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नागार्जुन और उनकी कविता

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नागार्जुन की छं दमजक्त कविता के कविय ं में गणना ह ती है । आर्ादी के बाद की


वहं दी कविता की धारा के संघर्षों क उन् न ं े रूपावयत वकया। नागार्जुन क
आर्ादी के बाद की सामावर्क एिं रार्नीवतक पररवसथवतय ं में रखकर ही पढ़ना
संभि है । नागार्जुन ने र् विखा है ि नागार्जुन तक ही हैं । बाकी अिग हैं ।
नागार्जुन ने तीथु नहीं ह वकए। बाद में कजछ समय पवियािा भी रहे । नागार्जुन का
वििाह उम्र में 1932 में अपरावर्ता के साथ हुआ।
नागार्जुन श्रीिंका वसद्धाथु बौद्ध दर्ुन का अध्ययन करने गए थे । िे र्ब श्रीिंका
में पढ़ रहे थे तभी उन्ें भारत के स्वाधीनता आं द िन ने अपनी ओर खींचा। उन्ें
विचारधारा प्रभावित कर रही थी और वकसान आं द िन खींच रहा था। नागार्जुन
के पत्रा के र्िाब में सहर् ने उन्ें विखा 'िहां अतीत के वबि में घजसे बैठे ह ,
ितुमान संघर्षु के खजिे मैदान में आओ। इसके बाद िे श्रीिंका से बौद्ध दर्ुन की
पढ़ाइु बीच में ही छ ड़कर वकसान आं द िन में र्रीक ह ने के विए भारत चिे
गए। अपनी रार्नीवतक प्रवतबद्धता के कारण नागार्जुन क 1939 से 1941 के
बीच कइु बार र्े ि र्ाना पड़ा। बाद में नागार्जुन के आं द िन में भी र्ेि र्ाना
पड़ा।
इस प्रभाि से मजक्त ह ने की या म हभं ग की प्रविया सन 1962 के बाद र्ज रू ह ती
है । नागार्जुन उन कविय ं में हैं र् म ह के प्रभाि से पूरी तरह मजक्त थे । य र्नाओं
और 'समार् नमूने के समार् के प्रपंच क िे नागार्जुन दृवर्षिक ण से दे ख पाए
और इन सबके पीछे वनवहतविचारधारा क भी समझ पाए।
नार्ागर् ुजन की कविताओं में साम्राज्यिाद समार्िाद, विर धी संघर्षु से िेकर
स्वतंत्रा भारत के सपने तक पदाु फार् है । इसमें भारत की मजवकत की कामना का
स्वर व्यक्त हुआ है त विश्वयजद्ध और र्नता के साथ उभर रहे अंतविुर ध की
अवभव्यवकत हुइु । नागार्जुन इवतहास क नष्ट करने िािे खिनायक भी थे । उनकी
कविता में गरीब वकसान और मर्दू र ं के र्ीिन के वचत्रा थे । र्ीिन में व्याप्त
असंगवतय ं और र्नविर धी मूल् ं का वचत्राण भी है । नागार्जुन ने पारदर्ी
बजर्र् ुजआ नेताओं पर विखा। उनकी कविता में गााँ ि की गरीवबनी है कहने का
तात्पयु यह वक नागार्जुन ने समार् के र्ीिन, प्रÑवत, समार् के बदिते स्वरूप,
की चजनौवतय ं का वचत्राण वकया है ।
नागार्जुन के संसार के िैविध्य क समझने के विए भारतीय समार् और 1947-
48 की रार्नीवत की समझ ह ना प्राथवमक र्तु थी। उनकी कविता की बजवनयादी
वचंता र्नतंत्रा है । र्नतंत्रा में कौन सी ताकतें बाधक हैं और कौन सी ताकतें
बाधक हैं । िह गरीब, अभािग्रस्त है वर्से ध्यान में रखा र्ाना चावहए।
