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चुनी ई क वता ँ

चुनी ई क वता ँ

अटल बहारी वाजपेयी


काशक ● भात काशन
4/19 आसफ अली रोड,
नई द ली-110002

© ी अटल बहारी वाजपेयी

सं करण ● 2015
CHUNI HUI KAVITAYEN by Atal Bihari Vajpayee
Published by Prabhat Prakashan, 4/19 Asaf Ali Road, New Delhi-2
ISBN 978-93-5186-431-8
पू य पता ी
पं. कृ ण बहारी वाजपेयी
क पावन मृ त म
अपनी बात

क वता मुझे घुट्ट म मली थी।


मेरे पतामह सं कृत भाषा तथा सा ह य के अ छे व ान् थे। घर क एक बैठक पुरानी
पो थय से भरी ई थी। वे जहाँ जाते वहाँ से अ छ -अ छ पु तक ले आते थे। यो तष का
उनका गहरा अ ययन था। र- र से लोग उ ह ज मप याँ दखाने के लए लाते थे।
एक बार गाँव का एक लड़का प रवार से ठकर घर छोड़कर चला गया। कहाँ गया,
कसी को पता नह था। उसके पता बेटे क ज मप ी लेकर पतामह के पास आ गए। बाबा
ने एक मं कागज पर लखकर दया। यह हदायत भी द क मं उसके कसी कपड़े म
बाँध दया जाए। दो-तीन दन बाद वह लड़का जब सचमुच वापस आ गया तो गाँव म बड़ी
धूम मची। ले कन पतामह का यान यो तष से अ धक सा ह य म था।
पताजी ी कृ ण बहारी वाजपेयी बटे र से आकर वा लयर म बस गए थे। उ ह ने
बदलते ए व को दे खकर अं ेजी का पठन ारंभ कया। खड़ीबोली के साथ जभाषा
और अवधी पर भी उनका अ छा अ धकार था। जभाषा म लखी उनक क वताएँ और
सवैये काफ पसंद कए जाते थे। बटे र से वा लयर प ँचकर सा ह य के लए बड़ा े
ा त आ। रयासत के मुखप ‘जीयाजी ताप’ म उनक क वताएँ नय मत प से छपती
थ।
जब यह तय आ क वा लयर रयासत का अपना गीत होना चा हए तो यह काम
पताजी को स पा गया। गीत ऐसा होना चा हए था जो सरलता से गाया जा सके। उसम
स धया प रवार और वा लयर रयासत क क त का गान ज री था। पताजी ारा लखा
गीत पूरी रयासत म च लत था। उसका नय मत प से गायन होता था। उसक दो पं याँ
मुझे अभी तक याद ह—
हम दे श, वदे श कह भी ह , पर होगा तेरा यान सदा।
तेरा ही पु कहाने म होगा हमको अ भमान सदा।।
पताजी ने और भी क वताएँ लखी थ , कतु उनके काशन क ओर यान नह दया।
वे इधर-उधर बखर ग ।
पताजी क हद और अं ेजी के साथ उ पर भी अ छ पकड़ थी। उन दन ब च के
लए उ अ नवाय थी। रयासत म तवष होनेवाले गणेशो सव म पताजी के भाषण
नय मत प से होते थे। पताजी क व ा का आकलन इसी से कया जा सकता है क वे
वयं मै क पास होते ए भी दसव क ा को पढ़ाते थे। बाद म उ ह ने बी.ए. क परी ा
पास क । एम.ए. का ान भी ा त कया। कूल के इं पे टर के प म रटायर होने के बाद
कानून का अ ययन करने क ठानी।
२५ दसंबर! पता नह क उस दन मेरा ज म य आ! बाद म, बड़ा होने पर, मुझे यह
बताया गया क २५ दसंबर ईसा मसीह का ज म दन है, इस लए बड़े दन के प म मनाया
जाता है। मुझे यह भी बताया गया क जब म पैदा आ तब पड़ोस के गरजाघर म ईसा
मसीह के ज म दन का योहार मनाया जा रहा था। कैरोल गाए जा रहे थे। उ लास का
वातावरण था। ब च म मठाई बाँट जा रही थी।
बाद म मुझे यह भी पता लगा क बड़ा दन ह धम के उ ायक पं. मदन मोहन
मालवीय का भी ज म दन है। मुझे जीवन भर इस बात का अ भमान रहा क मेरा ज म ऐसे
महापु ष के ज म के दन ही आ।
मुझे यह बात अभी तक अ छ तरह से याद है क मेरे पता ी कृ ण बहारी वाजपेयी
मेरी अँगुली पकड़कर मुझे आय समाज के वा षको सव म ले जाते थे। उपदे शक के स वर
भजन मुझे अ छे लगते थे। आय व ान के उपदे श मुझे भा वत करने लगे थे। भजन और
उपदे श के साथ-साथ वतं ता सं ाम क बात भी सुनने को मलती थ ।
या यह एक संयोग मा था? या इसके पीछे कोई वधान था?
घर म सा ह य- ेम का वातावरण था। मने भी तुकबंद शु कर द । मुझे याद है क मेरी
पहली क वता ‘ताजमहल’ कुछ इस तरह थी—
ताजमहल, यह ताजमहल,
कैसा सुंदर अ त सुंदरतर।
कतु ताजमहल पर लखी गई यह क वता केवल उसके स दय तक ही सी मत नह थी।
क वता उन कारीगर क था तक प ँच गई थी, ज ह ने पसीना बहाकर, जीवन खपाकर
ताजमहल का नमाण कया था। क वता क अं तम पं याँ मुझे अभी तक याद ह—
जब रोया ह तान सकल,
तब बन पाया यह ताजमहल।
न य ही उन दन मुझे आय व ान के साथ-साथ क यु न ट ां त भा वत करने
लगी थी। आज जब भी म उन दन क बात सोचता ँ, तो अपने अधकचरे मन क तसवीर
मेरे सामने खड़ी हो जाती है।
मु य प से मने दे शभ से प रपूण क वताएँ लखी थ । क व स मेलन म उनक माँग
थी। लोग उ ह पसंद करते थे। वीर रस क क वताएँ पसंद क जाती थ ।
क वता के साथ उन दन नौजवान म व ृ व कला क तयो गताएँ आ करती थ ।
ओज वी क व ोता ारा पसंद कए जाते थे। आजाद के आंदोलन से ऐसे नौजवान को
ेरणा मलती थी।
यह उन दन क बात है जब म व टो रया कॉलेज, वा लयर म पढ़ा करता था। पढ़ाई-
लखाई के साथ सा ह य म भी मेरी च थी। म कॉलेज म छा संघ का पहले धानमं ी
और फर उपा य चुना गया था। अ य उन दन कोई ोफेसर आ करता था। छा संघ
क ज मेदारी थी क वह वा षक उ सव का आयोजन करे।
मुझे याद है क छा संघ ने एक साल कॉलेज म क व स मेलन करने का फैसला कया।
वा लयर से बाहर के क व भी आमं त कए गए थे। यह तय आ क कॉलेज के वा षक
समारोह म महाक व नरालाजी को आमं त कया जाए। उन दन ीमती महादे वी वमा
तथा ी सु म ानंदन पंत क बड़ी धूम थी। नरालाजी को आमं त करने का काम ो.
शवमंगल सह ‘सुमन’ को स पा गया। कॉलेज के लए यह बड़े गौरव का दन था।
जब हम नरालाजी को रेलवे टे शन से उनके ठहरने क जगह ले जा रहे थे, एक ऐसी
घटना ई जो जीवन भर भा वत करती रही। आ यह क जब ताँगा उस सड़क से नकला
जसपर महारानी ल मीबाई मृ त च बना आ था, तो नरालाजी ने उस वीरांगना को
नमन करने के लए ताँगा थोड़ी दे र कवा लया। उनक नजर ल मीबाई के मारक के
नकट बैठ एक नधन म हला पर गई। वह म हला सद से अपने को बचाने के यास म
लगी थी। जैसे ही नरालाजी क नजर उस म हला के ऊपर गई, तो महाक व ने अपना कंबल
उतारकर उस म हला को ओढ़ा दया। हम सब यह दे खकर दं ग रह गए।
नरालाजी के महान् व क एक छोट सी झलक पाकर हम लोग भाव- वभोर हो
गए। घर प ँचने पर हमने नरालाजी के लए अलग से एक कंबल का बंध कया। ले कन
नरालाजी ारा सद से ठठु रती ई म हला को कंबल दे ने क घटना हमारे मानस-पटल पर
सदै व के लए अं कत हो गई।
व टो रया कॉलेज से संबं धत और एक घटना मुझे याद आ रही है। छा संघ क ओर से
रा म क व स मेलन का आयोजन था। तवष क भाँ त उस साल भी थानीय क वय के
साथ बाहर से क वय को भी नमं त कया गया था। व टो रया कॉलेज के सपल ो.
पयस स मेलन दे खने के लए वयं आए थे। हॉल खचाखच भरा था, ले कन कुछ क वय के
मंच पर आने म वलंब हो रहा था। वे अवसर के अनु प सजने-धजने म लगे ए थे।
जब यादा दे र होने लगी और छा के धैय का बाँध टू टने लगा तो मने एक साहसपूण
नणय लया। म मंच पर चला गया और घोषणा कर द क कुछ क वय और शायर के आने
म दे र हो रही है, ोता अ धक वलंब के लए तैयार नह ह, इस लए क वता-पाठ थ गत
कया जाता है। ोता अपने घर के लए थान कर। पूरे सभा-भवन म स ाटा छा गया।
छा क वता के शौक न थे। क वय को सुनना चाहते थे। ले कन कुछ क वय ारा मंच पर
आने म अ य धक वलंब कए जाने के कारण छा बगड़ गए। तब तक कुछ क व मंच पर
प ँच चुके थे। वे नौजवान से अपील कर रहे थे क वे अब क वता सुनकर ही जाएँ, कतु
छा ने नह माना। मेरे यह कहते ही क अब स मेलन भंग कया जाता है, सब छा सदन
के बाहर चले गए। बाद म फर जब कभी स मेलन होते थे तो क व समय से आने का यान
रखने लगे थे।
मने व टो रया कॉलेज, वा लयर से नातक क परी ा पास क थी। आगे पढ़ने का
इरादा ज र था ले कन साधन का अभाव था। वा लयर क रयासत मेधावी छा को
छा वृ दया करती थी। इनम द ण से आए य छा अ धक होते थे।
मने बी.ए. पास करते-करते अ छा नाम कमा लया था। मेरे भाषण शौक से सुने जाते।
मेरी क वताएँ भी पसंद क जाती थ । वा लयर रयासत म मेरा नाम भी हो गया था। जब
