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कबीर के मशहूर दोहे…

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,


जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।
अर्थ: जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिला। जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है।
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
अर्थ: बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो सके । कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के के वल ढाई
अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा।
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।
अर्थ: इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है। जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे।
तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करो जो तुम्हारे पांवों के नीचे दब जाता है। यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ गिरे तो कितनी
गहरी पीड़ा होती है !
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कु छ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।
अर्थ: मन में धीरज रखने से सब कु छ होता है। अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो ऋतु  आने पर ही लगेगा !
माला फे रत जुग भया, फिरा न मन का फे र,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फे र।
अर्थ: कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती। कबीर की
ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फे रना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या  फे रो।
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
अर्थ: सज्जन की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए। तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी मयान का – उसे ढकने वाले खोल का।
दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।
अर्थ: यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह  दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत।
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।
अर्थ: जो प्रयत्न करते हैं, वे कु छ न कु छ वैसे ही पा ही लेते  हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कु छ ले कर आता है। लेकिन कु छ
बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डू बने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कु छ नहीं पाते।
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
हिये तराजू तौलि के , तब मुख बाहर आनि।
अर्थ: यदि कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए वह ह्रदय के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देता है।
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
अर्थ: न तो अधिक बोलना अच्छा है, न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है। जैसे बहुत अधिक वर्षा भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है।
निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कु टी छवाय,
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।
अर्थ: जो हमारी निंदा करता है, उसे अपने अधिकाधिक पास ही रखना चाहिए। वह तो बिना साबुन और पानी के हमारी कमियां बता कर हमारे स्वभाव को साफ़ करता
है।
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।
अर्थ: इस संसार में मनुष्य का जन्म मुश्किल से मिलता है। यह मानव शरीर उसी तरह बार-बार नहीं मिलता जैसे वृक्ष से पत्ता  झड़ जाए तो दोबारा डाल पर नही लगता।
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।
अर्थ: इस संसार में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न हो !
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी  मुए, मरम न कोउ जाना।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क (मुस्लिम) को रहमान प्यारा है। इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से
कोई सच को न जान पाया।
कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन।
कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन।
अर्थ: कहते सुनते सब दिन निकल गए, पर यह मन उलझ कर न सुलझ पाया। कबीर कहते हैं कि अब भी यह मन होश में नहीं आता। आज भी इसकी अवस्था पहले
दिन के समान ही है। 
कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई।
बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई।
अर्थ:कबीर कहते हैं कि समुद्र की लहर में मोती आकर बिखर गए। बगुला उनका भेद नहीं जानता, परन्तु हंस उन्हें चुन-चुन कर खा रहा है। इसका अर्थ यह है कि किसी
भी वस्तु का महत्व जानकार ही जानता है।
जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई।
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि जब गुण को परखने वाला गाहक मिल जाता है तो  गुण की कीमत होती है। पर जब ऐसा गाहक नहीं मिलता, तब गुण कौड़ी के भाव चला जाता
है।
कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर के स।
ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि हे मानव ! तू क्या गर्व करता है? काल अपने हाथों में तेरे के श पकड़े हुए है। मालूम नहीं, वह घर या परदेश में, कहाँ पर तुझे मार डाले।
पानी के रा बुदबुदा, अस मानुस की जात।
एक दिना छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात।
अर्थ: कबीर का कथन है कि जैसे पानी के बुलबुले, इसी प्रकार मनुष्य का शरीर क्षणभंगुर है।जैसे प्रभात होते ही तारे छिप जाते हैं, वैसे ही ये देह भी एक दिन नष्ट हो
जाएगी।
हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, के स जलै ज्यूं घास।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास।
