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भारतीय कथा-साहित्य और पञ्चतन्त्र

– सुिाहसनी
1. संस्कृ त कथा-साहित्य के दो भेद –
I. लोककथा (Folk Tales) – मनोरञ्जनमूलक
II. नीहतकथा (पशुकथा) (Didactic Tales) – उपदेशमूलक
2. भारतीय वाङ्मय में कथा की प्राचीनता –
• ऋग्वेद के संवाद सूक्त – पुरूरवा-उववशी संवाद, हवश्वाहमर-नदी संवाद, सरमापहि-संवाद
• बृिद्देवता में देवताओं से सम्बद्ध कथा
• यास्क के हनरुक्त में ‘अरेहतिासमाचक्षते’ इस वचन द्वारा ऐहतिाहसक कथाओं का उद्धरि
• उपहनषदों में यम-नहचके ता, सत्यकामजबाल, रैक्वादद की कथा तथा जीवजन्त्तुओं से सम्बद्ध
कथाएँ
• रामायि
• मिाभारत आख्यानों और कथाओं का मिाकोश िै
• पुरािों की कथाएँ
• बौद्ध जातक कथाएँ
3. लोककथाएँ –
• हवशुद्धमनोरञ्जन प्रधान अद्भुत घटनाओं से युक्त कथाएँ
• मुख्य स्रोत गुिाढ्य की बृित्कथा िै जो दक ४००ई.पू. में पैशाची भाषा में हलखी गयी थी
और अभी अप्राप्त िै इसकी तीन वाचनाएँ प्राप्त िोती िैं –
I. नेपाली वाचना – बुधस्वामी कृ त बृित्कथाश्लोक संग्रि
II. प्राकृ तवाचना – संघदासगहिकृ त वसुदेवहिण्डी
III. कश्मीरी वाचना – क्षेमेन्त्रकृ त बृित्कथामञ्जरी तथा सोमदेवकृ त कथासररत्सागर
• अन्त्य लोककथाएँ – वेतालपञ्चववंशहत, वसंिासनद्वावरंहशका (द्वावरंशत्पुत्तहलका या हवक्रमचररत),
शुकसप्तहत, पुरुषपरीक्षा आदद
4. नीहतकथा –
I. नीहत का अथव – िीञ् (नी) प्रापिे (root verb) + हक्तन् (suffix) – to lead, to reach ,
to direct (meaning of verb) नीहत का अथव – हनदेशन, आचारि , व्यविार आदद
II. नीहतकथा का प्रहतपाद्य –
नीहत कथाओं का मुख्य उद्देश्य सामान्त्य जन को व्यविाररक जीवन की हशक्षा देना िै। इनमें प्रायः
पशु-पहक्षयों से सम्बद्ध रोचक कथाएँ िै और प्रत्येक कथा जीवन के हलये एक हवशेष हशक्षा प्रदान
करती िै। पशु–पहक्षयों की प्रधानता के कारि इन कथाओं का एक नाम ‘पशुकथा’ वस्तुतः नीहतशास्रों
के उपदेशों को यिाँ कथाओं के माध्यम से रोचक रूप में सववजन संवेद्य बनाकर प्रस्तुत दकया गया िै।
पारों के रूप में पशु पहक्षयों के चयन का उद्देश्य यि िै दक यदद पशु पहक्षयों में वैसी बुहद्धमता, सदाचार
करुिा आदद देखी जाती िै तो हववेक सम्पन्न तथा सववहवध संसाधनों से युक्त मनुष्य को अवश्य िी
जीवन में यथोहचत आचरि करना चाहिये ।
III. नीहतकथा का स्रोत – िमने जाना दक नीहतकथाओं में पशुप्रधानता िै। नीहतकथाओं की इस
उद्भावना का मूल ऋग्वेद के सरमा-पहि सम्वाद में खोजा जा सकता िै। इसके बाद
उपहनषदों में हवशेषकर छान्त्दोग्योपहनषद् में पशु-पहक्षयों से सम्बद्ध कथाएँ प्राप्त िोती िै जैसे
रैक्व की कथा में िंसों के वातावलाप का प्रसंग, जाबाल का बैलादद से उपदेश प्राप्त करना। पुनः
मिाभारत( मिाभारत के नलोपाख्यान में िंस की भूहमका – वनपवव अध्याय ५३-९७),
रामायि (िनुमान , जामवंत, जटायु आदद) मिाकाव्य में भी इस प्रकार की कथा आती िै।
IV. नीहतकथा हवषयक मुख्य ग्रन्त्थ –(i)पञ्चतन्त्र तथा (ii) हितोपदेश
V. मित्त्व और हवशेषता – #भाषा की सरलता
# सुकुमारमहत बालकों को सुकुमार मागव से जीवन की हशक्षा प्रदान
करती िै।
# व्यविार और आदशववाद का सामाञ्जस्य सीखाती िै।
#सववजनग्राह्य
# साववभौहमकता
5. पञ्चतन्त्र – यि हवष्िुशमाव द्वारा रहचत नीहतकथा िै। इनका समय प्रायः २००ई॰पू॰ माना जाता िै।
पञ्चतन्त्र के प्रिेता की चािक्य के साथ एकता स्थाहपत करने का प्रयास भी दकया जाता िै क्योंदक
चािक्य का नाम भी हवष्िुशमाव था। दकन्त्तु प्रस्तावना में चािक्य की स्तुहत करने से यि मत खहण्डत
िो जाता िै।
क) पञ्चतन्त्र के संस्करि – पञ्चतन्त्र की सम्प्रहत 5 वाचनाएँ (Recensions) प्राप्त िोती िैं –
I. तन्त्राख्याहयका – प्राचीनतम वाचना (3ooई॰)
II. दाहक्षिात्य – पूिवभर का पञ्चतन्त्र इस पर आधाररत िै। इसे पञ्चाख्यान (1199ई॰) भी किा
जाता िै। पूिवभर नामक जैन साधु द्वारा रहचत
III. उत्तरपहिमी – क्षेमेन्त्र की बृित्कथामञ्जरी (1037ई॰) तथा सोमदेव का
कथासररत्सागर(1070ई॰)
IV. हितोपदेश – बंगाल के नारायि कहव द्वारा रहचत (10-11 शताब्दी के मध्य)
V. पिलवी संस्करि – पञ्चतन्त्र का प्रथम रूपान्त्तर जोदक पिलवी भाषा में िकीम बुजोई ने
दकया था। (531-79ई॰)