उ च श ा के छा का चयन होने लगा तो मुझे भी उसम मौका मल गया।
वा लयर के छा आगरा व व ालय से संब होने के कारण कानपुर जाते थे।
कानपुर म डी.ए.वी. कॉलेज और सनातन धम कॉलेज दोन का बड़ा नाम था। मने डी.ए.वी.
कॉलेज म वेश लया। कॉलेज का भवन काफ वशाल था। छा ावास म उसके छा के
रहने क व था सरलता से हो जाती थी। मने छा ावास म रहने का न य कया।
पताजी ने जब यह सुना तो उनके मन म उ च श ा ा त करने क जो इ छा थी, वह
फर जा त् हो गई। उ ह ने वा लयर छोड़कर कानपुर के डी.ए.वी. कॉलेज म पढ़ने का
फैसला कया। उनके लए कॉलेज म भरती होना और कानून क पढ़ाई करना बड़ी चचा का
वषय बना। ‘ पता-पु साथ-साथ’ इस शीषक से अखबार म खबर छप ।
डी.ए.वी. कॉलेज छा ावास के वे दन मुझे अभी भी अ छ तरह याद ह। पता और पु
एक ही कमरे म रहते थे। पताजी को हाथ का खाना पसंद था। इससे हम भी अ छा खाना
मल जाता था। रोज रात को सोने से पहले ध न त प से मला करता था। अ य छा
ध के त ेम दे खकर उसक चचा कया करते थे।
धपान के संबंध म एक घटना मरणीय है। एक रात पं. द नदयाल उपा याय मण
करते ए मेरे घर वा लयर प ँच गए। म घर म नह था। पताजी ने उनका वागत-स कार
कया। रात को जब सोने का व आ तो उपा यायजी के लए पताजी ध से भरा एक
गलास लेकर प ँच।े उपा यायजी आ य म पड़ गए। उनको रात म ध पीने क आदत नह
थी। पताजी रात म बना ध पए और पलाए सो नह सकते थे। जस ेम से पताजी ने
अ त थ को धपान कराया उससे यह छोट सी घटना र- र तक फैल गई। जो रात म ध
पीना नह चाहते थे, उ ह ने वा लयर म मेरे घर पर कना बंद कर दया।
ध से संबं धत एक और घटना है, जो ी य द शमा से जुड़ी ई है। उ ह ध पीने का
बड़ा शौक था। वास म जहाँ जाते, ध क फरमाइश कए बना नह रह सकते थे। ले कन
सब जगह ध का मलना मु कल था। द ण भारत म वास के दौरान एक घर म रात को
सोने से पहले एक छोटे से गलास म ध पेश कया गया। य द जी को पूरे पंजाबी गलास
क आदत थी। संकोचवश कुछ बोले नह । सुबह पानी बड़े गलास म आया तो कुछ आशा
जगी, शायद रात म ध भी बड़े गलास म आएगा, ले कन ध फर उसी छोटे गलास म
लाया गया। सुबह फर पानी से भरे बड़े गलास को दे खते ही करब होकर उसको णाम
कया और पूछा—भगवन्, आप रात म कहाँ रहते हो? सारा प रवार हँसने लगा। ी य द
शमा का ध- ेम अ खल भारतीय व प धारण कर बैठा। इस तरह के और भी वनोद व
हा य के संग चलते रहते थे।
आज बरस बाद, ऐसी गुदगुदानेवाली घटनाएँ मृ त-पटल पर उभरकर खड़ी हो जाती
ह।
डी.ए.वी. कॉलेज, कानपुर से एम.ए. करने के प ात् मेरे सामने कई रा ते खुले थे। म
कानून क श ा पूण कर वकालत कर सकता था। वा लयर रा य मुझे कॉलेज म ा यापक
का दा य व दे ने के लए तैयार था। तीसरा रा ता यह था क म प का रता के े को
अपनाता और कलम के मा यम से रा क सेवा करता। वा लयर म ा यापक का पद
वीकार करने म एक क ठनाई थी। मेरी एम.ए. क पढ़ाई पर रा य ने जो खच कया था, वह
धन मुझे लौटाना पड़ता।
यहाँ भ व य का एक चौथा रा ता खुलता आ दखाई दया। रा ीय वयंसेवक संघ
प का रता के जगत् म वेश करना चाहता था। एक नया सा ता हक प नकालने क
उनक योजना थी। संघ ने मुझे अपने प म काम करने के लए बुलाया।
मुझे प का रता का कोई अनुभव नह था। लखनऊ जाकर संपादन का दा य व
सँभालने क पूरी तैयारी भी नह थी। ले कन यह क ठनाई भी हल हो गई। ी भाऊराव
दे वरस ने पूण सहयोग का आ ासन दया। सहायता के लए पं. द नदयाल उपा याय तैयार
थे। रीवा के ी राजीव लोचन अ नहो ी सा ह य म च रखते थे। उ ह ने बड़ी खुशी से
लखनऊ आकर नए सा ता हक प का भार सँभालना वीकार कर लया।
ी राजीव लोचन अ नहो ी और म नए प ‘रा धम’ को सँभालने के लए तैयार हो
गए। हम दोन म से कसी को प का रता का अनुभव नह था। कसी वषय पर लेख
लखना सरल है, कतु कसी नए प के संपादन का भार सँभालना एक चुनौती भरा दा य व
था। ूफ पढ़ने से लेकर संपादन तक क ज मेदारी उठानी थी।
‘रा धम’ के थम अंक का सा ह य जगत् म वागत आ। हम प के अ छे तर को
कायम रखने के लए सजग थे। ‘रा धम’ ने शी ही एक अ छे सा ता हक के प म थान
हण कर लया। प क सफलता दे खकर एवं एक और सा ता हक प क आव यकता को
दे खकर रा धम काशन मंडल ने सा ता हक ‘पा चज य’ के काशन का फैसला कया।
थोड़े ही समय म ‘पा चज य’ ने भी प का रता जगत् म अपना थान बना लया। ‘रा धम’
वचार- धान था, ‘पा चज य’ ने चार का मोरचा सँभाला। ऐसे प क आव यकता थी
जो रा वाद के पोषक ह और जो समाज-जीवन के सभी े म अपना थान बना ल।
‘रा धम’, ‘पा चज य’ दोन प को कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा था। जो
वामपंथी थे वे हम सां दा यकता क ेणी म बठाने के लए तुले ए थे। सां दा यकता या
है? रा ीयता का सही मापदं ड या हो? इन पर ववाद छड़ गया। दोन प ने अपनी
त ा को बनाए रखा। दोन प खर रा वाद के संबल बन गए।
सरकार नयम का इस ढं ग से पालन कराती थी क प का छपना ही संभव न रहे।
जन दन म इन प का संपादन कर रहा था, उनम ेस क वतं ता पर ऊपर से दे खने म
कोई अंकुश नह था; ले कन जन ेस म वे छापे जाते थे उन पर ही ताला जड़ दया गया।
नतीजा यह आ क एक प के बंद होने पर सरा प नकालने क होड़ लगी और सरकार
के साथ यह आँख- मचौली का खेल चलता रहा। इस सबका प रणाम यह आ क
प का रता के त तब लोग राजनी त म आने के लए ववश ए। इस तरह छलावे क
नी त से सरकार या ा त करने म सफल ई, इसक मुझे अभी तक जानकारी नह मली
है।
एक प कार के नाते यह मेरा अनुभव है क सरकार प का गला घ टने का मन बना ले
तो उसके तरकस म ऐसे कई तीर आसानी से मल जाएँगे जो साँप मरे और लाठ भी न टू टे
क कहावत को च रताथ कर।
उस समय क प र थ तय म एक नया रा वाद दल ग ठत करने का फैसला आ। यह
एक लंबी कहानी है। नेह मं मंडल से यागप दे ने के बाद डॉ. यामा साद मुखज
कसी ऐसे मंच क तलाश म थे जो कां ेस सरकार क बढ़ती ई तानाशाही पर अंकुश
लगाने के लए तैयार हो और जसके पीछे जनता सहज, वाभा वक प से खड़ी हो जाए।
डॉ. मुखज ने सभी मंच को एक साथ लाने का यास कया। इसम उ ह सफलता भी
मली। अनेक दल को अपनी-अपनी सीमा-रेखाएँ कायम रखते ए एक सामा य काय म
के आधार पर काम करने म क ठनाई नह थी।
दे श क राजनी त कतने भाग म बँट ई है, इसक थोड़ी अनुभू त पहले से हो रही थी;
कतु यह दे खकर आ य आ क जो दल दे श- नमाण और सां कृ तक न ा से प रचा लत
थे, उनके लए भी एक मंच पर आना एक मु कल काम था। टु कड़ म बँट ई राजनी त
एक संग ठत श क अनुभू त कैसे दे गी, यह सवाल सामने खड़ा था। डॉ. मुखज के
नेतृ व म नेशनल डेमो े टक ं ट का नमाण इस दशा म एक ठोस कदम था।
पाँच दशक से अ धक राजनी तक या ा के बाद भी दे श क बँट ई राजनी त को
जोड़ने क आव यकता प दखाई दे ती है। जो केवल स ा के लए नह अ पतु
वघटनकारी श य से लोहा लेकर रा ीय हत क र ा करने के काम म आगे बढ़ सक,
उनके लए ऐसे मंच क साथकता सदै व रहेगी।
भारतीय राजनी त के शखर पु ष और पूव धानमं ी ी अटल बहारी वाजपेयी
ओज वी क व और खर व ा ह। राजनी त म स य रहते ए भी उनके संवेदनशील और
दय पश भाव क वता के प म कट होते रहे। उनक क वता ने अपनी व श
पहचान बनाई और पाठक ारा सराही ग । उनक क वता म वा भमान, दे शानुराग,
याग, ब लदान, अ याय के त व ोह, आ था एवं समपण का भाव है।
तुत का संकलन म संक लत क वताएँ इस मायने म व श ह क ये वयं अटलजी
ारा चय नत ह। इनका एक अ य आकषक और व श प है इनका तु तकरण। ये
क वताएँ सुंदर और कला मक ह त ल प म तथा ल लत-सुंदर भाव- च से आकंठ स जत
ह। क वता म थत सम त भाव अपने च म इस कला मकता एवं कुशलता से र चत ह
क च को दे खकर ही क वता का भाव सहज गत हो जाता है।
इस सुकृत के लए इन च और ल प के श पी त त च कार ी राम क तुरे का
हा दक आभार।
— काशक
अनु म

