाती है तक पदार्थमय शिीि में वायसु ंचलन पि
कै से तनयंत्रण प्राप्त तकया जाए। आध्यातत्मक कण, आत्मा, शिीि के िीति वायु में तैि िहा है औि श्वास-प्रततश्वास उस वायु
की तिंगे है, तजसमें आत्मा है। इसतलए योग-पद्धतत इस वायु को तनयंतत्रत किने की के वल एक िौततक कला है, जो वायु की
उदि से नािी, नािी से िक्षस्र्ल, वक्षस्र्ल से कंि, कंि से नेत्रगोलक, नेत्र से मस्तक में तता वहाँ से इतच्छत ग्रह में ले जा
सकती है। िौततक तवज्ञानी हवा औि प्रकाश की गतत तगन सकता है, तकन्तु उसे मन औि ितु द्ध की गतत का कोई अंदाज
नहीं है। हमें मन की गतत का कुछ सीतमत अनिु व है, क्योंतक क्षणिि में हम अपने मन को लाखों मील दिू ी के स्र्ानों में िेज
सकते हैं। ितु द्ध इससे िी अतधक सक्ष्ू म है। ितु द्ध से सक्ष्ू म है आत्मा, जो मन औि ितु द्ध की िाँतत पदार्थ नहीं तकन्तु चेतन या
प्रततपदार्थ है। आत्मा ितु द्ध से लाखो गनु ा सक्ष्ू म तर्ा शतिशाली है। एक ग्रह से दसू िे ग्रह तक जाते समय िहने वाली आत्मा
की गतत के तवषय में हम मात्र कल्पना कि सकते हैं। यह कहने की आवश्यकता नहीं है तक आत्मा अपने स्वयं की शति से
यात्रा किता है, तकसी पदार्थमय वाहन की सहायता से नहीं।
आहाि, तनरा, िय औि मैर्ुन की पाशतवक सभ्यता ने आधतु नक मनष्ु य को गमु िाह कि तदया है, औि वह िल ू चकु ा
है तक उसकी आत्मा तकतनी शतिशाली है। जैसा तक हमने पहले वणथन तकया है तक आत्मा एक आध्यातत्मक स्िुतलंग है
जो सयू थ, चन्र औि तवद्यतु से िी कई गनु ा अतधक प्रकाशमान, देदीप्यमान् औि शतिशाली है। मानव जीवन ति व्यर्थ हो
जाता है, जि मनष्ु य आत्मा के सार् अपनी सही पहचान का अनिु ि नहीं किता। इस प्रकाि की भ्रामक सभ्यता से मानव
की िक्षा किने के तलए, िगवान् चैतन्य महाप्रिु अपने तशष्य तनत्यानंद प्रिु के सार् प्रकट हुए र्े।
िीमद्भागवत में यह िी वतणथत है तक योगीजन तकस तिह ब्रह्माडि के सिी ग्रहों में यात्रा कि सकते हैं। जि महाप्राण
अर्वा प्राणशति मतस्तष्क तक उि जाती है, ति पिू ी संिावना िहती है तक यह प्राणशति नेत्र, नातसका, िवणेतन्रय आतद
से िूटकि िाहि तनकलें, क्योंतक ये स्र्ान उस प्राणशति की साँतवी कक्षा हैं। तकन्तु योगीजन इन िन्रों को वायु का पणू थ
अविोध किके िन्द कि सकते हैं। योगी तिि प्राणशति को के न्रवती स्र्ान में याने दो िक ु ु तटयों के िीच में एकाग्र किता है।
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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

इस तस्र्तत में योगी यह सोच सकता है तक शिीि त्याग किने के उपिान्त उसे कौनसे ग्रह पि जाना है। ति वह यह तनणथय ले
सकता है तक उसे तदव्य वैकुडिो में तस्र्त कृ ष्ण के धाम में जाना है, जहाँ से उसे पनु ः पदार्थमय जगत् में लौटना न पड़े, या
पदार्थमय ब्रह्माडि के उच्च ग्रहों में भ्रमण किना है। तसद्ध योगी को दोनों में से कोई िी मागथ चनु ने की स्वतंत्रता होती है।
उस तसद्ध योगी के तलए तजसने पणू थ चेतना में देहत्याग किने की पद्धतत में सिलता प्राप्त की है, उसके तलए एक ग्रह
से दसू िे ग्रह पि जाना उतना ही सिल हे, तजतना एक सामान्य व्यति के तलए तकिाना की दक ु ान तक चलकि जाना। जैसा
तक पहले ही िताया जा चक ु ा है, पदार्थमय शिीि आत्मा का एक आविण मात्र हैं मन औि ितु द्ध ये अतंवथस्त्र के समान हैं
औि पृथ्वी, जल, वायु आतद से िना हुआ स्र्ल ू िाह्य वस्त्र के समान है। इसतलए कोई िी उन्नत आत्मा तजसने यौतगक
प्रतक्रया से स्वयं को पहचान तलया है, जो पदार्थ औि चेतना का सम्िन्ध जानता है, वह इच्छानसु ाि परिपणू थ तस्र्तत में आत्मा
के स्र्लू वस्त्र को छोड़ सकता है। िगवान् की कृ पा से हमें पणू थ स्वतन्त्रता है। चँतू क िगवान् हमािे तलए िहुत दयालु हैं, हम
कहीं िी िह सकते हैं-चाहे आध्यातत्मक आकाश में या िौततक आकाश में-तजस तकसी िी ग्रह पि, जो हम चाहे। तकन्तु इस
स्वतन्त्रता का दरुु पयोग किने से हम िौततक जगत् में तगि जाते हैं औि िद्ध जीवन के तत्रतवध दःु ख िोगते हैं। स्वयं के चनु ाव
से िौततक जगत् में आत्मा तकस तिह से कष्टमय जीवन जीता है, इसका सन्ु दि तचत्रण कतव तमल्टन ने अपने पॅिािाइज लॉस्ट
नामक काव्य में तकया है। उसी प्रकाि, स्वेच्छा से ही आत्मा पॅिािाइज याने तदव्य जगत् की प्रातप्त कि सकता है औि अपने
घि अर्ाथत् िगवद्धाम में लौट सकता है।
मृत्यु रूपी कसौटी के समय में व्यति प्राणशति को दोनों भ्रकुतटयों के मध्य में तस्र्ि कि सकता है औि तनणथय ले
सकता है तक उसे कहाँ जाना है। यतद वह िौततक जगत् के सार् कोई िी सम्िन्ध न िखना चाहे, तो वह क्षणिि में ही तदव्य
वैकुडि में पहुचँ सकता हे औि वहाँ पणू थरूपेण अपने आध्यातत्मक शिीि में प्रकट हो सकता है, जो उसे आध्यातत्मक
वाताविण में िहने के तलए अनक ु ू ल होगा। उसे सक्ष्ू म औि स्र्ल
ू रूपों में मात्र िौततक जगत् को छोड़ने की इच्छा किनी होगी
औि तदपु िान्त प्राणशति को मस्तक के सवोच्च िाग में स्र्ानान्तरित किके वहाँ के ब्रह्मिन्र नामक तछर से देह का त्याग
किना होगा। योगाभ्यास की यह सवोच्च तसतद्ध है।
वास्तव में, मनष्ु य स्वतन्त्र इच्छा से सम्पन्न है; परिणामस्वरूप यतद वह स्वयं को िौततक संसाि से मि ु न किना
चाहे, तो वह ब्रह्मपद के जीवन (ब्रह्मा के पद की प्रातप्त) का िोग कि सकता है औि तसद्धलोक की यात्रा कि सकता है, जो
िौततक दृतष्ट से परिपणू थ जीवात्माओ ं का ग्रह है, तजनके पास गरुु त्वाकषथण, स्र्ान, समय आतद का तनयंत्रण किने की पिू ी
क्षमताएँ हैं। पदार्थमय ब्रह्माडि के इन उच्चति ग्रहों को िेंट देने की आवश्यकता नहीं, तकन्तु के वल स्र्ल ू पदार्थ (िाह्य
शिीि) का त्याग किने की जरूित है।
मानव-तनतमथत उपग्रह औि यांतत्रक अन्तरिक्ष वाहन मनष्ु यों को लेकि किी िाहिी अन्तरिक्ष के ग्रहों में जा नहीं
सकें गे। मनष्ु य अपने िहु-तवज्ञातपत चन्र-तवहाि की यात्राओ ं पि िी नहीं जा सकते क्योंतक, जैसा हमने पहले ही कहा है, ऐसे
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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

उच्चति ग्रहों का वाताविण यहाँ पृथ्वी के वाताविण से तिन्न है। प्रत्येक ग्रह का अपना तवतशष्ट वाताविण होता है औि यतद
पदार्थमय तवश्व में तकसी तवतशष्ट वाताविण होता है औि यतद पदार्थमय तवश्व में तकसी तवतशष्ट ग्रह पि कोई जाना चाहता है,
तो िीक उस ग्रह के हवामान के अनक ु ू ल पदार्थमय शिीि उसके पास होना चातहए। उदाहिणार्थ, यतद कोई िाित में यिू ोप
जाना चाहे, जहाँ की जलवायु तिन्न है, तो उसे अपना वेश तदनक ु ू ल िदलना होगा। उसी प्रकाि, यतद कोई वैकुडि के तदव्य
ग्रहों पि जाना चाहे, तो शिीि का पणू थ परिवतथन आवश्यक है।
यतद कोई उच्च िौततक ग्रहों पि जाना चाहे, तो वह मन, ितु द्ध औि अहक ं ाि से िना हुआ अपना सक्ष्ू म वेश िख
सकता है, तकन्तु उसे पृथ्वी, जल, अतग्न इत्यातद से िना हुआ अपना स्र्ल ू वेश (शिीि) छोड़ना पड़ता है। तर्ातप, जि कोई
तदव्य ग्रह पि जाता है, ति सक्ष्ू म तर्ा स्र्लू , दोनों शिीिों को िदलना आवश्यक होता है, क्योंतक आध्यातत्मक आकाश में
पणू थ आध्यातत्मक रूप में जाना आवश्यक है। यतद तकसी की इच्छा है तो वेश का यह परिवतथन मृत्यु के समय अपने आप
घतटत होगा। पिन्तु के वल यतद जीवन िि इस इच्छा को संवतधथत तकया गया होगा, तो मृत्यु के समय वह संिव हो सकती
है। जहाँ तजसका खजाना होता है, वहाँ उसका मन िी होता है। जि व्यति ितिमय सेवा का आचिण किता है, ति वह
िगवान् के धाम में जाने की इच्छा तवकतसत किता है। जहाँ पि जीवन जन्म, मृत्य,ु जिा, व्यातध से मि ु है उन वैकुडि
(प्रततपदार्थमय) ग्रहों की सगु म यात्रा के तलए स्वयं को कै से तैयाि तकया जा सकता है, उस तवतध की सामान्य रूपिे खा नीचे
प्रस्ततु की गई है।
सामान्य अभ्यास (सकािात्मक कायथ)
1. गम्िीि अभ्यर्ी को एक प्रमातणत आध्यातत्मक गरुु की शिण में आना चातहए तातक वह वैज्ञातनक ढंग से
प्रतशतक्षत हो सके । चँतू क इतन्रयाँ िौततक है, इसतलए उनके द्वािा तदव्यता का अनिु व किना सम्िव नहीं। अतः आध्यातत्मक
गरुु के तनदेशन में तनधाथरित पद्धतत के अनसु ाि इतन्रयों का अध्यात्मीकिण होना चातहए।
2. जि तशष्य प्रमातणत आध्यातत्मक गरुु का चयन कि लेता है, ति उसे उनसे उतचत दीक्षा लेनी चातहए।
आध्यातत्मक तशक्षा का यह शिु ािम्ि होता है।
3. तशक्षार्ी को हि तिह से अपने आध्यातत्मक गरुु को सन्तष्टु किने के तलए तैयाि िहना चातहए। प्रमातणत
आध्यातत्मक गरुु , जो आध्यातत्मक तवज्ञान की पद्धततयों की पिू ी जानकािी िखते हैं, िगवद्गीता, वेदान्त, िीमद्भागवतम,्
उपतनषद् जैसे आध्यातत्मक शास्त्रों में तवद्वान् हैं, तर्ा जो साक्षात्कािी आत्मा िी है व तजन्होंने पिम िगवान् के सार्
वास्ततवक सम्िन्ध िनाया है, वे एक पािदशी माध्यम हैं, तजसके द्वािा इच्छुक तशष्य को वैकुडि का मागथ तसखाया जाता है।
आध्यातत्मक गरुु को सवथ प्रकाि से सन्तष्टु तकया जाना चातहए क्योंतक के वल उनकी शिु कामनाओ ं से तशक्षार्ी इस मागथ में
अद्भुत प्रगतत कि सकता हे।

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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

4. ितु द्धमान तशष्य आध्यातत्मक गरुु के सामने अपने मागथ की अतनतितताओ ं को हटाने के तलए ितु द्धमत्तापणू थ प्रश्न
किता है। आध्यातत्मक गरुु अपने मनमौजी ढंग से नहीं, विन् इस िास्ते पि चले हुए अतधकृ त व्यतियों के तसद्धान्तों के
अनसु ाि मागथ तदखाते हैं। इन अतधकृ त व्यतियों का नाम शास्त्रों में िताया गया है औि व्यति को अपने आध्यातत्मक गरुु के
मागथदशथनानसु ाि के वल उनका अनसु िण किना है। आध्यातत्मक गरुु अतधकारियों द्वािा िताए हुए मागथ से किी तवचतलत
नहीं होते।
5. अभ्यर्ी को सदैव महान् ॠतषयों के चिणतचह्नों का पालन किने का प्रयास किना चातहए, तजन्होंने पद्धतत का
पालन किके सिलता प्राप्त की है। यही जीवन का नीतत-मन्त्र होना चातहए। उनकी कोिी नकल मात्र नहीं, विन् तवतशष्ट समय
औि परितस्र्ततयों को देखते हुए उनका प्रामातणकता से अनसु िण किना चातहए।
6. अतधकृ त ग्रंर्ों के उपदेशों के अनसु ाि अभ्यर्ी को अपनी आदतों को िदलने के तलए तैयाि होना चातहए, औि
िगवान् की प्रसन्नता के तलए उसे अजथनु की िाँतत, इतन्रयिोग व इतं न्रयतनग्रह, इन दोनों का त्याग किने के तलए तैयाि होना
चातहए।
7. अभ्यर्ी को आध्यातत्मक वाताविण में िहना चातहए।
8. पालनपोषण मात्र के तलए तजतना धन आवश्यक है, उतने धन से उसे संतष्टु होना चातहए। सादगी से जीने के तलए
तजना आवश्यक है, उतने से ज्यादा धनसग्रं ह किने की चेष्टा उसे नहीं किनी चातहए।
9. उसे कृ ष्ण औि शक्ु ल पक्षीय एकादशी जैसे तततर्यों पि उपवास किना चातहए।
10. उसे वट-वृक्ष, गो, तवद्वान् ब्राह्मण औि िि के प्रतत आदि प्रदतशथत किना चातहए।
11. व्यति को ितिमय सेवा औि पतवत्र नाम का कीतथन किते समय अपिाधों को टालना चातहए।
12. उसे अििों का अत्यतधक संग टालना चातहए।
13. उसे असख्ं य तशष्यों का स्वीकाि नहीं किना चातहए। इसका अर्थ यह हुआ तक तजस अभ्यर्ी ने पहले िािह
िाितों का सिलतापवू थक पालन तकया है, वह स्वयं गरुु िी िन सकता है, जैसे कुछ सीतमत तवद्यातर्थयों वाली कक्षा में कोई
तवद्यार्ी कक्षानायक िनता है।
14. मात्र ग्रंर्वाक्यों का उद्धिण देकि उसे स्वयं को महान् तवद्वान् के रूप में प्रस्ततु नहीं किना चातहए। अन्य पस्ु तकों
के तदखावटी ज्ञान के िजाय उसमें आवश्यक पस्ु तकों का िोस ज्ञान होना चातहए।
15. उपयथि ु चौदह िाितों के तनयतमत व सिल अभ्यास से अभ्यर्ी िौततक लािहातन की कतिन पिीक्षाओ ं में िी
मानतसक संतुलन िनाएँ िख सके गा।
16. इसके पिात् की अवस्र्ा में, अभ्यर्ी शोक व मोह से ग्रस्त नहीं होता।