अर्थ: यह नश्वर मानव देह अंत समय में लकड़ी की तरह जलती है और के श घास की तरह जल उठते हैं। सम्पूर्ण शरीर को इस तरह जलता देख, इस अंत पर कबीर
का मन उदासी से भर जाता है। 
जो उग्या सो अन्तबै, फू ल्या सो कु मलाहीं।
जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।
अर्थ: इस संसार का नियम यही है कि जो उदय हुआ है,वह अस्त होगा। जो विकसित हुआ है वह मुरझा जाएगा। जो चिना गया है वह गिर पड़ेगा और जो आया है वह
जाएगा।
झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद।
खलक चबैना काल का, कु छ मुंह में कु छ गोद।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि अरे जीव ! तू झूठे सुख को सुख कहता है और मन में प्रसन्न होता है? देख यह सारा संसार मृत्यु के लिए उस भोजन के समान है, जो कु छ तो
उसके मुंह में है और कु छ गोद में खाने के लिए रखा है।
ऐसा कोई ना मिले, हमको दे उपदेस।
भौ सागर में डू बता, कर गहि काढै के स।
अर्थ: कबीर संसारी जनों के लिए दुखित होते हुए कहते हैं कि इन्हें कोई ऐसा पथप्रदर्शक न  मिला जो उपदेश देता और संसार सागर में डू बते हुए इन प्राणियों को अपने
हाथों से के श पकड़ कर निकाल लेता।
संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत
चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।
अर्थ: सज्जन को चाहे करोड़ों दुष्ट पुरुष मिलें फिर भी वह अपने भले स्वभाव को नहीं छोड़ता। चन्दन के पेड़ से सांप लिपटे रहते हैं, पर वह अपनी शीतलता नहीं छोड़ता।
कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उडी जाइ।
जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि संसारी व्यक्ति का शरीर पक्षी बन गया है और जहां उसका मन होता है, शरीर उड़कर वहीं पहुँच जाता है। सच है कि जो जैसा साथ करता है,
वह वैसा ही फल पाता है।
तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई।
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ।
अर्थ: शरीर में भगवे वस्त्र धारण करना सरल है, पर मन को योगी बनाना बिरले ही व्यक्तियों का काम है य़दि मन योगी हो जाए तो सारी सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती
हैं।
कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम आए। सर पर धन की गठरी बाँध कर ले जाते तो किसी को नहीं देखा।
माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर।
आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर ।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि संसार में रहते हुए न माया मरती है न मन। शरीर न जाने कितनी बार मर चुका पर मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी नहीं मरती, कबीर ऐसा
कई बार कह चुके हैं।
मन हीं मनोरथ छांड़ी दे, तेरा किया न होई।
पानी में घिव निकसे, तो रूखा खाए न कोई।
अर्थ: मनुष्य मात्र को समझाते हुए कबीर कहते हैं कि मन की इच्छाएं छोड़ दो , उन्हें तुम अपने बूते पर पूर्ण नहीं कर सकते। यदि पानी से घी निकल आए, तो रूखी
रोटी कोई न खाएगा।
जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही ।
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ।।
अर्थ: जब मैं अपने अहंकार में डू बा था – तब प्रभु को न देख पाता था – लेकिन जब गुरु ने ज्ञान का दीपक मेरे भीतर प्रकाशित किया तब अज्ञान का सब अन्धकार
मिट गया  – ज्ञान की ज्योति से अहंकार जाता रहा और ज्ञान के आलोक में प्रभु को पाया।
कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी ।
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ।।
अर्थ: कबीर कहते हैं – अज्ञान की नींद में सोए क्यों रहते हो? ज्ञान की जागृति को हासिल कर प्रभु का नाम लो।सजग होकर प्रभु का ध्यान करो।वह दिन दूर नहीं जब
तुम्हें गहन निद्रा में सो ही जाना है – जब तक जाग सकते हो जागते क्यों नहीं? प्रभु का नाम स्मरण क्यों नहीं करते ?
आछे / पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत ।
अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत ।।
अर्थ: देखते ही देखते सब भले दिन – अच्छा समय बीतता चला गया – तुमने प्रभु से लौ नहीं लगाई – प्यार नहीं किया समय बीत जाने पर पछताने से क्या मिलेगा?
पहले जागरूक न थे – ठीक उसी तरह जैसे कोई किसान अपने खेत की रखवाली ही न करे और देखते ही देखते पंछी उसकी फसल बर्बाद कर जाएं।
रात गंवाई सोय के , दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल सा, कोड़ी बदले जाय ॥
अर्थ: रात नींद में नष्ट कर दी – सोते रहे – दिन में भोजन से फु र्सत नहीं मिली यह मनुष्य जन्म हीरे के सामान बहुमूल्य था जिसे तुमने व्यर्थ कर दिया – कु छ सार्थक
किया नहीं तो जीवन का क्या मूल्य बचा ? एक कौड़ी –
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ॥
अर्थ:  खजूर के पेड़ के समान बड़ा होने का क्या लाभ, जो ना ठीक से किसी को छाँव दे पाता है और न ही उसके फल सुलभ होते हैं।  
हरिया जांणे रूखड़ा, उस पाणी का नेह।
सूका काठ न जानई, कबहूँ बरसा मेंह॥
अर्थ: पानी के स्नेह को हरा वृक्ष ही जानता है.सूखा काठ – लकड़ी क्या जाने कि कब पानी बरसा? अर्थात सहृदय ही प्रेम भाव को समझता है. निर्मम मन इस भावना
को क्या जाने ?
झिरमिर- झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेंह।
माटी गलि सैजल भई, पांहन बोही तेह॥
अर्थ: बादल पत्थर के ऊपर झिरमिर करके बरसने लगे. इससे मिट्टी तो भीग कर सजल हो गई किन्तु पत्थर वैसा का वैसा बना रहा.
कहत सुनत सब दिन गए, उरझी न सुरझ्या मन।
कहि कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन॥
अर्थ: कहते सुनते सब दिन बीत गए, पर यह मन उलझ कर न सुलझ पाया ! कबीर कहते हैं कि यह मन अभी भी होश में नहीं आता. आज भी इसकी अवस्था पहले
दिन के ही समान है.
कबीर थोड़ा जीवना, मांड़े बहुत मंड़ाण।
कबीर थोड़ा जीवना, मांड़े बहुत मंड़ाण॥
अर्थ: बादल पत्थर के ऊपर झिरमिर करके बरसने लगे. इससे मिट्टी तो भीग कर सजल हो गई किन्तु पत्थर वैसा का वैसा बना रहा.
