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‘ब त दन बीते’ (65-67)
‘कटती ितमा क आवाज़’ (67-68)
‘उभरते ितमा के प’ (67-68)
‘जाल समेटा’ (68-72)
यह अिभनव सं करण इस कार 1929 से 1983 तक िलखी मेरी किवता से मेरी दृि
म, मेरी सव े रचना का संकलन है।
आशा है इनसे आपका मनोिवनोद होगा, ये आपक संवेदनाएँ जगाएँगी, आपके िलए
ेरक बनगी।
नई द ली-49
मेरी े किवताएं
ब न क रचना के अनुवाद
1. ‘कालेर कबले बांगला’ (भूपे नाथ दास ारा “बंगाल का काल” का बंगला
अनुवाद), 1948
2. “द हाउस आफ़ वाइन” (माजरी बो टन और राम व प ास ारा ‘मधुशाला का
अं ेज़ी अनुवाद), 1950
3. िल रका (आर. वराि कोवा ारा संपा दत ब न क संकिलत किवता का सी
अनुवाद), 1965
4. बंगालचा काल (अिवनाश जोशी ारा ‘बंगाल का काल’ का मराठी अनुवाद),
1973
5. कोले ी सा सो सा (सूय का रथ—चुनी ई परवत किवता का सी अनुवाद),
अनुवादक—एस. सेवेर सेव; भूिमका-लेखक—डॅा. चेलीशेव, 1973
6. ‘मधुशाला’ (िवनयकु मार चौकसे ारा ‘मधुशाला’ का मराठी अनुवाद), 1979
‘मधुशाला’ के दो और मराठी, तथा बंगला, मलयालम अनुवाद भी कािशत हो
चुके ह। रचना के साथ थम काशन ितिथ का संकेत है।
ब न रिचत बाल-सािह य
कोयल
अहे, कोयल क पहली कू क !
अचानक उसका पड़ना बोल,
दय म मधुरस देना घोल,
वण का उ सुक होना, बनना िज वा का मूक!
कू क, कोयल, या कोई मं ,
फूं क जो तू आमोद- मोद,
भरे गी वसुंधरा क गोद?
काया-क प- या करने का ात तुझे या तं ?
मि खयाँ कृ पणा ह गी म ,
माँग सुमन से रस का दान,
सुना उनको िनज गुन-गुन गान,
मधु-संचय करने म ह गी तन-मन से संल !
पि य के सुन राग-कलाप—
ाकृ ितक नाद, ाम, सुर, ताल,
शु क पड़ जाएंगे त काल,
गंधव के वा -यं क र के मधुर अलाप।
करे गी म मयूरी नृ य
अ य िवहग का सुनकर गान,
देख यह सुरपित लेगा मान,
प रय के नतन ह के वल आडंबर के कृ य!
उपवन
माली, उपवन का खोल ार!
ब त वर वज-से फहराता,
ब प -पताके लहराता,
पु प के तोरण छहराता,
यह उपवन दखला एक बार
गीत-िवहंग
गीत मेरे खग बाल!
दय के ांगण म सुिवशाल
भावना-त क फै ली डाल,
उसी पर णय-नीड़ म पाल
रहा म सुिवहग बाल
पूण खग से संसार
वर म िजनके व गक गान,
पर म उडगण-उ उड़ान,
देख-सुन इनको ये अनजान
कँ प रहे िवहग कु मार’
थम रोदन का गान
बनाता ी का सफल सुहाग,
पु ष का जा त करता भाग,
िमटा, पर, इनका रोदन-राग
शू य म हो लयमान।
आ मुख रत अनजान
दय का कोई अ फु ट गान,
यहाँ तो, दूर रहा स मान,
अनसुनी करते िवहग सुजान,
िचढ़ाते मुँह िव ान।
आज मेरे खग बाल
बोलते अधर सँभाल-सँभाल,
क तु कल होकर कल वाचाल,
भरगे कलरव से त काल
गगन, भूतल, पाताल।
फु दकने क अिभलाष
आज इनके जीवन का सार,
‘आज’ य द ये कर पाए पार,
चपल कल ये अपने पर मार
मथगे महदाकाश
तीन बाइयाँ
म एक जगत को भूला,
म भूला एक ज़माना,
कतने घटना-च म
भूला म आना-जाना,
पर सुख-दुख क वह सीमा
म भूल न पाया, साक़ ,
जीवन के बाहर जाकर
जीवन म तेरा आना।
तेरे पथ म ह काँटे
था पहले ही से जाना,
आसान मुझे था, साक़ ,
फू ल क दुिनया पाना,
मृद ु परस जगत का मुझको
आन द न उतना देता,
िजतना तेरे काँट से
पग-पग परपद बंधवाना।
म दरालय जाने को घर से
चलता है पीनेवाला,
‘ कस पथ से जाऊँ?’ असमंजस
म है वह भोलाभाला;
अलग-अलग पथ बतलाते सब
पर म यह बतलाता — ँ
‘राह पकड़ तू एक चला चल,
पा जाएगा मधुशाला।’
एक बरस म एक बार ही
जगती होली क वाला,
एक बार ही लगती बाज़ी,
जलती दीप क माला;
दुिनयावालो, क तु, कसी दन
आ म दरालय म देखो
दन को होली, रात दवाली,
रोज़ मनाती मधुशाला!
कर ले, कर ले कं जूसी तू
मुझको देने म हाला,
दे ले, दे ले तू मुझको बस
यह टू टा - फू टा याला,
म सब इसी पर करता,
तू पीछे पछताएगी;
जब न र ग ँ ा म तब मेरी
याद करे गी मधुशाला।
ढलक रही हो तन के घट से
संिगिन, जब जीवन-हाला,
पा गरल का ले जब अंितम
साक़ हो आनेवाला,
हाथ परस भूले याले का
वाद - सुरा िज वा भूल,े
कान म तुम कहती रहना
मधुकण, याला, मधुशाला।
मेरे शव पर वह रोए, हो
िजसके आँसू म हाला,
आह भरे वह, जो हो सुरिभत
म दरा पीकर मतवाला,
द मुझको वे कं धा, िजनके
पद मद-डगमग होते ह ,
और जलूँ उस ठौर, जहाँ पर
कभी रही हो मधुशाला।
िमले न पर ललचा-ललचा य
आकु ल करती है हाला,
िमले न पर तरसा-तरसाकर
य तड़पता है याला,
हाय िनयित क िवषम लेखनी
म तक पर यह खोद गई—
‘दूर रहेगी मधु क धारा,
पास रहेगी मधुशाला!’
क़ मत म था ख़ाली ख पर,
खोज रहा था म याला;
ढू ँढ़ रहा था म मृगनयनी,
क़ मत म थी मृगछाला;
कसने अपना भा य समझने
म मुझ-सा धोखा खाया।
क़ मत म था अवघट मरघट,
ढू ँढ़ रहा था मधुशाला!
या मुझको आव यकता है
साक़ से माँगूँ हाला,
या मुझको आव यकता है
साक़ से चा ँ याला,
पीकर म दरा म त आ तो
यार कया या म दरा से!
म तो पागल हो उठता ँ
सुन लेता य द मधुशाला।
कतनी ज दी रं ग बदलती
है अपना चंचल हाला,
कतनी ज दी िघसने लगता
हाथ म आकर याला,
कतनी ज दी साक़ का
आकषण घटने लगता है;
ात नह थी वैसी जैसी
रात लगी थी मधुशाला।
कतनी आई और गई पी
इस म दरालय म हाला,
कतनी टू ट चुक है अब तक
मादक याल क माला,
कतने साक़ अपना-अपना
काम ख़तम कर दूर गए,
कतने पीनेवाले आए,
कं तु वही है मधुशाला।
म म दरालय के अ दर ,ँ
मेरे हाथ म याला,
याले म म दरालय बंिबत
करनेवाली है हाला;
इस उधेड़-बुन म ही मेरा
सारा जीवन बीत गया—
म मधुशाला के अ दर या
मेरे अ दर मधुशाला।
िजतनी दल क गहराई हो
उतना गहरा है याला,
िजतनी मन क मादकता हो
उतनी मादक है हाला,
िजतनी उर क भावुकता हो
उतना सुंदर साक़ है,
िजतना ही जो रिसक, उसे है
उतनी रसमय मधुशाला।
मेरी हाला म सब ने
पाई अपनी-अपनी हाला,
मेरे याले म सब ने
पाया अपना-अपना याला,
मेरे साक़ म सब ने
अपना यारा साक़ देखा;
िजसक जैसी िच थी उसने
वैसी देखी मधुशाला।
मधुबाला
म मधुबाला मधुशाला क ,
म मधुशाला क मधुबाला!
:1:
म मधु-िव े ता क यारी,
मधु के घट मुझ पर बिलहारी,
याल क म सुषमा सारी,
मेरा ख देखा करती है
मधु- यासे नयन क माला
म मधुशाला क मधुबाला!
:2:
इस नीले अंचल क छाया
म जग- वाला का झुलसाया
आकर शीतल करता काया,
मधु-मरहम का म लेपन कर
अ छा करती उर का छाला
म मधुशाला क मधुबाला!
:3:
मधुघट ले जब करती नतन,
मेरे नूपुर क छू म-छनन
म लय होता जग का ं दन,
झूमा करता मानव-जीवन
का ण- ण बनकर मतवाला।
म मधुशाला क मधुबाला!
:4:
म इस आँगन क आकषण,
मधु से संिचत मेरी िचतवन,
मेरी वाणी म मधु के कण,
मदम बनाया म करती,
यश लूटा करती मधुशाला!
म मधुशाला क मधुबाला!
:5:
था एक समय, थी मधुशाला,
था िम ी का घट, था याला,
था कं तु, नह साक़ बाला,
था बैठा ठाला िव े ता
दे बंद कपाट पर ताला।
म मधुशाला क मधुबाला!
:6:
तब इस घर म था तम छाया,
था भय छाया, था म छाया,
था मातम छाया, गम छाया,
ऊषा का दीप िलए िसर पर
म आई, करती उिजयाला।
म मधुशाला क मधुबाला!
:7:
सोने क मधुशाला चमक ,
मािणक ुित से म दरा दमक ,
मधुगंध दशा म गमक ,
चल पड़ा िलए कर म याला
येक सुरा पीनेवाला।
म मधुशाला क मधुबाला!
:8:
थे म दरा के मृत-मूक घड़े,
थे मू त सदृश मधुपा खड़े,
थे जड़वत् याले भूिम पड़े
जादू के हाथ से छू कर
मने इनम जीवन डाला।
म मधुशाला क मधुबाला!
:9:
मुझको छू कर मधुघट छलके ,
याले मधु पीने को ललके ,
मािलक जागा मलकर पलक,
अँगड़ाई लेकर उठ बैठी
िचरसु -िवमू छत मधुशाला!
म मधुशाला क मधुबाला!
: 10 :
यासे आए, मने आँका,
वातायन से मने झाँका,
पीनेवाल का दल बाँका,
उ कं ठत वर से बोल उठा,
‘कर दे पागल, भर दे याला!’
म मधुशाला क मधुबाला!
: 11 :
खुल ार गए म दरालय के
नारे लगते मेरी जय के ,
िमट िच न गए चंता-भय के ,
हर ओर मचा है शोर यही,
‘ला-ला म दरा, म दरा ला-ला!
म मधुशाला क मधुबाला!
: 12 :
हर एक तृि का दास यहाँ,
पर एक बात है खास यहाँ,
पीने से बढ़ती यास यहाँ,
सौभा य, मगर, मेरा देखो
देने से बढ़ती है हाला!
म मधुशाला क मधुबाला!
: 13 :
चाहे िजतनी म दूँ हाला,
चाहे िजतना तू पी याला,
चाहे िजतना बन मतवाला,
सुन, भेद बताती ँ अंितम,
यह शांत नह होगी वाला।
म मधुशाला क मधुबाला!
: 14 :
मधु कौन यहाँ पीने आता,
है कसका याल से नाता,
जग देखा मुझे है मदमाता,
िजसके िचर तं ल नयन पर
तनती म व का जाला।
म मधुशाला क मधुबाला!
: 15 :
यह व -िविन मत मधुशाला,
यह व -रिचत मधु का याला,
वि ल तृ णा, वि ल हाला,
व क दुिनया म भूला
फरता मानव भोलाभाला।
म मधुशाला क मधुबाला!
याला
िमट् टी का तन, म ती का मन,
ण भर जीवन—मेरा प रचय!
:1:
कल काल-राि के अंधकार
म थी मेरी स ा िवलीन,
इस मू तमान जग म महान
था म िवलु कल प - हीन,
कल मादकता क भरी न द
थी जड़ता से ले रही होड़,
कन सरस कर का परस आज
करता जा त जीवन नवीन?
िमट् टी से मधु का पा बनू—
ँ
कस कु भकार का यह िन य?
िमट् टी का तन, म ती का मन,
णभर जीवन—मेरा प रचय!
:2:
म भूिम रही थी ज म-काल,
था िमत हो रहा आसमान,
उस कलावान का कु छ रह य
होता फर कै से भासमान।
जब खुली आँख, तब आ ात,
िथर है सब मेरे आसपास;
समझा था सबको िमत, कं तु
म वयं रहा था म अजान।
म से ही जो उ प आ,
या ान करे गा वह संचय!
िमट् टी का तन, म ती का मन,
णभर जीवन—मेरा प रचय!
:3:
जो रस लेकर आया भू पर
जीवन - आतप ले गया छीन,
खो गया पूव गुण, रं ग, प
हो जग क वाला के अधीन;
म िच लाया, ‘ य ले मेरी
मृदल
ु ा करत मुझको कठोर?’
लपट बोल , ‘चुप, बजा-ठ क
लेगी तुझको जगती वीण।’
यह, लो, मीना बाज़ार लगा,
होता है मेरा य-िव य।
िमट् टी का तन, म ती का मन,
णभर जीवन—मेरा प रचय!
:4:
मुझको न सके ले धन-कु बेर
दखलाकर अपना ठाट-बाट,
मुझको न सके ले नृपित मोल
दे माल-खज़ाना, राज-पाट,
अमर ने अमृत दखलाया,
दखलाया अपना अमर लोक,
ठु कराया मने दोन को
रखकर अपना उ त ललाट,
िबक, मगर गया म मोल िबना
जब आया मानव सरस- दय।
िमट् टी का तन, म ती का मन,
णभर जीवन—मेरा प रचय!
:5:
बस एक बार पूछा जाता,
य द अमृत से पड़ता पाला;
य द पा हलाहल का बनता,
बस एक बार जाता ढाला;
िचर जीवन औ’ िचर मृ यु जहाँ,
लघु जीवन क िचर यास कहाँ;
जो फर- फर ह ठ तक जाता
वह तो बस म दरा का याला;
मेरा घर है अरमान से
प रपूण जगत का म दरालय।
िमट् टी का तन, म ती का मन,
णभर जीवन—मेरा प रचय!
:6:
म सखी सुराही का साथी,
सहचर मधुबाला का ललाम;
अपने मानस क म ती से
उफनाया करता आठयाम;
कल ू र काल के गाल म
जाना होगा-इस कारण ही
कु छ और बढ़ा दी है मने
अपने जीवन क धूमधाम;
इन मेरी उ टी चाल पर
संसार खडा करता िव मय।
िमट् टी का तन, म ती का मन,
णभर जीवन—मेरा प रचय!
:7:
मेरे पथ म आ-आ करके
तू पूछ रहा है बार-बार,
‘ य तू दुिनया के लोग
म करता है म दरा का चार?’
म वाद-िववाद क ँ तुझसे
अवकाश कहाँ इतना मुझको,
‘आनंद करो,—यह ं य-भरी
है कसी द ध-उर क पुकार;
कु छ आग बुझाने को पीते
ये भी, कर मत इन पर संशय।
िमट् टी का तन, म ती का मन,
णभर जीवन—मेरा प रचय!
:8:
म देख चुका जा मि जद म
झुक-झुक मोिमन पढ़ते नमाज़,
पर अपनी इस मधुशाला म
पीता दीवान का समाज;
वह पु य कृ य, यह पाप कम,
कह भी दूँ तो दूँ या सबूत;
कब कं चन मि जद पर बरसा,
कब म दरालय पर िगरी गाज़?
यह िचर अना द से उठा,
म आज क ँ गा या िनणय?
िमट् टी का तन, म ती का मन,
णभर जीवन—मेरा प रचय!
:9:
सुनकर आया ँ मं दर म
रटते ह रजन थे राम-राम,
पर अपनी इस मधुशाला म
जपते मतवाले जाम-जाम;
पंिडत म दरालय से ठा,
म कै से मं दर से ढू ँ
म फ़क़ बाहरी या देखूँ;
मुझको म ती से महज़ काम।
भय- ांित-भरे जग म दोन
मन को बहलाने के अिभनय।
िमट् टी का तन, म ती का मन,
णभर जीवन—मेरा प रचय!
: 10 :
संसृित क नाटकशाला म
है पड़ा तुझे बनना ानी
है पड़ा मुझे बनना याला
होना म दरा का अिभमानी;
संघष यहाँ कसका कससे,
यह तो सब खेल-तमाशा है,
वह देख यविनका िगरती है,
समझा, कु छ अपनी नादानी!
िछप जाएँगे हम दोन ही
लेकर अपने-अपने आशय।
िमट् टी का तन, म ती का मन,
णभर जीवन—मेरा प रचय!
: 11 :
पल म मृत पीने वाले के
कर से िगर भू पर आऊँगा,
िजस िमट् टी से था म िन मत
उस िमट् टी म िमल जाऊँगा;
अिधकार नह िजन बात पर,
उन बात क चंता करके
अब तक जग ने या पाया है,
म कर चचा, या पाऊँगा?
मुझको अपना ही ज म-िनधन
‘है सृि थम, है अंितम’ लय।
िमट् टी का तन, म ती का मन,
णभर जीवन—मेरा प रचय!
हाला
उ लास-चपल, उ माद-तरल,
ित पल पागल—मेरा प रचय!
:1:
जग ने ऊपर क आँख से
देखा मुझको बस लाल-लाल,
कह डाला मुझको ज दी से
व मािणक या िपघला वाल,
िजसको साक़ के अधर ने
चुंिबत करके वा द कया,
कु छ मनमौजी मजनूँ िजसको
ले - ले याल म रहे ढाल;
मेरे बारे म है फै ला
दुिनया म कतना म-संशय।
उ लास-चपल, उ माद-तरल,
ित पल पागल—मेरा प रचय!
:2:
वह ांत महा िजसने समझा
मेरा घर था जलधर अथाह,
िजसक िहलोर म देव ने
पहचाना मेरा लघु वाह;
अंशावतार वह था मेरा,
मेरा तो स ा प और;
िव ास अगर मुझ पर, मानो—
मेरा दो कण वह महो साह,
जो सुरासुर ने उर म धर
मथ डाला वा रिध वृहत् दय।
उ लास-चपल, उ माद-तरल,
ित पल पागल—मेरा प रचय!
:3:
मेरी मादकता से ही तो
मानव सब सुख-दुख सका झेल,
कर सक मानव क पृ वी
शिश-रिव सुदरू से हेल-मेल,
मेरी म ती से रहे नाच
ह गण, करता है गगन गान,
वह महो माद म ही िजससे
यह सृि - लय का खेल खेल,
दु:सह िचर जीवन सह सकता
वह िचर एकाक लीलामय।
उ लास-चपल, उ माद-तरल,
ित पल पागल–मेरा प रचय!
:4:
अवत रत प म भी तो म
इतनी महान, इतनी िवशाल,
मेरी दो न ह बूँद ने
रँ ग दया उषा का चीर लाल;
सं या क चचा या, वह तो
उसके दुकूल का एक छोर,
िजसक छाया से ही रं िजत
पाइल-कु टु ब का मृदलु गाल;
कर नह मुझे सकता बंदी
दर-दीवार म म दरालय।
उ लास-चपल, उ माद-तरल,
ित पल पागल–मेरा प रचय!
:5:
अवतीण प म भी तो है
मेरा इतना सुरिभत शरीर,
दो साँस बहा देती मेरी
जग-पतझड़ म मधुऋतु समीर,
जो िपक- ाण म कर वेश
तनता नभ म वर का िवतान,
लाता कमल क मह फ़ल म
नतन करने को मर-भीड़;
मधुबाला के पग-पायल दया
पाएँगे मेरे मन पर जय।
उ लास-चपल, उ माद-तरल,
ित पल पागल-मेरा प रचय!
:6:
लवलेश लास लेकर मेरा
झरना झूमा करता िग र पर,
सर िह लोिलत होता रह-रह,
स र बढ़ती लहरा-लहराकर,
मेरी चंचलता क करता
रहता है संधु नक़ल असफल;
अ ानी को यह ात नह ,
म भर सकती कतने सागर।
कर पाएँगे यासे मेरा
कतना इन याल म संचय।
उ लास-चपल, उ माद-तरल,
ित पल पागल-मेरा प रचय!
:7:
ँ आज वािहत म ऐसे,
जैसे किव के दयो ार;
तुम रोक नह सकते मुझको,
कर नह सकोगे मुझे पार;
यह अपनी क़ागज़ क नाव
तट पर बाँधो, आगे न बढ़ो,
ये तु ह डु बा दगी गलकर
हे ेत-के श-धर कणधार;
बह सकता जो मेरी गित से
पा सकता वह मेरा आ य।
उ लास-चपल, उ माद-तरल,
ित पल पागल-मेरा प रचय!
:8:
उ ाम तरं ग से अपनी
मि जद, िगरजाघर, देवालय
म तोड़ िगरा दूग
ँ ी पल म—
मानव के बंदीगृह िन य।
जो कू ल कनारे , तट करते
संकुिचत मनुज के जीवन को,
म काट सब को डालूँगी
कसका डर मुझको? म िनभय।
म ढहा-बहा दूग
ँ ी णम
पाखंड के गु गढ़ दुजय।
उ लास-चपल, उ माद-तरल,
ित पल पागल–मेरा प रचय!
:9:
फर म नभ-गुंबद के नीचे
नव-िनमल ीप बनाऊँगी,
िजस पर िहलिमलकर बसने को
संपूण जगत को लाऊंगी;
उ मु वायुमंडल म अब
आदश बनेगी मधुशाला;
ि य कृ ित-परी के हाथ से
ऐसा मधुपान कराऊँगी,
िचर जरा-जीण मानव फर से
पाएगा नूतन यौवन वय।
उ लास-चपल, उ माद-तरल,
ित पल पागल-मेरा प रचय!
: 10 :
रे व ु वाले योगी!
दखला मत मुझको वह म थल,
िजसम जाकर खो जाएगी
मेरी तु गित, मेरी विन कल।
है ठीक अगर तेरा कहना,
म और चलूँगी इठलाकर;
संदहे म य थ पड़ू?ँ
मेरा तो है िव ास अटल—
म िजस जड़ म म प च ँ ूँगी,
कर दूग
ँ ी उसको जीवनमय।
उ लास-चपल, उ माद-तरल,
ित पल पागल—मेरी प रचय!
: 11 :
लघुतम गु तम से संयोिजत—
यह जान, मुझे जीवन यारा,
परमाणु कँ पा जब करता है
िहल उठता नभ-मंडल सारा!
य द एक व तु भी सदा रही,
तो सदा रहेगी व तु सभी,
ैलो य िबना जलहीन ए
सकती न सूख कोई धारा;
सब सृि न हो जाएगी,
हो जाएगा जब मेरा य।
उ लास-चपल, उ माद-तरल,
ित पल पागल-मेरा प रचय!
बुलबुल
सुरा पी, मद पी, कर मधुपान,
रही बुलबुल डाल पर बोल!
:1:
िलए मादकता का संदश े
फरा म कब से जग के बीच,
कह पर कहलाया िवि ,
कह पर कहलाया म नीच;
सुरीले कं ठ का अपमान
जगत म कर सकता है कौन?
वयं, लो कृ ित उठी है बोल
िवदा कर अपना िचर त मौन।
अरे , िम ी के पुतली, आज
सुनो अपने कान को खोल,
सुरा पी, मद पी, कर मधुपान,
रही बुलबुल डाल पर बोल!
:2:
यही यामल नभ का संदश े
रहा जो तार के संग झूम,
यही उ वल शिश का संदश े
रहा जो भू के कण-कण चूम,
यही मलयािनल का संदश े
रहे िजससे प लव-दल डोल,
यही किल-कु सुम का संदशे
रहे जो गाँठ सुरिभ क खोल,
यही ले-ले उठत संदश े
सिलल क सहज िहलोर लोल;
कृ ित. क ितिनिध बनकर आज
रही बुलबुल डाल पर बोल!
:3:
अ ण हाला से याला पूण
ललकता, उ सुकता के साथ
िनकट आया है तेरे आज
सुकोमल मधुबाला के हाथ;
सुरा-सुषमा का पा यह योग
नह य द पीने का अरमान,
भले तू कह अपने को भ ,
क ग ँ ा म तुझको पाषाण;
हम लघु मानव को या लाज,
गए मुिन-देव के मन डोल;
सरसता से संयम को जीत
रही बुलबुल डाल पर बोल!
:4:
कह दुजय देव का कोप—
कह तूफ़ान, कह भूचाल,
तूफ़ान पर लयका रणी बाढ़,
तूफ़ान पर सवभि णी वाल;
कह मानव के अ याचार,
कह दीन क दै य पुकार,
कह दुि ता के भार
दबा ं दन करता संसार;
करे , आओ, िमल हम दो-चार
जगत-कोलाहल म क लोल;
दुख से पागल होकर आज
रही बुलबुल डाल पर बोल!
:5:
िवभाजत करती मानव जाित
धरा पर देश क दीवार,
ज़रा ऊपर तो उठकर देख,
वही जीवन है इस-उस पार;
घृणा का देते ह उपदेश
यहाँ धम के ठे केदार
खुला है सब के िहत, सब काल
हमारी मधुशाला का ार;
कर आओ िव मृत के भेद,
रहे जो जीवन म िवष घोल;
ांित क िज बनकर आज,
रही बुलबुल डाल पर बोल!
:6:
एक ण पात-पात से ेम,
एक ण डाल-डाल पर खेल,
एक ण फू ल-फू ल से ेह,
एक ण िवहग-िवहग से मेल;
अभी है िजस ण का अि त व,
दूसरे ण बस उसक याद,
याद करनेवाला य द शेप;
नह या संभव ण भर बाद
उड़ अ ात दशा क ओर
पखे ाण के पर खोल
सजग करती जगती को आज
रही बुलबुल डाल पर बोल!
:7:
हमारा अमर सुख का व ,
जगत का, पर, िवपरीत िवधान,
हमारी इ छा के ितकू ल
पड़ा है आ हम पर अनजान;
झुकाकर इसके आगे शिश
नह मानव ने मानी हार?
िमटा सकने म य द असमथ,
भुला सकते हम यह संसार;
हमारी लाचारी क एक
सुरा ही औषध है अनमोल;
िलए िनज वाणी म िव ोह
रही बुलबुल डाल पर बोल!
:8:
िज ह जग-जीवन से संतोष,
उ ह य भाए इसका गान?
िज ह जग-जीवन से वैरा य,
उ ह य भाए इसक तान?
हम जग-जीवन से अनुराग,
हम जग-जीवन से िव ोह;
इसे या समझगे वे लोग,
िज ह सीमा-बंधन का मोह;
करे कोई नंदा दन-रात
सुयश का पीटे कोई ढोल,
कए कान को अपने बंद,
रही बुलबुल डाल पर बोल!
इस पार–उस पार
इस पार, ि ये, मधु है, तुम हो,
उस पार न जाने या होगा!
:1:
यह चाँद उ दत होकर नभ म
कु छ ताप िमटाता जीवन का
लहरा-लहरा यह शाखाएँ
कु छ शोक भुला देत मन का,
कल मुरझानेवाली किलयाँ
हँसकर कहती ह, म रहो,
बुलबुल त क फु नगी पर से
संदहे सुनाती यौवन का,
तुम देकर म दरा के याले
मेरा मन बहला देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का
उपचार न जाने या होगा।
इस पार, ि ये, मधु है, तुम हो,
उस पार न जाने या होगा!
:2:
जग म रस क न दयाँ बहत ,
रसना दो बूँद पाती है,
जीवन क िझलिमल-सी झाँक
नयन के आगे आती है,
वर-तालमयी वीणा बजती,
िमलती है बस झंकार मुझे,
मेरे सुमन क गंध कह
यह वायु उड़ा ले जाती है;
ऐसा सुनता, उस पार, ि ये,
ये साधन भी िछन जाएँगे;
तब मानव क चेतनता का
आधार न जाने या होगा!
इस पार, ि ये, मधु है, तुम हो,
उस पार न जाने या होगा!
:3:
याला है, पर पी पाएँगे,
है ात नह इतना हमको,
इस पार िनयित ने भेजा है
असमथ बना कतना हमको;
कहनेवाले, पर, कहते ह,
हम कम म वाधीन सदा;
करनेवाल क परवशता
है ात कसे, िजतनी हमको;
कह तो सकते ह, कहकर ही
कु छ दल ह का कर लेते ह;
उस पार अभागे मानव का
अिधकार न जाने या होगा!
इस पार, ि ये, मधु है, तुम हो,
उस पार न जाने या होगा!
:4:
कु छ भी न कया था जब उसका,
उसने पथ म काँटे बोए,
वे भार दए धर कं ध पर
जो रो-रोकर हमने ढोए;
महल के व के भीतर
जजर खँडहर का स य भरा,
उर म ऐसी हलचल भर दी,
दो रात न हम सुख से सोए;
अब तो हम अपने जीवन भर
उस ु र-क ठन को कोस चुके;
उस पार िनयित का मानव से
वहार न जाने या होगा!
इस पार, ि ये, मधु है, तुम हो,
उस पार न जाने या होगा!
:5:
संसृित के जीवन म, सुभगे,
ऐसी भी घिड़याँ आएँगी,
जब दनकर क तमहर करण
तम के अ दर िछप जाएँगी,
जब िनज ि यतम का शव, रजनी
तम क चादर से ढँक देगी,
तब रिव-शिश-पोिषत यह पृिथवी
कतने दन खैर मनाएगी;
जब इस लंब-े चौड़े जग का
अि त व न रहने पाएगा,
तब हम दोन का न हा-सा
संसार न जाने या होगा!
इस पार, ि ये, मधु है, तुम हो,
उस पार न जाने या होगा!
:6:
ऐसा िचर पतझड़ आएगा,
कोयल न कु क फर पाएगी,
बुलबुल न अँधेरे म गा-गा
जीवन क योित जगाएगी,
अगिणत मृद-ु नव प लव के वर
‘मर-मर’ न सुने फर जाएँगे,
अिल-अवली किल-दल पर गुंजन
करने के हेतु न आएगी;
जब इतनी रसमय विनय का
अवसान, ि ये, हो जाएगा,
तब शु क हमारे कं ठ का
उ ार न जाने या होगा!
इस पार, ि ये, मधु है, तुम हो,
उस पार न जाने या होगा!
:7:
सुन काल बल का गु गजन
िनझ रणी भूलेगी नतन
िनझर भूलेगा िनज ‘टल-मल’
स रता, अपना ‘कल-कल’ गायन,
वह गायक-नायक संधु कह
चुप हो िछप जाना चाहेगा,
मुंह खोल खड़े रह जाएँगे
गंधव, अ सरा, क रगण;
संगीत सजीव आ िजनम,
जब मौन वही हो जाएँगे,
तब, ाण, तु हारी तं ी का
जड़ तार न जाने या होगा!
इस पार, ि ये, मधु है, तुम हो,
उस पार न जाने या होगा!
:8:
उतरे इन आँख के आगे
जो हार चमेली ने पहने,
वह छीन रहा, देखो, माली
सुकुमार लता के गहने,
दो दन म ख ची जाएगी
ऊषा क सारी संदरू ी,
पट इं धनुष का सतरं गा
पाएगा कतने दन रहने;
जब मू तमती स ा क
शोभा - सुषमा लुट जाएगी,
तब किव के कि पत व का
ृंगार न जाने या होगा!
इस पार, ि ये, मधु है, तुम हो,
उस पार न जाने या होगा!
:9:
दृग देख जहाँ तक पाते ह
तम का सागर लहराता है,
फर भी उस पार खड़ा कोई
हम सबको ख च बुलाता है;
म आज चला, तुम आओगी
कल, परस सब संगी-साथी,
दुिनया रोती-धोती रहती,
िजसको जाना है, जाता है!
मेरा तो होता मन डग - मग
तट पर के ही हलकोर से,
जब म एकाक प च ँ ूँगा
मँझधार, न जाने या होगा।
इस पार, ि ये, मधु है, तुम हो,
उस पार न जाने या होगा!
पाँच पुकार
गूँजी म दरालय भर म
लो, ‘िपयो, िपयो’ क बोली!
:1:
संकेत कया यह कसने,
यह कसक भ ह घूम ?
सहसा मधुबाला ने
मदभरी सुराही चूमी;
फर चल इ ह सब लेकर,
होकर ित बंिबत इनम,
चेतन का कहना ही या,
जड़ दीवार भी झूम ;
सबने य ही किल-मुख क
मृद ु अधर - पंखु रयाँ खोल ,
गूँजी म दरालय भर म
लो, ‘िपयो, िपयो’ क बोली!
:2:
िजस अमृतमय वाणी से
जड़ म जीवन जग जाता,
कता सुनकर वह कै से
रिसक का दल मदमाता;
आँख के आगे पाकर
अपने जीवन का सपना,
हर एक उसे छू ने को
आया िनज कर फै लाता;
पा स य, कलोल उठी कर
मधु के यास क टोली,
गूँजी म दरालय भर म
लो, ‘बढ़ो, बढ़ो’ क बोली!
:3:
सारी साध जीवन क
अधर म आज समा ,
सुख, शाि त जगत क सारी
छनकर म दरा म आई,
इि छत वग क ितमा
साकार ई, सिख, तुम हो;
अब येय िवसुिध, िव मृित है,
हे मुि यही सुखदायी,
पल भर क चेतनता भी
अब स नह , ओ भोली,
गूँजी म दरालय भर म
लो, ‘भरो, भरो’ क बोली!
:4:
मधुघट कं ध से उतरे ,
आशा से आँख चमक ,
छल-छल कह मािणक म दरा
याल के अंदर दमक ,
दानी मधुबाला ने
ली झुका सुराही अपनी,
‘आरं भ करो’ कहती - सी
मधुगंध चतु दक गमक ,
आशीष वचन कहने को
मधुप क िज डोली;
गूँजी म दरालय भर म
लो, ‘िजयो िजयो’ क बोली!
:5:
दो दौर न चल पाए थे
इस तृ णा के आँगन म,
डू बा म दरालय सारा
मतवाल के ं दन म;
यमदूत ार पर आया
ले चलने का परवाना,
िगर - िगर टू टे घट - याले,
बुझ दीप गए सब ण म;
सब चले कए िसर नीचे
ले अरमान क झोली।
गूँजी म दरालय भर म
लो, ‘चलो, चलो’ क बोली!
पग विन
पहचानी वह पग विन मेरी,
वह पग विन मेरी पहचानी!
:1:
नंदन वन म उगनेवाली
मेहद
ँ ी िजन तलव क लाली
बनकर भू पर आई, आली;
म उन तलव से िचर प रिचत,
म उन तलव का िचर ानी।
वह पना विन मेरी पहचानी!
:2:
ऊषा ले अपनी अ णाई,
ले कर - करण क चतुराई,
िजनम जावक रचने आई,
म उन चरण का िचर ेमी,
म उन चरण का िचर यानी।
वह पग विन मेरी पहचानी!
:3:
उन मृद ु चरण का चुंबन कर
ऊसर भी हो उठता उवर,
तृण-किल-कु सुम से जाता भर,
म थल मधुवन बन लहराते,
पाषाण िपघल होते पानी।
वह पग विन मेरी पहचानी!
:4:
उन चरण क मंजुल उँ गली
पर नख-न क अवली,
जीवन के पथ क योित भली,
िजसका अवलंबन कर जग ने
सुख - सुषमा क नगरी जानी।
वह पग विन मेरी पहचानी!
:5:
उन पद-प के भ रजकण
का अंिजत कर मंि त अंजन
खुलते किव के िचर अंध नयन,
तम से आकर उर से िमलती
व क दुिनया क रानी।
वह पग विन मेरी पहचानी!
:6:
उन सु दर चरण का अचन
करते आँसू से संध-ु नयन,
पद-रे खा म उ वास पवन
देखा करता अं कत अपनी
सौभा य सुरेखा क याणी।
वह पन विन मेरी पहचानी!
:7:
उन चल चरण क कल छम-छम
से ही था िनकला नाद थम,
गित से, मादक ताल का म,
िनकली वर-लय क लहर िजसे
जग ने सुख क भाषा मानी।
वह पग विन मेरी पहचानी!
:8:
हो शांत, जगत के कोलाहल!
क जा, री, जीवन क हलचल!
म दूर पड़ा सुन लूँ दो पल,
संदश
े नया जो लाई है
यह चाल कसी क म तानी।
वह पग विन मेरी पहचानी!
:9:
कसके तमपूण हर भागे?
कसके िचर सोए दन जागे?
सुख- वग आ कसके आगे?
होगी कसके कं िपत कर से
इन शुभ चरण क अगवानी?
वह पग विन मेरी पहचानी!
: 10 :
बढ़ता जाता घुंघ का रब;
या यह भी हो सकता संभव?
यह जीवन का अनुभव अिभनव;
पदचाप शी , पग-राग ती ,
वागत को उठ, रे किव मानी!
वह पग विन मेरी पहचानी!
: 11 :
विन पास चली मेरे आती
सब अंग िशिथल, पुल कत छाती,
लो, िगरत पलक दानती,
पग को प ररं भण करने क ,
पर, इन युग बाँह ने ठानी।
वह पग विन मेरी पहचानी!
: 12 :
रव गूँजा भू पर, अंबर म,
सर म, स रता म, सागर म,
येक ास म, ित वर म
कस- कसका आ य ले फै ल,
मेरे हाथ क हैरानी।
वह पग विन मेरी पहचानी!
: 13 :
ये ढू ँढ़ रहे विन का उ म,
मंजीर-मुखर-युत पद िनमम,
है ठौर सभी िजनक विन सम,
इनको पाने का य वृथा,
म करना के वल नादानी।
वह पग विन मेरी पहचानी!
: 14 :
ये कर नभ-जल-थल म भटके ,
आकर मेरे उस पर अटके ,
जो पग य थे अ दर घर के ,
थे ढू ँढ़ रहे उनको बाहर
ये युग कर मेरे अ ानी।
वह पग विन मेरी पहचानी!
: 15 :
उर के ही मधुर अभाव चरण
बन करते मृित-पट पर नतन,
मुख रत होता रहता बत-बन
म ही इन चरण म नूपुर,
नूपुर- विन मेरी ही वाणी।
वह पग विन मेरी पहचानी!
मधुकलश
मधुकलश
है आज भरा जीवन मुझम,
है आज भरी मेरी गागर!
:1:
सर म जीवन है, इससे ही
वह लहराता रहता ित पल,
स रता म जीवन, इससे ही
वह गाती जाती है कल-कल
िनझर म जीवन, इससे ही
वह झर-झर झरता रहता है,
जीवन ही देता रहता है
नद को तु गित, नद को हलचल,
लहर उठत , लहर िगरत ,
लहर बढ़त , लहर हटत ;
जीवन से चंचल ह लहर,
जीवन से अि थर है सागर।
है आज भरा जीवन मुझम,
है आज भरी मेरी गागर।
:2:
नभ का जीवन ित रजनी म
कर उठता है जगमग-जगमग,
जलकर तारक-दल-दीप म;
सज नीलम का ासाद सुभग,
दन म पट रं ग-िबरं गे औ’
सतरं गे बनकर तन ढँकता,
ातः-सायं कलरव करता
बन चंचल-पर दल के दल खग,
ावृट म िव ुत म हँसता,
रोता बादल क बूँद म,
करती है धरा जीवन,
होकर तृणमय, होकर उवर।
है आज भरा जीवन मुझम,
है आज भरी मेरी गागर।
:3:
मा त का जीवन बहता है
िग र-कानन पर करता हर-हर,
त वर-लितका का जीवन
कर उठता है ममर्-ममर्,
प लव का, पर बन अंबर म
उड़ जाने क इ छा करता,
शाखा का, झूमा आ करता
दाएँ-बाएँ नीचे-ऊपर,
तृण िशशु, िजनका हो पाया है
अब तक मुख रत कल कं ठ नह ,
दखला देते अपना जीवन
फड़का अपने अनजान अधर।
है आज भरा जीवन मुझम,
है आज भरी मेरी गागर।
:4:
जल म, थल म, नभमंडल म
है जीवन क धारा बहती,
संसृित के कू ल- कनार को
ित ण संिचत करती रहती,
इस धारा के तट पर ही है
मेरी यह सुंदर-सी ब ती—
सुंदर-सी नगरी िजसको है
सब दुिनया मधुशाला कहती;
म ँ इस नगरी क रानी,
इसक देवी, इसक ितमा,
इससे मेरा संबंध अटल,
इससे मेरा संबंध अमर।
है आज भरा जीवन मुझम,
है आज भरी मेरी गागर।
:5:
पल ोढ़ी पर, पल आँगन म,
पल छ और झरोख पर
म य न र ँ जब आने को
मेरे मधु के ेमी सुंदर,
जब खोज कसी क ह करते
दृग दूर ि ितज पर ओर सभी,
कस िविध से म गंभीर बनूँ
अपने नयन को नीचे कर,
म क नीरवता का अिभनय
म कर ही कै से सकती ,ँ
जब िन कारण ही आज रहे
मुसकान-हँसी के िनझर झर।
है आज भरा जीवन मुझम,
है आज भरी मेरी गागर।
:6:
म िथर होकर कै से बैठंू ,
जब हो उठते ह पाँव चपल,
म मौन खड़ी कस भाँित र ,ँ
जब ह बज उठते पग-पायल,
जब मधुघट के आधार बने,
कर य न झुके, झूम, घूमे
कस भाँित र ँ म मुख मूँद,े
जब उड़-उड़ जाता है अंचल;
म नाच रही म दरालय म
म और नह कु छ कर सकती,
है आज गया कोई मेरे
तन म, ाण म यौवन भर।
है आज भरा जीवन मुझम,
है आज भरी मेरी गागर।
:7:
भाव से ऐसा पूण दय
बात भी मेरी साधारण
उर से उठकर मुख तक आते-
आते बन जाती ह गायन;
जब लौट ित विन आती है
अचरज होता है तब मुझको—
हो आज ग मधु सौरभ से
या जड़ दीवार भी चेतन!
गुंिजत करती म दरालय को
लाचार यही म करने को,
अपने से ही फू टा पड़ता
मुझम लय–ताल-बँधा मधु वर।
है आज भरा जीवन मुझम,
है आज भरी मेरी गागर।
:8:
िग र म न समा उ माद सका
तब झरन म बाहर आया,
झरन क ही थी मादकता
िजसको सर-स रता ने पाया,
जब सँभल सका उ लास नह
न दय से, अंबुिध को आ ,
अंबुिध क उमड़ी म ती को
नीरद ने भू पर बरसाया;
मलयािनल को िनज सौरभ दे
मधुवन कु छ ह का हो जाता,
म कर देती म दरा िवत रत
जाता उर से कु छ भार उतर।
है आज भरा जीवन मुझम,
है आज भरी मेरी गागर।
:9:
तन क णभंगुर नौका पर
चढ़कर, हे या ी, तू आया,
तू ने नानािविध नगर को
होगा जीवन-तट पर पाया,
जड़ शु क उ ह देखा होगा
रि त-सीिमत ाचीर से,
इस नगरी म पाई होगी
अपने उर क वि ल छाया;
है शु क स य य द उपयोगी
तो सुखदायक है व सरस;
सुख भी जीवन का अंश अमर,
मत जग से डर, कु छ देर ठहर।
है आज भरा जीवन मुझम,
है आज भरी मेरी गागर।
: 10 :
जीवन म दोन आते ह
िम ी के पल, सोने के ण,
जीवन से दोन जाते ह
पाने के पल, खोने के ण;
हम िजस ण म जो करते ह
हम बा य वही ह करने को,
हँसने के ण पाकर हँसते,
रोते ह पा रोने के ण;
िव मृित क आई है बेला,
कर, पांथ, न इसक अवहेला,
आ, भूल हास- दन दोन
मधुमय होकर दो-चार पहर।
है आज भरा जीवन मुझम,
है आज भरी मेरी गागर।
किव क वासना
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उ ार मेरा!
:1:
सृि के ारं भ म
मने उषा के गाल चूम,े
बाल रिव के भा यवाले
दी भाल िवशाल चूमे,
थम सं या के अ ण दृग
चूमकर मने सुलाए,
ता रका-किल? से सुसि त
नव िनशा के बाल चूमे,
वायु के रसमय अधर
पहले सके छू ह ठ मेरे
मृि का क पुतिलय से
आज या अिभसार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उ ार मेरा!
:2:
िवगत-बा य वसुंधरा के
उ तुंग-उरोज उभरे ,
त उगे ह रताभ पट धर
काम के वज म फहरे ,
चपल उ छृ ंखल कर ने
जो कया उ पात उस दन,
है हथेली पर िलखा वह,
पढ़ भले ही िव हहरे ;
यास वा रिध से बुझाकर
भी रहा अतृ ँ म,
कािमनी के कु च-कलश से
आज कै सा यार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उ ार मेरा!
:3:
इं धनु पर शीश धरकर
बादल क सेज सुख पर
सो चुका ँ न द भर म
चंचला को बा म भर,
दीप रिव-शिश-तारक ने
बाहरी कु छ के िल देखी,
देख, पर, पाया न कोई
व वे सुकुमार, सु दर
जो पलक पर कर िनछावर
थी गई मधु यािमनी वह,
यह समािध बनी ई है,
यह न शयनागार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उ ार मेरा!
:4:
आज िम ी से िघरा ँ
पर उमंगे ह पुरानी
सोमरस जो पी चुका है
आज उसके हाथ पानी,
ह ठ याल पर झुके तो
थे िववश इसके िलए वे,
यास का त धार बैठा
आज है मन, क तु, मानी;
म नह ँ देह - धम से
बँधा, जग, जान ले तू,
तन िवकृ त हो जाय ले कन
मन सदा अिवकार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उ ार मेरा!
:5:
िन प र म छोड़ िजनको
मोह लेता िव भर को
मानव को, सुर-असुर को,
वृ ा, िव णु हर को,
भंग कर देता तप या
िस , ऋिष, मुिन स म क ,
वे सुमन के बाण मन
ही दए थे पंचशर को;
शि रख कु छ पास अपने
ही दया यह दान मने,
जीत पाएगा इ ह से
आज या मन मार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उ ार मेरा!
:6:
ाण ाण से, सक िमल
कस तरह, दीवार है तन,
काल है घिड़याँ न िगनता,
बेिड़य का श द झन-झन,
वेद – लोकाचार हरी
ताकते हर चाल मेरी,
ब द इस वातावरण म
या करे अिभलाष यौवन!
अ पतम इ छा यहाँ,
मेरी बनी बंदी पड़ी है,
िव ड़ा थल नह रे
िव कारागार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उ ार मेरा!
:7:
थी तृषा जब शीत जल क
खा िलए अंगार मने,
चीथड़ से उस दवस था
कर िलया ृंगार मने
राजसी पट पहनने क
जब ई इ छा बल थी
चाह - संचय म लुटाया
था भरा भंडार मने;
वासना जब ती तम थी
बन गया था संयमी म,
है रही मेरी ुधा ही
सवदा आहार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उ ार मेरा!
:8:
कल िछड़ी, होगी ख़तम कल
ेम क मेरी कहानी,
कौन ँ म, जो रहेगी
िव म मेरी िनशानी?
या कया मने नह जो
कर चुका संसार अब तक?
वृ जग को य अखरती
है िणक मेरी जवानी?
म िछपाना जानता तो
जग मुझे साधू समझता,
श ु मेरा बन गया है
छल - रिहत वहार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उ ार मेरा!
किव का गीत
गीत कह इसको न, दुिनया,
यह दुख क माप मेरे!
:1:
काम या समझूँ न हो य द
गाँठ उर क खोलने को?
संग या समझूँ कसी का
हो न मन य द बोलने को?
जानता या ीण जीवन ने
उठाया भार कतना,
बाट म रखता न य द
उ वास अपने तोलने को?
ह वही उ वास कल के
आज सुखमय राग जग म,
आज मधुमय गान, कल के
द ध - कं ठ लाप मेरे।
गीत कह इसको न, दुिनया,
यह दुख क माप मेरे!