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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

17. वह दसू िों के धमथ अर्वा पजू ा-पद्धतत का अनादि नहीं किता औि न वह िगवान् व उनके ििों का ही अनादि
किता हैं
18. िगवान् या उनके ििों की तनन्दा वह किी सहन नहीं किता है।
19. स्त्री-परुु ष संिंध से जुड़े हुए तवषयों की चचाथ में उसे िाग नहीं लेना चातहए औि न ही दसू िों के पारिवारिक
मामलों से सम्ितन्धत चचाथओ ं में उसे उलझना चातहए।
20.उसे दसू िे जीवों को शिीि से या मन से दःु ख नहीं पहुचँ ाना चातहए, चाहे वे जीव कोई िी हो।
उपयथिु िीस तनयमों में पहले तीन सकािात्मक तनयम गम्िीि तवद्यार्ी के तलए अतनवायथ व सिसे महत्वपणू थ है।
इनके अलावा चवालीस अन्य तनयम हैं तजनका पालन गम्िीि तवद्यार्ी को किना चातहए, तकन्तु िगवान् चैतन्य
महाप्रिु ने पाँच तनयमों को सिसे महत्वपणू थ माना है। आज के समाज की वतथमान तस्र्तत को ध्यान में िखते हुए इन पाँच
तनयमों का चयन तकया गया। ये पाँच तनयम इस प्रकाि से हैं :
1. व्यति को ििों का सगं किना चातहए। ििों के मख ु से िवण किके , उन्हें प्रसगं ोतचत प्रश्न पछ
ू कि, उन्हें िोजन
तखलाकि उनके द्वािा तदए गए िोजन को स्वीकाि किके , उन्हें दान देकि, औि उनके द्वािा दी गई कोई िी वस्तु स्वीकाि
किके उनका सगं हो सकता है।
2. सिी परितस्र्ततयों में व्यति को िगवान् के पतवत्र नाम का कीतथन किना चातहए। िगवन्नाम कीतथन यह साक्षात्काि
का एक सगु म व तिन खचथ का साधन है। िगवान् के असंख्य नामों में से तकसी एक नाम का व्यति तकसी िी समय कीतथन
कि सकता है। व्यति को अपिाध टालने का प्रयास किना चातहए। तदव्य नामों का उच्चािण किते समय व्यति दस प्रकाि
के अपिाध कि सकता है औि तजतना संिव हो सके , उतना उन्हें टालने की प्रयास किना चातहए, लेतकन तकसी िी परितस्र्तत
में व्यति को सािा समय िगवान् के पतवत्र नामों का उच्चािण किने का प्रयास किना चातहए।
3. व्यति को िीमद्भागवत में वतणथत तकए गए तदव्य तवषयवस्तु का िवण किना चातहए। सच्चे ििों द्वािा मंच पि
तदए गए प्रवचनों द्वािा व िागवत के अतधकृ त अनवु ादों द्वािा यह िवण सम्िव होता है।
4. व्यति को िगवान् कृ ष्ण के जन्मस्र्ान मर्िु ा में अपना तनवासस्र्ान िनाना चातहए। अर्वा अपने तनवासस्र्ान
में िगवान् के तवग्रह की स्र्ापना किके औि उस मतू तथ की अपने परिवाि के सिी सदस्यों के सार् पजू ा-अचथना किके , व्यति
अपने घि को मर्िु ा जैसा िना सकता है। इस मतू तथ की पजू ा आध्यातत्मक गरुु से उतचत दीक्षा प्राप्त किने के पिात् होनी
चातहए।
5. व्यति को प्रतततष्ठत िीमतू तथ की पजू ा ध्यानपवू थक व ितिपवू थक किनी चातहए तजससे घि का पिू ा वाताविण
िगवान् के धाम की प्रततकृ तत िने। जो तदव्यता की कला जानता है औि जो अभ्यर्ी को उतचत पद्धतत तदखा सकता है, उस
आध्यातत्मक गरुु के मागथदशथन से यह सम्िव हो सकता है।
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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

उपयथिु पाँच िातों को कोई िी व्यति ससं ाि के तकसी िी कोने में अपना सकता है। इस प्रकाि इस यगु के पततत
आत्माओ ं का उद्धाि किने के तलए अवतरित हुए िी चैतन्य महाप्रिु जैसे अतधकािी व्यति तजस सिल पद्धतत का मागथ
िताते हैं, उसका पालन किके कोई िी अपने घि, िगवद्धाम वापस जाने की तैयािी कि सकता है।
इस तवषय की अतधक जानकािी के तलए व्यति को ितििसामृततसन्धु जैसे ग्रंर् पढ़ने चातहए, तजसका सािांशरूप
अध्ययन “तद नेक्टि ऑि तिवोशन” इस नाम से अंग्रेजी िाषा में हमने प्रस्ततु तकया है।
चेतन आत्मा पि जो स्र्ल ू व सक्ष्ू म आविण हैं, उनको धीिे -धीिे तनकाल देने से अपने को आध्यातत्मक आकाश में
स्र्ानांतरित किने की सम्पणू थ प्रतक्रया तसद्ध होती है। ितिमय तक्रया के ऊपि कहे गए पाँच अंग आध्यातत्मक रूप से इतने
शतिशाली हैं तक प्रार्तमक अवस्र्ा में िि के द्वािा तकया हुआ इनका आचिण िी प्रामातणक आचिणकताथ को िाव की
अवस्र्ा (िगवत्प्रेम के पवू थ की अवस्र्ा) तक िहुत ही जल्द उन्नत कि सकता है। यह िाव की अवस्र्ा या आध्यातत्मक
स्ति की संवेदना मानतसक औि िौतद्धक कायों के पिे होती है। िाव या िगवान् के प्रेम में हुई सम्पणू थ तनमग्नता से व्यति
िौततक शिीि छोड़ने के िाद आध्यातत्मक आकाश में पहुचँ ने के तलए योग्य िन जाता है। िि के द्वािा हुई िगवत्प्रेम की
पणू थता से िि वास्ततवकता में आध्यातत्मक स्ति पि तस्र्त हो जाता है, यद्यतप उसके पास अि िी स्र्ल ू िौततक शिीि हो
सकता है। वह तो एक लाल गमथ लोहे जैसा िन जाता है जो जि अतग्न के संपकथ में आता है, ति लोहे जैसा नहीं विन् अतग्न
जैसा काम किता है। ये चीजें िगवान् की अतचन्त्य व अगाध शति के द्वािा सम्िव होती है, तजसकी गणना पदार्थमय तवज्ञान
के द्वािा होने की कोई सम्िावना नहीं है। इसतलए व्यति को पिम िद्धा से ितिमय सेवा में जड़ु जाना चातहए औि अपनी
िद्धा को दृढ़ किने के तलए, उसे व्यतिगत संग के द्वािा (यतद सम्िव हो) अर्वा स्मिण के द्वािा, िगवान् के प्रतत सच्ची
ितिमय सेवा का तवकास किने में सहायता तमलेगी, तजससे सािे िौततक संशय तिजली की चमक के समान अदृश्य हो
जाएँगे। आध्यातत्मक साक्षात्काि की इन तवतिन्न अवस्र्ाओ ं को अभ्यर्ी स्वयं अनिु व किे गा औि इससे उसे इस िात पि
सकािात्मक प्रगतत कि िहा है। इसके िाद वह तनष्कपट िाव सतहत िगवान् औि उनके धाम के प्रतत यह क्रतमक प्रतक्रया है,
जो मनष्ु य-जीवन के तलए सिसे पहली आवश्यकता है।
इस प्रतक्रया से पणू थता प्राप्त तकए हुए अनेक महान् व्यतियों के इततहास में उदाहिण हैं, तजनमें ॠतष औि िाजाओ ं
का िी समावेश है। इनमें से कुछ लोगों ने िद्धा व अर्क प्रयत्न से ितिमय सेवा के के वल एक अंग का पालन किके िी
सिलता प्राप्त की है। इन महापरुु षों में से कुछ के नाम इस प्रकाि हैः
1. सम्राट पिीतक्षत ने के वल िीशक ु देव गोस्वामी जैसे अतधकािी परुु ष से िवण कि के आध्यातत्मक स्ति प्राप्त तकया।
2. िीशक ु देव गोस्वामी ने यही स्ति अपने महान् तपता िीव्यासदेव से सनु े हुए तदव्य संदश े का शब्दशः तनरूपण
किके प्राप्त तकया।

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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

3. सम्राट प्रह्लाद ने महान् सतं व िि िी नािद मतु न से प्राप्त आदेशानसु ाि िगवान् का अखिं स्मिण किके
आध्यातत्मक सिलता प्राप्त की।
4. िाग्य की देवी, िी लक्ष्मीजी ने के वल िगवान् के चिणकमलों में िैिकि औि सेवा किके यश प्राप्त तकया।
5. िाजा पृर्ु ने के वल िगवान् की पजू ा किके यश प्राप्त तकया।
6. िर्सािर्ी अक्रूि ने मात्र िगवान् के स्ततु तगायन के द्वािा तवजय प्राप्त की।
7. िगवान् िीिामचन्र के प्रतसद्ध अमानव-िि हनमु ान (महावीि) ने के वल िगवान् के आदेशों का पालन किके
सिलता प्राप्त की।
8. महान् योद्धा अजथनु ने उसी सिलता को के वल िाग्यवान् का तमत्र होकि प्राप्त तकया, तजन िगवान् ने अजथनु व
उसके अनयु ातययों को िगवद-् गीता का संदश े प्रदान तकया।
9. सम्राट ितल ने स्वयं के शिीि सतहत सि कुछ िगवान् को समतपथत किके सिलता प्राप्त की।
िगवान् के ितिमय सेवा की ये नौ प्रमातणत तवतधयाँ हैं औि अभ्यर्ी इनमें से एक, दो, तीन, चाि या सिी तवतधयों
को अपनी रुतच के अनसु ाि अपना सकता है। पिम सत्य के प्रतत की गई सिी सेवाएँ अपने आप में परिपणू थ होती हैं औि
िौततक स्ति पि पाए गए मात्रात्मक या गणु ात्मक तिन्नताओ ं के ितहत होती हैं। आध्यातत्मक स्ति पि प्रत्येक वस्तु दसू िी
तकसी वस्तु से एकरूप होती है, यद्यतप तदव्यत्व में िी तवतवधता का अतस्तत्व होता है। सम्राट अम्ििीष ने उिप कही गई
सिी नौ िातों का पालन तकया औि उन्हें पणू थ सिलता प्राप्त हुई। वे ऐसे िि र्े तजन्होंने अपने मन को िगवान् के चिणकमलों
में लगाया, वाणी को आध्यातत्मक जगत् का वणथन किने में, हार्ों को िगवान् को मतन्दि साि किने में, कानों को िगवान्
कृ ष्ण के शब्दों को नम्रता से िवण किने में, नेत्रों को प्रिु के अचाथतवग्रहों का दशथन किने में, शिीि को ििों का शिीि-स्पशथ
किने में, नातसका को प्रिु के प्रतत समतपथत पष्ु पों के गन्धपान में, अपनी तजहृवा को िगवत्प्रसाद के िसास्वादन में, पैिों को
मंतदि की ओि चलने में औि अपने जीवन की सम्पणू थ शति को इतं रयतृतप्त की ततनक िी इच्छा तकए तिना िगवान् की सेवा
किने में लगाया। इन सिी तक्रयाओ ं से उन्हें जीवन की परिपणू थ अवस्र्ा प्राप्त किने में सहायता तमली, जो िौततक तवज्ञान की
समस्त तनपणु ताओ ं को पिास्त किती है।
अतएव सिी मनष्ु यों को जीवन की पणू थता के तलए आध्यातत्मक साक्षात्काि के इन तसद्धान्तों का स्वीकाि किना
तनतान्त आवश्यक है। मनष्ु य की एकमात्र तजम्मेदािी है आध्यातत्मक साक्षात्काि। दिु ाथग्यवश, आधतु नक सभ्यता में मानव-
समाज िाष्ट्रीय कतथव्यों के पालन में अत्यतधक व्यस्त है। वास्ततवकता में िाष्ट्रीय कतथव्य, सामातजक कतथव्य औि मानवीय
कतथव्य के वल उन व्यतियों के तलए अतनवायथ हैं तजनके पास आध्यातत्मक कतथव्य नहीं है। जैसे ही मनष्ु य इस पृथ्वी पि जन्म
लेता है, वैसे ही उस पि के वल िाष्ट्र का, समाज का औि मानवों का ही नहीं, विन् हवा, प्रकाश व जल देने वाले देवताओ ं
का िी ॠण चढ़ जाता है। वह उन महान् ॠतषयों का िी ॠणी िन जाता है, तजन्होंने उसे जीवन में िास्ता तदखाने के तलए
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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

अपने पीछे ज्ञान का तवशाल िडिाि छोड़ तदया हैं उस पि अपने पवू थजों का, परिवाि के सदस्यों का, आतद सिी प्रकाि के
जीवों का ॠण होता है। तकन्तु ज्योंही वह स्वयं को एक कतथव्य में, याने आध्यातत्मक पणू थता के कतथव्य में, तनयि ु कि लेता
है, त्योंही पृर्क् प्रयत्न तकए तिना उसके अन्य सािे ॠण समाप्त हो जाते हैं।
िगवान् का िि समाज में कदातप तवघ्नकािी नहीं होता-विन् वह तो महान् सामातजक सम्पतत्त है। चँतू क कोई िी
प्रामातणक िि पापमय तक्रयाओ ं की ओि आकतषथत नहीं होता, अतएव जैसे ही मनष्ु य शद्ध ु िि िनता है, वैसे ही वह इस
जीवन में तर्ा आने वाले जीवन में सिी संलग्न व्यतियों की शातन्त व समृतद्ध के तलए िहुत िड़ी तनःस्वार्थ सेवा कि सकता
है। औि यतद ऐसा िि कोई अपिाध िी किता है, तो िगवान् स्वयं शीघ्र उसका तनिाकिण किते हैं। इसतलए िि के तलए
िौततक ज्ञान का संिंतधत किना आवश्यक नहीं है औि यह िी आवश्यक नहीं है तक वह सि कुछ त्याग कि वैिागी का
जीवन अपनाएँ। वह के वल घि में िहकि, तकसी िी आिम में, सिलता से ितिमय सेवा का आचिण किें । औि इततहास
में ऐसे उदाहिण िी हैं तजनमें के वल ितिमय सेवा के आचिण से अत्यन्त क्रूि व्यति िी कोमल हृदय िाले िन गए हैं। शद्ध ु
िि के जीवन में ज्ञान व कतनष्ठ जीवन-पद्धतत का त्याग, िाह्य परििम तकए तिना अपने आप आ जाते हैं।
ितिमय सेवा की यह आध्यातत्मक कला व ज्ञान िाितीय ॠतषयों की पिू े संसाि को पिमोत्कृ ष्ट देन है। इसतलए
तजस तकसी ने िाित में जन्म तलया है, उसका यह कतथव्य है तक वह इस महान् कला व तवज्ञान के तसद्धान्तों को स्वयं
अपनाकि तर्ा उसे पिू े संसाि में तवतरित कि, जो अिी िी जीवन के अतन्तम लक्ष्य के तवषय में अज्ञानी है, स्वयं के जीवन
को परिपणू थ किे । ज्ञान के क्रतमक तवकास से मानव-समाज तनतित ही पणू थता की इस अवस्र्ा तक पहुचँ जाएगा। तर्ातप,
िाितीय ॠतष पहले ही उस तस्र्तत तक पहुचँ चक ु े हैं। उस ऊँचाई तक पहुचँ ने के तलए अन्य लोग हजािों हजािों वषथ प्रतीक्षा
क्यों किें ? क्यों न सव्ु यवतस्र्त ढंग से उन्हें तिु न्त जानकािी दी जाए तातक उनका समय औि शति िच जाए? उन्हें उस जीवन
का लाि उिाना चातहए तजसके तलए उन्हें लाखों वषों तक परििम किना पड़ा होता।
एक रूसी कर्ालेखक अि दतु नया को यह सझु ाव दे िहा है तक वैज्ञातनक प्रगतत मनष्ु य को सदा के तलए जीतवत िहने
के तवषय में सहायता कि सकती है। अर्ाथत,् जगत् तनमाथण किने वाले पिमेश्वि में उसकी िद्धा नहीं है। तिि िी उसके सझु ाव
का हम स्वागत किते हैं क्योंतक हम जानते हैं तक वैज्ञातनक ज्ञान में की गई वास्ततवक प्रगतत तनतित ही मनष्ु यों को
आध्यातत्मक आकाश में ले जाएगी औि वैज्ञातनकों को यह सतू चत किे गी तक एक पिम स्रष्टा है औि उसमें वे पणू थ शतियाँ
हैं, जो िौततकतावादी वैज्ञातनकों की संकल्पनाओ ं से पिे हैं।
जैसा तक हमने पहले िताया, प्रत्येक जीवात्मा का रूप शाश्वत है, पिन्तु उसे अपने स्र्ल ू व सक्ष्ू म िाह्यविणों को
िदलना पड़ता हैं औि परिवतथन की इस प्रतक्रया को तकनीकी िाषा में जीवन ओि मृत्यु कहते हैं। जि तक जीवात्मा िौततक
िंधन की हर्कड़ीयाँ पहनता है, ति तक उसे परिवतथन की उस प्रतक्रया से मतु ि नहीं है, जो िौततक जीवन की सवथिेष्ठ
अवस्र्ा में िी चलती िहती है। रूपी कर्ालेखक कल्पना कि सकता है, क्योंतक कर्ालेखकों को कल्पना किने की आदत
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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

