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+ हूऊ
५ 23-22
रामचरित मानस
( सुन्दर काणड..)
सम्पादक--
प० रामकृष्ण शुक्क एच5
हिन्दी अध्यापक, महाराजा कालेज, जयपूर
प्रकाशक--
सुद्रक/--
शारदाप्रसाद खरे,
हिन्दी-साहित्य ग्रे, प्रयाग।
भकाशक का वक्तव्य
५,
+
४० प्रोबरएकता थी,अकृद के उत्तर में 'ऐसी कोई आांवरयकता नहीं थी ।
११ .]
इस थोड़े सेकपन का सारांश यही है कि, हम किसी भी दृष्टि से
देखें, रामइरितमानस संसार के साहित्य में एक भरुत महत्व फा
प्रन्थरध्न है। उच्तफा महत्व जनता के लिए तो ऐ
पुलसीदास जी दी, परन्तु तुलसीदास घी'के लिए भी उंप्का महत्व
तथा रामायण कम नहीं है। 'घदि तुलसीदास ने शंमचरितमानस
का महत्व फो पना छंर अपनी प्रतिभा द्वारा उसे अमरख प्रेदान
किया है तो रामघरितंमामस ने भी तुक्तप्तीदोंस जी
'के अमर बनाया है ।'यंदि तुछसीदास प्री ने फेषलत रामेंदरितंसानसत' थी
'जिया होता, दूसरे प्रंथ न लिखे होते, तो 'भी उनका यश भर 'माहास्य
उतना ही पिशाज् होता जितना झय है। परन्तु यंदि उन्होंने शत्प सब
प्रंथ ही किसे ऐसे फ़ौर रामचंरितमानस न लिखा होता तो सनन््देह किया
था सफताएँ कि उनफी कीति कदाधित् एसनी व्यापक और इतनी चिरस्पायी
'न होती। रामचरितमानस के द्वारा तुदसीदास जी हमारे सामने फवि
के अतिरिक्त धौर मी फितने वी रूपों में उपस्थित शोते हैं |वह जीपन
के प्रययेक माग' में इमारे फ्थप्रदरशंक हैं। वह शुहरत्य हैं परन्तु विरक्त
'मदार्मा भी हदें, समाज से उनका कोई नाता नहीं तथापि बंद सब्चे
समाम-सुधारक हैं,मतमतान्तरों भादि के भेद से मंगढ़ते हुए अथवा
कुमागंगामी सनुष्यों केलिए पट कहीं झदु भौरकही कठोर न्यायाधीश
हैं, सहु भादि ऋषियों की भोति पर्णाश्रम धं्म के प्रतिष्ठाफा तथा
जोकमर्यादा के नियामक हैं,वहराननीतिक्ष हैं--संघेप 'में, वह हमारे
गुरु भी हैं,सखा भी 'दैं भौर हैं, सव सेबढ़कर, संसार के दुःखलोत्त
के पीच शान्ति का घरदान देने वाले तथा हेश्वर का साच्षासकार कराने
पाछे सिद पुरुष । तुदसीदास जी कहीं गए नहीं हैं, वंह भव भी हंभारे
साथ हैं, उनका रामेचरिवर्मानंस मूर्तिमान् तुलसीदास है, संसार 'के
क्षोयों को भोवन 'भौर झोतन्द का संवंदा सन्देश देते रहने के लिए दोनों
झमर हैं |
(२ ॥
पुन्दरकाएंं
रामायण सात कारणों में विभक्त हैमिनके नाम हैं--शलकाणढ,
शयोध्याकाणड, वरण्यकायह, किफिन्धारांट, सुन्दकांड, लंफोर्काह
भर उत्तकांद । ये सातों कांड सम्पूर्ण राम का के विकास मेंसात
धत्तग २ अवत्थाभों के परिचायक हैं। रामचस्द्रहों के जत्म से लेकर
रम्याभिपेक तक जिन सात झुख्य मुझ्य मार्गों में कया का विकास
हुआ हैउन्हों केभुसार झांडों का भी विभाग किया गया है। गह
तो सामान्य उद्देश्य हैजो प्रत्येक कथा के विकास में देखने के मित्रता
है। परन्तु यह धात बरायर ध्यान मेंरखनी चादिए फि ठुलसीदाप्त भी
उपन्यासडेखक की भाँति केवल कपारस के शाननद से तृप्त करता ही
नहीं चाहते थे, बौकिक सुख के साथ २ हमारे पारमार्थिक सुत्र की
ओर भी उनका क्षय था । श्तएवं स्रात कांड अनुष्य के पारसाथिक
विकास की भी सात सीढ़ियाँ हैं। घात्कांढ का नाम उन्होंने संतोप
सत्पादन' रतेजां हैभौर उत्तर कांड का नाम 'अविस्तहरिभक्तिन््सरादना
है। इस खंखला में सुन्दरकांठ का स्थान पिमलज्ञान सम्पादन! का है।
यद्यपिरामचरितसानस में घालकांठ, थयोध्याकांद थादि अधि
