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आंचलिक उपन्यासों की परम्परा

आंचलिक उपन्यासों में माटी की गंध के चचत्रण को प्रश्रय लमिा |

राष्ट्र अलिमान के साथ-साथ प्रान्त, प्रदे श एवं जन्मिूलम के ववलिन्न पहिुओं पर ध्यान

दे कर उन्हें सामने िाने का िाव साहहत्यकारों में जागत


ृ हुआ | इस तरह अंचि का चचत्रण

एक साहहत्यक आन्दोिन का रूप धारण कर लिया और आज आंचलिक उपन्यासों के

माध्यम से ककसी ववलशष्ट्ट अंचि के चचत्रण की परम्परा अपने ववकलसत अवस्था में है |

2.1 - आंचलिक उपन्यास : उद् भव और ववकास –


.

आंचलिक उपन्यास मुख्यतया ग्रामीण जीवन से सम्बन्न्धत रहे हैं |

अंचि के िोक संस्कृतत, जन-जीवन, िाषा, रहन-सहन, तथा उन्मुक्त पररवेश का चचत्रण

आंचलिक उपन्यासों में होता रहा है | आंचलिक उपन्यासों में सम्पूणण अंचि अपनी स्वतंत्र

चेतना के साथ मुखररत होता है | स्वतंत्रता प्रान्तत के बाद राजनीततज्ञों का ध्यान गााँवों तथा

वपछड़े इिाकों की तरफ गया | केन्रीय तथा राज्य सरकारें ववलिन्न योजनाओं के माध्यम

से ववलशष्ट्ट अंचिों के ववकास की योजनाओं का कियान्वयन शरू


ु ककया | इन सबसे प्रेररत

होकर साहहत्यकार िी उन अंचिों के चचत्रण में िग गए जो ककसी न ककसी रूप में ववलशष्ट्ट

रहे हों, “िारतीय प्रबुद्ध वगण में स्वदे शी की ममता और ग्रामों में बसने वािी बहुसंख्यक

जनता के प्रतत सहानिूतत एवं आत्मीयता की िहर उठी | इसी काि में पाश्चात्य प्रिावों से

मुक्त नगरीय जीवन एवं उसकी चचत्र-ववचचत्र िोक सांस्कृततक झााँककयो की कथात्मक

अलिव्यंजना को स्वर प्रदान करने की उमंग उठी|”1

आंचलिक उपन्यासों की परम्परा की ठोस शरु


ु आत फणीश्वरनाथ रे णु

के ‘मैिा आाँचि’ (1954) से मानी जाती है परन्तु इससे पव


ू ण िी अनेक ऐसे उपन्यास दे खे
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जा सकते हैं | न्जससे ककसी ना ककसी रूप में आंचलिकता के दशणन होते हैं | सवणप्रथम

िव
ु नेश्वर लमश्र }kरा लिखखत उपन्यास ‘घराऊ घटना’ (1893) तथा ‘बिवंत िलू महार’ (1896)

में आंचलिक उपन्यासों के िक्षण लमिते हैं | इसके बाद जगन्नाथ प्रसाद चतुवेदी के ‘बसंत

मािती’ (1899) तथा अयोध्या लसंह उपध्याय हररऔध का ‘अधखखिा फूि’ (1907), गोपाि

राम गहमरी का ‘िोजपुरी का ठग’ (1903), रामजी लसंह का ‘वन ववहंचगनी’ (1909) तथा

ब्रजनंदन सहाय का ‘अरण्य बेिा’ उपन्यास प्रकालशत हुआ | मन्नन f}वेदी के ‘रामिाि’

(1914), लशव पूजन सहाय के ‘दे हाती दतु नया’ (1926), लसयाराम शरण गुतत के ‘गोंद’ तथा

सूयक
ण ान्त त्रत्रपाठी तनरािा के ‘कुल्िीिाट’ और ‘त्रबल्िेसुर बकररहा’ में आंचलिकता का स्पष्ट्ट

आिास लमिता है | डा० प्रताप नारायण टं डन ने आंचलिकता का प्रारं ि लशवपूजन सहाय के

उपन्यास ‘दे हाती दतु नया’ तथा डा० सत्यपाि चुघ इस प्रवन्ृ त्त का आरम्ि सूयक
ण ान्त त्रपाठी

