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B.

A (Hons) part-3

Subject- Hindi , Paper-7

UG

Topics – लोक साहित्य के स्वरुप एवं ववशेषताओं के साथ इसके मित्व पर


प्रकाश डालें।

-Dr.Prafull Kumar, HOD,Hindi Department, RRS College Mokama


PPU patna.

लोक साहित्य की अभिव्यक्तत स्वािाववक, सिज, एवं प्रवािमयी िोती िै ।


यि पूर्णत: प्राकृततक अवस्था में सरल, सिज साहित्य िै ।
लोक अथाणत जन सामान्य और साहित्य अथाणत उस जन सामान्य की िावनाओं
की अभिव्यक्तत। लोक साहित्य ककसी िी समाज, वर्ण या समूि के सामहू िक
जीवन का दपणर् िोता िै । इसमें सामहू िक चेतना, अनुिवों, संवेदनाओं की
अभिव्यक्तत रिती िै । ककसी िी समाज का इततिास और उसकी संस्कृतत लोक
साहित्य उपलब्ध िोती िै ।

धीरें द्र वमाण के अनस


ु ार, “ वास्तव में लोक साहित्य वि मौखिक अभिव्यक्तत िै
जो िले िी ककसी व्यक्तत ने र्ढी िो पर आज इसे सामान्य लोक समि
ू अपनी
िी मानता िै । इसमें लोकमानस प्रततबिंबित रिता िै ।”
डॉ बिलोचन पांडे के अनुसार, “ जन-साहित्य या लोक-साहित्य उन समस्त
परं पराओं, मौखिक तथा भलखित रचनाओं का समूि िै जो ककसी एक व्यक्तत
या अनेक व्यक्ततयों द्वारा तनभमणत तो िुआ िै परं तु उसे समस्त जन समुदाय
अपना मानता िै । इस साहित्य में ककसी जातत, समाज या एक क्षेि में रिने
वाले सामान्य लोर्ों की परं पराएं, आचार-ववचार, रीतत-ररवाज, िषण-ववषाद
आहद समाहित रिते िैं।”
इस प्रकार लोक साहित्य लोक चेतना , लोक मानस और लोक संस्कृतत का
साहित्य िै । यि सिज, सरल,आडंिर रहित साहित्य िै । जनमानस के रीतत-
ररवाज,कियाकलाप, ववश्वास,परं पराएं आहद िै।
लोक साहित्य का स्वरूप -

लोक साहित्य सामान्य जन का साहित्य िै । सभ्य समाज से क्जसका कोई


सरोकार निीं।यि उन ग्रामीर् जनों का साहित्य िै जो आहदम संस्कृतत और
परं पराओं को सरु क्षक्षत रिे िुए िैं। इस साहित्य पर समस्त जनसमि ू का
अधधकार िै ।यि समस्त लोक के रार्-ववरार्,सि ु -दि
ु ,जीवन-मरर् की सिज
एवं सरस अभिव्यक्तत िै ।यि साहित्य सवण व्यापक िै । यि संपूर्ण मानव
जातत की ववरासत िै ।