प्रसिद हैं। परन्तु उपर्युक्त अंक्षत्ञा पर एष्टि डालने से मालूम द्वोता है
कि सुन्दरकांड का सी अपना अल्षग महत्व है। दोथ होने भीर लौकिक
धरित्र तया जौकिक चर्या को भोर श्धित्न अगसर ने होने के कारण
सुन्दरकांठ सामान्य लोकदचि की शष्टि सेधयोध्या कांड के घरागर
चाहे नहो सके, तथापि यह हम जानते हैंकि प्रायः लोग इसका
सोत्रप्ंथ की भाँति पा किया करतेहें । इससे सिद्ध होता हैकि एक
रूप मेंसुन्दरकांड का सहत्व दूसरे कांदों सेअधिक है।
कक पोज करबज प कक
चर्चा नहीँ है,उतनी से
[ ३]
झधिफ नहीं जितनी कि भगवान् के नररूप में चित्रित फरने
के लिए स्वाभाविक थी। भगवान् का नरचरित्र भी यहाँ अधिक
नहीं है, क्योंकि स्पष्ट नरचरित्रों सेउनका इसमें कोई सम्पर्व
भी नहीं होता । इसमें न त्तो धह निपाद से नाव पर चढ़ाने के ल्षिए
प्राथंना करते हैं, न जड्गत्वों में रहने के लिए स्थान ढूंढते फिरते हैं,
नस्री के आशभ्रह से दिरन मारने को दौढ़ जाते हैंऔर न फिर स्री के
खोए जाने पर विकल विरददी के रूप में विज्ञाप करते फिरते हैं। सुन्दर-
काण्ट में जो उनकी सत्ता हैवह साँसारिक चंचल्तता से परे गंभीर
शानन््त विकार-शून्य स्थिरता की सत्ता हैजिसमें परत्रह्य काभान करना
कठिन नहीं है। नररूप के छौकिक व्यवहार में भी यहां उसी स्थिरता
और मर्यादा के दुर्शन होते हैं ।लघ्मण में चनत्नक्तता दिखाई देती है,वह
कहते हैंसमुद्र को सुखा दो, परन्तु सर्वश्ञ भगवान् मुस्करा कर निर्धिकार
भाव से फैवल इतना दी उत्तर देते हैं-“-धीरज घरो, ऐसा ही होगा ।
झखिल देवताओं केविजेता रावण का वध कराने से पहछे यह
आवश्यक था कि भगवान् के पूर्ण यौर असली रूप का ज्ञान करा दिया
जाए, इसो लिए भगवान में विकार आदि का छेश नहीं है | यही परबक्ष
का रुप है। अतएवं हम फाणढ के आरंभ में सी देखते हैं किमहला-
चरण के प्रथम श्लोक में भगवान् का वर्णन 'शान्त॑ शाशवतमप्रमेय-
सनध॑ निर्वाणशान्त्रिप्रदं ब्रह्माशस्शुफशणीन्द्र सेन्यसनिश वेदान्तवेय
विश्ुम! कष्ट कर किया गया है, दूसरे काणडों की भाँति उनके रूप
आकार भ्रादि का कथन करके नहीं । दूसरी वात यह है कि इस काणड में
भगवान स्वर्य भीअपने सर्वशक्तिमान् रूप फा प्रकाश फरते हैं। दूसरे
काण्ठों में उन्होंने अपने प्यक्तित्त को अपने सुख से इतना अधिक और
इतने स्पष्ट रूप में प्रकट नहीं किया है ।चीस-पचीस प्ृष्ठों केइस काणड
में उन्होने कम से कम ६-७ स्थलों पर इस प्रकार श्रपने व्यक्तित्व का
. अल्लेख किया है,--यथा
[ ९४ 2
्ि ्दी
/सम्मु्ख होइ मीष मोदि जयहीं, जनम कोरिश्र नास्तह तंद
स'भु गिरिगांक।
#सुनहु सेंखा नि काले सुभाऊ, जान भुसुदि ी/
#ंचन काम मे मम गति आदी) संपनेहु व्रिपति कि घाहिय ताह
माही ।”
“धजदुपि संखा तवदच्चा नादों, मोर दंरसु अंमोघ जग
आदि । दूसरों के द्वारा रामचस्त्र जो की मद्दिरा का वेर्णन तो तमाम
का संधांद,
कांड में हीभरा पढ़ा है, जिसके उदाहरण इचुमान रावण
ण-संवाद
रावण-विभीषण फा संवाद, राम विभीपण का संवाद, झफलराव ्
िमान का
घादि हैं। हुस प्रकार विमज्जज्ञान फा सृज् भाधार सर्वशक्त
यथार्थ रूप दिशाना सुन्दरकांह का अधान पारमाधिक उद्देश्य है।
परन्तु उद्देश्य इतने में दी समाप्त नहों शोता। उस इश्चर के
प्राप्त करने के लिए भक्ति हीसब से सरल मार्ग हैऔर भक्ति फा
आधार हैसगुण उपासना । भगवान स्वयं कहते हं--