‘तनरािा’ के ‘त्रबल्िेसुर बकररहा’ उपन्यास से मानते हैं|2

स्वतंत्रता के बाद िोकतंत्र एवं नवतनमाणण की चेतना के ववकास के

िक्षण साहहत्य में िी पररिक्षक्षत होने िगे | ग्रामीण तथा वपछड़े इिाकों का चचत्रण

आंचलिक उपन्यासों के माध्यम से सघनता के साथ होने िगा | राष्ट्र जीवन में राष्ट्रीय

िावना के ववकास तथा जन जागतृ त तथा नवचेतना को व्यापक आयाम दे ने के लिए िेखकों

का ध्यान गााँवों की ओर गया | मूित: गााँवों के दे श िारत को उसकी समग्रता के साथ

चचत्रत्रत करने के लिए आंचलिक जीवन को सामने िे आना आवश्यक था | अत: ग्रामीण

जीवन के प्रतत आग्रह और ग्राम्य यथाथण के प्रतत िेखक की रूचच और एकाग्रता के

स्वािाववक ववकास का अवसर उत्पन्न हुआ|3 श्री उपेन्र नाथ अश्क का ‘चगरती दीवारें ’

(1947) में िाहौर के जन जीवन का चचत्रण है | श्री बिवंत लसंह के ‘रात चोर और चााँद’

(1948) में पंजाब के मध्य वगण का चचत्रण है नागाजन


ुण के उपन्यास ‘रततनाथ की चाची’ तथा
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बिचनामा (1952), ‘नयी पौध’ (1953) ग्रामीण आाँचि का प्रतततनचधत्व करते हैं | आंचलिक

4
उपन्यासों की शरु
ु आत नागाजन
ुण के उपन्यास ‘विचनमा’ (1952) से होती है|

इसप्रकार फणीश्वर नाथ रे णु से पव


ू ण िी आंचलिक उपन्यास की सद
ु ीघण

परम्परा दे खने को लमिती है | परन्तु ववशद्ध


ु आंचलिक उपन्यास की शरु
ु आत फणीश्वरनाथ

नाथ रे णु के उपन्यास ‘मैिा आंचि’ (1954) से ही माना जाता है |

2.2 - आंचलिक उपन्यास के क्षेत्र में फणीश्वर नाथ रे णु का योगदान–

फणीश्वर नाथ रे णु जी को कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद के बाद हहन्दी

उपन्यास के क्षेत्र में एक नई परम्परा के सूत्रधार के रूप में जाना जाता है, “मैिा आंचि के

आवरण पष्ट्ृ ठ पर एक आिोचक की सहमतत छपी है | प्रेमचंद की परम्परा में दशकों बाद

यह पहिा उपन्यास लिखा गया है |”5 अथाणत रे णु ने हहन्दी उपन्यास के क्षेत्र में ववलशष्ट्ट

अंचि के िोक संस्कृतत को समग्रता के साथ चचत्रण करते हुए एक नया दृन्ष्ट्टकोण हदया,

“प्रेमचंद ने बनारस न्जिे के गााँवों को िेकर ढे रों कहातनयां और उपन्यास लिखे | कफर िी

उनकी रचनाएाँ पढ़ने पर सहसा यह बोध नहीं होता कक हम हहन्दी िाषी प्रदे श के ककसी

अंचि ववशेष के बारे में पढ़ रहे हैं | उनके पात्रों में आंचलिकता से अचधक समेककत िारतीय

वालसयों का प्रतततनचधत्व है | ववलिन्न अंचिों के पाठकों को िगता है प्रेमचंद ने उन्ही के

यहााँ के ककसानों के बारे में लिखा है | उनकी बोिी – बानी में इतना ही संदेहपन रहता है

कक वे शहर के न िगे ककन्तु ववलिन्न बोलियों के आधार पर ककसानों का वविाजन या िोक

संस्कृतत का चचत्रण करने का प्रयत्न प्रेमचंद में नहीं है|”6 इसके ववपरीत फणीश्वर नाथ रे णु

