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सािहत्य-संस्कृित कहानी

श्रीमती गजानंद शािस्त्रणी: िपतृसत्ता, जमींदारी और


स्त्री
By दु गार् िसं ह December 22, 2021  770 0

िनराला ने समाज में िस्त्रयों की िस्थित पर कई कहािनयाँ िलखी हैं। सभी िस्त्रयाँ िवचार और चेतना
तथा सामािजक रुप से एक ही स्तर पर नहीं हैं। लेिकन, सभी में एक बात साझा है, िक वह सभी
समाज के भीतर मौजूद स्त्री संबंधी वणर्वादी या ब्राह्मणवादी मूल्यों के प्रित आलोचनात्मक हैं। उनमें
से ऐसा कुछ आधुिनक िशक्षा के प्रभाव में करती हैं या ऐसी हैं, तो कुछ अपनी जीवन िस्थितयों को
पढ़कर या अपने सामान्य बोध से, जो दे ख-सुनकर अपने से उन्होंने अिजर् त िकया है।

इन सभी कहािनयों का शीषर्क इन स्त्री चिरत्रों के नाम से है। पद्मा और िलली, कमला,
ज्योितमर्यी, श्यामा, िहरनी, िवद्या, जान की आिद कहािनयां ऐसी ही हैं। लेिकन स्त्री-चिरत्र को
सामने लाती एक कहानी है, श्रीमती गजानंद शािस्त्रणी। इसमें िनराला ने कहानी का नाम मुख्य पात्र
:
के नाम, सुपणार् से नहीं रखा। अथार्त गजानंद शास्त्री की पत्नी की कहानी िनराला िलखते हैं।

“श्रीमती गजानंद शािस्त्रणी श्रीमान पं. गजानंद शास्त्री की धमर्पत्नी हैं।”

यह कहानी का पहला ही वाक्य है। यह वाक्य और उसमें ‘धमर्पत्नी’ पद दोनों की योजना िनराला ने
सचेतन, सायास िकया है।
आधुिनक िकस्सागोई के िशल्प की भी बात की जाए तो िनराला बीस ही ठहरेंगे। कहानी की
अंतवर्स्तु, कहानी का मुख्य िवचार, कहानी का उद्देश्य सब कुछ लेकर पहला ही वाक्य उपिस्थत है।
बार-बार वाक्य पढ़ने पर भारतीय समाज, धमर्, सत्ता के तह के तह खुलते जाएं गे।

श्रीमती गजानन्द शािस्त्रणी का यह पिरचय स्त्री का एक िभन्न रूप लेकर कहानी में आता है। यह
स्त्री, पुरुष द्वारा पुरुष के िलए बनायी हुई है। गढ़ी हुई है। साथ ही यह स्त्री सत्ता प्राप्त वगर् या सत्ता
से आबद्ध वगर् से है। इसका पता कहानी में है। जब श्रीमती शािस्त्रणी यानी सुपणार् के िपता का
वणर्न आता है।

“शािस्त्रणी जी के िपता िजला बनारस के रहने वाले हैं, दे हात के, पयासी, सरयूपारीण ब्राम्हण;
मध्यमा तक संस्कृत पढ़े; घर के साधारण जमींदार, इसिलए आचायर् भी िवद्वत्ता का लोहा मानते हैं।
गाँव में एक बाग़ कलमी लंगड़े का है। हर साल भारत-सम्राट को आम भेजने का इरादा करते हैं,
जब से वायुयान-कम्पनी चली। पर नीचे से ऊपर को दे खकर ही रह जाते हैं, साँस छोड़कर। िजले
के अँगरेज हािकमों को आम पहुंचाने की िपतामह के समय से प्रथा है। यह भी सनातन धमार्नुयायी
हैं। नाम पं. रामखेलावन है।”