झिरमिर- झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेंह।
माटी गलि सैजल भई, पांहन बोही तेह॥
अर्थ: थोड़ा सा जीवन है, उसके लिए मनुष्य अनेक प्रकार के प्रबंध करता है. चाहे राजा हो या निर्धन चाहे बादशाह – सब खड़े खड़े ही नष्ट हो गए.
इक दिन ऐसा होइगा, सब सूं पड़े बिछोह।
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होय॥
अर्थ: एक दिन ऐसा जरूर आएगा जब सबसे बिछु ड़ना पडेगा. हे राजाओं ! हे छत्रपतियों ! तुम अभी से सावधान क्यों नहीं हो जाते !
कबीर प्रेम न चक्खिया,चक्खि न लिया साव।
सूने घर का पाहुना, ज्यूं आया त्यूं जाव॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि जिस व्यक्ति ने प्रेम को चखा नहीं, और चख कर स्वाद नहीं लिया, वह उसअतिथि के समान है जो सूने, निर्जन घर में जैसा आता है, वैसा ही
चला भी जाता है, कु छ प्राप्त नहीं कर पाता.
मान, महातम, प्रेम रस, गरवा तण गुण नेह।
ए सबही अहला गया, जबहीं कह्या कु छ देह॥
अर्थ: मान, महत्त्व, प्रेम रस, गौरव गुण तथा स्नेह – सब बाढ़ में बह जाते हैं जब किसी मनुष्य से कु छ देने के लिए कहा जाता है.
जाता है सो जाण दे, तेरी दसा न जाइ।
खेवटिया की नांव ज्यूं, घने मिलेंगे आइ॥
अर्थ: जो जाता है उसे जाने दो. तुम अपनी स्थिति को, दशा को न जाने दो. यदि तुम अपने स्वरूप में बने रहे तो के वट की नाव की तरह अनेक व्यक्ति आकर तुमसे
मिलेंगे.
मानुष जन्म दुलभ है, देह न बारम्बार।
तरवर थे फल झड़ी पड्या,बहुरि न लागे डारि॥
अर्थ: मानव जन्म पाना कठिन है. यह शरीर बार-बार नहीं मिलता. जो फल वृक्ष से नीचे गिर पड़ता है वह पुन: उसकी डाल पर नहीं लगता
यह तन काचा कु म्भ है,लिया फिरे था साथ।
ढबका लागा फू टिगा, कछू न आया हाथ॥
अर्थ: यह शरीर कच्चा घड़ा है जिसे तू साथ लिए घूमता फिरता था.जरा-सी चोट लगते ही यह फू ट गया. कु छ भी हाथ नहीं आया.
मैं मैं बड़ी बलाय है, सकै तो निकसी भागि।
कब लग राखौं हे सखी, रूई लपेटी आगि॥
अर्थ: अहंकार बहुत बुरी वस्तु है. हो सके तो इससे निकल कर भाग जाओ. मित्र, रूई में लिपटी इस अग्नि – अहंकार – को मैं कब तक अपने पास रखूँ?
कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आई ।
अंतरि भीगी आतमा, हरी भई बनराई ॥
अर्थ: कबीर कहते हैं – प्रेम का बादल मेरे ऊपर आकर बरस पडा  – जिससे अंतरात्मा  तक भीग गई, आस पास पूरा परिवेश हरा-भरा हो गया – खुश हाल हो गया –
यह प्रेम का अपूर्व प्रभाव है ! हम इसी प्रेम में क्यों नहीं जीते ! 
जिहि घट प्रेम न प्रीति रस, पुनि रसना नहीं नाम।
ते नर या संसार में , उपजी भए बेकाम ॥
अर्थ: जिनके ह्रदय में न तो प्रीति है और न प्रेम का स्वाद, जिनकी जिह्वा पर राम का नाम नहीं रहता – वे मनुष्य इस संसार में उत्पन्न हो कर भी व्यर्थ हैं. प्रेम जीवन की
सार्थकता है. प्रेम रस में डू बे रहना जीवन का सार है.
लंबा मारग दूरि घर, बिकट पंथ बहु मार।
कहौ संतों क्यूं पाइए, दुर्लभ हरि दीदार॥
अर्थ: घर दूर है मार्ग लंबा है रास्ता भयंकर है और उसमें अनेक पातक चोर ठग हैं. हे सज्जनों ! कहो , भगवान् का दुर्लभ दर्शन कै से प्राप्त हो?संसार में जीवन कठिन  है
– अनेक बाधाएं हैं विपत्तियां हैं – उनमें पड़कर हम भरमाए रहते हैं – बहुत से आकर्षण हमें अपनी ओर खींचते रहते हैं – हम अपना लक्ष्य भूलते रहते हैं – अपनी पूंजी
गंवाते रहते हैं
इस तन का दीवा करों, बाती मेल्यूं जीव।
लोही सींचौं तेल ज्यूं, कब मुख देखों पीव॥
अर्थ: इस शरीर को दीपक बना लूं, उसमें प्राणों की बत्ती डालूँ और रक्त से तेल की तरह सींचूं – इस तरह दीपक जला कर मैं अपने प्रिय के मुख का दर्शन कब कर
पाऊं गा? ईश्वर  से लौ लगाना उसे पाने की चाह करना उसकी भक्ति में तन-मन  को लगाना एक साधना है तपस्या है – जिसे कोई कोई विरला ही कर पाता है !