ने स्वतंत्रता के बाद बदिे पररवेश में जब राजनीततज्ञों का ध्यान ववलिन्न अंचिों के वपछड़े

क्षेत्रों पर ध्यान दे कर उनको ववकलसत करने का ववचार ककया तो एक सजग साहहत्यकार का

दातयत्व हदखाते हुए रे णु जी ने अपने रचनाओं के माध्यम से ववलिन्न समस्याओं से ग्रस्त


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एवं तनतांत वपछड़े इिाकों का चचत्रण करके उपन्यास िेखन के क्षेत्र में एक नयी हदशा प्रदान

की | उनका ‘मैिा आंचि’ उपन्यास सन ् 1954 ई० में प्रकालशत होता है | इन्होने ‘मैिा

आंचि’ की िूलमका में ही स्पष्ट्ट कर हदया कक उनका यह उपन्यास एक नये ककस्म का

उपन्यास है तथा यह एक आंचलिक उपन्यास है – “यह है मैिा आंचि, आंचलिक

उपन्यास|”7 रे णु जी ने उपन्यास की िूलमका में यह पूणत


ण या स्पष्ट्ट कार हदया है कक, यह

उपन्यास एक ववलशष्ट्ट अंचि को िेकर लिखा गया है तथा इसमें अनेक तरह कक

ववसंगततयााँ तथा अच्छाइयों दोनों ही मौजूद है – “पूखणणया त्रबहार राज्य का एक न्जिा है |

इसके एक ओर है नेपाि दस
ू री ओर पाककस्तान और पन्श्चम बंगाि | ववलिन्न सीमा रे खाओं

से इसकी बनावट मुकम्मि हो जाती है, जब हम दन्क्खन में संथाि परगना और पन्च्छम में

लमचथिा की सीमा रे खाएाँ खींच दे ते हैं | मैंने इसके एक हहस्से के एक ही गााँव को वपछड़े

गााँवों का प्रतीक मानकर इस उपन्यास का कथा क्षेत्र बनाया हैं | इसमें फूि िी है शि
ू िी,

धूि िी है , गुिाब िी, कीचड़ िी हैं चन्दन िी, सुंदरता िी है, कुरूपता िी- मैं ककसी से

दामन बचाकर तनकि नहीं पाया|”8 आंचलिक उपन्यासकार रे णु ने आंचलिकता को टकसािी

मुहावरे के रूप में ढािा | उन्होंने अंचि की तमाम बुराइयों एवं अच्छाइयों को एक साथ

िाने का प्रयास ककया है , “मैिा आंचि में आंचलिकता के तत्व मौजूद हैं | इसमें रे णु ने

न्जसे नायकत्व प्रदान ककया है , न्जस आत्मीयता के साथ एक अंचि के समग्र जीवन को

उपन्स्थत ककया है और उस पूरे-के-पूरे अंचि को नायकत्व प्रदान ककया है , वह न केवि रे णु

के पूवण अनुपिब्ध रहा वरन वह आत्मीयता उनके बाद के आंचलिक उपन्यासकारों के यहााँ

िी नहीं लमिती है | प्रेम चन्र का न्स्थर गााँव रे णु तक आते-आते गततशीि हो चुका है|”9

रे णु ने ‘मैिा आंचि’ के माध्यम से ककसी ववलशष्ट्ट अंचि के चचत्रण में परम्परा एवं

आधुतनकता दोनों का समावेश ककया | तनश्चय ही यह उपन्यास अपनी रचना दृन्ष्ट्ट एवं

लशल्प की मौलिकता में अनप


ु म है|
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रे णु ने ‘मैिा आंचि’ में यह स्पष्ट्ट ककया है कक आंचलिक उपन्यासों

में न्जस अंचि का चचत्रण ककया जाता है , उसकी स्थानीयता बहुत ही महत्वपण
ू ण होती है |

आंचलिक उपन्यासों से अिग उपन्यासों की स्थानीयता ककसी िी स्थान पर हो सकती है

परन्तु आंचलिक उपन्यासों की स्थानीयता कुछ ववलशष्ट्ट होती है | जैसे कक रे णु जी ने ‘मैिा

आंचि’ में वखणणत में रीगंज एक ववलशष्ट्ट रूप में पाठक के सामने आता है न्जसमें हर जगह