1. आओ, मन क गाँठ खोल


2. हरी-हरी ब पर
3. गीत नया गाता ँ
4. झुक नह सकते
5. कदम मलाकर चलना होगा
6. जंग न होने दगे
7. हरो शमा क पीड़ा
8. अपने ही मन से कुछ बोल
9. कौरव कौन, कौन पांडव
10. ध म दरार पड़ गई
11. पहचान
12. मा याचना
13. गीत नह गाता ँ
14. न म चुप ँ, न गाता ँ
15. जीवन बीत चला
16. राह कौन सी जाऊँ म?
17. नए मील का प थर
18. नई गाँठ लगती
19. अमर है गणतं
20. एक बरस बीत गया
21. रोते-रोते रात सो गई
22. जीवन क ढलने लगी साँझ
23. मोड़ पर
24. ऊँचाई
25. मन का संतोष
26. म सोचने लगता ँ
27. र कह कोई रोता है
28. मौत से ठन गई
29. आओ फर से दया जलाएँ
30. य
31. अमर आग है
32. स ा
33. दो चतु पद
34. अंत
35. न दै यं न पलायनम्
चुनी ई क वता ँ
आओ मन क गाँठ खोल

यमुना तट, ट ले रेतीले,


घास-फूस का घर डाँडे पर,
गोबर से लीपे आँगन म,
तुलसी का बरवा, घंट वर,
माँ के मुँह से रामायण के दोहे-चौपाई रस घोल!
आओ मन क गाँठ खोल!