“सगुन-उपासक परहित, निरत नीति-हडनेम ।
तेनर प्रावन्ससान मम, जिनके द्विजपद़ प्रेम ॥7
इस उपासना भौर भक्ति के सर्व्रे्ट आदेश भक्तशिरोमणि हञुमान्
की हैं;यहाँ तक कि राम यदि भवनहैं तो इम॒मान् जी द्वार हैं। तुकसी-
दास जी के भी हनुमान जी के द्वारा ही रामचर्द ली के दर्शन हुए
ये । हनुमान जी सुन्दरकाण्ठ के सुझ्य चरित्र हैं। वह भगवान फे परम
सेवक और अननन््य कार्य साधक हैं। उनका तेज, बज, वेग अपार है,
यदि यह घहा जाएं कि वह भगवान् की ही एक शक्ति हैंतो घत्युक्ति
नहीं होगी, परन्तु श्पदी भक्ति फीअसोमता में वह अपने के भकिशन
समभते हैंऔर ऋएते हैं---
“सॉखाऊ्ंग को अति भलाई; शाखा तें शात्रा ऐ जाईं।
लॉधि सिंधु हाटकपुर जारो, निशिचंरगन विधि विपिन उजारा।
सो सब तब प्रताप रघुराई, चाथ न कुक भोरि प्रभुताई [”
[ १५ ]
मंहिसां भौर विनय के भागारस्परूप ऐसे देवता का चरित्र किसके
हंदेँये में भक्ति की उज्ावना नहीं करेगा । हन्ुमान् के सामने इस प्रकार
श्रद्धा सेफुफरर हमे इनुमान् के स्वामी ,के सामने स्वाभाविक रूप से
ही झुक जाते हैंभौर उनके कुछ निकट पहुँच जाते हैं, क्योंकि भगवान्
के भक्ते ठ्रिय हैऔर भंक्त से भी श्रधिक भक्त का भक्त
यही सुन्देरकाण्ड फा महत्व हैऔर उसकी विशेषता है। छान
सम्पादन का प्रॉरग्सिक फास यहाँ पर इसी रूप मेंसिद्ध किया गयो है--
भगवान् की पूंण॑ भदिमा दिखाकर और उनके लिंए भक्ति कीसहज
प्रेरणा करके । परन्तु कर्थांविकास का झझ होने के कारण सुन्दरकायढ़
लजौकिक व्यवेद्वीर की व्यक्षनां से भी एंक्ान्त शून्य नहीं हैथथपि लौकिक
व्यवहार में दुर्बल् मानंत्री विदारों के दिखाने को यहाँ अधिक गुझआइश
नहीं है। संगवोन को रूप यहाँ पर पूर्ण शक्तिमान् स्थिर परिचालक
का है ! पंदले इंमे देख चुके हैं कि रावण के इलुमान् जी का उत्तर
कितने वह से भंग. हुआ है और उसमें राजमोति का क्या
तप्व भौजंद है। इसी प्रकार संगेवान् का विभीएंण से संमझुद्ध पोर करने
के लिए राय भाँगना एक तो अ्रभ्यागत के संत्कार॑ की लोकेमर्यादा का
उदांदरण है औौरं दूसरी भोर वह राजनीदि की एक चाल भी है)
विभोपणण शत्र-पंक्त का एक विशेष व्यक्ति हैभौर॑ इंस संमेंये वह अंपने
पत्ते से रूंड केरे भराया है। उससे शंत्रु केजीतने में बंहुत सहायता
मिल्ल संकंती है-+शत्नुं केबहुंच सेभेद मालूम हो सर्कते हैं। शत:
उंसके खातिर दिखाकर मिलांए रेखेनो ओविश्यंक है, जिसके फत्नस्व-
रूप तत्काक्ष ही उंसंकों राजतिलेक हो जांता है। भौर उसे सलाहकार
बना लियों जांता है | संववांन्, यहे जानते हुए भो कि अनन्त: अपनी
प्रभुतो का प्रभाव दिखाए बिंतीं समुद्र पोर भंहीं किया जा सेकेंगो, ऐंक
औोर तो सर्थादो-पात्नंन केलिए और दूसरी झोरें विभीषण का संने
रखने के किए उसकी संलांह के अनुसार कार्य करते हैं।
[ १६
दूसरे काँडों की भाँति सुन्दरकांए में भी ज्लोकप्यवदार सम्बन्धी
अनेक सूक्तियाँ भौजूद हैं ।. उपयुक्त प्रसंग के हीदो एक उदाहरण. डृष्टव्य -
हा
#श्रय विन होह न प्रीति ।7
“पद सन विनय कुटिल सन प्रीती, सहज कृपण सन सुन्दर नीती।
ममतारत सन श्ञान-फहानी, ध्ति लोभी सन पिरतति यखानी।
क्रोधिह सम कामिहि इरि कथा, ऊसर बी बये फन्न जया ।!४
१काटे पैकदली फरे, कोटि यत्न फर सींच |
विनय न सान खगेश सुनु, एाटेदि ते नवभोत ।
#होक्ष गँवार शूद पशु नारी, ये सब ताइन के अधिकारी ।”!'