नैना अंतर आव तू, ज्यूं हौं नैन झंपेउ।
ना हौं देखूं और को न तुझ देखन देऊँ ॥
अर्थ: हे प्रिय ! ( प्रभु ) तुम इन दो नेत्रों की राह से मेरे भीतर आ जाओ और फिर मैं अपने इन नेत्रों को बंद कर लूं ! फिर न तो मैं किसी दूसरे  को देखूं और न ही
किसी और को तुम्हें देखने दूं !
कबीर रेख सिन्दूर की काजल दिया न जाई।
नैनूं रमैया रमि रहा  दूजा कहाँ समाई ॥
अर्थ: कबीर  कहते हैं कि जहां सिन्दूर की रेखा है – वहां काजल नहीं दिया जा सकता. जब नेत्रों में राम विराज रहे हैं तो वहां कोई अन्य कै से निवास कर सकता है ?
कबीर सीप समंद की, रटे पियास पियास ।
समुदहि तिनका करि गिने, स्वाति बूँद की आस ॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि समुद्र की सीपी प्यास प्यास रटती रहती है.  स्वाति नक्षत्र की बूँद की आशा लिए हुए समुद्र की अपार जलराशि को तिनके के बराबर समझती
है. हमारे मन में जो पाने की ललक है जिसे पाने की लगन है, उसके बिना सब निस्सार है.
सातों सबद जू बाजते घरि घरि होते राग ।
ते मंदिर खाली परे बैसन लागे काग ॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि जिन घरों में सप्त स्वर गूंजते थे, पल पल उत्सव मनाए जाते थे, वे घर भी अब खाली पड़े हैं – उनपर कौए बैठने लगे हैं. हमेशा एक सा समय
तो नहीं रहता ! जहां खुशियाँ थी वहां गम छा जाता है जहां हर्ष था वहां विषाद डेरा डाल सकता है – यह  इस संसार में होता है !.
कबीर कहा गरबियौ, ऊं चे देखि अवास ।
काल्हि परयौ भू लेटना ऊपरि जामे घास॥
अर्थ: कबीर कहते है कि ऊं चे भवनों को देख कर क्या गर्व करते हो ? कल या परसों ये ऊं चाइयां और (आप भी) धरती पर लेट जाएंगे ध्वस्त हो जाएंगे और ऊपर से
घास उगने लगेगी ! वीरान सुनसान हो जाएगा जो अभी हंसता खिलखिलाता घर आँगन है ! इसलिए कभी गर्व न करना चाहिए
जांमण मरण बिचारि करि कू ड़े काम निबारि ।
जिनि पंथूं तुझ चालणा सोई पंथ संवारि ॥
अर्थ: जन्म और मरण का विचार करके , बुरे कर्मों को छोड़ दे. जिस मार्ग पर तुझे चलना है उसी मार्ग का स्मरण  कर – उसे ही याद रख – उसे ही संवार सुन्दर बना

बिन रखवाले बाहिरा चिड़िये खाया खेत ।
आधा परधा ऊबरै, चेती सकै तो चेत ॥
अर्थ: रखवाले के बिना बाहर से चिड़ियों ने खेत खा लिया. कु छ खेत अब भी बचा है – यदि सावधान हो सकते हो तो हो जाओ – उसे बचा लो ! जीवन में 
असावधानी के कारण  इंसान बहुत कु छ गँवा देता है – उसे खबर भी नहीं लगती – नुक्सान हो चुका होता है – यदि हम सावधानी बरतें तो कितने नुक्सान से बच
सकते हैं !  इसलिए जागरूक होना है हर इंसान को -( जैसे पराली जलाने की सावधानी बरतते तो दिल्ली में भयंकर वायु प्रदूषण से बचते पर – अब पछताए होत क्या
जब चिड़िया चुग गई खेत !
कबीर देवल ढहि पड्या ईंट भई सेंवार ।
करी चिजारा सौं प्रीतड़ी ज्यूं ढहे न दूजी बार ॥
अर्थ: कबीर कहते हैं शरीर रूपी देवालय नष्ट हो गया – उसकी ईंट ईंट – (अर्थात शरीर का अंग अंग )- शैवाल अर्थात काई में बदल गई. इस देवालय को बनाने वाले
प्रभु से प्रेम कर जिससे यह देवालय दूसरी बार नष्ट न हो
कबीर मंदिर लाख का, जडियां हीरे लालि ।
दिवस चारि का पेषणा, बिनस जाएगा कालि ॥
अर्थ: यह शरीर लाख का बना  मंदिर है जिसमें हीरे और लाल जड़े हुए हैं.यह चार दिन का खिलौना है कल ही नष्ट हो जाएगा. शरीर नश्वर है – जतन करके मेहनत 
करके उसे सजाते हैं तब उसकी क्षण भंगुरता को भूल जाते हैं किन्तु सत्य तो इतना ही है कि देह किसी कच्चे खिलौने की तरह टू ट फू ट जाती है – अचानक ऐसे कि हम
जान भी नहीं पाते !