बाबा क बैठक म बछ
चटाई, बाहर रखे खड़ाऊँ,
मलनेवाले के मन म
असमंजस, जाऊँ या ना जाऊँ?
माथे तलक, नाक पर ऐनक, पोथी खुली, वयं से बोल!
आओ मन क गाँठ खोल!

सर वती क दे ख साधना,
ल मी ने संबंध न जोड़ा,
मट् ट ने माथे का चंदन
बनने का संक प न छोड़ा,
नए वष क अगवानी म टु क क ल, कुछ ताजा हो ल!
आओ मन क गाँठ खोल!
हरी-हरी ब पर

हरी-हरी ब पर
ओस क बूँद
अभी थ ,
अब नह ह।
ऐसी खु शयाँ
जो हमेशा हमारा साथ द
कभी नह थ ,
कभी नह ह।

वार क कोख से
फूटा बाल सूय,
जब पूरब क गोद म
पाँव फैलाने लगा,
तो मेरी बगीची का
प ा-प ा जगमगाने लगा,
म उगते सूय को नम कार क ँ
या उसके ताप से भाप बनी,
ओस क बूँद को ढूँ ढँ ?

सूय एक स य है
जसे झुठलाया नह जा सकता
मगर ओस भी तो एक स चाई है
यह बात अलग है क ओस णक है
य न म ण- ण को जीऊँ?
कण-कण म बखरे स दय को पीऊँ?

सूय तो फर भी उगेगा,
धूप तो फर भी खलेगी,
ले कन मेरी बगीची क
हरी-हरी ब पर,
ओस क बूँद
हर मौसम म नह मलेगी।
नया
गीत
गाता ँ

टू टे ए तार से फूटे वासंती वर,


प थर क छाती म उग आया नव अंकुर,
झरे सब पीले पात,
कोयल क कु क रात,
ाची म अ णमा क रेख दे ख पाता ँ।
गीत नया गाता ँ।

टू टे ए सपने क सुने कौन ससक ?


अंतर को चीर था पलक पर ठठक ।
हार नही मानूँगा,
रार नई ठानूँगा,
काल के कपाल पर लखता- मटाता ँ।
गीत नया गाता ँ।
झुक
नह सकते

टू ट सकते ह मगर हम झुक नह सकते।


स य का संघष स ा से,
याय लड़ता नरंकुशता से,
अँधेरे ने द चुनौती है,
करण अं तम अ त होती है।
द प न ा का लये न कंप,
व टू टे या उठे भूकंप,
यह बराबर का नह है यु
हम नह थे, श ु है स ,
हर तरह के श से है स ज,
और पशुबल हो उठा नल ज।
कतु फर भी जूझने का ण,
पुनः अंगद ने बढ़ाया चरण,
ाण-पण से करगे तकार,
समपण क माँग अ वीकार।
दाँव पर सबकुछ लगा है, क नह सकते।
टू ट सकते ह मगर हम झुक नह सकते।
कदम मलाकर
चलना होगा

बाधाएँ आती ह आएँ,


घर लय क घोर घटाएँ,
पाँव के नीचे अंगारे,
सर पर बरस य द वालाएँ,
नज हाथ से हँसते-हँसते,
आग लगाकर जलना होगा।
कदम मलाकर चलना होगा।

हा य- दन म, तूफान म,
अमर असं यक ब लदान म,
उ ान म, वीरान म,
अपमान म, स मान म
उ त म तक, उभरा सीना,
पीड़ा म पलना होगा!
कदम मलाकर चलना होगा।

उ जयारे म, अंधकार म,
कल कछार म, बीच धार म,
घोर घृणा म, पूत यार म,
णक जीत म, द घ हार म,
जीवन के शत-शत आकषक,
अरमान को दलना होगा।
कदम मलाकर चलना होगा।

स मुख फैला अमर येय-पथ,


ग त चरंतन कैसा इ त-अथ,
सु मत ह षत कैसा म थ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सबकुछ दे कर कुछ न माँगते,
पावस बनकर ढलना होगा।
कदम मलाकर चलना होगा।

कुश-काँट से स जत जीवन,
खर यार से वं चत यौवन,
नीरवता से मुख रत मधुवन,
पर- हत अ पत अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आ त म,
जलना होगा, गलना होगा।
कदम मलाकर चलना होगा।
जंग न
होने दगे

हम जंग न होने दगे!


व -शां त के हम साधक ह, जंग न होने दगे!

कभी न खेत म फर खूनी खाद फलेगी,


ख लहान म नह मौत क फसल खलेगी,
आसमान फर कभी न अंगारे उगलेगा,
एटम से नागासाक फर नह जलेगी,
यु वहीन व का सपना भंग न होने दगे।
जंग न होने दगे।

ह थयार के ढे र पर जनका है डेरा,


मुँह म शां त, बगल म बम, धोखे का फेरा,
कफन बेचनेवाल से कह दो च लाकर,
नया जान गई है उनका असली चेहरा,
कामयाब हो उनक चाल, ढं ग न होने दगे।
जंग न होने दगे।

हम चा हए शां त, जदगी हमको यारी,


हम चा हए शां त, सृजन क है तैयारी,
हमने छे ड़ी जंग भूख से, बीमारी से,
आगे आकर हाथ बँटाए नया सारी।
हरी-भरी धरती को खूनी रंग न लेने दगे।
जंग न होने दगे।

भारत-पा क तान पड़ोसी, साथ-साथ रहना है,


यार कर या वार कर, दोन को ही सहना है,
तीन बार लड़ चुके लड़ाई, कतना महँगा सौदा,
सी बम हो या अमे रक , खून एक बहना है।
जो हम पर गुजरी ब च के संग न होने दगे।
जंग न होने दगे।
हरो शमा क पीड़ा

कसी रात को
मेरी न द अचानक उचट जाती है,
आँख खुल जाती है,
म सोचने लगता ँ क
जन वै ा नक ने अणु-अ का
आ व कार कया थाः
वे हरो शमा-नागासाक के
भीषण नरसंहार के समाचार सुनकर,
रात को सोए कैसे ह गे?

