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1.

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सि सून।


पानी गए न ऊिरे , मोती मानस
ु चन
ू ॥
दस
ू री पंक्तत में आए ‘पानी’ शब्द के तीन भिन्न अर्थ ननकलते िैं
(क) मोती के भलए चमक
(ि) मनष्ु य के भलए सम्मान
(ग) चन
ू े के भलए जल।

2. चचरजीवो जोरी जरु ै , तयों न स्नेि गंिीर।


को घहि ये वष
ृ िानज
ु ा, वे िलधर के िीर॥
वष
ृ िानज
ु ा = वष
ृ ि + अनज
ु ा अर्ाथत ् िैल की ििन (गाय)
वष
ृ िानज
ु ा = वष
ृ िानु + जा अर्ाथत ् वष
ृ िानु की पुत्री (राधा)
िल को धारण करने वाला अर्ाथत ् िैल
िलधर – िल को धारण करने वाला अर्ाथत ् िलराम (िलधर के िीर का अर्थ िुआ िलराम का
िाई कृष्ण) ‘वष
ृ िानुजा और िलधर’ के दो-दो अर्ों के कारण यिााँ श्लेष अलंकार िै।

3. जो रिीम गनत दीप की, कुल कपूत गनत सोय।


िारे उक्जयारो करै , िढे अाँधेरो िोय॥
िारे = जलना िारे = जन्म लेना।
िढे = िुझना िढे = िडा िोना।

4. चरन धरत शंका करत, चचतवन चाररिु ओर।


सुिरन को ढूाँढत फिरत, कवव कामी अरु चोर॥
सुिरन = अच्छे वणथ (अक्षर), अच्छा रं ग-रूप, सोना।

5. मानसरोवर सुिर जल, िंसा केभल कराहि।


सुिर = शुि (पववत्र), िरपूर।

माया मिा ठचगनन िम जानी।

नतरगुन िााँस भलए कर डोलै, िोलै मधुरी िानी।

नतरगुन– (i) रज, सत, तम नामक तीन गुण।


(ि) जो रिीम गनत दीप की कुल कपूत गनत सोय।

िारे उक्जयारे करे , िढे अाँधेरो िोय।।

‘दीप’ शब्द के दो अर्थ िैं-दीपक तर्ा संतान।

िारे = छोिा िोने पर (संतान के पक्ष में), जलाने पर दीपक के पक्ष में।

िढे = िडा िोने पर, िझ


ु ा दे ने पर, अतः श्लेष अलंकार िै।

उत्प्रेक्षा अलंकार

किती िुई उत्तरा के नेत्र जल से िर गए।


हिमकणों से पणू थ मानो िो गए पंकज नए॥

‘उत्तरा के अश्रुपूणथ नेत्र’ उपमेय में हिमकणों (ओस) से पूणथ पंकज- उपमान की संिावना के कारण
यिााँ उत्प्रेक्षा अलंकार िै। यिााँ ‘मानो’ वाचक शब्द िै।
उस काल मारे क्रोध के तनु कााँपने उनका लगा।
मानो िवा के जोर से सोता िुआ सागर जगा॥

यिााँ ‘तनु’ उपमेय में सोता िुआ सागर’ उपमान की संिावना िै । ‘मानो’ वाचक शब्द िै । यिााँ
उत्प्रेक्षा अलंकार िै।

उत्प्रेक्षा अलंकार के उदािरण

सोित ओढे पीत पि स्याम सलोने गात।, मनिु नील मनन सैल पर आतप पयो रिात।
2. झक
ु कर मैंने पछ
ू भलया, िा गया मानो झिका।
3. जरा से लाल केसर से फक जैसे धल
ु गई िो।
4. मनु दृग िारर अनेक जमन
ु ननरित ब्रज सोिा।िनम
ू ान की पंछ
ू में , लगन न पाई आग।
लंका भसगरी जल गई, गए ननसाचर िाग॥
िनुमान की पूंछ में आग लगने से पूवथ िी सारी लंका के जल जाने का वणथन फकए जाने के
कारण यिााँ अनतशयोक्तत अलंकार िै।

अनतशयोक्तत अलंकार के उदािरण-

1. आगे नहदया पडी अपार, घोडा कैसे उतरे पार।


राणा ने सोचा इस पार, ति तक चेतक र्ा उस पार॥

2. वि शर इधर गांडीव-गुण से भिन्न जैसे िी िुआ।


धड से जयद्रर् का उधर भसर नछन्न वैसे िी िुआ॥

3. दे ि लो साकेत िै यिी।
स्वगथ से भमलने गगन में जा रिी।

4. छुवत िूि रघुपनतहि न दोषू।


मुनन! बिन कारन कररय कत रोषू॥

यिााँ सागर-लिरों का कन्याओं के रूप में चचत्रण फकया गया िै। सागर-लिरों में मानवीकरण
अलंकार िै।
ििा जूता िन गया िै,
र्के गोवरधन का जीवन।

यिााँ ‘ििा जूता’ में मानवीकरण अलंकार िै । गोवरधन को ििा जूता मान भलया गया िै ।
हदवावसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रिी िै
संध्या सुंदरी परी-सी धीरे -धीरे ।

यिााँ संध्या सुंदरी में मानवीकरण अलंकार िै । मानवीकरण अलंकार के अन्य उदािरण-
1. िीती वविावरी जाग री,
अंिर-पनघि में डुिो रिी तारा-घि उषा-नागरी।
2. राचधका िन लिरा रिी,
कंु ज की छरिरी लताएाँ।

3. िूढा िरगद फिर मुस्काया,


अकुलाती लता को फिर समझाया।

4. पाग पीली िााँधकर,


झूमता गाता आया वसंत।

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