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अर्थात्
. » वेध्धवसतका
संक्षिप्त इतिहास ।
किलिलपयलनम««तथ»ननक-म
मरना के. सका,
( १० )
बनाये जिनका पूरा ओर भच्चा द्त्तान्त भ्ांपकों “महा-
राज लायवल केस” को रिपार्ट्मे मिलेगा । यहाँ इम '
सिफ कुछ सहानुभवेंकी सच्मतिये उद्ुत करते हैं।
सन् १०११ को सरकारी रिपोटम लिख्धा है कि :-
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( ९१९ )
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अर्थ:-सब प्रकारके पाप ईश्वरकें साथ मेल होनेसे
धुल जाते है कृष्ण सबके शरणाधार है उस पवित्न
कष्णपर मनुशोंकी अपना सर्व समर्पण करना चाहिये,
इस सिद्दान्तके प्रचारित दोनेपर इस सम्ग्रदायके नाम-
पर ऐसे घोर अत्याचारका लगाव हो गया है; अतोत
दीता है कि गोकुलनाथके समयसे इसका प्रचार छञ्ा
है गुसाईकोी इशर समझा जाता है, गुसाईको ईश्वरका
प्रतिनिधि समक्षकर उसके श्रानन्दके लिये सनुष्य केवल
अपने सांसारिक धन हो को उसके लिये समर्पण नहों
करता किन्तु अपनी पुत्रों तथा नव विवाहिता झख््ौके
कु'वारेपनको भो न्योछावर करता है भ्र्थात् विवाहा:
नन्तर पुत्रो और स््रोको सम्भोग करनेके, लिये समपण
करता है। इस शिक्षाकी श्राड़में बलभाचाय लोग
पूर्वदेशके “एपोक्य,रियन” हैं” झौर इस सिद्दान्तके
घोषणा करनेमें उन्दों लब्जा नहीं आतौ, कि “आादश
# यूरोपके ग्रोौस देशमें एपीका,रस नासक गकः
दार्शनिक हुआ है उसके चलाये हुए सतके भ्रगु-
यायियोको“एपौका रियनस्” बंइते हैं;-उनका सिद्दान्त-
(२ )
जीवन भोग विलासमें है; न कि, एकाग्त वास तथा
इन्ट्रिय विग्नहस |” इस सम्प्रदायकों सभासद प्रायः सभो
स्टइस्थ हैं, तथा वेखतन्बतापूर्नऋ सांसारिक भोगोंको
प्राप्तिकी चेष्टामें रत रहते हैं ।”
सरकारी रिपोट रको उ्न बाते निम््र एक लेखसे भो
यष्ट होती हैं। यह लेख “पुष्टि म्राग”गुजरातौ ग्रयसे
उद्दुत किया है।
थां कि 80 वेशंयार शाते 0० घ्राथ7ह अर्थात् खान्ी
पीनो और मौज करो ।
प्राचोन कालमें यहां भारतवर्ष मेंस्लो चारवाक
यही प्रदार करता घा कि; _
यावत्नोवेत्सुखं जोवेद्रणं छत्वा छ॒तं पिवेत्
भ्मोसूतस्य देहस्य पुंनरागमन कुतः ॥
जब लग जीवे सुखसे “जोवे घन न हो तो ऋण
लेकर भो छत पौवे घ्रधोत् भ्ानन्द करे रत्युक्षे बाद देह
तो भक्म जावेगा फिर भाना जाना किसका कौन किससे -
लेगा और देगा। -
बलभ्ाचाद्म. सतको गशुसाई मी परलोककौ सुध
चुध विसारकरं इसों सतका भनुकरण करते लगें हैं।
जैसे सभ्यजंगत् एपोक्य रिबनोंको तथा चारवाक को
. निन्दते हैं वेसे हो जब इन गुसाइवॉंकी लोलाज्नोका
उनको पता लगेगा तव इनको सौ निन््देंगे।
( १३ )
“गोपालदास करके एक भादसी- गुर्साईजो तथा
भोकुलनाथजो की खवांसोमें था.! उसने एक .पुस्तक
“पाखर् प्रकाश ”केनामसे बनाई थो.।.उसकी भूमिका
' में उसने लिखा है कि, “में पुष्टिमाग नासके पस्समें
तोस वर्षतक रहा, दस वे, गुर्साईजो को. खवासोमें
और बोस वर्ष गोकुलनाथजोको खवासोमें .विताये।
गुसाईजो जाहिरमें तो व्यमोचार नहीं करते थे.; -किन्तु