जमींदार हैं, इसिलए मध्यमा तक पढ़ाई के बावजूद आचायर् भी उन्हें िवद्वान मानते हैं। औपिनवेिशक
सत्ता और दे शी ब्राह्मणवादी िपतृसत्ता की संस्कृित को आज की िहन्दू वादी सत्ता संस्कृित से जोड़ेंगे,
तो िदलचस्प बातें िमलेंगी। आज बड़े अकादिमक, वैज्ञािनक संस्थानों, िवश्विवद्यालयों में बैठे लोग
कैसे सत्ता के शीषर् पर बैठे लोगों की िवद्वत्ता को सर माथे लगाये हुए हैं! वे इितहासकार, वैज्ञािनक,
खगोलिवद, िचिकत्सक, िविधवेक्ता सब कुछ हैं। खैर

ऐसे िपता की पुत्री के भीतर सत्ता, वचर्स्व की प्रवृित्त ऐसे ही नहीं आती, बिल्क पं. रामखेलावन उसे
इसमें गढ़ते हैं।

िनराला अगले ही पैराग्राफ में िलखते हैं,


“दू सरों पर प्रभाव डालने का उसका जमींदारी स्वभाव था, िफर संस्कृत पढ़ी, लोग मानने लगे। गित
में चापल्य उसकी प्रितभा का सबसे बड़ा लक्षण था।”
िफर आगे आता है, “जमींदार की लड़की, िजस तरह वहाँ की समस्त डालों के ऊपर अपने को
समझती थी, उसके िलए भी समझी।”

उसके िलए अथार्त मोहन, जो इलाहाबाद िवश्विवद्यालय से बी.ए का छात्र है तथा छायावाद और
पंत जी के प्रभाव में किवता िलखता है। मोहन के िपता हाई कोटर् में क्लकर् हैं।
:
प्रसंगवश यहाँ कुछ बातें िफर से उल्लेखनीय हो जाती हैं। खासकर जो िनराला की कहािनयों और
उपन्यासों में प्रायः लिक्षत की जानी चािहए। औपिनवेिशक भूिम व्यवस्था, जमींदारी, जाित संरचना
का सामािजक गितिवज्ञान और व्यवहार।

एक बात जो ध्यान दे नी चािहए िक बंगाल, उड़ीसा, िबहार और पूवीर् उत्तर प्रदे श में जो इस्तमरारी
व्यवस्था लागू हुई, उसमें छोटी जमींदािरयाँ ज्यादा थी और इनमें से ज्यादातर की आिथर् क हैिसयत
बहुत अच्छी नहीं रहती थी, लेिकन उनके नैितक आचरण या सामािजक व्यवहार को उनकी आिथर् क
िस्थित उतनी नहीं िनधार्िरत करती थी, बिल्क सत्ता के पदानुक्रम से ज्यादा िनधार्िरत होता था।
वणर्वाद इसमें संयुक्त होता था।

जमींदारी या औपिनवेिशक भूिम व्यवस्था इस वणर्वाद के स्तरीकरण, भिक्तवाद के अनुकूल पायी


गयी। जमीदार, अंग्रेज अिधकारी और सम्राट यह जो नये वणर् बने, इनके बीच के संबंध में इसे दे खा
जा सकता है।

िनराला का कथा सािहत्य तो इसके िलए प्रचुर ब्यौरा उपलब्ध कराता है। अथार्त, औपिनवेिशक
भूिम व्यवस्था ऐसी थी, िजसका वणर्वादी स्तरीकरण के साथ स्वाभािवक समायोजन हो गया और
उसने नये तरह के वणर्वादी भिक्तवाद और स्तरीकरण को जन्म भी िदया।

यह भिक्तवाद वैष्णव संप्रदाय के दशर्न और आचरण का व्यावहािरक रूप था। इसका सीधा संबंध
सामंतवाद के उदय से है। इसमें हर मातहत या भूिम संबंधों के सोपान पर खड़ा वगर् अपने से ऊपर
के सोपान को प्रभु मानता है तथा उसे खुश कर, उसकी कृपा पाने की कोिशश करता है। सुपणार् या
श्रीमती शािस्त्रणी के िपता यही काम करते हैं औपिनवेिशक भूिम व्यवस्था के एक सोपान पर खड़े
होकर।