नागार्जुन र्नतंत्रा के कवि हैं । उन् न ं े र्नतंत्रा की ऊब और अंतविु र ध ं का
वचत्राण वकया है । उनके विए धूवमि की तरह र्नतंत्रा आधा तेि और आधा पानी
नहीं हैं । िे र्नतंत्रा के अंतविुर ध ं का वचत्राण करते हुए िस्तजत: इस झूठ क त ड़ते
हैं वक र्नतंत्रा में सब कजछ ठीक-ठाक है । र्नतंत्रा की ओि में सविय
र्नतंत्राविर धी सावर्र् ं का उदघािन करते थें । र्नविर धी नीवतय ं से र्नतंत्रा
वकस तरह ख खिा हुआ, इस सबका वचत्राण करते थे ।
उनकी कविता में सादगी, संप्रेर्षणीयता और सहर्ता है । नागार्जुन के विए कविता
उनकी फकीरी की वर्ंदगी का सहर् बयान था। आर्ादी के बाद के दौर की
कविता क संप्रेर्षण की वर्स समस्या से द -चार ह ना पड़ा था, िह संकि कम से
कम नागार्जुन के यहााँ वदखाइु नहीं दे ता। सहर्ता और सादगी क उन् न ं े वकसान
पृष्ठभू वम से प्राप्त वकया। ये िगु र्नतंत्रा, सादगी और सहायता की आदर्ु वमसाि
थें । ये ही अनपढ़, गरीब िगु उनकी कविता के प्रेरणास्र त थे । उनके विए र्नतंत्रा
स्वत: प्राप्त ह ने िािी चीर् नहीं है ुै। अवपतज उसे संघर्षों में वर्रकत करके ही
अवर्ुत वकया र्ा सकता था। उनके विए र्नतंत्रा सभी मर्बूत ह गा र्ब उसमें
हस्तक्षे प वकया र्ाए, र्नतंत्रा के रखिाि ं के साथ िड़ा र्ाए। कहने का तात्पयु
यह है वक नागार्जुन िेखक के साथ्ज्ञ ही साथ खजद र्नतंत्रा के सविय कायुकत्र्ता
भी थें ।
नागार्जुन के कविता संसार क म िे तौर पर इन क विय ं में िगीÑत वकया र्ा
सकता है .
• रार्नीवतक कविता
• प्रÑवतपरक कविताएाँ
• सौंदयुपरक कविताएाँ
• सामावर्क र्ीिन पर केंवद् रत कविताएाँ
नागार्जुन ने रार्नीवतक प्रिृविय ं पर विखा है । इनमें में िे कविताएाँ आती हैं र्
साम्राज्यिाद विर ध के विर्षय ं पर विखी गइु हैं िे कविताएाँ आती हैं र् रार्नीवतक
दि ं और उनकी नीवतय ं पर विखी गइु हैं । िे कविताएं आती हैं र् रार्नीवतक
घिना विर्ेर्ष पर विखी गइु हैं । िे कविताएाँ आती हैं र् रार्नीवतक व्यवकतय ं पर
विखी गइु हैं ।
नागार्जुन साम्राज्यिाद के विर ध और र् र्षक िगु की नीवतय ं के विर ध क
प्राथवमकता दे ते हैं । इसी के इदु -वगदु नागार्जुन र्नता क एकर्जि करते हैं । इन
कविताओं की अन्य विर्ेर्षता है वक ये र् वर्षत ं के दृवर्षिक ण क व्यक्त करती
हैं ुं ओर व्यंग्य की र्ैिी का इनमें भरपूर इस्तेमाि वकया गया है । ''नागार्जुन के
ये व्यंगय र्नता की रार्नीवतक चेतना के साथ ही, उसके सतही ब ध और
वर्ंदावदिी के भी प्रमाण हैं ।
यजद्ध के दौरान साम्राज्यिाद की समथु क और विर धी, फासीिाद की समथु क
विर धी र्वकतय ं के बीच धजरिीयकरण
् तेर् हुआ था।
नागार्जुन र्ैसी रार्नीवतक कविता विखना र् खखम भरा काम था। वकंतज उससे भी