गुप्त रोतिस अवश्य, करते थे। .गोकुलनाथ जो तो
आसतोरपर व्यमीचारों थे। (फिर लिखा है कि ) में
भो उनके साथ पाप करे करनेंमें कोई कसर नहों
रखता था। में४५ वषका इग्मा तव एक स्थान पद
कथा हो रहो थी, वहां श्रवण करने बठा, , वहां व्यभो-
चारका भतिशय निपैध्त पढ़ा गया, जिसे सुन .मुझे मेरे
छत्पका विचार इश्रा। फिर कथा मुननेका मैंने नित्य
नियम रक््वा।. .इससे सत्य सार जाननेपर मैंने अपने
पूर्दोक्त कर्मीका: पद्चाताप कर इस. मतको. नौगजका
नमस्कार किया। ,फिर अल्य दिनोंके वाद मैं संन्धासो
हो गया।, श्ौर परसाक्माकोी. जाननेका विचार किया.
एक दिन महाभारतका पुस्तक पढ़ इहा था :-उसमें
एक स्थानपर आया कि, “कोई, भो .ओऔदमसी किसी .
धम्मंम अप मिला हुश्ा जानता हो भोर वह जाहिर
न् करे तो उसको ब्र्मइत्याका महापाप्. लगता- हैं।? -
बे
(् हि] /)
'लिखोहै। | + का
' इसके भतिरिक्ष कलकंत्तेकी वेंगाल एशोयाटिक
रोसाइटोके १६वें वोल्यंभर्म पंज्नंभाचाय्थके सत विषय
में जो छंपा है उनमेंसे कुछ लेख यहा भो उद्द त''किया
जाता हैं। न हा 5 कक ला के. 5
वजक्षभाचाय्यने जो नया माग चलाया उसमें जो
बाते लिखो वे अन्य मतवालोंसे बहुत भिन्न और नये
प्रकार को हैं, उसने अपने मतके 'लोगोंकी' बंताया कि
तप करके' तंथा कष्ट भोगकी 'ईश्वरंकों संजनेकों 'कोई
आवश्यकता नहीं है। इस सतके गुर भौर शिक्षोने
“ठाकुरजोकी सेवा सुन्दंर वस्त पंहिनाकें तंथा भांति
भातिके पंकवांन बनाके भौर संसारके सोग विलास भ्रथात्
झंगारभावसे क़ेरनी। ये गुरु अधिकर्शि कुटस्ववाल
(१४. )]
होते हैं। वे सवंसे भ्च्छे- और ,सुन्दर-' वस्त्र पहिनते
हैं। और अपने शिष्योंपर वे. बेहद ,हकुसत- चलाते
हैँ, भ्ोर वे शिप्यगण.. उनको सांत भांतके पकवान
( ध्रिष्टान ) खिलाते हैं.। ;ै अपने शिष्योंको तौन् वार
समर्पण देते है, और उस समर्पणकै लिये उनके शिष्य
लोग अपना तन, सन और घन अपने गुरु प्र्थात्
( ३२ )
जो महाराज साखिक थे उन्होंने उदयपुरकषे दरवारका
|इुकूसम न साना और पोलिटिकल एनण्टको रूबरू जो
डइकरार लिखे थे वे नहीं पाले इस वार्स्स उदयपुरके
दर्वारने फोजो मनुष्य भेज कर गिरघरलालज।की
ईसवी सन् १८७६ को तारोख ६ सईको कैंट कर लिया
और उनको गह्दोते पठस्वट्ट कर मेवराड़से निकाच ओर
उनको जगह उनके लड़क्षे गोवद नलालकों विठादा
उदयपुर राणा साइबके यद्यपि गिरधरलालजों गुरु
थे परन्तु राजकीय आज्ञा भंग करनेके कारण ऐसे मौज
उद्धानेवाला गुसांईुएक पल भरमें साधारण आदमी
बना दिया गया |
११५। बदुनाथध जो म्रह्चागाजने सन् १८६१ को
सालमें उनके व्यभिचारवी कतई. खोलने और उनके
अ्रत्याचारोंका पाप घड़ा णोड़ने और उनके ढोंगकों
पोल गवनमैंट तक उधाड़नेक बदले “सत्य प्रकाश? पर
ध० हजारवो इर्जानेकों नालिशको इस सशहर सारूफ
सुकइमेंका अन्त पेतालीस दिनको वहसक्ने बाद हुआ,
गवनमेंटको सल्तिभांति ज्ञात हो गया कि “बदुनाथजों
तथा और रूव युसाई व्यभिचारके कोड हैं और यदु-
नायजोने जात वुस्तवार- सठो सौंग्ें खाई है वर्गर ?”
