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साकेत

रा म, तुमह ार ा व ृ त स वयं ही क ाव य ह ै। कोई क िव बन जा ए, सह ज संभा वय है।

लेखक: शी मैििलीशरण गुप

[edit] समपप ण
िपतः,
आज उसको हुए अषािवंशित वषप, दीपावली - पकाश मे जब तुम गए सहष।प भूल गए बहु दख
ु -सुख,
िनरानंद-आनंद; शैशव मे तुमसे सुने याद रहे ये छं द -

"हम चाकर रघुवर के, पटौ िलखौ दरबार;


अब तुलसी का होिहं गे नर के मनसबदार?
तुलसी अपने राम को रीझ भजो कै खीज;
उलटो-सूधो ऊिग है खेत परे को बीज।
बने सो रघुवर सो बने, कै िबगरे भरपूर;
तुलसी बने जो और सो, ता बिनबे मे घूर।
चातक सुतिहं िसखावहीं, आन धमप िजन लेहु;
मेरे कुल की बािन है सवांग बूंद सो नेहु।"

सवयं तुमहारा वह किन भूला नहीं ललाम- "वहां कलपना भी सफल, जहां हमारे राम।" तुमने इस जन के
िलए कया कया िकया न हाय! बना तुमहारी तिृप का मुझसे कौन उपाय? तुम दयालु िे दे गए किवता
का वरदान। उसके फल का िपंड यह लो िनज पभु गुणगान। आज शाद के िदन तुमहे , शदा-भिि-समेत,
अपण
प करता हूं यही िनज किव-धन 'साकेत'।

अनुचर-
मैििलीशरण

दीपावली 1988

पिरताणाय साधूनां, िवनाशाय च दषुकृ तम ्, धमप संसिापनािाय


प , समभवािम युगे युगे।
इदं पिवतं पापघनं पुणय वेदैश सिममतम ् यः पठे दामचिरतं सवप
प ापैः पमुचयते।
तेतायां वतम
प ानायां कालः कृ तसमोs भवत ्, रामे राजिन धमज
प े सवभ
प ूत सुखावहे ।
िनदोषमभवतसवम
प ािवषकृ तगुणं जगत ्, अनवागािदव िह सवगो गां गतं पुरषोतमम।्
कलपभेद हिर चिरत सुहाए, भांित अनेक मुनीसन गाए।
हिर अनंत, हिर किा अनंता; कहिहं , सुनिहं , समुझिहं सुित-संता।
रामचिरत जे सुनत अघाहीं, रस िवसेष जाना ितनह नाहीं।
भिर लोचन िवलोक अवधेसा, तब सुिनहो िनरगुन उपदे सा।
[edit] िनव ेदन
इचछा िी िक सबके अंत मे, अपने सहदय पाठको और सािहितयक बंधुओं के सममुख "साकेत"
समुपिसित करके अपनी धष
ृ ता और चपलता के िलए कमा-याचना पूवक
प िबदा लूंगा। परं तु जो जो
िलखना चाहता िा, वह आज भी नहीं िलखा जा सका और शरीर िशििल हो पडा। अतएव, आज ही उस
अिभलाषा को पूणप कर लेना उिचत समझता हूं।

परं तु िफर भी मेरे मन की न हुई। मेरे अनुज शीिसयारामशरण मुझे अवकाश नहीं लेने दे ना चाहते। वे
छोटे है , इसिलए मुझ पर उनका बडा अिधकार है । तिािप, यिद अब मै कुछ िलख सका तो वह उनहीं
की बेगार होगी।

उनकी अनुरोध-रका मे मुझे संतोष ही होगा। परं तु यिद मुझे पहले ही इस िसिित की संभावना होती तो
मै इसे और भी पहले पूरा करने का पयत करता और मेरे कृ पालु पाठको को इतनी पतीका न करनी
पडती। िनससंदेह पंदह-सोलह वषप बहुत होते है तिािप इस बीच मे इसमे अनेक फेर-फार हुए है और
ऐसा होना सवाभािवक ही िा।

आचायप पूजय ििवेदीजी महाराज के पित अपनी कृ तजता पकट करना मानो उनकी कृ पा मूलय िनधािपरत
करने की ििठाई करना है । वे मुझे न अपनाते तो मै आज इस पकार, आप लोगो के समझ खडे होने मे
भी समिप होता या नहीं, कौन कह सकता है ।-

