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DHIND 05

Assignment – 1

निम्नलिखित अवतरणों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए।


(a) दिवस का अवसान समीप या।
गगन या कुछ लोहित हो चला।
तरु शिखा पर थी अब राजती।
कपलिनी-कुल-वह्लभ की प्रथा।
Ans:

(b) सुना यह मनु ने मधुर गुज


ं ार।
मधु करी का-सा जब सानंद।
किये मुख नीचा कमल समान।
प्रथम कवि का ज्यों सु न्दर छं द।
Ans:
सन्दर्भ पूर्ववत्।
प्रसं ग प्रस्तु त पद्यां श में उस समय का वर्णन है जब प्रलय के उपरान्त मनु की भें ट श्रद्धा से होती है
और वह उसके सु मधु र स्वर को सु नकर आश्चर्यचकित रह जाता है ।
व्याख्या मनु और श्रद्धा की प्रथम भें ट होने पर जब श्रद्धा उससे उसका परिचय पूछती है तो उसकी
आवाज उन्हें भौंरों के मधु र गु ं जार के समान आनन्ददायक प्रतीत होती है । अपरिचित मनु का परिचय
पूछने के क् रम में श्रद्धा लज्जावश अपना सिर नीचे झुकाए रहती है जिसे दे ख मनु को ऐसा आभास
होता है , जै से कोई खिला हुआ कमल पृ थ्वी की ओर झुका हो। मनु को कमल सदृश
सु न्दर दिखने वाले उसके मु ख से निकले मधु र बोल आदि कवि के सु न्दर छन्द-से प्रतीत होते हैं । उस
निर्जन स्थान पर जहाँ किसी के होने की कोई सम्भावना न थी, श्रद्धा जै सी अनु पम रूपवती को दे खकर
मनु आश्चर्यचकित हो उठते हैं और उनका मलिन मु ख निखर उठता है । श्रद्धा के कण्ठ से निकले गीत
सदृश बोल का उन पर
ऐसा प्रभाव पड़ता है कि वह उससे बोले बिना नहीं रह पाते और उसके विषय में सब कुछ जान ले ना
चाहते हैं ।

(c) ममहै अमा-निशा; उगलता गगन घन अंधकार,


खो रहा निशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन-भार,
अप्रतिहत गरज रहा पीछे , अम्बु धि विशाल,
भूधर ज्यों ध्यान-मग्न, केवल जलती मसाला।फ्फ
Ans:
समालोचक विद्वानों का मत है कि 'कृतिवास' और 'राम की शक्ति पूजा' में पर्याप्त भे द है । पहला तो यह
कि, एक ओर जहां कृतिवास में कथा पौराणिकता से यु क्त होकर अर्थ की भूमि पर सपाटता रखती है तो
वही दस ू री ओर राम की शक्ति पूजा नामक कविता में कथा आधु निकता से यु क्त होकर अर्थ की कई
भूमियों को स्पर्श करती है । इसके साथ-साथ निराला ने इसमें यु गीन चे तना और आत्मसं घर्ष का
मनोवै ज्ञानिक धरातल पर बड़ा ही प्रभावशाली चित्र प्रस्तु त किया है । निराला यदि कविता के
कथानक की प्रकृति को आधु निक परिवे श और अपने नवीन दृष्टिकोण के अनु सार नहीं बदलते तो यह
केवल अनु करण मात्र रह जाती ले किन उन्होंने अपनी मौलिकता का प्रमाण दे ने के लिए ही इस
रामकथा के अं श में कई मौलिक प्रयोग किये , जिससे यह रचना कालजयी सिद्ध हुई। 'राम की शक्ति
पूजा' की दृश्य-समग्रता एक यु द्धस्थल है । सं कट की ऐसी घड़ियों में प्रायः आगामी रणनीति पर चर्चा
के लिए सभाएं की जाती हैं । राम श्वे त शिला पर आरूढ़ हैं । सु गर् ीव, विभीषण, जाम्बवान, नल–नील,
गवाक्ष सभी उपस्थित हैं । लक्ष्मण राम के पीछे हैं । हनु मान कर-पद प्रक्षालन के लिए जल ले कर
उपस्थित हैं । से ना को विश्राम का आदे श दे दिया गया है । निराला यहाँ फिर प्रतीकों का सहारा ले ते हैं
और आसन्न पराजय-सं कट का एक डरावना चित्र उभरता है –
(d) सै कत-शय्या पर दु ग्ध-धवल,
तत्वगी गंगा, ग्रीष्म-विरल,
ले टी है श्रान्त, क्लान्त, निश्चल!
_तापस-वाला गंगा निर्मल, शशि मुख से दीपित मृ दु-कस्तल,
लहरे उर पर कोमल कुन्तल।
Ans:
सन्दर्भ प्रस्तु त पद्यां श हमारी हिन्दी पाठ्यपु स्तक में सं कलित सु मित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित ‘नौका-
विहार’ शीर्षक कविता से उदधत है ।
प्रसं ग प्रस्तु त पद्यां श में कवि पन्त जी ने चाँदनी रात में किए गए नौका-विहार का चित्रण किया है ।
इसमें कवि ने गं गा की कल्पना नायिका के रूप में की है ।
व्याख्या कवि कहता है कि चारों ओर शान्त, तरल एवं उज्ज्वल चाँदनी छिटकी हुई है । आकाश टकटकी
बाँ धे पृ थ्वी को दे ख रहा है । पृ थ्वी अत्यधिक शान्त एवं शब्दरहित है । ऐसे मनोहर एवं शान्त वातावरण
में क्षीण धार वाली गं गा बालू के बीच मन्द-मन्द बहती ऐसी प्रतीत हो रही है मानो कोई छरहरे , दुबले -
पतले शरीर वाली सु न्दर यु वती दध ू जै सी सफेद शय्या पर गर्मी से व्याकुल होकर थकी, मु रझाई एवं
शान्त ले टी हुई हो। गं गा के जल में चन्द्रमा का बिम्ब झलक रहा है , । जो ऐसा प्रतीत हो रहा है जै से
गं गारूपी कोई तपस्विनी अपने चन्द्र-मु ख को अपने ही कोमल हाथों पर रखकर ले टी हुई हो और
छोटी-छोटी लहरें उसके वक्षस्थल। पर ऐसी प्रतीत होती है मानों वे लहराते हुए कोमल केश हैं ।
तारों भरे आकाश की चं चल परछाईं गं गा के जल में जब पड़ती है , तो वह। ऐसी प्रतीत होती है मानो
गं गा रूपी तपस्विनी बाला के गोरे -गोरे अं गों के स्पर्श स । बार-बार कॉपता, तारों जड़ा उसका नीला
आँ चल लहरा रहा हो। उत्त। आकाशरूपी नीले आँ चल पर चन्द्रमा की कोमल चाँदनी में प्रकाशित
छोटी-छोटा, कोमल, टे ढ़ी, बलखाती लहरें ऐसी प्रतीत होती हैं मानो ले टने के कारण उसका
रे शमी साड़ी में सलवटें पड़ गई हों।

(e) मनुज-वंश के अश्रु-योग से जिस दिन हुआ सिन्धु -जल खारा!


गिरि ने चीर लिया निज उर, मैं ललक पडा लख जल की धारा!
Ans:
(f) नए यु ग की भवानी, आ गई बेला प्रलय की,
दिगम्बरि! बोल, अम्बर में किरण का तार बोला।
Ans:
दिनकरजी के हिं सा-अहिं सा सम्बन्धी विचार कुरुक्षे तर् में आकर नहीं बदले . आरम्भ से ही वे यह सोचते
आ रहे थे की अन्याय का प्रतिकार यदि अहिं सा से सं भव न हो, तो हिं सा का आश्रय ले ना पाप नहीं
है . भारत का पतन राक्षसी गु णों के कारण नहीं प्रत्यु त कोमलता, वै राग्य-साधना और कथित दे व गु णों
के कारण हुआ, इस सत्य की अनु भति ू उस समय प्राय समस्त शिक्षित समाज को हो रही थी और
दिनकरजी आरम्भ से ही इस अनु भति ू की कविता बनाकर दे श का हृदय हिलाते आ रहे थे .

(g) किन्तु हम हैं द्वीप। हम धारा नहीं है ।


स्थिर समर्पण है हमारा। हम सदा से द्वीप है स्नोतसस्विनी के।
किं तु हम बहते नहीं हैं । क्योंकि बहना रे त होना है ।
हम बहें गे तो रहें गे ही नहीं।
Ans:
(h) ममनर या कुंजरफ
मानव को पशु से
उन्होंने पृ थक नहीं किया
उस दिन से मैं हूँ.
पशुमात्र, अंध जर्जर पशु ।
Ans:
योध्दा से बर्बर पशु बन जाने के बाद उसके अस्तित्व का अं तिम अर्थ “वध, केवल वध, केवल वध” बन
गया। वह कहता है –
“वध मे रे लिए नहीं रही नीति
वह है अब मे रे मनोग्रंथि।
दुर्योधन द्वारा पराजय स्वीकार कर ले ने पर पिता की निर्मम हत्या का प्रतिशोध ले सकने की
असमर्थता का अनु भव अश्वत्थामा को हुआ।
अश्वत्थामा ने उत्तरा के गर्भ तक को नष्ट करना चाहा, किंतु कृष्ण ने गर्भ की रक्षा कर ली। कृष्ण ने
उसे भ्रूण हत्या का शाप दे कर उससे मणि छीन ली। कृष्ण के शाप के कारण ही मणि छीन लिये जाने के
बाद अश्वत्थामा के मस्तक पर जो जख्म हुआ, वह सदा ताजा बना रहा। शाप के कारण ही उसका अं ग-
अं ग गलित कुष्ठ के कारण दुर्गन्ध से भर गया। उसका रोम-रोम अगणित रौरव नरक की यातना से
पीडित हो उठा। अं त में कृष्ण के घायल चरणों में से घाव के फू ट कर बह निकलने पर जब अश्वत्थामा
ने अपनी निजी पीडा को शांत होते हुए अनु भव किया, तो उसकी सारी घृ णा आस्था में परिवर्तित हो
गयी। जो अं धा यु ग अं धी प्रतिहिं सा बनकर अश्वत्थामा की नस-नस में पै ठ गया था, उसके कारण
उसके पश्चात्तापदग्ध मन को विगलित कर गया। उसने अनु भव किया कि घृ णा का तर्क अमानु षिक है ।
मनु ष्यता की विस्तृ ति का यह अविस्मरणीय पात्र अं त में अनु भव करता है

