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Dhind 05
Dhind 05
Assignment – 1
राधा सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति, मृ दुभाषिणी एवं श्रीकृष्ण की अनन्य प्रेयसी है । लोक से वा के लिए वह
प्रिय-वियोग को स्वीकार कर ले ती हैं । सामान्य मानव-जनित उद्गार प्रकट करने में भी वह सं कोच
नहीं करती। वह नारी की मनोव्यथा को प्रकट करती हुई स्पष्ट रूप से कहती है -
मे रे प्यारे , पु रुष, पृ थिवी-रत्न और शान्त-धी हैं ।
सन्दे शों में तदपि उनकी, वे दना व्यं जिता है ।
मैं नारी हँ ,ू तरल-उर हँ ,ू प्यार से व्यं चिता हँ ।ू
जो होती हँ ू विकल विमना, व्यस्त वै चित्र्य क्या है ?
राधा-कृष्ण के अतिरिक्त नन्द, यशोदा, उद्धव आदि का चरित्रांकन भी यथानु कूल हुआ है । यशोदा का
मातृ त्व और नछ की आदर्शमय भूमिका दर्शनीय है । अपने पु तर् के वियोग में यशोदा का निरन्तर
अश्रुपात भाव-विह्वल करने वाला है -
सहकर कितने ही कष्ट औ सं कटों को।
बहु यजन कराके पूज के निर्जरों को।
यक सु अन मिला है जो मु झे यत्न द्वारा।
प्रियतम! वह मे रा कृष्ण प्यारा कहाँ है ?
प्रिय, प्रवास का अं गी रस ‘वियोग-शृं गार है । साथ ही वात्सल्य रस का भी सु न्दर चित्रण हुआ है ।
वीर, रौद्र, भयानक रस भी कथा अनु रूप हैं । रस-व्यं जना में महाकाव्य के लक्षणों का सम्यक् निर्वाह
हुआ है । विरोधी रसों से बचने का प्रयास है । भाव-शां ति, भाव-शबलता के साथ भाव-निरूपण भी
सफलता पूर्वक है । राधा का श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम ‘वियोग शृं गार ‘की रसमयता के साथ
व्यं जित हुआ है -
रो-रो चिन्ता सहित दिन को राधिका थीं बिताती।
आँ खों को थीं सजल रखतीं उन्मना थीं दिखाती।
शोभावाले जलद-वपु की, हो रही चातकी थीं।
उत्कंठा थी परम प्रबला, वे दना वर्द्धिता थीं।।
प्रिय-प्रवास का प्रकृति-चित्रण अपूर्व है । प्राणी-प्रकृति के अटू ट सं बंधों को प्रथम सर्ग से ही
व्यक्त कर दिया, जहाँ ब्रजवासी प्रकृति के साथ सहज भाव से पले -बढ़े । ‘पवन-दत ू ‘के माध्यम से
राधिका का सं देश प्रकृति के साथ गहरे तादात्म्य का प्रमाण है । प्रकृति का आलम्बन, उद्दीपन,
अलं कार एवं भाव-प्रकटीकरण की दृष्टि से सु न्दर निरूपण हुआ है । विषाद, खिन्नता, शोक आदि भावों
को प्रकृति-चित्रण के साथ प्रकटीकरण अत्यन्त मोहक रूप में व्यक्त होता है , जै से -
समय था सु नसान निशीथ का,
अटल भूतल में तम राज्य था।
प्रलय काल समान प्रसु प्त हो,
प्रकृति - निश्चल नीरव शांत थी।।
प्रिय-प्रवास का मूल लक्ष्य विश्व-मै तर् ी, विश्व-प्रेम, विश्व-कल्याण है । श्रीकृष्ण के चरित्र को
मानवीय रूप दे कर लोकसे वा में तत्पर दिखाया है । इसके साथ स्थायी मानव-सं बंधों का सम्यक विवे चन
हृदय तत्त्व के साथ किया है , जहाँ माता-पिता, प्रेमी-प्रेमिका, सखा-सखी निरन्तर सु ख-दुःख में साथ
दे ते हैं और पथ की बाधा नहीं बनते , वरन् लोकसे वा को परम उद्दे श्य मानते हुए सहभागी बनते हैं ।
आधु निक मानव में मानवीय मूल्यों का सं चार हों तथा स्वयं के लिए नहीं बल्कि लोक के लिए जीने की
अमूल्य प्रेरणा है । श्रीकृष्ण का यह कथन इसी उद्दे श्य को प्रकट करता है -
Assignment – 2