:2:
उ तम िग र के िशखर को
ल य जब मने बनाया,
गव से उ म होकर
शीश मानव ने उठाया,
येय पर प चँ ा, िवजय के
नाद से संसार गूँजा,
खूब गूँजा क तु कोई
गीत का सुन वर न पाया;
आज कण-कण से विनत
झंकार होगी नूपुर क ,
ख ग - जीवन - धार पर अब
ह उठे पद काँप मेरे।
गीत कह इसको न, दुिनया,
यह दुख क माप मेरे!
:3:
गान हो जब गूँजने को
िव म, दन क ँ म,
हो गमकने को सुरिभ जब
िव म, आह भ ँ म,
िव बनने को सरस हो
जब, िगराऊँ अ ु म तब,
िव -जीवन- योित जागे,
इसिलए जलकर म ँ म!
बोल कस आवेश म तू
वर से यह माँग बैठा?—
पु य जब जग के उदय ह
तब उदय ह पाप मेरे!
गीत कह इसको न, दुिनया,
यह दुख क माप मेरे!
:4:
चुभ रहा था जो दय म
एक तीखा शूल बनकर,
िव के कर म पड़ा वह
क पत का फू ल बनकर,
सीखता ससार अब है
ान का ि य पाठ िजससे,
ा वह मुझको ई थी
एक भीषण भूल बनकर;
था जगत का और मेरा
य द कभी संबंध तो यह—
िव को वरदान थे जो
थे वही अिभशाप मेरे!
गीत कह इसको न, दुिनया,
यह दुख क माप मेरे!
:5:
भावना के पु प अपनी
सू -वाणी म िपरोकर
धर दए मने खुशी से
िव के िव तीण पथ पर;
कौन है िसर पर चढ़ाता,
कौन ठु कराता पग से;
कौन है करता उपे ा,
मुड़ कभी देखा न पल भर;
थी बड़ी नाज़क धरोहर,
था बड़ा दािय व मुझ पर;
अब नह चंता इ ह
झुलसा न द संताप मेरे।
गीत कह इसको न, दुिनया,
यह दुख क माप मेरे!
पथ
ह कु पथ पर पाँव मेरे
आज दुिनया क नज़र म!
:1:
पार तम के दीख पड़ता
एक दीपक िझलिमलाता,
जा रहा उस ओर ँ म
म –मधुमय गीत गाता,
इस कु पथ पर या सुपथ पर
म अके ला ही नह ,ँ
जानता ,ँ य जगत फर
उँ गिलयाँ मुझ पर उठाता—
मौन रहकर इस लहर के
साथ संगी बह रहे ह,
एक मेरी ही उमंग
हो उठी ह वर म
ह कु पथ पर पाँव मेरे
आज दुिनया क नज़र म!
:2:
य बताऊँ पोत कतने
पार ह इसने लगाए?
य बताऊँ वृ कतने
तीर के इसने िगराए?
उवरा कतनी धरा को
कर चुक यह य बताऊँ?
य बताऊँ गीत कतने
इस लहर ने ह िलखाए
कू ल पर बैठे ए किव से
कसी दुख क घड़ी म?
या नह पया इतना
जानना, गित है लहर म?
ह कु पथ पर पाँव मेरे
आज दुिनया क नज़र म!
:3:
फल-भरे त तोड़ डाले
शांत मत ले कन पवन हो,
व धन चाहे िगराए
कं तु मत सूना गगन हो,
बढ़ बहा दे बि तय को
पर न हो जलहीन स रता,
हो न ऊसर देश चाहे
कं टक का एक वन हो!
पाप क ही गैल पर
चलते ए ये पाँव मेरे
हँस रहे ह उन पग पर
जो बँधे ह आज घर म!
ह कु पथ पर पाँव मेरे
आज दुिनया क नज़र म!
:4:
यह नह , सुनता नह , जो
शंख क विन आ रही है,
देव-मं दर म जन को
सािधकार बुला रही है,
कान म आत अज़ान,
मि जद का यह िनमं ण,
और ही संदश े देती
कं तु बुलबुल गा रही है!
र से स ची गई है
राह मं दर-मि जद क ,
क तु रखना चाहता म
पाँव मधु- संिचत डगर म!
ह कु पथ पर पाँव मेरे
आज दुिनया क नज़र म!
:5:
है न वह ि व मेरा
िजस तरफ़ मेरा क़दम हो,
उस तरफ़ जाना जगत के
वा ते कल से िनयम हो,
औिलया-आचाय बनने क
नह अिभलाष मेरी,
कसिलए संसार तुझको
देख मेरी चाल ग़म हो!
जो चले युग-युग चरण ुव
धर िमटे पद-िच उनके ,
पद कं िपत, हाय, अं कत
या करगे दो हर म!
ह कु पथ पर पाँव मेरे
आज दुिनया क नज़र म!
:6:
म कहाँ ँ और वह
आदश मधुशाला कहाँ है!
िव मरण दे जागरण के
साथ, मधुबाला कहाँ है!
है कहाँ याला क जो दे
िचर तृषा िचर तृि म भी!
जो डु बो तो ले मगर दे
पार कर, हाला कहाँ है!
देख भीगे ह ठ मेरे
और कु छ संदह े मत कर,
र मेरे ही दय का
है लगा मेरे अधर म!
ह कु पथ पर पाँव मेरे
आज दुिनया क नज़र म!
:7:
सोचता है िव , किव ने
क म ब िविध सजाए,
म दर-नयना यौवना को
गोद म अपनी िबठाए
ह ठ से उसके िवचुंिबत
यािलय को र करते,
झूमते उ म ता से
ये सुरा के गान गाए!
राग के पीछे िछपा
ची कार कह देगा कसी दन,
ह िलखे मधुगीत मने
हो खड़े जीवन समर म!
ह कु पथ पर पाँव मेरे
आज दुिनया क नज़र म!
:8:
पाँव चलने को िववश थे
जब िववेक-िवहीन था मन,
आज तो मि त क दूिषत
कर चुके पथ के मिलन कण,
म इसी से या क ँ
अ छे-बुरे का भेद, भाई
लौटना भी तो क ठन है
चल चुका युग एक जीवन;
हो िनयित इ छा तु हारी
पूण, म चलता चलूँगा,
पथ सभी िमल एक ह गे
तम-िघरे यम के नगर म!
ह कु पथ पर पाँव मेरे
आज दुिनया क नज़र म!
लहर का िनमं ण
तीर पर कै से कूँ म,
आज लहर म िनमं ण!
:1:
रात का अंितम हर है,
िझलिमलाते ह िसतारे ,
व पर युग बा बाँधे
म खड़ा सागर कनारे ,
वेग से बहता भंजन
के श-पट मेरे उड़ता,
शू य म भरता उदिध-
उर क रह यमयी पुकार;
इन पुकार क ित विन
हो रही मेरे दय म,
है ित छाियत जहाँ पर
संधु का िह लोल-कं पन।
तीर पर कै से कूँ म,
आज लहर म िनमं ण!
:2:
िव क संपूण पीड़ा
सि मिलत हो रो रही है,
शु क पृ वी आँसु से
पाँव अपने धो रही है,
इस धरा पर जो बसी दुिनया
यही अनु प उसके —
इस था से हो न िवचिलत?
न द सुख क सो रही है;
य धरिण अब तक न गलकर
लीन जलिनिध म गई हो?
देखते य ने किव के
भूिम पर जड़-तु य जीवन?
तीर पर कै से कूँ म,
आज लहर म िनमं ण!
:3:
जड़ जगत म वास कर भी
जड़ नह वहार किव का,
भावना से िविन मत
और ही संसार किव का,
बूँद के उ छवास को भी
अनसुनी करता नह वह
कस तरह होता उपे ा—
पा पारावार किव का,
िव -पीड़ा से, सुप रिचत
हो तरल बनने, िपघलने,
यागकर आया यहाँ किव
व -लोक के लोभन।
तीर पर कै से कूँ म,
आज लहर म िनमं ण!
:4:
िजस तरह म के दय म
है कह लहरा रहा सर,
िजस तरह पावस-पवन म
है पपीहे का िछपा वर,
िजस तरह से अ ु-आह से
भरी किव क िनशा म
न द क प रयाँ बनात .
क पना का लोक सुखकर,
संधु के इस ती हाहा–
कार ने, िव ास मेरा,
है िछपा र खा कह पर
एक रस-प रपूण गायन।
तीर पर कै से कूँ म,
आज लहर म िनमं ण!
:5:
ने सहसा आज मेरे
तम-पटल के पार जाकर
देखते ह र -सीपी से
बना ासाद सुंदर,
है खड़ी िजसम उषा ले
दीप कुं िचत रि मय का;
योित म िजसक सुनहली
संधु क याएँ मनोहर
गूढ़ अथ से भरी मु ा
बनाकर गान करत
और करत अित अलौ कक
ताल पर उ म नतन।
तीर पर कै से कूँ म,
आज लहर म िनमं ण!
:6:
मौन हो गंधव बैठे
कर वण इस गान का वर,
वा -य पर चलाते
ह नह अब हाथ क र,
अ सरा के उठे जो
पग उठे ही रह गए ह,
कण उ सुक, ने अपलक
साथ देव के पुरंदर
एक अ भुत और अिवचल
िच - सा है जान पड़ता,
देव - बालाएँ िवमान से
रह कर पु प - वषण।
तीर पर कै से कूँ म,
आज लहर म िनमं ण!
:7:
दीघ उर म भी जलिध के
है नह ख़िशयाँ समात ,
बोल सकता कु छ न उठती
फू ल बारं बार छाती;
हष र ागार अपना
कु छ दखा सकता जगत को
भावना से भरी य द
यह फफककर फू ट जाती;
संधु िजस पर गव करता
और िजसक अचना को
वग झुकता, य न उसके
ित करे किव अ य अपण।
तीर पर कै से कूँ म,
आज लहर म िनमं ण!
:8:
आज अपने व को म
सच बनाना चाहता ,ँ
दूर क इस क पना के
पास जाना चाहता ,ँ
चाहता ँ तैर जाना
सामने अंबुिध पड़ा जो,
कु छ िवभा उस पार क
इस पार लाना चाहता ;ँ
वर के भी व भू पर
देख उनसे दूर ही था,
कं तु पाऊँगा नह कर
आज अपने पर िनयं ण।
तीर पर कै से कूँ म,
आज लहर म िनमं ण!
:9:
लौट आया य द वहाँ से
तो यहाँ नव युग लगेगा,
नव भाती गान सुनकर
भा य जगती का जगेगा,
शु क जड़ता शी बदलेगी
सरस चैत यता म,
य द न पाया लौट, मुझको
लाभ जीवन का िमलेगा;
पर प चँ ही य द न पाया
थ या थान होगा?
कर सकूँ गा िव म फर
भी नए पथ का दशन।
तीर पर कै से कूँ म,
आज लहर म िनमं ण!
: 10 :
थल गया है भर पथ से
नाम कतन के िगनाऊँ,
थान बाक है कहाँ पथ
एक अपना भी बनाऊँ?
िव तो चलता रहा है
थाम राह बनी-बनाई,
कं तु इन पर कस तरह म
किव-चरण अपने बढ़ाऊं?
राह जल पर भी बनी है
ढ़; पर, न ई कभी वह,
एक ितनका भी बना सकता
यहाँ पर माग नूतन!
तीर पर कै से कूँ म,
आज लहर म िनमं ण!
: 11 :
देखता ँ आँख के आगे
नया यह या तमाशा—
कर िनकलकर दीघ जल से
िहल रहा करता मना-सा,
है हथेली-म य िचि त
नीर भ ाय बेड़ा!
म इसे पहचानता ,ँ
है नह या यह िनराशा?
हो पड़ी उ ाम इतनी
उर-उमंग, अब न उनको
रोक सकता भय िनराशा का,
न आशा का वंचन।
तीर पर कै से कूँ म,
आज लहर म िनमं ण!
: 12 :
पोत अगिणत इन तरं ग ने
डु बाए मानता म
पार भी प च ँ े ब त से—
बात यह भी जानता म,
कं तु होता स य य द यह
भी, सभी जलयान डू बे,
पार जाने क ित ा
आज बरबस ठानता म,
डू बता म कं तु उतराता
सदा ि व मेरा,
ह युवक डू बे भले ही
है कभी डू बा न यौवन!
तीर पर कै से कूँ म,
आज लहर म िनमं ण!
: 13 :
आ रह ाची ि ितज से
ख चने वाली सदाएँ
मानव के भा य-िनणायक
िसतारो! दो दुआएँ,
नाव, नािवक, फे र ले जा,
है नह कु छ काम इसका,
आज लहर से उलझने को
फड़कती ह भुजाएँ;
ा हो उस पार भी इस
पार-सा चाहे अँधेरा,
ा हो युग क उषा
चाहे लुटाती नव करण-धन।
तीर पर कै से कूँ म,
आज लहर म िनमं ण!
िनशा-िनमं ण
एक
दन ज दी - ज दी ढलता है!
हो जाय न पथ म रात कह ,
मंिजल भी तो है दूर नह —
यह सोच थका दन का पंथी भी ज दी-ज दी चलता है!
दन ज दी - ज दी ढलता है!
ब े याशा म ह गे,
नीड़ से झाँक रहे ह गे—
यह यान पर म िचिड़य के भरता कतनी चंचलता है!
दन ज दी - ज दी ढलता है!
दो
सं या संदरू लुटाती है!
रँ गती व णम रज से सुंदर
िनज नीड़–अधीर खग के पर,
त क डाली - डाली म कं चन के पात लगाती है!
सं या संदरू लुटाती है!
तीन
बीत चली सं या क वेला!
धुंधली ित पल पड़नेवाली
एक रे ख म िसमटी लाली
कहती है, समा होता है सतरं गे बादल का मेला!
बीत चली सं या क वेला!
नभ म कु छ ुितहीन िसतारे
माँग रहे ह हाथ पसारे —
‘रजनी आए, रिव करण से हमने है दन पर दुख झेला’!
बीत चली सं या क वेला!
•
चार
तुम तूफान समझ पाओगे?
पाँच
है यह पतझड़ क शाम, सखे!
नीलम-से प लव टू ट गए,
मरकत-से साथी छू ट गए,
अटके फर भी दो पीत पात जीवन-डाली को थाम, सखे!
है यह पतझड़ क शाम, सखे!
छह
कहते ह, तारे गाते ह!
सात
साथी, सो न, कर कु छ बात!
पूण कर दे वह कहानी,
जो शु क थी सुनानी,
आ द िजसका हर िनशा म, अंत िचर अ ात!
साथी, सो न, कर कु छ बात!
आठ
यह पपीहे क रटन है!
यह न पानी से बुझेगी,
यह न प थर से दबेगी,
यह न शोल से डरे गी, यह िवयोगी क लगन है!
यह पपीहे क रटन है!
नौ
रात आधी हो गई है!
दस
मने खेल कया जीवन से!
थे बैठे भगवान दय म,
देर ई मुझको िनणय म,
उ ह देवता समझा जो थे कु छ भी अिधक नह पाहन से!
मने खेल कया जीवन से!
यारह
अब वे मेरे गान कहाँ ह!
टू ट गई मरकत क याली,
लु ई म दरा क लाली,
मेरा ाकु ल मन बहलाने वाले अब सामान कहाँ ह!
अब वे मेरे गान कहाँ ह!
जगती के नीरस म थल पर
हँसता था म िजनके बल पर
िचर वसंत - सेिवत सपन के मेरे वे उ ान कहाँ ह!
अब वे मेरे गान कहाँ ह!
बारह
बीते दन कब आनेवाले!
चौदह
आओ, हम पथ से हट जाएँ!
प ह
या कं कड़-प थर चुन लाऊँ;
व के इस रं गमहल म
हँसूँ िनशा क चहल-पहल म?
या इस खँडहर क समािध पर बैठ दन को गीत बनाऊँ?
या कं कड़-प थर चुन लाऊँ;
इसम क ण मृितयाँ सो ,
इसम मेरी िनिधयाँ सो ,
इसका नाम-िनशान िमटाऊँ या म इस पर दीप जलाऊँ?
या कं कड़-प थर चुन लाऊँ;
सोलह
कस कर म यह वीणा धर दू?ँ
य बाक अिभलाषा मन म,
झंकृत हो यह फर जीवन म?
य न दय िनमम हो कहता अंगारे अब धर इस पर दू?ँ
कस कर म यह वीणा धर दू?ँ
स ह
या भूलूँ, या याद क ँ म!
अगिणत उ माद के ण ह,
अगिणत अवसाद के ण ह,
रजनी क सूनी घिड़य को कन- कन से आवाद क ँ म!
या भूलूँ या याद क ँ म!
अ ारह
तू य बैठ गया है पथ पर?
जीिवत भी तू आज मरा-सा
पर मेरी तो यह अिभलाषा—
िचता-िनकट भी प चँ सकूँ म अपने पैर -पैर चलकर;
तू य बैठ गया है पथ पर?
उ ीस
जय हो, हे संसार, तु हारी!
बीस
जाओ कि पत साथी मन के !
एक
अब मत मेरा िनमाण करो!
इस च पर खाते च र
मेरा तन-मन-जीवन जजर,
हे कुं भकार, मेरी िम ी को और न अब हैरान करो!
अब मत मेरा िनमाण करो!
दो
कोई गाता, म सो जाता!
तीन
कोई नह , कोई नह !
यह भूिम है हाला-भरी,
मधुपा - मधुबाला - भरी,
ऐसा बुझा जो पा सके मेरे दय क यास को—
कोई नह , कोई नह !
चार
म जीवन म कु छ कर न सका!
पाँच
कसके िलए? कसके िलए?
य पूछता दनकर नह ,
य पूछता िग रवर नह ,
य पूछता िनझर नह ,
मेरी तरह, जलता र ,ँ गलता र ,ँ बहता र ँ
कसके िलए? कसके िलए?
छह
कस ओर म? कस ओर म?
है एक ओर अिसत िनशा,
है एक ओर अ ण दशा,
पर आज व म फँ सा, यह भी नह म जानता—
कस ओर म? कस ओर म?
है एक ओर अग य जल,
है एक ओर सुर य थल,
पर आज लहर से सा, यह भी नह म जानता—
कस ओर म? कस ओर म?
सात
सोचा, आ प रणाम या?
जब सु बड़वानल जगा,
जब खौलने सागर लगा,
उमड़ तरं गे ऊ वगा,
ल तारक को भी डु बा, तुमने कहा—हो शीत, जम!
सोचा, आ प रणाम या?
जब उठ पड़ा मा त मचल
हो अि मय, रजमय, सजल,
झ के चले ऐसे बल,
द पवत को भी उड़ा, तुमने कहा—हो मौन, थम!
सोचा, आ प रणाम या?
जब जग पड़ी तृ णा अमर,
दृग म फरी िव ुत् लहर,
आतुर ए ऐसे अधर,
पी ल अतल मधु- संधु को, तुमने कहा—म दरा खतम!
सोचा, आ प रणाम या?
आठ
पूछता, पाता न उ र!
नौ
तब रोक न पाया म आँस!ू
िजसम अपने ाण को भर
कर देना चाहा अजर-अमर,
जब िव मृित के पीछे िछपकर मुझ पर मेरा मधुगान हँसा!
तब रोक न पाया म आँस!ू
दस
िम ी दीन कतनी, हाय!
दय क वाला जलाती,
अ ु क धारा बहाती,
और उर – उ छवास म यह काँपती िन पाय!
िम ी दीन कतनी, हाय!
शू यता एकांत मन क ,
शू यता जैसे गनन क ,
थाह पाती है न इसका मृि का असहाय!
िम ी दीन कतनी, हाय!
यारह
तशीश मगर नतशीश नह !
िम ी है अ ु बहाती है,
मेरी स ा तो गाती है;
अपनी? ना-ना, उसक पीड़ा क ही मने कु छ बात कह !
तशीश मगर नतशीश नह !
बारह
ािह, ािह कर उठता जीवन!
जब रजनी के सूने ण म,
तन - मन के एकाक पन म
किव अपनी िव वल वाणी से अपना ाकु ल मन बहलाता,
ािह, ािह कर उठता जीवन!
जब उर क पीड़ा से रोकर,
फर कु छ सोच-समझ चुप होकर
िवरही अपने ही हाथ से अपने आँसू प छ हटाता,
ािह, ािह कर उठता जीवन!
तेरह
तु हारा लौह च आया!
चौदह
अि पथ! अि पथ! अि पथ!
वृ ह भले खड़े,
ह घने, ह बड़े,
एक प - छाँह भी माँग मत, माँग मत, माँग मत!
अि पथ! अि पथ! अि पथ!
तू न थके गा कभी!
तू न थमेगा कभी!
तू न मुड़ग
े ा कभी!—कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ!
अि पथ! अि पथ! अि पथ!
यह महान दृ य है—
चल रहा मनु य है
अ ु - वेद - र से लथपथ, लथपथ, लथपथ!
अि पथ! अि पथ! अि पथ!
प ह
जीवन शाप या वरदान?
सु को तुमने जगाया,
मौन को मुख रत बनाया,
क ण ं दन को बताया य मधुरतम गान?
जीवन शाप या वरदान?
सजग फर से सु होगा,
गीत फर से गु होगा,
म य म अवसाद का ही य कया स मान?
जीवन शाप या वरदान?
सोलह
जीवन म शेष िवषाद रहा!
कु छ टू टे सपन क ब ती,
िमटनेवाली यह भी ह ती,
अवसाद बसा िजस खँडहर म, या उसम ही उ माद रहा!
जीवन म शेष िवषाद रहा!
यह खँडहर ही था रं गमहल,
िजसम थी मादक चहल-पहल,
लगता है यह खँडहर जैसे पहले न कभी आबाद रहा!
जीवन म शेष िवषाद रहा!
वण शु कर लाया जग म,
उसे लुटाता आया मग म,
दीन का म वेश कए, पर दीन नह ,ँ दाता ँ म!
अि देश से आता ँ म!
अ ारह
िवष का वाद बताना होगा!
आख स य द अ ु छनेगा,
कटु तर यह कटु पेय बनेगा,
ऐसे पी सकता है कोई, तुझको पी मुसकाना होगा!
िवष का वाद बताना होगा!
उ ीस
ाथना मत कर, मत कर, मत कर!
यु े म दखला भुजबल,
रहकर अिविजत, अिवचल ितपल,
मनुज-पराजय के मारक ह मठ, मि जद, िगरजाघर!
ाथना मत कर, मत कर, मत कर
बीस
कतना अके ला आज म!
संघष म टू टा आ,
दुभा य से लूटा आ,
प रवार से छू टा आ? कतना अके ला आज म!
कतना अके ला आज म!
भटका आ संसार म,
अकु शल जगत वहार म,
असफल सभी ापार म, कतना अके ला आज म!
कतना अके ला आज म!
एक
लहर सागर का नह शृंगार,
उसक िवकलता है;
अिनल अंबर का नह िखलवार,
उसक िवकलता है;
िविवध प म आ साकार,
रं ग से सुरंिजत,
मृि का का यह नह संसार,
उसक िवकलता है।
दो
जानकर अनजान बन जा।
कं तु दल क आग का
संसार म उपहास कब तक?
कं तु होना, हाय, अपने आप
हतिव ास कब तक?
अि को अंदर िछपाकर,
हे हदय, पाषाण बन जा।
जानकर अनजान बन जा।
तीन
कै से भट तु हारी ले लू?ँ
या तुम लाई हो िचतवन म,
या तुम लाई हो चुंबन म,
अपने कर म या तुम लाई,
या तुम लाई अपने मन म,
या तुम नूतन लाई जो म
फर से बंधन झेल?ूँ
कै से भट तु हारी ले लू?ँ
अ ु पुराने, आह पुरानी,
युग बाँह क चाह पुरानी,
उथले मन क थाह पुरानी,
वही णय क राह पुरानी,
अ य णय का कै से अपनी
अंत वाला म लू?ँ
कै से भट तु हारी ले लू?ँ
चार
या है मेरी बारी म।
पाँच
वह नभ कं पनकारी समीर,
िजसने बादल क चादर को
दो झटके म कर तार- तार,
दृढ़ िग र ृंग क िशला िहला,
डाले अनिगनत त वर उखाड़;
होता समा अब वह समीर
किल क मुसकान पर मलीन!
वह नभ कं पनकारी समीर।
वह जल वाह उ त-अधीर,
िजसने ि ित के व थल को
िनज तेजधार से दया चीर,
कर दए अनिगनत नगर- ाम-
घर बेिनशान कर म -नीर,
होता समा अब वह वाह
तट-िशला-खंड पर ीण- ीण!
वह जल वाह उ त-अधीर।
छह
लो दन बीता, लो रात गई,
सूरज ढलकर पि छम प च ँ ा,
डू बा, सं या आई, छाई,
सौ सं या-सी वह सं या थी,
य उठते-उठते सोचा था,
दन म होगी कु छ बात नई।
लो दन बीता, लो रात गई।
सात
दोन िच सामने मेरे।
आठ
चाँद-िसतारो, िमलकर गाओ!
आज अधर से अधर िमले ह,
आज बाँह से बाँह िमली,
आज दय से दय िमले ह,
मन से मन क चाह िमली;
चाँद-िसतारो, िमलकर गाओ!
नौ
इतने मत उ म बनो।
जीवन मधुशाला से मधु पी
बनकर तन - मन - मतवाला,
गीत सुनाने लगा झूमकर
चूम-चूमकर म याला—
शीश िहलाकर दुिनया बोली,
पृ वी पर हो चुका ब त यह,
इतने मत उ म बनो।
इतने मत उ बनो।
मेरे ित अ याय आ है
ात आ मुझको िजस ण,
करने लगा अि -आनन हो
गु गजन, गु तर तजन—
शिश िहलाकर दुिनया बोली,
पृ वी पर हो चुका ब त यह,
इतने मत उ बनो।
दस
या क ँ संवेदना लेकर तु हारी?
या क ँ ?
म दुखी जब - जब आ
संवेदना तुमने दखाई,
म कृ त आ हमेशा
रीित दोन ने िनभाई,
कं तु इस आभार का अब
हो उठा है बोझ भारी;
या क ँ संवेदना लेकर तु हारी?
या क ं ?
एक भी उ छवास मेरा
हो सका कस दन तु हारा?
उस नयन से बह सक कब
इस नयन क अ ु-धारा?
स य को मूँदे रहेगी
श द क कब तक िपटारी?
या क ँ संवेदना लेकर तु हारी?
या क ँ ?
कौन है जो दूसरे को
दुःख अपना दे सके गा?
कौन है जो दूसरे से
दुःख उसका ले सके गा?
य हमारे बीच धोखे
का रहे ापार जारी?
या क ँ संवेदना लेकर तु हारी?
या क ँ ?
य न हम ल मान, हम ह
चल रहे ऐसी डगर पर,
हर पिथक िजस पर अके ला,
दुःख नह बंटते पर पर,
दूसर क वेदना म
वेदना जो है दखाता,
वेदना से मुि का िनज
हष के वल वह िछपाता,
तुम दुःखी हो तो सुखी म
िव का अिभशाप भारी!
या क ँ संवेदना लेकर तु हारी?
या क ँ ?
यारह
काल म से—
िजसके आगे झंझा कते,
िजसके आगे पवत झुकते—
ाण का यारा धन-कं चन
सहसा अप त हो जाने पर
जीवन म जो कु छ बचता है,
उसका भी है कु छ आकषण
िनयित िनयम से—
िजसको समझा सुकरात नह —
िजसको बूझा बुकरात नह —
क़ मत का यारा धन-कं चन
सहसा अप त हो जाने पर
जीवन म जो कु छ बचता है,
उसका भी है कु छ आकषण
आ म म से—
िजससे योगी ठग जाते ह,
गु ानी धोखा खाते ह—
व का यारा धन-कं चन
सहसा अप त हो जाने पर
जीवन म जो कु छ बचता है,
उसका भी है कु छ आकषण
काल म से, िनयित-िनयित से,
आ म म से
रह न गया जो, िमल न सका जो,
सच न आ जो,
ि य जन अपना, ि य धन अपना,
अपना सपना,
इ ह छोड़कर जीवन िजतना,
उसम भी आकपक कतना!
बारह
म जीवन क शंका महान!
युग-युग संचािलत राह छोड़,
युग-युग संिचत िव ास तोड़!
म चला आज युग-युग सेिवत,
पाखंड- ढ़ से बैर ठान।
म जीवन क शंका महान!
होगी न दय म शांित ापक,
कर लेता जब तक नह ा ,
जग-जीवन का कु छ नया अथ,
जग-जीवन का कु छ नया ान।
म जीवन क शंका महान!
गहनांधकार म पाँव धार,
युग नयन फाड़, युग कर पसार,
उठ-उठ, िगर-िगरकर बार-बार
म खोज रहा ँ अपना पथ,
अपनी शका का समाधान।
म जीवन क शंका महान!
सतरं िगनी
नािगन
नतन कर, नतन कर, नािगन,
मेरे जीवन के आँगन म!
1. तू लय काल के मेघ का
क ल-सा कालापन लेकर,
तू नवल सृि क ऊषा क
नव ुित अपने अंग म भर,
बड़वाि -िवलोिड़त अंबुिध क
उ ुंग तरं ग से गित ले,
रथ युत रिव-शिश को बंदी कर
दृग-कोय का रच बंदीघर,
क धती तिड़त को िज वा-सी
िवष-मधुमय दाँत म दाबे,
तू कट ई सहसा कै से
मेरी जगती म, जीवन म?
नतन कर, नतन कर, नािगन,
मेरे जीवन के आँगन म!
2. तू मनोमोिहनी रं भा-सी,
तू पवती रित रानी-सी,
तू मोहमयी उवशी सदृश,
तू मानमयी इं ाणी-सी,
तू दयामयी जगदंबा-सी
तू मृ यु सदृश कटु , ु र, िनठु र,
तू लयंकरी कािलका सदृश,
तू भयंकरी ाणी-सी,
तू ीित, भीित, आसि , मृणा
क एक िवषम सं ा बनकर,
प रव तत होने को आई
मेरे आगे ण- ित ण म!
नतन कर, नतन कर, नािगन,
मेरे जीवन के आँगन म!
3. लयंकर शंकर के िसर पर
जो धूिल-धूस रत जटाजूट,
उसम क प से सोई थी
पी कालकू ट का एक घूँट,
सहसा समािध कर भंग शंभु
जब तांडव म त लीन ए,
िन ालसमय, तं ािनम
तू धूमके तु-सी पड़ी छू ट;
अब घूम जल थल-अबर म,
अब धूम लोक-लोकांतर म
तू कसको खोजा करती है,
तू है कसके अ वी ण म?
नतन कर, नतन कर, नािगन,
मेरे जीवन के आँगन म!
4. तू नागयोिन नािगनी नह ,
तू िव िवमोहक वह माया,
िजसके इं िगत पर युग-युग से
यह िनिखल िव नचता आया,
अपने तप के तेजोबल से
दे तुझको ाली क काया,
धूज ट ने अपने ज टल जूट—
ूह म तुझको भरमाया,
पर मदनकदन कर महायतन
भी तुझे न सब दन बाँध सके ,
तू फर वतं बन फरती है
सबके लोचन म, तन-मन म;
नतन कर, नतन कर, नािगन,
मेरे जीवन के आँगन म!
6. े िस का जग के ताप से
य
र ा करनेवाला अंचल,
चंचल यौवन कल पाता है
पाकर िजसक छाया शीतल,
जीवन का अंितम व क़फन
िजसको नख से िशख तक तनकर
वह सोता ऐसी िन ा म
है होता िजसके हेतु न कल,
िजसको मन तरसा करता है,
िजससे मन डरपा करता है,
दोन क झलक मुझे िमलती
तेरे फन के अवगुंठन म!
नतन कर, नतन कर, नािगन,
मेरे जीवन के आँगन म!
7. जा त जीवन का कं पन है
तेरे अंग के कं पन म,
पागल ाण का पंदन है
तेरे अंग के पंदन म
तेरी त ु दोिलत काया म
मतवाली घिड़य क धड़कन,
उ मद सांस क िसहरन है
तेरी काया के िसहरन म,
अ हड़ यौवन करवट लेता
जब तू भू पर लुं ठत होती,
अलम त जवानी अँगड़ाती
तेरे अंग क ठन म;
नतन कर, नतन कर, नािगन,
मेरे जीवन के आँगन म!
8. तू उ मह वाकां ा-सी
नीचे से उठती ऊपर को,
िनज मुकुट बना लेगी जैसे
ताराविल - मंिडत अंबर को,
तू िवनत ाथना-सी झुककर
ऊपर से नीचे को आती,
जैसे क कसी क पद-रज से
ढँकने को है अपने िसर को,
तू आसा-सी आगे बढ़ती,
तू ल ा-सी पीछे हटती,
जब एक जगह टकती, लगती
दृढ़ िन य-सी िन ल मन म।
नतन कर, नतन कर, नािगन,
मेरे जीवन के आँगन म!
9. मलयाचल से मलयािनल-सी
पल भर खाती, पल इतराती
तू जब आती, युग-युग दहती
शीतल हो जाती है छाती,
पर जब चलती उ ग े भरी
उ म थल क लू-सी
िचर संिचत, संिचत अंतर के
नंदन म आग लगा जाती;
शत िहम िशखर क शीतलता,
शत वालामुिखय क दहकन,
दोन आभािसत होती ह
मुझको तेरे आ लंगन? म!
नतन कर, नतन कर, नािगन,
मेरे जीवन के आँगन म!
मयूरी
मयूरी,
नाच, मगन - मन नाच!
अँधेरे का दीपक
है अँधेरी रात पर
दीवा जलाना कब मना है?
2. बादल के अ ु से धोया
गया नभ-नील नीलम
का बनाया था गया मधु-
पा मनमोहक, मनोरम
थम ऊषा क करण क
लािलमा – सी लाल म दरा
थी उसी म चमचमाती
नव घन म चंचला सम,
वह अगर टू टा िमलाकर
हाथ क दोन हथेली,
एक िनमल ोत से
तृ णा बुझाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर
दीवा जलाना कब मना है?
3. या घड़ी थी, एक भी
चंता नह थी पास आई,
कािलमा तो दूर, छाया
भी पलक पर थी न छाई
आँख म ती से झपकती,
बात म ती से टपकती,
थी हँसी ऐसी िजसे सुन
बादल ने शम खाई,
वह गई तो ले गई
उ लास के आधार, माना,
पर अिथरता पर समय क
मुसकराना कब मना है?
है अँधेरी रात पर
दीवा जलाना कब मना है?
4. हाय, वे उ माद के झ के
क िजनम राग जागा,
वैभव से फे र आँख
गान का वरदान माँगा,
एक अंतर से विनत ह
दूसरे म जो िनरं तर,
भर दया अंबर-अविन को
म ता के गीत गा-गा
अंत उनका हो गया तो
मन बहलने के िलए ही,
ले अधूरी पंि कोई
गुनगुनाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर
दीवा जलाना कब मना है?
5. हाय, वे साथी क चुंबक-
लौह-से जो पास आए,
पास या आए, दय के
बीच ही गोया समाए,
दन कटे ऐसे क कोई
तार वीणा के िमलाकर
एक मीठा और यारा
िज़दगी का गीत गाए,
वे गए तो सोचकर यह
लौटनेवाले नह वे,
खोज मन का मीत कोई
लौ लगाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर
दीवा जलाना कब मना है?
6. या हवाएँ थ क उजड़ा
यार का वह आिशयाना,
कु छ न आया काम तेरा
शोर करना, गुल मचाना,
नाश क उन शि य के
साथ चलता ज़ोर कसका,
कं तु ऐ िनमाण के
ितिनिध, तुझे होगा बताना,
जो बसे ह वे उजड़ते
ह कृ ित के जड़ िनयम से,
पर कसी उजड़े ए को
फर बसाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर
दीवा जलाना कब मना है?
जो बीत गई
जो बीत गई सो बात गई!
2. जीवन म वह था एक कु सुम,
थे उस पर िन य िनछावर तुम,
वह सूख गया तो सूख गया;
मधुवन क छाती को देखो,
सूख कतनी इसक किलयाँ,
मुरझा कतनी व ल रयाँ,
जो मुरझा फर कहाँ िखल ;
पर बोलो सूखे फू ल पर
कब मधुवन शोर मचाता है;
जो बीत गई सो बात गई!
4. मृद ु िम ी के ह बने ए,
मधुघट फू टा ही करते ह,
लघु जीवन लेकर आए ह
याले टू टा ही करते ह
फर भी म दरालय के अंदर
मधु के घट ह, मधु याले ह,
जो मादकता के मारे ह,
वे मधु लूटा ही करते ह;
वह क ा पीने वाला है
िजसक ममता घट- याल पर,
जो स े मधु से जला आ
कब रोता है, िच लाता है!
जो बीत गई सो बात गई!
अजेय
अजेय तू अभी बना!
िनमाण
नीड़ का िनमाण फर- फर,
नेह का आ वान फर- फर!
1. वह उठी आँधी क नभ म
छा गया सहसा अँधेरा,
धूिल धूसर बादल ने
भूिम को इस भाँित घेरा,
रात-सा दन हो गया, फर
रात आई और काली,
लग रहा था अब न होगा
इस िनशा का फर सवेरा,
रात के उ पात-भय से
भीत जन-जन, भीत कण-कण
कं तु ाची से उषा क
मोिहनी मुसकान फर- फर!
नीड़ का िनमाण फर- फर,
नेह का आ वान फर- फर!
2. वह चले झ के क काँपे
भीम कायावान भूधर,
जड़ समेत उखड़-पुखड़कर
िगर पड़े टू टे िवटप वर,
हाय, ितनक से िविन मत
घ सल पर या न बीती,
डगमगाए जब क कं कड़,
ट प थर के महल-घर;
बोल आशा के िवहंगम,
कस जगह पर तू िछपा था,
जो गगन पर चढ़ उठाता
गव से िनज तान फर- फर!
नीड़ का िनमाण फर- फर,
नेह का आ वान फर- फर!
3. ु नभ के व दंत
म उषा है मुसकराती,
घोर गजनमय गगन के
कं ठ म खग पंि गाती;
एक िचिड़या च च म ितनका
िलए जो जा रही है,
वह सहज म ही पवन
उं चास को नीचा दखाती!
नाश के दुख से कभी
दबता नह िनमाण का सुख
लय क िन त धता से
सृि का नव गान फर- फर!
नीड़ का िनमाण फर- फर,
नेह का आ वान फर- फर!
दो नयन
दो नयन िजनसे क फर म
िव का ृंगार देख।ूँ
1. व क जलती ई नगरी
धुआँ िजनम गई भर,
योित िजनक जा चुक है
आँसु के साथ झर-झर,
म उ ह से कस तरह फर
योित का संसार देख,
दो नयन िजनसे क फर म
िव का ृंगार देख।ूँ
2. रि मय म रँ ग पहन ली आज
कसने लाल सारी,
फू ल-किलय से कृ ित ने माँग
है कसक सँवारी,
कर रहा है कौन फर ृंगार,
वीणा बोलती है;
छू गया है कौन मन के तार,
वीणा बोलती है!
मुझे पुकार लो
इसीिलए खड़ा रहा
क तुम मुझे पुकार लो!
1. ज़मीन है न बोलती,
न आसमान बोलता,
जहान देखकर मुझे
नह ज़बान खोलता,
नह जगह कह जहाँ
न अजनबी िगना गया,
कहाँ-कहाँ न फर चुका
दमाग- दल टटोलता;
कहाँ मनु य है क जो
उमीद छोड़कर िजया,
इसीिलए अड़ा रहा
क तुम मुझे पुकार लो;
इसीिलए खड़ा रहा
क तुम मुझे पुकार लो!
2. ितिमर - समु कर सक
न पार ने क तरी,
िवन व से लदी,
िवषाद याद से भरी
न कू ल भूिम का िमला,
न कोर भोर क िमली,
न कट सक , न घट सक
िवरह-िघरी िवभावरी;
कहाँ मनु य है िजसे
कमी खली न यार क ,
इसीिलए खड़ा रहा
क तुम मुझे दुलार लो!
इसीिलए खड़ा रहा
क तुम मुझे पुकार लो!
3. हाय कसक थी क िम ी
म िमला संसार मेरा,
हास कसका है क फू ल —
सा िखला संसार मेरा,
नाश को देती चुनौती
य द नह िनमाण तुम हो,
कौन तुम हो?
4. म पुरानी यादगार
से िवदा भी ले न पाया
था क तुमने ला नए ही
लोक म मुझको बसाया,
य द नह तूफ़ान तुम हो,
जो नह उठकर ठहरता
कौन तुम हो?
6. यह इशारे ह क िजन पर
काल ने भी चाल छोड़ी,
लौट म आया अगर तो
कौन-सी सौगंध तोड़ी,
सुन िजसे कना असंभव
य द नह आ वान तुम हो,
कौन तुम हो?
7. कर प र म कौन तुमको
आज तक अपना सका है,
खोजकर कोई तु हारा
कब पता भी पा सका है,
देवता का अिनि त
य द नह वरदान तुम हो,
कौन तुम हो?
तुम गा दो
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए!
2. जब-जब जग ने कर फै लाए,
मने कोष लुटाया,
रं क आ म िनज िनिध खोकर
जगती ने या पाया।
भट न िजसम म कु छ खोऊँ
पर तुम सब कु छ पाओ,
तुम ले लो, मेरा दान अमर हो जाए!
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए!
3. सुंदर और असुंदर जग म
मने या न सराहा,
इतनी ममतामय दुिनया म
म के वल अनचाहा;
देखूँ अब कसक कती है
आ मुझ पर अिभलाषा,
तुम रख लो, मेरा मान अमर जाए!
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए!
नव वष
नव वष
हष नव
जीवन उ कष नव।
नव उमंग,
नव तरं ग,
जीवन का नव संग।
नवल चाह,
नवल राह,
जीवन का नव वाह।
गीत नवल,
ीित नवल,
जीवन क रीित नवल,
जीवन क नीित नवल,
जीवन क जीत नवल,
कत
1. देिव, गया है जोड़ा यह जो
मेरा और तु हारा नाता,
नह तु हारा मेरा के वल,
जग-जीवन से मेल कराता।
िव ास
1. पंथ जीवन क चुनौती
दे रहा है हर कदम पर,
आिख़री मिज़ल नह होती
कह भी दृि गोचर,
धूिल से लद, वेद से संच
हो गई है देह भारी,
कौन - सा िव ास मुझको
ख चता जाता िनरं तर?—
पंथ या, पथ क थकन या,
वेद कण या,
दो नयन मेरी ती ा म खड़े ह।
2. एक भी संदश े आशा
का नह देते िसतारे ,
कृ ित ने मंगल शकु न पथ
म नह मेरे सँवारे ,
िव का उ साहवधक
श द भी मने सुना कब,
कं तु बढ़ता जा रहा ँ
ल य पर कसके सहारे ?—
िव क अवहेलना या,
अपशकु न या,
दो नयन मेरी ती ा म खड़े ह
3. चल रहा है पर प च ँ ना
ल य पर इसका अिनि त,
कम कर भी कम फल से
य द रहा यह पांथ वंिचत,
िव तो उस पर हँसेगा
खूब भूला, खूब भटका!
कं तु गा यह पि याँ दो
वह करे गा धैय संिचत—
थ जीवन, थ जीवन,
क लगन या,
दो नयन मेरी ती ा म खड़े ह।
4. अब नह उस पार का भी
भय मुझे कु छ भी सताता,
उस तरफ के लोक से भी
जुड़ चुका है एक नाता,
म उसे भूला नह तो
वह नह भूली मुझे भी,
मृ यु - पथ पर भी बढ़ूँगा
मोद से यह गुनगुनाता—
अंत यौवन, अंत जीवन
का, मरण या,
दो नयन मेरी ती ा म खड़े ह।
बंगाल का काल
पड़ गया बंगाले म काल,
भरी कं गाल से धरती,
भरी कं काल से धरती!
या कहा?
कहाँ पड़ गया काल,
कहाँ कं गाल,
कहाँ कं काल,
या कहा, काल त बंगाल!
वही बंगाल—
िजस पर छाए सजल घन क
छाया म लह-लह लहराते
खेत धान के दूर-दूर तक,
जहाँ कह भी गित नयन क ।
िजस पर फै ले नदी-सरोवर,
नद-नाले वर,
िनमल िनझर
संिचत करते वसु धरा का
आँगन उवर।
िजसम उगते-बढ़ते त वर,
लदे दल से,
फँ दे फल से,
सजे कली-कु सुम से सु दर।
वही बंगाल—
देख िजसे पुल कत ने से
भरे कं ठ से,
ग द् वर से
किव ने गाया रा गान वह—
व दे मातरम्,
सुजलाम्, सुफलाम्, मलयज शीतलाम्,
श य यामलाम्, मातरम्।..
वही बंगाल—
िजसक एक साँस ने भर दी
मरे देश म जान,
आ म स मान,
आज़ादी क आन,
आज,
काल क गित भी कै सी, हाय,
वयं असहाय,
वयं िन पाय
वयं िन ाण,
मृ यु के मुख का होकर ास,
िगन रहा है जीवन क साँस-साँस।
बंग भूिम अब
श य हीन है,
दीन ीण है,
िचर मलीन है,
भरणी आज हो गई हरणी;
जल दे फल दे और अ दे
जो करनी थी जीवन दान,
मरघट-सा अब प बनाकर
अजगर-सा अब मुंह फै लाकर
खा लेती अपनी संतान!
बं कम ने गव त ीवा
उठा िव से
था वह पूछा,
‘के बोल मा, तुिम अबले?’
म कहता ,ँ
तू अबला है।
तू होती, मा,
अगर न िनबल,
अगर न दुबल,
तो तेरे यह ल -ल सुत
वंिचत रहकर उसी अ से,
उसी धा य से
िजस पर है अिधकार इ ह का,
य क इ ह ने अपने म से
जोता, बोया,
इसे उगाया,
स च वेद से
इसे बढ़ाया,
काटा, माड़ा, ढोया,
भूख-भूख कर,
सूख-सूखकर,
पंजर-पंजर,
िगर धरती पर
य न तोड़ देते अपना दम
और नपुंसक मृ यु न मरते।
भूखे बंग देश के वासी!
मन से अब संतोष हटाओ,
असंतोष का नाद उठाओ,
करो ाि त का नारा ऊँचा,
भूखो, अपनी भूख बढ़ाओ,
और भूख क ताक़त समझो,
िह मत समझो,
जुरत समझो,
कू बत समझो;
देखो कौन तु हारे आगे
नह झुका देता िसर अपना।
हम भूख का अथ बताना,
भूखो, इसको आज समझ लो,
मरने का यह नह बहाना!
फर से जीिवत,
फर से जा त,
फर से उ त
होने का है भूख िनमं ण,
हे आवाहन।
भूख नह दुबल, िनबल है,
भूख सबल है,
भूख बल है,
भूख अटल है,
भूख कािलका है, काली है;
या काली सव भूतेषु
ुधा पेण संि थता,
नम त यै, नम त यै,
नम त यै, नमोनम:!
भूख चंड शि शाली है;
या चंडी सव भूतेषु
ुधा पेण संि थता,
नम त यै, नम त यै,
नम त यै, नमोनम:!
भूख अखंड शौयशाली है;
या देवी सव भूतेषु
ुधा पेण संि थता,
नम त यै, नम त यै, नम त यै, नमोनम:!
4. ई थी म दरा मुझको ा
नह , पर, थी वह भट, न दान,
अमृत भी मुझको अ वीकार
अगर कुं ठत हो मेरा मान;
दृग ने मोती क िनिध खोल
चुकाया था मधुकण का मोल,
हलाहल आया है य द पास
दय का लो दूग
ँ ा तोल!
5. क जीवन क आशा का उ लास,
क जीवन क आशा का उपहास,
क जीवन क आशामय उ ार,
क जीवन क आशाहीन पुकार,
दशा-िनिश क सीमा पर बैठ
िनकालूँ भी तो या प रणाम,
िवहँसता आता है हर ात,
िबलखती जाती है हर शाम!
6. जगत है च एक िवराट
पाट दो िजसके दीघाकार—
गगन िजसका ऊपर फै लाव
अविन िजसका नीचे िव तार;
नह इसम पड़ने का खेद,
मुझे तो यह करता हैरान,
क िघसता है यह यं महान
क िपसता है यह लघु इं सान!
8. नह है यह मानव क हार
क दुिनया से करता थान,
नह है दुिनया म वह त व
क िजसम िमल जाए इं सान,
पड़ी इस पृ वी पर हर क ,
िचता क भूभल का हर ढेर,
कड़ी ठोकर का एक िनशान
लगा जो वह जाता मुँह फे र।
15. और यह िम ी है हैरान
देखकर तेरे अिमत योग,
िमटाता तू इसको हर बार,
िमटाने का इसका तो ढ ग,
अभी तो तेरी िच के यो य
नह इसका कोई आकार,
अभी तो जाने कतनी बार
िमटेगा बन-बनकर संसार!