ख) पञ्चतन्त्र का हवषय-हवभाग – इसमें पाँच खण्ड (तन्त्र) िैं –

I. हमरभेद – २२ कथाएँ
II. हमरसम्प्राहप्त – ६ कथाएँ
III. काकोलूकीय – १६ कथाएँ
IV. लब्धप्रिाश – ११ कथाएँ
V. अपरीहक्षतकारक – १४ कथाएँ
ग) पञ्चतन्त्र की भूहमका तथा प्रहतपाद्य – कथामुख ने लेखक ने बताया िै दक महिलारोप्य नगर के राजा
अमरशहक्त के तीन मूखव पुरों को कथाओं के माध्यम से नीहत की हशक्षा देना के हलये इन कथाओं का संग्रि
उन्त्िोंने दकया था। हवष्िुशमाव की प्रहतज्ञा बालकों को अल्पसमय में नीहतशास्त्र में हनपुि बनाना था। हितोपदेश
के आरम्भ में किा गया िैं – कथाच्छलेन बालानां बालानां नीहतस्तददि कथ्यते। वस्तुतः कथा के व्याज से
व्यविार कु शलता का हशक्षि कथा का उद्देश्य िै।हवष्िुशमाव ने पञ्चतन्त्र के आरम्भ में नीहतशास्त्रकारों
चािक्यादद की स्तुहत की िै इससे स्पष्ट िै दक नीहत की हशक्षा देना ग्रन्त्थ का उद्देश्य िै। कथामुख में पञ्चतन्त्र
के अध्ययन का फल बताया गया िै –