लोक साहित्य की ववशेषताएँ-

यि मौखिक परं परा का साहित्य िै । मौखिक रूप से िी पीढी दर पीढी


िस्तांतररत िोता िै । लोर् अपनी समस्त िावनाओं को एक दस
ू रे के
साथ मौखिक रूप में िांटते िैं। इसका सौंदयण उनके मौखिक रूप में िी िै ।
पररवतणनशीलता इसकी दस
ू री ववशेषता िै । समाज और जातत से जुडी परं पराएं
और प्रथाएं , कथाएं, किातनयां, र्ीत आहद पीढी दर पीढी पररवततणत िोते रिते
िैं। सामाक्जक पररवतणन के साथ-साथ लोक साहित्य की िाषा िदल जाती िै ।
समय और क्स्थतत के साथ लोक रचनाकार रचनाओं में पररवतणन कर दे ता िै ।
साहित्य लोक साहित्य में भशष्ट साहित्य की तरि साहित्य शास्ि के तनयमों
का िंधन निीं रिता। यि साहित्य मानव के जीवन की वास्तववक अनि
ु तू तयां िै ,
इसभलए यि उसी रूप में अभिव्यतत िोती िै । इस साहित्य में कला या सौंदयण
का िंधन निीं रिता िै । मौखिक परंपरा के रूप में चलने से लोक रचनाकार का
नाम अज्ञात रिता िै इसभलए संपूर्ण जनसमुदाय उसे अपनी िी रचना मानता
िै । लोक साहित्य का ववषय क्षेि अत्यधधक व्यापक िै । एक छोटे से र्ांव से
लेकर अंतरराष्रीय स्तर तक इसका ववस्तार िै ।लोक साहित्य की अभिव्यक्तत
स्वािाववक, सिज, स्वच्छं द एवं प्रवािमयी िोती िै । यि पूर्ण रूप से अपने
प्राकृततक अवस्था में िी िना रिता िै क्जसकी सरलता और सिजता िी इसकी
आत्मा िै ।लोक साहित्य लोक संस्कृतत का अभिन्न अंर् िै ।संस्कृतत का संिंध
ककसी िी दे श या जातत या ककसी ववभशष्ट समाज की समस्त धाभमणक
आस्थाओं, प्रववृ ियों, ववचारधाराओं, रुधचयों, व्यविारों, रीतत- ररवाज एवं रिन-
सिन से िोता िै और यिी तमाम िावनाएं लोक साहित्य में अभिव्यतत िोती
िै ।लोक साहित्य के व्यापकक्षेि से िी भशष्ट साहित्य का ववषय चुनाव िोता िै ।
किानी, उपन्यास, कववता, नाटक आहद का उद्िव और ववकास लोक साहित्य
के िी ववभिन्न रूपों से िोता िै । राम और कृष्र् को लेकर जो तथ्य लोकमानस
में रचे र्ए थे उन्िीं को आधार िनाकर भशष्ट साहित्य की अमल्
ू य रचनाएँ रची
र्ई िैं। यहद लोक साहित्य का सम्यक अनुशीलन एवं संवधणन ककया जाए तो
भशष्ट साहित्य में िी वद्
ृ धध िोर्ी।

इस प्रकार लोक साहित्य लोक जीवन को करने वाला साहित्य िै । यि साहित्य


मौखिक िै तथा कृबिमता और आडंिर से कोसों दरू िै । इसमें आमजन के िास-
पररिास तथा दैतनक कियाकलापों का स्वािाववक वर्णन भमलता िै ।

लोक सहित्य का अभिप्राय उस साहित्य से िै क्जसकी रचना लोक करता िै ।


लोक-साहित्य उतना िी प्राचीन िै क्जतना कक मानव, इसभलए उसमें जन-जीवन
की प्रत्येक अवस्था, प्रत्येक वर्ण, प्रत्येक समय और प्रकृतत सिी कुछ समाहित
िै ।