होती है, तकन्तु तजन्हें नैसतगथक काननू का र्ोड़ा ज्ञान है, वे इस िात को मान्यता नहीं देंगे तक मनष्ु य इस िौततक जगत् में
हमेशा के तलए जीतवत िह सकता है।
एक प्रकृ तत-वैज्ञातनक के वल एक छोटे-से िल का अभ्यास किके िौततक प्रकृ तत का सवथसामान्य प्रवाह जान सकता
है। एक छोटा िल िूल से तनतमथत होता है, िढ़ता है, कुछ देि तक शाखा पि िहता है, पिू ी तिह िढ़ता है, परिपक्व होता है,
तिि प्रतततदन घटने लगता है, अंत में वृक्ष से नीचे तगिकि पृथ्वी में अपघतटत होना प्रािम्ि किता है औि आतखि में अपना
िीज पीछे छोड़कि पृथ्वी में तमल जाता है। वह िीज अपनी िािी में पनु ः िढ़कि वृक्ष िन जाता है औि समयानसु ाि अनेक
िलों को जन्म देता है, तजनकी िी वही हालत होती है। इस तिह से यह क्रम चलता िहता है।
उसी प्रकाि जीवात्मा (आध्यातत्मक तचनगािी जो पिम िगवान् का अंश है) संिोग के तिु न्त पिात् माता के गिथ में
अपना आंतगक रूप धािण किता है। माता के गिथ में वह धीिे -धीिे िढ़ता है, जन्म लेता है, तिि औि िढ़ता है, तशशु िनता
है, िालक, यवु क, प्रौढ़, वृद्ध िनता है औि अंत में, समस्त शिु कामनाओ ं के िावजदू औि कर्ालेखकों की समस्त हवाई
कल्पनाओ ं के िावजदू , क्षीण होकि मृत्यु को प्राप्त होता है। तल ु नात्मक दृतष्ट से मनष्ु य व िल में कोई अन्ति नहीं है। िल
की तिह मनष्ु य अपने पीछे िालिच्चों के रूप में अपने िीज छोड़कि जा सकता है, तकन्तु वह स्वयं अपने िौततक शिीि में
अनन्त काल तक, िौततक प्रकृ तत के तनयमानसु ाि, नहीं िह सकता।
िौततक प्रकृ तत के तनयम की उपेक्षा कोई कै से कि सकता है? कोई िी िौततक तवज्ञानी प्रकृ तत के किोि तनयम को
िदल नहीं सकता, तिि चाहे वह तकतना ही गवोतिपणू थ क्यों न हो। कोई िी खगोलवेत्ता अर्वा वैज्ञातनक ग्रहों की गतत की
नहीं िदल सकता-वह के वल एक क्षरु तखलवाड़ी ग्रह िना सकता है, तजसे वह उपग्रह कहता है। मख ू थ िालक इससे प्रिातवत
होकि आधतु नक उपग्रहों व स्िुटतनकों के आतवष्काि को िहुत िड़ा िेय दे सकते हैं, तकन्तु मानव समाज के अतधक समझदाि
लोग सयू थ, तािे , ग्रहों औि अन्य प्रचंि उपग्रहों-तजनकी तगनती तक िौततक वैज्ञातनक नहीं कि सकता-के तनमाथणकताथ को
अतधक िेय देते हैं। यतद छोटे तखलवािी उपग्रह का तनमाथणकताथ रूस अर्वा अमेरिका में हो सकता है, तो यह कहना
यतु िसंगत है तक तवशालकाय उपग्रहों का तनमाथणकताथ आध्यातत्मक आकाश में है। यतद तखलौने-से ग्रह के तनमाथण के तलए
औि उसको अपनी कक्षा में घमु ाने के तलए इतने सािे वैज्ञातनक मतस्तष्कों की आवश्यकता होती है, तो तकस तिह के कुशाग्र
व परिपणू थ मतस्तष्क ने तािों की आकाशगंगाओ ं को िनाकि उनको अपनी कक्षाओ ं में सन्धारित तकया? आज तक
नातस्तकवगथ इस प्रश्न का उत्ति देने में समर्थ नहीं हुआ है।
अतवश्वासी लोग सृतष्ट के अपने तसद्धान्त प्रस्ततु किते हैं, तजनमें आतखि में तनम्नतलतखत वाक्य होते हैं, “यह समझना
मतु श्कल है।”, “हमािी कल्पनाशति इसे ग्रहण नहीं कि सकती, तकन्तु यह संिव हो सकता है।”, “यह अिोध्य है।” इत्यातद।
इसका अर्थ के वल यही है तक उनकी जानकािी का कोई प्रमाणितू आधाि नहीं है औि वह प्रयोगात्मक आंकड़ों पि
आधारित नहीं है। वे के वल परिकल्पना किते हैं। तर्ातप, अतधकािपणू थ जानकािी िगवद्गीता में उपलब्ध है। उदाहिणार्थ,
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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

िगवद्गीता हमें यह सतू चत किती है तक िौततक जगत् में ऐसे जीव है तजनकी जीवनावतध 43,00,00 * 1,000 *2 * 30 *
12 * 100 सौिवषथ है। हम िगवद्गीता को प्रमाणितू मानते हैं क्योंतक इस ज्ञानग्रर्ं को िी शक ं िाचायथ, िी िामानजु ाचायथ, िी
मध्वाचायथ तर्ा िी चैतन्य महाप्रिु जैसे िाित के महान् ॠतषयों ने प्रमाण माना है। िगवद्गीता सतू चत किती है तक िौततक
जगत में सिी दृश्य रूप नाश औि मृत्यु को प्राप्त होने वाले है, तिि चाहे उनके जीवन की अवतध तकतनी ही लम्िी हो।
इसतलए समस्त िौततक आकािों पि परिवतथन का तनयम लागू होता है, यद्यतप तस्र्ततज ऊजाथ का किी नाश नहीं
होता। जि शति के मल ू घटकों का किी नाश नहीं होता, पिन्तु िौततक जगत् में जि पदार्थ आकाि धािण किता है, वह
आकाि कुछ काल तक िहता है, परिपक्व होता है, िढ़ू ा होता है, क्षीण होने लगता है, औि अंत में पनु ः अदृश्य होता है।
सिी िौततक वस्तओ ु ं की यही तस्र्तत है। िौततकतावादी का यह सझु ाव तक इस िौततक आकाश के पिे “दसू िा कोई रूप”
है, जो दृश्यता की सीमा के पिे है औि जो तवतचत्र व अतचन्त्य है, वह के वल आध्यातत्मक आकाश का िीका संकेत है।
तिि िी, आत्मा का मल ू तत्त्व ज्यादा तनकट है, क्योंतक वह सिी प्रातणयों में कायथ किता है। जि वह आध्यातत्मक तत्त्व
िौततक शिीि से िाहि तनकलता है, ति िौततक शिीि में कोई प्राण नहीं िहता। उदाहिणार्थ, एक िालक के शिीि में
आध्यातत्मक तत्त्व उपतस्र्त है औि इसतलए शिीि में परिवतथन होते हैं औि उसका तवकास होता है। पिन्तु यतद आत्मा शिीि
को छोड़ देता है, तो तवकास िहि जाता है। यह तनयम प्रत्येक िौततक वस्तु को लागू है। जड़ पदार्थ जि आत्मा के सम्पकथ
में होता है, ति वह एक आकाि से दसू िे आकाि में िदल जाता है। आत्मा के तिना कोई परिवतथन नहीं होता। पिू े तवश्व का
तवकास इसी प्रकाि होता है। समचू ा ब्रह्माडि िगवान् के आध्यातत्मक िल की वजह से, िगवान् की शति से ही तनकलता
है औि उसमे सयू थ, चन्र, पृथ्वी जैसे महाकाय रूप तनमाथण होते हैं। ग्रहिचना के चौदह तविाग है औि यद्यतप वे गणु व आकाि
में एक दसू िे से तिन्न है, तिि िी तवकास का समान तनयम सिी के तलए लागू होता है। आध्यातत्मक तत्त्व स्रष्टा है औि इसी
आध्यातत्मक तत्त्व के द्वािा परिवतथन, सक्र ं मण एवं सवं धथन होता है।
जीवन तनतित ही िासायतनक संयोग जैसी पदार्थमय प्रततक्रयाओ ं से तनमाथण नहीं होता है, जैसा तक अनेक मख ू थ लोग
दावा किते हैं। एक िेष्ठति व्यति द्वािा पदार्थमय पिस्पि तक्रया को गततशील िनाया जाता है, जो आध्यातत्मक वेतन शति
के तलए अनक ु ू ल वाताविण तनमाथण किता है। िेष्ठति शति जड़ पदार्थ को समतु चत ढ़ंग से चलाती है-औि वह ढंग
आध्यातत्मक जीव के स्वतंत्रतापणू थ इच्छा के अनसु ाि तनधाथरित तकया जाता है। उदाहिणार्थ, गृहतनमाथण का सामान अपने
आपसे एक दसू िे पि “प्रतततक्रया” किके अचानक िहायशी मकान का रूप धािण नहीं किता। जीतवत आत्मा समतु चत ढंग
से, अपनी स्वतंत्रतापणू थ इच्छा के अनसु ाि, जि पदार्थ को सचं ातलत किता है औि गृह का तनमाथण किता है। उसी प्रकाि,
जि पदार्थ घटक मात्र है, तकन्तु आत्मा स्रष्टा है। के वल अल्पज्ञानी व्यति ही इस तनष्कषथ का स्वीकाि किने से कतिाता है।
स्रष्टा पृष्ठितू म में अदृश्य िह सकता है, तकन्तु इसका अर्थ यह नहीं है तक स्रष्टा का अतस्तत्व ही नहीं है। पदार्थमय तवश्व के
तवशाल रूप मात्र से ही व्यति को मोतहत नहीं होना चातहए, दिअसल उसे इन सिी िौततक आतवष्कािों के पीि-पीछे िने
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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

हुए पिम ितु द्धचातयु थ को ताड़ लेना चातहए। पिम आत्मा, जो तक पिम प्रज्ञावान् व्यति है, वह अतन्तम स्त्रष्टा है औि वे ही
सवाथकषथक परुु षोत्तम िगवान् िीकृ ष्ण है। यद्यतप तकसी को इसकी जानकािी न हो, तकन्तु िगवद्गीता व तवशेषतः
िीमद्भागवतम् जैसे वैतदक सातहत्यों में सृतष्टकताथ की तनतित जानकािी दी गई है।
जि कोई उपग्रह अन्तरिक्ष में िें क तदया जाता है, ति िालक कदातचत यह नहीं समझ पाएगा तक उसके पीछे
वैज्ञातनक मतस्तष्क काम कि िहे हैं, पिन्तु एक ितु द्धमान प्रोढ़ व्यति समझ जाता है तक पृथ्वी पि िैिे हुए वैज्ञातनकों के
मतस्तष्क ही उस उपग्रह को तनयंतत्रत कि िहे हैं। उसी प्रकाि, अल्प ितु द्ध वाले लोगों को सृतष्टकताथ का औि आध्यातत्मक
जगत् के उसके शाश्वत धाम का, जो दृश्यता के क्षेत्र के तिल्कुल पिे हैं, पता नहीं होता, तकन्तु वास्ततवकता में आध्यातत्मक
आकाश व आध्यातत्मक ग्रहों का अतस्तत्व है, जो िौततक आकाश के ग्रहों की तल ु ना में अतधक तवस्तीणथ व संख्या में
अत्यतधक हैं िगवद्गीता से हमें यह सचू ना तमलती है तक िौततक तवश्व सम्पणू थ सृतष्ट का के वल एक अंश (एक चतर्ु ाांश) मात्र
है। इस तिह की जानकािी िीमद्भागवतम् औि दसू िे वैतदक सातहत्यों में तवस्तािपवू थक दी गई है।
यतद जीवशति का तनमाथण वैज्ञातनक की प्रयोगशाला में “कुछ तवतशष्ट िौततक व िासायतनक सतम्मिणों की
प्रतततक्रया” से तक्रया जा सकता, तो शेखी िघािने वाले िौततक वैज्ञातनक अिी तक जीवन का तनमाथण क्यों नहीं कि सकें
हैं? उन्हें यह अच्छी तिह से जान लेना चातहए तक आध्यातत्मक जीवशति जड़ पदार्थ से तिन्न है औि यह शति तकतनी िी
मात्रा के िौततक िैि-तििाव से तनमाथण नहीं की जा सकती। इस समय रूसी औि अमेरिकी लोग तकनीकी तवज्ञान के अनेक
तविागों में तनःसंशय अग्रसि है, तकन्तु वे अिी तक आध्यातत्मक तवज्ञान के तवषय में अज्ञान में है। उन्हें यतद एक परिपणू थ व
प्रगततशील मानवसमाज िनाना है, तो उन्हें िेष्ठ ितु द्धमत्ता से सीखना होगा।
रूसी लोगों को इस िात की जानकािी नहीं है तक िीमद्भागवतम् में समाजवाद के तत्त्वज्ञान का परिपणू थ ढ़ंग से वणथन
तकया गया है। िागवतम् का उपदेश है तक तजतनी िी सम्पतत्त है-सिी नैसतगथक साधन (कृ तष-सम्िन्धी, खान-खदु ाई सम्िन्धी
इत्यातद)-अंततम स्रष्टा द्वािा तनतमथत तकए गए हैं औि इसतलए प्रत्येक जीवात्मा का उसमें से कुछ िाग लेने का अतधकाि हैं
आगे यह कहा गया है तक मनष्ु य को उतनी ही सम्पतत्त िखनी चातहए तजतनी शिीि को िनाए िखने के तलए आवश्यक हों,
औि यतद वह उससे ज्यादा सम्पतत्त की इच्छा िखता हो अर्वा यतद वह उसके तहस्से से अतधक सम्पतत्त ग्रहण किता हो,
तो वह दडि का पात्र है। यह िी कहा है तक पशओ ु ं के सार् अपने िच्चों के समान व्यवहाि किना चातहए।
हमािा तवश्वास है तक इस पृथ्वी का कोई िी िाष्ट्र समाजवाद का इतना सन्ु दि वणथन नहीं कि सकता तजतना
िीमद्भागवत में तकया गया है। मनष्ु येति पशओ ु ं के सार् िाइयों एवं िच्चों जैसा व्यवहाि के वल तिी तकया जा सकता है,
जि व्यति के पास सृतष्टकताथ की औि जीवात्मा के वास्ततवक िचना की पणू थ संकल्पना होती है।
के वल आध्यातत्मक जगत् में मनष्ु य की अमित्व की इच्छा पणू थ हो सकती है। जैसा तक इस लेख के आिंि में िताया
जा चक ु ा है, शाश्वत जीवन की इच्छा सप्तु आध्यातत्मक जीवन का ही लक्षण है। मानवी सभ्यता का लक्ष्य इस तदशा की ओि
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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