आखिरको ४०५, चइजार रुपया रर्चेके “सत्यप्रकाश
को
चरण पादुकाओोंम उद्द गुसोंर को भंट करने पड़े और
( ३३- )
कहना पड़ा कि-'सूले-वनिया भाँग खाई भव खाज:..
तो-राम दुद्दाई” इसके:सिवाय अ्रदालतमें ऋठो. सोगन्द
खानेकी सजाके डरसे' यदुनाधणोक्रो. तोन, वर्ष, तक़.
हैदंरावादके जंगनमें धृल-फांक़नो पड़ी.तव: जान बची
नहीं ती “गरक्ांगरम्ः चार चपातो भौर चमपे, भर
सांश ( छद )को दाल चखनो:पड़तो”
१४। गोकुल उच्छवज्षो महाराजने, एक ब्रजवासोी
को स्त्रीसेः बड़ी: भरनोतिकोः यह' खबर उसके पतिने. सुनो
तो नंगी तन्तवार; ले गुसाईजीकाः शिरए काटनेको कटि
बर्द डुशा, भुसदिओोने पेरेमिं पयड़ो रक्ती भोर ५००००
शापये देनेका कील किला परन्तु उस समय सदाराजके,
घरमें चुन तंककी मिसल गथो रुपया-कहांसे आवे तब
यह करार हुआ कि. महाराज परदेश जाकर ऋप्रया:
जपम्ो कर त्रजवासोको दे, और जवतक कुल रुपया न
चुका देवे' पगडो न पहरे' ।
१५। हारकानाथजो महाराजके क्राकाके लड़के)
ब्रजनाथजोका देहान्त हौजानैपर उनकी. सत्नौ चन्द्रावली .
बह दरिकानाथजोक्ते शामिल रंहो लेकिन (बहो पार-
सलके मारनेवाले.) सज़ायाफुता ब्रनेशजोने' प्रपने ब्ाफ़
इारकानाथ और चाचो चन्द्रावलो:बहुजोकी निल्नत यह
इसजाम देगगया कि इन. दोनोंफ़ों दुष्टकम -फ़रते हुए
मैंने अपनो भ्ांखोंसे देखा है जाम साहबने वापका
(3१४ )
भ्रत्योचार खास उसके सपूत पूत को जवानी सुनकर
सच जान और दारकांनाथ जोको बड़ो वेइखूतोके साथ
ब्रजनाथजोके सन्दिर्से निकेलवा दिया।
१६। वस्बईके तिकसजोी सहांराजने सुछतसानों
वैश्या रक्वी थी, उमज्नी लेकर गुमांई जो पंठरपूर पधारे,
वहां उसको विठलनाथजोडे मन्दिर दर्शन कराने ले
गये, वहां रण्छोने अपने भाईक्नो आवाज दोी। इमसे
वहाँले व्राद्मगोने घमक लिया कि यह हिन्दु नहीं है,
मुसलमान है फिर घक देकर वांहर निकाला, किन्तु
विकसजी सहाराज भोर जैरास नामक किसी पुरुषने
बीचमें बांधा दो इससे उन दोनोंकों भो धक्ष मारकंर .
