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बी.

ए पार्ट-2

पेपर- 3 (आधुनिक ह द
िं ी काव्य)

'सरोज-स्मनृ ि'

लेक्चर सिंख्या- 14

गेस्र् र्ीचर- उपासिा झा

निराला की 'सरोज स्मनृ ि' और 'राम की शक्ति-पज


ू ा' एक ही समय में ललखी गई हैं। पहली
कवििा का रचिाकाल 1935 है िो दस
ू रे का 1936। पत्र
ु ी सरोज के असामनयक निधि पर
ललखी गई यह कवििा एक ओर कवि का व्यक्तिगि जीिि और यथाथथ के चचत्र अंककि करिी
है िो दस
ू री ओर अपिे युग की त्रासदी की गाथा प्रस्िि
ु करिी है। कवि जीिि के कठोर अिुभि
हैं िो वप्रया एिं पुत्री की स्मनृ ियों के चचत्र भी चचत्रत्रि हैं। कवि-जीिि की व्यथथिा, हिाशा का
अिुभि ही िहीं ित्कालीि मध्यिगीय भारिीय वपिा की अपारगिा एिं विफलिा भी प्रनिध्िनिि
है -

'धन्ये, मैं वपिा निरथथक था

कुछ भी िेरे हहि ि कर सका!

जािा िो अथाथगमोपाय,

पर रहा सदा संकुचचि-काय

लखकर अिथथ आचथथक पथ पर

हारिा रहा मैं स्िाथथ-समर।'

यहााँ एक मध्यिगीय निधथि वपिा के अंिमथि की समच


ू ी िेदिा अलभव्यति हुई है। 'अथाथगमोपाय'
िो मालूम है लेककि वििेक िैसा करिे में बाधा पहुाँचािा है। अथथ ही अिथथ का मूल था। पज
ूाँ ी
का प्रभाि धीरे -धीरे बढ़ रहा था। पर निराला िे उससे अपिे आपको अछूिा रखा। फलिः िे
स्िाथथ-समर में निरं िर पराक्जि हुए। यह पराजय मािििा, माििीय संिेदिा एिं वििेक बोध
की विजय का उद्घोष है। तयोंकक आत्म-सम्मािी निराला िे सदा अपिी अड़िगिा और िेजक्स्ििा
का पररचय हदया है। उन्होंिे अपिे स्ित्ि एिं स्िालभमाि को कभी भी विस्मि
ृ िहीं ककया।
'सरोजस्मनृ ि' में निराला िे जरूर अपिी 'दीििा' हदखाई है। यह दीििा पत्र
ु ी के सामिे है।
िात्सल्य प्रेम से उत्पन्ि है। संपादक के 'गुणों' का बखाि करिे समय, मुतिछं द की रचिाएाँ
लौटा दी जािे की बेला में िे क्षुब्ध हो उठिे हैं। 'पास की िोचिा हुआ घास' और उसे इधर-
उधर फेंककर उिकी अज्ञाििा पर आहुनि दे कर िे हारिे-थकिे िहीं, बक्ल्क संपादक की समझ
पर िीव्र प्रहार कर रहे होिे हैं।

निराला का व्यक्तित्ि क्ांनिकारी था। यह क्ांनि केिल साहहत्य के क्षेत्र में िहीं थी। साहहत्य
और जीिि-दोिों क्षेत्रों में उिकी क्ांनिकाररिा मौजूद थी। कवििाओं में ही िहीं अपिे िैयक्तिक
जीिि में भी उन्होंिे भाग्य को ठुकराया, कमथ को प्राधान्य हदया। ज्योनिष की भविष्यिाणणयों
को भ्रामक लसद्ध ककया। जन्मकंु डली फििा दी। पत्र
ु ी के वििाह में स्ियं मंत्रोच्चारण ककया। मााँ
की कुल लशक्षा स्ियं उन्होंिे दी। कण्ि ऋवष की भूलमका निभाई। सरोज शकंु िला िो थी परंिु
'िह शकंु िला, पर पाठ अन्य यह, अन्य कला।'

मलयज के शब्दों में - 'सरोज स्मनृ ि दःु ख को लेकर उििे या उसमें खोिे के ललए िहीं, बक्ल्क
दःु ख को याद करिे, उससे भीिर ही भीिर ममाथहि होिे और बीच-बीच में बाहर कभी व्यंग्य-
विद्रप
ू में िो कभी आत्म चधतकार में चीख पििे के ललए है। यह चीख छायािादी दख
ु की
स्िनिभथर दनु िया से बाहर आिे की चीख है।'

कवि का स्िािभ
ु ि
ू दःु ख सामान्य व्यक्ति के दःु ख का अहसास करािा है। कवि-कमथ के दस्
ु िर
मागथ से पररचचि करािा है। वपिा के दःु ख कष्ट खासकर असामर्थयथ वपिा की दःु ख यंत्रणा का
पररचायक बि जािा है। 'सरोज-स्मनृ ि' िैयक्तिकिा से भरपूर होकर भी नििैयक्तिक बि जािी
है, ठोस यथाथथ पर रची गई उति कवििा में आदशथ -यथाथथ, हास्य-रोदि, सुख-दःु ख, उिार-
चढ़ाि, ककशोर-यौिि आहद जािे ककििी विपरीि क्स्थनियों का सामंजस्य विद्यमाि है। इसमें
चुिौिी हैं िो आिथिाद भी और है वपिा की प्रबल चीख। वपिा के ललए पुत्री ही िहीं कवि के
ललए रचिा या उससे भी बढ़कर कुछ और थी सरोज। इसललए 'सरोज स्मनृ ि' कवि निराला के
हृदय की गहराई से उत्पन्ि कवििा है। इसमें कवि के िैयक्तिक जीिि के साथ-साथ उसके
पररिेश की सहज अलभव्यक्ति है। उति कवििा के अंनिम पद में कवि िे अपिे दृढ़-संकल्प को
रूपानयि ककया है। आशा एिं विश्िास से भरा कवि-मि कहिा है -
'कन्ये, गि कमों का अपथण

कर, करिा मैं िेरा िपथण!'

अंनिम पंक्तियााँ हैं 'सरोज-स्मनृ ि' की। अपिे अभािग्रस्ि जीिि के पथ पर ककए गए सभी कायथ
भले ही उसी प्रकार िष्ट हो जाएाँ जैसे कक शरद ऋिु में िुषारपाि से पुष्पों का समूचा सौंदयथ
िष्ट हो जािा है। पर कवि-कमथ से विरि होिा निराला को स्िीकार िहीं। िे इसमें अविचललि
रहिा चाहिे हैं। ऐसी अपराजेय शक्ति बहुि कम कवियों की होगी। अपराजेय शक्तिसंपन्ि
व्यक्ति का स्िर निराशा का िहीं होिा है। भले ही अपिी पस्
ु िक 'निराला' में रामविलास शमाथ
िे 'सरोज स्मनृ ि' की अंनिम पंक्तियों के आधार पर कहा है - 'सरोज स्मनृ ि' का अंि 'राम की
शक्ति-पूजा' के आशािाद से िहीं होिा। निराला मस्िक झुकाकर अपिे कमथ पर िज्रपाि सहिे
के ललए ित्पर होिे हैं। यथाथथ जीिि की यह एक िई और कटु अिभ
ु नू ि थी जो निराला हहंदी
को दे रहे थे।

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