होना चातहए। प्रत्येक मनष्ु य के तलए, यहाँ ितायी गई ितियोग की प्रतक्रया के द्वािा, उस आध्यातत्मक प्रान्त में प्रवेश पाना
सम्िव है। यह एक महान तवज्ञान है औि िाित ने ऐसा प्रचिु तवज्ञान-सातहत्य तनमाथण तकया है तजसके द्वािा जीवन की पणू थता
प्राप्त हो सकती है।
ितियोग मानव का शाश्वत धमथ है। ऐसे समय में, जहाँ जीवन के सिी क्षेत्रों में-धातमथक तत्त्वप्रणातलयों पि िी-िौततक
तवज्ञान का वचथस्व है, मानव के शाश्वत धमथ तसद्धान्तों को आधतु नक वैज्ञातनक के दृतष्टकोण से नहीं तकया गया, तो आधतु नक
सभ्यता में धमथ स्वीकाि नहीं होगा। इसके उत्ति में, सत्य के प्रेतमयों को यह घोतषत किते हुए हमें आनन्द हो िहा है तक
ितियोग जगत् का शाश्वत धमथ है औि वह सिी जीवात्माओ ं के तलए है, जो सिी शाश्वत रूप से पिम िगवान् से जड़ु े हुए
हैं।
िीपाद िामानजु ाचायथ सनातन शब्द की व्याख्या इस प्रकाि देते है- “तजसका न तो आतद है न अन्त है।” जि हम
सनातन धमथ की िात किते हैं, ति हम इस व्याख्या को सत्य मानकि चलते हैं। तजसका न तो आतद है न अन्त हैव, वह
साम्प्रदातयक नहीं होता, क्योंतक साम्प्रदातयक तत्त्व का आतद व अन्त होता है (साम्प्रदातयक तत्त्व सीतमत व प्रततितन्धत
होता है)। आधतु नक तवज्ञान के प्रकाश में, सनातन धमथ को दतु नया के समस्त लोगों का ही नहीं, ितल्क ब्रह्माडि के सािे जीवों
का मख्ु य कतथव्य इस रूप में हम देख सकते हैं। असनातन (जो सनातन नहीं है) धातमथक िद्धा का मानव इततहास में ततनक
आिम्ि हो सकता है, पिन्तु सनातन धमथ का कोई िी ऐततहातसक आिम्ि नहीं है, क्योंतक वह तनत्य ही जीवात्माओ ं के सार्
िहता है।
जि मनष्ु य तकसी तवतशष्ट िद्धा-जैसे तहन्द,ू मुतस्लम, ईसाई, िौद्ध अर्वा इस प्रकाि का सम्पराय से सम्िद्ध होने का
दावा किता है, औि जि वह जन्म के तकसी तवतशष्ट समय व परितस्र्तत का उल्लेख किता है, ति ऐसी उपातधयों को
असनातन धमथ कहा जाता है। कोई तहन्दु से मतु स्लम िन सकता है अर्वा कोई मुतस्लम से तहन्दु या ईसाई िन सकता है,
तकन्तु सिी परितस्र्ततयों में एक समान सत्रू है। सिी परितस्र्ततयों में वह अन्यों की सेवा किता है। कोई तहन्द,ु मतु स्लम, िौद्ध
या ईसाई सिी परितस्र्ततयों में तकसी का सेवक है। तवतशष्ट प्रकाि की तर्ाकतर्त िद्धा सनातन धमथ नहीं है। सनातन धमथ
वह है, जो सदैव जीवात्माओ ं के सार् िहता है औि वह सि धमों को एक किने वाला है। सनातन धमथ का अर्थ है सेवा
किना।
िगवद्गीता में सनातन शब्द का उल्लेख कई िाि हुआ है। इस प्रमाणितू ग्रन्र् में तकया गया सनातन-धमथ का वणथन
इस प्रकाि हैः
िगवद्गीता के सातवे अध्याय के दसवे श्लोक में सनातनम् शब्द आया हुआ है, जहाँ िगवान् कहते हैं तक वे समस्त
वस्तओ ु ं के सनातन िीज हैं, इसतलए सनातनम् हैं। उपतनषदों में समस्त वस्तओ ु ं के िीज का वणथन पणू थ के रूप तकया गया
है। उस िीज से तनकलने वाली सिी वस्तएु ँ िी अपने आप में परिपणू थ है, तकन्तु यद्यतप पणू थ सनातन िीज से अनेक पणू थ वस्तएु ँ
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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

तनकलती हैं, तिि िी सनातन िीज मात्रा में अर्वा गणु में घटता नहीं है (देतखए ईशोपतनषद, आवाहन)। ऐसा इसतलए है
तक सनातन का स्वरूप अपरिवतथनीय है। जो वस्तु समय या परितस्र्तत के प्रिाव से िदलती है, वह सनातन नहीं है। इसतलए
जो वस्तु रूप में या गणु में ततनक िी िदलती है, उसे सनातन के रूप में स्वीकाि नहीं तकया जा सकता। एक िौततक उदाहिण
के रूप में, सयू थ हजािों किोिों वषों से अपनी तकिणें छोड़ िहा है, तिि िी, यद्यतप वह एक िौततक पदार्थ है, उसका रूप व
तकिण अिी तक िदलें नहीं हैं। इसतलए तजसका किी तनमाथण नहीं हुआ, वह अपनी िनावट में वह गणु में िदल नहीं
सकता, यद्यतप वह सिी वस्तओ ु ं की िीजरूप स्रोत है।
िगवान् दावा किते हैं तक वे जीवन की समस्त योतनयों के तपता है। उनका दावा है तक सिी जीव-चाहे वे कोई िी
क्यों न हों-उनके अंश है। परिणामस्वरूप िगवद्गीता उन सिी के तलए है गीता में पिम िगवान् के इस सनातन स्वरूप की
जानकािी है। उनके धाम की िी जानकािी दी गई है, जो िौततक आकाश से िहुत दिू है औि जीवात्माओ ं के सनातन स्वरूप
की िी जानकािी दी गई है।
िगवान् िीकृ ष्ण िगवद्गीता में हमें यह िी िताते हैं तक यह िौततक संसाि जन्म, वृद्धावस्र्ा, िोग औि मृत्यु के रूप
में दःु खों से ििा हुआ है। ब्रह्मलोक नामक िौततक संसाि के सवथिेष्ठ ग्रह में िी ये दःु ख उपतस्र्त हैं। के वल उनके स्वयं के
धाम में ही इन दःु खों का सम्पणू थ अिाव है। उस धाम में सयू थ, चन्र औि अतग्न के प्रकाश की कोई आवश्यकता नहीं है। वे
ग्रह स्वयं प्रकातशत हैं। वहाँ का जीवन हमेशा िहनेवाला औि ज्ञान व आनन्द से परिपणू थ है। इसी को सनातन धाम कहते है।
अतः यह तनष्कषथ स्वािातवक है तक जीवात्माएं को अपने घि िगवद्धाम में, याने सनातन धाम में लौटना चातहए, जहाँ वे
सनातन परुु ष अर्वा परुु षोत्तम याने िगवान् िीकृ ष्ण के सार् जीवन का आनन्द लटू सकते है। िौततक जीवन की इस
दःु खदायी ितू म में उन्हें तिल्कुल सड़ना नहीं चातहए। िौततक जीवनक्षेत्र में कोई आनन्द नहीं है-ब्रह्मलोक तक में िी नहीं-
इसतलए के वल जो कम ितु द्धमान हैं, वे िौततक ब्रह्माडि के उच्चति ग्रहों में उन्नत होने की योजनाएँ िनाकि उसके तलए
प्रयत्न किते हैं। कम ितु द्धशाली लोग देवताओ ं की िी शिण में जाते हैं औि के वल सीतमत काल तक िहने वाले लाि प्राप्त
किते हैं। इस प्रकाि उनके धातमथक तसद्धान्त औि उनसे प्राप्त होने वाले िायदे के वल क्षणिंगिु होते हैं। तर्ातप, ितु द्धमान
मनष्ु य धमथ के नाम पि चलने वाले झिू े कायों का त्याग किता है औि पणू थ परुु षोत्तम िगवान् की शिण ग्रहण किता है औि
इस प्रकाि सवथशतिमान तपता का सम्पणू थ संिक्षण प्राप्त किता है। इसतलए ितियोग की प्रतक्रया ही सनातन धमथ है, तजसके
द्वािा व्यति सनातन िगवान् औि उनके सनातन धाम याने आध्यातत्मक तवश्व में लौट सकता है औि वहाँ पि व्याप्त सनातन
आनन्द में सतम्मतलत हो सकता है।
जो सनातन-धमथ के अनयु ायी हैं, वे िगवद्गीता की तवचािधािा के अनसु ाि, अिी से इन तसद्धान्तों को अपना सकते
हैं शाश्वत तसद्धान्तों का पालन किने में कोई िी रुकावट नहीं है। वे िी, जो कम उदीप्त है, िगवान् के पास लौट सकते हैं।
यही िीमद्भागवतम् में औि िगवद्गीता में स्वयं िगवान् ने तसखाया है। इस अवसि का लाि उिाने का मौका मानवजातत को
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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

तदया जाना चातहए। चॅतंू क िगवद्गीता िाितवषथ की ितू म में कही गई र्ी, इसतलए असली सनातन धमथ का प्रचाि जगत् के
दसू िे िागों में किने की तजम्मेदािी प्रत्येक िाितीय की है। तवशेषतः आज की घड़ी में मागथ भ्रष्ट परुु ष िौततकतावाद के
अधं काि में दःु ख िोग िहे हैं, औि उनकी तर्ाकतर्त तवद्या ने उन्हें पिमाणु िम की खोज किने के लायक िनाया है।
परिणामस्वरूप वे सवथनाश के तकनािे पि हैं। तर्ातप सनातन धमथ उन्हें जीवन के वास्ततवक उद्देश्य के िािे में तशक्षा प्रदान
किे गा औि इसके प्रचाि से वे लािातन्वत होंगे।

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ग्रहमालाओ ं की णवणभन्नताएँ
आजकल के तदनों में, जि मनष्ु य चन्रमा पि जाने का प्रयास कि िहे हैं, लोगों को यह नहीं सोचना चातहए तक
कृ ष्णिावनामृत तकसी पिु ाने रिवाज से सम्ितन्धत है। जि दतु नया चन्रमा पि पहुचँ ने का प्रयत्न कि िही है, हम ‘हिे कृ ष्ण’
का कीतथन कि िहे हैं। पिन्तु लोगों को गलत समझकि यह मान लेना नहीं चातहए तक हम आधतु नक वैज्ञातनक प्रगतत में तपछड़े
हुए हैं। हमने समस्त वैज्ञातनक प्रगतत को पहले से ही पाि कि तलया है। िगवद्गीता में कहा गया है तक मनष्ु य का उच्चति ग्रहों
में पहुचँ ने का प्रयास, यह कोई हल ही की िात नहीं है। समाचािपत्र के मख ु पृष्ठ पि तलखा होता है, “मनष्ु य का चन्रमा पि
पहला कदम,” लेतकन संवाददाताओ ं को यह नहीं पता तक किोिों किोिों मनष्ु य वहाँ पि जाकि वापस आएँ है। यह पहली
िािी नहीं है। यह तो प्राचीन अभ्यास है। िगवद्गीता में स्पष्ट कहा हे, आब्रह्मिवु नाल्लोकाः पनु िावततथनाऽजथनु “हे तप्रय अजथनु ,
यद्यतप तमु सवोच्च ग्रहमाला में िी जाओगे, तजसे ब्रह्मलोक कहते हैं, तुम्हें वापस आना पड़ेगा।” इसतलए अन्तग्रथहीय यात्रा
अनोखी िात नहीं है। कृ ष्णिावनािातवत ििों को उसका पहले से ज्ञान है।
चॅतंू क हम कृ ष्णिावनािातवत है, इसतलए िगवान् िीकृ ष्ण जो कहते हैं, उसे हम अतन्तम सत्य के रूप में स्वीकाि
किते हैं। वैतदक सातहत्य के अनसु ाि, अनेक ग्रहमालाएँ हैं। तजस ग्रहमाला में हम िहते हैं, उसे िल ू ोक कहते हैं। इस ग्रहमाला
के ऊपि िल ू ोक है। उसके ऊपि स्वलोक है (चन्रमा स्वलोक में है।) स्वलोक के ऊपि महलोक है, उसके ऊपि जनलोक,

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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

औि उसके ऊपि सत्यलोक है। उसी प्रकाि तनम्नति ग्रहमालाएँ है। इस प्रकाि इस तवश्व में ग्रहमालाओ ं के चौदह स्ति हैं, औि
सयू थ मख्ु य ग्रह है। सयू थ का वणथन ब्रह्मसतं हता (5.32) में तनम्नतलतखत शब्दों में तकया गया है।
यच्चक्षरु े ष सणवता सकलग्रहािां
राजा समस्त सुरमूणतथरशेषतेजााः।
यस्याज्ञया भ्रमणत सम्भृतकालचक्रो
गोणवन्दमाणदपरुु षं तमहं भजाणम॥
“मैं आतदपरुु ष िगवान् गोतवन्द (कृ ष्ण) की आिाधना किता हॅूं तजनकी आज्ञा से सयू थ में अपरितमत शति औि ताप
है औि वह अपनी कक्षा में घमू ता है। सयू थ, जो समस्त ग्रहमालाओ ं में प्रमख ु है, पिम िगवान् का नेत्र है।” वास्तव में सयू थ के
तिना हम देख नहीं सकते। हमें अपनी आँखों पि िहुत गवथ हो सकता है, लेतकन हम अपने घि के िाहि के पिौसी को िी
देख नहीं सकते। लोग चनु ौती देते हैं, “क्या आप हमें िगवान् तदखा सकते हैं?” लेतकन वे देख ही क्या सकते हैं? उनकी
आँखों का मल्ू य ही क्या है? िगवान् इतने सस्ते नहीं है। सयू थप्रकाश के तिना हम कोई िी चीज देख नहीं सकते। तो िगवान्
के तवषय में िल ू ही जाओ।ं सयू थप्रकाश के तिना हम अन्धे हैं िातत्र के समय हम कुछ देख नही सकते औि इसतलए हम
तिजली का उपयोग किते हैं, क्योंतक उस सम सयू थ उपतस्र्तत नहीं होता।
सृतष्ट के आतवष्काि में के वल एक ही सयू थ नहीं है। तकन्तु किोड़ों सयू थ हैं। यह िी ब्रह्मसतं हता (5.40) में कहा गया हैः
यस्य प्रभा प्रभवतो जगदण्डकोणि-
कोणिष्वशेषवसध ु ाणदणवभणू तणभन्नम।्
तद्ब्रह्मणनष्कलमनन्तमशे षभूतं
गोणवन्दमाणदपुरुषं तमहं भजाणम॥
पणू थ परुु षोत्तम िगवान् िीकृ ष्ण के शिीि के आध्यातत्मक तेज को ब्रह्मज्योतत कहते हैं औि उस ब्रह्मज्योतत में असंख्य
ग्रह हैं। तजस तिह से सयू थप्रकाश में अनतगनत ग्रह हैं, उसी तिह से कृ ष्ण के शिीि के चमकते हुए तेज में अनतगनत ग्रह औि
ब्रह्माडि है। हमें अनेक ब्रह्माडिों का ज्ञान है औि प्रत्येक ब्रह्माडि में एक सयू थ हैं इस प्रकाि किोड़ो-किोड़ो ब्रह्माडि हैं औि
यतद कोई इनमें से तकसी ग्रह पि जाने का प्रयास किे गा, तो के वल अपना समय िििाद किे गा।
अिी कोई मनष्ु य चन्रमा पि गया है, लेतकन मनष्ु य समाज को इससे क्या लाि? यतद इतना धन, इतनी शति औि
दस साल का प्रयत्न खचथ किने के िाद, कोई चन्रमा पि जाता है औि उसे के वल स्पशथ किता है, तो उससे क्या िायदा प्राप्त
होगा? क्या कोई वहाँ ही िहकि अपने तमत्रों को िल ु ा सकता है? औि यतद कोई वहाँ जाकि िहता िी है, तो उससे क्या लाि