करते तुलसीदास भी कैसे मानस-नाद?-


महावीर का यिद उनहे िमलता नहीं पसाद।

िवजवर बाहप सपतयजी महोदय ने आरं भ से ही अपनी मािमक


प सममितयो से इस िवषय मे मुझे कृ तािप
िकया है । अपनी शिि के अनुसार उनसे िजतना लाभ मै उठा सका, उसी को अपना सौभागय मानता हूं।

भाई कृ षणदास, अजमेरी और िसयारामशरण की पेरणाएं और उनकी सहायताएं मुझे पाप हुई तो ऐसा
होना उिचत ही िा सवयं वे ही मुझे पाप हुए है ।

"साकेत" के पकािशत अंशो को दे ख-सुन कर िजन िमतो ने मुझे उतसािहत िकया है , मै हदय से उनका
आभारी हूं। खेद है , उनमे से गणेशशंकर जैसा बंधु अब नहीं।

समिप सहायको को पाकर भी अपने दोषो के िलए मै उनकी ओट नहीं ले सकता। िकसी की सहायता से
लाभ उठा ले जाने मे भी तो एक कमता चािहए। अपने मन के अनुकूल होते हुए भी कोई कोई बात
कहकर भी मै नहीं कह सका। जैसे नवम सगप मे ऊिमल
प ा का िचतकूट-संबंधी यह संसमरण-

मंझली मां से िमल गई कमा तुमहे कया नाि?


पीठ ठोककर ही िपये, माने, मां के हाि।

परं तु इसी के साि ऐसा भी पसंग आया है िक मुझे सवयं अपने मन के पितकूल ऊिमल
प ा का यह किन
िलखना पडा है -
मेरे उपवन के हिरण, आज वनचारी।

मन ने चाहा िक इसे यो कर िदया जाए -

मेरे मानसे के हं स, आज वनचारी।

परं तु इसे मेरे बह ने सवीकार नहीं िकया। कयो, मै सवयं नहीं जानता!

ऊिमल
प ा के िवरह-वणन
प की िवचार-धारा मे भी मैने सवचछं दता से काम िलया है ।

यो तो "साकेत" दो वषप पूवप ही पूरा हो चुका िा; परं तु नवम सगप मे तब भी कुछ शेष रह गया िा और
मेरी भावना के अनुसार आज भी यह अधूरा है । यह भी अचछा ही है । मै चाहता िा िक मेरे सािहितयक
जीवन के साि ही "साकेत" की समािप हो। परं तु जब ऐसा नहीं हो सका, तब ऊिमल
प ा की िनमनोि
आशा-िनराशामयी उिियो के साि उनका कम बनाए रखना ही मुझे उिचत जान पडता है -

कमल, तुमहारा िदन है और कुमुद, यािमनी तुमहारी है ,


कोई हताश कयो हो, आती सबती समान वारी है ।

धनय कमल, िदन िजसके, धनय कुमुदल रात साि मे िजसके, िदन और रात दोनो होते है हाय! हाि मे
िकसके?

- मैििलीशरण गुप 1988

जय दे वमंिदर- दे हली सम-भाव से िजस पर चढी,-


नप
ृ -हे ममुदा और रं कवरािटका।
मुिन-सतय-सौरभ की कली- किव-कलपना िजसमे बढी,
फूले-फले सािहतय की वह वािटका।

राम, तुम मानव हो? ईशर नहीं हो कया? िवश मे रमे हुए नहीं सभी कहीं हो कया? तब मै िनरीशर हूं,
ईशर कमा करे ; तुम न रमो तो मन तुममे रमा करे ।

मंग ला चर ण

जयत कुमार-अिभयोग-िगरा गौरी-पित, स - गण िगरीश िजसे सुन मुसकाते है -


"दे खो अंब, ये हे रंब मानस के तीर पर तुंिदल शरीर एक ऊधम मचाते है ।
गोद भरे मोदक धरे है , सिवनोद उनहे सूंड से उठाकर मुझे दे ने को िदखाते है ,
दे ते नहीं, कंदक
ु -सा ऊपर उछालते है , ऊपर ही झेलकर, खेल कर खाते है !"