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(b) हुक
ँ ार में व्यक्त दिनकर की प्रगतिवादी चे तना।
Ans:
अपनी कविता के माध्यम से समाज के सभी वर्ग के लोगों को ललकार कर उन्होंने कर्तव्य बोध जगाने
का काम किया, ताकि लोग अपनी जिम्मे दारी समझें और पूरी निष्ठा से उसका निर्वहन करें । तभी तो
उन्होंने लिखा था 'समर शे ष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध्र , जो तटस्थ हैं समय लिखे गा उनका भी
अपराध।' बाल्मीकि, कालिदास, कबीर, इकबाल और नजरुल इस्लाम की गहरी प्रेरणा से राष्ट् रभक्त
कवि बने दिनकर को सभी ने राष्ट् रीयता का उद्घोषक और क् रां ति का ने ता माना। रे णु का, हुंकार,
सामधे नी आदि कविता स्वतं तर् ता से नानियों के लिए प्रेरक सिद्ध हुआ था। दिनकर जी ने राष्ट् रप्रेम
एवं राष्ट् रीय भावना का ज्वलं त स्वरूप परशु राम की प्रतीक्षा में यु द्ध और शां ति का द्वं द कुरुक्षे तर् में
व्यक्त किया है । सं स्कृति के चार अध्याय में भारतीय सं स्कृति के प्रति अगाध प्रेम दर्शाया और 1959
में सं स्कृति के चार अध्याय के लिए साहित्य अकादमी पु रस्कार मिला। 1959 में ही राष्ट् रपति डॉ.
राजे न्द्र प्रसाद से पद्मभूषण प्राप्त किया। भागलपु र विश्वविद्यालय के चांसलर डॉ. जाकिर हुसै न
(बाद में भारत के राष्ट् रपति बने ) से साहित्य के डॉक्टर का सम्मान मिला। गु रुकुल महाविद्यालय द्वारा
विद्याशास्त्री से अभिषे क मिला। आठ नवं बर 1968 को उन्हें साहित्य-चूड़मानी के रूप में राजस्थान
विद्यापीठ उदयपु र में सम्मानित किया गया। 1972 में उर्वशी के लिए ज्ञानपीठ पु रस्कार से सम्मानित
किया गया। सम्मान समारोह में उन्होंने कहा था 'मैं जीवन भर गां धी और मार्क्स के बीच झटके खाता
रहा हं ।ू इसलिए उजाले को लाल से गु णा करने पर जो रं ग बनता है , वही रं ग मे री कविता का है और
निश्चित रूप से वह बनने वाला रं ग केसरिया है ।' द्वापर यु ग की ऐतिहासिक घटना महाभारत पर
आधारित प्रबन्ध काव्य 'कुरुक्षे तर् ' को विश्व के एक सौ सर्वश्रेष्ठ काव्यों में 74 वां स्थान मिला है ।
प्रतिरोध की आग मद्धिम नहीं हो, इसके लिए रश्मिरथी में कर्ण और परशु राम प्रतीक्षा को दिनकर ने
प्रतीकात्मक पात्र के रूप में प्रस्तु त किया है । दोनों ने सामं ती व्यवस्था का प्रतिकार किया है , दोनों
ने व्यक्तिगत जीवन को से वा और त्याग से जोड़ कर रखा तथा नई मानवता को उन्हें समर्पित कर
दिया। क् रोपोटकिन एवं गां धी वर्तमान में इसके प्रतीक हैं । गां धी की आग को जिस तरह दिनकर जी ने
प्रस्तु त किया, उस तरह और कवि ने नहीं किया। प्रतिरोध का कवि जनता की सत्ता चाहता है और
उसका स्वयं सजग प्रहरी बनकर रहना चाहता है , उसका आत्मसं घर्ष यहीं आकर सार्थक होता है । कर्ण
और परशु राम उसके आत्म सं घर्ष को वाणी प्रदान करते हैं । निराला में प्रतिरोध की गहराई है और
मु क्तिबोध में उसकी वै चारिक भूमि मिलती है । ले किन आग और प्रज्वलन जो प्रतिरोध की सुं दरता है ,
धर्म है , वह दिनकर की कविताओं में है । कुरुक्षे तर् में दिनकर के यु द्ध दर्शन पर मार्क्सवादी चिं तन का
गहरा प्रभाव पड़ा, उनकी मान्यता है कि जबतक समाज में सम स्थापित नहीं होगा यु द्ध रोकना