िनराला िलखते हैं, िक सुपणार् के िपता सनातनधमीर् हैं। ‘सनातनधमीर्’ पद का प्रयोग अपने में बहुत
व्यंजना िलए हुए है। अथार्त जो धमर् में सनातनधमीर् है, व्यवहार में अंग्रेज अिधकािरयों और सम्राट
को खुश करने में भी सनातनी है। पीढ़ी दर पीढ़ी वे यह काम करते आ रहे हैं। पुनः यह बात भी
ध्यान दे ने की है, िक िब्रिटश अिधकारी जो भूिम व्यवस्था लेकर आ रहे थे, उसका चिरत्र पूंजीवादी
न होकर िब्रिटश भूिम व्यवस्था से प्रभािवत था।

जो इितहासकार मानते हैं, िक भारत में जो सामंतवाद था, वह यूरोप के सामंतवाद से मेल नहीं
खाता, उन्हें भारत में औपिनवेिशक भूिम व्यवस्था का िफर से अध्ययन करना चािहए तथा िनराला
का कथा सािहत्य भी अध्ययन में शािमल करना चािहए। इस भूिम व्यवस्था ने िब्रिटश राज को
सुदृढ़ करने में बड़ी भूिमका िनभायी।

यह भी ध्यान दे ने की बात है, िक इस जमींदार वगर् में कौन सा वणर् अिधक था और उसकी संस्कृित
में ऐसा क्या था, िक वह आसानी से िब्रिटश राज से आबद्ध ही नहीं हुआ, बिल्क उसके िलए सबसे
अिधक िवश्वसनीय और काम का सािबत हुआ। बहरहाल

सुपणार् या श्रीमती शािस्त्रणी ऐसे ही जमींदार पंिडत रामखेलावन की पुत्री है। पूरी तरह से जमींदारी
:
सत्ता और िपतृसत्ता के आभ्यंतरण से तैयार, शिक्त और सत्ता से भरी हुई स्त्री।

िदलचस्प है यह जानना, िक िनराला के यहां आधुिनक स्त्री िशक्षा, स्वतंत्र तकर् प्रणाली, िववेक का
प्रबल समथर्न है। उनके कथा सािहत्य में स्त्री िपतृसत्ता पर प्रश्न करती, उस पर तकर् करती िदखती
है।

लेिकन, श्रीमती गजानन्द शािस्त्रणी ऐसी स्त्री नहीं हैं। क्यों नहीं हैं, इसका जवाब िनराला के पास
है। उनकी इस कहानी में है। वह है जाित-वणर् के भीतर िक्रयाशील, गितशील वगर्। जबिक
आजकल जाित, िलं ग के बौिद्धक िवमशर् में इस िक्रयाशीलता या गित को भुला िदया जाता है।

जबिक तीस साल के उदारीकरण ने क्लास या वगर् की पहचान को इतना ज्यादा स्पष्ट कर िदया
है, िक वह िदखने वाला यथाथर् हो गया है, सच्चाई हो गयी है। इतना ही नहीं, बौिद्धक िवमशर् से
बाहर वास्तिवक रूप से चलने वाले सड़क के आन्दोलनों में वह साफ तौर पर िदखता है।

अभी के समय में स्त्री के बारे में बात किरए तो इस बात को सुना ही नहीं जाता िक उदारीकरण ने
जो स्त्री सशिक्तकरण िकया है, उसमें ज्यादातर उसने स्त्री को िपतृसत्ता के मूल्यों से लैस िकया है
या उसमें िपतृसत्ता का आभ्यंतरण िमलता है। स्त्री के िलए लड़ती हुई स्त्री भी िपतृसत्ता या पुरुषवादी
व्यवहािरकता में बात करती है। वह पुरुष से लड़ते हुए पुरुष जैसा हो गयी है। वह प्रेम भी िपतृसत्ता
की व्यावहािरकता से करती है। यह सामान्य सत्य नहीं लेिकन इसका वगर् है। यह यथाथर् या सत्य,
वगर्गत है।