2 प्रिय-प्रवास के काव्य-सौष्ठब पर प्रकाश डालिए।


Ans:
ललित काव्य की एक विधा का रूप धारण कर महाकाव्य ‘साहित्यशास्त्र‘ का विषय बन गया और
आचार्यों ने इसे भी लक्षण बद्ध कर दिया। भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य-शास्त्रीय परम्परा में इसका
पर्याप्त विवे चन हुआ है । आधु निक सं दर्भों में ‘महाकाव्य‘ पद में ‘ महा‘ विशे षण कृति के विपु ल-व्यापक
आकार, महान् कले वर, उत्कृष्ट विषय-वस्तु तथा प्रतिपाद्य विषय की रचनात्मक गरिमा का द्योतक है ।
महाकाव्य की कथावस्तु , नायकत्व, चरित्र-चित्रण, यु गीन परिवे श, वस्तु वर्णन, भाव एवं रस, निरूपण
तथा शै ली की उन्नत गरिमा रहती है । इस दृष्टि से ‘प्रिय प्रवास‘ खड़ी बोली हिन्दी का प्रथम
महाकाव्य है । अप्रतिम वस्तु सौन्दर्य, उत्कृष्ट रचना-विधान एवं परम औदात्य का निर्वहन होने से
‘हरिऔध‘ की यह कृति उनकी अद्भुत प्रतिभा एवं गहन अनु भति ू का प्रमाण है । महाकाव्यत्व की
विशे षताओं के आधार पर ‘प्रिय-प्रवास‘ का मूल्यांकन निम्नानु सार है -
महाकाव्य में आकार की व्यापकता होती है । अर्थात् उसमें जीवन का सर्वां ग चित्रण रहता है । महान्
पु रूष का जीवन-चरित्र होने से अनायास ही वह दे श-काल की सीमा से विस्तारित हो जाता है । अं ततः
महत्तर मानव-मूल्यों की प्रतिस्थापना करने में महाकाव्य की सफलता निश्चित होती है । सत्रह सर्गों
में विभक्त ‘प्रिय प्रवास‘ की कथावस्तु श्रीकृष्ण के मथु रा गमन के वृ तान्त पर आधारित है । विरह-
व्यथित ब्रजवासियों ने श्रीकृष्ण का गु णगान करते हुए उनके कर्तृत्व का वर्णन भी किया है , जै से -
पूतना वध, शकठासु र वध, कालिया नाग वध, बकासु र वध आदि। इससे कथानक सु संगठित रूप में
प्रकट होता है । कथा-सं धियों, अर्थ-प्रकृतियों एवं कार्यावस्थाओं के विधान से प्रिय-प्रवास ने
यशोदा-विलाप, पवन-दत ू ी प्रसं ग, राधा-उद्धव सं वाद आदि के माध्यम से कथावस्तु में मार्मिक-स्थलों
की पहचान भी की है । कथानक के नायक ‘श्रीकृष्ण‘ की महानता लौकिक पु रुष के रूप में चित्रित है ,
जिसमें आदर्श, नै तिकता, लोकसे वा एवं मानवता का कल्याण परम उद्दे श्य है । श्रीकृष्ण के चरित्र का
यु गीन चित्रण विलक्षण है । ‘विश्वम्भर मानव‘ के अनु सार - ‘‘ ‘प्रिय प्रवास‘ भारतीय नव-जागरण
काल का ही महाकाव्य नहीं, वह जीवन के श्रेष्ठतम मानव-मूल्यों का कीर्ति-स्तं भ भी है । वै ज्ञानिक यु ग
की विभीषिका में मानवतावाद का विजयघोष है । कृष्ण को केन्द्र बनाकर इसमें जो कथा वर्णित है ,
उससे मनु ष्य की महत्ता, जीवन की सु न्दरता, प्रेम की शक्ति और सबसे अधिक मानवीय सं बंधों की
अनु पम कोमलता पर प्रकाश पड़ता है ।‘‘
महाकाव्य परम्परानु सार प्रिय प्रवास के नायक-नायिका श्रीकृष्ण एवं राधा हैं , जो पौराणिक काल के
आदर्श हैं । श्रीकृष्ण महान् पु रूष एवं राधा उदात्त नायिका के रूप में चित्रित हैं । मौलिकता यह है कि
राधा-कृष्ण परम ब्रह्म न होकर मानव-मानवी हैं । श्रीकृष्ण लोक से वक एव ंराधा लोक से विका है ।
इन दोनों के माध्यम से कवि ने मानवीय प्रेम को धीरे -धीरे इतनी उच्च भूमि पर ले जाकर प्रतिष्ठित
किया है कि वह व्यक्ति, परिवार, ग्राम और समाज की सीमाओं को पार करता हुआ विश्व-प्रेम में
परिवर्तित हो जाता है । श्रीकृष्ण के लोकसे वक रूप का चित्रण द्रष्टव्य है -
जो होता निरत तप में मु क्ति की कामना से ।
आत्मा है , न कह सकते हैं उसे आत्महत्या।
जी से प्यारा जगत-हित औ लोक-से वा जिसे है ।
प्यारी सच्चा उसे आत्महत्या में आत्म त्याग वही है ।।

राधा सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति, मृ दुभाषिणी एवं श्रीकृष्ण की अनन्य प्रेयसी है । लोक से वा के लिए वह
प्रिय-वियोग को स्वीकार कर ले ती हैं । सामान्य मानव-जनित उद्गार प्रकट करने में भी वह सं कोच
नहीं करती। वह नारी की मनोव्यथा को प्रकट करती हुई स्पष्ट रूप से कहती है -
मे रे प्यारे , पु रुष, पृ थिवी-रत्न और शान्त-धी हैं ।
सन्दे शों में तदपि उनकी, वे दना व्यं जिता है ।
मैं नारी हँ ,ू तरल-उर हँ ,ू प्यार से व्यं चिता हँ ।ू
जो होती हँ ू विकल विमना, व्यस्त वै चित्र्य क्या है ?
राधा-कृष्ण के अतिरिक्त नन्द, यशोदा, उद्धव आदि का चरित्रांकन भी यथानु कूल हुआ है । यशोदा का
मातृ त्व और नछ की आदर्शमय भूमिका दर्शनीय है । अपने पु तर् के वियोग में यशोदा का निरन्तर
अश्रुपात भाव-विह्वल करने वाला है -
सहकर कितने ही कष्ट औ सं कटों को।
बहु यजन कराके पूज के निर्जरों को।
यक सु अन मिला है जो मु झे यत्न द्वारा।
प्रियतम! वह मे रा कृष्ण प्यारा कहाँ है ?
प्रिय, प्रवास का अं गी रस ‘वियोग-शृं गार है । साथ ही वात्सल्य रस का भी सु न्दर चित्रण हुआ है ।
वीर, रौद्र, भयानक रस भी कथा अनु रूप हैं । रस-व्यं जना में महाकाव्य के लक्षणों का सम्यक् निर्वाह
हुआ है । विरोधी रसों से बचने का प्रयास है । भाव-शां ति, भाव-शबलता के साथ भाव-निरूपण भी
सफलता पूर्वक है । राधा का श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम ‘वियोग शृं गार ‘की रसमयता के साथ
व्यं जित हुआ है -
रो-रो चिन्ता सहित दिन को राधिका थीं बिताती।
आँ खों को थीं सजल रखतीं उन्मना थीं दिखाती।
शोभावाले जलद-वपु की, हो रही चातकी थीं।
उत्कंठा थी परम प्रबला, वे दना वर्द्धिता थीं।।
प्रिय-प्रवास का प्रकृति-चित्रण अपूर्व है । प्राणी-प्रकृति के अटू ट सं बंधों को प्रथम सर्ग से ही
व्यक्त कर दिया, जहाँ ब्रजवासी प्रकृति के साथ सहज भाव से पले -बढ़े । ‘पवन-दत ू ‘के माध्यम से
राधिका का सं देश प्रकृति के साथ गहरे तादात्म्य का प्रमाण है । प्रकृति का आलम्बन, उद्दीपन,
अलं कार एवं भाव-प्रकटीकरण की दृष्टि से सु न्दर निरूपण हुआ है । विषाद, खिन्नता, शोक आदि भावों
को प्रकृति-चित्रण के साथ प्रकटीकरण अत्यन्त मोहक रूप में व्यक्त होता है , जै से -
समय था सु नसान निशीथ का,
अटल भूतल में तम राज्य था।
प्रलय काल समान प्रसु प्त हो,
प्रकृति - निश्चल नीरव शांत थी।।
प्रिय-प्रवास का मूल लक्ष्य विश्व-मै तर् ी, विश्व-प्रेम, विश्व-कल्याण है । श्रीकृष्ण के चरित्र को
मानवीय रूप दे कर लोकसे वा में तत्पर दिखाया है । इसके साथ स्थायी मानव-सं बंधों का सम्यक विवे चन
हृदय तत्त्व के साथ किया है , जहाँ माता-पिता, प्रेमी-प्रेमिका, सखा-सखी निरन्तर सु ख-दुःख में साथ
दे ते हैं और पथ की बाधा नहीं बनते , वरन् लोकसे वा को परम उद्दे श्य मानते हुए सहभागी बनते हैं ।
आधु निक मानव में मानवीय मूल्यों का सं चार हों तथा स्वयं के लिए नहीं बल्कि लोक के लिए जीने की
अमूल्य प्रेरणा है । श्रीकृष्ण का यह कथन इसी उद्दे श्य को प्रकट करता है -

3 मकामायनीफ के महाकाव्यत्व का निरूपण कीजिए।


Ans:
4 ममराम की भक्ति पूजाफफ़ के भाव पक्ष पर प्रकाश डालिए।
Ans:
राम की शक्तिपूजा, सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' द्वारा रचित [1] काव्य है । निराला जी ने इसका सृ जन
२३ अक्टू बर १९३६ को सम्पूर्ण किया था। कहा जाता है कि इलाहाबाद से प्रकाशित दै निक
समाचारपत्र 'भारत' में पहली बार 26 अक्टू बर 1936 को उसका प्रकाशन हुआ था। इसका मूल
निराला के कविता सं गर् ह 'अनामिका' के प्रथम सं स्करण में छपा।
यह कविता ३१२ पं क्तियों की एक ऐसी लम्बी कविता है , जिसमें निराला जी के स्वरचित छं द 'शक्ति
पूजा' का प्रयोग किया गया है । चूँकि यह एक कथात्मक कविता है , इसलिए सं श्लिष्ट होने के बावजूद
इसकी सरचना अपे क्षाकृत सरल है । इस कविता का कथानक प्राचीन काल से सर्वविख्यात रामकथा के
एक अं श से है । इस कविता पर वाल्मीकि रामायण और तु लसी के रामचरितमानस से कहीं अधिक
बां ग्ला के कृतिवास रामायण का प्रभाव दे खा जाता है । किन्तु कृतिवास और राम की शक्ति पूजा में
पर्याप्त भे द है । पहला तो यह की एक ओर जहां कृतिवास में कथा पौराणिकता से यु क्त होकर अर्थ की
भूमि पर सपाटता रखती है तो वही दस ू री ओर राम की शक्तिपूजा में कथा आधु निकता से यु क्त होकर
अर्थ की कई भूमियों को स्पर्श करती है । इसके साथ साथ कवि निराला ने इसमें यु गीन-चे तना व
आत्मसं घर्ष का मनोवै ज्ञानिक धरातल पर बड़ा ही प्रभावशाली चित्र प्रस्तु त किया है ।
निराला बाल्यावस्था से ले कर यु वाववस्था तक बं गाल में ही रहे और बं गाल में ही सबसे अधिक शक्ति
का रूप दुर्गा की पूजा होती है । उस समय शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार भारत दे श के राजनीतज्ञों,
साहित्यकारों और आम जनता पर कड़े प्रहार कर रही थी। ऐसे में निराला ने जहां एक ओर रामकथा के
इस अं श को अपनी कविता का आधार बना कर उस निराश हताश जनता में नई चे तना पै दा करने का
प्रियास किया और अपनी यु गीन परिस्थितियों से लड़ने का साहस भी दिया।
यह कविता कथात्मक ढं ग से शु रू होती है और इसमें घटनाओं का विन्यास इस ढं ग से किया गया है कि
वे बहुत कुछ नाटकीय हो गई हैं । इस कविता का वर्णन इतना सजीव है कि लगता है आँ खों के सामने
कोई त्रासदी प्रस्तु त की जा रही है ।
इस कविता का मु ख्य विषय सीता की मु क्ति है राम-रावण का यु द्ध नहीं। इसलिए निराला यु द्ध का
वर्णन समाप्त कर यथाशीघ्र सीता की मु क्ति की समस्या पर आ जाते हैं ।
‘राम की शक्ति पूजा’ नामक सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की कविता में राम के कुछ ऐसे ही मनोभाव
दे खने को मिलते हैं जो शायद रामायण में भी उल्ले खित नहीं हैं । साथ ही इसमें राम-रावण यु द्ध को
साधने के लिए राम द्वारा की गई शक्ति पूजा का भी उल्ले ख है जिसका सं दर्भ भले ही पु राणों में मिलता
है ले किन वाल्मीकि या तु लसी रामायण में नहीं।
बं ग-भाषा के आदिकवि द्वारा रचित कृत्तिवास रामायण में शक्ति-पूजा को उल्ले ख है जिसकी रचना
तु लसी रामायण से भी 100 वर्ष पूर्व हुई थी। माना जाता है कि बं गाली सं स्कृति में शक्ति पूजा के
महत्त्व से प्रभावित रामायण के इस सं स्करण में यह उल्ले ख आया और बं गाल में जन्मे -पले हुए
निराला भी इस प्रभाव से अछत ू े नहीं रहे ।
इस कविता और रामचरितमानस में व्यक्त राम के मनोभावों में अथाह अं तर दे खने को मिलता है । एक
तरफ जहाँ रामचरितमानस में राम भले ही कुछ घटनाओं पर शोकग्रस्त और व्याकुल हुए ले किन
भयभीत कहीं नहीं। वहीं इस कविता में उनके टू टते मनोबल को दर्शाया गया है ।
स्थिर राघवें द्र को हिला रहा फिर-फिर सं शय
रह-रह उठता जग जीवन में रावण-जय-भय
जै से सं घर्ष के मध्य उत्साह बढ़ाने के लिए एक मधु र स्वप्न पर्याप्त होता है , वै से ही गिरते मनोबल के
बीच राम के समक्ष सीता से प्रथम मिलन का दृश्य उभरकर आ जाता है जहाँ विदे ह (मिथिला) के उस
उपवन में उन दोनों के नयनों के बीच गु प्त सं वाद हुआ था। यह उनके शरीर में एक नई ऊर्जा और हृदय
में विश्व विजय का भाव भर दे ता है ।
ले किन थोड़ी ही दे र में उन्हें पु नः यु द्ध दृश्य स्मरण हो आता है जहाँ उनकी से ना की दुर्गति हुई है । रावण
के अट् टहास की उनके कानों में गूंजती ध्वनि उनकी आँ खों से अश्रु के रूप में फू ट पड़ती है ।
इन अश्रु मोतियों को दे ख राम-भक्त हनु मान विकल हो जाते हैं । सृ ष्टि पर उनकी व्याकुलता के
प्रभाव का निराला के शब्दों में वर्णन प्रलय की अनु भति ू कराता है । इसपर शिव चिं तित होकर दे वी को
् मता से काम लें । रघु नंदन की आज्ञा और से वाधर्म याद दिलाकर दे वी हनु मान को
सु झाते हैं कि वे बु दधि
शांत करती हैं ।
ू री ओर विभीषण राम को उनके और उनकी से ना का बाहुबल याद दिलाकर उन्हें प्रोत्साहित करने
दस
का प्रयास करते हैं , ले किन इससे भी राम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है । उनकी चिं ता का प्रमु ख
कारण था कि शक्ति रावण के पक्ष में हैं और ऐसे में यु द्ध मात्र नर-वानर और राक्षसों का नहीं रहा था।
यु द्ध की निराशा के अलावा शक्ति पूजा से पहले और अं त के समीप भी राम निराश दिखते हैं । जहाँ
ू री निराशा स्वयं शक्ति और तीसरी निराशा स्वयं के जीवन
पहली निराशा मात्र घटनाओं से है , वहीं दस
से है ।
शक्ति पूजा से पूर्व राम दे वी के विधान से निराश हैं । उनकी निराशा इस बात से है कि अधर्मी होने के
बावजूद वे रावण का साथ क्यों दे रही हैं । वे अपनी व्यथा बताते हुए कहते हैं कि शक्ति के प्रभाव के
कारण उनकी से ना निष्फल हुई और स्वयं उनके हस्त भी शक्ति की एक दृष्टि के कारण बाण चलाते -
चलाते रुक गए थे । शक्ति और रावण की इस सं धि का निराला बड़ा सुं दर वर्णन करते हैं -
दे खा हैं महाशक्ति रावण को लिये अं क,
लांछन को ले जै से शशांक नभ में अशं क
उनके अनु सार शक्ति एक चं दर् की भाँ ति हैं जो रावण रूपी दाग को स्वयं में ले ने के बाद भी अपने ते ज
से वं चित नहीं होती हैं । इसपर जामवं त, जिन्हें निराला कविता में जाम्बवान कहते हैं , राम की इस
निराशा को दरू करते हैं । उनके अनु सार जब रावण अशु द्ध होकर शक्ति को प्राप्त कर सकता है तो राम
निश्चित ही शक्ति का वरदान अर्जित करने योग्य हैं ।