दाँत म फँसा तनका,


आँख क कर करी,
पाँव म चुभा काँटा,
आँख क न द,
मन का चैन उड़ा दे ते ह।

सगे-संबंधी क मृ यु,
कसी य का न रहना,
प र चत का उठ जाना,

यहाँ तक क पालतू पशु का भी वछोह


दय म इतनी पीड़ा, इतना वषाद भर दे ता है क
चे ा करने पर भी न द नह आती है।
करवट बदलते रात गुजर जाती है।

कतु जनके आ व कार से


वह अं तम अ बना
जसने छह अग त उ ीस सौ पतालीस क काल-रा को
हरो शमा-नागासाक म मृ यु का तांडव कर
दो लाख से अ धक लोग क ब ल ले ली,
हजार को जीवन भर के लए अपा हज कर दया।

या उ ह एक ण के लए सही, यह
अनुभू त ई क उनके हाथ जो कुछ
आ, अ छा नह आ?
य द ई, तो व उ ह कठघरे म खड़ा नह करेगा,
कतु य द नह ई, तो इ तहास उ ह कभी
माफ नह करेगा।
अपने ही मन से
कुछ बोल

या खोया, या पाया जग म,
मलते और बछड़ते मग म,
मुझे कसी से नह शकायत,
य प छला गया पग-पग म,
एक बीती पर डाल, याद क पोटली टटोल।

पृ थवी लाख वष पुरानी,


जीवन एक अनंत कहानी,
पर तन क अपनी सीमाएँ,
य प सौ शरद क वाणी,
इतना काफ है अं तम द तक पर खुद दरवाजा खोल।

ज म-मरण का अ वरत फेरा,


जीवन बंजार का डेरा,
आज यहाँ, कल कहाँ कूच है,
कौन जानता, कधर सवेरा,
अँ धयारा आकाश असी मत, ाण के पंख को तौल।
अपने ही मन से कुछ बोल!
कौरव कौन
कौन पांडव

कौरव कौन
कौन पांडव,
टे ढ़ा सवाल है।
दोन ओर शकु न
का फैला
कूट-जाल है।
धमराज ने छोड़ी नह
जुए क लत है।
हर पंचायत म
पांचाली
अपमा नत है।
बना कृ ण के
आज
महाभारत होना है,
कोई राजा बने
रंक को तो रोना है।
धम
दरार पड़ गई

खून य सफेद हो गया?


भेद म अभेद खो गया।
बँट गए शहीद, गीत कट गए,
कलेजे म कटार गड़ गई।
ध म दरार पड़ गई।

खेत म बा द गंध,
टू ट गए नानक के छं द,
सतलुज सहम उठ , थत-सी वत ता है,
वसंत से बहार झड़ गई।
ध म दरार पड़ गई।

अपनी ही छाया से वैर,


गले लगने लगे ह गैर,
खुदकुशी का रा ता, तु ह वतन का वा ता,
बात बनाएँ, बगड़ गई।
ध म दरार पड़ गई।
पहचान

पेड़ के ऊपर चढ़ा आदमी


उँचा दखाई दे ता है।
जड़ म खड़ा आदमी
नीचा दखाई दे ता है।

आदमी न ऊँचा होता है, न नीचा होता है,


न बडा होता है, न छोटा होता है।
आदमी सफ आदमी होता है।

पता नह , इस सीधे-सपाट स य को
नया य नह जानती?
और अगर जानती है,
तो मन से य नह मानती?

इससे फक नह पड़ता
क आदमी कहाँ खड़ा है?
पथ पर या रथ पर?
तीर पर या ाचीर पर?

फक इससे पड़ता है क जहाँ खड़ा है,


या जहाँ उसे खड़ा होना पड़ा है,
वहाँ उसका धरातल या है?

हमालय क चोट पर प ँच,


एवरे ट- वजय क पताका फहरा,
कोई वजेता य द ई या से द ध
अपने साथी से व ासघात करे,

तो या उसका अपराध
इस लए य हो जाएगा क
वह एवरे ट क ऊँचाई पर आ था?

नह , अपराध अपराध ही रहेगा,


हमालय क सारी धवलता
उस का लमा को नह ढक सकती।

कपड़ क धया सफेद जैसे


मन क म लनता को नह छपा सकती।

कसी संत क व ने कहा है क


मनु य के ऊपर कोई नह होता,
मुझे लगता है क मनु य के ऊपर
उसका मन होता है।

छोटे मन से कोई बड़ा नह होता,


टू टे मन से कोई खड़ा नह होता।

इसी लए तो भगवान् कृ ण को
श से स ज, रथ पर चढ़े ,
कु े के मैदान म खड़े,
अजुन को गीता सुनानी पड़ी थी।

मन हारकर, मैदान नह जीते जाते,


न मैदान जीतने से मन ही जीते जाते ह।

चोट से गरने से
अ धक चोट लगती है।
अ थ जुड़ जाती,
पीड़ा मन म सुलगती है।

इसका अथ यह नह क
चोट पर चढ़ने क चुनौती ही न मान,
इसका अथ यह भी नह क
प र थ त पर वजय पाने क न ठान।

आदमी जहाँ है, वह खड़ा रहे?


सर क दया के भरोसे पर पड़ा रहे?

जड़ता का नाम जीवन नह है,


पलायन पुरोगमन नह है।

आदमी को चा हए क वह जूझे
प र थ तय से लड़े,
एक व टू टे तो सरा गढ़े ।

कतु कतना भी ऊँचा उठे ,


मनु यता के तर से न गरे,
अपने धरातल को न छोड़े,
अंतयामी से मुँह न मोड़े।

एक पाँव धरती पर रखकर ही


वामन भगवान् ने आकाश-पाताल को जीता था।

धरती ही धारण करती है,


कोई इस पर भार न बने,
म या अ भमान से न तने।
आदमी क पहचान,
उसके धन या आसन से नह होती,
उसके मन से होती है।
मन क फक री पर
कुबेर क संपदा भी रोती है।
मा-याचना

मा करो बापू! तुम हमको,


वचन भंग के हम अपराधी।
राजघाट को कया अपावन,
मं जल भूल,े या ा आधी।

जय काशजी! रखो भरोसा,


टू टे सपन को जोड़गे।
चता-भ म क चनगारी से,
अंधकार के गढ़ तोड़गे।
गीत नह
गाता ँ

बेनकाब चेहरे ह,
दाग बड़े गहरे ह,
टू टता त ल म, आज सच से भय खाता ।ँ
गीत नह गाता ँ।

लगी कुछ ऐसी नजर,


बखरा शीशे-सा शहर,
अपन के मेले म मीत नह पाता ।ँ
गीत नह गाता ँ।

पीठ म छु री-सा चाँद,


रा गया रेखा फाँद,
मु के ण म बार-बार बँध जाता ।ँ
गीत नह गाता ँ।
नम चुप ,ँ
न गाता ँ

सवेरा है, मगर पूरब दशा म घर रहे बादल,


ई से धुँधलके म मील के प थर पड़े घायल,
ठठके पाँव,
ओझल गाँव,
जड़ता है न ग तमयता,
वयं को सर क से म दे ख पाता ।ँ
न म चुप ँ, न गाता ।ँ

समय क सद साँस ने चनार को झुलस डाला,


मगर हमपात को दे ती चुनौती एक ममाला,
बखरे नीड़,
वहँसी चीड़,
आँसू ह न मुसकान,
हमानी झील के तट पर अकेला गुनगुनाता ।ँ
न म चुप ँ, न गाता ।ँ
जीवन बीत
चला

कल, कल करते, आज
हाथ से नकले सारे,
भूत-भ व यत् क चता म
वतमान क बाजी हारे,

पहरा कोई काम न आया


रस-घट रीत चला।
जीवन बीत चला।

हा न-लाभ के पलड़ म
तुलता जीवन ापार हो गया,
मोल लगा बकनेवाले का
बना बका बेकार हो गया,

मुझे हाट म छोड़ अकेला


एक-एक कर मीत चला।
जीवन बीत चला।
राह कौन-सी जाऊँ म?