कहने का आशय यह, िक जाित, वणर्, समुदाय, िलं ग सब में वगर् की गितशीलता मौजूद रहती है।
वह मूल्य, नैितकता और व्यवहार को प्रभािवत करती है। वह कोई ऐसी समतल इकाई नहीं, जो
गित के िनयमों से, शिक्त के िनयमों से परे हो! िनराला के पास यह वगर् दृिष्ट है।

िनराला ने श्रीमती गजानन्द शािस्त्रणी की कहानी िलखते हुए जमींदार वगर् के सामान्य चिरत्र को
सामने रखा है, तो उसकी शिक्त से संयुक्त स्त्री भी िपतृसत्ता की व्यावहािरकता िलए हुए है।

मोहन भी जाित से ब्राह्मण है, लेिकन ‘पयासी’ नहीं है, तो स्तर में नीचे हुआ। िपता क्लकर् हैं हाई
कोटर् में, लेिकन जमींदार से नीचे हैं। ऐसे मोहन का प्रेम सुपणार् अपने प्रभाव से पाना चाहती है। वह
पयासी ब्राह्मण है, जमीदार की बेटी है। यह िनराला हैं, जाित भीतर जाित को बाहर लाते, िदखाते,
रचना की अंतवर्स्तु में शािमल करते। खैर

मोहन को जब सुपणार् हािसल नहीं कर पाती तो वह उसे सबक िसखाने, बदला लेने की सोचती है।
“बाग से लौटने पर सुपणार् के हृदय में मोहन के िलए क्रोध पैदा हुआ।… मन में यह प्रितिहं सा िलए
हुए िक मोहन इस बहते में िमलेगा। और उसे हो सकेगा तो उिचत िशक्षा दे गी। शास्त्री जी को
एकान्त भक्त दे ख कर मन में मुस्करायी।”

मोहन का पिरचय िनराला ने यूँ िदया है, “मोहन उसी गाँव का इलाहाबाद िवश्विवद्यालय में बीए
(पहले साल) में पढ़ता था। यह रंग उस पर भी चढ़ा और दू सरों से अिधक। उसे पंत की प्रकृित
:
िप्रय थी और इस िप्रयता से जैसे पंत में बदल जाना चाहता था। संकोच, लज्जा, मािजर् त मधुर
उच्चारण, िनभीर्क नम्रता, िशष्ट आलाप, सज-धज उसी तरह। रचनाओं से रच गया। साधना करते
सधी रचना करने लगा। पर सम्मेलन शरीफ अब तक नहीं गया। िपता हाई कोटर् में क्लकर् थे। गमीर्
की छु िट्टयों में गाँव आया हुआ है।”

मोहन छायावादी किवयों से प्रभािवत है। उसमें भी पंत से। पंत की तरह ही उसमें संकोच, लज्जा
और िनभीर्क नम्रता है। संकोच, लज्जा के साथ िनभीर्क नम्रता।

िजस समाज में पुरुष या मदर् के िलए संकोच, लज्जा आिद नामदीर् के लक्षण या गुण माने जाते हैं,
वहां छायावादी किव ऐसा है और साथ में िनभीर्क नम्रता अथार्त खुद से अिजर् त िकया हुआ है,
िकसी चलन, दबाव में नहीं है।

मोहन भी ऐसा ही पुरुष है। मनुष्य की गिरमा और मानवीय मूल्यों से युक्त। छायावाद इसी की
पुकार है। वहां स्त्री सहचरी है, उपभोग की वस्तु नहीं। लेिकन श्रीमती गजानन्द शािस्त्रणी छायावाद
को व्यिभचार की किवता िसद्ध करती लेख िलखती हैं। साथ में, पितव्रत धमर् पर भी। प्रगितशीलों से
भी वे तारीफ पाती हैं। शास्त्री जी के िवचार को अपनाती हैं और इसी को अपने लेखों में प्रस्तुत
करती हैं।

