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राष्ट्र अलिमान के साथ-साथ प्रान्त, प्रदे श एवं जन्मिूलम के ववलिन्न पहिुओं पर ध्यान
माध्यम से ककसी ववलशष्ट्ट अंचि के चचत्रण की परम्परा अपने ववकलसत अवस्था में है |
अंचि के िोक संस्कृतत, जन-जीवन, िाषा, रहन-सहन, तथा उन्मुक्त पररवेश का चचत्रण
आंचलिक उपन्यासों में होता रहा है | आंचलिक उपन्यासों में सम्पूणण अंचि अपनी स्वतंत्र
चेतना के साथ मुखररत होता है | स्वतंत्रता प्रान्तत के बाद राजनीततज्ञों का ध्यान गााँवों तथा
वपछड़े इिाकों की तरफ गया | केन्रीय तथा राज्य सरकारें ववलिन्न योजनाओं के माध्यम
होकर साहहत्यकार िी उन अंचिों के चचत्रण में िग गए जो ककसी न ककसी रूप में ववलशष्ट्ट
रहे हों, “िारतीय प्रबुद्ध वगण में स्वदे शी की ममता और ग्रामों में बसने वािी बहुसंख्यक
जनता के प्रतत सहानिूतत एवं आत्मीयता की िहर उठी | इसी काि में पाश्चात्य प्रिावों से
मुक्त नगरीय जीवन एवं उसकी चचत्र-ववचचत्र िोक सांस्कृततक झााँककयो की कथात्मक
जा सकते हैं | न्जससे ककसी ना ककसी रूप में आंचलिकता के दशणन होते हैं | सवणप्रथम
िव
ु नेश्वर लमश्र }kरा लिखखत उपन्यास ‘घराऊ घटना’ (1893) तथा ‘बिवंत िलू महार’ (1896)
में आंचलिक उपन्यासों के िक्षण लमिते हैं | इसके बाद जगन्नाथ प्रसाद चतुवेदी के ‘बसंत
मािती’ (1899) तथा अयोध्या लसंह उपध्याय हररऔध का ‘अधखखिा फूि’ (1907), गोपाि
राम गहमरी का ‘िोजपुरी का ठग’ (1903), रामजी लसंह का ‘वन ववहंचगनी’ (1909) तथा
ब्रजनंदन सहाय का ‘अरण्य बेिा’ उपन्यास प्रकालशत हुआ | मन्नन f}वेदी के ‘रामिाि’
(1914), लशव पूजन सहाय के ‘दे हाती दतु नया’ (1926), लसयाराम शरण गुतत के ‘गोंद’ तथा
सूयक
ण ान्त त्रत्रपाठी तनरािा के ‘कुल्िीिाट’ और ‘त्रबल्िेसुर बकररहा’ में आंचलिकता का स्पष्ट्ट
उपन्यास ‘दे हाती दतु नया’ तथा डा० सत्यपाि चुघ इस प्रवन्ृ त्त का आरम्ि सूयक
ण ान्त त्रपाठी
िक्षण साहहत्य में िी पररिक्षक्षत होने िगे | ग्रामीण तथा वपछड़े इिाकों का चचत्रण
आंचलिक उपन्यासों के माध्यम से सघनता के साथ होने िगा | राष्ट्र जीवन में राष्ट्रीय
िावना के ववकास तथा जन जागतृ त तथा नवचेतना को व्यापक आयाम दे ने के लिए िेखकों
चचत्रत्रत करने के लिए आंचलिक जीवन को सामने िे आना आवश्यक था | अत: ग्रामीण
स्वािाववक ववकास का अवसर उत्पन्न हुआ|3 श्री उपेन्र नाथ अश्क का ‘चगरती दीवारें ’
(1947) में िाहौर के जन जीवन का चचत्रण है | श्री बिवंत लसंह के ‘रात चोर और चााँद’
बिचनामा (1952), ‘नयी पौध’ (1953) ग्रामीण आाँचि का प्रतततनचधत्व करते हैं | आंचलिक
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उपन्यासों की शरु
ु आत नागाजन
ुण के उपन्यास ‘विचनमा’ (1952) से होती है|
उपन्यास के क्षेत्र में एक नई परम्परा के सूत्रधार के रूप में जाना जाता है, “मैिा आंचि के
आवरण पष्ट्ृ ठ पर एक आिोचक की सहमतत छपी है | प्रेमचंद की परम्परा में दशकों बाद