एक
न थू ख़ैरे ने गांधी का कर अ त दया
या कहा, संह को िशशु मेढक ने लील िलया!
िध ार काल, भगवान िव णु के वाहन को
सहसा लपेटने
म समथ हो
गया लवा!
दो
आओ बापू के अि तम दशन कर जाओ,
चरण म ांजिलयाँ अपण कर जाओ,
यह आिख़री उनके भौितक जीवन क ,
कल उसे करगी
भ म िचता क
वालाएँ।
आ मा क अजर-अमरता के हम िव ासी,
काया को हमने जीण वसन बस माना है,
इस महामोह क बेला म भी या हमको
वािजब अपनी
गीता का ान
भुलाना है।
चार
अब अ राि है और अ जल बेला,
अब ान करे गा यह जोधा अलबेला,
ले कन इसको छेड़ते ए डर लगता,
यह ब त अिधक
थककर धरती पर
सोता।
मत यह लो से भीगे व उतारो
मत मद िसपाही का ृंगार िबगाड़ो,
इस गद - खून पर चोवा - च दन वारो
मानव-पीड़ा- ित बंिबत ऐस का मुँह,
भगवान वयं
अपने हाथ से
धोता।
पाँच
तुम बड़ा उसे आदर दखलाने आए
च दन, कपूर क िचता रचाने आए,
सोचा, कस महारथी क अरथी आती,
सोचा, उसने कस रण म ाण िबछाए?
लाओ वे फरसे, बरछे, ब लम, भाले,
जो िनद ष के लोह; से ह काले,
लाओ वे सब हिथयार, छु रे , तलवार,
िजनसे बेकस-मासूम औरत , ब ,
मद के तुमने लाख शीश उतारे ,
लाओ ब दूक िजनसे िगर हजार ,
तब फर दुखांत, दुदात महाभारत के
इस भी म िपतामह क हम िचता बनाएँ।
िजससे तुमने घर-घर म आग लगाई,
िजससे तुमने नगर क पाँत जलाई,
लाओ वह लूक स यानाशी, घाती,
तब हम अपने बापू क िचता जलाएं।
वे जल बनी रह जाए फरके ब दी
वे जल मगर हो आग न उसक मंदी,
तो तुम सब जाओ, अपने को िध ारो,
गांधी जी ने बेमतलब ाण गँवाए।
छह
भेद अतीत एक वर उठता —
नैनं दहित पावक... :
िनकट, िनकटतर और िनकटतम
ई िचता के अरथी, हाय,
बापू के जलने का भी अब, देखो दृ य दुसह।
भेद अतीत एक वर उठता—
नैनं दहित पावक... :
च दन क शैया के ऊपर
लेटी है िम ी िन पाय
लो अब लपट से अिभभूिषत िचता दहकती है दह-दह।
भेद अतीत एक वर उठता—
नैनं दहित पावक... :
अगिणत भाव क झंझा म
खड़े देखते हम असहाय
और कया भी या... जाय,
ार- ार होती जाती है बापू क काया रह-रह।
भेद अतीत एक वर उठता—
नैनं दहित पावक... :
सात
भारत के सब िस तीथ से, नगर से
है आज आ रही माँग तपोमय गांधी क
अंितम धूनी से राख हम भी चुटक भर
िमल जाए िजससे उसे सराएँ ले जाकर
पावन करते
िनकट थ नदी,
नद, सर, सागर।
अपने तन पर अिधकार समझते थे सब दन
वे भारत क िम ी, भारत के पानी का,
जो लोग चाहते ह ले जाएँ राख आज,
है ठीक वही िजसको चाहे सारा समाज,
संब जगह जो हो गांधी जी क िम ी से
साधना करे
रखने को उनक
क त - लाज
हे देश-जाित के दीवान के चूड़ामिण,
इस िचर यौवनमय, सु दर, पावन वसु धरा
क सेवा म मनुहार महज करते-करते
दी तुमने अपनी उमर गँवा, दी देह याग;
अब राख तु हारी आयभूिम क भरे माँग,
हो अमर तु ह खो
इस तपि वनी
का सुहाग।
आठ
थैिलयाँ सम पत क सेवा के िहत हज़ार,
ांजिलयाँ अ पत क तुमक लाख बार,
गो तु ह न थी इनक कोई आव यकता,
पु पांजिलयाँ भी तु ह देश ने द अपार,
अब, हाय, ितलांजिल
देने क आई बारी।
तुम ितल थे ले कन रहे झुकाते सदा ताड़,
तुम ितल थे ले कन िलए ओट म थे पहाड़,
शंकर-िपनाक-सी रही तु हारी जमी धाक,
तुम हटे न ितल भर, गई दानवी शि हार;
ितल एक तु हारे जीवन क
ा या सारी।
ितल-ितल कर तुमने देश क च से उठा िलया,
ितल-ितल िनज को उसक चंता म गला दया,
तुमने वदेश का ितलक कया आज़ादी से,
जीवन म या, मरकर भी एक ितल म कया;
क़ाितल ने मिहमा
और तु हारी िव तारी।
तुम कटे मगर ितल भर भी स ा नह कटी,
तुम लु ए, ितल मा मह ा नह घटी,
तुम देह नह थे, तुम थे भारत क आ मा,
ज़ािहर बाितल थी, बाितल ज़ािहर बन कटी,
ितल क अंजिल को आज
िमले तुम अिधकारी।
नौ
बापू क ह या के चािलस दन बाद गया
म द ली को, देखने गया उस थल को भी
िजस पर बापू जी गोली खाकर सोख गए,
जो रँ ग उठा
उनके लो
क लाली से।
िबरला-घर के बाएँ को है वह लॅान हरा,
ाथना सभा िजस पर बापू क होती थी,
थी एक ओर को छोटी-सी वे दका बनी,
िजस पर थे गहरे
लाल रं ग के
फू ल चढ़े।
उस हरे लॅान के बीच देख उन फू ल को
ऐसा लगता था जैसे बापू का लो
अब भी पृ वी के ऊपर सूख नह पाया,
अब भी िम ी
के ऊपर
ताज़ा ताज़ा है!
सुन पड़े धड़ाके तीन मुझे फर गोली के
काँपने लगी पाँव के नीचे क धरती,
फर पीड़ा के वर म फू टा ‘हे राम’ श द,
चीरता आ िव ुत- सा नभ के तर पर तर
कर विनत- ित विनत दक् - दगंत को बार-बार
मेरे अंतर म पैठ मुझे सालने लगा!......
दस
‘हे राम’-खिचत यह वही चौतरा, भाई,
िजस पर बापू पर ने अंितम सेज डसाई,
िजस पर लपट के साथ िलपट वे सोए,
गलती क हमने
जो वह आग
बुझाई।
पारसी अि जो थे फारस से लाए,
ह आज तलक वे उसे वल त बनाए,
जो आग िचता पर बापू के जागी थी
था उिचत उसे
हम रहते सदा
जगाए।
है हमको उनक यादगार बनवानी,
सैकड़ सुझावे दगे पंिडत- ानी,
ले कन य द हम वह वाल जगाए रहते,
होती उनक
सबसे उपयु
िनशानी।
तम के सम वे योित एक अिवचल थे,
आँधी – पानी म पड़कर अिडग - अटल थे,
तप क वाला के अ दर पल-पल जल-जल
वे वयं अि -से
अकलुष थे,
िनमल थे।
वह वाला हमको उनक याद दलाती,
वह वाला हमको उनका पथ दखलाती,
वह वाला भारत के घर - घर म जाती,
संदश
े अि मय
जन-जन को
प चँ ाती।
पु तहापु त यह आग देखने आत ,
इससे अतीत क सुिधय सजग बनात ,
भारत के अमर तप वी क इस धूनी
से ले भभूत
अपने िसर-माथ
चढ़ात ।
पर नह आग क बाक यहाँ िनशानी,
लाद - होिलका क फर घटी कहानी,
बापू वाला से िनकल अछू ते आए,
िमल गई राख-
िम ी म िचता
भवानी।
अब तक दुहरात मि जद क मीनार,
अब तक दुहरात घर - घर क दीवार,
दुहरात पेड़ क हर तरफ़ कतार,
दुहराते द रया के जल - कू ल - कगारे ,
च पे-च पे इस राजघाट के रटते
जो लगे यहाँ थे िचता - शाम को नारे —
हो गए आज से बापू अमर हमारे ,
हो गए आज से बापू अमर हमारे ! -
खादी के फू ल
एक
हो गया या देश के
सब से सुनहले दीप का
िनवाण!
:1:
वह जगा या जगमगाया देश का
तम से िघरा ासाद,
वह जगा या था जहाँ अवसाद छाया,
छा गया आ लाद,
वह जगा या िबछ गई आशा करण
क चेतना सब ओर,
वह जगा या व से सूने दय-
मन हो गए आबाद
वह जगा या ऊ व उ ित-पथ
आ आलोक का आधार,
वह जगा या मानव का वग ने
उठकर कया आ वान,
हो गया या देश के
सब से सुनहले दीप का
िनवाण!
वह उठा तो एक लौ म ब द होकर
आ गई य भोर,
वह उठा उठ गई सब देश भर क
आँख उसक ओर,
वह उठा तो उठ पड़ी स दयाँ िवगत
अँगडाइयाँ ले साथ,
वह उठा तो उठ पड़े युग-युग दबे
दुिखया, दिलत, कमज़ोर
वह उठा तो उठ पड़ी उ साह क
लहर दृग के बीच
वह उठा तो झुक गए अ याय,
अ याचार के अिभमान,
हो गया या देश के
सबसे भामय दीप का
िनवाण!
ेह म डू बा आ था हाथ से
काती ई का सूत,
थी िबखरती देश भर के घर-डगर म
एक आभा पूत,
रोशनी सबके िलए थी, एक को भी
थी नह अंगार,
फ़क़ अपने औ’ पराए म न समझा
शाि त का यह दूत,
चाँद-सूरज से कािशत एक से ह
झोपड़ी – ासाद,
एक-सी सबको िवभा देते जलाते
जो क अपने ाण,
हो गया या देश के
सबसे यश वी दीप का
िनवाण!
योित म उसक ए हम या ा
के िलए तैयार,
क उसी के आसरे हमने ितिमर-िग र
घा टयाँ भी पार,
हम थके माँदे कभी बैठे कभी
पीछे चले भी लौट,
क तु वह बढ़ता रहा आगे सदा
साहस बना साकार,
आिधयाँ आ , घटा छाई, िगरा
भी व बारं बार,
पर लगाता वह सदा था एक —
अ यु थान! अ यु थान!
हो गया या देश के
सबसे अचंचल दीप का
िनवाण!
ल य उसका था नह कर दे महज़
इस देश को आज़ाद,
चाहता वह था क दुिनया आज क
नाशाद हो फर शाद,
नाचता उसके दृग म था नए
मानव-जगत का वाब,
कर गया उसको अचानक कौन औ’
कस वा ते बबाद,
बुझ गया वह दीप िजसक थी नह
जीवन-कहानी पूण,
वह अधूरी या रही, इं सािनयत का
क गया आ यान।
हो गया या देश के
सबसे गितमय दीप का
िनवाण!
दो
वे आ माजीवी थे काया से कह परे ,
वे गोली खाकर और जी उठे , नह मरे ,
जब से तन चढ़कर िचता हो गया राख-धूर,
तब से आ मा
क और मह ा
जना गए।
तीन
उसने अपना िस ा त न बदला मा लेश,
पलटा शासन, कट गई क़ौम, बँट गया देश,
वह एक िशला थी िन ा क ऐसी अिवकल,
सात सागर
का बल िजसको
दहला न सका।
चार
था उिचत क गांधी जी क िनमम ह या पर
तारे िछप जाते, काला हो जाता अंबर,
के वल कलंक अविश च मा रह जाता,
कु छ और नज़ारा
था जब ऊपर
गई नज़र।
उस महाशोक म भी मन म अिभमान आ,
धरती के ऊपर कु छ ऐसा बिलदान आ,
ितफिलत आ धरणी के तप से कु छ ऐसा,
िजसका अमर
के आँगन म
स मान आ।
पाँच
ऐसा भी कोई जीवन का मैदान कह
िजसने पाया कु छ बापू से वरदान नह ?
मानव के िहत जो कु छ भी रखता था माने
बापू ने सबको
िगन-िगनकर
अवगाह िलया।
छह
तुम उठा लुकाठी खड़े ए चौराहे पर;
बोले, वह साथ चले जो अपना दाहे घर;
तुमने था अपना पहले भ मीभूत कया,
फर ऐसा नेता
देश कभी या
पाएगा?
सात
गुण तो िनःसंशय देश तु हारे गाएगा,
तुम-सा स दय के बाद कह फर पाएगा,
पर िजन आदश को लेकर तुम िजए-मरे ,
कतना उनको
कल का भारत
अपनाएगा?
आठ
ओ देशवािसयो, बैठ न जाओ प थर से,
ओ देशवािसय , रोओ मत य िनझर से,
दर वा त कर, आओ, कु छ अपने ई र से
वह सुनता है
ग़मज़द और
रं जीद क ।
नौ
आधुिनक जगत क पधापूण नुमाइश म
ह आज दखावे पर मानवता क क़ म,
है भरा आ आँख म कौतूहल-िव मय,
देख इनम
कहलाया जाता
कौन मीर?
दस
हम गांधी क ितमा के इतने पास खड़े
देख नह पाते स ा उनक महान,
उनक आभा से आँख होत चकाच ध,
गुण-वणन म
सािबत होती
ज़बान
एक
चाँदनी फै ली गगन म, चाह मन म।
दो
म कहाँ पर, रािगनी मेरी कह पर!
तीन
आज मन-वीणा, ि ये, फर से कसो तो।
मौन के भी कं ठ म म वर भ ँ गा,
एक दुिनया ही नई मुख रत क ँ गा,
तुम अके ली आज अंतर म बसी तो;
आज मन-वीणा, ि ये, फर से कसो तो।
चार
आज कतनी वासनामय यािमनी है!
पाँच
हास म तेरे नहाई यह जु हाई।
छह
ाण, कह दो, आज तुम मेरे िलए हो।
सात
यार के पल म जलन भी तो मधुर है।
आठ
म ित विन सुन चुका, विन खोजता ।ँ
नौ
यार, जवानी, जीवन इनका
जादू मने सब दन माना।
डू ब कनारे जाते ह जब
नदी म जोबन आता है,
कू ल-तट म बंदी होकर
लहर का दम घुट जाता है,
नाम दूसरा के वल जगती
जंग लगी कु छ ज़ंजीर का,
िजसके अंदर तान - तरं ग
उनका जग से या नाता है;
मन के राजा हो तो मुझसे
लो वरदान अमर यौवन का,
नह जवानी उसने जानी
िजसने पर का बंधन जाना।
यार, जवानी, जीवन इनका
जादू मने सब दन माना।
दस
गरमी म ातःकाल पवन
बेला से खेला करता जब
तब याद तु हारी आती है।
यारह
ओ पावस के पहले बादल,
उठ उमड़-गरज, िघर घुमड़-चमक
मेरे मन- ाण पर बरसो।
यह आशा क लितकाएँ थ
जो िबखर आकु ल- ाकु ल-सी,
यह व क किलकाएँ थ
जो िखलने से पहले झुलस ,
यह मधुवन था, जो सूना-सा
म थल दखलाई पड़ता है,
इन सूखे कू ल- कनार म
थी एक समय स रता लसी;
आँसू क बूँद चाट कह
अंतर क तृ णा िमटती है;
ओ पावस के पहले बादल,
उठ उमड़-गरज, िघर घुमड़-चमक
मेरे मन- ाण पर बरसो।
बारह
ख चत तुम कौन ऐसे बंधन से
जो क क सकता नह म —
उठ रहा है शोर-गुल
जग म, ज़माने म, सही है,
कं तु मुझको तो सुनाई
आज कु छ देता नह है,
को कलो, तुमको नई ऋतु
के नए नग़मे मुबारक,
और ही आवाज़ मेरे
वा ते अब आ रही है;
वग प रय के वर के
भी िलए म आज बहरा,
गीत मेरा मौन सागर
म गया है डू ब गहरा;
साँस भी थम जाय िजससे
साफ़ तुमको सुन तकूँ म —
ख चती कन पीर-भीगे गायन से
जो क क सकता नह म —
ख चती तुम कौन ऐसे बंधन से
जो क क सकता नह म —
तेरह
तुमको मेरे ि य ाण िनमं ण देते।
अब मुझको मालूम ई है
श द क भी सीमा,
गीत आ जाता है मेरे
गले म धीमा,
आज उदार दृग ने रख ली
लाज दय क जाती,
तुमको नयन के दान िनमं ण देते;
तुमको मेरे ि य ाण िनमं ण देते।
आँख सुने तो आँख भरे दल
के सौ भेद बताए,
दूर बसे ि यतम को आँसू
या संदशे सुनाए,
िभगा सकोगी इनसे
अपने मन का कोई कोना?
तुमको मेरे अरमान िनमं ण देते;
तुमको मेरे ि य ाण िनमं ण देते।
किवय क सूची से अब से
मेरा नाम हटा दो,
मेरी कृ ितय के पृ को
म थल म िबखरा दो,
मौन िबछी है पथ म मेरी
स ा, बस तुम आओ,
तुमको किव के बिलदान िनमं ण देते;
तुमको मेरे ि य ाण िनमं ण देते।
चौदह
ाण, सं या झुक गई िग र, ाम, त पर,
उठ रहा है ि ितज के ऊपर संदरू ी चाँद
मेरा यार पहली बार लो तुम।
प ह
सिख, अिखल कृ ित क यास क हम-तुम भीग।
अक मात यह वात ई य
जब हम-तुम िमल पाए,
तभी उठी आँधी अंबर म
सजल जलद िघर आए
यह रमिझम संकेत गगन का
समझो या मत समझो,
सिख, भीग रहा आकाश क हम-तुम भीग;
सिख, अिखल कृ ित क यास क हम-तुम भीग;
इन ठं ड-े ठं डे झ क से
म काँपा, तुम काँप
एक भावना िबजली बनकर
दो दय म ापी,
आज उपेि त हो न सके गा
रसमय पवन-सँदसे ा,
सिख, भीग रही वातास क हम-तुम भीग;
सिख, अिखल कृ ित क यास क हम-तुम भीग;
मधुवन के त वर से िमलकर
भीगी लतर सलोनी,
साथ कु सुम के किलका भीगी
कौन ई अनहोनी,
भीग-भीग, पी-पीकर चातक
का वर कातर भारी,
सिख, भीग रही है रात क हम-तुम भीग;
सिख, अिखल कृ ित क यास क हम-तुम भीग;
इस दूरी क मजबूरी पर
आँसू नयन िगराते,
आज समय तो था अधर से
हम मधुरस बरसाते,
मेरी गीली साँस तु हारी
साँस को छू आती,
सिख, भीग रहे उ वास क हम-तुम भीग;
सिख, अिखल कृ ित क यास क हम-तुम भीग;
सोलह
सिख, यह राग क रात नह सोने क ।
अंबर-अंतर गल धरती का
अंचल आज िभगोता,
यार पपीहे का पुल कत वर
दिश- दिश मुख रत होता,
और कृ ित-प लव अवगुंठन
फर- फर पवन उठाता,
यह मदमात क रात नह सोने क ;
सिख, यह राग क रात नह सोने क ।
स ह
ि य, शेष ब त है रात अभी मत जाओ।
अरमान क एक िनशा म
होती ह कै घिड़याँ,
आग दबा र खी है मैन
जो छू ट फु लझिड़याँ,
मेरी सीिमत भा य प रिध को
और करो मत छोटी,
ि य, शेष व त है रात अभी मत जाओ।
अ ारह
सुिध म संिचत वह साँझ क जब
रतानरी यारी सारी म, तुम, ाण, िमल , नत, लाज-भरी
मधुऋतु-मुकुिलत गुलमुहर तले।
संदरू लुटाया था रिव ने,
सं या ने वण लुटाया था,
थे गाल गगन के लाल ए,
धरती का दल भर आया था,
लहराया था भरमाया-सा
डाली-डाली पर गंध पवन
जब मने तुमको औ’ तुमने
मुझको अनजाने पाया था;
है ध य धरा िजसपर मन का
धन धोखे से िमल जाता है;
पल अचरज और अिन य के
पलक पर आते ही िपघले,
पर सुिध म संिचत साँझ क जब
रतनारी यारी सारी म, तुम, ाण, िमल नत, लाज-भरी
मधुऋतु-मुकुिलत गुलमुहर तले।
सायं- ात: का कं चन या
य द अधर का अंगार िमले,
तारकमिणय क संपि या
य द बाँह का गलहार िमले,
संसार िमले भी तो या जब
अपना अंतर ही सूना हो,
पाना या शेष रहे फर जब
मन को मन का उपहार िमले;
है ध य णय िजसको पाकर
मानव वग को ठु कराता;
ऐसे पागलपन के अवसर
कब जीवन म दो बार िमले;
है याद मुझे वह शाम क जब
नीलम-सी नीली सारी म, तुम, ाण, िमल उ माद-भरी
खुलकर फू ले गुलमुहर तले।
सुिध म संिचत वह साँझ क जब
रतनारी यारी सारी म, तुम ाण, िमल नत, लाज-भरी
मधुऋतु-मुकुिलत गुलमुहर तले।
आभास िवरह का आया था
मुझको िमलने क घिड़य म,
आह क आहट आई थी
मुझको हँसती फु लझिड़य म,
मानव के सुख म दुख ऐसे
चुपचाप उतरकर आ जाता,
है ओस ढु लक पड़ती जैसे
मकरं दमयी पंखु रय म;
है ध य समय िजससे सपना
सच होता, सच सपना होता;
अं कत सबके अंतरपट पर
कु छ बीती बात, दन िपछले;
कब भूल सका गोधूिल क जब
िसत-सेमल सादी सारी म, तुम, ाण, िमल अवसाद-भरी
किल-पु प झरे गुलमुहर तले।
सुिध म संिचत वह साँझ क जब
रतनारी यारी सारी म, तुम, ाण, िमल नत, लाज-भरी
मधुऋतु-मुकुिलत गुलमुहर तले।
उ ीस
जीवन क आपाधापी म कब व िमला
कु छ देर कह पर बैठ कभी यह सोच सकूँ ,
जो कया, कहा, माना उसम या बुरा-भला।
बीस
कु दन लगा, सरोिजनी सजा न सर,
सु दन भगा, न कं ज पर ठहर मर,
अनय जगा, न रस िवमु ध कर अधर,
—सदैव ेह
के िलए
िवकल दय!
इ स
समेट ली करण क ठन दनेश ने,
समा बदल दया ितिमर- वेश ने,
संगार कर िलया गगन देश ने;
—नटी िनशीथ
का पुलक
उठा िहया!
बाईस
समीर ेह-रािगनी सुना गया,
तड़ाग म उफान-सा उठा गया,
तरं ग म तरं ग लीन हो गई,
झुक िनशा,
दशा,
झुके नयन!
तेईस
पुकाराता पपीहरा िप... आ, िप…आ,
ित विनत िननाद से िहया-िहया;
हरे क यार क पुकार म असर,
कहाँ उठी,
कहाँ सुनी गई
मगर!
चौबीस
सुना क एक वग शोधता रहा,
सुना क एक व खोजता रहा,
सुना क एक लोक भोगता रहा,
मुझे हरे क
शि का
माण है!
सुना क स य से न भि हो सक ,
सुना क व से न मुि हो सक ,
सुना क भोग से न तृि हो सक ,
िवफल मनु य
सब तरफ़
समान है!
पचीस
उसे न िव क िवभूितयाँ दख ,
उसे मनु य क न खूिबयाँ दख ,
िमल दय-रह य क न झाँ कयाँ,
सका न खेल
जो क ाण
का जुआ!
एक
बीन आ छेडूँ तुझे, मन म उदासी छा रही है।
था तुझे छू ना क तूने
भर दया झंकार से घर,
और मेरी साँस को भी
सात वर के लग चले पर,
अब अविन छू लू,ँ गगन छू लूँ
क सात वग छू लू,ँ
सब मुझे आसान मेरे साथ जो तू गा रही है।
बीन, आ छेड़ूँ तुझ,े मन म उदासी छा रही है।
दो
सो न सकूँ गा और न तुझको सोने दूग
ँ ा, हे मन-बीने।
तीन
मेरी तो हर साँस मुखर है, ि य, तेरे सब मौन संदस
े े।
ब द कपाट पर जा-जाकर
जो फर- फर साँकल खटकाए,
और न उ र पाए, उसक
लाज- था को कौन बताए,
पर अपमान िपए पग फर भी
उस ोढ़ी पर जाकर ठहर,
या तुझम ऐसा जो तुझसे मेरे तन-मन- ाण बँधे-से।
मेरी तो हर साँस मुखर है, ि य, तेरे सब मौन सदेसे।
म भी चुप हो जाऊँ, यह तो
मेरे बस क बात नह है,
अग-जग म या हो सकता है,
जो मुझपर आघात नह है,
पलक झँपी तारे क , तृण के
ऊपर ओस कनी मुसकाई,
झनक मेरी बीन क इतने मेरे जीवन-तार तने-से।
मेरी तो हर साँस मुखर है, ि य, तेरे सब मौन सदेसे।
चार
चंचला के बा का अिभसार बादल जानते ह ,
कं तु व ाघात के वल ाण मेरे, पंख मेरे।
कब कसी से भी कहा मने क उसके प-मधु क
एक न ही बूँद से भी आँख अपनी सार आया,
कब कसी से भी कहा मने क उसके पंथ रज का
एक लघु कण भी उठाकर शीश पर मने चढ़ाया,
कम नह जाना अगर जाना क इसका देखने को
व भी या मू य पड़ता है चुकाना जंदगी को,
चंचला के बा का अिभसार बादल जानते ह ,
कं तु व ाघात के वल ाण मेरे, पंख मेरे।
जब भरे -भूरे घन के बीच म दािमिन दमकती
तब अचानक एक िबजली दौड़ जाती है पर म,
और जब नभ है गरजता इस तरह लगता क कोई
दु नवार पुकारता अिधकार, आ ा के वर म,
कब धरा छू टी, हवा म कब उठा, पैठा गगन म,
धँस गया कतना, कधर को, कु छ नह मालूम होता,
म वयं खंचता क मुझको ख चता आकाश, इससे
सवथा अनजान बेकल ाण मेरे, पंख मेरे।
चंचला के बा का अिभसार बादल जानते ह ,
कं तु व ाघात के वल ाण मेरे, पंख मेरे।
परत के ऊपर परत डाले घटाएँ ोम घेरे
ह, अँधेरे के िसवा कु छ भी नह जो सूझता है,
पूछती ह अ हासी ंग-सा करती दशाएँ,
कौन जोधा है क पानी औ’ पवन से जूझता है!
एक पल के वा ते म ँ ठठकता और अपना
नीड़ दृढ़ च ान के ऊपर बना जो याद आता,
दूसरे पल काटने म तम क जो त काल जुड़ता
त होते थ पागल ाण मेरे, पंख मेरे।
चंचला के ब का अिभसार बादल जानते ह ,
कं तु व ाघात के वल ाण मेरे, पंख मेरे।
छू टता जब आग का शहतीर अंबर चीर, म ँ
कौन ऐसी चीज़ मुझको जो िनशाना भी बनाए,
पर प तंगा इस ती ा म कभी बैठा रहा है
दीप अपने-आप उसक ओर अपनी लौ बढ़ाए?
टू टता ँ उस तरफ को िजस तरफ को शोर उसका,
जोर उसका आँकता ँ चोट भी िजसके कर क
है मधुर इतनी, लट क ओट उसके कौन-सा है
वग, बेसुध सोच घायल ाण मेरे, पंख मेरे।
चंचला के बा का अिभसार बादल जानते ह ,
कं तु व ाघात के वल ाण मेरे, पंख मेरे।
पाँच
पाप मेरे वा ते है नाम लेकर आज भी तुमको बुलाना।
है वही छाती क जो अपनी तह म
राज कोई हो िछपाए,
जो क अपनी टीस अपने आप झेले
मत कसी को भी सुनाए,
दद जो मेरे िलए था गव उसपर
आज मुझको हो रहा है,
पाप मेरे वा ते है नाम लेकर आज भी तुमक बुलाना।
वह अग ती रात म ती क , गगन म
चाँद िनकला था अधूरा,
कं तु मेरी गोद काले बादल के
बीच म था चाँद पूरा,
देह—वह थी भी अलग कब—नेह दोन
एक िमलकर हो गए थे,
वेदनामय है मुझे तो उस घड़ी को याद रखना या भुलाना।
पाप मेरे वा ते है नाम लेकर आज भी तुमक बुलाना।
फर हमारे बीच घिड़याँ और फर दन,
फर महीने, साल आए,
बीस दुिनयाबी बखेड़,े सौ तरह के
जाल औ’ जंजाल आए,
मार होती है बड़ी सबसे समय क
याल पर, अब देखता ँ
तुम न वह अब, म न वह अब, वह न मौसम, वह तबीयत, वह ज़माना।
पाप मेरे वा ते है नाम लेकर आज भी तुमको बुलाना।
उन पहली यादगार के िलए, पर,
म नह आँसू िगराता,
म उसी ण के िलए रोता क िजसम
म नह पूरा समाता,
और म िजससे समाता पूण वह बन
गीत नभ म गूँजता है,
तुम इसे पढ़ना कभी तो भूलकर मत आँख से मोती ढु लाना।
पाप मेरे वा ते है नाम लेकर आज भी तुमको बुलाना।
छह
रात आधी, ख चकर मेरी हथेली एक उँ गली से िलखा था ‘ यार’ तुमने।
फासला था कु छ हमारे िब तर म
और चार ओर दुिनया सो रही थी,
ता रकाएं ही गगन क जानती ह
जो दशा दल क तु हारे हो रही थी,
म तु हारे पास होकर दूर तुमसे
अधजगा-सा और अधसोया आ था,
रात आधी, ख चकर मेरी हथेली एक उँ गली से िलखा था ‘ यार’ तुमने।
ात ही क ओर को है रात चलती
औ’ उजाले म अँधेरा डू ब जाता,
मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी
खूिबय के साथ परदे को उठाता,
एक चेहरा-सा लगा तुमने िलया था,
और मने था उतारा एक चेहरा,
वह िनशा का व मेरा था क अपने पर
गज़ब का था कया अिधकार तुमने।
आधी, ख चकर मेरी हथेली एक उँ गली से िलखा था ‘ यार’ तुमने।
और उतने फ़ासले पर आज तक सौ
य करके भी न आए फर कभी हम,
फर न आया व वैसा, फर न मौका
उस तरह का, फर न चाँद िनमम, और अपनी
और अपनी वेदना म या बताऊँ,
या नह ये पंि याँ खुद बोलती ह —
बुझ नह पाया अभी तक उस समय जो
रख दया था हाथ पर अंगार तुमने।
रात आधी, ख चकर मेरी हथेली एक उँ गली से िलखा था ‘ यार’ तुमने।
सात
तु हारे नील झील-से नैन,
नीर िनझर-से लहरे के श।
तु हारे तन का रे खाकार
वही कमनीय, कलामय हाथ
क िजसने िचर तु हारा देश
रचा िग र-ताल-माल के साथ,
कर म लतर का लचकाव,
करतल म फू ल का वास,
तु हारे नील झील-से नैन,
नीर िनझर-से लहरे के श।
उधर झुकती अ नारी साँझ,
इधर उठता पून का चाँद
सर , ृग , झरन पर फू ट
पड़ा है करन का उ माद,
तु ह अपनी बाँह म
नह कर पाता म अनुमान,
कृ ित म तुम बंिबत च ँ ओर
क तुमम बंिबत कृ ित अशेष।
तु हारे नील झील-से नैन,
नीर िनझर-से लहरे के श।
जगत है पाने को बेताब
ना र के मन क गहरी थाह,
कए थी िच तंत औ’ बेचैन
मुझे भी कु छ दन ऐसी चाह
मगर उसके तन का भी भेद
सका है कोई अब तक जान!
मुझे है अदभुत एक रह य
तु हारी हर मु ा, हर वेष,
तु हारे नील झील-से नैन,
नीर िनझर-से लहरे के श।
कहा मने मुझको इस ओर
कहाँ फर लाती है तक़दीर
कहाँ तुम आती हो उस छोर
जहाँ है गंग-जमुन का तीर;
िवहंगम बोला, युग के बाद
भाग से िमलती है अिभलाष;
और...अब उिचत यह दूँ छोड़
क पना के ऊपर अवशेष।
तु हारे नील झील-से नैन,
नीर िनझर-से लहरे के श।
मुझे यह िम ी अपना जान
कसी दन कर लेगी लयमान,
तु ह भी किल-कु सुम के बीच
कोई पाएगा पहचान,
मगर तब भी यह मेरा छंद
क िजसम एक आ है अंग
तु हारा औ’ मेरा अनुराग
रहेगा गाता मेरा देश।
तु हारे नील झील-से नैन,
नीर िनजर-से लहरे के श।
आठ
कौन सरसी को अके ली और सहमी
छोड़ तुम आए यहाँ हो, कु छ बताओ।
इस तरफ से रोज़ आना, रोज़ जाना
आज साल से लगा मेरा बराबर,
याद पड़ता है नह ले कन क देखा
है कभी पहले तु ह मने यहाँ पर,
यह अचंभे क नजर हर कं ज, दल पर
तृण, लहर पर और चेहरे क उदासी,
जो िछपाने से नह िछपती, बताती
है, यहाँ के वा ते तुम हो वासी;
जो चला करते उठाकर गव- ीवा
वागतम् कहते उ ह हम कं तु फर भी
कौन सरसी को अके ली और सहमी
छोडू तुम आए यहाँ हो, कु छ बताओ।
कौन-सा वह देश तुम आए जहाँ से?
कस तरह क भूिम है? आकाश कै सा?
कस तरह के पेडू-पौधे, फू ल-प ी,
घास? बहता है वहाँ वातास कै सा?
कौन-सी िचिड़याँ वहाँ पर चहचहाकर
ह सवेरे क खुमारी दूर करत ?
कौन-सी िचिड़याँ सुरीली रािगनी से
रात क अलकावली म न द भरत ?
कौन वे िग र ह क िजनक बा म
सो रही है वह क िजसक आरसी म
देखने को मुँह दवस म सूय जाता,
यािमनी म चाँद आता, कह सुनाओ?
कौन सरसी को अके ली और सहमी
छोड़ तुम आए यहाँ हो, कु छ बताओ।
और तुम अपना अमर वह देश तजकर
कसिलए परदेश म आए ए हो?
घूमती जो वण हंिसिनयाँ यहाँ ह?
या उ ह को देख पगलाए ए हो?
या क हो परवाज़ जो आवाज़ सुनकर
दूर-दुगम क कभी कते नह ह,
नापते ह मे , म थल, वन, समुंदर,
ह यहाँ पर आज तो वे कल कह ह?
सवदा वे मुसकराते, मुख मिलन तुम;
या तरं ग से ई थी कु छ लड़ाई?
या क अपनी संगनी से ठकर
आवेश म तुम भाग आए, मत िछपाओ?
कौन सरसी को अके ली और सहमी
छोड़ तुम आए यहाँ हो, कु छ बताओ।
मू त बनकर तुम खड़े हो क तु मेरी
क पना तो है नह िव ाम करती,
देखती है दूर कोई भ मं दर
सी ढ़याँ िजसक कसी सर म उतरत ,
आरती वेला ई है, शंख, घंटे,
घं टय के साथ बजते ह नगारे ,
देव बालक दो सादी ले उतरते
सी ढ़य से आ गए ह जल कनारे
औ’ िखलाने को तु ह वे नाम ले-ले-
कर तु हारा ह बुलाते, ‘जल कलापी!’
‘जल कलापित!’ और उनक विन- ित विन
से उठा है गूँज अंबर, लौट जाओ!
कौन सरसी को अके ली और सहमी
छोड़ तुम आए यहाँ हो, कु छ बताओ।
नौ
कौन हंिसिनयाँ लुभाए ह तुझे ऐसा क तुझको मानसर भूला आ है?
दस
हो चुका है चार दन मेरा तु हारा,
हेम हंिसिन, और इतना भी यहाँ पर कम नह है।
या ती ा हम करगे उस घड़ी क
एक दल से दूसरा जब ऊब जाए,
िजस खुशी के बीच म हम डू बते ह
जब हमारे बीच म वह डू ब जाए,
आग चुंबन से िनकलती है हमारे
और िबजली दौड़ती आिलगन म,
अलिवदा का व है यह, जब हमारे
बीच शंका है नह , स देह, भय या म नह है।
हो चुका है चार दन मेरा तु हारा,
हेम हंिसिन, और इतना भी यहाँ पर कम नह है।
यारह
ती ा ही जब इतनी, ि य, तुम आते, तब या होता।
मौन रात इस भाँित क जैसे
कौई गत वीणा पर बजकर
अभी - अभी सोई खोई - सी
सपन म तार पर िसर धर,
और दशा से ित विनयाँ
जा त सुिधय - सी आती ह,
कान तु हारी तान कह से य द सुन पाते, तुम आते, तब या होता।
तब मधुर ती ा ही जब इतनी, ि य, तुम आते, तब या होता।
उ सुकता क अकु लाहट म
मने पलक पाँवड़े डाले,
अंबर तो मश र क सब दन
रहता अपना होश सँभाले,
तार क मह फल ने अपनी
आँख िबछा दी कस आशा से,
मेरी मौन कु टी को आते तुम दख जाते, तब या होता।
मधुर ती ा ही जब इतनी, ि य, तुम आते, तब या होता।
तुमने कब दी बात रात के
सूने म तुम आनेवाले
पर ऐसे ही व ाण - मन
मेरे हो उठते मतवाले,
साँसे भूल - भूल फर - फर से
असमंजस के ण िगनती ह,
िमलने क घिड़याँ तुम िनि त य द कर जाते, तब या होता।
मधुर ती ा ही जब इतनी, ि य, तुम आते, तब या होता।
बैठ क पना करता ँ पग-
चाप तु हारी मग से आती,
रग - रग से चेतनता खुलकर
आँसू के कण - सी झर जाती,
नमक डली - सा गल अपनापन,
सागर म घुल-िमल-सा जाता,
अपनी बाह म भरकर, ि य, कं ठ लगाते, तब या होता।
मधुर ती ा ही जब इतनी, ि य, तुम आते, तब या होता।
बारह
मेरे उर क पीर पुरातन तुम न हरोगे, कौन हरे गा।
कसका भार िलए मन भारी
जगती म यह बात अजानी,
कौन अभाव कए मन सूना
दुिनया क यह मौन कहानी,
कं तु मुखर ह िजससे मेरे
गायन-गायन अ र-अ र
मेरे उर क पीर पुरातन तुम न हरोगे, कौन हरे गा।
सच पूछो तो मेरा जग का
कु छ वर-श द का नाता है,
कं तु ब त कु छ मन का के वल
धड़कन बनकर रह जाता है,
िजसम ब द समय क ास
आ ासन पाने को आतुर,
मेरी छाती पर अपना कर तुम न धरोगे, कौन धरे गा,
मेरे उर क पीर पुरातन तुम न हरोगे, कौन हरे गा।
दावा वन-वन आग लगाए,
बादल उठ-उठ वा र उँ डेले,
कं तु दय क लौ-लपट से
कसम साहस है जो खेल,े
यह उससे ही बुझ सकती है
जो इसको जा त करता है,
यह तो काम तु हारा ही है, तुम न करोगे, कौन करे गा।
मेरे उर क पीर पुरातन तुम न हरोगे, कौन हरे गा।
सर स रता, िनझर धरती के
मेरी यास परखने आए,
देख मुझे यासा का यासा
वे भरमाए, वे शरमाए,
ओर - छोर नभमंडल घेरे,
हे पावस के पागल जलधर,
मेरे अंतर के सागर को तुम न भरोगे, कौन भरे गा।
उर क पीर पुरातन तुम न हरोगे, कौन हरे गा।
तेरह
आज मलार कह तुम छेड़,े मेरे नयन भरे आते ह।
तुमने आह भरी क मुझे था
झंझा के झ क ने घेरा,
तुम मुसकाए थे क जु हाई
म था डू ब गया मन मेरा,
तुम जब मौन ए थे मने
सूनेपन का दल देखा था,
आज मलार कह तुम, छेड़,े मेरे नयन भरे आते ह।
तुम हो मेरे कौन? जगत के
स मािनत नात क सूची,
ऊपर से नीचे तक मने
देखी बार अनेक समूची,
कह न सका कु छ, बतलाए तो
कोई, अ कू ट ाण के वर
विनत- ित विनत जो होते ह, आपस म या कहलाते ह।
आज मलार कह तुम छेड़,े मेरे नयन भरे आते ह।
फू ल हँसी के तुमने मुख पर
डाल दए तो म बिलहारी,
गीत कसकते कं ठ थल से
काढ़ िलए तो वारी-वारी,
नीरव घिड़य क किड़य म
उलझा दो तो कै से िनकलूँ,
ि य, सारे उपहार तु हारे मेरा िहयरा लसाते ह।
आज मलार कह तुम छेड़,े मेरे नयन भरे आते ह।
हँसता ँ तो उनक अंजिल
र नह होगी किलय से,
मुख रत होता तो पथ उनका
सुरिभत होगा पंखु रय से,
पलको, सूख न जाना देखो,
राग न उनका कने पाए,
कस म को मधुबन करने को आज न जाने वे गाते ह।
आज मलार कह तुम छेड़,े मेरे नयन भरे आते ह।
चौदह
तन के सौ सुख, सौ सुिवधा म मेरा मन वनवास दया-सा।
राजमहल का पा न जैसे
तृण-कु टया वह भूल न पाए
िजसम उसने ह बचपन के
नैस गक िनिश- दवस िबताए,
म घर क ले याद करकती
भड़क ले साज म बंदी,
तन के सौ सुख, सौ सुिवधा म मेरा मन वनवास दया-सा।
सच, जंजीर नह है ऐसी
जो चा ँ तो तोड़ न पाऊँ,
पर जब घर क डगर भुला दी,
तब कस दिश को पाँव बढ़ाऊं
धुँधली - सी आवाज़ बुलाती
ऊपर से, पर पंख कहाँ ह,
छलना-सी धरती है मुझको और मुझे अंबर छिलया-सा।
तन के सौ सुख, सौ सुिवधा म मेरा मन वनवास दया-सा।
गगन, गगन के ऊपर घन,
घन के ऊपर है, उडगन पाँती,
उडगन के ऊपर बसता है
ाण पपीहे का ि य वाती,
उसक आँखे के क णा कण
का सपना ह ठ पर अं कत
कर, कसने सागर क गोदी म िबठला उपहास कया-सा।
तन के सौ सुख, सौ सुिवधा म मेरा मन वनवास दया-सा।
सुभग तरं गे उमग दूर क
च ान को नहला आत ,
तीर-नीर क सरस कहानी
फे न लहर फर- फर दुहराती
औ’ जल का उ वास बदल
बादल म कह -कहाँ जाता है,
लाज-मरा जाता ँ कहते, म सागर के बीच िपयासा।
तन के सौ सुख, सौ सुिवधा म मेरा मन वनवास दया-सा।
प ह
तुमको छोड़ कह जाने को आज दय व छंद नह है।
रोमरािज पहले िगन डालूँ
तब तन के बंधन बतलाऊं,
नाम दूसरा मन का बंधन
कै से दोन को अलगाऊं,
िन य वचन क गाँठ जोड़ती
मेरी रसना—मेरी रचना,
तुमको छोड़ कह जाने को आज व छंद नह है।
तुमसे नाता जोड़ अविन से
ले अंबर पयत तु हारा
जो था सबक ओर ललककर
मने अपना हाथ पसारा,
नीित-िनयम से ऊपर उठकर
तुमने ही यह बात कही थी
मेरे कान म, ‘तू किव है, तुझ पर कु छ ितबंध नह है।’
तुमको छोडू कह जाने को आज दय व छंद नह है।
प, रं ग, रस, गंध सना तो
मुझसे कोई पाप आ या,
उस दन का आदेश तु हारा
हाय राम, अिभशाप आ या
अपने मन को समझ तु हारा
ही तो मने दुलराया था,
मेरे भाल कलंक तु हारे हाथ लगाया चंदन ही है।
तुमको छोड़ कह जाने को आज दय व छंद नह है।
मेरी दुबलता के पल को
याद तु ह क णाकर आते
अपनी क णा के ण म तुम
मेरी दुबलता िबसराते,
बुि िबचारी गुमसुम, हारी,
साफ बोलता पर, िचत मेरा—
मेरे पाप तु हारी क णा म कोई संबंध कह है।
तुमक छोड़ कह जाने को आज दय व छंद नह है।
धार के इधर-उधर
र ान
पृ वी र ान करे गी!
ईसा बड़े दय वाले थे,
कं तु बड़े भोले - भाले थे,
चार बूँद इनके लो क इसका ताप हरे गी?
पृ वी र ान करे गी!
आग लगी धरती के तन म,
मनुज नह बदला पाहन म,
अभी यामला, सुजला, सुफला ऐसे नह मरे गी।
पृ वी र ान करे गी!
संवेदना अ ु ही के वल
जान पड़ेगा वषा का जल,
जब मानवता िनज लो का सागर दान करे गी।
पृ वी र ान करे गी!
ाकु लता का के
जग क ाकु लता का के —
जहाँ िछड़ा लोिहत सं ाम,
जहाँ मचा रौरव कु हराम,
पटा हताहत से जो ठाम!
वहाँ नह है, वहाँ नह है, वहाँ नह है, वहाँ नह ।
जग क ाकु लता का के —
जहाँ बली का अ याचार,
जहाँ िनबल क चीख-पुकार,
र , वेद, आँसू क धार!
वहाँ नह है, यहाँ नह है, वहाँ नह है, वहाँ नह ।
जग क ाकु लता का के —
जहाँ घृणा करती है वास,
जहाँ शि क अनबूझ यास,
जहाँ न मानव पर िव ास,
उसी दय म, उसी दय म, उसी दय म, वहाँ नह ।
जग क ाकु लता का के —
मनु य को मू त
देवलोक से िम ी लाकर
म मनु य क मू त बनाता!
रचता मुख िजससे िनकली हो
वेद-उपिनषद् क वर वाणी,
का - माधुरी, राग - रािगनी
जग - जीवन के िहत क याणी,
हंस जंतु के दाढ़ यु
जबड़े-सा पर वह मुख बन जाता!
देवलोक से िम ी लाकर
म मनु य क मू त बनाता!
रचता कर जो भूिम जोतकर
बोएँ, यामल श य उगाएं,
अिमत कला-कौशल क िनिधयाँ
संिचत कर सुख-शांित बढ़ाएं,
हंस जंतु के नख से संयुत
पंजे - सा वह कर बन जाता!
देवलोक से िम ी लाकर
म मनु य क मू त बनाता!
दो पाँव पर उसे खड़ा कर
बाँह को ऊपर उठवाता,
वग लोक को छू लेने का
मानो हो वह येय बनाता,
हाथ टेक धरती के ऊपर
हाय, नराधम पशु बन जाता!
देवलोक से िम ी लाकर
म मनु य क मू त बनाता!
आप कनके साथ ह?