डॉ॰ सत्येन्द्र के अनस


ु ार- "लोक मनष्ु य समाज का वि वर्ण िै जो आभिजात्य
संस्कार शास्िीयता और पांडडत्य की चेतना अथवा अिं कार से शन्
ू य िै और जो
एक परं परा के प्रवाि में जीववत रिता िै ।" (लोक साहित्य ववज्ञान, डॉ॰ सत्येन्द्र,
पष्ृ ठ-03)
साधारर् जनता से संिधं धत साहित्य को लोकसाहित्य किना चाहिए। साधारर्
जनजीवन ववभशष्ट जीवन से भिन्न िोता िै अत: जनसाहित्य (लोकसाहित्य) का
आदशण ववभशष्ट साहित्य से पथ
ृ क् िोता िै । ककसी दे श अथवा क्षेि का
लोकसाहित्य विाँ की आहदकाल से लेकर अि तक की उन सिी प्रववृ ियों का
प्रतीक िोता िै जो साधारर् जनस्विाव के अंतर्णत आती िैं। इस साहित्य में
जनजीवन की सिी प्रकार की िावनाएँ बिना ककसी कृबिमता के समाई रिती िैं।
अत: यहद किीं की समूची संस्कृतत का अध्ययन करना िो तो विाँ के
लोकसाहित्य का ववशेष अवलोकन करना पडेर्ा। यि भलवपिद्ध ििुत कम और
मौखिक अधधक िोता िै । वैसे हिंदी लोकसाहित्य को भलवपिद्ध करने का प्रयास
इधर कुछ वषों से ककया जा रिा िै और अनेक ग्रंथ िी संपाहदत रूप में सामने
आए िैं ककं तु अि िी मौखिक लोकसाहित्य ििुत िडी मािा में असंर्िृ ीत िै ।
लोक जीवन की जैसी सरलतम, नैसधर्णक अनि ु ूततमयी अभिव्यंजना का
धचिर् लोकर्ीतों व लोक-कथाओं में भमलता िै , वैसा अन्यि सवणथा दल
ु णि िै ।
लोक-साहित्य में लोक-मानव का हृदय िोलता िै । प्रकृतत स्वयं र्ाती-र्न
ु र्न
ु ाती
िै । लोक-साहित्य में तनहित सौंदयण का मूल्यांकन सवणथा अनुितू तजन्य िै ।
लोक का अभिप्राय सवणसाधारर् जनता से िै , क्जसकी व्यक्ततर्त पिचान न
िोकर सामहू िक पिचान िै । दीन-िीन, शोवषत, दभलत, जंर्ली
जाततयाँ, कोल, िील, र्ोंड (जनजातत), संथाल,
नार्, ककरात, िूर्, शक, यवन, िस, पुतकस आहद समस्त लोक समुदाय का
भमलाजुला रूप लोक किलाता िै । इन सिकी भमलीजुली संस्कृतत, लोक संस्कृतत
किलाती िै । दे िने में इन सिका अलर्-अलर् रिन-सिन िै , वेशिष
ू ा, िान-
पान, पिरावा-ओढावा, चाल-व्यविार, नत्ृ य, र्ीत, कला-कौशल, िाषा आहद सि
अलर्-अलर् हदिाई दे ते िैं, परन्तु एक ऐसा सि
ू िै क्जसमें ये सि एक माला में
वपरोई िुई मखर्यों की िाँतत हदिाई दे ते िैं, यिी लोक संस्कृतत िै । लोक
संस्कृतत किी िी भशष्ट समाज की आधित निीं रिी िै , उलटे भशष्ट समाज
लोक संस्कृतत से प्रेरर्ा प्राप्त करता रिा िै ।
लोक जीवन की जैसी सरलतम, नैसधर्णक अनि
ु ूततमयी अभिव्यंजना का धचिर्
लोक र्ीतों व लोक कथाओं में भमलता िै , वैसा अन्यि सवणथा दल
ु णि िै । लोक
साहित्य में लोक मानव का हृदय िोलता िै । प्रकृतत स्वयं र्ाती र्ुनर्ुनाती िै ।
लोक जीवन में पर् पर् पर लोक संस्कृतत के दशणन िोते िैं। लोक साहित्य
उतना िी परु ाना िै क्जतना कक मानव, इसभलए उसमें जन जीवन की प्रत्येक
अवस्था, प्रत्येक वर्ण, प्रत्येक समय और प्रकृतत सिी कुछ समाहित िै ।
लोक साहित्य का मित्त्व
मानव को अनरु ं क्जत व आनंहदत करने वाले लोक साहित्य की परम्पराएँ प्रत्येक
दे श व समाज में पाई जाती िैं। लोक साहित्य द्वारा िी यर्
ु -यर्
ु की आधथणक,
सामाक्जक, राजनीततक व सांस्कृततक पररक्स्थततयों का पररचय भमलता िै । एक
पीढी से दस
ू री पीढी तक तथा एक समुदाय से दसू रे समुदाय तक पिुंचने वाले
लोक साहित्य की परम्पराएँ आज िम तक पिुंची िैं। यिी वि कडडयां िैं,क्जन्िोंने
िमें इततिास की लुप्त िोती िुई कडडयों को जोडने में सिायता पिुंचाई िै । अतीत
को वतणमान से जोडकर उसमें परस्पर समन्वय स्थावपत करना इस साहित्य की
एक अलर् ववशेषता रिी िै , क्जसके पररर्ाम स्वरूप िी यि केवल सांस्कृततक
धरोिर एवं िीते िुए कल की आवाज माि न िोकर आज िी जीवन्त सजणना िै ।
आज लोक साहित्य, वार्ी िै , इसी कारर् लोक साहित्य का मित्व शैक्षखर्क एवं
ऐततिाभसक क्षेिों में िी स्वीकार कर उपयोर् ककया जाता िै ।