बड़ा सच यह है वक नागार्जुन के काव्य में ये कविताएाँ मीि का पत्थर सावबत हुइु ।
रार्नीवतक कविता सस्ती ि कवप्रयता और चजनाि प्रचार के विए विखी र्ाती रही
हैं । इस तरह के विर्षय ं पर कविता संभि है यह बात नागार्जुन की कविता ने
सावबत की है ।
नागार्जुन ने भारत आर्ाद ह ने के बाद वमिी आर्ादी क कभी असिी आर्ादी
नहीं माना, तेिंगाना के सर्स्त्रा विद्र ह का वर्स सरकार ने दमन वकया, उसने
नागार्जर्ुजन की छं दमजक्त क और भी बनाया, नागार्जुन ने विखा :
आर्ादी के बाद के र्ासकिगों ने यहां स्वाथी की नीवतय ं का पािन वकया। इसके
कारण आम र्नता के बीच में तेर्ी से र्न-असंत र्ष पैदा हुआ।
आर्ादी के बाद म हभं ग की प्रविया सन 1962 के बाद र्जरू ह ती है । इस प्रसंग
में 'तजमने कहा था, और 'तजम रह र्ाते इस साि और र्ीर्षुक कविताएाँ खासतौर
पर उल्लेखनीय हैं ।
'झजकती स्वराज्य की डाल और
तजम रह र्ाते इस साल और
हम चािल लाते वकलो, दे आते नोट मगर
योों वसकजडे रहते, सपने में वसलिाते ऊनी कोट मगर
गावलयाों छलकती ों, बैलोों की र्ोडी को दे ते िोट मगर
आर्ादी के बाद र्ासकीय हिक ं में िाद झूठा िैचाररक आग्रह था। नेता सिा
के वर्खर तक र्ाने के विए बनाििी मंत्रा र्प कर रहा था। ऐसे में आम र्नता
में भी गााँ धीिाद के प्रवत आग्रह बढ़ रहा था। केदारनाथ अग्रिाि, र्मर्ेर,
वत्रि चन के अिािा नागार्जुन ने सबसे ज्यादा इस पर ि ध असंत र्ष क व्यक्त
करने िािी कविताएं विखीं। इसके अिािा नागार्जुन ने मखौि उड़ाते व्यंग्य करते
हुए व्यंग्य कविताएं विखीं।
नागार्जुन की कविताओं में र्हााँ तात्काविकता है िहीं पर दू सरी ओर संबंवधत
विर्षय के िैचाररक ममु की सही समझ भी मौर्ूद है । इस तरह की कविताओं का
मूल्ां कन करते हुए केदारनाथ ने विखा वक ''नागार्जुन की तात्काविक विर्षय ं पर
विखी हुइु कविताएाँ उनकी कविता संबंधी धारणा की ओर संकेत करती है ।
''(केदारनाथ, खतरनाक ढं ग से कवि ह ने का साहस, आि चना,) ये कविताएाँ
उनके छं दमजक्त काव्य का अवनिायु वहस्सा हैं । नागार्जुन ने रार्नीवत के चवचुत
व्यवकतय ं पर इसविए विखा वक िे र्नता की वदिचस्पी के सामान्यब ध का
वहस्सा थे । यथाथु की ओर िे इसका िाभ उठाते थे ।
उन के र्ब् ं में ''उनकी तात्त्काविकता ठं डी, बेर्ान, र र्षहीन तात्त्काविकता नहीं
है । िे दे वनक, साप्तवहक, मावसक या िावर्षुक घिनाओं पर र्ब प्रवतविया व्यक्त
करते हैं त उसके पीछे दृवर्षि, इर्ारा तथा इरादा ह ता है । िे र्नता का वहस्सा
हैं और इस नाते र्नता पर र ब गां ठना, उसे आदे र् दे ना, उपदे र् दे ना या मूखु
कहने की प्रिृवि उनमें नहीं है । ''र्नता उनके यहां वसफु करुण त्पादक, िाचार,
असहाय, र् वर्षत नहीं है ।... र्नता वसफु करुणा तथा दया उपर्ाने िािी वसथर,