म ँ उनके साथ खड़ी जो
सीधी रखते अपनी रीढ़
कभी नह जो तज सकते ह
अपना यायोिचत अिधकार,
कभी नह जो सह सकते ह
शीश नवाकर अ याचार
एक अके ले ह या उनके
साथ खड़ी हो भारी भीड़;
म ँ उनके साथ खड़ी जो
सीधी रखते अपनी रीढ़।
िनभय होकर घोिषत करते
जो अपने उ ार-िवचार,
िजनक िजहा पर होता है
उनके अ तर का अंगार,
नह िज ह चुप कर सकती है
आतताियय क शमशीर;
म ँ उनके साथ खड़ी
जो सीधी रखते अपनी रीढ़।
नह झुका करते जो दुिनया
से करने को समझौता,
ऊँचे से ऊँचे सपन को
देते रहते जो योता,
दूर देखती िजनक पैनी
आँख भिव यत् का तम चीर;
म ँ उनके साथ खड़ी जो
सीधी रखते अपनी रीढ़।
जो अपने कं ध से पवत
से बढ़ ट र लेते ह,
पथ क बाधा को िजनके
पाँव चुनौती देते ह,
िजनको बाँध नह सकती है
लोहे क बेड़ी - जंजीर;
म ँ उनके साथ खड़ी जो
सीधी रखते अपनी रीढ़।
जो चलते ह अपने छ पर,
के ऊपर लूका धरकर,
हार-जीत का सौदा करते
जो ाण क बाज़ी पर,
कू द उदिध म नह पलटकर
जो फर ताका करते तीर;
म ँ उनके साथ खड़ी जो
सीधी रखते अपनी रीढ।
िजनको यह अवकाश नह है,
देख कब तारे अनुकूल,
िजनको यह परवाह नह है,
कब तक भ ा कब द शूल,
िजनके हाथ क चाबुक से
चलती है उनक तक़दीर;
म ँ उनके साथ खड़ी जो
सीधी रखते अपनी रीढ।
तुम हो कौन, कहो जो मुझसे,
सही-रालत पथ लो तो जान,
सोच-सोचकर, पूछ-पूछकर
बोलो, कब चलता तूफ़ान,
स पथ है वह िजसपर अपनी
छाती ताने जाते वीर।
म ँ उनके साथ खड़ी जो
सीधी रखते अपनी रीढ़।
देश के नािवक से
कु छ श ल तु हारी घबराई-घबराई-सी,
दग म क आँख के अंदर परछाई-सी,
तुम चले कह को और कहाँ पर प चं गए।
ले कन, नािवक,
होता ही है
तूफ़ान बल।
यह नह कनारा है जो ल य तु हारा था,
िजस पर तुमने अपना म-यौवन वारा था;
यह भूिम नई, आकाश नया, न नये।
हो सका तु हारा
व पुराना
नह सफल।
अब काम नह दे सकते ह िपछले न शे,
िजनको फर- फर तुम ताक रहे हो ांित- से,
तुम उ ह फाड़ दो, और करो तैयार नये।
वह आज नह
स भव है, जो
था संभव कल।
जाँचते उससे हम जो आज हम ह, वे दय के कू र ह,
हम ग़लामी क वसीयत कु छ उठाने के िलए मजबूर ह,
पर हमारी आँख म ह व ऊँचे आसमान के जगे,
जानते हम ह क अपने ल य से हम दूर ह, हम दूर ह;
बार ये हट जायँगे, आवाज़ तार क पड़ेगी कान म,
है रहा िजसको परम उ वल भिव य पुकार, मेरा देश है।
जो खड़ा है तोड़ कारागार क दीवार, मेरा देश है।
एक
ओ, उ ियनी के वाक् -जयी जगवंदन
तुम िव म नवर म थे,
यह इितहास पुराना,
पर अपने स े राजा को
अब जग ने पहचाना,
तुम थे वह आ द य, नव ह
िजसके देते फे रे ,
तुमसे लि त शत िव म के संहासन!
उगे, उ ियनी के वाक् -जयी जगवंदन!
तुमने कस जादू के िबरवे
से वह लकड़ी काटी,
छू कर िजसको गुण- वभाव तज
काल, िनयम, प रपाटी,
बोली कृ ित, जगे मृत-भू छत
रघु-पु वंश पुरातन,
गंधव अ सरा, य , यि णी, सुरगण।
ओ, उ ियनी के वाक् -जयी जगवंदन!
सू धार, हे िचर उदार,
दे सबके मुख म भाषा,
तुमने कहा, कहो अब अपनै
सुख, दुख, संशय, आशा;
पर अवनी से, अंत र से,
अंबर, अमरपरी से
सब लगे तु हारा ही करने अिभनंदन।
ओ, उ ियनी के वाक् -जयी जगवंदन!
ब वरदानमयी वाणी के
कृ पा-पा ब तेरे,
देख तु ह ही, पर, वह बोली,
‘कािलदास तुम मेरे’;
दया कसी को यान, धैय,
क णा, ममता, आ ासन;
कया तु ह को उसने अपना
यौवन पूण समपण;
तुम किवय क ई या के िवषय िचरं तन।
ओ, उ ियनी के वाक् -जयी जगवंदन
दो
खजुराहो के िनडर कलाधर, अमर िशला म गान तु हारा।
पवत पर पद रखनेवाला
म अपने क़द का अिभमानी,
मगर तु हारी कृ ित के आगे
म ठगना, बौना, बे-बानी
बुत बनकर िन तेज खड़ा ।ँ
अनुगुंिजत हर एक दशासे,
खजुराहो के िनडर कलाधर, अमर िशला म गान तु हारा।
धधक रही थी कौन तु हारी
चौड़ी छाती म वह वाला,
िजससे ठोस-कड़े प थर को
मोम गला तुमने कर डाला,
और दए आकार, कया शृंगार,
नीित िजनपर चुप साधे,
कं तु बोलता खुलकर िजनसे शि -सुसिचमय ाण तु हारा।
खजुराहो के िनडर कलाधर, अमर िशला म गान तु हारा।
एक लपट उस वाला क जो
मेरे अंतर म उठ पाती,
तो मेरी भी द ध िगरा कु छ
अंगार के गीत सुनाती,
िजनसे ठं डे हो बैठे दल
गमाते, गलते, अपने को
कब कर पाऊँगा अिधकारी, पाने का, वरदान तु हारा।
खजुराहो के िनडर कलाधर, अमर िशला म गान तु हारा।
म जीिवत ँ मेरे अंदर
जीवन क उ ाम िपपासा,
जड़ मुद के हेतु नह है
मेरे मन म मोह जरा-सा,
पर उस युग म होता िजसम
ली तुमने छेनी-टाँक तो
एक माँगता वर िविध से, कर दे मुझको पाषाण तु हारा।
खजुराहो के िनडर कलाधर, अमर िशला म नाम तु हारा।
तीन
याद आते हो मुझे तुम, ओ, लड़कपन के सवेर के िभखारी!
तुम भजन गाते, अँधेरे को भगाते
रा ते से थे गुजरते,
औ’ तु हारे एक तारे या सरं गी
के मधुर सुर थे उतरते
कान म, फर ाण म, फर ापते थे
देह क अनिगन िशरा म;
याद आते ही मुझे तुम, ओ, लड़कपन के सवेर के िभखारी!
औ’ सरं गी-साधु से म पूछता था,
या इसे तुम हो िखलाते?
‘ई हमार करे ज खा।, मोर बचवा,’
खाँसकर वे थे बताते,
और म मारे हँसी के लोटता था,
सोचकर उठता िसहर अब,
तब न थी संगीत-किवता से, कला से, ीित से मेरी िच हारी।
याद आते हो मुझे तुम, ओ, लड़कपन के सवेर के िभखारी!
बैठ जाते सुनाते गीत गोपी—
चंद, राजा भरथरी का
राम का बनवास, ज क रास लीला,
ाह शंकर-शंकरी का,
ओ’ तु हारी धुन पकड़कर क पना के
लोक म म घूमता था,
सोचता था, म बड़ा हौकर बनूंगा, वस इसी पथ का पुजारी।
याद आते हो मुइाए तुम, आ, लड़कपन के सवेर के िभखारी!
खोल झोली एक चुटक दाल-आटा
दान म तुमने िलया था,
या तु ह मालूम जो वरदान तुमने
गान का मुझको दया था;
लय तु हारी, वर तु हारे , श द मेरी
पंि म गूँजा कए ह,
और खाली हो चुक , सड़-गल चुक वे झोिलयाँ कव क तु हारी।
याद आते हो मुझ तुम, ओ, लड़कपन के सवेर के िभखारी!
चार
यामा रानी थी पड़ी रोग क श या पर,
दौ सी सोलह दन क ठन क म थे वीते,
संघष मौत से बचने और बचाने का
था िछड़ा आ, या हम जीत या वह जीते।
सहसा मुझको यह लगा, हार उसने मानी,
तन डाल दया ढीला, आँख से अ ु बहे,
बोली, ‘मुझपर कोई ऐसी रचना करना,
िजससे दुिनया के अंदर मेरी याद रहे।’
म चौक पड़ा, ये श द इस तरह के थे जो
बैठते न थे उसके च र के ढाँचे म,
वह बनी ई थी और तरह क िम ी से,
वह ढली ई थी और तरह के साँचे म,
िजसम दुिनया के ित अनंत ‘आकषण था,
िजसम जीवन के िलए असीम िपपासा थी,
िजसम अपनी लघुता क वह ापकता थी,
यश,नाम याद क रं च नह अिभलाषा थी।
या िनकट मृ यु के आ मनु य वदला करता
चट मने उसक औख म औख डाली,
वे झूठ नल पल भर पलक म िछपा सक ,
वे बोल उठी सच, थ इतनी भोली-भाली।
जब म न र गँ ी तव घिड़य का सूनापन,
खालीपन तु ह डराएगा, खा जाएगा,
मेरा कहना करने म तुम लग जाओगे,
तो वह िनधुरा घिड़य का मन वहलाएगा।’
मै व त दन से ऐसा सुनता आता ,ँ
जो ताज आगरा म जमना के तट पर है,
मुमताज़महल के तन-मन क मोहकता के
ित शाहजहाँ का ीित- तीक मनोहर है।
मुमताज़ आिख़री सांस स यह बोली थी,
मेरी समािध पर ऐसा रौज़ा वनवाना,
जमा न कह दुिनया म हो, जैसा न कभी
संभव हो पाए फर दुिनया म बन पाना।’
मुमताज़महल जब चली गई तब शाहजहाँ
क सूनी, ख़ाली, काली, कातर घिड़य को,
यह ताजमहल बहलाता था, सहलाता था,
जोड़ा करता था सुिध क टू टी लिड़य को।
मुमताज़महल भी नह नाम क भूखी थी,
आिखरी नजर से शाहजहाँ क ओर देख,
वह समझ गई थी जो रह य संकेत से
बतलाती थी उसके माथे पर पड़ी रे ख।
वह काँप उठी, अपनी अंितम इ छा कहकर
वह िवदा ई औ’ शाहजहाँ का यान लगा,
उन अशुभ इराद से हटकर उन सपन म
जो अपने अ फु ट श द से वह गई जगा।
यह ताज शाह का ेम- तीक नह इतना
िजतना मुमताज़महल के कोमल भाव का,
जो जीकर शीतल सीकर बनता ताप पर,
जो मरकर सुखकर मरहम बनता घाव का!
पाँच
अंग से मेरे लगा तू अंग ऐसे, आज तू ही बोल मेरे भी गले से।
पाप हो या पु य हो, मने कया है
आज तक कु छ भी नह आधे दय से,
ओ’ न आधी हार से मानी पराजय
औ’ न क तसक न ही आधी िवजय से;
आज म स पूण अपने को उठाकर
अवत रत विन-श द म करने चला ँ
अंग से मेरे लगा तू अंग ऐसे, आज तू ही बोल मेरे भी गले से।
और है या ख़ास मुझम जो क अपने
आपको साकार करना चाहता ,ँ
ख़ास यह है, सब तरह क ख़ािसयत से
आज म इकार करना चाहता ;ँ
ँ न सोना, ँ न चाँदी, ँ न मूँगा,
ँ न मािणक, ँ न मोती, ँ न हीरा,
क तु म आ वान करने जा रहा ँ देवता का एक िम ी के डले से।
अंग से मेरे लगा तू अंग ऐसे, आज तू ही बोल मेरे भी गले से।
और मेरे देवता भी वे नह ह
जो क ऊँचे वग म ह वास करते,
और जो अपनी मह ा छोड़, स ा
म कसी का भी नह िव ास करते;
देवता मेरे वही ह जो क जीवन
म पड़े संघष करते, गीत गाते,
मुसकराते और जो छाती बढ़ाते एक होने के िलए हर दलजले से।
अंग से मेरे लगा तू अंग ऐसे, आज तू ही बोल मेरे भी गले से।
छप चुक मेरी कताब पूरबी औ’
पि छमी-दोन तरह के अ र म,
औ’ सुने भी जा चुके ह भाव मेरे
देश औ’ परदेश—दोन के वर म,
पर खुशी से नाचने को पाँव मेरे
उस समय तक ह नह तैयार जब तक,
गीत अपना म नह सुनता कसी गंगोजमुन के तीर फरते बावले से।
अंग से मेरे लगा तू अंग ऐसे, आज तू ही बोल मेरे भी गले से।
छह
गम लोहा पीट, ठं डा पीटने को व ब तेरा पड़ा है।
स त पंजा, नस-कसी चौड़ी कलाई
और ब लेदार बाह,
और आँख लाल िचनगारी सरीखी,
चु त औ’ सीखी िनगाह,
हाथ म घन और दो लोहे िनहाई
पर धरे तो, देखता या;
गम लोहा पीट, ठं डा पीटने को व ब तेरा पड़ा है।
भीग उठता है, पसीने से नहाता
एक से जो जूझता है,
ज़ोम म तुझको जवानी के न जाने
ख़ या- या सूझता है,
या कसी नभ-देवता ने येय से कु छ
फे र दी य बुि तेरी,
कु छ बड़ा तुझको बनाना है क तेरा इ तहाँ होता कड़ा है।
गम लोहा पीट, ठं डा पीटने को व ब तेरा पड़ा है।
एक गज़ छाती मगर सौ गज़ बराबर
हौसला उसम, सही है;
कान करनी चािहए जो कु छ तजुब-
कार लोग ने कही है;
व से लड़ व क ही श ल म ह
लौह के टु कड़े बदलते,
लौह-सा वह ठोस बनकर है िनकलता जो क लोहे से लड़ा है।
गम लोहा पीट, ठं डा पीटने को व ब तेरा पड़ा है।
घन-हथौड़े और तौले हाथ क दे
चोट अब तलवार गढ़ तू,
और है कस चीज़ क तुझसे भिव यत
माँग करता, आज पढ़ तू,
औ’ अिमत संतान को अपनी थमा
जा धारवाली यह धरोहर,
वह अिजत संसार म है श द का रबर ख ग लेकर जो खड़ा है।
गम लौहा पीट, ठं डा पीटने को व ब तेरा पड़ा है।
सात
पीठ पर धर बोझ अपनी राह नापू,ँ
या कसी किल-कुं ज म रम गीत गाऊँ?
जब मुझे डंसान का चोला िमला है,
भार को वीकार करना शान मेरी,
रीढ़ मेरी आज भी सीधी तनी है,
स त पंडली औ’ कसी है रान मेरी
कं तु दल कोमल िमला है या क ं म,
देख छाया कशमकश म पड़ गया ,ँ सोचता ,ँ
पीठ पर धर बोला अपनी राह नापू,ँ
या कसी किल-कुं ज म रम गीत गाऊँ?
कौन-सी वाला हदय म जल रही है
जो हरी दूवा-दरी मन मोहती है,
कस उपे ा को भुलाने के िलए हर
फू ल-किलका वाट मेरा जोहती है,
कसलय पर सोहती है कसिलए बूंदे
क अपने आँसु को देखकर मुसकराऊँ,
या लताएँ इसािलए ही झुक गई ह,
हाथ इनका थामकर म बैठ जाऊँ?
पीठ पर धर वोत अपनी राह नापूँ,
या कसी किल-कुं ज म रम गीत गाऊँ?
कं तु के से भूल जाऊँ सामने यह
भार बन साकार देता है चुनौती,
िजस तरह का ओर िजस तादाद म है,
म समझता है इसे अपनी बपोती।
फ़ज मेरा, ले इसे चलना, जहाँ दम
टू ट जाए, छोड़ना मज़बूत कं धो, पंजर पर;
जो मुझे पु ष व पुरख से िमला है,
सो मुझे िध ार, जो उसको लजाऊँ।
पीठ पर धर बोझ अपनी राह नापूँ,
या कसी किल-कज म रम गीत गाऊँ?
व मुझे वीमार लगने है िनकुं ज
म पड़े जो राग अपना िमनिमनाते,
गीत गाने के िलए जो जी रहे ह—
काश जीने के िलए वे गित गाते—
और वे पशु, जो क परबस मौन रहकर
बोझ ढोते; िन य मेरे कं ठ म वर, भार िसर पर
हो क िजससे गीत से म भार-ह का,
भार से संगीत को भारी बनाऊँ।
पीठ पर धर बोझ अपनी राह नापूँ,
या कसी किल-कुं ज म रम गीत गाऊँ?
आठ
इस पहरी चाँदनी म सो नह सकते पखे और हम भी।
पू णमा का चाँद अंबर पर चढ़ा है,
तारकाविल खो गई है,
चांदनी म वह सफे दी है क जैसे
धूप ठं डी हो गई है;
ने -िन ा के िमलन क वीिथय म
चािहए कु छ-कु छ अँधेरा;
इस पहरी चाँदनी म सो नह सकते पखे और हम भी।
नीड़ अपने छोड़ बैठे डाल पर कु छ
और मँडलाते ए कु छ,
पंख फड़काते ए कु छ, चहचहाते,
बोल दुहराते ए कु छ,
‘चाँदनी फै ली गगन म, चाह मन म,
गीत कसका है? सुनाओ!
मौन इस मधयािमनी म हो नह सकते पखे और हम भी।
इस पहरी चाँदनी म सो नह सकते पखे और हम भी।
इस तरह क रात अंबर के अिजर म
रोज़ तो आती नह है,
चाँद के ऊपर जवानी इस तरह क
रोज़ तो छाती नह है,
हम कभी ह गे अलग, औ’ साथ होकर
भी कभी, होगी तबीयत,
यह िवरल अवसर िवसुिध म खो नह सकते पखे और हम भी।
इस पहरी चाँदनी म सो नह सकते पखे और हम भी।
ये िवचारे तो समझते ह क जैसे
यह सवेरा हो गया है
कृ ित क िनयमावली म या अचानक
हेर-फे रा हो गया है;
और जो हम सब समझते ह कहाँ इस
योित का जादू समझते,
मु िजसके बंधन से हो नह सकते पखे और हम भी।
इस पहरी चाँदनी म सो नह सकते पखे और हम भी।
नौ
आज चंचला क बाह म उलझा दी ह बाह मने।
डाल लोभन म अपना मन
सहल फसल नीचे को जाना,
कु छ िह मत का काम समझते
पाँव पतन क ओर बढ़ाना;
झुके वह िजस थल झुकने म
ऊपर को उठना पड़ता है;
आज चंचला क बाह म उलझा दी ह बाह मने।
काँट से जो डरने वाले
मत किलय से नेह लगाएँ,
घाव नह ह िजन हाथ म,
उनम कस दन फू ल सुहाए,
नंगी तलवार क छाया
म सुंदरता िवहरण करती,
और कसी ने पाई हो पर कभी नह पाई है भय ने।
आज चंचला क बाह म उलझा दी ह बाह मने।
िबजली से अनुराग िजसे हो
उठकर आसमान को नापे,
आग चले आ लंगन करने,
तब या भाप-धुएँ से काँपे,
साफ़, उजाले वाले, रि त
पंथ मर के कं दर के ह;
िजन पर ख़तरे -जान नह था, छोड़ कभी द राह मने।
आज चंचला क बाह म उलझा दी ह वाह मने।
बूँद पड़ी वषा क चूहे
और छछू ँदर िबल म भागे,
देख नह पाते वे कु छ भी
जड़-पामर ाण के आगे;
घन से होड़ लगाने को तन-
मोह छोड़ िनमम अबंर म
व - हार सहन करते ह वैनतेय के पैने डैन।े
आज चंचला क बाह म उलझा दी ह वाह मने।
दस
साथ भी रखता तु ह तो, राजहंिसिन,
या हमारे यार का प रणाम होता!
जब कहा मने क है यह शु जो
वेला िवदा क पास आई,
कु छ त तअ ुब, कु छ उदासी, कु छ शरारत
से भरी तुम मुसकराई,
व त के डैने चले, तुम हो वहाँ, म
ँ यहाँ, पर देखता ँ
साथ भी रखता तु ह तो राजह संनी
या हमारे यार का िनमाण होता?
व का वातावरण हर चीज़ के
चार तरफ़ मानव बनाता,
लाख किवता से, कला से पु करता,
अंत म वह टू ट जाता,
स य क हर श ल खुलकर आँख के
अंदर िनराशा झ कती है,
और वह धुलती नह है ान-जल से,
दशन से, मरिमटे इं सान धोता।
साथ भी रखता तु ह तो, राजहंिसिन,
या हमारे यार का प रणाम होता!
शीष आसन से िधर क चाल रोको,
पर समय क गित न थमती।
औ’ िख़ज़ाबोरं ग-रोग़न पर जवानी
है न यादा दन िबलमती,
िस यह करते ए जाते अिगनती
ार खोलो और देखो,
और इस दयनीय-मुख के काफ़ले म
जो न होता सुबह को, वह शाम होता।
साथ भी रखता तु ह तो, राजहंिसिन,
या हमारे यार का प रणाम होता!
एक दन है, जब तु हारे कुं तल से
नािगन लहरा रही ह,
और मेरी तनतनाई बीन से विन-
राग क धारा बही है
और तुम जो बोलती हो, बोलता म,
गीत उस पर शीश धुनता,
और इस संगीत- ीित समु -जल म
काल जैसे िछप गया है मार गोता।
साथ भी रखता तु ह तो, राजहंिसिन,
या हमारे यार का प रणाम होता!
और यह त वीर कै सी, नािगन सब
कचुल का प धरत ,
औ’ हम जब घेरता है मौन उसको
िसफ खाँसी भंग करती,
औ’ घरे लू कण-कटु झगड़े-बखेड़
को पड़ोसी सुन रहे ह,
और बेट ने नह है खच भेजा,
और हमको मुँह िचढ़ाता ढीठ पोता।
साथ भी रखता तु ह तो, राजहंिसिन,
या हमारे यार का प रणाम होता!
यारह
बौरे आम पर बौराए भ र न आए, कै से समझूँ मधुऋतु आई।
माना अब आकाश खुला-सा और धुला-सा
फै ला - फै ला नीला - नीला,
बफ़-जली-सी, पीली-पीली दूब हरी फर,
िजसपर िखलता फू ल फबीला
त क िनरावरण डाल पर मूँगा, प ा
औ’ दिखनहटे का झकझोरा,
बौरे आम पर बौराए भ र न आए, कै से समझूँ मधुऋतु आई।
माना, गाना गानेवाली िचिड़याँ आ ,
सुन पड़ती को कल क बोली,
चली गई थी गम देश म कु छ दन को
जो, लौटी हंस क टोली,
सजी-बजी बारात खड़ी है रं ग-िबरं गी,
कं तु न दू हे के िसर जब तक
मंज रय का मौर-मुकुट कोई पहनाए, कै से समझूँ मधुऋतु आई।
बौरे आम पर बौराए भ र न आए, कै से समझूँ मधुऋतु आई।
डार-पात सब पीत पु पमय जो कर लेता
अमलतास को कौन िछपाए,
सेमल और पलाश ने संदरू -पताके
नह गगन म य फहराए?
छोड़ नगर क सँकरी गिलयाँ, घर-दर, बाहर
आया, पर फू ली सरस से
मील लंबे खेत नह दखते िपयराए, कै से समझूँ मधुऋतु आई।
बौरे आम पर बौराए भ र न आए, कै से समझूँ मधुऋतु आई।
ात: से सं या तक पशुवत् मेहनत करके
चूर-चूर हो जाने पर भी,
एक बार भी तीन सैकड़े पसठ दन म
पूरा पेट न खाने पर भी
मौसम क मदम त हवा पी जो हो उठते
ह मतवाले, पागल, उनके
फाग-राग ने रात र खा नह जगाए, कै से समझूँ मधुऋतु आई।
बौरे आम पर बौराए भ र न आए, कै से समझूँ मधुऋतु आई।
बारह
अब दन बदले, घिड़याँ बदल ,
साजन आए, सावन आया।
धरती क जलती साँस ने
मेरी साँस म ताप भरा,
सरसी क छाती दरक तो
कर घाव गई मुझपर गहरा,
है िनयित- कृ ित क ऋतु म
संबंध कह कु छ अनजाना,
अब दन बदले, घिड़याँ बदल ,
साजन आए, सावन आया।
तूफान उठा जब अंबर म
अंतर कसने झकझोर दया,
मन के सौ बंद कपाट को
ण भर के अंदर खोल दया,
झ का जब आया मधुबन म
ि य का संदश े िलए आया—
ऐसी िनकली ही धूप नह
जो साथ नह लाई छाया।
अब दन बदले, घिड़याँ बदल ,
साजन आए, सावन आया।
घन के आँगन से िबजली ने
जब नयन से संकेत कया,
मेरी बेहोश - हवास पड़ी
आशा ने फर से चेत कया,
मुरझाती लितका पर कोई
जैसे पानी के छीट दे
औ’ फर जीवन क साँस ले
उसक ि यमाण-जली काया।
अब दन बदले, घिड़याँ बदल ।
साजन आए, सावन आया।
रोमांच आ जब अवनी का
रोमांिचत मेरे रं ग ए,
जादू क लकड़ी से
कोई दोन को संग छु ए
संिचत-सा कं ठ पपीहे का
कोयल क बोली भीगी-सी
रस-डू बा वर म उतराया
यह गीत नया मने गाया।
अब दन बदले घिड़याँ बदल ,
साजन आए, सावन आया।
तेरह
म सुख पर, सुखमा पर रीझा, इसक मुझको लाज नह है
िजसने अिलय के अधर म
रस र खा पहले शरमाए,
िजसने अिलय के पंख म
यास भरी बह िसर लटकाए,
आँख करे वह नीची िजसने
यौवन का? उ माद उभारा,
म सुख पर, सुखमा पर रीझा, इसक मुझको लाज नह है।
मन म सावन-भाद बरसे,
जीभ करे , पर, पानी-पानी!
चलती- फरती है दुिनया म
ब धा ऐसी बेईमानी,
पूवज मेरे, कं तु, दय क
स ाई पर िमटते आए,
मधुवन भोगे, म उपदेशे मेरे वंश रवाज नह है।
म सुख पर, सुखमा पर रीझा, इसक मुझको लाज नह है।
चला सफर पर जब तक मने
पथ पूछा अपने अनुभव से
अपनी एक भूल से सीखा
यादा, और के सच सौ से
म बोला जो मेरी नाड़ी
म डोला, जो रग म घूमा,
मेरी वाणी आज कताबी न श क मोहताज नह है।
म सुख पर, सुखमा पर रीझा, इसक मुझको लाज नह है।
अधरामृत क उस तह तक म
प चँ ा िवष को भी चख आया,
और गया सुख को िपछु आता
पीर जहाँ वह बनकर छाया,
मृ यु गोद म जीवन अपनी
अंितम सीमा पर लेटा था,
राग जहाँ पर तीव अिधकतम है उसम आवाज नह है।
म सुख पर, सुखमा पर रीझा, इसक मुझको लाज नह है।
चौदह
माना मने िम ी, कं कड़, प थर पूजा,
अपनी पूजा करने से तो म बाज़ रहा।
दपण से अपनी चापलूिसयाँ सुनने क
सबको होती है, मुझको भी कमज़ोरी थी,
ले कन तब मेरी क ी गदहपचीसी थी,
तन कोरा था, मन भोला था, मित भोरी थी,
है ध यवाद सौ बार िवधाता का िजसने
दुबलता मेरे साथ लगा दी एक और;
माना मने िम ी, कं कड़, प थर पूजा,
अपनी पूजा करने से तो म बाज़ रहा।
धरती से लेकर, िजसपर ितनके क चादर,
अबंर तक, िजसके म तक पर मिण-पाँती है,
जो है, सबम मेरी दयमारी आँख को,
जय करनेवाली कु छ बात िमल जाती ह;
खुलकर, िछपकर जो कु छ मेरे आगे पड़ता
मेरे मन का कु छ िह सा लेकर जाता है,
इस लाचारी से लुटने और उजड़नेवाली
ह ती पर मुझको हर लमहा नाज़ रहा।
माना मने िम ी, कं कड़, प थर पूजा,
अपनी पूजा करने से तो म बाज़ रहा।
यह पूजा क भावना बल है मानव म,
इसका कोई आधार बनाना पड़ता है,
जो मू त और क नह िबठाता है अंदर,
उसको खुद अपना बुत िबठलाना पड़ता है;
यह स य, क पत के अभाव म रड़ स च
मने अपने मन का उ ार िनकाला है;
ले कन एकाक से एकाक घिड़य म
म कभी नह बनकर अपना मोहताज रहा।
माना मने िम ी, कं कड़, प थर पूजा,
अपनी पूजा करने से तो म बाज़ रहा।
अब इतने ट, कं कड़, प थर बैठ चुके,
वह दपण टू टा, फू टा, चकनाचूर आ,
ले कन मुझको इसका कोई पछताव नह
जो उसके ित संसार सदा ही ू र आ;
कु छ चीज़ खंिडत होकर सािबत होती ह;
जो चीज़ मुझको सािबत सािबत करती ह,
उनके ही गुण तो गाता मेरा कं ठ रहा,
उनक ही धुन पर बजता मेरा साज़ रहा।
माना मने िम ी, कं कड़, प थर पूजा,
अपनी पूजा करने से तो म बाज़ रहा।
प ह
दे मन का उपहार सभी को, ले चल मन का भार अके ले।
लहराया है दल तो ललका
जा मधुबन म, मैदान म,
ब त बड़े वरदान िछपे ह
तान, तरान , मुसकान म;
घबराया है जी तो मुड़ जा
सूने म , नीरव घाटी म,
दे मन का उपहार सभी को, ले चल मन का भार अके ले।
कसके िसर का बोझा कम है
जो और का बोझ बँटाए,
ह ठ के सतही श द से
दो ितनके भी कब हट पाए;
लाख जीभ म एक दय क
गहराई को छू पाती है;
कटती है हर एक मुसीबत—एक तरह बस—झेल-े झले।
दे मन का उपहार सभी को, ले चल मन का भार अके ले।
छु टकारा तुमने पाया है
पूछूँ तौ या क़ मत देकर,
क़ज चुका आए तुम अपना,
ले कन मुझको ात क लेकर
दया कसी क , कृ पा कसी क ,
भीख कसी क , दान कसी का;
तुमसे सौ दज अ छे वे जो अपने बंधन से खेले।
दे मन का उपहार सभी को, ले चल मन का भार अके ले।
ज़ंजीर क झनकार से
ह वीणा के तार लजाते,
जीवन के गंभीर वर को
के वल भारी ह सुन पाने,
गान उ ह का मान िज ह है
मानव के दुख-दद-दहन का,
गीत वही बाँटेगा सबको, जो दुिनया क पीर सके ले।
दे मन का उपहार सभी को, ले चल मन का भार अके ले।
सोलह
मने जीवन देखा, जीवन का गान कया।
वह पट ले आई, बोली, देखो एक तरफ़,
जीवन-ऊषा क लाल करण, बहता पानी,
उगता त वर, खर च च दबा उड़ता पंछी,
छू ता अंबर को धरती का अंचल धानी;
दूसरी तरफ़ है मृ यु-म थल क सं या
म राख-धुएँ म धँसा आ कं काल पड़ा।
मने जीवन देखा, जीवन का गान कया।
ऊषा क करण से कं चन क वृि ई,
बहते पानी म म दरा क लहर आ ,
उगते त वर क छाया म ेमी लेटे,
िवहगाविल ने नभ म मुख रत क शहनाई,
अंबर धरती के ऊपर बन आशीष झुका
मानव ने अपने सुख-दु:ख म संघष म;
अपनी िम ी क काया पर अिभमान कया।
मने जीवन देखा, जीवन का गान कया।
म कभी, कह पर सफ़र ख म कर देने को
तैयार सदा था, इसम भी थी या मुि कल;
चलना ही िजसका काम रहा हो दुिनया म
हर एक क़दम के ऊपर है उसक मंिज़ल;
जो कल पर काम उठाता हो वह पछताए
कल अगर नह फर उसक क़ मत म आता;
मने कल पर कब आज भला बिलदान कया।
मने जीवन देखा, जीवन का गान कया।
काली, काले के श म काला कमल सजा,
काली सारी पहने चुपके -चुपके आई,
म उ वल-मुख, उजले व म बैठा था
सु ताने को, पथ पर थी उिजयाली छाई,
‘तुम कौन? मौत? म जीने क ही जोग-जुगत
म लगा रहा।’ बोली, ‘मत घबरा, वागत का
मेरे, तूने सबसे अ छा सामान कया।’
मने जीवन देखा, जीवन का गान कया।
स ह
मने ऐसा कु छ किवय से सुन र खा था
जब घटनाएँ छाती के ऊपर भार बन,
जब साँस न दल को लेने द आज़ादी से
टू टी आशा के खँडहर, टू टे सपने,
तब अपने मन क बेचैनी को छंद म
संिचत कर कोई गाए और सुनाए तो
वह मु गगन म उड़ने का-सा सुख पाता।
ले कन मेरा तो भार बना य का य है,
य के य बंधन ह, य क य बाधाएँ,
मने गीत को रचकर के भी देख िलया।
‘वे कािहल ह जो आसमान के परदे पर
अपने मन क त वीर बनाया करते ह,
कमठ उनके अ दर जीवन क साँस भर
उनको नभ से धरती पर लाया करते ह।’
आकाशी गंगा से ग ा स चा जाता,
अंबर का तारा दीपक बनकर जलता है,
िजसके उिजयारे बैठ िहसाब कया जाता।
उसके जल म अब याल नह बहते आते,
उसके दृग से अब झरती रस क बूँद नह ,
मने सपन को सच करके भी देख िलया।
यह माना मने खुदा नह िमल सकता है
लंदन क धन-जोबन-गव ली गिलय म,
यह माना उसका याल नह आ सकता है
पे रस क रसमय रात क रँ गरिलय म,
जो शायर को है शानेख़दा उसम तुमको
शैतानी गोरखधंधा दखलाई देता,
पर शेख, भुलावा दो उनको जो भोले ह।
तुमने कु छ ऐसा गोलमाल कर र खा था,
खुद अपने घर म नह खुदा का राज िमला,
मने काबे का हज़ करके भी देख िलया।
रं द ने मुझसे कहा क म दरा पान करो,
ग़म ग़लत इसी से होगा, मने मान िलया,
म याले म डू बा, याला मुझम डू बा,
िम ने मेरे मंसूबे को मान दया।
बंद ने मुझसे कहा क यह कमज़ोरी है,
इसको छोड़ो, अपनी इ छा का बल देखो,
तोलो; मने उनका कहना भी कान कया।
म वह , वह पर ग़म ह, दुबलताएँ ह,
मने म दरा को पीकर के भी देख िलया,
मने म दरा को तज करके भी देख िलया।
मने क़ाबे का हज़ करके भी देख िलया।
मने सपन को सच करके भी देख िलया।
मने गीत को रच करके भी देख िलया।
अ ारह
रात क हर साँस करती है ती ा—
ार कोई खटखटाएगा!
दवस का मुझ पर नह अब
कज़ बाक़ रह गया है,
जगत के ित भी न कोई
फज़ बाक़ रह गया है,
जा चुका जाना जहाँ था,
आ चुके आना िज ह था,
इस उदासी के अँधेरे म बता, मन,
कौन आकर मुसकराएगा?
रात क हर साँस करती है ती ा—
ार कोई खटखटाएगा!
‘वह, क जो अंदर वयं ही
आ सके गा खोल ताला,
वह, भरे गा हास िजसका
दूर कोन म उजला
वह क जो इस िज दगी क
चीख और पुकार को भी
एक रसमय रािगनी का प दे दे
एक ऐसा गीत गाएगा।’
रात क हर साँस करती है ती ा—
ार कोई खटखटाएगा!
मौन पर म यान इतना
दे चुका ँ बोलता-सा
पुतिलयाँ दो खोलता-सा,
लाल, इतना घूरता म
एकटक उसको रहा ँ
पर कहाँ संगीत है वह, योित है वह
जो क अपने साथ लाएगा?
रात क हर साँस करती है ती ा—
ार कोई खटखटाएगा!
और बारं बार म बिल-
हार उसपर जो न आया,
औ’ न आने का समय- दन
ही कभी िजसने बताया,
और आधी ज़ंदगी भी
कट गई िजसको परखते,
कं तु उठ पाता नह िव ास मन से—
वह कभी चुपचाप आएगा।
रात क हर साँस करती है ती ा—
ार कोई खटखटाएगा।
उ ीस
यह जीवन औ’ संसार अधूरा इतना है।
कु छ बे तोड़े कु छ जोड़ नह सकता कोई।
तुम िजस लितका पर फू ली हो, य लगता है,
तुम उसपर आज पराई हो?
म ऐसा अपने ताने-बाने के अंदर
जैसे कोई बलवाई हो।’
तुम टू टोगी तो लितका का दल टू टेगा,
म िनकलूँगा तो चादर िचरब ी होगी।
यह जीवन औ’ संसार अधूरा इतना है,
कु छ बे तोड़े कु छ जोड़ नह सकता कोई।
पर इ िजसे तुमने माना, मने माना,
माला उसको पहनानी है,
िजसको खोजा, उसक पूजा कर लेने म
हो जाती पूण कहानी है;
तुमको लितका का मोह सताता है, सच है
आता है मुझको बड़ा रहम इस चादर पर;
िनमा य देवता का बनने का त लेकर
हम दोन म से तोड़ नह सकता कोई।
यह जीवन औ’ संसार अधूरा इतना है,
कु छ बे तोड़े कु छ जोड़ नह सकता कोई।
हर पूजा कु छ बिलदान सदा माँगा करती,
लितका का मोह िमटाना है;
हर पूजा कु छ िव ोह सदा चाहा करती,
इस चादर को फट जाना है।
माला गूँथी, देवता खड़े ह, पहनाएँ;
उनके अधर पर हास, नयन म आँसू ह।
आरती देवता के मु कान क लेकर
यह अ य दृग का छोड़ नह सकता कोई।
यह जीवन औ’ संसार अधूरा इतना है
कु छ बे तोड़े कु छ जोड़ नह सकता कोई।
तुमने कसको छोड़ा? स ाई तो यह है,
कु छ अपनापन ही छू ट गया।
मने कसको तोड़ा? स ाई तो यह है,
कु छ भीतर-भीतर टू ट गया।
कु छ छोड़ हम भी पाएँगे, कु छ तोड़ हम
भी जाएँग,े जब बनने को वे सोचगे,
पर हम-से ही वे छू टगे, वे टू टगे;
जग-जीवन क गित मोड़ नह सकता कोई।
यह जीवन औ’ संसार अधूरा इतना है,
कु छ बे तोड़े कु छ जोड़ नह सकता कोई।
बीस
म अभी ज़ंदा, अभी यह
शव-परी ा म तु ह करने न दूग
ँ ा।
देखता ँ तुम सफ़े द नक़ाब
िसर से पाँव तक डाले ए हो;
या कफ़न को ओढ़ने से
मर गए तुम लोग! मतवाले ए हो?
न तर क रौ लगी है,
मेज़ मुद को लेटाने क पड़ी है।
म अभी ज़ंदा, अभी यह
शव-परी ा म तु ह करने न दूग
ँ ा।
आँख मेरी आज भी मानव-
नयन क गूढ़तर तह तक उतरती,
आज भी अ याय पर
अंगार बनती; अ ुधारा म उमड़ती,
िजस जगह इं सान क
इं सािनयत लाचार उसको कर गई है।
तुम नह यह देखते तो
म तु हारी आँख पर अचरज क ँ गा।
म अभी ज़ंदा, अभी यह
शव-परी ा म तु ह करने न दूग
ँ ा।
आज भी आवाज़ जो मेरे
कलेजे से, गले से है िनकलती,
गूँजती कतने गल म
और कतने ही दल म है मचलती,
मौन एकाक पल का
भंग करती, औ’ िमलन म एक मन को
दूसरे पर करती,
चुप न होगी, जब क म भी मूक ग ँ ा।
म अभी ज़ंदा, अभी यह
शव-परी ा, म तु ह करने न दूग
ँ ा।
आज भी जो साँस मुझम
चल रही है वह हवा भर ही नह है,
है इसी क चाल पर
इितहास चलता और सं कृ ित चल रही है;
और या इितहास, या सं कृ ित
क जीवन म मनुज िव ास र खे;
म इसी िव ास को हर
साँस से कहता रहा, कहता र गँ ा।
म अभी ज़ंदा, अभी यह
शव-परी ा म तु ह करने न दूग
ँ ा।
काग़ज क भी नकाब
डालकर इं सािनयत कोई िछपाते,
काग़ज के भी क फ़न को
ओढ़ कोई धड़कन दल क दबाते;
शव-परी ा के िलए
तैयार जो ह, शव थम वे बन चुके ह,
कं तु मेरे वर िनरथक
ह, अगर वे ह न पद को हटाते,
ह न दल को खटखटाते,
ह न मुद को िहलाते औ’ जगाते।
म अभी मुदा नह ,ँ
और तुमको भी अभी मरने न दूग ँ ा।
म अभी ज़ंदा, अभी यह
शव-परी ा, म तु ह करने न दूग
ँ ा।
बु और नाचघर
नया चाँद
उगा आ है नया चाँद
जैसे उग चुका है हज़ार बार।
आ-जा रही है कार
साइ कल क क़तार;
पट रय पर दोन ओर
चले जा रहे ह बूढ़े
ढोते ज़ंदगी का भार
जवान, करते ए यार
ब ,े करते िखलवार।
उगा आ है नया चाँद
जैसे उग चुका है हज़ार बार।
म ही य इसे देख
एकाएक
- गया ँ क
गया ँ झुक!
डैफ़ोिडल
डैफ़ोिडल, डैफ़ोिडल, डैफ़ोिडल—
मेरे चार ओर रहे ह िखल
मेरे चार ओर हँस रहे ह िखल-िखल;
इं लड म है बसंत—है एि ल।
इनका देख के उ लास
तुलना को आता है याद
मुझे अिजत और अिमत का हास
जो गूँजता है आध-आध मील—
मेरा भर आता है दल—
डैफ़ोिडल, डैफ़ोिडल, डैफ़ोिडल —
जो गूँजता है हज़ार मील,
म उसे सुनता ँ यहाँ,
हँस रहे ह वे कहाँ—ओ, दूर कहाँ!
ब का हास िन छल, िनमल, सरल
होता है कतना बल!
सृि का होगा आरं भ,
मानव िशशु का उतरा होगा दल
पृ वी पर होगी चहल-पहल।
आल-बाल जब ब त से ह साथ
पकड़ के एक दूसरे का हाथ
हँसी क भाषा म करते ह बात।
उस दन जो गूँजा होगा नाद
धरती कभी भूलेगी उसक याद?
उसी दन को सुिमर
वह फू ल उठती है फर- फर
फू ला नह समाता उसका अिजर।
आ द मानव का वह उ ार
िन वकार,
अफ़सोस हज़ार,
इतनी चंता, शंका, इतने भय, संघष म
गया है धँस,
क सुनाई नह पड़ेगा दूसरी बार;
अफ़सोस हज़ार,
इतना भी है या करम
उसक बनी है यादगार
डैफ़ोिडल का कहाँ-कहाँ तक है िव तार!
हरे -हरे पौध
हरी-हरी पि य पर
सफ़े द-सफ़े द, पीले-पीले,
पहरे , सुनहरे फू ल सँवरे ह,
आसमान से जैसे
तारे उतरे ह।
आता है याद,
क मीर म डल पर
िनशात, शालीमार तक
नाव का सफ़र,
इतने फू ले थे कमल
क नील झील का जल
उनके प से गया था ढँक,
प े-प े पर पानी क बूँद
ऐसी रही थी झलक,
जैसे वग से
मोती पड़े ह टपक;
सुषमा का यह भंडार
देख के , िझझक
मने अपनी आँख ली थ मूँद।
बताने लगा था म लाह,
ब त दन क है बात,
यहाँ आया एक सौदागर,
लोभी पर भोला,
उसे ठगने को कसी का मन डोला,
सेठ से बोला,
ये ह क े मोती—कु छ दन म जायगे पक।
लेकर ब त-सा धन
बेच दया उसने मोितय का खेत
यहाँ से वहाँ तक।
सेठ ने महीन कया इं तज़ार,
लगाता जब भी मोितय को हाथ,
जाते वे ढलक।
आिखरकार हार,
भर-भर के आह
वह गया मर;
उस पार बनी है उसक ।
सुंदरता पर हो जाओ िनसार;
जो उसके साथ करते ह ापार,
उनके हाथ लगती है ार।
डैफ़ोिडल का देख के मैदान
वही है मेरा हाल,
हो गया ँ इस पर िनहाल
िम ी क यह उमंग,
वसुंधरा का यह संगार
आँख पा नह रही ह सँभाल
मेरे श द म
कह है इतना उ मेष,
कह ह इतना उफान,
कहाँ है इतनी तेज़ी, ताज़गी,
कह है इतनी जान,
क भूिम से इनक उठान,
क हवा म इनके लहराव,
क ि ितज तक इनके फै लाव
क चतु दक इनके उ माद का
कर सक बखान।
यह तो करने म समथ
ए थे बस व सवथ;
कभी पढ़ा था उनका गीत,
आज मन म बैठ रहा है अथ।
पर म इसे नह सकूँ गा भूल,
सदा र खूँगा याद,
आज और वष बाद,
क जब अपना घर, प रवार, देस, छोडू
आया था म इं लड,
कि ज म र खे थे पाँव,
अजनबी और अनजान के समान,
अप रिचत था जब हर माग, हर मोड़,
अप रिचत हर दुकान, मकान, इं सान,
कसी से नह थी जान-पहचान,
तब भी यहाँ थे तीन,
जो समझते थे मुझ,े
िज ह समझता था म,
िजनसे होता था मेरे भाव,
मेरे उ वास का आदान- दान—
डैफ़ोिडल के फू ल,
जो देते थे प रचय-भरी मुसकान,
भात क िचिड़याँ,
जो गाती थ कह सुना-सा गान,
और कै म’ क धारा,
जो िवलो क झुक ई लता को छू -छू
बहती थी म द-म द, ीण- ीण!
शैल िवहंिगनी
मत डरो
ओ शैल क
सुंदर, मुखर, सुखकर
िवहंिगिन
म पकड़ने को तु ह आता नह ँ
जाल फै लाता नह ँ
प जरे म डाल तुमको
साथ ले जाना नह म चाहता ँ
और करना बंद ऐसे प जरे म
बंद हम िजसम वयं ह—
ट-प थर का बना वह प जरा
िजसको क हमने
नाम घर का दे दया है;
और बाहर क तरोताज़ा हवा
और बाहर के तरल, िनमल वाह
औ’ खुले आकाश के अिवरल इशार ,
या क ँ सं ेप म तो,
कृ ित के ब राग-रस-रं गी भाव से
अलग हमने कया है।
जानता म ँ
पर पर जो तु हारे
खेलती रं गीिनयाँ ह,
वे कहाँ से आ रही ह—
गगन क करणावली से,
धरिण क कु सुमावली से,
पवन क अलकावली से—
औ’ दरोदीवार के जो प जरे ह
ब द उसम ये कए जाते नह ह।
भूल मुझको एक
आई याद
यौवन के थम पागल दन क ।
एक तुम-सी थी िवहंिगनी
म िजसे फु सला-फँ साकर
ले गया था प जरे म—
“जानती तू है नह
म ज मना किव?
रिव जहाँ जाता नह है
खेल म जाता वहाँ म।
कौन-सी ऐसी करण है,
कस जगह है,
जो क मेरे एक ही संकेत पर
सब मान-ल ा
कर िनछावर,
मुसकरा कर
म जहाँ चा ँ वहाँ पर
वह िबखर जाती नह है?
कौन-सा ऐसा कु सुम है
कस जगह है—
भूिम तल पर
या क नंदन वा टका म—
जो क मेरी क पना क उँ गिलय के
परस पर िवहँस
झर जाता नह है?
कौन-सी मधु गंध है
चंपा, चमेली और बेला क
लट म,
या क रं भा-मेनका-सी
अ सरा के
लहरधर कुं तल म,
जो क मेरी
भावना से िलपटकर
आ नह सकती वहाँ पर
ला जहाँ पर
म उसे चा ँ बसाना?”
बात मेरी सुन हँसी वह
श द-जाल म फँ सी वह।
प जरे म डाल उसको
गीत करण के ,
कु सुम के ,
औ’ सुरिभ के ,
अनिगनत मने िलखे
उसके िलए, पर
गंध-रस भीनी ई रं गीिनयाँ
उड़ती ग उसक िनरं तर!
‘ व मेरे,
बोलते य तुम नह हो?
या मुझे धोखा रहे देते
बराबर?’
और वे बोले क
‘पागल
मानवी वर-साँस के
आकार जो हम,
प , याही, लेखनी का
ले ि गुण आधार
पु तक प जर म,
आलमारी के घर म
जब क होते ब द
रहते अंत म या? —
िसफ़
काले हफ़
काले ख़त-खचीने
और तू लाया िजसे है
वह कृ ित क कोख से ज मी,
कृ ित क गोद म पली,
कृ ित के रं ग म ढलती रही है।’
व से ृंगार करने के िलए
लाया िजसे था,
अब उसी के वा ते
एक करता
सौ तरह के म साधन!
कं तु उनसे
गंध-रस भीनी ई
रं गीिनयाँ कब लौटती ह?
व क सीमा ई मालूम;
किव भी
ग़ि तय से सीखते ह।
व अपने वा ते ह,
व अपने ाण-मन को
गुदगुदाने के िलए ह,
व अपने को माने
भूल जाने के िलए ह।
फू ल कब वे ह िखलाते?