असं भव है । 'जबतक मानव-मानव का सु ख भाग नहीं सम होगा, शमित न होगा कोलाहल सं घर्ष नहीं
कम होगा।' इस तरह आर्थिक गु लामी से भी मु क्ति की गहरी आकां क्षा दिनकर के काव्य की मूल प्रेरणा
है । भारतीयता के बिम्ब के रूप में हुए महाराणा प्रताप, शिवाजी, चं दर् गु प्त, अशोक, राम, कृष्ण और
शं कर का नाम ले ते हैं तो दस ू री ओर टीपू सु ल्तान, अशफाक, उस्मान और भगत सिं ह का भी। भगत
सिं ह और उनके किशोर क् रां तिकारी साथियों की शहादत के बाद 'हिमालय' में गां धीवादी विचारधारा के
प्रतीक यु धिष्ठिर की जगह गांडीवधारी अर्जुन और गदाधारी भीम के शौर्य का अभिनं दन करते हुए
उन्होंने कहा था 'रे रोक यु धिष्ठिर को न यहां जाने दे उनको स्वर्गधीर, पर फिरा हमें गांडीव गदा लौटा दे
अर्जुन भीम वीर।'
चीन आक् रमण के समय 'परशु राम की प्रतीक्षा' में शां तिवादियों की आलोचना करते हुए भगत सिं ह
जै से क् रां तिवीरों के इतिहास का स्मरण किया है कि 'खोजो टीपू सु ल्तान कहां सोए हैं , अशफाक और
उस्मान कहां सोए हैं , बम वाले वीर जवान कहां सोए हैं , वे भगत सिं ह बलवान कहां सोए हैं ।' शां ति की
रक्षा के लिए वीरता और शौर्य की आवश्यकता महसूस करते हुए उन्होंने कहा था 'दे शवासी जागो,
जागो गां धी की रक्षा करने को गां धी से भागो।' छायावादी सं स्कारों से कविता ले खन प्रारं भ करने वाले
दिनकर जी की आरं भिक कीर्ति रे णु का की कुछ कविताओं, हिमालय के प्रति हिमालय, कविता की
पु कार में प्रगतिशीलता का उन्मे ष दिखाई पड़ता है । किसान जीवन की विडम्बनाओं से कविता की
पु कार में रूबरू कराते हुए उन्होंने लिखा था 'ऋण शोधन के लिए दध ू घी बे च-बे च धन जोड़ें गे , बूंद-बूंद
बे चेंगे अपने लिए नहीं कुछ छोड़ें गे ।' गरीब मजदरू ों की आर्थिक और असहायता से शु द्ध होकर स्वर्ग
लूटने को आतु र दिनकर जी 'हाहाकार' में कहते हैं 'हटो व्योम के मे घ पं थ से स्वर्ग लूटने हम जाते हैं ,
दध ू -द धू ओ वत्स तु म्हारा दध
ू खोजने हम जाते हैं ।' कहा जाता है कि दिनकर की 'उर्वशी' हिं दी साहित्य
का गौरव ग्रंथ है । परशु राम की प्रतीक्षा कहती है 'दोस्ती ही है दे ख के डरो नहीं, कम्यु निस्ट कहते हैं
चीन से लड़ो नहीं, चिं तन में सोशलिस्ट गर्क है , कम्यु निस्ट और कां गर् े स में क्या फर्क है , दीनदयाल के
जनसं घी शु द्ध हैं , इसलिए आज भगवान महावीर बड़े क् रुद्ध हैं ।' उन्होंने कहा था अगर एकता को
आलस्य और सावधानता में आकर हमने खिड़की की राह से जाने दिया तो हमारी स्वाधीनता सदर
दरवाजा खोल कर निकल जाएगी। अपने कथन में अपूर्व सरल भं गिमा और सहज तर्कों का समावे श
करते हुए दिनकर कहते थे 'रोजगार इसलिए कम हैं क्योंकि धं धे दे श में काफी नहीं हैं । धं धे इसलिए
नहीं बढ़ते कि धन दे श में कम है , धन की कमी इसलिए है कि उत्पादन थोड़ा है और उत्पादन इसलिए
थोड़ा है कि लोग काम नहीं करते ।'
अपने जीवन के अं तिम दिनों में राष्ट् रकवि दिनकर इं दिरा गां धी के शासन से ऊब गए थे । उन्होंने इं दिरा
राज के खिलाफ खु लेआम बोलना शु रू कर दिया था। कहा था 'मैं अं दर ही अं दर घु ट रहा हं ,ू अब
विस्फोट होने वाला है , जानते हो मे रे कान में क्या चल रहा है , अगर जयप्रकाश को छुआ गया तो मैं