र्ड़, िहां रखी हुइु चीर् नहीं है बविक इकिठा ह ती, समूह बनती, चिती, कभी
थककर बैठती िेवकन वफर उठकर बढ़ती। नागार्जुन के यहां र्नता गवतर्ीि है ।
उसका चररत्रा परं परागत गिीिे का है ।
नागार्जुन ने कविताएाँ विखी हैं .र् र्षण तंत्रा के तमाम भागीदार ं के खखिाफ और
मेहनतकर् र्नता के संघर्षों के बारे मेंुं ये कविताएाँ बड़ी मात्राा में हैं । आर्ादी
क िेकर अनेक िेखक ं में तरह-तरह के भ्रम थे, अवधकां र् िेखक यही स चते
थे वक अब त हम आर्ाद हैं और र्नता की आर्ादी दे ख रहे थे । वकंतज नागार्जुन
क आर्ादी के िगीय चररत्रा क िेकर क इु भ्रम नहीं था। उन् न ं े विखा झूठ-
मूठ सजर्िा-सजफिा के गीत न हम अब गायेंगे। आर्ादी पर व्यंग्य करते हुए विखा
वक ''कागर् की आर्ादी वमिती िे ि द -द आने में। आर्ादी के बाद क इु
बदिाि नहीं आया। ऊपर िािे बैठे-बैठे खािी बात बनाते हैं बाढ़ अकाि
महामारी में काम नहीं कजछ आते हैं देर्भवकत वमि रहीं आए वदन र्ैतान ं क ।
र्ब सारा दे र् आर्ादी की र्यंती मना रहा था तब नागार्जुन ने इसके पाखंड का
उदघािन करते हुए विखा वक ''वनपि गरीबी, और ठाि-बाि की र्यंती-र्मु न
आती, मना रहे िे मंहगाइु की र्यंती। इस तरह के चज नाि ं का व्यंग्य करते हुए
नागार्जुन ने ''अब त बंद कर हे दे वि यह चजनाि का प्रहसन र्ीर्षुक िंबी कविता
विखी। साथ ही यह भी विखा वक ''श्ल क ं में गू र्ेंगे अब की अध्यादे र्। नागार्जुन
ने सन 1970 से िेकर 1980 के बीच इं वदरा, केंद्र में रखकर वर्तनी कविताएं
विखी थीं, ये सारी कविताएं र्नतंत्रा की हत्या के विए चि रही सावर्र् ं का
उदघािन करती हैं । साथ ही र्नतंत्रा के नाम पर चि रहे अपराधीकरण का
उदघािन करती। इस संदभु में नागार्जुन ने विखा वक ''इसके िेखे संसदा-फंसद
सब वफर्ूि हैं इसके िेखे संविधान कागर्ी फूि हैं इसके िेखे दं डनीवत कागर्ी
फूि हैं इसके िेखेसत्य-अवहं सा-क्षमा-र्ां वत-करुणा मात्रा है । इसके िेखे दं डनीवत
ही परम सत्य है , ठ स हकीकतइसके िेखे ही परम सत्य हैं , ठ स हकीकत।
वर्िकजमार ने नागार्जुन की कविता के बारे में विखा है वक ''नागार्जुन की कविता
र्ीिन के विर्ष में ही आकंठ सराब र कवि की कविता थी। र्ीिन के विर्ष क
उसने भारतेंदज की भां वत वनविुकार वपया और पचाया और अमृत द न ं हाथ ं
मनजष्यता के वहत के विए कविता के रूप में उिीचा। प्रेमचंद के साथ िे अकेिे
रचनाकार थें , वर्न् न
ं े व्यवकतगत र्ीिन के किज और भयािह यथाथु की मविन
छाया अपने Ñवतत्व पर पड़ने दी। नागार्जुन ने वर्तने गहरे और ममाां तक दज ख ं क
भ गा उसका पररचय खजद की कविता में उन् न ं े वदया था।
नागार्जुन ने रार्नीवत पर वर्स ऊर्ाु के साथ कविताएाँ विखीं ठीक उसी तरह