शीगण ेशा यनम ः

साकेत / मैििलीशरण गुप / पिम सगप / पष


ृ १

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साके त / मैिि लीशर ण ग ुप / पिम सग प / पृ ष १


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लेखक: मैििलीशरण गुप

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अिय दयामिय दे िव, सुखदे , सारदे ,


इधर भी िनज वरद-पािण पसारदे ।
दास की यह दे ह-तंती सार दे ,
रोम - तारो मे नई झंकार दे ।
बैठ, आ, मानस-मराल सनाि हो,
भार - वाही कंठ - केकी साि हो।
चल अयोधया के िलए, सज साज तू,
मां, मुझे कृ तकृ तय कर दे आज तू।

सवगप से भी आज भूतल बढ गया,


भागयभासकर उदयिगिर पर चढ गया।
हो गया िनगुण
प सगुण-साकार है ,
ले िलया अिखलेश ने अवतार है ।
िकस िलए यह खेल पभु ने है िकया?
मनुज बनकर मानवी का पय िपया?
भि-वतसलता इसी का नाम है ।
और यह वह लोकेश लीला-धाम है ।
पि िदखाने के िलए संसार को,
दरू करने के िलए भू-भार को,
सफल करने के िलए जन-दिषयां,
कयो न करता वह सवयं िनज सिृषयां?
असुर-शासन िशिशर-मय हे मंत है ,
पर िनकट ही राम-राजय-वसंत है ।
पािपयो का जान लो अब अंत है ,
भूिम पर पकटा अनािद-अनंत है ।
राम-सीता, धनय धीरांबर-इला,
शौयप-सह संपित, लकमण-ऊिमल
प ा।
भरत कताप, मांडवी उनकी िकया;
कीितप-सी शत
ु कीितप शतुघनिपया।
बह की है चार जैसी पूितय
प ां,
ठीक वैसी चार माया-मूितय
प ां,
धनय दशरि-जनक-पुणयोतकषप है ;
धनय भगवदिूम-भारतवषप है !
दे ख लो, साकेत नगरी है यही,
सवगप से िमलने गगन मे जा रही।
केतु-पट अंचल-सदश है उड रहे ,
कनक-कलशो पर अमर-दग जुड रहे !
सोहती है िविवध-शालाएं बडी,
छत उठाए िभितयां िचितत खडी।
गेिहयो के चार-चिरतो की लडी,
छोडती है छाप, जो उन पर पडी!
सवचछ, सुंदर और िवसतत
ृ घर बने,
इं दधनुषाकार तोरण है तने।
दे व-दं पित अटट दे ख सराहते,
उतर कर िवशाम करना चाहते फूल-फल कर,
फैल कर जी है बढी,
दीघप छजजो पर िविवध बेले चढीं।
पौरकनयाएं पसून-सतूप कर,
विृष करती है यहीं से भूप पर।
फूल-पते है गवाको मे कढे ,
पकृ ित से ही वे गए मानो गढे ।
दामनी भीतर दमकती है कभी,
चंद की माला चमकती है कभी।
सवद
प ा सवचछं द छजजो के तले,
पेम के आदशप पारावत पले।
केश-रचना के सहाक है िशखी,
िचत मे मानो अयोधया है िलखी!
दिष मे वैभव भरा रहता सदा;
घाण मे आमोद है बहता सदा।
िालते है शबद शिुतयो मे सुधा,
सवाद िगन पाती नहीं रसना-कुधा!

कामरपी वािरदो के िचत-से,


इं द की अमरावती के िमत-से,
कर रहे नप
ृ -सौध गगम-सपशप है ,
िशलप-कौशल के परम आदशप है ।
कोट-कलशो पर पणीत िवहं ग है ,
ठीक जैसे रप, वैसे रं ग है ।
वायु की गित गान दे ती है उनहे ,
बांसुरी की तान दे ती है उनहे ।
ठौर ठौर अनेक अधवर-यूप है ,
जो सुसंवत के िनदशन
प -रप है ।
राघवो की इं द-मैती के बडे ,
वेिदयो के साि साकी-से खडे ।
मूितम
प य, िववरण समेत, जुदे जुदे,
ऐितहािसक वत
ृ िजनमे है खुदे,
यत तत िवशाल कीितप-सतंभ है ,
दरू करते दानवो का दं भ है ।

