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चुनी ई क वता ँ
सं करण ● 2015
CHUNI HUI KAVITAYEN by Atal Bihari Vajpayee
Published by Prabhat Prakashan, 4/19 Asaf Ali Road, New Delhi-2
ISBN 978-93-5186-431-8
पू य पता ी
पं. कृ ण बहारी वाजपेयी
क पावन मृ त म
अपनी बात
बाबा क बैठक म बछ
चटाई, बाहर रखे खड़ाऊँ,
मलनेवाले के मन म
असमंजस, जाऊँ या ना जाऊँ?
माथे तलक, नाक पर ऐनक, पोथी खुली, वयं से बोल!
आओ मन क गाँठ खोल!
सर वती क दे ख साधना,
ल मी ने संबंध न जोड़ा,
मट् ट ने माथे का चंदन
बनने का संक प न छोड़ा,
नए वष क अगवानी म टु क क ल, कुछ ताजा हो ल!
आओ मन क गाँठ खोल!
हरी-हरी ब पर
हरी-हरी ब पर
ओस क बूँद
अभी थ ,
अब नह ह।
ऐसी खु शयाँ
जो हमेशा हमारा साथ द
कभी नह थ ,
कभी नह ह।
वार क कोख से
फूटा बाल सूय,
जब पूरब क गोद म
पाँव फैलाने लगा,
तो मेरी बगीची का
प ा-प ा जगमगाने लगा,
म उगते सूय को नम कार क ँ
या उसके ताप से भाप बनी,
ओस क बूँद को ढूँ ढँ ?
सूय एक स य है
जसे झुठलाया नह जा सकता
मगर ओस भी तो एक स चाई है
यह बात अलग है क ओस णक है
य न म ण- ण को जीऊँ?
कण-कण म बखरे स दय को पीऊँ?
सूय तो फर भी उगेगा,
धूप तो फर भी खलेगी,
ले कन मेरी बगीची क
हरी-हरी ब पर,
ओस क बूँद
हर मौसम म नह मलेगी।
नया
गीत
गाता ँ
हा य- दन म, तूफान म,
अमर असं यक ब लदान म,
उ ान म, वीरान म,
अपमान म, स मान म
उ त म तक, उभरा सीना,
पीड़ा म पलना होगा!
कदम मलाकर चलना होगा।
उ जयारे म, अंधकार म,
कल कछार म, बीच धार म,
घोर घृणा म, पूत यार म,
णक जीत म, द घ हार म,
जीवन के शत-शत आकषक,
अरमान को दलना होगा।
कदम मलाकर चलना होगा।
कुश-काँट से स जत जीवन,
खर यार से वं चत यौवन,
नीरवता से मुख रत मधुवन,
पर- हत अ पत अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आ त म,
जलना होगा, गलना होगा।
कदम मलाकर चलना होगा।
जंग न
होने दगे
कसी रात को
मेरी न द अचानक उचट जाती है,
आँख खुल जाती है,
म सोचने लगता ँ क
जन वै ा नक ने अणु-अ का
आ व कार कया थाः
वे हरो शमा-नागासाक के
भीषण नरसंहार के समाचार सुनकर,
रात को सोए कैसे ह गे?
सगे-संबंधी क मृ यु,
कसी य का न रहना,
प र चत का उठ जाना,
या उ ह एक ण के लए सही, यह
अनुभू त ई क उनके हाथ जो कुछ
आ, अ छा नह आ?
य द ई, तो व उ ह कठघरे म खड़ा नह करेगा,
कतु य द नह ई, तो इ तहास उ ह कभी
माफ नह करेगा।
अपने ही मन से
कुछ बोल
या खोया, या पाया जग म,
मलते और बछड़ते मग म,
मुझे कसी से नह शकायत,
य प छला गया पग-पग म,
एक बीती पर डाल, याद क पोटली टटोल।
कौरव कौन
कौन पांडव,
टे ढ़ा सवाल है।
दोन ओर शकु न
का फैला
कूट-जाल है।
धमराज ने छोड़ी नह
जुए क लत है।
हर पंचायत म
पांचाली
अपमा नत है।
बना कृ ण के
आज
महाभारत होना है,
कोई राजा बने
रंक को तो रोना है।
धम
दरार पड़ गई
खेत म बा द गंध,
टू ट गए नानक के छं द,
सतलुज सहम उठ , थत-सी वत ता है,
वसंत से बहार झड़ गई।
ध म दरार पड़ गई।
पता नह , इस सीधे-सपाट स य को
नया य नह जानती?
और अगर जानती है,
तो मन से य नह मानती?