लोक साहित्य जनता के कंठों में दे श के सिी राज्यों, िाषाओं और छोटी -छोटी
िोभलयों के रूप में िरा िुआ िै । िारतीय लोक साहित्य जनता के व्यापक जनसमूि
की सिी मौभलक सजणनाओं का पररर्ाम िै । यि केवल लोक काव्य या र्ीतों तक
िी न सीभमत न िोकर जनता के जीवन धमण, संस्कृतत तथा परम्पराओं से िी
जुडा िुआ िै ।लोक साहित्य में काव्य कला संस्कृतत और दशणन सिी कुछ एक साथ
िै । यि शब्द ववतनमय का प्रथम कला पर् ू ण प्रारम्ि िी िै , क्जसके द्वारा यंि -
मंि, जंि -तंि, पिे ली, मि
ु ावरे , लोकोक्ततयों, लोककथाओं, र्ीतों आहद के रूप में
प्रत्येक जातत अपनी जीवन पद्धतत और उसकी प्रर्ाभलयों को आर्े आने वाली
पीढी को सौपती रिी िै । यिी कारर् िै कक इसमें प्राचीन युर् का साहित्य, धमण
दशणन, ववश्वास, संस्कार, कमणकाण्ड तथा काल आहद सिी कुछ एक साथ प्राप्त
िोता िै और इसी के द्वारा ककसी िी दे श, समाज व जातत की सामाक्जक, आधथणक,
सांस्कृततक, राजनीततक, धाभमणक तथा िौद्धधक उन्नतत को समझा जा सकता िै ।
लोक साहित्य के मित्त्व को तनम्नभलखित बिंदओ
ु ं द्वारा स्पष्ट ककया जा रिा िै -

लोक साहित्य का ऐततिाभसक मित्त्वः


ककसी दे श व समाज के प्राचीन रूप को झांक दे ि लेने का अनप
ु म साधन लोक
साहित्य िै । लोक साहित्य इततिास को एक प्रततबिंि की िांतत प्रस्तुत करता िै ।
क्जसमें ऐततिाभसक घटनाओं का वर्णन इततिास की िांतत न कर सामान्य जनता
के दृक्ष्टकोर् को ध्यान में रिकर ककया जाता िै । लोक साहित्य में इततिास की
पयाणप्त सामग्री उपलब्ध िोती िै । लोकर्ीतों, कथाओं और र्ाथाओं में स्थानीय
इततिास का पट
ु भमलता िै । लोक मक्स्तष्क अपने इततिास की कडडयां अपने
लोकर्ीतों में संजो कर रिता िै । उदािरर् के भलए मुर्ल शासन के दौरान ककस
तरि की सामाक्जक-राजनीततक व्यवस्था थी इसका उदािरर् अनेक लोकर्ीतों में
दे िा जा सकता िै । ककसी िी दे श एवं समाज के स्थानीय इततिास की संपूर्ण
जानकारी विाँ की लोककथाओं, र्ीतों, र्ाथाओं एवं नाटकों के माध्यम से स्वतः
स्पष्ट िो जाती िै । यि किना समधु चत िोर्ा कक अतीत के सूक्ष्म से सूक्ष्म पररचय
से वतणमान को समझने में सवु वधा िोती िै और इस पररचय की जानकारी लोक
साहित्य के अततररतत अन्यि किीं उपलब्ध निीं िो सकती ।

लोक साहित्य का सामाक्जक मित्त्वः


सामाक्जक व्यवस्था और लोक साहित्य का र्िरा संिंध िै । लोक जीवन से जड
ु े
समस्त पिलओ
ु ं जैसे सामाक्जक रीतत-ररवाज, प्रथाएं, मान्यताएं, जन्म से
लेकर मत्ृ यु तक के संस्कार आहद सिी की उत्पवि समाज में िी िोती िै । समाज-
शास्ि के समुधचत अध्ययन के भलए लोक साहित्य की मििा सवु वहदत िै । िारतीय
समाज का ढांचा ककस प्रकार का रिा िै , यि लोक-र्ीतों, लोककथाओं और
लोकोक्ततयों से िली-िांतत समझ में आ जाता िै । समाजशाक्स्ियों ने लोकाध्ययन-
पररवार, वववाि-व्यवस्था, सामाक्जक ररश्तेदारी एवं समाज के स्वरूप पर प्रकाश
डालने के भलए ककया। उदािरर् के भलए भशशु जन्म पर िोने वाले सामाक्जक
कृत्यों के प्रतत तया इततिास लेिकों का ध्यान किी र्या िै ? इन सिके समीचीन
अध्ययन के भलए लोक साहित्य िी तो एक माि साधन िै । लोक साहित्य में
सामाक्जक प्रथाओं, परं पराओं और सांस्कृततक मल्
ू यों की जीवंत प्रस्ततु तयां िोती
िै । व्रत, त्योिार, अनष्ु ठान संस्कार आहद प्रथाओं का तो लोक साहित्य में िंडार
िै और एक समाजशास्िी समाज की इन्िीं प्रथाओं के प्रकाश में ककसी समाज की
सांस्कृततक ववशेषताओं को उद्घाहटत करता िै । अतः सामाक्जक दृक्ष्ट से लोक
साहित्य का मित्त्व और अधधक िढ जाता िै ।