शास्त्री जी िकस िवचार के हैं, यह उनके पिरचय में िमल जाता है।
“पं. गजानन्द शास्त्री बनारस के वैद्य हैं। बैदकी साधारण चलती है, बड़े दाँव-पेंच करते हैं तब। सदा
बड़े आदिमयों की तारीफ करते हैं, और ऐसे स्वर से जैसे उन्हीं में से एक हों। बैदकी चले इस
अिभप्राय से शाम को रामायण पढ़ते-पढ़वाते हैं तुलसी-कृत; अथर् स्वयं कहते हैं। गोस्वामी जी के
सािहत्य का उनसे बड़ा जानकार- िवशेषकर रामायण का, भारतवषर् में नहीं, यह श्रद्धापूवर्क मानते
हैं। …सुपात्र सरयूपारीण ब्राह्मण हैं; मामखोर सुकुल।”

यथा प्रसंग कुछ बात इससे िनकल आयी। िनराला की कहािनयों में प्रायः तुलसी-कृत रामायण का
िजक्र आता है, लेिकन हमेशा एक खास वगर् द्वारा। िजसमें शास्त्री जी जैसे धमर् के नाम पर अपना
पेशा चलाते हैं। ‘श्यामा’ कहानी में पं. राम प्रसाद भी ऐसे ही हैं। लेिकन ऐसा क्यों हुआ िक उसी
समय के बड़े आलोचक रामचिरतमानस को ‘उत्तर भारत के गले का हार’ और ‘लोक-मयार्दा, लोक-
मंगल’ का गान आिद-आिद मानते हैं! इन आलोचकों के सामने कौन सा समाज और लोक था, जो
िनराला के सामने नहीं है। िनराला के यहाँ िकसी ऐसे चिरत्र के सन्दभर् में रामचिरतमानस का सन्दभर्
नहीं आता जो नैितक रूप से उच्च हो, संवेदनशील हो! बिल्क चतुरी चमार के िलए वे िलखते हैं िक
वह चतुवेर्िदकों से अिधक कबीर का ममर्ज्ञ है। चतुरी चमार िजस समाज या सामािजक वगर् से हैं
वहाँ कबीर के पद गाये-सुने जाते हैं। जहाँ रचनाकार इतना बा-ख़बर है, आलोचक इतना बे-ख़बर
क्यों!

िहन्दी प्रदे श में सामािजक वगोर्ं के बीच सांस्कृितक िभन्नताएँ कम नहीं हैं, लेिकन उसे ध्यान से बाहर
रखा जाता है। जैसे दिलतों में कबीर के पद, िपछड़ी जाितयों में कृष्ण सम्बन्धी पद, बौद्ध पवर्
आिद सांस्कृितक जीवन के अंग होते थे। उदारीकरण के बाद क्रमशः यह घटता गया और
:
ब्राह्मणवादी सवणर् या वैष्णव मत का सांस्कृितक आच्छादन बढ़ता गया। बाजार, टीवी सीिरयल
आिद ने इसमें बड़ी भूिमका िनभायी। लेिकन 1930 के दशक तक तो सांस्कृितक िभन्नताएँ स्पष्ट
रूप से थीं, िजसे िनराला अपने कथा सािहत्य में दज़र् करते हैं, िफर ये आलोचक िकसको हार
पहना रहे थे, िकस लोक का रंजन करवा रहे थे! खैर