प्रÑवत पर कविताएाँ विखीं। उनके यहां प्रÑवत सहचरी है । उन् न ं े विखा वक
''आधजवनक कवि की कविता र्नता की आिश्यकताओं और रुवचय ं के संदभु में
अपना स्वरूप ग्रहण कर रही है । अब िह सामंत ं के दरबार ं से बहुत दू र र्ीिन
के खजिे और फिते-फूिते वसिान ं में आ खड़ी हुइु हैं इसविए िह इसक नए
वसरे से व्यिवसथत करने की केावर्र् कर रही हैं ।
नागार्जुन की कविताओं में गां ि और छ िे कस् ं के र्न-र्ीिन पर विखी कविताएाँ
सबसे ज्यादा हैं । यहां आम तौर पर र् चररत्रा हैं िे इन्ीुे ुं इिाक ं के हैं वकंतज
इनका दृवर्षिक ण कस्ाइु नहीं है । इन चररत्रा ं का दृवर्षिक ण है । यह ऐसा
दृवर्षिक ण है र् आधजवनकतािाद का विर धी है । यही िर्ह है वक रचना के र्
उपकरण िे चजनते हैं िे सब यथाथु िादी काव्य से आते हैं ुं। िे रचना में
पररप्रेक्ष्यहीनता का वनर्षेध करते हैं । िे वकसी भी वकस्म के प्रभाििादी उपकरण
का भी प्रभाि त्पादकता पैदा करने के विए इस्तेमाि नहीं करते। उनकी
अवभव्यंर्ना के उपकरण एकदम दे र्र् सपाि बयानी से विए गए हैं ।
नागार्जुन की प्रÑवतपरक रचनाओं का विश्लेर्षण करते हुए विखा वक ''िैसे, गां ि
और विर्ेर्षत: अपने गां ि की प्रÑवत के विए नागार्जुन की आरं वभक कविताओं में
'नास्टे विर्मा की अनजभूवत भी वमिती है , वकंतज ज्यादातर कविताओं में िे प्रÑवत ि
असवियत के यथाथु के बीच सामान्य ह र्ाते हैं ।
नागार्जुन ने सामान्यत: कविताएाँ विखते समय साधारण र्न, क अवभव्यवकत
की है । यह भािजकता, आिेग, सहर्ता और यथाथु के उपकरण ं से बना है । इस
रूमावनयत का दायरा व्यापक है । इसमें गााँ ि है , र्हर है , प्रÑवत है , महानगर है ,
कस्े हैं ुं, यानी र्ीिन के िैविध्य का सारा समान यहााँ उपिब्ध है । नागार्जुन की
भािजकता समार् के अंदर बढ़ती हुइु मायूसी है ।
नागार्जुन की कविता में साधारण ब िचाि के तदभि और ि क भार्षा का ही
नहीं, अंग्रेजी, अिधी आवद के र्ब् ं का भी प्रय ग वमिता है । नागार्जुन की कविता
में र्ब् ं में बातचीत की र्ैिी भी वमिती है । र्ैसे.''मैंने सपना दे खा, इवमतहान में
बैठे ह तजम मैंने सपना दे खा।
विर्य के र्ब् ं में.नागार्जुन र्ब् ं और िाक् ं की सादगी वकंतज गं भीरता के कवि
हैं ।
नागार्जुन की कविताओं में गधात्मकता है उसके पीछे तकु प्रणािी है । तकु यह है
वक र्ब कविता में अिगां ि और परं पराहीनता का मचा ह त ऐसे में कविता के
र्नसंघर्षों से र्नता की चेतना के साथ छं द की पजरानी परं परा क छ ड़ना उनकी
गध कविता का मजख्य िक्ष्य ह गया।
कविता में र्नता के र्ीिन पर पूंर्ीिाद के दज ष्प्रभाि ं सरीखी बातें कविता के
र्ररए नागार्जुन उठाते हैं । और कविता क र्नता से र् ड़ दे ते हैं । कविता में र्
एकरसता है िह नहीं िू ि सकेगी और भार्षा और पद-रचना की सपाि सादगी में