लोक साहित्य का धाभमणक मित्त्वः


इस साहित्य ने अपना एक शीषणस्थ स्थान िी िनाया िै जिाँ उसे वैहदक साहित्य
के समकक्ष आसन प्राप्त िै । प्रमार् यि िै कक िमारे लोकजीवन के ििुत से और
ववशेषकर सांस्काररक तथा धाभमणक कायण वैहदक मंिों से पूर्ण िोते िैं। जिाँ ये मंि
संस्कृत में पढे जाते िैं विीं ग्राम्याओं द्वारा र्ाए जानेवाले लोकर्ीत तथा लोकाचार
पर आधाररत अन्य कियाकलाप िी चलते रिते िैं। एक ओर पुरोहित मंिाच्चार
करता िै तो दस
ू री ओर ग्रामीर् क्स्ियाँ र्ीत र्ाती िैं। मड
ुं न, कर्णवेध, यज्ञोपवीत
तथा वववाि आहद संस्कारों पर और मकान, धमणशाला, कंु आँ, तालाि तथा पोिर
आहद का शुिारं ि करते समय िी मंि तथा लोकर्ीत साथ-साथ चलते िैं। ऐसा
एक िी सांस्काररक एवं धाभमणक तथा परमाथण का कायण लोकजीवन में निीं भमलता
क्जसमें वैहदक साहित्य के साथ लोकसाहित्य को स्थान न प्राप्त िो। धाभमणक तथा
नैततक िावना तो लोक समाज का प्रार् िी िै । सम्पर्
ू ण िारतीय संस्कृतत का
सवाणधधक मित्वपूर्ण पिलू धमण िै । िमारे वैहदक ऋवषयों ने सामाक्जक संरचना के
ं लोकमानव से जोड हदया कक सम्पूर्ण सक्ृ ष्ट िी धमणमय
समय धमण को इस िॉतत
िो र्यी। लोक – मानव क्जन िातों को, क्जन र्ूढ रिस्यों को समझने में सहदयों
लर्ा दे ता, धमण के नाम पर या इस प्रकार की र्ई भशक्षा को उसने पलिर में
सीि भलया।