इससे फक नह पड़ता
क आदमी कहाँ खड़ा है?
पथ पर या रथ पर?
तीर पर या ाचीर पर?
तो या उसका अपराध
इस लए य हो जाएगा क
वह एवरे ट क ऊँचाई पर आ था?
इसी लए तो भगवान् कृ ण को
श से स ज, रथ पर चढ़े ,
कु े के मैदान म खड़े,
अजुन को गीता सुनानी पड़ी थी।
चोट से गरने से
अ धक चोट लगती है।
अ थ जुड़ जाती,
पीड़ा मन म सुलगती है।
इसका अथ यह नह क
चोट पर चढ़ने क चुनौती ही न मान,
इसका अथ यह भी नह क
प र थ त पर वजय पाने क न ठान।
आदमी को चा हए क वह जूझे
प र थ तय से लड़े,
एक व टू टे तो सरा गढ़े ।
बेनकाब चेहरे ह,
दाग बड़े गहरे ह,
टू टता त ल म, आज सच से भय खाता ।ँ
गीत नह गाता ँ।
कल, कल करते, आज
हाथ से नकले सारे,
भूत-भ व यत् क चता म
वतमान क बाजी हारे,
हा न-लाभ के पलड़ म
तुलता जीवन ापार हो गया,
मोल लगा बकनेवाले का
बना बका बेकार हो गया,
दो दन मले उधार म,
घाटे के ापार म,
ण- ण का हसाब जोडँ या पूँजी शेष लुटाऊँ म?
राह कौन-सी जाऊँ म?
नए मील का प थर
नए मील का प थर पार आ।
(१)
राजपथ पर भीड़, जनपथ पड़ा सूना,
पलटन का माच, होता शोर ना।
शोर से डू बे ए वाधीनता के वर,
वाणी, लेखनी जड़, कसमसाता उर।
भयातं कत भीड़, जन अ धकार वं चत,
बंद याय-कपाट, स ा अमया दत।
लोक का य, का जयकार होता,
वतं ता का व , रावी तीर रोता।
(२)
र के आँसू बहाने को ववश गणतं ,
राजमद ने र द डाले मु के शुभ मं ।
या इसी दन के लए पूवज ए ब लदान?
पी ढ़याँ जूझ , स दय चला अ न- नान?
वतं ता के सरे संघष का घननाद,
हो लका आपात् क फर माँगती ाद।
अमर है गणतं , कारा के खुलगे ार,
पु अमृत के न वष से मान सकते हार।
एक बरस बीत गया
झुक न अलक
झपी न पलक
सु धय क बारात खो गई।
दद पुराना,
मीत न जाना,
बात म ही ात हो गई।
घुमड़ी बदली,
बूँद न नकली,
बछु ड़न ऐसी था बो गई।
जीवन क ढलने लगी साँझ
बदले ह अथ
शद ए थ
शां त बना खु शयाँ ह बाँझ।
सपन से मीत
बखरा संगीत
ठठक रहे पाँव और झझक रही झाँझ।
जीवन क ढलने लगी साँझ।
मोड़ पर
जमती है सफ बफ,
जो कफन क तरह सफेद और
मौत क तरह ठं डी होती है।
खेलती, खल खलाती नद ,
जसका प धारण कर
अपने भा य पर बूँद-बूँद रोती है।
ऐसी ऊँचाई,
जसका परस,
पानी को प थर कर दे ,
ऐसी ऊँचाई
जसका दरस हीन भाव भर दे ,
अ भनंदन क अ धकारी है,
आरो हय के लए आमं ण है,
उस पर झंडे गाड़े जा सकते ह,
कतु कोई गौरैया,
वहाँ नीड़ नह बना सकती,
न कोई थका-माँदा बटोही,
उसक छाँव म पल भर पलक ही झपका सकता है।
स चाई यह है क
केवल ऊँचाई ही काफ नह होती,
सबसे अलग-थलग
प रवेश से पृथक्,
अपन से कटा-बँटा,
शू य म अकेला खड़ा होना,
पहाड क महानता नह ,
मजबरी है।
ऊँचाई और गहराई म
आकाश-पाताल क री है।
जो जतना ऊँचा,
उतना ही एकाक होता है,
हर भार को वयं ही ढोता है,
चेहरे पर मुसकान चपका,
मन-ही-मन रोता है।
ज री यह है क
ऊँचाई के साथ व तार भी हो,
जससे मनु य
ठूँ ठ-सा खडा न रहे,
और से घुल-े मले,
कसी को साथ ले,
कसी के संग चले।
भीड़ म खो जाना,
याद म डू ब जाना,
वयं को भूल जाना,
अ त व को अथ,
जीवन को सुगंध दे ता है।
धरती को बौन क नह ,
ऊँचे कद के इनसान क ज रत है।
इतने ऊँचे क आसमान को छू ल,
नए न म तभा के बीज बो ल,
मेरे भु!