लमिने वािी कुछ साधारण ववशेषताओं के साथ-साथ कुछ ऐसे ववशेष तथ्य हैं, जो पाठक को

अपने या ककसी िी दस
ू रे गााँव में नहीं लमिती | स्थानीयता की इस प्रवन्ृ त्त के अंतर के

कारण ही प्रेमचंद के ‘गोदान’ की कथा अपने स्थान का अततिमण करके िारत के ककसी िी

गााँव की प्रतततनचध कथा बन जाती है जबकक ‘मैिा आंचि’ की कथा कुछ समान होने के

बावजूद में रीगंज की ही कथा बनी रहती है | इस तरह रे णु ने यह स्पष्ट्ट ककया कक

स्थानीयता में बने रहना ही आंचलिक उपन्यासों की मि


ू ववशेषता है |

आंचलिकता की अवधारणा में यह स्पष्ट्ट ककया जाता है कक एक

ववलशष्ट्ट पररवेश के साथ-साथ एक ववशेष समाज िी होना चाहहए जो कक गहरे स्तर पर

अपने िौगोलिक एवं सांस्कृततक पररवेश से जड़


ु ा हो | इस सम्बन्ध में यह स्वीकार ककया

जाता है कक इस प्रकार का पररवेश एवं समाज ग्रामीण व वपछड़े क्षेत्रों में ही लमि सकता है

| इसलिए आंचलिक उपन्यास स्वािाववक रूप से ग्राम केंहरत होना चाहहए | फणीश्वरनाथ

रे णु ने ‘मैिा आंचि’ को पूणत


ण या ग्राम केंहरत ही लिखा है|

आंचलिक उपन्यासों का यथाथणवादी होना बेहद ज़रूरी होता है | न्जससे

की ववलशष्ट्ट अंचि का वास्तववक चचत्र सामने आ सके | इसमें यथाथण की जहटिता पर

अचधक ध्यान न दे कर उसकी समग्रता पर अचधक ध्यान हदया जाता है | इसमें गेहूं और
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गुिाब एक दस
ू रे के शत्रु नहीं बन्ल्क जीवन के दो पक्ष माने जाते हैं | यही न्स्थतत ‘मैिा

आंचि’ की िी है | रे णु जी ने इसमें यथाथण चचत्रण करने का िरपरू प्रयास ककया है |

आंचलिक उपन्यास होने की सिी शतें उनके उपन्यास ‘मैिा आंचि’

में है | मेरीगंज नायक के रूप में उिरा है, तथा उपन्यास में अंचि के िौगोलिक,

राजनीततक, सामान्जक, सांस्कृततक तथा आचथणक, सिी पक्षों का व्यापक चचत्रण है , जो की

आंचलिक उपन्यासों की मूििूत ववशेषता मानी जाती है | आंचलिकता के तनवणहन के लिये

रे णु ने अंचि के व्यन्क्तत्व तनमाणण करने वािी दे शज िाषा का प्रयोग ककया है |

फणीश्वर नाथ रे णु ने ‘मैिा आंचि’ के साथ–साथ ‘परती पररकथा’

(1957) ई0, ‘पिटू बाबू रोड’ (1959-60), ‘दीघणतपा’ तथा किंक मुक्त’ 1972, जुिूस

(1965) और ‘ककतने चौराहे ’ (1966) के माध्यम से उपन्यास के क्षेत्र में आंचलिकता की

परम्परा का प्रवतणन ककया | इनके सारे उपन्यास ककसी न ककसी ववलशष्ट्ट अंचि की कथा

कहते है तथा वहााँ के सिी पक्षों का गहनता से चचत्रण करते हैं |

तनष्ट्कषणत: रे णु को उपन्यास िेखन के क्षेत्र में पारं पररक ढााँचे को

तोड़कर एक मौलिक और नवीन दृन्ष्ट्टकोण संपन्न िेखक के रूप में जाना जाता है |

सवणप्रथम उनके उपन्यासों से ही उपन्यासों को आंचलिक कहने की परम्परा की शरु


ु आत हुई|

जो आज तक वव|मान है | आंचलिकता के सम्बन्ध में उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा-