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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

होगा? जि तक हम इस िौततक जगत् में है, चाहे इस ग्रह पि या उस ग्रह पि, ति तक जन्म, मृत्य,ु जिा व व्यातध के दःु ख,
जो सवथत्र उपतस्र्त है, हमािे पीछे िहेंगे। हम इनसे छुटकािा नहीं पा सकते।
यतद हम चन्रमा पि जाकि िहते हैं-मान लो तक यह सम्िव है-चाहे प्राणवायु (ऑक्सीजन) के मख ु ौटे के सार्, तो
तकतने देि तक हम िह सकें गे? आगे चलकि, मान लो, हमें वहाँ िहने का अवसि िी तमलता है, तो इससे हमें क्या तमलेगा?
कदातचत हमें र्ोड़ा-सा लम्िा जीवन तमलेगा, लेतकन हम वहाँ हमेशा के तलए जी नहीं सकते। यह तो असम्िव है। औि
लम्िा जीवन प्राप्त किने के िाद िी हमें क्या तमलेगा? तिवः तकं न जीवतन्त? क्या वृक्ष अनेकानेक वषों तक जीतवत नहीं
िहते? सॅन फ्ातन्सस्को के पास मैनें एक जंगल देखा है, जहाँ पि एक सात हजाि वषथ पिु ाना पेड़ है। लेतकन इससे िायदा क्या
है? यतद तकसी को एक ही स्र्ान पि सात हजाि वषथ खड़े िहने का गवथ है, तो इससे िहुत ििी िात नहीं है।
कोई चन्रमा पि कै से जाता है, औि वहाँ से कै से लौटकि आता है, इत्यातद की िहुत लम्िी कहानी है, औि यह सि
वैतदक सातहत्य में वतणथत तकया गया है। यह कोई नवीन प्रतक्रया नहीं है। तकन्तु हमािे कृ ष्णिावनामृत आंदोलन का उद्देश्य
तिन्न हे। हम हमािा मल्ू यवान समय व्यर्थ नष्ट किने वाले नहीं है। कृ ष्ण कहते हैं, “इस ग्रह पि अर्वा उस ग्रह पि जाने में
अपना समय िििाद मत किो। इससे तम्ु हें क्या तमलेगा? तमु जहाँ जाते हो, वहाँ तुम्हािे िौततक दःु ख तुम्हािा पीछा किें गे।”
इसतलए चैतन्य चरितामृत (आतद 3.97) में लेखक ने िहुत ही सन्ु दि ढंग से कहा है,
के ह पापे, के ह पुण्ये करे णवषय भोग।
भणिगंध नाणह याते याय भवरोग॥
“इस िौततक संसाि में कोई आनन्द िोग िहा है, तो कोई आनन्द िोग नहीं िहा है। लेतकन वास्ततवकता में सिी
लोग दःु ख िोग िहे हैं, यद्यतप कुछ लोग सोचते हैं तक वे आनन्द लटू िहे हैं, तो कुछ लोगों को लगता है तक वे दःु खी है।”
वास्ततवकता में सि लोग दःु खी हैं। इस िौततक संसाि में कौन ऐसा है तजसे िोग का दःु ख नहीं सताता? तकसे िढ़ु ापा दःु ख
नहीं देता? कौन नहीं मिता? तकसी को िी िढ़ू ा होने की अर्वा िोगग्रस्त होने की इच्छा नहीं होती, लेतकन सिी को ऐसा
होना पड़ता है। तो आनन्द कहाँ है? यह आनन्द सि िकवास है क्योंतक इस िौततक संसाि में कोई आनन्द सि िकवास है
क्योंतक इस िौततक संसाि में कोई आनन्द नहीं है। यह के वल हमािी कल्पना है। तकसी को यह नहीं सोचना चातहए तक,
“यह आनन्द है, औि यह दःु ख है।” वास्ततवकता में सि दःु ख ही है। इसतलए चैतन्य चरितामृत में कहा गया है, “आहाि,
तनरा, िय औि मैर्नु के तत्त्व हमेशा िहेंगे, लेतकन वे तिन्न-तिन्न कोतटयों में िहेंगे।” उदाहिणार्थ, अमरिकन लोगों ने,
पवू थजन्मों में तकए हुए पडु यकमों के परिणामस्वरूप, अमेरिका में जन्म तलया है। िाित में लोग दारिदर् पीतित है औि दःु ख
िोग िहे है तकन्तु यद्यतप अमरिकन लोग मजे से घी लगाई हुई िोटी खा िहे हैं, औि िाित के लोग सख ू ी िोटी खा िहे हैं, तिि
िी दोनों खा िहे हैं। िाित के लोग गिीि है, इसका अर्थ ऐसा नहीं है तक सािी जनता अन्न के अिाव में मि िहीं है। शािीरिक
आवश्यकताओ ं के चाि तत्त्व-आहाि, तनरा, िय औि मैर्नु -तकसी िी परितस्र्तत में पणू थ तकए जा सकते हैं, तिि चाहे कोई
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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

पापमय परितस्र्तत में जन्मा हो, या पडु यमय परितस्र्तत में जन्मा हो। तर्ातप, समस्या यह है तक जन्म, मृत्य,ु जिा औि व्यातध,
इन चाि तत्वों से मि ु कै से हुआ जाए।
यही वास्ततवक समस्या है। यह नहीं है तक “हम क्या खाएगें?” पशओ ु ं औि पतक्षयों के तलए ऐसी कोई समस्या नहीं
है। प्रातःकाल होते ही तिु न्त चहचहाते हैं “चँू चॅंू चँू चँ।ू ” वे जानते हैं तक तक उन्हें उनका खाद्य तमलेगा। िख ू ा कोई नहीं मि
िहा है औि अतत-जनसंख्या नाम की िी कोई चीज नहीं है क्योंतक िगवान् की वा से सिी को िोजन तमलता है। गणु ों में
िेद हो सकता है, लेतकन िेष्ठ कोतट का िौततक िोग प्राप्त किना ही जीवन का अन्त नहीं है। असली समस्या है जन्म, मृत्य,ु
जिा औि व्यातध से मि ु कै से हुआ जाए? इसका समाधान ब्रह्माडि के अन्दि के वल घमू ते िहकि समय िििाद किने से होने
वाला नहीं है। यद्यतप कोई सवथिेष्ठ ग्रह पि िी जाता है, तिि िी इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता, क्योंतक मृत्यु सवथत्र
उपतस्र्त हैं।
वैतदक जानकािी के अनसु ाि चन्रमा पि जीवन की आयु दस हजाि वषथ है औि वहाँ का एक तदन यहाँ के छह महीनों
के ििािि है। इस प्रकाि 10,000 * 180 वषथ चन्रमा पि जीवन की अवतध है। तर्ातप, पृथ्वी वातसयों के तलए चन्रमा पि
जाना औि वहाँ िहुत लम्िे समय तक िहना असम्िव है। नहीं तो सम्पणू थ वैतदक सातहत्य तमथ्या सातित हो जाएगा। हम वहाँ
जाने का प्रयत्न कि सकते हैं, लेतकन वहाँ पि िहना सम्िव नहीं है। वेदों में यह ज्ञान तदया गया है। इसतलए हम इस ग्रह पि
या उस ग्रह पि जाने के तलए उत्सक ु है, जहाँ कृ ष्ण िहते हैं। कृ ष्ण िगवद्गीता (9.25) में कहते हैं:-
याणन्त देवव्रता देवान् णपतनॄ याणन्त णपत-ॄ व्रतााः।
भूताणन याणन्त भूतेज्या याणन्त मद्याणजनोऽणप माम॥्
जो देवताओ ं की पजू ा किते हैं, वे देवताओ ं के िीच जन्म लेंगे, जो तपतिों को पजू ते हैं, वे तपतिों के पास जाते हैं, जो
ितू -प्रेतों की उपासना किते हैं, वे उन्हीं के िीच जन्म लेते हैं औि जो मेिी पजू ा किते हैं वे मेिे सार् तनवास किते हैं। यही
हमािा उद्देश्य है। कृ ष्णिावनामृत में दीक्षा प्राप्त किने से यह तनतित हो जाता है तक तवद्यार्ी अन्त में सवोच्च ग्रह पि, याने
कृ ष्णलोक में जा सके गा। हम लोग िी तनकम्मे िैिे नहीं हैं। हम लोग िी दसू िे ग्रहों पि जाने का प्रयास कि िहे हैं, लेतकन हम
के वल समय िििाद नहीं कि िहे हैं।
कोई िी समझदाि व ितु द्धमान व्यति तकसी िी िौततक ग्रह पि जाने का इच्छुक नहीं िहता, क्योंतक िौततक दःु ख
की चाि अवस्र्ाएँ उन सिी पि मौजदू िहेंगी। िगवद्गीता से हम यह समझ सकते हैं तक यद्यतप हम ब्रह्मलोक में िी जाएँ, जो
इस ब्रह्माडि (तवश्व) की सवथिेष्ठ ग्रहमाला है, दःु ख के चाि तत्त्व उपतस्र्त िहेंगे। हमें िगवद्गीता से यह सीखने को तमलता है
तक ब्रह्मलोक के एक तदन की अवतध हमािी गणना के अनसु ाि किोिों वषों के समान होती है। यह एक सत्य है।
यहाँ तक तक सवोच्च ग्रहमाला, ब्रह्मलोक तक िी पहुचँ ा जा सकता है, लेतकन वैज्ञातनक कहते है तक इसके तलए
स्िुटतनक की गतत से िी चालीस हजाि साल लगेंगे। चालीस हजाि साल तक अतं रिक्ष में यात्रा किने के तलए कौन तैयाि
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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

है? वैतदक सातहत्य से हम यह समझ सकते हैं तक, हम इनमें से तकसी िी ग्रह पि जा सकते हैं, लेतकन के वल तिी जि हमने
उसके तलए तैयाि की हो। यतद कोई उच्चति ग्रहमालाओ ं में पहुचँ ने के तलए, जहाँ देवता िहते हैं, तैयािी किता है, तो वह
वहाँ जा सकता हैं उसी प्रकाि कोई व्यति नीचे की ग्रहमालाओ ं में िी जा सकता है, अर्वा यतद कोई चाहे तो वह इस पृथ्वी
पि ही िहि सकता है। अन्त में, यतद कोई इच्छुक है, तो वह पणू थ परुु षोत्तम िगवान् के ग्रह में जा सकता है। यह सि तैयािी
की िात हैं तर्ातप, हमािे इस िौततक ब्रह्माडि की समस्त ग्रहमालाएँ क्षणिगं िु है। कोई कोई तवतशष्ट िौततक ग्रहों का जीवन
िहुत लम्िा हो सकता है, लेतकन िौततक ब्रह्माडि के समस्त जीवों का अन्त में नाश होने वाला है, औि उसके िाद उन्हें
पनु ः दसू िे शिीिों का तवकास किना होगा। अलग-अलग प्रकाि के शिीि होते हैं। मनष्ु य का शिीि सौ वषथ तक िहता है औि
इसके तवपिीत एक कीट का शिीि मात्र िािह घटं ों के तलए िह सकता हें इस प्रकाि इन तिन्न-तिन्न प्रकाि के शिीिों के जीवन
की अवतध पिस्पि सापेक्ष है। तर्ातप, यतद कोई वैकुडिलोक नाम ग्रह में प्रवेश किता है, जो आध्यातत्मक ग्रह हैं, तो उसे
शाश्वत जीवन, सम्पणू थ आनन्द औि ज्ञान तमलता है। यतद मनष्ु य प्रयत्न किें , तो वह इस पणू थता को प्राप्त कि सकता है। यह
िगवद्गीता में कहा गया है, जहाँ िगवान् कहते हैं, “जो कोई िी वास्ततवक रूप में पणू थ परुु षोत्तम िगवन् को जान लेता है,
वह मेिी प्रकृ तत को प्राप्त कि सकता है।”
िहुत लोग कहते हैं, “िगवान् महान् हैं।” पिन्तु यह एक तघसीतपटी उति हैं। व्यति को यह जानना चातहए तक वे
कै से महान् है औि यह जानना चातहए तक उनको अतधकृ त शास्त्रों से जाना जा सकता है। िगवद्गीता में िगवान् स्वयं का
वणथन किते हैं वे कहते हैं तक, “जि मैं सामान्य मनष्ु य की तिह जन्म लेकि प्रकट होता हॅू,ं ति वह आतविाथव वास्ततवकता
में तदव्य होता है।” िगवान् इतने दयालु हैं तक वे हमािे सामने एक सामान्य मनष्ु य की िाँतत ही आते हैं, लेतकन उनका शिीि
मनष्ु य के शिीि जैसा नहीं होता। जो दजु थन लोग उनके िािे में नहीं जानते, वे सोचते हैं तक कृ ष्ण हमािे जैसे ही एक मनष्ु य हैं।
यह िात िी िगवद्गीता (9.11) में कही गई हैं।
अवजानणन्त मां मुढ़ा मानुषीं तनुमाणितम।्
परं भावमजानन्तो मम भतू महेश्वरम॥्
“जि मैं मनष्ु य रूप में अवतरित होता ह,ँ तो मख ू थ मेिा उपहास किते हैं। वे मझु पिमेश्वि के तदव्य स्विाव को नहीं
जानते।” यतद हम उतचत मागथदशथन में उतचत सातहत्य पढ़ेंगे, तो हमें कृ ष्ण के तवषय में जानने का अवसि है, औि यतद हम
के वल यह जानेंगे तक िगवान् का स्वरूप क्या है, तो के वल इस एक सच्चाई को जानकि हम मि ु हो सकते हैं। हमािी इस
मनष्ु य की तस्र्तत में पिम सत्य पणू थ परुु षोत्तम िगवान् को पणू थरूपेण जानना सम्िव नहीं है, तकन्तु िगवद्गीता की सहायता से
औि पणू थ परुु षोत्तम िगवान् व आध्यातत्मक गरुु द्वािा कहे गए वाक्यों की सहायता से, हम उन्हें अपनी योग्यता के अनसु ाि
सवोत्तम ढ़ंग से जान सकते हैं। यतद हम उन्हें तत्त्वतः जानेंगे, तो इस शिीि को छोड़ने के तुिन्त पिात् हम िगवान् के धाम
के पहुचँ सकते हैं। कृ ष्ण कहते हैं, त्यक्त्वा देहं पनु जथन्म नैतत मामेतत सोऽजथनु “इस शिीि को त्यागने के िाद, जो ज्ञान में होता
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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