आयेगी कविता र् श्रव्य बन सकने की सामथ्र्य रखती, उस दौड़ में र्ावमि ह कर
सामावर्क र्ून्य का खात्मा करती है । र्हााँ फूहड़ तजकबंवदय ं का विराि घूरा
र्मता र्ा रहा है ।
नागार्जुन की कविता की सबसे बड़ी बात है सपाि बयान के विए िे र्ीिन के
प्रसंग ं क सामने िाते हैं साथ ही इसके वर्न उपकरण ं का इस्तेमाि करते हैं िे
र चक ह ते हैं । िे विधान में फूहड़ और सस्ती खराब, तजकबंवदय ं का प्रय ग करते।
अथु के उदघािन पर उनका ध्यान केंवद् रत रहता।
नागार्जुन की कविता का पररप्रेक्ष्य र्नता के वहत ं और खासकर मेहनतकर्
र्नता के वहत ं से र्जड़ा। उनकी कविताएाँ बंधनविहीन सपािबयानी क साकार
करती हैं । िे अपनी भार्षा के रचनाकार हैं । िे र्नता के प्रवत प्रवतबद्ध थे । उसके
र्ीिन में ि कतंत्रा की साख और अभाि ं क काव्य रूप दे ने िािे कवि नागार्जुन
थे ।
नागार्जुन की कविता में मजक्त छं द के अिािा अनजप्रास ं के प्रय ग भी उनके यहााँ
वमिते हैं । नागार्जुन के छं द इस्तेमाि के पीछे तकु प्रणािी है वक र्ब गध-कविता
समार् से संबंध रहा ह , र्ब कविता में अिगााँ ि और परं पराहीनता का मचा ह
त ऐसे में कविता के र्न संघर्षों से र्नता की चेतना के साथ छं द की छ ड़ना
और छज दमजक्त क सामावर्क सर कार ं से र् ड़ना नागार्जुन के विए मजख्य िक्ष्य
ह गया।
नागार्जुन उपेवक्षत, र् वर्षत, दवित के रहे । गरीब आदमी के सजख-दज ख और
सर कार ं क उन्ीुेुं की सपाि भार्षा में अवभव्यवकत प्रदान करना.नागार्जुन
र्ैसे व्यवकतत्व के विए ही संभि था। यही कारण है वक उन्ें 'र्न-कवि, 'र्नता
के सजख-दज ख का कवि कहा र्ाता था।
अकाल और उसके बाद
प्रवतपाध: 'अकाि और उसके बाद नागार्जुन की वकसी भी अकाि पर विखी
कविता भी दे र् में अनेक ं र्गह ं पर कइु बार अकाि पड़ा त र्नता त्राावह-त्राावह
कर उठी। पेि भरने क पयाु प्त अन्न नहीं था, चार ं ओर विनार् का स्वर सजनाइु
पड़ता। ि ग पेि की आग बजझाने के विए और ं क या पराय ं क मारकर खा
र्ाते थे ।
र्ीिन में आये-वदन की भज खमरी, गरीब ं का दै नंवदन का दज :खद र्ीिन वकसी
अकाि की भीर्षणता से कम नहीं है । यधवप कविता में साफ-तौर पर यह नहीं
कहा गया वक अकाि का कारण प्राÑवतक प्रक प है या दे र् के र्ासन की रीवतयां
नीवतयां ।
प्रस्तजत कविता में कहीं भी अकाि के समय की त्राासदी और उसके खत्म ह ने के
अहसास से ह ने िािी द न ं क अवभव्यक्त वकया है । अकाि की वसथवत में घर
में चार ं ओर उदासी और वनवर्षियता का िातािरण है । अकाि के कारण चूल्हा
नहीं र्िा, घर में अन्न न ह ने के कारण चक चिने की आिाज तक नहीं सजनाइु
दी, अत: खाना बनने के पररणामस्वरूप ऊपर उठता धजआाँ भी नहीं वदखाइु पड़ा।
इस दज खद वसथवत से अनपढ़-अवर्वक्षत मनजष्य ही परे र्ान नहीं थे िरन घर के