चौराहे पर लुटता चीर,


यादे से पट गया वजीर,
चलूँ आ खरी चाल क बाजी छोड़ वर रचाऊँ म?
राह कौन-सी जाऊँ म?

सपना जनमा और मर गया,


मधु-ऋतु म ही बाग झर गया,
तनके बखरे ए बटो ँ या नव-सृ सजाऊँ म?
राह कौन-सी जाऊँ म?

दो दन मले उधार म,
घाटे के ापार म,
ण- ण का हसाब जोडँ या पूँजी शेष लुटाऊँ म?
राह कौन-सी जाऊँ म?
नए मील का प थर

नए मील का प थर पार आ।

कतने प थर शेष न कोई जानता?


अं तम कौन पड़ाव नह पहचानता?
अ य सूरज, अखंड धरती,
केवल काया, जीती-मरती,
इस लए उ का बढ़ना भी योहार आ।
नए मील का प थर पार आ।

बचपन याद ब त आता है,


यौवन रस-घट भर लाता है,
बदला मौसम,ढलती छाया,
रसती गागर, लुटती माया,
सबकुछ दाँव लगाकर घाटे का ापार आ।
नए मील का प थर पार आ।
नई गाँठ लगती

जीवन क डोर छोर छू ने को मचली,


जाड़े क धूप वण-कलश से फसली,
अंतर क अमराई
सोई पड़ी शहनाई,
एक दबे दद-सी सहसा ही जगती।
नई गाँठ लगती।

र नही, पास नह , मं जल अजानी,


साँस के सरगम पर चलने क ठानी,
पानी पर लक र-सी,
खुली जंजीर-सी।
कोई मृगतृ णा मुझे बार-बार छलती।
नई गाँठ लगती।

मन म लगी जो गाँठ मु कल से खुलती,


दागदार जदगी न घाट पर धुलती,
जैसी क तैसी नह ,
जैसी है वैसी सही,
क बरा क चाद रया बड़े भाग मलती।
नई गाँठ लगती।
अमर है गणतं

(१)
राजपथ पर भीड़, जनपथ पड़ा सूना,
पलटन का माच, होता शोर ना।
शोर से डू बे ए वाधीनता के वर,
वाणी, लेखनी जड़, कसमसाता उर।
भयातं कत भीड़, जन अ धकार वं चत,
बंद याय-कपाट, स ा अमया दत।
लोक का य, का जयकार होता,
वतं ता का व , रावी तीर रोता।

(२)
र के आँसू बहाने को ववश गणतं ,
राजमद ने र द डाले मु के शुभ मं ।
या इसी दन के लए पूवज ए ब लदान?
पी ढ़याँ जूझ , स दय चला अ न- नान?
वतं ता के सरे संघष का घननाद,
हो लका आपात् क फर माँगती ाद।
अमर है गणतं , कारा के खुलगे ार,
पु अमृत के न वष से मान सकते हार।
एक बरस बीत गया

एक बरस बीत गया


झुलसाता जेठ मास
शरद चाँदनी उदास
ससक भरते सावन का
अंतघट रीत गया
एक बरस बात गया।
सीकच म समटा जग
कतु वकल ाण वहग
धरती से अंबर तक
गूँज मु गीत गया,
एक बरस बीत गया।
पथ नहारते नयन
गनते दन, पल, छन
लौट कभी आएगा
मन का जो मीत गया,
एक बरस बीत गया।
रोते-रोते रात सो गई

झुक न अलक
झपी न पलक
सु धय क बारात खो गई।

दद पुराना,
मीत न जाना,
बात म ही ात हो गई।

घुमड़ी बदली,
बूँद न नकली,
बछु ड़न ऐसी था बो गई।
जीवन क ढलने लगी साँझ

जीवन क ढलने लगी साँझ


उमर घट गई
डगर कट गई
जीवन क ढलने लगी साँझ।

बदले ह अथ
शद ए थ
शां त बना खु शयाँ ह बाँझ।

सपन से मीत
बखरा संगीत
ठठक रहे पाँव और झझक रही झाँझ।
जीवन क ढलने लगी साँझ।
मोड़ पर

मुझे र का दखाई दे ता है,


म द वार पर लखा पढ़ सकता ँ,
मगर हाथ क रेखाएँ नह पढ़ पाता।
सीमा के पार भड़कते शोले
मुझे दखाई दे ते ह।
पर पाँव के इद- गद फैली गरम राख
नजर नह आती।
या म बूढ़ा हो चला ँ?
हर पचीस दसंबर को
जीने क एक नई सीढ़ चढ़ता ँ,
नए मोड़ पर
और से कम, वयं से यादा लड़ता ँ।

म भीड़ को चुप करा दे ता ँ,


मगर अपने को जवाब नह दे पाता,
मेरा मन मुझे अपनी ही अदालत म खड़ा कर,
जब जरह करता है,
मेरा हलफनामा मेरे ही खलाफ पेश करता है,
तो म मुकदमा हार जाता ँ,
अपनी ही नजर म गुनहगार बन जाता ँ।
तब मुझे कुछ दखाई नह दे ता,
न र का, न पास का,
मेरी उ अचानक दस साल बढ़ जाती है,
म सचमुच बूढ़ा हो जाता ँ।
ऊँचाई

ऊँचे पहाड़ पर,


पेड नह लगते,
प धे नह उगते,
न घास ही जमती है।

जमती है सफ बफ,
जो कफन क तरह सफेद और
मौत क तरह ठं डी होती है।
खेलती, खल खलाती नद ,
जसका प धारण कर
अपने भा य पर बूँद-बूँद रोती है।

ऐसी ऊँचाई,
जसका परस,
पानी को प थर कर दे ,
ऐसी ऊँचाई
जसका दरस हीन भाव भर दे ,
अ भनंदन क अ धकारी है,
आरो हय के लए आमं ण है,
उस पर झंडे गाड़े जा सकते ह,
कतु कोई गौरैया,
वहाँ नीड़ नह बना सकती,
न कोई थका-माँदा बटोही,
उसक छाँव म पल भर पलक ही झपका सकता है।

स चाई यह है क
केवल ऊँचाई ही काफ नह होती,
सबसे अलग-थलग
प रवेश से पृथक्,
अपन से कटा-बँटा,
शू य म अकेला खड़ा होना,
पहाड क महानता नह ,
मजबरी है।
ऊँचाई और गहराई म
आकाश-पाताल क री है।

जो जतना ऊँचा,
उतना ही एकाक होता है,
हर भार को वयं ही ढोता है,
चेहरे पर मुसकान चपका,
मन-ही-मन रोता है।