है, वह पनु ः इस िौततक संसाि में नहीं आता, क्योंतक वह आध्यातत्मक ससं ाि में प्रवेश किता है औि मेिे पास आता है।”
(ि.गी. 4.9)
हमािे कृ ष्णिावनामृत आंदोलन का उद्देश्य इस प्रगततशील वैज्ञातनक तवचाि का आम जनता में प्रचाि किना है औि
इसकी तवतध िहुत सिल है। के वल िगवान् के पतवत्र नामों का कीतथन किके -‘हिे कृ ष्ण, हिे कृ ष्ण, कृ ष्ण कृ ष्ण, हिे हिे । हिे
िाम, हिे िाम, िाम िाम, हिे हिे ॥-व्यति हृदय से गन्दगी को साि किता है औि यह समझदािी प्राप्त किता है तक वह पिम
िगवान् का अंश है औि उनकी सेवा किना उसका कतथव्य है। यह प्रतक्रया िहुत ही आनन्ददायक हैः हम हिे कृ ष्ण मन्त्र का
कीतथन किते हैं, हम ताल में नृत्य किते हैं, औि हम सन्ु दि प्रसाद ग्रहण किते हैं। इस जीवन का आनन्द उिाते समय, हम
आगामी जीवन में िगवान् के धाम में प्रवेश किने की तैयािी कि िहे हैं। यह कोई गढ़ी हुई िात नहीं है-यह सि सत्य है,
यद्यतप सांसारिक मनष्ु य को यह गढ़ी हुई िात लग सकती है। जो िगवत-् साक्षात्काि के तवषय में गम्िीि है, उसके तलए
िगवान् अन्दि से प्रकट होते हैं। प्रामातणक आत्मा की सहायता िगवान् तर्ा आध्यातत्मक गरुु दोनों किते हैं। आध्यातत्मक
गरुु उन्हीं िगवान् की िाहिी अतिव्यति है, जो पिमात्मा के रूप में सिी के हृदय में तविाजममान हैं। जो पणू थ परुु षोत्तम
िगवान् को समझने के तलए िहुत गम्िीि है, उसे तिु न्त एक प्रामातणक आध्यातत्मक गरुु के पास िेजकि पिमात्मा उसकी
सहायता किते हैं। इस प्रकाि, आध्यातत्मक उम्मीदवाि को अन्दि व िाहि से सहायता तमलती है।
िागवत-पिु ाण के अनसु ाि, पिम सत्य को तीन स्तिों में पहचाना जाता है। पहले तो, तनतवथशेष ब्रह्म अर्वा तनतवथशेष
पिम सत्य होता है; तिि होता है पिमात्मा-अर्वा ब्रह्म का स्र्ानतवतशष्ट पहल।ू अणु के अन्दि जो न्यट्रू ॉन होता है, उसे
पिमात्मा का आतवष्काि समझा जा सकता है, क्योंतक पिमात्मा िी अणु में प्रवेश किते हैं। यह ब्रह्म-संतहता में वतणथत तकया
गया है। पिन्तु अन्त में, पिम तदव्य व्यति को, सिसे अतधक आकषथक व्यति, कृ ष्ण के रूप में पहचाना जाता है, तजनमें
ऐश्वयथ, िल, यश, सन्ु दिता, ज्ञान व वैिाग्य की सम्पणू थ व अतचन्त्य शतियाँ हैं। इन छः शतियों को िी िाम व िीकृ ष्ण द्वािा
पणू थरूपेण प्रदतशथत तकया जाता है, जि वे मनष्ु यों के सामने प्रकट होते हैं। मनष्ु यों को के वल एक तहस्सा-अनन्य िि-प्रकट
शास्त्रों के अतधकाि के आधाि पि कृ ष्ण को पहचान सकता है, लेतकन दसू िे लोग िौततक शति के प्रिाव से भ्रतमत िहते हैं।
इसतलए पिम सत्य एक पिम व्यति है, तजनकी ििाििी का अर्वा तजनका प्रततद्वन्द्वी कोई नहीं है। तनतवथशेष ब्रह्म की तकिणें
उनके तदव्य शिीि की तकिणें हैं, तजस प्रकाि सयू थ की तकिणें सयू थ से तनकलती है।
तवष्णु पिु ाण के अनसु ाि िौततक शति को अतवद्या या अज्ञान कहा जाता है औि वह इतन्रयतृतप्त के सकाम कमों में
प्रदतशथत होती है। तकन्तु यद्यतप जीवात्मा के पास मोतहत होने की औि इतन्रयतृतप्त के तलए िौततक शति के चंगल ु में िँ सने
की प्रवृतत्त है, तिि िी वह प्रततपदार्थमय शति याने आध्यातत्मक शति से संिंतधत है। इस दृतष्ट से जीवात्मा एक सकािात्मक
शति है औि जड़ पदार्थ नकािात्मक शति है। जि तक जड़ पदार्थ वरिष्ठ आध्यातत्मक या प्रततपदार्थमय शति के सम्पकथ में
नहीं आता, ति तक वह तवकतसत नहीं होता, औि यह प्रततपदार्थमय शति सीधे आध्यातत्मक पणू थ का एक अंश है। तकसी
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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

तिह जीवात्मा इस आध्यातत्मक शति का ही एक प्रदशथन है यह तवषय सामान्य मनष्ु य के तलए तनस्सन्देह िहुत ही पेचीदा
है, इसतलए वह इस तवषय से तवस्मय चतकत हो जाता है। किी-किी वह उसे अपणू थ इतन्रयों के द्वािा आतं शक रूप से समझ
लेता है औि किी-किी तो उसको जानने में वह पिू ी तिह असिल होता है। इसतलए सवथिेष्ठ अतधकृ त व्यति से, याने
िीकृ ष्ण से सनु ना सवोत्तम है, अर्वा ऐसे िि से सनु ना जो तशष्य-पिम्पिा िृंखला में उनका ही प्रतततनतधत्व किता हो।
यह कृ ष्णिावनामृत आन्दोलन िगवान् को समझने के उद्देश्य से िनाया गया है। आध्यातत्मक गरुु िीकृ ष्ण के जीवंत
प्रतततनतध हैं औि वे िाहि से सहायता किते हैं। जीवात्मा ऐसे मागथदशथन का लाि उिा सकता है औि अपने जीवन को सिल
िना सकता है। हमािा यह अनिु ोध है तक इस आन्दोलन को समझने के तलए प्रत्येक व्यति अतधकृ त सातहत्य पढ़े। हमने
िगवद्गीता यर्ारूप, िगवान् चैतन्य महाप्रिु का तशक्षामृत, िीमद्भागवतम,् कृ ष्ण-पणू थ परुु षोत्तम िगवान,् औि
ितििसामृततसन्धु ये ग्रन्र् प्रकातशत तकए हैं। प्रत्येक मतहने हम अनेक िाषाओ ं में हमािी िॅक टू गॉिहेि पतत्रका िी प्रकातशत
किते हैं। मानवजातत को जन्म औि मृत्यु के चक्र में अवतीणथ होने के खतिे से िचाना, यह हमािा कायथ है।
प्रत्येक व्यति को कृ ष्ण के पास जाने का प्रयत्न किना चातहए। हमािी िॅक टू गॉिहेि पतत्रका में हमने “िीयॉन्ि दी
यतु नवसथ” (“ब्रह्माडि से पिे ”) नाम का एक लेख प्रकातशत तकया हैं यह लेख िगवद्गीता में िताए गए ज्ञान के अनसु ाि, इस
ब्रह्माडि से पिे एक स्र्ान का वणथन किता है। िगवद्गीता यह एक लोकतप्रय ग्रन्र् है, औि अमेरिका में उसकी अनेक
आवृतत्तयाँ है औि िाित में िी कई आवृतत्तयाँ है। तर्ातप, दिु ाथग्य से, अनेक दजु थन लोग पतिम में िगवद्गीता तसखाने के तलए
आते हैं। उन्हें दजु थन कहा गया है क्योंतक सही जानकािी नहीं देनेवाले वे धोखेिाज लोग हैं। तकन्तु िगवद्गीता यर्ा रूप में
आध्यातत्मक स्वरूप का अतधकािपणू थ ढ़ंग से वणथन तकया गया है।
इस सृतष्ट-आतवष्काि को “प्रकृ तत” कहते हैं, लेतकन एक अन्य प्रकृ तत है, जो िेष्ठ है। सृतष्ट-आतवष्काि यह तनम्नति
प्रकृ तत हे, लेतकन इस तनम्नति प्रकृ तत के पिे , जो प्रकट औि अप्रकट होती िहती है, एक दसू िी प्रकृ तत है, तजसे सनातन या
शाश्वत कहते हैं। यह समझना िहुत सिल है तक यहाँ पि प्रकट होने वाली प्रत्येक चीज क्षणिंगिु है। एकदम स्पष्ट उदाहिण
है हमािा शिीि। यतद कोई व्यति तीस वषथ का है, तो इसका अर्थ यह हुआ तक तीस साल पहले, उसका शिीि प्रकट नहीं र्ा
औि अन्य पचास वषों के िाद उसका शिीि तिि से अप्रकट हो जाएगा। यह प्रकृ तत का वास्ततवक तनयम है। यह र्ोड़ी देि
के तलए व्यति होता है औि पनु ः अव्यि हो जाता है, िीक उसी प्रकाि जैसे समरु की लहिें िाि-िाि ऊपि उिती हैं औि
िाि-िाि पीछे हटती हैं। पिन्तु िौततकवादी को के वल इस मिणशील जीवन की ही तचन्ता होती है, जो तकसी िी क्षण समाप्त
हो सकता है। आगे चलकि, तजस तिह यह शिीि मि जाएगा, उसी तिह ब्रह्माडि, याने यह तविाट िौततक शिीि का ही नाश
हो जाएगा औि तिि चाहे हम िाग्यशाली हो या दिु ाथग्यशाली, इस ग्रह पि हो या उस ग्रह पि, सिकुछ नष्ट हो जाएगा। तो
तिि क्यों हम तकसी ऐसे ग्रह पि जाने का प्रयास कि िहे हैं, जहाँ सि कुछ समाप्त हो जाएगा? हमें तो कृ ष्णलोक में जाने का
प्रयास किना चातहए। यह आध्यातत्मक तवज्ञान है; हमें इसे समझने का प्रयास किना चातहए औि स्वयं समझने के िाद हमें
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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

इस सदं श े का प्रचाि पिू े संसाि में किना चातहए। सिी लोग अन्धकाि में हैं यद्यतप लोगों को ज्ञान नहीं है, तिि िी उन्हें िहुत
गवथ है। लेतकन इस वषथ तक प्रयास किने के िाद चन्रमा पि जाना औि वहाँ से एक पत्र्ि लेकि वापस आना, यह कोई ज्ञान
की प्रगतत नहीं हैं। अतं रिक्ष-यातत्रयों को िहुत गवथ होता है, “देखो! हमने उसे स्पशथ कि तलया।” लेतकन उन्हें उससे क्या
िायदा हुआ है? यतद हम वहाँ पि िह िी सकते, तो िी वह लम्िे काल तक नहीं होता। अन्त में सि कुछ तवध्वस्त हो
जाएगा।
तकसी ऐसे ग्रह को ढ़ँढ़ने का प्रयास किो, जहाँ से हमें किी लौटकि न आना पड़े , जहाँ शाश्वत जीवन है, औि जहाँ
हम कृ ष्ण के सार् नृत्य कि सकते हैं यही कृ ष्णिावना का अर्थ हैं। इस आन्दोलन का गम्िीिता से स्वीकाि किो, क्योंतक
कृ ष्णिावना हमें कृ ष्ण तक पहुचँ ने का औि उनके सार् शाश्वत रूप से नृत्य किने का अवसि देती है। वैतदक सातहत्य से हमें
पता चलता है तक यह िौततक जगत् िगवान् की सम्पणू थ सृतष्ट का के वल एक चौर्ाई तहस्सा हैं िगवान् की सृतष्ट का तीन-
चौर्ाई तहस्सा आध्यातत्मक जगत् है। यह ज्ञान हमें िगवद्गीता से तमलता है। कृ ष्ण कहते हैं, “यह िौततक जगत् पणू थ का मात्र
एक अंश है।” यतद हम तजतनी दिू देख सकते हैं, उतनी दिू तक देखेंगे- आकाश की सीमा तक-तो हमािी दृतष्ट के वल एक
ब्रह्माडि तक ही सीतमत िहेगी, औि िौततक जगत् में असख्ं य ब्रह्माडि गच्ु छे की तिह जमा तकए हुए है। लेतकन इन अनन्त
ब्रह्माडिों के गच्ु छों के पिे आध्यातत्मक आकाश हैं, तजसका िी उल्लेख िगवद्गीता में है, जहाँ िगवान् कहते हैं तक िौततक
जगत् के पिे एक अन्य प्रकृ तत है, जो शाश्वत है; उसके इततहास का कोई आिम्ि नहीं है, औि उसका अन्त नहीं है। “शाश्वत”
शब्द यह सतू चत किता है तक तजसका कोई अन्त नहीं है व आतद नहीं है। इसतलए वैतदक धमथ को शाश्वत कहा गया है,
क्योंतक वह कि शरू ु हुआ इसकी खोज कोई नहीं कि सकता। ईसाई धमथ का दो हजाि सालों का इततहास है औि मतु स्लम
धमथ का िी इततहास है, लेतकन यतद तकसी को वैतदक धमथ की शरुु आत का पता लगाना है, तो उसका ऐततहातसक आिम्ि
प्राप्त नहीं होगा। इसतलए उसे शाश्वत धमथ कहते हैं।
हम यर्ार्थ रूप से यह कह सकते हैं तक िगवान् ने इस िौततक जगत् का तनमाथण तकया औि यह िात सतू चत किती
है तक िगवान् सृतष्ट के पहले िी तवद्यमान र्े। यह वाक्य “तनमाथण तकया” सतू चत किता है तक सृतष्ट-आतवष्काि के तनमाथण
के पहले िगवान् का अतस्तत्व र्ा। इसतलए िगवान् सृतष्ट के अधीन नहीं है। यतद िगवान् सृतष्ट के अधीन होते, तो उन्होंने
सृतष्ट कै से की होती? उस परितस्र्तत में वे इस िौततक सृतष्ट के ही एक वस्तु िने होते। लेतकन िगवान् सृतष्ट के अधीन नहीं
हैं। वे तो सृतष्टकताथ हैं औि इसतलए शाश्वत हैं।
एक तदव्य आकाश है, जहाँ असंख्य आध्यातत्मक ग्रह हैं, औि असंख्य आध्यातत्मक जीवात्माएँ है। तकन्तु जो उस
आध्यातत्मक जगत् में जीने के तलए लायक नहीं हैं, उन्हें इस िौततक जगत् में िेज तदया जाता है। हमने स्वेच्छापवू थक इस
िौततक शिीि का स्वीकाि तकया है, लेतकन वास्ततवकता में हम आत्मा हैं तजन्हें इसका स्वीकाि नहीं किना चातहए र्ा। कै से
औि कि हमने इसका स्वीकाि तकया इसका पता नहीं लगाया जा सकता। िद्ध जीव ने िौततक शिीि का स्वीकाि इततहास
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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

