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गुमाँ : जौन एिलया

Gumaan : Jaun Elia

बे-िदली क्या यूँही िदन गुज़र जाएँ गे

बे-िदली क्या यूँही िदन गुज़र जाएँ गे


िसफ़र् िज़ं दा रहे हम तो मर जाएँ गे

रक़्स है रंग पर रंग हम-रक़्स हैं


सब िबछड़ जाएँ गे सब िबखर जाएँ गे

ये ख़राबाितयान-ए-िख़रद-बाख़्ता
सुब्ह होते ही सब काम पर जाएँ गे

िकतनी िदलकश हो तुम िकतना िदल-जू हूँ मैं


क्या िसतम है िक हम लोग मर जाएँ गे

है ग़नीमत िक असरार-ए-हस्ती से हम
बे-ख़बर आए हैं बे-ख़बर जाएँ गे

आदमी वक़्त पर गया होगा

आदमी वक़्त पर गया होगा


वक़्त पहले गुज़र गया होगा

वो हमारी तरफ़ न देख के भी


कोई एहसान धर गया होगा

ख़ुद से मायूस हो के बैठा हूँ


आज हर शख़्स मर गया होगा

शाम तेरे दयार में आिख़र


कोई तो अपने घर गया होगा

मरहम-ए-िहज्र था अजब इक्सीर


अब तो हर ज़ख़्म भर गया होगा

एक ही मुज़्दा सुब्ह लाती है

एक ही मुज़्दा सुब्ह लाती है


धूप आँ गन में फैल जाती है

रंग-ए-मौसम है और बाद-ए-सबा
शहर कूचों में ख़ाक उड़ाती है

फ़शर् पर काग़ज़ उड़ते िफरते हैं


मेज़ पर गदर् जमती जाती है

सोचता हूँ िक उस की याद आिख़र


अब िकसे रात भर जगाती है

मैं भी इज़्न-ए-नवा-गरी चाहूँ


बे-िदली भी तो लब िहलाती है

सो गए पेड़ जाग उठी ख़ुश्बू


िज़ं दगी ख़्वाब क्यूँ िदखाती है

उस सरापा वफ़ा की फ़ुक़र्त में


ख़्वािहश-ए-ग़ैर क्यूँ सताती है

आप अपने से हम-सुख़न रहना


हम-नशीं साँस फूल जाती है

क्या िसतम है िक अब ितरी सूरत


ग़ौर करने पे याद आती है

कौन इस घर की देख-भाल करे


रोज़ इक चीज़ टू ट जाती है

तुम्हारा िहज्र मना लूँ अगर इजाज़त


हो

तुम्हारा िहज्र मना लूँ अगर इजाज़त हो


मैं िदल िकसी से लगा लूँ अगर इजाज़त हो

तुम्हारे बा'द भला क्या हैं वअदा-ओ-पैमाँ


बस अपना वक़्त गँवा लूँ अगर इजाज़त हो

तुम्हारे िहज्र की शब-हा-ए-कार में जानाँ


कोई चराग़ जला लूँ अगर इजाज़त हो

जुनूँ वही है वही मैं मगर है शहर नया


यहाँ भी शोर मचा लूँ अगर इजाज़त हो

िकसे है ख़्वािहश-ए-मरहम-गरी मगर िफर भी


मैं अपने ज़ख़्म िदखा लूँ अगर इजाज़त हो

तुम्हारी याद में जीने की आरज़ू है अभी


कुछ अपना हाल सँभालूँ अगर इजाज़त हो

हर धड़कन हैजानी थी हर ख़ामोशी


तूफ़ानी थी

हर धड़कन हैजानी थी हर ख़ामोशी तूफ़ानी थी


िफर भी मोहब्बत िसफ़र् मुसलसल िमलने की
आसानी थी

िजस िदन उस से बात हुई थी उस िदन भी बे-कैफ़


था मैं
िजस िदन उस का ख़त आया है उस िदन भी
वीरानी थी

जब उस ने मुझ से ये कहा था इश्क़ िरफ़ाक़त ही


तो नहीं
तब मैं ने हर शख़्स की सूरत मुिश्कल से पहचानी
थी

िजस िदन वो िमलने आई है उस िदन की रूदाद ये


है
उस का बलाउज़ नारंजी था उस की सारी धानी थी

उलझन सी होने लगती थी मुझ को अक्सर और


वो यूँ
मेरा िमज़ाज-ए-इश्क़ था शहरी उस की वफ़ा
दहक़ानी थी

अब तो उस के बारे में तुम जो चाहो वो कह डालो


वो अंगड़ाई मेरे कमरे तक तो बड़ी रूहानी थी

नाम पे हम क़ुबार्न थे उस के लेिकन िफर ये तौर


हुआ
उस को देख के रुक जाना भी सब से बड़ी क़ुबार्नी
थी

मुझ से िबछड़ कर भी वो लड़की िकतनी ख़ुश


ख़ुश रहती है
उस लड़की ने मुझ से िबछड़ कर मर जाने की
ठानी थी

इश्क़ की हालत कुछ भी नहीं थी बात बढ़ाने का


फ़न था
लम्हे ला-फ़ानी ठहरे थे क़तरों की तुग़्यानी थी

िजस को ख़ुद मैं ने भी अपनी रूह का इरफ़ाँ


समझा था
वो तो शायद मेरे प्यासे होंटों की शैतानी थी

था दरबार-ए-कलाँ भी उस का नौबत-ख़ाना उस
का था
थी मेरे िदल की जो रानी अमरोहे की रानी थी

