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परियोजना
कायय
सवैया कववत्त
कवि - दे व
कवव परिचय
दे व(सन ् १६७३-१७६८) का जन्म इटािा, उत्तर-प्रदे श में हुआ था।
िे रीतिकाल के रीतिग्रंथकार कवि हैं। उनका पूरा नाम दे िदत्त
था।[1] औरं गजेब के पत्र
ु आलमशाह के संपकक में आने के बाद
दे ि ने अनेक आश्रयदािा बदले, ककन्िु उन्हें सबसे अधिक
संिुष्टट भोगीलाल नाम के सहृदय आश्रयदािा के यहााँ प्राप्ि
हुई, ष्जसने उनके काव्य से प्रसन्न होकर उन्हें लाखों की संपवत्त
दान की। अनेक आश्रयदािा राजाओं, निाबों, ितनकों से सम्बंि
(रहने के कारण राजदरबारों का आडंबरपण ू क और चाटुकाररिा-भरा
जीिन दे ि ने बहुि तनकट से दे खा था। इसीललए उन्हें ऐसे
जीिन से वििटृ णा हो गई थी। रीतिकालीन कवियों में दे ि बडे
प्रतिभाशाली कवि थे।
दरबारी अलभरुधच से बाँिे होने के कारण उनकी
कवििा में जीिन के विविि दृश्य नहीं लमलिे,
ककन्िु उन्होंने प्रेम और सौंदयक के मालमकक धचत्र
प्रस्िुि ककए हैं। अनुप्रास और यमक के प्रति दे ि में
प्रबल आकर्कण है । अनप्र ु ास द्िारा उन्होंने संद
ु र
ध्ितनधचत्र खींचे हैं। ध्ितन-योजना उनके छं दों में
पग-पग पर प्राप्ि होिी है । शंग ृ ार के उदात्त रूप का
धचत्रण दे ि ने ककया है ।
प्रमुख कायय :
दे ि कृि कुल ग्रंथों की संख्या ५२ से ७२ िक मानी
जािी है । उनमें -
रसविलास, भािविलास, भिानीविलास,कुशलविलास, अटट
याम, सलु मल
विनोद, सुजानविनोद, काव्यरसायन, प्रेमदीवपका, प्रेम
चष्न्िका आदद प्रमखु हैं।[2] दे ि के कवित्त-सिैयों में प्रेम
और सौंदयक के इंििनर् ु ी धचत्र लमलिे हैं। संकललि सिैयों
और कवित्तों में एक ओर जहााँ रूप-सौंदयक का आलंकाररक
धचत्रण हुआ है , िहीं रागात्मक भािनाओं की अलभव्यष्ति
भी संिेदनशीलिा के साथ हुई है ।
पाठ का साि
सवैया
पााँयनन नूपुि मंजू बजै,कहि ककंककनन कै धुनन की मधुिाई।
जै जग-मंहदि-दीपक सद
ंु ि,श्रीबजदल
ू ि 'दे व'सिाई।।
अथय - प्रस्तुत पंक्ततयों में कवव दे व ने कृष्ण के रुप
का सन् ु दि चचत्रण ककया िै । कृष्ण के पैिों में घुाँघरू औि
कमि में कमिघनी िै क्जससे मधिु ध्वनन ननकल ििी
िै । उनके सांवले शिीि पि पीले वस्त्र तथा गले में
वैजयन्ती माला सश ु ोभित िो ििी िै । उनके भसि पि
मक ु ु ि िै तथा आखें बडी-बडी औि चचंल िै । उनके
मख ु पि मन्द-मन्द मस् ु कुिािि िै , जो चन्र ककिणों के
समान सन् ु दि िै । ऐसे श्री कृष्ण जगत-रुपी-मक्न्दि के
सन् ु दि दीपक िैं औि ब्रज के दल् ु िा प्रतीत िो ििे िैं।
कववत्त
डाि रमु पलना बबछौना नव पल्लव के,
समु न झ ग ं ल
ु ा सोिै तन छबब िािी दै ।
पवन ल ु ावै, केकी-कीि बतिावैं 'दे व',
कोककल िलावै-िुलसावै कि तािी दै ।।
कववत्त - 1
पूरित पिाग सों उतािो किै िाइ नोन,
कंजकली नानयका लतान भसि सािी दै ।
मदन मिीप जू को बालक बसंत ताहि,
प्रातिी जगावत गलु ाब चिकािी दै ।।
अथय - इन पंक्ततयों में कवव ने वसंत के