5 ममनौका विहारफ्फ़ कविता की मूल संवेदना पर प्रकाश डालिए।


Ans:
पं त ने अपने काव्य में विशिष्ट पद-योजना के द्वारा गति, नाद एवं लय की भी सुं दर व्यं जना की है । गति
के प्रभावांकन के लिए इनकी ‘नौका विहार’ शीर्षक कविता से एक उदाहरण लिया जा सकता
‘मृ दु मं द मं द मं थर मं थर, लघु तरणि, हंसिनी सी सुं दर
तिर रही खोल पालों के पर।’
यहाँ उच्चरित ध्वनियों की लय के माध्यम से धीरे -धीरे हिचकोले खाती हुई मं द गति से तिरती हुई नौका
का एक गतिशील चित्र मानस पटल पर अं कित हो जाता है । ‘ग्राम्या’ की ‘चमारों का नाच’ शीर्षक
कविता का एक उदाहरण है :
ठनक कसावर रहा ठनाठन, थिरक चमारिन रही छनाछन।
शोर, हँ सी, हुल्लड़, हुड़दं ग, धमक रहा घाग्ड़ां ग मृ दंग।
मारपीट बकवास झड़प में रं ग दिखाती महुआ भं ग।’
यहाँ विशिष्ट क्रिया-कलापों और वाद्य-यं तर् ों से होने वाली नाद-व्यं जना चमारों के नृ त्य का एक
जीवं त दृश्य उपस्थित करती है । पर्वतीय वर्षा का चित्रण करते हुए कवि ने वर्षाकालीन वातावरण को
नाद व्यं जना के माध्यम से इस प्रकार ध्वनित कराया है :
‘पपीहों की वह पीन पु कार, निर्झरों की भारी झर-झर
झींगुरों की झीनी झनकार घनों की गु रूगं भीर घहर

बिं दुओं (बूंदों) की छनती छनकार, दादुरों के वे दुहरे स्वर।’


यहाँ ‘र’ कार बहुल शब्दावली और अनु पर् ास बहुल शब्दावली के माध्यम से कवि ने वर्षाकालीन
वातावरण को श्रुतिगम्य बनाने का सफल प्रयास किया है ।
बिम्ब-विधान (ऐन्द्रिक बिम्बों के सं दर्भ में )
काव्य-व्यापार में अर्थग्रहण की अपे क्षा बिं बग्रहण को अधिक महत्व दिया गया है । प्रस्तु त या कथ्य
का सीधे वर्णन करने की अपे क्षा उससे मिलते -जु लते अप्रस्तु तों के माध्यम से इं द्रिय ग्राह्य बनाना
एक महत्वपूर्ण कवि कर्म है । इसकी सिद्धि बिम्बविधान के माध्यम से होती है , जिसे छायावादी काव्य
की एक प्रमु ख विशे षता के रूप में स्वीकार किया जाता है । इस दृष्टि से पं त की काव्य-शै ली
उल्ले खनीय है । इन्होंने सभी इन्द्रिय बोधों से सं बद्ध बिम्बों का विधान अपने काव्य में किया है , जिन्हें
निम्नलिखित श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है :
चाक्षु ष बिम्ब,
श्रव्य बिम्ब,
स्पर्श बिम्ब,
घ्राण या गं ध बिम्ब और
आस्वाद्य बिम्ब।
चाक्षु ष बिम्ब : रूप-विधान काव्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अं ग है , अतः काव्य में चक्षु या ने तर् -ग्राह्य
बिम्बों की प्रधानता होती है । कविवर पं त के एतद्विषक बिम्ब अत्यं त मनोरम हैं । प्रकृति से मूल
प्रेरणा ग्रहण करने के कारण उसके सूक्ष्म निरीक्षण की सर्वाधिक क्षमता पं त में विद्यमान है , अतः
प्रकृति निरीक्षण विषयक चाक्षु ष बिम्बों के निर्माण में पं त ने अपनी प्रतिभा का पूर्ण परिचय दिया है ।
अपनी ‘नौका विहार’ शीर्षक कविता में कवि ने चाँदनी रात में , ग्रीष्म कालीन गं गा का एक भाव
प्रवण चाक्षु ष बिम्ब इस प्रकार प्रस्तु त किया है :

शांत, स्निग्ध, ज्योत्सना उज्ज्वल,


अपलक अनं त, नीरव भूतल!
सै कत शय्या पर दुग्ध धवल, तन्वं गी गं गा, ग्रीष्म विरल,
ले टी है श्रांत, क्लान्त, निश्चल!
तापस बाला गं गा निर्मल, शशि-मु ख से दीपित मृ दु करतल,
लहरें उर पर कोमल कुंतल!
गोरे अं गों पर सिहर सिहरण, लहराता तार तरल सुं दर,
चं चल अं चल सा नीलांबर!
साड़ी की सिकुड़न सी जिस पर शशि की रे शमी विभा से भर,

सिमटी है वर्तुल, मृ दुल लहर!


यहाँ चाँदनी रात के शांत वातावरण में सम्पूर्ण परिवे श के साथ ग्रीष्मकालीन निर्मल गं गा का तापस
बाला के रूप में एक भव्य बिम्ब प्रस्तु त किया गया है । इसके लिए कवि ने पहले शांत. कोमल चाँदनी
में शून्य आकाश और नीरव पृ थ्वी का प्रभावशाली वातावरण उपस्थित किया है ! इसके बाद रे ती की
से ज पर दुग्ध धवल पतले अं गों वाली थकीमांदी गं गा को आराम से ले टे हुए दिखाया गया है । गं गा के
ऊपर चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को ले कर कवि ने कल्पना की है कि जै से गं गा अपने चन्द्र मु ख को हथे ली
पर टिकाए हुए है और लहरों के रूप में उसके वक्षस्थल पर रे शमी बाल लहरा रहे हैं । नीलांबर ही उसकी
साड़ी है , जिसके आं चल पर तारों के रूप में सलमें सितारे खिं चे हुए हैं । गं गा में उठने वाली हल्की लहरें
ही उसकी रे शमी श्वे त साड़ी की सिकुड़न हैं । गं गा का ऐसा सां गोपां ग दृष्टिगोचर मनोरम बिम्ब समूचे
छायावादी काव्य की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है । इस प्रकार के सं श्लिष्ट बिम्बों की दृष्टि से ‘एक
तारा’, ‘बादल’, ‘ग्राम श्री’, ‘परिवर्तन ‘ आदि कविताएँ विशे ष उल्ले खनीय हैं । इनमें से कई कविताएँ
आप के पाठ्यक् रम में निर्धारित हैं , जिन्हें अवश्य दे ख लें ।
चाक्षु ष बिम्बों के निर्माण में पं त की अत्यं त सूक्ष्म वर्ण या रं ग चे तना (सें स ऑफ कलर) ने महत्वपूर्ण
भूमिका का निर्वाह किया है । यह चे तना भी पं त को प्रकृति निरीक्षण से ही प्राप्त हुई है । लालिमा,
अरूणाभा, रक्ताभा, नीलिमा, नीलाभा, पीतिमा, पीताभा, हरीतिमा, हरिताभा, स्वर्णिम, स्वर्णाभा,
धवलिमा, धवलाभा आदि शब्दों के प्रयोग के माध्यम से पं त ने अपने रं ग परिज्ञान का अद्भुत परिचय
दिया है , जिससे आप पं त-काव्य के निर्धारित पाठ्यक् रम के माध्यम से अच्छी तरह परिचित हो सकते
हैं । यहाँ वर्ण परिवर्तन (चें ज ऑफ कलर) का एक गतिशील चित्र उदाहरणार्थ प्रस्तु त है :
गं गा के चल जल में निर्मल, कुम्हला किरणों का रक्तोत्पल,
है मूं द चु का अपने मृ दु दल
लहरों पर स्वर्ण रे ख सुं दर पड़ गयी नील, ज्यों अधरों पर,
अरूणाई प्रखर शिशिर से डर
सं ध्या काल में गं गा के चं चल जल में सूर्य के लाल प्रतिबिम्ब के डू बने को रक्तोत्पल (लाल कमल)
द्वारा अपनी पं खुड़ियों को बं द करने के दृश्य द्वारा रूपायित किया गया है । सं ध्या काल में सूर्यास्त के पूर्व
गं गा की लहरों की स्वर्णरे खा के नीलिमा में परिवर्तित होने के दृश्य को कवि ने प्रखर शीत के कारण
बच्चों के कोमल लाल अधरों के नीले पड़ जाने के अप्रस्तु त द्वारा प्रतिबिम्बित कराया है । इस प्रकार
की रं ग-योजना के अत्यं त गतिशील बिम्ब पं त के काव्य में प्रचु रता से मिलते हैं ।
श्रव्य बिम्ब: श्रव्य के श्रवण सं बंधी ध्वनि बिम्ब के निर्माण में भी पं त छायावाद के अन्य कवियों की
भाँ ति अत्यं त निपु ण हैं । ध्वन्यार्थ व्यं जना के सं दर्भ में आप इस तथ्य से परिचित हो चु के हैं । ध्वन्यार्थक
और अनु रणनात्मक शब्दों की मु खर व्यं जना के साथ ही पं त ने मौन की मु खरता को भी प्रतिध्वनित
कराया है । ‘एक तारा’ कविता से इसका एक उदाहरण है :
‘पत्तों के आनत अधरै , पर सो गया निखिल वन का मर्मर

