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वह्नभाचा््य भौर उनके पुष्टिसा्ग

अर्थात्‌
. » वेध्धवसतका
संक्षिप्त इतिहास ।
किलिलपयलनम««तथ»ननक-म
मरना के. सका,

भारतके दक्षिण दिशामें तेलंग प्रदेश है, भनेक


विहांनोंका सत है कि, जब श्राय्यलोग अपने आदि
स्थान, तिव्वतसे यहाँ भाये उस सर्मंव यहाँ अनाये
लोगोंको वस्ती थी, उनको माषा भी भ्राप्टलियन
भाषाय सिलतो झुलतो थो, घिसक्रो द्राविड़ी भाषा भौ
कहते हैं। भझाज भी सदरास प्रदेशमें बहुधा द्राविडो
तामिल, तेलंगी, तुलुव भादि भाषाये वोली जाती हैं
जो कि भारतवषके किसी प्रदेशों भाषासे नहों
मिलती, किन्तु भारतको भ्रन्यान्ध सब भाषाये' थथा--
कृत, हिन्दी, बंगला, मराठो, पंजाबी, सिन्धी, सार-
वाड़ी गुजरातो, कच्छी, विद्वारी, उड़िया भादि परस्थर
बहुत सिंलती हुई हैं, सथा सदरास प्रदेशके लीगोंके
रीतिरिवाज भी .हस भाये-हिन्दुभोंसे नहों सिलते,
( ४३२)
आहकृतिमें भी मदरास प्रदेशशे आदसो इससे भिन्र
भाफ़िकादि लोगोंके तूल्य काले-रंगके होते हैं। .
मिस्टर स्युर नामक किसी अ'ग्रेजने अपनी पुस्तक
में लिखा हैकि--
76 णव 5थ्यांदर्पई 7/ं॥श-्नपा४ 70763 086
४6 30एश॥ 90पे४४07 रे पता है॥06 49 70
406 0 एऋ6४ं,.. 708 ए७8 8)7'.08097 7००१)४१
एज & 687: 60॥फर४5९तं 9809]95 77076 [76 ॥8॥6
2.प्रड0क्ीकाड पका कार 078 0४९, 800 5080०४72
४ 2707-०६ ॥872 4888 08९९ ॥0/-8४60787.
मोंसाइयोके पूर्वज भी इसी अनाय्यथ तेलंग जातिके ,
है। तैंलंग देशके काकड़वाड़ नामक ग्राममें यज्ञ नारा'
यण भट्ट नामक तेलंग ब्राह्मण रहता था, उसके कुलमें
लक्ष्मण नामक एक लड़का हुआ । लक्ष्मण विवाह कर
किसो कारणसे माता पिता और खौको छोड़ काशोरम
जाके एक सन्यासोसे कि मेरा कोई नहीं है भूट वोलकर
सन्यास ले लिया। दैवयोगसे उसके मातापिता और स्त्रोने
सुना कि लक्ष्मण काशोमें सन्धासो हो गया है, -उसके
मातापिता, स््रोके ले काशी पह'चेश््रीर जिसने उसको
सत्यास दिया था, उससे कचह्टा कि, इसकी सन्धासो क्यों
किया है ? देखो !इसको युवती स्त्री है, और स्तीने-भी
कहा कि, यदि आप सेरे पतोको मेरे सांथ न -करे तो
( ३)
सुरूको भी सन्यास दे दोजिये ; तबतो साधुने लक्ष्मण
को बुल्चाके कहा कि, तूवड़ा सिध्यावादी है, सन्यास
छोड़ ग्ट्‌इस्थो हो क्यों कि तूने कूठ बोलकर सन्यास
लिया है, लक्ष्मणने पुनः वेसाहो किया, सन्यास छोड़
साता पिता और ख्ोके साथ हो लिया। देखिये इस
मतका सूल हो क्ूठ कपटसे चला। तव ॒तेलंग देशमें
गये, उसको जातिमें किसीने न लिया, क्यों कि, सन्यासो
झोकर ग्टस्थी बनना शास्र विरद है। जबतक माता
पिता जौते रहे लक्ष्मण देशमें हो रहा; पश्चात्‌ स्त्रोको
लेकर काशीम आ रहा भौर भिचाहत्तिसे ग्रुजरान
करने लगा। काशोसे लक्ष्मणके घर प्रथम पुत्र उत्पन्न
छुआ जिसका नाम रामकृष्ण रकक्‍्वा, लड़का जन कुछ
बढ़ा छरभ्ा तब पैसोंकी तंगो वा पालन पोषणको अशव्य-
ताके कारण उसको एक गिरि साएुको बेच दिया वा दे
दिया | ह "
: कुछ कालके बाद काशोमें सुसलमानोंकी लड़ाईका
बखेड़ा भारण्त हुआ। सब लोग काशोसे जहां तहां
भागने लगी, भौर लक्ष्मण भट्ट भो जिस्मो गुसाइयोंके
पुस्तक़ोंमें शोवासुट्ेवका भ्वतार लिखा है अपनो स्त्री
इक्षमागारु जिसके पेटमें “पूर्ण पुरुषोत्तम .वज्ञभ” था
वष्ट भी अपना इत्षम दिखाये बिना हो दोनों स्त्री पुरुष-
को भागना पड़ा। , भागते, इुए स्ार्गश्रससे ' चस्प्रारण्यमें
( 8 )
इच्रमागारुके पेटम वेदना होकर सात सासक्ा कच्चा
बच्चा स्रवित हो गया। बच्चेकोलपेट कर किसो हृच्चके
नीचे गाड़कर चतुर्भद्रपुर ग्राममें जानिवास किया ।
काशोमें जबखलबली शान्त कुई। भागे हुए सब
काशोको लौठने लगे। लक्ष्मण भी स्त्री सद्दित काशोकीा
रवाना इआ। रास्तेमें घुन। जब चम्मारस्में पहुचे
तो जंगलमें एक खानपर चारों ओर धागी जन रहो
थो बोचमें एक लड॒का पड़ा हुआ था, लक्ष्मण और
उनको स्ो निकट जाकर लड़केको उठा लिया, पुष्टि
मार्गके “सूलपुरुष”मेंभोलिखा है कि “अग्नि चहुधा-
मध्य वालक देखि समग्मुखधावहो |” -यह घटना सस्बत्‌
१४३५ के वेशख वदि ११ रविवारको है।
यहो लड़का आगे जाकर वह्लमाचार्थके नामसे
असिद्द हुआ।
यहां सभ्ाविक प्रश्न उत्पन्न होता है कि, वह
बालक किसका था १ वहा जंगलमें चारों श्रोर आगो
जलाकर कौन छोड़ गया था १ क्यों छोड़ गया था ?
गुसाइयोंके पस्तकोर्में लिखा है कि यह वह्दी लड़का
था जिसको लक्ष्मणको स््रो इन्नमागारु सरा हुआ समझ
कर दवा गई थो और लक्ष्मणके पूर्वज यज्ञ नारायण भद्द
ने १०० सोम यज्ञ करनेकी प्रतिज्ञा को थो, सो वह
हा
लक्ष्मणके सम्यमें पूरे ह़ए भौर लक््मणको झाकाशवाणी
( 9५)
हुईं कि, तुम्हारे वंशमें सो सोमयज् पूर्ण हुए हैं, इस
लिये तुस्हारे यहां भगवत्‌ अवतार होगा। अतः जो
लड़का लक्ष्मणको चम्पारण्में अग्निमें सेसिला था वहो
भगवत्‌ अवतार था ।
समोक्षा-लक्ष्मणके पूर्वज यज्न नारायणने सो सोसल
,येज्न करनेकी प्रतिन्ञाकी और लक्ष्मणके समयमें वह पूरे
हुए, भला सोचो तो सहो, कि लक्ष्मण और उनके
पूर्वज ब्राह्मण थे भौर व्राद्मण दृकत्तिसे हो अपना गुज्ञारा .
करते थे; उनके यहाँ इतना धन कहाँ कि सो सोम यज्ञ
पूरे करते। प्राचिन कालसें लिसको राजे सहाराजे भी
सुशकिलसे एक सोम यज्ञ पूरे करत थे उचको इन भीख
मंगोने एक नहीं सो सोम यन्त पूरे किये; कौन विश्वास
कर सकता है? भोर सी सोस यज्ञ करे उसके यहां सग-
व॒त्‌ अग्तार होता हो ते बड़े बड़े घक्रवत्तों राके
अनेक कष्ट सहकर सौ नहीं हलारें सोम यज्ञ करते;
किन्तु यह गण हो उसकिये। भौर . वन्नभ् यदि
भगवत्‌ अवतार हो था तो अपनो मा इज्लसागारूके
गर्भ अपनो रुका क्यों तहों को १ क्यों बोचमें हो
स्नवित इच शोर सा को कष्ट दिया ?
“विज्ञान भ्ौर रुष्टिनियसके भनुसार विचार किया
जावे तो कहना पड़ेगा कि, वज्ञस् सगवत्‌ अबतार .
तो. का एक साधारण मनुप्यये भी गिरा, .इभ्ना
( ६ )
था; इत्मागारू तो अपने क््च बर्च को भरा हइष्रां
समझ कर गाड़ गई थो। काणोम लड़ाई वन्द
होनेंसे लोटनेसें लच्मण तथा उसकी खोकी अवश्य कुछ
मास वौते होंगे इतने मास पर्थयन्त वह बच्चा जीता रहे
यह असच्मव है उसके मा वाप चारों श्रीर आगी
जलाकर नहीं छोड़ गये थे; इत्वादि वातांघर विचार,
करने प्रतित होता है कि यह बच्चा और हो किसाका
घा भनुमान किया जा सक्ता है कि, वच वच्चा किसो
विधवा वा कुलटाका होगा जिसका गर्भ पापकन्म शर्था
वआमीचारणे रहा होगा, और उस व्यक्षीचारिणों च्तोने
चच्चकोपेदा होते हो निर्जन स्थानमें छोड़तेक्े लिखे
अपने अनुचरको दिया होगा, श्ीर छोड़नेवाला चारों
ओर आयगो “इसलिये छलाकर छोड़ गया होगा कि,
इसको कोई द्विंसक लन्तु न खाले तथा बच्चेकेनसोच
अच्छे होवें तो. कोई रस्ते जाते हुए सनुष्वको नजर
पड़नेसे इसको उठाले, वक्षसके साग्यते ऋ्च्मण और
उसको*स्त्री वहाँसे निकले और वर्चकीदेख उठा लिया
क्यों कि, एक वच्चा नष्ट हो हो चुका था इस सोंइसे
भो उठा लिया होतो-कोई झातरय॑ नहीं। अब पाठक
खयं विचार कर लेवें कि वन्नत इल्लमागारुके पेटसे पेदा
हुआ भगवेत्‌ अवतार था वा किसो कुलठा विधघंवा.
नाणैका व्यभोचारदे पैदा इग्मा हुना सासुली मनुष्य था।
( ७.)
लक्ष्मण अपनी सी और .वालक .वल्लम सहित
काभोमें आये। कुछ वर्षी'के, पसात्‌ लक्ष्मणक्ष इंक्षमा
गाझके गर्भसे और एक बालक उत्पन्न हुआ उसका नास
केशव रज्वा, केशव भी जब कुछ बड़ा हुआ ते उसको
भी प्रथम पुत्र रामकृषष्णकी तरह पुरी साधक हाथ बेचा
अधवा दे दिया ।
वन्नभ जब ११ बणको अवस्थाका हुआ उनके पिंतां
लक्ष्मणका शरीर छूट गया। काशीमें वाल्यावस्थासे
युवावस्थांतक कुछ पढ़ता भी रद्दा। फिर कहों जाके
एक विष्णु खामीके मठमें सन्यास लेकर चल्ता हो
गया, ग्रुयके पसात्‌ वज्ञभ हो उस 'गहदौपर वेठा, फिर
कुछ वर्षीक पश्चात्‌ कुछ शिष्यों सहित याता करने
. निकले। काम सी पधारे। काशोीम वसा हो एक
जाती पतित ब्राक्षण रहता था उसको एक युवती कन्यां
थो, उसने वजक़्भकों यीवनावस्था देखकर कछ्ठा कि यदि
तूसत्यारु छोड़े तो में अपनो कन्या तुमसे व्याद दूँ
बल्मसने यह सोचकर कि मेरो युवावस्था है, तथा भुझे
कन्या भी कौन देगा ; फूट खोकार कर सन्यास त्याग
उसकी कत्याये विवाह वार लिया। जिसके बापने
जैसीलोला को थी बसी हो पुर क्यों न करे |*