साकेत / मैििलीशरण गुप / पिम सगप / पष


ृ २

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साके त / मैिि लीशर ण ग ुप / पिम सग प / पृ ष २


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लेखक: मैििलीशरण गुप

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सवगप की तुलना उिचत ही है यहां,


िकंतु सुरसिरता कहां, सरयू कहां?
वह मरो को मात पार उतारती,
यह यहीं से जीिवतो को तारती!
अंगराग पुरांगनाओं के धुले,
रं ग दे कर नीर मे जो है धुले,
दीखते उनसे िविचत तरं ग है ,
कोिट शक-शरास होते भंग है ।
है बनी साकेत नगरी नागरी,
और साितवक-भाव से सरयू भरी।
पुणय की पतयक धारा वह रही।
तीर पर है दे व-मंिदर सोहते,
भावुको के भाव मन को मोहते।
आस-पास लगी वहां फुलवािरयां,
हं स रही है िखलिखला कर कयािरयां।

है अयोधया अविन की अमरावती,


इं द है दशरि िविदत वीरवती,
वैजयंत िवशाल उनके धाम है ,
और नंदन वन बने आराम है ।

एक तर के िविवध सुमनो-से िखले,


पौरजन रहते परसपर है िमले।
सवसि, िशिकत, िशष उदोगी सभी,
बाहभोगी, आंतिरक योगी सभी।
वयािध की बाधा नहीं तन के िलए,
आिध की शंका नहीं मन के िलए।
चोर की िचंता नहीं धन के िलए,
सवप सुख है पाप जीवन के िलए।
एक भी आंगन नहीं ऐसा यहां,
िशशु न करते हो किलत-कीडा जहां।
कौन है ऐसा अभाग गह
ृ कहो,
साि िजसके अश-गोशाला न हो?
धानय-धन-पिरपूणप सबके धाम है ,
रं गशाला-से सजे अिभराम है ।
नागरो की पातता, नव नव कला,
कयो न दे आनंद लोकोतर भला?
ठाठ है सवत
प घर या घाट है ,
लोक-लकमी की िवलकण हाट है ।
िसि, िशिशत-पूणप मागप अकाटय है ,
घर सुघर नेपथय, बाहर नाटय है !

अलग रहती है सदा ही ईितयां,


भटकती है शूनय मे ही भीितयां।
नीितयो के साि रहती रीितयां,
पूणप है राजा-पजा की पीितयां।
पुत रपी चार फल पाए यहं ,
भूप को अब और कुछ पाना नहीं।
बस यही संकलप पूरा एक हो,
शीघ ही शीराम का अिभषेक हो।

सूयप का यदिप नहीं आना हुआ;


िकंतु समझो, रात का जाना हुआ।
कयोिक उसके अंग पीले पड चले;
रमय-रताभरण िीले पढ चले।
एक राजय न हो, बहुत से हो जहां,
राष का बल िबखर जाता है वहां।
बहुत तारे िे, अंधेरा कब िमटा।
सूयप का आना सुना जब, तब िमटा।
नींद के भी पैर है कंपने लगे, दे खलो,
लोचन-कुमुद झंपने लगे।
वेष-भूषा साज ऊषा आ गई,
मुख-कमल पर मुसकराहट छ गई।
पिकयो की चहचहाहट हो उठी,
सवपन के जो रं ग िे वे घुल उठे ,
पािणयो के नेत कुछ कुछ खुल उठे ।
दीप-कुल की जयोित िनषपभ हो िनरी,
रह गई अब एक घेरे मे िघरी।
िकंतु िदनकर आ रहा, कया सोच है ?
उिचत ही गुरजन-िनकट संकोच है ।
िहम-कणो ने है िजसे शीतल िकया,
और सौरभ ने िजसे नव बल िदया,
पेम से पागल पवन चलने लगा,
सुमन-रज सवाग
ा मे मलने लगा!
पयार से अंचल पसार हरा-भरा,
तारकाएं खींच लाई है धरा।
v