में पहली िाि कि तकया, इसकी खोज कोई िी नहीं कि सकता। सजीवों के 84,00,000 (चौिासी लाख) प्रकाि के रूप
होते हैं- 9,00,000 (नौ लाख) योतनयाँ जि में तनवास किती हैं, 20,00,000 (िीस लाख) योतनयाँ पौधों औि वनस्पततयों
की होती हैं। दिु ाथग्य से यह वैतदक ज्ञान तकसी िी तवश्वतवद्यालय में नहीं तसखाया जाता। लेतकन ये वास्ततवकताएँ हैं।
वनस्पततज्ञों को व मानवशास्त्रवेत्ताओ ं को वैतदक तनष्कषथ में सश
ं ोधन किने दो अर्ाथत,् तवद्याजथन की सस्ं र्ाओ ं में, िातवथन
द्वािा तसखाया गया आंतगि पदार्थ का क्रम-तवकास का तसद्धान्त प्रधान रूप में तवद्यमान है, लेतकन वैज्ञातनक महत्त्व के िागवत
पिु ाण व अन्य प्रमाणितू शास्त्र वणथन किते हैं, तक तकस प्रकाि, एक के िाद दसू िे , तिन्न-तिन्न प्रकाि के शिीिों में से,
जीवात्माएँ सक्र ं मण किती िहती है। यह कोई नवीन कल्पना नहीं है, लेतकन तशक्षा देने वाले के वल िातवथन के तसद्धान्त पि
ही जोि दे िहे हैं, यद्यतप वैतदक सातहत्य में िौततक जगत् के जीवन की तस्र्ततयों के िािे अपरितमत जानकािी है।
इस िौततक जगत् के अनेक ब्रह्माडिों के सिी जीवात्माओ ं के हम के वल एक छोटे से अंश है। जो इस िौततक
जगत् में औि िौततक शिीि में हैं, वे दतडित है। उदाहिणार्थ, जो व्यति कािावास में हैं, वे सिकाि द्वािा तनकम्मे िहिाए गए
हैं, पिन्तु उनकी संख्या सम्पणू थ जनसंख्या का के वल एक छोटा सा िाग है। ऐसा नहीं है तक पिू ी जनसंख्या का कै दखाने में
जाती है; के वल कुछ लोग, जो आज्ञा िगं किने वाले हें, उन्हें हवालात में िन्द तकया जाता है। उसी प्रकाि, िौततक जगत्
के िद्ध जीव िगवान् की सृतष्ट के सम्पणू थ जीवों का एक छोटा िाग है औि चँतू क है औि चँतू क उन्होंने िगवान् की आज्ञा
िगं की है-कृ ष्ण के आदेश का उल्लघं न तकया है-इसतलए उन्हें इस िौततक जगत् में िखा गया हैं। यतद कोई सिु तु द्ध व
तजज्ञासु हैं, तो उसे यह समझने का प्रयास किना चातहए तक, “मझु े इस िद्ध जीवन में क्यों िखा गया है? मझु े दःु ख िोगने की
इच्छा नहीं है।”
तीन तिह के दःु ख होते हैं, तजसमें शिीि व मन से सम्ितन्धत दःु खों का िी समावेश है। हवाई नामक द्वीप में मेिे घि
के सामने एक व्यति पश-ु पतक्षयों को उनकी हत्या किने के उद्देश्य से पाल िहा र्ा। मैनें अपने तवद्यातर्थयों को यह उदाहिण
तदया, “ये जानवि यहाँ खड़े हैं औि यतद आप उनसे कहेंगे, ‘हे तप्रय जानवि, तमु यहाँ क्यों खड़े हो? िाग जाओ ं यहाँ से,
अन्यर्ा तुम्हें कसाई घि में िेज तदया जाएगा’ तो वे नहीं जा सकते। उनके पास इतनी ितु द्ध नहीं है।”
तिना तकसी ज्ञान व तिना तकसी उपाय के दःु ख िोग जीवन का लक्षण है। जो यह नहीं समझ सकता तक वह दःु ख
िोग िहा है औि यह समझता है तक वह िहुत िीक है, वह पश-ु िावना में हैं, मानव चेतना में नहीं हैं मनष्ु य को इस ग्रह के
तत्रतवध दःु खों से अवगत होना चातहए। व्यति को यह ज्ञान होना चातहए तक वह जन्म से पीतड़त है, मृत्यु से पीतित है, िढ़ु ापे
से पीतित है व िोग से पीतित है, औि व्यति को यह तजज्ञासा किनी चातहए तक वह इन दःु खों से छुटकािा कै से प्राप्त कि
सकता है। यही वास्ततवक संशोधन कायथ है।
हमािे जन्म से ही हम दःु ख िोगते आ िहे हैं। तशशु के रूप में मनष्ु य को नौ महीने तक माता के गिथ रूपी हवािन्द
र्ैली में िखा जाता है। वह तहल िी नहीं सकता। अनेक कीटक उसे काटते िहते हैं औि वह उनका तविोध नहीं कि सकता।
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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

अनेक कीटक उसे काटते िहते हैं औि वह उनका तविोध नहीं कि सकता। िच्चे के िाहि आने के िाद िी दःु ख जािी िहता
है। माता तनतित रूप से िहुत देखिाल किती है, लेतकन तिि िी िच्चा िोता है क्योंतक वह दःु ख में होता है। उसे कीड़े
काटते है अर्वा उसके उदि में पीड़ा में होती है; िच्चा िोता िहता है औि माता यह नहीं जानती तक उसे शान्त कै से तकया
जाएँ उसके कष्ट माता के गिथ में आिम्ि होते हैं, औि तिि जन्म के िाद जैसे वह िढ़ता है, ज्यादा दःु ख होता है। वह तवद्यालय
में नहीं जाना चाहता, लेतकन उसे जििदस्ती से जाना पड़ता है। वह पढ़ाई नहीं किना चाहता, लेतकन तशक्षक उसे गृहपाि
देते है। यतद हम हमािे जीवन का तवश्ले षण किें , तो हमें यह पाता लगेगा तक वह दःु खों से ििा हुआ है। तो तिि हम यहाँ क्यों
आ िहे हैं? िद्ध जीव के पास अतधक तीव्र ितु द्ध नहीं होती। हमें यह तजज्ञासा किती चातहए, “मैं क्यों दःु ख िोग िहा हॅू?ं ”
यतद कोई उपाय है, तो हमें उसका लाि उिाना चातहए।
हम शाश्वत रूप से िगवान् से सम्ितन्धत हैं, लेतकन तकसी ना तकसी तिह से हम अिी िौततक प्रदषू ण में हैं। इसतलए
हमें उस प्रतक्रया का स्वीकाि किना चातहए, तजसके द्वािा हम पनु ः आध्यातत्मक जगत् में जा सकें गे। उस सम्िन्ध स्र्ातपत
किने की प्रतक्रया को योग कहते हैं। योग शब्द का वास्ततवक अनवु ाद है, “जोड़ना” अर्ाथत् “जड़ु ा हुआ”। वतथमान क्षण में
हम िगवान् के ितहत हैं। पिन्तु जि हम अपने आप को “जड़ु े हुए” िनाएँगे, ति हमािा मनष्ु य-जीवन परिपणू थ होगा। हमािे
जीवनकाल में हमें पणू थता के उस तिन्दु तक पहुचँ ने का अभ्यास किना होगा, औि मृत्यु के समय, जि हम इस िौततक देह
का त्याग किें गे, ति वह पणू थता पहुचँ चक ु ी होनी चातहए। मृत्यु के समय, व्यति को तैयाि होना चातहए। उदाहिणार्थ,
तवद्यार्ीगण महातवद्यालय में दो से पाँच वषथ तक तैयािी किते है, औि उनके अध्ययन की अतन्तम कसौटी पिीक्षा के समय
होती है। यतद वे पिीक्षा में उत्तीणथ होते हैं, तो उन्हें पदवी या उपातध प्राप्त होती है। उसी प्रकाि, जीवन के तवषय में, यतद हम
मृत्यु के समय होने वाली पिीक्षा के तलए तैयािी किें गे औि उसमें उत्तीणथ होंगे, तो हम आध्यातत्मक जगत् में चले जाते हैं।
सिी चीजों की पिीक्षा मृत्यु के समय होती है।
िंगाली में एक िहुत प्रतसद्ध कहावत है तक पणू थता के तलए जो कुछ िी तकया जाता है, उसी पिीक्षा मृत्यक ु ाल में
होती है। जि हम वतथमान शिीि को छोड़ने के तलए तैयाि होते हैं, ति उस मृत्यु की क्षण में हमें क्या किना चातहए इसका
वणथन िगवद्गीता में तकया गया है। ध्यानयोगी के तलए िीकृ ष्ण तनम्नतलतखत श्लोक कहते हैं।
यदक्षरं वेदणवदो वदणन्त
णवशणन्त यद्यतयो वीतरागााः।
यणदच्छन्तो ब्रह्मचयथ चरणन्त
तत्ते पदं सग्रं हेि प्रवक्ष्ये॥
सवथ द्वाराणि सयं म्य मनो हृणद णनरुध्य च ।
मूध्न्याथधायात्मनाः प्रािमाणस्र्तो योगधारिाम॥्
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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

“जो लोग वेदों के तवद्वान हैं, जो ॐकाि का उच्चािण किते हैं, औि जो वैिागी जीवन वाले महान ॠतष हैं, वे ब्रह्म
में प्रवेश किते हैं। ऐसी पणू थता की इच्छा किके व्यति ब्रह्मचयथ का पालन किता है। अि मैं तम्ु हें वह प्रतक्रया ितलाऊँगा,
तजसके द्वािा व्यति मतु ि प्राप्त कि सकता है। योग की तस्र्तत समस्त इतन्रयसख ु के कायों से अनासति की है। इतन्रयों के
समस्त द्वािों को िन्द किके , औि मृत्यु को हृदय में, औि प्राणवायु को मस्तक के अग्रिाग में तस्र्ि किके , व्यति अपने को
योग में तस्र्ि किता है।” (ि.गी. 8.11.12)
योगपद्धतत में इस प्रतक्रया को प्रत्याहाि कहते हैं, तजसका तकनीकी िाषा में अर्थ हैं, “तवपिीत”। अिी आँखे
सांसारिक सन्ु दिता को देखने में व्यस्त है। तो व्यति को उन्हें उस सौंदयथ से हटाकि अन्दि की सन्ु दिता देखने में एकाग्र किना
चातहए। इसे प्रत्याहाि कहते हैं उसी प्रकाि व्यति ॐकाि ध्वतन अन्दि से सनु नी होती है।
ओणमत्येकाक्ष्ज्ञरं ब्रह्म व्यावहरन्मामनस्ु मरन।्
याः प्रयाणत त्यजन्देहं स याणत परमां गणतम॥्
“इस योगाभ्यास में तस्र्तत होने के िाद औि पतवत्र अक्षि ॐ-अक्षिों का पिम संयोग-का उच्चािण किते हुए, यतद
कोई पणू थ परुु षोत्तम का स्मिण किता है औि देह का त्याग किता है, तो तनतित ही वह आध्यातत्मक ग्रहों में पहुचँ जाएगा।”
(ि.गी. 8.13) इस प्रकाि सिी इतन्रयों को िाह्य तक्रयाओ ं से िोकना होगा, औि मन को तवष्णमु तू तथ में (िगवान् तवष्णु के रूप
में) एकाग्र किना होगा। यही योग की पणू थता है। मन िहुत ही उदडि है, इसतलए उसे हृदय में तस्र्ि किना होगा। जि मन हृदय
में तस्र्ि तकया जाता है औि प्राणवायु को मस्तक के तशिोिाग में स्र्ानान्तरित तकया जाता है, ति व्यति योग की पणू थता
प्राप्त कि सकता है।
इसके िाद, पणू थ योगी यह तनणथय लेता है तक उसे कहाँ जाना है। असंख्य िौततक ग्रह हैं औि इन ग्रहों के पिे
आध्यातत्मक जगत् है। योतगयों को यह जानकािी वैतदक शास्त्रों से तमलती है। उदाहिणार्थ, अमरिका आने से पहले, मैंने
पस्ु तकों में अमेरिका का वणथन पढ़ा। उसी प्रकाि, उच्चति ग्रहों का व आध्यातत्मक जगत् का वणथन वैतदक शास्त्रों में तमल
सकता है। योगी को सिकुछ पता होता है; वह अपने द्वािा वांतछत तकसी िी ग्रह पि जा सकता है। उसे अंतरिक्षयान की
जरूित नहीं होती।
िौततक तवज्ञानी अनेक वषो से प्रयत्न किते आ िहे हैं, औि आने वाले एक सौ अर्वा एक हजाि वषों तक प्रयत्न
किते ही िहेंगे, लेतकन वे तकसी ग्रह तक नहीं पहुचँ ेंगे। कदातचत,् तकसी वैज्ञातनक प्रतक्रया के द्वािा एक-दो मनष्ु य ग्रह तक
पहुचँ ेंगे, लेतकन यह कोई सामान्य प्रतक्रया नहीं है। अन्य ग्रहों तक जाने की सामान्य तौि पि स्वीकृ त हुई तवतध है योगपद्धतत
अर्वा ज्ञानपद्धतत। पिन्तु ितियोग (ितिपद्धतत) तकसी िौततक ग्रह तक पहुचँ ने के तलए नहीं है। जो व्यति कृ ष्ण, अर्ाथत्
पिम िगवान् की ितिमय सेवा में ित होते हैं, उन्हें िौततक जगत् के तकसी ग्रह पि जाने की इच्छा नहीं होती, क्योंतक वे
जानते हैं तक, चाहे तकसी िी ग्रह पि व्यति क्यों न जाएँ, उसे िौततक अतस्तत्व के चाि तत्त्व सदैव प्राप्त होते िहेंगे। तकन्हीं
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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

ग्रहों पि जीवन की अवतध इस पृथ्वी की तल ु ना में िहुत लम्िी होती है, लेतकन वहाँ िी मृत्यु हैं। तर्ातप, जो
कृ ष्णिावनािातवत हैं, वे जन्म, मृत्य,ु जिा व व्यातध के इस िौततक जीवन को पाि किते हैं।
आध्यातत्मक जीवन का अर्थ हे, इस व्याकुलता व क्लेश से छुटकािा प्राप्त किना। इसतलए जो लोग ितु द्धमान हैं, वे
इस िौततक जगत् के तकसी िी ग्रह पि उन्नत होने के तलए प्रयास नहीं किते। मनष्ु य चन्रमा पि जाने का प्रयास कि िहे हैं,
औि यद्यतप उस ग्रह में प्रवेश पाना िहुत कतिन हैं, तिि िी यतद हम वहाँ प्रवेश प्राप्त कि सके , तो हमािे जीवन की अवतध
िढ़ जाएगी। अर्ाथत,् यह इस शिीि के जीवन को लागू नहीं है। यतद हम इस शिीि से चन्रमा पि जाएँगे, तो तत्काल मृत्यु
तनतित है।
जि कोई तकसी ग्रहमाला में प्रवेश किता है, ति उसे पास उस ग्रह के अनरू ु प शिीि होना चातहए। प्रत्येक ग्रह
जीवात्माओ ं द्वािा आवातसत है, तजनके पास उस-उस ग्रह के अनरू ु प शिीि है। उदाहिणार्थ, हम इस शिीि से पानी में प्रवेश
कि सकते हैं, लेतकन हम उसमें िह नहीं सकते। हम कदातचत वहाँ पन्रह या सोलह घडटों तक िहेंगे, या कदातचत चौिीस
घडटों तक, लेतकन उससे ज्यादा नहीं। पिन्तु जलचि प्रातणयों के पास सम्पणू थ जीवन िि पानी में िहने के तलए उपयि ु शिीि
होते हैं। उसी प्रकाि, यतद कोई मछली को जल से िािह तनकालकि उसे जमीन पि िखता है, तो वह तिु न्त मि जाएगी। तजस
प्रकाि हम समझते हैं, तक इस ग्रह पि िी अलग-अलग स्र्ानों में िहने के तलए अलग-अलग प्रकाि के शिीि हैं, उसी प्रकाि
यतद हम तकसी दसू िे ग्रह पि जाना चाहे, तो तनतित ही हमें एक अनरू ु प शिीि प्राप्त किने के तलए तैयािी किनी पड़ेगी।
यतद कोई इस योग प्रतक्रया का पालन किके अपने को चन्रमा पि स्र्ानान्तरित किता है, तो उसे ितु ही लम्िा
जीवन तमलता है। उच्चति ग्रहों में, एक तदन (िािह घडटे) हमािे छह महीनों के ििािि होता है। औि इस गणना के अनसु ाि
वहाँ के वासी दस हजाि वषथ तक जीते हैं। यह वैतदक सातहत्य का वणथन है। तो तनतित ही व्यति को िहुत लम्िा जीवनकाल
तमल सकता है, लेतकन तिि िी मृत्यु तनतित है। दस हजाि या िीस हजाि वषथ के िाद, या लाखों वषों के िाद िी (इससे
कोई अन्ति नहीं पड़ता), मृत्यु आती है।
वास्तव में हम मृत्यु के अधीन नहीं है। इसकी पतु ष्ट िगवद्गीता के आिम्ि में की गई हैं। न हन्यते हन्यमाने शिीिे
(ि.गी. 2.20)। हम आत्मा है, औि इसतलए हम शाश्वत है। तो क्यों हम अपने को मृत्यु औि जन्म के अधीन किें ? इस तिह
से सोचना ितु द्धमान है। जो कृ ष्णिावनािातवत होते हैं, वे िहुत ितु द्धमान होते हैं, क्योंतक उन्हें तकसी ऐसे ग्रह पि जाने में
रुतच नहीं है, जहाँ लम्िे जीवनकाल के िावजदू मृत्यु िी है। वस्ततु ः उन्हें तो िगवान् जैसा शिीि प्राप्त किने में रुतच होती है।
ईश्विः पिमः कृ ष्णः सतच्चदानन्द तवग्रहः (ब्रह्मसतं हता 5.1) सत् का अर्थ है “शाश्वत” तचत् का अर्थ है “ज्ञान से पणू थ” औि
“आनन्द” का अर्थ है “पिम सख ु से पणू थ”।
जैसा हमािी पतु स्तका “िसिाज िीकृ ष्ण” में तलखा है तक यतद हम अपने को आध्यातत्मक जगत् में-कृ ष्ण के ग्रह में
अर्वा अन्य तकसी आध्यातत्मक ग्रह में-स्र्ानातं रित किें गे, तो हमें िगवान् जैसा शिीि तमलेगाः सत-् तचत-् आनन्द-शाश्वत,
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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