#अाज भी भारतवषमें ६०-३०के करोव गुस्ाईलोग्र


(८)
आरस्पोन्याययुल्लो यः सहि धन्म इति सस्तः।
अनाचारस्वघर्सेति एकच्छिष्टानुशास्नम्‌ ॥
अथोत्‌-वुद्दीभान लोग कहते हैं क्षि जिसका
आरस्म न्याययुक्ष हो वह धर्म है भोर शिसका आरन्म
हो अनाचारसे है उसको अधन्म समक्ो ।
विवाह और वात्राकर जव वन्चम अपने विष्णुखातरी
के सठमें गया, वर्ड शिष्वोने वन्नभकों स्तरों सहित देख
आश्रव्य प्रकट किया, श्रोर सबने मिलकर वनच्चभर्स ऋच्ठा
कि इस मठके महन्त सदासे सन्धाठों हा होते अआाये हैं
अतः ग्यद्खों नहों हो .उद्ती। इसपर खटपट आरमन्म
इुई श्र अन्तर वल्लसको वहांदे अचय होना पड़ा ।
विश्शुखामीके सठमें रहकर वश्चभन मठ चलानेक्ों
विद्या तो अच्छे प्रकार सोख हो लोवोंदि अत: वहांसे
अलग होकर प्रयागके निकट अर्द़्ल नामक ' ग्रामसें
आकर अपना नया सत वैष्णुवसतान्तग त॒पृष्टि मार्गके
है वे सब तेलंग भद्द जातिसे वाइर हैं कोई इनलोगोंसे
' रोठे वेटोौका व्योद्वार नहीं रखता ये आपसे हो लेते
देदे ह। जब आ्रपसर्ने नहीं सिलती तन खूब घन देवार
तेलंग देशवे किसे ग़रोबजो कन्या व्याह कर लाते
हैं। शोर वह लड़की देनेवाला सो जाति बाहर किंयां
जाता है।
( ६)
नामसे चलाया, समयके प्रभावश्े उन दिनों भारतमें
अविद्याकों घटा ठोप भधेरोीं छा रददो थो भोर इन्होने
सब जातिके पुरुष भोर स्त्रोबांको करठो वांध वेष्णव
हो जानेका अधिकार दे दिया। वन्नभाचायके सारे
जीवनमें कुल ८४ वैष्णव ने जो कि “चौरासो वैष्णवों
कौ बाता” नामक पुस्तकर्मं वर्णित हैं। और बन्नभा-
चार्यके द्वितीय पुत्र विहननाथ जो (जो गुसांईजो
के नामसे प्रख्यात 'छए ) नेअपने शिष्षोंमें सुसलमान
संगी, चमतर, नापो सबको शिय बनाना आ्रारणा किया |
इनके भी २५२ शिष्य ( सारे जन्ममें )बने जो कि, २५२
वैष्णवोंकी बार्ता नामक पुम्तकर्में बणित हैं ।
बरलभके पश्चात्‌ उनके पुत्र भौर पोढ़ोंने अनेक
चाल वाजी और युक्नियोंसे ब्रज गुजरात, मारवाड़ तथा
अन्य स्थानोंमें भ्रपने समंतको फलाथा। बक्लमाचायणेके
'पीन्न गोकुलनाथजोने सिधान्त रहस्य आदि पुस्तकोंको
टोका करके अपने बाप दादोंके सिधान्तांको स्पष्ठकर
दिया। तथा खान, पान, और व्यभोचार श्रादि बातें'
श्पने मतमें प्रवेश कर पुष्टि सा ( जिसका अथ भो
खान पान भौर स्लियोंसे खूब व्यमीचार करना होता,
' है) का पूर्णरुपसे प्रचार किया ।
इसके पसात्‌ गोखासोयोंने भपने धस्यकेग्रथ खूब
अनोतिको बढ़ानेवाले तथा भपते खार्थके' सांधनेवाले
हु