आगमन की तल ु ना एक नव बालक के
आगमन से किते िुए प्रकृनत मे िोने वाले
परिवतयनों को उस रूप में हदखाया िै । क्जस
तिि परिवाि में ककसी नए बच्चे के आगमन
पि सबके चेििे झखल जाते िैं उसी तिि
प्रकृनत में बसंत के आगमन पि चािों ओि
िौनक छा गयी िै । प्रकृनत में चािों ओि िं ग-
बबिं गे फ़ूलों को झखला दे खकि ऐसा लगता िै
मानों प्रकृनत िाजकुमाि बसन्त के भलए िं ग-
वविं गे वस्त्र तैयाि कि ििी िो,ठीक वैसे िी
जैसे घि के लोग बालक को िं ग-वविं गे वस्त्र
पिनाते िैं। पेडों की डाभलयों में नए-नए पत्ते
ननकल आने से वे क ु -सी जाती िैं
मंद िवा के ोंके से वे डाभलयााँ ऐसे हिलती-डुलती
िैं जैसे घि के लोग बालक को ल ू ा लु ाते िैं।
बागों में कोयल,तोता,मोि आहद ववभिन्न प्रकाि के
पक्षियों की आवाज़ सन ु कि ऐसा लगता िै मानों वे
बालक बसंत के जी-बिलाव की कोभशश मे िों, जैसे
घि के सदस्य अपने अपने तिीके से ववभिन्न
प्रकाि की बातें किके या आवाज़ें ननकालकि बच्चे
के मन बिलाने का प्रयास किते िैं। कमल के फूल
िी यिााँ-विां झखलकि अपना सग ु ध ं बबखेिते नज़ि
आते िैं।
वाताविण में चिुाँओि ववभिन्न प्रकाि के फूलों की
सगु ध
ं इस तिि व्याप्त ििने लगती िै जैसे घि की
बडी-बढ़ू ी िाई औि ननू जलाकि बच्चे को बुिी
नज़ि से छुिकािा हदलाने का िोिका किती िै ।
बसंत ऋतु में सबु ि-सब
ु ि गलु ाब की कली चिक
कि फूल बनती िै तो ऐसा जान पडता िै जैसे
बालक बसंत को बडे प्याि से सब ु ि-सब
ु ि जगा ििी
िो, जैसे घि के सदस्य बच्चे के बालों में उाँ गली से
कंघी किते िुए या कानों के पास धीिे चुिकी
बजाकि उसे बडे प्याि से जगाते िैं ताकक वि किीं
िोने न लगे।
फहिक भसलानन सौं सध ु ाियौं सध
ु ा मंहदि,
उदचध दचध को सो अचधकाई उमगे अमंद।
बािि ते िीति लौं िीनत न हदखैए दे व,
कववत्त -
दध
ू को सो फेन फैल्यौ आाँगन फिसबंद।
2
तािा सी तरुनन तामे ठाढी झ लभमल िोनत,
मोनतन की जोनत भमल्यो मक्ल्लका को मकिं द।
आिसी से अंबि में आिा सी उजािी लगै,
प्यािी िाचधका को प्रनतबबम्ब सो लगत चंद॥
अथय - इन पंक्ततयों में कवव ने पूझणयमा की चााँदनी
िात में धिती औि आकाश के सौन्दयय को हदखाया
िै । पझू णयमा की िात में धिती औि आकाश में
चााँदनी की आिा इस तिि फैली िै जैसे स्फहिक
(प्राकृनतक किस्िल) नामक भशला से ननकलने वाली
दचु धया िोशनी संसाि रुपी मंहदि पि ज्योनतत िो
ििी िो। कवव की नजि जिााँ किीं िी पडती िै विां
उन्िें चााँदनी िी हदखाई पडती िै । उन्िें ऐसा प्रतीत
िोता िै जैसे धिती पि दिी का समर ु हिलोिे ले
ििा िो। चााँदनी इतनी ीनी औि पािदशी िै कक
नज़िें अपनी सीमा तक स्पष्ि दे ख पा ििी िैं,
नज़िों को दे खने में कोई व्यवधान निीं आ ििा।
धिती पि फैली चााँदनी की िं गत फ़शय पि फ़ैले
दध ू के ाग़ के समान उज्ज्वल िै तथा उसकी
स्वच््ता औि स्पष्िता दध ू के बल ु बल
ु े के समान
ीनी औि पािदशी िै । इस चांदनी िात में कवव
को तािे सन् ु दि सस
ु क्ज्जत युवनतयों जैसे प्रतीत िो
