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गुमाँ जौन एलिया (हिन्दी कविता)
गुमाँ जौन एलिया (हिन्दी कविता)
ये ख़राबाितयान-ए-िख़रद-बाख़्ता
सुब्ह होते ही सब काम पर जाएँ गे
है ग़नीमत िक असरार-ए-हस्ती से हम
बे-ख़बर आए हैं बे-ख़बर जाएँ गे
रंग-ए-मौसम है और बाद-ए-सबा
शहर कूचों में ख़ाक उड़ाती है
था दरबार-ए-कलाँ भी उस का नौबत-ख़ाना उस
का था
थी मेरे िदल की जो रानी अमरोहे की रानी थी
आप अपना ग़ुबार थे हम तो
आप अपना ग़ुबार थे हम तो
याद थे यादगार थे हम तो
घर से हम घर तलक गए होंगे
घर से हम घर तलक गए होंगे
अपने ही आप तक गए होंगे
वो भी अब हम से थक गया होगा
हम भी अब उस से थक गए होंगे
ये मत भूलो िक ये लम्हात हम को
िबछड़ने के िलए िमलवा रहे हैं
तअ'ज्जुब है िक इश्क़-ओ-आिशक़ी से
अभी कुछ लोग धोका खा रहे हैं
ये जज़्ब-ए-इश्क़ है या जज़्बा-ए-रहम
ितरे आँ सू मुझे रुलवा रहे हैं
बूदश इक रू है एक रू या'नी
इस की िफ़तरत में इं क़लाब नहीं
हो न पाया ये फ़ैसला अब तक
आप कीजे तो क्या िकया कीजे
एक ही फ़न तो हम ने सीखा है
िजस से िमिलए उसे ख़फ़ा कीजे
है तो बारे ये आलम-ए-असबाब
बे-सबब चीख़ने लगा कीजे
हज़रत-ए-ज़ुल्फ़-ए-ग़ािलया-अफ़्शाँ
नाम अपना सबा सबा कीजे
शुमाल-ए-जावेदान-ए-सब्ज़-ए-जाँ से
तमन्ना की अमारी जा रही है
फ़ुग़ाँ ऐ दुश्मन-ए-दार-ए-िदल-ओ-जाँ
िमरी हालत सुधारी जा रही है
िनकहत-ए-पैरहन से उस गुल की