कबीर यह तनु जात है सकै तो लेहू बहोरि ।
नंगे हाथूं ते गए जिनके लाख करोडि॥
अर्थ: यह शरीर नष्ट होने वाला है हो सके तो अब भी संभल जाओ – इसे संभाल लो !  जिनके पास लाखों करोड़ों की संपत्ति थी वे भी यहाँ से खाली हाथ ही गए हैं –
इसलिए जीते जी धन संपत्ति जोड़ने में ही न लगे रहो – कु छ सार्थक भी कर लो ! जीवन को कोई दिशा दे लो – कु छ भले काम कर लो !
हू तन तो सब बन भया करम भए कु हांडि ।
आप आप कूँ काटि है, कहै कबीर बिचारि॥
अर्थ: यह शरीर तो सब जंगल के समान है – हमारे कर्म ही कु ल्हाड़ी के समान हैं. इस प्रकार हम खुद अपने आपको काट रहे हैं – यह बात कबीर सोच विचार कर
कहते हैं.
तेरा संगी कोई नहीं सब स्वारथ बंधी लोइ ।
मन परतीति न उपजै, जीव बेसास न होइ ॥
अर्थ: तेरा साथी कोई भी नहीं है. सब मनुष्य स्वार्थ में बंधे हुए हैं, जब तक इस बात की प्रतीति – भरोसा – मन में उत्पन्न नहीं होता तब तक आत्मा के प्रति विशवास
जाग्रत नहीं होता. अर्थात वास्तविकता का ज्ञान न होने से मनुष्य संसार में रमा रहता है जब संसार के सच को जान लेता है – इस स्वार्थमय सृष्टि को समझ लेता है –
तब ही अंतरात्मा की ओर उन्मुख होता है – भीतर झांकता है !
मैं मैं मेरी जिनी करै, मेरी सूल बिनास ।
मेरी पग का पैषणा मेरी  गल की पास ॥
अर्थ: ममता और अहंकार में मत फं सो और बंधो – यह मेरा है कि रट मत लगाओ – ये विनाश के मूल हैं – जड़ हैं – कारण हैं – ममता पैरों की बेडी है और गले की
फांसी है
कबीर नाव जर्जरी कू ड़े खेवनहार ।
हलके हलके तिरि गए बूड़े तिनि सर भार !॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि जीवन की नौका टू टी फू टी है जर्जर है उसे खेने वाले मूर्ख हैं  जिनके सर पर ( विषय वासनाओं ) का बोझ है वे तो संसार सागर में डू ब जाते हैं
– संसारी हो कर रह जाते हैं दुनिया के धंधों से उबर नहीं पाते – उसी में उलझ कर रह जाते हैं पर जो इनसे मुक्त हैं – हलके हैं वे तर जाते हैं पार लग जाते हैं भव
सागर में डू बने से बच जाते हैं
मन जाणे सब बात जांणत ही औगुन करै ।
काहे की कु सलात कर दीपक कूं वै पड़े ॥
अर्थ: मन सब बातों को जानता है जानता हुआ भी अवगुणों में फं स जाता है जो दीपक हाथ में पकडे हुए भी कुं ए में गिर पड़े उसकी कु शल कै सी?
हिरदा भीतर आरसी मुख देखा नहीं जाई ।
मुख तो तौ परि देखिए जे मन की दुविधा जाई ॥
अर्थ: ह्रदय के अंदर ही दर्पण है परन्तु – वासनाओं की मलिनता के कारण – मुख का स्वरूप दिखाई ही नहीं देता मुख या अपना चेहरा या वास्तविक स्वरूप तो तभी
दिखाई पड सकता  जब मन का संशय मिट जाए !
करता था तो क्यूं रहया, जब करि क्यूं पछिताय ।
बोये पेड़ बबूल का, अम्ब कहाँ ते खाय ॥
अर्थ: यदि तू अपने को कर्ता समझता था तो चुप क्यों बैठा रहा? और अब कर्म करके पश्चात्ताप  क्यों करता है? पेड़ तो बबूल का लगाया है – फिर आम खाने को कहाँ
से मिलें ?
मनहिं मनोरथ छांडी दे, तेरा किया न होइ ।
पाणी मैं घीव नीकसै, तो रूखा खाई न कोइ ॥
अर्थ: मन की इच्छा छोड़ दो.उन्हें तुम अपने बल पर पूरा नहीं कर सकते. यदि जल से घी निकल आवे, तो रूखी रोटी कोई भी न खाएगा!
माया मुई न मन मुवा, मरि मरि गया सरीर ।
आसा त्रिष्णा णा मुई यों कहि गया कबीर ॥
अर्थ: न माया मरती है न मन शरीर न जाने कितनी बार मर चुका. आशा, तृष्णा कभी नहीं मरती – ऐसा कबीर कई बार कह चुके हैं.