ज्यों वीणा के तारों में स्वर


झींगुर के स्वर का प्रखर तीर केवल प्रशां ति को रहा चीर
सं ध्या प्रशां ति को कर गं भीर।’

Assignment – 2

1 मधुर-मधुर मेरे दीपक जलफ कविता की विशे षताओं पर प्रकाश डालिए।


Ans:
‘मधु र-मधु र मे रे दीपक जल।’ कविता में कवयित्री की आध्यात्मिकता का वर्णन है । वह अपने प्रभु के
चरणों में आस्था का दीपक जलाती है और अनवरत जलाए रखना चाहती है । वह इस दीपक से कभी
मधु र भाव से जलने के लिए कहती है तो कभी पु लक-पु लककर और कभी विहँ स-विहँ स कर। वह अपने
दीपक की लौ में अपने अहम् को जलाकर अपने आराध्य के प्रति पूर्ण समर्पण, प्रकट करती है । सं सार
के लोग सांसारिक सु खों में डू बकर ईष्र्या और तृ ष्णा के कारण जल रहे हैं । कवयित्री चाहती हैं कि वे भी
प्रकाश पुं ज से चिनगारी ले कर भक्ति की लौ जलाएँ । वह अपने प्रियतम का पथ आलोकित करने के
लिए आस्था का दीपक सदा-सदा के लिए जलाकर भक्ति भावना से सारा सं सार महकाना चाहती है ।
इस कविता के माध्यम से कवयित्री कहती हैं कि मे रे मन के दीपक (ईश्वर के प्रति आस्था) तू मधु रता
और कोमलता से ज्ञान का रास्ता प्रकाशित करता जा। अपनी सु गंध को अर्थात अपनी अच्छाई को
इस तरह फैला जै से एक धु प या अगरबत्ती अपनी खु शबु को फैलाते हैं । ते रे प्रकाश की कोई सीमा ही
न रहे और इस तरह जल की ते रे शरीर का एक – एक अणु उसमें समा कर प्रकाश को फैलाए अर्थात
कहने का तात्पर्य यह है कि अज्ञान का अँ धेरा बहुत गहरा होता है अतः इसे दरू करने के लिए तन मन
दोनों निछावर करने होते हैं ।
कवयित्री कहती हैं कि मे रे मन के दीप तू सब को रोमां चित करता हुआ जलता जा। इस तरह से जल
कि सभी तु झसे ते री आग के कुछ कण मां गे अर्थात सभी जिसे भी ज्ञान की जरुरत हो वो ते रे पास
आये । तू उन्हें ऐसा प्रकाश दे या ऐसा ज्ञान दे कि वो कुछ भी कर गु जरने के लिए तै यार रहे । ज्ञान
इतना होना चाहिए की सबके काम आ सके और कोई उसमे जल कर भस्म ना हो जाये । इसलिए
कवयित्री कहती है कि दीपक तू कंपते हुए इस तरह जल की ते रा प्रभाव सब पर पड़े । कवयित्री
कहती हैं कि आकाश में जलते हुए अने क तारे तो हैं परन्तु उनमें दीपक की तरह प्रेम नहीं है क्योंकि
उनके पास प्रकाश तो है परन्तु वे दुनिया को प्रकाशित नहीं कर सकते । वहीँ दसू री ओर जल से भरा
सागर अपने हृदय को जलाता रहता है क्योंकि उसके पास इतना पानी होने के बावजूद भी वह पानी
किसी के काम का नहीं है और बादल बिजली की सहायता से पूरी दुनिया पर बारिश करता है उसी तरह
कवयित्री कहती है कि मे रे मन के दीपक तू भी अपनी नहीं दसू रों की भलाई करता जा।
ू रों से बातें करना, दस
दस ू रों को समझाना, दस
ू रों को सही रास्ता दिखाना ऐसे काम तो सब करते हैं । कोई
आसानी से कर ले ता है , कोई थोड़ी कठिनाई उठा कर, कोई थोड़ी झिझक और सं कोच के बाद और कोई
किसी तीसरे का सहारा ले कर करता है । ले किन इससे कहीं ज्यादा परिश्रम का काम होता है आपने
आप को समझाना। अपने आप से बात करना, अपने आप को सही रास्ते पर बनाये रखने की कोशिश
करना। अपने आपको हर परिस्थिति में ढालने के लिए तै यार रखना, हर स्थिति में सावधान रहना और
अपने आपको को चै तन्य बनाये रखना।
प्रस्तु त पाठ में कवयित्री आपने आप से जो उम्मीदें कर रही है अगर वो उम्मीदें पूरी हो जाती हैं तो न
केवल उसका, हम सभी का बहुत भला हो सकता है । क्योंकि हम शरीर से भले ही अने क हों किन्तु
प्रकृति ने हम सब को एक मनु ष्य जाति के रूप में बनाया है ।
इस कविता की सुं दरता इन दोनों में से किसी एक पर निर्भर नहीं है न ही दोनों में से किसी एक की
विशे षताओं पर। किसी भी कविता की सुं दरता अने क कारकों पर निर्भर होता है । इस कविता में इन
दोनों विशे षताओं का कुछ-न-कुछ योगदान अवश्य है । (क) शब्दों की आवृ त्ति-कविता में अने क शब्दों
की आवृ त्ति हुई है – मधु र मधु र मे रे दीपक जल। – यु ग -यु ग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल – पु लक-
पु लक मे रे दीपक जल। – सिहर-सिहर मे रे दीपक जल। इनसे प्रभु -भक्ति का भाव तीव्र हुआ है ।
उसमें और अधिक प्रसन्नता, उत्साह और उमं ग से निरं तर जलते रहने का भाव प्रकट हुआ है । (ख)
सफल बिं ब अं कन-इस कविता में बिं बों को सफल अं कन हुआ है , जै से सौरभ फैला विपु ल धूप बन,
मृ दुल मोम-सा धु ल रे मृ दु तन। इसमें कवयित्री की भावनात्मक कोमलता प्रकट हुई है । दोनों
विवे चन से स्पष्ट हो जाता है कि दोनों ही कारण कविता को सुं दर व प्रभावी बनाने में सक्षम हैं । शब्दों
की आवृ त्ति से कविता में सं गीतात्मकता आ गई है । और बिं बों का अं कन भावबोध में सहायक सिद्ध
हुआ है ।
2 हुक
ँ ार के आधार पर दिनकर की क् रांति चे तना को स्पष्ट कीजिए।
Ans:
राष्ट् रकवि दिनकर की चे तना महान है , वे सं वेदनाओं एवं सं चेतनाओं के साहित्यकार हैं । भारतीय
सं स्कृति और अस्मिता की जमीन से जु ड़े साहित्यकार हैं , दिनकर जी। उनके काव्य ने समय-समय पर
भारतीय यु ग चे तना को राष्ट् र की अस्मिता क प्रति उद्वे लित किया है । मन मानस को राष्ट् रीयता से
आपूरित किया है । एतदर्थ राष्ट् रकवि दिनकर का काव्य प्रासं कितापूर्ण है और यह प्रासं गिकता यु ग-
यु ग का प्रतिनिधित्व करती है । इसलिए राष्ट् रकवि दिनकर हिन्दी साहित्य-सं सार में अमर है उनका
काव्य भारतीय सं स्कृति-भारतीयता से परिचित कराता है उनकी दृष्टि में भारत एक भू-खण्ड मात्र नहीं
है । एक विचारधारा है जो भारतीयता से अं गीकृत है । उन्हीं के शब्दों में -
‘‘भारत नहीं स्थान का वाचक, गु ण विशे ष नर का है ,
एक दे श का नहीं, शील यह भू-मण्डल भर का है ।
जहाँ कहीं एकता अखण्डित, जहाँ प्रेम का स्वर है ,
दे श-दे श मे वहाँ खड़ा, भारत जीवित भास्वर है ।”
कवि अपने यु ग का प्रतिनिधित्व करता है । किसी भी कवि के व्यक्तित्व एवं कृतित्व में यु ग
प्रतिबिम्बित होता है । स्वयं कवि ने स्वीकार किया है -
‘कवि मानवता का वह चे तन यं तर् है जिस पर प्रत्ये क भावना अपनी तरं ग उत्पन्न करती है । जै से
भूकम्प मापक यं तर् से पृ थ्वी के अं ग में कहीं भी उठने वाली सिहरन आप से आप अं कित हो जाती है ।’
धर्मपाल सिं ह कहते हैं कि – “ कवि ने जब काव्य जगत में प्रवे श किया उस समय भारतीय राजनीति
हलचल के दौर से गु जर रही थी। भारत अं गर् े जों का गु लाम था। इन परिस्थितियों ने ही कवि के रूप में
दिनकर जी को विशे ष ख्याति प्रदान की। कवि ने अपने यु ग को बड़ी ईमानदारी से सशक्त स्वर में वाणी
दी है । डॉ. गोपाल राय सत्यकाम दिनकर के एक और पक्ष की ओर ध्यान दिलाते हैं – “ दे श के स्वाधीन
होने के समय दिनकर हिन्दी के एक प्रमु ख और प्रतिष्ठित कवि थे , और वे ऐसे कवि थे जिनकी कविता
राष्ट् रीयता आन्दोलन की समसामयिक गतिविधियों से अभिन्न रूप से सं बद्ध रही थी। दिनकर
स्वाधीनता सं गर् ाम में नहीं कू दे थे , केवल कलम से ही उसमें सहयोग दे रहे थे ।”
दिनकर का पहला प्रकाशित काव्य-सं गर् ह ‘बारदोली विजय‘ है पर इसकी कोई भी प्रति कहीं
उपलब्ध नहीं है । इसमें 10 कविताएँ सं कलित हैं जिसमें दिनकर की राष्ट् रीयता भावना बीज रूप में
विद्यमान है । इसके भी पहले दिनकर ने ‘वीर बाला‘ और ‘मे घनाद वध‘ नामक काव्य लिखने आरं भ किए
थे जो अधूरे रह गए और जिनकी पांडुलिपियों का कहीं पता नहीं है । प्रणभं ग की रचना दिनकर ने
मै ट्रिक पास करने के बाद 1928 मे की। प्रणभं ग जयद्रथ वध की तरह ही एक खं डकाव्य है जिसकी
कथा महाभारत से ली गई है । प्रणभं ग में राष्ट् रीय भावना की अभिव्यक्ति का मार्ग अपनाया गया है ।
इसमें कहानी तो महाभारत से ली गई है , पर उसके माध्यम से यह कहा गया है कि गु लामी का अपमान
भरा जीवन जीना कलं क है , इसलिए यु द्ध से पहले जब यु धिष्ठिर के मन में पाप-पु ण्य, धर्म-अधर्म की
दुविधा पै दा होती है तो अर्जुन, भीम एक साथ आक् रोश से फट पड़ते हैं -
‘अपना अनादर दे खकर भी आज हम जीते रहे ,
चु पचाप कायर से गरल के घूँट यदि पीते रहे ,
तो वीर जीवन का कहाँ रहता हमारा तत्व है
इससे प्रकट होता यही हममें न अब पु रूशार्थ हैं ।’
कवि के अनु सार यदि भारत गु लाम था, तो इसका कारण भारत से पु रूषार्थ का लोप था। कवि की दस ू री
कृति रे णु का 1929-1925 के बीच लिखी गई। कुल 33 कविताओं का एक प्रतिनिधि सं गर् ह है । जिसका
प्रकाशन 1935 में हुआ था। इसमें राष्ट् रीय कविताएँ सं गर् हीत हैं । अतीत की गौरव गाथा और यु गीन
समस्याओं को उन्होंने पूरे ते ज के साथ उजागर किया है इस काव्य की पहली कविता मं गल आवाह्न में
वह श्रग ृं ी फूं क कर सोए प्राणों को जगाना चाहता है -
‘‘दो आदे श फूं क दँ ू श्रगृं ी
उठे प्रभाती राग महान
तीनों काल ध्वनित हो स्वर में
जागें सु प्त भु वन के प्राण”
कवि ऐसे स्वरों को गाना चाहता है । जिससे सारी सृ ष्टि सिहर उठे । कवि दे श में व्याप्त अत्याचार,
आडं बर और अहं कार को दरू करने के लिए शं कर के ताडं व तत्जन्य ध्वं स की कामना करता है -
“विस्फारित लख काल ने तर् फिर, कांपे त्रस्त अतनु मन ही मन
स्वर-स्वर भर सं सार, ध्वनित हो नगपति का कैलाश शिखर
नाचो हे नटवर नाचो नटवर।”