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत दे ना
गैर को गले न लगा सकूँ
इतनी खाई कभी मत दे ना।
मन का संतोष
पृ थवी पर
मनु य ही ऐसा एक ाणी है,
जो भीड़ म अकेला, और
अकेले म भीड़ से घरा अनुभव करता है।
स यता क न ु र दौड़ म,
सं कृ त को पीछे छोड़ता आ,
कृ त पर वजय,
मृ यु को मुट्ठ म करना चाहता है।
अपनी र ा के लए
और के वनाश के सामान जुटाता है।
आकाश को अ भश त,
धरती को नवसन,
वायु को वषा ,
जल को षत करने म संकोच नह करता।
अं तम या ा के अवसर पर,
वदा क वेला म,
जब सबका साथ छू टने लगता है,
शरीर भी साथ नह दे ता,
तब आ म लानी से मु
य द कोई हाथ उठाकर यह कह सकता है
क उसने जीवन म जो कुछ कया,
यही समझकर कया,
कसी को जान-बूझकर चोट प ँचाने के लए नह ,
सहज कम समझकर कया,
तो उसका अ त व साथक है,
उसका जीवन सफल है।
बस ठकान पर य नह ठहरत ?
लोग लाइन म य नह लगते?
आ खर यह भाग-दौड़ कब तक चलेगी?
दे श क राजधानी म,
संसद् के सामने,
धूल कब तक उड़ेगी?
ठन गई!
मौत से ठन गई!
मौत क उ या? दो पल भी नह ,
जदगी- सल सला, आज-कल क नह ,
म जी भर जया, म मन से म ँ ,
लौटकर आऊँगा, कूच से य ड ँ ?
आ त बाक ,य अधूरा,
अपन के व न ने घेरा,
अं तम जय का व बनाने,नव दधी च ह याँ गलाएँ।
आओ फर से दया जलाएँ।
य
जो कल थे,
वे आज नह ह।
जो आज ह,
वे कल नह ह गे।
होने, न होने का म,
इसी तरह चलता रहेगा,
हम ह, हम रहगे,
यह म भी सदा पलता रहेगा।
स य या है?
होना या न होना?
या दोन ही स य ह?
जो है, उसका होना स य है,
जो नह है, उसका न होना स य है।
मुझे लगता है क
होना-न-होना एक ही स य के
दो आयाम ह,
शेष सब समझ का फेर,
बु के ायाम ह।
कतु न होने के बाद या होता है,
यह अनु रत है।
येक नया न चकेता,
इस क खोज म लगा है।
सभी साधक को इस ने ठगा है।
शायद यह ही रहेगा।
य द कुछ अनु रत रह
तो इसम बुराई या है?
हाँ, खोज का सल सला न के,
धम क अनुभू त,
व ान का अनुसंधान,
एक दन, अव य ही
ार खोलेगा।
पूछने के बजाय
य वयं उ र बोलेगा।
अमर आग है
को ट-को ट आकुल दय म
सुलग रही है जो चनगारी,
अमर आग है, अमर आग है।
उ र द श म अ जत ग-सा
जाग क हरी युग-युग का,
मू तमंत थैय, धीरता क तमा-सा
अटल अ डग नगप त वशाल है।
नभ क छाती को छू ता-सा
क त-पुंज सा,
द द पक के काश म—
झल मल- झल मल—
यो तत माँ का पू य भाल है।
गौरीशंकर के ग र-ग र
शैल- शखर, नझर, वन-उपवन
त तृण-द पत।
शंकर के तीसरे नयन क —
लय- व जगमग यो तत।
जसको छू कर,
ण भर ही म
काम रह गया था मुट्ठ भर।
यही आग ले त दन ाची
अपना अ ण सुहाग सजाती,
और खर दनकर क
कंचन काया,
इसी आग म पलकर
न श- न श, दन- दन
जल-जल, तपल
सृ - लय-पयत समावृत
जगती को रा ता दखाती।
यही आग ले हद महासागर क
छाती है धधकाती।
लहर-लहर वाल लपट बन
पूव-प मी घाट को छू ,
स दय क हतभा य नशा म
सोए शलाखंड सुलगाती।
नयन-नयन म यही आग ले
कंठ-कंठ म लय राग ले,
अब तक ह ं तान जया है।
इसी आग क द वभा म,
स त- सधु के कल कछार पर,
सुर-स रता क धवल धार पर
तीर-तट पर,
पणकुट म, पणासन पर
को ट-को ट ऋ षय -मु नय ने