काव्य फी दृष्टि सेदेखने पर हसको तुलसीदास जो की फविता के
आय; सब सुण्य लक्तण सुन्दरकांह में मित्षते हैं । अक्षद्गरों में उपमा,
रूपक भादि के उदाहरण ययेष्ट हैंजिनमें अवसर के अनुकूल भोति फा
धरुद भी मिक्षा होता है,रसाधार भावों के उदाहरण भी देंजैसे सीता
जी फा अपनी विरहनदृशा का वर्णन, चरित्र-चित्रण में हजुमान् णी
और रामचन्द्र जी के उदाहरण दिए जा चुके हैँ । चरिक्र-चित्रण का
उत्कप यही है कि पात्र के वास्तविक स्वभाव और करे का यथार्थ
परिचय हो जाए। सुन्दरकांड पढ़ कर हनुुमान् जीकी पूरी भसलियत
से हम यढ़े स्वाभाविक दहन से परिचित हो जाते हैं,रामएन््द्र जी का भो
जो मूल परन्तु यहाँ नया रूप हैउसे हम भष्दी तरह जान केसे हैं। थोड़े
थोड़े अंद्ष मेंरावण तथा भ्रन््य गौण पात्रों का भो कुछ परिचय होता
है जो भाग तक्स्ाफांड सें भ्रधिक विकसित होता है। घरिन्र-सिप्रण
के अन्तगतभावों की सूध्म भवस्थाओं का भी कहीं कहीं वर्शन है
सीता जी फा विरहाकुल होकर चशोक से परग्औार माँगना झौर अंयूही के
अंगार के धोखे से उठा छेवा, फ़िर उसे पहचान कर चकित होना तथा
इष-विपाद केबच्चीभूतहोकरसन में
तर हक के तक करना, छिपे
[ ९७ |
हुए इलुमान् जी के मुख से राम-गुण सुनकर उन्नसित होना 'भौर
इमुसान् छो के प्रकट द्ोने पर विध्षय भौर संकोच से मुँह फेर कर भ्रैठ
जाना सृष्तम चित्रण का बढ़ा खें्ठ उदादरण हैं | इसी प्रकार
“क्पिद्टि विज्ञोकि दशानन, विहंसि फट्देसि दुर्घाद्।
सुत-प्रध-सुरति फीन्ह पुनि, उपजा हृदय विपाद।” शौर बाद में
क्रोध के बशीभूत हो रायण फा कटु॒बचन आदि फहना मानसिक धवस्था
का यहा सपा वर्णन है ।
फाब्य के अंगमूत 'श्रज्ुत” तत्व को, जिसे चड़प्रेज़ी में र०9॥:
कहते हैं, सुन्द्रफाणट में प्रचुरता है। परन्तु प्रकृतियर्णन इस में नहीं
के घरावर है । यह शायद एप लिये कि पाल्मीकि के सुन्दरकाणढ का
पूर्ण झाधार ल्ञेफर तुब्सीदास जी ने अपने सुन्दरकाण्ड को भधिक बड़ा
नहीं बनाना ठाहा क्योंकि उनका उद्देश्य यहाँ पर अपने प्रभु का प्रसत्ीं
रूप दिखाना तथा एच्चुमान णी की महिसा का वर्णन करना ही था ।
सुन्दर काणड
शार्सा शारयत्रमग्रमेषमन्थ निर्धाणशान्तिग्रई
पष्ाशस्भुफणोस्द्रसेग्पमनिश येदास्तवेय विमुम ।
रामाश्य बगदोरुपर सुस्गुरा सायाप्रजुष्यं हरि
पन्दे5४्' फदगाढर रघुवर भूपालचूनामणिम् ॥
नित्य, शान्त, अपार, पापरह्टित, मोत्ततथा शान्ति के देनेवाले,
भ्रद्मा मंद्ादेव जी और शेपताग से सेवित्त, वेदान्त द्वारा जानने
योग्य; व्यापक, रामनाम बाले संसार के खामी, जो देवताओं के
भी प्ृत्य हैंऔर अपनी माया द्वारा मनुष्य रूप धारण फरने वाले
सालान भगवान हे; जो रघुकुल मेंशेष, करुणा के करने वाले और
राजाओं के शिरोमृपण हैं, उनको मेंप्रणाम करता हूँ!
मास्या स्पुद्ा रघुपते एयेड्स्मदोये सम्यंबदामिच भवानसिन्ञान्तराष्मा ।
भक्ति प्रयष्ट् रघुएंगव मिर्भरा से फामादिदोपरद्दित कुरु सानसे च॥
हे खुकल के स्वामी; मेरे हृदय मेंकोई दूसरी इच्छा नहीं है,
यद मेंसत्य कहता हँ-“और आपतो सब के अन्त्यासी है--अुे
अपनी केवल पूर्ण भक्ति दीजिए और मेरे मन को काम आदि
दोषों से रहित कीजिए । ( बस, यही मेरी इच्छा है | )
ञ् [झुन्दर काण्ड
भतुल्ितबलघारम स्वर्णशैक्ञाभदेहं दसुजवनकृशाशु शानिनामग्रगशयम्।
सकलगुणनिधान वानराणमधीश' रघुपतिवरदूत चातजात॑ नमामि ॥
जो अपार बल केआगार हैं,जिनके शरीर की कान्ति सुवर्ण
के पे (सुमेरु )की कान्ति के समान है;जो राज्षसरूपी वन के
लिए अग्नि के समान है, ज्ञानियों में जोअग्रणी हैं,तमाम गुणों
की जो निधि हैं,उन बानरों के अधीश्वर तथा श्रीरामचन्द्र जी के
औष्ठ दूत पवनपुत्र (हनुमान् जी ) को मेंप्रणाम करता हूँ।