3 यु द्ध और शाँति की समस्या की अभिव्यक्ति की दृष्टि से मअंधा यु गफ की समीक्षा 'कीजिए।


Ans:
'यु द्ध और शान्ति' का ले खन तोलस्तोय ने 1863 ई० से 1869 ई० के बीच किया। 1865 में इसके प्रकाशन
की शु रुआत हुई। चार खण्डों में प्रकाशित इस उपन्यास की पृ ष्ठ सं ख्या लगभग डे ढ़ हजार थी। इस
बृ हदाकार उपन्यास की कल्पना लगभग 15 भिन्न-भिन्न रूपों में की गयी। अने क अध्याय कई-कई बार
बदले गये और नये सिरे से लिखे गये ।[1] इस उपन्यास में सै कड़ों पात्र हैं और इसमें इतनी घटनाएँ
तथा मु ख्य कथानक के साथ अच्छी तरह से जु ड़े हुए इतने गौण कथानक हैं कि पाठक यह सोच कर ही
है रान रह जाता है कि ले खक ने इन सबको इतनी कलात्मक कुशलता से कैसे समे ट लिया है । यद्यपि
इस विराट उपन्यास का ताना-बाना बोल्कोन्स्की, रोस्तोव और बे ज़ख़ ू ोव कुलनामों वाले कुलीन परिवारों
तथा ने पोलियन बोनापार्ट और सम्राट अले क्सान्द्र प्रथम के समय की घटनाओं के इर्द-गिर्द बु ना
गया है , तथापि यह 19 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध, भूदासों की मु क्ति के पहले के रूस का एक जीता जागता
चित्र प्रस्तु त करता है ।[1] इस महाकाय उपन्यास में राजनीतिक, कू टनीतिक, सामाजिक, धार्मिक,
दार्शनिक, सामाजिक, मानसिक-भावनात्मक तथा मनोवै ज्ञानिक आदि जीवन का कोई पक्ष या अं ग
अछत ू ा नहीं रहा है । इस उपन्यास में तोलस्तोय ने रूसी इतिहास के उस काल को केंद्र -बिं दु बनाते हुए
यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि साधारण रूसी लोगों की दे शभक्ति, साहस, वीरता और दृढ़ता ने
कैसे ने पोलियन और उसकी सर्वत्र जीत का डं का बजाने वाली से ना के छक्के छुड़ा दिये । यह इतिहास
के प्रति तोलस्तोय का कहीं अधिक व्यापक दृष्टिकोण था। उन्होंने यह स्पष्ट करना चाहा है कि यु द्ध
का सारे समाज, जीवन के सभी पक्षों, सभी वर्गों और श्रेणियों के लोगों पर क्या प्रभाव पड़ता है । इसी
कारण से तोलस्तोय के कुछ अध्ये ताओं का यह मानना है कि मूल रूसी में शां ति के पर्यायवाची शब्द
'मीर' से तोलस्तोय का अभिप्राय शां ति नहीं बल्कि लोग जनता या पूरा समाज है । इस मत को ध्यान
में रखते हुए इस उपन्यास का नाम वस्तु तः 'यु द्ध और शां ति' नहीं बल्कि 'यु द्ध और समाज' होना
चाहिए।[2]
'यु द्ध और शान्ति' को विश्व का महानतम उपन्यास ही नहीं बल्कि साहित्यिक इतिहास की एक
परिघटना माना गया है । यह एक सं जटिल, ऐतिहासिक-मनोवै ज्ञानिक, बहुसं स्तरीय महाकाव्यात्मक
कलात्मक सं रचना है ।
सामान्य रूप से इसमें तीन प्रकार की सामग्री का दक्ष सं श्ले षण किया गया है
ने पोलियन से सम्बद्ध यु द्ध और रूसी जनता के एकजु ट दुर्धर्ष प्रतिरोध का विवरण।
औपन्यासिक चरित्रों का अं तरं ग एवं बहिरं ग जीवन, परिवे श और जीवन-दर्शन।
इतिहास-दर्शन विषयक तोलस्तोय के विचारों को निरूपित करने वाले निबं धों की एक शृं खला।
इनके सहायक पहलु ओं के रूप में परिवार, विवाह, स्त्रियों की स्थिति, कुलीनों के निस्सार, जनविमु ख,
पाखं डपूर्ण जीवन आदि पर तोलस्तोय के विचार और मौजूद स्थिति की प्रखर आलोचना भी कहानी के
साथ ही गु ँ थी-बु नी प्रस्तु त होती चलती है । विस्तृ त ऐतिहासिक विवरण और मनोवै ज्ञानिक गहराइयों
के साथ ही इतिहास-दर्शन विषयक अपने विचारों की निबं धात्मक प्रस्तु ति को जिस दक्षता के साथ
उपन्यास में पिरोया गया है , वह अद्वितीय और विस्मित कर दे ने वाला है ।

4 अंधा यु ग में प्रतिपादित यु द्ध और शाँति की समस्या की प्रासंगिकता पर विचार 'कीजिए।


Ans:
धर्मवीर भारती का काव्य नाटक अं धा यु ग भारतीय रं गमं च का एक महत्त्वपूर्ण नाटक है । अँ धा-यु ग की
रचना का प्रेरक आधार यु गीन आस्थाओं का विघटन है . आधु निक यु द्ध-सं स्कृति के विकृत मूल्यों तथा
जर्जर विश्वासों ने कवि के गहरे भावबोध को विकसित किया है . अँ धा-यु ग में स्वयं भर्ती ने उस उद्धे लन
की चर्चा की है जिसका अनु भव उन्होंने इसके के समय किया. जो भाव सामग्री ‘अँ धा-यु ग’ की रचना
का आधार बनी उसने एकाएक नाटककार को मानो आक् रांत कर दिया. अँ धा-यु ग की रचना की पृ ष्ठभूमि
को स्पष्ट करते हुए धर्मवीर भारती ने लिखा है , “एक नशा होता है – अं धकार के गरजते महासागर की
चु नौती को स्वीकार करने का, पर्वताकार लहरों से खली हाथ जूझने का, अनमापी गहराइयों से उतारते
जाने का और फिर अपने को सारे खतरों में डालकर आस्था के, प्रकाश के, मर्यादा के कुछ कणों को
बटोरकर, बचाकर धरातल तक ले आने का – इस नशे में इतनी गहरी वे दना और इतना तीखा सु ख घु ला
मिला रहता है कि उसके आस्वादन के लिए मन बे बस हो उठता है . उसी की उपलब्धि के लिए यह कृति
लिखी गयी है .’
अँ धा-यु ग की प्रेरणा-भूमि यु द्ध सं स्कृति के विकृत मूल्य हैं , जिसका उपरी ढाँचा भले ही महाभारत
कालीन यु द्धोतर परिस्थितियों से बनाया गया हो वस्तु तः उसका सम्बन्ध द्वितीय महायु द्ध के उपरान्त
की परिस्थितियों एवं परिणतियों से है . पश्चिम से दो-दो महायु द्धों को अपने ऊपर झे लना पड़ा. इसका
परिणाम यह हुआ कि वहाँ के सारे मानवीय मूल्य विघतित हो गये . विशे षकर द्वितीय महायु द्ध के बाद
जो साहित्य पश्चिम में रचा गया उसमें , विषाद, निराशा, दुश्चिन्ता, बे चैनी, कुंठा, अनास्था आदि की
मात्रा इतनी गहरी हो गयी कि सामने सिर्फ अं धकार ही शे ष बच रहा. अं तरात्मा इस हद तक विक्षु ब्ध
हो उठी कि वह अपना विवे क खो बै ठी. परिमाणतः सत्य-असत्य. अच्छे -बु रे, सत्कर्म-दुष्कर्म आदि के
भे द मिट गए. विश्वनाथ त्रिपाठी ने इस पर कहा है , “गीति-नाटकों की परं परा में धर्मवीर भारती का
अँ धा यु ग निस्सं देह स्वातं त्र्योत्तर हिं दी साहित्य की महत्वपूर्ण रचना है . इसकी अभिने यता भी पु ष्ट है .
महाभारत के अं तिम अं श को कौशल के साथ द्वितीय विश्वयु द्ध के साथ जोड़ा गया है . ले किन इसमें
यु द्ध की समस्या कम है , अस्तित्ववादी जीवन-दर्शन का प्रतिपादन अधिक. इसके रूपात्मक ढाँचे पर
ग्रीक नाटकों का प्रभाव स्पष्ट है .”
् , आस्था आदि पर टिका हुआ है , यु द्धोपरांत वे नष्ट
मानवीय चरित्र जिन कोमल भावों, विवे क, बु दधि