रि म कब सोती जगाते?
और कब वे
गंध का घूँघट उठाते?
तोड़ते दीवार कब वे?
खोलते ह
प जरा का ार कब वे?
म पुरानी भूल
दुहराने नह फर जा रहा ँ
मत डरो
ओ शैल क
सुंदर, मुखर, सुखकर
िवहंगिन!
म पकड़ने को तु ह आता नह ।ँ
प जरे के बीच फु सलाता नह ।ँ
जानता ँ म
वर म जो तु हारे
प लेते राग
वे आते कहाँ से—
बादल के गजन से,
बात करते त -दल से,
साँस लेते िनझर से—
औ’ दरोदीवार के जो दायरे ह
बंद उसम ये कए जाते नह ह।
कं तु मने
उस दवस उ माद म
अपनी िवहंिगिन से कहा था—
“ या कभी तूने दय का देश देखा?
भाव
जब उसम उमड़ते
घुमड़ते, िघरते
झराझर नयन झरते,
तब जलद महसूस करते
फ़क़ पानी,
सोम रस का।
यार,
सारे बंधन को तोड़,
उर के ार सारे खोल,
आपा छोड़
कातर, िववश, अ पत,
िवत अंतदाह से
है बोलता जब,
उस समय कांतार
अपनी मरमराहट क
िनरथकता समझकर
शम से है िसर झुकाता।
दो दय के
बीच क असमथता बन
वासना जब साँस लेती
और आँधी-सी
उड़ाकर दो तृण को
साथ ले जाती
िवसुिध-िव मृित-िवजन म,
उस समय िनझर समझता है
क या है ज़ंदगी,
या साँस िगनना।’
और ऐसे भाव,
ऐसे यार
ऐसी वासना का
व वालामय दखाकर
म उसे लाया बनाकर बं दनी
कु छ ट औ’ कु छ तीिलय क ।
कं तु उसके आगमन के
साथ ही ऐसा लगा,
कु छ हट गया,
कु छ दब गया,
कु छ थम गया,
जैसे क सहसा
आग मन क बुझ गई हो।
पर बुझी भी आग म
कु छ ताप रहता,
राख म भी फूँ कने से
कु छ धुआँ तो है िनकलता।
भाव बंदी हो गया,
वह तो नदी है।
बाढ़ म उसके बहा जो
डू बता है।
(या क पाता पार, पर
इसका उठाए कौन ख़तरा।)
कं तु भरता गागरी जो
वह नहाता या बुझाता यास अपनी।
यार बंदी हो गया;
वह तो अनल है।
जो पड़ा उसक लपट म
राख होता।
(या क कुं दन बन चमकता,
पर उठाए कौन ख़तरा।)
जो अंगीठी म जुगा लेता उसे,
ंजन बनाता,
तापता
घर गम रखता।
वासना बंदी ई,
बस काम उसका रह गया भरती-िपचकती
चाम क जड़ ध कनी का।
बं दनी क ीित बंदी हो गई,
सब रीित बंदी हो गई,
सब गीत बंदी हो गए,
वे वन गए के वल नक़ल
के वल ित विन
उन वर के
जो क उठते सव घर से,
बोलते सब लोग िजनम,
डोलते सब लोग िजन पर,
डू बते सब लोग िजनके बीच
औ’ िजनसे उभरने का
नह ह नाम लेते!
मत डरो,
ओ शैल क
सुंदर, मुखर, सुखकर
िवहंिगिन
म पकड़ने को तु ह आता नह ।ँ
म पुरानी भूल
दुहराने नह फर जा रहा;
व छं दनी, तुम
गगन क करणावली से,’
धरिण क कु सुमावली से,
पवन क अलकावली से
रं ग ख चो।
बादल के गजन से
बात करते त -दल से,
साँस लेते िनझर से
राग सीखो।
और किव के
श द जाल ,
स ज़ बाग़ो से
कभी धोखा न खाओ।
नीड़ िबजली क लता पर बनाओ।
इं धनु के गीत गाओ।
चोटी क बरफ़
फ टक-िनमल
और दपण- व छ,
हे िहम-खंड, शीतल औ’ समु ल,
तुम चमकते इस तरह हो,
चाँदनी जैसे जमी है
या गला चाँदी
तु हारे प म ढाली गई है।
फ टक-िनमल
और दपण- व छ,
हे िहम-खंड, शीतल औ’ समु वल,
जब तलक गल िपघल,
नीचे को ढलककर
तुम न िम ी से िमलोगे,
तब तलक तुम
तृण ह रत बन,
धरती का नह रोमांच
हरिग़ज कर सकोगे
ओ’ न उसके हास बन
रं गीन किलय
और फू ल म िखलोगे,
औ’ न उसक वेदना के अ ु बनकर
ात पलक म पँखु रय के पलोगे।
जड़ सुयश,
िनज व क त कलाप
औ’ मुदा िवशेषण का
तु ह अिभमान,
तो आदश तुम मेरे नह हो,
पंकमय,
सकलंक म,
िम ी िलए म अंक म—
िम ी,
क जो गाती,
क जो रोती,
क जो है जागती-सोती,
क जो है पाप म धँसती,
क जो है पाप को धोती,
क जो पल-पल बदलती है,
क िजसम जंदगी क गत मचलती है।
तु ह ले कन गुमान—
ली समय ने
साँस पहली
िजस दवस से
तुम चमकते आ रहे हो
फ टक दपण के समान।
मूढ़, तुमने कब दया है इ तहान?
जो िवधाता ने दया था फक
गुण वह एक
हाथ दाब,
छाती से सटाए
तुम सदा से हो चले आए,
तु हारा बस यही आ यान!
उसका या कया उपयोग तुमने?
भोग तुमने?
पूछा जाएगा, सोचा जवाब?
उतर आओ,
और िम ी म सनी,
ज़ंदा बनो,
यह कोढ़ छोड़ो,
रं ग लाओ
िखलिखलाओ,
महमहाओ।
तोड़ते ह ेयसी-ि यतम तु ह?
सौभा य समझो,
हाथ आओ,
साथ जाओ।
युग का जुआ
युग के युवा
मत देख दाएँ
और बाएँ, और पीछे,
झाँक मत बग़ल,
न अपनी आँख कर नीचे;
अगर कु छ देखना है,
देख अपने वे
वृषभ कं धे
िज ह देता िनमं ण
सामने तेरे पड़ा
युग का जुआ,
युग के युवा!
तुझको अगर कु छ देखना है,
देख दुगम और गहरी
घा टयाँ
िजनम करोड़ संकट के
बीच म फँ सता, िनकलता
यह शकट
बढ़ता आ
प चँ ा यहाँ है।
दोपहर क धूप म
कु छ चमचमाता-सा
दखाई दे रहा है
घा टय म।
यह नह जल,
यह नह िहम-खंड शीतल,
यह नह है संगमरमर,
यह न चाँदी, यह न सोना,
यह न कोई बेशक़ मत धातु िनमल।
देख इनक ओर,
माथे को झुका,
ये क त-उ वल
पू य तेरे पूवज क
अि थयाँ ह।
आज भी उनके
परा मपूण कं ध का
महाभारत
िलखा युग के जुए पर।
आज भी ये अि थयाँ
मुदा नह ह;
बोलती ह :
“जो शकट हम
घा टय से
ठे लकर लाए यहाँ तक,
अब हमारे वंशज क
आन
उसको ख च ऊपर को चढ़ाएं
चो टय तक।”
गूँजती तेरी िशरा म
िगरा गंभीर य द यह,
ित विनत होता अगर है
नाद नर इन अि थय का
आज तेरी हि य म,
तो न डर,
युग के युवा,
मत देख दाएँ
और बाएँ और पीछे,
झाँक मत बग़ल,
न अपनी आँख कर नीचे;
अगर कु छ देखना है
देख अपने वे
वृषभ कं धे
िज ह देता चुनौती
सामने तेरे पड़ा
युग का जुआ।
इसको तमककर तक,
मककर ले उठा,
युग के युवा!
ले कन ठहर,
यह ब त लंबा,
ब त मेहनत औ’ मश क़त
माँगनेवाला सफ़र है।
तै तुझे करना अगर है
तो तुझे
होगा लगाना
ज़ोर एड़ी और चोटी का बराबर,
औ’ बढ़ाना
क़दम, दम से साध सीना,
और करना एक
लो से पसीना।
मौन भी रहना पड़ेगा;
बोलने से
ाण का बल
ीण होता;
श द के वल झाग बन
घुटता रहेगा, बंद मुख म।
फू लती साँस
कहाँ पहचानती ह
फू ल-किलय क सुरिभ को
ल य के ऊपर
जड़ी आँख
भला, कब देख पात
साज धरती का,
सजीलापन गगन का।
वस
आ तेरे गले म
एक घंटी बाँध दूँ म,
जो प र म
के मधुरतम
कं ठ का संगीत बनकर
ाण-मन पुल कत करे
तेरा िनरं तर,
और िजसक
लांत औ’ एकांत विन
तेरे क ठन संघष क
बनकर कहानी
गूँजती जाए
पहाड़ी छाितय म।
अलिवदा,
युग के युवा,
अपने गले म डाल तू
युग का जुआ;
इसको समझ जयमाल तू;
किव क दुआ!
नीम के दो पेड़
“तुम न समझोगे,
शहर से आ रहे हो,
हम गँवार क गँवारी बात।
शहर,
िजसम ह मदरसे और कािलज
ान-मद से झूमते उ ताद िजनम
िनत नई से नई,
मोटी पु तक पढ़ते, पढ़ाते,
और लड़के घोटते, रटते उ ह िनत;
ान ऐसा र ही है,
जो िबना मेहनत, मश क़त
िमल नह सकता कसी को।
फर वहाँ िव ान-िबजली का उजाला
जो क हरता बुि पर छाया अँधेरा,
रात को भी दन बनाता।
इस तरह का ान औ’ िव ान
पि छम क सुनहरी स यता का
क़ मती वरदान है
जो आ तु हारे बड़े शहर म
इक ा हो गया है।
और तुम कहते क यह दुभा य है जो
गाँव म प चँ ा नह है;
और हम अपने गँवरपन म समझते,
ख़ै रयत है, गाँव इनसे बच गए ह।
सहज म जो ान िमल जाए
हमारा धन वही है,
सहज म िव ास िजस पर टक रहे
पूँजी हमारी;
बुि क आँख हमारी बंद रहत ;
पर दय का ने जब-तक खोलते हम, —
और इनके बल युग से
हम चले आए, युग तक
हम चले जाते रहगे।
और यह भी है सहज िव ास,
सहज ान
सहजानुभूित,
कारण पूछना मत।
इस तरह से है यहाँ िव यात
मने यह लड़कपन म सुना था,
और मेरे बाप को भी यह लड़कपन म
बताया गया था,
बाबा लड़कपन म बड़ से सुन चुके थे,
और अपने पु को मने बताया है
क तुलसीदास आए थे यहाँ पर,
तीथ-या ा के िलए िनकले ए थे,
पाँव नंगे
वृ थे वे कं तु पैदल जा रहे थे,
हो गई थी रात,
ठहरे थे कु एँ पर,
एक साधू क यहाँ पर झोपड़ी थी,
फलाहारी थे, धरा पर लेटते थे,
और ब ती म कभी जाते नह थे,
रात से यादा कह कते नह थे;
उस समय वे राम का बनवास
िलखने म लगे थे
रात बीते
उठे ा मु त म,
िन य या क ,
चीर दाँतन जीभ छीली,
और उसके टू क दो ख से धरिण म;
और कु छ दन बाद उनसे
नीम के दो पेड़ िनकले,
साथ-साथ बड़े ए,
नभ म उठे औ’
उस समय से
आज के दन तक खड़े ह।”
म लड़कपन म
िपता के साथ
उस थल पर गया था।
यह कथन सुनकर िपता ने
उस जगह को िसर नवाया
और कु छ संदह
े से कु छ, ं य से
म मुसकराया।
बालपन म
था अचेत, िवमूढ़ इतना
गूढ़ता म उस कथा क
कु छ न समझा।
कं तु अब जब
अ ययन, अनुभव तथा सं कार से म
ँ नह अनिभ
तुलसी क कला से,
शि से, संजीवनी से,
उस कथा को
याद करके सोचता ँ :
हाथ िजसका छू
क़लम ने वह बहाई धार
िजसने शांत कर दी
को टक के द ध कं ठ क िपपासा,
स च दी खेती युग क मुझुराई,
औ’ िजला दी एक मुदा जाित पूरी;
जीभ उसक छू
अगर दो दाँतन से
नीम के दो पेड़ िनकले
तो बड़ा अचरज आ या।
और यह िव ास
भारत के सहज भोले जन का
भ तुलसी के क़लम क
द मिहमा
करने का
किव व-भरा तरीक़ा।
म कभी दो पु अपने
साथ ले उस पु य थल को
देखना फर चाहता ।ँ
य क ायि न मेरा
पूण होगा
उस जगह बे िसर नवाए।
और संभव है क मेरे पु दोन
ं य से, संदह
े से कु छ मुसकराएँ।
बु और नाचघर
“बु ं सरणं ग छािम
ध म सरणं ग छािम
संघं सरणं ग छािम।”
बु भगवान,
जहाँ था धन, वैभव, ऐ य का भंडार,
जहाँ था, पल-पल पर सुख,
जहाँ था पग-पग पर ृंगार,
जहाँ प, रस, यौवन क थी सदा बहार,
वहाँ पर लेकर ज म,
वहाँ पर पल, बढ़, पाकर िवकास,
कहाँ से तुमम जाग उठा
अपने चार ओर के संसार पर
संदह
े , अिव ास?
और अचानक एक दन
तुमने उठा ही तो िलया
उस कनक-घट का ढ न,
पाया उसे िवष-रस भरा।
दु हन क िजसे पहनाई गई थी पोशाक,
वह तो थी सड़ी-गली लाश।
तुम रहे अवाक् ,
ए हैरान,
य अपने को धोखे म र खे है इं सान,
य वह पी रहा है िवष के घूँट,
जो िनकलता है फू ट-फू ट?
या यही है सुख-साज
क मनु य खुजला रहा है अपनी खाज
िनकल गए तुम दूर देश,
वन -पवत क ओर,
खोजने उस रोग का कारण,
उस रोग का िनदान।
बड़े-बड़े पंिडत को तुमने िलया थाह,
मोटे-मोटे थ को िलया अवगाह,
सुखाया जंगल म तन,
साधा साधना से मन,
सफल आ म,
सफल आ तप,
आया काश का ण,
पाया तुमने ान शु ,
हो गए बु ।
देने लगे जगह-जगह उपदेश,
जगह-जगह ा यान,
देखकर तु हारा द वेश,
घेरने लगे तु ह लोग,
सुनने को नई बात
हमेशा रहता है तैयार इं सान,
कहनेवाला भले ही हो शैतान,
तुम तो थे भगवान।
जीवन है एक चुभा आ तीर,
छटपटाता मन, तड़फड़ाता शरीर।
स ाई है—िस करने क ज़ रत है?
पीर, पीर, पीर।
तीर को दो पहले िनकाल,
कसने कया शर का संधान?—
य कया शर का संधान?
कस क़ म का है बाण?
ये ह बाद के सवाल।
तीर को दो पहले िनकाल।
जगत है चलायमान,
बहती नदी के समान,
पार कर जाओ इसे तैरकर,
इस पर बना नह सकते घर।
जो कु छ है हमारे भीतर-बाहर,
दीखता-सा दुखकर-सुखकर,
वह है हमारे कम का फल।
कम है अटल।
चलो मेरे माग पर अगर,
उससे अलग रहना भी नह क ठन,
उसे वश म करना है सरल।
अंत म, सबका है यह सार—
जीवन दुख ही दुख का है िव तार,
दुख का इ छा है आधार,
अगर इ छा को लो जीत,
पा सकते हो दुख से िन तार,
पा सकते हो िनवाण पुनीत।
विनत- ित विनत
तु हारी वाणी से ई आधी ज़मीन—
भारत, ा, लंका, याम,
ित बत, मंगोिलया जापान, चीन—
उठ पड़े मठ, पैगोडा, िवहार,
िजनम िभ ुणी, िभ ु क क़तार
मुँड़ाकर िसर, पीला चीवर धार
करने लगी वेश
करती इस मं का उ ार :
“बु ं सरणं ग छािम
ध म सरणं ग छािम
संघं सरणं ग छािम।”
कु छ दन चलता है तेज़
हर नया वाह,
मनु य उठा च क, हो गया आगाह।
वाह री मानवता,
तू भी करती है कमाल,
आया कर पीर, पैग़ंबर, आचाय,
महंत, महा मा हज़ार,
लाया कर अहदनामे इलहाम,
छाँटा कर अ ल, बघारा कर ान,
दया कर वचन, बाज़,
तू एक कान से सुनती,
दूसरे से देती िनकाल,
चलती है अपनी समय-िस चाल।
जहाँ है तेरी बि तयाँ, तेरे बाज़ार,
तेरे लेन-देन, तेरे कमाई-ख़च के थान,
वहाँ कहाँ ह
राम, कृ ण, बु , मुह मद, ईसा के
कोई िनशान।
इनक भी अ छी चलाई बात,
इनक या िबसात,
इनम से कोई अवतार,
कोई वग का पूत,
कोई वग का दूत,
ई र को भी इसने नह रखने दया हाथ।
इसने समझ िलया था पहले ही
ख़दा सािबत ह गे ख़तरनाक,
अ लाह, वबालेजान, फज़ीहत,
अगर वे रहगे मौजूद
हर जगह, हर व ।
झूठ-फरे ब, छल-कपट, चोरी,
जारी, दग़ाबाज़ी, छीना-छोरी, सीनाज़ोरी
कहाँ फर लगी पनाह;
ग़रज़, क बंद हो जाएगा दुिनया का सब काम,
सोचो, क अगर अपनी ेयसी से करते हो तुम ेमालाप
और प च ँ जायँ तु हारे अ बाजान,
तब या होगा तु हारा हाल।
तबीयत पड़ जाएगी ढीली,
नशा सब हो जाएगा क़ाफू र,
एक दूसरे से हटकर दूर
देखोगे न एक दूसरे का मुंह?
मानवता का बुरा होता हाल
अगर ई र डटा रहता सब जगह, सब काल।
इसने वनवाकर मं दर, मि जद, िगरजाघर
ख़दा को कर दया है बंद;
ये ह ख़दा के जेल,
िज ह यह—देखो तो इसका ं य—
कहती है ा-पूजा के थान।
कहती है उनसे,
“आप यह कर आराम,
दुिनया जपती है आपका नाम,
म िमल जाऊँगी सुबह-शाम,
दन-रात ब त रहता है काम।”
अ ला पर लगा है ताला,
बंदे कर मनमानी, रँ गरे ल।
वाह री दुिनया,
तूने ख़दा का बनाया है खूब मज़ाक,
ख़ूब खेल।
जहाँ ख़दा क नह गली दाल,
वहाँ बु क या चलती चाल,
वे थे मू त के िखलाफ,
इसने उ ह क बनाई मू त,
वे थे पूजा के िव ,
इसने उ ह को दया पूज,
उ ह ई र म था अिव ास,
इसने उ ह को कह दया भगवान,
वे आए थे फै लाने को वैरा य,
िमटाने को संगार-पटार,
इसने उ ह को बना दया ृंगार।
बनाया उनका सुंदर आकार;
उनका बेलमुंड था शीश,
इसने लगाए बाल घूंघरदार;
और िम ी, लकड़ी, प थर, लोहा,
ताँबा, पीतल, चाँदी, सोना,
मूँगा, नीलम, प ा, हाथी दाँत—
सबके अंदर उ ह डाल, तराश, खराद, िनकाल
बना दया उ ह बाज़ार म िबकने का सामान।
पे कं ग से िशकागो तक
कोई नह यू रयो क दुकान
जहाँ, भले ही और न हो कु छ,
बु क मू त न िमले जो माँगो।
बु भगवान,
अमीर के ड़ाइं ग म,
रईस के मकान
तु हारे िच , तु हारी मू त से शोभायमान।
पर वे ह तु हारे दशन से अनिभ ,
तु हारे िवचार से अनजान,
सपने म भी उ ह इसका नह आता यान।
शेर क खाल, िहरन क स ग,
कला-कारीगरी के नमून के साथ
तुम भी हो आसीन,
लोग क स दय-ि यता को
देते ए तसक न,
इसीिलए तुमने एक क थी
आसमान- ज़मीन?
और आज
देखा है मने,
एक ओर है तु हारी ितमा
दूसरी ओर है डां संग हाल,
हे पशु पर दया के चारक,
अ हंसा के अवतार,
परम िवर
संयम साकार
मची है तु हारे सामने प-यौवन क ठे ल-पेल,
इ छा और वासना खुलकर रही ह खेल,
गाय-सुअर के गो त का उड़ रहा है कबाब
िगलास पर िगलास
पी जा रही है शराब—
िपया जा रहा है पाइप, िसगरे ट, िसगार,
धुआँधार,
लोग हो रहे ह नशे म लाल।
युवक ने युवितय को ख च
िलया है बाह के भ च,
छाती और सीने आ गए ह पास,
ह ठो-अधर के बीच
शु हो गई है बात,
शु हो गया है नाच,
आक ा के साज़—
ंपेट, लै रनेट, कारनेट—पर साथ
बज उठा है जाज़,
िनकलती है आवाज़ :
“म ं शरणं ग छािम,
मांस शरणं ग छािम,
डांसं शरणं ग छािम।”
ि भंिगमा
पहला म लाह
(उ र देश क एक लोकधुन पर आधा रत)
ड गा डोले,
िनत गंग-जमुन के तीर,
ड गा डोले।
आया डोला,
उड़न खटोला,
एक परी परदे से िनकली पहने पँचरँ ग चीर।
ड गा डोले,
िनत गंग-जमुन के तीर,
ड गा डोले।
आँख टक-टक,
छाती धक-धक,
कभी अचानक ही िमल जाता दल का दामनगीर।
ड गा डोले,
िनत गंग-जमुन के तीर,
ड गा डोले।
नाव िबराजी, के वट राजी,
डाँड़ छु ई भर, बस आ प चँ ी संगम पर क भीड़।’
ड गा डोले,
िनत गंग-जमुन के तीर,
ड गा डोले।
मन मुसकाई,
उतर नहाई,
‘आगे पाँव न देना, रानी, पानी अगम-गभीर’।
ड गा डोले,
िनत गंग-जमुन के तीर,
ड गा डोले।
बात न मानी,
होनी जानी,
ब त थहाई, हाथ न आई जादू क त वीर।
ड गा डोले,
िनत गंग-जमुन के तीर,
ड गा डोले।
इस तट, उस तट,
पनघट, मरघट,
बानी अटपट;
हाय, कसी ने कभी न जानी माँझी-मन क पीर।
ड गा डोले,
िनत गंग-जमुन के तीर,
ड गा डोले। ड गा डोले। ड गा डोले।...
गंगा क लहर
(सहगान के िलए : उ र देश क एक लोकधुन पर आधा रत)
गंगा क लहर अमर है,
गंगा क ।
ध य भगीरथ
के तप का पथ।
गंगा कँ पा थरथर है।
गंगा क ,
गंगा क लहर अमर है।
नभ से उतरी
पावन पुतरी,
दृढ़ िशव-जूट-जकड़ है।
गंगा क ,
गंगा क लहर अमर है।
बाँध न शंकर
अपने िसर पर,
यह धरती का वर है।
गंगा क ,
गंगा क लहर अमर है।
ज न हठकर
अपने मुख धर,
तृिषत जगत-अंतर है।
गंगा क ,
गंगा क लहर अमर है।
एक धार जल
देगा या फल?
भूतल सब ऊसर है।
गंगा क ,
गंगा क लहर अमर है।
ल धार हो
भू पर िवचरो,
जग म ब त ज़हर है।
गंगा क ,
गंगा क लहर अमृत है,
गंगा क लहर अमर है,
गंगा क ,
सोन मछरी
(सं यी-पुय ष
म केय दोपंदल
सा बनाकर
द ं पमवा
सहगानयकेच-महाभारत
िलए : उ र 1दे163
श क166।
एक
लोकधुन पर आधा रत िजसे ढं ढया कहते ह।)
पु ष
सीता ने सुबरन मृग माँगा,
उनका सुख लेकर वह भागा,
बस रह गई नयन म आँसू क लरी।
रानी, आँसू क लरी; रानी आँसू क लरी।
रानी, मत माँगो न दया क सोन मछरी।
पु ष
लाठी और बाँसुरी
(पु ष- ी के बीच कथोपकथन क तरह गाने के िलए : उ र देश क
एक लोकधुन पर आधा रत, िजसे ढं ढया कहते ह।)
पु ष
लाडो, बाँस क बनाऊँ ल ठया क बँिसया?
बँिसया क ल ठया? ल ठया क बँिसया?
लाडो, बाँस क बनाऊँ ल ठया क बँिसया?
बंसी-धुन कान म पड़ती,
गोरी के दल को पकड़ती,
भोरी मछरी को जैसे मछु आ क क टया;
मछु आ क बँिसया, मछु आ क क टया;
लाडो, बाँस क बनाऊँ ल ठया क बँिसया?
जग म दु मन भी बन जाते,
मौका पा नीचा दखलाते,
लाठी रहती िजसके काँधे, उसक ऊँची पिगया;
उसक ऊँची पिगया, ऊँची उसक पिगया;
लाडी, बीस क बनाऊँ ल ठया क बँिसया?
नील-परी1
सीप म नील-परी सागर तर,
सीपी म।
बंसी उस पार बजी,
नयन क नाव सजी,
पलक क पाल उसास भर,
सीपी म।
सीपी म नील-परी सागर तर,
सीपी म।
अंधड़ आकाश चढ़ा,
झ क का ज़ोर बढ़ा,
शोर बढ़ा, बादल औ’ िबजली लड़े,
सीपी म।
सीपी म नील-परी सागर तर,
सीपी म।
आर नह , पार नह ,
तृन का आधार नह ,
झेल रह लहर का वार लहर,
सीपी म।
सीपी म नील-परी सागर तर,
सीपी म।
अब कसको याद कर,
कससे फ रयाद कर,
आज भर, नयन से मोती झर
सीपी म।
सीपी म नील-परी सागर तर,
सीप म।
सहसा उिजयार आ,
बेड़ा भी पार आ,
पी का दीदार आ,
मोदभरी नील-परी पी को वर,
सीपी म।
सीपी म नील-परी सागर तर,
सीपी म।
म आ के नीचे
(ढोलक पर सहगान के िलए : उ र देश क एक लोकधुन पर आधा रत)
म आ के ,
म आ के नीचे मोती झरे ,
म आ के ।
यह खेल-हँसी,
यह फाँस फँ सी,
यह पीर कसी से मत कह रे ।
म आ के ।
म आ के नीचे मोती झरे ,
म आ के ।
अब मन परबस,
अब सपन परस,
अब दूर दरस, अब नयन भरे ।
म आ के ।
म आ के नीचे मोती झरे ,
म आ के ।
अब दन ब रे ,
जी क कह रे ,
मनबासी पी के मन बस रे
म आ के ।
म आ के नीचे मोती झरे ,
म आ के ।
घिड़याँ सुबरन,
दुिनया मधुवन,
उसको िजसको न िपया िबसरे ।
म आ के ।
म आ के नीचे मोती झरे ,
म आ के ।
सब सुख पाएँ,
सुख सरसाएँ,
कोई न कभी िमलकर िबछु ड़े।
म आ के ।
म आ के नीचे मोती झरे ,
म आ के ।
आँगन का िबरवा
(अके ले गाने के िलए : लोकधुन पर आधा रत)
आँगन के ,
आँगन के िबरवा मीत रे ,
आँगन के ।
रोप गए साजन,
सजीव आ आँगन;
जीवन के िबरवा मीत रे ।
आँगन के ,
आँगन के िबरवा मीत रे ,
आँगन के ।
पी क िनशानी,
को देते पानी
नयन के घट गए रीत रे ।
आँगन के ,
आँगन के िबरवा मीत रे ,
आँगन के !
फर- फर सावन,
िबन मनभावन;
सारी उमर गई बीत रे ।
आँगन के
आँगन के िबरवा मीत रे ,
आँगन के !
तू अब सूखा,
सब दन खा,
दूखा गले का गीत रे ।
आँगन के ,
आँगन के िबरवा मीत रे ,
आँगन के !
अंितम श या,
हो तेरी छयाँ
दैया िनभा दे ीत रे !
आँगन के ,
आँगन के िबरवा मीत रे ,
आँगन के !
फर चुनौती
अंतर से या क दगंतर से आई पुकार—
मने अपने पाँव से पवत कु चल दए,
कदम से र दे कु श-काँट के बन बीहड़,
दी तोड़ डग से रे िग तान क पसली,
दी छोड़ पग को छाप धरा क छाती पर;
सु ताता ;ँ
तन पर फू टी म-धारा का
सुख पाता ।ँ
अंतर से या क दगंतर से आई पुकार—
मने सूरज क आँख म आँख डाल ,
मने शिश को मानस के अ दर लहराया,
मने नयन से नाप िनशा का अंबर
तारे -तारे को अ ुकण से नहलाया;
अलसाया ;ँ
पलक म कु छ अ भुत सपने
भर लाया ।ँ
अंतर से या क दगंतर से आई पुकार—
रस- प िजधर से भी मने आते देखा
चुपचाप िबछाया अपनी बेबस चाह को;
वामन के भी अरमान असीिमत होते ह,
रं भा क ओर बढ़ाया अपनी बाँह को;
बतलाता ँ
यौवन क रं ग-उमंग को।
शरमाता ।ँ
अंतर से या क दगंतर से आई पुकार—
तम आसमान पर हावी होता जाता था,
मने उसको ऊषा- करण से ललकारा;
इसको तो खुद दन का इितहास बताएगा,
थी जीत ई कसक औ’ कौन हटा-हारा;
म लाया ँ
संघष- णय के गीत को!
मनभाया ।ँ
अंतर से या क दगंतर से आई पुकार—
हर जीत, जगत क रीित, चमक खो देती है,
हर गीत गूँजकर कान म धीमा पड़ता,
हर आकषण घट जाता है, िमट जाता है,
हर ीित िनकलती जीवन क साधारणता;
अकु लता ;ँ
संसृित के म को उलट कहाँ
म पाता ।ँ
अंतर से या क दगंतर से आई पुकार—
पवत ने फर से अपना शीश उठाया है,
सूरज ने फर से वसुंधरा को घूरा है;
रं भा ने क ताका-झाँक फर नंदन से,
उिजयाले का तम पर अिधकार अधूरा है;
पछताता ;ँ
अब नह भुजा से पहला
बल पाता ।ँ
अंतर से या क दगंतर से आई पुकार—
कब संह समय क खाट िबछाकर सोता है,
कब ग ड़ िबताता है अपने दन कं दर म,
जड़ खंडहर भी आवाज़ जवाबी देता है,
बड़वाि जगा करती है बीच समुंदर म;
मुसकाता ;ँ
म अपनी सीमा, सबक सीमा से प रिचत,
पर मुझे चुनौती देते हो
तो आता ।ँ
गीतशेष
अब तुमको अ पत करने को मेरे पास बचा ही या है!
ीर कहाँ मेरे बचपन का
और कहाँ जग के परनाले,
इनसे िमलकर दूिषत होने
से ऐसा था कौन बचा ले;
यह था िजससे चरण तु हारा
धो सकता तो म न लजाता,
अब तुमक अ पत करने को मेरे पास बचा ही या है!
यौवन का वह सावन िजसम
जो चाहे जब रस बरसा ले,
पर मेरी व गक म दरा को
सोख गए माटी के याले,
अगर कह तुम तब आ जाते
जी भर पीते, भीग-नहाते,
रस से पावन, हे मनभावन, िवधना ने िवरचा ही या है!
अब तुमको अ पत करने को मेरे पास बचा ही या है!
अब तो जीवन क सं या म
है मेरी आँख म पानी
झलक रही है िजसम िनिश क
शंका, दन क िवषम कहानी—
कदम पर पंकज क किलका,
म थल पर मानस जल-कलकल—
लौट नह जो आ सकता है अब उसक चचा ही या है!
अब तुमको अ पत करने को मेरे पास बचा ही या है!
म थल, कदम िनकट तु हारे
जाते, ज़ािहर है, शरमाए,
ले कन मानस - पंकज भी तो
स मुख हो सूख,े कु हलाए;
नीरस-सरस, अपावन - पावन
छू न तु ह कु छ भी पाता है,
इतना ही संतोष क मेरा
वर कु छ साथ दए जाता है,
गीत छोड़कर पास तु हारे मानव का प च ँ ा ही या है!
अब तुमको अ पत करने को मेरे पास बचा ही या है!
रात-राह- ीित-पीर
साँझ िखले,
ात झड़े,
फू ल हर संगार के ;
रात महकती रही।
शाम जले,
भोर बुझ,े
दीप ार - ार के ;
राह चमकती रही।
गीत रचे,
गीत िमटे,
जीत और हार के ;
ीित दहकती रही।
यार िवदा,
यार िवदा,
दन िवदा बहार के ;
पीर कसकती रही।
जाल-समेटा
जाल-समेटा करने म भी
समय लगा करता है, माझी,
मोह मछिलय का अब छोड़।
िसमट ग करण सूरज क ,
िसमट पंखु रयाँ पंकज क ,
दवस चला िछित से मुंह मोड़।
ितिमर उतरता है अंबर से,
एक पुकार उठी है घर से,
ख च रहा कोई बे - डोर।
जो दुिनया जगती, वह सोती;
उस दन क स या भी होती,
िजस दन का होता है भोर।
न द अचानक भी आती है,
सुध-बुध सब हर ले जाती है,
गठरी म लगता है चोर।
अभी ि ितज पर कु छ-कु छ लाली,
जब तक रात न िघरती काली,
उठ अपना सामान बटोर।
जाल - समेटा करने म भी,
व लगा करता है, माझी,
मोह मछिलय का अब छोड।
मेरे भी कु छ कागद - प ,े
इधर-उधर ह फै ले - िबखरे ,
गीत क कु छ टू टी किड़याँ,
किवता क आधी सतर,
म भी रख दूं सबको जोड़।
जब नदी मर गई—
जब नदी जी उठी
कौन था वह युगल
जो गलती- ठठु रती यािमनी म
जब क के ि ज
ांत, िव मृित-जिड़त होकर
सो गया था
कै म के पुल पर खड़ा था—
पु ष का हर अंग
णयांगार क गरमी िलए
मनुहार - चंचल,
और नारी
िजडेयर से िनकाली,
संगमरमर मू त-सी
िन े ,
िन ल।
घड़ी िनटी क
अठारह बार बोली,
युगल ने
छ ीस क मु ा बना ली;
और तार से उतर कु हरा
सफ़े द भभूत - सा
सब ओर फै ला।
म दबे पाँव
िनकलकर पास ही से
कु छ डरा-सा,
प च ँ ‘िडग’ म, थका-माँदा
त लंदन के दवस का,
िब तरे म घुसा, सोया, मरा-सा ही।
ात उठकर देखता — ँ
बरफ़- बरफ़-बरफ़!
िनकट से, दूर से भी घूरती-सी बरफ़
चार तरफ़!
ऐसा दृ य पहले भी
दृग के सामने आ-जा चुका है।
कं तु आज अजीब-सी छाई उदासी,
नगर म िनज व-सा कु छ हो गया है,
एक चलती साँस जैसे थम गई है,
एक प रिचत मंद-अ फू ट वर
अचानक बंद जैसे हो गया है।
कु छ कह अिवराम चलता,
दूसर को भी चलाता,
या क चलने का सतत आभास देता,
यकायक क-सा गया है
और दल कु छ धड़कन को भूल
रह-रह डू ब-उतरा-सा रहा है।
कै म नदी मरी पड़ी है,
गित नह , कल-कल नह ,
छल-छल नह है,
कै म सारी जम गई है,
कफ़न-सी उस पर बरफ़ क तह चढी है।
अब नह उसम झलकते और िहलते
चच, गुंबद और तट के भवन सुंदर
ले िविवध आकार,
कौतूहल िववधक।
(िज़ दगी का िवकृ त, खंिडत, ण थायी
िब ब भी जीवंत कतना!)
पंट सारे कू ल-क िलत;
हंस-जल-कु कुट कह को उड़ गए ह।
एक कं कड़ म उठाकर फकता ,ँ
‘डु प’ से अंदर न जाकर,
टनटनाता बीच म जाकर पड़ा है।
नगर के कु े सतह पर दौड़ते ह,
िगलहरी इस पार से उस पार जाती।
या यही उपयोग उसका रह गया है
हो गई पाषाण िजसक सरस छाती?—
कौन था वह युगल
जो शीतल, िसहरती यािमनी म
जब क के ि बज
शांत, व िवमु ध होकर
सो गया था
कै म के पुल पर खड़ा था—
पु ष का हर अंग
णयांगार क गरमी िलए
अिभसार-चंचल
और नारी
ढाल साँचे से िनकाली
मोम क ितमा
भुजा म िसमटती-सी
िपघलती।
घड़ी िनटी क
िबगड़कर टनटनाती जा रही थी,
युगल
ितरसठ क बना मु ा
जगत से बेख़बर था।
और तार से हवा का एक झ का
चला सुरिभत, गीत-गुंिजत
औ’ उसी के साथ बहता,
कड़ी कोई गुनगुनाता,
प च ँ िडग म
एक मने बड़ी लंबी,
ेम-पाती िलखी,
त कये को कलेजे से दबाकर
सो गया म
ात उठकर देखता ,ँ
बरफ़ चार तरफ़ क
जैसे कसी जादूगरी से
उड़ गई है।
गगन म छाया कु हासा और घन
जैसे कसी के मं पढ़ने से
अचानक झड़ गया है।
करण कोई जािलक शि ले
च ान िहम क छू रही है,
सौ जगह से जो दरकती-टू टती है,
फू टती जलधार ऊपर फै लती है,
और टकराती पर पर िहम िशलाएँ
बह चली ह, बह रही ह, बह गई ह।
क़ जैसे तोड़ मुदा उठ पड़ा है,
कफ़न जैसे फाड़ जीवन झाँकता है,
ज़ं दगी क सांस देती है सुनाई,
लहर के मंजीर मुख रत हो रहे है,
लहर-लहर , धार-कू ल क ठठोली
कान म आने लगी है—
पुन: कलकल, पुन: छलछल।
चच, गुंबद और तट के भवन सुंदर
कू द िसर के बल नदी म
ान करने लग गए ह,
पंट ितरता आ रहा है,
नवयुवक उस पर खड़ा
ल गी सिलल म डाल-डाल िनकालता है,
बीच बैठी नील नयना
एक गुिड़या क जुराब बुन रही है,
और आगे
हंस जोड़ा
वीिचय के झूलने पर
उभर-िगरता बढ़ा जाता,
रा ता जैसे दखाता।
एक जोड़ा खड़ा पुल पार
इस समय भी
मुसकराता।*
टू टे सपने
—और छाती ब करके
स य तीखा
आज वह
वीकार मने कर िलया है,
व मेरे
व त सारे हो गए ह!
कं तु इस गितवान जीवन का
यही तो बस नह है।
अभी तो चलना ब त है,
ब त सहना, देखना है।
अगर िम ी से
बने ये व होते,
टू ट िम ी म िमले होते,
दय म शांत रखता,
मृि का क सजना–संजीवनी म
है ब त िव ास मुझको।
वह नह बेकार होकर बैठती है
एक पल को,
फर उठे गी।
अगर फू ल से
बने ये व होते
और मुरझाकर
धरा पर िबखर जाते,
किव-सहज भोलेपने पर
मुसकराता, कं तु
िच को शांत रखता,
हर सुमन म बीज है,
हर बीज म है बन सुमन का।
या आ जो आज सूखा,
फर उगेगा,
फर िखलेगा।
अगर कं चन के
बने ये व होते,
टू टते या िवकृ त होते,
कसिलए पछताव होता?
वण अपने त व का
इतना धनी है,
व के ध े ,
समय क छेड़खानी से
नह कु छ भी कभी उसका िबगड़ता।
वयं उसको आग म
म झ क देता,
फर तपाता,
फर गलाता,
ढालता फर!
कं तु इसको या क ँ म,
व मेरे काँच के थे!
एक व गक औच ँ ने
उनको ढला था,
एक जादू ने सँवारा था, रँ गा था।
क पना - करणावली म
वे जगरदुमगर ए थे।
टू टने के वा ते थे ही नह वे
कं तु टू टे
तो िनगलना ही पड़ेगा
आँख को यह
ुर-सुती ण यथाथ दा ण!
कु छ नह इनका बनेगा।
पाँव इन पर धार बढ़ना ही पड़ेगा
घाव-र ाव सहते।
व छाती पर धँसालो,
पाँव म बाँधा न जाता।
धैय मानव का चलेगा
लड़खड़ाता, लड़खड़ाता, लड़खड़ाता।
चेतावनी
भारत क यह परं परा है—
जब नारी के बाल को ख चा जाता है,
धमराज का संहासन डोला करता है,
ु भीम क भुजा फड़कती,
व घोष मिणपु पक औ’ सुघोष करते ह,
गांडीव क यंचा तड़पा करती है;
कहने का ता पय,
महाभारत होता है,
अगर कभी झूठी ममता,
दुबलता, कं कत मूढ़ता
ापा करती,
वयं कृ ण भगवान कट हो
असं द ध औ’ वत: िस ा
वर म कहते,
‘यु य व भारत।”
भारत क यह परं परा है—
जब नारी के बाल को ख चा जाता है,
एक महाभारत होता है।
तूने भारत को के वल
रे खांश और अ ांश जाल म
ब िच पट समझ िलया है,
िजसक कु छ शीष थ लक र,
जब तू चाहे, घटा-िमटाकर
अपने न शे म दखला ले?
हथकिड़याँ कड़कड़ा, बेिड़य को तड़काकर,
अपने बल पर मु , खड़ी
भारत माता का
प िवराट
मदांध, नह तूने देखा है;
(नशा पुराना ज द नह उतरा करता है।
और न अपने भौितक दृग से देख सके गा।
आकर किव से द दृि ले।
पूरब, पि म, दि ण से आ
अगम जलंभर, उ छल, फे िनल
िह द महासागर क अगिणत
िह लोिलत, क लोिलत लहर
िज ह अह नश
ािलत करती रहती ह,
अिवरल,
वे भारतमाता के
पु य चरण ह—
पग-नखा क या कु मा रका-मं दर शोिभत।
और
पूरवी घाट, पि छमी घाट
उसी के पीन, पु , दृढ़ जंघ-पाट ह।
वं य–मेखला कसी ई है क ट देश म।
व थल पर गंगा-जमुनी हार झूलता—
कौसल- ज क
दु ध-धार से
राम-कृ ण–बल–वैभव संिचत,
िशव-धनु खंिडत,
रावण म द
इं िव नं दत
कं स िवलुं ठत—
ास कं ठ म!
दि णांक म
ख ग और जौहर वाला का
राज थानी महा म थल दीि मान है।
वाम बा आशीष और आर ण का
आ ासन बनकर पु तक
फै ल रहा है,
िजसके नीचे
ल –ल हल
गीत क लय-गित पर चलकर
भू का अंचल
करते धानी, करते पीला;
और देख वह
भाल द , िहम-शु , सजीला,
िजसके ऊरार क मीरी के शर यारी का
खौर लगा है;
औ’ हंदक ृ ु श और िहमालय क
जो सघन िशला-व ल रयाँ
उ र-पि छम, उ र-पूरव
दूर–दूर तक
छछड़ी, िछटक , िबखरी, फै ल —
अमरनाथ-गौरीशंकर-कै लाश िवचुंिबत—
वे भारतमाता के कं ध पर अवलंिबत
उसक अलक, नाग-लट ह, वेणी-चोटी,
जो क हमारी जीिवत सं कृ ित परं परा म
नारी के गौरव के
सबसे शीष िच ह,
िजनक लाज बचाने को,
इ ज़त रखने को,
मू य बड़ा से बड़ा
चुकाने को हम उ त।
( फर चालीस को ट क मां क
भ लटा क !)
तूने आज इ ह को छेड़ा है,
ख चा है,
कसी नशे म तू अपने से
बाहर चला गया है,
संयम इसीिलए हम
साध रहे ह।
तुझे नह मालूम क तूने
कतना भीषण और भयावह
काम कया है!
फर कहता ,ँ
भारत क यह परं परा है—
जब नारी के बाल को छेड़ा जाता है,
धमराज का संहासन डोला करता है,
ु भीम के बा फड़कते,
व नाद मिणपु पक औ’ सुघोष करते है,
गांडीव क यंचा कड़का करती है,
कहने का ता पय,
महाभारत होता है;
अगर कभी थोथी ममता,
दुबलता कं कत मूढ़ता
ापा करती,
वयं कृ ण भगवान कट हो
असं द ध औ’ वत: िस
वाणी म कहते,
‘उि यु य व भारत!”
ताजमहल
जाड़ के दन थे, दोन ब े अिमत अिजत
सरदी क छु ी म पहाड़ के कालेज से
घर आए थे, जी म आया, सब मोटर से
आगरे चल, देख शोभामय ताजमहल
िजसक िसि सारी जगती म फै ली है,
िजससे आक षत होकर आया करते ह
दशक दुिनया के हर िह से, हर कोने से;
आगरा और द ली के बीच सड़क प ;
द तर के को पर च र देत-े देते
जी ऊबा है, दल बहलेगा, िपकिनक होगी।
तड़के चलकर हम आठ बजे मथुरा प च ं ;े
मने ब से कहा, “यही वह मथुरा है
जो ज मभूिम है कृ णचं आनदकं द
क , िजसके पेड़े ह िस भारत भर म!’
ब े वोले, “हम ज मभूिम देखगे, पेड़े खाएंग।े ”
हम इधर-उधर हो के शव टीले पर प च ं ,े
िजसक दे पीठ खड़ी थी मि जद एक बड़ी;
टीले क िम ी हटा दी गई थी कु छ-कु छ
िजससे अतीत के भ , पुरातन मं दर का
भ ावशेप अपनी पथराई आँख से
अ याय -अ याचार क कटु कथा- था
बतलाता था; अं कत था एक िनकट पट पर—
छ: बार हंद ु ने यह मं दर खड़ा कया,
छ: बार मुसलमान ने इसको तोड़ दया;
औरं गजेब ने अंितम बार ढहा करके
मसिजद चुनवा दी उस मं दर के मलवे से—
कु छ भ मू तय क ढेरी थी पास पड़ी,
जो खोज-खुदाई म टीले से िनकली थ ।
सहसा मेरी आँख के आगे नाच गए
पटना, काशी के और अयो या के मं दर—
कु छ अधभ िपछली करतूत के साखी,
कु छ कु गढ़ मसिजद -मीनार म प रव तत।
िनमाण माँगता है मौिलक उ ाव- व ;
वह तोड़-जोड़ करने से िस नह होता।
मानवता कतने गलत पथ से जाती है?
बीती स दय क भूल के टीले, ग े
या नह बचाए या क भरे जा सकते थे?—
पछताने से इितहास नह बदला करता।
टीले क िम ी पर मने म था टेका,
कु छ ोध ोभ, पछताव िलए आगरा चला।
मेरी प ी ने एक िवखंिडत मू त उठा
मोटर म रख ली; अपने टू टेपन म भी
वह कतनी सु दर थी, कतने कटु कोमल-भाव जगाती थी।
दो घ टे के प ात् खड़े थे हम चार
टकटक बाँधकर ताजमहल के फाटक पर,
फाटक था या चौखटा क िजसम ताजमहल
का िच कसी ने कौशल से िबठलाया था—
कु छ स य क जो हो व हटा-सा जाता था,
कु छ व क जो हो स य िनकटतर आता था,
कु छ अ बर का धरती को पाँव छु लाता-सा,
कु छ धरती का अंबर को हाथ उठाता-सा,
नभ-गंगा से जैसे अंजिल भर जल छलका,
जैसे से कदम ज म आ है उ पल का;
आ कहाँ-कहाँ से मर यहाँ मँडराते ह!
मुमताज़महल औ’ शाहजहाँ क णय-सुरिभ
से वातावरण यहाँ का भीना-भीना है;
जो आता है उसका तन-मन बस जाता है।
वह उलटे-पलटे म ययुगी इितहास ब त,
इस प े पर से दृि हटा कब पाता है,
िजस पर िचि त है ताजमहल, िजस पर अब तक
कोई ध बा, कोई कलंक लग नह सका।
इस मि दर म क गई िति त वह ितमा
िजस पर यौछावर हर मानव-अंतर होता,
इसके िव हिथयार उठाने का साहस
मानव तो या, शायद न समय भी कर पाए!