श्रीमती शािस्त्रणी ने छायावाद सम्बंधी िवचार भी शास्त्री जी से पाया है।


“शास्त्री जी अपना कारोबार बढ़ाने लगे। सुपणार् को वैदक की अनुवािदत िहन्दी पुस्तकें दे ने लगे,
नाड़ी-िवचार चचार् आिद करने लगे। …एक साल बीत गया। अब सुपणार् िहन्दी में मजे में िलख
लेती है। मोहन से उसका हाड़-हाड़ जल रहा था। एक िदन उसने पाितव्रत्य पर एक लेख िलखा।
आजकल के छायावाद के िवषय में भी पढ़ चुकी थी और बहुत कुछ अपने पित से सुन चुकी थी।”

शास्त्री जी “िजज्ञासु षोडसी िप्रया को समझाते रहे िक छायावाद वह है, िजसमें कला के साथ
व्यिभचार िकया जाता है तरह-तरह से। आइिडया के रूप में, सुपणार्-जैसी ओजिस्वनी लेिखका के
िलए इतना बहुत था। आिद से अंत तक उसके लेख में प्राचीन पितव्रतधमर् और नवीन छायावादी
व्यिभचार प्रचारक के कण्ठ से बोल रहा था।”

इस तरह श्रीमती शािस्त्रणी की ख्याित बढ़ती है। गांधी जी को दो सौ रुपये दे कर वे और ख्याित


पाती हैं और कांग्रेस से प्रत्याशी होकर जौनपुर से एम.एल.ए हो जाती हैं।

पुनः प्रसंगवश कांग्रेस की राजनीित और उसके भीतर के सामािजक वगर् और उसके प्रभाव आिद पर
ध्यान चला जाता है। िनराला के कथा सािहत्य में प्रायः दे खा जा सकता है। वे कांग्रेस के भीतर
िकस सामािजक वगर् का वचर्स्व है, इसे संकेत अवश्य करते हैं। श्रीमती गजानन्द शािस्त्रणी
एम.एल.ए बनती हैं। वे जमींदार की बेटी हैं। जमींदारों को िनराला बार-बार िदखाते हैं, िक वह
िब्रिटश राज से गहरे आबद्ध वगर् है।

जाित से ब्राह्मण हैं, लेिकन यहां यह गलती नहीं करनी चािहए िक कांग्रेस के भीतर ब्राह्मण वचर्स्व
था। श्रीमती शािस्त्रणी ब्राह्मण की बजाय जमींदार वगर् के चलते राजनीित में ऊपर आती हैं।
महात्मा गांधी को उन्होंने जेवर बेचकर दो सौ रूपये की थैली भेंट की। यह जेवर जमींदारी का है।
िनराला ने क्या िलखा, िक “दू सरों पर प्रभाव डालने का उसका जमींदारी स्वभाव था।” यह ऐसे ही
नहीं िलखा है। खुद के िवकास के तहत िनराला ने यह वगर्-दृिष्ट पायी है।

श्रीमती गजानन्द शािस्त्रणी की इस सेवा का साधारण जनता पर असाधारण प्रभाव पड़ा। िनराला
िलखते हैं,
“आन्दोलन के बाद इनकी प्रैिक्टस चमक गयी। बड़ी दे िवयाँ आने लगीं। बुलावा भी होने लगा।
िचिकत्सा के साथ लेख िलखना भी जारी रहा। यह िबल्कुल समय के साथ थीं। एक बार िलखा,
दे श को छायावाद से िजतना नुकसान पहुँ चा है, उतना गुलामी से नहीं।”

यही श्रीमती शािस्त्रणी कांग्रेस की उम्मीदवार होकर एम.एल.ए होती हैं। यह 1936 ईस्वी का
चुनाव है।
:
‘तद्भव’ में छपे अपने एक संस्मरण में कथाकार अमरकांत िलखते हैं, िक आजादी के बाद रातों-रात
जमींदारों और राजाओं ने कांग्रेस की सदस्यता ले ली। िनराला की नजर तो जमींदारों की इस प्रवृित्त
पर पहले से ही थी। लेिकन महत्वपूणर् है, िक जमींदारों की प्रवृित्त और चिरत्र को यहाँ एक स्त्री
धारण करती है। प्रितिनिधत्व तो स्त्री वगर् का है, लेिकन मूल्य और आचरण िपतृसत्ता व जमींदारी
का है।