हो जाते हैं . कोमल भावनाओं का स्थान दःखद भावनाएं ले ले ती हैं . आस्था की जगह अनास्था,
मानसिक शान्ति के स्थान पर आशं का, सहानु भति
ू की जगह प्रतिहिं सा, मनु ष्यत्व के स्थान पर पशु त्व
आदि उभर आते हैं . व्यक्तिवादिता, अहं वादिता, जड़ता, निराशा भावशून्यता, अस्तित्व की पीड़ा,
आत्महत्या की भावना अदि भाव आदि भाव-स्थितियाँ भी उठ खड़ी होती हैं और इन सबका सम्मिलित
परिणाम होता है – मानवीय व्यक्तित्व का विघटन. एक बार ऐसा विघटन उपस्थित हो जाए फिर उससे
उभर पाना अत्यं त कठिन हो जाता है .
रामस्वरूप चतु र्वेदी के अनु सार ‘अं धायु ग’ का परिवे श यु द्ध यु द्ध सं स्कृति तथा आत्मघाती से बना है ,
और ‘इसमें सत्य, मर्यादा तथा दायित्व के प्रश्नों को उठाया गया है .’ विकृतियों के सन्दर्भ में नयी
नै तिकता की माँ ग स्वाभाविक है . इए समय में कलाकार का दायित्व यह है कि वह निराशा, पलायनवाद
तथा ह्रास से ऊपर उठकर नवीन मर्यादा की स्थापना करे . ‘अँ धा-यु ग’ में यही चे ष्टा दिखलाई गयी है .
इसमें दायित्वयु क्त व्यक्ति-स्वातं त्र्य का अं कन है . चतु र्वेदी जी के अनु सार “आधु निक सन्दर्भ में ‘अँ धा-
यु ग’ का एक प्रतिपाद्य यह भी है कि यु द्ध के समय सारी घोशनाओं के बावजूद सत्य अथवा धर्म किसी
पक्ष में अक्षु ण्ण नहीं रह पाता.”
‘अँ धा-यु ग’ में यु द्ध और सं स्कृति का सम्बन्ध दोहरा है . यु द्ध सां स्कृतिक पतन का कारण और कार्य दोनों
ही बनता है . जहाँ सं स्कृति पतनोन्मु ख हुई, अं धी हुई, वहीँ यु द्ध घटित हो जाता है . यहाँ सं स्कृति का
अं धत्व ही यु द्ध का कारण है . इससे यह नहीं समझना चाहिए कि महायु द्ध के बाद सं स्कृति का अं धत्व
ठीक हो जाता है . बल्कि यु द्ध के बाद रही-सही दृष्टि भी नष्ट हो जाती है . मानवीय चरित्र एवं विवे क
का विघटन पूरी सं स्कृति को गहन अं धत्व में ले जाता है . ‘‘अँ धा-यु ग’ में यु द्धोपरांत जो सं स्कृति बाख
रही है वह आत्महं ता सं स्कृति है . उसमें अश्वत्थामा, सं जय, यु धिष्ठिर आत्महत्या को उत्सु क हैं और
यु युत्सु तो आत्महत्या कर ही ले ता है . यह आत्महत्या साधरण नहीं है . कृपाचार्य यु युत्सु की
आत्महत्या को पूरी सं स्कृति पर आरोपित करते हुए कहते हैं – ‘यह आत्महत्या होगी प्रतिध्वनित/पूरी
सं स्कृति में , दर्शन में , धर्म में , कलाओं में / आत्महत्या होगा बस अं तिम लक्ष्य मानव का.’
नाटककार धर्मवीर भारती ने ‘अँ धा-यु ग’ में महाभारतकाल अनै तिक और अमर्यादित काल-के यु द्धजन्य
अर्द्ध-सत्यों, कुंठाओं, अं ध स्वार्थपरता, अदुरदर्शिता का चित्र खींचा है . नाटककार का लक्ष्य
प्रिश्थितियों का चित्रण मात्र करना ही नहीं रहा, अपितु सां स्कृतिक पृ ष्ठभूमि पर आधु निक यु गीन
जटिलताओं का, समस्याओं का मूल्यांकन भी करना है . आज के अं धकू प में भटकते हुए मानव के लिए
अं धायु ग मर्यादा, आस्था और कर्मपरता की ज्योतिर्मय किरणें दे ने का प्रयत्न करता है .

5 टिप्पणी लिखिए।

(a) असाध्यवीणा का काव्य-सौष्ठव।


Ans:
असाध्य वीणा‘ अज्ञे य जी की सबसे लम्बी कविता है । सन् १९५७-५८ के जापान प्रवास के बाद १८-२०
जून, १९६१ को अल्मोडा के अपने कॉटे ज में उन्होंने ३२१ पं क्ति वाली यह लम्बी कविता लिखी थी।
चीन के ताओवाद के एक कथानक ’वीणा वादन‘ और जापान के कलाप्रेमी कजु ओ ओकाकुरा की पु स्तक
श्जीम ठववा व ज्तममश् में सं कलित श्ज्ंउपदह व जीम भ्ंतचश् कहानी के आधार पर इस लम्बी
कविता की परिकल्पना की गई थी। पाश्चात्य प्रेरणा के बावजूद ’असाध्य वीणा‘ को शु द्ध भारतीय
धरातल पर रखते हुए सृ जन-सम्प्रेषण समस्या को कविता के निहितार्थ के रूप में स्थापित कर अज्ञे य
जी ने अपने सर्जक व्यक्तित्व का लोहा मनवाया। यही कारण है कि ’ असाध्य वीणा‘ को लम्बी
कविताओं की परम्परा में ही नहीं, आधु निक हिन्दी नयी कविता में भी अत्यन्त प्रांजल और प्रौढ
स्वीकारा गया है ।
कविता में एक सं क्षिप्त आख्यान वर्णित है । कविता की शु रुआत नाटकीय ढं ग से होती है ः ’आ गये
प्रियं वद केशकम्बली गु फा-गे ह‘। केशकम्बली के आगमन पर राजा कृतकृत्य हो गये , धन्य हो उठे ।
उनमें यह उम्मीद जगती है कि अपने जीवन की अपूर्ण-साध पूरी होने वाली है । इसका लघु सं केत पाकर
गण दौडे । असाध्य वीणा लाकर साधक के चरणों में रख दी गई। सभासदों की उत्सु क दृष्टि वीणा को
लखकर प्रियं वद के चे हरे पर टिक गई। यहाँ अचानक दृश्य बदल जाता है और पूर्वदीप्ति ;सिं ेी इं बाद्ध
की शै ली में वीणा की ऐतिहासिक पृ ष्ठभूमि का वर्णन चलता है ।
किंवदं ती बन चु के तपस्वी साधक वज्रकीर्ति ने राजा को एक वीणा भें ट की थी, जिसे उन्होंने एक विराट्
वृ क्ष ’ किरीट तरु‘ के तने से बनाया था, उसका फैलाव इतना व्यापक था कि वह पाताल को बादलों के
पार आकाश से जोडता था। इस तरु के कानों में हिम-शिखर अपने रहस्य कहा करते थे ; उसके कंधों पर
बादल सोते थे , उसकी छाया में अनगिनत जीव-जन्तु ओं ने आश्रय पाया था। उसके कोटर में भालू
बसते थे , उसके वल्कल से सिं ह कन्धे खु जलाते थे । इसकी गं धप्रवण शीतलता से फन टिकाकर वासु कि
नाग सोता था। जिस दिन वज्रकीर्ति ने उस किरीटी तरु से वीणा बनाकर पूरी कर ली, उसी दिन उनकी
साधना एवं जीवन-लीला का भी समापन हो गया। ऐसे महान् वृ क्ष से बनी अभिमं त्रित वीणा को
बजाये गा कौन? बडे -बडे कलावं त भी इसे बजा न सके*-
’मे रे हार गये सब जाने माने कलावं त
सब की विद्या हो गयी अकारथ, दर्प-चूर
कोई ज्ञानी गु णी आज तक इसे न साध सका! ‘
ऐसा लगता है राजा की वाणी में सम्राट् जनक को विचलित करने वाला जानकी-स्वयं वर का वर-
विषयक नै राश्य गूँज रहा है - ’तजहु आस निज तह गृ ह जाह।ू लिखा न विधि वै देहि विवाहू ‘। और इस
प्रकार यह वीणा ही असाध्य घोषित हो गई।
यहाँ वर्णित वीणा एक सामान्य वीणा नहीं है , बल्कि मं तर् पूत असाधारण वीणा है । फिर किरीटी तरु की
आत्मा अभी भी उसमें बसी हुई है । अतः ऐसी स्थिति में कलाकार की परिभाषाधारी सामान्य व्यक्ति
उसे साध नहीं सकता। उसमें से सं गीत की सृ ष्टि वही कर सकता है जो महामौन या ब्रह्म का साधक
हो। विशिष्ट व मं तर् पूत होने के कारण वीणा जीवित है , परमसत्ता के साथ उसका सीधा रागात्मक
सम्बन्ध अभी भी है । वह परमसत्ता की अभिव्यक्ति का मौनरूप है । अतः उसे बजाना नहीं, उसके मौन
को तोडना है । कोई कलावं त उसे बजा ही नहीं पाता।
बावजूद इसके राजा की आस्था बनी रही। उन्हें न जाने क्यों विश्वास था कि वज्रकीर्ति का कृच्छ्र तप
व्यर्थ नहीं जा सकता। अपे क्षा है तो किसी सच्चे स्वर-सिद्ध की, समान-धर्मा साधक की। और चूँकि काल
अनन्त है और पृ थ्वी विशाल है कोई न कोई तो मिले गा ही - ’उत्पत्स्यते ऽस्ति मम कोपि समानधर्मा /
कालोह्ययं निरवधिः र्विपु ला च पृ थ्वी/‘। तब राजा एक ’केशकम्बली गु फागे ह‘ को आमं त्रित करते हैं ,
जो तथाकथित ’कलाकार‘ नहीं है वरन् एक ’शिष्य साधक‘ है । केशकम्बली ने वीणा हाथों में थामी।
राजा और रानी समे त सभी सभाजन उदग्र, पर्युत्सु क एवं प्रतीक्षमाण थे । प्रियं वद ने कम्बल खोलकर
बिछाया, उस पर वीणा रखी और ने तर् मूँ द लिये तथा तारों पर मस्तक टिका दिया। अपने को उसके
प्रति समर्पित कर प्रियं वद उस वृ क्ष के ध्यान में लीन हो जाते हैं । सभा में उपस्थित सहृदय ने सोचा कि
साधक सो रहा है । जबकि साधक तो वीणा को साधने में तल्लीन था, आत्म-परिशोध करने में मग्न था।
यहाँ पर अज्ञे य जी ने एक से एक ध्वनि प्रतीकों की झडी लगा दी है । इससे न केवल कवि का
सौंदर्यबोध उजागर होता है बल्कि कविता सहज भाव से प्रकृति और जीवन के साथ जु ड जाती है *-
हाँ , मु झे स्मरण है
बदली-कौंध-पत्तियों पर वर्षा-बूँदों की पट-पट घनी रात में महुए का चु प-चाप टपकना
चौंके खग-शावक की चिहुँक
शिलाओं को दुलराते वन-झरने के
द्रुत लहरीले जल का कल-निनाद
कुहरे में छन कर आती
पर्वती गाँ व के उत्सव-ढोलक की थाप।