ओ शाहजहाँ, तूने उस जीिवत काया को
कतना दुलराया, कतना स माना होगा,
िजसक मुदा िम ी का य ृंगार कया—
क पना-मृदल ु , भावना-धवल पाषाण से!
सज गई धरा, सज गया गगन का यह कोना
जमुना के तट पर अटक गया बहते- बहते
जैसे कोई टटके , उजले पूजा के फू ल का दोना
के शव टीले पर मने जो कु छ देखा था
उसने मुझम कु छ ोध- ोभ उकसाया था,
इस सुिध-समािध ने मुझको ऐसा सहलाया,
म शांत आ मुझम उदारता जाग पड़ी,
हर टू टे मं दर का खंडहर ही बोल उठा
जैसे मेरे वर म, मन का आमष हटा,
‘ओ ताजमहल के िनमाता, हठधम से
तेरे अ ज-अनुज ने जौ अपराध कए,
उन सबको, मने तुझको देखा, माफ़ कया!’
जब हम लौटे, टीले क खंिडत ितमा से
सारी कटु ता थी िनकल गई, वह पहले से
अब यादा सु दर, कोमल थी, मनमोहक थी!
वह भी देखा : यह भी देखा
गाँधी : अ याय अ याचार का दास व सहती
मू छता-मृत जाित क
जड़ शू यता म
कड़कड़ाती िबजिलय क
बल आँधी :
योित-जीवन-जागरण घन का
तुमुल उ लास!
दानव का शाप
देवता !
दानव का शाप
आगे उतरता है!
संध-ु मंथन के समय
जो छल-कपट,
जो ु ता,
जो धूतता,
तुमने द शत क
पचा या काल पाया,
भूल या इितहास पाया?
भले सह ली हो, िववश हो,
दानव ने;
य कब समझी उ ह ने?
सब कार वंिचत ने
शाप जो उस दन दया था
आज आगे उतरता है।
जानते तुम थे
क पारावार-मंथन
हो नह सकता अके ले देव-बल से;
दानव का साथ औ’ सहयोग
चाहा था इसी से।
क तु या सम साधना- म क व था,
उभय प के िलए,
तुमने बनाई?
कया सोचो,
देवताओ!
जब मथानी के िलए
मंदर अचल तुमने उखाड़ा
और ले जाना पड़ा उसको जलिध तक
मूल का वह भीम, भारी भाग
तुमने दानव क पीठ पर लादा
िशखर का भाग ह का
तुम चले कर-कं ज से अपने सँभाले।
दानव क पंडिलयाँ चटक ,
कमर टू टी,
ई दृढ़ रीढ़ टेढ़ी,
खंची गदन,
जीभ नीचे लटक आई,
तन पसीने से नहाया,
आँख से औ’ नाक से
लो बहा,
मुंह से अकरपन फे न छू टा;
औ’ तु हारे कं ज-पद क
चाप भी अं कत न हो पाई धरा पर!
और बासु क-र ु
दमंर क मथानी पर
लपेटी जब गई तब
कया तुमने दानव को
सप-फन क ओर
िजनके थ पड क चोट
मंथन म अनवरत
झेलते वे रहे ण- ण!
और ख चा-ख च म जो
नाग-नर ने
धू - वाला पूण शत-शत
अंधकर फू कार छोड़े
और फके
िवषम कालानल हलाहल के तरारे
ओड़ते वे रहे उनको
वीरता से, धीरता - गंभीरता से—क मारे ;
जब क तुमने
कं ज - कर से
नागपित क पूँछ
सहलाई—दुही भर!
अंत म जब
अमृत िनकला,
योित फै ली,
तब अके ले
उसे पीने के िलए
ष जो तुमने रचा
सब पर िव दत है।
एक दानव ने
उसे दो बूँद चखने का
चुकाया मोल अपना शीश देकर।
(औ’ अमृत पीकर
अमर जो तुम ए तो
वे-िपए या मर गए सव दै य-दानव?
आज भी वे जी रहे ह,
आज भी संतान उनक
जी रही दूध नहाती,
और पूत और पोत
फल रही है, बढ़ रही है।)
छल-कपट से,
ु ता से,
धूतता से,
सब तरह वंिचत उ ह ने
शाप यह उस दन दया था :—
सृि य द चलती रही तो
अमृत-मंथन क ज़ रत
फर पड़ेगी!
और मंथन—
वह अमृत के
िजस कसी भी प क ख़ाितर
कया जाए—
िबना दो देव-दानव प के
संभव न होगा
कं तु अब से
मंदराचल मूल का
वह क ठन, ठोस, थूल, भारी
भाग देव क
कमर पर
पीठ- ंध पर पड़ेगा,
और दानव िशखर थामे
शोर भर करते रहगे,
‘अमृत ज़ंदाबाद, ज़ंदा—!’
ख़ास उनम
अमृत पर ा यान दगे।
और मंथन-काल म भी
देवतागण सप का मुख-भाग
पकड़गे,
फन क चोट खाएँग,े
ज़हर क फूँ क घूँटगे,
मगर दल दानव के
सप क बस दुम िहलाएँगे;
अमृत जब ा होगा
वे अके ले चाट जाएँग।े
सुनो, हे देवताओ!
दानव का शाप
आगे आज उतरा।
यह िवगत संघष भी तो
संध-ु मंथन क तरह था।
जानता म ँ क तुमने भार ढोया,
क झेला,
आपदाएँ सह ,
कतना ज़हर घूँटा!
पर तु हारा हाथ छू ँछा!
देवता जो एक-
दो बूँद अमृत क
पान करने को, िपलाने को चला था,
बिल आ!
ले कन िज ह ने
शोर आगे से मचाया,
पूँछ पीछे से िहलाई,
वही खीस-िनपोर,
काम-िछछोर दानव
संधु के सब र -धन को
आज खुलकर भोगते ह।
बात है यह और
उनके कं ठ म जा
अमृत मद म बदलता है,
और वे पागल नशे म
हद, हया, मरजाद
िम ी म िमलाकर
नाच नंगा नाचते ह!
और हम-तुम
उस पुरा अिभशाप से
संत -िवजिड़त
यह तमाशा देखते ह।
चल बंजारे
चल बंजारे ,
तुझे िनमंि त करती धरती नई,
नया ही आसमान!
चल बंजारे —
दूर गए मधुवन रँ गराते,
त -छाया-फल से ललचाते,
भृंग-िवहंगम उड़ते-गाते,
यारे , यारे ।
चल बंजारे ,
तुझे िनमंि त करती धरती नई,
नया ही आसमान!
चल बंजारे —
छू ट गई नदी क धारा,
जो चलती थी काट कगारा,
जो बहती थी फाँद कनारा,
मत पछता रे ।
चल बंजारे ,
तुझे िनमंि त करती धरती नई,
नया ही आसमान!
चल बंजारे —
दूर गए िग रवर गव ले,
धरती जकड़े, अंबर क ले,
बीच बहाते िनझर नीले,
फे न फु हारे ।
चल बंजारे ,
तुझे िनमंि त करती धरती नई,
नया ही आसमान!
चल बंजारे —
पार ए म थल के टीले,
सारे अंजर-पंजर ढीले,
बैठ न थककर कुं ज-करीले,
धूल–धुआँरे।
चल बंजारे ,
तुझे िनमंि त करती धरती नई,
नया ही आसमान!
चल बंजारे —
चलते-चलते अंग िपराते,
मन िगर जाता पाँव उठाते,
अब तो के वल उ घटाते,
साँझ-सकारे ।
चल बंजारे ,
तुझे िनमंि त करती धरती नई,
नया ही आसमान!
चल बंजारे —
या फर पट-प रवतन होगा?
या फर से तन कं चन होगा?
या फर अमर -सा मन होगा?
आस लगा रे ।
चल बंजारे ,
तुझे िनमंि त करती धरती नई,
नया ही आसमान!
चल बंजारे —
जब तक तेरी साँस न थमती, थमे न तेरा
क़दम, न तेरा कं ठ-गान!
चल बंजारे —
नभ का िनमं ण
श द के आकाश पर उड़ता रहा,
पद-िच पंख पर िमलगे।
एक दन भोली करण क लािलमा ने
य मुझे फु सला िलया था,
एक दन घन-मुसकराती चंचला ने
य मुझे बहका दया था,
एक राका ने िसतार से इशारे
य मुझे सौ-सौ कए थे,
एक दन मने गगन क नीिलमा को
कसिलए जी भर िपया था?
आज डैन क पक रोमावली म
वे उड़ान एक धुँधली याद-सी ह;
श द के आकाश पर उड़ता रहा,
पद-िच पंख पर िमलगे।
याद आते ह ग ड़- द गज घन को
चीरनेवाले झपटकर,
और गौरव-गृ सूरज से िमलाते
आँख जो धँसते िनरं तर
गए अंबर म न जलकर पंख जब तक
हो गए बेकार उनके , ार उनके ,
हंस, जो चुगने गए नभ-मोितय को
और फर लौटे न भू पर,
चातक , जो यास क सीमा बताना,
जल न पीना, चाहती थी,
उस लगन, आदश, जीवट, आन के
साथी मुझे या फर िमलगे।
श द के आकाश पर उड़ता रहा,
पद-िच पंख पर िमलगे।
और मेरे देखते ही देखते अब
व ऐसा आ गया है,
श द क धरती ई है जंत-ु संकुल,
जो यहाँ है, सब नया है,
जो यहाँ रगा उसी के लीक अपनी
डाल दी, सीमा लगा दी,
और िपछलगुआ बने, अगुआ न बनकर,
कौन ऐसा बेहया है;
गगन क उ मु ता म राह अंतर
क मास औ’ उठान ह बनात ,
धरिण क संक णता म ढ़ के ,
आवत ही अ सर िमलगे।
श द के आकाश पर उड़ता रहा,
पद-िच पंख पर िमलगे।
आज भी सीमा-रिहत आकाश
आकषण-िनमं ण से भरा है,
आज पहले के युग से सौ गुनी
मानव-मनीषा उवरा है,
आज अ भुत व के अिभनव ि ितज
हर ात खुलते जा रहे ह,
मानदंड भिव य जीवन का िसतार
क हथेली पर धरा है;
क पना के पु अगुआई सदा करते
रहे ह, और आगे भी करगे,
है मुझे िव ास मेरे वंशज के
पंख फर फड़क-िहलगे,
फर गगन-मंथन करगे!
श द के आकाश म उड़ता रहा,
पद-िच पंख पर िमलगे।
कु हार का गीत
(ताली क ताल पर गाने के िलए)
चाक चले चाक!
चाक चले चाक!
अंबर दो फाँक—
आधे म हंस उड़े, आधे म काक!
चाक चले चाक!
चाक चले चाक!
धरती दो फाँक—
आधी म नीम फले, आधी म दाख!
चाक चले चाक!
चाक चले चाक!
दुिनया दो फाँक—
आधी म चाँदी है, आधी म राख!
चाक चले चाक!
चाक चले चाक!
जीवन दो फाँक—
आधी म रोदन है, आधे म राग!
चाक चले चाक!
चाक चले चाक!
बाज़ी दो फाँक,
ख़ूब सँभल आँक,
जुस है कस मु ी म, कस मु ी, ताक?
चाक चले चाक!
चाक चले चाक!
चाक चले चाक!...
जामुन चूती है
(ढोलक-मजीरे पर सहगान के िलए : उ र देश क एक लोकधुन पर आधा रत)
अब गाँव म घर-घर शोर
क जामुन चूती है।
सावन क बदली
अंबर म मचली,
भीगी-भीगी होती भोर
क जामुन चूती है।
अब गाँव म घर-घर शोर
क जामुन चूती है।
मधु क िपटारी
भ रे -सी कारी,
बाग म पैठ न चोर
क जामुन चूती है।
अब गाँव म घर-घर शोर
क जामुन चूती है।
झुक-झुक िबने जा,
सौ-सौ िगने जा,
या है कमर म न ज़ोर
क जामुन चूती है।
अब गाँव म घर-घर शोर
क जामुन चूती है।
डाल पे चढ़कर,
िह मत से बढ़कर,
मेरे बीरन, झकझोर
क जामुन चूती है।
अब गाँव म घर-घर शोर
क जामुन चूती है।
रस के कटोरे
दुिनया बटोरे ,
रस बरसे सब ओर
क जामुन चूती है।
अब गाँव म घर-घर शोर
क जामुन चूती है।
गंधव-ताल1
लिछमा का गीत
(सहगान के िलए : उ र देश क एक लोकधुन पर आधा रत)
िछतवन क ,
िछतवन क ओट तलैया रे ,
िछतवन क !
जल नील-नवल,
शीतल, िनमल,
जल-तल पर सोन-िचरै या रे ,
िछतवन क ,
िछतवन क ओट तलैया रे ,
िछतवन क !
िसत-र कमल
झलमल-झलमल,
दल पर मोती चमकै या रे ,
िछतवन क ,
िछतवन क ओट तलैया रे ,
िछतवन क !
दपण इनम,
बंिबत िजनम
रिव-शिश-कर गगन-तरै या रे
िछतवन क ,
िछतवन क ओट तलैया रे ,
िछतवन क !
जल म हलचल,
कलकल, छलछल
झंकृत कं गन
झंकृत पायल,
प चँ े जल-खेल-खेलैया रे ,
िछतवन क ,
िछतवन क ओट तलैया रे ,
िछतवन क !
साँवर, मुझको,
भी जाने दे
पोखर म कू द
नहाने दे;
लूँ तेरी सात बलैया रे ,
िछतवन क ,
िछतवन क ओट तलैया रे ,
िछतवन क !
1. दूसरे गीत का शीषक है ‘आगाही’। यह लिछमा के ेमी साँवर का गीत है। साँवर
शायद उसका नाम इसिलए दया गया होगा क वह साँवला था।
लोक-जीवन का जहाँ एक प यह है क वह क पना क ओर झुकता है, वहाँ
उसका दूसरा प यह भी है क वह वा तिवकता से िचपका रहता है। क पना वह
तक अ छी है जहाँ तक वह मन को सहलाए, दुलराए, गुदगुदाए। अगर वह
वा तिवकता से, पाँव के नीचे क धरती से अलग ख चती है तो लोक-जीवन फ़ौरन
सतक हो जाता है, पर वा तिवकता क मह ा बताने के िलए वह तक का सहारा
नह लेता। वह भय, जन ुित, दंतकथा, अंधिव ास सबक सहायता लेता है। अब
तो मनोिव ान भी हमको बताता है हमारे मह वपूण काय का शायद एक ितशत
तक-स मत होता है।
जन ुित हे क कई बार ऐसा आ है क कु मा रयाँ िछतवन क ओट क
तलैया म नहाई गई ह और लौटकर नह आ । इसके ऐितहािसक सच-झूठ क
जाँच-पड़ताल करने क आव यकता नह । साँवर इसी का सहारा लेकर अपनी
लिछमा को. वहाँ जाने से रोकता है।
यह क पना ही ेमी को वा तिवकता क आगाही है :
साथ ही ेमो क एक वाभािवक आशंका भी इस आगाही म िछपी है। वह तो
साधारण, साँवला, िम ी का पुतला है। अगर लिछमा ने द गोरे , ग धव को देख
िलया तो कह ऐसा न हो क साँवर उसके मन से उतर जाए। अगर लिछमा कभी
अनजाने ऐसे ग धव के घेरे म पड़ ही जाय, तो उनसे बचने का म भी वह
बतलाता है। गोरे क काट है काला। वह अपने साँवरे को याद करे जो उस पर
बावरा है।
पि छम के गोरे ग धव म अनायास ही एक और संकेत आ गया है, िजसक
क पना म अपने ोता पर छोड़ देना चा ग ँ ा।
मािलन बीकानेर क
(बीकानेरी मज़दू रिनय से सुनी एक लोकधुन के आधार पर)
‘लाई ँ फू ल का हास, लोगी मोल, लोगी मोल!’—पंत
फु लमाला ले लो,
लाई है मािलन बीकानेर क ।
मािलन बीकानेर क ।
बाहर-बाहर बालू-बालू,
भीतर-भीतर बाग है,
बाग-नाग म हर-हर िवरवे
ध य हमारा भाग है;
फू ल - फू ल पर भ रा, डाली - डाली कोयल टेरती।
फु लमाला ले लो,
लाई है मािलन बीकानेर क ।
मािलन बीकानेर क ।
धवलपुरी को प ा धागा,
सूजी जैसलमेर क ,
झीनी - बीनी रं ग - िबरं गी
डिलया है अजमेर क ;
किलयाँ डू ग
ँ रपुर, बूँदी क , अलवर क , अंबेर क ।
फु लमाला ले लो,
लाई है मािलन बीकानेर क ।
मािलन बीकानेर क ।
ओढ़नी आधा अंबर ढक ले
ऐसी है िच ौर क ,
चोटी है नागौर नगर क ,
चोली रनथंभौर क ;
घँघरी आधी धरती ढकती है मेवाड़ी घेर क ।
फु लमाला ले लो,
लाई है मािलन बीकानेर क ।
मािलन बीकानेर क ।
ऐसी लंबी माल क ीतम-
यारी पहन साथ म,
ऐसी छोटी माल क कं गन
बाँधे दोन हाथ म,
पल भर म किलयाँ कु हलात ार खड़ी है देर क ।
फु लमाला ले लो,
लाई है मािलन बीकानेर क ।
मािलन बीकानेर क ।
एक टका धागे क क मत,
पाँच टके ह फू ल क ,
तुमने मेरी क मत पूछी?—
भोले, तुमने भूल क ।
लाख टके क बोली मेरी!—दुिनया है अ धेर क !
फु लमाला ले लो,
लाई है मािलन बीकानेर क ।
मािलन बीकानेर क ।
सुहािगन बीकानेर क —
पैया
(ढोलक पर सहगान के िलए : उ र देश क एक लोकधुन पर आधा रत)
आज मँहगा है, सयाँ, पैया।
रोटी न महँगी है,
लहँगा न महँगा,
महँगा है, सयाँ, पैया।
आज महँगा है, सयाँ, पैया।
बेटी न यारी है,
बेटा न यारा,
यारा है, सयाँ, पैया।
मगर महँगा है, सयाँ पैया।
नाता न साथी है,
र ता न साथी,
साथी है, सयाँ, पैया।
मगर महँगा है, सयाँ, पया।
गाना न मीठा,
बजाना न मीठा,
मीठा है, सयाँ, पैया।
मगर महँगा है, सयाँ, पैया।
गाँधी न नेता,
जवाहर न नेता,
नेता है सयाँ, पैया।
मगर महँगा है, सयाँ, पैया।
दुिनया न स ी है,
दीन नह स ा,
स ा है, सयाँ, पैया।
मगर महँगा है, सयाँ, पैया।
आज महँगा है, सयाँ, पैया।
वषाउ∫मंगल
‘सिख कारी घटा बरसै बरसाने पै गोरी घटा नँद गाँव पै री’ —ठाकु र
(मंच गान)
(साइ लोरामा पर काले बादल छाए ह : बीच-बीच म िबजली चमकती है और
गड़गड़ाहट का श द होता है।
मंच पर एक ओर ीणकाय सात पु ष क पँि है, दूसरी ओर सात ि य क ।
दोन के बीच म एक युगल—पु ष क पँि क ओर ी, ि य क पँि क ओर
पु ष। पु ष ने देहाती ढँग क टू नी रं ग क पगड़ी बाँधी है, िजसका लंबा पुछ ला
सामने छाती पर दािहनी तरफ लटक रहा है, उनके कु रते और धोती का रं ग सफे द है।
ि य ने टू नी रं ग क रं ग क साड़ी पहनी है, िजसका प लू बाएँ कं धे से पीछे क ओर
लटक रहा है; उनक आधी बाँह क कु रती सफे द रं ग क है; उनके शरीर पर कोई
आभूषण नह है। रं ग सूखेपन और जलन के तीक ह। पि याँ बोलते समय लोग
आकाश क ओर गदन उठाते ह। बाद को सामने देखते है।)
पु ष पंि ी पंि
गोरा बादल! गोरा बादल!
दोन पँि
गोरा बादल!
युगल
गोरा बादल तो बे-बरसे चला गया;
या काला बादल भी बे-बरसे जाएगा?
पु ष पंि ी पंि
गोरा बादल! गोरा बादल!
ब त दन से ब त दन से
अ बर यासा! धरती यासी
दोन पंि
ब त दन से
िघरी उदासी!
युगल
गोरा बादल तो तरसाकर चला गया;
या काला बादल भी जग को तरसाएगा?
पु ष पंि ी पंि
गोरा बादल! गोरा बादल!
गोरा बादल! काला बादल!
दोन पँि
गोरा बादल!
काला बादल!
युगल (पु ष)
गोरा बादल उठ पि छम से आया था—
गरज-तरज कर फर पि छम को चला गया।
युगल ( ी)
काला बादल उठ पूरब से आया है—
कड़क रहा है, चमक रहा है, छाया है।
पु ष पंि ी पंि
आँख को धोखा होता है! जाग रहा है या सोता है
युगल (पु ष)
गोरा बादल गया नह था पि छम को,
रं ग बदलकर अब भी ऊपर छाया है।
युगल ( ी)
गोरा बादल चला गया हो तो भी या,
काले बादल का सब ढंग उसी का और पराया है।
पु ष पंि ी पंि
इससे जल क उ टा इसने
आशा धोखा! जल को सोखा!
युगल
कै सा अचरज!
कै सा धोखा!
छू ँछी धरती!
भरा आ बादल का कोखा।
पु ष पंि ी पंि
गोरा बादल! काला बादल!
दोन पँि
काला बादल!
गोरा बादल!
युगल (पु ष)
गोरा बादल तो बे-बरसे चला जाएगा।
या काला बादल भी बे-बरसे जाएगा।
युगल ( ी)
गोरा बादल तो तरसा कर चला गया।
या काला बादल भी जग को तरसाएगा।
पु ष पंि ी पंि
गोरा बादल! काला बादल।
युगल
पूरब का, पि छम का बादल,
उ र का, दि खन का बादल—
कोई बादल नह बरसता।
वसुंधरा के
कं ठ- दय क यास न हरता।
वसुधा-तल का
जन-मन-संकट- ास न हरता।
थ ती ा! िधक् याशा! िधक् परवशता!
उसे कह या कड़क - चमक जो नह बरसता!
पु ष पंि ी पंि
गोरा बादल! एक तरह का
काला बादल! सारा बादल!
[ िबजली चमकती है : गड़गड़ाहट का श द होता है। सब लोग ऊपर क ओर देखते ह।
बूँद न िगरने से फर िनराश हो िसर झुका लेते ह।]
युगल
जीिवत आँख क , कान म आशा रखता,
यासा रखता! यासा रखता! यासा रखता
पु ष पंि ी पंि
गोरा बादल काला बादल
यासा रखता! यासा रखता!
[ बारी-बारी से दोन पँि याँ मंद-मंदतर वर म दुहराती ह। फर िबजली चमकती है,
बादल गरजता है। दूर पर कोई ं य भरे वर म गाता है ‘सिख कारी घटा बरसै
बरसाने पै गोरी घटा नँद गाँव पै री।’.......पदा िगरता है।]
रा -िपता के सम
हे महा मन्
हे महारथ,
हे महा स ाट!
हो अपराध मेरा य,
म तेरे महा थान क कर याद,
या ित दवस तेरा
ममवेधी, दल कु रे दी, पीर-ित
अभाव अनुभव कर नह
तेरे समझ खड़ा आ ।ँ
धार कर तन—
राम को या, कृ ण को या—
मृि का ऋण सभी को
एक दन होता चुकाना;
मृ यु का कारण, बहाना।
और मानव-धम है
अिनवाय को सहना-सहाना।
औ’ न म इसिलए आया ँ
क तेरे याग, तप, िनः वाथ सेवा,
स तनत को पलटनेवाले परा म,
दंभ-दप िवचूणकारी शूरता औ’
शहनशाही दल, तबीयत, ठाठ के प ात
अब युग भु खड़ , बौन , नक़लची बानर का
आ गया है;
श ु चार ओर से ललकारते ह,
बीच, अपने भाग-टु कड़ को
मुसलसल उछल-कू द मची ई है;
याग-तप क िं डयाँ भुनकर समा ाय
ाचार, हथकं डे, खुशामद, बंदरभपक
क कमाई खा रही ह।
अ त जब मात ड होता,
अंधकार पसारता है पाँव अपने,
टम टमाते कु टल, खल-ख ोत दल,
आ म चारक गाल-गाल ृगाल
कहते घूमते ह यह आ, वह आ,
ऐसा आ, वैसा आ, कै सा आ!
शत-शत, इसी ढब क , कािलमा क
छ छायाएँ चतु दक िवचरती ह।
खर-उ ल दवस के प ात्
काली रात को तैयार रहना चािहए ही।
रात को जो रात करके जानता है,
वह नह अ ान- म-तम से िघरा है,
ात उसक इं तज़ारी म खड़ा है।
जब ितिमर म काल च धँसे तभी तो
जाितय के धैय क होती परी ा!
कं तु आ म वंचना से
जाितय को उबरते
इितहास ने देखा नह है।
और इसम तू सहायक
कसिलए हो?—
हे महा मन्,
हे महारथ,
हे महा स ाट!
हो अपराध मेरा य,
इतना पूछने को िसफ़
हािज़र सामने तेरे आ ।ँ
तू धरा से कू च जब करने लगा था,
छोड़ य आया वहाँ तू
रजत-हीरक मुकुट,
खलदल कवच,
आयुध, मं से अिभिष ,
माला औ’ खड़ाऊँ
उस खड़ाऊँ म अँगूठा डाल देना
तो सरल था, कं तु वह उठती नह है,
पहननेवाला कभी चलता न दखता,
बस ‘खड़ा ’ँ कह रहा है।
और माला बन गई है माल औ’ जनजाल
िजसम फँ से रहने म कु शलता दीख पड़ती,
िनकलना तो कू टनीितक हार होगी,
मुकुट म िसर को िबठाने के िलए
िसर को फु लाया जा रहा है—
ठीक बस वह कफ़न बाँधे शीश पर था—
कं तु हौदे क तरह वह ढकढकाता,
शिश पर िथर हो न पाता।
और खलदल कवच तन पर
इस तरह लगता क जैसे
नाग- य ा कचुली म
कचुआ बरसात का पैठा आ है;
और सू मायुध, क िजनसे
तोप का मुंह ब द होता था,
बवंडर उभरता था, शांत होता था,
वही ह, क तु उनक शि गायब हो गई;
ले उ ह को हाथ म कज़ोट* कु छ
ित दन छु माते-घूमते
अख़बार के ऊपर चलाते
जो क ात: काल उनके वार से मर
शाम को पंसा रय के काम आते;
और अपने हाथ अपनी पीठ को वे थपथपाते!
मक ग ँ ा तो नह कोई सुनेगा,
अनुकरण होता नह है सफल
ितभा का कभी भी!
और गो संदह े मुझको है क तेरी भी
सुनेगा कौन, फर भी
हो सके तो देख ले करके तुमुल आकाशवाणी :
“मत करो उपहास मेरा और मेरे आयुध का
और अपना और मेरे देश के भोले जन का!
तीर मेरे हाथ का तु ा तु हारे हाथ म है,
माँगता येक युग अपना नवायुध;
उसे नव संसार, नवयुग दृि से ढालो,
जतन कर नवल बल, तप, साधना क
आग म डालो, िनकालो, धार दो, लो;
ि पुर-गय संहारकारक शंभु अजगव
भी नह था राम के कु छ काम का,
इससे उ ह ने तोड़ उसको
नए धनु से कर नया टंकार
नूतन दानव का था कया संहार,
अ जत नया जय-जयकार।
जीिवत ि , जीिवत जाित,
जीिवत रा का ल ण यह ृंगार।”
आज़ादी के चौदह वष
देश के बेपढ़े, भोले, दीन लोगो!
आज चौदह साल से आज़ाद हो तुम।
कु छ समय क माप का आभास तुमको?
नह ; तो तुम इस तरह समझो
क िजस दन तुम ए वाधीन उस दन
राम य द मुिन-वेश कर, शर-चाप धर
बन गए होते,
साथ ी, वैभव, िवजय, ुव नीित लेकर
आज उनके लौटने का दवस होता!
मर चुके होते िवराध, कबंध,
खरदूषण, ि िशर, मारीच खल,
दुब धु बानर बािल,
और सवंश दानवराज रावण;
िमट चुक होती िनशानी िनिशचर क ,
कट चुका होता िनराशा का अँधेरा,
छट चुका होता अिन य का कु हासा,
धुल चुका होता धरा का पाप संकुल,
मु हो चुकता समय
भय क , अनय क ृंखला से,
राम-रा य भात होता!
पर िपता-आदेश क अवहेलना कर
(या भरत क ाथना सुन)
राम य द ग ी सँभाल अवधपुरी म बैठ जाते,
राम ही थे,
अवध को वे वि थत, सि त, समृ अव य करते,
कं तु सारे देश का या हाल होता।
वह िवराध िवरोध के िवष दंत बोता,
दै य िजनसे फू ट लोग को लड़ाकर
शि उनक ीण करते।
वह कबंध क आँख िजसक पेट पर है,
देश का जन-धन हड़पकर िन य बढ़ता,
बािल ाचा रय का मुख बनता,
और वह रावण क िजसके पाप क िमित नह
अपने अनुचर के , वंशज के संग
खुलकर खेलता, भोले-भल का र पीता,
अि थयाँ उनक पड़ी ची कारत
कोई न, ले कन, कान करता।
देश के अनपढ़, गँवार, गरीब लोगो!
आज चौदह साल से आज़ाद हो तुम
देश के चौदह बरस कम नह होते;
और इतना सोचने क तो तु ह वाधीनता है ही
क अपने राम ने उस दन कया या?
देश म चार तरफ़ देखो, बताओ।
व त पोत
बंद होना चािहए
यह तुमुल कोलाहल,
क ण ची कार, हाय-पुकार,
ककश- ु - वर आरोप
बूढ़े नािवक पर,
ेतके शी कणधार पर,
क अपनी अबलता से, ग़ि तय से,
या क गु वाथ े रत,
तीथया ा पर चला यह पोत
लाकर के उ ह ने इस िवकट च ान से
टकरा दया है।
यान अब है खंड-खंड िवभ , करवट,
सू सब टू टे ए,
हर जोड़ झूठा, चूल ढीली,
नभमुखी म तूल नतमुख, भूिम-लुं ठत।
उलटकर सब ठाठ-काठ-कबार-संपद-भार
कु छ जलम , कु छ जलत रत, कु छ तट पर
िव ृंखल, िवकृ त, िबखरा, िबछा, पटका-सा, फका-सा।
मरे , घायल, चोट खाए, दबे कु चले और डू ब क न सं या।
बचे, अ त- त, घबराए का।
दक् - विनत ं दन!—
इसी के बीच लोलुप वाथपरता
दया, मरजादा, हया पर डाल परदा,
िधक् , लगी है लूट नोच, खसोट म भी।
इस िनरा म वृि क करनी उपे ा ही उिचत है।
पूणता कसम िनिहत है?
व प ये कृ िम-क ट कतना काट खाएंग-े पचाएँगे!
कभी या छू सकगे,
आ मवानो, वह अमर संपद क िजससे
यह वृहद् जलयान होकर पुन न मत, नव सुसि त
नव तरं ग पर नए िव ास से गितमान होगा।
कं तु पहले
बंद होना चािहए यह तुमुल कोलाहल,
क ण आ वान, ककश- ु ं दन।
पूछता ,ँ
आ दहीन अतीत के ओ याि यो,
या आज पहली बार ऐसी वंसकारी,
ममभेदी, दु रा घटना घटी है?
वीिथयाँ इितहास क ऐसी कथा से पटी ह,
जो बताती ह क लहर का िनमं ण या चुनौती
तुम सदा वीकारते, ललकारते बढ़ते रहे हो।
िसफ़ च ान नह ,
द ाल तुमसे ट र लेकर हटे ह,
और कतनी बार?—वे जान, बताएँ।
टू टकर फर बने,
फर- फर डू बकर तुम तरे ,
िवष को घूँटकर अमरे रहे हो।
आज तुम इस छु युग क चाल, छल से
िवकल, िन ल, हार बैठोगे, नह िव ास मुझको।
म उसी संजीवनी से बोलता िजसके धनी तुम,
मृ यु पर अि तम िवजय के ुव णी तुम!
बीच क ये मंिज़ल ह।
और यह घटना बड़े ही ांित और युगांतकारी
मोड़ क उ ोषणा है।
ोध करना कणधार पर िनरथक;
वे थके , बूढ़े, पके , संघष से ऊबे,
भुजा , कमर, कं ध को ज़रा आराम देना चाहते थे।
हम न ह अनुदार उनके ित ऋणी हम कम नह ह।
साथ ही हम सोचने को भी िववश ह,
काश, उनके लोचन पर धुंध छा जाता न इतना
शाप क च ान म वरदान का नव ीप दखता
काश, वे यह जान पाते
मू य उनक भूल, उनके वाथ का
हमको चुकाना पड़ेगा कतने दन तक और कतना!
काश उनपर ही न हम दािय व सारा छोड़ देते
जो आ, होना वही था,
कं तु यह संकेत भी सु प ही है,
कणधार -नािवक के साथ अब
नेतृ व-नेता का ज़माना लद चुका
अिधनायक व जहाज़ का जनगण करगे—तीथया ी।
इसिलए इस अमर या ा के मुसा फर, सब उठो फर,
कमर बाँध , साँस साधो;
समर जीवन का अभी अिविजत पड़ा है;
तुम न थकने के िलए, आराम करने को बने हो,
कम, ित ण कम, का वरदान या अिभशाप
तुम हो ज म के ही साथ लाए;
मुि अंितम ास तक िमलनी नह है।
उठो, जो टू टा आ है उसे जोड़ो,—
एकता के सू अब भी कम नह है;
जो फटा उसको िमलाओ,
मेल क ताक़त बड़ी है;
िछ देखो, भरो,—
िछ ा वेष छोड़ो;
काय त परकर पधा करो
पर िव षे छोड़ो;
जो िबछा, िबखरा समेटो,
कं तु जो बेकार उससे आँख मोड़ो।
भा य लेटे का सदा लेटा रहा है,
जो खड़ा है भा य उसका उठ खड़ा है,
चल पड़ा जो भा य उसका चल पड़ा है—
ऋिष-वचन यह।
जो पड़ा है पोत करवट
को ट पर बल दे उसे उ ान कर दो,
म य उसके यह महा म तूल थापो,
सधा, सीधा, िस िविधवत्—
“ऊ व दृग, सम पग” गित का मं अपने पूवज का
रा -तन क रीढ़ जैसी,
आय-िन ा-य क यह यि का है—
शर,
िशव लंग
िव णु वज अनवनत,
पु , ुव-दृढ़, दीघ,
अजर, अमोघ, अ त और अ युत।
पाल पर िलख दो ित ा पाथ क ;
शहतीर-सी डाँड सँभाल ,
फे न-मुख उ त तरं ग क अनी चापो;
करो उन पर अनवरत शासन सतत मशील,
आसन से न डोलो;
भर उमंग से करो अिभयान,
सागर चीरते आगे बड़ी, आगे बढ़ो,
उ कं ठ गाते गान—
हम सदा जवान!
हम सदा जवान!
हम चले चुनौती बन के युग - जहान को,
औ’ चुनौती बन के मौत को, मसान को,
हम चले लहर-लहर पे देते इ तहान!
हम सदा जवान!
हम सदा जवान!
शि मू तमान!
वा याय क म वसंत
शहर का, फर बड़े,
ितस पर द तरी जीवन—
क बंधन करामाती—
जो क हर दन
(छोड़कर इतवार को,
सौ शु है अ लािमयाँ का,
आज को आराम वे फ़रमा गए थे)
सुबह को मुग़ा बनाकर है उठाता,
एक ही र तार-ढर पर घुमाता,
शाम को उ लू बनाकर छोड़ देता,
कब मुझे अवकाश देता है
क बौरे आम म िछपकर कु हकती
को कला से धड़कन दल क िमलाऊँ,
टार क काली सड़क पर दौड़ती
मोटर, बस से, ला रय से,
मानव को तु छ-बौना िस करती
दीघ- ार इमारत से, दूर
पगडंडी पकड़कर िनकल जाऊँ,
ि ितज तक फै ली दशाएँ िपऊँ,
फागुन के सँदस े े क हवाएँ सुनूँ,
पागल बनू,ँ बैठँू कुं ज म,
वासंितका का प लवी घूँघट उठाऊँ,
औख ँ डालूँ आँख म,
फर कु छ पुरानी याद ताज़ी क ँ ,
उसके साथ नाचूँ,
कु छ पुराने, कु छ नये भी गीत गाऊँ,
हाथ म ले हाथ बैढूँ
और कु छ िन:श द भाव क
भँवर म डू ब जाऊँ—
कं तु फागुन के सँदस
े े क हवाए
ह नह इतनी अबल, असहाय
शहर-पनाह से,
ऊँचे मकान से, दुकान से
ठठककर बैठ जाएँ,
या क टकरा लौट जाएँ।
मंि य क ग य से,
फ़ाइल क गिडय से,
द तर से, अफ़सर से,
वे न दबत ;
पासपोट न चािहए उनको, न वीज़ा।
वे नह अिभसा रकाएँ
जो क िबजली क
चकाच धी चमक से
िहच कचाएँ।
वे चली आत अदेखी,
िबना नील िनचोल पहने,
सनसनाती,
और जीवन िजस जगह पर
सहज, वाभािवक, अनारोिपत,
वहाँ पर गुनगुनात ,
रहस ित विनयाँ जगात ,
गुदगुदात ,
समय-मीठे दद क लहर उठात ;
(और या ये पंि याँ ह?)
लाक के त दरब ,
उ लु के रात के अ ,
प-वा यटु ता- दशक पा टय से,
होटल से, रे टरा से,
मगर, उनको घृणा है।
आज छु ी;
आज मुख पर लाक चेहरा लगाकर
असिलयत अपनी िछपानी नह मुझको,
आज फर- फर फोन क आवाज़
अ याचार मेरे कान पर कर नह सकती,
आज टंकनका रय के ,
आलसी फ़ाइल, नो टस, पुरिजयाँ,
मेरी जी नह िमचला सकगी।
आज मेरी आँख अपनी, कान अपना, नाक अपनी।
इसिलए ही आज
फागुन के सँदसे े क हवा क
मुझे आहट िमली है
प -पु तक िच - ितमा-फू लदान-
सजीव इस किव क म
िजसक खुली है एक िखड़क
लान से उठती ई ह रयािलय पर,
फू ल-िचिड़य को झुलाती डािलय पर,
और िजसका एक वातायन
गगन से उतरती नव नीिलमा पर
खुला है।
बाहरी दीवार का लेकर सहारा
लोम-लितका
भेद िखड़क पर मढ़ी जाली अचानक
आज भीतर आ गई है
कु छ सहमती, सकपकाती भी क जैसे
गाँव क छोरी अके ली खड़ी ाइं ग म म हो।
एक नर-िछपकली
मादा-िछपकली के िलए आतुर
ि … ि ...करती
आलमारी-आलमारी फर रही है।
एक िचिड़या के िलए
दो िचड़े लड़ते, चुहचुहाते, फु रकु राते
आ गए ह—
उड़ गए ह—
आ गए फर—
उड़ गए फर—
एक जोड़ा नया आता! ...
कस क़दर बे-अि तयारी, बेक़रारी!—
‘नटखटो, यह िच तुलसीदास का है,
मू त रमन मह ष क है।’
कं तु इनके ही पर के साथ आई
फू ल झरते नीबु क गंध को
कै से उड़ा दू?ँ —
हाथ-कं गन, व , वेणी, सेज के
शत पु प कै से नीबु म बस गए ह!—
दृि सहसा
वा यायन-कामसू , कु मार-संभव
क पुरानी िज द के ऊपर गई है,
क ट-िचि त गीत ी जयदेव का वह,
वहाँ िव ापित-पदाविल,
वह िबहारी-सतसई है,
और यह ‘सतरं िगनी’;
ये गीत मेरे ही िलखे या!
िजए ण को
िजया जा सकता नह फर—
याद म भी—
य क वह प रपूणता म थम गया है।
और मीठा दद भी
सुिध म घुलाते
ित और अस होता।
और यह भी कम नह वरदान
ऐसे दवस
मेरे िलए कम ह,
और युग से, देस-दुिनया
और अपने से िशकायत
एक म है;
य क जो अवकाश का ण
सरस करता
िन य-नीरस-म य म है,
कं तु हर अवकाश-पल को
पूण जीना,
अमर करना या, सुगम है?—
कलश और न व का प थर1
अभी कल ही
पंचमहले पर
कलश था,
और
चौमहले,
ितमहले,
दुमहले से
िखसकता अब
हो गया ँ न व का प थर!
काल ने धोखा दया,
या फर दशा ने,
या क दोन म िवपयय;
एक ने ऊपर चढ़ाया,
दूसरे ने ख च
नीचे को िगराया,
अव था तो बड़ी
ले कन अवि थत ँ
कहाँ घटकर!
आज के साथी सभी मेरे
कलश थे,
आज के सब कलश
कल साथी बनगे।
हम इमारत,
जो क ऊपर से
उठा करती बराबर
और नीचे को
धँसी जाती िनरं तर
दै य क देन
सरलता से कु छ नह मुझको िमला है,
जब क चाहा है
क पानी एक चु लू िपऊँ,
मुझको खोदना कू आँ पड़ा है।
एक किलका जो उँ गिलय म
पकड़ने को
मुझे वन एक पूरा कं टक का
काटकर के पार करना पड़ा है
औ’ मधुर मधु के व प कण का
वाद लेने के िलए म
तर-बतर आँसू, पसीने, खून से
हो गया ;ँ
उपलि धयाँ जो क ,
चुकाया मू य जो उनका;
नह अनुपात उनम कु छ;
मगर सौभा य इनम भी बड़ा है।
जहाँ मुझम व दश देवता था
वह एक अद य कमठ दै य भी था
जो क उसके व को
साकार करने के िलए
तन- ाण क बाज़ी लगाता रहा,
चाहे ाि खंिडत रे ख हो,
या शू य ही हो।
और म यह कभी दावा नह करता
सवदा शुभ, शु , िनमल
दृि म रखता रहा — ँ
देवता भी साल म छ: माह सोते—
अशुभ, कलुिषत, पितत, कु ि सत क
तरफ कम नह आक षत आ — ँ
ाि म सम-ि ल —
कं तु मेरे दै य क
िवराम म क साधना ने,
ल य कु छ हो, कह पर,
हर पंथ मेरा
तीथ-या ा-सा कया है—
र -रं िजत, वेद- संिचत,
अ ु-धारा-धौत।
मंिज़ल जानती है,
न तो नीचे लािन से मेरे नयन ह,
न ही फू ला हष से मेरा िहया है।
बु के साथ एक शाम
र रं िजत साँझ के
आकाश का आधार लेकर
एक प िवहीन त
कं काल-सा आगे खड़ा है।
टु नगुनी पर नीड़ शायद चील का,
ख़ासा बडा है।
एक मोटी डाल पर है
एक भारी चील बैठी
एक छोटी िचड़ी पंज से दबाए
जो क रह-रह पंख
घबराहट-भरी असमथता से
फड़फड़ाती,
छु ट न पाती,
चील क टया-सी नुक ली च च से
है बार-बार हार करती,
नोचकर पर डाल से नीचे िगराती,
मांस खाती,
मोड़ गदन
इस तरफ़ को उस तरफ़ को
देख लेती;
चार कायर काग चार ओर
मँडलाते ए ह शोर करते।
दूर पर कु छ म खड़ा ।ँ
कं तु लगता डाल पर म ही पड़ा ;ँ
एक भीषण ग ड़ प ी
मांस मेरे व का चुन-चुन
िनगलता जा रहा है;
और कोई कु छ नह कर पा रहा है।
अथ इसका, मम इसका
जब न कु छ भी समझ पड़ता
बु को ला खड़ा करता—
दृ य ऐसा देखते होते अगर वे
सोचते या,
क पना करते? न करते?
चील-िचिड़या के िलए,
मेरे िलए भी कस तरह के
भाव उनके िहये उठते?
शु ,
सुि थर , बु बु ने
दन-भर बुभुि त चील को
संवेदना दी,
तृि पर संतोष
उनके ने से झलका,
उसी के साथ
िचिड़या के िलए संवेदना के
अ ु ढलके ,
आ खड़े मेरे बग़ल म ए चल के ,
ाण-तन-मन ए ह के ,
हाथ कं धे पार धरा,
ले गए त के तले,
जैसे बे-चले ही पाँव मेरे चले?
नीचे तजनी क ,
ब त-से छोटे-बड़े, रं गीन,
कोमल-क ण-िबखरे -से
पर से,
धरिण क धड़कन क -सी पटी पर,
कृ ित क अनपढ़ी िलिप म,
एक किवता-सी िलखी थी!
पानी-मरा मोती :
आग-मरा आदमी
आदमी: जा चुका है,
मर चुका है
मोितय का वह सुभग पानी
क िजसक मरिज़य से सुन कहानी,
उ लिसत-मन,
उ विसत-भुज,
संधु क िव ु ध लहर चीर
जल गंभीर म
सर-सर उतरता िनडर
प च ँ ा था अतल तक;
सीिपय को फाड़,
मु ा-परस-पुल कत,
भा य-धन को मु य म बाँध,
पू रत-साध,
ऊपर को उठा था;
औ’ हथेली पर उजाला पा
चम कृ त-दृग आ था।
दै य-सी दुःसाहसी होती जवानी!
आज इनको
उँ गिलय से फे र फर- फर
डू ब जाता ँ
िवचार क अगम गहराइय म,
और उतरा
और अपने-आप पर ही मुसकराकर
पूछता ,ँ
या यही वे थे
क िजनके िलए
म दरा-सी िपए
बाड़व-िवलोिड़त, ुिधत पारावार म म धँस गया था।
कौन-सा शैतान
मेरे ाण म,
मेरी िशरा -धमिनय म बस गया था!
मोती: मंद से हो
मंदतर-तम
बंद-सी वे धड़कने अब हो गई ह
आगवाली, रागवाली,
गीतवाली, मं वाली,
मु ध सुनने को िज ह
छाती बंधा डाली कभी थी,
और हो िचर-मु
बंधन-माल अंगीकार क थी;
साँस क भी गंध-गित ग़ायब ई-सी;
या भुजाएँ थ यही
दृढ़-िन यी, िवजयी िज ह ने
युग-युगांत िनतांत िशिथल जड़ व को
था आ, छेड़ा, गुदगुदाया—
आ: जीवन के थम सु पश—
हष कष को कै से बताया जाय—
या थ मु याँ ये वही
िजनक जकड़ म आ
मुि ने था पूव का ार ध कोसा!
फटी सीपी थी नह
कारा कटी थी,
िनशा ितमरावृत छटी थी
और अंजिलपुटी का
पहला सुहाता मनुज-काया ताप
भाया था, समाया था नस म, नािड़य म।
खुली मु ी थी
क दृग म िव ित बंिबत आ था;
और अब वह लु सहसा;
मु याँ ढीली, उँ गिलयाँ शु क, ठं डी-सी,
िवन फू त, मुदा।
या यही वे थ क िजनके िलए
अ त , हलचल बाहरी सारी सहारी!
देख ली दुिनया तु हारी!
तीसरा हाथ
एक दन
कातर दय से,
क ण वर से,
और उससे भी अिधक
डब-डब दृग से
था कहा मने
क मेरा हाथ पकड़ो
य क जीवन पंथ के अब क
एकाक नह जाते सहे।
और तुम भी तो कसी से
यही कहना चाहती थ ;
पंथ एकाक
तु ह भी था अखरता;
एक साथी हाथ
तुमको भी कसी का
चािहए था,
पर न मेरी तरह तुमने
वचन कातर कहे।
ख़ैर, जीवन के
उतार-चढ़ाव हमने
पार कर डाले ब त-से;
अंधकार, काश
अंधी, बाढ़, वषा
साथ झेली;
काल के बीहड़ सफ़र म
एक दूजे को
सहारा और ढारस रहे।
ले कन,
िशिथल चरणे,
अब हम संकोच य हो
मानने म
अब िशखर ऐसा
क हम-तुम
एक दूजे को नह पया ,
कोई तीसरा ही
हाथ मेरा औ’ तु हारा गहे।
दो िच
—यह क तुम िजस ओर जाओ
चलूँ म भी,
यह क तुम जो राह थामो
र ँ थामे ए म भी,
यह क क़दम से तु हारे
क़दम अपना म िमलाए र ँ S…
यह क तुम ख च िजधर को
खंचूँ,
िजससे तुम नुझे चाहो बचाना
बचूँ:
यानी कु छ न देखूँ, कु छ न सोचू,ँ
कु छ न अपने से क ँ —
मुझसे न होगा;
छू टने को िवलग जाने,
ठोकर खाने: लुढ़कने, गरज़,
अपने आप करने के िलए कु छ
िवकल, चंचल आज मेरी चाह।
—यह क अपना ल य िनि त म न करता,
यह क अपनी राह म चुनता नह ,ँ
यह क अपनी चाल मने नह साधी,
यह क खाई-खंदक को
आँख मेरी देखने से चूक जाती,
यह क म खतरा उठाने से
िहचकता-िझझकता ,ँ
यह क म दािय व अपना
ओढ़ते घबरा रहा — ँ
कु छ नह ऐसा।
शु म भी कह पर चेतना थी,
भूल कोई बड़ी होगी,
तुम संभाल तुर त लोगे;
अ त म भी आ ासन चाहता ँ
अनगही मेरी नह है बाँह।
मरण काले
(िनराला के मृत शरीर का िच देखने पर)
मरा
मने ग ड़ देखा,
गगन का अिभमान,
धराशायी, धूिल, धूसर, लान!