ज री यह है क
ऊँचाई के साथ व तार भी हो,
जससे मनु य
ठूँ ठ-सा खडा न रहे,
और से घुल-े मले,
कसी को साथ ले,
कसी के संग चले।

भीड़ म खो जाना,
याद म डू ब जाना,
वयं को भूल जाना,

अ त व को अथ,
जीवन को सुगंध दे ता है।

धरती को बौन क नह ,
ऊँचे कद के इनसान क ज रत है।
इतने ऊँचे क आसमान को छू ल,
नए न म तभा के बीज बो ल,

कतु इतने ऊँचे भी नह ,


क पाँव तले ब ही न जमे,
कोई काँटा न चुभ,े
कोई कली न खले।

न वसंत हो, न पतझड़,


हो सफ ऊँचाई का अंधड़,
मा अकेलेपन का स ाटा।

मेरे भु!
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत दे ना
गैर को गले न लगा सकूँ
इतनी खाई कभी मत दे ना।
मन का संतोष

पृ थवी पर
मनु य ही ऐसा एक ाणी है,
जो भीड़ म अकेला, और
अकेले म भीड़ से घरा अनुभव करता है।

मनु य को झुंड म रहना पसंद है।


घर-प रवार से ारंभ कर,
वह ब तयाँ बसाता है।
गली- ाम-पुर-नगर सजाता है।

स यता क न ु र दौड़ म,
सं कृ त को पीछे छोड़ता आ,
कृ त पर वजय,
मृ यु को मुट्ठ म करना चाहता है।

अपनी र ा के लए
और के वनाश के सामान जुटाता है।
आकाश को अ भश त,
धरती को नवसन,
वायु को वषा ,
जल को षत करने म संकोच नह करता।

कतु, यह सबकुछ करने के बाद


जब वह एकांत म बैठकर वचार करता है,
वह एकांत, फर घर का कोना हो,
या कोलाहल से भरा बाजार,
या काश क ग त से तेज उड़ता जहाज,
या कोई वै ा नक योगशाला,
या मं दर
या मरघट।

जब वह आ मालोचन करता है,


मन क परत खोलता है,
वयं से बोलता है,
हा न-लाभ का लेखा-जोखा नह ,
या खोया, या पाया का हसाब भी नह ,
जब वह पूरी जदगी को ही तौलता है,
अपनी कसौट पर वयं को ही कसता है,
नममता से नरखता, परखता है,
तब वह अपने मन से या कहता है!
इसी का मह व है, यही उसका स य है।

अं तम या ा के अवसर पर,
वदा क वेला म,
जब सबका साथ छू टने लगता है,
शरीर भी साथ नह दे ता,
तब आ म लानी से मु
य द कोई हाथ उठाकर यह कह सकता है
क उसने जीवन म जो कुछ कया,
यही समझकर कया,
कसी को जान-बूझकर चोट प ँचाने के लए नह ,
सहज कम समझकर कया,
तो उसका अ त व साथक है,
उसका जीवन सफल है।

उसी के लए यह कहावत बनी है,


मन चंगा तो कठौती म गंगाजल है।
म सोचने लगता ँ

तेज र तार से दौड़ती बस


बस के पीछे भागते लोग,
ब चे स हालती औरत,

सड़क पर इतनी धूल उड़ती है


क मुझे कुछ दखाई नह दे ता।
म सोचने लगता ँ।

पुरखे सोचने के लए आँख बंद करते थे,


म आँख बंद होने पर सोचता ँ।

बस ठकान पर य नह ठहरत ?
लोग लाइन म य नह लगते?
आ खर यह भाग-दौड़ कब तक चलेगी?

दे श क राजधानी म,
संसद् के सामने,
धूल कब तक उड़ेगी?

मेरी आँख बंद ह,


मुझे कुछ दखाई नह दे ता।
म सोचने लगता ँ।
र कह कोई रोता है

तन पर पहरा, भटक रहा मन,


साथी है केवल सूनापन,
बछु ड़ गया या वजन कसी का,
ं दन सदा क ण होता है।
ज म- दवस पर हम इठलाते,
य न मरण- योहार मनाते,
अं तम या ा के अवसर पर,
आँसू का अपशकुन होता है।
अंतर रोए, आँख न रोए,
धुल जाएँगे व सँजोए,
छलना भरे व म
केवल सपना ही तो सच होता है।
इस जीवन से मृ यु भली है,
आतं कत जब गली-गली है।
म भी रोता आस-पास जब
कोई कह नह होता है।
र कह कोई रोता है।
मौत से ठन गई

ठन गई!
मौत से ठन गई!

जूझने का मेरा कोई इरादा न था,


मोड़ पर मलगे इसका वादा न था,
रा ता रोककर वह खड़ी हो गई,
य लगा जदगी से बड़ी हो गई।

मौत क उ या? दो पल भी नह ,
जदगी- सल सला, आज-कल क नह ,
म जी भर जया, म मन से म ँ ,
लौटकर आऊँगा, कूच से य ड ँ ?

तू दबे पाव, चोरी- छपे से न आ,


सामने वार कर, फर मुझे आजमा,
मौत से बेखबर, जदगी का सफर,
शाम हर सुरमई, रात बंसी का वर।

बात ऐसी नह क कोई गम ही नह ,


दद अपने-पराए कुछ कम भी नह ।
यार इतना पराय से मुझको मला,
न अपन से बाक है कोई गला।

हर चुनौती से दो हाथ मने कए,


आँ धय म जलाए ह बुझते दए,
आज झकझोरता तेज तूफान है,
नाव भँवर क बाँह म मेहमान है।
पार पाने का कायम मगर हौसला,
दे ख तूफाँ का तेवर तरी तन गई,
मौत से ठन गई।
आओ फर से दया जलाएँ

भरी पहरी म अँ धयारा,


सूरज परछा से हारा,
अंतरतम का नेह नचोड़ बुझी ई बाती सुलगाएँ।
आओ फर से दया जलाएँ।

हम पड़ाव को समझे मं जल,


ल य आ आँख से ओझल,
वतमान के मोहजाल म आनेवाला कल न भुलाएँ।
आओ फर से दया जलाएँ।

आ त बाक ,य अधूरा,
अपन के व न ने घेरा,
अं तम जय का व बनाने,नव दधी च ह याँ गलाएँ।
आओ फर से दया जलाएँ।

जो कल थे,
वे आज नह ह।
जो आज ह,
वे कल नह ह गे।
होने, न होने का म,
इसी तरह चलता रहेगा,
हम ह, हम रहगे,
यह म भी सदा पलता रहेगा।
स य या है?
होना या न होना?
या दोन ही स य ह?
जो है, उसका होना स य है,
जो नह है, उसका न होना स य है।
मुझे लगता है क
होना-न-होना एक ही स य के
दो आयाम ह,
शेष सब समझ का फेर,
बु के ायाम ह।
कतु न होने के बाद या होता है,
यह अनु रत है।
येक नया न चकेता,
इस क खोज म लगा है।
सभी साधक को इस ने ठगा है।
शायद यह ही रहेगा।
य द कुछ अनु रत रह
तो इसम बुराई या है?
हाँ, खोज का सल सला न के,
धम क अनुभू त,
व ान का अनुसंधान,
एक दन, अव य ही
ार खोलेगा।
पूछने के बजाय
य वयं उ र बोलेगा।
अमर आग है

को ट-को ट आकुल दय म
सुलग रही है जो चनगारी,
अमर आग है, अमर आग है।

उ र द श म अ जत ग-सा
जाग क हरी युग-युग का,
मू तमंत थैय, धीरता क तमा-सा
अटल अ डग नगप त वशाल है।

नभ क छाती को छू ता-सा
क त-पुंज सा,
द द पक के काश म—
झल मल- झल मल—
यो तत माँ का पू य भाल है।

कौन कह रहा उसे हमालय?


