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जयदेि द्वारा रवित ‘गीतगोविन्द’ सावहत्य जगत की एक ऄनुपम कृ वत है। आसकी मनोरम रिना
सावहवत्यक रस वपपासुओं को ऄपूिय अनन्द प्रदान करती है। गीतगोविन्द में श्रीकृ ष्ण की गोवपकाओं के
साथ रासलीला, राधाविषाद िणयन, कृ ष्ण के वलए व्याकु लता, ईपालम्भ ििन, कृ ष्ण की राधा के वलए
ईत्कं ठा, राधा की सखी द्वारा राधा के विरह संताप का िणयन है।
जयदेि का जन्म ओवडशा में भुिनेश्वर के पास के न्दुविल्ि नामक ग्राम में हुअ था।
िे िंगाल के सेनिंश के ऄवन्तम नरे श लक्ष्मणसेन के अवश्रत महाकवि थे। लक्ष्मणसेन के एक वशलालेख पर
१११६ इ० की वतवथ है ऄतः जयदेि ने आसी समय में गीतगोविन्द की रिना की होगी।
पररिय
गीतगोविन्द १२िी शताब्दी में वलखी गयी एक ऐसी काव्य रिना है जो हमे भगिान कृ ष्ण और
राधारानी के प्रेम के िारे में िताती है। आसमे कु ल १२ ऄध्याय है। यह काव्य ओवडशा राज्य
के भुिनेश्वर और पुरी शहर के मध्यिती के न्दुविल्ि या के न्दुवल शासन नाम के गांि में िास करने िाले
अध्यावत्मक शृंगार का मनोरम ग्रन्थ िना देता है। राधा-कृ ष्ण के प्रणय के वित्रण में प्रेम की विविध
दशाओं—अशा, वनराशा, ईत्कण्ठा, इष्याय, कोप, मान, अक्रोश, वमलनोत्सुकता, सन्देश-प्रेषण तथा वमलन
अदद—का जैसा ऄवभभूत करने िाला हृदयग्राही वित्रण आस काव्य में हुअ है, िैसा ऄन्यत्र ढू ंढ़ने पर भी
श्रीकृ ष्ण के गोवपयों के साथ रास-विलास को राधा न पसन्द करती है और न ही सहन कर पाती हैं।
राधा ऄपनी सखी के माध्यम से श्रीकृ ष्ण के प्रवत ऄपना अक्रोशमूलक ईपालम्भ भेजती है, परन्तु ईस ऄनन्य
प्रणवयनी को आतने से सन्तोष नहीं होता, ईसका प्रेम वनभयर-हृदय ईसे ऄपने वप्रयतम के प्रवत ऄपने प्रगाढ़
ऄनुराग को व्यविगत रूप से प्रकट करने को वििश कर देता है। राधा के अने पर श्रीकृ ष्ण ब्रज-सुन्दररयों का
संग छोड़कर ईसकी ओर ईन्मुख होते हैं। राधा की सखी श्रीकृ ष्ण से राधा की और राधा से श्रीकृ ष्ण की एक-
दूसरे में गहन ऄनुरवि का तथा एक-दूसरे से दूर रहने पर ऄनुभि की जा रही विरहजन्य िेदना का मार्ममक
िणयन करती है। िह ऄपने कोमल एिं कमनीय ििनों द्वारा दोनों को एक-दूसरे से वमलने के वलए प्रेररत
करती है।
िन्रोदय होने पर प्रणय-व्यथा से ऄधीर िनी राधा ऄपने ईद्दीप्त ऄनुराग पर वनयंत्रण नहीं रख पाती
और ईसकी ऄवभव्यवि को वििश हो जाती है। श्रीकृ ष्ण के अने पर ऄवत मान करती हुइ राधा ईपालम्भ से
भरे ििनों के द्वारा ईनके प्रवत ऄपना रोष-अक्रोश प्रकट करती है। आधर राधा की सखी राधा से मान को
छोड़ने का ऄनुरोध करती है ईधर स्ियं श्रीकृ ष्ण राधा के रूप-सौन्दयय की प्रशंसा के व्याज से ईसकी
िाटुकाररता करते हुए ईसे मनाने एिं ऄपने ऄनुकूल िनाने की िेष्टा करते हैं। ऄन्ततः राधा का मान दूर हो
दोनों प्रसन्न मन से प्रणय-व्यापार में प्रिृत्त होते हैं और आसके ईपरान्त राधा प्रणयवसि ििनों से