जामवन््त के बचन सुध्दाये । सुनि हनुमन्त हृदय भ्रति भागे |
श्रीहनुमान् जी तथा अन्य वानरगण समुद्रतट पर वैठकर श्री
: सीता जी की खोज के लिये तरह तरह के उपाय सोच रहेहैं।
उस समय जाम्बवान् ने श्रीहुमान् जी से कहा कि तुम्हारे समान
बल-चुद्धि मेंकोई नहीं है।तुम्ही समुद्र लांघकर जाओ और सीता
जी का पता लगाकर श्रीरामचन्द्र जीको समाचार दो । फिर श्री
रामचन्द्र जीअपने वाहुबल से रावण का वधकर सोता जी को
'हे आएँगे। उसके बाद का प्रसंग सुन्दर काण्ड मेंआरम्म होता है।
सुहयये--शोमित, अच्छे लगने बाले, मनोहर । ह
जास्ववान् के सुन्दर वचन सुनकर हनुमान जी को हृदय में
बड़ा आनन्द हुआ, उन्हें वेबचन बड़े अच्छे मार्ूम हुए॥ -
तथ छामि मोह परिखेहु तुम भाई । सहि दुख कन्द मूल फल खाई ॥)
जब लगि आवर्द सीतहि देखो। होह कान मोहि हरप हिसेखी 0
परिखेहु--परीक्षा करना, प्रतीक्षा करना, राहदेखता । हरघ---
'हषे। विसेखी--विशेष, अधिक।
हेभाई, आपलोग मेरी उस समय तक राह देखना और कन्दू,
मूल तथा फल खाकर समय बिताना जब तक कि मैंसीता जी का:
: पता लगाकर लौढ न आहूँ। यदि कास बन गया तो मुझे बड़ा -
रामचरित मानस ) ३
हर्ष होगा ( अथवा मुझे बड़ा हर्ष हो रहा है, अठः कार्य अवश्य
रु ५ ९ की ठ
सिद्ध होगा ) ।
शप्त फ्टि नाह सन फट्े माथा | घछेठ एरलि ह्िय घरि रघुनाथा ।
मसाथा--मसस्तक । हिय--हृदय ।
ऐसा कार फर भर सब फो मस्तक नवाकर श्रीहनुमान् जी
/हंदय मेंरघुकुल फेखागी श्रीरामचन्द्र जी का ध्यान रखते हुए चढ्े।
स्िन्तु भीर एफ भूधर सुन्दर | फीतुझ झूदि छद्रेंड ता ऊपर।
धार पार रघुदीर सेभारी । तसरकेठ पबनतनय यलभारी॥
ख। सिन्पु--समुद्र। भूधर--ए०्बरी को धारण फरने वाला अर्थात
पंत । कौतुक--खेल से, आसानी से । सेभारी--याद करके।
तरकेइ--गर्जना की ।वबलभारी--भारीवलवाले, (बहुत्नीहि समास)
या; बल भारी--भारी बल से; बढ़े वेग से ।
समुद्र फे फिनारे पर एक सुन्दर पर्वत था। इनुमान् जी बड़ी
सरलता से कूद कर उसपर चढ़ गए। बार वार रामचन्द्र जीका
स्मरण कर पवन के पुत्र परम वलशाली हनुमानजी ने गर्जना की ।
जेट गिरि चरम देह एनुमन्ता। चक्षेठ साभगा पातान सुसन्ता।
जिमि धमोधघ सघुपति कर माना | तेही भांति चत्ना पलुमाना ॥
जेहि--जिस । गिरि--पवत; यहाँ परत की चोटी : जिमि--
जैसे |अमोघ--अचूक । फर--का, के |बाना--वाण ।
जिस जिस पवेतनशिखर पर हनुमान् जी चरण रखते थे
वहीं ( उनके भार से ) तुरन्त पाताल को घैँंस जाता था। जिस
प्रकार रामचन्द्र जीके वाण अचूक हैंउसी प्रकार हनुमान् जी
, <मी ( बिना किसी रोक ठोक या वाघा के ) चले ।
अलकझ्कार--उपमा ।
४ [सुन्दर कांड
जेवनिधि रघु-पति-दूत विचारी | ते मैंनाक ऐोएि श्रमदांरी ।
जलनिधि--जल की निधि या खजाना, ( तल्युरुप समास )
समुद्र । अंमहारी--अम, अथात्त थकान का हरेने वाला (तसुं5 )
तैं--तू, कहीं कहीं इसके खान में कह पाठ है. ।
समुद्र नेहनुमान जीको रामचन्द्र जीका दंत समम कर
(मैनाक पर्वत सेकहा कि ) “हे मैनाक, तू हनुमान जी की
थकान को दूर कर |”
इनूमान तेद्दि परसा, कर पुनि कीन्द प्रनाम ।
शमकाञ फीन््हे धिता, मोट़ि कहाँ विसाम ॥
तेहि--उसकों | परसा-रपर्श किया; छूआ। कर--हाथ ।
पुनि--पुनः, फिर । रामकाज--रामकार्य (त्त्पु० )मोहि-मुमकों।
विस्लाम--विश्रास ।
(समुद्र के कहने से मैनाक ऊपर को उठगया लिससे हनुमान
जी उसपर बैठकर थोड़ीदेर आराम कर सकें । तब हनुमान जी
ने )उसे अपने हाथ से छूआ ओर फिर उसे प्रणाम क्रिया।
( तदनन्तर उन्होंने कहा कि ) “रामचन्द्र जीका काम जब तक
पूरा न कर लूँतव तक मुझे आराम करने का कहो अवसर है ?!
जात पवनसुत देवन्द देखा। जानरइ कफहुँ बल-बुद्धि-विसेशा |
सुरसा चाम श्रह्चिन कै माता । पठ़नि काट कहा तेटि खाता !