यह पहिा उपन्यास लिखा गया है |”5 अथाणत रे णु ने हहन्दी उपन्यास के क्षेत्र में ववलशष्ट्ट
अंचि के िोक संस्कृतत को समग्रता के साथ चचत्रण करते हुए एक नया दृन्ष्ट्टकोण हदया,
“प्रेमचंद ने बनारस न्जिे के गााँवों को िेकर ढे रों कहातनयां और उपन्यास लिखे | कफर िी
उनकी रचनाएाँ पढ़ने पर सहसा यह बोध नहीं होता कक हम हहन्दी िाषी प्रदे श के ककसी
अंचि ववशेष के बारे में पढ़ रहे हैं | उनके पात्रों में आंचलिकता से अचधक समेककत िारतीय
यहााँ के ककसानों के बारे में लिखा है | उनकी बोिी – बानी में इतना ही संदेहपन रहता है
संस्कृतत का चचत्रण करने का प्रयत्न प्रेमचंद में नहीं है|”6 इसके ववपरीत फणीश्वर नाथ रे णु
ने स्वतंत्रता के बाद बदिे पररवेश में जब राजनीततज्ञों का ध्यान ववलिन्न अंचिों के वपछड़े
एवं तनतांत वपछड़े इिाकों का चचत्रण करके उपन्यास िेखन के क्षेत्र में एक नयी हदशा प्रदान
की | उनका ‘मैिा आंचि’ उपन्यास सन ् 1954 ई० में प्रकालशत होता है | इन्होने ‘मैिा
उपन्यास एक ववलशष्ट्ट अंचि को िेकर लिखा गया है तथा इसमें अनेक तरह कक
इसके एक ओर है नेपाि दस
ू री ओर पाककस्तान और पन्श्चम बंगाि | ववलिन्न सीमा रे खाओं
से इसकी बनावट मुकम्मि हो जाती है, जब हम दन्क्खन में संथाि परगना और पन्च्छम में
लमचथिा की सीमा रे खाएाँ खींच दे ते हैं | मैंने इसके एक हहस्से के एक ही गााँव को वपछड़े
गााँवों का प्रतीक मानकर इस उपन्यास का कथा क्षेत्र बनाया हैं | इसमें फूि िी है शि
ू िी,
धूि िी है , गुिाब िी, कीचड़ िी हैं चन्दन िी, सुंदरता िी है, कुरूपता िी- मैं ककसी से
मुहावरे के रूप में ढािा | उन्होंने अंचि की तमाम बुराइयों एवं अच्छाइयों को एक साथ
िाने का प्रयास ककया है , “मैिा आंचि में आंचलिकता के तत्व मौजूद हैं | इसमें रे णु ने
न्जसे नायकत्व प्रदान ककया है , न्जस आत्मीयता के साथ एक अंचि के समग्र जीवन को
के पूवण अनुपिब्ध रहा वरन वह आत्मीयता उनके बाद के आंचलिक उपन्यासकारों के यहााँ
िी नहीं लमिती है | प्रेम चन्र का न्स्थर गााँव रे णु तक आते-आते गततशीि हो चुका है|”9
रे णु ने ‘मैिा आंचि’ के माध्यम से ककसी ववलशष्ट्ट अंचि के चचत्रण में परम्परा एवं
आधुतनकता दोनों का समावेश ककया | तनश्चय ही यह उपन्यास अपनी रचना दृन्ष्ट्ट एवं
में न्जस अंचि का चचत्रण ककया जाता है , उसकी स्थानीयता बहुत ही महत्वपण
ू ण होती है |
आंचि’ में वखणणत में रीगंज एक ववलशष्ट्ट रूप में पाठक के सामने आता है न्जसमें हर जगह
लमिने वािी कुछ साधारण ववशेषताओं के साथ-साथ कुछ ऐसे ववशेष तथ्य हैं, जो पाठक को
अपने या ककसी िी दस
ू रे गााँव में नहीं लमिती | स्थानीयता की इस प्रवन्ृ त्त के अंतर के
कारण ही प्रेमचंद के ‘गोदान’ की कथा अपने स्थान का अततिमण करके िारत के ककसी िी
गााँव की प्रतततनचध कथा बन जाती है जबकक ‘मैिा आंचि’ की कथा कुछ समान होने के
जाता है कक इस प्रकार का पररवेश एवं समाज ग्रामीण व वपछड़े क्षेत्रों में ही लमि सकता है
