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सुकुल की बीवी: व्यिक्तत्वांतरण, प्रेम और स्त्री-पुरुष


सम्बन्ध की नयी व्यावहािरकता
By दु गार् िसं ह January 30, 2022  1301 0

‘सुकुल की बीवी’ िनराला की चिचर् त कहानी है। यह लखनऊ से प्रकािशत होने वाली पित्रका ‘सुधा’
में 1937 ईस्वी में छपी। इसी नाम से िनराला की कहािनयों का एक संकलन भी छपा था। इस
कहानी का समय ‘कुल्ली भाट’ और िबल्लेसुर बकिरहा के छपने के आसपास ही है।
कहने का आशय यह, िक उस समय तक िनराला सांस्कृितक, सामािजक और िसयासी मसलों पर
एक िनणार्यक और पिरवितर् त िवचार तक पहुँ च रहे थे। मसलन वणर्वाद, जाित, िहं दू -मुिस्लम आिद
:
समस्याओं को अपनी रचनाओं में नये बोध या आधुिनक प्रगितशील बोध के साथ प्रस्तुत कर रहे
थे। ‘सुकुल की बीवी’ कहानी की अंतवर्स्तु में यह सब है। इस कहानी में िनराला कहानी-वाचक भी
हैं और कहानी के पात्र भी।

कहानी यह है िक िनराला के स्कूल के िमत्र सुकुल पड़ोस में रहने वाली ग्रेजुएट छात्रा से प्रेम कर
बैठते हैं। बाद को उसके साथ रहने लगते हैं लेिकन दोनों के िववाह में एक िदक्कत है। सुकुल की
प्रेिमका, बाद में बीवी, ब्राहमण स्त्री के पेट से पैदा हुई है लेिकन पली-बढ़ी है मुसलमान के घर में।
सुकुल चाहते हैं, िक िनराला उसे अपनी बहन बनाकर यह िववाह संपन्न कराएं । िनराला ऐसा ही
करते हैं और सुकुल का िववाह करवाते हैं।
मुख्य कथा बस इतनी है। लेिकन, इतनी सी कथा में िहं दी समाज का यथाथर्, स्त्री की समाज में,
पिरवार में हैिसयत और इसी बहाने 1930 के दशक में िहं दू -मुसलमान समस्या का अंतगुर्ंथन
िनराला करते हैं। और, इन्हीं के बीच से सुकुल, कुंवर और खुद िनराला का व्यिक्तत्वांतरण सामने
आता है।

सुकुल स्कूल के िदनों में चोटीधारी ब्राह्मण युवक थे। साथ ही, िहं दू वादी संस्कृित और िवचार के
मुख्य प्रवक्ता हैं, लेिकन यही सुकुल बाद में खुद के जीवन के िवकास में एक आधुिनक प्रगितशील
मनुष्य और व्यिक्त बनकर उभरते हैं। कुंवर पैदा होती है जरूर ब्राह्मण स्त्री के पेट से, लेिकन वह है
पूरी तरह से मुिस्लम रीित-िरवाज, परंपरा और संस्कृत में पली हुई। बाद में वह भी प्रेम में होकर
बदलती है। सुकुल के मातृिवहीन बच्चे को पालती है और एक आधुिनक स्त्री के रूप में उभरती
है।

लेिकन यह आधुिनकता नयी नागिरकता के साथ है। िनराला दोनों को उनकी धािमर् क पहचान से
बाहर िनकालकर नयी पहचान दे ते हैं। यह पहचान आधुिनक, स्वतंत्र और धमर्िनरपेक्ष है। यही
िनराला का पक्ष है। िनराला यहाँ भावी राष्ट्र की पिरकल्पना भी प्रस्तुत कर रहे हैं, जहां वे एक
व्यिक्त, पिरवार के बुिनयादी मूल्यों को स्पष्ट कर दे ते हैं। िनराला अपनी कहानी के माध्यम से उस
बहस में अपना पक्ष रख दे ते हैं, जो 1930 के दशक में चल रही थी।