“आंचलिक उपन्यास से मेरा आशय ऐसे उपन्यास से है , न्जसकी समस्याओं को सामान्जक

दृन्ष्ट्टकोण से रे खांककत ककया जा सकता है | इस बारे में लसफण इतना ही कह सकता हूाँ कक

उपन्यास जगत में इस धारा का प्रयोग मैंने ही पहिी बार ककया है|”10 रे णु जी का उपन्यास

के क्षेत्र में यह महत्वपूणण योगदान है कक उन्होंने िेखकों को एक नयी चेतना से पररचचत

कराया न्जससे कक वे अत्यन्त वपछड़े एवं उपेक्षक्षत क्षेत्रों को उजागर कर सकें | “रे णु
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रचनाविी के संपादक िरत यायावार रे णु को प्रेमचंद का सम्पूरक कथाकार मानते है |”11 इस

तरह रे णु प्रेमचंद के बाद तनववणवाद रूप से उच्चकोहट के उपन्यासकार माने जाते हैं | उनहोंने

त्रबहार के अत्यंत वपछड़े हुए अंचि के शोवषत पीड़ड़त तथा उपेक्षक्षत न्जस जनता को दे खा

उनका तथा उनके परू े पररवे श का चचत्रण बहुत ही सजगता के साथ ककया | ये सब

ववशेषताएं रे णु जी को एक श्रेष्ट्ठ मौलिक कथाकार के रूप में प्रततन्ष्ट्ठत करती हैं | तनमणि

वमाण ने ‘मैिा अंचि’ तथा ‘परती पररकथा’ को नई हदशा हदखाने वािा उपन्यास कहा है–

‘मैिा आाँचि’ और ‘परती पररकथा’ महज उत्कृष्ट्ट आंचलिक उपन्यास नहीं है, वे िारतीय

साहहत्य में पहिे उपन्यास हैं न्जन्होंने अपने ढं ग से खझझकते हुए िारतीय उपन्यास को एक

नई हदशा हदखाई थी | जो यथाथणवादी उपन्यास के ढााँचे से त्रबल्कुि लिन्न थी|”12 इस तरह

रे णु ने िारतीय उपन्यास की अपनी खास स्वायत्तता की पहचान कराकर आगे आने वािे

िेखकों को प्रेरणा दी है | ग्रामीण यथाथण को आधार बनाकर उपन्यास पहिे लिखे गए थे

परन्तु ‘मैिा आंचि’ की नवीनता और सज


ृ नात्मक क्षमता नये दृन्ष्ट्टकोण उत्पन्न करती है |

2.3 – 20व ं शताब्दी के अन्य आंचलिक उपन्यास -

फणीश्वर नाथ रे णु के ‘मैिा आंचि’ से न्जस आंचलिक उपन्यास धारा

का प्रवतणन माना जाता है , उसके बाद आंचलिक उपन्यास िेखन ् की सुदीघण परम्परा हदखाई

पड़ती है | अनेक आंचलिक उपन्यास िेखकों ने अपने आंचलिक उपन्यासों के माध्यम से

ककसी ववलशष्ट्ट अंचि का चचत्रण ककया है | नागाजुन


ण के ‘बाबा बटे सर नाथ’ (1954) में

ककसान और जमींदार के संघषण की ऐततहालसक पष्ट्ृ ठिूलम प्रस्तुत हुई है | उदयशंकर िट्ट के

सागर, िहरें और मनुष्ट्य (1956) में बरसोवा गााँव का चचत्रण है | वििर ठाकुर का

मक्
ु ताविी (1955), अमत
ृ िाि नगर के ‘सेठ बांकेमि’ तथा ‘बद
ंू और समर
ु ’ इसी परम्परा

के उपन्यास हैं | नागाजुन


ण के ‘द:ु खमोचन’ तथा ‘वरुणा के बेटे’ तथा रांगेय राघव का
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‘कबतक पुकारूाँ’ (1957), उपेन्र नाथ अश्क के ‘पत्थर अि पत्थर’, उदयशंकर िट्ट का ‘िोक