( १० )
बनाये जिनका पूरा ओर भच्चा द्त्तान्त भ्ांपकों “महा-
राज लायवल केस” को रिपार्ट्मे मिलेगा । यहाँ इम '
सिफ कुछ सहानुभवेंकी सच्मतिये उद्ुत करते हैं।
सन्‌ १०११ को सरकारी रिपोटम लिख्धा है कि :-
: *छा7 0 थे। ातेड5 फ्रश्थाल्वे #ए४ञ्र 0ए &
पर्चांका पव ए०3; ऊलेशाओ4 48 ४28 #6पिछुढ ए
2]. थ्यावे ॥0 ध6 गण एफिलेशागब एशा गएकऊ प8-
ह[०४८७ धींड थ,. 776 इल्शातेश कली. प्र85
48ण66 4६3९ ६0 6 प्रधा76 ० 6 - ३४७६ 5
पैप९ 00 6 (७४श९०७ए७७४ं ०६ फंड -0058४॥8,
४ए70४/०घए व म6 ० ० 90४पों थक, 76
छण्यांए 53090 फ्री फर6 तीर, 5
6 805 ० 86९४०४४४०ा & एछश्0 इप्जाोंड 80 ४8
एं०ब5०७ 0 गरी6 फिपशंण० 988 008 +९एफए७इशा4-
पए8, 70 फोर कांड ऋणपेतीए फ्छोंम्ती ऐप मी8
प्रगह्णंए 0 कांड वेश्ाहा87 0". 36छ७ीए ग्राशफो6ते
"हि, एव थांड ६४४०गाट़, 6 ४०।०७0७॥६ -
गशा-ए88 7876 080076 ४ं6 €॑ॉ6प्राशशक्षाड 0 ७
पिबरडा,, बागपत 208. 709 क्योश्याशपे ६0 8५४०७ पीछा
कथा क्र# प्राह 7०8 [0 ०0क्‍र्जडंड एक व0
8७०ंध छ70एप्राश ग्रिद्चा पर 5ण%#प्रते७ बाते. करता
भविद्वात07,. किशियरश5 0686 8४४६ 276 गाएकप-
( ९१९ )
80 शशि एजा 200 शाएश2ु० एिं०७४ 470 8९०४१
छ0750(8,
(0008 (॥8४४260/6७" ० 9] 79 27. 7), 7,
'एर० 370णेग्राशा, 3, 0. 8.)
अर्थ:-सब प्रकारके पाप ईश्वरकें साथ मेल होनेसे
धुल जाते है कृष्ण सबके शरणाधार है उस पवित्न
कष्णपर मनुशोंकी अपना सर्व समर्पण करना चाहिये,
इस सिद्दान्तके प्रचारित दोनेपर इस सम्ग्रदायके नाम-
पर ऐसे घोर अत्याचारका लगाव हो गया है; अतोत
दीता है कि गोकुलनाथके समयसे इसका प्रचार छञ्ा
है गुसाईकोी इशर समझा जाता है, गुसाईको ईश्वरका
प्रतिनिधि समक्षकर उसके श्रानन्दके लिये सनुष्य केवल
अपने सांसारिक धन हो को उसके लिये समर्पण नहों
करता किन्तु अपनी पुत्रों तथा नव विवाहिता झख््ौके
कु'वारेपनको भो न्योछावर करता है भ्र्थात्‌ विवाहा:
नन्तर पुत्रो और स््रोको सम्भोग करनेके, लिये समपण
करता है। इस शिक्षाकी श्राड़में बलभाचाय लोग
पूर्वदेशके “एपोक्य,रियन” हैं” झौर इस सिद्दान्तके
घोषणा करनेमें उन्दों लब्जा नहीं आतौ, कि “आादश
# यूरोपके ग्रोौस देशमें एपीका,रस नासक गकः
दार्शनिक हुआ है उसके चलाये हुए सतके भ्रगु-
यायियोको“एपौका रियनस्‌” बंइते हैं;-उनका सिद्दान्त-
(२ )
जीवन भोग विलासमें है; न कि, एकाग्त वास तथा
इन्ट्रिय विग्नहस |” इस सम्प्रदायकों सभासद प्रायः सभो
स्टइस्थ हैं, तथा वेखतन्बतापूर्नऋ सांसारिक भोगोंको
प्राप्तिकी चेष्टामें रत रहते हैं ।”
सरकारी रिपोट रको उ्न बाते निम््र एक लेखसे भो
यष्ट होती हैं। यह लेख “पुष्टि म्राग”गुजरातौ ग्रयसे
उद्दुत किया है।
थां कि 80 वेशंयार शाते 0० घ्राथ7ह अर्थात्‌ खान्ी
पीनो और मौज करो ।
प्राचोन कालमें यहां भारतवर्ष मेंस्लो चारवाक
यही प्रदार करता घा कि; _
यावत्नोवेत्सुखं जोवेद्रणं छत्वा छ॒तं पिवेत्‌
भ्मोसूतस्य देहस्य पुंनरागमन कुतः ॥
जब लग जीवे सुखसे “जोवे घन न हो तो ऋण
लेकर भो छत पौवे घ्रधोत्‌ भ्ानन्द करे रत्युक्षे बाद देह
तो भक्म जावेगा फिर भाना जाना किसका कौन किससे -
लेगा और देगा। -
बलभ्ाचाद्म. सतको गशुसाई मी परलोककौ सुध
चुध विसारकरं इसों सतका भनुकरण करते लगें हैं।
जैसे सभ्यजंगत्‌ एपोक्य रिबनोंको तथा चारवाक को
. निन्दते हैं वेसे हो जब इन गुसाइवॉंकी लोलाज्नोका
उनको पता लगेगा तव इनको सौ निन्‍्देंगे।
( १३ )
“गोपालदास करके एक भादसी- गुर्साईजो तथा
भोकुलनाथजो की खवांसोमें था.! उसने एक .पुस्तक
“पाखर् प्रकाश ”केनामसे बनाई थो.।.उसकी भूमिका
' में उसने लिखा है कि, “में पुष्टिमाग नासके पस्समें
तोस वर्षतक रहा, दस वे, गुर्साईजो को. खवासोमें
और बोस वर्ष गोकुलनाथजोको खवासोमें .विताये।
गुसाईजो जाहिरमें तो व्यमोचार नहीं करते थे.; -किन्तु
गुप्त रोतिस अवश्य, करते थे। .गोकुलनाथ जो तो
आसतोरपर व्यमीचारों थे। (फिर लिखा है कि ) में
भो उनके साथ पाप करे करनेंमें कोई कसर नहों
रखता था। में४५ वषका इग्मा तव एक स्थान पद
कथा हो रहो थी, वहां श्रवण करने बठा, , वहां व्यभो-
चारका भतिशय निपैध्त पढ़ा गया, जिसे सुन .मुझे मेरे
छत्पका विचार इश्रा। फिर कथा मुननेका मैंने नित्य
नियम रक्‍्वा।. .इससे सत्य सार जाननेपर मैंने अपने
पूर्दोक्त कर्मीका: पद्चाताप कर इस. मतको. नौगजका
नमस्कार किया। ,फिर अल्य दिनोंके वाद मैं संन्धासो
हो गया।, श्ौर परसाक्माकोी. जाननेका विचार किया.
एक दिन महाभारतका पुस्तक पढ़ इहा था :-उसमें
एक स्थानपर आया कि, “कोई, भो .ओऔदमसी किसी .
धम्मंम अप मिला हुश्ा जानता हो भोर वह जाहिर
न्‌ करे तो उसको ब्र्मइत्याका महापाप्‌. लगता- हैं।? -
बे
(्‌ हि] /)

फिर लिखो है कि “इस पर सुंके. मेरे पुराने मित्रों


'गुर्साइयोंकें छत याद भाये भर विचार किंया कि, अपर
मिला इंश्रां होउसको न कहनेमें ब्रेह्माहत्थाी 'पाप
लगता है।' तब॑ इन लोगोंसें तोघतके नासपंर खुल
“'मखुला घोरं अधर्ा वतंरहा 'है।' यह वांत जो में
'लोगोंकी न वबताज तो सुमको ब्ह्महत्यासे भीअधिक:
पोप लगे। ” इस 'लिये यह. अन्य अंपने'' उपरसे पाप
छुड़ानेके लिये -लिंखा'है।” “उस पुस्तकर्मे शुर्साई

'लिखोहै। | + का
' इसके भतिरिक्ष कलकंत्तेकी वेंगाल एशोयाटिक
रोसाइटोके १६वें वोल्यंभर्म पंज्नंभाचाय्थके सत विषय
में जो छंपा है उनमेंसे कुछ लेख यहा भो उद्द त''किया
जाता हैं। न हा 5 कक ला के. 5
वजक्षभाचाय्यने जो नया माग चलाया उसमें जो
बाते लिखो वे अन्य मतवालोंसे बहुत भिन्न और नये
प्रकार को हैं, उसने अपने मतके 'लोगोंकी' बंताया कि
तप करके' तंथा कष्ट भोगकी 'ईश्वरंकों संजनेकों 'कोई
आवश्यकता नहीं है। इस सतके गुर भौर शिक्षोने
“ठाकुरजोकी सेवा सुन्दंर वस्त पंहिनाकें तंथा भांति
भातिके पंकवांन बनाके भौर संसारके सोग विलास भ्रथात्‌
झंगारभावसे क़ेरनी। ये गुरु अधिकर्शि कुटस्ववाल
(१४. )]
होते हैं। वे सवंसे भ्च्छे- और ,सुन्दर-' वस्त्र पहिनते
हैं। और अपने शिष्योंपर वे. बेहद ,हकुसत- चलाते
हैँ, भ्ोर वे शिप्यगण.. उनको सांत भांतके पकवान
( ध्रिष्टान ) खिलाते हैं.। ;ै अपने शिष्योंको तौन् वार
समर्पण देते है, और उस समर्पणकै लिये उनके शिष्य
लोग अपना तन, सन और घन अपने गुरु प्र्थात्‌