कक अधिक (ता )। जानइ कहुँ--जानने के
2० | अहिन “सपे को। पठइन्हि--अस्थापिता, भेजा।
बाता--चबाता ।
देवताओं ने वायुपुत्र हनुमान जी को
जी की बल-बुद्धि कीविश
कक विशेषता
देखा। उन्होंने हनुमान्
जानमे के लिए सर्पी कीबल साताक
रामचरित मानस |] ५
को, जिसका नाम सुरसा था; भेजा | उसने (हनुमान जी के पास
पहुँच फर यह ) बात कही--
भाव सुरन मोदि दीनद अह्रारा। सुनते यचन कह पयनकुमार।।
अठदारा--मआदार भोजन |
#आज देवताओं ने मुके भोजन दिया है. ।” यह वात सुनकर
गनुमानजी घोले--
रामकांश हरि फिरि में भायठों । सोता के सुधि प्रभुष्ठि सुनावठं ।
तथ तते यदन पैडिहरडं धाई । सर्व फट मोद्दि जान दे माई ।
फिरि आव् --लौीट आऊँ। सुधि--शोध, ख़बर, समाचार |
तब--तेरा। बदने--वदन, मुख । पेठिह्ड--अवेश कर लगा,
बैठ जाऊँगा ।
“रामचन्द्रजी का कार्य करके जौट आऊँ और सीता जी का
समाचार अपने खामी (रामचन्द्र जी ) को दे आऊँ। उसके बाद
में तेरे मुख में ( स्वयंद्दी ) आ चैठगा । में सच कहता हूं, माता,
मुझ जान दे।
कानेह उनमे देश नहिं जाना। ग्रससि ने मोदि कहेठ हलुमाता ।
फवनेट--फिसी भी । जतन--यत्र, युक्ति | प्रससि--( ग्रस
धात का वर्तमान में मध्यम पुरुष एक वचन का रूप )निगलना ।
(हनुमान, जी की तरह तरह की युक्तियां देने पर भी )किसी
भी प्रकार वह उसको नहीं जाने देंती ( थी ) | हतुमाव जी ने कहा
/जुके न् क्यों नहीं खाती ? (अथवा, मुर्क मत खा 97
झोजन भरि तेहि बदलु पारा | फाँप तनु कौन्द्र हु-मुनन-विस्वारा॥
सोरह जोगन सुख सेदि ठयठ । तुरत प्रनसुत बत्तिस भय ॥
क्षस रस सुरसा यदनु यदावा । तासु दून कपि रूप देखाबा॥
मु [सुन्दर कांगड
सत जोनन तेदि धानन कीसा । शति-जपु-हुप पयन्सुत झीन््हा ॥
ब्रदुन पहढि पुनि
छाहेर श्रावा। संसा विदा साहि सिद नाथा के
कक सेहेकि
दिलथा ध्जज
५
व रद
वी जो का ससाचा
“लिए बिना यहाँ आएगा वह जीता नहीं बचेगा )।
सुख प्रसन्न तन तेज विशाजा कीन्हेंसि
मिले सकल श्रति भये सुखारी |पंधकत आन बाज82
| जबु बारी।
4४८ ,--+ जे $ जअज-+०+५०+ंन+-+»>+>अ>+>>+हतबेनलल+>-««भ9
>> तनकसनसंक मेक कं को 4209
रामचरित मानस ] ६३
तन--तनु, शरीर। तज--कान्ति । विराजा--शोभायमान
था | तल्नफत सीन--तड़फती हुईमछली । जनु--सानो । वारि--
जल |
इनुमान् जी का $ख प्रसन्न थाओर उनका शरीर कान्ति से
चमक रहा था ( इससे सबने समझ; लिया कि इन्होंने )रामचन्द्र
जी का कार्य पूरा कर लिया। सब कोई हनुमान् जी से मिल कर
बड़े प्रसन्न हुए मानो (जल से अलग हुई) तड़पती हुईमछली
, फोंजल मिल गया हो |
घले हरपि रघुनाथक पासा | पूछत फट्त नवत्ञ इतिहासा ॥
तथ भंधुवन भीतर सब थाये। शमंयद्संमत मधुफ्त खाये ॥
रखबारे ज़थ बरजन छागे । म्रुष्टि-प्रहार इनत सब भागे॥
नवल--नया । इतिहास--समाचार । मधुवन--राज्य के
बगीचे का ताम । अंगद--वालि का पुत्र तथा राज्य का युवराज ।
अंगद संमत (तत्यु० )--अंगद की अनुमति या आज्ञा पाकर ।
मधु फल--मीठे फल | वरजन--(वर्जघाठ) सना करने लगे।
मुष्टिपदार--धूंसो की चोट | हनत--मारते पर ।
फिर सब लोग आपस में (हनुमान जी के) नए लंका-समचार
को पूछते-कहत हुए रघुनाथ जी के पास को चल दिए।
(मार्ग में वें) मधुवन्न केभीतर घुस गए और अंगद की
अनुमति से वहाँ केमीठे मीठे फल खाने लगे। जब बाय के
रक्षकों ने उन्हें मता किया तो उन्होंने रक्षकों का धूँसों से मारा
जिससे ये सत्र ( रक्षक ) भाग गए | ः
जाह धुकारे तेसब, बन उजार छुबराज॥
सुनि सुभीव हरप कपि, करि भाये प्रमुकाज॥
जौ न होति सीठा सुधि पाई । मंछबन के फल सकहि कि खाई॥
अप कि चण.