ऄपने वप्रयतम श्रीकृ ष्ण से ऄपना शृंगार करने को कहती है। ऄपनी प्राणवप्रया के ऄनुरोध को गौरि देते हुए
अज भी ओवडशी नृत्य के माध्यम से गीतगोविन्द सियजन वप्रय हो रहा है। ओवडवश नृत्य ही जयदेि
का ओवडशा प्रान्त होना सुवित करता है। ईनके गीतगोविन्द काव्य का प्रिार अन्र, तवमलनाडु तथा
कणायटक में हुअ। दिर ईत्तरभारत में खासतौर पर राजस्थान में मीरािाइ के द्वारा हुअ। पहले विद्वानों का
मानना था दक जयदेि िंगाल के राजा के सभाकवि है पर वशलालेख एिं प्रािीन मवन्दर जो ओवडशा में
मौजूद है, ईनसे प्रमावणत हुअ दक जयदेि जगन्नाथ के भि थे और ईत्कल राज्य के िासी थे। गुरुग्रन्थ
जयदेि ने आस काव्य में िैदभी रीवत—माधुयय व्यंजक िणों िाली शैली—का प्रयोग दकया है। काव्य में
कहीं-कहीं दीघय समासों का प्रयोग ऄिश्य हुअ है, परन्तु दिर भी दुिोधता ऄथिा वललष्टता नहीं अने पायी।
िस्तुतः कवि ने विशेष-विशेष ईत्सिों पर सिय-साधारण के गाने के वलए ही तो गीतों की रिना की थी। ऄतः
व्यंग्याथय को व्यि करने का प्रयास स्िीकार दकया है। (प्रस्तुत के माध्यम से ऄप्रस्तुत का ऄथिा ऄप्रस्तुत के
माध्यम से प्रस्तुत का िणयन ऄप्रस्तुत प्रशंसा ऄलंकार कहलाता है।) ईनके मत के ऄनुसार श्रीकृ ष्ण ‘जीिों की
अत्मा’ के प्रतीक हैं। गोवपयों की क्रीड़ा ऄनेक प्रकार का िह प्रपंि है, वजसमें ऄज्ञान-ऄिस्था में िं सी मनुष्यों
की अत्मा भटकती रहती है। राधा ब्रह्मानन्द का प्रतीक है, वजसे प्राप्त करने पर ही जीिात्मा को िरम सुख
‘गीतगोविन्द’ को िड़ी ही प्रवसवि और लोकवप्रयता वमली। जयदेि ने वजस ग्राम में रहते हुए
‘गीतगोविन्द’ की रिना की, ईस गांि का नाम ही जयदेिपुर पड़ गया। कवि के समकालीन ईड़ीसा के
शासक राजा प्रताप रुरदेि ने ऄपने राज्य के गायकों, संगीतज्ञों और नतयकों के वलए ‘गीतगोविन्द’ के पदों को
गाने का अदेश जारी कर ददया। महाराज ने जयदेि को आस काव्य रिना के वलए ‘कविराजराज’ की ईपावध
से विभूवषत दकया।
‘गीतगोविन्द’ जयदेि के जीिन काल में ही पयायप्त रूप से प्रिवलत एिं लोकवप्रय हो गया था—आसके
ऄनेक प्रमाण वमलते हैं। दविण में तो िह आतना ऄवधक प्रिवलत हो गया दक आसके पद्यों को वतरुपवत
िालाजी के मवन्दर की सीदढ़यों पर रविण वलवप में खुदिाया गया। श्रीिल्लभ सम्प्रदाय में तो श्रीमद्भागित्
पुराण के समान आसकी प्रवतष्ठा है। िैष्णिों में यह विश्वास है दक ‘गीतगोविन्द’ जहां गाया जाता है, िहां
भगिान का ऄिश्य ही प्रादुभायि होता है। आसी से आस सम्प्रदाय में आसे ऄयोग्य स्थान पर न गाये जाने का
विधान दकया गया है, वजसका कठोरता से पालन दकया जाता है।
टीकाएँ
गीतगोविन्द के प्रथम टीकाकार ईदयनािायय ने ‘भािविभाविनी’ टीका वलखी है। जगन्नाथ पुरी के
ऄत्यन्त वनकट प्रािी के दकनारे रहनेिाले ईदयनािायय जदयदेि के वप्रय वमत्र तथा प्रशंसक थे। सन् 1170 से
1198 के मध्य में ‘भािविभाविनी’ टीका वलखी गयी थी, वजसमें 100 श्लोक हैं। आसकी तीन