(b) हुक
ँ ार में व्यक्त दिनकर की प्रगतिवादी चे तना।
Ans:
अपनी कविता के माध्यम से समाज के सभी वर्ग के लोगों को ललकार कर उन्होंने कर्तव्य बोध जगाने
का काम किया, ताकि लोग अपनी जिम्मे दारी समझें और पूरी निष्ठा से उसका निर्वहन करें । तभी तो
उन्होंने लिखा था 'समर शे ष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध्र , जो तटस्थ हैं समय लिखे गा उनका भी
अपराध।' बाल्मीकि, कालिदास, कबीर, इकबाल और नजरुल इस्लाम की गहरी प्रेरणा से राष्ट् रभक्त
कवि बने दिनकर को सभी ने राष्ट् रीयता का उद्घोषक और क् रां ति का ने ता माना। रे णु का, हुंकार,
सामधे नी आदि कविता स्वतं तर् ता से नानियों के लिए प्रेरक सिद्ध हुआ था। दिनकर जी ने राष्ट् रप्रेम
एवं राष्ट् रीय भावना का ज्वलं त स्वरूप परशु राम की प्रतीक्षा में यु द्ध और शां ति का द्वं द कुरुक्षे तर् में
व्यक्त किया है । सं स्कृति के चार अध्याय में भारतीय सं स्कृति के प्रति अगाध प्रेम दर्शाया और 1959
में सं स्कृति के चार अध्याय के लिए साहित्य अकादमी पु रस्कार मिला। 1959 में ही राष्ट् रपति डॉ.
राजे न्द्र प्रसाद से पद्मभूषण प्राप्त किया। भागलपु र विश्वविद्यालय के चांसलर डॉ. जाकिर हुसै न
(बाद में भारत के राष्ट् रपति बने ) से साहित्य के डॉक्टर का सम्मान मिला। गु रुकुल महाविद्यालय द्वारा
विद्याशास्त्री से अभिषे क मिला। आठ नवं बर 1968 को उन्हें साहित्य-चूड़मानी के रूप में राजस्थान
विद्यापीठ उदयपु र में सम्मानित किया गया। 1972 में उर्वशी के लिए ज्ञानपीठ पु रस्कार से सम्मानित
किया गया। सम्मान समारोह में उन्होंने कहा था 'मैं जीवन भर गां धी और मार्क्स के बीच झटके खाता
रहा हं ।ू इसलिए उजाले को लाल से गु णा करने पर जो रं ग बनता है , वही रं ग मे री कविता का है और
निश्चित रूप से वह बनने वाला रं ग केसरिया है ।' द्वापर यु ग की ऐतिहासिक घटना महाभारत पर
आधारित प्रबन्ध काव्य 'कुरुक्षे तर् ' को विश्व के एक सौ सर्वश्रेष्ठ काव्यों में 74 वां स्थान मिला है ।
प्रतिरोध की आग मद्धिम नहीं हो, इसके लिए रश्मिरथी में कर्ण और परशु राम प्रतीक्षा को दिनकर ने
प्रतीकात्मक पात्र के रूप में प्रस्तु त किया है । दोनों ने सामं ती व्यवस्था का प्रतिकार किया है , दोनों
ने व्यक्तिगत जीवन को से वा और त्याग से जोड़ कर रखा तथा नई मानवता को उन्हें समर्पित कर
दिया। क् रोपोटकिन एवं गां धी वर्तमान में इसके प्रतीक हैं । गां धी की आग को जिस तरह दिनकर जी ने
प्रस्तु त किया, उस तरह और कवि ने नहीं किया। प्रतिरोध का कवि जनता की सत्ता चाहता है और
उसका स्वयं सजग प्रहरी बनकर रहना चाहता है , उसका आत्मसं घर्ष यहीं आकर सार्थक होता है । कर्ण
और परशु राम उसके आत्म सं घर्ष को वाणी प्रदान करते हैं । निराला में प्रतिरोध की गहराई है और
मु क्तिबोध में उसकी वै चारिक भूमि मिलती है । ले किन आग और प्रज्वलन जो प्रतिरोध की सुं दरता है ,
धर्म है , वह दिनकर की कविताओं में है । कुरुक्षे तर् में दिनकर के यु द्ध दर्शन पर मार्क्सवादी चिं तन का
गहरा प्रभाव पड़ा, उनकी मान्यता है कि जबतक समाज में सम स्थापित नहीं होगा यु द्ध रोकना
असं भव है । 'जबतक मानव-मानव का सु ख भाग नहीं सम होगा, शमित न होगा कोलाहल सं घर्ष नहीं
कम होगा।' इस तरह आर्थिक गु लामी से भी मु क्ति की गहरी आकां क्षा दिनकर के काव्य की मूल प्रेरणा
है । भारतीयता के बिम्ब के रूप में हुए महाराणा प्रताप, शिवाजी, चं दर् गु प्त, अशोक, राम, कृष्ण और
शं कर का नाम ले ते हैं तो दस ू री ओर टीपू सु ल्तान, अशफाक, उस्मान और भगत सिं ह का भी। भगत
सिं ह और उनके किशोर क् रां तिकारी साथियों की शहादत के बाद 'हिमालय' में गां धीवादी विचारधारा के
प्रतीक यु धिष्ठिर की जगह गांडीवधारी अर्जुन और गदाधारी भीम के शौर्य का अभिनं दन करते हुए
उन्होंने कहा था 'रे रोक यु धिष्ठिर को न यहां जाने दे उनको स्वर्गधीर, पर फिरा हमें गांडीव गदा लौटा दे
अर्जुन भीम वीर।'
चीन आक् रमण के समय 'परशु राम की प्रतीक्षा' में शां तिवादियों की आलोचना करते हुए भगत सिं ह
जै से क् रां तिवीरों के इतिहास का स्मरण किया है कि 'खोजो टीपू सु ल्तान कहां सोए हैं , अशफाक और
उस्मान कहां सोए हैं , बम वाले वीर जवान कहां सोए हैं , वे भगत सिं ह बलवान कहां सोए हैं ।' शां ति की
रक्षा के लिए वीरता और शौर्य की आवश्यकता महसूस करते हुए उन्होंने कहा था 'दे शवासी जागो,
जागो गां धी की रक्षा करने को गां धी से भागो।' छायावादी सं स्कारों से कविता ले खन प्रारं भ करने वाले
दिनकर जी की आरं भिक कीर्ति रे णु का की कुछ कविताओं, हिमालय के प्रति हिमालय, कविता की
पु कार में प्रगतिशीलता का उन्मे ष दिखाई पड़ता है । किसान जीवन की विडम्बनाओं से कविता की
पु कार में रूबरू कराते हुए उन्होंने लिखा था 'ऋण शोधन के लिए दध ू घी बे च-बे च धन जोड़ें गे , बूंद-बूंद
बे चेंगे अपने लिए नहीं कुछ छोड़ें गे ।' गरीब मजदरू ों की आर्थिक और असहायता से शु द्ध होकर स्वर्ग
लूटने को आतु र दिनकर जी 'हाहाकार' में कहते हैं 'हटो व्योम के मे घ पं थ से स्वर्ग लूटने हम जाते हैं ,
दध ू -द धू ओ वत्स तु म्हारा दध
ू खोजने हम जाते हैं ।' कहा जाता है कि दिनकर की 'उर्वशी' हिं दी साहित्य
का गौरव ग्रंथ है । परशु राम की प्रतीक्षा कहती है 'दोस्ती ही है दे ख के डरो नहीं, कम्यु निस्ट कहते हैं
चीन से लड़ो नहीं, चिं तन में सोशलिस्ट गर्क है , कम्यु निस्ट और कां गर् े स में क्या फर्क है , दीनदयाल के
जनसं घी शु द्ध हैं , इसलिए आज भगवान महावीर बड़े क् रुद्ध हैं ।' उन्होंने कहा था अगर एकता को
आलस्य और सावधानता में आकर हमने खिड़की की राह से जाने दिया तो हमारी स्वाधीनता सदर
दरवाजा खोल कर निकल जाएगी। अपने कथन में अपूर्व सरल भं गिमा और सहज तर्कों का समावे श
करते हुए दिनकर कहते थे 'रोजगार इसलिए कम हैं क्योंकि धं धे दे श में काफी नहीं हैं । धं धे इसलिए
नहीं बढ़ते कि धन दे श में कम है , धन की कमी इसलिए है कि उत्पादन थोड़ा है और उत्पादन इसलिए
थोड़ा है कि लोग काम नहीं करते ।'
अपने जीवन के अं तिम दिनों में राष्ट् रकवि दिनकर इं दिरा गां धी के शासन से ऊब गए थे । उन्होंने इं दिरा
राज के खिलाफ खु लेआम बोलना शु रू कर दिया था। कहा था 'मैं अं दर ही अं दर घु ट रहा हं ,ू अब
विस्फोट होने वाला है , जानते हो मे रे कान में क्या चल रहा है , अगर जयप्रकाश को छुआ गया तो मैं
अपनी आहुति दं गू ा। अपने दे श में जो डे मोक् रे सी लटर-पटर चल रही है , इसका कारण है कि जो दे श के
मालिक हैं , वह प्रचं ड मूर्ख हैं । स्थिति बन गई है कि वोट का अधिकार मिल गया है भैं स को, मजे हैं
चरवाहों के।'
आज कविवर दिनकर हमारे बीच नहीं हैं - 'तु म जीवित थे तो सु नने को जी करता था, तु म चले गए तो
गु नने को जी करता है ।' दिनकर को पै दा करने वाली बे गस ू राय की क् रां तिकारी धरती उनकी 'हुंकार,
कुरुक्षे तर् , रसवं ती, रश्मिरथी, उर्वशी, नील कुसु म, बापू, परशु राम की प्रतीक्षा और सं स्कृति के चार
अध्याय के रूप में आज भी समस्त जागृ त ज्वलं त समस्याओं के समाधान की प्रेरणा से पु लकित हैं ।
दिनकर जी के साहित्य का प्रकाश अमिट है । राष्ट् रीय स्वाभिमान के नायक, राष्ट् र के सजग प्रहरी,
व्यापक सां स्कृतिक दृष्टि और सात्विक मूल्यों के आग्रही, समाज को तराशने वाले शिल्पकार
राष्ट् रकवि दिनकर में पूरा यु ग प्रतिबिं बित है , अतीत के स्वर्णिम पृ ष्ठ हैं , वर्तमान जीवं त है तथा
भविष्य निर्देशित हैं ।

(c) मताजफ की विशे षताएँ।


Ans:
ताज’ कविता ‘सु मित्रानं दन पं त’ द्वारा लिखी गई कविता है , जिसमें उन्होंने अपना आक् रोश तो व्यक्त
किया ही है , ले किन अपने आक् रोश को व्यक्त करने के लिए ताज को आधार बनाया है । कवि का कहना
है कि जब समाज में गरीबों और सहायों का शोषण करने वाले लोग उत्पन्न हो जाते हैं तो मानवता
त्राहि-त्राहि करने कल उठती है । ताजमहल को आधार बनाकर कवि ने शोषक वर्ग की आलोचना की
है तथा उन्हें गरीबों और असहायों के प्रति सं वेदनशील रहने की सलाह दे ती है । कवि का कहना है कि
समाज में बहुत लोग ऐसे है , जिन्हें एक वक्त का खाना तक ढं ग से नही मिल पाता, उनके पास पहनने
को ढं ग के कपड़े तक नही हैं , रहने को घर नही है । वहीं पर कुछ लोग ऐसे है , जो अपनी मृ तक पत्नी की
याद में करोड़ो रुपयों का भवन अर्थात ताजमहल बनवा दे ते हैं । ये शरीर तो नश्वर है , उसके नष्ट हो
जाने उस शरीर की याद में पत्थर के भवन बनवाने से क्या फायदा। जबकि जिं दा शरीर भूख -प्यास से
तड़प रहे हों, और मृ तक शरीरों के नाम पर करोड़ो रुपये बहाये जा रहे हों, ये कहाँ का न्याय है । ये
मानवता नही है , ये शोषण है ।
छायावादी कविता की एक प्रमु ख विशे षता रही है की व्यक्तिगत स्वतं तर् ता इसके लिए इस धारा के
कवियों ने अपनी आत्मनिर्भरव्यक्ति के लिए स्वच्छं द कल्पना और प्रकृति का सहारा लिया।पं त के
काव्य में प्रकृति के प्रति अपार प्रेम और कल्पना की ऊंची उड़ान है ।सु मित्रा नं दन पं त को अपने
परिवे श से ही प्रकृति प्रेम प्राप्त हुआ है ।पं त के काव्य में प्रकृति के प्रति अपार प्रेम और कल्पना
की ऊंची उड़ान है ।
सु मित्रा नं दन पं त को अपने परिवे श से ही प्रकृति प्रेम प्राप्त हुआ है अपने प्रकृति परिवे श के विषय
में उन्होंने लिखा है – कविता की प्रेरणा मु झे सबसे पहले प्रकृति निरक्षण से मिली है , जिसका श्रेय
मे री जन्मभूमि कुमाचल प्रदे श को है कवि जीवन से पहले भी मु झे याद है मैं घं टो एकांत में बै ठा
प्रकृति दृश्य को एकटक दे खा करता था।
” यह प्राकृतिक परिवे श किसी अन्य छायावादी कवि को नहीं मिला थासु मित्रा नं दन पं त का यह
साहचर्य प्रकृति प्रेम उन की प्रथम रचना” वीणा” से ले कर “लोकायतन” नामक महाकाव्य तक समान
रुप से दे खा जा सकता है । अपने कवि जीवन के आरं भिक दौर में पं त प्राकृतिक सौंदर्य से इतने
अभिभूत थे कि नारी सौंदर्य के आकर्षण को भी उसके सम्मु ख न्यून मान लिया था –
” छोड़ द्रुमों की मृ दु छाया
तोड़ प्रकृति से भी माया
बाले ते रे बाल – जाल में
उलझा दं ू में कैसे लोचन?