मन्दिरसे
वाहर निकाल दिया। इस दातकों भमुमान-
२५ वर्ष हुए।” ( वज्ञमकुल चरित्रदर्षणसे उच्दत )।
इस प्रकारके और भो प्रनेक सारके मौकुद हैं
परन्तु स्थानाभावसे नहीं लिखे ।
९ देवद्रव्यं गुरद्रव्य' परदारामिमपण ।
निर्वाह सर्वभ्यूतेषु विप्रधादालनचते ॥
लो विप्र (ब्राह्मण ) देवधन, गुरुषन ओोर परस्तरो
गंसन करता डै तथा सब प्रकारके सनुष्यो से(धनलेकर)
निवोह करता है उसको शास्तकारोने चांदाल कहा है ।
(भोले वेष्णवों यह सव टुगु ण गुराईयेसे हैं वा नहों
यंह क्ानइष्टिसे देखो )
(.३१५ )
' .वैदोपदेश। ु
घ पयंगाच्कक्रमकायमन्रणसस्राविरए शइसप्रापविधम्-।
कविम्तनोषो परिभू: खबग्रार्याधातथ्यततोईथान््यदधाष्छा-
शतोभ्यः ससाभ्य ॥ यजुबंद | अध्याय ४०८
: व्याख्या। “स, पर्यगात्” वह परमात्मा भाकाशके समान
सव जगइमें परिपूर',(व्यापक) है, “शक्रम्” सव जगत्का
करनेवाला वहो है “भकायम्” भौर वह कभी .शरोर
( अवतार ) नहों धारण करता क्योंकि वह अखराह ओर
अनम्स, निर्विकार है, इससे देद्रधारण कसी नहों करता,
- उस से अधिक कोई पदार्थ नहीं है इसोसे ईखरका
“शरीर धारण करना कभी : नहीं. वन, सज्ञा, "भ्रत्रणम्”
: वह भखरष्टकरस ससच्छेंदा, अभेदा, निष्कम्म, भौर. ग्रतल
: है इससे अ शांशो भाव भी उसमें नहों है,-क्योंकि, उसमें
_छिद्ट किसो प्रकारसे नहीं हो सकता “भ्रश्नाविरम्” नाही
# झादिका प्रतिबन्ध (निरोध) हो लसका नहों हो सकता
« अतिसृष्य 'होनेसे ईश्वरको कोई; आवरण ..नहीं; . हो
: सकता “शहम्” वह परमात्मा सर्देव. निम्नेल ,भ्रविद्यादि
' जया, मरण,-द७, शोक, छुधा, द्षादि दोषोपाधियोंसे
' रहित है, शुड़. कीउपासना करंनेवाला शुद्ध हो होता
है, और मलिनका उपासक सलिन होता है, “भपाप-
विद्यम” परमात्मा कभी भन्याय नहीं करता क्योंकि
: व सदैव व्यायकारो हो है“कवि:” तेकॉलन्न, (सवेवित्)
(:४६ )
महाविद्यान् जिस को विद्याका अन्त कोई कमी नहों
'लेंसंकता, “पमत्रीषी'” सव-जीवोंके सन: (विज्ञान उका
' साच्षो-सबंके सनका दमन-करनेवाला, है, “प्ररिलू:”. सब
दिशा सव जगहसे परिपूर्ण -हो रहा हैं, सवके ऊपर
विराजमान है, “ख़बर: लिसका ग्रादिकारण माता,
“पिता, उत्पादक कोई नहीं, किन्तु वही सवका- अदि
“क्षारेंणहै,“वाधातप्यतोथान्व्यद्धाच्छाशतोब्यः, समा-
अं: 6ंसईशेरते अपनोप्रजाको' बधावत्; सत्य, सत्व-
“विद्या नो चार वेद उनका सब- सनुप्योके- परमद्वितार्ध
. उपदेश किया है उस इसारे दवामय पिता. परमेशरने
बड़ी-छपासे अ्रविद्याश्वकार॒का नाशक, वेदेविद्यारुप उठे
प्रकाशित किया है और सबका आदिकारण परमात्मा