1929 ईस्वी के पूणर् स्वराज्य के कांग्रेस के प्रस्ताव के बाद से ही भावी राष्ट्र को लेकर कई िवचार
सिक्रय हो गए थे। लेिकन इन सभी में मुख्य टकराहट धािमर् क पहचान के आधार पर राष्ट्र बनाने के
िवचार और आधुिनक, धमर् िनरपेक्ष िवचार के आधार पर राष्ट्र बनाने के बीच थी। राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ, िहं दू महासभा, मुिस्लम लीग आिद जहाँ एक धािमर् क पहचान के आधार पर राष्ट्र
की अपनी पिरकल्पना िलए हुए थे, तो दू सरी तरफ कांग्रेस, िहं दु स्तान सोशिलस्ट िरपिब्लकन
आमीर्, कम्युिनस्ट पाटीर्, अिखल भारतीय िकसान सभा तथा अंबेडकर का संगठन एक आधुिनक,
लोकतांित्रक राष्ट्र की पिरकल्पना िलए हुए थे।

इसमें उदार और क्रांितकारी दोनों धाराएँ थीं। इनके बीच भी आपस में मतभेद थे, लेिकन इन सभी
की टकराहट धमर् आधािरत राष्ट्र की पिरकल्पना के साथ थी। िहन्दी के रचनाकार भी इसमें
अपना पक्ष लेकर रचनारत थे। वे अपनी रचनाओं में, िवचारों में, िनबंधों में इसे व्यक्त कर रहे थे।
:
यहाँ एक बात पर ध्यान स्वाभािवक रूप से जाना चािहए, िक िहं दी का कोई भी बड़ा रचनाकार या
प्रायः रचनाकार धमर् आधािरत राष्ट्र के पक्ष में नहीं थे। बिल्क, उसके मूल्यों से टकराव में था।

िहन्दी रचनाशीलता और कला में भी इस दशक में भारतीय और पाश्चात्य संस्कृित को लेकर एक
द्वन्द्व तो िदखता है, लेिकन इसी के साथ आधुिनक और प्रगितशील िवचार के प्रित सम्बद्धता भी
िदखती है।

भारतीयता और पाश्चात्य के द्वन्द्व में ऐसा नहीं हुआ िक िहन्दू समाज की बुराइयों या वणर्वादी मूल्यों
की तरफ कला और सािहत्य बढ़ा हो! जाित िवभाजन, छूआछूत आिद को लेकर भी िहन्दी
रचनात्मकता मुखर है। प्रेमचंद और िनराला तो इसके दो बड़े उदाहरण हैं।

िहं दी नवजागरण जातीय सुधार से चलकर आधुिनक धमर्िनरपेक्ष लोकतांित्रक और समाजवादी राष्ट्र
की पिरकल्पना से जुड़ता है। इसे हमेशा ध्यान में रखना चािहए। और इस दशक में िनराला के
भीतर जो बदलाव होते हैं, उसे तो जरूर दे खना चािहए क्योंिक 1940 के बाद की िहन्दी
रचनात्मकता की लगभग सभी धाराएं िनराला से प्रभािवत हैं।

कुल िमलाकर िनराला ने िहं दी को व्यापक सामािजक यथाथर् के दायरे से जोड़ा। उसमें स्त्री, दिलत,
वंिचत तबकों के सुख-दु ख व्यक्त हुए। साथ ही, स्वाधीनता और भावी राष्ट्र को लेकर जो िवचार
चल रहे थे, उसमें वे आधुिनक, धमर्िनरपेक्ष मूल्यों के हामी बने। िनजी िरश्ते से लेकर सामािजक
िरश्ते में िनराला उदार, मानवीय मूल्यों को अपनाते हैं। ‘सुकुल की बीवी’ कहानी में भी इसे दे खा जा
सकता है।