द ान का सोम पया था।
जसका कुछ उ छ मा
बबर प म ने,
दया दान-सा,
नज जीवन को सफल मानकर,
कर पसारकर,
सर-आँख पर धार लया था।
वेद-वेद के मं -मं म
मं -मं क पं -पं म
पं -पं के श द-श द म,
श द-श द के अ र वर म,
द ान-आलोक द पत,
स यं शवं सुंदरम् शो भत,
क पल, कणाद और जै म न क
वानुभू त का अमर काशन,
वशद- ववेचन, यालोचन,
यही आग सरयू के तट पर
दशरथजी के राजमहल म,
धन-समूह म चल चपला-सी,
गट ई व लत ई थी।
दै य-दानव के अधम से
पी ड़त पु यभू म का जन-जन,
शं कत मन-मन,
सत व ,
आकुल मु नवर-गण,
बोल रही अधम क तूती
तर आ धम का पालन।
तब वदे श-र ाथ दे श का
सोया य व जागा था।
राम- प म गट ई यह वाला,
जसने
असुर जलाए
दे श बचाया,
वा मी क ने जसको गाया।
चकाच ध नया ने दे खी
सीता के सती व क वाला,
व च कत रह गया दे खकर
नारी क र ा- न म जब
नर या वानर ने भी अपना
महाकाल क ब ल-वेद पर,
अग णत होकर
स मत ह षत शीश चढ़ाया।
यही आग व लत ई थी—
यमुना क आकुल आह से,
अ याचार- पी ड़त ज के
अ -ु सधु म बड़वानल बन—
कौन सह सका माँ का ं दन?
द न दे वक ने कारा म
सुलगाई थी यही आग, जो
कृ ण- प म फूट पड़ी थी।
जसको छू कर
माँ के कर क क डयाँ,
पग क ल ड़याँ
चट-चट टू ट पड़ी थ ।
पा चज य का भैरव वर सुन
तड़प उठा आ ु द सुदशन,
अजुन का गांडीव,
भीम क गदा,
धम का धम डट गया,
अमर भू म म,
समर भू म म,
धम भू म म,
कम भू म म,
गूँज उठ गीता क वाणी,
मंगलमय जन-जन क याणी।
को ट-को ट आकुल दय म
सुलग रही है जो चनगारी,
अमर आग है, अमर आग है।
स ा
मासूम ब च ,
बूढ़ औरत ,
जवान मद
क लाश के ढे र पर चढ़कर
जो स ा के सहासन तक प ँचना चाहते ह
उनसे मेरा एक सवाल है—
या मरनेवाल के साथ
उनका कोई र ता न था?
न सही धम का नाता
या धरती का भी संबंध नह था?
‘पृ थवी माँ और हम उसके पु ह।’❊
अथववेद का यह मं
या सफ जपने के लए है,
जीने के लए नह ?
आग म जले ब चे,
वासना क शकार औरत,
राख म बदले घर
न स यता का माण-प ह,
न दे शभ का तमगा,
वे य द घोषणा-प ह तो पशुता का,
माण ह तो प तताव था का,
ऐसे कपूत से
माँ का नपूती रहना ही अ छा था।
नद ष र से सनी राजगद्द
मशान क धूल से भी गरी है,
स ा क अ नयं त भूख
र - पपासा से भी बुरी है।
पाँच हजार साल क सं कृ त—
गव कर या रोएँ?
वाथ क दौड़ म
कह आजाद फर से न खोएँ।
वही मं जल
वही कमरा
वही खड़क
वही पहरा
राज बदला
ताज बदला
पर नह
समाज बदला।
अंत
शव का अचन,
शव का वजन,
क ँ वसंग त या पांतर?
वैभव ना,
अंतर सूना,
क ँ ग त या त थलांतर?
मा सं मण?
या नव सजन?
व त क ँ या र ँ न र?
न दै यं न पलायनम्
कत के पुनीत पथ को
हमने वेद से स चा है,
कभी-कभी अपने अ ु और–
ाण का अ य भी दया है।
आज,
जब क रा -जीवन क
सम त न धयाँ
दाँव पर लगी ह,
और
एक घनीभूत अँधेरा—
हमारे जीवन के
सारे आलोक को
नगल लेना चाहता है;
हम येय के लए
जीने, जूझने और
आव यकता पड़ने पर—
मरने के संक प को दोहराना है।
आ नेय परी ा क
इस घड़ी म—
आइए, अजुन क तरह
उद्घोष कर—
‘न दै यं न पलायनम्।’
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