| इसलिए आंचलिक उपन्यास स्वािाववक रूप से ग्राम केंहरत होना चाहहए | फणीश्वरनाथ
अचधक ध्यान न दे कर उसकी समग्रता पर अचधक ध्यान हदया जाता है | इसमें गेहूं और
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गुिाब एक दस
ू रे के शत्रु नहीं बन्ल्क जीवन के दो पक्ष माने जाते हैं | यही न्स्थतत ‘मैिा
में है | मेरीगंज नायक के रूप में उिरा है, तथा उपन्यास में अंचि के िौगोलिक,
(1957) ई0, ‘पिटू बाबू रोड’ (1959-60), ‘दीघणतपा’ तथा किंक मुक्त’ 1972, जुिूस
परम्परा का प्रवतणन ककया | इनके सारे उपन्यास ककसी न ककसी ववलशष्ट्ट अंचि की कथा
तोड़कर एक मौलिक और नवीन दृन्ष्ट्टकोण संपन्न िेखक के रूप में जाना जाता है |
दृन्ष्ट्टकोण से रे खांककत ककया जा सकता है | इस बारे में लसफण इतना ही कह सकता हूाँ कक
उपन्यास जगत में इस धारा का प्रयोग मैंने ही पहिी बार ककया है|”10 रे णु जी का उपन्यास
कराया न्जससे कक वे अत्यन्त वपछड़े एवं उपेक्षक्षत क्षेत्रों को उजागर कर सकें | “रे णु
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तरह रे णु प्रेमचंद के बाद तनववणवाद रूप से उच्चकोहट के उपन्यासकार माने जाते हैं | उनहोंने
त्रबहार के अत्यंत वपछड़े हुए अंचि के शोवषत पीड़ड़त तथा उपेक्षक्षत न्जस जनता को दे खा
उनका तथा उनके परू े पररवे श का चचत्रण बहुत ही सजगता के साथ ककया | ये सब
ववशेषताएं रे णु जी को एक श्रेष्ट्ठ मौलिक कथाकार के रूप में प्रततन्ष्ट्ठत करती हैं | तनमणि
वमाण ने ‘मैिा अंचि’ तथा ‘परती पररकथा’ को नई हदशा हदखाने वािा उपन्यास कहा है–
‘मैिा आाँचि’ और ‘परती पररकथा’ महज उत्कृष्ट्ट आंचलिक उपन्यास नहीं है, वे िारतीय
साहहत्य में पहिे उपन्यास हैं न्जन्होंने अपने ढं ग से खझझकते हुए िारतीय उपन्यास को एक
रे णु ने िारतीय उपन्यास की अपनी खास स्वायत्तता की पहचान कराकर आगे आने वािे
का प्रवतणन माना जाता है , उसके बाद आंचलिक उपन्यास िेखन ् की सुदीघण परम्परा हदखाई
ककसान और जमींदार के संघषण की ऐततहालसक पष्ट्ृ ठिूलम प्रस्तुत हुई है | उदयशंकर िट्ट के
सागर, िहरें और मनुष्ट्य (1956) में बरसोवा गााँव का चचत्रण है | वििर ठाकुर का
मक्
ु ताविी (1955), अमत
ृ िाि नगर के ‘सेठ बांकेमि’ तथा ‘बद
ंू और समर
ु ’ इसी परम्परा
‘कबतक पुकारूाँ’ (1957), उपेन्र नाथ अश्क के ‘पत्थर अि पत्थर’, उदयशंकर िट्ट का ‘िोक
‘दे वताओं के दे श’ (1959) | िैरव प्रसाद गुतत एक प्रमुख आंचलिक उपन्यासकार है, इनका
उपन्यास ‘सती मैया का चौरा’ (1959) उत्तर प्रदे श के गााँव वपयरी पर आधाररत वह
ृ द
‘कबूतरखाना’ (1959) इस काि के उल्िेखनीय उपन्यास रहे हैं | जयप्रकाश िरती के ‘कोहरे
में खोये चांदी के पहाड़’ में जौनसार बाबर अंचि है | राजेंर अवस्थी के ‘जंगि के फूि’
(1960) में बस्तर न्जिे के तनवालसयों का जन-जीवन शैिेश महटयानी के हौिदार (1960)
नागाजुन
ण के ‘कुम्िी पाक’ (1960), लशवसागर लमश्र के ‘दब
ू जनम आई’ (1960) तथा