ज्ञानपणू थ व आनन्दपणू थ। इस प्रकाि जो िौततक जगत् के िेहतिीन ग्रहों पि स्वयं को ले जाना चाहते हैं, उनकी अपेक्षा जो
कृ ष्णिावनािातवत िनने का प्रयास किते हैं, उनके जीवन का लक्ष्य तिन्न होता है। िगवान् कृ ष्ण कहते है, मध्ू न्याथधायात्मनः
प्राणमातस्र्तो योगधािणाम् “स्वयं को आध्यातत्मक जगत् में ले जाना ही योग की पणू थता है।” (ि.गी. 8.12)
आत्मा शिीि के िीति एक सक्ष्ू म कण है। हम उसे देख नहीं सकते। आत्मा को मस्तक के सवोच्च िाग तक ले जाने
के तलए योगपद्धतत का आचिण तकया जाता है। जि तक व्यति जीतवत है, ति तक यह अभ्यास चलता िहता है, औि
इसकी पणू थता ति होती है जि व्यति अपने को मस्तक के अग्रिाग में िखकि वहाँ से िूटकि िाहि तनकलता है। इसके िाद
वह अपने को तकसी िी मनचाहे उच्चति ग्रह में ले जा सकता है। यह योगी के तलए पणू थता है।
यतद योगी को चन्रमा देखने की तजज्ञासा है, तो वह कह सकता है, “अिे ! देखँू चन्रमा कै सा है? तिि मैं अपने को
ऊँचे ग्रहों में ले जाऊँगा।” जैसे यात्री यिू ोप, कॅ तलिोतनथया, कनािा अर्वा पृथ्वी के दसू िे देशों में जाते हैं। इस योगपद्धतत के
द्वािा व्यति अपने को अनेक ग्रहों में ले जा सकता है, लेतकन जहाँ िी वह जाएगा, वहाँ वह िीमा (तनवास अनमु तत पत्र)
पद्धतत औि सीमाशल्ु क तवतध पाएगा। दसू िे ग्रहों पि जाने के तलए व्यति को सयु ोग्य होना चातहए।
कृ ष्णिावनािातवत व्यतियों को तकसी अतनत्य ग्रह में रुतच नहीं होती, तिि चाहे उसमें लम्िा जीवनकाल ही क्यों
न हो। यतद मृत्यु के समय योगी ॐ का, अर्ाथत् तदव्य ध्वतन के संतक्षप्त रूप का उच्चािण कि सके , औि सार् मामनस्ु मि,
कृ ष्ण का याने तवष्णु का स्मिण कि सके , तो उसे तसतद्ध प्राप्त होगी। सम्पणू थ योगपद्धतत का उद्देश्य है मन को तवष्णु पि के तन्रत
किना। तनतवथशेषवादी यह कल्पना किते हैं तक वे तवष्णु का, अर्ाथत् िगवान् का रूप देख िहे हैं, लेतकन जो सतवशेषवादी हें,
वे इसकी कल्पना नहीं किते-वे वास्तव में पिम िगवान् का रूप देखते हैं दोनों प्रकाि में, चाहे कोई कल्पना के द्वािा मन
के तन्रत किता है, अर्वा वास्तव में दशथन किता है, व्यति को के वल तवष्णु के रूप पि अपने मन को के तन्रत किना होगा।
माम् का अर्थ है “पिम िगवान् तवष्णु में”। जो कोई इस शिीि का त्याग किते हुए मन को तवष्णु पि एकाग्र किता है, वह
शिीि छोड़ने के पिात् आध्यातत्मक िाज्य में प्रवेश किता है। जो वास्तव में योगी है, वे दसू िे तकसी ग्रह में प्रवेश नहीं किना
चाहते, क्योंतक वे जानते हैं तक क्षणिंगिु ग्रहों में जीवन क्षणिंगिु होता है इसतलए उन्हें उनमें कोई रुतच नहीं होती। इसे
ितु द्धमानी कहते हैं।
जो लोग क्षणिगं िु आनन्द, क्षणिगं िु जीवन औि क्षणिंगिु सतु वधाओ ं से सन्तष्टु हैं, वे िगवद्गीता मे अनसु ाि ितु द्धमान
नहीं है। अन्तवत्तु िलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् “वह, तजसकी ितु द्ध कम है, क्षणिगं िु वस्तओ ु ं में रुतच िखता है।” (ि.गी.
7.13) यह िीमद्भागवद्गीता का वाक्य है। मैं शाश्वत हॅू,ं तो मैं अशाश्वत वस्तओ ु ं में रुतच क्यों िखँ?ू अशाश्वत अतस्तत्व कौन
चाहता हैं? कोई िी नहीं चाहता। यतद हम तकसी मकान में िहते होंगे औि मकान का मातलक हमें मकान खाली किने को
कहे, तो हमें दःु ख होता है, पिन्तु यतद हमें दसू िा अच्छा मकान तमले, तो हमें दःु ख नहीं होता। तो यही हमािी प्रवृतत्त है। हम
मिना नहीं चाहते, क्योंतक हम शाश्वत हैं।
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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

यह िौततक वाताविण हमािी शाश्वतता को हमसे छीन िहा है। िीमद्भागवम् में कहा है, “प्रत्येक सयू ोदय से लेकि
सयू ाथस्त तक, हमािे जीवन की अवतध सयू थ के द्वािा क्षीण की जा िही है।” प्रत्येक तदन जीवन की अवतध घट िही हैं यतद सयू थ
सिु ह को 5.30 िजे उतदत होता है, तो सन्ध्या के 5.30 िजे तक िािह घडटे हमािे जीवन से तछन तलए गए हैं। यह समय
हमें किी वापस नहीं तमलेगा। यतद हम तकसी वैज्ञातनक से पछू े , “मैं आप को िािह किोड़ रुपये देता हॅ,ूं लेतकन मझु े मेिे िािह
घडटे वापस तदलवा दीतजए,” तो वह कहेगा, “नहीं, यह सम्िव नहीं है।” वैज्ञातनक लोग यह कि नहीं सकते। इसतलए
िागवतम् कहता है तक सयू ोदय से सयू ाथस्त तक हमािे जीवन की अवतध क्षीण होती जा िही हैं
समय को काल कहते हैं-ितू , वतथमान व ितवष्य। जो अिी वतथमान है, वह कल ितू काल हो जाएगा औि आज जो
ितवष्य है वह कल वतथमान िना जाएगा। लेतकन ितू , वतथमान व ितवष्य की िेणी में नहीं आते। इस शाश्वतता की िेणी में
आते हैं। इसतलए व्यति को यही तचन्ता होनी चातहए तक शाश्वतता के स्ति तक कै से उन्नत हुआ जाए अर्वा उस स्ति को
कै से प्राप्त तकया जाए। मनष्ु य की तवकतसत चेतना का उपयोग आहाि, तनरा, िय औि मैर्नु की पश-ु प्रवृतत्तयों के तलए नहीं,
ितल्क उस मल्ू यवान मागथ की खोज के तलए तकया जाना चातहए, जो उसे शाश्वतता के जीवन की प्रातप्त में सहायता किे गा।
यह कहा जाता है तक सयू थ हमािे जीवन की अवतध को प्रत्येक तमनट, प्रत्येक घडटे, प्रत्येक तदन तछन िहा है, पिन्तु यतद हम
अपने को उत्तमश्लोक के तवषयों में, िगवान् के तवषयों में व्यस्त किें गे, तो उन तवषयों में िीता हुआ समय तछना नहीं जा
सकता। वह समय एक पँजू ी है-जमा है, खचथ नहीं। जहाँ तक शिीि का प्रश्न है, जीवन की अवतध तछन ली जा सकती हैं; तिि
चाहे तकतना िी उसे िचाएँ िखने का प्रयत्न तकया जाए, कोई िी उसे िचा नहीं सकता। पिन्तु जो आध्यातत्मक तशक्षा हमें
कृ ष्णिावनामृत में तमलती है, उसे सयू थ तछन नहीं सकता। वह एक िोस पँजू ी िनता है।
हरे कृष्ि हरे कृष्ि कृष्ि कृष्ि हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
का कीतथन किना एक आसान िात है। इस कीतथन में िीत हुए समय को शिीि से सम्ितन्धत समय की िाँतत तछना
नहीं जा सकता। पचास वषथ पहले से एक यवु क र्ा, लेतकन वह समय तछन तलया गया है औि उसे लौटाया नहीं जा सकता।
तर्ातप, मेिे आध्यातत्मक गरुु से प्राप्त तकए हुए आध्यातत्मक ज्ञान को तछना नहीं जा सकता, ितल्क वह मेिे सार् आएगा।
मेिे इस शिीि को छोड़ने के िाद िी वह मेिे सार् आएगा, औि यतद वह इस जीवन में पणू थता तक पहुचँ गया, तो वह मझु े
शाश्वत में ले जाएगा।
िौततक व आध्यातत्मक दोनों संसाि कृ ष्ण के हैं। हम तकसी चीज के मातलक नहीं हैं। यह सि पिम िगवान् की
सम्पतत्त है, तजस तिह से िाज्य में जो कुछ िी है, वह सि सिकाि के स्वातमत्व में हैं, तिि चाहे वह कािागाि के अन्दि हो
अर्वा उसके िाहि का। िौततक ससं ाि में िद्ध जीवन एक कािागाि के समान हे। कै दी एक कोििी से दसू िी कोििी में
आसानी से नहीं जा सकता। स्वतन्त्र जीवन में व्यति आसानी से एक घि से दसू िे घि में जा सकता है, लेतकन कािागृह के
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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

जीवन में व्यति ऐसा नहीं कि सकता; उसे अपनी कोििी में ही िहना होगा। ये सि ग्रह कोििी की िाँतत है। हम चन्रमा पि
जाने का प्रयास कि िहें है, लेतकन यातं त्रक साधनों से वहाँ जाना व्यावहारिक नहीं है। चाहे हम अमरिकन हो या िाितीय या
चीनी या रूसी, हमें यह ग्रह िहने के तलए तदया गया है। हम इसे छोड़ नहीं सकते-यद्यतप लाखों किोड़ों ग्रह हैं औि यद्यतप
हमािे पास वहाँ जाने लायक यत्रं हैं-क्योंतक हम प्रकृ तत के तनयमों के द्वािा, याने िगवान् के काननू के द्वािा िँध गए हैं। तजस
व्यति को एक तवतशष्ट कोििी में िखा गया है, वह िेष्ठति अतधकािी व्यति की आशा के तिना उस कोििी को िदल नहीं
सकता। िीकृ ष्ण िगवद्गीता में कहते हैं तक व्यति को एक कोििी से दसू िी कोििी में जाने का प्रयास नहीं किना चातहए।
उससे कोई िी सख ु ी नहीं होगा। यतद कोई कै दी सोचता है, “मैं इस कोििी में हॅू-ं मैं कािागृह के िक्षक को तवनती किता हॅूं तक
मझु े दसू िी कोििी में िखा जाएँ, औि तिि मैं सख ु ी हो जाऊँगा।” तो यह िल ू ििी धािणा है। जि तक व्यति कािागाि के चाि
दीवािों के िीति है, ति तक वह सख ु ी नहीं हो सकता। हम लोग कोिरियाँ िदलकि सख ु ी होने का प्रयास कि िहे हैं-पँजू ीवाद
से साम्यवाद। हमािा लक्ष्य यह होना चातहए तक हम इस “िाद” से पणू थतया मि ु होना चातहए; उसके िाद वह सख ु ी हो
सकता है। यह कृ ष्णिावनामृत का कायथक्रम है।
हम पिम िेष्ठ व्यति से पिामशथ ले िहे हैं। ये कहते हैं, “हे तप्रय अजथनु , तमु सवथिेष्ठ गृहमाला तक िी उन्नत हो सकते
हो, तजसे ब्रह्मलोक कहते हैं, औि वह वाछ ं नीय िी है, क्योंतक वहाँ का जीवन िहुत लम्िा है।” वहाँ के आधे तदन की िी
हम गणना नहीं कि सकते। वह हमािे गतणतीय गणना के पिे है। लेतकन ब्रह्मलोक में िी मृत्यु है। इसतलए िीकृ ष्ण कहते हैं,
“इस ग्रह से उस ग्रह में उन्नत होने का अर्वा स्र्ानान्तरित होने का प्रयास किके समय िििाद मत किो।”
अमेरिका में मैंने तजन लोगों को देखा है, वे िहुत िेचैन हैं। वे एक मकान से दसू िे मकान में, अर्वा एक देश से दसू िे
देश में जाते हैं। यह िेचैनी इसतलए है तक हम हमािे असली घि को ढ़ॅूंढ़ िहे हैं। इस स्र्ान से उस स्र्ान में जाने से शाश्वत
जीवन नहीं तमलेगा। शाश्वत जीवन कृ ष्ण के पास है। इसतलए कृ ष्ण कहते हैं, “सि कुछ मेिे स्वातमत्व में है, औि मेिा
पिमोत्कृ ष्ट धाम है, तजसे गोलोक वृन्दावन कहते हैं।” यतद कोई वहाँ जाना चाहता है, तो उसे के वल कृ ष्णिावनािातवत
िनना पड़ेगा, औि यह समझने का प्रयास किना पड़ेगा तक कृ ष्ण कै से प्रकट व अप्रकट होते हैं, उनकी स्वरूप तस्र्तत क्या
है, हमािी स्वरूप तस्र्तत क्या है, हमािा उनके सार् सम्िन्ध क्या है औि कै से तजया जाए। के वल इन कल्पनाओ ं को वैज्ञातनक
ढ़ंग से समझने का प्रयास किो। कृ ष्णिावना में सि कुछ वैज्ञातनक है। वह िनावटी, लहिी, िावक ु , मतान्धतापणू थ अर्वा
परिकल्पनात्मक नहीं है। वह सत्य, वास्ततवक व असली है। व्यति को कृ ष्ण औि वास्ततवकता में समझना चातहए।
हमें इच्छा से या अतनच्छा से इस शिीि को छोड़ देना हैं वह तदन आएगा जि हमें प्रकृ तत के तनयमों के सामने झक ु ना
पड़ेगा औि इस शिीि को छोड़ देना पड़ेगा। िाष्ट्रपतत के नेिी को िी प्रकृ तत के तनयमों के सामने हाि माननी पड़ी औि अपने
शिीि को िदलकि दसू िा शिीि स्वीकािना पड़ा। वे यह नहीं कि सकते, “अिे ! मैं िाष्ट्रपतत हॅू;ं मैं िीमान् के नेिी हॅ।ूं मैं ऐसा
नहीं करूँगा।” उन्हें शिीि छोड़ना ही पड़ा । प्रकृ तत ऐसे ही काम किती है।
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अन्य ग्रहों की सगु म यात्रा

प्रकृ तत कै से काम किती है यह समझना हमािी तवकतसत मानव-चेतना का उद्देश्य है। मानव के अलावा, कुत्ते,
तितल्लयाँ, कृ तम, वृक्ष, पक्षी, पशु औि अन्य सिी योतनयों में चेतना है। लेतकन उस चेतना में िहने के तलए हम नहीं है।
िीमद्भागवतम् में कहा है तक अनेकानेक जन्मों के िाद हमें यह मनष्ु य-शिीि तमला है। अिी हमें इसका दरुु पयोग नहीं किना
चातहए। कृ पया इस मनष्ु य-जीवन का उपयोग कृ ष्णिावना का तवकास किने के तलए कीतजए औि सख ु ी ितनए।

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