लोक साहित्य का ज्ञान एवं नीतत ववषयक मित्त्वः


ज्ञान एवं नीतत की दृक्ष्ट से यि साहित्य पयाणप्त समद्
ृ ध िै । ग्रामों में चािे स्कूल,
कॉलेज एवं उच्च भशक्षा का समुधचत प्रिंध न िो,चािे ग्रामीर् जनता को अक्षर
ज्ञान की कोई सुववधा न िो परन्तु जनता के ज्ञान में िरािर वद्
ृ धध िोती रिती
िै । इस ज्ञान को ग्रामीर् जनता आँिों द्वारा न लेकर कानों द्वारा ग्रिर् करती
िै । यि किना अनधु चत न िोर्ा कक ग्रामों में मौखिक ववश्व ववद्यालय िल
ु े िुए
िैं। परस (चौपाल) और पअू र (अलाव) इस ज्ञान-ववतरर् के भलए िडे उपयत ु त
स्थल िैं। इन संस्थाओं में भशक्षा के अलर्-अलर् स्तर िैं जिाँ आिालवद्
ृ ध को
आयु के अनुसार भशक्षा भमलती िै । भशक्षाथी को समयानुसार सि चीजें सीिने को
भमलेंर्ी। कोसण (पाठ्यिम) आयु के अनुसार चलता िै । िचपन में िाल सुलि और
िुढापे में िद्
ृ ध सुलि। इस भशक्षा ववतरर् के सवोिम साधन लोक-कथाएँ िैं। यों
तो िालक की भशक्षा जननी की र्ोद में िी आरम्ि िोती िै । विीं से वि चंदामामा,
झूजू के म्याऊँ के, आटे िाटे के द्वारा कुछ सीिता चलता िै । कैसा सुन्दर ढं र्
िै , भशक्षा की भशक्षा और मनोववनोद का मनोववनोद। माता-वपता, िाई-ििन, दादी-
दादा, अडोसी-पडोसी अिोध िालक की ज्ञान झोली में कोई न कोई रत्न बिना
मांर्े डालते रिते िैं। िाभलकाओं के दृक्ष्टकोर् से दे िें तो लोक साहित्य िडा
उपयोर्ी भमलेर्ा। उनके भलए सामाक्जक एवं कौटुक्म्िक भशक्षा का समधु चत प्रिन्ध
यिाँ भमलता िै । उदार जननी एवं सद्र्ि
ृ स्थ िनना िारतीय पबु ियों का प्रथम व
पुरातन उद्दे श्य रिा िै । िाभलकाएँ जीवन के आरम्ि से िी र्ुडडयों के साथ िेल-
िेलकर अपना मनोरं जन करती िैं और र्ि
ृ स्थ के अनेक रिस्यों को अनायास
सीि लेती िैं, समझ लेती िैं। कुछ सयानी िोती िैं तो र्ीतों की दतु नया में पदापणर्
करती िैं। यि संसार उन्िें पयाणप्त मािा में भशक्षक्षत कर दे ता िै । यिीं से उन्िें ऐसे
असंख्य नस्
ु िे (योर्) भमलते िैं। जो िावी जीवन के भलए लािप्रद एवं हितकर
भसद्ध िोते िैं। क्जन िातों को ये र्ड्
ु डे-र्डु डयों के रूप में किती सन
ु ती िै उन्िीं
से अपने िावी जीवन की हदशा तनधाणररत करती चलती िैं। डॉ. वैररयर एलववन ने
अपनी पुस्तक में एक स्थान पर लोक र्ीतों की मििा को प्रततपाहदत करते िुए
भलिा िै कक-‘इनका मित्व इसभलए निीं िै कक इनके संर्ीत, स्वरूप और ववषय
में जनता का वास्तववक जीवन प्रततबिक्म्ित िोता िै , प्रत्युत इनमें मानवशास्ि
(सोभशयोलाजी) के अध्ययन की प्रामखर्क एवं ठोस सामग्री िमें उपलब्ध िोती िै ।