‘सुकुल की बीवी’ कहानी का एक पक्ष यह भी है, िक इस कहानी में भी िनराला कुंवर की माँ के
माध्यम से उच्च वणीर्य अमानवीय मूल्यों को उद्घािटत करते हैं। कुंवर के िपता कुंवर की माँ को
त्याग दे ते हैं। वे दू सरी शादी कर लेते हैं। कुंवर की माँ भटकते हुए एक मुसलमान के यहाँ शरण
पाती है। ब्राह्मण स्त्री, ब्राह्मणों के यहाँ शरण नहीं पाती।

यह िनराला बेवजह नहीं लाते। कहानी में इन सब का सीधा संबंध उस दशक की बहसों से है,
िजसमें िहं दू -मुिस्लम धमर् के आधार पर राष्ट्र बनाने की बातें चल रही थीं। और राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ, िहन्दू महासभा का मानना था, िक िहन्दू और मुिस्लम दो राष्ट्र हैं, जो एक साथ नहीं रह
सकते। िनराला की इस कहानी में इसका प्रकारांतर से प्रत्याख्यान ही है।

दू सरे, धमोर्ं के अगुआ सवणर् जाितयों के भीतर, ब्राह्मण जाित या असराफ वगर् के भीतर जो
वणर्वादी िपतृसत्तात्मक मूल्य प्रभावी हैं, वे ही एक धमर् आधािरत राष्ट्र में प्रभावी रहेंगे। कुंवर की माँ
ब्राह्मण पिरवार से िनकाली जाती है और कुंवर मुिस्लम असराफ के घर से िनकल आती है।

िनराला ने सुकुल के स्कूल के जीवन-प्रसंग को भी व्यंग्य का िहस्सा बनाकर इस पर ही चोट की


है। पुरातनपंिथयों और िहं दू वाद की ही िखल्ली उड़ाई है।

“सुकुल का पिरचय आवश्यक है। सुकुल मेरे स्कूल के दोस्त हैं, साथ पढ़े। उन लड़कों में थे
:
िजनका यह िसद्धांत होता है, िक िसर कट जाए चोटी न कटे। सुकुल-जैसे चोटी के एकान्त
उपासकों से चोटी की आध्याित्मक व्याख्या कई बार सुनी थी, पर सग्रिन्थ बालों के बल्ब में
आध्याित्मक इलेिक्ट्रिसटी का प्रकाश न मुझे कभी दे ख पड़ा, न मेरी समझ में आया। फलतः सुकुल
की और मेरी अलग-अलग टोिलयाँ हुई। उनकी टोली में वह िहं दू लड़के थे, जो अपने को धमर् की
रक्षा के िलए आया हुआ समझते थे, मेरी में वे लड़के, जो िमत्र को धमर् से बड़ा मानते हैं, अतः िहं दू ,
मुसलमान, िक्रस्तान सभी।”

यहाँ िनराला की ‘टोली’ से ध्यान में आती है ‘चतुरी चमार’ कहानी। इसमें िनराला अपने घर पर
गोश्त पकाते हैं, िजसमें सब दिलत जाित के लोग आमंित्रत हैं, कुछ उसके पकने की खुश्बू से आप
ही आमंित्रत हो जाते हैं। इस पर िनराला िलखते हैं, िक मेरा घर ‘हाउस ऑफ कॉमन्स’ हो गया।
इससे िनराला के समाज और राष्ट्र सम्बन्धी पिरकल्पना का साकार रूप सामने आता है। खैर

िनराला की ‘टोली’ में बाद में सुकुल भी आ


जाते हैं। सुकुल की िनराला की टोली में आने की यह यात्रा िदलचस्प है। सुकुल एक िक्रस्तानी
कॉलेज में प्रोफ़ेसर बनते हैं। और उसके व्यवहार को िनभाते हैं। इसी दौरान वे मुिस्लम लड़की कुंवर
से प्रेम करते हैं, मुगीर् खाते हैं और अंत में िनराला की मदद से उससे िववाह करते हैं।