कबीर सो धन संचिए जो आगे कूं होइ।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्या कोइ ॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम दे. सर पर धन की गठरी बांधकर ले जाते तो किसी को नहीं देखा.
झूठे को झूठा मिले, दूंणा बंधे सनेह
झूठे को साँचा मिले तब ही टूटे नेह ॥
अर्थ: जब झूठे आदमी को दूसरा झूठा आदमी मिलता है तो दूना प्रेम बढ़ता है. पर जब झूठे को एक सच्चा आदमी मिलता है तभी प्रेम टू ट जाता है.
करता के रे गुन बहुत औगुन कोई नाहिं।
जे दिल खोजों आपना, सब औगुन मुझ माहिं ॥
अर्थ: प्रभु में गुण बहुत हैं – अवगुण कोई नहीं है.जब हम अपने ह्रदय की खोज करते हैं तब समस्त अवगुण अपने ही भीतर पाते हैं.
बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलिया कोय ।
जो घर देखा आपना मुझसे बुरा णा कोय॥
अर्थ: मैं इस संसार में बुरे व्यक्ति की खोज करने चला था लेकिन जब अपने घर – अपने मन में झाँक कर देखा तो खुद से बुरा कोई न पाया अर्थात हम दूसरे की बुराई
पर नजर रखते हैं पर अपने आप को नहीं निहारते !
कबीर चन्दन के निडै नींव भी चन्दन होइ।
बूडा बंस बड़ाइता यों जिनी बूड़े कोइ ॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि यदि चंदन के वृक्ष के पास नीम  का वृक्ष हो तो वह भी कु छ सुवास ले लेता है – चंदन का कु छ प्रभाव पा लेता है . लेकिन बांस अपनी लम्बाई
– बडेपन – बड़प्पन के कारण डू ब जाता है. इस तरह तो किसी को भी नहीं डू बना चाहिए. संगति का अच्छा प्रभाव ग्रहण करना चाहिए – आपने गर्व में ही न रहना
चाहिए .
क्काज्ल के री कोठारी, मसि के कर्म कपाट।
पांहनि बोई पृथमीं,पंडित पाड़ी बात॥
अर्थ: यह संसार काजल की कोठरी है, इसके कर्म रूपी कपाट कालिमा के ही बने हुए हैं. पंडितों ने पृथ्वीपर पत्थर की मूर्तियाँ स्थापित करके मार्ग का निर्माण किया है.
मूरख संग न कीजिए ,लोहा जल न तिराई।
कदली सीप भावनग मुख, एक बूँद तिहूँ भाई ॥
अर्थ: मूर्ख का साथ मत करो.मूर्ख लोहे के सामान है जो जल में तैर नहीं पाता  डू ब जाता है . संगति का प्रभाव इतना पड़ता है कि आकाश से एक बूँद के ले के पत्ते पर
गिर कर कपूर, सीप के अन्दर गिर कर मोती और सांप के मुख में पड़कर विष बन जाती है.
ऊं चे कु ल क्या जनमिया जे करनी ऊं च न होय।
सुबरन कलस सुरा भरा साधू निन्दै सोय ॥
अर्थ: यदि कार्य उच्च कोटि के नहीं हैं तो उच्च कु ल में जन्म लेने से क्या लाभ? सोने का कलश यदि सुरा से भरा है तो साधु उसकी निंदा ही करेंगे. 
कबीर संगति साध की , कड़े न निर्फ ल होई ।
चन्दन होसी बावना , नीब न कहसी कोई ॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि साधु  की संगति कभी निष्फल नहीं होती. चन्दन का वृक्ष यदि छोटा – (वामन – बौना ) भी होगा तो भी उसे कोई नीम का वृक्ष नहीं कहेगा.
वह सुवासित ही रहेगा  और अपने परिवेश को सुगंध ही देगा. आपने आस-पास को खुशबू से ही भरेगा
जानि बूझि साँचहि तजै, करै झूठ सूं नेह ।
ताकी संगति रामजी, सुपिनै ही जिनि देहु ॥
अर्थ: जो जानबूझ कर सत्य का साथ छोड़ देते हैं झूठ से प्रेम करते हैं हे भगवान् ऐसे लोगों की संगति हमें स्वप्न में भी न देना.
मन मरया ममता मुई, जहं गई सब छू टी।
जोगी था सो रमि गया, आसणि रही बिभूति ॥
अर्थ: मन को मार डाला ममता भी समाप्त हो गई अहंकार सब नष्ट हो गया जो योगी था वह तो यहाँ से चला गया अब आसन पर उसकी भस्म – विभूति पड़ी रह गई
अर्थात संसार में के वल उसका यश रह गया
तरवर तास बिलम्बिए, बारह मांस फलंत ।
सीतल छाया गहर फल, पंछी के लि करंत ॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि ऐसे वृक्ष के नीचे विश्राम करो, जो बारहों महीने फल देता हो .जिसकी छाया शीतल हो , फल सघन हों और जहां पक्षी क्रीडा करते हों !