‘हहरना सांवरी’ (1962) योगेन्र नाथ लसन्हा का ‘वन के मन में ’ (1962), नागाजुन
ण का
‘हीरक जयंती’ (1962), उग्रतारा (1963) श्याम परमार का ‘मोरझि’ उपन्यास तथा िैरव
प्रसाद गुतत का ‘धरती’ (1964) उत्कृष्ट्ट आंचलिक उपन्यास हैं | हहमांशु जोशी का ‘बरु ं श तो
फूिते है’ (1965), सुरेन्र पाि के ‘िोक िाज खोई’ (1966) | राही मासूम रजा का ‘आधा
लशवप्रसाद लसंह के ‘अिग-अिग वैतरणी’ (1967) िैरव प्रसाद गुतत का ‘गंगा मैया’ (1967)
राही मासम
ू रजा का ‘टोपी शक्
ु िा’ (1968) नागाजन
ुण का ‘इमरततया’ (1968), श्रीिािशक्
ु ि
ऑ ंखें ’, रामदरश लमश्र के ‘जि टूटा हुआ’ (1969) में बदिते ग्राम का चचत्रण है | नागाजन
ुण
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‘अकाि परु
ु ष’(1971), प्रकाशवती का ‘अनामा’(1971), अलिमन्यु अनंत का ‘एक बीघा तयार’,
‘समर
ु तट पर खुिने वािी खखड़की’(1975), मधक
ु र लसंह का ‘सोनिर की राधा’(1976),
गोववन्द लमश्र का ‘िाि पीिी जमीन’(1976) जगदीश चन्र का ‘किी न छोड़े खेत’ (1976)
लिखा हुआ आंचलिक उपन्यास है | इन्ही का ‘मुड़ड़या पहाड़ बोि उठा’ (1977) में प्रकलशत
पत्र’(1979), सोनामाटी (1983) समर शेष है (1988) मंगि िवन (1994) नमालम ग्रामम ्
‘कोहबर की शतण’ (1965), दे वेन्र सत्याथी का ‘रथ के पहहये’ (1953), हर गुिाि का ‘िीतरी
कुआाँ’ (1974), शैिेश महटयानी का ‘कबूतर खाना’ , शानी का ‘कािा जि’ (1965), साि
वनों का }hप (1967), योगेन्र लसन्हा, ‘वन के मन में ’ (1962) , हहमांशु जोशी ‘कगार की
(1982) और ‘ववकल्प’ (1986) िगवान दास मोरवाि का ‘कािा पहाड़’ (1999) रामदरश
‘अपने िोग’ (1976), ‘रात का सफर’ (1976) ‘त्रबना दरवाजे का मकान’ (1984), ‘दस
ू रा
घर’ (1986), ‘बीस बरस’ (1996), ‘थकी हुई सुबह’ (1999) महत्वपूणण आंचलिक उपन्यास
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‘दस
ू रा आाँचि’ (1991), ‘मााँ का आंचि’ (1992), पंकज ववष्ट्ट ‘उस चचड़ड़या का नाम’
(1990) वीरे न्र जैन ‘डूब’ (1991), क्षक्षततज शमाण का ‘उकाव’ (1992), लशवप्रसाद लसंह का
‘औरत’ (1992) मैत्रेयी पुष्ट्पा का ‘बेतवा बहती रही’ (1993), ‘झूिानट’ (1999), ‘इदन्नम’
(1994), ‘चाक’ (1997), वीरे न्र जैन का ‘पार’ (1994), ‘पंचनामा’ (1996) | अब्दि
ु
त्रबन्स्मल्िाह के ‘मुखड़ा क्या दे खें’ (1996) में चूड़ड़हारों के जीवन की दयनीय न्स्थतत
अलिव्यन्क्त हुई है | ज्ञान चतुवेदी का ‘बारामासी’ (1999) संजीव के ‘जंगि जहााँ शरू
ु होता
वव|मान है | डा० इंहदरा जोशी के अनुसार– “जब युगों के हमारे साथी ये पशु-पक्षी, ये सारस
और शक
ु -साररकाएाँ, ये कपोत यनु म, ये मग
ृ -छौने, ये हंसों के उड़ते हुए दि नहीं बदिे, जब
पुन: अपने चचरं तन प्राकृततक एवं ग्रामीण अंचि की ओर प्रवत्ृ त ककया है|”12 इस प्रकार
संदभभ सूच
उद्िव और ववकास,
. पष्ट्ृ ठ – 145
एक अनश
ु ीिन, पष्ट्ृ ठ – 143
6. वही, पष्ट्ृ ठ – 7
पुनपाणठ / पुनमल्
ूण यांकन, पष्ट्ृ ठ – 42
उद्िव और ववकास,
. पष्ट्ृ ठ – 148