सुकुल की बीवी कहानी में आयर् समाज के 1930 के दशक में इस्लाम-िवरोधी या मुिस्लम-िवरोधी
हो जाने का भी िनराला संकेत करते हैं। कुंवर की माँ जब एक मुिस्लम के यहाँ शरण पाती हैं तो
आयर् समाज के लोग उनके पीछे पड़ जाते हैं और पुिलस में सूचना दे ते हैं। इससे उन्हें मुिश्कलें आती
हैं और वे दर-दर भटकती हैं।

कहानी में आयर् समाज की इस भूिमका को िचिन्हत करने के पीछे िनराला की वह चेतना है, िजसमें
वे यह जान जाते हैं, िक भावी राष्ट्र िनमार्ण की गित में बाधक कौन लोग होने वाले थे। आज अगर
दे खा जाए तो आयर् समाज की कोई भी संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से बची नहीं है। लगभग
सभी िहं दू वादी राजनीित के अगुआ बन चुके हैं तथा राष्ट्र के िनमार्ण के लोकतांित्रक मूल्यों, आधारों
के या तो िखलाफ हैं या उसे खत्म करने में सिक्रय हैं। सुकुल की बीवी कहानी को इस संदभर् से
भी दे खना चािहए। इसिलए, िक िनराला यह बहुत सोच समझकर करते हैं। जबिक 1920 के
दशक में वे आयर् समाज के सामािजक कायोर्ं से प्रभािवत थे। उनकी शुरू की कहािनयों में आयर्
समाज की इन भूिमकाओं का वणर्न है। इसमें सुधारवादी तत्व थे। अथार्त जातीय सुधार के तत्व।
और आयर् समाज अपने प्रारम्भ में योरोपीय तकर्वाद के तत्व लेकर चला था। लेिकन 1930 के
दशक के उत्तराधर् तक जैसे-जैसे एक आधुिनक लोकतांित्रक व धमर् िनरपेक्ष राष्ट्र के पक्ष में व्यापक
जन गोलबंदी होने लगी, वैसे-वैसे जातीय सुधार की संस्थाओं में भी िवभाजन होता है। इसमें कुछ
वणर्वाद और धािमर् क संकीणर्ता में िसमटने लगते हैं और कुछ आधुिनकता का रास्ता पकड़ते हैं।
िनराला की नजर इन सब पर है। खुद उनकी कहािनयों में आयर् समाज के िवकास को दे खा जा
सकता है।

िहं दू -मुसलमान में िवभाजन करने वाली, नफरत, अिवश्वास फैलाने वाली बातों या उस समय
िहं दू वादी संगठनों के िमथ्या प्रचार, झूठे गौरव आिद को िनराला संज्ञान में लेते हैं और उसको अपनी
:
रचना में जगह दे ते हैं। एक और कहानी ‘कमला’ में भी वे ऐसा प्रसंग लाते हैं िजसमें एक ब्राह्मण
स्त्री दं गे के दौरान मुसलमान द्वारा बचायी जाती है और उसके घर में शरण पाती है। ‘कुल्ली भाट’
में तो कुल्ली मुसलमान स्त्री से प्रेम और िववाह करते हैं।