विचारानुसार गुसाईनो सहाराजांको जो मान दिया


जाता है वह केवल उनको पवित्नता और विद्याका
कुछभी विचार किये बिना ,हो वंशपरम्मराके कारण
दिया नाता है। वे वहत करके कुछ: भी मानके योग्य
नहों है। तथापि उनके गभिपष्यवगंसे उनको कुछ कम
' मान नहों सिलता। ,
गोखासोयेंकी ठो'गकी परोल खोलनेवाले भारत
'प्रसिद खर्गोय- खासो वाकटानन्दके नामसे कोन
विद्ान परिचित नहों है। उन्होंने अपने पुस्तक
लिखा है-कि !--
“हमारे घरानेके पूवज इसो सम्प्रदयके शिक्ष होते
आते थे उसो रोतिके .अनुसार -मैं -भी वाल्यावस्थाहोमे
इसीसम्प्रदायका ;भिष्य -इुआ भौर कई -महाराजों'
अर्थात्‌ गोशाईयो'के पास सेवासें भो -रहा और इनके.
बाहर भौतर को समस्त प्रकाश्य व:गरुप्त लोलाये' - देखी
( १६ )
और भोले शिष्योंसे रुपये कम्तानेज्षे उतार चढ़ाव भो
भलो भांति देखे जब देखते देखते मनका घड़ा घच्छो
तरह भरकर उभरने लगा प्रर्थात्‌ इन महाश्वोंके
कौतुफ 'टेखें न गये भोर वचसा चढय भी त्राषहि त्राहि
करने लगा तब भअ्र'तकों जो महा हणा उत्पन्न
हुईं और विचार किया कि इस सत्सड्रकों विना विसारे
तुम्हारा लोक परलोक कदापि नहीं सुधर सक्ता निदान
उसो 'नणसे उव त्यागकर चितमें वेराग्यका स्थापन
किया एक दिन निरद्द'दता पूर्वक हजकी लतापताम
स्रमण करते करते इस पन्चके भोले अनुयायी एवं
अज्ञान सेवक (ग्रिष्य) लोगो' (जो ऋगढप्णावत
केवल कव्याणयके घोखे हो धोखेमे भ्पने धन धर्म का
नाश करते हैं )को सोचनोय दशा पर ध्यान आया तो
सनको अति खेद णवं चित्तोत्ताप छुआ इसो अवसरसें
एक आवास्मिक भगवद्‌ प्रेरणा हुई कि उसंसारमें दो
प्रकारको लाभ हैं खोपकार और एरोपकार मनुष्यो'को
दोनो” लाभोकासाधन अवश्य है जिस तरह तूने श्रपने
साधंसाधक मनुष्य जन्मको इन गोमुख व्याप्रो'से बचाया
है उसी प्रकार अन्य चज्ञान संसारी लोवो'कों भौ
सावधान करके इनको घातसे बंचा। इंस लिये
संसारो लोगोंके उपकाराथ इन लोगोंको कुछ प्रकाश्य
वात्तौए' प्रगट करनेका सार अपने शिरपर उठाकर यहः
( १७ )
पुस्तक निर्मित को है:।” . |
स्वामो वाकटानन्दजीने निम्त्र तोन पुस्तक (१)
वल्नभर्कुल छल कपट दर्णण (२) बंल्लमंकुलः देसभदपण
नाटक (३ ) वल्लक्कुलचरित्रदपंण, प्रकट कर गुसाइयों
'के उन गुप्त कुकर्मोको प्रगट किया है कि, उनको पढ़-
कर रोमाच्च खडड हो जाते हैं, गुसाइयोंके: प्रति हणा
आये बिना नहीं रहंतो । उसमें सप्रमाण कई गुसा-
इूयोंदी नाम व पते देकर बताया है कि ये गुसाई लोग
न सिर्फ अपने शिष्योंकी हो वह वेव्यिंसे व्यभिचार
करते हैं अपितु भ्पनो बह्चिन व माताश्रोंसेभी गुप्त
सम्बन्ध अर्थात्‌ व्यभोचार करते हैं। जिसमें वर्तमान
नाथद्दारेके टिकेट गोवर्दनलाल जो सद्दाराजका नाम भी
आया है। इसके अतिरित्ा वैश्याश्रोंका नाच वैश्याओं
से सम्बन्ध तो मानो गुसाइयोंमें कुल परम्पराकी रोति
है। अनेक गुसाइयांके जनाना वेश धारण कर नाच
रंगको भी सचित्न बाते प्रंगट को है। खामो बाकटा-
नन्दको ये सव वाते' सच्ची हैं वह इस बातसे सावित
' ह्ञोती हैं कि खामी ब्लाकटानन्दने उपरोत्न तोनो
पुस्तकांको अनेक आहतियां अपने इईीथसे छपाई,
' उनके जोवित अवशस्थोरमें किंसो गुसाईने उनपर कोई
मुंकंदमा नहों चलाया
एक साधारण .मेनुण्यके विषयर्मं तो कोई भकठी
( (८ )
बातें लिख नहों सत्ता तो ऐसे वर्ज -गुरुओंके विषय*
में कौन लिखेगा जो धनी हों भौर लाखो' आदमोयेकि'
गरुस हों। गोवईनलानल जो महाराज बड़े धनों
हैं, नाथदारके राजा हैं, ४५ गांव इनके अधीन हैं,
लाखी' रुपयेंकी वार्षिक आव धोनेके अतिरिक्त लाखो *
भनुष्यो'के ये धत्म्र गुर हैं। ४्रनक्ने विपयमें कौन भूठो
वात लिख सक्ता है। खाली वाकटानन्दने इनके
तथा अन्य गुसाएयेंके विपयर्म लो कुछ लिखा है वह्ध
इस वबातसे भी सच्ची सालुस होतो हैं कि, गावदन
लासंजीने उनपर न्यायकों अदालतमें तो मुकदमा नहों
किया परन्तु घर हो घरमें बढ़त चेष्टा कोकि वाकदा-
ननन्‍्द जो इन पुस्तको'का प्रचार न करे! । इस आशयर्से
एक चिठेो गोखामी थो गोवद नकछाल जो महाराजकी
आज्ञासे उनके भग्डारोने खामी बाकठानन्दको लिखो
थो वह यहां प्रकाशित करवें हैं जिसकी खासी बाकटा-
ननन्‍्दज्ञीने अपनो पुर्सकमें प्रकाशित को है।
नकल चिट्ठो
शोनाथजी । .
“खस्ति थी सर्वीपमा खासो वाकटानन्दजों जोग
लिखी इलाहावादसे भण्डारी हर विलासरायके भगवत्‌'
स्परण वांचोगे अपरंच मेंयहां खास तुमसे सिलनेके-
वास्त आया कू' और .भ्रष्तियापुरमें मन्दिर गोव्न
( १८ )
नाथणोमें ठहरा छ+थी टोकीट श्रौ- १०८ गोवद नलाल
जो महाराजने मुझ भेजा: है कि, तुमने यह. तौन
पुस्तके' छापो है नोचे .सुजब १ वश्चभकुल चरित्र,
२ बल्ललकुलदस्धदर्षण, . ३. बल्चभ्कुलछल कपट दर्पण,
इन कुल बातोंक्ा भेद उहमारे महाराज तथा अर्न्य
खरूपों कातुमकी किसने दिया है? धमंसे .कहो
क्योंकि तुस हमारे मित्र हो, श्रगर यह ,फरज कर
लिया जाय कि यह बाते' सत्य सौ हों तो यह बाते ,गुरु
घरानेकी तुमको लिखना उचित नहों थी खेर आद-
भोसे सूल होहो जातो है अब आप कृपा करके उन
लेागींके नाभ लिखिये जिन्होंने यह गुप्त वरित्रोका
सेद दिया है और अब यह भी लिखिये कि आपको
सनशा क्या है, हम सब वातमें तैयार हैं, हसारे
महाराजको भाज्ना है।”
“मितो सागशिर शुद्धि.8सं० १०६४ , :
,._ ६» मरएारो हरिविलासराय ।
( शाक्षी ) जो भण्डारोजोने कांमको प्रेरणा की है
उसमें हमारी सम्मतो है।
है द० सथराप्रसाद पजारो ।
इस पत्चके उत्तरमें एक प्राथ ना पत्र गोवदनलालजो
महाराजको थेवामें खामी -बुकटानन्दजो -मधाराजने
भेजा उसका आशययह है 8 बी
*( २० )
श्राप भ्रौर समस्त वतमकुलके भूषण खरूप्र निस्त-
लिखित वातोरक माननेको प्रतिन्ना करे' तो में अपनो
ममछ पुस्तकीको मट्टीक तेलमें सिगोक भस्म कर
हूं,प्रथवा भाप ख्य॑ जिस तरह चाहें सेरे सामने
उन्हे भन्मीस्ूत करसकते हैं। आपको कई लाथ
चेले इस भारतसभूमिमें हैं वह चाहे इसमें धन्रका
सब्बन्ध रखते है,किन्तु न्याय दृष्टिमें सत्वेसाधारणक्षो
सन्मति इसकी विरुद्ध है।
(१) चैलियोंकी एव्रियांके मम्नान समझ कर
धर्म व्यवहार रखना ।
(२) विवाहोंमें वेश्याश्रोका दृत्य कराना बन्द
कर दोजिये क्योकि इस नोच कमको शूद्रादिक्ोनिभा
उठा दिया है; यछ गोवधका सचह्यायक है।
(३) स्त्रो पुरुषोंको स्याद देना अर्थात्‌ एक
दूसरेके हाधका स्पर्ण किया अन्न खानेका निषेध करना
घरसें फूट कराना है, इसे बन्द कोजिये। क्योकि स्त्री
परुषों-पति पत्ियेंमें सह भोजकी बन्द करना बड़े
अनर्धको वात है, और यह रूब्प्रदायकी रसिद्दान्तो'को
विरुद्ध है, बोचको घडी इुई सयोद है श्रीसहाप्रभुजोक
वचन नहीं हैं ।
(४-) थिष्यों व देवक्ञोंको उच्छिष्ट सोजन देना यह
बाममार्गका अनुकरण-है जे वैष्यंवमाश क्षे .स्वधा
( २११ )
विरुद है। इन चारा वातोंसे सम्प्रदायकी बड़ी हो
निन्‍दा हो रहो है भौर इसो निन्‍्दांको ' पग्रसह्ष और
दुःख समझ्त सेवकने चितावनेके निममित्त उक्त पस्तके
छपाई थों। लेकिन वह सेवा सेरों रूव॑निप्फल हुई
मे यदि अब देशोदारके समयमें इनको परित्याग कर
देवे'गे तो, भ्रापक्षा यश दुनियामें रहेगा, मैं जिस प्रकार
उलटो चेतावनीसे सम्प्रदायका सुधार करना चाहता
था अब सोधीचेतावनोसे सुधार करनेका' प्रयक्ष' करूंगा
ओर बड़े बड़े विद्वान भापको प्रशंसा करेगे भर मैं
सब भगड़ोको तिलांजली देकर भगवत्‌ भजन करूंगा
क्यों कि इस राजकथासे कुछ मतलब नहीं है जो कुछ
प्रशंसा जप तप आधारको है वह गोखामी थो १०८
रणछोड्लालजोकी है वहो परिषाटोी आप करिये कि
जिमरमें यो महाप्रभुक नामको धव्वा न लगे ।”
*. ६८० खासी ब्लाकटानन्द
“यह पत्र १०-१२-१००७ को उच्च श्रीमानको सेवामें
रजिट्टो द्वारा सेजा गया था यदि इसका उचित उत्तर
आता तो मैं अपनी समम्त पुस्तके योमानृक्रो सेवामें
बिना सुज््य अपंण कर देता परन्तु उत्तर न भानेसे ज्ञात
छुआ कि इन कुरोतियोंका त्याग योसान्‌ को अंभिष्ट ,
नहीं है ।”
+* "“विधकोड़ा विष खात छोड़ छुहारा दांख फले ।'
( २२ 3
'शैखतामी:गोवईलाल जौने जब देखा कि ब्लाकटा-
ननद ऐसे शान्त होनेवाला नहीं है तो. उसके ,नगद,.
रुपयोंको लालच, दी ;इस विषयम स्वामी .ब्लाकटानन्द.
अपनी पुस्तक ,“बल्मकुल द्रम्मदर्घप नाटक” “को .
ढ्तोव .आहतिमें .गोखामी .जी. सहाराजक नाम जो
खुलापब छापा “है उसमें लिखते है कि ; ह
“स्रगवन्‌ !आपने जो मुझ दोनके दरिद्र. दन्‍्यको
दूंर करनेको शुभामिलाषासे ५५९० “मुद्रा देनेका प्रयत्न.
किया बह प्रशुस्नोय होनपर भी मेरे विषयमें दुःखका
सूल है|... ध ह
इस-रिखतखो रोसे.भी जब गोबद नलालजो महा-
राज़ कामयाब न इुए तब. खास्मो बाकटानन्दकों बनाई
हुई पुस्तक २९९०) खुल्यको.. भन्य व्यक्षियोंके द्वारा
खरिद कर नष्ट करवा डालों |
प्रिय. वेशव बाखना !. आप जिन अपने गुरुओंका
बेहद म्रान देते हैं, उनपर सर्वत्र न्योक्तावर .करनेकी
तयार रहते है, उन गुसां इयेकि चाल चलन तथां, मतके
विप्रयमें कुछ विद्ानेंको -सम्म तिथे' जा इस. पुस्तकर्मे
लिखी. हैं उसको पढ़कर;अवश्य आपके आश्चय्थ होगा |
और झ्ापक्े-मनसें भ्रवश्य यह .विचार उत्पन्न होगा, कि
यदि वे सम्मतिये सच्चो हैं भौर वास्तममें गुसांईलेग
श्येहो.घूत्त--पाण प्रो, अत्याचारो ओर व्यमीचारो हैं
(३३)
तो श्रव॑श्ध व्यागनेक तेथानिन्‍दनेके योग्य हैं।
' मित्रो! इस पस्तकर्मं लिखो हुई सब बात सच्चो
तो हैं शो इससे भो.भषिक-डन॒के मत तथा चाल चलन
की सच्ची बाते' आपको :बस्वईमें'चले हुए “महाराज
लायवलकेस” को रिपाट्क पढ़तैसे ज्ञात हैगीं। “सब
:मनुष्योकी उचित हैकि, ;... , ,....ै -
- सिदत्य ग्रंहण क़रने भौर भ्रसत्यके छाड़-.,
नेमें सवंदा उद्यत रहना, चाहिये ।?*; -;