2; [ सुन्दर काएंड
कहे हैं। (उन्होने कहा हैकि )छोटे भाई लक्ष्मण सहित प्रभु
रामचन्द्र जी के (मेरी ओर से )चरण पकड़ता (और कहना
कि ) आप दीनों के वन्धु और विनीतों के दुःख को दूर करने
वाले हैं।
मन क्रम बचन चरन अलुरागी। केहि सपराध नाथ हाँ त्यागी ॥
शबगुन पक :मोर में जाना। विद्दुरत प्रान न कीन्द पयाना॥
हों--अहम, में । अवशुन--अवगुण, दोष । मोर-मेरा
अपना | पयान--अयाण, गमन, जाना ।
मेरा मन, कमे और वचन से आपके ही चरणों मेंअनु-
राग है,फिर किस अपराध से आपने अभे त्याग दिया! हाँ,
मेंअपना एक दोष जानती हूँ किआप से विछुड़ते हुए मेरे प्राण
नहीं निकल गए ।--
.ज्षाय सो नयनन्द्रि फर अ्पराधा । निसरत प्रान कर्राहिं इडि बाधा।
बिरए-अमिनि तलु-सूत् समीरा। स्वास जरह छुन साँद सरीरा ॥
नयन ज्वहि जज्न॒निन्नहित ज्ञागी। जरहइ न पाव देह विरहागी ॥
कर--का | निसरत--निकलते समय, निकलने में । हठि--
जवदस्ती। वाधा--रुकावट ! तूल--रूई । छुन--क्षण |
सवहिं--गिराते हैं,वरसाते हैं। निजहितलागी--अपने हित के
लिए। जरइन पाव--जलने नहीं पाता । विरहागी, विरह-
अगिनि--विरहाग्ति, विरह रूपी अप्ति (रूपक )।
४ | स्वासी, सरोयह तो मेरे नेन्रों काअपराध हैजो ग्राणों
के निकलने मेंजबरदस्ती रुकावट डालते हैं। आप का विरह तो
अप्नि है औरमेरा शरीर रूई तथा साँस (जो मेंलेती हूँ)वायु है।
( घायु से भड़की हुई विरहरिन से रूई-रूपी )शरीर एक क्षण
भर मेंजल जा सकता है,परन्तु नेत्र (आपके दशैनों की आशा
रसमचरित मानस ] ६९
में)अपने लाभ के लिए जल बरसा देते हैं(अर्थात् रोते रहते
हैं,इस कारण ) शरीर विरहप्रि सेजल नहीं पाता ।--
अलड्ार--सांग रूपक तथा उस्नेज्ञा कासंकर।
सीता के धति पिपति विप्ताज्ञा, पिनहिं कहे भज्ष दीनदयाला॥
निम्तिप निमिष फरनानिधि, जाएि फरपसम बीति।
ग्रेमि चक्षिय प्रभु धानिय, भुजपल्॒ खजदल जीति ॥
झति विसाला-बहुत बड़ी । दीनदयाला-दीनदयाछु,
दीनों पर दवा रखने वाल (तत्यु०)। निम्तिष निमिष--पत्र पल।
फरप--युग । बेगि--जल्दी से | आनिय-ले आइए ।
: शुतबल--अपनी भुजाओं के बल से |खलदल--दुए राक्षसों के
समूह को (तत्यु०)।
(अब हलुमान् जी कहते हैं. कि ) “हे दीनों पर दया करने
वाले प्रनु, सीता का कष्ट चहुत बड़ा है--उसका न कहना ही
ठीक है.। उनके एक एक पल एक एक युग के समान बीत रहा
है। आप जल्दी से चल कर और अपने वाहुवल से राक्षुसों के
समूह के जीत कर उन्हें छेआइए ।”
सुनि सीता-दुख प्रश्न सुख-ऐना । भरि थाये जक्त राजिव नैना ॥
बचने काग्र सन मम गति जाही । सपनेहु वृक्तिय विपति कि ताही ॥
ऐन--अयन, धर स्थान | सुख-अयन--सुखधाम (त्त्पु०) ।
राजिवनयव-कमसल के समान नेत्रों में(उपसा) | गति--पहुँच॑;
शरण । जाहि--जिसके | सपनेहुँ-+स्वप्त में भी|यूकिय--पूछ
सकती हैं| ह
सीता जी के दुःख के सुन कर सुखधाम प्रभु रामचन्द्र जी के
कमल से नेत्रों में जल भर आया। (और उन्होंने कह)
“मन, कर्म और वचन से जिसे मेरी ही शरण हैउसे कया स्वप्त
अलन्भीरक.
् [सुन्दर कार्ड
मेंभी विपत्ति पूछ सकती है! (अरथोत् उसे स्प्न मेंभी हुःस
नहीं हो सकता ) ।” ।
पा इलुसन्त विपति प्रभु सोई | जब तव सुमिरित भजननु नहोई॥ .
कैतिक बात प्रमु जातुधान फी । रिपुद्धि जीति पआानिवी जानकी॥
केतिक--कितनी ।आनिभ्री--लिवा लाईजाएँगी । सुमिरन-- .