सुकुल की बीवी कहानी में कुंवर जब अपनी कहानी सुनाती है, तो वह इस पर ही केंिद्रत करती है।
“वाजपेयी जी को एक ब्याह से संतोष नहीं हुआ। दू सरी शादी की। तब मैं पेट में थी। िबहटा मेरा
निनहाल है।… िकसी तरह गुजर न हुई, तब, लोटा-थाली बेचकर, उस खचर् से मा लखनऊ गयीं।
घर में पैर रखते, ससुर और पित ने तेवर बदले। पित ने कहा, इसके हमल है, हमारा नहीं। ससुर ने
कहा, बदचलन है, धरम िबगाड़ने आयी है, भली होती, तो चली न आती- वहीं के लोग परविरश
करते। पड़ोिसयों की भी राय थी। सौत ने धरती उठा ली। एक रात को पित ने बाँह पकड़कर
िनकाल िदया। मा रास्तों पर मारी-मारी िफरीं। सुबह िजस आदमी ने उनके ऑंसू दे खे, वह
मुसलमान था। उस वक्त मा के िदल में िहन्दू , धमर् और भगवान के िलए िकतनी जगह थी, आप
सोच सकते हैं। िनस्सहाय, अन्तःसत्त्वा, अबला केवल आश्रय चाहती थी, सहानुभूितपूणर्
मनुष्यतायुक्त; वह एक मुसलमान से प्राप्त हुआ।”

िनराला यहाँ एक तो यह सामािजक सत्य दे ते हैं, िक एक से अिधक िववाह करना िहं दू -मुसलमान
दोनों में प्रचिलत था। यह एक िपतृसत्ता और पुरुष प्रधान तथा पीछे के समाजों की अपनी िवशेषता
थी, जो उनके धमोर्ं की नैितकता में अमानवीय रूपों में मान्य थी। इसकी मार स्त्री पर ही पड़ती थी।
‘श्रीमती गजानन्द शािस्त्रणी’ कहानी में भी गजानन्द शास्त्री चार िववाह करते हैं।

दू सरी बात िनराला ने इस प्रसंग में जो उठायी है स्त्री के िलए, ‘सहानुभूितपूणर् मनुष्यतायुक्त’
व्यवहार। स्त्री को मनुष्य मानना और उसके साथ मनुष्यता का व्यवहार करना, यही नये समाज,
पिरवार और राष्ट्र की िवशेषता होनी चािहए। यही िनराला का, और तीस के दशक की िहं दी
रचनात्मकता का मुख्य स्वर है। जािहर है, िक िहं दी में यह सब इसिलए भी आ रहा था, क्योंिक
अब िहं दी समाज के भीतर स्वाधीनता, बराबरी, सम्मान की बहसें नीचे से भी आने लगी थी या वह
नीचे तक पहुँ च रही थी। अब वह िसफर् बौिद्धकों तक सीिमत नहीं था। दू सरे, िकसी भी धमर्
आधािरत राष्ट्र में आज तक स्त्री को यह दजार्, सम्मान, स्वतंत्रता, हैिसयत न िमल पायी। इसिलए
िनराला की यह कहानी उस दौर की राजनीितक, सामािजक, सांस्कृितक बहसों के साथ िमलाकर
पढ़नी चािहए। उसमें िहन्दू राष्ट्र या धमर् आधािरत राष्ट्र की पिरकल्पना का रचनात्मक प्रितरोध बहुत
स्पष्ट है।

खुद कुंवर भी अपनी पहचान छोड़ती है। वह न िहं दू होना चाहती है, न मुसलमान। अपनी कहानी
सुनाते हुए वह कहती है, “मुझे जातीय गवर् से घृणा हो गयी। मैंने कहा, मैं शादी नहीं करूँगी;
जी-भर पढ़ना चाहती हूँ । बस यही से मेरे िवचार बदले।”
यह िवचार बदलना ही मनुष्य को बदलता है, व्यिक्तत्वांतरण करता है। कुंवर का भी होता है। वह
नये मनुष्य में बदलती है। यही िनराला का अभीष्ट है। कहानी का उद्देश्य भी यही है। नये मनुष्य में
बदलना। नया मनुष्य अथार्त जाित, धमर् आिद की पहचान से अलग होकर एक व्यापक व्यिक्तत्व
धारण करना। आधुिनक लोकतांित्रक धमर्िनरपेक्ष जीवन मूल्य को अपनाना। इसी मूल्य के अंतगर्त
कुंवर और सुकुल आपसी िरश्ते को िवकिसत करते हैं। अथार्त स्त्री-पुरुष सम्बन्ध की नयी
:
व्यावहािरकता को पाना, अपनाना। एक-दू सरे के िलए बराबरी, आदर व मनुष्यता का व्यवहार।
िनराला के िलए एक राष्ट्र की पिरकल्पना में भी यही मूल्य प्रधान थे। स्त्री िनराला के राष्ट्र की
बुिनयाद है, जरूरी नागिरक है। यहीं से िनराला अपने समय में औरों से आगे बढ़ जाते हैं।