आप अपना ग़ुबार थे हम तो

आप अपना ग़ुबार थे हम तो
याद थे यादगार थे हम तो

पदर्गी हम से क्यूँ रखा पदार्


तेरे ही पदार्-दार थे हम तो

वक़्त की धूप में तुम्हारे िलए


शजर-ए-साया-दार थे हम तो

उड़े जाते हैं धूल के मािनं द


आँ िधयों पर सवार थे हम तो

हम ने क्यूँ ख़ुद पे ए'ितबार िकया


सख़्त बे-ए'ितबार थे हम तो

शमर् है अपनी बार बारी की


बे-सबब बार बार थे हम तो

क्यूँ हमें कर िदया गया मजबूर


ख़ुद ही बे-इिख़्तयार थे हम तो

तुम ने कैसे भुला िदया हम को


तुम से ही मुस्तआ'र थे हम तो

ख़ुश न आया हमें िजए जाना


लम्हे लम्हे पे बार थे हम तो

सह भी लेते हमारे ता'नों को


जान-ए-मन जाँ-िनसार थे हम तो

ख़ुद को दौरान-ए-हाल में अपने


बे-तरह नागवार थे हम तो

तुम ने हम को भी कर िदया बरबाद


नािदर-ए-रोज़गार थे हम तो

हम को यारों ने याद भी न रखा


'जौन' यारों के यार थे हम तो

सीना दहक रहा हो तो क्या चुप रहे


कोई

सीना दहक रहा हो तो क्या चुप रहे कोई


क्यूँ चीख़ चीख़ कर न गला छील ले कोई

सािबत हुआ सुकून-ए-िदल-ओ-जाँ कहीं नहीं


िरश्तों में ढूँ ढता है तो ढूँ डा करे कोई

तकर्-ए-तअल्लुक़ात कोई मसअला नहीं


ये तो वो रास्ता है िक बस चल पड़े कोई

दीवार जानता था िजसे मैं वो धूल थी


अब मुझ को ए'ितमाद की दावत न दे कोई

मैं ख़ुद ये चाहता हूँ िक हालात हूँ ख़राब


मेरे िख़लाफ़ ज़हर उगलता िफरे कोई

ऐ शख़्स अब तो मुझ को सभी कुछ क़ुबूल है


ये भी क़ुबूल है िक तुझे छीन ले कोई

हाँ ठीक है मैं अपनी अना का मरीज़ हूँ


आिख़र िमरे िमज़ाज में क्यूँ दख़्ल दे कोई

इक शख़्स कर रहा है अभी तक वफ़ा का िज़क्र


काश उस ज़बाँ-दराज़ का मुँह नोच ले कोई

घर से हम घर तलक गए होंगे

घर से हम घर तलक गए होंगे
अपने ही आप तक गए होंगे

हम जो अब आदमी हैं पहले कभी


जाम होंगे छलक गए होंगे

वो भी अब हम से थक गया होगा
हम भी अब उस से थक गए होंगे

शब जो हम से हुआ मुआ'फ़ करो


नहीं पी थी बहक गए होंगे

िकतने ही लोग िहसर्-ए-शोहरत में


दार पर ख़ुद लटक गए होंगे

शुक्र है इस िनगाह-ए-कम का िमयाँ


पहले ही हम खटक गए होंगे

हम तो अपनी तलाश में अक्सर


अज़ समा-ता-समक गए होंगे

उस का लश्कर जहाँ-तहाँ या'नी


हम भी बस बे-कुमक गए होंगे

'जौन' अल्लाह और ये आलम


बीच में हम अटक गए होंगे

बड़ा एहसान हम फ़रमा रहे हैं

बड़ा एहसान हम फ़रमा रहे हैं


िक उन के ख़त उन्हें लौटा रहे हैं