' स्मरण, याद | ।
हनुसान जीने कहद्दा, “हे प्रभु, विपत्ति तो वहीं हैकि जब
आपका स्मरण ओर भजन नहीं दाता । (अथात् आपके भजन में
बाधा होना ही असली विपत्ति है,और सब विपत्तियाँ तो तुच्छ
हैं) | स्वामी, राज्सों कीकितनी सी बात है? शत्रु के। लीत कर
जानकी जी लिवा लाई जाएँगी ।” |
सुनु कपि तेोहि समान उपकारी । नहि कोट सुरनरमुनितलु घारी ॥
प्रति-उफकार फरठ का तोरा । सनमुख ऐोह ने सक्षत्र सन सोरो ॥
उपकारी--भलाई करने वाला । तनुधारी--शरीरवान्, शरीर
धारण करने वाला । प्रतिनठपकार--उपकार का बदला |
श्री रामचन्द्र जी वोले, “हे कपि, सुनो, तुम्हारे समान भेरा
उपकारी कोई शरीरवान् देवता, मनुष्य या मुनि नहीं है। तुम्हारे
उपकार का मैंक्या वदला दे सकता हूँ? (तुम्हारे उपकार से
इतना दवा हुआ हूँ कि) मेरा सन तुम्हारे सम्मुख नहीं
हो सकता ।”? |
सुन सुक्ष तोहि उरिन मेंनाहीं । देखेड फर विचार सन माँहीं।
घुनि पुवि कपिहि चित्व सुरक्षाता। लोचन नीर पुलक भत्ति गाता ॥|
उरिन--उऋण, ऋशभुक्त, जिसने कज् चुका दिया है।।
चितव--देखते थे । पुल्क--रोमांच ! गात--गात्र, शरीर।
सुरत्राता-देवताओं के ज्राता या रक्षक (तत्पु०) |
रामचरित सानस ] ७१
हे पुत्र, मेंने मन मेंसोच कर देख लिया कि में तुम्ारे
(उपकार के) ऋण से नहीं छूट सकता ।” देवताओं के रक्षक
रामघन्द्र जी वार बार एनुमान जी की ओर देखते थे, उनके
जल बह रहा था और शरीर मेंरोमाथ्व दे रहा था।
नेत्रोंसे
झुनि प्रभु-यचन विज्ञोफि सुस्र, गात हरपि हनुमन्त ।
घरन परेड प्रेमाकुज्न, त्राहि त्राहि भगवस्त॥
प्रभु अचन (तत्पु०)। हरपि-हर्पित होकर। त्राहि--रक्षा
करो ।
भगतान्केबचन सुन कर ओर उनके मुख की ओर देख
कर हनुमान जी शरीर से पुलक्ित हा उठे और प्रेम में व्याकुल
दी कर रामचन्द्र जी के चरणों पर गिर पड़े (वथा कहने लगे) ।
दे भगवन् , मेरी रक्षा करो, रक्षा करो ।”
बार बार प्रभु चहएि उठावा। प्रेससगन तेहि उठव ने भावा ॥
प्रभु-कर-पक्षथ कपि के सीसा | सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा ॥
प्रभु कर पंकज--रामचन्द्र जी के हाथ रूपी कमल (तलु०।
ऋूपक) | उठव--उठना | दसा--दशा | मगन--सग्न, डूबे हुए,
प्रेममग्न । गौरीसा-गौरीश, गौरी के स्वामी (तत्यु० );
महादेव जी |
रामचन्द्र जीवार वार हनुमान् जी को उठाना चाहते हैं
परन्तु प्रेम-मग्न हलुमान जी के उठना,हा."नहीं लगता |
भगवान हलुमान जी के सिर पर हाथ रक्खे हुए हैं। उस दशा के
याद करके महादेव जी भी प्रेम मेंमग्न है| गये ।
सावधान मन फरि पुनि संकर। लागे कइन कथा श्रति सुन्दर ॥
कपि उठाई प्रभु हृदय लगावा। करि गहठि परम निकट बैठावा ॥
र्भ
ज्र् [छुन्दर काएह . ' (
भेज दो--
रामचरित मानस ] हे
बनी
श्श्ष
जी के) दास तुलसीदास जी ने अपनी बुद्धिकेअनुसार गाया है।
रघुनाथ जी के गुणों के समूह(का कीतन) सुख का स्थान है,
संदेह के शान्त करने वाला हैतथा शोक को दूर करने वाला है।
(तुलसीदास जी अपने मन से कहते हैंकि) “अरे दुष्ट मन,
तमाम आशाओं आर भरोसों के छोड़ कर तू हमेशा (भगवान्
के उसी चरित्र ओर गुण समूह को) गा और सुन ।”
सफल सुमालदायक, रघुनायक ग्रुनगान।
सादर सुनदहि' ते तरहि', भव-सिंधु विना जदजान ॥
सुमगलदायक--झुन्दर कल्याण का देने वाला (तत्यु०)।
रघुनायकगुनगान-रघु (कुल) के नायक के गुणों का गान
(तत्यु०) । सादर--आदरपू्षक (अव्ययी०)। भव--संसार ।
भवसिधु--संसाररूपी समुद्र ( रूपक )। जलजान--जलयान,
नौका, जहाज़ ।
श्री रामचन्द्र जी फे गुणों कागान सब प्रकार के कल्याण
का देने वाला है। जो लोग इसे आदर के साथ सुनते हैं वेनाव
के बिना ही संसार-सागर के पार कर जाते हैं|
इतिभ्रीरामचरितमानसे सकलकलिकल॒पविध्व॑सने
ज्ञानसम्पादनो नाम
पभ्चमः सोपानः समाप्तः ॥