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[edit] समपप ण
िपतः,
आज उसको हुए अषािवंशित वषप, दीपावली - पकाश मे जब तुम गए सहष।प भूल गए बहु दख
ु -सुख,
िनरानंद-आनंद; शैशव मे तुमसे सुने याद रहे ये छं द -
सवयं तुमहारा वह किन भूला नहीं ललाम- "वहां कलपना भी सफल, जहां हमारे राम।" तुमने इस जन के
िलए कया कया िकया न हाय! बना तुमहारी तिृप का मुझसे कौन उपाय? तुम दयालु िे दे गए किवता
का वरदान। उसके फल का िपंड यह लो िनज पभु गुणगान। आज शाद के िदन तुमहे , शदा-भिि-समेत,
अपण
प करता हूं यही िनज किव-धन 'साकेत'।
अनुचर-
मैििलीशरण
दीपावली 1988
परं तु िफर भी मेरे मन की न हुई। मेरे अनुज शीिसयारामशरण मुझे अवकाश नहीं लेने दे ना चाहते। वे
छोटे है , इसिलए मुझ पर उनका बडा अिधकार है । तिािप, यिद अब मै कुछ िलख सका तो वह उनहीं
की बेगार होगी।
उनकी अनुरोध-रका मे मुझे संतोष ही होगा। परं तु यिद मुझे पहले ही इस िसिित की संभावना होती तो
मै इसे और भी पहले पूरा करने का पयत करता और मेरे कृ पालु पाठको को इतनी पतीका न करनी
पडती। िनससंदेह पंदह-सोलह वषप बहुत होते है तिािप इस बीच मे इसमे अनेक फेर-फार हुए है और
ऐसा होना सवाभािवक ही िा।
आचायप पूजय ििवेदीजी महाराज के पित अपनी कृ तजता पकट करना मानो उनकी कृ पा मूलय िनधािपरत
करने की ििठाई करना है । वे मुझे न अपनाते तो मै आज इस पकार, आप लोगो के समझ खडे होने मे
भी समिप होता या नहीं, कौन कह सकता है ।-
भाई कृ षणदास, अजमेरी और िसयारामशरण की पेरणाएं और उनकी सहायताएं मुझे पाप हुई तो ऐसा
होना उिचत ही िा सवयं वे ही मुझे पाप हुए है ।
"साकेत" के पकािशत अंशो को दे ख-सुन कर िजन िमतो ने मुझे उतसािहत िकया है , मै हदय से उनका
आभारी हूं। खेद है , उनमे से गणेशशंकर जैसा बंधु अब नहीं।
समिप सहायको को पाकर भी अपने दोषो के िलए मै उनकी ओट नहीं ले सकता। िकसी की सहायता से
लाभ उठा ले जाने मे भी तो एक कमता चािहए। अपने मन के अनुकूल होते हुए भी कोई कोई बात
कहकर भी मै नहीं कह सका। जैसे नवम सगप मे ऊिमल
प ा का िचतकूट-संबंधी यह संसमरण-
परं तु इसी के साि ऐसा भी पसंग आया है िक मुझे सवयं अपने मन के पितकूल ऊिमल
प ा का यह किन
िलखना पडा है -
मेरे उपवन के हिरण, आज वनचारी।
परं तु इसे मेरे बह ने सवीकार नहीं िकया। कयो, मै सवयं नहीं जानता!
ऊिमल
प ा के िवरह-वणन
प की िवचार-धारा मे भी मैने सवचछं दता से काम िलया है ।
यो तो "साकेत" दो वषप पूवप ही पूरा हो चुका िा; परं तु नवम सगप मे तब भी कुछ शेष रह गया िा और
मेरी भावना के अनुसार आज भी यह अधूरा है । यह भी अचछा ही है । मै चाहता िा िक मेरे सािहितयक
जीवन के साि ही "साकेत" की समािप हो। परं तु जब ऐसा नहीं हो सका, तब ऊिमल
प ा की िनमनोि
आशा-िनराशामयी उिियो के साि उनका कम बनाए रखना ही मुझे उिचत जान पडता है -
धनय कमल, िदन िजसके, धनय कुमुदल रात साि मे िजसके, िदन और रात दोनो होते है हाय! हाि मे
िकसके?
राम, तुम मानव हो? ईशर नहीं हो कया? िवश मे रमे हुए नहीं सभी कहीं हो कया? तब मै िनरीशर हूं,
ईशर कमा करे ; तुम न रमो तो मन तुममे रमा करे ।
मंग ला चर ण
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वेदने, तू भी भली बनी।
पाई मैने आज तुझी मे अपनी चाह घनी।
नई िकरण छोडी है तूने, तू वह हीर-कनी,
सजग रहूँ मै, साल हदय मे, ओ िपय िविशख-अनी।
ठं डी होगी दे ह न मेरी, रहे दगमबु सनी,
तू ही उषण उसे रखेगी मेरी तपन-मनी।
आ, अभाव की एक आतमजे, और अदष-जनी।
तेरी ही छाती है सचमुच उपमोिचतसतनी।
अरी िवयोग समािध, अनोखी, तू कया ठीक ठनी,
अपने को िपय को, जगती को दे खूँ िखंची-तनी।
मन-सा मािनक मुझे िमला है तुझमे उपल-खनी,
तुझे तभी तयागूँ जब सजनी, पाऊँ पाणधनी ॥१॥