/है. ऐसा 'अवेशय मानना: चाहिये ऐसे विद्याप्ुस्तक
“को भी भादिकारण ईशर्कोः निश्चित सानना: चाहिये
::विद्याक्ता-उप्रदेश-ईशहरने-
भपनो छपारे-किया,है, क्योंकि
“-इमलोललि-लिये उसने सब-्यंदार्योका, दान किया है
तो विद्यांदान क्यों न करेगा सर्वोवृक्षष्विद्यापक्षा्का
/द्वाने पंरमात्साने अवेश किया हैंतो वेंदके बिना अन्य
'*कोई "पुस्तक उंसारमें इखरोक़ नहीं है;“चैसा न्पूण
*“विद्यांवान्
और न्योयकासैईखर हैःवेसा'हो * पेदयुस्त क
ः मौ है अन्ध कोई-सुस्तक- ईखरलत वेंदतुच्य ,वा अधिक
.नहीँ है अधिक विचार इस विषयका “सह्याथ प्रकाश”
और “ऋणग्च दादिभाषाणूसिका'मेंदेखें । े
हक
सहष्षि . ह : मोटोज |
मह। त्ताकपक बना
है, इस ३-०/९का [चत्र अ। «कृपा, चित्रको
लम्बाई २० इच और चीड़ाई २० इ६इ॒ . 4 एक प्रति॥|
६ प्रति शा) र० एक दर्जन ५) पांच रुपये डाकव्यय अलग |
मोटीज भी बहुत बढ़ोताभ्ीर कई[प्रकारके क्रपे हैं साइज
१४२ २० है सूल्य एक प्रतिका 2 दर्जन ॥#]
विद्यानोंकी सब्मृतियें ।
"सखामोौजोका चित्र उत्तम है। मोटोजमी सत्र उत्तम हैं ।
जज बह़त खुबसुरत बना है।” महात्मा सुशोराम जो ।
“ऋषि दयानन्दका चित्र बहुत शानदार प्रौर कई रंगॉमें
छपा हुआ है। इसो तरह सोटो भो कई रघ़ेंमें खूब सुन्दर
कप हुए हैं ।” ( “प्रकाश” लाहोर । )
“ऋषिका चित्र देखकर वइत प्रसन्नचित्त हुआ ।। आपने
बड़ा परिश्रम इस चित्रपर किया है ।'
(फ्रेग्ड एण्ड कच्मनो, फोटोग्राफर दानापुर ॥)
“मह्नपि दयानन्दका चित्र ऐसा उत्तम और दशनाय बना
है जिसका वणन करनेमें में सर्वेधा अससर्थ छ' । १०० प्रति |
भेरे पास विक्रयाथ शिप्न हो सेजे ।'
( भवानोदयाक्ष, टरवन, नेटाल, दक्षिण अफिका ।! )
खामोजोका चित्र बहुत बड़ा और सुन्दर है। वैठकर्म
लगाने लायक है बचनेंके चित्र बसे हो रहोन ओर सुन्दर
हैं। इसका संग्रह सनातनो और आये दोनों हो कर
सक्ने हैं। (भारतमित्र” कलकत्ता ।)
मिलनेका पता--गोकुलचन्द्र गोविन्दरास,
नम्बर २१३ बहुवानार पछ्लोट, कलकत्ता ।
७७३५३७४१७१७३१4१०९३७+७७३4+44++++२++कर कक ३५५ कक ७३५७ ७७७६७ ७७७ ०५७ क ७५७१,
( सरल भाष्य )
सिलाई ३०480 नल
। स्वाधानताका अप इतिहास । | कक रे
इटालाका स्वाधानता ।
अपनो खोई हुई साधोनता प्राप्त करनेक खिये (८१५
।से ७० इसो तक इटानोने मी कुछ किया उछोका वर्णन 5प्फ्ा-
श्प्न्ख्च््श्ध्य््््य््य्य्
मिलनेका पता-- !4
गोजिन्दराम, अध्यक्ष .||
0 2 हे
, » छिलयव-साहित्य-प्रचारक कार्थोारुय?. |
नस्वर २१६३ बह्धचाजार शेट, कलकत्ता
क0...--नन----नरी “सिन+-_-++----