गुसांइलौसे प्रश्न उसका उत्तर ओर प्रल्युत्तर ।


गत जोलाई मासमें श्रोनाथद्दारेके टिकेत योगाव-
दइनलालजो सहाराज अपने, प्रत्त दामादर ल्ञालजो
सहित यहां कलकत्तेमें, जगन्नाथ यात्राकर .पधारे थे ।
उनसे जो मेंने प्रश्न किये थे, उसका उत्तर प० रामनारा-
यणजो चिवेदोने .छपवाकर. प्रकाशित किये थे। सब
लोगींके प्रवतेकनाथ यहां, प्रतंयुर सचद्दित प्रकाशित
करता हूं ।
श--पुष्टिसा्ग (आपका :मत ) '्रास्तिक. है वा
नास्तिक वैदोंक्ो मानते हैं वा.नहीं १ 3 अप
उत्तर--पुष्टिमाग आस्तिक है। इस सागमें वेद हो
मुख्य प्रमाण सानों गया है श्रोवन्ञभावा्ने भी अपने
, निवन्ध मेंकहा है--
( ४४ )
वेदा चोक्षणवाक्यानि व्याससूतानि चेवहि।.
समाधि भाषाव्यास्स प्रमाणं तचतुष्टय ॥
प्रतुशत्तर-सित्र ! गुसाइयोंके सतमें हाथो की तरह
चबानेके और दिखानेक दे प्रकार दांत होते है।
प्रश्नोंके समय यही वाते पेश करते हैं किन्तु भ्राचरण
इनके स्वंधा विरच् करते हैं अच्छा ! यहो वात है तो
क्॒पा कंस्को निम्न प्रश्नोंके वेद तथा चोक्तय घौर व्याप्त
सत्ोमेसे- किसोक प्रमाण दोजिये |
(१) नित्य भ्राठ श्राठ दफे क्राकिये' करनो
नाठकोकौ तरह परदे उठाने भौर गिराने (२) शिष्य
और शिप्यायोंको भूठंन खिलानो (३) पराई औरतोंसे
पर पूजाने तथा एकान्त स्ानमें लेजाकर कानमें फक
मार कर तन, सन, धन गुसाई अपण करवाना (४)
कृष्ण जसे सद्ात्माओं के खांग वनाकर सभाओमे नाच
नचवाने, क्या कोई बाप दादो'के भो सांग बनाकर
समार्म नचवाता है (५) क्या कभी गुर्साई लोग वेदादि
शास्रोका उपदेश शिक्षा'कों करते हैं वा कभी
किसोको यप्नीपषवित भी धारण करवाते हैं? देखो
शासखकार भ्राचाओ किसे वतलाते है --
उपनीयतु यः शिष्य' वेदसध्यापये द्दिजं:
सकलपंसरहस्थयंच तसाचाण्' प्रचचते ॥
(२५ )
जो:-शिष्यो/ को:यज्ीप्दोत, दे, .वेद्ेंको शाखाओं
सहित यढ़ावे उसोको; ग्राचाय कहते...हैं । बज
ग्मशब्नद्देखों पृष्टिमागक, दश,मम्ममें,का है कि
“लेक लान तथा /बैदोंकी (ब्लाग,,कर,.गोप्ोश ,अर्थात्‌
आचाणथक, शरण झआाशझो”
उत्तर-.बहां पाठ इस प्रकार है “लोक बेदिक
पु