श्रीमती गजानन्द शािस्त्रणी एम.एल.ए बनती हैं। वे उच्चतर मानवीय मूल्यों से भरे छायावाद के
िखलाफ लेख िलखकर चिचर् त हो चुकी हैं। एम.एल.ए होने के बाद ‘कौशल’ पित्रका के प्रधान
संपादक पित्रका के कायार्लय में उन्हें आमंित्रत करते हैं। िनराला िलखते हैं, शािस्त्रणी जी ने ‘गिवर् त
स्वीकारोिक्त’ दी।

इसी कायार्लय में मोहन एम.ए करने के बाद सहायक बन कर काम करता है। िजसके िलए
िनराला िलखते हैं, िक सहायक है, लेिकन िलखने में िहं दी में अकेला। वहाँ जाकर शािस्त्रणी जी ने
मोहन को दे खा।

“मोहन ने उठकर नमस्कार िकया। आप यहाँ, शािस्त्रणी जी ने प्रश्न िकया। जी हाँ, मोहन ने नम्रता
से उत्तर िदया। यहाँ सहायक हूँ । शािस्त्रणी जी उद्धत भाव से हँ सीं। उपदे श के स्वर में बोलीं, आप
गलत रास्ते पर थे।”

कुछ इसे स्त्री सशिक्तकरण की कहानी के रूप में भी व्याख्या करने को उद्धत हो सकते हैं, लेिकन
उन्हें िनराला के शब्दों या प्रयुक्त पदों पर ध्यान दे ना चािहए!

‘शािस्त्रणी जी उद्धत भाव से हँ सीं’, ‘उपदे श के स्वर में बोलीं’ आप गलत रास्ते पर थे। यह गलत
रास्ता क्या है! आधुिनक उदार मानवीय और बराबरी का मूल्य िजसे मोहन धारण करता है। जबिक
सुपणार् या श्रीमती शािस्त्रणी िपतृसत्ता और जमीदारी मूल्यों और प्रवृित्तयों को आत्मसात करती हैं
और इन्हीं मूल्यों से उनका प्रेम भी पिरभािषत होता है।

इस कहानी से उस संस्कृित का संकेत भी िमलता है, िजससे आज के िहन्दु त्ववादी राजनीित के


उभार में िहन्दी समाज की मध्यवगीर्य शहरी सवणर् िस्त्रयों के व्यापक समथर्न को भी समझा जा
सकता है! बाकी कहानी का पहला पैराग्राफ़ भी आज की िहन्दु त्ववादी राजनीित के िलए िदलचस्प
है, खासकर टेक

“श्रीमती गजानन्द शािस्त्रणी श्रीमान् पं. गजानन्द शास्त्री की धमर्-पत्नी हैं। श्रीमान् शास्त्रीजी ने
आपके साथ यह चौथी शादी की है, धमर् की रक्षा के िलए। शािस्त्रणीजी के िपता को षोडसी कन्या
के िलए पैंतालीस साल का वर बुरा नहीं लगा, धमर् की रक्षा के िलए। वैद्य का पेशा अिख्तयार िकये
शास्त्रीजी ने युवती पत्नी के आने के साथ ‘शािस्त्रणी’ का साइन-बोडर् टाँगा, धमर् की रक्षा के िलए।
शािस्त्रणीजी उतनी ही उम्र में गहन पाितव्रत्य पर अिवराम लेखनी चालना कर चलीं, धमर् की रक्षा के
िलए। मुझे यह कहानी िलखनी पड़ रही है, धमर् की रक्षा के िलए।”
आज धमर् की रक्षा के िलए क्या-क्या हो रहा है, कोई भी खुद जाँच सकता है!
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