र्ीि-र्ंतजओं की हाित भी खस्ता थी, वछपकविय ं क भी खाना नसीब न हुआ,
चूहे भी भू ख के कारण वर्वथि ह गये। अकाि ने मनजष्य क भूख के कगार पर
िाकर खड़ा कर वदया परं तज मनजष्य र्ीिि प्राणी है हर वसथवत से उबरने की
क वर्र् उसके पास है । भज खमरी ने उसे पस्त त वकया परं तज वनरार् न ह ने वदया
और िह इस दज :खद वसथवत से वनकिने में िग गया। उसका पररश्रम रं ग िाया
और भू ख से उबरने का रास्ता वनकि ही आया, वफर से घर में भ र्न बनाने के
विए दाने आये और र्ीिन का चि दू सरी वदर्ा में घूुूम गया और घर के अंदर
चिने िगी, चूल्हा र्िने िगा, घर-पररिार में प्रसन्नता की िहर दौड़ गइु , कौआ
भी अन्न पाने में अपने पंख ं क खजर्िाने िगा।
कवि र्ीिन की द विर धी वसथवतय ं क अिग-अिग वबंब ं के माध्यम से व्यक्त
करता है । ये वबम्ब य ं त र्ीिन की विर धी वसथवतय ं क बड़ी सहर्ता से व्यक्त
करते हैं ।
कइु वदनोों ................ कइु वदनोों के बाद
ससंदभु प्रसंग.प्रस्तजत पंवकतयां कवि नागार्जुन रवचत 'अकाि और उसके बाद
कविता से है । इसमें गरीब, बेबस व्यवकतय ं के र्ीिन में व्याप्त भज खमरी और
उससे उबरने का वचत्रा अंवकत वकया गया है ।
व्याख्या.प्रस्तजत कविता के नाम से ही स्पष्ट है वक इसमें अकाि और उसके बाद,
इन द न ं वसथवतय ं का वचत्राण है । अकाि का अथु है , अन्न का उपिब्ध न ह ना।
अन्न नहीं वमिा त घर में चूल्हा नहीं र्िा। चूल्हे का गजण है र्िना, इसके विपरीत
चूल्हा र रहा है अथाु त आं सू बहा रहा है यावन चूल्हे पर अवगन के बर्ाय पानी
पड़ गया है । अन्न न ह ने की वसथवत भी क ने में उदास पड़ी है । घर में भज खमरी
की वसथवत में गवतविवधयााँ रुकी हुइु हैं । गवतविवधयााँ ही सन्नािे क त ड़ती हैं परं तज
यहां हर तरफ सन्नािा है । क इु हरकत, चहि-पहि नहीं है यह मनजष्य ं के माध्यम
से नहीं िरन िस्तजओं के माध्यम से अवभव्यंवर्त है । यही कारण है वक सन्नािा
अवधक हािी ह गया है , सन्नािे की सघनता और गहरी उभर कर आती है ।
गवतविवधयााँ र्ब र्ां त हैं , िह चूल्हे के पास नहीं गया, चक्की नहीं चिाइु त र्ीि-
र्ंतजओं का पररिेर् खत्म ह गया। अन्न न आने की वसथवत में, चूल्हा न र्िने की
वसथवत में उसके पास र्ाकर स या, िस्तजत: भज खमरी ने मनजष्य क बेदखि कर
वदया। अकाि ने र्ीिन की पररवसथवतय ं क अस्वाभाविक बना वदया। अन्न ह ने
की वसथवत में, चूल्हा र्िने की वसथवत में भी कजिे चूल्हे के पास नहीं, उससे दू र
हैं , यह स्वाभाविक वसथवत ह ती। इस बदिाि का, अस्वाभाविकता का कारण है
अन्न का न ह ना।
अनपढ़, गरीब व्यवकत ही अन्न वबना परे र्ान नहीं है िरन र्ीि-र्ंतजओं का हाि
भी बेहाि है । वछपकवियााँ दीिार ं पर गश्त िगाती हैं परं तज उन्ें कजछ नहीं वमिता