त्याग शरण गोपोशको”, इसका भोवांथ यह है कि,


लौकिक व्यंवहारोमें भासल्लि और पेदिक काम्य कर्मों
को त्यागकर गोपोश भर्थात्‌ परत्नढ्नत शरण जाना।
गोपोशका अ्रथ प्रत्रढ है भावोय्य नहीं ।
प्रत्य्तर--छपा करके वेदीमें दिखला दोजिये कि
परव॒ह्नने कहां यह- भाजत्ा दो है! कि, “है सनुष्यो!
लोकिक व्यवहार भौरं वेदिक कांस्यक्मों'कों त्यागकर
मेरे (परव्नहके )शरण भाओरी ।”
अश्रर-मंहाप्रभु (वल्चआचायय-)ने- निवमश्धमें कहा
है कि “जो हमारे मागमें ग्रावेगे अधम करेगे शोर वेद
निन्दा करेगें तोड़ 'नरंकरमं न जायेगे: किन्तु होन कुलमें
जन्म छेवे गे ।”
उत्तर:-इससे,यहःअमिप्राय [सिद-से ..होता कि
वेदनिन्दा, करनेमें.पतक|नहों...दोता, , किन्तु ,लासका
इतना :मड़व्मय |हनेपर -भो; वेहलिन्दा. क़रनेसे होन
कुलमें जन्म /द्ोता है।
५ प्रद्युत्तर--जामक़े मंहातर्ग वेद ,निःदाके ,छुड्ादरण
( १२६ )
का क्या प्रयोजन ! समतिकारोंने “नास्तिकको वेद-
निन्‍दक:” वेदोंकी निन्‍दा करनेवालोंको गास्तिक कहा
है। रच तो यह है कि, पुष्टिमा्ग 'नास्तिक्त मत है
इसमें भास्तिकता एवं वेदमयादाकी एक भी चात' नहीं
है भोर होन कुल तो गुसाइयोंक्रे मतमें हैं होनहीं।
अलोखान पठान, उतठको लडकी, तानसेन सुसलम्रान
चुद डा भंगो, वेश्यायों तकको तो गुसाइयोंने पावनकर
गिष् बनाये हैं। |
प्रश्न-पुष्टिसार्ग सत वजल्ञभाधाय्ने चलाया है,
उसका जन्म सम्बत्‌ १५१५४में हुआ लिखा है जिसको
ऋाल 8३८ क्य होवे है भवः यह सनातन कसे ?
._ उत्तर-प्ष्टिसाग वज्ञभाधायने चलाया है यह
कहना ठोक नहीं वह अनगादि है. क्थोंकि वेद भगादि
* हैं। इस वास्ते देदिक मान जो हैं सभी अनाद्रि हैं।
- प्रत्यस्तर-क्या कइमा ! भव, गशाक्ष, वेष्यव, ताम्िक
आदि सन्ती अनादि हैं कोकि, सब अपनेको .-वेदिक
मतानुयायि हो कहते हैं ।
मद्यमांसंच मौनंच सुद्दा मेन मेवच ।
' शते पद्चमकारा स्युमाचेदाहिंयुगेयुगे ॥
पोल पौत्वा पुन: पोल्वा यावत्यतत्ति 'सूंतले-।
पुनरुद्याय वे पोल्वा पुनजेव्म न दियते ॥
आदि तांतिकोंके सिद्यास्त भी भ्नादि है और “वेदिकों
( २७ )
हिना हिस्पा- न-भवति” सिद्दास्त . भी अनादि है ?
फिर क्यों पुराणेमें भवोंने वेशवॉकी भोर वेष्णदोंने .
शंवोंकोी प्ररस्पर निन्‍दा की है जव॒कि सभी पभनादि. हैं १
इसकेःअतिरिक्त और जो जो. प्रश्नोत्तर इुए है उसकी
अगावश्य ओर भतिविस्तार हो जानेके भयसे छोड़
दियाहे। . बे
- प्राचिन कालमें भी- विद्दानोंसे मतभेद
- रहा करते
: थे परस्पर विवाद भी -इभ्ा करते थे,. किन्तु वर्तमान
समयको भांति-सठ नहों थे। भ्रवी सबको उचित है.
कि सत्यके निषयक्षे लिये शास्त्र देखे' परस्पर प्रेस-
, पर्वक विवाद: . करे',, तभी सत्मपधमंकी, पाकर मोच
मार्गेको, पासके'गे।-. भन्यया धूर्तशुरुलोग सदा इम-
को अरधेरेमें रखकर प्रपना खारधसिद्द करते. रहे गे
चरितभ्रष्ट गुसांदयोंकी लौलाये ।
४१।. गोस्ामी गोपेशजी महाराज कोटावालैको
न जाने एकदिन-क्या सूको, कि जनाना भेषकर राजा
साहइबके -मकानमें घुस गये, लैकिन पहरेवालेने पह-
चानकर ग्रिफ्तार किया। छ्योंड्ी कान पूछ पकड़े
उस्तोटे लाते थे- कि, जंगीष्वाजोंने संगोनोंके बोचमें
कद किया। जब सबेरा इुसा, सारा शहर समाचार
सुन द्शसकीआया सबने लम्बी लब्बो दण्डवत्‌ कर
( श८ )
द। “धो सम्रां एथ्वोनार्थ। आच्छी रुप धर्यों है,धन
धन राज” पीछे महाराज कोटाने इन्हें गुरु जॉन इनको
जान बखसी, 'कोर्टांधिपति वह दर्योलु रांजाये नहीं
तो गोबर गशणेंशजोंकी लाल खंकि'लंक्ष॒टेसे' ऐसा" बांघा
जाता कि तमाम गोवेर निकले जोंता। फिटंददारके मारे
मिष्या छ्ण कोटासे कृष्ण मुख कर निकाले गये!।
श५। हजेशंजो महाराज बम्बई' निवांसीकों एक
पारसलंकी बंइसूल्य वसतु' चुरा लेनेंके अपराध दो' वर्ष
को सख्त सजा हुई थोमैंगर' अपोलसे पांच वध सुकरर
को गई । ;
३। गिरधारोजों संहाराज नो दानघाटोके ऊपर.
गोवद्ध न पर्वत रहते थे उनके जुल॑मंसे वहीं गौरवों
ने उन्‍्दें वरहियोस मार डाला ईस वारंदातकी कंरीव
डेढ़ सौ वष हुए। -
8। साठ वर्ष पहले गिरंधरंलालंजी' महाराज
टर्म्मन गये थे वहां एक लाड़ बनियेके घर श्रोठार्कुरजो
को सूचि थी, उत्न गुंधांरेजो उस सूत्तिकों जबरदस्ती
उठाकर चंले दिये; वरनियेने यह अभ्रत्याचार वंहँकिे
स्जिए टसे कहां, मजिए्ं ८ने गुर्वाईजोकों सूत्ति' सहिंत
गिरफंतार कराया और दृर्त्ति लेकर इतनी सार लगवोई
कि पूरण पुरुषोत्तम वतार जान॑से खेले गये ।
४। रुख्वत्‌ १८६४ विक्रमोम राज्य कोटोंसे काल-
( २८ )
राप्ाटन वट गया था। इसक्लेचन्द रोज वाद विहलेशजी
मसहारान सालरापाटन पधारे भौर वहांके राजाको
प्रमाठ्मं विष सिलाके खिला दिया, खाते जो राजा
तुरन्त मर गया, राजाके कासदारों भौर पोलिटिकल
रेशिडेय्टने गुसांइजोको गिरफतार किया खोपड़ी पर
फटाफट उड़नैस गुरांइनोने जहर देना काबूल.किया,
लेक्षिन यहांके अन्नान वेष्णवोंने ऐसे पतित थी ऊझान
वचानेको गवर्नर जनरलके पास डैप्यू,टेशन भेजा लेकिन
वहां उनका दशडनाीय होना करार पाया और कीट
किये गये, आखिर गुसाईजो और उनको स्त्री आदि
सबको बड़ी कुगतिकों गई, भ्रन्तको गुसाई जोके जेल
खानेमें हो प्राणंत हुए ।
६। करोंच ६० वषका तर्सा जुआ कि हजलालजओी
सह्ाराज कच्तक गये उन्होंने लखपतकी वेष्णवोसे बढ़ी
जबरदस्ती करके भेट उगाहीं, फिर अभड़ायेमें गये वहां
थी ऐमा हो किया यह ससाचार उठ समय कच्छुक
राज़ाने सुने ता पश्चोस्त सवार भेज नाटिरघाह के ये पोते
जालिस बुसांई कब्णावकों कान पकड़ बाच्छ को सर-
छठसे बड़ो टो ठो पिठ पिटके साथ निश्नलवा दिया ।
७। पारसलकी वावद वौंद की सजावा मजा
चखनेवाले धजेशनौके पालक पिता ब्रजनाथज्नी महा-
राज 8० वर्ष पहले मांडवो गये थे उन्होंने वहां बड़े
( पंहै० )
कुकर्म किये, इस कारए वहांके वेष्णदोंने उन्हों व्दामे
एकदम धक्के दिलवाके कण मुख कर गोतलावाब्रारुद्ध
कर“निकाल दिया ।
८। काणीवाले रणछोड़नो महाराज कच्छ मांडवी
सथे थे, वहां उन्होंने बड़ी भनोति की भौर भले
सानटोंकी स्ि्दोकी दिगाड़ा. लोगोंने उनके यहां
3
ओऔरतोंका जाना बिलकुल वनन्‍्द फ्रिया, जब इन कुकनों ब्म्न्के