वह तो हमावृ वाला ग र,
अणु-अणु, कण-कण, ग र कंदर।
गुं जत व नत कर रहा अब तक
डम- डम डम का भैरव वर।

गौरीशंकर के ग र-ग र
शैल- शखर, नझर, वन-उपवन
त तृण-द पत।
शंकर के तीसरे नयन क —
लय- व जगमग यो तत।
जसको छू कर,
ण भर ही म
काम रह गया था मुट्ठ भर।

यही आग ले त दन ाची
अपना अ ण सुहाग सजाती,
और खर दनकर क
कंचन काया,
इसी आग म पलकर
न श- न श, दन- दन
जल-जल, तपल
सृ - लय-पयत समावृत
जगती को रा ता दखाती।

यही आग ले हद महासागर क
छाती है धधकाती।
लहर-लहर वाल लपट बन
पूव-प मी घाट को छू ,
स दय क हतभा य नशा म
सोए शलाखंड सुलगाती।
नयन-नयन म यही आग ले
कंठ-कंठ म लय राग ले,
अब तक ह ं तान जया है।

इसी आग क द वभा म,
स त- सधु के कल कछार पर,
सुर-स रता क धवल धार पर
तीर-तट पर,
पणकुट म, पणासन पर
को ट-को ट ऋ षय -मु नय ने
द ान का सोम पया था।
जसका कुछ उ छ मा
बबर प म ने,
दया दान-सा,
नज जीवन को सफल मानकर,
कर पसारकर,
सर-आँख पर धार लया था।

वेद-वेद के मं -मं म
मं -मं क पं -पं म
पं -पं के श द-श द म,
श द-श द के अ र वर म,
द ान-आलोक द पत,
स यं शवं सुंदरम् शो भत,
क पल, कणाद और जै म न क
वानुभू त का अमर काशन,
वशद- ववेचन, यालोचन,

, जगत्, माया का दशन।


को ट-को ट कंठ म गूँजा
जो अ तमंगलमय व गक वर,
अमर राग है, अमर आग है।
को ट-को ट आकुल दय म
सुलग रही है जो चनगारी
अमर आग है, अमर आग है।

यही आग सरयू के तट पर
दशरथजी के राजमहल म,
धन-समूह म चल चपला-सी,
गट ई व लत ई थी।

दै य-दानव के अधम से
पी ड़त पु यभू म का जन-जन,
शं कत मन-मन,
सत व ,

आकुल मु नवर-गण,
बोल रही अधम क तूती
तर आ धम का पालन।
तब वदे श-र ाथ दे श का
सोया य व जागा था।
राम- प म गट ई यह वाला,
जसने
असुर जलाए
दे श बचाया,
वा मी क ने जसको गाया।

चकाच ध नया ने दे खी
सीता के सती व क वाला,
व च कत रह गया दे खकर
नारी क र ा- न म जब
नर या वानर ने भी अपना
महाकाल क ब ल-वेद पर,
अग णत होकर
स मत ह षत शीश चढ़ाया।

यही आग व लत ई थी—
यमुना क आकुल आह से,
अ याचार- पी ड़त ज के
अ -ु सधु म बड़वानल बन—
कौन सह सका माँ का ं दन?

द न दे वक ने कारा म
सुलगाई थी यही आग, जो
कृ ण- प म फूट पड़ी थी।
जसको छू कर
माँ के कर क क डयाँ,
पग क ल ड़याँ
चट-चट टू ट पड़ी थ ।

पा चज य का भैरव वर सुन
तड़प उठा आ ु द सुदशन,
अजुन का गांडीव,
भीम क गदा,
धम का धम डट गया,

अमर भू म म,
समर भू म म,
धम भू म म,
कम भू म म,
गूँज उठ गीता क वाणी,
मंगलमय जन-जन क याणी।

अपढ़, अजान व ने पाई


शीश झुकाकर एक धरोहर।
कौन दाश नक दे पाया है
अब तक ऐसा जीवन-दशन?
का लद के कल कछार पर
कृ ण-कंठ से गुँजा जो वर
अमर राग है, अमर राग है।

को ट-को ट आकुल दय म
सुलग रही है जो चनगारी,
अमर आग है, अमर आग है।
स ा

मासूम ब च ,
बूढ़ औरत ,
जवान मद
क लाश के ढे र पर चढ़कर
जो स ा के सहासन तक प ँचना चाहते ह
उनसे मेरा एक सवाल है—
या मरनेवाल के साथ
उनका कोई र ता न था?
न सही धम का नाता
या धरती का भी संबंध नह था?
‘पृ थवी माँ और हम उसके पु ह।’❊
अथववेद का यह मं
या सफ जपने के लए है,
जीने के लए नह ?
आग म जले ब चे,
वासना क शकार औरत,
राख म बदले घर
न स यता का माण-प ह,
न दे शभ का तमगा,
वे य द घोषणा-प ह तो पशुता का,
माण ह तो प तताव था का,
ऐसे कपूत से
माँ का नपूती रहना ही अ छा था।
नद ष र से सनी राजगद्द
मशान क धूल से भी गरी है,
स ा क अ नयं त भूख
र - पपासा से भी बुरी है।
पाँच हजार साल क सं कृ त—
गव कर या रोएँ?
वाथ क दौड़ म
कह आजाद फर से न खोएँ।

❊ माताभू म: पु ोડहं पृ थ ा:। अथववेद, १२:१:१२


दो चतु पद

वही मं जल
वही कमरा

वही खड़क
वही पहरा

राज बदला
ताज बदला

पर नह
समाज बदला।
अंत

या स य है, या शव, या सुंदर?

शव का अचन,
शव का वजन,
क ँ वसंग त या पांतर?

वैभव ना,
अंतर सूना,
क ँ ग त या त थलांतर?

मा सं मण?
या नव सजन?
व त क ँ या र ँ न र?
न दै यं न पलायनम्

कत के पुनीत पथ को
हमने वेद से स चा है,
कभी-कभी अपने अ ु और–
ाण का अ य भी दया है।

कतु, अपनी येय-या ा म—


हम कभी के नह ह,
कसी चुनौती के स मुख
कभी झुके नह ह।

आज,
जब क रा -जीवन क
सम त न धयाँ
दाँव पर लगी ह,
और
एक घनीभूत अँधेरा—
हमारे जीवन के
सारे आलोक को
नगल लेना चाहता है;

हम येय के लए
जीने, जूझने और
आव यकता पड़ने पर—
मरने के संक प को दोहराना है।
आ नेय परी ा क
इस घड़ी म—
आइए, अजुन क तरह
उद्घोष कर—
‘न दै यं न पलायनम्।’
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