काची काया मन अथिर थिर थिर  काम करंत ।
ज्यूं ज्यूं नर  निधड़क फिरै त्यूं त्यूं काल हसन्त ॥
अर्थ: शरीर कच्चा अर्थात नश्वर है मन चंचल है परन्तु तुम इन्हें स्थिर मान कर काम  करते हो – इन्हें अनश्वर मानते हो मनुष्य जितना इस संसार में रमकर निडर
घूमता है – मगन रहता है – उतना ही काल (अर्थात मृत्यु )उस पर  हँसता है ! मृत्यु पास है यह जानकर भी इंसान अनजान बना रहता है ! कितनी दुखभरी बात है.
जल में कु म्भ कु म्भ में जल है बाहर भीतर पानी ।
फू टा कु म्भ जल जलहि समाना यह तथ कह्यौ गयानी ॥
अर्थ: जब पानी भरने जाएं तो घडा जल में रहता है और भरने पर जल घड़े के अन्दर आ जाता है इस तरह देखें तो – बाहर और भीतर पानी ही रहता है – पानी की ही
सत्ता है. जब घडा फू ट जाए तो उसका जल जल में ही मिल जाता है – अलगाव नहीं रहता – ज्ञानी जन इस तथ्य को कह गए हैं !  आत्मा-परमात्मा दो नहीं एक हैं –
आत्मा परमात्मा में और परमात्मा आत्मा में विराजमान है. अंतत: परमात्मा की ही सत्ता है –  जब देह विलीन होती है – वह परमात्मा का ही अंश हो जाती है – उसी में
समा जाती है. एकाकार हो जाती है.
तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आँखिन की देखी ।
मैं कहता सुरझावन हारि, तू राख्यौ उरझाई रे ॥
अर्थ: तुम कागज़ पर लिखी बात को सत्य  कहते हो – तुम्हारे लिए वह सत्य है जो कागज़ पर लिखा है. किन्तु मैं आंखों देखा सच ही कहता और लिखता हूँ. कबीर
पढे-लिखे नहीं थे पर उनकी बातों में सचाई थी. मैं सरलता से हर बात को सुलझाना चाहता हूँ – तुम उसे उलझा कर क्यों रख देते हो? जितने सरल बनोगे – उलझन
से उतने ही दूर हो पाओगे.
मन के हारे हार है मन के जीते जीत ।
कहे कबीर हरि पाइए मन ही की परतीत ॥
अर्थ: जीवन में जय पराजय के वल मन की भावनाएं हैं.यदि मनुष्य मन में हार गया – निराश हो गया तो  पराजय है और यदि उसने मन को जीत लिया तो वह विजेता है.
ईश्वर को भी मन के विश्वास से ही पा सकते हैं – यदि प्राप्ति का भरोसा ही नहीं तो कै से पाएंगे?
जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाहीं ।
प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाहीं ॥
अर्थ:  जब तक मन में अहंकार था तब तक ईश्वर का साक्षात्कार न हुआ. जब अहम समाप्त हुआ तभी प्रभु  मिले. जब ईश्वर का साक्षात्कार हुआ – तब अहम स्वत:
नष्ट हो गया. ईश्वर की सत्ता का बोध तभी हुआ जब अहंकार गया. प्रेम में द्वैत भाव नहीं हो सकता – प्रेम की संकरी – पतली गली में एक ही समा सकता है – अहम् या
परम ! परम की प्राप्ति के लिए अहम् का विसर्जन आवश्यक है.
पढ़ी पढ़ी के पत्थर भया लिख लिख भया जू ईंट ।
कहें कबीरा प्रेम की लगी न एको छींट॥
अर्थ: ज्ञान से बड़ा प्रेम है – बहुत ज्ञान हासिल करके यदि मनुष्य पत्थर सा कठोर हो जाए, ईंट जैसा निर्जीव हो जाए – तो क्या पाया? यदि ज्ञान मनुष्य को रूखा और
कठोर बनाता है तो ऐसे ज्ञान का कोई लाभ नहीं. जिस मानव मन को प्रेम  ने नहीं छु आ, वह प्रेम के अभाव में जड़ हो रहेगा. प्रेम की एक बूँद – एक छींटा भर जड़ता
को मिटाकर मनुष्य को सजीव बना देता है.
जाति न पूछो साधू की पूछ लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तरवार को पडा रहन दो म्यान ॥
अर्थ: सच्चा साधु सब प्रकार के भेदभावों से ऊपर उठ जाता है. उससे यह न पूछो की वह किस जाति का है साधु कितना ज्ञानी है यह जानना महत्वपूर्ण है. साधु की
जाति म्यान के समान है और उसका ज्ञान तलवार की धार के समान है. तलवार की धार ही उसका मूल्य है – उसकी म्यान तलवार के मूल्य को नहीं बढाती.
साधु भूखा भाव का धन का भूखा नाहीं ।
धन का भूखा जो फिरै सो तो साधु नाहीं ॥
अर्थ: साधु का मन भाव को जानता है, भाव का भूखा होता है,  वह धन का लोभी नहीं होता जो धन का लोभी है वह तो साधु नहीं हो सकता !