िनराला को इस बात का भी श्रेय जाता है िक िहन्दी नवजागरण को उन्होंने साम्राज्यवाद और


सामंतवाद तथा वणर्वाद व ब्राह्मणवाद िवरोधी मूल्यों से संयुक्त कर ऐसी जगह पहुँ चा िदया, जो
बाद की िहन्दी रचनात्मकता की केन्द्रीय धारा बनी रही और वह आज तक है। खैर

‘सुकुल की बीवी’ कहानी में िनराला की अपनी कहानी भी शािमल है। इसमें िनराला खूब मजे ले
कर अपने स्कूल के िदनों का वणर्न करते हैं। एफ.ए. अथार्त हाई स्कूल की पढ़ाई छोड़ दे ते हैं।
प्रवेिशका की परीक्षा दे ते हैं लेिकन जब पिरणाम आने का समय होता है, वह कोलकाता चले जाते
हैं। िनराला िलखते हैं, “यहाँ से मेरे नये जीवन की नींव पड़ी।”

यह नया जीवन रचनात्मकता का जीवन था।


“मैं किव हो चला था, फलतः पढ़ने की आवश्यकता नहीं थी। प्रकृत की शोभा दे खता था। कभी-
कभी लड़कों को समझाता भी था िक इतनी बड़ी िकताब सामने पड़ी है, लड़के पास होने के िलए
िसर के बल हो रहे हैं, वे उद् िभदकोिट के हैं। लड़के अवाक् दृिष्ट से मुझे दे खते रहते थे, मेरी बात
का लोहा मानते हुए।”

“अन्त में िनश्चय िकया, प्रवेिशका के द्वार तक जाऊँगा, धक्का न मारूँगा, सभ्य लड़के की तरह
लौट आऊँगा, अस्तु, सबके साथ गया। और-और लड़कों ने पूरी शिक्त लगायी थी, इसिलए
परीक्षा-फल के िनकलने से पहले, तरह-तरह से िहसाब लगाकर अपने-अपने नम्बर िनकालते थे, मैं
िनिश्चत, इसिलए िनिश्चन्त था; मैं जानता था िक गिणत की नीरस कापी को पद्माकर के चुहचुहाते
किवत्तों से मैंने सरस कर िदया है; फलतः परीक्षा समुद्र-तट से लौटते वक्त, दू सरे तो िरक्त-हस्त
लौटे, मैं दो मुट्ठी बालू लेता आया; घर में िपता, माता, पत्नी, पिरजन, पुरजन सबके िलए
आवश्यकतानुसार उसका उपयोग िकया।”

कुल िमलाकर यह कहानी कई िलहाज से िनराला की बेहतरीन कहािनयों में से एक है। भाषा के
स्तर पर भी इसमें िनराला आगे बढ़ते हैं, जो िहं दी-उदू र् क्षेत्र की स्वाभािवक िवरासत िलए हुए है।
‘कुल्ली भाट’ में भी यह भाषा िदखती है। जबिक 1930 के दशक की शुरू की कहािनयों में यह
भाषा नहीं है। हर स्तर पर िनराला िनरन्तर खुद को बदलते हैं। उनके पात्र भी स्वयं को बदलते हैं।
‘सुकुल की बीवी’ कहानी में इन सभी िवशेषताओं को दे खा जा सकता है।
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