लौको करतवूते वहांत्षे हाक्िसको जात इई तो उम्रने


सं० १£१८में उनकी निकाल देनेशा इकस दिया, गुर्माई
जो सांडवो छोड़ चले आये । ४
&। जेपुर महाराज पलहैे देष्यव थे, इस कारण.
दो सन्दिर वर्धा शुरांई लोगोंके थेजिनमें राजको तरफ
का दश्ान था, सं* १८६२ में राजक्नो तरफर्स देशयव
धर्तकों फ्रीध्षाले लिये कितने हो भत्र गुर बरें-
रह वैष्यव आचदाय्वीर्य किये गये, तिन प्रद्नोंत्े उत्तर
तिरचर भट्ााचाओ गुररियोंते छुछ न बन पड़े,
इस लिये राजा रामसिंदकौन ग्रोकुलचन्द्रभानों और
मसदनसोहदलोके सन्दिरोंका स्वान पान बन्दकर सोंगा
सपतेंकी निक्षत जानेक्ा हुकस दिया, आखिर दोनों
मन्दिरोंके झुसाइयोंकी रे पौटक्र निझलना हो पड़ा।
१०॥ वहसजों सहांराजने एक असोरज्ञान वैश्काको
पटराणों वदावा शौर राघादाईक्े नामसे प्रदिद जिया,
( २१. )
सच हैब्रह्म सर्वस्क्मा भौर कुछ- फल न सही तो इतनां
हो सही गोखासीका शरोर स्पर्ण होनेसे नामका हो'
पलटा हो गया। इसो धरा धासको दृत्य करनेवालौ
सदा सुदागिनके प्रेस बलिदान होके वल्लमजो महाराज
संसारये स्र'छुपा गये, अपने पुत्र गोविन्दलाल व गोकुल्त
नाथजौको छोड़ दिया, गोकुलके औगोपाल भइजोने
दया करवी बुढ़ापा सुधार दिया और विरादरोमं मिला
दिया ।
११। इनके पौत्न सत्र सुयशी गोखामी देवको
नन्‍्दनजो सदहाराजकी सो भूल चुक सुनिये, वोकानैरमें
: दूसरी बार पधार कर एक पतिहोना दौन विधवा डागा-
ऑॉकी पुत्रो डन्मानियोंकी बह श्रो रुक्मिणो बाईके संग
अन॑ग रग रच कर उनका पेट सर दिया और फ़िर
काम वनमें जाय उसे खालो कर दिया। दद्दावस्थामें
एक सुन्दर ध्याह करके आप अपने कामचो दुलत्तियों
से बचे और अपने यशको रक्षा कोऔर इसो कारण
व्यभिचारो आचारो कहे जानेसे बचे। लोग यह पढ़के
चित्तंकों समभा ले' । * ः
१२९। उदयपुरके' मदह्ाराणा सो असलसे वेष्यव
हैं. वेष्णवोंका बड़ा. मम्दिर श्ोनाथजोका उदयपुरके
राज्यमें है भौर श्ओोनाथवी भेट उदयपुर राज्यके करोब
३४ झास हैं नाथजोके सन्दिरकी गहदे पर गिरघरलाल
बे

( ३२ )
जो महाराज साखिक थे उन्होंने उदयपुरकषे दरवारका
|इुकूसम न साना और पोलिटिकल एनण्टको रूबरू जो
डइकरार लिखे थे वे नहीं पाले इस वार्स्स उदयपुरके
दर्वारने फोजो मनुष्य भेज कर गिरघरलालज।की
ईसवी सन्‌ १८७६ को तारोख ६ सईको कैंट कर लिया
और उनको गह्दोते पठस्वट्ट कर मेवराड़से निकाच ओर
उनको जगह उनके लड़क्षे गोवद नलालकों विठादा
उदयपुर राणा साइबके यद्यपि गिरधरलालजों गुरु
थे परन्तु राजकीय आज्ञा भंग करनेके कारण ऐसे मौज
उद्धानेवाला गुसांईुएक पल भरमें साधारण आदमी
बना दिया गया |
११५। बदुनाथध जो म्रह्चागाजने सन्‌ १८६१ को
सालमें उनके व्यभिचारवी कतई. खोलने और उनके
अ्रत्याचारोंका पाप घड़ा णोड़ने और उनके ढोंगकों
पोल गवनमैंट तक उधाड़नेक बदले “सत्य प्रकाश? पर
ध० हजारवो इर्जानेकों नालिशको इस सशहर सारूफ
सुकइमेंका अन्त पेतालीस दिनको वहसक्ने बाद हुआ,
गवनमेंटको सल्तिभांति ज्ञात हो गया कि “बदुनाथजों
तथा और रूव युसाई व्यभिचारके कोड हैं और यदु-
नायजोने जात वुस्तवार- सठो सौंग्ें खाई है वर्गर ?”
आखिरको ४०५, चइजार रुपया रर्चेके “सत्यप्रकाश
को
चरण पादुकाओोंम उद्द गुसोंर को भंट करने पड़े और
( ३३- )
कहना पड़ा कि-'सूले-वनिया भाँग खाई भव खाज:..
तो-राम दुद्दाई” इसके:सिवाय अ्रदालतमें ऋठो. सोगन्द
खानेकी सजाके डरसे' यदुनाधणोक्रो. तोन, वर्ष, तक़.
हैदंरावादके जंगनमें धृल-फांक़नो पड़ी.तव: जान बची
नहीं ती “गरक्ांगरम्ः चार चपातो भौर चमपे, भर
सांश ( छद )को दाल चखनो:पड़तो”
१४। गोकुल उच्छवज्षो महाराजने, एक ब्रजवासोी
को स्त्रीसेः बड़ी: भरनोतिकोः यह' खबर उसके पतिने. सुनो
तो नंगी तन्तवार; ले गुसाईजीकाः शिरए काटनेको कटि
बर्द डुशा, भुसदिओोने पेरेमिं पयड़ो रक्ती भोर ५००००
शापये देनेका कील किला परन्तु उस समय सदाराजके,
घरमें चुन तंककी मिसल गथो रुपया-कहांसे आवे तब
यह करार हुआ कि. महाराज परदेश जाकर ऋप्रया:
जपम्ो कर त्रजवासोको दे, और जवतक कुल रुपया न
चुका देवे' पगडो न पहरे' ।
१५। हारकानाथजो महाराजके क्राकाके लड़के)
ब्रजनाथजोका देहान्त हौजानैपर उनकी. सत्नौ चन्द्रावली .
बह दरिकानाथजोक्ते शामिल रंहो लेकिन (बहो पार-
सलके मारनेवाले.) सज़ायाफुता ब्रनेशजोने' प्रपने ब्ाफ़
इारकानाथ और चाचो चन्द्रावलो:बहुजोकी निल्नत यह
इसजाम देगगया कि इन. दोनोंफ़ों दुष्टकम -फ़रते हुए
मैंने अपनो भ्ांखोंसे देखा है जाम साहबने वापका
(3१४ )
भ्रत्योचार खास उसके सपूत पूत को जवानी सुनकर
सच जान और दारकांनाथ जोको बड़ो वेइखूतोके साथ
ब्रजनाथजोके सन्दिर्से निकेलवा दिया।
१६। वस्बईके तिकसजोी सहांराजने सुछतसानों
वैश्या रक्वी थी, उमज्नी लेकर गुमांई जो पंठरपूर पधारे,
वहां उसको विठलनाथजोडे मन्दिर दर्शन कराने ले
गये, वहां रण्छोने अपने भाईक्नो आवाज दोी। इमसे
वहाँले व्राद्मगोने घमक लिया कि यह हिन्दु नहीं है,
मुसलमान है फिर घक देकर वांहर निकाला, किन्तु
विकसजी सहाराज भोर जैरास नामक किसी पुरुषने
बीचमें बांधा दो इससे उन दोनोंकों भो धक्ष मारकंर .
मन्दिरसे
वाहर निकाल दिया। इस दातकों भमुमान-
२५ वर्ष हुए।” ( वज्ञमकुल चरित्रदर्षणसे उच्दत )।
इस प्रकारके और भो प्रनेक सारके मौकुद हैं
परन्तु स्थानाभावसे नहीं लिखे ।
९ देवद्रव्यं गुरद्रव्य' परदारामिमपण ।
निर्वाह सर्वभ्यूतेषु विप्रधादालनचते ॥
लो विप्र (ब्राह्मण ) देवधन, गुरुषन ओोर परस्तरो
गंसन करता डै तथा सब प्रकारके सनुष्यो से(धनलेकर)
निवोह करता है उसको शास्तकारोने चांदाल कहा है ।
(भोले वेष्णवों यह सव टुगु ण गुराईयेसे हैं वा नहों
यंह क्ानइष्टिसे देखो )
(.३१५ )
' .वैदोपदेश। ु
घ पयंगाच्कक्रमकायमन्रणसस्राविरए शइसप्रापविधम्‌-।
कविम्तनोषो परिभू: खबग्रार्याधातथ्यततोईथान्‍्यदधाष्छा-
शतोभ्यः ससाभ्य ॥ यजुबंद | अध्याय ४०८
: व्याख्या। “स, पर्यगात्‌” वह परमात्मा भाकाशके समान
सव जगइमें परिपूर',(व्यापक) है, “शक्रम्‌” सव जगत्‌का
करनेवाला वहो है “भकायम्‌” भौर वह कभी .शरोर
( अवतार ) नहों धारण करता क्योंकि वह अखराह ओर
अनम्स, निर्विकार है, इससे देद्रधारण कसी नहों करता,
- उस से अधिक कोई पदार्थ नहीं है इसोसे ईखरका
“शरीर धारण करना कभी : नहीं. वन, सज्ञा, "भ्रत्रणम्‌”
: वह भखरष्टकरस ससच्छेंदा, अभेदा, निष्कम्म, भौर. ग्रतल
: है इससे अ शांशो भाव भी उसमें नहों है,-क्योंकि, उसमें
_छिद्ट किसो प्रकारसे नहीं हो सकता “भ्रश्नाविरम्‌” नाही
# झादिका प्रतिबन्ध (निरोध) हो लसका नहों हो सकता
« अतिसृष्य 'होनेसे ईश्वरको कोई; आवरण ..नहीं; . हो
: सकता “शहम्‌” वह परमात्मा सर्देव. निम्नेल ,भ्रविद्यादि
' जया, मरण,-द७, शोक, छुधा, द्षादि दोषोपाधियोंसे
' रहित है, शुड़. कीउपासना करंनेवाला शुद्ध हो होता
है, और मलिनका उपासक सलिन होता है, “भपाप-
विद्यम” परमात्मा कभी भन्याय नहीं करता क्योंकि
: व सदैव व्यायकारो हो है“कवि:” तेकॉलन्न, (सवेवित्‌)
(:४६ )
महाविद्यान्‌ जिस को विद्याका अन्त कोई कमी नहों
'लेंसंकता, “पमत्रीषी'” सव-जीवोंके सन: (विज्ञान उका
' साच्षो-सबंके सनका दमन-करनेवाला, है, “प्ररिलू:”. सब
दिशा सव जगहसे परिपूर्ण -हो रहा हैं, सवके ऊपर
विराजमान है, “ख़बर: लिसका ग्रादिकारण माता,
“पिता, उत्पादक कोई नहीं, किन्तु वही सवका- अदि
“क्षारेंणहै,“वाधातप्यतोथान्व्यद्धाच्छाशतोब्यः, समा-
अं: 6ंसईशेरते अपनोप्रजाको' बधावत्‌; सत्य, सत्व-
“विद्या नो चार वेद उनका सब- सनुप्योके- परमद्वितार्ध
. उपदेश किया है उस इसारे दवामय पिता. परमेशरने
बड़ी-छपासे अ्रविद्याश्वकार॒का नाशक, वेदेविद्यारुप उठे
प्रकाशित किया है और सबका आदिकारण परमात्मा
/है. ऐसा 'अवेशय मानना: चाहिये ऐसे विद्याप्ुस्तक
“को भी भादिकारण ईशर्कोः निश्चित सानना: चाहिये
::विद्याक्ता-उप्रदेश-ईशहरने-
भपनो छपारे-किया,है, क्योंकि
“-इमलोललि-लिये उसने सब-्यंदार्योका, दान किया है
तो विद्यांदान क्यों न करेगा सर्वोवृक्षष्विद्यापक्षा्का
/द्वाने पंरमात्साने अवेश किया हैंतो वेंदके बिना अन्य
'*कोई "पुस्तक उंसारमें इखरोक़ नहीं है;“चैसा न्पूण
*“विद्यांवान्‌
और न्योयकासैईखर हैःवेसा'हो * पेदयुस्त क
ः मौ है अन्ध कोई-सुस्तक- ईखरलत वेंदतुच्य ,वा अधिक
.नहीँ है अधिक विचार इस विषयका “सह्याथ प्रकाश”
और “ऋणग्च दादिभाषाणूसिका'मेंदेखें । े
हक