मरा
मने संह देखा,
दि दगंत दहाड़ िजसक गूँजती थी,
एक झाड़ी म पड़ा िचर-मूक,
दाढ़ी-दाढ़-िचपका थूक।
मरा
मने सप देखा,
फू त का ित प लह रल,
पड़ा भू पर बना सीधी और िन ल रे ख
मरे मानव-सा कभी म
दीन, हीन, मलीन, अ तंगिमतमिहमा,
कह , कु छ भी नह पाया देख।
या नह है मरण
जीवन पर अवार हार?—
कु छ नह ितकार।
या नह है मरण
जीवन का महा अपमान?—
सहन म ही ाण।
या नह है मरण ऐसा श ु
िजसके साथ, कतना ही समर कर,
िनबल िनज को मान,
सबको, सदा,
करनी पड़ी उसक शरण अंगीकार?—
या इसी के िलए मने
िन य गाए गीत,
अंतर म सँजोए ीित के अंगार,
दी दुन ित को डटकर चुनौती,
ग़लत जीती बािज़य से
म बराबर
हार ही करता गया वीकार,—
एक ा के भरोसे
याय, क णा, ेम—सबके िलए
िनभर एक ही अ ात पर म रहा
सहता बुि - ं य हार?
इस तरह रह
अगर जीवन का िजया कु छ अथ,
मरण म म मत लगूँ असमथ!
दो च ान
गांधी
एक दन इितहास पूछेगा
क तुमने ज म गांधी को दया था,
िजस समय हंसा,
कु टल िव ान बल से ही समि वत,
धम, सं कृ ित, स यता पर डाल पदा,
िव के संहार का ष ं रचने म लगी थी,
तुम कहाँ थे? और तुमने या कया था!
एक दन इितहास पूछेगा
क तुमने ज म गांधी को दया था,
िजस समय अ याय ने पशु-बल सुरा पी—
उ , उ त, दंभ-उ मद —
एक िनबल, िनरपराध, िनरीह को
था कु चल डाला
तुम कहाँ थे? और तुमने या कया था?
एक दन इितहास पूछेगा
क तुमने ज म गांधी को दया था,
िजस समय अिधकार, शोषण, वाथ
हो िनल , हो िन:शंक, हो िन
स : जगे, संभले रा म धुन-से लगे
जजर उसे करते रहे थे,
तुम कहाँ थे? और तुमने या कया था?
य क गांधी थ
य द िमलती न हंसा को चुनौती,
य क गांधी थ
य द अ याय क ही जीत होती,
य क गांधी थ
जाित वतं होकर
य द न अपने पाप धोती!
युग-पंक : युग-ताप
दूध-सी कपूर-चंदन चाँदनी म
भी नहाकर, भीगकर
म नह िनमल, नह शीतल
हो सकूँ गा,
य क मेरा तन-बसन
युग-पंक म िलथड़ा-सना है
और मेरी आ मा युग-ताप से झुलसी ई है;
नह मेरी ही तु हारी, औ’ तु हारी और सबक ।
व सबके दाग़-ध बे से भरे ह,
देह सबक क च-काँद म िलसी, िलपटी, लपेटी।
कहाँ ह वे संत
िजनके द दृग
स ावरण को भेद आए देख—
क णा संधु के नव नील नीरज लोचन से
योित िनझर बह रहा है,
बैठकर द ाल
दृढ़ िव ास क अिवचल िशला पर
ान करते जा रहे ह
और उनका कलुष-क मष
पाप-ताप—’ िभशाप घुलता जा रहा है।
कहाँ ह वे किव
म दर-दृग, मधुर-कं ठी
और उनक क पना-संजात
ेयिसयाँ, िपटारी जादु क ,
हास म िजनके नहाती है जु हाई,
जो क अपनी बा से घेर
बाड़व के दय का ताप हरत ,
और अपने चम कारी आँचल से
प छ जीवन-कािलमा को
लािलमा म बदलत ,
छलत समय को।
आज उनक मुझ,े तुमको,
और सबको है ज़ रत।
कहाँ ह वे संत?
वे किव ह कहाँ पर?—
नह उ र।
वायवी सब क पनाएँ-भावनाएँ
आज युग के स य से ले ट र
गायब ई ह।
कु छ नह उपयोग उनका।
था कभी? संदह े मुझको।
कं तु आ म- वंचना जो कभी संभव थी
नह अब रह गई है।
तो फँ सा युग-पंक म मानव रहेगा?
तो जला युग-ताप से मानव करे गा?
नह ।
ले कन, ान करना उसे होगा
आँसु से—पर नह असमथ, िनबल और कायर,
सबल प ाताप के उन आँसु से,
जो कलंक का िवगत इितहास धोते।
वेद से—पर नह दास के , खरीदे और बेच,े —
खुद बहाए, मृि का िजससे क अपना ऋण चुकाए।
र से—पर नह अपने या पराए,
उसी पावन र से
िजसको क ईसा और गांधी क
हथेली और छाती ने बहाए।
ग यवरोध
बीतती जब रात,
करवट पवन लेता,
गगन क सब ता रकाएँ
मोड़ लेत बाग,
उदयो मुखी रिव क
बाल- करण दौड़
योितमान करत
ि ितज पर पूरब दशा का ार,
मुग़ मुंडरे पर चढ़
ितिमर को ललकारता,
पर वह न मुड़कर देखता,
धर पाँव िसर पर भागता,
फटकार कर पर
जाग दल के दल िवहग
क लोल से भूगोल और खगोल भरते,
जागकर सपने िनशा के ,
चाहते होना दवा-साकार,
युग- ृंगार।
कै सा यह सवेरा!
ख च-सी ली गई बरबस
रात क ही सौर जैसे और आगे—
कु ढ़न-कुं ठा-सा कु हासा,
पवन का दम घुट रहा-सा,
धुंध का चौफे र घेरा,
सूय पर चढ़कर कसी ने
दाब-जैसे उसे नीचे को दया है,
दये-जैसा धुएँ से वह िघरा,
गहरे कु एँ म है दप दपाता,
वयं अपनी साँस खाता।
एक घु घू,
पि छमी छाया-छपे बन के
िगरे ; िबखरे पर को ख स
बैठा है बकु ल क डाल पर,
गोले दृग पर धूप का च मा लगाकर—
ात का अि त व अ वीकार करने के िलए
पूरी तरह तैयार होकर।
और, घुघुआना शु उसने कया है—
गु उसका वेणुवादक वही
िजसक जादुई धुन पर नगर के
सभी चूहे िनकल आए थे िबल से—
गु गुड़ था कं तु चेला शकर िनकला—
साँप अपनी बाँिबय को छोड़
बाहर आ गए ह,
भूख से मानो ब त दन के सताए,
और ज दी म, अँधेरे म, उ ह ने
रात म फरती छछू ँदर के दल को
धर दबाया है—
िनगलकर हड़बड़ी म कु छ
परम गित ा करने जा रहे ह,
औ’ िज ह ने अचकचाकर,
भूल अपनी भाँप मुंह फै ला दया था,
वे नयन क जोत खोकर,
पेट धरती से रगड़ते,
राह अपनी बाँिबय क ढू ँढ़ते ह,
कं तु यादातर छछू ँदर छटपटाती-अधमरी
मुँह म दबाए ए
कं कत िवमूढ़ बने पड़े ह;
और घु घू को नह मालूम
वह अपने िशकारी या िशकार को
समय के अंध ग यवरोध से कै से िनकाले,
कस तरह उनको बचा ले।
श द-शर
ल य-बेधी
श द-शर बरसा,
मुझे िन य सुदढ़ृ ,
यह समर जीवन का
न जीता जा सके गा।
श द-संकुल उवरा सारी धरा है;
उखाड़ो, काटो, चलाओ—
कसी पर कु छ भी नह ितबंध;
इतना क़ भी करना नह ,
सबको खुला खिलहान का है कोष—
अतुल, अमाप और अनंत।
श ु जीवन के , जगत के ,
दै य अचलाकार
अिडग खड़े ए ह;
कान इनके िववर इतने बड़े
अगिणत श द-शर िनत
पैठते ह एक से औ’
दूसरे से िनकल जाते।
रोम भी उनका न दुखता या क झड़ता
और लाचारी, िनराशा, लै कुं ठा का तमाशा
देखना ही िन य पड़ता।
कब तलक,
औ कब तलक,
यह लेखनी क जीभ क असमथता
िनज भा य पर रोती रहेगी?
कब तलक,
औ कब तलक,
अपमान औ’ उपहासकर
ऐसी उपे ा श द क होती रहेगी?
कब तलक,
जब तक न होगी
जीभ मुिखया
व दंत, िनशंक मुख क :
मुख न होगा
गगन-गव ले,
समु त-भाल
सर का;
सर न होगा
संधु क गहराइय से
धड़कनेवाले दय से यु
धड़ का;
धड़ न होगा
उन भुजा का
क जो ह एक पर
संजीवनी का ृंग साधे,
एक म िव वंस-
गदा संभाले,
उन पग का—
अंगदी िव ासवाले—
जो क नीचे को पड़ तो
भूिम काँपे
और ऊपर को उठ तो
देखते ही देखते
ैलो य नाप।
यह महा सं ाम
जीवन का, जगत का,
जीतना तो दूर, लड़ना भी
कभी संभव नह है
श द के शर छोड़नेवाले
सतत लिघमा-उपासक मानव से;
एक मिहमा क सके गी
होड़ ले इन दानव से।
लेखनी का इशारा
ना S S S ग;
—मने रािगनी तुझको सुनाई ब त,
अनका तू न सनका—
कान तेरे नह होते,
कं तु अपना गान के वल कान के ही िलए
मने कब सुनाया,
तीन-चौथाई दय के िलए होता।
इसिलए ही तो तुझे मने कु रे दा और छेड़ा
भी क तुझम जान होगी अगर
तो तू फनफनाकर उठ खड़ा होगा,
गरल-फु फकार छोड़ेगा,
चुनौती करे गा वीकार मेरी,
कं तु उलझी र ु क तू एक ढेरी।
इसी बल पर,
धा S S S ध,
कुं डल मारकर तू
उस ख़जाने पर डटा बैठा आ है
जो हमारे पूवज के
याग, तप, बिलदान,
म क वेद क गाड़ी कमाई?
हम स पी गई थी यह िनिध
क भोग याग से हम उसे,
िजससे हो सके दन- दन सवाई;
कं तु कसका भोग,
कसका याग,
कसक वृि ।
पाई ई भी है
आज अपनाई-गँवाई।
दूर भग
भय कट चुका,
म हट चुका—
अनुनय-िवनय से
रीझनेवाला दय तुझम नह है—
खोल कुं डल,
भेद तेरा खुल चुका है,
गरल-बल तुझम नह अब,
य क उससे िवषमतर िवष पर
ब त दन तू पला है,
चाटता चाँदी रहा है,
सूँघता सोना रहा है।
ल बाज क कमी
कु छ नह मेरे भाइय म,
पर मरे को मार करके —
िलया ही िजसने, दया कु छ भी नह ,
य द वह िजया तो कौन मुदा?
कौन शाह मदार अपने को कहाए!*
क़लम से ही
मार सकता ँ तुझे म;
क़लम का मारा आ
बचता नह है।
कान तेरे नह ,
सुनता नह मेरी बात
आँख खोलकर के देख
मेरी लेखनी का तो इशारा—
उगा-डू बा है इसी पर
कह तुझसे बड़ ,
तुझसे जड़ का
क़ मत-िसतारा!
*मरे को मार शाह मदार—कहावत है।
िवभािजत के ित
द ध होना ही
अगर इस आग म है
थ है डर,
पाँव पीछे को हटाना
थ बावेला मचाना।
पूछ अपने आप से
उ र मुझे दो,
अि युत हो?
अि हत हो?
आग आ लंगन करे
य द आग को
कसिलए िझझके ?
चािहए उसको भुजा
भर और भभके !
और अि
िनरि को य द
अंग से अपने लगाती,
और सुलगाती, जलाती,
और अपने-सा बनाती,
तो कह सौभा य रे खा जगमगाई—
आग जाकर लौट आई!
कं तु शायद तुम कहोगे
आग आधे,
और आधे भाग पानी।
तुम िवभाजन क , ि धा क ,
डरी अपने आप से,
ठहरी ई-सी हो कहानी।
आग से ही नह
पानी से डरोगे,
दूर भागोगे,
करोगे दीन ं दन,
पूव मरने के
हज़ार बार मरोगे।
य क जीना और मरना
एकता ही जानती है,
वह िवभाजन संतुलन का
भेद भी पहचानती है।
दीये क माँग
र मेरा माँगते ह।
कौन?
वे ही दीप िजनको ेह से मने जगाया।
बड़ा अचरज आ
कं तु िववेक बोला :
आज अचरज क जगह दुिनया नह है,
जो असंभव को और संभव को िवभािजत कर रही थी
रे ख अब वह िमट रही है।
आँख फाड़ो और देखो
न -िनमम सामने जो आज आया।
र मेरा माँगते ह।
कौन?
वे ही दीप िजनको ेह से मने जगाया।
व भह
कं तु िववेक वोला :
ोध ने कोई सम या हल कभी क ?
दीप चकनाचूर होकर भूिम के ऊपर पड़ा है,
तेल िम ी सोखती है,
व तका मुंह कए काला,
बोल तेरी आँख को यह िच भाया?
र मेरा माँगते ह।
कौन?
वे ही दीप िजनको ेह से मने जगाया।
मन बड़ा ही दुखी,
कं तु िववेक चुप है।
भा य-च म पड़ा कतना क िम ी से दया हो,
लाख आँसू के कण का स कण भर ेह होता,
व तका म दय तंतु बटे गए थे,
ाण ही जलता रहा है।
हाय, पावस क िनशा म, दीप, तुमने या सुनाया?
र मेरा माँगते ह।
कौन?
वे ही दीप िजनको ेह से मने जगाया।
े सब कु छ दान,
ह
मने या बचाया?
एक अंतदाह, चा ँ तो कभी गल-िपघल पाऊँ।
या बदा था, अंत म म र के आँसू बहाऊँ?
माँग पूरी कर चुका ँ
र दीपक भर चुका ँ
है मुझे संतोष मने आज यह ऋण भी चुकाया।
र मेरा माँगते ह।
कौन?
वे ही दीप िजनको ेह से मने जगाया।
दो बजिनए
“हमारी तो कभी शादी ही न ई,
न कभी बारात सजी,
न कभी दू हन आई,
न घर पर बधाई बजी,
हम तो इस जीवन म य र ही रह गए।”
दू हन को साथ िलए लौटी बारात को
दू हे के घर पर लगाकर,
एक बार पूरे जोश, पूरे जोर-शोर से
बाज को बजाकर,
आधी रात सोए ए लोग को जगाकर
बड िवदा हो गया।
अलग-अलग हो चले बजिनए,
मौन-थके बाज को काँधे पर लादे ए,
सूनी अँधेरी, अलसाई ई राह से।
ताज़ औ’ िसराज़ चले साथ-साथ—
दोन क ढली उमर,
थोड़े-से पके बाल,
थोड़ी-सी झुक कमर—
दोन थे एकाक ,
डेरा था एक ही।
दोन ने रँ गी-चुँगी, चमकदार
वद उतारकर खूँटी पर टाँग दी,
मैली-सी तहमत लगा ली,
बीड़ी सुलगा ली,
और िचत लेट गए ढीली पड़ी खाट पर।
लंबी-सी साँस ली िसराज़ ने—
‘‘हमारी तो कभी शादी ही न ई,
न कभी बारात चढ़ी,
न कभी दू हन आई,
न घर पर बधाई बजी,
हम तो इस जीवन म ांरे ही रह गए।
दूसर क खुशी म खुिशयाँ मनाते रहे,
दूसर क बारात म बस बाजा बजाते रहे!
हम तो इस जीवन म...
ताज़ सुनता रहा,
फर ज़रा खाँस कर
बैठ गया खाट पर,
और कहने लगा—
“दुिनया बड़ी ओछी है;
और को खुश देख
लोग कु ढ़ा करते ह,
मातम मनाते ह, मरते ह।
हमने तो और क खुिशय म
खुिशयाँ मनाई है।
काहे का पछतावा?
कौन क बुराई है?
लोग बड़े बेहया ह;
अपनी बारात का बाजा खुद बजाते ह,
अपना गीत गाते ह;
शु है क और क बारात का ही
बाजा हम बजाते रहे,
दू हे िमयाँ बनने से सदा शरमाते रहे;
मेहनत से कमाते रहे,
मेहनत का खाते रहे;
मािलक ने जो भी कया,
जो
भी दया,
उसका गुन गाते रहे।’’
खून के छापे
(एक व : एक समी ा)
सुबह-सुबह उठकर या देखता ँ
क मेरे ार पर
खून-रँ गे हाथ के कई छापे लगे ह।
और मेरी प ी ने व देखा है
क एक नर-कं काल आधी रात को
एक हाथ म खून क बा टी िलए आता है
और दूसरा हाथ उसम डु बोकर
हमारे ार पर एक छापा लगाकर चला जाता है;
फर एक दूसरा आता है,
फर दूसरा, आता है,
फर दूसरा, फर दूसरा, फर दूसरा... फर...
यह बेगुनाह खून कनका है?
या उनका?
जो स दय से सताए गए,
जगह-जगह से भगाए गए,
दुख सहने के इतने आदी हो गए
क िव ोह के सारे भाव ही खो गए,
और जब मौत के मुंह म जाने का म आ,
िन वरोध, चुपचाप चले गए
और उसक िवषैली साँस म घुटकर
सदा के िलए सो गए
उनके र क छाप अगर लगनी थी तो
—के ार पर।
यह बेज़बान ख़ून कनका है?
िज ह ने आ माहन् शासन के िशकं जे क
पकड़ से, जकड़ से छू टकर
उठने का, उभरने का य कया था
और उ ह दाबकर, दलकर, कु चलकर
पीस डाला गया है।
उनके र क छाप अगर लगनी थी तो
—के ार पर।
यह जवान खून कनका है?
या उनका?
जो अपनी माटी का गीत गाते,
अपनी आज़ादी का नारा लगाते,
हाथ उठाते, पाँव बढ़ाते आए थे
पर अब ऐसी च ान से टकराकर
अपना िसर फोड़ रहे ह
जो न टलती है, न िहलती है, न िपघलती है।
उनके र क छाप अगर लगनी थी तो
—के ार पर।
यह मासूम खून कनका है?
या उनका?
जो अपने म से धूप म, ताप म
धूिल म, धुएँ म सनकर, काले होकर
अपने सफे द—खून वािमय के िलए
साफ़ घर, साफ़ नगर, व छ पथ
उठाते रहे, बनाते रहे,
पर उन पर पाँव रखने, उनम पैठने का
मू य अपने ाण से चुकाते रहे।
उनके र क छाप अगर लगनी थी तो
—के ार पर।
यह बेपनाह खून कनका है?
या उनका?
जो तवारीख़ क एक रे ख से
अपने ही वतन म जलावतन ह,
या उनका?
जो ब मत के आवेश पर
सनक पर, पागलपन पर
अपराधी, दं और व य
करार दए जाते ह,
िनवास, िनधन, िनवसन,
िनमम क़ ल कए जाते ह,
उनके र क छाप अगर लगनी थी तो
—के ार पर।
यह बेमालूम खून कनका है?
या उन सपन का?
जो एक उगते ए रा क
पलक पर झूले थे, पुतिलय म पले थे,
पर लोभ ने, वाथ ने, मह वाकां ा ने
िजनक आँख फोड़ दी ह,
िजनक गदन मरोड़ दी ह।
उनके र क छाप अगर लगनी थी तो
—के ार पर।
ले कन इस अमानवीय, अ याचार, अ याय
अनुिचत, अकरणीय, अक ण का
दािय व कसने िलया?
िजसके भी ार पर ये छापे लगे उसने,
पानी से घुला दया,
चूने से पुता दया।
कं तु किव- ार पर
छापे ये लगे रह,
जो अनीित, अि क
कथा कह, था कह,
और श द-य म मनु य के कलुष दह।
और मेरी प ी ने व देखा है
क ये नर-कं काल
किव-किव के ार पर
ऐसे ही छापे लगा रहे ह,
ऐसी ही श द- वाला जगा रहे ह।
ब त दन बीते
कोयल : कै टस : किव
कोयल :
“तुझे
एक आवाज़ िमली या
तूने सारा आसमान ही
अपने िसर पर उठा िलया है—
कु ऊ…कु ऊ…कू !
कु ऊ…कु ऊ…कू !
तुझे ममवेधी, दद ला,
मीठा वर जो िमला आ है,
दशा- दशा म
डाल-डाल म,
पात-पात म,
उसको रसा-बसा देने को
या तू सचमुच
अंतः े रत
अकु लाई है?
या तू अपना,
अपनी बोली क िमठास का,
िव ापन करती फरती है
अभी यहाँ से, अभी वहाँ से,
जहाँ-तहाँ से?”
वह मदमाती
अपनी ही रट
गई लगाती, गई लगाती, गई...
कै टस :
रात
एकाएक टू टी न द
तो या देखता ँ
गगन से जैसे उतरकर
एक तारा
कै टस क झािड़य म आ िगरा है;
िनकट जाकर देखता ँ
एक अ भुत फू ल काँट म िखला है-
“हाय, कै टस,
दवस म तुम िखले होते,
रि मयाँ कतनी
िनछावर हो गई होत
तु हारी पंखु रय पर
पवन अपनी गोद म
तुमको झुलाकर ध य होता,
गंध भीनी बाँटता फरता म ु म,
भृंग आते,
घेरते तुमको,
अनवरत फे रते माला सुयश क ,
गुन तु हारा गुनगुनाते!”
धैय से सुन बात मेरी
कै टस ने कहा धीमे से,
“ कसी िववशता से िखलता ँ
खुलने क साध तो नह है;
जग म अनजाना रह जाना
कोई अपराध तो नह है।”
किव :
“सबसे हटकर अलग
अके ले म बैठ
यह या िलखते हो? —
काट-छाँट करते श द क ,
सतर म िबठलाते उनको,
लंबी करते, छोटी करते;
आँख कभी उठकर
दमारा म मँडलाती है,
और कभी झुककर
दल म डु बक लेती है;
पल भर म लगता
सब कु छ है भीतर-भीतर —
देश-काल िनबध जहाँ पर —
बाहर क दुिनया थोथी है;
ण भर म लगता
अंदर सब सूना-सूना-सूना,
सच तो बाहर ही है —
एक दूसरे से लड़ता, मरता, फर जीता।
अभी लग रहा
कोई ऐसी गाँठ िजसे तुम ब त दन से खोल रहे हो
खुल न रही है;
अभी लग रहा
कोई ऐसी कली
िजसे तुम छू देते हो
िखल पड़ती है।”
“किव ,ँ
जो सब मौन भोगते-जीते
म मुख रत करता ।ँ
मेरी उलझन म दुिनया सुलझा करती है —
एक गाँठ
जो बैठ अके ले खोली जाती,
उससे सबके मन क गाँठ
खुल जाती ह;
एक गीत
जो बैठ अके ले गाया जाता,
अपने मन का पाती
दुिनया दुहराती है।“
बाढ़
बाढ़ आ गई है, बाढ़!
बाढ़ आ गई है, बाढ़!
वह सब नीचे बैठ गया है
जो था ग -भ ,
भारी-भरकम,
लोह-ठोस
टन-मन
वज़नदार!
और ऊपर-ऊपर उतरा रहे ह
करािसन के खाली टन,
डालडा के िड बे,
पोलवाले ढोल,
डाल-डिलए-सूप,
काठ-कबाड़-कतवार!
बाढ़ आ गई है, बाढ़!
बाढ़ आ गई है, बाढ़!
हंस-मानस क नतक *
श द-ब
तुमक करने का
म दुःसाहस नह क ँ गा
तुमने
अपने अंग से
जो गीत िलखा है —
िवगिलत लयमय,
नीरव वरमय
सरस रं गमय
छंद-गंधमय—
उसके आगे
मेरे श द का संयोजन—
अथ-समथ ब त होकर भी—
मेरी मता क सीमा म—
एक नई किवता-सा के वल
जान पड़ेगा—
लयिविहन,
रस र ,
िनचोड़ा,
सूखा, भ ड़ा।
ओ माखन-सी
मानस हंिसिन,
गीत तु हारा
जब म फर सुनना चा ग ँ ा,
अपने िचर-प रिचत श द से
नह सहारा म मागूँगा।
कान ँ ध लूँगा,
मुख अपना बंद क ँ गा,
पलक म पर लगा
समय-आकाश पार कर
ीर-सरोवर तीर तु हारे
उतर पड़ूगँ ा,
तु ह िनहा ँ गा,
नयन से
जल-मु ाहल तरल झड़ूग ँ ा
* स के िस ‘ व लेक बैले’ क मुख बैलेरीना क ओर संकते है।
युग-नाद
आय
तुंग-उलुंग पवत को पद-म दत करते
करते पार ती धारा क बफानी औ तूफानी न दयाँ,
और भेदते दुमग, दुगम गहन भयंकर अर यक को
आए उन पु रय को जो थ
समतल सुि थत, सुपथ, सुरि त;
िजनके वासी पोले, पीले और िपलिपले,
सुख-पर त, सुिवधावादी थे;
और कह उठे ,
नह हमारे िलए ेय यह
रहे हमारी यही ाथना —
बलमिस बलं मिय धेिह।
वीयमिस वीय मिय धेिह।
दवा-िनशा का च
अनवरत चलता जाता;
वयं समय ही नह बदलता,
सबको साथ बदलता जाता।
वही आय जो कसी समय
दुल य पहाड़ ,
दु तर नद,
दुभ वन को
कटती ितमा क आवाज़
बने चुनौती फरते थे,
अब नगर-िनवासी थे
सं ांत, शांत-वैभव-ि य, िन भ, िनबल,
औ’ करती आगाह एक आवाज़ उठी थी —
नायमा मा बलहीनेन ल य:।
नायमा मा बलहीनेन ल य:।
यही संपदा क वृि है
वह िवभ हो जाती है
दनुजी-दैवी म —
रावण, राघव,
कं स, कृ ण म;
औ’ होता संघष
महा दु ष, महा दुदा त,
अ त म दैवी होती जयी,
दानवी िवनत, िवन परा त—
दि दगंत से
विनत ित विनत होता है यह
काल िस िव ास—
स यमेव जयते नानृतम्।
स यमेव जयते नानृतम्।
जग के जीवन म
ऐसा भी युग आता है
जब छाता ऐसा अंधकार
ऊँची से ऊँची भी मशाल
होती िवलु ,
होते पथ के सब दीप सु
सूझता हाथ को नह हाथ,
पाए फर कसका कौन साथ।
एकाक हो जो जहाँ
वह क जाता है,
सब पर शासन करता
के वल स ाटा है।
पर उसे भेदकर भी कोई वर उठता है,
फर कोई उसे उठाता है,
दुहराता है,
फर सभी उठाते,
सब उसको दुहराते ह,
अंिधयाले का दुःसह आसन
िडग जाता है—
अ प दीपो भव!
अ प दीपो भव!
जैसे शरीर के
उसी तरह से देश-जाित के अंग
संतुिलत, संयोिजत, संग ठत,
व थ,
िवपरीत
ण।
दुभा य क िवघ टत आज क ,
कु छ नह कसी भी मूल सू से
न यु ,
सब शि -परी ण को त पर;
प रणाम, ित पधा,
तलवार तक,
पशुबल के वल जय का माण—
गो त-िव त येक प
औ”
नैितकता िनरपे ,
लोकमा यता उपे क
भिनित भदेस गुंजाती धरती-आसमान—
िजसक लाठी उसक भस।
िजसक लाठी उसक भस!
अब कु ला िवदेशी आ ांता के िलए
देश, बाहर-भीतर,
खंिडत-जजर।
पव-सागर कर पार
लुटेरे- ापारी आते,
बनते ह उसके अिभभावक शासक;
वह लुटता, शोिषत होता है—
अपमािनत, नं दत, अधःपितत
स दय के कटु अनुभव से
मंिथत अंतर से
आवाज़ एक
अवसाद भरी उठती है,
आती ाप दशा-िव दशा म,
नगर , उपनगर , गाँव म,
जन-जन क मनःिशरा से—
पराधीन सपने सुख नाह ।
पराधीन सपने सुख नाह ।
फर- फर िनबल िव ोह
िवफल हो जाते ह,
ृंखला खल क नेक नह ढीली होती।
परवशता क अंितम सीमा पर
असाम य से भी साम य जगा करता है एक
टेक रखकर मरने या करने क ।
तब हार-जीत क फ
कहाँ रह जाती है,
जब कसी व , आदश, ल य से
े रत होकर जाित
दाँव पर िनज सव व लगाती है।
गाँधी क िज वा पर उस दन
बूढ़ा भारत,
जैसे फर से होकर जवान
अब और न सहने का हठकर,
सब धैय छोड़,
युग-युग सोया पु षाथ जगा,
साहस बटोरकर बोला था—
वह िनभय, िन यपूण श द
सुनकर उस दन
परदेशी शासन डोला था—
करो या मरो! मरो या करो।
कु छ कर गुज़रो, कु छ कर गुज़रो।
आज़ाद मु क,
दोन हाथ करके वसूल
कु छ बड़ा शु क।
या सव हािन आशंका से ही
आधा यागा
नह गया? —
जो अध पराजय थी
मनवाई गई बताकर पूण जीत।
धीरे -धीरे प रणाम प ,
टु कड़े-टु कड़े
वाधीन देश का मोहभंग,
सपना िवन ।
अवसरवादी नेता क ,
संघषकाल म कए गए
साधन के फल भोगने-सँजोने क वेला
भूखी, नंगी जनता ग़रीब क अवहेला।
वह दन- दन भारी ऋण त,
दु दन, अकाल, महँगाई से
सं त, प त,
अिधकारी, ापारी, िवचौिलए लोभी
ाचार-म त,
क मूढ़
आशािवहीन,
संपूण आ म-िव ास- र ,
नवदृि -रिहत,
उ साह- ीण,
सब िविध वंिचत,
कु छ-कविलत भारत सम त।
वे “अवाँ गाद”
अथात् हमारे अि म-पंि
सफ़र-मैना,
िजनको कोई
युग-नाद उठाना था
ऊँचा कर
कसकर मु ी बँधा हाथ,
ट-ट करते
वे चला रहे ह वाद,
वाद पर वाद,
वाद पर वाद!
जड़ क मुसकान
एक दन तूने भी कहा था,
जड़
जड़ तो जड़ ही है,
जीवन से सदा डरी रही है,
और यही है उसका सारा इितहास
क ज़मीन म मुँह गड़ाए पड़ी रही है,
ले कन म ज़मीन से ऊपर उठा,
बाहर िनकला,
बढ़ा ँ
मजबूत बना ,ँ
इसी से तो तना ।ँ
एक दन डाल ने भी कहा था,
तना?
कस बात पर है तना?
जहाँ िबठाल दया गया था वह पर है बना।
गितशील जगती म ितल भर नह डोला है,
खाया है, मोटापा है, सहलाया चोला है;
ले कन हम तने से फू ट ,
दशा- दशा म ग
ऊपर उठ ,
नीचे आ
हर हवा के िलए दोल बनी, लहरा ,
इसी से तो डाल कहला ।
एक दन पि य ने भी कहा था,
डाल?
डाल म या है कमाल?
410 : मेरी े किवताएँ
माना वह भूरी, झुक , डोली है
विन- धान दुिनया म
एक श द भी वह कभी बोली है?
ले कन हम हर-हर वर करती ह,
ममर वर मम भरा भरती ह,
नूतन हर वष ई,
पतझर म झर
बहार-फू ट फर छहरती ह,
िवथ कत िचत पंथी का
शाप-ताप हरती ह।
एक दन फू ल ने भी कहा था,
पि याँ?
पि य ने या कया?
सं या के बल पर बस डाल को छाप िलया,
डाल के बल पर ही चल चपल रही ह,
हवा के बल पर ही मचल रही ह;
ले कन हम अपने से खुल,े िखले, फू ले ह—
रं ग िलए, रस िलए, पराग िलए—
हमारी यश-गंध दूर-दूर फै ली है,
मर ने आकर हमारे गुन गाए ह,
हम पर बौराए ह।
सबक सुन पाई ह,
जड़ मुसकराई है!
ई र
उनके पास घरबार है,
कार है, कारबार है,
सुखी प रवार है,
घर म सुिवधाएँ ह,
बाहर स कार है,
उ ह ई र क इसिलए दरकार है
क कृ त ता कट करने को
उसे फू ल चढ़ाएँ, डाली द।
उनके पास न मकान है
न सरोसामान है,
न रोज़गार है,
ज़ र, बड़ा प रवार है;
भीतर तनाव है,
उ ह ई र क इसिलए दरकार है क
कसी पर तो अपना िवष उगल,
कसी को तो गाली द।
उनके पास छोटा मकान है,
थोड़ा सामान है,
मामूली रोज़गार है,
मझोला प रवार है,
थोड़ा कम, थोड़ी फु रसत है,
इसी से उनके यहाँ दमागी कसरत है।
ई र ह—नह है
पर बहस है,
नतीज़ा न िनकला है,
न िनकालने क मंशा है,
कम या बतरस है!
महाबिलपुरम्
कौन कहता
क पना
सुकुमार, कोमल, वायवी, िन तेज औ”
िन ताप होती?
म महाबिलपुरम् म
सागर कनारे पड़ी
औ’ कु छ फसाले पर खड़ी च ान
च कत दृग देखता ँ
और ण- ण समा जाता ँ उ ह म
412 : मेरी े किवताएँ
और जब-जब िनकल पाता,
पूछता — ँ
कौन कहता
क पना
सुकुमार, कोमल, वायवी, िन तेज औ”
िन ताप होती?
वष एक सह से भी अिधक बीते
क पना आई यहाँ थी
पर न सागर क तरं ग
औ”
न लहरे बादल के
औ’ न नोनखारे झकोरे संधु से उठती हवा के
धो-बहा पाए,
उड़ा पाए
पड़े पद-िच न उसके प थर पर...
औ’ िमटा भी नह पाएँगे
भिव यत् म
जहाँ तक मानवी दृग देख पाते।
क पना आई यहाँ पर,
और उसके दृग-कटा से
लगे पाषाण कटने—
कलश, गोपुर, ार, दीघाएँ,
गवा , तंभ, मंडप, गभ-गृह,
मू तयाँ और फर मू तयाँ, फर मू तयाँ
उनु िनकल
बंद अपने म युग से िज ह
च ान कए थ —
मू तयाँ जल-थल-गगन के जंत-ु जीव ,
मानव क , य -यु म क अधर-चर,
का और पुराण व णत
देिवय क , देवता क अिगनती—
मृित सँजोती
िवफल होती,
शीश धुनती।
यहाँ वामन बन ि िव म
नापते ैलो य अपने तीन डग म,
और आधे के िलए बिल
देह अपनी िवनत तुत कर रहे ह।
यहाँ दुगा
मिहष मदन कर
िवजियनी का चंडाकार धारे ।
एक उँ गली पर यहाँ पर
कृ ण गोवधन सहज-िनः म उठाए
तले ज के गोप-गो सब शरण पाए,
औ’ भगीरथ क तप या यहाँ चलती है क
सुरस र बहे धरती पर उतरकर,
सगर के सुत मुि पाएँ।
उ यह कै सी तप या और सं ामक
क वन के हं पशु भी
यान क मु ा बनाए।…
और ब त कु छ घुल गया सं कार बनकर
जो दय म
श द वह कै से बताए!
सोचता ँ
कौन िश पी
कस तरह क छेिनयाँ, कै से हथौड़े िलए,
कै सी िववशता से िघरे - ेरे
यहाँ आए कभी ह गे
औ’ रहे ह गे जुटे कतने दन तक—
दन लगन, म- वेद के , संघष के
शायद कभी संतोष के भी—
काटते इन मू तय को,
नह —
अपने आप को ही।
देखने क व तु तो
इनसे अिधक ह गे वही,
पर वे िमले
इस देश के इितहास म,
इसक अटू ट परं परा म
और इसक मृि का म
जो क तुम हो,
जो क म ।ँ
लग रहा
पाषाण क कोई िशला ँ
और मुझ
पर छेिनयाँ रख-रख अनवरत
मारता कोई हथौड़ा
और कट-कट िगर रहा .ँ .
जानता म नह
मुझको या बनाना चाहता है
या बना पाया अभी तक।
म कटे, िबखरे ए पाषाण खंड को
उठाकर देखता — ँ
अरे यह तो ‘हलाहल’, सतरं िगनी” यह;
देखता ,ँ
वह ‘िनशा-संगीत’, ‘…खेमे चार खूँटे’;
या अजीब ‘ि भंिगमा’ इस भंिगमा म!
‘आरती’ उलटी, ‘अँगारे ’ दूर िछटके ;
यहाँ ‘मधुबाला’ िबलुं ठत;
धराशायी वहाँ ‘मधुशाला’ क च ान पड़ी दो —
आँख से कम सूझता अब —
उस तरफ़ ‘मधुकलश’ लुढ़के पड़े रीते;
‘तुम िबन िजअत ब त दन बीते’!
उभरते ितमान के प
महानगर
महानगर यह
महारा स क आँत -सा
फै ला-िछछड़ा
दूर-दूर तक, दस दशा म,
ड़ा-बडा, उलझा-पुलझा;
पथ , माग , सड़क , गिलय ,
उप-गिलय , कोिलय , कू च क भूल-भुलैया,
िजनम, िजन पर मवेिशय से लेकर
लेमूशीन * तक क —
सब कार क —सवा रय क हरकत, भगदड़।
रक गध क , घोड़ क िहनिहनी,
टु नटु नी साय कल क ,
हान क , ला रय , बस क ,
प -कर-प मोटर कार क
इं सान के शोर-शड़ पे, हो-ह ले से
होड़ लगाती।
झु गी-झोपिड़य , घर- लैट ,
बँगल -आकाशी महल , दुकान, दरीब ,
कचह रय , दरबार, द तर ,
और कोटल और होटल म
जीवन के सौ जंजाल ,
लेन-देन, छीनाझपटी, चाल -काट ,
बहस , िहदायत , िशकायत ,
सरकारी कारगुज़ारी, ाचारी,
टंकन-यं , शासन-तं ,
तफ़रीह , छू री-काँट , याली- लेट ,
बोतल -िगलास क गहमागहमी
भीषण हलचल है, चहल-पहल है।
दाँते** ने
जो नरक कया था कि पत
उस पर िलखा आ था—
“इसके अंदर आनेवालो,
अपनी सब आशाएँ छोड़ो।”
महानगर के महा ार पर
िलखा आ है—
“इसके अंदर आनेवालो,
सबसे पहले
अपनी मानवता को छोड़ो।
बाद, कसी सं था, समाज दल, संघ, मंच से
कारबार, अख़बार, मालख़ाने, द तर
से नाता जोड़ो;
और नाग रक सफल अगर बनना चाहो,
अपन व िमटाओ;
अिभनय करना सीखो
औ’ भूिमका जहाँ, जब, जैसी बैठे,
उसे िनभाओ।”
महानगर यह महामंच है;
असफल होने यहाँ नह कोई आया है;
िसि , समृि , सफलता का हरे क अिभलाषी,
ई या- े रत अपने सहकम , सहयोगी, समक ी से;
यहाँ न र ता,
यहाँ न नाता,
औ’ न िमताई,
भाई-बंदी
यहाँ एक है िसफ दूसरे का ित ं ी।
सब लोग ने अिभनय करना सीख िलया है।
ा कु शलता और द ता ऐसी कर ली कु छ लोग ने,
अदा भूिमकाएँ कर सकते कई साथ ही,
भाँित-भाँित के लगा मुखौटे।
अभी शा ह, अभी शैव ह, अभी वै णव;
परम वीण-धुरीण कला म नेता, ापारी, अिधकारी।
ख़सम मारकर स ी होनेवाली नारी,
कथा रही हो,
महानगर क नारी मातम म शािमल हो,
ेत वसन म,
अ ु बहाकर, हाय, हाय कर
पल म साड़ी सदल याह म िशरकत करती, —रँ गी-चुँगी—
िखल-िखल हँसती।
आडंबर, उपचार, दखावा
ऊपर-ऊपर होता रहता,
नीचे-नीचे चाकू चलता, कची चलती,
और कसी का प ा कटता,
और कसी क पूँजी कटती।
महानगर म मानवता छोड़नी नह पड़ती
खुद-ब-खुद छू ट जाती है।
धनी वग का दय टटोलो,
उसक छाती सोने-चाँदी-सी ठस-ठं डी,
कसी बात से
कसी घात से
य िपघलेगी।
पंच ाण क जगह
पाँच िस े अटके ह
तो इस पर मत अचरज करना
म यवग को जीने का संघष
त इतना रखता है,
ल त-प त इतना कर देता,
दम रहता है नह दूसरे को देखे भी;
वाथ नह , कमज़ोरी उसक
लाचारी है।
औ’ द र ता िन वग क ।
पशुता के अित िन धरातल से
उसको जकड़े रहती है,
कु छ उसके अित र कह , वह नह जानता।
मानवता है दान, दया, दम।
यहाँ नह कोई देता है;
दया कह पाने का अब िव ास मर गया।
जो देता है, यह , कह उससे यादा
पाने-लेने को।
दया दय क दुबलता ोिषत करती है,
लोग यहाँ के उसे िछपित,
कट ई तो उससे लाभ उठानेवाले
घेरे, पीछे लगे रहगे।
दमन दूसरा जहाँ कसी का करने को तैयार हर समय,
आ मदमन कसिलए करे गा?
अगर करे गा तो वह और को
मुँह माँगा अवसर देगा।
आ म- फु टन, आ म- काशन
और आ म-िव ापन म सब लोग लगे ह।
गुण-यो यता उपेि त रखकर
यहाँ दबा दी जाती असमय,
उछल-कू द करनेवाले
लोग क नज़र म तो रहते।
लोग याद तो उनको करते,
चाहे उनके अवगुण कहते।
दम के बूदम अनदेख,े अनसुने, अच चत,
अिव दत मरते।
छू ट गई मानवता िजनक — कसी तरह भी—
उनको जैसे बड़ी ािध से मुि िमल गई,
उ ह जगत-गित नह ापती;
बड़े भले वे!
क तु अभागे कु छ ऐसे ह,
महानगर म आ तो पड़े
मेरी े किवताएँ : 419
मगर मानवता अपनी छोड़ नह पाए ह।
वे अपना अपन व िमटा द
तो या उनके पास बचेगा?
तो या खुद वे रह जाएँगे?
वे अपने को नबी समझते
महानगर म अजनिबय -से घूमा करते—
वे कुं ठत, सं त, िवखंिडत, प त,
िनराश, हताश, परा त, िपटे, अलगाए,
अपने घर म िनवािसत-से,
ऊबे-ऊबे,
अंध गुहा म डू ब-े डू बे—
कलाकार, सािह यकार, किव—
असंग ठत, एकाक , के वृ के अपने।
कभी-कभी वे अपना व व जनाने को,
ि वयं को करने को
कु छ हाथ-पाँव मारा करते ह,
पर य सब उनका
तपते, बड़े तवे पर
पड़ी बूँद-सा
छ -छ करके रह जाता,
महानगर के महानाद के न क़ार म
तूती बनकर—
ित विनयाँ चाहे छोटे क ब से आएँ।
शेष
महानगर के महायं के
उपकरण , कल, क ल , काँट , पिहय म
प रव तत होकर—जीिवत जड़ से—
चलते- फरते िहलते-डु लते
क ँ — या क ँ — या-न-क ँ —
या क ँ -क ँ - वर करते रहते।
म जब पहले-पहल गाँव से—
नंग, गंग, बौने, अलसाए—
महानगर के अंदर प च ँ ा—
शोर शरर के साथ
धुआ-ँ ध ड़ िबखराता,
भीड़-भाड़-भ भड़ को चार तरफ़
रे लता और पेलता और ठे लता औ’ ढके लता
अथक, अनवरत, अिवरत गित से—
तो मुझको यह लगा
क लाख पुज वाली
एक िवराट् मशीन
अप रिमत शि -म इं जन के बल पर
बड़े झपाटे से चलती, चलती ही जाती,
जैसे कभी न थमनेवाली;
और खड़ा म उसके इतने िनकट
क ख़तरे क सीमा म प च ँ गया ,ँ
बाल-बाल ही बचा आ ,ँ
फर भी मुझको जैसे जबरन
ख च रही वह,
पलक झपकते ले लपेट म
कु चल-पुचल कर ह ी-पसली
टु कड़े-टु कड़े,
रे श-े रे शे पर डालेगी।
प िलखा बाबा को मने—
महानगर यह
एक महादानव है,
जबड़े फाड़े खाने दौड़ रहा है,
औ’ उससे बचने को उसके
जबड़े क ही ओर भगा जैसे आता ।ँ
बाबा थे अनुभवी, पकड़ के सही;
प का उ र आया,
िजसने धीरज मुझे बँधाया,
महानगर म रहने का गुर
बाबा ने था मुझे बताया—
महानगर क महानता क ओर न देखो,
के वल अपना नगर,
नगर क सड़क,
सड़क क गली,
गली का लैट,
तैट का नंबर अपना बस पहचानो।
रोटी-रोज़ी क जो सीधी राह,
उसी पर आओ-जाओ;—
गो उस
पर भी थोड़ी मुि कल तो होगी ही—
तब यह दानव तु ह नह खाने दौड़ेगा,
तु ह मजे म इसको खाओ।
औ’ बरस के बाद मुझे यह ान आ है,
यह गुर सारे नाग रक का बूझा-जाना,
महानगर कु छ और नह है,
महानगर के नाग रक का के वल खाना।
समझ रहा हर एक शेष को है वह खाता,
और अंत म पचा आ
अपने को पाता।
पगडंडी : सड़क
पहले यहाँ पर एक पगडंडी थी
जो शहर से गाँव को जाती थी;
अब यहाँ पर एक सड़क है
जो गाँव से शहर को आती है;
और देखते ही देखते
दुिनया बदल जाती है।
आ था
तुमने
ितमा का िसर काट िलया,
पर लोग ने उसे िसर झुकाना नह छोड़ा है।
तुमने मू त को तोड़ा,
लोग क आ था को नह तोड़ा है।
और आ था ने
ब त बार
कटे िसर को कटे धड़ से जोड़ा है।
पाँच मू तयाँ*
यह िवखंिडत मू त
मधुरा क सड़क पर
िमली मुझको,
शीश-हत,
जाँघ पसारे
खुले म िवपरीत-रित-रत
अरे , यह तो पुं ली है!
यह कु मारी,
एक िभचारी मुह ले क गली म
गले म डाले सुिमरनी,
नव-नयन,
वचन रह य-भरा न जाने कौन, कसको,
मूक वाणी म सुनाती।
यह अछू ती
व छ पंकज क कली है!
शेर यह—
िनभ क-मु ा—
था वहाँ पर पड़ा
चरती है बका रयाँ तृण
सशं कत िजस जगह पर,
भूलकर, वह संह क औलाद
पौ ष मूत है,
अितशय वली है।
और यह िशशु,
सरल, िन छल,
सु , वि ल,
शु , िनमल,
है पड़ा असहाय-सा
मल-मू , गंद, ग़लीज के दुग ध-गच, गहरे गटर म।
शरण को आई यहाँ पर
कस णय क बेकली है!
ओ ग ड़,
तेरी जगह तो है गगन म,
भूिम पर कै से पड़ा है,
पोटली क भाँित गुड़मुड़।
घूरना था िजस नज़र से सूय को
तू मुझे अिनिमष देखा है।
बा म अब कह बल,
उ मेरी ढल चली है।
X X X
पुं ली,
ीकृ ण क ज म थली
यह तीथ है,
इसको अपावन मत बना तू।
पौर किव का ठौर तेरा,
िजस जगह सब कलुष-क मष
श द- वाहा?