नहीं तकर्-ए-मोहब्बत पर वो राज़ी


क़यामत है िक हम समझा रहे हैं

यक़ीं का रास्ता तय करने वाले


बहुत तेज़ी से वापस आ रहे हैं

ये मत भूलो िक ये लम्हात हम को
िबछड़ने के िलए िमलवा रहे हैं

तअ'ज्जुब है िक इश्क़-ओ-आिशक़ी से
अभी कुछ लोग धोका खा रहे हैं

तुम्हें चाहेंगे जब िछन जाओगी तुम


अभी हम तुम को अज़ार्ं पा रहे हैं

िकसी सूरत उन्हें नफ़रत हो हम से


हम अपने ऐब ख़ुद िगनवा रहे हैं

वो पागल मस्त है अपनी वफ़ा में


िमरी आँ खों में आँ सू आ रहे हैं

दलीलों से उसे क़ाइल िकया था


दलीलें दे के अब पछता रहे हैं

ितरी बाँहों से िहजरत करने वाले


नए माहौल में घबरा रहे हैं

ये जज़्ब-ए-इश्क़ है या जज़्बा-ए-रहम
ितरे आँ सू मुझे रुलवा रहे हैं

अजब कुछ रब्त है तुम से िक तुम को


हम अपना जान कर ठु करा रहे हैं

वफ़ा की यादगारें तक न होंगी


िमरी जाँ बस कोई िदन जा रहे हैं

अब िकसी से िमरा िहसाब नहीं

अब िकसी से िमरा िहसाब नहीं


मेरी आँ खों में कोई ख़्वाब नहीं

ख़ून के घूँट पी रहा हूँ मैं


ये िमरा ख़ून है शराब नहीं

मैं शराबी हूँ मेरी आस न छीन


तू िमरी आस है सराब नहीं

नोच फेंके लबों से मैं ने सवाल


ताक़त-ए-शोख़ी-ए-जवाब नहीं

अब तो पंजाब भी नहीं पंजाब


और ख़ुद जैसा अब दो-आब नहीं

ग़म अबद का नहीं है आन का है


और इस का कोई िहसाब नहीं

बूदश इक रू है एक रू या'नी
इस की िफ़तरत में इं क़लाब नहीं

िदल ने वफ़ा के नाम पर कार-ए-


वफ़ा नहीं िकया

िदल ने वफ़ा के नाम पर कार-ए-वफ़ा नहीं िकया


ख़ुद को हलाक कर िलया ख़ुद को िफ़दा नहीं
िकया

ख़ीरा-सरान-ए-शौक़ का कोई नहीं है जुम्बा-दार


शहर में इस िगरोह ने िकस को ख़फ़ा नहीं िकया

जो भी हो तुम पे मो'तिरज़ उस को यही जवाब दो


आप बहुत शरीफ़ हैं आप ने क्या नहीं िकया

िनस्बत इल्म है बहुत हािकम-ए-वक़त को अज़ीज़


उस ने तो कार-ए-जहल भी बे-उलमा नहीं िकया

िजस को भी शैख़ ओ शाह ने हुक्म-ए-ख़ुदा िदया


क़रार
हम ने नहीं क्या वो काम हाँ ब-ख़ुदा नहीं िकया

िकस से इज़हार-ए-मुद्दआ कीजे

िकस से इज़हार-ए-मुद्दआ कीजे


आप िमलते नहीं हैं क्या कीजे

हो न पाया ये फ़ैसला अब तक
आप कीजे तो क्या िकया कीजे

आप थे िजस के चारा-गर वो जवाँ


सख़्त बीमार है दुआ कीजे

एक ही फ़न तो हम ने सीखा है
िजस से िमिलए उसे ख़फ़ा कीजे

है तक़ाज़ा िमरी तबीअ'त का


हर िकसी को चराग़-पा कीजे

है तो बारे ये आलम-ए-असबाब