परिोक’ (1958), वििर ठाकुर का ‘आहदत्यनाथ’ (1958) ‘नेपाि की बेटी’ (1959),

‘दे वताओं के दे श’ (1959) | िैरव प्रसाद गुतत एक प्रमुख आंचलिक उपन्यासकार है, इनका

उपन्यास ‘सती मैया का चौरा’ (1959) उत्तर प्रदे श के गााँव वपयरी पर आधाररत वह
ृ द

उपन्यास है | राजेंर अवस्थी का ‘सूरज ककरण की छांव’ (1959), शैिेश महटयानी का

‘कबूतरखाना’ (1959) इस काि के उल्िेखनीय उपन्यास रहे हैं | जयप्रकाश िरती के ‘कोहरे

में खोये चांदी के पहाड़’ में जौनसार बाबर अंचि है | राजेंर अवस्थी के ‘जंगि के फूि’

(1960) में बस्तर न्जिे के तनवालसयों का जन-जीवन शैिेश महटयानी के हौिदार (1960)

नागाजुन
ण के ‘कुम्िी पाक’ (1960), लशवसागर लमश्र के ‘दब
ू जनम आई’ (1960) तथा

उदयशंकर िट्ट का ‘शेष-अशेष’ (1960) के आंचलिक उपन्यास है |

रामदरश लमश्र का ‘पानी के प्राचीर’ (1960) हहमांशु का ‘नदी कफर बह

चिी’ , शैिेश महटयानी के ‘चचट्ठी रसैन’(1961) चौथी मट्ठ


ु ी (1952), मनहर चौहान का

‘हहरना सांवरी’ (1962) योगेन्र नाथ लसन्हा का ‘वन के मन में ’ (1962), नागाजुन
ण का

‘हीरक जयंती’ (1962), उग्रतारा (1963) श्याम परमार का ‘मोरझि’ उपन्यास तथा िैरव

प्रसाद गुतत का ‘धरती’ (1964) उत्कृष्ट्ट आंचलिक उपन्यास हैं | हहमांशु जोशी का ‘बरु ं श तो

फूिते है’ (1965), सुरेन्र पाि के ‘िोक िाज खोई’ (1966) | राही मासूम रजा का ‘आधा

गााँव’ (1966) एक महत्वपूणण आंचलिक उपन्यास है जो गंगौिी गााँव की कथा कहता है |

लशवप्रसाद लसंह के ‘अिग-अिग वैतरणी’ (1967) िैरव प्रसाद गुतत का ‘गंगा मैया’ (1967)

राही मासम
ू रजा का ‘टोपी शक्
ु िा’ (1968) नागाजन
ुण का ‘इमरततया’ (1968), श्रीिािशक्
ु ि

के ‘रागदरबारी’ (1968) में लशवपाि गंज की न्जंदगी अलिव्यक्त है | रामकुमार भ्रमर का

‘तीसरा पत्थर’ (1969). मधक


ु र का ‘सब
ु ह होने तक’, राजेंर अवस्थी का ‘जाने ककतनी

ऑ ंखें ’, रामदरश लमश्र के ‘जि टूटा हुआ’ (1969) में बदिते ग्राम का चचत्रण है | नागाजन
ुण
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का ‘जमतनया के बाबा’ (1969) लशवशंकर शक्


ु ि का ‘मोंगरा’ (1970), वविास त्रबहारी का

‘अकाि परु
ु ष’(1971), प्रकाशवती का ‘अनामा’(1971), अलिमन्यु अनंत का ‘एक बीघा तयार’,

जगदीश चन्र का ‘धरती धन न अपना’ (1972), नरें र दे व वमाण का ‘सुबह की तिाश’

(1972), िगवती प्रसाद गतु त का ‘खारे जि का गााँव’(1973), शैिेश महटयानी का

‘जितरं ग’.(1973), श्रीिाि शक्


ु ि का ‘सीमाएाँ टूटती है’(1973) योगेश कुमार का ‘टूटते

त्रबखरते िोग’(1974), लशवप्रसाद लसंह का ‘गिी आगे मुड़ती है’,(1974), कामतानाथ का

‘समर
ु तट पर खुिने वािी खखड़की’(1975), मधक
ु र लसंह का ‘सोनिर की राधा’(1976),

गोववन्द लमश्र का ‘िाि पीिी जमीन’(1976) जगदीश चन्र का ‘किी न छोड़े खेत’ (1976)