। िे चूहे र् वदन भर घर में घूमते थे और अपने वहस्से का दाना चजन िेते थे िे भी
भू ख से व्याकजि हैं , उन्ें भी परार्य का मजाँुंह दे खना पड़ता। इस तरह र्ीिन के
सारे संदभु अस्त-व्यस्त थे ।
कइु वदन ं के बाद र्ब घर में अन्न के दाने आये त दज :खी, उदास र्ीिन खजर्ी से
भर उठा; दाने घर में आए त चूल्हा र्िा और धजआाँ आं गन के ऊपर उठने िगा
घर भर की आाँ खें प्रसन्नता से चमक उठीं। चूल्हे में आग और आाँ ख ं में चमक
र्ीिन के िौिने का भाि सहर्, साथु क ढं ग से अवभव्यक्त कर रहे थें । र्ीिन-
चि के पररिवतुत ह ते ही कौए ने भी पंख ं क फड़फड़ाना आरं भ वकया। र्ीिन
की पररवसथवतयां र्ीिन पर ही प्रभाि नहीं डािती िरन र् भी उससे र्जड़े हैं सभी
पर पड़ता था।
विर्ेर्ष.प्रस्तजत कविता में प्रत्यक्ष रूप से मनजष्य का वचत्राण नहीं है । परं तज अन्न,
भ र्न, चूल्हा र्िाना, ये सारी चीर्ें मनजष्य संबंवधत है अत: मनजष्य पूरी पररवसथवत
में विधमान है । प्रस्तजत कविता की पररवसथवतय ं के वचत्राण के वबना ही अकाि
की विभीवर्षका आ हीुे र्ाती और िह भी बड़ी र्ब्ाििी में। अकाि र्ीिन क
स्थवगत करता है और अन्न र्ीिन में हिचि पै दा करता है । नागार्जुन भारत र्न
सामान्य के दज :ख-ददु के कवि हैं उन्ीुे ुं की दृवर्षि से प्रस्तजत कविता में गरीबी
का, भज खमरी का साक्षात्कार वकया गया। नागार्जुन सपष्टता से बड़ी से बड़ी बात
व्यक्त करते। संक्षेप में हम यही कह सकते हैं वक र्न साधारण की ऊब के भाि ं
क र्नसाधारण की भार्षा में कवि ने अवभव्यक्त वकया।
नागार्जुन ने अवधकतर साधारण र्नभार्षा का प्रय ग स्वयं की तात्त्काविक
प्रवतवियाएाँ व्यक्त करने के विए वकया है , हािां वक ऐसी र र्षपूणु कविताएं स्थायी
महत्व की नहीं हैं ।
र्निादी भाि-धारा का वहं दी सावहत्य-क्षे त्रा से उन्मूिन करना कइु और कविय ं
का उददे श्य था। ऐसी भाि-धारा का प्रचिन करना उनका उददे श्य था र्
प्रगवतिाद का स्थान ग्रहण करे । अतएि, उन् न ं े काव्य के विर्ेर्ष पैिनु, किा-
व्याख्या, किाकार का धमु, अनजुजभू वत का वसद्धां त, भाि ब ध तथा उससे र्जड़ी
हुइु सभ्यता-समीक्षा इन सबक उपवसथत वकया। साम्यिादी-र्निादी प्रभाि का
वनराकरण इस प्रधान िक्ष्य से ये सारे वसद्धां त अनजप्रावणत रहे । मजवकतब ध के इस
िक्तव्य का प्रमाण रामस्वरूप द्वारा 'वहं दी नििेखन के वििेचन से वमिता है र्हााँ
उन् न ं े र्निाद क विदे र्ी प्रेरणा और प्रभाि से उत्पन्न काव्य-संस्कार कहकर
खाररर् वकया गया। िहीं रचना के स्तर पर यह भी तथ्य था वक ''इस के अंतगु त
बहुत सा सावहत्य ऐसा विखा गया वर्समें विचारधारात्मक व्यथु कथन ही ज्यादा
थे , अनजभि का विधान नहीं था।

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