बे-सबब चीख़ने लगा कीजे

आज हम क्या िगला करें उस से


िगला-ए-तंगी-ए-क़बा कीजे

नुत्क़ हैवान पर गराँ है अभी


गुफ़्तुगू कम से कम िकया कीजे

हज़रत-ए-ज़ुल्फ़-ए-ग़ािलया-अफ़्शाँ
नाम अपना सबा सबा कीजे

िज़ं दगी का अजब मोआ'मला है


एक लम्हे में फ़ैसला कीजे

मुझ को आदत है रूठ जाने की


आप मुझ को मना िलया कीजे

िमलते रिहए इसी तपाक के साथ


बेवफ़ाई की इं ितहा कीजे

कोहकन को है ख़ुद-कुशी ख़्वािहश


शाह-बानो से इिल्तजा कीजे

मुझ से कहती थीं वो शराब आँ खें


आप वो ज़हर मत िपया कीजे

रंग हर रंग में है दाद-तलब


ख़ून थूकूँ तो वाह-वा कीजे

चलो बाद-ए-बहारी जा रही है

चलो बाद-ए-बहारी जा रही है


िपया-जी की सवारी जा रही है

शुमाल-ए-जावेदान-ए-सब्ज़-ए-जाँ से
तमन्ना की अमारी जा रही है

फ़ुग़ाँ ऐ दुश्मन-ए-दार-ए-िदल-ओ-जाँ
िमरी हालत सुधारी जा रही है

जो इन रोज़ों िमरा ग़म है वो ये है


िक ग़म से बुदर्बारी जा रही है

है सीने में अजब इक हश्र बरपा


िक िदल से बे-क़रारी जा रही है

मैं पैहम हार कर ये सोचता हूँ


वो क्या शय है जो हारी जा रही है

िदल उस के रू-ब-रू है और गुम-सुम


कोई अज़ीर् गुज़ारी जा रही है

वो सय्यद बच्चा हो और शैख़ के साथ


िमयाँ इज़्ज़त हमारी जा रही है

है बरपा हर गली में शोर-ए-नग़्मा


िमरी फ़िरयाद मारी जा रही है

वो याद अब हो रही है िदल से रुख़्सत


िमयाँ प्यारों की प्यारी जा रही है

दरेग़ा तेरी नज़दीकी िमयाँ-जान


ितरी दू री पे वारी जा रही है

बहुत बद-हाल हैं बस्ती ितरे लोग


तो िफर तू क्यूँ सँवारी जा रही है

ितरी मरहम-िनगाही ऐ मसीहा


ख़राश-ए-िदल पे वारी जा रही है

ख़राबे में अजब था शोर बरपा


िदलों से इं ितज़ारी जा रही है

ऐ कू-ए-यार तेरे ज़माने गुज़र गए

ऐ कू-ए-यार तेरे ज़माने गुज़र गए


जो अपने घर से आए थे वो अपने घर गए

अब कौन ज़ख़्म ओ ज़हर से रक्खेगा िसलिसला


जीने की अब हवस है हमें हम तो मर गए

अब क्या कहूँ िक सारा मोहल्ला है शमर्सार


मैं हूँ अज़ाब में िक िमरे ज़ख़्म भर गए

हम ने भी िज़ं दगी को तमाशा बना िदया


उस से गुज़र गए कभी ख़ुद से गुज़र गए

था रन भी िज़ं दगी का अजब तुफ़ार् माजरा


या'नी उठे तो पाँव मगर 'जौन' सर गए

जुज़ गुमाँ और था ही क्या मेरा

जुज़ गुमाँ और था ही क्या मेरा


फ़क़त इक मेरा नाम था मेरा

िनकहत-ए-पैरहन से उस गुल की

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