जैसे आंचलिक उपन्यास है |

अलिमन्यु अनंत का ‘िाि पसीना’(1977) मारीशस की पष्ट्ृ ठ िूलम पर

लिखा हुआ आंचलिक उपन्यास है | इन्ही का ‘मुड़ड़या पहाड़ बोि उठा’ (1977) में प्रकलशत

हुआ | वववेकी राय के ‘िोक ऋण’ (1977), ‘बबि


ू ’(1964), ‘परु
ु ष परु ाण’ (1975), ‘श्वेत

पत्र’(1979), सोनामाटी (1983) समर शेष है (1988) मंगि िवन (1994) नमालम ग्रामम ्

(1996) तथा अमंगिहारी (2000) प्रमख


ु आंचलिक उपन्यास हैं | केशव प्रसाद लमश्र का

‘कोहबर की शतण’ (1965), दे वेन्र सत्याथी का ‘रथ के पहहये’ (1953), हर गुिाि का ‘िीतरी

कुआाँ’ (1974), शैिेश महटयानी का ‘कबूतर खाना’ , शानी का ‘कािा जि’ (1965), साि

वनों का }hप (1967), योगेन्र लसन्हा, ‘वन के मन में ’ (1962) , हहमांशु जोशी ‘कगार की

आग’(1975), यमुना दत्त वैष्ट्णव का ‘शैिवध’ू (1959),राम दे व शक्


ु ि का ‘ग्राम दे वता’

(1982) और ‘ववकल्प’ (1986) िगवान दास मोरवाि का ‘कािा पहाड़’ (1999) रामदरश

लमश्र के ‘आकाश की छत’ (1979), ‘बीच का समय’ (1970), ‘सख


ू ता हुआ तािाब’ (1972)

‘अपने िोग’ (1976), ‘रात का सफर’ (1976) ‘त्रबना दरवाजे का मकान’ (1984), ‘दस
ू रा

घर’ (1986), ‘बीस बरस’ (1996), ‘थकी हुई सुबह’ (1999) महत्वपूणण आंचलिक उपन्यास
45

हैं| माकणण्डेय का ‘अन्ननबीज’ (1981) लमचथिेश्वर का ‘झुतनया’ ,युद्धस्थि (1981), ‘प्रेम न

बाड़ी उपजै’, ‘यह अन्त नहीं’ प्रमख


ु आंचलिक उपन्यास हैं | राकेश वत्स का ‘जंगि के आस

पास’ (1982) वपछड़े ग्रामों का चचत्र प्रस्तुत करता है |

ठाकुर प्रसाद लसंह का ‘सात घरों का गााँव’ , डा० सूयद


ण ीन यादव का

‘दस
ू रा आाँचि’ (1991), ‘मााँ का आंचि’ (1992), पंकज ववष्ट्ट ‘उस चचड़ड़या का नाम’

(1989), नालसरा शमाण का ‘ठीकरे की मंगनी’ (1989) अब्दि


ु त्रबन्स्मल्िाह का ‘ज़हरबाद’

(1990) वीरे न्र जैन ‘डूब’ (1991), क्षक्षततज शमाण का ‘उकाव’ (1992), लशवप्रसाद लसंह का

‘औरत’ (1992) मैत्रेयी पुष्ट्पा का ‘बेतवा बहती रही’ (1993), ‘झूिानट’ (1999), ‘इदन्नम’

(1994), ‘चाक’ (1997), वीरे न्र जैन का ‘पार’ (1994), ‘पंचनामा’ (1996) | अब्दि

त्रबन्स्मल्िाह के ‘मुखड़ा क्या दे खें’ (1996) में चूड़ड़हारों के जीवन की दयनीय न्स्थतत

अलिव्यन्क्त हुई है | ज्ञान चतुवेदी का ‘बारामासी’ (1999) संजीव के ‘जंगि जहााँ शरू
ु होता