. ' लेखित पर5, २४९ ए मंछुतभा दाज्ार ऐट,कररूचा।


शुद्धिपत्र ।
प्र्ष्ट अशुद्ध शुद्ध
छत संसक्तत
सूट भठ
ओऔर ओर
६ वैषावने वैधएव बने
१२ विग्रद्न्म निग्रहसे
श्र भम्म जावेगा मस्म हो जावेगा
१४
श्ग
शिपाोंने शिप्रोंकों
१ म्रवंसे सचसे
२० रखते है, रखते हों,
श्र ओर और
ब्३े प्‌ होगों छोंगी
इसके अतिरिक्त सी छाप्रेखानेके असावधानोसे कई स्थली'
पर अनेक अक्षरेंको सात्रादि टुट गये हैं, कृपया पाठक्रगण
सुधार लेवें ।
कलम सान+॑भर-आक लक,>+ऋान-+३क,

सहष्षि . ह : मोटोज |
मह। त्ताकपक बना
है, इस ३-०/९का [चत्र अ। «कृपा, चित्रको
लम्बाई २० इच और चीड़ाई २० इ६इ॒ . 4 एक प्रति॥|
६ प्रति शा) र० एक दर्जन ५) पांच रुपये डाकव्यय अलग |
मोटीज भी बहुत बढ़ोताभ्ीर कई[प्रकारके क्रपे हैं साइज
१४२ २० है सूल्य एक प्रतिका 2 दर्जन ॥#]
विद्यानोंकी सब्मृतियें ।
"सखामोौजोका चित्र उत्तम है। मोटोजमी सत्र उत्तम हैं ।
जज बह़त खुबसुरत बना है।” महात्मा सुशोराम जो ।
“ऋषि दयानन्दका चित्र बहुत शानदार प्रौर कई रंगॉमें
छपा हुआ है। इसो तरह सोटो भो कई रघ़ेंमें खूब सुन्दर
कप हुए हैं ।” ( “प्रकाश” लाहोर । )
“ऋषिका चित्र देखकर वइत प्रसन्नचित्त हुआ ।। आपने
बड़ा परिश्रम इस चित्रपर किया है ।'
(फ्रेग्ड एण्ड कच्मनो, फोटोग्राफर दानापुर ॥)
“मह्नपि दयानन्दका चित्र ऐसा उत्तम और दशनाय बना
है जिसका वणन करनेमें में सर्वेधा अससर्थ छ' । १०० प्रति |
भेरे पास विक्रयाथ शिप्न हो सेजे ।'
( भवानोदयाक्ष, टरवन, नेटाल, दक्षिण अफिका ।! )
खामोजोका चित्र बहुत बड़ा और सुन्दर है। वैठकर्म
लगाने लायक है बचनेंके चित्र बसे हो रहोन ओर सुन्दर
हैं। इसका संग्रह सनातनो और आये दोनों हो कर
सक्ने हैं। (भारतमित्र” कलकत्ता ।)
मिलनेका पता--गोकुलचन्द्र गोविन्दरास,
नम्बर २१३ बहुवानार पछ्लोट, कलकत्ता ।
७७३५३७४१७१७३१4१०९३७+७७३4+44++++२++कर कक ३५५ कक ७३५७ ७७७६७ ७७७ ०५७ क ७५७१,

त्रंह्ा विद्याकी अनुपम पुस्तक

( सरल भाष्य )
सिलाई ३०480 नल

ऋषि प्रणोत ग्रत्थोंमें उपनिषदोकी शिक्षा सर्वोच्च है,एप-


निपद ब्रद्यविद्या एवं ज्ञानके भण्डार हैं. उपनिषरदोंका अनुशो-
लगन संसारके सभी ग्रत्योंके अनुशोलनसे अधिक लाभदायक
बा
और उच्च बनाने पाला है। उपनिपद्‌ चिक्तको शान्ति देते एवं
इशरका ज्ञान कराने वाले हैं, उपनिषद्‌ मुख्य दस हैं, जिनमें
ईश उपनिषद्‌ यजुर्वेदका अन्तिम ( चालोसवां ) अध्याय है।
आया
उसोको व्याख्यामें सबउपनिपद्‌ बने हैं। केन उपनिषद्से रैश
'%॥+$क
३७३७१
२७+करू+4+१%२४कक
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कृअफकंसमयाकफोफकेककयाफकृनारं
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उपनिषद अ्रधात्‌ यजुदंदके चालोसवें भ्रध्यायको व्याख्या झर-


भा होती है। ब्रद्मन्नानके जिन्नासभोके लिये यह प्रसूल्य रत्न
है। अदश्य देखिये। सूथ्य दोनों उपनिष्रदोंका /) दो भ्ाने
मात्र है।

मिलनेका पता--मगोविन्दरास अध्यक्ष


“पुलभ-साहित्य-प्रचारक कार्यालय” की

न॑० ५१३ बह बाजार प्रीट, कलक'्ता ।


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+३३-#क
३4१२३
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सं २$७२३४७+२१९७ ९७७७७५३१७०-७५५७-३१७७ ७७७ ७७७७७ ७ ७२७२१ ७७७३७ ७७७९१३७५७७+१७९५७४४५५
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। स्वाधानताका अप इतिहास । | कक रे

इटालाका स्वाधानता ।
अपनो खोई हुई साधोनता प्राप्त करनेक खिये (८१५
।से ७० इसो तक इटानोने मी कुछ किया उछोका वर्णन 5प्फ्ा-
श्प्न्ख्च््श्ध्य््््य््य्य्

इस पुस्तकें है। इसे इटालोका आधुनिक इतिहास भो नियम


री
3८:४८:5:052.
जज
>
७७७५०..
५७५०७
हि
(७७3+५५0२०७६

छू कहा जा उुकठा है। वत्तंसान सहायुद्धमें इटालोने क्यों इक &


केशड़का राव दिया है,यह वात इस पुस्तकके पाठ अच्छी छू,
तरह मासूम हो सकतो है, पुस्तक महत्लक्तों है-समरया-
पं मुकूल भी है। इसको कहानो चित्ताकर्षक है,ऐतिहासिक
५५ विषयके भ्रतिरिक्त इसमें विशेष दिलचस्पो भी है, इसकी (२
कृपाई भ्रादि वहुत उत्तम है। अधिक प्रचारके उद् श्वसे कि
सत्य /) छ थाने सात रव्डा गया है। अदश्य टेखिये। ।
(

मिलनेका पता-- !4
गोजिन्दराम, अध्यक्ष .||
0 2 हे

, » छिलयव-साहित्य-प्रचारक कार्थोारुय?. |
नस्वर २१६३ बह्धचाजार शेट, कलकत्ता

क0...--नन----नरी “सिन+-_-++----

फम; (सा सदा 4१ 70 सेड्रापफ पृड55, एप,

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