लोक साहित्य का िाषा-वैज्ञातनक मित्त्वः


िाषा वैज्ञातनक दृक्ष्टकोर् लोक साहित्य एवं िाषा के ववकास में अत्यंत मित्वपूर्ण
िूभमका तनिाता िै । लोक साहित्य में िाषा ववज्ञान के अध्ययन के भलए अक्षय
िंडार उपलब्ध िै । इस दृक्ष्टकोर् से यि अध्ययन ककया जाता िै कक ग्रामीर्
जनपदों में ककस तरि की िाषा एवं िोभलयां प्रचभलत थी। उन िाषाओं की ववकास
परं परा तया रिी तथा आधतु नक िाषा के तनमाणर् में उनकी तया िभू मका िै ? िाषा
ववज्ञान का ववद्याथी लोक साहित्य के अध्ययन की प्रकिया में उसके
ववभिन्न तत्वों में प्रचभलत एक एक शब्द के अथण को ढूंढना चािता िै , मानो
इसके माध्यम से ककसी संस्कृतत के लुप्त पष्ृ ठ को ढूंढना चािता िो। लोक
िाषाओं में जहटल से जहटल िावों को व्यतत करने के भलए सरल एवं सटीक
शब्दों का िंडार िै । इन शब्दों की व्युत्पवि का अध्ययन िी अत्यंत रोचक िो
सकता िै । इन शब्दों के अध्ययन द्वारा िम उस समाज के िौद्धधक स्तर का
िी अंदाजा स्वतः िी लर्ा सकते िैं। लोक साहित्य में असंख्य
मुिावरे , लोकोक्ततयां एवं पिे भलयां भमलती िै , क्जनके पीछे की िाषार्त
व्यवस्था का अध्ययन इस दृक्ष्टकोर् द्वारा संिव िै । िाषा-शास्िी के भलए भशष्ट
साहिक्त्यक िाषाएँ उतनी उपयोर्ी निीं िै क्जतनी कक िोलचाल की िाषाएँ।
इसभलए लोक साहित्य लोक-िाषा की वस्तु िाने के कारर् िाषा-वैज्ञातनकों के भलए
िडा मित्वपूर्ण िै यिी वि धरातल िै जिाँ पर िाषातत्ववेिा िाषा के परतों को
उघाडकर दे िते िैं और र्ंिीर से र्ंिीर स्तरों में प्रवेश पाते िैं।
लोक साहित्य का सांस्कृततक मित्त्वः
लोक साहित्य का सांस्कृततक पक्ष िडा ववशद िै । ववश्व की संस्कृततयाँ कैसे उद्िूत
िुई, कैसे पनपी, इस रिस्य की किानी अथवा इततिास िमें लोक साहित्य के
सम्यक् अध्ययन से भमलता िै । संस्कृततयों के पुनीत इततिास की परि अनेकांश
में लोक साहित्य से सँिव िै । सच पूछा जाये तो लोक साहित्य िी संस्कृतत का
अमूल्य तनधध िै । र्ुजराती मनीषी काका कालेलकर ने लोक साहित्य के सांस्कृततक
पक्ष को इन शब्दों में व्यतत ककया िै - ‘लोक साहित्य के अध्ययन से, उसके
उद्धार से िम कृबिमता का कवच तोड सकेंर्े और स्वािाववकता की शद्
ु ध िवा
में किरने-डोलने की शक्तत प्राप्त कर सकेंर्े। स्वािाववकता से िी आत्मशद्
ु धध
संिव िै । अंत में यहद िम यि किें कक लोक साहित्य जन-संस्कृतत का दपणर् िै
तो अत्यक्ु तत न िोर्ी। संस्कृतत की आधारभशला पुरातन िोती िै । इसके मूल तत्वों
के संिंध में जो तत्व सिसे मित्वपूर्ण एवं ववचारर्ीय िैं, वि िै ववर्त का प्रिाव।
आज िी िमारा आदशण िमारा अतीत िै । झल
ू ा-झूलते, चाकी पीसते, यािा करते
िमारे आदशण राम-लक्ष्मर् के पुण्य चररि िी िैं। यिी लोक साहित्य का सांस्कृततक
पक्ष िै ।
तनष्कषणतः लोक साहित्य के अध्ययन के बिना ककसी िी दे श, समाज व संस्कृतत
से पररधचत निीं िुआ जा सकता िै । लोक साहित्य मानव जीवन के आहदम रार्ों
के साथ चलने वाला साहित्य िै जो कक यर्
ु ीन पररक्स्थततयों के अनस
ु ार पररवततणत
िोता रिता िै । वतणमान समय में ज्ञान-ववज्ञान की प्रर्तत, तकनीकक उपकरर्ों का
आववष्कार, िूमण्डलीकरर्,िौततकवाद एवं आधथणक उदारवाद से जिाँ नये मानव
मूल्यों का जैसे- व्यक्तत स्वातन््य की िावना, मानव स्वाभिमान व ववश्व िंधुत्व
की िावना का ववकास िुआ िै , विीं मानव जीवन का मित्व कम िो र्या िै ।
सामाक्जक एवं नैततक मूल्यों का क्षरर् िोता जा रिा िै । व्यक्तत यंि िनता जा
रिा िै । अधधक से अधधक इंहद्रय िोर् प्राप्त कर वि सिसे आर्े तनकल जाना
चािता िै । उसकी सहृदयता समाप्त िो रिी िै । वि संवेदन शन्
ू य िनता जा रिा
िै । मनष्ु य जीवन की समस्त मयाणदाओं को तोडकर वि अिं कार, छल, कपट एवं
षडयंिों में िँस िुआ स्वयं अपने िी िनाये मकडजाल में उलझ कर रि र्या िै ।
अथण की प्रधानत ने जीवन मल् ू यों को जड िना हदया िै । उसके िीतर का रस सूि
चुका िै । प्रेम, सौिादण , िंधुत्व एवं मानवीय सम्िन्धों कर प्राचीन परम्पराओं को
नष्ट कर वि प्रकृतत को िी अपनी दासी िनाना चािता िै । इसी से पाररक्स्थतत
की असंतुलन, असामंजस्य एवं प्रदष
ू र् जैसी ववकट समस्याएं पैदा की िै । ऐसे में
लोक साहित्य का मित्व िढ जाता िै ।
ककसी दे श व समाज के इततिास दे िने का सिसे प्रामाखर्क साधन लोक
साहित्य िै ।

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