ििे िैं, क्जनके आिष ू णों की आिा मक्ल्लका पुष्प
के मकिं द से भमली मोती की ज्योनत के समान
िै । सम्पण ू य वाताविण इतना उज्जवल िै कक
आकाश मानो स्वच्छ दपयण िो क्जसमे िाधा का
मख् ु यचंर प्रनतबबंबबत िो ििा िो। यिां कवव ने
चन्रमा की तुलना िाधा के सन् ु दि मख ु डे से की
िै ।
कहठन शब्दों के अथय
• पााँयनी - पैिों में
• नूपुि - पायल
• मंजु - संद ु ि
• कहि - कमि
• ककंककनन - किधनी, पैिों में
पिनने वाला आिष ू ण।
• धुनन - ध्वनन
• मधिु ाई - सन् ु दिता
• सााँविे - सॉवले
• अंग - शिीि
• लसै - सि ु ोवषत
• पि - वस्त्र
• पीत - पीला
• हिये - ह्रदय पि
• िुलसै - प्रसन्नता से वविोि
• ककिीि - मक ु ुि
• मुखचंद - मुख रूपी चन्रमा
• जन् ु िाई - चााँदनी
• रमु - पेड
• सम ु न झ ग ं लु ा - फूलों का बला।
• केकी - मोि
• कीि - तोता
• िलवे-िुलसावे - बातों की भमठास
• उतािो किे िाई नोन -क्जस बची को नजि लगी
िो उसके भसि के चािों ओि िाय नमक घुमाकि
आग में जलाने का िोिका।
• कंजकली - कमल की कली
• चिकािी - चि ु की
• फहिक (स्फहिक) - प्राकृनतक किस्िल
• भसलानी - शीला पि
• उदचध - समर ु
• उमगे - उमडना
• अमंद - जो कम ना िो
• िीनत - दीवाि
• मक्ल्लका - बेल की जाती का एक सफेद
फूल
• मकिं द - फूलों का िस
• आिसी - आइना
प्रश्न उत्ति
1. कवव ने 'श्रीबज्रदल
ू ि' ककसके भलए
प्रयुतत ककया िै औि उन्िें ससांि रूपी
मंहदि दीपक तयों किा िै ?
उत्ति
दे व जी ने 'श्रीबज्रदल
ू ि' श्री कृष्ण िगवान के
भलए प्रयतु त ककया िै । कवव उन्िें संसाि रूपी
मंहदि का दीपक इसभलए किा िै तयोंकक क्जस
प्रकाि एक दीपक मंहदि में प्रकाश एवं पववत्रता
का सच ू क िै , उसी प्रकाि श्रीकृष्ण िी इस
संसाि-रूपी मंहदि में ईश्विीय आिा का प्रकाश
एवं पववत्रता का संचाि किते िैं। उन्िीं से यि
संसाि प्रकाभशत िै ।
2. पिले सवैये में से उन पंक्ततयों को
छााँिकि भलझखए क्जनमें अनप्र
ु ास औि
रूपक अलंकाि का प्रयोग िुआ िै ?
उत्ति
1. अनुप्रास अलंकाि
कहि ककंककनन कै धनु न की मधिु ाई।
सााँविे अंग लसै पि पीत, हिये िुलसै बनमाल
सुिाई।
2. रुपक अलंकाि
मंद िाँ सी मुखचंद जि
ुं ाई, जय जग-मंहदि-दीपक
सन्
ु दि।
3. ननम्नभलझखत पंक्ततयों का काव्य-सौंदयय स्पष्ि
कीक्जए -पााँयनन नपू िु मंजु बजैं,
कहि ककंककनन कै धुनन की मधुिाई।
सााँविे अंग लसै पि पीत,
हिये िुलसै बनमाल सि ु ाई।
उत्ति
-िाव सौंदयय इन पंक्ततयों में कृष्ण के अंगों एवं आिूषणों
की सन्ु दिता का िावपण ू य चचत्रण िुआ िै । कृष्ण के पैिों की
पैजनी एवं कमि में बाँधी किधनी की ध्वनन की मधिु ता
का सुन्दि वणयन िुआ िै । कृष्ण के श्यामल अंगों से भलपिे
पीले वस्त्र को अत्यंत आकषयक बताया गया िै। कृष्ण का
स्पशय पाकि ह्रदय में वविाजमान सुंदि बनमाला िी
उल्लभसत िो ििी िै । यि चचत्रण अत्यंत िावपण ू य िै ।
5. दे व अनप्र
ु ास, उपमा, रूपक आहद अलंकािों
का सिज स्वािाववक प्रयोग किते िैं।