पढ़े गुनै सीखै सुनै मिटी न संसै सूल।
कहै कबीर कासों कहूं ये ही दुःख का मूल ॥
अर्थ : बहुत सी पुस्तकों को पढ़ा गुना सुना सीखा पर फिर भी मन में गड़ा संशय का काँटा न निकला कबीर कहते हैं कि किसे समझा कर यह कहूं कि यही तो सब दुखों
की जड़ है – ऐसे पठन मनन से क्या लाभ जो मन का संशय न मिटा सके ?
प्रेम न बाडी उपजे प्रेम न हाट बिकाई ।
राजा परजा जेहि रुचे सीस देहि ले जाई ॥
अर्थ: प्रेम खेत में नहीं उपजता प्रेम बाज़ार में नहीं बिकता चाहे कोई राजा हो या साधारण प्रजा – यदि प्यार पाना चाहते हैं तो वह आत्म बलिदान से ही मिलेगा. त्याग
और बलिदान के बिना प्रेम को नहीं पाया जा सकता. प्रेम गहन- सघन भावना है – खरीदी बेचे जाने वाली वस्तु नहीं !
कबीर सोई पीर है जो जाने पर पीर ।
जो पर पीर न जानई  सो काफिर बेपीर ॥
अर्थ: कबीर  कहते हैं कि सच्चा पीर – संत वही है जो दूसरे की पीड़ा को जानता है जो दूसरे के दुःख को नहीं जानते वे बेदर्द हैं – निष्ठु र हैं और काफिर हैं.
हाड जले लकड़ी जले जले जलावन हार ।
कौतिकहारा भी  जले कासों करूं पुकार ॥
अर्थ: दाह क्रिया में हड्डियां जलती हैं उन्हें जलाने वाली लकड़ी जलती है उनमें आग लगाने वाला भी एक दिन जल जाता है. समय आने पर उस दृश्य को देखने वाला
दर्शक भी जल जाता है. जब सब का अंत यही हो तो पनी पुकार किसको दू? किससे  गुहार करूं – विनती या कोई आग्रह करूं ? सभी तो एक नियति से बंधे हैं ! सभी
का अंत एक है !
रात गंवाई सोय कर दिवस गंवायो खाय ।
हीरा जनम अमोल था कौड़ी बदले जाय ॥
अर्थ: रात सो कर बिता दी,  दिन खाकर बिता दिया हीरे के समान कीमती जीवन को संसार के निर्मूल्य विषयों की – कामनाओं और वासनाओं की भेंट चढ़ा दिया –
इससे दुखद क्या हो सकता है ?
मन मैला तन ऊजला बगुला कपटी अंग ।
तासों तो कौआ भला तन मन एकही रंग ॥
अर्थ: बगुले का शरीर तो उज्जवल है पर मन काला – कपट से भरा है – उससे  तो कौआ भला है जिसका तन मन एक जैसा है और वह किसी को छलता भी नहीं है
कबीर हमारा कोई नहीं हम काहू के नाहिं ।
पारै पहुंचे नाव ज्यौं मिलिके बिछु री जाहिं ॥
अर्थ: इस जगत में न कोई हमारा अपना है और न ही हम किसी के ! जैसे नांव के नदी पार पहुँचने पर उसमें मिलकर बैठे हुए सब यात्री बिछु ड़ जाते हैं वैसे ही हम सब
मिलकर बिछु ड़ने वाले हैं. सब सांसारिक सम्बन्ध यहीं छू ट जाने वाले हैं
देह धरे का दंड है सब काहू को होय ।
ज्ञानी भुगते ज्ञान से अज्ञानी भुगते रोय॥
अर्थ: देह धारण करने का दंड – भोग या प्रारब्ध निश्चित है जो सब को भुगतना होता है. अंतर इतना ही है कि ज्ञानी या समझदार व्यक्ति इस भोग को या दुःख को
समझदारी से भोगता है निभाता है संतुष्ट रहता है जबकि अज्ञानी रोते हुए – दुखी मन से सब कु छ झेलता है !
हीरा परखै जौहरी शब्दहि परखै साध ।
कबीर परखै साध को ताका मता अगाध ॥
अर्थ: हीरे की परख जौहरी जानता है – शब्द के सार– असार को परखने वाला विवेकी साधु – सज्जन होता है . कबीर कहते हैं कि जो साधु–असाधु को परख लेता है
उसका मत – अधिक गहन गंभीर है !
एकही बार परखिये ना वा बारम्बार ।
बालू तो हू किरकिरी जो छानै सौ बार॥
अर्थ: किसी व्यक्ति को बस ठीक ठीक एक बार ही परख लो तो उसे बार बार परखने की आवश्यकता न होगी. रेत को अगर सौ बार भी छाना जाए तो भी उसकी
किरकिराहट दूर न होगी – इसी प्रकार मूढ़ दुर्जन को बार बार भी परखो तब भी वह अपनी मूढ़ता दुष्टता से भरा वैसा ही मिलेगा. किन्तु सही व्यक्ति की परख एक बार में
ही हो जाती है !

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