सु मित्रा नं दन पं त के यहां प्रकृति निर्जीव जड़ वस्तु होकर एक साकार और सजीव सत्ता के रुप में
उपस्थित हुई है उसका एक – एक अणु प्रत्ये क उपकरण कभी मन में जिज्ञासा उत्पन्न करता है सं ध्या,
प्रातः, बादल, वर्षा, वसं त, नदी, निर्झर, भ्रमर, तितली, पक्षी आदि सभी उसके मन और को आं दोलित
करते हैं । यहां सं ध्या का एक जिज्ञासा पूर्ण चित्र दर्शनीय है –
“कौन तु म रूपी कौन
व्योम से उतर रही चु पचाप
छिपी निज माया में छवि आप
सु नहला फैला केश कलाप
मं तर् मधु र मृ दु मौन;
इस पूरी कविता में सं ध्या को एक आकर्षक यु वती के रूप में मौन मं थर गति से पृ थ्वी पर पदार्पण करते
हुए दिखा कर कवि ने सं ध्या का मानवीकरण किया है । प्रकृति का यह मानवीकरण छायावादी काव्य की
एक प्रमु ख विशे षता है । चांदनी, बादल, छाया ज्योत्स्ना, किरण आदि प्रकृति से सं बंधित अने क
विषयों पर सु मित्रा नं दन पं त ने स्वतं तर् रुप से कविताएं लिखी है , इनमें प्रकृति के दुर्लभ मनोरम
चित्र प्रस्तु त हुए हैं ।
सु मित्रा नं दन पं त की बहुत सी प्रकृति सं बंधी कविताओं में उनकी जिज्ञासा भावना के साथ ही रहस्य
भावना भी व्यक्त हुई है । “प्रथम शर्म”,” मौन निमं तर् ण” आदि जै से बहुत सी कविताएं तो मात्र
जिज्ञासा भाव को व्यक्त करती है । इसके लिए” प्रथम शर्म” का एक उदाहरण पर्याप्त होगा –
” प्रथम रश्मि का आना रं गीनी
तूने कैसे पहचाना
कहां -कहां है बाल विहंगिणी
पाया तूने यह गाना।”
इसी तरह” मौन निमं तर् ण” में भी कवि की किशोरावस्था की जिज्ञासा ही प्रमु ख है , ले किन सु मित्रा
नं दन पं त की प्रकृति से सं बंधित ऐसी बहुत सी कविताएं भी है जिनमें उनके गहन एवं सूक्ष्म निरीक्षण के
साथ ही इनकी आध्यात्मिक मान्यता भी व्यक्त हुई है । इस दृष्टि से ” नौका विहार” ,” एक तारा” आदि
कविताएं विशे ष उल्ले खनीय है । यहां उदाहरण के लिए सं ध्या का एक चित्र है -

” गं गा के जल चल में निर्मल कुम्हला किरणों का रक्तोपल


है मूं द चु का अपने मृ दु दल
लहरों पर स्वर्ण रे खा सुं दर पड़ गई नील, ज्यों अधरों पर
अरुणाई प्रखर शिशिर से डर।”
यहां गं गा के जल में रक्तोपल (लाल कमल) के समान सूर्य के बिं ब का डू बना और गं गा की लहरों पर
सं ध्या की सु नहरी आभा का धीरे -धीरे नीलिमा में परिवर्तित होना आदि कवि के सूक्ष्म प्रकृति निरीक्षण
का और उनकी गहन रं ग चे तना का परिचायक है । ले किन कविता के अं त में कवि ने एक तारे के बाद
बहुत से तारों के उदय को आत्मा और यह जग दर्शन कह कर
” एकोहम बहुस्यामि” की दार्शनिक मान्यता को भी प्रतिपादित कर दिया है । इसी तरह” नौका विहार”
में भी कवि ने ग्रीष्मकालीन गं गा का एक तापस बाला के रूप में भावभीना चित्रण करते हुए अं त में
जगत की शाश्वतता का स्पष्ट सं केत दिया है ।
पं त का लगाओ प्रकृति के कोमल और मनोरम स्वरूप के प्रति ही अधिक रहा है , ले किन कभी कभार
इनकी दृष्टि यथार्थ से प्रेरित होकर प्रकृति के कठोर रूप की और भी गई है । वर्षा कालीन रात्रि का
एक चित्र है –
“पपीहों की यह पीन पु कार, निर्झरों की भारी झरझर
झींगुरों की झीनी झं कार घनो की गु रु गं भीर घहर
बिं दुओं की छनती झनकार, दादरू ों के वे दह
ू रे स्वर।”

इसी प्रकार वायु वे ग से झकझोर गए भीम आकार नीम के वृ क्ष की स्थिति को कवि ने इस प्रकार
प्रस्तु त किया है –
” झम
ू -झम
ू झुक – झुक कर, भीम नीम तरु निर्भर
सिहर-सिहर थर – थर – थर करता सर – मर चर – मर।”

(d) नदी के द्वीपफ का प्रतिपाद्य।


Ans:
(e) कामायनी का शीर्षक।
Ans:
'कामायनी' जयशं कर प्रसाद की और सम्भवत: छायावाद यु ग की सर्वश्रेष्ठ कृति मानी जाती है ।
प्रौढ़ता के बिन्दु पर पहुँचे हुए कवि की यह अन्यतम रचना है । इसे प्रसाद के सम्पूर्ण चिं तन- मनन का
प्रतिफलन कहना अधिक उचित होगा। इसका प्रकाशन 1936 ई. में हुआ था। हिन्दी साहित्य में
तु लसीदास की 'रामचरितमानस' के बाद हिन्दी का दस ू रा अनु पम महाकाव्य 'कामायनी' को माना जाता
है । यह 'छायावादी यु ग' का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है । इसे छायावाद का 'उपनिषद' भी कहा जाता है ।
'कामायनी' के नायक मनु और श्रद्धा हैं ।
मनु की कथा
इसमें आदिमानव मनु की कथा ली गयी है । इस काव्य की कथावस्तु वे द, उपनिषद, पु राण आदि से
प्रेरित है किंतु मु ख्य आधार शतपथ ब्राह्मण को स्वीकार किया गया है । आवश्यकतानु सार प्रसाद ने
पौराणिक कथा में परिवर्तन कर उसे न्यायोचित रूप दिया है । 'कामायानी' की कथा सं क्षेप में इस प्रकार
है - पृ थ्वी पर घोर जलप्लावन आया और उसमें केवल मनु जीवित रह गये । वे दे वसृ ष्टि के अं तिम
अवशे ष थे । जलप्लावन समाप्त होने पर उन्होंने यज्ञ आदि करना आरम्भ किया। एक दिन 'काम पु तर् ी'
'श्रद्धा' उनके समीप आयी और वे दोनों साथ रहने लगे । भावी शिशु की कल्पना निमग्न श्रद्धा को एक
दिन ईर्ष्यावश मनु अनायास ही छोड़ कर चल दिये । उनकी भें ट सारस्वत प्रदे श की अधिष्ठात्री ;इड़ा'
से हुई। उसने इन्हें शासन का भार सौंप दिया। पर वहाँ की प्रजा एक दिन इड़ा पर मनु के अत्याचार
और आधिपत्य- भाव को दे खकर विद्रोह कर उठी। मनु आहत हो गये ड़ा तभी श्रद्धा अपने पु तर्
मानव के साथ उन्हें खोजते हुए आ पहुँची किंतु पश्चात्ताप में डू बे मनु पु न : उन सबको छोड़कर चल
दिये । श्रद्धा ने मानव को इड़ा के पास छोड़ दिया और अपने मनु को खोजते - खोजते पा गयी। अं त में
सारस्वत प्रदे श के सभी प्राणी कैलास पर्वत पर जाकर श्रद्धा और मनु के दर्शन करते हैं ।
पन्द्रह सर्ग
'कामायनी' की कथा पन्द्रह सगों में विभक्त है , जिनका नामकरण चिं ता, आशा, श्रद्धा, काम, वासना,
लज्जा आदि मनोविकारों के नाम पर हुआ है । 'कामायनी' आदि मानव की कथा तो है ही, पर इसके
माध्यम से कवि ने अपने यु ग के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर विचार भी किया है ।
आधु निक सं दर्भ
् वदिता और भौतिकवादिता से त्रस्त है , वही आधु निक यु ग की
सारस्वत प्रदे श की प्रज्ञा जिस बु दधि
स्थिति है । 'कामायनी' अपने रूपकत्व में एक मनोविज्ञानिक और दार्शनिक मं तव्य को प्रकट करती है ।
मनु मनका प्रतीक है और श्रद्ध तथा इड़ा क् रमश: उसके हृदय और बु दधि ् पक्ष है । अपने आं तरिक
मनोविकारों से सं घर्ष करता हुआ मनु श्रद्धा- विश्वास की सहायता से आनन्द लोक तक पहुँचता है ।
प्रसाद ने समरसता सिद्धांत तथा समन्वय मागं का प्रतिपादन किया है । अं तिम चार सर्गों में
प्रतिपादित दर्शन पर शै वागम का प्रभाव है ।
विशिष्ट शै ली का महाकाव्य
'कामायनी' एक विशिष्ट शै ली का महाकाव्य है । उसका गौरव उसके यु गबोध, परिपु ष्ट चिं तन, महत
उद्दे श्य और प्रौढ़ शिल्प में निहित है । उसमें प्राचीन महाकाव्यों का सा वर्णनात्मक विस्तार नहीं है पर
सर्वत्र कवि की गहन अनु भति ू के दर्शन होते हैं । यह भी स्वीकार करना होगा कि उसमें गीतितत्त्व
प्रमु खता पा गये हैं । मनोविकार अतयं त सूक्ष्म होते हैं । उन्हें मूर्त रूप दे ने में प्रसाद ने जो सफलता
पायी है वह उनके अभिव्यक्ति कौशल की परिचायक है । कहीं- कहीं भावपूर्ण प्रकाशन में सम्भव है ,
सफल न हों, पर शिल्प की प्रौढ़ता 'कामायनी' का प्रमु ख गु ण है । प्रतीक भण्डार इतना समृ द्ध है कि
अने क स्थलों पर कवि चित्र निर्मित कर दे ता है । इस दृष्टि से श्रद्धा का रूप- वर्णन सु न्दर है । लज्जा
जै से सूक्ष्म भावों के प्रकाशन में 'कामायनी' में प्रसाद के चिं तन- मनन को सहज ही दे खा जा सकता है ।
इसे हम भाव और अनु भति ू दोनों दृष्टियों से छायावाद की पूर्ण अभिव्यक्ति कह सकते हैं ।
कामायनी में
चिन्ता‚ आशा‚ श्रद्धा‚ काम‚ वासना‚ लज्जा‚ कर्म‚ इर्ष्या‚ इड़ा‚ स्वप्न‚ सं घर्ष‚ निर्वेद‚ दर्शन‚ रहस्य‚
आनन्द नामक पन्द्रह सर्ग हैं । हर सर्ग में मनु की यानि मानव की दशा का हृदयस्पर्शी वर्णन विश्ले षण
है … जो जीवन के हर पड़ाव‚ हर पहलू पर प्रकाश डालता चलता है । कामायनी में से मे रे प्रिय पद्यां श
प्रस्तु त करने से पूर्व में स्वयं प्रसाद जी की पु स्तक में लिखी भूमिका के कुछ अं शों से पाठकों का
परिचय करवाना चाहँ ग ू ी‚ जो कामायनी की कथा के मूल में ले जाएगी - " जलप्लावन भारतीय इतिहास
में एक ऐसी प्राचीन घटना है ‚ जिसने मनु को दे वों से विलक्षण‚ मानवों की एक भिन्न सं स्कृति
प्रतिष्ठित करने का अवसर दिया। वह इतिहास ही है । 'मनवे वै प्रात:' इत्यादि से इस घटना का
उल्ले ख 'शतपथ ब्राह्मण' के आठवें अध्याय में मिलता है । दे वगणों के उच्छं ृ खल स्वभाव‚ निर्बाध
आत्मतु ष्टि में अं तिम अध्याय लगा और मानवीय भाव अर्थात श्रद्धा और मनन का समन्वय होकर
प्राणी को एक नए यु ग की सूचना मिली। इस मन्वन्तर के प्रर्वतक मनु हुए। मनु भारतीय इतिहास के
आदिपु रुष हैं । राम‚ कृष्ण और बु द्ध इन्हीं के वं शज हैं ।"

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