है’ (2000) में सामान्य िोगों का चचत्रण प्रस्तत


ु हुआ है | रूप लसंह चंदेि के ‘पाथर

टीिा’(1998) की कथा कानपुर के एक गााँव से सम्बन्न्धत है |

तनष्ट्कषणत: फणीश्वरनाथ रे णु ने ‘मैिा आंचि’ उपन्यास के माध्यम से

आंचलिकता का जो मुहावरा गढ़ा उसकी समद्ध


ृ तम परम्परा रे णु के बाद के आंचलिक

उपन्यासकारों में हदखाई दे ती है | वे उपन्यास िेखक जो ककसी ववलशष्ट्ट अंचि या वपछड़े

इिाकों के जन जीवन को चचत्रत्रत करने की इच्छा रखते हैं वे आंचलिकता के तत्वों को

ग्रहण करके ही यथाथणपरक चचत्रण कर सकते हैं | इस अवधारणा को रे णु ने ‘मैिा आंचि’

के माध्यम से पुष्ट्ट ककया | य|वप रे णु जी ने ही आंचलिक उपन्यास की परम्परा का प्रवतणन

ककया परन्तु इनसे पव


ू ण िी ववलशष्ट्ट अंचि से सम्बन्न्धत उपन्यास लिखे गए ििे ही उनका

नामकरण आंचलिक न हो | रे णु के बाद िी आंचलिक उपन्यास िेखन की सुदृढ़ परम्परा


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वव|मान है | डा० इंहदरा जोशी के अनुसार– “जब युगों के हमारे साथी ये पशु-पक्षी, ये सारस

और शक
ु -साररकाएाँ, ये कपोत यनु म, ये मग
ृ -छौने, ये हंसों के उड़ते हुए दि नहीं बदिे, जब

ये शरद प्रफुन्ल्ित आकाश, ये सतरं गी इन्रधनुष की आिा, ये नीरद, ये राका – रजतनयााँ

नहीं बदिीं, तो हम ही क्यों बदिें ? इसी ववचार ने हमारे आधतु नक उपन्यासकारों को पन


ु :-

पुन: अपने चचरं तन प्राकृततक एवं ग्रामीण अंचि की ओर प्रवत्ृ त ककया है|”12 इस प्रकार

फणीश्वरनाथ रे णु के बाद िी ववलशष्ट्ट अंचि या क्षेत्र को आधार बनाकर आंचलिक उपन्यास

िेखन की सुदीघण परम्परा वव|मान रही है | इन आंचलिक उपन्यासकारों ने अंचि की

ववलशष्ट्टताओं को उजागर करने में अपना महत्वपूणण योगदान हदया है |


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संदभभ सूच

1. डॉ० इंहदरा जोशी : हहन्दी आंचलिक उपन्यास,

उद्िव और ववकास,
. पष्ट्ृ ठ – 145

2. डॉ० परदे शी, डॉ० दे वरे , डॉ० मािी : जि टूटता हुआ

एक अनश
ु ीिन, पष्ट्ृ ठ – 143

3. डॉ० उषा डोगरा : हहन्दी के आंचलिक उपन्यासों का

िोकतान्त्वक ववमशण, पष्ट्ृ ठ – 65

4. कुमार सवेश : हहन्दी साहहत्य का इततहास, पष्ट्ृ ठ – 387

5. संपा. परमानन्द श्रीवास्तव : मैिा आंचि पुनपाणठ / पुनमल्


ूण यांकन, पष्ट्ृ ठ – 7

6. वही, पष्ट्ृ ठ – 7

7. फणीश्वरनाथ रे णु : मैिा आंचि, पष्ट्ृ ठ –िूलमका

8. वही, पष्ट्ृ ठ -िलू मका

9. कुमार सवेश : हहन्दी साहहत्य का इततहास, पष्ट्ृ ठ – 387

10. रामचन्र ततवारी : हहन्दी का गध साहहत्य, पष्ट्ृ ठ – 896

11. वही, पष्ट्ृ ठ – 896

12. संपा. परमानन्द श्रीवास्तव : मैिा आंचि

पुनपाणठ / पुनमल्
ूण यांकन, पष्ट्ृ ठ – 42

13. डॉ० इंहदरा जोशी : हहन्दी के आंचलिक उपन्यास

उद्िव और ववकास,
. पष्ट्ृ ठ – 148

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