िनरख रत हरे गए िनज कोष के,


शूनय रं ग िदखा रहा है रोष के।
ठौर ठौर पभाितयां होने लगीं,
अलसता की गलािनयां धोने लगीं।
कौन भैरव-राग कहता है इसे,
शिुत-पुटो से पाण पीते है िजसे?
दीखते िे रं ग जो धूिमल अभी,
हो गए है अब यिायि वे सभी।
सूयप के रि मे अरण हय जुत गए,
लोक के घर-वार जयो िलप-पुत गए।
सजग जन-जीवन उठा िवशांत हो,
मरण िजसको दे ख जड-सा भांत हो।
दिधिवलोडन, शासमंिन सब कहीं,
पुलक-पूिरत तप
ृ तन-मन सब कहीं,
खुल गया पाची िदशा का िार है ,
गगन-सागर मे उठा कया जवार है !
पूवप के ही भागय का यह भाग है ,
या िनयित का राग-पूणप सुहाग है !
अरण-पट पहने हुए आहाद मे,
कौन यह बाला खडी पसाद मे ?
पकट-मूरितमती उषा ही तो नहीं?
कांित-की िकरणे उजेला कर रहीं।
यह सजीव सुवण की पितमा नई,
आप िविध के हाि से िाली गई।
कनक-लितका भी कमल-सी कोमला,
धनय है उस कलप-िशलपी की कला!
जान पडता नेत दे ख बडे -बडे -
हीरको मे गोल नीलम है जडे ।

साकेत / मैििलीशरण गुप / पिम सगप / पष


ृ ३

साके त / मैिि लीशर ण ग ुप / पिम सग प / पृ ष ३


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लेखक: मैििलीशरण गुप

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पदरागो से अधर मानो बने,


मोितयो से दांत िनिमत
प है घने।
और इसका हदय िकससे है बना?
बह हदय ही है िक िजससे है बना।
पेम-पूिरत सरस कोमल िचत से,
तुलयता की जा सके िकस िवत से?
शाण पर सब अंग मानो चढ चुके।
झलकता आता अभी तारणय है ,
आ गुराई से िमला आरणय है !
लोल कुंडल मंडलाकृ ित गोल है ,
घन-पटल-से केश, कांत-कपोल है ।
दे खती है जब िजधर यह सुंदरी,
दमकती है दािमनी-सी दुित-भरी।
है करो मे भूिर भूिर भलाइयां,
लचक जाती अनयिा न कलाइयां?
चूिडयो के अिप, जो है मिणमयी,
अंग की ही कांित कुंदन बन गई।
एक ओर िवशाल दपण
प है लगा,
पाशप से पितिबंब िजसमे है जगा।
मंिदरसिा कौन यह दे वी भला?
िकस कृ ती के अिप है इसकी कला?
सवगप का यह सुमन धरती पर िखला,
नाम है इसका उिचत ही 'ऊिमल
प ा'।
शील-सौरक की तरं गे आ रही,
िदवय-भाव भािबध मे है ला रही।
सौधिसंहिार पर अब भी वही,
बांसुरी रस-रािगनी मे बज रही।

अनुकरण करता उसीका कीर है ,


पंजर िसित जो सुरमय शरीर है ।
ऊिमल
प ा ने कीर-सममुख दिष की,
या यहां दो खंजनो की सिृष की!
मौन होकर कीर तब िविसमत हुआ,
रह गया वह दे खता-सा िसित हुआ!
पेम से स पेयसी ने तब कहा-
"रे सुभाषी, बोल, चुप कयो हो रहा?"
पाशप से सौिमित आ पहुंचे तभी,
और बोले-"लो, बता दं ू मै अभी।
नाक का मोती अधर की कांित से,
बीज दािडम का समझ कर भांित से,
दे ख कर सहसा हुआ शुक मौन है ,
सोचता है , अनय शुक यह कौन है ?
यो वचन कहकर सहासय िवनोद से,
मुगध हो सौिमित मन के मोद से।
पिदनी के पास मत मराल-से,
हो गए आकर खडे िसिर चाल से।
चार-िचितत िभितयां भी वे बडी,
दे खती ही रह गई मानो खडी।
पीित से आवेग मानो आ िमला,
और हािदपक हास आंखो मे िखला।
मुसकरा कर अमत
ृ बरसाती हुई,
रिसकता मे सुरस सरसाती हुई,
ऊिमल
प ा बोली, "अजी, तुम जग गए?
सवपन-िनिध से नयन कब से लग गए?"
"मोिहनी ने मंत पढ जब से छुआ,
जागरण रिचकर तुमहे जब से हुआ!"
गत हुई संलाप मे बहु रात िी,
पिम उठने की परसपर बात िी।
"जागरण है सवपन से अचछा कहीं?"
"पेम मे कुछ भी बुरा होता नहीं!"