कह उ ारक नह है और तेरा।
ओ कु मारी सुन
सुरि त है नह कौमाय तेरा
इस गली म।
कान कसके ह सुने ा यान तेरा,
मौन, समझे।
चल जहाँ किव का तप थल,
िजस जगह मनुहार अिवचल
कर रहा है वह िगरा क —
नह जो अब तक पसीजी—
ब छाए, ब बार दुहराए वर से;
और दे कु छ अनछु ए वर-श द
जो हो, सुखद, सुपद, महाथ अ पत ह िगरा को,
और कर द तु
उस रस- प- विन-लय-
छंद और अछंदमय मंगलमना को।
पाठ पहला
पाठ अंितम,
िव क इस पाठशाला का
क पहचानो वयं को,
संह तू।
किव के यहाँ चल।
है वह कांतार, अिमत- सार,
िजसम तू िनशंक-िवमु िवचरण,
मु गजन कर सके गा।
तू िसखा सौ ज म तक भी रोज
िमिमयाना बक रयाँ छोड़नेवाली नह ह।
और मेरे यहाँ कल से ही तुझे
ह र-वंश ित ं ी िमलेगा।
साथ दे आवाज़, चाहे दे चुनौती,
सोचना मुझको नह ,
वीकार करता ँ इसी पल;
है नह सौभा य इससे बड़ा कोई,
िम समवल िमले,
या फर श ु समबल!
आज दे य दय म
व गत मािनयत को
म नह तुझसे क ग ँ ा,
तू नबी है।
कटु -कठोर यथाथ जीवन का ब त-कु छ
देख म अब तक चुका ,ँ
और तेरा ज म ही
मािनयत क लाश के ऊपर आ है।
जो तुझे म दे रहा ँ
एक मानव के िलए,
बस, एक मानव क दुआ है।
तुझे म अपने भवन ले चल रहा — ँ
वह कु मारी या सव क पीर जाने,
पुं ली जाने सुवन का ेह कै से!
म सव क वेदना,
वा स य—दोन जानता ,ँ
य क किव ।ँ
जो क अपने आप म हो अ त,
अपने आप म होता उदय,
म व प रिव — ँ
एक ही म माँ तथा िशशु!—
चल, वह पल
आ मज के बीच मेरे, हो न उ मन,
म तुझे संवदेना ही नह दूग
ँ ा,
समा लूँगा तुझे अपने म
क तुझम समाऊँगा।
माँ तुझे दूग
ँ ा,
वयं जो िशशु सनातन।
(साथक है नाम ब न)
प गाशन,
छोडू भू का संकुिचत-संपु टत आसन।
उदर- वाला शांत करने,
उरग भ ण के िलए
उतरा धरा पर था क तू खा-अघा
अलसाया आ,
लेता उबासी ऊँघता है।
जानता है?
ब त दवस से तुझे
आकाश किव का ढू ँढता है।
समय ने कमज़ोर या, बेकार पाँव को कया है,
कं तु उड़ने के िलए अब भी िहया है।
वैनतेय, पसार डैने,
नह मानी हार मने
म समो दूग ं ाउ ह म
आज अपने को,
उड़ा ले जा मुझे ऊंचाइय को—अ भेदी।
धरा पर से धरा भी तो ठीक दखलाई न देती।
और योितः ीण मेरे च ु को,
ता य, दे िनज दृि भी अंगारवप ।
अभी काम ब त बड़ा है,
ब त कु छ जजर, गिलत, मृत,
काल-म दत
नया वह आया, भयावह, अनृत
दुदशन, अशोभन,
र, अवांिछत
अनुपयोगी,
घृिणत, ग हत
भ म करने को पड़ा है।
एक पावन मू त
(के वल वय क के िलए)
“रस से पावन, हे मन-भावन िवधना ने िवरचा ही या है ।“
(ि भंिगमा)
तीथािधराज
ी जग ाथ जी के मं दर क चौक म
जो िमथुन मू तयाँ लगी
म उ ह देखता एक जगह पर ठठका — ँ
ाकृ ितक न ता क सुषमा म ढली ई
नारी घुटन के बल बैठी;
उसक नंगी जंघा पर नंगा िशशु बैठा,
अपने न ह-न ह, सुकुमार,
अप रभािषत सुख अनुभव करते हाथ से
अपनी जननी के पीन पयोधर को पकड़े,
ऊपर मुंह कर
दु पीता—
अधर म जैसे तृषा दु ध क
तृ णा तन के सरस परस क तृ ई
भोली-भाली, नैस गक-सी मुसकान बनी
गाल , आँख , पलक , भ ह से छलक रही ।
(मातृ व-सफलता मू तत देखी और कह ?)
ाकृ ितक न ता के तेजस म ढला आ
नर पास खड़ा;
न ा नारी
अपने कृ त , कामनापूण, कोमल, रोमांिचत हाथ से
पित-पु दीघ-दृढ़ िश दंड ड़या पकड़,
हो उ वमुखी,
अपने रसमय अधर से पीती,
अधरामृत-मि त करती—
मुख-मु ा से बंिबत होता
वह कस, कै से, कतने सुख का
आ वादन इस पल करती है!—
(पल काल-चाल म जो िन ल) ।
(जब कला पकड़ती ऐसे ण,
उसके ऊपर
सच मान,
अमरता मरती है ।)
नवयुवक न
जैसे अपना संतोष और उ लास
चरम सीमा तक प च ँ ा देने को,
अपने उि थत हाथ से पकड़ सुराही,
म दरा से पूऋत, *
मधु पीता है—आन द-म !
(लगता िजस पर यह घटता
वह कृ तकृ य मही ।)
ई या न कसे उससे
जो ऊपर से नीचे तक
ऐसा जीवन िजया
क ऐसा जीता है ।
(हर स ा-सीधा कलाकार
अिभ वही करता
जो वह जीता,
जो उस पर बीता हे ।)
*पू रत; पूऋत, ूफ क ग़लती से नह , सचे , एक िवशेप व याथ देने के
िलए ।
इस मू तबंध का कण-कण
कै सी िजजीिवषा घोिषत करता!
यह िजजीिवषा, या जो कु छ भी,
उसको म अपने पूरे तन, पूरे मन, पूरी वाणी से
िन:शंक सम थत, अनुमो दत, पोिषत करता ।
अमृत पीकर के नह ,
अमर वह होता है,
पा म य देह,
जो जीवन-रस हर एक प,
हर एक रं ग म
छककर, जमकर पीता है ।
इतने म ही किव क सारी रामायण,
सारी गीता है ।
'मधुशाला' का पद एक
अचानक क ध गया है कान म—
'नह जानता कौन, मनुज
आया बनकर पीनेवाला?
कौन, अप रिचत उस साक़ से
िजसने दूध िपला पाला?
जीवन पाकर मानव पीकर
म त रहे इस कारण ही,
जग म आकर सबसे पहले
पाई उसने मधुशाला ।'
या इसी भाव पर आधा रत यह मू त बनी?
या कसी पुरातन पूव योिन म
मने ही यह मू त गढ़ी?
थािपत क इस पावनतम देवालय म,
साहस कर, दृढ़ िव ास िलए—
कोई समान धमा मेरा
तो कभी ज म लेगा
जो मुझको समझेगा?
य द मू त देख यह
तेरी आँख नीचे को गड़त
लगती है तुझे शम,
(जीवन के सबसे गहरे स य
तीक म बोला करते ।)
तो तुझे अभी अ ात
कला का
जीवन का
धम का,
मूढ़मित,
गूढ़ मम ।
कड़आ पाठ
एक दन मने यार पाया, कया था,
और यार से घृणा तक
उसके हर पहलू को एकांत म िजया था,
और ब त कु छ कया था,
ब त कु छ सहा था,
जो मुझसे भा यवान-अभागे करते ह, भोगते ह,
मगर िछपाते ह;
मने िछपाए को श द म खोला था,
िलखा था, गाया था, सुनाया था,
कह दया था
गीत म, का म,
य क स य किवता म ही बोला जा सकता है ।
X X X
िनचाट म अके ला खड़ा वह ासाद
एक रह य था, भेद-भरा, भुतहा;
ब त ने सुनी थी
रात-िबरात, आधी रात
एक चीख, पुकार, यार क मनुहार,
मदम त का तुमुल उ माद, अ हास,
कभी एक तान, कभी सामूिहक गान,
दुिखया क आह, चोट खाए घायल क कराह,
फर मौन (मौन भी सुना जा सकता)
पूछता-सा या? कब? कहाँ? कौन? कौ...न?...
म भी भूत हो जाऊँ, उसके पूव सोचा,
एक पारदश ार है जो खोला जा सकता है ।
भूत का भोजन है भेद, रह य, अंधकार;
भूत को अस उिजयार,
पार देखती आँख,
पार से उठता सवाल ।
भूत क कचहरी भी होती है ।
हो चुका है मुझसे अपराध,
भूत का दल त ाया-िभ ाया, मुझ पर टू ट
माँग रहा है मुझसे
अपने होने का सबूत
द रया म डू बता सूरज,
झुरमुट म अटका चाँद
बादल से झाँकते तारे ,
हर संगार के झरते फू ल,
दम घ टती-सी हवा,
िवष घोलती-सी रात,
पाँव से दबी दूब,
घर दर दीवार,
चली, छनी राह
पल, िछन, दन, पाख, मास—
समय का सारा प रवार—
मूक!
मेरे अ द के िसवा कोई नह है मेरा गवाह ।
मने महसूस कर ली है अपनी भूल,
सीख िलया है कड़आ पाठ,
पारदश ीर नह खोला जा सकता ह ।
स य किवता म ही बोला जा सकता है ।
बूढ़ा कसान
अब समा हो चुका मेरा काम ।
करना हे बस आराम ही आराम ।
अब न खुरपी, न हँिसया,
न पुरवट, न ल ढ़या,
न रतरखाव, न हर, न हगा ।
मेरी िम ी म जो कु छ िनिहत था,
उसे मने जीत-वो,
अ ु वेद-र से स च िनकाला,
काटा,
खिलहान का खिलहान पाटा,
अब मौत या ले जाएगी मेरी िम ी से ठगा ।
मेरा संबल
म जीवन क हर हलचल से
कु छ पल सुखमय,
अमरण-अ य
चुन लेता ँ ।
म जग के हर कोलाहल म
कु छ वर मधुमय,
उ मु -अभय
सुन लेता ँ ।
हर काल क ठन के बंधन से
ले तार तरल
कु छ मुद-मंगल
म सुिध-पट पर
बुन लेता ँ ।
असंकिलत किवताएं (सन् 1973-83)
एहसास
ग़म ग़लत करने के
िजतने भी साधन मुझे मालूम थे,
और मेरी प चँ म थे,
उन सबको एक-एक करके
मने आजमा िलया,
और पाया
क ग़म ग़लत करने का सबसे बड़ा साधन
है नारी
और दूसरे दज पर आती है किवता,
और इन दोन के सहारे
मने ज़ंदगी क़रीब-क़रीब काट दी।
और अब
किवता से मने कनाराकशी कर ली है।
और नारी भी छू ट-सी ही गई है—
देिखए,
यह बात मेरी वृ ा जीवनसंिगनी से मत किहएगा,
य क अब यह सुनकर
वह बे-सहारा अनुभव करे गी—
तब ग़म?
ग़म से आिखरी ग़म तक
आदमी को नजात कहाँ िमलती है।
पर मेरे िसर पर चढ़े सफ़े द बाल
और मेरे चेहरे पर उतरी झु रय ने
मुझे िसखा दया है
क ग़म—म ग़लती पर था—
ग़लत करने क चीज है ही नह ;
ग़म, असल म, सही करने क चीज़ है;
और िजसे यह आ गया,
सच पूछो तो,
उसे ही जीने क तमीज़ है।
मुनीश क आ मह या पर
मुझे नह मालूम क मरने के बाद
आदमी क चेतना या मृित अविश रहती है या नह ...
पर कई रात से
बारह-एक के बीच-एक आवाज़ मेरे कमरे म गूँजती है...
“जमराज के पास आते जूत क आवाज़ कोई नह सुन पाता है,
य क मरने के व हर श स बे-होश हो जाता है,
ले कन मने सुनी—
भ -भ -भ —भकभक-भकभक—भकभकभकभक.
पहले धीमी, फर तेज़ होती,
फर इतनी तेज़ होती, इतने पास आती
क कान को बहरा करती...
मने जमराज के जूत क श ल भी देखी,
वह रे ल के पिहय -सी गोल होती है,
क इतनी देर म वह मेरी गदन को काटती-कु चलती िनकल जाती है,
रे ल क पटरी को कु छ दूर तक मेरे ख़ून से रँ गती...
मेरे पास घर था, घरनी थी,
रोज़ी थी, गोद ली बेटी थी,
कु छ शौक थे—सािह य के , संगीत के , कला के ,
िविश गो म न बन सका;
भाई-बंधु थे, कु छ संगी-साथी;
सब कु छ कसे िमलता है?
पर मेरे जीवन म कु छ ऐसा घोर घटा—
कसके ारा? नह बताऊँगा, पर,
आशा है, आप समझ जायगे—
क उसने मुझे िब कु ल अके ला छोडू दया;
इतने बड़े संसार म—
सारहीन-स वहीन-त वहीन—
ब न दा, अके लापन िज़ दगी पर बड़ा स करता है।
मेरे स से बाहर हो गया।
मेरा सब कु छ खो गया—
म जीकर या करता?
कह , कभी शांित िमल सके गी तो मरकर—
यही एक िवचार मेरे मन म उठता, उमड़ता, घुमड़ता आँसू बनकर बरसता
और बफ बनकर छाती पर जमकर बैठ जाता।
पर मरकर मने शांित नह पाई
शांित क चाह भी नह रही!
बस इतना जाना क जीवन-अि त व
एक अशांत या ा है—आ दहीन...अंतहीन—
और मेरी आ मा फर कु छ अशांित क ही खोज म
मारी मारी फर रही है।
आपके पास तो नह है?
सोपान पर से (उपसंहार)
वैसे तो ब न के ि व तथा का चेतना के मम का उदृघाटन करने के िलए
अ य त ापक िच पट क आव यकता है, पर अपने वा य, समय तथा ी म फतु
क सीमा के कारण म, सं ित, कु छ नये-पुराने झरोखे खोलकर उसके का -जगत क
एक संि झांक भर तुत कर स तोष क ं गा। ब न क किवता का प रशीलन
करना भावना के सहज-मधुर, अंत पश इ लोक के सू म सौ दय-वैभव म िवचरण
करना है, जहां एक ओर क पना के कुं तल-जाल छाया-पंथ म स : जीवन-शोभा क
मधु व षणी मधुबाला मधु बरसाती एवं मानव दय क धड़कन म िचर प रिचत
पग विन करती, तथा ‘है आज भरा जीवन मुझम, है आज भरी मेरी गागर’ वाला
आनंदम नृ य करती ई, जीवन-यौवन क हाला को अपनी रि म-इं िगत बांह म
द ेम के सुनहले अमरलोक म उठाती ई आपके दय को तादा थ के आन द-ऐ य
म मु ध कर देती है, तो दूसरी ओर, मानव-चेतना के धूिमल ि ितज म साहिसक
चपला के आलोक-आ लंगन म बंधे ए िवषाद, िनराशा तथा अ धकार के दुधष
पवत से मेघ, जीवन-संघष के उ ाम सागर-मंथन म, अिवराम टकराकर िनदा ण
व -घोष तथा अ हास करते सुनाई पड़ते ह। ब न मु यत: मानव-भावना, अनुभूित,
ाण क वाला तथा जीवन-संघष का आ म-िन किव है। मने कभी उसके िलए ठीक
ही िलखा था—
‘अमृत दय म गरल कं ठ म मधु अधर म,
आए तुम वीणा धर कर म जन-मन-मादन!’
ये अमृत, मधु और गरल भावना, अनुभूित तथा जीवन-संघष क आशा-िनराशा के
तीक नह है तो और या है ब न के अिधकांश का -पट म उसक आ मकथा के ही
िबखरे प े िमलगे, िजनम, स भवत: घटनाएँ तौ अपने कू ल यथाथ के कारण छ
हो गई ह क तु त िनत संघष, ऊहापोह, घात- ितघात तथा सुख-दुःख के संवेदन के
मधु-ित रस का वाद पाठक के दय को पश कर उनक सांस म बहने लगता है
और कु छ समय के िलए उनक अनुभूित का अंग बन जाता है। किव कभी हाथ म वंशी
और कभी तूंबी लेकर उनके चेतन-अवचेतन मन म गहरी गुहार लगाता है और अनेक
णय भावना के व -पंख खेचर तथा गु कामना के सरीसृप जगकर मन को
किव क क पना के सश डैन म उड़ाने अथवा उसके श द-दंश से माह-मू छत करने
लगते ह। दो प किव के प आख के सामने आते ह—एक सहज, प-मु ध त ण
कशोर ेमी का, जो ेम क व -कोमल पलक से गुदगुदाए जाने के िलए अपने दय
को हथेली म िलए फरता है, और दूसरा साहसी—और कभी-कभी दुःसाहसी-व दृढ़,
संक प-िन , अपरािजत ि का, जो जीवन के अ धकार को ओढ़े ए उसके हलाहल
को भी अमृत क तरह पी जाने तथा अ धकार से काश और मृ यु से अमृत संचय करने
क मता रखता है। ये दोन , ेमी तथा कमिन यो ा के प, अनजाने ही िमलकर,
उसके अब तीसरे प म िनखर रहे ह, िजसके िलए वह अपने को ‘तीसरा हाथ’ को
स पकर दन- ित दन नवीन शि , आशा तथा आन द का सं ह कर रहा है। किव के
इसी ि भंिगमापूण ि मू त प को आप उसक रचना के सोपान पर धीरे -धीरे आगे
बढ़ता, ऊपर चढ़ता आ देखगे।
अपने कशोर ता य के उ मेष म किव ने अपने मधु का म अपने सौ दय पासक
दय के मादक आन द को वाणी क रस मु ध याली म उं डेलने का य कया है। मधु
क अध जा त, अधतं ल, गंधम दर कुं ज-गिलय म किव ने सव थम उमर ख़ैयाम के
दीप-अ ितभा- काश म वेश कया; ‘नये-पुराने झरोखे’ म किव उमर के ित
कृ त ता कट करते ए िलखता है, “मेरे का -जीवन म ‘ बाइयात उमर ख़ैयाम’ का
अनुवाद एक िवशेष थान रखता है। उमर ख़ैयाम ने प, रं ग, रस क एक नई दुिनया
ही मेरे आगे नह उपि थत क , उसने भावना-िवचार और क पना के सवथा नए आयाम
मेरे िलए खोल दए। उसने जगत, िनयित और कृ ित, के सामने लाकर मुझे अके ला
खड़ा कर दया। ...मेरी बात मेरी तान म बदल गई, अभी तक म िलख रहा था, अब
गाने लगा। ... ख़ैयाम से जो तीक मुझे िमले थे उनसे अपने को करने म मुझे बड़ी
सहायता िमली। ‘मधुशाला’ और मधुबाला’ िलखते ए वाणी के िजस उ लास का
अनुभव मने कया वह अभूतपूव था। शायद उतने उ लास का अनुभव मने बाद म कभी
नह कया।” इसका जो भी अथ हो, म इससे इतना ही समझता ं क ब न का ेरणा-
ोत उमर ख़ैयाम को पढ़कर ही पहले-पहल उ मु आ। उसके मधु का को पढ़ते
समय मुझे लगा क ख़ैयाम से ब न ने हाला, याला और मधुबाला साक़ ) के तीक
भले ही िलए ह पर भावना, कलना और िवचार म मुझे उमर का भाव अिधक
दृि गोचर नह आ। उमर क एक सौ पचास बाइय का अनुवाद मने सन् 1929 म
कया है, और फ़ारसी से—िजसके बारे म म मधु वाल’ क भूिमका म संकेत कर चुका
।ँ उमर क म दरा और ब न क म दरा म बड़ा अ तर है। उमर जीवन क
णभंगुरता से िनराश एवं मृ यु से परािजत मन को अपने णवादी, सुखवादी दशन क
मादक उ ेजना म भुलाए रखना चाहता है। उसक क पना ण के शा त के पार
कालातीत शा त म िवहार नह करती। मृ युभय से पीली उसके जीवन-सौ दय क
भावना देश-काल क सीमा को अित म नह करती। ब न क म दरा चैत य क
वाला है, िजसे पीकर मृ यु भी जीिवत हो उठती है। उसका सौ दय-बोध देशकाल क
णभंगुरता को अित म कर शा त के पश से अ तान एवं अन त यौवन है। यह
िनःसंदह े ब न के अंतरतम का भारतीय सं कार है, जो उसके मधु का म अ ात प
से अिभ आ है। ब न क म दरा ग़म ग़लत करने या दुःख को भुलाने के िलए नह
है, वह शा त जीवन-सौ दय एवं शा त ाणचेतना-शि क सजीव तीक है। िम ी
के याले क मृ यु को पारकर वत: ताि वक स य का काश ही अपने अजेय
आ मिव ास म मादक हो उठा है। उमर क म दरा जीवन- मृितय क म दरा है और
ब न क जीवन- व क —एक म अतीत का मधुित मोह है, दूसरे म भिव य क
सुनहली आशा-संभावना। ब न ही क ‘उमर ख़ैयाम क मधुशाला’ तथा इतर मधु
का के कु छ उदाहरण मेरी बात क पुि करगे—
‘नह है या तुमको मालूम, खड़ी जीवन तरणी ण चार,
ब त संभव है जा उस पार न फर यह आ पाए इस पार।’
‘जीण जगती है एक सराय’
‘हाय, वन क हर संकुल बेिल, कसी सुमुखी क कुं तल रािश’
‘ क ह मधु अधर को ही चूम, जो ह यह पौधे अनजान’
‘अरे कल दूर, एक ण बाद काल का म हो सकता ास’
कह वरकार, सुरा, संगीत, कह इस सूनेपन का अंत’
‘ह ठ से ह ठ लगा यह बोल उठी जब तक जी कर मधुपान,
कौन आया फर जग म लौट कया िजसने जग से थान’
— [ख़ैयाम क मधुशाला]
अथवा
“िशिथल पड़ी है नभ क बाँह म रजनी क काया!”
इस कार क स दय-भावना को िचि त करने वाली पंि याँ इस तृतीय सोपान
क रचना म अनेक आई ह जो आँख के स मुख य क य मू तमान हो उठती ह।
‘गई िग र ाम म ग’ के गूँगे गु -मौन अनु ास के सं या को जैसे गगन-गंभीर बना दया
है। और ‘झुक गई िग र ाम त पर’ म लघु मा ा के कारण जैसे सांझ के िसमटने
का-सा भाव, और र’ क फर- फर पुनरावृि म सं या के के श म उलझी अि तम
करण क दमक साकार हो उठती है। इसी कार दूसरी पंि म दीघ मा ा क
बाँह पर जैसे चाँद ि ितज के ऊपर उठने लगता है। ‘िवहंग ात गीत गा उठा अभय’ म
िवहंग अके ले ही सारे आकाश को गुंजा देता है। ‘गी’ और ‘गा’ तो जैसे उड़ते प ी क
तरह िन ल लगते ह। इस तरह क अनेक पंि याँ तथा पदांश किव के श द- वर-
िश प-बोध के सा ी बन इन दो सं ह म िबखरे पड़े ह। णय-भावना के अनेक कार
के चढ़ाव-उतार तथा कठोर मादव प के बीच ‘म गाता ँ इसिलए जवानी मेरी है’
अथवा ‘जीवन क आपाधापी म कब व िमला’ अथवा ‘म क़लम और ब दूक चलाता
ँ दोन ’ जैसी आ मािभमान एवं जीवन-संघष- ंजक रचना ारा किव का
आ म दशन पाठक का मनोरं जन करता रहता है। ‘ णय पि का’ के गीत ‘िमलन
यािमनी’ के भावना के धरातल से ऊपर उठ गए ह, उनम किव के आ म िनवेदन के वर
ह। ‘आरती और अंगारे ’ शीषक का -सं ह क रचनाएँ भी ‘ णय पि का’ ही के
वातावरण को समृ बनाती ह। किव के मन म अपने इन गीत के स ब ध म एक
िवशेष योजना है। उसी के श द म — “िमलन यािमनी कािशत कर देने के प ात् मेरे
मन म कु छ ऐसे भाव -िवचार का मंथन आर भ आ—मुझे लगा क जैसे कसी महान
का (महाका नह ) के ाण क धड़कन सुन रहा ।ँ इससे म डरकर भागा। इसे
भूल जाने के िलए मने कई उपाय कए। धड़कन ब द नह ई। “’ अ त म किव ने िनणय
कया क वह गीत से ही उसे करे गा, पर इसके िलए ढाई-तीन सौ गीत िलखने
ह गे। वा तव म किव के मन म ‘िवनय पि का’ के ढंग क कोई चीज उतरी है। किव का
बीजमं इन गीत म ‘िवनय पि का’ का-सा िवराग न होकर राग-िवराग का सामंज य
ही है। एक ऐसी चेतना को वाणी देना ‘िजसम राग-िवराग एकाकार होकर एक ऐसे
जीवन क संवधना करते ह जो दोन से परे है।’ अपने उ े य क स पूण अवतारणा के
िलए अभी किव को सौ-सवा सौ गीत और िलखने ह। जो अभी िलखे जा चुके ह वे
‘ णय पि का’ तथा ‘आरती और अंगारे , के नाम से सं ह म कािशत हो चुके ह।
स पूण गीत िलखे जाने पर किव उ ह एक िवशेष म म संवारकर अपने मूल येय को
सम ता म उपि थत कर सके गा। “आरती और अंगारे ’ म किव इस िवषय म ‘अपने
पाठक से’ िव तारपूवक िनवेदन कर चुका है। इस कार ‘िनशा िनमं ण’, “एकांत
संगीत’ तथा ‘आकु ल अंतर’ क रचना के समान ही ‘ णय पि का’ ‘आरती और
अंगारे ’ तथा त संबंधी अिलिखत रचना म भी एकसू ता थािपत हो सके गी। ‘ णय
पि का’ म जहां अनेक सरस गीत ह, वहां हंस-िमथुन से संब किव के सात गीत, अपने
भाव-वैभव, रचना-सौ व एवं क पना-सौ दय के कारण, तारापुंज म स षय क
तरह, िवशेष प से यान आक षत करते ह। इन गीत म किव के िवदेश क वासी-
भावना क (और संभवत: जीवन क भी) एक छ कथा गुं फत है जो किव के मन के
व -संवेदन को िश प क सू मता म अं कत करती है। कु छ भ क पना िच देिखए
—
“मू त बनकर तुम खड़े हो, क तु मेरी क पना तो है नह िव ाम
करती,
देखती है दूर कोई भ मि दर, सी ढ़याँ िजसक कसी सर म उतरती,
आरती बेला ई है, शंख, घंटे, घं टय के साथ बजते ह नगारे ,
देव बालक दो सादी ले उतरते सी ढ़य से आ गए ह जल कनारे ।
औ’ िखलाने को तु ह, वे नाम ले-लेकर तु हारा ह बुलाते जल-
कलापी…
(स भवत: किव के मन म अपने दो पु क ि य मृित झूल रही हो!)
“कौन हंसिनयाँ लुभाए है तुझे ऐसा क तुझको मानसर भूला आ है!
कौन लहर ह क जो दबती-उभरती छाितय पर ह तुझे झूला झुलात ,
कौन लहर ह क तुझ पर फे न का कर लेप, तेरे पंख सहलाकर
सुलात ?”
“मानसर फै ला आ है, पर ती ा के मुकुर-सा मौन औ’ ग भीर
बनकर,
और ऊपर एक सीमाहीन अ बर और नीचे एक सीमाहीन अ बर!”
ब न क भाव- ंजना उ रो र सू म, संि तथा गहन होती जा रही है और
उसके इधर के मु का म इसके उदाहरण चुर मा ा म िमलते ह।
य िप, सोपान का थम सं करण, ‘िमलन यािमनी’ के आन द-भवन के भीतर
प चं ाकर ही समा हो जाता था, क तु इस ि तीय सं करण म किव- ितभा के
िवकास क उ रो र बढ़ती ई और भी अनेक पहली-सुनहली ेिणय का सौ दय-
वैभव संिचत िमलता है और उसके का -सोपान का तुत व प ाय: गगनचु बी
बनकर अब िजन शु नील ि ितज के उ सार क अवाक् शोभा को पश करता है
वह किव क नवीन दि वजय का ोतक है।
‘िमलन यािमनी’ के बाद किव का मानस-ि ितज अ य त ापक हो गया है,
उसके जीवन-प रवेश, वा तिवक प रि थितय , ावसाियक कम े तथा अ ययन,
मनन एवं िच तन का धरातल भी अिधक िव तृत तथा िवचार-संकुल हो गया है। ‘ णय
पि का’ एवं’ आरती और अंगारे ’ के गीत के झरोख से उसे िजस नवीन जीवन-चेतना
के काश क झांक िमली है उसे जैसा क ऊपर संकेत कया जा चुका है, किव का के
िच पट म अपनी क पना-तूली से अभी पूणत: नह उतार पाया है। वह सोपान क
सव ेणी ही न होकर संभवत: एक महान् का - ासाद के ऊपर का ादी वण
कलश भी हो सकता हे। किव क चेतना िमलन यािमनी’ के उपरा त धीरे -धीरे
अ तमुखी होकर जहां एक और इस वगघट ह य का भीतर ही भीतर िनमाण करने म
संल है वहां दूसरी ओर उसम एक िविवध मुखता के िच न भी दृि टगोचर होने लगे
ह। एक ओर उसने गीता का अनुवाद अवधी म जन गीता’ के प म कसी अ ात-
अगोचर ेरणा के संकेत से तुत कया है तो दूसरी ओर शे सिपयार क चम कार
महान् ितभा को उसने उपयु किव व कला, छंद, भाषा-िश प तथा नाटक य रं ग-
कौशल के साथ िह दी म उतारकर वह जैसे अपनी सृजन-शि तो भुजा पर
संजीवनी पवत ही को उठाकर ले आया ह। ब न को इसम जो सफलता िमली है, उसे म
अभूतपूव ही क ग ं ा। िजस साहिसक य से उसने व -कठोर िशलाफलक छेनी चलाई
उससे उसक छेनी टू टी नह , बि क वह रं ग-स ाट का िवराट् ितमा क अख ड मू त
य क य उतार लाई,—जो किव क ाणव ा क असामा य िवजय है। म अपने
प म ब न से बराबर अनुरोध करता ँ क वह ‘ कं ग िलयर’, ‘हैमलेट टे पे ट’ तथा
‘िमड समर नाइ स ीम’ को भी अव य िह दी म ले आए। िविभ उ े य से कए गए
गीता?????? के तथा के ‘मेकबेथ’ तथा ‘ओथेलो’ के ना मचीव अनुवाद के अित र
इधर किव ने लोकधुन पर आधा रत अनेक वा -मुखर, भाव- खर लोकगीत भी िलखे
ह िजनम कह -कह कसी मा मक कथा संग का भी धड़कन सुनाई पड़ती ह। अपने
लोकगीत ारा ब न ने एक नया ही वातावरण सािह य म तुत कया है, वह जैसे
अधुिनक नगर और ाम क दुल य दूरी को गीत का झंकृत पुल बांधकर िनकट ले आया
है। या वह नगर के संशय-शु क आंगन म फर से गांव के सहज िव ास का रस-सलज
िबरबा रोपने का य कर रहा है और िह दी को तो जैसे उसने जनपद के ार पर ही
प च ं ा दया है। लोक-जीवन के सरस उपकरण , मा मक संवेदन , गु िव ास तथा
रसिस वर से भाविस इनम से अनेक लोकगीत अ यिधक सजीव बन पड़े ह और
िह दी पाठक म अ य त लोकि य हो चुके है। वयं मेरे ि य गीत म ’ पागल म लाह’,
‘सोन मछरी’, ‘धीमर क घरनी’, ‘लाठी और बांसुरी,’ ‘खोई गुज रया’, ‘नीलपरी’,
‘म आ के नीचे’, ‘आंगन का िबरवा’ आ द अनेक गीत ह िजनम िविच जादूभरा
स मोहन मन म न जानै कै सा रह यपूण रसा वातावरण पैदा का देता है। गांव क
सहज आ था के ित विनत पृ भूिम म जैसे जीवन, िनयत तथा सुख-दु:ख के ित
अिनवचनीय रह यभरी भावना का उ क े , जो इन गीत से मन म जगता है, अ य त
वाभािवक तथा मम पश तीत होती है। न जाने वे चेतना के कै से अधचेतन धूपछांह-
भरे सां -भा क लोक है, िजनक गूंज धरती के अंधेरे को कं पाकर, ाण के वन म
झ गुर ही तरह अधसु वर म बज-बज उठती है। ‘ड गा डोले िनत गंग-जमुन के
तीर, ड गा डोले ’ म जैसे अन त काल से जीवन-लह रय क थप कय म मानव-मन के
मांझी क िगर का ड गा डालता रहता है। ऐसी सां ंजना, जैसे घट म ही सागर हो,
खड़ी बोली के गीत म अ य पाना दुलभ ही नह अ य त क ठन है।
ब न क का -चेतना के िवकास क जौ ापक, गंभीर, मुखर धारा हम ऊपर
देखते आए ह, उसके अित र भी उसके किव ने अपने सृजन-चपल ेरणा ण म
इधर-उधर हाथ मारे ह। ‘धार के इधर-उधर’ तथा’ ‘वृ और नाचघर’ म ऐसी अनेक
रचनाएँ ह जो किव क ब मुखी ितभा के फु लंग -सी अपन ण काश म जुगनु -
सी जगमगाती ई आख को ि य लगती एवं रस ाही मानस को संतोष देती ह। ये
रचनाएं सन् ‘40 से “57 तक क ल बी अविध म किव के अनेक कार के मानिसक
चवण क ोतक ह और किव-मन क इतर वृि य तथा आयाम का भी सफल
द दशन कराती ह, ‘बंगाल का काल’ म ब न ने िजस मु छंद को अपनाया था, उसम
आगे चलकर किव क अ य त मह वपूण सश रोचक उपलि धयां देखने को िमलती
ह। वे सब अभी पु तक- प म सुलभ नह ह, फर भी ‘बु और नाचघर’ ‘ि भंिगमा’
क तीसरा भंिगमा तथा किव का नवीनतम का -सं ह ‘नगर खेमे च सठ खूंटे’ अपने
उ मु ऐ य से दीि मान ह। मु छंद म ब न को ायः आशातीत सफलता िमली
है। इनम वह नई किवता के अनेक अनगढ़ तर को पश कर उ ह भाव-वैभव, िवचार-
गौरव, िश प-संयम तथा अिभ ंजना का सुधरापन दान कर सका है। इनका
वातावरण किव के गीत के था- लांत, भावना- िवत वातावरण से िबलकु ल ही
िभ , मु , सजीव, फू तपद, जीवन-मूत तथा अिभनव किव वपूण ह। इनम
सामािजक महा ाणता, ं यदंश, वैचा रक ाि त तथा ापक मानवीय संवेदना को
किव ने आधुिनक कला के सं पश से सबल अिभ ि दी है। ‘दानव का शाप’ म वह
कहता है—
सुनो हे देवताओ!
दानव का शाप
आगे आज उतरा!
यह िवगत संघष भी तो
संध-ु मंथन क तरह था।
देवता जो एक
दो बूंद अमृत क
पान करने को, िपलाने को चला था,
बिल आ!
ले कन िज ह ने
शोर आगे से मचाया
पूंछ पीछे से िहलाई,
वही खीस-िनपोर
काम-िछछोर दानव
िस धु के सब र -धन को
आज खुलकर भोगते ह;
बात है यह और
उनके क ठ म जा
अमृत मद म बदलता है...
देश क वतमान दशा पर कतना जीता-जागता, चुभता ं य है। अपने मु छंद
के बारे म, िजसम ब न ने सव थम किवता करनी शु क थी, उसने ‘बु और
नाचघर’ क भूिमका म पया काश डाला है। वैसे भी ब न क इधर क भूिमकाएं
उसके का -लोक म िवचरण करने के िलए एक सु पथ- दशक का काम करती ह।
उसक पु तकाकार छपी मु छंद क रचना म ’ ‘शैल िवहंिगनी’, ‘पपीहा और चील
कौए,’ ‘युग का जुआ’, “नीम के दो पेड़’, “खजूर’, महागदभ’, “दानव का शाप’ आ द
अनेक किवता म किव क अिभ ि अ य त ओजपूण, सबल, स ाण तथा िनखरी
ई है। इनम भी अिधक ंजनापूण उसक इधर क वे मु छंद क रचनाएं ह, जो प -
पि का म ाय: देखने को िमलती ह, और िजनम से ‘तीसरा हाथ’ क चचा म
ार भ म कर चुका ।ं मेरा िव ास है, मु छंद ब न म संयम-सुधर, कला मक हाथ
से सँवरकर भिव य म हंदी किवता म आधुिनक युग-जीवन अिभ ि का अिधक
उपयु मा यम बन सके गा और किव क उपलि ध इस दशा म भी उसके गीत से कम
मह वपूण नह होगी। युत उसक क पना का ग त् युग-िशि ज पर छाए दुिवधा-
संयम के मेघ को चीरकर अिभ ि क अिधक अ णो वल एवं योित भ चो टय
को छू कर उनक संपद् को धरती पर लुटा सके गा।
‘चार ख़ेमे च सठ खूँटे’ म ब न क 1960 से ‘62 तक क रचनाएँ संगृहीत ह,
और, जैसा क सं ह के नाम ही से प हो जाता है, इन रचना म किव क चार
कार क मनोवृि को अिभ ि िमली है। ‘ि भंिगमा’ म मंच गान नह थे, तुत
संकलन म आज के सामूिहक वातावरण क उपज कु छ सश सहगान भी किव ने दे
दए है जो नाटक य भाव एवं सं ेषण के साथ मंच पर गाए जा सकते ह। इसक
भूिमका एक िवशेष मनःि थित म िलखी गई तीत होती है, िजसम किव ने कट- छ
एवं ं या मक ढंग से अपने युग एवं पाठक के ित अपने मन क ित या रख दी है।
सं ह क मु छंद क रचना म िवद ध िनखार तथा चुर ौढ़ता िमलती है। उनम
युग जीवन के संघष एवं सामािजक अ त को अिधक उ मु तथा मा मक
अिभ ि िमल सक है। युगीन ास तथा िवघटन का वातावरण इन किवता म
अिधक घनीभूत होकर मन को पश करता है और किव ने युग क िवषमता एवं
असंगितय पर अपनी सधी लेखनी क संपूण शि से ं य- खर आघात कया है।
श द के चयन और उनके नवीन योग म वह िस ह त होता जा रहा है। इस कार
क ाय: सभी रचनाएँ एक ित म ममभेदी अनुभूित तथा बौि क संदश े िलए ई ह।
अपनी इस नवीन दशा क ओर किव िजस ती ता से गित कर रहा है उसे देखकर
िव मय होता है। वह लोक किव है और उसने जन-मन को अपने युग के ित सचेत करने
का जैसे मन ही मन संक प ले िलया है। मुझे पूण िव ास है क अपने मधु का क
तरह अपने बौि क का म भी किव उसी कार सफल होकर अपनी उ बु चेतना
को जन साधारण तक प च ँ ा सके गा। अपनी िजस अ त: ेरणा को पहले वह िजस सहज
भावना से हण कर उसे गीित-लय के अंचल म बाँध देता था उसे अब वह अपनी ज त
मेघा से पकड़कर, मु छंद के पंख देकर, लोक जीवन ाही बनाने का समथ य कर
रहा है। ब न के भावुक किव क ऐसी युग बु प रणित देखकर आ य भी होता है,
अपार हष भी। ‘चार ख़ेमे च सठ खूँटे’, म ‘आज़ादी के चौदह वष’, ‘रा िपता के
सम ’, ‘ वा याय क म वसंत’, ‘कलश और न व का प थर’, ‘दै य क देन’, ‘पानी-
मरा मोती : आग-मरा आदमी’ आ द अ य त सबल, मम पश तथा संदश े वाहक
रचनाएँ ह, िजनम किव ने अपनी था म युग क कथा गूँथी ह और जो मन पर अपना
गंभीर िच तन-सजग भाव छोड़ती है।
इस सँ ह के लोकगीत म भी अिधक वाभािवकता तथा वैिच य देखने को
िमलता है। अं ेज़ी के ंग वस क तरह इन गीत के पद व-दीघ मा ा क जड़
दीवार को फाँदकर िजस सहज वर संगीत म वािहत होते ह उससे लोकगीत क
भावलय क नमनीयता िस होती है। ‘मािलन बीकानेर क ’, ह रयाने क लली’,
िछतवन क ओट’, ‘आगाही’, ’जामुन चूती है’ आ द लोकगीत सहज रसपूण तथा
वातावरण के रं ग म भीगे होने के कारण अ यंत सजीव बन पड़े ह। अपने लोक गीत
और मु छंद म समाना तर प से किव क नवीनतम समृ उपलि ध उसके धरती के
जीवन के ेम तथा उसके जाग क संघष क मता एवं उसक अजेय ितभा-शि क
मांगिलक प रणित के उ ल माण ह।
ब न का ि व िह दी का म अपनी अ भुत् िवशेषता एवं मह ा रखता है।
वह मानव- दय-मम , रसिस गायक, भाव-धनी किव एवं युग बु संदश े वाहक है।
उसके कला-िश प म सादगी, व छता, संयम तथा अतुल शि है। उसक अनुभव-
िवत भावना का भाव िव ुत्- पश , मं -सजल श द-संगीत स मोहक तथा
क पना क उड़ान ाण क संजीवनी से भरी होती है। वा तिवकता क धरती पर
जीवन के घात- ितघात के कदम म पाँव गड़ाए, आँधी तूफ़ान म अिडग रहने वाली
अपनी गितशील टांग पर खड़ा, क ट देश म व दंश कामना क म दर वाला
िलपटाए, गंभीर साधना से तपःपूत दय से आ था का अमृतघट िछपाए, अपने
िव ानत म तक को मनु य व के अिभमान से ऊपर उठाए, अिवरत-अ ा त संघष-
िनरत, अपरािजत, दृढ़संक प लौह-पु ष-सा वह जगत्- वामी से भावना के कृ श,
सुनहले सू म बँधा अपने जीवन के अ ात ल य क ओर, तीर पर कना अ वीकार
कर, ेरणालहर का िनमं ण पाकर िनर तर बढ़ता ही जाता, अपने अगले क़दम के
िलए लड़ता जाता है। अद य है उसका धैय, अटू ट है तैलधारवत् उसका अंत व ास।
अपने ही दय-कमल के चतु दंक् गंधमु ध मधुकर क तरह मँडराता उसका मधुलु ध
किव अपने ाण के ता य, भावना के थािस सौ दय तथा जग ीवन के आघात
के आनंद िवषाद को अपनी ही अतृ कामना के पंख क गूंज म गुनगुनाता आ, संसार
क रसि य मानवता के उपभोग के िलए बखेरता रहता, संचय करता और बखेरता
रहता है।
मुझ जैसे िववश ि को अपना उ सु सौहा तथा छ ेह देकर वह
अपनी उदारता का ही प रचय देता है। ब न के घिन स पक म म सन् 1940 के बाद
‘बसुधा’ के सहवास-काल म आया ,ँ िजसक चचा ब न अपनी ‘हलाहल’ क भूिमका
म कर चुका है। तब वह याग िव िव ालय म शोध-काय करता था। मे ी का वह
बीज ब न के भाव वण दय क उवर धरती म पड़कर उ रो र बढ़ता ही गया। तेजी
जी से ब न के िववाह के उपरा त—िजसके िलए म कु छ ही महीने पहल भिव यवाणी
कर चुका था—ह तिव ा के ान से कम, ब न क मानिसक दशा के अ ययन से
अिधक—मै ी का वह िवटप वटवृ क तरह दुहरे -ितहरे -चौहरे ेह के मूल एवं
सदभाव सौहा क वाह फै लाकर अिधक सघन, शांत तथा छाय बन सका। ब न
क आनंद-सौ दय भावना तथा सु िच को सँवारने म ीमती ब न का ब त बड़ा हाथ
रहा है। जब 1940 म ब न मेरे साथ ‘बसुधा’ म रहता था, तब म उसे अिधक िनकट स
जान सका था। उसे तब बीच-बीच म नैरा य तथा अवसाद के घन घेरे लेते थे, िजनसे
मु होने के िलए वह मरघट के -से अ य त उदास, ऊँचे वर म ‘िवनय पि का’ या
‘रामायण’ पढ़ा करता था। और अंधकार क गुफा से आती ई िझ ली क आवाज़ के
समान उनके िनवारे कं ठ से कु ढ़कर म उससे कहा करता था, हाय ब न, तुलसीदास जी
पर रहम करो, कह तु हारे मुहरमी वर उनके कान म पड़ गए तो अपनी किवता के
साथ यह बला कार देखकर उनक आ मा इस देश क छोड़कर कह अ य याण कर
बेठेगी, जहाँ वह तु हारे अ याचार से अपना पंड छु ड़ा सके । और म ाय: सोचता क
ब न के गले क िमठास या लोच या उसने के वल अपनी ही किवता के िलए रख छोड़ी
है, यह तो था प रहास, पर उसके िवष ण, , आ मिन ि व म तेजी जी ने जो
मादव, उदारता तथा आभा द फु लता भरने म सहायता क , उसक कथा म अ य त
िनकट से और ब त अ छी तरह जानता ।ँ ब न क म हािन-लाभ का िवचार रखने
वाला तो नह क ग ँ ा, य क उसक उ मु उदारता के कई उदाहरण मुझे ात ह—
पर वह अपने वहार म अकारण ही कु छ गिणत तथा मुंहफट होने क नीितम ा
समझता था। उसक इस वृि को तेजी जी रोकती-टोकती रहती थ और जब म उनक
सराहना या समथन करता तो ब न हमेशा कहता क म उनका प ले रहा ँ या अपने
प म कहता क म ही ठीक ,ँ आप के वल वेद ही जानते ह, म लबेद भी जानता ।ँ इसे
पढ़कर भी वह िन य ही मन ही मन यही कहगा। क तु जो अ तरं ग प से ब न क
जानता है उसे ब न के किव-जीवन म ीमती ब न क इस देन को वीकार करना ही
पड़ेगा क उ ह ने एकाक , िवष ण कठ से िनशा को िनमं ण देने वाली किव क आ मा
को भात- फु ल जीवन- ांगण म वेश करने म िन ापूवक सहायता दी।
बाहर से सूखा-अनपढ़ दीखने वाले इस रस-मधुर किव के भीतर अख ड आ था
का दय उसक ाण क तं ी को भाव-संगीत-झंकृत करता रहता है। वह गंभीर
आ था संभवत: ब न को अपने अ य उ त सं कार के साथ अपने पू य िपतृवाद से
दाय प म िमली है। उसके िपता िजस घर म रामायण नह होती वहाँ पानी भी पीना
पस द नह करते थे। ब न ाय: ित वष िजस लगन से, अके ले ही आसन मारकर,
अख ड रामायण का पाठ कर लेता है, उसके िलए िन य गहरी ा चािहए। वह
येक संग पर रामायण क चौपाई उ धृत कर सकता है। ‘मंगल भवन अमंगल हारी
वउ सो दसरथ अिजर िबहारी’ —उसके मुंह से िनर तर दुहराए गए ये मं पूत चरण
मेरे कान म जब-तब गूंजते रहते ह। अ य त िनयिमत तथा सुधर-सुचा प से
ित दन काय करने वाला उसका आ मजयी, संक प-दृढ़ ि व मेरे िलए सदैव एक
ेरणा द, ि य उदाहरण रहा। अपने सु द्-मंडल के के -िब दु के प म उसे पाकर म
स ।ँ िजस कार कोई ि गामी-यान म बैठकर कलािश प क तीक कसी
महानगरी क प र मा करते समय इधर-उधर दृि पात भरकर लौट आर?, कु छ उसी
कार मने भी सं ेप म ब न के का -जगत् क एक सांकेितक झाँक भर तुत कर
छोड़ दी है। मुझे पूण िव ास है क जो का - ेमी इस स दय, माधुय और ेम के
नंदनवन म िवहार करगे वे किव के साथ रसमंगल मनाकर अपने को कृ ताथ पाएँगे।
ब न का अमर यशकाय किव आन द-रस घन है, वह णय के िमलन-िवछोह, उ लास-
अवसाद का अन य गायक है, और है युग बु उ ोधक! ब न के िबना खड़ी बोली के
का का एक ब त बड़ा अंतरं ग अंग अधूरा ही रहता है।
—सुिम ानंदन पंत