अधीते य इदं हनत्यं नीहतशास्त्रं शृिोहत च।

न पराभवमाप्नोहत शक्रादहप कदाचन ।।

घ). पञ्चतन्त्र की भाषा तथा संरचना – पञ्चतन्त्र का मुख्य भाग गद्यात्मक िै, कथा गद्य में िै दकन्त्तु किीं किीं
हनष्कषव रूप में पद्य भी िै। कथा से प्राप्त हशक्षा को हनष्कषव को पद्य रूप में रखा गया िै। पञ्चतन्त्र की एक
हवशेषता उसकी भाषाकी सरलता िै। पञ्चतन्त्र का गद्य सरल , प्रायः समासरहित तथा मधुर िै।

च). पञ्चतन्त्र का मित्त्व –

पञ्चतन्त्र दकसी ग्रन्त्थ के वैहश्वक यारा का अहद्वतीय दृष्टान्त्त िै। भारतीय वाङ्मय में हवश्व की सबसे लम्बी यारा
करने वाला ग्रन्त्थ पञ्चतन्त्र िै। भारतीय कथा को अनेक संस्कृ हतयों में पहंचाकर उन्त्िें उनका अहभन्न अंग बनाने
का श्रेय पञ्चतन्त्र को िै। एक हवशेष देशकाल की रचना िोकर भी देशकाल की सीमा को आक्रान्त्त कर समग्र
हवश्व को नीहत तथा व्यविार की हशक्षा देने वाला यि साववभौहमक तथा साववकाहलक ग्रन्त्थ िै। हवहभन्न
संस्कृ हतयों के कहवयों ने अपने कथ्य के अनुसार पंचतन्त्र की कथाओं का प्रयोग दकया। इस हवषय में रूमी का
नाम उल्लेखनीय िै। उन्त्िोंने पञ्चतन्त्र की कथाओं की अध्याहत्मक व्याख्या की। पञ्चतन्त्र की पाँच कथाओं का
उन्त्िोंने अपने मसनवी ए मानवी में साक्षात् प्रयोग दकया िै और उन्त्िें आध्याहत्मक रूप ददया। पञ्चतन्त्र ऐसा
भारतीय ग्रन्त्थ िै हजसके सवावहधक साहिहत्यक अनुवाद तथा रूपान्त्तर हये। 50 भाषाओं में लगभग २००
संस्करि उपलब्ध िैं इनमें से तीन चौथाई संस्करि संस्कृ त से हभन्न भाषा में िै। भारत में िी इसके २५
संस्करि िै। पञ्चतन्त्र के हवदेशी रूपानन्त्तर का प्रारंभ इसके पिलवी ( मध्यकालीन फारसी) रूपान्त्तर से िोता
िै हजसका नाम कलीलः व ददम्नः िै। अरबी जगत् में भी यि इसी नाम से हवख्यात िै। पञ्चतन्त्र के अरबी
संस्करि से इसका यूनानी में अनुवाद हआ। इसी प्रकार हिब्रू, लैरटन, जमवन, स्पेहनश, आदद अन्त्यान्त्य हवदेशी
भाषाओं में इसका रूपान्त्तर हआ। आधुहनक भारतीय भाषाओं में इसका प्रथम रूपान्त्तर कन्नड में हआ हजसे
चालुक्य नरेश जयवसंि के मन्त्री दुगववसंि ने दकया (१०३१ई॰) । मलयालम में कञ्चन नाहम्बयार ने िास्यव्यंग्य
से हमहश्रत इसका एक संस्करि बनाया। इसी प्रकार मराठी, तहमल, गुजराती आदद अन्त्य भारतीय भाषाओं में
भी इसके संस्करि हमलते िैं। इस प्रकार २०० ई॰पू॰ का यि ग्रन्त्थ आज भी उतना िी प्रासंहगक िै।

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