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27. अग्गञ्ञ-सत्त
ु (३।४)
१—वर्णव्यवस्थाका खंडन । २—मनुष्य जातिकी प्रगति । (१) प्रलयके बाद
सष्टि
ृ (२) सत्वोका आरम्भिक आहार । (३) स्त्री-पुरुषका भेद । (४) वैयक्तिक
सम्पत्तिका आरम्भ । ३—चारो वर्णोका निर्माण । (१) राजा (क्षत्रिय) की उत्पत्ति
। (२) ब्राह्मणकी उत्पत्ति । (३) वैश्यकी उत्पत्ति । (४) शूद्रकी उत्पत्ति । (५) श्रमण
(=संन्यासी)की उत्पत्ति । ४—जन्म नही कर्म प्रधान है ।
ऐसा मैने सन
ु ा—एक समय भगवान ् श्रावस्तीमे मग
ृ ारमाताके प्रासाद पर्वा
ू राममे
विहार करते थे ।
१—वर्णव्यवस्थाका खंडन
“हॉ आवस
ु ।” कह भारद्वाजने वाशिष्टको उत्तर दिया ।
“हॉ, भन्ते । ब्राह्मण लोग अपने अनुरूप पूरे परिहाससे हमे निन्दते, हँसते है ।”
करती ० और बच्चोको दघ
ू पिलाती ० । वे ब्राह्मण योनिसे उत्पन्न होकर भी
ऐसा कहते है —ब्राह्मण ही श्रेष्ठ वर्ण ०। वे ब्रह्माके विषयमे झठ
ू ी बात कहते है ,
मिथ्या भाषणकरके बहुत अ-पण्
ु य कमाते है ।
“तब वाशिष्ट । बहुत दिनोके बीतनेके बाद उन सत्वोके लिये जलपर, गरम
दध
ू के ठडा होनेपर ऊपर मलाईके जमनेकी भाँति रसा पथि ृ वी फैली । वह वर्ण
सम्पन्न, गन्धसम्पन्न, रससम्पन्न थी, जैसे कि मक्खन घीसे सम्पन्न रहता
है , इसी तरहसे ० । जैसे कि मधु-मक्खियोका निर्दोष मधु होता है वैसा उसका
स्वाद था ।
“वाशिष्ट । तब वे सत्व हाथोसे रसा पथ्ृ वीको ग्रास-ग्रास करके खाने लगे । ०
खानेसे उन सत्वोकी स्वाभाविक प्रभा अन्तर्धान हो गई । ० अन्तर्धान होनेसे
चाँद और सूरज प्रकट हुये । चाँद और सूरजके प्रकट होनेपर नक्षत्र और तारे
प्रकट हुये । रात और दिनके मालूम होनेसे मास और पक्ष मालूम पळने लगे
। मास और पक्षके मालूम ० ऋतु और वर्ष मालूम पळने लगे । वाशिष्ट । इस
तरहसे फिर भी लोकका विवर्त (=सष्टि, उदघाटन) होता है ।
“तब, वे सत्व रसा पथ्ृ वीको (जैसे जेसे) बहुत दिनो तक खाते रहे । ० वैसे वैसे
उनका शरीर कर्क श होने लगा, उनके वर्णमे विकार मालम
ू पळने लगा । कोई
सत्व सन्
ु दर थे तो कोई कुरुष । जो सत्व सन्
ु दर थे, सो अपनेको कुरूष
सत्वोसे ऊँचा समझते थे—हम लोग इन लोगोसे सन्
ु दर (वर्णवान ्) है , हम
लोगोसे ये लोग दर्व
ु र्ण (=कुरूष) है । उनके अपने वर्णके अभिमानसे रसा पथ्ृ वी
अन्तर्धान हो गई । रसा पथ्ृ वीके अन्तर्धान हो जानेपर वे सत्व इकट्ठे होकर
चिल्लाने लगे—‘अहो रस, अहो रस । उसी से आज भी जब मनुष्य कुछ सुरस
(चीज) पाते है तो कहने लगते है —‘अहो रस । अहो रस ।’ यह उसी अग्र
(=प्रथम) पुराने अक्षर (=बात) को स्मरण करते है , किंतु उसके अर्थको नही
जानते ।
“तब वाशिष्ट । ० उसके अन्तर्धान होनेपर भद्रलता (=एक स्वादिष्ट लता) प्रकट
हुई । जैसे कि कलम्बक
ु (=सरकण्डा) प्रकट होता है । वह वर्ण-सम्पन्न (थी) ०
मधु ० ।
(३) स्त्री-परु
ु षका भेद
“तबसे प्राणी शालि एक जगह जमा करके खाने लगे । तब चावलके ऊपर कन
भी भूसी भी होने लगी ।
(तब किसी जगहसे) एक बार उखाळ लेनेपर फिर नही जमनेके कारण वह
स्थान (खाली) मालुम होने लगा । शालि (का खेत) खड खड दिखलाई दे ने
लगी ।
“वाशिष्ट। इस तरह इस क्षत्रिय मडलका परु ाने अग्रण्य अक्षरसे निर्माण हुआ ।
उन्ही पुरुषोका, दस
ू रोका नही, धर्मसे, अधर्मसे नही । “वाशिष्ट । मनुष्यमे धर्म
ही श्रेष्ठ है , इस जन्ममे भी और परजन्ममे भी ।
“वाशिष्ट । क्षत्रिय भी कायासे दरु ाचार, वचन और मनसे दरु ाचारकर, मिथ्या-
दृष्टिवाले हो, मिथ्या-दृष्टिके
“वाशिष्ट । क्षत्रिय भी काया ० वचन ० मनसे दोनो (तरहके) कर्म करके, (सच
झूठ दोनो) – से मिश्रित दृष्टि (=धारणा) रख, मिश्रित दृष्टिवाले कर्मको करके
काया छोळ मरनेके बाद सुख दख
ु (दोनो) भोगनेवाले । ब्राह्मण भी ० । वैश्य
भी ० । शूद्र भी ० । श्रमण भी ० ।
“वाशिष्ट । क्षत्रिय भी काया ० वचन ० मनसे सयत ० हो सैतीस बोधि-
पाक्षिक१ धर्मोकी भावना करके इसी लोकमे निर्वाणको प्राप्त करता है । ब्राह्मण
भी ० । वैश्य भी ० । शूद्र भी ० । श्रमण भी ० ।