अपनी आहुति दं गू ा। अपने दे श में जो डे मोक् रे सी लटर-पटर चल रही है , इसका कारण है कि जो दे श के
मालिक हैं , वह प्रचं ड मूर्ख हैं । स्थिति बन गई है कि वोट का अधिकार मिल गया है भैं स को, मजे हैं
चरवाहों के।'
आज कविवर दिनकर हमारे बीच नहीं हैं - 'तु म जीवित थे तो सु नने को जी करता था, तु म चले गए तो
गु नने को जी करता है ।' दिनकर को पै दा करने वाली बे गस ू राय की क् रां तिकारी धरती उनकी 'हुंकार,
कुरुक्षे तर् , रसवं ती, रश्मिरथी, उर्वशी, नील कुसु म, बापू, परशु राम की प्रतीक्षा और सं स्कृति के चार
अध्याय के रूप में आज भी समस्त जागृ त ज्वलं त समस्याओं के समाधान की प्रेरणा से पु लकित हैं ।
दिनकर जी के साहित्य का प्रकाश अमिट है । राष्ट् रीय स्वाभिमान के नायक, राष्ट् र के सजग प्रहरी,
व्यापक सां स्कृतिक दृष्टि और सात्विक मूल्यों के आग्रही, समाज को तराशने वाले शिल्पकार
राष्ट् रकवि दिनकर में पूरा यु ग प्रतिबिं बित है , अतीत के स्वर्णिम पृ ष्ठ हैं , वर्तमान जीवं त है तथा
भविष्य निर्देशित हैं ।
सु मित्रा नं दन पं त के यहां प्रकृति निर्जीव जड़ वस्तु होकर एक साकार और सजीव सत्ता के रुप में
उपस्थित हुई है उसका एक – एक अणु प्रत्ये क उपकरण कभी मन में जिज्ञासा उत्पन्न करता है सं ध्या,
प्रातः, बादल, वर्षा, वसं त, नदी, निर्झर, भ्रमर, तितली, पक्षी आदि सभी उसके मन और को आं दोलित
करते हैं । यहां सं ध्या का एक जिज्ञासा पूर्ण चित्र दर्शनीय है –
“कौन तु म रूपी कौन
व्योम से उतर रही चु पचाप
छिपी निज माया में छवि आप
सु नहला फैला केश कलाप
मं तर् मधु र मृ दु मौन;
इस पूरी कविता में सं ध्या को एक आकर्षक यु वती के रूप में मौन मं थर गति से पृ थ्वी पर पदार्पण करते
हुए दिखा कर कवि ने सं ध्या का मानवीकरण किया है । प्रकृति का यह मानवीकरण छायावादी काव्य की
एक प्रमु ख विशे षता है । चांदनी, बादल, छाया ज्योत्स्ना, किरण आदि प्रकृति से सं बंधित अने क
विषयों पर सु मित्रा नं दन पं त ने स्वतं तर् रुप से कविताएं लिखी है , इनमें प्रकृति के दुर्लभ मनोरम
चित्र प्रस्तु त हुए हैं ।
सु मित्रा नं दन पं त की बहुत सी प्रकृति सं बंधी कविताओं में उनकी जिज्ञासा भावना के साथ ही रहस्य
भावना भी व्यक्त हुई है । “प्रथम शर्म”,” मौन निमं तर् ण” आदि जै से बहुत सी कविताएं तो मात्र
जिज्ञासा भाव को व्यक्त करती है । इसके लिए” प्रथम शर्म” का एक उदाहरण पर्याप्त होगा –
” प्रथम रश्मि का आना रं गीनी
तूने कैसे पहचाना
कहां -कहां है बाल विहंगिणी
पाया तूने यह गाना।”
इसी तरह” मौन निमं तर् ण” में भी कवि की किशोरावस्था की जिज्ञासा ही प्रमु ख है , ले किन सु मित्रा
नं दन पं त की प्रकृति से सं बंधित ऐसी बहुत सी कविताएं भी है जिनमें उनके गहन एवं सूक्ष्म निरीक्षण के
साथ ही इनकी आध्यात्मिक मान्यता भी व्यक्त हुई है । इस दृष्टि से ” नौका विहार” ,” एक तारा” आदि
कविताएं विशे ष उल्ले खनीय है । यहां उदाहरण के लिए सं ध्या का एक चित्र है -
इसी प्रकार वायु वे ग से झकझोर गए भीम आकार नीम के वृ क्ष की स्थिति को कवि ने इस प्रकार
प्रस्तु त किया है –
” झम
ू -झम
ू झुक – झुक कर, भीम नीम तरु निर्भर
सिहर-सिहर थर – थर – थर करता सर – मर चर – मर।”