"http://hi.literature.wikia.com/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A5%87%E0%A
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E0%A5%8D%E0%A4%A0_%E0%A5%A9" से िलया गया
वेदने, तू भी भली बनी।
पाई मैने आज तुझी मे अपनी चाह घनी।
नई िकरण छोडी है तूने, तू वह हीर-कनी,
सजग रहूँ मै, साल हदय मे, ओ िपय िविशख-अनी।
ठं डी होगी दे ह न मेरी, रहे दगमबु सनी,
तू ही उषण उसे रखेगी मेरी तपन-मनी।
आ, अभाव की एक आतमजे, और अदष-जनी।
तेरी ही छाती है सचमुच उपमोिचतसतनी।
अरी िवयोग समािध, अनोखी, तू कया ठीक ठनी,
अपने को िपय को, जगती को दे खूँ िखंची-तनी।
मन-सा मािनक मुझे िमला है तुझमे उपल-खनी,
तुझे तभी तयागूँ जब सजनी, पाऊँ पाणधनी ॥१॥

कहती मै चातिक, िफर बोल।


ये खारी आँसू की बूँदे दे सकती यिद मोल।
कर सकते है कया मोती भी उन बोलो की तोल?
िफर भी, िफर भी, इस झाडी के झुरमुट मे रस घोल।
शिुत-पुट लेकर पूवप समिृतयाँ खडी यहाँ पट खोल।
दे ख, आप ही अरण हुये है उनके पांडु कपोल।
जाग उठे है मेरे सौ-सौ सवपन सवंय िहल-डोल,
और सनन हो रहे , सो रहे , ये भूगोल-खगोल।
न कर वेदना-सुख से वंिचत बिा हदय-िहं दोल,
जो तेरे सुर मे सो मेरे उर मे कल-कललोल ॥२॥

िनरख सखी ये खंजन आये।


फेरे उन मेरे रजन ने नयन इधर मन भाये।
फैला उनके तन का आतप, मन-से सर-सरसाये,
घूमे वे इस ओर वहाँ ये यहाँ हं स उड छाये।
कर के धयान आज इस जन का िनशय वे मुसकाये,
फूल उठे है कमल, अधर से ये बंधूक सुहाये।
सवागत, सवागत शरद, भागय से मैने दशन
प पाये,
नभ ने मोती वारे लो, ये अशु अधयप भर लाये ॥३॥

िशिशर, न िफर िगिर वन मे।


िजतना मांगे पतझड दँग
ू ी मै इस िनज नंदन मे।
िकतना कपन तुझे चािहए, ले मेरे इस तन मे,
सखी कह रही, पांडुरता का कया अभाव आनन मे।
वीर, जमा दे नयन-नीर यिद तू मानस भाजन मे,
तो मोती-सा मै अिकंचना रखूँ उसको मन मे।
हँ सी गई, रो भी न सकूँ मै - अपने इस जीवन मे,
तो उतकंठा है दे खूँ िफर कया हो भाव-भुवन मे ॥४॥
यही आता है इस मन मे।
छोड धाम-धन जा कर मै भी रहूँ उस वन मे।
िपय के वत मे िवघन न डालूँ, रहूँ िनकट भी दरू,
वयिा रहे पर साि-साि ही समाधान भरपूर।
हषप डू बा हो रोदन मे,
यही आता है इस मन मे,
बीच बीच मे कभी दे ख लूँ मै झुरमुठ की ओट,
जब वे िनकल जायँ तब लेटूँ उसी धूल मे लोट।
रहे रत वे िनज साधन मे,
यही आता है इस मन मे।
जाती-जाती, गाती-गाती, कह जाऊँ यह बात,
धन के पीछे जन, जगती मे उिचत नहीं उतपात।
पेम की ही जय जीवन मे,
यही आता है इस मन मे ॥५॥

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